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तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से) |
भाग–३: काम- कांड
अध्याय 101. निष्फल धन |
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1001 |
भर कर घर भर प्रचुर धन, जो करता नहिं भोग । धन के नाते मृतक है, जब है नहिं उपयोग ॥ |
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1002 |
‘सब होता है अर्थ से’, रख कर ऐसा ज्ञान । कंजूसी के मोह से, प्रेत-जन्म हो मलान ॥ |
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1003 |
लोलुप संग्रह मात्र का, यश का नहीं विचार । ऐसे लोभी का जनम, है पृथ्वी को भार ॥ |
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1004 |
किसी एक से भी नहीं, किया गया जो प्यार । निज अवशेष स्वरूप वह, किसको करे विचार ॥ |
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1005 |
जो करते नहिं दान ही, करते भी नहिं भोग । कोटि कोटि धन क्यों न हो, निर्धन हैं वे लोग ॥ |
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1006 |
योग्य व्यक्ति को कुछ न दे, स्वयं न करता भोग । विपुल संपदा के लिये, इस गुण का नर रोग ॥ |
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1007 |
कुछ देता नहिं अधन को, ऐसों का धन जाय । क्वाँरी रह अति गुणवती, ज्यों बूढ़ी हो जाय ॥ |
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1008 |
अप्रिय जन के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति । ग्राम-मध्य विष-वृक्ष ज्यों, पावे फल-संपत्ति ॥ |
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1009 |
प्रेम-भाव तज कर तथा, भाव धर्म से जन्य । आत्म-द्रोह कर जो जमा, धन हथियाते अन्य ॥ |
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1010 |
उनकी क्षणिक दरिद्रता, जो नामी धनवान । जल से खाली जलद का, है स्वभाव समान ॥ |
अध्याय 102. लज्जाशीलता |
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1011 |
लज्जित होना कर्म से, लज्जा रही बतौर । सुमुखी कुलांगना-सुलभ, लज्जा है कुछ और ॥ |
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1012 |
अन्न वस्त्र इत्यादि हैं, सब के लिये समान । सज्जन की है श्रेष्ठता, होना लज्जावान ॥ |
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1013 |
सभी प्राणियों के लिये, आश्रय तो है देह । रखती है गुण-पूर्णता, लज्जा का शुभ गेह ॥ |
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1014 |
भूषण महानुभाव का, क्या नहिं लज्जा-भाव । उसके बिन गंभीर गति, क्या नहिं रोग-तनाव ॥ |
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1015 |
लज्जित है, जो देख निज, तथा पराया दोष । उनको कहता है जगत, ‘यह लज्जा का कोष’ ॥ |
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1016 |
लज्जा को घेरा किये, बिना सुरक्षण-योग । चाहेंगे नहिं श्रेष्ठ जन, विस्तृत जग का भोग ॥ |
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1017 |
लज्जा-पालक त्याग दें, लज्जा के हित प्राण । लज्जा को छोड़ें नहीं, रक्षित रखने जान ॥ |
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1018 |
अन्यों को लज्जित करे, करते ऐसे कर्म । उससे खुद लज्जित नहीं, तो लज्जित हो धर्म ॥ |
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1019 |
यदि चूके सिद्धान्त से, तो होगा कुल नष्ट । स्थाई हो निर्लज्जता, तो हों सब गुण नष्ट ॥ |
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1020 |
कठपुथली में सूत्र से, है जीवन-आभास । त्यों है लज्जाहीन में, चैतन्य का निवास ॥ |
अध्याय 103. वंशोत्कर्ष-विधान |
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1021 |
‘हाथ न खींचूँ कर्म से, जो कुल हित कर्तव्य । इसके सम नहिं श्रेष्ठता, यों है जो मन्तव्य ॥ |
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1022 |
सत् प्रयत्न गंभीर मति, ये दोनों ही अंश । क्रियाशील जब हैं सतत, उन्नत होता वंश ॥ |
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1023 |
‘कुल को अन्नत में करूँ’, कहता है दृढ बात । तो आगे बढ़ कमर कस, दैव बँटावे हाथ ॥ |
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1024 |
कुल हित जो अविलम्ब ही, हैं प्रयत्न में चूर । अनजाने ही यत्न वह, बने सफलता पूर ॥ |
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1025 |
कुल अन्नति हित दोष बिन, जिसका है आचार । बन्धु बनाने को उसे, घेर रहा संसार ॥ |
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1026 |
