गायत्री महामन्त्र की महत्ता

गायत्री मन्त्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

यहाँ गायत्री तपोभूमि में गायत्री माता का मंदिर है। यहाँ गायत्री मन्त्र की साधना होती है। मन्त्र बड़े सार्थक एवं सामर्थ्यवान होते हैं। इसके द्वारा बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। साधारण-सा मन्त्र जो सपेरा जानता है, वह साँपों के जहर को मन्त्र पढ़कर उतार देता है। भौतिक जगत में यंत्रों का भी बहुत महत्त्व है। आज यंत्रों के द्वारा भारत वर्ष के अन्तर्गत बड़े-बड़े कल-कारखाने चलते हैं। यंत्रों का भी एक इतिहास है। मन्त्र का भी एक इतिहास है। इसकी शक्ति भी पैटन टैंक की तरह होती है। हमारे पूर्वज इस महत्त्व को जानते थे। इस कारण से उन्होंने मन्त्रों का उपयोग किया तथा उसकी जानकारी लोगों को दी। मन्त्रों का भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों तरह का महत्त्व है। इस सम्बन्ध में राक्षसों एवं देवताओं दोनों में विवाद था। राक्षस यंत्र को बड़ा बतलाते थे, अर्थात् उनकी दृष्टि में भौतिकता का महत्त्व ज्यादा था। देवता कहते थे कि मन्त्र बड़ा है अर्थात् अध्यात्म बड़ा है। मन्त्र मनुष्य को विचार देता है। मन्त्र विद्या का वैज्ञानिक महत्त्व है। जीभ से जो शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कंठ, तालु, होंठ, दाँतों यानि कि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारणकाल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों से नाड़ी-तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। वास्तव में मन्त्र की दो दिशाएँ हैं—(1) यंत्र और (2) मन्त्र। इस दुनिया में जो चीजें वस्तु के द्वारा बनी हैं, वह नाशवान् हैं। हम लोग सभी यंत्र हैं। हमारे खानपान का ढंग एक यंत्र की प्रक्रिया है। वास्तव में हलचल पर दुनिया टिकी है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि हलचल से दुनिया बनी है।

इस धरती की हर चीज प्रायः नाशवान् है। हम बच्चे के रूप में धरती पर आते हैं। वह बच्चा 15-18 साल तक नवयुवक की स्थिति में होता है, तो अच्छा लगता है। पर वही बच्चा जब 55 वें-60 वें वर्ष में पहुँच जाता है तो वह सुन्दर नहीं लगता है। वास्तव में यह चीजें टिकाऊ नहीं हैं। जब तक आपका शरीर है, तब तक आपकी पत्नी देवी, अप्सरा मालूम पड़ती है, परन्तु जब आप मर जाते हैं तो वही पत्नी एक नौकरानी मात्र शेष रह जाती है।

मनुष्य सोचता है कि हमारे पास पैसा होगा तो हमें सुख-शान्ति मिलेगी, परन्तु ऐसा नहीं होता है। उसके पास जब पैसा आ जाता है तो चोर, डाकुओं का डर बना रहता है। मनुष्य जब बी.ए. एम.ए. पास कर लेता है तो उसे बड़ी-बड़ी नौकरियों का ख्वाब होता है। हमारा सुख केवल कल्पना के सागर में डूबा रहता है, जो शेखचिल्ली की तरह कभी भी पूरा नहीं होता है। अगर हम देखें तो यह पायेंगे कि मनुष्य समस्या लेकर आता है और उसी समस्या में जिन्दगी भर लगा रहता है तथा अन्त में समस्याओं को लिये ही दुनिया से चला जाता है। मनुष्य कल्पनाओं के सागर में डूबा रहता है। यह यंत्र—जो मनुष्य शरीर है, उसको थोड़ी देर शान्ति मिलती है, परन्तु अन्ततोगत्वा उसे शान्ति नहीं मिलती है। अगर मनुष्य को शान्ति मिलेगी तो मन्त्र से मिलेगी अर्थात् अध्यात्म की ओर मुड़ने से मिलेगी।

मन्त्र जप करने की प्रवृत्ति को नहीं कहते हैं, वरन् वह विचार करने की प्रवृत्ति है। मनुष्य इन मन्त्रों को अपनाकर अपने दुःखों को सुखों में बदल सकता है। मनुष्य अपनी दिशाधारा को बदल सकता है। अधिकांश दुःख मनुष्यों को मन्त्रों की कमजोरी के कारण होता है और उसका जीवन कष्टों से घिर जाता है। मन्त्र उसे कहते हैं, जो दुःखों को दूर करता है। इससे भौतिक आवश्यकता भी पूरी होती है। एक व्यक्ति को साँप काटता है और एक तांत्रिक सपेरा आता है। वह कुछ मन्त्र पढ़ता है। साँप आकर विष वापस ले लेता है और वह आदमी स्वस्थ-सानन्द हो जाता है। यह मन्त्र का भौतिक प्रयोग कहा जा सकता है।

