नारी को उसका उचित स्थान देना ही होगा

प्राचीन काल की सौम्य, शान्त और समुन्नत परिस्थितियों में भी यह आवश्यक समझा गया था कि नारी को उच्च सम्मान प्रदान करके उसकी अन्तः विभूतियों को अधिकाधिक विकसित होने दिया जाय ताकि वह अपने अनुदानों से समस्त मानव समाज को अधिकाधिक सौभाग्य सम्पन्न बनाती चले । उस जमाने में आर्थिक या दूसरी तरह की सांसारिक कठिनाइयाँ सामने न थीं जिनके लिए नारी का अधिक श्रम अपेक्षित होता । उन दिनों दूसरी सामाजिक या पारिवारिक विसंगतियाँ भी ऐसी नहीं थीं कि उनके हल करने में नारी को कष्ट देने की आवश्यकता पड़ती । फिर भी यह आवश्यक समझा गया कि मनुष्य जाति की शान्ति, समृद्धि एवं समुन्नत स्थिति को बनाये रखने के लिए नारी का भावनात्मक योगदान मिलता रहे । अस्तु मानव समाज के ढाँचे में रीढ़ की हड्डी की तरह अति महत्वपूर्ण सत्ता नारी को श्रेष्ठ संतुलन बनाने योग्य रखना ही चाहिए इसके लिए उसे पुरुष का सम्मान और सहयोग उच्चतम स्तर का मिलना ही चाहिये । यह समन्वय ही अपने अतीत के गौरवास्पद प्रगति रथ की धुरी है ।

उस समय नारी को भाव-क्षेत्र ही सँभालना पड़ता था, पुरुष अपने पद के अनुरूप भौतिक पुरुषार्थ कर लेता था । पर आज तो स्थिति सर्वथा भिन्न है । उन दिनों सौम्य-समुन्नत वातावरण को अधिकाधिक स्नेह संवेदना युक्त बनाने के लिए ही नारी सहयोग अपेक्षित था आज तो मनुष्य की चिन्तन प्रक्रिया और भाव संवेदना नारकीय विकृतियों का केन्द्र बनी हुई है । उस आग को शान्त करने के लिए उस अमृत की आवश्यकता है जिसे नारी अपने जन्मजात संस्कारों के रूप में लेकर अवतरित होती है ।

आज की स्थिति में नारी की सहज भूमिका अनिवार्य रूप से, हर दृष्टि से आवश्यक हो गई है । उसका समग्र जीवन स्नेह, दुलार, वात्सल्य, सेवा, करुणा समर्पण जैसे दिव्य तत्त्व का मूर्तिमान समन्वय है । यदि उसे, इस दैवी सम्पदा को प्रभावी बना सकने का अवसर दिया जाय तो निश्चित रूप से अपने साथ सम्बद्ध लोगों को उस अमृत तत्त्व से सुसिंचित कर सकती है । वह अपने अभिभावकों को, सन्तान को, साथी-सहचर को, परिवार को, सम्पर्क एवं परिचय क्षेत्र को ऐसी सुकोमल संवेदनाएँ दे सकती है जिसके सहारे वे पशुता से ऊँचे उठ सकें, मनुष्य स्तर पर दृढ़ रह सके और देवत्व की ओर अनवरत गति से अग्रसर होते रह सकें ।

जीवन किस प्रकार, किस दृष्टि से जिया जाना चाहिए इसके भाव भरे पाठ नारी पढ़ा सकती है और आज की समस्त उलझनों की जड़, चिन्तन विकृति को, अविद्या को निरस्त कर सकती है । पर उसके लिए उसे वर्तमान पद-दलित स्थिति से उभरने का अवसर मिलना चाहिए । बन्धनों में जकड़ा हुआ कैदी, पराधीन पालतू पशु, अपने मालिकों को क्या कुछ सिखा सकता है । उसकी कौन सुनेगा, उससे क्या कोई सीखेगा । सिखाने वाले का दर्जा और स्थान कुछ ऊँचा रखना होता है । प्राचीन काल में वही स्थिति थी अस्तु प्रथम देवता से, प्रथम गुरु से, माता से ही बालक देवत्व की शिक्षा पर्याप्त मात्रा में गर्भावस्था से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक के अत्यधिक संवेदना काल में ही प्राप्त कर लेते थे ।

इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि उच्च-स्तरीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपना कर ही मनुष्य गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से भरा-पूरा परिष्कृत व्यक्तित्व प्राप्त करता है । उन उपलब्धियों से सशक्त एवं सुविकसित मनुष्य ऐसे साहस भरे पुरुषार्थ कर सकता है जिससे मानवता का गौरव और संसार का वैभव बढ़े । उपलब्धि का उपार्जन ही नहीं उनका उपयोग कर सकना भी बुद्धिमत्ता का चिन्ह है । यह दूरदर्शी बुद्धिमत्ता परिष्कृत आदर्शों के अपनाये बिना किसी को भी नहीं मिल सकती । इसके लिए ऐसा उपदेशक होना चाहिए जो उन्हें अपने जीवन-क्रम में कूट कूट कर भरे हुए हो । ऐसा गुरु एक मात्र सुविकसित नारी ही हो सकती है । वहीं अनवरत सम्पर्क बना कर निरन्तर धर्म शिक्षा देती रह सकती है । विद्वान मनीषी तो यदा-कदा ही उद्बोधन कर सकते हैं । शास्त्र तो कभी-कभी ही पढ़े-सुने जा सकते हैं । निरन्तर शिक्षा तो मूर्तिमान आदर्शों के सामने रहने से ही मिल सकती है । इस भूमिका को परिष्कृत नारी ही सम्पन्न कर सकती है । माता के रूप में, धर्म पत्नी के रूप में, भगिनी के रूप में, पुत्री के रूप में वह अपने समूचे परिवार के सम्पर्क क्षेत्र को इतना कुछ दे सकती है जिसे पाकर आनंद और उल्लास भरा आलोक बिखर पड़े ।

देव लोक में रहने वाली लक्ष्मी के संबंध में अनेकों ललचाने वाली आख्यायिकाएँ कही सुनी जाती हैं । उनमें कितना तथ्य है यह कहा नहीं जा सकता, पर मूर्तिमान गृह-लक्ष्मी के अनुदानों का परिचय कोई भी प्राप्त कर सकता है । संतुष्ट, प्रसन्न और उल्लसित नारी मूर्तिमान गृह-लक्ष्मी है । उसके अनुदान से सारा परिवार स्वर्गीय अनुभतियाँ उपलब्ध करता है । घर का प्रत्येक पदार्थ जीवित प्रतीत होता है, उसमें सुन्दरता महकती है । प्रत्येक परिस्थिति देखने में प्रतिकूल लगते हुए भी हलकी-फुलकी और सह्य बन जाती है । स्नेह-स्वजन, विपत्ति की घड़ियों और अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहते हुए भी हँसते-हँसाते दिन गुजार लेते हैं ।

प्रगति की दिशा में बढ़ना सहयोग के बिना संभव नहीं । मानवी प्रगति का समूचा इतिहास सहयोग के चमत्कार का साक्षी है । यहाँ तक कि जिसे सर्वोपरि माना जाता है वह बुद्धि भी सहकारिता की बेटी है । मनुष्य मूलत: बुद्धिमान नहीं सहयोगी स्वभाव का है । इसी विशेषता ने उसे अनेकानेक क्षेत्रों में विकसित होने का अवसर दिया है । घर में यदि स्नेह, सहयोग के तत्त्व मौजूद हों तो अधिक सुख-शान्ति के लिए, प्रगति और समृद्धि के लिए अनेकानेक उपाय सोचे और अपनाये जा सकते हैं । परिवारों में सहयोग का वातावरण उत्पन्न करने और उन्हें समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने में नारी ही प्रधान तत्त्व है इसे भली-भाँति माना समझा जाना चाहिये ।

नारी को साथ लिए बिना नर प्रगति के पथ पर दूर तक चल नहीं सकेगा । एक पैर से लम्बी मंजिल चढ़ सकना और दुर्गम पर्वत पर चढ़ सकना कठिन है । इसके लिये दोनों पैर समान रूप से समर्थ होने चाहिये । उज्ज्वल भविष्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये जो लड़ाई लड़नी पड़ेगी वह एक हाथ से नहीं लड़ी जा सकती । उसके लिये एक हाथ में ढाल और दूसरे में तलवार पकड़नी पड़ेगी । गाड़ी के दोनों पहियों का सही और समान होना आवश्यक है ।

