संजीवनी विद्या का विस्तार - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 16)

सार-संक्षेप

नवसृजन के निमित्त आज जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है, उसे विद्या या मेधा नाम से जाना जाता है। इसके लिए विद्यालयों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। प्रत्यक्ष उदाहरणों को प्रेरणाप्रद माहौल सामने आए बिना समझा नहीं जा सकता कि विद्या क्या है व इसे कैसे जीवन में उतारा जाए? विभिन्न भाषाओं, संप्रदायों में बँटे ६०० करोड़ मनुष्यों को कैसे इस युगचेतना के प्रवाह से जोड़ा जाए, उसी का प्रारूप है संजीवनी विद्या का विस्तार।

गायत्री परिवार के सूत्र-संचालक ने ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका को अपनी संरचनात्मक सम्पत्ति माना है और पूरा विश्वास जताया है कि पच्चीस लाख पाठकों द्वारा पढ़ी या सुनी जाने वाली-विद्या-विस्तार करने वाली यह प्रक्रिया जन-जन तक पहुँचेगी। संजीवनी विद्या मूर्च्छना से उबारने हेतु ऋषि प्रणीत एक प्रयोग है। इसी महाविद्या को अनौचित्य से निपटने और औचित्य को सक्रिय करने हेतु नियोजित किया जाना है। संजीवनी विद्या के साथ जुड़ी आदर्शवादी उत्कृष्टता सीधे अन्त:करण में उतर जाती है। विद्या से विवेक उभरता है, व्यक्तित्व परिष्कृत होता है तथा प्रतिभा निखरती है। शालीनता इतनी ऊँची उठ जाती है, जिससे सामान्य आदमी भी देवमानव बन सके। जले हुए दीपक ही बुझों को जला सकते हैं-इस मान्यता को ध्यान में रख सृजन-साधकों के निर्माण हेतु बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण का प्रावधान हुआ एवं इक्कीसवीं सदी के युगशिल्पियों के प्रशिक्षण हेतु शान्तिकुञ्ज में संजीवनी साधना के शिक्षण की विस्तृत व्यवस्था है।

अनुक्रमणिका

1. युगसाहित्य का सृजन, जिसे किए बिना कोई गति नहीं
2. एक लाख अध्यापकों द्वारा विद्या विस्तार का श्रीगणेश
3. संजीवनी विद्या को व्यापक बनाया जाए
4. महाविद्या का उदय और अभ्युदय
5. जले दीपक ही बुझों को जलाएँगे
6. मूर्च्छना का पुनर्जागरण अनिवार्य है
7. लोकमानस-परिष्कार का प्रशिक्षण
8. पंच दिवसीय साधना का स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप


युगसाहित्य का सृजन, जिसे किए बिना कोई गति नहीं

आवश्यक-अनावश्यक जानकारियाँ सिर पर लादने और नौकरी-स्तर की कुछ आजीविका कमा लेने के लक्ष्य तक सीमित वर्तमान स्कूली शिक्षा अपने ढर्रे पर चलती भी रह सकती है। जिन्हें उसमें रुचि हो, वे उसे अपनाये भी रहें, पर उसी को सब कुछ मानकर उसी परिधि में सीमित रहने से काम चलेगा नहीं। अगले दिनों व्यक्ति और समाज को जिस ढाँचे में ढालना है, उसका प्रकाश-आभास भी उसमें कहीं ढूँढ़े नहीं मिलता, जिस सुधार और सृजन की आवश्यकता पड़ेगी, उसके लिए कोई संकेत तक उसमें नहीं है। आज तो सबसे अधिक आवश्यकता उसी की है, जिसको प्राचीनकाल से विद्या या मेधा के नाम से जाना जाता है, जो स्वयं ही हर समस्या का निराकरण करने की स्थिति में होती है। अब आगमन-अवतरण उसी का होने जा रहा है।

जिन अभिनव जानकारियों और प्रेरणाओं की इन्हीं दिनों आवश्यकता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए स्कूलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उनमें एक तो उन विषयों का समावेश ही नहीं है, दूसरे वह पुस्तक-रटन से पूरी भी नहीं हो सकती। उसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रेरणाप्रद माहौल सामने रहना चाहिए, विशेषत: अध्यापक इस स्तर के होने चाहिए, जो अपने साँचे में ढालकर छात्रों को ऐसे प्रतिभावान् व प्राणवान् बना सकें, जो न केवल स्वयं बनें वरन् अपने आलोक से समूचे संपर्क -क्षेत्र को प्रकाशित कर सकें।

प्रज्ञा का अवतरण और विस्तार का कार्य असाधारण रूप से विस्तृत है। उससे शिक्षित-अशिक्षित नर-नारी बाल-वृद्ध स्वस्थ-रोगी सभी को अवगत कराया जाना है। भाषाओं की छोटी-छोटी परिधि में बँटे हुए इस संसार में रहने वाले ६०० करोड़ मनुष्यों को एक प्रकार से युगचेतना-तंत्र के अन्तर्गत प्रशिक्षित किया जाना है। यह योजना इतनी बड़ी होगी कि पूरी करने में कम से कम सौ वर्ष का समय और अरबों-खरबों जितना धन जुटाना पड़ेगा। अध्यापक भरती और प्रशिक्षित करने पड़ेंगे, सो अलग। इसलिए युगशिक्षा का स्वरूप उन आधारों को अपनाते हुए विनिर्मित करना पड़ेगा, जो आज की परिस्थितियों में इन्हीं दिनों कर सकना सम्भव हो।

बड़े प्रयासों की प्रतीक्षा में रुके रहने की अपेक्षा, यही उपयुक्त समझा गया है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने छोटे साधनों से जो सम्भव हो, उसे तुरन्त आरम्भ किया जाए और लोगों को देखने दिया जाए कि आरम्भ का प्रतिफल किस रूप में उपलब्ध हो रहा है। बात यदि वजनदार होगी तो लोग अपनाएँगे भी। प्रचलित शिक्षा-प्रणाली किसी हद तक अपना अस्तित्व बनाए भी रह सकती है, पर उसकी आड़ में युग-शिक्षण को रोका नहीं जा सकता।

युग-शिक्षण में ये विषय आवश्यक हैं : (१) व्यक्तित्व का समग्र विकास-परिष्कार (२) समाज-संरचना और उसके साथ जुड़े हुए प्रचलनों का नव निर्धारण (३) अर्थ व्यवस्था। (४) सुलभ आजीविका कैसे उपलब्ध हो? (५) मनुष्य के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश किस प्रकार बढ़ता चले? (६) परिवारों की वर्तमान संरचना में क्या सुधार-परिवर्तन किया जाए? (७) शारीरिक और मानसिक रुग्णता से सुनिश्चित छुटकारा किस प्रकार मिले? (८) अवाँछनीयता से किस प्रकार निपटा जाए? (९) अब की अपेक्षा कहीं सुखद और सरल-परिस्थितियों का निर्धारण कैसे किया जाए? (१०) सहकारिता और सद्भावना का क्षेत्र कैसे बढ़े? (११) तत्त्वदर्शन-क्षेत्र में परिष्कार विरोधी मान्यताओं का समीकरण कैसे किया जाए? (१२) राजतंत्र और धर्मतंत्र की उभयपक्षीय समर्थ शक्तियों को किस प्रकार नये युग के अनुरूप साँचे में ढाला जाए?

यह कुछ थोड़े से विषयों की ही चर्चा है। इन्हीं विषयों में से प्रत्येक की अनेक शाखाएँँ-प्रशाखाएँँ हैं और अपने आपको एक स्वतंत्र विषय-क्षेत्र घोषित करती हैं। ऐसी दशा में युगशिक्षा का पुस्तकीय, मौखिक और व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करना इतना बड़ा काम हो जाता है, जिसे वर्तमान शिक्षा तंत्र की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और वजनदार ही कहा जाएगा। विलम्ब से बनने वाले किले या महल की तुलना में यही अच्छा है कि आज की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली झोंपड़ी का ढाँचा अपने ही हाथों, अपने साधनों से खड़ा कर लिया जाए।

युगसाहित्य का सृजन इस सन्दर्भ में प्रत्यक्ष कार्य है, ताकि अभिनव प्रसंग की पृष्ठभूमि और रूप रेखा के सम्बन्ध में जिन बातों की अनिवार्य रूप से तात्कालिक आवश्यकता है, उसे पूरा न सही, मार्गदर्शन रूप में तो प्रस्तुत किया ही जा सके। लोग उपयोगिता समझेंगे, तो उस प्रयोग को विस्तार देने में भी उत्साह प्रदर्शित करेंगे।

प्रदर्शनियाँ इसीलिए लगाई जाती है कि उन्हें देखकर लोग किसी सुव्यवस्थित विषय की जानकारी कम समय में प्राप्त कर सकें। अपनी सामर्थ्य और कार्य की विशालता का मध्यवर्ती ताल-मेल जिस प्रकार बैठ सकता था, उसी को इन दिनों अपनी सूझ-बूझ और प्रभाव के अनुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है।

युग निर्माण योजना, मथुरा और शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से ऐसा साहित्य प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया गया है, जो प्रस्तुत समस्याओं के अनेकानेक विषयों पर प्रकाश डालता है। इन विषयों के संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण से काम न चलेगा, उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन होना चाहिए। सीमित लेखन भी पर्याप्त नहीं। अब हर विषय को अनेक तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। अगले दिनों युग साहित्य के ऐसे ही विस्तार की आवश्यकता है। बिना किसी प्रतीक्षा के, वर्तमान साधनों से ही उसका शुभारम्भ कर दिया गया है। आशा यह रखी है कि रोपा गया यह अंकुर अगले दिनों वट-वृक्षों जैसा विशाल कलेवर धारण करेगा।

