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रविशंकर श्रीवास्तव
की ग़ज़लों का रचना संसार
अपने फूल या पत्थर मुझे अवश्य भेजें
100, सुकृति, राजीव नगर, कस्तूरबा,
रतलाम म.प्र. 457001
ग़ज़ल 01
पानी की कीमत किसी पसीने से पूछना
बयार क्यों बहती नहीं उल्टी मत पूछना
जोड़ घटाना गुणा भाग के गणितीय सूत्र
राजनीति में ऐसे चले आए क्या पूछना
सत्ता- कुर्सी के खेल में नियम- कायदे
वो भला आदमी चले- चला था पूछना
नया क्या आत्मघाती का बेरोजगार होना
जेहन में आता है फिर क्यों ये पूछना
रवि, खुदा ने तो तुझे बनाया था बेजात
फिर क्यों सभी जात तेरी चाहते हैं पूछना
ग़ज़ल -02
जरा से झोंके को तूफान कहते हो
टूटता छप्पर है आसमान कहते हो
उठो पहचानो मृग मरीचिका को
मुट्ठी भर रेत को रेगिस्तान कहते हो
अब तो बदलनी पड़ेंगी परिभाषाएं
सोचो तुम किनको इंसान कहते हो
नैनों का जल अभी सूखा नहीं है
पहचानो उन्हें जिन्हें महान कहते हो
सूचियाँ सब सार्वजनिक तो करो
जानते हो किनको भगवान कहते हो
जमाने को मालूम है बदमाशियाँ
कैसे अपने को नादान कहते हो
कभी झांके हो अपने भीतर रवि
औरों को फिर क्यों शैतान कहते हो
ग़ज़ल -03
जीने की खबर है
मरने की खबर है
अपने दोस्तों के
जलने की खबर है
उनके नासूरों के
भरने की खबर है
डरावने लोगों के
डरने की खबर है
दो प्रेमियों के
लड़ने की खबर है
किसी कंगाल के
खाने की खबर है
दर्द को रवि के
सहने की खबर है
ग़ज़ल -04
खुदा को ही दुआएं दे रहा हूं मैं
जले चराग़ बुझाए दे रहा हूं मैं
चाहत में मन्जिल-ए-इश्क की
खुद ही को मिटाए दे रहा हूं मैं
राह-ए-मोहब्बत में मरकर
वफा सबको सिखाए दे रहा हूं मैं
मोहब्बत डरने वालों का नहीं
जान लो यह बताए दे रहा हूं मैं
लम्हे भर को उन्हें भूले नहीं
खुद को ऐसे भुलाए दे रहा हूं मैं
जरा सी बात थी उनके मिलने की
और अफसाना बनाए दे रहा हूं मैं
इतना तो तेरी खातिर है रवि
अपना दिल जलाए दे रहा हूं मैं
ग़ज़ल -05
यूं तो दुनिया में कुछ कम गम नहीं
हमें तो गम है कि कोई गम नहीं
मरने को तो मरते हैं सभी मगर
जिंदगी जीने का किसी में दम नहीं
साथ देने का वादा तो सबने किए
यहां तो हम सफर खुद हम नहीं
रोया किए हैं ता उम्र तेरी याद में
आलम है अब आंख भी नम नहीं
फिर से मिलने की किसी मोड़ पर
मांगी थी दुआ खुदा से कुछ कम नहीं
समझे थे पैगम्बर-ए-वफा तुझे
सोचा ये था कि हमें कोई भ्रम नहीं
मिलेगा मुकद्दर में सुकून रवि
ये सोच के किया था कोई श्रम नहीं
ग़ज़ल -06
निकलो गर सफर पे लोग मिलते जाएंगे
पोंछ लो ये चंद आँसू वरना ढरक जाएंगे
माना अंधेरों में साए भी नहीं देते साथ
आखिरी मोड़ तक उनके अहसास जाएंगे
अश्कों का जाम बना पिया है जिन्होंने
वे दीवाने तेरे पास दर्दे दिल ले के जाएंगे
जब भी गिरो बढ़ाओ सहारे के लिए हाथ
लोग तो खुद डूब कर तुझे बचा जाएंगे
सहर होने पर भी खोलो न आँख अपनी
उनके बिखरे ख्वाब संवर ही जाएंगे
मंजिल इन्हीं राहों पर ही तो है रवि
बाकी है जोश बहुत फिर कैसे घर जाएंगे
ग़ज़ल -07
अनाजों के ढेर में बैठा भूखा हूँ मैं
भरा है पेट मगर बैठा भूखा हूँ मैं
जनाजों के मेले में भीड़ है मगर
बेगुनाह लाशों का बैठा भूखा हूँ मैं
इस जंग में हुईं हैं सभी हदें पार
कुर्सियाँ पकड़ा बैठा भूखा हूँ मैं
सड़कें, नहरें, बांध और न जाने क्या
थालियाँ सजाए बैठा भूखा हूँ मैं
गरीबों के गले से निवाले निकाल
अमीर शहर में बैठा भूखा हूँ मैं
ये है तेरे मुल्क की हालत रवि
सबकुछ खा के बैठा भूखा हूँ मैं
मेरे शहर के सड़कों के गड्ढों की कहानियाँ हैं
बेजान बिजली के खम्भे भी कहते कहानियाँ हैं ।
वहाँ कोई पूल टूटा, तो यहाँ कोई ट्रेन टकराई
नए किस्सों में क्यों भूलते पिछली कहानियाँ हैं ।
धारावी के झोंपड़े, वरली सी- फेस के बंगले
कहीं रसभरी, तो कहीं करूणामयी कहानियाँ हैं ।
भीड़ का ये मंजर ख़तम होता नहीं दिखता
करोड़ों के देश में अकेलेपन की कहानियाँ हैं ।
तेरे चेहरे पे आज मुस्कान चौड़ी क्यों है रवि
क्या तू ने सुन ली कोई दर्द भरी कहानियाँ हैं ।
ग़ज़ल 09
जमाने, तेरी खातिर हम बरबाद हो गए
क्यों लोग कहते हैं कि मिसाल हो गए ।
इस दौर में तो अब मुहब्बत से पहले
नून, तेल और लकड़ी के सवाल हो गए ।
अब दोस्तों ने शुरू किया कत्ले आम
सभी बन गए बुत, हवा दीवार हो गए ।
पता नहीं कि यह आखिर कैसे हो गया
सपने थे तूफ़ान के पर बयार हो गए ।
वीरान बस्ती में था सिर्फ हमारा जलवा
जमाने तेरे सितम से हम बेकार हो गए ।
हुआ है मेरे शहर में एक अजीब हादसा
कुछ खा के, बाक़ी भूख से बीमार हो गए ।
अरमाँ मत रख बेवकूफ क्या पता नहीं
राजपथ के कुत्ते अब सब सियार हो गए ।
इतना आसाँ नहीं जमाने को बदलना
रवि तुझसे पागल कई हजार हो गए ।
ग़ज़ल 10
मच्छरों ने हमको काटकर चूसा है इस तरह
आदमकद आइना भी अब जरा छोटा चाहिए ।
घर हो या दालान मच्छर भरे हैं हर तरफ
इनसे बचने सोने का कमरा छोटा चाहिए ।
डीडीटी, मलहम, अगरबत्ती, और आलआउट
अब तो मसहरी का हर छेद छोटा चाहिए ।
एक चादर सरोपा बदन ढंकने नाकाफी है
इस आफत से बचने क़द भी छोटा चाहिए ।
सुहानी यादों का वक्त हो या ग़म पीने का
मच्छरों से बचने अब शाम छोटा चाहिए ।
ग़ज़ल 11
तेरी मुहब्बत में कोई लहर नहीं है
चलो कोई बात मगर नहीं है ।
ये रास्ता तो थर्राता था आहटों से
चीखों का कोई खास असर नहीं है ।
किए तो थे वादे इफ़रात क्या करें
इनमें से कोई याद अगर नहीं है ।
तेरे बगैर जीने को सोचा नहीं था
जमाने से तेरी कोई खबर नहीं है ।
तुझे भूलने की कोशिशों में सफल
