हो गए बहुत सुराख नाव में, मत जा तू मझधार रे

हो गए बहुत सुराख नाव में, मत जा तू मझधार रे।
इस हालत में डूबेगा तू, डूबेगा परिवार रे॥
मत जा तू मझधार माँझी, मत जा तू मझधार रे॥
माँझी हो...माँझी हो...

बहुत किए सूराख काम ने, और किए अभिमान ने।
किए कई सूराख स्वार्थ में, डूबी हुई थकान ने॥
तली करी छलनी लिप्सा ने, क्रोध-जनित अज्ञान ने।
भीतर भरने लगी नाव के, अब तो जल की धार रे॥
मत जा तू मझधार माँझी, मत जा तू मझधार रे॥
माँझी हो...माँझी हो...

यदि मन हो बीमार, कहो क्या होगा सुन्दर देह का।
धरती हो दलदली अगर तो, क्या होगा फिर मेह का॥
अगर दिया रिसता हो तो, क्या होगा बाती-स्नेह का।
सबल बाँह क्या कर लेगी यदि, नाव हुई बेकार रे॥
मत जा तू मझधार माँझी, मत जा तू मझधार रे॥
माँझी हो...माँझी हो...

अन्तर्मन की तली अगर हो, स्वस्थ हमारी नाम में।
तूफानों के बीच सफल हम, होंगे हरेक बहाव में॥
बँधे सभी सहयात्री होंगे, एक सहज सद्भाव में।
नौका हो टूटी तो कोई, उतरे कैसे पार रे॥
मत जा तू मझधार माँझी, मत जा तू मझधार रे॥
माँझी हो...माँझी हो...

फूला-फूला फिरे व्यर्थ ही, तू अपने गुण-गान में।
बाहर की इस चमक-दमक का, क्या होगा तूफान में॥
कर्मों का फल सदा मिला है, प्रभु के दण्ड विधान में।
सत्कर्मों की इसीलिये तू, यहाँ पकड़ पतवार रे॥
मत जा तू मझधार माँझी, मत जा तू मझधार रे॥
माँझी हो...माँझी हो...