नवयुग का मत्स्यावतार - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 21)

अनुक्रमणिका

1. तुच्छ को महान बनाने वाली
2. तीव्र विस्तार चेतना का स्वभाव
3. उसी धारा में प्रस्तुत एक उदाहरण
4. अदृश्य चेतना द्वारा-संचालन
5. बड़े प्रयोजन के लिए बड़े कदम
6. नए लक्ष्य-नए उद्घोष
7. समय की माँग के अनुरूप पुरुषार्थ
8. समझदारी शंका में नहीं-सहयोग में है
9. वह जिसकी उपेक्षा नहीं ही करें
10. ईश चेतना से जुड़ें
11. थोड़ा ही सही, नियमित करें
12. प्राण-चेतना प्रखर बनाए रखें


तुच्छ को महान बनाने वाली दिव्य सत्ता

ब्रह्मा जी प्रात:काल संध्या-वन्दन के लिए बैठे। चुल्लू में आचमन के लिए पानी लिया। उसमें छोटा सा कीड़ा विचरते देखा। ब्रह्माजी ने सहज उदारतावश उसे जल भरे क मण्डल में छोड़ दिया और अपने क्रिया-कृत्य में लग गए। थोड़े ही समय में वह कीड़ा बढ़कर इतना बड़ा हो गया कि सारा क मण्डल ही उससे भर गया। अब उसे अन्यत्र भेजना आवश्यक हो गया। उसे समीपवर्ती तालाब में छोड़ा गया। देखा गया कि वह तालाब भी उस छोटे से कीड़े के विस्तार से भर गया। इतनी तेज प्रगति और विस्तार को देखकर वे स्वयं आश्चर्यचकित हुए और एक-दो बार इधर-उधर उठक-पटक करने के बाद उसे समुद्र में पहुँचा आए। आश्चर्य यह कि संसार भर का जल थल क्षेत्र उसी छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न हुई मछली ने घेर लिया।

इतना विस्तार आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, समझ में न आने योग्य था। जीवधारियों की कुछ सीमाएँ, मर्यादाएँ होती है, वे उसी के अनुरूप गति पकड़ते हैं, पर यहाँ तो सब कुछ अनुपम था। ब्रह्माजी जिनने उस मछली की जीवन-रक्षा और सहायता की थी, आश्चर्यचकित रह गए। बुद्धि के काम न देने पर वे उस महामत्स्य से पूछ ही बैठे कि यह सब क्या हो रहा है? मत्स्यावतार ने कहा-मैं जीवधारी दीखता भर हूँ, वस्तुत: परब्रह्म हूँ। इस अनगढ़ संसार को जब भी सुव्यवस्थित करना होता है, तो उस सुविस्तृत कार्य को सम्पन्न करने के लिए अपनी सत्ता को नियोजित करता हूँ। तभी अवतार प्रयोजन की सिद्धि बन पड़ती है।

ब्रह्मा जी और महामत्स्य आपस में वार्तालाप करते रहे। सृष्टि को नई साज-सज्जा के साथ सुन्दर-समुन्नत करने की योजना बनाकर, उस निर्धारण की जिम्मेदारी ब्रह्मा जी को सौंपकर, वे अन्तर्ध्यान हो गए और वचन दे गए कि जब कभी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलने की आवश्यकता पड़ेगी, उसे सम्पन्न करने के लिए मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए अदृश्य रूप में आता रहूँगा।

श्रेय तुम्हें मिलेगा, पर प्रेरणा योजना क्षमता मेरी ही कार्य करेगी। जीवधारी अपनी क्षमता के अनुरूप थोड़ा ही कुछ कर सकते हैं। असाधारण कार्यों का सम्पादन तो ब्राह्मी शक्ति ही कर सकती है। सो वह महान प्रयोजन में सहायता करने के लिए हर किसी को, हर कहीं उपलब्ध रहती है। इन्हीं रहस्यमय तथ्यों से तुम्हें तथा अन्यान्य मनीषियों को अवगत कराने के लिए मैंने अद्भुत विस्तार करके यह समझाने का प्रयास किया है। महान प्रयोजन यदि दैवी प्रेरणा से सम्पन्न किए गए है और कर्ता ने अपनी प्रामाणिकता-प्रतिभा को अक्षुण्ण रखा है, तो असम्भव भी सम्भव होकर रहता है।

हुआ भी वही। ब्रह्माजी को सृष्टि की संरचना का काम सौंपा गया। वहीं उन्होंने यथाक्रम सम्पन्न कर दिया। अगला चरण यह था कि मनुष्य स्तर के सर्वोच्च प्राणियों में से जो उपयुक्त हो उन्हें, दिव्य चेतना से, दूरदर्शी विवेक से, प्रज्ञा और मेधा से सुसज्जित किया जाए, ताकि वे अपने साथ ही असंख्य अन्यों को समुन्नत, सुसंस्कृत बना सकें इसके लिए वेद-ज्ञान दिव्य लोक से अवतरित हुआ। ब्रह्मा जी की लेखनी ने उसे लेखबद्ध किया। देवमानवों ने उसे पढ़ा समझा और अपनाया। उस क्रियान्वयन से ही धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बनाने का सिलसिला चल पड़ा।

तीव्र विस्तार चेतना का स्वभाव

लघु से महान्, तुच्छ से विशाल होने में अचम्भे जैसा व्यतिक्रम तो मालूम होता है, पर जिस प्रयोजन के पीछे दैवी सत्ता की इच्छा और योजना काम करती है, उसके द्रुतगामी विस्तार में कोई शंका नहीं रह जाती है।

विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में मात्र एक ‘‘अमीबा’’ जैसा अत्यन्त छोटा एककोशीय जीव था, पर जब उस पर दिव्य प्रेरणा उतरी, तो संकल्पों से ओत-प्रोत हो गया। उसी से विकसित होते-होते सृष्टि में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न स्तर के असंख्य जीवधारी बन गए और अपनी आकृति तथा प्रकृति में असाधारण अद्भुतता का परिचय देने लगे। यह चमत्कार अमीबा का नहीं, उसके ऊपरी दिव्य सत्ता के प्रवाह का था, जो असम्भव को सम्भव बना देता है।

एक बीज से उत्पन्न पेड़ से विनिर्मित होने वाले हजारों-लाखों बीजों को बोना, उगाना, बढ़ाना सम्भव हो सके, तो बीज से अगली पीढ़ी अगणित वृक्षों वाले वन्य प्रदेश विनिर्मित कर सकती है। यही सिलसिला बीज की तीसरी-चौथी पीढ़ी तक भी चलता रह सके, तो समझना चाहिए कि आदिकाल जैसे सघन हरीतिमा लिए हुए, वन सम्पदा से समूची धरित्री शोभायमान दीख पड़ने लगेगी। मनुष्य, बीज जैसा विकासक्रम अपनाने वाली कोई वस्तु अपने बलबूते नहीं बना सकता, पर स्रष्टा का कर्तृत्व और नियोजन तो इतना अधिक समर्थ है कि उसकी तुलना सामान्य लोक व्यवहार के आधार पर चलने वाले क्रिया-कलापों से हो ही नहीं सकती। बादलों के बरसने, वसन्त के पुष्प-पल्लवों से सुसज्जित होने की प्रक्रिया मनुष्य अपने बलबूते नहीं कर सकता। ऋतुओं का क्रमबद्ध परिवर्तन भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता, किन्तु उस दिव्य-सत्ता के लिए यह सहज ही सम्भव है, जो-एकोऽहम् बहुस्याम’’ के संकल्प मात्र से समूची प्रकृति-सम्पदा को दिव्य-विभूतियों से भर कर विनिर्मित, सुसज्जित और गतिशील बना देती हैं। हर एक युग के सन्धिकाल में उस दिव्य सत्ता ने अपनी इस तीव्र प्रक्रिया के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।

उसी धारा में प्रस्तुत एक उदाहरण

ऐसा ही एक उदाहरण इन दिनों भी प्रकट है और अपने आश्चर्यजनक विस्तार से हर किसी को चकित कर रहा है। यह है-अपने समय का मत्स्यावतार’’ अथवा इसे युग परिवर्तन का सुनियोजन भी कह सकते हैं। इसमें टूटे खण्डहरों की सफाई और उसके स्थान पर भव्य भवनों का निर्माण एक साथ होना है।

सामान्यतया अपने लिए अपना अच्छा घर बना लेने जैसा छोटा सा मनोरथ पूरा करने में भी इच्छुक और उत्सुक रहते हुए भी असंख्य लोग सफल नहीं हो पाते, फिर मनुष्य समुदाय का उस छाए अनौचित्य का परिशोधन कितना बड़ा काम हो सकता है, उसकी कल्पना करने भर से सिर चकराता है। इसी में एक कड़ी और भी जुड़ती है कि अनौचित्य के परिशोधन के साथ-साथ देव-संस्कृति के अनुरूप, अभिनव भावना क्षेत्र में अभिनव संरचना भी की जानी है। उस दुहरे क्रिया-कलाप का दायित्व उठाने के लिए किसी व्यक्ति या छोटे संगठन द्वारा साहस किए जाने की बात गले ही नहीं उतरती। उसे दिवास्वप्न कहकर उसका उपहास भी उड़ाया जा सकता है। किसी पगले की सनक भी कहा जा सकता है, पर यदि वस्तुस्थिति पर नए सिरे से विचार किया जाए और अनुमान लगाया जाए कि यदि इस योजना के पीछे दैवी शक्ति काम कर रही होगी, तो योजना असफल होकर क्यों रहेगी? आकाश में सूर्य, चन्द्र और तारे टाँग देने वाली सत्ता-अग्नि जल, पवन, जैसे तत्त्वों से इस निर्जीव धरातल को हलचलों से भरा पूरा बना देने वाला सृजेता अपनी अत्यधिक बड़ी और कठिन दीखने वाली योजनाओं को क्यों सम्भव नहीं बना सकता ? जिसकी संरचना जल, थल, और आकाश के स्तर को अद्भुत बनाए हुए है, उसके क्रिया-कौशल द्वारा क्या कुछ सम्भव नहीं हो सकता ?

