आत्मसमीक्षा का पर्व

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

आध्यात्मिक जगत के समस्त पराक्रमों में सबसे बड़ा पराक्रम श्रद्धावान साधक का होता है। जिसके पास श्रद्धा, समर्पण, विश्वास की पूँजी होती है। उसके पास न केवल आत्मविश्वास होता है, बल्कि ईश्वरविश्वास भी होता है। श्रद्धा की अभिव्यक्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व गुरु पूर्णिमा का पर्व है। परमवन्दनीया माताजी अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में गुरु पूर्णिमा के उसी पावन पर्व की व्याख्या करते हुए उसे आत्मसमीक्षा का पर्व घोषित करती हैं। वे कहती हैं कि इस पावन दिन हमें अपने श्रद्धा व समर्पण की समीक्षा करने की आवश्यकता है कि कहीं उसमें कोई कमी तो नहीं आ गई। जिनके पास श्रद्धा की शक्ति होती है, स्वयं भगवान उनकी रक्षा का दायित्व निबाहते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनो! सभी पर्व अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। हिन्दू धर्म में जितने भी पर्व पड़ते हैं, वे सभी अपना-अपना विशेष महत्त्व रखते हैं, लेकिन यह गुरु पूर्णिमा पर्व हमारी आत्मसमीक्षा का पर्व है। यह आत्मचिन्तन का पर्व है। यह प्रेरणा का पर्व है। यह हमारे सौभाग्य का पर्व है, जो हमें दिशाधारा देता है। हमको ज्ञान देता है, हमको प्रेरणा देता है हमारे जीवन में जितने और पर्व महत्त्व रखते हैं, उनसे यह बहुत अधिक महत्त्व, विशेष महत्त्व रखता है।

मैं तो यह कहती हूँ कि सबसे ऊँचा यह गुरु पूर्णिमा पर्व है। यह हमारी भावना का, श्रद्धा का पर्व है। यह निष्ठा का पर्व है। यह हमारे आत्मचिन्तन का और आत्मसमीक्षा का पर्व है कि हम इस वर्ष कैसा जीवन जिएँ और आज से जो शुरू हो रहा है और जो आगे आने वाला समय है, उसको किस तरीके से जिया जाना चाहिए। जो हमको प्रेरणा दे रहा है, उस रास्ते पर हम कितना चल पाए और कितना हम नहीं चल पाए। अगर नहीं चल पाए तो आगे हमको दो कदम और चलना है।

बेटे! जब हम मिल ही गए, जब हम समर्पित ही हो गए, तो फिर हमारा अहं कहाँ रहा? फिर हम रहे कहाँ? हम तो मिल गए, उस सिन्धु में जा मिले। नाला सिन्धु में जा मिला, तो वह सिन्धु हो गया। गंगा में मिला, तो वह गंगा हो गया। कल तक जो नाला था, जिसको हम छूते नहीं थे, जिसमें मल बहता था, गन्दगी जाती थी, लेकिन वह गंगा में मिलकर के पवित्र हो गया। वह गंगा हो गया।

जब जीवन समर्पित हो गया, तो शासन भी उसी सत्ता का हो गया, जिसके हवाले हमने अपनी बागडोर सौंपी है। उसी सत्ता का हमारे ऊपर अनुशासन है; क्योंकि हमने अपने को समर्पित कर दिया। जब तक हमने अपने को समर्पित नहीं किया था, तो हम अलग थे और जब हम जा मिले, तो एकाकार हो गए। कैसे—

एक नदिया एक नार कहावत मैलो-नीर बह्यो।
दोनों मिल जब एक वरन भये सुरसरि नाम पर्यो।

जब नदी और नाला आपस में मिल गए, तो उस नाले की गन्दगी कहाँ रही? नाले ने अपने को गंगा में समर्पित कर दिया, उस नदी को जो सुरसरि की धारा है।

