" व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज, विश्व एवं युग का परिवर्तन संभव है। इस धरती पर स्वर्ग का वातावरण सृजन करने के लिए हमें जन मानस का स्तर बदलना पड़ेगा। आज जिस स्वार्थपरता, संकीर्णता, असंयम और अनीति ने अपने पैर पसार रखे हैं, उसे हटाने का प्रयत्न करना होगा और उसके स्थान पर सज्जनोचित सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा। यह कार्य केवल कहने- सुनने से, लिखने- पढ़ने से संभव नहीं। इसके लिए प्रयत्न यह करना होगा कि परिष्कृत आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार लोग अपना जीवन क्रम बनावें।" — वेदमूर्ति पं. श्रीराम शर्मा आचार्य — माता भगवती देवी शर्मा

मानसिक स्वास्थ्य

लेखक : पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

संकलन एवं सम्पादन : पं. लीलापत शर्मा

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि, मथुरा

प्रथम आवृत्ति १९९५ मूल्य : ६- ०० रुपया



दो शब्द

वर्तमान युग की आपाधापी, भौतिक सुखों को भोगने की उत्कट लालसा, आध्यात्मिक पराङ्गमुखता आदि ने अधिकांश मानवों को मनोरोगी बना दिया है पर वैचित्र्य यह है कि रोगी स्वयं इस तथ्य से अपरिचित रहते हैं। मनोरोग जब शारीरिक व्याधियों के रूप में प्रकट होने लगते हैं, तब कहीं उपचार के लिए प्रयास आरंभ होता है। किन्तु उस समय भी केवल बाह्य लक्षणों के आधार पर शारीरिक व्याधियों का ही उपचार होता है और प्रकट रोग कुछ समय के लिए दब जाता है तथा अवसर पाने पर पुन. उभर पड़ता है अथवा अन्य व्याधियों का रूप धारण कर लेता है।

अज्ञानता, भय, लज्जा संकोच आदि के कारण रोगी अपने रोग का वास्तविक कारण बता नहीं पाता और चिकित्सक भी प्राय: इस दृष्टि से उदासीन रहते हैं। फलत: अधिकांश व्यक्ति आज अपने जीवन का वास्तविक सुख- चैन खो बैठे हैं।

स्वस्थ और सुखी जीवन बिताने के लिए यह आवश्यक है कि सर्वसाधारण को मानसिक व्याधियों के लक्षण, कारण और निदान का सामान्य ज्ञान अवश्य हो। मातृ सत्ता श्रद्धांजलि पुस्तकमाला के इस ८१ वें पुष्प में यही प्रयास किया गया है।

— लीलापत शर्मा

अनुक्रम

१ मानसिक रोग कितने विचित्र, कितने भयावह २ मानसिक विकृतियाँ जीवन को नर्क बनाती हैं ३ मानसिक अस्वस्थता की उपेक्षा न की जाय ४ चिंतन की विकृति और मनोरोग ५ बुरे विचारों का स्वास्थ्य पर कुप्रभाव ६ बीमारियाँ शरीर की नहीं मन की ७ अचेतन मन की व्याधियाँ और उनका निराकरण ८ मानसिक तनाव— दृष्टिकोण का दुष्परिणाम ९ शरीर तब स्वस्थ रहेगा जब मन स्वस्थ हो १० जाइये, पहले रूठे मन को मनाइए ११ आप कितना मानसिक आघात सहन कर सकते हैं १२ मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाय ? १३ तनाव दूर करने के लिए शिथिलीकरण साधिए







मानसिक रोग कितने विचित्र, कितने भयानक



आमतौर से ऐसा समझा जाता है कि इच्छित परिस्थितियाँ प्राप्त होने पर मनुष्य सुखी होता है। पर वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है। परिष्कृत दृष्टिकोण से सोचने का तरीका इतना सरल और सुन्दर होता है कि सामान्य वस्तुएँ भी सुन्दर लगती है। अन्धेरे में जो वस्तुएँ अदृश्य रहती हैं अथवा काली लगती है वे ही प्रकाश की किरणें पड़ने पर अपना पूरा स्वरूप दिखाती हैं और चमकने लगती हैं। यही बात परिष्कृत मनः स्थिति के संबंध में है। सोचने की प्रकाशवान प्रक्रिया को ऐसा दिव्य आलोक कहा - समझा जा सकता है जिसके प्रकाश में सारा समीपवर्ती क्षेत्र अंधकार की कालिमा में से निकल कर मनोरम आभा लिए हुए दिखाई देने लगे।

जर्मन पत्रिका 'मेडिजिनिशे क्लीनिक' में छपे एक विस्तृत लेख में कई शरीर विज्ञानियों के अनुभवों का सारांश छपा था जिसमें बताया गया है कि दर्द में जितना अंश शारीरिक कारणों का होता है उससे कहीं अधिक मानसिक तथ्य जुड़े होते हैं। ऐसे प्रयोग किए जा चुके हैं जिनमें मात्र पानी की सुई लगाकर रोगी को यह बताया गया कि 'यह गहरी नींद की दवा है', उसी से दर्द पीड़ितों का दर्द बन्द हो गया और वे सो गए। इसके विपरीत मार्फिया के इन्जेक्शन देकर यह कहा गया कि यह हल्की दवा है शायद इससे थोड़ा बहुत दर्द हल्का पड़े और संभव है कुछ नींद आये। यह सन्देह उत्पन्न कर देने पर रोगी दर्द की शिकायत कर सके और अधूरी निद्रा में झपकी लेते रहे। इस प्रयोग के बाद उन्हीं इंजेक्शनों को जब विपरीत व्याख्या करते हुए भिन्न दवा बताकर रोगियों को दिया गया तो उसकी पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रतिक्रिया हुई। पहले दिन पानी का इंजेक्शन जब मामूली दवा बताकर लगाया गया तो उसने दर्द कम नहीं किया और मर्फिया को बड़ी शक्ति का बताकर निश्चित रूप से नींद आने का आश्वासन देकर लगाया गया तो रोगियों को गहरी नींद आई। इन प्रयोगों से डाक्टर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दवाएँ जितना परिणाम प्रस्तुत करती हैं उससे अधिक प्रभाव मान्यताओं का होता है।

एक ही स्तर के दर्द को भिन्न- भिन्न मनःस्थिति के लोग अलग- अलग तरह अनुभव करते हैं। डरपोक रोगी इतने से ही दर्द में बेतरह चीखते- कराहते रहते हैं। साहसी लोग उसी कष्ट को बहुत हल्का मानते हैं। युद्ध मोर्चे के घायल अपनी बहादुरी की मान्यता के आवेश में कम कष्ट अनुभव करते हैं और कम चीखते- चिल्लाते हैं जब कि उतने ही कष्ट में सामान्य लोग तीन गुना अधिक दर्द अनुभव करते हैं।

भावनात्मक स्थिति भी कई बार दर्द में परिणत हो जाती है। सिर दर्द, पेट का दर्द, जोड़ों का दर्द, छाती का दर्द, कमर का दर्द बहुत करके मनोवैज्ञानिक कारणों से होते हैं। इनके मूल में कोई चिन्ता, आशंका, भय की भावी कल्पना अथवा भूतकाल की कोई दुखद स्मृति काम करती रहती है। मन की वह विपन्न अवस्था शरीर के किन्हीं अंगों पर आच्छादित होकर उन्हें पीड़ा अनुभव कराती है जब कि शारीरिक दृष्टि से उन अवयवों में उस तरह के कष्ट का कोई कारण नहीं होता।

कई बार ऐसी स्थिति भी देखी गई है कि डाक्टर को अपने समस्त निदान परीक्षण करने के उपरान्त भी रोगी में कोई अस्वस्थता का कारण नहीं दीखता और रोग का कारण जानने में अपनी असमर्थता प्रकट करता है। किन्तु रोगी बराबर कष्ट से पीड़ित रहता है। दिन- दिन दुबला होता जाता है और साधारण काम- काज कर सकने में भी समर्थ नहीं रहता, उसका पीड़ा जन्य कष्ट स्पष्ट दीखता है। ढोंग बनाने का कोई कारण नहीं होता। क्योंकि दूसरों पर नहीं, उस रुग्णता का पूरा भार अपने ही कंधों पर आता है।

इस विचित्र स्थिति में मनोवैज्ञानिक कारण ही काम कर रहे होते हैं। कोई पुरानी आघात करने वाली अनुभूति मस्तिष्क के किसी भाग पर आक्रमण करती है और उसे अचकचा देती है। चूँकि मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका अपने सूत्र तन्तुओं के सहारे अन्य अनेक कोशिकाओं के साथ जुड़ी होती है और उनसे कई तरह के आदान- प्रदान करती रहती है। इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लगे हुए आघात अपने संबद्ध केन्द्र को प्रभावित करने तक सीमित न रहकर जब शरीर के किसी अन्य अवयव से संबद्ध केन्द्र से जा टकराते हैं तो वह अंग ही रुग्णता अनुभव करने लगता है। वह अंग शारीरिक दृष्टि से निरोग होता है, मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह उस स्थान पर ठीक तरह नहीं पहुँच पाता क्योंकि संप्रेषण वाले मस्तिष्कीय कोष रुग्णावस्था में पड़े होते हैं। प्रेषण की गड़बड़ी उस अंग को पूरी खुराक और सही निर्देश नहीं दे पाती। इस विचित्र स्थिति की अनुभूति मस्तिष्क के अन्य तंतुओं को अमुक रोग जैसी होती है। रोगी वस्तुतः उन्हीं कष्टों से पीड़ित होता है जैसा कि वह बताता है। पर डॉक्टर क्या करे, उसकी परीक्षा पद्धति तो अंगों के रक्त मांस आदि से संबंधित स्थिति के आधार पर बनी है। मानसिक भूलभुलैयों की उसे जानकारी नहीं होती। अस्तु ऐसे रोगियों को किसी मानसोपचारक के पास जाने की सलाह देकर वह अपना पीछा छुड़ा लेता है। अनिश्चित स्थिति में वह उपचार करे भी तो क्या करे ?

मानसिक आघात किस कारण से होता है इसका भी एक जैसा विवेचन नहीं होता। कई व्यक्ति आये दिन अपमान सहते हैं और उसके अभ्यस्त हो जाते हैं, उन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, पर कोई ऐसे भी होते हैं जो उतनी सी बात को अत्यधिक महत्व देकर तड़प उठते हैं। द्रौपदी ने दुर्योधन से एक निर्दोष मजाक करते हुए ही यह कहा था कि 'अन्धों के अन्धे होते हैं।' उल्टी व्याख्या करके उसे असभ्य अपराध मान लिया गया और प्रतिशोध की चरम सीमा का दंड उसे दिया गया। अपनी दृष्टि में दुर्योधन भी सही हो सकते हैं। उनके मस्तिष्क ने उन शब्दों को तिलमिला देने वाला अपमान समझा हो और उस आघात की गहराई के समतुल्य प्रतिशोध खोजकर अपने आधात को हलका करने का उपाय निकाला हो। ऐसे ही हर व्यक्ति की अपनी- अपनी व्याख्या और अनुभूति होती है। कौन किस घटना को किस दृष्टि से देखेगा और उसकी प्रतिक्रिया ग्रहण करेगा इसका कोई निश्चित मापदंड नहीं हो सकता। सामाजिक और शासकीय मापदंड निर्धारित हैं कि इस सीमा का असामाजिक आचरण करने पर उसे दंडनीय माना जाएगा पर उसमें भी अपराधी की नीयत, परिस्थिति, प्रतिक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। संभव है अपराध गलती, गफलत या भ्रांत स्थिति में बन पड़ा हो, ऐसी दशा में दंड हलका कर दिया जाता है। मन के लिए ऐसी आचार संहिता निर्धारित नहीं कि वह किस घटना को किस रूप में ग्रहण करे। यदि कोई घटना अप्रिय या अवांछनीय स्तर की सामने आई है तो उसका आघात किस पर कितना पड़ेगा यह उसकी भावुकता एवं विचार शक्ति के समन्वय पर निर्भर है।

कितने ही व्यक्तियों के सामने हत्या, मारकाट, उत्पीड़न के दृश्य आते ही रहते हैं। उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। किन्तु किसी अनभ्यस्त और भावुक व्यक्ति पर उन्हीं घटनाओं का इतना प्रभाव पड़ सकता है कि वह किसी भयंकर अवसाद में डूब जाय अथवा विक्षिप्त हो उठे। अपमान, असफलता, हानि, विछोह जैसी अप्रिय घटना यों मनुष्य जीवन का एक पक्ष है और वह भी घटित होता ही रहता है। सम्मान, सफलता, लाभ, मिलन जैसे प्रसन्नतादायक प्रसंग आते हैं तो उससे भिन्न इकार की घटनाएं क्यों घटित न होंगी। रात और दिन के विपरीत प्रसंगों की तरह जीवन की संरचना प्रिय और अप्रिय घटनाओं के घटनाक्रम से होती है। सदा एक जैसी स्थिति में विशेषतया प्रिय स्थिति में सदा सर्वदा के लिए बने रहना किसी के लिए भी संभव नहीं। उतार चढ़ावों का आना स्वाभाविक है। धनवान, विद्वान, बलवान, व्यक्ति को भी प्रियजनों का विछोह बढ़ी चढ़ी महत्वाकांक्षा, असफलता, शारीरिक रुग्णता, मित्रों का छल- कपट दुख का कारण बन सकता है। सबसे बड़ी बात है अपने रचे हुए कल्पना लोक में अवांछनीय चिंतन का चल पड़ना। आशंकाएं प्रायः इसी स्तर की होती हैं। दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार, परिस्थितियों का प्रवाह निकट भविष्य में हमारे प्रतिकूल चलेगा और उससे भयंकर विपत्ति आवेगी ऐसा चिंतन कितने ही व्यक्ति करते और अत्यधिक उद्विग्र रहते हैं, जब कि वैसा व्यवहार एवं घटनाक्रम कदाचित ही सामने आता है। अधिकांश आशंकाएं निर्मूल होती हैं। वे कल्पना लोक की काली घटाएं बरसती नहीं केवल गर्जन तर्जन करके चली जाती हैं। पर इससे क्या, जिसने आशंकाओं को भयभीत करने वाली कल्पनाओं का जाल बुना था उसके लिए तो वही असह्य पीड़ा देने के लिए बहुत बड़ा कारण बन गया।

मानसिक आघात विपरीत परिस्थितियों के वास्तविक एवं काल्पनिक घटनाक्रमों के सहारे लगते हैं। अब यह व्यक्ति की भावुकता या संवेदना शक्ति पर निर्भर है कि वह उन्हें ऐसे ही मजाक में टाल देता है - साहस समेट कर निपटने का फैसला करता है, या भयभीत होकर असंतुलित हो बैठता है। यदि व्यक्ति डरपोक प्रकृति का और अति भावुक है तो उसके लिए छोटी घटना भी बहुत बड़ी हो सकती है और नन्हीं सी अशुभ कल्पना से तिलमिला कर उद्विग्र हो सकता है। जो हो आघातों का पूरे मानसिक संस्थान पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया शरीर पर भी भयंकर होती है। ज्वर, सिर दर्द आदि की स्थिति में शरीर असहाय बन जाता है। उसे कुछ करते धरते नहीं बनता, बेचैनी, सताती है। मानसिक असंतुलन इससे भी बुरी स्थिति पैदा कर देता है। पूरे शरीर पर मन का नियंत्रण है। रक्त- मांस से नहीं, मानसिक निर्देशों से ही देह अपनी गाड़ी चलाती है। मन के विकृत होने पर शरीर का स्वस्थ बने रहना असंभव है। चिकित्सा शास्त्र द्वारा निर्धारित निदान व्यवस्था का व्यतिक्रम करके मनुष्य ऐसे रोगों में ग्रसित हो सकता है जो शरीर शास्त्रियों की पकड़ से बाहर हैं।

मानसिक रोग उत्पन्न करने वाले आघात अमुक घटनाओं या परिस्थितियों के कारण लगेंगे ऐसा कुछ निश्चित नहीं। यह व्यक्ति के अपने निजी स्तर पर निर्भर है कि वह किस प्रकार की घटनाओं को किस दृष्टि से देखता है और उनकी क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। एक ही घटना की अनेक व्यक्तियों पर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं ! घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है। समाज का पुननिर्माण हो, व्यक्तियों के स्वभाव, व्यवहार बदलें, यह दोनों ही बातें संसार से मानसिक रोगों को दूर कर सकती हैं, पर वैसी स्थिति बन सकना आज की स्थिति में कठिन है। तत्काल तो यही हो सकता है कि मनुष्यों को सोचने का सही तरीका सिखाया जाय ताकि वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सकें और अपनी चिंतनात्मक दुर्बलता के कारण ऐसे मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सकें जो उनके जीवन क्रम को एक प्रकार से अस्तव्यस्त और निरर्थक बना कर रख देते हैं।

भूत, प्रेत और देवी- देवता, जादू- टोना से होने वाली हानि असंख्यों को पीड़ित करती है। अवास्तविक की ऐसी प्रतिक्रिया जो वास्तविकता से किसी भी प्रकार कम नहीं होती, आश्चर्यजनक है। अवास्तविक भूत- प्रेतों से भयाक्रान्त व्यक्ति वस्तुतः उतना ही कष्ट उठाता है जितना कि वास्तविक भूत होते तो अपने आक्रमण से हानि पहुंचाते। दूसरों से मारण, उच्चाटन, वशीकरण करके हमें सताया जा रहा है यह मानकर कितने ही व्यक्ति वस्तुत: उद्विग्र, विक्षिप्त एवं मरणासन्न होते देखे गये हैं। कितनी ही जानें इस कुचक्र में चली जाती हैं। अघोरी, तांत्रिक, कापालिक, डायनें कितने ही लोगों के लिए आतंक का कारण बनते हैं, कितने ही राहु, शनिश्चर आदि की अशुभ ग्रह दशा की कल्पना से हर घड़ी चिन्ता ग्रस्त रहते हैं, कईयों को स्वप्न की डरावनी घटना, अपशकुनों की सूचना बहुत कष्टकारक होती है। यह आशंकाएं प्राय: सर्वथा निर्मूल होती हैं, इनके पीछे तथ्य राई रत्ती भर भी नहीं होता, पर जिस पर उनका आतंक छा गया है, उनकी दयनीय मनोदशा देखकर तरस आता है। यह लोग एक संवेदना के शिकार होते हैं। किसी औंधे- सीधे आधार के सहारे उनकी आशंका इस स्तर की विभीषिका बन जाती है कि मनुष्य को प्राण संकट जैसी भयभीत स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है। झाड़- फूंक, तंत्र- मंत्र से कई मनुष्यों को बहुत राहत मिलती है और संतोषजनक लाभ होता है। यह सब क्या है ? निश्चित रूप से यह उस व्यक्ति की स्वसंवेदना ही है जो सकारात्मक बनकर सामने आई और उत्साह प्रदान करके सरल स्वाभाविक अच्छी स्थिति को जादू का परिणाम बताकर अपना वरदान दे गई। पिछड़े हुए लोगों में अभी भी भूत - पलीतों और जादू- टोनों का पूरा जोर है। उससे वे वस्तुतः हानि उठाते परन्तु रोग निवृत्त होते हैं। यह चमत्कार अपनी कल्पना शक्ति एवं मान्यताओं का है जो अवास्तविक को भी प्रत्यक्ष वास्तविकता से भी बढ़कर तथ्यमय बना देती हैं।

मानसोपचार कर्ता डा. फ्लीडर्ड ने अपने अनुभव में ऐसे अनेक रोगियों का उल्लेख किया है जो चिकित्सा पर बहुत खर्च करा चुके थे और पीड़ा से छुटकारा नहीं पा रहे थे। डाक्टर असहाय थे, उन्हें सूझता ही न था कि उपचार किस रोग और किस आधार पर किया जाय ? रोगी के बताए लक्षणों से जिस रोग का आभास होता था उसकी चिकित्सा करने पर भी कोई लाभ न हुआ। ऐसी दशा में मानसोपचार का ही आश्रय लेना पड़ा और वहीं जाकर उनकी गुत्थी सुलझी। एक दूसरे मनोविज्ञानी डा. डर्नवार ने ऐसे रोगियों के विवरण प्रकाशित कराए हैं जो मानसिक विक्षोभ से पीड़ित थे किन्तु उपचार शरीर चिकित्सकों से कराते- कराते थक गए थे। जब उनके अंतर्मन में लगे हुए घाव कुरेदे गये और उनकी मरहम पट्टी की कई तो वे सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति में लौट आये।

खीज से मुक्ति पाने - दिलाने के लिए दूसरे लोग किसी की बहुत कम सहायता दे सकते हैं। असली उपचार तो रोगी को स्वयं ही करना पड़ता है। उसे यह मानकर चलना चाहिए कि यह दवा दारू से अच्छी हो सकने वाली बीमारी नहीं वरन् अपने आप से पैदा की गई और अपने प्रयत्न से हट सकने वाली एक छोटी- सी आदत भर है। यह मान लेने पर आदत से आदत को काट करने वाले प्रयत्न उत्साहपूर्वक आरंभ किए जा सकते हैं और वे भली प्रकार सफल भी हो सकते हैं।

अपने आस- पास अनुकूलताएँ तलाश करनी चाहिए। प्रिय पात्र, प्रिय पदार्थ, प्रिय दृश्य अवश्य दिखाई पड़ेंगे। उनकी उपस्थिति को तनिक अधिक गहराई से देखा समझा जाय और जो उपलब्ध है उसका मुसकान के साथ स्वागत किया जाय। पेड़, पौधे, फूल, खिलौने, चित्र किस कदर हमारा मन हलका कर सकते हैं। पक्षियों की चहचहाहट आसानी से सुनी जा सकती है ! छोटे बच्चे घर में ही उछलते- कूदते, तोतली बोली बोलते और भोलेपन भरी अटपटी हरकतें करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। उन्हें दिलचस्पी के साथ देखा जाय तो मुसकान भरी प्रसन्नता की एक लहर चेहरे पर दौड़ सकती है।

खीज यदि प्रकट न हो तो वह घुटन के रूप में बदल जाती है और मन ही मन आदमी न जाने क्या- क्या बेसिर- पैर की बातें सोचता चला जाता है। कड़ी से कड़ी मिलती जाती है और चिंतन की धारा शैतान की आंख की तरह कहीं से कहीं जा पहुँचती है। प्रिय स्वप्रदर्शी लोग बिना पर लगाए ही उड़ते रहते हैं, उससे ठीक विपरीत खीज ग्रस्त लोगों की मनःस्थिति होती है। छिद्रान्वेषण, दोषारोपण, अशुभ भविष्य, अनिष्ट संभाव्य के कुरूप कई बार तो आस- पास ही लुके- छिपे आँख मिचौनी करते रहते हैं। इस जंजाल से निकलने का एक सुगम तरीका यह है कि किसी सहानुभूति युक्त, उदार हृदय एवं संतुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति के सामने अपने मन की घुटन प्रकट कर दी जाय अथवा कोई ऐसा प्रसंग छेड़ दिया जाय जिससे उत्साहवर्धक एवं आशा की झलक दिखाने वाले प्रकाश- परामर्श मिल सकें। तनाव के रोगी यदि ऐसे सलाहकार, परामर्शदाता, सद्भाव सम्पन्न स्नेही प्राप्त कर सकें तो समझना चाहिए कि उन्हें बिना फीस का आधा डाक्टर मिल गया।

जिस समय खोज चढ़ रही हो उस समय मनोदशा पलट देना एक उत्तम उपचार है। उठकर चल दें और किसी मनोरंजक वातावरण को खोज लें। रेडियो सुनने लगें, घूमने चले जाएं, पुस्तक पढ़ने लगें। जिस प्रसंग को लेकर मन उद्विग्न हो रहा था उसे जहाँ का तहाँ अधूरा छोड़ दिया जाय। उस स्थिति में जितना अधिक सोचा जायगा उतनी ही गुत्थी उलझेगी। उत्तेजित मस्तिष्क कभी कोई सही निर्णय नहीं ले सकता, सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता। खीज भरी मनःस्थिति में प्रस्तुत प्रसंग पर अधिक सोचना अपने लिए गलत निर्णय से उत्पन्न और अधिक भारी विपत्ति को आमंत्रित करना है।