युग परिवर्तन जैसे अत्यन्त दुरूह और व्यापक स्तर के निर्धारण में मनुष्य की सीमित शक्ति असमर्थ और असफल भी रह सकती है, पर यदि वही क्रिया-कलाप स्रष्टा के तत्त्वावधान में चल रहे हों, तो फिर उसमें असफल रह जाने की आशंका करने में कोई तुक नहीं। अवतार शृंखला में अनेकानेक अवसरों पर ऐसी ही उलट-पुलट होती रही है, जिन्हें सामान्य नहीं असामान्य ही कहा जाएगा। मत्स्यावतार का ऊपर उल्लेख हो चुका है। कच्छपावतार ने अपनी पीठ पर समुद्र-मंथन की भारी-भरकम योजना लादी थी, उस प्रयोग के द्वारा उन चौदह रत्नों को समुद्र से ऊपर उभारकर दिखाया था। जिन पर आज तो विश्वास कर सकना नहीं बन पड़ता। परशुराम ने संसार भर का ब्रेन वाशिंग किया था। मस्तिष्क पर छाई हुई अवाँछनीयताओं को पूरी तरह-व्यौंत करके रख दिया था। परशुराम के विचार-क्रान्ति के उस कुल्हाड़े ने महाबली सहस्रबाहु तक के अवरोधों को धूलि चटा दी थी।

असुरों का केन्द्र बनी लंका का पराभव और उन्हीं दिनों राम-राज्य के रूप में सतयुग की वापसी का नियोजन, क्या दो राजकुमार और मुट्ठी भर रीछ वानर सम्पन्न कर सकते थे? इसको व्यवहार की रीति-नीति के आधार पर नहीं समझाया जा सकता। पाँच पाण्डवों द्वारा कौरवों की अक्षौहिणी सेना को निरस्त किया जाना क्या मनुष्य कृत रीति-नीति के आधार पर सम्भव माना जा सकता है? वासुदेव का व्यक्तित्व और असाधारण योजना नीति महाभारत जैसी विशाल योजना पूरी करके दिखा दे, इस पर सामान्य बुद्धि तो अविश्वास ही करती रहेगी? समाधान उन्हीं का हो सकेगा, जो दैवी शक्ति की महान् महत्ता पर विश्वास कर सकें। बुद्ध जैसे गृहत्यागी, वनवासी, तपस्वी विश्वव्यापी धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए आवश्यक जनशक्ति और साधन-शक्ति कैसे जुटा सकते थे? जो उनसे बन पड़ा, उसका मानवी पुरुषार्थ द्वारा बन पड़ना सम्भव नहीं हो सकता। तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जैसी महान् संस्थापना और संचालन सिद्धार्थ नाम का एक व्यक्ति ही कर सकता था? यदि हाँ तो वैसा उदाहरण प्रस्तुत करके दिखा देने के लिए और कोई आगे क्यों नहीं आता?

एक बन्दर द्वारा समुद्र छलाँग जाना, लंका जैसे सुदृढ़ दुर्ग को धराशाई बनाना, पर्वत समेत संजीवनी बूटी को अपने कन्धे पर लाद लाना, क्या सामान्य शरीरधारियों के बलबूते की बात है? गाँधी, शंकराचार्य, विनोबा, विवेकानन्द जैसों के कर्तृत्व भी ऐसे ही मानने पड़ते हैं। जिन्हें अलौकिक मानकर ही अविश्वास को विश्वास स्तर पर लौटा लाना सम्भव हो सकता है। जिनके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उस ब्रिटिश साम्राज्य को अपना बिस्तर गोल करने के लिए विवश कर देना मुट्ठी भर सत्याग्रहियों के लिए कैसे सम्भव हो सका? जबकि नादिरशाह, तैमूरलंग, चंगेजखाँ जैसे सामान्य से आक्रान्ता अपने सीमित साधनों में भारत जैसे विशाल देश पर मुद्दतों, लूट-पाट करते आए और दिल दहलाने वाला शासन करते रहे। यदि पुरुषार्थ ही सब कुछ रहा होता, तो शताब्दियों तक भारत को इतने निविड़ पराधीनता पास में न बँधा रहना पड़ता। बहादुर बलिदानी और देश भक्त, तो उस समय भी थे, पर गाँधी के असहयोग आन्दोलन से घबराकर असामान्य शक्तिशाली और साधन सम्पन्न साम्राज्य का उल्टे पैरों वापस लौट जाना एक आश्चर्य की बात है। उसमें मानवी पुरुषार्थ कितना ही क्यों न लगा हो, पर दिव्य सत्ता द्वारा प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल दिए जाने वाली बात से भी एकदम इंकार नहीं किया जा सकता।

सतयुग कालीन, साधन रहित ऋषि-मनीषियों द्वारा अजस्र अनुदान प्रदान करके, इस सुविस्तृत संसार में समृद्धि और सुसंस्कारिता का वातावरण बना देना, किस नियम के आधार पर सम्भव हो सका, यह तर्क बुद्धि के आधार पर समझना और समझाना सम्भव हो सकता। इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य वाले गंगावतरण की परिकल्पना और सम्भावना इसी आधार पर गले उतरती है कि उसके पीछे कोई अदृश्य सत्ता काम कर रही है, अन्यथा इस समय के असुरत्व को देवत्व में बदल देने और विश्वव्यापी कायाकल्प पर कैसे विश्वास किया जा सकेगा? जब नदी का प्रवाह उलट देना एक प्रकार से असम्भव माना जाता है, तो परम्पराओं के रूप में जड़ जमाए बैठी अवाँछनीयता के अन्धड़ को उलट कर विपरीत दिशा में लौट पड़ने के लिए बाधित किया जाना, निश्चय ही मानवी प्रयत्नों के आधार पर न तो स्वयं समझा जा सकता है और न दूसरों को समझाने-सहमत करने में ही सफलता मिल सकती है। इन प्रयोगों में समर्थ सत्ता का हस्तक्षेप होने की मान्यता अपनानी ही पड़ती है, अन्यथा प्रतिपादन को लोक मान्यता मिल सकना प्राय: असम्भव ही रहेगा। व्यक्ति विशेष अथवा छोटे संगठन तो अपनी पहुँच के अन्तर्गत छोटा-मोटा सुधार परिष्कार ही कर सकते हैं।

अदृश्य चेतना द्वारा सूत्र-संचालन

इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण और नवयुग के मत्स्यावतार के स्वरूप और विस्तार को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इतनी बड़ी योजना को सम्पन्न कर सकना मानवी पुरुषार्थ की परिधि से बाहर है। फिर इतने बड़े आन्दोलन-अभियान-उद्घोष-प्रतिपादन को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत करने का दुस्साहस किस आधार पर किया जा रहा है?

शान्तिकुञ्ज और उसके सूत्र-संचालक अपनी अयोग्यता, असमर्थता और साधनों की न्यूनता से भली प्रकार परिचित होते हुए भी, किस आधार पर युग परिवर्तन के महाप्रयाण में झण्डा-बरदार बनकर आगे-आगे चल रहे है, इसके उत्तर में, उस विश्वास को ही साक्षी रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसकी सुुनिश्चित परिपक्वता अनेक प्रयोग परीक्षणों के उपरान्त ही बन पड़ी है। निराधार कल्पनाएँ करना और अपनी सामर्थ्य के बाहर का भार उठाने की भूल तो कोई अर्धविक्षिप्त सनकी ही कर सकते हैं, यह लाँछन स्वीकारने की हिम्मत भी उस संचालक तन्त्र में नहीं है, क्योंकि जो मान्यता बनाई गई है, वह मात्र कल्पना पर आधारित नहीं हैं। तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों का एक बड़ा, अम्बार भी प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यमान है। पिछले दिनों जो कदम उठे और प्रयास बने वे कितने आश्चर्यजनक रीति से सफल-सम्पन्न हुए, उनकी कथा-गाथा ऐसी है, जिसे कथा-कहानी की तरह संशयग्रस्त नहीं माना जा सकता। जो बन पड़ा है, उसका जो परिणाम निकला है, उसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए हर किसी के लिए द्वार खुला पड़ा है। पिछली लम्बी अवधि की गतिविधियों को, उपलब्धियों को उलट-पुलट कर यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान दृश्य तन्त्र प्रचलनों और अनुभवों के आधार पर किसी शरीरधारी नगण्य व्यक्ति को श्रेय देने के लिए कोई तैयार नहीं हो सकता। समाधान मात्र उन्हीं का होगा, जो यह अनुभव कर सकेंगे कि उस समूचे प्रयास या प्रवाह के पीछे अदृश्य सत्ता काम कर रही है।

