आध्यात्मिक क्रान्ति की सबसे बड़ी आवश्यकता

विशिष्ट वसन्त पंचमी व्याख्यान ( १९८९)

(यहाँ हम दे रहे हैं परम वन्दनीया माता जी के श्रीमुख से दिया गया वसन्त पंचमी का विशेष उद्बोधन सन्देश। १९८६ के उद्बोधन के बाद परम पूज्य गुरुदेव कभी शान्तिकुञ्ज में मुख्य प्रवचन मंच पर नहीं आए। उसके बाद यह उत्तरदायित्व माता जी ने ही सँभाला। यह उद्बोधन विशिष्ट भी है, प्रेरणादायी भी। )

गायत्री मंत्र हमारे साथ बोलें—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनो! आज वसन्त पर्व, उल्लास का पर्व है। यह गुरु जी का जन्म दिन है, बहुत हँसी-खुशी और प्रसन्नता प्रेरणा का पर्व है। आज से ठीक ६३ वर्ष पूर्व उनके जीवन में एक क्रान्ति आई और उस क्रान्ति के नाम पर ही उनका यह जन्म दिन है, और उसी को समर्पित है। क्रान्ति आई उनके जीवन में, गुरुदेव के रूप में, छाया के रूप में और प्रेरणा के रूप में एवं वही उनका जन्म दिन हो गया। यों तो वह ८० वर्ष के लगभग हो गए, उस दिन को जब वे जन्मे हम जन्म दिन नहीं मनाते। यही जन्मदिन है, जो उनका आध्यात्मिक जन्मदिन है, इसी को हम मनाते हैं और हर वर्ष एक नया संकल्प लिया जाता है, उसी संकल्प को पूरा करते हैं। इसी को उन्होंने जीवन भर जन्म दिन माना। लाखों ने हम से दीक्षा ली है और सम्भव है उनसे, गुरुजी से भी कभी ली होगी। अब तो वे दीक्षा नहीं देते किन्तु छाया के रूप में सतत हमारे साथ रहते हैं। मैं समझती हूँ कि उनसे यानी गुरुजी से जिन्होंने दीक्षा ली है लाखों ने सम्भव है कलावा बँधवाया होगा। मंत्र दीक्षा ली होगी पर क्रिया के रूप में वे उतार पाए क्या? मैं समझती हूँ, अधिकांश नहीं उतार पाए। लेकिन उन्होंने जिस दिन से अपनी दीक्षा का दिन माना और अपना नया जन्म माना, क्रान्तिकारी जीवन उसके बाद उनने जिया। उनका सारा का सारा जीवन क्रम परिवर्तित होता चला गया। कहते हैं कि च्यवन ऋषि जवान हुए थे। मालूम नहीं कि वे जवान हुए थे या नहीं हुए थे। बुढ़ापा आखिर बुढ़ापा ही होता है। अवस्था भी एक अवस्था ही होती है। झुर्रियाँ भी पड़ेंगी, कमर भी झुकेगी, लेकिन एक माने में जरूर जवान हो गए होंगे। जिसका मतलब है उत्साह, जिसका मतलब है शक्ति। शक्ति जिस व्यक्ति के अन्दर है वह कभी बूढ़ा नहीं होता, गुरुजी कभी बुड्ढे नहीं हो सकते। वे न तो आज बूढ़े हैं और न हजार साल बाद बुड्ढे होंगे। यह शरीर तो रहेगा नहीं, सूक्ष्म रूप में रहेगा कहीं न कहीं। यह तो भगवान मालिक है जिसने तय किया है कि जिसने जन्म लिया है वह नहीं रहने वाला। वो तो हम जाएँगे ही, लेकिन यह कलंक का टीका लेकर नहीं जाएँगे कि एक ऐसे महामानव हुए जो बूढ़े होकर के गए। बूढ़े होकर के नहीं जवान, जवान। हर समय उनके नस नाड़ियाँ बेटो! इस रूप में फड़फड़ाती रहती हैं, हर दिशाओं में। आध्यात्मिक क्षेत्र से लेकर, सामाजिक क्षेत्र तक उनको परिवर्तन ही परिवर्तन दिखाई देता है। वही है उनकी तपश्चर्या। जब से उन्होंने शुरू की अपनी साधना तब से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, हमेशा आगे की लाइन में चले। उन्होंने कहा कि क्रान्ति करेंगे तो जन क्रान्ति करेंगे। आध्यात्मिक क्षेत्र में क्रान्ति है तो क्रान्ति है इसको कोई पीछे नहीं हटा सकता। अवरोध तो आते ही रहते हैं। अवरोधों की परवाह उन्होंने नहीं की। जो आगे-आगे चलता है वह विजेता होता है और जो पीछे चलता है उसका कोर्टमार्शल होता है और वह भगोड़ों में गिना जाता है। वे भगोड़ों में नहीं गए, वे हमेशा आगे की पंक्ति में गिने गए। वे महामानवों में गिने गए। जहाँ कहीं संसार में महामानवों की गिनती होगी उनमें गुरुजी की होगी, बिल्कुल होगी। मैं तो यह कहती हूँ कि वे देवताओं के समतुल्य, भगवान के समतुल्य हैं। लोग कहेंगे कि आप भगवान घोषित करती हैं, मैं तो भगवान से भी ऊपर की बात कहती हैं और आगे बढ़ा सकती हूँ। क्यों आप इतना बड़ा शब्द बोलती हैं? अरे बेटो! तुम साथ में नहीं रहे। जिन्दगी का कितना बड़ा अरसा मैंने उनके साथ बिताया है। आप उन गहराइयों में नहीं जा सकते, जिन गहराइयों में मैं गई हूँ और उनसे जुड़ी हूँ। साथ उनके हर क्षण। हम दोनों एक प्राण हैं। एक प्राण की तरह से हम घुले। हमें मालूम है कि कहाँ से कहाँ और किस तरीके से और कहाँ तक मंजिल पार करके आए। आप उन बातों को सुनेंगे? मैं आपका समय बर्बाद नहीं करूँगी, अरे माता जी तो गुरुजी की तारीफ करने ही बैठी हैं और इन्हें कोई काम ही नहीं है, हाँ मुझे तारीफ करने दीजिए और यह तो वास्तविकता है, तारीफ नहीं है।

