परिवार को स्वस्थ परम्पराओं का प्रशिक्षण केन्द्र बनाया जाय
परिवार एक प्रयोगशाला है । उसमें सम्मिलित सदस्य अपने गुण, कर्म स्वभाव को परिष्कृत करने का प्रयोग एवं प्रयत्न करते हैं । एकाकी मनुष्य अधिक स्वार्थी और अधिक उच्छृंखल हो सकता है पर जिन्हें मिल-जुलकर साथ रहना और एक-दूसरे की सुख-सुविधा का—कठिनाई एवं आवश्यकता का ध्यान रखना है—उन्हें स्वभावत: अपने ऊपर अंकुश रखना होगा, संयमशीलता का, आत्मानुशासन का पाठ पढ़ना पड़ेगा ।
परिवार प्रयोगशाला में ऐसा वातावरण बनना चाहिए जिससे उस संस्था के प्रत्येक सदस्य को जीवन विकास के उपयुक्त भौतिक और आत्मिक आधार प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकें । इस दिशा में नारी बहुत कुछ कर सकती है । पिछले दिनों वह पद-दलित स्थिति में यदि असमर्थ रही है तो अब महिला जागरण अभियान के कारण मिली उपलब्धियों का लाभ उठा कर इस दिशा में उत्साह भरे कदम उठाने चाहिए । परिवार को सद्गुणों का प्रशिक्षण करने वाली संस्था के रूप में विकसित करना चाहिए । यों यह प्रयास नर और नारी संयुक्त रूप से करने पर ही सफल हो सकते हैं तो भी इस क्षेत्र में नारी अपनी भूमिका नर की अपेक्षा कम नहीं वरन् अधिक ही निबाहने की स्थिति में होती हैं । वह अपने को बदलें और परिवार की स्थिति को बदलने का प्रयत्न करें तो नरक की आग में झुलसते रहने वाले परिवार स्वर्ग जैसे सुख-शान्ति का रसास्वादन कर सकते हैं ।
इस प्रयास में सबसे पहले परिवार तथा उसके सदस्यों को व्यवस्थित बनाया जाय । अनेकानेक सद्गुणों में व्यवस्था का अपना स्थान है । इसे जागरुकता, सतर्कता, कुशलता एवं सुरुचि सम्पन्नता की चार सत्प्रवृत्तियों का समन्वय कहा जा सकता है । हमारा प्रयत्न यह होना चाहिए कि अपने घर परिवार के प्रत्येक कार्य में व्यवस्था बुद्धि का समुचित समावेश दृष्टिगोचर होता रहे । हर वस्तु यथा स्थान रखी हों । हर काम समय पर और सही रीति से सम्पन्न हों ।
स्वच्छता और गन्दगी का अन्तर व्यवस्था पर अवलम्बित है । आलसी लोग वस्तुओं का उपयोग तो करते हैं पर पीछे उन्हें साफ करके यथा स्थान रखने में उपेक्षा बरतते हैं । वे जहाँ-तहाँ—जैसी-तैसी स्थिति में पड़ी रहती हैं । इस बिखराव को कूड़ा-करकट या गन्दगी की संज्ञा दी जा सकती है । अव्यवस्थित रीति से पड़ी हुई बहुमूल्य वस्तुएँ भी कूड़ा हैं और घर में गन्दगी फैलाती हैं । इसके विपरीत यदि सुरुचि संपन्न व्यक्ति का हाथ लग जाय तो कूड़े में पड़ी वस्तुओं से घर को सुसज्जित बनाया जा सकता है ।
हमारे घर परिवार में स्वच्छता, सुव्यवस्था और सुसज्जा की सुरुचिपूर्ण—सौन्दर्य समर्थक परम्परा रहनी चाहिए । इस दिशा में यदि अब तक उपेक्षा बरती जाती रही है तो अब उसे तत्काल सतर्कता में परिणत कर देना चाहिए । जागरण का यह प्रमाण तो तत्काल परिलक्षित होना चाहिए कि जागरुकता ने सबसे पहला प्रहार अव्यवस्था और अस्वच्छता पर किया और उसके स्थान पर व्यवस्था एवं स्वच्छता को प्रतिष्ठापित कर दिखाया । परिवार के संचालक लोग जब इस कार्य को स्वयं अपने हाथ में लेंगे और अन्य लोगों को उस कार्य में सम्मिलित रखेंगे तो ही सद्गुण सब के स्वभाव में समाविष्ट हो सकेगा ।
पुरुष का काम है कि परिवार में सुसंस्कृत वातावरण बनाने और श्रेष्ठ परम्पराएँ स्थापित करने में पूरा-पूरा योगदान दें और अपने प्रभाव से पिछली अस्त-व्यस्तताओं का निराकरण करें । नारी का कर्तव्य है कि परिवर्तित प्रचलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए पूरी सतर्कता बरतें और सुधार क्रम में शिथिलता न आने दें ।
