युग की माँग प्रतिभा परिष्कार - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 03-04)

विषय सूची

१. प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज
२. विशिष्टता का नये सिरे से उभार
३. प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य एवं सिद्धान्त
४. युग सृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती
५. प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाय
६. संगठन और कार्यक्रम का शुभारम्भ
७. नारी जागरण की दूरगामी सम्भावनाएँ
८. ये मानसून जल थल एक करेंगे
९. आत्मिक प्रगति का प्रत्यक्ष प्रमाण
१०. सुसंस्कारिता संवर्धन के दस उपक्रम


पूर्व निवेदन

वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का जीवनोद्देश्य युगनिर्माण-युगपरिवर्तन की ईश्वरीय योजना के अनुरूप स्थूल एवं सूक्ष्म तंत्र विकसित करना रहा है। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व का गहराई से अध्ययन करने पर उनके अन्दर ऋषियों की तरह युगद्रष्टा और युगस्रष्टा की विविध क्षमताएँ दिखाई देती हैं। इसलिए उन्हें ‘युगऋषि’ के गरिमामय संबोधन के साथ याद किया जाता है।

‘युग निर्माण’ उसके नाम के अनुरूप बहुत बड़ा और असाधारण कार्य है। बड़े विशिष्ट कार्य के लिए बड़ी क्षमताओं वाली विशिष्ट प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है। युगऋषि कहते रहे हैं कि-

‘युग निर्माण’ भगवान् का कार्य है और इसे वे ही सम्पन्न करेंगे। फिर भी भगवान् की आदत रही है कि वे युग परिवर्तनकारी कार्यों में उस युग की परिष्कृत प्रतिभाओं को माध्यम बनाकर आगे बढ़ने की रीति-नीति अपनाते हैं। भगवान् श्रीराम के साथ ऋषियों से लेकर रीछ वानरों तक का योगदान, भगवान् श्रीकृष्ण के साथ ग्वाल-बालों से लेकर पाण्डवों तक की भूमिका प्रभु की उसी परम्परा का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इस युग में भी ऐसा ही होना है।

प्रतिभाएँ हर युग में तथा जीवन के हर क्षेत्र में देखी जाती हैं। प्रतिभाएँ अनगढ़ भी होती हैं और परिष्कृत भी। अनगढ़ प्रतिभा अनगढ़ कार्यों में तथा परिष्कृत प्रतिभा लोकहितकारी परिष्कृत उद्देश्यों में सहज ही प्रवृत्त हो जाती है। अनगढ़-अपरिष्कृत प्रतिभाओं को पौराणिक काल के राक्षसों से लेकर वर्तमान में परपीड़ा के-राक्षसी कार्यों में प्रवृत्त देखा जा सकता है। परिष्कृत प्रतिभाएँ, अवतारियों, पैगम्बरों, ऋषियों से लेकर सन्त-शहीदों के रूप में हर क्षेत्र में परिलक्षित होती रहती हैं।

प्रतिभाओं की धाराओं में परिवर्तन भी होते देखे जाते हैं। रत्नाकर को वाल्मीकि, अंगुलिमाल को बौद्ध भिक्षु, गणिका एवं आम्रपाली से साध्वी रूप में परिवर्तित होते हुए देखा गया है। अस्तु, आज भले ही विभिन्न प्रतिभाएँ भटककर ऊटपटाँग कार्यों में प्रवृत्त होती दिखती हों; किन्तु उनके अन्दर का जाग्रत् आत्मतत्त्व ईश्वरीय संदेश को सुन-समझकर आदर्श की दिशा में पूरी ईमानदारी से प्रवृत्त हो सकता है।

सभी प्रतिभाएँ भटक गई हों, ऐसा भी नहीं है। तमाम लोकसेवी संगठनों से लेकर राष्ट्रीय गरिमा को बढ़ाने वाले वैज्ञानिकों, पदाधिकारियों, व्यवसाइयों में भी उन्हें सक्रिय देखा जा सकता है।

युगऋषि ने यह बात अपनी लेखनी और वाणी से बार-बार दोहराई है कि तमाम जाग्रत् आत्माएँ विभिन्न क्षेत्रों में-विभिन्न रूपों में विद्यमान हैं। काल प्रभाव से वे सुप्त अथवा जंग लगी जैसी स्थिति में पड़ी हैं। विचार क्रान्ति के स्पर्श से उनमें जैसे ही जागृति आयेगी, उनके चमत्कारी पुरुषार्थ-परिणाम प्रकट होने लगेंगे।

युग की माँग प्रतिभा परिष्कार नामक इस पुस्तिका में युगऋषि प्रतिभाओं को खोज-खरादकर युग धर्म में प्रवृत्त करने की ईश्वरीय योजना को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। पहले उन्होंने इसे दो भागों में लिखा था। बाद में उन्हीं के निर्देशन में इसे एक ही पुस्तक के रूप में सम्पादकीय कर दिया गया। आशा की जाती है कि विभिन्न प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व युगऋषि के सुझावों सूत्रों के आधार पर प्रतिभा परिष्कार का लाभ उठाते हुए ईश्वरीय दिव्य अनुदानों को पाने की प्रामाणिक पात्रता अर्जित कर सकेंगे।

- प्रकाशक

(१) लेखक पर दबाव किस बात का है? लेखक युगऋषि हैं। उनका अवतरण ईश्वरीय योजना ‘युग निर्माण योजना’ को मूर्त रूप देना रहा है। मनुष्य मात्र के लिए उज्ज्वल भविष्य की रचना का तंत्र बनाना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है। सन् १९८० से २००० तक के समय को उन्होंने युग संधिकाल अर्थात् युग परिवर्तन की तैयारी का समय। २१वीं सदी को उन्होंने सृजन की सदी कहा है। यह पंक्तियाँ सन् १९८७ में लिखी गई थीं। नवसृजन के लिए सीमित समय में सशक्त आधार पर खड़ा करने का दबाव अनुभव होना स्वाभाविक है। उन्हीं को आगे की पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है।

प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज

समय की माँग के अनुरूप, दो दबाव (१) इन दिनों निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना। दूसरा है- नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी वह दोनों कार्य अति कठिन पड़ते हैं; फिर जहाँ देश, समाज या विश्व का प्रश्न है, तो कठिनाई का अनुपात असाधारण ही होगा।

प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्म निष्ठा उत्पन्न करनी पड़ती है। साधन जुटाने पड़ते हैं। इनके बिना सामान्य स्थिति में रहते हुए किसी प्रकार दिन काटते ही बन पड़ता है। इसी प्रकार कठिनाइयों से जूझने, अड़चनों को निरस्त करने और मार्ग रोककर बैठे हुए अवरोधों को किसी प्रकार हटाने के लिए समुचित साहस, शौर्य और सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है। अनेक समस्याएँ और कठिनाइयाँ आये दिन त्रास और संकट भरी परिस्थितियाँ ही बनी रहती हैं, जो कठिनाइयों से जूझ सकता है और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावान् कहते हैं।

प्रतिभा की निजी जीवन के विकास में निरन्तर आवश्यकता पड़ती है और अवरोधों को निरस्त करने में जो भी आगे बढ़े-ऊँचे उठे हैं, उन्हें यह दोनों ही सरंजाम जुटाने पड़े हैं। १. उत्कर्ष की सूझ-बूझ और २. कठिनाइयों से लड़ सकने की हिम्मत, इन दोनों के बिना उन्नतिशील जीवन जी सकना सम्भव ही नहीं होता। फिर सामुदायिक सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए और भी अधिक प्रखरता चाहिए। यह विशाल क्षेत्र, आवश्यकताओं और गुत्थियों की दृष्टि से तो और भी बढ़ा-चढ़ा होता है।

तीन मुख्य वर्ग- मनुष्यों की आकृति-प्रकृति तो एक जैसी होती है, पर उनके स्तरों पर भारी भिन्नता पाई जाती है। (एक वर्ग में) हीन स्तर के लोग परावलम्बी होते हैं। वे आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलते हैं। औचित्य कहाँ है, इसकी विवेचना बुद्धि इनमें नहीं के बराबर होती है। वे साधनों के लिए, मार्गदर्शन के लिए, दूसरों पर निर्भर रहते हैं। यहाँ तक कि जीवनोपयोगी साधन तक अपनी स्वतंत्र चेतना के बलबूते नहीं जुटा पाते। उनके उत्थान पतन का निमित्त कारण दूसरे ही बने रहते हैं। यह परजीवी वर्ग ही मनुष्यों में बहुलता के साथ पाया जाता है। अनुकरण और आश्रय ही उनके स्वभाव का अंग बनकर रहता है। निजी निर्धारण कदाचित् ही कभी कर पाते हैं। यह हीन वर्ग है। सम्पदा रहते हुए भी उन्हेें दीन-हीन कहा जा सकता है।

दूसरा वर्ग है- जो समझदार होते हुए भी संकीर्ण स्वार्थपरता से घिरा रहता है। योग्यता और तत्परता जैसी विशेषताएँ होते हुए भी वे उन्हें मात्र लोभ, मोह, अहंकार की पूर्ति के लिए ही नियोजित किए रहते हैं। उनकी नीति अपने मतलब से मतलब रखने की होती है। आदर्श उन्हें प्रभावित नहीं करते। कृपणता और कायरता के दबाव से वे पुण्य-परमार्थ की बात तो सोच ही नहीं पाते। अवसर मिलने पर अनुचित कर बैठने से भी नहीं चूकते, महत्त्व न मिलने पर वे अनर्थ कर बैठते हैं। गूलर के भुनगे जैसी स्व-केन्द्रित जिन्दगी ही जी पाते हैं। बुद्धिमान और धनवान् होते हुए भी इन लोगों को निर्वाह भर में समर्थ ‘प्रजाजन’ ही कहा जाता है। वे जिस-तिस प्रकार जी तो लेते हैं, पर श्रेय-सम्मान जैसी किसी मानवोचित उपलब्धि के साथ उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं जुड़ता। उन्हें जनसंख्या का एक घटक भर माना जाता है। फिर भी वे दीन-हीनों की तरह परावलम्बी या भारभूत नहीं होते। उनकी गणना व्यक्तित्व की दृष्टि से अपंग अविकसित और असहायों में नहीं होती। कम से कम अपने बोझ अपने पैरों पर तो उठा लेते हैं।

तीसरा वर्ग प्रतिभाशालियों का है। वे भौतिक क्षेत्र में कार्यरत रहते हैं, तो अनेक व्यवस्थाएँ बनाते हैं। अनुशासन में रहते और अनुबन्धों से बँधे रहते हैं। अपनी नाव अपने बलबूते खेते हैं और उसमें बिठाकर अन्य कितनों को ही पार करते हैं। बड़ी योजनाएँ बनाते और चलाते हैं। कारखानों के व्यवस्थापक और शासनाध्यक्ष प्राय: इन्हीं विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। जिनने महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पायीं, उपलब्धियाँँ हस्तगत कीं, प्रतिस्पर्धाएँ जीतीं, उनमें ऐसी ही मौलिक सूझ-बूझ होती है। बोलचाल की भाषा में उन्हें ही प्रतिभावान् कहते हैं। अपने वर्ग का नेतृत्व भी वही करते हैं। गुत्थियाँ सुलझाते और सफलताओं का पथ प्रशस्त करते हैं। मित्र और शत्रु सभी उनका लोहा मानते हैं। मरुस्थल में उद्यान खड़े करने जैसे चमत्कार भी उन्हीं से बन पड़ते हैं। भौतिक प्रगति का विशेष श्रेय यदि उन्हें ही दिया जाय, तो अत्युक्ति न होगी। सूझ-बूझ के धनी, एक साथ अनेक पक्षों पर दृष्टि रख सकने की क्षमता भी तो उन्हीं में होती है। समय सबके पास सीमित है कुछ लोग उसे ऐसे ही दैनिक ढर्रों के कार्यों में गुजार देते हैं, पर कुछ ऐसे भी होते हैं, जो एक ही समय में, एक ही शरीर-मस्तिष्क से, अनेक ताने-बाने बुनते और अनेक जाल-जंजाल सुलझाते हैं। सफलता और प्रशंसा उनके आगे-पीछे फिरती है। अपने क्षेत्र, समुदाय या देश की प्रगति ऐसे सुव्यवस्थित प्रतिभावानों पर ही निर्भर रहती है।

सबसे ऊँची श्रेणी देवमानवों की है, जिन्हें महापुरुष भी कहते हैं। प्रतिभा तो उनमें भरपूर होती है, पर वे उसका उपयोग आत्मपरिष्कार से लेकर लोकमंगल तक उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित करते हैं। निजी आवश्यकताओं और महत्त्वाकांक्षाओं को घटाते हैं, ताकि बचे हुए शक्ति भण्डार को परमार्थ में नियोजित कर सकें। समाज के उत्थान और सामयिक समस्याओं के समाधान का श्रेय उन्हें ही जाता है। किसी देश की सच्ची सम्पदा वे ही समझे जाते हैं। अपने कार्य क्षेत्र को नन्दनवन जैसा सुवासित करते हैं, वे जहाँ भी बादलों की तरह बरसते हैं, वहीं मखमली हरीतिमा का फर्श बिछा देते हैं। वे वसन्त की तरह अवतरित होते हैं। अपने प्रभाव से वृक्ष-पादपों को सुगन्धित, सुरभित पुष्पों से लाद देते हैं। वातावरण में ऐसी उमंगें भरते हैं। जिससे कोयल कूकने, भौंरे गूँजने और मोर नाचने लगें।

कार्य के अनुरूप संसाधन- बड़े कामों को बड़े शक्ति केन्द्र ही सम्पन्न कर सकते हैं। दल-दल में फँसे हाथी को बलवान् हाथी ही खींचकर पार करते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में से नाव खे लाना, साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। समाज और संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए ऐसे ही वरिष्ठ प्रतिभावानों की आवश्यकता पड़ती है। पुल, बाँध, महल, किले जैसे निर्माणों में मूर्धन्य इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। पेचीदा गुत्थियों को सुलझाना किन्हीं मेधावियों सेेेे ही बन पड़ता है। प्रतिभाएँ वस्तुत: ऐसी सम्पदाएँ हैं, जिनसे न केवल प्रतिभाशाली स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं; वरन् अपने क्षेत्र, समुदाय और देशों की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में सफल होते हैं। इस कारण भावनावश ऐसे लोगों को देवदूत तक कहते हैं।

आड़े समय में इन उच्चस्तरीय प्रतिभाओं की ही आवश्यकता होती है। उन्हीं को खोजा, उभारा और खरादा जाता है। विश्व के इतिहास में ऐसे ही महामानवों की यशोगाथा स्वर्णिम अक्षरों में लिखी मिलती है। संसार के अनेक सौभाग्यों और सौन्दर्यों में अधिक मूर्धन्य महाप्राणों के व्यक्तित्व ही सबसे अधिक चमकते हैं, वे अपनी यशोगाथा से असंख्यों का, अनन्त काल तक मार्गदर्शन करते रहते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि के नाम से आध्यात्मिक भाषा में जिन महान, उपलब्धियों का आलंकारिक रूप से वर्णन किया जाता है, उनका सारतत्त्व वस्तुत: ऐसे ही महामनीषियों को करतलगत होता है। दूसरे लोग पूजा-पाठ के सहारे कुछ मिलने की आशा करते हैं; पर मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी ऐसे कर्मयोग की साधना में ही निरत रहते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को प्रामाणिक और कर्तृत्व को ऊर्जा का उद्गम स्रोत सिद्ध कर सके।

यह असाधारण समय- वर्तमान समय विश्व इतिहास में अद्भुत एवं अभूतपूर्व स्तर का है। इसमें एक ओर महाविनाश का प्रलयंकर तूफान अपनी प्रचण्डता का परिचय दे रहा है, तो दूसरी ओर सतयुगी नवनिर्माण की उमंगें भी उछल रही हैं। विनाश और विकास एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हैं, तो भी उनका एक ही समय में अपनी-अपनी दिशा में चल सकना सम्भव है। इन दिनों आकाश में सघन तमिस्रा का साम्राज्य है, तो दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त का आभास भी प्राची में उदीयमान होता दिख पड़ता है। इन दोनों के समन्वय को देखते हुए ही अपना समय युगसंधि का समय माना गया है। ऐसे अवसरों पर किन्हीं प्रखर-प्राणवानों को ही अपनी सही भूमिका निभानी पड़ती है।

त्रेता में एक ओर रावण का आसुरी आतंक छाया हुआ था, दूसरी ओर रामराज्य वाले सतयुग की वापसी, अपने प्रयास पुरुषार्थ का परिचय देने के लिए मचल रही थी। इस विचित्रता को देखकर सामान्य जन भयभीत थे। राम के साथ लड़ने के लिए उन दिनों एक भी राजा की शासकीय सेनाएँ आगे बढ़ कर नहीं आयीं। फिर भी हनुमान्, अंगद के नेतृत्व में रीछ-वानरों की मण्डली जान हथेली पर रख आगे आयी और समुद्र सेतु बाँधने, पर्वत उखाड़ने, लंका का विध्वंस करने में समर्थ हुई। राम ने उनके सहयोग की भाव भरे शब्दों में भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस सहायक समुदाय में गीध, गिलहरी, केवट, शबरी जैसे कम सामर्थ्यवानों का भी सदा सराहने योग्य सहयोग सम्मिलित रहा। महाभारत के समय भी ऐसी ही विपन्नता थी। एक ओर कौरवों की विशाल संख्या वाली सुशिक्षित और समर्थ सेना थी, दूसरी ओर पाण्डवों का छोटा-सा अशक्त समुदाय। फिर भी युद्ध लड़ा गया। भगवान् ने सारथी की भूमिका निबाही और अर्जुन ने गाण्डीव से तीर चलाए। जीत शक्ति की नहीं, सत्य की नीति की, धर्म की हुई।

इन उदाहरणों में गोवर्धन उठाने वाले ग्वाल-बालों का सहयोग भी सम्मिलित है। बुद्ध की भिक्षु मंडली और गाँधी की सत्याग्रही सेना भी इसी तथ्य का स्मरण दिलाती है। प्रतिभा ने नेतृत्व सँभाला, तो सहयोगियों की कमी नहीं रही। संसार के हर कोने से, हर समय में ऐसे चमत्कारी घटना क्रम प्रकट होते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि शक्ति अजेय है। उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ उस गंगावतरण काल के जैसे प्रयोजन में और परशुराम जैसे ध्वंस प्रयोजनों में प्रयुक्त करती रही हैं। महत्त्व घटनाक्रमों और साधनों का नहीं रहा, मूर्धन्य प्रतिभाओं ने ही महान समस्याओं का हल निकालने में प्रमुख भूमिका निबाही है।

इन दिनों व्यक्तिगत समस्याओं का शिकंजा भी कम कसा हुआ नहीं है। आर्थिक, सामाजिक, मानसिक क्षेत्रों पर छायी हुई विभीषिकाएँ सर्वसाधारण को चैन से जी सकने का अवसर नहीं दे रही हैं। इससे भी बढ़कर सार्वजनिक समस्याएँ हैं। संसार के सामने कितनी ही चुनौतियाँ हैं, बढ़ती हुई गरीबी, बेकारी, बीमारी, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि, परमाणु विकिरण, युद्धोन्माद का बढ़ता दबाव, अन्तरिक्ष क्षेत्र में धूमकेतु की तरह अपनी विकरालता का परिचय दे रहा है। हिम प्रलय, जल प्रलय, दुर्भिक्ष भूकम्पों आदि के माध्यम से प्रकृति अपने प्रकोप का परिचय दे रही है। मनुष्य की बौद्धिक भ्रष्टता और व्यावहारिक दुष्टता से वह भी तो कम अप्रसन्न नहीं है। भविष्यवक्ता इन दिनों की विनाश विभीषिका की सम्भावना की जानकारी, अनेक स्तर पर देते रहे हैं। दीखता है कि वह महाविनाश कहीं अगले दिनों घटित तो होने नहीं जा रहा है?