इस कार्यक्रम में कितनी ही कठिनाइयाँ हैं। एक यह कि अपने देश की दो-तिहाई जनता अशिक्षित है, वह साहित्य का लाभ कैसे उठाये? फिर इस घोर महँगाई के जमाने में आर्थिक कठिनाइयों से ग्रस्त अशिक्षित स्तर की जनता उसे किस आधार पर खरीदे? थोड़े से जो शिक्षित बच जाते हैं, वे भी मनोरंजन के लिए चटपटा साहित्य भर खरीदते हैं। युग साहित्य में ऐसा कुछ न रहने पर उन पर भी जबरदस्ती कैसे लादा जाए? एक तो युग साहित्य का लेखन भी मात्र युगद्रष्टा के ही बलबूते का काम है, दूसरे उसके प्रकाशन में बड़ी पूँजी लगती है। इतने पर भी बिक्री की माँग अत्यन्त धीमी रहने से उसका प्रचार-प्रसार कैसे हो? महँगे मूल्य की बढ़िया सजधज वाली पुस्तकें छापी जाएँ, तो उन्हें या तो सरकारी शिक्षा तंत्र के ऊपर अतिरिक्त सुविधा शुल्क देकर थोपा जा सकता है, या फिर कोई सम्पन्न अपनी आलमारियों की शोभा बढ़ाने के लिए खरीद सकते हैं। यह समूची विडंबना भी ऐसी है, जिसके कारण लेखन, प्रकाशन, मुद्रण, विक्रय आदि सभी ओर से अवरोध खड़े हो जाते हैं।

आवश्यकता हर भाषा में स्थानीय मन:स्थति और परिस्थिति के साथ ताल-मेल बिठाने वाले साहित्य सृजन की है। कठिन और असम्भव दिखने वाले इस माध्यम को, सर्वत्र निराशा दीख पड़ने पर भी इन्हीं दिनों आरम्भ कर भी दिया गया है।

एक लाख अध्यापकों द्वारा विद्या-विस्तार का श्री गणेश

युग साहित्य के विक्रय को महत्त्व न देते हुए सोचा गया है कि उसे हर शिक्षित को पढ़ाने और हर अशिक्षित को सुनाने की एक ऐसी योजना अपनाई जाए, जो अन्यत्र कदाचित् ही कहीं और क्रियान्वित होती देखी जाती है।

युग-शिल्पियों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे न्यूनतम २० पैसा नित्य का अंशदान और दो घंटे का समयदान प्रस्तुत ज्ञानघट के लिए नियमित रूप से दें। इस पैसे से हर महीने नया छपने वाला साहित्य खरीदते रहें। उसे स्वयं तो पढ़ें ही, परिवार वालों को तो पढ़ाएँ या सुनाएँ ही, झोला पुस्तकालय योजना के अन्तर्गत अपने परिचय क्षेत्र में शिक्षितों से संपर्क साधें और युग साहित्य बिना मूल्य घर बैठे पहुँचाने, पढ़ लेने पर वापस लेने एवं अगली पुस्तकें पढ़ने के लिए देने का भी क्रम चलाएँ।

यह सिलसिला सदा-सर्वदा चलता रह सकता है। पढ़ने वाला बिना पढ़ों को सुनाता भी रह सकता है। दो ऐसे व्यक्ति साथ जुड़े, तो सौ शिक्षित सदस्यों को पढ़ाकर, दो सौ बिना पढ़ों को सुनाकर, तीन सौ की एक मंडली बना सकते हैं। उसका सुसन्तुलन एक युग-शिल्पी के बीस पैसे नित्य और दो घंटे समयदान के माध्यम से बिना किसी कठिनाई के गतिशील रह सकता है। यह सारा साहित्य, संचालक की घरेलू लाइब्रेरी से लेकर, स्वजन-सम्बन्धी परिचित-पड़ोसी बिना किसी प्रकार का खर्च किए, दीर्घ काल तक पढ़ते और पढ़ाते रह सकते हैं।

कहने-सुनने में योजना अटपटी-सी लगती है, पर कार्य करने वाले के लिए इस संसार में कुछ भी कठिन नहीं है। शान्तिकुञ्ज के साथ जुड़े हुए लोगों में अधिकांश इस प्रक्रिया को धर्म-कर्तव्य एक उच्चस्तरीय परमार्थ समझकर श्रद्धापूर्वक अपनाए रहते हैं। इस आधार पर युगसाहित्य के पाठकों की संख्या करोड़ों तक पहुँच चुकी है, भले ही उसे खरीदने वालों की संख्या सीमित ही रही हो।

अखण्ड-ज्योति अपने मिशन की प्रमुख हिन्दी मासिक पत्रिका है। वह अन्य भाषाओं के अनुवादों समेत प्राय: पाँच लाख की संख्या में छपती है। इनके पाठकों को निर्देश है, कि हर अंक प्राय: पाँच के द्वारा पढ़ा या सुना ही जाए। इस प्रकार पाँच लाख पत्रिका प्राय: पच्चीस लाख पाठकों द्वारा पढ़ी या सुनी जाती है। मिशन के सूत्र-संचालक इसी को अपनी संरचनात्मक सम्पत्ति मानते हैं और पूरा-पक्का विश्वास जताते हैं कि इतनी भुजाओं के बलबूते, समय की माँग का एक बड़ा भाग निश्चित रूप से पूरा किया जा सकेगा।

प्राचीनकाल के विद्या-विस्तारक न केवल छात्रों को पढ़ाकर छुटकारा पा जाते थे, वरन् उन्हें ढूँढ़ने, इकट्ठा करने, उत्साह भरने के कार्य दूसरों की सहायता की अपेक्षा किए बिना भी, अपने बलबूते ही कर लेते थे। साधनों की, सहयोग की अपेक्षा तो हर काम में रहती है। विद्या-विस्तार में उसके बिना ही काम चल जाए, यह नहीं हो सकता। इतने पर भी यह निश्चित है, कि समर्थ चुम्बक अपने इर्द-गिर्द बिखरे लौह कणों को खींचने-घसीटने और अपने साथ चिपका लेने में अकेली क्षमता के बलबूते भी सफल होकर रहता है।

विद्या-विस्तार की अभिनव योजना के क्रियान्वयन में भी इसी तथ्य को मान्यता देते हुए समूचा ताना-बाना बुना गया है। पच्चीस लाख शिरों और पचास लाख भुजदण्डों में से अधिकांश निष्क्रिय-निरुत्साहित रहें, संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ से इस आपत्तिकाल की पुकार सुनकर भी बाहर न निकलें, तो भी विश्वास किया गया है, कि न्यूनतम एक लाख परिजनों को तो युगचेतना का आलोक वितरण करने के कार्य में जुटाया ही जा सकेगा। यह विश्वास, भावुक कपोल-कल्पना के आधार पर नहीं उभरा है। अब तक प्राय: अस्सी वर्ष भी जी लेने और निरंतर सेवा-संगठन में निरत रहने पर जो अनुभव एकत्रित किए हैं, उनकी साक्षी एवं छत्रछाया में यह पूरी-पूरी गुंजाइश है, कि युग-शिल्पियों का पूरा समय न निकाल सके, तो भी दो-चार घण्टे आसानी से निकाले और आपत्तिकालीन आवश्यकता में लगाये जा सकते हैं।

समयदान, अंशदान यह दो अनुबन्ध ऐसे हैं, जिन्हें प्रज्ञा-परिजनों के लिए अपने-अपने क्षेत्र में नियोजित किए रहना एक प्रकार से अनिवार्य कर दिया गया है। भावना शून्य निष्ठुरों की संकीर्णता ही इतनी बोझिल रहती है, कि उसके रहते व्यस्तता-अभावग्रस्तता का बना-बनाया व गढ़ा-गढ़ाया बहाना सदा-सर्वदा एक रस बना रहता है, उन पर दूसरों का हड़पने भर की हविस छाई रहती है। अपना देना तो मानो वज्रपात की तरह असह्य हो? ऐसे लोग अपने परिवार में भी हो सकते हैं, पर यह विश्वास किया गया है कि पच्चीस लाख में से एक लाख ऐसे अवश्य निकल आएँगे, जो इस आपत्तिकाल में बीस पैसे और दो-चार घण्टे नित्य का समय लोकमंगल के लिए लगाते रह सकें।

यह समय और पैसा अपने ही संपर्क क्षेत्र में विद्या−विस्तार में खर्च किया जाना है। किन्हीं अन्य को देने की आवश्यकता नहीं है। अपने हाथों अपना समय और पैसा खर्च करने में इस बात की आशंका नहीं रहती कि कहीं कोई ठग तो नहीं रहा है?

सेवा साधना का यह क्रम अपनाकर, आरम्भ से ही एक लाख अध्यापक प्रति सौ के हिसाब से एक करोड़ छात्रों से संपर्क साधने और उन्हें नवयुग के अनुरूप प्रेरणा देने में समर्थ हो सकेंगे। यदि आशा से अधिक परिणाम निकलने आरम्भ हो गए, तो पाँच लाख परिजन पाँच करोड़ को भी झकझोरने, हिलाने, घसीटने और उठाकर खड़ा कर देने में समर्थ हो सकते हैं। यही बात यदि संपर्क-क्षेत्र के वर्तमान पच्चीस लाख परिजनों तक लागू होने लगे, तो समझना चाहिए कि पच्चीस करोड़ को विद्यादान करने का सिलसिला चल पड़ा ।

अपने घर-परिवार की परिधि के भीतर क्या हो सकता है? यह अनुमान लगाते हुए यह सब सोचा जा रहा है। पर इतना ही छोटा अनुबन्ध बँधा रहे, यह सम्भव नहीं। जब चोर-उचक्के नशेबाज, गुण्डे, उच्छृंखल, व्यभिचारी अपने-अपने संपर्क में कितनों को ही नये सिरे से प्रभावित करते और साथी-सहयोगी बनाते देखे गए हैं, तो कोई कारण नहीं कि उच्च उद्देश्यों पर सच्चे मन से निष्ठा रखने वाले, चिन्तन को क्रिया के साथ जोड़ने वाले यदि उमंगों में लहराने लगें, तो अपने जैसे अनेकों को खींच-घसीट न सकें, परिवार को बढ़ा न सकें?

