दे प्रभो! वरदान ऐसा, दे विभो वरदान ऐसा

दे प्रभो! वरदान ऐसा, दे विभो वरदान ऐसा।
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥

मुक्त होऊँ बन्धनों से, मोह माया पाश टूटे।
स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदिक, दुर्गुणों का संग छूटे॥
प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छाई।
देखता होऊँ जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखाई॥
नष्ट हो सब भिन्नता फिर, वैर और विरोध कैसा॥
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥
दे प्रभो! वरदान ऐसा . . . . . . . . . .

ज्ञान के आलोक से, उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अँधेरा॥
हो प्रभो परमार्थ के, शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी।
दीन-दुखियों की कुटी में, ही मिले अनुभूति तेरी॥
दूसरों के दुःख को, समझूँ सदा मैं आप जैसा॥
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥
दे प्रभो! वरदान ऐसा . . . . . . . . . . .

हो अभय, अविवेक तज, शुचि सत्य-पथ गामी बनूँ मैं।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी ना डरूँ मैं॥
सत्य को ही धर्म मानूँ, सत्य की ही साधना में।
सत्य के ही रूप में, तेरी करूँ आराधना मैं॥
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥
दे प्रभो! वरदान ऐसा . . . . . . . . .