पक्ष दूसरा भी है- इक्कीसवीं सदी की ऐसी सुखद सम्भावना जिसे सतयुग की वापसी कहा जा सके। इन दोनों की प्रयोजनों की आवश्यक मानवीय भूमिका का समावेश होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस कार्य को मूर्धन्य प्रतिभाएँ ही सम्पन्न कर सकेंगी। ईश्वर, धर्म का संरक्षण और अधर्म के विनाश का काम तो करते हैं, पर अदृश्य प्रेरणा का परिवहन तो शरीरधारी महामानव ही करते हैं। आज उन्हीं की खोज है। उन्हीं को आकुल-व्याकुल होकर ढूँढ़ा जा रहा है। दीन-हीन और पेट प्रजनन में निरत तो असंख्य प्रजाजन सर्वत्र बिखरे पड़े हैं, पर वे तो अपने भार ही से दबे हैं, अपनी ही लाश ढो रहे हैं। युग परिवर्तन जैसे सृजन और ध्वंस के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्राणवानों की आवश्यकता है। गोताखोर उन्हीं को इस खारे समुद्र में से मणिमुक्तकों की तरह ढूँढ़ निकालने में लगे हुए हैं।

विशिष्टता का नये सिरे से उभार

दूध में मक्खन घुला होता है, पर उसे अलग निकालने के लिये उबालने, मथने जैसे कई कार्य सम्पन्न करने पड़ते हैं। प्राणवान् प्रतिभाओं की इन दिनों अतिशय आवश्यकता पड़ रही है, ताकि इस समुद्र मन्थन जैसे युगसंधि पर्व में अपनी महती भूमिका निभा सकें। अनिष्ट के अनर्थ से, मानवीय गरिमा को प्रचंड पुरुषार्थ प्रदर्शित कर सकें, जैसे गंगा अवतरण पुरुषार्थ के सन्दर्भ में मनस्वी भगीरथ द्वारा सम्पन्न किया गया था।

इन दिनों यह ढूँढ़ खोज ही बड़ा काम है। सीता को वापस लाने के लिए वानर समुदाय विशेष खोज में निकला था। समुद्र मन्थन भी ऐसी खोज का एक इतिहास है। गहरे समुद्र में उतरकर मणि-मुक्तक खोजे जाते हैं। कोयले की खदानों में से खोजने वाले हीरे ढूँढ़ निकालते हैं, धातुओं की खदान इसी प्रकार धरती को खोद-खोद कर ढूँढ़ी जाती हैं। दिव्य औषधियों को सघन वन प्रदेशों में खोजना पड़ता है। वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को खोज लेने भर का काम करते हैं। हाड़ माँस की काया में से देवत्व का उदय, साधना द्वारा गहरी खोज करते हुए ही सम्भव किया जाता है। महाप्राणों की इन दिनों इसी कारण भारी खोज हो रही है कि उनके बिना युगसंधि का महाप्रयोजन पूरा भी तो नहीं हो सकेगा। आज तो व्यक्ति की सामयिक एवं क्षेत्रीय समस्याओं का निराकरण भी वातावरण बदले बिना सम्भव नहीं हो सकता। संसार में निकटता बढ़ जाने से, गुत्थियाँ भी वैयक्तिक न रहकर सामूहिक हो गई हैं। उनका निराकरण व्यक्ति को कुछ ले दे कर नहीं हो सकता। चेचक की फुंसियों पर पट्टी कहाँ बाँधते हैं? स्थाई उपचार तो रक्त शोधन की प्रक्रिया से ही बन पड़ता है।

प्रस्तुत चिन्तन और प्रचलन में इतनी अधिक विकृतियों का समावेश हो गया है कि उन्हें औचित्य एवं विवेक से सर्वथा प्रतिकूल माना जा सकता है। अस्वस्थता, उद्विग्नता, आक्रामकता, निष्ठुरता, स्वार्थान्धता, संकीर्णता, उद्दण्डता का बड़ों और छोटों में अपने-अपने ढंग का बाहुल्य है। लगता है मानवीय मर्यादाओं और वर्जनाओं की प्रतिबद्धता से इनकार कर दिया गया है। फलत: व्यक्ति को अनेकानेक संकटों और समाज को चित्र-विचित्र समस्याओं का सामना करना पड़ता है। न कोई सुखी दिखता है, न सन्तुष्ट। अभाव और जन बाहुल्य नयी-नयी विपत्तियाँ खड़ी कर रहे हैं। हर कोई आतंक और आशंका से विक्षुब्ध जैसा दिखता है।

इन सबसे जूझने के लिये एक सुविस्तृत मोर्चे बंदी करनी होगी। सामान्य जन तो अपनी निजी आवश्यकताओं, उलझनों तक का समाधान नहीं कर पाते, फिर व्यापक बनी-हर क्षेत्र में समाई विपन्नताओं से जूझने के लिए उनसे क्या कुछ बन पड़ेगा? इस कठिन कार्य को सम्पन्न करने के लिये विशिष्टतायुक्त प्रतिभाएँ चाहिए। बड़े युद्धों को जीतना वरिष्ठ सेनानायकों द्वारा अपनायी गई रणनीति और सूझ-बूझ के सहारे ही सम्भव हो पाता है। यही बात बड़े सृजन के सम्बन्ध में भी है। ताजमहल जैसी इमारत बनाने, चीन की दीवार खड़ी करने, हावड़ा जैसे पुल खड़े करने के लिये वरिष्ठ लोगों की वस्तुस्थिति के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाली नीति ही सफल होती है। उनके लिये आवश्यक साधन एवं सहयोग जुटाना भी हँसी खेल नहीं होता। बड़ी प्रतिभाएँ ही बड़ी योजनाएँ बनाती हैं। वे ही उतने भारी भरकम दायित्व उठाती हैं। छोटे तो समर्थन भर देते हैं। सफलता पर हर्ष और असफलता पर विषाद प्रकट करने भर की उनमें क्षमता होती है।

इन दिनों दो कार्य प्रमुख हैं-विषमता से जूझना और उन्हें निरस्त करना, साथ ही नवसृजन की ऐसी आधारशिला रखना, जिससे अगले ही दिनों सम्पन्नता बुद्धिमत्ता, कुशलता और समर्थता का सुहावना माहौल बन पड़े। इक्कीसवीं सदी को दूरदर्शी लोग सर्वतोमुखी प्रगति की सम्भावनाओं से भरी-पूरी मानते हैं। उस अवधि में सतयुग की वापसी पर विश्वास करते हैं कि इन्हीं दिनों समर्थ प्रतिभाओं का सृजन उन्नयन और प्रखरीकरण तेजी से हो रहा है। सम्भव त: अदृश्य शक्ति का ही इसमें हाथ हो? ऐसी शक्ति का जो समय-समय पर, आड़े समय में, बिगड़ता सन्तुलन सँभालने के लिए अपने वर्चस्व का प्रकटीकरण करती रही हैं। कहना न होगा कि तेजस्वी प्रतिभाएँ ही भौतिक समृद्धि बढ़ाने, प्रगति का वातावरण उत्पन्न करने और अन्धकार भरे वर्तमान को उज्ज्वल भविष्य में परिणत करने का श्रेय सम्पादित करती रही हैं। उन्हें ही किसी देश, समाज एवं युग की वास्तविक शक्ति एवं सम्पदा माना जाता है। स्पष्ट है कि वे उदीयमान वातावरण में ही उगती और फलित होती हैं। वर्षा में हरीतिमा और वसन्त में सुषमा का प्राकट्य होता है। प्रतिभाएँ अनायास ही नहीं बरस पड़तीं, न वे उद्भिजों की तरह उग पड़ती हैं। उन्हें प्रयत्नपूर्वक खोजा, उभारा और खरादा जाता है। इसके लिये आवश्यक एवं उपयुक्त का सृजन किया जाता है।

दो अनिवार्य चरण- इन दिनों ऐसा ही कुछ चल रहा है। असन्तुलन को सन्तुुलन में बदलने के लिए महाकाल की कोई बड़ी योजना बन रही है। उसे मूर्त रूप देने के लिये दो छोटे; किन्तु अति महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सामने आये हैं। एक आदर्शवादी सहायकों में उमंगों को उभारना और एक परिसर, एक सूत्र में सम्बद्ध होना। साथ ही कुछ नियमित एवं सृजनात्मक गतिविधियों को प्रारम्भ करना, जो सद्विचारों को सद्कार्यों में परिणत कर सकने की भूमिका बना सकें। दूसरा कार्य यह है कि अनीति विरोधी मोर्चा खड़ा किया जाय। उसे एक प्रयास से आरम्भ करके विशाल-विकराल बनाया जाय। एक चिनगारी दावानल बनती है। छोटे बीज से वृक्ष बनता है। ध्वंस एवं सृजन दोनों का यही उपक्रम है। एक कदम शालीनता के सृजन का, दूसरा अनीति के दमन का। सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दो मोर्चे पर, दुधारी तलवार से, दो स्तर की रीति-नीति अपनाना। यह अग्रगमन, जिस पर कदम-कदम बढ़ते हुए नवयुग का अवतरण सम्भव हो सकता है। उज्ज्वल भविष्य की, सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थाई शान्ति के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी स्थिति में पहुँचने पर ‘सत्यमेव जयते’ का उद्घोष, प्रचण्ड प्रयासों का मार्ग पूरा करते हुए, अपनी यथार्थता का परिचय दे सकता है।

इस महाजागरण से ही प्रतिभाओं की मूर्छना हटेगी। वे अँगड़ाई लेते हुए लम्बी मूर्छना से पीछा छुड़ातीं और दिनमान की ऊर्जा प्रेरणा से, कार्यक्षेत्र में अपने पौरुष का परिचय देती हुई दृष्टिगोचर होंगी। इस भवितव्यता को हम सब इन्हीं आँखों से अपने ही सामने मूर्तिमान होता हुआ देखेंगे।

प्रयत्नपूर्वक खदानों से हीरे खोज तो लिए जाते हैं; पर उन्हें चमकदार, बहुमूल्य और हार में शोभायमान स्थान पाने के लिए खरादना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। धातुएँ अनेक बार के अग्नि संस्कार से ही संजीवनी जैसी रसायनों के रूप में परिणत होती हैं। पहलवान अखाड़े में लम्बा अभ्यास करने के उपरान्त ही दंगल में विजयश्री वरण करते हैं। शिल्पी और कलाकार अपने विषय में प्रवीण-पारंगत बनने के लिए लम्बे समय तक अभ्यासरत रहते हैं। प्रतिभाओं का प्रशिक्षण और परिवर्धन, आदर्शवादी गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाने के उपरान्त ही सम्भव हो पाता है।

उक्त तथ्य के अनुरूप जहाँ प्रतिभाओं को खोजा जा रहा है, वहीं उनकी प्रखरता निखारने के लिए ऐसे कार्यों में जुटाया भी जा रहा है, जिनके कारण उनका ओजस्, तेजस् और वर्चस्, जाज्वल्यमान हो सके। विश्वामित्र ने, दशरथ पुत्रों को, युग सृजन प्रयोजन के लिए उपयुक्त समय पर उनकी तेजस्विता उभारने के लिए यज्ञ की रक्षा करने और असुरों से जूझने का काम सौंपा था। हनुमान्, अर्जुन आदि ने ऐसी ही अग्नि परीक्षाओं से गुजरते हुए असाधारण गौरव पाया था। इनसे बचकर किसी पर भी महानता आकाश से नहीं बरसी है। पराक्रम से जी चुराने वाले तो कृपणों, प्रमादियों की तरह मात्र हाथ ही मलते रहते हैं।

इन दिनों जन्मान्तरों से संचित सुसंस्कारों वाली प्रतिभाएँ खोज निकाली गई हैं। उन्हें युग चेतना के साथ जोड़ा गया है। इन्हें नवसृजन साहित्य के माध्यम से पुष्प वाटिका में मधुमक्खियों की तरह, दिव्य सुगन्ध ने आमन्त्रित किया है और उसी परिकर में छत्ता बनकर रहने के लिए सहमत किया है। प्रज्ञा परिवार को इसी रूप में देखा-समझा और आँका जा सकता है। प्रज्ञा परिजनों को युग सृजन का लक्ष्य लेकर अवतरित हुई दिव्य आत्माओं का समुदाय कहा जा सकता है। वे अन्तरात्मा को अमृत पिलाने वाले, युग साहित्य का रसास्वादन करते रहे हैं, मिशन की पत्रिकाएँ नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। युग चेतना की भावभरी प्रेरणाओं का यथासम्भव अनुसरण भी करते रहे हैं। उनके अब तक के योगदान को, परमार्थ पुरुषार्थ को, मुक्त कण्ठ से सराहा जा सकता है। पर बड़े प्रयोजनों के लिए इतना ही तो पर्याप्त नहीं? समय की बढ़ती माँग को देखते हुये, बड़े कदम भी तो उठाने पड़ेंगे। बच्चे का छोटा-सा पुरुषार्थ भी अभिभावकों द्वारा भली-भाँति सराहा जाता है, पर युवा होने बचपन की पुनरावृत्तियाँ करने भर से कौन यशस्वी बनता है?

अगली चुनौती बड़ी है- यहाँ परिजनों के पिछले दिनों के योगदान का मूल्यांकन घटाकर नहीं किया जा रहा है। पर इतने भर से बातें तो नहीं बनतीं। महाकाल की अभिनव चुनौती स्वीकार करने के लिए उतने पर ही सन्तोष नहीं किया जा सकता, जो पिछले दिनों हो चुका है। यह लम्बा संग्राम है- सम्भव त: प्रस्तुत परिजनों के जीवन भर चलते रहने वाला। इक्कीसवीं सदी आरम्भ होने में अभी दस वर्ष से भी अधिक का समय शेष है। इस युगसंधि वेला में तो हम सब को, उस स्तर की तप साधना में संलग्न रहना है, जिसे भगीरथ ने अपनाया और धरती पर स्वर्गस्थ गंगा का अवतरण सम्भव कर दिखाया था। महामानवों के जीवन में कहीं कोई विराम नहीं होता। वे निरंतर अनवरत गति से, शरीर छूटने तक चलते ही जाते हैं। इतने पर भी लक्ष्य पूरा न होने पर, जन्म-जन्मान्तरों तक उसी प्रयास में निरत रहने का संकल्प सँजोए रहते हैं। इसी परम्परा का निर्वाह उन्हें भी करना है, जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारनी और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसी उपलब्धियाँँ कमानी हों; जिन्हें प्रेरणाप्रद, अनुकरणीय, अभिनन्दनीय एवं अविस्मरणीय कहा जा सके। अपने परिवार की प्रतिभाओं को उपेक्षित स्तर का नहीं रहना है। इनकी गणना उन लोगों में नहीं होनी चाहिए, जिन्हें परावलम्बी या निर्वाह के लिये, जीवित भर रहने वाला कहा जाता है।

कमल पुष्प, सामान्य तालाब में उगने पर भी, अपनी पहचान अलग बनाते और दूर से देखने वाले के मन पर भी अपनी प्रफुल्लता की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। अपना स्वरूप एवं स्तर ऐसा ही होना चाहिए।

प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य एवं सिद्धान्त

जन साधारण के बीच प्रतिभाशाली अलग से चमकते हैं, जैसे पत्तों व काँटों के बीच फूल, तारों के बीच चन्द्रमा। यह जन्मजात उपलब्धि नहीं है और न किसी का दिया हुआ वरदान। इसे भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग, सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व-उपार्जित सम्पदा है। इस कार्य में दूसरे कुछ सहायक तो हो सकते हैं, पर प्रधानता अपने ही प्रबल प्रयास की रहती है।

धन आता और चला जाता है। रूप-यौवन भी सामयिक है। उसका सम्बन्ध चढ़ते खून से है। किशोर और तरुण ही सुन्दर दिखते हैं। इसके बाद ढलान आरम्भ होते ही अवयवों में कठोरता और चेहरे पर रुक्षता की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। विद्या उतनी ही स्मरण रहती है, जितनी कि व्यवहार में काम आती है। मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी, सहायकों के मन बदलते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि घनिष्टता सदा एक-सी बनी रहे। अधिकार भी चिरस्थाई नहीं हैं। समर्थन घटते ही वे दूसरों के हाथों चले जाते हैं। वयोवृद्धों के उत्पादन की, परिश्रम की क्षमता घट जाती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ स्मरण शक्ति और स्फूर्ति भी जवाब देने लगती है। ऐसी दशा में तब कोई बड़ी योजना बनाना और उसे चलाना भी वश से बाहर हो जाता है। यह सब मरण के ही लक्षण हैं। जीवनी शक्ति का भण्डार धीरे-धीरे चुकता है और फिर वह अन्तत: जबाब दे जाता है।

