सेवा-साधना

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

ज्ञान की अंतरंग में स्थापना हुई या नहीं हुई, इसकी परीक्षा-पहचान सिर्फ एक है कि मनुष्य को उस तरह के कार्य, विचार को सुनने से उनको क्रियात्मक रूप देने के लिए उसमें साहस इकट्ठा हुआ कि नहीं। एक बात सुनने-समझने तक सीमित है। जैसे कि लोगों का ख्याल है कि कथा सुन लेनी चाहिए गीता सुन लेनी चाहिए और रामायण पढ़ लेनी चाहिए और रामायण सुना लेना चाहिए-बस खतम हो गया, पुण्य हो गया, उद्देश्य पूरा हो गया बात खतम। बात ये नहीं है इस सारे के सारे ज्ञान का आविर्भाव इसलिए हुआ है कि आदमी उन विचारों को चरित्र के अनुरूप परिणत सके। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया ही नहीं बल्कि अर्जुन को कर्म करने के लिए भी कहा। भगवान रामचंद्र जी अपने पैर पुजाने, अपनी आरती उतरवाने के लिए नहीं आए थे बल्कि लोगों में ये प्रेरणा उत्पन्न करने के लिए आये थे कि अनीति और अन्याय के विरुद्ध छोटे आदमियों को भी संघर्ष करना चाहिए। रावण के विरुद्ध उन्होंने रीछ और बंदरों को इकट्ठा किया था। हनुमान जी में भी त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा की थी।

त्याग और सेवा की वृत्ति और लोकमंगल के लिए कुछ काम कर लेने की वृत्ति जब मनुष्य के भीतर पैदा हो जाए हिम्मत पैदा हो जाए एक उमंग पैदा हो जाए और एक ललक पैदा हो जाए तब जानना चाहिए इसने जो कुछ ज्ञान सीखा था, वह सार्थक हुआ। अगर ऐसी ललक उत्पन्न न हो और आदमी सुनने भर का व्यसनी हो जाए आज गीता, कल गीता, आज गीता, कल गीता, आज रामायण कल भागवत्, इस तरह से सुनता ही चला जाय, तो सिर्फ यह एक तरह का मनोरंजन, व्यसन बन जाता है। व्यसन कितने ही तरीके के होते हैं। किसी को बार-बार तंबाकू पीने का व्यसन होता है। किसी को ताश खेलने का व्यसन होता है। किसी को सिनेमा देखने का, किसी को सत्संग सुनने का और सत्संग करने का व्यसन पैदा हो जाता है और यहाँ बाबा जी की कहानी सुन मारी और वहाँ पंडित जी की भागवत् सुन ली। ऐसे ही अपने समय का विक्षेप करता रहता है। अगर यहाँ तक कथा सुनने भर की बात हो, तो उसे केवल ज्ञान का व्यसन कहा जाएगा। दूसरे व्यसनों की अपेक्षा, थोड़ा-बहुत अच्छा है। थोड़े ही लोग कहते हैं कि अच्छा नहीं है, समय काटने की अपेक्षा बुरा काम किया होता, जुआ खेला होता, उसकी अपेक्षा तो अच्छा ही है। ज्ञान की बात सुनता है, इसमें बुराई ही क्या है। पर उसका कोई परिणाम भी नहीं है। परिणाम क्या हो सकता है, परिणाम उस समय होगा, जब मनुष्य उन विचारों को इस ढंग से सुने और समझे कि क्या ये कार्य में लाए जाने योग्य हैं, अगर ये कार्य में लाए जाने योग्य हैं तो उसे कार्य में लाए जाने की हिम्मत भी आदमी के भीतर में होनी चाहिए। आत्मबल इसी को कहते हैं।

आत्मबल

आत्मबल का अर्थ यह है कि जिन विचारों को हम सही मानते हैं, उन सही मानने वाले कामों को हम करने की हिम्मत इकट्ठा करें, त्याग इकट्ठा करें, इसके लिए पुरुषार्थ करें। इसके लिए मेहनत करें और उसके रास्ते पर कोई विरोध आता है तो इसको भी बरदाश्त करें। इस तरह की आदमी के भीतर विचारों को कार्य रूप में परिणत करने की क्षमता उत्पन्न हो जाए तो समझना चाहिए कि जो बीज बोया गया था, उसका अंकुर और पल्लव पैदा होना शुरू हो गया। बीज बोया जाए और उसका पत्ता पैदा ही न हो, अंकुर पैदा ही न हो, बीज बोने न बोने से क्या फर्क पड़ा। कथा हमने सुनी, ज्ञान हमने सुना, पुस्तकें हमने पढ़ी, लेकिन हमारे मन में काम करने की ऐसी उमंगें ही नहीं उठीं, तो ये मानना चाहिए कि हमने बीज बोया और बीज बोने के बाद पैदा नहीं हुआ, उगा नहीं, फला नहीं, फूला नहीं, फला-फूला नहीं तो बोने का लाभ क्या रह गया?

