ऋषि युग्म की झलक-झाँकी - भाग-2


आपका सुतीक्ष्ण आपकी प्रतीक्षा में है

मई, सन् 1977 में मैं, पंचकुण्डीय गायत्री महायज्ञ आयोजन सम्पन्न कराने हेतु गुजरात दौरे पर था। मेरे साथ आँकला, जिला खेड़ा के डॉ. गोविन्द भाई पटेल भी थे।
नर्मदा नदी पार बड़ौदा जिले के एक गाँव में पंचकुण्डीय यज्ञ के संयोजक, एक संत थे। बड़ी श्रद्धा से उन्होंने तीनों दिन के कार्यक्रम सम्पन्न कराये। यज्ञ की पूर्णता के पश्चात् जब हम लोग चलने लगे, तब उन्होंने मुझसे कहा-‘‘कृपया आप गुरुदेव से कहें कि आपका सुतीक्ष्ण, आपकी प्रतीक्षा में है। अब मुझे इस धरती से उठा लेना व अपने पास बुला लेना।’’ हमने शान्तिकुञ्ज आकर गुरुदेव से कह दिया। बात आई-गई हो गई। पुनः जब गुरुदेव सन् 1980 में गायत्री शक्तिपीठों की प्राण प्रतिष्ठा के प्रथम दौरे पर गुजरात गये, तब शामलाजी से छिपड़ी होते हुए बड़ौदा पहुँचे। हमने गुरुजी को याद दिलाया कि यहीं पर निकट में एक संत आपकी प्रतीक्षा में थे। गुरुदेव ने उनके लिए एक कार्यकर्ता के हाथ, कुछ फूल भेज दिये।
सुबह जब हम लोग बड़ौदा से निकल रहे थे, उसी समय सूचना मिली कि उक्त संत ने शरीर त्याग दिया है। तब पूज्य गुरुदेव ने पुनः उनके लिये अंतिम पुष्पांजलि स्वरूप पुष्प दिये व एक कार्यकर्ता को भेजा। इस प्रकार उन्होंने अपने सुतीक्ष्ण का सम्मान किया।


प्रेत योनि से मुक्ति दिलाई

4 नवंबर 1981 की बात है। पूज्य गुरुदेव शक्तिपीठों के दौरे पर थे। हम गुरुदेव के साथ थे। महुआ, जिला भावनगर, गुजरात में हम लोग श्री छबील भाई मेहता के घर ठहरे थे। उस घर में भूतों का कब्जा था। शायद इसीलिये छबीलभाई स्वयं उस घर में नहीं रहते थे। हमें यह बात मालूम नहीं थी। रात में सब काम समाप्त करते-करते मुझे 1:00 बज गया। 1:10 पर जब मैं सोया तो प्रेत परेशान करने लगे। कुछ देर तक तो मैं उनसे जूझता रहा पर फिर मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव से कहना चाहिये। गुरुजी तब तक सो चुके थे। मैं उनके कमरे मे गया, धीरे से गुरुदेव के पैर का अँगूठा पकड़ा। गुरुजी, तुरंत उठ बैठे, जैसे वह मेरा इंतजार ही कर रहे हों। बोले, ‘‘क्या है बेटा?’’ मैंने कहा, ‘‘पिताजी, प्रेत परेशान कर रहे हैं।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘अच्छा बेटा, चल! मैं देखता हूँ।’’ गुरुदेव हॉल में आये। मेरे बिस्तर पर लगभग 5 मिनट बैठे, ध्यान किया, फिर बोले, ‘‘अब सो जा बेटा, उनकी मुक्ति हो गई।’’ मुझे लेटते ही नींद आ गई। फिर किसी ने मुझे परेशान नहीं किया।

गुरुजी सदा प्रोत्साहन देकर परिजनों का उत्साह बढ़ाते रहते थे। लोहरदगा बिहार के एक सौ आठ कुण्डीय यज्ञ की बात है। इस प्रसंग को इंदिरा बहन भी सुनाती हैं। गुरुदेव के आने से पूर्व तक कार्यक्रम श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी ही सँभालते थे।
उस दिन पूज्य गुरुदेव को जरा देर से यज्ञ स्थल आना था। अतः श्री मिश्रा जी कर्मकाण्ड सम्पन्न कराते हुए बार-बार, मुड़-मुड़कर देख रहे थे। पूज्यवर नियत समय पर पहुँच गये और मिश्रा जी के पीछे जाकर खड़े हो गये। उन्होंने सबको इशारा कर दिया कि वे न बतायें अन्यथा उन्हें डिस्टर्ब होगा। किसी ने नहीं बताया कि गुरुजी आ गये हैं। पर मिश्रा जी का मन नहीं मान रहा था। इतना लेट गुरुजी हो नहीं सकते, अभी तक मुझे सूचना कैसे नहीं मिली, एकाएक, वे पूरा पीछे घूम गये। देखा, तो गुरुदेव पीछे खड़े, मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। अब तो वे खुशी से उछल पड़़े। ‘‘पूज्य गुरुदेव की जय’’ गगन भेदी नारों से पूरा पंडाल जय घोष करने लगा।
‘‘देखा, मैंने कहा था न, डिस्टर्ब होगा।’’ कहते हुए पूज्यवर ने मंच संभाल लिया। अपने शिष्यों को आगे बढ़ाने हेतु वे भरपूर अवसर देते थे। देर से जाते व चुप बैठ जाते ताकि उनके मन में गुरुदेव के आने से संकोच न हो।
शान्तिकुञ्ज में भी गुरुजी ने देवकन्या सत्र, महिला सत्र, प्राणप्रत्यावर्तन सत्र, कल्प साधना सत्र, चांद्रायण व्रत इत्यादि बहुत सारे सत्र, साधनाएँ व प्रशिक्षण सत्र कराये। उन सबके माध्यम से हम सब लोगों को तैयार किया और फिर स्वयं तो उन्होंने क्षेत्रों में जाना ही छोड़ दिया। हमीं लोगों को प्रचार-प्रसार के लिये यहाँ तक कि बड़े-बड़े कार्यक्रमों में भेजने लगे थे। शक्ति वे देते रहे काम हम लोग करते रहे। उनकी शक्ति का अहसास आज भी हम लोगों को बराबर होता है।


घास-फूस का प्रज्ञापीठ

शक्तिपीठों की प्राणप्रतिष्ठा के समय का एक प्रसंग है, महासमुन्द के वरिष्ठ कार्यकर्ता पं. ज्वालाप्रसाद दुबे ने एक घास-फूस की झोंपड़ी बना ली। उसमें गायत्री माता का चित्र रख दिया तथा कुछ पुस्तकें प्रचार हेतु रख दीं व मन में सोच लिया कि इसका गुरुदेव द्वारा उद्घाटन कराऊँगा।
चूंकि स्थान रास्ते में ही पड़ता था अतः एक कार्यकर्ता को गुरुदेव की गाड़ी रोकने हेतु खड़ा कर दिया व स्वयं कुछ तैयारी करने चले गये। कार्यकर्ता का ध्यान थोड़ा चूक गया और इतने में पूज्य गुरुदेव की गाड़ी आगे निकल गई। किन्तु तब तक ज्वाला प्रसाद जी ने आकर साथ जा रही दूसरी गाड़ी को रोक लिया। उन्हें वह स्थान दिखाया व समझाया कि गरीब जनता कहाँ से शक्तिपीठ हेतु खर्च कर पायेगी। अतः गाँव-गाँव में साहित्य प्रचार हेतु मैंने प्रज्ञापीठ बनाया है। गुरुजी को जरूर बताना। अवश्य बतायेंगे कहकर, दूसरी गाड़ी बिदा हुई। ज्वाला प्रसाद जी थोड़ा निराश हो गये। अब शायद ही गुरुदेव आ पायें। मन को जैसे-तैसे समझा लिया।
बात गुरुदेव के कानों तक पहुँची। गुरुदेव हँसे और बोले, ‘‘ये ज्वाला भी कुछ न कुछ करता ही रहता है। अच्छा, उसे जरूर देखेंगे। लौटते में गाड़ी रोकना।’’
निर्देश भला अमान्य कैसे होता? लौटते में वहाँ गाड़ी रोकी गई। गुरुदेव ने उसे देखा। खूब हँसे और कहा, ‘‘ज्वाला, इसका भी उद्घाटन करूँ?’’
ज्वाला प्रसाद जी ने चुपचाप सिर हिला दिया। दीपक जल उठे। गरीबों की भावना ने भगवान का दिल छू लिया था और उन्होंने भी उन्हें हृदय से अपना मान लिया। आज भी छत्तीसगढ़ प्रांत गुरुदेव का हृदय माना जाता है।


तूने तो मुझे बुक सेलर बना दिया

एक दिन एक परिजन गुरुजी के पास आये व बड़ी बहादुरी प्रदर्शित करते हुए बोले, ‘‘गुरुजी मैंने 35-40 अखण्ड ज्योति पत्रिका के ग्राहक बना दिये हैं।’’
उसकी बात सुनकर गुरुजी थोड़ा गंभीर हुए व कहा, ‘‘बेटा, तूने तो मुझे बुक सेलर बना दिया। कभी देखा कि जिन्हें तूने ग्राहक बनाया है, वह पढ़ता है कि नहीं? उसके पास बैठ, उससे चर्चा कर, पता चल जायगा कि पढ़ता भी है कि नहीं।’’
कार्यकर्ता ने जाना कि अभी तक साहित्य प्रचार की बात ही समझ में आई थी। पढ़ाने की नहीं। उसे लगा कि शायद पूरे पृष्ठ तो मैं ही नहीं पढ़ पाता, फिर दूसरे से क्या पूछूँ? और उसी क्षण उन्होंने पढ़ने व पढ़ाने की प्रतिज्ञा ली।
ऐसे थे पूज्यवर, अति उत्साह को क्रियात्मक ढंग से वास्तविकता की ओर मोड़कर सहज भाव से अपना बना लेते थे, और बाद में अतीव दुलार कर, इतना अनुदान देते कि व्यक्ति निहाल हो उनका ही होकर रह जाता था।


बेटा, तेरे दो आने खर्च हो गए

आगरा के पुराने सक्रिय कार्यकर्त्ता श्री पन्नालाल अस्थाना जी ने महापूर्णाहुति के कार्यक्रम में एक लाख रुपये से अधिक मूल्य का युग साहित्य जन-जन तक पहुँचाया था। एक दिन चर्चा के दौरान पंडित लीलापत शर्मा जी ने उनसे पूछा कि युग साहित्य के प्रसार के लिए इतना उत्साह आपमें कैसे पैदा हुआ? तो उन्होंने अपना संस्मरण बतलाया-
‘‘बात सन् 60 के दशक की है, तब पूज्य गुरुदेव मथुरा में ही थे। सस्ता समय था। मैं गुरुदेव से मिलने मथुरा गया तो मैंने पूज्य गुरुदेव के लिए दो आने की एक अच्छी सी फूल माला खरीदी। प्रणाम करके वह उन्हें पहना दी। फिर बातें होने लगीं। पूज्य गुरुदेव ने अचानक पूछा-
‘‘बेटा, यह माला तू कितने में लाया?’’ मैंने बतलाया, ‘‘दो आने में गुरुजी।’’ इसपर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा, तेरे दो आने खर्च हो गए और यह माला मेरे किसी काम नहीं आई। यदि तू दो आने की मेरी एक छोटी-सी किताब ले जाता तो दसियों लोगों तक मेरे विचार पहुँचते। तेरे पैसे भी सार्थक होते, लोगों का भी भला होता और मुझे भी संतोष मिलता।’’
श्री अस्थाना जी ने बतलाया कि पू. गुरुदेव द्वारा सहजता से व्यक्त किए गए यह उद्गार मेरे हृदय में गहराई से बैठ गए। मेरी समझ में आ गया कि अपने धन की सार्थकता, जन कल्याण और गुरु की प्रसन्नता, तीनों अर्जित करने के लिए युग साहित्य का प्रसार सबसे सुगम और उपयोगी माध्यम है। इसलिये मैंने ज्ञान-यज्ञ को गति देने के लिये साहित्य-विस्तार का ही लक्ष्य सामने रखा और गुरुकृपा से सफलता भी मिली।’’


केवल उजाड़ना नहीं बसाना भी आना चाहिए

एक बार श्री संदीप कुमार जी और कुछ अन्य परिजन पटना में नवरात्रि अनुष्ठान कर रहे थे। जिस घर में वे अनुष्ठान कर रहे थे वहाँ भूत-प्रेतों का निवास था। एक कार्यकर्ता, श्री चन्द्रशेखर जी, के बेटे को भूत परेशान करने लगे। वे बेटे को लेकर शान्तिकुञ्ज आए व पूज्यवर को सब बात बताई। पूज्यवर ने बेटे से पूछा, ‘‘भूत तुझसे क्या माँगते हैं?’’ बेटे ने कहा, ‘‘फूल माँगते हैं?’’ गुरुजी ने एक फूल उठाकर दे दिया। उनके जाने के बाद हम लोगों से कहा, ‘‘तुम लोग यज्ञ करते हो, जिससे भूतों का घर उजड़ जाता है। जब तुम्हें उनका घर उजाड़ना आता है तो घर बसाना भी आना चाहिए न।’’ अर्थात् उनकी मुक्ति हेतु भी अनुष्ठान करें। फिर कहा, ‘‘सभी भूतों को नई योनियाँ दे दी हैं।’’ इस प्रकार हर समस्या का समाधान करना व साथ में शिक्षण देना भी उनका सहज स्वभाव था।


गायत्री माता को मारेगा क्या?

मिशन की लोकप्रियता व प्रतिष्ठा देखकर एक स्थान पर एक मंदिर के पुजारी ने गायत्री माता की मूर्ति भी मँगवा ली तथा गुरुदेव को उद्घाटन हेतु बुला लिया। गुरुवर सहज ही तैयार भी हो गये पर जब मंदिर में गये तो देखा, वहाँ पूर्व से ही राधा-कृष्ण, सीता-राम, लक्ष्मी-गणेश, शंकर भगवान, हनुमान जी की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। उन्हें देखकर उन्होंने कहा, ‘‘यहाँ इतनी मूर्तियाँ तो पहले से ही मौजूद हैं। गायत्री माता को मारेगा क्या?’’
वहाँ उन्होंने गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की। संभवतः वह अंध श्रद्धा को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। उन्होंने समझ लिया कि यह श्रद्धालुओं को दुहने के लिये ही मूर्ति स्थापना कराना चाहता है।
युग सर्जक भला अपने बच्चों को अनास्था के गर्त में कैसे ढकेलते, अतः मूर्ति स्थापना नहीं की।


श्री अशोक दाश एवं श्रीमती मणि दाश

(श्री अशोक दाश जी 1981 में राउरकेला उड़ीसा में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये, दीक्षा ली और 1984 में स्थाई रूप से परिवार सहित शान्तिकुञ्ज आ गये।)

जो भी मशीन पकड़ेगा, ठीक हो जाएगी

मुझे माताजी का बहुत प्यार-आशीर्वाद मिला। उनके साथ बिताया एक-एक क्षण मेरे लिये धरोहर है। अभी मैं शान्तिकुञ्ज में नया-नया ही आया था। पूज्य गुरुदेव उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में थे। एक दिन मैं और डॉ. दत्ता जब माताजी को प्रणाम करने गये तो माताजी ने बताया लल्लू मेरा टेलीफोन (इंटरकॉम) खराब हो गया है, ठीक ही नहीं हो रहा। डॉ. दत्ता जी बोले, ‘‘माताजी, यह ठीक कर देंगे।’’ माताजी ने मुझसे पूछा, ‘‘लल्लू, तू ठीक कर देगा? अच्छा! देख तो!’’ मैंने मन में सोचा, ‘‘मैं कैसे करूँगा?’’ पर मैं टेलीफोन को ब्रह्मवर्चस ले आया, उलट-पलट कर देखा और खोलकर साफ कर दिया, वह ठीक हो गया। अगले दिन माताजी का फोन चालू हो गया। माताजी खूब खुश हुईं और बोलीं ‘‘जा, आज से तू गुरुजी का और मेरा फोटो सामने रखकर जो भी मशीन पकड़ेगा, वो ठीक हो जाएगी।’’ उनका वह आशीर्वाद खूब फला। मैं किसी मशीन को उलट-पलट कर देखता भर था कि वह ठीक हो जाती थी। उनके आशीर्वाद से मैंने कितनी मशीनें ठीक कीं, इसका मेरे पास कोई हिसाब नहीं। मुझे ऐसा ही लगता रहा कि माताजी ने स्वयं ही इसे ठीक कर दिया है।


मैं कोई राजेश खन्ना हूँ?

प्रारंभ में ई.एम.डी. विभाग बहुत छोटा सा था। थोड़ा-बहुत गीतों की रिकार्डिंग आदि का काम होता था। साधन भी कम थे और टैैक्नीक भी आज के जितनी विकसित नहीं थी। एक छोटा सा वीडियो रिकार्डर था, जिससे बड़े भाईयों ने गुरुजी का एक प्रवचन रिकार्ड किया था। बार-बार दिखाने के कारण वह खराब हो गया था। जब नया रिकार्डिंग सेट आया तो मैंने सोचा कि यदि गुरुजी उस प्रवचन को दुबारा बोल दें तो कितना अच्छा हो। मैं गुरुजी के पास गया और निवेदन किया कि गुरुजी आप की रिकार्डिंग करनी है। गुरुजी ने मना कर दिया। मैं नीचे आ गया। इस प्रकार मैं, दो-तीन बार खाली हाथ लौट कर आया। मेरे बार-बार आग्रह करने पर एक दिन गुरुजी ने डाँट लगाई, बोले, ‘‘मैं कोई राजेश खन्ना हूँ? देवानंद हूँ? जो तू मेरी रिकार्डिंग करेगा?’’ अब उनसे दुबारा निवेदन करने का मेरा साहस नहीं था। फिर भी बार-बार मन में विचार आता कि गुरुजी की रिकार्डिंग तो अवश्य होनी चाहिये ताकि सबको और आने वाली पीढ़ियों को भी इस अमृत का पान कराया जा सके। सो एक दिन मैंने माताजी से कहा, ‘‘माताजी, गुरुजी तो रिकार्डिंग के लिये मना करते हैं।’’ माताजी बोलीं, ‘‘ठीक है बेटा, वे मानेंगे तो नहीं पर मैं कोशिश करूँगी।’’ अगले दिन जब मैं गया तो माताजी ने कहा, ‘‘जा लल्लू, गुरुजी से मैंने कह दिया है।’’ मैं ऊपर गया तो गुरुजी ने मेरा कैमरा आदि देखकर मुझे तीखी निगाहों से देखा, पर मैंने उनकी ओर नहीं देखा कि फिर डाँटेंगे और चुप-चाप रिकार्डिंग में लग गया। गुरुजी कैमरे की ओर एक-टक देखते रहे और कुछ-कुछ बोलते रहे। मैं चुप-चाप रिकार्डिंग करता रहा। लगभग आधा घण्टा रिकार्डिंग की। जब नीचे आया और वंदनीया माताजी को दिखाने लगा, तो देखा, कि उसमें तो कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ था। मुझे बहुत अफसोस हुआ।
माताजी मुस्कुराईं और बोलीं, ‘‘लड्डू लेकर जा।’’
जब तक गुरुजी की इच्छा नहीं थी, तब तक हम लोग उनकी रिकार्डिंग नहीं कर सके। जड़ और चेतन सभी उनकी इच्छानुसार काम करते थे।


तू मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना

वंदनीया माताजी के लगभग 150 गीत रिकार्ड हुए हैं। माताजी संगीत वाले भाइयों को और रिकार्डिंग टीम को ऊपर अपने हॉल में ही बुलाती थीं। वे स्वयं गीत चुनतीं या लिखवाती थीं। माताजी अपने विचार बतातीं और आद० प्रणव भाई साहब, उपाध्याय जी आदि गीत लिखते। उन्हें जहाँ जैसा शब्द चाहिये होता वे संशोधन करवातीं और फिर गाती थीं। गाते-गाते वे एकदम भावविह्वल हो जाती थीं। अक्सर रिकार्डिंग के समय कोई शब्द जीवंत हो उठता और वे भावावेश में चली जातीं। फिर उन्हें अपनी सुध-बुध नहीं रहती थी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी की समाधि-अवस्था के विषय में पढ़ा-सुना था पर वह कैसी होती है, यह माताजी को देखकर ही समझ पाये। उस दिन फिर रिकार्डिंग का काम आगे नहीं बढ़ता था। जीजी कहतीं, ‘‘भाई साहब, अब तो कल ही होगा’’ और हम लोग लौट आते।
उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’
मैंने उसे शिरोधार्य किया। सच तो है, शिव और शक्ति को भला अलग किया भी कैसे जा सकता है?


तेरा डिब्बा नहीं चल रहा

अंतिम दिनों में माताजी बीमार रहने लगी थीं। निर्णय लिया गया कि माताजी को गर्मी के कारण बहुत परेशानी होती है, अतः उनके कमरे में ए.सी. लगाया जाये। माताजी के मना करने पर भी उनके कमरे में ए.सी. लगा दिया गया, पर वह हर दूसरे दिन खराब हो जाता था। मैं उसे चैक करता व चला कर जाता, पर अगले दिन फिर वही शिकायत मिलती। ए. सी. को ठीक करने के लिये अक्सर मुझे बुलाया जाता। मैं देखता, बाकी सब ए.सी. तो ठीक चल रहे हैं! बस माताजी का ही नहीं चल रहा। एक दिन माताजी मुस्कुराकर बोलीं ‘‘लल्लू, तेरा डिब्बा नहीं चल रहा।’’ मैंने नीचे का सिस्टम ऊपर फिट कर दिया, पर ऊपर जाकर वह भी नहीं चला।
मैं बहुत दिनों तक इसका रहस्य खोजता रहा। बहुत दिनों बाद एक दिन समाधान मिला कि यह तो उनकी माया थी। वह तो ब्राह्मणोचित जीवन जीने हेतु संकल्पबद्ध थीं। अतः बच्चों की भावना भी रख ली और अपना संकल्प भी निभाया।


गुरुजी-माताजी गुणों के भी पारखी थे।

मणि दीदी बताती हैं कि वे किसी के गुण को देखते तो उसकी प्रशंसा करते और अन्यों को भी उस गुण को धारण करने के लिये प्रेरित करते। उनकी निगाहें बड़ी पैनी थीं। एक बार गुरुजी किसी काम से नीचे आये थे। उन्हें प्यास लगी तो यादव अम्माजी ने पानी पिलाया। गुरुजी गिलास देखकर बोले, ‘‘वाह! गिलास तो खूब चमक रहा है।’’ और पानी पीते-पीते ही उन्होंने उनके कमरे का निरीक्षण कर लिया। फिर एक दिन गोष्ठी में बोले, ‘‘बेटा, स्वच्छता देखनी हो तो यादव अम्मा के घर जाकर देखो। विनम्रता सीखनी हो तो, रैणा की बहू (पत्नी) से सीखो। कपड़ों की धुलाई सीखनी हो तो शारदा अम्मा से सीखो।’’ इस प्रकार वे सबके गुणों की प्रशंसा करते हुए गुण ग्राहकता सिखाते थे।
माताजी एक बार श्री चौहान जी की प्रशंसा करते हुए बोलीं, ‘‘बेटा एक शबरी थी, जो मातंग ऋषि के आश्रम में सबके जगने से पहले ही रास्ता बुहार देती थी, और बेटा हमारे यहाँ, यह हमारे चौहान जी हैं।’’
सब जानते हैं कि श्री चौहान जी का आजीवन यह नियम रहा। वे रात में दो-ढाई बजे ही उठकर शान्तिकुञ्ज क्षेत्र में प्रतिदिन झाड़ू लगाते थे।


अब तुम लोग भी भोजन कर लो

एक दिन चौके की एक बहन से चावल धोते समय हाथ से बाल्टी फिसल गई और बहुत सारा चावल, लगभग बाल्टी भर चावल नाली में बह गया। माताजी को पता चला तो उन्होंने देखा और सारा चावल इकट्ठा करके भर कर लाने को कहा। फिर बोलीं, ‘‘अब इसे अच्छी तरह से धुलो फिर पकाओ। आज चौके की सब बहनें इसे ही खाएँगी।’’ माताजी का आदेश भला कौन टाल सकता था? उस चावल को अच्छे से धोया गया और पकाया गया। बहनें सोच रही थीं कि आज नाली का चावल खाना पड़ेगा। माताजी ने देखा चावल पक गया है। बोलीं, ‘‘छोरियो, एक थाली में थोड़ा भात परोस कर लाओ तो।’’ माताजी को वह भात परोस कर दिया गया तो वे बड़े चाव से उसे खाने लगीं और बोलीं, ‘‘बेटा! अन्न को बरबाद नहीं करना चाहिये। उसका अपमान नहीं करना चाहिये। इसे खाने से कोई बीमार नहीं पड़ेगा। अब तुम लोग भी भोजन कर लो।’’
किसी के मन में कोई गलत भावना न आये, इसलिये माताजी ने पहले स्वयं उस भात को खाया, फिर सबको खिलाया।

ऐसे ही सन् 1978 में जब बाढ़ आई थी, तब ब्रह्मवर्चस में पानी भर गया था। उस समय अधिकांश परिवार ब्रह्मवर्चस में ही रहते थे। दाल-चावल के कुछ बोरे आधे-आधे भीग गये। जब माताजी तक सब जानकारी पहुँची तो माताजी ने कहा, ‘‘बेटा! सबको कह दो कि कुछ दिन तक अपने-अपने घर में कोई खाना नहीं बनायेगा। सब खिचड़ी ही खायेंगे। घी मैं यहाँ से भेज देती हूँ।’’

माताजी सबके मन की बात जान जाती थीं। एक दिन दोपहर में माताजी आराम कर रही थीं। एक बहन के मन में आया, ‘‘माताजी मोटी हैं।’’ इतने में माताजी बोलीं, ‘‘तू सोचती है, माताजी मोटी हैं? कुछ काम नहीं कर पायेंगी? बेटा, मैं अभी भी 100 लोगों का खाना बना सकती हूँ।’’ वह बहन बेचारी हैरान रह गई कि मेरे मन में विचार बाद में आया और माताजी ने जवाब उसके पहले ही दे दिया।

पहले सुबह-शाम की चाय-प्रज्ञा माताजी के चौके में ही मिलती थी। जब भीड़ बढ़ने लगी तब परिजनों की आवश्यकता को समझते हुए छोटी सी कैंटीन बना दी गई। उसमें चाय के साथ पकौड़ी व जलेबी आदि भी बन जाती थी। माताजी को पता चला कि लोग-बाग अनुष्ठान में भी भोजनालय से प्रसाद ग्रहण न कर कैंटीन में ही डटे रहते हैं। तब माताजी ने कहा था-‘‘बेटा, यह प्रसाद है। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर प्रसाद से बनता है। इसे जिस भाव से खाओगे, वही मिलेगा।’’

गुरुजी माताजी का दाम्पत्य जीवन एक आदर्श दाम्पत्य जीवन था। हर एक के लिये प्रेरणा देता हुआ कि परस्पर एक दूसरे का सहयोग ही जीवन के बड़े उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होता है। इसी में जीवन का असली आनंद है।
परिजन तो बताते ही हैं, पर माताजी भी गोष्ठियों में बताया करती थीं कि मथुरा में प्रारंभ के दिनों में जब माताजी सबको भोजन आदि कराकर बरतन साफ करने बैठतीं तो गुरुजी भी उनकी मदद करने लगते। तब माताजी उन्हें कहतीं, ‘‘आचार्य जी, आप रहने दीजिये।’’ इस पर गुरुजी कहते, ‘‘माताजी, हमारे बच्चे कैसे सीखेंगे कि पत्नी का सहयोग कैसे करना चाहिये?’’

