आओ आगत आओ कब से, होती यहाँ पुकार

आओ आगत आओ कब से, होती यहाँ पुकार।
खुला है मंगल मन्दिर द्वार।।

माँ का अनुपम स्नेह पिता का, पावन आशीर्वाद।
हर लेता है मन से सारा, ही अज्ञान प्रमाद।।
यहाँ स्वार्थ ही जाने कैसे, बनता पर उपकार।
खुला है मंगल मंदिर द्वार।।

यहाँ मनुजता की प्रतिमा है, और सत्य आलोक।
करुणा की शीतलता देता, करके छाँह अशोक।।
बहुजन हित जन-जन का हित ही, यहाँ सहज व्यवहार।
खुला है मंगल मन्दिर द्वार।।

सेवा, निष्ठा, त्याग, क्षमा के, यहाँ मिलेंगे भाव।
कल्प वृक्ष सम्मुख फिर कैसे, बाकी रहे अभाव।।
भेद भाव है नहीं सभी का, है स्वागत सत्कार।
खुला है मंगल मन्दिर द्वार।।

यहाँ प्यार बसता कण-कण में, क्षण-क्षण गति निष्काम।
हर मन में भगवती विराजे, अन्तर में श्रीराम।।
नहीं मोह का काम यहीं पर, सारा जग परिवार।
खुला है मंगल मन्दिर द्वार।।