न्याय नारी को भी मिलना ही चाहिए
नारी के अधिकारों की चर्चा जब चलती है तो यह तर्क उठाया जाता है कि उसका अधिक उपयुक्त कार्यक्षेत्र तो घर ही है। नारी को घर परिवार का उत्तरदायित्व विशेष रूप से सम्हालना पड़ता है, यह सही हैं। पर यह गलत है कि उसे उतने ही क्षेत्र में सीमित रहना चाहिए और घर से बाहर के क्षेत्र में कोई रुचि नहीं लेनी चाहिए। घर से बाहर एक कदम भी नहीं रखना चाहिए। ऐसा प्रतिबन्ध तो ठीक उसी प्रकार का होगा, जिसके आधार पर पुरुष को घर में प्रवेश करने से रोका जाय। जब तक घर में स्त्री का और बाहर पुरुष का कार्यक्षेत्र है और स्त्री को घर तक ही सीमित रहने के लिए कहा जा रहा है, तो न्याय की माँग यही है कि पुरुष को भी उसी प्रकार के बन्धन स्वीकार करने चाहिए। उसे घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए, दुकान, दफ्तर या खेत में ही गुजारा करते हुए सन्तोष करना चाहिए। पुरुष यदि इस तर्क को स्वीकार नहीं कर सकते तो अकेली स्त्री को ही उस सीमा बन्धन में बाँधना किस तर्क एवं न्याय के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है?
विशेष कार्य तो हर किसी के जिम्मे होता है पर वह उतने तक ही सीमित रहने के लिए विवश नहीं किया जाता। पण्डित, लेखक, धोबी, मेहतर, नाई, मोची, चित्रकार, सैनिक, अध्यापक, अफसर, किसान, माली, मजदूर, व्यापारी आदि अपने-अपने अलग-अलग प्रकार के काम करते हैं। पर उन पर यह प्रतिबन्ध नहीं है कि वे उन निर्धारित कार्यों के अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकते, जो विशेष कार्य वे करते हैं उन्हें सदा उतने तक ही सीमित रहने, अन्य कुछ भी न करने के लिए वे प्रतिबन्धित नहीं हैं। ड्यूटी पूरी करने के उपरान्त वे कुछ भी करते हैं। आवश्यकता एवं इच्छानुरूप अपना काम बदल भी लेते हैं।
इसी प्रकार स्त्रियों पर भी यह बन्धन नहीं होना चाहिए कि उन्हें घर के पिंजड़े में ही कैद रहना चाहिए। मुर्गी और कबूतर पालने वाले उनके लिए दरबा बनाते तो हैं पर यह बन्धन नहीं लगाते कि निरन्तर उन्हें उसी में बन्द रहना पड़ेगा। खुली हवा में घूमने का भी उन्हें अवसर देते हैं, और विश्वास करते हैं कि वे अपने दरबे को—घर को पहचानते हैं, इसलिए उसे छोड़कर सदा के लिए कहीं नहीं चले जाएँगे। अपने घर की स्त्रियों पर यदि मुर्गी या कबूतर जितना विश्वास किया जा सके तो न्याय की रक्षा हो सकती है। आखिर पालतू बिल्ली चौबीसों घण्टे कोठे में ही तो कैद नहीं रहती, वह भी मन बहलाने के लिए कहीं इधर-उधर जाती और लौट आती है। क्या इतनी सुविधा स्त्रियों को नहीं मिल सकती?
प्राणी को पिंजड़े में कैद करने पर उसकी प्रकृति प्रदत्त स्फूर्ति क्रमशः नष्ट होती चली जाती है। इसका प्रत्यक्ष परिचय पालतू और वन्य पशुओं को सामने रख कर, उनका तुलनात्मक अध्ययन करके जाना जा सकता है। पिंजड़े में पलने वाले और उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले समान आयु और स्वास्थ्य के तोतों को, किन्हीं पक्षी विशेषज्ञों के सुपुर्द करके पूछा जाय कि इनके शारीरिक, मानसिक स्थिति में क्या कुछ अन्तर है? वे बतायेंगे कि पालतू का शरीर जीर्ण हो गया और मन टूट गया है। वह हारा थका और निराश दिखाई पड़ता है। व्यापक क्षेत्र में पुरुषार्थ करने से, जंगली तोते की नस नाड़ियों में समर्थता बनी हुई है और आहार एवं सुरक्षा की समस्या पल-पल पर नये ढंग से हल करने के अभ्यास ने उसकी चित्त चेतना को प्रखर रखा है। उत्तरदायित्व वहन करने में कुछ असुविधा तो होती है, पर उसके बदले समान चेतना की अभिवृद्धि का वरदान भी मिलता है।
बिना चिन्ता के गुजर कर लेना स्त्रियों का सौभाग्य बताया जाता है। उन्हें न तो उपार्जन का परिश्रम करना पड़ता है और न समस्याओं के समाधान में माथा पच्ची। इस दृष्टि से वे पुरुष की तुलना में अधिक सुखी कही जाती हैं। पर वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। तथाकथित निश्चिन्तता मानव जीवधारी की मूल प्रकृति से सर्वथा विपरीत है। यदि ऐसा न होता तो कैदखाने में पूर्ण निश्चिन्तता का अवसर होने के कारण कोई कैदी वहाँ से छुटकारा पाने का इच्छुक न होता। पिंजड़े में बन्द रहने वाले तोते, मैना आदि पक्षी दरवाजा खोल देने पर उसी में बैठे रहते। चिड़ियाघरों में रहने वाले पशु-पक्षी, आहार और सुरक्षा की दृष्टि से पूर्ण निश्चिन्त होते हैं। उन्हें अपनी आवश्यकताएँ जुटाने के लिए कोई दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती, फिर भी उन्हें मुक्त करने का अवसर देकर देखा जा सकता है कि वे वहाँ रहना पसन्द करते हैं या दरवाजा खोलते ही ताबड़-तोड़ भागते हैं। इस छुटकारे में उनके लिए खतरा ही खतरा है। असंख्य चिन्ताएँ और समस्याएँ उनके सामने खड़ी होंगी, फिर भी 'स्वतन्त्रता' अपने आप में इतनी बड़ी चीज है जिसके लिए कितना ही बड़ा खतरा उठाया जा सकता है। इस लक्ष्य को पशु-पक्षी ही जानते हों, मनुष्य की आत्मा इस तथ्य से अपरिचित हो, ऐसी बात नहीं है। सिखाया, सधाया और कैद करके रखा गया सिंह, सरकस वालों के लिए लाभदायक हो सकता है, पर यदि उस प्राणी से पूछा जाय कि आपको इस निश्चिन्त और सुविधा सम्पन्न स्थिति में, वन प्रदेश में रहकर हर घड़ी पेट पालने की झंझटों में उलझे जीवन की तुलना में अच्छा लगता है या बुरा तो उसका उत्तर कटघरा खोलकर पूछा जा सकता है। वह मूक प्राणी अपनी आन्तरिक अभिलाषा का परिचय पिंजड़े से निकल कर कहीं भी भाग खड़ा होने के रूप में देगा।
स्वतन्त्रता की आकांक्षा ईश्वर प्रदत्त है। यह आत्मा की भूख है। इसके लिए बड़े से बड़े कष्ट सहे जा सकते हैं। दास-दासी राजा-रईसों के यहाँ पलते, अच्छा खाते और अच्छा पहनते थे, अच्छे मकान में रहते थे। विचारशील लोगों ने दास प्रथा के अन्त का आन्दोलन चलाया और तब चैन लिया जब वह समाप्त हो गई। स्वतन्त्र जीवन जीने वाले असंख्य दीन-दरिद्रों को जिस स्तर का जीवन-यापन करना पड़ता है उसकी तुलना में वे दास-दासी सुखी थे, फिर मोटी दृष्टि से तो यह स्वतन्त्रता उनके लिए हानिकारक ही हुई। इसी तर्क के अनुसार विदेशी पराधीनता को भी कई सुविधाओं की दृष्टि से उपलब्ध स्वाधीनता की तुलना में अच्छा ठहराया जा सकता है। उस जमाने में हमें बाह्य आक्रमणों से बचने के लिए सुरक्षा समस्या पर ध्यान नहीं देना पड़ता था, अंग्रेज स्वयं उसकी जिम्मेदारी सम्हालते थे। ऐसी ही और बातें भी हो सकती हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता पराधीनता में रहने के लाभों और स्वाधीनता के कठिन उत्तरदायित्वों को भी जानते थे फिर भी उन्होंने प्राण हथेली पर रखकर स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा और सारे देश को उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग-बलिदान करने का आह्वान किया। जिस तर्क के अनुसार स्त्रियों को पराधीनता में सुखी रहने की बात कही जाती है उसी तर्क का प्रयोग करने पर स्वतन्त्रता आन्दोलन और उसके लिए किया गया त्याग-बलिदान भी निरर्थक ठहराया जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे देशों को बड़े देशों की पराधीनता स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करने के लिए कहा जा 'सकता है। हर कोई जानता है कि इस प्रकार की वकालत चाहे कितनी ही तर्कों और तथ्यों सहित प्रस्तुत की जाय, सदा निन्दनीय ही ठहराई जाएगी और उस प्रतिपादनकर्ता को निहित स्वार्थों का एजेन्ट कहा जायगा। स्त्रियों को, पुरुषों की पराधीनता में ही रहना चाहिए उन्हें अपने घर के पिंजड़े से बाहर नहीं झाँकना चाहिए, ऐसा निर्देश करने वाले कोई भी क्यों न हों, मानवीय अन्तरात्मा की मूलभूत आकांक्षा एवं प्रकृति से अपरिचित ही ठहराये जाएँगे। शास्त्रों की, सन्तों की, परम्पराओं की दुहाई कितना ही गला फाड़-फाड़ कर क्यों न दी जाती रहे, तथ्य अपने स्थान पर अटल बने रहेंगे। दलीलें उन्हें झुठला नहीं सकतीं।
नारी दासी और पुरुष उसका स्वामी, यह बात उसी स्थिति में सही हो सकती थी जब नारी मिट्टी या धातु जैसे जड़ पदार्थों की बनी इच्छा, आकांक्षा और चेतना से रहित रही होती। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वह पशु स्तर की होती, जिसे मनुष्यों द्वारा बाँधा, बेचा और दुहा-जोता जाता है। जैसा कि भूतकाल में उसे भोग्या, रमणी, कामिनी आदि के रूप में माना जाता रहा है। यदि उतनी सी ही बात हो तो योरोप की पुरानी मान्यता के अनुसार यह कहा जा सकता है कि "स्त्रियों में आत्मा नहीं होती। ये पुरुष के उपभोग के लिए बनी हैं, उन्हें स्वतन्त्र इच्छा रखने का अधिकार नहीं है।"
