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तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से) |
अध्याय 21. पाप-भीरुता |
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201 |
पाप-कर्म के मोह से, डरें न पापी लोग । उससे डरते हैं वही, पुण्य-पुरुष जो लोग ॥ |
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202 |
पाप- कर्म दुखजनक हैं, यह है उनकी रीत । पावक से भीषण समझ, सो होना भयभीत ॥ |
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203 |
श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता कहें, करके सुधी विचार । अपने रिपु का भी कभी, नहिं करना अपकार ॥ |
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204 |
विस्मृति से भी नर नहीं, सोचे पर की हानि । यदि सोचे तो धर्म भी, सोचे उसकी हानि ॥ |
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205 |
‘निर्धन हूँ मैं’, यों समझ, करे न कोई पाप । अगर किया तो फिर मिले, निर्धनता-अभिशाप ॥ |
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206 |
दुख से यदि दुष्कर्म के, बचने की है राय । अन्यों के प्रति दुष्टता, कभी नहीं की जाय ॥ |
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207 |
अति भयकारी शत्रु से, संभव है बच जाय । पाप-कर्म की शत्रुता, पीछा किये सताय ॥ |
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208 |
दुष्ट- कर्म जो भी करे, यों पायेगा नाश । छोड़े बिन पौरों तले, छाँह करे ज्यों वास ॥ |
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209 |
कोई अपने आपको, यदि करता है प्यार । करे नहीं अत्यल्प भी, अन्यों का अपचार ॥ |
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210 |
नाशरहित उसको समझ, जो तजकर सन्मार्ग । पाप-कर्म हो नहिं करे, पकड़े नहीं कुमार्ग ॥ |
अध्याय 22. लोकोपकारिता |
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211 |
उपकारी नहिं चाहते, पाना प्रत्युपकार । बादल को बदला भला, क्या देता संसार ॥ |
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212 |
बहु प्रयत्न से जो जुड़ा, योग्य व्यक्ति के पास । लोगों के उपकार हित, है वह सब धन-रास ॥ |
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213 |
किया भाव निष्काम से, जनोपकार समान । स्वर्ग तथा भू लोक में दुष्कर जान ॥ |
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214 |
ज्ञाता शिष्टाचार का, है मनुष्य सप्राण ॥ मृत लोगों में अन्य की, गिनती होती जान ॥ |
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215 |
पानी भरा तड़ाग ज्यों, आवे जग का काम । महा सुधी की संपदा, है जन-मन-सुख धाम ॥ |
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216 |
शिष्ट जनों के पास यदि, आश्रित हो संपत्ति । ग्राम-मध्य ज्यों वृक्षवर, पावे फल-संपत्ति ॥ |
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217 |
चूके बिन ज्यों वृक्ष का, दवा बने हर अंग । त्यों धन हो यदि वह रहे, उपकारी के संग ॥ |
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218 |
सामाजिक कर्तव्य का, जिन सज्जन को ज्ञान । उपकृति से नहिं चूकते, दारिदवश भी जान ॥ |
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219 |
उपकारी को है नहीं, दरिद्रता की सोच । ‘मैं कृतकृत्य नहीं हुआ’ उसे यही संकोच ॥ |
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220 |
लोकोपकारिता किये, यदि होगा ही नाश । अपने को भी बेच कर, क्रय-लायक वह नाश ॥ |
अध्याय 23. दान |
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221 |
देना दान गरीब को, है यथार्थ में दान । प्रत्याशा प्रतिदान की, है अन्य में निदान ॥ |
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222 |
मोक्ष-मार्ग ही क्यों न हो, दान- ग्रहण अश्रेय । यद्यपि मोक्ष नहीं मिले, दान-धर्म ही श्रेय ॥ |
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223 |
‘दीन-हीन हूँ’ ना कहे, करता है यों दान । केवल प्राप्य कुलीन में, ऐसी उत्तम बान ॥ |
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224 |
याचित होने की दशा, तब तक रहे विषण्ण । जब तक याचक का वदन, होगा नहीं प्रसन्न ॥ |
