Thirukkural
in Hindi
 

तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से)

 

 अध्याय 11. कृतज्ञता

 

 

101

उपकृत हुए बिना करे, यदि कोइ उपकार ।

दे कर भू सुर-लोक भी, मुक्त न हो आभार ॥

 

 

102

अति संकट के समय पर, किया गया उपकार ।

भू से अधिक महान है, यद्यपि अल्पाकार ॥

 

 

103

स्वार्थरहित कृत मदद का, यदि गुण आंका जाय ।

उदधि-बड़ाई से बड़ा, वह गुण माना जाय ॥

 

 

104

उपकृति तिल भर ही हुई, तो भी उसे सुजान ।

मानें ऊँचे ताड़ सम, सुफल इसी में जान ॥

 

 

105

सीमित नहिं, उपकार तक, प्रत्युपकार- प्रमाण ।

जितनी उपकृत-योग्यता, उतना उसका मान ॥

 

 

106

निर्दोषों की मित्रता, कभी न जाना भूल ।

आपद-बंधु स्नेह को, कभी न तजना भूल ॥

 

 

107

जिसने दुःख मिटा दिया, उसका स्नेह स्वभाव ।

सात जन्म तक भी स्मरण, करते महानुभाव ॥

 

 

108

भला नहीं है भूलना, जो भी हो उपकार ।

भला यही झट भूलना, कोई भी अपकार ॥

 

 

109

हत्या सम कोई करे, अगर बड़ी कुछ हानि ।

उसकी इक उपकार-स्मृति, करे हानि की हानि ॥

 

 

110

जो भी पातक नर करें, संभव है उद्धार ।

पर है नहीं कृतघ्न का, संभव ही निस्तार ॥

 

 अध्याय 12. मध्यस्थता

 

 

111

मध्यस्थता यथेष्ट है, यदि हो यह संस्कार ।

शत्रु मित्र औअन्य से, न्यायोचित व्यवहार ॥

 

 

112

न्यायनिष्ठ की संपदा, बिना हुए क्षयशील ।

वंश वंश का वह रहे, अवलंबन स्थितिशील ॥

 

 

113

तजने से निष्पक्षता, जो धन मिले अनन्त ।

भला, भले ही, वह करे तजना उसे तुरन्त ॥

 

 

114

कोई ईमान्दार है, अथवा बेईमान ।

उन उनके अवशेष से, होती यह पहचान ॥

 

 

115

संपन्नता विपन्नता, इनका है न अभाव ।
सज्जन का भूषण रहा, न्यायनिष्ठता भाव ॥

 

 

116

सर्वनाश मेरा हुआ, यों जाने निर्धार ।

चूक न्याय-पथ यदि हुआ, मन में बुरा विचार ॥

 

 

117

न्यायवान धर्मिष्ठ की, निर्धनता अवलोक ।

मानेगा नहिं हीनता, बुद्धिमान का लोक ॥

 

 

118

सम रेखा पर हो तुला, ज्यों तोले सामान ।

भूषण महानुभाव का, पक्ष न लेना मान ॥

 

 

119

कहना सीधा वचन है, मध्यस्थता ज़रूर ।

दृढ़ता से यदि हो गयी, चित्त-वक्रता दूर ॥

 

 

120

यदि रखते पर माल को, अपना माल समान ।

वणिक करे वाणीज्य तो, वही सही तू जान ॥

 

 अध्याय 13. संयम्शीलता

 

 

121

संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास ।

झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानास ॥

 

 

122

संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान ।

श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान ॥

 

 

123

कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व ।

संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व ॥

 

 

124

बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील ।

पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील ॥

 

 

125

संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिये अशेष ।

वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष ॥

 

 

126

पंचेन्द्रिय-निग्राह किया, कछुआ सम इस जन्म ।

तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म ॥

 

 

127

चाहे औरोंको नहीं, रख लें वश में जीभ ।

शब्द-दोष से हों दुखी, यदि न वशी हो जीभ ॥

 

 

128

एक बार भी कटुवचन, पहुँचाये यदि कष्ट ।

सत्कर्मों के सुफल सब, हो जायेंगे नष्ट ॥

 

 

129

घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय ।

चोट लगी यदि जीभ की, कभी न मोटी जाय ॥

 

 

130

क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ ।
धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ ॥

 

 अध्याय 14. आचारशीलता

 

 

131

सदाचार-संपन्नता, देती सब को श्रेय ।

तब तो प्राणों से अधिक, रक्षणीय वह ज्ञेय ॥

 

 

132

सदाचार को यत्न से, रखना सहित विवेक ।

अनुशीलन से पायगा, वही सहायक एक ॥

 

 

133

सदाचार-संपन्नता, है कुलीनता जान ।

चूके यदि आचार से, नीच जन्म है मान ॥

 

 