गुरुजी कभी-कभी गोष्ठी में कहते, ‘‘बेटा, दाम्पत्य जीवन कैसा होना चाहिये, इसे हमारे जीवन से सीखना।’’
माताजी की आँख का आप्रेशन हुआ था। मैं माताजी से मिलने गई। उस समय लगभग 11 बज रहे थे। गुरुजी उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में थे। गुरुजी भी माताजी को देखने आये थे। मुझे पता नहीं था कि गुरुजी, माताजी के पास बैठे हैं। दरवाजा हल्का सा खुला था। मैं जैसे ही भीतर जाने लगी देखा, गुरुजी, माताजी के पास बैठे हैं। मैं पीछे हट गई। गुरुजी के दर्शनों का लोभ करके मैं बाहर ही खड़ी रही, लौटी नहीं। मैंने देखा वे माताजी का हाथ थाम कर बैठे हैं। लगभग एक घण्टा गुरुजी, माताजी का हाथ थाम कर बैठे रहे पर दोनों में बातचीत कुछ भी नहीं हुई।

माताजी अक्सर गुरुजी को याद कर प्रवचन में बताया करती थीं, ‘‘बेटा, दिन भर काम करके थक कर जब मैं ऊपर जाती तो गुरुजी पानी का गिलास भर कर रखते और सीढ़ियों के मध्य तक आते थे। मेरा हाथ थाम कर ऊपर ले जाते और बिठाते, फिर अपने हाथ से पानी का गिलास उठा कर देते।’’ यह बताते हुए वे अक्सर रो पड़ती थीं।
‘‘सूक्ष्मीकरण साधना में जब वे गये तो मिशन के सब कार्यों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर सौंप दी। मैंने कहा, ‘‘आचार्यजी, यह सब मैं कैसे कर पाऊँगी?’’ तो बोले, ‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूँ।’’ जब कभी मथुरा आदि जाना पड़ता तो वे ऊपर से खिड़की में से देखते रहते थे।’’

कभी-कभी मथुरा के दिनों की याद कर बतातीं, ‘‘बेटा, इस गायत्री परिवार को हमने और आचार्य जी ने अपने खून-पसीने से सींचकर खड़ा किया है। मथुरा में बंदर खूब परेशान करते थे। मैं खाना बनाती। गुरुजी परोसने में मदद करते। हाथ में लाठी भी रखते और बंदरों को धकेलते रहते।’’

‘‘मथुरा में घर छोटा ही था। लैट्रिन-बाथरूम भी कम थे। कभी-कभी, कोई-कोई बहन अपने छोटे बच्चों को छत पर ही टट्टी-पेशाब करा देती। अक्सर हमें धुलाई करनी पड़ती थी। गुरुजी पानी डालते थे और मैं झाड़ू लगाती थी। कभी-कभी मैं पानी डालती और गुरुजी झाड़ू लगाते थे। झाड़ू की रगड़ से हाथों मे छाले पड़ जाते और कभी-कभी खून भी आ जाता। बेटा, इस मेहनत और प्यार से हमने परिवार को जोड़ा है।’’

‘‘मैं जल्दी-जल्दी घर का सब काम निबटा कर गुरुजी के काम में मदद करने तपोभूमि पहुँच जाती थी। गुरुजी को पत्र व्यवहार में भी मदद करती थी। मैं पत्र पढ़ती जाती और गुरुजी जवाब लिखते जाते।’’

एक बार हम सब कार्यकर्ताओं की गोष्ठी थी। गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा, तुम सब लोग परस्पर प्रणाम करते हो कि नहीं। रोज सुबह अपने पति के चरण स्पर्श किया करो।’’ फिर भाईयों की ओर उन्मुख होकर बोले, ‘‘तुम लोग भी पत्नी को प्रणाम किया करो। परस्पर एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। तुमको देखकर बच्चे स्वयं ही सीख जायेंगे।’’

जयपुर के श्री वीरेंद्र अग्रवाल जी भी बताते हैं कि एक दिन जब मैं गुरुजी के पास बैठा था, गुरुजी ने किसी काम से अल्मारी खोली। मैंने देखा उनकी अल्मारी में माताजी की तस्वीर रखी है। मैं कुछ पूछता इससे पहले ही गुरुजी बोले, ‘‘बेटा, मैं माताजी को रोज प्रणाम करता हूँ। अपने सब कार्यों के लिये मैं माताजी से ही शक्ति लेता हूँ।’’


गुरुजी महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील थे

समाज में फैली कुप्रथाओं और संकीर्ण सोच आदि के कारण महिलाओं की दासता जैसी स्थिति का ध्यान करने मात्र से उन्हें असहनीय वेदना होती थी। उनकी दयनीय स्थिति पर वे बहुत आहत होते थे। हम लोग जिनने उनका सान्निध्य पाया है, देखा है। जब कभी वे महिला उत्पीड़न संबंधी कोई समाचार पढ़ लेते थे, तब तो आकुल-व्याकुल हो जाते थे। उनकी आँखों में आँसू आ जाते थे। कहते थे, ‘‘कब, मातृ शक्ति का उद्धार होगा?’’ उनके साहित्य में भी उनकी यह पीड़ा देखने को मिलती है।

गोष्ठियों में अक्सर भाइयों को डाँट पिलाते थे, ‘‘तू गर्मा-गर्म रोटी खाएगा और छोरी तेरे लिये बैठी रहेगी? बेटा! ये गर्म रोटी माँगे तो मुझे बताना।’’ बहनों को भी उन्होंने खूब आगे बढ़ाया। सामान्य बातचीत में भी वे बहनों को खूब प्रोत्साहन देते रहते थे।

ऐसे ही एक दिन शायद वे कुछ परेशान थे। कोई खबर पढ़ ली होगी। उस दिन कार्यकर्ताओं की गोष्ठी में भाईयों को डाँटते हुए बोले, ‘‘अच्छा! गरम रोटी खाना है? गरम रोटी खाना है?’’ फिर बहनों की ओर उन्मुख होकर बोले, ‘‘कहना अभी देती हूँ। फिर पहले खुद खा लेना। अच्छे से चबाना।’’ गुरुजी ने लगभग 5 मिनट चबाने की नकल की और फिर बोले, ‘‘और मुँह में डाल देना। कहना, तुम चबाना भी मत। इतना कष्ट भी क्यों करते हो?’’

उन दिनों कानपुर का वह दिल दहला देने वाला समाचार सुर्खियों में था। जब एक ही परिवार की तीन लड़कियों ने दहेज की ऊँची माँगों से आहत होकर आत्महत्या कर ली थी। तब गुरुजी ने कहा था, ‘‘यदि सब लड़कियाँ दहेज लेकर शादी करने से इंकार कर दें, तो यह दहेज का दानव वर्ष भर में खतम हो जायेगा।’’

पंडित लीलापत शर्मा जी ने भी एक बार ऐसा ही एक संस्मरण सुनाया था कि गुरुजी को बहनों का कष्ट बिलकुल सहन नहीं होता था। वे कहते थे, ‘‘जब तक मातृशक्ति रोती रहेगी, समाज का उद्धार संभव नहीं है।’’ उन्होंने बताया, ‘‘एक बार हम और गुरुदेव असम की यात्रा पर थे। ट्रेन में एक महिला बहुत बड़ा घूँघट ओढ़े बैठी थी। वह बहुत दुखियारी जान पड़ रही थी, क्योंकि वह लगातार रोये जा रही थी। गुरुजी की दृष्टि से वह भला कैसे ओझल रहती? एक स्टेशन पर जब उसके साथ के परिजन नीचे उतरे तो गुरुजी ने उसे पानी पिलाया और चना मुर्रा खाने को दिया। उसका कष्ट पूछा पर वह अपने मुख से कुछ बता नहीं पाई। गुरुजी तो अंतर्यामी थे, उसे सांत्वना दी। बोले, ‘‘रो मत बेटी, तेरा कष्ट दूर होगा।’’ साथ ही कहा, ‘‘यह घूँघट खोल दे।’’
उस महिला ने बस इतना ही कहा, ‘‘यह सब मुझे मार डालेंगे।’’ तब गुरुजी ने कहा, ‘‘मैं उन्हें समझाता हूँ।’’
महिला के परिजन जब ट्रेन पर चढ़े तो गुरुजी ने उन्हें समझाया। ‘‘मनुष्य-मनुष्य के बीच क्या परदा? परदा तो आँखों का होता है। शिष्ट व्यक्ति शालीन वैसे भी रहता है अन्यथा घूँघट से शर्म ढकी नहीं रह सकती आदि-आदि।’’
गुरुजी की बात का उन लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने वहीं पर उसका घूँघट खुलवा दिया। इस प्रकार गुरुजी रास्ते में भी जनकल्याण करते चलते थे।

एक दिन माताजी से एक लड़की (माधवी) ने प्रश्न किया, ‘‘माताजी विधवा औरतों को बिंदी आदि नहीं लगाना चाहिये?’’ उसके इस प्रश्न पर माताजी बोलीं, ‘‘बेटा यह गलत धारणा है। सुहाग कभी मरता नहीं है। इसलिये बिंदी लगाना नहीं छोड़ना चाहिये।’’


1986 में हरिद्वार का कुंभ

1986 में हरिद्वार में कुंभ लगने वाला था। एक दिन गुरुजी ने ब्रह्मवर्चस की पूरी टीम को बुलाया और बोले, ‘‘देखो! कुंभ लगने वाला है। इस समय हिमालय की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भी आयेंगी। ऋषि, मनीषी, तपस्वी सब किसी के भी रूप में आ सकते हैं। तुम लोग ऐसा करना कि जितने भी लड़के हो, सब हर आने वाले के जूते साफ करना। रगड़-रगड़ कर ठीक से साफ करना। अच्छे से चमकाना, बिल्कुल धूल न रहे।’’ फिर बहनों की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘लड़कियो! तुम सब लोग डॉक्टरों वाला कोट पहन लेना और गले में स्टैथोस्कोप टाँग लेना। जो भी आये, उसको पूरा ब्रह्मवर्चस दिखाना और बढ़िया से सब बताना। अच्छे से समझाना।’’
बहनों ने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी, हम यह सब कैसे करेंगे?’’ गुरुजी बोले ‘‘बेटा, सब हो जायेगा।’’
हम सब गुरुजी के कहे अनुसार सुबह से ही तैयार हो जाते। भाई लोग बहनों को खूब चिढ़ाते भी रहते, ‘‘देखो! देखो! डॉक्टर लोग आ गये।’’ एक दिन 10-12 लोगों की टीम आई। डॉ. दत्ता भाई साहब ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘मणि जीजी, आप इन्हें गाइड करना।’’ मैं उनसे बोली, ‘‘भाई साहब, मुझे कुछ नहीं आता है। आप प्लीज़ मुझे माफ करिये। मुझे हिन्दी भी ठीक से बोलनी नहीं आती है। मैं नहीं कर पाऊँगी। आप ही कर दीजिये।’’ दत्ता जी बोले, ‘‘आपको गुरुजी पर भरोसा नहीं है क्या?’’ और मुस्कुराते हुए बोले, ‘‘हम तो भई अपना काम करेंगे। जूता साफ करेंगे।’’ मैं बोली, ‘‘गुरुजी पर तो भरोसा है।’’ वे बोले, ‘‘बस, फिर आप ही गाइड करेंगी।’’
जैसे ही वो लोग आए। मैंने उन्हें एक घण्टा गाइड किया। पूरा ब्रह्मवर्चस दिखाया। मैंने उन्हें क्या-क्या बताया, मुझे खुद नहीं पता। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आपने कहाँ से मैडिकल किया है? आप अपना परिचय दीजिये।’’ मैं थोड़ा घबराई कि अब क्या बोलूँ? मैंने अपना थोड़ा बहुत परिचय दिया और फिर उनसे पूछा, ‘‘आप सब कहाँ से आये हैं?’’ उन्होंने बताया ‘‘हम सब लखनऊ के मेडिकल कॉलेज से आये हैं। यह हमारी पूरी डॉक्टरों की टीम है।’’
अब तो मैं घबरा गई। मुझे कुछ सूझा नहीं। मैंने एक मुहावरा सुना था, ‘सिर पर पैर रख कर भागना’ पर उसका अनुभव मुझे उस दिन हुआ। मैंने उनसे कहा, ‘‘मुझे कुछ काम है, आगे की बात आपको डॉक्टर दत्ता बतायेंगे’’ और मैं वहाँ से भाग ली। आज भी, मैं जब उस घटना को याद करती हूँ, तो गुरुजी के शब्द याद आते हैं, ‘‘बेटा, तुम बस वह करो जो मैं कहता हूँ। मैं जिस चेतना का अवतरण करना चाहता हूँ, वह मैं करा दूँगा।’’


श्री ब्रजमोहन गौड़

(श्री ब्रजमोहन गौड़ जी 1969 में ग्वालियर में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। तत्पश्चात् समयदान करते रहे, टोलियों में भी जाते रहे। 1981 में पूज्य गुरुदेव के कहने पर स्थाई रूप से परिवार सहित शान्तिकुञ्ज आ गये।)


उनसे क्या जुड़ा, धन्य हो गया

ग्वालियर में शिवरात्रि पर्व 1969 में पूज्य गुरुदेव के द्वारा गायत्री मंदिर में गायत्री माता की प्राण प्रतिष्ठा हुई। मैं यह सुनकर वहाँ गया था कि एक संत आ रहे हैं। मैं गुरु की खोज में था। मैंने पूछा कि आचार्यजी कहाँ हैं? एक परिजन ने बताया कि कमरे में हैं। उनके पास दो-तीन महिलाएँ बैठी थीं। उनमें से एक महिला ने पूछा कि गुरुजी! कल्याण में शंकराचार्य ने लिखा है कि महिलाओं को गायत्री नहीं जपनी चाहिए। गुरुदेव ने कहा बेटी, शंकराचार्य ने वेद नहीं लिखे हैं। मैंने वेदों का भाष्य किया है। महिलाओं को गायत्री जप करना चाहिए। मैं सुनकर कमरे से बाहर आया। थोड़ी देर बाद एक आवाज सुनाई पड़ी, जिन्हें पूज्य गुरुदेव से दीक्षा लेनी हो, वे यज्ञशाला में आ जाएँ।
मैं बहुत वर्षों से गुरु की खोज में था। अनेक साधु-संतों के संपर्क में आया पर अन्तःकरण ने कभी किसी को गुरु मानने की स्वीकृति प्रदान नहीं की। उस दिन हृदय मचल उठा। अनुभूति हुई कि गुरुदीक्षा इसी क्षण ले लेनी चाहिए। मैं यज्ञशाला में जाकर बैठ गया और पूज्य गुरुदेव से दीक्षा ले ली।

अब पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म शक्ति प्रवाह उपासना के द्वारा प्रेरणा देता रहा। धीरे-धीरे तन-मन सब पूज्यवर के विचारों में रंगता गया। घर बैठे-बैठे ही परिव्राजक बन गया। 1974 में शान्तिकुञ्ज पहुँचा। तब पूज्य गुरुदेव से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या काम करते हो?’’ मैंने कहा, ‘‘नौकरी।’’
‘‘कितने पैसे मिलते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘250 रुपये।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा वेतन दुगुना करा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘रुपये नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि व्यापार करा देते हैं। मैंने कहा, ‘‘वह मैं नहीं कर सकता।’’ उन्होंने कहा, ‘‘जमीन-जायदाद दिलवा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘सोना-चाँदी दिलवा देते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘हमें नहीं चाहिए।’’
पूज्य गुरुदेव नाराज होकर बोले, ‘‘हमें नहीं जानते? हमने मूँगफली बेचने वालों को लखपति बना दिया है। हम हिमालय से आए हैं। अभी हमने अपनी तपस्या का चार आने खर्च किया है, बारह आने अभी हमारी मुठ्ठी में है।’’ फिर वे बोले, ‘‘तुम कुछ माँगते क्यों नहीं?’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें संसार में कुछ नहीं चाहिए?’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं चाहिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘फिर तुम्हें ब्राह्मण, फकीर बना दें।’’ मैं चुप रहा। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, फकीर बनने से डर लगता है?’’ मैं चुप रहा। उन्होंने कहा, ‘‘फकीर बनने से आदमी डरता है। सोचता है, रोटी कहाँ से मिलेगी? पर बेटा भगवान् अपने कुत्ते को भी रोटी खिला देता है और भक्त को तो स्वयं हाथों से खिलाकर खाता है।’’ मैंने कहा, ‘‘बना दीजिए।’’
प्रतिवर्ष शान्तिकुञ्ज आने-जाने का क्रम चलता रहा। जब विदाई होती तब तिलक लगाते समय कहते, ‘‘जा रहा है, जाना-आना बंद कर। जा रहा है तो यहाँ आना मत। आए तो कभी यहाँ से जाना मत।’’
एक बार 1980 दिसम्बर में काँवट, जयपुर, राजस्थान में श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी के यहाँ पूज्य गुरुदेव शक्तिपीठ का उद्घाटन करने पहुँचे। मैं और अग्रवाल जी प्रातःकाल उनके दर्शन करने गये। प्रणाम करने के बाद गुरुदेव ने कहा, ‘‘अब तूने यदि नौकरी नहीं छोड़ी तो हजार वर्ष तक मेरा शाप तुझे खाएगा, और नौकरी छोड़ देगा तो हजार वर्ष तक मेरा आशीर्वाद तुझे फलेगा। तू नहीं देखता, बेटा, हमने तूफान चला दिया है।’’
मैं मार्च 1981 में शान्तिकुञ्ज आया। गुरुदेव बोले, ‘‘नौकरी छोड़ दी।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, यहीं से अपना इस्तीफा भेज दो।’’ मैंने नौकरी छोड़ दी। परिवार में परिजनों का बहुत विरोध था। मित्र परिजन भी बहुत विरोध में थे, पर अन्तरात्मा ने कहा, ‘‘पूज्य गुरुदेव की आज्ञा मानने में ही कल्याण है।’’ मैं गुरुदेव-माताजी की छत्रछाया में रहने लगा।
कुम्हार जैसे बर्तन तैयार करता है, वैसे ही पूज्य गुरुदेव का स्नेह-प्यार और डाँट मिलने लगी। धीरे-धीरे मिशन के कार्यों को करने की जिम्मेदारी बढ़ती गई। शान्तिकुञ्ज में ब्राह्मण जीवन जीने का प्रशिक्षण और अभ्यास होने लगा। मन में तृप्ति, तुष्टि, शांति आने लगी। जीवन की सार्थकता समझ में आने लगी।


इतने से कम में हमारा गुरु हमें नहीं मिला

वसंत पर्व 1990 में प्रातः, पूज्य गुरुदेव के पास गोष्ठी चल रही थी। गोष्ठी के बाद उन्होंने मुझे रोक लिया। गुरुदेव कहने लगे, ‘‘तूने मुझे बहुत धोखा दिया है।’’ मैंने कहा, ‘‘समझ नहीं पाया।’’ उन्होंने कहा, ‘‘ तू सबसे कहता है कि मैंने गुरुदेव के लिए नौकरी छोड़ दी पर तेरे दिमाग में तेरे बीबी-बच्चे बैठे रहते हैं। तू हमारा नहीं है।’’ मैं चुप हो गया।
उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से मेरे अंतस् में झाँक लिया था। मैं दुःखी हुआ और धर्मपत्नी से चर्चा करते हुए कहा कि यह जीवन तो बेकार हो गया, क्योंकि आज गुरुजी ने कहा कि हमारे दिमाग में बच्चों की चिन्ता रहती है।’’
फिर दोपहर में मैं अपनी पत्नी के साथ गुरुदेव के पास पहुँचा। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ मैंने कहा कि मेरे दिमाग में अब बीवी-बच्चे नहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘‘इस छोरी के दिमाग में तो होगी।’’ यह सुनकर मेरी पत्नी रोने लगी और कहा पिताजी मेरे दिमाग से भी बच्चों की चिन्ता समाप्त हो गई।’’ पूज्य गुरुदेव ने कहा, ‘‘झूठ बोलती है,’’ मेरी पत्नी ने कहा, ‘‘नहीं पिताजी। मैं सच बोलती हूँ।’’ तब पूज्य गुरुदेव बोले ‘‘आज से हम तुम्हारे हुए, इतने से कम में हमारा गुरु हमें नहीं मिला तो हम तुम्हें कैसे मिल जाते?’’
मैंने कहा ‘‘गुरुदेव एक प्रार्थना है। बच्चे पढ़े या न पढ़ें, शादी हो या न हो पर ये शान्तिकुञ्ज में मिशन का कार्य करें।’’ गुरुदेव ने डाँट करके कहा, ‘‘तूने फिर बच्चों की बात की’’ मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘गल्ती हो गई।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘हमारी मर्जी, हम शादी करें या न करें, मैनेजर बनवाएँ या झाड़ू लगवाएँ, तू कौन होता है?’’
ऐसे थे गुरुदेव, जिनसे जुड़कर यह जीवन धन्य हो गया। आज हम अनुभव करते हैं कि वे साक्षात् गुरुरूप में ईश्वर बनकर आए।
पूज्य गुरुदेव अव्यक्त इतने थे कि कोई जान नहीं पाया और महान इतने कि कोई समझ नहीं पाया।

