161. अणु में विभु, लघु में महान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवात्मा ईश्वर का अंश है। समुद्र की लहरों और सूर्य की किरणों से उसकी तुलना की गई है। इस भिन्नता को घटाकाश और मठाकाश के रूप में भी समझा जाता है। घटाकाश अर्थात् घड़े के भीतर की सीमित पोल और मठाकाश अर्थात् विशाल विश्व में फैली हुई पोल वस्तुतः ब्रह्मांडव्यापी पोल का ही एक अंश है। घड़े की परिधि से आवृत हो जाने के कारण उसकी स्वतंत्र सत्ता दिखाई पड़ती है, पर तात्त्विक दृष्टि से वह कुछ है नहीं। घड़े के आवरण ने ही यह पृथक रूप से देखने और सोचने का झंझट खड़ा कर दिया है। शान्त समुद्र में लहरें नहीं उठती, पर विक्षुब्धता की स्थिति में वे अलग सी लगती है और उछलती दिखाई पड़ती हैं। सूर्य के तेजस् की विस्तृत परिधि ही उसके किरण विस्तार की सीमा है। सूर्य सत्ता का जहाँ तक जिस स्तर का विस्तार है वहाँ तक उसी स्तर की धूप का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। इस प्रभा विस्तार की जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती हैं उन्हीं को किरणें कहते हैं। किरणों का सात रंगों में अथवा अल्ट्रावायलेट, अल्फावायलेट, एक्स-लेसर आदि को अलग से जाना माना जा सकता है, पर यह विभाजन सूर्य से भिन्न किसी पृथक सत्ता का भान नहीं करता। ऐसे ही उदाहरणों से और ईश्वर की एकता भिन्नता समझी जा सकती है।
पानी में से असंख्य बुलबुले उठते, तैरते और फिर उसी में समा जाते हैं। विश्वव्यापी अग्नितत्त्व तीली या लकड़ी में प्रकट और प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। आग बुझ जाने से वह उसी मूल सत्ता में लीन हो जाती है। इन उदाहरणों में भी जीव और ईश्वर की पृथकता एवं एकता का अनुमान लगाया जा सकता है। एक बड़ा ढेला फूटकर रज-कण के रूप में बिखर जाता है। पानी ऊपर से गिरने पर जमीन से टक्कर खाता है और उसकी बूँदें अलग से छितराती हुई दीखती है। जीव और ईश्वर की पृथकता के सम्बन्ध में ऐसे ही उदाहरणों से वस्तुस्थिति समझी जा सकती है। सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने एकोऽहम् बहुस्याम की इच्छा की और उसने अपने आपको टुकड़ों में बिखेर दिया। यह बिखराव प्रकृति के साथ संयुक्त हुआ और इसके साथ धुल कर अहंता का आवरण अपने ऊपर लपेट बैठा। सूखी मिट्टी पर जब पानी पड़ता है तो वह गीली हो जाती है और उस पर काई तथा दूसरी वनस्पति जमने लगती है। आत्मा के अंश प्रकृति के साथ मिलकर आधे तीतर, आधी बटेर बन जाते हैं। कच्ची धातुएँ खदान से मिट्टी मिली स्थिति में निकलती हैं, पीछे उन्हें भट्टी में डालकर शुद्ध किया जाता है। जीव को मिट्टी मिला लोहा कहा जा सकता है। जिसमें प्रकृति और पुरुष दोनों का समन्वय है।
जीव की मूल सत्ता ईश्वरीय है। चेतना का समुद्र इस विश्व में एक ही है। उससे भिन्न या प्रतिपक्षी दूसरी कोई सत्ता देवी देवताओं के या जीवों के रूप में कहीं नहीं है। तत्त्ववेत्ताओं ने जाना है-‘यहाँ केवल एक है दूसरा नहीं’। जीव की पृथकता प्रकृति के समन्वय से है। प्रकृति के तीन स्तर-सत, रज, तम कहलाते हैं। इन्हीं तीनों की तीन परतें जीव के ऊपर चढ़ जाती हैं और वे तीन शरीर कहलाती है। स्थूल शरीर अर्थात हाड़-माँस की जन्मने-मरने वाली काया। सूक्ष्म शरीर अर्थात् बुद्धि संस्थान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, अपने-विराने का अन्तर करने वाला मस्तिष्कीय विचार विस्तार। कारण शरीर अर्थात् मान्यताओं एवं भावनाओं का समुच्चय-अन्तरात्मा। जिसे अन्तःकरण भी कहा गया है। इन तीन शरीरों की यों प्याज के छिलके, केले के तने या एक के ऊपर एक पहने हुए वस्त्रों से तुलना की जाती है, पर यह उपमा बहुत ही अधूरी है। कारण कि यह सब आवरण एक दूसरे से पृथक हैं, जबकि एक दूसरे के साथ इस प्रकार घुले हुए हैं जैसे दूध में घी, सरसों में तेल। प्रयत्न पूर्वक इन्हें पृथक किया जा सकता है। मृत्यु के उपरान्त स्थूल और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध टूट जाता है। क्लोरोफार्म सुँघा देने या गहरी नींद आ जाने पर सूक्ष्म शरीर का चेतन भाग मूर्छित हो जाता है, अचेतन भर जागता रहता है। समाधि अवस्था में सूक्ष्म-शरीर को कारण से अलग किया जा सकता है। मुक्ति अवस्था में कारण शरीर का आवरण भी छूट जाता है और बूँद समुद्र में समा जाने की तरह आत्मा का लय परमात्मा में हो जाता है। इस प्रकार यह तीनों ही आवरण हटाये तथा मिटाये जा सकते हैं, पर सामान्य स्थिति में वे परस्पर घुले-मिले ही रहते हैं।
जीव को इन आवरणों में लिपटे रहने से कई तरह के कई स्तर के सुख मिलते हैं, इसलिए वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहता फलतः ‘वृद्ध’ अवस्था में बना रहता है। स्थूल शरीर में कई प्रकार के वासनात्मक सुख है। सूक्ष्म शरीर में कल्पना लोक के मनोरम स्वप्न, विनोद, मनोरंजन, सफलता, पद, सम्मान, वैभव आदि के बुद्धि-विलास के अनेकों साधन मौजूद हैं। कारण शरीर में अहंता की परतें जमी हैं। ‘मैं’ अत्यन्त प्रिय है। इस ‘मैं’ की परिधि में जितना क्षेत्र आता है और जिस प्राणी या पदार्थ पर यह ‘मेरापन’ आलोकित होता है वह भी प्रिय लगने लगता है। आकांक्षाओं की उमंग इसी केन्द्र से उठती है। मान्यताओं की आस्था और संवेदनाओं की पुलकन खट्टी-मीठी गुदगुदी तो हैं, पर वह मिलाकर है-मधुर। जीवन में प्रिय-अप्रिय प्रसंग आते-जाते रहते हैं, पर कुल मिलाकर स्थिति ऐसी है जिसके कारण इन तीनों शरीर आवरणों को छोड़ने को मन नहीं करता। फलतः जीव सत्ता का ऐसा सघन अस्तित्व बन जाता है जिसे स्वतंत्र भी कहा जा सकता है।
दर्शनशास्त्र के सभी पक्षों ने ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों का अस्तित्व तो माना है, पर उनके पारस्परिक सम्बन्धों में अपने-अपने विचार भिन्न रूप से व्यक्त किये हैं। त्रैत, द्वैत और अद्वैत मान्यताओं में इसी प्रकार का मतभेद है। त्रैतवादी कहते हैं-ईश्वर, जीव, प्रकृति की तीनों सत्ताएँ अनादि एवं स्वतन्त्र हैं-उनका यह अस्तित्व भर है। द्वैतवादी ब्रह्म और माया, पुरुष और प्रकृति की दो सत्ताएँ मानते हैं, उनकी दृष्टि में जीव का इन दोनों का समन्वय ऐसा ही होता है जैसा दिन और रात के मिलन से उत्पन्न हुआ संध्या काल। अद्वैत मत में एक ही ब्रह्म चेतना की सत्ता को जड़ और चेतन के रूप में माना गया है। प्रकृति ब्रह्म का विकार है और यहाँ जो कुछ दीख भास रहा है वह बुद्धि विपर्यय का ऐसा ही जादू है जैसा इन्द्रधनुष का अथवा स्वप्न संसार का दीखना। इस स्थिति को भ्रान्ति अथवा माया कहा गया है।
इन दार्शनिक मतभेदों के रहते हुए भी हम एक समन्वित तथ्य और सर्वमान्य निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, वह यह कि जीवात्मा को प्रिय-अप्रिय की विक्षुब्ध अव्यवस्था-विवशता से उबरना चाहिए और ऐसी स्थिति में रहना चाहिए जहाँ आदतों की, संस्कारों की पराधीनता उसे अवांछनीय कर्तृत्व, अवांछनीय चिन्तन एवं अवांछनीय संवेदनाओं का कष्ट देने में समर्थ न हो सके। समस्त विपन्नताओं की जड़ यह पराधीनता ही है। जीवन का आनन्द उठाने में इसी विवशता के कारण वंचित रहना पड़ता है। यही बन्धन मनुष्य को उच्च स्तर तक पहुँच कर देवोपम आनन्द, उल्लास उपलब्ध करने के मार्ग में एकमात्र व्यवधान बने रहते हैं। इस स्थिति को बदल सकना यही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है-इसी को ‘मुक्ति’ कहा गया है। मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य माना गया है।
मुक्ति का अर्थ है-स्वाधीनता। पराधीनता के बंधनों को काट देना ही स्वाधीनता है। यह पराधीनता-मात्र चिर संचित संस्कारों की हैं जो स्वभाव बनकर हमारे चिन्तन एवं कर्म को अपने ढर्रे पर चलाती हैं-अपनी लाठी से हाँकती है। शरीर को यह पराधीनता वासना के बन्धन में बाँधकर बेतरह घसीटती है, उसका स्वास्थ्य चौपट करती है, दीर्घ जीवन से वंचित करती है और सत्कर्म निरत रहकर समृद्धियाँ, सफलताएँ प्राप्त करने के स्थान पर ऐसा कुछ करते रहने में लगाती है, जिनके कारण रुग्णता, निन्दा, असफलता दरिद्रता, कुरूपता जैसी विपन्नताएँ ही आये दिन सामने खड़ी रहती हैं। विवेक कई बार सोचता है कि अपनी गतिविधियों में अमुक प्रकार का परिवर्तन करना चाहिए। किन्तु औचित्य समझते हुए भी वैसा कुछ बन नहीं पड़ता। आदतें इतनी जबरदस्त सिद्ध होती है कि उसमें भी सुधार के मनसूबे एक कोने में रखे रह जाते हैं और आदतें अपनी दूसरी राह पर शरीर को घसीटती चली जाती हैं और वे काम कराती है, जिनके लिए पीछे पश्चाताप ही करना शेष रह जाता है। यदि आदतें शरीर का संचालन न करें, विवेक के हाथ से नियंत्रण, संचालन किया जाने लगे तो स्वास्थ्य, सौन्दर्य, दीर्घजीवन जैसी उपलब्धियाँ तो अति साधारण हैं। समर्थ काया से अभीष्ट प्रयोजनों में आश्चर्यजनक सफलताएँ देने वाले पराक्रम पुरुषार्थ का अभिनव स्रोत खुल सकता है और उसके फलस्वरूप जो जीवन लाभ मिल सकता है, उसकी कल्पना मात्र से आँखें चमकने लगती है। दुर्बल शरीर इन्द्रिय सुख की लिप्सा भर में लगा रहता है, साधन उपलब्ध होने पर भी वह उनका समुचित आनंद नहीं ले सकता। भोजन का आनंद कड़ाके की भूख लगने वाले को ही मिल सकता है। रतिक्रीड़ा एवं गहरी निद्रा का लाभ शरीर पर नियन्त्रण रख सकने वाले ही भोगते हैं। आलस्य, प्रमाद को भगाकर व्यवस्थित दिनचर्या बनाना और उस पर निष्ठापूर्वक आरूढ़ रहना सफलताओं का प्रधान आधार माना गया है।
सूक्ष्म शरीर के क्षेत्र में हमारा चिन्तन उस ढर्रे में ढला हुआ होता है, जिसकी प्रतिक्रिया ही हमें अर्धविक्षिप्त स्तर का बनाये रहती है। कितने प्रकार की सनकें, कितने वहम, कितने भ्रम मस्तिष्क में लदे होते हैं। यदि ठीक तरह समझा जाय तो प्रतीत होगा कि विवेकवान व्यक्ति की तुलना में ‘चालू आदमी’ निस्सन्देह अधपगला होता है। लोक-प्रवाह का संशोधन करने अवतारी आत्माएँ उतरती हैं उनके चले जाने के बाद फिर विकृतियाँ भरने लगती हैं और सामाजिक प्रचलनों में गन्दे नाले जैसी गन्दगी भरती चली जाती है। जन मान्यताएँ-लोगों के प्रचलित ढर्रे ही अपने को सुहावने लगते है। कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ, अन्धविश्वासों, के सहारे न जाने कितनी उपहासास्पद भ्रांतियाँ मस्तिष्क में जड़ जमाकर बैठ जाती हैं। लोगों में प्रचलित भ्रष्टाचार अपने को भी ललचा लेता है। विकृत चिन्तन के कारण मनुष्य न सोचने योग्य सोचता है और बल बुद्धि की योजनाएँ बनाकर उनमें बहुमूल्य विचारशक्ति को नष्ट करता रहता है। चिन्ता, निराशा, खीज़, आवेश, उत्तेजना, निष्ठुरता, घबराहट, कायरता, कृपणता, ईर्ष्या, द्वेष, आत्महीनता, उद्दंडता जैसे अनेकों मानसिक रोग मस्तिष्क को घेरे रहते हैं और सौ रोगों से ग्रसित शरीर की जो दुर्गति होती है वैसा ही ये मनोविकार, विचार संस्थान को, सूक्ष्म शरीर को बनाये रहते हैं। यह मनोगत कुसंस्कारों की, चिन्तन विकृतियों की पराधीनता हैं जिसके कारण हर दृष्टि से ‘अद्भुत’ विचारणा सर्वनाश के गर्त में गिरती और नष्ट होती रहती है।
यदि कुसंस्कारों के बन्धनों से मस्तिष्क को छुटकारा मिल सके तो प्रस्तुत चिन्तन तन्त्र का सुव्यवस्थित सदुपयोग करके कोई भी व्यक्ति विद्वान, वैज्ञानिक, कलाकार, दूरदर्शी, मनीषी बन सकता है। विचारणा को सन्मार्गगामी बना सकने वाले व्यक्ति सामान्य साधनों के बल पर, सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए व्यक्तित्व को परिष्कृत ढाँचे में ढाल सकते हैं और महामानवों की श्रेणी में गिने जा सकने की स्थिति में सरलतापूर्वक जा पहुँचते हैं। ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन तत्व का विश्लेषण करने पर विशेषता एक ही दिखलाई पड़ती है कि उन्होंने अपने चिन्तन तंत्र को व्यवस्थित किया, अभ्यस्त विचार-पद्धति का नये सिरे से पर्यवेक्षण किया, अनौचित्य को साहस पूर्वक सुधारा और विवेक का आश्रय लेकर विचारणा को उच्चस्तरीय बनाया। लोक-प्रवाह के विपरीत आदर्शवादी मौलिकता अपनाई, फलस्वरूप उनका चिन्तनात्मक कायाकल्प हो गया। आरंभ में ऐसे लोगों का मखौल बनता और विरोध होता है, पर जब वे अपनी निष्ठा का परिचय देते हैं तब दुनिया उनके चरणों में झुक जाती है और सिर आँखों पर बिठाकर भावभरी श्रद्धांजलि समर्पित करती है।
परिष्कृत सूक्ष्म शरीर चिन्तन की उत्कृष्टता के कारण स्वयं हर घड़ी सदा सन्तुष्ट, उल्लसित एवं प्रफुल्लित बना रहता है। अवांछनीय मानसिक भार से छुटकारा पाने के कारण उसकी सूझ-बूझ, दूरदर्शी, तत्त्वदर्शी बन जाती है और उसका लाभ न केवल सम्पर्क क्षेत्र को वरन् समस्त संसार को मिलता है।
तीसरा कारण शरीर अर्थात् आस्थाओं की परिष्कृति से मनुष्य महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बन सकता है। यही वह ध्रुव केन्द्र है जहाँ आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक पतला सा सम्बन्ध सूत्र जुड़ा हुआ है उसे तनिक सा और परिष्कृत कर दिया जाय तो ब्रह्म चेतना का जीव चेतना से विशिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और ऐसे आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त कर सकता है, जिसके आधार पर नर में नारायण का अवतरण प्रत्यक्ष देखा जा सके। ऐसी स्थिति में पहुँची हुई आत्माओं की देव संज्ञा होती है। देवताओं की अलौकिक कथा पुराणों में भरी पड़ी है। उन्हें इन पुरुषों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान की पृष्ठभूमि को संक्षेप में इतना कुछ समझ लेने के उपरांत तत्त्वज्ञान के एक जिज्ञासु को इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य को मिली हुई तीन शरीरों के रूप में तीन विभूतियाँ प्राणि जगत की सबसे बड़ी ईश्वर प्रदत्त उपलब्धियाँ हैं। इन तीन क्षेत्रों में जो विकृतियाँ घुस पड़ी हैं उन्हीं ने जीव को निकृष्ट स्तर का दीन-दयनीय बनाकर रख दिया है। प्रकृति का-भौतिकता का-अनावश्यक और अवांछनीय भार लद पड़ने से पिता और पुत्र का वियोग उपस्थित हो गया है। इसी अशक्ति, अविद्या और अलक्ष्मी से जीव की दुर्गति हुई है। प्रकृतिगत आकर्षणों की ओर अस्वाभाविक और असाधारण रूप से दौड़ पड़ने से ही कुसंस्कारों की परतें जमी हैं और उनने पतनकारी दुर्दशा उत्पन्न की है। उस अवांछनीयता से जूझना ही वह साधना समर है, जिसमें प्रत्येक हनुमान और अर्जुन को-साधक को अपना पराक्रम दिखाना पड़ता है।
आत्मा को परमात्मा से मिला देने के लिए कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है और
ईश्वरीय प्रेरणा का अनुगमन करते हुए अपनी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति ऐसी बनानी पड़ती
है जो ब्राह्मी कही जा सके। दूध और पानी एक रस होने से घुल सकते हैं। लोहा और पानी
का घुल सकना कठिन है हम अपने भौतिकवादी स्तर से ऊँचे उठें और ईश्वरीय चेतना के
अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढालें तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य
पूरा हो सकता है। वियोग का अन्त योग में होना चाहिए-यही ईश्वर की इच्छा है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
162. मानव का जीवन दर्शन, अविज्ञात का द्वार-मनोविज्ञान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अविज्ञात शक्तियों की कितनी ही धाराएँ प्रकृति के गर्भ में अभी भी विद्यमान हैं। असीम सम्भावनाओं के समक्ष प्राप्त हुई भौतिक शक्तियों की सामर्थ्य अत्यन्त न्यून है। सामर्थ्यों के जो महत्त्वपूर्ण स्रोत हाथ लगे हैं वे कभी काल्पनिक तथा असम्भव जान पड़ते थे। बिजली, भाप, चुम्बक, परमाणु ऊर्जा जैसी शक्तियाँ भी करतलगत होंगी ऐसी कल्पना थोड़े से व्यक्तियों को रही होगी। पर आज सर्वत्र उनका ही वर्चस्व है। उन्हें प्राप्त कर लेना न केवल सम्भव हो गया है बल्कि विभिन्न कार्यों में उपयोग भी होने लगा है। प्रकृति की शक्ति धाराओं की जो जानकारी मिली तथा प्रयोग में आयी, उनकी तुलना में अविज्ञात का क्षेत्र कई गुना अधिक है। पदार्थ की नाभिकीय शक्ति से भी अधिक प्रचण्ड अदृश्य भौतिक शक्तियों का अस्तित्व प्रकृति में मौजूद है। अपने ही इर्द-गिर्द एक और प्रतिविश्व, प्रतिपदार्थ, प्रतिकण, प्रतिअणु की दुनिया है जो अत्यन्त रहस्यमय तथा विलक्षण है। उस अदृश्य दुनिया तथा जुड़े घटकों के विषय में वैज्ञानिक कितने ही प्रकार की अटकलें लगा रहे तथा सम्भावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। ब्लैकहोल, साइक्लोन, सूर्य, गुरुत्वाकर्षण आदि की प्रचण्ड शक्तियों का भी उपयोग होना अभी बाकी है। वह विधा हाथ नहीं आयी है जिससे उनकी शक्तियों को कैद किया जा सके तथा प्रयोग में लाया जा सके।
प्रकृति की भाँति मानवी काया भी अत्यन्त रहस्यमय है। शारीरिक जानकारियों का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा विज्ञान की पकड़ में आया है, पर वह परिपूर्ण नहीं हैं। मन तो और विलक्षण है। उसका सामान्य क्रिया कलाप इच्छा, आकाँक्षा एवं विचारणा के रूप में दिखायी पड़ता तथा स्थूल गतिविधियों का कारण बनता है। आधुनिक मनोविज्ञान की जानकारी अध्ययन, विश्लेषण तक सीमित है। चेतन, अचेतन मन की रचना तथा प्रकृति को समझने तक ही अभी मनोविज्ञान सीमित है। छुपा हुआ चमत्कारी सुपर चेतन भी विद्यमान है जो कि शक्ति एवं प्रेरणा का केन्द्र बिन्दु है। यह रहस्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में अभी उजागर होना बाकी है। जानकारियों का अभाव किसी भी शक्ति के उपयोग से वंचित रखता है जैसा कि प्रकृति की प्राप्त शक्तियों के सन्दर्भ में दीर्घ काल तक होता रहा है।
आधुनिक मनोविज्ञान को मानवी सत्ता को भली-भाँति समझने, सन्निहित सामर्थ्यों को करतलगत करने एवं प्रयोग में लाने के लिए एक छलांग लगानी होगी। मन के अध्ययन विश्लेषण के सीमित दायरे से निकलकर विस्तृत आत्म क्षेत्र में प्रविष्ट करना होगा। अन्यथा प्रचलित फ्रायडवादी मनोविज्ञान मनुष्य को मूल प्रवृत्तियों का गुलाम ठहराता रहेगा और उसके आत्म विकास की सम्भावनाओं को अवरुद्ध रखेगा।
