भारतीय संस्कृति में नारी का उच्चस्थान

भारतीय संस्कृति ने मानव समाज में नारी को क्या स्थान दिया है, इस तथ्य पर दृष्टिपात करने से एक ही उत्तर मिलता है—'वरिष्ठ' । नर की तुलना में भारत के तत्त्व दर्शियों ने उसे अत्यन्त उच्च स्थान दिया है । यह उचित भी है । क्योंकि मातृशक्ति द्वारा प्रदत्त अनुदानों को देखकर मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से स्वतः झुक जाता है ।

नारी को मातृत्व का गौरव प्राप्त है । क्या कन्या क्या पुत्र, दोनों को ही नारी जनती है । उन्हें पेट में रख कर अपना रक्त माँस प्रदान करती है । वही उन्हें अपना लाल रक्त श्वेत दूध के रूप में बदल कर परिपुष्ट करती है । सर्वथा असमर्थ असहाय स्थिति में उत्पन्न होने वाले मानव शिशु को कई वर्ष तक छाती से लगाये रह कर उसकी असाधारण अनवरत परिचर्या करती है, तभी वह इस योग्य बनता है कि अपनी स्वतंत्र प्रतिभा विकसित करके कुछ सोच सकने और कुछ कर सकने योग्य बने । शुक्र कीट को सर्व प्रथम डिम्ब कीट की शरण में जाकर अपना आत्म समर्पण करना पड़ता है । वहाँ आश्रय पाने के उपरान्त ही मानव सत्ता प्राणवान बनती है । इस आश्रय को प्राप्त करने से पूर्व तो वह अदृश्य, अव्यक्त, असमर्थ, असम्बद्ध, अचेतन, निरीह कहा जा सकने वाला मूर्छा ग्रस्त जीवाणु मात्र बना हुआ किसी शरीर के एक उपेक्षणीय अंश की स्थिति में पड़ा रहता है । नारी का अनुग्रह ही उसे मानवी सत्ता में परिणत विकसित होने का सौभाग्य प्रदान करता है ।

मातृ सत्ता को सर्वोपरि सम्पूज्य स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया है । देव सत्ता के तीन प्रथम प्रतीक है— ब्रह्मा, विष्णु, महेश । उत्पादक शक्ति होने के कारण माता को ब्रह्मा—पोषक शक्ति होने के कारण पिता को विष्णु और परिवर्तित परिष्कृत करने की शक्ति होने के कारण गुरु को महेश कहा गया है । इन में प्रथम स्थान माता का है—मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव; की घोषणा में सर्व प्रथम—सर्व प्रधान देव 'मातृ शक्ति' को माना गया है । अध्यात्म चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करते ही—'नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः" की भाव भरी श्रद्धाञ्जलि सर्व प्रथम उसी के चरणों पर चढ़ाई जाती है ।

ज्ञान और विज्ञान की अधिष्ठात्री मातृ शक्ति है । ज्ञान का प्रतिनिधित्व 'गायत्री' और विज्ञान का प्रतिनिधित्व 'सावित्री' करती है । पौराणिक कथा के अनुसार यही ब्रह्मा की दो पत्नियाँ हैं । इन्हें परा और अपरा प्रकृति कहा गया है । इन्हीं के कारण यह सारा जड़-चेतन विश्व विनिर्मित हुआ है और गतिशील रह रहा है । ज्ञान विज्ञान को बुद्धिगम्य रूप से प्रस्तुत करने वाले—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों जीवन फल प्रदान करने वाले चारों वेद हैं । वेद माता गायत्री है । सन्ध्या-वन्दन गायत्री उपासना का ही विस्तार है । प्रथम धर्म प्रतीक के रूप में शिर पर शिखा के रूप में गायत्री को ही प्रतिष्ठापित किया जाता है । द्वितीय धर्म प्रतीक यज्ञोपवीत है । उसके नौ धागे गायत्री के नौ शब्द—तीन लड़ें, तीन चरण, तीन गाँठें, तीन व्याहृतियाँ, एक प्रथम ब्रह्म ग्रन्थि के रूप में बने हैं । यज्ञोपवीत कंधे पर धारण करना गायत्री महाशक्ति की प्रेरणाओं के निर्वाह का उत्तरदायित्व वहन करने का संकल्प है । हिन्दू का गौरव द्विज बनने में—दूसरा जन्म धारण करने में है । गायत्री का आलोक उसी काया कल्प को संभव बनाता है । गायत्री उपासना मातृ शक्ति की महा महिमा को हृदयंगम करने के लिए है । ऋतम्भरा प्रज्ञा, भूमा-ब्रह्म चेतना-सद्भावना आदि अनेक नामों से उसकी गरिमा गाई गई है । शास्त्रकारों ने एक स्वर से यही कहा है कि उस दिव्य चेतना की शरण में जाये बिना जीवात्मा को नर-पशु से ऊँचा उठ कर मनुष्य बनने का—देव स्तर तक विकसित होने का और कोई मार्ग नहीं ।