विकासोन्मुख शरीर, चढ़ते खून और परिपक्व व्यक्तित्व वाले दिनों में ही रहता है। उसे भले ही कोई आलस्य-प्रमाद में गुजारे, भले ही कोई लिप्सा-लालसा की वेदी पर विसर्जित कर दे। कोई-कोई तो उन दिनों भी अतिवादी उद्दण्डता दिखाने से भी नहीं चूकते। यह सब शक्तियों और सम्भावनाओं के भण्डार मनुष्य जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। दूरदर्शी वे हैं, जो विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ ‘प्रतिभा’ को मानते हैं और उसके सम्पादन हेतु प्राणप्रण से प्रयत्न करते हैं। क्योंकि वही हर स्थिति में साथ रहती है, अपनी तथा दूसरों की गुत्थियाँ सुलझाती है और जन्म जन्मान्तरों तक साथ रहकर, क्रमश: अधिकाधिक ऊँचे स्तर वाली परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है। इस उपार्जन के लिए किए गए प्रयत्नों को ही हर दृष्टि से सराहा और स्वर्ण सम्पदा ही तरह किसी भी बाजार में भुनाया जा सकता है। भौतिक प्रगति में भी उसी के चमत्कार दीखते हैं और आदर्शवादी परमार्थ अपनाने वाली महानता को भी उसी के सहारे विकसित परिष्कृत होते हुए देखा जा सकता है।

प्रतिभा परिष्कार के यही मुख्य मूलभूत सिद्धान्त हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।

प्रथम सिद्धान्त अथवा आधार है-क्षमताओं का अभिवर्धन उनके लिए निरन्तर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों के लिए सुनियोजन रखने के लिए योजनाबद्ध आँकलन। यही है वह मन:स्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्धतन्द्रा की स्थिति में जिन्दगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें सन्तोष हो जाता है। वे भाव तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी बिखरती क्षमताओं को बचाकर, उन्हें मूल्यवान पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।

दूसरा चरण है- अपने व्यक्तित्व को चुम्बकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है, जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता-सम्पन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं। साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे व्यक्ति अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिन्तन और वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।

प्रतिभावानों के होठों पर मंद मुस्कान देखी जाती है। इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते हैं। खीजते और खिजाते रहने वालों को दूर से ही नमस्कार करने को जी करता है। जिन्हें अपना सही मूल्यांकन करना है, वे इस प्रकार की भूलें नहीं करते। यदि वे आदत में सम्मिलित हो गई हों, तो उन्हें बुहार फेंकने की मुस्तैदी दिखाते हैं।

तीसरा चरण है-सुव्यवस्था अस्त-व्यस्त स्थिति में ही प्रचुर साधन रहते हुए भी लोग असफल रहते और उपहासास्पद बनते हैं। प्रतिमाएँ क्षण-क्षण में अपने कार्यों और नियोजनों की समीक्षा करती रहती हैं और उन्हें सही बनाने के लिए जो हेर-फेर करना आवश्यक होता है, उसे बिना हिचक तत्परतापूर्वक करती हैं। जड़ता, हठवादिता के शिकंजे में जकड़ने का उन्हें तनिक भी आग्रह नहीं होता है। वे जानते हैं कि प्रगतिशीलों को सदा परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनानी और चलते ढर्रे में आवश्यक सुधार लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। व्यवस्था इसी प्रकार बन पड़ती है, जो अपने समय का, श्रम का, साधनों का, विचारों का और परिवार परिकर का सुनियोजन कर सकता है तथा उन्हें सही दिशा दे सकने में समर्थ हो सकता है, उसे ही इस योग्य समझा जाता है कि वह कोई बड़ी या अतिरिक्त जिम्मेदारी को वहन कर सके। किन्हीं बढ़ी-चढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं को सँजोने से पूर्व यह प्रमाण देना पड़ता है कि व्यक्तित्व, परिकर एवं क्रियाकलापों में किस सीमा तक व्यवस्था बुद्धि का उपयोग किया गया और उन्हें कितना सफल-समुन्नत बनाकर दिखाया गया।

चौथा व अन्तिम सूत्र है-अग्रगमन नेतृत्व। यह उत्साह साहस और आत्मविश्वास का प्रतीक है। साधारण जन आत्महीनता से ग्रसित झिझक, संकोच, अनिश्चय एवं साहसहीनता की मन:स्थिति में पड़े पाये जाते हैं। वे उचित कार्यों के लिए भी कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। अधिक से अधिक इतना ही सोचते हैं कि कोई आगे बढ़े, तो उसके पीछे चलने लगें। ऐसे लोग उचित निष्कर्ष निकाल लेने पर भी उस मार्ग का अवलम्बन नहीं कर पाते। अपनी स्थिति को अनुपयुक्त मानते हुए भी एक परिधि से एक कदम भी आगे नहीं रख पाते। ऐसों के बीच उन्हीं को मनस्वी माना जाता है कि उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिए उसे अन्यों का समर्थन-सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखाएँ। इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैरकर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है।

प्रतिभाएँ एकाकी बढ़कर अपने अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। फिर सर्वत्र उनकी मनस्विता का लोहा माना जाने लगता है। दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते हैं। जिनकी जिम्मेदारियाँ भारी हैं, वे ही ऐसे लोगों को तलाश करते रहते हैं। प्रामाणिकता की परख होने पर सब ओर से एक से बढ़कर एक भारी भरकम जिम्मेदारियाँ उनके ऊपर आग्रहपूर्वक डाली जाने लगती हैं। वे उन्हें स्वीकार करते और जो कार्य लिया गया है, उसे सर्वांगपूर्ण ढंग से सम्पन्न कर दिखाते हैं।

रेल का इंजन एकाकी चलता है। स्वयं दौड़ता है और अपने साथ भार-भरे डिब्बों की लम्बी शृंखला को घसीटते हुए निर्धारित लक्ष्य की दिशा में पटरी पर दौड़ता चला जाता है। सर्वविदित है कि डिब्बों की तुलना में इंजन को अधिक महत्त्व मिलता है, अधिक मूल्यांकन होता है। यह और कुछ नहीं, साहस भरी व्यवस्था का परिचय देने वाली ऊर्जा की ही परिणति है। प्रतिभाओं में यह सद्गुण उनके द्वारा स्व-उपार्जित स्तर का बड़ी मात्रा में पाया जाना है। वे औरों का मुँह ताकते हुए नहीं बैठे रहते, वरन् आगे बढ़कर औरों को अपने चुम्बकत्व के कारण जोड़ते और साथ चलने के लिए बाधित करते हैं। सफलताओं का यही स्रोत है।

यों प्रतिभा का दुरुपयोग भी हो सकता है। धन का, बल का सौन्दर्य का और कौशल का नियोजन यदि भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण में किया जाय, तो वैसा भी हो सकता है। आतंकवादी, अनाचारी, उच्छृंखल उद्धत लोग प्राय: वैसा करते भी हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि कोई इस आधार पर न तो स्थायी प्रगति कर सकता है और न कोई ऐसी परम्परा पीछे छोड़ सकता है, जिसे सराहा जा सके। आज नहीं, तो कल-परसों ऐसे लोग आत्मप्रताड़ना, लोकभर्त्सना से लेकर राजदण्ड और दैवी प्रकोप के भाजन बनते ही हैं। लालच और घृणा तो भीतर-बाहर से उन पर निरन्तर बरसती ही रहती है।

दूरदर्शी विवेकवान् अपनी श्रेष्ठता को विकसित करते हैं और अपने आदर्शवादी क्रियाकलापों के आधार पर प्रामाणिक माने जाते और विश्वस्त बनते हैं। जिनने उच्चस्तरीय सफलताएँ पाई, उनका अनुकरण करते और सहयोग देते असंख्यों देखे जाते हैं। इसलिए ‘प्रतिभा महासिद्धि’ की साधना करने वाले अपने चरित्र की प्रामाणिकता को हर हालत में बनाए रहते हैं, भले ही इसके लिए अभाव ग्रस्त स्थिति में रहना पड़े और तात्कालिक मिल सकने वाली सफलता से वंचित रहना पड़े।

प्रतिभा तत्सम्बन्धी सिद्धान्तों का मनन-चिन्तन करते रहने भर से हस्तगत नहीं होती। उससे स्वभाव का अंग बनाना पड़ता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उसे भली प्रकार समाविष्ट करना पड़ता है। यह कार्य प्रत्यक्ष क्रियान्वयन के बिना सम्भव नहीं होता। विचार वे ही प्रौढ़ एवं प्रखर होते हैं, जो क्रिया में उतरते रहते हैं। डायनेमो घूमता है, तो बैट्री चार्ज होती है। विचारों और कार्यों के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर बनता है। उसी आधार पर सफलता के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण गौरव हस्तगत होता है। यही वह हुण्डी है, जिसे किसी भी क्षेत्र में हाथों-हाथ भुनाया जा सकता है। बड़े काम कर गुजरने वाली जन्मजात विभूतियाँ साथ लेकर कदाचित् ही कोई आते हैं। हर किसी को यह उपलब्धि अपने मनोयोग और प्रचण्ड प्रयास के आधार पर ही हस्तगत करनी होती है। सांसारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले बड़े कार्य भी ऐसे ही लोगों ने सम्पन्न किए हैं। बहुमुखी सफलताओं का श्रेय उन्हीं पर बरसा है। ऐसे ही लोग समाज को स्थिरता देते और अवाँछनीय उलटे प्रचलनों को उलट कर ठीक कर दिखाते हैं। समय का कायाकल्प करके वातावरण में नवजीवन का प्राण प्रवाह भरते ऐसे ही लोगों को देखा जाता है।

प्रतिभा परिवर्धन का प्रशिक्षण करने वाले कोई स्कूल, कालेज कहीं नहीं हैं। उनके लिए निर्धारित सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारने के लिए अवसर और वातावरण स्वयं तलाशना पड़ता है। उस प्रकार के अवसर और वातावरण कहीं एक जगह एकत्रित नहीं मिलते। उन्हें दाने-बीनने वाले की तरह झोली में भरना पड़ता है। पर इन दिनों एक ऐसा सुयोग सामने है। जिसके साथ सम्बन्ध सूत्र जोड़ने पर हर किसी को वह सुयोग हस्तगत हो सकता है। जिसके सहारे प्रतिभा सम्पादन का सौभाग्य अनायास ही हस्तगत हो सके। ऐसे सुयोग कभी-कभी ही सामने आते हैं। और उन्हें कोई विरले ही पहचान कर लाभ उठा पाते हैं। हनुमान् ने समय को पहचाना और वे थोड़े ही समय में समुद्र लाँघने, पर्वत उखाड़ने और लंका को मटियामेट बनाने का श्रेय प्राप्त कर सके। इसे समय की पहचान ही कहना चाहिए। यदि उस सुयोग का लाभ उनसे न बन पड़ता, तो सुग्रीव के सेवक रहकर ही उन्हें दिन गुजारने पड़ते।

युग सृजन के निमित्त प्रतिभाओं को चुनौती

प्रस्तुत समय, जिससे हम गुजर रहें हैं-संधिकाल है। यह युग संधि का समय न चूकने जैसा है। आपत्तिकाल में लोग निजी व्यवसाय छोड़कर दुर्घटना से निपटने के लिए दौड़ पड़ते हैं। अग्निकाण्ड, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी, दुर्घटना जैसे अवसरों पर उदार सेवा भावना की परीक्षा होती है। भावनाशील इस अवसर पर चूकते नहीं। उपेक्षा करने वाले तिरष्कृत जैसे होते और सेवा साधना में जुट पड़ने वाले सदा सर्वदा के लिए लोगों के मन पर अपनी प्रामाणिकता, महानता की गहरी छाप छोड़ते हैं। जो कालान्तर मेें उन्हें अनेक माध्यमों से महत्त्वपूर्ण वरिष्ठता प्रदान कराती है।

इतिहास साक्षी है कि आपत्तिकाल में राजपूत घरानों से एक-एक सदस्य सेना में भर्ती होता था। सिख धर्म जिन दिनों चला था, तब भी उस विपन्न वेला में उस प्रभाव क्षेत्र में आए हर परिवार नेे अपने परिवार में से एक को सिख सेना का सदस्य बनने के लिए प्रोत्साहित किया था। आज की वेला तब की अपेक्षा कम विपन्न नहीं है। नवसृजन में संलग्न होने के लिए हर घर से एक प्रतिभा को आगे आना चाहिए और भारत भूमि की सतयुगी गरिमा को जीवन्त रखने का श्रेय लेना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में सतयुग की वापसी वाली सम्भावनाएँ सुस्पष्ट हैं। कुछेक चिह्न पहले से ही प्रकट हो रहे हैं। ऐसे व्यक्तित्व उभर रहे हैं, जो लोक निर्वाह में कटौती करके अपनी भाव सम्वेदनाएँ, आकांक्षाएँ एवं गतिविधियों को सृजन प्रयोजनों में समर्पित कर सकें, जिससे उनका समर्पण अन्धकार में जलते मशाल की भूमिका निभाते हुए सबकी आँखों में चमक पैदा कर सके।

स्वर्गमुक्ति, दिव्यदर्शन आदि के प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है और निराश भी रहना पड़ सकता है। पर सत्य प्रयोजनों के लिए प्रस्तुत किया गया आदर्शवादी साहस व्यक्तित्व को ऐसा प्रामाणिक प्रखर एवं प्रतिभावान् बनाता है, जिसके उपार्जन की दैवी सम्पदा के रूप में आँका जा सके, जिस पर आज की भौतिक सम्पदाओं, सुविधाओं को निछावर किया जा सके। धनाढ्य और विद्वान् कुछ लोगों पर ही अपनी धाक जमा पाते हैं, पर महामानव स्तर की प्रतिभाएँ इतिहास को-समस्त मानव जाति को कृत-कृत्य करती हैं।

प्रतिभाओं का प्रयोग जहाँ कहीं भी जब कभी औचित्य की दिशा में होता है, वहाँ उन्हें हर प्रकार से सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। अच्छे नम्बर लाने वाले छात्र पुरस्कार जीतते और छात्रवृत्ति के अधिकारी बनते हैं। सैनिकों में विशिष्टता प्रदर्शित करने वाले वीरता पदक पाते हैं। अधिकारियों की पदोन्नति होती है। लोकनायकों के अभिनन्दन किए जाते हैं। संसार उन्हें महामानव का सम्मान देता है तथा भगवान् उन्हें हनुमान्, अर्जुन जैसा अपना सघन आत्मीय वरण करता है।

युग सृजन बड़ा काम है। उसका सम्बन्ध किसी व्यक्ति, क्षेत्र देश से नहीं, वरन् विश्वव्यापी समस्त मानव जाति के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन करने से है। पतनोन्मुख प्रवृत्तियाँ तो आँधी-तूफान की दिशा में उछाल देना असाधारण दुस्साहस भरा प्रयत्न है। कैंसर के मरीज को रोग मुक्त करना और निरोग होने पर उसे पहलवान स्तर का समर्थ बनाना एक प्रकार से चमत्कारी कायाकल्प है। ऐसे उदाहरण सम्राट् अशोक स्तर के अपवाद स्वरूप ही दीख पड़ते हैं। पर जब यही प्रक्रिया सार्वभौम बनानी होती हो, तो कितनी दुरूह होगी इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं, जिन्हें असम्भव को सम्भव करने का क्रम पूरा हो। जिन्हें कुछ करना न हो, उसकी समीक्षा तो बाल विनोद ही हो सकती है।

दुस्साहस पर प्रतिभाएँ उभरती हैं। विशेषतया जब वे सृजनात्मक हों। कटे हुए अंगों केे घाव भरना उसमें दूसरे प्रत्यारोपण जोड़कर पूर्व स्थिति में लाना मुश्किल सर्जरी का ही काम है। युग की समस्याओं को सुलझाने के लिए अनौचित्य को निरस्त करने और सृजन का अभिनव उद्यान खड़ा करने के लिए ऐसे व्यक्तित्व चाहिए, जो परावलम्बन की हीनता से अन्त:करण को भाव सम्वेदनाओं से ओतप्रोत कर सकें। आत्मबल बढ़ाने के लिए उपासना को सब कुछ माना जाता है और उसी के सहारे मनोकामनाओं की पूर्ति से लेकर स्वर्ग मुक्ति तक देवताओं और भगवानों से अपनी मान्यताओं के अनुुरूप छवि बनाकर दर्शन देने की अपेक्षा की जाती है। ऋद्धि-सिद्धियों की आशा भी कितने ही लोग लगाए रहते हैं और सफलता की कसौटी यह मानते हैं कि उन्हें चित्र विचित्र कौतुक कौतूहल दृष्टिगोचर होते रहते हैं। चमत्कार देखने और चमत्कार दिखाने तक ही उनकी सफलता सीमित रहती है। पर बात वस्तुत: ऐसी है नहीं। यदि आत्मशक्ति जागी, तो उसका दर्शन आदर्शवादी प्रतिभा में ही अनुभव होगा। उसी में ध्वंस से निपटने और सृजन को चरितार्थ कर दिखाने की सामर्थ्य होती है। यह दैवी वरदान है। इसी को सिद्ध पुरुषों का वरदान भी कह सकते हैं। यथार्थ खोजों-अन्वेषणों में भी यही उभर कर आते हैं।

सत्पात्रों को दिव्य अनुदान- भगवान् शंकर ने परशुराम को कालकुठार थमाया था कि पृथ्वी को इक्कीस बार अनाचारियों से मुक्त कराएँ। सहस्रबाहु की अदम्य समझी जाने वाली शक्ति का दमन उसी के द्वारा सम्भव हुआ था। प्रजापति ने दधीचि की अस्थियाँ माँगकर इन्द्र को वज्रोपम प्रतिभा प्रदान की थी। जिससे वृत्तासुर जैसे अजेय दानव से निपटा जा सका। अर्जुन को गाण्डीव देवताओं से मिला था। छत्रपति शिवाजी की भवानी तलवार देवी द्वारा प्रदान की गई बताई जाती है। वस्तुत: यह किन्हीं अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख नहीं है, वरन् उस समर्थता का उल्लेख है, जो लाठियों या ढेलों से भी अनीति को परास्त कर सकती है। गाँधी के सत्याग्रह में उसी स्तर के अनुयायियों की आवश्यकता पड़ी थी।

