इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 22)

अनुक्रमणिका

1. इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण
2. सदुपयोग न हो पाने की विडंबना
3. आज की सबसे प्रमुख आवश्यकता
4. प्रयोग का शुभारम्भ और विस्तार
5. प्रखर प्रेरणा का जीवन्त तंत्र
6. लोक सेवी कार्यकर्ताओं का उत्पादन
7. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
8. घर-घर अलख जगाने की प्रक्रिया दीप यज्ञों के माध्यम से
9. संधि बेला एवं इक्कीसवीं सदी का अवतरण
10. भावी सम्भावनाएँ—भविष्य कथन
11. 21वीं सदी की आध्यात्मिक गंगोत्री
12. इस पूर्णाहुति के सत्परिणाम
13. शिक्षण सत्र व्यवस्था
14. अपने समय का महान आंंदोलन-नारी जागरण
15. विचार क्रान्ति-जनमानस का परिष्कार
16. सृजन प्रयोजनों के निमित्त समयदान
17. दैवी सत्ता का सूत्र संचालन


इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

पिछले तीन सौ वर्षों में भौतिक विज्ञान और प्रत्यक्षवादी ज्ञान का असाधारण विकास-विस्तार हुआ है। यदि उपलब्धियों का सदुपयोग न बन पड़े, तो वह एक बड़े दुर्भाग्य का कारण बन जाता है। यही इन शताब्दियों में होता रहा है। फलस्वरूप हम, अभावों वाले पुरातन काल की अपेक्षा कहीं अधिक विपन्न एवं उद्विग्न परिस्थितियों में रह रहे हैं।

वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घातक विकिरण, बढ़ता तापमान, आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहे हैं, जिसमें मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा कठिन हो जाएगी। ध्रुव पिघलने लगें, समुद्रों में भयंकर बाढ़ आ जाए, हिमयुग लौट पड़े, पृथ्वी के रक्षा कवच ओजोन में बढ़ते जाने वाले छेद, पृथ्वी पर घातक ब्रह्माण्डीय किरणें बरसाएँ और जो कुछ यहाँ सुन्दर दीख रहा है, वह सभी जल-भुनकर खाक हो जाए—ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाले विज्ञान-विकास को किस प्रकार सराहा जाए? भले ही उसने थोड़े सुविधा साधन बढ़ाएँ हों।

इसे विज्ञान-विकास से उत्पन्न हुआ उन्माद ही कहना चाहिए, जिसने इसी शताब्दी में दो विश्व युद्ध खड़े किए और अपार धन-जन की हानि की। छिटपुट युद्धों की संख्या तो इसी अवधि में सैकड़ों तक जा पहुँचती है। धरती की समूची खनिज-सम्पदा का दोहन कर लेने की भी योजना है। अन्तरिक्ष युद्ध का वह नियोजन चल रहा है, जिससे धरती और आसमान पर रहने वाले प्राणियों, वनस्पतियों का कहीं कोई नाम-निशान ही न रहे।

प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, नैतिकता, निष्ठा आदि मानवीय आदर्शों की गरिमा को एक कोने पर उठाकर रख दिया है। तात्कालिक लाभ ही सब कुछ बन गया है, भले ही उसके लिए कितनी ही प्रवंचना और निष्ठुरता क्यों न अपनानी पड़े। लगता है वर्तमान की विचारधारा मनुष्य को पशु बताने जा रही है, जिस पर मर्यादाओं और वर्जनाओं का कोई अंकुश नहीं होता।

विनोद का प्रमुख माध्यम कामुकता ही बन चला है, जिसने नर-नारी के बीच बचे हुए मर्यादाओं के पुल को तो विखंडित किया ही है, यौनाचार की प्रवंचना में भी उलझा दिया है। कारण सामने है। गर्भ निरोध के प्रयत्न चलते रहने पर भी जनसंख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि भावी पीढ़ी के लिए खाद्य, निवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि का प्रबन्ध मुश्किल हो जाएगा और सड़कों पर चलने के लिए गाडिय़ाँ तक बन्द करनी पड़ेंगी। इस अभिवृद्धि के रहते, विकास के निमित बन रही योजनाओं में से एक के भी सफल होने की सम्भावना नहीं है। भूखे भेडि़ए आपस में ही एक दूसरे को चीर-फाड़ डालते हैं। बढ़ी हुई जनसंख्या की स्थिति में मनुष्य भी उसी स्तर तक गिर सकता है।

सदुपयोग न हो पाने की विडम्बना

प्रगति के नाम पर जो पाया गया था, यदि उसका सदुपयोग सत्प्रयोजन के लिए सर्वजनीन हित साधन के लिए किया गया होता, तो आज दुनिया कितनी सुन्दर और समुन्नत होती, इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है। पर दुर्भाग्य तो देखिए, जिसने समझदार कहलाने वालों को संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीर में कसकर बाँध लिया और जो हाथ लगा, उसे दुरुपयोग करने के लिए ही प्रेरित किया; फल सामने है। क्या गरीब क्या अमीर, सभी साधनों की दृष्टि से असन्तुष्ट हैं और कुबेर जैसे वैभववान् बनना चाहते हैं। मिल बाँटकर खाने की किसी को इच्छा नहीं। एक दूसरे का शोषण-दोहन करने के लिए ही आतुर हैं और निरन्तर चिन्तित असन्तुष्ट, उद्विग्न और आकुल-व्याकुल बने रहते हैं। ऊपर की चमक देखकर प्रगति का भ्रम तो हो जाता है, पर वस्तुत: मनुष्य अपना शारीरिक, मानसिक आर्थिक और सामाजिक स्वास्थ्य पूरी तरह गँवा चुका है। मरघट के भूत-पलीतों की तरह आशंकाओं और उद्विग्नताओं के बीच डरता-डराता जीवन जीता है। यह समूचा जाल-जंजाल मात्र भ्रान्तियों के समुच्चय पर आधारित है। यदि सही विचार करने और सही जीवन जीने की कला समझी और अपनाई गई होती, तो आज संसार में सर्वत्र प्रगति, प्रसन्नता और सुख शान्ति का वातावरण ही बिखरा पड़ा होता। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव और सहयोग के वातावरण में, यहाँ हर किसी को उल्लास और आनन्द का ही अनुभव होता रहता।

इसके विपरीत आज सर्वत्र अनाचार का ही बोलबाला दीखता है। जो शान्ति और सन्तोषपूर्वक जी रहे हैं, वे अँगुलियों पर गिने जाने जितनी स्वल्प संख्या में ही हैं। कुकृत्य, कुविचारों की ही देन है। विक्षोभ, भ्रान्तियों से ग्रसित होने पर ही सताता है। आज की प्रमुख समस्या है-विचार विकृति, आस्था संकट, भ्रान्तियों का घटाटोप और कुविचारों का साम्राज्य। इस जड़ को काटे बिना काँटों की तरह बिखरे कष्टों से छुटकारा नहीं मिलेगा। विषवृक्ष को काटे बिना सुख शान्ति की आशा कैसे की जा सकेगी?

आज की सबसे प्रमुख आवश्यकता

इन दिनों सबसे बड़ा, और सबसे आवश्यक कार्य यह है कि विचार क्रान्ति का व्यापक आयोजन किया जाए। अवांछनीयता के विरुद्ध संघर्ष खड़ा किया जाए और मानवीय गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन अपनाने के लिए हर किसी को बाधित किया जाए। नवयुग के अवतरण का-सतयुग की वापसी का यही एक मात्र उपाय है, जिसे संसार के समस्त युगों और क्षेत्रों पर लागू किया जाना चाहिए। यही है धर्म की धारणा और सत्य, पे्रम, न्याय की आराधना। इससे बड़ा कोई पुण्य-परमार्थ और दूसरा हो नहीं सकता। यही है वह महाभारत जिसके लिए महाकाल ने प्रत्येक प्राणवान् को कटिबद्ध होने के लिए पुकारा है। यह मोर्चा जीतते ही उज्ज्वल भविष्य की संरचना में तनिक भी सन्देह रह नहीं जाएगा। इक्कीसवीं सदी की ज्ञान गंगा तब स्वर्ग में अवस्थित रह कर दुर्लभ न रहेगी। हर किसी को उससे लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।

हमें व्यापक विचार क्रान्ति की तैयारी करनी चाहिए। समझदारों के सिर पर चढ़ी हुई नासमझी का उन्माद उतरना चाहिए। इसके लिए लोहा से लोहा काटने की, काँटे से काँटा निकालने की नीति अपनानी पड़ेगी। सद्विचारों का इतना उत्पादन और वितरण करना पड़ेगा कि शोक, सन्ताप कहीं ढूँढ़े भी न मिलें।

कार्य बड़ा है-व्यापक है। ६०० करोड़ मनुष्यों की ‘‘ब्रेन वाशिंग’’ का प्रश्न है। उसमें अवांछनीयता की गर्दन काटने के साथ-साथ, मानवीय गौरव के अनुरूप उदारता से भरी-पूरी विवेकशीलता की स्थापना की जानी चाहिए। एकता और समता की छत्रछाया में आने के लिए हर किसी को आमन्त्रित ही नहीं बाधित भी किया जाना है।