मनोविज्ञान का उद्गम एवं विकास का मूल स्रोत वस्तुतः भारतीय अध्यात्म है। वह अध्यात्म शास्त्र का एक अभिन्न अंग है। उसकी उपयोगिता अध्यात्म से अलग कर देने पर सिद्ध भी नहीं होती। आत्म विज्ञान से कटकर मनोविज्ञान मन के अध्ययन-विश्लेषण तक कैसे सीमित हो गया, इसका एक क्रमिक इतिहास है। प्राचीन समय में पाश्चात्य साइकोलॉजी का क्षेत्र भी विस्तृत था। साइकोलॉजी शब्द लैटिन भाषा के ‘साइक’ तथा ‘लोगोस’ शब्द से मिलकर बना है। ‘साइक’ अर्थात् आत्मा तथा ‘लोगोस’ अर्थात् शास्त्र अथवा ज्ञान। साइकोलॉजी का शाब्दिक अर्थ हुआ-आत्मा का विज्ञान। पाश्चात्य मनोविज्ञान का अन्वेषक भी अरस्तू को माना जाता है। अरस्तू, सुकरात, प्लूटो तीनों ही मूर्धन्य दार्शनिकों ने आत्मतत्त्व पर गहन चिन्तन किया तथा इस संदर्भ में बहुत कुछ लिखा है। आत्मसत्ता एवं उसकी असाधारण महत्ता पर इन विद्वानों ने प्रकाश डाला है। यह इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने आत्मानुसन्धान को मनोविज्ञान का एक अभिन्न तथा महत्त्वपूर्ण अंग माना था।
दो शतक पूर्व तक भारत सांस्कृतिक दृष्टि से सुविकसित था अन्य पश्चिमी देशों में भी मनोविज्ञान, अध्यात्म विज्ञान का एक अविच्छिन्न अंग माना जाता था। पर जैसे-जैसे प्रत्यक्षवाद-भौतिकवाद मानवी चिन्तन में अपनी जड़े गहरी जमाता गया, उसी क्रम में मान्यताओं एवं प्रतिपादनों में उलटफेर होता गया। समय-समय पर मनोविज्ञान की परिभाषाएँ भी बदलती गयी। पर एक बात समान रूप से उन परिभाषाओं में दिखायी पड़ती है कि सबने मन का तत्त्व चेतना को माना है।
मनोविज्ञान को ‘टिंचनर’ ने ‘मन का विज्ञान’ के रूप में उल्लेख किया है तथा मन की विशेषताओं को तीन भागों-संवेदना, प्रतिभा तथा भावना के रूप में विभाजित किया है। अनेकों मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान को चेतना के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया है। वार्ड ने चेतना को अनुभव के अर्थ में प्रयुक्त किया। व्यवहारवादी मनःशास्त्रियों ने चेतना के स्थान पर अनुभव को ही प्रधानता दी। ‘वाटसन’ ने उसे आत्मा के स्थानापन्न के रूप में माना। इस तरह ‘चेतना’ शब्द आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में विवादास्पद बना हुआ है।
‘विलियम जेम्स’ ने मनःशास्त्र का चेतना की अवस्थाओं के रूप में वर्णन किया उनका विश्लेषण कर चार रूपों में प्रतिपादित किया। चेतना की अवस्था से उनका अभिप्राय संवेदनाओं, इच्छाओं, संवेगों और संकल्पों के अध्ययन से था। ‘पिल्सबरी’ ने मनोविज्ञान को मानव व्यवहार का विज्ञान बताया। व्यवहारवादी मनःशास्त्री ‘वाटसन’ ने मनोविज्ञान में सीखे अथवा बिना सीखे हुए कथनों अथवा कार्यों के रूप में मानव व्यवहार को सम्मिलित करते हुए उसे प्राकृतिक विज्ञान कहा है। उन्होंने मनःशास्त्र का प्राकृतिक विज्ञान की प्रयोगात्मक शाखा और चेतना का ‘उत्तेजक प्रतिक्रिया’ सिद्धान्त के आधार पर प्रतिपादन किया।
नारमन एलमन ने मनोविज्ञान के अध्ययन में अनुभव एवं व्यवहार का समन्वय स्थापित किया। उनका कहना था कि ‘चेतन’ अनुभव के विज्ञान से तथा ‘ज्ञान’ व्यवहार से सम्बन्धित होता है। इस तरह अनुभव एवं व्यवहार आन्तरिक एवं बाह्य जीवन की अभिव्यक्तियाँ हैं। व्यवहारवाद के जन्म के पश्चात् मनोविज्ञान तथा शरीर विज्ञान में भेद स्थापित कर विलियम मैकडूगले ने मनोविज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा कि ‘वह एक ऐसा विज्ञान है जो सम्पूर्ण शरीर के व्यवहार का ज्ञान कराता है।’ ‘वुडवर्ड’ के अनुसार ‘मनोविज्ञान व्यक्ति की क्रियाओं का विज्ञान है।’ क्रियाओं से उनका अभिप्राय केवल शारीरिक क्रियाओं से ही नहीं, अपितु ज्ञानात्मक एवं भावात्मक क्रियाओं से भी था। सीखना, स्मरण करना एवं विचार करना आदि मानसिक क्रियाएँ इसमें समाहित हैं। मैकडूगल ने मनःशास्त्र को ज्ञान, भावना एवं क्रिया तीन भागों में विभक्त किया।
मनःशास्त्र को नयी दिशा देने तथा मन की चेतन-अचेतन परतों के विषय में विश्व को नयी जानकारियाँ देने में आधुनिक मनोवैज्ञानिकों में फ्रायड, जंग, एडलर आदि मूर्धन्य माने जाते हैं। पर इन विद्वानों का ज्ञान भी मन के दृश्य पक्षों तक ही सीमित है। दृश्य के पार भी अदृश्य क्षेत्र में संभावनाओं के रहस्यमय एवं सामर्थ्यवान स्रोत मानवी सत्ता में ही विद्यमान हैं, यह जानना अभी भी अवशेष है। कुछ मनःशास्त्रियों ने भारतीय प्राचीन योग मनोविज्ञान की समग्रता एवं गूढ़ता की ओर इंगित करते हुए कहा है कि मानवी सत्ता की विशद एवं सर्वांगपूर्ण व्याख्या करने में वह आज भी समर्थ है।
डॉ० कैनन अपनी पुस्तक ‘इन विजीबिल इनफ्लूएन्स’ में लिखते हैं कि ‘भारत हमको मनोविज्ञान एवं मन की क्रियाओं के सम्बन्ध में फ्रायड, एडलर तथा पश्चिमी विचारकों से कहीं अधिक ज्ञान दे सकता है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि शाश्वत ज्ञान अनुभूतियों पर अवलम्बित होता है। भारतीय मनीषियों ने शरीर ही नहीं मन एवं बुद्धि से भी परे जाकर आत्मा के क्षेत्र में गहन मंथन किया। ध्यान की गहन अनुभूतियों में उन्होंने अनुभव किया कि शरीर एवं मन से भी समर्थ सत्ता आत्मा के रूप में मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, जिसके पतन अथवा विकास पर मानवी प्रगति अवलम्बित है।’
सरजॉन वुडरफ अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘वर्ल्ड एज पावररियल्टी’ में लिखते हैं कि ‘वेदान्त मनोविज्ञान के विकास की चरम अभिव्यक्ति है। वेदान्त के सिद्धान्त ऊँचे से ऊँचे दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी श्रेष्ठ हैं।’
पॉल ब्रन्टन ने अपनी पुस्तक ‘विसडम ऑफ दी ओवर सेल्फ’ में लिखा है कि ‘भारत के पास उसके आध्यात्मिक ज्ञान की प्राचीन थाती है, जिसकी गहराई और विस्तार की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। वैज्ञानिक क्षेत्रों में आज जो नयी खोजें होती जा रही हैं वे प्राचीन भारतीय खोजों का ही समर्थन करती देखी जाती है। भारतीय ऋषियों-मनीषियों ने जो-जो खोजें की वे कुछ भी दिशा देने में समर्थ हैं।’
विद्वान जूलथिन जॉनसन ने ‘पथ ऑफ दी मास्टर्स’ में उल्लेख किया है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों का आधार मनुष्य की चेतना साधारण जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रकट हुआ बाह्य रूप है, जिससे मात्र मन के स्वरूप सामर्थ्य की सीमित जानकारी मिलती है। उससे मानवी व्यक्तित्व एवं उसकी सम्भावनाओं का सर्वांगीण परिचय नहीं मिलता। आधुनिक मनःशास्त्री यह बता सकने में असमर्थ हैं कि मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास अथवा पतन के वास्तविक कारण कौन-कौन से हैं? क्या मानवी चेतना ऋद्धि-सिद्धियों की अधिष्ठात्री भी हो सकती है? मनोविज्ञान इस पर कुछ भी प्रकाश नहीं डालता। जबकि समय-समय पर इसकी पुष्टि में प्रमाण अतीन्द्रिय सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्तियों के रूप में मिलते रहते हैं।
‘ऐसे व्यक्तियों की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वे उन समस्याओं को ही महत्त्व देते तथा उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनमें समाज, देश एवं मानव जाति का हित जुड़ा हो। उनका अहम् विराट् में विसर्जित हो जाता है। अपने स्व एवं उससे जुड़े स्वार्थों पर उनका कड़ा अंकुश रहता है। अपनी परिस्थितियों से वे सन्तुष्ट होते हैं। प्रसिद्ध विचारक कैप्टन शोटोवर कहा करते थे-‘इस संसार में हम रुचि तभी लेते हैं जब हमारी रुचि स्वयं से परितृप्त होकर बाहर निकलने लगे।’ अर्थात् स्वयं की इच्छाएँ अतृप्त हों तो बाह्य समस्याएँ निरर्थक जान पड़ती हैं। प्रकारान्तर से यह भी कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं को विगलित किये बिना समाज एवं संसार की सेवा सम्भव नहीं है।’
मैस्लो की अवधारणा है कि सभी परमार्थी, रचनात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। उनमें कलात्मक, वैचारिक तथा वैज्ञानिक स्तर की विशेषताएँ होती हैं। वे वस्तुओं को सदा नये अन्दाज में ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि उनके जीवन में एकरूपता की ऊब नहीं पायी जाती। एक ही वस्तु को सदा नये-नये रूप में देखते रहने से उसमें सदा नयापन का आभास होता है। जबकि सामान्य व्यक्तियों में दृष्टिकोण की यह विशेषता नहीं होती।
कोलिन विल्सन रचित ‘न्यू पाथवेज इन साइकोलॉजी’ में मैस्लो के चिन्तन का निष्कर्ष दिया गया है। ‘सामान्य लोगों की तुलना में महामानव अधिक प्रसन्नचित्त एवं प्रफुल्लित पाये जाते हैं। यह उनकी सन्तुलित एवं परिष्कृत दृष्टि का ही परिणाम होता है। उनमें यथार्थता को पहिचानने एवं ग्रहण करने की भी अद्भुत क्षमता पायी जाती है।’ असली नकली चीजों में विभेद करने की भी इन महामानवों में विलक्षण सामर्थ्य देखी गयी है। ऐसी समर्थ ग्राह्य क्षमता उसमें हर क्षेत्र में विद्यमान पायी गयी है। जिस भी क्षेत्र में उनकी परीक्षा ली गयी, वे अपनी अद्वितीय क्षमता का परिचय देते देखे गये। कला, संगीत, राजनीति तथा अन्यान्य सभी क्षेत्रों में भी वे अग्रणी होते हैं।
पदार्थ जगत शरीर एवं मन से भी परे जाकर अदृश्य के गर्भ में पक रही घटनाओं का उद्घोष करने वाले भविष्यविदों का परिचय भी देश विदेश में मिलता रहता है, जिसे देखकर वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही हतप्रभ होते हैं। उन्हें यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। असीम जानकारियों एवं सम्भावनाओं को उजागर करना अभी भी शेष है।
जीवन का अन्त भौतिक शरीर के साथ मानने वालों को गहरी ठेस उस समय लगती है, जब पुनर्जन्म के अकाट्य प्रमाण सामने आते हैं। वे नहीं जानते कि किस आधार पर कोई व्यक्ति अपने पूर्वजन्म का लेखा-जोखा सप्रमाण प्रस्तुत कर देता है। आधुनिक मनःशास्त्र इसकी व्याख्या करने में पूर्णतया असमर्थ है। स्थूल-सूक्ष्म के अतिरिक्त मनुष्य के भीतर कारण शरीर भी विद्यमान है जिसमें जन्म जन्मान्तरों के संस्कार एवं अनुभव संचित होते हैं जो किसी दिशा विशेष में चलने एवं विशिष्ट कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। फ्रायडवादी मनोविज्ञान व्यक्तित्व की इन गहरी परतों की कोई जानकारी नहीं देता। फलतः मनोविज्ञान का वर्तमान ज्ञान अगणित मानवी समस्याओं का सुनिश्चित हल नहीं प्रस्तुत कर पाता।
अगणित सामर्थ्यों का स्रोत मानवी सत्ता में मौजूद है। उन्हें जानने समझने तथा
शक्तियों को करतलगत करने के लिए प्रचलित मनोविज्ञान से आगे बढ़कर योग मनोविज्ञान
के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा। जो न केवल मनुष्य की मूल सत्ता की सर्वांग जानकारी
देता है वरन् उसके विकास का मार्ग भी प्रशस्त करता है। मन की अल्प जानकारियों तक
सीमित रहने वाले आधुनिक मनोविज्ञान का, जीवन की अनेकानेक समस्याओं का सही हल प्रस्तुत
करने वाले व्यक्तित्व-विकास का व्यावहारिक मार्गदर्शन करने वाले अध्यात्म मनोविज्ञान
का पक्षधर बनना युग की एक महान आवश्यकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
163. धर्म दर्शन के क्षेत्र में भी अब क्रान्ति लानी होगी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पूर्वकाल में इतने साधन उपकरण उपलब्ध न थे, जितने अब है। इसलिए उन दिनों स्वल्प उपलब्धियों पर ही सन्तोष करना पड़ता था और जिज्ञासाओं की प्रचण्ड क्षुधा को जो कुछ हाथ लगे, उसी से तृप्त करना होता था। प्रगति की लम्बी यात्रा में मील के पत्थर तो बदले ही जाने थे, सो बदले भी है।
विज्ञान ने तथ्य और सत्य की कसौटी पर जहाँ भौतिकी पर वस्तुओं गुण-धर्म को परखा है, वहाँ ईश्वर और धर्म को भी अछूता नहीं छोड़ा है। उन्हें भी तरह-तरह की बुद्धिवादी कसौटियों पर कसा गया है। इस सन्दर्भ में श्रद्धा क्षेत्र भी लड़खड़ाया है। धर्म के क्षेत्र में पिछले दो सौ वर्षों में एक प्रकार से क्रान्तिकारी भाष्य और सुधार हुए हैं। सुधारवादी तूफान आये हैं। उनने सनातन मान्यताओं की या तो नये ढंग से व्याख्या की है, या फिर नया स्वरूप दिया है। हम देखते हैं कि धर्म क्षेत्र में पूर्वाग्रहों से भिन्न मान्यताएँ प्रस्तुत करने वाले सम्प्रदायों और सुधारकों की इन्हीं दिनों बाढ़ आई है।
यह नहीं कहा जा सकता कि यह सभी सुधारक सही थे। पर यह स्पष्ट है कि पूर्व मान्यताओं के प्रति उनके मन में भारी विद्रोह था। उन्हें उनमें सड़न की गन्ध आ रही थी और ऐसा कुछ ढ़ूँढ़ने, बताने की आकुलता थी, जो अधिक सत्य हो। वस्तुतः उसके लिए अधिक गहरी खोज की जरूरत थी और नये प्रतिपादनों में ऐसे तथ्य जोड़ने की आवश्यकता थी, जो अधिक टिकाऊ होते। पर लगता है सुधारक अत्यन्त आवेश में थे और इस हाथ सुधार, उस हाथ प्रतिपादन के समय साध्य और श्रमसाध्य को तुर्त-फुर्त कर डालना चाहते थे। इस आकुल-व्याकुल मनःस्थिति में पिछली दो शताब्दियों में संसार भर में सुधारवाद और सम्प्रदायवाद की बाढ़ आई है और उस अन्धड़ ने प्रत्येक धर्म को झकझोरा है।
अधिक स्पष्ट तथ्य भले ही हाथ न लगे हो, पर निस्सन्देह पिछले दिनों दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी हवाएँ चली है और उनसे जन मानस को यह आधार मिला है कि जो कुछ पिछले दिनों कहा या माना जाता रहा है, वह सब कुछ यथार्थ ही नहीं था, उसमें सुधार और परिवर्तन की बहुत गुंजायश है। इन दिनों हम इसी मनःस्थिति में चल रहे हैं और जिस प्रकार वैज्ञानिक क्षेत्र में पूर्वाग्रहों के साथ संगति बैठने न बैठने का विचार किये बिना भौतिक तथ्यों का खुले मस्तिष्क से ऊहापोह किया जा रहा है, उसी प्रकार धर्म के सम्बन्ध में यह आवश्यक समझा जा रहा है कि जो उचित हो, उपयोगी हो उसे ही स्वीकार किया जाय। अनुपयुक्त अथवा अनगढ़ मान्यताएँ वापिस ले ली जायें। भले ही वे कितनी ही पुरातन क्यों न हों।
अनगढ़ के प्रति अनास्था व्यक्त करने का कार्य बहुत हो चुका, एक दृष्टि से आवश्यकता से अधिक भी। अनास्था सरल है। अस्वीकृति में मन के विद्रोही घटकों को भड़का देना भर काफी है। नदी में बाढ़ आते ही तटवर्ती मर्यादाओं की क्रम व्यवस्था देखते-देखते अस्त-व्यस्त हो जाती है, यह सब बिना प्रयत्न के सहज ही हो जाता है। अनास्था सहज ही उत्पन्न की जा सकती है। इन दिनों अनास्थावाद आवश्यकता से अधिक पनपा है। सुधारवाद में पुराने के स्थान पर नया रखने की पुनर्निर्माण प्रवृत्ति होती है, पर अनास्था तो सब कुछ विस्मार कर देना चाहती है। अधार्मिक होने के पक्ष में यह दलील काफी है कि हम भ्रान्त धारणाओं में क्यों उलझें? पर साथ ही यह भुला दिया जाता है कि धारणा रहित मनःस्थिति भ्रान्तियों में उलझने से भी अधिक बुरी है। मर्यादाहीन, आस्था रहित मन तो ऐसा उद्धत हो सकता है कि मनुष्य जाति की नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं को भी तोड़-फोड़ कर रख दे और उस विस्फोट की अव्यवस्था सँभलते भी न बने। धर्म के सम्बन्ध में सुधारवादी, सत्यशोधी दृष्टिकोण ही सराहनीय है। अनास्थावादी अत्युत्साह प्रगतिशीलता का चिन्ह भले ही प्रतीत हो, पर अन्ततः वह भयावह सिद्ध होगा।
अभी यह निर्धारित करना शेष है कि तर्क और तथ्य पर आधारित मानवी धर्म का स्वरूप क्या हो? यो मोटे तौर से विश्व का उच्च स्तरीय चिन्तन एक ही दिशा में चल रहा है कि धर्म का स्वरूप सार्वभौम होना चाहिए। उसे देश और जातिगत परम्पराओं अथवा मान्यताओं के आधार पर वर्गीकृत नहीं करना चाहिए। धर्म शास्त्रों और आप्त पुरुषों से शाश्वत धर्म की स्थापना में सहायता तो ली जा सकती है, पर उनमें से किसी एक को पूर्ण प्रामाणिकता नहीं मिल सकती। पिछले दिनों यह तो उत्साह रहा है कि समस्त विश्व का एक धर्म हो, पर उसके साथ यह आग्रह जुड़ रहा है कि हमारे ही धर्म को मान्यता मिले। समस्त विश्व को अपने ही धर्म के अन्तर्गत लाने के लिए मध्य काल में कत्लेआम हुए है और धरती को बेतरह श्रोणित स्नान कराया गया है। अब वह कार्य प्रचार और प्रलोभन के आधार पर चल रहा है। हमारा धर्म ही विश्व धर्म बने, इस आग्रह के पीछे दूसरे धर्म वालों की अवमानना का भाव जुड़ जाता है और वह बात धर्म का स्वरूप निर्धारण करने की न रहकर प्रतिष्ठा के प्रश्न की चट्टान से जाकर अड़ जाती है।
पुरातन धर्मों का विश्लेषण करने पर कोई भी तो पूर्ण खरा नहीं उतरता और उसकी मान्यताओं को यह बुद्धिवादी युग शत-प्रतिशत गले उतारने के लिए तैयार नहीं हो सकता। क्योंकि अनुपयुक्तता के दोष से कोई भी अछूता नहीं है। पौराणिक दन्त कथाओं ने और अपने वर्ग के प्रति पक्षपात की स्थापना ने किसी भी धर्म को सर्वथा विवेक संगत कहला सकने की स्थिति में नहीं रहने दिया है। न्यूनाधिक मात्रा में सभी इस दोष से ग्रसित हैं। ऐसी दशा में इतना ही हो सकता है कि सार्वभौम और सर्वमान्य धर्म की प्रतिष्ठापना में भले ही भूतकालीन देवदूतों अथवा शास्त्रों के उपयोगी कथनों की प्रशंसा की जाय, पर उसका आधार इतना मजबूत होना चाहिये, जो तर्क और तथ्यों की परख पर कहीं से भी डगमगाने न पावे। व्यक्ति और समाज की महानता को निरन्तर अग्रगामी बनाये रखने वाले तथ्यों से भरा-पूरा उसका स्वरूप हो। पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर ही मौलिक चिन्तन के आधार से ऐसे सार्वभौम धर्म की स्थापना की जा सकती है। आज नहीं तो कल यही करना पड़ेगा, अन्यथा पुरातन के प्रति विद्रोही अनास्था अपनी तोड़-फोड़ में उन मर्यादाओं को भी तोड़-फोड़ कर रख देगी, जो व्यक्ति और समाज की शान्ति और सुव्यवस्था के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