हम फल, शाक, चीनी, साबुन, कपड़े आदि का मनचाहा उपयोग करते हैं क्योंकि वे भोग्य हैं। स्त्री यदि भोग्या है, उसका जन्म रसोईदारिन, चौकीदारिन और वासना तृप्ति का साधन बनाने के लिए हुआ हो तो वह पुरुष की क्रीत दासी कहला सकती है। उसके स्वामियों को उसे खरीदने, बेचने, ताने देने और पीटते-पीटते मार डालने अथवा मनचाहा उपयोग करने की छूट मिल सकती है। उसके मालिक जिस भी स्थिति में रखना चाहें बिना उफ किए उसी को शिरोधार्य करने के लिए कहा जा सकता है। किन्तु स्थिति इससे भिन्न है, उसे भोग्या या दासी से ऊँचा माना जाय। प्राणधारी का, मनुष्य का दर्जा दिया जाय तो फिर यह सोचना पड़ेगा कि उसका भी अपना चेतनात्मक अस्तित्व है और उसके साथ जुड़ी है। स्वतंत्रता की आकांक्षा के लिए भी कोई स्थान है।
मनुष्य के भीतर बैठा हुआ असुर समाज में दुर्बलों का शोषण करने के लिए लालायित रहा है और उसने जब अवसर पाया है, अपनी आघात चलाई है। जो पशु उसकी पकड़ में आ गए अब उनके प्राण बचना कठिन दीखता है। समर्थों ने दुर्बलों को दास बनाया और उनसे लगभग पशुओं जैसा व्यवहार किया। नारी की प्रजनन विशेषता के कारण उसे शारीरिक दृष्टि से दुर्बल पाया और उसे भी शोषण का एक सामान बना लिया। यह प्रवृत्ति भाग्यवाद, पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, अधिनायकवाद, सामन्तवाद, पुरोहितवाद आदि के रूप में अभी भी प्रकट और प्रच्छन्न रूप से ढंग और कलेवर बदलता सिर उठाती देखी जा सकती है। तर्कों के आधार पर इन सभी अवांछनीयताओं को उचित एवं आवश्यक सिद्ध करने का भी प्रयत्न होता रहता है। समर्थ दुर्बलों का शोषण करें, इसके लिए 'उपयोगितावाद' का एक स्वतन्त्र दर्शन है। "सरवाइवल आफ दी फिटेस्ट" की उक्ति को समर्थन से लेकर दुर्बल तक अपने-अपने ढंग से चरितार्थ करते दिखाई पड़ते हैं। सत्ताधारी, दुर्बलों को चूसते हैं। दुर्बल व्यक्ति घर की नारियों को पददलित करने में नहीं चूकते। वे नारियाँ भी जब सास बनती हैं तो अपनी पुत्रवधुओं के साथ उसी तरह का व्यवहार करती हैं। वे पुत्र भी अपने बच्चों को मारने पीटने में कोताही नहीं करते। यह कुचक्र असुरता की प्रतिच्छाया में ही चलता है। मानवता को पैरों तले कुचल कर ही यह दुष्प्रवृत्तियाँ जीवित रहतीं और फलती-फूलती हैं। समूचे नारी समाज को आज इसी आसुरी शोषण का शिकार रहना पड़ रहा है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है नारी को घर के क्षेत्र में, पुरुष के अधिनायकत्व में मौत के दिन पूरे करना।
न्याय, औचित्य और स्वतन्त्रता का समर्थन करने वाले, मानवीय आदर्श को मान्यता देने वाले, उदात्त लोगों की पंक्ति में हमें खड़ा हाेना चाहिए और इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि नारी घर के उत्तरदायित्व तो सम्भाले, पर उतने ही क्षेत्र में कैद न रहे। उसे अनुभव बढ़ाने का, समाज का स्वरूप समझने का अवसर मिलना चाहिए। शिक्षा प्राप्त करने के लिए, बाजार से सौदा खरीदने के लिए, अन्य आवश्यक काम निपटाने के लिए, घर के पुरुषों का हाथ बटाने के लिए, लोकमंगल प्रयोजनों के लिए घर से बाहर जाने का अवसर देना चाहिए। इससे नारी की मूर्छित आत्मा को जगाने का पथ प्रशस्त होगा और समूची मानव जाति को इस प्रगतिशील कदम का लाभ मिलेगा।
नारी उत्कर्ष के साथ समाज का भी उत्कर्ष जुड़ा है, और उसकी माँग पूरी तरह न्यायसंगत है फिर भी उनकी पूर्ति हो नहीं पा रही है। इसका कारण है कि आज की बिगड़ी परिस्थितियों में न्याय पाना भी कठिन है। गरीब लोगों को सामाजिक न्याय पाने में प्राय: असफल रहना पड़ता है। वकील जुटाने, सबूत इकट्ठा करने, गवाहों का सहयोग पाने जितने साधन उसके पास नहीं होते। फलत: अर्जी सर्वथा सही होने पर भी प्रबल प्रतिपक्षी की तुलना में उन्हें बहुधा असफल ही रहना पड़ता है, ऐसी ही कुछ दुर्भाग्य भरी विडम्बना का मखौल नारी के साथ भी चलता रहा है। उसकी अर्जी सीधी सादी है। उसे यदि भगवान ने मनुष्य बनाया है तो मनुष्यों द्वारा उसके मूलभूत मानवीय अधिकारों का अपहरण नहीं किया जाना चाहिए। मनुष्य के भौतिक अधिकारों में उसे स्वतन्त्रतापूर्वक जीने, सोचने, कमाने, रहने, बोलने का हक दिया गया है। इससे अधिक उसे कुछ नहीं चाहिए। या तो स्पष्टतः यह कह दिया जाना चाहिए कि वह मनुष्य वर्ग में नहीं गिनी जा सकती—वह पशु है इसलिए पशुओं की तरह ही उसे बाधित होकर—पराश्रित जीवनयापन करना पड़ेगा। इतना फैसला हो जाय तो भी एक बात तो साफ हो। एक ओर उसे मनुष्य ही नहीं उससे भी ऊपर उठा कर देवी तक कहा जाता है और दूसरी तरफ मानवी अधिकारों से सर्वथा वंचित पुरुष की क्रीत दासी-कठपुतली की तरह रखने वाले प्रतिबन्ध जड़ दिये जाते हैं। असमंजस और असन्तोष इस दोमुँही-दोगली नीति से ही उत्पन्न होता है।।