इसके लिए शुभारम्भ कैसे और कहाँ से हो? यह बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने जैसा टेढ़ा प्रश्न है। इसके लिए आत्मदानी, प्रचण्ड साहस के धनी प्राणवान् चाहिए। उन्हें कहाँ से ढूँढ़ा जाए? कौन उनमें प्राण फूँके, कौन उन्हें जुझारू संकल्पों से ओत-प्रोत करे? चारों ओर दृष्टि पसारने के उपरान्त एक यही उपाय सूझा कि-‘‘खोज घर से आरम्भ करनी चाहिए।’’ दशरथ ने विश्वामित्र की याचना पर अपने ही पुत्र सुपुर्द किए थे। गुरु गोविन्द सिंह के पाँचों पुत्र अग्रगामी बने थे। हरिश्चन्द्र ने स्वयं ही गुरु की आवश्यकता पूरी की थी। यह परम्परा आज फिर जीवित जाग्रत किए जाने की आवश्यकता है। अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही दूसरों को आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

प्रयोग का शुभारम्भ और विस्तार

इस तथ्य को युग निर्माण मिशन के संस्थापक पूज्य आचार्य जी ने अपनाते हुए, नव सृजन का श्रीगणेश किया। निजी सम्पत्ति की एक-एक पाई जनता-जनार्दन को सौंपते हुए अन्यान्यों को प्रोत्साहित किया कि वे भी लोभ, मोह और अहंकार के बन्धन शिथिल करके जो समय, श्रम, कौशल, मनोयोग बच सके, उसे लोक मंगल की युग की आवश्यकता, विचारक्रान्ति के लिए यथा सम्भव नियोजित करें।

पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर ८० वर्ष की आयु तक उन्होंने यही काम अपनाया है। अपना, आदर्श प्रस्तुत करते हुए, सम्पर्क क्षेत्र के हर परिजन को अपेक्षाकृत अधिक उत्कृष्टता अपनाने और आदर्शवादी मार्ग पर चलने के लिए उत्साहित किया है। यह कार्य उन्होंने एक अध्यापक के रूप में किया है। हिन्दी की ‘‘अखण्ड ज्योति’’, ‘युग निर्माण योजना’ पत्रिका तथा सात अन्य भारतीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं द्वारा उन्होंने मात्र वाचन की सामग्री ही नहीं दी; वरन् पाठकों के अन्तरालों को इस सीमा तक झकझोरा है, कि वे युग समस्याओं से जूझने के लिए अपना योगदान किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करें ही। इन दिनों उनके द्वारा सम्पादित, प्रकाशित पत्रिकाओं की संख्या लाखों में है। हर अंक को न्यूनतम पाँच व्यक्ति निश्चित रूप से पढ़ते हैं। इसलिए उनसे लाभ उठाने वालों की मिशन के साथ आत्मीयता स्थापित करने वालों की संख्या बहुत बड़ी हो जाती है। इसी जन शक्ति के माध्यम से, विचारक्रान्ति के शुभारम्भ से लेकर इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण तक की विशालकाय योजनाएँ बनाई और सक्रिय क्रियान्वयन की स्थिति तक पहुँचाई गई हैं।

एक से पाँच, पाँच से पच्चीस का अपना विस्तार तन्त्र है। पाँच लाख स्थायी सदस्यों के पच्चीस लाख पाठक हैं। इनमें से प्रत्येक को अपने पाँच-पाँच साथी और तैयार करने का भार सौंपा गया है। इस प्रकार यह प्रयास, दूसरी छलाँग में ही एक करोड़़ के करीब प्राणवानों एवं सृजन शिल्पियों को समेट लेने की सम्भावनाओं से भरा-पूरा है। यही क्रम बढ़ते-बढ़ते संसार भर के ६०० करोड़ मनुष्यों को अपनी भुजाओं में जकड़ ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए और न इस अपेक्षा के प्रति अनास्था ही व्यक्त करनी चाहिए। इसका बढ़ता हुआ परिकर यदि युग परिवर्तन का वातावरण बनाकर खड़ा कर दे, तो इसमें अनहोनी जैसी कोई बात नहीं।

प्रखर प्रेरणा का जीवन्त तन्त्र

जन मानस के परिष्कार के लिए सशक्त लेखनी और वाणी की आवश्यकता तो है ही, इसके साथ ही ऐसा व्यक्तित्व भी चाहिए, जो अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अन्यान्यों को युग के अनुरूप अपने विचारों और कार्यों में आवश्यक परिवर्तन के लिए प्रेरित कर सके। यह तीनों ही कार्य मिशन के सूत्र संचालक ने अपने समर्थ जीवन काल में पूरी तरह सम्पन्न किए हैं। समय, श्रम और मनोयोग का एक-कण भी अभीष्ट लक्ष्य के अतिरिक्त और किसी काम में खर्च नहीं किया।

प्रत्यक्ष है कि लगभग सभी आर्ष ग्रन्थों को संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद आचार्य जी ने किया है। चारों वेद, १०८ उपनिषद्, छहों दर्शन, चौबीस गीताएँ, स्मृतियाँ, ब्राह्मण आरण्यक आदि ग्रन्थों के अध्ययन, अनुवाद करने और उन्हें सर्व साधारण तक पहुँचाने में अथक एवं सफल परिश्रम किया है। लगभग १५०० पुस्तकें ऐसी लिखी हैं, जो व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों के समावेश का, सरल एवं अनुभव भरा मार्गदर्शन करती हैं। इन दिनों आठ मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन की बात पहले ही बताई जा चुकी है। इस साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन हुआ है सो अलग। बाजारू मूल्य पर साहित्य खरीदना इन दिनों सर्व- साधारण के वश की बात नहीं है। इसलिए लगभग लागत मूल्य पर उसका प्रकाशन और झोला पुस्तकालयों एवं ज्ञान-रथों के माध्यम से उसे घर-घर पहुँचाने का प्रयास अपने ढंग का अनोखा है। प्राणवान् परिजन घर-घर जाकर शिक्षितों को युग साहित्य बिना मूल्य पढ़ने के लिए देते हैं और पढ़ लेने पर वापस ले आते हैं। बिना पढ़ों को सुनाते हैं। इसी सिलसिले में कुछ साहित्य बिकता भी रहता है और घरेलू पुस्तकालय बनाने की लम्बी शृंखला चलती रहती है।

जन-मानस के परिष्कार की विचार क्रान्ति सम्पन्न करने के लिए, दूसरा उपाय है—वाणी, अर्थात् संगीत और प्रवचन। इसके लिए शान्तिकुञ्ज में ऐसी सत्र शृंखला निरन्तर चलती रहती है, जिसके हर सत्र में हजारों लोग आते हैं और उपरोक्त दोनों ही विधाओं को सीखकर जाते हैं। उन्हें यह विशेष रूप से सिखाया जाता है कि गिरों को उठाने का दायित्व लेने वाले को अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत और साहसी होना चाहिए। मार्गदर्शक का निजी व्यक्तित्व, लेखनी-वाणी से अधिक सशक्त है। यदि वह ढीला-पोला या गया गुजरा होता, तो अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण होने के स्थान पर उपहास और कौतुक ही पैदा होता। सूत्र संचालक से मिली प्रेरणा के कारण ही अब तक इस प्रशिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत, शान्तिकुञ्ज ने प्राय: एक लाख युग शिल्पियों को कार्यक्षेत्र में उतारा है।

इन कार्यकर्ताओं की अपनी गतिविधियाँ, योजनाबद्ध रूप से अपने निकटवर्ती कार्य क्षेत्र में निरन्तर चलती रहें, इसके लिए संस्था द्वारा जगह-जगह छोटे-बड़े आश्रम बना दिए गए, हैं, जिन्हें ‘प्रज्ञापीठ’ नाम दिया जाता है। इसकी संख्या कुछ दिन पूर्व तक ढाई हजार के करीब थी, अब वह बढ़ते-बढ़ते तीन हजार तक पहुँच चुकी है। वें संस्थान अपनी व्यवस्था अंशदान और समयदान देकर स्वयं चला लेते हैं।

लोकसेवी कार्यकर्ताओं का उत्पादन

जन-जागरण के लिए शान्तिकुञ्ज से प्रचार टोलियाँ देश भर में भेजी जाती हैं, जिनके द्वारा बड़ी संख्या में उपस्थित जनता को अपना जीवनक्रम बदलने के लिए मर्मस्पर्शी उद्बोधन दिया जाता था। अब माँग और आवश्यकता बहुत अधिक बढ़ गई है। वैसे प्रशिक्षित प्रचारक हर क्षेत्र में बनते और बसते ही जाते हैं। वे अपने सम्पर्क क्षेत्र में हर दिन दो-चार घण्टे मन लगाकर जनसम्पर्क साधते और उल्टी दिशा में बहने वाले प्रवाह को उलटकर सीधा करने के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न करते रहते हैं।