कई समस्याएं एक साथ मन पर चढ़ जाती हैं और सभी जल्दी- जल्दी अपने संबंध में विचार किए जाने की माँग करती हैं। इस धमा चौकड़ी में अधूरी- एकांगी उथली समझ ही काम करती है और कुछ निष्कर्ष निकलना तो दूर उलटे सिर चकराने लगता है। प्रतीत होता है मानो उलझनों के घटाटोप चढ़ आये हैं। इन विचारों के हुड़दंग को रोकना चाहिए और एक समय में एक विचार को अपना कर बारी- बारी शान्त चित्त से प्रस्तुत समस्याओं पर विचार करना चाहिए। इस तरह अधिक आसानी से दिमाग का बोझ हलका होता चलेगा और क्या करना है क्या नहीं इसका सहज समाधान मिलता रहेगा।

कुछ लोग इसलिए भी खीजते पाये जाते हैं कि वे अपनी हर इच्छा को ऊँचे स्तर पर पूर्ण हुआ देखना चाहते हैं। मनोकामनाओं में विलम्ब या व्यतिरेक उन्हें असह्य होता है। प्रत्येक संबंधी कहना माने, हर परिस्थिति अनुकूल रहे, हर साधन अपनी मर्जी का जुटता रहे, हर घटना अपनी कल्पना के अनुरूप घटे, इस तरह सोचने वाले पाते तो कुछ नहीं खोते बहुत हैं। वे भूल जाते हैं कि यह दुनिया उन्हीं के लिए नहीं बनी है। वे भी अनेकों में से एक हैं। व्यक्ति परिस्थिति को अपने अनुकूल देखना चाहता है और घटना प्रवाह अपने क्रम से घटित होता है, इन सब के साथ तालमेल मिलाकर चलने में ही ठिकाना है। जो उपलब्ध है उस पर खुशी मनाई जाय और जो नहीं मिला है उसके लिए आशा रखी जाय। प्रयत्न और पुरुषार्थ को अपने प्रयास की सफलता मानकर चला जाय तो आदमी सन्तोषपूर्वक जीवन बिता सकता है। खीज से बचने के लिए मनःस्थिति को इसी पृष्ठ भूमि पर परिपक्व करना चाहिए। वर्चस्व नहीं सहयोग हमारी नीति होनी चाहिए। अपने ऊपर बड़प्पन नहीं लादना चाहिए वरन् चल रहे प्रवाह की एक हलकी सी लहर जितनी ही अपनी स्थिति सोचनी चाहिए। इस प्रकार मन पर लदा हुआ वह भारी पत्थर हट जाता है, जिसे मालिकी, बड़प्पन एवं अधिकारी के रूप में अपने ऊपर लाद लिया था। तनाव भारीपन का ही दूसरा नाम है। हम हलके रहें, हलकी फुलकी, संतोष और मस्ती की जिन्दगी जिएं तो आज का गरदन तोड़ तनाव कल तेज हवा में उड़ जाने वाले बादल की तरह तिरोहित हुआ प्रतीत होगा। अवांछनीय चिन्तन से उत्पन्न तनाव को सहज सरलता की जादुई छड़ी से देखते- देखते गायब किया जा सकता है।

किन्हीं अप्रिय एवं अवांछनीय घटनाओं से अथवा शारीरिक मानसिक विकृतियों से हलकी उद्विग्रता चढ़ आती है। इस स्थिति को खीज या परेशानी भी कहा जा सकता है। डाक्टरों की भाषा में इसे 'तनाव' कहते हैं। नर्वस सिस्टम की कमजोरी वाले व्यक्ति इस स्थिति के जल्दी शिकार होते हैं। वे जो भी सामने आवे उसी पर अकारण झल्लाते हैं। चूँकि खोज भीतर भरी होती है और वह किसी न किसी को निमित्त बनाकर बाहर निकलना चाहती है। इसके लिए जो भी सामने आ जाय उसी पर कुछ न कुछ दोषारोपण करके उल्टी सीधी कहने लग जाता है। न कहा जाय तो भी क्रोध या नाराजगी नहीं तो उपेक्षा - अवज्ञा का व्यवहार तो बन ही पड़ता है। कई बार इस स्थिति में लोग खिन्नता, लाचारी एवं निराशा व्यक्त करते हुए दुखित बने, मुंह लटका कर बैठे भी देखे जाते हैं।

मानसिक रोग चिकित्सा की एक पद्धति है - '' विहेवियर एण्ड थिरेपी' जिसमें रोगी के साथ सद्व्यवहार और सहानुभूति की समुचित मात्रा रखी जाती है और स्नेह, दुलार एवं सहयोग का अनुभव करने दिया जाता है। इस उपचार से रोगी क्रमशः 'डिसेंसिटाइज' होता चलता है साथ ही मनोव्यथाओं से राहत भी अनुभव करता है। मानसिक रोगियों के साथ मारपीट, भर्त्सना, तिरस्कार जैसे- निर्भय व्यवहार उसे और भी अधिक दुखी करते हैं और रोगी की स्थिति बिगड़ती जाती है। शारीरिक रोगियों की तरह मानसिक रोगी भी दया के पात्र हैं। उनके उपचार में स्नेह- सौजन्य और सुविधाओं का यदि समावेश किया जा सके, विक्षोभों को शांत करने वाले वातावरण में उन्हें रखा जा सके तो औषधि उपचार की अपेक्षा उन्हें कहीं अधिक और जल्दी ही लाभ हो सकता है।





मानसिक विकृतियाँ जीवन को नरक बनाती हैं



किसी को रोगी तब समझा जाता है जब वह चारपाई पकड़ ले, रोने - कराहने लगे और हड्डियों का ढाँचा रह जाय। इससे कम की बीमारियां तो यों ही चलती रहती हैं। उनकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि उनकी भयंकरता किसी प्रकार कम नहीं है। जिन्दगी के ढर्रे के साथ चलती रहने वाली बीमारियाँ प्रायः अधिक शक्ति नष्ट कर देती हैं, सफलताओं की आधी संभावना समाप्त हो जाती है और जितने दिन आसानी से जिया जा सकता था उसमें एक तिहाई की कमी हो जाती है। इतनी बड़ी हानि के रहते हुए भी अपच, थकान, अर्ध निद्रा, जकड़न जैसे रोगों को ऐसा ही साधारण समझ कर सहन कर लिया जाता है।

शरीर की तरह मस्तिष्कीय रोगों की बात भी है। स्पष्टतः शरीर की तुलना में मस्तिष्क का महत्व अनेक गुना अधिक है। शारीरिक उपलब्धियों की तुलना में मानसिक क्षमताओं के लाभ अत्यधिक हैं। अस्तु शारीरिक रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की क्षति भी कहीं अधिक है। किन्तु इस क्षेत्र में भी हमारी उपेक्षावृत्ति वैसी ही है। कपड़े फाड़ने लगे, पत्थर फेंकने लगे या घर छोड़कर कहीं चल दे, तभी किसी को मानसिक रोगी गिना जाता है। इससे कम की रुग्णता का पता भी नहीं चलता, उसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया जाता, जबकि अहमन्यता, आत्महीनता, वस्तुस्थिति को घटा- बढ़ाकर देखना, आशंका, अस्त- व्यस्तता, अतिभावुकता, निराशा, असामाजिकता, निष्ठरता जैसे रोग भी कम भयंकर नहीं होते। उनके कारण जीवन की सरसता और सफलता का अधिकांश भाग नष्ट हो जाता है। जो बच जाता है वह टूटा- फूटा, आधा- अधूरा और कुबड़ा, कुरूप ही पल्ले बंधा रहता है।

शरीर के स्वसंचालित क्रियाओं में हृदयास्पन्दन, रक्त संचार, श्वांस- प्रश्वांस, मांसपेशियों का आकुंचन- प्रकुंचन, पलक झपकना, सोना- जागना, पाचन, पसीना, तापमान आदि मुख्य हैं। यह सब बिना हमारी इच्छा शक्ति का प्रयोग किए अपने आप होती रहती हैं। इन पर नियंत्रण स्थापित कर सकना कठिन है। किन्तु देखा गया है कि भावात्मक उभारों का इन पर भी प्रभाव पड़ता है और सामान्य शरीर संचालन प्रक्रिया उत्तेजना के समय तक असामान्य बन जाती है। क्रोध में चेहरा तमतमा जाता है, सांस तेज चलने लगती है, मुट्ठियां बँध जाती हैं और दाँत भिंच जाते हैं। भय का अवसर आने पर गला सूख जाता है, शरीर काँपने लगता है, रोएँ खड़े हो जाते हैं, घिग्घी बँध जाती है और पैर पर लगाकर दौड़ने लगते हैं। अन्यान्य मनोविकारों में भी ऐसे ही विलक्षण चिह्न उभरते हैं। किसी प्रियजन की मृत्यु का सन्देश मिलने पर, दुर्घटना अथवा भयंकर क्षति का समाचार पाकर बुरा हाल हो जाता है। इन भावोद्रेकों के कारण उत्पन्न हुई असाधारण स्थिति से निपटने के लिए शरीर स्वयं अपनी शक्ति भर व्यवस्था जुटाता और संतुलन मिलाता है। भय से बचने या शत्रु से निपटने के लिए भागने अथवा लड़ने का असाधारण पराक्रम करना पड़ता है। इसके लिए अभीष्ट ऊर्जा जुटाने के लिए ही क्रोध अथवा भय के अवसर पर विलक्षण दोखने वाली क्रियाएँ स्वयमेव होने लगती हैं, इस नई व्यवस्था में रक्त का प्रवाह संलग्न रहता है और उसकी पेट की अभीष्ट सप्लाई रुक जाती है और भूख न जाने कहाँ गायब हो जाती है। उस स्थिति में अन्य कितने सूक्ष्म परिवर्तन होते हैं, यह वैज्ञानिक जाँच पड़ताल से सहज ही पता चल जाता है।

न्यूरोटिक डिप्रेशन, साइकोटिक डिप्रेशन, मेनिक डिप्रेशन, एण्डोजेनिक डिप्रेशन आदि मानसिक गिरावटें प्रायः मिलती- जुलती हैं। उनके लक्षण भिन्न- भिन्न होने से नाम कई दिये गये हैं और उनकी व्याख्याएं लक्षणों के हिसाब से की गई हैं। यह लक्षण रोगी की प्रकृति, आघात के कारण तथा वर्तमान परिस्थिति के साथ गुँथकर उभरते हैं। इसलिए प्राय: एक रोगी से दूसरे की स्थिति सर्वथा नहीं मिलती। शारीरिक रोगों की बात दूसरी है। शरीर रचना सभी की लगभग एक जैसी है इसलिए बुखार, खाँसी, दस्त, सिरदर्द आदि के लक्षणों में कोई बहुत अन्तर नहीं होता किन्तु सोचने का तरीका और स्वभाव हर आदमी का बहुत अंशों में भिन्न ही होता है। पेट दर्द का एक ही कारण है जरूरत से ज्यादा अभक्ष आहार करना किन्तु मानसिक आघातों का यदि घटनाक्रम और उसके भिन्न व्यक्तियों पर पड़ने वाले भिन्न प्रभावों का लेखा- जोखा रखा जाय तो हर मानसिक रोगी का एक ऐसा स्वतंत्र ग्रंथ बन सकता है जो उसी स्तर के अन्य रोगियों से सर्वथा भिन्न होगा। इसी विलक्षण भिन्नता को ध्यान में रखकर मानसिक रोगों के स्वरूप, लक्षणों के आधार पर उनका नामकरण अलग- अलग निर्धारित किया गया है।

हताश होना अपने आप में एक भयंकर व्यथा है। इससे मनोगत उत्साह नष्ट हो जाता है। शरीर का तापमान नीचे गिर जाय तो स्वभावत: अवयव शिथिल पड़ जायेंगे और निर्धारित कार्य पूरा न कर सकेंगे। ठीक इसी प्रकार मानसिक शिथिलता की प्रतिक्रिया होती है। निराशा जन्य मानसिक शिथिलता मन, बुद्धि, चित्त और अहं की विविध विधि गतिविधियों के उद्गम केन्द्र को ठण्डा कर देती है। इससे रोगी को न कुछ सोचते बनता है और न करते, वह एक प्रकार से ठप्प जैसा होता जाता है। पर बात इतने से ही समाप्त नहीं होती। चुपचाप बैठे रहने को भी गनीमत समझा जा सकता है किन्तु शून्य स्थिति भी संभव नहीं होती, उस स्थान पर विकृतियाँ जड़ जमा लेती हैं और सन्देह, आशंका, भय की नई- नई अनगढ़ तस्वीरें सामने आने लगती हैं। अमुक व्यक्ति अमुक प्रकार की हानियाँ पहुंचा रहा है या पहुँचावेगा, ऐसी मान्यता उनके मन में जड़ जमा लेती है और किसी भी निर्दोष व्यक्ति को निमित्त बना कर उस पर तरह- तरह के दोषारोपण करते रहे हैं और अपनी मान्यता के पक्ष में कुछ उपहासास्पद तर्क भी प्रस्तुत करते रहते हैं।

दूसरे व्यक्ति हमें नुकसान पहुंचा रहे हैं इसी से अपनी स्थिति अस्त- व्यस्त हो गई है, ऐसा सोचने वाले रोगी मन:शास्त्र के अनुसार 'शिजोफ्रेनिया' से ग्रसित समझे जाते हैं। उन्हें अपनी स्थिति में विकृति आने का तो भान होता है, पर उसके कारण अपने चिंतन की विकृति के तथ्य को स्वीकार नहीं करते। कोई उनसे द्वेष करता है और नुकसान पहुँचाता है यह दोषारोपण करके ही वे थोड़ा चैन पाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि दोष किस पर लगाया जाय ? इसका सहज तरीका भूत- प्रेत, देवी- देवता पर दोषारोपण करना है। यह सबसे सरल रास्ता है। इसमें प्रतिवाद या झंझट का खतरा नहीं है। कई बार तो लाल बुझक्कड़ों की भीड़ अपने- अपने अनुभव सुनाकर उसी मान्यता की पुष्टि करती है। इतना ही नहीं वैसे ही झाड़फूँक के उपचार बताती है। जादू टोना करने वालों को घर आए शिकार पकड़ने का अवसर मिल जाता है और वे उस बात को पूरी तरह तिल का ताड़ बना देते हैं। बेचारा रोगी अपना वहम बढ़ाता रहता है और पैसे ठगाता रहता है। अपने पिछड़े देश में भूतवाद की बीमारी अन्य किसी रोग से कम नहीं वरन ज्यादा ही है। अशिक्षा के अभिशाप के साथ- साथ जुड़े हुए अन्धविश्वास ने भूतवाद का एक अच्छा खासा कागजी महल बनाकर खड़ा कर दिया है। भूत- देवताओं के बाद तांत्रिकों का नंबर आता है। किसी जादूगर ने अपनी मर्जी से अथवा किसी की प्रेरणा से कुछ जादू टोना करके उसे रोगी बना दिया है ऐसा वे मानते हैं। यह भूत या तांत्रिक कौन हो सकता है यह मान्यता भी क्रमबद्ध रूप से गढ़ लेते हैं।

शत्रु मित्रों में से कोई उनकी समझ पर चढ़ जाय तो फिर दोषारोपण का केन्द्र वही बन जाता है। कई बार तो अपने ही सगे संबंधी इस चपेट में जकड़ लिए जाते हैं। अपना ही बेटा, भाई, साला, जामाता, पिता अथवा कोई संबंधी महिला इसका कारण बना ली जाती है। यहाँ तक कि माता, पुत्री, बहिन या पत्नी को भी जादूगरनी अथवा इस व्यथा की उत्तरदायी ठहरा दिया जाता है। उन्हीं ने किसी से जादू कराया है अथवा स्वयं किया है। ऐसी उधेड़बुन आरंभ में तो कल्पना और संभावना के रूप में ही दिमाग में आती है, पर कुछ ही समय में वह परिपक्व होकर सुस्थिर मान्यता बन जाती है। उन्हें कोई काटना । या हटाना चाहे तो वे सुनने तक को तैयार नहीं होते और अपनी बात का समर्थन करते हैं मानो इसके अतिरिक्त और कोई बात हो ही नहीं सकती।

मस्तिष्कीय रोगों में सबसे अधिक व्यापक है 'सीजोफ्रेनिया' जिसके अन्तर्गत मनुष्य तरह- तरह की आशंकाएं करता रहता है। संबंधित व्यक्तियों में से प्राय: सभी उसे अपने विरुद्ध प्रतीत होते हैं और हर एक से उसे हानि, आक्रमण एवं छल की आशंका बनी रहती अस्तु जो उपलब्ध है वह हानिकारक और घटिया दोखता है। अपने को जो मिला है वह अपर्याप्त ही नहीं, निकम्मा और निरर्थक भी है और उतने भर से उसका संतोष समाधान नहीं हो सकता। अगले दिन भय और संकट लेकर आ रहे हैं। कोई दुर्घटना होनी वाली है अथवा विपत्ति का पहाड़ टूटने वाला है। बुरा समय तरह- तरह की कठिनाइयाँ उत्पन्न करेगा और दुख देगा। ऐसे व्यक्ति सदा शंकाशील, भयभीत रहते हैं। हाँपते - काँपते रहते हैं। डरा हुआ आदमी आत्म रक्षा के लिए आक्रमणकोरी बन जाता है। भय की एक प्रतिक्रिया आक्रमण के रूप में भी आती है। यदि दूसरों पर हमला न बन पड़े तो अपने ऊपर ही बरस पड़ते हैं और तरह- तरह की आत्म प्रताड़नाएं गढ़कर आत्म हत्या अथवा उसी से मिलती- जुलती कोई दूसरी विपत्ति खड़ी कर लेते हैं।

आधुनिक मन:शास्त्रवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानसिक बीमारियां ही अधिकतर शारीरिक रोगों के रूप में परिणत होती हैं। इन दिनों शरीरगत रोगों की बाढ़ आ रही है और उन्हें अच्छा करने में औषधियों के नित नए आविष्कार भी कुछ कारगर नहीं हो रहे हैं। इस तथ्य से विचारकों का इस निष्कर्ष पर और भी विश्वास होता जा रहा है कि मानसिक विकृतियाँ ही बीमारियां उत्पन्न करती हैं। उन्हें अच्छा करना हो तो जड़ का काटना चाहिए। मन का शरीर पर पूर्ण अधिकार होने का तथ्य सर्वविदित है ऐसी दशा में यह भी मानना ही पड़ेगा कि विकृत मस्तिष्क लेकर कोई शारीरिक दृष्टि से निरोग नहीं रह सकता।

ब्रिटेन में अपने समय के प्रधान मंत्री ग्लैडस्टन को समय- समय पर सिर का दौरा पड़ता था। संयोग की बात यह थी जब कभी राजनैतिक दबाव उन पर पड़ता था और किन्हीं जटिल समस्याओं के सम्बन्ध में पार्लियामेण्ट के सामने उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़ता था तो वे घबराहट में पड़ जाते थे और सिर दर्द खड़ा हो जाता था। बीमारी का कारण बताकर बात आगे को टाल दी जाती थी। पार्लियामेण्ट के एक सदस्य टिमोथी माइकेल हिली ने इस संबंध में देर तक बारीकी से निरीक्षण किया और अन्त में एक लम्बी लिस्ट भी प्रस्तुत कर दी जिसमें ग्लैडस्टन के सिर दर्द और प्रस्तुत जटिल प्रश्नों के समाधान को टालने की संगति मिलाई गई थी। हर बार का सिर दर्द तभी हुआ जब उन्हें किसी राजनैतिक परेशानी में उलझना पड़ा। उन्हें कभी जुकाम होता था, कभी सिरदर्द। इसलिए उनकी बीमारी का एक नया नामकरण करना पड़ा डिप्लोमैटिक हैडेक, डिप्लोमैटिक कोल्ड | यह बीमारी डाक्टरी किताबों में नहीं पाई जाती, पर उनके साथियों ने अपने अनुमान के आधार पर इस रोग का आविष्कार किया था।

मानसिक उलझनें अक्सर सिरदर्द की शिकायतें खड़ी कर देती हैं। घृणा, ईर्ष्या, रोष, क्रोध, खोज, प्रतिशोध जैसे उग्र एवं आक्रामक मनोविकार अक्सर सिरदर्द की बीमारी बुला लाती हैं और विकारों के तीव्र एवं मन्द होने की गति से अक्सर दर्द का ज्वार- भाटा भी नीचा- ऊँचा होता रहता है।





मानसिक अस्वस्थता की उपेक्षा न की जाय



मानसिक दोषों को स्वभाव भिन्नता या स्वभाव दुर्बलता मात्र छोटी बात समझ कर ऐसे ही उपेक्षा में डाल दिया जाता है, जबकि उन्हें अपच, रक्तचाप, जकड़न, थकान जैसे शारीरिक रोगों से भी अधिक घातक मानकर उनके कारण और निवारण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। चिन्तन सही और संतुलित हो तो सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी पग- पग पर सफलताएँ उत्पन्न करता है और सामान्य परिस्थितियों में रहने पर भी सुव्यवस्थित और सुखी जीवन जिया जा सकता है। इसके विपरीत छोटी- मोटी मानसिक विकृतियाँ भी सुविकसित सुशिक्षित मस्तिष्क की क्षमताओं को चौपट करके रख देती हैं। उलझा व्यक्ति स्वयं सनकता रहता है और संबंधित लोगों को हैरान करता रहता है।

विकृत चिंतन का नाम ही नरक है। बाहर वालों को स्पष्ट न दीख पड़ने पर भी सनकी व्यक्ति अपने भीतर बेतरह जलते - कुढ़ते रहते हैं और अपनी बहुमूल्य बौद्धिक क्षमताएँ लाभदायक मार्ग पर नियोजित करने की अपेक्षा अपने और दूसरों के विनाश में नष्ट करते रहते हैं। उल्टी चाल का परिणाम उलटा होना निश्चित है। ऊँचा उठने के साधन जुटाने की अपेक्षा यदि कोई नीचे गिरने पर उतारू बना रहे तो वही श्रम परिस्थितियों में जमीन आसमान जितना अन्तर उत्पन्न कर देगा।

हमें मानसिक रोगों की ओर उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए। उनसे अनजान नहीं रहना चाहिए और यह नहीं भूलना चाहिए कि विकृतियों की यही छोटी चिनगारियाँ जीवन रूपी सुरम्य उद्यान को भस्म कर डालने का कारण बनती हैं। मनोविकारों के दुष्परिणामों को समझ सकने के उपरान्त ही उनसे बचने की तत्परता उत्पन्न हो सकती है। अमेरिका के मानसिक रोग विज्ञानी राबर्ट डींराय ने अपने सुविस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर लिखा है- केन्सर, हृदय रोग, क्षय इन तीनों रोगों से ग्रसित जितने व्यक्ति दुःख पाते हैं, उसकी सम्मिलित संख्या से भी अधिक इस देश में मानिसक विकृति से ग्रस्त पाए जाते हैं। इनमें से एक तिहाई ही इलाज के लिए जाते हैं, दो तिहाई तो अपनी स्थिति को समझ तक नहीं पाते और ऐसे ही अस्त- व्यस्त स्थिति में स्वयं दुख पाते और दूसरों को दुःख देते हुए भटकते रहते हैं। जीन माइनोल ने अपनी पुस्तक 'दि फिलासफी आफ लोंगलाइफ' पुस्तक में लिखा है- जल्दी मृत्यु का एक बहुत बड़ा कारण है - मृत्युभय। लोग बुढ़ापा आने के साथ- साथ अथवा छुटपुट बीमारियाँ उत्पन्न होते ही मृत्यु की आशंका से भयभीत रहने लगते हैं और वह डर उनके मस्तिष्क को बाहरी पर्तों में इस कदर धँसता जाता है कि देर तक जी सकना कठिन बन जाता है। वह डर ही सबसे बड़ा रोग है जो मृत्यु को अपेक्षाकृत जल्दी ही समीप लाकर खड़ा कर देता है। अरब देशों में कुछ शताब्दियों पूर्व एक प्रख्यात चिकित्सक हुआ है - हकीम इब्रसीना। उसने अपनी पुस्तक 'कानून' में अपने ऐसे अनेकों चिकित्सा अनुभवों का उल्लेख किया है कि अमुक प्रकार के मानसिक उभारों के कारण शरीर में अमुक प्रकार की विकृतियाँ या बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। चिकित्सा उपचार में उसने दवादारू के स्थान पर उनकी मन:स्थिति बदलने के उपाय बरते और असाध्य लगने वाले रोग आसानी से अच्छे हो गये।

