महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 08)

भूमिका

व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। धातुओं की खदानें जहाँ भी होती हैं, उस क्षेत्र के वही धातु कण मिट्टी में दबे होते हुए भी उसी दिशा में रेंगते और खदान के चुम्बकीय आकर्षणों से आकर्षित होकर पूर्व संचित खदान का भार, कलेवर और गौरव बढ़ाने लगते हैं। व्यक्तित्ववान अनेकों का स्नेह, सहयोग, परामर्श एवं उपयोगी सान्निध्य प्राप्त करते चले जाते हैं। यह निजी पुरुषार्थ है। अन्य सुविधा-साधन तो दूसरों की अनुकम्पा भी उपलब्ध करा सकता है; किन्तु प्रतिभा का परिष्कार करने में अपना संकल्प, अपना समय और अपना पुरुषार्थ ही काम आता है। इस पौरुष में कोताही न करने के लिए गीताकार ने अनेक प्रसंगों पर विचारशीलों को प्रोत्साहित किया है। एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।

अनुक्रमणिका

1. सर्वोपरि उपलब्धि—प्रतिभा
2. प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं
3. परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान
4. प्रचण्ड मनोबल की प्रतिभा में परिणति
5. आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें


सर्वोपरि उपलब्धि—प्रतिभा

मनुष्य ने सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में वरिष्ठता पाई है। शरीर-संरचना और मानसिक-मस्तिष्कीय विलक्षणता के कारण उसने सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में न केवल स्वयं को सशक्त, समुन्नत सिद्ध किया है; वरन् वह ऐसी सम्भावनाएँ भी साथ लेकर आया है, जिनके सहारे अपने समुदाय को, अपने समग्र वातावरण एवं भविष्य को भी शानदार बना सके। यह विशेषता प्रयत्नपूर्वक उभारी जाती है। रास्ता चलते किसी गली-कूचे में पड़ी नहीं मिल जाती। इस दिव्य विभूति को प्रतिभा कहते हैं। जो इसे अर्जित करते हैं, वे सच्चे अर्थों में वरिष्ठ-विशिष्ट कहलाने के अधिकारी बनते हैं, अन्यथा अन्यान्य प्राणी तो, समुदाय में एक उथली स्थिति बनाए रहकर किसी प्रकार जीवनयापन करते हैं।

मनुष्य, गिलहरी की तरह पेड़ पर नहीं चढ़ सकता। बन्दर की तरह कुलाचें नहीं भर सकता। बैल जितनी भार वहन की क्षमता भी उसमें नहीं है। दौड़ने में वह चीते की तुलना तो क्या करेगा, खरगोश के पटतर भी अपने को सिद्ध नहीं कर सकता। पक्षियों की तरह आकाश में उड़ना उसके लिए सम्भव नहीं, न मछलियों की तरह पानी में डुबकी ही लगा सकता है। अनेक बातों में वह अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत पीछे है; किन्तु विशिष्ट मात्रा में मिली चतुरता, कुशलता के सहारे वह सभी को मात देता है और अपने को वरिष्ठ सिद्ध करता है।

व्यावहारिक जीवन में मनुष्य अन्य प्राणि-समुदाय की तुलना में अनेक दृष्टियों से कहीं आगे है, वह उसी की नियति है। अधिकांश मनुष्यों को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक सुविधा-सम्पन्न जीवन-यापन करते हुए देखा जाता है। इतने पर भी सम्भावना यह भी है कि वह इन उपलब्धियों की तुलना में और भी अधिक समर्थता और महत्ता प्राप्त कर सके। पर शर्त एक ही है कि उस अभिवर्धन के लिए वह स्वयं अतिरिक्त प्रयास करे। कमियों को दूर करें और जिसकी नितान्त आवश्यकता है, उसे पाने-कमाने के लिए अधिक जागरूगतापूर्वक, अधिक तत्परता एवं तन्मयता बरते। अपने पुरुषार्थ को इस स्तर पर सिद्ध करे कि यह मात्र दैवी अनुदानों के आधार पर ही समुन्नत बनकर नहीं रह रहा है, वरन् उसका निज का पुरुषार्थ भी समुचित मात्रा में सम्मिलित रहा है। यह प्रतिभा ही है जिसके बल पर वह अन्यायों की तुलना में अधिक सुसंस्कृत और समुन्नत बनता है। गोताखोर गहरी डुबकी लगाकर मोती बीनते हैं। हीरे खोजने वाले खदान का चप्पा-चप्पा ढूँढ़ डालते हैं। प्रतिभा को उपलब्ध करने के लिए भी इससे कम प्रयास से काम नहीं चलता।

प्रतिभा एक दैवी स्तर की विद्युत चेतना है, जो मनुष्य के व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व में असाधारण स्तर की उत्कृष्टता भर देती है। उसी के आधार पर अतिरिक्त सफलताएँ आश्चर्यजनक मात्रा में उपलब्ध की जाती है। साथ ही इतना और जुड़ता है कि अपने लिए असाधारण श्रेय, सम्मान और दूसरों के लिए अभ्युदय के मार्ग पर घसीट ले चलने वाला मार्गदर्शन वह कर सके। माँझी की तरह अपनी नाव को खेकर स्वयं पार उतरे और उस पर बिठाकर अन्यान्यों को भी पार उतारने का श्रेय प्राप्त कर सके। गिरों को उठाने, डूबतों को उबारने और किसी तरह समय गुजारने वालों को उत्कर्ष की ऊँचाई तक उछालने में समर्थ हो सके।

प्रतिभाशाली लोगों को असाधारण कहते हैं। विशिष्ट और वरिष्ठ भी कहा जाता है। साधारण जनों को तो जिन्दगी के दिन पूरे करने में ही जो दौड़-धूप करनी पड़ती है, झंझटों से निपटना और जीवनयापन के साधन जुटाना आवश्यक होता है, उसे ही किसी प्रकार पूरा कर पाते हैं। पशु-पक्षियों और पतंगों से भी इतना ही पुरुषार्थ हो पाता है और इतना ही सुयोग जुट पाता है; किन्तु प्रतिभावानों की बात ही दूसरी है, वे तारागणों के बीच चन्द्रमा की तरह चमकते हैं। उनकी चाँदनी सर्वत्र शान्ति और शीतलता बिखेरती है। वह स्वयं सुन्दर और अपनी छत्र-छाया के सम्पर्क में आने वालों को शोभा-सुन्दरता से जगमगा देते हैं। प्रतिभावानों को उदीयमान सूर्य भी कह सकते हैं, जिसके दर्शन होते ही सर्वत्र चेतना का एक नया माहौल उमड़ पड़ता है। वे ऊर्जा और आभा के स्वयं तो उद्गम होते ही हैं, अपनी किरणों का प्रभाव जहाँ तक पहुँचा पाते हैं, वहाँ भी बहुत कुछ उभारते-बिखेरते रहते हैं। सच तो यह है कि नर-वानर को शक्ति-पुञ्ज बनाने का श्रेय प्रतिभा को ही है। प्रतिभा ही शरीर में ओजस्विता, मानस में तेजस्विता और अन्त:करण में विभूति भरी वर्चस्विता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। मनुष्य की अपनी निजी विशेषता का परम पुरुषार्थ यही है। जो इससे वञ्चित रह गया, उसे मार्ग ढूँढ़ने का अवसर नहीं मिलता। मात्र अन्धी भेड़ों की तरह जिस-तिस के पीछे चलकर, जहाँ भाग्य ले पहुँचाता है, वहाँ जाकर, ऐसा व्यक्ति अशक्त परावलम्बियों जैसा जीवन जीता है। कठिनाइयों के समय यह मात्र घुटन अनुभव करता और आँसू भर बहाकर रह जाता है।

संसार असंख्य पिछड़े लोगों से भरा पड़ा है। वे गई-गुजरी जिन्दगी जीते और भूखे-नंगे तिरस्कृत-उपेक्षित रहकर किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं। निजी समर्थता का अभाव देखकर उन पर विपन्नता और प्रतिगामिता के अनेक उद्भिज चढ़ दौड़ते हैं। दुर्व्यसन दुर्बल मनोभूमि वालों पर ही सवार होते हैं और उन्हें जिधर-तिधर खींचते-घसीटते फिरते हैं। ऐसे भारभूत लोग अपने लिए, साथी-सहयोगियों के लिए और समूचे समाज के लिए एक समस्या ही बने रहते हैं। इन्हीं का बाहुल्य देखकर अनाचारी अपने पञ्जे फैलाते, दाँत गड़ाते और शिकञ्जे कसते हैं। प्रतिभारहित समुदाय का धरती पर लदे भार जैसा आँकलन ही होता है। वे किसी की कुछ सहायता तो क्या कर सकेंगे, अपने को अर्धमृतक की तरह किन्हीं के कन्धों पर लादकर चलने का आश्रय ताकते हैं।

संसार सदा से ऐसा नहीं था, जैसा कि अब सुन्दर, सुसज्जित, सुसंस्कृत और समुन्नत दीखता है। आदिकाल का मनुष्य भी वनमानुषों की तरह भूखा-नंगा फिरता था। ऋतु-प्रभावों से मुश्किल से ही जूझ पाता था। जीवित रहना और पेट भरना ही उसके लिए प्रधान समस्या थी और इतना बन पड़ने पर वह चैन की साँस भी लेता था। संसार तब इतना सुन्दर कहाँ था? यहाँ खाई-खन्दक टीले, ऊसर, बंजर, निविड़ वन और अनगढ़ जीव-जन्तु ही जहाँ-तहाँ दीख पड़ते थे। आहार, जल और निवास तक की सुविधा न थी, फिर अन्य साधनों का उत्पादन और उपयोग बन पड़ने की बात ही कहाँ बन पाती होगी?