नारी की संरचना जिन उदारता, करुणा, ममता, श्रद्धा, सेवा जैसे महान अध्यात्म तत्त्वों की बहुलता सहित हुई है उसके कारण उसे 'देवी' संज्ञा उचित ही दी गई है । भारतीय नारी के नामों के आगे, पिछले दिनों तक 'देवी' शब्द जुड़ता रहा है—शान्ति देवी, शकुन्तला देवी, कृष्णा देवी, पुष्पा देवी, उर्मिला देवी, सरला देवी, कमला देवी आदि अधिकांश नाम इसी प्रकार रखे जाते थे । अब तो दूसरी तरह के संक्षिप्त नाम भी रेखा, छाया आदि रखे जाने लगे हैं; पर प्राचीन प्रचलन देवी शब्द जोड़ने का था, उससे नारी सत्ता की गरिमा का सहज बोध होता है ।

नारी को सर्वोपरि सम्मान देने का निर्देश करते हुए भारतीय धर्म शास्त्र कहता है—'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं । यह प्रतिपादन अक्षरशः सत्य और तथ्य है । नारी समाज का भाव पक्ष है और नर कर्म पक्ष । कर्म को उत्कृष्टता एवं प्रखरता भर देने का श्रेय भावना को है । नारी का भाव वर्चस्व जिन परिस्थितियों में विकसित होगा उसी में सुख-शान्ति की धारा बहेगी—प्रगति एवं समृद्धि की उपलब्धि होगी । उत्कृष्ट उल्लास का नाम ही स्वर्ग है । माता, भगिनी, पुत्री और धर्म पत्नी के रूप में नारी इस जगत की दिव्य सत्ता है । अपने अनुग्रह से वह नर को नारायण बनाती है और स्वर्गीय वातावरण का सृजन करती है । उसे सुविकसित और उल्लसित बनाये रखना प्रत्येक दृष्टि से अभीष्ट है । व्यक्ति, परिवार और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति और चिरस्थायी शान्ति के लिए नारी का महत्त्वपूर्ण योगदान आवश्यक है । यह तभी संभव है जब उसके प्रति श्रद्धासिक्त सद्व्यवहार बनाये रखा जाय । यही नारी का पूजन है और इसी का प्रतिफल देवताओं के निवास जैसा वातावरण उपलब्ध करता है । शास्त्र की इस व्यवस्था पर जितनी अधिक गंभीरता से विचार किया जाय उतनी ही अधिक वह सारगर्भित प्रतीत होगी ।

प्राचीन भारत में नर का निरन्तर यह प्रयास रहा है कि वह नारी की गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसे हर क्षेत्र में अग्रिणी रखे और समुचित सम्मान तथा भाव-भरा सहयोग प्रदान करे । सप्त ऋषियों में एक अरुन्धती भी थी और वह उनका नेतृत्व करती थी । वेदों की ऋचाओं को साक्षात् करने में ऋषि ही नहीं, ऋषिकाएँ भी सम्मिलित थीं । गार्गी, मैत्रेयी, अनुसूया, अहिल्या, गौतमी, घोषा, गोषा, विश्वपारा, अपाला, अदिति, रोमशा, लोपामुद्रा, यमी, सूर्या, सावित्री आदि ऋषिकाओं के चरित्र, वर्चस्व एवं कर्तृत्व को देख कर उन्हें तत्कालीन ब्रह्म वेत्ताओं से कनिष्ठ नहीं, वरिष्ठ ही ठहराया जा सकता है । प्रायः सभी ऋषि विवाहित थे । उनकी धर्म पत्नियाँ अपने पतियों की सहधर्मिणी रह कर हर क्षेत्र में हाथ बँटाती थीं । न वे ज्ञान में कम थीं, न साधना में, न प्रतिभा में, न बुद्धि में, न शक्ति में कहीं भी वे पिछड़ी हुई दीख नहीं पड़ती थीं : पिछड़ेपन की कोई बात भी नहीं थी । यदि दबाया-सताया न जाय और समान रूप से विकसित होने का अवसर दिया जाय तो मानवी सत्ता के दोनों पक्ष नर और नारी—समान रूप से समुन्नत रहते हैं—रह सकते हैं ।

मानव सत्ता एक है । सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से उनमें थोड़ा-थोड़ा अन्तर रख कर परस्पर एक दूसरे का पूरक बनाया है । अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में यह तथ्य स्पष्ट है । भगवान शिव, राम, कृष्ण की ऐसी मूर्तियाँ पाई जाती हैं जिनमें आधा शरीर नारी का और आधा नर का है । इस चित्रण में इस तथ्य का प्रतिपादन है कि दोनों परस्पर पूरक हैं । दोनों घटक मिल कर एक पूर्ण सत्ता बनते हैं । गाड़ी के दो पहिये बराबर होने से ही उसका चलना संभव है । छोटे-बड़े पहिये की गाड़ी कैसे चलेगी ? हल में एक ओर बैल जुता हो दूसरी ओर बकरा, तो जुताई कैसे होगी ? हाथ-पैरों में से एक छोटा हो एक बड़ा तो चलने और करने की क्रियाएँ बेतुकी हो जायेंगी । एक आँख छोटी एक बड़ी हो तो चेहरा कितना कुरूप लगेगा । नाक का एक छेद जरा सा, एक बहुत चौड़ा हो, एक गाल फूला एक पिचका हो तो आकृति बहुत ही बिगड़ी हुई लगेगी । शरीर में दो गुर्दे, दो फेफड़े हैं दोनों की स्थिति समतुल्य है । इसी प्रकार नर और नारी की सहज सत्ता पूर्णतया समान है । कुछ शारीरिक मानसिक भिन्नतायें हैं तो व दूसरे पक्ष की कमी को पूरा करने के लिए हैं । उनके कारण किसी पक्ष को छोटा या बड़ा नहीं ठहराया जा सकता । इस सत्य को भारतीय समाज अनादि काल से हृदयंगम किये रहा है और उसी के अनुरूप अपने आचरण को ढालता रहा है । नारी को कभी नीचा या छोटा तो माना ही नहीं गया । सहज वरिष्ठता के कारण उसे नर का अगाध सम्पर्क ही मिलता रहा है । भाव भरे-वात्सल्य और स्नेह-समर्पण के बदले में नर का न्यूनतम प्रतिदान इतना तो होना ही चाहिए था, सो अनादि काल से वैसा ही रहा भी है । इतिहास पुराणों का प्रत्येक पृष्ठ इसका साक्षी है ।

नर के पुरुषार्थ को प्रकट करने वाले अनेकों प्रसंगों का वर्णन होता रहता है । ध्यानपूर्वक देखा जाय तो नारी की गरिमा प्रकट करने वाले प्रसंग भी न तो कम मात्रा में हैं और न कम मूल्य के । सावित्री द्वारा सत्यवान का प्राण यम से लड़ कर छीन लाना, सुकन्या का च्यवन की जरा-जीर्ण स्थिति को युवावस्था में बदल देना, अनुसूया का ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नन्हे-नन्हे शिशु बना देना, गान्धारी का दृष्टिपात करके दुर्योधन को वज्र देह बना देना, कुन्ती का सूर्य, यम, इन्द्र और मरुत देवों को वशवर्ती बना कर उन्हें संतान रूप में जन्म लेने के लिए बाध्य करना—जैसे कथा प्रसंगों से सारा पुराण साहित्य भरा पड़ा है । देवताओं को विपत्ति से छुड़ाने वाली भगवती दुर्गा का, पतित पावनी गंगा का कथा गौरव प्रत्येक भारतीय बड़ी भाव-भरी मनःस्थिति में पढ़ता-सुनता है । दुर्गा सप्तशती और गंगा लहरी पढ़ते समय रोमाञ्च हो जाते हैं । द्वादश शक्ति-पीठों के पीछे जो कथा प्रसंग जुड़े हुए हैं वे नारी शक्ति की गरिमा को सहज ही भावनाशील मनःक्षेत्र को श्रद्धावनत बना देते हैं ।

सीता ने लव कुश जैसे अद्वितीय शूरवीरों को बिना राम की सहायता के ही सुविकसित बना लिया था । शकुन्तला ने सिंह शावकों से खेलने वाला पुत्र भरत इस स्तर तक विकसित किया था कि वह चक्रवर्ती शासक बना । इस निर्माण में दुष्यन्त का हाथ नहीं था । मदालसा ने अपने सभी पुत्र ब्रह्म ज्ञानी बनाये ! पति के आग्रह करने पर एक प्रतापी सम्राट भी बना दिया । जीजा बाई की कृति शिवाजी थे, उनके पति तो अन्यत्र रहते थे और शिशु विकास के लिए कुछ कर नहीं पाते थे । संत बिनोबा के तीनों भाई ब्रह्मचारी और समाज सेवी बने । यह विभूतियाँ उनकी माता का सृजन है ।

