मनीषा को झकझोरने की चेष्टा
अखण्ड ज्योति July 1984 P-17

किसी समय, मुनि, मनीषी और दार्शनिक समाज के सर्वोच्च वर्ग में गिने जाते थे क्योंकि उन्हीं के प्रतिपादन शासनाध्यक्षों, धनाध्यक्षों तथा अन्यान्य विशिष्ट वर्गों को मान्य होते थे। उनकी अवज्ञा करने का दुस्साहस कोई करता नहीं था क्योंकि समय के अनुरूप राह बताने और निर्धारण करने की उनकी क्षमता असाधारण भी होती थी और उनका वर्चस्व भी था।

दार्शनिक इसी श्रेणी में आते थे। वे शास्त्र रचते थे और सामयिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते थे। प्रवचन के लिए व्यास पीठों पर उन्हीं का अधिकार था। राजा से लेकर रंक तक उनकी असामान्य मान्यता थी। आज भी यह वर्ग लेखकों, कवियों, कलाकारों के रूप में है तो सही पर अपनी गरिमा गंवा बैठा है। उसका अपना न तो स्तर है, न लक्ष्य। इनमें से अधिकाँश को धनाध्यक्षों की सेवा में चारणों की तरह निरत रहना पड़ता है। जो उनसे सोचने के लिए कहते हैं सो ही वे सोचते हैं, जो लिखने का निर्देश मिलता है सो ही लिखते हैं। चूँकि प्रेस प्रकाशन एक व्यवसाय बन गया है और व्यवसाय सदा धनिक चलाते हैं। जो संचालक है उसी की नीति भी चलेगी। इन दिनों अनेकों पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं। पुस्तकें भी छपती हैं। पर उनमें लेखक की अपनी कोई स्वतंत्र आवाज नहीं। प्रकाशक को जिसमें अपना लाभ दीखता है, लेखक वही लिखता है। क्योंकि पैसा उसे अपने मालिक की मर्जी के अनुरूप लिखने का मिलता है। अब स्वतंत्र लेखक रह नहीं गये हैं, जो अपनी मर्जी से लिखें। यदि मर्जी हो भी तो वह मालिक की मर्जी से भिन्न नहीं होनी चाहिए। अन्यथा मालिक ऐसे धन्धे में पैसा क्यों लगावेगा जिसमें उसे लाभ नहीं दीखता। लेखक का अपना निज का कोई प्रेस नहीं। जो कहीं, जहाँ, तहाँ है, वे प्रतिस्पर्धा में ठहर न पाने के कारण लंगड़े-लूले- ज्यों-त्यों करके चलते हैं। उन्हें न ग्राहक मिलते हैं और न खपत का जुगाड़ बनता है। ऐसी दशा में स्वतंत्र प्रेस का अस्तित्व प्रायः नहीं के बराबर है। लेखक, चिन्तक या दार्शनिक अब घटते या मिटते जा रहे हैं।

मनीषियों का दूसरा वर्ग वैज्ञानिकों का है। पुरातन काल में वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की जिम्मेदारी एक ही वर्ग उठाता था। जिनकी रुचि भौतिक क्षेत्र में होती वे चरक, कणाद, नागार्जुन, याज्ञवल्क्य, द्रोणाचार्य आदि की तरह भौतिक अनुसंधानों को हाथ में लेते थे। अन्यथा व्यास, कपिल, वशिष्ठ, गौतम की तरह युग दर्शन में नये अध्याय जोड़ते रहते थे।