नारी न्याय के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहती। पर उसे वह उन छोटी अदालतों से मिल नहीं सका है जो यदि चाहती तो अब तक कब का नारी उत्पीड़न जैसी कितनी ही समस्याओं का समाधान निकल आया होता। समाज के मूर्धन्य कर्णधारी का यह कर्तव्य था कि वे अपनी दूर दृष्टि से समय की विकृतियों को देखते और उनकी हानियों का ध्यान रखते हुए ऐसा वातावरण बनाते जिनमें इन अवांछनीयताओं का टिक सकना असम्भव हो जाता। साहित्यकार, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, गायक; अभिनेता, धर्मोपदेशक आदि जनमानस को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। यदि उनने नारी उत्पीड़न की अवांछनीयता को समझा होता तो उसके स्तर और अधिकारों के हनन के विरुद्ध वातावरण तैयार करते, पर हुआ कुछ इससे उल्टा ही है। उनमें से अधिकांश ने अपना लाभ उसी में समझा कि नारी को रमणी, कामिनी, भोग्या के रूप में निकल जाने के लिए आतुर निम्नस्तरीय कामुकता को भड़काने वाले साधन प्रस्तुत किए जाये और प्रस्तुतीकरण के उपलक्ष में सहज ही अधिकाधिक धन कमाया जा सके—सस्ती वाहवाही लूटी जा सके। ऐसा करना वेश्याओं और दूसरों को शोभा दे सकता था, कला के उपासकों को नहीं। नारी को दबोचने के साथ-साथ कला की स्वर्गीय गरिमा को भी नरक की कीचड़ में गाड़ दिया गया। इससे हिंसकों के दाँत और पंजे तेज हुए और शिकार के त्राण की रही-बची सम्भावना भी धूमिल हो गई।
कलाकार की अदालत ने नारी को हरा दिया। उस दरबार ने उसकी अर्जी खारिज कर दी और न्याय दिलाने से इन्कार कर दिया। दूसरी अदालत उन सामर्थ्यवानों की है जिन्हें धनवान, प्रतिभावान, राजनेता एवं समाज पर छाई मूर्धन्य विभूतियाँ कह सकते हैं। यह वर्ग कला कारों से भी ऊँचे स्तर का होता है। इसके पास वे साधन रहते हैं जिनके सहारे कुत्साओं को रोक सकना और लोक दृष्टि को उलटा कर पाना सम्भव हो सकता है। इस वर्ग ने भी यह कहकर अर्जी खारिज कर दी कि अधिक उत्तेजक और अधिक सस्ता मनोरंजन उन्हें भी तो नारी के अश्लील कलेवर से ही मिलता है। लोक मानस उलटे जाने पर तो उनका अपना विनोद ही छिन जायेगा, वे भी अपने पैरों में कुल्हाड़ी न मारने की बात सोचकर पीछे हट गए।
घड़ियाल के आँसू तो हर क्षेत्र में बहाये गए, सहानुभूति में लेखन, भाषण और प्रस्तावों के पुलन्दे आकाश कुसुम की तरह बरसाये जाते रहे, पर उनसे स्थिति के बदलने में कोई सहयोग न मिल सका। आत्म प्रवंचना की घटाएँ पूरब से उठती रहीं और पश्चिम में अस्त होती गईं। पल्ले कुछ नहीं पड़ा। अब अर्जी तीसरी बड़ी अदालत में प्रस्तुत है। भयभीत और कातर नारी ने लोक शक्ति के सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। युग चेतना द्वारा मानवीय संविधान की रक्षा का भार उसे सौंपा गया है तो उस उत्तरदायित्व को निभाना भी उसी को चाहिए। न्याय पाने की अन्तिम आशा जीवन्त लोकशक्ति पर—जागृत लोक मानस पर केन्द्रित हुई है। यदि यहाँ से भी इन्कार कर दिया गया, तो फिर यही सोचना पड़ेगा कि न्याय, विवेक, औचित्य आदि आदर्शवादी मान्यताएँ भी दूसरे मनोरंजनों की ही तरह तथाकथित दार्शनिकों के लिए दिमागी विलासिता भर की वस्तुएँ हैं। उनका उपयोग कल्पना लोक तक सीमित है, व्यवहार में तो मत्स्य न्याय ही चलता है। जंगल के कानून में जिसकी लाठी उसकी भैंस को मान्यता मिली हुई है। नर पशुओं की दुनिया में भी यही चलेगा।
चूँकि अभी आत्मा और परमात्मा की चर्चा होती है और धर्म-अध्यात्म की भी दुहाई दी जाती हैं, इसलिए अपेक्षा यह की गई है कि अभी जीवन का—प्रकाश का—औचित्य का सर्वथा मरण नहीं हुआ है। लोकशक्ति में कहीं न कहीं ऐसे तत्त्व हो सकते हैं जो अनीति को निरस्त करेंगे और नीति को समर्थन देने के लिए उभरेंगे और शोषितों का पक्ष समर्थन करके न्याय को मान्यता दिलाने के लिए कुछ कारगर योगदान देंगे। छोटी अदालतों से निराश होकर नारी ने सुप्रीम कोर्ट में—विवेकवान, भावनाशील, न्यायप्रिय और पौरुष का उत्तरदायित्व समझने वाले लोगों के दरबार में अपील की है। विश्व नारी का चीत्कार भावना के कानों से कोई भी सुन सकता है। जो सज्जन मातृ सत्ता के प्रति आस्थावान हों वे आवाज को सुनें और न्याय के समर्थन में मौखिक नहीं, व्यवहारिक रूप से कुछ कर दिखाने के लिए कदम बढ़ायें। आशा का केन्द्र एकमात्र लोक शक्ति ही बच रहा है। यदि यहाँ से भी उसे उपेक्षा मिली तो यहीं समझा जायगा कि नारी की आत्मा का मरण निकट है और उसके साथ ही समूची मानवता का अन्त भी सुनिश्चित है।
