कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे

कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
तुम बुलाते हो उसे यदि भावना से, कौन जाने कब निमन्त्रण मान बैठे?

दर्द यदि उभरे कभी मन में तुम्हारे, खर्च मत करना बिना सोचे विचारे।
दर्द से रिश्ता सदा प्रभु का रहा है, नाम करुणा सिन्धु ही उसका रहा है॥
एक भी आँसू न कर बरबाद बन्दे, कौन जाने कब समन्दर माँग बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......

चाह हो तो राह बन जाती गगन में, चाह से उत्साह भरता मन बदन में।
चाह पूरी हो यही सब माँगते हैं, किन्तु उसका मर्म कब पहचानते हैं?
स्वर्ग भूतल पर गढ़े कैसे विधाता, नर्क में ही सुख मनुज यदि मान बैठे।
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......

रोज मानव कर रहा दुःख की शिकायत, दुष्टता की कर रहा फिर क्यों हिमायत?
दुःख हरेंगे प्रभु स्वयं अवतार लेकर, मानवी पुरुषार्थ को पर साथ लेकर॥
सूर्य उगकर भी भला क्या हित करेगा, आँख से पट्टी अगर हम बाँध बैठें।
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......

माँगने की रीति सी कुछ चल पड़ी है, कृपणता से प्रीति सी कुछ चली है।
क्यों नहीं परमार्थ पथ का मान रखते, क्यों नहीं इंसानियत की शान रखते?
है तुम्हें दाता विधाता ने बनाया, क्यों अरे खुद को भिखारी मान बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?

कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, कौन जाने कब स्वयं प्रभु आन बैठे?
तुम बुलाते हो उसे यदि भावना से, कौन जाने कब निमन्त्रण मान बैठे?
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......
कोठरी मन की सदा रख साफ बन्दे, .......