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225 |
क्षुधा-नियन्त्रण जो रहा, तपोनिष्ठ की शक्ति । क्षुधा-निवारक शक्ति के, पीछे ही वह शक्ति ॥ |
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226 |
नाशक-भूक दरिद्र की, कर मिटा कर दूर । वह धनिकों को चयन हित, बनता कोष ज़रूर ॥ |
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227 |
भोजन को जो बाँट कर, किया करेगा भोग । उसे नहीं पीड़ित करे, क्षुधा भयंकर रोग ॥ |
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228 |
धन-संग्रह कर खो रहा, जो निर्दय धनवान । दे कर होते हर्ष का, क्या उसको नहिं ज्ञान ॥ |
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229 |
स्वयं अकेले जीमना, पूर्ति के हेतु । याचन करने से अधिक, निश्चय दुख का हेतु ॥ |
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230 |
मरने से बढ़ कर नहीं, दुख देने के अर्थ । सुखद वही जब दान में, देने को असमर्थ ॥ |
अध्याय 24. कीर्ति |
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231 |
देना दान गरिब को, जीना कर यश-लाभ । इससे बढ़ कर जीव को, और नहीं है लाभ ॥ |
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232 |
करता है संसार तो, उसका ही गुण-गान । याचक को जो दान में, कुछ भी करें प्रदान ॥ |
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233 |
टिकती है संसार में, अनुपम कीर्ति महान । अविनाशी केवल वही, और न कोई जान ॥ |
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234 |
यदि कोई भूलोक में, पाये कीर्ति महान । देवलोक तो ना करें, ज्ञानी का गुण-गान ॥ |
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235 |
ह्रास बने यशवृद्धिकर, मृत्यु बने अमरत्व । ज्ञानवान बिन और में, संभव न यह महत्व ॥ |
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236 |
जन्मा तो यों जन्म हो, जिसमें होवे नाम । जन्म न होना है भला, यदि न कमाया नाम ॥ |
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237 |
कीर्तिमान बन ना जिया, कुढ़ता स्वयं न आप । निन्दक पर कुढ़ते हुए, क्यों होता है ताप ॥ |
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238 |
यदि नहिं मिली परंपरा, जिसका है यश नाम । तो जग में सब के लिये, वही रहा अपनाम ॥ |
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239 |
कीर्तिहीन की देह का, भू जब ढोती भार । पावन प्रभूत उपज का, क्षय होता निर्धार ॥ |
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240 |
निन्दा बिन जो जी रहा, जीवित वही सुजान । कीर्ति बिना जो जी रहा, उसे मरा ही जान ॥ |
अध्याय 25. दयालुता |
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241 |
सर्व धनों में श्रेष्ठ है, दयारूप संपत्ति । नीच जनों के पास भी, है भौतिक संपत्ति ॥ |
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242 |
सत्-पथ पर चल परख कर, दयाव्रती बन जाय । धर्म-विवेचन सकल कर, पाया वही सहाय ॥ |
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243 |
अन्धकारमय नरक है, जहाँ न सुख लवलेश । दयापूर्ण का तो वहाँ, होता नहीं प्रवेश ॥ |
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244 |
सब जीवों को पालते, दयाव्रती जो लोग । प्राण-भयंकर पाप का, उन्हें न होगा योग ॥ |
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245 |
दुःख- दर्द उनको नहीं, जो है दयानिधान । पवन संचरित उर्वरा, महान भूमि प्रमाण ॥ |
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246 |
जो निर्दय हैं पापरत, यों कहते धीमान । तज कर वे पुरुषार्थ को, भूले दुःख महान ॥ |
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247 |
प्राप्य नहीं धनरहित को, ज्यों इहलौकिक भोग । प्राप्य नहीं परलोक का, दयारहित को योग ॥ |
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248 |
निर्धन भी फूले-फले, स्यात् धनी बन जाय । निर्दय है निर्धन सदा, काया पलट न जाय ॥ |
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249 |
निर्दय-जन-कृत सुकृत पर, अगर विचारा जाय । तत्व-दर्श ज्यों अज्ञ का, वह तो जाना जाय ॥ |
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250 |