मन्त्रों का सागर इससे कहीं अधिक अध्यात्म के लाभों के बारे में हमें इंगित करता है। अध्यात्म क्षेत्र बड़ा विशाल है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत गायत्री मन्त्र की महत्ता सर्वोपरि है, जो मनुष्य के बुद्धि के स्त्रोत को खोल देता है और 20 वर्ष के बाद भी प्रारम्भ करने के बाद मनुष्य को महानता की ओर अग्रसर करते हुए उसे देवता बना देता है। गायत्री मन्त्र के एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का तत्त्व भरा पड़ा है। इसमें रहस्यमय तत्त्व छिपे पड़े हैं। इसका ही वेद, उपनिषद्, दर्शन, स्मृतियों, रामायण आदि ग्रन्थों में विवेचन हैं।

गायत्री को वेदमाता कहा गया है। चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरणों की व्याख्याएँ की हैं। इस प्रकार चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया गया है।

ॐ भूर्भुवः स्वः — ऋग्वेद

तत्सवितुर्वरेण्यं — यजुर्वेद

भर्गो देवस्य धीमहि — सामवेद

धियो यो नः प्रचोदयात् — अथर्ववेद

बाद में इन वेदों के द्वारा दर्शन, आरण्यक, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ। जिस प्रकार मनुष्य के एक बूँद भ्रूण कलल में मनुष्य का पूरा-पूरा स्वरूप होता है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में समस्त संसार का ज्ञान-विज्ञान भरा पड़ा है। इसमें सोना बनाने का भी विधान भरा पड़ा है।

गायत्री मन्त्र की उपासना सर्वश्रेष्ठ है। इसमें बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करने के लिए प्रार्थना है। मनुष्य को सद्बुद्धि आ जाए तो उसे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों लाभ प्राप्त होते हैं। उपासना का अर्थ होता है—पास बैठना यानि कि भगवान के पास बैठना। अगर बछड़ा गाय के पास न बैठे तो उसे दूध कहाँ से मिलेगा? माँ की छाती से बच्चा नहीं लिपटे तो माँ का दूध उसे कहाँ से मिलेगा? पारस के छुए बिना लोहा सोना कैसे बनेगा? उसी प्रकार ईश्वर के समीप गए बिना आत्मा की भूख कैसे मिटेगी? यह उपासना की पद्धति है जो मनुष्य को तृप्त करती है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में प्राण का महत्त्व है, उसी प्रकार आत्मा में ईश्वर का है। परमात्मा से रहित आत्मा शरीर का आवरण ओढ़े पशु के समान है।

परमात्मा के नजदीक जब साधक पहुँच जाता है तो वह अपनी वेदनाओं को भक्ति-भाव से उनके सामने रखता है। उस समय भगवान् भक्त की जो आवश्यक मनोकामनाएँ हैं, उसे पूरा कर देता है। उसकी तृष्णा, वासना, अहंता को समाप्त कर देता है। साधक को भौतिक लाभों के अन्तर्गत चिरस्थायी सन्तोष, मनोविकारों का शमन, संकटों का निवारण, सुखी गृहस्थ जीवन, हँसता-हँसाता जीवन, लोक-सम्मान जैसे लाभ प्राप्त होते हैं। इसके साथ ही उनका परिष्कृत स्वभाव, दैवी अनुग्रह, सेवा की भावना जैसे आध्यात्मिक लाभ साधक को मिलने लगता है, जिससे वह नर से नारायण बन जाता है।

हमारे पास तपोभूमि में नित्य एक न एक व्यक्ति आते रहते हैं, जिनकी समस्याएँ होती हैं। हमने गायत्री उपासना के माध्यम से उन्हें राहत पहुँचाने का काम किया है। एक म.प्र. की प्रधानाध्यापिका आती थीं। उसे नींद नहीं आती थी तथा हमेशा रोती रहती थीं। हमने उसे ठीक किया। अब उसको नींद आ जाती है। एक बार हमारे पास एक सेठ जी आये। उनका इनकम टैक्स का घोटाला था। वे परेशान थे। उनके पास कुल पूँजी 32 लाख रुपये थी। इनकम टैक्स का 10 लाख रुपये देना था। वे परेशान थे। हमारे कहने पर उन्हें शान्ति मिली। हमने कहा कि आपके 10 चले जाएँगे तो भी आपके पास 22 लाख बचेंगे। आप परेशान क्यों हैं? फिलहाल तो जाएगा नहीं, अगर चला भी जाएगा तो भी तेरी कमी पूरी हो जाएगी। हमने उसे गायत्री मन्त्र के जप के लिये कहा और उनकी बुद्धि में बदलाव आ गया।

