बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका-2

द्वितीय अध्याय

बाल प्रबोधन

महापुरुषों का बचपन (भाग-३)

१. मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र
त्रेता युग समाप्त हो रहा था। संसार में राक्षसों का बल बहुत बढ़ गया था। इसी समय सरयू नदी के तट पर अयोध्या नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके चार पुत्र थे-रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। रामचन्द्र इनमें सबसे बड़े थे। वैसे तो चारों भाई माता-पिता और गुरुजनों की हर आज्ञा का सदा प्रसन्नता से पालन करते थे, परन्तु रामचन्द्र जी तो गुणों के भण्डार थे। इन्होंने आयु भर बड़ों की आज्ञा-पालन करने और धर्म के अनुसार प्रजा-पालन करने में ऐसा आदर्श दिखाया कि संसार चकित रह गया। इसी से इन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ नाम से पुकारा जाता है। इन्होंने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया।
जब राम बालक थे, उस समय इनका नियम था कि सोने से पहले और प्रातःकाल उठते ही माता-पिता के चरण छूना और दिन-भर उनके कहे अनुसार ही काम करना। एक बार मुनि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आए और कहा कि राक्षस लोग हमें यज्ञ नहीं करने देते और बहुत दुःख पहुँचाते हैं; आप राम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेज दें। ये हमारे यज्ञ की रक्षा करेंगे। गुरु वसिष्ठ के समझाने पर राजा ने दोनों राजकुमारों को विदा कर दिया। महात्मा विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को लेकर अपने आश्रम में पहुँचे। दोनों भाइयों ने दिन-रात गुरु की सेवा की। वे प्रेम से उनके पैर दबाते थे, उनके सोने के बाद सोते थे। प्रातःकाल जब गुरुदेव के उठने का समय होता था, उससे पहले उठ जाते थे। उनकी हर सेवा अपने हाथों से करते थे। उनकी हर आज्ञा का पालन करते थे। भूमि पर सोते थे। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर महात्मा विश्वामित्र ने उन्हें ऐसे-ऐसे शस्त्र दिये, जिनसे उन्होंने बड़े-बड़े राक्षसों को मार डाला और संसार में यश पाया, और ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ को पूरा कराया।
अब भगवान् राम की, माता-पिता के आज्ञा-पालन की कहानी भी सुनो। राम सदा माताओं और पिता की हर आज्ञा का पालन करना अपना धर्म मानते थे। जब राजा दशरथ बूढ़े हुए, उन्होंने राम को युवराज बनाना चाहा। इस समय भरत और शत्रुघ्न ननिहाल गए हुए थे। सारे नगर को सजाया गया और स्थान-स्थान पर उत्सव होने लगे। जब रानियों को पता लगा, तो वे फूली न समाई, उन्होंने भी अपने भवनों को खूब सजवाया। पर विधाता की इच्छा कुछ और ही थी।
रानी कैकेयी की एक दासी थी, जिसका नाम था-मंथरा। वह बड़ी कुटिल थी। बुरे आदमियों को सदा बुराई सूझती ही है। इसलिए हमें सदा अच्छे लोगों की ही संगति करनी चाहिए। भूलकर भी बुरों के पास नहीं बैठना चाहिए। वह यह सब जानकर जल-भुन गई। उसने जाकर रानी कैकेयी को समझाया कि तुम्हारे पुत्र भरत को बाहर भेजकर राजा दशरथ राम को राज्य दे रहे हैं। भोली रानी उसकी चाल में आ गई और उसने राजा से दो वर माँगे। एक से राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास और दूसरे से भरत को राज्य। राजा यह सुनते ही बेहोश होकर गिर पड़े, क्योंकि उन्हें राम से बहुत प्यार था। वे राम की जुदाई सहन नहीं कर सकते थे।
जब राम को यह सब पता लगा, तो वे बड़ी प्रसन्नता से वन जाने को तैयार हो गए। उन्होंने कैकेयी से हाथ जोड़कर कहा- हे माता! आपने पिता जी को क्यों कष्ट दिया, मुझे ही कह देतीं। मैं आपकी हर आज्ञा का प्राण देकर भी पालन करूँगा। इतना कहकर राम ने राजसी वस्त्र उतारकर वल्कल पहन लिए और वन जाने के लिए तैयार हो गए। वे सीधे माता कौशल्या के पास गए और उनके चरण छुए। उनका आशीर्वाद पाकर राम वन को चल पड़े। लक्ष्मण और सीता भी उनका वियोग न सह सकते थे और साथ में चले गए। चलते समय तीनों पिता दशरथ के पास गए और उनके तथा माता कैकेयी के चरण छूकर चल दिए।
इसके बाद राजा दशरथ यह वियोग न सह सके और स्वर्ग सिधार गए। अब गुरु वसिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को ननिहाल से बुलाया। जब भरत को पिता की मृत्यु और बड़े भाइयों के वन जाने का समाचार मिला तो वे दुःख से रो उठे। उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। सेना, माताओं और गुरुजनों को साथ लेकर वन में राम को लौटाने के लिए गए, पर राम न लौटे। उन्होंने कहा कि मैं माता और पिता की आज्ञा से वन में आया हूँ। उनकी आज्ञा का पालन करना, हम सबका धर्म है। भरत निराश होकर राम की खड़ाऊँ लेकर लौट आए और चौदह वर्ष तक अयोध्या के बाहर नन्दिग्राम में रहे। भगवान् राम के लौटने तकउन्होंने भी वनवासी की तरह ही कंद-मूल खाकर व झोंपड़ी में रहकर तपस्या भरा कठोर जीवन बिताया और राज्य का काम भी करते रहे।
चौदह वर्ष बीतने पर जब राम लौटे, तब अयोध्या में दीपमाला सजाई गई और राम को राजा बनाया गया। जब तक राम जीवित रहे, उन्होंने ऐसा अच्छा राज्य चलाया कि आज भी लोग ‘राम-राज्य’ के गुण गाते हैं। उस समय कोई चोर न था, सब सदाचारी थे, सब सच बोलते थे, दोनों समय संध्या-वंदन करते थे, माता-पिता के होते हुए पुत्र की मृत्यु नहीं होती थी, सब सुखी थे, समय-समय पर अच्छी वर्षा होती थी, पृथ्वी धन-धान्य से भरपूर थी। बड़े-बड़े तपस्वी और महात्माओं की आज्ञा से ही श्री रामचन्द्र जी राज्य करते थे।

२. आदर्श ब्रह्मचारीभीष्म
बहुत समय की बात है, इस पवित्र मातृभूमि भारतवर्ष पर राजा शान्तनु राज्य करते थे। इनकी राजधानी हस्तिनापुर थी। इनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम देवव्रत रखा गया। जब राजकुमार देवव्रत बड़े हुए, उस समय एक बार उनके पिता महाराज शान्तनु शिकार खेलने गए। वहाँ उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दर नदी बह रही है, जिसके बीच में एक कन्या नाव चला रही है। वह देखने में बहुत सुन्दर है और उसके शरीर से सुगन्ध फैल रही है। राजा ने उसे देखा और उसके पास जाकर उसका पता पूछा। वह उन्हें अपने पिता के पास ले गई। उसके पिता नाविक थे। राजा ने उसके पिता से कहा कि यदि आप चाहें तो इस कन्या का विवाह मेरे साथ कर दें, मैं इसे अपनी रानी बनाऊँगा। यह सुनकर नाविक बोला-हे राजन्! यदि आप वचन दें कि इसकी संतान ही राजगद्दी पर बैठेगी, तब मैं विवाह करने को तैयार हूँ। राजा यह सुनकर अपने महल में लौट आए, क्योंकि वे अपने पुत्र देवव्रत को ही राजा बनाना चाहते थे। परन्तु उस दिन से वे उदास रहने लगे।
जब यह सब समाचार देवव्रत को मालूम हुआ, तो वह पिता की चिन्ता को मिटाने का उपाय सोचने लगा। अन्त में वह सीधा नाविक के पास गया और उसके सामने प्रतिज्ञा की कि मैं कभी राजा नहीं बनूँगा और आपकी पुत्री से जो संतान होगी, वही राज्य करेगी। नाविक ने कहा कि आप कहते तो ठीक हैं, पर आपकी जो संतान होगी, कहीं वह राज्य का दावा न कर बैठे। इससे तो झगड़ा बना ही रहेगा। इस पर राजकुमार देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि मैं आयु-भर विवाह नहीं करूँगा। आप कृपया अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिताजी से कर दें। अब नाविक मान गया। उस कन्या का विवाह राजा शान्तनु से हो गया।
ऐसा कठिन व्रत लेने के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा। उन्होंने आयु-भर इस व्रत को निभाया और इस ब्रह्मचर्य के प्रताप के कारण ही वे लगभग १५७ वर्ष जीवित रहे। मृत्यु उनके वश में थी। महाराज शान्तनु के दो और पुत्र हुए। इनके नाम थे, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। महाराज के मरने पर भीष्म ने अपने हाथों से विचित्रवीर्य को राजा बनाया। विचित्रवीर्य और चित्रांगद छोटी आयु में ही मर गए।
माता सत्यवती ने भीष्म को बुलाकर कहा-पुत्र! अब तुम्हें चाहिए कि विवाह कर लो और राज्य संभालो, नहीं तो कौरव वंश का नाश हो जाएगा।
भीष्म गरज कर बोले- माता! सूर्य उदय होना छोड़ दे, वायु बहना छोड़ दे, जल अपनी शीतलता छोड़ दे, परन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता।
महाभारत का युद्ध हो रहा था, भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति थे। आठ दिन से लगातार युद्ध हो रहा था। पाण्डवों की सेना दिन-प्रतिदिन कम हो रही थी। पांडव बड़ी चिन्ता में थे कि किस प्रकार युद्ध में विजय हो, क्योंकि भीष्म पितामह को मारने की शक्ति किसी में नहीं थी। कृष्ण की राय से पाँचों पांडव भीष्म पितामह से उनकी मृत्यु का उपाय पूछने गए। उनसे नम्रता से हाथ जोड़कर कहा कि आपके होते हुए हम किस प्रकार जीतेंगे, कृपया बताइए। वे बोले- आपकी सेना में कोई ऐसा वीर नहीं, जो मुझे मार सके, और मेरे मरे बिना आपकी विजय नहीं हो सकती। हाँ, आपकी सेना में शिखण्डी नाम का एक महारथी है, जो पिछले जन्म में स्त्री था। यदि वह मुझ पर तीर चलाएगा, तो मैं हथियार नहीं उठाऊँगा। आप उसको आगे करके मुझे मार सकते हैं। यह सुनकर पांडव अपने शिविर में लौट आए। प्यारे बच्चो! देखो ब्रह्मचर्य का बल! कोई भी संसार का बड़े से बड़ा वीर उन्हें युद्ध में नहीं मार सकता था। वे स्वयं अपनी मृत्यु का उपाय बता रहे हैं।
युद्ध का नौवाँ दिन था। आज भीष्म पितामह पूरे बल से पांडव सेना को मार रहे थे। सारी सेना घबरा उठी, अर्जुन भी शिथिल हो रहा था। पांडव सेना का कोई भी सैनिक उनकी बराबरी नहीं कर सकता था। अब महारथी शिखण्डी को आगे किया गया। उसके आगे आते ही पितामह ने हथियार छोड़ दिए। पर शिखण्डी के तीर तो फूल की तरह उनके शरीर पर बरस रहे थे। तब अर्जुन ने शिखण्डी के पीछे खड़े होकर भयंकर तीरों की बौछार शुरु कर दी। इस मार को पितामह सहन न कर सके और युद्धभूमि में गिर पड़े। शरीर तीरों से छलनी हो रहा था। तीरों की शय्या पर ही लेटे-लेटे उन्होंने कहा कि जब सूर्य दक्षिणायन से चलकर उत्तरायण में पहुँचेगा, तभी मैं शरीर छोड़ूँगा और हुआ भी ऐसा ही। महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया, सूर्य उत्तरायण में आया, तब भीष्म पितामह ने शरीर छोड़ा।
तीरों की शय्या पर लेटे हुए उन्होंने युधिष्ठिर को बड़ा उत्तम उपदेश दिया,्जो महाभारत में शांति पर्व के नाम से प्रसिद्ध है।

३. दयालु राजकुमार सिद्धार्थ
बहुत प्राचीन समय की बात है। भारत में कपिलवस्तु नाम की एक बड़ी सुन्दर नगरी थी। उस समय राजा शुद्धोदन वहाँ राज्य करते थे। ये बड़े धार्मिक और न्याय-प्रिय राजा थे। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया।
जब सिद्धार्थ बड़े हुए, तो एक बार वे मंत्री-पुत्र देवदत्त के साथ धनुष-बाण लिए घूम रहे थे। संध्या समय था। सूर्य अस्त हो रहा था। आकाश में लाली छा गई थी। बड़ा मनोहर दृश्य था। पक्षी आकाश में उड़े जा रहे थे। सहसा सिद्धार्थ की दृष्टि दो राज-हंसों पर पड़ी और देवदत्त से बोले-देखो भाई, ये कैसे सुन्दर पक्षी है। देखते ही देखते देवदत्त ने कान तक खींचकर बाण चलाया और उनमें से एक पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा। सिद्धार्थ ने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद में ले लिया और पुचकारने लगा। देवदत्त ने अपना शिकार हाथ से जाते देख सिद्धार्थ से कहा कि इस पर मेरा अधिकार है, इसे मैंने मारा है। सिद्धार्थ ने राजहंस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि बेशक तुमने इसे मारा है, परन्तु मैंने इसे बचाया है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।
राजकुमार सिद्धार्थ ने पक्षी की सेवा की उसकी मरहम-पट्टी की और उसे चारा दिया। समय पाकर पक्षी स्वस्थ होने लगा। फिर एक बार देवदत्त ने सिद्धार्थ से कहा कि मेरा पक्षी मुझे दे दो, परन्तु सिद्धार्थ नहीं माना। लाचार हो देवदत्त ने महाराज के पास जाकर न्याय की पुकार की। महाराज ने दोनों को दरबार में बुलाया।
राजकुमार सिद्धार्थ राजहंस को गोद में लिए हुए राज-दरबार में पहुँचे। पक्षी डर के मारे कुमार के शरीर से चिपट रहा था। महाराज ने देवदत्त से पूछा कि अब तुम अपनी बात कहो। इस पर देवदत्त ने कहा- महाराज! इस पक्षी को मैंने अपने बाण से मारा है, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। आप चाहें तो, कुमार सिद्धार्थ से ही पूछ लें।
महाराज की आज्ञा पाकर राजकुमार सिद्धार्थ ने खड़े होकर माथा झुकाकर नम्रता से कहा-हे राजन्, यह तो ठीक है कि यह पक्षी देवदत्त के बाण से घायल हुआ है, पर मैंने इसे बचाया है। मारने वाले की अपेक्षा बचाने वाले का अधिक अधिकार होता है। इसलिए यह पक्षी मेरा है।
अब राजा बड़ी सोच में पड़े। देवदत्त का अधिकार जताना भी ठीक था और सिद्धार्थ का भी। राजा कोई निर्णय न कर सके। अंत में एक वृद्ध मन्त्री ने उठकर कहा कि हे महाराज! इस पक्षी को सभा के बीच में छोड़ दिया जाए। दोनों कुमार बारी-बारी से इसे अपने पास बुलाएँ। पक्षी जिसके पास चला जाए, उसीको दे दिया जाए। यह विचार सबको पसंद आया।
अब पक्षी को सभा के ठीक बीच में छोड़ दिया गया। एक कोने पर सिद्धार्थ खड़े हुए और दूसरे कोने पर देवदत्त। पहले देवदत्त की बारी थी, उसने पक्षी को बड़े प्रेम से बुलाया, परन्तु वह डर के मारे उससे और दूर हट गया। ज्यों-ज्यों वह बुलाए, पक्षी डर से सिकुड़ता जाए। अंत में देवदत्त हताश हो गया, अब कुमार सिद्धार्थ की बारी थी। ज्योंही उन्होंने प्यार भरी आँखों से पक्षी की ओर देखकर हाथ फैलाया और उसे बुलाया, त्यों ही वह धीरे-धीरे चलता हुआ अपने बचाने वाले की गोद में आकर बैठ गया। हंस सिद्धार्थ को दे दिया गया।
कुमार सिद्धार्थ उस पक्षी की दिन-रात सेवा करने लगे। कुछ दिनों बाद राजहंस पूर्ण स्वस्थ होकर उड़ गया।
जानते हो ये कुमार सिद्धार्थ कौन थे? यही बाद में राजपाट छोड़कर गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने अहिंसा का पाठ सारे संसार को पढ़ाया। आज भी चीन, जापान आदि कई देश बौद्ध मत को मानते हैं। हमारी सरकार ने भी कुछ साल पहले बड़े समारोह से गया के पवित्र तीर्थ में उनकी जयन्ती मनाई।

४. महावीर
आज से ढाई हजार वर्ष पहले इस भारत भूमि पर सिद्धार्थ नाम के एक बड़े धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। ये इक्ष्वाकु कुल के थे। ये और इनकी महारानी का नाम त्रिशला था। इनकी प्रजा बड़ी सुखी थी। राज्य धन-धान्य से भरपूर था।
एक बार महारानी को बड़ा सुन्दर स्वप्न आया, जिसका अर्थ यह था कि उन्हें एक शूरवीर और महान् धार्मिक पुत्र प्राप्त होगा। भगवान् की लीला, उसी दिन से राज्य में दिन दूनी, रात चौगुनी उन्नति होने लगी। राजा और रानी सारा-सारा दिन सत्संग और दीन-दुखियों की सेवा में लगे रहते।
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को सोमवार के दिन प्रातः काल के समय इनके घर पुत्र हुआ। शिशु का रंग कुन्दन की तरह चमक रहा था। सभी अंग बड़े सुन्दर थे। अब तो राजा-रानी फूले न समाते थे। एक बार संजय और विजय नामक साधु शिशु को देखने आए। उसे देखते ही उनकी सब शंकाएँ और अज्ञान मिट गया, उनका मन जल की तरह निर्मल हो गया। राजकुमार के दो नाम रखे गए-वीर और वर्धमान।
एक बार राजकुमार अपने मित्रों के साथ पेड़ पर उछल-कूद रहे थे कि एक भयानक काला नाग पेड़ पर जा चढ़ा। राजकुमार के सब साथी डरकर भाग खड़े हुए, परन्तु राजकुमार बिलकुल न डरे और उसके फन पर पैर रखकर नीचे उतरकर उसको खूब जोर-जोर से हिलाने-डुलाने लगे और बहुत देर तक खेलते रहे। इसके बाद कुमार को सोने के घड़े में जल लेकर नहलाया गया और इनका नाम महावीर रख दिया गया।
जब ये पाँच वर्ष के हुए, तो कुल की रीति के अनुसार इन्हें गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा गया। ये बहुत थोड़े समय में ही सब-कुछ सीख गए। आठ वर्ष की आयुसे ही इनके मन में यह विचार आया कि सच्चा सुख केवल त्याग से ही मिल सकता है। इस संसार के सभी सुखों का अन्त दुःख में होता है। उन्होंने कठोर व्रतों का पालन शुरु कर दिया और गृहस्थ के कामों को भी करते रहे। जब तक ये महापुरुष घर में रहे, इन्होंने सारे कर्तव्य भली-भाँति पालन किए और उनसे कभी भी मुख नहीं मोड़ा। परन्तु वे सदा ही विचारते रहे कि किस प्रकार जन्म-मरण के चक्र से छूटा जा सकता है और परम आनंद मिल सकता है। इन्होंने सदा माता-पिता और गुरु की हर आज्ञा को माना और तन, मन, धन से उनकी सेवा करते रहे। वे विवाह न कर कठोर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते रहे।
भगवान् महावीर संस्कृत और दूसरी भाषाओं के महान् विद्वान् थे। एक दिन आप प्रभु के ध्यान में बैठे थे कि पूर्वजन्मों का चित्र आँखों के सामने खिंच गया और विचारने लगे कि अनेक जन्म बीत गए और इस जन्म के भी तीस वर्ष बीत गए हैं, परन्तु अभी मोह मेरे मन से दूर नहीं हुआ। आप फूट-फूटकर रोए। आपने एकाएक घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और माता-पिता को समझा-बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर घर को सदा के लिए त्याग दिया। आपने वन में पहुँचते ही कपड़े और गहने उतारकर फेंक दिए और अपने बालों को उखाड़ दिया। अब आपने कठोर तपस्या शुरु कर दी। एक बार पूरे छः मास तक समाधि में बैठे रहे। न कुछ खाया और न पिया। इसके बाद कुलपुर गए। वहाँ के राजा ने उनका बहुत आदर किया और प्रेम से भोजन कराया।
अब आप घूमने लगे पर सदा प्रभु के ध्यान में ही रहते। घनघोर भयानक जंगलों में आप रहे। एक बार आप कौशाम्बी नामक नगर में पधारे, वहाँ चन्दना नाम की एक धर्मात्मा और सुशीला देवी थीं। इनके जीवन पर आपके उपदेश और सत्संग का बहुत प्रभाव हुआ। ये भी आयु-भर ब्रह्मचारिणी रहीं। इन्होंने छत्तीस हजार देवियों के हृदय में धर्म का बीज बोया और आयु-भर धर्म-प्रचार करती रहीं।
घर छोड़ने के बाद बारह वर्ष तक भगवान् महावीर ने कठोर तप किया और अन्त में ऋजुकुल नदी के किनारे पर जम्बक नामक गाँव में शाल वृक्ष के नीचे आपको सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। आपके सब संशय मिट गए। अब तो आप संसार के उपकार के लिए निकल पड़े। प्रतापी मगध-नरेश श्रेणिक बिम्बिसार भगवान् के चरणों में बैठकर उपदेश लिया करते थे।
पण्डित इन्द्रभूति उस समय बहुत बड़े विद्वान् माने जाते थे। इसी कारण उन्हें विद्या का घमंड भी था। वे आपके दर्शनों को आये। आपके पवित्र दर्शन करते ही हार मान ली और साथियों सहित आपको गुरु मान लिया। जिस दिन भगवान् महावीर ने शरीर छोड़ा, उसी दिन इन्द्रभूति को सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्रभूति के समान और भी बड़े-बड़े विद्वानों ने आपको गुरु माना।
लाखों लोग भगवान् का उपदेश सुनते थकते ही नहीं थे। आपके भक्त आपके साथ ही साथ आया करते थे। सच्चा ज्ञान पाने के बाद भगवान् ने तीस वर्ष तक संसार को शान्ति का उपदेश दिया।
पावापुरी नामक स्थान पर दीवाली के दिन दिये जलने के समय साँझ की बेला में आपने देह त्यागकर सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाई। आज भी हमारे देश में लाखों लोग इनके चलाये जैन धर्म को मानते हैं और अपना जन्म पवित्र करते हैं।

५. सच्चे व्यापारी नानक
आज से पाँच सौ वर्ष पहले, संवत् १५२६ की कार्तिकी पूर्णिमा के शुभ दिन पंजाब में लाहौर नगर के पास तलवंडी नामक स्थान पर एक खत्री परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम नानक रखा गया। इसके पिता का नाम कल्याणचन्द था, परन्तु लोग इन्हें कालू नाम से ही पुकारते थे।
जब नानक सात वर्ष के हुए तो इन्हें पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया। पण्डित जी ने इनकी पाटी पर गिनती लिखकर दी। नानक ने कहा-पण्डित जी! यह विद्या तो संसार के झगड़े में डालने वाली है, आप तो मुझे वह विद्या पढ़ाएँ, जिसे जानकर सच्चा सुख मिलता है। मुझे तो प्रभु नाम का उपदेश दें। यह सुनकर पण्डित जी हैरान रह गए, फिर भी नानक जी ने दो वर्ष तक पढ़ाई की। नानक प्रायः दूसरे बच्चों की तरह खेल-कूद में समय नहीं बिताते थे। परन्तु जब भी उन्हें देखो, आसन लगाकर भगवान् के भजन में मस्त होते। वे दूसरे बच्चों को भगवान के भजन का उपदेश देते।
एक बार इनके पिता ने इन्हें बीस रुपये दिए और कहा कि लाहौर जाकर कोई सच्चा व्यापार करो, जिससे कुछ लाभ हो। इनके साथ अपने विश्वासी कर्मचारी बाला को भी भेजा। नानक बाला को साथ लेकर लाहौर की ओर चल पड़े। जब वे जूहड़काणे के निकट जंगल में पहुँचे तो देखा कुछ साधु तपस्या कर रहे हैं। नानक ने पास जाकर उनके चरण छुए। पता लगा कि वे सात दिन से भूखे हैं। नानक ने बाला से कहा-इससे बढ़कर और सच्चा व्यापार क्या होगा! आओ, इन साधुओं को भोजन कराएँ। ऐसा कहकर नानक उनके निकट जा बैठे और बीस रुपये भेंट कर दिए। उनमें बड़े महात्मा ने कहा-बेटा, रुपये हमारे किस काम के? तुम्हे ये रुपये व्यापार के लिए तुम्हारे पिता ने दिये हैं, तुम्हें उनकी आज्ञा के अनुसार ही काम करना चाहिए।
नानक ने कहा-महाराज! पिताजी ने मुझे सच्चा व्यापार करने के लिए भेजा है, इसीलिए मैं यह खरा व्यापार कर रहा हूँ। मैं और सब व्यापार झूठे समझता हूँ।
अब महात्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले-तू सच्चा प्रभु-भक्त है, इन रुपयों से खाने का सामान ले आ। नानक ने बाला को साथ लेकर पास के गाँव से आटा, दाल, चावल, घी, शक्कर आदि सब वस्तुएँ लाकर महात्मा जी को भेंट कर दीं। फिर महात्माओं के चरण छूकर वे घर को वापस लौट पड़े। घर पहुँचने पर जब उनके पिता को यह मालूम हुआ, तो उन्होंने नानक को बहुत पीटा। नानक की बहिन नानकी ने बीच में पड़कर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया।
गाँव के हाकिम राव बुलार नानक के गुणों को जानते थे। उन्होंने कालू को बुलाकर बीस रुपये दे दिए और कहा कि इस बालक को कभी कुछ मत कहना। यह एक महान् पुरुष है। गांव के हाकिम के समझाने से कालू ने नानक को उसके बहनोई के पास सुलतानपुर भिजवा दिया। ये बड़े सज्जन पुरुष थे, ये नानक जी को सदा भगवान् के भजन में आनन्द लूटते देखते। यहीं नानक जी का विवाह हुआ और दो पुत्र भी हुए। यहाँ पर नानक जी ने मोदीखाने का काम किया। कई वर्ष काम करने के बाद इनका मन संसार से उठ गया। वे घर से चले गए। परन्तु तीसरे दिन ही वे बहनोई के घर लौट आए। साधुओं के वेश में इन्होंने लोगों को अपनी मोदीखाने की दुकान लूटने की आज्ञा दे दी और आप गाँव के बाहर जाकर प्रभु-भजन करने लगे। लोगों ने दुकान को जी भरकर लूटा।
उधर समाचार गाँव के नवाब दौलत खाँ को मिला तो वे आग-बबूला हो उठे। उन्होंने नानक के बहनोई को बुलवाया और कहा कि सरकारी मोदीखाना को लुटाने का सारा दोष तुम और नानक दोनों पर है, मैं अभी हिसाब करता हूँ। जब हिसाब हुआ तो उल्टा नानक जी का सात सौ आठ रुपया नवाब की ओर निकला। सब हैरान रह गए। नानक के कहने पर यह रुपया गरीबों में बाँटा गया। अब तो नानक के दर्शनों को बहुत लोग आने लगे। प्रभु-भजन में बाधा देखकर नानक वहाँ से एमनाबाद में आकर लालू नामक बढ़ई के घर ठहरे।
एक दिन वहाँ के रईस भागू ने नानक जी को भोजन के लिए निमंत्रण दिया। इसी बीच लालू बढ़ई भी भोजन ले आया। नानक जी रईस का भोजन अस्वीकार कर लालू का भोजन करने लगे। अब भागू को बड़ा क्रोध आया। वह स्वयं उनकी सेवा में पहुँच इसका कारण पूछने लगा कि स्वादिष्ट और बढ़िया भोजन छोड़कर आपने नीच लालू का रूखा भोजन क्यों पसन्द किया? नानक जी ने कहा कि तुम भी अपना भोजन ले आओ। जब भोजन आ गया तो नानक जी ने एक हाथ में लालू की सूखी रोटी और दूसरे में भागू की बढ़िया रोटी लेकर जोर से दबाई। लोगों की हैरानी का कोई पार न रहा, जब लालू की रोटी से दूध की बूँदें और भागू की रोटी से खून की बूँदें टपकीं।
लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सूखी रोटी तो सच्चे खून-पसीने की कमाई की है और यह स्वादिष्ट भोजन गरीबों का खून चूस-चूसकर बनाया गया है। इसलिए सदा मेहनत और धर्म से ही धन कमाना चाहिए, वही फलता और फूलता है। भागू ने उनके चरण पकड़ लिए और शिष्य बन गया।
अब नानक देव जी मक्का-मदीना आदि सब स्थानों की यात्रा करने लगे। इनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य बने। सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर छोड़ा। जीवन-भर वे धर्म और सच्चाई की राह बताते रहे और अमर हो गये।