याद ऐसी कोई शाम-सहर नहीं है ।
तूने खाई होंगी कसमें ढेरों मगर
कोशिशों में खास क़सर नहीं है ।
वो तो वादा निभाकर भी दिखाते
अफसोस कोई पास ज़हर नहीं है ।
दीवानों की भीड़ में पहचानें जिसे
रवि वैसा कोई नाम नज़र नहीं है ।
ग़ज़ल 12
हमसे आप इस तरह क्यूँ शरमाने लगे
नज़र मिला के फिर क्यूँ शरमाने लगे ।
किसी ने कोई बात न की महफिल में
लो वो खुद की बात पे शरमाने लगे ।
ज़रूरत नहीं शै को किसी सबब की
वो आप ही आप ऐसे शरमाने लगे ।
या खुदा क्या होगा मेरे तसव्वुर का
वो ख्वाब में भी आके शरमाने लगे ।
आज क्यूँ ये दुनिया बदली सी है
जाने क्या हुआ कि वो शरमाने लगे ।
कोई तो समझाए रवि को कि क्यों
कल की बात पे आज शरमाने लगे ।
ग़ज़ल 13
रिश्ते अब बेमाने हो रहे
जख्म भी प्यारे हो रहे ।
तुझसे मिले लम्हा न हुआ
और हम तुम्हारे हो रहे ।
दिले गुबार निकालें तो कैसे
अश्क भी अब न्यारे हो रहे ।
क्या हुआ दिल टूटा अपना
वो भी तो अब बंजारे हो रहे ।
किससे कहें हाले दिल यहाँ
अपने तो बेगाने हो रहे ।
तसव्वुर में बैठे हैं आँखे मूंदे
भरी दुनिया में नजारे हो रहे ।
मुहब्बत तो डूबना है रवि
फिर वो कैसे किनारे हो रहे ।
ग़ज़ल 14
जरा सी बात थी जो पूरी दास्ताँ बन गई
नज़र क्या मिली मुहब्बत का सामाँ बन गई ।
उनके खुदा का हाल तो पता नहीं हमको
यहाँ मुहब्बत अपना धर्म और ईमाँ बन गई ।
वो क्या आए मेरे दर पे एक पल के लिए
मेरा ग़रीब खाना खुशियों का जहाँ बन गई ।
पता नहीं कि ऐसा हुआ आखिर किसलिए
सारा जहाँ यकायक मेरी मेहरबाँ बन गई ।
न कोई ग़मी हुई न कोई हादिसा ही हुआ
जाने क्यों खामोशी अपनी जुबाँ बन गई ।
सबके खयाल से भले ही वो बहार थी
मेरे दर पे आके तो वो तूफाँ बन गई ।
रहने ही दो फ़जूल है ये दावा आपका
अपनी चाहत तो अब आस्माँ बन गई ।
अब हम ये खुशियाँ ले के कहाँ जाएंगे
कफ़स ही जब अपना आशियाँ बन गई ।
पहले वो पूछते थे कि वो कौन हैं तेरे
जिंदगी जान के रवि वो नादाँ बन गई ।
ग़ज़ल 15
जिक्र बेवफ़ाई का जब किया जाएगा
उसके साथ तेरा नाम लिया जाएगा ।
हाल अच्छा अपना कहें तो किस तरह
जुबां खुलेगी जब जाम पिया जाएगा ।
आलम है कि यहाँ कोई हम सफर नहीं
बात बनेगी जब कहीं दिल दिया जाएगा ।
कहते हैं वो हमसे मिलने की फुर्सत नहीं
तसल्ली है जनाजे पे मिल लिया जाएगा ।
बात की थोड़ी सी और वो रूस्वा हो गए
बनेगी बात कैसे जो न किया जाएगा ।
अभी तो बैठे हैं खयालों में खोए हुए
देखेंगे जो महफिल में याद किया जाएगा ।
उनकी वसीयत थी जनाजे पे न रोए कोई
नई बात नहीं दिल थाम लिया जाएगा ।
मंज़िल की ये दौड़ तो खत्म होने से रही
चलो अब कहीं आराम किया जाएगा ।
उसे खबर है कि उनके इन्तेज़ार में रवि
अपनी जिंदगी यूँ बरबाद किया जाएगा ।
ग़ज़ल 16
इस जमाने की बहार को क्या कहिए
गुल हैं काँटों से लगें तो क्या कहिए ।
गुमाँ था बहुत तेरी यारी पे अबतक
अब दुश्मनी सी लगे तो क्या कहिए ।
समंदर के किनारे है आशियाँ अपना
गर प्यास न बुझे तो क्या कहिए ।
दुपहर की धूप में निकला है दीवाना
उजाला न मिले उसे तो क्या कहिए ।
कहते हैं जिंदगी बड़ी आसाँ है रवि
लोग मानें न मानें तो क्या कहिए ।
ग़ज़ल 17
इक दर्द सा है क्यूँ दिल में कोई बताए तो हमको
सभी मेहरबाँ हो रहे क्यूँ, कोई सताए तो हमको ।
मांगी है दुआ तेरे ही लिए ईश और अल्लाह से
दे रहे सभी बद्दुआ यहाँ दे कोई दुआएँ तो हमको ।
जब भी चाहा तबस्सुम को अश्क निकल जाते हैं
एक अश्क की खातिर ही कोई हँसाए तो हमको ।
सब कहते हैं बहुत कठिन है राह उस मंजिल की
राहबर बनकर राह अरे, कोई दिखाए तो हमको ।
निकल चुकी है जान कासिद के इन्तेजार में
कुछ खबर उनकी सुना कोई जिलाए तो हमको ।
हर चीज है मुमकिन कहने को लोग कहते हैं
इक दिन मेरे महबूब से कोई मिलाए तो हमको ।
वो वफा करें डर से लुटी नींद अपनी है रवि
झूठी तसल्ली दे के सही कोई सुलाए तो हमको ।
ग़ज़ल 18
महफिल में सुनाई दास्ताँ सबने अपनी
हम पे गुजरी ऐसी कि सुनाई न गई ।
उनके पूछने का अंदाज था कुछ ऐसा
कोई सूरत वो बात बताई न गई ।
उनका दोष नहीं न उनने की बेवफाई
हम ही रूठे थे ऐसे कि मनाई न गई ।
दीवानगी में अपने दिल जलाए बैठे
होश आया पर आग बुझाई न गई ।
तन्हाई का खौफ इस कदर है रवि
वो आ गए पर मेरी तन्हाई न गई ।
ग़ज़ल 19
जाने किस बात पे हमें रोना आया
बेदर्द जमाने क्यों हमें रोना आया ।
कोई तो दे हमें ज़हर का प्याला
जाम पी के तो हमें रोना आया ।
इन चरागों को बुझा दो यारों
रौशनी देख के हमें रोना आया ।
बस करो छेड़ो न चर्चा फिर
जिन बातों पे हमें रोना आया ।
के कहकहे लगाए सबने रवि
सुनके जो बात हमें रोना आया ।
ग़ज़ल 20
इस कदर कर कोशिश ख़िजा-ए-गुल खिलाने
बने मुस्कान गुलिस्ताँ की के तेरा मुरझाना ।
माना खार भी लेते हैं साँस इस चमन में
इक फूल की खुशबू से है दामन भर जाना ।
इन अश्कों के टपकने से मिलता है सुकून
दो बूंद देगा सागर-ए-सुकून तुझे अंजाना ।
उन्हें याद दिलाने से क्या होगा हासिल
याद रहें वो क्या फिर याद आना न आना ।
करले तू अपनी जुबाँ को इस कदर प्यासा
ज़हर भी तू अमृत समझ पचा जाना ।
न कर इंतजार आखिरी साँस का रवि
हर साँस आखिरी है और दिल है बेगाना ।
ग़ज़ल 21
कुछ नहीं तो वायदों की बौछार लाऊँगा
इस चुनाव में जीता तो त्यौहार लाऊँगा ।
अभी तो याचक बना हूँ तेरे दर पर
कुर्सी पे बैठ तेरे लिए इन्तेजार लाऊँगा ।
परोसा है सभी को आश्वासनों के प्याले
होगी जेब गर्म तभी ऐतबार लाऊँगा ।
अभी तो होगा वो तुम चाहते हो जो
