शिक्षा ही नहीं विद्या भी - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 15)

अनुक्रमणिका

1. परिवर्तन की पुकार और गुहार
2. सृजन विद्या के प्राध्यापक चाहिए
3. युगचेतना का प्रचार विस्तार
4. नवसृजन की अनुपम अध्यात्म-साधना
5. वाणी द्वारा युग चेतना का प्रसार-विस्तार
6. लोक-रंजन के साथ जुड़ा हुआ लोक-मंगल
7. तीर्थयात्रा का आदर्श
8. आगामी दस वर्ष-अति महत्त्वपूर्ण


परिवर्तन की पुकार और गुहार

एक भाषा-भाषी क्षेत्र का निवासी यदि दूसरी भाषा बोलने वाले क्षेत्र में बसने जाए, तो सर्वप्रथम उसे उस नये क्षेत्र की भाषा का अभ्यास करना पड़ेगा। वहाँ के रहन-सहन रीति-रिवाज विचार, संस्कृति आदि से परिचित होने की आवश्यकता पड़ेगी। यदि इसे सीखने-जानने की उपेक्षा बरती जाए, तो पग-पग पर गूँगे, बहरे, अजनबी की तरह परेशान होना पड़ेगा। ईसाई, पादरी प्राय: योरोपीय देशों से आते हैं। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे एशिया-अफ्रीका आदि महाद्वीपों में जाकर बसते हैं और प्रमुख रूप से पिछड़े इलाकों को अपना कार्य क्षेत्र चुनते हैं। इससे पूर्व उन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति, समस्या आदि से परिचित होना पड़ता है, साथ ही यह भी जानना होता है कि उनके साथ किस प्रकार घुला-मिला जा सकता है। यदि इस प्रक्रिया को न अपनाया जाए और किसी भी पादरी को वहाँ भेज दिया जाए, तो वह उस अपरिचित स्थिति में कोई सफलता अर्जित न कर सकेगा।

इक्कीसवीं सदी एक प्रकार से ऐसी परिस्थितियों वाली अवधि या परिधि है जिसमें प्रवेश करने वालों को पुरानी आदतें भुलानी और नए सिरे से नई जानकारियाँ अर्जित करके व्यवहार में उतारनी पड़ेगी। इसके बिना गाड़ी एक भी कदम आगे न चल सकेगी।

युग परिवर्तन में मनुष्यों की आकृति तो अब जैसी ही रहेगी, पर उनकी प्रकृति बदल जाएगी। प्रकृति से यहाँ तात्पर्य-मान्यता भावना, विचारणा, इच्छा और गतिविधियों का समुच्चय है। यों प्रकृति शब्द संसार को गतिशील रखने वाले प्रवाह को भी कहते हैं, पर यहाँ तात्पर्य मात्र गुण, कर्म, स्वभाव से है। परिवर्तन इन्हीं में होना है। उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना वाली भवितव्यता पूरी तरह इसी केंद्र-बिंदु पर निर्भर है। इसलिए भावी परिवर्तन की चर्चा करने वाले प्राय: यही कहते हैं कि अगले दिनों सर्वसाधारण की न सही, विचारवानों की प्रकृति तो लगभग इतनी बदल जाएगी, जिसे आमूलचूल हेर-फेर के रूप में देखा जा सके।

इन दिनों प्रस्तुत असंख्य विपत्तियों का सबसे बड़ा निमित्त कारण एक ही है कि मनुष्य अदूरदर्शिता की व्याधि से ग्रस्त है। उसे लगता है कि तात्कालिक रसास्वाद को ही सब कुछ मान लिया जाए। जो कुछ सोचा या दिया जाए, उसे अपने आपे तक ही सीमित रखा जाए। बहुत हुआ तो उन्हें भी कुछ सहारा दे दिया जाए, जिनसे लाभ मिलता है या मिलने वाला है। इसके अतिरिक्त जो भी प्राणी या पदार्थ संसार में शेष रहते हैं, उनका दोहन किया जाए। वैसा न बन पड़े तो उपेक्षित छोड़ दिया जाए। अन्यान्यों के प्रति भी अपना कुछ कर्तव्य या उत्तरदायित्व है, इसे समझने या क्रियान्वित करने की अभिरूचि एक प्रकार से समाप्त जैसी ही हो गई है। योजनाएँ बनाने और प्रयास करने के लिए एकमात्र स्वार्थपरता ही शेष रहती है। परमार्थ तो मात्र मनोविनोद जैसी चर्चा का विषय रह जाता है। बहुत हुआ तो आत्म विज्ञापन के लिए उदारचेता होने का ढिंढोरा पिटवा कर अपनी मलीनता पर तनिक सी पॉलिश पोत ली।

आज की मान्यता यही है। इसी आधार पर सोचा-विचारा जाता है और जो कुछ करना होता है, उसका ताना-बाना बुना जाता है। फलत: वही बन पड़ता है जिसे मानवी गरिमा के सर्वथा प्रतिकूल कहा जा सके। आत्म केंद्रित स्वार्थ परायण व्यक्ति, क्रमश: इतना निष्ठुर और कृपण हो जाता है कि अपनी उपलब्धियों में से राई-रत्ती भी सत्प्रयोजनों के लिए लगाने का मन नहीं करता। निष्ठुरता इतनी बढ़ जाती है कि दूसरों की पीड़ा एवं पतनोन्मुख स्थिति में सहारा देने के लिए राई-रत्ती उत्साह भी नहीं उभरता। लोक लाज की विवशता से यदाकदा कभी ऐसा कुछ करना पड़े, तो उसके बदले भी सस्ती वाहवाही को अपेक्षाकृत कहीं अधिक मात्रा में लूट लेने का उद्देश्य रहता है। जिससे बदला मिलने की आशा रहती है, उसी के साथ सद्व्यवहार का, सहायता का हाथ उठता है। यही है वह मौलिक दुष्प्रवृत्ति, जिसने असंख्यों छल प्रपंचों, अपराधों और अनर्थों को जन्म दिया है। बढ़ते-बढ़ते वह स्थिति अब इस स्तर तक पहुँच गई है कि हर किसी को अपनी छाया तक से डर लगने लगा है। लोकहित का ढिंढोरा पीटने वालों के प्रति सहज आशंका बनी रहती है कि कहीं कुछ सर्वनाशी अनर्थ का सरंजाम तो खड़ा नहीं कर दिया हैै।

सेवा-सहायता की आशा मूर्धन्यों से की जानी चाहिए, पर उनके प्रति और भी अधिक गहरा अविश्वास अपना परिचय देता है। प्रदूषण उगलकर हवा में जहर छोड़ते रहने वाले उद्योगपति यों अभावग्रस्तों के लिए प्रचुर परिमाण में सुविधा-साधन उत्पन्न करने की दुहाई देते है, पर वह सम्भावना पर्दे की ओट में छिपा दी जाती है, जिसके कारण विषैली साँस लेने के कारण असंख्यों को दुर्बलता और रुग्णता के शिकार बनकर घुट-घुट कर मरना पड़ता है। यही लोग हैं जो पेय जल में विषाक्त रसायन घोलते और पीने वाले के लिए अकाल मृत्यु का संकट उत्पन्न करते हैं। बड़े उद्योगों के कारण कितने छोटे श्रम-जीवियों को बेकार-बेरोजगार रहना पड़ता है; उसके विरुद्ध कोई मुँह भी नहीं खोल पाता।

गुंडागर्दी इसलिए दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती है कि उनका संगठित प्रतिरोध कर सकने की साहसिकता लगभग समाप्त हो गई है। मार्गदर्शन की, धर्मोपदेश की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है, वे मात्र परावलम्बन का-भाग्यवाद का प्रतिपादन करते हैं। शौर्य-साहस जगाने में उनका दूर का भी वास्ता नहीं रहता। परावलम्बन के पक्षधर उथले कर्मकाण्ड भर सिखाने की उनकी रीति-नीति चलती रहती है। जब इतने भर से उन्हें प्रचुर परिणाम में सम्मान सहित सुविधा-साधन मिल जाते हैं, तो उस विवेकशीलता को क्यों जगाएँ, जो समर्थ होने पर उल्टी उन्हीं के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर सकती है। कला ने कामुकता का बाना ओढ़कर अपने को अधिक लोकप्रिय बनाने का मार्ग चुना है। सम्पन्नता ऐसे उत्पादन करने में लगी है, जिनमें सर्वसाधारण को आकर्षक चकाचौंध तो दिख पड़ती है, पर अन्तत: अहित के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। जब मूर्धन्यों का दृष्टिकोण यह है, तो सर्वसाधारण को उनका अनुकरण करते हुए कितने गहरे गर्त में गिरना पड़ेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

संक्षेप में यही है आज के प्रचलन की बानगी। नशेबाजी से लेकर बहु प्रजनन तक के कुप्रचलन इसी परिधि में आते हैं। पर्दा प्रथा, जातिगत ऊँच-नीच मृतक भोज, दुर्व्यसन एवं अपराध इसी संकीर्ण-स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में पनपे हुए हैं, जिनके कारण हर किसी को दु:खी होकर समग्र परिवर्तन का आह्वान करना पड़ रहा है। बात सही भी है। विष वृक्ष की जड़े कटेें, तो ही उन फलों का उत्पादन रुके, जो व्यथा-वेदनाओं की भरमार करने में ही काम आते हैं।