उपर्युक्त प्रचार प्रक्रिया के अतिरिक्त बड़ी बात है-समर्पित कार्यकर्ताओं का नव सृजन के लिए जीवनदान। यह नियोजन अति कठिन है, क्योंकि आमतौर से हर व्यक्ति निजी स्वार्थ साधन में इतना उलझा है, कि उसे युग क्रान्ति जैसे परमार्थ प्रयोजनों में न तो रुचि है और न अवकाश। हर क्षेत्र में वेतन भोगी ही काम करते दीखते हैं। पर जहाँ तक भाव सम्वेदनाओं में आदर्शवादिता को कूट-कूट कर भरने का सवाल है, वहाँ साधु-ब्राह्मण, परिव्राजक, वानप्रस्थ स्तर के निस्पृह कार्यकर्ता चाहिए; अन्यथा वे जन साधारण की श्रद्धा एवं आदर्शवादी कार्यों के लिए उनका सहयोगी न पा सकेंगे।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, शान्तिकुञ्ज का प्रयास स्वावलम्बी लोकसेवी तैयार करने का है। परिवार में श्रमदान तथा कुटीर उद्योगों के माध्यम से आजीविका चलाते रहें। कभी ऐसी परम्परा रही भी है। ब्राह्मण परिवार में से एक परिव्राजक लोक मंगल के लिए समर्पित किया जाता था। क्षत्रिय, हर पविार पीछे एक सैनिक दिया करते थे। सिख धर्म में भी परिवार पीछे एक व्यक्ति गुरु कार्यों के लिए समर्पित किया जाता था। इस परम्परा ने ही उन कार्य क्षेत्रों को उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ प्रदान की हैं। अब वह सब कुछ लुप्त हो गया। शान्तिकुञ्ज ने उपर्युक्त परम्परा को ‘वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जीवन’ के रूप में आरम्भ किया है और वह निरन्तर बढ़ती जा रही है।

शान्तिकुञ्ज परिसर के क्षेत्र में ही इन दिनों प्राय: १५०० व्यक्ति निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश उच्च शिक्षित हैं, जो अपनी अच्छी खासी आजीविका को छोड़कर समर्पित भाव से आश्रम में आए हैं और नित्य दस घण्टे श्रमदानी स्वयं सेवक की तरह काम करते हैं। आश्रम में न कोई सफाई कर्मचारी हैं, न धोबी, न नाई, न पहरेदार। इस प्रकार की आवश्यकताएँ कार्यकर्ता ही मिल-जुलकर पूरी कर लेते हैं। जिनके पास निज की आर्थिक व्यवस्था है, वे उससे गुजारा करते हैं। जिनके पास वह नही हैं, वे आश्रम से ब्राह्मणोचित आजीविका लेकर, मितव्ययिता भरा जीवन आत्मिक उल्लासपूर्वक जीते हैं। आध्यात्मिक साम्यवाद का यह व्यावहारिक उपयोग देखते ही बनता है। लोग कहते सुने गए हैं कि व्यावहारिक साम्यवाद किसी को देखना हो, तो शान्तिकुञ्ज आकर देखें। यहाँ ‘जाति वंश सब एक समान’ नर और नारी एक समान का उद्घोष पूरी तरह चरितार्थ होते देखा जा सकता है।

इक्कीसवीं सदी की अनिवार्य आवश्यकताओं को देखते हुए इसी वर्ष यह सङ्कल्प लिया गया है कि युग सन्धि के इन बारह वर्षों मेें एक लाख लोकसेवी प्रशिक्षित किए जाएँगे और विभिन्न प्रयोजनों से सम्बन्धित कार्यक्षेत्र में उतारे जाएँगे। इसके लिए स्थानों की आवश्यकता देखते हुए, उनके लिए नए भवन निर्माण की योजना चल पड़ी है। आशा की गई है यही आश्रम कुछ ही समय में प्राय: दूना कलेवर विस्तृत कर लेगा।

शान्तिकुञ्ज की अर्थ व्यवस्था परिजनों के स्वेच्छा सहयोग से चलती है। मिशन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए परिजन बिना माँगे स्वेच्छा-श्रद्धा से जो सहयोग भेज देते हैं, उसी से मितव्ययितापूर्वक निर्वाह हो जाता है। इन स्वेच्छा सहयोगियों में अधिकांश ऐसे हैं, जो दस पैसा नित्य जितनी सहायता ही प्रस्तुत कर पाते हैं। विनोबा का मत था कि किसी संस्था को तभी तक जीवित रहना चाहिए, जब तक कि उसकी उपयोगिता अनुभव करने वाले उसे अन्त:पे्ररणा से सींचते रहें। इसी आदर्श का निर्वाह करते हुए शान्तिकुञ्ज ने अब तक का अभिनव कार्य चलाया है। भविष्य की बड़ी योजनाएँ भी इसी आधार पर पूरी होती रहेंगी।

विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय

शान्तिकुञ्ज की गतिविधियों में एक बड़ा काम है अध्यात्म का विज्ञान के आधार पर नए सिरे से प्रतिपादन। अब तक शास्त्र उल्लेख और आप्त वचन ही अध्यात्म सिद्धान्तों को प्रतिपादन करते थे; पर अब बुद्धिवाद को प्रमुखता मिलने लगने से, तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण आदि की अपेक्षा की जाने लगी है। शान्तिकुञ्ज का ब्रह्मवर्चस आश्रम इसीलिए विनिर्मित हुआ है। उसकी प्रयोगशाला में आधुनिकतम यन्त्रों एवं अति महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को ऐसा संचय किया गया है कि उसके माध्यम से चलने वाली शोध, नई पीढ़ी की दृष्टि में आदर्शवादी तत्त्वदर्शन को प्रामाणिक सिद्ध कर सकें।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के अन्तर्गत जड़ी-बूटी विज्ञान की शोध का एक ऐसा विभाग आरम्भ किया गया है, जिसे आयुर्वेद का जीर्णोद्धार भी कह सकते हैं।

इन शोध कार्यों में उन विषयों के विशेषज्ञ और पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के कितने ही कार्यकर्ता संलग्र रहते हैं। इस प्रयोगशाला में एक विभाग और जोड़ा गया है, तकि मनुष्य की शारीरिक और मानसिक जीवनीशक्ति आँकी जा सके और उसका उपयोग उच्चस्तरीय प्रयोजनों में करने का मार्गदर्शन किया जा सके।

घर-घर अलख जगाने की प्रक्रिया दीप यज्ञों के माध्यम से

मिशन का कार्य असीम है। उसके लिए देश-देशान्तरों में नगर, कसबों, गाँवों, मुहल्लों, घरों में जाना पड़ेगा और सम्पर्क साधने के लिए जनसाधारण को छोटे-बड़े सम्मेलनों के रूप में एकत्रित करते रहने की आवश्यकता पड़ती रहेगी। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि वे भावनाशील, श्रद्धालु प्रकृति के उदारचेता मानस के हों। ऐसे सम्मेलन एवं समारोहों की आवश्यकता गाँव-गाँव मुहल्ले-मुहल्ले पड़ेगी, जिससे हर क्षेत्र में नए युग का, नव जागरण का, नए परिवर्तन का सन्देश पहुँचाया जा सकें।

आजकल सम्मेलन-समारोहों में जनता की अरुचि बढ़ जाने से बड़ी संख्या में लोगों को एकत्रित करना कठिन पड़ता है, विशेष रूप से श्रद्धावानों को। इस कठिनाई का नया हल निकाल लिया गया है-‘‘दीपयज्ञ’’ इस प्रक्रिया के माध्यम से। पुरातन विधि-विधान के अनुसार यज्ञ आयोजन में ढेरों पैसा खर्च होता है, ढेरों खाद्य पदार्थ जलते हैं, कर्मकाण्डों में ढेरों समय खर्च होता है। पुरोहित लोगों का कथन ब्रह्म वाक्य मानकर अपनाना पड़ता है। उनमें बहुत-से लोग अश्रद्धावश पहुँँच भी नहीं पाते हैं। जो पहुँचते हैं, वे टिकते नहीं। आयोजकों पर अनेक आक्षेप लगते हैं, फलत: संगठन के स्थान पर आयोजन में विघटन पैदा हो जाता है।’’

इन कठिनाइयों को देखते हुए युग धर्म के अनुरूप ‘‘दीपयज्ञ’’ की परम्परा प्रचलित की गई है। वह व्यापक, विस्तृत, सुलभ और स्वल्प साधनों में बन पड़ने के कारण उन सभी उद्देश्यों में सफल हुए हैं, जिनके निमित्त प्राचीनकाल में यज्ञ किए जाते थे।

हर याजक अपनी थाली पर पाँच अगरबत्ती और एक दीपक लेकर आता है। सभी वर्ग के नर-नारी पंक्तिबद्ध होकर बैठते हैं। सामूहिक गायत्री मन्त्रोच्चारण होता है, साथ ही संगीत और प्रवचन के माध्यम से वह सब बताया जाता है कि स्थानीय लोगों को किस प्रकार प्रगतिशीलता के पथ पर चलना चाहिए और वर्तमान प्रचलनों में से किसमें क्या सुधार करना चाहिए? बाद में उपस्थित प्रतिभावानों का एक प्रज्ञा मण्डल बना दिया जाता है।

प्रात:काल यज्ञ, दोपहर में विचारगोष्ठी करने की और सायं सभा-सम्मेलन होने की विधा ने जन-जागृति के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया है और सर्वतोमुखी प्रगति का उत्साहवर्धक वातावरण तैयार किया है। अगले दिनों इसी प्रक्रिया को अपना कर हर गाँव-नगर में पहुँचने और हर व्यक्ति से सम्पर्क साधने का निश्चय किया गया है। हर वर्ष इस प्रकार के आयोजन समारोह, कार्यकर्ताओं के माध्यम से हजारों की संख्या में सम्पन्न हो जाते हैं उससे लाखों लोगों का मन प्रगतिशीलता के साथ जोड़ने का अवसर मिलता है। युग सन्धि के इन १२ वर्षों में इस प्रक्रिया को देश-विदेशों में अत्यधिक व्यापक बनाने की योजना है।