बाद में फिर मैं झूठा इक़रार लाऊँगा ।
लगते हो आज तुम मेरे अपने से
कल को पहचानने से इनकार लाऊँगा ।
जब बीतेंगे पांच बरस खामोशी से रवि
चीखता हुआ फिर सच्चा इसरार लाऊँगा ।
ग़ज़ल 22
भूले हुए है खुशी को खुशी की तलाश में
हो गए ख़ुद बेवफा वफा की तलाश में ।
बे-दिल दुनियाँ में एक इन्साँ न मिला
हम भटका किए थे खुदा की तलाश में ।
समंदर की लहरों से भी न मिटी प्यास
गोता लगाया व्यर्थ शबनम की तलाश में ।
थे बेखबर जल रहा था अपना आशियाना
भटका किए दरबदर रौशनी की तलाश में ।
लोग तिनकों के सहारे लांघते हैं दरिया
हमसे डूबी कश्ती सहारे की तलाश में ।
अब तक थे शिकार गलतफ़हमी के रवि
मिली थी मौत जिंदगी की तलाश में ।
ग़ज़ल 23
इक दर्द सा है क्यूँ दिल में कोई बताए तो हमको
सभी मेहरबाँ हो रहे क्यूँ, कोई सताए तो हमको ।
मांगी है दुआ तेरे ही लिए ईश और अल्लाह से
दे रहे सभी बद्दुआ यहाँ दे कोई दुआएँ तो हमको ।
जब भी चाहा तबस्सुम को अश्क निकल जाते हैं
एक अश्क की खातिर ही कोई हँसाए तो हमको ।
सब कहते हैं बहुत कठिन है राह उस मंजिल की
राहबर बनकर राह अरे, कोई दिखाए तो हमको ।
निकल चुकी है जान कासिद के इन्तेजार में
कुछ खबर उनकी सुना कोई जिलाए तो हमको ।
हर चीज है मुमकिन कहने को लोग कहते हैं
इक दिन मेरे महबूब से कोई मिलाए तो हमको ।
वो वफा करें डर से लुटी नींद अपनी है रवि
झूठी तसल्ली दे के सही कोई सुलाए तो हमको ।
वर्ष 2004
की ग़ज़लें
ग़ज़ल 1
*-*-*
अवाम को
आईना आखिर
देखना होगा
हर शख्स
को अब ग़ज़ल
कहना होगा
यही दौर
है यारो उठाओ
अपने आयुध
वरना
ता-उम्र
विवशता में
रहना होगा
बड़ी
उम्मीदों से
आए थे इस शहर
में
लगता है
अब कहीं और
चलना होगा
जमाने
ने काट दिए
हैं तमाम
दरख़्त
कंटीली
बेलों के साए
में छुपना
होगा
इश्क
में तुझे क्या
पता नहीं था
रवि
फूल
मिलें या
कांटे सब सहना
होगा
*-*-*
व्यंजल 2 (हास्य
ग़ज़ल=हज़ल के
तर्ज पर)
/*/*/
प्रिये, है ये
प्रेम, नहीं है
झगड़ा
आओ यूँ
सुलझाएँ अपना
रगड़ा
जिंदगानी
के चंद चार
क्षणों में
ऊपर
नीचे होते
रहना है पलड़ा
करम धरम
तो दिखेंगे
सबको
चाहे
जित्ता डालो
उस पे कपड़ा
जब खत्म
होगी सुखद
होगी
यूँ
पीड़ा को रखा
हुआ है पकड़ा
जिया है
जिंदगी को
बहुत रवि
मौत
कैसी है ये
असली पचड़ा
ग़ज़ल
3
***
धर्म की
कोई दुकान खोल
लीजिए
सियासत के
सामान मोल
लीजिए
सफलता के
नए पैमानों
में लोगों
थोड़े से
झूठे मुस्कान
बोल लीजिए
उस जहाँ
की खरीदारी से
पहले
अपने यहाँ
के मकान तोल
लीजिए
रौशनी
दिखाने वाले
दलालों के
पहले उनके
जान पोल लीजिए
गाता है
सुधार का कोई
राग रवि
अब आप भी
तान ढोल लीजिए
*-*-*-*
व्यंज़ल
4
(हास्य ग़ज़ल, हज़ल के
तर्ज पर)
/*/*/
जीवन के
शर्त में
शामिल है
रिश्वत
कफन
नसीब होगी जो
होगी रिश्वत
क़िस्सों
में भी नहीं
प्यार की
बातें
भाई-भाई
के रिश्तों
में घुसी
रिश्वत
ऐसे दौर
की कामना नहीं
थी हमें
अपने आप को
देना पड़े है
रिश्वत
बदल
चुके हैं
इबादतों के
अर्थ भी
कोई
फ़र्क़ नहीं
रस्म हो या
रिश्वत
हवालात
की हवा खाना
ही थी रवि
तूने
लिया जो नहीं
था कोई रिश्वत
व्यंज़ल
5
(हास्य ग़ज़ल, हज़ल के
तर्ज पर)
*-*-*
आती हैं
अब बेमौसम
बहारें
अब तो
रखेल हो गई
बहारें
अब तक
पड़ा नहीं
साबिका
कैसे
पहचानेंगे आई
बहारें
सियासतों
से लुट गई
क़ौमें
बनानी
होगी अब नई
बहारें
जीने के
जद्दोजहद में
यारों
कैसा
बसंत कैसी तो
बहारें
इस क़दर
नावाक़िफ़ तू
रवि
गुजर
चुकी कई कई
बहारें
*+*+*
व्यंज़ल
6 (हास्य ग़ज़ल, हज़ल की
तर्ज पर)
*-*-*
किस
बिना पर रहना
होगा
मूर्खों
की तरह रहना
होगा
मूर्खों
के राज में
कैसे यारों
दानिशमंदों
का रहना होगा
मूर्खों
की जमात का
फौजी
कहता है
यहीं रहना
होगा
बन जा
खुद या दूसरों
को
मूर्ख
बना कर रहना
होगा
मूर्खों
के दौर में
सोचे रवि
इस तरह
कैसे रहना
होगा
व्यंज़ल
7
(हास्य ग़ज़ल यानी
हज़ल के तर्ज
पर)
*-/-/*
समाज को
बुरा हमने
बनाया
दोस्तों
आईना
दूसरों को ही
दिखाया
दोस्तों
जाना था
मंजिल-ए-राह
में मुद्दतों
से
खुद
बैठे सबको साथ
बिठाया
दोस्तों
अपने ही
जिले से होकर
जिला-बदर
हमने
बहुत है नाम
कमाया
दोस्तों
कल की
खबर नहीं किसी
को यहाँ
शतरंजी
चालें क्यों
है जमाया
दोस्तों
रवि
हममें तो न
दिल है न ही
जान
अपनी
लाश तो कबसे
जलाया
दोस्तों
***---***
ग़ज़ल 8
//**//
मुद्दतों
से वो आईना
दिखाते रहे
हम खुद
से खुद को
छुपाते रहे
दूसरों
की रोशनियाँ
देख देख के
आशियाना
अपना ही जलाते
रहे
कहाँ तो
चल दिया सारा
जमाना
हम
खिचड़ी अपनी
बैठे पकाते
रहे
यूँ
दर्द तो है
दिल में बहुत
मगर
दुनिया
को गुदगुदाते
हँसाते रहे
कभी तो
उठेगी हूक दिल
में रवि
यही सोच
कर ग़ज़लें
सुनाते रहे
ग़ज़ल 9
--**--
मनुज
आजन्म गंदा न
था
साथ में
लाया फंदा न
था
सियासतों
में मज़हबों
का
ये धंधा
खासा मंदा न
था
लोग
अकारण ही चुक
गए
फेरा
गया अभी रंदा
न था
महफ़िल
से लोग चल दिए
किसी ने
मांगा चंदा न
था
रवि मरा
बैमौत कहते
हैं
पागल
दीवाना बंदा न
था
*-*-*
ग़ज़ल 10
****
यूँ तो
बड़ा अलाल तू
करे है
खूब सवाल तू
जाति-धर्म
के किसलिए
मचाए
बहुत बवाल तू
बैठा
आँखें मींचे
फिर
करे है
क्यूँ मलाल तू
किसी
अंधेरी राह का
बन के
देख मशाल तू
सफल
क्यों न हो
रवि
सत्ता
का बड़ा दलाल
तू
ग़ज़ल 11
//**//
समग्र
मुल्क फरार है
जिस्म
है जाँ फरार
है
अवाम
बैठी मुँह
खोले
और
हाकिम फरार है
क़ैदी
है जेल में
लेकिन
वहाँ
सिपाही फरार
है
देखो
दुनिया
दीवानी
जिए वही
जो फरार है
सोचे है
रवि बहुत पर
उसका
कर्म फरार है
--**--
ग़ज़ल 12
..**..