यह प्रश्न उठ सकता है कि जन-साधारण की सामर्थ्य कम होती है, उतने से क्या हो सकता है? किन्तु यह न भूलें कि लोकमानस एक अति विशालकाय और अति समर्थ महादैत्य है। इसकी तुलना पौराणिक कुम्भकरण से की जा सकती है। छः महीने सोने और एक दिन जागने की उसकी बुरी आदत का मनोरंजक वर्णन मिलता है। वह दैत्य जब सोता था तो इतनी गहरी नींद में होता था कि छाती पर हाथियों का झुण्ड घुमाते रहने पर भी करवट नहीं बदलता था, पर जिस दिन जागता था तो पर्वत जैसा आहार उदरस्थ करने से लेकर अन्यान्य अनेकों आवश्यक कार्य चुटकी बजाते पूरे करके रख देता था। निश्चित रूप से ऐसी विशेषताओं से सम्पन्न महादैत्य केवल जन-मानस ही हो सकता है। वह जिधर भी करवट बदलता है, उधर ही कुछ से कुछ बना देने और कुछ भी बिगाड़ देने का चमत्कार प्रस्तुत करता है। संसार की महान क्रान्तियों के इतिहास के पीछे लोक शक्ति ही काम करती दिखाई पड़ेगी। नारी जागरण की समस्या का हल व्यक्ति विशेष द्वारा सम्भव नहीं हो सकता। कोई व्यक्ति कितना ही धनी, विद्वान, सत्ताधारी अथवा प्रतिभा सम्पन्न क्यों न हो, निजी साधनों से इतने सुविस्तृत क्षेत्र में नगण्य सी ही हलचल उत्पन्न कर सकता है। कुछ बड़ा कार्य करना हो तो लोक-शक्ति का ही सहारा लेना होगा।
जनमानस को जगाने के लिए पहला काम यह है कि उसे स्थिति की गम्भीरता और अभियान की महत्ता समझायी जाय। हमें लोक मानस को इतना गरम करना चाहिए कि नारी की वर्तमान स्थिति पर विचार करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को नये सिरे से विचार करने के लिए बाध्य होना पड़े। पतन ने कितनी क्षति पहुँचाई और उत्थान से उसकी कितनी भरपाई हो सकती है, इसका विचार प्रत्येक विवेकवान मस्तिष्क में उठना चाहिए। अनादि काल से वरिष्ठता प्राप्त नारी को किन परिस्थितियों और किन मन: स्थितियों ने दयनीय दुर्दशा में ला ढकेला, इस दुखदायी इतिहास को—घटना क्रम को, कलेजे पर पत्थर बाँधकर पढ़ा जाना चाहिए। अवांछनीयताओं को मान्यता देने की सामाजिक मूढ़ता पर प्रचण्ड रोष जागना चाहिए। इतना किए बिना नारी जागरण के लिए वे साधन बन ही नहीं पड़ेंगे—वे अभियान अभियान खड़े ही न हो सकेंगे, जो इतने बड़े प्रयोजन को पूरा करने के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं।
नारी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर जन साधारण का पूरा-पूरा ध्यान केन्द्रित हो और हर व्यक्ति को प्रस्तुत अवांछनीयता की हानि समझने का अवसर मिले, तभी वह आक्रोश जगाया जा सकेगा जो बड़े परिवर्तनों की भूमिका प्रस्तुत करता है, उसके लिए आवश्यक साधन जुटाता है। जब तक परिवर्तन के कारण उपलब्ध होने वाले लाभों को भली प्रकार न समझा जायेगा, तब तक उस दिशा में न तो उत्सुकता उत्पन्न होगी और न आतुरता। अन्यमनस्क मन बहुत दूर तक नहीं चल सकता, लेकिन जैसे ही बात का औचित्य अन्त:करण में बैठता है, वैसे ही अन्दर से एक प्रबल उत्साह का अनुभव होता है। यही जन उत्साह बड़े कार्यों की आधार भूमि बनता है।
जन चेतना को जाग्रत करना यों बड़ा कठिन कार्य लगता है, किन्तु आज की स्थिति में वह नितान्त स्वाभाविक हो गया है। जिनको सूक्ष्म जगत और उसकी सत्ता पर विश्वास है, वे जानते हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया का अकाट्य प्राकृतिक नियम, अवांछनीयताओं को उलट देने का सरंजाम अनादि काल से जुटाता रहा है। विश्व का सन्तुलन बनाए रहने के लिए ऐसे अन्धड़ तूफान खड़े होते रहे हैं; जिनने निराशा और आतंक की मेघ-माला को छिन्न-विछिन्न करके, समय-समय पर घुटन को दूर किया है। मनुष्य की समष्टि अन्तरात्मा जिसे विश्वात्मा या परमात्मा भी कह सकते हैं, विकृतियों के निराकरण के लिए समर्थ प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती रही है और अनन्त काल तक उसका यह क्रम चलता ही रहेगा। शरीर में विषाणुओं का-विजातीय द्रव्यों का जब अवांछनीय जमघट एकत्रित हो जाता है तो प्रकृति कोई तीव्र रोग संवेग खड़ा करती है। ज्वर, पीड़ा, सूजन आदि के रूप में कष्ट तो होता है, पर बीमारी को उखाड़ने की दृष्टि से यह आवश्यक होता है, इसलिए शरीर शोधन की यह प्रकृति प्रक्रिया स्वास्थ्य संरक्षण का प्रयोजन पूरा करती रहती है। चिकित्सा के मनुष्यकृत सारे उपचार एक ओर और प्रकृति की उपरोक्त व्यवस्था एक ओर रख कर तराजू पर तौली जाय, तो पलड़ा प्रकृति परम्परा का ही भारी बैठेगा।