स्वयं जनित निज वंश का, परिपालन का मान । अपनाना है मनुज को, उत्तम पौरुष जान ॥ |
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1027 |
महावीर रणक्षेत्र में, ज्यों हैं जिम्मेदार । त्यों है सुयोग्य व्यक्ति पर, निज कुटुंब का भार ॥ |
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1028 |
कुल-पालक का है नहीं, कोई अवसर खास । आलसवश मानी बने, तो होता है नाश ॥ |
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1029 |
जो होने देता नहीं, निज कुटुंब में दोष । उसका बने शरीर क्या, दुख-दर्दों का कोष ॥ |
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1030 |
योग्य व्यक्ति कुल में नहीं, जो थामेगा टेक । जड़ में विपदा काटते, गिर जाये कुल नेक ॥ |
अध्याय 104. कृषि |
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1031 |
कृषि-अधीन ही जग रहा, रह अन्यों में घुर्ण । सो कृषि सबसे श्रेष्ठ है, यद्यपि है श्रमपूर्ण ॥ |
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1032 |
जो कृषि की क्षमता बिना, करते धंधे अन्य । कृषक सभी को वहन कर, जगत-धुरी सम गण्य ॥ |
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1033 |
जो जीवित हैं हल चला, उनका जीवन धन्य । झुक कर खा पी कर चलें, उनके पीचे अन्य ॥ |
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1034 |
निज नृप छत्रच्छाँह में, कई छत्रपति शान । छाया में पल धान की, लाते सौम्य किसान ॥ |
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1035 |
निज कर से हल जोत कर, खाना जिन्हें स्वभाव । माँगें नहिं, जो माँगता, देंगे बिना दुराव ॥ |
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1036 |
हाथ खिँचा यदि कृषक का, उनकी भी नहिं टेक । जो ऐसे कहते रहे ‘हम हैं निस्पृह एक’ ॥ |
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1037 |
एक सेर की सूख यदि, पाव सेर हो धूल । मुट्ठी भर भी खाद बिन, होगी फ़सल अतूल ॥ |
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1038 |
खेत जोतने से अधिक, खाद डालना श्रेष्ठ । बाद निराकर सींचना, फिर भी रक्षण श्रेष्ठ ॥ |
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1039 |
चल कर यदि देखे नहीं, मालिक दे कर ध्यान । गृहिणी जैसी रूठ कर, भूमि करेगी मान ॥ |
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1040 |
‘हम दरिद्र हैं’ यों करे, सुस्ती में आलाप । भूमि रूप देवी उसे, देख हँसेगी आप ॥ |
अध्याय 105. दरिद्रता |
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1041 |
यदि पूछो दारिद्र्य सम, दुःखद कौन महान । तो दुःखद दारिद्र्य सम, दारिद्रता ही जान ॥ |
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1042 |
निर्धनता की पापिनी, यदि रहती है साथ । लोक तथा परलोक से, धोना होगा हाथ ॥ |
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1043 |
निर्धनता के नाम से, जो है आशा-पाश । कुलीनता, यश का करे, एक साथ ही नाश ॥ |
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1044 |
निर्धनता पैदा करे, कुलीन में भी ढील । जिसके वश वह कह उठे, हीन वचन अश्लील ॥ |
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1045 |
निर्धनता के रूप में, जो है दुख का हाल । उसमें होती है उपज, कई तरह की साल ॥ |
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1046 |
यद्यपि अनुसंधान कर, कहे तत्व का अर्थ । फिर भी प्रवचन दिन का, हो जाता है व्यर्थ ॥ |
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1047 |
जिस दरिद्र का धर्म से, कुछ भी न अभिप्राय । जननी से भी अन्य सम, वह तो देखा जाय ॥ |
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1048 |
कंगाली जो कर चुकी, कल मेरा संहार । अयोगी क्या आज भी, करने उसी प्रकार ॥ |
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1049 |
अन्तराल में आग के, सोना भी है साध्य । आँख झपकना भी ज़रा, दारिद में नहिं साध्य ॥ |
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1050 |
भोग्य-हीन रह, दिन का, लेना नहिं सन्यास । माँड-नमक का यम बने, करने हित है नाश ॥ |
अध्याय 106. याचना |
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1051 |
याचन करने योग्य हों, तो माँगना ज़रूर । उनका गोपन-दोष हो, तेरा कुछ न कसूर ॥ |
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1052 |
यचित चीज़ें यदि मिलें, बिना दिये दुख-द्वन्द । याचन करना मनुज को, देता है आनन्द ॥ |
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1053 |
खुला हृदय रखते हुए, जो मानेंगे मान । उनके सम्मुख जा खड़े, याचन में भी शान ॥ |
