Thirukkural
in Hindi
 

तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से)

 

अध्याय 121. स्मरण में एकान्तता-दुःख

 

 

1201

स्मरण मात्र से दे सके, अक्षय परमानन्द ।

सो तो मधु से काम है, बढ़ कर मधुर अमन्द ॥

 

 

1202

दुख-नाशक उसका स्मरण, जिससे है निज प्रेम ।

जो सुखदायक ही रहा, किसी हाल में प्रेम ॥

 

 

1203

छींका ही मैं चाहती, छींक गयी दब साथ ।

स्मरण किया ही चाहते, भूल गये क्या नाथ ॥

 

 

1204

उनके दिल में क्या रहा, मेरा भी आवास ।

मेरे दिल में, ओह, है, उनका सदा निवास ॥

 

 

1205

निज दिल से मुझको हटा, कर पहरे का साज़ ।

मेरे दिल आते सदा, आती क्या नहिं लाज ॥

 

 

1206

मिलन-दिवस की, प्रिय सहित, स्मृति से हूँ सप्राण ।

उस स्मृति के बिन किस तरह, रह सकती सप्राण ॥

 

 

1207

मुझे ज्ञात नहिं भूलना, हृदय जलाती याद ।

भूलूँगी मैं भी अगर, जाने क्या हो बाद ॥

 

 

1208

कितनी ही स्मृति मैं करूँ, होते नहिं नाराज़ ।

करते हैं प्रिय नाथ तो, इतना बड़ा लिहाज़ ॥

 

 

      1209

भिन्न न हम’, जिसने कहा, उसकी निर्दय बान ।

सोच सोच चलते बने, मेरे ये प्रिय प्राण ॥

 

 

      1210

बिछुड़ गये संबद्ध रह, जो मेरे प्रिय कांत ।

जब तक देख न लें नयन, डूब न, जय जय चांद ॥

 

 अध्याय 122. स्वप्नावस्था का वर्णन

 

 

1211

प्रियतम का जो दूत बन, आया स्वप्नाकार ।

उसका मैं कैसे करूँ, युग्य अतिथि-सत्कार

 

 

1212

यदि सुन मेरी प्रार्थना, दृग हों निद्रावान ।

दुख सह बचने की कथा, प्रिय से कहूँ बखान ॥

 

 

1213

जाग्रत रहने पर कृपा, करते नहीं सुजान ।

दर्शन देते स्वप्न में, तब तो रखती प्राण ॥

 

 

1214

जाग्रति में करते नहीं, नाथ कृपा कर योग ।

खोज स्वप्न ने ला दिया, सो उसमें सुख-भोग ॥

 

 

1215

आँखों में जब तक रहे, जाग्रति में सुख-भोग ।

सपने में भी सुख रहा, जब तक दर्शन-योग ॥

 

 

1216

यदि न रहे यह जागरण, तो मेरे प्रिय नाथ ।

जो आते हैं स्वप्न में, छोड़ न जावें साथ ॥

 

 

1217

कृपा न कर जागरण में, निष्ठुर रहे सुजन ।

पीड़ित करते किसलिये, मुझे स्वप्न में प्राण ॥

 

 

1218

गले लगाते नींद में, पर जब पडती जाग ।

तब दिल के अन्दर सुजन, झट जाते हैं भाग ॥

 

 

      1219

जाग्रति में अप्राप्त को, कोसेंगी वे वाम ।

जिनके प्रिय ने स्वप्न में, मिल न दिया आराम ॥

 

 

      1220

यों कहते प्रिय का मुझे, जाग्रति में नहिं योग ।

सपने में ना देखते, क्या इस पुर के लोग ॥

 

 अध्याय 123.संध्या दर्शन से

 

 

1221

तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू नहिं संध्याकाल ।

ब्याह हुओं की जान तू, लेता अन्तिम काल ।

 

 

1222

तेरी, सांझ, चिरायु हो, तू निष्प्रभ विभ्रान्त ।

मेरे प्रिय के सम निठुर, है क्या तेरा कान्त ॥

 

 

1223

कंपित संध्या निष्प्रभा, मुझको बना विरक्त ।

आती है देती मुझे, पीड़ा अति ही सख्त ॥

 

 

1224

वध करने के स्थान में, ज्यों आते जल्लाद ।

त्यों आती है सांझ भी, जब रहते नहिं नाथ ॥

 

 

1225

मैंने क्या कुछ कर दिया, प्रात: का उपकार ।

वैसे तो क्या कर दिया, संध्या का उपकार ॥

 

 