आज दसों दिशाएँ एक स्वर से किसी बड़े परिवर्तन की पुकार और गुहार मचा रही हैं। नियंता ने आश्वासन दिया है कि अगली एक शताब्दी के भीतर महाविनाश का विस्तार समेट लिया जाएगा और उज्ज्वल भविष्य का वातावरण बनेगा। इस परिवर्तन के लिए कुछ ऐसी ही तैयारी करनी होगी जैसे, एक भाषा के जानकार को किसी अन्य भाषाई क्षेत्र में काम करने भेजा जाए। छोटे प्रशिक्षण तक जब निष्णात प्रशिक्षकों की माँग करते हैं, तो युग परिवर्तन के लिए तो ऐसे महाशिल्पी चाहिए, जो नए युग और नए वातावरण का सृजन कर सके।

सृजन विद्या के प्राध्यापक चाहिए

‘नव सृजन योजना’ महाकाल की योजना है। वह पूरी तो होनी ही है। उस परिवर्तन का आधार बनेगा चरित्रनिष्ठ, भाव-सम्वेदना युक्त व्यक्तित्वों से। ऐसे व्यक्तित्व बनाना विद्या का काम है, मात्र शिक्षा उसके लिए पर्याप्त नहीं। मात्र शिक्षा-साक्षरता तो मनुष्य को निपट स्वार्थी भी बना सकती है। उसमें विद्या का समावेश अनिवार्य है। अस्तु, नवयुग के अनुरूप मन:स्थितियाँ एवं परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए बड़ी संख्या में ऐसे प्राध्यापकों की आवश्यकता अनुभव हो रही है, जिनकी शिक्षा भले ही सामान्य हो, पर वे अपने चुंबकीय व्यक्तित्व और चरित्र से निकटवर्ती क्षेत्र को अपनी विशिष्टताओं से भर देने की विद्या के धनी हों।

नाविक के लिए आवश्यक नहीं कि उसके पास स्नातकोत्तर परीक्षा पास करने का प्रमाण पत्र हो ही। मजबूत कलाई और चौड़े सीने वाला हिम्मत के सहारे उफनती नदी की छाती पर दनदनाता हुआ दौड़ता रहता है। अपने को, अपने निकट वालों को-नाव पर बैठी हुई सवारियों को इस पार से उस पार पहुँचाने में उसे देर नहीं लगती, वरन् हिम्मत और सफलता को देखते हुए गर्व-गौरव अनुभव करता है।

विद्वान, मनीषी और मूर्धन्य सर्वत्र सम्मान पाते हैं। उनकी गरिमा और उपयोगिता से कोई इन्कार नहीं कर रहा है, वरन कहा यह भर जा रहा है कि ईमान और भगवान को भुला देने वाले आज के समुदाय को ऐसे उद्धारक चाहिए, जो गहरी कीचड़ में फँसे जानवरों की खींच घसीट कर किनारे तक पहुँचा देने की साहसिकता का परिचय दे सकें।

अगले दिनों नव-युग का आगमन आँधी तूफान की तरह दौड़ता चला आ रहा है। उसमें होगा तो प्रथा प्रचलनों का परिवर्तन भी, पर सबसे प्रमुख एवं मौलिक परिवर्तन एक ही होगा कि मनुष्य को इक्कड़ बनकर नहीं रहने दिया जाएगा। जंगली जानवरों में कभी-कभी झुंड को छोड़कर कोई उद्दण्ड अकेले रहने लगता है। वह सामूहिकता की रीति-नीति भूल जाता है और बगावत पर उतर आता है। किसी पर भी आँखें बंद करके हमला बोल देता है। उसे ‘इक्कड़’ कहते हैं।

इक्कड़ मनुष्य, जिसके ऊपर संकीर्ण स्वार्थपरता का प्रेत-पिशाच हर समय चढ़ा रहता है, उसे हर किसी के लिए खतरनाक ही समझना चाहिए। समस्त अपराधों और अनाचारों की जन्मदात्री संकीर्ण स्वार्थपरता ही है। आज की अगणित विडम्बनाओं, विभीषिकाओं का यदि एकमात्र कारण ढूँढ़ना हो तो उसे एक ही रूप में मापा जा सकता है-तृष्णा और अहमन्यता। यदि इसमें कटौती की जा सके, तो समझना चाहिए कि सिर पर लदा चट्टान जैसा भारी बोझ हल्का हुआ और मानवी गरिमा के अनुरूप प्रगति कर सकने का पथ प्रशस्त हुआ।

मनुष्य की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह दो मुट्ठी अनाज और दो गज कपड़े के सहारे मजे में गुजारा कर सकता है। इतना जुटाने में उसका दो घंटे का श्रम-समय पर्याप्त होना चाहिए। यह सुविधा सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं है। उन्हें दिन भर पेट भरने का जुगाड़ बिठाने में दौड़ना पड़ता है। सुरक्षा की दृष्टि से भी उन्हें भयभीत रहना पड़ता है; पर मनुष्य के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं है। निजी निर्वाह के अतिरिक्त जो कुछ उसके पास बच जाता है, वह आवश्यकता पूर्ति के अतिरिक्त सैकड़ों हजारों गुना अधिक है। इस बचत को पुण्य-परमार्थ के लिए नियोजित करके ही संसार के विवेकवानों ने दैव मानव का स्तर पाया है, अपना भला किया है और असंख्यों को अपने कन्धों पर बिठाकर पार उतारने का श्रेय संपादित किया है।

यदि इतनी मोटी बात किसी की भाव-चेतना में प्रवेश कर सके, व्यवहार में उतर सके तो समझना चाहिए कि उसे देव-मानव बनने का सौभाग्य हस्तगत हो गया। उसे अवांछनीयता के प्रवाह-वातावरण को बदलने का अकूत बल उपलब्ध हो गया। अन्यथा सड़न से उत्पन्न होने वाले विष कीटकों द्वारा सर्वत्र गंदगी फैलाने का खतरा सामने खड़ा ही रहेगा।

नव-युग में शिक्षा-साक्षरता तो बढ़ती ही रहेगी। व्यक्ति समाज और सरकार ने उसे मान्यता दे दी है, फिर वह बढ़ेगी क्यों नहीं? कुछ ही दिन में निरक्षरता की कालिख से सभी लोग अपना मुँह धोकर साफ कर लेंगे। प्रश्न विद्या का है। उसका न कहीं महत्त्व समझा जा रहा है और न कोई आवश्यकता ही। मानवी गरिमा को उपलब्ध करने के लिए किसी का मन नहीं। उत्कृष्ट आदर्शवादिता और दूरदर्शी विवेकशीलता को बढ़ाने-अपनाने के लिए कहीं ऐसे प्रयत्न नहीं चल रहे हैं, जिन्हें आशा भरी दृष्टि से देखा और सन्तोषजनक कहा जा सके।

इस आवश्यकता की पूर्ति युग सृजेताओं को करनी पड़ेगी। आशा की गई है कि वे शान्तिकुञ्ज परिवार से निकलेंगे और अपने महान व्यक्तित्व और कर्तृत्व से समूचे वातावरण में नव जीवन का संचार करेंगे। ऐसे श्रेयाधिकारियों को अभ्युदय की दिशा में दो कदम अनिवार्य रूप से उठाने पड़ेंगे; एक निजी आवश्यकताओं और महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाना, इसे संयम कह सकते हैं, दूसरा विद्या-विस्तार के लिए तड़पन भरा पुरुषार्थ उभारना, इसे सेवा-साधना कह सकते हैं।

प्रथम चरण में औसत नागरिक के निर्वाह की कसौटी पर स्वयं को खरा सिद्ध करना होगा। यहाँ अधिक उत्पादन पर रोक नहीं है; पर निजी खर्चों में इतनी अधिक कटौती करनी चाहिए कि उसे तपस्वी जीवन न सही, सादा जीवन उच्च-विचार स्तर का तो समझा ही जा सके।

इतना पहला कदम उठा लेगा वह अनुभव करेगा कि उसके पास जो समय, श्रम, कौशल, मनोयोग ही नहीं, साधनों का भी इतना बाहुल्य है कि समय की महती पुकार को पूरा करने के लिए युग देवता के चरणों पर श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत करते हुए असंख्यों के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सके।

इस सन्दर्भ में न तो उच्च शिक्षा की आवश्यकता है और न विपुल सम्पन्नता की। उस चतुरता की भी आवश्यकता नहीं है जो लम्बे चौड़े भाषण देकर लोगों को बहका तो लेती है, पर निजी व्यक्तित्व खोखला होने के कारण प्रभाव छोड़ने की दृष्टि से शून्य ही रहता है। इन दिनों उपदेशकों-वक्ताओं की हर क्षेत्र में एक प्रकार की आँधी जैसी आई हुई है। ऊँची कुर्सी पर बैठने, गले में माला पहनने और माइक को झकझोर कर रख देने के लिए हर कोई प्यासा फिरता है। एक को प्रमुखता मिलने पर उसके अन्य साथी मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं।

निजी सुविधाओं में कटौती के प्रति जो लोग श्रद्धा सँजो लेंगे, उन्हें सच्चे अर्थों में संयमी, तपस्वी, बैरागी कहा जा सकेगा, भले ही वे घर परिवार के बीच मिल-जुलकर सज्जनोचित जीवन निर्वाह करते हों। उनके लिए यह नितान्त सरल होगा कि अपना आदर्श उपस्थित करते हुए अनेकों को अपेक्षाकृत ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का प्रोत्साहन दे सकें। युग अध्यापकों की इन दिनों जो भारी पुकार है, वे इसी वर्ग में से निकलेंगे, जिन्होंने अध्यात्म दर्शन को इन आधारभूत सिद्धान्तों को किसी सीमा तक अपना लिया होगा, जो आदर्श पालन की दृष्टि से दूसरों की अपेक्षा अपना स्तर कुछ ऊँचा उठा सके होंगे।