गैलीलियो प्रभृति तथ्य शोधी दृष्टाओं ने चिनगारी भले ही भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जलाई हो, पर वह दावानल अब किसी एक कोने तक सीमित नहीं रह गया है। दर्शन, अध्यात्म और धर्म भी इन लपेटों से अछूते नहीं बचे हैं। धर्म के स्वरूप में सुधार की आवश्यकता समझी जा रही है और साथ ही ईश्वर को भी लपेट में लिया जा रहा है। अब जादुई ईश्वर गये बीते जमाने का हो गया। ईश्वर का वर्णन ऐसे चमत्कारी और शक्तिशाली रूप में होता रहा है, जिसे सुनकर बुद्धि हतप्रभ होकर रह जाय। वह कभी किसी का भी, कही भी, कुछ भी करके रख सकता है। इस आतंकवादी प्रतिपादन को सुनकर मनुष्य उसी की शरण में जाने की बात सोचता था। उससे लड़ने में खैर नहीं, इसलिए भक्ति करना ही लाभदायक है। इस भक्ति का स्वरूप क्या हो? इसके लिए ईश्वर के जीवित या मृतक प्रतिनिधियों के वचन अथवा लेखन ही प्रमाण होते थे। इस दृष्टि से भूतकालीन ईश्वरों की आकृति, प्रकृति, रुचि, इच्छा, आज्ञा के परस्पर विरोधी इतने स्वरूप बन गये, मानों वे एक दूसरे को मार काट करने या नीचा दिखाने के लिए ही पैदा हुए हैं। इन ईश्वरीय आज्ञाओं में ऐसे तथ्य भी भरे पड़े हैं, जो विवेकवादी नैतिकता और सामाजिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अमुक विधि विधान से पूजा पाठ कर लेना अथवा सम्प्रदायगत मान्यताओं को अपना लेना पर्याप्त समझा जाता था। इसके बदले ईश्वर असीम इन्द्रियाँ सुखों से भरपूर स्वर्ग प्रदान करता था और पाप कर्मों का दण्ड मिलने से बचा देता था। यह प्रलोभन उस सरल सी भक्ति क्रिया का निर्वाह करने के लिए कुछ महँगा नहीं था। फलस्वरूप बहुत लोग ईश्वरवादी, ईश्वर भक्त होने का दावा करते थे। साथ ही एक प्रकार के ईश्वर का भक्त दूसरी जाति के ईश्वर भक्तों से घृणा और शत्रुता भी कम नहीं करता था। अपराधी तत्वों ने अहंकार और लोभवश जितना अनाचार फैलाया है, ईश्वर के नाम पर ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईश्वर भक्तों ने परस्पर एक दूसरे का रक्त पान उससे कम नहीं किया है। पुरोहित वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि अथवा विशेष कृपा पात्र सिद्ध करके जिस प्रकार भोली भावुकता का शोषण किया है, वह तो और भी अधिक हृदय विदारक एवं घृणास्पद है।
ईश्वर के नाम पर चल रही अँधेरगर्दी के विरुद्ध विद्रोह भले ही विस्फोटक रूप धारण न कर सका हो, पर वह सुलगता भूतकाल में भी रहा है और उस विक्षोभ ने विविध रूप में अपना परिचय दिया है। बौद्ध धर्म और जैन धर्म को अनीश्वरवादी कहा जाता है। उनने सत्कर्म एवं सद्भाव को आत्मिक प्रगति के लिए, सद्गति के लिए पर्याप्त माना, इसके अतिरिक्त ईश्वर के किन्हीं आकार-प्रकारों को मानने को आवश्यक बताया है। वेदान्त दर्शन को आधा नास्तिकवाद कहा जाता है। आत्मा की उच्चतम स्थिति का नाम ही परमात्मा को सिद्ध करके किसी विशिष्ट कर्मी देव दानव के रूप में चल रही भूतकालीन मान्यताओं की उसने भी उपेक्षा कर दी है। यों चार्वाक मत सरीखा उग्र और अनैतिक नास्तिकवाद भी जब तब फूटा है। इन तथ्यों के प्रकाश में एक झाँकी इस बात की मिलती है कि मध्यकाल में भी ईश्वर के नाम पर चल रही अँधेरगर्दी के प्रति किस कदर संक्षोभ उभरता रहा है।
इन दिनों चेतन को जड़ की ही स्फुरणा के रूप में विज्ञान ने प्रतिपादित किया है और आत्मा-परमात्मा की अतिरिक्त सत्ता मानने से इन्कार कर दिया है, उससे दार्शनिक नास्तिकता पनपी है। दूसरी ओर ईश्वरवादियों द्वारा अपनाई जाने वाली रीति-नीति को मानव समाज के लिए अहितकर सिद्ध करके समाज वादियों ने नास्तिकवाद का झण्डा फहराया है। वैज्ञानिक और सामाजिक कसौटी पर ईश्वर को खोटा सिद्ध करने के लिए इन दिनों जो बुद्धिवादी प्रयास हुए है, उनने धर्म धारणा की ही भाँति ईश्वरीय मान्यता की भी नींव कमजोर की है।
अत्युत्साह के आँधी-तूफानों को चीरते हुए पैनी आँखों से हम देख सकते है कि धर्म की ही तरह ईश्वरीय आस्था की भी मानव जीवन को उच्च स्तरीय बनाये रहने के लिए नितान्त आवश्यकता है। वस्तुतः ये दोनों एक ही प्रयोजन के दो पक्ष हैं। आदर्शवादी व्यवहार को धर्म कहते हैं और उत्कृष्ट परिष्कृत चिन्तन को अध्यात्म। यह दोनों ही ईश्वरवाद का जड़ से पोषण करते हैं। यदि सत्समर्थक और असत् विरोधी दिव्य सत्ता के अस्तित्व से इन्कार कर दिया जाय और मात्र भौतिक सामाजिक आधार पर उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समर्थन किया जाय तो बात बनेगी ही नहीं। स्पष्टतः धार्मिकता और आस्तिकता की मान्यताएँ त्याग, संयम, सेवा, उदारता का दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है। जिनमें तात्कालिक एवं भौतिक दृष्टि से घाटा ही पड़ता है, नफा नहीं होता। फिर इसे कोई क्यों अपनायेगा? आत्मा का उल्लास, ईश्वरीय अनुग्रह जैसे लाभ ही उत्कृष्ट जीवन के मूलभूत प्रेरणा स्रोत हैं। भौतिक जगत में राजसत्ता की आवश्यकता है और आत्मिक जगत में ईश्वरीय सत्ता की। इसके बिना जो अराजकता उत्पन्न होगी, उससे समस्त व्यवस्था ही लड़खड़ा जायेगी।
धार्मिक सुधारों की ही तरह ईश्वर सम्बन्धी मान्यताओं में भी बुद्धिवादी दार्शनिकता ने काफी हेर-फेर किया है। सुधरा हुआ ईश्वर उद्धत या उच्छृंखल नहीं है, वह अपने बनाये नियमों में स्वयं बँधा है और मर्यादाओं के अनुरूप स्वयं चलता है और उसी राह पर चलने के लिए अपने भक्त अनुयायियों को प्रेरणा देता है।
अध्यात्म का विकास अब किन्हीं जादुई क्षमताओं की उपलब्धि की दशा में पीछे लौट रहा है। ऋद्धि-सिद्धि का कौतुक-कौतूहल प्रस्तुत करने वाली भौतिक क्षमताएँ प्राप्त करने के लिए विचारशील अध्यात्मवादी अब इच्छुक नहीं रहे। क्योंकि यह सब तो बाजीगरी कला के अथवा वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से और भी अधिक मात्रा में और भी अधिक सरलता से मिल सकता है। अध्यात्म की नई परिभाषा है-समष्टि को समुन्नत बनाने के लिए व्यष्टि का अधिकाधिक त्याग करने का उत्साह। उपनिषदों का यह प्रतिपादन अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है। जिसमें कहा गया है पवित्रता ही उल्लास की और सेवा ही आनन्द की जननी है। तत्त्वदर्शन ने पग-पग पर यह कहा है कि जो स्वार्थ में उसे खोजेगा, वह खोता चला जायेगा और जिसने अपने को खोया है वह अनन्त वैभव का अधिकारी बनता है। सेवा और संयम के दोनों पहिये जिस अध्यात्म की धुरी से जुड़े हुए हैं, भविष्य में उसी को दूरगामी दार्शनिकता द्वारा मान्यता प्राप्त होगी।
आने वाला समय बताएगा कि आप्त वचनों में वर्णित अध्यात्म दर्शन सम्बन्धी प्रतिपादन सत्य की कसौटी पर कितने खरे थे? विवेक या तर्क अगले दिनों श्रद्धा का पूरक बनेगा। विज्ञान स्वयं यह पाएगा कि उसकी मान्यताएँ भावना विहीन तर्क शास्त्र पर टिकी होने के कारण कितनी खोखली थीं। उसके लिये जितनी आवश्यकता विज्ञान के नवीनतम प्रतिपादनों को अध्यात्म अनुशासनों पर लागू करने की है, उससे भी अधिक धर्म दर्शन में अध्यात्म की समग्र परिधि में छाए कुहासे रूपी भ्रम जंजाल को छाँटने की भी। यह शोधन भी उतना ही अनिवार्य है जितना औषधि चिकित्सा के पूर्व स्नेहन, स्वेदन, नस्य, वमन, विरेचन रूपी पंचकर्मों की अनिवार्यता मानी जाती है। भावी अध्यात्म विज्ञान रूपी भट्टी में गल कर ही निखरेगा, ग्राह्य बनेगा।
धर्म, ईश्वर और अध्यात्म का भूतकालीन स्वरूप जो भी रहा है, उसे विकासवादी और बुद्धिवादी
युग में नये स्वरूप में ढाला जायेगा। परम्परागत मान्यताओं को जकड़े पकड़े रहने से
तो अधार्मिकता और अनास्था ही पनपेगी। विज्ञान ने तथ्य और तर्क की मान्यता प्रदान
की है। दर्शन को भी इस बदलाव का स्वागत करना होगा। खीज़ व्यक्त करते रहने पर तो
हम अपने पक्ष की दुर्बलता ही सिद्ध करेंगे।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
164. कुकल्पनाओं का विचित्र संसार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आमतौर से ऐसा समझा जाता है कि इच्छित परिस्थितियाँ प्राप्त होने पर मनुष्य सुखी होता है। पर वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है। परिष्कृत दृष्टि से सोचने का तरीका इतना सरल और सुंदर होता है कि सामान्य वस्तुएँ भी सुन्दर लगती हैं। अँधेरे में जो वस्तुएँ अदृश्य-रहती हैं अथवा काली लगती हैं वे ही प्रकाश की किरणें पड़ने पर अपना पूरा स्वरूप दिखाती हैं और चमकने लगती हैं। यहीं बात परिष्कृत मनःस्थिति के सम्बन्ध में है। सोचने की प्रकाशवान प्रक्रिया को ऐसा दिव्य आलोक कहा समझा जा सकता है, जिसके प्रकाश में सारा समीपवर्ती क्षेत्र अन्धकार की कालिमा में से निकल कर मनोरम आभा लिये हुए दिखाई देने लगे।
जर्मन पत्रिका ‘मेडिजिनिशे क्लीनिक’ में छपे एक विस्तृत लेख में कई शरीर विज्ञानियों के अनुभवों का सारांश छपा है जिसमें बताया गया है-दर्द में जितना अंश शारीरिक कारणों का होता है उसमें कहीं अधिक मानसिक तथ्य जुड़े होते हैं। ऐसे प्रयोग किये जा चुके हैं जिनमें मात्र पानी की सुई लगाकर रोगी को यह बताया गया की यह गहरी नींद की दवा है, उसी से दर्द पीड़ितों का दर्द बन्द हो गया और वे सो गये। इसके विपरीत मार्फिया के इंजेक्शन देकर यह कहा गया कि, यह हलकी दवा है शायद इससे थोडा़ बहुत दर्द हल्का पड़े और संभव है कुछ नींद आये। यह सन्देह उत्पन्न कर देने पर रोगी दर्द की शिकायत कर सके और अधूरी निद्रा में झपकी लेते रहे। इस प्रयोग के बाद उन्हीं इंजेक्शनों को जब विपरीत व्याख्या करते हुए भिन्न दवा बनाकर रोगियों को दिया गया तो उसकी पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रतिक्रिया हुई। पहले दिन मार्फिया का इंजेक्शन जब मामूली दवा बताकर लगाया गया तो उसने दर्द कम नहीं किया और पानी को बड़ी शक्ति का बताकर निश्चित रूप से नींद आने का आश्वासन देकर लगाया गया तो रोगियों को गहरी नींद आई। इन प्रयोगों से डॉक्टर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दवाएँ जितना परिणाम प्रस्तुत करती हैं उससे अधिक प्रभाव मान्यताओं का होता है।
एक ही स्तर के दर्द को भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के लोग अलग-अलग तरह अनुभव करते हैं। डरपोक रोगी मामूली से ही दर्द में बेतरह चीखते चिल्लाते हैं। मध्यम मनःस्थिति वाले मात्र हलके-हलके कराहते रहते हैं। साहसी लोग उसी कष्ट को बहुत हल्का मानते हैं। युद्ध मोर्चे के घायल अपनी बहादुरी की मान्यता के आवेश में कम कष्ट अनुभव करते हैं और कम चीखते चिल्लाते हैं जबकि उतने ही कष्ट में सामान्य लोग तीन गुना अधिक दर्द अनुभव करते हैं।
भावनात्मक स्थिति भी कई बार दर्द में परिणत हो जाती है। सिर दर्द, पेट का दर्द, जोड़ों का दर्द, छाती का दर्द, कमर का दर्द बहुत करके मनोवैज्ञानिक कारणों से होते हैं। इनके मूल में कोई चिंता, आशंका, भय की भावी कल्पना अथवा भूतकाल की कोई दुःखद स्मृति काम करती रहती है। मन की वह विभिन्न अवस्था शरीर के किन्हीं अंगों पर आच्छादित होकर उन्हें पीड़ा अनुभव कराती है, जबकि शारीरिक दृष्टि से उन अवयवों में उस तरह के कष्ट का कोई कारण नहीं होता।
कई बार ऐसी स्थिति भी देखी गई की डॉक्टर अपने समस्त निदान परीक्षण करने के उपरान्त भी रोगी में कोई अस्वस्थता का कारण नहीं दीखता और रोग का कारण जानने से अपनी असमर्थता प्रकट करता है। किन्तु रोगी बराबर कष्ट से पीड़ित रहता है। दिन-दिन दुबला होता जाता है और साधारण काम काज कर सकने में भी समर्थ नहीं रहता, उसका पीड़ाजन्य कष्ट स्पष्ट दीखता है। ढोंग बनाने का कोई कारण नहीं होता, क्योंकि दूसरों पर नहीं उस रुग्णता का पूरा भार अपने ही कंधों पर आता है।
इस विचित्र स्थिति में मनोवैज्ञानिक कारण ही काम कर रहे होते हैं। कोई पुरानी आघात करने वाली अनुभूति मस्तिष्क के किसी भाग पर आक्रमण करती है और उसे अकचका देती है। चूँकि मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका अपने सूत्र तन्तुओं के सहारे अन्य अनेक कोशिकाओं के साथ जुड़ी होती है और उनसे कई तरह के आदान-प्रदान करती रहती है। इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लगे हुए आघात अपने संबद्ध केन्द्र को प्रभावित करने तक सीमित न रहकर जब शरीर के किसी अन्य अवयव से संबद्ध केन्द्र से जा टकराते हैं तो वह अंग ही रुग्णता अनुभव करने लगता है। वह अंग शारीरिक दृष्टि से निरोग होता है, पर मस्तिष्क विद्युत प्रवाह उस स्थान पर ठीक तरह नहीं पहुँच पाता, क्योंकि संप्रेषण वाले मस्तिष्कीय कोष रुग्णावस्था में पड़े हैं। प्रेषण की गड़बड़ी उस अंग को पूरी खुराक और सही निर्देश नहीं दे पाती। इस विचित्र स्थिति की अनुभूति मस्तिष्क के अन्य तन्तुओं को अमुक रोग जैसी होती है। रोगी वस्तुतः उन्हीं कष्टों से पीड़ित होता है जैसा कि वह बताता है। पर डॉक्टर क्या करे, उसकी परीक्षा पद्धति तो अंगों के रक्त माँस आदि से सम्बन्धित स्थिति के आधार पर बनी है। मानसिक भूल भुलैयों की उसे जानकारी नहीं होती। अस्तु ऐसे रोगियों को किसी मानसोपचार के पास जाने की सलाह देकर वह अपना पीछा छुड़ा लेता है। अनिश्चित स्थिति में वह उपचार करे भी तो क्या करे।
मानसिक आघात लगना किस कारण से होता है इसका भी एक जैसा विवेचन नहीं होता। कई व्यक्ति आये दिन अपमान सहते हैं और उसके अभ्यस्त हो जाते हैं उन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, पर कोई ऐसे भी होते हैं जो उतनी सी बात को अत्यधिक महत्त्व देकर तड़प उठते हैं। द्रौपदी ने दुर्योधन से एक निर्दोष मजाक करते हुए ही यह कहा था कि अन्धों के अन्धे होते हैं। उल्टी व्याख्या करके उसे अक्षम्य अपराध मान लिया गया और प्रतिशोध की चरम सीमा का दण्ड उसे दिया गया। अपनी दृष्टि में दुर्योधन भी सही हो सकते हैं। उनके मस्तिष्क ने उन शब्दों को तिलमिला देने वाला अपमान समझा हो और उस आघात को गहराई के समतुल्य प्रतिशोध ढूँढ़कर अपने आघात को हलका करने का उपाय निकाला हो। ऐसे ही हर व्यक्ति की अपनी-अपनी व्याख्या और अनुभूति होती है। कौन किस घटना को किस दृष्टि से देखेगा और उसकी प्रतिक्रिया ग्रहण करेगा इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हो सकता। सामाजिक और शासकीय मापदण्ड निर्धारित है कि इस सीमा का असामाजिक आचरण करने पर उसे दण्डनीय माना जायेगा, पर उसमें भी अपराधी की नीयत, परिस्थिति, प्रतिक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। सम्भव है अपराध गलती, गफलत या भ्रान्त स्थिति में बन पड़ा हो, ऐसी दशा में दण्ड हलका दिया जाता है। मन के लिए आचार संहिता निर्धारित नहीं कि वह किस घटना को किस रूप में ग्रहण करे। यदि कोई घटना अप्रिय या अवांछनीय स्तर की सामने आई है तो उसका आघात किस पर कितना पड़ेगा यह उसकी भावुकता एवं विचार शक्ति के समन्वय पर निर्भर है।
कितने ही व्यक्तियों के सामने हत्या, मारकाट, उत्पीड़न के दृश्य आते ही रहते हैं उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु किसी अनभ्यस्त और भावुक व्यक्ति पर उन्हीं घटनाओं का इतना प्रभाव पड़ सकता है कि वह किसी भयंकर अवसाद में डूब जाय अथवा विक्षिप्त हो उठे। अपमान, असफलता, हानि, विछोह, जैसी अप्रिय घटना यों मनुष्य जीवन का एक पक्ष है और वह भी घटित होता ही रहता है। सम्मान, सफलता, लाभ, मिलन जैसे प्रसन्नतादायक प्रसंग आते हैं तो उससे भिन्न प्रकार की घटनाएँ क्यों घटित न होंगी। रात और दिन के विपरीत प्रसंगों की संरचना प्रिय और अप्रिय घटनाओं के लाने वाले से हुई है। सदा एक जैसी स्थिति में विशेषतया प्रिय स्थिति में सदा सर्वदा के लिए बने रहना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। उतार-चढ़ावों का आना स्वाभाविक है। धनवान, विद्वान, बलवान, व्यक्ति को भी प्रियजनों का विछोह बड़ी-चढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं में असफलता, शारीरिक रुग्णता, मित्रों का छल-कपट दुःख का कारण बन सकता है। सबसे बडी़ बात है अपने रचे हुए कल्पना लोक में अवांछनीय चिन्तन का चल पड़ना। आशंकाएँ प्रायः इसी स्तर की होती हैं। दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार, परिस्थितियों का प्रवाह निकट भविष्य में हमारे प्रतिकूल चलेगा और उससे भयंकर विपत्ति आवेगी, ऐसा चिन्तन कितने ही व्यक्ति करते और अत्यधिक उद्विग्न रहते हैं। जबकि वैसा व्यवहार एवं घटनाक्रम कदाचित ही सामने आता है। अधिकांश आशंकाएँ निर्मूल होती है। वे कल्पना लोक की काली-घटाएँ बरसती नहीं केवल गर्जन तर्जन करके चली जाती हैं। पर इससे क्या, जिसने आशंकाओं की भयभीत करने वाली कल्पनाओं का जाल बुना था उसके लिए तो वही असह्य पीड़ा देने के लिए बहुत बड़ा कारण बन गया।
मानसिक आघात विपरीत परिस्थितियों के वास्तविक एवं काल्पनिक घटनाक्रमों के सहारे लगते हैं। अब यह व्यक्ति की भावुकता या संवेदना शक्ति पर निर्भर है कि वह उन्हें ऐसे ही मजाक में टाल देता है, साहस समेट कर निपटने का फैसला करता है या भयभीत होकर असन्तुलित हो बैठता है। यदि व्यक्ति डरपोक प्रकृति का अति भावुक है तो उसके लिए छोटी घटना भी बहुत बडी़ हो सकती है और नन्ही सी अशुभ कल्पना से तिलमिला कर उद्विग्न हो सकता है। जो हो आघातों का पूरे मानसिक संस्थान पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया शरीर पर भी भयंकर होती है। ज्वर, सिर दर्द आदि की स्थिति में शरीर असहाय बन जाता है। उसे कुछ करते धरते नहीं बनता, बेचैनी सताती है। मानसिक असन्तुलन इससे भी बुरी स्थिति पैदा कर देता है। पूरे शरीर पर मन का नियन्त्रण है। रक्त माँस से नहीं मानसिक निर्देशों से ही देह अपनी गाडी़ चलाती है। मन के विकृत होने पर शरीर का स्वस्थ बने रहना असंभव है। चिकित्सा शास्त्र द्वारा निर्धारित निदान व्यवस्था का व्यतिक्रम करके मनुष्य ऐसे रोगों में ग्रसित हो सकता है जो शरीर शास्त्रियों की पकड़ से बाहर हैं।
मानसिक रोग उत्पन्न करने वाले आघात अमुक घटनाओं या परिस्थितियों के कारण लगेंगे ऐसा कुछ निश्चित नहीं। यह व्यक्ति के अपने निजी स्तर पर निर्भर है कि वह किस प्रकार की घटनाओं को किस दृष्टि से देखता है और उनकी क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। एक ही घटना की अनेक व्यक्तियों पर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं। घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है। समाज का पुनर्निर्माण हो, व्यक्तियों के स्वभाव व्यवहार बदलें, यह दोनों ही बातें संसार से मानसिक रोगों को दूर कर सकती हैं, पर वैसी स्थिति बनना आज की स्थिति में कठिन है। तत्काल तो यही हो सकता है कि मनुष्यों को सोचने का सही तरीका सिखाया जाय ताकि वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सके और अपनी चिन्तनात्मक दुर्बलता के कारण ऐसे मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सके, जो उनके जीवन क्रम को एक प्रकार से अस्त-व्यस्त और निरर्थक बना कर रख देते हैं।