ऋद्धियों, सिद्धियों द्वारा किसी को न तो बाजीगर बनाया जाता है और न कौतुक दिखाकर मनोरंजन किया जाता है। विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को यज्ञ के बहाने अपने आश्रम में ले गए थे। वहाँ उन्हें बला-अतिबला विद्या प्रदान की थी। उनके सहारे वे शिव-धनुष तोड़ने, सीता स्वयंवर जीतने, लंका की असुरता मिटाने और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी सम्भव कर दिखाने में समर्थ हुए थे। विश्वामित्र ने ही अपने एक दूसरे शिष्य हरिश्चन्द्र को ऐसा कीर्तिमान स्थापित करने का साहस प्रदान किया था। जिसके आधार पर वे तत्कालीन युग सृजन योजना को सफल बनाने में समर्थ हुए थे। साथ ही साथ हरिश्चन्द्र के यश को भी उस स्तर पर पहुँचा सके थे, जिसकी सुगन्ध पर मोहित होकर देवता भी आरती उतारने धरती पर आए।

चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को कोई बड़ा खजाना खोद कर नहीं थमाया था, वरन् ऐसा संकल्पबल उपलब्ध कराया था। जिसके सहारे आक्रमणकारियों का मुँह तोड़कर चक्रवर्ती कहला सके थे। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी के हौसले इतने बुलन्द किए थे कि वे अजेय समझे जाने वाले शासन को नाकों चने चबवाते रहे। छत्रसाल ने सिद्ध पुरुष प्राणनाथ से ही वह प्राणदीक्षा प्राप्त की थी, जिसके सहारे वे हर दृष्टि से राजर्षि कहला सके। देवताओं ने सिद्धार्थ को राजकुमार न कहकर धर्मचक्र प्रवर्तन में संलग्न होने का परामर्श दिया था। सिद्ध पुरुष माने जाने वाले गोरखनाथ, मत्स्येन्द्र नाथ के तप वैभव के अधिकारी बने थे। रामानन्द ने, कबीर को स्वर्ण खान कहीं नहीं सौंपी थी? वरन् वह प्रतिभा प्रदान की थी, जिनके कारण कुलीनता और विद्वत्ता के अभाव में भी अपने समय के प्रचण्ड प्रवर्तक के रूप में प्रख्यात हुए। भगवान् के भक्तों में सर्वोपयोगी नारद माने जाते हैं। उन्हें वह ललक मिली थी कि जन-जन में भाव सम्वेदना का बीजारोपण करते हुए अनवरत रूप से संलग्न हो सकें। पवन ने अपने पुत्र हनुमान् को वह वर्चस् प्रदान किया था कि रामचरित्र में मेरुदण्ड जैसी भूमिका का निर्वाह कर सके।

गाँधी ने अपने प्रिय पात्र बिनोवा को महान प्रयोजनों के लिए मर मिटने की भाव सम्वेदना प्रदान की थी। उनके सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों ने भी जुझारू प्रतिभा पाई और अपने चरित्र तथा कर्तृत्व से जनमानस पर गहरी छाप छोड़ने में सफलता पाई थी।

सन्त यादवेन्द्र पुरी ने अपने शिष्य चैतन्य को जनजागरण के कर्म क्षेत्र में उतारा था। विरजानन्द ने दयानन्द को ऐसा ही पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए उद्यत किया था। रामकृष्ण परमहँस द्वारा विवेकानन्द को जिस मार्ग पर चलाया गया, वह लोकमंगल के लिए समर्पित होकर स्वयं संकल्पवान नररत्न की तरह चमकने और मूर्छित संस्कृति में प्राण चेतना फूँकने वाला राजमार्ग ही था।

महर्षि अगस्त्य ने भगीरथ को राजपाट छोड़कर गंगावतरण के महाप्रयास में संलग्न होने के लिए नियोजित किया था। लक्ष्य इतना उच्चस्तरीय था कि उनकी सफलता में योगदान देने के लिए स्वयं शंकर जी को कैलाश छोड़कर आना पड़ा था। योगी भर्तृहरि ने अपने भाई विक्रमादित्य को आदर्श शासक और भाँजे गोपीचन्द को तत्त्वदर्शन के अवगाहन में संलग्न किया था। इससे अधिक और कुछ कोई अपने स्वजन सम्बन्धियों को दे ही क्या सकता है?

सम्राट् अशोक ने जो प्रेरणा पाई थी, उसी को अपनाने के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को परिव्राजक के रूप में धर्म प्रचार के लिए समर्पित कर दिया था। स्वयं बुद्ध भी तो अपने पुत्र राहुल को इसी स्तर की दीक्षा दे चुके थे। बुद्ध परम्परा में आम्रपाली से लेकर कुमारजीव तक ऐसे अनेक प्रतिभाशाली हुए, जो भौतिक सुख भोगों से कोसों दूर रहकर धर्म प्रयोजनों में लगे रहते थे। मध्यपूर्व को भारतीय संस्कृति की छत्रछाया में लाने का श्रेय महाभाग कौटिल्य को जाता है। जिनने उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयास जारी रखा।

उन पुराण-पन्थियों की गली-कूचों में भरमार है, जिनने वैभव बढ़ाने, सुविधा भोगने, दर्प दिखाने और औलाद के लिए भरे खजाने छोड़कर मरने जैसी असफलताएँ अर्जित की। श्रम सम्भव त: उन्हें भी महापुरुषों से कम न करना पड़ा होगा। पर संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि से ऊँचे न उठने के कारण सुरदुर्लभ जीवन सम्पदा के व्यर्थ नियोजन पर पश्चात्ताप करते ही मरे होंगे। इसके विपरीत महर्षि कर्वे, हीरालाल शास्त्री, बाबासाहब आम्टे, सुभाषचन्द्र बोस जैसी विभूतियों को प्रात:स्मरणीय समझा जाता है। जिनने स्वयं तो रोटी, कपड़े पर निर्वाह किया, पर अपने समूचे वर्चस् को परमार्थ प्रयोजनों के लिए निचोड़ दिया।

विदेशी प्रतिभाओं में जापान के गाँधी कागावा, स्काउट आन्दोलन के जन्मदाता वाडेन पावेल, रूस के लेनिन, मार्क्स आदि संसार के इतिहास में जगमगाते हीरकों की तरह आँके जा सकते हैं। जहाँ सच्चरित्र और सेवा भावना का समन्वय बन पड़े समझना चाहिए, वहाँ भगवत् कृपा प्रत्यक्ष होकर बरस पड़ी। ऐसे लोग यशस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी और मनस्वी कहलाते हैं। उनकी उदार चेतना और युग सृजन जैसी सेवा साधना बन पड़ना परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वास्तविक भगवत् कृपा इसी प्रकटीकरण में देखी जा सकती है। इसे ऐसी सिद्धि कह सकते हैं। जिसके ऊपर अन्धविश्वास एवं भ्रमजाल होने जैसा कोई लाँछन लगता ही नहीं।

प्रतिभा संवर्धन का मूल्य भी चुकाया जाय

गाँधी युग में जो सत्याग्रही उभरकर आगे आए, वे स्वतंत्रता सेनानी कहलाए, यशस्वी बने। ताम्र पत्र, पेन्शन और आवागमन के मुफ्त पास प्राप्त करने के लाभों से गौरवान्वित हुए। जो-जो उनमें वरिष्ठ और विशिष्ट थे, वे देश का सूत्र संचालन करने वाले मूर्धन्य बने। बापू के संपर्क में रहे नेहरू, पटेल जैसे अनेक रत्न ऐसे हैं, जिनके स्मारकों को नमन किया जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर यशोगाथा पढ़कर भाव विभोर हुआ जाता है। यह उनकी प्रचण्ड प्रतिभा का प्रतिफल मात्र है। यदि वे संकीर्ण स्वार्थपरायणों की तरह अपने मतलब से ही मतलब रखते, तो मात्र कुछ सुख-साधनों से, मन बहला पाते, प्रकाश स्तम्भ बनने के सुयोग सौभाग्य से तो उन्हें वंचित ही रहना पड़ता। जो उन दिनों कृपणता धारण किए रहे, वे अग्रगामियों के साथ अपनी तुलना करने पर ‘माया मिली न राम’ वाली अपनी मूर्खता पर पश्चात्ताप ही करते रहते हैं। पर बीता हुआ समय पुन: लौटता कहाँ है?

बुद्ध, गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द, बिनोवा जैसों की महान उपलब्धियाँँ स्मरण करके हर विचारशील का अन्त:करण उमगता है, कि यदि उन्हें ऐसा ही श्रेय मिल सका होता, तो कितना अच्छा होता। उस अवसर को गँवाकर वे जिस ललक लिप्सा की पूर्ति का दिवा-स्वप्न देखते रहते हैं, उसे भी कौन साकार कर पाता है? तृष्णा मरते समय तक प्रौढ़ ही बनी रहती है। शेख-चिल्लियों का समुदाय कुबेर जैसा धनाढ्य और इन्द्र जैसा प्रतापी बनने के सपने देखता है। पर अब निष्कर्ष की वेला में मात्र इतना ही प्रतीत होता है कि कोल्हू के बैल की तरह पिलते और पिसते हुए समय बीत गया। श्मशान के भूत-पलीत की तरह डरते और डराते रहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा।

भाग्यवान् वे हैं, जिनने आदर्शों के साथ रिश्ता जोड़ा, महानता का मार्ग अपनाया और ऐसा कुछ कर दिखाया, जिसका अनुकरण करते हुए असंख्यों का गौरव-गरिमा का लक्ष्य प्रदान करने वाला ऊर्जा भरा प्रकाश उपलब्ध होता रहे। मूर्खता और बुद्धिमत्ता के चयन के लिए इसी चौराहे पर सही निर्णय करने का अवसर है, वैसा सुयोग भी इन्हीं दिनों है, जिसका लाभ भगीरथ और अर्जुन ने अपनी उदात्त साहसिकता के बदले खरीदा था। वरदान अनायास ही किसी को कहाँ से मिलते हैं? देवता कुपात्रों और असमर्थों पर कृपा कहाँ से करते हैं। पात्रता की गहराई रहने पर ही वर्षा का पानी विशाल जलाशय के रूप में लहराता है।

यह युगसन्धि का प्रभात पर्व ऐसा है, जिसमें महाकाल को प्राणवान् प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। दैवी प्रयोजन महामानवों केे माध्यम से ही क्रियान्वित होते हैं। अदृश्य शक्तियाँ तो उनमें प्रेरणा भर भरती है। यह व्यक्ति का निर्धारण होता है कि उन्हें अपनाये या ठुकराये। कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि दुष्ट कौरव तो पहले से ही मरे पड़े हैं। मैंने उनका पहले ही तेज हरण कर लिया। तुझे तो धर्म युद्ध में निरत होकर मात्र श्रेय भर गले में धारण करना है।

वस्तुत: युग की विकृतियों का शमन होना ही है। युग के सृजन का ऐसा महायज्ञ जाज्वल्यमान होना है, जिससे आगामी लम्बे समय तक सुख-शान्ति और प्रगति का वातावरण बना रहे एकता और समता को मान्यता मिले, ध्वंस का स्थान सृजन ग्रहण करे और चेतना तथा भौतिक शक्तियों का नियोजन मात्र सत्प्रयोजनों के निमित्त होता रहे। इसी उज्ज्वल भविष्य को ‘सतयुग की वापसी’ का नाम दिया गया है। अनीति की असुरता का दमन देवताओं की सामूहिक शक्ति - संघशक्ति दुर्गा के अवतरण से सम्भव हुआ था। लगभग उसी पुरातन प्रक्रिया का प्रत्यावर्तन नये सिरे से, नये रूप में इन दिनों सम्पन्न होने जा रहा है। उस प्रवाह में सम्मिलित होने वाले, सामान्य पत्तों की तरह हलके होते हुए भी सरिता की धाराओं पर सवार होकर बिना कुछ प्रयास के महानता के महासमुद्र में जा मिलने में सफल हो सकेंगे।

अपने काम से, किसी से कुछ पाने के लिए कहीं जाना एक बात है और किसी समर्थ सत्ता द्वारा अपने सहायक के रूप में बुलाये जाने पर वहाँ पहुँचना सर्वथा दूसरी। पहली मेें एक पक्ष की दीनता और दूसरे पक्ष की स्वाभाविक उपेक्षा रहती है; पर आमन्त्रित अतिथि को लेने, स्टेशन पर माला लेकर पहुँचा और सम्मानपूर्वक ठहराया जाता है। उसके वार्तालाप को भी प्रमुखता दी जाती है और ऐसा आधार खड़ा किया जाता है कि आमन्त्रित व्यक्ति में निमन्त्रण का उद्देश्य समझने और उनमें सहभागी बनने की प्रतिक्रिया उत्पन्न हो। महाकाल द्वारा प्रज्ञा परिजनों को भेजे गए आमन्त्रण को इसी रूप में देखा समझा जाना चाहिए।

राम स्वयं ऋष्यमूक पर्वत पर गए थे और सुग्रीव-हनुमान् को सहयोग हेतु सहमत कर लाये थे। रामकृष्ण परमहँस ने विवेकानन्द के घर जाकर उन्हें देव संस्कृति के पुनरुद्धार में संलग्न होने के लिए सहमत किया था। अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण समझाने से लेकर धमकाने तक की नीति अपनाकर युद्धरत होने के लिए बाधित किया था। समर्थ और शिवा के, चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बीच भी ऐसा ही घटनाक्रम बना था। साथ ही उन्हें आवश्यक शक्ति और सफलता प्रदान करने के लिए उपयुक्त तारतम्य बिठाया था। जिन्हें पारदर्शी दृष्टि प्राप्त है, वे देख सकते हैं कि महाकाल ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए प्राणवानों के सामने गिड़गिड़ाने का उपक्रम नहीं किया है, वरन् सुनिश्चित सम्भावनाओं में भागीदार बनकर अजस्र सौभाग्य प्रदान करने के लिए चुना है। इस तरह बरसने वाले वरदान की उपेक्षा अवमानना करना किन्हीं अदूरदर्शी हतभागियों से ही बन पड़ेगा। लोभ-मोह के बन्धन तो अनादि और अनन्त हैं। उनके कुचक्र में फँसने और बँधे रहने के लिए तो हीन स्तर के प्राणी भी स्वतन्त्र हैं, पर मनुष्य अपनी गरिमा भरे भविष्य को यदि उसी तुच्छता पर आधारित करने का हठ करे, तो उसे किस प्रकार समझदारों की पंक्ति में बिठाया जा सकेगा?

सरकार मोर्चे पर सैनिकों को लड़ने भेजती है, तो उनके लिए आवश्यक अस्त्रों-उपकरणों की, भोजन-आच्छादन की व्यवस्था भी करती है और उनके घर-परिवार के सदस्यों के निर्वाह हेतु वेतन भी प्रदान करती है। युग सृजन के लिए कटिबद्ध होने वाले को आवश्यक प्रतिभा से लेकर उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध न हों, ऐसा हो ही नहीं सकता। नवसृजन की सम्भावना तो पूरी होने ही वाली है; क्योंकि उसके न बन पड़ने पर महाप्रलय ही शेष रह जाती है, जो कि स्रष्टा को अभी स्वीकार नहीं।

व्यक्ति और समाज अभी इस कदर गुँथ गए हैं कि दोनों का पारस्परिक तालमेल पानी और मछली जैसा अविच्छिन्न हो गया है। कोई निजी उन्नति से, निजी सुविधा सम्पादन भर से सुखी नहीं रह सकता। सम्बद्ध वातावरण यदि विपन्न है, तो किसी सज्जन की शान्ति सुरक्षित नहीं रह सकती। गुण्डागर्दी एक जगह पनपेगी, तो समूचे क्षेत्र में विग्रह खड़ा करने का निमित्त कारण बनेगी। बढ़ी हुई जनसंख्या और आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप अब निजी जीवन को सही बना भर लेने से काम चलने वाला नहीं। इसलिए जनमानस के गिरे हुए स्तर को उभारना प्रकारान्तर से अपनी और अपने परिष्कार की सुरक्षा करना है। सामूहिक जीवन मनुष्य की नियति है। इन दिनों सामूहिकता और भी अनिवार्य हो गयी है। अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने वाले यह नहीं समझते कि समुन्नत समाज के घटक ही वास्तव में सुखी रह सकते हैं।

युगधर्म अपनाएँ- प्रतिभा सम्पादन के लिए विशेषतया उच्चस्तरीय वातावरण में एक साथ रहना, उत्कृष्ट सोचना और आदर्शवादी क्रियाकलापों में निरत रहना चाहिए। निजी सुधार एवं अभ्युदय भी इसके बिना नहीं हो सकता। अपनी स्थिति लोकसेवी और उदारचेता सद्गुणी रखे बिना किसी को शारीरिक बनावट मात्र से प्रभावशाली होने का अवसर नहीं मिल सकता। सद्गुणों का बाहुल्य एवं अभ्यास ही किसी को इस योग्य बनाता है कि अन्यान्यों का सम्मान एवं सहयोग अर्जित कर सके। इसी सफलता के आधार पर किसी भी प्रतिभा और गरिमा का वास्तविक मूल्यांकन हो सकता है।

आवश्यक है कि संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही अपनी समूची क्षमताएँ न खपा दी जाएँ। इसमें जितना लाभ दिखाई पड़ता हो, उसकी तुलना में घाटा अधिक है। व्यापक स्तर का सर्वजनीन स्वार्थ ही परमार्थ है। परमार्थ परायण अपना निज का हित साधन तो निश्चित रूप से करते ही हैं, साथ ही चन्दन वृक्ष की तरह निकटवर्ती लोगों को भी गरिमा प्रदान करते हैं। प्रतिभा सम्पादन के लिए जिस प्राथमिक कक्षा मेें पढ़े, बिना काम नहीं चलता वह है सेवा-साधना