६. आदर्श गुरुभक्त दयानन्द
लगभग सवा सौ वर्ष हुए, गुजरात प्रान्त के मोरबी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम मूलशंकर रखा गया। इसके पिता अम्बाशंकर जी एक बड़े भूमिहार थे। वे शिवजी के बड़े भक्त थे। जब मूलशंकर बड़ा हुआ, तो उन्होंने अपने कुल की रीति के अनुसार उसे शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा। पिता ने पुत्र को समझाया कि सच्चे हृदय से शिवजी की पूजा करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्त को निहाल कर देते हैं। मूलशंकर ने निश्चय किया कि मैं बिना अन्न-जल ग्रहण किये सारी रात जागकर शिव जी की पूजा करूँगा और उन्हें प्राप्त करूँगा।
शिवरात्रि के दिन सायंकाल ग्राम के शिव-मंदिर में एक-एक करके भक्तों की टोलियाँ पहुँच गईं। मूलशंकर और इनके पिता भी मंदिर में आ गए। आज दिन-भर मूलशंकर ने कुछ भी खाया-पिया नहीं था।
मंदिर में आरती के बाद शिवजी की पूजन शुरू हुआ। जब आधी रात बीत गई तो एक-एक करके सब लोग सो गये। मूलशंकर के पिता भी सो गये। केवल मूलशंकर बार-बार आँखों पर जल के छींटे देकर शिवजी का पूजन करते रहे। उन्होंने देखा कि चूहे शिवलिंग पर चढ़कर मिठाई खाने लगे। यह देखकर उन्हें हृदय में शंका हुई कि सारे संसार को चलाने वाले शिवजी अगर अपने ऊपर से एक चूहे को नहीं हटा सकते, तो वे मेरी क्या रक्षा करेंगे?
उन्होंने अपने पिता को जगाया और उन्हें अपनी शंका बताई। उन्होंने उत्तर दिया- बेटा, सच्चे शिव तो कैलाश पर्वत पर रहते हैं, कलियुग में उनके दर्शन नहीं होते, इसलिए मंदिर में मूर्ति बनाकर उनकी पूजा की जाती है। इस उत्तर से मूलशंकर को संतोष नहीं हुआ और मूर्ति पूजा से उनका विश्वास उठ गया। साथ ही साथ यह प्रण भी कर लिया कि मैं सच्चे शिव को ढूँढ़कर उनकी ही पूजा करूँगा। अब मूलशंकर को भूख सताने लगी। वे पिता की आज्ञा लेकर घर लौट आये, माता से लेकर कुछ खा लिया और सो गये।
कुछ दिनों बाद आपकी छोटी बहिन का देहान्त हुआ। सारा परिवार रोता रहा, पर मूलशंकर की आँखों में कोई आँसू नहीं था। वह कोने में खड़ा सोच रहा था कि मृत्यु क्या है, इससे कैसे बचा जाए। फिर कुछ दिन बीतने पर इनके चाचा की मृत्यु हुई। ये भगवान के बड़े भक्त थे और मूलशंकर को बहुत प्यार करते थे। अब तो मूलशंकर फूट-फूटकर रोए और उन्होंने दूसरा प्रण किया कि मैं मौत को अवश्य जीतूँगा। ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’-होनहार बालक सदा हर बात को विचारा करते हैं और जब एक बार कोई निश्चय कर लेते हैं तो सारी आयु-भर उसे पाने के लिए जुट जाते हैं। कठोर से कठोर विपत्ति भी उन्हें अपने मार्ग से नहीं हटा सकती। फिर अन्त में अपने लक्ष्य को पाकर वे अमर हो जाते हैं।
अब मूलशंकर उदास रहने लगे। उन्होंने अपने मित्रों से किसी योगी का पता पूछा जो सच्चे शिव को प्राप्त करने और मृत्यु को जीतने का उपाय बता सके। उधर माता-पिता को चिन्ता हुई और उन्होंने उसका विवाह करने की ठान ली। जब मूलशंकर को पता लगा तो इन्होंने साफ-साफ कह दिया कि मैं विवाह नहीं करूँगा, योगाभ्यास से मृत्यु को जीतूँगा और सच्चे शिव को पाऊँगा। कुछ समय तो माता-पिता रुक गए पर फिर उन्होंने उनके विवाह की बात पक्की कर ही दी। अपनी धुन के पक्के मूलशंकर ने जब और कोई चारा न देखा तो अपने घर को सदा के लिए छोड़ दिया। इस समय इनकी आयु बाईस वर्ष की थी।
आपने घर छोड़ने के बाद संन्यास ले लिया। नाम हुआ दयानन्द। वर्षों जंगलों की खाक छानी। बड़े-बड़े महात्माओं की सेवा कर बहुत-कुछ सीखा, पर ज्ञानकी प्यास नहीं बुझी। अन्त में दण्डी स्वामी विरजानन्द के पास जाकर डेढ़ वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करते रहे। ये महात्मा सूरदास थे और मथुरा नगरी में रहते थे। जब तक ऋषि दयानन्द मथुरा में रहे, दिन-भर में यमुना जल के चालीसों घड़े लाकर अपने गुरुदेव को स्नान कराते, उनकी सेवा करते।
इन दिनों दयानन्द जी का शरीर देखते ही बनता था, लम्बा कद, बाहुएँ बड़ी-बड़ी, माथा-चौड़ा और मोटी-मोटी आँखें। शरीर का गठन बहुत सुन्दर था। इस समय आपकी आयु सैंतीस वर्ष की थी। इन दिनों मथुरा में स्थान-स्थान पर उनके ब्रह्मचर्य व्रत और त्याग की प्रशंसा होती थी। पर महात्मा दयानन्द सदा नीची दृष्टि रखकर चलते थे। यदि कोई छोटी-सी बालिका भी सामने आ जाती तो माता कहकर सिर झुका देते थे।
एक बार ऋषि दयानन्द अपने गुरु की कुटिया में झाड़ू लगा रहे थे। सब गन्दगी एक कोने में बटोर रहे थे कि गुरुदेव भी उधर ही आ गए और उनका पाँव उसमें जा लगा। इस पर उन्होंने दयानन्द को बहुत पीटा। महर्षि दयानन्द जी उठकर गुरुजी के हाथ-पाँव दबाने लगे और कहा कि गुरुदेव मेरा शरीर तो पत्थर जैसा है और आपका शरीर कोमल है। आपको मुझे मारते समय कष्ट होता होगा, इसलिए मुझे मत मारा करें। कहते हैं, उस चोट का निशान सारी आयुभर आपकी दाईं बाहु पर बना रहा। जब भी उसे देखते, गुरु के उपकारों को याद करने लग जाते।
पढ़ाई समाप्त होने पर गुरु की आज्ञा से महर्षि दयानन्द देश में बढ़ती हुई अविद्या को मिटाने में जुट गये। इन दिनों लोगों ने आपको 48-48 घंटे लगातार समाधि में बैठे देखा। आपका चेहरा तेजोमय चक्र से घिरा रहता था। आपने छोटी आयु में विवाह, अनमेल विवाह, मूर्ति-पूजा आदि कई समाज की बुराइयों का कठोरता से खंडन किया। एक ईश्वर की पूजा, ब्रह्मचर्य व्रत और वेदों के पठन-पाठन का बहुत प्रचार किया।
एक बार घोर सर्दी पड़ रही थी। आप एक सभा में ब्रह्मचर्य पर उपदेश कर रहे थे। आप केवल लंगोट पहनते थे। उस समय सभी लोग गरम-गरम कपड़े पहने हुए भी सरदी से ठिठुर रहे थे। किसी ने कहा कि ब्रह्मचर्य का कोई नमूना दिखाइए। आपने इतने बल से अपने दोनों अँगूठों को जांघों पर दबाया कि शरीर से टप-टप पसीने की बूँदें गिरने लगीं। लोग दंग रह गए। ‘धन्य-धन्य’ की पुकार से आकाश गूँज उठा।
एक बार एक राजा ने भी महर्षि दयानन्द से ब्रह्मचर्य का कोई चमत्कार दिखाने के लिए प्रार्थना की। एक बार वही राजा अपनी छः घोड़ों की बग्घी में कहीं जाना चाहते थे कि बाल-ब्रह्मचारी दयानन्द ने एक हाथ से बग्घी के पहिये को पकड़ लिया। कोच-वान घोड़ों पर लगातार चाबुक मार रहा है, पर घोड़ें एक अंगुल भी आगे नहीं जा पाये। हैरान होकर राजा ने पीछे मुड़कर देखा कि महर्षि दयानन्द गाड़ी को थामे हैं। राजा ने उतरकर आपके चरण पकड़ लिये।
धर्म-प्रचार करने में और अपने बिछुड़े भाइयों को जो यवन और ईसाई बन गए थे। अपने में शुद्ध करके मिला लेने के कारण कई लोग आपके शत्रु हो गए। आप राजपूताना के राजाओं में धर्म का बीज बो रहे थे। आप चाहते थे कि सब राजा आपस में प्रेमसूत्र में बँधकर संगठित होकर देश से विदेशी शासन को उखाड़ फेंकें और देश स्वतंत्र हो।
जब आप जोधपुर पधारे तो आपको दूध में विष मिलाकर तथा शीशा पीसकर दिया गया, जिसने आपकी नस-नस को काट डाला। एक मास बाद दीपावली की सायंकाल को आपने नाई को बुलाकर बाल बनवाए, स्नान किया और साफ वस्त्र पहनकर आसन लगाकर बैठ गए। प्रभु को धन्यवाद किया और तीन बार कहा कि ऐ प्रभु! तूने अच्छी लीला की। फिर ब्रह्मरन्ध्र (सिर के ऊपरी भाग) से अपने प्राण निकाल दिए।
मृत्यु के समय आपके पास नास्तिक गुरुदत्त बैठे हुए थे। जो संस्कृत, अंग्रेजी के महान् विद्वान थे। इस दृश्य को देखते ही इन्हें प्रभु में विश्वास हो गया और ये आजन्म वैदिक धर्म का प्रचार ही करते रहे।
प्यारे बालको! इस प्रकार महर्षि दयानन्द ने सच्चे शिव को ढूँढ़ा और मृत्यु को जीतकर अपने जीवन का लक्ष्य पूरा किया। साथ ही भूले-भटके संसार को भी सच्ची राह बताई। जब तक जिये, दूसरों के भले के लिए ही जिये और अपना शरीर भी समाज की भेंट चढ़ा गये।

७. सत्य के पुजारी महात्मा गांधी
आज से सौ वर्ष पहले आश्विन् वदि 12, संवत् 1925 को पोरबन्दर (गुजरात प्रान्त) में एक सम्मानित परिवार में महात्मा गांधी जी का जन्म हुआ। इनका नाम मोहनदास करमचन्द गांधी रखा गया। गुजरात में नाम रखने की रीति ऐसी है कि आगे पुत्र का नाम, पीछे पिता का नाम और अन्त में जाति का नाम होता है। ये अपने परिवार में सबसे छोटे और सबसे अधिक स्वस्थ और सुन्दर थे।
इनके पिता पोरबन्दर से राजकोट में जा बसे। वहीं पर सात वर्ष की आयु में इन्हें पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। जब हाईस्कूल के प्रथम वर्ष की परीक्षा का समय आया तो इंस्पेक्टर साहब परीक्षा लेने के लिए आये। स्कूल सजाया गया और अगले दिन सब बालक अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर स्कूल में आये।
गांधी जी की कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखवाये गये। चार शब्द तो सबने ठीक लिखे, पर पाँचवाँ शब्द बालक गांधी ने गलत लिखा। अध्यापक ने जब उसे गलत लिखते देखा तो इंस्पेक्टर महोदय की नजर बचाकर पाँव की ठोकर से उसे सावधान किया और इशारा किया कि अगले बालक की स्लेट पर से नकल कर ले। पर बालक गांधी के हृदय में ये संस्कार जमे थे कि नकल न करें, इसलिए उसने नकल न की। इस भूल पर उसे इंस्पेक्टर महोदय ने डाँटा और बाद में अन्य बालकों ने भी हँसी उड़ाई।
इंस्पेक्टर महोदय के जाने के बाद अध्यापक ने बालक गांधी को बुलाया और उससे पूछा कि मेरे संकेत करने पर भी तुमने नकल नहीं की और मेरा अपमान करवाया। इस पर बालक गांधी ने नम्रता से सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर कहा कि मास्टर जी! यह तो ठीक है कि आपने मुझे नकल करने के लिए संकेत किया था, पर भगवान् तो सब जगह मौजूद हैं, कोई स्थान उनसे खाली नहीं, इसलिए नकल कैसे करता? ऐसी सच्ची बात सुनकर अध्यापक को रोमांच हो आया। उसने बालक को पास बुलाया और आशीर्वाद दिया कि एक दिन संसार में तुम्हारा नाम खूब चमकेगा।
एक बार इनके पिता ‘श्रवण कुमार’ नामक नाटक की पुस्तक लाये। इसे इन्होंने बड़े चाव और प्रेम से पढ़ा। उन्हीं दिनों शीशे में तस्वीर दिखाने वाले भी आया करते थे। उनमें यह दृश्य देखा कि श्रवण कुमार माता-पिता की बहंगी (काँवड़) उठाए तीर्थ यात्रा कर रहा है। अब तो बालक गांधी ने श्रवण कुमार की तरह माता-पिता की सेवा करने की मन में ठान ली। उन्होंने माता-पिता की आज्ञा-पालन में ही शेष जीवन बिताया।
एक बार ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक में सत्य के लिए कठोर विपत्तियाँ सहते देख इनको रुलाई आ गई और जीवन-भर इन्होंने सत्य बोलने का व्रत लिया।
बचपन में ही महात्मा जी अपने सभी कार्य अपने हाथों करते। कपड़े भी अपने हाथ से ही धोते थे। आपकी देखादेखी आपके साथी भी ऐसा ही करते थे। जब बैरिस्टर बनकर अफ्रीका गये तो प्रतिदिन एक कोढ़ी को घर ला, उसकी अपने हाथ से सेवा करते थे।
सन् 1942 में आपने कांग्रेस में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार कराया, जो आपके सत्य और अहिंसा का जीता-जागता प्रमाण है। अंग्रेज भारत छोड़ने पर मजबूर हुए और देश स्वतंत्र हुआ। इनके त्याग बलिदानों के लिये ही आज संपूर्ण राष्ट्र इन्हें राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी के नाम से पूजता है।

८. राष्ट्र भक्त नेताजी
आज से पचहत्तर वर्ष पहले उड़ीसा प्रान्त के कटक नामक नगर में एक प्रतिष्ठित परिवार में नेताजी का जन्म हुआ। बालक का नाम सुभाषचन्द्र बोस रखा गया। आप सब आठ भाई और छः बहिन थे। आप सबसे छोटे थे।
पाँच वर्ष की आयु में आपको एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। उस समय भारतवर्ष में अंग्रेजों का राज्य था। अंग्रेज बात-बात में भारतीयों का अपमान करते थे। इसी तरह इस स्कूल में भी बंगाली छात्रों का अपमान किया जाता। जब यह सब उस होनहार बालक ने देखा, तो उसे बिल्कुल अच्छा न लगा। उसको यह जानकर बड़ा दुःख हुआ कि कोई भी भारतीय छात्र उनका विरोध करने का साहस नहीं करता और चुपचाप सब कुछ सहन किए जाता है। अब तो हमारे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, जो उस समय बालक थे, बदला लेने पर उतारू हो गये।
एक बार सब विद्यार्थी खेल रहे थे कि उनमें से एक अंग्रेज विद्यार्थी बोला कि भारतीय बहुत नीच होते हैं। इस पर दूसरा अंग्रेज छात्र बोला-मैं इन्हें जहाँ देखता हूँ, ठोकर मार देता हूँ। यह सुनकर सभी भारतीय बालक तिलमिला उठे, पर वे एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अब सुभाष बोस से न रहा गया और एकदम उन अंग्रेज लड़कों के सामने जाकर क्रोध से बोले- मैं भारतीय हूँ, बोलो, क्या कहते हो? बालक सुभाष का यह रूप देखकर अंग्रेज बालकों के होश उड़ गए और वे अपराधी की तरह कुछ नहीं बोले, तब हमारे नेताजी सुभाष बोस उनकी ओर बढ़े और बोले-भारतीय नीच होते हैं? ऐसा कहकर उन दोनों को ठोकर से भूमि पर गिरा दिया।
अब तो सारा स्कूल थर्रा उठा। भारतीय लड़कों की प्रसन्नता का पार न रहा। ‘सुभाष बोस जिन्दाबाद और अंग्रेज मुर्दाबाद’ के नारों से आकाश गूँज उठा। मुख्याध्यापक ने सुना तो घबरा गये, पर समय देखकर चुप रह गये।
अब आप सुनें, इनका सेवा-भाव। जब इनकी आयु बारह वर्ष की हुई, तो एक बार नगर में हैजे का रोग खूब फैल रहा था और लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। इन्होंने अपने साथियों की एक टोली बनाई और नगर की निर्धन बस्ती में जाकर लोगों की सेवा करने लगे। इन बालकों ने सेवा में दिन-रात एक कर दिया। अपने पास से औषधि देते और कहानियाँ सुनाकर उन्हें प्रसन्न रखते।
संसार में सभी प्रकार के लोग होते हैं। इस बस्ती में कुछ लोगों ने इनका विरोध किया ओर कहा कि ये धनी लोगों के बालक हमारा अपमान करने आते हैं। पर इन बालकों ने किसी बात की ओर ध्यान न दिया और सेवा करते रहे। इस बस्ती का सबसे बड़ा गुुंडा और इनका विरोधी हैदर खां था। यह कई बार जेल जा चुका था। प्रभु की लीला, इसका घर भी इस भयंकर रोग से न बच सका। इसने बहुत से हाथ-पाँव मारे कि कोई डाक्टर या वैद्य मिल जाए, पर कोई प्रबन्ध न हुआ! अन्त में निराश होकर माथे पर हाथ धरकर भाग्य को कोसने लगा। इतने में क्या देखता है कि उन्हीं सेवाव्रती बालकों का झुंड उसके टूटे-फूटे मकान में घुसकर रोगियों की सेवा में जुट गया। मकान को साफ किया गया, रोगियों को औषधि दी गई और उनकी उचित सेवा की गई।
इन बालकों ने कई दिन तक उस परिवार की सेवा की और अन्त में प्रभु की कृपा से घर के सब प्राणी निरोग हो गए। अब तो उस नामी गुुंडे को भी रुलाई आ गई और उसने हाथ जोड़कर उन बालकों से क्षमा माँगी और बोला- मैं कितना पापी हूँ! मैंने आपका जी भरकर विरोध किया, पर आपने उल्टा मेरे परिवार को जीवन-दान दिया। उसका मुँह आँसुओं से भीग गया। यह देखकर उस दल के मुखिया बालक सुभाष ने कहा-तुम इतने दुःखी क्यों होते हो, तुम्हारा घर गन्दा होने से ही रोग घर में आ गया और इसी कारण यह कष्ट उठाना पड़ा।
हैदर खाँ बोला-नहीं, मेरा मन और घर दोनों गन्दे थे, आपकी सेवा ने दोनों का ही मैल साफ कर दिया। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता। भगवान् आपका भला करे!
बड़े होने पर आपने आई.सी.एस. परीक्षा पास करने पर भी अंग्रेजों की नौकरी करना स्वीकार नहीं किया। आई.सी.एस उस परीक्षा का नाम है, जिसमें पास होने पर डिप्टी कमिश्नर आदि बड़े-बड़े पद प्राप्त होते हैं। आप आयु-भर देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़े। आपकी आयु का बहुत बड़ा भाग जेल में बीता और इसी कारण आप बीमार रहने लगे।
आपने कुछ समय बाद देश से बाहर जाकर आजाद हिन्द फौज बनाई और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में आप सफल न हुए, युद्ध में ही आप लापता हो गए और फिर कभी आपकी कोई खबर नहीं मिली। परन्तु बाद में भारतीय जल और थल सेनाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फिर कोई चारा न देखकर 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी। यह है उस महान् पुरुष के त्याग और तपस्या का फल, जिसका नाम लेते ही भारत के बच्चे-बच्चे की आँखों में आँसू आ जाते हैं। ‘नेताजी’ को आज भी भारत का प्रत्येक नर-नारी श्रद्धा के फूल अर्पित करता है।

९. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले संवत् १८६७ में बंगाल प्रान्त में कलकत्ता के पास वीरसिंह नामक ग्राम में आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नाम ठाकुरदास और माता का नाम भगवती देवी था। आपके पिता बहुत निर्धन थे। ईश्वरचन्द्र के जन्म के समय वे कलकत्ता में नौकरी करते थे और केवल आठ रुपये मासिक वेतन पाते थे।
जब आपको पढ़ने के लिए गाँव के विद्यालय में भेजा गया, तब आप पाँच वर्ष के थे। नौ वर्ष की आयु में आप अपने पिता के पास कलकत्ता में पढ़ने के लिए चले गये। भर-पेट भोजन न मिलने पर भी आप इतना परिश्रम करते थे कि हर कक्षा में सदा प्रथम रहा करते थे। इसी कारण से आपको बचपन से ही छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हो गई। जो धन आपको छात्रवृत्ति से मिलता था, उससे आप दूसरे गरीब छात्रों की सदा सहायता करते रहे। उनके रोगी होने पर उन्हें औषधि भी अपने पास से देते थे। स्वयं तो घर के कते हुए सूत से बने हुए कपड़े पहनते थे, परन्तु दूसरे गरीब छात्रों को अपने से अच्छे कपड़े खरीद देते थे। बालकों की कौन कहे, बड़ों में भी इतना त्याग नहीं मिलता। दूसरों के लिए ईश्वरचन्द्र जी सदा अपने कष्टों को भूल जाया करते। एक ओर पेट भर भोजन न मिलना और दूसरी ओर अपने और अपने पिता के लिए भोजन बनाना और जिस पर सदा गरीब बालकों की सहायता करना और फिर अपनी कक्षा में सदा प्रथम आना।
इतना अधिक परिश्रम करने के कारण आप कई बार रोगी हो जाते थे, परन्तु अपनी पढ़ाई में कभी ढील न आने देते। आप कहा करते थे कि माता-पिता की पूजा छोड़कर या उनके दुःखों और कष्टों पर ध्यान न देकर भगवान् की पूजा करने से कोई लाभ नहीं होता। जिन्होंने स्वयं दुःख और कष्ट सहकर हमें पाला और पोसा है, वे ही हमारे परम देवता है। आप जब तक जिये, अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध कभी कोई काम नहीं किया। इक्कीस वर्ष की आयु में आपको ‘विद्यासागर’ की उपाधि मिली और संस्कृत के महान् पंडित बनकर निकले।
आपने सबसे पहले तीस रुपये मासिक वेतन पर फोर्ट विलियम कालेज में नौकरी की। जिस दिन से आपने नौकरी शुरू की, पिताजी को नौकरी छुड़वा दी और उन्हें गाँव भिजवा दिया।
आपके छोटे भाई का विवाह होना था, माता ने बुला भेजा। आपको छुट्टी नहीं मिली। आपने पिं्रसिपल महोदय से साफ-साफ कह दिया कि या तो छुट्टी दीजिए या त्याग-पत्र लीजिए। आपकी मातृ-भक्ति देखकर पिं्रसिपल महोदय ने प्रसन्न होकर छुट्टी दे दी। आप उसी समय एक नौकर को साथ लेकर चल दिये।
बरसात के कारण रास्ता खराब हो गया था। आप बहुत तेज चलते थे और थकते नहीं थे, पर नौकर नहीं चल सका, इसलिए उसे लौटा दिया। दूसरे दिन ही विवाह था। आप बड़ी तेज चाल से चले और दामोदर नदी के तट पर पहुँचे। देखा नाव दूर थी, आने में देर लगेगी। आप एकदम नदी में कूद पड़े और बड़ी कठिनाई से पार पहुँचे। बिना कुछ खाए-पिए आप सनसनाते हुए घर की ओर चल दिए। मार्ग में एक और नदी मिली, उसे भी तैरकर पार किया। चलते-चलते शाम हो गई, चोरों का बड़ा डर था। परन्तु आपको तो माता के चरण-कमलों में पहँचना था। आप अपनी धुन में चलते ही गये और आधी रात को घर पहुँचे। बरात जा चुकी थी। पर ज्यों ही पुत्र की आवाज सुनी, माँ प्रसन्नता से खिल उठी। माता की आज्ञा का पालन करके ही आपने अन्न-जल ग्रहण किया।
कुछ समय बाद आपका वेतन डेढ़ सौ रुपया मासिक हो गया। आप गरीब रोगियों को होम्योपैथिक औषधियाँ बाँटा करते थे। एक बार एक मेहतर रोता हुआ आपके पास आया और बोला मेहतरानी को हैजा हो गया है, आप कृपा करें। आप उसके घर गये। दिन भर वहीें रहकर इलाज किया और सायंकाल रोगी को ठीक करके ही घर आये। जिस तरह सूर्य, चाँद, वर्षा और वायु ऊँच-नीच का विचार किए बिना सबको एक-सा फल देते है, उसी तरह ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भी सबके साथ एक-सा बर्ताव करते थे।
कुछ समय बाद आपका वेतन पाँच सौ रुपया मासिक हो गया। परन्तु नौकरी में आत्म-सम्मान को बहुत ठेस लगती थी, इसलिए नौकरी छोड़कर देश-सेवा में लग गये। आप कहते थे-दूसरे के पैर चाटते-चाटते यह जाति भीरु बन गई है। जब लोग नौकरी करना पसन्द नहीं करेंगे, तभी देश का कल्याण होगा। अब आप पुस्तकें लिखने लगे और अपना प्रेस खोलकर पुस्तकें छपाकर बेचने लगे।
एक बार आप रेल में सवार होकर एक स्थान पर भाषण देने जा रहे थे। एक छोटे-से स्टेशन पर आपको उतरना था। ज्यों ही गाड़ी उस स्टेशन पर पहुँची, आपने देखा कि नवयुवक ‘कुली-कुली’ पुकार रहा है। वहाँ कोई कुली था ही नहीं। आप नवयुवक के पास गए और उसका सामान अपने सिर पर उठा लिया और उसके घर पहुँचा दिया। वह आपको कुछ पैसे देने लगा। आपने कहा- मुझे भी यहीं आना था, तुम्हारा सामान उठा लिया तो क्या हुआ!
शाम के समय ईश्वरचन्द्र जी का भाषण हुआ, जिसे सुनने नवयुवक भी गया। उसने आपको झट पहचान लिया और पाँव में गिरकर फूट-फूटकर रोने लगा। आपने उसे प्रेम से गले लगाया और समझाया कि सदा अपना काम अपने हाथ से किया करो।
एक बार प्रातःकाल आप घूमने जा रहे थे। आपने देखा कि एक आदमी रोता हुआ जा रहा है। आप उसके पास गये और प्रेम से उसके दुःख का कारण पूछा। इनको सादी वेश-भूषा में देखकर वह बोला कि मैं बड़े-बड़े धनवानों के पास गया, पर किसी ने मेरी सहायता न की, आप क्या कर सकेंगे? ईश्वरचन्द्र जी के बहुत विनय करने पर वह बोला-भाई! मेरे बाप-दादों की सम्पत्ति केवल एक घर ही है, वह आज नीलाम होगा, अब हम लोग कहाँ रहेंगे? आपने उसका पता पूछ लिया।
अगले दिन आप कचहरी में गए और उसके नाम तेईस सौ रुपया जमा करा आए। उधर वह आदमी दिन-भर कचहरी वालों की राह देखता रहा। जब कोई न आया तो घबराकर वह कचहरी में गया। पता लगा कि कोई सज्जन तेईस सौ रुपया जमा कर गये हैं। वह सोचने लगा कि हो न हो, यह काम उन्हीं सज्जन का है, जो मुझे प्रातःकाल मिले थे। वह आपको ढूँढ़ने लगा।
एक दिन प्रातःकाल वायु-सेवन को जाते समय उसने आपको पहचान ही लिया और दोनों हाथ जोड़कर बोला-आपने मुझे बचा लिय है, मेरा बड़ा उपकार किया है। इस पर आपने उत्तर दिया -तुम्हें उपकारी की भलाई का बदला चुकाना चाहिए, इसलिए मैं तुमसे यह चाहता हूँ कि इस बात को किसी से भी मत कहना। वह आपका त्याग देखकर हैरान रह गया।
बड़े-बड़े लॉट और गवर्नर आपके विचारें का बड़ा आदर करते थे। बड़े-बड़े अंग्रेज पदाधिकारियों को आप सदा अपनी वेश-भूषा में ही मिलते। आप सदा चादर और खड़ाऊँ पहनते। आपने बंगाल में संस्कृत भाषा का बहुत प्रचार किया, सैकड़ों पाठशालाएँ खुलवाईं और उन्हें सरकारी सहायता दिलाई। आप सारी आयुभर विधवा-विवाह और कन्याओं में शिक्षा-प्रचार के लिए लड़ते रहे।
ये हैं, उस महापुरुष के जीवन की कुछ घटनाएँ जो एक निर्धन परिवार में जन्में और जब तक जिये दूसरों के लिए जिये। आप सदा कठिनाई में रहकर भी दुखियों की सहायता करते रहे।