युगचेतना का प्रचार विस्तार

संयम और सेवा के दो व्रत धारण कर लेने पर अध्यात्म स्तर की कर्मयोग साधना बन पड़ती है। लोक शिक्षण इसी के अन्तर्गत आता है। विद्या विस्तार यही है। इसी के माध्यम से चिन्तन क्षेत्र पर छाई हुई विकृतियों का निराकरण किया जाता है। यदि मनुष्य सही सोचने और सही करने लगे, तो समझना चाहिए कि उसके लिए देवत्व अदृश्य न रहेगा, अपनी आभा और ऊर्जा का प्रत्यक्ष परिचय देने लगेगा। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ५ लाख प्रौढ़ परिपक्वों तथा उनके साथ जुड़े हुए २० लाख गदराए प्रज्ञा-पुत्रों की सृजन-सेना विनिर्मित होती है। इसमें से एक लाख भूल-चूक के लिए छोड़ देने पर वे २४ लाख हर हालत में हो ही जाते हैं।

संयम तप से अपने निर्वाह तथा महत्त्वाकाँक्षाओं में कटौती करने पर, इतने स्वल्प साधनों से जीवनचर्या बन पड़ती है कि तत्परता और तन्मयता अपनाने वाला हर व्यक्ति समय, श्रम, मनोयोग और साधनों की ढेरों बचत कर सकता है उस वक्त नव सृजन के लिए लगते रहते पर इतना कुछ बन पड़ सकता है कि महान परिवर्तन की सम्भावनाएँ साकार होने में किसी प्रकार का सन्देह न रहे।

हर परिजन को न्यूनतम दो घंटे का समय अपने क्षेत्र में युग-चेतना को व्यापक बनाने के लिए लगाते रहने के लिए कहा गया है। २४ लाख व्यक्तियों के दो-दो घंटे मिलकर ४८ लाख घंटे होते हैं। ६ घंटे का एक श्रम दिवस मान लिया जाए तो आठ लाख व्यक्तियों के पूरे दिन के काम के बराबर हो जाते हैं। यह नवसृजन के विविध प्रयोजनों में खपा सके, तो ऐसा उत्साहवर्धक वातावरण बन पड़ेगा, जिसकी कल्पना मात्र से पुलकित कर देने वाला उत्साह उमँगने लगे।

चौबीस लाख व्यक्ति यदि न्यूनतम राशि २० पैसा ही एकत्रित करने लगें, तो वह चार लाख अस्सी हजार रुपया प्रतिदिन हो सकती है। इसे यदि सृजन शिल्पी विद्या विस्तार के लिए अपने-अपने क्षेत्र में मितव्ययिता एवं सतर्कतापूर्वक लगाने लगें, तो उतने भर से अगणित क्षेत्रों की सृजन आवश्यकताएँ सहज ही पूरी हो सकती हैं। तब न सरकार से सहायता माँगने की आवश्यकता पड़ेगी और न कहीं दरवाजे- दरवाजे चंदा करने की। अपने छोटे परिवार का छोटा अनुदान संयुक्त रूप से इतना समर्थ हो सकता हैै कि अपनी पहुँच का कोई घर-गाँव नवयुग का अलख नित्यप्रति सुनते रहने से वंचित नहीं रहे और एक करोड़ व्यक्ति नवचेतना से अनुप्राणित हो सकें।

दुर्बुद्धि से, भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण उभरता है। दुर्बुद्धि को भी कपड़े की तरह साबुन, पानी से धोया जा सकता है। यह दोनों हैं- स्वाध्याय और सत्संग। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दोनों का नाम भर शेष है, पर उसका वास्तविक और प्राणवान स्वरूप न जाने कहाँ तिरोहित हो गया है। फिर दूसरी बात एक और है कि युग की समस्याओं के अनुरूप ही इन दोनों का निर्धारण होता है। युग चेतना, युग दृष्टाओं के मानस से उभरती है। इसी प्रकार सत्साहस भी उन्हीं प्राणवान व्यक्तित्वों का काम देता है, जो न केवल प्रखर प्रतिभा से सम्पन्न हो, वरन् सामयिक उलझनों के समाधान का भी व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।

शान्तिकुञ्ज की युग निर्माण योजना द्वारा युग साहित्य इन्हीं दिनों सृजा गया है, जिसका मूल्य प्राय: कागज स्याही जितना ही रखा गया है। कापीराइट भी किसी का नहीं है। कोई भी छाप सकता है। इसी प्रकार सत्संग केे लिए भी एक सीमित परिधि की विचारधारा निर्धारित की गई है। प्रवचनों में भी सीमित विचारों को गहराई तक उतार देने पर ही बात बनती है, अन्यथा सड़कों पर मजमा लगाने वाले भी कुछ न कुछ बकझक करते और भीड़ जमा कर लेते हैं। ऐसी बकवास को सुनना भी भारी पड़ता है, क्योंकि उससे उल्टा और अहितकर चिन्तन भी गले बँध सकता है।

सत्संग के दो पक्ष हैं-एक गायन दूसरा प्रवचन। यों इन दोनों की आवश्यकता पूरी करने वाली सस्ती पुस्तिकाएँ छाप दी गई हैं, पर जिनको और अधिक सरसता चाहिए उनके लिए वीडियो टेप तैयार कर दिए गए है। इनमें सूत्र संचालक के प्रवचन, माता जी के गायन और देव कन्याओं के सहकीर्तन सम्मिलित हैं। एक टेप ऐसा भी है जिसमें युग परिवर्तन के मूलभूत सिद्धान्तों को संक्षिप्त एवं सरल सुबोध ढंग से समाविष्ट कर दिया है। यह टेप शान्तिकुञ्ज में उपलब्ध हैं, जिन्हें कोई भी अपने टेप रिकार्डर पर बजा कर एकत्रित लोगों के बीच युग प्रवक्ता की, युग गायक की भूमिका निभा सकता है। युग चेतना के प्रचार-विस्तार का यह भी एक सरल तरीका है।

विद्या विस्तार के लिए साहित्य और वाणी दोनों का उपयोग व्यापक रूप से किया जाना है। ज्ञान रथ, साइकिल यात्राएँ, सद्वाक्य लेखन, झोला पुस्तकालय, सत्संग , दीपयज्ञ आदि के माध्यम से सृजनशिल्पी हर क्षेत्र में युग चेतना का विस्तार करने के लिए कटिबद्ध होकर जुट पड़ें- ऐसा माहौल बन रहा है। निर्धारित सीमित समयदान के अन्तर्गत ही यह कार्य करते रहना सम्भव है।

झोला पुस्तकालय की प्रक्रिया कुछ दिनों से सफलतापूर्वक चल रही है। कंधे पर लटके झोले में युग साहित्य भर कर अपने परिचय क्षेत्र के शिक्षितों को घर बैठे, बिना मूल्य देते रहना और पढ़ लेने पर खुद ही जाकर उसे वापिस ले आना। ऐसे पढ़ने वालों को यह भी कहा जाता है कि वे इन पुस्तकों को संबद्ध अशिक्षित लोगों को सुनाते रहने की जिम्मेदारी भी उठाएँ। इस प्रक्रिया में युग चेतना से शिक्षितों और अशिक्षितों को समान रूप से अवगत अनुप्राणित होने का अवसर मिलता है। पढ़ा चुकने पर यही साहित्य घरेलू पुस्तकालय के रूप में बदल जाता है और परिवार की स्थायी निधि बनकर एक प्रकार का चेतना पुंज बना रहता है। हर महीने नई पुस्तकें खरीदते और भंडार बढ़ाते रहने की आवश्यकता उसी राशि से पूरी हो जाती है, जो हर दिन दस या बीस पैसे जितना सद्ज्ञान विस्तार प्रयोजन के लिए परिजन स्वेच्छापूर्वक निकालते रहते हैं। यह स्वाध्याय की छोटी, किन्तु सशक्त प्रक्रिया हुई।

दूसरा पक्ष है-सत्संग इसके लिए प्रज्ञा केंद्र में साप्ताहिक सत्संग चलते हैं। उनमें सहगान कीर्तन, युगसाहित्य पठन के आधार पर प्रवचन चलता रहता है। साथ ही थोड़ी सी अगरबत्तियाँ जलाकर कुछ दीपक थाली में रख कर दीप यज्ञ की पुण्य प्रक्रिया भी सम्पन्न हो जाती है। कहीं-कहीं साप्ताहिक सत्संग के स्थान पर यह प्रबन्ध किया गया है कि गृह स्वामी का जन्म दिवस जिस दिन हो, उस दिन अपने स्वजन सम्बन्धियों की उपस्थिति में एक छोटा समारोह कर लिया जाए।

दीवारों पर आदर्श वाक्यों का लिखना एवं अलमारियों, किवाड़ों, फर्नीचरों, अटैची आदि पर स्टीकर चिपकाना अपने ढंग का एक अनोखा कार्य है, जो उधर से गुजरने या देखने वाले, हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और पढ़ने वाले के मस्तिष्क में एक बिजली-सी कौंधा देता है। यह कार्य यदि गली-मुहल्लों में भली प्रकार कर लिया गया है, तो समझना चाहिए यह बोलती दीवारें राहगीरों को ऐसा कुछ निरंतर सिखाती समझाती रहेंगी, जिन्हें आदर्शवादी प्रेरणाओं से ओत-प्रोत कहा जा सके।