अस्त-व्यस्तता, आदतों के अभ्यास को बदलने में धैर्य और अध्यवसाय की जरूरत होती है । उतावली, उत्तेजना, भर्त्सना और प्रताड़ना जैसे भोड़े उपायों से सुधार कार्य में उलटे और अवरोध खड़ा हो जाता है । जिन्हें सुधारा जाता है वे कटु विरोध से रुष्ट होकर दुराग्रह अपनाने लगते हैं । इसलिए अच्छा यही है कि धीरे-धीरे ध्यानपूर्वक, किन्तु बराबर टोकते रहने पर, यह न करके यह करना चाहिए, जैसे परामर्श देकर देर-सवेर में न्यूनाधिक मात्रा में सभी को सुधारा जा सकता है । परिवर्तन क्रम सफल होने में देर लगे तो भी धैर्य पूर्वक उसे जारी ही रखा जाना चाहिए ।
यह भूल नहीं जाना चाहिए कि प्रगति का घोंसला छोटी-छोटी आदतों के तिनकों से ही बुना जाता है । व्यवस्था बुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास यदि घर की परम्पराओं में सम्मिलित करके नहीं रखा गया है तो वह असावधानी आगे चल कर महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व निबाहते समय भी आड़े आवेगी और उपेक्षा वृत्ति के कारण रहनेवाली छोटी-छोटी असावधानियाँ इकट्ठी हो होकर व्यक्ति को फूहड़, निकम्मा, गन्दा और असफल बनाती चली जाँयगी । अस्तु नौकरों के रहते हुए भी—स्त्रियों के सब कुछ कर लेने में समर्थ होते हुए भी इस व्यवस्था एवं स्वच्छता प्रयोजन में घर के प्रत्येक सदस्य को योगदान देना चाहिए ।
सामूहिक रूप से करने से स्वच्छता व्यवस्था एक रचनात्मक मनोरंजन बन जाती है । दीवारों की पुताई, किवाड़ों तथा फर्नीचरों पर रंग-रोगन अपने हाथों मिलजुल कर थोड़े से समय में और थोड़े से खर्चे में आसानी से किया जा सकता है । फलतः घर सदा-सर्वदा, नित नवीन दीखता रह सकता है । टूटी-फूटी वस्तुओं की मरम्मत करना एक कला है—एक गृह उद्योग है । इससे टूटी-फूटी बेकार प्रतीत होने वाली वस्तुएँ फिर नई हो जाती हैं, पैसा बचता है और हर वस्तु का पूरा और सही उपयोग करने की आदत बनती है । बर्तन, कपड़े, जूते, फर्नीचर, फर्श, पुस्तकों आदि की जिल्द आदि वस्तुओं की मरम्मत करना सीखने की इच्छा हो तो कहीं से भी सीखा जा सकता है । उतना कोई भी जानकार सिखा सकता है । साप्ताहिक छुट्टी के दिन यदि टूट-फूट मरम्मत करना एक अच्छा मनोरंजन तथा शिल्प कौशल मान लिया जाय और उसमें भाग लेने के लिए घर के सब लोगों को आमन्त्रित कर लिया जाय तो वे सब सीख भी सकते हैं और एक नया दृष्टिकोण, नया स्वभाव विकसित कर सकते हैं । कहावत है कि जिसे टूटे को बनाना और रूठे को मनाना आता है उसे बहुत कुछ आता है ।
बच्चों के पास काम कुछ नहीं रहता । स्वस्थ खेल खेलने की परिस्थितियाँ भी उनके सामने नहीं होतीं, ऐसी दशा में वे तोड़-फोड़ या लड़-झगड़ करने लगते हैं ! उनकी दृष्टि में यह भी एक काम होता है । क्रियाशीलता कुछ करना-कराना चाहती है । बच्चों को और कुछ नहीं सूझता तो शैतानी करने लगते हैं । इससे उन्हें झिड़कने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त है कि किसी उपयोगी काम में लगाये रखा जाय । उससे वे अपनी क्रियाशीलता को रचनात्मक दिशा में मोड़कर भावी-जीवन के लिए उपयोगी स्वभाव विनिर्मित कर सकते हैं । माताएँ उन्हें खेल का अनुभव कराते हुए घरेलू कामों में कुछ सहायता करते रहने में लगाये रह सकती हैं । इसमें कई लाभ हैं । श्रमशीलता, सहयोग की भावना, रचनात्मक क्रियाकलाप, परिवार निर्माण में योगदान का अभ्यास इस छोटे प्रयास से भी होता रह सकता है । शैतानी से उत्पन्न सिरदर्द से तो सहज ही बचत हो जायगी ।
समय का विभाजन, निर्धारण और उसका मुस्तैदी के साथ पालन यह ऐसा सद्गुण है जो महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है । घर के हर सदस्य को इस दिशा में उपेक्षा न बरतने के लिए कहा समझाया जाना चाहिए । हर किसी की दिनचर्या नियत निर्धारित होनी चाहिए और जब तक कि और असाधारण अड़चन ही न आ जाय तब तक उसका पूरी मुस्तैदी के साथ पालन करने की आदत डालनी चाहिए । रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत इतनी ठीक है कि उसकी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही अच्छी है । अक्सर लोग रात को दस बारह बजे तक गपशप करते रहते और सबेरे बहुत देर से धूप चढ़े उठते हैं । ऐसे लोग उस बहमूल्य अवसर को गँवा देते हैं जो प्रातः जल्दी उठ कर काम करने पर दूनी, चौगुनी सफलता के रूप में मिलता है । घर के प्रमुख सदस्य यदि अपने नियम इस प्रकार के बना लें तो एक ऐसा वातावरण बनने लगे जिसके प्रभाव से सारे सदस्य उसी क्रम में सहज ही ढल जावें ।
प्रारम्भ में यह बातें छोटी-छोटी लगती हैं किन्तु सद्गुणों के यह बीज विकसित होने पर जब अपना चमत्कार दिखाने लगते हैं तब पता पड़ता है कि इन उपेक्षित समझे जाने वाले नियमों का कितना महत्त्व है ।
पुरुषों को चाहिए कि घर से बाहर जाने और वापिस आने के समय में नियमितता बरतें, अनावश्यक प्रतीक्षा के कारण खीज उत्पन्न न होने दें । देर से आना हो या आकस्मिक अनिश्चित स्थिति आ जाय तो इसकी सूचना यथा संभव घर भिजवा दें । पुरुषों की अस्त-व्यस्तता में स्त्रियों का समय निर्धारण क्रम भी बिगड़ जाता है और उनके खाने, साेने, पढ़ने आदि में व्यतिक्रम पड़ने से जो गड़बड़ी पड़ती है उससे विक्षोभ उत्पन्न होना स्वाभाविक है । पूरे परिवार को समय की दृष्टि से नियमित होने की आदत डाली जा सके तो यह एक बहुत बड़ी बात है । इसके लिए नर और नारी के बीच पूरा-पूरा सहयोग होना चाहिए ।
प्रातः से लेकर रात को सोने तक हर किसी का समय पूरी तरह व्यस्त न होना चाहिए । उठते ही मल-मूत्र त्याग करने में किसी को भी आलस्य नहीं करने देना चाहिए । हाजत न होने पर भी आदत डालने की दृष्टि से भी नित्य नियत समय पर जाते रहना चाहिए । इससे देर-सबेर में वैसी ही आदत बन जायगी । जब हाजत होगी तब जायेंगे की मान्यता वाले निश्चित रूप से अपनी मल विसर्जन प्रक्रिया को गड़बड़ा देते हैं और पीछे जन्म भर दुःख पाते हैं । शौच, स्नान, मंजन, कपड़े धोना आदि हर कार्य में नियमितता बरती जानी चाहिए और निर्धारित दिनचर्या के अनुसार बिना एक क्षण भी व्यर्थ गँवाये बिना अपने-अपने कामों में हर किसी को जुटा रहना चाहिए । जिसके पास काम न हो उसे अध्ययन का काम देना चाहिए । खाली दिमाग में शैतान की दुकान खुली रहती है और खाली समय काटना जीवन लाभ लेने से वंचित कर देने वाली कुल्हाड़ी अपने पैरों आप मारने की बराबर है ।
कुसंग में, आवारागर्दी में, मटरगस्ती में, गपशप में समय की बर्बादी अनेकानेक दोष-दुर्गुण पैदा करती है । समय को व्यस्त रखना और उपयोगी कर्मों में जुटे रहना—प्रगति का पथ प्रशस्त करना है, उच्चकोटि का उत्पादक मनोरंजन भी है । जब अपने निर्धारित कर्मों में रस आने लगता है तो फिर अन्य मनोरंजन साधन ढूँढ़ने की आवश्यकता कभी-कभी ही पड़ती है । बच्चे से लेकर बूढ़े तक हर किसी को उपयोगी कार्यों में अपनी-अपनी स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार व्यस्त रहने की आदत डालनी चाहिए । इससे श्रम का सत्परिणाम तो प्रत्यक्ष ही सामने आता है सबसे बड़ा लाभ यह है कि समय का मूल्य समझने और उसका सदुपयोग करने में सतर्क रहने की उस सत्प्रवृत्ति का विकास होता है जो समयानुसार कल्पवृक्ष का काम करती हैं और प्रगति की दिशा में एक से एक बड़े उपहार लाकर प्रस्तुत करती है ।
सादगी अपनाने की सज्जनोचित शालीनता घर के हर सदस्य के स्वभाव का अङ्ग बने । सुन्दरता और सुसज्जा की अभिरुचि को तो प्रोत्साहन देना चाहिए पर इसके लिए भोड़े, फूहड़, ओछे, बचकाने तरीके नहीं अपनाने चाहिए । हिप्पियों जैसा, सिनेमा के नट नर्तकों जैसा, वेश विन्यास बनाना, तड़क-भड़क की रंगबिरंगी आकर्षक पोशाकें पहनकर तथा शृंगार सामग्री से सज-धज कर अपनी बाल-वृत्ति दिखाना नितान्त बेहूदगी दिखाने का चिन्ह है ।
बच्चों को स्वच्छ तो रखा जाय पर "फैशनेविल" न बनाया जाय । बहुमूल्य वस्त्र, आभूषणों से सजाना पैसे का अपव्यय तो है ही उनकी आदतों को भी बिगाड़ना भी है । सज-धज उनके स्वभाव में सम्मिलित हो जाती है । बड़प्पन का अहङ्कार उनके सिर पर भूत की तरह चढ़ता है । साथियों से अधिक सम्पन्नता प्रकट करना अकारण ही ईर्ष्या, द्वेष का कारण बनता है और एक दूसरे का अनुकरण करके उस उद्धत परम्परा को अपनाते हैं । अस्तु फैशनपरस्ती की बीमारी उन्हें नहीं ही लगनी चाहिए । उन्हें समझदार और जिम्मेदार लोगों की तरह सादगी और सज्जनता का गौरव समझने देना चाहिए, इससे वे सादगी में हीनता न देखेंगे—अपनी प्रामाणिकता पर स्वयं संतुष्ट होंगे और दूसरों की दृष्टि में वजनदार सिद्ध होंगे ।
कहना न होगा कि मितव्ययिता को प्रामाणिकता का सर्व-स्वीकार चिन्ह माना गया है । अपव्ययी लोग सदा पैसे की तंगी भुगतते हैं, कर्जदार रहते हैं और समझदार लोगों की दृष्टि में अविश्वसनीय ठहरते हैं । उनकी ईमानदारी सदा संदिग्ध रहती है । फिजूलखर्ची की पूर्ति अन्ततः बेईमानी से ही करनी पड़ती है । इसलिए व्यवहार बुद्धि के लिए फिजूलखर्च लोगों को अपने यहाँ नौकर नहीं रखते न उनके साथ मित्रता अथवा किसी किस्म की रिश्तेदारी जोड़ते हैं । फिजूल खर्च लड़कों के साथ ब्याही हुई लड़कियों को आजीवन दुःख भुगतना पड़ता है । आर्थिक तंगी, आवारागर्दी और दुर्व्यसनों की पतनोन्मुख प्रवृत्ति की मार से अपव्ययी लोग सदा पिटते हैं और अपने आश्रितों को भी अपार कष्ट देते हैं । अस्तु आरम्भ से ही यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि घर का कोई सदस्य अनेक दुर्गुणों की खदान फिजूलखर्ची का शिकार न होने पावे ।
गृह प्रबन्ध में परिवार के हर सदस्य को कुछ न कुछ जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए । समय-समय पर उन्हें इकट्ठा करके घर की स्थिति, आवश्यकता, कठिनाई एवं भविष्य की रूप रेखा से परिचित कराते रहना चाहिए तथा उनसे परामर्श लेते रहना चाहिए । यह रीति-नीति जिन घरों में अपनाई जाती है उनके सदस्य यह समझते रहते हैं कि पारिवारिक प्रगति एवं वर्तमान स्थिति में वे उसे किस हद तक निभा सकते हैं । घर मालिक खुद ही मरते-खपते रहें, कुड़कुड़ाते, चिड़चिड़ाते रहें, इसकी अपेक्षा यह उत्तम है कि सभी सदस्य मन्त्रिमण्डल जैसे मिले-जुले उत्तरदायित्व को समझने और तदनुरूप अपनी गतिविधियाँ सही करने का विचार कर सकें । अच्छी आदतें सीखने का अवसर जहाँ मिल सके वस्तुतः वही सफल परिवार कहा जा सकता है । महिला जागरण अभियान के सदस्यों को अपना परिवार ऐसी आदर्शवादी परम्पराओं से युक्त करने का प्रयास करना चाहिए ।