भूत-प्रेत और देवी-देवता, जादू-टोना से होने वाली हानि असंख्यों को पीड़ित करती है। अवास्तविक की ऐसी प्रतिक्रिया जो वास्तविकता से किसी भी प्रकार कम नहीं होती, आश्चर्य जनक है। अवास्तविक भूत प्रेतों से आक्रान्त व्यक्ति वस्तुतः उतना ही कष्ट उठाता है जितना कि वास्तविक भूत होते तो अपने आक्रमण से हानि पहुँचाते। दूसरों से मारण, उच्चाटन, वशीकरण करके हमें सताया जा रहा है। यह मानकर कितने ही व्यक्ति वस्तुतः उद्विग्न, विक्षिप्त एवं मरणासन्न होते देखे गये हैं। कितनी ही जानें इस कुचक्र में चली जाती हैं। अघोरी, तांत्रिक, कापालिक, डायनें कितने ही लोगों के लिए आतंक का कारण बनते हैं, कितने ही राहु, शनिश्चर आदि की अशुभ ग्रह दशा की कल्पना से हर घड़ी चिंताग्रस्त रहते हैं, कइयों को स्वप्न की डरावनी घटना, अपशकुनों की सूचना बहुत कष्ट कारक होती है। यह आशंकाएँ प्रायः सर्वथा निर्मूल होती हैं, इनके पीछे तथ्य राई रत्ती भी नहीं होता, पर जिस पर उनका आतंक छा गया है, उनकी दयनीय मनोदशा देखकर तरस आता है। यह लोग एक संवेदन के शिकार होते हैं। किसी ओछे आधार के सहारे उनकी आशंका इस स्तर की विभीषिका बन जाती है कि मनुष्य को प्राण संकट जैसी भयभीत स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है। झाड़-फूँक, मंत्र-तंत्र से कई मनुष्यों को बहुत राहत मिलती है और संतोषजनक लाभ होता है। यह सब क्या है? निश्चित रूप से यह उस व्यक्ति की स्वसंवेदना ही है जो विधेयक बनकर सामने आई और उत्साह प्रदान करके सरल स्वाभाविक अच्छी स्थिति को जादू का परिणाम बताकर अपना वरदान दे गई है। पिछड़े हुए लोगों में अभी भी भूत-पलीतों और जादू-टोनों का पूरा जोर है। उससे वे वस्तुतः हानि उठाते और लाभान्वित होते हैं। यह चमत्कार अपनी कल्पना शक्ति एवं मान्यताओं का है जो अवास्तविक को भी प्रत्यक्ष वास्तविकता से भी बढ़कर तथ्यमय बना देती है।
किन्हीं अप्रिय एवं अवांछनीय घटनाओं से अथवा शारीरिक मानसिक विकृतियों से हल्की उद्विग्नता चढ़ आती है। इस स्थिति को खीज़ या परेशानी भी कहा जा सकता है। डॉक्टरों की भाषा में इसे ‘तनाव’ कहते हैं। नर्वस सिस्टम की कमजोरी वाले व्यक्ति इस स्थिति के जल्दी शिकार होते हैं। वे जो भी सामने आवे उसी पर अकारण झल्लाते हैं। चूँकि खीज़ भीतर भरी होती है और वह किसी न किसी को निमित्त बनाकर बाहर निकलना चाहती है। इसके लिए जो भी सामने आ जाए उसी पर कुछ न कुछ दोषारोपण करके उल्टी-सीधी कहने लग जाता है। न कहा जाय तो भी क्रोध या नाराजगी नहीं तो उपेक्षा अवज्ञा का व्यवहार तो बन ही पड़ता है। कई बार इस स्थिति में लोग खिन्नता, लाचारी एवं निराशा व्यक्त करते हुए दुखित बने, मुँह लटका कर बैठे भी देखे जाते है।
मानसिक रोग चिकित्सा की एक पद्धति है, विहेवियोरल थेरेपी, जिसमें रोगी के साथ सद्व्यवहार और सहानुभूति की समुचित मात्रा रखी जाती है और उसे स्नेह, दुलार एवं सहयोग का अनुभव करने दिया जाता है। इस उपचार से रोगी क्रमशः डिसेंसिटाइज होता चलता है साथ ही मनोव्यथाओं से राहत भी अनुभव करता है।
मानसिक रोगियों के साथ मारपीट, भर्त्सना तिरस्कार जैसे-निर्मम व्यवहार उसे और भी
अधिक दुखी करते हैं और रोग की स्थिति बिगड़ती जाती है। शारीरिक रोगियों की तरह मानसिक
रोगी भी दया के पात्र हैं उनके उपचार में स्नेह-सौजन्य और सुविधाओं का यदि समावेश
किया जा सके, विक्षोभों को शांत करने वाले वातावरण में उन्हें रखा जा सके, तो औषधि
उपचार की अपेक्षा उन्हें कहीं अधिक और जल्दी ही लाभ हो सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
165. परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह दुनिया जड़ पञ्चतत्त्वों की बनी हुई हैं। उसमें अपने गुण, धर्म तो हैं, पर कोई प्रतिक्रिया करने की क्षमता नहीं। यह अपना-अपना दृष्टिकोण ही है जिसके आधार पर हर व्यक्ति अपने संसार की, अपने भाग्य, भविष्य की संरचना स्वयं करता है। इस तथ्य को कोई बिरले ही समझते हैं कि परिस्थितियों पर नहीं, मनःस्थिति पर जीवन के उत्थान-पतन का, सुख-दुःख का पूरा ढाँचा खड़ा हुआ है। यदि यह मोटी बात समझ में आ सकी होती तो हर व्यक्ति ने अपने सुखी जीवन के लिए भौतिक उपलब्धियों में श्रम करने के अतिरिक्त उन आन्तरिक आधारों को भी सही किया होता, जिन पर प्रगति और अवगति की आधारशिला रखी होती है।
साधनों की अनुकूलता एवं प्रचुरता की आवश्यकता समझी जा सकती है, पर यह भुला नहीं देना चाहिए कि वे दुधारी तलवारें आत्मरक्षा ही नहीं आत्महत्या का साधन भी बन सकती हैं। साधारणतया सुविधा साधनों का उपार्जन पुरुषार्थी एवं सन्तुलित व्यक्ति पर अवलम्बित रहता है। सुयोग्य व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी कुशलता के सहारे प्रगति के साधन उत्पन्न अथवा एकत्रित कर लेते हैं। इसके विपरीत दुर्बुद्धिग्रस्त दुर्गुणी व्यक्ति उत्तराधिकार में अथवा अन्य किसी प्रकार अनायास मिली प्रचुर सम्पदा को भी नष्ट करके रख देते हैं। इतना ही नहीं ऐसे संकट भी उत्पन्न करते हैं, जिनका सामना अभावग्रस्तों को, तथाकथित पिछड़े लोगों को नहीं करना पड़ता।
व्यक्तित्व और साधनों के समन्वय से जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, उसी पर प्रगति एवं सुख-शान्ति निर्भर रहती है। मूलतः प्राणियों के शरीर तथा जड़ पदार्थों से बने साधन अपने आप में किसी प्रकार की संवेदना उत्पन्न नहीं कर सकते। जड़ होने के साथ-साथ वे संवेदना रहित भी हैं। नोटों की गड्डी अपने आप में रद्दी कागजों का पुलिन्दा भर है। उसके द्वारा सत्कर्मों की उत्कण्ठा, बड़प्पन प्रदर्शन की आकांक्षा, संग्रह की ललक, उद्धत उपभोगों की आतुरता, ईर्ष्या, अहमन्यता जैसी परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। इन इच्छाओं के कार्य रूप में परिणत होने पर व्यक्ति एवं समाज के लिए उपयोगी एवं विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं। इतने पर भी नोटों की गड्डी निर्जीव की निर्जीव ही रहेगी। उपयोग करने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण पर ही यह निर्भर है कि उस सम्पत्ति का उपयोग किस प्रकार किस प्रयोजन के लिए किया जाता है।
प्रयत्न और पुरुषार्थ के बल पर भौतिक उपलब्धियाँ उपार्जित किये जाने की बात सर्वविदित है, पर इस तथ्य को बिरले ही जानते हैं कि आस्थाओं और मान्यताओं के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का समन्वय व्यक्तित्व बनता है और यह व्यक्तित्व का स्तर ही संसार के पदार्थों एवं व्यक्तित्वों के साथ अनुकूल-प्रतिकूल तालमेल बिठाता है। इस तालमेल की प्रतिक्रिया ही उत्थान-पतन, सुख-दुःख के रूप में सम्मुख आती है। बाहरी परिस्थितियाँ दिखाई पड़ती है और उनका कारण भाग्य, पुरुषार्थ, अनुदान आदि बताकर समाधान कर लिया जाता है। इतनी गहराई में उतरना किसी किसी के लिए ही सम्भव होता है कि बाह्य जीवन की समस्त घटनाएँ, परिस्थितियाँ एवं उपलब्धियाँ व्यक्तित्व की आन्तरिक स्थिति के फलस्वरूप ही उत्पन्न होती हैं।
एक ही परिस्थिति को दो व्यक्ति दो प्रकार सोचते है और उसकी परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ अनुभव करते हैं। द्रोणाचार्य ने एक गाँव में दुर्योधन को वहाँ के सज्जनों की सूची बनाकर लाने को भेजा, उनने बहुत छानबीन के बाद सूचना दी कि यहाँ एक भी सज्जन नहीं रहता। सभी दुष्ट दुराचारी भरे पड़े हैं। कुछ दिन बाद उसी गाँव में युधिष्ठिर को दुर्जनों की सूची बनाकर लाने के लिये भेजा। उन्होंने भी हर व्यक्ति से सम्पर्क बनाया गतिविधियों की खोज की। वे यह निष्कर्ष लेकर लौटे कि दोष रहित तो केवल परमात्मा है, पर इस गाँव के लोगों में औसत स्तर की सज्जनता मौजूद है। इनमें से पूर्ण दुर्जन एक भी नहीं है। प्राणियों के शरीर और पदार्थ यही तो संसार है। इस सृष्टि की समस्त संरचना सत् और तम, देव और दैत्य के सम्मिश्रण से बनी है। रात और दिन की तरह यहाँ शुभ और अशुभ दोनों का अस्तित्व है। अन्धकार और प्रकाश से मिलकर रात्रि और दिन की रचना हुई है, उसी से कालचक्र घूमता है। ताने और बाने के उलटे सीधे धागों से कपड़ा बुना गया है। संसार में वांछनीय और अवांछनीय दोनों ही तत्व है। उनमें से उचित को सदुपयोग के लिए और अनुचित को परिशोधन प्रयत्नों का अभ्यास करने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार दोनों ही अपने अपने स्थान पर उपयोगी हैं। यह मानकर चला जाय तो दुष्टता खोजते फिरने पर उत्पन्न होने वाली खीज़ से बचा जा सकता है। दुर्योधन और युधिष्ठिर के अपने-अपने दृष्टिकोण थे। उनने अपने-अपने अनुरूप खोज करके अपने ढंग के निष्कर्ष निकाले थे।
गुबरीला और भौंरा एक ही बगीचे में प्रवेश करके दो तरह की वस्तुओं के साथ सम्पर्क बनाते और दो तरह के निष्कर्ष निकालते हैं। भौंरा फूलों पर मँडराता, सुगन्ध लाभ लेता और उस वातावरण पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए गुंजन गीत गाता है। उसी बगीचे में पौधों में लगाने के लिए दुर्गन्धयुक्त गोबर का खाद भी किसी कोने पर जमा रहता है। गुबरीला कीड़ा अपनी प्रकृति के अनुरूप उसी खाद के ढेर को तलाश कर लेता है और अपने दुर्भाग्य पर रोते हुए कहता है-संसार में बदबू ही बदबू भरी पड़ी है। पुष्पोद्यानों में भी दिये तले अँधेरा मौजूद है। बात गुबरीले कीड़े की भी सच ही है। यों झुठलाया भौरे को भी नहीं जा सकता।
एक गुलाब का फूल कह रहा था कि ईश्वर ने हमारे साथ अन्याय किया कि इतनी पतली और कँटीली बेल पर लगाया, हमारा स्वरूप किसी चन्दन जैसे बड़े वृक्ष की शोभा बढ़ाने योग्य था। दुर्भाग्य का रोना रोने वाले इस पुष्प के समीप उगे हुए दूसरे पुष्प ने कहा-मूर्ख, सोचने का तरीका बदल। पतली कँटीली बेल पर उगने के कारण छोटा सा फूल होना चाहिए था, तू कितना सौभाग्यवान है कि तुच्छ स्थिति से उत्पन्न होने पर भी इतना बड़ा सौभाग्य पा सका। दृष्टिकोण के आधार पर ही लोग अपने सम्बन्ध में मान्यता बनाते और दुःख में खीजते एवं सुख में मुस्कराते पाये जाते है।
संसार में बुराई और भलाई का, हानि-लाभ का, प्रिय-अप्रिय का अस्तित्व है। और वह बना ही रहने वाला है, हमें किसी का भी प्रभाव अपने ऊपर ऐसा नहीं पड़ने देना चाहिए जो मानसिक सन्तुलन बिगाड़कर ही चिंतन में हमें अपंग, असमर्थ बनाकर रख दे। लाभ का, सुविधा सम्पत्ति का उपयोग यह है कि सफलता देखकर उत्साह प्राप्त करें और उपलब्धियों का अधिकाधिक सदुपयोग करके उनसे अपने सम्पर्क क्षेत्र को लाभान्वित करें। हानि, विपत्ति या विकृति सामने आने पर उससे दूसरी प्रकार का लाभ लिया जाना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि भूले या दुर्बलताएँ तो इस कठिनाई में कुछ कारण नहीं रही है? यदि रही हो तो इस प्रमाद को अविलम्ब हटा देने में तत्परता बरतनी चाहिए, ताकि वैसी दुर्घटना की पुनरावृत्ति भविष्य में न हो, ठोकर लगने का दण्ड भविष्य में अधिक सतर्कता बरतने की चेतावनी देता है। यदि एक ठोकर से एक कड़ुवा पाठ पढ़ा जाया करे तो उसे भविष्य में सत्परिणाम देने वाला सस्ता सौदा ही कहा जा सकता है।
ठण्ड लगने से शरीर में कँपकँपी उठती है और रक्त प्रवाह तेज होकर भीतर से गर्मी उत्पन्न होती है। ठण्ड लगने पर जो शरीरगत प्रकृति प्रतिक्रिया होती है वही मनःक्षेत्र में भी होनी चाहिए। संकट उसकी कष्टकारक प्रतिक्रिया, उससे जूझने की तत्परता, उससे भूल का परिमार्जन, परिवर्तन के लिए आवश्यक साधनों का संचय, फलतः संकट की समाप्ति। यही प्रतिक्रिया चक्र उचित है। इसी नीति का अनुसरण करने वाले आपत्तिग्रस्त मनुष्य तपे सोने की तरह निरन्तर निखरते चले जाते है। विपत्ति का प्रत्येक धक्का उन्हें अधिक साहसी, पुरुषार्थी, बुद्धिमान और अनुभवी बनाता चला जाता है।
पाप, अनाचार और विकृतियों को देखकर सन्तुलन खोने और बड़बड़ाने की जरूरत नहीं है। उन्हें सज्जनता के लिए चुनौती समझा जाना चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि परिपक्व होने का यही एकमात्र तरीका है कि वह अनाचार को देखकर उभरे और अवांछनीयता से टक्कर मारकर अपने वर्चस्व सिद्ध करे और गौरवान्वित बने।
यदि रावण का आतंक न होता तो राम को रीछ-वानरों को यशस्वी बनाने का अवसर ही न आता। सही परिस्थितियाँ रही होती तो ऋष्यमूक पर्वत के निवासी रीछ वानर ऐसे ही दूसरे वन्य प्राणियों की तरह जन्मे और मर खपकर विस्मृति के गर्त में चले गये होते। रावण ने आतंक करके जहाँ अपने लिए पतन और अपयश का द्वार खोला, वहाँ प्रतिपक्षियों को गौरवान्वित करने वाली परिस्थितियाँ भी उत्पन्न की। महामानवों की परख इसी आधार पर होती है कि वे विपन्नताओं से कट-कट कर जूझते हुए प्रेरणाप्रद आदर्श जन साधारण के सम्मुख उपस्थित करते हैं।
मरीज अपनी भूल के कारण स्वयं तो कष्ट उठाता है, पर डाक्टर को आजीविका उपार्जन, कौशल वृद्धि, सेवा का अवसर एवं यशस्वी बनाने वाली परिस्थितियाँ भी उत्पन्न करता है। हर विकृति के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचा जाना चाहिए कि उसके उत्पादन कर्ता कितने ही घिनौने क्यों न हो, इतना अच्छा तो वे भी करते है कि सज्जनता, सेवा-साधना, अनीति के प्रति आक्रोश एवं आदर्शों की रक्षा के लिए त्याग, बलिदान करने का अवसर उत्पन्न करते हैं।
विपत्तियों से धैर्य, साहस और दूरदर्शिता का उदय होना, विकृतियों के प्रति रोष उत्पन्न होने से सज्जनता को प्रखर बनाना, दुष्टता की दुर्गति देखकर अन्यों का उस मार्ग पर चलने से विरत होना जैसे लाभों को सोचा जाय, तो विपन्नताओं में भी सन्तुलन बनाये रखा जा सकता है और मनोबल गिराने की अपेक्षा उपयोगी प्रतिक्रिया का लाभ लिया जा सकता है। यदि सोचने का तरीका सही हो तो हर परिस्थिति में अनुकूलता सोची जा सकती है और सन्तुलन बनाये रखा जा सकता है। मानसिक दुर्बलता ही विक्षोभ का प्रधान कारण होती है। मनस्वी व्यक्ति संकट की घड़ी में और भी अधिक जागरूकता का परिचय देते है। फौज का कप्तान घोर मार काट की निर्णायक घड़ियों में सही निर्णय तभी ले पाता है, जब उसका मानसिक सन्तुलन सही बना रहे। घटनाक्रम को देखकर यदि वह आवेश ग्रस्त हो जाय तो एक प्रकार से मानसिक रोगियों की स्थिति में जा पहुँचेगा। अपना और सारी सेना का सर्वनाश करेगा। यही बात दैनिक जीवन में घटित होते रहने वाली सामान्य एवं असामान्य स्तर की घटनाओं के सम्बन्ध में लागू होती है।
स्वर्ग और नरक की चर्चा प्रायः होती रहती है। पौराणिक उपाख्यानों में कोई लोक अथवा स्थान विशेष में सुखद परिस्थितियों वाले स्वर्ग का उल्लेख हुआ है। वहाँ इन्द्रिय भोगों की प्रचुरता का आकर्षक वर्णन किया गया है। शरीर रहित मृतात्मा को इन्द्रिय भोगों का लाभ मिलना संदेहास्पद है। तथ्य यह है कि स्वर्ग परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम है। वह अपनी उत्कृष्टता के कारण विपन्नताओं के बीच भी प्रसन्नता भरे वातावरण का सृजन कर लेता है।
सन्त इमरसन कहा करते थे कि ‘‘मुझे नरक में भेज दो, मैं वहीं स्वर्ग का सृजन कर लूँगा।’’ युधिष्ठिर की कथा है कि वे कुछ समय के लिए नरक भेजे गये उनने अपनी सज्जनता के कारण वहाँ भी स्वर्ग जैसा वातावरण उत्पन्न कर लिया। शंकर ही भूत-प्रेतों के बीच रहकर स्वयं पतित नहीं हुए, वरन् उन पिछड़े हुए साथियों को ऊँचा उठाया। राम प्रसाद बिस्मिल और सरदार भगतसिंह का वजन फाँसी की सजा सुनाये जाने के बाद और अधिक बढ़ गया। गंग कवि ने हाथी के पैरों तले कुचले जाने के मृत्युदण्ड को उस कल्पना के कारण सुखद बना लिया था, जिसके अनुसार उन्होंने खूनी हाथी को स्वर्ग में होने वाले कवि सम्मेलन में अपने कन्धे पर बिठाकर ले चलने वाले गणेश देवता के रूप में अनुभव किया था।
सन्तों ने स्वेच्छापूर्वक अपरिग्रह का व्रत लिया और गरीबों जैसा जीवनयापन करते हुए भी सम्पन्नों से भी अधिक सुखी मानसिक स्तर बनाये रखा। इसके विपरीत कितने ही धनी मानी लोग अपनी विकृत मनःस्थिति के कारण अनेकों कुकल्पनाओं से ग्रसित रहकर चिन्ता, उद्विग्नता की आग में जलते पाये जाते हैं।
अभावों की सूची बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि हम संसार के सबसे अधिक दरिद्र व्यक्ति हैं। अपने साथ हुए दुर्व्यवहारों का संग्रह इकट्ठा किया जाय तो प्रतीत होगा कि सारा सम्पर्क क्षेत्र दुष्ट आत्माओं से भरा हुआ है। दूर-दूर तक फैला विकृतियों का लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि संसार में सर्वत्र पाप ही पाप भरा पड़ा है। पर यदि इससे विपरीत स्तर की सूचियाँ बनाई जाय, पिछड़े हुओं की तुलना में अपनी उपलब्धियों को आँका जाय तो प्रतीत होगा हमारी वर्तमान सम्पन्नता भी कम सन्तोषजनक नहीं है। अपने साथ हुए सद्व्यवहारों और उपकारों की सूची बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि सम्बन्धियों में सज्जनता का ही बाहुल्य भरा पड़ा है। संसार में जो श्रेष्ठ गतिविधियाँ चल रही हैं उनका विवरण प्राप्त करने पर लगेगा कि इस दुनिया में श्रेष्ठता भी प्रौढ़ स्थिति में मौजूद है।
मनुष्य क्या है? इसके उत्तर में एक ही शब्द कहा जा सकता है-विचारों का पुञ्ज। अपने दृष्टिकोण के आधार पर ही जीवन का बाह्य स्वरूप बनता है और आन्तरिक स्तर का निर्माण होता है। सोचने के गलत ढंग का नाम ही दुःख है और सही चिन्तन को सुख कहा जा सकता है। उत्थान-पतन की दोनों धाराएँ अपनी ही मान्यताओं और रुचियों की चाल लेकर उल्टी-सीधी दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। उन्हीं के कारण देवत्व प्राप्त होता है और वे ही हमें दानव स्तर का बना देती हैं।
गीता की उक्ति है-‘श्रद्धामयोयं पुरुष योगच्छ्रद्धा स एव स’ अर्थात् यह मनुष्य
श्रद्धा का रूप है। जो जैसी श्रद्धा रखता है वह वैसा ही बन जाता है। अपनी आस्था,
अपनी मान्यता, अपनी आकांक्षा एवं अपनी दृष्टि ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण करती
है और उसी आधार पर उठने, गिरने की परिस्थितियाँ बनती हैं। विकृत दृष्टिकोण ही हमें
नरक में धकेलता है और उसके परिष्कृत होने पर स्वर्ग हाथ बाँधकर सामने आ खड़ा होता
है। यही है चिन्तन का महत्त्व और महात्म्य।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