आत्मचिन्तन का अवसर

ऐसे ही आज आत्मचिन्तन का पर्व है कि हम अपने अन्दर खोजें कि हमारे अन्दर क्या-क्या कमियाँ हैं और जो कमियाँ हैं, उनको हम निकालें। अपनी समीक्षा करें और अपने गिरेबान में मुँह डालें कि हमारे अन्दर क्या-क्या मल-विक्षेप भरे हुए पड़े हैं। इनको किस प्रकार से धोया जाए। जिसके हाथ में हमने अपनी बागडोर सौंपी है, उस सत्ता से कहें कि धोना आपका काम है और समर्पण हमारा काम।

हम अपने को आपके हवाले करते हैं, आप हमारी गन्दगी को हटाइए। हम अपनी जिन्दगी आपके हवाले करते हैं, आप रूई के तरीके से धुनते जाइए। हम कभी भी न नहीं करेंगे कि हमारे ऊपर ये चोटें क्यों की गईं? हमको रूई की तरह से क्यों धुना गया? इसमें हमारी अच्छाइयाँ हैं। हमको रूई की तरह से धुना जाएगा, तो हम फूल जाएँगे। रूई की कोई ताकत नहीं होती, पर वह जब धुनी जाती है, तो फूल जाती है। हम मुसीबतों से इनकार नहीं करेंगे। हम उन्हें छाती से लगाएँगे। कहेंगे कि आइए हमने तो अपना सब कुछ तुम्हारे हवाले कर दिया है। जब सब तुम्हारा ही हो गया है, तो हमारे पास बचा ही क्या है? जब कुछ बचा ही नहीं, तो किसी का आधिपत्य भी नहीं है।

बेटे! जब हमारा कुछ भी नहीं है, तो न हमको कोई अहंकार है, न हमको कोई लालच है। न हमारी कोई तमन्ना है, न कोई कामना है। बस, एक ही कामना है कि भगवान पीड़ित मानव जाति की सेवा के लिए जो शक्ति देनी है, वह शक्ति देना, जिससे इसको हम ऊँचा उठा सकें। अपने स्वार्थ के लिए करेंगे तो गल जाएँगे, मर जाएँगे और नेस्तनाबूद हो जाएँगे।

स्वामी रामतीर्थ एक बार अमेरिका गए। राष्ट्रपति ने उनको बुलाया। उनकी विद्वत्ता का क्या ठिकाना? बोलने में बड़े भारी धुरन्धर विद्वान थे। राष्ट्रपति ने कहा—"यह दूसरा ईसामसीह है। देखिए उन्होंने बहुत अच्छा बोला।" विवेकानन्द जब अमेरिका गए, तो उनका मजाक उड़ाया गया। अरे! जरा-सा लड़का क्या बोल सकता है? इसमें क्या हिम्मत है? उन्होंने कहा कि जब आ ही गया है, तो बेइज्जती के साथ उनसे यह कह दिया गया कि अच्छा क्या विषय दिया जाएगा? उन्होंने कहा—तुम शून्यवाद पर बोलो। विवेकानन्द ने शून्यवाद पर जो बोलना शुरू किया, तो सब हैरान रह गए कि इसके अन्दर से कौन बोल रहा है? उन्होंने कहा—मैं नहीं बोल रहा हूँ। मेरे अन्दर से मेरा गुरु बोल रहा है। मेरा वह प्रेरणा स्त्रोत बोल रहा है। मेरी जबान पर मेरा गुरु बैठा है और मेरे पीछे मेरा गुरु है।

समर्पण की शक्ति

बेटे! उसका परिणाम क्या हुआ? मैं श्रद्धा की बात, समर्पण की बात बताती हूँ। अपने को समर्पित किया, तो रामकृष्ण परमहंस की सारी-की-सारी शक्ति विवेकानन्द ने ले ली। आपको कन्याकुमारी जाना हो, तो उधर आप देखना कि विवेकानन्द की एक शिला बनी है। उस पर कितने करोड़ रुपये खरच हुए हैं। क्यों खरच हुए? बेटे! आप जानते नहीं। उन्होंने अपने लिए नहीं किया था, अपितु अपने गुरु के लिए मारे-मारे फिरे और देश-विदेश में उन्होंने रामकृष्ण मिशन स्थापित किए थे।

