प्रज्ञावतार की विस्तार प्रक्रिया - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 09)

सार-संक्षेप

अतिवादी अवांछनीयता, जो आज छाई दिखाई देती है और कुछ नहीं, अधिकांश लोगों द्वारा अचिंत्य चिन्तन और न करने योग्य क्रियाकृत्य अपना लिए जाने का ही प्रतिफल है। यदि यह बहुमत उलट जाए तो फिर परिस्थितियाँ बदलने में क्षणमात्र की भी देर नहीं होगी। ‘युगसन्धि महापुरश्चरण’ ऐसे ही महाप्रयोजन के लिए अवतरित हुई एक दैवी योजना है, जिसे सन् २००० तक सम्पन्न किया जाना है। प्रज्ञावतार की मत्स्यावतार की तरह बढ़ती यह प्रक्रिया एक ही संकल्प व लक्ष्य लिए हुए है—युगपरिवर्तन के लिए उपयुक्त वातावरण एवं परिवर्तन प्रस्तुत करना। दो करोड़ प्रतिभाओं को यजमान के रूप में शामिल कर एक अभूतपूर्व महापूर्णाहुति सम्पन्न हो, यह लक्ष्य रखा गया है।

प्रज्ञा परिवार जो ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के माध्यम से जुड़कर इतना विराट् बना है, इक्कीसवीं सदी के उत्कृष्ट आदर्शवादी मोर्चे पर जुझारू स्तर पर लड़ने वाले प्रचण्ड योद्धाओं का परिवार है। सभी के लिए यह महाकाल की चेतावनी है कि अब यह समय चूकने का है नहीं। ऐसे समय विशेष पर भगवान् स्वयं भक्तों व समर्पित शिष्यों के पास जाकर युगधर्म में प्रवृत्त होने की अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं। हर जाग्रत, जीवन्त और प्राणवान् को उस महाअभियान से जुड़कर इस पुण्यवेला का लाभ उठाना चाहिए।

अनुक्रमणिका

1. युगसन्धि—महान परिवर्तन की बेला
2. प्रयोजन के अनुरूप दायित्व भी भारी
3. कुछ अतिरिक्त पूछ-ताछ
4. दैवी सहायता भी अपेक्षित
5. भगवान के विशेष अनुग्रह और अनुदान की उपलब्धि
6. पात्रता की तात्कालिक आवश्यकता
7. यह समय चूकने का है नहीं
8. उठाने वाले के साथ जुड़ें

युगसन्धि—महान् परिवर्तन की वेला

धरती में दबे और ऊपर बिखरे बीज वर्षा के आरम्भ होते ही अंकुर फोड़ने लगते हैं। अंकुर पौधे बनते और पौधे बढ़कर परिपक्व वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। वृक्ष भी चैन से नहीं बैठते, बसन्त आते ही वे फूलों से लद जाते हैं। फूल भी स्थिर कहाँ रहते हैं वे फल बनते हैं, अनेकों की क्षुधा बुझाते और उनमें से नए बीजों की उत्पत्ति होती है। उन्हें बाद में अंकुरित होने का अवसर मिले तो एक ही पेड़ की परिणति कुछ ही समय में इतनी अधिक विस्तृत हो जाती है, जिनसे एक उद्यान बनकर खड़ा हो जाए।

मत्स्यावतार की कथा भी ऐसी ही आश्चर्यमयी है। ब्रह्मा जी के कमण्डल में दृश्यमान होने वाला छोटा कीड़ा मत्स्यावतार के रूप में विकसित हुआ और समूचे भूमण्डल को अपने विस्तार में लपेट लिया। इन्हीं कथाओं का एक नया प्रत्यावर्तन इन्हीं दिनों होने जा रहा है। सम्भव है, २१वीं सदी का विशालकाय आन्दोलन एक छोटे से शान्तिकुञ्ज आश्रम से प्रकटे और ऐसा चमत्कार उत्पन्न करे कि उसके आँचल में भारत ही नहीं, समूचे विश्व को आश्रय मिले। दुनिया नया रूप धारण करे और विकृत विचार परिष्कृत होकर दूरदर्शी विवेकशीलता के रूप में अपना सुविस्तृत परिचय देने लगे।

यह बहुमत का युग है—संघशक्ति का। मिल-जुलकर पक्षी एक साथ जोर लगाते हैं तो मजबूत जाल को एक ही झटके में उखाड़ लेने और उड़ा ले जाने में सफल हो जाते हैं। ईंटें मिलकर भव्य भवन खड़ा कर देती हैं। बूँद-बूँद से घड़ा भरता है। तिनके मिलकर हाथी बाँधने वाला रस्सा बनाते हैं। धूलिकण अन्धड़ बनकर आकाश पर छाते देखे गए हैं। रीछ-वानरों और ग्वाल-बालों के संयुक्त पुरुषार्थ की कथा-गाथा युग-युगों से कही-सुनी जाती रही है। इन दिनों भी यही होने जा रहा है।

इन दिनों वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में छाई हुई अतिवादी अवांछनीयता और कुछ नहीं, अधिकांश लोगों द्वारा अचिंत्य-चिन्तन और अकरणीय क्रियाकृत्य अपना लिए जाने का ही प्रतिफल है। यदि यह बहुमत उलट जाए तो फिर परिस्थितियों के बदल जाने में देर न लगे। पुरातन सतयुग की वापसी के दृश्य पुन: मूर्तिमान होकर सामने आ खड़े हों। यही होने भी जा रहा है। प्राचीनकाल में ऋषिकल्प व्यक्तियों का बाहुल्य था। हर किसी की ललक समाज से कम से कम लेने और अधिक से अधिक देने की रहा करती थी। वह बचत ही परमार्थ-प्रयोजनों में लगकर ऐसा माहौल बना दिया करती थी, जिसका स्मरण अभी भी लोग सतयुगी परम्परा के रूप में किया करते हैं, वह समय फिर वापस लौट आने की कामना किया करते हैं। दैत्य कोई आकार-विशेष नहीं होता, वे भी मनुष्यों की ही शकल-सूरत के होते हैं, अन्तर केवल इतना ही होता है कि दैत्य दूसरों से, संसार से लूटते-खसोटते अधिक हैं और अपने समय, श्रम, चिन्तन तथा वैभव का न्यूनतम भाग सत्कर्मों में लगाते हैं। यही है वह अन्तर, जिसके कारण देवता पूजे जाते और दैत्य सर्वत्र भर्त्सना के भाजन बनते हैं।

प्रस्तुत परिवर्तन इसी रूप में अवतरित होने वाला है कि दैत्य-वर्ग अपनी हठवादिता से पीछे हटेंगे और देवत्व की सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उन्मुख होंगे। यह हलचल असंख्यों के अन्तराल में अनायास ही उठेगी। उस चमत्कार को हम सब इन्हीं आँखों से देखेंगे। दृष्टिकोण में सुधार-परिवर्तन होते ही परिस्थितियाँ बदलेंगी, वातावरण बदलेगा और प्रचलन में ऐसा हेर-फेर होगा, जिसे युगपरिवर्तन के नाम से समझा, देखा और परखा जा सके।

इस प्रयोजन के लिए एक सुनियोजित योजना दैवी चेतना के संकेतों पर इन्हीं दिनों अवतरित हुई है। इस साधना और प्रयास-प्रक्रिया का नाम ‘युगसन्धि महापुरश्चरण’ दिया गया है। उसका विस्तार भी आश्चर्यजनक गति से हो रहा है। अमरकण्टक से नर्मदा की धारा के प्रस्फुटन की तरह शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से युगसन्धि-संकल्प उभरा है। निजी प्रयोजनों के लिए तो पूजा-पाठ के, प्रचार-प्रसार के अनेक आयोजन आए दिन होते रहते हैं, पर इस साधना का संकल्प एवं लक्ष्य एक ही है—युगपरिवर्तन के लिए उपयुक्त वातावरण एवं परिवर्तन प्रस्तुत करना। जिनकी इस महान् प्रयोजन में तनिक भी रुचि है, वे इस आत्मीय आमन्त्रण का परिचय प्राप्त करते ही दौड़े चले आ रहे हैं और इस महाक्रान्ति के प्रवाह में उत्सुकतापूर्वक सम्मिलित हो रहे हैं।

पुरश्चरण की तप-साधना का प्रारम्भिक रूप एक लाख दीपयज्ञों की साक्षी में एक करोड़ प्रतिभाओं को यजमान रूप में सम्मिलित करने का था; पर अब लोगों की श्रद्धा, सद्भावना और आतुरता को देखते हुए उसे ठीक दूना कर दिया गया है, ताकि कम समय में अधिकाधिक प्रतिफल की उपलब्धि हो सके। इसी उद्देश्य से संकल्प जोशीला हो गया है। प्रारम्भिक निश्चय था कि महापुरश्चरण की पूर्णाहुति सन् २००० में बीसवीं सदी का अन्त होते-होते होगी। अब लक्ष्य दूना हो जाने से संकल्प को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है। अब ५-५ वर्ष में एक-एक करोड़ करके सन् २००० तक पूरी पूर्णाहुति में दो करोड़ भागीदार बनाने का लक्ष्य है। दीप यज्ञायोजन भी एक लाख के स्थान पर दो लाख हो जाएँगे।

आरम्भ में सोचा गया था कि यह आयोजन हरिद्वार या प्रयाग के कुम्भपर्व के स्थान पर सम्पन्न किया जाए और एक ही स्थान पर सभी भागीदार एकत्रित हों और उस समारोह को अभूतपूर्व समारोह के रूप में प्रस्तुत करें। पर अब अधिक क्षेत्रों की जनता को अपने-अपने समीपवर्ती केन्द्रों में एकत्र होने की सुविधा रहेगी और दो स्थानों की अपेक्षा लाखों स्थानों पर एकत्रित होने का अवसर मिलेगा। सम्मिलित होने वालों को दूर जाने-आने का किराया-भाड़ा भी खर्च न करना पड़ेगा और समीपवर्ती स्थान में ठहरने की, भोजन आदि की व्यवस्था भी बन पड़ेगी। इस महाप्रयास की जानकारी अधिक व्यापक क्षेत्र में सुविधापूर्वक पहुँच सकेगी, जो इस पुरश्चरण का मूलभूत उद्देश्य है।