'इलिनोयस इन्स्टीट्यूट आफ टैक्नोलाजी' द्वारा संग्रहीत आंकड़े यह बताते हैं कि चिंतातुर व्यक्तियों को जिस भयभीत स्थिति में रहते हुए अपनी शान्ति गँवानी पड़ती है, उसका वास्तविक अस्तित्व कम और काल्पनिक बवंडर अधिक होता है। जो आशंका, आतंक उन पर छाया रहता है, उसका मूर्तिमान रूप कदाचित ही कभी सामने आता है। अधिकतर तो वे बवंडर मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, वहाँ मन्द अथवा द्रुत गति से वे घूमते रहते हैं और तब शांत होते हैं जब नए बवंडर उन्हें धकेल कर अपना कब्जा जमा लेते हैं। आत्म विश्वास का अभाव और कुकल्पनाएं गढ़ने में उत्साह का मिलाजुला रूप ही मनुष्य को भयाक्रांत एवं चिन्तातुर बनाने का प्रधान कारण है।

येल विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग ने भयभीत मनःस्थिति का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ने और स्वास्थ्य नष्ट होने की प्रतिक्रिया के अनेक तथ्य प्रस्तुत करते हुए प्रमाणित किया है - चिंता अथवा भय की स्थिति में पड़े हुए व्यक्तियों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, बड़ी तेज चलने लगती है, गला सूखता है, पसीना छूटता है, कमजोरी अनुभव होती है और पेट बैठता- सा लगता है और सिर पर बोझ लदा सा अनुभव होता है, नींद घट जाती है और स्मरण शक्ति झीनी पड़ती चली जाती है। चिन्ता सामान्य और भयभीतता बढ़ी हुई स्थिति है। वस्तुतः दोनों एक ही बीमारी के हल्के भारी दो रूप हैं, उनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है इसका विशेषण करते हुए आयोग ने बताया है कि सिर दर्द को स्थिति में जो शारीरिक संतुलन बिगड़ता है उसकी तुलना में चिन्ता में ड्योढ़ी और भयभीत स्थिति में दूनी गड़बड़ी उत्पन्न होती है। शरीर को इसी अनुपात में दबाव सहन करना पड़ता है।

आयोग ने एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी देखा है कि मानसिक रोगियों का इलाज करते- करते स्वयं मानसोपचारक भी चिन्तित रहने लगते हैं। अचेतन उन्हें भी बख्शता नहीं। दूसरों को उपदेश देने और इलाज करने के बावजूद वे स्वयं भी सामान्य कठिनाइयों में बेतरह उलझे पाये जाते हैं। आश्चर्य यह है कि अपनी जैसी स्थिति में दूसरे व्यक्ति को रोगी गिनते हैं और अपने को निरोग। यह छूत की बीमारी उन्हें अपने रोगियों से और वैसी ही बातों की उधेड़ बुन करते रहने के कारण लग गई होती है। आयोग का सुझाव है कि मानसोपचार का कार्य बहुत ही सुदृढ़ मनःस्थिति के '' मस्तमौला' लोगों को करना चाहिए।

चिन्तातुर व्यक्तियों का पूर्व इतिहास खोजने पर यह निष्कर्ष निकला है कि वे दुराव रखने वाले और आडम्बर बनाने वाले, बहाने बाज एवं ढोंगी रहे होते हैं। छिपाव की वृत्ति अपने नए रूप में चिन्ता बनकर मस्तिष्क में जड़ जमाती है और बढ़ने पर भयाक्रांत, आशंका ग्रस्त बना देती है, ऐसे मनुष्य पग- पग पर अपने ऊपर कोई बड़ा संकट अब तब आता देखते रहते हैं। यद्यपि उन आशंकाओं में एकाध का ही सामना किसी- किसी को करना पड़ता है।

साइको न्यूरोटिक की स्थिति वह है जिसमें कई विचारों का समन्वय करके तर्क और बुद्धि का ठीक तरह उपयोग नहीं हो पाता। कुछ एकांगी मान्यताएं ही मस्तिष्क पर छाई रहती हैं और मनुष्य बिना सोच विचार किए उन्हें ही सच मानता और अपनाए रहता है। यह अविकसित मस्तिष्क का चिह्न है। इसे बाल बुद्धि कह सकते हैं। छोटे बच्चों में भी तर्क शक्ति विकसित नहीं होती, वे इच्छाओं, उत्साहों और भावनाओं से ही प्रेरित रहते हैं।

नशेबाजों और अपराधियों में भी इस रोग के लक्षण उभरे रहते हैं। वे अपनी आदतों के विरुद्ध सुनते तो बहुत कुछ हैं, पर अचेतन उनसे प्रभावित नहीं होता और जो आदत अपना ली गई है वह हर हालत में अपने ढर्रे पर चलती ही रहती है। अन्ध विश्वासी तथा अति भावुक व्यक्ति भी आंशिक रूप में इसी व्यथा के चंगुल में फँसे होते हैं।

ऐंक्जाइटी न्यूरोसिस अर्थात् दुश्चिन्ता से अनेकानेक घिरे देखे पाये जा सकते हैं। चिन्ता वास्तविक है या अवास्तविक ? निकट भविष्य में जिस आशंका की विभीषिका कल्पित की गई है वह आने वाली भी है या नहीं ? इन दिनों जिस संकट में अपने को जकड़ा हुआ मान लिया गया है, वह अपनी मान्यता के अनुरूप भयंकर है भी या नहीं ? - यह सोचने की ऐसे लोगों को फुरसत ही नहीं होती। वे अपनी भयंकर कल्पना को निरन्तर सोचते और परिपुष्ट करते रहते हैं। अस्तु वह इतनी प्रबल एवं प्रभावशाली बन जाती है कि अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक से भी अधिक त्रास देती है। वास्तविक संकट आने पर शायद उतना कष्ट न सहना पड़ता जितना उस अवास्तविक कल्पना ने दे डाला, इस निष्कर्ष पर पहुंच सकना उनसे बन ही नहीं पड़ता।

'आब्सेसिव कम्पलसिव न्यूरोसिस' में भीतर की घुटन बाहर फूट पड़ती है। दुश्चिंताएँ मस्तिष्क के भीतर तक सीमित नहीं रहतीं वरन् उस दीवार को फोड़ कर बाहर निकल पड़ती हैं और क्रिया के साथ सम्बद्ध होकर ऐसे आचरण प्रस्तुत करती हैं जो उपहासास्पद होते हैं और दयनीय भी। यों उसे ऐसा लगता है मानो चिन्ताएं पीड़ा एवं प्रताड़ना के रूप में उसे संत्रस्त कर रही है, अस्तु वह रोता, कलपता एवं सिर धुनता हुआ देखा जाता है। आँखों में से आँसू, सिर में दर्द, चेहरे पर छाई विषाद की गहरी रेखा देखकर देखने वाला यही कह सकता है कि इसे बहुत कुछ सहना पड़ रहा है और किसी भारी संकट से होकर गुजरना पड़ रहा है।

इस रोग का रोगी हर समय अपने इर्द- गिर्द अपवित्रता घिरी देखता है। आँतों में मल, कण्ठ में कफ भरा रहने की शिकायत रहती है। हाथ, पैर, मुँह धोने और कुल्ला करने की बार- बार आवश्यकता पड़ती है। बर्तन, कपड़े, फर्श, बिस्तर, फर्नीचर आदि गन्दे लगते हैं, इसलिए इन्हें अनेक बार धोते रहने पर भी संतोष नहीं होता और वही क्रिया उलट पुलट कर फिर फिर करने को जी करता है। दूसरे पूछ सकते हैं अथवा अपनी तर्क बुद्धि जबाव तलब कर सकती है कि यह सब बार- बार क्यों किया जा रहा है ? इसलिए अचेतन मन उसका उत्तर देने के लिए कुछ न कुछ बहाना गढ़ ही लेता है। उससे उसे यह सन्तोष हो जाता है, यह क्रिया निरर्थक नहीं वरन् सार्थक की जा रही है।

हताश हुए मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अवसाद ग्रस्त होकर सामान्य शरीर संचालन के क्रिया कलापों तक से वंचित हो जाते हैं। खाने, सोने और नित्य कर्म करने भर की याद तो रहती है, पर अन्य उत्तरदायित्वों और निर्धारित कर्तव्यों को एक प्रकार से भूल ही जाते हैं। याद दिलाने पर ही कुछ कर पाते हैं, अन्यथा खोए- खोए से, भूले- भूले से जहाँ- तहाँ बैठे किसी स्वप्न लोक में विचरते रहते हैं। गहरी निराशा से ऐसी या इससे मिलती- जुलती स्थिति बन जाती है। इसे मानसिक चिकित्सा के संदर्भ में 'एजीटेटेड डिप्रेसिव साकोसिस' कहते हैं।

अपनी निजी उलझनों के सम्बन्ध में अत्यधिक उलझे रहना और उन्हीं पर उलट- पुलट कर विचार करते रहना एक ऐसा गलत क्रम है जिससे मनुष्य संकीर्णता ग्रस्त हो जाता है और उसे तरह- तरह के मनोविकार धर दबोचते हैं। इस स्थिति को न्यूरेस्थीसिया कहते हैं।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की पिछली वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में इस समय लगभग एक करोड़ मानसिक रोगी हैं। इनमें से कम से कम आठ लाख तो ऐसे हैं ही जिन्हें पागल खानों में स्थान मिलना ही चाहिए अन्यथा वे दूसरों लोगों की शान्ति भंग करते ही रहेंगे। ऐसे लोग जो मानसिक दृष्टि से छोटे बच्चों जैसी अविकसित स्थिति में रहकर गुजर रहे हैं लगभग १६ लाख हैं।

मनुष्य समाज में बढ़ रही मानसिक अक्षमता और विकार ग्रस्तता का प्रमुख कारण यह है कि हमारा थोड़ा बहुत ध्यान स्वास्थ्य की उपयोगिता समझने पर तो गया भी है, पर मानसिक स्वास्थ्य की बात एक प्रकार से विस्मृत ही कर दी गई है। मानसिक दृष्टि से अविकसित स्त्री, पुरुषों की सन्तानें पैतृक उत्तराधिकार के रूप में अदक्षता लेकर जन्मती हैं और फिर बच्चों के मानसिक परिष्कार की कोई व्यवस्था न होने से वे क्रमशः बढ़ती ही जाती हैं।

यह तथ्य जल्दी ही समझ लिया जाना चाहिए कि जीवन को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए स्वस्थ सक्षम शरीर चाहिए। यह उपलब्धि मस्तिष्क के संतुलित रहने पर ही संभव है। मानसिक स्वस्थता की ओर अधिक ध्यान देने और उस क्षेत्र में जमी हुई विकृतियों को उखाड़ने की ओर हम जितने सक्रिय होंगे जीवन उतना ही सफल और सरस बन सकेगा।





चिंतन की विकृति और मनोरोग





सोचने का तरीका विकृत हो जाने पर सामान्य परिस्थितियां भी प्रतिकूल दिखाई पड़ती हैं और उनसे डरा- घबराया हुआ व्यक्ति अपना सन्तुलन गंवा बैठता है। झाड़ी का भूत बन जाना, रस्सी का सर्प दिखाई पड़ना भ्रम की प्रतिक्रिया को प्रत्यक्ष कर देता है। प्रतिकूलताएं वस्तुतः उतनी होती नहीं जितनी कि समझी जाती है गुजारा कर सकने योग्य मन लेकर जन्मा है।

मनुष्य हर स्थिति में इनकी मूल संरचना में कोई दोष नहीं है। शरीर '' व्याधि' से और मन 'आधि' से यदि ग्रसित होता है तो उन विपत्तियों का कारण अपनी ही भूल होती है। अंसयम हमें रुग्ण बनाता है और असंतुलन से हम अर्धविक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। शरीर के साथ अनीति बरती जाय तो व्यक्ति देर सबेर में रुग्ण होकर रहेगा। कमजोरी और बीमारी उसे धर दबोचेंगी और रोती, कराहती स्थिति में घसीट ले जायेंगी। मस्तिष्क के साथ यदि अनीति बरती गई है, उसे कुसंस्कारी चिंतन का अभ्यासी बनाया गया है तो वह या तो प्रतिकूल परिस्थिति पैदा कर लेगा या फिर सामान्य स्थिति में ही विपरीतता का आरोपण करके विक्षुब्ध रहने लगेगा। इस विक्षुब्धता को ही मानसिक रुग्णता कहा जाता है।

इन दिनों शारीरिक रोग भी बेतरह बढ़ रहे हैं। नई- नई किस्म के- नई- नई आकृति - प्रकृति के रोग हर साल उठ खड़े होते हैं और डाक्टर उनका अता- पता चलाने एवं उपचार खोजने में नित नई परेशानी अनुभव करते हैं। पुराने जमाने के परिचित रोगों की भी अब इतनी अधिक शाखा प्रशाखाएँ फूट पड़ी हैं कि उन्हें नए रोग की संज्ञा देने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मानसिक रोगों की बढ़ोत्तरी इससे भी अधिक तेज और भयंकर है। जिस तरह पूर्ण स्वस्थ कहे जा सकने योग्य शरीर कठिनाई से ही खोजने में मिलेंगे, उसी तरह ऐसे मनुष्य कदाचित ही मिलेंगे जिनका मस्तिष्क मानसिक रोगों के कारण विकृत जर्जर बना हुआ न हो। आज की बढ़ी हुई अनैतिकता एवं असामाजिकता ऐसी समस्याएं उत्पन्न करती हैं जिससे सामान्य मनोबल का व्यक्ति सहज ही विक्षुब्ध हो उठता है। घटा, गिरा मनोबल भी इतना अपंग हो चला है कि सीधा- साधा, सरल, स्वाभाविक मनुष्य जीवन के साथ अविच्छिन रूप से जुड़ी हुई अनुकूलता, प्रतिकूलताओं को विपत्ति मान बैठता है और रो- धो कर जमीन, आसमान को सिर पर उठा लेता है। कभी सचमुच ही ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जिन्हें असाधारण या अप्रत्याशित कहा जा सके। शौर्य - साहस के सहारे इनका सामना किया जा सकता है। जूझने से हर विपत्ति हलकी पड़ती है। यदि कुछ आपत्ति आ ही जाय तो उसे सन्तुलन बनाए रखकर सहा जा सकता है। संकट को हलका मानने से वह बहुत कुछ हलका पड़ जाता है और यदि असह्य मान लिया जाता है तो उसका वजन पर्वत से भी भारी हो जाता है। सामान्य बुद्धि के लोग परिस्थितियों को ही सुख- दुख का कारण मानते हैं और यह भूल जाते हैं कि मान्यताओं की जादुई शक्ति कितनी अद्भुत है। मामूली सी बात असह्य संकट के रूप में दीखना और सचमुच ही किसी बड़ी विपत्ति का आक्रमण मामूली विपरीतता भर लगना अपने चिंतन की ही दो चमत्कारी दिशाएँ है। इनमें से किसी को भी अपनाया जा सकता है और सन्तुलन को बनाए रह सकना या गँवा बैठना संभव हो सकता है।

परिस्थितियों के साथ चिंतन का उपयुक्त तालमेल न बिठा सकने के कारण अब असंख्य व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रसित होते चले जा रहे हैं। यह अवांछनीयता महामारी की तरह, आँधी, तूफान की तरह बढ़ रही है और लगता है कि स्वस्थ और सन्तुलित मस्तिष्क वाले व्यक्ति अगले दिनों खोज पाना कठिन हो जायगा।

शरीर की तुलना में मन का मूल्य हजारों गुना अधिक है। उसी प्रकार शरीर रोगों की तुलना में मानसिक रोगों की व्याधि अत्यधिक है। शरीर रोगी रहे किन्तु यदि मस्तिष्क विकृत हो जाय तो शरीर के पूर्ण स्वस्थ होने पर भी सब कुछ निरर्थक बन जायगा।

इन दिनों मानसिक रोगों की बाढ़ जिस तूफानी गति से आ रही है- दावानल की तरह बढ़ती, धधकती चली जा रही है उसे देखते हुए लगता है मनुष्य जीवन से उसका सहज सुलभ आनन्द छिनने ही जा रहा है। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। सनकी, वहमी, शेखचिल्ली, उद्विग्न, क्रुद्ध, रुष्ट, असंतुष्ट, आशंकाग्रस्त, चिंतित, निराश, भयभीत, उदासीन व्यक्ति क्रमश: अपने लिए भार बनते चले जाते हैं। उनके मस्तिष्क में ऐसे चक्रवात उठते रहते हैं जो सोचने की स्वस्थ शैली को बेतरह तोड़- मरोड़कर रख देते हैं। टूटी हुई मनःस्थिति में तथ्य को समझना संभव नहीं रहता। कुछ के बदले कुछ समझ सकना और कुछ करने के स्थान पर कुछ करने लगना ऐसी वित्ति है जिसके कारण मनुष्य अर्धविक्षिप्त स्थिति में चला जाता है और अपने आपके लिए तथा दूसरों के लिए एक समस्या बन जाता है।

बढ़ते हुए मनोरोंगों से क्रमशः सारा मनुष्य समाज जकड़ता चला जा रहा है। सन्तोष इतना ही है कि यह विपत्ति पूर्ण उन्माद की स्थिति तक नहीं पहुँची है। मस्तिष्क के छोटे- छोटे हिस्सों पर ही उसने आधिपत्य जमाया है और लोग अर्धविक्षिप्त जैसे ही दिखाई पड़ते हैं। जो सही नहीं सोच सकता, सही निष्कर्ष नहीं निकाल सकता और साधनों का उपयोग करने एवं परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने में समर्थ नहीं है उसे मानसिक दृष्टि से रोगी ही कहा जायगा। ऐसे व्यक्ति दर्द से कराहते भले ही न हों, पर उनकी जीवन संपदा एक प्रकार से कूड़ा- करकट ही बन जाती है। न वे स्वयं चैन से रहते हैं और न साथियों को चैन से रहने देते हैं। इन दिनों कुछ मानसिक रोगों की तो भरमार ही हो चली है।

मनुष्य की अनेकानेक मनोवृत्तियों का विवेचन, विश्लेषण और वर्गीकरण करते हुए मन:शास्त्री प्रो. शेल्डि ने उनकी मूलतः दो ही धाराएं बताई हैं - एक प्रिय दूसरी अप्रिय, एक सुख दूसरी दुख। इन दोनों का परिस्थितियों से कम और मान्यताओं से अधिक सम्बन्ध होता है। कौन व्यक्ति किस स्थिति में दुख और किस में सुख अनुभव करता है यह उसका अपना इच्छित विषय है। एक व्यक्ति जिस स्थिति में दुखी रहता है और उससे अच्छी स्थिति न मिलने के कारण असन्तोष व्यक्त करता है उसी में दूसरे लोग बहुत प्रसन्न रहते हैं। इतना ही नहीं कितने एक व्यक्ति उसे प्राप्त करके आनन्द विभोर हो सकते हैं जिसमें कि असन्तुष्ट व्यक्ति अपने को दुखी अनुभव कर रहा है। ज्वर, दर्द आदि कष्ट और भूख- प्यास, सर्दी, गर्मी जैसे अभाव प्रायः सभी को दुख देते हैं, पर इन दुखों में भी भयंकर विपत्ति अथवा सामयिक समस्या की छोटी सी झलक मान लेने पर उनका कष्ट हलका और भारी हो सकता है। इस प्रकार की कठिनाइयाँ थोड़ी ही होती हैं। वस्तुतः अधिकांश सुख और दुख काल्पनिक होते हैं। वे मान्यताओं और इच्छाओं से संबंध रखते हैं। सोचने का तरीका बदला जा सकता है और दुख- सुख की, प्रसन्नता - अप्रसन्नता की, सन्तोष - असन्तोष की स्थिति में आमूल- चूल नहीं तो थोड़ा- बहुत परिवर्तन अवश्य ही किया जा सकता है।

एडवर्ड कारपेन्टर का कथन है- 'दुख की मान्यता वस्तुतः मन की पराधीनता प्रकट करती है, मन की स्वाधीनता मिलने पर वह सहज ही समाप्त हो जाती है।' बाहरी व्यक्ति या बाहरी पदार्थ हमें बहुत ही कम सहायता कर सकते हैं या सुख दे सकते हैं। उनके योगदान का न्यून या अधिक मूल्यांकन करके ही हम प्रसन्नता, अप्रसन्नता अनुभव करते हैं। यदि अनुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तन कर लिया जाय, अपने सद्गुणों और सत्प्रयत्नों को ही सफलता मान लिया जाय और उतने ही क्षेत्र में प्रसन्नता को केन्द्रित कर लिया जाय तो प्राय: हर स्थिति में प्रसन्न एवं संतुष्ट रहने का अवसर मिल सकता है। मन की स्वाधीनता का यही प्रत्यक्ष प्रतिफल है। व्यक्तियों, वस्तुओं या पदार्थों पर अपनी प्रसन्नता को निर्भर बना देना मानसिक पराधीनता है। उस स्थिति में कोई न तो सुखी रह सकता है और न संतुष्ट। दार्शनिक स्पिनीजा भी यही कहा करते थे। उनने अपने दर्शन में इसे मौलिक सत्य माना है कि 'विक्षुब्ध मनःस्थिति, मानसिक पराधीनता की ही अवस्था है। स्वावलंबन की स्थिति में कोई उद्वेग ठहर ही नहीं सकता।'

हमें किन- किन वस्तुओं का अभाव है, किन- किन व्यक्तियों ने कब- कब, क्या- क्या दुर्व्यवहार किया, अब तक कितनी बार असफलताएं मिलीं और हानियाँ उठानी पड़ी इसका लेखा- जोखा लेते रहा जाय तो कोई भी मनुष्य अपने आपको दुख - दुर्भाग्य से ग्रसित अनुभव करेगा। किन्तु यदि वही अपने उपलब्ध साधनों की बहुलता, दूसरों के सहयोग - सद्भाव एवं समय- समय पर मिली सफलताओं को लिस्ट तैयार करने लगे तो प्रतीत होगा कि वह जन्म जात वरदान लेकर सुख और सफलताओं के लिए ही पैदा हुआ है। चिंतन की विकृति का नाम ही दुख है - इस कथन में कोई अत्युक्ति नहीं है।

वियना के पोलोक्लिनिक अस्पताल में मानसिक चिकित्सा के विशेषज्ञ डा. विक्टर ई. फ्रेंक्ल ने अपने ५० वर्षों के चिकित्सा अनुभवों का सार बताते हुए लिखा है- " जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है, उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न रहेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिन्दगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस - निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। दबाब से इतनी थकान आती है कि कुछ करते धरते नहीं बनता। हारा थका आदमी धीरे- धीरे गिरता - घुलता जाता है और मरण को निकट बुलाने वाली बीमारियों को निमंत्रण देकर स्वेच्छा संकल्प के आधार पर कष्ट ग्रसित रहने लगता है।"

स्काटलैण्ड के मनोरोग चिकित्सक डा. रोनाल्ड डैकिटलेंज ने मनुष्य के मानसिक रोग ग्रसित होने के कारण और उनके निवारण के उपाय बताने के संदर्भ में दो बड़े ग्रंथ लिखे हैं - ( १ ) दि पालिटिक्स आफ एक्सपिरियन्स और ( २ ) दि पालिटिक्स आफ फेमिली। इन दोनों में उसने समाज की वर्तमान परिस्थितियों की भतर्सना करते हुए कहा है कि इनमें जकड़े रहने पर मनुष्य को मानसिक रोगों का शिकार होते रहना पड़ेगा और सहज स्वाभाविक रीति से व्यक्तित्व का विकास कर सकना उसके लिए संभव न होगा। सामान्य व्यवहार में वे कूटनीतिक चालबाजी की दुर्गन्ध देखते हैं और कहते हैं, मनुष्य को दबा - सता कर बाधित नहीं किया जाना चाहिए। उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने विवेक को विकसित करने का अवसर मिलना चाहिए।