166. अहमन्यता मिटे; देवत्व, की सदाशयता विकसे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
विज्ञान का तात्पर्य प्रकृति के कुछ रहस्यों का उद्घाटन अथवा कुछ उपकरणों का निर्माण कर लेना मात्र नहीं है, वरन् उसकी व्यापकता मानवी दृष्टिकोण को अधिक सुविस्तृत, तथ्यपूर्ण एवं सत्यनिष्ठ बनाने तक चली जाती है। विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख-सुविधाओं के संवर्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को प्रश्रय दें। परम्पराएँ कितनी ही पुरानी अथवा बहुमान्य क्यों न हो, यदि वे यथार्थता और उपयोगिता की कसौटी पर सही नहीं उतरती तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहें। नये या पुराने के झंझट में न पड़कर विज्ञानी सत्य को ही मान्यता प्रदान करता है।
विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया हैं, वरन् एक प्रवृत्ति भी है। जिसका फलितार्थ है साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्य समर्पित यथार्थवादी दृष्टिकोण। सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परम्परा को कसे और उनमें से जो खरी उतरती हो उन्हीं को अंगीकार करें। विज्ञान के इस पक्ष को दर्शन कहा जाता रहा है। वस्तुतः दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।
मान्यता पुरानी है या नई। इस व्यामोह से निकल कर जो तथ्य है उसी को स्वीकार करने
की बात यदि मन में समा जाय तो समझना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिल गया। यथार्थवादी
चिन्तन और औचित्य का अवलम्बन जिन्होंने अपनाया उन्हें विचार क्षेत्र का वैज्ञानिक
ही कहना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे दार्शनिक भी कह सकते हैं।
भौतिक विज्ञान की अपनी सीमा और उपयोगिता है वह पदार्थ की स्थिति और गति का विवेचन
करता है और वस्तु की मूलभूत सूक्ष्म सत्ता का पता लगाता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
और सूक्ष्मतम तक पहुँचने के लिए निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है और अधिकाधिक गहराई
तक पहुँचने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता है।
चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है-सत्यं, शिवम्, सुन्दरम्। वस्तुओं में लोभ और व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है। यह अहंता का आरोपण मात्र है। जिस सम्पत्ति को हम अपने अधिकार के अन्तर्गत मानते हैं वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को अपने परिवार के मान लेते हैं उनमें आसक्ति बढ़ जाती है। इसी ‘प्रिय’ परिधि की समीपता सुहाती है और उसे बढ़ाने तथा रखने की ललक लगी रहती है। आमतौर से सुख सन्तोष की परिधि उतने ही क्षेत्र में अवरुद्ध होकर रह जाती है। जो किया और कहा जाता है वह उसी सीमा में बँधा रहता है। यह अहंता की प्रतिध्वनि मात्र है इसमें वस्तु के मूल सौन्दर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ और मोह के अँवर-डँवर देखता हुआ बाल कौतुकों में उलझा रहता है।
कला, काव्य एवं सौन्दर्य को भावनात्मक संवेदना तथा चिन्तन की सूक्ष्मतर परिधि कह सकते हैं। नृत्य गायन कला नहीं, कला का आवरण है। उस माध्यम से अन्तःकरण में जो उल्लासपूर्ण प्रस्फुरण उमंगता है वह संवेदना ही कला है। काव्य किन्हीं तुकबंदी या छन्द विन्यास को नहीं कहते। शब्दों का आवरण उठा कर विशिष्ट स्तर के भावोद्रेक को सजाया भर जाता है। उन शब्दों के अन्तरंग में जो कोमलता झाँकती हैं और चेतना में गुदगुदी पैदा करती है वह कविता है। सौन्दर्य वस्तुओं की सज्जा, दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग गठन पर निर्भर नहीं है, वह तो प्रकृति की मृदुल सुषमा एवं आत्मा की कोमल कान्त संवेदनशीलता को अपने अन्तरंग चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है। सुन्दरता को दूसरे शब्दों में दिव्यानुभूति कह सकते हैं। जो भाव भरे अन्तःकरणों में अपनी विशिष्टता के अनुरूप उमँगती, उभरती रहती है। उसका किसी की अंग संगठन से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।
द्रौपदी और लैला बिलकुल स्याह काले रंग की थी साथ ही कुरूप भी, पर उनके प्रेमी प्राण-प्रिय मानते थे। इसमें विशेषता उन महिलाओं के अंग गठन की अथवा हाव-भावों की नहीं, उन प्रेमियों द्वारा आरोपित की गई संवेदनाओं की थी। इस आरोपण में श्रेय देखने वाले के अपने दृष्टिकोण को महत्त्व जितना दिया जायेगा उतना प्रिय पात्र को नहीं।
संभव है वनस्पति शास्त्री को कोपलों और कलियों में मात्र रासायनिक प्रक्रिया का कोई अमुक क्रम विकास भर दिखाई पड़े। भौतिकी का शोधकर्ता प्रभातकालीन अरुणोदय की प्रकाश किरणों को नेत्र गोलकों के साथ जुड़े हुए प्रभाव-प्रत्यावर्तन मानकर सन्तुष्ट हो सकता है। किसी की आँखों से टपकते आँसुओं को रसायन-वेत्ता कुछ क्षार, श्लेष्मा, प्रोटीन, पानी आदि का सम्मिश्रण बताकर अपना समाधान कर सकता है। खगोलज्ञ के लिए ग्रह-तारकों की दूरी, परिधि, कक्षा आदि जानना पर्याप्त लग सकता है, पर जिनके दृष्टिकोण में संवेदनाओं की कोमलता विद्यमान है उसे पुष्प को, प्राकृतिक सौन्दर्य को, अरुणोदय की पुण्य बेला को, किसी करुणार्द्र के अश्रु-प्रवाह को, झिलमिलाते तारकों वाली दिशा को देखकर जो अनुभूति होती है वह अपने स्थान पर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। कला, कविता एवं सौन्दर्य की परख वस्तुतः संवेदनशील धाराएँ हैं, जो भावना क्षेत्र को अनेकानेक भाव लहरियों की थिरकन के साथ आन्दोलित करती हैं। इन्हें दार्शनिक उपलब्धियाँ कहा जा सकता है। अंतःकरण का विकास कोमल संवेदनाओं के क्षेत्र में न हो सके तो उसका शारीरिक पिछड़ापन अन्य प्राणियों से भी गई-गुजरी स्थिति में खड़ा कर देगा।
भौतिक विज्ञान को असंस्कृत समझने का कोई कारण नहीं, क्योंकि उसका उद्देश्य न केवल अणु-सत्ता का विवेचन एवं उपयोग जानना है, वरन् चेतना के साथ जुड़ी हुई कोमल संवेदनाओं को उभार कर अन्तःकरण की भाव भरी रसानुभूति प्रदान करना भी है। इन दोनों प्रयोजनों को साथ लेकर चलने से ही विज्ञान की पूर्णता बनती है, अन्यथा भौतिकी को ही विज्ञान मान लेने पर तो वह सचमुच ही असंस्कृत बन जायगा। तब उसे लँगड़े, काने-कुबड़े, नकटे, बूचे की संज्ञा दी जा सकेगी, वह वस्तुतः कुरूप एवं कर्कश ही बन जायगा।
विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र पृथक रखा जाय तो दोनों ही अपूर्ण रह जायेंगे। वस्तुतः वे दोनों दो हैं भी नहीं। एक ही तथ्य के दो पूरक पक्ष हैं। भौतिक जड़ पक्ष को सँभालता है और ब्रह्मविद्या चेतना को सुसंस्कृत बनाती है। तथ्यों की उपेक्षा करके मात्र चिन्तन की कलाबाजी का खेल खड़ा करते रहने वाला दर्शन भ्रांतियों का भंडार बन जायेगा, वह हमें अवास्तविक कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते रहने वाला, दिवास्वप्न देखते रहने वाला मात्र बना कर रख देगा। इसी प्रकार जड़ पदार्थों की क्षमता पर निर्भर होते-होते हम स्वयं हृदयहीन मशीनी मनुष्य मात्र बनकर रह जायेंगे। विज्ञान को दर्शन के साथ और दर्शन को विज्ञान के साथ अपना ताल-मेल बिठाना पड़ेगा। यद्यपि आज यह बहुत कठिन दिखता है पर एक दिन इसकी अनिवार्यता अनुभव की जायेगी। सत्य और तथ्य का समन्वय करने से ही सर्वतोमुखी प्रगति के दोनों पहिये गतिशील हो सकेंगे।
विज्ञानी को कलाकार बनना चाहिए और कलाकार को विज्ञान के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर उभय-पक्षीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए। दोनों को दो धाराओं में बहते हुए भी एक लक्ष्य पर पहुँचाना चाहिए। पिछली कितनी ही मान्यताएँ, परम्पराएँ, परिभाषाएँ और आकांक्षाएँ अब अवास्तविक और असामयिक ठहरा दी गयी है। किसी समय उनका औचित्य रहा होगा, पर अब उनके साथ चिपके रहना केवल उपहासास्पद ही बना सकता है। ठीक इसी प्रकार यदि विज्ञानी बिना हित अनहित का विचार किये घातक आविष्कार करता रहा और विलास वृद्धि में आविष्कारों का उपयोग होता रहा, तो मनुष्य अपनी कलाकारिता को अनावश्यक समझने लगेगा और उसकी सौंदर्यानुभूति समाप्त हो जायेगी। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान की प्रगति सचमुच बहुत मँहगी पड़ेगी।
विज्ञान के सम्पर्क में दर्शन की सत्ता को खतरा उत्पन्न हो जाएगा, इस प्रकार सोचना तभी उचित है जब वह अवास्तविक आधारों को लेकर चल रहा हो। अब बुद्धिवादी युग आ गया। क्यों और कैसे की कसौटी पर कसे बिना अगले दिनों किसी भी प्रचलन को स्वीकार न किया जा सकेगा। यथार्थता की परीक्षा से यदि दर्शन भागेगा तो उसका यह भगोड़ापन ही उसकी कच्चाई समझ ली जायेगी और दंभी बताकर समय का प्रवाह उसका साथ छोड़ देगा, तब उसे बेमौत मरना पड़ेगा। इससे अच्छा यहीं है कि वह समय रहते आत्म-निरीक्षण करके इस योग्य बना ले, कि तथ्यों का सामना करने में उसे डरने की तनिक भी आवश्यकता न रहे। दर्शन का गौरव इसी में है। विज्ञान को अपना क्षेत्र जड़ की परिधि से अधिक विस्तृत करके उसे चेतना तक विकसित करना होगा। चेतना जड़ की प्रतिकृति, प्रतिच्छाया नहीं। पदार्थ का उपभोग करना मात्र ही उसकी तुष्टि का आधार नहीं है। आत्मा में कुछ ऐसा भी है जिसे अलौकिक, अद्भुत और सरस कह सकते है। प्रत्यक्ष को ही मात्र कसौटी मानकर चेतना की सत्ता को झुठलाया जा सकता है, पर इससे काम कहाँ चलेगा। भावनाओं का अपना स्थान है और अपना स्तर। उनकी अपनी गरिमा है और अपनी संवेदनात्मक दिव्यता। यदि ऐसा न होता तो उसकी चेतना एक विकसित कम्प्यूटर जितनी होकर रह जाती।
ईश्वर जीव और प्रकृति की व्याख्या, विवेचना में निरत रहने की पुरानी आदत अब दर्शन को बदल देनी चाहिए। यह गुत्थियाँ बहुत ही उलझी हुई है। मानव बुद्धि का क्रमिक विकास इन्हें समयानुसार ही सुलझा सकेगा। लाखों वर्षों से इन्तजार करते रहे हैं तो अभी कुछ समय और प्रतीक्षा कर सकते हैं। कल्पना को तथ्य बताने की पद्धति से भी कोई समाधान नहीं निकला है। मनीषी अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं का समाधान इतने अधिक और इतने परस्पर विरोधी प्रकारों से कर चुके हैं, कि उनसे मनुष्य की जिज्ञासा को भ्रांतियों में बदलने और एक दूसरे को मिथ्यावादी बताने के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकला है। दर्शन को उतावली नहीं करनी चाहिए और येन-केन प्रकारेण अपनी नाक बचाने के लिए कुछ भी कह गुजरने का वाक् विलास बन्द करना चाहिए। जब इतनी अधिक और इतनी सामयिक समस्याएँ उलझी पड़ी हैं ,, तो हमें उन्हीं पर अपना ध्यान क्यों नहीं केन्द्रित करना चाहिए?
दर्शन का एक निश्चित लक्ष्य होना चाहिए। अन्तःकरण की सौंदर्यानुभूति की कलाकारिता को जगाना सत्य के प्रति नम्रता और निष्ठा उत्पन्न करना। इसके लिए हमें चिन्तन के साथ रसानुभूति की काव्य प्रक्रिया को समन्वित करना पड़ेगा। मस्तिष्क को जगाना स्कूली शिक्षा का काम है। दर्शन की भावनाएँ उभरनी चाहिए और मनुष्य को इतना संवेदनशील बनना चाहिए कि वह अपने दुखों के प्रति जितना दुखी होता है, उससे अधिक दूसरों का दुःख देखकर द्रवित होने लगे। अपने सुखोपभोग में जितनी प्रसन्नता होती है उससे अधिक दूसरों को सुखी बनाने में होने लगे। दार्शनिक दृष्टिकोण वह है जो हर व्यक्ति और हर पदार्थ में सत् चित् और आनन्द की अनुभूति को ढूँढ़ और जगा सके। घृणा, विद्वेष के स्थान पर करुणा, ममता और सेवा, सहायता की प्रतिष्ठापना करना ही वस्तुतः दर्शन का प्रमुख प्रयोजन है। इस अवलम्बन के सहारे व्यक्ति अधिक पवित्र और परिष्कृत बन सकता है। अधिक उदार और अधिक स्नेह सिक्त भी।
विवेचन, विचारणा और विवेकशीलता के बिना मनुष्य केवल भ्रान्तियों में ही उलझा रह सकता है। दर्शन हमारे चिंतन को प्रखर, सत्यान्वेषी, यथार्थवादी और नीर-क्षीर विवेकी बना सकता है। सत्य के समीप हम इसी आधार को अपनाकर पहुँच सकते हैं। भौतिक विज्ञान का आराध्य सत्य है। वह परखा नहीं करता कि अब से पहले क्या कहा, माना जाना रहा है। वह बिना किसी प्रकार का दबाव या संकोच किये जो तर्क संगत और तथ्य समर्पित प्रतीत होता है उसे प्रस्तुत करता है। दर्शन में भी इतना साहस होना चाहिए कि परम्पराओं का अनावश्यक दबाव या आग्रह मानने से इनकार कर दे और केवल उसी का समर्थन करे जो सत्य के समीप है, हितकारी है।
भूतकालीन चिन्तन और उसके प्रस्तुतकर्ताओं के प्रति पूर्ण आदर रखते हुए भी सत्यान्वेषण की प्रक्रिया को जारी रखा जा सकता है। आखिर इन पूर्वजों ने भी तो अपने पूर्वजों के चिन्तन में अधिक तेजस्वी प्रकाश का समन्वय किया था। अभी वह समय नहीं आया कि उस क्रमिक अग्रगमन का पटाक्षेप कर दिया जाय। अभी हमारे लिए सोचने और सुधारने की दिशा में बहुत चलना बाकी है। पूर्णता की प्राप्ति तक हमारे चरण अनवरत गति से आगे बढ़ते रहने चाहिए।
विज्ञान की उपलब्धियों ने इस भूखण्ड के निवासियों को अत्यन्त समीप ला दिया है।
द्रुतगामी वाहनों ने दूरी को दूर कर दिया है। संचार साधनों से हम दूरभाषण और दूरदर्शन
की आवश्यकता क्षण भर में पूरी कर लेते हैं। समाचार पत्र हमें संसार भर की खबरें
अगले दिन बता देते हैं। रेडियो के माध्यम से उपयोगी ज्ञानवार्ता और विनोदपूर्ण
गुदगुदी घर बैठे मिलती रहती है। विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनियाँ अब एक गाँव
में रहने वाले लोगों की तरह इकट्ठी हो गई है। दूरी क्रमशः द्रुतगति से निरस्त होती
जा रही है। यह भौतिक उपलब्धियाँ, भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदान की गई है। दर्शन
को, मनों की दूरी दूर करनी चाहिए और अन्तःचेतना की इकाई को घटाना चाहिए। किलोमीटरों
की दूरी विज्ञान ने निरस्त कर दी और दर्शन का काम है कि व्यक्तिवाद की संकीर्णता
को हटाने और आत्मवत् सर्वभूतेषु की-विश्व मानव एवं विश्व परिवार की उदात्त मनःस्थिति
को विकसित करने में अपने समस्त प्रयासों को केन्द्रित कर दिखाए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
167. वाक् शक्ति एवं मंत्रसिद्धि
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मन्त्र विद्या में दो तत्त्वों का समावेश है। शब्द शक्ति का सूक्ष्म चेतना विज्ञान के आधार पर उपयोग एवं व्यक्ति की आन्तरिक एवं भावोल्लास से उत्पन्न दिव्य क्षमता का समन्वय। इन दोनों के मिलन से एक तीसरी ऐसी अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती है जो कितने ही बड़े भौतिक साधनों से उपलब्ध नहीं हो सकती।
मन्त्रों में अक्षरों के क्रम तथा उनके उच्चारण की विशेष विधि व्यवस्था का ही अधिक महत्त्व है। कण्ठ, तालु, दाँत, होठ, मूर्धा आदि जिन स्थानों से शब्दोच्चारण होता है उनका सीधा सम्बन्ध मानव-शरीर के सूक्ष्म संस्थानों से है। षट्चक्र, उपात्मक एवं दिव्य वादियों, ग्रन्थियों का सूक्ष्म शरीर संस्थान अपने आप में अद्भुत है। इन दिव्य अंगों के साथ हमारे मुख यन्त्र के तार जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार टाइप राइटर की चाबियाँ दबाते चलने से ऊपर अक्षर टाइप होते चलते हैं, ठीक इसी प्रकार मुख से उच्चारण किये हुए विशेष वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ विनिर्मित मन्त्र गुम्फन का सीधा प्रभाव उपरोक्त संस्थानों पर पड़ता है और वहाँ तत्काल एक अतिरिक्त शक्ति तरंगों का प्रवाह चल पड़ता है। यह प्रवाह मन्त्र विज्ञानी को स्वयं लाभान्वित करता है। उसकी प्रसुप्त क्षमताओं को जगाता है। भीतर गूँजते हुए वे मन्त्र कम्पन यही काम करते हैं और जब वे बाहर निकलते हैं, तो वातावरण को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्म जगत में अभीष्ट परिस्थितियों की सम्भावनाओं का सृजन करते हैं और यदि किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित करना है तो उस पर भी असर डालते हैं। मन्त्र विद्या इन तीनों प्रयोजनों को पूरा करती है।
साधारणतया ध्वनि चारों दिशाओं में फैलती है, पर मन्त्रों में शब्द इस प्रकार गुम्फित होते हैं कि उसकी ध्वनि तरंगें विशेष प्रकार की हो जाती हैं। गायत्री मन्त्र की ध्वनि तरंगें तार के छल्ले जैसी ऊपर उठती हैं और यह सूक्ष्म अन्तराल के परमाणुओं के माध्यम से सूर्य तक पहुँचती हैं और जब यही ध्वनि सूर्य के अन्तराल में प्रतिध्वनित होकर लौटती हैं, तो अपने साथ प्रकाश अणुओं की (गर्मी, प्रकाश व विद्युत सहित) फौज जप करने वाले के शरीर में उतरती चली जाती है। साधक उन अणुओं से शरीर ही नहीं, मन और आत्मा की शक्तियों का विकास करता चला जाता है। और कई बार वह लाभ प्राप्त करता है जो सांसारिक प्रयत्नों द्वारा कभी भी संभव न हो सके।
शब्द की शक्ति पर जितना गहरा चिन्तन किया जाय उतनी ही उसकी गरिमा और विलक्षणता स्पष्ट होती चली जाती है। बादलों की गरज से ऊँची इमारतें फट जाती हैं। आज की यांत्रिक सभ्यता जितना शोर उत्पन्न कर रही है, उसके दुष्परिणामों से मानव जाति को पूरी न हो सकने वाली क्षति उठानी पड़ेगी। इस तथ्य से समस्त संसार चिन्तित है। अतिस्वन और जेट विमान आकाश में जितनी आवाज करते हैं, उससे उत्पन्न होने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया को सर्वत्र समझा जा रहा है और इन विशालकाय द्रुतगति वायुयानों को कोलाहल रहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
शब्द की सामर्थ्य सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर सूक्ष्म और विभेदन क्षमता वाली है। इस बात की निश्चित जानकारी होने के बाद ही मन्त्र विद्या का विकास भारतीय तत्त्वदर्शियों ने किया। यों हम जो कुछ बोलते हैं उसका प्रभाव व्यक्तिगत और समष्टिगत रूप से सारे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है, तालाब के जल में फेंके गये कम्पन की लहरें भी दूर तक जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द आकाश के सूक्ष्म परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न करता है। उस कम्पन से लोगों में अदृश्य प्रेरणाएँ जागृत होती हैं। हमारे मस्तिष्क में विचार न जाने कहाँ से आते हैं हम समझ नहीं पाते, पर मन्त्र विद जानते हैं कि मस्तिष्क में विचारों की उपज कोई आकस्मिक घटना नहीं वरन् शक्ति के परतों में आदिकाल से एकत्रित सूक्ष्म कम्पन हैं, जो मस्तिष्क के ज्ञानकोषों से टकराकर विचार के रूप में प्रकट हो उठते हैं। तथापि अपने मस्तिष्क में एक तरह के विचारों की लगातार धारा को पकड़ने या प्रवाहित करने की क्षमता है।