१०. परमयोगिनी मुक्ताबाई
जो लोहेको सोना कर दे, वह पारस है कच्चा।
जो लोहेको पारस कर दे, वह पारस है सच्चा॥
महाराष्ट्र में समर्थ रामदास स्वामी, श्री एकनाथजी, नामदेवजी ऐसे ही संत हुए। एक परिवार का परिवार वहाँ संतों की सर्वश्रेष्ठ गणना में है और वह परिवार है श्रीनिवृत्तिनाथ जी का। निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपानदेव और इनकी छोटी बहिन मुक्ताबाई- सब के सब जन्म से सिद्ध योगी, परमज्ञानी, परमविरक्त एवं सच्चे भगवद्भक्त थे। जन्म से ही सब महापुरुष। आजन्म ब्रह्मचारी रहकर जीवों के उद्धार के लिये ही दिव्यजगत् से इस मूर्ति चतुष्टय का धरा पर अविर्भाव हुआ।
‘नाम और रूप की पृथक-पृथक कल्पना मिथ्या है। सब नाम विट्ठल के ही नाम हैं। सब रूप उसी पण्ढरपुर में कमर पर हाथ रखकर ईंट पर खड़े रहने वाले खिलाड़ी ने रख छोड़े हैं। उन पाण्डुरंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।’ बड़े भाई निवृत्तिराथ ही सबके गुरु थे। उन्होंने ही छोटे भाईयों और बहिन को यह उपदेश दिया था।
‘विठोबा बड़े अच्छे हैं।’ बारह वर्ष की बालिका मुक्ता बाई कभी-कभी बड़ी प्रसन्न होती। किसी सुन्दर पुष्प को लेकर वह तन्मय हो जाती। ‘इतना मृदुल, इतना सुरभित, इतना सुन्दर रूप बनाया है, उन्होंने।’ अपने बड़े भाई के उपदेश को हृदय से उसने ग्रहण कर लिया था।
‘बड़े नटखट हैं पाण्डुरंग।’ कभी वह झल्ला उठती, जब हाथों में काँटा चुभ जाता। ‘काँटा, कंकड़ , पत्थर-जाने इन रूपों के धारण में उन्हें क्या आनन्द आता है। अपने हाथों के दर्द पर उसका ध्यान कम ही जाता था।’
‘छिः, छिः, विठोबा बड़े गंदे हैं।’ एक दिन उसने अपने बड़े भाई को दिखाया। ‘दादा! देखो न, इस गंदी नाली में कीड़े बने बिलबिला रहे हैं! राम! राम!’ उसके दादा ने उसे डाँट दिया। यह डाँटना व्यर्थ था। उस शुद्ध हृदय में मनन चल रहा था। पशु-पक्षी, स्थावर-जङ्गम-सबमें एक व्यापक सर्वेश को देखने की साधना थी यह।
‘दादा! आज दीपावली है। ज्ञान और सोपान दादा भिक्षा में सभी कुछ ले आये हैं। क्या बनाऊँ, भिक्षा में आटा, दाल, बेसन, घी, शाक देखकर बालिका अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थी। अपने बड़े भाई की वह कुछ सेवा कर सके, इससे बड़ा आनंद उसने दूसरा कभी समझा ही नहीं था।’
‘मेरा मन चील्हा खाने का होता है।’ निवृत्तिनाथ ने साधारण भाव से कह दिया।
‘नमकीन भी बनाऊँगी और मीठे भी।’ बड़ी प्रसन्नता से उछलती-कूदती वह चली गयी। परन्तु घर में तवा तो है ही नहीं। बर्तन तो विसोबा चाटी ने कल रात्रि में सब चोरी करा दिये। बिना तवे के चील्हे किस प्रकार बनेंगे। जल्दी से मिट्टी का तवा लाने वह कुम्हारों के घर की ओर चल पड़ी। मार्ग में ही विसोबा से भेंट हो गयी। ईर्ष्यालु ब्राह्मण के पूछने पर मुक्ताबाई ने ठीक-ठीक बता दिया।
माँगेंगे भीख और जीभ इतनी चलती है। विसोबा साथ लग गया। उसने कुम्हारों को मना कर दिया ‘जो इस संयासी की लड़की को तवा देगा, उसे मैं जाति से बाहर करा दूँगा।’
विवश होकर मुक्ताबाई को लौटना पड़ा। उसका मुख उदास हो रहा था। घर पहुँचते ही ज्ञानेश्वर ने उसकी उदासी का कारण पूछा। बालिका ने सारा हाल सुना दिया।
‘पगली, रोती क्यों है! तुझे चील्हे बनाने हैं या तवे का अचार डालना है?’ बहिन को समझाकर ज्ञानेश्वर नंगी पीठ करके बैठ गये। उन योगिराज ने प्राणों का संयम करके शरीर में अग्नि की भावना की पीठ तप्त तवे की भाँति लाल हो गयी। ‘ले; जितने चील्हे सेंकने हो, इस पर सेंक ले।’
मुक्ताबाई स्वयं परमयोगिनी थीं। भाइयों की शक्ति उनसे अविदित नहीं थी। उन्होंने बहुत से मीठे और नमकीन चील्हे बना लिये। ‘दादा! अपने तवे को अब शीतल कर लो!’ सब बनाकर उन्होंने भाई से कहा। ज्ञानेश्वर ने अग्निधारण का उपसंहार किया।
‘मुक्ति ने निर्मित किये और ज्ञान की अग्नि में सेंके गये! चील्हों के स्वाद का क्या पूछना।’ निवृत्तिनाथ, भोजन करते हुए भोजन की प्रशंसा कर रहे थे। इतने में एक बड़ा-सा काला कुत्ता आया और अवशेष चील्हे मुख में भरकर भागने लगा। तीनों भाई साथ ही बैठे थे। उनका भोजन प्रायः समाप्त हो चुका था। निवृत्तिनाथ ने कहा- ‘मुक्ता! जल्दी से कुत्ते को मार, सब चील्हे ले जायेगा तो तू ही भूखी रहेगी!’
‘मारूँ किसे? विट्ठल ही तो कुत्ता भी बन गये हैं!’ मुक्ताबाई ने बड़ी निश्चिन्तता से कहा। उन्होंने कुत्ते की ओर देखा तक नहीं।
तीनों भाई हँस पड़े। ज्ञानेश्वर ने पूछा-‘कुत्ता तो विट्ठल बन गये हैं और विसोबाचाटी?’‘वे भी विट्ठल ही हैं!’ मुक्ता का स्वर ज्यों का त्यों था।
विसोबा चाटी मुक्ता के साथ ही कुम्हार के घर से पीछा करता आया था। वह देखना चाहता था कि तवा न मिलने पर ये सब क्या करते हैं? ज्ञानेश्वर की पीठ पर चील्हे बनते देख उसे बड़ी जलन हुई। जाकर कुत्ते को वही पकड़ लाया था। मुक्ता के शब्दों ने उसके हृदय बाण की भाँति आघात किया। वह जहाँ छिपा था वहाँ से बाहर निकल कर मुक्ताबाई से बोला, ‘‘मैं महा-अधम हूँ। मैंने आप लोगों को कष्ट देने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। आप दयामय हैं, साक्षात् विट्ठल के स्वरूप हैं। मुझ पामर को क्षमा करें। मेरा उद्धार करें, मुझे अपने चरणों में स्थान दें।’’
कई दिनों तक विसोबा ने बड़ा आग्रह किया। उसके पश्चात्ताप एवं हठ को देखकर निवृत्तिनाथ ने मुक्ताबाई को उसे दीक्षा देने का आदेश दिया। मुक्ताबाई ने उसे दीक्षा दी। मुक्ताबाई की कृपा से विसोबा चाटी जैसा ईष्यालु ब्राह्मण प्रसिद्ध महात्मा विसोबा खेचर हो गया। उसने योग के द्वारा समाधि अवस्था प्राप्त की। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध महात्मा नामदेव जी इन्हीं विसोबा खेचर के शिष्य हुए हैं।

उच्चशिक्षा, चतुरता या शरीर सौष्ठव भर से कोई व्यक्ति न तो आत्म संतोष पा सकता है और न लोक सम्मान। इन सबसे महत्वपूर्ण है परिष्कृत व्यक्तित्व। प्रतिभाशील और उन्नतिशील बनने का अवसर इसी आधार पर मिलता है। पं० श्री राम शर्मा आचार्य



द्वितीय अध्याय

बाल प्रबोधन

सुविचार-सद्वाक्य (भाग- ४)

१. भगवान आदर्शों-श्रेष्ठताओं के समुच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य का जो त्याग और बलिदान है, वस्तुतः वही भगवान की भक्ति है।
२. सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कर्तव्य, सदाचरण,परमार्थ जैसी सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है।
३. साहस ही एक मात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दिखने वाले पथ पर चल पड़ने एवं लक्ष्य तक जा पहुँचने में समर्थ हो सकता है। ४. अपनी बुराइयों को स्वीकार करना साहस का काम है, पर उससे बड़ी हिम्मत यह है कि उन्हें छोड़ने का निश्चय किया जाय।
५. अच्छाईयों का एक -एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है। पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है। ६. अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो।
७. सद्ज्ञान और सत्कर्म यह दो ईश्वर प्रदत्त पंख हैं, जिनके सहारे स्वर्ग तक उड़ सकते हैं।
८. प्रसन्न रहने के लिए दो ही उपाय हैं, आवश्यकताएँ कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बिठायें।
९. शालीनता बिना मोल मिलती है, पर उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है। १०. मन का संकल्प और शरीर का पराक्रम यदि किसी काम में पूरी तरह लगा दिया जाए, तो सफलता मिलकर रहेगी।
११. जीवन का अर्थ है, ‘समय’ जो जीवन से प्यार करते हों, वे आलस्य में समय न गँवायें।
१२. यदि दुनिया तुम्हारे कार्यों की प्रशंसा करती है, तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं। खतरा तब है, जब तुम प्रशंसा पाने के लिए किसी काम को करते हो।
१३. वही जीवित है, जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर हो।
१४. आलस्य से बढ़कर अधिक समीपवर्तीं शत्रु दूसरा नहीं।
१५. मनुष्य परिस्थितियोंका दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी है।
१६. पेण्डुलम हिलता भर है, पहुँचता कहीं नहीं। लक्ष्य विहीन व्यक्ति कुछ करता तो है, पर पाता कुछ नहीं।
१७. स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
१८. बुद्धिमान वह है, जो किसी की गलतियों से हानि देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।
१९. सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।
२०. जीवन में बाधाओं और असफलताओं को पार करते हुए लक्ष्य की ओर साहसपूर्वक बढ़ते जाना ही मनुष्य की महानता है।
२१. आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है।
२२. ईश्वर उपासना से मनुष्य संसार और उसकी परिस्थितियों का अधिक सूक्ष्मता, दूरदर्शिता एवं विवेक के साथ निरीक्षण करता है।
२३. हम जिसे सही समझते हैं, निर्भय होकर अपनायें और जिसे गलत समझते हैं उसके आगे किसी भी कीमत पर न झुकें।
२४. केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।
२५. मन सरसों की पोटली जैसा है। एक बार बिखर गई तो समेटना असंभव हो जाता है।
२६. फरसे से कटा हुआ वन भी अंकुरित हो जाता है, किन्तु कटु वचन कहकर वाणी से किया घाव कभी नहीं भरता है।
२७. बढ़ने का प्रयत्न करते रहना ही जीवन का लक्षण है और लक्ष्य भी। जो एक स्थान पर जम गया, ठहर गया, वह जड़ एवं निर्जीव है।
२८. खोया हुआ पैसा फिर पाया जा सकता है, लेकिन खोया हुआ समय फिर कभी लौटकर नहीं आता।
२९. जीवन एक पाठशाला है जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं।
३०. बड़प्पन सुविधा संवर्धन का नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है।
३१. सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।
३२. जो आलस्य और कुकर्म से जितना बचता है, वह ईश्वर का उतना ही बड़ा भक्त है।
३३. यदि मनुष्य कु छ सीखना चाहे तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।
३४. भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं, संभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है।
३५. अगर तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ सच्चाई का बर्ताव करें, तो तुम स्वयं सच्चे बनो और दूसरे लोगों के साथ सच्चा बर्ताव करो।
३६. विद्या की आक ांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रहते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।
३७. कमल पुष्प सामान्य तालाब में उगने पर भी अपनी पहचान अलग बनाते और देखने वाले के मन पर अपनी प्रफुल्लता की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं।
३८. जीवन एक परीक्षा है, उसे उत्कष्टता की कसौटी पर ही कसा जाता है। यदि खरा साबित न हुआ जा सके, तो समझना चाहिए कि प्रगति का द्वार अवरुद्ध है।
३९. विचार मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है, अपने चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्चस्तरीय विचारों में ही संलग्न रखें।
४०. अनजान होना उतनी लज्जा की बात नहीं, जितनी सीखने के लिए तैयार न होना।
४१. तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहु ओर, वशीकरण यह मंत्र है तज दे वचन कठोर।
४२. तुलसी जग में यूं रहो, ज्यों रसना मुख माँहि।
खाति घी और तेल नित, फिर भी चिकनी नांहि॥
४३. आलस कबहुँ न कीजिये, आलस अरि सम जानि।
आलस ते विद्या घटे, बल, बुद्धि की हानि॥
४४. लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिला कर चल।
मंजिल तेरे पग चूमेगी, आज नहीं तो कल॥
४५. या रहीम उत्तम प्रकृति का, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नाहीं, लिपटे रहत भुजंग॥
४६. कबीरा जब आये हम जगत में, जग हँसा हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसें, जग रोये॥
४७. अपने दुःख में रोने वाले, मुस्कराना सीख ले।
दूसरों के दुःख दर्द में, आँसू बहाना सीख ले॥
४८. जो खिलाने में मजा, वो खाने में नहीं।
जिन्दगी में किसी के काम आना सीख ले॥

Who am I?
Do you know? who am I?
I am, I am not a Hindu, not a Muslim.
neither no body either, My name is life.
Treasure of noble thoughts,
I am only human, Love is my food,
Good manners are my cloth,
Common sense is my shelter.
God is my parents, Nature is my friend.
Truth is my brother and Confidence is myself.

Small Minds – Talk of People.
Average Minds – Talk of Events.
Great Minds – Talk of Ideas.
Greatest Minds – Act in Silence.

HABIT
Remove “H” remains “abit” (a bit)
Remove “A” there is a “bit”
Remove “B” still remains “it”
So be conscious to gain a “HABIT”

Ten Sutras
The most selfish 1 letter ... "I" ... Avoid It.
Most Satisfactory 2 letters ... "WE" ... Use It.
Most Poisonous 3 letters ... "EGO" ...Kill It.
Most used 4 letters ... "LOVE" ... Value It.
Most Pleasing 5 letters ... "SMILE" ... Keep It.
Fastest Spreading 6 letters .. "RUMOUR" .. Ignore It.
Hard Working 7 letters ... "SUCCESS" ... Achieve It.
Most Enviable 8 letters ... "JEALOUSY" ... Distance It.
Most Essential 9 letters ... "PRINCIPLE" ... Have It.
Most Divine 10 Letters .. "FRIENDSHIP" .. Maintain It.



तृतीय अध्याय

प्रेरणाप्रद गीत

औरों के हित जो जीता है

औरों के हित जो मरता है, औरों के हित जो जीता है।
उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है॥

जो तृषित किसी को देख, सहज ही होता है आकुल-व्याकुल।
जिसकी साँसों में पर-पीड़ा, भरती है अपना ताप अतुल॥
वह है शंकर जो औरों की, वेदना निरन्तर पीता है।

जो सहज समर्पित जनहित में, होता है स्वार्थ त्याग करके।
जिसके पग चलते रहते हैं, दुःख दर्द मिटाने घर-घर के॥
वह है दधीचि जिसका जीवन, जगहित तप करके बीता है।

जिसका चरित्र गंगा जल सा, है स्वच्छ विमल पावन निर्मल।
जिसके उर में सद्भावों की, धारा बहती कल-कल, छल-छल॥
वह है लक्ष्मण जिसने, पर नारी को समझा माँ सीता है॥

जिसका जीवन संघर्ष बनी, औरों की गहन समस्या है।
तम में प्रकाश फैलाना ही, जिसकी आराध्य तपस्या है॥
जो प्यास बुझाता जन-जन की, वह पनघट कभी न रीता है।

जिसने जग के मंगल को ही, अपना जीवन-व्रत मान लिया।
परिव्याप्त विश्व के कण-कण में, भगवान तत्व पहचान लिया॥
उस आत्मा का सौभाग्य अटल, वह ही प्रभु की परिणीता है।


मनुज देवता बने

मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान। यही संकल्प हमारा॥
विचार क्रांति अभियान, इसी को कहते युग निर्माण। यही संकल्प हमारा॥
द्वेष, दम्भ, छल मिटे यहाँ पर, ना कोई भ्रष्टाचारी हो।
सभी सुखी हों सबका हित हो, जन-जन पर उपकारी हो।
मिल-जुलकर सब रहे प्रेम से, दें सबको सम्मान॥
भेदभाव हो दूर, सिख हिन्दु मुस्लिम ईसाई का।
परमपिता के पुत्र सभी का, नाता भाई-भाई का।
सब ही एक समान सभी, जगदीश्वर की संतान॥
सदाचार अपनायें सब, जन-प्रभु के साझेदार बनें।
अनाचार से नाता तोड़ें, नैतिक बनें उदार बनें।
सादा जीवन बने सभी का, फैले फिर सद्ज्ञान॥

हमें व्यक्तित्व गढ़ना है

व्यक्तित्व को हमारे, गढ़ना हमें पड़ेगा।
सोपान साधना के, चढ़ना हमें पड़ेगा।
है फूल वृक्ष पर जो, नभ से नहीं टपकते।
वरदान से किसी के फल भी नहीं लटकते॥
बस वृक्ष की जड़ें ही रस खींचती धरा से।
व्यक्तित्व की जड़ों तक बढ़ना हमें पड़ेगा॥ सोपान
अन्दर छिपा हुआ जो, जीवन्त देवता है।
वही शक्ति का खजाना, इसका जिसे पता है॥
वह सिद्घियां संजोता है, आत्म साधना से॥
मिलता अकूत बल है, जिसकी उपासना से॥
साधक समान, पीछे पड़ना हमें पड़ेगा॥
व्यक्तितत्व कर परिष्कृत, चुम्बक उसे बनायें।
फिर दिव्य शक्तियों के, अनुदान खींच लायें।
सोया हुआ उदय का, देवता हम जगायें।
अपनी वसुन्धरा को, फिर स्वर्ग सा सजायें।
व्यक्तित्व का नगीना, जड़ना हमें पड़ेगा॥

युग की यही पुकार

युग की यही पुकार, बसन्ती चोला रंग डालो।
त्याग-तितीक्षा का रंग है यह, सुनो जगत वालों॥ बसन्ती चोला रंग डालो॥
इस चोले को पहन भगत सिंह, झूला फाँसी पर।
इस चोले का रंग खिला था, रानी झाँसी पर॥
त्याग और बलिदान न भूलो, ऊँचे पद वालो ॥ बसन्ती चोला ०
वासन्ती चोले को, भामाशाह ने अपनाया।
नरसी का चोला तो सबसे, अद्भुत रंग लाया॥
इस चोले से बढ़े द्रव्य की, शोभा धन वालो॥बसन्ती चोला ०
इसे पहन कर हरिश्चन्द्र ने, सत्य नहीं छोड़ा।
चली अग्नि-पथ पर तारा ने, पहना यह चोला॥
मानवीय गरिमा न भुलाओ, भटके मन वालों॥ बसन्ती चोला ०
भूल गये हम अपना पौरुष, गये अनय से हार।
हुए संकुचित हृदय हमारे, बन बैठे अनुदार॥
लेकिन, अब तो दिशा बदल कर, बढ़ो लगन वालों। बसन्ती चोला ०

इन्सान बदलना है

खेत खलिहान बदलना है, हमें इन्सान बदलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
सूरज कहता है जागो, युग-युग की तंद्रा त्यागो।
नूतन आलोक जगाओ, जग का अज्ञान मिटाओ।
गाओ नये सृजन के गीत, नया निर्माण करना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
उल्लास भरो जन-जन में, विश्वास भरो कण-कण में।
श्रम को ही जीवन मानो, पौरूष का स्वर पहचानो।
मुस्कानों से कैसी प्रीत, हमें शिखरों पर गलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है॥
आलस्य अविद्या छोड़ो, साहस से युग-पथ मोड़ो।
मृतकों में प्राण भरो रे, युग का निर्माण करो रे।
मत डरो ताप से शीत से, हमें आँधी में पलना है।
बदलने यह सारा संसार, हमें काँटों पर चलना है।।


उठो सुनो प्राची से उगते

उठो सुनो प्राची से उगते, सूरज की आवाज।
अपना देश बनेगा, सारी दुनियाँ का सरताज॥
देश की जिसने सबसे पहले, जीवन ज्योति जलायी।
और ज्ञान की किरणें सारी, दुनियाँ में फैलायीं॥
लोभ मोह के भ्रम से सारे, जग को मुक्त कराया।
भ्रातृ भावना का प्रकाश, सारे जग में फैलाया॥
अगणित बार बचाई जिसने, मानवता की लाज। अपना देश ......
इतना प्रेम की पशु-पक्षी तक, प्राणों से भी प्यारे।
इतनी दया कि जीव मात्र सब, परिजन सखा हमारे॥
श्रद्धा अपरम्पार की पत्थर, में भी प्रीति जगाई।
और पराक्रम ऐसा जिसकी, रिपु भी करे बड़ाई॥
उसी प्रेरणा से रच दें, हम फिर से नया समाज। अपना देश ......
मानवता के लिए हड्डियाँ, तक जिसने दे डाली।
माताओं की हुई अनेकों, बार गोदियाँ खाली।
पर न पाप के आगे उनने, अपना शीश झुकाया।
संस्कृति का सम्मान बढ़ाने, हँस-हँस शीश कटाया॥
रहे शिवाजी अर्जुन जैसा, निज चरित्र पर नाज। अपना देश ......
दिया न्याय का साथ भले ही, हारे अथवा जीते।
गिद्ध गिलहरी तक न रहे थे, परमारथ से पीछे।
इसी भूमि में वेद पुराणों, ने भी शोभा पाई।
जन्म अनेकों बार यहीं, लेते आये रघुराई॥
स्वागत करने को नवयुग का, नया सजायें साज। अपना देश ......
सोये स्वाभिमान को आओ, सब मिल पुनः जगायें।
नव जागृति के आदर्शों को, दुनियाँ में पहुँचायें।
ज्ञान यज्ञ की यह मशाल, हर लेगी युग तम सारा।
हम बदलेंगे युग बदलेगा, आज लगायें नारा॥
सुनो अरे! युग का आवाहन, कर लो प्रभु का काज। अपना देश ......


भारत वर्ष हमारा प्यारा

भारत वर्ष हमारा प्यारा, अखिल विश्व से न्यारा।
सब साधन से रहे समुन्नत, भगवन् देश हमारा॥

ब्रह्मतेज युत साधक हों सब, सदा लोक हितकारी।
क्षात्रधर्म रक्षक हो सबका, बने न्याय व्रतधारी।
प्रकृति हमारी गौ बनकर दे, मधुर सरस पय धारा॥ भारत...........।

वृषभ तुल्य बलवान् सभी हों, श्रम फिर गौरव पाये।
अश्वों में संचार साधनों में, विद्युत गति आये।
घटें दूरियाँ सभी, सभी को, देते रहें सहारा॥ भारत...........।

देवी जैसी बनें नारियाँ, शक्तिवती गुण आगर।
नर-रत्नों की हों खदान घर, विकसित हों नर-नागर।
जिनकी गुणगाथा से गूँजित, दिग-दिगन्त हो सारा॥ भारत...........।

यज्ञ निरत भारत के सुत हों, शूर सुकृत अवतारी।
सभ्य, सुसंस्कृत कर्मशील हों, गुणी, सरल सुविचारी।
वही बनेंगे फिर नवयुग के, पावन सुदृढ़ सहारा॥ भारत...........।

प्रकृति बने माँ, ऋतुएँ दें, अनुदान समय पर सुन्दर।
खनिज, अन्न, फल, औषधियाँ, सब मिलें प्रचुर हो सुखकर।
योग हमारा, क्षेम हमारा, स्वतः सिद्ध हो सारा॥ भारत...........।


रंग न उभरे यदि पीड़ा का चित्रकार के हाथ से।
प्रकट न हो श्रद्घा-सुचिता की देवी उसके माथ से।
प्रतिभा गई निरर्थक समझो कला रही उसकी क्वारी।
चित्रकार वह निपट बन गया पैसों का ही व्यापारी॥


युग-युग से हम खोज रहे हैं

युग-युग से हम खोज रहे हैं, सुरपुर के भगवान को।
किन्तु न खोजा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

चर्चा ब्रह्म ज्ञान की करते, किन्तु पाप से तनिक न डरते।
राम-नाम जपते हैं दुःख में, साथी हैं रावण के सुख में।
प्रतिमाएँ रचकर देवों की, पूजा है पाषण को।
किन्तु न पूजा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

शबरी-केवट के गुण गाये, खूब रीझकर अश्रु बहाये।
पर जब हरि को भोग चढ़ाया, तब सब को दुत्कार भगाया।
तिलक लगाकर अपने उर में, पाला है शैतान को।
किन्तु न पाला अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

खोजे मंदिर-मस्जिद-गिरजे, अनगिनते परमेश्वर सिरजे।
किन्तु कभी ईमान न खोजा, कभी खेत-खलिहान न खोजा।
दुनियाँ के मेले में देखा, नित्य नये सामान को।
किन्तु न देखा अब तक हमने, धरती के इंसान को॥

खोजा हमने जिसे भजन में, छिपा रहा वह तो क्रन्दन में।
हमने निशि-दिन धर्म बखाना, लेकिन कर्म नहीं पहचाना।
पैसा पाया, प्रतिभा पायी, पाया है विज्ञान को।
किन्तु न पाया, अब तक हमने, धरती के इंसान को।
युग-युग से हम खोज रहे हैं.............................॥

यह मत कहो कि जग में कर सकता क्या अकेला।
लाखों में वार करता है सूरमा अकेला॥
आकाश में करोड़ों तारे जो टिमटिमाते।
अंधियारा जग का हरता है चन्द्रमा अकेला।


हमारा है यह दृढ़ संकल्प नया संसार बसाएँगे।

हमारा है यह दृढ़ संकल्प, नया संसार बसाएँगे।
नया इन्सान बनायेंगे॥ नया संसार बसाएँगे॥

क्षीर सागर में सोया जो, उसे झकझोर जगायेंगे।
उसे प्रिय है केवल इन्साफ, जगत को यह समझायेंगे।
कर्मफल देना जिसका काम, नया भगवान बनायेंगे॥

विषमता नहीं टिकेगी कहीं, एकता समता लायेंगे।
न होगा नारी का अपमान, उसे गुणखान बनायेंगे।
निकम्मे प्रचलन बदलेंगे, धरा को स्वर्ग बनायेंगे॥

न आलस बरतेगा कोई, उठेंगे और उठायेंगे।
पसीने की रोटी पर्याप्त, मुफ्त का माल न खायेंगे।
करे जो आदर्शों से प्रीति, नया ईमान बनायेंगे।

चलेंगे नहीं छद्म-पाखण्ड, सच्चाई सब अपनायेंगे।
भ्रान्तियों की न गलेगी दाल, ज्ञान के दीप जलायेंगे।
बढ़ेंगे अन्धकार को चीर, नया अभियान रचायेंगे॥

उनींदे नहीं रहेंगे हम, जगेंगे और जगायेंगे।
रहेंगे हिलमिलकर सब एक, हँसेंगे और हँसायेंगे।
करे जो दुर्गा को साकार, नया सहकार जगायेंगे॥


लंकापुरी जलाकर, रावण का मद मिटाकर।
हनुमान राम दल को, वापिस चला अकेला॥
निज दूर करके तम को, देता प्रकाश हमको।
वह सूर्य देव देखो, चलता सदा अकेला॥


जब तक मिले न लक्ष्य

जब तक मिले न लक्ष्य बटोही - आगे बढ़ते जाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का - निर्भय कदम बढ़ाओ॥

भय से रुकना नहीं, आंधियाँ चाहें कितनी आयें।
रूके नहीं पग पथ पर, चाहे टूट पड़ें विपदायें।
संकल्पों में शक्ति न हो, सामर्थहीन हो वाणी।
नहीं जमाने को बदले जो, वह क्या खाक जवानी।
सिद्घि स्वयं दौड़ी आयेगी - अपनी भुजा उठाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥

हो निज पर विश्वास दृष्टि से-लक्ष्य नहीं ओझल हो।
मोड़ें जग की राह, चाह में इतनी शक्ति प्रबल हो।
कांटो भरा देख पथ तुमने, हिम्मत अगर न हारी । चलते रहे विराम-रहित तो, होगी विजय तुम्हारी
नभ में उड़ो सुदूर गगन में, तोड़ सितारे लाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥

खोना मत उत्साह, न नाता मुस्कानों से टूटे।
डूब रही हो नाव भंवर में, फिर भी धैर्य न छूटे।
जलते हुए अंगारे हों, या बर्फीली चट्टानें।
बढ़ते ही जाना रुकना मत, अपना सीना ताने।
कमर बांधकर चले अगर तो, फिर मत पीठ दिखाओ।
खुला हुआ है द्वार प्रगति का, निर्भय कदम बढ़ाओ॥


जिसमें पनपे नैतिकता, वह भवन नया निर्माण करेंगे।
साहस, बल, पुरुषार्थ जुटा, तन की ईंटों से नींव भरेंगे।
रच डालेंगे चिर नूतन इतिहास, क्रिया का सम्बल लेकर ।
एक नया संघर्ष सृजन का, होगा अब प्राणों में प्रतिपल।


सच्चा मानव बन जायें।

पाषाण पूजने क्यों कर जाना पड़े हमें।
नर के स्वरूप में यदि नारायण मिल जायें॥

तुम बातें करते बड़े-बड़े निर्माणों की,
तुम बातें करते बड़े-बड़े सोपानों की।
तुम बातें करते बड़े-बड़े बलिदानों की,
तुम बातें करते बड़े-बड़े प्रतिदानों की,
क्रय करने पड़ें, हमें क्यों नीवों के पत्थर।
यदि निष्ठा सबकी, कर्मयोग में हो जाये॥

युग माँग रहा चेतना नई विश्वास नया।
युग माँग रहा भावना नई उल्लास नया।
युग माँग रहा नव जीवन का आभास नया।
युग माँग रहा है क्रिया नयी इतिहास नया।
हम अगर तोड़ दें सड़ी गली रुढ़ियाँ सखे।
तो आगे बढ़ने का प्रशस्त पथ हो जाये॥

हम चाहें यदि पर्वत को धूल बना डालें।
हम चाहें यदि पत्थर को फूल बना डालें।
हम चाहें यदि इंगित को शूल बना डालें।
हम चाहें यदि भँवरों को कूल बना डालें।
हम देवों का भी स्वर्ग उतारें धरती पर,
मानव यदि फिर से सच्चा मानव बन जाये॥

बस एक बार उठ पड़ो सामने आ जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो गगन पर छा जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो केसरी बन जाओ।
बस एक बार उठ पड़ो काल से लड़ जाओ।
मिट जाए कालिमा कायरता जन जीवन से,
हम ऐसी ज्योति चेतना बनकर छा जायें॥


कण कण में आनन्द भरा है

कण कण में आनन्द भरा है लूटें और लुटायें।
आओ दुनियाँ स्वर्ग बनायें॥

वर्षा मीठा नीर पिलाती, धरती मैया अन्न खिलाती
मैया जो कुछ देती हमको, बाँट-बाँट कर खायें। आओ....
परम मित्र ये वृक्ष हमारे, जीवन के अनमोल सहारे।
फूल खिलाते, फल भी देते, देख-देख मुस्कायें। आओ....
आसमान सुन्दर महफिल है, तारों की झिलमिल-झिलमिल है।
बरस रहा आनन्द स्वर्ग से, आनन्दी बन जायें। आओ....
जग तो है आनन्द मय, मन ही करता दुःख, द्वन्द, भय।
मन को अगर जीत लें हम तो, स्वर्ग यहीं ले आयें। आओ....
सबसे मीठी बोली बोलें, कपट छोड़ अपना दिल खोलें।
प्रेम बढ़ायें विनय दिखायें, वत्सलता विकसायें। आओ.....
झूठे सब मद मोह छोड़कर, मानवता से प्रेम जोड़कर।
जग को एक कुटुम्ब समझकर, हिलमिल हँसे हँसायें। आओ....


धनी हृदय

हम धनी न चाहें हों धन के, पर हृदय धनी होवे।
हम हँसें न चाहे सुख पाकर, पर, पर दुःख में रोवें।

हम कृषक बनें तो हृदय खेत में, प्रेम बीज बोवें।
हम सदा जागते रहें देश हित, कभी नहीं सोवें।
हम धनी, निर्धनी, सुखी, दुःखी, जैसे हों वैसे हों।
पर काम आ सकें कुछ स्वदेश के प्रभु हम ऐसे हों।
हम योगी हों तो सब बिछुड़ों का, योग मिला देवें।
हम वक्ता हों तो वाणी से, अमृत बरसा देवें।
हम हों ऐसे गुणवान रेत में, पुष्प खिला देवें।
हम बली बहादुर हों ऐसे, ब्रह्माण्ड हिला देवें।


हमको अपने भारत की मिट्टी

हमको अपने भारत की मिट्टी से अनुपम प्यार है।
अपना तन मन जीवन सब, इस मिट्टी का उपहार है॥
इस मिट्टी में जन्म लिया था, दशरथ नन्दन राम ने।
इस धरती पर गीता गाई, यदुकुल भूषण श्याम ने।
इस धरती के आगे मस्तक झुकता बारम्बार है॥
इस माटी की जौहर गाथा, गाई राजस्थान ने।
इसे बनाया पावन, गाँधी के महान बलिदान ने।
मीरा के गीतों की इसमें छिपी हुई झंकार है॥
इस मिट्टी की शान बढ़ायी, तुलसी, सूर, कबीर ने।
अर्जुन, भीष्म, अशोक, प्रतापी, भगत सिंह से वीर ने।
इस धरती के कण-कण में, शुभ कर्मों का संस्कार है॥
कण-कण मन्दिर इस माटी, का कण-कण में भगवान है।
इस मिट्टी का तिलक करो, ये अपना हिन्दुस्तान है।
इस माटी का हर सपूत, भारत का पहरेदार है॥

चन्दन सी इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम हो
चन्दन सी इस देश की माटी तपोभूमि हर ग्राम हो।
हर नारी देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम हो।
जिसके सैनिक समर भूमि में, गाया करते थे गीता।
जहाँ खेत में हल के नीचे, खेला करती थी सीता।
जीवन का आदर्श जहां पर, परमेश्वर का काम हो॥
यहाँ कर्म से भाग्य बदल देती, श्रम निष्ठा कल्याणी।
त्याग और तप की गाथाएँ, गाती थी कवि की वाणी।
ज्ञान जहाँ का गंगा जल सा, निर्मल हो अविराम हो॥
रही सदा मानवता वादी, इसकी संस्कृति की धारा।
मिलकर रहना सीखें फिर से, मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा।
मानवीय संस्कृति का फिर सारे जग में गुण गान हो॥
हर शरीर मन्दिर सा पावन, हर मानव उपकारी हो।
क्षुद्र असुरता को ठुकरा दे, प्रभु का आज्ञाकारी हो।
जहाँ सबेरा शंख बजाता, लोरी गाती शाम हो॥


ओ सपूतो भारत की तकदीर बना दो।

ओ सपूतो भारत की तकदीर बना दो।
हम ऋषियों की संतान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

छोड़ विदेशी चकाचौंध को, अपना गौरव देखो॥
बन्धन जो रोकें हैं गति को, उनको तोड़ो फेंकों।
जन-जन में फिर देवों सा, ईमान जगा दो।
हम ऋषियों की संतान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

छोड़ याचना देना सीखो, देवभूमि के वासी,
खिले फूल सी जिओ जिन्दगी, कर दो दूर उदासी,
देव भूमि की दिव्य प्ररेणा, फिर भू पर फैला दो।
हम ऋषियों की सन्तान हैं, दुनिया को दिखा दो॥

युग ऋषि ने आह्वान किया है, आदर्शों की राह पर,
आज लगा दो अंकुश पैना, क्षुद्र स्वार्थ की चाह पर।
त्याग तपस्या की सुगन्धि से, फिर भू को महका दो।
हम ऋषियों की सन्तान है, दुनिया को दिखा दो॥

नये सृजन की नई उमंगे, लेकर आगे आओ,
खुला मोर्चा निर्माणों का, मिलकर कदम बढ़ाओ।
रामराज्य के सपनों को, सच करके दिखा दो।
हम ऋषियों की सन्तान हैं, दुनिया को दिखा दो॥


हृदय हृदय में दीप जलें जो, अन्तर का अज्ञान मिटा दें।
नयन-नयन में निर्माणों के, सुन्दर मनहर स्वप्न सजा दें।
सबको दें विश्वास लक्ष्य का, और सतत चलने का साहस।
ज्योति भरें ऐसी जीवन में, कभी न आये गहन अमावस ।
आओ हर घर - आँगन में, आज खुशी के फूल खिलायें।।
चलो नया संसार बसायें, चलो नया संसार बसायें।।


आज दाँव पर लगा देश का,

आज दाँव पर लगा देश का, स्वाभिमान सेनानी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी॥ सोया जाग .....
भारत माँ ने था तुझको, पौरुष का पाठ पढ़ाया।
बलिपथ पर तूने आगे ही, आगे कदम बढ़ाया॥
लेकिन आज कौन सी तुझपर, हाय पड़ गई छाया।
सबकुछ लुटा जा रहा, लेकिन तुझको होश न आया॥
रे दृग खोल और पढ़ पिछली गौरवपूर्ण कहानी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी॥
विदेशियों के छद्म जाल में फँसा देश यह सारा।
असम और पंजाब कट रहा है कश्मीर हमारा॥
भाई को भाई से अपने लड़वाते कटवाते।
हाय हन्त हम किन्तु न उनकी चाल समझ हैं पाते॥
अपने ही सब रिश्ते - नाते टूट रहे जिस्मानी।
और पड़ा सोया तू कैसे जाग वीर बलिदानी॥
अपराधों का असुर चतुर्दिक, झंडा गाड़ रहा है।
बहन बेटियों की इज्जत से, हो खिलवाड़ रहा है॥
हाहाकार मचा धरती में,भारी मारा-मारी।
ऋषियों की संतानों! तुम पर क्यों चढ़ रही खुमारी॥
जाग राष्ट्र के पौरुष जागे सोयी हुई जवानी॥
और पड़ा सोया तू कैसे जाग वीर बलिदानी॥
सूरज रुके चन्द्रमा रोये, रीते सागर का जल।
आज हवाओं में करनी है फिर से ऐसी हलचल॥
इज्जत लगी दाँव पर अपनी जागो उसे बचाओ।
नई विचार क्रांति का आओ, फिर से बिगुल बजाओ॥
उदासीन अर्जुन फिर से पढ़ गीता वाली वाणी।
और पड़ा सोया तू कैसे, जाग वीर बलिदानी।


किसी के काम जो आये

किसी के काम जो आये उसे इन्सान कहते हैं।
पराया दर्द अपनाये उसे इन्सान कहते हैं॥

कभी धनवान है कितना कभी इन्सान निर्धन है।
कभी सुख है कभी दुःख है इसी का नाम जीवन है।
जो मुश्किल में न घबराये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........
यह दुनियाँ एक उलझन है कहीं धोखा कहीं ठोकर
कोई हँस-हँस के जीता है कोई जीता है रो रो कर॥
जो गिरकर फिर संभल जाये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........
अगर गलती रुलाती है तो राहें भी दिखाती है
मनुज गलती का पुतला है वो अक्सर हो ही जाती है
जो करले ठीक गलती को उसे इन्सान कहते हैं॥
किसी ने काम जो ..........
यों भरने को तो दुनियाँ में पशु भी पेट भरते हैं।
लिए इनसान का दिल वो जो नर परमार्थ करते हैं।
पथिक जो बाँट कर खाये उसे इन्सान कहते हैं।
किसी ने काम जो ..........


सफलता के सात सूत्र-साधन

जिसके जीवन में यह सात सूत्र हैं वह जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता।
१. परिश्रम एवं पुरुयषार्थ २.आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता
३. जिज्ञासा एवं निष्ठा ४. त्याग एवं बलिदान
५. स्नेह एवं सहानुभूति ६. साहस एवं निर्भयता
७. प्रसन्नता एवं मानसिक संतुलन
- ‘सफलता के सात सूत्र-साधन’ पुस्तक से


चतुर्थ अध्याय

जीवन विद्या

शिक्षा और विद्या में मौलिक अन्तर है। शिक्षा उसे कहते हैं जो जीवन के बाह्य प्रयोजनों को पूर्ण करने में सुयोग्य मार्गदर्शन करती है। साहित्य, शिल्प, कला, विज्ञान, उद्योग, स्वास्थ्य, समाज आदि विषय शिक्षा की परिधि में आते हैं। विद्या का क्षेत्र इससे आगे का है- आत्मबोध, आत्मनिर्माण, कर्त्तव्य निष्ठा, सदाचरण, समाज-निष्ठा आदि वे सभी विषय विद्या कहे जाते हैं, जो व्यक्ति के चिन्तन, दृष्टिकोण एवं सम्मान में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता का समावेश करते हैं।
विद्या दया, करुणा, ममता, उदारता, परमार्थ-परायणता, सेवा-सहकारिता, शिष्टता, शालीनता, चरित्र-निष्ठा, शौर्य-साहस, न्याय-प्रियता, सुव्यवस्था, समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी जैसे गुणों का विकास करती है।
शिक्षा और विद्या दोनों के समन्वय से ही व्यक्ति जीवन जीने की कला सीखता है। अतः यह परम आवश्यक है कि बालकों में बपचन से ही शिक्षा के साथ-साथ विद्या का भी सवंर्धन किया जाए, ताकि वे बड़े होकर एक सफल व्यक्ति, महामानव बन सकें। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता है सुव्यवस्थित जीवन-विद्या अध्याय में बालकों के लिए एक व्यवस्थित दिनचर्या एवं अभ्यास क्रम दिया गया है, जिसे जीवन में अपनाने हेतु बालकों को प्रयत्न करना है। इससे बालकों के जीवन में सुव्यवस्था, नैतिकता, आस्तिकता, कर्त्तव्य परायणता जैसे गुणों का विकास होगा। आचार्य एवं अभिभावक उन्हें किस प्रकार सहयोग करें, इस हेतु मार्गदर्शन देने का भी प्रयास किया गया है।

१. जागरण

आचार्य क्या करें?
-सूर्योदय के पूर्व जागने के लाभ बतायें।
-संसार के समस्त जीव जन्तु सूर्योदय के पूर्व जाग जाते हैं।
-प्रातः प्राणवायु स्वास्थ्यवर्धक एवं प्राणवर्धक होती है।
-प्रातः जगने वाला व्यक्ति स्वस्थ समृद्ध एवं बुद्धिमान बनता है।
-प्रातः सूर्योदय से पूर्व जागने से शरीर में ऐसे हारमोन्स निकलते हैं, जो व्यक्ति को सदाचारी एवं कर्त्तव्यनिष्ठ बनाने में मदद करते हैं।
-हमारे ऋषि, महामानव, अवतार सूर्योदय से पहले जागते थे। (स्व-विवेक एवं स्वाध्याय से उदाहरण प्रस्तुत करें)
-प्रातः सूर्योदय पूर्व जागरण हेतु छात्रों से संकल्प करायें।
-कर (हाथ) दर्शन का महत्व छात्रों को समझायें।
-हाथ मनुष्य के कर्म के प्रतीक हैं।
-अपना भला-बुरा इन्हीं हाथों से करते हैं, अतः हमारे हाथ पवित्र और परिश्रमी बनें।
-निम्रलिखित मंत्र याद कराएँ।
कराग्रे वस्ते लक्ष्मीः कर मध्ये सरस्वती।
कर मूले गोविन्दः प्रभाति कर दर्शनम्॥
भावार्थ-हाथों के अग्रभाग पर लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती और मूल में गोविन्द का निवास है।
-व्यवस्थित और अव्यवस्थित जीवन के अलग-अलग चार्ट छात्रों को दिखाकर व्यवस्थित जीवन के प्रति उन्हें प्रेरित करें।
-आत्मबोध की साधना का स्वरूप सरल शब्दों में समझायें। हर दिन नया जन्म और हर रात नयी मौत है। (मनुष्य की आत्मा परमात्मा का अंश है, मनुष्य भगवान का राजकुमार है, महान है तथा अपने भाग्य का निर्माता आप है।)
-दिनभर की दिनचर्या का स्वरूप छात्रों को स्पष्ट करें अच्छे काम करने और बुरे काम से बचने की संकल्पशक्ति का विकास करायें।
-धरती माता को नमन् के मंत्र का अभ्यास कराएँ।
सत्यं वृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः, पृथिवीं धारयन्ति।
सा नो भूतस्य भव्यस्य, पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु॥
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।
अथर्ववेद १२/१/१
भावार्थ- सत्य निष्ठा, विस्तृत यथार्थ बोध, दक्षता, क्षात्रतेज, तपश्चर्या, ब्रह्मज्ञान और त्याग-बलिदान, ये भाव मातृभूमि का पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं। (इन्हीं गुणों से धरती माता प्रसन्न होती है।) भूतकालीन और भविष्य में होने वाले सभी जीवों का पालन करने वाली मातृभूमि हमें विस्तृत स्थान, उदार हृदय प्रदान करे। माँ पृथ्वी हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं।

महत्व समझायें-
पृथ्वी हमारी माता है, जो हमें अन्न, जल एवं वस्त्र प्रदान करती है हमें जीवन भर धारण करती है तथा हमारा पालन-पोषण करती है, भारत भूमि देवभूमि है, जिस पर अनेक अवतारों ऋषियों एवं महापुरुषों ने जन्म लिया है।

बालक क्या करें?
- प्रातः सूर्योदय के पूर्व संकल्प पूर्वक जागें।
- यह न सोचें कि हमें कोई जगायेगा तब ही उठेगें। स्वयं ही उठ जायें। यदि घड़ी हो तो स्वयं घड़ी अलार्म भर कर अपने पलंग के पास स्टूल आदि पर रखें, जैसे ही अलार्म बजे, तुरंत जाग जायें, उठते ही आलस्य त्यागकर बिस्तर पर बैठ जायें, कमरे में लगे सूर्योदय व गायत्री माता के चित्र का दर्शन करें।
- दोनों हथेलियाँ आपस में रगड़ कर चेहरे पर, आँखों, व कानों पर फिरायें। इससे निद्रा दूर होती है तथा चेतनता आती है।
- दोनों हथेलियों को सामने करके दर्शन करें तथा मंत्र बोलें-
कराग्रे वस्ते लक्ष्मी कर मध्ये सरस्वती।
कर मूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्॥
- शान्त बैठकर आंखें बंद कर लें तथा प्रतिदिन नया जन्म मानकर आत्म चिंतन करें, एवं दिन भर अच्छे काम करने का संकल्प करेंं। दिनभर में क्या-क्या करना है, उसकी मन ही मन योजना बनाएँ। (इसे आत्मबोध साधना कहते हैं)
- पृथ्वी माता को प्रणाम करें-
सत्यं वृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः, पृथिवीं धारयन्ति।
सा नो भूतस्य भव्यस्य, पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु॥ नमस्तस्यै...
मंत्र बोलें अथवा गायत्री मंत्र बोलकर बिस्तर त्याग दें।
- रात को सोते समय प्रातः जल्दी उठने का संकल्प करके सोएँ।

माता पिता क्या करें?
-अलार्म घड़ी एवं तांबे के लोटे में जल की व्यवस्था बना दें।
-कमरे में उगते सूर्य का, गायत्री मंत्र का चित्र इस तरह टांगें कि उठते ही उस पर बच्चे की दृष्टि पड़े।
-माता-पिता स्वयं भी सूर्योदय के पूर्व जगें।
-बच्चा जब चरण स्पर्श करे, तो स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे आशीर्वाद दें।
-जो बच्चों को सिखाते हैं, उस पर बड़ों को भी अमल करना है, तभी वह बच्चे के मन मस्तिष्क पर स्थाई रूप से अंकित होगा, बच्चों के दैनिक क्रियाकलापों में प्रेरणा-प्रोत्साहन दें।

२. सुव्यवस्था

आचार्य क्या करें?
- बच्चों को अपने वस्त्र, जूते, शयन कक्ष एवं परिसर की स्वच्छता एवं व्यवस्था का महत्व बताएँ।
- श्रम के प्रति सम्मान के भाव जगाएँ, श्रमेव जयते।
तुलनात्मक चित्रः-
- एक लड़का कुर्सी पर बैठकर पढ़ रहा है, सामने मेज पर किताबें व्यवस्थित रखी दिखायी दे रही हैं। कमरे में हर वस्तु यथा स्थान रखी है। वस्त्र हैंगर पर टंगे हैं, एक ओर जूते चप्पल लाइन से रखे हैं, कमरे में बिस्तर पर साफ चादर ठीक से बिछी है, सूर्योदय का चित्र टंगा है।
- उपरोक्त के विपरीत अव्यवस्था का चित्र बनाएँ। दोनों का तुलनात्मक दृश्य प्रस्तुत करें।
- बच्चों से निर्णय करायें और जीवन के हर क्षेत्र में व्यवस्थित रहने का संस्कार विकसित करें।

बालक क्या करें?
- बिस्तर से उठते ही अपने बिस्तर को ठीक करें, तकिया एवं ओढ़नी को व्यवस्थित कर निर्धारित स्थान पर रख दें।

माता पिता क्या करें?
- बच्चों को अपने बिस्तर की स्वच्छता आदि छोटे-छोटे कार्य स्वयं करने के लिए प्रेरित करें। प्यार से प्रेरणा दें।

३. ऊषापान

बालक क्या करें?
- बिस्तर से उठकर रात्रि से तांबे के लोटे में रखा जल जितना पी सकें-पियें?

माता पिता क्या करें? आचार्य क्या करें?
उषापान का लाभ एवं तरीका बतायें। जैसे-
-पेट साफ हो जाता है, कब्ज का नाश होता है,
-शरीर-स्वस्थ्य रहता है, दिनभर ताजगी बनी रहती है।
-पेट से ही अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं अतः ऐसी बीमारियों से रक्षा हो जाती है।
-शरीर की गर्मी शान्त हो जाती है, मन-मस्तिष्क शान्त रहता है।
-जल चिकित्सा विज्ञान का सामान्य ज्ञान दें।

४. माता-पिता को प्रणाम

बालक क्या करें?
- प्रातः जागरण के उपरान्त माता पिता रूपी साक्षात् देवों का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करें।
आचार्य क्या करे?
-माता-पिता को प्रणाम/ चरण स्पर्श का महत्व बतायें।
- मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरु देवो भव का भाव समझायें। बड़ों को सम्मान देने का संस्कार विकसित करें।
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोप सेविनः
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयु आयुःविद्या यशोबलम्
भावार्थ-जो नित्य प्रणाम करने के स्वभाव वाला और बड़ों की सेवा करने वाला है, उसकी आयु, विद्या, यश, और बल, ये चारों बढ़ते हैं।
उदाहरणः-मार्कण्डेय ऋषि के बचपन का उदाहरण।
- मार्कण्डेय अल्पायु थे। वे नित्य प्रति बड़ों का चरण स्पर्श करते थे। एक दिन एक ऋषि उनके घर पधारे। अपनी आदत के अनुसार बालक मार्कण्डेय ने चरण स्पर्श किया, तो ऋषि ने उन्हें आयुष्मान भवः का आशीर्वाद दे दिया। फलस्वरूप उनके भाग्य का अल्पायु योग समाप्त हो गया और वे पूर्ण आयु को प्राप्त हुए।
- श्री हनुमान द्वारा सुरसा एवं सीता माँ को प्रणाम करने पर उन्हें यश, बल एवं बुद्धि का आशीर्वाद मिला।
-प्रातः व्यक्ति एकदम शान्त होता है तथा प्राण ऊर्जा से संपन्न होता है अतः प्रातःकाल शान्त मन से दिया गया आशीर्वाद फलित होता है।
प्रातःकाल उठि के रघुनाथा नावहि मातु पिता गुरु माथा।
चौपाई का अर्थ बताएँ और चौपाई याद कराएँ।
माता पित्रोस्तुयः पादौ नित्यं प्रक्षालयेत सुतः
तस्य भागीरथी स्मान महन्यहनि जायते।
भावार्थ-जो पुत्र प्रतिदिन माता पिता के चरण छूता है, उसका नित्य प्रति गंगा स्नान हो जाता है।
नास्ति मातुः परं तीर्थं, पुत्राणां च पितुस्तथा।
नारायण समवेताहि, चैव परत्र च॥
भावार्थ- पुत्रों के लिए माता तथा पिता से बढ़कर दूसरा कोई भी तीर्थ नहीं है। माता पिता दोनों इस लोक में और परलोक में भी निःसंदेह नारायण के समान है।
चारि पदारथ कर तल ताके, प्रिय पितु-मातु प्रान सम जाके।
सुनु जननी सोई सुत बड़भागी, जो पितु मातु वचन अनुरागी॥

५. शुचिता

आचार्य क्या करें?
- आचार्य बतायें कि-शौच के पश्चात् हाथ ठीक से कीटाणुनाशक साबुन या राख से धोना चाहिए। इससे बीमारियाँ नहीं फैलती हैं।
- शौच के पश्चात शौचालय में पर्याप्त पानी डालकर साफ कर दें।
- शौचालय में अनावश्यक चेष्टाएँ न करें जैसे-बात करना, पेपर पढ़ना आदि।
- दंत मंजन/ब्रश करने का सही तरीका बताएँ। दातुन-ब्रश हल्के हाथों से करें। सामने और पीछे दोनों ओर से दाँतों को साफ करें। मसूड़ों की मालिश अंगुली से करें, मंजन करते समय यहाँ-वहाँ न घूमें, दातों की सफाई न होने से उनमें अन्न कण फँसे रह जाते हैं, जिनमें सड़न होती है, दाँतों में कालापन पैदा होता है। दाँत सड़ते हैं, उनमें छेद (केविटी) हो जाते हैं तथा दर्द देते हैं, अतः कुछ भी खाने के बाद अच्छे से कुल्ला करना चाहिए।
-टूथ पेस्ट की तुलना में मंजन/दातुन ज्यादा गुणकारी है। नीम, बबूल एवं करंज के पेड़ों की नरम डंडियों की दातुन बनाकर बताएँ। उसे चबाकर एक सिरे पर ब्रश बना लें, उससे हल्के-हल्के एक-एक दाँत घिसें, ऊपर एवं आगे पीछे साफ करें। जीभी से जीभ साफ करें। तीन उंगलियों से जीभ को रगड़कर कुल्ला करें, अंगूठे से तालू साफ करें।
-आँखों पर ठण्डे पानी का छींटा लगाने की प्रक्रिया बताएँ। गले का कफ एवं नाक साफ करें।
-मजबूत दाँत और स्वस्थ मसूड़े स्वास्थ्य के आधार हैं, चित्र के माध्यम से समझाएँ।
-गन्दे दाँतों की गन्दगी एवं कीटाणु पेट में पहुँचकर बीमारी पैदा करते हैं। मंजन न करने से मुँह से दुर्गन्ध आती है तथा पायरिया जैसे रोग हो जाते हैं और समय से पूर्व ही दाँत उखड़वाने पड़ते हैं।

बालक क्या करें?
-प्रातः उषापान के बाद शौच को जाएँ।
-शौचालय में शान्त बैठें, शौच के बाद शौचालय में पानी डालें।
-कीटाणुनाशक साबुन, राख या शुद्ध मिट्टी से हाथ धोएँ।
-दन्त मंजन, आयुर्वेदिक मंजन, बबूल या करंज की दातुन अथवा ब्रश से दाँत साफ करें।
-अपने वस्त्रों, जूतों की सफाई, शयन कक्ष की सफाई स्वयं करें। सप्ताह में एक दिन शौचालय एवं स्नानगृह की सफाई करें।
-मालिश एवं व्यायाम तथा दस मिनट प्रज्ञायोग करें।
-स्नान-ताजे या गुनगुने जल से शरीर रगड़कर स्नान करें। बाल धोने के लिए शिकाकाई रीठा एवं आँवले का पाउण्डर, मुलतानी मिट्टी आदि का उपयोग करें।
-स्वच्छ एवं धुले हुये वस्त्र पहनें। बालों में तेल लगाएँ एवं कंघी करें। बाल छोटे रखें।
विशेषः-उपरोक्त दिनचर्या को अपनाने हेतु अपने भाई-बहिनों को सहयोग करें। ऐसा न हो कि स्वयं के कारण परिवार के अन्य व्यक्तियों को असुविधा हो।

माता पिता क्या करें?
-शौच के उपरान्त बच्चे को ठीक से हाथ धोना सिखाएँ।
-आयुर्वेदिक मंजन, दातुन, ब्रश बच्चे की आयु के अनुरूप उपलब्ध कराएँ, ब्रश करना सिखाएँ।
-कुछ भी खाने के उपरान्त कुल्ला कर दाँत साफ करने की आदत डालें।
-प्रत्येक क्रिया हेतु सुविधा व व्यवस्था बनाएँ।
-बाल धोने हेतु आयुर्वेदिक पाउडर तैयार करके रखें।
-स्वयं भी स्वदेशी बनें एवं उसमें गौरव अनुभव करें, तथा बच्चों को प्रोत्साहित करें।
-योगासन का अभ्यास स्वयं भी करें और बच्चों से भी करवाएँ। बच्चा देखकर सीखता है।
-बालक के अन्य भाई-बहिन भी उचित दिनचर्या का अभ्यास करें जिससे बालक को प्रेरणा मिल सके।
- माँ बालक के कपड़ों का ध्यान रखे। धुले एवं स्वच्छ कपड़े ठीक से पहनाएँ।
-घर में स्वच्छता का वातावरण रखें। स्वयं भी व्यवस्थित रहने की आदत डालें।
अ. स्नान
-ताजे पानी से स्नान करें, इससे शरीर में रक्त संचार होता है।
-शरीर को रगड़ कर स्नान करने से मैल, पसीना छूट जाता है, आवश्यकतानुसार ही साबुन का प्रयोग करें।
-बालों को शिकाकाई, आँवला एवं रीठा पावडर से धोएँ। साबुन, शैम्पू से बाल जल्दी सफेद होते एवं झड़ते हैं।
-पानी का अपव्यय न करें। जल ही जीवन है, इसका महत्व समझाएँ।
-नहाने के बाद स्वच्छ एवं नरम सूती तौलिया से रगड़ कर शरीर साफ करें।
चित्र-
-बालक मंजन कर रहा है।
-नल से पानी बाल्टी में भर रहा है, दूसरी ओर बालक रगड़ कर स्नान कर रहा है, तौलिया खूँटी पर टँगी है।
ब. मालिश व्यायाम
तेल मालिश के लाभ-
-त्वचा स्वस्थ एवं कान्तिवान बनती है।
-शरीर में रक्त संचार ठीक होता है।
-शरीर स्वस्थ और लचीला बनता है।
-योग व्यायाम-पुस्तिका अनुसार कक्षा में अभ्यास कराएँ एवं इसके प्रति रुचि जागृत करने हेतु उनके लाभ बताएँ।
-चित्र पोस्टर बनाकर कक्षा में लगाएँ। प्रज्ञायोग के चित्र पोस्टर बनायें।
-अभ्यास कराते समय आवश्यक निर्देश दें।
-आसन धीरे-धीरे करें , अनावश्यक जोर जबरदस्ती से आसन न करें। सही स्थिति में आसन करें। प्रत्येक आसन के बाद गहरी श्वास लेकर विश्राम करें।
-प्राणायाम साथ-साथ करें।
प्राणायाम का सामान्य नियम-
जब आगे की ओर झुकें तो साँस छोड़ते हुए और जब पीछे की ओर झुकें तो साँस भरी रहे।
-आचार्य स्वयं योग का नियमित अभ्यास करें, जिससे बालकों को आसनों संबंधी अनुभव का लाभ मिल सके।

६. उपासना

आचार्य क्या करें?
- उपासना के मंत्र पवित्रीकरण, आचमन, शिखावंदन, तीन प्राणायाम, न्यास एवं पृथ्वी पूजन के मंत्रों का सही-सही लयबद्ध अभ्यास कराएँ तथा प्रक्रिया एवं उसकी भावना समझायें। इनके साथ उन दैवीय सूत्रों को जीवन में अपनाने हेतु प्रेरित करें।
- पद्मासन/सुखासन में बैठना सिखाएँ। ध्यान मुद्रा सिखाएँ , गायत्री मंत्र एवं अन्य मन्त्रों का अभ्यास कराएँ।
- जप के साथ उगते हुए सूर्य (सविता) का ध्यान करना सिखायें, भाव करें सविता का स्वर्णिम प्रकाश हमारे शरीर में प्रवेश कर रहा है, हम प्रकाशवान् बन रहे हैं, हमारे शरीर में शक्ति, हृदय में भक्ति-संवेदना तथा मस्तिष्क में सद्ज्ञान बुद्धि का विकास हो रहा है। सूर्यार्घ्यदान का मंत्र सिखाएँ। भावना बताएँ कि साधना की ऊर्जा को भगवान् को अर्पण कर रहे हैं। जिससे हमारा और विश्व का कल्याण हो रहा है।
पोस्टर- ध्यान चित्र, ध्यान योग के लाभ का चित्र।
- गायत्री मंत्र एवं उसकी साधना पर प्रकाश डालें।
- श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं ऋषियों की उपास्य गायत्री।
विशेषः- विभिन्न धर्म सम्प्रदाय के बच्चे हैं तो केवल सूर्य का ध्यान एवं उसकी शक्ति को आत्मसात् करने की भावना करने को कहें।

बालक क्या करें?
स्वच्छ आसन पर बैठें। सामने गायत्री मंत्र सहित उगते सूर्य का या अपने इष्ट देव का चित्र रखें। पवित्रीकरण, आचमन, शिखा-वन्दन, प्राणायाम एवं न्यास करें। इष्ट देव को प्रणाम करें। तत्पश्चात् पालथी मारकर (सुखासन में ) बैठें, कमर सीधी रखें आँखें बन्द कर मंत्र जप प्रारंभ करें साथ ही उसका अर्थ चिंतन और उगते सूर्य का ध्यान करें। जप-ध्यान पूर्ण होने पर प्रणाम करें। सूर्य नारायण को जल चढ़ाएँ तथा गमले में लगी तुलसी के पांच पत्ते तोड़ कर खाएँ।
- पूजा गृह में देवों को प्रणाम करें व पांच मिनट शान्त बैठकर २४ बार गायत्री मंत्र जप अथवा एक या तीन माला तक जाप नियमित एवं निर्धारित समय पर करें। इससे बुद्धि तीव्र होती है।

माता पिता क्या करें?
- घर में पूजा का स्थान निश्चित हो
- पूजा सामग्री, लोटे में जल, आसन आदि उपलब्ध हो।
- स्वयं भी नित्य उपासना और गायत्री मंत्र / इष्ट मंत्र का जप एवं ध्यान करें
- पूजा की तैयारी माता-पिता करके रखें।
- परिवार का प्रत्येक सदस्य उपासना करे, ऐसा नियम बनाएँ पूजा में बच्चों को साथ बिठाने का प्रयास करें।
- षट्कर्म बच्चे को अपने साथ कराएँ।
- गायत्री मंत्र का भावार्थ सहित चित्र पूजा में रखें।
- घर में तुलसी का पौधा गमले में लगा कर पवित्र स्थान पर रखें।
- तुलसी के चमत्कारी गुण तथा दैनिक उपासना की पुस्तक घर पर रखें।

७. नाश्ता

आचार्य क्या करें?
- अंकुरित अन्न के लाभ एवं पौष्टिकता के विषय में बताएँ। यह सुपाच्य एवं प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट का भण्डार है। शरीर को निरोग बनाता है, जीवनी शक्ति का विकास करता है, रोग निरोधक शक्ति बढ़ाता है।
- गौ दुग्ध के लाभ बताएँ। गाय का गुनगुना मीठा दूध पीना चाहिए। यह अमृत तुल्य है, पूर्ण भोजन है एवं सुपाच्य है, मेधावर्धक है। जीवनी शक्ति का विकास करता है, शरीर में स्फूर्ति पैदा करता है। भैंस का दूध गरिष्ठ होता है और देर से पचता है।
- गौ माता के विषय में बतायें।
अंकुरित अन्न
नाश्ता हेतु अंकुरित अन्न विधि- मूँग, चना, गेहूँ, सोयाबीन, मैथी, तिल, मूँगफली आदि अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार लेकर साफ करें व धोकर पानी में डाल दें। दूसरे दिन प्रातः उन्हें निकाल कर कपड़े की पोटली में बाँधकर लटका दें तथा दूसरे दिन के लिए दूसरा अन्न भिगो दें। बँधे हुए अन्न से तीसरे दिन अंकुर निकल आते हैं। उसे पानी से धोकर इच्छानुसार नमक, काली मिर्च डालकर खूब चबाकर खायें। इस तरह प्रतिदिन का क्रम बना रहे।

बालक क्या करें?
अंकुरित अन्न, मौसम के फल एवं गाय का दूध नाश्ते में लें।
नाश्ते का समय निश्चित हो।

माता पिता क्या करें?
अन्न को अंकुरित करने का कार्य माँ स्वयं करें।
बच्चे को सुपाच्य एवं सादा भोजन कराएँ।
संभव हो, तो बालक को पीने हेतु गाय का दूध ही दें।
नाश्ते में ब्रेड या रेडीमेड वस्तुएँ प्रयोग न करें। इससे बच्चे की पाचन शक्ति एवं स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है।
अंकुरित अन्न के घटक
विधि १. मूँग, २. चना, ३. मोठ, ४. गेहूँ, ५. मूँगफली/सोयाबीन ६. बरबटी का बीज, ७. अजवाइन, ८. मसूर, ९. मैथी।

८. अध्ययन

आचार्य क्या करें?
- अध्ययन में अभिरुचि जगाने हेतु विद्या के लाभ बतायें। महापुरुषों-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, आदि का उदाहरण प्रस्तुत करें।
- बालक में अध्ययन हेतु अभिरुचि, लगन एवं परिश्रम की भावना का विकास करें। पुस्तकों का महत्त्व बताएँ। ‘‘ये जीवन्त प्रतिमाएँ हैं जिनके सान्निध्य से तुरंत प्रकाश और उल्लास मिलता है।’’ पुस्तक पर अनावश्यक कुछ भी न लिखें। पुस्तकें एवं कापियाँ फटी न रहें, बस्ता साफ रखना चाहिए आदि बातों में बच्चों की रुचि जागृत करें।
- एकाग्रता के विकास हेतु ध्यान का अभ्यास कराएँ। इष्ट तथा श्वास प्रश्वास पर ध्यान रखकर मन को एकाग्र करने का क्रम बतायें।
- एकाग्र होकर पढ़ने के लाभ संबंधी चार्ट लगाएँ। इससे शीघ्र याद होता है। स्थायी तौर पर याद होता है।
- एकाग्रता से किया गया कार्य जल्दी पूर्ण होता है।
- एकाग्रता से किया गया कार्य आकर्षक एवं प्रभावी होता है।
- एकाग्रता तनाव से मुक्ति दिलाती है आदि।

बालक क्या करें?
- विद्यालय संबंधी पाठ्य सामग्री का अध्ययन या गृहकार्य नियमित करें।
- अपनी लेखन, पठन सामग्री को जहाँ तहाँ न बिखेरें। उसे व्यवस्थित रखें, जिससे विद्यालय जाने के पश्चात् माँ का अनावश्यक काम न बढ़े।
पढ़ने का ढंग/ अध्ययन का संस्कार
- स्वाध्याय/अध्ययन का अर्थ होता है समझकर पढ़ना।
- पढ़ते-पढ़ते कोई तथ्य समझ में न आ रहा हो, तो तुरंत रुक जाएँ। पुनः पढ़ें तथा उसके अर्थ का चिंतन करें।
- शब्दों एवं वाक्यों के संदर्भ खोजें। संक्षिप्त नोट्स बनाएँ। याद रखने के लिए या स्मृति के विकास के लिए विषय वस्तुओं के प्रमुख बिन्दुओं को रेखांकित करें, फिर उनका क्रम निर्धारित करें और नोट कर लें। परस्पर संबंध जोड़कर याद करें।
- एकाग्रता से पढ़ा गया विषय स्मृति में स्थायी होता है।

माता पिता क्या करें?
-घर में बच्चे का पढ़ने, खेलने, सोने, मनोरंजन आदि का समय सुनिश्चित करें तथा कड़ाई से उसका पालन करें। बालक की पढ़ाई में सहयोग करें। घर में अच्छा प्रेरणादायी साहित्य रखें।
- टी.वी. पर भी अच्छे, प्रेरणादाई एवं ज्ञान संवर्धक जैसे कार्यक्रमों के ही प्रति अभिरुचि विकसित करें। ध्यान रखें बालक व्यर्थ के कार्यक्रमों में समय बर्बाद न करें।

९. आदर एवं आज्ञा पालन

आचार्य क्या करें?
प्रेरक प्रसंग सुनाएँः- बड़ों के प्रति आदर एवं छोटों के प्रति स्नेह का संस्कार विकसित करने हेतु मर्यादा पुरुत्तोत्तम श्रीराम की कथा।
-पिता की आज्ञा हेतु वन जाना और राज्य त्यागना स्वीकार किया।
-लक्ष्मण का राम के प्रति त्याग।
-राम का अपने छोटे भाइयों के प्रति प्यार।
-श्रीराम का माता और पिता के प्रति सम्मान का भाव।
-पाण्डवों का अपने बड़ों के प्रति आदर भाव। उनकी आज्ञा का पालन
-पाण्डवों का परस्पर स्नेह आदर।
-आज्ञा पालन और अवज्ञा के चित्र द्वारा तुलनात्मक प्रस्तुतिकरण एवं बालकों से निर्णय।
-गुरु भक्ति, मातृभक्ति के उदाहरण।
आचार्य स्वयं प्रामाणिक एवं उत्कृष्ट जीवन के धनी बनें, जिससे बच्चे उसका अनुसरण कर सकें।
चौपाई- नित्य क्रिया कर गुरु पह आये, चरण सरोज सुभग सिर नाये।
अनुज सखा संग भोजन करहीं, मातु पिता आज्ञा अनुसरहीं।

बालक क्या करें?
-सामान्यतया माता पिता एवं गुरुजनों तथा बड़ों का बालक सदैव आदर करें।
-उनके प्रति पूज्य भाव रखें।
-उनकी आज्ञा पालन में अपना हित समझें।
-कोई हठ न करें, तर्क के लिए तर्क का कुतर्क न करें।
-कोई व्यंग न करें।
-आवेश में न आयें, अपनी बात शान्त भाव से कहें।
-सदैव शालीनतापूर्ण व्यवहार करें।
-पाठशाला जाने के पूर्व माता-पिता के चरण स्पर्श करें तथा पाठशाला पहुँच कर आचार्य को प्रणाम करें।
-बड़ों के प्रति आस्थायुक्त आदर तथा छोटों को आत्मीयता भरा स्नेह करें।
-जो दूसरों को आदर करता है, प्यार करता है, वह दूसरों से आदर और प्यार पाता है।
-बड़ों द्वारा पुकारने पर तुरंत जवाब दें और ‘जी’ लगाकर ही संबोधित करें।
-बड़ों के साथ चलना पड़े, तो उनके बायीं ओर थोड़ा पीछे चलें।
-कक्षा में या घर में बड़ों के आने पर नम्रतापूर्वक उनका अभिवादन करें।
-छोटों के आने पर उनका कुशल-क्षेम पूछें और सहायता करें।
-माता-पिता और गुरु की आज्ञा को परम कर्तव्य मानकर अविलम्ब पालन करें।

माता पिता क्या करें?
-माता पिता बच्चों के सामने सदैव अपना आदर्श प्रस्तुत करें तभी बच्चे उनसे अच्छी बातें सीख सकेंगे, उनका अनुसरण कर सकेंगे।
-बच्चों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें जिससे उनके भीतर स्वयं के प्रति सम्मान का भाव पैदा हो सके, जिससे वे स्वयं अपना मूल्य समझ सकें।
-बच्चों के साथ समय-समय पर सम्मानजनक व्यवहार की चर्चा करें। उन्हें महापुरुषों के संस्मरण सुनायें।
-लाड़ में बच्चों के नाम बिगाड़ कर न बोलें।
-बच्चों को परस्पर आदर, प्रेम की प्रेरणा दें।
-बच्चों की सुविधा एवं भावना का ध्यान रखें।
-उनके दृष्टिकोण का परिमार्जन प्यार से करें।
-स्वयं भी बड़ों की आज्ञा का पालन और आदर करें।
-किसी के छद्म सम्मान का वातावरण न बनावें।
-बच्चों के सामने किसी के प्रति द्वेष दुर्भावना प्रगट न करें।
-किसी की चुगली-बुराई न करें।
-दूसरों के द्वारा किये गए श्रेष्ठ कार्यों की सराहना करें।
-दूसरों के महत्व को स्वीकार करें।

१०. भोजन आहार

आचार्य क्या करें?
-आचार्य- ‘क्या खायें-क्यों खायें एवं कैसे खायें’ जैसी पुस्तकों से विभिन्न बिन्दुओं पर चर्चा करें।
चित्रः पेटू बालक एवं स्वस्थ बालक
- अधिक खाने से होने वाली हानियों का चार्ट।
- शाकाहार के लाभ का चार्ट।
- अंकुरित अन्न के लाभ का चार्ट।
- माँसाहार से हानियों का चार्ट।
- गाय के दूध के लाभ का चार्ट।
- बाजार के एवं खुले तैयार भोजन तथा खाद्य सामग्री और घर की शुद्ध सामग्री में अंतर समझायें।
- बालकों को दुर्व्यसनों से दूर रहने की प्रेरणा दें।
- दुर्व्यसनों- पान, गुटका, तम्बाकू आदि से होने वाली हानियों के पोस्टर एवं सूची बनाएँ।

बालक क्या करें?
-भोजन से पूर्व साबुन से हाथ धोएँ, ताकि भोजन के साथ गंदगी/कीटाणु पेट में न जाये।
- भोजन शुरु करने से पूर्व तीन बार गायत्री महामंत्र बोलें और हाथ जोड़कर अन्नदेवता को नमस्कार करें।
-भोजन शान्त चित्त होकर करें। भोजन के समय गुस्सा करने से उसका शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः भोजन में कोई कमी महसूस हो तो नाक-भोंह न सिकोड़ंे, भोजन को प्रसाद मानकर ग्रहण करें।
-शाकाहार निरोग और लम्बे जीवन का आधार है।
-भोजन सादा और सुपाच्य हो।
-तेल में तला,ज्यादा भुना, अधिक मिर्च मसाले वाला भोजन करने से शक्ति घटती है और आँतें खराब होती हैं।
-भूख से थोड़ा कम भोजन करें, ताकि पेट में पानी और हवा के लिए जगह शेष रहे। ठूँस-ठूँस कर भोजन न करें।
-भोजन करते समय जल न पियें, एक घंटे बाद स्वच्छ जल पिया जाए। उसके बाद शाम तक ४ से ६ गिलास पानी पियें।
-भोजन को खूब चबा-चबाकर करें। जल्दी-जल्दी बिना चबाए भोजन निगलने से आँतों को अनावश्यक श्रम करना पड़ता है। आँतों में दाँत नहीं होते।
-भोजन निश्चित समय पर करें, बार-बार न खायें, कम से कम चार घंटे के अंतर पर ही दुबारा कुछ खाएँ।
-भोजन के बाद ठीक से कुल्ला करें। दाँत साफ करें।
-जूठन न छोड़ें।
-तामसी भोजन (माँसाहार) न करें, माँस खाने से उसमें मिले हुए बीमारियों के कीटाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
-पान, गुटका, तम्बाकू आदि नशीली चीजें स्वास्थ्य को चौपट कर देती हैं और कैन्सर जैसे भयानक रोग पैदा करती हैं अतः इनसे बचना ही श्रेष्ठ है। बाजार की खुली चीजों पर मक्खियाँ भिनकती हैं , ऊपर कीटाणु छोड़ देती हैं, इसलिए बाजार की मिठाई आदि खुली बिकने वाली चीजें न खाएँ। मौसम के फल एवं सब्जी का सलाद शक्तिदायक एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है, इसलिए भोजन के साथ इनका प्रयोग करना लाभदायक है।

माता पिता क्या करें?
- घर में बच्चों को सादा एवं ताजा भोजन खिलाएँ।
- ब्रेड, टोस्ट, केक की जगह अंकुरित अन्न या ताजा नाश्ता दें।
- स्कूल के टिफिन में तली-भूँजी एवं बाजार की बनी खाद्य सामग्री न रखें।
- मसालेदार भोजन, तेज मिर्च, अचार आदि की आदत न डालें।
- भोजन का समय निश्चित हो।
- देर रात भोजन न दें, आवश्यक हो तब ही दूध, दलिया और हलका भोजन दें।
- भोजन बहुत प्रकार का न हो क्योंकि अलग-अलग पदार्थों को पचाने में अतिरिक्त शक्ति लगती है।
- परिवार का हर आदमी लाड़ से बच्चों को अपने साथ भोजन न कराये। समय से स्वतंत्र रूप से भोजन की आदत डालें।
- भोजन में जबरदस्ती न करें। स्वेच्छा से रुचिपूर्वक भोजन करायें।
- बच्चों को सुसंस्कारी बनाने हेतु जहाँ भोजन का सादा एवं शुद्ध होना आवश्यक है, वहीं इसके उपार्जन का नीति युक्त होना भी आवश्यक है। बच्चों को अनीतिपूर्वक कमाया अन्न न खिलायें।
- भोजन बनाते समय पहली रोटी गौ या पक्षियों हेतु निकाल दें या प्रतिदिन भोजन बनाने से पहले गेहूँ/आटा/चावल में से एक मुट्ठी अन्न दान करें।
- रसोई या पूजा घर में एक घट रखें, जिसमें दान का अन्न इकट्ठा होता रहे। माह के अंत में शक्तिपीठ में या उचित और योग्य स्थान में दान करें।
- भोजन बनने पर घर में पाँच कौर गुड़, घी, मिलाकर अग्नि में आहुति अर्पित करें। (बलिवैश्य यज्ञ) इससे भोजन प्रसाद बन जाता है। इसे खाने वाला सुसंस्कारी बनता है।
- पीने के पानी में तुलसीदल डाल कर रखें। इससे पानी शुद्ध हो जाता है।
- रसोई घर साफ रखें। बच्चों को बासी भोजन न दें। रात्रि में जूठे बर्तन न रखें, क्योंकि बर्तनों में छोड़ी गई जूठन से हानिकारक जीवाणु पैदा होकर वातावरण को विषाक्त बनाते हैं।
- रासायनिक खाद/कीटाणु नाशक तथा गंदगी को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि हरी सब्जियों तथा फलों को अच्छी तरह धोकर ही उपयोग में लाएँ।
- बच्चे के साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों को भी संतुलित भोजन करायें। मिर्च मसालों और स्वाद के चक्कर में उसकी पौष्टिकता एवं सुपाच्यता की उपेक्षा न करें।
- बच्चों को सदैव प्रातःकाल दिन में पूर्व की ओर मुँह करके और सांयकाल रात्रि में पश्चिम की ओर मुँह करके बिठाएँ।

११. पाठशाला जाने से पूर्व

बालक क्या करें?
- शाला जाने के लिए समय से पूर्व तैयार हों। तैयार होने में माता-पिता पर निर्भर न रहें।
- ड्रेस साफ-सुथरी रखें, जूते पर पालिश स्वयं करें, अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ साथ लेकर जाएँ।
- विद्यालय नियमित जाएँ, विषम परिस्थितियों को छोड़कर कभी अनुपस्थित न रहें। बीच में कक्षा छोड़कर इधर-उधर न जाएँ।
- अपनी वेशभूषा जूता, बेल्ट आदि स्वयं ठीक से पहनें।
- बस्ता व्यवस्थित करें, अपनी पुस्तक पेन आदि बस्ते में ठीक से रखें।
- निश्चित समय पर पाठशाला जाने एवं नियमित रहने पर गर्व करें और दूसरे साथियों को भी नियमितता की प्रेरणा दें।
- समय पर न पहुँचना और अनियमित रहना पिछड़ेपन एवं फूहड़पन की निशानी है, इससे बचें।
- संसार के सारे महामानवों के जीवन में समय की नियमितता का महत्त्वपूर्ण गुण रहा है, आप भी नियमित रहें। शाला में अन्य सामाजिक, धार्मिक अथवा राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भी समय पर पहुँचे।
- पाठशाला पहुँचने पर गुरुजनों को हाथ जोड़कर प्रणाम या नमस्कार कहकर सादर उनका अभिवादन करें।

आचार्य क्या करें?/ माता पिता क्या करें?
- घर की नियमित एवं व्यवस्थित दिनचर्या बालकों को नियमित एवं व्यवस्थित रहने की प्रेरणा देती है, अतः घर के सभी क्रियाकलापों को नियमित और व्यवस्थित रखें।
- बच्चों को आत्मनिर्भर एवं समय संयमी बनने हेतु प्रेरित करें। उनका सहयोग तो करें,परन्तु परावलम्बी न बनायें।
- घर में ऐसा वातावरण बनायें, जिससे बालक स्वयं प्रेरित होने लगें।
- बच्चों के उपयोग की वस्तुएँ पुस्तक आदि रखने की जगह निश्चित कर दें और वहीं रखने हेतु प्रेरणा दें।
- समय का महत्त्व समझाएँ।
- स्वयं समय से पूर्व विद्यालय पहुँचें, अपने आचरण से बच्चों में संस्कार डालें।
- बच्चों को नियमित जीवन के लाभ समझायें। नियमित रहने से कार्य समय पर होता है।
१. समय का सदुपयोग प्रगति का मूलमंत्र है।
२. जो समय को नष्ट करता है, समय उसे नष्ट करता है।
३. समय ही जीवन है।
४. सूर्य निश्चित समय पर उदय और अस्त होता है।
५. समय चूक जाने पर पछताना पड़ता है।
६. आप किसी कार्यक्रम के अतिथि हैं, और यदि उस कार्यक्रम में १०० व्यक्ति भाग ले रहे हैं और आप यदि एक घंटा विलम्ब से पहुँचे, तो आपने १०० व्यक्तियों का एक घंटा अर्थात् १०० घंटे अर्थात् ८ घंटे कार्य दिवस के हिसाब से साढ़े १२ दिन नष्ट कर दिये।
- विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ ने अल्प जीवन काल में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं और उनका नाम अमर हो गया।
- संसार की समस्त महान् उपलब्धियों के पीछे महामानवों एवं वैज्ञानिकों के समय का सदुपयोग ही मुख्य कारण रहा है।
- बच्चों से समय के सदुपयोग एवं उससे संबंधित सद्वाक्यों की सूची बनवायें।
- समय की महत्ता पर प्रकाश डालें।
- शाला जाने की तैयारी बच्चा स्वयं करें। इस हेतु प्रेरणा दें एवं बीच-बीच में पूछताछ करें।
- आत्म निर्भरता का संस्कार- अपना काम आप करें, गणवेश (ड्रेस)एवं अपना बस्ता स्वयं सँभालने की प्रेरणा दें।

१२. संस्कारशाला / पाठशाला पहुँचने पर

आचार्य क्या करें?
- संस्कारशाला में बच्चों को प्रणाम एवं नमस्कार का क्रम सिखायें।
गुरु परंपरा के उदाहरण बताएँ एवं गुरु का महत्त्व समझाएँ। (चित्र के माध्यम से)
- स्वामी रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द का जीवन
- समर्थ रामदास एवं शिवाजी
- स्वामी निरजानंद एवं दयानंद
- स्वामी रामानंद एवं कबीर
- आचार्य द्रोण एवं एकलव्य
- महर्षि धौम्य एवं आरुणि आदि के जीवन का उदाहरण अर्थपूर्वक समझाएँ।
गुरुब्रह्मा, गुरुर्विष्णु..........
अखण्ड मण्डलाकारम््..........
इन मंत्रों को याद कराएँ।
बंदऊ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महा मोह तम पुंज, जासु वचन रविकरनिकर॥

बालक क्या करें?
- अपने अध्यापक तथा साथियों को शाला में प्रवेश करते ही अभिवादन करना चाहिए। घर वापस आते समय भी नमस्कार आदि करें।
- कक्षा में अध्यापक के आने पर खड़े होकर उनका सम्मान करना चाहिए।
- अपनी पढ़ाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए। गप्पबाजी में समय नष्ट न करें।
- कक्षा में सबसे मित्रता का व्यवहार करें, प्रेम से बात करें, सबसे मैत्री भाव रखें।
- किसी प्रकार की मदद मिलने पर धन्यवाद देना न भूलें।
- एक दूसरे की सहायता करें, विशेष तौर पर कमजोर बालकों की सहायता अवश्य करें।
- अपने आसपास का वातावरण साफ-सुथरा रखें। विद्यालय साफ-सुथरा रखें। कुसंगति से बचकर रहें। अनुशासन का पालन करें।

१३. प्रार्थना

आचार्य क्या करें?
- प्रार्थना का महत्व समझाएँ-सरल शब्दों में जानकारी दें।
- पंक्ति में शांत खड़े रहने की आदत का विकास करें।
- प्रार्थना के पश्चात् नैतिक, संास्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को ध्यान में रखकर व्यक्तिगत मूल्यों पर प्रकाश डालें। कब किन मूल्यों पर प्रकाश डाला जायेगा, इसकी योजना पहले से तैयार कर ली जाय।
- विद्यालय बंद होने पर भी प्रार्थना हो।
- छात्रों को भी उद्बोधन का अवसर दिया जाए।

बालक क्या करें?
- प्रार्थना के समय पंक्तिबद्ध खड़े हों।
- सहपाठियों से धक्का, मुक्की न करें।
- आपस में इशारे न करें।
- शांत भाव से निर्देशानुसार खड़े हों एवं प्रार्थना करें।
- प्रार्थना के अर्थ का चिंतन करें एवं समझ में न आने पर आचार्य जी से पूछें।
- प्रार्थना स्थल से पंक्तिबद्ध होकर ही कक्षा में जाएँ।

माता-पिता क्या करें?
- बालक से दैनिक व्यवहारों और उनकी दिनचर्या पर चर्चा करें।
- आवश्यकता अनुसार उन्हें सुधार के लिए परामर्श दें।


१४. मित्रता, संगति

आचार्य क्या करें?
- कुसंग से हानि एवं सत्संग से लाभ का चार्ट समझाएँ। छात्रों से पृथक-पृथक लाभ-हानि के चार्ट बनवाएँ।
- बचपन जीवन की आधार शिला है, इसे कुसंग से बचाकर आत्म-निर्माण में लगाने हेतु प्रेरणा दें। जो न मित्र दुःख-दर्द, दुखारी, जिन्हें विलोकत पातक भारी।

बालक क्या करें?
- हमेशा अच्छे, संस्कारवान, पढ़ने वाले बच्चों से ही मित्रता करें।
- ऊधमी और उद्दण्ड बच्चों के साथ न रहें।
- दूसरे बच्चों के कहने पर नहीं, बल्कि अपने विवेक से निर्णय लें।
सच्चे मित्र की पहचान-
१. जो बुराइयों को बताकर दूर करता है।
२. जो ईमानदार होकर हमें ईमानदार बनाता है।
३. जो आपत्तियों के समय सहायता करता है।
४. जो गलत रास्ते पर जाने से रोकता है।
५. जो गुरु, माता, पिता, सहयोगी, साथी एवं समाज के प्रति हमारे कर्त्तव्यों के पालन में सहयोग करता है।
६. जो हमारे अच्छे गुणों का विकास करता है। जो स्वयं सद्गुणी है।
७. जो दूसरों की निन्दा नहीं करता ।
८. जो नशा नहीं करता।

माता -पिता क्या करें?
- बच्चे एकाकी नहीं रह सकते। वे विद्यालय में, खेल के मैदान में, घूमने-फिरने में जो प्रायः साथ होते हैं, उन्हें ही मित्र बना लेते हैं। प्रारंभिक अवस्था में वे विवेकपूर्ण निर्णय नहीं ले पाते। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि माता-पिता मित्रवत व्यवहार भी करें। घूमने-फिरने अपने साथ ले जाएँ। उन्हें खुली बातचीत करने का अवसर दें। अच्छे मित्रों के संस्मरण सुनाएँ। कुछ आदर्श मित्रों के उदाहरण प्रस्तुत करें। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से यह देखें कि बालक किसके साथ उठता-बैठता है? किसके साथ शाला जाना पसंद करता है? कहाँ रुचि लेता है? आदि ।
- बालक के मित्रों के साथ शालीनता का व्यवहार करें। कभी तुनक मिजाजी न दिखाएँ। व्यवहार में स्नेह, सहानुभूति और सहनशीलता का परिचय दें।


१५. त्याग, प्रेम,सेवा-सहयोग और समता का विकास

आचार्य क्या करें?
१.उपरोक्त विषयों से संबंधित कथा / प्रसंग तथा उनकी दृश्य सामग्री से प्रत्येक विषय को स्पष्ट करें और बच्चों को सरल शब्दों में समझाएँ।
- माह में एक बार सेवा कार्य कराएँ।
- बालकों को सेवा-सहायता, परस्पर प्रेम, त्याग, परोपकार के अवसर उपलब्ध कराएँ। विभिन्न क्रिया-कलापों के माध्यम से उन्हें अभ्यस्त भी बनाएँ ।
- पुस्तक-बैंक के लिए बालकों के मण्डल बनाएँ।
- मध्यान्ह में भोजन मिल-बाँटकर खाने के लाभ का सुख उदाहरण सहित समझायें।
- बालकों में संवेदन शीलता का विकस करें। इस हेतु महापुरुषों के जीवन से जुड़े मार्मिक/ प्रेरक प्रसंग सुनाएँ।

बालक क्या करें?
सहभोज - हाथ धोकर ही भोजन करें।
- स्वयं अकेले ही न खायें, परस्पर बाँटकर भोजन करें।
- एक साथ बैठकर गायत्री मंत्र बोलकर भोजन प्रारंभ करें।
पुस्तक बैंक - अपने कक्षा सहपाठियों से पुरानी पुस्तकें लेकर एक जगह एकत्रित कर लें। उनकी जिल्द ठीक कर उन विद्यार्थियों को दें, जो पुस्तकें नहीं खरीद पा रहे।
- अपने जेब खर्च से पैसे बचाते रहें। उनसे अपने गरीब साथियों की मदद करें।
सहयोग-सहानुभूति - अपने तथा अपने भाई एवं बहनों के कपड़े जो छोटे हो गए हैं, अभाव ग्रस्त बच्चों को प्रदान करें।
- आपत्ति काल, दुर्भिक्ष, अकाल, बाढ़ आदि में पीड़ितों की सहायता करें ।
- सप्ताह में किसी एक दुःखी, बीमार, गरीब, अपाहिज आदि की सेवा करें ।
प्रेम एवं समता - ऊँच-नीच, जाति-पाँति, गरीब-अमीर में तथा बालक-बालिका में भेद न करें।
- अपने भाई, बहिनों, सहपाठियों एवं मित्रों से हमेशा प्रेम पूर्वक मिलें और सम्मानजनक व्यवहार करें। ईर्ष्या न करें, उनमें बुराई न खोजें, उनकी निन्दा-चुगली न करें।
- अपन से बड़ों का सम्मान करें तथा छोटों से हमेशा प्रेम करें।
- संसार में जो हम खोज लेते हैं वही हमारे पास रहता है। दूसरों की बुराई खोजने से वह बुराई हमारे पास रहती है और धीरे-धीरे हम भी उन बुराइयों के शिकार हो जाते हैं।
- अपने दोष और दूसरों के गुण देखने से ही प्रगति होती है।
उदाहरणः- राजसूय यज्ञ में नेवला का प्रसंग-

बच्चों में परस्पर तथा दीन दुखियों के प्रति संवेदना जगाने हेतु प्रसंग सुनायें।
उदाहरणः- ईश्वर चंद्र विद्यासागर
‘जाति पाँति, ऊँच-नीच का भाव सामाजिक कलंक है’ समझाएँ।
उदाहरणः-स्वामी दयानंद, गाँधी जी, पं.श्रीराम शर्मा आचार्य।
‘ईर्ष्या मनुष्य को उसी तरह खा जाती है जैसे कपड़ों को कीड़ा’
‘बुराई देखने वाला कौआ-वृत्ति एवं गुण देखने वाला हंस-वृत्ति का होता है’ समझाएँ।

माता पिता क्या करें?
-बालकों से जो अपेक्षा है, माता पिता भी उसे अपने जीवन-व्यवहार में उतारें। अपने सामाजिक व्यवहारों मे श्रेष्ठता और दूसरों के प्रति सद्भावना का आदर्श प्रस्तुत करें।
-घर में धर्म घट की स्थापना करें एवं माता भोजन बनाने के पूर्व बच्चे द्वारा उसकी मुट्ठी से दो मुट्ठी अन्न या आटा प्रतिदिन दान कराएँ अथवा अन्न घट में डलवाएँ।
-बच्चे में बचत की आदत डालें तथा उससे दूसरों की सहायता कराएँ।
-सप्ताह में एक दिन स्वयं भी बच्चे के साथ सेवा कार्य में जाएँ।
-बहन-भाई में परस्पर त्याग, सहयोग एवं प्रेम का वातावरण बनाएँ। ईर्ष्या, चुगली करने पर बच्चे को समझाएँ उसकी हानियाँ बताएँ।
-घर में चुगली-ईर्ष्या का वातावरण न बनाएँ।
-आवश्यकतानुसार पड़ोसियों की मदद करें।
-नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के विकास के लिए पारिवारिक संगोष्ठी करते रहें।
-घर में समय-समय पर यज्ञायोजन, धार्मिक अनुष्ठान करते रहें।
-सप्ताह में एक दिन या अपनी इच्छानुसार कभी भी सायंकालीन दीपयज्ञ अपने और पड़ोसियों के साथ स्वयं ही अपने घर में या पास पड़ोस के किसी घर में स्वयं ही कर लें। यह कर्मकाण्ड बहुत सरल है। किसी भी गायत्री परिजन से समझ लें।


१६. स्वच्छता

आचार्य क्या करें?
- विद्यालय में कूड़ादान रखवाएँ या किसी जगह पर गढ्ढा बनाएँ। कूड़ा संभाल कर डालना सिखाएँ?
- जहाँ-तहाँ थूकने और पेशाब न करने की बात बताएँ।
- बच्चों से श्रमदान के क्रम में स्वच्छता का कार्य करायें।
- व्यवस्थित एवं स्वच्छ विद्यार्थी, व्यवस्थित कक्षा एवं विद्यालय तथा अव्यवस्थित छात्र, कक्षा के चित्रों से तुलनात्मक समझ का विकास करें।

बालक क्या करें?
-विद्यालय एवं कक्षा को स्वच्छ रखें। कागज के टुकड़े पॉलीथिन जहाँ-तहाँ न फेकें, बल्कि कू ड़ादान में ही डालें।
-अपने गुरुजनों के निर्देश में अपनी कक्षा की पुताई-सफाई, सजावट करें।
-केले आदि फलों के छिलके गाय, बकरी को खिलायें।
-विद्यालय की दीवार पर कुछ न लिखें।
-अपने बस्ते एवं पुस्तकों को स्वच्छ रखें।
-विद्यालय परिसर में जहाँ-तहाँ कमरे के भीतर-दीवार पर, बरामदे आदि में न थूकें।
-मूत्रालय में ही पेशाब करें और पानी डालें।

माता पिता क्या करें?
- घर में वस्त्र एवं वस्तुओं की स्वच्छता एवं पवित्रता का पूरा ध्यान रखें। इस कार्य में समय-समय पर बालकों से सहयोग लेते रहें।


१७. श्रम निष्ठा - कर्म ही पूजा है

बालक क्या करें?
-घर में अपने अध्ययन एवं अन्य कार्यों के साथ-साथ कुछ समय प्रतिदिन घर के काम काज एवं व्यवस्था हेतु लगाएँ।
जैसे-घर का सामान जमाना, शौचालय, स्नानगृह साफ करना, पौधों की गुड़ाई आदिकरना।
-अपने घर के आसपास सफाई हेतु श्रमदान करना आदि।
-विद्यालय में सामूहिक श्रमदान कर सफाई का कार्य करें।
-अविकसित एवं गंदी बस्ती में स्वच्छता हेतु अपने सहपाठियों की टोली बनाकर कार्य करें।
-सामूहिक वृक्षारोपण कार्यक्रम करें। हर घर में तुलसी के पौधे लगाएँ। मंदिर, पूजाघर की सफाई हेतु श्रमदान करें।
-उपरोक्त में कोई एक कार्य माह में एक दिन अवश्य करें। श्रमिक को उपेक्षा भाव से न देखें

माता पिता क्या करें?
-श्रमदान के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करें।
-सुविधा अनुसार उनके साथ स्वयं भी श्रमदान करें।
-बच्चे की दिनचर्या में श्रम हेतु समय निर्धारित करें।
-अपने कार्य स्वयं करने की आदत का विकास करें।
-बच्चों के कार्य नौकरों से न कराएँ।
-‘‘श्रम करना सम्मान का प्रतीक है, ईश्वर की पूजा के समान पवित्र है।’’ यह भाव विकसित करें।
-बच्चे को घर के आँगन में लगे पौधों में पानी डालने, गुड़ाई करने का कार्य सौंपें तथा पौधों हेतु गमले तैयार करने और पौधे लगाने का कार्य सौंपें।
-माता-पिता अपने कार्य स्वयं करें।
-अपनी वस्तुओं को यथास्थान रखना, अपना बिस्तर झाड़ना, कपड़े साफ करना, अपना कमरा जमाना आदि कार्य उसे स्वयं करना सिखाएँ।

आचार्य क्या करें?
-श्रम के प्रति सम्मान जगाएँ, श्रम देवता का महत्व समझाएँ।
-बालकों को श्रमदान के प्रति प्रेरित करें। स्वावलम्बन का भाव जगाएँ।
-बाल संस्कारशाला के बच्चों का एक दिन आधा घंटा का श्रमदान का कार्यक्रम रखें।
-प्रारंभ में सरल कार्य कराएँ।
-कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित कर लें, एक सप्ताह पूर्व इसकी घोषणा कर दें।
-श्रम से शरीर स्वस्थ, मन प्रसन्न एवं संतुष्ट और आत्मा आनंदित रहती है।
-समझाएँ कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है।
-परिश्रम ईश्वर उपासना के समान ही महत्वपूर्ण है।
- शाला परिसर में बागवानी में श्रमदान कराएँ।
-स्वयंसेवी संस्थाएँ, कारखाने आदि का भ्रमण कराएँ और कार्य की प्रतिष्ठा बताएँ।
-श्रम से ही साधन, सुविधा एवं प्रगति संभव हुई है।
-कर्म ही पूजा है। कोई कार्य छोटा-बड़ा नहीं है-इस विषय पर गांधी जी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि महापुरुषों के जीवन प्रसंगों से बालकों को अवगत कराएँ।
-बच्चों को श्रमशील बनाने तथा आलस्य एवं प्रमाद से मुक्त रखने का प्रयास करें।
-काम करना प्रतिष्ठा का विषय बने, ऐसा वातावरण बनाएँ।


१८. मनोरंजन एवं प्रतिभा परिष्कार

प्रतियोगिता आयोजन

बालक क्या करें?
चित्रकला-
- महापुरुषों, अवतारों, ऋषियों, महान नारियों, शहीदों एवं संतों के चित्र बनाएँ। रंग भरें या चित्र संग्रह करें। उनकी विशेषता के संदर्भ में दो एक वाक्य कलात्मक लिखाई/ सुलेख मेंं लिखने को कहें।
काव्यानंद-
- शौर्य, साहस, राष्ट्रभक्ति, प्रकृति संबंधी प्रेरणादायी प्रसंग एवं जीवन मूल्यों पर कविता पाठ में भाग लें। इस प्रकार की कविताओं /प्रसंगों का संग्रह करें।
- दूसरों की सुखद अनुभूतियों से आनंदित हों। वर्ष भर मनाये जाने वाले पर्व त्यौहारों एवं उत्सवों के आयोजनों में सम्मिलित हों। दूसरों की उपलब्धियों की प्रशंसा करें।
सृजन में मनोरंजन (ष्टक्रश्व्रञ्जढ्ढङ्कढ्ढञ्जङ्घ)
-गायन, भाषण, निबंध पाठ, प्रतियोगिताओं में भाग लें।
-विनोद तो करें परंतु दूसरों की निन्दा एवं व्यंग न करें। इससे आपसी मन-मुटाव और झगड़े पैदा होते हैं।
-ध्यान, योग-व्यायाम, सड़क नियम, कर्तव्यों के पालन आदि संबंधी कार्यशालाओं में भाग लें।
-नाटिका, नृत्यनाटिका आदि के आयोजन में भाग लें।
-प्रेरणाप्रद प्रसंग एवं संस्मरण सुनाने की प्रतियोगिताओं में भाग लें।

माता पिता क्या करें?
- उपरोक्त कार्यों में भाग लेने के लिए बालकों को प्रोत्साहित करें एवं उनकी तैयारी में सहयोग करें।

आचार्य क्या करें?
- उपरोक्त अनुसार व्यवस्था बनाएँ एवं आयोजन कराएँ (यह आयोजन नियमित कक्षा के अतिरिक्त होंगे)। विभिन्न धर्मों के मूल सिद्धान्तों पर परिचर्चा करें। अलग अलग बच्चों को अलग-अलग धर्मों पर तैयारी कराएँ तथा उन धर्मों के महापुरुषों की वेशभूषा में आकर प्रस्तुति करायें।
- प्रज्ञागीतों पर नृत्य नाटिकाएँ तैयार करवायें-( अभिनय गायन एवं दृश्य)
उदाहरणः -मेरा रंग दे बसंती चोला.... -जाग वीर बलिदानी.....
-चंदन है इस देश की माटी....... -वन्दे मातरम्.......
विभिन्न घटनाओं पर छात्रों की प्रतिक्रियाएँ ज्ञात करें।
- एक घटना आचार्य सुनाए और उस पर बालकों की प्रतिक्रियाएँ जाने एवं उनके दृष्टिकोण का परिमार्जन करें।
- समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी एवं बहादुरी से संबंधित घटनाएँ प्रस्तुत करें।
- प्रश्न खोजना एवं उनके उत्तर लिखने का अभ्यास कराएँ। ऐसा होता तो क्या करते? इस प्रकार की परिस्थितियाँ निर्मित कर छात्रों की कल्पना शक्ति एवं सृजनात्मकता का विकास करें।
- चित्रों पर प्रतिक्रियाएँ। प्रश्न-उत्तर ज्ञात करें।
- तर्क, तुलना, समीक्षा आदि की योग्यता विकसित करें।
- महत्वपूर्ण स्थलों जैसे- ऐतिहासिक, धार्मिक आदि स्थलों का महत्व समझाएँ।
- सड़क पर चलने के नियमों, चौराहा पार करने के नियमों, सावधानियों एवं यातायात के विभिन्न चिन्हों को समझाएँ
- स्व अनुशासन एवं स्वयं सेवक के गुणों का विकास करें
- आत्म विश्वास, निडरता, सामूहिकता, जिम्मेदारी और बहादुरी का बच्चों में विकास करें।


१९. खेलकूद

आचार्य क्या करें?
-खेल के नियम समझाएँ एवं खेलना सिखएँ।
-प्रज्ञायोग का अभ्यास कराएँ।
-खेल का महत्व समझाएँ। कभी-कभी संध्याकाल बच्चों के साथ स्वयं खेलें एवं खेल-खेल में उनका मार्गदर्शन करें।
-खेल की भावना का विकास करें।
-खेल हेतु बाल मंडल बना दें। मैत्री भाव जाग्रत करें।
-हार-जीत को महत्व न दें। परस्पर सहयोग का विकास करें।

बालक क्या करें?
-संध्याकाल खेलकूद में भाग लें। खेलकूद एवं व्यायाम से शरीर सुन्दर, मजबूत एवं निरोग बनता है।
-दण्ड बैठक , कबड्डी, दौड़ना, कूदना, उछलना, फुटबाल, हाकी, खो-खो, योग, तेज पैदल चलना सबसे अच्छी कसरत है।
-स्वस्थ रहने के लिए नियमित खेलकूद आवश्यक है। जो खेलते नहीं हैं, उनका शारीरिक विकास नहीं होता, शरीर दुर्बल या अधिक मोटा हो जाता है तथा नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं।
- भोजन के तुरंत बाद खेलकूद नहीं करना चाहिए।
- संध्याकाल एक घंटा खेलकूद पर्याप्त है।
- खेल के मैदान पर खिलाड़ी भावना का परिचय दें।
- हार-जीत को ही खेल का उद्देश्य न बनाएँ। खेल-खेल में न खिसियाएँ और न ही परस्पर लड़ाई-झगड़ा करें। निर्णायक का निर्णय मानें।
- खेल के मैदान पर आज्ञा पालन एवं पूर्ण अनुशासन का पालन करें।
- खेल के मैदान में खेल का सामान स्वयं लायें और ले जाएँ।

माता पिता क्या करें?
- बच्चों को निश्चित समय पर खेलने अवश्य भेजें।
- आलस्य प्रमाद छुड़ाएँ।
- खेल की समय अवधि निश्चित करें।
- खेल में हार-जीत को खेल के भाव से देखना सिखाएँ।
- बालकों के आपसी विवाद में न पड़ें बल्कि उन्हें स्वयं सुलझाने दें।
- खेल के समय बालक कहाँ जाते हैं? क्या करतें हैं? किसकी संगति में रहते हैं? आदि गतिविधियों पर दृष्टि रखें।


२०. सायंकालीन प्रार्थना एवं स्वाध्याय

बालक क्या करें?
-संध्या वंदन शान्त एवं स्वच्छ स्थान पर या पूजा स्थल में बैठकर करें।
-दीप एवं अगरबत्ती जला लें। अधिक सुगंधवाली अगरबत्ती का प्रयोग न करें, यह हानिकारक है। हल्की सुगंध वाली, शुद्ध हवन सामग्री या गुग्गुल आदि से निर्मित अगरबत्ती का उपयोग करें।
-शांत मन से व एकाग्रता पूर्वक संध्यावंदन करें।
पवित्रीकरण, आचमन के उपरान्त
-तीन बार प्राणायाम करें,
-गायत्री चालीसा का पाठ करें,
-पाँच बार गायत्री मंत्र बोलें,
-आरती में शामिल हों,
स्वाध्याय हेतु
संध्याकाल में निम्रलिखित पुस्तकों से स्वयध्याय करें।
- राम कथा
- रामायण की प्रगतिशील प्रेरणा (वाङ्मय क्रमांक ३२)
- संस्कृति संजीवनी श्रीमद् भागवत् एवं गीता (वांङ्मय क्रमांक ३१)
- प्रज्ञा पुराण
- प्रेरणाप्रद दृष्टान्त (वांङ्मय क्रमांक ५७)
- अन्य प्रेरणादायी साहित्य
- सप्ताह में एक दिन संकीर्तन, प्रज्ञागीत, भजन गाएँ।
- पढ़ने का क्रम निश्चित कर नियमितता का पालन करें।
- एक व्यक्ति पढ़े शेष मौन बैठकर सुनें।
- घर में बारी-बारी से पढ़ने का क्रम रखें।
- पढ़े हुए पर चर्चा करें।
स्वाध्याय का लाभः-
- स्वाध्याय से हमारे भ्रम एवं संदेह समाप्त होते हैं। विवेक जागता है।
- ज्ञान का विकास होता है।
- मानव मूल्यों की समझ विकसित होती है, आदर्शवादी, नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन मिलता है।
- हमारी संस्कृति के वैज्ञानिक और सांस्कृतिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है।
- अपने गौरवशाली इतिहास का ज्ञान प्राप्त होता है।
- शुद्ध पढ़ने एवं भाषण का अभ्यास होता है।
- आत्म-विश्वास एवं ईश्वर-विश्वास जागता है।
- अपने कर्तव्यों का बोध होता है।
- समझने और चिंतन करने की शक्ति का विकास होता है।

आचार्य क्या करें?
-विद्यालय में कुछ समय स्वाध्याय के लिए निश्चित कर दें।
-किसे क्या पढ़ना है? यह सुनिश्चित कर दें।
-पढ़े हुए विषयों पर छात्रों में योग्यता के विकास की दृष्टि से चर्चा करें।
-पढ़े गए विषय पर भाव संक्षेपण एवं सार संक्षेप लिखवायें?
-पढ़े हुए में से तथ्य परक सामग्री बिन्दुवार खोजने को कहें।
-कुछ प्रमुख तथ्यों की तुलना एवं विवेचना कराएँ।
-छात्रों की स्मृति एवं समझ का विकास करें।

माता पिता क्या करें?
-परिवार के सभी सदस्य मिलकर जप, ध्यान, आरती आदि करें।
-स्वाध्याय के लिए व्यवस्था बनायें, प्रेरणा दें, किसे क्या पढ़ना है- पहले से निश्चित करें।
-पढ़े हुए पर विचार-विमर्श करें।
-सिद्धान्तों को जीवन में उतारने के लिए प्रेरित करें।
-बच्चों को सायंकालीन स्वाध्याय की प्रेरणा दें एवं उसे अनिवार्य बनाएँ।
-घर-घर में फैल रही अपसंस्कृति (पाश्चात्य भोगवादी स्वार्थी संस्कृति) के दूरगामी दुष्परिणामों से अपनी भावी पीढ़ी को बचाने एवं कुसंस्कारों से दूर रखने का यह एक सफल एवं सशक्त माध्यम है।
-बच्चों में दैवीय गुणों का विकास कर उनके चिंतन-चरित्र को ऊँ चा उठाने का यह सफलतम और अनुभूत तरीका है। आवश्यक सत् साहित्य बच्चों को अवश्य उपलब्ध कराएँ।
-घर में अश£ील, भ्रमित करने वाला एवं स्तरहीन साहित्य न मंगवायें और न पढ़ें।
-अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण योजना, कल्याण आदि श्रेष्ठ पत्रिकाओं के सदस्य बनें।
-स्वाध्याय के गूढ़ एवं कठिन तथ्यों को स्पष्ट करें, जहाँ आवश्यक हो विषय की सरल व्याख्या कर दें।
-दूरदर्शन की अश्लीलता एवं हिंसा के विष से अपने बच्चों की रक्षा करें।
-ज्ञानप्रद एवं अच्छे कार्यक्रम देखने की ही अनुमति दें एवं स्वयं भी ऐसे ही कार्यक्रम देखें।
-बच्चों की जिद पर माँ उसे कभी भी विष नहीं देती, परंतु हम अनजाने में टी. वी. द्वारा उन्हे निरंतर मानसिक विष दे रहे हैं। इससे उन्हें बचाएँ।
-शुद्ध उच्चारण एवं पठन का अभ्यास कराएँ
-विषय के मूल तथ्य को सरल शब्दों में बताएँ।


२१. सायं कालीन भोजन

प्रातः अनुसार


२२. अध्ययन का संस्कार

बालक क्या करें?
-मन लगाकर पढ़ने से विषय वस्तु जल्दी याद होती है, अतः रुचिपूर्वक पढ़ें।
-अधूरे मन से पढ़ने पर याद नहीं होता अतः पढ़ते समय बातचीत न करें।
-एक समय में एक ही काम करें। पूर्ण मनोयोग से करने पर कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाता है, अतः मन लगाकर पढ़ें।
-एकाग्रता में बहुत शक्ति है जैसे सूर्य-किरणों को आतिशी शीशे (लैंस) से एक स्थान पर इकठ्ठा करने पर आग लग जाती है।
-भाप के एकाग्र दबाव से इंजिन चलता है, इसलिये पढ़ने में एकाग्रता बनाये रखें। पढ़ाई-लिखाई का गृहकार्य रोज पूरा करना चाहिए।
-प्रश्नों के उत्तर स्वयं खोजें, दूसरों की नकल न करें।
-कठिनाई को माता-पिता या शिक्षक से पूछें और हल करें।
-लेटे-लेटे पढ़ने से नेत्र कमजोर होते हैं। इसलिए लेट कर न पढ़ें।
-बहुत झुक कर न पढ़ें, पुस्तक और आँखों के बीच एक फुट का अन्तर रखें।
-बहुत तेज प्रकाश में तथा बहुत कम प्रकाश में पढ़ने से भी नेत्र कमजोर होते हैं। अतः सामान्य प्रकाश में पढ़ें।
-मस्तक हिला-हिलाकर न पढ़ें, चिल्ला-चिल्ला कर, तिनका तोड़ते, भूमि कुरेदते, नाखुन चबाते हुए पढ़ना बुरी आदत है।
-पुस्तकें पैरों में न गिरें, वे माँ सरस्वती की प्रतीक हैं। उनका सम्मान करें, फाड़ें नहीं।
-लिखाई साफ-साफ, सुडौल और सीधी लाइनों में लिखें।
-बहुत काट-पीट असावधानी का प्रतीक है, इससे बचें।
-उतावले में भूल करना असावधानी,आलस्य व प्रमाद का प्रतीक है।
-अशुद्ध लिखना मूर्खता का प्रतीक है। शुद्ध साफ-साफ सीधा व सुन्दर लिखना सीखें। सुनकर, सोचकर, समझकर, साफ-साफ, शुद्ध एवं सुन्दर अक्षर लिखें। मात्राओं और व्याकरण का ध्यान रखें।

आचार्य क्या करें?
-सही तरीके से पढ़ने लिखने की क्रिया दर्शाता हुआ चित्र प्रदर्शित करें।
-अध्ययन में ध्यान और एकाग्रता पर आपस में चर्चा कराएँ।
-एकाग्रता का प्रयोग करके दिखायें, जैसे- लंैस का प्रयोग।
-विषय में रुचि जागृत करने हेतु अलग से वषयों का महत्व बतायें।
-गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, नैतिक शास्त्र, समाज-विज्ञान के रोचक तथ्य प्रस्तुत करें। उनमें बच्चों को शामिल करें।
-लेखन एवं अध्ययन की सही पद्धति का प्रदर्शन किसी एक बच्चे को बैठाकर दृश्य प्रस्तुत कर बताएँ।
-शुद्ध एवं सुलेख प्रतियोगिता आयोजित करें।
-योग्य छात्रों की वार्ता-अन्य छात्रों से कराएँ।
- श्रेष्ठ विद्यार्थी के लक्षण बताएँ।
१. काग दृष्टि -कौए के समान तीव्र दृष्टि।
२. बकोध्यानम -बगुले के समान एकाग्रता
३. श्वान निद्रा -कुत्ते के समान सजग निद्रा, तुरंग जाग पड़ना ।
४. गृहत्यागी -घर का मोह न रखना।

माता पिता क्या करें?
१. बालकों के पढ़ने का स्थान निश्चित हो।
२. रोशनी की समुचित व्यवस्था हो। बिस्तर पर पढ़ने-लिखने की आदत न डालें।
३. लिखने-पढ़ने पर ध्यान रखें और मार्ग-दर्शन करें।
४. स्नेहपूर्वक सुधार करवायें।


२३. डायरी लेखन

डायरी लेखन का महत्व
आत्म समीक्षा का विषय अत्यंत कठिन भी है, पर अति आवश्यक भी है। व्यक्ति दूसरों की समीक्षा तो करता रहता है, पर स्वयं के गुण-दोषों को नहीं देख पाता। हमसे कहाँ आलस्य-प्रमाद हो रहा है? कहाँ चूक हो रही है? यह ठीक से मालूम नहीं चल पाता। जो भूलें बार-बार होती हैं, उन्हें सुधारने में व अपने गुणों-अवगुणों को समझने में डायरी लेखन अत्यन्त सहायक एवं उपयोगी है। यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र दिये गए हैं। इनके निरंतर अभ्यास से व्यक्ति श्रेष्ठ व सफल बन सकता है। बालकों को इस डायरी को नियमित भरने को कहें। इसके लिये डायरी अथवा इसकी फोटोकॉपी कराकर बच्चों को दी जा सकती है।

बालक क्या करें?
१. शयन के पूर्व अपनी दैनिक डायरी अवश्य लिखें ।
२. निम्रांकित डायरी को नियमित भरें। इसमें सच ही लिखें, झूठ न लिखें।
३. हाँ के लिए (ॐ) और नहीं के लिए (ङ्ग) लिखें।

आचार्य क्या करें? / अभिभावक क्या करें?
- डायरी लेखन का महत्त्व समझायें।
- कभी-कभी इस सम्बंध में पूछ-ताछ भी करें।
- बालक डायरी दिखाने का इच्छुक हो तो अवश्य देखें।
- गुणों के लिये प्रोत्साहन दें। अवगुणों को दूर करने में उनके सहायक बनें।
- डायरी लेखन हेतु डायरी उपलब्ध करायें।

२४. शयन

बालक क्या करें?
१. अपना बिस्तर बिछा कर, इसके बाद शान्त भाव से बिस्तर पर बैठकर दिन भर में किये गए अच्छे-बुरे कार्यों का विचार करें।
२. कोई गलत काम तो नहीं हुआ, इस पर चिंतन करें। यदि हुआ हो तो उसे पुनः न करने का संकल्प करें-इसे तत्वबोध साधना कहते हैं।
३. सबके लिए शुभ कामना करें।
४. शत्रु को भी क्षमा करें।
५. शान्त भाव से भगवान्/गायत्री माता की गोद में सो रहे हैं एसी भावना करें।
६. सदा पूर्व की ओर सिर करके सोना चाहिए।

२५. शैक्षणिक भ्रमण

आचार्य क्या करें?
-धार्मिक, राष्ट्रीय अथवा प्राकृतिक महत्व के स्थलों पर बच्चों को ले जाएँ। अपना भोजन पानी साथ ले जाएँ मिल-बाँटकर खाएँ।

बालक क्या करें?
- शैक्षणिक परिभ्रमण में अपनी डायरी (कापी ) और पेन साथ रखें।
- महत्वपूर्ण तथ्य नोट करें।
- परिभ्रमण में अपने आचार्य के निर्देशों का यथावत पालन करें।
- सहपाठियों के साथ सहयोग और सामंजस्य बनाकर चलें।
- समूह से अलग न हों।
- अनुशासन का पूर्ण रूप से पालन करें।
- परिभ्रमण में की जाने वाली संगोष्ठी में सक्रियता से भाग लें।
- शालीनतापूर्वक अपनी समस्याओं का समाधान करें।
- व्यक्तिगत रुचियों की अपेक्षा सामूहिक रुचियों को मान्यता दें।

माता पिता क्या करें?
- भ्रमण के लिए बालकों की तैयारी में मदद करें।
- अनुशासन पालन के लिए उन्हें प्रेरित करें।
- परिभ्रमण पर बालकों से विस्तार से चर्चा करें।
- उन्हें ऐसे कार्यों में भागीदारी करने से रोकें नहीं।

गाँठ में बाँध रखने योग्य अनमोल रत्न

(१) भोजन के सम्बन्ध में निम्र बातों का ध्यान रखोः-
- भूख से कम खाओ, पेट को आधा भोजन से भरो, आधे को हवा और पानी के लिये खाली रहने दो।
- हर ग्रास को खूब चबा-चबा कर खाओ।
- सारे दिन बकरी की तरह मुँह मत चलाते रहो। दो बार नियत समय पर भोजन करो, प्रातः काल किसी पतली, हल्की चीज का नाश्ता कर सकते हो।
- भोजन को रुचि और प्रसन्नता पूर्वक खाओ।
- बासी रखी हुई, तली चीजें, मिठाई, खटाई तथा मसालेदार, उत्तेजक चीजों से बचो। सादा, हल्का तथा रसीला भोजन करो।
- भोजन में स्वाद का नहीं केवल स्वास्थ्य का ध्यान रखो।
(२) शरीर से नित्य उचित परिश्रम करो, न तो इतने आराम तलब बनो कि सुस्ती और शिथिलता आ जाए और न इतनी मेहनत करो कि शक्तियों का अत्यधिक खर्च हो जाने से क्षीणता आ जाए।
(३) इन्द्रिय भोगों में इतने लिप्त न होओ कि मन काबू से बाहर हो जाए और बल-वीर्य का अधिक भाग उन्हीं में नष्ट होने लगे।
(४) हर महीने एक-दो उपवास रखो, उस दिन निराहार रहकर खूब पानी पीना चाहिए। यदि निराहार न रहा जा सके तो थोड़ा दूध या फल ले सकते हैं।
(५) सफाई का पूरा ध्यान रखो। नाखून, बाल, दाँत, नाक, कान साफ रखो। नित्य शरीर को खूब रगड़-रगड़ कर स्नान करो। कपड़े धुले हुए साफ रखो।
(६) मलमूत्र त्यागने में आलस न करो।
(७) रात को जल्दी सोओ, प्रातःकाल जल्दी उठो। पूरी और गहरी नींद लेने का प्रयत्न करो।
(८) सदा प्रसन्न रहने की आदत डालो। हर घड़ी मुस्कराते रहने का स्वभाव बनाओ।
(९) सबसे नम्रता और मधुरता के साथ बात करो। निष्ठुर, रूखी और कड़वी बात कभी मुँह से मत निकालो।
(१०) गाली या अपशब्द या उपहास द्वारा किसी को चिढ़ाने की भूल कभी मत करो। अपना मतभेद या विरोध स्पष्ट एवं खरे शब्दों में प्रकट करते हुए भी नम्रता और सज्जनता को हाथ से मत जाने दो।
(११) समय को अमूल्य समझो, अपने एक-एक मिनट का सदुपयोग करने की फिक्र में रहो, समय एक अप्रत्यक्ष सम्पत्ति है, इसका खर्च करते हुए पूरी-पूरी सावधानी रखो।
(१२) ऐसी चीज जिनके बिना आसानी से काम चल सकता है, सस्ती मिल रही हो तब भी मत खरीदो।
(१३) फैशन परस्ती से बचो। अपना रहन-सहन सीधा-सादा रखो। सफाई और सादगी सब से बढ़िया फैशन है।
(१४) आमदनी से खर्च, कम रखो। जहाँ तक बन पड़े कर्ज मत लो, यदि लेना पड़े तो उसे जल्द से जल्द चुकाने का प्रयत्न करो।
(१५) कृतज्ञ बनो। दूसरे के द्वारा अपने ऊपर जो उपकार हुए हैं उनको धन्यवाद सहित प्रकट करते रहो और उनका बदला चुकाने की फिक्र में रहो।
(१६) सच्चे मित्रों की संख्या बढ़ाओ। ऊँचे और अच्छे लोगों के सम्पर्क में रहो। अच्छे वातावरण में प्रवेश करो।
(१७) जैसे बनना चाहते हो, वैसे ही लोगों के समीप, वैसी ही परिस्थितियों के दायरे में अपने को ले जाओ।
(१८) अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्न शील रहो। ‘‘क्यों?’’ और ‘‘कैसे?’’ की कसौटी पर हर एक बात को परखो। दूसरों से पूछने में झिझक मत करो। मनन, चिन्तन और विश्लेषण करने की आदत डालो। ‘अधिक जानने’ की साधना में अपने को प्रवृत्त रखो।
(१९) दुर्व्यसनों से सदैव दूर रहो। किसी भी परिस्थिति में उन्हें अंगीकार मत करो, मित्र-सम्बन्धी कितना ही आग्रह करें, शालीनता से मना कर दो।


पंचम अध्याय

प्रेरक एवं मनोरंजक अभ्यास


१. माता-पिता का आदर करो

सरस्वती का चित्र दिखाकर प्रशिक्षक बालकों से पूछता है, ‘‘यह कौन है?’’
बालक-‘‘यह देवी सरस्वती है!’’
प्रशिक्षक- ‘‘यह क्या देती है?’’
बालक- ‘‘ज्ञान तथा विद्या देती है।’’
प्रशिक्षक- लक्ष्मी जी का चित्र दिखाकर पूछता है-‘‘यह कौन है?’’
बालक-‘‘लक्ष्मी जी हैं।’’
प्रशिक्षक-‘‘यह क्या देती हैं?’’
बालक-‘‘धन-देती हैं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आपने कभी लक्ष्मी जी को धन देते हुए और सरस्वती को विद्या देते हुए देखा है?’’
बालक- नहीं
प्रशिक्षक- आपको पैसे कौन देता है? आपके कपड़ों के लिए, पुस्तकों के लिए, विद्यालय शुल्क के लिए कौन पैसे देता है?
(ऐसे प्रश्न वह अलग-अलग बालकों से पूछता है।)
बालक-हमारे पिताजी।
प्रशिक्षक-आपको विद्या कौन देता है? आपको भाषा का ज्ञान किसने दिया? आपको संसार की समस्त वस्तुओं का परिचय किसने करवाया?
बालक- हमारी माँ ने।
प्रशिक्षक-फिर लक्ष्मी हमें धन देती है और सरस्वती हमें ज्ञान देती है, इस कल्पना से ही हम इन देवताओं को प्रणाम करते है और वास्तव में हमें जो धन और ज्ञान देते हैं उन माता-पिता को प्रणाम करना हम भूल जाते हैं। कौन-कौन अपने अभिभावकों को प्रणाम करेगा? हाथ उठाओ। मैं कहता हूँ, इसलिए हाथ मत उठाना। सभी बालक हाथ उठाते हैं। माता-पिता के श्रेष्ठत्व की कहानियाँ सुनाकर इस बात का वचन लिया जाता है।

२. उत्तम आरोग्य का महत्त्व
(अ) दाँत नित्य साफ करें।
प्रशिक्षक बालकों को नकली दाँत दिखाते हुए पूछता है- यह क्या है?
बालक-ये नकली दाँत हैं।
प्रशिक्षक-क्या आप मुझे अपने दाँत देंगे? उनके बदले में मैं तुम्हें पाँच हजार रूपये और साथ-साथ में सुन्दर नकली दाँत भी दूँगा। जो बालक इस बात के लिए तैयार हैं, वे हाथ ऊपर करें। (कोई भी बालक हाथ ऊपर नहीं उठाता)
प्रशिक्षक- ‘‘हमारे शरीर में परमात्मा ने ऐसे कई यंत्रों की रचना की है, जिनको किसी भी मूल्य पर हम नहीं बेचेंगे- जैसे आँख-कैमरा, मस्तिष्क-कम्प्यूटर, हाथ-क्रेन, पाँव-गाड़ी, पेट-भट्टी, हृदय-पंपिंग स्टेशन, किडनी रिफायनेरी आदि। लेकिन हम जितनी सतर्कता अपने घर के प्रति रखते हैं, उतनी अपने शरीर के अनमोल यन्त्रों के लिए नहीं रखते। इनकी स्वच्छता, इनको सुचारू रूप से रखने के लिए आवश्यक व्यायाम आदि की ओर हम ध्यान नहीं देते।’’
आपको इस बारे में बड़ी रोचक घटना सुनाता हूँ। एक बार दाँत का रोगी डेंटिस्ट के पास गया। डॉक्टर ने उसके कई दाँत बीस-बीस रुपये लेकर निकाल दिये। और दो-दो हजार रुपयों में उसे नकली दाँत बनाकर दिए। उसे समझाया कि दाँतों को नित्य सुबह-शाम साफ करना-रात को पानी में डुबोकर रखना, बच्चों की पहुँच से दूर रखना, आदि-आदि। उसने सभी बातों पर सिर हिलाकर स्वीकृति दी। डॉक्टर साहब ने पूछा-‘‘पहले वाले दाँतो को सम्भालकर क्यों नहीं रखा? मरीज ने कहा-‘‘पहले वाले दाँत मुफ्त के थे, उनका पैसा नहीं लगा था।’’ हमें अपने शरीर के किसी भाग को मुफ्त का नहीं समझना चाहिए।
फिर प्रशिक्षक बालकों को आलू दिखाते हुए पूछता है ‘‘यह क्या है और क्या काम आता है?’’
बालक- ‘‘यह आलू है.....इसकी सब्जी खाने के काम आती है।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आप आज की बनी सब्जी कल खा सकते हो?’’
बालक-‘‘नहीं।’’
प्रशिक्षक-‘‘क्यों?’’
बालक-‘‘इसमें बद्बू आएगी।’’
प्रशिक्षक-‘‘यदि चार दिनों तक वह सब्जी पड़ी रहे तो क्या होगा?’’
बालक-‘‘उस में कीड़े पड़ जाएँगे।’’
प्रशिक्षक-‘‘हमारे दाँत में छेद है। हमने सब्जी खाई और चार दिन दाँत साफ नहीं किए तो क्या होगा?’’
बालक-‘‘हमारे मुँह से दुर्गन्ध आएगी और कीड़े पड़ जाएँगे।’’
प्रशिक्षक-‘‘अतः हमें नित्य दाँत साफ करने चाहिए।’’
(ब) सफाई का महत्व
प्रशिक्षक-‘‘आपने अपना पेट भीतर से नहीं देखा होगा? मैं आपको दिखा रहा हूँ। (एक पानी से भरी तेल की शीशी दिखाते हुये।) देखो हमने आपके कपड़े उतार दिए-चमड़ी उतार दी-अब आपको अपना पेट दिखाई दे रहा है। कई बालक दाँत साफ नहीं करते। कई बालक बाजार की चीजें, मीठी सुपारी, पानमसाला खाते हैं। अब देखो इस बात का शरीर पर क्या असर होता है’’-(यह कहकर नीले रंग के दाने या स्याही शीशी में डालता है-शीशी में धीरे-धीरे वे कण फैले हुए दिखाई देते हैं।)
प्रशिक्षक- ‘‘यदि मुँह की सफाई ठीक से नहीं होती है तो क्या होता है, यह आपने देखा। ऐसे ही अपने विविध अंगो की सफाई यदि ठीक से नहीं होती है तो यह बहुमूल्य शरीर रोग ग्रस्त हो जाएगा। और आपका भविष्य चौपट हो जायेगा।’’

३. देश-कार्य महत्त्वपूर्ण
प्रशिक्षक बालकों से महाराणा प्रताप का चित्र दिखाते हुए पूछता है ‘‘यह कौन है?’’
सभी बालक एक साथ उत्तर देते हैं, यह महाराणा प्रताप का चित्र है।
प्रशिक्षक- यह एक बहुत बड़े राजा थे। इनका एक घोड़ा था। बड़ा ही स्वामीभक्त था...... क्या नाम था उसका? सभी बालक एक साथ बोलते हें ‘‘चेतक!’’
प्रशिक्षक- ‘‘बिल्कुल सही उत्तर दिया। कितने मेधावी हैं आप! आपको ४५० वर्ष पहले के घोड़े का नाम भी याद है। अब आप बताइए कि आपके घर में १००वर्ष पहले किसका जन्म हुआ था?’’ आपके परदादाजी के पिताजी का नाम आपको बताना है। सभी बालक एक दूसरे का मुँह ताकते हैं।
प्रशिक्षक- ‘‘जिन्होंने आपके लिए कष्ट सहा, जिन्होंने आपके लिए मकान बनाया, जिन्होंने आपके लिए दुकान बनाई, जिन्होंने आपके लिए पेड़ लगाए और सोचा कि मेरे पोता-पोती इनके फल चखेंगे और मुझे याद करेंगे, उनका नाम आप भूल गए। ऐसा क्यों हुआ? लोग उसी को याद करते हैं जो औरों के लिए भी कुछ करते हैं। केवल परिवार के लिए करने वालों को कोई याद नहीं करता।’’
प्रशिक्षक-‘‘बताओ महाराणा प्रताप और चेतक को आप क्यों जानते हैं?’’
बालक-‘‘उन्होंने देश हित के लिए कार्य किया-- इसलिए!’’
प्रशिक्षक-‘‘हम अपने पूर्वजों को भूल गए इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने राष्ट्र के लिए कुछ नहीं किया। अपने राष्ट्र से किसे प्रेम नहीं होता? सच तो यह है कि हमारे पूर्वजों ने आने वाली पीढ़िओं के लिए अपनी इच्छाएँ, सपने और आकांक्षाओं का बलिदान किया है। इसलिए उनके प्रति हमारे मन में आदर भाव होना चाहिए। परन्तु इसके साथ-साथ हम उन्हें क्यों भूल गए, इसका कारण भी हमें ज्ञात होना चाहिए। केवल अपनों के लिए जो जीवन समर्पित करते हैं, उनका समाज को विस्मरण हो जाता है और जो अपनों के साथ-साथ राष्ट्र कार्य में हाथ बँटाते हैं, उन्हें समाज याद रखता है। आप क्या चाहते हैं? आप को समाज याद रखे या भूल जाए।’’
बालक-‘‘समाज याद रखे।’’
प्रशिक्षक-‘‘तो फिर देश के लिये आप क्या काम करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर बालक यथामति देते हैं। उनके उत्तरों का तालियाँ बजाकर स्वागत-अभिनंदन करें।’’

४. सावधान! आपके प्रत्येक काम पर समाज की दृष्टि है
प्रशिक्षक बालकों को एक बनावटी गुलाब का फूल दिखाता है। ‘‘यह क्या है?’’
बालक- ‘‘गुलाब का फूल।’’
प्रशिक्षक- ‘‘सच्चा है या बनावटी?’’
बालक- ‘‘बनावटी।’’
प्रशिक्षक- ‘‘अच्छा! एक टोकरी में मैं कुछ प्राकृतिक (सच्चे) फूल डाल दूँ और एक बनावटी, तो क्या तुम आँखे बन्द करके नकली फूल निकाल दोगे?’’
बालक-‘‘हाँ।’’
किसी एक बालक को आगे बुलाकर उसकी आँख पर पट्टी बाँधकर नकली फूल निकालने को कहा जाता है। बालक सहजता से फूल निकाल लेता है।
प्रशिक्षक-‘‘आपने यह फूल कैसे निकाला।’’
बालक- ‘‘सूँघकर-छूकर।’’
प्रशिक्षक- ‘‘तो इसका अर्थ यह हुआ कि पढ़-लिखकर तुम्हें अपना चाल-चलन और व्यवहार सुधारना होगा। हम सोचते हैं कि किसी का हमारी ओर ध्यान नहीं, कोई हमें देखता नहीं, समाज अन्धा है, इसलिए रास्ते से चलते हुए कूड़ा फेंक दिया, पान खाकर रास्ते पर थूक दिया, किसी अन्धे-अपंग-असहाय व्यक्ति की अवहेलना की, तो कोई देखता नहीं, पर यह गलत धारणा है। जैसे आपकी आँख बन्द होते हुए भी आपको सच्चा फूल कौन सा और नकली फूल कौन सा है, इसका पता चल सकता है, वैसे ही समाज भी पता लगाता है कि अच्छा बच्चा कौन सा है और बुरा बच्चा कौन सा! और यदि कोई नहीं भी देखता हो तो आपका अन्तर्मन इस बात को देख रहा होता है। अतः सावधान!’’

५. मीठे वचन बोलिए
(अ) प्रशिक्षक बालकों को खीरा दिखाकर पूछता है-‘‘यह क्या है?’’
बालक- ‘‘खीरा!’’
प्रशिक्षक- ‘‘इसका उपयोग क्या है?’’
बालक- ‘‘यह खाने के काम आता है।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यह कहाँ पर मिलता है?’’
बालक- ‘‘बाजार में।’’
प्रशिक्षक- ‘‘वैसे ही मिलता है या पैसे देकर?’’
बालक- ‘‘पैसे देकर।’’
प्रशिक्षक- ‘‘आपने पैसे देकर खीरा खरीदा, घर लाकर उसे धोया और काटकर उसका कड़वापन निकाला, नमक लगाया और खाने पर आप को पता चला कि यह कड़वा है तो आप क्या करते हैं?’’
बालक- ‘‘हम उसे फेंक देते हैं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘यदि पैसे खर्च करके लाया हुआ खीरा भी कड़वा निकला तो आप उसे फेंक देते हैं, तो आपका मित्र जो आपकी कड़वी बातें मुफ्त में सुनता है, आपकी कड़वी बातें-गाली-गलौज-अपमान आदि सुनकर उसे क्या करना चाहिए?
बालक- ‘‘कूड़ापात्र में फेंक देना चाहिए।’’
प्रशिक्षक- ‘‘क्या आप चाहते हैं कि आपको कोई इसी प्रकार कूड़ापात्र में फेंक दे? आप से दुर्व्यवहार करे?’’
बालक- ‘‘नहीं।’’
प्रशिक्षक- ‘‘तो आप को क्या करना चाहिए?’’
बालक- ‘‘सभी से मीठा बोलना चाहिए।’’

(ब) इस प्रात्यक्षिक में १०-११ बालकों के दो गुट बनाकर आधे बालकों के हाथ में हवा भरे गुब्बारे दिए जाते हैं और आधे बालकों के हाथ में एक-एक आलपिन (टाचनी) दी जाती है। बालकों से कहा जाता है कि १-२-३ कहने के पश्चात् जिनके हाथ में गुब्बारे हैं, उनको गुब्बारे बचाने हैं और जिनके हाथ में आलपिन हैं, उनको उसका उपयोग करना है। यह खेल कौन सी सीमा में खेलना है, यह पहले ही बताना आवश्यक है, अन्यथा बच्चे सभागृह के बाहर भी भाग जाते हैं। १-२-३ कहने पर खेल आरम्भ होता है। सभी बच्चे एक दूसरे को झपटते हुए गुब्बारे फोड़ने का या हाथ उँचा करके उसे बचाने का प्रयास करते हैं। ५-७ गुब्बारे फूटने पर बालकों को रोका जाता है। फिर से बालक अपने गुटों में खड़े हो जाते हैं और किसने कितने गुब्बारे फोड़े, इसकी गिनती की जाती है।
उसके पश्चात् प्रशिक्षक बालकों को अपने शब्द याद दिलाता है-‘‘ आलपिन का उपयोग करना है!’’ और बालकों से पूछता है, ‘‘आपने आलपिन का उपयोग किया, या दुरुपयोग?’’
‘‘यदि दुरुपयोग किया है तो इसका उपयोग कैसे हो सकता था?’’
बालक फिर से प्रयास शुरु करते हैं- कोई आलपिन अपनी कमीज को लगा देता है- कोई गुब्बारे के ऊपरी भाग में आलपिन लगाकर उसे परदे पर या उचित स्थान पर लगा देता है। यदि ऐसा करने में बालक असमर्थ दिखें तो प्रशिक्षक उन्हें सहायता दें।
इसके बाद प्रशिक्षक इस प्रात्यक्षिक का अर्थ समझाता है।
‘‘हमें गुब्बारा और आलपिन दिखाई देने पर आलपिन से गुब्बारे को फोड़ना, यही विचार मन में आता है। विध्वंसक प्रवृत्तियाँ हमारे मन में तुरन्त निर्मित होती हैं। आलपिन से उपयोगी काम भी किया जा सकता है, यह बात हमारे मन में देरी से आती है। उसी प्रकार हम अपनी जिह्वारूपी आलपिन से लोगों के मन के गुब्बारे फोड़ने का काम निरन्तर करते रहते हैं। जब कि भगवान् ने होठों को धनुष का आकार देकर हमें सूचित किया है कि इसके अन्दर से निकलने वाले शब्द बाण के समान हैं-सावधानी बरतें! जिह्वा का रंग लाल बनाकर, भगवान् ने इसके खतरे की ओर सूचित किया है। पर इस बात को भूल कर हम जिह्वा का ठीक उपयोग नहीं करते। भविष्य में हमें यह सावधानी बरतनी है कि मधुर वचनों से हम लोगों के हृदय जीतेंगे’’ कौआ और कोयल का उदाहरण देकर भी हम मधुर वाणी की श्रेष्ठता सिद्ध कर सकते हैं।