वह सारा-का-सारा गुरु की शक्ति ने कराया। वह इनसान अपने लिए नहीं, लोक-मंगल के लिए जिया है। एक मिशन के लिए, एक उद्देश्य के लिए, एक लक्ष्य के लिए जिया है। इसका सम्मान तो होना ही चाहिए और स्वामी रामतीर्थ गए तब? उनका मैं समझती हूँ कि कहीं एकाध जगह नामोनिशान हो। ऐसा क्यों? इसलिए कि जो भी विद्वत्ता थी, जो भी उनका ज्ञान था, वह अपने लिए था। मैं बुराई नहीं कर रही हूँ, मैं तो यह बता रही हूँ कि परमसत्ता से जुड़ जाने पर, गुरु के हवाले हो जाने पर व्यक्ति कितना ऊँचा उठ जाता है। नाचीज व्यक्ति भी कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता है।

बेटे! चन्द्रगुप्त की कोई हैसियत नहीं थी। नाई का लड़का, जरा-सा लड़का, लेकिन चाणक्य ने उसे चक्रवर्ती राजा बना दिया। किसने? गुरु ने बना दिया, जिस पर उसकी श्रद्धा थी। सारे गुरुकुल की देख-भाल चन्द्रगुप्त करता था। गुरु ने उसे महान बना दिया। वे स्वयं ही बन जाते तो? नहीं।

सन्त कभी स्वयं नहीं बनता। सन्त तो दूसरों को बनाता है। स्वयं परदे के पीछे काम करता है। परदे के आगे आकर कभी नहीं करता। अपना अहंकार नहीं गाता। कहता यही है कि बेटे तेरी कोई मदद हो सकेगी, तो अवश्य करेंगे, पर जी-जान से यही कोशिश करता है कि इसका तो कुछ हो ही जाना चाहिए। हो जाता है, तो हो जाता है, नहीं होता तो भगवान मालिक है। कभी नहीं भी हो पाता। अस्सी परसेंट हो भी जाता है। बीस परसेंट नहीं भी होता, लेकिन सन्त अपनी ओर से पूरी कोशिश करता है।

बेटे! शिवाजी के बारे में आपको मालूम है? छोटा सा, नन्हा-सा लड़का मराठा, उसको किस तरीके से समर्थ गुरु ने छत्रपति शिवाजी बना दिया। उसकी परीक्षा ली गई कि इसके अन्दर श्रद्धा भी है कि नहीं है। पहले इसको परखा जाए। पात्र को कुछ दिया जाए, तो काम आएगा और कुपात्र को दिया हुआ, तो सब व्यर्थ जाएगा। यह पात्र है या कुपात्र है, इसकी पात्रता देखी जाए।

शिवाजी को गुरु ने सिंहनी का दूध लेने के लिए भेजा। बेटे, मेरी आँख में दरद है, तू सिंहनी का दूध लेकर के आ। सिंहनी का दूध लेने के लिए जब शिवाजी गए, तो सिंहनी ने कहा—मैं तुझे खा जाऊँ तब? उन्होंने कहा आप में कोई ताकत नहीं है, जो आप खा सकती हो। क्यों? इसलिए कि मेरे गुरुजी साथ चल रहे हैं। उनका आशीर्वाद जो मेरे पीछे-पीछे चल रहा है। आपकी क्या ताकत है, जो आप मुझे खा सकती हैं? आप नहीं खा सकतीं। मेरे गुरु ने मेरे अन्दर इतना साहस और इतना बल भर दिया है कि आप खा नहीं सकतीं। आपको दूध देना ही पड़ेगा और वे दूध लेकर के वापस आ गए और गुरु से कहा—लीजिए गुरुदेव! उन्होंने कहा—"मेरी आँख तो ठीक है, मैंने तो तेरी परीक्षा ली थी।" उन्होंने भवानी से प्रार्थना की—माँ मैं इस बच्चे को बनाना चाहता हूँ। इसके लिए आपकी तलवार चाहिए? भवानी ने कहा—ले बेटे, अभय तलवार। भवानी ने अभय तलवार दी थी, जिसके द्वारा वे लड़ने में सफल हो गए, जो आज तक हमारे इतिहास में अमर हैं।