समर्थ वर्ग को अधिक सुविधा देने वाली और असमर्थ वर्ग को यथास्थान न रहने की नीति ने वर्तमान कानूनों एवं परम्पराओं का सृजन किया है। इस असंतुलन ने एक पक्ष को उद्धत और दूसरे को भौतिक दृष्टि से दीन और आत्मिक दृष्टि से हीन बनाया है। अस्तु दोनों ही पक्षों में अपने- अपने ढंग के मानसिक रोग उत्पन्न हुए हैं। यदि हर किसी को लगभग समान अवसर मिले होते और अनावश्यक बंधन न जकड़े गए होते तो लोग मानसिक दृष्टि से प्रसन्नता एवं संतोष अनुभव करते। तदनुसार वे शारीरिक दृष्टि से भी स्वस्थ रहते और आर्थिक पारिवारिक और सामाजिक स्थिति में भी सुसंपन्नता दृष्टिगोचर होती।

अत्यधिक हताश व्यकिभी एक तरह की, कभी दूसरे तरह की गड़बड़ियाँ करते रहते हैं। इन हरकतों को प्रेरणा देने वाली मनोवृत्ति को, 'एजीटेटेड डिप्रेसिव सइकोसिस' कहा जाता है। न्यूरोटिक डिप्रेशन अथवा साइकोटिक डिप्रेशन उस स्थिति का नाम है जिसमें निराशा छाई रहती है, चित्त उदास और खिन्न रहता है। कुछ नया सोचने या नया करने को जो नहीं करता। चुपचाप बैठे या पड़े रहना, एक ही सीमित विचार में निमग्न रहना इन रोगियों को पसंद होता है। ये न कुछ चाहते हैं, न कुछ कहते हैं, न करते हैं। किसी प्रकार दिन काटते रहना ही उनके लिए पर्याप्त है। मेनिक डिप्रेशन और एण्डोजेनिक डिप्रेशन की स्थिति में उतार- चढ़ाव आते रहते हैं, कभी उत्तेजना कभी निष्क्रियता। कुछ दिन या कुछ समय वे सक्रिय दीखते हैं, किन्तु फिर ऐसा कुछ हो जाता है कि जो किया था, या सोचा था उसे जहाँ का तहाँ छोड़कर फिर ठप्प हो जाते हैं। आलोड़ित हताश, एजीटेटेड डिप्रेशन ग्रसित रोगियों की स्थिति एक जैसी नहीं रहती। उनकी चित्र- विचित्र हरकतें अदलती बदलती रहती हैं, कभी मूड एक तरह का होता है तो कभी दूसरी तरह का।

बड़ी- बड़ी आशाएं बाँधने वाले, किन्तु परिस्थितिवश वैसे बन न सकने वाले लोग यदि अधीर और भावुक प्रकृति के हैं तो उन पर उस असंतोष का गहरा असर पड़ता है। उन्हें अमुक व्यक्तियों या अमुक परिस्थितियों से बहुत शिकायत होती है, जिनके कारण वे अपना खेल बिगड़ा मानते हैं। कभी कभी तो अपने भाग्य या प्रयत्न को भी वे दोष देते हैं, पर अधिकतर उनकी खीज दूसरों पर रहती है। वे सोचते हैं उनके प्रयत्न पर्याप्त थे, उनकी योग्यता कम नहीं थी, किन्तु दूसरों ने उन्हें गिरा या हरा दिया। इन दूसरों की पंक्ति बहुत लंबी होती है, इसमें ग्रह- नक्षत्र, भाग्य विधान से लेकर दोस्त- दुश्मन, परिचित अपरिचित सभी आ सकते हैं। वे किसी को भी, किन्हीं को भी, उस असफलता का कारण मान सकते हैं। यह मान्यता आरंभ में खीज, झुंझलाहट, द्वेष, क्रोध आदि के रूप में प्रकट होती है, पर इससे भी जब कुछ बनता नहीं दीखता, तो वह व्यक्ति अपने को दीन- हीन, असहाय और असमर्थ मानकर प्रयत्न छोड़ बैठता है, पूछताछ करने पर शिकायतें करने के अतिरिक्त और उसके पास कुछ नहीं होता। दोषारोपण के विचार मस्तिष्क को इतना आच्छादित कर लेते हैं कि कुछ और सोचने की उसमें गुंजायश ही नहीं रहती।

अपने काम में देर लगती देखना और उसे बार- बार करने का प्रयत्न करना '' आपसेसिव कम्पलसिव न्यूरोसिस' कहलाता है। बार- बार दाढ़ी बनाना और ऐसा अनुभव करना मानो अभी भी बाल ठीक तरह साफ नहीं हुए, बार- बार झाड़ू लगाना और सोचना अभी भी गंदगी मौजूद है, बार- बार हाथ, कपड़े, बर्तन आदि धोना, घंटों नहाना और यह सोचते रहना कि काम पूरा नहीं हुआ, इसी रोग का लक्षण है। पवित्रता, सफाई, व्यवस्था की ऐसी सनक रहती है कि उस धन्धे में ही अधिक समय उलझे रहने से इच्छित स्थिति प्राप्त करना तो दूर उलटे उपहासास्पद स्थिति बन जाती है। सरकारी मानसिक अस्पतालों में आक्रमणकारी प्राय: पागल ही पहुंचते हैं। गहरी उदासी, मानसिक तनाव, भुलक्कड़पन आदि व्यथाओं से पीड़ित लोग भी इलाज कराने जाते हैं। इससे हलके दर्जे की विक्षिप्तता न तो उपचार योग्य समझी जाती है और न उसकी हानि का लेखा- जोखा लिया जाता हैं। तलाश किया जाय तो जनसंख्या में से आधे आदमी 'इन्सेनिटी'- विक्षिप्तता के नजदीक ही पहुँची स्थिति में पाए जायेंगे। कितनी ही शारीरिक समझी जाने वाली बीमारियां वस्तुतः मानसिक होती हैं। डाक्टर पैथालोजी के तथा दूसरी जाँच पड़तालों के आधार पर निरोगता व्यक्त करते हैं, पर रोगी की व्यथाएँ ऐसी होती हैं जिनसे वह गलता - घुलता ही चला जाता है। दवा- दारू का उपचार भी कुछ काम नहीं करता क्योंकि बीमारी शारीरिक थी ही नहीं। बहुधा मानसिक विकृतियाँ ही शारीरिक बीमारियाँ बनकर सामने आती है और वे डाक्टरों के लिए असाध्य एवं समझ में न आने वाली ही बनी रहती है।

दूसरों की तुलना में अपने को हेय या हीन समझने की स्थिति भी कितनों को ही मानसिक रोगों का मरीज बना देती है। कुरूपता, मंद बुद्धि, गरीबी, किसी भूल के कारण स्थाई घृणा, अपमान, छूत रोग, लोक निन्दा आदि कारणों से कितने ही व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में पाते हैं और एम्प्यूटेशन से ग्रसित होकर रुग्ण संज्ञा में गिने जाने योग्य बन जाते हैं। वे कभी विरक्ति की बात सोचते हैं, कभी आत्महत्या की। आत्महीनता की ग्रन्थि में बँधकर या तो वे घोर दब्बू हो जाते हैं या फिर 'ऐंग्जाइटी टेंशन' उन्हें तोड़- फोड़ करते रहने में लगा देते हैं। 'प्रैक्टिस आफ नेचरोपैथी' ग्रंथ के लेखक डाक्टर लिड लेहर ने कितने ही प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 'क्षय' वस्तुतः शारीरिक नहीं मानसिक रोग है। आत्म ग्लानि की भावनाओं से पीड़ित मनुष्य ही बहुत करके यक्ष्मा के शिकार बनते हैं। उनमें से । अधिकांश ऐसे असंतुष्ट व्यक्ति होते हैं जिन्हें जिन्दगी नीरस और भारी पड़ रही होती है। उनकी अन्त: चेतना इस स्थिति से ऊबकर किसी ऐसी विपत्ति को आमंत्रित करती है जो इस अवांछनीय स्थिति से छुटकारा दिला सके। इस आमंत्रण को पाकर क्षय जैसे मृत्यु दूत सामने आ खड़े होते हैं।

अन्तरावरोध और अन्तर्द्वन्द्व बढ़ते- बढ़ते 'शिजोफ्रेनिया' बन जाता है। बुद्धि और विवेक के सहारे उचित और अनुचित का भेद करके उसमें से जो उपयुक्त है उसे स्वीकार कर लेना और जो अनुपयुक्त है उसे हटा देना साधारण नियम है। इसी क्रम से सामान्य जीवनचर्या चलती है। किन्तु कभी- कभी दो सर्वथा विपरीत पक्षों को मान्यता देने की स्थिति भी देखी गई है। एक ओर यह विचार उठता है कि इसे करेंगे फिर विपरीत पक्ष उठता है नहीं करेंगे। विवेक कुण्ठित हो जाता है और दोनों प्रतिपक्षी मान्यताएँ समान रूप से मस्तिष्क पर हावी रहती हैं। न किसी को छोड़ते बनता है और न अपनाते। दोनों में मल्लयुद्ध होता है और उनका अखाड़ा विचार बुद्धि से आगे बढ़कर अन्त: चेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। यही अन्तर्विरोध या अन्तर्द्वन्द्व है। इस मानसिक विषमता से घिरे मनुष्य की आन्तरिक स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे दो साँड़ों के लड़ने के क्षेत्र में हुए पौधे कुचल कर चकनाचूर हो जाते हैं और ऊबड़- खाबड़ निशान बन जाते हैं।

शिजोफ्रेनिया का रोगी बात- बात में दुटप्पी बात करता है। उसकी नीति दोगली होती है और गतिविधियाँ दुरंगी। अभी वह एक बात का समर्थन कर रहा था अभी उसी का खण्डन करने लगा। अभी सहमत था, अभी असहमत हो गया। अभी तीव्र इच्छा प्रकट की जा रही थी अभी अनिच्छा घोषित कर दी गई। साथी लोग हैरान रहते हैं कि उसका किस प्रकार विश्वास करें और उससे क्या आशा रखें। ऐसे व्यक्तियों के दैनिक व्यवहार में भी ऐसे विचित्र परिवर्तन होते हैं कि उनका निर्वाह करने से जिनका सम्बन्ध है वे असमंजस में पड़े रहते हैं। नीतियाँ, रुचियाँ, योजनाएं बदलते रहने से वे स्वयं किसी प्रयत्न की न तो जड़ जमा पाते हैं और न किसी बात में सफल हो पाते हैं। ऐसे रोगियों को आधे- अधूरे कामों का और विपरीत विचारों का चित्र- विचित्र व्यक्ति ही कहा जा सकता है। इस स्थिति में वे स्वयं ही लज्जा एवं ग्लानि अनुभव करते हैं, पर विवशता उन्हें उबरने ही नहीं देती। दूसरों की खीज और भर्त्सना से वे परिचित होते हैं, पर अन्तर्द्वन्द्वों में से कोई बुखार की तरह उन पर चढ़ बैठता है और वे किसी बाज के पंजों में फँसे चूहे की तरह कहीं से कहीं उड़ते चले जाते हैं।

केटोनिक शिजोफ्रेनिया, सिम्पल शिजोफ्रेनिया आदि इस मनोरोग के कितने ही भेद- प्रभेद हैं जिनमें मनुष्य का प्रेम और द्वेष ज्वार- भाटे की तरह चढ़ता उतरता है, उत्साह और अवसाद चरमसीमा पर पहुँचता है, हर्ष - शोक के झूले में झूलते हुए और विपरीत स्तर की बातें सोचते, कहते, करते उसे देखा जा सकता है। इस अस्थिरता के कारण दूसरे लोग उसे ठीक तरह समझ ही नहीं पाते कि आखिर वह क्या है क्या करना चाहता है।

मानसिक रोग देखने में इतने कष्टकारक नहीं होते कि रोगी पीड़ा से चीत्कार करता रहे। शान्त, निष्क्रिय, मौन, उदास स्थिति में वह अपने आप में खोया, भूला रहता है। दूसरों की कुछ सहायता कर सकना तो दूर अपनी जीवन यात्रा के लिए भी दूसरों की सहायता पर निर्भर रहता है। इस प्रकार का जीवन भूत जीवन तब तक तो धकेला जाता रहता है जब तक रोगी को अपनी दयनीय दशा का बोध नहीं होता और वह इस स्थिति में दूसरों को ही गलत या दोषी मानता है, पर जब कभी स्थिति सामान्य हो जाती है और अपनी दुर्दशा का - दूसरों पर भार भूत होने का अनुभव करता है तो उसे मानसिक कष्ट भी बहुत होता है और उस व्यथा से उसकी बीमारी फिर बढ़ जाती है।



बुरे विचारों का स्वास्थ्य पर कुप्रभाव



मैं खरगोन के एक भाई लिखते हैं, 'गत वर्ष मैं बीमार पड़ा था। बड़ी कठिनता से ईश्वर की कृपा से बच तो गया, पर तबसे कुछ न कुछ व्याधि दबा ही लेती है। आठ माह की बात है पता नहीं किस रोग से एक विद्यार्थी की आकस्मिक मृत्यु हो गई। फिर मैंने समाचार पत्र में एक और मृत्यु का हाल पढ़ा। इससे मेरा दिल थोड़ा घबड़ाने लगा। गर्मी के दिन थे। शाम के पाँच बजे का समय था। मैंने सोचा शायद गर्मी के कारण मन घबड़ा रहा है। इसलिए स्नान किया, परन्तु मेरे मन की घबराहट बढ़ती गई। हृदय में धड़कन इतनी बढ़ गई कि मुझे महसूस होने लगा कि मेरा हार्टफेल होने वाला है। वह घबड़ाहट सहन नहीं कर सका। डाक्टर बुलाया गया। उन्होंने अच्छी तरह मेरे शरीर की परीक्षा की और अच्छी तरह देखभाल कर निर्णय किया कि मुझे कोई रोग नहीं है, न कोई दिल संबंधी हलचल ही है। परन्तु मुझे शान्ति नहीं हुई। मैंने दूसरे डाक्टर को बुलवाया, पर उन्होंने भी यही कहा कि मेरे शरीर में कोई रोग नहीं है। हृदय की हलचल दो चार दिन में ठीक हो जाएगी। फिर भी धड़कन न गई। इसके कुछ माह बाद मुझे दूसरे नगर में जाने का मौका आया। उन्हीं दिनों मैंने समाचार पत्र में पढ़ा कि एक युवक प्रसिद्ध स्टार बनने जाने के लोभ में रेल से कटकर मर गया। यह पढ़ते ही मुझे महसूस होने लगा कि जैसे मेरा हार्टफेल हुआ जा रहा है। धड़कन बढ़ गई। दवाई उपचार हुआ। फिर सबसे बड़े डाक्टर को बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा हृदय मुझ जैसा ही सुदृढ़ है, निरोग है। तुम अपने मन से डर और मृत्यु के बुरे विचारों को निकालो। मुसीबत यह है कि मैं तो इन बुरे विचारों को छोड़ना चाहता हूँ, पर ये बुरे विचार मुझे नहीं छोड़ते और धीरे- धीरे मौत के मुँह में ले जा रहे हैं।'

वास्तव मैं अनेक शरीरगत रोगों का कारण हमारा मन होता है। मनुष्य का शरीर उसकी प्रत्येक भावना के प्रतिक्रियात्मक प्रभाव को स्पष्ट करता है। कहा गया है " मूलं नास्ति कुतः शाखा" अर्थात् जहां मूल या जड़ नहीं, उस पौधे की शाखाएं भी नहीं हो सकतीं। रोग का मूल मन में नहीं है, तो भला उसकी शाखाएँ- प्रशाखाएँ कैसे शरीर में पनप सकती हैं।

आप मन में विचार ले लीजिए अच्छा या बुरा। फिर चेहरे को दर्पण में देखिए। जैसा विचार होगा, वैसा ही भाव चेहरे और शरीर के द्वारा प्रकट होगा। शरीर क्रियाओं द्वारा अन्दर के भाव को प्रकट करेगा। मन के विचार के साथ शरीर परिवर्तित होता है, खिलता और मुर्झाता है। गुप्त मन में संचित भाव की प्रतिक्रिया शरीर पर चलती ही रहेगी।

कोई मधुर विचार, कोई प्रसन्नता की बात मन में लाइए, फिर दर्पण में चेहरा देखिए। चेहरे पर खुशी प्रकट हो जाएगी, जैसे फूल खिल उठा हो। आनन्द, प्रसन्नता, उन्नति और सफलता का एक भी विचार मन में लाइए। फिर इनका चमत्कार चेहरे और समूचे शरीर पर देखिए। आप पायेंगे कि वह विकसित हो रहा है। उसके अवयव, रगरेशे खिल रहे हैं, आपको जीवन का रस आ रहा है।

अब किसी बुरे विचार, क्रोध, घृणा, आवेश, वैर, द्वेष को मन में लाइए, आप पायेंगे कि चेहरा उदास हो गया है या उत्तेजित होकर फड़क रहा है अथवा घृणा से सिकुड़ रहा है या आवेश से कांप रहा है। इस प्रकार जैसे- जैसे विचार मन में आते जाएंगे, वैसे- वैसे चेहरे के रूप में परिवर्तन होता जाएगा। जब आप चेहरे के रूप में एक मामूली भाव रखने से इतना परिवर्तन देखते हैं, तब जरा अनुमान कीजिए कि बुरे विचारों से मनुष्य के जटिल शरीर के आन्तरिक अंगों में क्या- क्या सूक्ष्म परिवर्तन होते होंगे। स्मरण रखिए विचार एक बीज की तरह उत्पादक पदार्थ है। जैसे बीज में से अंकुर, डंठल, पत्तियाँ और फल इत्यादि पनपते हैं, वैसे ही एक विचार के साथ अनेक नन्हे नन्हे सूक्ष्म मनोभावों का उत्थान पतन होता जाएगा और उसी की प्रतिक्रियाएं शरीर में प्रकट हो जाएगी। खेद की बात है कि आधुनिक अस्पतालों में साधारण बीमारी में शल्य क्रिया तक कर दी जाती है। नाना दवाइयाँ दी जाती हैं, पर रोग और व्याधि के मनोवैज्ञानिक पहलू को बहुत कम चिकित्सक देखते हैं।

श्री शान्तिलाल एन. अमीन ने अपने लेख में लिखा है कि अमेरिकन अस्पतालों में मनोवैज्ञानिक और मानसोपचारक शस्त्रोपचारक के साथ रहकर अनेक आवश्यक आपरेशनों से रोगियों को मुक्त कर देते हैं। न्यूयार्क के एस. डी. ए. अस्पताल के 'सायको समैटिक मेडिसन' का विशेष विभाग रखा गया है, जहाँ मानसिक रोगी, विक्षिप्त तथा दीर्घकालीन अवधि से चले आ रहे पुराने उदर रोगियों और विक्षिप्तों की एक विशेष प्रकार से चिकित्सा की जाती है। सर्जन की शक्ति कुशलता की परख इस बात से होती है कि कितने रोगियों को मानसोपचार द्वारा आपरेशन से बचाया गया।

भय, शंका, निराशा, उद्वेग, ईर्ष्या, क्रोध, आवेश आदि वे विषैले विकार हैं, जो अन्दर ही अन्दर शरीर में विषैले रोगों की उत्पत्ति करते हैं। एक तनिक से भय या मानसिक आघात की प्रतिक्रिया शरीर में टूट- फूट कर देती है। जो दृढ़ चित्त व्यक्ति होते हैं वे तो ऐसे आघात आसानी से सह लेते हैं और उसके विषैले प्रभाव से जल्दी छुटकारा पा जाते हैं, पर कमजोर ढुलमुल स्वभाव के व्यक्ति इन आघातों से बुरी तरह विचलित हो जाते हैं। ये आघात उनके स्मृति पटल पर स्थाई छाप छोड़ जाते हैं और उनकी जटिल और निगूढ़ प्रतिक्रियाएं दिमाग में निरंतर बनी रहती हैं। ऊपर जिस मानसिक रोगी का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, उनके मन में एक के बाद एक इस प्रकार के कई कटु भय के मानसिक आघात पड़े हैं, मौत के स्मरण मात्र से वे अस्तव्यस्त हो जाते है। बराबर मौत, बीमारी और संसार छोड़कर चलने की भय मिश्रित मनस्थिति ने उन्हें हृदय की धड़कन का रोगी बना दिया है। तनिक सी बुरी घटना देखते या सुनते हो पुरानी बुरी घटनाएं अन्तर्मन से कूद कर स्मृति पटल पर आ जाती हैं और दिमाग में जहरीलापन उत्पन्न कर देती हैं। यदि खोज की जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के मन में बचपन की या यौवन के प्रारंभ की कोई दुखद घटना मिलेगी, जो उनका पीछा नहीं छोड़ती। घटना का स्मरण हो हृदय की घड़कन का कारण बनता है। बहुत से भय तो मनुष्य के शरीर की आकृति पर स्थाई प्रभाव डाल जाते हैं। आप उनका चेहरे देख कर स्वतः मालूम कर सकते हैं कि ये किसी मानसिक आघात के शिकार हैं।

बुरे विचार विषैले पदार्थों की तरह हैं। जैसे विजातीय तत्व निकल जाने से शरीर में शान्ति मिलती है, उसी प्रकार बुरे विचारों को मन से निकाल कर ही मन की शान्ति प्राप्त की जा सकती है और स्वस्थ मानसिक जीवन व्यतीत किया जा सकता है। भय के भी अनेक रूप हैं जैसे निर्धनता का भय, आलोचना का भय, रोग का भय, प्रेम से वंचित होने का भय, बुढ़ापे का भय, मृत्यु का भय। इन सभी प्रकार के भयों से साहसपूर्वक युद्ध करना चाहिए।

तो रोग का भय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बहुत जल्दी नष्ट करता है। मनुष्य का शरीर सौ वर्ष स्वस्थ और सशक्त रहने के लिए बना है। ग्रामीणों को देखिए। वे रोगों के विषय में कुछ नहीं जानते, काल्पनिक रोगों की बाबत सोचते भी नहीं, बीमार भी कम होते हैं। हम तनिक से बीमार होते ही मौत और अति की अनहोनी कुकल्पनाओं में फँस जाते हैं। ये कल्पनाएं विषैले बीज हैं जो अपनी जड़ें जमा लेते हैं। कालान्तर में जिन रोगों से डरते हैं वे ही शरीर में प्रकट होकर रहते हैं। महामारी, हैजा, सर्प का काटना आदि अनेकों रोगों के हम मिथ्या भय से ही डर कर मरते हैं।

बुरे विचार रखना एक गन्दी आदत है। हीनता की भावना, रोग की कल्पना, पराजय की विचारधारा, नैराश्य, शंका का परित्याग कीजिए। भगवान कृष्ण ने स्वयं ही मर्म स्पष्ट कर दिया है, " यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।" मनुष्य अपनी अच्छी या बुरी भावना के अनुसार ही सिद्धि प्राप्त करता है। यदि वह रोग मूलक कुकल्पना में जकड़ा रहा तो भविष्य में वह किसी न किसी रोग के चंगुल में पड़ेगा ही। निर्बल रोगमूलक मनःस्थिति स्वयं रोगों के रूप में प्रकट हो जाएगी। अतः बुरे विचारों से सदा दूर रहिए।

अथर्ववेद में कहा गया है " त्वं नो मेधे प्रथमा" अर्थात् सद्बुद्धि ही संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। जिसने अपनी विचारधारा शुद्ध कर ली है, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है। कानों से अच्छे विचार सुनो और श्रेष्ठ विचार ही मन में रखो। अपनी निन्दा या दूसरों की त्रुटियाँ सुनने में समय नष्ट न करो। " मा विदीध्यः " चिन्ता करना व्यर्थ है। चिन्ता में खून सुखाने की अपेक्षा कठिनाई का हल सोचना श्रेष्ठ है।



बीमारियाँ शरीर की नहीं मन की



हताश रहना तथा अकारण किसी बात को लेकर भयभीत रहना (डिप्रेशन एण्ड फोबिया ) यह दो बीमारियाँ आजकल नई सभ्यता की देन के रूप में बढ़ती चली जा रही हैं। इस तरह के बीमार सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति अलगाव की सी वृत्ति रखते हैं। बात- बात में चिढ़ पड़ते या उबल उठते हैं। गर्म हो जाने के कुछ ही देर बाद इतने निराश हो जाऐंगे कि रोने लगेंगे। इस तरह के बीमारों के लिए मनोविज्ञान चिकित्सा 'रिक्रियेशनल' अथवा 'एक्यूपेशनल थिरेपी' चिकित्सा का प्रयोग करती है। रोगी की मानसिक प्रसन्नता और स्थिरता के लिए उसे किस प्रकार के वातावरण में रखा जाये, कैसे बातचीत की जाए, क्या सुझाव और परामर्श दिये जायें ? इन सब के पूर्व उसके पिछले जीवन की सारी गुप्त- अगुप्त बातें बता देने के लिए कहा जाता । इस प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान चिकित्सक भी यह मानते हैं कि रोगों की जड़ें उसके कुसंस्कार होते हैं जो एक लम्बे अर्से से अन्तर्मन में पड़ी फल- फूल रही होती हैं।