आज का हाट-बाजारों उद्योग-व्यवसायों विज्ञान-आविष्कारों सुविधा-साधनों अस्त्र-शस्त्र सज्जा-शोभा शिक्षा और सम्पदा से भरा-पूरा संसार अपने आप ही नहीं बन गया है। उसने मनुष्य की प्रतिभा विकसित होने के साथ-साथ ही अपने कलेवर का विस्तार भी किया है। श्रेय मनुष्य को दिया जाता है, पर वस्तुत: दुनियाँ जानती है कि वहाँ सब कुछ सम्पदा और बुद्धिमत्ता का ही खेल है। इससे दो कदम आगे और बढ़ाया जा सके, तो सर्वतोमुखी प्रगति का आधार एक ही दीख पड़ता है प्रतिभा-परिष्कृत प्रतिभा। इसके अभाव में अस्तित्व जीवित लाश से बढ़कर और कुछ नहीं रह जाता।

सम्पदा का इन दिनों बहुत महत्त्व आँका जाता है; इसके बाद समर्थता, बुद्धिमत्ता आदि की गणना होती है। पर और भी ऊँचाई की ओर नजर दौड़ाई जाए, तो दार्शनिक, शासक, कलाकार, वैज्ञानिक, निर्माता एवं जागरूक लोगों में मात्र परिष्कृत प्रतिभा का ही चमत्कार दीखता है। साहसिकता उसी का नाम है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता के रूप में उसे जाना जा सकता है। यदि किसी को वरिष्ठता या विशिष्टता का श्रेय मिल रहा हो, तो समझना चाहिए कि यह उसकी विकसित प्रतिभा का ही चमत्कार है। इसी का अर्जन सच्चे अर्थों में वह वैभव समझा जाता है, जिसे पाकर गर्व और गौरव का अनुभव किया जाता है। व्यक्ति याचक न रहकर दानवीर बन जाता है। यही है वह क्षमता, जो अस्त्र-शस्त्रों की रणनीति का निर्माण करती है और बड़े से बड़े बलिष्ठों को भी धराशायी कर देती है। शक्ति की सर्वत्र अभ्यर्थना होती है, पर यदि उसका बहुमूल्य अंश खोजा जाए, तो उसे प्रतिभा के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। विज्ञान उसी का अनुयायी है। सम्पदा उसी की चेरी है। श्रेय और सम्मान वही जहाँ-तहाँ से अपने साथ रहने के लिए घसीट लाती है। गौरव-गाथा उन्हीं की गायी जाती है। अनुकरणीय और अभिनन्दनीय इसी विभूति के धनी लोगों में से कुछ होते हैं।

दूरदर्शिता, साहसिकता और नीति-निष्ठा का समन्वय प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होता है। ओजस, तेजस् और वर्चस, उसी के नाम हैं। दूध गर्म करने पर मलाई ऊपर तैरकर आ जाती है। जीवन के साथ जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से निपटने का जब कभी अवसर आता है, तो प्रतिभा ही प्रधान सहयोगी की भूमिका निभाती देखी जा सकती है।

सफलताओं में, उपलब्धियों में अनेकों विशेषताओं के योगदान की गणना होती है, पर यदि उन्हें एकत्रित करके एक ही शब्द में केन्द्रित किया जाए, तो प्रतिभा कहने भर से काम चल जाएगा और भी खुलासा करना हो, तो उसे अपने को, दूसरों को, संसार को और वातावरण को प्रभावित करने वाली सजीव शक्ति वर्षा भी कह सकते हैं।

अन्यान्य उपलब्धियों का अपना-अपना महत्त्व है। उन्हें पाने वाले गौरवान्वित भी होते हैं और दूसरों को चमत्कृत भी करते हैं, पर स्मरण रखने की बात यह है कि यदि परिष्कृत प्रतिभा का अभाव हो, तो प्राय: उनका दुरुपयोग ही बन पड़ता है। दुरुपयोग से अमृत भी विष बन जाने की उक्ति अप्रासंगिक नहीं है। शरीर बल से सम्पन्नों को आततायी, आतंकवादी, अनाचारी, आक्रमणकारी, अपराधी के रूप में उस उपलब्धि का दुरुपयोग करते और अपने समेत अन्यान्यों को संकट में धकेलते देखा जाता है। सम्पदा अर्जित करने वाले उसका सही उपयोग न बन पड़ने पर विलास, दुर्व्यसन, उद्धत् अपव्यय, विग्रह खड़े करने वाले अहंकार-प्रदर्शन आदि में खर्च करते देखे गये हैं। अवांछनीय व्यक्तियों और कार्यों का उसको सहयोग मिल जाने पर अनर्थ ही अनर्थ खड़े होते देखे जाते हैं। बढ़ी हुई शिक्षा या चतुरता एक से एक बड़े प्रपञ्च रचती है। ऐसे जाल-जञ्जाल बुनती है, जिनमें फँसने वालों को मछुआरों और चिड़ीमारों से पाला पड़ने जैसा भाग्य कोसना पड़ता है। बढ़ा हुआ सौन्दर्य व्यभिचार का ही रास्ता पकड़ता है। बड़े साहब, अफसर रिश्वतखोरी से, खोटी कमाई से जिस प्रकार बड़े आदमी बनते हैं, उसे देखकर यही सोचना पड़ता है कि यदि यह लोग शरीर-श्रम भर से पेट भरने वाले श्रमिक रहे होते तो हजार गुना अच्छा था। प्रतिभा ही है, जो वैभव को उपार्जित ही नहीं करती, वरन् उसके सदुपयोग भर के लिए उच्चस्तरीय सुझाव, सङ्कल्प और साहस भी प्रदान करती है। बड़प्पन भी तो इसी पर आश्रित है।

प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं

आदर्शवादी प्रयोजन, सुनियोजन, व्यवस्था और साहसभरी पुरुषार्थ-परायणता को यदि मिला दिया जाए, तो उस गुलदस्ते का नाम प्रतिभा दिए जाने में कोई अत्युक्ति न होगी।

कहते हैं कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। सच्चाई तो इस कथन में भी हो सकती है; पर यदि उसके साथ प्रतिभाभरी जागरूकता-साहसिकता को भी जोड़ दिया जाए, तो सोना और सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसी बात बन सकती है। तब उसे हजार हाथियों की अपेक्षा लाख ऐरावतों जैसी शक्ति-सम्पन्नता भी कहा जा सकता है। उसे मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पन्नता एवं सौभाग्यशाली भी कही जा सकती है।

आतंक का प्रदर्शन, किसी भी भले-बुरे काम के लिए, दूसरों पर हावी होकर उनसे कुछ भी भला-बुरा करा लेने के, डाकुओं जैसे दुस्साहस का नाम प्रतिभा नहीं है। यदि ऐसा होता, तो सभी आतंकवादी, अपराधियों को प्रतिभावान कहा जाता; जबकि उनका सीधा नाम दैत्य या दानव है। दादागीरी, आक्रमण की व्यवसायिकता अपनी जगह काम करती तो देखी जाती है; पर उसके द्वारा उत्पीड़ित किए गए लोग शाप ही देते रहते हैं। हर मन में उनके लिए अश्रद्धा ही नहीं, घृणा और शत्रुता बनती है। भले ही प्रतिशोध के रूप में उसे कार्यान्वित करते न बन पड़े। सेर को सवासेर भी मिलता है। ईंट का जवाब पत्थर से मिलता है, भले ही उस क्रिया को किन्हीं मनुष्यों द्वारा सम्पन्न कर लिया जाए अथवा प्रकृति अपनी परम्परा के हिसाब से उठने वाले बबूले की हवा स्वयं निकाल दे।

यदि प्रतिगामी, प्रतिभावान समझे जाते, तो अब तक यह दुनिया उन्हीं के पेट में समा गई होती और भलमनसाहत को चरितार्थ होने के लिए कहीं स्थान ही न मिलता। काया और छाया दोनों देखने में एक जैसी लग सकती है; पर उनमें अन्तर जमीन-आसमान जैसा होता है। मूँछें मरोड़ने, आँखें तरेरने और दर्प का प्रदर्शन करने वालों की कमी नहीं। ठगों और जालसाजों की करतूतें भी देखते ही बनती हैं। इतने पर भी उनका अन्त कुकुरमुत्तों जैसी विडम्बना के साथ ही होता है। यों इन दिनों तथाकथित प्रगतिशील ऐसे ही अवाञ्छनीय हथकण्डे अपनाते देखे गए हैं, पर उनका कार्य-क्षेत्र विनाश ही बनकर रह जाता है। कोई महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक उत्कृष्टता का पक्षधर प्रगतिशील कार्य उनसे नहीं बन पड़ता।

यह विवेचना इसलिए की जा रही है कि जिनको बोलचाल की भाषा में प्रगतिशील कहा जाने लगा है, उनकी वास्तविकता समझने में किसी को भ्रम न रह जाए, कोई आतंक को प्रतिभा न समझ बैठे। वह तो उत्कृष्टता के साथ साहसिकता का नाम है। वह जहाँ भी होती है, वहाँ कस्तूरी की तरह महकती है और चन्दन की तरह समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है।