माफ़ी
के काबिल नहीं
हैं ये
गलतियाँ
तब भी हो
रहीं गलतियों
पे गलतियाँ
मौज की
दृश्यावली
लगती तो है पर
पीढ़ियों
को सहनी होगी
ये गलतियाँ
जब भी
पकड़ा गया
फरमाया उसने
भूल से
ही हो रहीं
थीं ये
गलतियाँ
अब तो
दौर ये आया
नया है यारो
सच का
जामा पहने हैं
ये गलतियाँ
कभी
अपनी भी गिन
लो रवि तुमने
दूसरों
की तो खूब
देखी ये
गलतियाँ
ग़ज़ल 13
**--**
सितम की
इंतिहा में भी
खुश हैं
दर्द तो
है दिल में
मगर खुश हैं
कर आए
हैं बोफ़ोर्स
सी नई डील
इसीलिए
आज वो बहुत
खुश हैं
यारी न
दुश्मनी पर
जाने क्यों
दर्द
मेरा देख के
वो अब खुश हैं
वो तो
ख़ालिस दर्द
की चीखें थीं
गुमान
ये था हो रहे
सब खुश हैं
भूखी
बस्ती में
उत्सव कर रवि
चिल्लाए
है वो कि हम
खुश हैं
--**--
ग़ज़ल 14
//**//
कहाँ
कहाँ नहीं दी
याचिका
ज़रूरी
क्योंकर है
याचिका
निकाल
दो भले ही देश
से
नहीं
देनी है मुझे
याचिका
एतबार
था तो फिर
क्यों
पछता
रहे हो दे
याचिका
जुर्म
है मुल्क में
जन्मना
इसीलिए
जरूरी है
याचिका
आसाँ
जिंदगी के लिए
रवि
लिए
फिरता है वो
याचिका
ग़ज़ल 15
-0-0-
कहीं
गुम हो गई
सरकार
जेलों
में लग रहे
दरबार
लगी है
लाइन में जनता
पपुआ की
करती जयकार
मुजरिम
हो गए हैं
नरेश
और हैं
फरियादी
बदकार
मुल्क
के महीपति
होंगे
सरगनाओं
के भी सरदार
रवि
तुझे कुछ करने
को
अब तो है
खासा दरकार
*-*-*
ग़ज़ल 16
--..--
सच कब की
खो चुकी है
प्रार्थनाएँ
जनता
देखे है आपकी
आराधनाएँ
अब बन्द
भी कर दो आँसू
बहाना
बहुत
देख चुके
नक़ली
सम्वेदनाएँ
हर किसी
ने राह है
अपनी बनाई
कुछ असर
है नहीं डालती
वर्जनाएँ
मिलना
है सबको इस
मिट्टी में
आओ
बैठें खिली
धूप में
गुनगुनाएँ
ये
भूलता क्यों
है रवि जिंदगी
के
दिन हैं
चार क्या वह
भी गिनाएँ
ग़ज़ल 17
*+*
न लगाओ
कोई इल्जाम इन
लहरों को
गिन रखे
हैं खूब तुमने
भी लहरों को
बातें
प्रतिरोध की
करते हो खूब
मगर
सर से
यूँ गुजर जाने
देते हो लहरों
को
कुछ भी
असम्भव नहीं
अगर ठानो तो
बहुतों
ने बाँध के रख
दिए हैं लहरों
को
तुझमें
जिंदगी है
मस्ती भी मौज
भी
आओ तैर
के ये बात
बताएँ लहरों
को
अठखेलियों
में है कितनी
पहेलियाँ रवि
क्या
कोई समझ भी
पाया है लहरों
को
//**//
ग़ज़ल 18
-/-/-
भारत
भूमि का लालू
हूँ
चारा खा
भया कालू हूँ
कुल्हड़
मय सियासती
समोसों
का तो आलू हूँ
माई
दलित मेरे
अपने
लो कहते
हो मैं चालू
हूँ
दूरी
कैसी मुझसे
मैं भी
भैंस के
भेस में भालू
हूँ
रवि कहे
कैसे कुरसी की
भूख में
सूख गया तालू
हूँ
ग़ज़ल 19
*-*-*
बताते
हो मुझे मेरी
जवाबदारियाँ
याद
नहीं है अपनी
कारगुजारियाँ
फ़ायदे
का हिसाब
लगाने से पहले
देखनी
तो होंगी अपनी
देनदारियाँ
देश
प्रदेश शहर
धर्म और जाति
पर्याप्त
नहीं है इतनी
जानकारियाँ
काल का
दौर ऐसा कैसा
है आया
असर भी
खो चुकी हैं
किलकारियाँ
बैठा रह
तू भले ही
ग़मज़दा रवि
सबको तो
पता है तेरी
कलाकारियाँ
*-/-*
ग़ज़ल 20
*-*-*
लो
मिठाई खाओ कि
चुनाव है
तेरे
द्वारे लाया
हूँ कि चुनाव
है
पाँच
साल फिर मिलने
का नहीं
पिओ
मुफ़्त दारू
कि चुनाव है
भाई बाप
दोस्त बने हैं
दुश्मन
दुश्मन
बने दोस्त कि
चुनाव है
ड्योढ़ी
में ख़ैरातों
का ये अंबार
हम
क्यों भूले थे
कि चुनाव है
याद
रखना रवि
परिवर्तनों
की
वोट में
है ताक़त कि
चुनाव है
ग़ज़ल 21
****
गुम गया
मुल्क भाषणों
में
जनता जूझ
रही राशनों
में
नेताओं
की है कोई
जरूरत
दुनिया
को सही मायनों
में
इस दौर
के नेता जुट
गए
गलियारा
रास्ता
मापनों में
बदहाल
क़ौम के धनी
नेता
लोग घूम
रहे हैं
कारणों में
जिंदा
रहा है अब तक
रवि
और
रहेगा बिना
साधनों में
*-*-*
व्यंज़ल
22 (हास्य ग़ज़ल, हज़ल के
तर्ज पर)
/*/*/
जीवन के
शर्त में
शामिल है
रिश्वत
कफन
नसीब होगी जो
होगी रिश्वत
क़िस्सों
में भी नहीं
प्यार की
बातें
भाई-भाई
के रिश्तों
में घुसी
रिश्वत
ऐसे दौर
की कामना नहीं
थी हमें
अपने आप
को देना पड़े
है रिश्वत
बदल
चुके हैं
इबादतों के
अर्थ भी
कोई
फ़र्क़ नहीं
रस्म हो या
रिश्वत
हवालात
की हवा खाना
ही थी रवि
तूने
लिया जो नहीं
था कोई रिश्वत
व्यंज़ल
23
*-*-*
फिर किस
लिए ये क़ानून
हैं
शायद
मेरे लिए ही
क़ानून हैं
बने हैं
सरे राह मंदिर
मस्जिद
जहां
चलने के भी
क़ानून हैं
खुदा के
बन्दों ने
छीनी वाणी
बोलने न
बोलने के
क़ानून हैं
मंज़िल
की आस फ़ज़ूल
है यहाँ
हर कदम
क़ानून ही
क़ानून हैं
कैद में
है रवि, दोषी
स्वतंत्र हैं
कैसा ये
देश है कैसे
क़ानून हैं
**--**
ग़ज़ल
24
*+*+
ईमान
का रास्ता और
था
मैं
चला वो रास्ता
और था
चला
तो था दम भर
मगर
मंजिल
का रास्ता और
था
तेरी
वफा की है बात
नहीं
हमारा
ही रास्ता और
था
कथा
है सफल सफर की
क्या
तेरा रास्ता
और था
सब
दुश्मन हो गए
रवि
देखा
जो रास्ता और
था
हज़ल 25
-- -- --
नेता और
वोटर की
पोज़ीशन
देखिए
जाति और
धर्म के
परमुटेशन
देखिए
बीती है
अभी तो सिर्फ
अर्ध शताब्दी
नेताओं
के पहरावों
में प्रमोशन
देखिए
आँसुओं
से साबका पड़ा
नहीं कभी
वोटरों
को लुभाने के
इमोशन देखिए
सियासती
जोड़ तोड़ में
माहिर उनके
मुद्दे
पकड़ लाने के
इग्नीशन
देखिए
अपनी
पाँच साला नौकरी
में रवि ने
कहाँ
कहाँ नहीं खाए
कमीशन देखिए
.-.-.