पूज्य गुरुदेव अपना काम स्वयं ही करना पसंद करते थे।

उन्हें किसी से भी अनावश्यक सेवा लेना पसंद नहीं था। इस प्रकार अपने विराट परिवार को उन्होंने यह संदेश दिया कि जितना आवश्यक हो, उतनी ही सेवाएँ दूसरों से लो, बाकी काम स्वयं करो।
एक बार मैं गुरुजी के पास बैठा था। गुरुजी दाढ़ी बना रहे थे। जब वे दाढ़ी बना चुके तो ब्रश, पानी की कटोरी आदि उठाने के लिये मैं आगे बढ़ा, इसपर उन्होंने मुझे डाँट दिया। कहा, ‘‘तुझे क्या मालूम ब्रश कहाँ रखना है? पानी कहाँ फेंकना है। तुझे क्या मालूम? तू बैठ।’’ इस प्रकार वे अपना काम स्वयं ही करते थे। किसी की सेवा लेने के लिये तैयार नहीं रहते थे।

ऐसे ही छत्तीसगढ़ के बिसाहू राम साहू अक्सर उनके बाल बनाया करते थे। वह जब कभी बाल बनाने के बाद दाढ़ी बनाने के लिए कहते, तो गुरुजी कहते, मैं खुद बनाऊँगा। कभी-कभी वह जिद पकड़ लेते ‘‘मैं बना देता हूँ गुरुजी।’’ तब वे झल्ला जाते और कहते-‘‘तू मेरी दाढ़ी क्यों बनायेगा? क्या मैं नहीं बना सकता?
‘‘तू मेरा सब काम करेगा, सब काम करेगा, जा! मेरा सब काम तू ही कर आ।’’ अब तो बेचारे चुप हो जाते और चुपचाप चले जाते। धीरे-धीरे उन्हें मालूम हो गया था कि गुरुजी अपना वही काम दूसरों से कराते हैं जो वे खुद नहीं कर सकते। बाकी अपने सब कार्य वे स्वयं ही करते हैं।

एक दिन शाम के लगभग 4:00 बजे थे। मैं उनके पास बैठा था। एक व्यक्ति उनके पास आया। उसने धोती-कुर्ता पहना था। कंधे पर साफा रखा था। गुरुजी ने पूछा, ‘‘कहाँ से आये?’’ वह बोला, ‘‘हाथरस से आया हूँ।’’ उसके पास एक छोटी सी थैली थी। जिसमें कुछ चीज रखी थी। उसने वह थैली उन्हें दी और चला गया।
गुरुजी ने थैली खोली, उसमें एक आम रखा था। गुरुजी बोले, ‘‘वो एक ही आम दे गया। दो होते तो एक तू खाता, एक मैं।’’ फिर वो उठे अल्मारी में से चाकू निकाला। आम को काटा और गुठली प्लेट में रखकर मुझे दे दी। फिर बोले, ‘‘तू बहुत फायदे में रहा। आम के आम गुठली के दाम।’’
कल्पना से बाहर की बात है। इतने बड़े सिद्ध पुरुष! स्वयं ने प्लेट निकाली, चाकू निकाला और स्वयं ही काट कर दिया। चाहते तो आदेश भी दे सकते थे।


गायत्री माता के स्टेनो

एक दिन चर्चा के दौरान श्री राम खिलावन अग्रवाल जी ने मुझे बताया कि दिसम्बर 1977 में वे कुछ कार्यकर्ता गुरुजी के पास छत पर लेखन कर रहे थे। उन दिनों पूज्यवर पूरी टीम को अपने पास बैठाकर लेखन सिखाते थे। उस समय उनसे मिलने का समय निर्धारित नहीं था, कोई भी, कभी भी मिलने चला आता था।
एक पाँच विषय के एम.ए. डिग्रीधारी व्यक्ति आये और गुरुजी से बोले-‘‘गुरुदेव! मुझे अपना स्टेनो बना लें, आप जो भी बोलेंगे मैं लिख लूँगा और आपका काम आसान बना दूँगा।’’
गुरुजी बोले, ‘‘बेटा! तुम तो पाँच विषय में एम.ए. हो। मेरे पास तो छः-सात विषय के एम.ए. भी आये थे।’’ वे कुछ क्षण चुप रहे, फिर कहा-‘‘मैं क्या करूँगा स्टेनो रखकर? मेरी एक मुसीबत है, और वो ये है कि मैं भी, किसी का स्टेनो हूँ। अब स्टेनो, स्टेनो कैसे रखे? वे (गायत्री माता) जो कहती हैं, वही मैं लिखता हूँ।’’
वह व्यक्ति गुरुजी की सहजता पर दंग होकर चला गया। हम सबने एक दूसरे की ओर देखा। शायद सभी उनके शब्दों का अर्थ ढूँढ़ रहे थे।

उनके हर आचरण में कुछ न कुछ शिक्षण छिपा रहता था।

महापुरुष कितने विनम्र होते हैं, यह उनके व्यवहार से झलकता था। भारत माता मंदिर का उद्घाटन समारोह था। देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री माननीया इंदिरा गाँधी जी द्वारा उद्घाटन हुआ। स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने पूज्यवर से भी इस संदर्भ में सलाह-मशविरा किया था। निमंत्रण शान्तिकुञ्ज भी आया था। तीन दिन का कार्यक्रम था। गुरुदेव ने तीसरे दिन मुझे बुलाया और कहा-‘‘भारत माता मंदिर चलना है।’’ मैंने कहा-‘‘गाड़ी ले आऊँ।’’
उत्तर मिला, ‘‘पैदल चलेंगे। सन्तों के दर्शन पैदल चल कर ही करना चाहिए।’’
हम दोनों पैदल भारत माता मंदिर के कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। बड़ी सहजता से उन्होंने मंच पर विराजमान सन्तों को प्रणाम किया और पण्डाल में अंतिम पंक्ति की कुर्सी पर विनम्रतापूर्वक बैठ गये।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी के स्वयंसेवक सभी ओर फैले थे। चूँकि शान्तिकुञ्ज बहुत पास है, अतः बहुत से स्वयंसेवक गुरुदेव को पहचानते थे। उन्होंने मंच पर जाकर गुरुदेव के आने की सूचना दी।
‘‘गायत्री वाले आ गये हैं, सबसे पीछे की अंतिम कुर्सी पर बैठे हैं।’’
सुनकर सत्यमित्रानन्द जी गद्गद् हो गये। उस समय उनका ही प्रवचन चल रहा था। उसे बीच में ही रोककर उन्होंने कहा, ‘‘महापुरुष जब भी आते हैं, उनमें कभी कोई बनावट नहीं होती। ऐसी सहजता, सरलता कहीं देखने को नहीं मिलती। ऐसा ही एक महापुरुष हमारे आयोजन में, हमारे सौभाग्य से उपस्थित है। जो हमारे लिये ऐतिहासिक बात है। मैं आचार्य जी से कर-बद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारे मंच की शोभा बढ़ाएँ और अपने आशीर्वचनों से हमें कृतार्थ करें।’’
पूज्यवर उसी सहजता से उठकर मंच की ओर चल दिए। साथ में मैं भी था। स्वामी जी ने आचार्य जी को बैच लगाया व आशीर्वचन हेतु पुनः निवेदन किया।
पूज्यवर हर वस्तु में निर्माण की कल्पना करते थे। अतः इसे भी उसी दृष्टि से लेते हुए उन्होंने कहा-‘‘देवियो सप्तसरोवर क्षेत्र में अभी तक कोई दर्शनीय स्थल नहीं था। स्वामी जी ने भव्य मंदिर बनाकर यह कार्य पूर्ण किया। यह हिमालय का क्षेत्र है, इसमें केवल बड़े-बड़े जंगल ही थे। अब यह विशाल मंदिर इन्सान को देवता बनाने के कार्य में लगकर अपनी सार्थकता सिद्ध करेगा। सन्त, सुधारक, शहीद की पीढ़ियाँ प्रदान करेगा।’’
बड़ी सहजता से भविष्य का निर्देशन भी दे दिया। ऐसी थी उनकी सहजता-सरलता।


गुरुजी की सादगी के विषय में चाँदवानी जी बताते हैं कि सन् 1968 में जब पूज्यवर शान्तिकुञ्ज हेतु भूमि लेने आये थे। स्टेशन के पास ही काफी जमीन और मकान मिल रहे थे। पर उन्हें अपने गुरु का जैसा आदेश मिला, वैसा ही उन्होंने किया। सप्तऋषि आश्रम में, अनुसूया कुटी में ठहरे। जब तक शान्तिकुञ्ज में उनके ठहरने लायक स्थान नहीं बना, तब तक गुरुदेव जब भी आते उसी कुटी में ठहरते थे।
सप्तऋषि आश्रम के पास की यह भूमि जो उस समय बहुत दलदली थी, खरीदी और इसी भूमि पर उन्होंने निर्माण करने की ठानी। श्री रामचन्द्र सिंह जी को उन्होंने कहा, ‘‘एक साइकिल किराये से ले लो। किसी ठेकेदार को देखकर आते हैं।’’ फिर उनको साथ लेकर चान्दवानी बिल्डर्स, ज्वालापुर, के पास गये। उन्हें लेकर आये, जमीन दिखाई। पूछा, ‘‘यहाँ निर्माण कैसे हो सकेगा, बताओ?’’ चाँदवानी जी ने जमीन देखकर कहा, ‘‘यहाँ तो निर्माण करना बहुत मुश्किल होगा और महँगा भी। आप कोई और जमीन देख लीजिये।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘हमें तो यहीं बनाना है। आप बताइये कैसे होगा?’’ चाँदवानी जी ने कहा, ‘‘आपको यहीं बनाना है, तो आप हमें छः महीने का समय दीजिये, तब हम बना सकते हैं।’’ पूज्यवर बोले, ‘‘आप छः माह लें या एक वर्ष, पर हमें बनाना यहीं है। बताओ, कैसे बन सकेगा?’’ चाँदवानी जी ने कहा-‘‘हम यहाँ यूकिलिप्टस के पेड़ लगायेंगे। उससे पानी सुखायेंगे, तब निर्माण हो सकेगा।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘ठीक है, जैसा आप उचित समझें।’’ फिर यहाँ एक हजार यूकिलिप्टस के पेड़ लगाये गये। तब कहीं जाकर ज़मीन का कुछ पानी सूखा और ईंट गारा रखने लायक जगह बनी। फिर यहाँ निर्माण कार्य सम्पन्न किया गया।
चाँदवानी जी बताते हैं कि निर्माण के बाद भी गुरुजी उनके पास अक्सर आया करते थे। उनसे पारिवारिक सम्बन्ध बन गये थे। गुरुजी उनके घर भी आया करते, और सब जनों के हाल-चाल पूछते। सबको प्यार-आशीर्वाद लुटाते। शान्तिकुञ्ज में उस समय कार भी आ गयी थी, परन्तु वे फिर भी रिक्शे से ही उनके पास आते-जाते। ऐसे सादगी-सम्पन्न थे पूज्य गुरुदेव।


ऐसे ही सन् 1982 की बात है। खड़खड़ी में श्री रामकिंकर उपाध्याय जी की कथा का आयोजन था। आयोजकों ने शान्तिकुञ्ज में भी निमंत्रण भेजा था। एक दिन गुरुजी ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘उन्होंने बहुत बार बुलाया है, उसमें चलना है।’’ उस समय तक शान्तिकुञ्ज में कार नहीं थी। सामान ढोने वाला एक टैंपो था, उसे बुलवाया। उन दिनों भास्कर जी चालक थे। गुरुजी उनके बगल वाली सीट में बैठ गए। हम दो-तीन लोग पीछे बैठ गए। जब उसे स्टार्ट किया तो वो बंद हो गया। गुरुजी बोले, ‘‘अरे बच्चो! उतरो, धक्का लगाओ।’’ धक्का लगा कर गाड़ी को स्टार्ट किया और उस आश्रम में पहुँचे जहाँ कथा हो रही थी। कथा चल रही थी। गुरुजी बोले, ‘‘देखो, कथा चल रही है। चुप-चाप चलकर पीछे बैठ जाना।’’ उनकी स्वयं की महानता इतनी बड़ी कि स्वयं भी चुप-चाप हमारे साथ पीछे बैठ गये।
व्यास पीठ से उस युग के सबसे बड़े, विश्वप्रसिद्ध कथावाचक, श्री रामकिंकर उपाध्याय जी ने देख लिया। उन्होंने कथा को विराम दिया और मंच से कहा, ‘‘हम सबका सौभाग्य है कि हमारे देश के महापुरुष, संत हमारे बीच आये हैं। जिन्होंने गायत्री और यज्ञ को जन-जन तक पहुँचाया है। जिनके लाखों-करोड़ों शिष्य हैं, भक्त हैं। मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि वो मंच पर आ जायें।’’ भीड़ मुड़ कर देखने लगी, ‘‘कौन आया?’’ पर गुरुजी तो सबसे पीछे बैठ गए थे। दिखाई नहीं पड़े। गुरुदेव ने हाथ जोड़ कर संकेत किया कि मैं ठीक हूँ। आप कथा प्रारंभ करिये। लेकिन रामकिंकर जी ने कहा, ‘‘जब तक आप आगे नहीं आयेंगे, मैं कथा प्रारंभ नहीं करूँगा।’’
गुरुजी आगे जाकर अग्रिम पंक्ति में बैठ गए। मंच पर फिर भी नहीं बैठे। रामकिंकर जी गुरुदेव को पहचान गये थे, अतः कथा कहते-कहते उन्होंने कहा ‘‘आज का दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य का दिन है। देश-विदेश में जिनकी कथा मैं कहता आया हूँ, आज वो स्वयं मेरी कथा श्रवण करने के लिये मेरे सम्मुख बैठे हैं।’’


महापुरुष कितने अव्यक्त होते हैं, यह पूज्यवर के पास ही देखने को मिला। उनकी सादगी से हर कोई चकित हो जाता था। उनकी सादगी देखकर पहली नजर में तो किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि वे ही गुरुजी हैं।
एक बार लन्दन से एक व्यक्ति गुरुजी से मिलने आया। मैं ऊपर ही बैठा था। साथ में दो तीन व्यक्ति और थे। उस समय कोई भी, कभी भी गुरुजी के पास चला जाता था। वह भी ऊपर आया पर गुरुजी को वह पहचानता नहीं था। आकर गुरुजी से बोला, ‘‘मैं गुरुजी से मिलना चाहता हूँ।’’ गुरुजी ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे ही लोग गुरुजी कहते हैं।’’ उनकी सादगी व वेश-विन्यास देखकर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। शायद मन में किसी जटाजूटधारी की कल्पना थी, अतः उसने फिर कहा, ‘‘मैं पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी से मिलना चाहता हूँ।’’
गुरुजी ने उत्तर दिया, ‘‘हाँ भई! मैं ही आचार्य श्रीराम शर्मा हूँ।’’
कुछ देर तक तो वह हैरानी से उन्हें देखता ही रह गया। फिर बोला, ‘‘इतने बड़े महापुरुष! इतने सरल, इतने सीधे-साधे भी हो सकते हैं क्या?’’ उसने उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणों में ही बैठ गया। उठाये नहीं उठ रहा था। पूज्यवर ने ही स्नेहपूर्वक उसे उठाया। उसने अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया और उनकी सहजता को हृदय में धारण कर शान्तिकुञ्ज से विदा हुआ।


श्रीमती श्रीदेवी यादव

(श्रीमती श्रीदेवी यादव माताजी सन् 1962 में गुरुदेव से मिलीं। मथुरा आती-जाती रहीं। सन् 1982 में गुरुदेव के बुलाने पर पूर्णरूप से शान्तिकुञ्ज आ गईं।)

गुरुजी से बातचीत

श्रीदेवी अम्माजी बताती हैं कि 1958 का यज्ञ होने वाला था। उसके लिये गायत्री मंत्र लेखन अभियान चल रहा था। एक राव जी साहब हमारे घर आते थे, उनके कहने पर मैंने मंत्र लेखन किया, पर कुछ दिनों बाद ही राव जी का देहांत हो गया और हम उस यज्ञ में शामिल नहीं हो पाये। बाद में सन् 1962 में पिताजी के साथ मैं, मथुरा में गुरुजी से मिली। गुरुजी ने हाल-चाल पूछा। बहुत कम उम्र में ही मेरे पति चल बसे थे। गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटी, तेरा मन नहीं लगता, तो तू मेरे पास आ जाया कर।’’ फिर तो हमारा आना-जाना लगा ही रहता। गुरुजी खूब बातचीत करते और खूब प्यार देते। सत्र पूरा होने के बाद भी हम कई-कई दिन तक गुरुजी के पास गायत्री तपोभूमि, मथुरा में रुक जाते थे। मैं गुरुजी के पास बैठी रहती, वे अपना लेखन, लोगों से मिलना-जुलना आदि काम करते रहते।

एक दिन गुरुजी ने मुझे अपने पास बिठाया। मैं गुरुजी के पास ही तखत पर बैठ गई। गुरुजी ने कहा, ‘‘तुम रामायण पढ़ती हो, सो ठीक है। गीता पढ़ती हो, वो भी ठीक है। द्वादश अक्षरी (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः।) जपती हो ये भी अच्छी बात है। एक माला गायत्री मंत्र की और कर लिया करना।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मैं 24 बार तो जपती हूँ।’’ गुरुजी बोले, ‘‘एक माला कर लिया करना।’’
फिर गुरुजी ने मुझे अपने पास बिठाया और रामायण की कुछ चौपाइयाँ बोलने लगे, ‘‘परपति रति करईं, रौरव नरक कलप सत परहिं....आदि, आदि।’’ और बोले, ‘‘तू इन सबका चिंतन क्यों करती रहती है? विधवा होने के कई एक कारण होते हैं। तू ऐसा सब क्यों सोचती रहती है?’’ मैं गुरुजी की बात सुनकर हक्की-बक्की रह गई। ‘‘गुुरुजी मन की बात भी पढ़ लेते हैं! मेरे हृदय की सब बात जान रहे हैं!’’
मैंने गुरु जी से पूछा, ‘‘गुरुजी, मेरा भविष्य कैसा निकलेगा?’’ गुरुजी बोले, ‘‘तेरा भविष्य मैंने बना कर रख दिया है। तू चिंता मत कर।’’

एक दिन बात करते-करते मैंने गुरुदेव के दोनों हाथ पकड़े और पूछा, ‘‘गुरुजी आप कौन हैं? गुरुजी बड़े सहज ढंग से अपनी ओर इशारा करते हुए बोले, ‘‘देखती नहीं, मैं कौन हूँ?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव, सब तो आपको भगवान् कहते हैं।’’ गुरुजी बोले, ‘‘हाँ बेटा, तेरा तो मैं भगवान् ही हूँ। तुझे भगवान् से मिलाऊँगा और भगवान् के कंधों पर बिठाऊँगा भी।’’ यह कहकर गुरुदेव हँसने लगे, पर उस दिन से आज तक, मैं जब ध्यान करती हूँ तो मुझे गुरुजी ही दिखाई देते हैं। गायत्री माता या और कोई देवी-देवता नहीं।

एक बार मैं और पिताजी शान्तिकुञ्ज आये हुए थे। पिताजी ने गुरुजी से कहा,‘‘गुरुजी, हमारा तो समय अब नजदीक है, आप इसका ध्यान रखना।’’ गुुरुजी बोले, ‘‘हाँ, मैं ध्यान रखता हूँ। अब मैं क्या करूँ? क्या दूँ... देने के लिये? हाँ, देने लायक जो है वो दूँगा, साहस दूँगा, धैर्य दूँगा।’’ वास्तव में मैंने देखा, मेरे पास हिम्मत बहुत है।


दिव्य आनंद

गुरुजी बार-बार आने के लिये कहते थे, सो पिता जी की मृत्यु के बाद सन् 1982 में मैं शान्तिकुञ्ज आ गई। एक बार मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी, आप मेरा ध्यान रखना।’’ गुरुजी बोले, ‘‘बेटा! मैं धोखा देने वाला आदमी नहीं हूँ। तुमने मेरा पल्ला पकड़ा है तो निराश नहीं होने दूँगा। किसी को तुझे सताने नहीं दूँगा। ध्यान तो मैं तेरा पहले भी रखता था, अब विशेषकर रखूँगा। सूक्ष्म शरीर से सौ वर्ष तक तुम्हारे साथ रहूँगा।’’ फिर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कान में उँगली डाली। मुझे बड़ी दिव्य अनुभूति हुई। ऐसा लगा जैसे मेरे चारों ओर आनंद ही आनंद छा गया। हर क्षण गुरुदेव की निकटता का आभास होता रहा। ऐसा लगता रहा जैसे सर्वत्र गुरुजी ही गुरुजी छाये हैं। तीन दिन तक मैं उस दिव्य आनंद, अलौकिक आनंद की मस्ती में डूबी रही।


हर पल संरक्षण

एक बार मैं बद्रीनाथ गई। पिताजी बद्रीनाथ का विवरण सुनाते थे। रास्ते में बहुत ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हैं, गहरी खाइयाँ हैं। मैं सोचती थी जाने कैसा लगता होगा? बस में से जब मुझे गहरी खाई दिखाई दी तो मुझे बहुत डर लगने लगा। साँस फूलने लगी, घबराहट होने लगी। इतने में मुझे लगा जैसे खिड़की में गुरुजी खड़े मुस्कुरा रहे हैं। मैंने गौर से देखा तो ओझल हो गये। फिर थोड़ी देर में लगा जैसे खिड़की में गुरुजी हँस रहे हैं। तीन-चार बार गुरुजी मुझे खिड़की में हँसते, मुस्कुराते दिखाई दिये। उनकी इस आँख-मिचौनी में और उनके दर्शन करके मेरा मन इतना प्रसन्न हो गया कि मेरा सारा डर कहाँ चला गया, मुझे पता ही नहीं चला। फिर रास्ते भर मुझे डर नहीं लगा।

हमारे पिताजी के पास काफी जमीन-जायदाद थी। पिताजी की अकेली संतान होने के नाते मैं उसकी अकेली वारिस थी। पिताजी के बाद सब संपत्ति मुझे मिलेगी यह सोचकर, हमारे ही परिवार के कुछ लोगों ने मेरी हत्या करने की साजिश रची। वे लोग मुझे कभी-कभार कह भी देते थे कि अकेली वारिस हो, कोई मार डाले तो? पर मेरे मन में शंका तो दूर ऐसा कोई ख्याल भी नहीं आया कि इनकी बात में कोई सच्चाई भी हो सकती है।
सन् 1977 में परम वंदनीया माताजी का पत्र आया। लिख था, ‘‘तू शान्तिकुञ्ज आ जा। गुरुदेव चिंता करते हैं। कहते हैं, छोरी वहाँ अकेली है, कोई गला घोंट देगा।’’ कुछ दिनों बाद वीरेश्वर भाई साहब कार्यक्रम के लिये हमारे क्षेत्र में आये तो उनके पास भी संदेश दिया और कहा, ‘‘लड़की वहाँ अकेली पड़ी है, देखकर आना और उसे आने के लिये कहना।’’ मैंने भाई साहब को शान्तिकुञ्ज के लिये कुछ अनुदान दिया और कुछ दिन में अपना काम समेट कर आने का संदेश दिया। सप्ताह भर बाद मैं शान्तिकुञ्ज आ गई, और आने के कुछ ही दिनों बाद मुझे समाचार मिला कि हमारे घर की एक बहू की हत्या हो गई है। बाद में उस बहु के मायके वालों के द्वारा यह रहस्य खुला कि पैसा तो मुझे मारने के लिये दिया गया था और धोखे से उनकी बेटी की हत्या हो गई। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने दूर रहते हुए भी आने वाली विपत्ति की ओर संकेत ही नहीं किया बल्कि मेरी रक्षा भी की।