बेटे, इस मन्त्र की शक्ति महान है। पहले जमाने के सन्त-महात्माओं के पास गायत्री मन्त्र का बल होता था, इसके कारण वे हर जगह विजयी होते थे। एक बार सिकन्दर हिमालय की ओर गया और एक महात्मा से कुछ माँगने को कहा। उसने कहा—आप शक्तिशाली हो तो धूप निकाल दो। सिकन्दर चुप खड़ा हो गया। अच्छा तो तेरे में इतनी शक्ति नहीं तो हट पूरब दिशा से हमें धूप लेने दे। बेटे, यह साहस एवं आत्मबल गायत्री मन्त्र का था जिसके बल पर उस महात्मा ने विश्वविजयी सिकन्दर को परास्त कर दिया था।

गायत्री महामन्त्र एक महान् एवं महत्त्वपूर्ण मन्त्र है। जब वह किसी के हृदय में प्रवेश कर जाता है तो अन्तः कपाट को खोल देता है और उसका कायाकल्प हो जाता है। आम्रपाली के अन्दर प्रवेश किया तो वह बुद्ध की महान् शिष्या बन गयी। उसने अपना तन, मन, धन सब कुछ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। एक बार वह बुद्ध के चरणों में गई, उसने कहा कि प्रभु हम अशुद्ध हैं, आपकी शरण में आये हैं। क्या आप हमारा उद्धार कर सकेंगे? भगवान बुद्ध ने उसे कुछ मन्त्र बतलाया और कहा कि आप इसका जप करें एवं अपने जीवन में उसे धारण करें। वह महिला जो अपने शरीर का व्यापार करती थी, उस दिन से अपने जीवन को बदलने का संकल्प लिया। वह महान बन गई। बुद्ध की महान शिष्या बन गयी और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ ‘संघं शरणं गच्छामि’ ‘धम्मं शरणं गच्छामि’ का नारा लगाते हुए करोड़ों लोगों तक बुद्ध का संदेश पहुँचा दिया। बेटे, यह है गायत्री मन्त्र की शक्ति, जिसके द्वारा विचारों में बदलाव आता है और उसे सन्तोष मिलता है।

वास्तव में गायत्री मन्त्र भगवान की एक श्रेष्ठ प्रार्थना है जिसके अन्तर्गत हम प्रार्थना करते हैं—

‘‘हे तेजस्वी परमात्मा! हम आपके श्रेष्ठ प्रकाश को अपने में धारण करते हैं। आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।’’

ब्रह्माजी द्वारा दिये गए इस गायत्री महामन्त्र को जिस दिन से इस धरती पर विद्यमान लोगों ने अपने जीवन में अपनाया, उसे चैन, सन्तोष, प्रेम, नैतिकता एवं सहयोग मिलने लगा। आज भी इस मन्त्र को ग्रहण करके कमजोर वर्ग के लोग भी महानता की ओर बढ़ रहे हैं। यह ठीक है कि इसके लाभ मिलने में कुछ समय लगता है। इस मन्त्र के द्वारा हथेली पर पौधे नहीं उगाये जा सकते हैं। मनुष्य के कषाय-कल्मष जब घुल जाते हैं तथा उसकी पात्रता का विकास हो जाता है तो उसे लाभ मिलता है। ऐसी अनेक कथाएँ आती हैं।

वृन्दावन में एक माधवाचार्य नामक सन्त थे। उन्होंने 24 साल तक गायत्री उपासना की, परन्तु जब लाभ नहीं मिला तो वे बहुत दुःखी हो गए और एक तांत्रिक के कहने पर गायत्री मन्त्र की साधना छोड़कर भैरव की साधना करने लगे।

थोड़े दिन में उनके पास भैरव जी आये और पीठ के पीछे खड़े हो गए और कहा कि आप आशीर्वाद माँगें। उन्होंने कहा कि आप भैरव जी हैं तो आगे आवें। भैरव जी ने कहा कि हम आगे नहीं आ सकते हैं। आगे आने पर हम जल जाएँगे क्योंकि आपने गायत्री उपासना की है। माधवाचार्य ने पूछा तो हमें लाभ क्यों नहीं मिला? उन्होंने कहा कि आपके कषाय-कल्मष थे। वे अब धुल गए हैं, अब आपको लाभ मिलेगा। माधवाचार्य जी ने भैरव की उपासना छोड़कर पुनः गायत्री मन्त्र की उपासना की तथा लाभ मिला। इस प्रकार 24 साल के बाद गायत्री साधना का लाभ मिला।