६. सहकार्य
इस प्रात्यक्षिक में दो बालकों को आमने-सामने खड़ा किया जाता है। उनके हाथ कील दिये जाते हैं और कहा जाता है कि यदि तुम्हारे हाथ बिल्कुल सीधे होते, कोहनी का मोड़ यदि प्रकृति निर्माण नहीं करती तो ये चुरमुरे आप कैसे खाते?
काफी प्रयास करने पर चुरमुरे पकड़ा हुआ हाथ अपने मुँह तक नहीं जाता है, यह देखकर बालक लज्जित हो जाते हैं। यह कैसे सम्भव होगा, यह शेष बालकों को पूछने पर एकाध मेधावी बालक आगे आकर एक दूसरे के मुँह में चुरमुरे देने की बात कहता है। हाथ सीधे होने पर एक दूसरे के मुँह में कौर देने के अलावा दूसरा पर्याय नहीं बनता।
यह प्रात्यक्षिक पूरा होने पर देव और दानवों के सहभोजन की कहानी बालकों को सुनाई जाती है। जिसमें उनके हाथों पर लम्बे-लम्बे लकड़ी के चम्मच बाँधकर भोजन करने को कहा जाता है। दानव हवा में भोजन उड़ाकर उसे मुँह में पकड़ने की चेष्टा करते हैं और सारा भोजन उनके कपड़ों पर गिरता है। देवता एक दूसरे के मुँह में कौर देकर बड़े आनंद से भोजन का स्वाद लेते हैं। ‘‘जहाँ सहकार्य की भावना होती है, वहीं देवत्व का निर्माण होता है। जहाँ केवल स्वार्थ होता है, वहाँ दानवी प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं।’’ यह भाव इस प्रात्यक्षिक द्वारा सिखाया जाता है।

७. जीवन जीने के लिए आवश्यक हैविधेयात्मक विचारधारा
एक मोमबत्ती जलाकर बालकों से पूछा जाता है कि एक मोमबत्ती जलने के लिए कौन-कौन सी बातें आवश्यक होती हैं? बालक उत्तर देते हैं कि बत्ती (धागा) प्राणवायु, मोम, चिनगारी, माचिस आदि।
प्रशिक्षक जलती हुई मोमबत्ती को उलटी कर देता है। कुछ ही क्षणों में वह अपना ही मोम गिरने से बुझ जाती है। इसका अर्थ यह है कि केवल प्राणवायु, मोम आदि बातें होने पर भी जब तक मोमबत्ती सीधी नहीं है, तब तक वह जलती नहीं रह सकती। उसी तरह, जीवन में जब तक विधेयात्मक विचारधारा, सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं होता, तब तक जीवन सार्थक नहीं बनता। यदि विचारधारा नकारात्मक हो, अधोगामी हो तो जीवन का अधःपतन भी दूर नहीं होता।

८. हर समय शारीरिक शक्ति से काम लेना ठीक नहीं
इस प्रात्यक्षिक में दो-दो बालकों की जोड़ियाँ बनाकर उन्हें आमने-सामने बैठाया जाता है। इसमें से एक बालक को अपने दोनों हाथ कसकर पकड़े रहने को कहा जाता है और दूसरे बालक को उसके हाथ छुड़ाने के लिए प्रयास करना होता है। जिस जोड़ी के हाथ सबसे पहले छूटेंगे, वह जोड़ी विजेता होगी, यह भी कहा जाता है।
१-२-३ कहने पर प्रयास शुरु होता है। जिसके हाथ सबसे पहले छूटेंगे-वह जोड़ी विजेता होगी, यह मालूम होते हुए भी जिसने हाथ पकड़ रखे हैं, वह हाथ छोड़ता नहीं और सामने वाला हाथ छूटे, इसलिए अपनी पूरी शारीरिक शक्ति लगाकर प्रयास करता है। (३-४ मिनट) के बाद प्रशिक्षक रुकने का आदेश देता है और कहता है- ‘‘यदि शारीरिक बल लगाने के बजाय केवल मुँह से कह देते कि ‘‘भाई हाथ छोड़ो, हमें जीतना है,’’ तो शायद सामने वाला झट से हाथ छोड़ देता। लेकिन सामनेवाला बल से काम ले रहा है, यह देखकर हाथ पकड़े रहने वाला भी अपनी शक्ति का प्रयोग करने लगा। काम कोई भी हो, उसे शारीरिक शक्ति से ही सुलझाया जा सकता है, यह हमारा भ्रम है। जो काम, शान्ति और प्रेम से हो सकता है, उसके लिए भी शारीरिक शक्ति क्यों?

९. बहिर्मुखता के लिये आवश्यक है, नम्रता
इस प्रात्यक्षिक में १५ से २० बालकों का मण्डल बनाया जाता है। एक दूसरे का हाथ पकड़कर सभी बालक गोला बनाकर खड़े होते हैं। सभी के मुँह अन्दर की ओर रहते हैं। उनसे यह कहा जाता है कि आपको अपना मुँह तथा सम्पूर्ण शरीर बाहर की ओर लाना है, परन्तु यह करते समय हाथ छूटे नहीं।
बालक काफी प्रयास करते हैं लेकिन उनसे यह करना सम्भव नहीं होता। प्रशिक्षक यह काम अपने निर्देश द्वारा पूरा करता है। सबसे पहले किसी भी दो बालकों के हाथ ऊपर किए जाते हैं, और उनके नीचे से हाथ छोड़े बिना एक-एक कर सभी बालक निकल जाते हैं। अब अन्तिम बालक नीचे से चला जाता है तो अपने आप सभी बहिर्मुख हो जाते हैं। इसका अर्थ- बहिर्मुख (पर चिंतक, दूसरों का चिंतन-विचार करने वाला, केवल आत्मकेंद्रित नहीं) होने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है-
१. दूसरों को रास्ता देना आवश्यक है। (जैसे, दो बालकों ने दूसरों के लिए अपने हाथ ऊँचे कर रास्ता बनाया।)
२. नम्रता, (जैसे, दिए गए रास्ते से बचे हुए बालक झुक कर निकले।) अहंकार मुक्त, नम्र लोग ही बहिर्मुख बन सकते हैं और वे ही लोग जन-प्रिय होते हैं।

१०. अपनी पुस्तकों से प्रेम करो
कई बालक ऐसे होते हैं, जो विद्यालय से घर जाते ही अपनी पुस्तकें जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं। यदि एक दो पुस्तकें ले जानी हों तो उसी के अन्दर कम्पास, रूलर, पेन आदि ले जाते हैं। इस से पुस्तकें फटने का डर रहता है। इस बात को प्रात्यक्षिक द्वारा सिखाने के लिए एक बालक को आगे बुलाकर उसकी दो उँगलियों के बीच पेन रखकर हलके से उँगलियाँ दबाई जाती हैं। उँगलियों पर जोर पड़ते ही बालक जोर से चिल्लाता है। इस बात को लेकर प्रशिक्षक कहता है कि, ‘‘यदि हमारी दो उँगलियों के बीच कुछ रखकर दबाया जाये तो हमें क्षति पहुँचती है, कष्ट होता है। पुस्तकों के बीच कुछ रखने से क्या पुस्तकों को क्षति नहीं पहुँचती?’’ पुस्तकें बोल नहीं सकतीं, इसलिए उन पर अत्याचार करना ठीक नहीं। पुस्तकें हमारी गुरु हैं, इसलिए उनका उचित आदर करना हमारा कर्त्तव्य है। पुस्तकों पर छपे हुए महापुरुषों के चित्रों पर मूँछे बनाना, उन्हें गन्दा करना, बिना आवरण की पुस्तकें रखना, ये बातें हमें शोभा नहीं देतीं।’’ इसी के आगे जोड़ कर पुस्तिकाओं पर क्रमांक लिखना आदि बातें हम बता सकते हैं।

११. विचारों की सम्पन्नता सर्वश्रेष्ठ
प्रशिक्षक किन्हीं दो बालकों से एक-एक रुपये के सिक्के माँगता है। जिनके पास सिक्का हो, उन दो बालकों को आगे बुलाया जाता है। उनका नाम पूछ कर वह सिक्का ले लेता है। ‘अ’ का सिक्का ‘ब’ को देता है और ‘ब’ का ‘अ’ को। सिक्कों का आदान-प्रदान करने के पश्चात् प्रशिक्षक बालकों से पूछता है कि ‘अब कौन धनी बना?’
बालक- दोनों के पास पहले भी एक रुपया था और अभी भी एक ही रुपया है।
प्रशिक्षक- इसका अर्थ कोई भी धनी नहीं बना। यदि दोनों को धनी बनना है तो दोनों को एक दूसरे को क्या देना होगा? ऐसी कौन सी चीज है, जिसके आदान-प्रदान से दोनों ही धनी बनेंगे?’’
बालक अनेक विकल्प देने का प्रयास करते हैं, परन्तु वे इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे पाते।
प्रशिक्षक- ऐसी कोई भौतिक वस्तु नहीं, जिसके आदान-प्रदान से दानों ही धनी बनी जाएँ, परन्तु आनन्द, हास्य, इनके साथ-साथ यदि अच्छे विचारों का आदान-प्रदान एक दूसरे से किया जाय तो दोनों ही विचारों से सम्पन्न बन सकते हैं। एक दूसरे के साथ अच्छे विषयों पर चर्चा करने से दोनों का ज्ञान बढ़ेगा। केवल व्यर्थ की बातें करके अपना समय मत गँवाओ, अच्छी चर्चा करो।’’ इसके पश्चात् व्यर्थ चर्चा और सार्थक चर्चा कौन सी होती है, इस बारे में बालकों से संवाद करें।

१२. कहने से अच्छा है, करना
हम जो अच्छी बात सुनते हैं, पढ़ते हैं और कहते हैं, उन्हें यदि जीवन में नहीं अपनाएँ तो ये सारी बातें व्यर्थ हैं। कुछ लोग केवल कहते हैं, करते कुछ भी नहीं। कुछ लोग कहते भी हैं और करते भी हैं। और कुछ लोग कहते कुछ भी नहीं, केवल करते हैं। सर्वश्रेष्ठ वही लोग हैं, जो कहते नहीं और कर दिखाते हैं।
यह बात बालकों को समझाने के लिये प्रशिक्षक बालकों से पहले ही कह देता है कि उन्हें केवल वही क्रिया करनी है, जो प्रशिक्षक कहते हैं, इसलिए प्रशिक्षक की बात को ध्यान से सुनें। सबसे पहले प्रशिक्षक बालकों को अपना बायाँ हाथ ऊपर उठाने को कहता है। फिर हाथ की उँगलियाँ फैलाने को, यह क्रिया प्रशिक्षक भी साथ-साथ करता है। फिर अँगूठा और अनामिका को जोड़कर एक गोला बनाने को कहा जाता है। फिर धीरे-धीरे हाथ नीचे मुँह की ओर लाना है, इसके लिए प्रशिक्षक अपनी उँगलियों को गाल पर लगाते हुए हाथ ठोड़ी पर लगाने की आज्ञा देता है। प्रशिक्षक का हाथ गाल पर देखकर बालक भी अनजाने में अपना हाथ गाल पर लगा देते हैं। फिर एक बार वही क्रिया पहले से दोहरायी जाती है। दूसरी बार भी उसी तरह बालक आपना हाथ ठोड़ी पर रखने के बजाय गाल पर रख देते हैं। हाथ गाल पर ही रखकर प्रशिक्षक बालकों से पूछता है, ‘‘मैंने हाथ गाल पर रखने को कहा था या ठोड़ी पर?’’ बालक इस बात पर हँस पड़ते हैं। और कहते हैं कि प्र्रशिक्षक ने हाथ ठोड़ी पर रखने के लिए कहा था, लेकिन वह स्वयं अपना हाथ गाल पर रख रहा था, इसलिए उन्होंने भी अपना हाथ गाल पर रखा। प्रशिक्षक- इसका अर्थ यह है कि मैं जो कह रहा था, उससे अधिक आपका ध्यान मैं जो कर रहा था, उस बात पर था। शब्द से भी अधिक प्रभाव आप पर क्रिया का पड़ रहा था। आप जो कह रहे हैं, इस से भी अधिक महत्त्व इस बात का है कि आप क्या कर रहे हैं। इसलिए श्रेष्ठ बातें कहकर रुक मत जाना। उन्हें जीवन में अपनाने का प्रयास भी करना। वही मनुष्य श्रेष्ठ होता है, जो सत्कार्यों से अपनी महानता सिद्ध करता है।’’

१३. आगे बढ़ो!
१५-२० बालकों का एक मण्डल (गोला) बनाकर खड़ा किया जाता है। एक दूसरे का हाथ पकड़ कर सभी बालक मण्डल को अधिक से अधिक (खींचकर) खड़े होते हैं। उन्हें एक-दूसरे का हाथ अपनी-अपनी छाती से लगाने को कहा जाता है। सीटी बजते ही हाथ अपने सीने से लगाने के प्रयास में बालक खींचातानी शुरु करते हैं। बल के प्रयोग से सभी दूसरे का हाथ अपनी छाती पर लगाने का प्रयत्न करते हैं। अपना हाथ दूसरे की छाती से न लगे, इसकी भी चेष्टा होती है। जो बालक अधिक बलवान हैं, वे दूसरों का हाथ बलपूर्वक अपनी छाती से लगाकर विजय का आनंद पाते हैं। फिर प्रशिक्षक सभी को रुकने का आदेश देकर कहता है ‘‘छाती से हाथ लगाने का अर्थ है कि दूसरे को अपने हृदय से लगाओ! सभी के हृदय एक दूसरे से जुड़ जायेंगे तो संगठन की शक्ति बढ़ेगी। यह कार्य बल से सम्पन्न नहीं होगा। यदि बलपूर्वक भी किसी का हाथ अपने हृदय से लगाने में आप सफल होते हैं तो भी जिसका हाथ आपके हृदय पर है, वह सन्तुष्ट नहीं होगा। यह काम करने के लिए सभी को एक कदम आगे बढ़ना होगा।’’
तने हुए गोले से सभी बालक एक कदम आगे बढ़ते हैं। फिर प्रशिक्षक सभी को अपने बायें हाथ से बायें बाजू में खड़े बालक का दायाँ हाथ अपने हृदय से लगाने को कहता है। इस प्रयास में किसी भी खींचतानी के बिना सभी का एक हाथ दूसरे के हृदय पर लग जाता है।
प्रशिक्षक- ‘‘यदि किसी को अपनाना हो तो आपको स्वयं एक कदम आगे बढ़ना होगा। जो अंहकार को छोड़कर एक कदम आगे बढ़ता है, वही मनुष्य दूसरे के हृदय जीतने में सफल होता है। किसी भी काम के लिए आवश्यक बात यही है कि एक कदम आगे बढ़ो।’’

१४. विचारों की चौखट बढ़ाइए
अनेक विषयों पर एकांगी विचार करके अथवा संकुचित दृष्टि रखकर हम उस विषय में गलत धारणा बना लेते हैं। बालकों के साथ यह बात विशेष रूप से लागू होती है। माँ बालक से कहती है कि शाम के समय जल्दी घर आ जाना। कभी वह किसी पार्टी में या किसी मित्र के घर जाने से मना भी कर देती है। कभी दूरदर्शन का कोई धारावाहिक अथवा चलचित्र देखने से मना कर देती है। इस बात पर बालक का अन्तर्मन दुःखी हो जाता है। उसे इस मनाही का कारण समझाना माँ के लिए कठिन होता है, इसलिए वह सोचता है कि हर समय माँ मुझे रोक देती है।
सर्वांगीण विचार करने की प्रवृत्ति बालकों में पनपे, इस दृष्टि से उन्हें यह आकृति दिखाकर प्रशिक्षक पूछता है कि इसमें कितने वर्ग बने हुए हैं?
सबसे पहले उत्तर आता है कि इसमें १६ वर्ग हैं। यह उत्तर ठीक नहीं है, ध्यान से आकृति देखो’’ ऐसा कहने पर कोई बालक बाहर का बड़ा वर्ग मिलाकर १७ चौरस हैं, ऐसे कहता है। और विचार करने पर ४-४ छोटे वर्ग को मिलाकर और भी वर्ग की संख्या बढ़ जाती है। फिर ९-९ वर्गों को मिलाकर ३० वर्ग हैं, यह बात कोई मेधावी छात्र बताता है। ३०, यह सही उत्तर है, लेकिन उन्हें ढूँढने के लिए हमारे विचारों की चौखट को विस्तृत करना पड़ा। १६-१७-२१-२५-३० ऐसे वर्ग बढ़ते गए।
प्रशिक्षक-‘‘इसी प्रकार हम अनेक बातों पर पूरा विचार किये बिना ही उत्तर ढूँढने का प्रयास करते हैं। और हमारा विचार गलत सिद्ध होता है। हमारी माँ का किसी बात के लिए हमें मना करना, हमें अतीव दुःखद लगता है, लेकिन इसके पीछे हमारे ही उज्जवल-भविष्य का उसका सपना सही कारण होता है। इसलिए उसके बारे में गलत धारणाएँ बनाना उतना ही संकुचित विचार है, जितना इस आकृति में १६ वर्ग देखना।’’

१५. दिव्यांगों-विकलांगों के प्रति स्नेह भाव रखें।
इस प्रात्यक्षिक के लिए लगभग ३० मिनट का समय आवश्यक है। उपस्थित बालकों में से आधे बालकों की आँख पर पट्टी (रूमाल) बाँधकर उन्हें अन्धा बनाया जाता है तथा अन्धे बने बालकों के घनिष्ठ मित्र को उनका हाथ पकड़ने को कहा जाता है। दृष्टिवान् बालकों को (जिन्होंने अन्धों के हाथ पकड़े हैं) गूँगा बनने को कहा जाता है। उन्हें इस प्रात्यक्षिक के बीच कुछ भी नहीं बोलना है। अपने प्रिय मित्र को उन्हें परिसर की परिक्रमा करवानी है और यह करते समय उन्हें केवल स्पर्श से परिसर में उपलब्ध वस्तुओं (जैसे खंबा, सीढ़ी, साईकल, पेड़, फूल, आदि) का परिचय अपने अंधे मित्र को करवाना है। दस मिनट पश्चात् सीटी बजने पर उन्हें भूमिका बदलनी है। अंधा मित्र अब गूँगा और गूँगा मित्र अंधा बनेगा। फिर यही उपक्रम दोहराना है। यह समाप्त होने तथा निर्धारित जगह पर पहुँचने पर बालकों से अपने-अपने अनुभव सुनाने को कहें।
जब परिक्रमा का प्रारम्भ होता है, तभी से अनेक समस्याओं का प्रारम्भ होता है। अपने अन्धे मित्र के जूते ढूँढ़ने में असमर्थता, सीढ़ियाँ उतरते समय हाथ दबाकर पीछे खींचना, अन्धे का अपने मित्र पर अविश्वास, एकाध बालक का गिर जाना आदि समस्याएँ आती हैं। जब यह यात्रा पूर्ण करके बालक लौटते हैं और अपने अनुभव बताते हैं, तब सभी रोमांचित हो जाते हैं। अन्धा बनने पर कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उस समय मन में क्या विचार आए, अपने मित्र पर भी कैसे अविश्वास हुआ, गँॅूगा होते समय विचारों को अभिव्यक्त करने में कैसी कठिनाई हुई आदि बातें बालकों को विस्तार से कहने के लिए प्रवृत्त करना है। अपने अनुभव कहने के पश्चात् बालकों को विकलांगो के जीवन संघर्ष का अल्प परिचय होता है तथा उनमें स्नेह तथा सहकार्य प्रदान करने की भावना जागृत होती है।

१६. संतोषी वृत्ति आवश्यक
प्रशिक्षक बालकों को पानी से आधा भरा हुआ काँच का प्याला दिखाकर पूछता है-‘‘यह क्या है?’’ इस प्रश्न के अलग-अलग उत्तर बालक देते हैं। कोई कहता है-यह आधा भरा हुआ गिलास है तो कोई कहता है यह आधा खाली गिलास है। प्रशिक्षक समझाता है, ‘‘दोनों ही जवाब सही तो है परन्तु आधा भरा हुआ दिखाई देना, यह संतोषी वृत्ति का द्योतक है। भगवान् ने मनुष्य का निर्माण करते समय उसे कई विशेषताओं से भर दिया एवं कई कमियाँ भी छोड़ दीं। परन्तु आज हमें ऐसे अनेक लोग दिखते हैं, जो केवल अपनी कमियों पर रोते रहते हैं। किसी के पास सौंदर्य नहीं तो किसी के पास शक्ति नहीं, किसी के पास कुशाग्र बद्धिमत्ता नहीं तो किसी के पास कुशल कारीगरी नहीं। लेकिन कमियों को समझकर उन्हें ठीक करने की चेष्टा करने वाले एवं अपनी विशेषताओं को और विकसित करने का निरन्तर प्रयास करने वाले लोग सफलता के सोपान पर बढ़ते रहते हैं। हमें प्रकृति से जो भी मिला है, उसके लिए सन्तोष प्रकट करते हुए प्रयत्नपूर्वक विकास की ओर अग्रसर होना पुरूषार्थ है। अतः सन्तोषी वृत्ति अपनाकर जीवन में आनन्द बढ़ाएँ।’’

१७. जन्मदिन विधि
बालकों के जन्मदिन मनाते समय मोमबत्तियाँ बुझाना तथा केक काटना-यह पाश्चात्य पद्धति अपनाने की प्रथा लोकप्रिया हो रही है। जन्मदिन एक ऐसा स्वर्णिम अवसर है, जब हम बालकों को उच्चतम भारतीय संस्कृति से परिचित करा सकते हैं। जन्मदिन भारतीय पद्धति से कैसे मनाना चाहिए, यह बालकों को प्रयत्क्ष दिखाना आवश्यक है। इसलिए इष्टदेव का पूजन, तिलक आदि करके उस क्रिया में छिपे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बालक को परिचित कराया जाता है। हैपी बर्थ डे टू यू’ कहने के स्थान पर सुन्दर संस्कृत गीत गाकर बालक का अभिनंदन करें व बालक....(नाम)चिरंजीव हो, व्रतशील हो, प्रगतिशील हो, धर्मशील हो का घोष करते हुए उसे शुभकामनाएँ दें। यह पद्धति देखकर बालकों को उनका जन्मदिन भी ऐसा ही मनाने की इच्छा हो जाती है। इसके लिये इस विधि की जानकारी देने वाली पुस्तिका गायत्री परिवार द्वारा प्रकाशित है। संस्कार वर्गों में तथा शिविरों में इस प्रात्यक्षिक को दिखाना हम अनिवार्य समझते हैं।

१८. एकाग्रता की आवश्यकता
सर्वप्रथम प्रशिक्षक बालकों को कहानी सुनाता है- एक आदमी जापानी तत्त्ववेत्ता के पास गया। उसने तत्त्ववेत्ता से कहा-‘‘मैंने सुना है, आप झेन तत्त्वज्ञान के मर्मज्ञ हैं। कृपा करके इस तत्त्वज्ञान के बारे में मुझे जानकारी दीजिए। अन्य कार्यक्रमों के कारण मैं अत्यन्त व्यस्त हँॅू, अतः समय की सीमा में आप इस तत्त्वज्ञान से मुझे अवगत कराएँ।’’
तत्त्ववेत्ता ने कहा ‘‘बैठिये। पहले चाय लेंगे और बाद में ज्ञान की बातें करेंगे।’’ तत्त्ववेता ने दो कप मँगवाए, व चाय डालना शुरु किया। कप भर गया तथा चाय कप से नीचे गिरने लगी, फिर भी तत्त्ववेत्ता चाय डालता ही रहा। (इस क्रिया को प्रशिक्षक कहानी कहते-कहते बालकों के सम्मुख करता है-इस प्रात्यक्षिक में चाय के स्थान पर पानी का उपयोग करें।) यात्री ने तत्त्ववेत्ता का हाथ पकड़ कर कहा-‘‘यह आप क्या कर रहे हैं? चाय तो व्यर्थ जा रही है। कप भरा हुआ है और आप चाय डालते ही जा रहे हैं।’’
तत्त्ववेत्ता ने उत्तर दिया ‘‘बिल्कुल ठीक कहा आपने! जब कप में स्थान नहीं हो तो चाय नहीं डालना चाहिए-चाय व्यर्थ जाती है। उसी प्रकार मन में अनेक विचार भरे हुए हों तो तत्त्वज्ञान के लिए स्थान कैसे बचेगा? मेरा कहना भी व्यर्थ जायेगा। इस समय आप अत्यन्त व्यस्त हैं, तो तत्त्वज्ञान व्यर्थ हो जायेगा। अपने अन्य कार्य पूरे करो, उसके पश्चात् स्वस्थ चित्त से आप लौट आना। मैं आपको झेन तत्त्वज्ञान से परिचित कराऊँगा।’’
तात्पर्य के रूप में प्रशिक्षक बालकों से कहता है-‘‘आप जब किसी भी प्रकार का ज्ञान ग्रहण करने जाते हैं तब आप को स्वस्थ चित्त से, एकाग्रचित्त से जाना चाहिए। और मन को एकाग्र करने का सरल उपाय है-ओंकार ध्वनि, श्वास-प्रश्वास के साथ! यदि आपके मन में इस समय अन्य विचार आ रहे हों तो थोड़ी देर अपनी आँखें बन्द करके दीर्घ श्वसन में मन शान्त करें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपका समय और कार्य दोनों व्यर्थ हो जायेंगे। ’’
इस बात को अपने विद्यालय में, स्वाध्याय करते समय, खेल के मैदान पर एवं अन्य कोई भी कार्य करते समय ध्यान रखना, जिससे आप प्रत्येक कार्य सही ढंग से पूर्ण कर सकें।’’

१९. झंझावातों में इन अच्छी बातों को भूल न जाना
शिविर वर्ग, नैतिक शिक्षा के पाठ सुनने के पश्चात् बालकों में अपने भावी जीवन में क्या करना है, इस बात का विचार शुरु हो जाता है! इस पाठ के अन्त में बालकों को एक जलती हुई मोमबत्ती तथा एक जलता टार्च दिखाया जाता है और पूछा जाता है कि आप अपने जीवन में टार्च बनना चाहेंगे या मोमबत्ती?
बालक इस प्रश्न से उलझ जाते हैं, फिर भी कुछ बालक कहते हैं मैं टार्च बनना चाहूँगा, तो कुछ कहते हैं-मैं मोमबत्ती बनना चाहूँगा। प्रशिक्षक फूँक मारकर मोमबत्ती बुझा देता है और कहता है कि आप इन बातों को जीवन में अपनाने का प्रयत्न चालू करेंगे तो आपके मित्र आप पर हँसेंगे और कहेंगे कि ये सब व्यर्थ की बातें हैं। आप मोमबत्ती के समान इन झंझावतों में उनकी बातों से बुझ मत जाना। टार्च पर फूँक मारने से वह बुझता नहीं। इसी प्रकार अपने श्रेष्ठ विचारों पर दृढ़ रहना। भक्त धु्रव की तरह आप में दृढ़ता जगे, ऐसी शक्ति परमात्मा आपको प्रदान करे, यही हमारी प्रार्थना है।

२०. जैसी दृष्टि-वैसी सृष्टि
यहाँ पर छपे चित्र को ध्यान से देखकर आप यह बताइये कि चित्र में जो स्त्री है उसकी आयु कितनी हैं?
इस प्रश्न के अनेक उत्तर मिल सकते हैं। कोई उसकी आयु ६ वर्ष की बताएगा तो कोई १६ वर्ष की, कोई इसे ५० वर्ष की बता सकता है, तो कोई कहेगा १०० वर्ष की है। सभी उत्तर सही हैं, क्योंकि हर एक की चित्र की ओर देखने की अलग दृष्टि है।
जो व्यक्ति चित्र के आगे आये हुए भाग को ठोड़ी के रूप में देखेगा, उसे एक सुकुमार युवती दिखेगी तथा इसी भाग को नाक के रूप में देखने वाले व्यक्ति को वहाँ एक बुढ़िया दिखाई देगी।
जैसा व्यक्ति चित्र के विषय में है, वैसा ही प्रत्येक काम के बारे में भी है। किसी मूर्तिकार को अपना काम, पत्थर फोड़ने का दण्ड लग सकता है, तो कोई यही काम परमात्मा की पूजा समझकर भी कर सकता है। कार्य की ओर देखने का आपका क्या दृष्टिकोण है, यह इस पर निर्भर है कि आप को उस कार्य में आनन्द प्राप्त होता है अथवा दुःख।