प्रज्ञा-परिजनों को एक से पाँच, पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस बनने के लिए प्रयत्नशील होने के लिए पूरी तरह उकसाया गया है। एक से पाँच की गुणन-प्रक्रिया यदि सचमुच पिल पड़े तो चार-पाँच छलांगों में ही देश की अस्सी करोड़ जनता को सृजन-चेतना से अनुप्राणित किया जा सकता है। चूँकि अपना आंदोलन सार्वजनीन, सार्वभौम, सभी जातियों और सभी मान्यताओं वालों के लिए समान रूप से खुला है, तो किसी संकुचित क्षेत्र तक सीमित रहने की आशंका तो रहती ही नहीं। निष्कर्ष यही निकलता है, कि युगचेतना सूर्य किरणों की तरह आरम्भ कहीं से क्यों न हो, अन्तत: विश्वव्यापी बनकर रहेगी।

संजीवनी विद्या को व्यापक बनाया जाए

यहाँ चर्चा जीवन्तों और प्राणवानों की हो रही है, जिनके लिए अपनी गाड़ी धकेलने में कोई हैरानी नहीं पड़ती और जो दूसरों को सहारा दे सकने में भी समर्थ हैं। भेड़ तक, ऊन का उपहार लिए प्रस्तुत रहती हैं, पेड़ों को अपनी पत्तियों, लकड़ियों और फल-फूलों की संपदा बाँटने में संकीर्णता नहीं होती। फिर मनुष्य में तो उदारता का कुछ अंश होना ही चाहिए। सोचते हैं कि हजार पीछे एक तो ऐसा होगा ही, जिसे मानवीय गरिमा का स्मरण हो, और जो भलाई करने व विकृतियों के निराकरण में किसी न किसी काम आये।

आठ घण्टे कमाने, सात घण्टे सोने और पाँच घण्टे जिधर-तिधर भागदौड़ करते रहने के लिए सुरक्षित रख लिए जाएँ, तो भी २० घण्टे में दिनचर्या भली प्रकार निभ जाती है। चार घण्टे परमार्थ-प्रयोजनों में निरंतर लगाते रहने के लिए उनके पास भी बच जाते हैं, जो रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने के लिए विवश हैं। ऐसों के अतिरिक्त उन सरकारी पेंशनरों की संख्या कम नहीं, जो मात्र पचपन वर्षों में ही पेंशन ले लेते हैं और कम-से-कम अस्सी वर्ष की आयु तक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने की स्थिति में रहते हैं। यदि वे अन्तरात्मा की पुकार सुन सकें तो युगधर्म की चुनौती स्वीकार करने में अपने बचे जीवन को बिना किसी कठिनाई के लगा सकते हैं।

जिनके लड़के -बच्चे कमाने लायक हो गए, उनमें से भी असंख्य निष्क्रिय जीवन बिताने लगते हैं। आवारागर्दी में समय गुजारते हैं। एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसने पिछले दिनों पर्याप्त पैसा कमा लिया अथवा उत्तराधिकार में प्राप्त प्रचुर सम्पत्ति हथिया ली। यदि वे चाहें, तो इस सम्पदा को बैंक में जमा करके उसके ब्याज से शेष जीवन एवं बच्चों का उत्तरदायित्व भली प्रकार पूरा कर सकते हैं। इनके पास समय-ही समय है। यदि उसका मन कीचड़ में उगने वाले कमल की तरह तनिक ऊँचा उठ सके, आदर्श और चिन्तन की ओर मुँह मोड़ सके, तो समझना चाहिए कि युग-प्रशिक्षकों की एक नई सेना मोरचे पर आ खड़ी हुई। साधु, ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग तो धर्म के आधार पर आजीविका अर्जित करता है, उसके लिए तो अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है कि नमक हलाल तो कहलाता ही रहे। भजन करने का बहाना तो ऐसा नहीं है, जिसकी आड़ में जनसाधारण की श्रद्धा और संपदा का दोहन किया जाता रहे।

महिलाओं में से भी कुछ न कुछ ऐसी हो सकती हैं, जिन्हें रसोइदारिन, चौकीदारिन तथा धोबिन स्तर के कामों में थोड़ी फुरसत मिल सकती हैै। वे युगधर्म की माँग में अपना थोड़ा-बहुत समयदान, अंशदान तो लगा ही सकती हैं। विधवाओं-परित्यक्ताओं का एक बड़ा वर्ग भी जिस-तिस की बेगार भर करता रहता है। जिनके विवाह सामाजिक विडम्बनाओं ने सम्भव नहीं होने दिये अथवा जिनके मन में अपने पिछड़े समुदाय के प्रति किसी कोने में दर्द है, वे प्राय: अविवाहित ही रह जाती हैं। निराश्रित होने पर नौकरी करतीं और उस कमाई को भाई-भतीजों पर उड़ेलती रहती हैं। ऐसी देवियाँ, यों अपने को दुर्भाग्यग्रस्त मानती हैं, पर वे वस्तुत: सौभाग्यवती हैं, जिन्हें बंदी-दासी का जीवन जीने की विवशता से भगवान् ने बचा लिया। घर में बहुएँ आ जाने पर तो सास-वर्ग महिलाएँ प्रौढ़ होते हुए भी काम-धंधों से छुटकारा पा जाती हैं। सम्पन्न परिवारों में अच्छी कमाई होने के कारण नौकर-चाकर सब काम कर देते हैं, घर की महिलाओं के पास तो टी.वी. देखने, रेडियो सुनने, उपन्यास पढ़ने जैसे बेकार काम ही समय काटने के लिए शेष रह जाते हैं। यह वर्ग भी इतना बड़ा है, जो चाहे तो महिला उत्कर्ष के लिए बहुत कुछ कर सकता है।

महिला-समुदाय के उपर्युक्त वर्ग ऐसे नहीं हैं, जो काम की अधिकता की बात कहकर महिला-उत्थान की सामयिक महत्ता-आवश्यकता को नकारने के लिए कोई समझ में आ सकने योग्य बहाना गढ़ सकें। इस समय प्रजनन के भार से धरती त्राहि-त्राहि कर रही है और समाज का ढाँचा बुरी तरह लड़खड़ा रहा है। ऐसे आपत्ति-काल में जो नर-नारी बच्चे जनने से हाथ सिकोड़े, उन्हें समझदारों और दूरदर्शियों में गिना जा सकता है। यदि ऐसा कहीं सम्भव हो, वहीं यह सम्भावना साकार होती है कि दोनों एक-एक मिलकर ग्यारह का उदाहरण बनें। एक-दूसरे को ऊँचा उठाने में सहायता करें। बच्चों का झंझट न होने पर दोनों मिलकर युग धर्म का निर्वाह कर ग्यारह गुना काम कर सकते हैं।

प्रसव-पीड़ा में १३ प्रतिशत महिलाएँ मर जाती हैं और बड़ी संख्या में आजीवन रुग्णता-दुर्बलता का शिकार बनती हैं। उन पतियों पर लानत की धूल कौन फेंके, जो पत्नी के आधी जिंदगी अर्ध-मृतकों के स्तर की व्यतीत करने के लिए बाधित करते हैं। अपना अर्थ-भार दुगुना-चौगुना बढ़ाते हैं। सुसंस्कार दे सकने की योग्यता न होने पर बच्चों को कुसंस्कारी बनाते हैं और समाज के लिए असंख्य समस्याएँ खड़ी करते हैं। यदि बच्चे उत्पन्न करने की सामयिक मूर्खता से बचा जा सके, तो इन दिनों भी अनेक महिलाएँ नारी-उत्कर्ष के कार्य में जुट सकती हैं और अपने संपर्क-क्षेत्र में एक प्रकार से अभिनव क्रान्ति उत्पन्न कर सकती हैं।

प्रश्न व्यस्तता, अभावग्रस्तता आदि का नहीं, वरन् एक ही है कि जन-जन पर कृपणता, निष्ठुरता, घिनौनी स्वार्थपरता के रूप में शैतान ही छाया है। वही आदर्शों के निमित्त कुछ संयम बरतने और परमार्थपरक सेवा-साधना करने के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा होता है। यदि किसी प्रकार उसे घटाया-हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि शिक्षित-अशिक्षित स्तर के कोई भी नर-नारी किसी न किसी हद तक युग-अध्यापक की छोटी-बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यदि ऐसा माहौल बन सके, तो समझना चाहिए कि महाकाल की महती आवश्यकता का एक बड़ा अंश सरलतापूर्वक सम्पन्न हो गया।