गाँधी जी के परामर्श एवं सान्निध्य से ऐसी प्रतिभाएँ निखरीं, एकत्रित हुईं एवं कार्य क्षेत्र में उतरीं कि उस समुच्चय ने देश के वातावरण में शौर्य-साहस के प्राण फूँक दिये। उनके द्वारा जो किया गया, सँजोया गया, उसकी चर्चा चिरकाल तक होती रहेगी। देश की स्वतन्त्रता जैसी उपलब्धि का श्रेय, उसी परिकर को जाता है, जिसे गाँधी जी के व्यक्तित्व से उभरने का अवसर मिला, उनमें सचमुच जादुई शक्ति थी।

इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री चर्चिल भारत के वायसराय को परामर्श दिया करते थे कि वे गाँधी जी से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न आने दें। उनके समीप पहुँचने से वह उनके जादुई प्रभाव में फँसकर, उन्हीं का हो जाता है।

बुद्ध को मार डालने का षड्यन्त्र अंगुलिमाल महादस्यु ने बनाया। वह तलवार निकाले बुद्ध के पास पहुँचा और आक्रमण करने पर उतारू ही था कि सामने पहुँचते-पहुँचते पानी-पानी हो गया। तलवार फेंक दी और प्रायश्चित के रूप में न केवल उसने दस्यु-व्यवसाय छोड़ा, वरन् बुद्ध का शिष्य बनकर शेष जीवन को धर्मधारणा के लिए समर्पित कर दिया।

ऐसा ही कुचक्र अम्बपाली नामक वेश्या रचकर लाई थी। पर सामने पहुँचते-पहुँचते उसका सारा बना-बनाया जाल टूट गया, वह चरणों पर गिरकर बोली—पिता जी मुझ नरक के कीड़े को किसी प्रकार पाप-पंक से उबार दें। बुद्ध ने उसके सिर पर हाथ फिराया और कहा कि ‘तू आज से सच्चे अर्थों में मेरी बेटी है। अपना ही नहीं, मनुष्य जाति के उद्धार का कार्यक्रम मेरे वरदान के रूप में लेकर जा।’ सभी जानते हैं कि अम्बपाली के जीवन का उत्तरार्ध किस प्रकार लोकमंगल के लिए समर्पित हुआ।

नारद कहीं अधिक देर नहीं ठहरते थे; पर उनके थोड़े-से सम्पर्क एवं परामर्श से ध्रुव, प्रह्लाद, रत्नाकर आदि कितनों को ही, कितनी ऊँचाई तक चढ़-दौड़ने का अवसर मिला।

वेदव्यास का साहित्य-सृजन प्रख्यात है। उनकी सहायता करने गणेशजी लिपिक के रूप में दौड़े थे। भगीरथ का पारमार्थिक साहस धरती पर गंगा उतारने का था। कुछ अड़चन पड़ी, तो शिवजी जटा बिखेरकर उनका सहयोग करने के लिए आ खड़े हुए। विश्वामित्र की आवश्यकता समझते हुए हरिश्चन्द्र जैसों ने अपने को निछावर कर दिया। माता गायत्री का सहयोग उस महा-ऋषि को जीवन भर मिलता रहा। प्रसिद्ध है कि तपस्विनी अनुसूया की आज्ञा पालते हुए तीनों देवता उनके आँगन में बालक बनकर खेलते रहने का सौभाग्य-लाभ लेते रहे।

जापान के गाँधी ‘कागावा’ ने उस देश के पिछड़े समुदाय को सभ्य एवं समर्थों की श्रेणी में ला खड़ा किया था।

महामना मालवीय, स्वामी श्रद्धानन्द, योगी अरविन्द, राजा महेन्द्र प्रताप, रवीन्द्रनाथ टैगोर की स्थापित शिक्षा संस्थाओं ने कितनी उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ विनिर्मित करके राष्ट्र को समर्पित कीं। इन घटनाक्रमों को भुलाया नहीं जा सकता। विवेकानन्द, दयानन्द आदि के द्वारा जो जन-कल्याण बन पड़ा, उसे असाधारण ही कहा जाएगा। प्रतिभाएँ सदा ऐसे ही कार्यक्रम हाथ में लेतीं और उसे पूरी करती हैं।

रियासतों को भारत-गणतन्त्र में मिलाया जाना था। कुछ राजा सहमत नहीं हो रहे थे और अपनी शक्ति का परिचय देते हुए तलवार हिला रहे थे। सरदार पटेल ने कड़ककर कहा—‘इस तलवार से तो मेहतरों की झाडू अधिक सशक्त है, जो कुछ कर तो दिखाती है।’ राजाओं को पटेल के आगे समर्पण करना पड़ा है।

राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, राजा छत्रशाल आदि के पराक्रम प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वल्प-साधनों से जो लड़ाइयाँ लड़ीं, उन्हें असाधारण पराक्रम का प्रतीक ही माना जा सकता है। लक्ष्मीबाई ने तो महिलाओं की एक पूरी सेना खड़ी कर ली थी और समर्थ अँग्रेजों के छक्के ही छुड़ा दिए थे।

चाणक्य की जीवनी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं कि परिस्थितियाँ एवं साधन नहीं, वरन् मनोबल के आधार पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता है। शंकर दिग्विजय की गाथा बताती है कि मानवी प्रतिभा कितने साधन जुटा सकती और कितने बड़े काम करा सकती है? परशुराम ने समूचे विश्व के आततायियों का मानस किस प्रकार उलट दिया था, यह किसी से छिपा नहीं है। कुमारजीव ने एशिया के एक बड़े भाग को बौद्ध धर्म के अन्तर्गत लेकर कुछ ही समय में धार्मिक क्षेत्र की महाक्रान्ति कर दिखाई थी।

नेपोलियन भयंकर युद्ध में फँसा था। साथ में एक साथी था। सामने से गोली चल रही थी। घबराने लगा तो नेपोलियन ने कहा—डरो मत, वह गोली अभी किसी फैक्टरी में ढली नहीं है, जो मेरा सीना चीरे।’ वह उसी संकट में घिरा होने पर भी दनदनाता चला गया और एक ही हुंकार में समूची शत्रुसेना को अपना सहायक एवं अनुयायी बना लिया। प्रतिभा ऐसी ही होती है।

अमेरिका का अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन, इटली के गैरीबाल्डी आदि की गाथाएँ भी ऐसी हैं कि वे गई-गुजरी परिस्थितियों का सामना करते हुए जनमानस पर छाए और राष्ट्रपति पद तक पहुँचने में सफल हुए। लेनिन के बारे में जो जानते हैं, उन्हें विदित है कि साम्यवाद के सूत्रधार के रूप में उसने क्या से क्या करके दिखा दिया।

विनोबा का भूदान आन्दोलन, जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रान्ति सहज ही भुलाई नहीं जा सकती। भामाशाह की उदारता देश के कितने काम आई। बाबा साहब आमटे द्वारा की गई पिछड़ों की सेवा एक जीवन्त आदर्श के रूप में अभी भी विद्यमान है। विश्वव्यापी स्काउट आन्दोलन को खड़ा करने वाले बेडेन पावेल की सृजनात्मक प्रतिभा को किस प्रकार कोई विस्मृत कर सकता है। सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द सेना अविस्मरणीय है।

भारतीय साहित्यकारों के उत्थान की गाथाओं में कुछ के संस्मरण बड़े प्रेरणाप्रद हैं। पुस्तकों का बक्सा सिर पर रखकर फेरी लगाने वाले भगवती प्रसाद वाजपेयी, भिक्षान्न से पले बालकृष्ण शर्मा ‘‘नवीन’’, भैंस चराने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी आदि घोर विपन्नताओं से ऊँचे उठकर मूर्धन्य साहित्यकार बने थे। शहर के कूड़ों में से चिथड़े बटोरकर गुजारा करने वाले गोर्की विश्वविख्यात साहित्यकार हो चुके हैं। यह सब प्रतिभा का ही चमत्कार है।

उन्नति के अनेक क्षेत्र हैं, पर उनमें से अधिकांश में उठना प्रतिभा के सहारे ही होता है। धनाध्यक्षों में हेनरी फोर्ड, रॉक फेलर, अल्फ्रेड नोबुल, टाटा, बिड़ला आदि के नाम प्रख्यात हैं। इनमें से अधिकांश आरम्भिक दिनों में साधनरहित स्थिति में ही रहे हैं। पीछे उनके उठने में सूझ-बूझ ही प्रधान रूप से सहायक रही है। कठोर श्रमशीलता, एकाग्रता एवं लक्ष्य के प्रति सघन तत्परता ही सच्चे अर्थों में सहायक सिद्ध हुई है, अन्यथा किसी को यदि अनायास ही भाग्यवश या पैतृक सम्पत्ति के रूप में कुछ मिल जाए, तो यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उसे सुरक्षित रखा जा सकेगा या बढ़ने की दिशा में अग्रसर होने का अवसर मिल ही जाएगा। व्यक्ति की अपनी निजी विशिष्टताएँ हैं जो कठिनाइयों से उबरने, साधनों को जुटाने, मैत्री स्तर का सहयोगी बनाने में सहायता करती हैं। इन्हीं सब सद्गुणों का समुच्चय मिलकर ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व विनिर्मित करता है, जिसे प्रतिभा कहा जा सके, जिसे जहाँ भी प्रयुक्त किया जाए, वहाँ अभ्युदय का—श्रेय-सुयोग का अवसर मिल सके।