सन्धिवेला एवं इक्कीसवीं सदी का अवतरण

बीसवीं सदी का अन्त और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ का मध्यवर्ती अन्तर बारह वर्ष का माना गया है। सन् १९८९ से सन् २००० तक की अवधि को युगसन्धि माना गया है। रात्रि का अवसान और दिनमान का अरुणोदय जब मिलते हैं, तो उसे सन्धि या संध्याकाल कहा जाता है। इस अवधि का अत्यधिक महत्त्व होता है। पक्षी चहचहाते, फूल खिलते और सभी प्राणी तन्द्रा छोड़कर अपने-अपने कार्य में उत्साहपूर्वक निरत होते हैं। उपासना जैसे, कृत्यों का भी यही उपयुक्त समय माना जाता है। समझा जाना चाहिए कि युगसन्धि के बारह वर्ष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सम्भावनाओं से भरे-पूरे हैं। इसमें पिछले तीन सौ वर्षों से चली आ रही अवांछनीयताओं का प्रायश्चित होगा और सुखद सम्भावनाओं से भरी-पूरी इक्कीसवीं सदी का बीजारोपण भी इन्हीं दिनों होगा। अवांछनीयताओं का समापन और सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन की दुहरी प्रक्रिया इन्हीं दिनों पूरे जोर-शोर से चलेगी।

घड़ी का पेण्डुलम एक सीमा तक ही आगे बढ़ता है, फिर उसे वापस लौटना पड़ता है। प्रकृति का नियम है कि वह अतिवाद किसी का भी सहन नहीं करती। सृष्टि ने नियन्त्रण और सन्तुलन का नियम भी बनाया है। पिछले तीन सौ वर्षों में मनुष्य ने हर क्षेत्र में उद्दण्डता अपनाई है। उसका प्रतिफल मिलना ही है। नियन्ता न तो इस पृथ्वी का सर्वनाश सह सकता है और न उसे यही अभीष्ट है कि मनुष्य अपनी गरिमा का परित्याग कर, नर पशु या नर पिशाच जैसा आचरण अपनाकर स्रष्टा को कलंकित करे। असन्तुलन, विनाश का बीज बोता है। इसलिए प्रकृति समय रहते अनर्थ को रोक देती है और शाश्वत सौजन्य को उसके नियत स्थान पर विराजमान करा देती है।

इक्कीसवीं सदी में अब तक बिखेरी गई गन्दगी की सफाई होने जा रही है। तूफानी अन्धड़ कूड़े-कचरे को उड़ाकर कहीं से कहीं पहुँचाने वाला है; ताकि सुन्दरता और सुव्यवस्था अपने स्थान पर अक्षुण्ण बनी रहे। दिव्यदर्शी यह अनुभव करते रहे हैं कि बीसवीं सदी के अन्त तक अवांछनीयताएँ अपना पसारा समेट लेंगी और इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य को आँचल में लपेटकर स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरेगी।

भावी सम्भावनाएँ-भविष्य कथन

इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं से भरी है। उसमें समता और एकता का बोलबाला होगा। यह स्फुरणा मूल चेतना सम्पन्न विशिष्ट व्यक्तित्वों के अन्त:करण में चिरकाल से प्रस्फुटित होती रही है। कुछ विश्वविख्यात भविष्यविद् संसार के विभिन्न भागों में ऐसे हो चुके हैं, जिन्होंने विश्व-समस्या और उनके बदलाव के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है और वह प्राय: समय पर सही सिद्ध होता रहा है। अब से कोई चार सौ पचास वर्ष पूर्व फ्रांस में एक नेस्ट्राडामस नामक व्यक्ति हुए थे। उन्होंने अब तक की घटी विश्व घटनाओं के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है और वह कथन हर कसौटी पर खरा उतरा है। उन्होंने सन् २००० के उपरान्त आने वाले समय को ‘एज ऑफ ट्रूथ’ के नाम से वर्णित किया है और नव संरचना में भारत की प्रमुख भूमिका होने का उल्लेख किया है। उसकी पुस्तक पर एक सुविस्तृत व्याख्या लिखते हुए, जॉन हॉग नामक मनीषी ने एक नया ग्रन्थ लिखा है-‘नेस्ट्राडामस एण्ड दि मिलेनियम’। उसमें भारत के सन्दर्भ में उनके कथन का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक नई चेतना का उद्भव सन् १९९० से आरम्भ होने जा रहा है, जो समस्त विश्व को प्रभावित करेगी; किन्तु वह उदित भारत से होगी।

डॉ० मार्गरेट मीड, हरमन कॉन, पीटर हरकोस, विलियम जैसे विश्वविख्यात भविष्य वक्ताओं ने भी ऐसी सम्भावनाएँ घोषित की हैं कि इक्कीसवीं सदी में मनुष्य की सभी समस्याओं का समाधान होगा और ऐसी परम्पराओं का प्रचलन चल पड़ेगा, जिससे प्रगति और शान्ति का आधार खड़ा हो सके। प्रोफेसर हरार भी इस विषय के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने कहा है-‘‘भारत एक विराट् शक्ति के रूप में उभरेगा और उसे नवसृजन के क्षेत्र में अनेक देशों और विशेषज्ञों का समर्थन प्राप्त होगा। जीन डिक्सन की ‘‘माई लाइफ एण्ड प्रोफेसीज’’ पुस्तक में लिखा है बीसवीं सदी के अन्तिम बारह वर्षों में पाश्चात्य सभ्यता भोगवाद छोड़कर पूर्वात्य सभ्यता की शरण में आएगी। नीति की विजय होगी। विश्वशान्ति की स्थापना में भारत की विशेष भूमिका होगी। प्रो० कीरो ने भी ठीक इसी प्रकार का अभिमत व्यक्त किया है।

महामनीषी हक्सले कामा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेव न्यू वल्र्ड’ में लिखा है- पिछली सभी क्रान्तियों से बढ़कर अगले दिनों एकता और समता स्थापित करने वाली ‘‘विश्व क्रान्ति’’ उभर कर आ रही है। इसके लक्षण बीसवीं सदी कें अन्तिम बारह वर्षों में प्रत्यक्ष होने लगेंगे। ‘‘इस्लाम भविष्य की आशा’’ पुस्तक में सैयद कुत्व ने लिखा है कि २१ वीं सदी का प्रारम्भ धर्म और विज्ञान के समन्वय से होगा। महर्षि अरविन्द के अनुसार सन् २००० से पूर्व ही, आत्मबल सम्पन्न प्रतिभाओं में उत्कृष्ट (सुपर) चेतना का अवतरण होगा, जो व्यक्ति के विचारों में भारी परिवर्तन लाएगी। स्वामी विवेकानन्द ने सन् १८९७ में एक भाषण में कहा था कि भारत के प्रज्ञावान् आगे आएँगे और वे एकता-समता वाली विश्व संस्कृति को-भारतीय संस्कृति को विश्व भर में फैलाएँगे।

संसार भर में पढ़े जाने वाले प्रतिष्ठित पत्र ‘‘टाइम’’ में लिखा है-भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाले प्रयास अब तेजी से आरम्भ हो गए हैं। इसी पत्रिका का २ अप्रैल १९८९ का अंक पूरी तरह भारत को समर्पित किया गया है और लिखा है कि ‘‘ एक नया नेतृत्व भारत के रूप में उभर रहा है।’’ भारत अपनी आध्यात्मिक विरासत, युवाशक्ति, बुद्धिजीवियों और प्रतिभावानों की प्रचुर संख्या के आधार पर अगले दिनों विश्व का नेतृत्व करेगा।’’ वाशिंगटन पोस्ट में छपे एक आँकलन के अनुसार, ‘‘सूर्य में इन दिनों असाधारण उभार आ रहा है। उनका प्रभाव १९८९ तक असाधारण रूप से प्रकट होता देखा जाएगा। अन्य प्रभावों के अतिरिक्त इस कारण भारत को शीर्ष शिखर पर पहुँचता देखा जा सकेगा। इसी प्रकार अन्य विशेषज्ञों के मतानुसार भविष्य ध्वंस के निरस्त होने और विकास के समुन्नत होने से संसार में सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न होने का उल्लेख जगह-जगह मिलता है।

जिन दिनों इंग्लैंड पर जर्मनी के लगातार वायुयान आक्रमण की बम वर्षा हो रही थी, उसके कारण उत्पन्न हुए ध्वंस को देखते हुए सर्वत्र बेचैनी निराशा छाई हुई थी, उन दिनों उस देश के प्रधानमन्त्री ‘चर्चिल’ थे। उन्होंने उसी निराशा के बीच एक नया नारा दिया, जो चप्पे-चप्पे पर अंकित कर दिया गया। नारा था-‘वी’ फॉर विक्ट्री, जिसका उद्देश्य था कि इंग्लैंड अन्तत: विजय होकर रहेगा। जीत हमारी ही निश्चित है। इस उद्घोष ने उस क्षेत्र में एक नया उत्साह भर दिया और लोग पलायन की, निराशा की बात छोड़कर कठिनाइयों से निपटने के लिए एक जुट हो गए। जीत अन्तत: मित्र राष्ट्रों की ही हुई।

पिछले तीन सौ वर्षों में हुए शक्ति के असाधारण दुरुपयोग को देखते हुए, इन दिनों जन-जन में भावी सम्भावनाओं के प्रति आशंका और दु:खद समस्याओं की कल्पनाएँ जड़ जमाती जा रही हैं। मनोबल टूटने का दुष्परिणाम सर्वविदित है स्थिति को देखते हुए इन दिनों सृजनात्मक नया उत्साह उत्पन्न करने और सृजन के लिए जुट पड़ने का वातावरण बनाने की नितान्त आवश्यकता है। इस दृष्टि से भी इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के उद्घोष को अधिकाधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए शान्तिकुञ्ज द्वारा जो वातावरण बनाया जा रहा है, उसकी महत्ता समझी जानी चाहिए। विश्वासपूर्वक ऐसे प्रयत्नों को अपनाना चाहिए, जो पिछले दिनों के बिगाड़ की क्षतिपूर्ति अगले ही दिनों कर सकने में समर्थ हो सकें।

