Thirukkural
in Hindi
 

तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से)

 

 अध्याय 91. स्त्री-वश होना

 

 

901

स्त्री पर जो आसक्त हैं, उनको मिले न धर्म ।

अर्थार्थी के हित रहा, घृणित वस्तु वह कर्म ॥

 

 

902

स्त्री लोलुप की संपदा, वह है पौरुष-त्यक्त ।

लज्जास्पद बन कर बड़ी, लज्जित करती सख्त ॥

 

 

903

डरने की जो बान है, स्त्री से दब कर नीच ।

सदा रही लज्जाजनक, भले जनों के बीच ॥

 

 

904

गृहिणी से डर है जिसे, न मोक्ष की सिद्धि ।

उसकी कर्म-विदग्धता, पाती नहीं प्रसिद्धि ॥

 

 

905

पत्नी-भीरु सदा डरे, करने से वह कार्य ।

सज्जन लोगों के लिये, जो होते सत्कार्य ॥

 

 

906

जो डरते स्त्री-स्कंध से, जो है बाँस समान ।

यद्यपि रहते देव सम, उनका है नहिं मान ॥

 

 

907

स्त्री की आज्ञा पालता, जो पौरुष निर्लज्ज ॥

उससे बढ कर श्रेष्ठ है, स्त्री का स्त्रीत्व सलज्ज ॥

 

 

908

चारु मुखी वंछित वही, करते हैं जो कर्म ।

भरते कमी न मित्र की, करते नहीं सुधर्म ॥

 

 

        909

धर्म-कर्म औ प्रचुर धन, तथा अन्य जो काम ।

स्त्री के आज्ञापाल को, इनका नहिं अंजाम ॥

 

 

        910

जिनका मन हो कर्मरत, जो हों धनवान ।

स्त्री-वशिता से उन्हें, कभी न है अज्ञान ॥

 

 अध्याय 92. वार-वनिता

 

 

911

चाह नहीं है प्रेमवश, धनमूलक है चाह ।

ऐसी स्त्री का मधुर वच, ले लेता है आह ॥

 

 

912

मधुर वचन है बोलती, तोल लाभ का भाग ।

वेश्या के व्यवहार को, सोच समागम त्याग ॥

 

 

913

पण-स्त्री आलिंगन रहा, यों झूठा ही जान ।

ज्यों लिपटे तम-कोष्ठ में, मुरदे से अनजान ॥

 

 

914

रहता है परमार्थ में, जिनका मनोनियोग ।

अर्थ-अर्थिनी तुच्छ सुख, करते नहिं वे भोग ॥

 

 

915

सहज बुद्धि के साथ है, जिनका विशिष्ट ज्ञान ।

पण्य-स्त्री का तुच्छ सुख, भोगेंगे नहिं जान ॥

 

 

916

रूप-दृप्त हो तुच्छ सुख, जो देती हैं बेच ।

निज यश-पालक श्रेष्ठ जन, गले लगें नहिं, हेच ॥

 

 

917

करती है संभोग जो, लगा अन्य में चित्त ।

उससे गले लगे वही, जिसका चंचल चित्त ॥

 

 

918

जो स्त्री है मायाविनी, उसका भोग विलास ।
अविवेकी जन के लिये, रहा मोहिनी-पाश ॥

 

 

        919

वेश्या का कंधा मृदुल, भूषित है जो खूब ।

मूढ-नीच उस नरक में, रहते हैं कर डूब ॥

 

 

        920

द्वैध-मना व्यभिचारिणी, मद्य, जुए का खेल ।

लक्ष्मी से जो त्यक्त हैं, उनका इनसे मेल ॥

 

 अध्याय 93. मद्य-निषेध

 

 

921

जो मधु पर आसक्त हैं, खोते हैं सम्मान ।

शत्रु कभी डरते नहीं, उनसे कुछ भय मान ॥

 

 

922

मद्य न पीना, यदि पिये, वही पिये सोत्साह ।

साधु जनों के मान की, जिसे नहीं परवाह ॥

 

 

923

माँ के सम्मुख भी रही, मद-मत्तता खराब ।

तो फिर सम्मुख साधु के, कितनी बुरी शराब ॥

 

 

924

जग-निंदित अति दोषयुत, जो हैं शराबखोर ।

उनसे लज्जा-सुन्दरी, मूँह लेती है मोड़ ॥

 