प्रतिभा के सम्पादन में, अभिवर्धन में जिसकी भी अभिरुचि बढ़ती रही है, जिसने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुविकसित बनाने के लिए प्रयत्नरत रहने में अपनी विशिष्टता की सार्थकता समझा है, समझना चाहिए उसी को अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर मिला है। उसी को जन साधारण का स्नेह-सहयोग मिला है। संसार भर में जहाँ भी खरे स्तर की प्रगति दृष्टिगोचर हो, समझना चाहिए कि उसमें समुचित प्रतिभा का ही प्रमुख योगदान रहा है।

परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान

सैनिकों को युद्ध मोर्चों पर पराक्रम दिखाने के लिए तैयार कराने के लिए, उन्हें भेजने वाला तन्त्र यह व्यवस्था भी करता है कि उन्हें आवश्यक सुविधाओं वाली साज-सज्जा मिल सके, अन्यथा वे अपनी ड्यूटी ठीक प्रकार पूरी करने में असमर्थ रहेंगे। नव सृजन के दुहरे मोर्चे पर इसी प्रकार की व्यवस्था, युग परिवर्तन का सरञ्जाम जुटाने वाली सत्ता ने भी कर रखी है।

सफलता के उच्च लक्ष्य तक पहुँचने में कितनी ही बाधाएँ पड़ सकती हैं, उन्हें पार करने के लिए—वांछित प्रगति के लिए अनेक आवश्यकताएँ पूरी करनी होती हैं। समझना चाहिए कि इस सन्दर्भ में किसी अग्रगामी आदर्शवादी को निराश न होना पड़ेगा, क्योंकि उसकी पीठ पर सर्वशक्तिमान सत्ता का हाथ जो रहेगा?

तेज हवा पीछे से चलती है, तो पैदल वालों से लेकर साइकिल आदि के सहारे लोग कम परिश्रम में आगे बढ़ते जाते हैं और मञ्जिल सरल हो जाती है। इसी प्रकार नव सृजन का लक्ष्य, कल्पना करने वालों को कठिन दीखता तो है, पर उस स्रष्टा को विदित है कि उनकी नव सृजनयोजना को पूरा करने के लिए, जो अपने प्राण हथेली पर रखकर अग्रगमन का साहस दिखा रहे हैं, उन्हें सफलता का लक्ष्य प्रदान करने के लिए क्या-क्या आवश्यकताएँ जुटानी और क्या जिम्मेदारी निभानी चाहिए?

माँगने वाले भिखमंगे दरवाजे-दरवाजे पर झोली पसारते, दाँत निपोरते, गिड़गिड़ाते और दुत्कारे जाते हैं। मनोकामनाएँ पूरी कराने वाले ईश्वर भक्ति का आडम्बर ओढ़कर इसी प्रकार निराश रहते हैं और उपेक्षा सहते हैं, पर जिन्हें ईश्वर का काम करना पड़ता है, उन्हें तो आदरपूर्वक बुलाया जाता है और अभीष्ट साधनों का उपहार भी दिया जाता है। इन दिनों गर्ज ईश्वर को पड़ी है। उसी का उद्यान समुन्नत करने के लिए कुशल माली चाहिए। उसी की दुनियाँ को समुन्नत, सुसंस्कृत, सुसम्पन्न बनाने के लिए कुशल कलाकारों और शूरवीर सैनिकों की आवश्यकता पड़ रही है। जो उसकी पुकार पर अपनी क्षमता को प्रस्तुत करेंगे, वे दैवी अनुग्रह से किसी प्रकार वंचित न रहेंगे, वरन् इतना कुछ प्राप्त करेंगे, जिसे पाकर वे निहाल बन सकें।

हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे। भयभीत सुग्रीव के लिए दो वन आगन्तुकों का भेद लेने के लिए वे वेष बदलकर राम-लक्ष्मण के पास गए थे और सिर नवाकर विनम्रतापूर्वक पूछताछ कर रहे थे। पर बाद में स्थिति बदली, सीता की खोज के लिए राम को हनुमान की जरूरत पड़ी। अनुरोध उन्होंने स्वीकारा तो बदले में इतनी सामर्थ्य के धनी बन गए, जो उनकी मौलिक विशेषताओं में सम्मिलित नहीं थी। समुद्र छलांगने, लङ्का को जलाने, पर्वत उखाड़कर लाने जैसे असाधारण काम थे, जो उन्होंने अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करके सम्पन्न किये।

ईश्वर के लिए आड़े समय में काम आने वाले को भी ऐसे ही उपहार-अनुदान मिलते हैं। विभीषण को लङ्का का सम्राट् बनने का सुयोग मिला। सुग्रीव ने अपना खोया राज्य पाया। भगवान के काम के लिए देवपुत्र माँगने वाली कुन्ती को उत्कृष्ट स्तर के पुत्र रत्न देने में उन्होंने आना-कानी नहीं की। भक्ति का प्रचार करने वाले नारद देवर्षि कहलाए। सूर-तुलसी ने ईश्वर के काम के लिए प्रतिज्ञारत होकर ऐसी प्रतिभा पाई, जिसके सहारे वे अनन्त कीर्ति पा सकने के अधिकारी बने।

इन दिनों स्रष्टा ने ही विश्व-कल्याण के लिए, नवसृजन के लिए कर्मवीरों को पुकारा है। जो उस हेतु हाथ बढ़ाएँगे, वे खाली क्यों रहेंगे? भगीरथ, गाँधी, बुद्ध आदि को जो समर्थता मिली, वह इसलिए मिली कि परमार्थ प्रयोजन के काम आए।

इस दुनियाँ में ऐसी भी सुविधा है कि जब-तब बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ बिना मूल्य भी मिल जाती हैं। हवा, पानी, छाया, खुशबू आदि हम बिना मूल्य ही पाते हैं; पर जौहरी या हलवाई की दुकान पर सुसज्जित रखी हुई वस्तुएँ उठाकर चल देने का कोई नियम नहीं है। उनका मूल्य चुकाना पड़ता है। गाय को घास न खिलाई जाए, तो दूध प्राप्त करते रहना कठिन है।

भगवान ने सुदामा को अपनी द्वारिकापुरी, टूटी सुदामापुरी के स्थान पर स्थानान्तरित कर दी थी, पर इससे पहले यह विश्वास कर लिया था कि इस अनुदान को उस स्थान पर कारगर विश्वविद्यालय चलाने के लिए ही प्रयुक्त किया जाएगा। चाणक्य की शक्ति चन्द्रगुप्त को ही मिली थी और वह चक्रवर्ती कहलाया था।

भवानी की अक्षय तलवार शिवाजी को मिली थी। अर्जुन को दिव्य गाण्डीव धनुष एवं बाण देने वालों ने अनुदान थमा देने से पहले यह भी जाँच लिया था कि उस समर्थता को किस काम में प्रयुक्त किया जाएगा? यदि बिना जाँच-पड़ताल के किसी को कुछ भी दे दिया जाए, तो भस्मासुर द्वारा शिवजी को जिस प्रकार हैरान किया गया था, वैसी ही हैरानी अन्यों को भी उठानी पड़ सकती है।

भगवान ने काय-कलेवर तो आरम्भ से ही बिना मूल्य दे दिया है, पर उसके बाद का दूसरा वरदान है ‘‘परिष्कृत प्रतिभा’’। इसी के सहारे कोई महामानव स्तर का बड़प्पन उपलब्ध करता है। इतनी बहुमूल्य सम्पदा प्राप्त करने के लिए वैसा ही साहस एकत्रित करना पड़ेगा, जैसा कि लोकमंगल के लिए विवेकानन्द जैसों को अपनाना पड़ा था। इन दिनों परीक्षा भरी वेला है, जिसमें सिद्ध करना होगा कि जो कुछ दैवी-अनुग्रह विशेष रूप से उपलब्ध होगा, उसे उच्चस्तरीय प्रयोजन में ही प्रयुक्त किया जायेगा। कहना न होगा कि इन दिनों नवयुग के अवतरण का पथ-प्रशस्त करना ही वह बड़ा काम है, जिसके लिए कटिबद्ध होने पर ‘परिष्कृत प्रतिभा’ का बड़ी मात्रा में, अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। उसे धारण करने पर ‘हीरे का हार’ पहनने वाले की तरह शोभायमान बना जा सकता है।

ईश्वरीय व्यवस्था में यही निर्धारण है कि बोया जाए और उसके बाद काटा जाए। पहले काट लें, उसके बाद बोएँ, यही नहीं हो सकता। लोकसेवी उज्ज्वल छवि वाले लोग ही प्राय: वरिष्ठ, विश्वस्त गिने और उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं।

विशिष्ट पुरुषार्थ का परिचय देने के उपरान्त ही पुरस्कार मिलते हैं। परिष्कृत प्रतिभा ऐसी सम्पदा है, जिसकी तुलना में मनुष्य को गौरवान्वित करने वाला और कोई साधन है नहीं। उसे प्राप्त करने के लिए यह सिद्ध करने की आवश्यकता है कि मानवी गरिमा को गौरवान्वित करने वाली धर्म-धारणा के क्षेत्र में कितनी उदारता और कितनी सेवा-साधना का परिचय देने का साहस जुटा पाया।