उदाहरण के लिए एक अच्छे घराने का, एक मिलिटरी कर्नल के घर का लड़का जब उसकी समझ काफी विकसित हो गई थी, एक दिन अपने पिता की जेब से दस रुपए का एक नोट निकाल लेता है और सिनेमा देख आता है। बेफिक्र और पैसे वाले कर्नल साहब को पता भी नहीं, जेब में कितने पैसे थे, कितने रह गए। इस तरह की लापरवाही ही अधिकांश घर के बच्चों को लापरवाह बनाती है। कुछ दिन में लड़के ने समझ लिया पिताजी बावले हैं, कुछ पता चलता नहीं। सो वह बड़ी रकमें साफ करने लगा और उस मुफ्त के पैसों को शराबखोरी और दूसरी गन्दी आदतों में खर्च करने लगा। दूसरे शिकायती सूत्रों से कर्नल साहब को पता चला। गन्दा नाला एक बार बह निकलता है तो दुर्गन्ध भी अभ्यास में आ जाने से स्वाभाविक हो जाती है, पर कहीं एकाएक उस नाले को रोक दिया जाए तो दुर्गन्ध एक स्थान पर एकाएक तीव्र हो उठेगी और सड़ांद पैदा करेगी। ऐसा ही हुआ। कर्नल साहब ने एकाएक ब्रेक लगाया। फलतः लड़के के मानसिक कुसंस्कार एक स्थान पर रुक कर मानसिक निराशा और आतंक के रूप में सड़ने लगे। उसे हाई ब्लड प्रेशर और सिर चक्कर खाने की बीमारी रहने लगी। पीछे जब मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के लिए लड़के को ले जाया गया और उसने पिछली सब बातें बताई तब उसके मन से पिछला भय निकाल कर हलका और प्रसन्नता का जीवन जीने की प्ररेणाएं दी गई, बच्चा ठीक हो गया।

जहाँ तक बाल्यावस्था की छोटी- छोटी भूलों का सवाल है उन्हें इस तरह के 'निष्कासन प्रयोग' द्वारा ठीक भी किया जा सकता है, पर अपराध मनोवृत्ति और उन संस्कारों को जिन्हें स्वयं रोगी भी नहीं पहचानता मनोवैज्ञानिक बेचारा कैसे अच्छा कर सकता है। उसके लिए भारतीयों ने कृच्छ चान्द्रायण जैसे कठोर तपों की व्यवस्था बनाई थी। शरीर में अत्र नहीं पहुँचता तो तात्कालिक बुरे विचार शिथिल पड़ जाते हैं और अन्तर्मन में दबे हुए जन्म जन्मांतरों के संस्कार स्वप्नों के रूप में, अनायास विचारों के रूप में निकलकर साफ हो जाते हैं, यह एक सही पद्धति थी। आज के मनोविज्ञान की पहुँच वहाँ तक नहीं है, साथ ही उसकी धारणा रोगी की मनोवांछित इच्छाओं की पूर्ति की होती है इसलिए तात्कालिक संतुष्टि का कुछ लाभ दिखाई देने पर भी वह चिकित्सा जहाँ सिद्धान्ततः सत्य है, वहाँ व्यावहारिक दृष्टि से और भी कुसंस्कारों को उकसाने और मन में नई उत्तेजनाऐं भरने वाली बन जाती है।

हिस्टीरिया के मामले में खासतौर पर ऐसा ही होता है जिसे भूत या पिशाच कहा जाता है। वह वस्तुतः किसी ऐसे व्यक्ति की मानसिक चेतना होती है जिसके साथ रोगी ने कभी छल किया हो, कपट किया हो, हत्या या ऐसा कुछ बुरा कृत्य किया हो। शरीर मर जाता है पर मन के संस्कार अमर होते हैं यह बात विज्ञान भी मानता है। क्रोमोसोम संस्कार सूत्र होते हैं वह कभी नष्ट नहीं होते। डा. नेहम ने ऐसे ही एक रोगी का जिक्र किया है। उसे जब हिस्टीरिया के दौरे आते तो रोगी हरबार एक ही बात चिल्लाया करता " अब मैं उसके साथ एक तंग गली से जा रहा हूं, वहाँ जाकर हम दोनों ने शराब पी- मैंने कम पी, उसको ज्यादा पिलाई, अब वहाँ से एक निर्जन स्थान की ओर गया, वहाँ बड़ा अन्धकार है। इतना कहते- कहते वह भयभीत होकर रोता और बुरी तरह चिल्लाता- मैंने उसे छुरा भोंका और वह अब मेरे ऊपर चढ़ बैठा।"

रोगी के व्यवहार का, घर वालों के रहन- सहन का पता लगाया गया। उसके घर कभी शराब पी ही नहीं गई थी, उसने तो छुई तक नहीं थी। यह भी देखा जाता था कि इस तरह जब दौरा पड़ता तब मस्तिष्क की एक खास नस बुरी तरह फूल जाती। मस्तिष्क का हर कल पुर्जा आश्चर्यों की पिटारी है। अन्तश्चेतना यहीं निवास करती है, संस्कार कभी नष्ट नहीं होते। स्पष्ट है कि तब वह सनातन जीवन क्रम ( जिसे पुनर्जन्म ही कहा जा सकता है) से आए। अतएव ऐसे कठिन संस्कारों का दोष परिमार्जन कठोर प्रायश्चित प्रक्रिया द्वारा ही होना चाहिए। जब कि आज का मनोविज्ञान व्यवहार में उस तरह के कुसंस्कारों में संतुष्टि देने के पक्ष का समर्थन करता है। अतएव उसे पूर्ण चिकित्सा नहीं कहा जा सकता जब कि रोगों की जड़ का पता लगाने के बारे में वह सिद्धान्ततः सही है।

" एजीटेटैड डिप्रेसिव साइकोसिस " ,, " पैरानाइड शिजोफ्रेनिया" ,, " साइकोपैथी साइकोसोमैटिक" और " मेनिक डिप्रेसिव न्यूरोसिस' आदि मानसिक बीमारियाँ पूर्व जन्मों से संबंधित नहीं हैं पर उनका सम्बन्ध आज की विकृत विचारणा, सभ्यता के नाम पर इन्द्रिय जन्य आकर्षणों और प्रलोभनों तथा त्रुटिपूर्ण सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण ही हैं। एक बार सुप्रसिद्ध चिकित्सक सेल्डन शेफर्ड के पास एक नव दम्पत्ति परामर्श के लिए आए। उनमें परस्पर खींचतान चल रही थी। विवाह हुए ९ माह हुए थे। पत्ती तब से निरन्तर पति के पास ही थी पर उसका गर्भवती होना दोनों के लिए विष हो गया। पति की धारणा थी कि पत्नी विवाह से पूर्व ही गर्भवती थी इसलिए वह कटुता पूर्ण व्यवहार करता था। चिकित्सक ने दोनो की अलग- अलग जांच की, इसके बाद दोनों की शारीरिक जाँच भी की। शारीरिक जाँच के दौरान एक विचित्र बात सामने आई, वह यह कि पत्नी को दरअसल गर्भ था ही नहीं। पेट का रोग ( फाल्स प्रेगनैन्सी ) था जिसमें पेट फूल जाता है। यह बात प्रकट होने पर उनका मनोमालिन्य दूर हो गया। पर यह बात स्वयं शेफर्ड ने भी स्वीकार की कि आज के सिनेमाओं ने यौन- स्वाधीनता और उच्छृंखल मनोवृत्ति के युवक- युवतियों को स्वेच्छापूर्ण मिलने- जुलने की छूट आज की सभ्यता और शिक्षा ने न दी होती, तो आज जो घर और परिवारों में परस्पर अविश्वास का वातावरण दिखाई देता है क्यों दिखाई देता, और क्यों " पैरानाइड शिजोफ्रेनिया" जैसे रोग स्थान बनाते ?

एक दुकानदार के पास पैसे की कमी नहीं, स्वयं अच्छे कपड़े पहनते, बच्चों और पत्नी को भी पहनाते, खाते भी अच्छा से अच्छा। तो भी पैसे की काफी बचत। लड़का कालेज का छात्र। पहले पैसा चुराने लगा पीछे पिता को मालूम पड़ गया तो तनातनी रहने लगी। इसी मानसिक खिंचाव ने बाप- बेटे दोनों को बीमार कर दिया। कोई रोग हो तो दवाएँ काम करें। निदान मनोचिकित्सक के पास गए। बाप ने बताया लड़का पैसा बरबाद करता है, लड़का बोला, " तुम मिलावट का सामान बेचकर जो रकम इकट्ठा कर रहे हो इसका क्या होगा ?" मालूम नहीं उनका झगड़ा निबटा या नहीं पर न कहने पर भी आज अधिकांश अनैतिक उपार्जन करने वालों के घर यही हो रहा है, भले ही बाहर वालों को वे अच्छे खाते- पीते पैसे वाले दिखाई देते हों। यह सब पाश्चात्य सभ्यता की देन है जो धन को तो अनावश्यक महत्व देती है पर जिसके लिए नीति, ईमानदारी और कर्तव्य परायणता के लिए कोई स्थान नहीं।

" साइकोसोमैटिक रोग" प्रत्यक्ष में शारीरिक होते हैं पर उनकी जड़ मानसिक विकार ही होते हैं। मस्तिष्क का विचार संस्थान उस नाड़ी जाल को प्रभावित करता है जो सारे शरीर में गुँथा पड़ा है। अच्छे विचारों के उमड़ने से शरीर में स्वास्थ्यवर्धक और आरोग्यवर्धक हारमोन्स' ( एक प्रकार के रस ) निकलकर रक्त में मिलकर काम करते हैं। खराब विचार विष उत्पन्न करते हैं। अतएव यह बात निर्विवाद सत्य है कि आज की बढ़ती हुई बीमारियों का इलाज औषधियाँ नहीं विचार और चिन्तन प्रक्रिया में संशोधन ही है। दूषित विचार मानसिक परेशानी के रूप में उत्पन्न होते हैं और अल्सर, कैंसर, टी. बी. जैसे भयानक रोगों के रूप में फूट पड़ते हैं। कई बार तो कई जन्मों के कुसंस्कार पीछा करते हैं जिन्हें समझ पाना कठिन होता है। उन सबका इलाज एक ही है कि मनुष्य व्यवहार और क्रिया की सच्चाई और सच्चरित्रता का परित्याग न करे। आज की सभ्यता इन दोनों को नष्ट करने पर तुली है, इसी कारण तरह- तरह की बीमारियाँ उठ खड़ी हो रही हैं। आज का स्वास्थ्य एक व्यक्ति से संबंधित नहीं सारे समाज के स्वास्थ्य से बँध गया है। अतएव जन स्वास्थ्य के लिए अस्पतालों और दवाओं की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी मान्यताओं और सामाजिक परिस्थितियों के संशोधन परिमार्जन की। समाज के विकृत ढाँचे को ठीक कर लिया जाए तो इन उद्भिज बीमारियों का अन्त होते देर न लगे।



अचेतन मन की व्याधियाँ और उनका निराकरण



मृगी रोग से पीड़ित मनुष्य की कैसी दयनीय स्थिति होती है यह किसी से छिपा नहीं है। जब दौरा पड़ता है तो सारा शरीर विचित्र जकड़न एवं हड़कम्प की ऐसी स्थिति में फँस जाता है कि देखने वाले भी डरने घबराने लगें। जहाँ सुरक्षा की व्यवस्था न हो वहाँ दौरा पड़ जाय तो दुर्घटना भी हो सकती है। सड़क पर गिर कर किसी वाहन की चपेट में आ जाने की, आग की समीपता होने पर जल मरने की आशंका बनी ही रहती है। मस्तिष्कीय जड़ता के कारण बुद्धि मन्द होती जाती है और क्रिया कुशलता की दृष्टि से व्यक्ति पिछड़ता ही जाता है। दौरा पड़ने के बाद जब होश आता है तो रोगी अनुभव करता है मानो कई दिनों की बीमारी के बाद उठने जैसी अशक्तता ने उसे घेर लिया है। लोग सोचते हैं कि मृगी होने की अपेक्षा यदि एक हाथ- पाँव चला जाता तो कहीं अच्छा रहता।

मृगी क्या है ? इस सम्बन्ध में खोजबीन करने पर इतना ही जाना जा सका है कि यह अचेतन मन में पड़ी हुई किसी ग्रन्थि का अवरोध है। मस्तिष्कीय संरचना के बारे में बहुत कुछ खोजबीन हो चुकी है। अचेतन मन के बारे में जो जाना जा सका है वह अति अल्प है, उस दिशा में अत्यधिक खोजबीन किया जाना शेष है। इतना जाना जा चुका है कि शरीर में सोते- जागते जो स्वसंचालित गतिविधियाँ चला करती हैं उनका सूत्र संचालन अचेतन मस्तिष्क ही है। चेतन मस्तिष्क का स्थूल अवयव भी सोचने- विचारने का महत्वपूर्ण क्रियाकलाप सम्पन्न करता है पर जहाँ सोचने विचारने की गुंजायश नहीं वहाँ भी अचेतन मन की सत्ता काम करती है। रक्त संचरण, स्नायु समूह का आकुंचन- प्रकुंचन, श्वांस- प्रश्वांस, निद्रा जागरण, पाचन, विसर्जन जैसी हलचलों में नियमित तारतम्य अनवरत और अविच्छिन्न रूप से बनाए रहने का कार्य अचेतन मन ही सम्पन्न करता है।

अचेतन मन में कई तरह के अवरोध - आघात, आकांक्षाओं के वेग को रोकने अथवा प्रतिकूलताओं के आघात अपमान से उत्पन्न होते हैं। ऐसी स्थिति उत्पन्न न होने पाए इसके लिए अध्यात्मवेत्ता यह उपदेश करते हैं कि मनोभूमि को भौतिक महत्वाकांक्षाओं एवं ललकों से मुक्त रखा जाय और सम्मुख प्रस्तुत कर्तव्यों को सही ढंग से पालन करने को ही महत्वाकांक्षाओं को केन्द्र बिन्दु बनाया जायं। इस प्रकार अनासक्त रहने की स्थितिप्रज्ञ जैसे समत्व बनाए रखने की ज्ञानयोग शिक्षा इसलिए दी जाती है कि परिस्थितियों के कारण आने वाले उतार चढ़ावों को महत्व न दिया जाय, उनकी उपेक्षा की जाय। यदि इस स्तर की मनोभूमि प्रयत्न पूर्वक बनाई जा सकती है तो इस प्रयत्नशीलता का नाम ही साधना है। साधनारत सौम्य मनःस्थिति को उन आघात अवरोधों का सामना नहीं करना पड़ता जिनके कारण मृगी जैसे अचेतन मन में उत्पन्न होने वाले रोगों की आशंका सामने आये।

मानसिक संतुलन में प्रत्यक्ष या परोक्ष अवरोध उत्पन्न होने से कई प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं इनमें विविध प्रकार की मृगी सदृश मूर्छाएं भी सम्मिलित है। अपस्मार, मृगी, एपीलेप्सी को पागलपन या दिमागी खराबी का चिह्न माना जाना चाहिए। उच्चकोटि के बुद्धिमान व्यक्ति भी इस रोग से ग्रसित हो सकते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट और जूलियस सीजर जैसी विश्व विख्यात हस्तियाँ भी इस रोग की शिकार रही है, उन्हें मृगी के दौरे आते रहे हैं फिर भी उनकी बुद्धिमानी तथा मानसिक क्षमता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। किन्तु उन्हें मृगी नहीं होती। पाई जाने पर भी यह नहीं कहा। मृगी के लक्षणों के अनुसार उसका वर्ग विभाजन पेटिट माल, साइको मोटर, टेम्पोकललोव, क्राइंग कन्वेल्सन, ब्रैथ होल्डिंग स्पाज्म, फैब्राइल कन्वल्शन आदि नामों से किया जाता है। गर्दन तोड़ बुखार, सन्निपात, अतिताप जैसे ज्वरों से भी मृगी के दौरे उभर सकते हैं। शरीरगत रासायनिक विश्लेषण करने पर कुछ गहरी बात हाथ नहीं लगती। कुछ साधारण सी खराबियाँ भर हाथ लगती हैं जैसे विटामिन डी. या कैल्शियम की कमी, रक्त शर्करा की न्यूनता के कारण संक्षोभ- हाईपग्लासीमिक रक्तगत विषाक्तता, ब्लडयूरिया आदि। पर यह शिकायतें लाखों रोगियों की रहती हैं इसलिए शरीर विशेषण में यह कमियाँ जा सकता कि दौरे इन्हीं कारणों से आते हैं और यदि इन्हें ठीक कर लिया जाय तो दौरे पड़ना बन्द हो जायंगे। ऐसी दशा में यह अंधेरे में टटोलना भर हुआ। शेर की मांद में यदि चुहिया भी बैठी पाई जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि चुहिया ही सिंह की जननी है। मृगी और मूर्छा दोनों रोग बाहर से देखने में एक जैसे लगते हैं पर उनमें मौलिक अन्तर होता है। हिस्टीरिया अवचेतन मस्तिष्क के आन्तरिक संघर्षों, अन्तर्द्वन्द्वों के कारण होता है। इसमें असामान्य विद्युतीय प्रस्राव नहीं होता और न मस्तिष्कीय कणों में कहीं कोई रुग्णता पाई जाती है।

इसलिए इसे भावनात्मक वर्ग का रोग माना जाता है। इसके विपरीत ऐपीलेप्सी मस्तिष्कीय संरचना में स्थानीय विकृति उत्पन्न होने के कारण होती है। उसे खोज निकाला जा सकता है। हिस्टीरिया में मुट्ठियाँ जकड़ जाती हैं और दाँती भिच जाती है, जिसे दूसरे लोग मुश्किल से ही खोल पाते हैं। मुँह से झाग, मूत्रेन्द्रिय से पेशाब, आँखों से आँसू, नाक से कफ भी ऐसी स्थिति में निकल सकते हैं। किन्तु मूर्छा - एपीलेप्सी में मनुष्य सिर्फ होश हवास ही खोता है और कोई उपद्रव खड़ा नहीं होता। सिर दर्द की तरह यह स्थानीय रोग है और उसकी पकड़ यान्त्रिक परीक्षण की पकड़ में आ सकती है पर अवचेतन की परतों में प्रवेश करके वस्तु स्थिति को समझना, निरूपण करना और उपचार खोजना मनोविज्ञान अथवा परामनोविज्ञान का विषय रह जाता है।

इलेक्ट्रेऐंसेफलोग्राफी ( ई. ई. जी. ) से मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह का प्रलेखन ( ग्राफ) बनता है। इस रिकार्ड को देखकर ब्रेथ होल्डिंग स्पाज्म, कोक्ल, सवकार्टिकल, इडियोपैथिक जैसी विकृतियों का पता चल सकता है, खोपड़ी का ऐक्सरे लेने से ट्यूमर, सूजन, ब्रण, क्षत आदि का पता चल सकता है। इनका उपचार भी हो सकता है। पर अवचेतन में दबी हुई ग्रन्थियों को खोलने के लिए क्या किया जा सकता है, क्या किया जाना चाहिए यह अभी निश्चित नहीं हो सका है।

मस्तिष्कीय क्षति को पूरा करने के लिए आमतौर से चिकित्सक लोग फिनोबाटोन, फिनी टाइन - सोडियम और प्रमिडोन सरीखी दवाएं देते हैं। बड़े किस्म की मृगी- ग्रेडमल एपीलेप्सी में प्राय: इन दवाओं का प्रयोग होता है। इनसे नींद की झपकी सी आती है। वस्तुतः ये नींद की दवाएँ नहीं है, मस्तिष्क के भीतर इनका प्रभाव जो सनसनी उत्पन्न करता है इसी से यह झपकियाँ महसूस होती है।

अब तक इस रोग के जो उपचार सामने आए हैं उन्हें प्रयोगात्मक ही कह सकते हैं। किस उपचार से किसे कितना लाभ हो सकेगा यह सर्वथा अनिश्चित है। इसका प्रमुख कारण एक ही है कि अचेतन मस्तिष्क की न तो संरचना ही अभी ठीक तरह समझी गई और न उस क्षेत्र में उत्पन्न विकृतियों का रूप एवं उपचार ही निर्धारित किया जा सका। अंधेरे में ढेला फेंकते रहने पर भी कभी कभी निशान ठीक बैठ जाता है ठीक उसी प्रकार मृगी का भी कभी- कभी कोई उपचार सफल हो जाता है।

किसी समय अचेतन मस्तिष्क का स्वरूप निर्धारण और उसका सुरक्षा संतुलन बनाए रखने के लिए अध्यात्मवादी तत्वज्ञान का आश्रय लिया जाता था, फलस्वरूप इस प्रकार के रोगों का वर्णन केवल पुस्तकों तक ही सीमित था, उसके रोगी यदा- कदा ही देखने को मिलते थे। जब से भावनात्मक अवरोधों की जटिलता बढ़ती गई तब से अपस्मार जैसे उन रोगों का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है जो प्रगति के पथ पर चट्टान बन कर अड़े रहते हैं और चिकित्सकों की पकड़ में नहीं आते।

मनोविज्ञानी इस प्रकार के अचेतन मन के रोगियों को यह परामर्श देते हैं कि वे खुले मन से किसी विश्वस्त मित्र के साथ वार्ता किया करें जिससे कोई दबाव दुराव भीतर पड़े हों तो वे निकल कर बाहर आ जायँ। मानसिक स्वच्छता को इस प्रकार के अवरोधों के निवारण का एक कारगर उपाय बताया जाता है और कहा जाता है कि ऐसे रोगियों को एकान्त प्रिय नहीं होना चाहिए और न अधिक सोचने- विचारने की आदत बनानी चाहिए। उन्हें हँसने- खेलने और प्रसन्नता - प्रोत्साहन के हलके फुलके वातावरण में रहना चाहिए। किन्हीं के प्रति द्वेष- घृणा के भाव हो तो उन्हें निकाल देना चाहिए। भूतकाल की विपन्नताओं और भविष्य की आशंकाओं से मन को भारी नहीं रखना चाहिए। उपचार की दृष्टि से मनोविज्ञान वेत्ताओं ने मृगी के मरीजों को यही परामर्श अधिक उपयोगी पाया है और इस प्रकार के हेर- फेर का उत्साहवर्धक लाभ भी देखा है।

अध्यात्म विज्ञान का प्रधान प्रयोजन यही है कि परिस्थितियों को महत्व न देकर हर स्थिति में सन्तुष्ट और प्रसन्न रहने तथा कर्तव्य करने की मनोवृत्ति विकसित की जाय। हँसती- खेलती और हलकी- फुलकी जिन्दगी जीने का अभ्यास किया जाय। पर यह सब हो तभी सकता जब इसके लिए अध्यात्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि को गहराई के साथ समझा और अपनाया जाय। मात्र उपचार की दृष्टि से उथला सन्तुलन बालू का महल ही बना रहता है और बनाने में देर नहीं लगती है कि बिगड़ना आरंभ हो जाता है।

उच्चस्तरीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाना न केवल मृगी के रोगियों के लिए वरन् समस्त मानसिक रोगियों के लिए यहाँ तक कि शारीरिक रुग्णता से ग्रसित लोगों के लिए भी उपयुक्त है। इस दिशा में बढ़ते हुए कदम न केवल रोग मुक्त करते हैं वरन समस्त आधि- व्याधियों को जड़ ही काट कर रख देते हैं।