स्मरण रहे यह संकल्प महाकाल का है, केवल जानकारी पहुँचाने और आवश्यक व्यवस्था जुटाने का काम शान्तिकुञ्ज के संचालकों ने अपने कन्धों पर धारण किया है। मौलिक श्रेय तो उसी महाशक्ति का है, जिसने मनुष्य जैसे प्राणी की सीमित शक्ति से किसी भी प्रकार न बन पड़ने वाले कार्यों को करने की प्रेरणा दी है और काम में जुट जाने के लिए आगे धकेल कर बाधित किया है। वही इस प्रयोजन को पूर्ण भी करेगी, क्योंकि युगपरिवर्तन का नियोजन भी उसी का है।

शान्तिकुञ्ज के संचालक प्राय: अस्सी वर्ष के होने जा रहे हैं। उनका शरीर भी मनुष्य-जीवन की मर्यादा के अनुरूप अपने अन्तिम चरण में है, फिर नियन्ता ने उनके जिम्मे एक और भी बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण कार्य पहले से ही सुपुर्द कर दिया है, जो कि स्थूल शरीर से नहीं, सूक्ष्म शरीर से ही बन पड़ेगा। वर्तमान शरीर को छोड़ना और नए सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करके प्रचण्ड शक्ति का परिचय देना ऐसा कार्य है, जो सशक्त आत्मा के द्वारा ही बन पड़ सकता है। इतने पर भी किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि निर्धारित ‘युगसन्धि महापुरश्चरण’ में कोई बाधा पड़ेगी। महाकाल ने ही यह संकल्प लिया है और वही इसे समग्र रूप में पूरा कराएगा, फिर उज्ज्वल भविष्य के निर्माण हेतु अगले दस वर्षों तक शान्तिकुञ्ज के वर्तमान संचालक भी आवश्यक व्यवस्था बनाने और तारतम्य बिठाते रहने के लिए भी तो वचनबद्ध हैं।

प्रयोजन के अनुरूप दायित्व भी भारी

‘अखण्ड ज्योति’ हिन्दी मासिक तथा अन्य भाषाओं में उसके संस्करणों के स्थाई सदस्यों की संख्या प्राय: पाँच लाख है। ‘अखण्ड ज्योति’ के पाठकों के साथ विगत पचास वर्षों से सम्पर्क, विचार-विनिमय और परामर्श का क्रम चलता रहा है। इनमें से अधिकांश ऐसे हैं, जो कई-कई बार यात्राएँ करके यहाँ आते और घनिष्ठता सम्पादन करते रहे हैं। इस आधार पर इन्हें परिवार के सदस्य और परिजन माना जाता रहा है। शिक्षक भी अभिभावकों की गणना में आते हैं। गोत्र वंश-परम्परा से भी मिलते हैं और अध्यापक-परम्परा से भी। इतना बड़ा परिवार अनायास ही कैसे जुट गया? सम्भवत: पूर्व जन्मों के संचित किन्हीं संस्कारों ने यह मिलन-संयोग स्तर का सुयोग बना दिया हो।

महत्त्वपूर्ण प्रसंगों पर स्वजन-सम्बन्धी ही याद किए जाते हैं। उन्हें ही हँसी-खुशी एवं दु:ख दर्द के प्रसंगों में याद किया जाता है। सहभागी भी प्राय: वे रहते हैं। बाहर के लोग तो कौतुक-कौतूहल भर देखने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए उनसे कोई बड़ी आशा-अपेक्षा भी नहीं की जाती। महाभारत में कृष्ण का प्रयोजन पूरा करने के लिए पाँच पाण्डव ही आगे रहे। पंच प्यारे सिख धर्म में भी प्रसिद्ध हैं। महाकाल के सौंपे हुए नवसृजन का दायित्व भी भारी है और उसमें भाग लेने वालों को श्रेय भी असाधारण मिलने वाला है। इसलिए हर किसी से बड़ी आशा भी नहीं की जा सकती। पाँच में से एक उभर आए, तो बहुत है। पाँच लाख की स्थिति देखते हुए यदि एक लाख कदम से कदम मिलाकर चल सकें, तो बहुत हैं। इतनों के सहारे सौंपा हुआ दायित्व भी निभ जाएगा।

मनुष्य शरीर पाँच तत्त्वों का बना है। अन्य शरीरधारियों की तरह उसकी भी संरचना है, इसलिए अन्य प्राणियों की तरह शारीरिक दृष्टि से उसमें भी सीमित सामर्थ्य ही पाई जाती है। उच्चस्तरीय मनोबल तो केवल मनुष्य को ही प्राप्त है, जिसके बल पर गाँधी जैसा ५ फीट २ इंच और ९६ पौंड वजन का व्यक्ति भी संसार को हिला देने वाले काम कर सकता है। बुद्ध, परशुराम जैसों में ऐसे ही लोगों की गणना होती है।

मनोबल कुछ तो शरीर में भी होता है, जिसके आधार पर वह थोड़ी हिम्मत दिखाता और किसी सीमा तक साहस का परिचय देता है। असाधारण मनोबल जो प्रवाह को उलट सके और वातावरण को उलट कर किसी नए ढाँचे में बदल सके, इतना अनुदान दैवी चेतना के विशेष अनुग्रह से ही प्राप्त होता है। उस प्रकार की उपलब्धि न होने पर मात्र कायिक पुरुषार्थ कुछ थोड़ा-बहुत ही कर या चल पाता है। कंकड़-पत्थर जहाँ-तहाँ पड़े रहते हैं; पर सोना-चाँदी जैसी बहुमूल्य वस्तुओं को कीमती तिजोरियों में संचित कर रखा जाता है। शरीरगत स्वल्प परिश्रम या पुरुषार्थ तो किसी सीमा तक हर किसी को प्राप्त होता है; पर उसके सहारे बन प्राय: इतना ही पड़ता है कि शारीरिक आवश्यकताएँ या क्रियाएँ पूरी हो सकें। कान, संगीत से लेकर चापलूसी भरी प्रशंसा सुनने भर के लिए लालायित रहता है। आँखों को सुन्दर-सुहावने दृश्यों में रुचि होती है। जीभ को नए-नए स्वाद चाहिए। जननेन्द्रिय का प्रवाह भी प्राय: अधोगामी होता है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है, उसे संग्रह की तृष्णा और बड़प्पन की प्रशंसा चाहिए। इतनी ही परिधि के पुरुषार्थ प्राय: शरीर कर पाता है, पर जिसमें आत्मबल की आवश्यकता पड़ती है, वह दैवी वरदान की तरह प्राप्त होता है। उसके लिए छिटपुट कर्मकाण्ड या चिह्न-पूजा जैसे उपहार-मनुहार प्रस्तुत करने से भी काम नहीं चलता, उसके लिए आवश्यक पात्रता चाहिए।

किसी बरतन में कितना पानी भरा जा सकता है, यह उसकी गहराई और चौड़ाई से विदित होता है। शरीर का बाहरी कलेवर तो इन्द्रियजन्य आवश्यकता तक के काम आकर समाप्त हो जाता है, किन्तु जिसे तेजस्वी प्रतिभा कहा जाता है, वह तो मनोबल या आत्मबल से संग्रह होती है। उसे प्राप्त करने के लिए ऐसे आदर्शवादी पुरुषार्थ करने पड़ते हैं, जो शारीरिक सुविधा तक सीमित न हों वरन् पुण्यपरमार्थ जैसे अभ्यासों में अपना प्रयोजन सिद्ध कर सकें। यही अन्तराल की वह गहराई है, जिसे माप कर दैवी अनुग्रह बरसते हैं और ओजस्वी, तेजस्वी व मनस्वी स्तर की उच्च उपलब्धियाँ हस्तगत की जाती हैं।

रहने का छोटा-सा घर बनाने के लिए कितना समय, श्रम और पैसा लगता है, इसे सभी जानते हैं, फिर विश्व का नवनिर्माण करने के लिए कितना मनोबल, कितना श्रम, कितने साधन चाहिए, उसका अनुमान लगाना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। इतना वर्चस्व किसी मनुष्य-तनधारी में नहीं हो सकता। इसके लिए ईश्वरीय आत्मबल एवं सुसंस्कारित द्वारा संचित मनोबल की बहुत बड़ी मात्रा चाहिए और उसे प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। आवश्यकता एक ही बात की है और वह है—आदर्शों का परिपालन निष्ठापूर्वक किया जाए। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के प्रति गहरी आस्था हो, अपना मूल्य और महत्त्व समझा जाए और जो क्षमता जन्मजात रूप से उपलब्ध है, उसका समुचित उपयोग किया जाए।

मनुष्य के पूर्वसंचित संस्कारों का संग्रह तथा उसके फलित होने का अवसर मोटे तौर से हस्तरेखाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करके जाना जा सकता है। अँगूठे की छाप व्यक्ति की हस्तरेखाओं की तरह ही भिन्न होती है। जिसकी इन्हें समुचित जानकारी है, वे मनुष्य की भावी सम्भावनाओं, उनकी रोकथाम तथा बढ़ोत्तरी करने के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जान सकते हैं। अनिष्टों को रोकने तथा अशुभ सम्भावनाओं की रोकथाम करने के सम्बन्ध में क्या उपाय किया जाए, इस सन्दर्भ में भी अनुमान लगाने तथा उपाय खोजने में समर्थ हो सकते हैं।