पिछड़ों और पीड़ितों की प्रत्यक्ष सहायता मात्र से अनेक लोग सन्तुष्ट हो जाते हैं। वे वह नहीं सोचते कि दृष्टिकोण और चरित्र का घटियापन ही समस्त अभावों और संकटों का प्रमुख कारण है। जिन्हें सेवाधर्म अपनाना हो और वस्तु स्थिति की गहराई तक जाना हो, उन्हें लोकमानस के परिष्कार के, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयास करना चाहिए। ऐसे सेवाभावी जहाँ पुण्य परमार्थ से जुड़ी हुई अनेकानेक उपलब्धियाँँ हस्तगत करते हैं, वहाँ सुनिश्चित रूप से प्रतिभा परिवर्धन में भी सफल होते हैं। उच्चस्तरीय सेवा साधना में दो ही प्रमुख तत्त्व हैं-एक सत्प्रवृत्ति संवर्धन, दूसरा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। इन दो प्रयासों को अपनाने के लिए अपने समय और साधनों का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहने का महत्त्व समझा जाना चाहिए।

इस योगदान को नित्य कर्म में सम्मिलित करना चाहिए। शारीरिक स्थिरता के लिए भोजन जुटाना और निकलने वाले मलों की सफाई करते रहना आवश्यक है। उसी प्रकार चेतना में उत्कृष्टता भरने के लिए-लोकमंगल का वातावरण बनाने के लिए सदाशयता बढ़ाने और अवांछनीयता हटाने के लिए तत्परता का परिचय देना चाहिए। इसके लिए समयदान और अंशदान की न्यूनतम मर्यादा निश्चित करनी ही चाहिए और जो व्रतधारण किया है, उसका निर्वाह करते रहने में अपनी श्रद्धा-निष्ठा एवं मनस्विता का परिचय देना चाहिए। इसे प्रतिभा संवर्धन की अनिवार्य फीस मानकर चलना चाहिए।

युग की प्रबलतम माँग को देखते हुए प्रारम्भ में दो निर्धारण अपनाए गए हैं, बाद में तो बहुत कुछ करना होगा। प्रथम चरण में उदारचेता सज्जनों को खोजना, उन्हें एक सूत्र में पिरोना, साथ ही उन्हें सत्प्रयोजनों में लगाए रहना। इसी प्रक्रिया को सतयुग की वापसी नाम दिया गया है। प्रचलित अनेकानेक अवांछनीयताओं में से जिसे हटाने की प्राथमिकता दी गई है, उसका नाम है-विवाह विकृतियों का उन्मूलन।

यह दोनों देखने में साधारण प्रतीत होते हैं, पर वस्तुत: इन दोनों के साथ इतनी बड़ी सम्भावनाएँ जुड़ी हुई हैं कि जिनके फलित होने पर प्रयासरत व्यक्तियों का निजी गौरव ही नहीं बढ़ेगा; वरन् समूचे समाज का अतिशय कल्याण भी होगा। ऐसा कल्याण जिसे युग परिवर्तन अथवा वातावरण का कायाकल्प होने जैसा प्रत्यक्ष देखा जा सके।

संगठन और कार्यक्रम का शुभारम्भ

शक्तियों में सबसे प्रमुख है संघ शक्ति। उसकी तुलना में और सभी सामर्थ्य छोटी पड़ती हैं। तिनकों से मिलकर रस्सा बँटा जाता है। धागे मिलकर कपड़ा बनाते हैं। बूँदों के समुच्चय से घड़ा भरता है और छोटे परमाणुओं के सम्मिलन से ही यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड बना है। जड़ वस्तुएँ एक और एक मिलकर दो होती हैं, पर सचेतन मनुष्य एक और एक बराबर रखे जाने पर ग्यारह अंक बनते हैं। चींटियों, दीमकों टिड्डियों, मधुमक्खी, बन्दरों के समूहों की शक्ति देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। फिर मनुष्य के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या? थोड़े से अनाचारी गिरोह बना लेते हैं, तो सारे इलाके में अशान्ति फैला देते हैं। दुर्भाग्य इसी बात का है कि सज्जन एकत्रित नहीं हो पाते । उन्हें निजी उन्नति भर की बात सूझती है। उन्हें यह गले नहीं उतरता कि वे भी समन्वित शक्ति उत्पन्न करें और उन्हें फिर युग समस्याओं के समाधान में लगायें, तो कितने चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं।

प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग और कुछ नहीं, सज्जनों के संगठित एवं उच्चस्तरीय प्रयत्नों का ही प्रतिफल था। देवताओं की संयुक्त शक्ति का समीकरण करके असुर निकंदिनी भगवती दुर्गा का अवतरण हुआ था। ऋषि रक्त के बूँद-बूँद संचय से त्रेता में सतयुग की पुनरावृत्ति करने वाली सीता प्रकट हुई थी। सज्जनों के संयुक्त शक्ति से ही संसार भर में प्रचण्ड क्रान्तियाँ सम्भव होती रही हैं। दास प्रथा जैसे असंख्य अनाचारों को उसी ने एक हुँकार में चकनाचूर कर दिया है। उसका एक प्रहार पड़ने पर अपने सर्वशक्तिमान कहने वाले राजमुकुट धराशायी हो गए। प्रजातंत्र के क्षेत्र में यही शक्ति मतपत्रों के सहारे किसी को भी शासनाध्यक्ष बनाकर रख देती है एवं किसी को कुर्सी से हटा देती है।

अनाचारियों की संयुक्त शक्ति अपना लंका जैसा साम्राज्य और आतंक अभी भी दिग्दिगन्त में फैलाये हुए है, पर देवताओं को क्या कहा जाए? जो सज्जन रहने भर को सब कुछ मानते हैं और अपने समुदाय की संयुक्त शक्ति सँजोकर रामराज्य के अवतरण जैसा कोई साहसिक प्रयत्न नहीं करते। सज्जनों की अदम्य शक्ति सर्वविदित है। देवता ही स्वर्ग के अधिपति रहे हैं और रहेंगे, पर उस असंगठन-विघटन को क्या कहा जाय? जो तार-तार बिखेर कर, पर्वतों को बालू का कण बनाकर जहाँ-तहाँ छितरा देता है। इस विपर्यय को उलटना ही होगा।

आरम्भ कहाँ से किया जाय? यह एक जटिल प्रश्न है। वह बीज कहाँ से पाया जाय, जो खेतों को सतयुगी धन-धान्य से भरा-पूरा बनाए, वह चिनगारी कहाँ से प्रकटे? जो दावानल की तरह अनीति की झाड़ियों के जंगल को भस्मसात करके रहे। अन्यत्र कहाँ जाया जाय, अपने ही घर-परिवार में ऐसे सुसंस्कारी नररत्न मौजूद हैं, जिन्हें आगे करके नवसृजन के युग यज्ञ की अग्नि स्थापना से लेकर पूर्णाहुति की समूची प्रक्रिया सम्पन्न की जा सकती है।

अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली मिशन की पत्रिकाएँ इन दिनों प्राय: पाँच लाख छपती हैं। हर पत्रिका के न्यूनतम पाठक पाँच माने जा सकते हैं। अंक पहुँचता है, उसके लिए छीना झपटी करने वालों और आदि से अन्त तक पढ़ने वालों की लाइन पहले से ही लगी रहती है। इन पच्चीस लाख में जो ध्रुव केन्द्र की भूमिका निभाते हैं, वे पिछले दशियों साल से इस प्राणवान् विचारधारा को श्रद्धापूर्वक हृदयंगम करते रहे हैं। उनकी सहज स्वाभाविक गलाई ढलाई होती रही है। क्रमश: उन्होंने उपलब्ध प्रेरणा को जीवनचर्या में उतारने और व्यक्तित्व का अंग बनाने का प्रयास जारी रखा है। तदनुसार उन्हीं दो प्रयासों को मूर्धन्य मानने की भावना ने आस्था का रूप धारण कर लिया है।

इनमें से एक है-आत्मपरिष्कार लोकमानस का परिष्कार, अभिनव निर्माण। ज्ञान यज्ञ इसी समन्वय को कहा जाता रहा है। इसी का प्रतीक लाल मशाल के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। युगसन्धि के अनुरूप अपने को ढालने और दूसरों को प्रभावित, प्रोत्साहित करने का उनमें उत्साह और साहस जागा है। इसमें जितना श्रम अखण्ड ज्योति की विचारधारा का है, उससे कहीं अधिक इस परिष्कार के घटकों में विद्यमान उनके पूर्व संचित संस्कारों का नाम है। समय-समय पर इन्हें चौकन्ना करने और हलचल में आने के लिये कहा जाता रहा है। देखा गया है कि वे एक ही बार बिगुल बजाने पर लाइन में सावधान की मुद्रा में खड़े मिले हैं। इन्हें मानसिक स्तर पर प्रौढ़ परिपक्व माना जाय, तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

आरम्भ इन्हीं प्रशिक्षित, अनुशासित सज्जनों से किया जा रहा है। अगले दिनों जन शक्ति और साधन शक्ति का नियोजन तो असंख्य गुना होना है, क्योंकि ध्वंस सरल होता है और निर्माण कठिन। वातावरण को बिगाड़ने वालों ने भी अपने प्रयास के कीर्तिमान स्थापित किए हैं। विकृतियाँ उत्पन्न करने में भारी श्रम, समय, कौशल एवं साधनों का नियोजन हुआ है। तब कहीं विविध जाल जंजालों में लोकमानस को फँसाया और भ्रम जंजालों में भटकाया जा सका है। सृजन के लिए उसकी तुलना में अधिक प्रभावी प्रतिभाएँ चाहिए और उनका पुरुषार्थ भी अपेक्षाकृत अनेक गुना होना चाहिए। यह सरंजाम नये सिरे से नहीं जुटाया जा सकता। अखण्ड ज्योति परिजनों को ही इस मोर्चे पर विश्वास पूर्वक खड़ा किया जा सकता था, सो किया भी जा रहा है।

कहा जा चुका है, हर स्वर्णखण्ड को कसौटी पर कसा और आग पर तपाया जा रहा है; ताकि उसकी विशेषता सबके सामने उजागर हो सके। इनमें से पहला है-सतयुग की वापसी। दूसरा है- आद्यशक्ति का अभिनव अवतरण-नारी जागरण।

सतयुग की वापसी के लिए भावनाशीलों का संगठन एवं प्रशिक्षण किया जाता है। अभ्यास कार्य भी सौंपा जाता है। प्रज्ञा परिवार का संगठन इन्हीं से आरम्भ होगा। नारी मण्डल भी इन्हीं में से बनेेंगे। पाँच-पाँच प्राणवानों का एक मण्डल गठित किया जा रहा है। समीपवर्ती परस्पर घनिष्ट एवं विश्वासी लोग मिलकर पाँच की मण्डली उपर्युक्त उद्देश्य के लिए बना लें। इसके बाद उन पाँचों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र के पाँच-पाँच और खोजकर समूचे मण्डल को पाँच से पच्चीस बनाना है। पच्चीस का एक पूर्ण संगठन बन सकेगा। बड़े संगठन सँभालने में नहीं आते। उनमें अनगढ़ों की भरमार रहने से टाँग खिंचाई होती है और मेढ़क तराजू में तौलने के समय देखी जाने वाली धमा चौकड़ी मचती है। संख्या प्रदर्शन की अपनी कोई आवश्यकता भी नहीं। यहाँ क्वालिटी चाहिए, क्वाण्टिटी नहीं । इस दृष्टि से हम पाँच हमारे पच्चीस का चक्रवृद्धि क्रम यदि चल पड़े, तो इसी परिवार के बेटे, पोते, परपोते, सरपोते मिलकर समूची विश्व व्यवस्था बना जाने में सफल हो सकते हैं। हम पाँच हमारे पच्चीस का उद्घोष यदि प्राणपण से पूरा करने में सभी परिजन भावनापूर्वक जुट पड़ें, तो देखते-देखते एक लाख का प्रज्ञा संगठन खड़ा होने का स्वप्न साकार हो सकता है।

संगठन का दूसरा पक्ष है- नारी जागरण। महिला मण्डलों का गठन। वे भी आरम्भ में पाँच और कुछ दिन में पच्चीस की संख्या में विकसित होंगी। पुरुष परिजनों का कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने परिवार की, अपने प्रभाव परिष्कार की प्रभावशाली पाँच शिक्षित महिलाएँ खोज निकालें और उन्हें संगठित, प्रोत्साहित प्रशिक्षित करते हुए इतना साहस उनमें भरें कि मिलजुलकर अपने प्रभाव क्षेत्र में नारी जागरण की पुण्य परम्परा को परिपूर्ण उत्साह के साथ सम्पन्न कर सकें। इस प्रकार जहाँ एक लाख पुरुष प्रधान प्रज्ञा-मण्डलों के गठन का काम सौंपा गया हैं। दोनों की समानान्तर व्यवस्था रहे। दोनों एक दूसरे का समर्थन सहयोग करें; परन्तु अपनी-अपनी सत्ता अलग-अलग ही बनाए रहें, इसमें सुविधा और सुरक्षा भी रहेगी।

सभी प्रज्ञा मण्डलों और महिला मण्डलों को क्रिया पक्ष का यह प्रयास सौंपा गया है कि वे साप्ताहिक सत्संगों का क्रम बनाएँ। एक नियत स्थान पर या बारी-बारी से सदस्यों के घरों पर सत्संग उपक्रम बिना नागा किए चलाते रहें। उसमें आरम्भ में दीपयज्ञ का छोटा उपक्रम, गायत्री मन्त्र का सामूहिक गान, युग संगीत सहगान की धार्मिक विधाएँ सम्पन्न की जाएँ। इसके बाद पारस्परिक विचार विनिमय का क्रम चले। पिछले सप्ताह में किसने क्या किया और अगले सप्ताह किसकी क्या करने की योजना है? इस प्रकार की जानकारियों का आदान-प्रदान चल पड़ने पर एक दूसरे को प्रोत्साहन भी मिलेगा। कठिनाइयों की जानकारी और उसके समाधान का तारतम्य भी बैठेगा। प्रभाव परिकर में सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की जिम्मेदारी को इसी अवसर पर उठाया और अगले दिनों उसे पूरा करने की प्रतिस्पर्धा में दौड़ लगाया करेंगे। इन साप्ताहिक सत्संगों को नवसृजन योजना पर किया गया निर्धारण भी कहा जा सकता है।

इसी साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर प्रज्ञा पुस्तकालयों के माध्यम से युग चेतना को व्यापक बनाने का प्रयास भी जुड़ा रहेगा। दोनों मण्डलों के अपने-अपने पुस्तकालय इस अवसर पर उपस्थित रहेेंगे। सदस्यगणों को एक सप्ताह में जितनी पुस्तकें अपने सम्बद्ध जनों को पढ़ाने के लिए ले जानी हो, ले जाया करेंगे। इस प्रकार झोला पुस्तकालय वाली वह योजना भी पूरी होती रहेगी, जिसमें हर शिक्षित को घर बैठे बिना मूल्य युग साहित्य पढ़ाने और वापस लाने का प्रावधान था। जिसमें अनपढ़ों को पुस्तकें पढ़कर सुनायी जाया करती थीं, अब वह उपक्रम साप्ताहिक सत्संगों मेें जुड़ जाने और सदस्यों द्वारा अपनी सामर्थ्य भर अपने प्रभाव क्षेत्र में युग चेतना का आलोक वितरण करने का दायित्व नियमित रूप से उठाया जाता रहेगा। काम बँट जाने से वह अधिक भी होगा और सार्थक भी रहेगा। जो जिसे पढ़ाएगा, वह उससे सम्पर्क भी साधेगा और जब घनिष्ठ परिपक्वता बढ़ने लगे, तो उन नव-परिचितों को प्रस्तुत संगठनों में नियमित से सम्मिलित करने का प्रयत्न किया करेगा।

पच्चीस से अधिक सदस्य बढ़ जाने पर उन्हें अलग टोलियों में विभाजित किया जाता रहेगा, ताकि व्यवस्था और प्रौढ़ता बनी रहे। एक बहुत बड़ा संगठन बनाने की अपेक्षा छोटे-छोटे अनेक बना लेने पर अधिक सुविधा रहेगी और अधिक प्रगति भी होगी। पक्षी समर्थ हो जाने पर माँ-बाप वाला घोंसला छोड़कर अपना नया नीड़ बनाने और नया परिवार बनाने की प्रक्रिया पूरी करता है। इसमें हर्ज कुछ नहीं, लाभ अनेक हैं। इस आधार पर टाँग खिंचाई से तो निश्चित रूप से बचा जा सकता है।

संगठन का ढाँचा खड़ा हो जाने पर उसे अनेक स्तर के (१) प्रचारात्मक, (२) रचनात्मक एवं (३) सुधारात्मक कार्य हाथ में लेने होंगे। इसके लिए जन शक्ति भी चाहिए और साधन जुटाने के लिए धन शक्ति भी। इसके लिए जगह-जगह चन्दा माँगते फिरने की अपेक्षा अपनी लोगों की श्रद्धा परखी जानी चाहिए कि उसमें बातूनी जमा खर्च ही है या श्रद्धा की गहराई भी जुड़ गयी है। इसके लिए हर गठित मण्डलों में सम्मिलित होने वाले के लिए सक्रिय योगदान की शर्त रखी गई है- समयदान व अंशदान। दोनों मण्डलों के सदस्य अपने संगठनों को सुचारु ढंग से चलाने के लिए नियमित योगदान प्रस्तुत करते रहने का संकल्प करें और उसका व्रत धारण की तरह निर्वाह करें।

युगऋषि ने नवसृजन के लिए हर भावनाशील से समयदान और अंशदान माँगा है। समयदान कम से कम एक घंटे प्रतिदिन से लेकर ४ घंटे प्रतिदिन तथा अंशदान आधा कप चाय की कीमत प्रतिदिन से लेकर माह में एक दिन की आय नियमित रूप से नवसृजन प्रयोजनों में लगाने का आग्रह किया गया है।

