Thirukkural in Hindi
 

तिरुक्कुरळ हिन्दी में (तमिल से)

 

भाग: धर्म- कांड

 

 अध्याय 1. ईश्वर-स्तुति

 

 

1

अक्षर सबके आदि में, है अकार का स्थान ।

अखिल लोक का आदि तो, रहा आदि भगवान ॥

 

 

2

विद्योपार्जन भी भला, क्या आयेगा काम ।
श्रीपद पर सत्याज्ञ के, यदि नहिं किया प्रणाम ॥

 

 

3

हृदय-पद्-गत ईश के, पाद-पद्म जो पाय ।
श्रेयस्कर वरलोक में, चिरजीवी रह जाय ॥

 

 

4

राग-द्वेष विहीन के, चरणाश्रित जो लोग ।
दुःख न दे उनको कभी, भव-बाधा का रोग ॥

 

 

5

जो रहते हैं ईश के, सत्य भजन में लिप्त ।
अज्ञानाश्रित कर्म दो, उनको करें न लिप्त ॥

 

 

6

पंचेन्द्रिय-निग्रह किये, प्रभु का किया विधान ।
धर्म-पंथ के पथिक जो, हों चिर आयुष्मान ॥

 

 

7

ईश्वर उपमारहित का, नहीं पदाश्रय-युक्त ।
तो निश्चय संभव नहीं, होना चिन्ता-मुक्त ॥

 

 

8

धर्म-सिन्धु करुणेश के, शरणागत है धन्य ।
उसे छोड दुख-सिन्धु को, पार न पाये अन्य ॥

 

 

9

निष्क्रिय इन्द्रिय सदृश ही, 'सिर' है केवल नाम ।

अष्टगुणी के चरण पर, यदि नहिं किया प्रणाम ॥

 

 

10

भव-सागर विस्तार से, पाते हैं निस्तार ।

ईश-शरण बिन जीव तो, कर नहीं पाये पार ॥

 

 अध्याय 2 . वर्ष- महत्व

 

 

11

उचित समय की वृष्टि से, जीवित है संसार ।

मानी जाती है तभी, वृष्टि अमृत की धार ॥

 

 

12

आहारी को अति रुचिर‍, अन्नरूप आहार ।

वृष्ति सृष्टि कर फिर स्वयं, बनती है आहार ॥

 

 

13

बादल-दल बरसे नहीं, यदि मौसम में चूक ।

जलधि-धिरे भूलोक में, क्षुत से हो आति हूक ॥

 

 

14

कर्षक जन से खेत में, हल न चलाया जाय ।

धन-वर्षा-संपत्ति की, कम होती यदि आय ॥

 

 

15

वर्षा है ही आति प्रबल, सब को कर बरबाद ।

फिर दुखियों का साथ दे, करे वही आबाद ॥

 

 

16

बिना हुए आकाश से, रिमझिम रिमझिम वृष्टि ।

हरि भरी तृण नोक भी, आयेगी नहीं दृष्टि ॥

 

 

17

घटा घटा कर जलधि को, यदि न करे फिर दान ।

विस्तृत बड़े समुद्र का, पानी उतरा जान ॥

 

 

18

देवाराधन नित्य का, उत्सव सहित अमंद ।

वृष्टि न हो तो भूमि पर, हो जावेगा बंद ॥

 

 

19

इस विस्तृत संसार में, दान पुण्य तप कर्म ।

यदि पानी बरसे नहीं, टिकें न दोनों कर्म ॥

 

 

20

नीर बिना भूलोक का, ज्यों न चले व्यापार ।

कभी किसी में नहिं टिके, वर्षा बिन आचार ॥

 

अध्याय 3. सन्यासी- महिमा

 

 

21

सदाचार संपन्न जो, यदि यति हों वे श्रेष्ठ ।

धर्मशास्त्र सब मानते, उनकी महिमा श्रेष्ठ ॥

 

 

22

यति-महिमा को आंकने, यदि हो कोई यत्न ।

जग में मृत-जन-गणन सम, होता है वह यत्न ॥

 

 

23

जन्म-मोक्ष के ज्ञान से, ग्रहण किया सन्यास ।

उनकी महिमा का बहुत, जग में रहा प्रकाश ॥

 

 

24

अंकुश से दृढ़ ज्ञान के, इन्द्रिय राखे आप ।

ज्ञानी वह वर लोक का, बीज बनेगा आप ॥

 

 

25

जो है इन्द्रिय-निग्रही, उसकी शक्ति अथाह ।

स्वर्गाधीश्वर इन्द्र ही, इसका रहा गवाह ॥

 