२१ वीं सदी की आध्यात्मिक गंगोत्री

शान्तिकुञ्ज में युगसन्धि महापुरश्चरण आरम्भ करने का संकेत उतरा है। यह बारह वर्ष तक चलेगा। एक मत के अनुसार बारह वर्ष का एक युग भी होता है। सूक्ष्म जगत् में हर बारह वर्ष में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी होते हैं। कितनी ही तप साधनाओं का विधान भी ऐसा है जो बारह वर्ष में पूरा होता है। युग सन्धि भी बारह वर्ष की है। इसमें शान्तिकुञ्ज द्वारा एक व्यापक धर्मानुष्ठान भी चल पड़ा है और कितने ही सृजनात्मक, सुधारात्मक प्रयोजनों का शुभारम्भ परिपूर्ण शक्ति का नियोजन करते हुए किया गया है।

नौ दिन के और एक महीने के सत्र इस भूमि में सुनियोजित रूप से चल पड़े हैं, जिनमें साधनात्मक तपश्चर्या का भी समावेश है और प्रतिभा परिष्कार का प्रशिक्षण तथा पे्ररणा प्रवाह का अनुपम समन्वय भी हर महीने एक मास के सत्र चलते हैं। जिनके पास अवकाश कम है, वे नौ दिन में ही इस प्रक्रिया को पूरी कर लेते हैं। यह दोनों ही सत्र साधना प्रधान हैं। इनमें शिक्षण की ऐसी व्यवस्था है, जो व्यक्तित्व को निखारने और प्रतिभा को परिष्कृत करने में काम आ सके।

साधना बारह वर्ष की है, इसलिए लोग सत्रों में इसका शुभारम्भ करने के उपरान्त, अपने-अपने यहाँ साप्ताहिक सत्संगों के रूप में सामूहिक उपासना का क्रम चलाते हैं। उनमें अधिक से अधिक लोगों को आमन्त्रित और सम्मिलित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार यह उपक्रम अधिकाधिक विस्तृत होता जाता है। लाखों लोकसेवी इस क्रम में अगले दिनों सक्रिय दिखाई देंगे।

प्राचीनकाल में जनमानस में उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए वानप्रस्थ परम्परा चलती रहने से लोकसेवियों की कहीं भी कमी नहीं पड़ती थी। फिर इन दिनों भी क्या मुश्किल है, जो जन कल्याण में निरत होने की महत्त्वाकाँक्षा, अनेकानेक उदारचेताओं में उत्पन्न न की जा सके ? बुद्ध, और गाँधी के आन्दोलनों में सम्मिलित होने वालों की संख्या अनायास ही लाखों में पहुँची थी। अब फिर वैसी ही परम्परा समय की माँग पूरी करने के लिए न चल सके, ऐसी कोई बात नहीं है। विशेषतया तब, जब कि अदृश्य जगत् से निस्सृत होने वाले दैवी प्रवाह का उसमें योगदान जुड़ रहा हो। अकेला भगीरथ जब गंगा का अवतरण स्वर्ग से धरती पर कर सकता है, तो अनेकों अद्भुत प्रतिभाओं का कौशल हर क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखा सकता है। तो कोई कारण नहीं कि नव सृजन के लिए युगशिल्पी विनिर्मित करने की दैवेच्छा पूरी हो सकना सम्भव न हो सके। समय पर वासन्ती पुष्पों की तरह प्रतिभाएँ पुण्य-प्रयोजन के हित अनायास ही उभरती और निखरती देखी जाती हैं।

इक्कीसवीं सदी को भी दूसरा गंगावतरण ही कहा जा सकता है। इसका उद्गम ढूँढ़ना हो तो गंगोत्री की समता शान्तिकुञ्ज से दी जा सकती है। यमुनोत्री से यमुना निकलती है। अमरकण्टक से नर्मदा, ब्रह्मपुत्र मानसरोवर से निकलती है। बाद में उनका विस्तार और प्रवाह क्रमश: बढ़ता ही चला गया है। इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष जिस पाँचजन्य से अन्तरिक्ष को गुंजित करने लगा है, उसे यदि कोई चाहे, तो शान्तिकुञ्ज भी कह सकता है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपस्थली के अतिरिक्त, इस भूमि को दिव्य साधनाओं और यज्ञ कृत्यों से पवित्र एवं सशक्त बनाया गया है। दिव्य संरक्षण एवं दिव्य वातावरण की भी यहाँ कमी नहीं हैं। ऐसे ही अनेक कारणों से दैवी चेतना ने यदि इस आश्रम को युग अवतरण के लिए भागीरथी प्रयत्न करने का कार्यभार सौंपा है, तो वह उचित ही है।

अत्यन्त व्यस्त, असमर्थ लोगों के लिए एक प्रतीक साधना भी युग- सन्धि पुरश्चरण के अन्तर्गत नियोजन की गई है। प्रात:काल आँख खुलते ही पाँच मिनट की इस मानसिक ध्यान धारणा को सम्पन्न किया जा सकता है।

अपने स्थान से ध्यान में ही हरिद्वार पहँुचा जाए। गंगा में डुबकी लगाई जाए। शान्तिकुञ्ज में प्रवेश किया जाए। गायत्री मन्दिर और यज्ञशाला की परिक्रमा की जाए। अखण्ड दीपक के निकट पहुँचा जाए। कम से कम दस बार वहाँ बैठकर जप किया जाय। माताजी से भक्ति का और गुरुदेव से शक्ति का अनुदान लेकर अपनी जगह लौट आया जाए। इस प्रक्रिया में प्राय: पाँच मिनट लगते हैं एवं महापुरश्चरण की छोटी भागीदारी इतने से भी निभ जाती है। जिसके पास समय है वे गायत्री का जप और सूर्य का ध्यान सुविधानुरूप अधिक समय तक करें।

यह क्रम सन् २००० के अन्त तक चलेगा। इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में सन् २००१ में होगी। आशा की गई है कि उसमें एक करोड़ साधक भाग लेंगे। अधिक व्यक्तियों का एकनिष्ठ, एक लक्ष्य प्राप्ति हेतु जब एकत्रीकरण होता है तो एक प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है। इस पूर्णाहुति का प्रतिफल भी असाधारण एवं चमत्कृतियाँ पूर्ण होना चाहिए। नवसृजन की अनेक धाराएँ उसमें से फूट पडऩी चाहिए और अनेक क्रिया-कलाप समुचित समर्थ के साथ उभरने चाहिए।

इस पूर्णाहुति के सद्परिणाम

सन् १९५८ में गायत्री तपोभूमि मथुरा के तत्वावधान में, एक सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ सम्पन्न हुआ था, जिसमें चार लाख साधक आए थे। दर्शक तो कुल पन्द्रह लाख थे। इन साधकों को सम्मिलित करके प्राय: छ: हजार शाखा-संगठन बनाए गए थे और भारत की देव संस्कृति को नवजीवन प्रदान करने का सभी के द्वारा सङ्कल्प लिया गया था। विगत तीस वर्षों में अब तक जो भी महत्त्वपूर्ण नवसृजन कार्य सम्पन्न हुए हैं, वे उसी के सत्परिणाम हैं। सन् २००१ में जो एक करोड़ साधकों द्वारा व्रतशील पूर्णाहुति होने जा रही है, उसका धक्का पूरे एक सौ वर्षों तक अपनी शक्ति का परिचय देता रहेगा और युग परिवर्तन की प्रतिक्रिया को काल्पनिक नहीं, सर्वथा सार्थक बनाकर रहेगा। इस आयोजन में उपस्थित जनों में से प्रत्येक को नवनिर्माण के लिए वह काम सौंपे जाएँगे, जिन्हें वे अपनी योग्यता और परिस्थति के अनुरूप करते रह सकें।

इसी अवधि में एक लाख लोकसेवी विनिर्मित, प्रशिक्षित कर लेने की बात कठिन एवं असम्भव जैसी लगती तो है, पर यदि उसके लिए तूफानी आन्दोलन खड़ा किया जा सके और प्रचलन का वैसा ही प्रवाह उगाया जा सके, तो एक को देखकर दूसरा व्यक्ति बुरी ही नहीं, अच्छी परम्पराएँ भी अपना सकता है। संसार में कोई भी ऐसा आदमी नहीं, जो यदि सच्चे मन से चाहे, तो गुजारे के पश्चात् जनकल्याण का कुछ न कुछ काम न करता रह सके। बिहार प्रान्त के हजारी किसान ने आम के उद्यान लगाए जाने की उपयोगिता समझी और उस कार्य में परिपूर्ण लगन के साथ जुट पड़ा। फलत: उसने अपने जीवनकाल में उस क्षेत्र में गाँव-गाँव घूमकर एक हजार आम्र उद्यान लगावाए। लगन का चमत्कार देखते हुए लोगों ने उस इलाके का नाम हजारी बाग रखा। हजार बागों वाला-हजारी बाग। प्रश्न योग्यता या सुविधा का नहीं, लगन का है। यदि वह सच्चे मन से लगी हो, तो शीरी का प्रेमी फरहाद अकेले पुरुषार्थ से भी बत्तीस मील लम्बी नहर पहाड़ों से होकर खोद लाने की चुनौती पूरी कर सकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीरों में जकड़े हुए लोगों के लिए अपनी तृष्णा पूरी कर सकना भी कठिन है, पर उदारचेता तो ढेरों समय, श्रम और मनोयोग उससे बचाकर, उससे ढेरों महत्त्वपूर्ण कार्य करते रह सकते हैं और अपना इतिहास अमर बना सकते हैं। विश्वास है कि ऐसा ही वातावरण इक्कीसवीं सदी आने से पूर्व बना लिया जाएगा।