न्यूनतम दो घण्टे का समयदान और एक रुपये का अंशदान सभी को करना चाहिए। इतनी न्यूनतम उदारता अपनाना किसी भी भावनाशील के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। महत्ता समझने और श्रद्धा का पुट रहने पर इतनी उदारता अपनाना किसी के लिए भारी नहीं पड़ेगा। व्यस्तता और अभाव ग्रस्तता की बात कहना, तो अपनी कृपणता, अनुदारता और उपेक्षा को ढकने का बहाना मात्र है। वस्तुत: कोई भी विचारशील इतना तो कर ही सकता है कि बाईस घण्टा अपने निजी कार्य के लिए रखकर शेष दो घण्टे इस आपत्तिकाल में युगधर्म को निबाहने के लिए लगाता रहे। एक रुपया इस मँहगाई के जमाने में चौथाई कप चाय की कीमत है। इसे दे सकने में निर्धन भी असमर्थ नहीं रह सकते। उपर्युक्त ढाँचा खड़ा हो जाने पर वे अन्यान्य कार्य सरलतापूर्वक चल पड़ेंगे, जिन्हें अगले ही दिनों व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए उठाया जाना है।

नारी जागरण की दूरगामी सम्भावनाएँ

भावनाशील प्रतिभाओं को खोजना, एक सूत्र में बाँधना और उन्हें मिलजुल कर सृजन के लिए कुछ करने में जुटाना सतयुग की वापसी का शिलान्यास है। इसी के उपरान्त नवयुग का, उज्ज्वल भविष्य का भव्य भवन खड़ा हो सकने का विश्वास किया जा सकता है। इसलिए इसे सम्पन्न करने के लिए इस आड़े समय में किसी प्राणवान् को निजी कार्यों की व्यस्तता की आड़ लेकर बगलें नहीं झाँकनी चाहिए। युग धर्म की इस प्रारम्भिक माँग को हर कीमत पर पूरा करना ही चाहिए।

इन्हीं दिनों उठने वाला दूसरा चरण है- आद्यशक्ति का अभिनव अवतरण नारी जागरण। आज की स्थिति में नारी-नर की तुलना में कितनी पिछड़ी हुई है, इसे हर कोई हर कहीं नजर पसारकर अपने इर्द-गिर्द ही देख सकता है। उसे रसोईदारिन चौकीदारिन धोबिन और बच्चे जनने की मशीन बनकर अपनी जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। दासी की तरह जुटे रहने और अन्न, वस्त्र पाने के अतिरिक्त और भी महत्त्वाकांक्षा सँजोने के लिए उस पर कड़ा प्रतिबन्ध है। परम्परा निर्वाह के नाम पर उसे बाधित और प्रतिबन्धित रहने के लिए कोई ऐसी भूमिका निभाने की गुंजाइश नहीं है, जिससे उसे एक समग्र मनुष्य कहलाने की स्थिति तक पहुँचने का अवसर मिले।

नारी के रूप में प्राय: आधी जनसंख्या की यही स्थिति है। प्राय: शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि उनमें से कुछ सोने की जंजीरों से जकड़ी हैं, तो कुछ लोहे की जंजीरों से। इनमें से कुछ निश्चिन्त कहलाती और नौकरी प्राप्त कर लेने, धनी घर की वधू बन जाने जैसे स्तर प्राप्त कर लेती हैं, पर उन्हें भी समग्र मनुष्य जैसा स्वावलम्बन कहाँ उपलब्ध है? शेष तो अशिक्षा, अस्वस्थता से ग्रस्त होने के कारण पूरी तरह परावलम्बी ही बनी हुई हैं। आपत्तिकाल आ धमकने पर वे अपने बलबूते अपना और बच्चों का भरण-पोषण कर सकने में असमर्थ हैं।

संसार में आधी जनसंख्या नारी की है। इस वर्ग का पिछड़ी स्थिति में पड़े रहना समूची मनुष्य जाति के लिए एक अभिशाप है। इसे अर्धांग-पक्षाघात पीड़ित जैसी स्थिति भी कहा जा सकता है। एक पहिया टूटा और दूसरा साबूत हो, तो गाड़ी ठीक प्रकार चलने और लक्ष्य तक पहुँचने में कैसे समर्थ हो सकती है? एक हाथ वाले, एक पैर वाले, निर्वाह भर कर पाते हैं। समर्थों की तरह बड़े काम सफलतापूर्वक कर सकना उनसे कहाँ बन पड़ता है? आधी जनसंख्या अनगढ़ स्थिति में रहे और दूसरा आधा भाग उसे गले के पत्थर की तरह लटकाए फिरे, तो ऐसी स्थिति में किसी प्रकार समय तो पूरा किया जा सकेगा, किसी महत्त्वपूर्ण प्रगति की सम्भावना बन पड़ना तो दुष्कर ही रहेगा।

पिछड़े वर्ग को ऊँचा उठाने की इन दिनों प्रबल माँग है। इसके लिए अनुसूचित जातियों-जनजातियों को समर्थ बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं। इस औचित्य में एक कड़ी और जुड़नी चाहिए कि हेय स्थिति में पड़ी हुई, दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा जीवन जीने वाली, अनेकानेक प्रतिबन्धों में जकड़ी हुई नारी को भी एकता और समता का लाभ मिले। इस ओर से आँख बन्द किए रहना प्रगति में चट्टान बनकर अड़ा ही रहेगा।

अपंग स्तर का व्यक्ति स्वयं कुछ कर नहीं पाता, दूसरों की अनुकम्पा पर जीता है, पर यदि उनकी स्थिति अन्य समर्थों जैसी हो जाय, तो किसी के अनुग्रह पर रहने की अपेक्षा वह अपने परिकर को अपनी उपलब्धियों से लाद सकता है। जब लेने वाला देने में बदल जाय, तो समझना चाहिए कि खाई पटी और उस स्थान पर ऊँची मीनार खड़ी हो गई। आधी जनसंख्या तक स्वतंत्रता का आलोक पहुँचाना और उसे अपने पैरों खड़ा हो सकने योग्य बनाना उस पुरुष वर्ग का विशेष रूप से कर्तव्य बनता है, जिसने पिछले दिनों अपनी अहमन्यता की पूर्ति की ऐसी विषम परिस्थिति उत्पन्न की। पाप का प्रायश्चित्त तो करना ही चाहिए। खोदी हुई खाई को पाट कर समतल भूमि भी बनानी चाहिए, ताकि उसका उपयुक्त प्रयोग हो सके।

नारी जागरण आन्दोलन इसी पुण्य प्रयास के लिए उभारा गया है। उसके लिए लेटर पैड, साइनबोर्ड मजलिस-भाषण लेखन, उद्घाटन समारोह तो आए दिन होते रहते हैं, पर उस प्रचार प्रक्रिया भर से उतनी गहराई तक नहीं पहुँचा जा सकता, जितनी की इस बड़ी समस्या के समाधान हेतु आवश्यक है। उसके लिए व्यापक जनसम्पर्क साधने और प्रचलित मान्यताओं को बदलने की सर्वप्रथम आवश्यकता है। कारण कि बच्चे से लेकर बूढ़े तक के मन में यह मान्यता गहराई तक जड़ जमा चुकी है कि नारी का स्तर दासी तक ही रहना चाहिए। यही परम्परा है, यही शास्त्र वचन। स्वयं नारी तक ने अपना मानस इसी ढाँचे में ढाल लिया है। चिरकाल तक अँधेरे में रहने वाले कैदियों की तरह उसके मन भी प्रकाश के सम्पर्क में आने का साहस टूट गया है। आवश्यकता प्रस्तुत समूचे वातावरण को बदलने की है; ताकि सुधार प्रक्रिया की लीपा-पोती न करके उसके जड़ तक पहुँचने और वहाँ अभीष्ट परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सके।

क्रान्तिकारी कदम बढ़ें- देखा गया है कि नारी उत्थान के नाम पर प्रौढ़ शिक्षा कुटीर उद्योग, शिशु पालन, पाक विद्या, गृह व्यवस्था जैसी जानकारियाँ कराने में इतिश्री मान ली जाती है। यों यह सभी बातें भी आवश्यक हैं और किया इन्हें भी जाना चाहिए, पर मूल प्रश्न उस मान्यता को बदलने का है। जिसके आधार पर नारी को पिछड़ेपन में बँधी रहने वाली व्यापक मान्यता में कारगर परिवर्तन सम्भव हो सके। नारी को भी मनुष्य माना जा सके।

आज तो लड़के लड़की के दृष्टिकोण का असाधारण अन्तर है। लड़की के जन्मते ही परिवार का मुँह लटक जाता है और लड़का होने पर बधाइयाँ बँटने और नगाड़े बजने लगते हैं। लड़का कुल का दीपक और लड़की पराए घर का कूड़ा समझी जाती है। वरपक्ष दहेज की लम्बी चौड़ी माँगें करता है और लड़की के अभिभावक विवशता के आगे सिर झुकाकर लुट जाने के लिए आत्म समर्पण करते हैं। पति के तनिक अप्रसन्न होने पर उन्हें परित्यक्ता बना दिया जाना और रोते कलपते जैसे-तैसे भला बुरा जीवन जीने की घटनाएँ इतनी कम नहीं होती जिनको आजादी दी जा सके। दहेज के लिए यातनाएँ दिये जाने की कुछ घटनाएँ तो अखबारों तक में छप जाती हैं, पर जो भीतर ही भीतर दबा दी जाती हैं, उनकी संख्या छपने वाली घटनाओं से अनेक गुनी अधिक हैं।

पतिव्रत पालन के लिए लौह अंकुश रहता है, पर पत्नीव्रत का कहीं अता-पता नहीं। विधुर प्रसन्नतापूर्वक विवाह करते हैं, पर विधवाओं को ऐसी छूट कहाँ? नारियाँ सती होती हैं, पर नर वैसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। नारियाँ घूँघट करके रहती हैं। नाक, कान छिदवाकर सज- धज के रहने के लिए उन्हें इसलिए बाधित किया जाता है कि वे अपना रमणी, कामिनी, भोग्या और दासी होने की नियति का स्वेच्छापूर्वक-उत्साहपूर्वक मानस बनाए रख सकें।

लोकमानस का यह लौह आवरण हटे बिना नारी को नर के समतुल्य बनाने और उन्हें अपनी प्रतिभा का परिपूर्ण परिचय देकर प्रगति पथ पर कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहने का अवसर आखिर कैसे मिल सकता है? आवश्यकता इस लौह आवरण के ऊपर लाखों-करोड़ों छेनी हथौड़े चलाने की है, ताकि निविड़ बन्धनों से जकड़ी आधी जनसंख्या को छुटकारा पाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सके। अपने मिशन का नारी जागरण अभियान इसी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है। पत्तों पर जमीं धूल को पोंछ कर चिह्न पूजा कर लेने से तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना भर बन पड़ती है।

नारी जागरण अभियान के लिए जो महिला मण्डल गठित किए जा रहे हैं। उनका शुभारम्भ श्रीगणेश तो हलके-फुलके कार्यक्रम को हाथ में लेकर ही किया जा रहा है, पर यह नवसृजन का भूमिपूजन मात्र है। वस्तुस्थिति अवगत कराने के लिए उस आन्दोलन को जन्म देना पड़ेगा जो मानवी स्वतंत्रता और समता का लक्ष्य पूरा करके ही विराम ले।

कहा गया है कि अखण्ड ज्योति के परिजन स्वयं पाँच-पाँच के मण्डलों में गठित हों और पाँच से पच्चीस बनकर मण्डल को पूर्णता तक पहुँचाएँ। साथ ही कहा गया है कि वे अपने परिवार तथा सम्पर्क क्षेत्र में से ढूँढ़-खोजकर पाँच प्रतिभाशाली महिलाओं की एक मण्डली बनाएँ। वे भी परस्पर सम्पर्क साधते हुए पाँच से पच्चीस बनने का लक्ष्य प्राप्त करें। साप्ताहिक उनके लिए भी उसी प्रकार अनिवार्य किया गया है जैसा कि पुरुषों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इतना बन पड़ने पर ही यह माना जाएगा कि पुरुषों का एवं नारियों का सतयुग की वापसी के लिए किया जाने वाला प्रयास जड़ें पकड़ लिया है।

पुरुषों को नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति की तैयारी करनी है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की संरचना की भी। व्यक्ति, परिवार और समाज के तीनों ही क्षेत्रों में सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और कुरीति उन्मूलन की बहुमुखी प्रवृत्तियों को जन्म देना और मार्गदर्शन करना है। इसके लिए कार्यकर्ताओं की योग्यता और परिस्थितियों की आवश्यकता से तालमेल बिठाते हुए अनेक प्रकार के छोटे-बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जाने हैं, जिनके लिए आवश्यकता हो या शान्तिकुञ्ज के साथ विचार विनिमय भी करते रहा जा सकता है।

महिलाओं के लिए साप्ताहिक सत्संगों को सुनिश्चित बनाने के उपरान्त शिक्षा संवर्धन, आर्थिक स्वावलम्बन से सम्बन्धित गृह उद्योग, संगीत अभ्यास से मुखर होने और अभिव्यक्तियों को प्रकट कर सकने का अभ्यास, कुरीति उन्मूलन के लिए छोटे-बड़े आयोजन तथा परिवार निर्माण की समुचित योग्यता प्राप्त करना सभी महिला मण्डलों के लिए समान कार्यक्रम बना है। इससे आगे उन्हें ऐसा कुछ कर दिखाना है जिससे मात्र व्यक्तिगत स्थिति ही न सुधरे, वरन् व्यापक नारी समस्याओं के समाधान के लिये क्षेत्रीय तन्त्र खड़े करने का सरंजाम जुटा सकें। असहाय महिलाओं को समर्थ बनाना और उन्हें लोकसेविका बनाने का कार्यक्रम भी इसी योजना को निकट भविष्य में कार्यान्वित किया जाने वाला बड़ा कदम है, जो अपने समय पर अपने ढंग से निरन्तर उठते रहेंगे, गति पकड़ते रहेंगे।

हर किसी को समझना और समझाया जाना कि नारी आद्यशक्ति है। वही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली, अपने स्तर के स्वरूप परिवार का तथा भावी पीढ़ी का सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है। इक्कीसवीं सदी में उसी का वर्चस्व प्रधान रहने वाला है। नर ने अपनी कठोर, प्रकृति के आधार पर पराक्रम भले ही कितना क्यों न किया हो? पर उसी की अहंकारी उद्दण्डता ने अनाचार का माहौल बनाया है। स्रष्टा की इच्छा है कि स्नेह, सहयोग, सृजन, करुणा, सेवा और मैत्री जैसी विभूतियों को संसार पर बरसने का अवसर मिले; ताकि युद्ध जैसी अनेकानेक दुष्टताओं का सदा सर्वदा के लिए अन्त हो सके।

इस भवितव्यता को स्वीकार करने के लिए लोकमानस को समझाया और दबाया जाना चाहिए कि वह नारी की समता से नहीं, वरिष्ठता से भी लाभान्वित करे। सतयुग की वापसी का शुभारम्भ करना वर्तमान जन समुदाय का काम है। ढाँचा और तंत्र खड़ा करना, सरंजाम जुटाना और वातावरण जुटाना उसी का काम है। पर उन उत्तरदायित्वों को अगली पीढ़ी के ही कन्धों को ही उठाना होगा। आज जो पौधे लगाए जा रहे हैं, उनके द्वारा विकसित हुए फूलों की शोभा-सुषमा को सुरक्षित रखने का कार्य तो वे ही करेंगे, जो आज भले ही जन्मे हों, जन्मने जा रहे हों, पर आवश्यकता के समय तक प्रौढ़ परिपक्व होकर रहेंगे।

ऐसी समुन्नत पीढ़ी को जन्म दे सकना तथा सुसंस्कृत बनाना उन नारियों के लिए सम्भव हो सकेगा, जो आज के महान अभ्युदय में भागीदार बनकर नवसृजन की महती भूमिका निभाने में किसी न किसी प्रकार अपनी विशिष्टता का परिचय देगी। आज के नारी जागरण आन्दोलन को भविष्य में अतिशय प्रभावित करने वाला बनाना भी इसका एक महान उद्देश्य है।

ये मानसून जल थल एक करेंगे

नर्सरियों में उन्नत किस्म की पौधें लगाई जाती हैं। कलम लगाने का कौशल ऐसे पेड़ उत्पन्न करते हैं, जो मूल उत्पादन से भिन्न होते हैं। पशु फर्मों में नस्लें सुधारी जाती हैं। खरादी अनगढ़ पत्थरों को तराश कर बहुमूल्य हीरे का रूप देते हैं। कीमियागर साधारण धातुओं को जला-गला कर संजीवनी रसायनों में परिणत करते हैं। फैक्ट्रियों मेें कच्चे माल को उपयोगी शक्ल देकर आकर्षक एवं उपयोगी बनाया जाता है। इन्हीं प्रयासों में शान्तिकुञ्ज का क्रियाकलाप भी सम्मिलित किया जा सकता है। वह अपने ढंग का एक ऐसा महाविद्यालय है, जहाँ सामान्यजन कुछ पाने की इच्छा से तो आते हैं और लौटने पर वरिष्ठ स्तर का व्यक्तित्व साथ लेकर जाते हैं। युगसन्धि की आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य प्रतिभाओं को खोजा, ढाला और प्रखर प्रामाणिक बनाकर लौटाया जाता है। लम्बे समय से यही एक प्रक्रिया अपने विभिन्न क्रिया-कलापों के साथ गतिशील रही है और सराहने योग्य सफलता उपलब्ध करती रही है।

स्थानीय गतिविधि को बारीकी से निरीक्षण परीक्षण करने पर प्रतीत होता है कि चाहे अनुसन्धान हो, चाहे युगशिल्पी प्रशिक्षण, चाहे स्वावलम्बन विद्यालय, चाहे जड़ी-बूटी अनुसन्धान हो, सबके पीछे एक ही उद्देश्य समाहित है कि परिष्कृत स्तर की ऐसी प्रतिभाएँ ढाली जाएँ, जो अपने को गौरवान्वित करें, लोकनायकों जैसी विशिष्टता सम्पन्न करें और बदलते युग के अनुरूप अभीष्ट परिवर्तन प्रस्तुत करने के लिए कुछ साहस भरे कदम उठा सकें। इस प्रयोजन के लिए समग्र स्वास्थ्य संवर्धन, दीपयज्ञों द्वारा देश भर में नवचेतना उत्पन्न करने वाले आयोजन, विचार क्रान्ति के लिए आवश्यक साहित्य सृजन जैसे अनेक छोटी-बड़ी गतिविधियों को सहज कार्यान्वित होते देखा जा सकता है। जनमानस का अन्तराल लहराने के लिए संगीत शिक्षा को प्रमुखता दी गई है। स्काउटिंग-अनुशासन अनिवार्य हैं। गृहस्थ कार्यकर्ताओं के परिवार जिस रीति-नीति को अपनाकर काम करते हैं, उसे ब्राह्मण परम्परा का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।

