सीख नहीं पाये चादर ओढ़ने का ढंग रे, मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे

सीख नहीं पाये चादर ओढ़ने का ढंग रे।
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

हमें मिली चादर उजली मैली कर डाली,
जिधर गए हमने उतनी कालिमा लगा ली।
मैली अब अन्तरंग है, मैला बहिरंग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

आओ हर कल्मष मन का सेवा से धो लें,
सबको अपना लें मन से हम सबके हो लें।
सेवा है सच्ची पूजा सेवा सत्संग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

सबका दुःख-दर्द बटाएँ अपना सुख बाँटें,
हृदय-हृदय की खाईं को हँसकर हम पाटें।
किए नहीं तीरथ चाहे गए नहीं गंग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

परहित में अपने साधन समय हम लगायें,
मन का हर मैल घुले फिर, पुण्य हम कमाएँ।
हर कोना हो फिर उजला, उजला हर अंग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

निर्मल आचरण बनेगा, चमकेगा चिन्तन,
बहुत-बहुत चौड़ा होगा, भावों का आँगन।
नहीं कभी होगी मन की गली कहीं तंग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥

जीवन में शेष रहेगी, फिर नहीं निराशा,
पल भर आलस्य न होगा फिर कहीं जरा सा।
होगा उत्साह अनोखा, नित नयी उमंग रे,
मैली चादर पर कैसे चढ़ पाये रंग रे॥