जिस दिन से उन्होंने पग बढ़ाए आध्यात्मिकता के क्षेत्र में वह कितनी बड़ी क्रान्ति थी? आज तो दुनियाँ नहीं समझ सकेगी। गाँधी जी जब तक सामने रहे तब तक लोगों ने उनकी कीमत नहीं समझी, लेकिन जब चले गए तो उन्हें मालूम हुआ कि गाँधी जी क्या थे? गुरुजी के पीछे भी यही मालूम पड़ेगा कि एक महामानव आया। आखिर कौन था, क्या था? आपको नहीं मालूम पड़ेगा। वह भगवान की एक शक्ति थी जो संसार को हिला देने में समर्थ थी और उसने वही किया जो करना चाहिए। यों तो भगवान की शक्ति हर मनुष्य में होती है, पर उस शक्ति का उपयोग सब कोई नहीं कर पाता और जिस सत्ता से जुड़े हुए हैं, उसका लाभ नहीं उठा पाते, यह उनका दुर्भाग्य कहिए या नासमझी कहिए या प्रलोभन कहिए, वह आप दीजिए, सही बात यह है कि लोग समझ ही नहीं पाते। अपनी क्षुद्र बुद्धि से केवल क्षणिक लाभ ही उन्हें दिखाई देता है, पारलौकिक सम्पदाएँ हैं किसी को नहीं मालूम? विश्व मानव के रूप में जो भगवान है, इसकी सेवा हमको दिखाई नहीं पड़ती। नहीं, हमें दिखाई नहीं पड़ती। तो कौन सी दिखाई पड़ती है? वो दिखाई पड़ती है जिनसे हम जुड़े हुए हैं जिनको हम दो-पाँच अपने कुटुम्बी कहते हैं। उन्हीं में हमारा सारा का सारा जीवन निकलता चला जाता है और एक रोज मर कर हम मौत की भट्टी में चले जाते हैं, कोई अर्थ है? कोई अर्थ नहीं। कोई अस्तित्व नहीं। अस्तित्व तब है, जब मनुष्य अपने जीवन के प्रति जागरूक होता है, सतर्क होता है और उसे भान होता है कि हम किस लिए आए थे? भगवान ने हमको भेजा है आखिर किस उद्देश्य के लिए, किस कार्य के लिए भेजा है? यह भूल जाते हैं। उन्होंने उसे गाँठ बाँधकर रक्खा कि मुझको जो भेजा है आखिर किस उद्देश्य के लिए किसी विशेष लक्ष्य के लिए, किसी विशेष कार्य के लिए भेजा है? तो वे हर तरीके से गुरुजी की आज्ञा का पालन करते रहे। उन्होंने उनकी वाणी का महत्त्व समझ लिया। जो प्रेरणा उनसे मिली, इसके अलावा मुझे कुछ करना ही नहीं है, पीछे मुड़कर देखना ही नहीं। उसे क्या देखना है? आगे की जिन्दगी को देखना है, विश्व को देखना है, वर्तमान को क्या देखना है? आगे जो भविष्य है, इसका क्या होगा? जो आज ये समय चल रहा है इसके प्रति कितने चिन्तित हैं, नहीं मालूम। जितने वो चिन्तित हैं, उतने ही आशावादी भी हैं। आशावादी भी है कि "२१वीं सदी उज्ज्वल भविष्य" लेकर के आ रही है। ये कम नहीं है कि जो भयावह स्थितियाँ हैं, परिस्थितियाँ हैं वे दिखाई दे रही हैं। देश की, विदेश की, राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ हैं उनसे आप भी वाकिफ हैं क्योंकि आप लोग भी पढ़े-लिखे हैं और आप बुद्धिजीवी हैं। आप पढ़ते हैं, समझते हैं आपको मालूम है कि कैसा समय गुजर रहा है? तो इस समय में, हम क्या कर सकते हैं, वह सारा का सारा उनके दिमाग में एक नक्शे की तरह से है।

जो दिन भर वे कमाते हैं शाम को पल्ला झाड़ देते हैं। सब का सब दे डालते हैं और बेटे जिनको यह रहता है कि उनको देना नहीं है, हमको तो अपना जोड़कर रखना है, ऐसा सँभाल कर रखना कि चोर न ले जाएँ, डकैत न ले जाएँ उनका क्या कहना और बच्चों सही पूछो तो ले ही जाते हैं। एक लड़की आई थी बोली माता जी मेरा इतना नुकसान हो गया, तो मैंने कहा कि क्या किया था तूने? मेरा यह था कि भगवान के चरणों में रखूँगी और अपनी लड़की की शादी में लगाऊँगी इसको। जो तेरी नियत थी, सो हो गया, वह मुड़कर आई और चोर उठा ले गए उसको। तू लगाती अपनी लड़की की शादी में, वह और किसी की शादी में लग गया, क्या फरक पड़ता है? कभी यह भी सोचा क्या कि सारा का सारा समाज यह भी अपना अंग है? यह भी तो हमारा ही है। इसके प्रति कुछ जिम्मेदारियाँ हैं, देख! गुरुजी ने जिम्मेदारियाँ समझीं कि जो दौलत के रूप में मिला? आध्यात्मिक दौलत के रूप में मिला, पैसे के रूप में नहीं, पैसे की कभी अपेक्षा नहीं की, पर आता ही