मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में

मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के वतन में॥

तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में॥

मेरे लिए खड़ा था, दुःखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखें लगीं थीं मेरी, तब अपने सुख सदन में॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में॥

बाजे बजा-बजा के, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में॥

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा है।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरण में॥
तूने दिये अनेकों, अवसर न मिल सका मैं।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में॥

हरिश्चन्द्र और ध्रुव ने, कुछ और ही बताया।
मैं तो समझ रहा था, तेरा प्रताप धन में॥
मैं सोचता तुझे था, रावण की लालसा में।
पर था दधीचि के तू, परमार्थ रूप तन में॥
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में॥

मैं ढूँढ़ता तुझे था, जब कुञ्ज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के वतन में॥