हमको जो अच्छे विचार और श्रेष्ठ विचार और जीवन को ऊँचा उठाने वाले विचार लोगों में विस्तृत करने चाहिए और फैलाने चाहिए। जैसा कि अभी-अभी कहा गया कि ज्ञानयज्ञ के माध्यम से जनसाधारण को विचार करने की महती आवश्यकता पर बल देना चाहिए और ये उसे सिखाया जाना चाहिए कि जीवन श्रेष्ठ तरीके से कैसे जीया जा सकता है और समाज को सुव्यवस्थित कैसे बनाया जा सकता है? समाज अर्थात भगवान। भगवान की पूजा कैसे की जा सकती है, इसका एक समग्र शिक्षण करने के लिए ज्ञानयज्ञ किया गया था। ज्ञानयज्ञ बीज बोने के बराबर है। वह बीज पैदा हुआ कि नहीं, उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा ये है और हमारा प्रयत्न सफल हुआ कि नहीं उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा यह है कि आदमी को उसके विचारों को कार्यान्वित करने के लिए सामर्थ्य पैदा हुई कि नहीं। सामर्थ्य पैदा होने का अर्थ ही उस ज्ञानयज्ञ की सफलता है।

समय का सुनियोजन

ज्ञानयज्ञ का दूसरा चरण रचनात्मक कार्यक्रमों के रूप में और सेवा-साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिन लोगों ने उन विचारों पर निष्ठा उत्पन्न कर ली है और यह ख्याल कर लिया है कि ठीक है २४ घंटे हमारे लिए ही नहीं हैं और हमारी जिंदगी केवल अपना पेट पालने के लिए ही नहीं है, हम बच्चों के गुलाम नहीं हैं, बल्कि समाज के लिए भी हमारा फर्ज हो जाता है और समय समाज के लिए भी निकालना चाहिए। ज्ञानयज्ञ के लिए एक घंटा निकालने के लिए बात कही थी, वह प्राथमिक पाठ था। मनुष्य के पास यदि समय है तो समाज के कार्यों के लिए ज्यादा समय देना चाहिए। ८ घंटा आदमी कमाने के लिए खरच करे। ठीक है मुनासिब है। पेट पालने के लिए बच्चों को पालने के लिए ८ घंटा हर आदमी ठीक तरीके से दे सकता है। विदेशों में ८ घंटे ही दुकानें खुलती हैं। ८ घंटे से ज्यादा कोई काम नहीं करता।

किसी मजदूर को दूसरे आदमी से आठ घंटे से ज्यादा काम करने की इजाजत नहीं है, क्योंकि अगर आदमी ज्यादा काम करेगा तो उसकी दिमागी और शारीरिक स्थिति सब खराब हो जाएँगी और आदमी किसी काम का नहीं बचेगा। आठ घंटे आदमी जीता है कमाने के लिए रोटी कमाए बिलकुल ठीक बिलकुल सही, आठ घटे में इतना काम हो सकता है। अगर आदमी मुस्तैदी से काम न करे तो मैं क्या कह सकता हूँ। हिंदुस्तान का किसान, हिंदुस्तान का मजदूर जितना काम आठ घंटे में करता है, अमेरिकन मजदूर ५ गुना काम ज्यादा करता है, लीजिए ये कमीशन की रिपोर्ट है। मुस्तैदी से करता है। दिलचस्पी से करता है। मेहनत से करता है। आठ घंटे काम करे तो शिक्षित व्यक्ति १२ घंटे और १६ घंटे काम करने की अपेक्षा ज्यादा काम कर सकता है। छ: घंटे सात घंटे काफी होना चाहिए। आठ घंटे मुस्तैदी के साथ रोटी कमाने के लिए काम करे, सही है और अगर आठ घंटे हम सोने और स्नान वगैरह करने के लिए नित्य कर्म में खरच करें। सोने के लिए छ: सात घंटे काफी होना चाहिए और एक घंटे में नहाया-धोया जा सकता है। एक घंटा शौच इत्यादि में लगाया जा सकता है।

आठ घंटे कमाने के लिए हो गए और आठ घंटा सोने के लिए और शरीर के लिए हो गए। अब इसके बाद में लगभग आठ घंटे बच जाते हैं। आदमी जो काम करते हैं, जो रोजी रोटी कमाते हैं, गुजारा करते हुए भी आदमी लोकमंगल के लिए समाज के लिए बहुत काम कर सकता है। आठ घंटे इतने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। किसी को नौकरी छोड़ने की भी जरूरत नहीं। बाबाजी होने की भी जरूरत नहीं और कुछ भी करने की जरूरत नहीं। अपनी रोटी कमाता हुआ आदमी इतना काम कर सकता है जो पूरे एक आदमी के काम के बराबर होता है। आठ घंटे बाकी रह गए ना?