ग़ज़ल 26
**//**
आदमी है
आदमी के पीछे
बराबर
सोचे
नहीं कि होगा
हिसाब बराबर
चाँदी
का चम्मच ले
के आया पर
चार दिन
की जिंदगी
सबकी बराबर
रत्न
जटित ताबूत है
तो क्या हुआ
भीतर
कीड़े और
दुर्गंध सब
बराबर
सच है कि
अपने आवरणों
के अंदर
कहीं
कोई फ़र्क़
नहीं है बाल
बराबर
काल को
तुम भूल गए
रवि शायद
दुर्ग
था वहाँ आज
मैदान बराबर
ग़ज़ल 27
*/*/*
क्या
मिलना है
भगदड़ में
जीना
मरना है भगदड़
में
मित्रों
ने हैं कुचले
हमको
अच्छा
बहाना है
भगदड़ में
लूटो या
खुद लुट जाओ
यही होना है
भगदड़ में
जीवन का
नया वर्णन है
फँसते
जाना है भगदड़
में
तंग हो
के रवि भी
सोचे
शामिल
होना है भगदड़
में
**--**
ग़ज़ल 28
**+**
मूल्यों
में गंभीर
क्षरण हो गया
मुल्क
का भी अपहरण
हो गया
भ्रष्ट
राह में चलने
न चलने का
सवाल ये
जीवन मरण हो
गया
बचे हैं
सिर्फ
सांपनाथ
नागनाथ
पूछते
हो ये क्या
वरण हो गया
हँसा है
शायद दीवाना
या फिर
भूल से
तो नहीं करण
हो गया
रवि
बताए क्यों कि
ढोंगियों का
वो एक
अच्छा आवरण हो
गया
ग़ज़ल 29
---
गले में
फाँस हो इबादत
कीजिए
मन में
पाप हो इबादत
कीजिए
बहुत
बेरहम हो गई
ये दुनिया
रस्ते
चलते हो इबादत
कीजिए
गड्ढे
जाम ट्रैफ़िक
पुलिसिया
बच
निकले हो
इबादत कीजिए
पल भर
जीना जहाँ
मुश्किल
गुज़ारे
दिन हो इबादत
कीजिए
कुछ
करने से बेहतर
है रवि
कार्य
सफल हो इबादत
कीजिए
*+*+*+
ग़ज़ल 30
****
खुद की नहीं
पहचानी
असलियत
तलाश में हैं
औरों की
असलियत
यहीं तो है उस
लोक की हकीकत
जनता कब
पहचानेगी
असलियत
मत मारो उस
दीवाने को
पत्थर
पहले देख लो
अपनी असलियत
ईश्वर तो
मौज़ूद है
तेरे कर्मों
में
रे मूरख
पहचान तेरी
असलियत
चोला राम का
दिल रावण रावण
यही है रवि
हाहाकारी
असलियत
ग़ज़ल 31
***
यहाँ तो
हर बात उल्टे
पुल्टे हैं
जीने के
हालात उल्टे
पुल्टे हैं
मेरा ईश
तेरा खुदा
उसका ईशु
कैसे ये
ख़यालात
उल्टे पुल्टे
हैं
बावरे
नहीं हैं अवाम
दरअसल
शहर के
नियमात उल्टे
पुल्टे हैं
जेल में
होती है
पप्पुओं की
जश्न
मुल्क
के हवालात
उल्टे पुल्टे
हैं
चैन और
नींद से महरूम
रवि
उसके तो
दिनरात उल्टे
पुल्टे हैं
*******
ग़ज़ल 32
आखिर
किधर से आया
अँधियारा है
पास में
बच रहा सिर्फ
अँधियारा है
अब तो बन
गई है आदत
अपनी
कटते
नहीं दिन बिना
अँधियारा है
मालूम
है मेरी
मासूमियत फिर
क्यों
पूछते
हैं किसने
फैलाया
अँधियारा है
अब ये
कैसा समय आया
है दोस्तों
जलाओ
दीप तो फैलता
अँधियारा है
औरों का
तो मालूम नहीं
लेकिन
रवि का
दोस्त बस एक
अँधियारा है
ग़ज़ल 33
****
घड़ियाली
आँसुओं के ये
दिन हैं
घटिया
पाखण्डों के
ये दिन हैं
आइए
आपका भी
स्वागत है
पसरती
रूढ़ियों के
ये दिन हैं
दो गज़
ज़मीन की
बातें कैसी
सिकुड़ने
सिमटने के ये
दिन हैं
अर्थहीन
से हो गए
शब्दकोश
अपनी
परिभाषाओं के
ये दिन हैं
कोई
तेरी पुकार
सुने क्यों
रवि
चीख़ने
चिल्लाने के
ये दिन हैं
**-**
ग़ज़ल 34
***
बात तो
तब है जब दर्द
में मुस्कराओ
चाहे
चीत्कारो
भीतर बाहर
मुस्कराओ
नायाब
दोस्तों की ये
फ़ितरत है नई
भोंक के
खंजर वो कहते
हैं मुस्कराओ
सियासती
चालों ने
मजबूर किया है
बिसूरती
हालातों में
तुम मुस्कराओ
गुजरनी
है ज़िंदगी जब
आँसुओं में
हिचकियों
के बीच तनिक
मुस्कराओ
सीख लो
जमाने से कुछ
आदतें रवि
पर-पीड़ा
में तुम भी तो
मुस्कराओ
ग़ज़ल 35
---
ज़लालत
है ज़िदगी
क्या छोड़
देना चाहिए
अब अंधी
गली में कोई
मोड़ देना
चाहिए
क्या
मिला उस बुत
पे घंटियाँ
टुनटुनाने से
मिथ्या
संस्कारों को
अब तोड़ देना
चाहिए
कब तक
रहोगे किसी के
रहमो-करम पे
ज़ेहाद
का कोई नारियल
फोड़ देना
चाहिए
क्यों
नहीं हो सकतीं
अपनी एक ही
दीवारें
खंडित
आस्थाओं को अब
जोड़ देना
चाहिए
बहुत
शातिराना
चालें हैं
तेरी बेईमान
रवि
कहता है
कहीं तो कोई
होड़ देना
चाहिए
ग़ज़ल 36
---
अब सूरज
को भी दीप
दिखानी होगी
शायद कल
कोई सुबह
सुहानी होगी
क़लम
सियाही और वही
पुराने काग़ज
तब तो
दुहराई गई वही
कहानी होगी
सियासती
खेल ने तोड़े
हैं सब नियम
धावकों
तुम्हें चाल
नई सिखानी
होगी
धर्म की
शरण में कुछ
और ही मिला
ता-उम्र
हमें अपनी
जख़्म छुपानी
होगी
एक
मर्तबा ही गया
रवि ग़रीबों
में
सोचता
है उसकी नज़्म
रूहानी होगी
*-*-*
ग़ज़ल 37
***
क्या
बताएँ कि ये
दिल हमेशा
रोता क्यूँ है
बता तो
जरा तेरा बहस
तल्ख़ होता
क्यूँ है
कभी
दीवानों को
जान
पाएंगे जमाने
वाले
वो मन का
कीचड़ सरे आम
धोता क्यूँ है
लगता है
भूल गए हैं
लोग सपने भी
देखना
नहीं तो
फिर किस लिए
जमाना सोता
क्यूँ है
लोग
पूछेंगे कि ये
कौन नया मसखरा
आया
जानकर
भी भाई-चारे
का बीज बोता
क्यूँ है
तू भी
क्यों नहीं
निकलता भीड़
के रस्ते रवि
बेकार
बेआधार
बिनाकाम चैन खोता
क्यूँ है
ग़ज़ल 38
---
मुल्क
के संरक्षक ही
भक्षक हो गए
आस्तीं
के साँप सारे
तक्षक हो गए
कहते
हैं बह चुकी
है बहुत सी
गंगा
जब से
विद्यार्थी
सभी शिक्षक हो
गए
गुमां
नहीं था
बदलेगी इतनी
दुनिया
यहाँ तो
जल्लाद सारे
रक्षक हो गए
*+*+*
ग़ज़ल 39
***
भीगे
भविष्य बिखरे
बचपन यहाँ सब
चलता है
लूट -पाट
फ़िरौती-डकैती
यारों सब चलता
