स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा - (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला - 13)

सार संक्षेप

मानवीय अन्तराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन-विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।

आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के सम्बन्ध में भी नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रान्तियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी। यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी-आत्मबल सम्पन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अन्त:करण में होगा एवं देखते-देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा-नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं।

अनुक्रमणिका

1. चेतना की सत्ता एवं उसका विस्तार
2. अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि
3. ईश्वर सम्बन्धी भ्रान्तियाँ
4. दैवी सत्ता की सुनियोजित विधि-व्यवस्था
5. आत्मबल से उभरी परिष्कृत प्रतिभा
6. मानवीय पुरुषार्थ एवं दैवी शक्ति का युग्म
7. पात्रता से दैवी अनुग्रह की प्राप्ति
8. उदारता जन्मदात्री है प्रामाणिकता की
9. जीवन-साधना एवं ईश-उपासना
10. प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत
11. युगपरिवर्तन प्रतिभा ही करेगी
12. अनगढ़ता मिटे, सुगढ़ता विकसित हो
13. बड़े प्रयोजन के लिए प्रतिभावानों की आवश्यकता
14. सद्बुद्धि का उभार कैसे हो?
15. इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता


चेतना की सत्ता एवं उसका विस्तार

इस संसार में जड़ के साथ चेतन भी गुँथा हुआ है। काम करती तो काया ही दीखती है, पर वस्तुत: उसके पीछे सचेतन की शक्ति काम कर रही होती है। प्राण निकल जाएँ तो अच्छी-खासी काया निर्जीव हो जाती है। कुछ करना-धरना तो दूर, मरते ही सड़ने-गलने का क्रम आरम्भ हो जाता है, और बताता है कि जड़ शरीर तभी तक सक्रिय रह सकता है, जब तक कि उसके साथ ईश्वरीय चेतना जुड़ी रहती है। दोनों के पृथक् होते ही समूचे खेल का अन्त हो जाता है।

एकाकी चेतना का अपना अस्तित्व तो है। उसकी निराकार सत्ता सर्वत्र समाई हुई है। साकार होती तो किसी एक स्थान पर, एक नाम-रूप के बन्धन में बँधकर रहना पड़ता और वह ससीम बनकर रह जाती। इसलिये उसे भी अपनी इच्छित गतिविधियाँ चलाने के लिये किन्हीं शरीर कलेवरों का आश्रय लेना पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करना सम्भव है। निराकार तो प्रकृति की लेसर, एक्स-किरणें आदि अनेक धाराएँ काम करती हैं, पर उनको समझ सकना खुली आँखों से नहीं वरन् किन्हीं सूक्ष्म उपकरणों के सहारे ही सम्भव हो पाता है। गाड़ी के दो पहिए मिल-जुलकर ही काम चलाते हैं। इसी प्रकार इस संसार की विविध गतिविधियाँ विशेषत: प्राणिसमुदाय की इच्छित हलचलों के पीछे अदृश्य सत्ता ही काम करती है, जिसे ईश्वर आदि नामों से जाना जाता है।

विराट ब्रह्माण्ड में संव्याप्त सत्ता को विराट् ब्रह्म या परमात्मा कहते हैं। वही सर्वव्यापी, न्यायकर्ता, सत्-चित्-आनन्द आदि विशेषणों से जाना जाता है। उसी का एक छोटा अंश जीवधारियों के भीतर काम करता है। मनुष्य में इस अंश का स्तर ऊँचा भी है और अधिक भी, इसलिये उसके अन्तराल में अनेक विभूतियों की सत्ता प्रसुप्त रूप में विद्यमान पाई जाती है। यह अपने निजी पुरुषार्थ के ऊपर अवलंबित है कि उसे विकसित किया जाए या ऐसे ही उपेक्षित रूप में-गई-गुजरी स्थिति में वहीं पड़ी रहने दिया जाए।

इस सम्मिश्रण का जहाँ भी अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत स्वरूप दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किए जाने पर यही प्रतिभा देव-स्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है, किन्तु साथ ही यदि मनुष्य अपनी उपलब्ध स्वतंत्रता का उपयोग अनुचित कामों में करने लगे तो वह दुरुपयोग ही दैत्य बन जाता है। दैत्य अपने और अपने संपर्क वालों के लिये विपत्ति का कारण ही बनते है; जबकि देवता पग-पग पर अपनी शालीनता और उदारता का परिचय देते हुए अपने प्रभाव-क्षेत्र में सुख, शान्ति एवं प्रगति का वातावरण बनाते रहते हैं। दैत्य-स्तर के अभ्यास बन जाने पर तो पतन और पराभव ही बन पड़ता है। उसमें तात्कालिक लाभ दीखते हुए भी अन्तत: दुर्गुणों का दुष्परिणाम ही प्रत्यक्ष होता है।

सृष्टि के नियम में कर्म और फल के बीच कुछ समय लगने का विधान है। बीज बोने पर उससे वृक्ष बनने में कुछ समय लग जाता है। गर्भाधान के कई मास बाद बच्चा उत्पन्न होता है। आज का दूध कहीं कल जाकर दही बनता है। अभक्ष्य खा लेने पर दस्त-उल्टी आदि होने का सिलसिला कुछ समय बाद आरम्भ होता है। मनुष्यों मेें यह बालबुद्धि देखी जाती है कि वे तत्काल कर्मफल चाहते हैं, देर लगने पर अधीर हो जाते हैं और यह चाहते हैं कि हथेली पर सरसों जमे; कल तक उसमें पौधे जमने की प्रतीक्षा न करनी पड़े। उतावली आतुरता उत्पन्न करती है और मन:स्थिति प्राय: अर्धविक्षिप्त की-सी बना देती है, जिसमें तात्कालिक लाभ भर दीख पड़ता है; चाहे वह कितना ही क्षणिक या दु:खदाई ही क्यों न हो। वह विवेकवान् दूरदर्शिता न जाने कहाँ चली जाती है जिसे अपनाकर विद्यार्थी विद्वान्, दुबले पहलवान, मंदबुद्धि तीव्रबुद्धि एवं निर्धन और पिछड़े धनवान् बनते हैं। यह एक मनुष्य की प्रधान भूल है, जिसके कारण वह अपने जीवन का उद्देश्य, स्वरूप और वरिष्ठता तक भूल जाता है-मार्ग से भटककर झाड़-झंखाड़ों में मारा-मारा फिरता है। इस भूल को देखकर कई बार यह भी स्वीकारना पड़ता है कि ‘‘मनुष्य वस्तुत: ईश्वर की सन्तान तो है ही नहीं वरन् डार्विन के कथनानुसार वह बंदर की ही अनगढ़ औलाद है।’’

यह व्यंग्य-उपहास मनुष्य के अचिंत्य चिन्तन का है। इसी के कारण उसके चरित्र और व्यवहार में भ्रष्टता घुस पड़ती है और तरह-तरह के आक्षेप-उलाहना लगने शुरू होते हैं। दुष्ट चिन्तन ही भ्रष्ट आचरण का निमित्त बनता है और इसी के कारण अनेक अवांछनीयताएँ उसके सिर पर लद लेती हैं। कहना न होगा कि कर्मफल भोग बिना किसी को छुटकारा नहीं; भले ही वह भटकाव के कारण ही क्यों न बन पड़ी हो। चारे के लोभ में चिड़ियाँ और मछलियाँ बहेलियों के हाथ पड़ती और अपनी जान गँवाती देखी गई हैं। जो बोया है वही तो काटना पड़ेगा; भले ही पीछे सतर्कता बरती गई हो या समझदारी से काम लिया गया हो।

यही है भ्रान्ति, विकृति और विपत्ति का केंद्र। इसके भँवर में फँसकर अधिकांश लोग गर्हित गतिविधियाँ अपनाते और दुर्गति के भाजन बनते हैं। यदि इस भूल से बचा जा सके तो मनुष्य को ईश्वर का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ राजकुमार कहने में किसी को क्यों आपत्ति हो? फिर उसकी प्रवृत्ति स्वार्थी बनकर आनन्द का रसास्वादन करते रहने में क्यों किसी प्रकार बाधक बने? क्यों उसे वासना, तृष्णा और अहंता के लौहपाशों में जकड़ जाने पर बंदीगृह के कैदी जैसी विडंबनाएँ सहनी पड़ें? क्यों मरघट में रहने वाले व्यक्तियों जैसा नीरस, निष्ठुर और हेय जीवन जीना पड़े? क्यों डरती-डराती और रोती-रुलाती जिंदगी जीनी पड़े?

इस संसार में अन्धकार भी है और प्रकाश भी; स्वर्ग भी है और नरक भी; पतन भी है और उत्थान भी; त्रास भी है और आनन्द भी। इन दोनों में से जिसे चाहे, मनुष्य इच्छानुसार चुन सकता है। कुछ भी करने की सभी को छूट है, पर प्रतिबन्ध इतना ही है कि कृत्य के प्रतिफल से बचा नहीं जा सकता। स्रष्टा के निर्धारित क्रम को तोड़ा नहीं जा सकता। करने की छूट होते हुए भी उसे परिणाम भुगतने के लिये सर्वथा बाध्य रहना पड़ता है। यह दूसरी बात है कि इस प्रक्रिया के पकने में कुछ विलम्ब लगता है। मुकदमा दायर होने और सजा मिलने में अपने न्यायाधीश भी तो ढेरों समय लगा लेते हैं। ईश्वर का कार्यक्षेत्र तो और भी अधिक विस्तृत है। उसके न्याय करने में यदि देर लग जाती है तो मनुष्य को धैर्य खोने की आवश्यकता नहीं है और न यह अनुमान लगाने की कि वहाँ अन्धेरगर्दी चलती है। चतुरता के बलबूते अपने यहाँ तो अनेक अपराधी दण्ड पाने से बच जाते हैं, पर सर्वव्यापी और सर्वसाक्षी न्यायाधीश के न्याय में किसी को ऐसे अवसर नहीं मिलते । इस वास्तविकता से असहमत रहने के कारण ही लोग प्राय: नास्तिक बन जाते हैं— कर्मफल की मान्यता का उपहास उड़ाते हुए स्वेच्छाचार बरतते हैं। विवेक होने की समझ तभी आती है जब समयानुसार क्रिया की प्रतिक्रिया सामने आ खड़ी होती है।

यहाँ तो प्रसंग इस बात का चल रहा है कि ईश्वर और जीव आपस में अविच्छिन्न होकर रह रहे हैं-अत्यन्त सघन भाव और अविच्छिन्न साथी-सहचर की तरह। स्थिति को देखते हुए इस बात की पूरी गुंजाइश है कि समर्थ बीज से उपजा समर्थ बालक अभीष्ट सहयोग प्राप्त कर सके और अभावग्रस्तता की दु:खदाई स्थिति से सरलतापूर्वक छूट सके। पर प्रचलित विडंबनाओं में से एक यह भी है कि नितान्त निकट रहते हुए भी परिचय ऐसा बना लिया गया है, मानो एक दूसरे से नितान्त अपरिचित हैं। कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि विशालकाय नगरों में एक ही बड़े भवन की चारदीवारी में रहने वाले किरायेदार एक-दूसरे से परिचित तक नहीं होते। हम अपने शरीर के भीतरी अवयवों को भी पूरी तरह कहाँ समझ पाते हैं! शरीर में समाये विषाणुओं का पता नहीं चलता और यह भी नहीं बन पड़ता कि उनके कारण उत्पन्न होने वाले खतरों को समझ सकें और समय रहते कुछ उपाय-उपचार कर सकें। समझदार कहे जाने वाले मनुष्य के इस भुलक्कड़पन को देखते हुए उसे नासमझ कहा जाए तो कुछ भी अनुचित न होगा। स्वस्थ दीखने वाले भी अस्वस्थता से जकड़े हुए हैं-घुन लगी लकड़ी की तरह भीतर ही भीतर पोले हो रहे हैं; स्थिति इतनी बदतर है कि अणु से लेकर विराट् विभु के कण-कण में एक अत्यन्त सुव्यवस्था के संव्याप्त होने पर भी अपनी अकल यही धोखा देती रहती है कि इस खेत का कोई बोने वाला या रखवाला नहीं है-चाहे जो करने और चाहे जो पाने की मनमानी करते रहने में कोई हर्ज नहीं। आम प्रचलन में इन दिनों ऐसे ही सोच की भरमार है।

अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि

इस भ्रांत धारणा की एक हानि यह है कि मनुष्य स्वेच्छाचारी व अनाचारी बनता है और अपनी राह पर तीर की नोंक वाले काँटे बोने में लगा रहता है। न चाहते हुए भी अन्धकारमय परिस्थितियों को अपने समीप बुलाने के लिये निमन्त्रण देने में बाध्य रहा है। अभावग्रस्तता, विषमता और विपन्नताएँ प्राय: इसीलिए दीख पड़ती हैं। यदि सोच ठीक रही होती और उसके प्रकाश में सीधे मार्ग पर चल सकना सम्भव हुआ होता तो यहाँ सब लोग मिल-जुलकर रहते, हँसती-हँसाती जिंदगी जीते, एक-दूसरे को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहयोग करते। तब सीमित साधनों में भी लोग सन्तुष्ट रहते और अभीष्ट वातावरण बना हुआ होता-हर किसी को अदृश्य मार्ग का दृश्यमान अरुणोदय अनुभव करने का अवसर मिल रहा होता पर उस दुर्बुद्धि को क्या कहा जाए जिसने मनुष्य को मर्यादाओं, प्रतिबन्धों और वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धृत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है।

आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य को बंदर बनाने वाली दो भूलें एक साथ जन्मी हैं और उसने एक ही चक्कर में पूरी तरह चोट करने के बाद आगे बढ़ने का सिलसिला बनाया है। दूसरी भूल है अपने स्वरूप, कर्तव्य और उद्देश्य को भूलने की तथा अपने अति निकट रहने वाले उदार स्वभाव वाले परम सज्जन भगवान् से परिचय बनाने तक की इच्छा न करने की अन्यमनस्कता-अवमानना अपने से बड़ी शक्ति के साथ सम्बन्ध जोड़ने की महत्ता को छोटे बच्चे तक समझते हैं। वे उसी की ओर खिसकते हैं, जिसके पास खिलौने, चाकलेट और अच्छे उपहारों का सामान होता है; जो प्यार से बुलाते और दुलारपूर्वक गोदी में चढ़ाते हैं। जब इतनी समझ छोटे बालकों तक में पाई जाती है तो आश्चर्य होता है कि मनुष्य भगवान् का घनिष्ठ बनने या उसे अपना घनिष्ठ बनाने में इतनी अधिक उपेक्षा क्यों बरतता है।

ऊँची सतह के बड़े तालाब में अधिक पानी होता है। पास में ही कोई कम पानी वाला गड्ढा हो तो दोनों की तुलना में असाधारण अन्तर होगा। इतने पर भी यदि दोनों के बीच एक नाली बना दी जाए तो ऊँचे तालाब का पानी नीचे गड्ढे को भरना जल्दी आरम्भ कर देगा और वह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक कि दोनों जलाशय एक सतह पर नहीं आ जाते। नीचे वाले गड्ढे का पानी निश्चित रूप से ऊँचा उठेगा; भले ही इसमें ऊँचे वाले को कुछ घाटा ही क्यों न रहा हो।

ईश्वर-सान्निध्य के लिये किए गए प्रयास अन्धविश्वास नहीं है। यदि उनका सही तरीका न समझ सके तो मृगतृष्णा में भटकने वाले हिरण की तरह भ्रमग्रस्तों जैसी धमाचौकड़ी मचाते रहेंगे। तब तो खिन्नता, विपन्नता और असफलताएँ ही हाथ लगेंगी। यदि रुके बिना धीरे-धीरे चलने वाली चींटी भी पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है तो फिर कोई कारण नहीं कि ईश्वर-सान्निध्य का सही मार्ग विदित हो जाने पर उस प्रयोजन में आश्चर्यजनक सफलता न मिल सके।

कहना न होगा कि सशक्तों की समीपता-सान्निध्यता मनुष्य के लिये सदा लाभदायक ही होती है। सुगन्ध जलाते ही दुकान पर सजी चीजों में से अनेकानेक महकने लगती हैं। चंदन के समीप उगे झाड़- झंखाड़ भी प्राय: वैसी ही सुगन्ध वाले बन जाते हैं। पारस को छूने से लोहे से सोना बनने वाली उक्ति बहुचर्चित है। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वालों का मनोरथ पूरा होने की बात सुनी जाती है। अमृत की कुछ बूँदें मुँह में चले जाने पर मुरदे जी उठते हैं। भृंग अपने संकल्प के प्रभाव से छोटे कीड़े को अपने साँचे में ढाल लेता है। हरियाली के समीपता में रहने वाले टिड्डे और साँप हरे रंग के हो जाते हैं। सीप में स्वाति की बूँदें गिरने पर मोती बनने और बाँस के ढेरों में बंसलोचन उत्पन्न होने की मान्यता प्रसिद्ध है। इनमें से कितनी बात सही और कितनी गलत हैं, इस विवेचना की तो यहाँ आवश्यकता नहीं, पर इतना निश्चित है कि सज्जनों के महामानवों के सान्निध्य में रहने वाले अधिकांश लोग प्रतापी जैसी विशेषताओं में से बहुत कुछ अपना लेते हैं। राजदरबारी शिष्टाचार का पालन अच्छी तरह कर सकते हैं। अत: हर कोई बड़ों का सान्निध्य चाहता हैं, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि सर्वशक्तिमान् साथी के साथ जुड़ने में हमारे प्रयत्न उतने भी नहीं होते, जितने कि स्वजन-कुटुम्बियों के साथ आत्मीयता प्रदर्शित करने में होते हैं। यदि ऐसा बन सकना सम्भव होता तो हम जड़-से न रहे होते और इस स्थिति में पड़े न रहते, जिसमें कि किसी प्रकार खाते-पीते इन दिनों समय गुजार रहे हैं।

ईश्वर सम्बन्धी भ्रान्तियाँ

इस सन्दर्भ में एक और भी बढ़ी मूर्खता जनसाधारण के मन में गहरी जड़ें जमाकर बैठ गई है कि ईश्वर में सिद्धान्त-रहित किसी ऐसे भूत-प्रेत की कल्पना समाविष्ट कर ली गई जो निशिदिन उपहार बटोरते और नाक रगड़ते हुए भक्तजनों के पीछे रहता है; साथ ही पूजा-पाठ की छुट-पुट टण्ट-घण्ट कर देने भर से फूलकर कुप्पा हो जाता है और मनचाहे उपहार-वरदान बाँटकर हर किसी की मनोकामनाएँ पूरी करता है; भले ही वे कितनी ही अनावश्यक या अनुचित क्यों न हों।

इसके अतिरिक्त इस परमेश्वर में एक और भी बुरी आदत है कि पूजा-पत्री में कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए तो भी वह आगबबूला हो जाता है और कल तक जिसे भक्त मानता था, आज उसकी जान लेने तक को तैयार हो जाता है। राजी होने के लिये बढ़े-चढ़े उपहार माँगता है। अपना भक्त किसी दूसरे देवता की पूजा करने लगे तो उसकी भी अच्छी-खासी खबर लेता है।

यही है आज का सशक्त परमेश्वर जिसे जातियों, वर्गों, कबीलों और मत-मतांतरों वाले लोग अपने-अपने तरीके से खोजते और अपनी-अपनी मान्यता के अनुरूप नाम व रूप देेते हैं। इस कालभैरव से किसी का क्या भला होता है, इसे तो पूजने वाले ही जानें, पर एक बात निश्चित है कि इन स्वयंभू देवी-देवताओं के स्वयंभू एजेन्टों की पाँचों उँगलियाँ हर घड़ी घी में रहती हैं। वे मनोकामना पूरी कराने अथवा गरीबी दूर करने-कराने के बहाने हर स्थिति में अपनी एजेण्टी का धंधा बढ़ाते चलते रहे हैं।

विचारणीय यह है कि क्या सिद्धान्त-रहित उपहार, मनुहार का लालची और किसी भी चाटुकार की सही-गलत मनोकामनाएँ पूरी करने वाला कोई परमेश्वर हो भी सकता है क्या? इस सन्दर्भ में किसी भी दृष्टिकोण से विचार करने पर उत्तर नहीं में ही देना पड़ता है; क्योंकि यह सिलसिला यदि चल पड़े तो रही-बची विवेकशीलता और न्यायनिष्ठा के परखचे ही उड़ जाएँगे।

ऐसे कबायली परमेश्वर को पूजने वाले ही मनोकामनाएँ पूरी न होने पर उसे सौ गुनी गाली भी देते देखे गए हैं, जो कि आशाएँ लगाये रहने से पूर्व मिन्नतें करने और चमचागिरी दिखाने में अतिवाद की सीमा तक पहुँच जाते हैं। इस भ्रांत मान्यताओं वाले जंजाल को ही यदि परमेश्वर माना जाए तो फिर इसी के साथ एक बात और भी जान लेनी चाहिए कि इसके पीछे वास्तविकता कुछ भी न होने से लाभ कुछ भी नहीं होने वाला है। अन्धे के हाथों कभी बटेर लग जाए तो बात दूसरी है, पर उससे भ्रान्ति पर आधारित मान्यता की पुष्टि नहीं होती।

उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़ने के उपरांत तथाकथित पूजा-पाठ करने वालों की मान्यताएँ डाँवाडोल हो सकती हैं। जो थोड़ी-बहुत आधे-अधूरे मन से टंट-घंट करते थे, उसमें भी कमी आ सकती है। भक्तिवाद की आड़ में यह मिथ्या भ्रम-जंजाल चलाते रहने वाले को तो अपने व्यवसाय में घाटा दीख पड़ते ही अनख होने में ऐसी स्थिति भी आ सकती है जो प्रतिपक्ष पर किसी भी स्तर का आक्रोश लेकर पिल पड़े, पर सही अध्यात्म की स्थापना करने के लिये यह भी सहना पड़े तो उद्यत रहना चाहिए।

दैवी सत्ता की सुनियोजित विधि-व्यवस्था

भ्रान्तियों का स्वरूप समझ लेने के उपरांत यह भी आवश्यक है कि उसका समाधान भी समझा जाए और यह जानने का प्रयत्न किया जाए कि वह वास्तविकता क्या है, जिसकी आड़ लेकर धुएँ का बादल बनाकर खड़ा कर दिया गया।

समझा जाना चाहिए कि संसार के दृश्यमान जड़-पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड को बनाने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है।

असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ी है। नकली चीजें सस्ती भी होती हैं। चलती भी अधिक हैं और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती है। नकली सोने के, नकली चाँदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे-मोती भी खूब बिकते हैं। नकली रेशम, नकली दाँत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है, पर वह वस्तुएँ ऐसे चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पातीं। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है। उसे उपहार-मनुहार की टंट-घंट पूरी करके उन लाभों को पाने की प्रतीक्षा की जाने लगती है, जिनके लिये प्रबल पुरुषार्थ और व्यक्ति के उठे हुए स्तर की अपेक्षा की जाती है। समुचित मूल्य न चुकाने पर कोई कीमती वस्तु ऐसे ही तिकड़मबाज़ी के सहारे हाथ कैसे लगे? देखा जाता है कि मनोकामनाओं का पुलिंदा बाँधे फिरने वाले जिस-तिस देवी देवता के पीछे गिड़गिड़ाते फिरने के उपरांत भी खाली हाथ लौटते हैं और विधि-विधान में कोई गलती रहने या पूजा-पाठ को व्यर्थ बताने की नास्तिकों जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहते हैं। आए दिन लाभ मिलते रहने की बात न बनते देखकर उस प्रक्रिया को छोड़ बैठते हैं या जब-तब अनमने मन से लकीर पीट लेते हैं।

अच्छा होता अध्यात्म का दर्शन, स्वल्प, उद्देश्य और प्रयोग के सम्बन्ध में गहराई में उतरकर जानने का प्रयत्न किया गया होता और पूरा मूल्य देकर असली चीज पाने की मान्यता को बनाया गया होता। तब इस सन्दर्भ में किसी को कोई शिकायत करने की आवश्यकता न पड़ती।

कहा जा चुका है कि विश्व के शक्ति-भण्डार में सर्वोपरि आत्मबल है। उसकी तुलना धनबल, शस्त्रबल, सत्ताबल आदि से नहीं हो सकती। वे सभी छोटे और बौने पड़ते हैं। जो कार्य आत्मबल सम्पन्न कर सके , वे दूसरों से नहीं बन पड़े। पुरुषार्थ का अपना प्रयोजन तो है, पर यदि उसके पीछे आत्मबल का समावेश न हो तो फिर समझना चाहिए कि वह फुलझड़ी की तरह तमाशा मात्र बनकर रह जाएगा। असुरों में से अनेकों ने साधनाबल के सहारे कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कीं, पर वे न तो अधिक समय टिकीं और न अन्तत: सुखद परिणाम ही प्रस्तुत कर सकीं। भस्मासुर, महिषासुर, वृत्तासुर, रावण आदि की सिद्धियाँ अन्तत: उनके सम्बन्धियों के लिये विनाश और विपत्ति का कारण ही बनीं। इसके विपरीत उस दिशा में उद्देश्यपूर्ण कदम बढ़ाने वाले स्वल्प साधनों में भी उच्चस्तरीय एवं प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर सके। बुद्ध, गाँधी, अरविंद, रमण, रामकृष्ण, चाणक्य, रामदास, विवेकानन्द, दयानन्द आदि की साधनाएँ जहाँ उन्हें मनस्वी बना सकीं, वहीं उनके कर्तृत्व ने समाज का असाधारण हितसाधन किया। ऋषियों की समस्त शृंखला उसी प्रकार की है। वे स्वयं तो आकाश में नक्षत्रों की तरह अभी भी चमकते हैं, साथ ही उनके समय में उनके साथ जो भी रहे, वे भी सत्संगजन्य लाभों से निहाल होकर रहे और उच्चकोटि के अनुदान-वरदान प्राप्त करके कृत-कृत्य हो सके।