नव सृजन की अनुपम अध्यात्म-साधना

दृश्यमान स्थूल शरीर के अतिरिक्त अदृश्य स्तर के दो शरीर और भी हैं, जिन्हें सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर कहते हैं। सूक्ष्म में दूरदर्शिता का और कारण में भाव-सम्वेदना का निवास है। इन क्षेत्रों को उनकी आवश्यकताएँ उपलब्ध होती रहें, तो आरोग्य सन्तुलन उनमें भी बना रहेगा। इन पर प्रभाव तो स्वाध्याय सत्संग का भी पड़ता है, पर यदि निर्धारित साधन उपचार भी अपनाए जा सकें तो और भी अच्छा। इनका समावेश रहने से उपरोक्त दोनों केन्द्रों में प्रगति की और भी अधिक सम्भावना रहती है। सूक्ष्म शरीर के लिए जप और कारण शरीर के लिए ध्यान प्रक्रिया का, अनुभवी साधना विज्ञानियों ने निर्धारण किया है।

जप प्रयोजन के लिए अनेक मत−मतान्तरों के अपने-अपने नियम और निर्धारण है, पर यदि सार्वभौम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण किया जाए, तो गायत्री महामन्त्र सार्वजनीन स्तर का बैठता है। उसकी जप-पुनरावृत्ति करने पर व्यक्तियों में संयमित स्तर की प्रतिभा उभरती है, साथ ही अदृश्य वातावरण में भी प्रेरणाप्रद तत्त्वों का बाहुल्य बन पड़ता है। न्यूनतम १०८ मन्त्रों की एक माला जप ली जाय, तो अन्तराल में ज्ञान जैसी स्फूर्ति का अनुभव होता है। अधिक जिससे जितना बन पड़े, उतना ही अधिक लाभदायक रहेगा। अच्छा तो यही है कि नित्य कर्म से, स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान पर बैठकर जल और अग्नि की साक्षी में उसे सम्पन्न किया जाए। पूजा की चौकी पर छोटा जल कलश और अगरबत्ती जलाकर वातावरण को अधिक अनुकूल बना लिया जाए, पर जिनके लिए ऐसी स्वच्छता अपनाने में कठिनाई पड़ती हो, वे बिना स्नान किए भी मौन मानसिक जप कर सकते हैं। एक माला जपने में प्राय: पाँच मिनट लगते हैं। इतना समय निकालते रहना किन्हीं उत्साही श्रद्धालुओं के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इस प्रयास के आधार पर सूक्ष्म शरीर में पाई जाने वाली चौबीस ग्रन्थियाँ जागृत होती है और उस आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार होता है। मेधा निखरती और प्रतिभा उभरती है।

कारण शरीर की गहराई तक पहुँचने के लिए ध्यान-धारणा अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। यों कई लोग अपने-अपने इष्ट देवों का भी ध्यान करते हैं। पर आप्त अनुभवी जनों के प्रतिपादन और निजी प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि प्रात:कालीन सूर्य का ध्यान सर्वोत्तम है। बन पड़े तो प्रात: के उदीयमान सूर्य के प्रत्यक्ष दर्शन भी किए जा सकते हैं और जल अर्घ्य भी चढ़ाया जा सकता है; पर जिन्हें नियत समय पर किसी बड़ी अड़चन के कारण प्रत्यक्ष दर्शन न बन पड़े, तो वे मानसिक ध्यान भी उसी स्तर का कर सकते हैं।

प्रभात कालीन अरुणाभ सविता का ध्यान-दर्शन करने के साथ-साथ यह धारणा भी करनी चाहिए, कि दिव्य केंद्र से नि:सृत होने वाली किरणें साधक के प्रत्यक्ष शरीर में-सूक्ष्म शरीर में और कारण शरीर में प्रवेश क र रही हैं। उन तीनों ही संस्थानों में प्रकाश भर रही है। साथ ही ऊर्जा, उष्णता और आभा स्तर की तेजस्विता का समावेश कर रही है। स्थूल शरीर में ओजस्, सूक्ष्म शरीर में तेजस् और कारण शरीर में वर्चस् का उभार आ रहा है। अपने रोम-रोम में कण-कण में, सविता की ऊर्जा-आभा ओत-प्रोत हो रही हैं। व्यक्तित्व ओजस्वी, मनस्वी और तपस्वी बन रहा है। सविता और साधक, आग और ईंधन की तरह परस्पर एकीभूत हो रहे हैं। आदान-प्रदान का, समर्पण और अनुग्रह का उपक्रम अनवरत रूप से चल रहा है। यह दैनिक साधना है, यह जिनसे जितनी श्रद्धा और तत्परता के साथ बन पड़े, वे इसे नित्य कर्म के एक अविच्छिन्न अंग के रूप में करते रहेें।

यह युग संधि की वेला है। इक्कीसवीं सदी के आगमन से पूर्व तक बीसवीं सदी चलेगी। यह अन्तिम चरण कितनी ही उथल-पुथल से भरा हुआ होगा। इसमें प्रसव पीड़ा जैसी अनुभूति भी हो सकती है और नवजात शिशु के आगमन का उत्साहवर्धक समाचार भी मिल सकता है। जन्म और मरण के आदि और अन्त वाले अवसर भी ऐसी ही उथल-पुथल भरे होते है।

रात्रि का समापन और प्रभात का आगमन संध्याकाल कहलाता है। उसमें साधारण क्रिया-प्रक्रिया की अपेक्षा हर किसी को कुछ नये स्तर का क्रिया-कलाप अपनाना पड़ता हैं। युग संधि में भी शान्तिकुञ्ज की एक बारह वर्षीय योजना बनी है। इसमें दस वर्ष बीत चुके। दो वर्ष शेष हैं। इस अवधि में एक आध्यात्मिक सामूहिक महाअनुष्ठान चल रहा है-हर दिन २४ करोड़ गायत्री जप करने का। दूसरों के लिए यह लक्ष्य हिमालय जैसा भारी प्रतीत हो सकता है; पर अपने २४ लाख परिजन यदि एक माला गायत्री जप और सविता के ध्यान में पाँच-दस मिनट लगाते रहेें तो इतने भर से संकल्पित साधना भली प्रकार पूरी होती रहेगी।

प्रचार-विस्तार का क्रम तेजी से चल रहा है। इस साधना की पूर्णाहुतियाँ १९९५ तथा २००० में होंगी, जिनमें न्यूनतम एक करोड़ व्यक्ति सम्मिलित होंगे। इन सबको, इस प्रथम चरण की पूूर्णाहुति करके अगले नये सोपान में और भी अधिक श्रद्धा-सम्वेदना के , उत्साह एवं साहस के साथ प्रवेश करना होगा। इसलिए दो पूर्णाहुतियों के आयोजन की योजना बनी है। यदि इतने लोगों का एकत्रीकरण एक जगह न बन सका, तो उसे मिशन द्वारा संचालित २४ सौ प्रज्ञा केेंद्रों में विभाजित भी किया जा सकता है। पूर्णाहुति की इस विशालता का लक्ष्य यथावत रहेगा; पर उसे एक या अनेक स्थानों पर सम्पन्न करने की बात अवसर आने पर परिस्थितियों के अनुरूप ही निश्चित होगी।

सामूहिकता की शक्ति से सभी परिचित हैं। भव्य भवन, असंख्य ईंटों से मिलकर बनते हैं। अनेक धागे मिलकर कपड़ा बनता है। तिनकों को बटकर मजबूत रस्से बनते है। सैनिकों का समुदाय मिलकर समर्थ सेना का रूप धारण करता है। मधुमक्खियाँ मिल-जुलकर ही छत्ता बनाती और शहद जमा करती हैं। देवताओं की संयुक्त शक्ति से देवी दुर्गा का अवतरण सम्भव हुआ था। ऋषि रक्त से घड़ा भर जाने पर उससे असुर निकंदिनी सीता का उद्भव हुआ था। अणुओं से मिलकर यह दृश्य जगत विनिर्मित हुआ है। नव-युग के अवतरण में भी बुद्ध के परिव्राजकों एवं गाँधी के सत्याग्रहियों जैसा संगठन अभीष्ट होगा।

युग संधि महा पुरश्चरण को, नव युग की ज्ञान गंगा को धरती पर अवतरित करने वाली सम्मिलित स्तर की भगीरथ साधना कहा जा सकता है। उसे लघु से विभु बनाने में मत्स्यावतार जैसी भूमिका भी तो निबाहनी है। इसलिए देव मानवों को एक छत्र-छाया में एकत्रित करना भी अनिवार्य हो गया है। इस सन्दर्भ में सन् ५८ में एक सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ का प्रथम प्रयोग गायत्री तपोभूमि, मथुरा में हो चुका है। युग निर्माण योजना की सुविस्तृत रूप-रेखा उसी अवसर पर बनी थी और तब से लेकर अब तक की अवधि में उसने नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्रों में आश्चर्यजनक समझी जाने वाली क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न की है। एक जोरदार धक्का भर इंजन देता है, तो डिब्बे उसी ठोकर के कारण दूर तक पटरी पर दौड़ते चले जाते हैं। अभी सन् १९९० से २००० तक प्राय: दस वर्ष में इतनी समर्थता अर्जित कर ली जाएगी कि पूर्णाहुति के रूप में मारी गई जोरदार ठोकर इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य का प्रत्यक्ष दर्शन एवं अनुभव करा सके।