है
किस किस
का दर्द
देखोगे जख़्म
सहलाओगे
क़ौमों
की रंजिश और
हों फ़ायदे सब
चलता है
इस
जमाने में
फ़िक्र क्यों
किसे किसी और
की
अपने
गुल खिलें
चाहे जंगल
जलें सब चलता
है
दिन ब
दिन तो बढ़ता
ही गया दायरा
पेट का
दावत
में कुल्हड़
हो या हो चारा
सब चलता है
तू भी
शामिल हो बची
खुची
संभावनाओं
में रवि
ज़ूदेव, शहाबुद्दीन
या हो वीरप्पन
सब चलता है
ग़ज़ल 40
---
इस
व्यवस्था में
जीने के लिए
दम चाहिए
सबको अब
राजनीति के
पेंचो-ख़म
चाहिए
ज़र्द
हालातों में
अब सूख चुकी
भावनाएँ
पूरी
बात समझने
आँखें ज़रा नम
चाहिए
नशेड़ियों
में तो कबके
शुमार हो गए
वो
दो घड़ी
चैन के लिए भी
कुछ ग़म चाहिए
शांति
की बातें
सुनते तो बीत
गई सदियाँ
बात
अपनी समझाने
के लिए बम
चाहिए
बातें
बुहारने की
बहुत करता है
तू रवि
उदर-शूल
के लिए तुझे
कुछ कम चाहिए
ग़ज़ल 41
***
कोई
ख्वाब देखे
जमाना गुज़र
गया
क्या
आया और क्या
क्या गुज़र
गया
चमन
उजड़े
दरख़्तें
गिरीं नींवें
हिलीं
भला हुआ
वो एक गुबार
गुज़र गया
मुश्किलें
कुछ कम थीं
तेरे मिलने पे
न सोचा
था वो सब भी
गुज़र गया
इन्सानियत
तो अब है
अंधों का हाथी
वो
बेचारा कब
जमाने से
गुज़र गया
एक
बेचारा रवि
भटके है न्याय
पाने
इस
रास्ते पे वो
सौ बार गुज़र
गया
ग़ज़ल 42
---
नाच
गानों में डूब
गई उम्मीदें
हैं
नाउम्मीदी
में भी बड़ी
उम्मीदें हैं
ज़लज़लों
को आने दो इस
बार
कच्चे
महल ढहेंगे
ऐसी उम्मीदें
हैं
जो
निकला है
व्यवस्था
सुधारने
उस पागल
से खासी
उम्मीदें हैं
देख तो
लिया दशकों का
सफ़र
अब पास
बची सिर्फ
उम्मीदें हैं
तू भी
क्यों उनके
साथ है रवि
बैठे
बैठे लगाए
ऊंची
उम्मीदें हैं
ग़ज़ल 43
***
सियासत
में सारे
हृदयहीन हो गए
नफ़ा
नुकसान में
तल्लीन हो गए
कोई और
दौर होगा
मोहब्बतों का
अब तो
सारे रिश्ते
महीन हो गए
अजनबी
भी पूछने लगे
हाले दिल
यकायक
कुछ लोग जहीन
हो गए
ज़ेहन
में यह बात
क्यों आती
नहीं
बड़े
बड़े शहंशाह
भी जमीन हो गए
जीना है
बिखरे हृदय के
साथ रवि
हर दर और
दीवार संगीन
हो गए
*+*+*
ग़ज़ल 44
---
व्यवस्था
को कोई नया
नाम देना होगा
बहुत हो
चुका अब कुछ
काम देना होगा
संभल
सकते हो तो
संभल जाओ
यारों
नहीं तो
फिर बहुत बड़ा
दाम देना होगा
दिन के
उजालों में
क्या करते रहे
थे
अब इसका
हिसाब हर शाम
देना होगा
इस
मुल्क में कब
किसी शिशु का
नाम
रॉबर्ट
न रहीम और न
राम देना होगा
हरियाली
तो आएगी रवि
पर शर्त ये है
हिस्से
का एक टुकड़ा
घाम देना होगा
ग़ज़ल 45
***
दीनो-ईमान
बिक रहा
कौड़ियों में
नंगे
खेल रहे हैं रूपए
करोड़ों में
फ़ोड़
डाली हैं सबने
आँखें अपनी
सियासत
बची है अगड़ों
पिछड़ों में
किस किस
के चेहरे
पहचानोगे
अब सब तो
बिकता है
दुकानों में
कोई और
दौर था या
कहानी थी
सत्यता
गिनी जा रही
सामानों में
लकीर
पीटने से तो
बेहतर है रवि
जा तू भी
शामिल हो जा
दीवानों में
ग़ज़ल 46
***
अपने
अपने हिस्से काट
लीजिए
अपनों
को पहले जरा
छाँट लीजिए
हाथ में
आया है सरकारी
ख़जाना
दोस्तों
में आराम से
बाँट लीजिए
प्याले
भ्रष्टाचार
के मीठे हैं
बहुत
पीजिए
साथ व दूरियाँ
पाट लीजिए
सभी ने
देखी हैं अपनी
संभावनाएँ
फिर आप
भी क्यों न
बाँट लीजिए
सार ये
बचा है रवि कि
देश को
काट सको
जितना काट
लीजिए
ग़ज़ल 47
***
कब तक
लूटोगे यारों
कुछ तो शर्म
करो
चर्चा
में आने को
कोई उलटा कर्म
करो
छिपी
नहीं हैं आपकी
कोई
कारगुजारियाँ
थोड़ा
रहम करो अपने
अंदाज नर्म
करो
जमाने
ने छीन ली है
रक्त की
रंगीनियाँ
बस अपने
पेट भरो अपनी
जेबें गर्म
करो
भाई
चारे की तो
हैं और दुनिया
की बातें
लूट पाट
दंगे फसाद का
नया धर्म करो
साधु के
वस्त्रों में
रवि उड़ने लगा
जेट से
ये क्या
हुआ कैसे हुआ
लोगों मर्म
करो
ग़ज़ल 48
***
अर्थ तो
क्या पूरे
वाक्यांश बदल
गए
जाने और
भी क्या क्या
बदल गए
गाते
रहे हैं
परिवर्तनों
की चौपाइयाँ
बदला भी
क्या ख़यालात
बदल गए
मल्टीप्लेक्सों
के बीच जूझती
झुग्गियाँ
नए दौर
के तो सवालात
बदल गए
देखे तो
थे सपने बहुत
हसीन मगर
क्या
करें अब तो
हालात बदल गए
कब तक
फूंकेगा
बेसुरी
बांसुरी रवि
तेरे
साथ के सभी
साथी बदल गए
ग़ज़ल 49
----
अपनी
कुरूपताओं का
भी गुमाँ
कीजिए
दूसरो
से पहले खुद
पे हँसा कीजिए
या तो
उठाइये आप भी
कोई पत्थर
या अपनी
क़िस्मत पे
रोया कीजिए
सफलता
के पैमाने बदल
चुके हैं अब
भ्रष्टाचार
भाई-भतीजावाद
बोया कीजिए
मुल्क
की गंगा में
धोए हैं सबने
हाथ
बढ़िया
है आप भी
पोतड़े धोया
कीजिए
खूब भर
रहे हो अपनी
कोठियाँ रवि
उम्र
चार दिन की
क्या क्या
कीजिए
ग़ज़ल 50
----
लहरें
गिनने में
सुनी
संभावनाएँ
हैं
ख़ून के
रिश्तों
ढूंढी
संभावनाएँ
हैं
जब से
छोड़ा है ईमान
का दामन
मिलीं
संभावनाएँ ही
संभावनाएँ
हैं
माँ के
दूध में अब
उसके बच्चे
तलाश
लेते ढेर सी
संभावनाएँ
हैं
मेरी
हयात का ये
नया रंग कैसा
कैसे तो
दिन कैसी
संभावनाएँ
हैं
अब कोई
और ठिकाना देख
रवि
चुक गई
यहाँ सारी
संभावनाएँ
हैं
ग़ज़ल 51
***
जन्नत
को समझे थे
यार की गली
उम्र
गुज़ारी
ढूंढने में
बहार की गली
इंकलाब
इतिहास की बात
है शायद
बन्द
