रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने

रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने॥
है तू ही जो पूर्व दिश में, सतत सूर्य निकल रहा है॥
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने॥

जल रही है सृष्टि सारी, आग के बादल बरसते।
गन्ध के अस्तित्व तो जीवन मृदुलता को तरसते॥
है तू ही वह तत्त्व जो बन, फूल नित-प्रति खिल रहा है॥
है तू ही जो पूर्व दिश में, सतत सूर्य निकल रहा है॥
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा॥

थे अकेले तुम हुई इच्छा, कि निज विस्तार कर लूँ।
और अपनी प्राण-सत्ता को, हृदय में आप भर लूँ॥
है तू ही क्रम सूष्टि का, जाने न कब से चल रहा है॥
है तू ही जो पूर्व दिश में, सतत सूर्य निकल रहा है॥
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा॥

ढूँढ़ते तुझको रहे संसार में, कब जन्म बीता।
किन्तु जीवन बन नहीं पाया, कभी भी कर्म गीता॥
है तू ही जो हृदय में कुछ, ज्योति जैसा जल रहा है॥
है तू ही जो पूर्व दिश में, सतत सूर्य निकल रहा है॥
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा॥

स्वप्नवत संसार लेकिन, लग रहा है सत्य जीवन।
लिप्त सबमें किन्तु सबसे, दूर होता विप्र है मन॥
है तू ही जैसे सरोवर, में कमल-दल खिल रहा है॥
है तू ही जो पूर्व दिश में, सतत सूर्य निकल रहा है॥
रात भर भोगा अँधेरा, घुटन अन्धापन झराने।
रात भर भोगा अँधेरा॥