इस बहुमुखी प्रशिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत समर्थ व्यक्तियों का सृजन और कार्यक्रमों आयोजनों का तारतम्य, आपस में गूँथकर एक ऐसा व्यापक वातावरण तैयार कर रहे हैं, जिसके प्रभाव से नवयुग के अनुुरूप, आरम्भिक क्रियाकलापों को आवश्यक गति मिल सके। उच्चस्तरीय व्यक्तित्व, इस तन्त्र के साथ इतनी अधिक संख्या में जुड़े हुए हैं कि उनके परामर्श आवागमन हेतु आवास और भोजन की सुविस्तृत व्यवस्था करनी पड़ती है। भोजनालय में प्राय: एक हजार से भी अधिक व्यक्तियों का सहभोज सम्पन्न होता रहता है। पत्र व्यवहार का अपना विभाग है, जिसके अन्तर्गत हर महीने हजारों-लाखों को घर बैठे आवश्यक प्रकाश परामर्श प्राप्त करते रहने की सुविधा उपलब्ध रहती है। जन जागरण के लिए प्रचार टोलियाँ विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचती और नवजीवन को उभारने के लिए युग चेतना का प्रकाश वितरण करती हैं।

व्यक्ति और समाज के, राष्ट्र और विश्व के सम्मुख उपस्थित अनेकानेक समस्याओं, विपन्नताओं का एक मात्र कारण है चिन्तन और चरित्र में निकृष्टता का स्तर असाधारण रूप से बढ़ जाना। इसका एक मात्र हल और निराकरण आदर्शवाद की पक्षधर विचार क्रान्ति से ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार के सुनियोजित प्रयत्न दूसरी जगह से हुए हैं या नहीं। यह तो नहीं कहा जा सकता, पर यह निश्चय है कि शान्तिकुञ्ज ने तथ्यों के अनुरूप सुधार-परिष्कार की व्यवस्थित योजना बनाई ही नहीं; बल्कि कार्यान्वित भी की है। इस प्रयोजन में प्रमुख भूमिका मिशन की मासिक पत्रिकाओं ने निभाई है। उनके लेख पाठकों के अन्तराल को छूते और नवसृजन के प्रयास में सम्मिलित होने के लिए उल्लसित करते रहे हैं। पाठकों के साथ जुड़ने वाली घनिष्टता का ही प्रतिफल है कि उनकी ग्राहक संख्या उसी अवधि में पाँच सौ गुनी हो गई और अगले ही दिनों हजार गुनी होने जा रही है। यह एक अनोखा कीर्तिमान है।

प्रचार प्रयोजनों में पाँच सौ से अधिक संख्या में छपे युग साहित्य का योगदान है। जिनके अनेक संस्करण छपे हैं, अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। इसके अतिरिक्त दीपयज्ञ जैसे नितान्त सस्ते और सर्वसुलभ आयोजनों ने देश के कोने-कोने में युग चेतना का व्यापक विस्तार किया है। स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, झोला पुस्तकालय, आदर्श वाक्य लेखन, स्टीकर आदि ने भी जनमानस को झकझोरने में कम योगदान नहीं दिया है। इन सभी प्रयत्नों को आगे भी इसी उत्साह के साथ जारी रखा जा रहा है; ताकि इस युग चेतना का आलोक और भी बड़े क्षेत्र में विस्तृत हो सके।

इन दिनों शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में दो महान आन्दोलनों को उभारा गया है, जो देखने में छोटे, किन्तु परिणाम में दूरगामी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले समझे जा सकते हैं। वे गति पकड़ रहे हैं और मत्स्यावतार की तरह अपना कलेवर बढ़ा रहे हैं, तूफान की तरह प्रचण्ड गतिशीलता अपना रहे हैं। चक्रवातों की तरह तिनकों और पत्तों को जमीन से उछालकर आकाश तक पहुँचाने की क्षमता उनमें है। अगले दिनों देखा जा सकेगा कि इन दोनों ने हिमालय से निकलने वाली गंगा यमुना की तरह सूखी मरुभूमि को शस्य श्यामला बनाया कि नहीं? जहाँ करो या मरो का लक्ष्य हो, जहाँ दृष्टि सदा ऊँचे आसमान पर ही जमीं रहती हो, वहाँ असफलता का कोई कारण नहीं, कारण वश थोड़ा विलम्ब भले लग जाय।

सुसंस्कारियों का संगठन और सृजन कृत्यों का संकल्परत होना ही सतयुग की वापसी के नाम से जाना जाने वाला प्रथम आन्दोलन है। पाँच से पच्चीस बनने की नीति इन्हें सुसज्जित गुलदस्ते का रूप दे रही है। प्रज्ञा मण्डल और महिला मण्डल इसी के दो पक्ष हैं। दोनों को मिलाकर संगठन की शक्ति, दुर्दान्त दिखने वाली आसुरी शक्तियों की तुलना में तगड़ी पड़ती है नहीं? इस सम्बन्ध मे फैले हुए भ्रम का अगले दिनों निराकरण हो सकेगा। सत्य जीतता है, पराक्रम जीतता है, ब्रह्मवर्चस् जीतता है, इस संकल्प के सार्थक होने की विश्वासपूर्वक प्रतीक्षा की जा सकती है।

आद्यशक्ति का पुनर्जागरण नाम से नारी जागरण आन्दोलन की लाल मशाल प्रज्वलित की गई है। इसके संगठनात्मक-रचनात्मक पक्षों की जानकारी तो लोगों को पहले भी थी, पर अब उनमें एक संघर्षपरक तथ्य और जोड़ा गया है-दहेज जेवर और धूम-धाम रहित विवाहों का प्रचलन। कहना न होगा कि खर्चीली शादियों ने हमें दरिद्र और बेईमान बनाया है। उत्पादन बढ़ने पर भी दरिद्रता से पीछा नहीं छूटा, इसका एक बड़ा कारण विवाहोन्माद ही है। इसकी खुमारी में, गरीब लोग भी अमीरों जैसा स्वाँग बनाते और घर फूँक तमाशा देखते हैं।

आन्दोलन ने प्रज्ञा परिवार से सम्बन्धित हर विचारशील को बाध्य किया है कि वे नितान्त सादगी के साथ शादियाँ करने की प्रतिज्ञा करें। अभिभावक अपने लड़के-लड़कियों पर दहेज न लेने और जेवर न चढ़ाने की प्रतिज्ञा करें। विवाह योग्य किशोर और किशोरियाँ प्रण करें, कि वे इस उन्माद के कुचक्र से कोसों दूर रहेंगे। लालची और प्रतिगामी परिवार वाले यदि दबाव डालेंगे, तो अविवाहित रहना स्वीकार करेंगे, पर इस अनीति के आगे सिर न झुकायेंगे, जिसने अपने समाज को अविवेकी मूढ़जनों का झुण्ड मात्र बनाकर रख दिया है। जिसने परिवारों की सुख शान्ति हराम कर दी है। जो अपने देश की आर्थिक बर्बादी का कारण है। ऐसे दहेज दानवों की भेंट चढ़ने की अपेक्षा अविवाहित रह कर जिन्दगी गुजारना हजार गुना अच्छा है।

यह बातेें कहा-सुनी में, पिछले दिनों में चर्चा का विषय ही रही हैं; पर उसे अब कार्य रूप में परिणत किया जायेगा। प्रज्ञा परिवार का कोई सदस्य इस अनाचार मेें भागीदार न बनेगा। अपने प्रभाव क्षेत्र पर इस हेतु दबाव डालेगा और जो न मानेंगे, उसके यहाँ ऐसे उत्सवों में सम्मिलित होने के लिए नहीं ही जायेगा। ढुलमुल नीति अपनाने पर किसी की सिद्धान्तवादिता तो खरी तो नहीं उतरती। अखण्ड ज्योति परिवार के पाँच लाख और उनसे सम्बन्धित पच्चीस लाख व्यक्ति, यदि इस परिवार में इस आन्दोलन को शुरू करें, तो कोई कारण नहीं कि अन्यत्र भी इसका प्रभाव न पड़े और इस प्रकार के अन्यान्य कुप्रचलनों पर भी कुठाराघात का सिलसिला न चल पड़े। जाति-पाँति पर आधारित ऊँच-नीच मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय आदि और भी अनेक कुप्रचलन हैं, जिन्हें अगले ही दिनों दहेज के दानव की तरह परास्त करना होगा। गाँधी जी का छोटा दिखने वाला नमक सत्याग्रह करो या मरो के रूप में विकराल हुआ था और अनाचार का विस्तर गोल करके ही रुका था। नारी जागरण आन्दोलन की पूर्णता विवाहोन्माद के समापन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इसी के कारण तो नारी को हेय समझा और नर को श्रेय दिया जाता है। दहेज के रहते नारी जागरण की बात सोचना एक दिवास्वप्न जैसा मखौल ही बना रहेगा।

सतयुग की वापसी आन्दोलन के साथ दो तथ्य जुड़ते हैं। एक विचारशीलों का संगठन एवं दूसरा है प्रगतिशीलता के पक्षधर वातावरण का प्रचण्ड वातावरण निर्माण। इसके लिए लोगों में दूरदर्शी विवेकशीलता उभारने के लिए प्रचार प्रक्रिया को तेज करना पड़ेगा। लेखनी, वाणी, संगीत, अभिनय, साहित्य, काव्य, चिन्तन आयोजन, समारोह आदि की जितनी विधि-व्यवस्थाएँ जहाँ जिस प्रकार बन पड़े, वहाँ उन्हें परिस्थितियों के अनुरूप अपनाया और व्यापक बनाया जाना चाहिए। इन प्रचलनों के सहारे वातावरण झकझोरा और प्रगतिशीलता का पक्षधर बनाया जा सकता है।

अभी दोनों आन्दोलनों का आरम्भ अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों से हो रहा है, पर वह इतनी छोटी परिधि में सीमित होकर रहने वाला नहीं है। प्रज्ञा परिजनों द्वारा की जा रही यह उछल-कूद कुछ ही दिनों में देश की अस्सी करोड़* जनता, विश्व के पाँच सौ करोड़ मनुष्यों के सिर पर जादू की तरह चढ़कर बोलेगी। यह विद्या अपनाने के लिए लोगों को बाधित करेगी। जिसके सहारे विनाश की तमिस्रा हटे और उषाकाल का अरुणोदय, बदलते संसार का सन्देश लेकर मुसकराये।

प्रतिभाएँ संसार के हर क्षेत्र में मौजूद हैं। धनाढ्यों, शासन अध्यक्षों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और मनीषियों को अपने-अपने ढंग से काम करते हुए देखा जा सकता है। उनकी प्रखरता और प्रचण्डता ने जो कुछ भी भला-बुरा बन पड़ा है, उसे आश्चर्यजनक सफलता के साथ सम्पन्न किया है। इन वर्गों को युग चेतना अछूता नहीं छोड़ेगा, उसे झकझोरने और समय के अनुरूप बदलने के लिए बाधित करेगी। अब तक भले ही स्वार्थपरता और प्रमाद को प्रोत्साहित करते रहे हों, पर आगे उन्हें अपनी क्षमता को मोड़ना-मरोड़ना और सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित करना होगा।

तूफानों, भूकम्पों, विस्फोटों, आन्दोलनों का उद्गम कहीं भी क्यों ना रहा हो? जब वे गति पकड़ते हैं, तो व्यापक बनते चले जाते हैं। राजक्रान्तियों का सिलसिला इसी प्रकार चला था और असंख्य राजमुकुट अनायास ही धराशायी होते चले गए। सृजन की भी अपनी लहर है। सतयुग में ऐसा ही प्रभावोत्पादक मानसून उठा होगा, उसने धरती पर मखमली फर्श बिछाते हुए स्वर्ग जैसा वातावरण बनाकर विनिर्मित कर दिया होगा।

रात्रि की तमिस्रा सदा नहीं रहती। दिन को भी प्रकट होने का अवसर मिलता है। तब छोटे पक्षी ही नहीं, गजराज भी अपनी चिंघाड़ और वनराज अपनी दहाड़ से दिशाओं को गुंजित करते दिखाई देते हैं। ऐसा न समझा जाना चाहिए कि अखण्ड ज्योति परिवार ही अपने सृजन प्रयासों तक सीमित रह जायेगा। उमगता युग प्रवाह उन बड़ी प्रतिभाओं को भी अपने साथ लेकर चलेगा, जो पिछले दिनों विनाश के जाल जंजाल रचती रही हैं।

आत्मिक प्रगति का प्रत्यक्ष प्रमाण

असमर्थों के साथ उदारता बरती और उनकी सहायता की जाती है। बच्चों को सुविधा देने में अभिभावक अपनी अपेक्षा एवं उन्हें प्राथमिकता देते हैं। यह उचित भी है और आवश्यक भी। पर यह भी निश्चित है छोटे बच्चों का विवाह नहीं किया जाता; क्योंकि वे पत्नी का दायित्व वहन करने की स्थिति में नहीं होते। इसी प्रकार उन्हें किसी बड़ी प्रतियोगिता में सम्मिलित होने, बढ़ा-चढ़ा कारोबार सँभालने या सेना में भर्ती होने के लिए उत्साहित नहीं किया जाता है; क्योंकि असमर्थता के रहते किसी से कोई बड़ा कार्य सधता नहीं। फिर उन्हें बाधित और लज्जित क्यों किया जाय? रोगी, वृद्ध, अपंग, अविकसित भी तो ज्यों-त्यों करके अपने दिन काटते हैं। जो अपना भार स्वयं वहन नहीं कर सकते, वे किसी आड़े समय में कोई बड़ा काम कर दिखाने का साहस कहाँ जुटा पाते हैं? कहने और सोचने को तो शेख चिल्ली भी लम्बी हाँकता था, पर उसका हवाई महल साकार कहाँ हो सका था।

नवसृजन एक अतीव महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। इतना महत्त्वपूर्ण कि उसके बन पड़ने पर उज्ज्वल भविष्य का प्रारम्भ सम्भव है और न बन पड़ने पर सुरसाओं का समूह इन मुट्ठी भर मनुष्य प्राणियों की सत्ता और महत्ता दोनों को ही उदरस्थ कर सकता है। यह ऐसा समय है जिसे ऐतिहासिक, अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इसमें जीवन या मरण में से एक का चयन होना है। डूबने और पार होने में से कोई एक नियति इन्हीं दिनों अवतरित होने वाली है।

प्रवाह विनाश की दिशा में बह रहा है। यह हस्तामलकवत् स्पष्ट है। तथाकथित प्रगति में अपने छल-छद्म के सहारे बहुत छीन लिया, यदि नशेबाजी जैसी खुमारी अभी न उतरी तो जो बचा है, उसे भी गँवा बैठने का दुर्दिन देखना पड़ सकता है। इसे देव और दैत्य के बीच छिड़ा हुआ घमासान युद्ध भी कह सकते हैं। तमिस्रा सघन और व्यापक है, किन्तु ब्राह्ममुहूर्त के उषाकाल ने पूरी तरह हार नहीं मानी है, यह अगले ही दिनों, अभिनव अरुणोदय का प्राची में उदय होना सुनिश्चित बताता है। आशा यही की जानी चाहिए कि महाकाल विनाश को निरस्त करने और विकास को प्रश्रय देने वाली योजना को ही समर्थन प्रदान करेंगे, उज्ज्वल भविष्य ही जीतेगा। सतयुग की वापसी वाली सम्भावना के पीछे अधिक प्राणवान् तथ्य हैं। इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य के सजधज कर आने और सिंहासन पर विराजने का सुयोग बन पड़े, तो उसे दिव्यदर्शियों द्वारा अकारण की गई भविष्यवाणी नहीं मानना चाहिए।

युगसंधि के लिए इस महा अभियान में, सभी दूरदर्शी अपने अपने दृष्टिकोण से योगदान प्रस्तुत करें। दुर्बल-नितान्त-परावलम्बी आन्तरिक सामर्थ्य के रहते हुए भी, सत्य के अवतरित होने की कामना करते रहें, तो भी काम चलेगा। प्रतिगामी दुराग्रही [अपने हठ और अवरोध को] समय को देखते हुए कुछ समय निरपेक्ष रहें और अड़ंगे आदि लगाने से बाज आएँ। निहित स्वार्थी को इसलिए शान्त रहना चाहिए कि समय परिवर्तन में उनका नाम काली सूची में न लिखा मिले और पराजित प्रतिरोध कर्ताओं की तरह लज्जित न होना पड़े। प्रमुख भूमिका तो उन प्रतिभाओं की रहेगी, जिनकी परम्परा ही अनौचित्य को उलट देने में अपनी गरिमा प्रकट करती रही है। इन प्राणवानों की श्रेणी में शामिल होना ही इन दिनों आत्मिक प्रगति का-वरिष्ठता का सुनिश्चित प्रमाण माना जायेगा।

सुसंस्कारिता संवर्धन के दस उपक्रम

ईर्ष्या-द्वेष प्रतिशोध, आक्रमण, अपहरण जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ, संचित कुसंस्कारों की सहायता से सुदृढ़ और चिरस्थाई बनी रहती हैं। वे अपना हठ पूरा करती भी देखी गईं; किन्तु आदर्शवादी सत्संकल्पों के बारे में ऐसी बात नहीं है। उनका उत्पादन मानसरोवर में उत्पन्न होने वाले मोतियों की तरह जब-जब ही प्रकट होता है। तथाकथित स्वजन सम्बन्धियों मित्र, परिजनों का समर्थन न मिलने पर, सामान्य लोग पानी के अभाव में सूखने वाले पौधों की तरह सिर झुकाकर हार मान लेते हैं। एकाकी चल पड़ने का साहस दिखाना भी हर किसी के बलबूते का नहीं होता। उस प्रकार के उच्चस्तरीय उदाहरण न मिलने पर, असफल रहने की निराशा पनपती है। प्रेरणा के किसी अजस्र स्रोत के साथ भी तो प्रवाह का तारतम्य जुड़ा नहीं होता। ऐसे अनेक कारण हैं जिनमें सदुद्देश्य के लिए उभरी भावनाएँ पानी के बुलबुले की तरह कुछ ही समय हलचल में रहती हैं और फिर उदासीनता के गर्त में समा जाती हैं। देखा गया है कि आदर्शवादी उत्साह प्राय: उसी प्रकार ठण्डा पड़ता और समाप्त होता रहता है। इस दयनीय स्थिति से छुटकारा पाए बिना किसी से ऐसे श्रेष्ठ काम कदाचित् ही बन पड़ते हों, जिन्हें आदरणीय कह कर सराहा जा सके।

