जो हिमालय सा उठे जीवन, धरा पर नर वही है

आपदा के अग्नि-पथ पर, जो कभी रुकना न जाने।
दैन्य के अभिशाप में भी, जो कभी झुकना न जाने॥
प्रलय झंझावात में भी, भँवर में फँसना न जाने
गीतमय जीवन बना ले, गीत को ही धर्म माने॥
गा सके संघर्ष में हँसकर, सदा जो स्वर वही है॥
जो हिमालय सा उठे जीवन, धरा पर नर वही है।

मेघ सा झर-झर बरस जो, नेह से जग सिक्त कर दे।
फूल सा खिल सुरभि बिखरा, जो स्वयं को रिक्त कर दे॥
देवता पत्थर नहीं है, मनुज में ही देवता है।
आँसुओं के अर्घ्य से जो, मनुज को अभिषिक्त कर दे॥
चीर कर चट्टान जो आगे बढ़े, निर्झर वही है॥
जो हिमालय सा उठे जीवन, धरा पर नर वही है।

जो सदा श्रम सीकरों से, मोतियों को तोलता हो।
स्वयं हँसकर पी हलाहल, निज सुधा-रस घोलता हो॥
तप्त सूरज की किरण से, जागरण की ज्योति लेकर।
मौन करुणा के स्वरों में, मनुजता से बोलता हो॥
युग-युगों की मरु पिपासा सोख ले, सागर वही है॥
जो हिमालय सा उठे जीवन, धरा पर नर वही है।

तारकों की झिलमिली से, सुख कभी मिलता नहीं है।
बिना रवि का ताप झेले, सुमन मन खिलता नहीं है॥
तारकों की छाँह तज जो, धूप में आँखें पसारे।
कर्म के गाण्डीव से जो, स्वर्ग को भू पर उतारे॥
वज्र सा टूटे सदा निज लक्ष्य पर जो, शर वही है॥
जो हिमालय सा उठे जीवन, धरा पर नर वही है।