रोब जमाते निबल पर, निर्दय करे विचार । अपने से भी प्रभल के, सम्मुख खुद लाचार ॥ |
अध्याय 26. माँस- वर्जन |
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251 |
माँस-वृद्धि अपनी समझ, जो खाता पर माँस । कैसे दयार्द्रता-सुगुण, रहता उसके पास ॥ |
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252 |
धन का भोग उन्हें नहीं, जो न करेंगे क्षेम । माँसाहारी को नहीं, दयालुता का नेम ॥ |
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253 |
ज्यों सशस्त्र का मन कभी, होता नहीं दयाल । रुच रुच खावे माँस जो, उसके मन का हाल ॥ |
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254 |
निर्दयता है जीववध. दया अहिंसा धर्म । करना माँसाहार है, धर्म हीन दुष्कर्म ॥ |
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255 |
रक्षण है सब जीव का, वर्जन करना माँस । बचे नरक से वह नहीं, जो खाता है माँस ॥ |
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256 |
वध न करेंगे लोग यदि, करने को आहार । आमिष लावेगा नहीं, कोई विक्रयकार ॥ |
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257 |
आमिष तो इक जन्तु का, व्रण है यों सुविचार । यदि होगा तो चाहिए, तजना माँसाहार ॥ |
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258 |
जीव-हनन से छिन्न जो, मृत शरीर है माँस । दोषरहित तत्वज्ञ तो, खायेंगे नहिं माँस ॥ |
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259 |
यज्ञ हज़रों क्या किया, दे दे हवन यथेष्ट । किसी जीव को हनन कर, माँस न खाना श्रेष्ठ ॥ |
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260 |
जो न करेगा जीव-वध, और न माँसाहार । हाथ जोड़ सारा जगत, करता उसे जुहार ॥ |
अध्याय 27. तप |
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261 |
तप नियमों को पालते, सहना कष्ट महान । जीव-हानि-वर्जन तथा, तप का यही निशान ॥ |
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262 |
तप भी बस उनका रहा, जिनको है वह प्राप्त । यत्न वृथा उसके लिये, यदि हो वह अप्राप्त ॥ |
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263 |
भोजनादि उपचार से, तपसी सेवा-धर्म । करने हित क्या अन्य सब, भूल गये तप-कर्म ॥ |
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264 |
दुखदायी रिपु का दमन, प्रिय जन क उत्थान । स्मरण मात्र से हो सके, तप के बल अम्लान ॥ |
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265 |
तप से सब कुछ प्राप्य हैं, जो चाहे जिस काल । इससे तप-साधन यहाँ, करना है तत्काल ॥ |
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266 |
वही पुरुष कृतकृत्य है, जो करता तप-कर्म । करें कामवश अन्य सब, स्वहानिकारक कर्म ॥ |
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267 |
तप तप कर ज्यों स्वर्ण की, होती निर्मल कान्ति । तपन ताप से ही तपी, चमक उठें उस भाँति ॥ |
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268 |
आत्म-बोध जिनको हुआ, करके वश निज जीव । उनको करते वंदना, शेष जगत के जीव ॥ |
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269 |
जिस तपसी को प्राप्त है, तप की शक्ति महान । यम पर भी उसकी विजय, संभव है तू जान ॥ |
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270 |
निर्धन जन-गणना अधिक, इसका कौन निदान । तप नहिं करते बहुत जन, कम हैं तपोनिधान ॥ |
अध्याय 28. मिथ्याचार |
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271 |
वंचक के आचार को, मिथ्यापूर्ण विलोक । पाँचों भूत शरीरगत, हँस दे मन में रोक ॥ |
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272 |
उच्च गगन सम वेष तो, क्या आवेगा काम । समझ- बूंझ यदि मन करे, जो है दूषित काम ॥ |
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273 |
महा साधु का वेष धर, दमन-शक्ति नहिं, हाय । व्याघ्र-चर्म आढे हुए, खेत चरे ज्यों गाय ॥ |
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274 |
रहते तापस भेस में, करना पापाचार । झाड़-आड़ चिड़िहार ज्यों, पंछी पकड़े मार ॥ |
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275 |
‘हूँ विरक्त’ कह जो मनुज, करता मिथ्याचार । कष्ट अनेकों हों उसे, स्वयं करे धिक्कार ॥ |