वाणी द्वारा युग चेतना का प्रसार-विस्तार

इन दिनों जन साधारण के सोचने का तरीका लोभ-मोह और अहंकार के साथ बुरी तरह जुड़ गया है। चल रहे ढर्रे को अभ्यास में इस कदर उतार लिया गया है कि अवांछनीय होने पर भी उसका मोह छोड़े नहीं छूटता। इस स्थिति को पूरी तरह उलटना पड़ेगा और क्रिया-कलापों में, विचारणा-आकांक्षाओं में इतना हेरफेर करना पड़ेगा, जिसे स्वतंत्र चिन्तन एवं नव निर्धारण की संज्ञा दी जा सके। अपना सो अच्छा, पराया सो बुरा की मान्यता सही नहीं है। सत्य के दर्शन जहाँ से भी होते हैं, वहीं से उसका चयन करना चाहिए। औचित्य को अंगीकृत करने में हमें राजहँस की तरह नीर-क्षीर विवेेक की नीति अपनानी चाहिए। विचारक्रान्ति का स्वरूप भी यही है।

विचारों को प्रभावित करने वाली दो प्रक्रियाएँ सर्व साधारण की जानकारी में है। एक वाणी दूसरी लेखनी। इसमें से पहली द्वारा सत्संग सम्पन्न होता है, दूसरी स्वाध्याय का सरंजाम जुटाती है। वाणी का लाभ शिक्षित-अशिक्षित दोनों ही समान रूप से उठा लेते है। लेखनी को अशिक्षित लोग पढ़ नहीं पाते, पर सुन वे भी लेते हैं। इन दोनों को छैनी-हथौड़ा मानकर, हमें कठोर पत्थर जैसी निष्ठुर स्वार्थपरता को युग के अनुरूप आकार में गढ़ना चाहिए। वाणी और लेखनी को प्रचंड अस्त्र-शस्त्र मानकर हमें संव्याप्त असुरता से लड़ने के लिए सीना तानकर जूझने के लिए युद्ध क्षेत्र में उतरना चाहिए।

यों सत्संग के नाम पर सड़ा-गला कूड़ा-कचरा लोगों के सिरों पर थोपा जाता रहता है; पर उपयोगिता की कसौटी पर कसकर उसकी सार्थकता तभी स्वीकार करनी चाहिए, जब वह आज की समस्याओं का आदर्शवादी एवं व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत कर रहा हो। स्वाध्याय के सम्बन्ध में भी इसी कसौटी का प्रयोग होना चाहिए। आवश्यक नहीं कि वह किसी पुराने व्यक्ति द्वारा, पुरानी भाषा में लिखी गयी हो। जो पुराना, सो सच-यह मान्यता ऐसी नहीं है जिसे आँखें बंद करके, नाक मूँदते हुए गले उतार ही लिया जाए। कोई बूढ़ा भी सनकी हो सकता है और कोई किशोर भी समझदारी की बात कह सकता है। क्या अंगीकार करें? उसका एक ही उत्तर हो सकता है कि जिसमें औचित्य का गहरा पुट हो, जिसमें समाधान के तर्क, तथ्य, उदाहरण और प्रमाण इस अनुपात में विद्यमान हों कि सीधे गले उतर चलें और उत्कृष्टता की पक्षधर हलचल उत्पन्न कर सकें । लेखनी और वाणी का युग चेतना से जुड़ा हुआ प्रयोग हमें इन दिनों इसी स्तर पर करना चाहिए।

वाणी का सर्वविदित उपयोग व्याख्यान, प्रवचनों के रूप में ही होता आया है, किन्तु उसके लिए यह आवश्यक पड़ता है कि अधिक लोगों का बड़ा समुदाय एक जगह एकत्रित हो और उसका स्वरूप सभा-समारोह जैसा न सही, कम से कम विचार गोष्ठी जैसा तो बन ही जाए। कठिनाई यह है कि ऐसा सरंजाम जुटाना इन दिनों अति-आडंबर भरा और संकीर्ण हो गया है। जानने वाले जानते हैं कि रैलियाँ निकालने वालों और बड़े सम्मेलन बुलाने वालों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और कितनी बड़ी राशि खर्चनी पड़ती है। फिर अधिक बड़ी भीड़ का जमाव वहाँ भी मेले-ठेले जैैसा बनकर रह जाता है। ध्वनि विस्तारकों से सुनने वालों के मनों में भी कोई तीखी प्रेरणा नहीं उभरती, जिससे कुछ आदर्शवादी उमंग उभरने की आशा की जा सके।

पुराने जमाने में लाउडस्पीकर नहीं थे, इसलिए विशाल भीड़ जमा करने वाले समारोहों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। उन दिनों छोटे आकार के कथा प्रवचनों से काम चलाया जाता था। हमें उसी पुरातन परम्परा पर लौटना पड़ेगा। छोटे देहातों के गली- मुहल्लों में बिखरे हुए जन समुदाय को नुक्कड़ सभाओं जैसी प्रक्रिया अपनाकर काम चलाना होगा। चुनावों में खड़े होने वाले भी यही तरीका अपनाते हैं।

पहाड़ खुद चलकर अपने घर न आए तो दूसरा तरीका यही शेष रहता है कि खुद चलकर पहाड़ की तलहटी या चोटी तक पहुँचा जाए। प्रसुप्त जनमानस को उनींदी खुमारी से जगाने-झकझोरने के लिए स्वयं ही भाग-दौड़ करने का औचित्य है। उस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा पुराण की कथा मुहल्ले-मुहल्ले करने का एक सफल प्रयोग पिछले लम्बे समय से चल रहा है। अब पर्व -त्यौहारों पर छुट्टी का दिन भी इसके लिए उपयुक्त समझा गया है कि उस बहाने लोगों को एकत्रित करके, हर पर्वों के साथ जुड़ी हुई प्रगतिशीलता को उभारा और जनमानस को आवश्यक परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित किया जाए। मेले और प्रदर्शनियाँ भी इस प्रयोजन के लिए कारगर हो सकती हैं।

एक नितान्त अभिनव प्रयोग इन दिनों और आविष्कृत किया गया है। साइकिल के पहियों वाला ज्ञानरथ इस प्रकार का बनाया जाए, जिसमें बैटरी, टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर लगे हुए हों। उसमें मुुफ्त पढ़ाने या बेचने के लिए युग साहित्य भी प्रस्तुत रहे। इसे गली मुहल्लों, हाट बाजारों में घुमाया जाए। युग चेतना से परिपूर्ण संगीत बजता रहे, प्रवचन चलता रहे। अधिक जानने के उत्सुकों को युग साहित्य पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहे। इस प्रकार प्रकार प्रभात फेरियाँ निकालने, मुहल्ले-मुहल्ले अलख जगाने, नुक्कड़ सभाएँ जुटाने का बहुमुखी कार्यक्रम दिनभर चलता रह सकता है। इसे घुमाने के लिए कोई साधारण समझ का आदमी भी काम करता रह सकता है। आवश्यक नहीं कि वह वक्ता, गायक, प्रचारक स्तर का ही हो। थोड़ी समझदारी भर हो, तो ज्ञानरथ को बारी-बारी से मुहल्ले-मुहल्ले घुमाते हुए किसी बड़े बाजार-शहर के कोने-कोने में भी युग संदेश पहुँचाने का कार्य चल सकता है।

इसी योजना के दो छोटे संस्करण भी बने हैं। इनमें से एक है, साधारण साइकिल पर उपरोक्त प्रचार सामग्री फिट कर दी जाए। उससे सवारी का काम भी लिया जा सकता है और अधिक विस्तृत कार्य क्षेत्र में काम किया जा सकता है। दूसरा है एक छोटी अटैची-उपकरण स्तर का, इसमें भी उपरोक्त सभी प्रचार सामग्री फिट है। इसे किसी भी घर, मुहल्ले, पार्क, मंदिर घाट आदि लोगों के इकट्ठे होते रहने वाले स्थान पर लगाया और नवयुग का संदेश, गायनों और भाषणों के माध्यम से सुनाया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों प्रचार वाहनों में ऐसी बैटरी लगी है, जिसे दिन भर काम में लाया जा सकता है और रात को बिजली से, चार्जर के माध्यम से फिर नए सिरे से काम करने योग्य बनाया जा सकता है। इन तीनों की आधारभूत लागत भी इतनी है, जिसे कोई साधारण स्थिति का व्यक्ति भी आसानी से वहन कर सके। छोटा उपकरण प्राय: एक हजार का, साइकिल वाला दो हजार का और चार पहियों वाला मंदिरनुमा उपकरण तीन-साढ़े तीन हजार बन जाता है। साइकिल या ज्ञानरथ पहले से पास हो तो उसका मूल्य कम हो जाता है।

जहाँ इनमें से कोई उपकरण न बन पड़े, वहाँ खंजरी, मजीरा के सहारे एक या दो व्यक्ति प्रचार कार्य करते रह सकते है। उसमें लागत बीस पच्चीस रुपये भर आती है और उस माध्यम से जहाँ भी दस-बीस आदमी इकट्ठे हों, वहाँ अपना युग प्रतिपादन आसानी से आरम्भ किया जा सकता हैै।