किए हैं सबने
सुविचार की
गली
दर्द की
तफ़सील तो वो
ही बताएगा
जो चला
है किसी प्यार
की गली
याद
दिलाने का
शुक्रिया
दोस्त पर
आज कौन
चलता है करार
की गली
रवि
बताने चला है
रंगीनियाँ पर
वो
चला ही
नहीं किसी
त्यौहार की
गली
*-*-*
ग़ज़ल 52
----
लहरें
गिनने में
सुनी
संभावनाएँ
हैं
ख़ून के
रिश्तों
ढूंढी
संभावनाएँ
हैं
जब से
छोड़ा है ईमान
का दामन
मिलीं
संभावनाएँ ही
संभावनाएँ
हैं
माँ
तेरे दूध में
भी अब तेरे
बच्चे
तलाश
लेते ढेर सी
संभावनाएँ
हैं
मेरी
हयात का ये
नया रंग कैसा
कैसे तो
दिन कैसी
संभावनाएँ
हैं
अब कोई
और ठिकाना देख
रवि
चुक गई
यहाँ सारी
संभावनाएँ
हैं
ग़ज़ल 53
----
अपनी
कुरूपताओं का
भी गुमाँ
कीजिए
पहले
खुद पे फिर
औरों पे हँसा
कीजिए
या तो
उठाइये आप भी
कोई पत्थर
या अपनी
क़िस्मत पे
रोया कीजिए
सफलता
के पैमाने बदल
चुके हैं अब
भ्रष्टाचार
भाई-भतीजावाद
बोया कीजिए
इस देश
की गंगा में
धोते रहे हैं
हाथ
बढ़िया
है आप भी
पोतड़े धोया
कीजिए
खूब भर
रहे हो अपनी
कोठियाँ रवि
उम्र
चार दिन की
क्या क्या
कीजिए
ग़ज़ल 54
***
दीनो-ईमान
बिक रहा
कौड़ियों में
नंगे
खेल रहे हैं रूपए
करोड़ों में
फ़ोड़
डाली हैं सबने
आँखें अपनी
सियासत
बची है अगड़ों
पिछड़ों में
किस किस
के चेहरे
पहचानोगे
अब सब तो
बिकता है
दुकानों में
कोई और
दौर था या
कहानी थी
सत्यता
गिनी जा रही
सामानों में
लकीर
पीटने से तो
बेहतर है रवि
जा तू भी
शामिल हो जा
दीवानों में
ग़ज़ल 55
---
राजनीति
अब शिखंडी हो
गई
सियासती
सोच घमंडी हो
गई
सोचा था
कि बदलेंगे
हालात
ये क़ौम
और पाखंडी हो
गई
भरोसा
और नाज हो किस
पे
व्यवहार
सब द्विखंडी
हो गई
अब
पुरूषार्थ का
क्या हो रवि
राजशाही
सारी शिखंडी
हो गई
ग़ज़ल 56
*-*-*
मंज़िल
पाने की
संभावना
नगण्य हो गई
व्यवस्था
में जनता और
अकर्मण्य हो
गई
जाने
कौन सा घुन लग
गया भारत तुझे
सत्यनिष्ठा
ही सबसे पहले
विपण्य हो गई
इतराए
फ़िरते रहिए
अपने
सुविचारों पर
अब तो
नकारात्मक
सोच अग्रगण्य
हो गई
हीर-रांझों
के इस देश को
क्या हुआ कि
दीवानों
की संख्या
एकदम नगण्य हो
गई
अब तक तो
तेरे कर्मों
को थीं लानतें
रवि
क्या
होगा अब जो
सोच अकर्मण्य
हो गई
*+*+*+
ग़ज़ल 57
*****
ये उम्र
और तारे तोड़
लाने की
ख्वाहिशें
व्यवस्था
ऐसी और
परिवर्तन की
ख्वाहिशें
आदिम
सोच की
जंजीरों में
जकड़े लोग
और
जमाने के साथ
दौड़ने की
ख्वाहिशें
तंगहाल
घरों के लिए
कोई विचार है
नहीं
कमाल की
हैं स्वर्णिम
संसार की
ख्वाहिशें
कठिन
दौर है ये नून
तेल और लकड़ी
का
भूलना
होगा अपनी
मुहब्बतों की
ख्वाहिशें
जला
देंगे तुझे भी
दंगों में एक
दिन रवि
फ़िर
पालता क्यूँ
है भाई-चारे
की ख्वाहिशें
ग़ज़ल 58
***
ज़ुर्म
तेरी सज़ा
मेरी क्या यह
न्याय है
दशकों
बाद मिले तो
क्या यह न्याय
है
तहरीर
आपकी और
फ़ैसला भी
आपका
सुना तो
रहे हो पर
क्या यह न्याय
है
तूने
अपने लिए गढ़
ली राह गुलों
की
काँटों
पर हम चलें
क्या यह न्याय
है
सुनी
थीं उनकी तमाम
तहरीरें
दलीलें
फ़ैसले
पे सब हँसे
क्या यह न्याय
है
मत डूबो
रवि अपनी जीत
के जश्न में
सब कहते
फ़िर रहे क्या
यह न्याय है
ग़ज़ल 59
******
गुजरे
ऐसे कि हादिसे
आदत बन गए
मदरसे
हर प्रयोग के
शहादत बन गए
ग़ली के
गंवारों को न
जाने क्या हुआ
सड़क
में आकर बड़े
नफ़ासत बन गए
रक़ीबों
की अब किसको
ज़रूरत होगी
अपने
विचार ही जो
खिलाफ़त बन गए
इश्क
इबादतों का
कोई दौर रहा
होगा
धन
दौलतें अब
असली चाहत बन
गए
प्रेम
का भूख़ा रवि
दर-दर भटका
फिरा
क्या
इल्म था
इंसानियत आहत
बन गए
ग़ज़ल 60
देश और
समाज को देखूं
क्या मज़ाक है
दो
वक्त़ की रोटी
नहीं ये कोई
मज़ाक है
हौसले
ले के तो पैदा
हुआ था बहुत
मगर
खड़े
होने को जगह
नहीं कैसा
मज़ाक है
तमन्ना
तो रही थी
तुलसी कब़ीर
बनने की
दाऊद, राजन
जमाने का भीषण
मज़ाक है
शाम से
भूखे और सुबह
आपका ये दावा
लाओगे
कुल्हड़ में
तूफ़ान
बढ़िया मज़ाक
है
असम, बिहार
में बाढ़ और
दिल्ली में
गरमी
कभी तो
बदले सिलसिला
अच्छा मज़ाक
है
देखे है
रवि अपने
भविष्य के
सुनहरे सपने
लगता है
किया किसी ने
तुच्छ मज़ाक है
ग़ज़ल 61
जहाँ
लोग लगे हैं
पूरियाँ
त़लने में
क्या
हर्ज़ है अपनी
रोटी सेंकने
में
मची है
मुहल्ले में
जम के मारकाट
हद है, और
भीड़ लगी है
देखने में
बातें
ग़ज़ब हैं आगे
चलने की पर
ज़ोर है
सारा असली
चेहरा छुपने
में
भारत
भाग्य क्या
जाने विधाता
जब
जनता को
पड़ गई आदत
सहने में
तू भी कर
ही ले अपनी
चिंता रवि
क्या
रखा है इन
पचड़ों में
पड़ने में
ग़ज़ल 62
****
इस भारत
का क्या हाल
हो रहा ज़रा
देखिए
नेता
अफ़सर माला
माल हो रहा
ज़रा देखिए
दक्षिण
सूखा,
पश्चिम
सूखा पूरब की
क्या बात
उत्तर
बाढ़ से बुरा
हाल हो रहा
ज़रा देखिए
जिसने सीटी
बजाई,
व्यवस्था
की बातें की
होना
क्या है, वह काल
हो रहा ज़रा
देखिए
कुरसी
के खेल में
तोड़ डाले सब
नियम
ये देश
तो मकड़ जाल
हो रहा ज़रा
देखिए
प्रगति, विकास
के नारे, समाज़वाद
साम्यवाद
ऐसा
पाखंड सालों
साल हो रहा
ज़रा देखिए
सभी लगे
हैं झोली अपनी
जैसे भी भरने
में
मूर्ख
अकेला रवि लाल