 

26

करते दुष्कर कर्म हैं, जो हैं साधु महान ।

दुष्कर जो नहिं कर सके, अधम लोक वे जान ॥

 

 

27

स्पर्श रूप रस गन्ध औ', शब्द मिला कर पंच ।

समझे इन्के तत्व जो, समझे वही प्रपंच ॥

 

 

28

भाषी वचन अमोध की, जो है महिमा सिद्ध ।

गूढ़ मंत्र उनके कहे, जग में करें प्रसिद्ध ॥

 

 

29

सद्गुण रूपी अचल पर, जो हैं चढ़े सुजान ।

उनके क्षण का क्रोध भी, सहना दुष्कर जान ॥

 

 

30

करते हैं सब जीव से, करुणामय व्यवहार ।

कहलाते हैं तो तभी, साधु दया-आगार ॥

 

 अध्याय 4. धर्म पर आग्रह

 

 

31

मोक्षप्रद तो धर्म है, धन दे वही अमेय ।

उससे बढ़ कर जीव को, है क्या कोई श्रेय ॥

 

32

बढ़ कर कहीं सुधर्म से, अन्य न कुछ भी श्रेय ।

भूला तो उससे बड़ा, और न कुछ अश्रेय ॥

 

 

33

यथाशक्ति करना सदा, धर्मयुक्त ही कर्म ।

तन से मन से वचन से, सर्व रीती से धर्म 

 

 

34

मन का होना मल रहित, इतना ही है धर्म ।

बाकी सब केवल रहे, ठाट-बाट के कर्म ॥

 

 

35

क्रोध लोभ फिर कटुवचन, और जलन ये चार ।

इनसे बच कर जो हुआ, वही धर्म का सार ॥

 

 

36

'बाद करें मरते समय', सोच न यों, कर धर्म ।

जान जाय जब छोड़ तन, चिर संगी है धर्म ॥

 

 

37

धर्म-कर्म के सुफल का, क्या चाहिये प्रमाण ।

शिविकारूढ़, कहार के, अंतर से तू जान ॥

 

 

38

बिना गँवाए व्यर्थ दिन, खूब करो यदि धर्म ।

जन्म-मार्ग को रोकता, शिलारूप वह धर्म ॥

 

 

39

धर्म-कर्म से जो हुआ, वही सही सुख-लाभ ।

अन्य कर्म से सुख नहीं, न तो कीर्ति का लाभ ॥

 

 

40

करने योग्य मनुष्य के, धर्म-कर्म ही मान ।

निन्दनीय जो कर्म हैं, वर्जनीय ही जान ॥

 

 अध्याय 5. गार्हस्थ्य

 

 

41

धर्मशील जो आश्रमी, गृही छोड़ कर तीन ।
स्थिर आश्रयदाता रहा,
उनको गृही अदीन ॥

 

 

42

उनका रक्षक है गृही, जो होते हैं दीन ।
जो अनाथ हैं, और जो, मृतजन आश्रयहीन ॥

 

 

43

पितर देव फिर अतिथि जन, बन्धु स्वयं मिल पाँच ।

इनके प्रति कर्तव्य का, भरण धर्म है साँच ॥

 

 

44

पापभीरु हो धन कमा, बाँट यथोचित अंश ।
जो भोगे उस पुरुष का, नष्ट न होगा वंश ॥

 

 

45

प्रेम- युक्त गार्हस्थ्य हो, तथा धर्म से पूर्ण ।
तो समझो वह धन्य है, तथा सुफल से पूर्ण ॥

 

 

46

धर्म मार्ग पर यदि गृही, चलायगा निज धर्म ।
ग्रहण करे वह किसलिये, फिर अपराश्रम धर्म ॥

 

 

47

भरण गृहस्थी धर्म का, जो भी करे गृहस्थ ।
साधकगण के मध्य वह, होता है अग्रस्थ ॥

 

 

48

अच्युत रह निज धर्म पर, सबको चला सुराह ।
क्षमाशील गार्हस्थ्य है, तापस्य से अचाह ॥

 

 

49

जीवन ही गार्हस्थ्य का, कहलाता है धर्म ।
अच्छा हो यदि वह बना, जन-निन्दा बिन धर्म ॥

 

 

50

इस जग में है जो गृही, धर्मनिष्ठ मतिमान ।
देवगणों में स्वर्ग के, पावेगा सम्मान ॥

 

 अध्याय 6. सहधर्मिणी

 

 

