जब-जब सौ-सौ बाँह पसारे, खड़ा तिमिर हो बीच डगर में

जब-जब सौ-सौ बाँह पसारे, खड़ा तिमिर हो बीच डगर में।
तुम दीपक से जलते जाओ। तुम दीपक से जलते जाओ॥

उठते तूफानों को आखिर, इक दिन मिट जाना ही होगा।
बढ़े प्रलय तो उसे सहमकर, आखिर रुक जाना ही होगा॥
मंजिल दूर भले हो लेकिन, उर में दृढ़ विश्वास यही है।
दुःखी जगत के इस आँगन में, सुख को फिर आना ही होगा॥
पग-पग से तुम डगर नापते, अंगारों पर चलते जाओ॥
तुम दीपक से जलते जाओ। तुम दीपक से जलते जाओ॥

ज्योति तुम्हारी बिखरे जो, भूतल से अम्बर तक छा जाये।
और सिसकती मानवता फिर, हँसकर मंगल मोद मनाये॥
पाने को यह लक्ष्य तुम्हें नित, तिल-तिल करके जलना होगा।
हो सकता है क्रूर काल यह, तुमको ठोकर देता जाये॥
तुम गिरकर भी फिर उठ-उठकर, सतत लक्ष्य तक बढ़ते जाओ॥
तुम दीपक से जलते जाओ। तुम दीपक से जलते जाओ॥

जग में जीते वही परिस्थितियों से, जो टकराया करते हैं।
चट्टानों को तोड़ स्वयं ही, अपना मार्ग बनाया करते॥
उन फूलों की ही सुगन्ध तो, छायी है सारे उपवन में।
जो काँटों से बिंधते लेकिन, म्लान न हो मुस्काया करते॥
सौरभ बिखराना चाहो तो, काँटों में भी पलते जाओ॥
तुम दीपक से जलते जाओ। तुम दीपक से जलते जाओ॥

जब-जब सौ-सौ बाँह पसारे, खड़ा तिमिर हो बीच डगर में।
तुम दीपक से जलते जाओ। तुम दीपक से जलते जाओ॥