एक ही धारा में मनोगति के द्वारा एक सी विचारधारा निरन्तर प्रवाहित करके सारे ब्रह्माण्ड के विचार-जगत में क्रान्ति उत्पन्न की जा सकती है। उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उन विचारों को वाणी या सम्भाषण के द्वारा व्यक्त ही किया जाये।
‘उच्चारण’ और ‘स्वर’ में यही अन्तर है कि उच्चारण कंठ, जीभ, तालु, दाँतों की संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान-प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है, पर स्वर अन्तःकरण से निकलता है। उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत-प्रोत रहता है। इसलिए मन्त्र को स्वर कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त अनुदात्त स्वरित की उच्चारण प्रक्रिया का शुद्ध होना ही इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ वाकशक्ति के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप अनुष्ठान से ही है।
मन्त्र की जो कुछ महिमा है उसका आधार वाणी को ‘वाक्’ के रूप में परिणत कर देना है। इसके लिए मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता का समन्वय करना पड़ता है कि वाणी को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जाय। इतना करने के उपरान्त उसके द्वारा जपा हुआ मन्त्र सहज ही सिद्ध होता है और उच्चारण किया हुआ शब्द असंदिग्ध रूप से सफल होता है। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे, तो उसके द्वारा जप किये हुए मन्त्र भी जल जायेंगे और बहुत संख्या में बहुत समय तक जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट फल न मिलेगा।
परिष्कृत जिह्वा में वह शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी भी भाषा का कोई भी मन्त्र प्रचण्ड और प्रभावशाली हो उठता है। उसके द्वारा उच्चारित शब्द मनुष्यों के अन्तस्तल को असीम अन्तरिक्ष को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। ऐसी परिष्कृत वाणी-वाक् को अध्यात्म का प्राण कह सकते हैं। उसे साधक की कामधेनु एवं तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी से परिमार्जित जिह्वा को सरस्वती कहते हैं। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को उस मन्त्रशक्ति की, दीक्षा की महत्ता समझनी चाहिए। मन्त्र की माता उसे ही मानना चाहिये, सिद्धियों का उद्गम स्थल भगवान को द्रवित एवं प्रभावित कर सकने का माध्यम उसे ही मानना चाहिए।
मन्त्र सिद्धि में चार तथ्य सम्मिश्रित रूप से काम करते हैं-ध्वनि विज्ञान के आधार पर विनिर्मित शब्द शृंखला का चयन और उसका विधिवत् उच्चारण, साधक की संयम द्वारा विग्रहीत प्राण शक्ति और मानसिक एकाग्रता का संयुक्त समावेश, उपासना प्रयोग में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरणों की भौतिक किन्तु सूक्ष्म शक्ति भावना-प्रवाह, श्रद्धा, विश्वास एवं उच्चस्तरीय लक्ष्य दृष्टिकोण। इन चारों का जहाँ जितने अंश में समावेश होगा वहाँ उतने ही अनुपात से मन्त्र शक्ति का प्रतिफल एवं चमत्कार दिखाई पड़ेगा। इन तथ्यों की जहाँ उपेक्षा की जा रही होगी और ऐसे ही अन्धाधुन्ध गाड़ी धकेली ही जा रही होगी, जल्दी-जल्दी वरदान पाने की धक लग रही होगी वहाँ निराशा एवं असफलता ही हाथ लगेगी।
यों शरीर भी एक छोटा किन्तु पूरा विश्व है। इसमें सभी तीर्थों के बीज पीठ विद्यमान हैं। इनमें से कोई एक साथ अनेक पीठों को जागृत एवं प्रखर बनाया जा सकता है। कोई-कोई व्यक्तित्व मूर्तिमान शक्ति पीठ होते हैं। यही सिद्ध पुरुष मानवी चेतना में घुसा हुआ विजातीय तत्त्व है उसे निकालने, हटाने में थोड़ा सा ही प्रबल प्रयत्न सफल हो सकता है। साधना इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए है। साधना समर में यदि आत्म तत्त्व बाजी ले गया तो फिर पौराणिक समुद्र मंथन में प्राप्त 14 रत्नों से भी अधिक मूल्य की अगणित दैवी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं। उन्हें पाकर मनुष्य आप्त काम हो जाता है फिर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता है साधनाकाल दैवी आसुरी संघर्षों की, तुमुल युद्ध की अवधि है। इसमें पूरे कौशल, चातुर्य एवं साहस का प्रयोग करना पड़ता है। यह युद्ध उपेक्षा पूर्वक ज्यों-त्यों करके ढीले-पोले मन से बेगार भुगतने की तरह नहीं लड़ा जा सकता है। उसमें पूरे मनोयोग एवं प्रबल पराक्रम की आवश्यकता पड़ती है।
आत्मा का परमात्म सत्ता के साथ घनिष्ठ एकाकार तादात्म्य तन्मय होने की स्थिति को साधना की प्रखरता कहते हैं। जब दोनों का सघन मिलन होता है तो आत्म विभोर स्थिति को समाधि कहा जाता है। आवश्यक नहीं कि उस स्थिति में योगनिद्रा अथवा मूर्छा ही आवे। ज्ञान साधना में स्थिति प्रज्ञा की, कर्म साधना में अनासक्त कर्तव्य परायण की, भक्ति साधना में व्यापक स्नेह सौजन्य की स्थिति प्राप्त होती है। इससे मूर्छा तो नहीं आती पर आत्म-ज्ञान का आलोक एवं सन्तोष समाधान का अनवरत अनुभव होता है। साधक अपने को भगवान में और भगवान को अपने में एकाकार देखता है। दोनों की इच्छाएँ एवं क्रियाएँ एक ही स्तर की होती हैं।
इन्द्रिय संयम और मानसिक एकाग्रता की दोनों धारायें मिलकर मानवी विद्युत शक्ति का निर्माण करती हैं। बिजली ठण्डे और गरम दो तारों के द्वारा प्रवाहित होती है। इसी प्रकार शरीर और मन की शक्तियों को वासना और तृष्णा में बिखरने न देने से वह सामर्थ्य जमा होती है, जिसे प्राण शक्ति अथवा ओजस् कहा जाता है। योगशास्त्र में साधना क्षेत्र के छात्रों को यह नियम बरतने का, शारीरिक और मानसिक संयम बरतने की प्राथमिक तैयारी करने के लिए कहा गया है। यदि इन दोनों बड़े छेदों में होकर मानवी विद्युत नष्ट होती रहे तो फिर मन्त्र रूपी इन्जन को चलाने के लिए तेल, कोयला, ईंधन कहाँ से आयेगा। मात्र शब्दोच्चार का नाम ही तो मन्त्र साधना नहीं है।
उपार्जन काल में सात्विक आहार-विहार, ब्रह्मचर्य, मौन, एकान्त सेवन, परिमार्जित दिनचर्या, मनन-चिन्तन द्वारा साधना को सींचा जाता है। उसके उपरान्त उसे सस्ती प्रशंसा लूटने के लिए दिखाये जाने वाले चमत्कारों से बचाया जाता है। सिद्धियों को लोभ, मोह के उथले प्रयोजन पूरे करने में भी खर्च किया जा सकता है और अपने को तथा दूसरों को आत्म-कल्याण की दिशा में प्रेरित करने के लिए भी उसका उपयोग हो सकता है। स्वल्प श्रम में अधिक भौतिक सफलतायें पाना कर्म विज्ञान के विपरीत है। उसके लिए यदि मन्त्र शक्ति का प्रयोग किया जायेगा तो वह देर तक टिक न सकेगी और उसी खिलवाड़ में नष्ट हो जायेगी। हाँ यदि आत्म-कल्याण के लिए उसका प्रयोग होगा तो उससे उसमें और भी तीव्रता आयेगी जैसे कि चाकू को पत्थर पर रगड़ने से उसकी धार तेज होती है और जंग छूटकर चमक आती है।
मन्त्र सिद्धि के लिए साधक के शरीर को पोषण देने वाली, उसका रक्त और ओजस् बनाने वाली वस्तुओं का विशेष महत्त्व है। आहार से शरीर और विहार से मन परिपुष्ट होता है। पदार्थों में परसंचालित शक्ति है जिसे स्वसंचालित शक्ति के सहारे गतिशील किया जा सकता है। कोयला, तेल और पानी में भाप बनाने की शक्ति है, पर वह आग एवं प्रयोक्ता की स्वसंचालित शक्ति के सहारे ही प्रकट हो सकती है। पदार्थों की शक्ति को भी साधना काल में प्रयोग किया जाता है। अनेक विधि निषेध एवं वस्तु प्रयोग इसी दृष्टि से बने है।
हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहते हैं। हृदय प्राण और जिह्वा को सोम कहते हैं। दोनों का समन्वय धन और ऋण विद्युत धाराओं के मिलने से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न करता है, वही मन्त्र के चमत्कार रूप में देखा जा सकता है।
वाणी से उपासना करना पर्याप्त नहीं, उसे वाक् बनाकर ही इस योग्य बनाया जा सकता है कि अध्यात्म पथ पर बढ़ते हुए साधक को कुछ कहने लायक सफलता मिल सके। आयुर्वेद में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, अभ्रक, पारद आदि की भस्म बनाकर उनके सेवन का विधान है। विषों का भी बड़ा लाभ बताया गया है, पर वह सम्भव तभी होता है जब उन विषों को विधानपूर्वक शुद्ध किया जाय। वाणी एक मूल पदार्थ है। शोधित होने पर वह अमृत बन जाती है और विकृत होने पर विष का काम करती है। शोधित वाणी को ही वाक् कहा गया है।
मन्त्र की शक्ति का विकास जप से होता है। जितनी अधिक घिसाई पिसाई की जाती है उतनी ही पदार्थ की शक्ति उभरती है। ढेले को तोड़ते-तोड़ते उसे अणु की स्थिति में ले जाया जाय तो वह अणु ढेले की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान होगा। घोटने और पीसने की प्रक्रिया बहुत समय चलते रहने पर ही आयुर्वेदिक दवाएँ गुणकारी होती हैं। बार-बार घिसने से गर्मी पैदा होती है। बार-बार रगड़ने से चमक उत्पन्न होती है। इस तथ्य को हर कोई जानता है। मन्त्र की शक्ति उसके क्रमबद्ध रूप से बहुत समय तक जप करने से उभरती है। अनुष्ठान एवं पुरश्चरण विज्ञान का यही रहस्य है।
मन्त्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है। ध्वनि भी क्रमबद्ध लयबद्ध और वृत्ताकार क्रम
से निरन्तर एक ही शब्द विन्यास का उच्चारण किया जाता रहे, तो उसका एक गति चक्र
बन जाता है। तब शब्द तरंगें सीधी चलने की अपेक्षा वृत्ताकार घूमने लगती हैं। रस्सी
में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर उसे तेजी से चारों ओर घुमाया जाय तो उसके दो परिणाम
होंगे एक यह कि वह एक गोल घेरा जैसा दीखेगा। रस्सी और ढेले का एक स्थानीय स्वरूप
बदलकर गतिशील चक्र के रूप में बदल जाना एक दृश्य चमत्कार है। दूसरा परिणाम यह होगा
कि उस वृत्ताकार घुमाव से एक असाधारण शक्ति उत्पन्न होगी। इसे तेजी से घुमाते हुए
पत्थर के छोटे टुकड़े से किसी पर प्रहार किया जाय तो उसकी जान ले सकता है। इसी प्रकार
यदि उसे फेंक दिया जाय तो तीर की तरह सनसनाता हुआ बहुत दूर निकल जायेगा। मन्त्र
जप से यही होता है। कुछ शब्दों को एक रस, एक स्वर, एक लय के अनुसार बार-बार दुहराते
रहने से उत्पन्न हुई ध्वनि तरंगें सीधी या साधारण नहीं रह जाती। वृत्ताकार उनका
घुमाया जाना अन्तरङ्ग पिण्ड में तथा बहिरंग ब्रह्माण्ड में एक असाधारण प्रवाह उत्पन्न
करता है। उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणामों को मन्त्र का चमत्कार कहा जा सकता
है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
168. भवबन्धन और जीवनमुक्ति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
विकास क्रम समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक क्षेत्र में गतिशील हो रहा है। जीव भी उस प्रक्रिया से अछूता नहीं है। जीवन का भी क्रमिक विकास हुआ है। यह तम, रज और सत् तीन रूपों में है और क्रमश एक-एक मंजिल ऊपर उठता चला जा रहा है। तम का अर्थ है जड़ता। जड़ सृष्टि को इसी वर्ग में गिनते हैं। जड़ पदार्थों में भी जीवन तो हैं, पर वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। इससे कुछ ऊँची और अच्छी स्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं की हैं। वे मिट्टी में मिले रहते हैं। हवा और पानी में गतिशील हैं। शरीर में जीवाणुओं की भरमार हैं। चूँकि इनमें इंद्रियाँ और मस्तिष्क नहीं है इसलिए उन्हें भी जड़ गिना जाता है। उससे थोड़ी और अच्छी स्थिति वृक्ष वनस्पतियों की हैं। यों उन्हें भी जड़ कहा गया हैं फिर भी उनमें जीवन प्रत्यक्ष लहलहा रहा है। यह सारा प्रसार, विस्तार जड़ जगत का है। पानी जड़ है; पर उसमें ओतप्रोत जीवन से विज्ञान क्षेत्र भली प्रकार परिचित है। पंच-तत्वों में से प्रत्येक में अपने-अपने ढंग की हलचल और चेतना विद्यमान है। इसे तमस् स्थिति में पड़ा हुआ अविकसित जीवन कह सकते हैं।
इससे अगली स्थिति ‘रजस्’ की है। जीवन के इस वर्ग में इन्द्रिय चेतना युक्त चल फिर सकने वाले प्राणी आते हैं। जलचर, नभचर वर्ग के असंख्यों जीवधारी इस श्रेणी में गिने जाते हैं। कीट-पतंग, पशु-पक्षी उद्भिज, श्वेदज, अंडज, जरायुज प्राणी इसी स्तर के हैं। इसमें उच्च वर्ग के प्राणी हैं जिन्हें सूक्ष्म जीवों की तरह अदृश्य कह सकते हैं। इनमें पितरों, देवात्माओं, जीवन मुक्तों, देवदूतों की गणना होती हैं। वे कभी शरीर धारण करते हैं, कभी अशरीरी रहते हैं। अशरीरी रह कर वे अपनी सूक्ष्म शक्ति से अधिक व्यापक क्षेत्र में अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। अधिक सत्पात्रों को अधिक उपयोगी एवं अधिक मात्रा में प्रेरणाएँ दे सकते हैं। किन्तु जब जन-साधारण को प्रत्यक्ष मार्गदर्शन करते हुए उन्हें साथ लेकर चलना होता है और कोई परम्परा स्थापित करनी होती है तो शरीर धारण करके अवतारी देवदूतों की तरह काम करते हैं। वे कर्मफल भोगने के लिए विवश होकर जन्म-मरण के चक्र में घूमने वाले प्राणियों की तरह शरीर धारण नहीं करते वरन् समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए व्यक्ति और समाज को ऊँचा उठाने के विशेष प्रयोजन से जन्म लेते हैं और अपना उद्देश्य पूरा करके पुनः वापिस लौट जाते हैं।
तथ्य को और भी स्पष्ट रूप से समझना हो तो संक्षेप में उसे इस प्रकार जानना चाहिए कि पदार्थ की रचना तो पंच तत्वों, परमाणुओं एवं रासायनिक यौगिकों की सहायता से हुई हैं। ऊर्जा विविध स्वरूप में उन्हें कई प्रकार की हलचलों के लिए प्रेरित कर रही है। चेतना के संबंध में बात दूसरी है। वह तम, रज और सत् इन तीन भागो में विभक्त है अथवा तीन स्थितियों में रह रही है। चेतना की प्रथम स्थिति है तम-जिसे जड़, निर्जीव कहा जाता है। जिसमें खनिज, वनस्पति एवं सूक्ष्मजीवी आते हैं। बोध के अविकसित स्थिति में होने के कारण ही उन्हें जड़ वर्ग का ठहराया गया है। चेतना की दूसरी स्थिति है ‘रज’ अर्थात् विकसित जागरूकता मन प्रधान प्रेरणा। उपलब्धियों के लिए आतुर सक्रियता। उसे अहंता, संचय और उपभोग के तीन रूपों में काम करते हुए देखा जा सकता है। शास्त्रकारों ने इसे अहंकार, तृष्णा और वासना में निरूपित किया है। विकसित कहे जाने वाले प्राणियों के विविध क्रिया-कलापों के प्रेरणा स्रोत यही तीन है। इन्हें मनोवैज्ञानिकों ने जीव की मूलभूत प्रवृत्ति कहा है और उनका न्यूनाधिक विभाजनों के साथ वर्णन किया है। इस स्तर के प्राणियों को शास्त्रकार जीवित कहते हैं। इनका चिन्तन और कर्तृत्व रजस् स्तर का कहा जाता है। इससे ऊँची सत् तत्व में विकसित चेतना है। इसे शरीरधारी और अशरीरी दोनों रूपों में देखा जा सकता है। आत्मशोधन में एवं ब्रह्मवर्चस की साधना में संलग्न ब्राह्मण और इससे आगे परिपक्व स्थिति में पहुँचे हुए साधु कहलाते हैं। ब्राह्मण परिवार बना कर रहते है और ज्ञान संवर्धन की सेवा में संलग्न रहते हैं। साधु पके फल की तरह परिवार भर के उत्तरदायित्वों से छुटकारा पाकर विश्व नागरिकों में सम्मिलित हो जाते हैं। उनका अपनापन असीम हो जाता है। व्यापक लोकहित को महत्त्व देते हैं और ऊँचा उठाने वाली प्रेरणाएँ देने की पुण्य-प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं। उनकी गतिविधियाँ बादलों जैसी परिव्राजक स्तर की रहती हैं। वे सर्वत्र बरसते हैं। कही भी मोह बन्धन में नहीं बँधते। इन्हें महात्मा कह सकते हैं। महामानव, सन्त, सुधारक, शहीद, तत्त्वदर्शी, युगद्रष्टा, मनीषी आदि विशेषणों से इन शरीरधारी देवताओं को पहचाना जाता हैं। इन्हें भूसुर अर्थात् पृथ्वी के देवता भी कहते हैं।
स्थूल जगत की तरह सूक्ष्म जगत में भी तम और सत् की स्थिति रहती है। वहाँ भी आसुरी और दैवी सत्ता ताने-बाने की तरह, जीवन-मरण की तरह, रात-दिन की तरह, धूप-छाँह की तरह काम करती है। अपनी दुनियाँ में सुख-दुःख, पाप-पुण्य की परस्पर विरोधी गतिविधियाँ चलती हैं। सूक्ष्म जगत में भी दैवी और आसुरी सतोगुणी और तमोगुणी तत्व काम करते हैं। वहाँ भी देवासुर संग्राम मचा रहता है। अशरीरी आत्माओं में भी दुष्ट प्रवृत्ति पाई जाती है। वे भी देवताओं की तरह ही अपने स्वभाव के अनुरूप काम करती है और दुष्ट संभावनाएँ साकार करने में लगी रहती है। दुष्कर्मों में भी कई बार बढ़ी-चढ़ी सफलता मिल जाती है। इनमें अशरीरी आसुरी तत्वों का योगदान रहता है। साधना विज्ञान में दैवी और आसुरी दोनों प्रकार के विधान हैं। दैवी स्तर की उपासना दक्षिण मार्गी कहलाती है उससे साधक में सत् तत्वों की वृद्धि होती हैं और देव अनुग्रह उपलब्ध होता है। इसके प्रतिपक्षी तन्त्रोक्त वाम मार्ग द्वारा आसुरी शक्तियों से भी संपर्क साधा जा सकता है। उनके सहयोग से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण जैसे क्रूर कर्म किये जा सकते हैं।
चेतना का उच्च स्तर अशरीरी किन्तु सुविकसित होता है उसमें देव और असुर दोनों प्रकृति के हो सकते हैं। यह उभयपक्षीय स्थिति तो रज और तम में भी होती है। रजस् स्तर के प्राणियों में गाय जैसे दयालु और व्याघ्र जैसे हिंसक पशु मौजूद हैं। हंस और काक का भेद इसी प्रकार का है। सर्प और नेवला की भिन्नता स्पष्ट है। शरीर के भीतर विघातक विषाणु भी पाये जाते हैं और जीवन रक्षा के प्रहरी श्वेत रक्त कण भी अपना काम करते हैं। जड़ पदार्थ में प्राणघातक विषों की भी कमी नहीं और अमृतोपम औषधियाँ भी प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं। अग्नि जैसे दाहक और हिम जैसे शीतल पदार्थों में परस्पर विरोधी प्रकृति काम करती पाई जाती है। चेतना के तम, रज और सत् स्तरों में से प्रत्येक को शुभ-अशुभ के दो-दो भागो बाँटा जाय तो स्पष्ट ही वे छः की संख्या में हो जाते हैं।