फोटोग्राफी से मात्र आकृति सम्बन्धी जानकारी ही नहीं मिलती वरन् उससे गुण, कर्म, स्वभाव के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जाना समझा जा सकता है। ये जानकारियाँ मात्र वस्तुस्थिति को ही नहीं बताती वरन् भावी सम्भावनाओं एवं बीते हुए घटनाक्रमों का भी आभास देती हैं। साधारणतः तो यह अंकन भिन्नतासूचक चित्र-विचित्र जानकारियाँ ही दे पाते हैं, पर जिन्हें इनके सूक्ष्म दर्शन का ज्ञान है, वे यह पता भी लगा लेते हैं कि अगले दिनों क्या कुछ शुभ-अशुभ घटनाक्रम घटित होने जा रहा है। इस आधार पर कठिनाइयों का निवारण-निराकरण ही नहीं, सुखद सम्भावनाओं के अधिक अच्छी तरह फलित होने के सम्बन्ध में भी मार्गदर्शन किए जा सकते हैं। कोई भी घटनाक्रम अनिवार्य या अकाट्य नहीं है। उन सभी के उपाय-उपचार हैं।

कई रोग असाध्य या कष्टसाध्य समझे जाते हैं, पर ऐसा नहीं है कि उनका उपाय-उपचार हो ही न सकता हो? मनुष्य को अपने भाग्य का विधाता इसी दृष्टि से कहा गया है कि वह जहाँ भवितव्यता से प्रेरित रहता है, वहाँ उसमें उस क्षमता के बीज भी मौजूद हैं कि निवारण-निराकरण के उपाय खोज सके, भवितव्यता को टाल सके और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके। यदि बदलाव सम्भव न हो तो मनुष्य भाग्यचक्र की कठपुतली मात्र बनकर ही रह जाएगा।

कुछ अतिरिक्त पूछ-ताछ

इक्कीसवीं सदी की अवधि अनेकानेक चुनौतियों से भरी है। नदी का बहाव और हवा का रुख बदल देना सहज नहीं होता। उस कठिनाई से भी मनुष्य ही पार पाता है; पर इतना निश्चित है कि उसकी प्रतिभा असाधारण होनी चाहिए, साधारण योग्यता के रहते तो वैसा कर गुजरना दुस्साहस ही माना जाएगा और जोखिम भरा भी। ‘अखण्ड ज्योति’ परिजनों की इतनी बड़ी भीड़ आकस्मिक रूप से ही इकट्ठी नहीं हो गई है। अमुक रुचि का पठन-पाठन करने का कौतूहल ही इन्हीं समवेत होने या एक सूत्र में बँधने का कारण नहीं है वरन् इसके पीछे कुछ रहस्यमय कारण भी काम कर रहे हैं। गोताखोर गहरे पानी में डुबकी लगाकर मोतियों का संग्रह करता है। मणि-मुक्तक पाए तो खदानों में ही जाते हैं, पर उन्हें कोई कहीं से भी झट से खुदाई कर एकत्रित नहीं कर सकता। दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ बड़ी खोज के बाद, किन्हीं विशेष क्षेत्रों में ही पाई जाती हैं।

निकट भविष्य में कितनों को ही कितनी ही बड़ी भूमिका निभा सकने की क्षमता से सम्पन्न बनाया जाना है। हर काम हर आदमी नहीं करता है। भारी वजन हाथी जैसे समर्थ प्राणी ही उठा सकने में सफल होते हैं। छोटे कद के प्राणी उसे उठा सकना तो दूर, दबाव की अधिकता से अपना ही कचूमर निकाल बैठेंगे। हर मनुष्य हर क्षमता से सम्पन्न नहीं है। रामायण में हनुमान की और महाभारत में अर्जुन की जो भूमिका रही, उसे उन दिनों उपस्थित जनों में से अन्य आसानी से पूरा नहीं कर सकते थे। मनुष्य की समर्थता में सन्देह नहीं; पर बिना संचित सुसंस्कारिता, प्रतिभा और तप-सम्पदा के हर कोई चाहे जो कर गुजरे, ऐसा भी नहीं है। यही कारण है कि हर प्रयोजन के लिए पात्रता तलाशी जाती है और जो काम जिसके करने योग्य है, उसी को सौंपा जाता है। सेनापति के पद पर हर किसी की नियुक्ति नहीं की जा सकती, उसकी बलिष्ठता, हिम्मत, कौशल एवं प्रतिभा आदि गुणों को भी परखा जाता है।

अगले दिनों अनेकानेक ऐसे क्षेत्र सामने खड़े होंगे, जिनमें विशेष पुरुषार्थ दिखाने की आवश्यकता पड़ेगी; उन्हें साधारण लोग न कर सकेंगे। इस साधारण और असाधारण के चयन का अभी से ध्यान रखना होगा। एकाकी बड़े निर्णय नहीं किए जा सकते हैं। प्रतिभाओं की परख प्रतिस्पर्धाओं की कसौटी पर होती रहती है और जो अनेक बार अपनी वरिष्ठता का परिचय दे चुके होते हैं, उन्हें ही दुरूह मोर्चा सम्भालने के लिए नियुक्त किया जाता है। शेष हल्के दर्जे के मोर्चे पर हल्के लोगों को लगाकर किसी प्रकार काम चलाया जाता है। अगले दिन, ऐसी ही अनेक कसौटियाँ और चुनौतियाँ साथ लेकर आ रहे हैं।

इस सन्दर्भ में अखण्ड ज्योति परिजनों की जाँच-पड़ताल अभी से आरम्भ की जा रही है। यों उस परिकर को सामान्य लोगों की तुलना में असामान्य समझते हुए ही एकत्रित किया गया है। इन दिनों उथले साहित्य में, उथले स्तर के, उथली अभिरुचि के लोगों का आकर्षण है। उन्हें उत्कृष्टता का महत्त्व समझने में उत्साह ही नहीं उभरता, कहने-समझाने पर भी यह तथ्य गले नहीं उतरता। यही कारण है कि उच्चस्तरीय विवेकशीलता का प्रतिपादन करने वाला साहित्य प्राय: नहीं के बराबर ही बिकता-खरीदा जाता है। लोग उसे आग्रहपूर्वक देने पर भी मुफ्त पढ़ने तक को तैयार नहीं होते। जिसमें रुचि न हो, उसके लिए समय कौन लगाए? माथा-पच्ची कौन करे? यही कारण है कि अखण्ड ज्योति वाले विषय की अन्य पत्रिकाएँ कुछ दिन निकलने के बाद ही बन्द हो जाती हैं। जो निकलती है, उसकी सदस्य संख्या कुछ सौ तक ही सीमित रहती है, सो भी विज्ञापन छापने की नीति अपनाने के बाद ही किसी प्रकार उसकी नाव पर लगती है, पर अखण्ड ज्योति के बारे में बात ही दूसरी है। गरिष्ठ विषय का प्रतिपादन रहने पर भी उसके पाठक इतनी बड़ी संख्या में हैं कि उसकी तुलना तत्सम पत्रिकाओं में से किसी के साथ भी कदाचित ही की जा सके।

यह चमत्कार अनायास ही नहीं हुआ है। किसी आकर्षण-शक्ति ने अपने चुम्बकत्व के सहारे उन्हें ढूँढ़ा, खोजा और प्रयत्नपूर्वक एकत्रित किया है। इसका कारण सामयिक घटनाक्रमों में ही नहीं खोजा जाना चाहिए। संचित सुसंस्कारिता और विलक्षणता उन्हेें अपने आकर्षण केन्द्र के साथ जोड़ती रही है। सशक्त चुम्बक के इर्द-गिर्द लौह-कण आकर्षित हो, खिंचे चले आते हैं और उस स्थान पर एकत्रित-एक जुट हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ अखण्ड ज्योति पाठकों के सम्बन्ध में भी हुआ है।

इस प्रसंग को लेखन, प्रकाशन, वाचन के साहित्यिक क्षेत्र भर तक सीमित नहीं करना चाहिए। यह किसी बड़े मोर्चे पर जूझने वाले बलिष्ठ योद्धाओं का परिकर है, जो अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते-होते इस शक्तिशाली अक्षौहिणी में एकत्रित हुआ है।

इसे साहित्य की गहराई में उतरकर समझना हो, तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि कुछ विशेष क्षमता सम्पन्न मधुमक्खियाँ ही इस छत्ते में रानी मक्खी के अनुशासन में रहने के लिए खिंचती चली आई हैं और इस प्रकार सघनतापूर्वक गुँथ गई हैं, मानों कई जन्म-जन्मान्तरों से एक सूत्र में बँधी आ रही हों, जैसे-स्नेह-सूत्र में बँधे हुए आत्मीय जन होते हैं। इसका निरन्तर परीक्षण भी होता रहा है। परिजनों को उनकी शक्ति-सामर्थ्य देखते हुए समय-समय पर ऐसे आदर्शवादी काम सौंपे जाते रहे हैं, जिसमें औसत आदमी की रुचि प्राय: नहीं ही होती। उन्हें भी इतनी तत्परता और तन्मयता के साथ करते रहना इस तथ्य का परिचायक है कि यह रास्ता चलती भीड़ नहीं है, वरन् यह किसी विशेष उद्देश्य के लिए विशिष्ट परिजनों का समुच्चय है।

स्पष्ट है कि इक्कीसवीं सदी के उत्कृष्ट आदर्शवादी मोर्चे पर जुझारू स्तर पर लड़ने वाले प्रचण्ड योद्धाओं का यह परिवार है। उसकी ट्रेनिंग लम्बे समय से होती रही है। पत्रिका प्राय: ५२ साल से निकलती रही है, इनके पाठकों में अधिकांश ऐसे हैं, जो आरम्भ से लेकर अब तक मिशन के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हुए हैं और एकरस प्रशिक्षण एकाग्रतापूर्वक प्राप्त करते रहे हैं। उत्कृृष्ट आदर्शवादिता की विचारधारा जन्म-घूँटी की तरह पीते रहने के कारण उनकी नस-नस में रम गई है।