बेटे! उन्हें किसने बनाया? गुरु ने बनाया। लेकिन उनकी श्रद्धा थी, जिसने उन्हें डगमगाने नहीं दिया। गुरु ने कहा कि दूध लेकर आ, तो उसने इनकार नहीं किया। सोचा यह मेरे परीक्षा की कसौटी है। देखा जाएगा, जो होगा और देखने वाला तो मेरा गुरु है। भेजने वाला वही है, तो कण्टकों में जाऊँगा, तो बचाने वाला भी वही है। यही मेरा खिवैया है। यही मुझे पार लगाएगा। वे अपने कार्य में सफल हो गए और छत्रपति शिवाजी हो गए।

गुम्बज की आवाज है श्रद्धा

बेटे! मैंने आपको ये दो-तीन उदाहरण किसलिए दिए? एक ही बात पर दिए कि श्रद्धा हमारी गुंबज की आवाज की तरह होती है। गुंबज में जब हम आवाज लगाते हैं, तो लौटकर के वह आवाज हमारे पास आती है। हमारे मथुरा में एक पोतरा कुण्ड है। वहाँ पता नहीं क्या खूबी है? वहाँ जाकर के स्त्री-पुरुष यों कहते हैं—"नन्दलाल"। "नन्द जी का लाला सोवे कि जागे"। तो पीछे से वो 'जागे' शब्द लौटकर आता है।

यह श्रद्धा गुंबज की आवाज है, जो लौटकर आती है। गेंद को आप पूरी तरह ताकत से फेंकिए। पूरी ताकत से फेंकने के बाद गेंद वापस आपके पास आएगी; चूँकि आपने पूरी ताकत लगाई है न। यह श्रद्धा भी ऐसी ही है। हमारी श्रद्धा जितनी परिपक्व होती है, उतने ही अनुदान और वरदान हमें अनायास ही मिल जाते हैं। भौतिक भी, लौकिक भी और पारलौकिक लाभ भी हमको मिलता हुआ चला जाता है। यों तो व्यक्ति की ख्वाहिश का कोई पारावार नहीं है। आज हमारे पास एक पैसा है, तो कल हम कहेंगे कि वह पाँच गुने हो जाएँ, दस गुने हो जाएँ, सौ गुने हो जाएँ, लाख गुने हो जाएँ, करोड़ गुने हो जाएँ। इसका पारावार है क्या और यदि हमारे अन्दर सन्तोष है तब? तब हम संसार के सबसे अमीर आदमी होंगे।

इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति को क्रियाशील नहीं रहना चाहिए। पुरुषार्थ नहीं करना चाहिए। यह कतई नहीं है; लेकिन उसमें उलझ नहीं जाना चाहिए। उसी में लिप्त नहीं हो जाना चाहिए। कुछ भगवान के निमित्त भी उसको सोचना चाहिए कि जिसने हमें शरीर दिया है। जिस गुरु ने हमको अनुदान और वरदान दिए हैं। जो हमारा पोषण कर रहा है, जो हमारी रक्षा कर रहा है। क्या उसके लक्ष्य और उसके उद्देश्य के लिए भी हमारा जीवन समर्पित है या नहीं है। क्या हमारे ऊपर हमारे बीबी-बच्चों का ही अधिकार है या किसी और का भी अधिकार हमारे ऊपर है?