मानसिक तनाव- दृष्टिकोण का दुष्परिणाम



शारीरिक और मानसिक रोगों की श्रृंखला में इन दिनों जिस भयंकर व्यथा की अभिवृद्धि हुई है वह है तनाव। हम में से अधिकांश व्यक्ति मानसिक तनाव से पीड़ित रहते हैं और उसी दबाव से अशान्त एवं विक्षुब्ध मनःस्थिति में समय गुजारते हैं। यह एक प्रकार का मानसिक ज्वर है। ज्वर पीड़ितों को कितनी शक्ति उस व्यथा को सहन करने तथा निपटने में खर्च करनी पड़ती है, यह किसी से छिपा नहीं है। मानसिक तनाव से भी प्राय: उसी स्तर की क्षति होती है। जीवन रक्षा के लिए प्रकृति ने हमारे भीतर एक ऐसी विशेष व्यवस्था बना रखी है, जो प्रतिकूलताओं से निपटने के लिए शारीरिक सक्रियता एवं मानसिक स्फूर्ति के रूप में काम करती है और उपलब्ध साधनों को एकत्रित करके आगत संकट का सामना करने के लिए जुट जाती है। इसे अनुकूलन प्रणाली कहते हैं। उस ऊर्जा के सहारे हाँ मानवी क्षमता की रक्षा होती है और उसे महत्वपूर्ण प्रयोजनों में संलग्न करके उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त करना संभव होता है। यह अनुकूलन ऊर्जा एवं तनाव जैसी प्रतिकूलताओं से निपटने में अत्यधिक क्षीण होती चली जाती है और अन्ततः विक्षुब्ध मनुष्य उन्मादियों और दरिद्रों की तरह मौत के दिन पूरे करता है।

य इस व्यस्तता के युग में तृष्णा और वासना की अतृप्त आकांक्षाएं, जटिल परिस्थितियाँ, आर्थिक कठिनाइयाँ, पारिवारिक कलह, प्रतिस्पर्द्धा, सामाजिक विकृतियाँ, छल- प्रपंच, दुष्ट दुर्व्यवहार जैसे संक्षोभ उत्पन्न करने वाले कारण भी बढ़े हैं ! उनने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को दुर्बल किया है। इतने पर भी यह कहा जा सकता है कि तनाव जैसी भयंकर विपत्ति का प्रधान कारण चिन्तन में अधीरता, उत्तेजना एवं भ्रान्तियों का भर जाना ही है।

स्पष्ट है कि तनावग्रस्त मनुष्य उन समस्याओं के समाधान में अपंग, असमर्थ सिद्ध होता है, जिन्हें इस दबाव का कारण समझा और माना जाता है। उलटे अति महत्वपूर्ण जीवन रस उसी व्यर्थ उलझन को समेटने में नष्ट होता चला जाता है, जिसे प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए आवश्यक साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता था। तनाव स्वाभाविक कम और अस्वाभाविक अधिक होता है। उसे प्राकृतिक कम और कृत्रिम अधिक कह सकते हैं। कठिनाइयों से रहित किसी का भी जीवन नहीं। उलझनें जिसमें हों ही नहीं ऐसी जिन्दगी पत्थर की तो हो भी सकती है, पर जीवधारी उनसे बचा नहीं रह सकता। बुद्धिमान अवरोधों से हँसते- खेलते जूझते रहते हैं, जो नहीं हट सकते उन्हें सहन करते और तालमेल बिठाते हैं। इसके विपरीत अधीर लोग तनिक सी बात पर तुनकते और सन्तुलन बिगाड़ते देखे जाते हैं। इसी गड़बड़ी का नाम तनाव है।

तनाव के कारण भिन्न- भिन्न हो सकते हैं। लेकिन व्यक्ति- मन पर उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, वह जीव रासायनिक दृष्टि से एक- सी ही होती है, फिर वह ठंड, भूख या अत्यधिक थकाऊ शारीरिक श्रम जैसे शारीरिक दबावों से उपजा तनाव हो, किसी बीमारी के कारण हो अथवा मनोवैज्ञानिक तनाव हो।

कनाडा के प्रख्यात शरीर वैज्ञानिक श्री हंससेल्ये ने कई वर्षों तक तनावों और उससे संबंधित समस्याओं का गंभीर अध्ययन किया। उनका कहना है कि एक व्यापारी जब व्यापार संबंधी विचार तथा कार्य करता है और योजनाएँ बनाता है, अथवा एक खिलाड़ी खेल में भाग लेता है और खेल के प्रति सतर्क रहता है अथवा वैज्ञानिक जब वैज्ञानिक समस्या से जूझता है, परिकल्पना और प्रयोग करता है, तब इन सभी की बाह्य परिस्थितियाँ यद्यपि भिन्न- भिन्न होती हैं, परन्तु इन क्रियाओं के कारण इन लोगों को जो अतिरिक्त मानसिक और शारीरिक प्रयास करना होता है, उससे भीतर जो प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं, उनका शरीर वैज्ञानिक रूप एक सा होता है। इन सभी लोगों की अधिवृक्क ग्रन्थि कार्टेस अधिक सक्रिय हो जाती है, रक्त से हारमोन अधिक स्रवित होने लगते हैं और छाती की इन्डोक्रीन ग्रन्थि, जिसे 'थाइमस' कहते हैं, सिकुड़ जाती है।

इन क्रियाओं में फर्क इस बात से नहीं पड़ता कि तनाव किस कारण पड़ रहा है- - वैज्ञानिक क्रिया- कलाप से या किं व्यापारिक गतिविधि से या क्रीड़ा स्पर्धा से या कि किसी अन्य कारण से।

तब क्या सदा बिलकुल एक सी ही प्रतिक्रिया होती है ? प्रतिक्रियाएं तो एक तरह की ही होती हैं, पर तनाव की तीव्रता के अनुसार उनमें भिन्नताएँ होती हैं। यानी यदि तनाव अधिक तीव्र हुआ तो यही क्रियाएँ- कार्टेक्स की सक्रियता, हारमोनों का स्राव और थाइमस का सिकुड़ना- अधिक तेज हो जाएगा, कम तनाव हुआ तो कम हो जाएगा।

आज के उत्तेजक वातावरण में हमें अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है और इसलिए अनुकूलन- ईंधन की हमारी आन्तरिक माँग अत्यधिक बढ़ गई है। अत्यधिक तनाव की स्थिति में शरीर की 'अनुकूलन प्रणाली' संकट का संकेत पाकर तेजी से क्रियाशील हो उठती है और पूरी शक्ति से संकट ग्रस्त मोर्चे पर डट जाती है। सेल्ये का कहना है कि यही कारण है कि विशेष संकट के समय कई व्यक्ति असाधारण काम कर डालते हैं। जैसे प्राण संकट में पड़ने पर भागने की जरूरत होने पर, लंबी कूद का भी अभ्यास न करने वाला व्यक्ति कोई काफी चौड़ी खाई पार कर जाए अथवा कोई वैज्ञानिक किसी असाध्य सी समस्या का समाधान पा जाए। I लेकिन ऐसी स्थिति में, जबकि सम्पूर्ण अनुकूलन ऊर्जा मुख्य मोर्चे पर डटी हो तो शेष हिस्से में अनुकूलन क्रियाएँ शिथिल पड़ जाती है, इससे भीतरी अंगों की सामान्य कार्य क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। इसी का नाम थकान है। अधिक तनाव से थकान आने की यही प्रक्रिया है। थकान से शरीर की विभिन्न मांसपेशियों की कार्य क्षमता घट जाती है, क्योंकि उन्हें पर्याप्त अनुकूलन ऊर्जा नहीं मिल पाती। इसका शरीर पर अवश्यंभावी परिणाम होता है। जैसे कि तेज मानसिक थकान से हृदय के पेशियों वाले भाग 'मायोकार्डियम' में स्नायुविक सन्तुलन बिगड़ जाता है, इससे जैव रासायनिक परिवर्तन होते हैं और रक्त के आवागमन नियंत्रण में बाधा पहुँचती है। कई बार आग से व्यक्ति की चमड़ी बहुत जल जाती है। ऐसे कई लोगों की डाक्टरी जाँच किए जाने पर उनके पेट में तथा आँतों में छाले पाये गये। इसका कारण भी यही है कि उनकी कुल अनुकूलन ऊर्जा जले हुए स्थानों की मरम्मत में लग जाती है। तब पाचन क्रियां की होमोस्टेटिक नियंत्रण प्रणाली को जितनी अनुकूलन ऊर्जा चाहिए, वह नहीं मिल पाती। लम्बे समय तक इस कमी से पेट और आँतों में छाले पड़ जाते हैं।

हंससेल्ये ने एक और महत्वपूर्ण तथ्य गिनाया है। यदि दिनोंदिन जीवन में तनाव अधिकाधिक बढ़ता जाए, तो हमारी अनुकूलन- ऊर्जा भी अधिकाधिक खर्च होती है। प्रकृति बनिया है और उसने एक निश्चित मात्रा में ही हर व्यक्ति को अनुकूलन ऊर्जा का भण्डार सौंपा है। यदि हमने उस भण्डार को तेज गति से लुटाया, तो उतनी ही तेजी से हमारा संतुलन डिगता जाएगा और हम भयानक बीमारियों की चपेट में आते जायेंगे। आधुनिक समाज जीवन में ये भयानक रोग भयानक गति से बढ़ रहे हैं- ये हैं हृदय रोग, कैंसर, मादक द्रव्यों का व्यसन, आतंककारी गतिविधियाँ, मारपीट, आत्म हत्याएँ और तरह- तरह की रहस्यमयी बीमारियाँ | ये रोग औद्योगिक रूप से विकसित देशों में बेतहाशा बढ़ रहे| हंससेल्ये इन्हें " अनुकूलन के रोग " कहते हैं। 1 मानसिक थकान की समस्याओं पर वर्षों अनुसंन्धान करने वाले रूसी चिकित्सक इवान सेम्योनोविक खोरोल ने आधुनिक सभ्य समाज के लोगों को एक नौका दौड़ में जुटे नाविकों को संज्ञा दी है, जो पूरी ताकत के साथ नाव खे रहे हैं - तेज और तेज। नाव निश्चित ही आगे बढ़ रही है, पर नाविकों की भीतरी ऊर्जा निचुड़ती जा रही है, निचुड़ चुकी है।

शारीरिक थकान में वस्तुतः मांस पेशियों के अतिरिक्त खिंचाव में ऊर्जा खर्च होती है। यह ऊर्जा मांसपेशियों में रहने वाले 'ग्लूकोनेट' से मिलती है। यह 'ग्लूकोनेट' मांसपेशियों की क्रियाशीलता के समय आक्सीजन के साथ संयोग करता है और लैक्टिक एसिड तथा कार्बन डाईऑक्साइड गैस बनाता है। इसीलिए शारीरिक श्रम में अधिकाधिक आक्सीजन खर्च होती है, जिसके लिए तेज सांस जरूरी होती है।

इसी तरह कार्बनडाई ऑक्साइड तो साँस द्वारा बाहर चली जाती है, पर लैक्टिक एसिड को ग्लूकोनेट में पुनः बदलने के लिए भी आक्सीजन चाहिए।

हमारे अधिकांश तनाव मानिसक होते हैं, जिन्हें हम स्वयं पैदा करते और आमंत्रित करते हैं। इन तनावों के तीन मुख्य प्रकार हैं- ( १ ) पहला है अनावश्यक आवेगमयता- आज के जीवन में व्यर्थ की हड़बड़ी और अत्यधिक भाग- दौड़। ( २ ) दूसरा प्रकार है प्रारंभिक पालन- पोषण एवं शिक्षा के दौरान विकसित एवं प्रकल्पित आदर्शों से वास्तविक जीवन का अन्तर होने पर दैनिक जीवन में पैदा होने वाले तनाव। ( ३ ) तीसरे किस्म के तनाव उपभोगों की दौड़ में अपने पिछड़े होने की अहिर्निश चिन्ता की उपज है।

पहले किस्म के तनावों के सन्दर्भ में हमें हंससेल्ये की यह बात भी याद करनी होगी कि एक पीड़ादायक प्रहार और एक वासनात्मक आवेग से भरपूर चुम्बन दोनों बराबर का तनाव पैदा कर सकते हैं। इस तनाव से बचने का हंससेल्ये की दृष्टि में कोई उपाय नहीं। पर स्पष्ट है कि आवेश और असंयम के स्थान पर विवेक और संयम का दैनिक जीवन में समावेश होने पर इन तनावों में भारी कमी हो सकती है। दूसरे प्रकार के तनावों ( जो आदर्श और वास्तविकता के बीच के अन्तर को देखकर पैदा होते हैं) को कम करने के लिए इवानखोरोल दो उपाय गिनाते हैं- (पहले ओर तीसरे किस्म के तनावों की बावत खोरोल अथवा हंससेल्ये ने कोई उपाय नहीं बताया है। )

तनाव से बचने का सरल तरीका यह है कि वास्तविकता को आदर्शों के अनुकूल ढालने के लिए संघर्ष किया जाय। हमारा जीवन कृत्रिमता, दम्भ, छल, शेखीखोरी जैसे बड़प्पन प्रदर्शनों में तथा छल प्रपंच, शोषण, उत्पीड़न जैसे क्रूर कर्मों में न लगे। भीतर और बाहर से सज्जनता ही जीवन नीति बनकर रहे।

मनुष्य अपने आदर्शों को वास्तविकताओं के अनुरूप बदल दें। यह रास्ता ऊपर से सरल प्रतीत होता है, लेकिन व्यक्ति जब एक के बाद एक अपने आदर्शों तथा नैतिक सिद्धान्तों से पीछे हटता है, तो ऐसे हर समझौते में भी उसकी अनुकूलन ऊर्जा खर्च होती है। मानव जीवन के अधिकांश तनाव ईर्ष्या जन्य होते हैं। अभावग्रस्तता की कल्पना करके कितने ही लोग दुःखी और उद्विग्न रहते हैं। अपने इन कथित अभावों से हर व्यक्ति आकुल और अशांत है। उपभोगों के साधनों की पड़ौसी के। पास अधिकता से पता नहीं कितनों का खाना, सोना हराम रहता है।

ये तनाव जितने जटिल और भयंकर हैं, समाधान उतना ही छोटा व सहज है। वह है मात्र दृष्टिकोण परिवर्तन, विचार शैली को बदल देना। औरों की तुलना में अपने अभावों का स्मरण आते ही अपने से भी अधिक अभावग्रस्तों की ओर ध्यान ले जाया जाए, तो बदली स्थिति में अपने को प्राप्त वैभव बहुत अधिक तथा अभाव अत्यल्प प्रतीत होंगे। तब अपनी साधनहीनता के प्रति आत्महत्या के स्थान पर अपनी सम्पदाओं के सदुपयोग की सतर्कता की आत्म चेतना का उदय होगा।

कठिनाइयों से जूझते - जूझते कभी असहायता की अनुभूति हो तो प्रचण्ड पुरुषार्थियों का स्मरण सहायक होता है। मिल्टन अन्धा था, पर महाकवि के रूप में आज विश्व प्रसिद्ध है। महानतम संगीतकारों में से एक बीथोवेन बहरा था, आज भी वह अमर संगीत धुनों का अनूठा सृष्टा माना जाता है। ऐसे असंख्य उदाहरण इतिहास तथा समाज में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं।

क्या अधिक श्रम और सतत् संघर्ष से सदा अनुकूलन ऊर्जा का अधिक व्यय ही होता है ? तब ऐतिहासिक महामानव जो कि शरीर- विज्ञान की दृष्टि से सामान्य मानवों जितनी ही अनुकूलन ऊर्जा से सम्पन्न होते हैं, संघर्षों के प्रबल थपेड़ों को सहते तथा प्रतिकूलताओं के झंझावात झेलते हुए भी सदा प्रफुल्ल- प्रसन्न क्यों रहते हैं ?

इस प्रश्न का उत्तर प्रख्यात रूसी शरीर विज्ञानी इवान पवलोव की स्थापना से मिल सकता है। पवलोव के अनुसार " लक्ष्य की प्रतिक्रिया किसी व्यक्ति की अत्यावश्यक स्फूर्ति का मूल रूप है।"

इसका यह अर्थ है कि जिन प्रतिभाशाली नर- नारियों में लक्ष्य की प्रतिक्रिया असाधारण बौद्धिक क्रियाशीलता के रूप में होती है, जो लोग अपने आदर्शों के लिए असामान्य बौद्धिक सक्रियता से गतिशील रहते हैं, उनमें प्रखर स्फूर्ति अनुकूलन प्रणाली के अनुकूल होती है। इसलिए ऐसे लोगों में असाधारण क्रियाशीलता से भी तनाव नहीं पैदा होता, बल्कि स्फूर्ति ही रहती है। तनाव न पैदा होने से अनुकूलन- ऊर्जा का अनावश्यक उपभोग नहीं होता।

आजकल वैज्ञानिक खोजों का क्षेत्र भी बढ़ा है और अनुसन्धानकर्त्ता वैज्ञानिकों की संख्या अधिक बढ़ी है। इस प्रकार जो खोजें हो रही हैं, वे सामूहिक कार्यों का परिणाम हैं। नूतन ज्ञान भण्डार में प्रति व्यक्ति योगदान का औसत पहले से लगातार कम होता जा रहा है। ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। इसका कारण वे यह बताते हैं कि वैसे असाधारण प्रतिभाशाली नर- नारी इन दिनों अपेक्षाकृत कम हो रहे हैं, जिनमें अपने लक्ष्य के प्रति प्रचण्ड उत्साह और उसके कारण प्रखर आन्तरिक स्फूर्ति होती है। यदि ऐसी आन्तरिक स्फूर्ति से काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ जाए तो प्रति व्यक्ति योगदान का औसत बढ़ जाएगा और खोजों का विस्तार क्षेत्र तब बहुत अधिक बढ़ जाएगा। मानविकी विद्याओं के अन्य क्षेत्रों में भी यही स्थिति है।

प्रगति के नाम पर हम अनेक क्षेत्रों में इन दिनों आगे बढ़े हैं, पर आदर्शवादी प्रतिभाओं की दृष्टि से मानव समाज दिन- दिन अधिक दरिद्र होता चला जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण है- हमारा भोगवादी, स्वार्थरत एवं आदर्श विहीन दृष्टिकोण। इसके कारण मनुष्य की सारी क्षमता आकर्षक किन्तु पतनोन्मुख प्रयोजनों में लगी रहती है। स्पष्ट है कि ओछे स्तर का जीवन क्रम अन्तःक्षेत्र में विविध- विधि विक्षोभ उत्पन्न करता है। उसकी प्रतिक्रिया से निपटने में ही वह जीवन रस सूख जाता है, जिसके सहारे महामानव ऊँचे उठने और आगे बढ़ने में समर्थ हुए हैं। तनाव हमारे जीवन को नीरस, जटिल और स्वल्प बनाता है। ऐसी स्थिति में कोई बड़ी सफलता पा सकना तो दूर उलटे तनाव का दबाव ही आधि- व्याधि दीन- दुःखी लोगों की तरह रोते- कलपते दिन गुजारने के लिए विवश करता है।



शरीर तब स्वस्थ रहेगा जब मन स्वस्थ हो



संसार में किसी भी महान कार्य के सम्पादन हेतु स्वस्थ, दीर्घ जीवन की आवश्यकता है। क्योंकि कार्य की महानता, सुदीर्घ अनुभूति की दिव्यता एवं उसकी उपलब्धि का ही परिणाम होता है। संसार के महान पुरुषों ने जो उत्तम उपलब्धियाँ संसार को दी हैं वह लगभग ६० वर्ष की आयु के होने के पश्चात् ही संपन्न कर विश्व को प्रदान की है। प्रसिद्ध नाटककार बनार्डशा ९४ वर्षों की लंबी अवधि तक लेखन कार्य करते रहे। जर्मन कवि और नाटककार गेटे ने जब अपना 'फ्रास्ट' पूरा किया तब वह ८० वर्ष की आयु को पार कर चुके थे। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ९० वर्ष की जीवन अवधि में लेखन कार्य करते रहे और विश्व को उत्तम साहित्य प्रदान किया। साहित्य के ही क्षेत्र में नहीं विज्ञान, राजनीति, समाज सुधार आदि सब में दीर्घ जीवन की अनुभूति से ही महानता की चमक आती है। अतएव दीर्घ जीवन प्राप्ति स्वयं में एक महान समस्या है ? भारत में मानव ५०- ६० वर्ष में अपने को वृद्ध मान लेता है और ७०- ८० तक काल के गाल में जा बैठता है।

इसी संसार में वे मानव भी देखे जाते हैं जिनकी आयु १५० वर्ष और उससे भी अधिक समय की होती है। वैसे तो १००, १२५ वर्ष की आयु के व्यक्ति कुछ देशों में विरले मिल ही जाते हैं, किन्तु दक्षिणी काकेशिया के छोटे से जार्जिया क्षेत्र में जरा- वैज्ञानिकों के दल द्वारा सर्वेक्षण करने से ज्ञात हुआ कि १०० - १५० वर्ष की आयु के २१०० व्यक्ति वहाँ थे। काकेशस पर्वत की मालाओं से घिरे रूस के संपूर्ण दक्षिणी प्रदेश में शतायु व्यक्तियों की कमी नहीं है। मखसूद वागीर ओगली वाजोव उत्तर पूर्व काकेशस के एक किसान थे। वह १९५९ में १५० वर्ष की आयु में चल बसे। उनके २३ बेटे- बेटियाँ, १५० नाती- नातनियाँ, पोते- पोतियाँ थीं। मृत्यु के समय उनकी सबसे बड़ी लड़की १२० वर्ष की थी। उनकी कुल सन्तान १७५ के लगभग थीं। इन सभी दीर्घ जीवन वालों का आखिर जीवन रहस्य क्या था ?