गया, कोई काम रुका भी नहीं, कोई काम रुका है, नहीं। इतने बड़े-बड़े संकल्प उन्होंने जिन्दगी में किए हैं, वह सारे के सारे पूरे हुए हैं, अपने लिए किए होते तब एक-आध कोठी होती, बँगला होता, राजनीति में बने होते तो न जाने क्या बन गए होते? मंत्री-वंत्री इतने ही बने होते। उन्होंने आध्यात्मिक जिन्दगी में प्रवेश किया तब, इसमें आगे बढ़े, अपनी संकीर्णता को छोड़ा, तब क्या कमी है इतनी बड़ी दौलत है कि यदि आपको गिनाने बैठें बेटे, तो पसीना आ जाएगा, इतनी दौलत है कि बस आप से क्या कहें? इस हिन्दुस्तान में इतनी दौलत कहाँ है? माता जी, आप तो कहती हैं कि हमारे दोनों का कहीं एकाउन्ट नहीं है, मगर राज को हम जानते हैं आप नहीं जानते। ये जानते हैं कि आप ही तो ट्रस्टी हैं लाओ साइन करा ले जाएँ, करा ले जा बेटे, क्या सब मिल जाएगा? तुमको खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा तुझे क्या पता हमारी दौलत का? हमारे पास वह दौलत है जो सामने बैठी है जो सामने बैठी है, यह है। इतनी दौलत, पैसे के रूप में मिली और हमें परिजनों के रूप में मिली, उनके प्यार के रूप में मिली। आखिर यह कहाँ से आई? कहाँ से माता जी, यह गुरु मंत्र हमें बता दो हम भी दौलत खोदकर ले जाएँ, नहीं बेटे वह नहीं ला पाओगे, अपने को जब इतना विशाल बना लोगे तब ला पाओगे। इतना विशाल जितना तुम्हारे गुरुजी। अपने गुरुजी की तरह अपने आपको बनाइए, ऐसा विशाल।

एक आपको छोटी सी घटना बताती हूँ। मैं ज्यादा तो नहीं बताऊँगी क्योंकि अपने जीवन की पर्तें खोलनी जरूरी हैं क्या? कोई जरूरी नहीं है, लेकिन प्रेरणा के रूप में यदि आप ग्रहण करना चाहें तो आप कर भी सकते हैं कि गुरुजी अज्ञातवास गए और मेरे लिए मनाही थी कि तुम ना आना, मुझे मालूम नहीं था कि कहाँ हैं? वहाँ तक की बात अलग है। जब मालूम पड़ा अमुक स्थान पर हैं, पर मेरे लिए जाना वर्जित कर दिया गया था और यह कहा था कि तुम मत आना क्योंकि तुम्हारी तबियत खराब हो जाती है, जाने कहाँ से कहाँ पैदल चलना पड़ेगा। जबकि उन्होंने जितना पूजा-उपासना को महत्त्व दिया, समाज सेवा को दिया उससे कम मुझे भी नहीं दिया, मैं ऐसा समझती हूँ। अपने मन में मेरा मान और सम्मान किया, इतना कि मैं योग्य नहीं हूँ जितना कि उनके हृदय में मेरा सम्मान है। हाँ अपार सम्मान है। दुःख का, दर्द का इतना ध्यान रखते हैं कि शायद ही कोई खुशनसीब उन महिलाओं को भी जिनका पति ख्याल रखता होगा। मेरा तो पति नहीं...परमेश्वर ही है, परमेश्वर ही है, यही कहूँगी। हाँ तो मैं नहीं मानी, मैं चली गई, जाकर के ठहर गई जब कि मुझे मालूम नहीं था कि कहाँ हैं पर ढूँढा व पहुँच गई। मैं जाकर के जब ठहरी तो देखा कि कुछ पत्तियाँ उबली हुई रक्खी हैं। कुछ खा गए कुछ रक्खी थीं, उसमें नमक भी ज्यादा था, सामने बैठ गए। स्वयं बोले क्या लाऊँ, मैं तुम्हारे लिए? मैंने कहा कि जो मैं चाहती थी वह मिल गया। मुझे शेष क्या चाहिए? इतना मेरा कहना था कि मेरे आँसू निकल पड़े। उसमें से एक पत्ती अपने मुँह में डाली, वह इतनी कड़वी थी जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकती और मैंने उस पत्ते को गले में उतार लिया। मैंने कहा, मैं तो घर में बैठी रही और बच्चों का पालन-पोषण करती रही, जो उनका आदर्श था, कि हमने इतना विशाल परिवार बनाया है। इस परिवार की तुम माँ हो, यदि तुम मेरे साथ चलती हो तो यह बच्चे छूट जाएँगे, तुम्हें यह देखना है। तो मैंने कहा जो आपकी आज्ञा है वही मेरे लिए शिरोधार्य है और मैंने आप सब को उस समय छाती से लगाए रक्खा। मैंने कहा कि जो कहा है उसी का पालन होगा मैं बस पानी पीकर उठ गई। इतने गहन चिन्तन में चली गई कि मैंने सब कुछ खाया एक साल में और खिलाया भी, और इन्होंने किस तरीके से एक साल निकाला यहाँ? तो बेटी! जब से उनने होश सँभाला होगा, उनका जिह्वा पर इतना कन्ट्रोल है, कि बहुत कन्ट्रोल है, तभी उनकी जिह्वा पर सरस्वती है। आज सरस्वती का जन्म भी है। कला के भी पुजारी हैं तो उनकी जबान पर सरस्वती है जो कह देते हैं, पूरी हो जाती है। आखिर कैसे हो जाती है और क्यों हो जाती है? मैं आपको सुना रही हूँ कि इसलिए हो जाती है कि अपनी जीभ को ऐसे कस कर