दिव्य अनुदान देने खड़े देवता, है ललक किन्तु उपकार कैसे करें

दिव्य अनुदान देने खड़े देवता, है ललक किन्तु उपकार कैसे करें।
लोभ मद-मोह की गंदगी से भरे, पात्र में वे विमल नीर कैसे भरें॥

प्रभु कृपा को सुगन्धें मिलेंगी नहीं, तीव्र दुर्गन्ध से हो अगर मन भरा।
खिल सकेंगे भला स्वस्थ कैसे सुमन, यदि रहे घास से पूर्ण उपवन भरा॥
कंकड़ों पत्थरों का लिये बोझ हम, अब उफनता हुआ ज्वार कैसे तरें॥

हम बँधे कामनाओं की जंजीर से, हर समय नर्क की यातना सह रहे।
लोक-कल्याण की भावना के बिना, एक विकराल दावाग्नि में दह रहे॥
सिर्फ अपने दुःखों से दुखी जो रहे, अन्य की वे हृदय पीर कैसे हरें॥

दिव्य अनुदान पाना अगर चाहते, स्वच्छ पहले करें पात्र मन का स्वयं।
लोक-हित के प्रबल ताप में हम सभी, स्वार्थ अपना गला दें मिटा दें अहम्॥
स्वार्थ में श्रेष्ठ प्रतिभा सनी देखकर, देवता आज विश्वास किसका करें॥

माँग है आज इन्सानियत की यही, भाव-सम्वेदनाएँ न सूखी रहें।
प्रेम-सद्भावना की विमल गन्ध से, हर हृदय में उमंगें नयी फिर भरें॥
आज हमसे नियन्ता यही चाहता, दिव्यता की प्रबल साधना हम करें॥

दिव्य अनुदान देने खड़े देवता, है ललक किन्तु उपकार कैसे करें।
लोभ मद-मोह की गंदगी से भरे, पात्र में वे विमल नीर कैसे भरें॥