शिक्षण सत्र व्यवस्था

प्रतिभा परिष्कार और नवसृजन का राजमार्ग तैयार करने में शान्तिकुञ्ज अपने ढंग की अनोखी भूमिका सम्पन्न कर रहा है, जिसमें युग शिल्पियों का उत्पादन और अभिवर्धन प्रमुख है। कम समय में कम साधनों से अधिक लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए थोड़े-थोड़े समय के प्रशिक्षण सत्र रखने पड़ते हैं। विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिए एक महीने के और व्यस्त परिस्थितियों वालों के लिए नौ-नौ दिन के शिक्षण सत्र रखे गए हैं। हर महीने १ से ९, ११ से १९ और २१ से २९ तक यह सत्र सम्पन्न होते रहते हैं। इनमें सम्मिलित होने के इच्छुक अपना पूरा परिचय भेजकर इच्छित सत्र में सम्मिलित होने की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं। स्थान भर गया हो, तो अगले किसी निकटवर्ती सत्र की स्वीकृति मिल जाती है।

शिक्षित, समर्थ, उत्साही और अनुशासन प्रिय वयस्क पुरुषों की ही भाँति उन सुयोग्य महिलाओं को भी सम्मिलित होने की सुविधा है, जिनकी गोदी में पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चे नहीं हैं। बहुत छोटे बच्चे शिक्षण व्यवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न करते हैं, माताओं का ही नहीं दूसरे शिक्षार्थियों का भी ध्यान बँटता है। महिलाओं पर बालकों सम्बन्धी प्रतिबन्ध इसीलिए रखे गए हैं।

अपने समय का महान् आन्दोलन-नारी जागरण

युग सन्धि के इन्हीं बारह वर्षों में एक और बड़ा आन्दोलन उभरने जा रहा है, वह है-महिला जागरण। इस हेतु, चिरकाल से छिटपुट प्रयत्न होते रहे हैं। न्यायशीलता सदा से यह प्रतिपादन करती रही है कि ‘नर और नारी एक समान’ का तथ्य ही सनातन है। गाड़ी के दोनों पहियों को समान महत्त्व मिलना चाहिए। मनुष्य जाति के नर और नारी पक्षों को समान श्रेय-सम्मान, महत्त्व और अधिकार मिलना चाहिए। इस प्रतिपादन के बावजूद बलिष्ठता के अहंकार ने, पुरुष द्वारा नारी को पालतू पशु जैसी मान्यता दिलाई और उसके शोषण में किसी प्रकार की कमी न रखी। सुधारकों के प्रयत्न भी जहाँ-तहाँ एक सीमा तक ही सफल होते रहे समग्र परिवर्तन का माहौल बन ही नहीं पाया, किन्तु यह अनोखा समय है, जिसमें सहस्राब्दियों से प्रचलित कुरीतियों की जंजीरें कच्चे धागे की तरह टूटकर गिरने जा रही हैं। युग सन्धि के इन वर्षों में भारत की महिलाओं को तीस प्रतिशत शासकीय व्यवस्था में प्रतिनिधित्व मिलने जा रहा है। अगले दिनों हर क्षेत्र में उनका अनुपात और गौरव भारत में ही नहीं विश्व के कोने-कोने में भी निरन्तर बढ़ता ही जाएगा।

इसी प्रकार अन्य सम्पन्न देशों में नारी की स्थिति लगभग पुरुष के समान ही जा पहुँची है और वे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बढ़ चढ़ कर ऐसा परिचय दे रही हैं, जिसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे पुरुषों से किसी प्रकार पीछे हैं। ‘इस्लाम धर्म में नारी पर अधिक प्रतिबन्ध है; शासन सत्ता उन्हें सौंपने का विधान नहीं है। फिर भी पाकिस्तान की बेनजीर भुट्टो ने प्रधानमन्त्री का पद हथिया लिया और एक नई परम्परा को जन्म दिया था।’

भारत का नारी जागरण अपने ढंग का अनोखा हुआ। उनका आत्मविश्वास जागेगा। प्रगति पथ पर चलने का मनोरथ अदम्य रूप से उभरेगा। इस बार पुरुषों का रुख बाधा पहुँचाने का नहीं, वरन् उदारतापूर्ण सहयोग देने का होगा।

शान्तिकुञ्ज ने निश्चय किया है कि भारत के हर गाँव-नगर में पहुँचकर महिलाओं को भावी सम्भावनाओं से अवगत कराया जाएगा और उन्हें प्रगतिशील बनाने के लिए उनमें अदम्य उत्साह जगाया जाएगा। इसके लिए प्रथम कार्यक्रम यह हाथ में लिया गया है कि २४ हजार महिला दीपयज्ञ इस प्रकार सम्पन्न किए जाएँगे कि उनमें देश की अधिकांश महिलाओं को एकत्रित और संगठित किया जा सके। इसके लिए शिक्षित महिलाओं को कमान सँभालने के लिए विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया है, जो अपने-अपने समीपवर्ती क्षेत्र में इस आन्दोलन को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने में निरत होंगी।

दीपयज्ञ नितान्त सुगम, खर्च रहित और अतीव प्रेरणाप्रद सिद्ध हुए हैं। उनमें परमार्थ श्रद्धा जगाने की प्रक्रिया का भी समुचित समावेश सिद्ध हो चुका है। पिछले दिनों पुरुष प्रधान दीपयज्ञ आशा से अधिक सफल हुए हैं। इस माध्यम से लोगों द्वारा आत्मपरिष्कार एवं लोककल्याण के लिए बढ़-चढ़कर व्रत धारण किए और संकल्प लिए गए हैं। इस वर्ष महिला प्रधान यज्ञों की बारी रहेगी। पुरुष उसमें सहयोगी की तरह सम्मिलित रहेंगे और सफल बनाने में योगदान देंगे। केंद्र से भेजी गई गाडिय़ों की अपेक्षा स्थानीय नर-नारियों को यह मोर्चा सँभालने के लिए विशेष रूप से प्रोत्साहित और प्रशिक्षित किया जा रहा है। इन आयोजनों के साथ-साथ ही महिला मण्डलों का संगठन आरम्भ कर दिया जाएगा। एक से पाँच, पाँच से पच्चीस बनने का उपक्रम नव सृजन का आधारभूत सिद्धान्त है। इस आधार पर जीवन्त-जाग्रत महिलाओं की सुसंगठित टोलियाँ हर क्षेत्र में खड़ी होती दिखाई पड़ेंगी।

महिला आन्दोलन अगले ही दिनों दो कार्य हाथ में लेगा। एक शिक्षा और स्वावलम्बन की विधा को प्रोत्साहन; दूसरा धूम-धाम वाली खर्चीली शादियों में महिला समुदाय का असहयोग। परम्परावाद के नाम पर प्रतिगामिताओं ने, मूढ़ मान्यताओं, अन्ध परम्पराओं, कुरीतियों, कुण्ठाओं ने, नारी समाज को बुरी तरह अपने चंगुल में जकड़ा है। खर्चीली शादियों ने बेटी-बेटे के बीच अन्तर की मोटी दीवार खड़ी की है। उसे पूरी तरह गिरा देने का ठीक यही समय है। बहू और बेटी के बीच अन्तर खड़ा न करने वाला दृष्टिकोण इस आन्दोलन के ही साथ जुड़ा हुआ है। जब उन्हें भावी पीढ़ी का नेतृत्व करना है, तो आवश्यक है कि उन्हें शिक्षित, सुयोग्य, दक्ष एवं प्रगतिशील भी बनाया जाए। २४ हजार यज्ञों के साथ जहाँ महिला संगठन का प्रयोजन प्रत्यक्ष है, वहाँ यह भी उत्साह भरना आवश्यक है कि उन्हें हर दृष्टि से सुयोग्य बनाने में कुछ कमी न छोड़ी जाए।

आशा की गई है कि अगले पाँच वर्षों में एक भी नारी अशिक्षित न रहेगी और खर्चीली शादियों का प्रचलन कहीं भी दृष्टिगोचर न होगा। महिलाएँ हर क्षेत्र में पुुुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करती दिखाई देंगी।

लोकसेवी जीवनदानी, न केवल पुरुषों में उत्पन्न किए जाने है; वरन् योजना यह भी है कि बच्चों वाली महिलाएँ अपने निकटवर्ती क्षेत्र में काम करें और जिनके ऊपर बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है, वे नारी उत्थान का तूफान उठाने, घर-घर अलख जगाने के लिए, सच्चे अर्थों में देवी की भूमिका सम्पन्न करके दिखाएँ।