पतियों के कंधे से कंधा मिला कर चलने वाली महिलाओं की अपने देश में कमी नहीं रही । दशरथ जब देवताओं की सहायता के लिए लड़ने गये तब उनके साथ युद्ध कौशल देखने कैकेयी भी गई थी और अपने पुरुषार्थ से पति को मुग्ध करके उनसे इच्छित वरदान पाने का उपहार पाया था । कृष्ण अर्जुन युद्ध का वर्णन पुराणों में है उसमें द्रौपदी अर्जुन की सारथी बन कर लड़ने गई थी । रानी लक्ष्मी बाई, अहिल्या बाई, दुर्गावती जैसी शूर वीर नारियों से इतिहास सदा ज्वलन्त रहा है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारी और शान्ति सैनिक दोनों ही पक्षों में अद्भुत पराक्रम दिखाने वाली नारियों की गौरव गाथा रोमाञ्चित कर देती है ।

कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें नारी का वर्चस्व प्रकाशवान न रहा हो । शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बनने का श्रेय तत्कालीन महान विदुषी भारती देवी को मिला था । कालिदास की पत्नी विद्योत्तमा विद्या के क्षेत्र में अद्वितीय थी । अम्बपाली और संघमित्रा सुदूर देशों में बुद्ध धर्म को प्रतिष्ठापित करने में असाधारण रूप से सफल हुई थीं ।

भारत ही क्यों संसार भर के इतिहास पर दृष्टि डाली जाय तो प्रत्येक काल में प्रत्येक देश में ऐसी महान महिलायें हुई हैं जिनकी गौरव गाथाएँ उनके सहज वर्चस्व को प्रमाणित करती हैं । आज भी उनकी कमी नहीं । रैडक्रास आन्दोलन को जन्म देने वाली फ्लोरेंस नाइटेंगिल, बाल शिक्षा के नये आधार रखने वाली मान्टेसरी, रेडियम की आविष्कारक मैडम क्यूरी, थियोसोफी की सफल संचालिका मैडम व्लैवेडस्की की और ऐनी बेसेन्ट आदि की गौरव गाथा को विश्व इतिहास में सदा स्मरण किया जाता रहेगा । फ्रान्सीसी स्वतंत्रता संग्राम की संचालिका जान आफ आर्क को कैसे भुलाया जा सकेगा । संसार भर में विभिन्न स्तर की क्रान्तियों में नारी की असाधारण भूमिका रही है । शासन सूत्र जब भी उनके हाथ में आया है वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक सफल हुई हैं । इंग्लैण्ड की साम्राज्ञी विक्टोरिया से लेकर इसराइल की गोल्डा मेयर, श्री लंका की भण्डार नायके, भारत की इन्दिरा गान्धी यह सिद्ध करती रही हैं कि उनका वर्चस्व पुरुषों की अपेक्षा बढ़-चढ़ कर ही सिद्ध हुआ है । विजय लक्ष्मी पंडित राष्ट्र संघ की अध्यक्ष रह चुकी हैं । साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान, चिकित्सा, खेल, युद्ध, कृषि, व्यवसाय आदि किसी भी क्षेत्र में अवसर मिलने पर नारी कभी भी पिछड़ी सिद्ध नहीं हुई है ।

आज भी प्रतियोगिता के हर क्षेत्र में नारी अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही है । भारत के परीक्षाफल यह बताते हैं कि लड़कियाँ लड़कों से कहीं अधिक बुद्धिमान होती हैं । अधिक अनुपात में, अधिक ऊँचे नम्बरों में उत्तीर्ण होती हैं । जो भी काम उन्हें सौंपे जाते हैं अधिक उत्तरदायित्व के साथ अधिक सफलता के साथ सम्पन्न करती हैं ।

भारतीय मान्यता अनादि काल से नारी को वरिष्ठ मानती रही है । श्रद्धापूर्वक उसका नमन करती रही है और प्रेरणा देती रही है कि नारी को सुविकसित-समुन्नत बनाने के प्रयास में पुरुष कुछ उठा न रखें । उस विकास के उत्तरदायित्व सँभालने के समान अवसर दे । नारी का पिछड़ापन समस्त मानव समाज के लिए संकट उत्पन्न करेगा जैसा कि आज प्रस्तुत है ! नारी की अवज्ञा—उसका शोषण अपने जमाने का एक ऐसा अभिशाप है जिसने असंख्य समस्याएँ और विपत्तियाँ सामने ला खड़ी की हैं । समय की पुकार है कि नारी को उसी उच्च स्थान पर पुनः प्रतिष्ठापित किया जाय जो उसके लिए नियति द्वारा निर्धारित है ।