कोई समय था, जब सभी देवालय, गुरुकुल, आरण्यक, आश्रम, तीर्थ इसी एक काम में अपनी क्षमता नियोजित किए रहते थे। उनमें बड़ी संख्या में ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि व ऋषि-मनीषी रहा करते थे और वहाँ पहुँचने वालों को उनकी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप इस प्रकार का शिक्षण दिया करते थे, ताकि हर आगंतुक को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने में सहायता मिल सके। यही कारण था कि बालकों से लेकर वृद्धों तक के संजीवनी विद्या का ज्ञान रहता था और वे उसका अनुकरण करते हुए उस स्तर के बनते थे, जिन्हें सच्चे अर्थों में देवमानव कहा जा सके। ऐसे लोग जहाँ भी बसेंगे, वह धरती सहज ही स्वर्गोपम कही और समझी जाने लगेगी। ऐसा वातावरण पुरातन काल में तो था ही, अब उसी प्रक्रिया को फिर अपनाया जाने लगे, तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं किया जाना चाहिए कि सतयुग की वापसी होकर रहेगी।

प्रश्न शिक्षा पद्धति एवं शिक्षकों का है, उसे शान्तिकुञ्ज ने पूरा करने का निश्चय कर लिया है। इसके लिए स्वाध्याय-सत्संग का ही नहीं, उन छोटे-बड़े आयोजनों-समारोहों की भी व्यवस्था बनाई गई है, जिनके आकर्षण से जनसमुदाय को एकत्रित और प्रशिक्षित किया जा सके।

महाविद्या का उदय और अभ्युदय

अग्नि की ऊर्जा जहाँ भी उत्पन्न होती है, वहाँ वह समीपवर्ती वातावरण को ऊर्जायुक्त बनाए बिना नहीं रहती है। सुगन्ध का भी यह उपक्रम है, वह जहाँ भी रखी जाती है, समीपवर्ती क्षेत्र में भी वैसी ही गन्ध फैलाती रहती है। विद्या के सम्बन्ध में भी यही समझा जाना चाहिए। गंगा भले ही एक चट्टान पर उतरी हो, पर उसकी जलधारा दूर-दूर तक शीतलता-सरसता का विस्तार करती है। यों दुर्बुद्धि भी अपने समीपवर्तियों को लपेट में लेती है, किन्तु सदाशयता का अपना विशेष क्षेत्र और स्वभाव है। वह मलयानिल की तरह दूर-दूर तक अपने प्रभाव का परिचय देती है। सूर्य का प्रकाश भी धरती के हर कोने में पहुँचता रहता है। प्रज्ञा का स्वभाव भी इसी प्रकार विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करने का है।

बीसवीं सदी में विज्ञान को आगे रखकर किए गए अनाचारों पर नियंता को बहुत क्षोभ है। वे अधिक समय उस अवांछनीयता को उसी रूप में बनी नहीं रहने देना चाहते। यों व्यापक परिवर्तनों की तैयारी हो चली है। इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य की संरचना इसी आधार पर होने जा रही है। इस प्रक्रिया का प्रमुख कार्य एक ही होगा, जिसे प्रज्ञायुग का अवतरण कह सकते हैं। विचारक्रान्ति, ज्ञानयज्ञ जैसे नाम भी इसी को दिये गए हैं। यदि इसी को विद्या विस्तार कहा जाए, तो भी कोई हर्ज नहीं।

उदरपूर्ति के लिए प्रयुक्त होने वाली विविध जानकारियों का भानुमती वाला पिटारा सिर पर लादे हुए, शिक्षा दिन-दिन प्रगति करती जा रही है। उसे बेचने वाली दुकानें गली-मुहल्लों गाँव-नगरों में तेजी से खुलती चली जा रही हैं। अध्यापकों की विशाल संख्या उसी प्रयोजन के लिए नियुक्त-निरत है। छात्रों की भी कमी नहीं। वे नौकरी पाने की लालसा में बड़ी संख्या में वहाँ पहुँचते हैं। कभी तो प्रवेश मिलना तक कठिन हो जाता है। जो सफल नहीं हो पाते, नौकरी नहीं पा पाते, वे निराशा और खीझ से उद्विग्न ऐसी होकर राह पकड़ते देख गए हैं, जिसे अनुचित और अवांछनीय ही कह सकते हैं। प्रस्तुत शिक्षा-प्रणाली की अपूर्णता को देखते हुए क्रमश: उनके प्रति क्षोभ भी बढ़ता जाता है।

प्रस्तुत अनौचित्य से निपटने और औचित्य को सक्रिय करने के लिए जिस विद्या की इन दिनों महती आवश्यकता है, इक्कीसवीं सदी के साथ-साथ दिग्-दिगंत को आलोकित करने के लिए वह उषाकाल की तरह उभरती चली जा रही है। उसका विस्तार होना ही है। उसे व्यापक बनना ही है। शिक्षा के लिए साक्षरता के संपादन की अनिवार्य आवश्यकता है, किन्तु विद्या के साथ जुड़ी हुई आदर्शवादी उत्कृष्टता तो सीधे अन्त:करण में उतर जाती है। निरक्षरता भी उसमें बाधक नहीं होती। शालीनता, सज्जनता, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता के सिद्धान्तों को हृदयंगम करने के लिए साक्षरता अनिवार्य नहीं है।

क्षेत्र-विस्तार को देखते हुए इस सरंजाम को जुटाने के लिए बड़े परिणाम में प्रयत्नशीलता अपनानी होगी। प्रश्न किसी क्षेत्र या देश का नहीं, वरन् समूचे संसार को इसी की प्यास है। इस सन्दर्भ में शिक्षित-अशिक्षित निर्धन और धनाध्यक्ष, सेवक और स्वामी, नर और नारी प्राय: सभी स्तर के लोग संसार भर में एक जैसी रटन लगाए हुए हैं। सभी एक जैसी तृष्णा और आवश्यकता अनुभव करते हैं। मान्यताओं, भावनाओं और आदतों में अनौचित्य का समावेश हो जाने से अगणित समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। गंदगी की सड़न से अवांछनीय स्तर के कृमि-कीटक उपजते हैं और बीमारियों के विषाणु टिड्डी-दल की तरह दौड़ पड़ते हैं। कुरूपता और दुर्बलता तो उनके साथ जुड़ी ही रहती है। यही है दुर्गति की स्थिति, जो हर जगह न्यूनाधिक मात्रा में देखी जा सकती है। समाधान, निराकरण इसी का होना है, अस्तु न केवल कचरे को बुहारना होगा, वरन् उस स्थान पर चूने की पुताई, गोबर की लिपाई अथवा फिनायल जैसे कृमिनाशकों की छिड़काई भी आवश्यक होगी। यह दोनों कार्य विद्या विस्तार से ही सम्भव हैं। यहाँ विद्या शब्द का सही अर्थ भी समझना होगा। वह साक्षरता तक सीमित नहीं है। वरन् दूरदर्शी विवेकशीलता और ममतामयी भाव-सम्वेदना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ती है।

विद्या के लाभ परोक्ष हैं। उसके सहारे विवेक उभरता है, नीर-क्षीर विवेक के राजहँसों जैसी प्रवृत्ति उभरती है, व्यक्तित्व परिष्कृत होता और प्रतिभा निखरती है। सम्पन्नता भले ही सीमित रहे, पर शालीनता इतनी ऊँचाई तक उठ जाती है, जिसे देव मानव की संज्ञा मिल सके, जिसके धारण कर्ता को नर-रत्नों में गिना जा सके। सुधारक उद्धारक, ऐसों को ही समझा जाता है। यह सभी विशेषताएँ उद्देश्य स्तर की होती हैं, इसलिए औसत आदमी उसकी ओर ध्यान नहीं देता। आत्मसन्तोष, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह की महान् महत्ता के सम्बन्ध में जिनने कभी सुना-समझा तक नहीं, वे भला उसे पाने के लिए ही क्यों प्रयत्न करेंगे? इन दिनों तो पैसा ही परमेश्वर बना हुआ है। अहंकार का उन्माद इस कदर छाया हुआ है, कि उसके लिए समय, श्रम और साधनों को बड़ी से बड़ी मात्रा में निछावर करने के लिए लोग आकुल-व्याकुल देख गए हैं। वासना, तृष्णा और अहंता के अतिरिक्त जब और कुछ सूझ ही न पड़े-लिप्सा लालसा और तृष्णा की ललक जब गहरी खुमारी के रूप में चढ़ी हुई हो, तो विद्या के-ब्रह्म विद्या के -आत्म ज्ञान के स्वर्गीय दृष्टिकोण एवं जीवन-मुक्ति जैसे उच्च स्तर के सम्बन्ध में कोई सुने-समझे भी क्यों? उस दिशा में कुछ करने एवं नियम बनाने की बात तो बहुत पीछे आती है।

जो हो, आज का गुजारा भले ही इस सड़ी कीचड़ में लोट-पोट करते हुए भी हो सकता है, पर कल स्वच्छ वातावरण की आवश्यकता पड़ेगी। उसके बिना उद्धार-निस्तार भी तो नहीं। इतने पर भी यह भूल नहीं जाना चाहिए कि कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है, साथ ही दुरूह भी। उसे सम्पन्न करने में मानवीय प्रयत्न तो एक सीमा तक ही सफल हो सकते हैं। प्रश्न समूचे संसार का है। समस्या ६०० करोड़ मानवों की है। उनका प्रवाह उल्टी दिशा में चल रहा है। वे ऐसे अन्धड़ के साथ उड़ रहे हैं, जो कभी भी कहीं भी करारी पटकनी दे सकता है और हड्डी-पसली तोड़ डालने जैसा संकट खड़ा कर सकता है, इसलिए प्रचलन का परिवर्तन एक प्रकार से अनिवार्य हो गया है।