इन दिनों महिला वर्ग में ही साक्षरता संवर्धन का तूफानी आन्दोलन जुड़ा रहेगा। साक्षर होते ही उन्हें ऐसा साहित्य दिया जाएगा, जो उन्हें नवयुग के अनुरूप चेतना प्रदान करने में समर्थ हो। पुरुषों में प्रतिभा संवर्धन आन्दोलन चलाने के अतिरिक्त, नारी जागरण का आलोक वितरण करने वाला साहित्य भी आवश्यक है। शान्तिकुञ्ज ने उसे देश की सब भाषाओं में उपलब्ध कराने का निश्चय किया है।

विचार क्रान्ति-जनमानस का परिष्कार

छोटा मकान बनाने में, कितने साधन जुटाने पड़ते हैं और कितना ध्यान देना पड़ता है; उसे सभी भुक्तभोगी भली प्रकार जानते हैं। फिर जहाँ खण्डहर स्तर की दुनिया को नवयुग के भव्य भवन में विकसित करना है, वहाँ कितने अधिक कौशल की—कितने साधनों की—कितनी प्रतिभाओं की आश्यकता पड़ेगी, इसका अनुमान लगाना, किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। सुधार और सृजन के दो मोर्चे पर, दुधारी तलवार से लड़ा जाने वाला यह पुरुषार्थ कितना व्यापक और कितना बड़ा होगा, इसका अनुमान लगाने पर प्रतीत होगा कि यह प्राचीनकाल के समुद्र सेतु बन्धन, लंका दहन, संजीवनी बूटी वाला पर्वत उखाड़कर लाने जैसा कठिन होना चाहिए। इसे गोवर्धन उठाए जाने की उपमा दी जा सकती है और अगस्त्य द्वारा समुद्र को पी जाने जैसा अद्भुत भी कहा जा सकता है। अवतारों द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत किए जाते रहे परिवर्तनों के समकक्ष भी इसे कहा जा सकता है।

पूर्वकाल में संसार भर की आबादी बहुत कम थी। अब से दो हजार वर्ष पूर्व संसार में प्राय: तीस करोड़ व्यक्ति रहते थे। उनमें से एक छोटी संख्या ही उद्दण्डों की पनपी थी और तोड़-फोड़ में लगी थी। उस पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए परशुराम ने कुल्हाड़ा उठाया था और जिन्हें बदलना आवश्यक था, उनका सिर (चिन्तन) पूरी तरह फेर दिया था। अब संसार की आबादी ६०० करोड़ है। इसमें से अधिकांश जन समुदाय विचार विकृति और आस्था संकट से ग्रसित है। अधिकांश का चिन्तन मानवी गरिमा के अनुरूप चल नहीं रहा है। आवांछनीयताएँ हर क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाती चली जा रही हैं। इसके लिए विश्वव्यापी विचार क्रान्ति की आवश्यकता है।

एक प्रयोजन के लिए खड़ी की गई छोटी-मोटी क्षेत्रीय क्रान्तियाँ कितनी कठिन पड़ी हैं, इसे इतिहासवेत्ता जानते हैं। अब मन:क्षेत्र में व्याप्त अभ्यस्त दृष्टिकोणों का आमूलचूल परिवर्तन किया जाना है। यही जनमानस का परिष्कार है। आवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन भी यही है। इसे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक सम्पन्न करना इतना बड़ा काम है, जिसके लिए हजारों परशुराम भी कम पड़ेंगे। इतने पर भी यह निश्चित है कि यह भवितव्यता सम्पन्न होकर रहेगी। शालीनता, आत्मीयता, सद्भावना और सहकारिता का नवयुग अवतरित होकर रहेगा। इस पुण्य-प्रवाह को प्रगतिशील करने के लिए असंख्य भगीरथों की आवश्यकता पड़ेगी। ध्वंस सरल है और सृजन कठिन। माचिस की एक तीली समूचे छप्पर और गाँव-मुहल्लों को जला सकती है, पर एक राज्य बसाने के लिए तो अनेक समर्थों का कौशल चाहिए।

सृजन प्रयोजनों के निमित्त समयदान

युग सन्धि के अगले दस वर्षों में शान्तिकुञ्ज को कई अति महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने हैं। हाथ में लिए गए कार्यों को दु्रतगति से पूरा किया जा रहा है। इस अवधि में एक लाख नए ऐसे नर-नारी लोकसेवी स्तर के विनिर्मित करने हैं, जो पूरा समय न दे सकने की विवशता में, कुछ घण्टे नियमित रूप से अपने क्षेत्र में सृजन प्रयत्नों के लिए लगाते रहें। सन् २००० तक की अवधि में ही इस महा परिवर्तन के एक करोड़ भागीदार बनाए जाने की योजना है, जो युगसन्धि की पूर्णाहुति में सम्मिलित होकर, अगले दिनों के लिए अपने दायित्वों को व्रतशील होकर धारण कर सकें।

अशिक्षित जनता को इस आधार पर शिक्षित बनाया जाना है कि हर वर्तमान शिक्षित व्यक्ति, औसतन दस अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का संकल्प लें और विद्या प्राप्ति के ऋण से उऋण हों। यह आन्दोलन शिक्षा संवर्धन का वह कार्य कर सकेगा, जो असंख्य नए स्कूल खोलने और उन पर अपार धनराशि व्यय करने पर भी सम्भव नहीं। कुप्रचलनों में से विवाह विकृति का निवारण करने के लिए बिना धूम-धाम और बिना दहेज-जेवर की शादियाँ कराने की इक्का-दुक्का घटनाएँ ही नहीं घटती रहने देनी है, वरन् उस प्रचलन को सामान्य प्रथा बनाकर रहना है। इसके साथ ही अन्य कुप्रचलन, अन्धविश्वास, अनाचार, घटते और मिटते चले जाएँगे। हर व्यक्ति को नवसृजन प्रयत्नों के लिए कुछ समयदान और अंशदान देते रहने के लिए सहमत कर लिया जाएगा, तो उतने छोटे सहयोग से भी हर क्षेत्र में अनेक सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ भी फलने-फूलने लगेंगी।

अशिक्षा की निद्रा से जब दो तिहाई जन समुदाय जागेगा और चेतन स्थिति में पहुँचेगा, तो निश्चय ही उसकी ज्ञान पिपासा बढ़े-चढ़े स्तर की होगी। बौद्धिक क्षुधा उसे आकुल-व्याकुल कर रही होगी। उसकी पूर्ति यदि उपयुक्त युग साहित्य से न हो सकी, तो परिणाम यह होगा कि लोग अभक्ष्य खाने जैसे विकृत साहित्य को अपनाने लगेंगे और उससे भी अधिक घाटा उठाएँगे, जो कि अशिक्षित रहने पर उठा रहे थे। अस्तु; आने वाले नवयुग के मनुष्य के लिए, अभिनव साहित्य को हर भाषा में प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है। उसकी व्यवस्था अत्यन्त विकट एवं बोझिल होते हुए भी पूरी की ही जाएगी।

अभी प्रज्ञा परिजन ही प्रमुख रूप से नवसृजन का आन्दोलन जन स्तर पर चला रहे हैं, पर विश्वास किया गया है कि अगले दिनों इस समुद्र मन्थन में उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ भी सम्मिलित होंगी। मनीषा के धनी, सम्पत्तिवान, प्रतिभाशाली, कलाकार, उदारचेता महामानव इसी श्रेणी में आते हैं। उनका दिशा परिवर्तन होगा। आज वे जिस संकीर्ण स्वार्थ साधना में लगे हैं, उससे दस कदम आगे बढ़कर उन कार्यों को हाथ में लेंगे, जिन्हें करने के लिए समय की माँग उन्हें पे्ररित और बाधित करेगी। त्याग करना यों सामान्य जनों के लिए कठिन पड़ता है, पर आड़े समय में मानवी अन्तराल में निवास करने वाली अन्त: चेतना भी उभरती है और ऐसे प्रयास कराती है, जिनके करने का उन्हें पूर्व अभ्यास न था। बुद्ध काल में लाखों परिव्राजकों और गाँधी काल में लाखों सत्याग्रहियों का अनायास ही उभर पडऩा यह बताता है कि समय की माँग को गूँगे -बहरे भले ही न सुनें, पर चेतन एवं सही सलामत व्यक्ति युग धर्म के परिपालन से इनकार कैसे कर सकते हैं? ऐसे प्राणवानों को झकझोरने और नींद से विरत होकर तन कर खड़े हो जाने की स्थिति उत्पन्न करने में शान्तिकुञ्ज का तन्त्र अभी से पूरी तैयारी कर रहा है। इक्कीसवीं सदी में उनकी कहीं कोई कमी न रहेगी। उनका उभार तो युग सन्धि वेला में ही दिखने लगेगा।

हिमालय से अधिकांश नदियाँ निकलती हैं। तुलना करने पर शान्तिकुञ्ज को भी ऐसा ही कुछ करते देखा जाएगा, जिसमें कि असंख्यों को दिशा-प्रेरणा के स्रोत उपलब्ध हों। इस जेनरेटर की ऊर्जा से विद्युत-उपकरणों को गतिशील होने की शक्ति मिल सके।

दैवी सत्ता का सूत्र संचालन

विश्वास किया जाना चाहिए कि ऐसे बड़े काम महाकाल के तत्त्वावधान में, उसकी ही विनिर्मित योजना के अनुसार सम्पन्न होने हैं। वही राई को पर्वत और पर्वत को राई बनाता है। स्रष्टा निराकार होने के कारण प्रत्यक्षत: कुम्हार की तरह संरचना करते नहीं देखा जाता। महान् कार्य महान् व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। यह महानता सामान्य मनुष्य की नहीं, उसी महान् की योजनानुसार होती है, जो सृजन, परिपोषण और परिपालन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है। वही समय-समय पर धर्म की हानि और अधर्म की बाढ़ को रोकने के लिए अपनी ऊर्जा के अनोखे प्रयोग करता है। मनुष्य जैसा अद्भुत प्राणी जिसने सृजा, जिसके नायकत्व में संसार की सारी व्यवस्था चलती है; वह जो योजना बनाए, वह अधूरी कैसे रहेगी? उसके संकल्प एवं नियोजन में प्रतिरोध कौन खड़ा करेगा?