बेटे, हमारे ऊपर गुरु का ऋण है। वह चुकाया जाना ही चाहिए। अपने माध्यम से आपको मैं कह रही हैं। यह ऋण है कि समय रहते ही हमको जाग जाना चाहिए, नहीं तो जिन्दगी में पछताना ही रह जाएगा और यह रह जाएगा कि हाँ, हमको कोई ऐसा सन्त, ऐसा ऋषि मिला था, जिसने हमको झकझोरा। दिन और रात हमारे लिए एक कर दिए। जो सूख-सूखकर पिंजर हो गया, हमारे लिए अर्थात सारे समाज के लिए, सारे राष्ट्र के लिए उन्होंने अपने को तिल-तिल गला डाला, लेकिन हम न जाने किस मिट्टी के बने हैं कि टस-से-मस न हो सके। हम यह भी न समझ सके कि आज जो समस्याएँ हैं, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ हैं, वे कितनी भयावह समस्याएँ हैं। आप चिन्तित हैं। बेटे, आप जरा भी चिन्तित नहीं हैं, राई के बराबर भी चिन्तित नहीं हैं। सुई की नोक के बराबर भी चिन्तित नहीं हैं। गुरुजी के हृदय को देखो खोलकर, तो सिवाय सारे राष्ट्र के और सारे विश्व के चिन्तन के अलावा आपको और कुछ भी नहीं मिलेगा।

बेटे !! इस समय भी यदि हम एकजुट होकर नहीं रहे और हमने ऐसे ही समय गँवा दिया, तो फिर हाथ कुछ लगने वाला नहीं है, फिर पश्चात्ताप ही रह जाएगा। फिर कोई आपको जगाने वाला नहीं है। फिर कोई आपको दुलार करने वाला नहीं है। यह भी हम आपको बता देते हैं कि फिर आपको झकझोरने वाला भी नहीं मिलेगा और आपको दुलारने वाला भी नहीं मिलेगा। दोनों ही नहीं मिलेंगे। फिर आपको सारी जिन्दगी सिर पटक-पटककर आपकी जीवात्मा धिक्कारती रहेगी। उससे पहले ही हमको सजग हो जाना चाहिए।

समय से पहले यदि आप सजग हो जाएँ, तो क्या हर्ज की बात है? आपको जगाने वाला भी मौजूद है। आपको प्रेरणा देने वाला भी मौजूद है और आपको पुचकारने वाला भी मौजूद है। आपको छाती से लगाने वाला भी मौजूद है और गोद में खिलाने वाला भी मौजूद है। आँचल की छाया देने वाला भी मौजूद है। गड़बड़ी फैलाएँगे तो कान ऐंठने वाला भी मौजूद है। क्यों? क्योंकि जब तक गलती नहीं सुधारी जाएगी, तब तक उसके अन्दर अच्छाइयाँ नहीं आएँगी। यदि आपका समर्पित जीवन है कि हम अच्छाइयों के लिए हर पल, हर सम्भव आपके हैं, तो फिर हम आपको बना लेंगे। कैसी भी मिट्टी क्यों न हो, फिर भी बना लेंगे।

श्रद्धा जीवन में कितनी फलदायी होती है कि मैं आपसे क्या कहूँ? बेटे! कहते नहीं बनता। यह जिन्दगी का अनुभव है। यह आप जो सुन रहे हैं, यह हमारी जिन्दगी का अनुभव है। अनुभव न होता, तो हम आपसे कुछ नहीं कहते। श्रद्धा ने हमारे जीवन में ऐसा रंग लाया है कि हमें दीन और दुनिया का कुछ पता नहीं। हमें अपनी श्रद्धा का मालूम है और हमें यह मालूम है कि हमें दुःखी और पीड़ित मानव जाति की सेवा करनी है। भगवान आपको कुछ देना है, कोई शक्ति देनी है, तो हमको वह देना कि हमारे जो परिजन बैठे हैं, इनका कोई दुःख-कष्ट हो, तो हमारी आयु इनको लग जाए या कोई मुसीबत में पड़े हों, तो हमको कष्ट दे देना। हमको चाहे कैंसर दे देना, चाहे जो दे देना, हम उसको सहर्ष स्वीकार कर लेंगे, पर हमारे बच्चों को, जिन्होंने हमसे माँ कहा है, जिन्होंने गुरु कहा है; जो कहते हैं कि ये हमारे प्रेरणा के स्रोत हैं—ये हमारी रक्षा करेंगे। ये हमारे हैं, तो भगवान आप इनको बचाना। हमको ले लेना, पर इनको बचा लेना।

