युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो

युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥

जहाँ कहीं हों ताप वहाँ पर, सावन बन बरसो।
मरुथल मधुवन बने जहाँ पर, दिन दो चार बसो॥
जिससे मिल लो एक बार तुम कभी नहीं बिसरो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥
युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥

पथिकों के गति भ्रमितों के तुम, बनकर दीप रहो।
सगर सुतों हित बनकर पावन, सुरसरि धार बहो॥
जग उपवन में मलयज की, शीतलता ले विचरो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥
युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥

मानव हो तुम मानवता के, शुचि शृंगार बनो।
श्वाँसों के सागर में मन के, कर्णाधार बनो॥
तपः पूत शापों में तुम नव कंचन बन निखरो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥
युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥

युग-युग तक जग याद करे, तुम ऐसे कर्म करो।
कर्म में ऐसे मर्म भरो॥