1226

पीड़ित करना सांझ का, तब था मुझे न ज्ञात ।

गये नहीं थे बिछुड़कर, जब मेरे प्रिय नाथ ॥

 

 

1227

काम-रोग तो सुबह को, पा कर कली-लिवास ।

दिन भर मुकुलित, शाम को, पाता पुष्य-विकास ॥

 

 

1228

दूत बनी है सांझ का, जो है अनल समान ।

गोप-बाँसुरी है, वही, घातक भी सामान ॥

 

 

      1229

जब आवेगी सांझ बढ़, करके मति को घूर्ण ।

सारा पुर मति-घूर्ण हो, दुख से होवे चूर्ण ॥

 

 

      1230

भ्रांतिमती इस सांझ में, अब तक बचती जान ।

धन-ग्राहक का स्मरण कर, चली जायगी जान ॥

 

 अध्याय 124. अंगच्छवि-नाश

 

 

1231

प्रिय की स्मृति में जो तुझे, दुख दे गये सुदूर ।

रोते नयन सुमन निरख, लज्जित हैं बेनूर ॥

 

 

1232

पीले पड़ कर जो नयन, बरस रहे हैं नीर ।

मानों कहते निठुरता, प्रिय की जो बेपीर ॥

 

 

1233

जो कंधे फूल रहे, जब था प्रिय-संयोग ।

मानों करते घोषणा, अब है दुसह वियोग ॥

 

 

1234

स्वर्ण वलय जाते खिसक, कृश हैं कंधे पीन ।

प्रिय-वियोग से पूर्व की, छवि से हैं वे हीन ॥

 

 

1235

वलय सहित सौन्दर्य भी, जिन कंधों को नष्ट ।

निष्ठुर के नैष्ठुर्य को, वे कहते हैं स्पष्ट ॥

 

 

1236

स्कंध शिथिल चूड़ी सहित, देख मुझे जो आप ।

कहती हैं उनको निठुर, उससे पाती ताप ॥

 

 

1237

यह आक्रान्दन स्कंध का, जो होता है क्षाम ।

सुना निठुर को रे हृदय, पाओ क्यों न सुनाम ॥

 

 

1238

आलिंगन के पाश से, शिथिल किये जब हाथ ।

तत्क्षण पीला पड गया, सुकुमारी का माथ ॥

 

 

         1239

ज़रा हवा जब घुस गयी, आलिंगन के मध्य ।

मुग्धा के पीले पड़े, शीत बड़े दृग सद्य ॥

 

 

         1240

उज्ज्वल माथे से जनित, पीलापन को देख ।

पीलापन को नेत्र के, हुआ दुःख-अतिरेक ॥

 

 अध्याय 125. हृदय से कथन

 

 

1241

रोग-शमन हित रे हृदय, जो यह हुआ असाध्य ।

क्या न कहोगे सोच कर, कोई औषध साध्य ॥

 

 

1242

हृदय ! जिओ तुम, नाथ तो, करते हैं नहिं प्यार ।

पर तुम होते हो व्यथित, यह मूढ़ता अपार ॥

 

 

1243

रे दिल ! बैठे स्मरण कर, क्यों हो दुख में चूर ।

दुःख-रोग के जनक से, स्नेह-स्मरण है दूर ॥

 

 

1244

नेत्रों को भी ले चलो, अरे हृदय, यह जान ।

उनके दर्शन के लिये, खाते मेरी जान ॥

 

 

1245

यद्यपि हम अनुरक्त हैं, वे हैं नहिं अनुरक्त ।

रे दिल, यों निर्मम समझ, हो सकते क्या त्यक्त ॥

 

 

1246

जब प्रिय देते मिलन सुख, गया नहीं तू रूठ ।

दिल, तू जो अब क्रुद्ध है, वह है केवल झूठ ॥

 

 

1247

अरे सुदिल, तज काम को, या लज्जा को त्याग ।

मैं तो सह सकती नहीं, इन दोनों की आग ॥

 

 

1248

रे मेरे दिल, यों समझ, नहीं दयार्द्र सुजान ।

बिछुड़े के पीछे लगा, चिन्ताग्रस्त अजान ॥

 

 

1249

तेरे अन्दर जब रहा, प्रियतम का आवास ।

रे दिल, उनका स्मरण कर, जावे किसके पास ॥

 

 

1250

फिर न मिले यों तज दिया, उनको दिल में ठौर ।

देने से मैं खो रही, अभ्यन्तर छवि और ॥

 

 अध्याय 126. धैर्य-भंग

 

 

1251

लाज-चटखनी युक्त है, मनोधैर्य का द्वार ।

खंडन करना है उसे, यह जो काम-कुठार

 