इक्कीसवीं सदी में मानवीय पुरुषार्थ की आवश्यकता तो बहुत पड़ेगी। सतयुग की तरह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थी, परिव्राजकों की तरह असंख्यों को आत्मोत्कर्ष की सेवा-साधनाओं में भी अपने को खपाना पड़ेगा, किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इतना बड़ा काम मात्र मानवीय भागदौड़ से पूरा हो जाएगा। जब अपने छोटे-से कुटुम्ब के थोड़े से दायरे में वाद-विवाद मनोमालिन्य व लोकव्यवहार के झगड़े काबू में नहीं आ पाते, तो ६०० करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक के पीछे लगी हुई ढेरों दुष्प्रवृत्तियों के कुप्रचलन कुछ थोड़े से व्यक्ति थोड़ी-सी योजनाएँ बनाकर हल्के-फुल्के व्यक्तियों के सहारे उसे पूरा कर सकेंगे, यह आशा कैसे की जा सकती है। इतने प्रबल पुरुषार्थ और समाधान के पीछे दैवी शक्ति का समावेश भी होना चाहिए अन्यथा मानवीय पुरुषार्थ अपनी भूलों, कमजोरियों एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ही सफलता के स्थान पर असफलता प्राप्त करते देखते गए हैं।

आत्मबल से उभरी परिष्कृत प्रतिभा

अध्यात्मबल का संपादन कठिन नहीं वरन् सरल है। उसके लिये आत्मशोधन एवं लोकमंगल के क्रियाकलापों को जीवनचर्या का अंग बना लेने भर से काम चलता है। व्यक्तित्व में पैनापन और प्रखरता का समावेश इन्हीं दो आधारों पर बन पड़ता है। यह बन पड़े तो दैवी अनुग्रह अनायास बरसता है और आत्मबल अपने भीतर से ही प्रचुर परिमाण में उभर पड़ता है। केवट, शबरी, गिलहरी, रीछ-वानर ग्वाल-बाल जैसों की भौतिक सामर्थ्य स्वल्प थी, पर वे अपने में देवत्व की मात्रा बढ़ा लेने पर ही इतने मनस्वी बन सके, जिनकी चर्चा इतिहासकार आये दिन करते रहते हैं। सुग्रीव की विजय के पीछे उसकी निज की बलिष्ठता मात्र ही कारण नहीं हुई थी। नरसी मेहता ने अभीष्ट धन अपने व्यवसाय से नहीं कमाया था। अमृतसर का स्वर्णमंदिर किसी एक धनवान् की कृति नहीं है। इनके पीछे देवत्व का अदृश्य सहयोग भी सम्मिलित रहा है। ध्रुव को ब्रह्माण्ड के केंद्र बनने का श्रेय उसके तपोबल के सहारे ही सम्भव हुआ था। अगस्त्य का समुद्रपान और परशुराम द्वारा अपने कुल्हाड़े के बल पर लाखों-करोड़ों का जो ‘ब्रेन वाशिंग’ हुआ था, उसे किन्हीं वक्ताओं के धर्मोपदेश से कम नहीं कहा जा सकता।

सतयुग, ऋषियुग का ही प्रकट रूप है। असुरता की अभिवृद्धि होते ही कलहयुग-कलियुग आ धमकता है। उच्चस्तरीय प्रतिभाओं का पौरुष जब कार्यक्षेत्र में उतरता है तो न केवल कुछ व्यक्तियों व कुछ प्रतिभाओं को वरन् समूचे वातावरण को ही उलट-पुलट कर रख देता है। धोबी की भट्ठी पर चढ़ने से मैले कपड़ों को सफाई से चमचमाते देखा गया है। भट्ठी में तपने के बाद मिट्टी मिला बेकार लोहा फौलाद स्तर का बनता और उसके द्वारा कुछ न कुछ कर दिखाने वाले यंत्र उपकरण बनते हैं। आत्मशक्ति की प्रखरता को इसी स्तर का बताया और पाया गया है।

इक्कीसवीं सदी से प्रारम्भ होने वाला युग-अभियान सम्पन्न तो प्रतिभावान् मनुष्यों द्वारा ही होगा, पर उनके पीछे निश्चित रूप से ऐसी दिव्यचेतना जुड़ी हुई होगी, जैसी की फ्रांस की एक कुमारी जोन ऑफ आर्क ने रणकौशल से अपरिचित होते हुए भी अपने देश को पराधीनता के पाश से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की थी। महात्मा गाँधी और सन्त विनोबा जी जो कर सके, वह उस स्थिति में कदाचित् ही बन पड़ता जो वे बैरिस्टर, मिनिस्टर, नेता, अभिनेता, आदि बनकर कर सके होते।

चंद्रगुप्त जब विश्वविजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा-तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ। उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’’ शिवाजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था-तुम छत्रपति हो गए, पराजय की बात ही मत सोचो। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बला और अतिबला का कौशल सिखाने ले गए थे; ताकि वे युद्ध लड़ सकें-असुरता का समापन और रामराज्य के रूप में ‘सतयुग की वापसी’ सम्भव कर सकें। महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा कि ‘‘मैं अपने गुजारे के लिये तो कुछ भी कर लूँगा, फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहें है?’’ इसके उत्तर में भगवान् ने एक ही बात कही थी कि ‘‘इन कौरवों को तो मैंने पहले ही मारकर रख दिया है। तुझे यदि श्रेय लेना है तो आगे आ अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी वह सब हो जाएगा, जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा-श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्यसिंहासन के रूप में मिला करता है।’’ अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा-करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपका आदेश मानूँगा। ऐसी ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद नल-नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने रहते, जो उन्हें अनन्तकाल तक मिलने वाली है। युगसृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले, पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी, जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिये आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है।

मानवीय पुरुषार्थ एवं दैवी शक्ति का युग्म

कठिनाइयों को निरस्त करने वाला साहस अपने आप में ईश्वरीय अनुग्रह है। राजनीतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रान्तिकारियों की सफलताएँ उनके साहस के साथ जुड़ी हैं। दुस्साहसियों में नेपोलियन जैसे मनुष्यों की गणना प्राय: होती रहती है। इंग्लैण्ड के ऊपर जब जर्मनी की बेतहाशा बमबारी हो रही थी और उस देश के पराजित होने का अंदेशा नागरिकों के मन पर बुरी तरह छाया हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने एक नारा दिया था-वी फॉर विक्ट्री। यह नारा घर-घर पर अंकित कर दिया गया और जनता में नये सिरे से उत्साह जगाया गया कि जीतेगा अन्तत: इंग्लैण्ड ही। इन दोनों से जनजीवन में नया मनोबल उभरा और उसके सहारे उभरते पराक्रम ने इंग्लैण्ड की हारती बाजी को जिताकर दिखाया। दुष्प्रयोजनों के लिये तो लुटेरे-हत्यारे भी साहस दिखाते रहते हैं, पर ऊँचे उद्देश्यों के लिये जब भी साहस उभरता है, तब उसके पीछे साधनों की कमी होते हुए भी मनोबल का ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उभरता है, जिसके सहारे पराजय विजय में बदल जाती है। ऐसा सत्साहस प्राय: दैवी ही होता है। क्षुद्रस्तर के प्राणी तो स्वार्थसिद्धि की लड़ाई ही लड़ते देखे गए हैं। मुहल्लों में कुत्तों जैसी लड़ाई होती तो कहीं भी देखी जाती है।

अगले दिनों प्रतिभाओं को युगपरिवर्तन के लिये ऐसा कुछ पराक्रम करना पड़ेगा, जिसे अभूतपूर्व और ऐतिहासिक कहा जा सके; क्योंकि इतने व्यापक क्षेत्र में इतने बड़े और इतने कष्टसाध्य परिवर्तन प्रस्तुत करने का अवसर कदाचित् पृथ्वी पर पहली बार ही मिला है। राजाओं और सामंतों की सेना अपने साधकों के बल पर लड़कर हारती और जीतती रही है, पर ऐसा प्रथम अवसर है, जब अधिकांश राजा-प्रजा का विकृत चिन्तन और चरित्र नये सिरे से अभ्यास से पूर्व ही उत्कृष्टता की दिशा में ढाला गया है और उसके लिये वरिष्ठ प्रतिभाओं को आगे बढ़कर बुद्ध के धर्म-चक्र प्रवर्तन जैसी भूमिका निभाने के लिये सामूहिक रूप से समुद्यत होना पड़ेगा। इसके लिये दैवी अनुदान आवश्यक है। यदि वह न बन पड़े तो मौसम की प्रतिकूलता की बड़ी सैन्यसज्जा को आगे बढ़ने से रोक देती है। फिर इतने बड़े अभियान में तो साधन-रहित वर्ग के लिये छोटी-छोटी कठिनाइयाँ ही प्रगति का पथ अवरुद्ध कर सकती हैं; उल्टे संकट खड़े कर सकती हैं। पीछे की हवा हो तो पैदल अथवा वाहन सरलतापूर्वक तेज दौड़ लेते हैं, जबकि सामने की तेज हवा हा दबाव पथ में पग-पग पर रोकथाम करता है।

पात्रता से दैवी अनुग्रह की प्राप्ति

नवसृजन के इस विश्वमानव के भाग्य-भविष्य को नये सिरे से लिखने वाले सुयोग में दैवी शक्ति का निश्चित रूप से बड़ा योगदान रहेगा। इसके लिये किसी को किसी से कुछ माँगने की, अनुग्रह या अनुरोध करने की आवश्यकता नहीं है। अपनी पात्रता अनुरूप बना लेने पर सब कुछ अनायास ही खिंचता चला आता है। वर्षाकाल में खुले में रखा बर्तन अनायास ही भर जाता है, जब छोटी कटोरी हो तो उसमें उतना ही कम पानी दीखेगा, जबकि बड़ी बाल्टी पूरी तरह भरी हुई मिलेगी। यह पात्रता का ही चमत्कार है। गहरे सरोवर लबालब भर जाते हैं, जबकि ऊँचे टीलों पर पानी की कुछ बूँदें भी नहीं टिकतीं। वर्षा में उपजाऊ जमीन हरियाली से लद जाती है, पर ऊसर बंजर ज्यों-के त्यों वीरान पड़े रहते हैं। नदियाँ चूँकि समतल की अपेक्षा गहरी होती हैं, इसलिये चारों ओर का पानी सिमटकर उनमें भरने और बहने लगता है। यह पात्रता ही है, जिसके अनुसार छात्रवृत्ति, प्रतिस्पर्धा, पुरस्कार आदि उपलब्ध होते हैं। यह लाभ मात्र चापलूसी करने भर से किसी को नहीं मिलते। कोई अफसर रिश्वत या खुशामद से प्रसन्न होकर किसी को यदि अनुचित पद या उपहार प्रदान कर दे तो उसकी न्यायनिष्ठा पर कर्तव्यपालन की जिम्मेदारी पूरी न करने का आक्षेप लगता है और उस कारण उसकी खिंचाई होती है। यह नियम शाश्वत है, इसलिये इंसान पर भी लागू होता है और उनके भगवान् पर भी।

पात्रता अर्जित कर लेने पर बिना किसी अतिरिक्त कोशिश-सिफारिश के, अपनी योग्यता के अनुरूप पद प्राप्त कर लिये जाते हैं, इसलिये दैवी शक्तियों के अवतरण के लिये पहली शर्त है-साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता। सर्वत्र इसी की खोज और माँग है, क्योंकि विवाह योग्य हो जाने पर अभिभावक उपयुक्त जोड़ा तलाश करने के लिये काफी भाग-दौड़ करते हैं, किन्तु कोई कुपात्र पड़ोस में बसता हो, तो भी उसकी ओर से मुँह फेर लेते हैं-खुशामद-सिफारिश और संदेश पहुँचने पर भी ध्यान नहीं देते। आध्यात्मिक सिद्धियाँ ईश्वर की पुत्रियाँ हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को सर्वांग सुंदर होना चाहिए-भीतर से भी और बाहर से भी। यही पात्रता की परिभाषा है।

उदारता जन्मदात्री है प्रामाणिकता की

दूसरा सद्गुण जो इतना ही आवश्यक है, वह है-उदारता जिसके अन्तराल में करुणा, ममता, सेवा-सहायता की कोमलता है, वही दूसरों को भी निष्ठुरता से विरत कर सकता है, करुणाकर बना सकता है। ईश्वर की अनुकंपा उन्हें मिलती है, जो दूसरों पर अनुकंपा करने में रुचि रखते हैं। निष्ठुरों की कठोरता और संकीर्ण स्वार्थपरता देखकर पड़ोसियों से लेकर भगवान् तक की अनुकंपा वापस लौट जाती है। असुरों की निष्ठुरता और अनैतिकता प्रसिद्ध है, इसलिये उनका अन्त भी अन्यत्र से दौड़ पड़ने वाली निष्ठुरता के द्वारा ही होता है। असुरों के वध की कथाएँ प्राय: इसी तथ्य से सनी हुई मिलती हैं।