आठ घंटे सोने के लिए और खाने के लिए और आठ घंटा, आठ घंटा मजदूरी करने के लिए १६ घंटे, आठ घंटे बचते हैं। चलिए आठ घंटे में से और निकाल डालिए चार घंटे मटरगस्ती के लिए मान लीजिए यहाँ खड़े हो गए वहाँ खड़े हो गए, ताश खेल लिए बच्चों के लिए सामान खरीद रहे हैं। इसके चार घंटे और भी निकाल लीजिए। अब चार घंटे तो आदमी निकाल सकता है। कौन ऐसा है जो चार घंटे नहीं निकाल सकता। इसका उपयोग कहाँ सीखा लोगों ने, समय की कीमत कहाँ सीखी लोगों ने, बस याद रख ली, हम यहाँ चल दिए यहाँ बैठे, यहाँ पड़े, आदमी की आधी जिंदगी, तीन चौथाई जिंदगी ऐसे ही कूड़े-कबाड़ी की तरह खरच हो जाती है।

आदमी अगर समय का उपयोग करना सीख ले। आलस्यरहित जीवन सीखे और एक-एक मिनट का ठीक तरह से इस्तेमाल सीखे। तो हम लोग सौ गुना ज्यादा काम कर सकते हैं। जैसे हमने अपनी जिंदगी में इतना साहित्य लिखा, संगठन किया, क्या किया क्या नहीं किया? लोग इसे कोई जादू कहते हैं और चमत्कार, देवता की सिद्धि कहते हैं, मैं कहता हूँ कोई सिद्धि नहीं है। यह केवल इस बात की सिद्धि है कि समय को आदमी किस तरह से खींच सकता है और एक मिनट पर हावी कैसे हो सकता है। एक-एक मिनट के लिए जो काम किया जाए उसको पूरे मनोयोग और दिलचस्पी के साथ करने के कारण वो थोड़े समय में कितना बेहतरीन किस्म का हो सकता है। बस यही चमत्कार है। यही मोटे सिद्धांत है। मोटे सिद्धांतों को कार्यरत कर लीजिए। आप भी ऐसे ही चमत्कारी बन सकते हैं। जैसे मैंने विद्या प्राप्त कर ली, साहित्य लिख लिया, कोई भी ऐसा बन सकता है। किसी के लिए न बंधन है न किसी के लिए रोक। चमत्कार हर आदमी के लिए है।

कोई आदमी ये कसम खा ले कि मुझे समाज की सेवा करनी ही है। अपने जीवात्मा को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए ईश्वर की पूजा इससे अच्छी और क्या हो सकती है? समाज की सेवा के अलावा मैं पूछता हूँ कि ईश्वर की सेवा और क्या हो सकती है? कोई सेवा नहीं और ईश्वर का भजन क्या हो सकता है? आत्मचिंतन, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के लिए आदमी एकांत में बैठता है। समझ में आ गया, लेकिन ईश्वर की खुशामद करना और बहुत सारे आवरण लाद लेना, क्या मतलब है? ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वर वृत्ति है और भावनाओं का परिपोषण करने के लिए आदमी को विश्व मानव की सेवा ही करनी पड़ेगी और कोई तरीका नहीं।

विश्व मानव की सेवा करने के लिए आदमी को कोई कार्यक्रम नियत-निर्धारित करना चाहिए और ये देखना चाहिए कि हम समय का कितना अंश खरच कर सकते हैं। पैसा आदमी के पास में न हो, तो कोई हर्ज की बात नहीं। आदमी के पास समय इतना कीमती है और भावनाएँ इतनी कीमती हैं कि इस समय और भावना का ही आदमी ठीक तरह से इस्तेमाल कर सके तो समाज के लिए इतना अनुदान दिया जा सकता है जो करोड़ों रुपयों की कीमत से ज्यादा है। अगर हम पढ़े-लिखे लोग चाहें तो अपने इस बचे हुए सेवा वाले समय में से क्या दो घंटे रात्रि पाठशाला नहीं चला सकते। हाँ हम चला सकते हैं। चला सकते हैं। दो घंटे हमारे पास फुरसत के नहीं हैं? हाँ हैं, हमारे पास, अगर हम चाहें तो उसे लगा सकते हैं।

प्रौढ़ पाठशालाएँ

एक आदमी एक रात्रि पाठशाला चलाने का समय दे, जिस तरीके से हमारी योजनाओं के अंतर्गत केवल साक्षरता ही नहीं साक्षरता के साथ विचारक्रान्ति और ज्ञानयज्ञ और सही ढंग से सोचने के तरीके सिखाने के लिए विद्यालय स्थापित किए जाएँ। ऐसे विद्यालय अपने मोहल्ले में, गली में, कसबे में, गाँव में चलाए जा सकते हैं। लोगों को शिक्षित बनाने के लिए विद्यावान् बनाने के लिए हमें रात्रि पाठशाला की सख्त जरूरत है और हर जगह रात्रि पाठशाला चलाई जानी चाहिए।

प्रौढ़ पाठशालाओं के माध्यम से साक्षरता का प्रचार करना चाहिए और साक्षरता के साथ-साथ मनुष्य के जीवन की समस्याओं के समाधान करने वाली विचारणाओं को देने का प्रयत्न करना चाहिए।