लोक-रंजन के साथ जुड़ा हुआ लोक-मंगल

युग चेतना का स्वरूप निर्धारण, उसका लेखन प्रकाशन शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार और युग निर्माण योजना मथुरा द्वारा छोटे साधनों से चल रहा है। फिर भी वह अपनी गुणवत्ता के कारण निरंतर लोकप्रिय हो रहा है। मूल्य इतना सस्ता रखा गया है कि इस स्तर के प्रकाशनों की पंक्ति में उसे एक कीर्तिमान स्तर का कहा जा सकता है। इसे व्यावसायिक प्रकाशन वाले दृष्टिकोण से सर्वथा पृथक रखा गया है। लगभग कागज, छपाई जितना ही इनका मूल्य रखा गया है; ताकि ईसाई मिशनों द्वारा छपने और प्रचारित किए जाने वाले स्तर से समता की जा सके।

इन दिनों जो करना, लिखना और प्रतिपादन प्रस्तुत करना शेष है, वह इतना सुविस्तृत है कि युग-मनीषियों की कई सुनियोजित मंडलियाँ खप सकती हैं। प्रकाशन के लिए इतना बड़ा तंत्र चाहिए, जितना कि विशालकाय कल-कारखाने में लगता है। क्षेत्रीय भाषाओं में से कितनी ही ऐसी हैं, जिनने संसार के विशाल भागों पर अपना वर्चस्व जमा रखा है। इन क्षेत्रों में युग चिन्तन, उन परिस्थितियों के साथ जोड़ते हुए प्रस्तुत किया जाना है, जिनसे उनकी जीवन पद्धति और विचार शृंखला जुड़ी हुई है। इनको माध्यम बनाना हो, तो मौलिक आदर्शों को यथावत रखते हुए भी उनका व्यावहारिक स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत करना पड़ेगा, जो उन समुदायों की वर्तमान मान्यताओं के साथ तालमेल बिठाते हुुए प्रगति का व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत कर सके।

ईसाई धर्म की एक छोटी सीमा है, पर उसने अपनी विचार-धारा को व्यापक बनाने के लिए बाइबिल से लेकर छोटी पुस्तिकाओं तक को संसार की प्राय: सभी भाषाओं में करोड़ों की संख्या में छापा और उपयुक्त व्यक्तियों तक पहुँचाया है। यही कारण है कि उस विचारधारा से प्रभावित होकर संसार के प्राय: एक तिहाई मनुष्यों ने उस धर्म में प्रवेश पा लिया है।

साम्यवादी देशों ने भी अपने सीमित क्षेत्र में ही नहीं, संसार की अनेक भाषाओं में अपने मंतव्य को प्रकाशित किया है। सरकारें अपनी-अपनी नीतियों का स्पष्टीकरण करने के लिए प्रचार प्रकाशन पर एक बड़ी राशि खर्च कर रही है। यह न तो अकारण है और न अनावश्यक। अब लोक मानस इतना समर्थ हो गया है कि उसे साथ लिए बिना बहुसंख्यक लोगों का समर्थन प्राप्त करना सम्भव ही नहीं रहा है। युग परिवर्तन प्रक्रिया उपरोक्त सभी क्षेत्रों से बढ़कर है। उसका सीधा सम्बन्ध संसार के ६०० करोड़ मनुष्यों के साथ जुड़ता है। यदि विशाल समुदाय में नवयुग के प्रति उत्सुकता, श्रद्धा एवं प्रयत्नपरायणता उत्पन्न न की जा सकी, तो पिछड़ापन चिरकाल तक अपनी हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ कसे ही रहेगा।

दुर्भाग्य से संसार में अभी एकता-समता को अपनाने के लिए अधिक उत्साह नहीं उपजा है। इस सन्दर्भ में भाषाओं की भिन्नता कोढ़ में खाज की तरह है। कोई एक भाषा ऐसी नहीं जिसका अवलंबन लेकर विश्व मानव तक उज्ज्वल भविष्य के संदेश एवं आलोक को पहुँचाया जा सकना सम्भव हो सके। ऐसी दशा में विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों के लिए उन्हीं के अनुरूप भाषाओं का आश्रय लेकर, उसी स्तर का प्रकाशन आवश्यक हो जाता है।

अब लोक चेतना को दिशा देने के लिए कुछ और सशक्त माध्यम अपनी प्रचंड शक्ति का परिचय देने लगे हैं। इनमें से एक है सिनेमा-फिल्म व्यवसाय। इसी का दूसरा छोटा भाई अभी और जन्मा है, वह है वीडियो। इनके द्वारा दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यमों ने लोक चेतना को असाधारण रूप से प्रभावित किया है। इनकी पहुँच साहित्य क्षेत्र से कम नहीं रही, वरन वे और भी अधिक बढ़ गई है। इनका लाभ संसार की एक तिहाई शिक्षित जनता ही नहीं उठाती, वरन शेष दो तिहाई अशिक्षित जनता भी संपर्क में आती और प्रभाव ग्रहण करती है।

सरकारों के कब्जे में दूरदर्शन और रेडियो दोनों आ गए हैं। वे अपने मतलब की जानकारियाँ तो जनता तक पहुँचाते ही है, साथ ही ऐसा बहुत कुछ घुला-मिला देते हैं, जो कामुकता जैसी दुष्प्रवृत्तियों को मनोरंजन का नाम देकर दर्शकों के गले उतार देता है। यह दोनों समर्थ साधन युग चेतना के अनुरूप चल सकते हैं, इसकी आशा तो फिलहाल नहीं की जा सकती है, पर इनके और भी दूसरे सुलभ संस्करण इस स्थिति में हैं कि उनका उपयोग जन स्तर के समर्थ संगठनों द्वारा किया जा सके।

टेप और टेप रिकार्डर द्वारा रेडियो की एक छोटी सीमा तक आवश्यकता पूरी की जा सकती है। फिल्में बनाने वाले यदि कुछ साहस करें, तो वे भी विचार क्रान्ति की महती आवश्यकता में अपना कुछ कहने लायक योगदान दे सकते हैं। फिर उसका छोटा भाई वीडियो भी अब इस योग्य हो सकता है कि अपने दुबले पैरों और पंखों द्वारा किसी प्रकार घिसटते-घिसटते जन समुदाय के एक बड़े भाग तक अपना प्रभाव पहुँचा सके। यदि सम्भव हो तो समर्थ व्यक्ति इन दोनों माध्यमों को भी इतना सरल और सस्ता बना सकता है कि जन-जन तक उनकी पहुँच हो सके और समय की माँग को पूरा करने में वे दोनों कुछ कहने लायक बड़ी भूमिका निभा सकें। ग्रामोफोन रिकार्डर उद्योग और स्लाइड प्रोजेक्टर अब समय से पीछे पड़ गए हैं, पर जहाँ तक प्रचार माध्यमों का सम्बन्ध है, वहाँ उनको भी पिछड़े क्षेत्रों में और पिछड़े समुदायों में अपनी भूमिका निभाते रहने में अभी भी उपयोगी बनाया जा सकता है।

कभी जनशक्ति के सहारे चलने वाले प्रचार प्रयोजन भी गाँव-गाँव पहुँचते और लोक रंजन के साथ-साथ लोक मंगल का काम भी अच्छी तरह करते थे। उनसे आजीविका भी मिल जाती थी और लोक रंजन के साथ-साथ लोकमंगल का प्रचार कार्य भी बहुत हद तक हो जाता था, पर बढ़ती हुई यांत्रिक सभ्यता के कारण उनका आधार लड़खड़ा गया है।

राम लीला, रास लीला, नौटंकी, संगीत मंडलियों, कठपुतलियों आदि के द्वारा कुछ समय पूर्व तक बड़ा काम होता रहता था और हजारों लोगों को आजीविका मिलती थी, पर अब ग्रामोद्योगों की तरह उन्हें भी उपेक्षा का भाजन बनना पड़ रहा है। एक प्रकार से उनका अस्तित्व ही मिटता जा रहा है। गाँवों में लगने वाली हाटें अपने थोड़े से उद्योगों को असाधारण रूप से प्रोत्साहित किया करती थीं, पर इन दिनों की परिस्थितियों को देखते हुए कुछ कहा नहीं जा सकता है कि इन सब का भविष्य क्या है? फिर भी यदि गतिशील प्रतिभाएँ कुछ प्रयत्न करें, तो यह भी हो सकता है कि वे माध्यम, कुछ सुधरे हुए रूप से निर्वाह करने लगें।

बड़े माध्यम जिनके हाथ नहीं हैं, वे भी अपने संपर्क क्षेत्र में विचार विनिमय का कोई न कोई रास्ता निकाल सकते हैं। नाटक, अभिनय, लोक नृत्य आदि की सही व्यवस्था न बन पड़े, तो इतना तो हो ही सकता है कि अपने से छोटों को किस्से-कहानियाँ सुनाकर, आदर्श जनों के जीवन चरित्र सुनाकर, उन पर गीत बनाकर, खंजरी जैसे छोटे वाद्यों के सहारे उन्हें जगह-जगह सुनाते रहने का क्रम अपनाया जाए। आठवें दर्जे का विद्यार्थी छोटे दर्जे के छात्रों को बहुत कुछ पढ़ाने-सिखाने की सहायता तो कर ही सकता है। बड़ों को न सही छोटों को आदर्शवादी प्रेरणाएँ देते रहने की दृष्टि से तो हम सभी उपयोगी सिद्ध हो ही सकते है।