इन दिनों दोनों की ही दुर्गति हुई है। वैज्ञानिक आविष्कारकों की एक पीढ़ी बहुत ही प्रसिद्ध और कृत-कृत्य हुई थी। उसने सामान्य योग्यता रहते हुए भी ऐसे आविष्कार किये थे जिससे जन-साधारण को असीम और असाधारण लाभ पहुँचा। बिजली का आविष्कार उसमें सर्वाधिक महत्व का है। अब वह मनुष्य जीवन की अविच्छिन्न अंग बनकर रह रही है। इसके बाद वाहनों का नम्बर आता है। साइकिल से लेकर रेल, मोटर, जलयान, वायुयान, इसी स्तर के हैं जिनने लम्बी यात्राएं सरल बना दीं। भार वाहन का खर्च भी बहुत कम कर दिया। फलतः व्यापार तेजी से पनपने लगे। टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की उपयोगिता ऐसी ही है। एक युग था जब मनुष्य जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में वैज्ञानिकों ने- उनके आविष्कारों ने असाधारण सेवा सहायता की। उत्पादन में काम आने वाले अनेकों छोटे-बड़े यन्त्र भी ऐसे हैं, जिनके लिए मनुष्य जाति उनकी सदा कृतज्ञ रहेगी। कोल्हू, चक्की, पम्प आदि की गणना ऐसे ही संयंत्रों में होती है।

किन्तु वह वर्ग भी अपनी गरिमा दार्शनिकों की तरह अक्षुण्ण बनाये न रह सका। आविष्कारकों का अपना कोई उत्पादन क्षेत्र न था। उन्हें उत्पादक धनाध्यक्षों के लिए काम करने के लिए बाधित होना पड़ा। बात यहीं से गड़बड़ी की आरम्भ होती है। फिल्म उद्योग लोक शिक्षण का एक उपयोगी माध्यम हो सकता था पर उसके उत्पादनों को देखकर दुख होता है। प्रेस भी एक अनूठी शक्ति है पर उस क्षेत्र में भी काम का कम और बेकाम का अधिक छपता है। फिल्म दर्शक और साहित्य पाठक अन्ततः इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि इनसे दूर रहते तो भ्रम जंजाल से बचकर कहीं अधिक नफे में रहते।

इन दिनों प्रायः पचास हजार ऊंची श्रेणी के वैज्ञानिक मात्र युद्ध आयुध बनाने की नई-नई विधियाँ खोजने में निरत है। उन्हें इसके लिए पूरा सम्मान और पूरा पैसा दिया जा रहा है। इतना वे अन्यत्र कहीं नहीं पा सकते। इसलिए मौलिक चिन्तन के सुनियोजन का रास्ता ही बन्द है। सरलता और सुख-सुविधा हर किसी को प्रिय लगती है। चाहे दार्शनिक हो या वैज्ञानिक। स्थिति को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि दोनों ही क्षेत्रों में मौलिक विचारकता समाप्त प्रायः हो गई। दोनों को ही अपने मालिकों के लिए धनाध्यक्षों के लिए काम करना पड़ रहा है।

यह दुर्भाग्य पूर्ण दुर्गति है। इससे उबरा कैसे जाय? उबारे कौन? वैज्ञानिक के लिए कुटीर उद्योग से सम्बन्धित अगणित यन्त्र ऐसे बनाने के लिए पड़े हैं जिन्हें बनाया जा सके तो असंख्यों को बेकारी से त्राण पाने का अवसर मिले और अभावजन्य कठिनाइयों से पीछा छूटे। घरेलू आटा चक्की, घरेलू तेल कोल्हू, घरेलू चरखा, करघा, लुहारी, बढ़ईगिरी की मशीनें, कुम्हार के चाक जैसे यन्त्र ऐसे निकल सकते हैं, जिनके सहारे सामान्य जीवन की सुविधा भी बढ़े और आमदनी भी। सस्ते पम्प सेटों की हर जगह आवश्यकता है। कागज बनाने का उद्योग हर देहात में चल सकता है। सूर्य की गर्मी से चालित भट्टी एवं चूल्हें से मुफ्त में गरम पानी मिलने और वस्तुएं पकाने-सुखाने का काम हो सकता है।