पूजा-पाठ का उद्देश्य आत्म-परिष्कार और सत्प्रवृत्ति-संवर्धन की उदारता जगाना भर है। यदि भाव-कृत्यों से ये दोनों उद्देश्य सध रहे हों तो समझना चाहिए कि उनका समुचित लाभ मिलेगा किन्तु यदि क्रिया मात्र चल रही हो और सद्भावनाओं के विकास-परिष्कार पर उनका कोई प्रभाव न पड़ रहा हो तो समझना चाहिए कि क्रियाकलापों की लकीर भर पीटी जा रही है और उसके सहारे आत्म-प्रवंचना जैसी ही कुछ विडंबना बन पड़ेगी। इन दिनों प्राय: ऐसा ही खेल-खिलवाड़ चलता रहा है और लोग देवी-देवताओं की हजामत बनाने के लिये चित्र-विचित्र स्वांग रचते और बड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रतीक्षा करते रहे हैं। देवता उतने मूर्ख हैं नहीं, जितने कि समझे जाते हैं। हेय स्तर का व्यक्ति ही छोटे-मोटे उपहारों या कथन-श्रवणों से भरमाया जा सकता है, पर देवता तो वास्तविकता परखने में प्रवीण होते हैं; साथ ही इतने दरिद्र भी नहीं हैं कि छोटे-छोटे उपहारों के लिये आँखें मूँदकर दौड़ पड़ें; जो माँगा गया है उसे मुफ्त में ही बाँटते-बखेरते रहें। यही कारण है कि मनौती मनाने के लिये पूजा-पत्री का सरंजाम जुटाने वालों में से अधिकांश को निराश रहना पड़ता है। आरम्भ में जो लॉटरी खुलने जैसा उत्साह होता है, वह परीक्षा की कसौटी पर कसे जाने पर निरर्थक ही सिद्ध होता है। आस्तिकता के प्रति उपेक्षा-आशंका का भाव बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि लोग कम कीमत में बहुमूल्य वस्तुएँ पाने की आशा लगाने लगते हैं और जब वह विसंगति गलत सिद्ध होती है तो कभी साधना को, कभी देवता को और कभी अपने भाग्य को दोष देते हुए भविष्य के लिये एक प्रकार से अनास्थावान् ही बन जाते हैं।

हमें तथ्यों को समझना चाहिए। प्रामाणिकता की परख होने पर ही कोई बड़े काम, दायित्व या अधिकार सौंपे जाते हैं। ईश्वर के दरबार में भी यही नियम है। वहाँ साधना का अर्थ जीवनचर्या के हर पक्ष में आदर्शवादिता और प्रामाणिकता का समावेश लगाया जाता है। जो भी इस कसौटी पर खरा उतरता है, उसको हर स्वर्णकार की तरह सम्मानपूर्वक उचित मूल्य मिलता है, पर पीतल को सोना बनाकर बेचने की फिराक में फिरने वाले को हर कहीं दुत्कारा जाता है।

छोटे बच्चे को खड़ा होने और धीरे-धीरे चलने में सहारा देने के लिये पहिये की हाथगाड़ी बना दी जाती है। बच्चे को खड़ा तो अपने ही पैरों पर होना पड़ता है, पर उस गाड़ी की सहायता मिलने से कार्य सरल हो जाता है। ठीक इसी प्रकार पूजा-अर्चा मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रामाणिक बनाने भर के लिये की जानी चाहिए अन्यथा भीतर घटियापन छाया रहने पर यह भी कहा जा सकता है कि साधना का सटीक अर्थ न समझा गया-उसे सही रीति से सम्पन्न न किया जा सका।

उदारमना होना भी ईश्वर-भक्ति का अविच्छिन्न अंग है। कृपणता, निष्ठुरता एवं संकीर्ण स्वार्थपरता उसके रहते टिक ही नहीं सकती। सन्त, भक्तजन, इसीलिये अमीर नहीं रहते कि वे उपलब्धियों का न्यूनतम उपयोग करके जो बचत सम्भव हो, उसे प्रसन्नतापूर्वक परमार्थ-प्रयोजनों में लगाते रहे। यह उदारता ही उनमें दैवी उदारता का आह्वान करती और उसे घसीटकर बड़ी मात्रा में सामने ले आती है। बादल उदारतापूर्वक बरसते रहते हैं। समुद्र उनके भंडार को खाली न होने की प्रतिज्ञा निभाते रहते हैं। नदियाँ भूमि पर प्राणियों की प्यास बुझाती हैं। उनमें जल कम न पड़ने पाये, इसकी जिम्मेदारी हिमालय पर पिघलती रहने वाली बरफ उठाती है। पेड़ बिना मूल्य फल देते रहते हैं, बदले में नई फसल पर उन्हें उतने ही नये फल बिना मूल्य मिल जाते हैं। गाय दूध देती है। इससे उसका थन खाली नहीं हो जाता; सबेरे खाली हो गया थन शाम तक फिर उतने ही दूध से भर जाता है। धरती बार-बार अन्न उपजाती है। उसकी उर्वरता अनादिकाल से बनी हुई है और अनन्तकाल तक अक्षुण्ण बनी रहेगी। उदार सेवा-भावना का जिसके चिन्तन और व्यवहार मे जितना पुट है, समझना चाहिए कि उस प्रामाणिक व्यक्ति को समाज का सम्मान भरा सहयोग और ईश्वर का अनुदान उसी अनुपात में निरंतर मिलता रहेगा।

जीवन-साधना एवं ईश-उपासना

आस्तिकता या आध्यात्मिकता का क्रियापक्ष भी अपने स्थान पर उचित है। उससे अभीष्ट प्रयोजन के सधने में सुविधा भी रहती है और सरलता भी होती है, पर किसी को यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए, कि पूजा-कृत्यों की प्रक्रिया पूरी करने भर से आध्यात्मिकता के साथ जुड़ी रहने वाली फलश्रुतियों और विभूतियों की प्राप्ति भी हो जाती है। यह तो संकेत ‘सिम्बल’ मात्र है, जो दिशा-निर्धारण करता है और मील के पत्थर की तरह बताता है कि अपनी दिशाधारा किस ओर होनी चाहिए।

साधना का प्रयोजन है-जीवन-साधना अर्थात् अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता बरतना। कड़ाई का तात्पर्य है-संयम-अनुशासन का कठोरतापूर्वक परिपालन। इन्द्रिय-संयम अर्थ-संयम और विचार-संयम ही साधना के तीन चरण हैं। इन्हीं को तत्परता के नाम से जाना जाता है। इस प्रयोजन के लिये अपव्यय को कठोरतापूर्वक रोकना पड़ता है और जो समय, श्रम, चिन्तन, साधन आदि बचाया जा सकता है, उसे तत्परतापूर्वक रोका जाता है और साथ ही इसका भी ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सत्प्रयोजनों में श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार बन पड़े? यदि यह निभ सके तो समझना चाहिए कि वास्तविक संयम-साधना की तपश्चर्या सही दिशा में रीति से चल रही है और उसका सदुपयोग भी उच्चस्तरीय प्रतिफल प्रदान करके रहेगा।

पूजा-अर्चा प्रतीक मात्र है, जो बताती है कि वास्तविक उपासक का स्वरूप क्या होना चाहिए और उसके साथ क्या उद्देश्य और क्या उपक्रम जुड़ा रहना चाहिए। देवता के सम्मुख दीपक जलाने का तात्पर्य यहाँ दीपक की तरह जलने और सर्वसाधारण के लिये प्रकाश प्रदान करने की अवधारणा हृदयंगम कराना है। पुष्प चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि जीवन क्रम को सर्वांग सुंदर, कोमल व सुशोभित रखने में कोई कमी न रखने दी जाए। अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य है कि हमारे आय का एक नियमित अंशदान परमार्थ-प्रयोजन के लिये लगता रहेगा। चंदन-लेपन का तात्पर्य यह है कि संपर्क क्षेत्र में अपनी विशिष्टता सुगन्ध बनकर अधिक विकसित हो। नैवेद्य चढ़ाने का तात्पर्य है-अपने स्वभाव और व्यवहार में मधुरता का अधिकाधिक समावेश करना। जप का उद्देश्य है-अपने मन:क्षेत्र में निर्धारित प्रकाश परिपूर्णता का समावेश करने के लिये उसकी रट लगाये रहना। ध्यान का अर्थ है-अपनी मानसिकता को लक्ष्य-विशेष पर अविचल भाव से केन्द्रीभूत किए रहना। प्राणायाम का प्रयोजन है-अपने आपको हर दृष्टि से प्राणवान्, प्रखर व प्रतिभा सम्पन्न बनाए रहना। समूचे साधना विज्ञान का तत्त्वदर्शन इस बात पर केन्द्रीभूत है कि जीवनचर्या का बहिरंग और अन्तरंग-पक्ष निरंतर मानवीय गरिमा के उपयुक्त साँचे में ढलता रहे-कषाय-कल्मषों के दोष-दुर्गुण जहाँ भी छिपे हुए हों, उनका निराकरण होता चले। मनुष्य जितना ही निर्मल होता है, उसे उसी तत्परता के साथ आत्मा के दर्पण में ईश्वर की झाँकी होने लगती है। इसी को प्रसुप्ति का जागरण में परिवर्तित होना कहते हैं। आत्मज्ञान की उपलब्धि या आत्म-साक्षात्कार यही है। इस दिशा में जो जितना बढ़ पाते हैं, उन्हें उसी स्तर का सुविकसित सिद्धपुरुष या महामानव समझा जाता है।

सड़क चलने में सहायता तो करती है, पर उसे पार करने के लिये पैरों का पुरुषार्थ ही काम देता है। भजन-पूजन तो एक प्रकार का जलस्नान है, जिससे शरीर पर जमी हुई मलीनता दूर होती है। यह आवश्यक होते हुए भी समग्र नहीं है। जीवन धारण किए रहने के लिये तो खाना-पीना सोना-जागना आदि भी आवश्यक है। पूजा-अर्चा का महत्त्व समझा जाये किन्तु यह मान बैठने की भूल न की जाये कि आत्मिक प्रगति में पात्रता और प्रामाणिकता की उपेक्षा की जाने लगे या मान लिया जाये कि क्रिया-कृत्यों से ही अध्यात्म का समस्त प्रयोजन पूरा हो जाएगा। यदि वरिष्ठता और महत्ता की जाँच-पड़ताल करनी हो तो एक ही बात खोजनी चाहिए कि व्यक्ति सामान्यजनों की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिक समावेश कर सका या नहीं? सोने को कसौटी पर कसने के अतिरिक्त आग में भी तपाया जाता है, तब पता चलता है कि उसके खरेपन में कहीं कोई कमी तो नहीं हैं। इसी प्रकार देखा यह भी जाना चाहिए कि सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन जैसे लोकमंगल-कार्यों में किसका कितना बढ़ा-चढ़ा अनुदान रहा। अद्यावधि संसार के इतिहास में महामानवों तथा ईश्वर-भक्तों का इतिहास इन्हीं दो विशेषताओं से जुड़ा हुआ रहा है। इनने इन्हीं दो चरणों को क्रमबद्ध रूप से उठाते हुए उत्कृष्टता के उच्च लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव बनाया है। अन्य किसी के लिये भी इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। कोई ऐसा शार्टकट कहाँ है, जिसे पकड़कर जीवन के स्तर को घटिया बनाए रखकर भी कोई ठोस सार्थक प्रगति की जा सके।

चतुरता के हथकण्डों में से कई ऐसे हैं तो सही, जो बाजीगरों जैसे चमत्कार दिखाकर भोले दर्शकों को अपने कुतूहलों से चमत्कृत कर देते हैं। बेईमानी से भी कभी-कभी कोई कुछ सफलता प्राप्त कर लेता है, पर इस तथ्य को भुला न दिया जाए कि बाजीगर हथेली पर सरसों जमा तो देते हैं, पर उसका तेल निकालते और लाभ मिलते किसी ने नहीं देखा। पानी के बबूले कुछ ही देर उछल-कूद करते और फिर सदा के लिये अपना अस्तित्व गँवा बैठते हैं।

धातुओं की खदानें जहाँ कहीं होती हैं, उस क्षेत्र के अपने सजातीय कणों को धीरे-धीरे खींचती और एकत्र करती रहती हैं। उनका क्रमिक विस्तार इसी प्रकार हो जाता है। जहाँ सघन वृक्षावली होती है, वहाँ भी हरीतिमा का चुंबकत्व आकाश से बादलों को खींचकर अपने क्षेत्र में बरसने के लिये विवश किया करता है। खिले हुए फूलों पर तितलियाँ न जाने कहाँ-कहाँ से उड़-उड़कर आ जाती हैं। इसी प्रकार प्रामाणिकता और उदारता की विभूतियाँ जहाँ-कहीं भी सघन हो जाती हैं वे अपने आप में एक चुंबक की भूमिका निभाती हैं और अखिल ब्रह्माण्ड में अपनी सजातीय चेतना को आकर्षित करके अवधारण कर लेती हैं। ईश्वरीय अंश इसी प्रकार मनुष्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राणवानों में अधिक पाया जाता है। सामान्य प्राण को महाप्राण में परिवर्तित करना ही ईश्वर-उपासना का उद्देश्य है। इसी के फलित होने पर मनुष्य को मनीषी, क्षुद्र को महान् और नर को नारायण बनने का अवसर मिलता है।