६०० करोड़ मनुष्यों का चिन्तन-प्रवाह मानवीय मर्यादाओं के उल्लंघन का अभ्यस्त हो चले, चिन्तन में निकृष्टता और चरित्र में भ्रष्टता का अनुपात असाधारण रूप में बढ़ चले, तो उस विशाल कार्य क्षेत्र में लगभग पूरी तरह उलट देने का कार्य नियन्ता की नियति ही कर सकती है, भले उसे सम्पन्न करने में किन्हीं व्यक्तियों को श्रेय-सौभाग्य पाने का अवसर मिलने लगे।

‘विद्या’ की गरिमा का माहात्म्य बताते हुए आप्तजनों ने बहुत कुछ कहा है- विद्ययामृतमश्नुते ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’, ‘‘विद्या ददाति विनयम्’’ आदि-आदि मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव में चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में, जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश कर सके, वही विद्या है। संजीवनी विद्या भी इसी का नाम है। कई व्याख्याकार इसे जीवन जीने की कला कहते हैं। इसी के साथ सुख-शान्ति और प्रगति के सभी सूक्ष्म तंतु जुड़े हुए माने जाते हैं। इसकी उपेक्षा करने पर न भौतिक प्रगति सम्भव होती है न आध्यात्मिक उन्नयन की बात बनती है।

जले दीपक ही बुझों को जलाएँगे

कथा है कि महाप्रलय के दिनों सर्वत्र समुद्र का खारा पानी ही भरा पड़ा था। उसकी तली में गहरी कीचड़ भी भरी हुई थी। उसी बीच एक चमत्कार हुआ। पानी के ऊपर एक कमल उभरकर खिल आया। उसमें सहस्र पंखुड़ियाँ थीं। बात इतने पर ही समाप्त नहीं हुई। कमल के मध्य पर ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। वे वेदज्ञान से सृष्टि को गुञ्जित करने लगे। साधन और सौन्दर्य उसी गुञ्जन के प्रभाव से उभरे-जुड़े और चेतन सृष्टि उसी प्रयास के फलस्वरूप विनिर्मित हो चली।

पौराणिक मिथक की वास्तविकता के सम्बन्ध में दो मत हो सकते हैं पर इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने समय की विपन्न परिस्थितियों में चमत्कार जैसा उद्भव होने ही वाला है। सहस्रदल खिलने ही वाला है। उसमें ब्रह्म चेतना का ऐसा प्रवाह नि:सृत होने वाला है, जो उल्टे को उलट कर सीधा कर सके, सुखद सम्भावनाओं को अभिनव सृजन इस स्तर का बन पड़े, जिसे कीचड़ से उभरा कमल कहा जा सके।

इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक बुल-बुले शान्तिकुञ्ज की जमीन को फोड़कर उभरने और उबलने लगे हैं। अगले दिनों यह एक निर्झर के रूप में गति पकड़ ले तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हल्की भाप आरम्भ में धीरे से उठती है, पर कुछ ही समय में घटा-टोप बनकर बरसने लगती है। इसे आश्चर्य नहीं तो और क्या कहें? राई जितने छोटे बीज का विशाल वट-वृक्ष के रूप में सुविस्तृत हो जाना क्या कोई कम आश्चर्य की बात है? यह अपनी सृष्टि ऐसे ही आश्चर्यों का प्रदर्शन पग-पग पर करती है। सच तो यह है कि संसार में जो कुछ हो चुका है, जो हो रहा है, जो होने वाला है, उसे सृष्टि चमत्कारों की शृंखला के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता। बाल की नोक जितना क्षुद्र शुक्राणु यदि साढ़े पाँच फीट का सर्वांग सुन्दर मनुष्य बन सकता है, तो चमत्कार के अतिरिक्त और कहा क्या जाए? ग्रह-नक्षत्र अधर में टँगे है और द्रुतगति से घूमते रहते हैं, तो इसे अघटित का घटित होने के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?

मनुष्य स्वल्प है। उसकी सामर्थ्य भी सीमित है। उसकी सूझ-बूझ प्रयत्नशीलता और सफलता भी सीमित स्तर की ही बनकर रह जाती है, पर भगवान् के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, वे देखते-देखते ऋतुओं में ऐसा परिवर्तन करके रख देते हैं कि उस अलौकिकता को देखकर हतप्रभ ही होकर रह जाना पड़ता है। मनुष्य यदि ऐसा करना चाहे, तो भी उसका पुरुषार्थ वैसा बन ही नहीं पड़ेगा।

अवतारों की पूर्ण शृंखला का अवगाहन करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उनका अवतरण असम्भव से सम्भव कर दिखाने के लिए ही होता रहा है। यों निराकार होने के कारण वे प्राणियों की तरह प्रयत्न-पुरुषार्थ नहीं कर पाते, फिर भी मनुष्यों में से ही ऐसे कितनों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें हवा भर कर नन्हें से गुब्बारे को कद्दू जितना विशाल बनाया जा सके। हनुमानों, अंगदों, अर्जुनों, नारदों, बुद्धों, गाँधियों आदि की इतनी बड़ी शृंखला है, जिन्होंने मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी ऐसे महान् प्रयोजन पूरे कर दिखाए, जिन्हें अद्भुत और अलौकिक कहा जा सके। एक बार तो महर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मा जी की बनाई सृष्टि की तुलना में दूसरी नई सृष्टि रच डालने के लिए कमर कस ली थी। ऐसे मामले बुद्धि द्वारा मुश्किल से ही सुलझाए जा सकते हैं। अगस्त्य ऋषि ने तीन चुल्लू में समूचा समुद्र सोख लिया था। ऐसे कृत्यों के पीछे यदि भगवान् की शक्ति काम करती दीख पड़े, तो उसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

लम्बा समय दुर्मति-जन्य दुर्गति सहन करते-करते बीत गया। अब यदि उलट-पुलट कर सही स्थिति में ला देने की योजना बनी है, तो उसे इसलिए असम्भव नहीं मान लेना चाहिए कि मनुष्यों के सीमित प्रयास इतने सुविस्तृत कार्य को नहीं कर सकते। मनुष्य के लिए कुछ भी कितना ही कठिन हो सकता है, पर जिसने आकाश में असंख्य ग्रह-तारक झाड़-फानूस की तरह अधर में लटका रखे हैं, उसके लिए किसी सदाशयता भरे प्रयोजन को पूरा कर सकना कैसे कुछ कठिन हो सकता है?

छोटा आरम्भ उपहासास्पद तो लगता है, फिर भी इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता कि वह कुछ ही समय में कहीं-से-कहीं जा पहुँचे बुद्ध और गाँधी के आन्दोलन आरम्भ में नगण्य स्तर के ही थे, पर जब समय ने साथ दिया, तो क्रिया की प्रतिक्रिया इतनी महान् हुई कि उसे देखते हुए आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है।

युगसन्धि महापुरश्चरण शान्तिकुञ्ज में विगत दो वर्षों से चल रहा है। उसकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में हजारों स्थान और लाखों मनुष्य अनुप्राणित हो चले हैं। अब इस वर्ष से युगशिल्पियों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया बड़े रूप में चल पड़ी है, ताकि धीमी गति से चल रहे प्रयासों को राकेट स्तर की तेजी उपलब्ध हो सके। पिछले वर्ष नौ-नौ दिन के और एक-एक महीने के प्रशिक्षण-सत्रों की शृंखला चलती रही है, पर इस बार उसे ऐसी गति प्रदान की गई है, जिससे लम्बी अवधि में सम्पन्न हो सकने वाले कार्य अपेक्षाकृत चौगुनी, सौगुनी गति से अग्रगामी बन सकें और उन्हें सन् २००० तक के आगामी वर्षों में पूरा किया जा सके।

विद्यालयों की इमारतें बनती हैं, फर्नीचर इकट्ठा किया जाता है, पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि सुयोग्य अध्यापकों का चयन हो और उन्हें अपने काम पूरा करने की ललक निरन्तर बेचैन किए रहे। इसके बाद अन्य कार्य तो सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रहते हैं।

सन् ९० के वसन्त पर्व से शान्तिकुञ्ज में ‘सघनशक्ति’ उत्पन्न करने के अतिरिक्त, उपयुक्त विद्या चेतना के धनी और समर्थ शक्तिशाली अध्यापक प्रशिक्षित विनिर्मित करने का कार्य आरम्भ किया गया है। अखण्ड ज्योति के पाँच लाख परिजनों को प्रशिक्षित करने का कार्य सर्वप्रथम हाथ में लिया गया है। स्थान भी इन्हीं दिनों कुछ बढ़ाया गया है। शान्तिञ्ज में निवास, भोजन, साधन आदि की व्यवस्था पिछले वर्ष की तुलना में प्राय: दूनी बढ़ाई गई है, पर फिर भी आवश्यकता को देखते हुए उसे कई गुनी बढ़ाने की आवश्यकता पड़ रही है। थोड़ा धैर्य रखने पर उसकी पूर्ति हो जाने की सम्भावना है।

अधिक लोगों को कम समय में प्राण चेतना से अनुप्राणित करना हो, तो इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता कि शिक्षा अवधि को जितना कम करना सम्भव हो, उतना कर लिया जाए। न्यूनतम की बात सोंचे, तो वह अवधि पाँच दिन से कम कदाचित् सम्भव नहीं हो सकती, इसलिए चालू प्रशिक्षण-सत्रों को पाँच-पाँच दिन का कर दिया गया है। तारीख १ से ५, ७ से ११, १३ से १७, १९से २३, २५ से २९। इस प्रकार हर महीने पाँच सत्र निरन्तर सम्पन्न होते रहेंगे। शिक्षा की दृष्टि से किसी महत्त्वपूर्ण शिक्षण के लिए यह अवधि बहुत ही कम है, पर जब प्रसङ्ग प्राण-प्रत्यावर्तन का हो, आदान-प्रदान की व्यवस्था को ही प्रमुख माना गया हो, तो कान में कुछ देर की फुसफुसाहट भी बड़े प्रयोजनों को पूरा कर देती है। सीखने और सिखाने वाले दमदार हों, तो रामायण की यह उक्ति भी चरितार्थ हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अल्पकाल विद्या सब आई॥’’