देव मंदिर पुस्तकालय

ये थी सेवा नं० एक। सेवा नं० २ जैसा कि अभी-अभी ज्ञानयज्ञ के अंतर्गत कहा गया था, हमको एक देव मंदिर हर जगह स्थापित करना चाहिए। देव मंदिर वह नहीं है, जिसमें पत्थर की मूर्तियाँ रखी गई हैं, देव मंदिर वह है, जहाँ ज्ञान रखा हुआ है। ज्ञान जहाँ रखा हुआ है, असली भगवान का मंदिर उसी को कहते हैं। यदि मुझसे पूछा जाए तो मैं एक ही तरह के मंदिर का सम्मान कर सकता हूँ, उसका नाम हो सकता है पुस्तकालय और पुस्तकालय भी वो, जहाँ श्रेष्ठ किस्म की पुस्तकें रखी गई हों। दुनिया में संत, महात्माओं का एसेंस निकालकर, धर्मग्रंथों का एसेंस निकालकर के, भगवान की विचारणाओं का एसेंस निकालकर के जिस लेबोरेटरी में रखा गया है, उसका नाम है पुस्तकालय। रवीन्द्रनाथ टैगोर अब नहीं हैं और उनकी कविताओं का संग्रह हमारे लिए क्या सुरक्षित नहीं है? मीराबाई अब जीवित नहीं है, तो क्या उनकी कविताओं का संग्रह हमारे लिए जीवित नहीं है? सूरदास से लेकर तुलसीदास तक और रैदास से लेकर कबीरदास जी तक और सुकरात से लेकर अफलातून तक ईसामसीह से लेकर अमुक तक महामानव इस विश्व में हुए हैं, जिन्होंने विश्वमानव के लिए अनेक अनुदान दिए हैं, एक से एक बढ़िया ज्ञान दिया। उन सारे के सारे ज्ञानों को एक जगह शीशी में रख करके जिस जगह पर रखा जाता है उस देव मंदिर का नाम है-पुस्तकालय। पुस्तकालय स्थापित करना मानव जाति के लिए सबसे बड़ी सेवा है।

पुस्तकालय से बड़ा मंदिर हो ही नहीं सकता कहीं, क्योंकि उसके अंदर जीवित ज्ञान रखा हुआ है और ज्ञान, ज्ञान मानव जाति के लिए सबसे बड़ी संपदा है। ज्ञान जिस जगह पर रखा हुआ है, उस जगह पर सारे के सारे ऋषि बैठे हुए हैं। महात्मा बैठे हुए हैं। रात को २ बजे जरूरत पड़ती है हमको तो पुस्तकालय खोल लेते हैं, किताब खोल लेते हैं। किताब लेकर पढ़ना-लिखना शुरू कर देते हैं और हम रवीन्द्रनाथ टैगोर से सत्संग कर रहे हैं और मरे हुए महात्मा गाँधी से रात को १ बजे सत्संग करना हो, चार घंटे करना हो तो उनकी पुस्तक खोल लीजिए और महात्मा गाँधी जी से ऐसे ठीक १ बजे बात शुरू कर दीजिए और चार घंटे जारी रखिए।

ये सत्संग की आवश्यकता सब पुस्तकालय पूरी कर सकते हैं और कोई पूरी नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि ये अभागा देश जिसकी बौद्धिक गुत्थियों बुरी तरह से, पूरी तरह से उलझी हुई पड़ी हैं उनके गाँव-गाँव, घर-घर, मोहल्ले-मोहल्ले पुस्तकालय स्थापित कर दिए जाएँ। पुस्तकालय स्थापित करने के लिए और पैसों की जरूरत हो तो संकलन किया जाए और पैसों की जरूरत न हो तो कम से कम अपना शारीरिक श्रम लगाया जाए घर-घर जाया जाए जैसे कि चल पुस्तकालय के बारे में बताया गया था। अगर कोई पुस्तकालय स्थापित करे। उसकी महत्ता लोगों को समझाए ऐसे जैसे कि गाय के दूध के बारे में कहा गया था। गाय के दूध का महत्त्व पहले समझाना पड़ेगा तब गाय की रक्षा होगी। इसी प्रकार से ज्ञान का महत्त्व और ज्ञान की उपयोगिता लोगों को समझानी पड़ेगी तब उसको लोग पसंद करेंगे। ये काम करने के लिए पुस्तकालय स्थापित किए जाएँ और ऐसे आदमी उस पर नियुक्त किए जाएँ जो लोगों में आकर्षण पैदा करें। जबरदस्ती थोपें, रुचि पैदा करें। हर देश को, राष्ट्र को उठाने के लिए पुस्तकालय स्थापित करना महती आवश्यकता है। इसके पश्चात सेवा के माध्यमों में क्या-क्या आते हैं। व्यायामशालाओं की बहुत आवश्यकता है।

