मनन का महत्त्व और स्वरूप

एकान्त सेवन में दूसरा वाला कदम उठाइये। उसका नाम है—मनन। मनन क्या? मनन के भी दो हिस्से हैं। चिन्तन के जैसे दो हिस्से थे। ऐसे मनन के दो हिस्से हैं। एक हिस्से का नाम है—आत्म निर्माण। एक का नाम है—आत्म विकास। निर्माण में क्या? निर्माण उसे कहते हैं कि जो चीजें आपके पास नहीं हैं, चाहे जो स्वभाव, गुण और कर्म में जो बातें शामिल नहीं हैं, उसे शामिल कीजिए। मसलन, आप पढ़े नहीं हैं, विद्या नहीं है, अब आप कोशिश कीजिए। काहे को! कि आपको विद्या पढ़नी है। हम ईमानदारी से रहते हैं, बीड़ी नहीं पीते हैं, वो तो ठीक है आपकी बात, पर मैं यह पूछता हूँ, विद्या की जो कमी है, उसको आप क्यों पूरा नहीं करते? विद्या की कमी को जो पूरा नहीं करेंगे, तो उन्नति कैसे हो जायेगी? आपके ज्ञान का दायरा कैसे बढ़ेगा? आपकी बुद्धि का विकास कैसे होगा? इसीलिये यहाँ आत्म निर्माण के लिये भी ढेरों काम करने हैं। स्वास्थ्य आपका कमजोर है, इसी से तो काम नहीं चल जायेगा न, कि हम बीड़ी पीते रहें, हम बन्द कर देंगे। बन्द तो करनी चाहिए थी, पर एक और बात भी करनी पड़ेगी। आपको स्वास्थ्य संवर्धन करने के लिये आपके अपने आहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। ब्रह्मचर्य धारण करना पड़ेगा। और व्यायाम का कोई नया तरीका अख्तियार करना पड़ेगा। ये जो नये तरीके अख्तियार करने हैं, किसके लिये? प्रगति के लिये। ये सब आत्म निर्माण में आते हैं।

कमी को पूरा करना है। कमी को सुधारना ही सब चीज नहीं है। कमी को पूरा भी तो कीजिए। सुधार लेंगे, इससे क्या बना? पूरा नहीं करेंगे? विद्या को आप नहीं पढ़ेंगे? स्वास्थ्य को सुधारेंगे नहीं? जन सम्पर्क बढ़ायेंगे नहीं? सेवा के लिये कदम बढ़ायेंगे नहीं? जो काम करने हैं, करेंगे नहीं। नहीं साहब! हमने गलती सुधार ली। गलती सुधारने से क्या मतलब? गलती को सुधारिए और अपनी योग्यताओं को, अपनी क्षमताओं को और अपनी भावनाओं को विकसित कीजिए। आत्म निर्माण में बराबर यह देखना पड़ेगा कि हमारे जीवन में क्या-क्या कमी है और उस कमी को पूरा करना है। अपने स्वभाव को और आदतों को हम ठीक बनाएँ। अपने आपको बनाइये, अपने स्वास्थ्य को बनाइये, अपने व्यक्तित्व को बनाइये, अपने चरित्र को बनाइये, अपने स्वभाव को बनाइये, अपनी कार्यशैली को बनाइये। हर चीज बनाइये। इस बनाने के अलावा एक और भी ध्यान रखिए, आप अपने कुटुम्ब को बनाइये।

निर्माण केवल अपने आपका। हम अपने आप में सन्त बन जाएँगे और रामायण पढ़ेंगे और हम मिठाई नहीं खायेंगे। आपका कहना तो ठीक है, पर वो भी तो आपका अंग है। आप अकेले थोड़े हैं कोई। जो कुटुम्ब है, वो भी आपके साथ जुड़ा हुआ है। इसीलिये निर्माण उसका भी करना पड़ेगा। अगर आप उसका निर्माण नहीं कर सकते, सारे के सारे आपके घर वाले कमीने, उजड्ड, मूर्ख, दुष्ट बनकर रहेंगे तो फिर आपकी शान्ति कैसे स्थिर रहेगी, फिर आप भजन कैसे कर लेंगे, फिर आप अच्छी जिन्दगी कैसे जी लेंगे, फिर आप मीठे वचन का अभ्यास कैसे कर लेंगे? जब हर आदमी हैरान होगा तो आपको गुस्सा क्यों नहीं आयेगा? इसीलिये क्या करना चाहिए कि अपना व्यक्तिगत जीवन सुख और शान्तिमय बनाने के लिये अपने कुटुम्ब और परिवार के बारे में ठीक वो ही नीति निर्धारित कीजिए, जो अपने बारे में है।

