अक्षय कोष मिला जब मैंने, अपना सारा कोष लुटाया

अक्षय कोष मिला जब मैंने, अपना सारा कोष लुटाया।
मैंने सब देकर सब पाया।।

जाने कब से मैं पागल बन, मिट्टी को समझी थी कंचन।
किन्तु तुम्हारी कृपा-किरण ने, दिया मुझे अनमोल ज्योति कण।।
जिसके दिव्य प्रकाश पुंज में, मैंने नूतन पन्थ बनाया।।
मैंने सब देकर सब पाया।।

लक्ष्य प्राप्त करने का यदि प्रण, करो विभव का दूर प्रलोभन।
कहीं न रोकें पद की गति को, सोने-चाँदी के आकर्षण।।
छाया बनकर सबको रोके, मन की मृगतृष्णा की माया।।
मैंने सब देकर सब पाया।।

देव तुम्हारा पूजन अर्चन, करता है मन प्रतिपल, प्रतिक्षण।
अहं ब्रह्म बन धन्य बनूँ मैं, सिद्धि बने यह आत्म-समर्पण।।
ज्ञात न मैं प्रभु बनी कि मेरा, प्रभु ही मुझमें आज समाया।।
मैंने सब देकर सब पाया।।