जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया

जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया।
महाप्राण से आज मिलन को, स्वयं प्राण अकुलाया॥

जैसा जल से बाहर होती, है मछली की तड़पन।
मातृगोद से बिछुड़े नवशिशु, का देखा है क्रन्दन॥
विकल विरहिणी की आँखें ज्यों, छलकाती है पीड़ा।
होकर व्याकुल जिसे ढूँढ़ती, मीरा की मन वीणा॥
व्याकुल मन हो इसी वेदना, का अमृत चख पाया॥
जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया।
महाप्राण से आज मिलन को, स्वयं प्राण अकुलाया॥

नाते-रिश्ते सारे जग के, व्यर्थ अरे तब लगते।
आँखों से आँसू अन्तर से, अमृत बिंदु बरसते॥
बिछुड़ गए जबसे भवसागर, में हम गोता खाते।
बहुत हो चुका देव नहीं अब, दर्द सहे हैं जाते॥
करुणाकर! करुणा कर अब तो, मेरा मन घबराया॥
जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया।
महाप्राण से आज मिलन को, स्वयं प्राण अकुलाया॥

एक निमिष ले गोदी में तुम, दिखे हमें दुलराते।
लुप्त हुए क्यों अगले ही क्षण, विरह-व्यथा भर जाते॥
मिली तुम्हारी झाँकी पागल, हो यह मन खिल उठता।
किन्तु दूसरे पल माया का, पर्दा फिर हिल उठता॥
मेरे प्रभु! क्यों तूने मन को, इतना अधिक दुःखाया॥
जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया।
महाप्राण से आज मिलन को, स्वयं प्राण अकुलाया॥

मेरा जीवन बना पतंगा, तुमको आज समर्पित।
सुख की पुलकन दुःख का क्रन्दन, सब तेरे ही अर्पित॥
स्वर्ग-मुक्ति या नर्क पुनर्भव, रही न चिन्ता बाकी।
एक कामना बस पा लूँ प्रभु, तेरी प्यारी झाँकी॥
तेरे चरण कमल पर मैंने, जीवन अर्घ्य चढ़ाया॥
जीवन का अनुदान बिन्दु ने, महासिन्धु से पाया।
महाप्राण से आज मिलन को, स्वयं प्राण अकुलाया॥