विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी

विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी।

हुई न यों सुमृत्यु तो, वृथा मरे वृथा जिये,
मरा नहीं वही कि जो, जिया न आपके लिए।
यही पशु प्रवृत्ति है, कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो, मनुष्य के लिए मरे॥
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी।

क्षुधार्त रन्तिदेव ने, दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया, परार्थ अस्थि जाल भी।
शरीर माँस भी दिया, परार्थ शिवि नरेश ने,
शरीर चर्म दे दिया, सहर्ष वीर कर्ण ने॥
अनित्य देह के लिए, अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो, मनुष्य के लिए मरे॥
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी।

सहानुभूति चाहिए, महा विभूति है यही,
वशीकृता सदैव है, बनी हुई स्वयं मही।
मनुष्य मात्र बन्धु है, यही बड़ा विवेक है,
प्रमाण-भूत वेद है, पिता प्रसिद्ध एक है॥
अनर्थ है कि बन्धु ही, न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो, मनुष्य के लिए मरे॥
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी।

चलो अभीष्ट मार्ग में, सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विघ्न जो पड़े, उन्हें धकेलते हुए।
किसी से द्वेष हो नहीं, सभी से प्रेम भाव हो,
हृदय सभी से हों मिले, नहीं कहीं दुराव हो॥
तभी समर्थ भाव है कि, तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो, मनुष्य के लिए मरे॥
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी।
विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो, कि याद जो करें सभी॥
याद जो करें सभी, याद जो करें सभी॥