51

गृहिणी-गुण-गण प्राप्त कर, पुरुष-आय अनुसार ।

जो गृह-व्यय करती वही, सहधर्मिणी सुचार ॥

 

 

52

गुण-गण गृहणी में न हो, गृह्य-कर्म के अर्थ ।

सुसंपन्न तो क्यों न हो, गृह-जीवन है व्यर्थ ॥

 

 

53

गृहिणी रही सुधर्मिणी, तो क्या रहा अभाव ।

गृहिणी नहीं सुधर्मिणी, किसका नहीं अभाव ॥

 

 

54

स्त्री से बढ़ कर श्रेष्ठ ही, क्या है पाने योग्य ।

यदि हो पातिव्रत्य की, दृढ़ता उसमें योग्य ॥

 

 

55

पूजे सती न देव को, पूज जगे निज कंत ।

उसके कहने पर बरस’, बरसे मेघ तुरंत ॥

 

 

56

रक्षा करे सतीत्व की, पोषण करती कांत ।

गृह का यश भी जो रखे, स्त्री है वह अश्रांत ॥

 

 

57

परकोटा पहरा दिया, इनसे क्या हो रक्ष ।

स्त्री हित पातिव्रत्य ही, होगा उत्तम रक्ष ॥

 

 

58

यदि पाती है नारियाँ, पति पूजा कर शान ।

तो उनका सुरधाम में, होता है बहुमान ॥

 

 

59

जिसकी पत्नी को नहीं, घर के यश का मान ।

नहिं निन्दक के सामने, गति शार्दूल समान ॥

 

 

60

गृह का जयमंगल कहें, गृहिणी की गुण-खान ।

उनका सद्भूषण कहें, पाना सत्सन्तान ॥

 

 अध्याय 7. संतान-लाभ

 

 

61

बुद्धिमान सन्तान से, बढ़ कर विभव सुयोग्य ।

हम तो मानेंगे नहीं, हैं पाने के योग्य ॥

 

 

62

सात जन्म तक भी उसे, छू नहिं सकता ताप ।

यदि पावे संतान जो, शीलवान निष्पाप ॥

 

 

63

निज संतान-सुकर्म से, स्वयं धन्य हों जान ।

अपना अर्थ सुधी कहें, है अपनी संतान ॥

 

 

64

नन्हे निज संतान के, हाथ विलोड़ा भात ।

देवों के भी अमृत का, स्वाद करेगा मात ॥

 

 

65

निज शिशु अंग-स्पर्श से, तन को है सुख-लाभ ।

टूटी- फूटी बात से, श्रुति को है सुख-लाभ ॥

 

 

66

मुरली-नाद मधुर कहें, सुमधुर वीणा-गान ।

तुतलाना संतान का, जो न सुना निज कान ॥

 

 

67

पिता करे उपकार यह, जिससे निज संतान ।

पंडित-सभा-समाज में, पावे अग्रस्थान ॥

 

 

68

विद्यार्जन संतान का, अपने को दे तोष ।

उससे बढ़ सब जगत को, देगा वह संतोष ॥

 

 

69

पुत्र जनन पर जो हुआ, उससे बढ़ आनन्द ।
माँ को हो जब वह सुने, महापुरुष निज नन्द ॥

 

 

70

पुत्र पिता का यह करे, बदले में उपकार ।
`
धन्य धन्य इसके पिता’, यही कहे संसार ॥

 

 अध्याय 8. प्रेम-भाव

 

 

71

अर्गल है क्या जो रखे, प्रेमी उर में प्यार ।

घोषण करती साफ़ ही, तुच्छ नयन-जल-धार ॥

 

 

72

प्रेम-शून्य जन स्वार्थरत, साधें सब निज काम ।

प्रेमी अन्यों के लिये, त्यागें हड्डी-चाम ॥

 

 

73

सिद्ध हुआ प्रिय जीव का, जो तन से संयोग ।

मिलन-यत्न-फल प्रेम से, कहते हैं बुध लोग ॥

 

 

74

मिलनसार के भाव को, जनन करेगा प्रेम ।

वह मैत्री को जन्म दे, जो है उत्तम क्षेम ॥

 

 

75

इहलौकिक सुख भोगते, निश्रेयस का योग ।

प्रेमपूर्ण गार्हस्थ्य का, फल मानें बुध लोग ॥

 

 

76

साथी केवल धर्म का, मानें  प्रेम, अजान ।
त्राण करे वह प्रेम ही, अधर्म से भी जान ॥

 

 

