पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें

पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें।
सुरभित हो जिससे जगती, ऐसे सुमन सजाते चलें॥

मुस्कायें बन भुवन-भास्कर, ज्योति भरे जन-जन में।
मिट जाये सारा अँधियारा, विमल विभा हो मन में॥
जीवन धन्य बनाते चलें, सृजन प्रभाती सुनाते चलें॥
पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें॥

विमल चन्द्र की शुचि आभा ले, रजनी से टकराएँ।
तेरी दिव्य-ज्योति से ज्योतित, कण-कण को कर जाएँ॥
शीतलता बरसाते चलें, सबकी क्लान्ति मिटाते चलें॥
पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें॥

प्यासे अन्तर में प्रभु तेरी, प्रेम-सुधा यदि सरसे।
स्नेह सिक्त घन बन जन-हित में, बन फिर सावन बरसे॥
रस की धार बहाते चलें, सेवा पुष्प चढ़ाते चलें॥
पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें॥

सतत साधना हो यह जीवन, हर क्षण तुझको अर्पण।
लुटा सकें सर्वस्व स्वयं का, कर हम मूक समर्पण॥
सबका दर्द बँटाते चलें, जीवन-ज्योति जलाते चलें॥
पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें।
सुरभित हो जिससे जगती, ऐसे सुमन सजाते चलें॥

पावन प्रीति लुटाते चलें, प्रेम की धारा बहाते चलें।
सुरभित हो जिससे जगती, ऐसे सुमन सजाते चलें॥