तीर्थयात्रा का आदर्श

दक्षिण अफ्रीका से जब गाँधी जी भारत लौटे और उन्होंने देश सेवा में लगने की इच्छा व्यक्त की, तो गोखले जी ने उन्हें प्रथम परामर्श दिया कि पहले एक बार समूचे देश की यात्रा कर लेें और यह जानें कि लोगों की परिस्थितियाँ क्या हैं। गाँधी जी सहमत हो गए । दौरे पर निकले और देश के पिछड़ेपन का दृश्य देखकर मन में एक कसक लेकर वापस लौटे। कुछ महिलाओं क ो आधी धोती पहन कर नहाते और दूसरा पल्ला सुखा कर पहनते देखा, तो वे उस गरीबी पर द्रवित हो उठे और उसी दिन से उनने आधी धोती पहनने और ओढ़ने का व्रत लिया।

खुशहाली के वातावरण में रहने और चैन की जिंदगी बिताने वालों को यह पता ही नहीं कि देशवासी किस स्थिति में रह रहे हैं और पड़ोसियों के प्रति जिम्मेदारी निभाने का क्या अर्थ होता है? यह जानकारी देशाटन से ही प्रत्यक्ष अनुभव में आती है ।

‘‘पिकनिक’’ मन हल्का करने का एक अच्छा मनोरंजन माना जाता है। सभ्य समुदाय के लोग इसे अत्यन्त प्रभावशाली और सार्थक विनोद मानते हैं। पर्यटन के लिए सरकारी महकमें भी अपने कर्मचारियों को, विद्यार्थियों-अध्यापकों को छुट्टी देते हैं; ताकि वे नई ताजगी लेकर वापस लौट सकें और भविष्य में अधिक उत्साहपूर्वक काम कर सकें।

पुरातन काल में उस प्रक्रिया के साथ धार्मिकता भी जोड़ दी जाती थी। जो जत्थे प्रवास पर निकलते, वे रास्ते में नारे लगाते, गीत गाते और दीवालों पर आदर्श वाक्य लिखते जाते थे। जहाँ ठहरने का निर्धारण होता था, वहाँ पूर्व सूचना भिजवा दी जाती थी ताकि स्थानीय लोग एकत्रित होकर तीर्थ यात्रियों में से जो वक्ता, गायक धर्म सेवी होते थे, उनके प्रवचन सुनकर अपनी जीवन शैली में आवश्यक परिवर्तन, सुधार कर सकें।

तीर्थ यात्राएँ वाहनों से नहीं होती थीं, उनके लिए पैदल ही चलना पड़ता था। अभी भी ब्रज-चौरासी कोस, प्रयाग की पाँच-कोसी परिक्रमा, नर्मदा परिक्रमा आदि के लिए पैदल ही निकलते हैं, ताकि यात्री अनुभव संपादन, पारस्परिक परिचय एवं स्वास्थ्य संवर्धन की त्रिविध प्रक्रिया से लाभान्वित हो सकें । अब पैदल चलने और कंधे पर आवश्यक सामान लादकर चलने का प्रचलन नहीं रहा, तो साइकिल का इस्तेमाल किया जा सकता है। वह भी पैरों की शक्ति से चलती है, पर समय बचत करती है, जन संपर्क भी सम्भव बनाती है।

इन दिनों लोग रेल-मोटरों में दौड़ लगाते, किसी देवता की प्रतिमा का दर्शन करते और जलाशयों में डुबकी लगाकर वापस लौट आते हैं। बड़े मंदिर देखने का विशेष आकर्षण रहता है, जो प्राय: बड़े नगरों में ही विनिर्मित होते हैं, जबकि असली भारत देहातों में रहता है। वहीं की समस्याएँ देश की समस्याएँ है। वहीं की प्रगति से देश के प्रगतिशील होने की आशा की जाती है। इसलिए तीर्थ यात्राएँ पैदल की जाती थीं। कम समय खाली होने पर तीर्थयात्री अपने आस-पास का ही प्रवास क्रम बना लेते थे। उसी मार्ग में आने वाले छोटे-बड़े देवालयों, नदी, सरोवरों पुरातन वृक्षों, उद्यानों का दर्शन करके अपनी धर्म जिज्ञासा पूरी करते थे।

जिनके पास अधिक समय होता था, वे मँझोले तीर्थों में चलते रहने वाले धर्म-सम्मेलनों में योजनाबद्ध प्रशिक्षण और साथ ही जुड़े हुए साधना क्रम को भी सम्पन्न कर लेते थे। छोटे-बड़ेे देवालय प्राय: हर गाँव में होते थे। उनमें इतनी जगह भी सुरक्षित रहती थी कि तीर्थ यात्रियों की कई टोलियाँ आए, तो वहाँ सुखपूर्वक निवास कर सकें; स्थानीय लोग उन तक पहुँचकर अपनी जिज्ञासा का समाधान कर सकें।

देवालयों में दान-दक्षिणा एवंं अन्न श्रद्धालु लोग पहुँचाते रहते थे। उससे स्थानीय कार्यकर्ता, पुजारी का निर्वाह तो चल ही जाता था, तीर्थ यात्रियों को भी बनाने-खाने की कच्ची सामग्री मिल जाती थी। इस आधार पर छोटे-बड़े सभी क्षेत्रों को तीर्थ-यात्रियों द्वारा दी गई प्रेरणाओं का लाभ मिलता रहता था।

बड़े मंदिर प्राय: बड़े शहरों में ही बने हुए हैं। वहाँ रेल, मोटरों से दौड़े जाने, घिच-पिच बढ़ाने, धक्के खाने से किस प्रकार धर्म-लाभ मिल सकता है, यह समझ से बाहर की बात है। जिसके साथ धर्म-प्रचार जुड़ा हुआ न हो, उसके द्वारा किसे, किस प्रकार धर्म लाभ मिलेगा? जहाँ क्रमबद्ध साधनाएँ, शिक्षण, सत्संग की व्यवस्था न हो, उन देवालय क्षेत्रों में क्या किसी को कुछ लाभ मिलेगा?

गंगाजल की काँवर कंधे पर रखकर अपने निकटवर्ती शिवालय पर चढ़ाने और रास्ते को पैदल पार करते हुए मार्ग में प्रेरक भजन गाते चलने का रिवाज अभी भी बहुत जगह है। इस आधार पर पुरातन परम्परा के पीछे सन्निहित उद्देश्यों का तो स्मरण आता ही है। यह क्रम प्रतिमाएँ झाँकते फिरने, डुबकी लगाते फिरने और पात्र-कुपात्रों से जेब कटाते फिरने की अपेक्षा कहीं अधिक उद्देश्यपूर्ण है।

शान्तिकुञ्ज को तीर्थ केन्द्र मानकर विभिन्न शाखा केन्द्रों से साइकिल टोलियाँ चलती रहती हैं। रास्ते की दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखते, मिल-जुलकर गीत गाते, लाउडस्पीकरों का प्रयोग करते, विश्राम स्थलों पर सत्संग सम्पन्न करती हुई, वहाँ पहुँचती रहती हैं। जिनसे दूर की यात्रा नहीं बन पड़ती, वे अपने समीप ही प्राय: एक सप्ताह का कार्यक्रम बना लेते हैं और उस परिधि में नव युग के अनुरूप नव जीवन का संचार करते हैं।

अचल तीर्थ वे हैं, जो ईंट, चूने, सीमेंट जैसे जड़ पदार्थों से बने होते हैं; अपनी जगह स्थिर रहते हैं। लोगों को उनके दर्श-स्पर्श के लिए जाना पड़ता है। उनकी महिमा-गरिमा तो है, पर उनसे अधिक नहीं, जो जीवन्त होते, चलते-फिरते और प्राण-चेतना बिखेरने गली-मुहल्लों में घर-द्वारों पर बिना बुलाए ही जा पहुँचते हैं। किसी जमाने में साधु ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक इसी प्रयोजन को लेकर निरंतर भ्रमण करते रहते थे और जन-जीवन में आदर्शों की प्रतिष्ठापना का शंख बजाते थे। अब लगता है उसका प्रचलन उठ गया। जड़ता ने अब अहंकार में, आलस्य-प्रमाद के रूप में ऐसी रीति-नीति अपना ली है, जिसमें घर बैठे ही प्रचुर मात्रा में सम्मान, सुविधा और साधन उपलब्ध होते रहें। प्रतीत होता है कि अचल देवालयों की तुलना में जिन चल देवालयों का पुण्य-प्रताप असंख्य गुना माना जाता है, उसका कलियुगी प्रभाव से अस्तित्व ही उठ गया।

इसे फिर से जीवित-जाग्रत करने की आवश्यकता है, अन्यथा जिनमें लंबी दूरी पार करने और पैसा खर्चने की सामर्थ्य नहीं है, वे तीर्थों की धर्म-धारणा से वंचित ही रह जाएँगे।

पिछले लेखों में बताया जा चुका है कि वक्ताओं, गायकों के स्तर वाले परिव्राजकों का अभाव देखते हुए समय की माँग पूरी करने के लिए शान्तिकुञ्ज ने कुछ नए उपकरण इन्हीं दिनों बनाए हैं, जो उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। इनके सहारे कोई भी शिक्षित-अशिक्षित अपने आप को चल तीर्थ बना सकता है और हाट-बाजारों में गली-कूचों में, पार्कों-सड़कों भीड़ भरे क्षेत्रों में अलख जगाते रहने का निरंतर कार्य कर सकता है। साधु-ब्राह्मणों का लगभग अभाव हो जाने की स्थिति में नैष्ठिक साधकों द्वारा, इन यंत्रों के सहारे भी सचल-सार्थक तीर्थ यात्राओं की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