रक्खा है जैसे जम्बू से कस लेते हैं, उतना उनको अपने पर नियंत्रण है, तपस्या पर उनको विश्वास है, गुरु के प्रति आस्था है और श्रद्धा है, जो उनको मिला है उपहार में। कितना मिला है, मिलता हुआ, चला जा रहा है और मिलता हुआ चला जाएगा। आप देखना कि कितना मिलता हुआ चला जाता है। कभी अपने लिए उन्होंने चार पैसे भी खर्च नहीं किए। कभी भी उन्होंने अपने आप लाकर खाया नहीं। कभी भी उन्होंने अपने आप लाकर कपड़ा नहीं पहना, कभी अपने आप लाकर खाया नहीं, मैं ही कपड़ा लाती रही हूँ। है तो सब उन्हीं का, मैं तो निमित्त मात्र हूँ लेकिन मैं बताती हूँ उन्होंने कभी भी भौतिक चीजों को महत्त्व नहीं दिया और एक से एक बड़ा व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता हुआ चला गया। जो लोग ये देखते नहीं, जो ये सोचते हैं कि जो कुछ है हमारा शरीर ही है, जो है वह भौतिक सुविधा है, जो हमको आज मिल रही है वही हमारे जीवन की श्रेष्ठतम है उनके लिए क्या कहूँ बस! मैंने आपको गुरुजी का उदाहरण दिया, उदाहरण दिया शिक्षा नहीं। यह वह पर्व है कि आप गुरुजी के जन्म दिवस पर शामिल हुए। शामिल हुए हैं तो आप संकल्प लीजिए, कुछ करके दिखाइए। उन्होंने अपने जीवन में करके दिखाया है आप भी करके दिखाइए। नहीं दिखाएँगे तो आप पछताते रहेंगे कि एक व्यक्ति आया, उसने कहा कि मुझे कुछ दीजिए, मेरी झोली में डालिए। मन ने कहा—नहीं! अरे अतिथि ने कहा कि आपकी झोली भरी हुई है, अरे उस में से कुछ तो डालिए, लेकिन संकीर्ण, मन कुछ न दे सका, एक दाना उठाया और हाथ में रख दिया उस भिखारी के, भिखारी लेकर चला गया, चला गया जो झोली अनाज से भरी थी, अब आकर के उसने देखा, तो उसमें एक दाना सोने का था, उसने सर पटका। अरे मैं कितना मूर्ख था? जो घर-आए भगवान को दे न सका क्योंकि यदि सारी झोली उड़ेल दी होती तो सारे के सारे दाने सोने के हो जाते। यदि मेरा संकीर्ण मन न होता, पर अब क्या करूँ? मैंने एक दाना जो दिया था वही एक दाना आ गया सोने के रूप में।

ये भगवान की खेती है। इस खेती में जैसा बोया जाएगा, वैसा ही वह काटेगा। मक्का बोएँगे एक दाना, तो हजार दाने के रूप में आ जाएगा। बाजरा बोएँगे बाजरा आ जाएगा, जो बोएँगे वही आएगा। शुभ और अशुभ कर्म जो किए हैं उनके अनुसार ही मिलेगा, करते तो हैं अशुभ कर्म, चाहते हैं शुभ। ऐसे नहीं, जो करेंगे वही पाएँगे। बुरा करेंगे तो अनेक बुरे कामों का फल मिलता हुआ चला जाएगा। अच्छे करिए तो अच्छाइयाँ मिलती हुई चली जाएँगी। जन श्रद्धा का कार्य करेंगे, जन श्रद्धा वापस अपनी ओर उमड़ेंगी। क्यों? सारी की सारी जिन्दगी उन्होंने दाँव पर लगा दी उसी के लिए। लौट के आएगी कैसे नहीं? गुंबज की आवाज, आवाज दीजिए, लौटकर जाएगी, पीछे आएगी आपके पास ही आएगी, आ जा। जैसा आप बोएँगे वैसा ही काटेंगे, बोया और काटा यह सिद्धान्त सही है, और जिसने बोया ही नहीं है, बोना जानता ही नहीं है। पानी ही नहीं है भूमि ही बंजर है, भूमि उसकी उपजाऊ नहीं है, निराई-गुड़ाई उसने की नहीं है, खाद लगाया नहीं है, अरे तो बीज कोई कहाँ तक डालेगा? बीज डालेगा भी तो सड़ जाएगा, क्योंकि उनके कुसंस्कार हैं, संस्कार नहीं हैं। संस्कार हैं तो ही वह शक्ति के रूप में जुड़ेगा। ऐसे भी व्यक्ति हुए हैं जो महामानव के साथ जुड़ करके महान होते हुए चले गए और ऐसे भी हुए हैं जो महामानव के पास रहे, पर जैसे के तैसे ही रहे और गए गुजरे ही रहे। ऐसा कैसे हो गया इनको मिली, उनको नहीं मिली। भगवान के यहाँ कभी पक्षपात नहीं होता, गुरु भी पक्षपात किसी के साथ नहीं करता। जितनी उसकी श्रद्धा होती है और भावनाएँ होती हैं उतना ही उसे मिल जाता है। अर्जुन की भी भावनाएँ थीं जो द्रोणाचार्य से सीखा। एकलव्य की आस्था थी तो वह धनुर्विद्या में, उससे भी ज्यादा पारंगत हो गए, अर्जुन से भी ज्यादा। क्योंकि उसकी श्रद्धा थी। उनने कहा कि मैंने शिक्षा गुरु बनाकर ली है, मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं। यही मुझे सिखाएँगे और उसने पा लिया, वरदान उसको मिल गया। मिलता उसको है जो उनकी शक्ति के प्रति जागरूक होता है। जागरूक नहीं होता तो, वैसा का वैसा ही रह जाता।