सन् 1981 में एक दिन शिकोहाबाद, जि. फिरोजाबाद में हमारे पैतृक घर में डाकू आ गये। घर में पिताजी, मैं और एक दो लोग और थे। लगभग रात हो गई थी। हम लोग चारपाई पर मच्छरदानी लगाकर सोने ही जा रहे थे कि डाकू घर में घुसे, उनके हाथ में बंदूकें थीं। सामने के रास्ते से पुलिस वाले अक्सर आया-जाया करते थे। वे लोग कभी-कभी पानी पीने के लिये घर में भी आ जाते थे। हमने सोचा पुलिस वाले होंगे। इतनी देर में वह लोग आँगन में हमारी चारपाई के पास आ गये। मच्छरदानी खींच कर एक तरफ कर दी और बंदूकें तान कर बोले, ‘‘हम आप लोगों को कुछ नहीं कहेंगे, बस पानी पिला दो।’’ जब तक हमने उन्हें पानी पिलाया उन्होंने घर का जायजा ले लिया कि घर में कितने लोग हैं। दो लोग हमारे ऊपर बंदूकें ताने खड़े रहे। बाकी लोगों ने, जो कुछ उनके काम की चीज घर में मिली, उसे बाँध लिया। घर में 15-20 तोला सोना रखा था। जहाँ वह रखा था, वहीं काष्ठ पात्र आदि पूजा के बर्तन रखे थे। डाकुओं ने सोचा यहाँ तो सब पूजा का सामान है और उस अल्मारी की ज्यादा छान-बीन नहीं की। इस प्रकार जेवर आदि सब बच गये। घर में कुछ विशेष सामान था नहीं, सो डाकुओं को ज्यादा कुछ मिला नहीं। वे पिताजी के पास आकर बोले, ‘‘इतना बड़ा घर है, पैसा भी खूब होगा। बताओ कहाँ है?’’ पिताजी ने कहा, ‘‘मैं तो अपने पास कुछ रखता नहीं, ये मेरी बेटी है इसी को सब दे देता हूँ। इसी से पूछ लो।’’ उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘माताजी, पैसा तो बहुत होगा आपके पास, कहाँ रखा है?’’ घर में कुछ विशेष पैसा तो था नहीं। मैंने उन्हें सब सच-सच बता दिया कि पैसा तो हमारे पास बहुत है, पर घर में नहीं है। सामने जो इंटर कालेज है, कुछ पैसा उसको बनवाने में लगा दिया। कुछ पैसा, शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार, में हमारे गुरुजी रहते हैं, उन्हें दे दिया। अपने खर्चे के लिये जो रखा है, वह बैंक में जमा है। घर खर्च के लिये थोड़ा सा पैसा घर में है, वह सामने कोठरी में पूजा के पास डब्बे में पड़ा है। वह पैसा डाकुओं को पहले ही मिल गया था। मेरी बात सुनकर डाकुओं में से एक ने कहा, सबको कमरे में बंद कर दो। इतने में, किसी एक डाकू की नजर छत पर पड़ी। उसे लगा वहाँ कोई है। उसने पूछा, ‘‘घर में और कौन-कौन है?’’ हमने कहा, ‘‘हमारे अलावा और कोई नहीं है।’’ वह बोला, ‘‘छत पर कौन है?’’ हमने कहा, ‘‘कोई नहीं है।’’ पर डाकुओं को छत पर कोई सफेद धोती-कुर्ता पहने, हाथ में बड़ा सा डंडा लिये खड़ा दिखाई दे रहा था। वे बोले, ‘‘छत पर सफेद धोती-कुर्ते वाला कौन है? ऊपर जाने का रास्ता किधर है?’’ और घर के एक व्यक्ति को आगे करके वे सीढ़ियों की तरफ गये। वे सीढ़ियाँ चढ़ ही रहे थे कि पता नहीं क्या हुआ वे हाँफते हुए और डर के मारे काँपते हुए, उल्टे पैरों भागे और भागते ही चले गये। घर का जो कुछ सामान उन्होंने पोटलियों में बाँधा था, उसे भी थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ के नीचे छोड़ गये। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने घर में घुस आये डकैतों को भगाया।


डॉ.ओ.पी. शर्मा एवं डॉ.गायत्री शर्मा

(डॉ.ओ.पी. शर्मा जी एवं डॉ.गायत्री शर्मा 1980 में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद लगातार संपर्क में रहे, टोलियों में भी जाते रहे। 1989 में डॉ. ओ. पी. शर्मा जी स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)

मन की बात सुनने वाले हमारे गुरुदेव

बात जनवरी 1981 की है, परम पूज्य गुरुदेव सुल्तानपुर गायत्री शक्तिपीठ व गायत्री प्रज्ञापीठ में प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम हेतु आये थे। वहाँ से उन्हें लखनऊ जाना था। हम दोनों के मन में प्रेरणा हुई कि गुरुजी को लखनऊ तक विदा करने चला जाय। उन दिनों हम दोनों महिला और पुरुष चिकित्सालय में अधीक्षक के पद पर तैनात थे, सो छुट्टी बड़ी मुश्किल से मिलती थी, लेकिन उस दिन रात में सी. एम. ओ. से बात हुई और छुट्टी मिल गई। हम दोनों जब विदाई स्थल पर पहुँचे तो वहाँ बहुत भीड़ थी। हम दोनों दूर से ही एक ऊँचे स्थान पर खड़े हो कर गुरुवर को देखने लगे। हमने सोचा, जैसे ही गुरुदेव उठेंगे, हम अपनी कार में बैठ कर उनकी गाड़ी के पीछे चल देंगे।
गुुरुदेव को लेने के लिये लखनऊ से कई गाड़ियाँ आई थीं। हम सोच रहे थे कि यदि गुरुदेव हमारी कार में बैठ कर चलते, तो हमारा कितना सौभाग्य होता? गुरुदेव के उठते ही हम अपनी कार के पास पहुँच गये। गुरुदेव आये और हमारी कार के पास आकर खड़े हो गये और बोले, ‘‘हम इसी में बैठेंगे।’’ डॉ. शर्मा जी ने कार का दरवाजा खोला और गुरुदेव उसमें बैठ गये। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। मन ही मन हम सोच रहे थे कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं, जो गुरुवर ने हमारे मन की बात बिना कहे ही पढ़ ली और हमारी अभिलाषा पूरी की।
रास्ते में एक जगह गुरुदेव ने कार रोकने को कहा। कार जहाँ रुकी थी, वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था, पर अचानक पता नहीं कहाँ से पंद्रह-बीस लोग आरती का थाल ले कर आ गये। उन्होंने गुरुवर की आरती उतारी। गुरुदेव ने उन सभी से घर वालों के नाम ले-लेकर सबका हाल-चाल पूछा। हमें आश्चर्य हुआ कि अभी तो कोई नहीं था, अचानक ये लोग कहाँ से आ गये और गुरुदेव को इनके घरवालों के, पत्नी-बच्चों के जो यहाँ हैं भी नहीं, नाम कैसे याद हैं? यह सब देखकर हम उनकी सर्वज्ञता के आगे नतमस्तक थे।


पत्ती-पत्ती में गुरुदेव

गायत्री दीदी बताती हैं कि अपने पिता के घर में, बचपन में मैं एक फोटो टँगी देखती थी। जिसमें एक कदम्ब के पेड़ के नीचे राधा-कृष्ण खड़े थे और उस वृक्ष के प्रत्येक पत्ते में भी वही राधा-कृष्ण बने थे। मैं सोचती थी कि पत्ती-पत्ती में भगवान कैसे हो सकते हैं? इसकी स्पष्ट अनुभूति मुझे उस समय हुई जब हम गुरुदेव को लखनऊ छोड़ कर वापिस लौटे।
परम पूज्य गुरुदेव को विदा करके डॉ. शर्मा जी और मैं जब सुल्तानपुर के लिये रवाना हुए तो मन बहुत भारी था, लग रहा था जैसे कुछ छूटा जा रहा है। प्रातःकाल का समय था और पूज्य गुरुदेव की बहुत याद आ रही थी। भारी मन से रास्ते के पेड़ों को देखते हुए जा रही थी कि अचानक अन्तःकरण में प्रेरणा आयी कि गुरुवर तो पत्ती-पत्ती में विराजमान हैं और मुझे ऐसा प्रतीत भी होने लगा, ठीक वैसे ही जैसे बचपन में पत्ती-पत्ती में राधाकृष्ण को देखती थी।
यह भाव इतना प्रबल था कि आँखों से अश्रु झरने लगे। डॉ. शर्मा जी ने पूछा, ‘‘रो क्यों रही हो?’’ हमने कहा, ‘‘भगवान् गुरुदेव के रूप में आये हैं। वह पत्ती-पत्ती में विराजमान हैं, ऐसा हमें अनुभव हो रहा है और ये दुःख के नहीं खुशी के आँसू हैं कि भगवान् ने गुरुवर के रूप में हम लोगों को दर्शन दिया है।’’
यह अनुभूति इतनी स्पष्ट, इतनी सजीव थी कि इसे वाक् शक्ति से बताया नहीं जा सकता। उसी दिन अन्दर से संकल्प जागा कि दोनों या दोनों में से कोई एक परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में आजीवन समर्पित हो कर उनका कार्य करेंगे। बच्चे छोटे थे, एक पहली में और दूसरा पाँचवीं में पढ़ रहा था और मुझे निर्देश हुआ कि अपनी जिम्मेदारी पूरी करने पर ही आयें। यह अनुशासन मान कर एक के आने का दृढ़ निश्चय हो गया और डॉ. शर्मा जी शान्तिकुञ्ज आ गये और हम वहीं रह कर पारिवारिक जिम्मेदारी, चिकित्सक की नौकरी और गुरुवर का कार्य करते रहे। कण-कण में उनके स्वरूप की वह अनुभूति आज भी ज्यों की त्यों मन में सजीव है।


हम भगवान से लेना जानते हैं

27 अप्रैल 1981 को बस्ती में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम था। कार्यक्रम के पश्चात् पूज्यवर जब लोगों से मिलने के लिये बैठे तो हमसे बोले, ‘‘तुम हमारे पास खड़े रहना और लोगों को दवा लिख देना।’’ हम सोचने लगे, ‘‘हम क्या दवा लिखेंगे?’’ खैर हम उनके पास खड़े हो गये। लोग अपनी-अपनी समस्या कहते और गुरुदेव आशीर्वाद दे देते। कोई गंभीर बीमारी से पीड़ित था, तो उसे भी गुरुदेव ने आशीर्वाद दे दिया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद निवास स्थान पर जाकर हमने गुरुदेव से निवेदन किया कि गुरुदेव, बीमारी कैसे ठीक होगी? गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, करता तो भगवान है। लोग भगवान से लेना नहीं जानते। हम उनसे लेना जानते हैं, हम उनसे कहते हैं, वो करते हैं।’’
उनके यह शब्द सुनते ही मेरी शंका का समाधान हो गया और मुझे एम.बी.बी.एस में पढ़े हुए वे शब्द याद हो आये, ‘‘हार्ट कैसे कार्य करता है यह विज्ञान का विषय है, लेकिन हार्ट किसने बनाया? सर्जन कट्स एण्ड गॉड युनाइट्स’’
1982 जनवरी में, मैं 15 दिन के प्रज्ञा-पुराण प्रशिक्षण हेतु सुल्तानपुर से शान्तिकुञ्ज आया था। 5-6 दिन बाद लगभग नौ बजे के करीब हम गुरुदेव के पास बैठे थे कि श्री रामजनम वर्मा जी अपने आठ वर्ष के बेटे को लेकर आये और कहा, ‘‘गुरुजी, इसकी साँस फूलती है।’’ गुरुदेव ने कहा, ‘‘अभी से साँस फूलेगी तो क्या होगा? हम अपने कंधों पर ले चलेंगे, गायत्री माता से कह देंगे ठीक हो जायेगा।’’ उस समय पूज्यवर कमरे में टहल रहे थे, थोड़ा रुके और कागज पर लिखा सितोपलादि चूर्ण, एक चम्मच सुबह-शाम, आशीर्वाद और अपना हस्ताक्षर करके दे दिया। उस घटना को देखकर मन में आया यह कैसे ठीक हो जायेगा? जबकि इसे रिह्यूमेटिक हार्ट की बीमारी जान पड़ती है। पूज्यवर ने मेरे मन की बात शायद पढ़ ली और मुझे कहा, ‘‘माताजी के पास चले जाओ।’’ माताजी ने मुझे चाय पिलायी और बोलीं, ‘‘तुम्हें गोष्ठी लेने पशुलोक जाना है।’’ बात मेरी समझ में आ गई कि मुझे क्यों भेजा जा रहा है? श्री रामजनम वर्मा जी पशुलोक में ही रहते थे।
वहाँ जाकर, मैंने सबसे पहले बच्चे का परीक्षण किया। उसे वही दिल की बीमारी निकली, जो मैंने सोची थी। 15 दिन बाद मैं सुल्तानपुर वापिस आ गया। कुछ वर्षों बाद जब रामजनम वर्मा जी से बच्चे की बीमारी के विषय में चर्चा हुई, तो उन्होंने बताया कि वह तो पूर्णतः स्वस्थ है, कोई दवा नहीं ले रहा है और उन्होंने गुरुवर की दवा के अलावा और कोई दवा भी नहीं की। आज वह बालक इंजीनियर है। प्राणशक्ति अनुदान क्या है, इसे मैंने पहली बार अनुभव किया। बाद में तो मैंने ऐसे बहुत से केस देखे, जब पूज्यवर ने मात्र आशीर्वाद से ही रोग को ठीक कर दिया।


जीवन दान देने वाले महाकाल

डॉ. गायत्री शर्मा बताती हैं कि बचपन में एक दिन मेरी माँ मेरे बड़े भाई की कुण्डली एक पंडित जी को दिखा रही थीं। हमने कहा, ‘‘पंडित जी, मेरी भी कुण्डली देखकर बताइये, हम क्या बनेंगे?’’ पंडित जी ने मेरी माँ से कहा, ‘‘बिटिया की उच्च शिक्षा और राज योग है, लेकिन भरी जवानी में मृत्यु योग है।’’ बात आई गई हो गई।
1982 में हम पूज्य गुरुदेव के समक्ष बैठे थे, परम पूज्य गुरुदेव ने पूछा, ‘‘तुमने डॉ. साहब को रोटी बनाना और चाय बनाना सिखाया या नहीं।’’ हमने सोचा, शायद इसलिये कह रहे हैं कि उन्हें शान्तिकुञ्ज में अकेले रहना है, लेकिन उनकी इस बात का रहस्य तब खुला, जब डॉ. साहब को पूरी गृहस्थी सँभालनी पड़ी। घटना अप्रैल, 1983 की है। हम जिला सुल्तानपुर में तैनात थे। डॉ. शर्मा जी टोली में चल रहे थे, हमने नवरात्रि अनुष्ठान दूध-केला पर किया और पूर्ण आहुति हेतु कार्यकर्ताओं के आग्रह पर गायत्री शक्तिपीठ गये। जबकि हमें लेप्रोस्कोपिक आपरेशन हेतु अमेठी जाना था। पूर्णाहुति के बाद अचानक मेरी साड़ी में आग लग गयी। मैं वहीं यज्ञशाला में करीब 50 प्रतिशत जल गई। यह घटना प्रातः 6:30-7:00 बजे की थी। मुझे तुरन्त हाॅस्पिटल ले जाया गया। मन में भाव आया कि मरना तो एक दिन सभी को है, कोई बात नहीं, लेकिन यदि हम मर गये तो फिर बच्चे बनकर भगवान का काम कैसे कर पायेंगे? जैसे ही आग बुझी मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे तीव्र प्रकाशमय सूर्य मेरे अन्दर समा गया हो।
इधर जो लोग उस समय शान्तिकुञ्ज में थे, वह बताते हैं कि परम पूज्य गुरुदेव अचानक प्रणाम से उठकर ऊपर चले गये और जब नीचे आये, तो वंदनीया माताजी से बोले, ‘‘बेटी गायत्री पर दुर्घटना घट गई है। यदि कोई समाचार लेकर नहीं आता, तो पता लगाइये।’’
सुल्तानपुर से हमें तुरन्त लखनऊ, बलरामपुर चिकित्सालय में शिफ्ट किया गया। हालत गंभीर थी। डॉ. ए. सी. राय से हमारे भाई ने पूछा, ‘‘कब तक खतरे से बाहर हो जायेंगी?’’ उन्होंने कहा, ‘‘चार-पाँच दिन तक कुछ कहा नहीं जा सकता।’’ उसी दिन शाम को बड़ी बहिन ने चिट्ठी लिखकर बेटे द्वारा परम पूज्य गुरुदेव को सूचना पहुँचाई। पूज्यवर ने कहा, ‘‘एक-एक करके बताओ, कहाँ-कहाँ जली है? वे नंबर गिनते गये, जब पूरा समाचार सुन लिया तो बोले, ‘‘अब तुम जाओ। तुम्हारा काम समाप्त और मेरा काम शुरू।’’
प्रातःकाल तक मेरी हालत में काफी सुधार हो गया था। डॉ. राय साहब जो उस समय बलरामपुर चिकित्सालय के निर्देशक थे, बोले, ‘‘ताज्जुब है! इतनी जल्दी इतना सुधार कैसे हो गया?’’
डॉ. ओ. पी. शर्मा जी बताते हैं कि तीन दिन बाद ही मुझे परम पूज्य गुरु देव का पत्र मिला, ‘‘बेटी गायत्री को नया जन्म प्रदान हुआ।’’ जीवन तो उन्होंने ही दिया लेकिन लिखा, ‘‘तुम्हारी परमार्थ परायणता ने बेटी गायत्री की जान बचायी।’’ प्राण दान देने वाले वे स्वयं थे, पर श्रेय किसी को भी दे देते थे।


हम सूर्य में व अखण्ड दीप में रहेंगे

1987 नवम्बर की बात हैै। मैं टोली से लौटा था। जब गुरुदेव से मिलने गया, तो गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, मैं शुकदेव हूँ।’’ मैं चुप रहा और उनके वाक्य पर विचार करता रहा। रात में भी वही विचार चलता रहा। प्रातःकाल उपासना के समय प्रेरणा मिली कि गायत्री का सूर्योपस्थान पढ़ो। मैंने उसे पढ़ा। उसमें लिखा है, ‘‘ऋषि शुकदेव जी कहते हैं, हमारी सारी साधनायें पूरी हूई। अब हम सूर्य में व्याप्त होकर कार्य करेंगे।’’ अगले दिन मैंने गुरुदेव को संस्कृत का एक श्लोक सुनाया। ‘तस्मात् योग समास्थाय....’ जब मैंने यह श्लोक सुनाया तो गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा कहाँ पढ़ा है?’’ मैंने गुरुदेव को बता दिया कि ‘गायत्री का सूर्योपस्थान’ पुस्तक में पढ़ा है। तब गुरुजी कहने लगे, ‘‘बेटा, जैसे शुकदेव जी ने पैदा होने पर माँ का स्तनपान भी नहीं किया और तपस्या करने लगे वैसे ही बेटा हम भी तपस्या में लग गये हैं और उसी रूप में कार्य कर रहे हैं।’’
एक दिन पूज्यवर ने कहा, ‘‘शरीर छोड़ने के बाद क्षण भर के लिये हम निराकार हो जायेंगे, फिर उसी अखण्ड दीप की ज्वलंत लौ में समाहित हो जायेंगे, वही मेरी प्रतिमा होगी।’’
इसी बात को वर्ष 1988, जनवरी की अखण्ड ज्योति में पृष्ठ-28 पर उन्होंने लिखा भी, ‘‘बदन बदलने के समय में अब बहुत देर नहीं है।...परिजन हम लोगों का संयुक्त जीवन अखण्ड दीपक का प्रतीक मानकर उसे आत्म सत्ता की साकार प्रतिमा मानते रहें।... शरीर परिवर्तन की वेला आते ही यों तो हमें साकार से निराकार होना पड़ेगा, पर क्षण भर में उस स्थिति से अपने को उबार लेंगे और दृश्यमान प्रतीक के रूप में अखण्ड दीपक की ज्वलंत ज्योति में समा जायेंगे।’’ ‘‘शरीरों के निष्प्राण होने के बाद, जो चर्म चक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे, वे इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे। भविष्य में दोनों की सत्ता एक में विलीन हो जायेगी और उसे तेल-बाती की पृथक सत्ताओं के एक ही लौ में समाविष्ट होने की तरह अद्वैत रूप में गंगा-यमुना के संगम रूप में देखा जा सकेगा।’’
आगे वे लिखते हैं, ‘‘अभी हम लोगों के शरीर शान्तिकुञ्ज में रहते हैं। पीछे वे इस परिकर के कण-कण में समाये हुए रहेंगे। इसकी अनुभूति निवासियों और आगंतुकों को समान रूप से होती रहेगी।’’


अंतिम दर्शन

डॉ. गायत्री शर्मा बताती हैं कि मई 1990 में ब्रह्मदीप यज्ञों की शृंखला में लखनऊ में ब्रह्मदीप यज्ञ के एक संयोजक मेजर खरे दूसरे श्री त्रिवेदी जी के अतिरिक्त हमें भी संयोजन का सौभाग्य मिला था। प्रचार-प्रसार से लेकर समयदानियों के नियोजन की भी जिम्मेदारी थी। परन्तु मन परम पूज्य गुरुदेव पर ही लगा रहता था। 1 जून को न जाने क्या हुआ, मुझे गुरुदेव से मिलने की तड़प सी उठने लगी, कुछ बेचैनी सी होने लगी। हमने श्री अरविन्द निगम जी से कहा कि हमें शान्तिकुञ्ज जाना है, हम रात्रि में जाकर गुरुदेव के दर्शन करके अगले दिन आ जायेंगे। उन्होंने कहा, ‘‘बिना आरक्षण के आप कैसे जायेंगी?’’ हमने कहा, ‘‘कैसे भी हो, हमें जाना है, मन में ऐसी प्रेरणा आ रही है जैसे गुरुदेव बुला रहे हैं।’’ हम स्टेशन पहुँचे, टिकिट ली और हमें रिजर्वेशन भी मिल गया। हम शान्तिकुञ्ज आये, गायत्री जयंती के कार्यक्रम के बाद माताजी का प्रणाम हुआ और दोपहर तक यह घोषणा हो गई कि परम पूज्य गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया है। हमारे दुःख की सीमा नहीं थी, जब उनके अंतिम दर्शन किये, उन्हें प्रणाम किया तो इस बात का रहस्योद्घाटन हुआ कि क्यों अचानक ही गुरुवर से मिलने की तीव्र की इच्छा होने लगी थी। उन्होंने स्वयं खींचकर हमें अपने पास बुला लिया था और अपने पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शनों की अभिलाषा पूरी की थी। उस गायत्री जयंती पर्व पर अनेकों परिजन दूर-दूर से हमारी ही तरह खिंचे चले आये थे और यही कह रहे थे कि गुरुदेव ने ही हमें खींचकर बुलाया है। (ज्ञातव्य है कि उन दिनों पूज्य गुरुदेव ने बहुत से परिजनों को स्वप्न के द्वारा और ध्यान में आकर विशेष प्रेरणाएँ भी दीं, किन्हीं-किन्हीं को तो अपना शरीर छोड़ देने का स्पष्ट आभास भी कराया।)


डॉ. अमल कुमार दत्ता

(डॉ. अमल कुमार दत्ता एवं श्रीमती श्रीपर्णा दत्ता, पूज्यवर के निकटतम शिष्यों में से हैं। वे 1960 में मथुरा में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद वे लगातार उनके संपर्क में बने रहे। 1984 में पूज्य गुरुदेव के कहने पर स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)

डॉ. अमल कुमार दत्ता जी के पास इतने संस्मरण हैं कि उनकी ढेरों डायरियाँ भरी पड़ी हैं। वे कहते हैं, ‘‘गुरुजी-माताजी की यादें, उनका प्यार ही हमारे जीवन की असल पूँजी है।’’ डॉ. दत्ता जी के पास जब भी आप बैठें वे आपको कोई न कोई संस्मरण अवश्य सुनायेंगे। आप किसी भी विषय पर चर्चा करें, उनके संस्मरण कोष में उससे संबंधित निज का या अन्य किन्हीं परिजन से जुड़ा कोई न कोई संस्मरण अवश्य होगा।


गुरुजी-माताजी से परिचय

वे बताते हैं कि 1960 में, मैं पिताजी के साथ मथुरा गया, तब मैं पहली बार माताजी से मिला था। उस समय गुरुजी अज्ञातवास में थे। उस समय तक मैं गुरुजी का साहित्य पढ़ने लगा था और उनसे बहुत प्रभावित था। मैंने माताजी के चरण स्पर्श किये और पूछा, ‘‘गुरुजी कैसे लिखते हैं?’’ माताजी बोलीं, ‘‘बहुत तेज लिखते हैं और कलम उठाते ही नहीं।’’ मैंने पूछा, ‘‘क्या वे भी मुझे आप की ही तरह प्यार करेंगे?’’ माताजी बोलीं, ‘‘मुझसे भी अधिक।’’ फिर माताजी ने मुझे गायत्री मंत्र सुनाया, अखण्ड दीपक दिखाया और कहा, ‘‘खाना खाओ।’’ पिताजी ने कहा ‘‘यहाँ, हमारे रिश्तेदार हैं, खाना वहीं खायेंगे।’’ माताजी ने बड़े अधिकार से कहा, ‘‘खाना रिश्तेदार के घर नहीं, अपने घर खाना चाहिए।’’ फिर हम लोगों ने वहीं खाना भी खाया। यह थी मेरी, माताजी से पहली मुलाकात और गायत्री परिवार में आगमन।