आगामी दस वर्ष-अति महत्त्वपूर्ण

प्राचीन काल में सतयुग का वातावरण अनायास ही नहीं बना रहा था। उसके लिए ऋषिकल्प महामानव विद्या विस्तार के दायित्व को पूरी तत्परता से सँभालते थे। आश्रमों, तीर्थों, आरण्यकों, गुरुकुलों, मंदिरों जैसे स्थानों एवं कथा-सत्संगों तीर्थ-यात्राओं घर-घर अलख जगाने जैसी विधाओं के माध्यम से जन-जन को श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से विभूषित किया जाता था। अध्यात्म विद्या का अविरल प्रवाह हर क्षेत्र में बहता रहता था जिसके कारण हर व्यक्ति आदर्शों को अपनाने तथा उस दिशा में कुछ कर गुजरने के लिए हुलसता रहता था।

अन्तराल में सद्भावनाएँ लहराती हों, तो कोई कारण नहीं कि प्राण-चेतना में उल्लास भरी उमंगें न उभरें और उस आकर्षण से प्रकृति का अनुग्रह अजस्र रूप से न बरसे, वातावरण में सुख-शान्ति के तत्त्व उछलते-उफनते दीख न पड़ेंगे। सतयुग इन्हीं परिस्थितियों का नाम था। उसका सृजन उत्कृष्टता की पक्षधर मन:स्थिति ही किया करती थी।

अगले दिनों सतयुग की वापसी के सरंजाम पूरी तरह संभावित हो रहे हैं। उनमें भी पूर्ववर्ती सौम्य-संपदाओं का समुचित समावेश होने जा रहा है। अस्तु, यह भी स्वाभाविक है कि वैसा ही जनमानस बने और उसके लिए पुरोहित वर्ग में सम्मिलित समझे जाने वाले, जनमानस के परिष्कार में संलग्न देव-मानवों का एक सशक्त और बड़ा वर्ग, नियंता की नियति को शिरोधार्य करते हुए आगे आये। उसके लिए जीवन्तों और जीवितों के मन-मानस में समुद्र मंथन-स्तर का हृदयमंथन चल रहा है। विचार-परिवर्तन और दैवी-आह्वान को सुनने-समझने एवं अपनाने के लिए प्रवाह बह रहा है। इन दिनों ऐसे भँवर-चक्रवात इतनी तेजी से उभर रहे हैं, जिन्हें देखकर समय की प्रबलता का अनुमान कोई भी कर सकता है। महाकाल जब करवटें बदलता है, तो ऐसी उलट-पुलट बन पड़ती है, जिसे देखकर दाँतों तले अँगुली दबानी पड़े। इन दिनों ऐसा ही कुछ हो रहा है-होने वाला है।

समय चक्र के अन्तर्गत यों पुनर्जीवन भी होता रहता है। पर पुनर्जागृति के दृश्य तो आये दिन देखने को मिलते ही रहते हैं। रात आते ही लोग सो जाते हैं और प्रात:काल नयी स्फूर्ति लेकर सभी उत्साहपूर्वक उठ खड़े होते हैं। पतझड़ में पेड़ ठूँठ बन जाते हैं, पर बसन्त आते ही उन्हें नयी कलियों एवं नये फूलों से लदा हुआ देखा जा सकता है। कुयोग जैसा कलियुग विगत शताब्दियों में अपनी विनाश-लीला दिखाता रहा है। अन्त तो उसका होना ही था, हो भी रहा है। सतयुग की वापसी का इंतजार दसों दिशाएँ उत्सुकतापूर्वक कर रही हैं।

युग संधि काल बारह वर्ष में ऐसा ही ताना-बाना बुन रहा है। उसने अपना घोंसला शान्तिकुञ्ज में बनाया है। कार्य क्षेत्र तो उनका द्रुतगामी गरुड़ पक्षी की तरह दसों दिशाओं मे फैलना निर्धारित है। इस घोंसले में एक से एक बढ़कर अण्डे-बच्चे उगने, विकसित होने और निखिल आकाश में पंक्तिबद्ध उड़कर एक सुहावना दृश्य उत्पन्न करने वाले हैं।

वसन्त सन् 1990 से लेकर सन् 2000 तक के दस वर्षों में युग चेतना को वहन करने वाले समर्थ पक्षधर विनिर्मित एवं कार्यरत होने जा रहे हैं। प्रारम्भिक निश्चय यह है कि एक वर्ष में एक लाख को ढूँढ़ा और पकाया जाय। स्थान की कमी इस कार्य में प्रधान बाधा थी। आसुरी शक्तियाँ सदा से सत्प्रयोजन में अड़चन उत्पन्न करने में चूकती नहीं हैं। उन्हीं का प्रकोप इन दिनों भी काम करता दीख पड़ रहा है, फिर भी गति रुके नहीं, ऐसा उपाय निकाल लिया गया है। प्राचीन काल में ऋषियों की पाठशालाएँ वृक्षों की नीचे, घास-फूस की कुटियों में चलाई जाती रहीं, तो कोई कारण नहीं कि इन दिनों वह कार्य टीन शेडों में न चल सके। मँहगी भूमि और इमारती सामान की दसियों गुनी मँहगाई को देखते हुए शान्तिकुञ्ज की वर्तमान इमारत को ही तीन मंजिल बना दिया गया है। जहाँ कहीं काम के योग्य जमीन थी, वहाँ टीन शेड खड़े कर दिये गए हैं और ऐसी व्यवस्था बना दी गयी है कि एक वर्ष में एक लाख युग शिल्पियों का शिक्षण किसी प्रकार चल जाया करेगा।

स्थान कम और लक्ष्य बड़ा होने के कारण शिक्षण सत्रों को सिकोड़ कर पाँच दिवसीय बना दिया गया है। पढ़ने-पढ़ाने में तो लंबा समय चाहिए; पर प्राण-प्रत्यावर्तन तो थोड़े समय में भी हो सकता है। देवर्षि नारद कहीं भी ढाई घड़ी से अधिक नहीं रुकते थे; पर इतने में ही जिस पर भी हाथ रखते थे, उसी को चैतन्य कर देते थे। विश्वामित्र ने राम -लक्ष्मण को थोड़े ही समय में बला-अतिबला विद्याएँ सिखा दी थीं। इस दृष्टि से अभिनव 5 दिवसीय सत्र-शृंखला भी काम चलाऊ परिणाम प्रस्तुत कर ही सकती है।

एक वर्ष में एक लाख अर्थात्-दस वर्ष में दस लाख की शिक्षण योजना है। साथ ही जो प्रशिक्षण प्राप्त करें, उन सबके जिम्मे यह दायित्व सौंपा गया है कि वे समय दान का क्रम निर्धारित गति से चलाते रहें और दस नये अपने जैसे अपने क्षेत्र में लोकसेवी उत्पन्न करें। इस प्रकार दस वर्षों में वे दस लाख न रहकर एक करोड़ की सीमा तक पहुँच जाएँगे। आशा की गयी है, नैष्ठिकों का यह वर्ग इंजन के रूप में अगणित डिब्बों को अपने साथ घसीटता ले चलेगा और वह परिकर इतना बड़ा हो जाएगा कि सतयुग की वापसी का आधार बन सके। यह वितान इतने विस्तार में तन सके कि जिसकी छत्र-छाया में पर्याप्त मात्रा में नव सृजन के कर्णधार आवश्यक आश्रय प्राप्त कर सकें।

कहा जा चुका है कि युगसाधना की पूर्णाहुति अब सन् 1995 और सन् 2000 के दो खंडों में होगी। इन्हें एक स्थान पर न करके 24 सौ निजी प्रज्ञापीठों और 24 हजार बिना निजी इमारतों वाले प्रज्ञाकेंद्रों में सम्पन्न किया जाएगा। हर केंद्र में सौ से लेकर हजार वेदी वाले दीप यज्ञ सम्पन्न होंगे। इस प्रकार उनकी संख्या भी एक लाख से अधिक हो जाएगी। एक लाख वेदी के गायत्री यज्ञ और एक करोड़ साधकों की संख्या में चलने वाले 24 करोड़ जप का यह महापुरश्चरण सम्मिलित रूप से इतना विशालकाय होगा कि अब तक के धर्मानुष्ठानों में से इसे अभूतपूर्व और सतयुग की वापसी के पुण्य पर्व के आगमन का विश्वव्यापी उद्घोष कहा जा सके। आशा की गयी है कि इस आयोजन के संपर्क में आने वालों की संख्या भी करोड़ों-अरबों तक पहुँचेगी। उनका अपना बदलाव और संपर्क क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला परिवर्तन इतना सशक्त होगा कि उस सम्मिलित शक्ति के सहारे नवयुग का अवतरण सर्वथा सार्थक बन पड़े और हम सब इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण का-मत्स्यावतार का-प्रत्यक्ष दर्शन अपने ही समय में कर सकने में समर्थ हो सकें।

जो परिजन इस दुर्लभ समय का महत्त्व समझ रहे हैं, वे एक क्षण भी नष्ट किए बिना स्वयं को अग्रदूतों की भूमिका में प्रवृत्त करने को तत्पर हो रहे हैं। नव सृजन की यह बेला अपनी झोली में असीम शक्तियाँ और असाधारण सौभाग्य भरे हुए है। सत्पात्रों को वे अनुदान देने के लिए समय आतुर हो रहा है। इस अवसर का लाभ लेने के लिए आगे बढ़कर साहस दिखाने वालों के अभिनन्दन-प्रशिक्षण के लिए शान्तिकुञ्ज पूरी तरह तत्पर है।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।