एक कहानी सुनाऊँ आपको। भगवान बुद्ध से एक शिष्य यह पूछने लगे कि ये बताइए कि महामानव कैसे बन जाते हैं और छोटे से छोटा व्यक्ति महान कार्य कैसे कर लेता है? बड़े से बड़ा व्यक्ति क्यों नहीं कर पाता? इसमें लखपति, करोड़पति, राजा, महाराजा और बड़े-बड़े अधिकारी ही ये काम नहीं कर सकते और एक छोटे से घर में पैदा हुआ व्यक्ति किस तरीके से छलाँग लगा सकता है और बलवान हो सकता है, उसे आत्मबल कैसे मिल सकता है, यह बात आप मुझे बतलाइए? थोड़ी देर सोचने लगे कि क्या जवाब दिया जाए? इसको कैसे समझ में आए कि किस तरीके से शक्ति मिलती है, उस शक्ति का उपयोग करते भी हैं कि नहीं करते। यदि आपने उसका सदुपयोग किया है तो शक्ति की कभी कमी नहीं पड़ेगी। बिलकुल कमी नहीं पड़ेगी, जरा भी, रत्ती भर भी कमी नहीं पड़ सकती, उसके अन्दर यदि विश्वास है कि जिससे हम जुड़े हैं उसकी शक्ति हमारे अन्दर आ रही है और वह काम कर रही है फिर देखें काम होता है कि नहीं होता है। हमारे तो जरा-जरा से लड़के हैं, आपके इतने बड़े हैं। जरा-जरा सी लड़कियाँ गई थीं हमने सन् १९७५ में टोली निकाली थी वहाँ तहलका मचा कर आईं "जरा जरा सी लड़कियाँ"। यह क्या सिखाकर के भेजा है। मालूम नहीं बेटे। वे देव कन्याएँ थीं हमारी, जहाँ जाती थीं लोग दाँतों तले उँगली दबाकर रह जाते थे। जरा-जरा सी बच्चियाँ, क्या से क्या बना दिया है, अभी देखते जाओ क्या से क्या बनाते हैं। तो उनसे पूछा गया, बताइए? बुद्ध ने कहा अभी सुनाता हूँ। उन्होंने कहानी सुनाई एक राजा था। उसके यहाँ था एक हाथी, हाथी था, लड़ाई के मैदान में जाता था। जब जवान था तब लड़ाई के मैदान में काम करता था। खूब काम किया, अब वह हो गया बुड्ढा। जब बुड्ढा हो गया, बुड्ढा माने "नाउम्मीद" अर्थात् जिसके अन्दर कोई हलचल नहीं, उत्साह नहीं, तमन्ना नहीं कि हमें कुछ करना है, उसे बुड्ढा कहते हैं, हाथी ऐसा हो गया कि ना उसे चारा मिले, ना पानी मिले। बिचारा तालाब के किनारे गया और तालाब में उसे पानी नहीं मिला। वह आगे बढ़ता हुआ चला गया और कीचड़ में धँसता हुआ चला गया, अब उससे निकलते ही न बने। निकलते नहीं बना तो उस समय एक सैनिक था बहुत होशियार। उसने कहा निकलेगा, इसकी शक्ति का इजहार करना है तो उन्होंने वहीं फौजी पोशाक पहनकर के बिगुल बजाया, तो वह जो हाथी था, उसने सूँड चारों तरफ फेंकी। उनने और तेज आवाज की, तो हाथी अपने आप निकल आया। लोगों ने कहा कि यह क्या हुआ? ये हुआ कि उसकी जो शक्ति सोई हुई थी, उसे जगा दिया, इसको जगा दिया उसे भान हो गया कि मुझ में क्या कमी है कि मैं बुड्ढा हो गया, मेरी अन्तर आत्मा तो बुड्ढी नहीं हुई। जब मेरी अन्तरात्मा बुड्ढी नहीं हुई है, तो शरीर कैसे बुड्ढा हो सकता है? बेटे! शरीर बुड्ढा नहीं हो सकता, वह हाथी फिर लड़ाई के मैदान में चला गया, देखते ही रह गए लोग कि जिस बुड्ढे हाथी में जान नहीं थी, जो पानी भी पीने में समर्थ नहीं था वही हाथी अब फिर लड़ाई के मैदान में चला गया।

वही शक्ति बेटो अब आपको भी दी जा रही है। आपमें यदि सामर्थ्य होगी और वास्तव में हाथी की तरह आप दल-दल से, प्रलोभनों से, लोभ-मोह की जंजीरों से निकल सकते हैं तो आप बराबर आगे बढ़ते चले जाएँगे। जो शक्ति हाथी के लिए नियत थी, वह शक्ति आपके लिए भी है। आपसे तो और भी ज्यादा काम लेना है। मैंने दो कहानी आपको सुनाई एक तो सुनाई सोने के दाने की, एक यह सुनाई शक्ति की। ये दो कहानी आपको सुनाई हैं। आप इसको पल्ले से बाँधकर ले जाना। अरे ये क्या हुआ, हम तो वरदान लेने आए थे कहाँ धन-दौलत होगा, कारोबार में फायदा होगा, हम तो आज के दिन आशीर्वाद लेने आए थे, यह क्या दे रही हैं? हम तो आपको वही दे रही हैं कि इसी के सहारे आपकी नाव चलती है, वो जो आप माँगने आए हैं क्षणिक हैं। ला वह दिलवा दूँगी, गायत्री माता से कहेंगे गुरुजी से कहेंगे आपकी झोली भर जाएगी, देखना न मानो तो जाकर देखना कि तेरे को मिला कि नहीं मिला। यहाँ जो काम कर रहे हैं, सब के सब को फायदा होगा। फिर क्या होगा, जहाँ के तहाँ रह जाओगे। आप वह चीजें माँगिए जिससे, यह लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएँ। जो शक्ति आपको मिले, उस शक्ति को विश्व मानव में बिखेरते हुए चले जाओ, नहीं