 

925

विस्मृति अपनी देह की, क्रय करना दे दाम ।

यों जाने बिन कर्म-फल, कर देना है काम ॥

 

 

926

सोते जन तो मृतक से, होते हैं नहिं भिन्न ।

विष पीते जन से सदा, मद्यप रहे अभिन्न ॥

 

 

927

जो लुक-छिप मधु पान कर, खोते होश-हवास ।

भेद जान पुर-जन सदा, करते हैं परिहास ॥

 

 

928

मधु पीना जाना नहीं’, तज देना यह घोष ।

पीने पर झट हो प्रकट, मन में गोपित दोष ॥

 

 

        929

मद्यप का उपदेश से, होना होश-हवास ।

दीपक ले जल-मग्न की, करना यथा तलाश ॥

 

 

        930

बिना पिये रहते समय, मद-मस्त को निहार ।

सुस्ती का, पीते स्वयं, करता क्यों न विचार ॥

 

 अध्याय 94. जुआ

 

 

931

चाह जुए की हो नहीं, यद्यपि जय स्वाधीन ।

जय भी तो कांटा सदृश, जिसे निगलता मीन ॥

 

 

932

लाभ, जुआरी, एक कर, फिर सौ को खो जाय ।

वह भी क्या सुख प्राप्ति का, जीवन-पथ पा जाय ॥

 

 

933

पासा फेंक सदा रहा, करते धन की आस ।

उसका धन औ आय सब, चलें शत्रु के पास ॥

 

 

934

करता यश का नाश है, दे कर सब दुख-जाल ।

और न कोई द्यूत सम, बनायगा कंगाल ॥

 

 

935

पासा, जुआ-घर तथा, हस्य-कुशलता मान ।

जुए को हठ से पकड़, निर्धन हुए निदान ॥

 

 

936

जुआरूप ज्येष्ठा जिन्हें, मूँह में लेती ड़ाल ।

उन्हें न मिलता पेट भर, भोगें दुख कराल ॥

 

 

937

द्यूत-भुमि में काल सब, जो करना है वास ।

करता पैतृक धन तथा, श्रेष्ठ गुणों का नाश ॥

 

 

938

पेरित मिथ्या-कर्म में, करके धन को नष्ट ।

दया-धर्म का नाश कर, जुआ दिलाता कष्ट ॥

 

 

        939

रोटी कपड़ा संपदा, विद्या औ सम्मान ।

पाँचों नहिं उनके यहाँ, जिन्हें जुए की बान ॥

 

 

        940

खोते खोते धन सभी, यथा जुएँ में मोह ।

सहते सहते दुःख भी, है जीने में मोह ॥

 

 अध्याय 95. औषध

 

 

941

वातादिक जिनको गिना, शास्त्रज्ञों ने तीन ।

बढ़ते घटते दुःख दें, करके रोगाधीन ॥

 

 

942

खादित का पचना समझ, फिर दे भोजन-दान ।

तो तन को नहिं चाहिये, कोई औषध-पान ॥

 

 

943

जीर्ण हुआ तो खाइये, जान उचित परिमाण ।

देहवान हित है वही, चिरायु का सामान ॥

 

 

944

जीर्ण कुआ यह जान फिर, खूब लगे यदि भूख ।

खाओ जो जो पथ्य हैं, रखते ध्यान अचूक ॥

 

 

945

करता पथ्याहार का, संयम से यदि भोग ।

तो होता नहिं जीव को, कोई दुःखद रोग ॥

 

 

946

भला समझ मित भोज का, जीमे तो सुख-वास ।

वैसे टिकता रोग है, अति पेटू के पास ॥

 

 

947

जाठराग्नि की शक्ति का, बिना किये सुविचार ।

यदि खाते हैं अत्याधिक, बढ़ते रोग अपार ॥

 

 

948

ठीक समझ कर रोग क्या, उसका समझ निदान ।

समझ युक्ति फिर शमन का, करना यथा विधान ॥

 

 

        949

रोगी का वय, रोग का, काल तथा विस्तार ।

सोच समझकर वैद्य को, करना है उपचार ॥

 

 

        950

रोगी वैद्य देवा तथा, तीमारदार संग ।

चार तरह के तो रहे, वैद्य शास्त्र के अंग ॥

 