जीवन का आधार मन और शरीर की क्रियात्मक शक्ति का समन्वित रूप है। कहा है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत" इसका अर्थ यही है कि अपने मनोबल को क्षीण न होने दें। उसे उत्तम भावों से आपूरित रखें। इससे वह आशावान होता है। फिर वह परिस्थितियों पर प्रभाव डालता है। कठिन से कठिन परिस्थिति का उज्ज्वल पक्ष भी होता है, सब को देखता है, साहस रखता है। इन सब का प्रभाव शरीर पर पड़ता है फिर वह भी स्वस्थ रहता है। चिन्ता करने वाले व्यक्ति का शरीर क्षीण और रोगों से ग्रसित रहेगा, इसलिए मन की प्रसन्नता शरीर की स्वस्थता में सहायक है।

शरीर के जिस अंग से कार्य न लिया जाएगा वही अंग निष्प्राण सा हो जावेगा। यदि मशीन के कल पुर्जों से काम न लिया जाएगा तो उनमें जंग लग जाएगी। पानी के प्रवाह को रोका गया तो उसमें विकृति, गन्दगी उत्पन्न होने लगेगी। प्रकृति के इसी नियमानुसार मन और तन दोनों का यथाशक्ति सक्रिय रहना ही जीवन का लक्षण है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन जब किसी कार्य में असफल होता था तब वह असफल होने पर यह कहा करता था कि " मैंने एक और तरीका जान लिया है कि जिससे काम नहीं करना चाहिए।" इस वाक्य से यह भाव विदित होता है कि उसका मन टूटता नहीं था। धैर्य और आशावादिता ही उसके आन्तरिक जीवन का आधार था। शारीरिक जीवन की स्वस्थता के लिए उन दीर्घजीवी मानवों के रहन- सहन से पता चलता है कि वे पूर्ण सक्रिय रहते, सादा भोजन करते, दूध- दही- फलों का आहार लेते, खुले आकाश में पूर्ण गहरी निद्रा लेते थे। शुद्ध आक्सीजन वायु का अधिक से अधिक सेवन करते थे। उसकी विधि गहरी साँस लेना है, जो बचपन से ही अभ्यास में लाई जा सकती है। उन दीर्घजीवी व्यक्तियों के मन और शरीर के समन्वय को देखकर यह विश्वास उत्पन्न होता है कि दीर्घ जीवन जीने की यही कला है।

मन में क्षोभ, अशान्ति, चिन्ता न हो तो उसका प्रभाव शरीर पर न पड़ेगा। शारीरिक रोग तो मानसिक विक्षिप्ति का परिणाम है। पहले मनोजगत में विकृति उत्पन्न होती है फिर उसका घनत्व होता जाता है। उसका इतना घनत्व बढ़ जाता है कि वह रोगों के विभिन्न रूपों में परिणत हो जाता है। वार्द्धक्य भी मनःस्थिति की परिणति है। यह किसी को देर में और किसी को शीघ्र घेर लेती है। यह मानसिक स्थितियाँ वंशानुक्रम से रक्त में प्रवाहित होती चली आ रही है।

शरीर का निर्माण सूक्ष्म परमाणुओं से होता है, जिन्हें वैज्ञानिक भाषा में जीवन कोष या सेल कहते हैं। इन जीवन कोषों में अर्द्ध तरल पदार्थ भरा रहता है जो जीवन रस कहलाता है। जब यह रस सूख जाता है, तब शरीर नष्ट हो जाता है। जीवन रस का निर्माण प्रकृति के २३ मौलिक तत्वों से होता है, जीवन कोष इन तत्वों को खाद्य पदार्थों से प्राप्त करते हैं। भोजन सार ही जीवन रस में बदल जाता है। इसकी वृद्धि से कोषों का आकार बढ़ता है, वह जीवन कोष 'सेल्स' बँटकर दो हो जाता है, शरीर की वृद्धि होती चलती है।

शरीर में जब तक तंतुओं का संगठन ठीक रहता है तब तक वह स्वस्थ रहता है और जब वे निर्बल, जीर्ण- शीर्ण होने लगते हैं तभी वार्द्धक्य आक्रमण करता है। मूल इकाई जीव कोष है। उनको स्वस्थ रखना, उनमें जीवन रस प्रवाहित होना ही महत्व की वस्तु है जो भोजन के पदार्थों से प्राप्त होती है। भोजन सात्विक, पौष्टिक, शीघ्र पाचक ही लाभप्रद है।

इस वैज्ञानिक युग में जीव कोष पोषण की एक विशेष पद्धति प्रचलित हुई है। मानव मृत तभी कहा जाता है जब कि शरीर में रक्त संचार बन्द हो जाता है और चेतना लुप्त हो जाती है। किन्तु मानव शरीर पूर्ण रूपेण मृत नहीं हो पाता है। कभी- कभी उसके जीव कोष मृत्योपरान्त भी जीवित रहते हैं, कुछ जीव कोष १२० घण्टे तक जीवित रहते हैं। वर्तमान नेत्र दान इसी का जीता- जागता उदाहरण है।

डा. नाइन्स का कथन है कि पशु और मानव के भ्रूणों के जीव कोषों की रासायनिक क्रिया- प्रतिक्रिया वयस्कों के जीव कोषों की प्रक्रिया से लाखों गुनी बलशाली होती है। इसके जीव कोष मानवों में पहुँचाने पर शरीर की नष्ट हुई शक्ति पुनः वापस लौट आती है। इस प्रकार प्रवेश कराए गए जीव कोष कभी मरते नहीं। इन्हें इन्जेक्शन द्वारा प्रवेश करा देते हैं। डा. कैरेल ने पहला प्रयोग फ्रान्स में मुर्गों के बच्चों पर किया था। फिर डा. नाइन्हेस ने पौरुष हीन व्यक्तियों के शरीर में प्रजनन अवयवों के नये जीव कोष लगाकर उन्हें फिर से यौवन प्रदान किया। नाटों के रोग दूर किए। बौनों को उन्होंने पशु की ग्रन्थि जीव कोर्षो के इंजेक्शन दिए जिससे ६ इन्च ऊँचाई बढ़ गई। हृदय रोगों में जीव कोष भ्रूण के हृदय के जीव कोषों के इंजेक्शन दिए जिससे रोगी का हृदय सामान्यावस्था में आ गया। आज के युग में हृदय को निकाल कर उसे पुनः जीवित फिट करने लगे हैं। अब ऐसा अनुभव होने लगा है कि शारीरिक त्रुटियों को तो आपरेशन से काट- छाँट कर अन्य पशुओं की सहायता से उन अंगों की पूर्ति हो सकती है। मैडीकल साइन्स की वर्तमान प्रगति से स्पष्ट हो रहा है कि शरीर में जीवन रस की कितनी प्रधानता हैं। यह प्राकृतिक भोजन से प्राप्त होता है और जीवन कोषों में समाहित होता है, शरीर के संचालन का आधार है शरीर में चेतना की स्थिति ? अत: जीवन स्वस्थ शरीर और स्वस्थ चेतना का समन्वय है जो भौतिक, प्राकृतिक भोजन और स्वस्थ विचारों से निर्मित होता है।



जाइए, पहले रूठे मन को मनाइए



बुद्धिमान उसे कहा जाता है जो 'टूटे' को बनाना और 'रूठे' को मनाना जानता है। कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, मकान आदि की टूट- फूट होती रहती है। उसकी मरम्मत की जाती है। जो टूटा उसे फेंक दिया जाय, ऐसा कैसे हो सकता है ? सब कुछ नया ही नया हो यह कैसे सम्भव है ? इसी प्रकार जो रूठ जाय उससे खुद भी रूठ बैठें तो घर परिवार का चलाना कठिन है। कभी पत्नी से अनबन हो जाती है, कभी बच्चों से कहन- सुनन। कभी भाई से मनचाल हो जाती है तो कभी पड़ौसी से मन मुटाव बन जाता है। इस स्थिति को ऐसे ही रहने दिया जाय अथवा ऐंठ को और कड़ी करते रहा जाय, तो काम नहीं चलेगा। उलझन बढ़ती ही जायगी। जिनके साथ रहना है उनसे मीठे संबंध बनाए रहने में ही लाभ है।

मन हमारा सबसे निकट का संबंधी है। पत्नी, बच्चे, भाई, पड़ौसी तो दूर वह शरीर से भी अधिक समीप रहने वाला स्वजन है। शरीर से सोते समय संबंध ढीले हो जाते हैं, मरने पर साथ छूट जाता है पर मन तो जन्म- जन्मांतरों का साथी है और जब तक अपना अस्तित्व रहेगा तब तक उसका साथ भी छूटने वाला नहीं है। मन मुख्य और शरीर गौण है। मन की मर्जी पर आत्महत्या आदि से शरीर छोड़ा जा सकता है। शरीर की मर्जी से मन नहीं छूट सकता। मन की समझदारी से शरीर की अस्त- व्यस्तता दूर हो सकती है। शरीर परिपुष्ट होने से मनोविकार दूर नहीं किए जा सकते। शरीर की सामर्थ्य तुच्छ है, मन की महान। मन का का शासन शरीर पर ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर है। उत्थान- पतन का वही सूत्रधार है। निन्दा और प्रशंसा उसी को गतिविधियों की होती है। किसी को सन्त, ऋषि, देवदूत और महापुरुष बना देना यह मन की सज्जनता का ही चमत्कार है।

ऐसे उपयोगी और सामर्थ्यवान साथी को रूठने नहीं देना चाहिए। रूठ जाय तो मनाना चाहिए। हमारी आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है। अन्य काम छोड़कर भी इस ओर ध्यान देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके रूठे मन को मना लेना चाहिए।

मन आँख से दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए उसका रूठना भी नहीं दीखता, पर विवेक की आँख से देखें तो वह रूठा हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा। रूठने वाले की पहचान है - साथ न देना कहना न मानना, सहयोग न करना, नुकसान करना। बच्चा रूठ जाता है तो ऐसे ही अपने हाथ पैर पीटता है। घर को नुकसान पहुँचाता है और स्वयं कष्ट पाता है। रूठी हुई पत्नी भोजन करना, बोलना बन्द कर देती है। मन को पुष्ट करने में उपयुक्त स्वाध्याय- सत्संग की खुराक लेनी उसने बन्द कर दी है। आत्मा के पास बैठकर कभी विचार नहीं करता कि घर IT बनाव- बिगाड़ किस में है ? कुम्मार्गगामी होकर रूठे बच्चे की तरह सफलता के साधन सद्गुणों को तोड़ता- फोड़ता रहता है और स्वयं निन्दा, तिरस्कार, अभाव, दारिद्र्य, शोक, संताप का भागी बनकर कष्ट पाता है। रूठा हुआ नौकर या तो काम करता ही नहीं, करता है तो ऐसे ढंग से कि मालिक को और उलटा नुकसान पड़े। मन ने आत्मोन्नति के सारे प्रयास अवरुद्ध कर रखे हैं, कुछ करता है तो ऐसा विलक्षण जिससे इस लोक और परलोक में भविष्य अन्धकारमय ही बनता जाय। यह रूठने के प्रत्यक्ष चिह्न हैं। यह असहयोग - अवरोध देर तक नहीं चलने देना चाहिए। वह अपना भाई है उसके साथ राम- भरत जैसे मधुर संबंध बनाने चाहिए। रावण - विभीषण की तरह, सुन्द- उपसुन्द की तरह परस्पर द्रोही- विद्रोही बनकर रहने में क्या आनंद ?

मन ने यदि साथ दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती जैसी आज है। उसने काया को स्वस्थ और समर्थ रखने के लिए संयम बरता होता। लिप्सा के फेर में न पड़ा होता। जीभ को, कामेन्द्रिय को व्यवस्था में रखा होता। आहार- विहार की नियमितता बरती होती। काया गुलाब के फूल की तरह खिली हुई और गेंद की तरह उछलने वाली रही होती। बीमारी और कमजोरी की इस घर में घुसने की हिम्मत ही न पड़ती। मन रूठा बैठा रहा, शरीर को देखा, संभाला ही नहीं, रुग्णता ने घेरा डाल लिया, शरीर टूटा, आत्मा को अशान्ति रही और मन स्वयं ही उस रुग्ण काया में रहकर टूटे मकान में रहने वाले किराएदार की तरह उद्विग्र बना रहा !

मन यदि रूठा हुआ न होता तो उसने अपने आपको सँभाल लिया होता। अपने को गुण, कर्म, स्वभाव से सुसज्जित- सुसंस्कृत रखा होता, पर वह तो कोप भवन में बैठा था। कपड़े फाड़े, बाल बिखेरे, बिना नहाए- धोए, ऐसा ही गन्दा पड़ा रहा। अपना वेष बिगाड़ा, सम्मान खोया और बाप का काम बिगाड़ा। आत्मा को सहयोग देना तो सुसंस्कृत स्थिति में ही हो सकता था। मलीनता और कुत्सा का कलेवर ओढ़ लेने पर तो वह भारभूत ही रह सकता था, सो ही रह भी रहा है।

जीवन क्षेत्र को सँभालने का उत्तरदायित्व यदि उसने संभाला होता तो आज इस उद्यान की शोभा देखते ही बनती। शिक्षा से यदि उसने प्यार किया होता और एक दो घण्टे रोज भी पढ़ने के लिए उत्सुकता प्रकट की होती तो अन्धाधुन्ध अपव्यय होने वाले समय में से थोड़ा सा शिक्षा के लिए भी लग सकता था और पिछले जो दिन ऐसे ही बर्बाद हो गए उनका सदुपयोग किया जाता तो अपनी स्थिति उच्चकोटि के विद्वान जैसी हो गई होती। पर उसने विद्या में रस लिया कब ? रूठा जो बैठा रहा।

देवत्व के सारे उपकरण अपने भीतर विद्यमान थे। एक उँगली सहारे यह सारा साज झंकृत हो सकता था। अपने भीतर बैठा सन्त, ऋषि, देव प्रतीक्षा करता रहा, जरा सा सहारा मिले तो ऊपर उभर कर आए। पर मन को फुरसत ही नहीं मिली। वह रूठा रहा, भटकता रहा और अंगूठा दिखाता रहा। समय की निधि चुकती चली गई, अवसर हाथ से निकलता रहा। जीवन सन्ध्या निकट आ गई तो भी हाय रे मन ! तेरा सहयोग न मिल सका।

मन से अपनी दयनीय दुर्दशा का वर्णन करना चाहिए। परमात्मा का राजकुमार सकल साधनों से संपन्न इस प्रकार दीन- हीन, निन्दित, तिरस्कृत, असफल, असहाय बना फिरे यह कितने दुख की बात है। यह दुर्दशा केवल एक ही कारण से हुई है कि गाड़ी के दो पहियों में सहयोग नहीं रहा। आत्मा की गौरवशाली वर्चस्व की उपलब्धियों के लिए यह जीवन मिला है। यदि मन साथ दे तो महामानव की गरिमामयी स्थिति में प्रकाश और उल्लास भरा जीवन अब भी जिया जा सकता है। जो गया सो बहुत था पर जो बचा है सो भी कम नहीं। यदि उतने में भी परस्पर सहयोग रह सके तो अभी भी उतना अवसर है कि अभिशाप को वरदान में बदला जा सके।

मन ! कुचाल छोड़, इन्द्रिय लिप्साओं में भटकना छोड़। वासना आग की तरह है, भोग उपभोग से यह शान्त होने वाली नहीं है। इन्हें तृप्त करने के जितने ही साधन जुटाएगा उतनी ही अतृप्ति भड़केगी। फिर उनके कुचक्र में जितना ही फँसा जाय उतनी ही क्षमता, आयु, प्रतिभा घटती है। क्षणिक चटोरेपन के पीछे समर्थता की सम्पत्ति को गँवाने और दिन- दिन दुर्बल होते जाने से क्या लाभ ? बता मन ! तू कोयलों के ऊपर मुहरें निछावर करने में क्या बुद्धिमत्ता अनुभव कर रहा है ? आत्मा रोती बिलखती रही, उसके सन्तोष, उत्थान, कल्याण के लिए एक कदम नहीं बढ़ाया गया, एक प्रयत्न नहीं किया गया। अन्तरात्मा की सहचरी सत्प्रवृत्तियाँ कुम्हलाई, मुरझाई और सूख गई, उन्हें सींचने के लिए एक लोटा पानी नहीं डाला जा सका। सद्भाव के बालक अपने पोषण की पुकार करते रहे, उनकी आवश्यकताएँ जुटाने से मुँह मोड़े रहा गया, दुर्बुद्धि, दुष्प्रवृत्ति और दुर्भावनाओं के पोषण के लिए तरह- तरह के साज - सरंजाम जुटाए जाते रहे। परिवार का पोषण करना विकास करना पर्याप्त था। पर उन्हें विलासी और धन कुबेर बनाकर छोड़ जाने के मोह से सारी ममता उन्हीं पर उड़ेल दी गई। उन्हें ही अपना समझा गया। जो कुछ किया जाय उन्हीं के लिए, जो कुछ सोचा जाय उन्हीं के लिए, सम्पन्न बनाया जाय तो उन्हीं को, समृद्ध बनें तो वे ही। उस छोटे से दायरे में अपनी सारी ममता समेट कर मन तू ठगा गया। इस मोह ग्रस्तता ने लोक भी बिगाड़ा और परलोक भी। बता मन ! तू इसी चाल पर कब तक चलता रहेगा ? विश्व परिवार की ओर से कब तक आँखें बन्द कराए रहेगा ?

मन ! तू शरीर का मित्र बना और आत्मा का शत्रु। शरीर को ठाठ- बाट जुटाने में, बड़प्पन दिलाने में, सत्ताधारी बनाने में लगा रहा, उसी के ताने- बाने बुनता रहा। पर इससे मात्र अहंकार बढ़ा। शरीर पर चिन्ता का भार बढ़ा और इस गधे पर इतना बोझ लादा कि कमर ही टूट गई। बाहर वाले बड़प्पन देखकर चौंधियाते जरूर हैं पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला पड़ा है। मन तू खुद भी मरा और अपने मित्र शरीर को भी मारा। यदि तू आत्मा के लिए करता, तो आनन्द आ जाता। आत्मा ऊँची उठकर परमात्मा बन जाती और तू यशस्वी होता- धन्य हो जाता। पर हायरे कुचाली, तू तो रूठा ही बैठा रहा उलटा ही चलता रहा- घर को खोखला किया और अपनों को चौपट कर दिया। जिन विरानों को अपना सब कुछ समझ रहा था, उनकी करतूतें तो देख, अहसान मानना तो दूर अधिक शोषण के लिए उतावले और कृतघ्नता से बावले बने फिर रहे हैं। तेरे सारे प्रयास एक तरह से निरर्थक और निष्फल ही चले गये।

जीवन लक्ष्य की बात सोचने के लिए तुझे फुरसत ही नहीं मिली, कर्तव्य का ध्यान कभी आया ही नहीं, ईश्वर के दरबार में जाकर लेखा- जोखा देना पड़ेगा, यह कभी सूझा ही नहीं, स्वार्थपरता की संकीर्ण परिधि में कीचड़ के कीड़े की तरह कुलबुलाता, विलखता रहा गया अभागे ! अपने को ज्वलंत दीपक की तरह प्रकाशवान बनाकर सबको प्रकाश देता और स्वयं प्रकाशपुंज कहलाता, यह मार्ग तुझे क्यों नहीं सूझा, विश्व भगवान की सेवा साधना के लिए भीतर से हुलस क्यों नहीं उठा ! पत्थर के टुकड़ों पर सिर पटक कर ईश्वर भक्ति की विडम्बना तो रचता रहा पर प्रेम के अमृत की एक बूंद भी सच्ची भक्ति के रूप में कभी नहीं उपजी। आस्तिकता का कलेवर ओढ़े फिरने वाले नास्तिक ! बता तेरी इस बाल क्रीड़ा से ईश्वरीय अनग्रह का एक कण भी कैसे मिल सकेगा ?

मन ! तेरे हाथ जोड़ते हैं, तेरे पैर छूते हैं, तेरे चरणों पर लोटते हैं, तू जीता हम हारे। पर अब कृपा कर रूठना छोड़ दे। कुचाल मत चल, सही रास्ते पर आजा, आत्मा का बन, उसी के साथ रह, उसी की सहायता कर, उसी के काम आ। आखिर तू आत्मा का ही तो पुत्र है। माता के साथ दुष्टता, माया के साथ रास विलास। बच्चे ! इस रास्ते से पीछे लौट। बाप, अब तो कृपा कर। तेरी शरण में आए शरणागत को। अब और आगे मत सता। तू रूठना छोड़ दे, मन चाहे तो जीवन सन्ध्या की इन घड़ियों में भी अन्धकार को प्रकाश में बदला जा सकता है। देवता, अब तू प्रसन्न हो, वरदान दे तभी नाव पार उतरेगी अन्यथा अब डूबे - तब डूबे।

ऐसा चिन्तन, मनन हमें नित्य ही एकान्त में करना चाहिए। मन के साथ वार्तालाप करने का नाम ही मनन- चिन्तन है। उसी को स्वाध्याय सत्संग की उच्च भूमिका भी कहते हैं।



आप कितना मानसिक आघात सहन कर सकते हैं



हमारे सामने मानसिक आघात से मृत्यु के दो उदाहरण हैं, जो बार- बार स्मृति में हरे हो आते हैं। हमारे एक विवाहित शिष्य की मृत्यु बड़ी रहस्यमय हुई। उनकी पत्नी बीमार हुई। तीन- चार बच्चों के पिता थे। यथेष्ठ चिकित्सा के बावजूद भी स्त्री चल बसी। पति महाशय असीम हार्दिक वेदना के वशीभूत हो गए। लोग छाती फाड़- फाड़ कर चिल्लाते हैं, सिर पीट लेते हैं, डूब मरते हैं, उनके आँसू नहीं सूखते, पर इन महाशय ने ऐसा कोई रुदन स्पष्ट नहीं किया। पत्नी का दाह संस्कार करके वे गुमसुम से हो गये। हम लोग गमी करने भी गए, पर फिर भी वे सुस्त- गुमसुम ही बैठे रहे, बाहर आना- जाना भी न हुआ। मित्रों के साथ भी उनका दिल हलका न हुआ। कई नए रिश्ते भी आए, मित्र दुबारा उनसे विवाह का आग्रह करते रहे। पर वे गुम सुम, निष्क्रिय ! हमने बड़े दुख से उनकी मृत्यु का दुखद समाचार सुना। सन्न रह गए। वे पत्नी की मृत्यु से हुए मानसिक आघात को सहन नहीं कर पाए थे 1 प्रबल मानसिक आघात ने उनके अचेतन जगत पर ऐसा हानिकारक प्रभाव डाला कि उन्हें निराशा और वेदना ( मेलेन्कोलिया ) का रोग हो गया था। उनका हँसना, उठना- बैठना, खाना- पीना और मिलना- जुलना सब कुछ जैसे बन्द हो गया था। नींद की तो भारी कमी हो गई थी। रोने- पीटने से जो शोक की मात्रा कम हो जाती, उसके अभाव में वे चल बसे।



मानसिक आघात से आत्महत्या



दूसरा उदाहरण एक नवीन आत्महत्या का है। एक चालीस वर्षीय गृह पत्नी, जिनकी कन्या एम. ए. पास हैं, वस्त्रों में मिट्टी का तेल छिड़क आग लगा कर जल गईं। सर्वत्र तहलका मच गया। पुलिस आई, पर मालूम हुआ कि उनके पति दफ्तर गए हुए थे और कन्याएँ स्कूल में थीं। तहकीकात करने से मालूम हुआ कि वे बड़े अमीर की पत्नी र्थी, प्रारंभिक जीवन बड़े ऐश- आराम में व्यतीत हुआ था। दुर्भाग्य पति को सट्टे की कुटेब लगी। उसमें सब कुछ धन हार गए और सेठ के यहाँ लगी हुई पुरानी नौकरी भी छूट गई। गरीबी के अभावपूर्ण दिन आए। पति पर भी भयंकर मानसिक आघात लगा, पर वे तो उसे किसी प्रकार सहन कर गए। उनकी पत्नी रह- रह कर अपनी पुरानी अमीरी और वैभव का जीवन याद किया करतीं और आठ- आठ आंसू बहाया करतीं। उन्हें बड़ी ही निराशा और पति के प्रति क्रोध की अनुभूति हुई। जीवन नीरस हो गया। चलना फिरना और बोलना- चालना बन्द सा हो गया। उनके दिमाग में तरह- तरह के ऊल- जलूल विचार उत्पन्न होने लगे। वे अपनी नई गरीबी की बदली हुई परिस्थिति से समझौता न कर पाईं। पति- पत्नी की अनबन चलती रही। एक दिन पति की अनुपस्थिति में प्रबल आवेग के फलस्वरूप वे आत्महत्या कर बैठीं। मूल में उनकी मृत्यु का कारण अपने मानसिक आघात को सहन न कर पाना था।



आघातों को सहन करने की शक्ति बढ़ाइए



यह संसार कठोरताओं और कटुताओं की पाठशाला है। यहाँ पग- पग पर विरोध और विपत्ति से जूझना पड़ता है। न जाने किस- किस रूप में हमारे शत्रु भरे पड़े हैं, न जाने कितने प्रकार की हानियाँ ( धन, जन, यश, प्रतिष्ठा आदि ) सहन करनी पड़ती हैं। सांसारिक जीवन में प्रतिदिन हम अनेक प्रकार के क्लेशों से पीड़ित रहते हैं किन्तु फिर भी धैर्य और साहस से नब्बे प्रतिशत कठिनाइयाँ हल हो सकती हैं। मन बड़ा दगाबाज है। ढीला पड़ने पर निर्बल बनाता है, शरीर को निर्जीव सा कर देता है किन्तु यदि तना हुआ अपने वश में रखा जाए, साहस, धैर्य, प्रयत्न और पुरुषार्थ से परिपूर्ण रखा जाए तो यही मन हमारी बड़ी सहायता भी कर सकता है। आघात को सहन करने की अद्भुत क्षमता भी उत्पन्न कर सकता है। अत: जब आपको यह लगे कि आप मानसिक आघात के पंजे में आ रहे हैं, तो तुरन्त सावधान हो जाइए। मन का ढीलापन दूर कीजिए और अपने पुरुषार्थ को तीव्रता से उद्दीप्त कीजिए।

आप मन में सोचिए कि " जो विपत्ति यकायक मुझ पर आई है, मैं उससे पराजित या पस्त नहीं हूँगा। एक खिलाड़ी की तरह खेल खेलूँगा। हार गया तो कोई परवाह न करूँगा। मैं जानता हूँ कि आपत्तियाँ इसी प्रकार आती रहती हैं, किन्तु मुझ जैसे पुरुषार्थी उनके सामने विचलित नहीं होते। मैं कायर नहीं हूँ। मैं साहसी हूँ, वीर हूँ। पुरुषार्थी हूँ। इस नानसिक आघात का मुझ पर कोई भी दूषित या हानिकर प्रभाव नहीं पड़ सकता। मैं तो कर्म मार्गी हूँ। कर्म करना मेरे हाथ में है, हारजीत ईश्वराधीन है। अतः मैं प्रत्येक स्थिति में आनन्द का अनुभव करता हूँ और कड़वा या मीठा जैसा भी होता है, रस लेता हूँ। गुप्त मन को मजबूत कीजिए।