असंख्य प्रसंगों में से यहाँ कुछेक का उल्लेख कर देना, बटलोई में पकते भात में से कुछ चावल निकाल कर, पकने न पकने की बात जाँचने की तरह पर्याप्त हो सकता है।

१ - अखण्ड ज्योति पत्रिका का तथा उसकी सहेलियाँ प्राय: साढ़े आठ लाख में छपना। उस साहित्य का अनेक भाषा-भाषियों द्वारा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाना। पत्रिका के सदस्यों द्वारा पाँच विचारशीलों को उनका पढ़ाया जाना और इस प्रकार अनेक वाचन-श्रवण के अतिरिक्त प्रेरणाओं को जीवनचर्या में उतारना। इस प्रकार एक करोड़ विचारशीलों का परिकर जुट जाना। यह सब ऐसी दशा में और भी कठिन पड़ता है कि इस समूचे तन्त्र को खड़ा करने में एक ही व्यक्ति की क्रिया-प्रतिक्रिया काम करती दीखती है।

२ - युग साहित्य के रूप में प्राय: तीन हजार छोटी-बड़ी पुस्तकों का लिखा जाना, कई-कई संस्करण उनके प्रकाशित होना, घर-घर पहुँचाना और अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद होना। जो कार्य विद्वानों की मण्डली और सम्पत्तिवानों के सहयोग से भी कठिन था, वह सामान्यजनों-सामान्य साधनों के सहारे पूरा हो जाना।

३ - प्रज्ञापीठों के रूप में देश के कोने-कोने में प्राय: पाँच हजार से अधिक इमारतों का विनिर्मित होना और उनके तन्त्रियों द्वारा, अपने-अपने क्षेत्रों में नवसृजन के क्रिया-कलापों को क्रियान्वित करते रहना। सीमित समय में, सामान्य जनता के योगदान से एक ही उद्देश्य के लिए इतना विशाल तन्त्र खड़ा हो जाना-इतिहास की एक अनुपम घटना कही जाती है।

४ - अब तक प्राय: ऐसे असंख्य समारोहों का उत्साह भरे वातावरण में सम्पन्न होना। जिनमें धर्मतन्त्र के माध्यम से लोक शिक्षण की उच्चस्तरीय प्रेरणा संचरित की गई। उस संचार द्वारा अगणित व्यक्तियों को पतन-पराभव के चंगुल से निकाल कर उन्हें प्रगति-पथ पर चला देने में सफलता प्राप्त होना।

५ - युगसन्धि महापुरश्चरण के माध्यम से लोकमानस में नवसृजन का उल्लास उभारना और लाखों व्यक्तियों का उसमें सम्मिलित होना। वर्ग भेद भुलाकर हर क्षेत्र, हर भाषा, हर स्तर के व्यक्ति का इस महान् प्रयोग में निष्ठापूर्वक जुट जाना।

६ - युगसन्धि के अगले दस वर्षों में दस लाख सृजन शिल्पी उभारना, प्रशिक्षित करना और कार्य क्षेत्र में उतारना। उसे प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मण वानप्रस्थ, परिव्राजक स्तर के प्रचलन को पुनर्जीवित किया जाना भी कहा जा सकता है। प्रयत्न तेजी से चल रहे हैं और उस लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ा जा रहा है। करोड़ों विचारशीलों को समर्थक-सहयोगी बनाना एवं पूर्णाहुति के अवसर पर एकत्रित करना।

७ - विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के उन अविष्कारों को प्रस्तुत करना जो अगले दिनों लोगों को नई प्रेरणा एवं नई दिशा दे सकते हैं।

८- प्रकाशन, प्रचार, एवं संगठन के लिए युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि, तन्त्र का अनवरत रूप से तत्पर रहना। अनेक भाषाओं में युग साहित्य का प्रकाशन करना और लागत मूल्य में घर-घर पहुँचाना।

इन प्रयासों की क्या परिणति एवं क्या प्रतिक्रिया हुई? इसका विवरण इतना असाधारण है कि जिनका भी इस तन्त्र के साथ निकटवर्ती सम्बन्ध है, वे एक स्वर से प्रशंसा करते नहीं थकते। यह विवरण प्रकाशित करने की इसलिए आवश्यकता नहीं समझी गई कि विज्ञापनबाजी से सदैव दूर रहने की नीति इस तन्त्र द्वारा अपनाई गई है। अपनी शक्ति का कण-कण केवल सृजन प्रयोजनों में लगाने के उद्देश्य से ऐसा करना आवश्यक समझा गया है।

सत्प्रवृत्ति संवर्धन के अन्तर्गत अनेक ऐसे क्रिया-कलाप रह सकते हैं, जिन्हें नव- सृजन की ठोस एवं सुदृढ़ आधारशिला समझा जा सकता है। इस प्रयास का पूरक है, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन, जिसमें कुरीतियों मूढ़मान्यताओं, अन्धविश्वासों, अवाँछनीयताओं से सम्बन्धित क्रिया-कलाप आते हैं, उनका उन्मूलन किया ही जाना चाहिए। धूम-धाम वाली और जेवर-प्रदर्शन के कारण भार-भूत बनकर रह रही खर्चीली शादियाँ, नशेबाजी, विचारों की दुष्टता और आचरणों की भ्रष्टता जैसी अनेकों कुप्रथाएँ गिनी और गिनाई जा सकती हैं। जाति-पाँति के नाम पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच भिक्षा-व्यवसाय पर्दा-प्रथा जैसी कुरीतियों का खुलकर विरोध किया जा रहा है। इन दिनों दोनों की दिशाधाराओं में सम्बन्धित प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, स्वास्थ्य-संवर्धन नारी जागरण आदि कितने ही प्रयास गिनाए जा सकते हैं, जो अखण्ड ज्योति परिजनों द्वारा नित्यकर्म जैसी दिनचर्या में सम्मिलित किए हुए हैं।

उपरोक्त विवरण में नमूने की बानगी जैसी जानकारियाँ हैं। इन क्रिया-कृत्यों की उपयोगिता देखते हुए, शान्तिकुञ्ज में लोकसेवी-परमार्थपरायण कार्यकर्ता मिशन के प्रयोजन को पूरा करने के लिए स्थाई निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश उच्च शिक्षित, व्यक्तित्ववान एवं अपनी प्रामाणिकता से सम्पर्क में आने वाले को निरन्तर प्रभावित करते रहने में सक्षम हैं।

इन गिनाई जा सकने वाली उपलब्धियों के सूत्र संचालक ने यह विश्वास दिलाया है कि मात्र मानवी पुरुषार्थ के सहारे बन पड़ने वाली उपलब्धियाँँ नहीं है। इनके पीछे वह अदृश्य चेतना महती भूमिका निभा रही है, जिसे युग परिवर्तन के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना, सरंजाम जुटाना एवं भविष्य के लिए महत्त्वपूर्ण ताना-बाना बुनना है, मिशन की इमारतों में बहुसंख्यक शिक्षार्थी एवं भोजनालय में एक हजार से अधिक की रसोई बनती रहने, प्रशिक्षण लेखन तथा शोधकार्य चलते रहने की गतिविधियों को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है, कि इतने बड़े तन्त्र के संचालन में सामान्य स्तर के किसी व्यक्ति विशेष की योजना एवं पुरुषार्थ परायणता कारगर नहीं हो सकती। एक हजार प्रतिदिन का पत्राचार चलना, उसके माध्यम से दूरवर्ती लोगों तक वही प्रेरणाएँ पहुँचाना, जो हरिद्वार आने पर ही दी जा सकती हैं, यह पत्राचार विद्यालय, लोक-सेवियों का प्रशिक्षण, साहित्य सृजन ऐसा छोटा कार्य नहीं है, जिसे इतने सुनियोजित उपक्रम के साथ कोई ऐसा व्यक्ति कर सके, जिसे हर दृष्टि से सामान्य ही कहा जा सकता है।

अध्यात्म क्षेत्र के वे प्रयोग, अनुभव और तप साधना इस सब के अतिरिक्त हैं, जो अन्त:करण को पवित्र करने और उसमें दैवी प्रेरणा के अवतरित होने के लिए पथ-प्रशस्त करते हैं। इन उल्लेखों में निजी समाधानों की चर्चा नहीं है, जिसके आधार पर व्यक्ति कठिनाइयों से उबरने और उज्ज्वल-भविष्य की सम्भावनाओं को साकार करने के लिए अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभारते एवं दिव्य प्राण-चेतना का संचार करते हैं।

पिछले दिनों की उपलब्धियों का यही है-सार-संक्षेप जिसकी सीमित और संक्षिप्त जानकारी के, प्रस्तुत विवरण को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह सब मानवी पुरुषार्थ पर निर्भर हो सकता है। प्रमाणों के आधार पर उत्पन्न हुए विश्वास ने यह साहस प्रदान किया है कि जिस अदृश्य शक्ति की अनुकम्पा से इतना बन पड़ा है, बन पड़ रहा है, उसका अनुग्रह एवं सहयोग आगे भी मिलता रहेगा। वे सभी भावी निर्धारण पूरे होकर रहेंगे, जिन्हें अगले दिनों क्रियान्वित किया जाना है और महान् परिवर्तन को लक्ष्य तक पहुँचाया जाना है।