शरीर स्वास्थ्य सन्तुलन की तरह समाज स्वास्थ्य में जब भी विकृत विषाणुओं की, भ्रष्ट मान्यताओं और गतिविधियों की भरमार हो जाती है तो अनिवार्य रूप से उसकी सुधार प्रक्रिया सामने आती है। इस परिवर्तन प्रकरण को मोटे तौर से भगवान का अवतरण कहा जाता है। अधर्म का उन्मूलन और धर्म की संस्थापना करने के लिए भगवान प्रतिज्ञाबद्ध हैं। साधुता का परित्राण और दुष्कृतों का विनाश करना, सृष्टि के असन्तुलन को सहन न करना उनका स्वभाव है। ठीक है—मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, पर वह स्वतन्त्रता औचित्य के साथ जुड़ी रहनी चाहिए। अनौचित्य सर्वत्र असह्य माना गया है और सर्वदा उसकी प्रतिक्रिया हुई है। यदि ऐसा न होता तो समय-समय पर प्रकट होते रहने वाले दुर्दान्त असुरों ने अब तक कब का इस संसार को अपने पेट में निगल लिया होता अथवा उसे कुचल-मसल कर नष्ट कर दिया होता। संसार के इतिहास का, आरम्भ से लेकर अद्यावधि परिस्थितियों का विहंगावलोकन करते हैं तो प्रतीत होता है कि सन्तुलन बनाने में दिव्य शक्तियों ने देर तो की है और ढील भी बरती है, पर उसकी पूरी तरह उपेक्षा नहीं की है। लोग अपना काम अपने हाथों कर लें, इस हेतु महामानव हर काल में उगते, उपजते और अपने समय की सफाई करने में लगे रहते हैं। पर जब यह सामान्य क्रम गड़बड़ा जाता है और देवत्व को निरस्त करके असुरता सत्ता-सम्पन्न होती है, तो फिर प्रकृति प्रतिक्रिया का, भावावतरण का, कोई न कोई विराट-विकराल रूप सामने आ ही जाता है। यह दिव्य अवतरण व्यक्ति के रूप में नहीं, जन आक्रोश के रूप में अवतरित होता है। उसके नेतृत्व का श्रेय भले ही किसी व्यक्ति विशेष को मिल जाय, पर तथ्य यही है कि वह जन-आक्रोश होता है और असंख्य भावनाशील लोगों को उस में सम्मिलित होकर ईश्वरीय प्रयोजन पूरा करना पड़ता है। लंका दहन में सहायक रीछ-वानर, गोवर्धन उठाने में ग्वाल-बाल, महाभारत में पाण्डवी टुकड़ी, बुद्ध के भिक्षुकगण, गाँधी के सत्याग्रही, लेनिन के विद्रोही सर्वहरा यही बताते हैं, कि संसार के महान परिवर्तन जन सहयोग से ही सम्भव हुए हैं, उसके जुटाने से जन-आक्रोश का उद्भव हुआ है। सूक्ष्म जगत में दिव्य अवतरण की बात काे यदि अधिक अच्छी तरह समझना हो तो उसे औचित्य का पक्षधर-जन आक्रोश ही कह सकते हैं। यह जब उदय होता है तब उसका स्तर प्रभातकालीन सूर्य जैसा होता है। अन्धकार कितना ही घना और कितना ही व्यापक क्यों न हो, उस उदीयमान आलोक के सामने किसी भी प्रकार ठहर नहीं सकता।
वस्तुतः इन दिनों सूक्ष्म जगत में एक ऐसी प्रतिक्रिया चल रही है, जिसमें अनेकों अवांछनीय परम्पराओं के उन्मूलन का आधार मौजूद है। यह हवा अनेक क्षेत्रों को झकझोर रही है और परिवर्तन के लिए विकट छटपटाहट उत्पन्न कर रही है। दुर्भाग्य इतना ही है कि इस विस्फोट को सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है। युग परिवर्तन की मूल शक्ति समय की पुकार में सन्निहित रहती है। जन आक्रोश ज्वालामुखी बन कर फूटता है। युग सृजेता उसे ध्वंसात्मक रूप धारण करने से रोककर सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाते हैं। जब-जब ऐसा बन पड़ा है, सत्परिणाम सामने आये हैं। अन्यथा जनमानस की आकांक्षा अभीष्ट परिवर्तन सम्भव न होता देख कर ऐसी तोड़-फोड़ अपनाती है, जिसमें उलटे और भी अधिक विनाश उत्पन्न करने वाली अराजकता के दुखदायी दृश्य उपस्थित होते हैं।
मौसम विशेषज्ञ अपने विशिष्ट उपकरणों से जान लेते हैं कि अब वर्षा, आँधी, तूफान जैसी क्या नई स्थिति आने वाली है। प्रभात काल होने से पहले कुक्कुट तथा दूसरे पक्षी जान जाते हैं और उसकी सूचना दूसरों को दे देते हैं। किसान लोग कई शकुन देखकर उस वर्ष फसल कैसी होगी, इसका अनुमान लगाते हैं। परिस्थितियों को देखकर सम्भावनाओं का अनुमान दूरदर्शी लोग सहज ही लगा लेते हैं। सूक्ष्म जगत में क्या हलचलें चल रही हैं, इसे जो देख-समझ सकते हैं, ऐसे अध्यात्मवेत्ता और भी कई तरह की महत्त्वपूर्ण भविष्यवाणियाँ करते हैं और वे प्राय: सही ही निकली हैं। इन दिनों विश्व की सबसे बड़ी समस्या, आधी जनता की पराधीनता निरस्त करने की आवश्यकता, नारी जागरण के रूप में अपना समाधान माँगने के लिए सीना तानकर सामने आ खड़ी हुई है। अब ऐसी स्थिति नहीं है कि फिर कभी के लिए उसे टाला जा सके।