गणित के विद्यार्थी जानते हैं कि १ का एक अंक ऊपर और १ अंक नीचे रख कर जोड़ किया जाय तो उनका योग २ होता है । पर यदि १ और १ के दो अंक बराबर रख दिये जायें तो वह संख्या २ न रह कर ११ बन जायगी । नर और नारी में से एक ऊपर एक नीचे रहेगा तो वह असमानता उन्हें दो प्राणधारी मात्र बनाये रहेगी । पर जब वे समानता के आधार पर स्वेच्छया सहयोग करने पर सच्चे मन से अग्रगर होंगे तो उसका प्रतिफल ५.५ गुनी शक्ति के रूप में सामने आवेगा । हर बुद्धि रखने वाला प्राणी इतना तो जानता ही है कि दूसरे पक्ष द्वारा उसके साथ क्या व्यवहार हो रहा है । यदि वह मानवोचित नहीं है तो उसकी सहज प्रतिक्रिया सच्चे सहयोग में बाधा ही उत्पन्न करेगी । उपभोक्ता और उपभोग सामग्री के रिश्ते में, मालिक और सम्पत्ति के दृष्टिकोण में, उस स्नेह सौजन्य की गंध नहीं है जो दो व्यक्तियों को परस्पर स्नेह-सहयोग के सघन सूत्र में बाँधती रही है, बाँध सकती है ।

पति और पत्नी का—बहिन और भाई का—पिता और पुत्री का—माता और संतान का स्नेह-सहयोग जितना गहरा, जितना वास्तविक, जितना उच्चस्तरीय और जितना भाव भरा होगा उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही सुखद होगी, उसके सत्परिणाम उतने ही सत्परिणाम उत्पन्न करेंगे । सुविकसित नारी के द्वारा जो पाया जा सकता है उसकी कल्पना करने मात्र से एक उज्ज्वल भविष्य का उत्साह भरा चित्र आँखों के आगे नाचने लगता है । भारत का अतीत गौरव नारी के अजस्र अनुदानों का प्रतिफल था । देव-सन्तानें अपने देव-कृत्यों से संसार के कोने-कोने में सुख-शान्ति की स्थापना करती थीं । उनके शीतल सानिध्य में आकर विश्व के समस्त मनुष्य निरन्तर ऊँचा उठाने वाली प्रेरणा और सहायता प्राप्त करते थे । स्वर्गादपि गरीयसी भारत-माता कामधेनु की तरह इसी देश की जनता का नहीं सुविस्तृत मानव जाति का समान हित-साधन करती थी । प्रकरान्तर से नर के माध्यम से बखेरा हुआ यह परोक्ष अनुदान नारी का ही था । उसके गढ़े हुए खिलौने अपने कर्तृत्व और वर्चस्व से मनुष्यता को धन्य बना सकने में समर्थ होते थे ।

यह प्रयोग अपने देश में लाखों वर्षों तक अपनाया गया और सही पाया गया । नारी को दी गई कामधेनु गौ जैसी श्रद्धा सहकारिता असंख्य गुना होकर वापिस लौटी और उसका अमृत भरा पय-पान करके समस्त मानवता धन्य होती रही । अब दृष्टि बदली तो स्थिति भी उलट गई । जब नारी को भोग्या मान लिया गया तो वह रमणी, कामिनी बन कर सर्पिणी की तरह विषदंश डसेगी और समाज शरीर को विषाक्त करेगी । जब उसे बंदिनी, क्रीत-दासी, पैर की जूती बना दिया गया तो वह गले का पत्थर बन कर लटकेगी और अपने भार से, लादने वाले का कचूमर निकालेगी । आग से खिलवाड़ करना मँहगा पड़ता है ।

नारी की गरिमा को पद-दलित करके बहुत पाने का भले ही स्वप्न देखा गया हो, भले ही बड़े पेड़ द्वारा छोटे पेड़ की खुराक खा जाने की, बड़ी मछली द्वारा छोटी को निगल लेने की नीति लाभदायक समझी गई हो, भले ही पशु प्रताड़ना से मिलने वाले लाभों को ध्यान में रखा गया हो, पर वे प्रयोग नारी के ऊपर सफल नहीं हो सके । सफल हो भी नहीं सकते थे । मनुष्य आखिर दूसरों से कुछ तो ऊँचा है और उसके साथ भी जंगल के कानून लाभदायक नहीं हो सकते । जाति और लिंग भेद के आधार पर समर्थों ने असमर्थों को कुचला तो पर उससे कुछ स्थायी लाभ न मिल सका, जो कमाया उससे अधिक गँवाया गया । अब उस भूल का सुधार होना ही चाहिए । विलम्ब की प्रत्येक घड़ी भारी होती जायगी ।