तो आप संकीर्ण हो जाओगे, हम अपने बच्चों को संकीर्ण देखना नहीं चाहते। ना हममें संकीर्णता है ना हम संकीर्ण देखना चाहते हैं और जो संकीर्ण बनकर रहेगा, तो बेटा बौना हो जाएगा, शरीर की दृष्टि से छोटा हो जाएगा। क्योंकि आज की जो आवश्यकता है जो भविष्य की तरफ चेतावनी है उसकी तरफ नहीं देख रहे, अपना ही अपना राग अलाप रहे हैं, अपना-अपना राग नहीं अलापेंगे, आज उस सन्त से जुड़े हुए हैं जिसने कि सारी जिन्दगी अपनी दाँव पर लगा दी है। अब आप उसके साथ हैं। जानते हो कि नहीं कि जो समूह में बैठे रहते हैं, जुआरी वहाँ जुआरी दाँव पर सब लगाता जाता है, उसी प्रकार हमने भी अपना जीवन दाँव पर लगा दिया है। जिस किसी में भी हिम्मत हो वह हमारे साथ चले और यह वायदा दे कि हम चलेंगे, आपको चलाते हुए चले जाएँगे। लेकिन अर्जुन की तरह? तो बेटे आपको उठना ही पड़ेगा, अर्जुन ने मनाकर दिया था। यह कहा था कि सब मेरे भाई-भतीजे, कुटुम्बी हैं, इनको मैं कैसे मारूँगा? मुझसे नहीं मारे जाएँगे। कृष्ण ने कहा—अर्जुन तुमसे नहीं मारे जाएँगे। मार तो मैं एक क्षण में दूँगा, लेकिन श्रेय तुझे नहीं मिलेगा, मुझे ही मिलेगा। तू श्रेय ले, मारूँगा मैं। सारथी हूँ तेरे पीछे। ये तो अंत:करण है, विराजमान है अनेक रूपों में। जब तक आप उनसे लड़ेंगे नहीं, नहीं मारेंगे। इनका ही तो दमन करना है। तो आप अर्जुन के तरीके से ज्ञान गाण्डीव उठाएँगे। अपने अन्तर में जो कौरव विराजमान हैं, उनसे लड़ने के लिए, तब तक वह नहीं हो सकेगा जो हम चाहते हैं। जो हमारे अन्तर में, समाज में, राष्ट्र में फैले हुए हैं उन कौरवों का कोई नाम ले सकते हैं, हम कौरव ही कहेंगे। इस महाभारत को, जीतने के लिए, अर्जुन को गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा, अर्जुन जब गाण्डीव उठाएगा तब कृष्ण भी पीछे नहीं रहेगा, पीछे से वह धक्का लगाएगा कि आनन्द आ जाएगा, क्योंकि दाएँ-बाएँ एक कृष्ण ही अकेले थे। यहाँ तो हम दो हैं, एक और एक दो नहीं एक पर एक ग्यारह। तुम्हारे साथ जब हम दो हैं तो फिर यह अजूबा काम नहीं कर सकता क्या? आप आगे की पंक्ति में नहीं आ सकते? आगे नहीं चल सकते? आपमें क्या कमी है? मेरी निगाह से पूछिए आप प्रत्येक में इतनी शक्ति भरी पड़ी है कि मैं आपसे क्या कहूँ? मैं आपसे कुछ कह नहीं सकती, इतनी अपार शक्ति आपको मिल रही है, यदि आपने इसका उपयोग नहीं किया तो उस सेठ के बच्चे के तरीके से आप पछताते रहेंगे जो सेठ मरते समय अपने बच्चे के गले में कण्ठा पहना गया था हीरों का और उसने यह कहा था कि अब तो चला चली का ही मेला है। तो सेठ ने कण्ठा बाँध दिया, कि जब हम नहीं रहेंगे ये बच्चा इसमें से निकालता रहेगा और खाता रहेगा और इसके जीवन की नाव किनारे पर लग जाएगी। मैं भी सब के गले में कण्ठा बाँध दूँगी और बाँध भी दिया है। उसे आप खाएँगे या फेंक देंगे, हमें नहीं मालूम। क्या कोई और लाभ उठाएगा या आप उठाएँगे? हमें कुछ नहीं मालूम। लेकिन आप कण्ठा बाँध कर जरूर जा रहे हैं। जब दोनों माता-पिता नहीं रहे, वह छोटा सा बच्चा रह गया। बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ तो भूखों मरने लगा, जब भूखों मरने लगा तो एक जौहरी जा रहा था। उसने कहा इधर आना बेटे, तुम गर्दन में यह क्या पहने हो? पता नहीं क्या है? मेरे माँ-बाप पहना गए थे, उसमें से एक दाना निकाला और एक दाना बेच करके आ गए। वह तो लाखों का बिका, अरे बेवकूफ! तू तो क्या तेरी पीढ़ी दर पीढ़ी खाती हुई चली जाएगी। यह तो इतनी दौलत है बेटे। आज वही दौलत देते हुए जा रहे हैं कि अब जो दौलत आपको दी है आपको ब्याज दर ब्याज होता हुआ चला जाएगा। सारे समाज को लाभ मिलना चाहिए, अब उसको हम ही खा लेंगे। नहीं उसे तुम अकेले नहीं खा पाओगे। आप लाभ लीजिए और दूसरों को लाभ दीजिए। यह कहानी मैंने आपको बताई जो अनुदान और वरदान मिलते हैं जाने और अनजाने में, झोली भरती हुई चली जाती है और हम उसको नहीं समझ पाते। देने वाला तो हमें इतना देता है पर हम क्या करें? गाने की एक कड़ी याद आ रही है—

बहुत दिया देने वाले ने मुझे, आँचल ही में न समाए तो क्या।