दूसरों के हाथ रचाने के लिए, मेंहदी के पत्ते पीसने पर अपने हाथ स्वयमेव लाल हो जाते हैं। समय की माँग के अनुरूप पुण्य-परमार्थ का परिचय देने वालों को भी सदा नफे में ही रहने का सुयोग मिलता है। बाजरा, मक्का आदि का बोया हुआ एक दाना हजार दाने से लदी बाल बनकर इस तथ्य को प्रमाणित और परिपुष्ट करता है। भगवान के बैंक में जमा की हुई पूँजी इतने अधिक ब्याज समेत वापस लौटती है, जितना लाभ अन्य किसी व्यवसाय या पूँजी-निवेश में कदाचित् ही हस्तगत होती हो।

किसी की वरिष्ठता उसके पारमार्थिक पौरुष के आधार पर ही आँकी जाती है। श्रेष्ठों-वरिष्ठों का आँकलन इसी एक आधार पर होता रहा है। साथ ही यह भी विश्वास किया जाता है कि बड़े कामों को सम्पन्न करने में उन्हीं की मनस्विता काम आती है। पटरी पर से उतरे इंजन को उठाकर फिर उसी स्थान पर रखने के लिए मजबूत और बड़ी क्रेन चाहिए। उफनती नदी में जब भँवर पड़ते रहते हैं, तब बलिष्ठ नाविकों के लिए ही यह सम्भव होता है कि वे डगमगाती नाव को खेकर पार पहुँचाएँ। समाज की सुविस्तृत, संसार की उलझन भरी बड़ी समस्याओं को सही तरह सुलझा सकना, उन साहसी और मेधावीजनों से ही बन पड़ता है, जिन्हें दूसरे शब्दों में प्रतिभावान भी कहा जा सकता है। युग परिवर्तन जैसे महान प्रयोजनों को हाथ में लेने के लिए अपनी साहसिकता का गौरवभरी गरिमा का परिचय दे सकने वाले व्यक्ति चाहिए। आड़े समय में ऐसे ही प्रखर प्रतिभावानों को खोजा, उभारा और खरादा जाना है।

एक सम्भावना यह है कि सञ्चित अनाचारों का विस्फोट इन्हीं दिनों हो सकता है। उसे रोका न गया, तो कोई महायुद्ध भड़क सकता है। बढ़ता हुआ प्रदूषण, भयावह बहुप्रजनन, बढ़ता हुआ अनाचार मिल-जुलकर महाप्रलय या खण्डप्रलय जैसी स्थिति-उत्पन्न कर सकते हैं। उसे रोकने के लिए सशक्त अवरोध चाहिए। ऐसा अवरोध, जो उफनती हुई नदियों पर बाँध बनाकर उस जल-सञ्चय को नहरों द्वारा खेत-खेत तक पहुँचा सके। वह साधारणों का नहीं, असाधारणों का काम है।

ताजमहल, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पीसा की मीनार, स्वेज और पनामा नहर, हालैण्ड द्वारा समुद्र को पीछे धकेलकर उस स्थान पर सुरम्य औद्योगिक नगर बसा लेने जैसे अद्भुत सृजन-कार्य जहाँ-तहाँ विनिर्मित हुए दीख पड़ते हैं, वे आरम्भ में किन्हीं एकाध संकल्पवानों के ही मन-मानस में उभरे थे। बाद में सहयोगियों की मण्डली जुड़ती गई और असीम साधनों की व्यवस्था बनती चली गई। नवयुग का अवतरण भी इन सबमें बढ़ा-चढ़ा कार्य है, क्योंकि उसके साथ संसार के समूचे धरातल का, जन समुदाय का, सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार जुड़ता है। इतने बड़े परिवर्तन एवं प्रयास के लिए अग्रदूत कौन बने? अग्रिम पंक्ति में खड़ा कौन हो? आवश्यक क्षमता और सम्पदा कौन जुटाए? निश्चय ही यह नियोजन असाधारण एवं अभूतपूर्व है। इसे बिना मनस्वी साथी-सहयोगियों के सम्पन्न नहीं किया जा सकता। विचारणीय है कि उतनी बड़ी व्यवस्था कैसे बने?

आरम्भिक दृष्टि से यह कार्य लगभग असम्भव जैसा लगता है, पर संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिसने असम्भव को सम्भव बनाया है। आल्पस पहाड़ को लाँघने की योजना बनाने वाले नेपोलियन से हर किसी ने यह कहा था कि जो कार्य सृष्टि में आदि से लेकर अब तक कोई नहीं कर सका, उसे आप कैसे कर लेंगे? उत्तर बड़ा शानदार था। असम्भव शब्द मूर्खों के कोश में लिखा मिलता है। यदि आल्पस ने राह न दी, तो उसे इन्हीं पैरों के नीचे रौंदकर रख दिया जाएगा। अमेरिका की खोज पर निकले कोलम्बस को भी लगभग ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा। समुद्र से अण्डे वापस लेने में असफल होने पर जब टिटहरी ने अपनी चोंच में बालू भरकर समुद्र में डालने और उसे पाटकर समतल बनाने का सङ्कल्प घोषित किया और उसके लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए उद्यत हो गई, तो नियति ने संकल्पवानों का साथ दिया। अगस्त्य मुनि आए, उन्होंने समुद्र पी डाला और टिटहरी को अण्डे वापस मिल गए। फरहाद द्वारा पहाड़ काटकर ३२ मील लम्बी नहर निकालने का असम्भव समझे जाने वाला कार्य सम्भव करके दिखाया गया। इसे ही कहते हैं ‘‘प्रतिभा’’।

प्रचण्ड मनोबल की प्रतिभा में परिणति

वह पौराणिक गाथा स्मरण रखने योग्य है कि सीता हरण के उपरान्त जब रावण को परास्त करने का प्रश्न सामने आया, तो राम के द्वारा भेजा गया निमन्त्रण उन दिनों के राजाओं और सम्बन्धियों तक ने अस्वीकृत कर दिया था, पर सुदृढ़ संकल्पों के अधूरे रहने से तो दिव्य व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगने की स्थिति आती है। वह भी तो अंगीकृत नहीं हो सकती।

‘जिन खोजा, तिन पाइयाँ’ वाली उक्ति के अनुरूप खोज की गई, तो रीछ-वानरों में से भी ऐसे मनस्वी निकल पड़े, जो आदर्शों के निर्वाह में बड़े-से-बड़ा जोखिम उठाने के लिए तत्परता दिखाने लगे। उनकी एक अच्छी-खासी मण्डली कार्य क्षेत्र में उतरने के लिए कटिबद्ध होकर आगे आ गई। बन्दरों ने लकड़ी-पत्थर एकत्रित किये, रीछों ने इन्जीनियर की भूमिका निभाई और समुद्र पर सेतु बनकर खड़ा हो गया।

‘ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।’ प्रतिकूलताएँ हटतीं और अनुकूलताएँ जुटती चली गईं। लङ्का विजय और श्रीराम की अवध वापसी वाली कथा सर्वविदित है। सीता भी अनेक बन्धनों से छुटकारा पाकर वापस आ गईं। यहाँ दो निष्कर्ष निकलते हैं—एक यह कि राम की प्रतिभा पर विश्वास करके वरिष्ठ वानर भी उत्साह और साहस से भर गए थे अथवा राम दल के मूर्धन्यों ने सामान्य स्तर के वानरों को भी प्राण-चेतना से ओत-प्रोत कर दिया हो और समर्थ व्यक्तियों की एक अच्छी-खासी मण्डली बन गई हो? दूसरी ओर समर्थ शासनाध्यक्ष भी रावण की समर्थता और अपनी दुर्बलता को देखते हुए डर गए हों और झंझट में पड़ने से डरकर कन्नी काट गए हों? निष्कर्ष यही निकलता है कि परिष्कृत प्रतिभा, दुर्बल सहयोगियों की सहायता से भी बड़े-से-भी बड़े काम सम्पन्न कर लेती है जबकि डरकर समर्थ व्यक्ति भी हाथ-पैर फुला बैठते हैं। राणाप्रताप के सैनिकों में अधिकांश आदिवासियों का ही पिछड़ा समझा जाने वाला समुदाय प्रमुख था। लक्ष्मीबाई रानी ने घर के पिञ्जरे में बन्द रहने वाली महिलाओं को भी प्रोत्साहन देकर युद्ध क्षेत्र में वीर सैनिकों की तरह ला खड़ा किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने तो अपने समय के दुर्दान्त दस्यु सागर सिंह को लूट-मार करके भागते समय, केवल अपनी सहेली सुन्दर के सहयोग से बन्दी बनाकर दरबार में खड़ा कर दिया था। उनकी मनस्विता के समक्ष उसका सारा दुस्साहस ढह गया। रानी ने अन्तत: उसे अपना सहयोगी बनाकर उसकी प्रतिभा का उपयोग अपनी सेना की शक्ति बढ़ाने में किया।