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1054 |
जिन्हें स्वप्न में भी ‘नहीं’, कहने की नहिं बान । उनसे याचन भी रहा, देना ही सम जान ॥ |
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1055 |
सम्मुख होने मात्र से, बिना किये इनकार । दाता हैं जग में, तभी, याचन है स्वीकार ॥ |
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1056 |
उन्हें देख जिनको नहीं, ‘ना’, कह सहना कष्ट । दुःख सभी दारिद्र्य के, एक साथ हों नष्ट ॥ |
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1057 |
बिना किये अवहेलना, देते जन को देख । मन ही मन आनन्द से, रहा हर्ष-अतिरेक ॥ |
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1058 |
शीतल थलयुत विपुल जग, यदि हो याचक-हीन । कठपुथली सम वह रहे, चलती सूत्राधीन ॥ |
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1059 |
जब कि प्रतिग्रह चाहते, मिलें न याचक लोग । दाताओं को क्या मिले, यश पाने का योग ॥ |
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1060 |
याचक को तो चाहिये, ग्रहण करे अक्रोध । निज दरिद्रता-दुःख ही, करे उसे यह बोध ॥ |
अध्याय 107. याचना-भय |
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1061 |
जो न छिपा कर, प्रेम से, करते दान यथेष्ट । उनसे भी नहिं माँगना, कोटि गुना है श्रेष्ठ ॥ |
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1062 |
यदि विधि की करतार ने, भीख माँग नर खाय । मारा मारा फिर वही, नष्ट-भ्रष्ट हो जाय ॥ |
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1063 |
‘निर्धनता के दुःख को, करें माँग कर दूर’ । इस विचार से क्रूरतर, और न है कुछ क्रूर ॥ |
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1064 |
दारिदवश भी याचना, जिसे नहीं स्वीकार । भरने उसके पूर्ण-गुण, काफी नहिं संसार ॥ |
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1065 |
पका माँड ही क्यों न हो, निर्मल नीर समान । खाने से श्रम से कमा, बढ़ कर मधुर न जान ॥ |
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1066 |
यद्यपि माँगे गाय हित, पानी का ही दान । याचन से बदतर नहीं, जिह्वा को अपमान ॥ |
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1067 |
याचक सबसे याचना, यही कि जो भर स्वाँग । याचन करने पर न दें, उनसे कभी न माँग ॥ |
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1068 |
याचन रूपी नाव यदि, जो रक्षा बिन नग्न । गोपन की चट्टान से, टकराये तो भग्न ॥ |
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1069 |
दिल गलता है, ख्याल कर, याचन का बदहाल । गले बिना ही नष्ट हो, गोपन का कर ख्याल ॥ |
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1070 |
‘नहीं’ शब्द सुन जायगी, याचक जन की जान । गोपन करते मनुज के, कहाँ छिपेंगे प्राण ॥ |
अध्याय 108. नीचता |
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1071 |
हैं मनुष्य के सदृश ही, नीच लोग भी दृश्य । हमने तो देखा नहीं, ऐसा जो सादृश्य ॥ |
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1072 |
चिन्ता धर्माधर्म की, नहीं हृदय के बीच । सो बढ़ कर धर्मज्ञ से, भाग्यवान हैं नीच ॥ |
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1073 |
नीच लोग हैं देव सम, क्योंकि निरंकुश जीव । वे भी करते आचरण, मनमानी बिन सींव ॥ |
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1074 |
मनमौजी ऐसा मिले, जो अपने से खर्व । तो उससे बढ़ खुद समझ, नीच करेगा गर्व ॥ |
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1075 |
नीचों के आचार का, भय ही है आधार । भय बिन भी कुछ तो रहे, यदि हो लाभ-विचार ॥ |
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1076 |
नीच मनुज ऐसा रहा, जैसा पिटता ढोल । स्वयं सुने जो भेद हैं, ढो अन्यों को खोल ॥ |
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1077 |
गाल-तोड़ घूँसा बिना, जो फैलाये हाथ । झाडेंगे नहिं अधम जन, निज झूठा भी हाथ ॥ |
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1078 |
सज्जन प्रार्थन मात्र से, देते हैं फल-दान । नीच निचोड़ों ईख सम, तो देते रस-पान ॥ |
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1079 |
खाते पीते पहनते, देख पराया तोष । छिद्रान्वेषण-चतुर जो, नीच निकाले दोष ॥ |
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1080 |
नीच लोग किस योग्य हों, आयेंगे क्या काम । संकट हो तो झट स्वयं, बिक कर बनें गुलाम ॥ |
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