यों अखण्ड ज्योति का स्थाई सदस्य होना भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े हुए उज्ज्वल भविष्य के साथ उनका अपना विषय भी कहीं न कहीं घनिष्ठतापूर्वक जुड़ा हुआ है। उन्हें कुछ ऐसा करना और बनना है, जिन्हें जनसामान्य को अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहना पड़े।

अस्तु, परिजनों के पतों के साथ तीन और दिव्य आधार संकलित किए जा रहे हैं— (१) जन्म तिथि, स्थान तथा समय, (२) वर्तमान समय का फोटो, (२) वर्तमान समय का फोटो, (३) हस्तरेखाओं का अंकन। यह तीन आधार किसी को भविष्य-फल बताने के लिए संग्रह नहीं किए जा रहे हैं। इनका उद्देश्य मात्र इतनी ही है कि इस आधार पर परिजनों की विशिष्टता आँकी जा सके और उन्हें जब जो करना है, उसके लिए संकेत एवं मार्गदर्शन किया जा सके। इसके साथ ही विशेष प्रयोजनों में अपना निजी विशेष योगदान देना भी है, जिससे कठिनाइयों को सरल और सुसम्भावनाओं को अधिक उत्साहपूर्वक अग्रगामी बनाया जा सकना सम्भव हो सके।

दैवी सहायता भी अपेक्षित

मनुष्य के अपने पुरुषार्थ, ज्ञान, सूझ-बूझ आदि का महत्त्व है। प्राय: उसी के आधार पर लोग ऊँचे उठते या कमी रहने पर नीचे गिरते हैं; पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किन्हीं दूसरे समर्थों की सहायता से भी रुकी हुई गाड़ी चलने लगती है और कठिनाइयों का दबाव हल्का हो जाता है। जिनका व्यापार-व्यवसाय पूँजी की कमी के कारण रुक गया है, उन्हें यदि बैंक आदि की तात्कालिक सहायता मिल जाए, तो रुका काम चलने लगता है और लिया हुआ ऋण ब्याज समेत चुक जाता है।

मित्र, सहायक, सम्बन्धी भी कभी-कभी ऐसी सहायता कर देते हैं, जिसकी पहले से कोई सम्भावना या आशा न थी। दैवी अनुग्रह का तो कहना ही क्या? कभी व्यापार-धन्धे के सहारे अकस्मात किसी बड़े लाभ का सुयोग मिल जाने में, लाटरी खुल जाने आदि के रूप में भी ऐसे लाभ हस्तगत हो जाते हैं, जिनकी पहले से ऐसी कोई आशा न थी। जब वरदान फलता है, तो उसका लाभ विद्या, पौरुष आदि से भी बढ़कर मिल जाता है। उत्तराधिकार में एवं दान-दक्षिणा के रूप में मिली हुई उपलब्धियों को भी दैवी सहायता के रूप में ही गिना जाता है।

पुरुषार्थ हो या दैवी अनुग्रह, उनका मिलना-सुरक्षित रहना और किसी दुरुपयोग से नष्ट हो जाना जैसी परिस्थितियाँ भी कई बार मनुष्यों के सामने आती रहती हैं। यही बात कठिनाइयों, आपत्तियाँ बचाव होने के सम्बन्ध में भी है। कई बार तो प्रयास, परिश्रम भी इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि बिना प्रयास के या स्वल्प प्रयत्न से भी बड़े लाभ हस्तगत हो जाते हैं। समय विपरीत हो, तो सारी चालें उल्टी पड़ जाती हैं और भरपूर मेहनत तथा अपनाई गई सूझ-बूझ भी काम नहीं देती। कई बार तो की गई आशा से विपरीत फल सामने आ खड़ा होता है। किसान का व्यवसाय एक बीज के बदले सौ दाने उत्पन्न करने जैसा लाभदायक है; पर उसमें भी कई बार अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला, पाला, कड़ी ठण्ड आदि ऐसे संकट बीच में ही आ जाते हैं कि जो सम्भावना गणित के आधार पर आँकी गई थी, वह सीधी से उल्टी पड़ जाती है। कई बार इससे ठीक उल्टा भी होता है। दाँव सीधा पड़ जाने पर ऐसी सफलता भी मिल जाती है, जिसके सम्बन्ध में न तो कोई आशा थी, न सम्भावना। यद्यपि ऐसा अपवाद स्वरूप जब-तब ही होता है; पर यदि कभी ऐसा बन पड़े, तो उसे असम्भव नहीं कहा जा सकता है।

अपवाद भले ही कम होते हों; पर अवश्य होते हैं। ऐसे अपवादों को दैवी कृपा या अनुग्रह के नाम से जाना जाता है। अप्रत्याशित परिणामों को भाग्य या समय का फेर भी कहते हैं। किसी बालक का धनवान् वर्ग में जन्म लेना और अनायास ही विपुल धन का स्वामी बन जाना, किसी सिद्धान्त विशेष पर आधारित नहीं है; इसे भाग्योदय ही कह सकते हैैं। संसार में ऐसे भी अनेक मनुष्य हुए हैं, जिनके आरम्भ में शिक्षा की, सम्पदा की, परिस्थितियों की सर्वथा प्रतिकूलता थी; पर एक के बाद एक ऐसे सुयोग मिलते और बनते गए कि वह असाधारण कार्यों और प्रयासों में एक के बाद एक बड़ी सफलताएँ पाते गए और अन्तत: मूर्धन्य सौभाग्यवानों में गिने गए।

दुर्घटनाओं, विपत्तियों, हानियों, प्रतिकूलताओं के भी कभी-कभी ऐसे कुयोग आ धमकते हैं, जिनमें कोई दोष प्रत्यक्षत: दीखता नहीं, फिर भी न जाने कहाँ से और क्यों ऐसे संकट आ खड़े होते हैं कि सब कुछ चौपट हो जाता है। बनने जा रहे काम बिगड़ जाते हैं। ऐसे घटनाक्रमों को दुर्भाग्य, दैवी प्रकोप, भाग्य, पूर्व संस्कार, भवितव्यता आदि कहकर मन को समझाया जाता है। वस्तुत: इस संसार में अनायास नाम की कोई चीज नहीं है। सृष्टि के नियमों की अकाट्यता प्रसिद्ध है। फिर भी अपवाद जैसे आकस्मिक बहुत कुछ होते रहते है। इसके पीछे भी कुछ कारण होते हैं, भले हम जानते न हों। जानने को तो हम बहुत-सी बातें नहीं जानते, फिर भी वे अनायास ही हो गईं—ऐसा नहीं कहा जाता। किसका असली पिता कौन है? इसकी सही जानकारी अपने आप तक को नहीं होती; पर इस सम्बन्ध में माता के कथन को ही प्रामाणिक मान लिया जाता है। दूसरा कोई चारा भी तो नहीं।

आकस्मिक लाभ और आकस्मिक हानि के पीछे अक्सर भाग्य का फेर कहा जाता है; पर इसके पीछे भी कुछ नियम निर्धारण काम करते हैं। पूर्व जन्मों के संग्रहित संस्कार समयानुसार फलित होते हैं। इसका समुचित विधान जान न पाने के कारण उसे भाग्य कह देते हैं। एक दूसरा विधान संसार में ऐसा भी है, जिसे उदार अनुदान कहते हैं। आकस्मिक सहायताएँ भी इसी श्रेणी में आती हैं। जिनके पास फालतू पैसा होता है, वे उसे बैंक में जमा कर देते हैं। नियत अवधि के उपरान्त वह ब्याज समेत वापस मिल जाता है, यद्यपि जमा करने और निकालने के समय में लम्बी अवधि का अन्तर होता है; पर वह है किसी नियम-व्यवस्था पर ही आधारित।

संसार में ऐसी आत्माएँ भी हैं, जिनके पास पुण्यफल का प्रचुर भण्डार भरा पड़ा है। धन को घर में रखना जोखिम भरा समझा जाता है, इसलिए सुरक्षा और निश्चिन्तता की दृष्टि से उसे बैंक में जमा कर दिया जाता है। पुण्य-परमार्थ में ऐसी ही विद्या है, जिसे उदारचेता समय पर जरूरतमन्दों को देते रहते हैं। इसमें दुहरा लाभ है—एक तो जिसका काम रुक गया था, उसका काम चल जाता है, दूसरा जिसने जमा किया था, उसे आवश्यकतानुसार वापस मिल जाता है। पुण्य-परमार्थ का, दान-अनुदान का यह क्रम भी उसी आधार पर चलता है, जिसके आधार पर बैंकों का, बीमा का, शेयरों का कारोबार चलता रहता है। अनुदान के चक्र भी इसी आधार पर चलते हैं।

इक्कीसवीं सदी में दुहरे कारोबार बड़े रूप में चलेंगे। एक यह कि जो अवांछनीयताएँ इन दिनों बुरी तरह छाई हैं, उन्हें उलट देना, ताकि छाए हुए संकटों को निरस्त किया जा सके। दूसरा यह कि नव-निर्माण की दृष्टि से बहुत कुछ किया जाना है। क्षतिपूर्ति के लिए विशालकाय कारोबार खड़े किए जाने हैं। इसके लिए भी पूँजी एवं साधन-सामग्री चाहिए। यह सृजन-कार्य किन्हीं व्यक्तियों के माध्यम से ही होगा। संकटों से जूझने के लिए सशक्त योद्धा ही लड़ाई की अग्रिम पंक्ति में खड़े होंगे दोनों ही उद्देश्य इन्हीं व्यक्तियों के क्रिया-कलापों के माध्यम से ही सम्पन्न होंगे। आवश्यक नहीं कि यह सारे कार्य उसी के हों, जिसे कि श्रेय मिला हो। मोर्चे पर लड़ते तो सैनिक ही हैं, पर उन्हें जो वाहन, हथियार, रसद, आहार मिला है, वह उस सैनिक के स्वयं के नहीं, वरन् संचालक सूत्र से ही उपलब्ध होते हैं।