 अध्याय 96. कुलीनता

 

 

951

लज्जा, त्रिकरण-एकता, इन दोनों का जोड़ ।

सहज मिले नहिं और में, बस कुलीन को छोड़ ॥

 

 

952

सदाचार लज्जा तथा, सच्चाई ये तीन ।

इन सब से विचलित कभी, होते नहीं कुलीन ॥

 

 

953

सुप्रसन्न मुख प्रिय वचन, निंदा-वर्जन दान ।

सच्चे श्रेष्ठ कुलीन हैं, चारों का संस्थान ॥

 

 

954

कोटि कोटि धन ही सही, पायें पुरुष कुलीन ।

तो भी वे करते नहीं, रहे कर्म जो हीन ॥

 

 

955

हाथ खींचना ही पड़े, यद्यपि हो कर दीन ।

छोडें वे न उदारता, जिनका कुल प्राचीन ॥

 

 

956

पालन करते जी रहें, जो निर्मल कुल धर्म ।

यों जो हैं वे ना करें, छल से अनुचित कर्म ॥

 

 

957

जो जन बडे कुलीन हैं, उन पर लगा कलंक ।

नभ में चन्द्र-कलंक सम, प्रकटित हो अत्तंग ॥

 

 

958

रखते सुगुण कुलीन के, जो निकले निःस्नेह ।

उसके कुल के विषय में, होगा ही संदेह ॥

 

 

        959

अंकुर करता है प्रकट, भू के गुण की बात ।

कुल का गुण, कुल-जात की, वाणी करती ज्ञात ॥

 

 

        960

जो चाहे अपना भला, पकडे लज्जा-रीत ।

जो चाहे कुल-कानि को, सब से रहे विनीत ॥

 

 अध्याय 97. मान

 

 

961

जीवित रहने के लिये, यद्यपि है अनिवार्य ।

फिर भी जो कुल-हानिकर, तज देना वे कार्य ॥

 

 

962

जो हैं पाना चाहते, कीर्ति सहित सम्मान ।

यश-हित भी करते नहीं, जो कुल-हित अपमान ॥

 

 

963

सविनय रहना चाहिये, रहते अति संपन्न ।

तन कर रहना चाहिये, रहते बड़ा विपन्न ॥

 

 

964

गिरते हैं जब छोड़कर, निज सम्मानित स्थान ।

नर बनते हैं यों गिरे, सिर से बाल समान ॥

 

 

965

अल्प घुंघची मात्र भी, करते जो दुष्काम ।

गिरि सम ऊँचे क्यों न हों, होते हैं बदनाम ॥

 

 

966

न तो कीर्ति की प्राप्ति हो, न हो स्वर्ग भी प्राप्त ।

निंदक का अनुचर बना, तो औ क्या हो प्राप्त ॥

 

 

967

निंदक का अनुचर बने, जीवन से भी हेय ।

ज्यों का त्यों रह मर गया’, कहलाना है श्रेय ॥

 

 

968

नाश काल में मान के, जो कुलीनता-सत्व ।

तन-रक्षित-जीवन भला, क्या देगा अमरत्व ॥

 

 

        969

बाल कटा तो त्याग दे, चमरी-मृग निज प्राण ।

उसके सम नर प्राण दें, रक्षा-हित निज मान ॥

 

 

        970

जो मानी जीते नहीं, होने पर अपमान ।

उनके यश को पूज कर, लोक करे गुण-गान ॥

 

 अध्याय 98. महानता

 

 

971

मानव को विख्याति दे, रहना सहित उमंग ।

जीयेंगे उसके बिना’, है यों कथन कलक ॥

 

 

972

सभी मनुज हैं जन्म से, होते एक समान ।

गुण-विशेष फिर सम नहीं, कर्म-भेद से जान ॥

 

 

973

छोटे नहिं होते बड़े, यद्यपि स्थिति है उच्च ।

निचली स्थिति में भी बड़े, होते हैं नहिं तुच्छ ॥

 

 

974

एक निष्ठ रहती हुई, नारी सती समान ।

आत्म-संयमी जो रहा, उसका हो बहुमान ॥

 

 

975

जो जन महानुभव हैं, उनको है यह साध्य ।

कर चुकना है रीति से, जो हैं कार्य असाध्य ॥

 