134

संभव है फिर अध्ययन, भूल गया यदि वेद ।
आचारच्युत विप्र के, होगा कुल का छेद ॥

 

 

135

धन की ज्यों ईर्ष्यालु के, होती नहीं समृद्धि ।

आचारहीन की नहीं, कुलीनता की वृद्धि ॥

 

 

136

सदाचार दुष्कर समझ, धीर न खींचे हाथ ।

परिभव जो हो जान कर, उसकी च्युति के साथ ॥

 

 

137

सदाचार से ही रही, महा कीर्ति की प्राप्ति ।

उसकी च्युति से तो रही, आति निन्दा की प्राप्ति ॥

 

 

138

सदाचार के बीज से, होता सुख उत्पन्न ।

कदाचार से ही सदा, होता मनुज विपन्न ॥

 

 

139

सदाचारयुत लोग तो, मुख से कर भी भूल ।

कहने को असमर्थ हैं, बुरे वचन प्रतिकूल ॥

 

 

140

जिनको लोकाचार की, अनुगति का नहिं ज्ञान ।

ज्ञाता हों सब शास्त्र के, जानों उन्हें अजान ॥

 

 अध्याय 15. परदार- विरति

 

 

141

परपत्नी-रति-मूढ़ता, है नहिं उनमें जान ।

धर्म-अर्थ के शास्त्र का, जिनको तत्वज्ञान ॥

 

 

142

धर्म-भ्रष्टों में नही, ऐसा कोई मूढ़ ।

जैसा अन्यद्वार पर, खड़ा रहा जो मूढ़ ॥

 

 

143

दृढ़ विश्वासी मित्र की, स्त्री से पापाचार ।

जो करता वो मृतक से, भिन्न नहीं है, यार ॥

 

 

144

क्या होगा उसको अहो, रखते विभव अनेक ।

यदि रति हो पर-दार में, तनिक न बुद्धि विवेक ॥

 

 

145

पर-पत्नी-रत जो हुआ, सुलभ समझ निश्शंक ।

लगे रहे चिर काल तक, उसपर अमिट कलंक ॥

 

 

146

पाप, शत्रुता, और भय, निन्दा मिल कर चार ।

ये उसको छोड़ें नहीं, जो करता व्यभिचार ॥

 

 

147

जो गृहस्थ पर-दार पर, होवे नहिं आसक्त ।

माना जाता है वही, धर्म-कर्म अनुरक्त ॥

 

 

148

पर-नारी नहिं ताकना, है धीरता महान ।

धर्म मात्र नहिं संत का, सदाचरण भी जान ॥

 

 

149

सागर-बलयित भूमि पर, कौन भोग्य के योग्य ।

आलिंगन पर- नारि को, जो न करे वह योग्य ॥

 

 

150

पाप- कर्म चाहे करें, धर्म मार्ग को छोड़ ।

पर-गृहिणी की विरति हो, तो वह गुण बेजोड़ ॥

 

 अध्याय 16. क्षमाशीलता

 

 

151

क्षमा क्षमा कर ज्यों धरे, जो खोदेगा फोड़ ।
निन्दक को करना क्षमा,
है सुधर्म बेजोड़ ॥

 

 

152

अच्छा है सब काल में, सहना अत्याचार ।
फिर तो उसको भूलना, उससे श्रेष्ठ विचार ॥

 

 

153

दारिद में दारिद्रय है, अतिथि-निवारण-बान ।
सहन मूर्ख की मूर्खता, बल में भी बल जान ॥

 

 

154

अगर सर्व-गुण-पूर्णता, तुमको छोड़ न जाय ।
क्षमा-भाव का आचरण, किया लगन से जाय ॥

 

 

155

प्रतिकारी को जगत तो, माने नहीं पदार्थ ।
क्षमशील को वह रखे, स्वर्ण समान पदार्थ ॥

 

 

156

प्रतिकारी का हो मज़ा, एक दिवस में अन्त ।
क्षमाशीला को कीर्ति है, लोक-अंत पर्यन्त ॥

 

 

157

यद्यपि कोई आपसे, करता अनुचित कर्म ।
अच्छा उस पर कर दया, करना नहीं अधर्म ॥

 

 

158

अहंकार से ज़्यादती, यदि तेरे विपरीत ।
करता कोई तो उसे, क्षमा-भाव से जीत ॥

 

 

159

संन्यासी से आधिक हैं, ऐसे गृही पवित्र ।
सहन करें जो नीच के, कटुक वचन अपवित्र ॥

 

 

160

अनशन हो जो तप करें, यद्यपि साधु महान ।
पर-कटुवचन-सहिष्णु के, पीछे पावें स्थान ॥

 

 अध्याय 17. अनसूयता

 

 

161

जलन- रहित निज मन रहे ऐसी उत्तम बान ।

अपनावें हर एक नर, धर्म आचरण मान ॥

 

 