साधारण लोगों की प्रतिभा उभारकर साहस के धनी लोगों ने बड़े-बड़े काम करा लिए थे। चन्द्रगुप्त बड़े साम्राज्य का दायित्व सँभालने के योग्य अपने को पा नहीं रहा था, पर चाणक्य ने उसमें प्राण फूँके और अपने आदेशानुसार चलने के लिए विवश कर दिया। अर्जुन भी महाभारत की बागडोर सँभालने में सकपका रहा था, पर कृष्ण ने उसे वैसा ही करने के लिए बाधित कर दिया जैसा कि वे चाहते थे। समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता यदि उच्चस्तर की नहीं रही होती, तो शिवाजी की परिस्थितियाँ गजब का पराक्रम करा सकने के लिए उद्यत न होने देतीं। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने विवेकानन्द को एक साधारण विद्यार्थी से ऊँचा उठाकर विश्वभर में भारतीय संस्कृति का सन्देशवाहक बना दिया। दयानन्द की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानन्द के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया था। साथियों और मार्गदर्शकों की प्रतिभा, जिस किसी पर अपना आवेश हस्तान्तरित कर दे, वही कुछ से कुछ बन जाता है।

औजारों-हथियारों को ठीक तरह काम करने के लिए उनकी धार तेज रखने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उन्हें पत्थर पर रगड़कर शान पर चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। पहलवान भी चाहे जब दंगल में जाकर कुश्ती नहीं पछाड़ लेते, इसके लिए उन्हेें मुद्दतों अखाड़े में अभ्यास करना पड़ता है। प्रतिभा भी यकायक परिष्कृत स्तर की नहीं बन जाती, इसके लिए आए दिन अवाञ्छनीयताओं से जूझना और सुसंस्कारी आदर्शवादिता के अभिवर्धन का प्रयास निरन्तर जारी रखना पड़ता है। समाज सेवा के रूप में अन्यान्यों के साथ यह प्रयत्न जारी रखा जा सकता है। समाज में ऐसे अवसर निरन्तर नहीं मिलते। निजी जीवन और परिवार-परिकर का क्षेत्र ऐसा है, जिसमें सुधार-परिष्कार के लिए कोई-न-कोई कारण निरन्तर विद्यमान रहते हैं। रोज घर में बुहारी लगाने की, नहाने, कपड़े धोने की आवश्यकता पड़ती है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में कहीं न कहीं से मलीनता घुस पड़ती है, उनका निराकरण करना नित्य ही आवश्यक होता है। मन में, स्वभाव में पूर्वसञ्चित कुसंस्कारों, परिचितों के सम्पर्कों से मात्र अनौचित्य ही पल्ले बँधता है। उसका निराकरण अपने आप से जूझे बिना, समझाने से लेकर धमकाने तक का प्रयोग करने के अतिरिक्त स्वच्छता, शालीनता बनाए बिना नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त आदर्शों का परिपालन भी स्वभाव का अङ्ग बनाना पड़ता है। इसके लिए दूसरों से तो यत्किञ्चित् सहायता ही मिल पाती है।

बच्चे अपने प्रयास से रेंगने और खड़े होने का प्रयत्न करते हैं, तभी वे चलने और दौड़ने में समर्थ होते हैं। अपने आपको—व्यक्तित्व के हर पक्ष को—समुन्नत बनाने के लिए निरन्तर अवसर तलाशने और प्रयत्न करने पड़ते हैं। इस अवसर पर आत्मनिरीक्षण, आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार और आत्मविकास के लिए अपनी दिनचर्या में ही प्रगतिशीलता का अभ्यास करना होता है। इसी प्रकार शरीर से एक कदम आगे बढ़ते ही परिवार-परिकर को श्रेष्ठ-समुन्नत बनाने पर ही उनका भविष्य निखरता है। अस्तु, उनके परिशोधन के लिए भी श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था और सहकारिता की प्रवृत्तियों को उन सबके अभ्यास में उतारने के लिए कुछ कारगर कदम उठाने पड़ते है। अन्यथा ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’ भर बन जाने से उपहास-तिरस्कार के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। अपनी योग्यता-क्षमता बढ़ा लेने के उपरान्त ही यह बन पड़ता है कि दूसरों पर इच्छित प्रभाव डाला जाए और उन्हें उठने-बैठने में सक्षम बनाया जाए।

रेल का इंजन स्वयं समर्थ होता है और साधनों से गति पकड़ता है। तभी उसके साथ जुड़े हुए पीछे वाले डिब्बे भी गति पकड़ते हैं। इंजन की क्षमता यदि अस्त-व्यस्त हो चले, तो फिर वह रेल लक्ष्य तक पहुँचना तो दूर, अन्यों का आवागमन भी रोककर खड़ी हो जाएगी।

दूसरों की सहायता मिलती तो है, पर उसे प्राप्त करने के लिए, अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए असाधारण प्रयत्न करने पड़ते हैं। पात्रता ही प्रकारान्तर से सफलता जैसे पुरस्कार साथ लेकर वापस लौटती है। वर्षा ऋतु कितने ही दिन क्यों न रहे, कितनी ही मूसलाधार वर्षा क्यों न बरसे, पर अपने पल्ले उतना ही पड़ेगा जितना कि बर्तन का आकार हो अथवा गड्ढे की गहराई बन सके। उन दिनों सब जगह हरियाली उगती है, पर चट्टानों पर एक तिनका भी नहीं उगता। उर्वरता न हो, तो भूमि में कोई बीज उगेगा ही नहीं। छात्रों को अगली कक्षा में चढ़ने या पुरस्कार जीतने, छात्रवृत्ति पाने का अवसर किसी की कृपा से नहीं मिलता। उनकी परिश्रमपूर्वक बढ़ी हुई योग्यता ही काम आती है। प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होने वाले जिस-तिस का अनुग्रह मिलने की आशा नहीं लगाए रहते, वरन् अपनी दक्षता, समर्थता को विकसित करके बाजी जीतने वाले सफल व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठने की प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। देवताओं तक का अनुग्रह, तपश्चर्या की प्रखरता अपनाने वाले ही उपलब्ध करते हैं। बिना प्रयास के तो थाली में रखा हुआ भोजन तक, मुँह में प्रवेश करने और पेट तक पहुँचने में सफल नहीं होता।

महान शक्तियों ने जिस पर भी अनुग्रह किया है, उसे सर्वप्रथम उत्कृष्टता अपनाने और प्रबल पुरुषार्थ में जुटने की ही प्रेरणा दी है। इसके बाद ही उनकी सहायता काम आती है। कुपात्रों को यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि उन्हें अनायास ही मानवी या दैवी सहायता उपलब्ध होगी और सफलताओं, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत करके रख देगी। दुर्बलता धारण किए रहने पर तो प्रकृति भी ‘‘दैव भी दुर्बल का घातक होता है’’—इस उक्ति को चरितार्थ करती देखी गई है। दुर्बल शरीर पर ही विषाणुओं की अनेक प्रजातियाँ चढ़ दौड़ती हैं। शीत ऋतु का आगमन जहाँ सर्वसाधारण के स्वास्थ्य-सम्वर्धन में सहायक होता है, वहाँ मक्खी-मच्छर जैसे कृमि-कीटकों के समूह को मृत्यु के मुँह में धकेल देता है।

सड़क पर बसों-मोटरों का ढाँचा दौड़ता दीखता है, पर जानकार जानते हैं कि यह दौड़, भीतर टंकी में भरे ज्वलनशील तेल की करामात है। यह चुक जाए, तो बैठकर सफर करने वाली सवारियों को उतरकर उस ढाँचे को अपने बाहुबल से धकेलकर आगे खिसकाना पड़ता है। मनुष्य के काय-कलेवर के द्वारा जो अनेक चमत्कारी काम होते दीख पड़ते हैं, वे मात्र हाड़-माँस की उपलब्धि नहीं होते, वरन् उछलती उमंगों के रूप में प्रतिभा ही काम करती है। स्वयंवर में माला उन्हीं के गले में पड़ती है, जो दूसरों की तुलना में अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं। चुनावों में वे ही जीतते हैं, जिनमें दक्षता प्रदर्शित करने और लोगों को अपने प्रभाव में लाने की योग्यता होती है। मजबूत कलाइयाँ ही हथियार का सफल प्रहार कर सकने में सफल होती हैं। दुर्बल भुजाएँ तो हारने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त कर सकने में सफल ही नहीं होतीं।

भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक उत्तरायण सूर्य न आवे, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाधित किया था। अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अन्तिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं। बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता, भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान साफ करती चलती है। सर्वविदित है कि यूरोप का विश्वविजयी पहलवान सैंडो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारियों से घिरा, दुर्बल काया लिए फिरते थे। पर जब उन्होंने समर्थ तत्त्वावधान में स्वास्थ्य का नये सिरे से सञ्चालन और बढ़ाना शुरू किया, तो कुछ ही समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गये। भारत के चन्दगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उन्होंने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनायी और खोयी हुई सेहत नये सिरे से न केवल पायी, वरन् इतनी बढ़ायी कि हिन्द केसरी उपाधि से विभूषित हुए।