बड़े प्रयोजन के लिए बड़े कदम

चुल्लू भर जल में से उत्पन्न हुआ, मत्स्यावतार, विराट् विश्व पर छा जाने और अन्तर्ध्यान होने तक एक ही रटन, एक ही ललक सँजोए रहा। विस्तार-विस्तार-विस्तार यही आकांक्षा युग चेतना के रूप में अवतरित हुए आज के प्रज्ञावतार आन्दोलन की है। उसे सुविस्तृत हुए बिना चैन नहीं। अल्पमत को सदा हारती हुई पाली में बैठना पड़ा हैं। शासन सत्ता तक पर अधिकार जमाने में केवल बहुमत ही सफल होता है। नरक उसी वातावरण को कहते हैं, जिसमें पिछड़े, प्रतिगामी और उद्दण्डों का बाहुल्य होता है। स्वर्ग और कुछ नहीं मात्र सज्जनों की, सत्प्रवृत्तियों की बहुलता उपलब्ध कर लेने की स्थिति भर है। सतयुग की बहुत सराहना की जाती रही है। उसमें एक ही विशेषता थी की जन समुदाय का बहुमत, श्रेष्ठता और शालीनता से भरा-पूरा था। कलियुग के नाम पर इसलिए नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है कि उसमें दुर्जनों की, दुष्प्रवृत्तियों की बहुलता पाई जाती है। श्रेष्ठता के अभिवर्धन बिना संसार में सुख-शान्ति का वातावरण बन ही नहीं सकता। प्रतिगामिता की पक्षधर दुष्टता, भ्रष्टता का जितना भी विस्तार होगा, उतना ही पतन-पराभव प्रबल होता और अनेकानेक विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ विनिर्मित करता चला जाएगा।

सर्वप्रथम अवतरित हुए मत्स्यावतार का एक ही उद्देश्य था कि श्रेष्ठता इतनी अधिक बलिष्ठ और सुविस्तृत हो कि संसार का कहीं कोई कोना भी उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर न रह जाए। युग परिवर्तन की, उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य भी यही है। सज्जनता न केवल अकेली हो, वरन् सुविस्तृत भी होती चले। इसी प्रयास में सृजन चेतना अपनी समर्थता समेट कर प्राण-पण से संलग्न रह रही है।

चुल्लू भर पानी में उत्पन्न हुई मछली, अखण्ड-ज्योति पत्रिका को समझा जा सकता है। उसे उलट-पुलट कर देखने पर तो छपे कागजों का एक छोटा सा पैकिट भर ही समझा जा सकेगा और उसका प्रभाव विद्या-व्यसनियों का मनोरंजन समय क्षेप भर समझा जा सकता है, पर वस्तुत: बात इतनी छोटी है नहीं। कारण कि छपे कागज पढ़ते रहने वालों की जानकारी भर बढ़ सकती है। यह सम्भव नहीं कि इतने भर से उनकी उत्कृष्टता अनवरत रूप से समुन्नत होती चली जाए। यह अखण्ड ज्योति ही है, जिसने अपने पाठकों को एक विशेष स्तर तक समुन्नत करने में सफलता पाई है। यह परिकर अपनी विशेषता का परिचय, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में निरन्तर देता चला आया है। विगत आधी शताब्दी से वट वृक्ष की तरह उसकी गरिमा हर दृष्टि से समुन्नत, सुविस्तृत, ही होती चली आई है।

पिछले पृष्ठों पर इस मिशन द्वारा जनमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन से सम्बन्धित अनेकानेक क्रिया-कलापों का न्यूनतम परिचय प्रस्तुत किया गया है। जो कुछ बन पड़ा या प्रकाश में आया है, उसे किसी व्यक्ति विशेष का वर्चस्व या कर्तृत्व नहीं माना जा सकता। तत्त्वत: यह अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों घटकों का सामूहिक पुरुषार्थ-अनुदान है। व्यक्ति विशेष के लिए इतना कुछ कर दिखाना एक प्रकार से असम्भव ही समझा जा सकता है।

श्रेय यदि मत्स्यावतार, प्रज्ञावतार को देना हो, तो इसी बात को यों भी समझा जा सकता है कि टेलीविजन के बोलते दृश्य चित्रों का उच्चारण-प्रसारण किसी एक विशेष केन्द्र से होता है। उसे सशक्त एवं व्यापक बनाने हेतु ट्रांसमीटर उन तरंगों को फैलाते हैं और फिर उसी प्रेरणा-सम्वेदना को असंख्यों टी.वी. पकड़ या बना लेते हैं और वही सब दिखाने लगते हैं, जो उद्गम स्टेशन में बना या चल रहा था। सतयुग के संचालक सूत्र भी यही करते थे। उन दिनों उत्कृष्टता को लोक व्यवहार में उतारने के लिए अनेक देव मानव, अपना सृजन-प्रयास एक से एक बढ़कर अधिक सशक्त सिद्ध करने के लिए उत्साह भरी स्पर्धा जुटाएँ रहते थे। इतने भर से समूचा वातावरण और जन समुदाय उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाता था और ऐसी परिस्थितियाँ बनती थीं, जिन्हें स्वर्गोपम कहने-मानने में किसी को कोई असमंजस नहीं होना चाहिए।

नए लक्ष्य-नए उद्घोष

अब फिर उसी पुराने-स्वर्णिम काल का अभिनव संस्करण प्रस्तुत हो रहा है। सूत्र संचालक तो कोई शक्ति ही हो सकती है, पर उस उदीयमान अरुणोदय के प्रभाव से, दिशाओं से लेकर विद्याओं और वस्तुओं तक अपने को सुनहरी आभा से आच्छादित अनुभव कर रही हैं। बात को और भी स्पष्ट करना हो, तो यों भी और कहा और समझा जा सकता है कि सृजन की प्रारम्भिक ऊर्जा अखण्ड ज्योति के रूप में अवतरित हुई है। वह अपने सूत्रों के साथ जुड़े हुए अनेक घटकों, पाठकों को तदनुरूप बढ़ने-ढलने के लिए बाधित एवं अनुप्राणित कर रही है। २१ वीं सदी उज्ज्वल भविष्य का नारा इसी परिकर से उठा और दिगन्त में प्रतिध्वनित हुआ है। ‘‘नया इंसान बनाएँगे, नया संसार बसाएँगे, नया भगवान् उतारेंगे’’ के उद्घोष किसी आवेशग्रस्त केन्द्र से ही उभर सकते हैं, अन्यथा साधारण जनता के लिए तो ऐसी दावेदारी ‘‘सनक’’ के अतिरिक्त और कुछ क्या कही-समझी जा सकती है?

विवेचना भर पर्याप्त नहीं, सोचना उस विस्तरण के सम्बन्ध में भी पड़ेगा, जो मत्स्यावतार का, प्रज्ञावतार का प्रमुख लक्ष्य रहा है। समुदाय जितना विस्तृत और जितना समुन्नत होगा, उसे उतना ही प्रखर, सशक्त एवं सक्षम स्तर का कहा जा सकेगा। अपना परिवार अभी स्थिति और आवश्यकता के अनुपात से बहुत छोटा है। ९० करोड़ आबादी वाले संसार भारत का, ६०० करोड़ आबादी के लिए मात्र एक करोड़ लोगों का समुदाय जलते तवे पर एक बूँद पानी की तरह नगण्य ही कहा जा सकता है। भयंकर अग्निकाण्ड के शमन में समर्थ फायर ब्रिगेडों की टीम ही अभीष्ट शान्ति की स्थापना में समर्थ हो सकती हैं। बड़े प्रतिफल पाने के लिए बड़े साधन भी तो चाहिए। बड़े मोर्चे फतह करने के लिए सैन्य दल का विस्तार करने और उनके क्रिया-कौशल बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। साधनों को तो मनुष्य के संकल्प बल का चुम्बकत्व कहीं से भी खींच-घसीट लेता है।

मिशन की पत्रिकाओं के पाठक पच्चीस लाख हैं। उस छोटी मण्डली द्वारा युग का गोवर्धन उठेगा नहीं। संख्या और क्षमता अनेक गुनी बढ़ाने की आवश्यकता है। संसार भर की सैन्य शक्ति एक करोड़ सैनिकों से कम नहीं, जिनका काम लड़ना भर है, पर जिन्हें सृजन-प्रयोजन वहन करना पड़े ,उनकी संख्या एवं क्षमता तो और भी अधिक होनी चाहिए। लक्ष्य और उसकी उपलब्धि को ध्यान में रखते हुए सन्तुलन तभी बैठता है, जब संसार में उतने सृजन-शिल्पी तो चाहिए ही, जितने कि सैनिक साज-सज्जा के साथ छावनियों में रहते हैं। सृजन शिल्पियों की संख्या एक करोड़ तक जा पहुँचे, तो समझना चाहिए कि ‘‘नया संसार बसाने’’ की योजना का उपयुक्त आधार खड़ा हो गया।

दूर से देखने वालों को यह कार्य असम्भव जैसा दिख तो सकता है, पर बात ऐसी है नहीं। साधनहीन अखण्ड ज्योति पत्रिका बिना विज्ञापन छापी जा भी सकेगी? यह सन्देह सभी करते थे। पूजा-पाठ के आधार पर खड़ा किया गया छोटा सा संगठन, किसी दिन जनमानस की कठिनतम समस्याओं के समाधान की स्थिति में जा पहुँचेगा, इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी, पर चेतना का चक्र घूमता है, तो अपने गर्भ में सँजोए हुए हर संकल्प को प्रत्यक्ष कर ही दिखाता है। सृजन शिल्पियों का प्रचुर संख्या में उत्पादन भी इसी चेतना चक्र के गतिचक्र का एक चरण है, जो पूरा होकर ही रहेगा। अपने लक्ष्य तक पहुँचकर ही विश्राम लेगा।