वो भी तो अपने अंग हैं न। इन सबको बनाइये। क्या बनाएँ उनको? एक ही बात बनाइये। उनके अन्दर भलमनसाहत पैदा कीजिए, चरित्र निष्ठा पैदा कीजिए। आदर्श पैदा कीजिए, सत्प्रवृत्तियाँ पैदा कीजिए। सम्पन्न बन जाते हैं तो, न बन जाते हैं तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। गरीबी में भी लोगों ने शानदार जिन्दगियाँ जी हैं और अमीर रहते हुए भी आदमी ने इतने कलह उत्पन्न किए हैं कि स्वयं मर गया है और दूसरों को मार डाला है। इसीलिये सम्पन्नता की बात मैं नहीं कहता आपसे। निर्माण के लिये मेरा मतलब गुण, कर्म और स्वभाव से है। आप इन विशेषताओं को, आप आदमी की शालीनता को, आदतों को और चिन्तन की शैली को बदलने के लिये जो कुछ कर सकते हैं, वो सब कीजिए।

परिवार के पंचशीलों में श्रमशीलता का नाम आता है, सुव्यवस्था का नाम आता है, मितव्ययिता का नाम आता है, सहकारिता का नाम आता है। ये सब बातें उसमें आती हैं। आप इन गुणों को स्वयं भी धारण कीजिए और घरवालों को भी दीजिये। यह व्यक्तित्व के और चरित्र के निर्माण करने का, चिन्तन के निर्माण करने का एक शानदार तरीका है। आप उसको किस तरीके से कार्यान्वित कर सकते हैं। उसके बारे में चिन्तन और मनन के समय पर जब आप बैठें एकान्त में, तब ये विचार किया कीजिए।

एक और धारा है, जिसे मनन का दूसरा हिस्सा कह सकते हैं। उसका नाम है—आत्म विकास। आत्म विकास का क्या मतलब? आत्म विकास का मतलब ये है कि अपने आपका, अपने अहं के दायरे को बढ़ा देना। लोगों का दायरा बहुत छोटा है कूपमण्डूक के तरीके से। अपने शरीर को ही अपना मानते हैं। ये नहीं मानते कि हम समस्त समाज के घटक मात्र हैं। रक्त के एक कण की क्या कीमत हो सकती है? आप बताइये। रक्त के सारे कणों का समूह जब मिल जाता है, तो ही तो खून का संचार होता है। एक कण जरा सा निकाल दें, क्या इकाई है बिचारे की? संयुक्त होने पर ही बात बनती है। इसीलिये अपने आपके दायरे को सीमित मत कीजिए। आप संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँचा उठने की कोशिश कीजिए। अपने ‘‘मैं’’ के स्थान पर ‘‘हम’’ कहना सीखिए। ‘‘हम सब’’, ‘‘वी’’, ‘‘हम सब’’। अगर आप यही कहेंगे ‘‘मैं’’, ‘‘मैं’’, ‘‘मैं’’ तो आप बकरे के तरीके से सीमाबद्ध हो जाएँगे और कूपमण्डूक के तरीके से एक ऐसे छोटे दायरे में घिरे रहेंगे जिसमें कि आप और आपका कुटुम्ब बस इतने ही आदमी रह जाएँगे। आपका समाज से और शायद भगवान् से कोई सम्बन्ध नहीं रह पायेगा। इसलिये अपने आपका दायरा विकसित कीजिए।

‘‘हम सबके’’, ‘‘सब हमारे’’ इस तरीके से विचार कीजिए। आप इस तरीके से विचार कीजिए-‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’। यह सारा संसार हमारे ही समान है। सबके सहयोग से हम जिन्दा हैं और हमारा सहयोग सबको मिलना चाहिए। ये अगर आप विचार करेंगे तो आप समाजनिष्ठ होते चले जाएँगे। चरित्रवान् नागरिक होते हुए चले जाएँगे। देश, धर्म और समाज एवं संस्कृति के प्रति आप अपना लगाव व्यक्त करने लगेंगे और उनकी समस्याओं को भी अपनी समस्याएँ मानने लगेंगे। तो ये क्या हो गया—ये आत्मा का विस्तार। जो चीजें आपको अपनी मालूम पड़ती हैं, उनमें प्रसन्नता होती है और उनको आप अपना समझते हैं। लेकिन अगर आप सबको अपना मान लें तब, आपको कितना गर्व और गौरव अनुभव होगा। सूरज भी आपका, चाँद भी आपका, सितारे भी आपके, नदी भी आपकी, पहाड़ भी आपका, जमीन भी आपकी, सारे इन्सान भी आपके, सारा कुटुम्ब भी आपका, सारा संसार आपका। जिस दिन आप सबको अपना मानने लगेंगे और अपने को सबका मानने लगेंगे, तब फिर आप जरा देखना तो सही कैसा मजा आता है, कैसा आनन्द आता है? जीवन में, गतिविधियों में कैसा हेर-फेर होता है और आपकी प्रसन्नता किस तरीके से जमीन से आसमान तक छूने लगती है? ऐसी शक्ति पैदा कीजिए। बस, यही कहना था, आज आपसे।

॥ॐ शान्तिः॥