14 जून 1961 को मैं पहली बार गुरुजी से मिला। वह दिन मुझे आज भी याद है। हम 10-12 लोग खाना खा रहे थे। माताजी ने गुरुजी से कुछ कहा। गुरुजी हमारे पास आये और बोले, ‘‘अमल कुमार कौन है?’’ मैं घबरा कर खड़ा हो गया। गुरुजी बोले, ‘‘बैठो-बैठो! खाना खाओ। खाकर तपोभूमि में मेरी प्रतीक्षा करना। मैं पूजा करके आता हूँ। तुमसे बहुत बातें करनी हैं।’’ मुझे खुशी, आश्चर्य और उत्कंठा एक साथ होने लगी। उस दिन गुरुजी ने मेरे साथ बहुत सी बातें कीं। साधना संबंधी, भविष्य संबंधी। हम साथ-साथ घूमते रहे, कभी रुकते, कभी चलते हुए गुरुजी बोलते रहे, मैं सुनता रहा। उस दिन मुझे विश्वास हो गया कि गुरुजी ने मुझे अपना बना लिया और मैं उनका हो गया। 27 जुलाई 1961 गुरुपूर्णिमा के दिन मैंने गुरुजी से दीक्षा ली।

मैं जब नया-नया जुड़ा था, तब गुरुजी को बड़ी बारीकी से देखता था। उनका साहित्य भी खूब पढ़ता था, और जाँचता रहता था कि जो कुछ वे लिखते हैं, सचमुच अपनाते भी हैं।
मैंने देखा, गुरुजी कभी चमड़ा उपयोग नहीं करते थे। केवल जूते में ही नहीं, होलडॉल के बैल्ट में भी नहीं। रेल में कभी धक्का देकर नहीं चढ़ते थे। सबसे बड़ी बात हर व्यक्ति यही सोचता रहा कि गुरुजी मुझे ही सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। वे कहते थे, ‘‘मैं अधूरा प्यार नहीं जानता, मेरा हर प्यार पूरा ही रहता है।’’ मैं उनसे बहुत प्रश्र पूछता था। बच्चों के जैसे जिज्ञासा रखता और वे बड़े ही सरल ढंग से मेरे प्रश्रों का उत्तर विद्वत्ता से नहीं, बड़े प्यार से, उपयोगिता तथा आदर्श की दिशा में प्रेरित करते हुए देते थे।

एक दिन मैं घीया मण्डी पहुँचा, ‘‘पूछा, माताजी कहाँ है?’’ एक बच्चे ने बताया कि माताजी, सतीश के लिये कोट का कपड़ा खरीदने नीचे गयी हैं। उसने दौड़कर माताजी को मेरे आने की सूचना भी दे दी। माताजी लौटते में मेरे लिये कचौड़ी और समोसा ले आयीं। मैंने कहा, ‘‘माताजी, गुरुजी किताब में लिखते हैं कि यह नहीं खाना चाहिये।’’ तो वे बोलीं, ‘‘मैं तो नहीं लिखती, खाना मेरा विषय है।’’ उनका यह प्यार ही था, जिससे आदमी बहुत कुछ कर गुजरता है।


मेरा लड़कपन

जब मैं पहले-पहल माताजी से मिला तो उनका स्वरूप एक साधारण गृहस्थ महिला जैसा था। मैं कहता था, ‘‘मैं परीक्षा में पास हो जाऊँ’’ तो माताजी कहती थीं, ‘‘मैं तेरी सिफारिश गुरुजी से कर दूँगी। तू भी गुरुजी से बोल देना।’’
हम लोग लड़कपन भी खूब करते थे। एक बार हम मथुरा गये हुए थे। प्रो० रामचरण महेन्द्रजी भी आये हुए थे। वे उन दिनों अखण्ड ज्योति के सहसम्पादक थे। वे लौटने वाले थे, तो हम लोग मैं और चंद्रकांत (गुरुजी का भानजा) उनको स्टेशन पहुँचाने की जिद्द करने लगे। उन्होंने गुरुजी से मना करने के लिए कहा, तो गुरुजी बोले, ‘‘ये ओकट-फोकट हैं, इनको जाने दो।’’ रास्ते में ताँगा पलट गया पर हमें चोट कोई नहीं आई। हम लोगों को चाय पीने की बहुत आदत थी। रात में मथुरा में चाय कहीं मिली नहीं तो हम लोग दूध ले आये और सतीश भाई साहब से कहा कि कहीं से स्टोव, चाय-पत्ती और शक्कर का इंतजाम करो। हम लोग तलघर में ठहरे थे। सतीश भाई साहब, पं० लीलापत शर्मा जी के पास गये और बोले कि डॉ. साहब को चोट आ गई है, इसलिए सेक करना है और रसोई घर में जाकर स्टोव के साथ शक्कर और चायपत्ती भी ले आये। पंडित जी हमको देखने चले आये, फिर तो हमारी बड़ी मुसीबत हो गई। सतीश भाई साहब बोले, ‘‘डॉ. अभी अभी सोया है, जगाओ मत।’’ पंडित जी को असलियत पता चल गई। सुबह गुरुजी के पास शिकायत हुई, तो गुरुजी बोले, ‘‘लीलापत, इनके रोज चाय पीने का इंतजाम कर दो।’’


गुरुजी की आदर्शवादिता

सतीश भाई साहब की शादी जब पक्की हुई तब गुरुजी ने अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों के लिए एक-एक रुपया लिया था। मुझे और श्रीपर्णा को एक-एक नोट लिफाफे में भेजा था। जब हम शादी में गये तो एक दिन गुरुजी गायत्री तपोभूमि में यज्ञशाला की दीवार से टिककर फर्श पर बैठे थे। हम लोग सामने बैठ गए। मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, एक प्रार्थना है।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘पहले मेरी सुन।’’ 8-10 व्यक्ति जो शादी में आये थे, उनके साथ मैं भी बैठ गया। गुरुजी बोले, ‘‘जो कोई व्यक्ति शादी के लिए कोई उपहार लाया हो उसे अपने बक्स में ही रखे रहे, नहीं तो मैं उसका उपहार नाले में फेंक दूँगा। अपने जीवन का ढंग मैं अपने लड़के की शादी में नहीं तोड़ूँगा, ठीक से याद रखना।’’ इससे पहले कि गुरुजी मुझे ढूँढ़ते, मैं वहाँ से भाग लिया। मेरी बात बिना कहे ही मना जो हो गई थी।


गुरुजी की नियमितता

पैंतीस वर्षों में कभी भी गुरुजी-माताजी से मिलने में मुझे, कभी पाँच मिनट से अधिक देर नहीं लगी। गायत्री तपोभूमि में वे कभी भी घीया मण्डी से चलकर पूर्णाहुति में पहुँचने से नहीं चूके। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरे पत्र का उत्तर नहीं आया हो। गुरुजी के पत्र लिखने का एक विशेष अंदाज था, माताजी पत्र पढ़तीं, और पत्र पढ़ते-पढ़ते में ही गुरुजी जवाब लिखते रहते। जो विशेष बात पूछी जाती, उसका जवाब वह अन्तिम दो-चार लाइनों में ही लिख देते। यहाँ माताजी का पत्र पढ़ना समाप्त होता, वहाँ गुरुजी का पत्र लिखना।

मैंने गुरुजी की पहली गोष्ठी, गायत्री तपोभूमि के हॉल में 14 जून 1961 में सुनी। उन्होंने कहा कि जो अगले 30 वर्ष तक मुझसे जुड़ा रहेगा उसके पूर्व जन्म में कुछ भी हो लेकिन फिर उसे किसी और चीज की आवश्यकता नहीं होगी। मैं जिस किसी के लिए जो कुछ भी कहता हूँ उसको सच होना ही होगा।


शक्ति संचार साधना की दीक्षा

सन् 1961 की ही बात है। गुरुजी तपोभूमि गेट के दायीं ओर के हॉल में बीस-पच्चीस लोगों की गोष्ठी ले रहे थे। गोष्ठी के बाद उन्होंने पाँच लोगों का नाम लिया और ‘‘विशेष बात करनी है’’, कहकर घीया मंडी बुलाया। उस दिन गुरुजी ने अखण्ड दीपक साधना कक्ष के सामने बैठकर हम पाँच व्यक्तियों को (श्री जानकी वल्लभ जोशी, कलकत्ता का एक परिवार, मैं और एक व्यक्ति और थे।) शक्ति संचार साधना की दीक्षा दी। उन्होंने कहा ‘‘मैं और मेरे गुरु रविवार और बृहस्पतिवार को सूर्योदय के एक घण्टे पूर्व से एक घण्टे बाद तक तथा रात को नौ से साढ़े नौ बजे तक शक्ति का संचार करेंगे। किसी एक समय तुम लोग सिर्फ चुप बैठना। यदि इस शक्ति का सही उपयोग करोगे तो यह निरंतर मिलती रहेगी।’’ मैं यह साधना आज भी लगभग नियमित करता हूँ।

एक दिन मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं पड़ता। लगभग 25 वर्ष तो हो गये साधना करते हुए।’’ गुरुजी बोले ‘‘बेटा, विटामिन सी खाने से कुछ फायदा होता है?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, यदि कमी होती है तो जरूर फायदा होता है।’’ वे बोले ‘‘फायदा मालूम पड़ता है क्या?’’ मैंने कहा ‘‘गोली क्या कर रही है यह तो मालूम नहीं पड़ता लेकिन तकलीफ दूर हो जाती है।’’ गुरुजी ने कहा ‘‘बेटा, यह अच्छा है कि तुझे कुछ मालूम नहीं पड़ता, जिस दिन मालूम पड़ने लगेगा उस दिन पगला जायेगा। ऐसे ही ठीक है।’’


गुरुजी-माताजी, दादा गुरुजी का चित्र

माताजी ने अपना एक चित्र मुझे दिया जो आज भी मेरे पास है। गुरुजी का एक चित्र पं० लीलापत शर्मा जी ने मुझे दिया था। जिसकी कापी माताजी अपने पूजा कक्ष में रखती थी और उन्होंने बताया था कि आरम्भिक दिनों में गुरुजी जब अज्ञातवास में होते तो मैं इस चित्र से उनसे सम्पर्क स्थापित कर लेती थी, और गायत्री परिवार की समस्याओं का हल भी पूछ लेती थी।
1965 में मेरा बड़ा बेटा अरविंद बीमार पड़ा। मैं उन दिनों कानपुर में था। मेरी पत्नी श्रीपर्णा लखनऊ में थी। उसने गुरुजी को पत्र लिखा। गुरुजी ने मुझे पत्र लिख कर लखनऊ बुलाया, कि वे किसी कार्यवश लखनऊ आ रहे हैं और हमारे ही घर पर रुकेंगे। जब वे घर आये तो मुझसे बोले, ‘‘मैं तेरे लिये एक चीज लाया हूँ।’’ उन्होंने होलडॉल खोला और दादा गुरुजी का एक चित्र मुझे दिया। जो आज भी मेरे पास है। मैंने उस चित्र को पाते ही गुरुजी को प्रणाम करके वायदा किया कि मैं इनसे (दादा गुरुजी से) कभी कुछ माँगूँगा नहीं। मैंने गुरुजी से पूछा कि आपने यह चित्र कैसे उतारा? क्या आपके पास कैमरा था? गुरुजी ने कहा, ‘‘नहीं, जिस गुरु पूर्णिमा में मुझे गुरुजी के दर्शन करने थे, सन् 1960 में, उस समय हम सात शिष्य वहाँ पहुँचे थे।’’ मैंने पूछा ये कौन हैं? तब उन्होंने कहा कि भारत से हम दो लोग थे। एक दक्षिण भारत में हैं। उन्हीं ने अपने कैमरे से ये चित्र लिये थे। जिसकी कापी उन्होंने मुझे भेजी। मैंने पूछा, ‘‘बाकी पाँच कहाँ हैं?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘ये पाँचों विदेश में हैं और अपने-अपने ढंग से काम कर रहे हैं।’’


विशिष्ट चर्चा

एक बार मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, शरीर छोड़ने के बाद आप कहाँ जायेंगे? क्या करेंगे?’’ यह सन् 1963-64 की बात होगी। गुरुजी बोले, ‘‘मैं अपने गुरु का स्थान हिमालय में ले लूँगा।’’ मैंने पूछा, ‘‘उनका क्या होगा?’’ वे बोले, ‘‘वे अपने गुरु का स्थान ले लेंगे।’’ मैंने कहा, ‘‘फिर उनका क्या होगा?’’ तो वे बोले, ‘‘वे विश्राम करेंगे।’’ मैंने पूछा, ‘‘उनका विश्राम कैसा होता है? क्या सोयेंगे, कितना सोयेंगे, क्या सोते रहेंगे?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘नहीं, उनके विश्राम का मतलब होता है सूक्ष्म जगत् में तप। वे सूक्ष्म शरीर से कारण शरीर में अपनी तप शक्ति से ही पहुँचते हैं और जब-जब ईश्वरीय विधान को आवश्यकता होती है, वह इनका उपयोग एक ऋषि या अवतारी के रूप में सृष्टि संतुलन का उत्तरदायित्व सौंप कर करते हैं।’’

मैंने पूछा, ‘‘गुरुजी, हिमालय में कौन सा भाग सबसे अच्छा है?’’ गुरुजी बोले, ‘‘हिमालय का सबसे अच्छा स्थान, हिमालय का हृदय है। हमारे गुरुजी उससे भी बहुत ऊपर रहते हैं। वे सूक्ष्म शरीर में हैं और स्थूल शरीर धारण कर सकते हैं। उनसे कोई प्रयास से नहीं मिल सकता। मैं भी अपने प्रयास से नहीं मिला। उनकी कृपा, इच्छा और काम का उद्देश्य ही उनसे मिलाता है। हिमालय का हृदय एक छोटा स्थान है। यह 10-12 किलोमीटर लम्बा और कुछ किलोमीटर चौड़ा है। यहाँ कोई नहीं पहुँच सकता। लोग हैलीकाप्टर से भी सारी कोशिशें करके देख चुके हैं। यहाँ हमेशा सिद्ध पुरुष, ऋषि रहते हैं। सीधा रास्ता कठिन है। घूमकर जाना पड़ता है।’’


गुरुजी की दिव्य दृष्टि

गुरुजी दिव्य दृष्टा थे, उन्हें भूत-भविष्य सबका ज्ञान था। इसका मैंने कई बार एहसास किया है। गायत्री तपोभूमि के दायीं ओर कक्ष में गुरुजी का प्रवचन चल रहा था। मैं भी सुन रहा था। पीछे से किसी ने एक चिट आगे बढ़ाई और सबसे आगे वाले ने गुरुजी को दी। प्रवचन बंद हो गया। गुरुजी ने सूचना दी कि रेडियो न्यूज आई है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दिल के दौरे से स्वर्गवास हो गया है। जो बच्चे उपवास करना चाहें, सूचना दे दें। बाहर निकलते ही मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, क्या सुभाष चन्द्र बोस प्रकट हो जायेंगे और प्रधानमंत्री बनेंगे?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री, लाल बहादुर शास्त्री बनेंगे।’’ जबकि उस समय तक ऐसी न कोई सूचना थी, न सम्भावना।

एक बार गुरुजी ग्वालियर में जब हमारे यहाँ ठहरे हुए थे, तब वे भोजन करते हुए बोले, ‘‘अमल कुमार, तुझे एक मजेदार बात बताता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘मजेदार बात! गुरुजी जरूर बताइये।’’ वे बोले, ‘‘लोग अब अपने घरों से सोना निकालेंगे। ज्यादा सोना पहनना समाज में सभ्यता का द्योतक नहीं रहेगा।’’ उन दिनों में कोई महिला यदि सोना नहीं पहनती थी, शादी-ब्याह में तो विशेषकर, तो उसे गरीब घर की माना जाता था। हमें सुनकर आश्चर्य लगा, पर कुछ दिनों बाद चीन ने हमला किया और काफी मात्रा में सोना बाहर चला गया। आज की परिस्थितियों को भी देखें तो ज्यादा सोना पहनना रईसी तो हो सकता है पर आधुनिक सभ्यता नहीं रह गया है।

जब भारत-चीन युद्ध हुआ था, तब चीन जीतता जा रहा था। श्री घनश्यामदास बिड़ला जी ने गुरुजी से पूछा, ‘‘आचार्य जी, क्या करूँ? मैं अपना पैसा विदेश बैंक में स्थानान्तरित कर दूँ क्या? चीन लगातार आगे बढ़ रहा है, भारत का क्या होगा?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘इसकी जरूरत नहीं, युद्ध 7 दिन में बंद हो जायेगा।’’ और ऐसा ही हुआ।

एक दिन मैं और गुरुजी इन्टर क्लास कोच में मथुरा से ग्वालियर जा रहे थे। गुरुजी ने मुझसे पूछा, ‘‘अच्छा बता! पैंटन टैंक कैसे चलता है?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मुझे नहीं मालूम।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘उसमें सारा फायरिंग सिस्टम कम्प्यूटर का है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तानियों का गणित लड़खड़ा गया। इस कारण लाहौर से अमृतसर यानि स्वर्ण मंदिर में एक भी बम नहीं गिरा पाये। बेटे! इनका गणित हमेशा कमजोर होगा। इसी प्रकार चीन युद्ध में भी हिमालय के ऋषियों ने भारत की मदद की थी।’’

सन् 1971 में जब गुरुजी अज्ञातवास के लिए जाने वाले थे, तो विदाई में बहुत भीड़ थी। मैं उनके पास गया तो वे बड़ी प्रसन्न मुद्रा में बोले, ‘‘देख! कितने डॉक्टर हैं।’’ वे प्यार से सदा मुझे डॉक्टर बुलाते थे। मैं रो पड़ा कि आगे कौन मुझे इस नाम से बुलायेगा। गुरुजी तुरंत मेरे मनोभाव समझ गये और बोले, ‘‘मैं तुझे बिना सिविल सर्जन बनाये मरूँगा नहीं।’’

गुरुजी मथुरा छोड़ने के पहले अपना सब कुछ बाँट गये। गुरुजी ने केवल धन सम्पत्ति ही नहीं बाँटी बल्कि अपना शरीर, मन, बुद्धि व प्रतिभा भी भगवान के काम में लगाई। जब गुरुजी हरिद्वर में रहे तब सतीश भाई साहब ढ़ाई सौ से पाँच सौ रुपया प्रति माह भेजते थे। गुरुजी कहते थे कि बेटा अपने बाप को पैसा नहीं देगा, सेवा नहीं करेगा तो अगले जनम में बैल बनेगा। यही बात उन्होंने हमारे बच्चों से भी कही थी। मेरे बच्चे मुझे नियमित रूप से पैसा भेजते हैं। मैं कहता हूँ, ‘‘मुझे आवश्यकता नहीं है।’’ तो वे कहते हैं, ‘‘पिताजी, हमें बैल नहीं बनना है।’’

गुरुजी अपने खर्चे के विषय में बहुत कड़क थे। उन्होंने मिशन के पैसे को अपने निजी खर्च के लिए किसी भी सूरत में इस्तेमाल नहीं किया। हमें याद है जब डॉक्टर प्रणव जी का बी.एच.ई.एल. में एक्सीडेंट हुआ था तो हरिद्वार से दिल्ली ले जाने में केवल इसीलिए देर हुई थी कि सतीश भाई साहब को रात में पैसे लेकर मथुरा से आना था। किसी भी स्थिति में गुरुजी ने पोस्ट ऑफिस या बुक स्टॉल से पैसे लेना स्वीकार नहीं किया था।


संगीत प्रशिक्षण

मथुरा में एक बार गुरुजी को संगीत सीखने का विचार आया। उन्होंने एक संगीत टीचर भी नियुक्त कर लिया और सबसे कहा कि सब लोग संगीत सीखेंगे। माताजी, गुरुजी और बाकी सब लोग भी संगीत की कक्षा में बैठने लगे। माताजी ने हारमोनियम पर स्वर लिख लिये और रीड दबा-दबाकर सीखने लगीं। गुरुजी बोले, ‘‘मैं भी सीखूँगा’’ और नियमित रूप से कक्षा में आने लगे। गुरुजी बड़ी गहराई से सीखने लगे। मास्टरजी को पूछते, ‘‘ऐसा क्यों, ऐसा क्यों नहीं? इससे क्या होगा? ऊँचा क्यों, नीचा क्यों नहीं?’’ मास्टर साहब सिखाते रहे। सात दिन बाद उन्होंने आना बंद कर दिया। गुरुजी ने कहा, ‘‘पता लगाओ, मास्टर साहब बीमार तो नहीं हो गये?’’ एक व्यक्ति को घर भेजा। पत्नी ने कहा, ‘‘मास्टर साहब बाहर गये हुए हैं।’’ एक दिन मास्टर जी गुरुजी को बाजार में मिल गये। गुरुजी ने उन्हें नमस्कार किया और बोले, ‘‘मास्टर साहब, आपका स्वास्थ्य कैसा है? आप बाहर गये, लौटे, तो आये क्यों नहीं? मास्टर जी ने हाथ जोड़े और बोले,‘‘आचार्य जी, आपके पास बहुत कलायें हैं। मेरे पास तो एक ही कला है, वो भी थोड़ी सी। आप मेरे पीछे क्यों पड़ गये? मुझे दाल-रोटी खाने दीजिए। आपको सिखाऊँगा, तो मैं ही भूल जाऊँगा। मुझको आप कृपा करके माफ कर दीजिए।’’


ऐसे ही ब्रह्मवर्चस में जितेन्द्र तिवारी, अशोक तिवारी और मेरे साथ हुआ। हम लोगों ने गुरुजी के कहने पर बड़ी ईमानदारी से ढपली सीखना शुरू किया। क्योंकि गुरुजी ने कहा था कि तुम एक साल तक ढपली सीखो और इसके बाद भी तुम्हें न आये तो तुम्हारा कोई दोष नहीं, मेरी ही किस्मत खराब होगी। हम लोग सचमुच सीखते रहे। पहली लाइन में बैठते तो आगे वालों की ताल बिगड़ने लगी। शास्त्री जी ने बीच की लाइन में बिठा दिया। तब आगे वाले और पीछे वाले दोनों की ताल बिगड़ने लगी। फिर उन्होंने सबसे पीछे बिठाल दिया। अब पीछे वालों की ताल बिगड़ने लगी। हारकर एक दिन हाथ जोड़कर बोले, आप लोग ब्रह्मवर्चस में वैज्ञानिक का ही काम कीजिए। (लेकिन गुरुजी को संगीत का भी बहुत अच्छा ज्ञान था।)


गुरुजी का आश्वासन

एक बार गुरुजी लखनऊ आये हुए थे। हमारे घर पर ही रुके थे। जब गुरुजी मथुरा के लिये लौटने लगे तो स्टेशन पर बातचीत के दौरान मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी, इस जन्म में तो मैं आपको छोड़ूँगा नहीं, यदि पागल नहीं हो गया तो, पर आगे मैं आपको कैसे पहचानूँगा? पहचानूँगा भी या नहीं, अखण्ड ज्योति का सदस्य बनूँगा या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘तू कभी पागल नहीं होगा और जहाँ तक मेरे साथ का सवाल है, मैं हमेशा तेरे साथ हूँ। किसी न किसी रूप में हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा। कभी अभिभावक के रूप में तो कभी मित्र तो कभी यूँ ही।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, कब तक?’’ गुरुजी बोले, ‘‘जब तक तू पूर्णता की स्थिति प्राप्त नहीं कर लेगा।’’ उनकी बात सुनकर मैं भाव विभोर हो गया। मन में तो आया कि चरणों में लोट जाऊँ, पर ऐसा कर नहीं सकता था, क्योंकि हम स्टेशन पर खड़े थे। मैंने मन ही मन गुरुजी को प्रणाम किया और कृतज्ञता व्यक्त की।


एक दिन दोपहर को दो बजे मैं गुरुजी के पास गया। गुरुजी अकेले बैठे थे। मैंने पूछा, ‘‘गुरुजी, आपकी तबियत ठीक है? गुरुजी ने कहा, ‘‘हाँ।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मैं डॉक्टर हूँ, आपकी आँखें लाल हैं।’’ गुरुजी बोले, ‘‘हाँ बेटा! मैं कुछ दिन से सो नहीं रहा हूँ, और तुम लोग सुधर नहीं रहे हो। इसी से मैं बहुत चिन्तित हूँ। लेकिन मैंने भी सोच लिया है कि कितने ही जन्म क्यों नहीं लगें, पर मैं भी तुम लोगों को छोड़ूँगा नहीं। बस इस होड़ में ही आँखें लाल हैं।’’ मेरे पास कृतज्ञता के लिये कुछ नहीं था, सिवाय हृदय पर से न मिटने वाले एक सन्देश के।


एक दिन उन्होंने कहा, ‘‘बेटा! प्रारब्ध तो बदला नहीं जा सकता। कष्ट तो राम, कृष्ण, शंकराचार्य, बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस सबको हुआ, पर मैं अभिभावक की भूमिका जरूर निभाऊँगा। चोट लगेगी, तो सबसे पहले पहुँचूँगा। अच्छे से अच्छा इलाज कराऊँगा। मेरे पास जो तप की पूँजी है, समय पर उसका उपयोग करूँगा, पर याद रखना हम बदला नहीं चाहते, पर भगवान भी न्याय नहीं छोड़ता। अगर तुम अपने कष्ट, दुःख और हानि की कीमत पर किसी का चिंतन, चरित्र और व्यवहार नहीं उभारोगे, तब तक मेरे उस तप का पटाना नहीं होगा और आगे तुम्हें भुगतना ही पड़ेगा।’’


शान्तिकुञ्ज में एक गोष्ठी में गुरुजी ने कहा था, ‘‘बच्चो! जो तुम लोग शान्तिकुञ्ज के स्थायी सदस्य हो, हमारे बच्चे हो। हम किसी से बिछुड़ने के लिए कभी नहीं मिलते हैं और यदि प्यार करते हैं तो फिर पूरा ही प्यार करते हैं। हम तुम लोगों को समाज के लिए लाये हैं। तुम्हारे संस्कार अच्छे बनें, इसीलिए हम तुम्हें बाहर का अन्न नहीं खिलायेंगे। उसकी व्यवस्था तुम्हारे गुरु, तुम्हारे पिता ने कर रखी है। यह तुम्हारा हक है। जब तक यहाँ रहोगे मोटा अन्न, मोटा वस्त्र हमारा उत्तरदायित्व रहेगा। क्योंकि, तुम कमाओगे नहीं। जीवनभर हमारे बच्चे रहोगे। फिर उन्होंने कहा,
‘‘आटे का घाटा नहीं घी के नहीं दर्शन, बने रहो तुम बर्सन।’’ यह उनका हम लोगों के लिये सादगी भरा जीवन जीने का शिक्षण था।


गुरुजी की पीड़ा

उन्होंने मुझसे कहा था, कि यदि तुम मुझे स्वप्न में देखो तो वह निरुद्देश्य नहीं होगा। गुरुजी के शरीर छोड़ने के काफी समय बाद एक दिन मैंने उनको स्वप्न में देखा। मैंने देखा, ‘‘वे एक कमरे में बैठे हैं। मैं उनके पास गया और प्रणाम किया। गुरुजी बहुत दुबले थे और शरीर छोड़ने की तैयारी में थे। उन्होंने बड़े शांत भाव से कहा कि अब मैं कारण शरीर में जाने वाला हूँ। मैंने कहा, आप बड़े प्रसन्न और स्वस्थ दिख रहे हैं पर इतने दुबले क्यों हैं? वे बोले, ‘‘मेरा यह शरीर तुम लोगों के चरित्र, चिंतन और व्यवहार से बना है और तुम लोग इस मामले में दुबले पड़ रहे हो, आगे देखता हूँ?’’


