पर-पीड़ा से द्रवित हो उठा, जिसका तन-मन-जीवन सारा

पर-पीड़ा से द्रवित हो उठा, जिसका तन-मन-जीवन सारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥

नीलकंठ बन पिया हलाहल, जिसने जन कल्याण में।
परम शान्ति सुख मिला अलौकिक, जिसे आत्म-बलिदान में॥
जिसने इस सारी धरती को, ही अपना कुटुम्ब है माना।
बुनता रहा सदैव मानवी, आस्थाओं का ताना बाना॥
जो युग-प्यास बुझाने लाया, दिव्य ज्ञान-गंगा की धारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥
पर पीड़ा से द्रवित हो उठा. . . . . .

जिसने दिया निमन्त्रण हँसकर, आँधी-पानी तूफानों को।
जड़-जीवन को जागृत करने, होम दिया जिसने प्राणों को॥
जाति-पाति की खाई पाटी, जिसने पावन प्यार से।
दुखियों के घावों को धोया, जिसने दृग जल धार से॥
सिर पर कफन बाँधकर जिसने, अभिमानी तम को ललकारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥
पर पीड़ा से द्रवित हो उठा. . . . . .

पौरुष की प्रतिमा पर जिसने, हँसकर श्रद्धा सुमन चढ़ाया।
ममता का आँचल फैलाकर, जिसने पीड़ा को दुलराया॥
जिसने नई चेतना भर दी, तन-मन-जीवन, प्राण में।
जिसने हँसते-हँसते दे दीं, वज्र अस्थियाँ दान में॥
जिसने अभिनव ज्योति जलाई, तोड़-तोड़कर तम की कारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥
पर पीड़ा से द्रवित हो उठा. . . . . .

भूल-भटकी मानवता की, सुन न सके जो कठिन कराहें।
तड़प उठे जिसका अन्तर्मन, सुनकर दीन-दुखी की आहें॥
हिमगिरि सी विपदाओं में भी, खोये जो न विवेक को।
ज्ञान-चक्षु से देखे हरदम, जो अनेक में एक को॥
राजपाट को तजकर जिसने, ताज कंटकों का स्वीकारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥
पर पीड़ा से द्रवित हो उठा, जिसका तन-मन जीवन सारा।
काँटों में भी राह बनाई, उन चरणों को नमन हमारा॥