गायत्री की साधना का चमत्कार अवर्णनीय है। एक समय अकबर के महामन्त्री मानसिंह को अकबर ने बुलाया एवं कहा कि हमारा प्रयाग का किला अठारह बार ढह गया उसका कोई उपाय करो ताकि वह सुरक्षित रह सके। अकबर के आदेश को पाकर मानसिंह निकले और गंगा तट पर भ्रमण करने लगे। उन्होंने देखा कि इस वीरान स्थान पर एक महात्मा तप कर रहे हैं। वे उनके पास पहुँचे। उस समय वे ध्यानावस्था में थे। उन्होंने देखा कि एक अजगर उधर से आया और उन्हें निगलने का प्रयास करने लगा, परन्तु वह तपस्वी को निगल न सका। थोड़ी देर में उस तपस्वी का ध्यान टूटा और उन्होंने अपने तपबल से उस अजगर से अपने को मुक्त कर लिया। यह सब तमाशा देखने के बाद मानसिंह वहाँ पहुँचे। थोड़ी देर बैठने के बाद महात्माजी, जिनका नाम देवमुरारी बाबा था, ने उनका कुशल समाचार पूछा। उन्होंने कहा कि मैं अकबर का महामन्त्री मानसिंह हूँ और एक विकट समस्या के हल हेतु आपके पास आया हूँ। उस महात्मा ने पूछा कि आप निःसंकोच अपनी समस्या को बतलावें। हम उसके समाधान हेतु प्रयास करेंगे। मानसिंह ने बतलाया कि महात्मन! प्रयाग के किले का निर्माण महाराज ने 18 बार कराया, परन्तु पता नहीं किस कारण से या कोई देवी के अभिशाप के कारण वह बन नहीं पा रहा है तथा बार-बार वह ढह जाता है। महात्माजी थोड़ी देर मौन रहे और अपनी ध्यान अवस्था में चले गए। उसके बाद मानसिंह के हाथ पर कुछ रख दिया। उन्होंने कहा कि इसे आप नींव में डाल देंगे और उसके बाद निर्माण करेंगे तो किले का कुछ नहीं होगा। उन्होंने वैसा ही किया और किला तैयार हो गया। वह वस्तु जो मानसिंह की हथेली पर महात्माजी ने रखी थी, वह उन्होंने तुलसी की मंजरी दी थी। देवमुरारी बाबा गायत्री के बहुत बड़े उपासक उस जमाने में रहे हैं तथा उनका चमत्कार सर्वविदित था। सभी लोग उनके पास आते और वे सिद्ध की हुई मंजरी सबको दे देते थे।

मन्त्रों का सूक्ष्म प्रभाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसमें भी गायत्री महामन्त्र की महत्ता तो विलक्षण है। इसके जप से उत्पन्न होने वाली शक्ति सारे वातावरण को कँपा देने में समर्थ है। इसी महाशक्ति का लाभ जिन्होंने प्राप्त कर लिया है वे धन्य हो गए हैं। इस महान मन्त्र में सद्बुद्धि ही वह तत्त्व है, जिसके आधार पर मनुष्य का व्यक्तित्व निखरता है तथा उभरता है। इस साधना के द्वारा लोग ऋषि, तपस्वी बन जाते हैं, उनके जीवन का कायाकल्प हो जाता है। इस कारण से ही हम आप लोगों को बुलाते हैं, यहाँ गायत्री अनुष्ठान कराते हैं ताकि आपके पूर्व जन्म के संस्कार कम हों तथा इस जन्म में आप महानता की ओर बढ़ सकें। आपके अन्दर पूर्व जन्मों काफी कषाय-कल्मष जमा है, जिसे हमें साफ करना है, ताकि नये संस्कार उसमें भरे जा सकें। हम यहाँ पर बुलाकर आपको यज्ञोपवीत भी धारण कराते हैं। यह गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। इसके नौ धागे गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों के प्रतीक हैं। यज्ञोपवीत गायत्री की प्रतिमा है। इसे ऋषियों ने रिसर्च करके बनाया है। अगर यह लोहे, पत्थर का होता तो हम धारण नहीं कर पाते। इस धागे का वैज्ञानिक महत्त्व है। यह धागा हमारी आध्यात्मिक माँ के रूप में हमेशा छाती से लिपटा रहता है। यह हमारा मार्गदर्शन करता है।