मूर्छना का पुनर्जागरण अनिवार्य है

विश्वव्यापी परिवर्तन और सृजन का दोहरा प्रयोजन पूरा करने के लिए साधारणतया शताब्दियों और सहस्राब्दियों का समय चाहिए, पर अब उतनी प्रतीक्षा की गुञ्जाइश रह नहीं गई है। अग्निकाण्ड के समय में लम्बी अवधि में पूरी हो सकने वाली योजना नहीं बन सकती। उस अनर्थ को रोकने के लिए धूल, पानी आदि जो कुछ भी मिल सके, उसी के सहारे वह कार्य हाथों-हाथ सम्पन्न करना पड़ता है। सहमत और उत्सुक छात्रों को पढ़ा देना कठिन नहीं है, पर जो गलती को ही सही मानने का दुराग्रह अपनाए बैठा हो, उसे समझा सकना असम्भव तो नहीं, पर कष्टसाध्य अवश्य है। इन दिनों विचार-परिवर्तन के सहारे युग परिवर्तन करने के लिए ऐसे प्रशिक्षक चाहिए, जो न केवल वार्तालाप, शङ्का-समाधान एवं प्रवचनों द्वारा आवश्यक जानकारी दे सकें। वरन् अपनी प्राण-प्रतिभा का प्रयोग करके उल्टी मान्यता और क्रिया-प्रक्रिया को बलपूर्वक सीधी कर सकें

प्राचीनकाल में वातावरण अनुकूल था। तब उस प्रमुख प्रयोजन के लिए, आवश्यक संस्थानों के लिए इमारतें भी आसानी से बन जाती थीं। गाँव-गाँव छोटे-छोटे देवालय होते थे, जिन्हें पुरोधा सम्भालते थे और दैनिक कथा-वार्ता एवं पर्व-संस्कार आदि विशेष अवसरों पर जनसमुदाय के जनमानस की विकृतियों को सुधारते और सदाशयता के बीजांकुर इस प्रकार जमाते थे, जिससे वे समयानुसार फल-फूलों से लदे सुन्दर सुहावने वृक्ष बन सकें।

बच्चे की शिक्षा पाठशालाओं में होती थी। ग्राम-पुरोहित उनका सूत्र-सञ्चालन करते थे। यजमान उनकी निर्वाह-सामग्री समय-समय पर भिजवाते रहते थे। जिनके लिए अन्न-वस्त्र ही पर्याप्त हों, उनके लिए खर्च ही कितना चाहिए? बच्चों की पढ़ाई के बदले मुट्ठी भर अन्न देते रहना किसी को भारी नहीं पड़ता था। छात्रों को शिक्षा और विद्या का दोहरा लाभ बिना किसी अड़चन के मिलता रहता था ।

बड़ी कक्षाओं के लिए गुरुकुल थे, जिनमें छात्रों के लिए न केवल उच्चस्तरीय शिक्षा की व्यवस्था रहती थी, वरन् भोजन-वस्त्र जैसी व्यवस्थाओं का तारतम्य भी बना रहता था। अध्यापकों, उपाध्यायों, मनीषियों, वानप्रस्थों की शिक्षा आश्रम-आरण्यकों में होती थी। वयोवृद्ध मनीषियों का सामयिक चिन्तन और निर्धारण बुद्धिजीवी आश्रमों में चलता रहता था। पुस्तकों की संरचना और अनुवाद व प्रतिलिपि-लेखन भी उपर्युक्त संस्थानों में सम्पन्न हो जाता था। उपर्युक्त सभी शिक्षण-संस्थानों में न केवल बौद्धिक वरन् व्यावहारिक शालीनता के अभ्यास का अवसर भी मिल जाता था।

विदेशों में ज्ञान-चेतना जगाने के लिए परिव्राजकों के लिए विश्वविद्यालय बने हुए थे। वहाँ से परिपक्व होकर ऋषिकल्प परिव्राजक देश-देशान्तरों में निकल जाते थे और जहाँ, जिस प्रकार से सद्ज्ञान की आवश्यकता समझी जाती थी, वहाँ वैसा ही अध्यापन-तन्त्र खड़ा कर देते थे। सर्वविदित है कि कुमारजीव जैसे महामनीषियों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके चीन, जापान, कोरिया मंगोलिया, मञ्चूरिया आदि पूर्वोत्तर क्षेत्र में नवजीवन का संचार किया था। नालन्दा विश्वविद्यालय के महामनीषी कौन्डिल्य ने दक्षिण-पूरब के क्षेत्र तिब्बत, वर्मा, मलेशिया, इन्डोनेशिया, कम्पूचिया, जावा, सुमात्रा आदि को देव संस्कृति का केन्द्र बना दिया था।

समय का कुचक्र ही कहना चाहिए कि आज वह समूचा तन्त्र, पुरातन इमारतों के ध्वंसावशेष के रूप में जहाँ-तहाँ अपने पूर्व अस्तित्त्व का परिचय भर देता है। लोकरुचि उस प्रसङ्ग से हट गई-न पुरोहित रहे, न लोकमानस को जीवन्त-जाग्रत रखने वाले पुरोधा। साधु-ब्राह्मणों की संख्या तो लाखों-करोड़ों में हैं, पर जिन्हें अपने शाश्वत कर्तव्यों का ज्ञान है तथा उस प्रकार का कुछ करते भी हैं, उनकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक ही मानी जा सकती है। युग-ऋषियों का उत्पादन, निर्माण कहाँ होता है? उस स्थान को ढूँढ़ पाना भी शोध का विषय बन गया है। न वैसा कुछ पढ़ने में किसी को रुचि है और न पढ़ाने में। कारण कि नौकरी-व्यवसाय आदि में प्रचुर धन कमा लेने की ललक हर किसी हो घेरे हुए है। अध्यापक और छात्र भी इसी प्रसङ्ग को पढ़ते-पढ़ाते हैं।

जब विद्यातन्त्र तिरोहित हो गया और उसके हर कोने पर उदरपूर्ति से सम्बन्धित शिक्षा ही कब्जा किए हुए हो, तब सद्ज्ञान के केन्द्रों का सञ्चालन एवं निर्माण कहाँ से बन पड़े? धर्मशालाएँ बनवाकर नाम कमाने वाले अधिक-से अधिक इतना कर पाते हैं कि कोई मुफ्त दवा देने वाला औषधालय, सदावर्त या प्याऊ खुलवा दें। दान-पुण्य की सीमित परिधि इतने ही छोटे-क्षेत्र में सिकुड़कर रह गई है। देवता की प्रसन्नता, स्वर्ग में स्थान सुरक्षित होने की सम्भावना, जब प्रचुर सम्पदा का एक राई-रत्ती जितना अंश खर्च कर देने भर से पूरी हो जाती है, तो इतनी दूर की बात कौन सोचे कि विश्व को उन क्रान्ति-मनीषियों की भी जरूरत है, जो उल्टी चाल अपनाए हुए समुदाय को अपनी प्रचण्ड प्रेरणाओं के बल पर चलने के लिए घसीटें और बाध्य कर सकें।

अचिन्त्य-चिन्तन का शिकार लोकमानस तो बेतरह तबाह हो ही रहा है, इस अन्धड़ से उनकी आँखों में भी धूलि भर गई है, जो पुण्य परमार्थ की बात सोचने और उस दिशा में कुछ कर सकने की परिस्थितियों में हैं। जब समूचा प्रवाह ही स्वार्थ-साधन के लिए समर्पित है तो मनीषा और सम्पन्नता को ही क्या बन पड़ी है जो लोकहित की बात सोचें? जन कल्याण के सरञ्जाम जुटाए? उल्टे प्रवाह का मोड़कर सीधी दिशा में चलने के लिए लोकमानस को नियोजित करने का तारतम्य बिठाएँ? समय की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा कर सकने वाले प्रकाश-कण कहीं से उभरते नहीं। नव जागरण के स्वर कहीं से उठते नहीं। ऐसी दशा में घोर निराशा के गर्त में अपने को भी डूब जाने के लिए परामर्श देने की अपेक्षा, यही उपयुक्त दीखता है कि टैगोर के उस गीत को ही गाया-गुनगुनाया जाए, जिसमें उनने कहा था-एकला चलो रे’’

अकेला चलना कठिन तो है पर असम्भव नहीं। बुद्ध, गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द, मीरा, चैतन्य, कबीर आदि मण्डली गठित करने और साधन जुटाने की प्रतीक्षा में नहीं बैठे रहे वरन् अपने शरीर और मन मात्र को साथ लेकर उस मार्ग पर चले पड़े थे, जो दर्शकों परामर्शदाताओं को साधनों के अभाव में असम्भव जैसा प्रतीत होता था। इस सन्दर्भ में वे अधिक साहसी दीखते हैं, जो अपने स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर घोंसला छोड़कर अभीष्ट दिशा में उड़ चलते हैं और सफलता-असफलता की बात ईश्वर-भरोसे छोड़ देते हैं। देवर्षि नारद को भी विश्व-भ्रमण में चल पड़ने की हिम्मत आत्मा और परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कहीं से नहीं मिली थी।