इंग्लैण्ड की एक महिला कैंसर रोग से बुरी तरह आक्रान्त थी। डॉक्टरों ने उसे जवाब दे दिया कि अब छ: महीने से अधिक जीने की गुञ्जाइश नहीं है। जिस मशीन से उपचार हो सकता था, वह करोड़ों मूल्य की थी, जिसे अपने यहाँ रखने में कोई डॉक्टर समर्थ नहीं था। रोगी महिला ने नए सिरे से नया विचार किया। जब छ: महीने में मरना ही है, तो अन्य अपने जैसे निरीहों के प्राण बचाने की कोशिश क्यों न करें? उसने टेलीविजन पर एक अपील की कि यदि तीन करोड़ रुपए का प्रबन्ध कोई उदारचेता कर सके, तो उस मशीन के द्वारा उस जैसे निराशों को जीवन-दान मिल सकता है। पैसा बरसा। उससे एक नहीं तीन मशीनें खरीद ली गई और इतना ही नहीं कैंसर का एक साधन-सम्पन्न अस्पताल भी बन गया। रोगिणी इन्हीं कार्यों में इतने दत्तचित्त और मस्त रही कि उसे अपने मरने की बात का स्मरण तक न रहा। कार्य पूरा हो जाने पर उसकी जाँच-पड़ताल हुई, तो पाया गया कि कैंसर का एक भी चिह्न उसके शरीर में बाकी नहीं रहा है।

अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े वाल्टेयर ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। कालिदास और वरदराज की मस्तिष्कीय क्षमता कितनी उपहासास्पद थी, इसकी जानकारी सभी को है, पर वे जब नया उत्साह समेटकर नए सिरे से विद्या पढ़ने में जुटे, तो मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाने लगे। व्यक्ति की अन्त:चेतना, जिसे प्रतिभा भी कहते हैं, इतनी सबल है कि अनेकों अभावों और व्यवधानों को रौंदती हुई, वह उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचने में समर्थ होती है। प्रतिभा वस्तुत: वह सम्पदा है, जो व्यक्ति की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता के रूप में बहिरंग में प्रकट होती है। यदि प्रसुप्त को उभारा जा सके, स्वयं को खराद पर चढ़ाया जा सके, तो व्यक्ति असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। यह अध्यात्म-विज्ञान का एक सुनिश्चित सिद्धान्त एवं अटल सत्य है।

आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें

बिजली की शक्ति-सामर्थ्य से सभी परिचित हैं। छोटे-बड़े अनेकों यन्त्र-उपकरण उसी की शक्ति से चलते और महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित करते हैं। मनुष्य शरीर में भी जीवनचर्या को सुसञ्चालित रखने में जैव विद्युत ही काम आती है। चेहरे पर चमक, स्फूर्ति और पुरुषार्थ कर दिखाना उसी के अनुदान हैं। मन में शौर्य-पराक्रम साहस-विश्वास आदि के रूप में जब उसका अनुपात सन्तोषजनक मात्रा में होता है, तो उसे प्रतिभा कहते हैं। वह अपनी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाती है। कठिनाइयों से जूझ पड़ना और उन्हें परास्त कर सकना भी उसी का काम है। महत्त्वपूर्ण सृजन-प्रयोजनों को कल्पना से आगे बढ़कर योजना तक और योजना को कार्यान्वित करते हुए सफलता की स्थिति तक पहुँचाने की सुनिश्चित क्षमता भी उसी प्रतिभा में है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राणाग्नि एवं तेजस्वी मानसिकता कहते हैं। उपासना क्षेत्र में इसीलिए प्राणायाम जैसे यत्न सरलतापूर्वक किये जाते हैं। तपश्चर्या में तितीक्षा अपनाते हुए साधन-सुविधा की आवश्यकता इसी अन्त:शक्ति के सहारे सम्पन्न कर ली जाती थी। शाप-वरदान एवं असाधारण स्तर के चमत्कार दिखा सकना और कुछ नहीं मात्र प्राणाग्नि के ज्वलनशील होने से उत्पन्न हुई ऋद्धि-सिद्धि स्तर की क्षमता ही है।

शरीरबल, धनबल, बुद्धिबल तो कई लोगों में पाए जाते हैं, पर प्रतिभा के धनी कभी कहीं कठिनाई से ही खोजे-पाए जा सकते हैं। दैत्य दुष्प्रयोजनों में और देव सत्प्रयोजनों में इसी उपलब्ध शक्ति का उपयोग करते हैं। समुद्र-मन्थन जैसे महापराक्रम इसी सामर्थ्य की पृष्ठभूमि से बन पड़े हैं।

सत्संग से उत्थान और कुसंग से पतन की पृष्ठभूमि बनती है। यह और कुछ नहीं किसी समर्थ की प्रतिभा का भले-बुरे स्तर का स्थानान्तरण ही है। मानवीय विद्युत के अनेकानेक चमत्कारों की विवेचना करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि यह प्रतिभा नाम से जानी जाने वाली प्राण-विद्युत ही अपने क्षेत्र में अपने ढंग से अपना काम कर रही है। जिसमें इसका अभाव होता है, उसे कायर, अकर्मण्य, डरपोक, आलसी एवं आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित माना जाता है। संकोची, परावलम्बी एवं मन ही मन घुटते रहने वाले प्राय: इसी विशिष्टता से रहित पाए जाते हैं।

सोचना, चाहना, कल्पना करना और इच्छा-आकांक्षाओं का लबादा ओढ़े फिरने वालों में से कितने ही ऐसे भी होते हैं, जो आकांक्षा-अभिलाषा तो बड़ी-बड़ी सँजोए रहते हैं; पर उसके लिए जिस लगन, दृढ़ता, सङ्कल्प एवं अनवरत प्रयत्न-परायणता की आवश्यकता रहती है, उसे वह जुटा ही नहीं पाते। फलत: वे मन मारकर बैठे रहने और असफलताजन्य निराशा ही हाथ लगने तथा भाग्य को दोष देते रहने के अतिरिक्त मन को समझाने के लिए और कोई विकल्प खोज या अपना नहीं पाते।

पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, यह प्रतिपादन सही हो या गलत, पर इस मान्यता में सन्देह करने की गुंजायश नहीं, कि प्रतिभा को आत्मसात करने के उपरान्त सामान्य परिस्थितियों में जन्मा और पला मनुष्य भी परिस्थितिजन्य अवरोधों को नकारता हुआ प्रगति के पथ पर अग्रगामी और ऊर्ध्वगामी बनता चला जाता है। फूल खिलते हैं, तो उसके इर्द-गिर्द मधुमक्खियाँ और तितलियाँ कहीं से भी आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगती हैं, भौंरे उसका यशगान करने में न चूकते हैं, न सकुचाते; देवता फूल बरसाते और ईश्वर उसकी सहायता करने में कोताही नहीं करते।

व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। धातुओं की खदानें जहाँ भी होती हैं, उस क्षेत्र के वही धातु कण मिट्टी में दबे होते हुए भी उसी दिशा में रेंगते और खदान के चुम्बकीय आकर्षणों से आकर्षित होकर पूर्व संचित खदान का भार, कलेवर और गौरव बढ़ाने लगते हैं। व्यक्तित्ववान अनेकों का स्नेह, सहयोग, परामर्श एवं उपयोगी सान्निध्य प्राप्त करते चले जाते हैं। यह निजी पुरुषार्थ है। अन्य सुविधा-साधन तो दूसरों की अनुकम्पा भी उपलब्ध करा सकता है; किन्तु प्रतिभा का परिष्कार करने में अपना सङ्कल्प, अपना समय और अपना पुरुषार्थ ही काम आता है। इस पौरुष में कोताही न करने के लिए गीताकार ने अनेक प्रसंगों पर विचारशीलों को प्रोत्साहित किया है। एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।

पानी में बबूले अपने भीतर हवा भरने पर उभरते और उछलते हैं; पर जब उनका अन्तर खोखला ही हो जाता है, तो उनके विलीन होने में भी देर नहीं लगती। अन्दर जीवट का बाहुल्य हो, तो बाहर का लिफाफा आकर्षक या अनाकर्षक कैसा भी हो सकता है; किन्तु यदि ढकोसले को ही सब कुछ मान लिया जाए और भीतर ढोल में पोल भरी हो, तो ढम-ढम की गर्जन-तर्जन के सिवाय और कुछ प्रयोजन सधता नहीं। पृथ्वी मोटी दृष्टि से जहाँ की तहाँ स्थिर रहती प्रतीत होती है; पर उसकी गतिशीलता और गुरुत्वाकर्षण शक्ति इस तेजी से दौड़ लगाती है कि एक वर्ष में सूर्य की लम्बी कक्षा में परिभ्रमण कर लेती है और साथ ही हर रोज अपनी धुरी पर भी लट्टू की तरह घूम जाती है। कितने ही व्यक्ति दिनचर्या की दृष्टि से एक ढर्रा ही पूरा करते हैं; किन्तु भीतर वाली चेतना जब तेजी से गति पकड़ती है तो वे सामान्य परिस्थितियों में गुजर करते हुए भी उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचते हैं। सामर्थ्य भीतर ही रहती, बढ़ती और चमत्कार दिखाती है। उसी को निखारने, उजागर करने पर तत्परता बरती जाए तो व्यक्तित्व की प्रखरता इतनी सटीक होती है, कि जहाँ भी निशाना लगता है, वहीं से आर-पार निकल जाता है।