बड़े काम भी प्राय: छोटे बीज के रूप में ही बढ़ते और क्रमश: विस्तार करते हुए, वर्षा के बादलों की तरह सुविस्तृत आकाश पर छा जाने की सफलता प्राप्त करते हैं। आरम्भ में अखण्ड ज्योति का प्रथम अंक ५०० की संख्या में छापा था। बाद में वह युग की आवश्यकता का पक्षधर सिद्ध होने के कारण, मानवी-गौरव गरिमा द्वारा मान्यता मिलने पर सहज विस्तार की गति पकड़ता गया और अब इतना विस्तार कर सका, जिसे अपनी शैली के क्षेत्र मेें अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। क्या आगे यह प्रगति क्रम रुक जाएगा? क्या लम्बी मंजिल पार करने का लक्ष्य बनाकर चलने वाला कारवाँ कुछ मील पर ही थक कर आगे न चल सकने की असमर्थता प्रकट करने पर पैर पसार देगा? आशंका ऐसी ही दीखने पर भी, किसी को यह विश्वास नहीं करना चाहिए कि जिस समर्थ सत्ता ने यह सरंजाम जुटाया है, वह पानी के बबूले की तरह अपने उत्साह का समापन कर बैठेगा। यह विस्तार क्रम रुकने वाला ही नहीं है। नियति के निर्धारण पूरे होकर ही रहेंगे।

समय की माँग के अनुरूप पुरुषार्थ

युगसन्धि की इस बेला में वातावरण क्रमश: अधिक गरम होता जा रहा है। सृजन-शिल्पियों का उत्साह, साहस और पुरुषार्थ किसी सशक्त फव्वारे की तरह उछल और मचल रहा है। निर्धारित गतिविधियाँ तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है। ऐसी दशा में विस्तार का आरम्भिक तन्त्र भी बहुत गति से अग्रसर होना चाहिए। अखण्ड ज्योति परिजनों की संख्या बढ़ने का क्रम रुकना नहीं चाहिए। उसे संबद्धजनों को रुकने भी नहीं देना चाहिए। इस दिशा में इस वर्ष का सीमित लक्ष्य यह है कि एक से पाँच, पाँच से पच्चीस बनने वाली गुणन अभिवर्द्धन प्रक्रिया में कहीं कोई व्यवधान पड़ना नहीं चाहिए।

अखण्ड ज्योति के पाठक इस परम्परा को निष्ठापूर्वक निभाते रहे हैं। पहुँचने वाला हर अंक कम से कम पाँच लोगों द्वारा पढ़ा जाता रहे। इसी आधार पर तो पाँच लाख के परिकर को अनुपाठकों समेत पच्चीस लाख गिना और अपने परिकर को इतना बड़ा कहा, माना और समझा जाता है। अब एक ऊँची छलाँग लगाने का दूसरा सोपान, नई चुनौती लेकर सामने आ खड़ा हुआ है। एक से पाँच का सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है। अब पाँच को पच्चीस होना चाहिए। वे अनुपाठक जो दूसरों से माँगकर अपनी जिज्ञासा शान्त करते रहे हैं, अब उन्हें बचपन वाली सहायता पर निर्भर रहने की प्रकृति छोड़नी चाहिए और तरुणों जैसी वह रीति-नीति अपनानी चाहिए, जिसमें देना और बढ़ाना ही कर्तव्य बनकर लद पड़ता है और बढ़े-चढ़े पुरुषार्थ की अपेक्षा करता है।

एक सदस्य पाँच अनुपाठकों की सहायता करता है। अब अनुपाठकों का एक कदम बढ़ाकर सघन आत्मीयता बनाने के अनुबन्ध में बाँधना चाहिए। स्वयं पूर्ण सदस्य बनना चाहिए और अपनी-अपनी पत्रिका के पाँच-पाँच अनुपाठक बनाकर पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम पूरा कर दिखाना चाहिए। इन दिनों अखण्ड ज्योति का हर सदस्य और चार नए सदस्य बनाकर अपनी मण्डली पाँच की गठित करें। इससे अनुपाठक तो पच्चीस सहज ही हो जाएँगे। इस अभिनव विस्तार के चरण को एक नियमित प्रज्ञा मण्डल का गठन ही कह सकते हैं। पाँच सदस्य इस प्रकार चार-चार नए साथी बनाकर पच्चीस की मण्डली के सूत्र संचालक बन सकते हैं। आज के सदस्य कल स्वयं ही एक प्रज्ञा मण्डल के जन्मदाता कहलाने लगें। इतने भर से मिशन एक ही छलाँग में, एक ही वर्ष में अपना पाँच गुना विस्तार कर लेगा और अब तक जिस क्रम से सृजन संकल्प पूरा होता रहा है, उसकी तुलना में अगले ही दिनों विकास उपक्रम में पाँच गुनी अभिवृद्धि हो जाएगी।

इसी बात को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जिस गति से पिछले दिनों गतिशीलता का उपक्रम रहा है, उसकी तुलना में अगले दिनों प्रगति का अनुपात पाँच गुना अधिक बढ़ जाएगा। वह सब कार्य एक वर्ष में ही बन पड़ेगा, जिसे पिछली सफलता की तुलना में पाँच गुनी अधिक तीव्र गति से चलने वाली प्रगति कहा जा सके। युगसन्धि के शेष अगले वर्षों में ऐसी ही सहकारिता का परिचय देते हुए हम उस लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे, जिसमें मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की सम्भावना का प्रतिपादन किया गया है।

एक से पाँच, पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम रखा जा सकेगा, तो कुछ ही छलाँगों में हम मत्स्यावतार का उपक्रम अपनाने वाले, सच्चे अर्थों में युग साधक बन सकते हैं। नवसृजन के क्षेत्र में मिल-जुलकर वह चमत्कार कर दिखा सकते हैं, जिसे सुनने में तो सर्वसाधारण रुचि लेते हैं, पर व्यवहार में प्रत्यक्ष बन पड़ने की बात को सन्देह एवं असमंजस जैसा ही कुछ मानते हैं।

उपरोक्त निर्धारण के अनुसार वर्तमान सदस्य यदि चार नए सदस्य बना लेंगे, तो अपने प्रज्ञा मण्डल के एक समर्थ सूत्र संचालक बन जाएँगे। उनमें से पाँच-पाँच अनुपाठक मिलाकर पच्चीस का एक समुदाय बन जाएगा और उसकी संयुक्त शक्ति से ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना उग सकती है, जिसे २४ अवतारों, २४ देवताओं, २४ ऋषियों, २४ देवियों ने मिल-जुलकर एक समग्र अध्यात्म विज्ञान की संरचना की थी और नर-वानरों के समूह को मानवी गरिमा से सुसम्पन्न ईश्वर का राजकुमार बनाने का करिश्मा दिखाया था। हमें अपनी २५ की छोटी मण्डली को भी ऐसा ही मानकर चलना चाहिए कि बन्दर जैसी दिख पड़ने पर भी, हनुमान जैसे पराक्रम में समर्थ हो सकेगी।

समझदारी शंका में नहीं-सहयोग में है

यहाँ किसी को भी चन्दन में दुर्गन्ध ढूँढ़ निकालने का भ्रम जंजाल नहीं सँजोना चाहिए। यह खुले पन्ने हैं कि अखण्ड ज्योति का मूल्य मात्र कागज, छपाई और पोस्टेज भर का है। किसी का पारिश्रमिक तक इसके मूल्य में नहीं जोड़ा जाता। ऐसी दशा में नफा कमाने जैसी बात तो किसी को स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। मिशन स्तर की भावनाएँ यदि इस तन्त्र के साथ जुड़ी हुई न हो होती, उसे व्यवसाय भर समझा और किया गया होता, तो निश्चय ही पाठकों में से किसी पर भी आदर्शवादी छाप पड़ने का सुयोग ही नहीं बन पड़ता। कहने वालों को तो क्या किया जाए? जिसके मुँह में पायरिया, पेट में अल्सर और आहार में लहसुन घुसा होता है। इनकी साँस में दुर्गन्ध ही उठती रहेगी। सदाशयता पर भी कुचक्र रचने जैसा आरोप लगाने वाले इस संसार में कम नहीं हैं। ईसाई मिशन, साम्यवादी प्रचारक, गीता प्रेस जैसे प्रकाशन प्रत्यक्ष हैं, जो नफा नहीं कमाते। युग साहित्य का प्रकाशन भी ऐसा ही समझा जा सकता है। अखण्ड ज्योति का आर्थिक ढाँचा तो आरम्भ से ही ऐसा रहा है और अन्त तक ऐसा ही रहेगा।