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276 |
मोह-मुक्त मन तो नहीं, है निर्मम की बान । मिथ्याचारी के सदृश, निष्ठुर नहीं महान ॥ |
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277 |
बाहर से है लालिमा, हैं घुंघची समान । उसका काला अग्र सम, अन्दर है अज्ञान ॥ |
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278 |
नहा तीर्थ में ठाट से, रखते तापस भेस । मित्थ्याचारी हैं बहुत, हृदय शुद्ध नहिं लेश ॥ |
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279 |
टेढ़ी वीणा है मधुर, सीधा तीर कठोर । वैसे ही कृति से परख, किसी साधु की कोर ॥ |
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280 |
साधक ने यदि तज दिया, जग-निन्दित सब काम । उसको मुंडा या जटिल, बनना है बेकाम ॥ |
अध्याय 29. अस्तेय |
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281 |
निन्दित जीवन से अगर, इच्छा है बच जाय । चोरी से पर-वस्तु की, हृदय बचाया जाय ॥ |
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282 |
चोरी से पर-संपदा, पाने का कुविचार । लाना भी मन में बुरा, है यह पापाचार ॥ |
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283 |
चोरी-कृत धन में रहे, बढ़्ने का आभास । पर उसका सीमारहित, होता ही है नाश ॥ |
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284 |
चोरी के प्रति लालसा, जो होती अत्यन्त । फल पोने के समय पर, देती दुःख अनन्त ॥ |
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285 |
है गफलत की ताक में, पर-धन की है चाह । दयाशीलता प्रेम की, लोभ न पकड़े राह ॥ |
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286 |
चौर्य-कर्म प्रति हैं जिन्हें, रहती अति आसक्ति । मर्यादा पर टिक उन्हें, चलने को नहिं शक्ति ॥ |
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287 |
मर्यादा को पालते, जो रहते सज्ञान । उनमें होता है नहीं, चोरी का अज्ञान ॥ |
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288 |
ज्यों मर्यादा-पाल के, मन में स्थिर है धर्म । त्यों प्रवंचना-पाल के, मन में वंचक कर्म ॥ |
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289 |
जिन्हें चौर्य को छोड़ कर, औ’ न किसी का ज्ञान । मर्यादा बिन कर्म कर, मिटते तभी अजान ॥ |
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290 |
चिरों को निज देह भी, ढकेल कर दे छोड़ । पालक को अस्तेय व्रत, स्वर्ग न देगा छोड़ ॥ |
अध्याय 30. सत्य |
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291 |
परिभाषा है सत्य की, वचन विनिर्गत हानि । सत्य-कथन से अल्प भी न हो किसी को ग्लानि ॥ |
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292 |
मिथ्या-भाषण यदि करे, दोषरहित कल्याण । तो यह मिथ्या-कथन भी, मानो सत्य समान ॥ |
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293 |
निज मन समझे जब स्वयं, झूठ न बोलें आप । बोलें तो फिर आप को, निज मन दे संताप ॥ |
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294 |
मन से सत्याचरण का, जो करता अभ्यास । जग के सब के हृदय में, करता है वह वास ॥ |
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295 |
दान-पुण्य तप-कर्म भी, करते हैं जो लोग । उनसे बढ़ हैं, हृदय से, सच बोलें जो लोग ॥ |
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296 |
मिथ्या-भाषण त्याग सम, रहा न कीर्ति-विकास । उससे सारा धर्म-फल, पाये बिना प्रयास ॥ |
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297 |
सत्य-धर्म का आचरण, सत्य-धर्म ही मान । अन्य धर्म सब त्यागना, अच्छा ही है जान ॥ |
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298 |
बाह्य-शुद्धता देह को, देता ही है तोय । अन्तः करण-विशुद्धता, प्रकट सत्य से जोंय ॥ |
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299 |
दीपक सब दीपक नहीं, जिनसे हो तम-नाश । सत्य-दीप ही दीप है, पावें साधु प्रकाश ॥ |
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300 |
हमने अनुसन्धान से, जितने पाये तत्व । उनमें कोई सत्य सम, पाता नहीं महत्व ॥ |
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