इस सबका तात्पर्य यह है कि नारी जागरण की उपेक्षित समस्याओं को सर्वोपरि प्रधानता दिलाने के लिए लोकमानस को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता जितनी जल्दी समझ ली जाय, उतना ही कल्याण है। इसके लिए विचारशील वर्ग को आगे आना होगा और प्रचार अभियान की मोर्चाबन्दी कुशलतापूर्वक करनी होगी। लेखनी, वाणी, दृश्य, श्रव्य तथा रचनात्मक कार्यक्रमों के पाँच आधार लेकर किसी भी सन्दर्भ में लोकमत जगाया जाता है। उन्हीं साधनों को नारी समस्या के सम्बन्ध में लोकचेतना उत्पन्न करने के लिए प्रयुक्त करना पड़ेगा।
लेखनी का तात्पर्य इन दिनों प्रेस और प्रकाशन से है। इस सन्दर्भ में पहला स्थान पत्र-पत्रिकाओं का आता है। अपने देश में सभी भाषाओं में मिलाकर मासिक से दैनिक तक, प्रायः सात हजार अखबार निकलते हैं। इनके पाठक अनुमानतः दो करोड़ हो सकते हैं। एक ही महीने के अन्दर इतने बड़े शिक्षित जन समूह को नई चेतना देने के लिए इनका सहारा लिया जा सकता है। इन पत्रों के दृष्टिकोण से ताल-मेल बिठाते हुए यदि प्रौढ़ लेख लिखे जाएँ और प्रकाशनार्थ भेजें जाएँ, तो उन्हें कदाचित ही कोई अस्वीकार करेगा। देश में १४ भाषाएँ राजकीय मान्यता प्राप्त है। इन सभी में लेख लिखने और छापने का प्रबन्ध सुनियोजित ढंग से किया जाना चाहिए। देश की सभी भाषाओं को मिलाकर लगभग सात हजार विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। इन सात हजार पत्रों में अनेक दैनिक साप्ताहिक हैं और आधे मासिक। औसत हर महीने दो लेख छपने की बात सोची जा सकती है। इस प्रकार कुल १४००० लेखों की जरूरत पड़ा करेगी। कुशल लेखक अपने निजी कार्यों का निर्वाह करते हुए भी सप्ताह में एक-दो लेख इस विषय के लिख सकते हैं।
लेखनी के क्षेत्र में अगला कदम है, प्रचार साहित्य और स्थायी साहित्य का प्रचुर परिमाण में निर्माण। प्रचार साहित्य से मतलब है—पुस्तिकाएँ, पर्चे, ट्रैक्ट, पोस्टर, फोल्डर आदि स्वल्प मूल्य में बेचे जाने योग्य अथवा वितरण किए जाने योग्य अत्यन्त सस्ती पाठ्य सामग्री का निर्माण। बड़ी पुस्तकों से मतलब है नारी समस्या के विभिन्न पक्षों पर विवेचनात्मक प्रकाश डालने वाला, खोजपूर्ण, साहित्य। विज्ञ पाठकों द्वारा अपनाये जाने योग्य और पुस्तकालयों में रखे जाने योग्य स्तर का यह साहित्य होना चाहिए। प्रकाशित पुस्तकें उन में खपती रह सकती हैं। छोटे-बड़े बुकसेलरों और हाट बाजार मेले नुमायशों में फेरी लगाने वाले पुस्तक विक्रेताओं को इस प्रकार का साहित्य बेचने में विशेष रुचि लेने के लिए कहा जा सकता है। इस प्रकार का प्रकाशन सम्भवत: अधिक आर्थिक लाभ न दे सकेगा, क्योंकि यदि प्रचार का उद्देश्य ध्यान में रखना है, तो आज जिस स्तर का बढ़ा-चढ़ा मूल्य रखा जाता है वैसा न रखा जा सकेगा, और न उतना कमीशन विक्रेताओं को दिया जा सकेगा जितना आजकल मिलने लगा है। इसलिए व्यापक विस्तार को दृष्टि में रखना हो, तो अपना प्रकाशन तथा विक्रय तन्त्र स्वतन्त्र रूप से खड़ा करना होगा। इसके लिए सहकारी समितियाँ, प्राइवेट लिमिटेड पब्लिक लिमिटेड, ट्रस्ट आदि स्तर के ढाँचे बनाकर पूँजी जमा करने और उसे उपरोक्त व्यवसाय में लगाने के लिए कदम बढ़ाने का प्रयास करना होगा। कुछ विचारशील प्रकाशक एवं विक्रेता भी सहयोग दे सकते हैं। उनके थोड़े सहयोग से भी कुछ तो काम चल ही सकता है।
नारी की गरिमा गिराने वाले, कामुक कुत्सा भड़काने वाले चित्र, कैलेण्डरों की, पुस्तकों के मुख्य पृष्ठों की, पत्रिकाओं में छपने वाली तस्वीरों की, आज भरमार है। उसकी स्थान पूर्ति के लिए ऐसे चित्रों का प्रकाशन करना होगा जो जन साधारण में नारी के प्रति पवित्र श्रद्धा भावना का सृजन करता हो और स्वयं नारी को अपनी गरिमा का उद्बोधन कराता हो।
शृंगारिकता और कामुकता के ही गीत आज सर्वत्र सुनाई पड़ते हैं। उनके स्थान पर नारी गौरव का उद्बोधन करने वाले गीत रचे, छापे और गाये जा सकते हैं। गीत काव्य से भारतीय जनता अधिक प्रकाश प्राप्त कर सकती हैं। उनका सृजन प्रान्तीय और क्षेत्रीय भाषाओं में भी होना चाहिए। छोटे-छोटे सीमित संगीत पाठ्यक्रम वाली संगीत पाठशाला गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले स्थापित हों, जिनमें नारी जागरण से लेकर बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता पूरी करने वाले गीत की ध्वनियाँ सिखाने की, सरल वाद्य यंत्र बजाने की शिक्षा दी जाय। इस प्रयोजन में टेप रिकार्डर और ग्रामोफोन रिकार्डों का अच्छा खासा उपयोग हो सकता है। उनमें भरे हुए गीत लाउडस्पीकर से सार्वजनिक आयोजनों में काम आ सकते हैं। वैसे भी हर जगह प्रातःकाल एक घण्टे प्रसारण कार्य चलता रह सकता है।