सज्जनों का संगठन ही दैवी शक्ति के रूप में प्रकट होता और लक्ष्य पर ब्रह्मास्त्र की तरह टूटता है। अखण्ड ज्योति परिजनों का संगठन क्रम, यों साप्ताहिक सत्संग के रूप में भी चलता है। पारस्परिक घनिष्ठता बढ़ाने पर भी मिल जुलकर कुछ ठोस काम करने का अवसर मिलता है। जहाँ नवीनता न रहने पर उदासी आने लगे, वहाँ सम्मिलित शक्ति उत्पन्न करने का दूसरा उपाय यह है कि हर सदस्य का जन्मदिवस मनाया जाए और आदर्शवादी प्रतिपादन के क्रियान्वयन का उपक्रम चलाया जाता रहे। इस अवसर पर अभ्यस्त बुराइयों में से कोई छोड़ने और एक नई सत्प्रवृत्ति बढ़ाने का अवलम्बन भी अपनाया जा सकता है।

जन्मदिन बनाने मे छोटा दीपयज्ञ, सामूहिक गायत्री पाठ, सहगान कीर्तन के उपरान्त, जिसका जन्मदिन मनाया जा रहा है, उसके ओजस्, तेजस् और वर्चस् के अभिवर्धन की कामना की जा सकती है। अभिनन्दन-आशीर्वाद का क्रम चल सकता है और यथासम्भव पुष्प-वर्षा या उसके स्थान पर पीले चावलों का प्रयोग हो सकता है। बस हो गई जन्मदिन मनाने की प्रक्रिया। यदि अपने संगठन में पाँच सदस्य और पच्चीस अनुपाठक हों, तो इन सब को इकट्ठा करने पर एक अन्य समारोह हो सकता है। आतिथ्य सौंफ-सुपाड़ी तक सीमित रहे, तो गरीब-अमीर किसी को भी विषमताजन्य संकोच का अनुभव नहीं करना पड़ेगा। साल भर में पच्चीस आयोजन हो जाया करेंगे और उनकी एकरस विचारधारा, घनिष्ठता एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की प्रवृत्ति के समन्वय से अनेक रचनात्मक कार्य किसी न किसी रूप में चलते रह सकते हैं।

हर सदस्य नियमित रूप से यथासम्भव समयदान और अंशदान निकालता रहे, तो उस संचित राशि के सहारे वे रचनात्मक क्रिया-कलाप सरलतापूर्वक चलते रह सकते हैं, जिनके उत्पादन-अभिवर्धन की इन दिनों नितान्त आवश्यकता है।

भाव शून्यों के लिए तो झपटना-हड़पना ही एकमात्र अभ्यास में रहता है, पर जिनमें भाव-सम्वेदनाएँ जीवित हैं, उनके लिए तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए कि चौबीस घण्टों में से न्यूनतम दो घण्टे निकालते रह सकें। महीने में एक दिन की कमाई खर्चने में दम घुटता हो, तो कम से कम पचास पैसे रोज का अंशदान तो किसी जीवित व्यक्ति के लिए तनिक भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। इस राशि में, नवसृजन के उद्देश्य से, इन दिनों निरन्तर प्रकाशित होती रहने वाली वे पुस्तकें मँगाई जाती रह सकती हैं, जिनका मूल्य तो सस्तेपन की चरम सीमा जैसा रखा गया है, परन्तु जिनकी हर पंक्ति में वह प्राण-ऊर्जा लहराती और लपलपाती देखी जा सकती है, जो सड़न भरी मान्यताओं को बुहार कर किसी कोने में फेंक दे, और उसके स्थान पर उस देवत्व की प्रतिष्ठापना कर दे, जिसे अमृत, पारस और कल्पवृक्ष की उपमा देने में अत्युक्ति जैसा कुछ भी ढूँढ़े नहीं मिल सकता।

शान्तिकुञ्ज का अभिनव प्रकाशन कम मूल्य की ऐसी पुस्तिकाओं के रूप में इन दिनों निरन्तर हो रहा है, जो युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने में असाधारण योगदान दे सकें। अंशदान के पैसों से यह साहित्य मँगाने और समयदान को, उसे जन-जन को पढ़ाने या सुनाने में लगाया जा सकता है। अखण्ड ज्योति परिजनों से इन्हीं दिनों उपरोक्त छोटे कार्यक्रमों को सम्पन्न करने के लिए अनुरोध एवं आग्रह किया जा रहा है। इस अभियान के अन्तर्गत विस्तार का जो दायित्व हर परिजन पर आया है, उसे उल्लास-पूर्वक निभाने में हममें से कोई भी पीछे न रहेगा, ऐसी आशा-अपेक्षा की गई है।

वह जिसकी उपेक्षा नहीं ही करें

छोटे और थोड़े काम तो मनुष्य अपने हाथ-पैरों के सहारे ही कर लेता है, पर जब बड़े काम करने की आवश्यकता पड़ती है, तो बिजली, भाप आदि के माध्यम से ऊर्जा उत्पन्न करनी पड़ती है। चेतना क्षेत्र की इसी ऊर्जा को भगवान् कहते हैं। समुद्र पार करने के लिए जलयान और आकाश में सैर करने के लिए वायुयान की जरूरत पड़ती है। मात्र शरीर सत्ता उसकी बड़ी महत्त्वाकाँक्षाएँ पूरी कर सकने में असमर्थ ही रहती हैं।

आत्मा और परमात्मा के मिलन पर, साधारण परिस्थितियों वाले व्यक्ति भी देवमानवों की भूमिका निभाने लगते हैं। शरीरधारी तो एक और एक मिलकर दो ही होते हैं, पर जीव और ब्रह्म की दो इकाइयाँ समता अपना लेती हैं, तब उनकी स्थिति ११ जैसी होने में देर नहीं लगती। युग परिवर्तन में देवोपम भूमिका निभाने के लिए व्यक्ति को समर्थ सत्ता का आश्रय लेना ही चाहिए। सुदामा, नरसी, विभीषण, जामवन्त आदि की निजी क्षमताएँ स्वल्प थीं, पर वे किसी बड़े का सहयोग प्राप्त कर लेने पर अतुलित बलधारी बन सकने में समर्थ हो गए।

बच्चे, हाथी-घोड़े गाय आदि की कल्पना मानस में जमाने के लिए, उनके खिलौने तथा चित्र देखने भर से काम चला लेते हैं। खिलौने प्राप्त करने में कुछ बड़ा खर्च भी नहीं करना पड़ता और उनके भरण-पोषण का दायित्व भी नहीं, किन्तु इन्हीं प्राणियों को यदि असली रूप में पाना-पालना हो, तो भारी-भरकम कीमत चुकाना और नित्य प्रति घास, पानी छाया आदि का प्रबन्ध भी करना पड़ता है। जीवन्त और वास्तविक भगवान् को पाने के लिए भी कुछ बड़ा साहस अपनाना और उपयुक्त जुटाना पड़ता है। प्रतिभाओं के सम्मुख उपहार रखने और गुणगान करने से उस सत्ता की स्मृति तो उभरती है, पर उसके अनुदान-वरदान प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। बच्चों के खिलौने वाली गाय न तो दूध देती है, न ही बछड़ा।

पूजा-उपासना की परिचर्या अति सरल है। उसे सामान्य क्रिया-कलापों से कहीं अधिक सरलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु असली भगवान् का मिलन तो तत्काल भारी हलचल और उठक-पटक आरम्भ कर देता है। पति की सम्पदा और सत्ता पर अधिकार करने के लिए पत्नी को गृह छोड़ना और ससुराल में समर्पित भाव से रहना पड़ता है। भगवान् मिलन को यदि अत्यन्त सशक्त बनाने की आवश्यकता पड़े, तो साथ ही इसी सिलसिले में यह भी गिरह बाँध लेनी चाहिए कि पैसा और वासना के लिए खपती रहने वाली जीवनचर्या से ऊँचा उठकर, अपने को ऐसा कुछ बनाना पड़ेगा, जिससे उत्कृष्टता और उदारता के दोनों तत्त्व प्रत्यक्ष परिलक्षित होते, उभरते, उफनते दृष्टिगोचर होने लगें।

युगसृजन के इंजीनियरों को सामान्य जनों की तुलना में अधिक योग्यता अर्जित करनी पड़ती है और बड़ी जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। पर्वतारोहियों को उच्च शिखर तक चढ़ने का श्रेय पाने के लिए, दुस्साहस कर सकने जैसा मानस बनाना पड़ता है। अपंग और आलसी तो मात्र ऐसी कल्पना ही करते रहते हैं।

ईश चेतना से जुड़ें

ईश्वर का सबसे निकटवर्ती और सही स्थान अपना अन्त:करण है। बाहर खोजने से तो दृश्यमान वस्तुएँ, जो जड़ पदार्थों की बनी हैं, वही मिलेंगी। देवालयों और तीर्थों में उनकी झलक झाँकी ही मिल सकती है, पर यदि वस्तुत: उसे पाना हो, तो कस्तूरी मृग की तरह जहाँ-तहाँ भटकने की अपेक्षा यह उचित है कि अपनी नाभि को सूँघा जाए, अन्त:करण टटोला जाए।