77

कीड़े अस्थिविहीन को, झुलसेगा ज्यों धर्म ।
प्राणी प्रेम विहीन को, भस्म करेगा धर्म ॥

 

 

78

नीरस तरु मरु भूमि पर, क्या हो किसलय-युक्त ।
गृही जीव वैसा समझ, प्रेम-रहित मन-युक्त ॥

 

 

79

प्रेम देह में यदि नहीं, बन भातर का अंग ।
क्या फल हो यदि पास हों, सब बाहर के अंग ॥

 

 

80

प्रेम-मार्ग पर जो चले, देह वही सप्राण ।
चर्म-लपेटी अस्थि है, प्रेम-हीन की मान ॥

 

 अध्याय 9. अतिथि-सत्कार

 

 

81

योग-क्षेम निबाह कर, चला रहा घर-बार ।
आदर करके अतिथि का,
करने को उपकार ॥

 

 

82

बाहर ठहरा अतिथि को, अन्दर बैठे आप ।
देवामृत का क्यों न हो, भोजन करना पाप ॥

 

 

83

दिन दिन आये अतिथि का, करता जो सत्कार ।
वह जीवन दारिद्रय का, बनता नहीं शिकार ॥

 

 

84

मुख प्रसन्न हो जो करे, योग्य अतिथि-सत्कार ।
उसके घर में इन्दिरा, करती सदा बहार ॥

 

 

85

खिला पिला कर अतिथि को, अन्नशेष जो खाय ।
ऐसों के भी खेत को, काहे बोया जाया ॥

 

 

86

प्राप्त अतिथि को पूज कर, और अतिथि को देख ।

जो रहता, वह स्वर्ग का, अतिथि बनेगा नेक ॥

 

 

87

अतिथि-यज्ञ के सुफल की, महिमा का नहिं मान ।

जितना अतिथि महान है, उतना ही वह मान ॥

 

 

88

'कठिन यत्न से जो जुड़ा, सब धन हुआ समाप्त'

यों रोवें, जिनको नहीं, अतिथि-यज्ञ-फल प्राप्त ॥

 

 

89

निर्धनता संपत्ति में, अतिथि-उपेक्षा जान ।

मूर्ख जनों में मूर्ख यह, पायी जाती बान ॥

 

 

90

सूंघा अनिच्च पुष्प को, तो वह मुरझा जाय ।

मुँह फुला कर ताकते, सूख अतिथि-मुख जाय ॥

 

 अध्याय 10. मधुर-भाषण

 

 

91

जो मूँह से तत्वज्ञ के, हो कर निर्गत शब्द ।
प्रेम-सिक्त निष्कपट हैं, मधुर वचन वे शब्द ॥

 

 

92

मन प्रसन्न हो कर सही, करने से भी दान ।
मुख प्रसन्न भाषी मधुर, होना उत्तम मान ॥

 

 

93

ले कर मुख में सौम्यता, देखा भर प्रिय भाव ।
बिला हृद्‍गत मृदु वचन, यही धर्म का भाव ॥

 

 

94

दुख-वर्धक दारिद्र्य भी, छोड़ जायगा साथ ।
सुख-वर्धक प्रिय वचन यदि, बोले सब के साथ ॥

 

 

95

मृदुभाषी होना तथा, नम्र-भाव से युक्त ।
सच्चे भूषण मनुज के, अन्य नहीं है उक्त ॥

 

 

96

होगा ह्रास अधर्म का, सुधर्म का उत्थान ।

चुन चुन कर यदि शुभ वचन, कहे मधुरता-सान ॥

 

 

97

मधुर शब्द संस्कारयुत, पर को कर वरदान ।

वक्ता को नय-नीति दे, करता पुण्य प्रदान ॥

 

 

98

ओछापन से रहित जो, मीठा वचन प्रयोग ।

लोक तथा परलोक में, देता है सुख-भोग ॥

 

 

99

मधुर वचन का मधुर फल, जो भोगे खुद आप ।

कटुक वचन फिर क्यों कहे, जो देता संताप ॥

 

 

100

रहते सुमधुर वचन के, कटु कहने की बान ।

यों ही पक्का छोड़ फल, कच्चा ग्रहण समान ॥

 

अध्याय - सूची

 

Route your comments & suggestions to the author through this address.

 

 


I Home I Claims & Criticisms I Purpose of this site I What is new here? I Forthcoming topics I
 I Comparative Religion I Gospel of Vivekananda I
I Kural in 30 languages I Mathematical in Kural I Introduction to the Kural I

 


 

Hosted by www.Geocities.ws

1