यहाँ लगे हाथों अद्वैत, द्वैत और त्रैत का अन्तर भी समझ लेना चाहिए। सृष्टि के मूल में एक ही तत्व है चेतना। वैज्ञानिक विकास के साथ अब प्रकृति की नई परतें खुली हैं और किसी समय जो पदार्थ की मूलभूत इकाई परमाणु समझी जाती थी, अब वह मान्यता वापिस ले ली गई है। परमाणु भी अनेक घटकों का सम्मिश्रित पिण्ड बन गया है। उन घटकों का शवच्छेद करने पर वे स्वयं समाप्त हो जाते हैं और उनके मूल में ऊर्जा रह जाती है। इसे ‘क्वांटा’ कहते हैं। अब पदार्थ की मूल इकाई परमाणु नहीं है वरन् प्रकृतिगत हलचलों के लिए उत्तरदायी व्यापक ऊर्जा है, अब यही प्रकृति है और इसी का नाम क्वांटा है।
क्वांटा अचेतन है या चेतन? इस प्रश्न का समाधान अब वैज्ञानिक क्षेत्र ही इस तरह करने जा रहे हैं जिस तरह अध्यात्म द्वारा प्रतिपादित किया जाता रहा है। ‘इकॉलाजी’ के सिद्धांतानुसार प्रकृति की, पदार्थों की समस्त हलचलें एक दूसरे की पूरक है। पारस्परिक हित साधन, सहयोग और संतुलन की रीति-नीति ठीक इसी प्रकार चल रही है मानों किसी सुव्यवस्थित शासन ने अपनी प्रजा को बिना टकराये स्नेह सहयोग पूर्वक रहने का विधान बना रखा हो। गृहपति अपने परिवार की व्यवस्था करता है। जीवात्मा अपने शरीर के अवयवों और जीवाणुओं को घड़ी के कलपुर्जों की तरह सहयोगी बनाये हुए हैं। मनुष्य की गन्दी साँस को वनस्पति खाती है और वनस्पतियों द्वारा छोड़ी साँस को मनुष्य खाते हैं। भूमि की उर्वरता पौधों को उगाती है और पौधे सूख कर खाद बनते और भूमि को उर्वरता लौटाते हैं। समुद्र, बादल, वर्षा, नदी और फिर समुद्र के क्रम से जल राशि का भ्रमण चक्र चलता रहता है। ग्रह नक्षत्र आपस में टकराते नहीं वरन् अपनी-अपनी कक्षाओं में शान्तिपूर्वक भ्रमण करते हैं। वे एक दूसरे के साथ छेड़खानी नहीं करते वरन् स्नेह सहयोग भरा आदान-प्रदान करते हैं। दुर्बल प्राणियों का प्रजनन अधिक और समर्थों का स्वल्प होना प्रकृति की विवेकशील द्योतक है। जब भी अवांछनीय परिस्थिति बढ़ती है तो उनकी विरोधी प्रतिक्रिया होती है और उस तूफान द्वारा फिर से वातावरण स्वच्छ हो जाता है। अवतारों का दृश्य, अवतरण इसी सृष्टि सन्तुलन के लिए होता रहता है। ‘इकॉलाजी’ विज्ञान की जितनी गहरी परतें खुलती जा रही है उसी अनुपात से यह स्पष्ट होता जाता है कि प्रकृति अन्धी नहीं वरन् अत्यन्त दूरदर्शी, विवेकशील एवं क्रिया-कुशलता से सुसम्पन्न है। इसका अर्थ हुआ प्रकृति को चेतना युक्त होने की मान्यता मिलना। विश्वास किया जाना चाहिए कि अगले दिनों ‘क्वांटा’ भी मर जायगा और इसके स्थान पर सृष्टि का उद्गम स्रोत ‘चेतना प्रवाह’ घोषित कर दिया जायेगा। विभिन्न पदार्थ और प्राणी उसी चेतना समुद्र की लहरें ठहराये जायेंगे और सर्वत्र एक ही परमेश्वर संव्याप्त होने की बात स्वीकार की जायेगी। हमें धैर्य रखना चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि शोध में निरत विज्ञान भी अध्यात्म के स्वर में स्वर मिला कर एक ही तथ्य का प्रतिपादन कर रहा होगा-‘ईशावास्य मिदं’ सर्व यत्किंचित जगत्याँ जगत्’ यहाँ सर्वत्र ईश्वर संव्याप्त है। ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’ का वेदान्त उद्घोष अगले ही दिनों विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य और तथ्य सिद्ध होकर रहेगा।
वैज्ञानिकों की दृष्टि से परमाणुओं का अन्धड़ तूफान ही यह संसार है। रेगिस्तान में आँधी आने पर यहाँ की रेत वहाँ उड़कर जा पहुँचती है और रेत के टीले इधर से उधर उखड़ते जमते रहते हैं। बादलों की कई तरह की आकृतियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं। इसी प्रकार परमाणुओं के अन्धड़ में तरह-तरह के पदार्थ, प्राणियों के शरीर बनते बिगड़ते रहते हैं। मूलसत्ता अणु प्रवाह है। प्राणियों की मस्तिष्कीय संरचना एवं परमाणुओं की भगदड़ का सम्मिश्रित स्वरूप ही यह संसार है, जिसमें हम रहते और तरह-तरह के अनुभव करते हैं। हर प्राणी की दुनियाँ उसके चेतना स्तर के अनुरूप एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। मेढ़क इस संसार को जिस दृष्टि से देखता है, जैसा सोचता अनुभव करता है, इन्द्रियों की सहायता से उपभोग सामग्री तथा परिस्थिति में से जिस प्रकार की अनुभूति पाता है, वह मनुष्य की अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। दोनों के बीच जमीन आसमान जितना अन्तर हो सकता है। ऐसी दशा में संसार का वास्तविक रूप क्या हो सकता है? यह निर्णय कर सकना सर्वथा असम्भव है। एक ही खाद्य पदार्थ का विभिन्न प्राणी विभिन्न प्रकार का स्वाद लेते हैं तो किसी पदार्थ का मूल स्वाद कैसे घोषित किया जाय? जब एक ही दृश्य से अनेकों प्रकार के निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो उनकी वास्तविकता किस आधार पर निरूपित की जाय? इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए वेदान्त में इस संसार को माया-मिथ्या आदि नामों से पुकारा है।
ब्रह्म को सत् कहा गया है, प्रकृति उसकी स्फुरणा है। एक को चेतन दूसरे को जड़ कहा गया है। दोनों के मिलन से पदार्थ में हलचल और प्राणियों में चिन्तन चलता है। सृष्टि के मूलतत्त्व ब्रह्म को सत् कहा गया है और उसके आवरण, उपकरण को प्रकृति एवं तमस् कहते हैं। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष की दो सत्ताएँ बनती है और इन्हें सत् एवं तम् की तात्त्विक स्थिति कह सकते हैं। यह द्वैत कहलाया। वस्तुतः इस संसार में जड़ चेतन, प्रकृति-पुरुष, प्रकाश-अन्धकार, सर्दी-गर्मी, जल-थल की तरह दो ही बड़े तथ्य हैं। अकेला ब्रह्म होता तो वह अपने आप तक ही सीमित रहता। अकेली प्रकृति होती तो सब कुछ निस्तब्ध नीरस, निष्प्राण होने के कारण अविकसित एवं भयावह स्थिति में बना रहता। चमत्कार तो मिलन से हुआ है। दो के मिलने से तीसरी वस्तु बनती है इसे हर कोई जानता है। दिन और रात की मिलन बेला को संध्या काल कहते हैं। नीला और पीला रंग मिलाकर हरा बनता है। दो गैसें मिलने से पानी बन जाता है। आग और पानी के मिलने से भाप बनती है। जड़ और चेतन का मिलन ही ‘जीव’ है। त्रैतवाद में ईश्वर, प्रकृति और जीव की तीन सत्ताएँ मानी गयी है। जीव एक सम्मिश्रण है। मुक्ति की स्थिति में माया हट जाती है और जीव अपने शुद्ध स्वरूप परमेश्वर में जा मिलता है, इस प्रकार उसकी द्विधा स्थिति का अन्त हो जाता है। माचिस में आग लगती है तो लौ उठती है। तीली समाप्त हो जाती है और व्यापक अग्नि तत्व में जा मिलती है। जड़ और चेतन के सम्मिश्रण से बँधी हुई एक अहंता ग्रन्थि को जीव कहते हैं। अहम् का तात्पर्य जड़ शरीर एवं भौतिक साधनों सहित चेतना की आत्म मान्यता होती है। इसी जकड़न को भव बन्धन कहते हैं। आत्मा और प्रकृति की भिन्नता की अनुभूति यदि अन्तःकरण को हो सके, तो आत्म-ज्ञान का, ब्रह्मज्ञान का उद्देश्य पूरा हो जायेगा। इसी अनुभूति को भूमा, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, तुरीयावस्था, समाधि, ईश्वर प्राप्ति, जीवन मुक्ति आदि के नाम से जाना जाता है।
प्रगति का क्रम नीचे से ऊपर की ओर है। तमस् से रज, रज से सत् की ओर जीवन बढ़ता
है। यहीं उचित है और यही शोभनीय। जीव इसी क्रम को अपनाये रहे तो उसकी प्रशंसा है।
निम्न योनियों में से प्रगति करते-करते जीव को मनुष्य स्थिति में आने का सौभाग्य
मिल गया है। अब प्रतिष्ठा इसी में है कि आगे बढ़ा जाये तो जीवात्मा भर न रह कर महात्मा,
देवात्मा और अनन्त परमात्मा बनने का चरम लक्ष्य प्राप्त किया जाय।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
169. स्वतन्त्रता का सही अर्थ समझें, उच्छृंखलता को न पनपने दें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
स्वतन्त्रता हर किसी को प्रिय होती है, परतन्त्रता उतनी ही कष्टकारक अनुभव होती है। पराधीनता की जंजीरों में जकड़े समाज अथवा राष्ट्र का विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिन जातियों अथवा देशों पर किसी अन्य देश का प्रभुत्व वर्चस्व होता है वे विकसित नहीं हो पाते। शोषण एवं दमन का चक्र चलता हैं। जिन देशों को अधिक समय तक गुलामी की बेड़ियाँ पहननी पड़ी है वे प्रगति पथ पर उतना ही पिछड़ गये हैं, विश्व का राजनैतिक इतिहास इस बात का साक्षी है। अस्तु पराधीनता की सर्वत्र भर्त्सना की जाती है और उसे एक अभिशाप माना जाता है।
कभी अपना देश प्रगति के शिखर पर था। यहाँ दूध दही की नदियाँ बहती थी। विदेशी इस देश को सोने की चिड़िया कहते थे। विश्व भर में भारत का वर्चस्व था। दुर्भाग्यवश राज्यों की आपसी फूट के कारण विदेशी आक्रमणकारियों एवं आततायियों ने इस देश को कितनी ही बार रौंदा। विपुल धन सम्पत्ति लूट कर वे चलते बने। फूट के कारण ही देश को हजार वर्ष तक गुलाम रहना पड़ा। कभी मुगलों का आधिपत्य रहा, तो कभी अंग्रेजों का। शोषण एवं दमन के चक्र में भारतवासी एक हजार वर्ष तक पिसते रहे। यदि यह कहा जाय कि भारत अन्य मुल्कों की अपेक्षा इसी कारण हजार वर्ष पीछे रह गया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस अवधि में देशवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से बुरी तरह से शोषण हुआ और सांस्कृतिक दृष्टि से अवमूल्यन भी। इस अवधि को भारत वासियों के पतन और पराभव का युग कहा जा सकता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए देश की युवा चेतना ने एक करवट उन्नीसवीं सदी के अन्त में ली। प्रचण्ड आवेग एवं आवेश के तूफान ने गुलामी की सुदृढ़ जंजीरों को एक झटके में तोड़ दिया। राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति में कितनी ही माँगों के सिंदूर पूँछें, कितनी ही माताओं की कोख खाली हुई और कितने ही आश्रितों के एक मात्र आश्रय टूटे। उन सभी घटनाओं का इतिहास पढ़ने-सुनने पर शरीर रोमांचित हो उठता है तथा अमर शहीदों के प्रति सिर श्रद्धा से झुक जाता है। अपनी आजादी की जो भारी कीमत चुकानी पड़ी है वह खून की कीमत पर ही प्राप्त हुई।
प्राप्त स्वतन्त्रता की सार्थकता तब है जब हम उसका सही अर्थ समझें तथा स्वाधीनता का ठीक प्रकार उपयोग करें। स्वतन्त्रता का अर्थ है सामाजिक नियमों एवं निर्धारित कानून व्यवस्था के अन्तर्गत रहते हुए, उनका परिपालन करते हुए विचारों की अभिव्यक्ति एवं स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की सुविधा। पर इस स्वतन्त्रता की भी सीमाएँ हैं। ऐसे विचार अथवा क्रियाकलाप जो समाज की सुव्यवस्था को तथा निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं ,, स्वतन्त्रता की परिधि में नहीं आते। वे उच्छृंखलता को ही जन्म देते हैं। अनियंत्रित तथा अमर्यादित आचरण स्वतन्त्रता का परिचायक नहीं है।
दुर्भाग्यवश अपने देश में स्वतन्त्रता का अर्थ गलत लगाया गया। स्वतन्त्रता के साथ अनुशासन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है, जो निर्धारित कर्तव्यों का सतत बोध कराता है। भ्रान्तिवश अधिकांश व्यक्ति अनुशासन को स्वतन्त्रता का अंग नहीं मानते फलतः वैयक्तिक स्वतन्त्रता के नाम पर अनुशासन हीनता को बढ़ावा देते हैं। अपने देश में यह स्थिति इन दिनों चरम सीमा पर है, जो सर्वत्र देखी जा सकती है। इसका एक कारण यह है कि इतने वर्षों की गुलामी से मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक पराधीनता की स्थिति आज भी किसी न किसी रूप में बनी हुई है। स्वतन्त्रता का सही अर्थों में उपयोग करने की मानसिकता आज भी विकसित नहीं हो पायी है। दूसरा कारण देश में व्यापक स्तर पर फैली अशिक्षा है। अशिक्षा अज्ञान की जननी है, जिसके रहते प्रगति का पथ कभी भी प्रशस्त नहीं हो सकता।
गाँधी जी ने १९३०-४० के दशक में एक बार कहा था कि भारत को अभी स्वतन्त्रता नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि स्वतन्त्रता के सदुपयोग की मानसिक एवं बौद्धिक पृष्ठभूमि अभी देशवासियों में नहीं विकसित हो पायी है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वे पराधीनता के समर्थक थे, बल्कि यह था कि वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि वर्षों की गुलामी ने भारतीय समाज एवं सम्बद्ध नागरिकों के मानसिक धरातल को बुरी तरह तहस-नहस किया है, जिसकी क्षति पूर्ति न की गयी तो मात्र राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेने से देश की प्रगति सम्भव नहीं है। आत्मानुशासन के अभाव में स्वतन्त्रता का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ा है। समाज से पृथक उसका एकांकी विकास सम्भव नहीं। समाज में रहकर ही वह पल्लवित और पुष्पित होता है। प्राप्त स्वतन्त्रता जहाँ उसे अनेकानेक अधिकार देती है, वहाँ अनिवार्य रूप से जुड़े कर्तव्यों का भी बोध कराती है। अधिकारों की निर्धारित सीमा में रहना तथा वैयक्तिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का भली-भाँति पालन करना ही अनुशासन है। अनुशासन के बिना स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं निकलता। सुसंचालन एवं सुव्यवस्था के लिए अनुशासन का महत्त्व सर्वोपरि है। समस्त सृष्टि का व्यापार ही अनुशासन के आधार पर चल रहा है। अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता को अभिव्यक्त करते हुए भी नक्षत्र एक निश्चित कक्षा मर्यादा में घूमते रहते तथा परिभ्रमण चक्र को सुसंतुलित बनाये रखते हैं। अनुशासन का उल्लंघन करने वाले अपनी स्वतन्त्रता का मनमाना उपयोग करने वाले ग्रह नक्षत्र एक दूसरे से टकराकर अपना अस्तित्व तो गँवाते ही हैं दूसरे के लिए भी संकट पैदा करते हैं। ठीक इसी प्रकार स्वतन्त्रता के नाम पर अनुशासन से रहित अपनायी गयी उच्छृंखलता व्यक्ति एवं समाज दोनों ही के लिए अन्ततः हानिकारक सिद्ध होती है।
किसी विद्वान की यह उक्ति वैयक्तिक स्वतन्त्रता की सीमा तथा पारस्परिक व्यवहार के आचार शास्त्र को अधिक अच्छी प्रकार स्पष्ट करती है कि ‘‘मुट्ठियाँ भींच कर हवा में घूँसे चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है, लेकिन उसकी स्वतन्त्रता की सीमा वहाँ जाकर समाप्त हो जाती है जहाँ कि किसी दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है।’’ व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं का नियमन वस्तुतः समाजगत अनुशासन से होता है। समाजगत अनुशासन का अर्थ है जिस समाज में हम रहते हैं उसकी सुविधाओं का भी ध्यान रखें। उसके विकास की भी बात सोचें। नीति मर्यादाओं एवं नागरिक नियमों का पालन करें। यह बात देखने में छोटी लगते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिसके बिना हम सही अर्थों में सभ्य कहलाने के अधिकारी नहीं बन सकते।
किसी स्वतन्त्र देश के नागरिक अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए तो तत्पर दिखाई दें, परन्तु कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करे, तो समझना चाहिए कि वे इस योग्य नहीं कि स्वतन्त्रता का सही उपयोग कर सके एवं उसका सच्चा आनन्द उठा सके। स्वाधीनता प्राप्त करने के साथ ही किसी देश के नागरिकों को जहाँ अनेकों नये अधिकार मिलते हैं, वहीं उन पर अनेकानेक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निर्वाह का भार भी आ जाता है। उन कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाना ही उनके स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों की योग्यता एवं पात्रता सिद्ध करना है। इसके अभाव में तो वे स्वेच्छाचारी, उच्छृंखल, अनुशासनहीन बनकर अवनति के गर्त में गिरते चले जायेंगे।
महात्मा गाँधी ने अपने अनुयायियों को कहा था-‘मित्रो! आप स्वतन्त्र अवश्य हैं किन्तु अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस स्वतन्त्रता के दुरुपयोग द्वारा उसे कलंकित मत करना।’ उनके इस कथन की अवमानना का प्रत्यक्ष फल आज हम देख ही रहे हैं।
चार्ल्स किंग्सले ने स्वतन्त्रता की व्याख्या करते समय उसे दो प्रकार का बताया
है। १. अनुचित स्वतन्त्रता २. उचित स्वतन्त्रता।
जहाँ व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सके, उसे उन्होंने अनुचित स्वतन्त्रता
कहा है और जहाँ व्यक्ति वही कर सके, जिसके लिए उसे नीति मर्यादा एवं समाज व्यवस्था
के अन्तर्गत छूट मिली हुई है, उसे उचित स्वतन्त्रता बताया गया है। अनुचित स्वतन्त्रता
को उन्होंने स्वच्छन्दता माना है। स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता में बहुत भिन्नता
है। स्वतन्त्रता शब्द के अर्थ को समझ लेने पर बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है।
स्वतन्त्र अर्थात अपने स्वयं तन्त्र या अनुशासन में रहना। यही है स्वतन्त्रता का
वास्तविक अभिप्राय। सच्ची स्वतन्त्रता वही है जिसमें दूसरों के उचित अधिकारों में
अनावश्यक हस्तक्षेप न हो।
स्वतन्त्रता को मानवीय गुण और स्वच्छन्दता को पाशविक प्रवृत्ति कहा जा सकता है। अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने एवं निजी स्वार्थ के लिए अपने अनेकों देशवासियों के हितों का ध्यान न रखना स्वतन्त्रता नहीं है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता अपने आप में बहुत बड़ी चीज है किन्तु उसकी सीमा वहीं समाप्त हो जाती है जहाँ दूसरे का हित एवं अधिकार आ जाता है। बर्क महोदय ने कहा भी है-‘‘सुरक्षा के लिए स्वतन्त्रता सीमा होना आवश्यक है।’’ स्वतन्त्रता का तात्पर्य आत्मानुशासन है। वह किसी को इसी आधार पर मिलती है कि वह उसके लिए पात्रता सिद्ध करे।
आज अपने देश को आजाद हुए पूरे ३५ वर्ष व्यतीत हो चुके और हम सब स्वतन्त्र राष्ट्र के स्वतन्त्र नागरिक कहे जाते हैं। पर तथ्य को गम्भीरता पूर्वक देखने पर यही दृष्टि गोचर होता है कि अभी हम उसके लिए समुचित पात्रता विकसित नहीं कर पाये हैं। हमने स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता लगाया है जिसमें हम दूसरों का ध्यान रखे बिना अपनी उचित-अनुचित सभी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। हम अपने पास पड़ोस का कितना ध्यान रखते है? अपने देशवासियों के प्रति हमारे अन्दर कितनी सहानुभूति है? राष्ट्रीय सम्पत्ति के सदुपयोग का कितना ध्यान रखते हैं? राष्ट्र कल्याण के लिए अपने स्वार्थों के ऊपर कितना अंकुश लगाते हैं? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर पर गहराई से विचार करते समय अपने आप समझ जायेंगे कि स्वतन्त्रता के उत्तरदायित्वों को कितना समझ पाये हैं, कितना निभा पायें है?
