है उदास कुछ अन्तरतम यह, रत्नों का उपहार किसे दूँ

है उदास कुछ अन्तरतम यह, रत्नों का उपहार किसे दूँ।
पात्र बहुत छोटे दिखते हैं, पावस की जल-धार किसे दूँ॥

सागर के तल तक जाकर ही, मुश्किल से ये आ पाये हैं।
किन्तु मिला न पहनने वाला, सोच हृदय तल घन छाये हैं॥
विजयी कण्ठ न दिखता कोई, रत्नों का यह हार किसे दूँ॥

हर मन की धरती प्यासी है, किन्तु न कोई पोली करता।
पर-हित के बीजों से कोई, अपना जीवन खेत न भरता॥
उमड़ रही अन्तर में लेकिन, मेघों की बौछार किसे दूँ॥

पीर पराई नहीं समझते, कैसे भाव मनों में जागे।
संवेदन की भाषा खोयी, टूटे सद्भावों के धागे॥
कौन लिखेगा गीत प्यार के, अन्तर के उद्गार किसे दूँ॥

भौतिकता के आकर्षण ने, मनुज मात्र को भरमाया है।
भक्ति-साधना औ संयम के, नाम मात्र से घबराया है॥
तप कर जिसे भरा जीवन भर, वह अक्षय भण्डार किसे दूँ॥

ले, पर लेकर के वह थाती, जो जन दीन-हीन को बाँटे।
जहाँ दरार दिखे उसको अपने, यत्नों से जो जन पाटे॥
मिल न सकेगा क्या ऐसा जन, अपना गुरुतर भार किसे दूँ॥