 

976

छोटों के मन में नहीं, होता यों सुविचार ।

पावें गुण नर श्रेष्ठ का, कर उनका सत्कार ॥

 

 

977

लगती है संपन्नता, जब ओछों के हाथ ।

तब भी अत्याचार ही, करे गर्व के साथ ॥

 

 

978

है तो महानुभावता, विनयशील सब पर्व ।

अहम्मन्य हो तुच्छता, करती है अति गर्व ॥

 

 

        979

अहम्मन्यता-हीनता, है महानता बान ।

अहम्मन्यता-सींव ही, ओछापन है जान ॥

 

 

        980

दोषों को देना छिपा, है महानता-भाव ।

दोषों की ही घोषणा, है तुच्छत- स्वभाव ॥

 

 अध्याय 99. सर्वगुण-पूर्णता

 

 

981

जो सब गुण हैं पालते, समझ योग्य कर्तव्य ।

उनकों अच्छे कार्य सब, सहज बने कर्तव्य ॥

 

 

982

गुण-श्रेष्ठता-लाभ ही, महापुरुष को श्रेय ।

अन्य लाभ की प्राप्ति से, श्रेय न कुछ भी ज्ञेय ॥

 

 

983

लोकोपकारिता, दया, प्रेम हया औ साँच ।

सुगुणालय के थामते, खंभे हैं ये पाँच ॥

 

 

984

वध-निषेध-व्रत-लाभ ही, तप को रहा प्रधान ।

पर-निंदा वर्जन रही, गुणपूर्णता महान ॥

 

 

985

विनयशीलता जो रही, बलवानों का सार ।

है रिपु-रिपुता नाश-हित, सज्जन का हथियार ॥

 

 

986

कौन कसौटी जो परख, जाने गुण-आगार ।

है वह गुण जो मान ले, नीचों से भी हार ॥

 

 

987

अपकारी को भी अगर, किया नहीं उपकार ।

होता क्या उपयोग है, हो कर गुण-आगार ॥

 

 

988

निर्धनता नर के लिये, होता नहिं अपमान ।

यदि बल है जिसको कहें, सर्व गुणों की खान ॥

 

 

        989

गुण-सागर के कूल सम, जो मर्यादा-पाल ।

मर्यादा छोड़े नहीं, यद्यपि युगान्त-काल ॥

 

 

        990

घटता है गुण-पूर्ण का, यदि गुण का आगार ।

तो विस्तृत संसार भी, ढो सकता नहिं भार ॥

 

 अध्याय 100. शिष्टाचार

 

 

991

मिलनसार रहते अगर, सब लोगों को मान ।

पाना शिष्टाचार है, कहते हैं आसान ॥

 

 

992

उत्तम कुल में जन्म औ’, प्रेम पूर्ण व्यवहार ।

दोनों शिष्टाचार के, हैं ही श्रेष्ठ प्रकार ॥

 

 

993

न हो देह के मेल से, श्रेष्ठ जनों का मेल ।

आत्माओं के योग्य तो, हैं संस्कृति का मेल ॥

 

 

994

नीति धर्म को चाहते, जो करते उपकार ।

उनके शिष्ट स्वभाव को, सराहता संसार ॥

 

 

995

हँसी खेल में भी नहीं, निंदा करना इष्ट ।

पर-स्वभाव ज्ञाता रहें, रिपुता में भी शिष्ट ॥

 

 

996

शिष्टों के आधार पर, टिकता है संसार ।

उनके बिन तो वह मिले, मिट्टी में निर्धार ॥

 

 

997

यद्यपि हैं रेती सदृश, तीक्षण बुद्धि-निधान ।

मानव-संस्कृति के बिना, नर हैं वृक्ष समान ॥

 

 

998

मित्र न रह जो शत्रु हैं, उनसे भी व्यवहार ।
सभ्य पुरुष का नहिं किया, तो वह अधम विचार ॥

 

 

        999

जो जन कर सकते नहीं, प्रसन्न मन व्यवहार ।

दिन में भी तम में पड़ा, है उनका संसार ॥

 

 

      1000

जो है प्राप्त असभ्य को, धन-सम्पत्ति अमेय ।

कलश-दोष से फट गया, शुद्ध दूध सम ज्ञेय ॥

 


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