कहना न होगा कि स्वतन्त्र देश के कर्तव्यनिष्ठ जिम्मेदार नागरिक की कसौटी पर हम पूरी तरह खरे सिद्ध नहीं हो रहे हैं। देश की सम्पत्ति को अपनी निजी सम्पत्ति की तरह समझकर उसकी सुरक्षा के लिए प्रयास करना कितने लोग अपना उत्तरदायित्व समझते हैं यह सर्व विदित है। राष्ट्रीय सम्पत्ति जिसे बोल चाल की भाषा में ‘‘सरकारी माल’’ कहा जाता है उसके प्रति सामान्य नागरिक की क्या दृष्टि रहती है इसे बताने की आवश्यकता नहीं।
अपने देश की राष्ट्र निष्ठा का परिचय कोई भी प्राप्त कर सकता है। सौ में से नब्बे प्रतिशत राष्ट्रीय उद्योग एवं कल कारखाने घाटे में चलते रहते हैं। इसके अन्य कारण चाहे जो भी हो, लेकिन एक प्रमुख कारण देश की सम्पदा को अपनी निजी सम्पत्ति से कम महत्त्व देने की हीन मनोवृत्ति ही है।
एक प्राइवेट बस का मालिक यदि उसके पास एक अच्छी खासी बस है तो एक दो वर्ष में उससे इतनी आमदनी कर लेता है कि वैसी ही नई दूसरी बस खरीद कर चला ले। परन्तु सरकारी रोडवेज विभाग के पास हजारों-हजारों की संख्या में बसे होने पर भी, उनके अपने सुधार गृह एवं पेट्रोल पम्प होते हुए भी उनमें लाखों की क्षति एवं घाटा होता है। रेलगाड़ियों के डिब्बों से बल्ब, दर्पण जैसी छोटी-छोटी चीजों से लेकर पंखे तक गायब होने की घटनाएँ होती रहती हैं।
अपने अधिकारों के लिए हड़तालें करने में हम भारतीय सबसे आगे हैं। हड़तालों के कारण देश में प्रतिवर्ष दो चार करोड़ श्रमदिनों की हानि हो जाना सामान्य बात हैं। सन् १९८२-८३ में हड़तालों की वजह से साढ़े चार करोड़ से अधिक श्रम दिनों की क्षति हुई थी। जापान की ओर दृष्टि दौड़ाएँ तो मालूम होगा कि वहाँ हड़तालें होती ही नहीं। यदि होती भी हैं तो घण्टे आध घण्टे से अधिक नहीं होती और काम के समय में नहीं होती बल्कि चाय अथवा लन्च के समय में होती हैं, जिनसे राष्ट्रीय उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उनकी राष्ट्रीय भावना का सबसे सशक्त प्रमाण परिचय है।
अपने देश की जनसंख्या अब लगभग बहत्तर करोड़ के लगभग है। इतनी बड़ी जनशक्ति अपने आप में बड़ी महत्त्वपूर्ण है। यदि वह अपने आपको एक राष्ट्रीय हित, देश उत्थान की भावना में पिरो दे, तो साधनों की दृष्टि से हम समृद्ध न सही तो गरीब भी नहीं कहला सकते। देश की सर्वतोमुखी गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए, समृद्ध, समर्थ एवं समुन्नत बनाने के लिए हमें स्वतन्त्रता के सही अर्थ को समझना होगा और कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनना होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
170. धर्म के नाम पर पनपा सम्प्रदायवाद मिटे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अति पुरातन काल में धर्म ही मानवी उत्कर्ष और अनुशासन का एकमात्र आधार था। समयानुसार वह राजतन्त्र में बँटा। तो भी अपनी उत्कृष्टता के कारण मानव अन्तराल पर उसका प्रभाव अक्षुण्ण ही बना रहा। शासन का क्षेत्र पदार्थ एवं व्यवहार है। धर्म का चरित्र एवं चिन्तन। धर्म व्यक्तित्व का गठन करता है। शासन साधनों के उत्पादन, वितरण से लेकर सुरक्षा व्यवस्था जैसे भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति करता है। यों साधनों की कमी या अव्यवस्था से भी कम कष्ट नहीं होता, इसलिए उसकी साज-सँभाल रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले शासन का भी महत्त्व एवं वर्चस्व है। अर्थ एवं दण्ड की शक्ति उसके हाथ में रहने से आकर्षण एवं भय के आधार पर उसका लोहा भी माना जाता है। इतने पर भी धर्म की गरिमा, उपयोगिता एवं स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। मानवी अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आस्था जमाने, विचारणा में सदाशयता जोड़ रखने तथा क्रिया-प्रक्रिया को नीति निष्ठ बनाने की शक्ति धर्म की ही है। भावना और विचारणा का महत्त्व सर्वोच्च है। वही व्यक्ति की मौलिक सम्पदा एवं क्षमता है। उत्थान-पतन की दूरगामी भूमिका का सूत्र संचालन यही से होता है। मनुष्यों का समूह ही समाज है। लोगों का स्तर जैसा होता है, उसी के अनुरूप समाज की गतिविधियाँ चलती हैं। जैसी गतिविधियाँ होती हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ बनती हैं। शासन तो परिस्थितियों का नियन्त्रण भर करता है। उनका उत्पादन तो अन्तःकरण एवं बुद्धि संस्थान से ही होता है। अस्तु भावना क्षेत्र को दिशा देने वाले धर्म की गरिमा सदा ऊँची रहेगी। उसे शासन से भी अधिक महत्त्व मिलेगा। दर्शन की गरिमा वैभव से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
शासन का महत्त्व सभी समझते हैं। कोई भी अराजकता नहीं चाहता। यहाँ तक कि दुष्ट दुराचारी भी नहीं, क्योंकि अभी तो उन्हें न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी जान बचाने और अनीति को छद्मरूप से चलाने का जो अवसर मिला हुआ है, वह भी अराजकता की स्थिति में न रहेगा। दो का जवाब बीस कमजोर मिलकर भी दो बलिष्ठों की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं। जिस प्रकार अराजकता सहन नहीं की जा सकती, अधार्मिकता भी उतनी ही भयावह सिद्ध होती है। नीति-मर्यादा का परित्याग कर देने के बाद मनुष्य हिंस्र पशुओं से भी अधिक आततायी हो जाता है। हिंस्र जन्तु पेट भर जाने पर आक्रमण नहीं करते, पर मनुष्य तो दर्प के लिए भी असंख्यों को मटियामेट करता रहता है। मध्यकालीन सामन्तवाद का प्रत्येक रक्त रंजित पृष्ठ इसी की साक्षी देता है। आज भी आस्थाहीन व्यक्तियों-हिटलर, चंगेजखाँ, नादिरशाह, रावण, दुर्योधन, जरासन्ध ने न जाने कितने कहर ढाए हैं। आततायी और आतंकवादी प्रायः आस्थाहीन ही होते हैं। अराजकता और अधार्मिकता में से कौन अधिक भयावह है, यह कहना कठिन है।
शासन के पास साधन कितने ही अधिक हों, उसकी सफलता भी वफादार, ईमानदार कर्मचारियों एवं नीति निष्ठ प्रजाजनों पर टिकी हुई है। यदि कर्मचारी भ्रष्ट हो तो असीम साधनों के रहते हुए भी पतन पराभव का मुँह देखना पड़ेगा। इसी प्रकार प्रजाजन यदि दुष्टता पर उतारू हो चलें तो फिर उन्हें नियन्त्रित करने में पुलिस कचहरी की शक्ति क्या काम करेगी? फिर वे लोग भी तो भ्रष्ट जनता में से ही निकल कर आये होंगे। उनका अन्तरंग नीति-भ्रष्टता के साथ साझीदारी कर ले तो फिर न्याय-नियन्त्रण की, विकास-उत्थान की योजनायें एक कोने में रखी रह जायेंगी। शासन को श्रेय देने वाली सफलतायें शस्त्रों पर, वैभव-विस्तार पर टिकी हुई नहीं हैं। वरन् नीतिनिष्ठ, कर्तव्यपरायण प्रजाजनों पर निर्भर हैं। कहना न होगा कि यह समूचा भावना क्षेत्र धर्म धारण के अन्तर्गत आता है। शासन लोभ या भय के आधार पर किसी को भी उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सम्पन्न नहीं बना सकता। उसकी पहुँच वैभव क्षेत्र से आगे बढ़ मात्र बौद्धिक क्षेत्र तक समाप्त हो जाती है। सरकारी प्रचार-प्रोपेगैंडा के आधार पर प्रस्तुत समाचारों तक पर जब विश्वास नहीं किया जाता तो उनके द्वारा चिन्तन की उत्कृष्टता और व्यवहार की आदर्शवादिता को लोक मानस में इतनी गहराई तक उतार देना किस प्रकार संभव होगा, जहाँ किसी भी भय प्रलोभन से मानवी आदर्शवादिता को न गँवाने की व्रतशीलता अडिग चट्टान की तरह खड़ी रहे।
धर्म धारणा जहाँ भी बलवती होगी, वहाँ नैष्ठिक नागरिकता, अनुशासित सामाजिकता, चारित्रिक संयमशीलता, व्यावहारिक सज्जनता के वे सभी चिन्ह प्रकट होंगे, जिन्हें मानवी गरिमा के रूप में सुना समझा जाता रहा है। श्रेष्ठताओं का समुच्चय ही धर्म है। इसकी उपयोगिता जब जन-जन ने देखी परखी थी तब उसे सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया था। हर किसी का इस आप्त वचन पर दृढ़ विश्वास था कि धर्म की रक्षा करने से ही अपनी रक्षा होती है और मारने वाले को वह उलट कर मार ही डालता है। इसी तथ्य और सत्य पर अटूट विश्वास होने के कारण इस देश के नागरिक देवोपम कहे जाते थे। उनकी गणना तैंतीस कोटि देवताओं में की जाती थी और जिस पर वे निवास करते थे वह धरती स्वर्गादपि गरीयसी गिनी जाती थी। कारण स्पष्ट है उच्च स्तरीय दृष्टिकोण अपनाकर आदर्शवादी जीवन जीने वालों की गतिविधियाँ ऐसी ही हो सकती हैं जो अपने लिए तथा अन्यान्य सभी के लिए समुचित मनःस्थिति का चिरस्थाई निर्धारण कर सकें। ऐसा उत्कृष्ट वातावरण बनाना और व्यक्तित्व में प्रतिभा प्रखरता भर देना उसी तत्त्वदर्शन एवं अनुशासन का कार्य है जिसे धर्म कहते हैं।
सद्भाव संवेदन, संस्कारवान चिन्तन, व्यक्तित्व उन्नयन, समग्र प्रगति, सामाजिक सुव्यवस्था, अर्थ सन्तुलन जैसे व्यक्ति और समाज से सम्बन्धित अनेकानेक क्षेत्रों पर धर्म धारणा का असाधारण प्रभाव देखा जा सकता है। उसके कारण इन सभी क्षेत्रों के समुन्नत बनने की संभावना सुनिश्चित बनती है। अधर्म का अनौचित्य अपनाने का परिणाम मात्र असन्तोष, विग्रह और विनाश का ही वातावरण बनाता है। धर्मतत्त्व का एक मात्र स्वरूप सद्भावना सज्जनता, सहकारिता, संयमशीलता, उदारता जैसे शालीनता समर्थक सरंजाम जुटाता है।
धर्म की इस गरिमा से मनुष्य जाति चिरकाल से परिचित, अभ्यस्त, आश्वस्त रही है। फलतः इस गये गुजरे जमाने में जबकि धर्म मात्र विडम्बनाओं का अजायबघर बनकर रह गया है, उस प्राचीन गरिमा के प्रति अभी भी श्रद्धा जमी हुई है। लोग उसके लिए बहुत कुछ अनुदान प्रस्तुत करते रहते हैं। महामानवों की समाधियों पर मेले जुड़ते और फूल बरसते हैं। धर्म की मूल धारणा अस्त-व्यस्त हो जाने के उपरान्त भी उनके मजार पर जितनी श्रद्धा बरसती है उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि जब वह जीवन्त रहे होंगे तो कितनी बड़ी गौरव गरिमा का केन्द्र रहे होंगे।
भारत को ही लें। यहाँ देवालयों का, तीर्थयात्रा का, कर्मकाण्डों का सोमवती अमावस्या से लेकर कुंभ जैसे छोटे-बड़े पर्वों का खर्चा जोड़ा जाय तो वह सरकार द्वारा वसूल किये जाने वाले राजस्व से कहीं अधिक बैठता है। जिनका धर्म ही आजीविका व्यवसाय है ऐसे साधु बाबाओं की संख्या तकरीबन ६५ लाख है। जो इस उद्योग पर पूर्णतया निर्भर नहीं है, आंशिक समय गँवाते और उपार्जन करते हैं उन पण्डा पुरोहितों की संख्या भी ४० लाख तो माननी ही पड़ेगी। इन एक करोड़ धर्मजीवियों का ठाट-बाट और आडम्बरों से भरा-पूरा व्यय भार भावुक धर्मप्रेमियों को ही उठाना पड़ता है। यह राशि इतनी बनती है कि शिक्षा और चिकित्सा के लिए निर्धारित कुल बजट की। दैनिक जीवन में धर्मकृत्यों के लिए लोग ढेरों समय लगाते हैं और हाथ खोलकर पैसा खर्च करते हैं। मनोयोग, श्रम, समय एवं धन के रूप में जितनी मानवी शक्ति धर्म के निमित्त लगती है उसे उपार्जन, निर्वाह के बाद तीसरे नम्बर की सम्पदा कह सकते हैं।
इतनी बड़ी शक्ति यदि सृजनात्मक प्रयोजन में लग सके तो उतने भर से व्यक्ति और समाज का कायाकल्प हो सकता है। जो क्षेत्र शासन की पकड़ से बाहर है, जिन्हें संभालना निश्चित रूप से धर्मतन्त्र के कंधे पर है उन चिन्तन और चरित्र को उभारने वाले प्रयोजनों में यह शक्ति लग सके तो उसकी परिणति उससे भी अधिक श्रेयस्कर हो सकती है, जितनी कि शासन द्वारा विभिन्न प्रकार के कल्याणकारी काम हाथ में लेने से सम्भव होती है। बलिष्ठता, सम्पदा और बुद्धिमत्ता को मानवी शक्ति माना जाता है किन्तु यदि थोड़ी गहराई में उतरकर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि अन्तराल की गहन परतों में विद्यमान आस्थाएँ ही उसकी सामर्थ्य हैं। उत्थान और पतन के लिए पूरी तरह वही जिम्मेदार है। व्यक्ति की महानता और राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता उसी के आधार पर विकसित होती है। यहाँ एक तथ्य और भी समझ लेना चाहिए कि इस शक्ति स्रोत को उभारने और दिशा देने का कार्य मात्र धर्म ही करता रहा है। भविष्य में भी वही करेगा। यहाँ धर्मतत्त्व से तात्पर्य आस्थाओं को उत्कृष्टता के साथ जोड़े रहने वाली उच्च स्तरीय अन्तःप्रेरणा से है। आज के सम्प्रदायवाद को तो उसकी छाया या विकृति ही कह सकते हैं।
शासन की विकृतियों को सुधारने के लिए जन आन्दोलन उभरते रहते हैं। अर्थ सन्तुलन के लिए भी वैयक्तिक और सामूहिक पुरुषार्थ तत्पर देखा जाता है। निर्वाह, विनोद, सुविधा, साधन, शिक्षा-चिकित्सा जैसे प्रसंगों में उत्साह और प्रयत्न संलग्न देखा जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि धर्मतत्त्व जैसे मानवी गरिमा के मेरुदण्ड को इस बुरी तरह उपेक्षित एवं विकृत स्थिति में रहने दिया जा रहा है, जिसमें वह जन साधारण में भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने और निहित स्वार्थों का निमित्त भर रहने के अतिरिक्त और कुछ कर ही न सके।
अराजकता सहन नहीं की जा सकती, दुर्भिक्ष, महामारी, दुर्घटना जैसी आपत्तियों से जूझने के लिए पुरुषार्थ उभरता है। फिर क्या कारण है कि धर्मरूपी अमृत को विष की भूमिका बनने के निमित्त विकृतियों के गर्त में गिराया जाय या गिरा रहने दिया जाय। भावना की सर्वोच्च क्षमता को प्रभावित परिष्कृत कर सकने वाले धर्मतत्त्व को मानवी उत्सर्ग की भूमिका निभाने से विमुख रहकर विनाशकारी विडम्बनाएँ रचने में प्रयुक्त होने दिया जाय तो इसे अत्यन्त कष्टकारक दुर्विपाक ही कहा जायेगा।
आवश्यकता इस बात की है कि स्थिति का पुनर्निरीक्षण किया जाय। भ्रान्तियों का कुहासा हटाया जाय और धर्म के मूल स्वरूप की उपयोगिता और उसके नाम पर चल रही प्रतिगामिता जन्य विभीषिका से सर्व साधारण को अवगत कराया जाय। धर्म और सम्प्रदाय के बीच क्या सम्बन्ध और क्या अन्तर है इसे समझने का अवसर मिलना ही चाहिए। आज तो गुड़ गोबर एक हो रहे हैं। असली के स्थान पर नकली की पूजा प्रतिष्ठा है।
जब चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हैं तो छोटे-बड़े सम्प्रदायों की संख्या हजारों में पाते हैं। इनमें से ईसाई, मुस्लिम, हिन्दू, बौद्ध, यहूदी पारसी आदि मुख्य हैं। इन प्रख्यातों में से भी हर एक की कई-कई शाखा-प्रशाखाएँ हैं। इस सन्दर्भ में हिन्दू धर्म के अन्तर्गत जातियों, उपजातियों की रूपरेखा भी एक प्रकार से छोटे सम्प्रदायों जैसी बन गई हैं। शैव, शाक्त, वैष्णव, रामानन्द, कृष्ण उपासक आदि देवताओं के नाम पर, क्षेत्रों और परम्पराओं के नाम पर इनके इतने विभाजन हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है कि इतने विभेदों से भरे समुदाय को एक कैसे कहा जाय? न केवल हिन्दुओं में वरन् मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध आदि में भी कई-कई भेद-उपभेद वाले सम्प्रदायों की भरमार है।
यह धर्म अपनी नीति परम्परा बनाये रहते और दूसरों को अपने रास्ते चलने देते तो ठीक रहता। अच्छा होता सभी मिलकर एक सर्वोपयोगी प्रक्रिया अपना लेते अथवा विभेदों को घटाकर जितने सीमित कर सकते थे, कर लेते। पर ऐसा हुआ नहीं। धर्मधारणा से अपने अनुयाइयों का अन्तःकरण अनुप्राणित करने के लक्ष्य से भटककर कर वे उस उग्रवादी हठवादिता को अपनाने लगे जिसमें मात्र अपने को ही सही तथा अन्य सबों को गलत माना जाने लगा। अपनी मान्यताओं को ही ईश्वर निर्मित मानना, अपने ही पैगम्बरों को सर्वोच्च मानना उसी सीमा तक सह्य या उचित कहा जा सकता है जहाँ तक कि उस समुदाय की अपनी श्रद्धा की सीमा हो। किन्तु अन्यान्य सभी सम्प्रदायों को मिथ्या कैसे कहा जाय?
विडम्बना तो यह है कि सम्प्रदायों की परिभाषा ही बदल दी गयी है। जहाँ धर्म को समग्र रूप में माना जाना चाहिए था वहाँ आज सम्प्रदायों को ही धर्म कहा जाने लगा है, जबकि धर्म तना है और सम्प्रदाय उसके शाखा पल्लव। धर्म की आत्मा एकता की, शालीनता की, उदार सहकारिता की पक्षधर है, जबकि सम्प्रदाय कर्मकाण्डों, प्रथा-प्रचलनों को ही सब कुछ मानते हैं और उन्हें अपनाने भर से पुण्य अर्जन एवं ईश्वर प्राप्ति की बात कहते हैं। धर्म शाश्वत है और साम्प्रदायिक प्रचलन परिवर्तनशील। हर सम्प्रदाय पर समय का प्रभाव पड़ा है। रूढ़ियों और विकृतियों ने अड्डा जमाया है, तदनुरूप सुधारक आगे आते और संशोधन परिवर्तन करते रहे हैं। साम्प्रदायिक प्रचलनों की उपयोगिता तभी है, जब वे धर्म की मूलभूत आस्था के साथ जुड़े रहे और मानवी उत्कृष्टता का, सहकार सद्भाव का वातावरण बनाये रहे।
समय की माँग है कि नीर क्षीर विवेक का सरंजाम जुटाया जाय। यथार्थता और विडम्बना के अन्तर को समझने का अवसर सर्व साधारण को दिया जाय। यह गुड़ गोबर किस कारण हुआ? धर्म की आत्मा अपने स्थान से क्यों पदच्युत हुई और उसके स्थान पर अवांछनीयता कैसे आ विराजी? लोगों ने धर्मश्रद्धा के आवेग में अधार्मिकता को कैसे गले बाँध लिया? इस इतिहास की शृंखला को समझना ही पड़ेगा भले ही वह कितना ही कष्टकर, अप्रिय एवं अरुचिकर क्यों न हो?
मवाद को निकालने के लिए जहाँ नश्तर लगाने की आवश्यकता है वहाँ घाव भरने के लिए
तत्काल मरहम पट्टी की व्यवस्था भी बननी है। अन्यथा खुला घाव प्रकारान्तर से भरे
हुए मवाद की तरह ही नई व्यवस्था खड़ी कर देगा। धर्म के नाम पर प्रचलित अवांछनीयताएँ
हटें पर साथ ही तत्काल उसका स्थान भरने के लिए धर्म के वास्तविक स्वरूप में न केवल
जनमानस को प्रवेश कराया जाय वरन् उसे अभिनव परम्परा के रूप में अपनाये जाने के
लिए प्रयत्न भी किया जाय।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार