अनुदान और वरदान
(पूर्वार्द्ध)
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की मौलिकता है कि वे न केवल एक सामान्य, साधारण व्यक्ति के हृदय को स्पर्श कर पाने की स्थिति में होते हैं, वरन वे प्रबुद्ध वर्ग के भीतर भी कुछ करने का उत्साह जगा पाने की स्थिति में होते हैं। अपने एक ऐसे ही प्रस्तुत उद्बोधन में परमवन्दनीया माताजी नवदिवसीय अनुष्ठान की पूर्णाहुति के अवसर पर सभी गायत्री साधकों एवं परिजनों को यह आश्वासन देती हैं कि हर घड़ी एवं हर पल वे उनके साथ हैं। इसके साथ ही वे हर साधक को यह स्मरण दिलाती हैं कि गायत्री साधना का मूल आधार एवं गायत्री साधना करने से जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का यदि अध्ययन करना हो तो पूज्य गुरुदेव के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता है। उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर आगे बढ़ने वाला ही साधना के परिणामों को हस्तगत कर पाता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
अनुदान और वरदान
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
हमारे आत्मीय परिजनो! आज आपके अनुष्ठान की पूर्णाहुति है। आज आप विदा हो जाएँगे। इन नौ दिनों में आप अपने को कितना खाली कर पाए? मालूम नहीं। आपने अपने लिए कितना आत्मचिन्तन किया, पता नहीं। इन दिनों में क्या आपने अपने बारे में कभी सोचा कि मनुष्य का जीवन कैसे सार्थक किया जा सकता है, क्या आपने विचार किया? पता नहीं, आपने किया कि नहीं किया।
आप जो पाने के लिए आए थे, मालूम नहीं, आप क्या पाने के लिए आए थे? लेकिन इन दिनों आपके लिए जितना श्रम किया गया, आपके सोते में, जागते में हर समय हम आपके साथ-साथ रहे। मालूम नहीं, आप सोते रहे अथवा आप जाग्रत रहे? जाग्रत रहे होंगे, तो आपने अनुभव किया होगा; लेकिन यदि आप सोते ही रहे होंगे, तो मालूम नहीं कितना अनुदान और वरदान आप साथ ले जा पाएँगे, लेकिन देने वाले की कोई कमी नहीं रही। उसने आप को भरपूर दिया। बेटे! कुछ नहीं रहा, सब खाली हो गया। कुछ भी अपने पास नहीं रखा, सब आपके दामन में डाल दिया।
हर समय आपके साथ हैं हम
अब पता नहीं है कि दामन में भरे हुए को आप छलका गए कि साथ में ले जा रहे हैं, कुछ मालूम नहीं, कुछ कह नहीं सकते। हर समय हम आपके साथ रहे। हर समय हम आपके दाएँ और बाएँ और आगे और पीछे बराबर बने रहे। बेटे! गुरुजी बने रहे, हम बने रहे। गायत्री माता बनी रहीं। हम लोग हर समय आपको अपनी छाती से, अपने कलेजे से लगाए रहे। जैसे एक मुरगी अपने अण्डे को सेती है। इस तरीके से आपको आध्यात्मिक दृष्टि से हम छाती से लगाए रहे आपको सेते रहे। हर बच्चे के हर अपने परिजन के मन में हमने झाँक-झाँककर देखा और हर परिजन को हिम्मत और दिलासा दिलाते रहे।
कबूतर-कबूतरी की कथा
बेटे! आप इस दरवाजे पर आए हैं, तो आप खाली जाएँगे? नहीं, आप खाली नहीं जा सकते। कोई भी खाली नहीं गया, तो आप खाली कैसे जाएँगे। हमें वह कहावत याद है, कौन-सी? एक कहानी है—एक कबूतर और कबूतरी का जोड़ा पेड़ की डाल पर बैठा ऊपर से देख रहा था और एक याचक बहेलिया आया। वह कई दिनों से भूखा था। भूखा ही सो गया। कबूतर और कबूतरी विचार करने लगे।
उन्होंने विचार किया कि आज हमारे द्वार पर अतिथि आया हुआ है, क्या यह भूखा ही चला जाएगा? उन्होंने कहा नहीं? भूखा नहीं जाना चाहिए; क्योंकि ये हमारे अतिथि हैं, हमारे दरवाजे पर आए हैं, हमारा कुटुम्ब, हमारा ये सब कुछ हैं। तो कबूतर बोला—एक काम क्यों न किया जाए? कबूतरी ने कहा—क्या? कबूतर ने कहा कि अपने जीवन की सार्थकता इसी में है कि हमारे खून का एक-एक जर्रा इसके काम आ जाए।
कबूतरी ने कहा—बहुत अच्छी बात है, ऐसा ही करना चाहिए, तो कबूतर गया और कहीं से घास-फूस इकट्ठा कर लाया तथा उसे कुछ दूरी पर उसने वहाँ डाल दिया, जहाँ कि बहेलिया भूखा बैठा था। कबूतरी गई, कहीं से तीली लेकर के आई एवं उसमें चिनगारी लगा दी और दोनों कबूतर-कबूतरी उसमें स्वाहा हो गए। जब बहेलिया उठा, तो उसने देखा कि पका-पकाया भोजन मिल गया है। भगवान के लिए बार-बार धन्यवाद देता हुआ, उसने वो भोजन ग्रहण किया और उसकी क्षुधा की तृप्ति हुई।
बेटे! हम कबूतर-कबूतरी तो नहीं हैं और हम शरीर की आहुति भी नहीं दे रहे हैं, यह भी सही है; लेकिन हमने हर क्षण आपके लिए अपने मन की आहुति दे डाली।
आपके अन्दर आपकी क्षुधा की पूर्ति हुई कि नहीं हुई, हमको नहीं मालूम, लेकिन हमारा प्रयास जरूर है कि आपकी क्षुधा को हम जरूर तृप्त करें।
आत्मबल का वरदान
बेटे! आपकी वह तृप्ति हम कर सकेंगे कि नहीं कर सकेंगे, जो कि आप माँगने आए हैं। बेटा! दे दीजिए, तीन बेटी हैं, चौथा बेटा भी चाहिए। बेटा! इसमें तो हमारा जरा भी-कतई विश्वास नहीं है कि आपको बेटा हो जाएगा, तो आपके ऊपर सोने की छत्रछाया कर न मालूम जाने क्या करेगा? आप तो जैसे संकीर्ण हैं। मुबारक रहे, आपके लिए संकीर्णता, लेकिन हमने आपको इतना आत्मबल दिया है, भरपूर आत्मबल दिया है और हमने कहा है कि हम आपकी जिम्मेदारी लेते हैं, हम आपको ऊँचा उठाएँगे।
हर परिस्थितियों से टकराने के लिए हम आपको लोहा बना देंगे, फौलाद बना देंगे; ताकि आपको देख करके दुनिया नसीहत पाए कि हमने आपको इन नौ दिनों में भरपूर दिया है। बेटे! गुरुजी ने जो भी बीड़ा उठाया, हमेशा उसको पूरा किया है। आपका संकल्प है, मालूम नहीं, जाने संकल्प में भी आपके तो विकल्प पैदा हो जाते हैं। हमेशा जाने संकल्प कहाँ चला जाता है? लेकिन उन्होंने जिस दिन से बीड़ा उठाया है, शपथ ली है और जिस दिन से उन्होंने अपने गुरु को वरण किया है। गुरु के हर आदेश का वे पालन करते हैं और हर समय गायत्री माता की गोद में विचरण करते रहते हैं। हर समय उनकी छत्रछाया मिलती रहती है।
मालूम नहीं है कि आपने गायत्री माता की उपासना इस दृष्टि से की है, और कैसे की है? यदि आपके मन में वह श्रद्धा, विश्वास और आस्था होगी, तो बिलकुल आप भी वही छत्रछाया पा सकते हैं, जो हमने पाई है और नहीं, तो बेटे खाली हाथ जाएँगे।
भूल जाएँ कठिनाइयाँ
मैंने एक बात आपसे निवेदन की थी, वह यह की थी कि आप अपने अन्त:करण को खाली रखना और इन नौ दिनों में आप इस संसारी, मायावी दुनिया को भूल जाना कि आपका कोई गृहस्थ जीवन भी था, आपके कोई बाल-बच्चे भी थे, आपका कोई मुकदमा भी था। इनकम टैक्स-सेल्सटैक्स जो भी हो, आपके व्यक्तिगत जीवन में कोई कठिनाइयाँ भी हैं क्या?
आप भूल जाइए उन सब कठिनाइयों को और आप हमारी झोली में भर जाइए। आप उन कठिनाइयों को हमको दे जाइए। आपके हिस्से की उन कठिनाइयों से हम जूझेंगे। हम उनका पूरा निराकरण कर देंगे, यह तो हम कोई वायदा नहीं करते, लेकिन बेटे! हम सरल जरूर कर देंगे। आपको ऐसा मालूम पड़ेगा कि कठिनाइयाँ जाने किधर जादू के तरीके से चली गईं। आपको उससे मुकाबले के लिए हिम्मत और साहस देंगे। जो गलती की है, वो तो आप कर बैठे; लेकिन अब गलती नहीं की जाए, वह तो आप सोचिए।
आप वह संकल्प कीजिए कि हमको आगे गलती नहीं दोहरानी है। जो पाप आपने किया है, वो तो कर चुके हैं, उसको मन खोलकर आप हमको बता दीजिए ताकि हम उसका निराकरण आपको बताएँ भी। हम करेंगे भी और आप से करवाएँगे भी। बेटे! जो गड्ढा खोदा है, उस गड्ढे को पाट | जब तक उस गड्ढे को नहीं पाटेगा, तब तक पापों का प्रायश्चित नहीं होता है। पापों का प्रायश्चित करना है, तो उस गड्ढे को पाटना है, जहाँ कि गड्ढा किया गया है।
उसके साथ क्या करेंगे? उसका एक ही विकल्प है कि जहाँ हमने गड्ढा किया है, उसका दूना हम पाटेंगे। पाटेंगे, तो उसका लाभ हमें यह होगा कि हम पाप से बच गए, नहीं तो हम गंगा जी में नहा भी आए, गंगा मैया की जय भी करते आए और गंगाजल पीते भी आए और दूसरे दिन फिर पाप करने लगे। अरे! आपने तो गंगा माता के ऊपर वजन चढ़ा दिया। गंगा माँ की उदारता देखी है, उसकी शीतलता देखी है, उसकी पवित्रता देखी है उसने तो आपके पापों को धोया है और आप पाप चढ़ा भी आए और पुनः कर भी रहे हैं, तो पाप हटे कहाँ हैं? हटे नहीं बेटे! हटाना है, तो उसके लिए शपथ लेनी है।
गुरुदेव से प्रेरणा लें
जैसा कि मैंने अभी आपसे निवेदन किया था और गुरुजी के बारे में यह कहा था कि जिस दिन से उन्होंने गायत्री माता का पल्ला पकड़ा, उस दिन से कोई भी उनकी निष्ठा को डिगा नहीं सका। उनकी आस्था को डिगा नहीं सका। जिस पथ पर वे चले, तो बड़े हिम्मत से चले ही। सारी दुनिया एक तरफ और वे एक तरफ | अन्तरात्मा की उठी हुई आवाज से जिस दिन हम यह सोचते हैं और यह समझते हैं, संकल्प लेते हैं कि हमें अच्छाइयों की ओर चलना चाहिए, तो फिर कोई हमको रोकने वाला नहीं होता फिर दुनिया में कोई ऐसा पैदा नहीं हुआ है, जो हमको रोक सकता हो।
हमारे ऊपर अनुदानों और वरदानों की वर्षा होती रहती है, पर हम ऐसे दुर्भाग्यशाली हैं, जो सागर में रहते हैं पर "सागर में मीन प्यासी रे, मुझे सुन सुन आवे हाँसी रे।" अरे सागर में रह करके भी—समुद्र में रह करके भी मछली प्यासी है तो उस मछली को क्या कहेंगे? दुर्भाग्यशाली कहेंगे, जो ज्ञान के अथाह सागर के समीप ही बैठा रहा और जरा भी उसने ज्ञान का पान नहीं किया, तो उसके लिए क्या कहेंगे?
बेटे! उसको यही कहेंगे कि यह दुर्भाग्यशाली है। बेचारा है। बेचारा कहेंगे कि दुर्भाग्यशाली कहेंगे या संकीर्ण कहेंगे। ये कहेंगे कि आया भी और न संकीर्णता देकर गया, न अच्छाई लेकर गया। जैसा गलीज था, वैसा ही गलीज चला गया। बेटे! हमको भी बहुत दुःख होगा, हमको परेशानी होगी, हमको हैरानी होगी, हमको कष्ट भी होगा और यह होगा कि हमारे दरवाजे पर आकर के हमने इतना कुछ किया, इतना ही उसको दिया। फिर भी यह ये भी नहीं कर सका कि अपनी संकीर्णता को भी छोड़ जाए।
इसके अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। हम समझ लेंगे की यह राक्षसी योनि का है, भले से मानव हो तो क्या? उसके अन्दर जो भी हो तो क्या? लेकिन है वह राक्षस योनि में ही। यहाँ आ गया, पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। एक तो अपनी सारी जिन्दगी को गला रहा है और एक तरफ उसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ रहा है, जिसको कि हम यह कहते हैं कि ये हमारे हैं।
बेटे! हम आपको यह कहते हैं कि ये हमारे बच्चे हैं, ये हमारे अनुयायी हैं, ये हमारे शिष्य हैं, तो क्या कहना है कि अधिकारी हैं? इतना ही अधिकार आपका बनता है कि जो कुछ भी गुरुजी-माताजी का है और जो कुछ भी गायत्री माता का है, वह सब समेटकर लिए चलें और हमें विश्व शान्ति के लिए, विश्व के लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहिए? उठाना चाहिए। बेटे! हमको आपका कुछ नहीं चाहिए, आपका प्यार चाहिए।
बेटे! हमारे पास कुछ नहीं है, लेकिन एक दौलत है और वह है—हमारे प्यार की और हमारे स्नेह की, हमारे दुलार की, जो हर क्षण हमको गलाती रहती है। आपको मालूम नहीं है कि हर क्षण हम आग की तरह से कैसे धधकते रहते हैं और कहते हैं कि कोई है क्या? जो हमारे आग की चिनगारी को ले जाए? हम इनके लिए क्या मददगार हो सकते हैं? इनको हम कैसे शान्ति पहुँचा सकते हैं, कैसे इनको सन्तोष पहुँचा सकते हैं? किस तरीके से हम इनके काम में आएँ?
संस्कृति की पुकार सुनें
बेटे! हर समय हमारा यही चिन्तन बना रहता है। आपका भी होना चाहिए कि आज एक राम पुकार रहा है और यह कह रहा है कि भटकी हुई हमारी भारतीय संस्कृति की सीता को पुनः लाने के लिए हमें वानर सेना की जरूरत है, जिसमें आप बैठे हैं।
कौन जाने आप में से कौन-सा हनुमान हो सकता है, कौन जाने आप में से नल और नील हो सकता है और कौन जाने आप इन बच्चियों में से हमारी गिलहरी हो सकती हैं? लेकिन हम ऐसे संकीर्ण, खुदगर्ज हैं, जो हम घर से बाहर नहीं निकलने देते।
घर से बाहर निकली और बस, इसकी चार आँखें ही जानें कि इसने क्या किया है? जैसे हम खुद हैं, वैसे ही हमने नारी को भी बना रखा है, जो कि त्याग की मूर्ति थी, समर्पण की मूर्ति थी; लेकिन उसके समर्पण को याद न करके न मालूम कहाँ भटक गई और जाने किसने बहका दिया। जाने किसने बरगला दिया कि इसमें यह कमी है। अमुक कमी है। इसका जिम्मेदार कौन है? आप इसके जिम्मेदार हैं। आप जिम्मेदार हैं कि आपने वो पोषण क्यों नहीं दिया। आपने वो प्यार क्यों नहीं दिया?
प्यार में मिलावट
आपने तो उस प्यार को भी बन्द करके रख लिया। मैं तो यह भी कहती हूँ कि हर चीज में मिलावट है। आज की दुनिया में प्यार में भी मिलावट है। दूध में पानी, खाद्य पदार्थों में मिलावट और प्यार में मिलावट | प्यार रह गया, तो एक धुरी पर रह गया, जो ऐसा घिनौना है कि भगवान बचाए ऐसे प्यार से। ऐसे प्यार से तो बिना प्यार के ही भलाई है। वहीं एक जगह पर प्यार रह गया बस, और दुनिया में प्यार नाम की कोई चीज नहीं है। यदि आपके अन्दर प्यार होता, तो आपने अपनी पत्नी को ऐसे ही बना दिया होता, जैसे गुरुजी ने मुझे बना दिया है। बेटे! हाँ, मुझे बनाया गया है, इसमें कोई शक नहीं है, बनाया है, तो मेरे दो कदम आगे उठते हैं और न बनाया होता तो? तो मैं भी साधारण जैसी रही होती।
बेटा! मेरा भी समर्पण है कि मेरे खून की एक-एक बूँद इस मिशन के लिए, उनके लिए समर्पित है। हर समय हम कन्धे से कन्धा मिलाकर, पग-से-पग मिलाकर के ही चले। आपने कभी विचार किया है कि अपनी पत्नी को बनाना है, नहीं, आपने कभी नहीं किया। आपने हजार खामियाँ उसके लिए निकालीं। हमने यह भी कहा कि बेटे! घर में से इन महिलाओं को निकलने दो।
इक्कीसवीं शताब्दी नारीप्रधान होगी। इन नारियों को कुछ काम करने दीजिए, पर आपने तो डिब्बे में बन्द करके रखा है। चौका-चूल्हे से आगे नहीं निकल सकतीं। दे बच्चे-दे बच्चे, बच्चों की फौज तो बढ़ा दी है।
उसके ऊपर मानसिक दबाव और शारीरिक दबाव, गृहस्थी का वजन, आपका खुद का वजन, आप तो जैसे साहबजादे हैं, तो आप बुरा मत मानना, बुरा मानेंगे, तो मान जाना।
नारियों को आगे बढ़ाएँ
अब आप जा ही रहे हैं, तो अपना दिल खोलकर बात ही क्यों न कह लूँ? कहनी चाहिए। मैं एक माँ हूँ, आप बच्चे हैं, तो मुझे कहनी चाहिए। आप तो उनमें से हैं, जो आप हजामत भी बनाएँगे, तो आपकी बीबी सेफ्टी रेजर धोकर भी रखेगी, उठाकर भी रखेगी। सारा काम करेगी, कपड़े भी रखेगी, धोएगी भी, आपकी सेवा भी करेगी। बच्चों को तमाचा मारती है, ठीक कर देती है और आप से कुछ कहने की भी हकदार नहीं है।
आपके सामने तो अपना मन खोलकर के भी रखने की कैसे हिम्मत करेगी? नहीं बेटे! आपको हम दबाव देकर कहते हैं कि नारियों को आगे आने दीजिए। उनको काम करने दीजिए। हम एक-एक महीने का प्रशिक्षण करेंगे और महिलाओं को यहाँ भेजिए और आप भी आइए। इनमें जितनी आस्तिकता है, उतनी नर में नहीं पाई जाती, जितनी नारियों में पाई जाती है। इनके अन्दर त्याग है, इनके अन्दर तप है। जिसके लिए कदम उठा लें, जो संकल्प कर लें, वह सारी जिन्दगी उसका निर्वाह करती हैं। नर नहीं कर सकते।
भगवान न करे, किसी का आगे-पीछे होता है, तो बेटे! आँसू बहाती रहती है और गरीबी में भी अपने दिन काट लेती है। यदि पति नहीं रहता है, तो उसकी आत्मा के साथ वो सती हो जाती है, अन्तिम क्षण तक, पर पीछे नहीं हटती और नर आज मरे कल दूसरी, वह मर जाए, तो तीसरी, बस, उसका तो यही ख्वाब चलता रहता है।
नहीं बेटे! हम यह तो नहीं कहते कि आप आरती उतारना, लेकिन इनके सम्मान की इतनी सुरक्षा होनी चाहिए कि कहाँ हम इनके साथ में कैसे सलूक करें? नम्रता का करें, जाहिलता का करें, तो जाहिलता का मत करिए, नम्रता का करिए। सब्जी में नमक ज्यादा पड़ गया है, तो कृपा करके उसमें पानी डाल दीजिए, पर आप थाली उठाकर मत मारिए। किसकी कमी है? आपकी कमी है।
बेटे! हमारे यहाँ तो गुरुजी का जब कभी काम खतम होता था, तो यह कहते कि लाओ! खाना। तो मैं यह कहती थी कि साहब! मुझे तो यह मालूम था कि अभी आधा घंटे बाद आप लेंगे, तो मैंने अभी नहीं तैयार किया है।
दोपहर की रोटी रखी है। तो क्या हुआ? मंगाराम के जो बिस्कुट होते हैं, तो ठंढे होते हैं कि गरम होते हैं। तो क्या हर्ज है? लाओ, वही लाओ। अरे सब्जी भी नहीं बनी है। सब्जी भी मैंने नहीं रखी, दोपहर ही सब साफ हो गई। अच्छा तो लाओ नमक तो है।
बेटे! ये दिल जीतने के सूत्र होते हैं। मैं आपको यह टेक्नीक बता रही हूँ, जो आपके स्वभाव में नहीं है, तो आप अपने स्वभाव में अन्तर करके जाइए, आप बदलकर जाइए। आज बदलकर नहीं गए, तो कैसे मानें कि आपने अनुष्ठान किया और आप हमारे समीप रहे।
आप अपने अन्दर जरा-सा भी परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। आपने गलती की है, तो उस देवी से क्षमा माँगिए कि हमने जिन्दगी में क्या भूल की है? अब आइन्दा भूल नहीं होगी। आप मन-ही-मन माँगिए, उससे नहीं माँगना है। फिर देखिए आपकी पत्नी आपके पीछे चलती है कि नहीं चलती। ऐसी गुलाम हो जाएगी कि आप तो फिर ऐसे कहेंगे की हम इसके बगैर जिन्दा नहीं रह सकते हैं। अब वह आपके बगैर जिन्दा नहीं रह सकती।
मैं आपको अनुभव की बात कह रही हूँ। मैं आपको ऐसी बात नहीं कह रही जो कि अव्यावहारिक है। व्यावहारिक बात कह रही हूँ। मेरे जिगर में नारी के प्रति बहुत आग है। वह इतनी दबाई और सताई गई है कि बस, आपसे क्या कहें?
नारी के उत्थान के लिए समर्पित गुरुदेव
बेटे! ऐसे ही गुरुजी का तो मुझसे भी ज्यादा है। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है और पुस्तक लिखने के बाद दूसरे को पकड़ा दी। मैंने कहा—भाई! ऐसे देखना, कहीं ऐसा न समझ लें कि गुरुजी लड़कियों का बड़ा पक्षपात ले रहे हैं। उन्होंने कहा—कहीं से भाषा तो नहीं कड़ी हो गई। मैंने कहा हो जाने दीजिए, कम-से-कम इनको मालूम तो पड़े। इनके दिलों और दिमाग में तो आना चाहिए। होने दीजिए, भाषा कड़ी ही चलेगी। मैंने उस पुस्तक को देखा। मैंने कहा—नहीं इसकी भाषा बिलकुल नहीं बदलनी है, सौम्य नहीं करना है। यह तो ऐसे ही जाएगी।
बेटे! नारी के उत्थान के लिए, नारी को आगे बढ़ाने के लिए एक और बात मैं कहने वाली थी। वह ये कहने वाली थी कि आप यहाँ से यह संकल्प लेकर जाना कि हमें अपने बच्चों की शादी में दहेज नहीं लेना है। हमको आदर्श विवाह करना है। यह दहेज का राक्षस हमारी बेटियों को निगले जा रहा है। हमारी बहुओं को खाये जा रहा है, अखबार में आप रोज पढ़िए। पढ़ते रहिए—यहाँ हत्याएँ हो गईं, यहाँ मार डाला, यहाँ जहर दे दिया, यहाँ आग लगा दी। आप आएदिन नहीं सुनते।
आपके दिल में जरा भी असर नहीं पड़ता है, तो आप पाषाण हैं कि नहीं हैं? पाषाण हैं। यदि सहृदय हैं, तो आपको संकल्प लेना चाहिए कि हम इस दहेज के राक्षस को मिटाकर के रहेंगे। जो विकृतियाँ हैं, इनको हटाकर के रहेंगे, जिसमें हमारा मृत्युभोज भी है।
उधर हमारी आँख के आँसू नहीं सूखते, हमारा बेटा चला गया, पति चला गया, बाप चला गया और वह आ रहे हैं। कौन आ रहा है? यहाँ ब्राह्मण भोजन होगा। ब्राह्मण हैं कि राक्षस हैं? उनके मुँह में ग्रास कैसे चला जाता है कि माँ तो रो रही है और वे खा रहे हैं, वे मिष्टान्न खा रहे हैं, पूरी-पकौड़ी खा रहे हैं, ऐसी पूरी-पकौड़ी को धिक्कार है?
यह मृत्युभोज समाप्त होना चाहिए और जहाँ कहीं भी हो, तो कन्याभोजन करा दिया जाए। उसकी आत्मशान्ति के लिए यह करना चाहिए। उसकी सत्प्रवृत्तियों को फैलाने के लिए आप यह करिए। आपको जो कुछ दान-पुण्य करना है, तो उसमें लगाइए जो सार्थक हो, किसी गरीब को दे दीजिए।
ब्राह्मण जो ब्राह्मणोचित जीवन जिए
बेटे! आप किसी गरीब को ऊँचा उठाइए, उसको पढ़ाइए, उसको अच्छा साहित्य पढ़ाइए, जिससे उसको ज्ञान की प्राप्ति हो, लेकिन आप तो और गड्ढे में डालते चले जा रहे हैं। वे तो पेटू हैं। आज यहाँ खिला लो, दस बार खिला लो, उनका तो यही काम है। बेटे! मैं आप किसी को गाली तो नहीं देती, यह मत कहना कि अरे माताजी यह क्या कह रही हैं? ब्राह्मण हैं, तो ब्राह्मण हम भी बैठे हैं। हम अपनी कौम के लिए कह रहे हैं। हम अपने लिए कह रहे हैं।
बेटे! ब्राह्मण वह होता है, जो ब्राह्मणोचित जीवन जीता है। हमारी परिभाषा में उसको ब्राह्मण कहते हैं। कौम का ब्राह्मण हमारी निगाह में ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण वह है, जो लग्जरी से दिमाग को हटाकर के और सादा जीवन—उच्च विचार जिसके अन्दर है, वह ब्राह्मण है, वह सन्त है। चूँकि वह दूसरों को देता है, दूसरों को उठाता है, अपना पेट काटता है और दूसरों को देता है, उसको ब्राह्मण कहेंगे, उसको हम सन्त कहेंगे।
श्रद्धा दीजिए
मैंने आपसे एक निवेदन यह किया था और कहा था कि आज भी भगवान राम की पुकार है कि हमारे जो अनुयायी हैं, जो हमको अपना माता-पिता समझते, गुरु समझते हैं, वे आएँ और इस संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए साहस के साथ कदम उठाएँ।
आपका पैसा हमको नहीं चाहिए। आप यह मत समझना कि माताजी आज यहाँ बैठी हैं, तो यह कहने के लिए बैठी हैं कि बेटे! जो तुम्हारे पास है, तो अपनी जेब खाली कर जा। नहीं बेटे! हमें नहीं चाहिए। आपका पैसा आपके लिए मुबारक रहे; लेकिन हमें तो आपकी श्रद्धा चाहिए। श्रद्धा देकर जाइए।
आप अपनी निष्ठा देकर जाइए, आप अपना समय देकर के जाइए, आप अपना श्रम देकर जाइए। आप घर में से निकलिए और काम करिए। जिस मिशन का आपके ऊपर कर्ज है, आप गुरु के ऋणी हैं, आप समाज के ऋणी हैं, आप राष्ट्र के ऋणी हैं। आप विश्व के ऋणी हैं।
सारा विश्व आज पुकार रहा है। अरे! कुछ नहीं है, संकीर्ण हो, तो अपना प्यार तो दे जाओ। अपना प्यार दे जाओगे, तो बहुत कुछ ले जाओगे। प्यार आपने दे दिया और श्रद्धा आपने दे दी, फिर तो बाकी का सबसे उत्तम हम कर पाएँगे। अरे! आपने यह क्या कह दिया? हम तो यह अनुदान लेने आए थे कि गुरुजी के पास जो शक्ति होगी, वह हमको मिलेगी तो अभी आपको यह भान नहीं हुआ कि आपको शक्ति नहीं मिली। बेटा! आपको सब शक्ति मिल गई, आप समझते क्यों नहीं? आप समझिए।
बेटे! गुरुजी को किसने जाना है? मैं समझती हूँ कि अभी किसी ने नहीं जाना है। भगवान जाने हम सौभाग्यशाली हैं कि दुर्भाग्यशाली हैं, कह नहीं सकते बेटे! यदि हम सौभाग्यशाली होंगे, तो उन्होंने हमारे हृदय को छुआ होगा। हमारे केवल शरीर को किसी ने छुआ, चरण स्पर्श किए हैं; लेकिन हमारे हृदय को नहीं छुआ है। हृदय को जिस दिन कोई भी छू लेगा, वह विवेकानन्द हुए बगैर नहीं मानेगा और वह शिवाजी हुए बगैर नहीं मानेगा।
बेटे! यदि उसने हमारा हृदय छुआ होगा, तो वह अर्जुन हुए बगैर नहीं मानेगा। अर्जुन अपने सांसारिक सम्बन्धों के लिए कह रहा था। अरे लड़ूँ या न लड़ूँ? ये तो मेरे भाई हैं, यह तो मेरा भतीजा मर जाएगा, ये तो मेरे चाचा-ताऊ मर जाएँगे, यह तो मेरा बाबा मर जाएगा। कृष्ण ने कहा—चल हट। खड़ा हो। खड़ा नहीं होगा? गाण्डीव लेकर खड़ा हो, लड़ना है। एक जीवन-संग्राम में आपको भी लड़ना है। जीवन-संग्राम में लड़िए और अर्जुन के तरीके से आप संकल्प लेकर जिस दिन तैयार हो जाएँगे, आपकी संकल्प शक्ति जिस दिन जागेगी; उस दिन अनुदानों से आपकी झोली भरी हुई मिलेगी, आप समझते क्यों नहीं?
( क्रमशः अगले अंक में समापन )
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
अनुदान और वरदान (उत्तरार्द्ध)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमवन्दनीया माताजी अपने इस हृदयस्पर्शी उद्बोधन में समस्त गायत्री परिजनों को साधना के पथ से गुजरने के बाद प्राप्त होने वाले अनुदानों और वरदानों के विषय में बताती हैं। परमवन्दनीया माताजी कहती हैं कि जीवन में कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ आएँ, पर पूज्य गुरुदेव और वन्दनीया माताजी कभी भी उनके अंग-अवयवों का हाथ छोड़ने वाले नहीं हैं। परमवन्दनीया माताजी स्मरण दिलाती हैं कि गुरुसत्ता से जुड़ जाने के उपरान्त जो भी साधक उनका अभिन्न अंग होने का सौभाग्य प्राप्त करने से चूक जाता है, वह दुर्भाग्यशाली ही कहा जाता है। इसलिए आवश्यकता है कि साधना के पथ पर मिलने वाले अनुदानों और वरदानों को प्राप्त करने के लिए हर कोई उत्तम उत्तराधिकारी बने और संस्कृति की पुकार को सुने। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को .........
सौंप दिया भगवान तुम्हारे हाथों में
बेटे! हमने आपसे वायदा किया है कि आपके जीवन के रथी हम बन जाएँगे, हम दोनों बन जाएँगे। अपने जीवन के रथ को सौंप करके तो देखिए। आपने तो कुछ सौंपा नहीं। बेटे! क्या सौंप दिया है? सौंप दिया भगवान तुम्हारे हाथों में। क्या सौंप दिया है? अरे! माताजी छह लड़कियाँ हैं। एक की शादी हो गई, पाँच और रह गई हैं। यही सौंप दी हैं।
अच्छा बेटा! तूने अपनी संकीर्णता सौंपी है कि नहीं? नहीं, यह नहीं सौंपी है। यह सौंप दिया है, जो मुझसे नहीं हो रहा है, वो काम आप करा दीजिए। बेटा! तूने कुछ नहीं सौंपा है। तेरा मन अभी कलुषित है, कषाय-कल्मष से भरा हुआ है। मन को तूने पवित्र नहीं किया है और मन को ऐसा नहीं किया है। जिसे कबीर ने कहा है कि—
"कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर ॥"
अरे! पीछे भगवान फिरता है, किनके? भक्तों के पीछे पड़ा है, कब? जब उसने गंगाजल जैसा पवित्र और निर्मल अपने को बना लिया है, फिर तो भगवान को आना ही पड़ेगा। भगवान की क्या मजाल जो नहीं आएगा, भगवान को आना पड़ेगा?
मीरा के दरवाजे पर स्वयं भगवान कृष्ण आए थे। आपके पास आएँगे? बेटे! शक है कि आएँगे कि नहीं आएँगे, पर मीरा के संग नाचना चाहते थे। मीरा की सखियों ने कहा कि यह बता कि तैने कृष्ण को कैसे खरीदा है? क्या कहीं से मोल खरीदा है?
उन्होंने कहा—"मैंने मोल खरीदा है।" "किससे खरीदा है?" उन्होंने कहा—"मैंने लिया प्रेम तराजू तोल।" अरे, मैंने तो प्रेम की तराजू में कृष्ण को तोल लिया और यह तेरा कौन है? यह मेरा सब कुछ है। कौन? कृष्ण मेरा सब कुछ है। उस कृष्ण के लिए मारी-मारी फिरी थी। कहाँ आपका राजस्थान, कहाँ मथुरा, कहाँ द्वारका। कहाँ-कहाँ तक उसने कृष्ण का गुणगान किया था?
हमारा स्वर्ग हमारे चिन्तन में
जिस समय की जो परिस्थितियाँ होती हैं, उसके मुताबिक यदि कदम उठाया गया है, आराधना के लिए जो कदम उठाया गया है, वह सार्थक है, यदि वह भटक गया है, तो सार्थक नहीं है। केवल माला लेकर के मीरा एक कोने में बैठ जाती या कबीर एक कोने में बैठ जाते। रैदास एक कोने में बैठ जाते, तो आज भक्तों की गिनती में नहीं आते। भक्तों की गिनती में, भक्तों की श्रेणी में तब आए, जब उन्होंने जितना नाम जपा, उससे सौ गुना उन्होंने काम किया।
उन्होंने कितना श्रम किया है, चाहे जिस ग्रन्थ को खोलकर के आप पढ़िए, उसमें से एक ही गन्ध निकलेगी, उसमें से एक ही सार निकलेगा कि आप सही रास्ते पर चलिए। नेक बनिए, अच्छे इनसान बनिए, मेहनतशील बनिए, परोपकारी बनिए, सहृदय बनिए। आप दीन-दु:खियों के काम आइए तो आपकी साधना सार्थक है। नहीं, तो आप केवल बैठे रहिए और मक्खी झाड़ते रहिए। कहते हैं न कि घोड़े की पूँछ बड़ी होगी, तो क्या करेगा? अपनी मक्खी मारेगा और क्या करेगा।
माला लेकर के बैठ जाइए स्वर्ग-मुक्ति मिल जाएगी। हाँ, चले जाइए। तो स्वर्ग का आप क्या करेंगे? बताइए, उस स्वर्ग में आपको क्या मिलेगा? हिन्दुओं के मुताबिक तो वहाँ खीर की नदियाँ होती हैं और बुरा शब्द तो मैं क्या कहूँ आपसे? रहने दीजिए। मैं माँ हूँ, आप बच्चे हैं। मुसलमानों के जन्नत में हूर और गुलाम मिलेंगे। वहाँ शराब की नदियाँ बहती हैं। ऐसे स्वर्ग को धिक्कार है। स्वर्ग का क्या करेंगे? बेटे! हमारा स्वर्ग इसी पृथ्वी पर है और यहीं है—हमारे दृष्टिकोण में, हमारे चिन्तन में। हम जहाँ कहीं भी जाएँगे, वहीं स्वर्ग स्थापित कर लेंगे।
बेटे! जब हम अखण्ड ज्योति कार्यालय से यहाँ आए, तो गुरुजी अज्ञातवास में चले गए, तो मैं अकेली रह गई थी। हमारे यहाँ एक लड़का रहता था।
उसने हँसते हुए कहा—यहाँ आपके कैसे दिन कटते हैं? बेटे! वह तो सब महिलाओं को मालूम हो सकता है। पति के बगैर—उसके पास पति न हो, तो उसका दिल कितना दहलता होगा, कैसे अपना वक्त काटती होगी, आप तो नहीं जान सकते?
बेटे! पर शायद कोई महिला होगी, वह समझती होगी कि माताजी ने गुरुजी के बगैर कैसे अपना वक्त काटा होगा? जबकि हम दोनों एक दूसरे की छाया के तरीके से रहते हैं। हमने इतने दिन कैसे काटे होंगे, किन परिस्थितियों में काटे होंगे? लेकिन हम उनके लिए कुरबान हैं, हम उनके लिए समर्पित हैं, तो वे जो कदम उठाएँगे, वह हम भी उठाएँगे। कोई दिक्कत आएगी, तो देखा जाएगा, जो भी कुछ होगा, सो होगा, शरीर का भी होगा, मन का भी जो होगा, सो होगा, कदम उठाया, तो उठाते ही रहेंगे।
आपको हमने बुलाया है
बेटे! हाँ, तो मैं यह कह रही थी कि जब हम यहाँ आए, तो उस लड़के को बुलाया। उसने कहा कि हमको ऐसा लगता है कि जहाँ कहीं भी गुरुजी-माताजी जाएँगे, वहीं दूसरी गायत्री तपोभूमि भी बन जाएगी और जैसा रहते थे, वैसा ही उनका रहना भी होगा, वैसे ही भीड़-भाड़ रहेगी।
तो बेटा! वही भीड़ फिर हमारे पीछे लगी चली आई है और यहाँ से चले जाएँ तो? तो फिर यह पीछे चली जाएगी। जहाँ कहीं हम जाएँगे, वहीं चली जाएगी। क्यों चली जाएगी? क्योंकि हमारा मन और हमारा अन्त:करण सारे में व्याप्त रहता है।
जैसे चुम्बक होता है, लोहे को अपनी तरफ खींचता रहता है, वृक्ष बादलों को खींचते रहते हैं। आप यह समझते हैं कि आप अपने आप आए हैं? नहीं, आप अपने आप नहीं आए, बल्कि हमने बुलाया है और इसलिए बुलाया है कि आप में वह प्रतिभा है, वह गुण है, जैसा कि हम चाहते हैं।
आपने अपने लिए श्रम नहीं किया है; लेकिन हमने आपके लिए बहुत श्रम किया है। जैसे कि गोताखोर मणि-माणिक्य को निकाल करके समुद्र में से लाता है, उसी तरीके से मेहनत करके और डुबकी लगाकर के गहराई से हम आपको निकाल कर लाए हैं और आपको एक माला के रूप में पिरो करके रखा है।
आप खण्डित हो जाएँ, आप टूट जाएँ, तो हम क्या कर सकते हैं? हम कुछ नहीं कर सकते; लेकिन हमने आपको बाँधकर रखा है। अपने हृदय से बाँधकर रखा है। अपने विचारों से, अपने सिद्धान्तों से आपको बाँधकर रखा है। बेटे! हमने कुछ भी नहीं छोड़ा, जो आपकी झोली में न डाला हो।
हमने अपना तप भी डाला, अपना पुण्य भी डाला है और रही आपके दुःखों की, कष्टों की, कठिनाइयों की बात जिसको लेकर आप आए थे, उसका क्या होगा? माताजी, हम तो अपनी अनेक कठिनाइयाँ लेकर के आए थे, मुसीबतें कहने आए थे, आपने भी नहीं सुनीं। गुरुजी तो सुनते ही नहीं हैं। बेटा! ऐसा लांछन हमारे ऊपर आप नहीं लगा सकते। यह मत लगाना। यह भूलकर भी आप मत कहना।
आपके हर लड़के के हृदय की बात हमको मालूम है, हमने पढ़ लिया है, आपने लिखकर भी दिया है, हमने माँगा है, तो आप हमको लिखकर के दे भी जाना। आपका मन खाली कराने के लिए हमने माँगा है, ताकि आपको यह लगे कि हमने सब लिखकर के दे दिया, बाकी का हमको सब मालूम है, एक-एक की मालूम है और न मानो, तो तुम पूछ लेना। आपका भाग्य, आपका प्रारब्ध, हमारा पुण्य, जितना उसमें योग बन सकेगा, वह आपका जरूर हल हो जाएगा।
बेटे! यदि उसमें आपका भाग्य नहीं है, मनोकामना तो किसी की कहाँ तक पूरी होती है? मनोकामना तो किसी की भी पूरी नहीं होती। रावण की भी पूरी नहीं हुई। मनोकामना पूरी हुई? बिलकुल पूरी नहीं हुई है और दशरथ की? दशरथ की भी पूरी नहीं हुई। दशरथ को शाप लगा हुआ था और भगवान राम चाहते, तो बचा सकते थे, लेकिन नहीं। प्रारब्ध तो भोगना ही चाहिए, उसी में व्यक्ति की शान है और बेटे! पुत्र-वियोग में तड़प-तड़प कर दशरथ ने प्राण त्याग दिए।
सुभद्रा की मनोकामना कहाँ पूरी हुई? अभिमन्यु इकलौता लड़का था और जब वह मारा गया, तो कृष्ण से यह कहा—"भैया, तू तो मेरा भाई है और तुझे जरा भी दया नहीं आई, तू तो भगवान कहलाता है। अरे! तू चाहता तो अपने एकलौते भानजे को बचा नहीं सकता था?"
कृष्ण ने कहा—"हे बहन! भाई मैं तेरा जरूर हूँ। इसमें कोई शक नहीं है; लेकिन प्रारब्ध जन्म के जो भोग हैं, वह तो भोगने ही पड़ेंगे। तुझे भोगना पड़ रहा है और मुझे भी भोगना पड़ेगा। मैं भी भोगने के लिए तैयार हूँ; क्योंकि मैंने बालि को मारा था। वही जंग लगा हुआ बाण मेरे लिए भी रखा है और वही बाण मेरे पैर में लगेगा, मुझे सेप्टिक होगी और मैं मारा जाऊँगा और मेरे सारे-के-सारे कुटुम्ब का नाश हो जाएगा। सबको भुगतना पड़ेगा।"
तो हम आप से यह वायदा करें कि आपकी सब मनोकामना पूरी हो जाएगी, तो इससे बड़ा धूर्त कोई नहीं हो सकता और आपसे ज्यादा मूर्ख कोई नहीं हो सकता। इससे बड़ा धूर्त तो कोई नहीं हो सकता है कि आप से यह कहे कि आपके सभी कर्मबन्धनों को समाप्त कर देंगे। हो सकता होगा, तो हो भी सकता है और नहीं हो सकता है, तो इसमें क्या बात है? आप उसके लिए मुकाबले को तैयार हो जाइए। यह आपकी कसौटी है।
बेटे! हर भक्त की कसौटी होती आई है, आपकी नहीं होगी। आपकी होनी चाहिए, तो आप इसके लिए भी तैयार हो जाइए।
हमारा आवाहन सुनें
जो आह्वान हमने आपसे किया है, आपसे निवेदन किया है कि आप अपने घर से निकलिए। आपने काम से छुट्टी पाई है। पूरी छुट्टी मत पाइए, पर कम-से-कम इतना तो करिए। हम आपके गुरु हैं, आपकी माँ हैं, तो आपसे और तो कुछ नहीं माँग रहे हैं; लेकिन आपका समय माँग रहे हैं। आप चार घण्टा समय तो दे सकते हैं।
चौबीस घण्टे आपके लिए, आपकी बीबी के लिए, आपके बच्चों के लिए, सब समय उसी के लिए है और हमारे लिए कुछ नहीं। नहीं, हमारे लिए भी है। हम दबाव से आपसे कहेंगे, सख्ती से आपसे कहेंगे, मिन्नतें भी आपकी करेंगे, आपकी ठोड़ी में भी हाथ डालेंगे और जब आप रास्ते पर नहीं आएँगे तब तो बेटे! फिर हम सख्ती से कहेंगे। फिर हम शक्ति से कहेंगे।
शक्ति से कैसे कहेंगे साहब! फिर तो उसको डण्डे लगेंगे। डण्डे ही नहीं लगेंगे, पर बेटा! तू अपने घर चले जाना और रात में सोना, फिर देख तेरी पत्नी-बच्चों को तो नहीं सताएँगे, पर हम दोनों रात में तेरे पास जाएँगे और खींचकर एक झापड़ इधर से—एक उधर से लगेगा। सो तू तिड़ी-भिड़ी होकर खड़ा हो जाएगा।
एक तरफ माताजी दिखाई पड़ेंगी, तो एक तरफ गुरुजी दिखेंगे। एक तरफ गुरुजी लगा रहे होंगे, तो माताजी जरा धीरे-धीरे लगाएँगी और जरूरत पड़ी, तो माताजी भी लगा देंगी, फिर माताजी का हाथ भले से आपको ऐसा लगे कि प्यार से सहला रहीं हैं। हमारा एक रिश्तेदार था। एक बार मैंने जरा जोर से दो-तीन थप्पड़ मार दिए। मैंने कहा कि यह सवेरे चला गया है, इसे पढ़ा रहे, लिखा रहे हैं। मैं कहाँ जंगल में तुझे ढूँढ़ती फिरूँ?
मैंने जब 24-24 लक्ष के अनुष्ठान किए थे, तब लड़कियाँ रखी थीं। वे मेरे पास रही हैं, उन्हें पढ़ाया-लिखाया, ब्याह-शादी की। वह बेचारी छोटी-छोटी थीं, नन्हीं-सी। उन्होंने उस लड़के से अमरूद मँगाए, सो वह लेने चला गया और देर हो गई। यहाँ आया, तो मैंने मार दिया। पीछे लड़कियों से बोला—जीजी! मेरे नहीं लगा। इनके हाथ तो ऐसे गुदगुदे हैं—जैसे रूई, मेरे एक भी नहीं लगा।
तो बेटे! चाहे आपके लगे या न लगे, माँ जरा प्यार से मारती है, बाप जरा कड़ाई से पेश आता है। तो हम दोनों पेश आएँगे, फिर समझ लेना, आप जिधर को मुँह करेंगे, उधर ही गुरुजी-माताजी दिखाई पड़ेंगे।
शान्तिकुञ्ज शरीर है हमारा
अभी हम जिन्दा हैं, तो दिखाई पड़ेंगे और फिर मर जाने दे। शरीर मरेगा, हम तो मरेंगे नहीं। जीवात्मा तो नहीं मरती। कब तक नहीं मरेंगे? लाखों वर्षों तक करोड़ों वर्षों तक हम नहीं मरेंगे। हम आपसे वायदा किए जा रहे हैं कि बिलकुल नहीं मरेंगे, आप देख लेना कि कैसे दिखाई पड़ेंगे? जब आपका शरीर नहीं रहेगा, तो आप कहाँ दिखाई पड़ेंगे? अरे बेटे! यह मत कहना।
अरविन्द के आश्रम में अभी भी जाते हैं और वही शक्ति पाते हैं, जो जब वे थे तब जितनी शक्ति मिलती थी। उनके हाल में मौन बैठ जाते हैं, तो उतनी ही शक्ति मिलती है। जब हम दोनों नहीं रहेंगे और आप आएँगे, तो आपको वही शक्ति, वही प्रेरणा, वही प्यार और दुलार आपको मिलता रहेगा।
वही प्रेरणा मिलती रहेगी, जो इस समय आपको मिल रही है। अखण्ड दीपक के आप दर्शन करना, जो कि हमारी मूल थाती है, हमारी मूल सम्पत्ति है। हम कुछ लेकर नहीं आए हैं; लेकिन उसको हम अपने साथ लेकर के आए, वह हमारे प्राणों से भी ज्यादा प्रिय है।
हम उसमें समाये रहेंगे, आप उसमें देखिए तो सही, आप दर्शन तो कीजिए, उससे प्रेरणा तो पाइए। आपने तो कुछ नहीं पाया और हमने सब कुछ उसी से पा लिया। आपने कुछ भी नहीं पाया, आपने तो शरीर से भी नहीं पाया, न आप भावनाओं से, न आप सिद्धान्तों से कुछ पा सके, किसी से भी नहीं पाया। हम तो पहले से ही अपना स्मारक बनाए जा रहे हैं।
गुरुजी ने कहा—अरे! ऐसे आप क्या कह आईं? ऐसे ही मेरे दिमाग में आ गया। मैंने कहा—हम मरें, तो हमें यहीं समाधि देना। हम तो यहीं रहेंगे, शान्तिकुञ्ज से हम नहीं जाएँगे, हमारा शरीर भले ही यहाँ से जाए।
बेटे! आप यहाँ आकर प्रेरणा पाना, आप हिम्मत पाना और आपके जीवन की जो समस्या है. वह सुलझती चली जाएगी। जिस दिन भी आप पुकारेंगे, उस दिन हम दौड़ आएँगे और आपके समक्ष होंगे, आपके समीप होंगे। आपको समीपता का अनुभव न हो, तो हम क्या कर सकते हैं। बेटे! हम कुछ नहीं कर सकते हैं। आपके सामने भगवान भी आ जाएँ, तब भी आपको दिखाई न पड़े, तो कोई क्या कर सकता है? आप कुछ अनुभव नहीं करेंगे।
आग के पास बैठे व्यक्ति को यदि आग का अनुभव नहीं होता है, तो यही कहना पड़ेगा कि इसकी स्पर्शशक्ति कहीं चली गई, इसलिए इसको अनुभव नहीं होता। नहीं, तो आग का अनुभव होना चाहिए। समीपता का अनुभव नहीं होना चाहिए? प्राणशक्ति का, ऊर्जा का अनुभव नहीं होना चाहिए? यह अनुभव होना चाहिए, जो गुरुजी को हुआ है। जिनके गुरु कहाँ हैं? उनकी प्रेरणा ही तो आती है, उनकी छाया ही तो आती है। उन्होंने सारी जिन्दगी अपने को तपा डाला, गला डाला और उन्होंने यह सारे विश्व के लिए किया है, तो आपको नहीं मिलेगा।
आपके गुरु तो बोलते भी हैं, आप तो प्रवचन भी सुनते हैं। वीडियो भी सुनते हैं और अब तो प्रणाम भी करने को मिला है। आपको तो अभी भी मिला है। आपको न मिले, बेटे! तो यह कहेंगे कि आप दुर्भाग्यशाली हैं या हम दुर्भाग्यशाली हैं कि हमारे अन्दर वह शक्ति नहीं है कि हम आपको बना सकें या आपकी वह संकीर्णता पीछा नहीं छोड़ती। आपकी दुर्बलताएँ पीछा नहीं छोड़ रही हैं कि आप बनने के लिए तैयार हो जाएँ।
अन्दर का विश्वास जगाएँ
बेटे! आप बनने के लिए जिस दिन तैयार हो जाएँगे, उस दिन आप समझ लेना कि आपके भाग्य का सूर्य उदय हो गया और बेटे! आपको बनाने वाला यह ऐसा कलाकार है कि आपको बना देगा। ऐसा कलाकार है, जो ऐसी बढ़िया कमाल की मूर्ति गढ़ता है कि आनन्द आ जाता है। जो इसकी नाव में नहीं बैठा है, बात अलग है।
यह ऐसा खेने वाला मल्लाह है कि न तो यह खुद डूबता है और न डूबने देता है। यदि खुद डूबेगा, तो भले डूब जाए, कोई बात नहीं। फिर भी हम वायदा करते हैं कि हम किसी को डूबने नहीं देंगे। कैसे-कैसे बढ़िया कलाकार पैदा करता है? कभी किसी को संगीतकार, किसी को वक्ता, किसी को अनुभव ही नहीं है। लेखक न जाने कितने तैयार कर देता है, आपको तो विश्वास नहीं।
आप विश्वास रखिए, जिस दिन आपके अन्दर विश्वास जागेगा, बस, उसी दिन देखिए, आप में से कौन-कौन क्या-क्या बनता है? बिलकुल आप बन जाएँगे, जो कि हमारे जीवन का अनुभव है। हम स्वयं बने हैं, आपके सामने हैं। आप किन आँखों से देखते हैं और कहते हैं—माताजी, जानें कौन हैं? बेटी बनाए हुए हैं और हम बने हैं। गीली मिट्टी जो होती है, उस मिट्टी को जैसा चाहे, वैसा बना सकते हैं।
आप बनाइए और हम बनकर दिखाएँगे। जिन्होंने कभी हमारी वाणी को नहीं सुना था, जिसमें हमारे पुराने परिजन भी हैं, वह जानते हैं कि माताजी सिवा राजी-खुशी पूछने के कभी कोई बात की है; लेकिन एक मनहूस दिन ऐसा आया कि हमने उस दिन शपथ ली कि हमारी वाणी को कोई नहीं रोक सकता।
हमारे शरीर को भी नहीं रोक सकता। वाणी भी नहीं रुकेगी। जो काम गुरुजी करते हैं, वह अब हम करेंगे, हम बोलेंगे। भाषा? हाँ, भाषा क्या होती है?
शिक्षित होगा, तो परमार्जित भाषा में बोलेगा और ज्यादा शिक्षित नहीं है, तो श्लोक लगाकर नहीं बोलेगा। कोई जरूरी है कि श्लोक लगाकर के हम अपनी बात को आपको समझाएँगे। आप से हम सीधे न कहेंगे? हम सीधे कहेंगे और आपको सुननी पड़ेगी, हम सुनाएँगे और आपको सुननी पड़ेगी।
हम आपको जबरदस्ती सुनाएँगे कि आप कुछ लेकर के जाइए। एक ही वरदान लेकर के जाइए कि हमारे अन्दर में जो अग्नि जल रही है, उसका एक अंश आप लेकर के जाएँगे, तो हम समझेंगे कि हम भी धन्य हो गए और आप भी धन्य हो गए होंगे।
भावना से शान्तिकुञ्ज में रहना
आज आपकी विदाई है और आज आप जाने वाले हैं। माँ से बिछड़ करके बच्चा कहाँ जाएगा? कहीं नहीं जाएगा। आप शरीरों से तो जाना, पर मन से मत जाना। मन से तो यहीं आपकी माँ का आँगन है, इसी माँ के आँगन में आप खेलना, इसी में घूमना-फिरना, इसी में रहना।
कल्पना से, भावनाओं से आप यहीं शान्तिकुञ्ज में ही रहना। शरीर से वहाँ रहना; ताकि आपको कर्तव्य का बोध हो कि हमारा क्या कर्तव्य है, हमारा क्या फर्ज है? जिस आँगन में हम खेल रहे हैं, जिस माता-पिता से हम जुड़े हैं, जिस सत्ता से, जिस शक्ति से हम जुड़े हैं, उसके प्रति हमारा क्या कोई फर्ज और कर्तव्य भी होता है?
माँ ने पुकारा भी है कि बेटे! तू कहाँ जंजाल में फँस रहा है, हमारे काम नहीं आएगा क्या? हमारे से मतलब यह मत समझना कि माताजी यह कह रही हैं कि बेटे! तू हमारे काम आ और हम थक गए, देख अब हमसे कुछ काम नहीं होता, तो तू खाने को दे जा, पहनने को दे जा।
बेटा! जिस दिन हम यह कहें, उस दिन हमको एक बार नहीं, लाखों बार आप धिक्कारना कि ऐसे भी एक हुए थे, जो गुरु कहलाते थे, माँ कहलाती थीं और यह कहती थीं कि हमारे भरण-पोषण के लिए दे जा। नहीं बेटे! हमारी भुजाएँ इतनी लम्बी हैं कि हम हर कार्य कर लेते हैं और अभी हमारा कमाने वाला बैठा है, सो हजारों को खिला देगा, आप हमें क्या खिलाएँगे?
समय की पुकार मान लें
हमको अपने लिए नहीं चाहिए; लेकिन मिशन के लिए माँगने में हमें कोई शरम नहीं आती, कोई हमें ऐतराज नहीं होता। उसके लिए तो हम बच्चों से कहेंगे कि बेटे! यह भी तुम्हारा एक बेटा है। बेटे के लिए जब आप नीति से कमाते हैं, अनीति से कमाते हैं, जो आपके मौत या बुढ़ापे में काम नहीं आता है, तो उसके लिए सर्वस्व झोंकने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो यह भी आपका बेटा है।
चलो! बाप मत समझो, बेटा ही समझ लो; क्योंकि आज के जमाने में जो कुछ है, बेटे को ही भगवान समझते हैं। तो तू चल बेटा ही समझ ले। इसके लिए तो समय निकाल और श्रम निकाल और इसके लिए आ भी गया। यह समय की पुकार है।
स्वतंत्रता संग्राम में जिन्होंने राष्ट्र के लिए काम किया था, वह आज बेटे! हवाई जहाजों में घूमते हैं। स्वतंत्रता सेनानी फर्स्ट क्लास में घूमते हैं। सारे हिन्दुस्तान में चक्कर काटते हैं, कब? अब काटते हैं। जिन्होंने उस समय काम किया है और समय निकल जाने पर फिर अब कोई यह कहे कि हमको ऐसा अवसर मिलेगा क्या? कुछ नहीं मिलेगा। कुछ हाथ लगने वाला नहीं है, क्योंकि समय निकल गया। उस समय यदि आपकी भावना होती और राष्ट्र के हित में आप कार्य करते, तो सही था; पर अब तो लालच आ गया।
बेटे! कि हमने राष्ट्र के लिए काम किया, तो मुआवजा मिलना चाहिए। यूपी गवर्नमेण्ट ने, केन्द्रीय गवर्नमेण्ट ने गुरुजी से यह कहा था कि आपने स्वतंत्रता संग्राम में कितना काम किया है? आपने तो अपने इलाके में किसानों की सारी की सारी जो लगान थी, माफ करा दी थी, आपने इतना काम किया है।
आपका नाम तो श्रीराम है और आपको श्रीराम मत्त भी कहते हैं, क्योंकि आपने झण्डा गिरने नहीं दिया था और तीन दिन तक झण्डा मुँह में दबाए रखा था। उससे आपका नाम 'मत्त' जी पड़ गया। इतना उन्होंने काम किया। उन्होंने कहा—आप नहीं लेंगे।
उन्होंने कहा—देखिए हमने राष्ट्र के लिए काम किया है। हमको आप देना चाहते हैं, तो उन गरीबों को दे दीजिए, हरिजनों को दे दीजिए और बच्चों की शिक्षा में लगा दीजिए, हम हाथ नहीं लगाएँगे। क्यों नहीं लगाएँगे? क्योंकि हमारे हाथ जो हैं। हमको पेंशन नहीं मिलती, तब भी तो हम खाते हैं कि नहीं खाते, तो आपका दिया हुआ खाएँगे? हमने कभी किसी का नहीं खाया है, तो आपका क्यों खाएँ, हम नहीं खाएँगे।
बेटे! आज आखिरी दिन आप जा रहे हैं, इसलिए आप से दिल खोलकर के कुछ कहना चाहती हूँ; ताकि आप भी इस आग में शामिल हो जाएँ। हमारी आग में आप भी हिस्सेदार बन जाएँ। बाप का कर्ज होता है और जब बाप नहीं रहता, तो बेटा चुकाता है।
बेटे! और तो आपका कोई कर्ज नहीं है, लेकिन एक कर्ज जरूर है। हमारे दिल के दरद का कर्ज, हो सके तो इसको चुकाना, न हो सके, आप असमर्थ हैं, तो कहाँ से चुकाएँगे? लेकिन हमारा कोई भी बच्चा असमर्थ नहीं है। सब समर्थ हैं।
जिस चीज का हमने आह्वान किया है, उसके लिए हर लड़का, हर लड़की समर्थ है, दिल से सब समर्थ हैं। हम पैसे का हवाला नहीं दे रहे हैं। हम तो आपके तन और मन की बात कर रहे हैं। लड़कियाँ गाती थीं कि 'तन तुम्हारा हो गया और मन तुम्हारा हो गया।'
बेटे! जिस दिन तन और मन भगवान को समर्पित कर देते हैं, तो भगवान के अनेक अनुदान और वरदान हमको मिल जाते हैं और जब तक हम समर्पित नहीं करते, तब तक वह भी हमको बहकाता रहता है। हम बहकते रहते हैं, तो वह बहकाता रहता है।
हम अक्षत, पुष्प चढ़ाते रहते हैं, तो वह भी इतना तो संकीर्ण नहीं है, वह भी मुलायम, अच्छा है, इसको टॉफी दे दो, गुब्बारा दे दो। इसको इसी की जरूरत है। अब आपको गुब्बारे से और टॉफी से बहलने वाला नहीं होना चाहिए। आपको उसमें आनन्द नहीं आना चाहिए। टॉफी और गुब्बारा लेकर के आप प्रसन्न होना चाहते हैं?
नहीं, बेटे! हमारा कोई विश्वास नहीं है। हमारा विश्वास है कि अब आप समर्थ हैं। दाढ़ी-मूँछ वाले हो गए हैं, तो अब आप तिजोरी की चाभी लीजिए ताकि हम हलके हो जाएँ और हम कहें कि हमने अपना वजन अपने बच्चों पर डाल दिया। हम अपनी जिम्मेदारियों से हलका होना चाहते हैं। आप उन जिम्मेदारियों को सँभालिए, जो राष्ट्र के हित में, विश्व के हित में हैं। वह कदम आपको उठाना है। आज मैं अपनी यही बात कहने के लिए आई थी। बेटे! भावभीनी विदाई और हम दोनों का आशीर्वाद भी आपके साथ है। इन्हीं शब्दों के साथ अपनी बात समाप्त करती हूँ।
न त्वहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्त्तिनाशनम् ॥
आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