सर्वोपयोगी व्यायामशाला

हमारे गाँव-गाँव, घर-घर, मोहल्ले-मोहल्ले में आदमी काहिल होता चला जाता है। कमजोर होता चला जाता है। आलसी होता चला जाता है। अब तो घरों में बाथरूम कंबाइंड होने लग गए हैं। आदमी को हिम्मत या दम नहीं कि घर के उसी कमरे में पूजा करता है उसके बराबर के कमरे में ही पेशाब कर लेता है। पेशाब भी उसी चारपाई में करना चाहता है। इतना आलसी हो गया है। इतना शरीर ढीला हो गया कि आलस्य आदमी के शरीर के अंदर बना रहा तो थोड़े ही दिनों में आदमी को रोटी चबाने के लिए रोटी खाने की मशीनें लगानी पड़ेगी, रोटी चबी-चबाई पेट में डालनी पड़ेगी। आदमी कैसा ढीठ और आलसी होता चला जा रहा है। इस आलसी आदमी को परिश्रमी और उद्योगी बनाने के लिए व्यायामशालाओं की, खेलकूद की बात को फिर से जाग्रत करना पड़ेगा। कीर्तिवान आदमी को बनाना पड़ेगा और मजबूत आदमी बनाना पड़ेगा। इसके लिए इस कार्य का शिक्षण करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता है, उन संस्थाओं का नाम व्यायामशाला नहीं हो सकता क्या? हाँ हो सकता है। व्यायामशाला, इसमें जरूरी नहीं है कि दंड बैठक ही लगाया जाए अनेक तरह के खेलकूद हो सकते हैं। आसन-प्राणायाम हो सकते हैं। बच्चों के लिए अलग, बच्चियों के लिए अलग, बूढ़ी के लिए अलग, आसन जैसी बहुत सी चीजें हो सकतीं हैं। लाठी चलाने की बात हो सकती है। हथियार चलाने की बात हो सकती है। इससे गुंडागर्दी का दमन होगा। गुंडे और बदमाश इसीलिए भागते हुए चले आते हैं कि आदमी को ये मालूम पड़ता है कि हमारा कोई मुकाबला करने वाले नहीं हैं। बहादुर लोग दुनिया में नहीं हैं। सारे के सारे गाँव में कायर और नपुंसक लोग रहते हैं और सब लोग बीमार और बेकार लोग रहते हैं। इसलिए एक गाँव में दो गुंडे आते हैं और सारे बढ़िया आदमी के नाक में नकेल डाल देते हैं और सारे के सारे गाँव वालों को उल्लू बना देते हैं। सारे गाँव पर हावी हो जाते हैं। ये कायर लोग हैं, नपुंसक लोग हैं, कमजोर लोग हैं। कोई दम नहीं है बिलकुल बेदम के आदमी हैं। अगर आदमी को ये मालूम पड़े कि दमदार आदमी रहते हैं और किसी को छेड़ा गया तो खबर ली जा सकती है, तो दुनिया में से आधे अपराध और गुंडागर्दी अपने आप समाप्त हो सकती है। व्यायामशालाएँ ये काम पूरा कर सकती हैं। गुण्डागर्दी पर रोक लगा सकती हैं। आदमी की हिम्मत नष्ट हो गई है और शारीरिक क्षमता जो नष्ट हो गई है, आदमी कमजोर और काहिल हो गया, इन सारी की सारी बस्तियों के आदमी बीमार होते चले जा रहे हैं। अपनी काहिली और कमजोरी की वजह से उनको नियंत्रित करने के लिए दूर करने के लिए व्यायामशालाओं का बहुत महत्त्व है। स्वास्थ्य का शिक्षण, स्वास्थ्य की रक्षा, आदमी की हिम्मत और मनोबल की वृद्धि। इसके लिए क्लास भी चलाए जा सकते हैं और बच्चों से लेकर बूढ़े तक के लिए हरेक के लिए शारीरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए अनेक तरह का शिक्षण भी दिया जा सकता है, अखाड़े भी हों, खेलकूद भी हों, खेल-कूद की प्रतियोगिता भी हो, दंगल हों, इस तरह की साधन सामग्री, संस्थाएँ गाँव-गाँव में स्थापित की जा सकें तो मजा आ जाए। शिक्षा के बारे में मैंने कहा और व्यायामों के बारे में मैंने कहा।

वृक्षों पर टिका है जीवन का अस्तित्व

एक और भी बात है जो सुनी जाती है वो है अन्न की समस्या, खाद्य पदार्थों की समस्या और भोजन की समस्या है। अपने देश में से पेड़-पौधे और हरियाली भी दिनोंदिन कम होती चली जा रही है। उसका परिणाम यह हो रहा है कि वर्षा कम हो रही है। पेड़ कटते जाएँगे, वर्षा घटती जाएगी। यह मोटा वैज्ञानिक सिद्धांत है। आप पेड़ों को काट डालिए जैसलमेर जैसा प्रांत यहाँ पेड़-पौधे नहीं होते हैं। पेड़ों में वो आकर्षण है, जो ऑक्सीजन पैदा करते हैं और मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य संवर्द्धन करते हैं। पेड़ भी मनुष्य के सहयोगी हैं। पेड़ों को लगाया जा सकता है। बिहार में एक हजारी बाग जिला है, वहाँ का एक किसान था, किसी ने यह कह दिया कि बाग लगा दो उसकी संतान हो जाएगी। बस उसने सौ पेड़ आम के लगाए आम के पौधे बढ़ते गए जब उसके नीचे छाया आने लगी और बच्चे फल खाने लगे और सारे गाँव को आम मिलने लगे तो बहुत खुशी हुई। उसने कहा, बेटा हुआ तो क्या, न हुआ तो क्या, आम का लगाना, आम के बगीचे का लगाना अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। बस उसके दिमाग में ऐसी तरंग उत्पन्न हुई और सारे जिले के लिए खड़ा हो गया और गाँव-गाँव जाके बिना पढ़ा किसान और गरीब किसान ये कहने लगा कि मैंने आम का बगीचा लगाया, मुझे बहुत खुशी हुई, मेरे गाँव के सब बच्चों को आनंद आया वहाँ खेलने को जगह मिल जाती है और उसकी ठंडक में सारे गाँव के लोग जा बैठते हैं। आपको भी आम का बगीचा लगाना चाहिए। लोगों ने उत्साह दिखाया तो स्वयं लगाने लगा, स्वयं पानी लगाने लगा, गाँव के लोग फिर उत्साहित हुए जब लोग संभालने लगे तो वहाँ से दूसरे गाँव में वृक्ष लगाने लगा। हजार आम के बाग लगाए उसका नाम हजारी बाग हो गया। हजारी बाग जिला इस बात का सबूत है, इस बात की परंपरा लिए बैठा है, किसी जमाने में एक ही किसान ने अपनी जिंदगी में सहयोग दे करके लोगों के साथ मिल-जुल करके लोगों को आन्दोलन के रूप में प्रोत्साहित करके बिहार के उस जिले में हजार आम के बाग लगवाए थे। सारे के सारे जिले को हरा−भरा कर दिया था।

आदमी के मन में सेवा की वृत्ति आए तो बिना पढ़ा किसान ये काम कर सकता है कि जहाँ जंगल पड़े हुए है, जहाँ खाली जगह पड़ी हुई है, जहाँ वीरान जगह पड़ी हुई है, वहाँ पेड़ लगवाए। पेड़ों की गुंजाइश न हो तो हम अपने मकान में, घरों में, अपने आँगन में शाक वाटिका लगा सकते हैं और अपनी खाद्य समस्या को हल कर सकते हैं। मिट्टी की नाँदें, टूटे हुए घडे़, गमले, लकड़ी की पेटियाँ कहीं भी रखी जा सकती हैं। पक्के मकानों में भी, जहाँ खेती बाड़ी की गुंजाइश भी नहीं।

ग्राम उद्योग-कुटीर उद्योग स्थापना

एक और भी चीज सेवा में आती है और वह है ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योग। हम ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योगों की स्थापना करके अपने गाँव वालों के नगर वालों के, बेकार आदमियों की आजीविका में खुशहाली में सहायक हो सकते हैं। आज इस तरह के गृह उद्योग के चलाए जाने की आवश्यकता है, बहुत कुछ गुंजाइश है। दो पैसा जेब में होते हैं, तो उसमें दान-पुण्य करने से लेकर के खरच करने तक स्वास्थ्य संवर्द्धन से लेकर के घूमने-फिरने मनोरंजन तक के लिए गुंजाइश मिल जाती है। उनमें खुशहाली पैदा होती है, स्वावलंबन पैदा होता है। कलात्मक दृष्टि का विकास होता है और हराम खोरी से बचाव करने की वृत्ति पैदा होती है।

स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धाएँ-प्रतियोगिताएँ

प्रतियोगिताएँ चालू करके हम बहुत सा काम कर सकते हैं। वाद-विवाद की प्रतियोगिता, संगीत की प्रतियोगिता, खेलकूदों की प्रतियोगिता, बच्चों को स्वस्थ रखने की प्रतियोगिता, पशु किसका अच्छा है और कौन ज्यादा दूध देता है, अनेक तरह की प्रतियोगिताएँ हैं। मनुष्य में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा का भाव पैदा कर सकता है और एक सम्मेलन का भाव पैदा करने लोग आते हैं, तमाशबीन तमाशा देखते रहते हैं, लेकिन उसमें से अच्छा साबित करने वाले लोग भी हैं, इसके लिए ये भी एक अच्छी समाज की सेवा है कि हम समाज के लिए अच्छे काम करने के लिए प्रतियोगिता, पुरस्कार देने के लिए मेले लगाएँ और आदमी के अंदर उत्साह पैदा करें कि हमको बढ़-चढ़कर जीवन को विकसित करने वाले कार्य करने चाहिए।