आपको भी हमेशा गायत्री मन्त्र का जप करना है तथा अपने इलाके, मुहल्ले, शहर के लोगों को प्रेरणा देकर, उसके महत्त्व को समझाकर इस मन्त्र को जपने की प्रेरणा देनी चाहिए। यह वह मन्त्र है जिससे हमारी भौतिक तथा आध्यात्मिक समस्याओं का हल होता है तथा बड़ी-बड़ी समस्याओं का भी हल होता है। पुराणों में अनेक कथाएँ हमारे ऋषियों ने इस मन्त्र के लाभ के बारे में लिखी हैं।

एक समय की बात है कि इस पृथ्वी पर अनावृष्टि के कारण बहुत बड़ा अकाल पड़ा। सारे सरोवर सूख गए, पशु-पक्षी मरने लगे। लोग दाने-दाने के लिये मोहताज हो गए। अनेक लोग भूखों मरने लगे। उस स्थिति में लोग त्राहि-त्राहि करने लगे तथा वे गौतम ऋषि के पास समाधान को पहुँचे। उस समय गौतम ऋषि बहुत पहुँचे हुए गायत्री साधक थे। लोग उनके आश्रम में पहुँचे तथा चरणों में प्रणाम करते हुए अपनी समस्याओं को सुनाया। गौतम ऋषि ने उन्हें एक अक्षय-पात्र दिया, जो उन्हें गायत्री माता से प्राप्त हुआ था। उन्होंने कहा—आप इसे ले जाएँ, आपका समाधान हो जाएगा।

लेकिन आप यह न समझें कि आचार्य जी के पास रहकर हमने अनुष्ठान, जप, तप हवन कर लिया और हमारी गायत्री सिद्ध हो गई। हम जो चाहेंगे वह हमें प्राप्त हो जाएगा। आपका यह सोचना व्यर्थ है। इसके लिए हमें अपनी पात्रता का विकास करना परम आवश्यक है। इसके बिना आध्यात्मिक जगत में हमारा विकास नहीं हो सकता है। जितने भी प्राचीन ऋषि हुए हैं, उन्होंने गायत्री साधना के द्वारा आत्म-शोधन, आत्म-परिमार्जन किया है। योग, तप के माध्यम से अपने को गलाया है। बीज जब गलता है तभी पेड़ का रूप लेता है। अगर बीज को खाद, पानी न मिले तो बीज कभी भी पेड़ का रूप नहीं ले सकता है। हम यह कहना चाहते हैं कि आपके अन्दर कितनी कमियाँ हैं? इसे निकाले बिना आपको हम कुछ नहीं दे सकते। इसी परिमार्जन एवं आत्मशोधन के लिये हम आपको समय-समय पर बुलाते रहते हैं।

आप जानते हैं कि ऊसर भूमि में कोई उपज नहीं होती है। उसी प्रकार भावनारहित उपासना करना निरर्थक है—बेकार है। इससे कोई भी फायदा नहीं हो सकता है। मनुष्य के अन्दर राग-द्वेष, अहंकार, कटुता भरा हुआ है। इसके रहते गायत्री मन्त्र का लाभ नहीं मिल सकता है। यह निकालने का कार्य गुरु करता है। गुरु यानि प्रकाश अर्थात् प्रकाश की स्थापना होने पर अन्धकार स्वयं भाग जाता है। आप जानते हैं कि विरजानन्द ने दयानन्द का, रामकृष्ण परमहँस ने विवेकानन्द का, समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी का, हमारे गुरु ने हमारा अन्धकार दूर किया और आज गायत्री मन्त्र का लाभ हमें कितना मिला, यह आपके सामने है।

हम भी समर्थ हैं। हम भी आपका अन्धकार समाप्त कर देना चाहते हैं, प्रकाश भरना चाहते हैं। आप अपने को खाली करें। यहाँ आये हैं तो आप यहाँ से कुछ लेकर जाएँगे। आज आपको हम कुछ देकर विदा कर रहे हैं। आप जाएँ और थोड़ा भगवान के लिये भी जीना सीखें। अपने पेट के लिये ही न जीएँ, थोड़ा इस सामान्य जीवन से ऊपर उठकर कार्य करें। हमें इस कार्य से प्रसन्नता होगी। भगवान को भी प्रसन्नता होगी। आप विश्वास रखें कि आपने जो अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के बारे में हमें बतलाया था, उसका हमें पूरा-पूरा ध्यान है। हम उसे दूर करते रहेंगे। आप निश्चिन्त होकर जाएँ। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