आज के युग की—मानव जाति की महती समस्या एक ही है उसके विकृत दृष्टिकोण से उत्पन्न अवांछनीय गतिविधियों का परिवर्तन । भावनात्मक परिवर्तन के बिना, चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता का समावेश किये बिना, मनुष्य मनुष्य बन कर नहीं रह सकेगा । और जब तक यह नहीं होगा तब तक प्रस्तुत विपन्नता और विभीषिकाओं में से एक का भी समाधान नहीं होगा । पत्ते तोड़ने से विष वृक्ष मरेगा नहीं उसकी जड़ ही काटनी पड़ेगी । विकृत चिन्तन को निरस्त करना धर्मोपदेशकों के बस बूते का काम नहीं है । वह शिक्षा तो गर्भावस्था से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक ही पूरी हो जाती है । ऐसी दशा में सबसे बड़ी मानव निर्माण की, विश्व-निर्माण की भूमिका जननी के रूप में नारी ही निभा सकती है । बच्चों के ही नहीं वह पूरे परिवार की दिशा बदलने में समर्थ भी हो सकती है । शर्त एक ही है कि उसे मनुष्य स्तर से ऊँचा उठ सकने का अवसर दिया जाय ।

अन्य अगणित समस्याएँ हैं जो नारी सहयोग के लिए मुँह बाये खड़ी हैं । देश की आधी आबादी को भार रूप न रहने देकर उसे समर्थ, सशक्त, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाया जाना चाहिए । इससे हमारी शक्ति अब की अपेक्षा ठीक दूनी हो जायगी । वस्तुतः भार भूत-कष्टकारक अंग यदि सक्षम बन कर उपार्जन करने लगें तो यह दूना नहीं अनेक गुना लाभ होता है । राष्ट्रीय समर्थताएँ चाँदी, सोने या मशीन-मकानों पर टिकी नहीं होती । जनता की सशक्तता ही किसी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति होती है । आधी अपंग जनसंख्या को समर्थ बना कर खड़ा कर देना इतना बड़ा काम है जिस पर आर्थिक प्रगति के लिए बनाई गई सैकड़ों पंचवर्षीय योजनाएँ निछावर को जा सकती हैं ।

मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन सामाजिक परिस्थितियों के कारण बहुत ही विक्षोभकारी बन गया है, पारिवारिक उलझनों में हर व्यक्ति बेतरह उलझा हुआ है, महँगाई ने आर्थिक तंगी को चरम सीमा तक पहुँचा दिया है । जीवनयापन की नाव इतनी भारी हो गई है कि एकाकी गृह स्वामी उसे खींच नहीं पा रहा है । खींचते हुए उसकी कमर टेढ़ी हुई और गरदन मुड़ी जा रही है । सहधर्मिणी, सहचरी कहलाने वाली नारी इस दयनीय स्थिति में भी मूक दर्शक बनी खड़ी है । वह किसी प्रकार का सहारा नहीं दे सकती । अपना वजन तक हलका नहीं कर सकती । शारीरिक और मानसिक दुर्बलता, अनुभव हीनता, अविकसित मनःस्थिति, अर्थ उपार्जन में सर्वथा असमर्थता उसे कुछ भी ऐसा करने नहीं देती जिससे पति का, परिवार को कुछ सेवा सहायता कर सके । यद्यपि जन्मजात क्षमता की दृष्टि से वह पुरुष की तुलना में किसी भी प्रकार हेय या हीन नहीं है । परिस्थितियों ने ही उसे मरोड़-दबोच कर रख दिया है । दबाव को यदि हटाया जा सके तो वह बहुत कुछ कर सकती है । इतना कुछ जिससे परिवार की आर्थिक तथा दूसरी परिस्थितियों में काया-कल्प जैसा अन्तर दृष्टिगोचर होने लगे ।

अतीत के महान गौरव को वापिस लौटाने के लिए, विश्व विभीषिकाओं को निरस्त करने के लिए, खोये हुए मानवी मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए, सर्वत्र छाये हुए विषाद को उल्लास में बदलने के लिए, पति को नई सहधर्मिणी और परिवार को नई गृह-लक्ष्मी दिलाने के लिए, राष्ट्र को समर्थ बनाने के लिए, अनीति अपनाने के कलंक से मुक्त होने के लिए, नारी को मनुष्य स्तर पर लाया ही जाना चाहिए । इससे कम में सर्व भक्षी विभीषिकाओं की चुनौती का सामना किया ही नहीं जा सकता ।