अगले दिनों भयंकर विभीषिकाओं को निरस्त होकर रहना है, साथ ही अभावों का जो भी भारी त्रास छाया हुआ है, उसे भी परास्त करना है। उस कार्य को सक्रिय परिजन कटिबद्ध होकर करेंगे ही; पर वस्तुत: इस प्रयोजन के लिए जितनी प्रचुर शक्ति सूझ-बूझ और साधन-सामग्री चाहिए, उतनी पूँजी एकत्रित रूप में सीधी हस्तगत नहीं हो सकती, वरन् बैंक जैसे समर्थ माध्यम से उधार लेनी पड़ेगी। सभी जानते हैं कि ठेकेदारों को निर्माण की ठेकेदारी भर मिलती है, उस समूचे कार्य में जो लाखों-करोड़ों की पूँजी लगती है, उसका प्रबन्ध सूत्र-संचालक को ही करना पड़ता है।

भगवान् के विशेष अनुग्रह और अनुदान की उपलब्धि

शरीर उन पंचतत्त्वों का बना है, जिसे जड़ कहा जाता है। चेतना ही उसमें प्राण रूप है। यदि वह निष्फल जाए, तो पाँच तत्त्वों का बना घोंसला निर्जीव बनकर रह जाता है। उसके लिए कुछ कर सकना तो दूर, अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता, तुरन्त सड़ने-गलने लगता है और जीव-जन्तुओं का आहार बनकर, अपनी शक्ल-सूरत तक गँवा बैठता है। प्राण रहते ही किसी को जीवित कहा जाता है। जीवन, वायु की तरह व्यापक और अनन्त है। फेफड़ों में जितनी जगह होती है, वायु उतनी ही मात्रा में ग्रहण की जाती है। शरीर-कलेवर के सम्बन्ध में भी यही बात है। साँस लेते समय उसकी जितनी आवश्यकता पड़ती है, उतनी ही ग्रहण कर ली जाती है, शेष अनन्त आकाश में ही भरी रहती है। उसे अधिक मात्रा में ग्रहण-उपलब्ध करने की कला में प्रवीण लोग उसे ‘प्राणायाम’ से अतिरिक्त मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं और आवश्यकतानुसार विशेष समय पर प्रयुक्त करते हैं। ऐसे ही लोग प्राणवान् कहलाते हैं और उस संचय से अपना तथा दूसरों का भला करते हैं।

शरीर-बल प्राय: इतना ही होता है, जितनी सीमित मात्रा में प्राण-शक्ति विद्यमान रहती है; पर जो आश्चर्यजनक-अद्भुत असाधारण कार्य कर पाते हैं, उनकी चेतना ही विशेष रूप से सक्रिय होती और चमत्कार स्तर के काम करती देखी जाती है। शरीर मनुष्यकृत है। वह नर-नारी के गुण सूत्रों के माध्यम से विकसित होता है; किन्तु प्राण देवता है। उसकी असीम मात्रा इस विश्व-ब्रह्माण्ड में भरी पड़ी है। वह अपने वर्ग के साथ असाधारण मात्रा में एकत्रित भी हो सकता है और एक से दूसरे में प्रवेश करके, अपनी दिव्य क्षमता का हस्तान्तरण भी कर सकता है। इस प्रकार के प्रयोगों को ‘शक्तिपात’ नाम से जाना जाता है। छाया-पुरुष स्तर में भी उसी का विशेष कर्तृत्व देखा जाता है। मरणोपरान्त उसका स्वतन्त्र अस्तित्त्व भूत-प्रेत आदि के रूप में बना रहता है। जीवित स्थिति में भी अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में उसके चमत्कारी करतब देखे जा सकते हैं। प्राणयोग के अभ्यास से इसका अतिरिक्त प्रवाह, शरीर से बाहर निकलकर भी सुषुप्ति, तुरीया समाधि आदि में अपनी सत्ता बनाये रहकर, बिना शारीरिक साधनों के अपने अस्तित्त्व तथा सशक्त विशेषताओं का परिचय दे सकता है।

प्राण की सत्ता हस्तान्तरण के उपयुक्त भी है। कोई समर्थ व्यक्ति अपनी दिव्य क्षमता का एक भाग दूसरे को देकर उसकी सहायता भी कर सकता है। आदि शंकराचार्य की कथा प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार वे कुछ समय के लिये अपने शरीर से निकल कर किसी दूसरी काया में प्रवेश कर गये थे और लम्बी अवधि तक उसी में बने रहे थे।

अन्य विशिष्ट शक्तियाँ भी मनुष्य के साथ अपना ताल-मेल बिठाती और उसके शरीर द्वारा अपने अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती रही हैं। कुन्ती-पुत्र मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी विशेष देवताओं के अंश थे। उसी स्तर के वे काम भी करते रहे, जैसे कि साधारण मानवी काया में रहते हुए कर सकना सम्भव नहीं है। रामायण काल में हनुमान, अंगद आदि के पराक्रमों को भी ऐसे ही देवोपम माना जाता है। मनुष्य शरीरधारी सामान्य प्राण वाले प्राय: वैसा कार्य नहीं कर सकते। अवतारी सत्ताएँ मनुष्य-शरीर में रहकर ही अपने विशेष कृत्य करतीं और ‘यदा यदा हि धर्मस्य’ वाली प्रतिज्ञा की रक्षा करती हैं।

भगवान् जिन्हें विशेष कार्यों के लिये चुनते-नियुक्त करते हैं, उनमें इस दिव्य प्राण की मात्रा ही अधिक होती है, जिसके सहारे वे नर-वानरों की परिधि से ऊँचा उठकर सोचने, ऐसा साहस करने और आदर्श उपस्थित करने में समर्थ होते हैं। भू-बन्धनों की रज्जुओं से जकड़े हुए सामान्य मनुष्य न तो वैसा सोच ही सकते हैं और न दिव्य आदर्शों को अपना पाते हैं। दैवी-प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिये अतिरिक्त आत्मबल का, मनोबल का परिचय वे दे नहीं पाते। छिट-पुट विघ्न ही उन्हें पहाड़ जितने भारी दीखते हैं और जब कुछ कर-गुजरने का समय आता है, तो भयभीत होकर किसी अनर्थ की आशंका करने लगते हैं। कायरता न जाने कहाँ से आकर दौड़ पड़ती है और कभी की हुई प्रतिज्ञाएँ-लिए हुए संकल्पों को एक प्रकार भूल ही जाते हैं।

दैवी अनुग्रह के सम्बन्ध में भी लोगों की विचित्र कल्पनायें हैं। वे उन्हीं छोटी सम्भावनाओं को दैवी अनुकम्पा मानते रहते हैं, जो सामान्य पुरुषार्थ से अथवा अनायास ही संयोगवश लोगों को उपलब्ध होती रहती है। मनोकामनाओं तक ही उनका नाक रगड़ना-गिड़गिड़ाना सीमित रहता है, जिसे वे दैवी अनुकम्पा मानते हैं। आत्मबल-आत्मविश्वास न होने से जो कुछ प्राप्त होता, है, उसे पुरुषार्थ का प्रतिफल मानकर उनका मन सन्तुष्ट ही नहीं होता, उनके लिये हर सफलता दैवी अनुग्रह और हर असफलता दैवी प्रकोप मात्र प्रतीत होती है। ऐसे दुर्बल चेताओं की बात छोड़ दें, तो यथार्थता समझ में आ जाती है; पर अन्तत: एक ही तथ्य सामने आता है कि मनुष्य जब आदर्शवादी अनुकरणीय-अभिनन्दनीय कार्यों को करने के लिए उमंगों-तरंगों से भर जाता है, तो वह असाधारण कदम उठाने लगता है। रावण की सभा में अंगद का पैर उखाड़ना तक असम्भव प्रतीत होने लगा था। औसत आदमी को तो हर काम असम्भव लगता है। ऐसे छोटे त्याग करना भी उसे पहाड़ उठाने जैसा भारी पड़ता है, जो वस्तुत: हल्के-फुल्के ही होते हैं और हिम्मत के धनी आदर्शवादी, जिन्हें आये दिन करते रहते हैं।

दैवी अनुग्रह का एक ही चिह्न है—आदर्शवादिता की दिशा में साहसपूर्वक बड़े कदम उठाना और उस प्रयास में आने वाली कठिनाइयों को हँसते-हँसते दरगुजर कर देना। भगवान् का अनुग्रह एक ही है—आदर्शों के परिपालन में बढ़ी-चढ़ी साहसिकता का प्रदर्शन करते रहना। कायरों और हेयजनों के लिये यही पर्वत उठाने जैसा अड़ंगा प्रतीत होता है; किन्तु जिनमें मनोबल की कमी नहीं, उनके लिये तो यह सब खेल-खिलवाड़ जैसा लगता है। संसार का इतिहास साक्षी है कि जिस किसी पर भगवान् की प्राणचेतना की अनुकम्पा बरसी है, उनको एक ही वरदान मिला है, ऐसे सत्कर्म करने का साहस मिला है, ऐसा उत्साह मानस में विचरता रहा है कि अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कार्य सतत करने की लगन उठती रहे। अवांछनीय और अनौचित्य जहाँ भी दीखता है, वहाँ लड़ पड़ने का इतना शौर्य-साहस उभरता है कि उसे चरितार्थ किये बिना व्यक्ति शान्ति से बैठ ही नहीं सकता।