162

सबसे ऐसा भाव हो, जो है ईर्ष्या- मुक्त ।

तो उसके सम है नहीं, भाग्य श्रेष्ठता युक्त ॥

 

 

163

धर्म- अर्थ के लाभ की, जिसकी हैं नहीं चाह ।

पर-समृद्धि से खुश न हो, करता है वह डाह ॥

 

 

164

पाप- कर्म से हानियाँ, जो होती है जान ।

ईर्ष्यावश करते नहीं, पाप- कर्म धीमान ॥

 

 

165

शत्रु न भी हो ईर्ष्यु का, करने को कुछ हानि ।

जलन मात्र पर्याप्त है, करने को अति हानि ॥

 

 

166

दान देख कर जो जले, उसे सहित परिवार ।

रोटी कपडे को तरस, मिटते लगे न बार ॥

 

 

167

जलनेवाले से स्वयं, जल कर रमा अदीन ।

अपनी ज्येष्ठा के उसे , करती वही अधीन ॥

 

 

168

ईर्ष्या जो है पापिनी, करके श्री का नाश ।

नरक-अग्नि में झोंक कर, करती सत्यानास ॥

 

 

169

जब होती ईर्ष्यालु की, धन की वृद्धि अपार ।

तथा हानि भी साधु की, तो करना सुविचार ॥

 

 

170

सुख-समृद्धि उनकी नहीं, जो हों ईर्ष्यायुक्त ।

सुख-समृद्धि की इति नहीं, जो हों ईर्ष्यामुक्त ॥

 

 अध्याय 18. निर्लोभता

 

 

171

न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ ।

हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप ॥

 

 

172

न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज ।

लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज ॥

 

 

173

नश्वर सुख के लोभ में, वे न करें दुष्कृत्य ।

जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य ॥

 

 

174

जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक ।

दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक ॥

 

 

175

तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार ।

लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार ॥

 

 

176

ईश-कृपा की चाह से, जो न धर्म से भ्रष्ट ।

दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट ॥

 

 

177

चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न ।

उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न ॥

 

 

178

निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय ।

अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय ॥

 

 

179

निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान ।

श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान ॥

 

 

180

अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त ।

लोभ- हीनता- विभव से, होगी विजय अनन्त ॥

 

 अध्याय 19. अपिशुनता

 

 

181

नाम न लेगा धर्म का, करे अधर्मिक काम ।

फिर भी अच्छा यदि वही, पाये अपिशुन नाम ॥

 

 

182

नास्तिवाद कर धर्म प्रति, करता पाप अखण्ड ।

उससे बदतर पिशुनता, सम्मुख हँस पाखण्ड ॥

 

 

183

चुगली खा कर क्या जिया, चापलूस हो साथ ।

भला, मृत्यु हो, तो लगे, शास्त्र- उक्त फल हाथ ॥

 

 

184

कोई मूँह पर ही कहे, यद्यपि निर्दय बात ।

कहो पीठ पीछे नहीं, जो न सुचिंतित बात ॥

 

 

185

प्रवचन-लीन सुधर्म के, हृदय धर्म से हीन ।
भण्डा इसका फोड़ दे, पैशुन्य ही मलीन ॥

 

 

186

परदूषक यदि तू बना, तुझमें हैं जो दोष ।

उनमें चुन सबसे बुरे, वह करता है घोष ॥

 

 

187

जो करते नहिं मित्रता, मधुर वचन हँस बोल ।

अलग करावें बन्धु को, परोक्ष में कटु बोल ॥

 

 

188

मित्रों के भी दोष का, घोषण जिनका धर्म ।

जाने अन्यों के प्रति, क्या क्या करें कुकर्म ॥

 

 

189

क्षमाशीलता धर्म है, यों करके सुविचार ।

क्या ढोती है भूमि भी, चुगलखोर का भार ॥

 

 

190

परछिद्रानवेषण सदृश, यदि देखे निज दोष ।

ति अविनाशी जीव का, क्यों हो दुख से शोष ॥

 

 अध्याय 20. वृथालाप-निषेध

 

 

191

बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप ।

सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप ॥

 

 

192

बुद्धिमान जनवृन्द के सम्मुख किया प्रलाप ।

अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप ॥

 

 

193

लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन ।

घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन ॥

 

 

194

संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त ।

करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण व नीति-वियुक्त ॥

 

 

195

निब्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान ।

हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान ॥

 

 

196

जिसको निब्फल शब्द में, रहती है आसक्ति ।

कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति ॥

 

 

197

कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द ।

मगर इसी में है भला, कहें न निब्फल शब्द ॥

 

 

198

उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान ।

महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान ॥

 

 

199

तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त ।

विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त ॥

 

 

200

कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ ।

कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ ॥

 

अध्याय - सूची

 

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