चिर पुरातन को पुनर्जीवित करने के लिए सतयुग की वापसी जैसा भगीरथ प्रयत्न, शान्तिकुञ्ज ने अपने एकाकी बलबूते आरम्भ किया है। यों दिव्यदर्शी यह भी देखते हैं, कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। संकल्प के बल पर ब्रह्मा ने समूची सृष्टि रच डाली थी। फिर ऋषि-परम्परा इतनी मूर्छित तो नहीं हुई है जिसके पुनरुत्थान की आशा ही छोड़नी पड़े? लक्ष्मण की मूर्च्छा जगी थी। मानवीय गरिमा को पुनर्जीवित करने का संकल्प जगा है, तो कल-परसों यह भी तनकर खड़ा होगा।

लोकमानस-परिष्कार का प्रशिक्षण

शान्तिकुञ्ज एक छोटी-सी भूमि पर बसा, थोड़े-से लोगों द्वारा संचालित एक साधारण-सा आश्रम है। उसकी व्यय-व्यवस्था प्रेमी-परिजनों द्वारा नित्य निकाली जाने वाली दस पैसा जैसी छोटी राशि से चलती है। एक घण्टा समय नित्य निकालने वाले परिजन भी उसी श्रद्धा के बल पर इतनी भारी गाड़ी को अपने बलबूते घसीटते रहे हैं। सरकारी या धनाध्यक्षों के अनुग्रह की न कभी आशा की गई और न वह इस संकल्प की ओर उन्मुख ही हुआ।

सद्ज्ञान-प्रकाश के देवता ‘सविता’ के रथ में कभी ऋषि, मनीषि, तपस्वी, साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ और परिव्राजक रूपी सात अश्व मिल-जुलकर दौड़ते थे और उस ऊर्जा एवं आभा से विश्व का कोना-कोना आलोक से भरते थे। उस सांस्कृतिक रथ के निर्माण में समर्थ-सम्पन्न अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ नियोजित करते रहते थे। धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अवसर इसी आधार पर उपलब्ध हुआ था, पर अब तो सब कुछ उलटा हो गया, तथाकथित सन्तजन लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण करने के लिए देवताओं के एजेण्ट बन गए हैं। पैसा खरचने वाले आत्म-विडम्बना के अतिरिक्त और किसी काम के लिए एक कौड़ी भी खरचना नहीं चाहते। ऐसी दशा में विकृतियाँ ही बढ़ती हैं। विकृतियाँ मात्र विपत्ति ही नहीं लातीं, वे उनके समाधान के उपायों को भी झुठलाती और उधर ध्यान देने वालों को भी बरगलाती हैं। इस प्रकार समस्या दूनी, दुहरी और जटिल हो जाती है।

फिर भी कुछ करना तो है ही। स्वल्प सामर्थ्य में भी हीनता के भाव मन में न लाकर जो सम्भव है, उसे कर गुजरना ही इष्ट है। वही किया भी जा रहा है। दुष्कर्मों की तरह सत्कर्मों का अनुकरण करने वाले भी अनेकों निकल आते हैं। दीवाली की रात दीप-मालिकाओं से जगमगाने लगती है। दीप-पर्व मनाया जाता है और समझा जाता है कि समर्थों के मुँह मोड़ लेने पर भी सामान्यों और छोटों का समुदाय भी ऐसा कुछ कर गुजरता है, जिसे कम-से-कम सराहना का लाभ तो मिल ही सकेे।

अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली पत्रिकाओं के माध्यम से, पाँच लाख स्थायी और पच्चीस लाख अस्थायी परिजनों का एक समुदाय शान्तिकुञ्ज तन्त्र के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गया है। यह प्राय: पचास वर्ष से युग-समस्याओं उसके समाधानों और वर्तमान पीढ़ी के युगधर्म स्तर के कर्तव्यों के सम्बन्ध में निरन्तर कुछ पढ़ता, समझता, सोचता तो रहा ही है, साथ ही उसने समय की पुकार को सुनने और तद्नुरूप यथासम्भव कदम उठाते रहने का प्रयत्न भी चालू रखा है। यही है अपनी जीवन भर की सञ्चित पूँजी-अपना विचार परिवार, जिसे वशं-परम्परा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और सशक्त माना जा सकता है। इसी को श्रद्धासिक्त पुष्पाञ्जलि के रूप में युगदेवता के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया है। दशरथ ने अपने पुत्र विश्वामित्र को सौंप दिए थे। गुरुगोविन्द सिंह के पाँच पुत्रों का भी ऐसा ही श्रेष्ठ सदुपयोग हुआ था। नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय, प्रेम महाविद्यालय, कलकत्ता का नेशनल कॉलेज जैसे आश्रम भी अपने छात्रों को ऐसी ही दिशा में अग्रसर करके कृत्य-कृत्य हुए थे। शान्तिकुञ्ज के अन्तराल में भी ऐसी ही उत्कृष्ट अभिलाषा उभरी है कि वह भी ऐसा ही कुछ अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करे।

वसन्त, १९९० से शान्तिकुञ्ज में कई प्रशिक्षण एक साथ चल पड़े हैं। इनमें से प्रथम है-लोकमानस के परिष्कार का आन्दोलन और उसका सञ्चालन। दूसरा है-महिला जागरण, जिसमें आधी जनसंख्या को अपना मूल्य समझने, बोध करने के लिए शिक्षित स्वावलम्बी और सुसंस्कृत बनने की चेतना को उभारना है। तीसरी है-मानवीय अन्तराल में सन्निहित प्राण-चेतना के उद्दीपन हेतु साधनात्मक अन्वेषण का निर्धारण परीक्षण, यह शोध-प्रक्रिया ब्रह्मवर्चस् में की जाएगी। महिला-प्रशिक्षण को शक्ति-चेतना कहा जाएगा और भाव-सम्वेदना उभारने वाली शिक्षा को कल्प-प्रक्रिया नाम दिया गया है। यों तीनों ही उपक्रम एक ही तन्त्र के अन्तर्गत काम करेंगे और उनका सूत्र-सञ्चालन करने वाली ऊर्जा एक ही बिन्दु से उभरेगी।

कार्यारम्भ के प्रथम चरण में सोचा गया है कि पाँच लाख स्थायी पाठक परिजनों में हर साल एक लाख को प्रशिक्षित किया जाए, पाँच लाख को पाँच साल में प्रशिक्षित कर दिया जाए। यदि गति और दुगुनी बढ़ सकी तो सन् २००० के आगमन मेें, प्रस्तुत २५ लाख को न केवल प्रशिक्षित कर दिया जाएगा, वरन् किसी न किसी सीमा तक नियमित रुप से हर दिन कुछ न कुछ करते रहने का व्रत धारण करा दिया जाएगा।

एक से पाँच बनने-बनाने का एक आन्दोलन इसी के साथ चलाया जा रहा है। इस आधार पर आशा की जा सकती है कि जब इन्हीं दिनों ५ लाख के प्रभाव से २५ लाख कुसमुसाने और अँगड़ाई लेने लगे हैं तो आगामी वर्षों में २५ लाख से पाँच गुने बढ़कर सवा करोड़ हो सकते हैं। क्रम आगे भी जारी रहा तो सवा करोड़ का सवा छै करोड़ हो जाना भी असम्भव नहीं। इतने सृजन शिल्पी लोकमानस को परिष्कृत करने में, प्रचलनों में घुसी अवाञ्छनीयताओं को उलटने में बहुत हद तक सफल हो सकते हैं। स्रष्टा की सुनियोजित योजना आगे बढ़ती रही, तो वह दिन दूर नहीं कि जन-जन के मनों में समुद्र-मन्थन जैसी प्रक्रिया उभरे और उनमें एक से-एक बढ़कर दैवी सम्पत्ति के प्राणवान् रत्न निकलकर इस विश्ववसुधा को स्वर्गोपम बनाकर रख दें।

इन दिनों आदर्शवादी विरक्तों को खोज निकालने में सफलता नहीं मिल रही है। रंगीन कपड़े पहनने वालों, माला सटकाने वालों और मुफ्त के सुविधा-साधन बटोरने वालों की कमी नहीं। पर विवेकानन्द, दयानन्द एवं केशवानन्द कहाँ से आएँ? उस दिशा में प्राय: निराश हो चलने पर अब सोचा यह गया है कि सद्गृहस्थों के माध्यम से ही आपत्तिकालीन आवश्यकता को पूरा किया जा सकेगा। इसका और कोई विकल्प भी तो नहीं है।

हर वर्ष एक लाख का शिक्षण-यह शान्तिकुञ्ज का वर्तमान निर्धारण है। इसी संख्या में उन महिलाओं को भी सम्मिलित रखा गया है, जो घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर महिला-उन्नयन के लिए समय निकाल सकने की स्थिति में हैं। आशा की जानी चाहिए कि सुविधा-साधन बढ़ाते रहें तो अगले दस वर्ष में २५ लाख को अपने घर वालों में ही प्रशिक्षित कर दिया जाए। उन्हें ऐसा साँचा बना दिया जाए जो अपनी बनावट के अनुरूप नये पुर्जे, नये खिलौने ढालने की आवश्यकता पूरी करते रहें। ईश्वर की इच्छा विस्तार करने की हो, तो अपना मिशन भी मत्स्यावतार की तरह सुविस्तृत हो सकता है, समूचे संसार को अपने अंचल में बटोर सकता है।

उपरोक्त प्रशिक्षण वसन्त पर्व (३१ जनवरी ) सन् १९९० से विधिवत आरम्भ हो गया है। इसमें मात्र अखण्ड ज्योति के परिजन ही पाँच-पाँच दिन के लिए प्रवेश पा सकेंगे। सभी को समय का पूर्व निर्धारण करना होगा और स्वीकृति मिलने पर ही आने की तैयारी करनी होगी। अब उन सभी को कड़ाई के साथ आने के लिए मना कर दिया गया है, जो मात्र सैर-सपाटे के लिए आया करते थे। अशिक्षित, वयोवृद्ध, रोगी, बालक, अनगढ़ इन सत्रों में प्रवेश नहीं ही पा सकेंगे।