ऊपर कुछ उदाहरण काम के बताये गये हैं। बैल-गाड़ियों में सुधार की भारी गुँजाइश है। मोटरें और साइकिल भाप से चल सकती हैं और महंगे पेट्रोल का स्थान ले सकती हैं। इन सब कार्यों में अपने वैज्ञानिक पूरी तरह समर्थ हो सकते हैं और उन यन्त्रों के उत्पादन का एक नया बड़ा उद्योग चल सकता है। पर ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। जो कुटीर उद्योग के नाम पर बना है- हुआ है वह इतना लंगड़ा लूला है कि लगाने वालों की कमर तोड़ कर उसे मजा चखा देता है। इन सभी उपकरणों को अभी आधे अधूरे मन से बनाया गया है। इन यंत्रों के निर्माताओं का- आविष्कारकों का पारस्परिक सहयोग यदि सच्चे मन से हुआ होता और उसके लिए आवश्यक पूँजी जुट सकी होती। प्रयोक्ताओं की व्यावहारिक शिक्षा मिल सकी होती। सहकारी माध्यमों से कच्चा माल देने और बनी वस्तुएं लेने का उपयुक्त मण्डियों में बेचने का यदि प्रबन्ध हुआ होता तो परिस्थितियाँ कुछ और हुई होतीं। तब हम मात्र कृषि पर निर्भर न रहते। गोबर के अतिरिक्त दूसरे सस्ते वानस्पतिक खाद भी आविष्कृत कर रहे होते। पशुओं के लिए खेतों में सस्ती और अधिक फसल वर्ष भर देने वाली घास उगाते और पशुपालन घाटे का सौदा न रहा होता।

शिकायतें कौन किसकी करे? पर गुँजाइश इस बात की पूरी-पूरी है कि देश को कुटीर उद्योग स्तर पर योजना बद्ध ढंग से खड़ा किया जाय। यों चलने को तो यह सब कुछ अभी भी चल रहा है पर उसे अपर्याप्त और असन्तोषजनक ही कहा जा सकता है। जापान जैसी लगन हमारे वैज्ञानिकों, निर्माताओं उपभोक्ताओं की लगी होती तो अपने देश के मनीषी ही इस क्षेत्र में चमत्कार करके दिखा सकते थे। पर बने कैसे? जबकि सबको अधिक कमाने की- हाथों-हाथ सुविधा समेटने की पड़ी है। प्रतिभाएं विदेशों को पूँजीवादी राष्ट्रों की ओर भागती चली जा रही हैं। कुटीर उद्योग जहाँ भी चल रहे हैं, घाटा दे रहे हैं। जिनने पैर बढ़ाया उनका जोश ठण्डा कर रहे हैं।

यही बात दार्शनिकों-मनीषियों के सम्बन्ध में भी है। समय जिस तेजी से बढ़ा है, उसी तेजी से समस्याएं भी उपजी तथा उलझी हैं। वे सभी अपने समाधान चाहती हैं- बुद्धि संगत, व्यावहारिक और तथ्यों पर निर्धारित। ऐसे मार्गदर्शन का साहित्य लिखा गया होता, छपता, और पाठकों तक उचित मूल्य में पहुँचता तो कैसा अच्छा होता। पर दीखता इस क्षेत्र में भी अन्धेरा ही है।

पुस्तकों के नाम पर पहाड़ के बराबर हर दिन कागज काला होता है। पत्र-पत्रिकाएं भी आये दिन एक गोदाम खाली कर देती हैं। वह छपता भी है और बिकता भी है। इसे कोई न कोई लिखता भी है पर आदि से अन्त तक इस मुद्रण प्रकाशन की समीक्षा की जाय तो निराशा ही हाथ लगती है।

जिन व्यावहारिक जानकारियों की जन-साधारण को आवश्यकता है, क्या वे गम्भीरतापूर्वक सोची-समझी गई हैं और इन पर पिछड़े देश की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते हुए कुछ ऐसा प्रस्तुतीकरण हुआ है, जिसे ‘काम का’ कहा जा सके? अंग्रेजी किताबों के पन्ने उलट-पुलट कर उनका भाषान्तर होता रहता है और लोग अपने नामों से छापते रहते हैं। कम समय में अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करने की दृष्टि से यही तरीका सरल भी पड़ता है। अब उन मनीषियों की पीढ़ी मिटती चली जा रही है जो जन समस्याओं पर सामयिक, व्यावहारिक एवं तथ्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण अपना कर्तव्य समझते थे। अब वे कार्ल मार्क्स कहाँ हैं, जो सत्रह वर्ष की निरंतर परिश्रम साधना कर एक ग्रन्थ लिखें। अब वे परिवार, पत्नी, बच्चे कहाँ हैं, जो पुराने कपड़ों को काटकर नये कपड़े बतायें और अपना पेट पालते हुए लेखक को अपनी तपस्या में लगा रहने दें।

दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का क्षेत्र सूना हो जाना अथवा उनका अपने स्तर से नीचे उतर आना, भटक जाना बहुत ही बुरी बात है। इस स्तर के ब्रह्मचेता लोग जब लटकते हैं और दिशा भ्रमा देने वाला- हैरानी में धकेलने वाला कर्तृत्व रचते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया अत्यन्त भयंकर होती है। पुराने जमाने में उन्हें ‘ब्रह्म राक्षस’ कहा जाता था। अब वैसा कोई नया नामकरण हुआ है या नहीं, इसका पता नहीं पर पीढ़ी निस्सन्देह उन्हीं की बढ़ रही है।

यह वस्तुस्थिति का पर्यवेक्षण हुआ। इतने भर से बात क्या बनती है। समीक्षाएं, भर्त्सनाएं आये दिन होती रहती हैं। उन्हें इस कान सुनकर उस कान से निकाल देते हैं। होना तो कुछ ऐसा चाहिए, जिससे काम बने। हम अब वही करने जा रहे हैं। वैज्ञानिक और दार्शनिक हमारी एक मुहिम हैं। वैज्ञानिकों को भड़कायेंगे कि युद्ध के घातक शस्त्र बनाने में उनकी बुद्धि सहयोग देना बन्द कर दे। गाड़ी अधर में लटक जाय। दोनों पक्ष इसी फिराक में हैं कि उनके वैज्ञानिक ऐसे अमोघ उपाय निकाल लेंगे जिससे अपनी जीत निश्चित रहे और सामने वाला अपंग होकर बैठा रहे। सूक्ष्मीकरण के उपरान्त अब हम वैसा न होने देंगे। उच्चस्तरीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा और सूझ-बूझ उन्हें वैसा न करने देगी जैसा कि अपेक्षा की जा रही है। अब उनका मस्तिष्क ऐसे छोटे उपकरण बनाने की ओर लौटेगा जिससे कुटीर उद्योगों को सहायता देने वाला नया माहौल उफन पड़े। इसका उदाहरण देने के लिए एक नमूना हम अपने सामने बनाकर जायेंगे।

लेखकों दार्शनिकों का अब एक नया वर्ग उठेगा। वह अपनी प्रतिभा के बलबूते एकाकी सोचने और एकाकी लिखने का प्रयत्न करेगा। उन्हें उद्देश्य में सहायता मिलेगी। मस्तिष्क के कपाट खुलते जायेंगे और उन्हें सूझ पड़ेगा कि इन्हीं दिनों क्या लिखने योग्य है और मात्र वही लिखा जाना है।

क्या बिना सम्पन्न लोगों की सहायता लिए, बिना वर्तमान पुस्तक विक्रेताओं की मोटे मुनाफे की माँग पूरी किये, ऐसा हो सकता है कि जन-साधारण का उपयोग लोक साहित्य लागत मूल्य पर छपने लगे और घर-घर तक पहुँचने लगे। हमारा विश्वास है कि यह असम्भव नहीं है। समय अपनी आवश्यकता पूरी कराने के लिए रास्ता निकालेगा और छाये हुए अंधेरे में किसी चमकने वाले सितारे का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा।

दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों ही मुड़ेंगे। इन दोनों खदानों में से ऐसे नर रत्न निकलेंगे जो उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में आश्चर्यजनक योगदान दे सकें ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित करने में हमारा योगदान होगा, भले ही परोक्ष होने के कारण लोग उसे अभी देख या समझ सकें।