 

1252

काम एक निर्दय रहा, जो दिल पर कर राज ।

अर्द्ध रात्रि के समय भी, करवाता है काज ॥

 

 

1253

काम छिपाने यत्न तो, मैं करती हूँ जान ।

प्रकट हुआ निर्देश बिन, वह तो छींक समान ॥

 

 

1254

कहती थी हूँ धृतिमती’, पर मम काम अपार ।

प्रकट सभी पर अब हुआ, गोपनीयता पार ॥

 

 

1255

उनके पीछे जा लगें, जो तज गये सुजान ।

काम-रोगिणी को नहीं, इस बहुमति का ज्ञान ॥

 

 

1256

उनके पीछे लग रहूँ, चले गये जो त्याग ।

काम-रोग को यों दिया, यह मेरा बड़भाग ॥

 

 

1257

करते ये प्रिय नाथ जब, कामेच्छित सब काज ।

तब यह ज्ञात न था हमें, एक वस्तु है लाज ॥

 

 

1258

बहुमायामय चोर के, जो हैं नयमय बैन ।

मेरी धृति को तोड़ने, क्या होते नहिं सैन ॥

 

 

      1259

चली गई मैं रूठने, किन्तु हृदय को देख ।

वह प्रवृत्त है मिलन हित, गले लगी, हो एक ॥

 

 

      1260

अग्नि-दत्त मज्जा यथा, जिनका दिल द्रवमान ।

उनको प्रिय के पास रह, क्या संभव है मान ॥

 

 अध्याय 127. उनकी उत्कंठा

 

 

1261

छू कर गिनते विरह दिन, घिस अंगुलियाँ क्षीण ।

तथा नेत्र भी हो गये, राह देख छवि-हीन

 

 

1262

उज्ज्वल भूषण सज्जिते ! यदि मैं भूलूँ आज ।

गिरें बाँह से चुड़ियाँ, खोऊँ छवि-साज ॥

 

 

1263

विजय-कामना से चले, साथ लिये उत्साह ।

सो अब भी जीती रही, ‘लौटेंगे यों चाह ॥

 

 

1264

प्रेम सहित हैं लौटते, बिछुड़ गये जो नाथ ।

उमड़ रहा यों सोच कर, हृदय खुशी के साथ ॥

 

 

1265

प्रियतम को मैं देख लूँ, आँखों से भरपूर ।

फिर पीलापन स्कंध का, हो जायेगा दूर ॥

 

 

1266

प्रिय आवें तो एक दिन,यों कर लूँ रसपान ।

जिससे पूरा ही मिटे, दुःखद रोग निदान ॥

 

 

1267

नेत्र सदृश प्रिय आ मिलें, तो कर बैठूँ मान ?

या आलिंगन ही करूँ, या दोनों, हे प्राण ॥

 

 

1268

क्रियाशील हो युद्ध कर, राजा पावें जीत ।

सपत्नीक हम भोज दें, संध्या हित सप्रीत ॥

 

 

      1269

जिसे प्रवासी पुरुष के, प्रत्यागम का सोच ।

एक रोज़ है सात सम, लंबा होता रोज़ ॥

 

 

      1270

प्राप्य हुई या प्राप्त ही, या हो भी संयोग ।

हृदय भग्न हो चल बसी, तो क्या हो उपयोग ॥

 

 अध्याय 128. इंगित से बोध

 

 

1271

रखने पर भी कर छिपा, मर्यादा को पार ।

हैं तेरे ही नेत्र कुछ, कहने का तैयार ॥

 

 

1272

छवि भरती है आँख भर, बाँस सदृश हैं स्कंध ।

मुग्धा में है मूढ़ता, नारी-सुलभ अमंद ॥

 

 

1273

अन्दर से ज्यों दीखता, माला-मणि में सूत ।

बाला छवि में दीखता, कुछ संकेत प्रसूत ॥

 

 

1274

बद कली में गंध ज्यों, रहती है हो बंद ।

त्यों इंगित इक बंद है, मुग्धा-स्मिति में मंद ॥

 

 

1275

बाला ने, चूड़ी-सजी, मुझसे किया दुराव ।

दुःख निवारक इक दवा, रखता है वह हाव ॥

 

 

1276

दे कर अतिशय मिलन सुख, देना दुःख निवार ।

स्मारक भावी विरह का, निष्प्रिय व्यवहार ॥

 

 

1277

नायक शीतल घाट का, बिछुड़ जाय यह बात ।

मेरे पहले हो गयी, इन वलयों को ज्ञात ॥

 

 