उसका उपचार है किसी समर्थ सत्ता से जुड़ना, उच्चस्तरीय प्रकाश और मार्गदर्शन निरन्तर मिलते रहने का तारतम्य बिठाना और ऐसे वातावरण में सम्मिलित होना जहाँ उच्चस्तरीय गतिविधियों के सूत्र संचालन का उपक्रम स्वाभाविक रूप से सदा बना रहता हो। वातावरण की तरह, श्रद्धा को नए सिरे से जगाने वाले धार्मिक कर्मकाण्डों का भी अपना महत्त्व है। धरती पर जिस तिस रूप से वर्षा का जल ही भरा पड़ा है, पर घर के पानी, गंगोत्री-उद्गम और त्रिवेणी संगम के गंगाजल की अपनी विशेष महत्ता है। स्थान की विलक्षणता और असंख्यों की श्रद्धा का अभिवर्धन मिलकर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करता है। पवित्रता, विशिष्टता और भाव प्रेरणा से भरे पूरे स्थानों की अपनी विशेषता एवं दिव्यता है। तीर्थयात्रा का, तीर्थसेवन का प्रचलन इसी आधार पर कार्यान्वित हुआ है।

प्रतिज्ञा संस्कारों की अपनी गरिमा है। विवाह यदि बिना देव साक्षी के, जन-उपस्थिति के, बिना कर्मकाण्ड के गुप-चुप कर लिया जाय, तो स्थिरता सन्दिग्ध ही रहेगी। उपनयन संस्कार दूसरा जन्म है, उसको भी सांस्कृतिक परिवेश में मान्यता मिली हुई है। वानप्रस्थ, संन्यास आदि ऊँचे कदम उठाने वाले भी उस परिवर्तन काल में शास्त्रोक्त क्रिया कृत्य सम्पन्न करते हैं। प्रतिज्ञाओं को संस्कार भाव भरे वातावरण में सम्पन्न किया जाय, तो उनके निभने की आशा बहुत अधिक बढ़ जाती है। वे कृत्य यदि जीवन्त तीर्थ में और ज्वलन्त प्राण ऊर्जा के सान्निध्य में किए जाएँ, तो इस व्रतधारिता की दृढ़ता और असफलता असन्दिग्ध रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भी सुनिश्चित मनोभूमि होने पर कुछ सत्साहस को निश्चय में उतारा जा सकता है। पर यदि मानसिक दुर्बलता और वातावरण की हीनता दृष्टिगोचर हो, तो यह अच्छा है कि इसके लिए तीर्थ भूमि में, प्रखरता भरे वातावरण में शास्त्रीय अनुशासन में उसे सम्पन्न किया जाय। इसके लिए शान्तिकुञ्ज आश्रम हर कसौटी पर खरा उतरा है। सतयुग की वापसी और आद्यशक्ति अवतरण के योग्य अपना व्यक्तित्व ढालने और प्रयासों को प्रखर करने हेतु कभी पाँच दिन के लिए हरिद्वार आना चाहिए और यहाँ रहकर कुछ व्रत साधना करते हुए वह निश्चय करना चाहिए, जिससे अगले दिनों महत्त्वपूर्ण कदम उठें और उसके लिए अपने प्रसुप्त शक्ति स्रोत उभरें।

इस सन्दर्भ में अब कई प्रयोजनों के लिए व्रतधारण संस्कार निरन्तर चलते हैं, इसकी व्यवस्था की गई है; ताकि तदनुरूप उत्साह वर्धक वातावरण बना रहे और व्रतधारी अपने में कुछ विशिष्ट परिवर्तन अनुभव करते हुए लौटें।

भारतीय देव संस्कृति में पारिवारिक उत्सवों के रूप में संस्कारों और सामूहिक समाज प्रशिक्षण के लिये पर्व-त्यौहारों का विशेष स्थान है। प्राचीनकाल में लोकशिक्षण की महान प्रक्रिया में इन दोनों का प्रमुख स्थान था। भाव भरे वातावरण तथा देव साक्षी के सम्मुख हुए ये आयोजन, न केवल सम्बन्धित व्यक्ति पर, वरन् परिजनों-उपस्थित जनों को उस सन्दर्भ में उद्वेलित करते थे। सुसंस्कारिता अभिवर्धन के लिये सुझाए गए मार्गदर्शन को वे सभी हृदयंगम करते थे और जिसे माध्यम बनाकर यह सब किया गया, उसे सफल बनाने में योगदान देने में तत्परता अपनाते थे। इन आयोजनों का स्वरूप ऐसा बन पड़ता था कि उससे भावनाएँ उभारने एवं उन्हें सन्मार्ग में लगाने का प्रयोजन असाधारण रूप से सिद्ध होता था।

आज उस गरिमा का स्मरण करना भी कठिन पड़ रहा है; क्योंकि अब संस्कारों, पर्वों की चिह्न−पूजा भर होती है। निहित स्वार्थ उनके बहाने दक्षिणा तथा वस्तु सामग्री बटोरने का प्रयत्न करते हैं। पौरोहित्य करने वालों का न तो वैसा स्तर होता है और न विधान के भावना पक्ष का साङ्गोपाङ्ग ज्ञान। सामूहिक आयोजन की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती। ऐसी दशा में वे उपेक्षा और उपहास के निमित्त कारण बन गए तो आश्चर्य ही क्या है? नवयुग में उस सार्वभौम, सर्वजनीन भाव उन्नयन प्रक्रिया का पुनर्जीवन सम्भव किया जा रहा है। सतयुग की वापसी के साथ उसे जोड़ा गया है।

शान्तिकुञ्ज में जिन व्रतधारी संस्कारों को नए सिरे से आरम्भ किया गया है। वे इस प्रकार हैं -

(१) जन्मदिवसोत्सव - मनुष्य जन्म की महान महिमा अनुभव करना उसके सदुपयोग की बात सोचना। शेष जीवन की सुनिश्चित विधि व्यवस्था बनाकर हर वर्ष नए जीवन को अधिक ऊँचा निर्धारण करना।

(२) बालसंस्कार - बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ आदि संस्कारों के अवसर पर, अभिभावकों को हर परिवार वालों को यह बोध कराना कि नए अभ्यागतों को हर दृष्टि से श्रेष्ठ, समुन्नत बनाने के लिए, सम्बन्धित व्यक्तियों के क्या कत्र्तव्य हैं? इन्हें पूरा करने के लिए समुचित ध्यान दिलाना।

(३) पुंसवन संस्कार:- गर्भावस्था के आरम्भिक दिनों में ही पति-पत्नी तथा सम्बन्धित परिवार के लोगों को बोध कराना कि नवजात शिशु के लिए उसके आगमन से पूर्व किन तैयारियों में जुटना और आगन्तुक को एक श्रेष्ठ विश्व नागरिक के रूप में कैसे विकसित करना?

(४) उपनयन- पशु प्रवृत्तियों से ऊँचे उठकर देव जीवन में प्रवेश करने का अनुबन्ध। दूसरे जन्म की अवधारणा का क्रियान्वयन। उपनयन के साथ जुड़े हुए नौ सूत्रों का, नौ मानवीय गुणों की अवधारणा के लिये अनवरत प्रयास को प्रोत्साहन।

(५) विवाह दिवसोत्सव- विवाह के समय अनुबन्ध का हर वर्ष नवीनीकरण। विवाह के साथ जुड़े हुए उच्चस्तरीय सिद्धान्तों का पुन: स्मरण। अब तक प्रमाद किया गया है, तो उसे विस्मृत करते हुए इस प्रकार का दाम्पत्य जीवन निर्धारण, जो हर किसी के लिये हर प्रकार श्रेयस्कर बन सके।

(६) श्राद्ध तर्पण- वंशधर पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन। संसार के दिवंगत महामानवों का अनुयायी बनने के लिए अभिनव स्फुरण। उन्हें प्रतिदिन प्रदान करने के दायित्व का स्मरण और उसे चरितार्थ करने के लिए साहस का सँजोना। पूर्वजों की कीर्ति स्मरण करते हुए उसे अक्षुण्ण रखने के लिए वृक्षारोपण जैसे कुछ नियम निर्धारण। उनकी छोड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करना। उनकी तृप्ति के लिए परमार्थ परक उदारता का प्रदर्शन।

उपर्युक्त छ: संस्कार व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन को प्रभावित करते हैं। समाज पर भी उनका उपयोगी प्रभाव पड़ता है। इससे आगे के शेष चार संस्कार वे हैं, जिनका सतयुग की वापसी और नारी जागरण से सीधा सम्बन्ध है।

(७) व्रतधारी प्रज्ञा मंडल के नव निर्माता पाँच सदस्यों को कर्तव्य और संकल्प की दृढ़ता बनाए रखने के लिए व्रत धारण। यही निर्धारण नव गठित महिला मण्डलों पर भी लागू होता है। इस प्रयास में संलग्न होने वाली महिलाएँ भी अपने भावी कदम नियमित रूप से उठाते रहने का संकल्प लें। इस संकल्प के आधार पर ही वे व्रतधारी कहलाते हैं। इस प्रकार की शपथ लेने पर आदर्शवाद की ओर बढ़ने का हौसला बढ़ता है।

(८) आदर्श विवाह संस्कार- देखा गया है कि इन दिनों विवाह संस्कारों में धूमधाम, प्रीतिभोज, जेवर-दहेज का समावेश न रहने से पड़ोसी सम्बन्धी उपहास उड़ाते और अड़ंगा लगाते हैं। उनका जो लोग सामना नहीं कर सकते, वे दोनों पक्ष के पाँच-पाँच परिजन एवं वयस्क वर-वधू को लेकर शान्तिकुञ्ज चले आएँ। उनके विवाह संस्कार यहाँ बिना किसी प्रकार का सरंजाम जुटाए, अत्यन्त सादगी के साथ सम्पन्न हो जाते हैं।

(९) प्रायश्चित्त संस्कार- कर्मों का फल भोगना एक अनिवार्यता है। संचित दुष्कर्म यदि चेतना पर जमें रहें, तो हर प्रकार की प्रगति में वे बाधक बनते हैं और शरीरगत मनोरोग उत्पन्न करते रहते हैं। उनका परिशोधन इसी प्रकार हो सकता है कि खोदी गई खाँई को पाटा जाय। दुष्कार्यों को बदलने के लिये नये सिरे से सत्कार्यों का आयोजन करके, उस संचित कुसंस्कारों से मुक्त हुआ जाय। यह अन्त:क्षेत्र की एक बड़ी बाधा का महत्त्वपूर्ण निराकरण है।

(१०) वानप्रस्थ- पारिवारिक उत्तरदायित्व हलका होने पर मनुष्य को शेष शक्ति सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए नियोजित करके विश्व समस्याओं के समाधान में अनुकरणीय भूमिका निभानी चाहिए। नव निर्माण के उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अपने को खपाना चाहिए।

ये दस वे संस्कार हैं, जिन्हें करने कराने वाले हर भावनाशील को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह उपक्रम स्थानीय व्यवस्था में न बन पड़ते हों, तो इस हेतु शान्तिकुञ्ज आते रहने की तैयारी करनी चाहिए और उपर्युक्त संस्कारों में से हर संस्कार यहाँ कराए जाने पर उतना प्रभावी बन पड़ता है कि घर-गाँव में वैसा बन पड़ना शायद ही सम्भव हो सके।

इस अभिनव व्यवस्था के लिए शान्तिकुञ्ज में नए सिरे से नई तैयारी की गई है और सभी परिजनों को एक बार इन प्रयोजनों हेतु हरिद्वार आने की तैयारी करने के लिए कहा गया है।

इन संस्कार आयोजनों के साथ व्रतधारी प्रज्ञापुत्र बनने की परिपक्वता, सतयुग की वापसी के लिए युगान्तरीय चेतना का विस्तार, आद्यशक्ति के अवतरण हेतु नारी पुनरुत्थान का प्राणवान् आन्दोलन, खर्चीली शादियों का समग्र उन्मूलन जैसे चार महान प्रयोजन जुड़ते हैं। इन्हें अपने जीवन में, परिवार में कार्यान्वित करने के लिए उन प्रखर प्रेरणाओं की पौध शान्तिकुञ्ज से ले जाई जाय, तो उसके अधिक फलित होने की सम्भावना रहेगी। जिनका यहाँ तक आ सकना सम्भव न हो, वे इन्हीं कदमों को अपने यहाँ भी उठा सकते हैं। स्पष्ट है कि इन आयोजनों में से किसी जाति-सम्प्रदाय का, नर-नारी का कोई भेदभाव नहीं रखा गया है। अभ्युदय तो हर किसी का होना चाहिए। प्रतिभा की प्रखरता तो हर किसी में प्रकट होनी चाहिए।

सामूहिक रूप से जन-जागरण सत्प्रवृत्ति संवर्धन के रचनात्मक क्रिया-कलाप आरम्भ करने के लिए पर्व त्यौहारों को समारोह पूर्वक मनाए जाने का अपना महत्त्व है। यदि सही रूप में, सही रीति से, उन्हें एक जुट होकर मनाया जा सके, तो उस प्रयास से भी युग सृजन का समन्वय चमत्कार उपस्थित कर सकता है।

कठिनाइयाँ यह हैं कि विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों, सम्प्रदायों, देशों में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न त्यौहारों की परम्परा प्रचलित है। यदि सभी वर्गों के प्रमुख त्यौहारों को लेकर एक सर्वजनीन व्यवस्था हो सके, तो उस आधार पर भी एकता और समता की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी जुड़ सकती है। ध्यान में यह तथ्य भी रहना चाहिए।

जहाँ तक भारतीय संस्कृति का सम्बन्ध है, उसमें अनेकानेक त्यौहार बिखरे मिलते हैं। यदि इन्हें समवेत करना सम्भव हो, तो इसके लिए प्रभावशाली लोगों को वैसी योजना बनानी चाहिए।

उत्तर भारत के अनेक त्यौहारों में से प्रमुख छाँटे जा सकते हैं। वे हैं- १. दीपावली- अर्थ व्यवस्था के लिए २. वसन्त पंचमी- शिक्षा सम्वर्धन के लिए, ३. होली- स्वच्छता के लिए, ४. गुरुपूर्णिमा- अनुशासन के लिए, ५. श्रावणी-स्नेह सहकार के लिए, ६. विजय दशमी- शक्ति सम्वर्धन के लिए हो सकते हैं। इन्हें कैसे मनाया जाय? इसका शान्तिकुञ्ज का अपना निर्धारण है। संपर्क में आने वाले देख लें और सुधार के लिए सुझाव दें।

पिछले दिनों किए हुए दुष्कर्म कुसंस्कार बनकर मानस पर छाए रहते हैं और अनेक रोग-शोक उत्पन्न करते रहते हैं। उन्हीं अवरोधों के कारण न तो प्रतिभा परिष्कृत होती है न व्यक्ति निखरता है और न भविष्य उज्ज्वल बनता है। इसलिए आत्मबल बढ़ने के लिए संचित पापों का परिमार्जन करना आवश्यक हो जाता है। यही प्रायश्चित्त विधान है। तपश्चर्या या संयम साधना भी इसी को कहते हैं। इसका विधान है कि जितनी खाई खोदी है, उतनी मिट्टी डालकर बराबर करना। पापों के अनुरूप पुण्य कृत्यों को कर गुजरने के लिए सहायक कदम उठाया जाना।

प्रतिभा परिष्कार- इस माध्यम से सशक्त सत्ता के साथ जुड़ना, तादात्म्य स्थापित करना, एकीभूत होना होता है। ईंधन समर्पण के माध्यम से अग्नि बन जाता है। नाले का विलय उसे गंगा के समतुल्य बना देता है विशाल टंकी के साथ जुड़ा हुआ नल सदा भरपूर पानी देता रहता है, पावर हाउस का सम्पर्क घर के साथ जुड़ने पर पंखे एवं बल्ब बराबर जलते रहते हैं। आत्मदृष्टि के साथ अपने को घनिष्टतापूर्वक जोड़ लेना दीक्षा कहलाती है। इस आलोक के आधार पर पारस को छूकर लोहा सोना बनने का उदाहरण प्रस्तुत करता है। चन्दन के समीपवर्ती झाड़ झंखाड़ भी सुगन्धित बन जाते हैं। स्वाति की बूँद धारण करने से सीप में मोती उत्पन्न होता है। श्रद्धा और विश्वास की साधना के साथ जो दीक्षा ग्रहण की जाती है, वह प्राण प्रत्यावर्तन जैसे नव जीवन का चमत्कार उत्पन्न करती है। प्रायश्चित्त और दीक्षा के विधानों को सम्पन्न कर लेना आत्मिक परिष्कार का प्रमुख आधार है।

इन दोनों उपक्रमों के लिए पिछले घटना क्रम-वर्तमान के स्वरूप और भावी निर्धारण के साथ ताल मेल बिठाते हुए किस प्रकार क्या किया जाना है? इस सम्बन्ध में किसी प्रामाणिक* एवं अनुभवी महापुरुषों से आवश्यक परामर्श कर लेना चाहिए। शान्तिकुञ्ज को भी ऐसे विचार-विनिमय में साझीदार बनाया जा सकता है।

[युगऋषि ने जिस ईश्वरीय योजना ‘युग निर्माण योजना’ को मूर्त रूप देने का अभियान चलाया है। उसे किसी एक संस्था या संगठन तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उसमें तो इस युग में कार्यरत हर प्रतिभावान् एवं प्रत्येक सृजनशील-सुधारवादी संगठन की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिकाएँ रहेंगी। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार युग निर्माण के सूत्र-सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने का क्रम चलता रहेगा। अत: इस हेतु सभी प्रतिभाओं को अपनी-अपनी भूमिका चुनने के लिए प्रेरित किया गया है। शान्तिकुञ्ज का परामर्श सहयोग उन सबके लिए खुला रहेगा। ]

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।