ईश्वर के मिलन और बिछुड़न की स्थिति को तुरन्त परखा और प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। दैवी सत्ता किसी पर अनुग्रह करती है, तो उसके मानस एवं क्रिया-कलाप में अद्भुत-आश्चर्यजनक परिवर्तन करती है। उन्हें क्षुद्रता की कीचड़ से उबार कर, महानता की साज सज्जा से सजाती है। माता अपने शिशु को तभी गोदी में उठाती है, जब उसकी मल-मूत्र से सनी स्थिति को धोकर साफ कर लेती है। यही बात शत्-प्रतिशत् भगवद् भक्ति के सम्बन्ध में भी है। आग के साथ यदि ईंधन घनिष्ठता स्थापित करेगा, तो उसका समूचा स्वरूप अग्निमय हुए बिना नहीं रहता। नरकीटकों की तुलना में नर-नारायणों का दृष्टिकोण ही नहीं, क्रिया-कलाप भी कुछ ऐसा हो जाता है, जो औरों जैसे नहीं, वरन् अपने आप में कुछ विचित्र-विलक्षण किन्तु उच्चस्तरीय दीख पड़ने लगता है। ‘‘लोहा पारस को छूकर सोना बनता है’’ की उक्ति वस्तुत: आत्मा को परमात्मा के साथ जुड़ जाने पर ही सार्थक दृष्टिगोचर होती है।

परमात्मा जब भी आत्मा से मिलेगा, तो अपनी सम्वेदनाएँ शरणागत पर उड़ेले बिना नहीं रहेगा। उसका कथन-परामर्श मार्ग-दर्शन भली प्रकार सुनाई देने लगता है। आदान-प्रदान में अनुशासन भी जुड़ा रहता है। कुछ खरीदना हो, तो उसका मूल्य भी चुकाया जाना पड़ता है। भगवान् का स्मरण करते ही उसके परामर्श रूपी अनुदानों का प्रवाह आने लगता है। जागो और जगाओ, उठो और उठाओ, चलो और चलाओ, उभरो और उभारो, जियो और जीने दो, उछलो और उछालो, जैसे दुहरे आदेशों की झड़ी लग जाती है और उन्हें पूरा किए बिना किसी प्रकार, किसी क्षण चैन नहीं पड़ता। ऐसी ही स्थिति में रहते देखे जाते हैं, वे भगवद् भक्त, जिन्हें तात्कालिक आदेश के रूप में युगपुरुष, युग देवता या युग सृजेता कहलाने का श्रेय एवं सन्तोष मिल सकता है। अच्छा हो, उस उपलब्धि को स्वीकार करने से इंकार न किया जाए। द्वार पर खड़े हुए सौभाग्य को ठोकर मार कर वापस न लौटाया जाए।

समय की कसौटी पर खरे सिद्ध होने के लिए इन दिनों एक ही तैयारी में जुटना चाहिए कि किस प्रकार लोक मानस को परिष्कृत करने के लिए कटिबद्ध होकर, नियन्ता का हाथ बँटाया जाए, और बदले में वैसा कुछ पाया जाए, जैसा कि धरती से स्वर्ग तक छलाँग सकने वालों को तत्काल ही प्राप्त हो सकता है।

थोड़ा ही सही, नियमित करें

साप्ताहिक सत्संगों, जन्मदिवसों, दीपयज्ञों एवं पर्व-आयोजनों के माध्यम से अधिकाधिक लोगों को एकत्रित करके, उनके अन्तराल में युग चेतना का आलोक जगमगाते रहने की बात अनेक बार सुनाई जाती रही है। बड़े पर्वों पर बड़े आयोजन करना भी उत्साही जनों के लिए कुछ कठिन काम नहीं है। झोला पुस्तकालयों की रीति-नीति अपनाकर, हर शिक्षित को घर बैठे बिना मूल्य युग साहित्य पहुँचाते और वापस लेते रहने का, एक छोटा किन्तु सशक्त आधार अपनाने के लिए भी संकेत, अनुरोध और आग्रह किया जाता रहा है। बिना पढ़े लोग भी इसे सुनकर नवयुग का, नवजीवन जैसा सन्देश प्राप्त कर सकते हैं।

धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण की विधा में, दीपयज्ञ माध्यम को समय के नितान्त अनुरूप माना जा सकता है। अनेक विधि-विधानों से जुड़े, मन्त्र विधा वाले-खर्चीले कर्मकाण्डों को पूरा करने के लिए बड़ी राशि चाहिए और साथ ही उनमें नियोजित लोगों का सहयोग पाने के लिए प्रचुर मात्रा में दक्षिणा का प्रबन्ध करना भी अनिवार्य हो जाता है। दीपयज्ञों की विधि थोड़े ही समय में सम्पन्न हो जाती है। उसमें खर्च भी नहीं के बराबर रहता है। आयोजन कोई भी साधारण शिक्षित सम्पन्न करा सकता है। इस विधा को सभी शुभ-अवसरों पर सम्पन्न करा सकता है और जनसाधारण को धर्म लाभ का आश्वासन देकर वह शिक्षण दिया जा सकता है, जिसे युग चेतना का नाम दिया गया है। सहगान कीर्तन दीपयज्ञों के साथ जुड़ा है, जिसमें गायन करते हुए लोग झूमते हैं। भाषण के लिए इतना ही पर्याप्त है कि इन्हीं दिनों शान्तिकुञ्ज से जो अभिनव उद्बोधन छापा जा रहा है, उसमें से उपस्थित जनों के स्तर को देखते हुए कोई अंश छाँट कर पढ़कर सुनाया जाए। यह युग गीता कथा है, जिसे पोथी के माध्यम से सुनाते रहने में वक्ता की गौरव-गरिमा घटती नहीं, वर बढ़ती ही है।

उपरोक्त उपक्रमों के साथ-साथ एक बड़ा कदम भी है, जिसे अपने अहंकार में थोड़ी कटौती कर लेने वाला कोई भी व्यक्ति भली प्रकार चलाता रह सकता है। यह है-चल प्रज्ञा मन्दिर का निर्माण और संचालन। इसी को ज्ञानरथ के नाम से जाना जाता है। पिछले दिनों पाँच हजार अचल प्रज्ञा पीठों का निर्माण हो चुका है। अब युगसन्धि के दूसरे वर्ष में प्रज्ञा परिजनों को २४ हजार प्रज्ञा मन्दिर बनाने का दायित्व सौंपा गया है। अचल देवालयों में तो समीपवर्ती लोग ही पहुँच पाते हैं। उनके लिए पुजारी की, पूजन सामग्री की, इमारत के साज-सँभाल की, नित्य आवश्यकता पड़ती है। निर्माण कार्यों में हजारों-लाखों की राशि जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। समुचित साज-सँभाल न होने पर निर्माताओं की बदनामी भी होती है। और देवता की नाराजगी भी, किन्तु चल प्रज्ञा मन्दिरों के निर्माण-संचालन में उपरोक्त झंझटों में से एक भी नहीं पड़ती। साथ ही लाभ की दृष्टि से उसकी उपयोगिता असंख्य गुनी बड़ी है। घर-घर अलख जगाने, हर गली कूँचे में नुक्कड़ सभाएँ सँजोते रहने, अपरिचितों को परिचित कराने और सशक्त प्राण ऊर्जा जन-जन तक पहुँचाने के बहुमूल्य पुण्य-प्रयोजन सहज ही बन पड़ते हैं।

चार पहियों वाला, आकर्षक साज-सज्जा वाला, युग साहित्य से भरा पूरा यह युग मन्दिर प्राय: ४००० रु. की लागत में बन जाता है। ३००० रुपयों में ढाँचा लाउडस्पीकर, टेप रिकार्डर आदि तथा १००० रु. में साहित्य की व्यवस्था बन जाती है। इसे घर के एक कोने में आसानी से रखा जा सकता है और अपने दो घण्टे का जो समयदान दिया गया था, उसमें इसे हाट-बाजार पार्क, मन्दिर, घाट, दफ्तर, कारखाने आदि में काम करने वालों तक पहुँचाया जा सकता है। दो दिन का समयदान इकट्ठा करके, तीसरे दिन चार घण्टे या साप्ताहिक छुट्टी वाला पूरा दिन सुविधानुसार इसके संचालन में लगाया जा सकता है।

पिछले दिनों ज्ञान रथों का संचालन पुस्तक-विक्रय की बात को प्रधानता देते हुए किया जाता रहा है। इसमें चलाने वालों को अपनी हेठी लगती थी और संकोच भी होता था। अब उस प्रचलन को पूरी तरह बदल दिया गया है। इन दिनों ‘‘ज्ञानरथ’’ विशुद्ध चल-पुस्तकालय के रूप में चलाए जा रहे हैं। विचारशीलों को मुफ्त में पढ़ने देने और अगली बार वापस लेने की, स्वयं पहुँचने वाली बात वैसी ही है, जैसी कि सदावर्त चलाने, प्याऊ द्वारा जल पिलाने की, घर-घर प्रसाद बाँटने के लिए गर्व-गौरव के साथ की जाने की। किसी को कभी कोई पुस्तकें खरीदने की इच्छा हो, तो उस समय उसे पर्ची में नोट कर लेना चाहिए। ज्ञानरथ संचालन के साथ पुस्तक बिक्री की बात हटा देने पर, अब वह समूचा उपक्रम मात्र भगवान् का रथ घुमाने और घर बैठों को पुण्य लाभ कराने जैसा है। इसे कोई तथाकथित बड़ा आदमी भी करने लगे, तो उससे मान और गौरव रत्ती भर भी घटने वाला नहीं है, वरन् बड़प्पन में धर्म-धारणा का उदार प्रवेश होने के कारण गरिमा में चार-चाँद ही लगेंगे। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर के सम्मिलन से हर दिन नुक्कड़ सभाओं की धूम मची रह सकती है। संगीत और प्रवचन से हर दिन सैकड़ों हजारों को परिचित, अवगत कराना ही नहीं, अनुप्राणित भी किया जा सकता है। उपयोगिता की दृष्टि से यह ‘‘ज्ञान यज्ञ’’ अन्य परमार्थ प्रयोजनों की तुलना में किसी प्रकार कम नहीं, अधिक ही माना जा सकता है।