गीत, वाद्य को अगला चरण कला नाट्य अभिनय आता है। यों बड़े नगर, कस्बों में अब उस क्षेत्र पर सिनेमा का अधिकार हो गया है पर अभी भी नाट्य कला पूरी तरह मरी नहीं है। जहाँ सिनेमा नहीं पहुँचा है वहाँ तो वह किसी न किसी रूप में अभी भी जीवित है। रामलीला, रासलीला, नौटंकी, ढोलामारू आदि अनेक रूपों में, अनेक क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग के अभिनय जारी हैं। लोकरंजन की इन प्रक्रियाओं के साथ लोक मंगल का लक्ष्य सहज ही मिलाया जा सकता है। सम्भव हो तो बड़े फिल्म बन सकते हैं और एक के बाद एक बनाने की उनकी शृंखला जारी रहे तो देश की बहुत बड़ी आबादी को नई चेतना मिल सकती है। फिल्म उद्योग आज का लाभकारी व्यवसाय है। उसमें लगे हुए लोग घटिया मनोरंजन के कुरुचिपूर्ण आधार लेकर, धन उपार्जन के लिए अपना ताना-बाना बुनते रहते हैं। यदि उस क्षेत्र में समुचित पूँजी लग सके और मूर्धन्य मस्तिष्क काम करने लग सकें, तो नारी पुनरुत्थान के लिए क्रान्तिकारी पृष्ठभूमि तैयार हो सकती हैं। बड़े पैमाने पर साहित्य निर्माण की बात जिस प्रकार सोची जा रही है, उसी पैमाने पर फिल्म निर्माण का ढाँचा भी खड़ा करना पड़ेगा। छोटे रूप में, कम खर्च में और तुरन्त कार्यान्वित हो सकने वाला एक तरीका फिलहाल में यह काम में लाया जा सकता है कि आठ मिलीमीटर और सोलह मिलीमीटर के एक-डेढ़ घण्टा चलने वाली फिल्में बनाएँ और उन्हें अपने प्रोजक्टरों पर अपने प्रचारकों द्वारा निर्धारित केन्द्रों पर, निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार दिखाया जाय।
नर-नारी, बाल-वृद्ध सभी को संगीत प्रिय होता है। वर्तमान कला प्रवाह कामुकता ओर, शृंगारिकता की ओर बह रहा है, उसे मोड़ कर अनीति के विरुद्ध संघर्ष की—उज्ज्वल भविष्य के अभिनव निर्माण की दिशा में अग्रसर किया जा सके, तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने प्रस्तुत होंगे। इसी प्रकार अभिनय के साथ रहने वाला आकर्षक घटना क्रम देखने वालों के चेतन मर्मस्थलों तक प्रवेश करता है और अपना प्रभाव छोड़ता है। नारी के साथ बरती जा रही अनीति का निराकरण करने और उज्ज्वल भविष्य का श्रीगणेश करने के लिए संगीत और अभिनय दोनों ही माध्यमों को सुगठित किया जा सकता है।
बड़े परिवर्तनों के लिए लोक मानस को जगाना ही चाहिए और उसके लिए प्रबल प्रचारतन्त्र खड़ा किया जाना आवश्यक है। साहित्य, संगीत, चित्र, अभिनय आदि की चर्चा इसी सन्दर्भ में की गई है। यह प्रथम चरण है। इससे लोक मानस जागेगा और लोक-शक्ति उत्पन्न होगी। इतना बन पड़ने पर रचनात्मक, सुधारात्मक और विकास के उन कार्यों को हाथ में लेना होगा, जो नारी के वर्तमान पिछड़ेपन को दूर करके उसे सुविकसित स्तर तक पहुँचाने में सहायता देने के लिए नितान्त आवश्यक हैं। वह दूसरा चरण होगा। आज तो हमारा ध्यान उस प्रचार तन्त्र को विनिर्मित करने पर ही केन्द्रित होना चाहिए। इसके बिना शिक्षा, स्वावलम्बन, स्वास्थ्य, कौशल आदि के अभिवर्धन का विशालकाय ढाँचा खड़ा नहीं किया जा सकता है।
नारी जागरण अपने युग की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या समझी जानी चाहिए। उसके साथ अपने समय की अनेकानेक समस्याओं के समाधान जुड़े हुए हैं। यह महत्त्वपूर्ण कार्य जीवन्त लोक शक्ति के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। हमें उसी के जागरण में, बिना एक क्षण गँवाये जुट ही जाना चाहिए।
मानवता की पुकार है कि न्याय नारी को भी मिलना चाहिए। उसने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके कारण उसके मानवोचित नागरिक अधिकारों का अपहरण कर लिया जाय। न्याय, विवेक और औचित्य की अदालत में विश्व नारी की अन्तरात्मा ने अर्जी दी है कि उसे भी मनुष्योचित स्तर के जीवन यापन की सुविधा मिलनी चाहिए। नागरिकता के मानवीय मौलिक स्वतन्त्रता के अधिकारों से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। उचित फैसला देने में अब अधिक समय तक टाल-टूल नहीं की जा सकेगी। इसलिए जो हेर-फेर किया जाना है, उसमें विलम्ब करके परिवर्तन के सौन्दर्य को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।