हो रहा ज़रा
देखिए
ग़ज़ल 63
****
राजनीति
के स्तंभ बन
गए हैं ग़रीब
अब तो
मुद्दे स्थाई
बन गए हैं
ग़रीब
सियासी
खेल का कोई
राज बताए
कि
धनवान क्यों
बन गए हैं
ग़रीब
चान्दी
का चम्मच ले
पैदा हुए हैं
जो
वो और भी
ज्य़ादा बन गए
हैं ग़रीब
सोने की
चिड़िया का
हाल है नया
क़ौम के
सारे लोग बन
गए हैं ग़रीब
अपनी
अमीरी दुनिया
सबने बना ली
औरों की
सोचने में बन
गए हैं ग़रीब
कुछ कर
रवि, कि फोड़
अकेला भाड़
वरना तो
यहाँ सब बन गए
हैं ग़रीब
ग़ज़ल 64
मैं
अपनी आस्थाएँ
लिए रह गया
जंग
ज़ारी थी मैं
बैठा रह गया
आवरण
तोड़ना तो था
पर क्यों
लोग चल
दिए मैं पीछे
रह गया
करना था
बहुत कुछ नया
नया
भीड़
में मैं भी
सोचता रह गया
ख़ुदा
ने तो दी थी
बुद्धि बख़ूब
क्यों
औरों की टीपता
रह गया
इस
तक़नीकी
ज़माने में रवि
पुराणपंथी
बना देखो रह गया
ग़ज़ल 65
***
सब
सुनाने में
लगे हैं अपनी
अपनी ग़ज़ल
क्यों
कोई सुनता
नहीं
मेरी अपनी
ग़ज़ल
रंग
रंग़ीली
दुनिया में
कोई
ये बताए हमें
रंग
सियाह में
क्यों पुती है
अपनी
ग़ज़ल
छिल
जाएंगी
उँगलियाँ और फूट
जाएंगे माथे
इस
बेदर्द
दुनिया में मत
कह अपनी ग़ज़ल
मज़ाहिया
नज़्मों का ये
दौर नया है
यारो
कोई
पूछता नहीं
आँसुओं भरी
अपनी ग़ज़ल
जो
मालूम है लोग
ठठ्ठा करेंगे
ही हर हाल
मूर्ख
रवि फ़िर भी
कहता
है अपनी ग़ज़ल
ग़ज़ल 66
****
अब तो बस
अख़बार बचे हैं
कुछ
टहनी कुछ ख़ार
बचे हैं
भीड़
भरे मेरे भारत
में लो
मानव बस
दो चार बचे
हैं
कहने को
क्या है जब सब
बेरोज़गार
और बेकार बचे
हैं
च़मन
उजड़ चुका है बस
नेता के
ग़ले के हार
बचे हैं
चूस
चुके इस देश
को रवि
मुँह
में फ़िर भी
लार बचे हैं
व्यंज़ल
67
*-*-*
फिर किस
लिए ये क़ानून
हैं
शायद
मेरे लिए ही
क़ानून हैं
बने हैं
सरे राह मंदिर
मस्जिद
जहां
चलने के भी
क़ानून हैं
खुदा के
बन्दों ने
छीनी वाणी
बोलने न
बोलने के
क़ानून हैं
मंज़िल
की आस फ़ज़ूल
है यहाँ
हर कदम
क़ानून ही
क़ानून हैं
कैद में
है रवि, दोषी स्वतंत्र
हैं
कैसा ये
देश है कैसे
क़ानून हैं
व्यंज़ल
68
**-**
अंतत: बन
ही गया वो
बेशरम
नाम
कमाने लगा है
वो बेशरम
सिंहासन
पर बैठ कर
त्याग के
सब को
प्रवचन देता
वो बेशरम
पाँच
वर्षों में
ढेरों
तब्दीलियों
के
सब्ज
बाग़ दिखाता
वो बेशरम
अरसे से
टूटा नहीं अमन
चैन
किस
खयाल में है
वो बेशरम
फटे
कपड़े पहन रखे
हैं रवि ने
नए फैशन
में बना वो
बेशरम
*-*-*
व्यंज़ल
69
*-*-*
बढ़ती
जा रही हैं
मुश्किलों पे
मुश्किल
इस दौर
में बेदाग बने
रहना मुश्किल
तमाम
परिभाषाएँ
बदल गईं इन
दिनों
दाग को
अब दाग कहना
है मुश्किल
गर्व
अभिमान की ही
तो बातें हैं
दाग
जाने
क्यों कबीर को
हुई थी
मुश्किल
दागों
को मिटा सकते
हैं बड़े
दागों से
दाग
मिटाना अब कोई
नहीं मुश्किल
रवि ने
जब लगाए खुद
अपने पे दाग
जीना
सरल हुआ उसका
बड़ा मुश्किल
*-*-*
व्यंज़ल
70
*-*-*
नहीं
कयास कहाँ
कहाँ हैं
मिलावटें
मुस्कराहटों
में मिलती हैं
मिलावटें
उनकी
हकीकतों का हो
क्या गुमाँ
चाल में
उनने भर ली
हैं मिलावटें
कोई और
शख़्स था वो
मेरा दोस्त
ढूंढे
से भी नहीं
मिलती हैं
मिलावटें
अपना
भ्रम अब टूटे
तो किस तरह
असल की
पहचान बनी हैं
मिलावटें
आसान हो
गया है रवि का
जीवन
अब
अपनाई उसने भी
हैं मिलावटें
व्यंज़ल
71
*/*/*
सभी को
चाहिए अनुभाग
मलाईदार
कुर्सी
टूटी फूटी हो
पर हो मलाईदार
अब तो
जीवन के बदल
गए सब फंडे
कपड़ा
चाहे फटा हो
खाइए मलाईदार
अपना
खाना भले हज़म
नहीं होता हो
दूसरी
थाली सब को
लगती मलाईदार
जारी है
सात पुश्तों
के मोक्ष का
प्रयास
कभी तो
मिलेगा कोई
विभाग
मलाईदार
जब संत
बना रवि तो
चीज़ें हुईं
उलटी
भूखे को
भगाते अब
स्वागत
मलाईदार
व्यंज़ल
72
/*/*/
खुद पर
नहीं अपना
मालिकाना हक
है
जताने
चले जग में
मालिकाना हक
है
लोग
कहते हैं ये
मुल्क है तेरा
अपना
बेघर
तेरा बेहतरीन
मालिकाना हक
है
यहाँ
खूब झगड़ लिए
राम रहीम ईसा
वहाँ
नहीं किसी का
मालिकाना हक
है
दिलों
में दूरियाँ
तब से और बढ़
गईँ
जब से
प्रकट किया
मालिकाना हक
है
ले फिरे
है अपनी रूह
बाज़ारों में
रवि
मोटे
असामी का ही
मालिकाना हक
है
व्यंज़ल
73
-/*/*/-
कुछ
करुँ या न
करुँ कि सरकार
मेरी है
मैं
देता नहीं
जवाब कि सरकार
मेरी है
अपने
बन्धुओं में
ही किया है
वितरण
है खरा
समाजवाद कि
सरकार मेरी है
मांगता
रहा हूँ वोट
छांट बीन तो
क्या
मैं
पूर्ण
सेकुलरवादी
कि सरकार मेरी
है
रहे
मेरी ही सरकार
या मेरे
कुनबों की
मैंने
किए हैं जतन
कि सरकार मेरी
है
मुल्क
की सोचेगा तो
रवि कैसे
कहेगा
मैं ही
तो हूँ सरकार
कि सरकार मेरी
है
*-*-*
व्यंज़ल
74
*-/-*
राजा नए
हुए हैं गूजर
हो या ददुआ
मानव या
तो मरा पड़ा
या है बंधुवा
जाति-धर्म
के समीकरणों
में उलझा
मेरे
देश का नेता
हो गया है
भड़ुआ
उस एक
पागल की सच्ची
बातों को
पीना तो
होगा लगे भले
ही कड़ुआ
अवाम का
तो होना था ये
हाल, पर
ये क़ौम
किस लिए हो गई
है रंडुवा
एक
अकेला रवि भी
क्या कर लेगा
इसीलिए
वो भी खाता
बैठा है
लड़ुवा
मेरी ताज़ा ग़जलें
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रवि