लोक संगीत का युग संगीत में रूपांतरण

इसी प्रकार से संगीत कला का विकास। ये भी बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य हैं इसके लिए अंतरंग को छुआ जा सकता है। हर गाँव में संगीत जानने वाले लोग होते हैं, उन संगीत जानने वाले लोगों को वो चीजें दी जाएँ जो आज के युग के लिए आवश्यक हैं। विचारकों के पास विचार नहीं है, संगीतकार को किसी ने जो सिखा दिया वो सीख लिया, कीर्तन करना सिखा दिया तो सीख गए। पान खाओ, फूल खाओ और खाओ मेवा। पान कहाँ से खाएँ बाबा पान भी बहुत पैसे का आता है, मेवा तेरे सिर में से खाएँ पैसे होंगे तो खाएँगे, तू खा जा। इस तरह से बेसिर-पैर की तरह गाना गाते रहते हैं, गाने की हविस को पूरा करने के लिए और वो राधा और श्रीकृष्ण के गीत गाते रहते हैं कामुकता भड़काने वाले।

उनके स्थान पर गायकों को इस तरह के विचार दें जो मनुष्य के चरित्र को ऊँचा उठाते हों और लोक सेवा के भाव उत्पन्न करते हों तो मजा आ जाए। गाँव-गाँव जाना चाहिए और ऐसे संगीत को एक संघबद्ध करना चाहिए और ऐसी मंडलियाँ बनानी चाहिए और उनका ऐसा नियंत्रण करना चाहिए कि उनको नए-नए गाने गाने चाहिए तब कोई बात बने। संगीत का शौक पैदा किया जाए। नाट्य और अभिनय का शौक पैदा किया जाए। अब तो आदमी भागता है सिनेमा के लिए। सिनेमा के अलावा और कोई मनोरंजन रहा ही नहीं। अगर हम चाहें तो ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम जिसमें मनोरंजन का पुट दिया हुआ हो और शिक्षा का भी पुट दिया हुआ हो।

छोटे स्तर पर एकांकी नाटक खेले जा सकते हैं, छोटे-छोटे ड्रामा कमेटियाँ बन सकती हैं, लीला और अभिनय किया जा सकता, जिससे आदमी को अपनी कोमल भावना का विकास करने का मौका मिल सकता है। मनोरंजन के लिए गुंजाइश रहती है और लोक शिक्षण की व्यवस्था भी बन जाती है। ये सब आसानी से किया जा सकता है।

गंदगी—एक अभिशाप

गंदगी एक अभिशाप है हमारे समाज का। अभिशाप ही नहीं है राष्ट्र का अपव्यय है। हमारे राष्ट्र में मल और मूत्र की समस्या इतनी बड़ी है। हिंदुस्तान जैसे देश में, जिसमें मल और मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता। आदमी के मल का थोड़ा भी भाग जापान में बरबाद नहीं होता आदमी का मल और मूत्र बिलकुल खाद के रूप में बदल दिया जाता है और वहाँ फर्टीलाइजर कारखानों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। खाद्य की समस्या के पश्चात मनुष्यों का मल इतना ज्यादा है, इतना ज्यादा है अब पशुओं से भी ज्यादा मनुष्यों के हैं। मनुष्यों से पशु कम है, मनुष्यों का मल और पशुओं का मल जो कि देहात में जहाँ-तहाँ फैला सड़ता रहता है। बिखरा फैलता रहता है, पड़ा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं होता, उसका कोई लाभ नहीं होता। उस बिना उपयोगी और बिना लाभ के पदार्थ को जब लाभ का बना सकते हैं तो देश में सोना पैदा कर सकते हैं। यदि हम गाँव की सफाई रखने लगें तो सफाई से दो फायदे हो सकते हैं।

गंदगी इधर-उधर फैली रहने से लोगों के स्वास्थ्य खराब होने लगते हैं। एक अँगरेज हिंदुस्तान में आया था। उसने अपनी डायरी में लिखा है। उसमें ये लिखा है यदि मैं जंगल में खड़ा हूँ और कोई गाँव जाना होता है तो जिधर से बदबू आती है उसी ओर चल देता हूँ और गाँव मिल जाता है। बदबू का केंद्र तो होना ही चाहिए। हमारे गाँव, जहाँ मल और मूत्र निकासी की कोई गुंजाइश नहीं है और जहाँ मल और मूत्र फेंकने की कोई व्यवस्था नहीं वहाँ बदबू नहीं आएगी तो और क्या होगा? बीमारी नहीं होगी तो वहाँ क्या होगा? गंदगी नहीं होगी तो वहाँ क्या होगा? लोग मलीनता के आदी न होंगे तो क्या होगा? आज हमारा ग्रामीण जीवन ऐसा ही है, अस्त-व्यस्त है, गंदगी उसके रोम-रोम में समा गई है। चूहे भी वहीं रहते हैं, आदमी भी वहीं रहते हैं, बच्चे भी वहीं गंदगी करते रहते हैं। इस गंदगी के विरुद्ध हमें लोहा लेना चाहिए।

