मत अंगार बिखेरो, वसुधा आज माँगती पानी

मत अंगार बिखेरो, मत अंगार बिखेरो।
मत अंगार बिखेरो, वसुधा आज माँगती पानी॥
मत अंगार बिखेरो॥

अभी-अभी पागलपन ने थी, गाई मृत्यु-प्रभाती।
जलती हुई दिशाओं की, शीतल न हो सकी छाती॥
मानवता को अब न अधिक तुम, शोणित से नहलाओ।
पशुता के मरघट में अपने, गौरव को न जलाओ॥
क्रौंच-रुदन को सुनकर सहसा, कवि बन जाने वाली।
सुन न रहे क्यों ‘तमसा-तट’ से, दलित विश्व की वाणी॥
वसुधा आज माँगती पानी, वसुधा आज माँगती पानी॥

मत अंगार बिखेरो, मत अंगार बिखेरो।
मत अंगार बिखेरो, वसुधा आज माँगती पानी॥
मत अंगार बिखेरो॥

भौतिकता के मद में मत दो, निज संस्कृति को पीड़ा।
मनु की सन्तानें के शोणित, से न करो अब क्रीड़ा॥
रक्तपान से भला समझ लो, अपने आँसू पीना।
मानव बनकर सफल विश्व में, दो दिन का भी जीना॥
बीज रूप में सृष्टि बचा कर, प्रलय काल से खेले।
आज उसी के ध्वंस हेतु क्यों, तुमने भृकुटी तानी॥
वसुधा आज माँगती पानी, वसुधा आज माँगती पानी॥

मत अंगार बिखेरो, मत अंगार बिखेरो।
मत अंगार बिखेरो, वसुधा आज माँगती पानी॥
मत अंगार बिखेरो॥

‘गौतम’ जागो अखिल विश्व में, छाया घोर अँधेरा।
‘महावीर’ चल पड़ो तपस्या, को हिंसा ने घेरा॥
थकी समर से वसुधा रोती, इसका भार सम्हालो।
कालकूट लख काँप उठेगी, मुख में अमृत डालो॥
भौतिकता के आवेशों में, कितने बापू खोये।
उन्हें मार देने की करता, रहा विश्व नादानी॥
वसुधा आज माँगती पानी, वसुधा आज माँगती पानी॥

मत अंगार बिखेरो, मत अंगार बिखेरो।
मत अंगार बिखेरो, वसुधा आज माँगती पानी॥
मत अंगार बिखेरो॥