बड़ा विलक्षण प्यार था उनका।

लोकेश नाम का एक कार्यकर्ता जिसको गुरुजी ने देश-विदेश के कई स्थानों पर भेजा। उसे अहंकार हो गया था। यह सन् 1986 की बात है। जब उसकी शिकायतें कुछ ज्यादा ही आने लगीं तो उसे निकाला जाना घोषित कर दिया गया। उसने जबलपुर कोर्ट में केस चलाया। गुरुजी उन दिनों बाहर कहीं जाते नहीं थे। सहज ही चर्चा में उनसे पूछा गया कि गुरुजी आप जबलपुर जायेंगे क्या? जायेंगे तो कहाँ ठहरेंगे? इस पर गुरुजी ने कहा, ‘‘मैं तो कहीं जाता नहीं। लेकिन यदि जाना ही पड़ा तो जबलपुर में, मैं अपने बेटे लोकेश के घर ही ठहरूँगा। उसने कई वर्षों तक मेरी बहुत प्रशंसा की है, थोड़ी बुराई कर दी तो क्या हर्ज है?’’


ऐसे ही ब्रह्मवर्चस के एक कार्यकर्ता की ड्यूटी अखण्ड दीपक के पास सुरक्षा में थी। उसने वहाँ पर गड़बड़ी करनी शुरू कर दी। रसीद काटने में भी उसने कुछ होशियारी की। किंतु महाकाल से कुछ छिपा रह सकता है क्या? उसकी चोरी पकड़ी गई। माताजी के पास शिकायत पहुँची। माताजी ने उसे समझाया व आईंदा ऐसा न करने के लिये कहा। उस कार्यकर्ता ने माफी माँगी, उसे माफ भी कर दिया गया। गलती की है, तो उसके लिये क्षमा ही पर्याप्त नहीं होती, उसके लिये प्रायश्चित भी करना पड़ता है। उन कार्यकर्ता ने तो गुरुजी-माताजी से प्रायश्चित के विषय में कुछ पूछा नहीं, परंतु कुछ दिनों बाद गुरुदेव ने स्वयं एक कार्यकर्ता के द्वारा उनके लिये संदेश भिजवाया कि ‘‘उससे कहो, वह तीन-चार अनुष्ठान अवश्य कर ले, अन्यथा भविष्य में इस पाप का दण्ड रोग-शोक आदि के रूप में बहुत भयंकर रूप से भुगतना पड़ेगा। समाज का पैसा हजम नहीं होगा, कोढ़ बनकर फूटेगा।’’ यह उनका प्यार ही था कि गलतियों को क्षमा भी करते थे और भविष्य की भी चिंता करते थे।


मेरा छोटा भाई यतीन्द्र दत्ता गुरुजी से अक्सर मिलता रहता था। एक दिन हम दोनों गुरुजी के पास घीयामण्डी गये। यतीन्द्र ने गुरुजी से कहा-‘‘गुरुजी, मेरे तीन प्रश्र हैं। मैं विदेश जाना चाहता हूँ। वीजा और पैसे का इन्तजाम कैसे होगा? और वहाँ भी आप मेरी रक्षा करना।’’ गुरुजी बोले, ‘‘पहले तू अपना चौथा प्रश्र भी बोल दे’’ यतीन्द्र ने पॉकेट से चिट निकाली और देखकर बोला, ‘‘हाँ गुरुजी, यह चौथा प्रश्र भी है।’’ फिर गुरुजी बोले, ‘‘तू जल्दी विदेश जायेगा। अच्छा बता! तेरे पास पैसे कितने हैं?’’ यतीन्द्र बोला, डेढ़-दो हजार रुपये हैं।’’ गुरुजी एक कहानी सुनाने लगे, ‘‘एक जाट मेले में खाट बेचने आया।’’ गुरुजी खाट पर ही बैठे थे, और हाथ से दिखाकर बोले,
‘‘आजू नहीं है-बाजू नहीं है, बीच का नहीं है झंगड़-झोला,
तीन नहीं हैं पाये और एक पाया ऊँचा करके बोला-खटिया ले लो भाई।
सो पंद्रह सौ रुपये में तू अमेरिका जायेगा?’’ यतीन्द्र बोला, ‘‘गुरुजी, इसीलिए तो आपके पास आया हूँ।’’ गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा, मैं सब ठीक कर दूँगा। तेरे जाने का टिकिट, वीजा, स्कालरशिप और अच्छी नौकरी सब कर दूँगा। अब तू एक काम कर, माताजी के पास जाकर खाना खा।’’


ऋषि मुझसे मिलने आते हैं

एक दिन जब मैं, डॉ. प्रणव पण्ड्या जी, श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी, श्री जितेन्द्र जी और दो तीन और लोग गुरुजी से दोपहर में लेखन करने का शिक्षण ले रहे थे। गुरुजी ने कहा, ‘‘कल से तुम लोग बाहर बैठना। टीन शेड में परदा लगा देंगे। मुझसे मिलने कुछ बड़े लोग आयेंगे।’’
मैंने उपाध्याय जी से पूछा कि कौन आ रहा है? उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मुझे पता नहीं।’’
दूसरे दिन स्वयं गुरुदेव साधना कक्ष में आए और कहा कि कल जो मैंने कहा था कि बड़े लोग मुझसे मिलने आयेंगे, तब मेरा मतलब किसी मिनिस्टर से नहीं था। ऋषि लोग मुझसे मिलने आते हैं।


गुरुजी जीवन के व्यवहारिक सूत्र बड़ी सरलता से समझा देते थे।

वे कहते थे यदि तुम्हें कोई बड़ी चीज खरीदनी है, तो उसमें प्रेम जोड़ देना। जैसे-रेडियो, घड़ी, फर्नीचर लेना हो तो बच्चों के जन्मदिन पर, पत्नी के जन्मदिन या विवाह दिन से जोड़कर आगे-पीछे खरीदना चाहिए। किसी के घर ठहरो या उपकार लो, तो शालीनता का पूरा ध्यान रखना चाहिए। मिठाई का डिब्बा ले आये या पिक्चर दिखा दिया, यह काफी नहीं है। या तो सीधे पैसे दो या यह पता लगाकर कि उनकी आवश्यकता की चीज क्या है, वह लाकर दो।

एक दिन मैं और गुुरुजी पैदल ही गायत्री तपोभूमि से घीयामण्डी जा रहे थे। सामने से एक शवयात्रा आई। गुरुजी बोले, ‘‘जब कभी शवयात्रा देखो तो उसके साथ 2-4 कदम चलना चाहिये’’ और वे उसके साथ चलने के लिये मुड़ गये। हम कुछ दूर शवयात्रा के साथ चले। फिर हम लोग घीयामण्डी गये।

तीस वर्ष में सन् 1960 से 1990 के बीच यह दूसरा समय था। जब गुरुजी मुझ पर नाराज़ हुए। एक नया लड़का था केशरवानी, हम लोगों ने उसे स्टॉल पर काम दिया। वह सबेरे से शाम तक बुक स्टॉल खुला रखता था। अखण्ड ज्योति के सदस्य भी बहुत संख्या में बनाता था। हमने सारी जिम्मेदारी उसको सौंप दी, पर वह जो सदस्य बनाता था, उसमें ऊपरी रसीद पर तो तीन सौ पचास रुपया लिखता था, यानि आजीवन और कार्बन के नीचे 40 रुपया। कुछ दिनों बाद वह काफी पैसे लेकर भाग गया। ब्रह्मवर्चस के बुद्धिजीवी कहलाने वाले हम सभी की गुरुजी के सामने पेशी हुई। गुरुजी बोले ‘‘दत्ता! किसी आदमी का ऊपरी दिखावा या कार्य नहीं देखा जाता। जिम्मेदारी देने के पहले गहराई से व्यक्तित्व परखना चाहिए। इतना ही खैर है कि यह केशरवानी तुझे अपना चेला बनाकर नहीं ले गया।’’ मैं सिर नीचा करके सुनता रहा। हमें अपनी भूल का अहसास हुआ। हम लोग केशरवानी पर जरा ज्यादा ही विश्वास करने लगे थे।

देवास में गुरुजी कहीं जाने की तैयारी में थे। जब वे कार में बैठ गये तो हाथ का इशारा करके मुझे बुलाया और बोले, ‘‘दत्ता! एक बात सुन। देख, जो व्यक्ति चार आदमियों को मेरे साथ खाना खाने बुलाये उसके यहाँ तीन जायेंगे, जो तीन को बुलाये उसके यहाँ दो और जो दो को बुलाये उसके यहाँ केवल मैं जाऊँगा। ऐसा ही हो, इसकी जिम्मेवारी तेरी है।’’ 6
एक बार गुरुजी कहीं से आकर ग्वालियर होते हुए मथुरा जा रहे थे। हमें प्रोग्राम मालूम था। प्रातः 3.00-4.00 बजे का समय था। प्लेटफार्म पर कुछ लोग गुरुजी से मिलने आ गये। गुरुजी वहीं पर एक कुर्सी पर बैठ गये। 5-6 लोग गुरुजी के लिए चाय लाये थे। सब लोग थर्मस के साथ एक-एक कप ही लाये थे। गुरुजी ने पूछा, ‘‘तुम में से कोई दो कप लाया है क्या? कोई नहीं लाया। सब गुरुजी के लिए एक कप लाये हैं।’’ फिर कहा, ‘‘स्टॉल से एक कप ले आओ, मैं तुम सबकी केतली से थोड़ी-थोड़ी चाय ले लेता हूँ, बाकी तुम लोग पियो।’’ सबको अपनी गलती का एहसास हुआ कि एक कप नहीं दो कप तो लाना ही चाहिए था। गुरुजी अकेले पीते ऐसा कैसे सम्भव था?

अध्यात्म क्षेत्र में कुण्डलिनी जागरण का बहुत महत्त्व है। एक दिन एक व्यक्ति गुरुजी के पास पहुँचा और बोला ‘‘गुरुदेव, मेरी कुण्डलिनी जगा दीजिए।’’ पूज्यवर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा व एक क्षण रुक कर बोले, ‘‘बेटा! गधा कितना वजन उठा लेता है।’’ प्रश्नकर्ता कुछ समझ नहीं पाया। ‘‘कुण्डलिनी जागरण से गधे का क्या ताल्लुक?’’ गुरुजी की ओर हैरानी से देखता रहा।
फिर गुरुजी ने कहा-‘‘और बकरा।’’ वह व्यक्ति गधे व बकरे के वजन उठाने की क्षमता की तुलना करने लगा। बोला, ‘‘बकरे से तो गधा दस गुना अधिक वजन ढो सकता है।’’ गुरुदेव ने आगे कहा, ‘‘बेटे! अभी तो तू बकरे से भी छोटा है।’’ अब स्थिति स्पष्ट थी कि पात्रता के विकास से ही प्रतिभा प्राप्त होती है। अन्यथा बिना परिश्रम की शक्ति अपने ही विनाश का कारण बनती है।

एक दिन एक परिवार गुरुजी के पास मिलने गया। पूज्यवर उन दिनों प्रत्येक व्यक्ति से, अलग-अलग कुशल क्षेम पूछते थे। उन्होंने सभी से पूछा। सबने अपनी-अपनी बात बताई पर जब बहू की बारी आई तो उसने कहा, ‘‘अकेले में बताऊँगी गुरुजी।’’ गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा! मैं तुझसे अकेले में बात करूँगा।’’ सभी परिवार के सदस्य गुरुजी से विदा लेकर नीचे उतर गये। तब उन्होंने बहू से पूछा, ‘‘बता बेटा! क्या बात है?’’ बहू ने कहा, ‘‘गुरुजी, मेरी सास बहुत लड़ती है।’’
गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटी! मैं तुझे एक मंत्र देता हूँ। अब कभी लड़ाई नहीं होगी।’’ फिर जोर से कहा, ‘‘अपनी सास की ‘‘हाँ’’ में ‘‘हाँ’’ मिलाया कर।’’ इस प्रकार पारिवारिक विग्रह को टालने का कितना सरल समाधान दे दिया।


गुरुजी पल भर में सबको अपना बना लेते थे।

यह उनकी जबरदस्त कला थी। काम के व्यक्ति को वे मीलों दूर से भी पहचान लेते थे। गुरुजी के कार्यक्रमों की शृंखला चल रही थी। वे अशोक नगर से होकर आगे किसी प्रोग्राम में जाने वाले थे। हमने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी! आप बस अपना पाँच मिनट अशोक नगर में दे देना।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘पाँच मिनट में तू क्या कर लेगा?’’ हमने कहा ‘‘गुरुजी! हम मंच की तैयारी रखे रहेंगे। जनता को एकत्र भी कर लेंगे। आप बस पाँच मिनट में उद्बोधन देकर निकल जाना।’’ गुुरुजी बोले, ‘‘लोग-बाग पैर छूने के लिये दौड़ेंगे। पाँच-दस मिनट तो इसी में निकल जाएगा।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी! मैं विश्वास दिलाता हूँ, कोई आपके पाँव न छुए, हम ऐसी व्यवस्था करके रखेंगे। जिससे आपका अधिक समय न लगे।’’
हमने वैसी ही व्यवस्था करके रखी थी। एक विद्यालय के प्राचार्य जी ने हमसे कहा, ‘‘मुझे तो आप सबके जूते चप्पल रखने की सेवा दे दो।’’ हमने कहा, ‘‘यह सेवा तो हम किसी भी बच्चे से करवा लेंगे। आप कोई दूसरी सेवा ले लो।’’ पर उन्होंने आग्रह कर वही सेवा अपने लिए चुनी।
गुरुजी मंच पर आकर बैठ गये। इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। उन प्राचार्य जी पर भी नज़र पड़ी। गुरुजी, ने मुझे बुलाया और उनकी ओर इशारा करके कहा, ‘‘मुझे तो उस व्यक्ति के हाथ से पानी पीना है।’’ मैं तुरंत उन प्राचार्य महोदय के पास जाकर बोला, ‘‘गुरुजी आपके हाथ से पानी पीना चाहते हैं। जाइए, आप गुरुजी को पानी पिला दीजिए।’’ उन्हें थोड़ा संकोच हुआ बोले, ‘‘मेरे हाथ तो साफ नहीं हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘पर गुरुजी तो आपके ही हाथ से पानी पीना चाहते हैं।’’ वे भी उस सौभाग्य से वंचित नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने ट्रे पकड़कर गुरुजी को पानी पिलाया।
गुरुजी ने वहाँ लोगों की श्रद्धा देखी, तो स्वयं ही आधे-पौन घण्टे का प्रवचन दिया। फिर बोले, ‘‘अच्छा! करने दो सभी को प्रणाम।’’ और चरण-स्पर्श करने की अनुमति भी दे दी। फिर उन्होंने पूछा, ‘‘अच्छा! भोजन की व्यवस्था भी की है क्या?’’ हमने कहा, ‘‘जी गुरुजी, हमने सोचा, यदि आपका भोजन करने का मन होगा और अनुमति देंगे, तो हम भोजन भी करा देंगे। सो हमने भोजन की व्यवस्था भी पहले से ही बनाकर रखी है।’’ इस प्रकार वे सूक्ष्म द्रष्टा अपने बच्चों की सभी इच्छाएँ पूरी करते रहे हैं। किसी को किसी भी प्रकार से निराश नहीं किया।

मेरे एक मित्र मेहता जी रतलाम में डायरेक्टर एग्रीकल्चर थे। उनके पुत्र नरेश मेहता गुरुजी के पास आये और बोले, ‘‘गुरुजी, मैंने दक्षिण भारतीय लड़की से शादी की है। बहुत अच्छे स्वभाव की है। मेरे साथ पढ़ती थी। पिताजी उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, क्या करूँ?’’ गुरुजी बोले, ‘‘तेरे पिताजी क्यों स्वीकार नहीं करते? तू जाकर बोल कि यदि तुम दक्षिण भारत की लड़की स्वीकार नहीं करते तो फिर माँ को दक्षिण भारतीय साड़ी क्यों पहनने देते हो? वहाँ के चावल और लौंग इलाइची भी खाना बंद कर दो।’’ बहू को स्वीकृति मिल गई।

एक दिन चिन्मय ने माताजी (अपनी नानी) से पूछा, ‘‘आप कहती हैं कि नारी युग आयेगा, यह कैसे होगा? आज की नारी तो बहुत पिछड़ी है। माताजी बोलीं, ‘‘बेटे, सवाल पिछड़ेपन का नहीं है। अच्छा काम सब कर सकते हैं और युग पढ़ाई से नहीं, अच्छाई से आता है। नारियों में ईर्ष्या और द्वेष चला जायेगा, तो वही उनकी योग्यता और प्रखरता होगी।’’


गुरुजी में करुणा का केवल भाव ही नहीं था बल्कि उनके अंदर करुणा जीवंत थी।

उनके बड़े बेटे श्री ओमप्रकाश भाई साहब सन् 1960-61 से मेरे मित्र हैं। कभी-कभी वे गुरुजी के जीवन की बहुत पुरानी बातें भी सुनाते हैं। एक दिन उन्होंने गुरुजी की युवावस्था की एक घटना सुनाई। यमुना में बाढ़ आई हुई थी। बहुत पानी भरा था। जानवर भी खूब मरे थे। लोगों के घर बह गये थे। बहुत हानि हुई थी। गुरुजी रोज बाढ़ का पानी देखने जाते थे। एक दिन देखा कि एक छोटे से टापू जैसे ज़मीन के टुकड़े पर एक कुत्ता घिरा हुआ है। पता चला वह तीन दिन से वहाँ फँसा है। तीन दिन से उसने कुछ नहीं खाया है। सब उसके प्रति दयाभाव प्रकट कर रहे थे, पर उसे बचाये कौन? कौन जाता? कोई जाने को तैयार नहीं था। वह भी एक कुत्ते को बचाने! कोई आदमी तो है नहीं जो सीधी तरह नाव पर बैठ जाय।
उन्होंने बड़ी मुश्किल से तीन रुपये में एक डोंगी वाले को तैयार किया। डोंगी उसके चारों तरफ चक्कर लगाती रही पर कुत्ता ऐसा डरा हुआ था कि वह कैसे भी नाव पर आने को तैयार नहीं था। युवक श्रीराम रोटी दिखाते रहे पर वह नहीं आया। 2-3 चक्कर लगाने के बाद डोंगी वाले बोले, ‘‘चलो भाई। मरने दो कुत्ते को।’’ युवक श्रीराम बोले, ‘‘एक चक्कर और।’’ जैसे ही डोंगी उसके पास पहुँची कि युवक श्रीराम नाव से जमीन के उस टुकड़े पर कूद पड़े और बड़ी फुर्ती से उस कुत्ते को उठाकर वापस डोंगी में कूद पड़े। कुछ क्षण डोंगी जोर से डगमगाई, पर श्रीराम कुत्ते के साथ डोंगी पर थे। डोंगी वाले ने युवक श्रीराम को बेहिसाब गाली दी ‘‘बोला, खुद मरे तो मरे मुझे भी मारेगा।’’ वह तब तक गाली देता रहा जब तक कि किनारे पर नहीं आ गया। उन्होंने डोंगी वाले को 5 रुपये दिये फिर भी डोंगी वाले ने उतरते समय कुत्ते को एक ज़ोर की लात मारी और कुत्ता, कूँ-कूँ, कंऊँ-कंऊँ, करता हुआ एक तरफ को दौड़ गया। ऐसा था गुरुजी का बचपन।