सभ्यता कहाँ से शुरू होती है, सफाई से शुरू होती है। जो आदमी साफ कपड़ा नहीं पहन सकता मानना चाहिए सभ्य नहीं है और जिसका मकान साफ नहीं है वह सभ्य नहीं है। किताबों को यथास्थान नहीं रखता, जिस घर में चप्पलें दूसरी चीजें, बर्तन साफ नहीं रखे जाते, वह सभ्य नहीं है, यह मानना चाहिए। सभ्यता का शिक्षण उनको सफाई से शुरू करना चाहिए और सफाई से शुरू करके गाँव में ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए ऐसे वालेंटीयर भरती करने चाहिए ऐसा आन्दोलन खड़ा करना चाहिए कि व्यक्ति को न केवल अपना घर अपने पड़ोस की अपनी गली-कूचे की एकाध घंटे समय निकालकर सफाई कर लेनी चाहिए। जानवरों का गोबर ऐसे ही फेंक दिया जाता है, धूप में डाल दिया जाता है, कण्डे बनाकर जला दिये जाते हैं। राष्ट्र के सोने और हीरे जैसी कीमती चीज को नष्ट कर दिया जाता है, इसके लिए समझाया जाना चाहिए। छोटे-छोटे गड्ढे बनाये जाएँ गड्ढों में जानवरों का गोबर जमा किया जाए उससे कंपोष्ट की विधि से बढ़िया खाद बनायी जाए जो सोने के बराबर है और सोना उग सकता है, हमारे खेतों में। गोबर जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है, गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले, दरवाजे-दरवाजे पर कीचड़ फैलाता रहता है, वहाँ एक स्थान बनाया जाए क्या यह सेवा नहीं है? हाँ यह सेवा है।

शौचालय ऐसे भी बन सकते हैं, जिससे कि मनुष्य का मल खेती-बाड़ी के काम आ जाए और खाद के काम आ जाए। इसके साथ-साथ ऐसा भी हो सकता है कि आदमी एक हाथ में खुरपी ले और एक हाथ में लोटा, खुरपी में कितना वजन होता है। जहाँ जाएँ गड्ढे खोद लें गड्ढे पर शौच करें उसके बाद मिट्टी डालें, खाद भी बन जाएगा गंदगी भी नहीं फैलेगी, अशोभनीयता भी नहीं बनेगी, बदबू भी नहीं फैलेगी। इस तरह के आन्दोलन न जाने कितने आन्दोलन खड़े किए जा सकते हैं, इन सब बातों के बारे में शत सूत्री योजना बनाई है, उसमें सौ तरह के सूत्रों के बारे में यह बताया गया है कि सामाजिक सेवा के अनेक काम भरे पड़े हैं। हर आदमी को काम देना, अपंगों को काम देना न जाने कितने काम हैं, अगर आदमी के मन में सेवा की वृत्ति हो, तो हर जगह शिक्षा से लेकर के गृह उद्योगों तक और सफाई से लेकर लोकशिक्षण तक और संगीत से लेकर न जाने कितने काम ऐसे हैं, जो रचनात्मक कार्यों की श्रेणी में गिने जा सकते हैं। सेवा भावना जिनके अंदर है वो अपनी सेवा भावना को परिष्कृत करने के लिए थोड़ा समय इसमें लगा सकते हैं, संपन्न आदमी थोड़ा पैसा दे सकते हैं। लोगों का थोड़ा-थोड़ा धन और लोगों का थोड़ा-थोड़ा श्रम मिलने लगे तो श्रमदान के आधार पर न जाने क्या से क्या कर सकते हैं। सड़कें बना सकते हैं, नहरें बना सकते हैं, ग्राम पाठशालाएँ बना सकते हैं, पंचायतें बना सकते हैं और न जाने क्या से क्या कार्य करा सकते हैं, जो समय हमारी गप्पों में नष्ट हो जाता है। अगर हम गप्पों वाले और आराम हरामखोरी वाले समय को ठीक तरीके से उपयोग करना सीख पाएँ और सेवा की भावना में वृद्धि कर पाएँ तो हम भी वो कार्य कर सकते हैं जो कि दूसरों ने किया और वे समर्थ कहलाए। सरकार के कार्य से काम चलने वाला नहीं है। हमें स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा और अपनी सेवा वृत्ति के द्वारा राष्ट्र का नया निर्माण करना पड़ेगा।

जिन लोगों ने ज्ञान पाया, ज्ञान सीखा उसकी परीक्षा यही है। सेवा की भावना उनके मन में उत्पन्न हुई और सेवा का कार्य उन लोगों ने शुरू किया तो समझना चाहिए उनका ज्ञान प्राप्त करना ठीक है। रामायण पढ़ना ठीक, प्रवचन करना ठीक और सेवा की बुद्धि नहीं आयी तो समझना चाहिए कि केवल ज्ञान भर सीखा। बीज तो बोया, पर कोई पौधा उत्पन्न न हो सका। हमारे ज्ञान को सार्थकता की ओर, हमारे ज्ञान को कर्म की ओर, हमारे ज्ञान को कर्म में अर्थात सेवा में विकसित होना चाहिए।

आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