शरीर के अन्दर दुखों एवं कमजोरियों की प्रतीति हमें अपने गुप्त मन की सूक्ष्म क्रियाओं और उनकी छिपी हुई प्रतिक्रियाओं से होती है। अस्थिर और कमजोर मन वाला व्यक्ति पीड़ा से क्लान्त हो उठता है, दूसरा मजबूत मन वाला व्यक्ति उसी कठिनाई को साधारण से झटके की तरह सहन कर लेता है। श्री रामचन्द्र के वन गमन पर दुर्बल हृदय महाराज दशरथ पुत्र वियोग में ही मृत्यु को प्राप्त हुए थे, पर दृढ़ हृदया कौशल्या ने उसी पुत्र वियोग को और चौदह वर्ष के लम्बे युग तक सहन कर लिया था। कौशल्या जी निश्चय ही दृढ़ और सहनशील मन वाली वीर रमणी थीं। कुछ व्यक्ति कड़वी औषधि शरबत की तरह गट- गट कर पी जाते हैं, तो कमजोर मन वाले उसी कुनैन को पीकर घण्टों उलटा सीधा मुँह बनाते हैं। कुछ दुर्बल हृदया शहरी स्त्रियाँ प्रसव की काल्पनिक पीड़ा से भयभीत होकर सोच ही सोच में दुर्बल हो जाती हैं, दूसरी ओर दृढ़ मन वाली ग्रामीण स्त्रियां खेतों पर परिश्रम करते- करते प्रसव करती हैं और स्वस्थ रहती हैं। कुछ सर्दियों में ठण्डे पानी से स्नान करते हैं तो कुछ ऐसे डरते हैं जैसे प्रत्यक्ष काल ही आ गया हो। इसका कारण मन की दृढ़ता या कमजोरी है।

आप मन में जिस दुख को जैसा मान लें, वैसी हो कठिनाई एवं आन्तरिक दुख का बोध होता है। सुख- दुख तो आपके मन की दो स्थितियाँ मात्र हैं। आप जिस स्थिति को मन में देर तक रखना चाहें, अपने दृढ़ आग्रह से रख सकते हैं। मन के क्लेश का निर्माण स्वयं आपके मन के गलत प्रयोग द्वारा ही होता है।

यदि आप यह मान लें कि अमुक बात से हमें बहुत कष्ट है तो निश्चय ही आपको उससे बहुत कष्ट मालूम होगा। यदि हम यह मानें कि " ऐसे- ऐसे कष्टों का हमारे ऊपर कोई असर नहीं होगा।" तो निश्चय जानिए आप अनेक मानसिक आघातों को सहज ही सहन कर जाएंगे। अपने को मजबूत बनाने के लिए सदा दृढ़ मानसिक संकेत देते रहें।

उच्च स्वर से कहें, " मैं वीर और साहसी हूँ। ईश्वरीय शक्ति से युक्त हूँ। साधारण झटकों का मेरे ऊपर कभी कोई दूषित प्रभाव नहीं पड़ता। मुझे अनुभव हो चुका है कि मुझ में इन मानसिक आघातों को सहन करने की आत्म शक्ति है। मैं अपने मन को इन तूफानों से विचलित नहीं होने देता। मैं शुद्ध हूँ, तेजस्वी हूँ, आनन्दमय हूँ। परम प्रकाशवान आत्म स्वरूप हूँ।" इन संकेतों में विश्वास करें।

स्मरण रखिए, आपकी सहनशक्ति स्वयं आपके मन के भीतर है, कहीं बाहर नहीं है। जितनी दृढ़ता मन में आती जाएगी, उतनी ही शारीरिक तकलीफें भी कम होती जाएंगी। मन की सहनशीलता के अनुपात में ही शरीर कमजोर या मजबूत बनता है। सारे दुख मानसिक है। मन का बल ही हमें धैर्यवान् या अधीर बनाने वाला है। जहाँ मन सबल है, वहाँ मनुष्य मानसिक आघातों का भी स्वामी है। जब कभी आपको मानसिक आघात हो, तो कुछ शारीरिक कार्य करें, टहलने जाएँ, स्थान परिवर्तन करें, मित्रों के साथ गपशप करें, ठण्डे जल में स्नान करें, संगीत या भजनों का गान करें। आपके घर में यदि बच्चे हों तो उनसे खेलें या कोई घरेलू कार्य ही करें। अनेक महापुरुषों ने बागवानी द्वारा अपने मानसिक आघातों को सहन किया है। स्मरण रखिए- " मात्र तिष्ठः पराड्मना: " - अथर्व वेद ८/१/९

शिथिलता और अनुत्साह ठीक नहीं ठीक नहीं है। अकर्मण्यता और निराशा एक प्रकार की नास्तिकता है।





मन को स्वस्थ कैसे बनाया जाय ?





शारीरिक स्वास्थ्य जीवन में आवश्यक है परन्तु उससे कहीं अधिक मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि यदि मनुष्य का मन स्वस्थ नहीं है, तो शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता। बहुत से लोग सर दर्द, अपच, भूख की कमी, जोड़ों के दर्द तथा इसी प्रकार के अन्य रोगों से कष्ट पाते हैं, परन्तु जब वे डाक्टरों के पास जाकर अपने शरीर के विभिन्न अंगों की जाँच करवाते हैं, तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता है जब डाक्टर कोई दवा देकर कह देता है कि आपको कोई रोग नहीं है, खाइए, पीजिए, ठीक हो जाइएगा। वास्तव में ऐसे लोगों को मानसिक उपचार की आवश्यकता है। मानसिक उपचार के अन्तर्गत औषधियों को कोई स्थान नहीं प्राप्त है। उसके लिए आवश्यक है मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन। यह काम कुछ परिस्थतियों में मनोवैज्ञानिकों को सौंपा जा सकता है क्योंकि वे ही ऐसी विधियों से अवगत होते हैं जिनसे किसी व्यक्ति के जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण को बदला जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोवैज्ञानिकों पर बहुत अधिक निर्भर रहना, बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। मनोवैज्ञानिक तो केवल पागलों, असाधारण मानसिक असंतुलन की दशा वाले व्यक्तियों का उपचार करने में विशेषज्ञ होता है। उसका काम इतना खर्चीला होता है कि सामान्य मानसिक स्वास्थ्य के लिए उसकी सेवाएँ प्राप्त करना कठिन है। यदि साधारण जन कुछ बातों का ध्यान रखें तो वे अपने आप मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा मनोवैज्ञानिकों की सहायता के बिना ही कर सकते हैं। अतः हम उन बातों पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे।

सबसे पहले हमें यह जानना चाहिए कि मनुष्य का मन कैसे बनता है और उसकी शक्ति का स्रोत क्या है ? अब से दो सौ वर्ष पहले प्राच्य तथा पाश्चात्य दर्शन और धर्म की मान्यता यह थी कि 'मन' और 'शरीर' दो अलग- अलग संज्ञाएँ हैं। शरीर नाशवान् है परन्तु 'मन' आत्मा की शक्ति है, जो शरीर के नष्ट होने पर अपना काम बन्द कर सकती है परन्तु नष्ट नहीं होती। जीव- विज्ञान की खोजों के फलस्वरूप इस मान्यता में परिवर्तन हो गया है। मन- शक्ति भी शरीर का एक धर्म है। उसका निवास मस्तिष्क और स्रायु मंडल में होता है। इन शरीरांगों के सबल- निर्बल या नष्ट होने पर मन भी सबल, निर्बल और नष्ट होता है, ऐसा आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है। हो सकता है कि इस मान्यता पर कुछ लोग विश्वास न करें परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मन और शरीर का अन्योन्याश्रित संबंध है। यों तो शरीर के गुण अधिकांश रूप में वंश परम्परा के अनुसार निश्चित होते हैं परन्तु जन्म के बाद से मनुष्य जैसी वायु, जल और भोजन का सेवन करता है, उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर के अनुसार मस्तिष्क बनता है तथा मस्तिष्क के अनुरूप मन बनता है। भारतीय साहित्य में सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजनों की चर्चा है। इन तीन प्रकार के भोजनों से तीन प्रकार का मन बनता है। स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में भी विद्वानों का विचार था कि शरीर का मन से सम्बन्ध है परन्तु उस बात को ठीक वैज्ञानिक तरीके से समझाया नहीं गया था।

मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि मनुष्य निरन्तर अशुद्ध वायु का सेवन करता रहे, तो उसका रक्त दूषित हो जायगा, उसके मस्तिष्क को शुद्ध रक्त न मिलने से उसकी मानसिक क्रियाएँ निर्बल हो जायगी। बुद्धि का विकास रुक जायगा, अवधान शक्ति नष्ट होगी, एकाग्रता भी न पैदा हो सकेगी, आलस्य बढ़ जायगा। शरीर पर गन्दी वायु के प्रभावों से मन पर भी प्रभाव पड़ेगा। मदिरा का सेवन करने से तर्क और चिन्तन की शक्ति निर्बल पड़ जाती है। मनुष्य की मानसिक दशा ऐसी हो जाती है कि वह व्यावहारिक जीवन व्यतीत करने में असमर्थ हो जाता है। अन्त में वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ साम्य स्थापन नहीं कर पाता। पास पड़ौस, सगे- संबंधी, इष्ट मित्र सभी उसे त्यागने लगते हैं और अन्त में उसका मानसिक स्वास्थ्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों का भिन्न- भिन्न प्रभाव मन पर पड़ता है। कोई मनुष्य की संवेगात्मक शक्तियों को बल देता है, जैसे क्रोध को उद्दीप्त करता है, कोई काम शक्ति को अनावश्यक रूप से जागृत करता है, कोई मन को स्थिर बनाता है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को शुद्ध वायु, जल तथा भोजन की व्यवस्था रखनी चाहिए। खेद की बात है कि आजकल बहुत कम लोगों का ध्यान इस ओर जाता है। शहरी जीवन ऐसा खराब हो गया है कि लोग भेड़- बकरियों की तरह रहते हैं, घर का बना शुद्ध ताजा भोजन पसंद न करके होटलों और जलपान गृहों की खाक छानते घूमते हैं, तम्बाकू और चाय का इतना अधिक सेवन होने लगा है कि मनुष्य अपनी आय का एक बड़ा अंश इन पर फूँक देता है। खान- पान संबंधी इन आदतों को दूर किए बिना मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं बनाया जा सकता।

शुद्ध वायु, जल और भोजन के संबंध में अच्छी जानकारी प्राप्त करने के लिए तत्संबंधी साहित्य यदा- कदा पढ़ते रहना चाहिए, यद्यपि इस सम्बन्ध में मनुष्य का दृष्टिकोण सदा प्रयोगात्मक रहना चाहिए। थोड़ा विवेक से काम लेने पर मनुष्य अपनी कठिनाइयों का हल अपने आप निकाल सकता है। उदाहरण के लिए यदि आप की आय कम है, आप कोई अच्छा मकान खुली जगह में बनवा नहीं सकते और अधिक किराया देकर कोई हवादार बँगला नहीं ले सकते जिससे आपको किसी घनी आबादी वाले मोहल्ले में रहना पड़ता है, तो रोने से काम नहीं चल सकता। सबेरे तड़के उठकर खुले मैदान या पार्क में जाकर शुद्ध वायु और धूप का सेवन किया जा सकता है। यही बात खान- पान के लिए सत्य है। मनुष्य को अपने लिए भोजन की मात्रा और प्रकार का निश्चय कर लेना चाहिए। यदि ध्यान पूर्वक मनुष्य प्रायोगिक तौर पर एक अवधि तक एक प्रकार का भोजन करता रहे, तो उससे वह जान सकेगा कि वह भोजन उसके मन को स्वस्थ रखने में कहाँ तक सहायक होता है। बाद में वह अपने भोजन के विषय में कोई निश्चित निर्णय कर सकता है।

श्रम- विश्राम का ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है। अत्यधिक श्रम से, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, मनुष्य अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। सीमा से अधिक काम करते रहने पर मानसिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया है कि अधिक श्रम करने और निरन्तर करने से स्नायु दुर्बल हो जाते हैं। सोचने, कंठस्थ करने, कल्पना करने की और दूसरी शक्तियाँ जवाब दे देती है। इसलिए आप जो काम करें इस बात का ध्यान रखें कि यदि अपनी कार्यकुशलता घट रही है और काम की उत्तमता गिर रही है तो काम बन्द कर दीजिए। यदि आप एक काम लगातार छः घण्टे करते हैं, तो उसकी उत्तमता, उस काम की उत्तमता से कम होगी यदि वह अलग- अलग दो या तीन टुकड़ों में किया गया है। जिस काम में अधिक एकाग्रता और गम्भीर चिन्तन आवश्यक होता है, उसे अधिक समय तक नहीं किया जा सकता। देर तक काम करने से वह यांत्रिक बन जाता है।

मानसिक स्वास्थ्य के लिए विश्राम भी उतना ही आवश्यक जितना कि भोजन। विश्राम से मनुष्य खोई हुई शक्ति पुन: वापिस पा जाता है। विश्राम के अन्तर्गत सोना, निश्चल लेटना, मौन रहना आदि बातें आ जाती हैं। इन्हें कितनी देर करना चाहिए, इसकी सीमा नहीं निर्धारित की जा सकती है। जिस व्यक्ति में जीवनी शक्ति अधिक होती है, वह काम भी अधिक कर सकता है और उसे कम विश्राम की आवश्यकता होगी। इसलिए आवश्यकतानुसार ही विश्राम करना चाहिए। आप प्रायोगिक तौर पर विश्राम की सीमा निर्धारित कर सकते हैं। अधिक धन कमाने के लोभ मनोरंजन की लत और अनियमित जीवन के कारण विश्राम की ओर से मनुष्य उदासीन हो जाता है। अन्त में उसकी जीवनी शक्ति नष्ट होगी और मानसिक शक्तियाँ कुण्ठित हो जाएँगी। आप ठीक से न सोएँ तो आपकी स्मृति, ध्यान और बुद्धि पर प्रभाव पड़ेगा और उन्माद का रोग लग सकता है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए विश्राम आवश्यक है।



तनाव दूर करने के लिए शिथिलीकरण साधिए



तनाव के दो कारण होते हैं - एक शारीरिक, दूसरा मानसिक। अधिक काम करने से, विश्राम न लेने से, नशे पीने या शीत ताप की अधिकता जैसे शरीर पर अतिरिक्त बोझ डालने वाले कारण से शरीर संस्थान उत्तेजित हो उठता है और प्यास, थकान, सिर दर्द, बेचैनी, नींद न आना, दाह जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं। मानसिक कारणों में क्रोध, आवेश, उत्तेजना मुख्य हैं। चिन्ता, भय, शोक, उदासी, कुढ़न, ईर्ष्या आदि कारणों से भी तनाव बढ़ जाता है।

कपटी, षडयन्त्रकारी और आतंकवादी व्यक्ति अपनी उद्धत गतिविधियों के कारण मन को बुरी तरह उत्तेजित कर देते हैं और तनाव बढ़ जाता है। यह मानसिक विकृतियाँ रक्त में अम्लता बढ़ाती हैं। पाचन क्रिया बिगाड़ती हैं और शरीर को रुग्ण बना देती हैं।

मानसिक उद्वेगों के कारण मांसपेशियों और नाड़ी संस्थान के मिलन केन्द्रों पर 'एसिटिल कोलेन' नामक पदार्थ बनने लगता है। यह अन्य पदार्थों के साथ मिलकर कार्बन और कोगल का निर्माण करता है। इसी स्थिति में लैक्टिक अम्ल भी बनने लगता है जिससे शरीर की मुलायमी चली जाती है और कड़ापन बढ़ने लगता है। यह कड़क रक्त प्रवाह और पेशी संचालन में अवरोध उत्पन्न करती है। यहीं से कई प्रकार के रोग होना शुरू हो जाते हैं। कैलशियम और मैगनेशियम फासफोरस की कमी से जो शारीरिक 'तनाव' उत्पन्न होता है उसकी पूर्ति दही, दूध, पनीर, विटामिन डी., पालक चुकन्दर, गेहूँ, खजूर जैसे पदार्थ लेकर पूरी कर ली जाती है। इसी प्रकार आहार- विहार की गड़बड़ी का सुधार एवं थकान को विश्राम से ठीक किया जा सकता है। कठिनाई उस तनाव को दूर करने में आती है जो मनोविकारों के कारण उत्पन्न होता है। यदि सोचने का ढंग सुधारा न जाय, प्रसन्न और भार मुक्त रहने का स्वभाव न बनाया जाय तो फिर 'तनाव' के कष्ट से छुटकारा पाना कठिन है। इस कष्ट से स्थाई मुक्ति । तभी मिल सकती है जब अपने चिन्तन और स्वभाव में सज्जनता एवं शालीनता की मात्रा बढ़ाकर चित्त को हलका और उल्लसित रखा जाय।

मानसिक तनाव दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि सरल, निर्मल और निष्कपट जीवन जिया जाय। असन्तोष और उद्वेग से बचा जाय। महत्वाकांक्षाएँ उतनी रखी जायं जो आज की स्थिति में संभव हों। अक्सर लोग ऐसी कल्पनाएँ और आकांक्षाएँ गढ़ते रहते हैं जो साधन संपन्न स्थिति में ही संभव हैं। अभी से उनके लिए ललचाते रहने पर अकारण असन्तोष और उद्वेग उत्पन्न होता है और मानसिक तनाव बढ़ता है। उन्नति की योजनाएँ तो बनानी चाहिए और शान्तिपूर्वक उस मार्ग पर भी चलना चाहिए, पर उनकी पूर्ति के लिए आतुर नहीं होना चाहिए, विशेषतया तब, जबकि उस स्तर की सफलता प्राप्त करने के साधन अपने पास नहीं हैं। सन्तोष और पुरुषार्थ के समन्वय का नाम ही कर्मयोग है। ऐसे मानसिक संतुलन को गीता में 'स्थिति प्रज्ञ' स्थिति कहा गया है। मानसिक तनाव से बचते हुए अधिक सफलता प्राप्त करने का यही उचित तरीका भी है।

क्रोध, आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, निराशा, चिन्ता, भय का वास्तविक कारण बहुत स्वल्प होता है। यह मनोविकार कल्पना शक्ति, अव्यवस्था और दृष्टिकोण उलझा हुआ होने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। इन्हें अपनाकर मनुष्य अपनी विवेक बुद्धि खो बैठता है किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उल्टे - पुल्टे काम करता है, फलस्वरूप स्थिति और भी बिगड़ जाती है। ऐसे ही कारणों को लेकर आमतौर से लोग उद्विग्र रहते हैं और मानसिक तनाव से घिरे रहकर अपने स्वास्थ्य को अपार हानि पहुँचाते है। मनःस्थिति को साहसपूर्वक सुधारना स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है।

तनाव कम करने के उपचारों में सबसे सरल और उपयोगी 'शिथिलीकरण' प्रक्रिया है। कुछ समय के लिए शरीर को, मन को अधिकाधिक निःचेष्ट बना देने से थकान में बड़ी कमी आती है। प्रकृति यह कार्य रात्रि को सोने का अवसर देकर सम्पन्न करती है। योगी लोग समाधि में यही कार्य करते हैं वे शरीर ही नहीं मन को भी चेष्टा रहित बना देते हैं। काया कल्प की योग प्रक्रिया में भी यही होता है- रिलेक्शन अर्थात् शिथिलीकरण का उपयोग करके कितने ही प्राणी अपने क्षरण की पूर्ति करते हैं और आगे के लिए अधिक काम करने की क्षमता संग्रह कर लेते हैं।

शीत ऋतु में रोछ, साँप आदि कितने ही प्राणी चुपचाप इस तरह पड़ जाते हैं कि करवट बदलने की भी यदाकदा ही आवश्यकता पड़ती है। इस विश्रांति से शरीर की क्षति बची रहती है, फलतः बिना भोजन के भी काम चला लेते हैं। निराहार रहने के कारण जो दुर्बलता आनी चाहिए वह भी नहीं आती वरन् भोजन करते रहने के दिनों की अपेक्षा और भी अधिक स्फूर्तिवान होकर उठते हैं। लंघन के रोगी जब अच्छे होते हैं तो उनकी भूख बढ़ जाती है और शरीर की क्षति पूर्ति जल्दी ही हो जाती है। प्रसव के उपरान्त जच्चा को भी शिशु जन्म की थकान को दूर करने के लिए नई चेतना प्राप्त होती है। पर यह होता तभी है जब उसे इस बीच समुचित विश्राम मिल जाय। कुत्ते, बिल्ली आदि कई जानवर शरीर को पूरी तरह शिथिल करके पड़ जाते हैं और उतने से ही नींद की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं।

नींद और शिथिलीकरण में यह अन्तर है कि नींद में करवटें बदलने जैसा, स्वप्न देखने जैसा श्रम तो चलता ही रहता है। शिथिलीकरण में मनोयोग पूर्वक उसे भी बन्द कर दिया जाता है। शरीर और मन दोनों को ही पूरी तरह निःचेष्ट करके कुछ समय के लिए विश्राम की स्थिति में पड़ा रहना ही शिथिलीकरण है। इससे तनाव घटाने और नई स्फूर्ति प्राप्त करने में बड़ी सहायता मिलती है। योग साधना में इसे 'शवासन' कहते हैं। बौद्ध सम्प्रदाय में यह क्रिया 'अनापान स्रुति' के नाम से प्रख्यात है।

आराम कुर्सी, पलंग, चटाई, गद्दी, दीवार के सहारे जहाँ भी सुविधा हो यह आसन किया जा सकता है। चित्त पीठ के बल लेट जाइए। हाथ पैर सीधे रखिए। शरीर ढीला छोड़िए। इतना ढीला इतना ढीला मानो उसमें से प्राण ही निकल गया हो, सर्वथा निर्जीव स्थिति हो गई हो। इस भावना को अंग- प्रत्यंगों में उतारने में कुछ समय लगता है। आरम्भ में मन कम ही ढील छोड़ता है और अवयव भी अपना तनाव कम ही शिथिल करते हैं। पर प्रबल इच्छा शक्ति, मस्तिष्क के समर्थ निर्देश और भावना को श्रद्धा में परिणत करने की चेष्टा के संयुक्त प्रयत्न कुछ समय में सफल होने लगते हैं और शरीर सचमुच इतना ढीला लगने लगता है मानो वह पूर्णतया अशक्त हो गया हो, हिलने- डुलने तक की क्षमता खो बैठा हो। पैर के अंगूठे से लेकर शिर की चोटी तक मन को यह निरीक्षण एवं अनुभव करने देना चाहिए कि समस्त मांसपेशियाँ और रक्तवाहनियाँ अपना काम बन्द करके पूर्ण विश्राम का आनन्द ले रही हैं 1 और सर्वथा शिथिल पड़ी हैं।

शरीर के बाद मन का नम्बर आता है। जब देह में पूर्णतया शिथिलता अनुभव होने लगे तो उसी प्रकार का विश्राम मन को देना चाहिए। मस्तिष्क मानो नींद में चला गया हो, गहरी निद्रा की मनः स्थिति बन गई हो। चित्त जागृति और स्वप्न को स्थिति से आगे बढ़कर सुषुप्ति और तुर्या स्थिति में पड़ा हुआ पूर्ण शान्ति- विश्रान्ति का अनुभव कर रहा हो। न कोई चिन्ता न इच्छा न आकर्षण। पूर्ण निश्चितता और निर्द्वन्द्वता की स्थिति। विचारों से सर्वथा रहित मन। शिथिलीकरण का प्रयोग किसी भी थके हुए, क्षतिग्रस्त रोगी को अपनी जीवनी शक्ति पुनः अर्जित करने में बहुत सहायक सिद्ध होता है। मन:शास्त्री डाक्टर विलियम ब्राउन ने द्वितीय महायुद्ध में मानसिक रुग्णता ग्रस्त अनेकों सैनिकों को इस उपचार से अपनी खोई हुई मानसिक क्षमता पुनः प्राप्त करने में सफल बनाया था। उनने मानसोपचार की दृष्टि से इसे बहुत ही सफल साधन बताया है।