1278

कल ही गये वियुक्त कर, मेरे प्यारे नाथ ।

पीलापन तन को लिये, बीत गये दिन सात ॥

 

 

      1279

वलय देख फिर स्कंध भी, तथा देख निज पाँव ।

यों उसने इंगित किया, साथ गमन का भाव ॥

 

 

      1280

काम-रोग को प्रगट कर, नयनों से कर सैन ।

याचन करना तो रहा, स्त्रीत्व-लब्ध गुण स्त्रैण ॥

 

 अध्याय 129. मिलन-उत्कंठा

 

 

1281

मुद होना स्मृति मात्र से, दर्शन से उल्लास ।

ये गुण नहीं शराब में, रहे काम के पास ॥

 

 

1282

यदि आवेगा काम तो, बढ़ कर ताड़ समान ।

तिल भर भी नहिं चाहिये, करना प्रिय से मान ॥

 

 

1283

यद्यपि मनमानी करें, बिन आदर की सैन ।

प्रियतम को देखे बिना, नयनों को नहिं चैन ॥

 

 

1284

गयी रूठने री सखी, करके मान-विचार ।

मेरा दिल वह भूल कर, मिलने को तैयार ॥

 

 

1285

कूँची को नहिं देखते, यथा आंजते अक्ष ।

उनकी भूल न देखती, जब हैं नाथ समक्ष ॥

 

 

1286

जब प्रिय को मैं देखती, नहीं देखती दोष ।

ना देखूँ तो देखती, कुछ न छोड़ कर दोष ॥

 

 

1287

कूदे यथा प्रवाह में, बाढ़ बहाती जान ।

निष्फलता को जान कर, क्या हो करते मान ॥

 

 

1288

निन्दाप्रद दुख क्यों न दे, मद्यप को ज्यों पान ।

त्यों है, वंचक रे, हमें, तेरी छाती जान ॥

 

 

         1289

मृदुतर हो कर सुमन से, जो रहता है काम ।

बिरले जन को प्राप्त है, उसका शुभ परिणाम ॥

 

 

         1290

उत्कंठित मुझसे अधिक, रही मिलन हित बाल ।

मान दिखा कर नयन से, गले लगी तत्काल ॥

 

 अध्याय 130. हृदय से रूठना

 

 

1291

उनका दिल उनका रहा, देते उनका साथ ।

उसे देख भी, हृदय तू, क्यों नहिं मेरे साथ ॥

 

 

1292

प्रिय को निर्मम देख भी, ‘वे नहिं हो नाराज़

यों विचार कर तू चला, रे दिल, उनके पास ॥

 

 

1293

रे दिल, जो हैं कष्ट में, उनके हैं नहिं इष्ट ।

सो क्या उनका पिछलगा, बना यथा निज इष्ट ॥

 

 

1294

रे दिल तू तो रूठ कर, बाद न ले सुख-स्वाद ।

तुझसे कौन करे अभी, तत्सम्बन्धी बात ॥

 

 

1295

न मिल तो भय, या मिले, तो भेतव्य वियोग ।

मेरा दिल है चिर दुखी, वियोग या संयोग ॥

 

 

1296

विरह दशा में अलग रह, जब करती थी याद ।

मानों मेरा दिल मुझे, खाता था रह साथ ॥

 

 

1297

मूढ हृदय बहुमति रहित, नहीं भूलता नाथ ।

मैं भूली निज लाज भी, पड़ कर इसके साथ ॥

 

 

1298

नाथ-उपेक्षा निंद्य है, यों करके सुविचार ।

करता उनका गुण-स्मरण, यह दिल जीवन-प्यार ॥

 

 

         1299

संकट होने पर मदद, कौन करेगा हाय ।

जब कि निजी दिल आपना, करता नहीं सहाय ॥

 

 

         1300

बन्धु बनें नहिं अन्य जन, है यह सहज, विचार ।

जब अपना दिल ही नहीं, बनता नातेदार ॥

 

 अध्याय 131. मान

 

 

1301

आलिंगन करना नहीं, ठहरो करके मान ।

देखें हम उनको ज़रा, सहते ताप अमान ॥

 

 

1302

ज्यों भोजन में नमक हो, प्रणय-कलह त्यों जान ।

ज़रा बढ़ाओ तो उसे, ज्यादा नमक समान ॥

 

 

1303

अगर मना कर ना मिलो, जो करती है मान ।

तो वह, दुखिया को यथा, देना दुख महान ॥

 

 

1304

उसे मनाया यदि नहीं, जो कर बैठी मान ।

सूखी वल्ली का यथा, मूल काटना जान ॥

 

 