देने वाले ने तो इतना दिया है, शरीर के रूपों में, हम करोड़ों की सम्पत्ति से ज्यादा लेकर बैठे हैं। हमारे अंग का एक भी हिस्सा खराब हो जाता है तो कितना कष्ट होता है, इतना अनुदान और वरदान से हमारी झोली को भर दिया है, आँचल में ही न समाए तो क्या करूँ? हमारे तो समाता ही नहीं, न जाने कहाँ-कहाँ फेंकते फिरते हैं, कहाँ से मारे कहाँ फिरते रहते हैं, हम सोचते ही नहीं, अपने जीवन के बारे में कि हमारा जीवन हम काहे के लिए पैदा हुए थे और किस तरीके से इसका श्रेष्ठतम उपयोग हो सकता है? यदि गहराई से विचारें तो एक-एक क्षण इतना मूल्यवान है कि करोड़ों की सम्पत्ति एक क्षण के ऊपर फेंकी जा सकती है। यदि इजहार करें तो इतना मूल्यवान यह समय है, समय यदि निकल गया तो पछताते रह जाएँगे। अभी लड़कियाँ गाना गा रही थीं—

साधना सिर पटकती रहे जिन्दगी भर,
सिद्धि ऐसी कभी भी नहीं आएगी।

हाँ बेटे! जिन्दगी भर पछताना ही रह जाएगा कि हम इस जिन्दगी का सही उपयोग न कर सके क्योंकि जो हमको करना चाहिए था वह हमने किया नहीं। पतन और पीड़ा के रूप में सारा समाज चिल्लाता रहा। सारा राज्य, सारा विश्व हमारी तरफ देखता रहा, कहता रहा कि एक सन्त दुनियाँ में पैदा हुआ था, जिसने यह बीड़ा उठाया था कि हम सारे संसार में क्रान्ति लाकर रहेंगे और वह करेंगे बौद्धिक क्रान्ति। बौद्धिकता से व्यक्ति पंगु हो गया है, बच्चे को लकवा हो गया, पोलियो हो गया है, इसका उपचार होना चाहिए हम इसको देकर के रहेंगे। लेकिन हाय रे कैसे दुर्भाग्यशाली निकले कि हम उसका जरा भी उपयोग न कर पाए और जो उनसे जुड़े थे ये आशा थी कि इस सन्त के साथ जो जुड़े हैं इनके द्वारा मार्गदर्शन मिलेगा, इनके द्वारा प्रेरणा मिलेगी क्योंकि इन्हें इस योग्य बना दिया गया है। प्राण फूँक दिए गए हैं। हम कुछ न कर सके यह पछताना न रह जाए, उस समय से पहले आप चेत जाएँ तो ज्यादा अच्छा है। आप आज के दिन यह संकल्प लेकर जाइए कि जो गुरुजी की आकांक्षाएँ हैं, कामनाएँ हैं, कामनाएँ तो हम लेकर आए हैं माताजी। यह तो आप सही कह रहे हैं, हमारे आप बच्चे हैं, कुटुम्बी हैं भाई, भतीजे कुटुम्बी सब हमारे हैं। आपका जरूर अधिकार है जब आप माँगें और हम समर्थ हों बेटे देंगे। जो समर्थ नहीं हैं उसकी तो हम कह नहीं सकते। भगवान तो हम हैं नहीं, जो सारी की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण कर दें, लेकिन आप विश्वास रखिए कि हम यदि देने में समर्थ होंगे तो आपकी जरूर झोली भरी जाएगी, हम उनमें से नहीं हैं जो बचाकर रखेंगे। हम सारे के सारे दाने आपकी झोली में उड़ेलकर ही जाएँगे, निश्चित जाएँगे लेकिन हमारी भी तो कामना है कुछ? आप समर्थ हो गए हैं। दाढ़ी-मूँछ वाले हैं, माँ-बाप की भी कुछ कल्पनाएँ होती हैं बच्चों से, कि वह पुरुषार्थ करेगा, कमाएगा, खिलाएगा, हमारे पाँव दाबेगा, कपड़े धोएगा, पर हमारा तो नहीं है यह उद्देश्य आपका निजी कार्य? बेटे! ऐसा कभी न सोचना। न सोचेंगे, है ही नहीं काम तो करेंगे क्या? कोई कपड़ा लाता है तो सोचते हैं क्यों इसका तिरस्कार करें। भावनावश लाता है, मना करें तो कहेंगे हमारी भावनाओं का सम्मान नहीं किया, हो सकता है, पहन लें लेकिन अंतःकरण हमारा ऐसा नहीं है। हमारे स्वार्थ के लिए आवश्यकता है बिलकुल नहीं। खूब कमा लेते हैं। हमें तो हमारी नाव का खिवैया है लाखों का पेट भर सकता है। आप क्या करेंगे हम तो अपने आप भर लेते हैं, गुरुजी के लम्बे-लम्बे हाथ और माता जी के मोटे-मोटे हाथ। एक भी पड़ जाए तो नानी याद आ जाएगी, कोई कमी नहीं है। आपकी आस्था की कमी है, आपके विश्वास की कमी है, आपकी श्रद्धा की कमी है, इतने भर की कमी है और किसी बात की कमी नहीं है। हमारे पास धन-दौलत की कमी है, बिलकुल नहीं और किसी चीज की कमी है माताजी बिलकुल नहीं है, कोई चीज की आवश्यकता है? बूढ़े हो गए हैं, कुछ खाने को चाहिए। नहीं बेटे! हमें नहीं चाहिए, रहने को चाहिए, बिलकुल नहीं चाहिए। पहनने का मँगा लेते हैं मथुरा से। अभी हमारा दे गया बेटा ६ साड़ी, अभी तो फटी नहीं। मैं क्या करूँगी बता? चल तेरा मान होता है तो रख लेती हूँ, वितरित कर देती हूँ लेकिन हमको बहुत आवश्यकता है किसकी? एक-एक लड़के की आवश्यकता है। जिस समय लड़ाई छिड़ती है उस समय क्या होता है? फौज की आवश्यकता