प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत

जिस प्रकार कुछ भी उपार्जन करने में मनुष्य समर्थ है, उसी प्रकार उसकी इच्छा पर यह भी निर्भर है कि उसका सदुपयोग या दुरुपयोग करने लगे। कर्मफल अवश्य ही नियंता ने अपने हाथ में रखा है, फिर भी जहाँ तक कर्तव्य का सम्बन्ध है, वहाँ तक मनुष्य अपनी मनमर्जी बरतने में स्वतंत्र है। अर्जित प्राणशक्ति के बारे में भी यही बात है। दैत्य स्तर के लोग भौतिक सामर्थ्यों की तरह आत्मिक विभूतियों का दुरुपयोग कर सकते हैं। तांत्रिक, अघोरी, कापालिक आदि ऐसे ही उद्धत प्रयोग करते रहे हैं।

प्राणशक्ति को भौतिक लाभ के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। जीवट वाले सामान्य परिस्थितियों में पैदा होने पर भी अपने लिये अपने उपयुक्त वातावरण बनाते और व्यवहारकुशलता का परिचय देते हुए अभीष्ट क्षेत्र की प्रगति अर्जित करते हैं। धनवान् बलवान्, विद्वान् व कलाकार स्तर के लोग अपनी तत्परता, तन्मयता, कुशलता और जागरूकता के सहारे अपनी इच्छित सफलताएँ अर्जित करते हैं, जबकि अनगढ़ स्तर के लोग किसी प्रकार अपना गुजारा भर चला पाते हैं-कई बार तो ऐसे जाल-जंजाल बुन लेते हैं, जिनके कारण उन्हें अनेकानेक विग्रहों-संकटों का सामना करना पड़ता है। असावधान और अव्यावहारिक लोग अकसर लोकव्यवहार में भी इतनी भूलें करते देखे गए हैं, जिनके कारण उनके लिये चैन से दिन गुजारना भी कठिन पड़ जाता है, सफलता और समृद्धियाँ प्राप्त कर सकना तो दूर की बात बन जाती है।

भौतिक क्षेत्र में अपने जीवट का सुनियोजन करने वाले आमतौर से अभीष्ट सफलता की दिशा में ही बढ़ते हैं। संपत्तिवान प्रगतिशील सफलताओं के अधिष्ठाता कहलाते हैं। कभी-कभी ऐसे लोग चालाकी भी अपनाते हैं, पर इतना तो निश्चित है कि जीवट का धनी हुए बिना कोई उस स्थिति तक नहीं पहुँच सकता, जिसे उन्नतिशील कहलाने का श्रेय मिल सके।

अनगढ़ और पुरुषार्थी, दो स्तर के लोग आम जनता के बीच पाये जाते हैं। उन्हीं को गरीब-अमीर व सफल-असफल भी कहते हैं, किन्तु इन सबसे ऊँचा एक और स्तर है, जिसे देवमानव कहकर सराहा जाता है। प्रतिभाशाली उपयुक्त सफलताएँ पाते हैं; भले ही उसका दुरुपयोग करके अपयश के भाजन ही क्यों न बनें, किन्तु जिनने अपने गुुण-कर्म-स्वभाव को सुनियोजित व सुसंस्कृत बना लिया है, उनके लिये आत्मिक सन्तोष, लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह, तीनों ही सुरक्षित रहते और दिन-दिन समुन्नत होते जाते हैं। वस्तुत: व्यक्तित्व का परिष्कार और उदात्तीकरण ही वह योगाभ्यास है, जिसके माहात्म्य को लोक और परलोक की अभीष्ट सफलताएँ देने वाला बताया गया है। प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत ईश्वर है। जिसे दूसरे शब्दों में सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। मनुष्य-जीवन में वह गरिमामयी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के रूप में अवतरित होता है। पूजा-उपासना के समस्त कर्मकाण्डों का उद्देश्य इसी आन्तरिक वरिष्ठता का सम्पादन और अभिवर्द्धन करना है।

मशीनों में बिजली का करेंट कम मात्रा में पहुँचता है तो उनकी चाल बहुत धीमी पड़ जाती है, पर जैसे-जैसे वह विद्युत् प्रवाह बढ़ता है, वैसे-वैसे ही उन सब में तेजी, गति और शक्ति बढ़ती जाती है। चेतना का कामचलाऊ अंश तो प्राणिमात्र में रहता है, जिससे वह किसी प्रकार अपनी जीवनचर्या चलाता रह सके। यह जन्मजात है, किन्तु जब कभी इसकी अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता पड़ती है तो वह योग और तपपरक साधना करता है। इन दोनों का तात्पर्य प्रकारांतर से प्रतिभा और सेवा-साधना में सरलता अनुभव होने की प्रवृत्ति ही समझी जा सकती है।

योगदर्शन में अष्टांग-साधना में सर्वप्रथम यम-नियम की गणना की गई है। यह अन्तरंग और बहिरंग सुव्यवस्था के ही दो रूप हैं। जिसने इस दिशा में जितनी प्रगति की, समझना चाहिए कि उसे उतनी ही आत्मिक प्रगति हस्तगत हुई और उसकी क्षमता उस स्तर की निखरी, जिसका वर्णन महामानवों में पाई जाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में किया जाता है। उपासनात्मक समस्त कर्मकाण्डों की सरंचना इसी एक प्रयोजन के लिये हुई है कि व्यक्ति की पशु-प्रवृत्तियों के घटने और दैवी संपदाओं के बढ़ने का सिलसिला क्रमबद्ध रूप से चलता रहे। यदि उद्देश्य का विस्मरण कर दिया जाए और मात्र पूजापरक क्रिया-कृत्यों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यह चिह्न−पूजा को निर्जीव उपक्रम ही माना जाएगा और उतने भर से बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियों की आशा करने वालों को निराश ही रहना पड़ेगा।

समर्थ पक्षियों के नेतृत्व में अनेक छोटी चिड़ियाँ उड़ान भरती हैं। बलिष्ठ मृग के परिवार में आश्रय पाने के लिये उसी जाति के अनेक प्राणी सम्मिलित होते जाते हैं। च्यूँटियाँ कतार बनाकर चलती हैं। बलिष्ठ आत्मबल के होने पर दैवी शक्तियों का अवतरण आरम्भ हो जाता है और साधक क्रमश: अधिक सिद्ध स्तर का बनता जाता है। यही है वह उपलब्धि, जिसके सहारे महान् प्रयोजन सधते और ऐसे गौरवास्पद कार्य बन पड़ते हैं, जिन्हें सामान्य स्तर के लोग प्राय: असम्भव ही मानते रहते हैं।

बड़ी उपलब्धियों के लिये प्राय: दो मोर्चे संभालने पड़ते हैं-एक यह कि अपनी निजी दुर्बलताओं को घटाना-मिटाना पड़ता है। उनके रहते मनुष्य में आधी-चौथाई शक्ति ही शेष रह जाती है, अधिकांश तो निजी दुर्बलताओं के छिद्रों से होकर बह जाती है। जिनके लिये अपनी समस्याओं को सुलझाना ही कठिन पड़ता है, वह व्यापक क्षेत्र के बड़े कामों को सरंजाम किस प्रकार जुटा सकेंगे। भूखा व्यक्ति किसी भी मोर्चे पर जीत नहीं पाता। इसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति स्वयं अपने लिये इतनी समस्याएँ खड़ी करता रहता है, जिनके सुलझने में उपलब्ध योग्यता का अधिकांश भाग खपा देने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करने के लिये कुछ सामर्थ्य बचेगी या नहीं।

बच्चों को लोरी गाकर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटाकर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग और दुर्व्यसन में आलस्य-प्रमाद का आदी बनाकर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्ध-मृत या अर्ध-विक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा है। ऐसे व्यक्ति पग-पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते देखे जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर से ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिये आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को उससे कहीं अधिक हल्की अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर उठानी पड़ती हैं। परमार्थ-कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता जितना कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरंतर पतन और पराभव ही हाथ लगता है।

हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिए अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरूक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम सम्पन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुत: मनुष्य की क्षमता और दक्षता गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।

अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान-अनुदान देवी-देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहें और जो इनके लिये ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनाएँ। वस्तुत: देवत्व आत्म-जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।

कहते हैं कि भगवान् शेष शैय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों का भगवान् उन बचकानों की बेहूदी धमा-चौकड़ी से तंग आकर आँखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाता है, पर जो मनस्वी उसकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिये द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्टनिवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण व सुग्रीव की तरह वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है।

इच्छाशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़कर इस संसार में और कोई नहीं। इसी को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग-मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि-सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर उपलब्ध किए जाते रहते हैं।

स्वयं का भार वहन करना भी आमतौर से कठिन काम माना जाता है। फिर अनेकों का भार वहन करते हुए उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने को लक्ष्य पूरा करना तो और भी अधिक कठिन पड़ना चाहिए, पर यह कठिनाई या असमर्थता तभी तक टिकती है, जब तक अपने मेें सामर्थ्य की कमी रहती है। उसका बाहुल्य हो तो मजबूत क्रेनें रेलगाड़ी के पटरी से उतरे डिब्बों को अंकुश में लपेटकर उलटकर सीधा करतीं और यथास्थान चलने योग्य बनाकर अच्छी स्थिति में पहुँचा देती हैं।

इक्कीसवीं सदी में उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ किए जाने हैं, जितना कि पिछले दो महायुद्धों की विनाश-विभीषिका में ध्वंस हुआ है; जैसे कि वायु-प्रदूषण ने जीवन-मरण का संकट उत्पन्न किया है; विषमताओं और अनाचारजन्य विभीषिकाओं ने भी संकट उत्पन्न किए हैं। शक्ति तो इन सभी में खर्च हुई, पर ध्वंस की अपेक्षा सृजन के लिये कहीं अधिक सामर्थ्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसका यदि संचय समय रहते किया जा सके तो समझना चाहिए कि दुष्ट चिन्तन और भ्रष्ट आचरण के कारण उन असंख्य समस्याओं का समाधान सम्भव होगा जो इन दिनों हर किसी को उत्तेजित, विक्षुब्ध और आतंकित किए हुए हैं।

युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी

प्रयोजन बड़ा होते हुए भी उसका समाधान सरल है। यदि प्रतिभाओं के परिष्कार का क्रम चल पड़े, उनके आविर्भाव का उपचार बन पड़े तो समझना चाहिए कि इन अनुदानों के सहारे विश्वव्यापी कार्य सध जाता है-सामाजिक और क्षेत्रीय समस्याओं को संभालते रहना और भी अधिक सरल पड़ता जाएगा।

हर महत्त्वपूर्ण कार्य में तद्नुरूप ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। उसके बिना तो छोटे-छोटे कार्य भी पूरे नहीं होते। हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये ऊर्जा चाहिए; फिर युगनिर्माण जैसा विश्वव्यापी और अत्यधिक भारी-भरकम काम तो वरिष्ठ प्रतिभासम्पन्नों के कंधा लगाये बिना पूरा हो सकने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

नवनिर्माण की विश्वव्यापी संरचना जिसने सोची और खड़ी की है, उसने इस पुण्यप्रयोजन की पूर्ति के लिये प्राणवान् जीवट के धनी व्यक्तित्वों की अच्छी-खासी सेना खड़ी करने की आवश्यकता अनुभव की है और उसे समय रहते जुटा लेने की तैयारी की है। यह उल्लेख-उद्बोधन उन्हीं के लिये है। प्रतिभा-परिष्कार का सुयोग उपयुक्त मात्रा में बन पड़ा तो फिर अपनी दुनिया का स्वरूप और परिवेश बदल डालने में नियंता के सामने और कोई बड़ी कठिनाई शेष न रहेगी।

भूतकाल में भी मनस्वी लोगों ने एक-से-एक आश्चर्यजनक कार्य किए हैं। इनमें अगस्त्य का समुद्र सोखना, हनुमान का पर्वत उठाना एवं विश्वामित्र के तत्त्वावधान में रामराज्य की स्थापना होना जैसी घटनाएँ ऐसी हैं, जो बताती है कि करने-मरने पर उतारू व्यक्ति के लिये क्या कुछ ऐसा है, जिसे सम्भव करके नहीं दिखाया जा सकता। स्वर्ग से धरती पर गंगा उतारने वाले भगीरथ अपने कार्य में सफल हुए थे तो फिर कोई कारण नहीं कि नवनिर्माण में जुटे भगीरथों की अपनी मण्डली भ्रम-जंजाल से निकलकर सीधे और सरल काम कर सकने के लिये समर्थ नहीं बन सकती।