पंच दिवसीय साधना का स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप

मानवीय चेतना तीन शरीर धारण किए हुए है, जिनमें से एक को स्थूल, दूसरे को सूक्ष्म और तीसरे को कारण कहते हैं। इन्हीं के माध्यम से जानकारियाँ प्राप्त करने से लेकर उपलब्धियाँँ अर्जित करने तक के अनेकों क्रिया-कलाप सम्पन्न होते हैं। तदनुरूप ही वे हलके, भारी और सशक्त होते हैं।

बोलचाल की वाणी को ही लें, वह जीभ से निकलती, कानों के छेदों से टकराती, मस्तिष्क में पहुँचती, जानकारी देती और अपना कार्य पूरा कर लेती है। आमतौर से इसी का उच्चारण होता है। विचार-विनिमय अध्यापन-अध्ययन कथन-श्रवण में इसी का उपयोग होता रहा है। एक कहता व दूसरा सुनता है। जो जानने योग्य है, उसे जानता है। जो पहले से ही जाना हुआ है, उसकी उपेक्षा कर देता। उपदेश- प्रयोजन में भी इतनी ही प्रक्रिया सम्पन्न होती है, वक्ता कहते रहते हैं, श्रोता सुनते रहते हैं। जो नया कुछ होता है, उसे जान लेते हैं, शेष को निरर्थक समझकर विस्मृत कर देते हैं। धार्मिक प्रयोजन में भी यही होता रहता है। उसमें कथन-श्रवण का ही उपक्रम चलता रहा है। इस स्तर पर जानकारियों का आदान-प्रदान होता है। ऐसा कुछ नहीं बन पड़ता, तो प्रभाव डाले और अन्तराल की गहराई में प्रवेश करके प्रभाव छोड़े, चिरस्थायी बने और मानस में कोई कहने लायक परिवर्तन लाए।

शान्तिकुञ्ज के पाँच दिवसीय सत्रों में इससे कुछ अधिक, कुछ गम्भीर, कुछ प्राणवान् अनुभव होता है। इसलिए उस कथन का वजन भी होता है और प्रभाव भी। निर्धारित कथन किसी ऋषिकल्प मनीषी का ही होता है। उसे सन्देशवाहक की तरह किसी दूसरे से भी कहलवाया जा सकता है। उसके पीछे मात्र शब्द-शृंखला नहीं होती वरन् ऊर्जा रहती है, जो कथनी-करनी और प्राण चेतना से विनिर्मित होती है। यही कारण है कि वह सुनने वालों के अन्तराल की गहराई तक उतरती है, झकझोरती है और ऐसा दबाव डालती है, जिसके आधार पर तथ्यों को हृदयंगम करने और उन्हें जीवन में उतारने के लिए विवश होना पड़े। यही कारण है कि पञ्च दिवसीय सत्रों में प्रस्तुत किए गए प्रतिपादन अपनी समर्थता, प्रभावशीलता और प्राण-प्रतिभा सम्पन्न होने का परिचय देते हुए उस मर्म-स्थल तक जा पहुँचते हैं, जहाँ से जीवन-क्रम में आदर्शवादी उमंगें उद्भूत होती है। इनमें जिह्वा से निकलने वाली बैखरी वाणी ही काम नहीं करती वरन् उनके साथ सूक्ष्म परिकर की मध्यमा और कारण क्षेत्र की परावाणी का प्रभाव भी सम्मिलित होता है। वे इंजेक्शन की तरह रक्त-प्रवाह में भी सम्मिलित हो जाते हैं।

साधना से सिद्धि का सिद्धान्त सर्वविदित और सर्वमान्य है। सिद्धपुरुषों-महामानवों में जो असाधारण शक्ति देखी गई है, उसका एक ही मूलभूत कारण है-उनकी तपश्चर्या। आदर्शों के परिपालन में जो संयम बरतना पड़ता है, उससे बड़प्पन में घाटा पड़ता है। वह कसौटी ही संयम-साधना है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष एक और भी जुड़ा हुआ है कि सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के लिए श्रेष्ठता को अपनाने उभारने और उछालने में जो प्रयत्न-परिश्रम करना पड़ता है, यहाँ तक कि घाटा उठाने का भी अवसर आता है, उसे प्रसन्न एवं उल्लसित मन से सहन कर लेना। जो इन दोनों प्रयोजनों को उत्साहपूर्वक अंगीकार कर लेता है, उसे तपस्वी कहते हैं। शरीर और मन को कष्ट सहने के लिए अभ्यस्त बना लेना तितीक्षा है। तितीक्षा के अभ्यास से तपश्चर्या सरल बन जाती है और उसके विकसित होने पर सिद्धियों की फसल भण्डार भरने लगती है।

तप का स्वरूप क्या है? ताप-ऊर्जा द्वारा धातुएँ भट्ठी में पिघला कर अभीष्ट औजारों के रूप में ढाली जाती है। मिट्टी के बर्तन आँवे में पककर लाल और कड़े बन जाते हैं। पानी को गरमाने से भाप बनती है और उससे शक्तिशाली इंजन चलने लगते हैं। संसार के अधिकांश महत्त्वपूर्ण कार्यों में ऊर्जा के नियोजन की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। पञ्च दिवसीय साधना में भी व्यक्ति की सहन-शक्ति के अनुरूप विविध साधनाओं का समावेश रखा गया है। पूजा-उपासना के हर प्रसङ्ग में किसी-न किसी रूप में तपश्चर्या का अनुपात जुड़ा हुआ है। इसके बिना, मात्र उथले कर्मकाण्डों से, किसी को न सिद्धि मिल सकती है, न मिल सकेगी।

आत्मिक प्रगति में एक और भी बड़ी अड़चन है। पूर्व-सञ्चित दुष्कर्मों का समुच्चय। उस विपन्नता को बिना प्रायश्चित के और किसी प्रकार हटाया नहीं जा सकता। मैले कपड़े को धोया न जाए तो उस पर रंग कैसे चढ़े? बिना तपे धातु का शुद्ध स्वरूप कैसे निखरे और उससे उपयोगी औजार कैसे बने? क्रियमाण दुष्कर्म एक ही माँग करता है कि जितनी गहरी खाई खोदी गई है, उसमें उतनी ही मिट्टी डालकर स्थिति समतल जैसी बनाई जाए। यही प्रायश्चित-प्रक्रिया है। इसके लिए पंच दिवसीय साधना में जहाँ प्रतीकात्मक प्रायश्चितों की चिह्न-पूजा का विधान रहता है, वहाँ यह भी कहा जाता है कि -पापों की खाई पाट सकने योग्य पुण्यकर्मों का नए सिरे से कुछ ऐसा आयोजन किया जाए, जिससे उत्पन्न की गई दुष्प्रवृत्तियाँ अभिनव सत्प्रवृत्तियों से दब-ढँक सकें।

यहाँ एक प्रसंग अनुदान का भी है बीज मात्र अपने बलबूते ही वृक्ष नहीं बन जाता, उसे खाद, पानी, रखवाली जैसी बाहरी सहायताएँ भी अपेक्षित रहती है। शान्तिकुञ्ज के वातावरण में ऐसे तत्त्वों का समुचित समावेश हुआ है, जिसके सान्निध्य में चन्दन के समीप उगे हुए पौधों की तरह अतिरिक्त लाभ भी मिल सके। स्वाति-वर्षा जब कभी, जहाँ कहीं भी होती है, तब वहाँ समुचित क्षमता वाली सीपों में मोती, केलों में कपूर, बाँसों में वंशलोचन जैसी बहुमूल्य उपलब्धियाँँ उपलब्ध होकर रहती हैं। शान्तिकुञ्ज में ऐसे तत्त्व अदृश्य रूप से बरसते रहते हैं, जिन्हें यथा समय ओस-बिन्दुओं की तरह घनीभूत देखा जा सके।

पारस, अमृत और कल्पवृक्ष की चर्चा इस रूप में होती रहती है कि उनका सम्पर्क-सान्निध्य निहाल कर देता है। सेनेटोरियम उन स्थानों पर बनते हैं, जहाँ की जलवायु औषधि-उपचार से भी अधिक लाभदायक हो, रुग्णता और दुर्बलता को भगाने में अमृतोपम सिद्ध हो। शान्तिकुञ्ज क्षेत्र को ऐसी सुसंस्कारी भूमि के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ गंगातट, हिमालय की छाया और सप्त-ऋषियों की तपश्चर्या के विशिष्ट संस्कार अभी भी अपने पुरातन प्रभाव का परिचय देते हैं।

साधकों को जो आहार दिया जाता है, वह उच्चस्तरीय सात्विकता से परिपूर्ण और प्राणचेतना की आध्यात्मिकता से अनुप्राणित रहता है। उसे बाजारू फलाहार से कहीं अधिक उच्चस्तरीय समझा जाता है।

शान्तिकुञ्ज के सूत्र-संचालन में जिस ऋषि-युग्म की प्रधान भूमिका है, वे अगले दिनों शरीर न रहने पर भी इस पुण्यभूमि में अपना अस्तित्त्व बनाए रहने के लिए वचनबद्ध हैं। अगली स्थिति में उनकी साधना और भी अधिक उग्र हो जागी। उस समूचे उपार्जन का लाभ उन परिजनों को अनवरत रूप से मिलता रहेगा, जो अगले दिनों नवसृजन के हेतु अपना समयदान, अंशदान नियोजित करने में कृपणता न बरतेंगे।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।