दूसरा प्रसंग उस समय का है, जब पूज्य गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया था। श्री ओमप्रकाश जी भाई साहब पुरानी बातें याद करके रोज लिख रहे थे। मैं प्रतिदिन त्रिपदा 5 में उनके पास जाता था। हम लोग चाय साथ ही पीते थे। एक दिन उन्होंने बताया, ‘‘मेरे पास कल एक महिला आई और बोली आप गुरुजी के पुत्र हैं?’’ मैैंने कहा, ‘‘हाँ।’’ फिर वह बोली, ‘‘मैं आपको कुछ बताना चाहती हूँ। आप मेरी बात सुनें। मैं आपका अहसान नहीं भूलूँगी।’’ उसने बताया, ‘‘आज से करीब 25 वर्ष पहले की बात है। मैं रेल में थर्ड क्लास डिब्बे में जा रही थी। मैं गेट के पास ही नीचे बैठी थी। मेरी आँख से आँसू बह रहे थे। एक वृद्ध व्यक्ति खिड़की के पास सिंगल सीट पर बैठा था।’’ वह बोला, ‘‘बहन यहाँ बैठ जाओ। तुम्हें हवा मिलेगी। पास में स्थान है। मैं, वहाँ चला जाऊँगा।’’ मैं वहाँ बैठ गई। अगले स्टेशन पर वह पानी ले आया। बोला, ‘‘बहन मुँह धो लो, पानी पी लो।’’ मैं बोली, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिये।’’ वह चुप बैठ गया। फिर, अगले स्टेशन पर पानी ले आया। बोला, ‘‘बहन पानी पीने से कोई हानि नहीं होगी’’ और बड़ी नम्रता से गिलास लिये खड़ा रहा। मैंने पानी पी लिया। फिर उसने पूछा, ‘‘कहाँ जा रही हो?’’ मैंने बताया यहीं पास में एक बहुत बड़े संत आ रहे हैं। उनसे मिलने जा रही हूँ। वह बोला अच्छा, ‘‘तो क्या माँगोगी?’’ मैंने कहा, ‘‘मौत।’’ वह बोला, ‘‘मौत वो नहीं देंगे। और कुछ नहीं माँग सकती?’’ मैं चुप हो गई, वह भी बैठ गया। मैं एक वर्ष पहले विधवा हो गई थी। मैंने उसे अपनी व्यथा सुनाई। इतने में स्टेशन आ गया और भीड़ घुस गई। ‘‘पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी की, जय। परम पूज्य गुरुदेव की, जय’’ का शोरगुल करते, फूल माला लिये हुए लोग आगे बढ़े। वह वृद्ध व्यक्ति उठते-उठते कह गया, ‘‘कल तू मुझसे मिलना।’’ दूसरे दिन मैं वहाँ पहुँची, तो देखा कि जिन सन्त से मैं मिलने आयी थी, वे और कोई नहीं, वह वृद्ध व्यक्ति ही थे। वहाँ बड़ी भीड़ थी। प्रणाम करने वालों की लम्बी लाइन लगी थी। उन्होंने जैसे ही मुझे देखा तो एक कार्यकर्ता से कहा, ‘‘उस बेटी को मेरे पास ले आओ।’’ ट्रेन में मैंने उन्हें बताया था कि मेरा कोई पुत्र भी नहीं है। मेरा भविष्य अंधकारमय है। मौत नहीं माँगूँ तो क्या माँगूँ? गुरुजी से जब मैं मिली तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटी मैं तेरा पिता हूँ, तू मेरी बेटी है। इसको अच्छी तरह समझ ले।’’ और एक कार्यकर्ता को बुलाकर कहा, ‘‘तुम अपना काम किसी और को सँभलवा दो, और कहीं से कोई नवशिशु लेकर ही तुम मेरे पास आना। मैं तीन दिन यहाँ हूँ। बस यही काम तुम्हें करना है।’’ गुरुजी की आज्ञा मान वह मैटरनिटी होम गया। वहाँ पता चला एक महिला की प्रथम डिलीवरी हुई थी। डिलीवरी में माँ मर गयी है। पिता ने बच्चे को लेने से मना कर दिया है। उन कार्यकर्ता ने उस बच्चे को गोद लेने की बात कही।
दूसरे दिन लेडी डॉक्टर स्वयं कार्यक्रम स्थल पर आयी। यह देखने कि नवजात शिशु को कौन लेने वाला है, और कैसे पालेगा? वह यज्ञ स्थल पर पहुँची तो अपार भीड़ देखकर और गुरुजी से मिलकर वह बहुत प्रभावित हुई। फिर गुरुजी से बोली कि लगता है, ‘‘बच्चे को सच्चे माँ-बाप यहीं मिलेंगे।’’
मुझे बच्चे को लेने में थोड़ा संकोच हो रहा था। मालूम नहीं किस जाति का होगा। माता-पिता कैसे होंगे? घरवाले क्या कहेंगे? आदि नाना विचार मेरे मन में आ रहे थे। गुरुजी समझ गये। गुरुजी ने बच्चे को गोद में ले लिया, और बोले, ‘‘बस, यह अब ब्राह्मण हो गया। बेटी! तुझे याद है न, मैं तेरा पिता हूँ। तुझसे कोई कुछ नहीं कहेगा। लोग तेरी सराहना करेंगे, सहयोग देंगे। तू बस बच्चे को पाल और सारी व्यवस्था होती चली जायेगी। यह पिता हर क्षण तेरे साथ रहेगा। यह तेरा शानदार बेटा होगा। तेरी इतनी सेवा करेगा, कि और कोई बेटा क्या माँ की सेवा करेगा।’’ मैंने उसका नाम पीयूष रख दिया। आज वह इंजीनियर है, मातृ भक्त है, और जाने क्या जादू हुआ कि उस दिन से सब कोई मेरा कुछ ज्यादा ही ख्याल रखने लगे। मेरा हृदय भी रोने की अपेक्षा बच्चे की देख−भाल में लग गया। वह महिला बोलती भी जा रही थी और रोती भी जा रही थी।
फिर बोली, ‘‘आपके पिता श्रीराम शर्मा मेरे भी पिता हैं, वे कभी नहीं मर सकते। भाई साहब, आपको सब बताकर मैं हलकी हो गयी। मेरा शान्तिकुञ्ज आना सफल हो गया।’’


गुरुजी-माताजी एक प्राण-दो शरीर थे।

वे जीवनभर खादी पहनते रहे और वह भी गिने चुने कपड़े। लेकिन साफ और क्रीजदार। गुरुजी, माताजी के जन्मदिन और विवाह दिन पर स्वयं जाकर साड़ी खरीद कर लाते थे। एक बार कोई दूसरा व्यक्ति माताजी के लिए साड़ी लाया तो गुरुजी दुःखी हो गये। बोले, ‘‘माताजी की साड़ी तू लाया, तो तूने मुझे दुःखी कर दिया। तू अपनी साड़ी वापिस ले जा। माताजी की हर साड़ी पर मेरी जिम्मेवारी साड़ी की नहीं बल्कि स्नेह की भी है।’’


जब गुरुजी अज्ञातवास में थे, तो माताजी सख्त बीमार पड़ीं। मैं उन्हें देखने आया था। माताजी ने कहा बेटा, ‘‘मुझे कोई दिल का दौरा नहीं है। मैंने साधना में गुरुजी को देखा। वे ठण्ड में सिकुड़ रहे थे। उनका कुर्ता फटा था। उनका कष्ट देखकर मैं चीख उठी। बस मुझे यही तकलीफ है।’’ मैंने कहा, ‘‘फिर भी माताजी, आप अपना इलाज तो करवा ही लीजिए।’’ माताजी बोलीं, ‘‘तू डाक्टर है। तेरी बात भी मान लेती हूँ।’’ इधर गुरुजी को भी माताजी की अस्वस्थता का आभास हो गया था और वे कुछ दिन के लिये शान्तिकुञ्ज लौट आये थे।

ऐसी ही एक घटना माताजी ने घीया मंडी में मुझे बताई थी। ‘‘गुरुजी बाहर गये हुए थे। अखण्ड दीपक की आग पूजा स्थल पर लग गई। मैं घबरा गई, कहीं गुरुजी को कुछ हो तो नहीं गया। मैं बहुत घबराई, मैंने अपने भगवान से कहा कि जब तक मुझे गुरुजी की सूचना नहीं मिलेगी, मैं कुछ ग्रहण नहीं करूँगी। मैं बराबर चिंता में डूबी रही। शाम को किसी ने दरवाजा खटखटाया, मैंने खोला। गुरुजी सामने थे। बोले, ‘‘शैलो, तुझे क्या हो गया?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं ठीक हूँ। आप कैसे हो?’’ तब गुरुजी ने कहा, ‘‘शैलो, तू क्यों चिंता करती है। कोई खास बात नहीं, खिड़की से मेरी ऊँगली कट गई। लेकिन चोट के बाद तुम्हारी घबराहट ने मुझे परेशान कर दिया, और मैं वापिस आ गया। तुम खाना खाओ और पानी पियो।’’


सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा

एक दिन हम लोग उनके पास बैठे थे, तो वे बोले, ‘‘मैं शरीर छोड़ने पर कुछ ऐसा करूँगा जैसे कोई कुर्ता उतारता है, पर फिर मैं तीन स्थानों पर रहूँगा एक माताजी के पास, दूसरा सजल-श्रद्धा, प्रखर-प्रज्ञा तीसरा अखण्ड दीपक।’’ हमारे साथ अमेरिका के एक परिजन भी बैठे थे। उन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, ये तीनों स्थान तो शान्तिकुञ्ज में हैं और हम लोग तो बहुत दूर हैं।’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा! मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा।’’
जब गुरुजी ने शरीर छोड़ने का मन बना लिया था, तो उसकी तैयारी वे बहुत पहले से ही करने लगे थे। उन्होंने संकेत देना प्रारंभ कर दिया था। जहाँ आज सजल-श्रद्धा, प्रखर-प्रज्ञा है, वहाँ पहले गुलाब की क्यारियाँ थीं। गुरुजी ने एक दिन सोनी जी, महेंद्र जी, कपिल जी, उपाध्याय जी आदि सभी को बुलाया। माताजी भी बैठी थीं और गुरुजी कहने लगे, ‘‘माताजी, हमने अपने लिये स्थान पसंद कर लिया है। वह जो गुलाब की क्यारियाँ हैं, वह हमें बहुत पसंद आईं। हमने सोचा है, वही स्थान हमारे लिये ठीक है।’’
माताजी ने कहा, ‘‘आप क्या कह रहे हैं?’’ तो गुरुजी बोले, ‘‘शरीर तो हम छोड़ेंगे ही। अमर तो हैं नहीं।’’ फिर अन्य लोगों के उदाहरण देने लगे कि फलाने बाबाजी की समाधी वहाँ बन गई, फलाने की वहाँ। और हम लोगों से कहने लगे कि देखो! हमें बाहर मत ले जाना। हमारा मन है कि हम और माताजी यहीं रहेंगे। हमारी समाधी यहीं बनाना।’’हम सभी उदास हो गये, माताजी भी रोने लगीं। तब गुरुजी बोले, ‘‘भावुक क्यों होती हो, क्या यह सच नहीं है?’’ माताजी बोलीं, ‘‘पर बच्चों के सामने क्यों...?’’ गुरुजी बोले, ‘‘आज नहीं तो कल, हमको जाना तो है ही।’’ फिर उस दिन गोष्ठी आगे नहीं बढ़ी।
कुछ दिन बाद गुरुजी ने गोष्ठी में कहा कि हमने अपने दोनों के लिये जगह चुन ली है। हम दोनों के लिये दो घोंसले बनाओ। फिर एक दिन बोले, ‘‘ऋषिकेश जाओ, वहाँ जो गुरुद्वारे में दो छतरियाँ बनी हैं, उन्हें देखकर आओ और हमारे लिये वैसी ही बना दो। एक का नाम होगा, सजल-श्रद्धा और दूसरी का प्रखर-प्रज्ञा।’’
इसी दौरान जयपुर से वीरेन्द्र अग्रवाल जी आये, उनके सामने भी चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, संगमरमर की छतरी बना दें?’’ गुरुजी बोले, ‘‘ठीक है, संगमरमर की बना दो।’’ इस प्रकार गुरुजी ने अपने रहते ही सजल-श्रद्धा और प्रखर-प्रज्ञा का निर्माण करवा दिया था।
संगमरमर का चबूतरा बना, सामने का फर्श कच्चा रखा गया और गुरुजी ने घोषणा कर दी कि हमारा संस्कार यहीं होगा, हम कहीं बाहर नहीं जायेंगे। हम प्रखर-प्रज्ञा में रहेंगे और माताजी सजल-श्रद्धा में रहेंगी। हमारी चेतना यहाँ आगामी सौ वर्षों तक रहेगी और पूरे विश्व का यह शक्ति केंद्र होगा। यहाँ से हम सबको सजल-श्रद्धा और प्रखर-प्रज्ञा का अंश देते रहेंगे। यहाँ हर कोई हमसे मिल सकेगा, अपनी बात कह सकेगा। हम सबकी उसी प्रकार सेवा करते रहेंगे, जैसे जीवित अवस्था में कर रहे हैं। आज सजल-श्रद्धा, प्रखर-प्रज्ञा संपूर्ण गायत्री परिवार की श्रद्धा का केन्द्र है और परिजन यहाँ पर गुरुजी-माताजी की चेतना को अनुभव भी करते हैं और उनके दर्शन भी।


जीवन के अंतिम क्षणों में गुरुजी, माताजी को निर्देश दे गये थे कि उनके शरीर छोड़ने पर भी उनके किसी भी कार्य में कोई व्यवधान नहीं आना चाहिये। उस समय माताजी के उस स्वरूप को देखकर हमें आज भी आश्चर्य होता है, और साथ ही विश्वास भी कि वे साक्षात् पार्वती ही थीं, जिन्हें अपने शिव की अनश्वरता का पूर्ण अहसास था, अन्यथा साधारण माटी की महिला तो ऐसा नहीं कर सकती कि मालूम है, गुरुजी शरीर छोड़ चुके हैं, फिर भी प्रवचन दिया, सबसे मिलीं। जितनी भीड़ आई थी, सबको भोजन करने का निर्देश दिया। सबके भोजन कर चुकने के बाद ही गुरुजी के शरीर छोड़ने के विषय में बताया।
शाम को गुरुजी के पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया। उस समय हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, जब माताजी ने नादयोग की घंटी बजाने का निर्देश दिया। हम उनकी ओर देखते रह गये। वे बोलीं, ‘‘गुरुजी का निर्देश है, सब कार्य यथावत चलेंगे, कोई कार्य रुकेगा नहीं। मैं यहीं हूँ, कहीं नहीं जा रहा, बस स्थूल देह त्यागी है।’’ शाम को माताजी ने सबके लिये खिचड़ी बनाने का निर्देश दिया और कहा, ‘‘कोई भूखा नहीं सोयेगा।’’ अगले दिन सुबह के भी सभी क्रम यथावत चले, माता जी सबसे मिलीं भी।

गुरुजी के अंतिम समय के शब्दों को सुनने के लिए हम लोग लालायित थे। बड़ी तड़प थी। सो माताजी से जब अनुनय-विनय किया तो उन्होंने कहा, ‘‘वे बहुत पहले से ही कहने लगे थे कि मैं गायत्री जयंती के दिन यह शरीर छोड़ दूँगा। उस दिन साढ़े चार बजे मैं गुरुजी को प्रणाम करके 6:30 बजे स्टेज पर पहुँच गई। मैंने भाषण भी दिया। चार शादियाँ थीं, बच्चों को आशीर्वाद भी दिया, तिलक किया, माला पहनाई, बच्चों को खाना भी खिलाया। प्रणाम में केवल पाँच व्यक्तियों को मैंने फूल दिये और आगे मैं फूल न दे सकी। कारण, मेरा शरीर प्रणाम करा रहा था, पर मुझे मालूम था कि गुरुजी ने अपने शरीर से विदाई ले ली है। चलते समय गुरुजी ने हाथ पकड़कर अंतिम बार मुझे बस इतना ही कहा था कि मैं गायत्री परिवार के बच्चों की जिम्मेदारी तुम पर और केवल तुम पर छोड़े जा रहा हूँ। मैंने भी वायदा निभाने की सौंगंध खाई।’’
गुरुजी का लिखा यह गीत, जिसे माताजी ने हम सबके लिए गाया है-
तुम न घबराओ, न आँसू ही बहाओ अब,
और कोई हो न हो, पर मैं तुम्हारा हूँ।
मैं तुम्हारे घाव धो, मरहम लगाऊँगा,
मैं खुशी के गीत गा-गाकर सुनाऊँगा।
यह उनके न केवल भाव थे, बल्कि उनका जीवन था, जो हमने देखा।


श्री दिलीप कुमार दत्ता

(श्री दिलीप कुमार दत्ता, डॉ. अमल कुमार दत्ता के छोटे भाई हैं। डॉ. दत्ता का पूरा परिवार पूज्य गुरुदेव से सन् 1960 से सम्पर्क में रहा है और आज भी मिशन के कार्यों में सक्रिय है।)

बालक को जीवन दान

श्री दिलीप कुमार दत्ता, डॉ. दत्ता के भाई हैं, उनके पास भी गुरुजी-माताजी के ढेरों संस्मरण हैं। वे बताते हैं, ‘‘सन् 1967 में, मैं व मेरे भाई डॉ. ए. के. दत्ता का परिवार दोनों एक साथ देवास में रहते थे। वहीं दोनों की सर्विस थी। गायत्री यज्ञों की शृंखला में गुरुदेव देवास आए और हमारे यहाँ ही ठहरे। कार्यक्रम की समाप्ति पर जाते समय गुरुजी ने कहा, ‘‘दिलीप तुझे मालूम है, मैं तुझे क्या देकर जा रहा हूँ?’’ मैं हैरानी से उन्हें देखता रहा। मुझे कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने पुनः कहा, ‘‘तेरे दो बच्चों में से एक का जीवन आज ही समाप्त था। मैं उसे जीवन देकर जा रहा हूँ।’’
मैं अवाक् रह गया। जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। गुरुवर ने उसे देख लिया और विधान बदलकर मुझे कृत-कृत्य कर दिया। ऐसी अनेक घटनाएँ मेरे जीवन में बीती हैं जब पूज्यवर ने संरक्षण प्रदान किया है। आज मेरा वह बच्चा अमेरिका में इंजीनियर है।’’

मेरी नौकरी, उनका आशीर्वाद

ऐसे ही एक बार मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुदेव मेरी इज्जत का सवाल है। मेरे दो भाई डॉक्टर हो गये हैं।’’ गुरुजी ने पूछा, ‘‘तूने क्या पढ़ाई की है?’’ मैंने कहा, ‘‘एम.काम. किया है।’’ जवाब मिला, ‘‘तब तू डॉक्टर कैसे बनेगा?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, डॉ. नहीं बन सकता इसलिये तो आपके पास आया हूँ।’’ गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा! तुझे डॉक्टर के समकक्ष बना दिया जाय तो चलेगा?’’ मैं खुश होकर हामी भरकर घर चला गया तथा डॉक्टर के समकक्ष ‘फेमिली प्लानिंग’ ऑफिसर के पद के लिये अप्लाई किया। कुछ दिनों बाद मुझे पत्र मिला, लिखा था ‘रिग्रेट’ यानि नॉट सिलेक्टेड। मैं फिर गुरुजी के पास गया। कहा, ‘‘गुरुजी, मुझे तो रिजेक्ट कर दिया गया।’’ गुरुजी ने वह पत्र हाथ में लिया और बोले, ‘‘अरे तेरा हो जायेगा सब कुछ।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी आपको अंग्रेजी नहीं आती है। इसमें लिखा है रिग्रेट’’ गुरुजी ने पुनः कहा, ‘‘चिंता मत कर। सब हो जायेगा तेरा।’’ 15 दिन बाद दूसरा पत्र आया। लिखा था यू आर सिलेक्टेड एण्ड पोस्टेड एट रायगढ़। मैं ट्रेन से कहीं जा रहा था। स्टेशन पर पर्चा पढ़ा, रूपराम नगर कॉलोनी में गुरुजी का कार्यक्रम है। मैं तुरंत उतर कर गुरुजी से मिलने चल दिया। गुरुजी के पास पहुँचा व बताया गुरुजी, ‘‘मेरा सलेक्शन हो गया।’’ उन्होंने झट से कहा, ‘‘क्यों रे, तूने तो कहा था कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। जा, ट्रेन खड़ी मिलेगी।’’ मैं तुरंत वापिस लौट गया और आश्चर्य! सचमुच ट्रेन खड़ी ही मिली। मैं बैठा और ट्रेन चल दी, जैसे वह मेरा ही इंतजार कर रही थी। ऐसे कृपालु थे पूज्यवर।

उनकी सर्वज्ञता

यह उन दिनों की बात है जब शान्तिकुञ्ज में लगातार वानप्रस्थ शिविरों का आयोजन चल रहा था। मैं अपने दोस्त के साथ शान्तिकुञ्ज आया। प्रवचन के बाद हम दोनों हर की पैड़ी घूमने चले गये। लौटकर जब वंदनीया माताजी के पास गये, तब तक गुरुदेव वानप्रस्थ संस्कार सम्पन्न करा कर ब्रह्मदण्ड वितरित करके ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे।
माताजी ने हम दोनों को ऊपर, गुरुजी से मिलने भेज दिया। गुरुजी ने दो ब्रह्मदण्ड मँगाए व एक मुझे दे दिया। फिर मेरे दोस्त को देखकर बोले, ‘‘तुझे ब्रह्मदण्ड दूँ कि नहीं। तू जब घर से आया तो तूने अपनी पत्नी को थाली फेंक कर मारी, जिससे उसकी नाक पर चोट लग गई। अब तू ब्रह्मदण्ड से मारेगा। चाय में शक्कर कम थी न। ब्रह्मदण्ड से मारेगा तो मुझे भी पाप लगेगा।’’
घटना बिलकुल सत्य थी। मेरा दोस्त सुनकर हैरान रह गया कि गुरुजी को कैसे मालूम हुआ? गुरुजी के चरणों में श्रद्धावनत होकर उसने माफी माँगी और आगे से ऐसा न करने की कसम खाई। तब गुरुदेव ने उसे भी ब्रह्मदण्ड प्रदान किया।

एक और संस्मरण है। मुझे हरिद्वार आना था और उस दिन मुझे तेज बुखार था। मेरा रिजर्वेशन भी नहीं था। फिर भी गुरुजी से मिलने की उत्कंठा इतनी अधिक थी कि मैं घर न जाकर ट्रेन में ही बैठा रहा। रिजर्वेशन कराने जाने की भी मुझमें हिम्मत नहीं थी। अचानक, एक कुली आया और बोला, ‘‘आपको रिजर्वेशन चाहिए?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ’’ और बिना कुछ पूछे उसे टिकट और पच्चास रुपये दिये। वह टिकट और पैसा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद मन में विचार आया, यदि वह न लौटा तो क्या होगा? जो टिकट था वह भी गया।
फिर सोचा, अब जो होगा देखा जायेगा। थोड़ी ही देर में वह कुली आ गया और जिस सीट पर मैं बैठा था, वह उसी सीट का रिजर्वेशन करा कर लाया था। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया और चैन से सो गया।
हरिद्वार पहुँचा। माताजी से मिला तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, गुरुजी के दो फोन आ गये। तुझे ऊपर बुलाया है।’’ मैं कुछ समझा नहीं। मन में सोचा, मैं तो अभी आ रहा हूँ। दो फोन पहले से कैसे आ गए?
ऊपर पहुँचा। देखते ही गुरुजी ने कहा, ‘‘रिजर्वेशन मिल गया? और बुखार भी उतर गया न?’’ मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी आप कहाँ पर थे?’’ पर फिर तुरंत ही मन में सोचा, मैं क्या पूछ रहा हूँ? वे तो सर्वज्ञ हैं, हो न हो, उस सहृदय व्यक्ति के रूप में गुरुदेव ही तो पहुँचे थे और तुरंत श्रद्धावनत हो उनके चरण पकड़ लिये। बहुत से संस्मरण हैं, पूरा जीवन क्या अनेकों जन्म उनका ऋण चुकाने में लगा दें तो भी संभव नहीं है, बस इतना ही कहूँगा कि न जाने किन जन्मों के पुण्य होंगे जो गुरुदेव हम लोगों का इतना ध्यान रखते हैं।


3. गुरुसत्ता के साथ मनोविनोद के क्षण


गुरुजी काम करने के साथ-साथ मनोरंजन भी करते रहते थे। कितना भी काम का दबाव हो वे वातावरण को कभी बोझिल नहीं होने देते थे। सबके साथ हँसते-हँसाते रहते थे। उनके हास्य में भी कोई न कोई रहस्य या शिक्षण अवश्य छिपा रहता था। ऐसा लगता था जैसे उनकी कोई भी बात व्यर्थ नहीं है। हँसते-हँसाते भी वे कुछ न कुछ सिखा देते थे। पढ़ें उनकी विनोद प्रियता से संबंधित कुछ प्रसंग-


मूछों वाला मुन्ना

श्री वीरेश्वर उपाध्यायजी एवं श्रीमती कृष्णा उपाध्याय

श्री गिरजा सहाय व्यास चार आत्मदानियों में से एक हैं। उनके छोटे पुत्र मथुरा आये, तब बहुत छोटे थे। सभी उसे ‘‘मुन्ना’’ कहते थे। उस बालक को गुरुवर की गोद में खेलने का बहुत सौभाग्य मिला था। समय के साथ वे बिलासपुर चले गये। बड़े होकर इंजीनियर बन गये।
एक बार वे शान्तिकुञ्ज आये। पूज्यवर से मिलने के क्रम में उन्होंने बताया कि मैं गिरजा सहाय व्यास का लड़का हूँ। गुरुजी उस समय लेखन कर रहे थे। जब उन्होंने सुना कि गिरजा सहाय का पुत्र है तो कलम रोक कर ऊपर से नीचे तक देखा। फिर पूछा-‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’ उसने कहा-‘‘मुन्ना।’’
गुरुजी को झट से चुहल सूझी और जोर से बोले-‘‘वीरेश्वर! इधर आना।’’ और वे पैर के ऊपर पैर रख बच्चों से मनोरंजन के मूड में आ गये व कहा-‘‘जल्दी आ, देख तुझे मूछों वाला मुन्ना दिखाता हूँ।’’ पहली आवाज में ही मैं, लेखन छोड़कर गुरुवर के सामने तक पहुँच चुका था। उसी वाक्य को दुहराते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘देख! तुझे मूछों वाला मुन्ना दिखाता हूँ। देख! यह वही है न, जो हमारे साथ इतना सा (दोनों हाथ से छोटेपन का इशारा करते हुए) खेला करता था।’’
माजरा समझकर, मैं भी हँसने लगा। गुरुजी ने बालक से हाल-चाल पूछा। बहुत स्नेह दुलार दिया एवं विदा किया।