प्रतिभाओं का निखार दूसरे तो क्या, किसी की भी कृपा-अनुकंपा के ऊपर निर्भर नहीं है। वह तो पूरे तरह अपने बस की बात है। शरीर से इच्छानुसार काम लिया जा सकता है। उस पर पूरा नियंत्रण अपना रहता है। जो लोग संसार के वर्तमान प्रचलनों की बातों को ही सब कुछ मानते हैं, उन्हें क्या कहा जाए अन्यथा अपने मनोबल और प्रयास को यदि दिशाबद्ध किया जा सके तो हर व्यक्ति अन्त: की प्रेरणा से न जाने क्या से क्या कुछ करके दिखा सकता है। यह नया प्रयोग नहीं है। भूतकाल में ऐसे ही प्रयोग होते रहे हैं। युग बदलते रहे और मनुष्य अपनी प्रथा-परम्पराओं में आमूलचूल परिवर्तन करता रहा है। इस बार की महाकाल द्वारा दी गई चुनौती को अस्वीकार करते न बन पड़ेगा।

गाँधी, बुद्ध, ईसा आदि के धार्मिक आंदोलनों को सफल बनाने के पीछे भगवान् की इच्छा कार्य करती रही है। इस बार प्रतिभावानों की पूर्ति का सरंजाम जुट रहा है। समय रहते वह पूरा भी होगा। यह सम्भावना अधूरी न रहेगी; क्योंकि प्रतिभावानों में हुंकार जब भी उठी है, उसने विशिष्ट स्तर की प्रतिभाओं को विकसित किया है। यह प्रतिभावानों की विशेषता रही है। इसके लिये शरीरबल, साधनाबल, बुद्धिबल की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी कि गाँधी, बुद्ध, विनोबा जैसे प्रतिभावानों की। समय स्वल्प हो तो भी अपने संपर्क क्षेत्र में प्रतिभा का परिचय देने वाले मनस्वी तो हर किसी को उभार सकते हैं, और गीध, गिलहरी, शबरी, भील जैसे चमत्कार प्रस्तुत कर सकते हैं, जो छोटों के लिये भी सम्भव हो सकता है।

इक्कीसवीं सदी में आंदोलन की भागीदारी स्वीकार करने के लिये भाव-सम्वेदना के धनी वर्ग का आह्वान किया गया है। आरम्भ की दृष्टि से हल्के काम सौंपे गए हैं- युगसंधिपुरश्चरण के अन्तर्गत जप, साधना, समयदान, अंशदान, साप्ताहिक सत्संग, झोला-पुस्तकालय आदि। उन्हें हल्के दरजे के स्काउट व्यायाम स्तर का समझा जाए, जिससे अभिरूचि और आस्था की परिस्थिति बढ़ चले।

अनगढ़ता मिटे, सुगढ़ता विकसित हो

पृथ्वी का उत्तर ध्रुव निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त पदार्थ-संपदा में से अपने लिये आवश्यक तत्त्व खींचता रहता है। वही धरती की विविध आवश्यकताएँ पूरी करता है। जो निरर्थक अंश बचा रहता है, वह पदार्थ ध्रुव-मार्ग से कचरे की तरह बाहर फेंक दिया जाता है। यही क्रम मनुष्य-शरीर का है। वह अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप चेतन तत्त्व आकाश में से खींचता और छोड़ता रहता है। उसी पूँजी से अपना काम चलाता है। क्या ग्रहण करना और क्या बहिष्कृत करना है, यह मनुष्य के मानसिक चुंबकत्व पर निर्भर है। यदि अपना मानस उच्चस्तरीय बन चुका है तो उसका आकर्षण विश्वब्रह्माण्ड से अपने स्तर के सहकारी तत्त्व खींचता और भण्डार करता रहेगा, पर पूँजी अपने मनोबल के अनुरूप ही जमा होती रहती है। वैसे मनुष्य को जन्मजात रूप से विभूतियों का वैभव प्रचुर मात्रा में मिला है, पर वह प्रसुप्ति की तिजोरी में बंद रहता है; ताकि आवश्यकता अनुभव होने पर ही उसे प्रयत्नपूर्वक उभारा और काम में लाया जा सके। सभी जानते हैं कि भूगर्भ में विभिन्न स्तर के रासायनिक द्रव्य भरे पड़े हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि आकाश से निरंतर धरती पर प्राणतत्त्व की वर्षा होती रहती है। वनस्पतियों और प्राणियों का गुजारा इन्हीं उभयपक्षीय अनुदानों के सहारे चलता है। मानवीय व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह इच्छित प्रगति के लिये अपने वर्चस्व का कितना ही महत्त्वपूर्ण अंश उभार सकता है और अपने बलबूते वांछित दिशा में अग्रगमन कर सकता है। उर्वरता भूमि में होती है, पर उसके प्रकट होने के लिये ऊपर से जल बरसना भी आवश्यक है अन्यथा उर्वरता हरीतिमा का रूप धारण न कर सकेगी। मनुष्य को अपने में सन्निहित विशेषताओं को भी ऊर्ध्वगामी बनाना चाहिए और साथ ही अदृश्य जगत् के विपुल वैभव का अंश भी अपनी आकर्षण-शक्ति से खींचकर अधिकाधिक सुसम्पन्न बनना चाहिए। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को प्रखर-परिष्कृत बनाना और ईश्वर-सान्निध्य स्थापित करके व्यापक शक्ति के लिये कुछ उपयुक्त से खींच बुलाना, ये दोनों ही क्रियायें अपने ढंग से नियमित रूप से चलती रहें तो समझना चाहिए कि प्रगति का सुव्यवस्थित सरंजाम जुटने की समुचित व्यवस्था बन गई। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए चिन्तन, चरित्र और स्वभाव को गुण, कर्म और भाव-सम्वेदना को दिनों-दिन अधिक उत्कृष्ट बनाते चलने की आवश्यकता को ध्यान रखने पर जोर दिया गया है; साथ ही आवश्यक यह भी है कि इस विराट् विश्व की कामधेनु की अनुकूलता प्राप्त करके अमृत भरे पयपान का लाभ उठाते रहा जाए।

प्राण अपना है, प्रतिभा भी अपनी है, पर वह अनगढ़ स्थिति में झाड़-झंखाड़ों से भरी रहती है। उसे सुरम्य उद्यान में बदलने के लिये कुशल माली जैसे अनुभव और सतर्कता भरा प्रयत्न चाहिए। जो उसे कर पाते हैं, वे ही देखते हैं कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ का प्रतिपादन सोलहों आना सच है। उसमें किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं है। घाटे में वे रहते हैं, जो अपनी उपेक्षा आप करते हैं। जो अपनी अवमानना अवहेलना करेगा, वह दूसरों से भी तिरस्कृत होगा और स्वयं भी घाटे में रहेगा।

बड़े प्रयोजन के लिये प्रतिभावानों की आवश्यकता

इक्कीसवीं सदी में अपनी-अपनी भावना और योग्यता के अनुरूप हर किसी को कुछ न कुछ करना ही चाहिए। व्यस्तता और अभावग्रस्तता के कुहासे में कुछ करना-धरना सूझ न पड़ता हो तो फिर अपनी मन:स्थिति और परिस्थिति का उल्लेख करते हुए शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार से परामर्श कर लेना चाहिए।

विशेषत: इस शताब्दी में प्रखर प्रतिभाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। पिछली शताब्दी में प्रदूषण फैला, दुर्भाव बढ़ा और कुप्रचलन का विस्तार हुआ है। उसमें सामान्यजनों का कम और प्रतिभाशालियों द्वारा किए गए अनर्थ का दोष अधिक है। अब सुधार की वेला आई है तो कचरा बिखेरने वाले वर्ग को ही उसकी सफाई का प्रायश्चित करना चाहिए। तोड़ने वाले मजदूर सस्ते मिल जाते हैं, किन्तु कलात्मक निर्माण करने के लिये अधिक कुशल कारीगर चाहिए। नवनिर्माण में लगाई जाने वाली प्रतिभाओं की दूरदृष्टि, कुशलता और तत्परता अधिक ऊँचे स्तर की चाहिए। उनका अन्तराल भी समुज्ज्वल होना चाहिए और बाह्य दृष्टि से इतना अवकाश एवं साधन भी उनके पास होना चाहिए ताकि अनावश्यक विलम्ब न हो और नये युग की क्षतिपूर्ति कर नवनिर्माण वे विश्वकर्मा जैसी तत्परता के साथ कर सकें; जो एकांगी न सोचें वरन् बहुमुखी आवश्यकताओं के हर पक्ष को सँभालने में अपनी दक्षता का परिचय दे सकें। यही निर्माण आज का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। सृजेता ही कार्य सम्पन्न कर दिखाता है। मूकदर्शक तो खड़े-खड़े साक्षी की तरह देखते रहते हैं। ऐसी भीड़ में असुविधा ही बढ़ती है। गंदगी और गड़बड़ी फैलाते रहना ही अनगढ़ लोगों का काम होता है।

सृजेता की सृजन-प्रेरणा किस गति से चल रही है और उज्ज्वल भविष्य की निकटता में अब कितना विलम्ब है, इसकी जाँच-पड़ताल एक ही उपाय से हो सकती है कि कितनों के अन्त:करण में उस परीक्षा की घड़ी में असाधारण कौशल दिखाने की उमंगे उठ रही हैं तथा स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ अपनाना कितना अधिक सुदृढ़ होता चला जाता है? समय की सबसे बड़ी आवश्यकता-नवसृजन-के लिये सोच तो कोई कुछ भी सकता है, पर क्रियारूप में कुछ कर पड़ना उन्हीं के लिये सम्भव हो सकता है, जो निजी महत्त्वाकांक्षाओं में कटौती करके अधिक से अधिक समय, श्रम, मनोयोग एवं साधनों को नियोजित कर सकें। भवन खड़ा करने के लिये ईंट, चूना, सीमेंट, लकड़ी, लोहा आदि अनिवार्य रूप से चाहिए। युगसृजन भी ऐसे ही अनेक साधनों की अपेक्षा करता है। उन्हें जुटाने के लिये पहला अनुदान अपने से ही प्रस्तुत करने वालों को ही यह आशा करनी चाहिए कि अन्य लोग भी उसका अनुकरण करेंगे; ऐसा समर्थन-सहयोग देने में उत्साह का प्रदर्शन करेंगे।

कहा जा चुका है कि युगसृजन जैसा महान् उत्तरदायित्व पूरा करने में स्रष्टा की उच्चस्तरीय सृजन-शक्तियाँ ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करेंगी। मनुष्य की औसत उपलब्धि तो यही रही है कि वह बनाता कम और बिगाड़ता अधिक है, पर जहाँ बनाना-ही-बनाना एकमात्र लक्ष्य हो, वहाँ तो स्रष्टा की सृजन-सेना ही अग्रिम मोर्चा सँभालती दिखाई देगी। हर सैनिक के लिये अपने ढंग का अस्त्र-शस्त्र होता है। युगसृजन में आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा चाहिए और ऐसी लगन, जिसे कहीं किन्हीं आकर्षण या दबाव से विचलित न किया जा सके। ऐसे व्यक्तियों को ही देवमानव कहते हैं और उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य कर गुजरने की आशा की जाती है। जिन तथाकथित, कुण्ठाग्रस्त व मायाग्रस्त लोगों को सुनने-विचारने तक की फुरसत नहीं होती, उनसे तो कुछ बन पड़ेगा ही कैसे!

ईश्वर का स्वरूप न समझने वाले उसे मात्र मनोकामनाओं की पूर्ति का ऐसा माध्यम मानते हैं, जो किसी की पात्रता देखे बिना आँखें बंद करके योजनाओं की पूर्ति करता रहता है; भले ही वे उचित हों या अनुचित, किन्तु जिन्हें ब्रह्मसत्ता की वास्तविकता का ज्ञान है, वे जानते हैं कि आत्मपरिष्कार और लोककल्याण को प्रमुखता देने वाले ही ईश्वर-भक्त कहे जाने योग्य हैं। इसके बदले में अनुग्रह के रूप में सजल श्रद्धा और प्रखर प्रज्ञा के अनुदान मिलते हैं। उनकी उपस्थिति से ही पुण्य प्रयोजन के लिये ऐसी लगन उभरती है, जिसे पूरा किए बिना चैन ही नहीं पड़ता। उस ललक के रहते वासना, तृष्णा और अहंता की मोह-निद्रा या तो पास ही नहीं फटकती या फिर आकर वापस लौट जाती है। नररत्न ऐसों को ही कहते हैं। प्रेरणाप्रद इतिहास का ऐसे ही लोग सृजन करते हैं। उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए सामान्य सामर्थ्य वाले लोग परमलक्ष्य तक पहुँच कर रहते हैं। यही उत्पादन यदि छोटे-बड़े रूप में उभरता दीख पड़े तो अनुमान लगाना चाहिए कि भावभरा बदलाव आने ही वाला है। कोपलें निकली तो कलियाँ बनेंगी, फूल खिलेंगे, वातावरण शोभायमान होगा और उस स्थिति के आते भी देर न लगेगी, जिससे वृक्ष फलों से लदते और अपनी उपस्थिति का परिचय देकर हर किसी को प्रमुदित करते हैं।