महत्त्वपूर्ण कार्य भगवान् करते हैं और उसके श्रेय को शरीरधारी मुफ्त में ही प्राप्त कर लेते हैं। चेतना काम करती है और शरीर को श्रेय मिलता है। तेज तूफान के सहारे पत्ते और तिनके भी आकाश चूमते हैं। नदी के प्रवाह में बहती हुई टहनी, बिना श्रम के समुद्र में जा मिलने का लम्बा सफर पूरा कर लेती है। दैवी सत्ता की सहायता से सुदामा, नरसी मेहता, विभीषण, सुग्रीव, शबरी, गिलहरी, रीछ-वानर आदि ने वह श्रेय उपलब्ध किया था, जिसे वे मात्र अपने बलबूते कदाचित ही कर पाते। वह सत्ता इन दिनों अपनी ओर से उत्सुक और प्रयत्नशील है कि श्रेयाधिकारी आगे आएँ और वह श्रेय प्राप्त करें, जो असंख्यों के लिए प्रेरणाप्रद बने तथा अनन्तकाल तक अनुकरणीय, अभिनन्दनीय समझा जाता रहे।

दिव्यसत्ता का महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्व अपने ही भीतर है। उसे आत्मपरिष्कार और लोकमंगल की साधना द्वारा सहज ही अभीष्ट सहयोग के लिए आमन्त्रित किया जा सकता है। अर्जुन, हनुमान को ऐसा ही दिव्य सहयोग मिला था। असंख्य महामानव इसी आधार पर कृतकत्य हुए हैं। युग निर्माण योजना द्वारा सम्पन्न हुए अगणित लोकोपयोगी कार्य किसी व्यक्ति विशेष के पुरुषार्थ से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा और अनुकम्पा के आधार पर ही आश्चर्यजनक रूप से विकसित, विस्तृत एवं सफल होते रहे हैं।

शान्तिकुञ्ज से सन् १९८९ से लेकर सन् २००० तक की एक सुविस्तृत योजना और कार्य पद्धति विनिर्मित की है। वातावरण में असाधारण उत्साह और साहस भरने का प्रयत्न किया है। आशा की जानी चाहिए कि इसके पीछे दैवी शक्ति का समर्थन होने के कारण अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण होकर रहेगा।

इस मिशन के संस्थापक, संचालक अपने ८० वर्ष के जीवन में सम्पन्न हुए क्रिया-कलापों के पीछे, प्रधान कारण दैवी शक्ति की अनुकूलता एवं अनुकम्पा ही मानते हैं। वे कहते हैं कि उनकी सामान्य-सी मन:स्थिति और साधनों को देखते हुए जो कुछ बन पड़ा है वह इतना अधिक है, जिसे गोवर्धन पर्वत उठाने के समतुल्य कहा जा सकता है। साहित्य सृजन, संगठन, सृजनात्मक आन्दोलन, प्रज्ञा केन्द्रों का हजारों की संख्या में निर्माण जैसे सर्वविदित कार्य ही ऐसे हैं, जिनका ब्यौरा जानने पर सहज ही यह विश्वास नहीं होता, कि इतना कुछ एक व्यक्ति द्वारा बन पड़ेगा। वे तथ्य तो एक ही बात का संकेत करते हैं, कि किसी कुशल बाजीगर की अँगुलियों के मार्गदर्शन और सहयोग से ही यह सब बन पड़ा है। अगले दिनों जो इस तन्त्र द्वारा किया जाना है, उसकी रूपरेखा समझने पर सहज बुद्धि को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि विश्वव्यापी सृजन प्रयोजनों में जितनी प्रतिभाओं और जितने साधनों की आवश्यकता है, उनकी व्यवस्था भी हो सकेगी? किन्तु वे यह सारे काम पूर्ण करने का निश्चय कर चुके हैं। समस्याएँ इतने प्रकार की, इतनी भारी और व्यापक हैं, जिन्हें सुलझाने में स्थूल शरीर की क्षमता कम पड़ती है। उस महान् कार्य को सम्पन्न करने के लिए सूक्ष्म शक्ति को आधार बनाकर ही बड़े क्षेत्र में बड़ा काम किया जा सकता है। प्रतिभाओं का असाधारण संख्या में उत्पादन करने के सम्बन्ध में भी यही बात है। उल्टे को उलटकर सीधा करने का व्यापक कार्यक्रम भी इतना ही कठिन है। इसके लिए स्थूल शरीर सहायक नहीं, बाधक ही होगा। अस्तु; निर्णायक ने वर्तमान स्तर बदल लेने का निश्चय किया है। इसमें अब सीमित समय ही लगने वाला है।

किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि इंजन के बिना रेल कैसे चलेगी। इंजन को समझना हो तो सूत्र संचालक की, अदृश्य सत्ता की सामर्थ्य का आकलन करना चाहिए। जहाँ तक आचार्य जी का सम्बन्ध है, वहाँ तक वे बताते हैं कि सन् २००० तक सम्पन्न किए जाने वाले विशाल योजना क्रम को पूरा करने के लिए उन्होंने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, आवश्यक साधन और स्व-संचालित तेज के गतिशील रहने की व्यवस्था बना दी है। साथ ही विश्वास किया है कि वह सब कुछ उनके न रहने पर भी सुनिश्चित ढंग से चलता रहेगा। अश्रद्धालु इसमें सन्देह कर सकते हैं; किन्तु महाकाल की क्षमता पर जिन्हें विश्वास है, वे अनुभव करते रह सकते हैं कि जो प्रक्रिया ८० वर्ष से हर कदम को सफलता प्रदान करती रही है, वह अपने समर्पित अकिंचन को सौंपी हुई जिम्मेदारियों को भी स्वयं सँभाल लेगी और जो अभीष्ट हैं, उसे सम्पन्न करके रहेगी। संचालक ने तो सन् २००० तक की पत्रिकाओं का सम्पादन और अगले दिनों छपने वाले साहित्य का सृजन भी कर दिया है। पीछे के लिए ऐसे उत्तराधिकारी छोड़े हैं, जो लक्ष्य को पूरा करने के लिए बड़े से बड़ा कदम उठाने में चुकेंगे नहीं।

पृथ्वी की विकट आवश्यकताओं को देखते हुए, दैवी विधान ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर भेजने का पूर्व निश्चय कर रखा था। निमित्त बनने के लिए चूँकि माध्यम की जरूरत पड़ी, तो भगीरथ के रूप में वह सहज ही चला आया। इन दिनों ज्ञान गंगा समस्त विश्व का सिंचन करने और समस्त मानव जाति का कल्याण करने के लिए उतर रही है। स्वेच्छा पूर्वक अथवा नियंता की विधि-व्यवस्था के अनुशासन में जैसे भी हो, उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना वाली ज्ञान गंगा का अवतरण निश्चित है। उसका स्वागत-अर्चन करने की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, क्या असंख्यों भावनाशील पंक्तिबद्ध होकर विशाल सेना की तरह खड़े मिलेंगे? क्या वे इतने स्वल्प समय में जुट सकेंगे? जिन्हें महाकाल की इच्छा और योजना के सफल होने का विश्वास है, वे इस प्रतिपादन पर श्रद्धा कर सकते हैं कि राई से पर्वत बनाने वाली शक्ति का नियोजन स्वल्प साधनों और स्वल्प व्यक्तियों के माध्यम से भी सम्भव है।

सन् २००० में अभी लगभग २ वर्ष शेष हैं। इतने समय में मिशन के सूत्र संचालक अपने स्थूल कलेवर और शक्ति भण्डार को व्यापक बनाने के लिए सूक्ष्म शक्ति के माध्यम से इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण यथा समय सम्पन्न करके रहेंगे। उस अनुग्रह का समय पर सदुपयोग करने के लिए, श्रेयार्थियों को समय रहते कटिबद्ध होने भर की आवश्यकता है।

युग देवता ने हर प्राणवान् को इन दिनों लिप्सा और कुत्साओं के बन्धन ढीले करके,नव सृजन के दैवी प्रयास में भागीदारी के लिए पुकारा है। वे सफल तो हर हालत में होने वाले हैं। प्रश्न उस सुयोग सौभाग्य का है, जिसे समय पर जागने जागने वाले, आवश्यक साहस दिखाने वाले ही उपलब्ध किया करते हैं।

इक्कीसवीं सदी अपने ढंग की समग्र क्रान्ति साथ लेकर दौड़ी आ रही है। उसमें संसार का आनन्द और उल्लास से भरा नवसृजन होने वाला है। अवाँछनीयताओं का दुर्ग ढहने ही वाला है। इस भवितव्यता में सहयोगी बनकर समस्त संसार का तो भला किया ही जा सकता है साथ ही अपने लिए भी उस स्तर का सौभाग्य उपलब्ध किया जा सकता है, जिसके प्रभाव से आने वाली अगली पीढिय़ाँ भी कृतकृत्य हो सकती हैं।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।