इक्कीसवीं सदी में ऐसी ही प्रतिभाएँ सर्वत्र उभरेंगी। जिनके पिछले किये क्रिया-कलाप देखने से निराशा होती थी, उनमें से भी कितने ही ऐसे उभरेंगे, जो अपने को धन्य बनायेंगे—अपने इर्द-गिर्द के लोगों को भी पार करके निहाल कर देंगे। पैसा, औलाद, स्वास्थ्य और बड़प्पन तो बुरे लोग भी अपने बलबूते अर्जित कर लेते हैं, पर आदर्शों की दिशा में साहसपूर्वक चल पड़ना मात्र उन्हीं के लिये सम्भव होता है, जिन पर भगवान् की विशेष अनुकम्पा बरसती है; जिसे परमपिता कृपापूर्वक अपने उच्चस्तरीय प्राण का वह भाग प्रदान करते हैं, जिसके सहारे नर-वानर को नर से नारायण बनने का अवसर होता है।

पात्रता की तात्कालिक आवश्यकता

परमात्मा ने, प्रकृति ने मनुष्य मात्र को बहुत कुछ ऐसा असाधारण दिया है, जिसके आधार पर वह सुख-सौभाग्य प्रगति स्वयं प्राप्त करने के साथ-साथ औरों के लिये भी सहायक सिद्ध हो सकता है, परन्तु मनुष्य की दुर्बुद्धि कहें या माया का भटकाव, जिसके प्रभाव से सुख-सौभाग्य के स्थान पर वह अपने तथा औरों के लिये समस्याएँ एवं विडम्बनाएँ ही रचता रह जाता है—लालसा वासना और अहन्ता के चक्र में मनुष्य स्वयं को दयनीय स्थिति तक पहुँचा देता है।

इस स्वनिर्मित दुर्गति से पार निकलना कैसे हो? गिरना तो किसी के लिये भी सरल हो सकता है; पर उबरने और ऊँचा उठने के लिये मात्र अपने पुरुषार्थ से भी काम नहीं चलता; उसके लिये किसी समर्थ सहायक की जरूरत पड़ती है। यह सहायता भी किसी को अकस्मात अप्रत्याशित रूप से मुफ्त में नहीं मिलती। उधार देकर समर्थ सत्ता भी उसका कुछ बदला चाहती है। मुफ्त में तो यहाँ किसी को कुछ भी नहीं मिलता।

पात्रता का नियम मनुष्य पर तीन प्रकार से लागू होते हैं—एक उत्साह और स्फूर्ति भरी श्रमशीलता; दूसरी तन्मयता, तत्परता भरी अभिरुचि; तीसरी, उत्कृष्टता के लिए गहरी लगन और ललक। यह तीनों जहाँ-कहीं भी सम्मिलित रूप से पाई जायेंगी, समझना चाहिये कि सफलता तक दौड़कर जा पहुँचने का अवसर मिला। पात्र हो तो पानी से न सही, हवा से वह जरूर भर जायेगा, खाली तो कभी रहेगा ही नहीं। ईश्वर की अनुकम्पा भी ऐसे ही लोगों पर बरसती है। उच्च पदों पर नियुक्ति उन्हीं की होती है, जो निर्धारित प्रतिस्पर्द्धाओं में बाजी मारते हैं।

यों ईश्वर के लिए सभी समान और सभी प्रिय हैं; पर उनके साथ बेइन्साफी भी तो नहीं की जा सकती, जिन्होंने अथक परिश्रम करके अपनी योग्यता का परिचय दिया है। कोई बड़ा कारखाना खड़ा किया जाना होता है और उसके निर्माण में जल्दी करनी होती है, तो एक ही उपाय रह जाता है कि सुयोग्य एवं अनुभवी अधिकारियों की बड़ी संख्या में नियुक्ति की जाये। अधिक कारीगर खोजे और जुटाए जाएँ। यही अगले दिनों होने जा रहा है।

प्रतिभावान व्यक्ति जहाँ-तहाँ मारे-मारे नहीं फिरते। गुणवानों, प्रतिभावानों को कभी खाली नहीं पाया जाता। इस पर भी यह आपत्तिकाल है। गरज कारीगरों को उतनी नहीं पड़ी है, जितनी कि निर्माणकर्ताओं को अपने अच्छे और भव्य काम समय रहते करा लेने की है।

भक्त भगवान् से सदा अनुग्रह माँगते रहते हैं पर अब की बार इन दिनों ऐसा समय है, जिसमें निर्माणकर्ता को ही बड़ी बेचैनी से सत्पात्रों की खोजबीन करनी पड़ रही है। काम तो नियन्ता का ही रुका पड़ा है। उसे ही उतावली है। जैसी सड़ी-गली परिस्थितियाँ आज हैं, वैसी अधिक दिनों नहीं रहने दी जा सकतीं। बदलाव में बढ़-चढ़कर जो भूमिका निभाई जानी है, उसके लिए सत्पात्र तेजी से ढूँढ़े जा रहेे है। विशेष अनुदान और उपहार भी उन्हीं को अविलम्ब मिलने वाले हैं। औसत स्तर के व्यक्तियों से लेकर प्रतिभावानों तक को इस अभिनव सृजन में भाव-भरा योगदान प्रस्तुत करने के लिये समुचित अनुदान उदारतापूर्वक दिये जाने हैं।

साधारण और औसत दर्जे का व्यक्ति भी यदि सामान्य चाल और धीमी गति से प्रगति-पथ पर आगे बढ़ता चले, तो इसका परिणाम भी ऐसा हो सकता है, जिससे उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न साकार होते देखा-समझा जा सके। प्रतिभाशालियों का समुदाय इसके अतिरिक्त है। जिनमें शारीरिक स्फूर्ति, मानसिक साहसिकता और अन्त:करण में उमंग भरी रहती है, वे परिस्थितियों की दृष्टि से सामान्य होने पर भी इतना कुछ कर सकते हैं, जिसे अद्भुत कहा जा सके। जटायु जैसे अपनी आदर्शवादी उमंगों के आधार पर इतना कुछ कर सके, जितना कि हीन मनोबल वाले तरुण और बलिष्ठ भी नहीं कर सके। ऐसी कृतियाँ सदा स्मरण की जाती रहेंगी। अष्टावक्र जैसे टूटे-फूटे शरीर वालों ने ऐसे इतिहास की संरचना की, जिसका स्मरण करने मात्र से मन उल्लास से भर जाता है। लक्ष्मीबाई जैसी लड़कियाँ शत्रुओं के दाँत खट्टे करके, अपने पौरुष का परिचय दे सकीं। भामाशाह की थोड़ी-सी पूँजी ने राणा प्रताप की हारती बाजी को जिता दिया। संसार ऐसी प्रतिभाओं की कथा-गाथाओं से भरा पड़ा है।

साहित्य, कला, लगन, संगठन, सुनियोजन जैसे कितने ही गुण मनुष्य में ऐसे हैं, जिनका आंशिक उपयोग हो सके तो वैयक्तिक और सामूहिक क्षेत्रों में आश्चर्यजनक चमत्कार सामने आ सकते हैं। ऐसे लोगों में वे साधन-सम्पन्न भी आते हैं, जिन्हें साधारण लोगों की तुलना में कहीं अधिक उपलब्धियाँ प्राप्त हैं। पैसे वाले ऐसे व्यापक व्यवसाय खड़े कर देते हैं, जिसके उत्पादन से अनेकों बहुमुखी आवश्यकतायें पूरी होती हैं। वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि बुद्धिजीवी अपने कला-कौशल के आधार पर इतनी बड़ी सफलतायें अर्जित करते हैं, जितनी की साधारण लोगों से तो कल्पना करते भी नहीं बनती। गायक, वादक व अभिनेता स्तर के कलाकार इतना यश और पैसा कमा लेते हैं, कि साधारण लोगों की दृष्टि में वह कोई वरदान जैसा प्रतीत होता है। कितने ही ऐसे विश्वासपात्र प्रतिभावान होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लेते हैं, उसे सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा देते हैं।

देखा गया है कि ऐसे विभूतिवान भी मात्र लिप्सा, लालसा, तृष्णा, वासना, अहन्ता और संकीर्ण स्वार्थपरता जैसे हेय प्रयोजनों में ही अपनी उन उपलब्धियों को खपा देते हैं, जिनका उपयोग यदि लोक कल्याण के लिये हो सका होता, तो उतने पौरुष से निर्माण की दिशा में इतना कुछ बन पड़ा होता, उनकी कीर्ति-गाथा चिरकाल तक गाई जाती और उनका अनुकरण करके, कितने ही लोग अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर सके होते।

भगवान् ने जिनको ऐसी सद्बुद्धि, सत्प्रेरणा और सत्साहसिकता प्रदान की है, उन्होंने अपने साधनों को विलासिता, अहन्ता और मोहजन्य वासना में न लगाकर, ऐसे महान् प्रयोजनों में लगाया है, कि उनसे प्रेरणा पाकर, अनेकों लोग उसी मार्ग पर चल पड़े। तब उस समुदाय के सम्मिलित क्रिया-कलाप इतने बड़े होते हैं, जिनकी कल्पना मात्र से लोगों का हृदय हुलसने लगता है और देखा-देखी वे भी ऐसा कुछ कर बैठने के लिये कटिबद्ध हो जाते हैं, जिससे असंख्यों का हित-साधन हो। जब सामान्य साधनों और सामान्य-परिस्थितियों के लोगों ने इतने भर से बड़े कार्य कर दिखाये, तो जिनके पास साधन हैं, शक्ति है, संगठन है, मनोबल है, सूझबूझ है, वे कुछ अतिरिक्त उच्चस्तर के काम न कर सकें, ऐसी कोई बात नहीं।