इन दिनों औसत आदमी संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में एड़ी से चोटी तक डूबा प्रतीत होता है। उनकी आँखें न सृजन होकर इर्द-गिर्द बिखरे हुए पतन-पराभव को देखती हैं और न ऐसा कुछ सूझता है कि अवाँछनीयता को औचित्य में बदलने के लिये उनसे क्या कुछ बन पड़ सकता है। जिनके कानों में कराह की पुकार ही नहीं पहुँचती है; जिन्हें घुँघरू के बोल ही सुहाते हैं, वे युग की पुकार और ईश्वर की वाणी सुन सकने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं! मानवीय भाव-सम्वेदना जहाँ से पलायन कर जाती है और जहाँ मरघट जैसी नीरवता और नीरसता ही छाई रहती है, वहाँ शालीनता का स्नेह-सद्भाव कैसे बन पड़ेगा! कैसे उस दिशा में उनके कुछ कदम उठ सकेंगे! ऐसे वातावरण में यदि कोई पुण्य-परमार्थ को वरण करने की बात सोचता है तो समझना चाहिए इसी आकाश में उदीयमान नक्षत्रों की चमक प्रारम्भ हुई और रात्रि को भी रत्नजड़ित चाँदनी से सजा देने वाली मंगलमयी वेला का आगमन शुरू हुआ।

आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है। बड़े काम बड़े लोग कर पाते हैं। हाथी का वजन हाथी ही उठाता है। गधे की पीठ पर यदि उसे लाद दिया जाए तो बेचारे की कमर ही टूट जाए। क्षुद्र कृमि-कीटक मात्र अपना अस्तित्व बनाए रहने की परिधि में ही क्षमताओं को खपा देते हैं। उनसे यह बन नहीं पड़ता कि आदर्शों की बात सोचें, उत्कृष्टता अपनाएँ और विश्वकल्याण के क्रियाकलापों में रुचि लेकर कुछ ऐसा करें जिसकी युगधर्म ने पुकार लगाई और गुहार मचाई है।

वर्षा आती है तो हरीतिमा अनायास ही सर्वत्र उभर पड़ती है। वसन्त आता है तो हर पेड़-पौधे पर फूलों की शोभा निखरती है। समझना चाहिए कि नवसृजन की इस पुण्यवेला में तनिक-सी गरमी पाते ही मलाई दूध के ऊपर आकर तैरने लगेगी। नवयुग का चमत्कार अरुणोदय की तरह यह दृष्टिकोण उभारेगा कि लोग अपने निर्वाह के प्रति स्वल्प सन्तोषी दृष्टिकोण अपनाएँगे और युगधर्म की बहुमुखी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये इस प्रकार जुट पड़ेंगे, मानों इसी एक काम के लिये उनका सृजन-अवतरण हुुआ हो। अप्रत्याशित को निर्झर की तरह जमीन फोड़कर उभर पडऩा उसी को कहा जाएगा जो अगले दिनों होने जा रहा है।

समय अपनी गति से चलता और बदलता है, पर जब कभी आकस्मिक परिवर्तन दीख पड़े तो समझना चाहिए कि संध्याकाल जैसा परिवर्तन-पर्व निकट है। उसमें बहुत कुछ बदलना है, पर बदलाव की प्रथम किरण जहाँ से दृष्टिगोचर होगी, उसे प्रखर प्रतिभाओं का अभिनव उद्भव कहा जा सकेगा। भगवान् मनुष्य के रूप में परिवर्तित होंगे और उनकी निजी गतिविधियों का परिवर्तन विश्वपरिवर्तन की भूमिका बनकर और व्यापक बनता चला जाएगा।

योजना, प्रेरणा, दक्षता, व्यवस्था और समर्थता तो भगवान् की काम करेगी, किन्तु श्रेय वे लोग प्राप्त करेंगे, जिनकी अन्तरात्मा में युग के अनुरूप श्रद्धा और लगन जग पाई है। मुरगा जगकर अपने जागने की सूचना देता है, पर उसकी बाँग को सुनकर असंख्यों को ब्रह्ममुहूर्त की सूचना मिलती है और वे भी अरुणोदयवेला का लाभ लेने के लिए कार्यक्षेत्र में कदम उठाते हुए अगले दिनों दृष्टिगोचर होंगे।

सद्बुद्धि का उभार कैसे हो?

अभावों और संकटों में से कितने ही ऐसे हैं, जिनके कारण मनुष्य को आए दिन बेचैन रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह दूसरे सम्पन्नों से आशा भी करता है कि उसकी कुछ मदद की जाए। करने वाला इसमें कर्तव्यपालन और पुण्यपरमार्थ अनुभव करता है।

दुर्बलता, रुग्णता, दरिद्रता, शत्रुता, मूर्खता व आशंका जैसे कितने ही कारण ऐसे हैं जो दु:खों को बढ़ाते और त्रास देते रहते हैं, पर इन सबके मूल में एक ही विपत्ति सर्वोपरि है, जिसका नाम है-अदूरदर्शिता अविवेक भी इसी को कहते हैं। दिग्भ्रांत मनुष्य अपने को समझदार मानते हुए भी कुचक्र में फँसते और भटकाव के कारण पग-पग पर ठोकरें खाते हैं। अनाचार भी इस कारण बनते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टता इसी कारण घुस पड़ती है। जड़ में से अनेक टहनियाँ, पत्तियाँ फूटती हैं, इसी प्रकार एक अविवेकशीलता का बाहुल्य रहने पर कारणवश या अकारण ही समस्याओं में उलझना और विपत्तियों में फँसना पड़ता है।

पत्ते सींचने से पेड़ की सुव्यवस्था नहीं बन पड़ती, इसलिए जड़ में खाद-पानी लगाने और उजाड़ करने वालों से रखवाली करनी पड़ती है। इतना प्रबन्ध किए बिना अच्छी भूमि में बोया गया अच्छा बीज भी फूलने-फलने की स्थिति तक नहीं पहुँचता।

सद्ज्ञान को समस्त विपत्तियों का निवारक माना गया है। रामायण का कथन है कि ‘जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना’ अर्थात् जहाँ विचारशीलता विद्यमान रहेगी वहाँ अनेकानेक सुविधाओं-संपदाओं की शृंखला अनायास ही खिंचती चली आएगी। यही कारण है कि सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री को माना गया है। मन:स्थिति परिस्थितियों का निर्माण करती है। परिस्थितियाँ ही दु:ख का, उत्थान-पतन का निमित्त कारण बनकर सामने आती हैं। गीताकार ने सच ही कहा है कि मनुष्य ही अपना शत्रु है और वही चाहे तो अपने को सघन सहयोगी मित्र बना सकता है, इसलिए अपने आपको गिराना नहीं, उठाना चाहिए।

आशा और विश्वास के बल पर कष्टसाध्य रोगों के रोगी-बीमारियों से लड़ते-लड़ते देर-सबेर चंगे हो जाते हैं; जबकि शंकालु, डरपोक और अशुभ चिन्तन करते रहने वाले साधारण रोगों को ही तिल का ताड़ बनाकर मौत के मुँह में जबरदस्ती जा घुसते हैं। देखा गया है कि अशुभ चिन्तन के अभ्यासी अपना जीवट और साहस आधी से अधिक मात्रा में अपनी अनुपयुक्त आदतों के कारण ही गँवा बैठते हैं। कठिनाइयाँ और अड़चने हर किसी के जीवन में आती हैं, पर उनमें से एक भी ऐसी न होगी जिसे धैर्य और साहसपूर्वक लड़ते हुए परास्त न किया जा सके। सहनशीलता एक ऐसा गुण है, जिसके साथ धैर्य भी जुड़ा होता है और साहस भी। आजीवन जेल की सजा पाये हुए कैदी भी उस विपत्ति को ध्यान में न रखकर घरेलू जैसी जिंदगी जी लेते हैं और अवधि पूरा करके वापस लौट आते हैं। सुनसान बीहड़ों में खेत या बगीचे रखाने वाले निर्भय होकर चौकीदारी करते हैं; जबकि डरपोकों को घर में चुहिया की खड़बड़ भी भूत-बला के घर में घुस आने जैसी डरावनी प्रतीत होती है। शत्रु किसी का उतना अहित नहीं कर पाते, जितनी उनके द्वारा पहुँचाई जा सकने वाली हानि की कल्पना सन्त्रस्त करती रहती है। कुछ लोग गरीबी के रहते हुए भी हँसती-हँसाती जिंदगी जी लेते हैं, जबकि कितनों के पास पर्याप्त साधन होते हुए भी तृष्णा छाई दिखती रहती है। यह मन का खेल है। हर किसी की अपनी एक अलग दुनिया होती है, जो उसकी अपनी निज की संरचना ही होती है; परिस्थितियों और साथियों का इस निर्माण कार्य में यत्किंचित् सहयोग होता है। जीवन गीली मिट्टी की भाँति है, उसे कोई जैसी भी कुछ चाहे, आकृति दे सकता है।

निजी जीवन में आन-बान-शान पर मर मिटने वालों की लंबी कहानी है। जयचंद, मीरजाफर के उदाहरण ऐसे ही लोगों में सम्मिलित हैं। शत्रु से बदला चुकाने के नाम पर न जाने-क्या-क्या अनर्थ होते रहे हैं। ईर्ष्या ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाने में कमी नहीं रखी-ऐसे बहुत हैं, जो भयंकर अग्निकाण्ड रचने की ललक में अपने को भी घास-फूस की तरह जला बैठे। युद्धों की कथा-गाथाओं के पीछे भी इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों की भूमिका काम करती रही है। कहने को तो उन्हें भी दुस्साहस ही कह सकते हैं। अनाचारी, आतंकवादी और षड्यंत्रकारी ऐसा ही ताना-बाना बुनते रहते हैं।

प्रश्न इन दिनों सर्वथा दूसरी प्रकार का है-सृजन और उन्नयन के लिए किसकी सद्भावना किस हद तक उभरती है? देखा जाना है-स्वार्थ के मुकाबले में परमार्थ सुहाता किसे है? ध्वंस करने वाले जिस प्रकार मूँछों पर ताव देेते हैं और शेखी बघारते हैं, वैसा सृजनकर्मियों को नहीं सुहाता है। निर्माणकर्ताओं की मंद गन्ध चंदन जैसी होती है, जो बहुत समीप से ही सूँघी जा सकती है, पर ध्वंस की दुर्गन्ध तो अपने समूचे क्षेत्र को ही कुरुचि से भर देती है और अपनी उपस्थिति का दूर-दूर तक परिचय देती है। दुष्टता भरी दुर्घटनाएँ दूर-दूर तक चर्चा का विषय बन जाती हैं, पर सेवा-सद्भावना भरे कार्य कुछेक लोगों की जानकारी में ही आते हैं। इतने पर भी उन्हें वैसा विज्ञापित होने की आवश्यकता नहीं होती है, जैसी कि दुष्ट-दुराचारी अपने नाम की चर्चा दूर-दूर तक होती सुन लेते हैं और अहंकार को फलितार्थ हुआ देखते हैं।

इन परिस्थितियों में सत्प्रवृत्ति-संवर्धन जैसे सत्प्रयोजनों के लिए किन्हीं दूरदर्शी और सद्भावना-सम्पन्नों के कदम ही उठते हैं। अनुकरण के प्रत्यक्ष उदाहरण सामने न होने पर अपना उत्साह भी ठण्डा होता रहता है। संचित कुसंस्कारों से लेकर वर्तमान प्रचलनों के अनेक अवरोध इस मार्ग में अड़ते हैं कि फूटे खंडहरों जैसी व्यवस्थाओं को किस प्रकार नये सिरे से भव्यभवन का विशाल रूप देने की योजना बनाई जाए तथा इसके लिये निरंतर कार्यरत और आवश्यक साधन जुटाने की हिम्मत कैसे जुटाई जाए?

इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता

करने को तो काम एक ही है, पर वह है इतना बड़ा और व्यापक, जिसकी तुलना हजार छोटे-बड़े कामों के समूह से की जा सकती है। बदलाव पदार्थों का सरल है-लोहे तक को गलाकर दूसरे साँचे में ढाला जा सकता है; वेश-विन्यास से कुरूप को भी रूपवानों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है, पर विचारों का क्या किया जाए, जो चिरकाल से बन पड़ते रहे कुकर्मों के कारण स्वभाव का अंग बन गए हैं और आदतों की तरह बिना प्रयास के चरितार्थ होते रहते हैं। सभी जानते हैं कि नीचे गिराने में तो पृथ्वी की आकर्षण-शक्ति ही पूरा-पूरा जोर हर घड़ी लगाये रहती है, पर ऊँचा उठने या उठाने के लिए तो आवश्यकता के अनुरूप समर्थ साधना चाहिए। इस निमित्त सामर्थ्य भर जोर लगाना पड़ता है। श्रेष्ठ काम कर गुजरने वालो में-आततायी-वर्ग द्वारा प्रयुक्त होने वाली शक्ति की तुलना में-सैकड़ों गुनी अधिक सामर्थ्य चाहिए। किसी मकान को एक दिन में-नष्ट किया जा सकता है और इसके लिए एक फावड़ा ही पर्याप्त हो सकता है, पर यदि उसे नये सिरे से बनाना हो तो उसके लिये कितना समय व कितना कौशल लगाना पड़ेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रेय ध्वंस को नहीं, सृृजन को ही मिलता रहा है।

इन दिनों एक ही बड़ा काम सामने है कि जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई दुर्भावना के निराकरण के लिये कितना बड़ा, कितना कठिन और कितने शौर्य-पराक्रम की अपेक्षा रखने वाला पुरुषार्थ जुटाया जाना चाहिए? यह कार्य मात्र उपदेशों से नहीं होगा। इसके लिए तद्नुरूप वातावरण चाहिए। फिर उपदेष्टा का व्यक्तित्व ऐसा चाहिए जो अपने कथन व अपने व्यवहार में उतरने की कसौटी पर हर दृष्टि से खरा उतरता हो। बढ़िया बंदूक ही सहज निशाना लगाने में समर्थ होती है, टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ़ नहीं, बालक का तमंचा प्राय: असफल निशाना ही लगाता रहता है। सदाशयता और सद्भावना का निजी जीवन में परिचय देने वाले ही दूसरों को ऊँचा चढ़ाने, आगे बढ़ाने और सृजनात्मक प्रयोजनों को पूरा कर पाने में समर्थ हो पाते हैं।

विचार क्रान्ति की सर्वोपरि आवश्यकता है। हेय चिन्तन ही दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता, कुचेष्टा और दुष्प्रवृत्तियों का निमित्त है। इन बीमारियों का अलग-अलग इलाज कारगर नहीं हो सकता। रक्त शोधक उपचार करने से ही आए दिन उगने वाले फोड़े-फुंसियों से छुटकारा मिलता है। जड़ सींचने से ही पेड़ हरा होता है। वह कार्य पत्तों को पोसने से पूरा होना सम्भव नहीं। विकास और सुधार के लिए तो अनेकानेक काम करने को पड़े हैं, पर यदि उन सबको समेटने की अपेक्षा विचारों का तारतम्य सही बिठा लिया जाए तो अन्यान्य बहुमुखी विकृतियों पर सहज काबू पाया जा सकता है। विचारों से ही कार्य विनिर्मित होते हैं। इन्हीं कारण उत्थान-पतन की भूमिका दृष्टिगोचर होती है। यदि विचारों को शालीनता, सज्जनता, नीति-निष्ठा कर्तव्यपरायणता और समाजनिष्ठा की दिशा में उन्मुख किया जा सके तो फिर शरीर एवं साधनों के माध्यम से मात्र वे ही कार्य बन पड़ेंगे, जो सुधार एवं विकास के लिये आवश्यक हैं।

प्राचीनकाल में घर-घर अलख जगाने, संपर्क साधने और विचार-विनिमय करने जैसे कुछ ही कार्य ऐसे थे, जिनके सहारे लोकमानस का परिष्कार बन पड़ता था। अधिक लोगों को एक स्थान पर एकत्र करने के लिये सामूहिक कर्मकाण्डों की आवश्यकता होती थी, पर अब तो विज्ञान ने उन सभी कार्यों को सरल बना दिया है। यदि उन्हें योजनाबद्ध रूप से बड़े पैमाने पर किया जा सके तो क्षेत्र की व्यापकता होते हुए भी प्रयोजन की पूर्ति में अधिक कठिनाई न रहेगी।

प्रेस अपने समय का एक वरदान है। इसके द्वारा कम समय में अधिक लोगों तक सस्ते आधार पर पहुँचना सम्भव हो सकता है। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, वीडियो तथा स्लाइड प्रोजेक्टर जैसे सस्ते उपकरण भी अधिक लोगों तक कम समय में विचारोत्तेजक प्रवाह पहुँचाने में समर्थ हो सकते हैं। संगीत-मंडलियाँ यदि योजनाबद्ध रूप से काम करें तो उनके सहारे भी जागरण का बड़ा काम बड़े परिमाण में बन सकना सम्भव हो सकता है। ऐसे ही अन्य छोटे-बड़े माध्यम से ढूँढ़े जा सकते हैं, जो उल्टी दिशा में बहते-प्रवाह को उलटकर सीधा कर सकें। यह प्रचार प्रतिभासम्पन्न लोगों की सहायता से और भी अच्छी तरह व्यापक परिधि में पूर्ण हो सकता है।

इतने पर भी एक कठिनाई फिर भी ज्यों-की-त्यों रह जाती है कि अन्त:करण की गहराई तक प्रवेश करके उन्हें क्रियान्वित होते देखने की आशा-सम्भावना तभी पूरी होती है, जब उस हेतु प्रखर प्रतिभाएँ निखरकर, आगे बढ़कर आएँ और मोर्चा सँभालें। यह कार्य घटिया लोगों का नहीं है, उनकी कृतियाँ उपहासास्पद बनती हैं। दूरवर्ती अनजान लोग किसी की वाचालता पर सहज विश्वास नहीं करते और जो मन, वचन, कर्म से आदर्शों के प्रति समर्पित हों, ऐसे लोग ढूँढ़े नहीं मिलते। इस विसंगति के कारण लोकमानस में अभीष्ट परिवर्तन बन नहीं पड़ता और अनेक विडम्बनाओं की तरह धर्मोपदेश भी मनोरंजन का एक निमित्त कारण बनकर रह जाता है।

कठिनाई यही दूर करनी है। स्रष्टा का अवतरण इन्हीं दिनों इस प्रकार होना है, जिसमें भावनाशील लोग अपनी कुत्सा-कुंठाओं पर विजय प्राप्त करें। ब्राह्मणोचित जीवन अंगीकार करें और अपना समग्र व्यक्तित्व इस स्तर का ढालें, जिसके प्रभावक्षेत्र में आने वाले सभी लोग यह विश्वास कर सकें कि उत्कृष्टता की पक्षधर आदर्शवादिता, कार्यरूप में अपनाई जा सकती है और उसमें हानि-ही-हानि सहनी पड़े, ऐसी बात नहीं है। आर्थिक दृष्टि से सुविधा-साधनों में कुछ कमी हो सकती है, पर उसके बदले जो आत्मसन्तोष, लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह उपलब्ध होता है, वह इतने कम महत्त्व का नहीं है, जिसे संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धनों में बँधे, रोते-कलपते जीवन की तुलना में किसी भी प्रकार कम महत्त्व का माना जा सके ।

इन दिनों यही होना चाहिए, सम्भव त: होने भी वाला है। भाव-सम्वेदना मात्र कल्पना-जल्पना के क्षेत्र तक सीमित न रहे वरन् कार्यक्षेत्र में उतरे और अपनी सामर्थ्य के अनुरूप प्रचार-प्रयोजनों में से उन्हें अपनाएँ, जो उसके लिए सम्भव और स्वाभाविक हैं।

ऐसे परामर्श हर परिष्कृत अन्त:करण में दैवी प्रेरणा से अनायास ही अवतरित हो रहे हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें हृदयंगम करने और कार्यरूप में परिणत करने भर की है।

प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

- प्रकाशक

* १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।


अपने अंग अवयवों से
(परम पूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण से पहले मार्च 1984 में लोकसेवी कार्यकर्ता-समयदानी-समर्पित शिष्यों को दिया गया महत्त्वपूर्ण निर्देश। यह पत्रक स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को वितरित करते हुए इसे प्रतिदिन पढ़ने और जीवन में उतारने का आग्रह किया था।)

यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।

इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जाएँ, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।

योजना बड़ी है। उतनी ही बड़ी, जितना कि बड़ा उसका नाम है- ‘युग परिवर्तन’। इसके लिए अनेक वरिष्ठों का महान् योगदान लगना है। उसका श्रेय संयोगवश किसी को भी क्यों न मिले।

प्रस्तुत योजना को कई बार पढ़ें। इस दृष्टि से कि उसमें सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का होगा, जो इन दिनों हमारे कलेवर के अंग-अवयव बनकर रह रहे हैं। आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।

कार्य कैसे पूरा होगा? इतने साधन कहाँ से आएँगे? इसकी चिन्ता आप न करें। जिसने करने के लिए कहा है, वही उसके साधन भी जुटायेगा। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे में कौन अग्रणी रहा?

साधन, योग्यता, शिक्षा आदि की दृष्टि से हनुमान् उस समुदाय में अकिंचन थे। उनका भूतकाल भगोड़े सुग्रीव की नौकरी करने में बीता था, पर जब महती शक्ति के साथ सच्चे मन और पूर्ण समर्पण के साथ लग गए, तो लंका दहन, समुद्र छलांगने और पर्वत उखाड़ने का, राम, लक्ष्मण को कंधे पर बिठाये फिरने का श्रेय उन्हें ही मिला। आप लोगों में से प्रत्येक से एक ही आशा और अपेक्षा है कि कोई भी परिजन हनुमान् से कम स्तर का न हो। अपने कर्तृत्व में कोई भी अभिन्न सहचर पीछे न रहे।

काम क्या करना पड़ेगा? यह निर्देश और परामर्श आप लोगों को समय-समय पर मिलता रहेगा। काम बदलते भी रहेंगे और बनते-बिगड़ते भी रहेंगे। आप लोग तो सिर्फ एक बात स्मरण रखें कि जिस समर्पण भाव को लेकर घर से चले थे, पहले लेकर आए थे (हमसे जुड़े थे), उसमें दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती रहे। कहीं राई-रत्ती भी कमी न पड़ने पाये।

कार्य की विशालता को समझें। लक्ष्य तक निशाना न पहुँचे, तो भी वह उस स्थान तक अवश्य पहुँचेगा, जिसे अद्भुत, अनुपम, असाधारण और ऐतिहासिक कहा जा सके। इसके लिए बड़े साधन चाहिए, सो ठीक है। उसका भार दिव्य सत्ता पर छोड़ें। आप तो इतना ही करें कि आपके श्रम, समय, गुण-कर्म, स्वभाव में कहीं भी कोई त्रुटि न रहे। विश्राम की बात न सोचें, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम इस प्रस्तुतीकरण में पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं? कितना आगे रह सकते हैं? कितना भार उठा सकते हैं? स्वयं को अधिकाधिक विनम्र, दूसरों को बड़ा मानें। स्वयंसेवक बनने में गौरव अनुभव करें। इसी में आपका बड़प्पन है।

अपनी थकान और सुविधा की बात न सोचें। जो कर गुजरें, उसका अहंकार न करें, वरन् इतना ही सोचें कि हमारा चिन्तन, मनोयोग एवं श्रम कितनी अधिक ऊँची भूमिका निभा सका? कितनी बड़ी छलाँग लगा सका? यही आपकी अग्नि परीक्षा है। इसी में आपका गौरव और समर्पण की सार्थकता है। अपने साथियों की श्रद्धा व क्षमता घटने न दें। उसे दिन दूनी-रात चौगुनी करते रहें।

स्मरण रखें कि मिशन का काम अगले दिनों बहुत बढ़ेगा। अब से कई गुना अधिक। इसके लिए आपकी तत्परता ऐसी होनी चाहिए, जिसे ऊँचे से ऊँचे दर्जे की कहा जा सके। आपका अन्तराल जिसका लेखा-जोखा लेते हुए अपने को कृत-कृत्य अनुभव करे। हम फूले न समाएँ और प्रेरक सत्ता आपको इतना घनिष्ठ बनाए, जितना की राम पंचायत में छठे हनुमान् भी घुस पड़े थे।

कहने का सारांश इतना ही है, आप नित्य अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि जो हम कर सकते थे, उसमें कहीं राई-रत्ती त्रुटि तो नहीं रही? आलस्य-प्रमाद को कहीं चुपके से आपके क्रिया-कलापों में घुस पड़ने का अवसर तो नहीं मिल गया? अनुशासन में व्यतिरेक तो नहीं हुआ? अपने कृत्यों को दूसरे से अधिक समझने की अहंता कहीं छद्म रूप में आप पर सवार तो नहीं हो गयी?

यह विराट् योजना पूरी होकर रहेगी। देखना इतना भर है कि इस अग्नि परीक्षा की वेला में आपका शरीर, मन और व्यवहार कहीं गड़बड़ाया तो नहीं। ऊँचे काम सदा ऊँचे व्यक्तित्व करते हैं। कोई लम्बाई से ऊँचा नहीं होता, श्रम, मनोयोग, त्याग और निरहंकारिता ही किसी को ऊँचा बनाती है। अगला कार्यक्रम ऊँचा है। आपकी ऊँचाई उससे कम न पड़ने पाए, यह एक ही आशा, अपेक्षा और विश्वास आप लोगों पर रखकर कदम बढ़ रहे हैं। आप में से कोई इस विषम वेला में पिछड़ने न पाए, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करना पड़े। -पं०श्रीराम शर्मा आचार्य, मार्च 1984


हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प
(युग-निर्माण का सत्संकल्प नित्य दुहराना चाहिए। स्वाध्याय से पहले इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ना और तब स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए। सत्संगों और विचार गोष्ठियों में इसे पढ़ा और दुहराया जाना चाहिए। इस सत्संकल्प का पढ़ा जाना हमारे नित्य-नियमों का एक अंग रहना चाहिए तथा सोते समय इसी आधार पर आत्मनिरीक्षण का कार्यक्रम नियमित रूप से चलाना चाहिए। )

1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इंद्रिय-संयम अर्थ-संयम समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।