बैटरी हर दिन चार्ज करानी पड़ सकती है। समय-समय पर नए टेप भी खरीदने पड़ सकते हैं। पिछली पुस्तकें पाठकों द्वारा पढ़ लिए जाने पर नई मँगाते रहने का सिलसिला भी जारी रहेगा। इसकी अर्थ-व्यवस्था करने में एक रुपया प्रतिदिन का प्रबन्ध करना कुछ कठिन नहीं है। इतना तो मध्यवृत्ति का कोई भी व्यक्ति वहन कर सकता है। नितान्त असमर्थ होने पर, एक से पाँच बनाने की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जो चार साथी और बनाए थे, उनके घरों में ‘‘ज्ञानघट’’ रखने की नियमित अंशदान वाली प्रक्रिया का आश्रय भी लिया जा सकता है। अपने पाँच की उदारता यदि उभारी जा सके, तो महीने में एक दिन की कमाई भी मिल सकती है और स्थानीय प्रज्ञा मण्डल के साथ जुड़ी हुई समस्त गतिविधियों का सूत्र-संचालन भली प्रकार होता रह सकता है। नितान्त कृपणता और उपेक्षा आड़े आ रही हो, तो बात दूसरी है, अन्यथा श्रद्धा के बीजांकुर रहते, इतना नगण्य समयदान और अंशदान इन सभी के द्वारा बिना किसी बहानेबाजी के प्रस्तुत किया जा सकता है।

धर्म, भिखारियों का पेशा नहीं है। लोक-परलोक को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाने वाली शक्ति को अपनाने और उससे लाभान्वित होने में उदारचेता ही सफल हो सकते हैं। धर्म-धारणा और सेवा-साधना के लिए कुछ न कुछ खर्च तो करना ही पड़ेगा। भले ही वह सुदामा की तन्दुल पोटली के समान हो या किसान के बीज बोने, श्रम और खाद-पानी जुटाने जैसा। जो माला घुमाने और अक्षत चढ़ाने भर से उपासना की सर्वांगपूर्णता मान लेते हैं और जमीन से आसमान जितनी मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए लार टपकाते रहते हैं। उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उनका धर्मतन्त्र से और दिव्य सत्ता से अभी दूर का सम्बन्ध भी नहीं जुड़ा है। मात्र बालकों जैसी परलोक की कल्पना करने वाले ही शेखचिल्लियों वाले लोक में रहते हैं। यह क्षेत्र वस्तुत: दे सकने वाली उमंगों से भरे-पुरे शूरवीरों का है। न जाने कृपण-कंजूसों की भूमिका निभाते हुए लोग, अपने लिए, महामानवों को प्राप्त होने वाली उपलब्धियों की कल्पना क्यों करते रहते हैं?

पाँच से पच्चीस का विकास क्रम अपनाने की अनिवार्यता के लिए युग पुरुषों जैसा विस्तार क्रम अपनाने पर पूरा जोर दिया जाता रहा है। ज्ञानरथ चल-प्रज्ञा मन्दिर के सहारे यह प्रयोजन अधिक द्रुतगामी गति पकड़ सकता है। घर-घर अलख जगाने और जन-जन को अमृतोपम प्रसाद बाँटते रहने में युगधर्म का निर्वाह भी होता है और धर्म-धारणा सेवा-साधना के रूप में वह आध्यात्मिक कमाई भी होती है, जिसके बल पर अन्त:करण में सन्तोष और जन-समुदाय में भाव-भरा सम्मान अर्जित किया जा सके।

प्राण-चेतना प्रखर बनाए रखें

अंगारे पर बार-बार राख जम जाती है और उसे प्रज्ज्वलित रखने के लिए बार-बार उसे हटाना पड़ता है। शरीर को स्नान और कपड़े को धोने की बार-बार आवश्यकता पड़ती है। बैटरी चार्ज करने के लिए उसे बार-बार विद्युत प्रवाह से जोड़ना पड़ता है। ठीक इसी स्तर का एक प्रसंग यह भी है कि प्रज्ञा-परिजन शान्तिकुञ्ज की-गंगोत्री यात्रा, वर्ष में एक बार नहीं, तो दो वर्ष में एक बार तो कर ही लेने की योजना बनाते रहें। युग- सन्धि के शेष वर्षों में यह उपक्रम नियमित चलता रहे, तो खर्च हुए समय और पैसे की तुलना में कुछ अधिक ही मिल सकेगा। भले ही वह चेतना क्षेत्र अनुदान चर्म चक्षुओं से न दीख पड़े।

सन् २००० तक युग सृजन के प्राणवान् परिजनों, अखण्ड ज्योति, युग निर्माण, युग शक्ति गायत्री के पाठकों-अनुपाठकों के लिए समूची अवधि में हर माह ९-९ दिन के सत्र शान्तिकुञ्ज में अनवरत रूप से चलते रहेंगे। ये सत्र लोक व्यवहार, भावी जीवन सम्बन्धी परामर्श परक होंगे। परस्पर विचार-विनिमय का क्रम भी चलेगा। प्रयास यह रहेगा कि युगसन्धि के वर्षों में प्राय: एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों में प्राण फूँकते रहने का उपक्रम चलता रहे। इसी दृष्टि से आश्रम परिकर में आवास व्यवस्था हेतु नए कमरे भी बनाए गए हैं। थोड़ी हेर-फेर करके और अधिक व्यक्तियों के निवास की व्यवस्था बनाई जा रही है। इन सत्रों में युगसन्धि की विशेष साधना, प्राण-प्रेरणा के अभिनव संचार का क्रम चलेगा। अत: किसी भी परिजन को इस सुयोग से वंचित नहीं रहना चाहिए एवं समय निकाल कर कम से कम वर्ष में एक बार बैटरी चार्ज कराने आना ही चाहिए। ये सत्र हर माह १ से ९, ११ से १९, २१ से २९ तारीखों में चलते रहेंगे।

नेवले और साँप की लड़ाई में जब नेवला थकता और विष दंशन से उद्विग्न होता है, तो मुड़ कर किसी जड़ी बूटी को खाने चला जाता है। नई शक्ति सँजोकर फिर लड़ाई आरम्भ कर देता और शत्रु को परास्त करके रहता है। पौधों को बार-बार पानी देना पड़ता है। वह न मिले, तो वे सूख जाएँगे।

शान्तिकुञ्ज के नौ दिवसीय सत्रों में उन्हीं को बुलाया गया है, जो मिशन के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ चुके हैं। घुमक्कड़ अशिक्षित, रोगी, जराजीर्ण, छोटे बालकों के लिए धर्मशालाओं में ठहरना ही ठीक पड़ता है। अन्यथा वे शिक्षार्थियों को बिना कुछ पाए लौटाने के लिए बाधित करेंगे, आश्रम-व्यवस्था गड़बड़ाएँगे और उन लोगों की राह रोकेंगे, जो सत्रों में सम्मिलित होने के लिए अपनी पारी की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे।

पाँच दिवसीय सत्रों में सम्मिलित होने वालों को अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति का, अब तक की जीवनचर्या का विवरण लिखना चाहिए और साथ ही यह अवश्य लिखना चाहिए कि इन दिनों परिवार के नियमित सदस्यों की भाँति सम्मिलित हैं या नहीं। असंबद्ध लोग पहले मिशन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े, बाद में सत्रों में सम्मिलित होने की बातें सोचें। आरम्भिक कक्षाएँ अपनी स्थानीय पाठशाला में पूरी करें। कालेज स्तर की योग्यता प्राप्त करने के लिए यहाँ आएँ।

सज्जनों का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार ही नवयुग के अवतरण का प्रधान लक्षण है। दुर्जनों की दुर्बुद्धि ने ही समय के साथ अगणित समस्याएँ जोड़ी हैं। उनका निवारण और निराकरण संयमशील उदारचेता ही अपने विस्तार-पुरुषार्थ से सम्भव कर सकते हैं। उन्हीं का उत्पादन, अभिवर्धन और प्रशिक्षण नवसृजन प्रक्रिया का प्रमुख और प्रधान अंग है। उसी को सम्भव बनाने, सम्पन्न करने के लिए हम सबको समुद्र सेतु बाँधने वाले वानरों की तरह, गोवर्धन उठाने में सहायक बने ग्वाल-बालों की तरह साहस सँजोना चाहिए, भले ही योग्यता, सम्पन्नता एवं सुविधा का अभाव ही क्यों न प्रतीत होता हो।

अपने समय का प्रज्ञावतार ही प्राचीनकाल का मत्स्यावतार है। उसकी, लगन और ललक निरन्तर विस्तार पर ही केन्द्रित रही है। आज भी हममें से प्रत्येक को एक से अनेक बनने का व्रत लेना चाहिए और उसे पूरा करने के लिए, जिसकी जितनी श्रद्धा उमगे, उससे कम पुरुषार्थ का परिचय नहीं ही देना चाहिए। प्रज्ञावतार के लक्ष्य को पूरा करने में कुछ ऐसा कर गुजरना चाहिए, जो अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहकर सराहा जा सके ।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।