मनुष्य की कृपणता, कायरता, संकीर्णता ही ऐसा अभिशाप है, जो उसे समर्थ रहते हुए भी कुछ करने नहीं देती, कठिनाइयों के जैसे-तैसे बहाने गढ़ लेती है। इसी को धिक्कारते हुए गीताकार ने कहा था कि—‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यत्वं तिष्ठ परंतप’’। हृदय की इस क्षुद्रता, कृपणता से कोई अपना पीछा छुड़ा सके, तो आदर्शवादी उदारता उसके ऐसे पुष्ट आधार बना देती है, जिसके बलबूते वह महामानवों की पंक्ति में बैठ सके और अपने साथ अन्यों को भी निहाल कर सकें।

यह समय चूकने का है नहीं

आमतौर से भक्तजन भगवान् को पुकारते और उनकी सहायता के लिये विनयपूर्वक गिड़गिड़ाते रहते हैं, पर कभी-कभी ऐसे समय भी आते हैं, जब भगवान् उन भक्त जनों से आवश्यक याचना करते हैं और बदले में उन्हें इतना महत्त्व देना पड़ता है, जो उनका अपने महत्त्व से भी बढ़-चढ़कर होता है।

हनुमान की वरिष्ठता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने पर राम-लक्ष्मण उन्हें खोजने ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे थे और येन-केन प्रकारेण उन्हें सीता की खोज में सहायता करने के लिये सहमत किया था। गंगाघाट पार करने के लिये केवट की सहायता आवश्यक हो गई थी, इसलिये केवट को उन्होंने आग्रहपूर्वक सहायता करने के लिये किसी प्रकार मनाया। आड़े समय में काम आने वाले जटायु को छाती से लगाकर कृतज्ञता व्यक्त की, उसकी अनुभूति हर सुनने वाले को भाव-विभोर कर देती है। समुद्र का पुल बाँधने में जिन निहत्थे रीछ-वानरों ने सहायता की, उनकी उदार चेतना को हजारों-लाखों वर्ष बीत जाने पर भी कथाकारों ने भुलाया नहीं है।

महाभारत अभीष्ट था। उसकी बागडोर सँभालने के लिये अर्जुन जैसे मनस्वी की आवश्यकता थी। अर्जुन से पूछा गया तो वह अचकचाने लगा। कभी भीख माँगकर खा लेने, कभी कुटुम्बियों पर हथियार न उठाने का सिद्धान्तवाद तर्क रूप में प्रस्तुत करने लगा। भगवान् ने उसके मन की कमजोरी पढ़ी और भर्त्सनापूर्वक कटु शब्दों में दबाव डाला कि उसे उस कठोर कार्य में उद्यत होना ही चाहिये। यों भगवान् सर्व शक्तिमान् होने से महाभारत को अकेले भी जीत सकते थे, पर अर्जुन को श्रेय देना था, जो सच्ची मित्रता का तकाजा था। उसे यशस्वी भी तो बनाना था, इसलिये संग्राम के मध्य खड़े होकर अर्जुन को सुविस्तृत दर्शनशास्त्र समझाते हुए अपने प्रयोजन में भागीदार बनने के लिये सहमत करना ही पड़ा। अर्जुन घाटे में नहीं, नफे में ही रहा।

सुदामा बगल में दबी चावल की पोटली देना नहीं चाहते थे, सकुचा रहे थे, पर उन्होंने उस दुराव को बलपूर्वक छीना और चावल देने की उदारता परखने के बाद ही सुदामापुरी को द्वारिकापुरी में रूपान्तरित किया। भक्त और भगवान् के मध्यवर्ती इतिहास की परम्परा यही रही है। पात्रता जाँचने के उपरान्त ही किसी को कुछ महत्त्वपूर्ण मिला है। जो आँखें मटकाते आँसू बहाते, रामधुन की ताली बजाकर बड़े-बड़े उपहार पाना चाहते हैं, उनकी अनुदारता खाली हाथ ही लौटती है। भगवान् को ठगा नहीं जा सकता है। वे गोपियों तक से छाछ प्राप्त किये बिना अपने अनुग्रह का परिचय नहीं देते थे। जो गोवर्धन उठाने में सहायता करने की हिम्मत जुटा सके, वही कृष्ण के सच्चे सखाओं में गिने जा सके।

यह समय युग परिवर्तन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का है। इसे आदर्शवादी कठोर सैनिकों के लिये परीक्षा की घड़ी कहा जाये, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं समझी जानी चाहिये। पुराना कचरा हटता है और उसके स्थान पर नवीनता के उत्साह भरे सरंजाम जुटते हैं। यह महान् परिवर्तन की—महाक्रान्ति की वेला है। इसमें कायर, लोभी, डरपोक और भाँड़ आदि जहाँ-तहाँ छिपे हों, तो उनकी ओर घृणा, तिरस्कार की दृष्टि डालते हुए, उन्हें अनदेखा भी किया जा सकता है। यहाँ तो प्रसंग हथियारों से सुसज्जित सेना का चल रहा है। वे ही यदि समय की महत्ता, आवश्यकता को न समझते हुए, जहाँ-तहाँ मटरगस्ती करते फिरें और समय पर हथियार न पाने के कारण समूची सेना को परास्त होना पड़े तो ऐसे व्यक्तियों पर तो हर किसी का रोष ही बरसेगा, जिनने-आपात स्थिति में भी प्रमाद बरता और अपना तथा अपने देश के गौरव को मटियामेट करके रख दिया।

जीवन्तों, जाग्रतों और प्राणवान् में से प्रत्येक को अनुभव करना चाहिये कि यह ऐसा विशेष समय है जैसा कि हजारों-लाखों वर्षों बाद कभी एक बार आता है। गाँधी के सत्याग्रही और बुद्ध के परिव्राजक बनने का श्रेय, समय निकल जाने पर अब कोई किसी भी मूल्य पर नहीं पा सकता। हनुमान और अर्जुन की भूमिका हेतु फिर से लालायित होने वाला कोई व्यक्ति कितने ही प्रयत्न करे, अब दुबारा वैसा अवसर हस्तगत नहीं कर सकता। समय की प्रतीक्षा तो की जा सकती है, पर समय किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। भगीरथ, दधीचि और हरिश्चन्द्र जैसा सौभाग्य अब उनसे भी अधिक त्याग करने पर भी पाया नहीं जा सकता।

समय बदल रहा है। प्रभातकाल का ब्रह्ममुहूर्त अभी है। अरुणोदय के दर्शन अभी हो सकते हैं। कुछ घण्टे ऐसे हैं उन्हें यदि प्रमाद में गँवा दिये जायें, तो अब वह गया समय लौटकर फिर किस प्रकार आ सकेगा? युग-परिवर्तन की वेला ऐतिहासिक, असाधारण अवधि है। इसमें जिनका जितना पुरुषार्थ होगा, वह उतना ही उच्च कोटि का शौर्य पदक पा सकेगा। समय निकल जाने पर, साँप निकल जाने पर लकीर को लाठियों से पीटना भर ही शेष रह जाता है।

इन दिनों मनुष्य का भाग्य और भविष्य नये सिरे से लिखा और गढ़ा जा रहा है। ऐसा विलक्षण समय कभी हजारों-लाखों वर्षों बाद आता है। इसे चूक जाने वाले सदा पछताते ही रहते हैं और जो उसका सदुपयोग कर लेते हैं, वे अपने आपको सदा-सर्वदा के लिये अजर-अमर बना लेते हैं। गोवर्धन एक बार ही उठाया गया था। समुद्र पर सेतु भी एक ही बार बना था। कोई यह सोचता रहे कि ऐसे समय तो बार-बार आते ही रहेंगे और हमारा जब भी मन करेगा, तभी उसका लाभ उठा लेंगे, तो ऐसा समझने वाले भूल ही कर रहे होंगे। इस भूल का परिमार्जन फिर कभी कदाचित् ही हो सके।

लोग अपने पुरुषार्थ से तो अपने अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करते ही रहते हैं; पर भगवान् के उपायों का श्रेय मनुष्य को अनायास ही मिल जाये, ऐसा कदाचित ही कभी होता है। अर्जुन का रथ एक बार ही कृष्ण ने चलाया था। वे उसके केवल, मात्र सारथी नहीं थे कि जब हुकुम चलाया, तभी उनसे वह काम करा लिया। भगवान् राम और लक्ष्मण को कन्धों पर उठाये-फिरने का श्रेय हनुमान को एक ही बार मिला था। वे जब चाहते तभी हनुमान हठी बनकर, उन्हें कन्धों पर बिठाते और सैर कराते; ऐसे अवसर चाहे कभी भी मिल जाते रहेंगे, ऐसी आशा सदा-सर्वदा किसी को भी नहीं करनी चाहिये।

ब्रह्मा ने सृष्टि एक बार ही रची थी। उसके बाद तो वह ढर्रा ज्यों-त्यों करके अपने ढंग से चलता ही आ रहा है। नये युग का सृजन इन्हीं दिनों हो रहा है। समुद्र-मन्थन एक बार ही हुआ और उसमें से १४ रत्न एक बार ही निकले थे। वैसी घटनायें जब मन आये तभी घटित कर दी जायेंगी, यह आशा नहीं करनी चाहिये।

अवांछनीयता के पलायन का, औचित्य की संस्थापना का ब्रह्म मुहूर्त, यह एक बार ही आया है। फिर कभी हम लोग इसी मनुष्य जन्म में ऐसा देख सकेंगे, इसकी आशा करना एक प्रकार से अवांछनीय ही होगा। अच्छा यही हो कि ऐसी पुण्य वेला का लाभ उठाने में आज के विचारशील तो चूक करें ही नहीं।

उठाने वाले के साथ जुड़े

इन दिनों नव निर्माण का प्रयोजन भगवान् की प्रेरणा और उनके मार्गदर्शन में चल रहा है। उसे एक तीव्र सरिता-प्रवाह मानकर चलना चाहिये, जिसकी धारा का आश्रय पकड़ लेने के बाद कोई कहीं-से-कहीं पहुँच सकता है। तूफान के साथ उड़ने वाले पत्ते भी सहज ही आसमान चूमने लगते हैं। ऊँचे पेड़ का आसरा लेकर दुबली बेल भी उतनी ही ऊँची चढ़ जाती है, जितना कि वह पेड़ होता है। ‘नव निर्माण’ महाकाल की योजना एवं प्रेरणा है। उसका विस्तार तो उतना होना ही है, जितना कि उसके सूत्र संचालक ने निर्धारित कर रखा है। इस विश्वास को जमा लेने पर अन्य सारी समस्याएँ सरल हो जाती हैं। नव निर्माण का कार्य ऐसा नहीं है, जिसके लिये कि घर-गृहस्थी काम धन्धा छोड़कर पूरा समय साधु-बाबाजियों की तरह लगाना पड़े। यह कार्य ऐसा है, जिसके लिये दो घण्टे नित्य लगाते रहने भर से असाधारण प्रगति सम्भव है। लगन हो तो कुछ घण्टे ही परमार्थ प्रयोजन में लगा देने भर से इतना अधिक परिणाम सामने आ उपस्थित हो सकता है, जिसे आदरणीय, अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहा जा सके।

इस युगधर्म के निर्वाह के लिये अपने परिवार को प्रेरित किया जा रहा है। आरम्भ में विचार था अपने परिजनों के बलबूते ही सन् २००० में होने वाली पूर्णाहुति में एक करोड़ भागीदार बनाये जा सकेंगे, किन्तु परिजनों का उत्साह तथा समय की महत्ता और आवश्यकता देखते हुए गतिचक्र को दूना बढ़ा दिया गया है। अब पाँच-पाँच वर्ष में दो पूर्णाहुतियाँ होंगी एक सन् १९९५ में, दूसरी सन् २००० में। इन दोनों में एक-एक लाख वेदियों के दीप यज्ञ होंगे। इसी प्रकार एक करोड़ याजक इसमें सम्मिलित होंगे। लोगों के अन्त:करण में जिस क्रम से उत्साह उभरा है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि जितना संकल्प किया गया है, उससे कई गुनी गति बढ़ेगी और लक्ष्य से कहीं अधिक आगे पहुँचेंगे।

यह मात्र कल्पना नहीं है। वरन् दिव्य संरक्षण में सक्रिय होने वाला उत्साह बूँद-बूँद से सागर की उपमा चरितार्थ करता है। अपने वर्तमान पाँच लाख परिजनों में से, एक लाख जीवन्त-वरिष्ठों को अग्रदूतों की भूमिका के लिये छाँटा जा रहा है। उन्हें एक हलका-सा काम सौंपा गया है। वे प्रतिदिन पाँच-दस परिचितों को नव प्रकाशित इक्कीसवीं सदी सम्बन्धी पुस्तकें एक-एक करके पढ़ायें-सुनायें, घण्टे-दो-घण्टे समयदान देने वाले के लिये यह कार्य बहुत आसान है।

यदि औसतन १० दिनों में न्यूनतम ५ व्यक्तियों को भी यह सैट पढ़ाया जाये, तो एक माह में १५ तथा एक वर्ष में १८० व्यक्तियों तक एक ही परिजन नव चेतना का सन्देश पहुँचा सकता है। इस प्रकार पाँच वर्ष में यह संख्या ९०० हो जायेगी। इस क्रम से एक लाख परिजनों द्वारा, पाँच वर्ष में ९ करोड़ व्यक्तियों को युग चेतना से अनुप्राणित किया जा सकेगा। यह संख्या आश्चर्यजनक लगती है, पर यह न्यूनतम आँकड़े हैं। नैष्ठिक पुरुषार्थी १० दिन में १० व्यक्तियों को भी पढ़ा-सुना सकता है। तब यह संख्या दो गुनी हो जाएगी अर्थात् पाँच वर्ष में १८ करोड़। अगले पाँच वर्ष में नैष्ठिकों की संख्या बढ़ेगी ही अस्तु उस पाँच वर्षीय पुरुषार्थ से और भी अधिक लोगों को अनुप्राणित किया जा सकेगा। सफलता का प्रतिशत कितना भी घटे, हर पाँच वर्ष में करोड़-दो-करोड़ भागीदारी खड़े कर लेना जरा भी कठिन नहीं है।

इस संबद्ध परिकर को दैनिक जीवन में कई काम सुपुर्द किये गये हैं। इनमें से एक है—१०८ बार गायत्री मंत्र का जाप। उतने ही समय तक प्रात:कालीन सूर्योदय का ध्यान, जिसमें अनुभव करना कि वह तेजस् अपने कण-कण में, रोम-रोम में समाविष्ट होकर समूची काया को ओजस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी बना रहा है। यह अनुभव साधक के उत्साह एवं साहस को कई गुना बढ़ा देता है।

इसी साधक का एक पक्ष यह है कि उद्गम-केन्द्र शान्तिकुञ्ज की एक मानसिक परिक्रमा लगा ली जाये और विगत ६५ वर्ष से अखण्ड लौ में जल रहे दीपक के समीप बैठकर उससे नि:स्तृत होने वाली प्राण चेतना का अपने में अवधारण करते रहा जाये।

विचारक्रान्ति ज्ञानयज्ञ है, इसका हर दिन अवगाहन किया जाये। इक्कीसवीं सदी सम्बन्धी जो पुस्तकें हैं, जो इन दिनों छपती जा रही हैं, उस क्रम में हर महीने छह पुस्तकें छापने की योजना है। बीस पैसा नित्य का अंशदान निकालने रहने पर एक महीने में छह रुपये की राशि जमा हो जाती है। इसी पैसे से हर महीने का नया प्रकाशन एक लाख पाठकों को मिलता रहेगा। इन्हें एक से लेकर दस तक को पढ़ा देना या सुना देना ऐसा कठिन काम नहीं है, जिसे कि दो घण्टे समयदान करने वाला पूरा न कर सके। यह पढ़ाने या सुनाने का क्रम नियमित रूप से चलता रहे तो एक वर्ष में ही वह संख्या पूरी हो सकती है, जो पाँच वर्ष के लिये निर्धारित की गई है। ‘अधिकस्य अधिक फलम्’ की सूक्ति के अनुसार युगचेतना का स्वरूप जितने अधिक लोग समझ सकें, हृदयंगम कर सकें और व्यावहारिक जीवन में उतार सकें, उतना ही उत्तम है।

सन् १९९० की बसन्त पंचमी से यह ज्ञान यज्ञ आरम्भ किया जा रहा है। सन् १९९५ में महायज्ञ की अर्ध पूर्णाहुति होगी। उस निमित्त एक लाख वेदियों के यज्ञ वसन्त पंचमी से सम्पन्न हो जायेंगे। इस प्रकार एक लाख दीप यज्ञ और एक करोड़ के ज्ञान यज्ञ का, जप यज्ञ का संकल्प तब तक भली प्रकार पूरा हो जायेगा।

यह प्रथम पाँच वर्ष की योजना हुई। सन् 2000 में अभी दस वर्ष शेष है। दो लाख दीपयज्ञ और दो करोड़ ज्ञान यज्ञ सरलता से पूरे हो सकेंगे। वर्तमान परिजनों की बढ़ी हुई संख्या और उमंग को देखते हुए प्रतिफल उससे ज्यादा ही होने की सम्भावना है।

उपरोक्त बात क्रियाकृत्य से सम्बन्धित रही। निर्धारणों को जीवन में उतारने का प्रतिफल तो और भी अधिक प्रभावशाली होगा। शारीरिक स्फूर्ति, मानसिक उल्लास और भावनात्मक सम्वेदना की योग साधना हर किसी को नित्य-नियम के रूप में करनी होगी। मितव्ययिता का अभ्यास और बचे हुए समय तथा पैसे को जीवनचर्या में युग चेतना का समावेश करने के क्रम में लगाये रहने वाला पुण्यात्मा और अधिक धर्मपरायण बनता चला जायेगा। जलता हुआ दीपक दूसरे बुझे दीपकों को जलाता है। एक लाख से आरम्भ हुआ युग चेतना अभियान, पाँच-पाँच वर्षों में करोड़ों को अपने प्रभाव से प्रभावित कर डाले तो उसे कुछ भी असाधारण नहीं मानना चाहिये। यह क्रम आगे भी बढ़ता रहे, तो वह दिन दूर नहीं, जब समूची मनुष्य जाति इस प्रभाव क्षेत्र में होगी, प्रगतिशीलता का माहौल बनता दीख पड़ेगा, मानवीय गरिमा के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाते हुए जन-जन दिखाई देंगे।

पिछले एक शताब्दी में कुविचारों और कुकर्मों की बाढ़ जैसी आ गयी। लोग भ्रष्ट-चिन्तन और दुष्ट कर्मों के अभ्यासी बनने लगे। पतन का क्रम कहाँ से कहाँ पहुँचा? लोग गिरने और गिराने में प्रतिस्पर्धा मानने लगे। इसी प्रवाह को यदि उलट दिया जाये तो अगली शताब्दी में सदाशयता की उत्साहपूर्वक अभिवृद्घि भी हो सकती है। गिरने और गिराने वाले यदि अपनी गतिविधियों को उलटकर उठने और उठाने में लगा दें तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को मूर्तिमान बनने में कुछ भी सन्देह न रह जायेगा।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जायें, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिंतन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरंभ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।