1305

कुसुम-नेत्रयुत प्रियतमा, रूठे अगर यथेष्ट ।

शोभा देती सुजन को, जिनके गुण हैं श्रेष्ठ ॥

 

 

1306

प्रणय-कलह यदि नहिं हुआ, और न थोड़ा मान ।

कच्चा या अति पक्व सम, काम-भोग-फल जान ॥

 

 

1307

क्या न बढ़ेगा मिलन-सुख’, यों है शंका-भाव ।

प्रणय-कलह में इसलिये, रहता दुखद स्वभाव ॥

 

 

1308

पीड़ित है यों समझती, प्रिया नहीं रह जाय ।

तो सहने से वेदना, क्या ही फल हो जाय ॥

 

 

         1309

छाया के नीचे रहा, तो है सुमधुर नीर ।

प्रिय से हो तो मधुर है, प्रणय कलह-तासीर ॥

 

 

         1310

सूख गयी जो मान से, और रही बिन छोह ।

मिलनेच्छा उससे रहा, मेरे दिल का मोह ॥

 

 अध्याय 132. मान की सूक्ष्मता

 

 

1311

सभी स्त्रियाँ सम भाव से, करतीं दृग से भोग ।

रे विट् तेरे वक्ष से, मैं न करूँ संयोग ॥

 

 

1312

हम बैठी थीं मान कर, छींक गये तब नाथ ।

यों विचार चिर जीव कह, हम कर लेंगी बात ॥

 

 

1313

धरूँ डाल का फूल तो, यों होती नाराज़ ।

दर्शनार्थ औ नारि से, करते हैं यह साज ॥

 

 

1314

सब से बढ़’, मैंने कहा, ‘हम करते हैं प्यार

किस किस से कहती हुई, लगी रुठने यार ॥

 

 

1315

यों कहने पर- हम नहीं, ‘बिछुड़ेंगे इस जन्म

भर लायी दृग, सोच यह, क्या हो अगले जन्म ॥

 

 

1316

स्मरण किया मैंने कहा, तो क्यों बैठे भूल ।

यों कह मिले बिना रही, पकड़ मान का तूल ॥

 

 

1317

छींका तो, कह शुभ वचन, तभी बदल दी बात ।

कौन स्मरण कर छींक दी’, कह रोयी सविषाद ॥

 

 

1318

छींक दबाता मैं रहा, रोयी कह यह बैन ।

अपनी जो करती स्मरण, उसे छिपाते हैं न ॥

 

 

         1319

अगर मनाऊँ तो सही, यों कह होती रुष्ट ।

करते होंगे अन्य को, इसी तरह से तुष्ट ॥

 

 

         1320

देखूँ यदि मैं मुग्ध हो, यों कह करती रार ।

देख रहे हैं आप सब, दिल में किसे विचार ॥

 

 अध्याय 133. मान का आनन्द

 

 

1321

यद्यपि उनकी भूल नहिं, उनका प्रणय-विधान

प्रेरित करता है मुझे, करने के हित मान ॥

 

 

1322

मान जनित लघु दुःख से, यद्यपि प्रिय का प्रेम ।

मुरझा जाता है ज़रा, फिर भी पाता क्षेम ॥

 

 

1323

मिट्टी-पानी मिलन सम, जिस प्रिय का संपर्क ।

उनसे होते कलह से, बढ़ कर है क्या स्वर्ग ॥

 

 

1324

मिलन साध्य कर, बिछुड़ने, देता नहिं जो मान ।

उससे आविर्भूत हो, हृत्स्फोटक सामान ॥

 

 

1325

यद्यपि प्रिय निर्दोष है, मृदुल प्रिया का स्कंध ।

छूट रहे जब मिलन से, तब है इक आनन्द ॥

 

 

1326

खाने से, खाया हुआ, पचना सुखकर जान ।

काम-भोग हित मिलन से, अधिक सुखद है मान ॥

 

 

1327

प्रणय-कलह में जो विजित, उसे रहा जय योग ।

वह तो जाना जायगा, जब होगा संयोग ॥

 

 

1328

स्वेद-जनक सुललाट पर, मिलन जन्य आनन्द ।

प्रणय-कलह कर क्या मिले, फिर वह हमें अमन्द ॥

 

 

         1329

रत्नाभरण सजी प्रिया, करे और भी मान ।

करें मनौती हम यथा, बढ़े रात्रि का मान ॥

 

 

         1330

रहा काम का मधुर रस, प्रणय-कलह अवगाह ।

फिर उसका है मधुर रस, मधुर मिलन सोत्साह ॥

 

 

अध्याय - सूची

 

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