उन दिनों जर्मनी मित्र राष्ट्रों के साथ पूरी शक्ति झोंककर लड़ रहा था। इंग्लैण्ड के साथ रूस और अमेरिका भी थे। वे बड़ी मार से अचकचाने लगे और हर्जाना देकर पीछा छुड़ाने की बात सोचने लगे। बात इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री चर्चिल के सामने आई, तो उन्होंने त्यौरी बदलकर कहा आप लोग जैसा चाहे सोच या कर सकते हैं; पर इंग्लैण्ड कभी हारने वाला नहीं है। वह आप दोनों के बिना भी अपनी लड़ाई आप लड़ लेगा और जीतकर दिखा देगा। इस प्रचण्ड आत्मविश्वास को देखकर दोनों साथी भी ठिठक गए और लड़ाई छोड़ भागने से रुक गए। डार्विन के कथनानुसार बन्दर की औलाद बताया गया मनुष्य, आज इसी कारण सृष्टि का मुकुटमणि बन चुका है और धरती या समुद्र पर ही नहीं, अन्तरिक्ष पर भी अपना आधिपत्य जमा रहा है। कभी के समर्थ देवता चन्द्रमा को उसने अपने पैरों तले बैठने के लिए विवश कर दिया है।

लकड़ी का लट्ठा पानी में तभी तक डूबा रहता है, जब तक कि उसकी पीठ पर भारी पत्थर बँधा हो। यदि उस वजन को उतार दिया जाए, तो छुटकारा पाते ही नदी की लहरों पर तैरने लगता है और भँवरों को पार करते हुए दनदनाता हुआ आगे बढ़ता है। राख की मोटी परत चढ़ जाने पर जलता हुआ अंगारा भी नगण्य मालूम पड़ता है; पर परत हटते ही वह अपनी जाज्वल्यमान ऊर्जा का परिचय देने लगता है। वस्तुत: मनुष्य अपने सृजेता की तरह ही सामर्थ्यवान है।

लकड़ियों को घिसकर आग पैदा कर लेने वाला मनुष्य अपने अन्दर विद्यमान सशक्त प्रतिभा को अपने बलबूते बिना किसी का अहसान लिए प्रकट न कर सके, ऐसी कोई बात नहीं। आवश्यकता केवल प्रबल इच्छा शक्ति एवं उत्कण्ठा की है। उसकी कमी न पड़ने दी जाए, तो मनुष्य अपनी उस क्षमता को प्रकट कर सकता है, जो न तो देवताओं से कम है और न दानवों से। जब वह घिनौने कार्य पर उतरता है, तो प्रेत-पिशाचों से भी भयंकर दीखता है। जब वह अपनी श्रेष्ठता को उभारने, कार्यान्वित करने में जुट जाता है, तो देवता भी उसे नमन करते हैं। मनुष्य ही है, जिसके कलेवर में बार-बार भगवान अवतार धारण करते हैं। मनुष्य ही है, जिसकी अभ्यर्थना पाने के लिए देवता लालायित रहते हैं और वैसा कुछ मिल जाने पर वरदानों से उसे निहाल करते हैं। स्वर्ग की देवियाँ ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में उसके आगे-पीछे फिरती हैं और आज्ञानुवर्ती बनकर मिले हुए आदेशों का पालन करती हैं। यह भूलोक सौरमण्डल के समस्त ग्रह-गोलकों से अधिक जीवन्त, सुसम्पन्न और शोभायमान माना जाता है; पर भुलाया यह भी नहीं जा सकता कि आदिकाल के इस अनगढ़ ऊबड़-खाबड़ धरातल को आज जैसी सुसज्जित स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय केवल मानवी पुरुषार्थ को ही है। वह अनेक जीव-जन्तुओं पशु-पक्षियों का पालनकर्ता और आश्रयदाता है। फिर कोई कारण नहीं कि अपनी प्रस्तुत समर्थता को जगाने-उभारने के लिए यदि समुचित रूप से कटिबद्ध हो चले, तो उस प्रतिभा का धनी न बन सके, जिसकी यश-गाथा गाने में लेखनी और वाणी को हार माननी पड़ती है।

मनुष्य प्रभावशाली तो है; पर साथ ही वह सम्बद्ध वातावरण से प्रभाव भी ग्रहण करता है। दुर्गंधित साँस लेने से सिर चकराने लगता है और सुगन्धि का प्रभाव शान्ति, प्रसन्नता और प्रफुल्लता प्रदान करता है। बुरे लोगों के बीच, बुराई से सञ्चालित घटनाओं के मध्य समय गुजारने वाले, उनमें रुचि लेने वाला व्यक्ति क्रमश: पतन और पराभव के गर्त में ही गिरता जाता है, साथ ही यह भी सही है कि मनीषियों, चरित्रवानों, सत्साहसी लोगों के सम्पर्क में रहने पर उनका प्रभाव-अनुदान सहज ही खिंचता चला आता है और व्यक्ति को उठाने-गिराने में असाधारण सहायता करता है। इन दिनों व्यक्ति और समाज में हीनता और निकृष्टता का ही बाहुल्य है। जहाँ इस प्रकार का वातावरण बहुलता लिए हो, उससे यथासम्भव बचना और असहयोग करना ही उचित है।

सज्जनता का सान्निध्य कठिन तो है और सत्प्रवृत्तियों की भी अपनी समर्थता जहाँ-तहाँ ही दिखाई देती है। ऐसी दशा में पुरातन अथवा अर्वाचीन सदाशयता का परिचय पुस्तकों के प्रसंगों के समाचारों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है और उन संस्मरणों को आत्मसात करते हुए ऐसा अनुभव किया जा सकता है, मानों देवलोक के नन्दनवन में विचरण किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में स्वाध्याय और सत्संग का सहारा लिया जा सकता है। इतिहास में से वे पृष्ठ ढूँढ़े जा सकते हैं, जो स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं और मानवी गरिमा को महिमामण्डित करते हैं।

आत्म-विश्वास बड़ी चीज है। वह रस्सी को साँप और साँप को रस्सी बना सकने में समर्थ है। दूसरे लोगों का साथ न मिले, यह हो सकता है, किन्तु अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को मनमर्जी के अनुरूप सुधारा-उभारा जा सकता है। सङ्कल्प-शक्ति की विवेचना करने वाले कहते हैं कि वह चट्टान को भी चटका देती है, कठोर को भी नरम बना देती है और उन साधनों को खींच बुलाती है, जिनकी आशा अभिलाषा में जहाँ-तहाँ प्यासे कस्तूरी हिरण की तरह मारा-मारा फिरना पड़ता है।

मनुष्य यदि उतारू हो जाए, तो दुष्कर्म भी कर गुजरता है। आत्महत्या तक के लिए उपाय अपना लेता है, फिर कोई कारण नहीं कि उत्थान का अभिलाषी अभीष्ट अभ्युदय के लिए सरञ्जाम न जुटा सके? दूसरों पर विश्वास करके उन्हें मित्र-सहयोगी बनाया जा सकता है। श्रद्धा के सहारे पाषाण-प्रतिमा में देवता प्रकट होते देखे गये हैं, फिर कोई कारण नहीं कि अपनी श्रेष्ठता को समझा-उभारा और सँजोया जा सके, तो व्यक्ति ऐसी समुन्नत स्थिति तक न पहुँच सके, जिस तक जा पहुँचने वाले हर स्तर की सफलता अर्जित करके दिखाते हैं।

आत्म निरीक्षण को सतर्कतापूर्वक सँजोया जाता रहे, तो वे खोटें भी दृष्टिगोचर होती हैं, जो आमतौर से छिपी रहती हैं और सूझ नहीं पड़ती; किन्तु जिस प्रकार दूसरों का छिद्रान्वेषण करने में अभिरुचि रहती है, वैसी ही अपने दोष-दुर्गुणों को बारीकी से खोजा और उन्हें निरस्त करने के लिए समुचित साहस दिखाया जाए, तो कोई कारण नहीं कि उनसे छुटकारा पाने के उपरान्त अपने को समुचित और सुसंस्कृत न बनाया जा सके। इसी प्रकार औरों की अपेक्षा अपने में जो विशिष्टताएँ दिख पड़ती हैं, उन्हें सींचने-सम्भालने में उत्साहपूर्वक निरत रहा जाए, तो कोई कारण नहीं कि व्यक्तित्व अधिक प्रगतिशील, अधिक प्रतिभासम्पन्न न बनने की दशा अपनाई जा सके।

इस सन्दर्भ में सबसे बड़ा सुयोग इन दिनों है, जबकि नव-सृजन के लिए प्रचण्ड वातावरण बन रहा है; उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में नियन्ता का सारा ध्यान और प्रयास नियोजित है। ऐसे में हम भी उसके सहभागी बनकर अन्य सत्परिणामों के साथ ही प्रतिभा-परिष्कार का लाभ हाथों-हाथ नकद धर्म की तरह प्राप्त होता हुआ सुनिश्चित रूप से अनुभव करेंगे।

सृजन-शिल्पियों के समुदाय को अग्रगामी बनाने में लगी हुई केन्द्रीय शक्ति अपने और दूसरों के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह विश्वास दिलाती है, कि यह पारस से सटने का समय है, कल्पवृक्ष की छाया में बैठ सकने का अवसर है। प्रभात पर्व में जागरूकता का परिचय देकर हममें से हर किसी को प्रसन्नता, प्रफुल्लता और सफलता की उपलब्धियों का भरपूर लाभ मिल सकता है, साथ ही परिष्कृत-प्रतिभायुक्त व्यक्तित्व सँजोने का भी।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जायें, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिंतन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरंभ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।