बेटे! श्रद्धा से व्यक्ति एकलव्य बन सकता है। सन्त कबीर बन सकता है। मीरा की श्रद्धा ने पत्थर के टुकड़े को जीवन्त गिरिधर गोपाल बना दिया, जो मीरा के साथ नाचता था। रास करता था। मीरा के लिए जहर का प्याला भेजा गया था, तो उसे कृष्ण ने पिया और मीरा ने अमृत पिया। क्यों? उसकी श्रद्धा थी। उन्होंने कहा कि मीरा जहर पिएगी? नहीं, मीरा जहर नहीं पिएगी। तो जहर कौन पिएगा? मेरे प्राणों से प्यारी मीरा, श्रद्धा की मूर्ति मीरा जहर क्यों पिएगी?

बेटे, उसके गिरिधर गोपाल ने उसके जीवन में रंग ला दिया। अपने कृष्ण के लिए वह मारी-मारी फिरी और कृष्ण जिन्दा होता तो? तो बेटे, कितने आक्षेप उसके ऊपर लगे होते। उसने उसी पत्थर की मूर्ति में से गिरिधर गोपाल को पैदा कर लिया और एकतारा लेकर के उसके लक्षण, गुणगान करने के लिए कहाँ-कहाँ फिरी? वृन्दावन से लेकर जयपुर और न जाने कहाँ-कहाँ मीरा फिरी और सूरदास? कहते हैं कि सूरदास अन्धे हो गए थे, तो कृष्ण उनकी लाठी लेकर के चलते थे। हमारी, आपकी लाठी लेकर के चलेंगे? बिलकुल भी नहीं चलेंगे, चाहे सारी जिन्दगी तपस्या करते रहिए। क्यों? क्योंकि हमने मन नहीं धोया। न हमने तन की सफाई की, न हमने मन की सफाई की। जब मन को हमने धोया नहीं, उसके हवाले किया नहीं, तो हमारी बागडोर कैसे सँभालेगा और क्यों सँभालेगा?

बेटे! भगवान ने आपको शरीर दिया है। भगवान से माँगना है तो वह चीज माँग, जिससे कि आत्मपरिष्कार हो। जिससे आत्मोद्धार हो। बुद्धि पर जो काई जम गई है, उसे हटाने की बात क्यों नहीं माँगते कि भगवान मुझे थोड़ी-सी बुद्धि दे। सद्बुद्धि तो माँगते नहीं हैं। माँगते हैं तो वे भौतिक चीजें, जो कि साथ जाने वाली नहीं हैं। उन चीजों को माँगने से क्या लाभ? उन चीजों को तो हम पुरुषार्थ से कमा सकते हैं।

पैसे को हम पुरुषार्थ से कमा सकते हैं; लेकिन श्रद्धा को हम पुरुषार्थ से नहीं कमा सकते। वह हमें अपने अन्दर से पैदा करनी पड़ेगी। अन्दर से जब पैदा कर लेंगे, तब फिर जैसा कि मैंने अभी उदाहरण दिया था और आपको बताया था कि किन-किन रूपों में किनने मदद की थी। यह सब मैंने अभी आपको बताया।

श्रद्धा से मिलती है शक्ति

राम और लक्ष्मण विश्वामित्र जी के यहाँ गए, तो उन्होंने अपना सब सौंप दिया था। राम और लक्ष्मण ने कहा—गुरुदेव! आप यज्ञ कर रहे हैं न? आपके यज्ञ के लिए हम दोनों भाई धनुष लेकर के खड़े हैं। एक पल भी डिगे नहीं, हटे नहीं। जो कार्य सौंपा, वही उन्होंने करके दिखाया। जो कहा, वही किया, तो विश्वामित्र ने अपनी सारी-की-सारी विद्या उन्हें सिखा दी। किनको? राम और लक्ष्मण दोनों को। और कोई नहीं पैदा हुए थे क्या? हुए होंगे; लेकिन वह श्रद्धा उन व्यक्तियों में नहीं होगी, जो राम और लक्ष्मण में थी।