विश्वामित्र-2 में चले जाओ

एक दिन गुरुजी के पास एक सज्जन आये और बोले, ‘‘गुरुजी, मुझे मुक्ति चाहिये।’’ गुरुजी उससे दो बार बोले, ‘‘मुक्ति चाहिये, तुझे मुक्ति चाहिये। अच्छा! ठीक है बेटा। जा, विश्वामित्र-2 में चला जा। तुझे मुक्ति मिल जायेगी।’’ हम लोगों को सुनकर हँसी आ गई। क्योंकि मुक्ति जीजी उन दिनों विश्वामित्र-2 में ही रहती थीं।
वह सज्जन नीचे उतरे और विश्वामित्र-2 में पहुँचे। मुक्ति जीजी सामने ही बैठी थीं। उन्होंने पूछा, बताइये भाई साहब, किससे मिलना है। वे सज्जन बोले, ‘‘गुरुजी ने मुझे यहाँ भेजा है।’’ मुक्ति जीजी ने पूछा क्या काम है? वे बोले, ‘‘मुझे मुक्ति चाहिये।’’ मुक्ति जीजी बोलीं, ‘‘मेरा ही नाम मुक्ति है। कहिये।’’ सुनकर वे झेंप गये और बोले, ‘‘मेरा मतलब... मेरा मतलब...उस मुक्ति से था।’’ सुनकर मुक्ति जीजी को भी हँसी आ गई और गुरुजी ने आपसे मजाक किया है, कहकर उन्होंने उन्हें विदा किया।
जब मुक्ति जीजी, गुरुजी के पास गईं तो गुरुजी उनसे बोले, ‘‘आज एक व्यक्ति मुझसे मुक्ति माँगने आया था। मैंने उसे तेरे पास भेज दिया। उसे मुक्ति मिली कि नहीं।’’ फिर तो हम सब खूब हँसे।


अच्छा तो हम मूँछ मुँड़ा लेते हैं

(डॉ. मंजू चोपदार,1971 में दीक्षा ली,1990 में पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गईं)

अपने बुजुर्गों के मुँह से मैंने सुन रखा था कि व्यक्ति जिस किसी भी प्रतिभा का धनी हो, उसे उसकी आवश्यक सामग्री सदैव अपने साथ रखनी चाहिए। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी थी। चूँकि मैं स्त्रीरोग विशेषज्ञा थी, अतः प्रसूति के समय हेतु आवश्यक औजार अपने साथ बैग में ही रखने लगी।
इसी बीच मैं हरिद्वार आई। बैग हमेशा मेरे साथ ही रहता था। मैं ऊपर खाना खा रही थी, तभी माताजी-गुरुजी के पास खबर पहुँची कि ब्रह्मवर्चस के श्री भास्कर तिवारी जी की पत्नी को प्रसव का दर्द उठा है। अतः शीघ्र अस्पताल जाने की व्यवस्था करनी है। मैं डाक्टर हूँ। यह बहुत लोगों को मालूम था। किसी ने मुझे बुलाया और माताजी के पास भेजा। उन्होंने पूछा, मैंने कहा, ‘‘माताजी मेरे पास सब सामान है, कुछ आवश्यकता नहीं पड़ेगी।’’
अब तो माताजी बहुत खुश हुईं व बहुत आशीर्वाद देकर ब्रह्मवर्चस भेजा। शीघ्रता के कारण मेरे लिये कार निकलवाई गई, जिसे आदरणीय डॉ. प्रणव भाई साहब ने स्वयं चलाया। हम ब्रह्मवर्चस पहुँचे। सुखपूर्वक प्रसव करवाया। लड़का हुआ, जिसका नाम बाद में ‘‘शरद’’ रखा गया। शान्तिकुञ्ज वापस लौटकर वन्दनीया माताजी को रिपोर्ट दी। माताजी ने खूब पीठ थपथपाई। उस समय गुरुजी व माताजी दोनों धूप में, छत पर बैठे थे। माताजी ने जैसे ही सुना ‘‘लड़का हुआ है।’’ खुशी से बोल पड़ीं ‘‘मैं जीत गई’’।
पता नहीं, गुरुजी एवं माताजी की परस्पर क्या चर्चा हुई थी? पर उसमें माताजी का कथन सत्य हुआ था। अतः गुरुजी ने कहा, ‘‘अच्छा! हम हार गये? तो चलो, मूँछ मुँड़ा लेते हैं।’’ उल्लेखनीय है कि गुरुदेव क्लीन शेव रहा करते थे। अतः वातावरण ठहाकों से गूँज उठा। पुत्र जन्म की खुशी अनन्त गुनी हो गई।


उसके मुँह से धुँआ निकले

श्रीमती श्रीपर्णा दत्ता, शान्तिकुञ्ज

एक बार मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी जो झूठ बोलते हैं, बेईमानी, चोरी करते हैं। यदि ऐसी कोई व्यवस्था होती कि पाप करते ही उसका पता लग जाता, तो सारे पाप नष्ट हो जाते।’’ गुरुजी बोले, ‘‘तू बड़ी होशियार है। अब जब मैं भगवान के पास जाऊँगा, तो तेरी बात कहूँगा कि जब कोई झूठ बोले तो उसके मुँह से धुँआ निकले, और चोरी करे तो उसके हाथ कट जायें।’’ और जोर से हँस दिये। वहाँ उपस्थित अन्य लोग भी हँसने लगे।


आज उसे डाक खाने दो

(श्री राम खिलावन अग्रवाल एवं श्रीमती विमला अग्रवाल, 1959 में गुरुदेव के संपर्क में आये। 1963 में दीक्षा ली और 1985 में पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये। वर्तमान में ब्रह्मवर्चस में कार्यरत हैं।)

सन् 1977, दिसम्बर की बात है। गुरुजी डाक स्वयं ही देखते थे। उन दिनों पोस्टमास्टर का काम श्री अभिनेष जी देखते थे। गुरुजी को डाक के विषय में कुछ जानकारी चाहिये थी। उन्होंने पास बैठे कार्यकर्ता से कहा, ‘‘जा, अभिनेष को बुला ला।’’
कार्यकर्ता पोस्ट ऑफिस में गया तो पता चला कि वह हरिद्वार के पोस्ट ऑफिस में गया है। उसने गुरुजी के पास आकर कहा, ‘‘गुरुजी, अभिनेष तो डाक खाने गया है।’’
गुरुजी अपने काम में तल्लीन थे सो पूरे शब्द ठीक से नहीं सुने और पूछा, ‘‘क्या कहा?’’ कार्यकर्ता ने पुनः अपनी बात दुहराई, ‘‘गुरुजी, अभिनेष तो डाक खाने गया है।’’ उसका बोलने का ढंग कुछ अलग सा था। सो गुरुजी को मजाक सूझी। बोले, ‘‘अच्छा, डाक खाने गया है।’’ फिर कुछ देर बाद पुनः बोले, ‘‘अच्छा, अच्छा! डाक खाने गया है, तो अच्छा है, आज उसे डाक खाने दो, हमारा खाना बचेगा।’’ और पूरा वातावरण ठहाकों से गूँज पड़ा। ऐसे विनोदी थे पूज्यवर।


इतने बड़े गुरुजी यज्ञ करा रहे हैं!

(श्री शिवप्रसाद मिश्रा जी, 1957 में अखण्ड ज्योति के पाठक बने, 1965 में दीक्षा ली और 1972 में पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गए।)

यह गायत्री तपोभूमि मथुरा का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव के पास मिलने वालों का ताँता लगा ही रहता था। उस समय 24 कुण्डीय यज्ञ चल रहा था। श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी यज्ञ सम्पन्न करा रहे थे। पूज्यवर उठने ही वाले थे कि एक आगन्तुक आया व गुरुजी से ही पूछने लगा ‘‘पं. श्रीराम शर्मा कहाँ हैं? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।’’
गुरुदेव को मजाक सूझा। उन्होंने कहा-‘‘अरे! अरे! देख नहीं रहे हो! इतने बड़े गुरुजी यज्ञ करा रहे हैं।’’ और उसे श्री रमेश चंद्र शुक्ला जी की ओर भेज दिया। चूँकि वह अनजान था। श्री शुक्ला जी लम्बी दाढ़ी रखते थे। सो उसने भी गुरुजी की बात पर अविश्वास नहीं किया। उनकी बात को सत्य समझकर वह श्री शुक्ला जी के पास गया और साष्टांग प्रणाम किया।
उसके प्रणाम करते ही श्री शुक्ला जी हड़बड़ा गये और बोले-‘‘हैं..! हैं..! यह क्या कर रहे हो भाई! आप प्रणाम गुरुदेव का करिये। वे वहाँ बैठे हैं।’’ तब उन सज्जन ने कहा, ‘‘मैं तो उन्हीं से पूछकर आया हूँ। उन्होंने ही आपके पास भेजा है।’’
अब तो उनसे कुछ कहते नहीं बना। समझ गये, गुरुदेव ने मजाक किया है। अतः उनसे पुनः बोले, ‘‘भाई, मेरी बात का विश्वास करें। वे ही पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य हैं। उन्होंने आपसे विनोद किया है। आप जाइये, उनके ही चरण पकड़िये।’’
जब वह लौटकर आया तो पूज्य गुरुदेव ने मंद-मंद मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य नहीं मिले क्या?’’
‘‘क्यों हमारा मजाक बनाते हैं प्रभु..? कहते हुए वह सज्जन उनके चरणों में गिर पड़े।’’


चरण मत छोड़ना

ऐसे ही एक दिन श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी और अन्य दो चार कार्यकर्ता पूज्य गुरुदेव के साथ कुर्सियों पर बैठे थे। इतने में एक सज्जन वहाँ आये। वह गुरुजी को पहचानते नहीं थे। श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी की लम्बी दाढ़ी और मूँछ देखकर उन्होंने सोचा, ‘‘यही गुरुजी होंगे,’’ और उनके चरण पकड़कर दण्डवत प्रणाम की मुद्रा में लेट गये। श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी हकबकाकर खड़े हो गये और बोले, अरे! अरे! क्या करते हो भाई, मैं गुरुजी नहीं हूँ।
इधर गुरुजी उसे बोले, ‘‘पकड़े रहो, पकड़े रहो। चरण मत छोड़ना, जब तक गुरुजी आशीर्वाद न दे दें।’’
उनकी बात सुनकर उन सज्जन ने और भी कसकर शुक्ला जी के चरण पकड़ लिये। श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी बोले, ‘‘अरे भाई, सच मानो, मैं गुरुजी नहीं हूँ।’’ और गुरुजी की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘‘गुरुजी इधर हैं।’’ पर गुरुजी ने फिर से कह दिया, ‘‘चरण मत छोड़ना। गुरुजी सहजता से आशीर्वाद नहीं देते।’’ और हँस दिये।
वह सज्जन कुछ देर शुक्ला जी के पैर पकड़कर लेटे रहे। इधर सभी लोगों को हँसी आ गई। सबको हँसते देख उन सज्जन को लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है और वह उठकर खड़े हो गये। फिर न जाने क्या सोचा और उन्होंने गुरुजी के चरण पकड़ लिये।


गुरुजी को बैठने दो

उन दिनों पूज्यवर सारे देश में गायत्री एवं यज्ञ के प्रचार-प्रसार हेतु जाते थे। वे सदैव ही तीसरे दर्जे में सफर करते।
एक बार श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी व पूज्य गुरुदेव ट्रेन में चढ़े। उस दिन भारी भीड़ थी सो बैठने की जगह नहीं मिली। दोनों सामान को एक किनारे जमाकर थोड़ी देर खड़े रहे। कुछ देर बाद गुरुदेव ने रमेश चन्द्र शुक्ला जी की ओर इशारा करते हुए ट्रेन में एक व्यक्ति से कहा-‘‘थोड़ी जगह हमारे गुरुजी को बैठने के लिये दे दीजिए।’’ श्री शुक्ला जी कुछ बोलते इसके पूर्व ही गुरुदेव ने उन्हें अपनी बड़ी-बड़ी आँखें दिखाते हुए चुप रहने का निर्देश दे दिया। बेचारे क्या करते, चुप रहे।
श्री शुक्ला जी लंबी दाढ़ी एवं लंबे बाल रखते थे। जिससे वे संत जैसे दिखाई पड़ते थे। अतः उन्होंने उन्हें सचमुच ही गुरुजी मान कर थोड़ी जगह बना दी। गुरुदेव ने उन्हें पुनः आँख दिखाकर बैठने का निर्देश दे दिया। मरता क्या न करता वे चुप-चाप बैठ गये। वे बैठ तो गये पर उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि वे बैठें और गुरुदेव खड़े रहें।
थोड़ी देर तक वे सोचते रहे फिर बोले, ‘‘भाई इन्हें भी थोड़ी जगह दे दो।’’ उन्हीं महाशय ने पुनः थोड़ी जगह बनाई और कहा-‘‘आप भी बैठ जाइये।’’ अब गुरुजी भी बैठ गये।
ट्रेन से उतरने पर जब श्री शुक्ला जी ने फिर से ऐसा न करने की बात कही तो उन्होंने कहा, ‘‘तुझे बैठाया तो बाद में मुझे भी बैठने को मिल गया न। अन्यथा दोनों ही खड़े रहते।’’ और ठहाका मार कर हँसने लगे। अब शुक्ला जी भी हँसने लगे और दोनों हँसते हुए आगे बढ़ गये।


मज़ाक में भी भविष्य की ओर इशारा

श्री केसरी कपिल जी, शान्तिकुञ्ज

मथुरा की बात है। श्री शरण जी सपरिवार मथुरा पहुँचे। रास्ते में उनका सामान चोरी हो गया। उनकी पत्नी इस कारण बहुत दुःखी हो रही थीं। वे गुरुजी से बोलीं, ‘‘गुरु जी, हमने कौन सा पाप किया जो हमारा सारा सामान चोरी हो गया?’’ इस पर गुरुजी ने पहले उन्हें थोड़ा समझाया फिर मजाक करते हुए कहने लगे, ‘‘राम के जमाने में तो रावण सीता जी को भी उठा कर ले गया था। तुम्हारा तो सामान ही गायब हुआ है।’’
फिर मेरी ओर इशारा करते हुए कहने लगे, ‘‘परसों ये लखनऊ जाने वाला है इसका कोई बिस्तर ही उठा कर चलता बनेगा, तो यह क्या कहेगा?’’ उस समय तो हम सबको हँसी आ गई और वातावरण हल्का हो गया। पर मज़े की बात यह हुई कि वास्तव में उस यात्रा के दौरान लखनऊ स्टेशन पर से कोई मेरा बिस्तर लेकर चलता बना।


कौआ कान न काट ले जाय

श्रीमती मुक्ति शर्मा, शान्तिकुञ्ज

एक दिन जब मैं माताजी को प्रणाम करने गई, तो जैसे ही मैंने माताजी को प्रणाम किया, माताजी हँस दीं। मैंने माताजी से हँसने का कारण पूछा तो बोलीं, ‘‘रात को गुरुजी मजाक कर रहे थे। उन्होंने अख़बार में कोई खबर पढ़ी है कि शहर में कोई ऐसा कौआ आया है जो महिलाओं के कान काट कर जेवर ले जाता है। फिर मुझे पूछने लगे कि हमारे यहाँ कौन कान में बाली पहनती है? मैंने कहा, और का तो मुझे ख्याल नहीं पर मुक्ति पहनती है। इस पर गुरुजी बोले, ‘‘हाँ, वह तो रोज ब्रह्मवर्चस से आना जाना भी करती है। तुम उसे समझा देना कि ध्यान रखे, देखना कहीं कौआ कान न काट ले जाये’’ और हँसने लगे। सो मुझे, तुझे देखकर उनकी बात याद आ गई।’’ मुझे भी माताजी की बात सुनकर हँसी आ गई और बोली गुरुजी भी मजाक करते रहते हैं। माताजी भी हँसने लगीं।
रात को मैंने इनसे माताजी की बात बताई तो इन्होंने कहा, ‘‘तुमको तो हर बात मजाक लगती है। गुरुजी के मजाक में भी रहस्य छिपा रहता है। तुम अपनी ये बाली-वाली उतार कर रख दो।’’ मैंने बालियाँ उतार कर रख दीं।
सुबह जब माताजी को प्रणाम करने गई तो माताजी बोलीं, लाली, ‘‘बाली कहाँ गई।’’ मैंने कहा माताजी आपने ही तो कल कहा था कि कौआ कान काट ले जाता है। मैंने इनसे सब बात बताई तो ये बोले कि गुरुजी की हर बात में कोई न कोई रहस्य रहता है सो तुम तो इन्हें उतार कर रख ही दो। इसलिये मैंने उतार दीं। माताजी बोलीं, ‘‘कहने दे उसे, कहीं कौआ भी कान काट ले जाता है। ले भी जाता होगा तो मैंने तुझे संरक्षण दिया। तू तो अपनी बाली पहन, नंगे कान अच्छे नहीं लग रहे। आज ही पहन लेना।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, माताजी।’’
कमरे में आकर मैंने अपनी बालियाँ पहन लीं। इन्होंने देखा तो कहा कि तुमने फिर लटका लीं। मैंने कहा माताजी ने संरक्षण दे दिया है। लेकिन वास्तव में गुरुजी की बात व्यर्थ नहीं थी। कुछ दिन बाद मेरी ससुराल से पत्र आया जिसमें लिखा था कि एक रात घर में चोर घुस आया था। अम्मा ने उसे देख लिया और तो वो कुछ नहीं कर पाया लेकिन अम्मा के कान का एक बूंदा खींच ले गया जिससे अम्मा का कान कट गया।
पत्र पढ़कर इन्होंने कहा कि ‘‘देखा! तुम्हें तो माताजी ने संरक्षण दे दिया, पर घटना तो घटी ही, यहाँ नहीं तो, घर में। गुरुजी मजाक-मजाक में भी कुछ न कुछ संकेत करते रहते हैं।’’
कौए वाली खबर भी सच थी। उसने शहर में आतंक मचा रखा था। प्रायः रोज ही कोई न कोई घटना घटती थी सो पुलिस उसके पीछे लगी थी। एक दिन फिर अख़बार में छपा कि कान काटने वाला कौआ पकड़ा गया और उसके कोटर में से बहुत से कान के जेवर मिले।


मिठाई की दुकान तो खूब चलेगी

श्री मिठाईलाल जी चौधरी, ओरीजोत, बस्ती (उ. प्र.)

एक बार 1981 में जब मैं शान्तिकुञ्ज आया और पूज्यवर को प्रणाम करने गया तो मुझे देखते ही गुरुजी मज़ाक करते हुए बोले-‘‘अहा! मिठाईलाल जी भी आ गये। अब तो इनके आगे पीछे सब बच्चे घूमते रहेंगे। इनकी मिठाई की दुकान तो खूब चलेगी।’’ वहाँ उपस्थित सब लोग हँसने लगे। मुझे भी हँसी आ गई।
लेकिन गुरुजी के यह शब्द तो वरदान थे यह मैं नहीं जानता था। हमारे एक मित्र की मिठाई की दुकान थी। जो उन दिनों चलती नहीं थी पर उसके बाद जब भी मैं उनकी दुकान पर जाकर बैठ जाता तो थोड़ी सी ही देर में उनकी खूब बिक्री हो जाती। आज उनकी वह दुकान खूब तरक्की कर रही है।


गायत्री माँ चाय पिलाती थी

डॉ. अमल कुमार दत्ता, शान्तिकुञ्ज

सतीश भाई साहब की शादी थी। गुरुजी का एक भतीजा जिसका प्यार का नाम सत्तो है, अपने जीजा जी की खूब तारीफ कर रहा था। जब कुछ ज्यादा ही तारीफ होने लगी तो गुरुजी उसका मजा लेते हुए बोले, ‘‘सत्तो! तुमने अपने जीजा जी की तारीफ तो बहुत की, बस एक ही बात की कमी रह गई कि तुमने यह नहीं कहा कि हमारे जीजा जी को गायत्री माँ चाय पिलाती थी।’’ गुरुजी की बात सुनकर सब लोग जोर से हँस दिये।

भूत तुझे उठा ले जायेगा

एक बार गुरुजी हमारे यहाँ आये हुए थे। मुझसे बोले, ‘‘डॉक्टर, तुझे कार चलाना नहीं आता।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मैं सीख रहा हूँ। मेरा मन था कि जब तक आप रहें कार मैं ही चलाऊँ पर अभी ठीक से सीख नहीं पाया।’’ गुरुजी बोले, ‘‘तू चला।’’ मैंने ड्राइवर को पीछे भेज दिया। गुरुजी बतलाते रहे कार कैसे बचा-बचाकर चलायें और हम अमई पहुँच गये।
रमन जी की पत्नी निर्मला जीजी भी हमारे साथ थीं। हम और गुरुजी आगे बैठे थे। इतने में पीछे से ड्राइवर बोला, ‘‘गुरुजी, इस दायीं तरफ की बिल्डिंग में भूत रहता है।’’ गुरुजी बोले, ‘‘निम्मो, यह ड्राइवर कह रहा है, यहाँ भूत रहता है। सँभलकर बैठ, नहीं तो भूत तुझे उठा ले जायेगा।’’ वह बोलीं, ‘‘गुरुजी, आप बैठे हैं तो डर क्या? ’’ गुरुजी बोले, ‘‘गुरुजी तो सामने बैठे हैं, पीछे से तुझे उठा ले गया तो मैं क्या करूँगा?’’ और हम सब हँसने लगे।

गुरुजी का बच्चा गुरुजी

मेरा छोटा बेटा सिद्धार्थ 3-4 वर्ष का था। उन दिनों हम लोग अशोक नगर में रहते थे। गुरुजी अशोकनगर आये हुए थे। लोगों ने उन्हें बहुत सी फूल मालाएँ पहनाई थीं। गुरुजी फूलमाला रखकर अपने स्थान से उठे तो सिद्धार्थ ने वह सब अपने गले में पहन लीं। इतने में पंडित लीलापत शर्मा जी वहाँ से निकले। वह बच्चे से हिले-मिले हुए थे। सिद्धार्थ ने उन्हें बुलाया और कहा, ‘‘मुझे प्रणाम करो, मैं गुरुजी हूँ।’’ लीलापत शर्मा जी भी उसे ‘‘गुरुजी प्रणाम! गुरुजी प्रणाम!’’ कहते हुए गोद में उठा कर गुरुजी के पास ले गये और बोले, यह कहता है, ‘‘मैं गुरुजी हूँ।’’ गुरुजी ने उसे गोद में उठाया और बोले, ‘‘ठीक तो कहता है यह अमल कुमार का बेटा। शेर का बच्चा शेर। बकरी का बच्चा बकरी। गुरुजी का बच्चा गुरुजी।’’ और ठहाका लगाकर हँस दिये। हम सब भी जो वहाँ खड़े थे, हँसने लगे।
पर उनकी इस बात के पीछे गहरी प्रेरणा भी छिपी थी, जिसे हम सबने हृदयंगम भी किया। वे अपने प्रवचनों में भी अक्सर कहते थे, ‘‘बेटा! शेर का बच्चा शेर होता है। तुम शेर के बच्चे बनना। बकरी के नहीं।’’

कुहनी मारो!

श्रीमती विमला अग्रवाल, ब्रह्मवर्चस

अक्षय तृतीया का दिन था। सरोज अग्रवाल का विवाह दिन था व मेरे सवा लक्ष अनुष्ठान की पूर्णाहुति थी। तारीख से हमारा भी विवाह दिन था सो हम दोनों दम्पत्ति एक साथ वंदनीया माताजी के कमरे में दाखिल हुए। माताजी ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘अरे! आज तो सब इकट्ठे चले आ रहे हो, क्या बात है?’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी, सरोज का विवाह दिन है।’’
सरोज ने कहा, ‘‘माताजी, आज भाभी का भी सवालक्ष का अनुष्ठान पूरा हुआ है।’’
सुनकर माताजी ने कहा, ‘‘लगता है दिन गिन कर अनुष्ठान शुरू किया था। यह तेरी भाभी है कि तू इसकी भाभी है।’’
मैंने कहा, ‘‘यह मेरी ननद है।’’ तब माताजी ने पुनः चुटकी ली, ‘‘ननद भाभी हो तो कुहनी मारो।’’ और खिलखिला कर हँस पड़ी। उनकी बात सुनकर हम सबको भी हँसी आ गई।


रोटियाँ तो तुम्हारे जैसे ही फूल रही हैं

प्रणाम के समापन व लेखन के पश्चात् गुरुजी चौके में आकर थोड़ी देर टहलते थे। साथ-साथ सबके कार्यों का निरीक्षण करते, आवश्यक निर्देश देते व हँसी मजाक करते हुए हँसाते भी रहते। कभी-कभी कोई लड़की किसी से गुस्सा हो जाती तो उस समय तो गुरुजी-माताजी उसे समझा देते। किंतु बाद में गुरुजी सबका मनोरंजन करते हुए कहते-‘‘छोरियो! रोटियाँ तो तुम्हारे जैसे ही फूल रही हैं’’।
सबको हँसी आ जाती। जो गुस्सा होती वह भी समझ जाती और गुस्सा भूलकर सबके साथ हँसने लगती।

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