उनमें जो पात्रता थी, वह औरों में नहीं थी। इसलिए उन दोनों को ही सारी विद्याएँ मिल गईं, शक्तियाँ मिल गईं कैसे मिल गईं? बेटे, श्रद्धा से मिल गईं। उन्होंने कहा कि यह तन भी आपका और मन भी आपका। हम राजकुमार हैं तो क्या हुआ? राजापन हमारा अयोध्या में है और गुरु के दरबार में हम शिष्य हैं, हम छोटे हैं। न हम धनी हैं, न निर्धन हैं। हम तो इनसान हैं और अबोध बच्चे हैं।

बेटे! लोक-मंगल के लिए काम करने के लिए खुद ही खड़ा होना पड़ेगा। आपको अपने लक्ष्य का निर्धारण खुद ही करना पड़ेगा कि सही क्या है और गलत क्या है? विवेक क्या है और अविवेक क्या है? इसका निर्धारण तो आपको ही करना पड़ेगा। आप अपने रास्ते पर दूसरों को चलाइए, पर आप तो स्वयं शिकार हो गए हैं। जिसने कुछ कह दिया, वही आपके समझ में आ गया, फिर आपकी अकल कहाँ गई? आप किस मतलब की दवा हैं? आपकी अकल में क्या जंग लग गई? नहीं बेटे, जंग नहीं लग गई। आप नई शक्ति लेकर के जाइए।

आज आत्मसमीक्षा का दिन है। आज आत्मसमीक्षा कीजिए, आत्मचिन्तन कीजिए और भावनाओं में सराबोर होइए। अब आप लोग जवान हो जाइए। बुड्ढे मत रहिए आपसे निवेदन है कि आप अपने विवेक की आँखें खोलें, अपने अन्तःकरण को खोलें। हमारा अन्त:करण कुण्ठित हो गया है। हमारी बाहरी आँखें तो हैं, पर शंकर जी की तरह तीसरा नेत्र जो ज्ञान का है, उसे उदय कर लें, तो आपको ज्ञान आ जाएगा, विवेक जाग्रत हो जाएगा।

मेरा तो आज का विषय यही है कि जो ईंधन होता है, लकड़ी होती है, जब वह आग को समर्पित हो जाती है, तो वह अग्नि का रूप धारण कर लेती है। फिर वह लकड़ी नहीं रहती। वह समर्पित हो जाती है, भस्मीभूत हो जाती है। हमारे ऊपर जो आवरण चढ़े हुए हैं, इन आवरणों को निकालना चाहिए। अंगारे के ऊपर राख का एक आवरण आ जाता है, कहीं आपने कोई कण्डा जला हुआ देखा होगा। लकड़ी का कोयला निकलता है, तो उसके ऊपर एक सफेद परत जैसी होती है और जब हम उस परत को, राख को निकाल देते हैं, तो उस अंगारे से हम गरमी प्राप्त कर सकते हैं।

जब तक परत जमा है, तो उससे हम गरमी प्राप्त नहीं कर सकते हैं? उन परतों को हटाया जाना चाहिए। हमारे अन्दर जो भी परतें हैं, इनका तो आप अन्दाजा लगाइए कि क्या-क्या परतें हो सकती हैं? इसमें तो हम अनेक परतें निकाल सकते हैं। आलस्य है, प्रमाद है, असंयम है, कुविचार हैं। गिनाने लगें तो ढेरों गिन जाएँगे। हमको इन सबको निकालना है। उस ईंधन की तरह से, आग के तरीके से अब हमको एकाकार होना है। अब हम ज्वलन्त आग लेकर जाएँ और हम आग ही पैदा करें।

आज आप आग लेकर के जाइए, जो गुरुजी के हृदय की चिनगारी है। उस चिनगारी में से आप एक चिनगारी माँगिए। यह कहिए कि गुरुदेव हमको वह चिनगारी दीजिए, जो आपके अन्दर काम कर रही है। उसमें से आपको जो मिलेगा, तो आपके अन्दर में भी वही चिनगारी काम करेगी, जो उनके अन्दर काम कर रही है। फिर देखना आनन्द आ जाएगा। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।

॥ॐ शान्तिः॥