होती है। एक जमाना था जब सिक्खों के घर से एक सिक्ख होता था, कभी कोई जमाना था। लड़ाई के समय हर घर से एक जाता था और हम भी यही चाहते हैं कि हमारा प्रत्येक परिजन मोर्चे के लिए सतर्क, साहस, जिम्मेदारी भरी सक्रियता लाए, जो गुरुजी चाहते हैं वह करे। क्या चाहते हैं वह? सारे के सारे कार्यकर्ता बताते रहते हैं कि किस चीज की आवश्यकता है, आवश्यकता एक ही चीज की है वो कि अन्धकार को मिटाना चाहिए, उजाला होना चाहिए। सद्विचार आने चाहिए, कुविचार जाने चाहिए। अब कैसे जाएँगे, करना क्या पड़ेगा? ये तो सब बताते रहेंगे, क्या करना पड़ेगा, यह मेरा विषय नहीं है।

मेरा विषय है तो केवल आस्था, वह है निष्ठा, वह है श्रद्धा। मैं देखती हूँ आप में सब में विद्यमान है, ऐसा कोई नहीं जिसमें श्रद्धा नहीं हो। श्रद्धा है आपके पास, पर बुरा मत मानिए, मैं मार भी लेती हूँ और पुचकार भी लेती हूँ। बाद में कोई बात नहीं जब रूठ जाओगे तो मना लूँगी। माँ में विशेषता होती है, वह यह है कि वह सतत देती रहती है। किन्तु आपका मन डाल-डाल और पात-पात घूमता रहता है कि किया क्या जाए न मालूम कौन साथ दे जाए इनमें? शायद शंकर जी दे जाएँ, हनुमान जी दे जाएँ, चण्डी देवी दे जाए कि सन्तोषी माता दे जाए, गुरुजी दे जाएँ कि माता जी दे जाएँ। जाने कौन हमारे सामने आ जाए, उसे ही हम पकड़ लें। क्या करें? कोई नहीं करे, जैसे बहुरूपिया करता है बगुला बैठा रहता है, जहाँ देखी मछली कुडाक निगल जाता है। ये नहीं होना चाहिए। एक लक्ष्य होना चाहिए, जो हमने फैसला कर लिया, वही होगा। आजीवन निर्वाह करना? यदि आजीवन निर्वाह करेंगे तो हम आपके साथ हैं। आपके जीवन के रूप में चलाने की जिम्मेदारी हमारी है और गाण्डीव उठाना आपका काम है, चलिए। जैसे सूरदास की लकड़ी को लेकर कृष्ण चलते थे और मीरा के साथ कृष्ण नाचते थे। हम आपके साथ नाचेंगे? हमारे मन में तो कितनी गन्दगी भरी पड़ी है, मनसा देवी पर जाएँगे। ५ पैसा चढ़ाएँगे पाँच मनोकामनाएँ वहाँ भी होंगी, पाँच मनोकामनाएँ पूर्ण कर दें। तब हम सन्तोषी माता के भक्त हैं। सन्तोष है? जीवन में तो सन्तोष नहीं। माता के भक्त कैसे हो गए? उनके बिलकुल भक्त नहीं। शंकरजी के नहीं, भाँग धतूरा चढ़ा आओ जो झोले में हो, निकाल लाओ। शंकर जी भी घाट-घाट का पानी पीते हैं। "एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाए" एक का पल्ला पकड़ लेंगे तो बस उसी में बेड़ा पार हो जाएगा। मैं आपको कहाँ से कहाँ ले गई...........शायद आपकी श्रद्धा को कोई चोट पहुँची हो, यह सोच रहे हों कि माताजी को ऐसा नहीं कहना चाहिए था, ऐसा कह दिया। बेटा क्या करूँ जो जबान पर आया, कह दिया। मैं अपने कुटुम्बियों के सामने भी न कहूँ तो आखिर किसके सामने कहूँ? अनीति के विरुद्ध आप नहीं उठेंगे तो कौन उठेगा? हम आपको उठाने के लिए कहते हैं तो किस-किस तरह हमें उठाना पड़ेगा, अनेकों हमारे समाज में विकृतियाँ हैं, बुराइयाँ हैं, कोढ़ हैं, उस कोढ़ का नाम दहेज भी है, उस कोढ़ का नाम मृत्यु भोज भी है, उस कोढ़ का नाम छुआछूत भी है, उसकी अनेक टहनियाँ निकलती हैं। विकृतियों की उस विकृति के प्रति उस महाभारत के प्रति आप के अन्दर जरा भी भावना काम न करे। साहस न जागे, जरा भी साहस न जगे कि हमको समाज व देश में कुछ करना भी है क्या? आपको उठना चाहिए। यह समय की पुकार है, समय की यह आवश्यकता है, जो कि आपको आगे बढ़ना चाहिए, गुरुजी की भी आपसे आशा है और बेटे एक माँ की भी आशा है, आपसे कुछ माँगने नहीं आए हैं, लेकिन आपसे एक ही चीज माँगने आई हूँ, वो है आपका समय। समय निकालिए और जो भी आप कर सकते हों, ज्यादा से ज्यादा आप करिए? क्या करें यह सब लड़के आपको कहते रहते हैं, क्या करना चाहिए। आपको प्रज्ञा मण्डलों की स्थापना करनी चाहिए, व्यक्तित्व निर्माण के लिए। आप व्यक्ति निर्माण कीजिए। आप व्यक्ति निर्माण नहीं कर सकते? जहाँ सोना ढाला जाता है, लोहे की भट्टियाँ होती हैं। भट्टियों में ही लोहा गलाया जाता है, सब जगह नहीं गलाया जाता। यह शान्तिकुञ्ज भट्टी है। टकसाल है। यहाँ महामानव बनाए जाते हैं। मानव बनाए जाते हैं। पहले तो इंसान, फिर मानव, फिर महामानव यहाँ बनाए जाते हैं। इस भट्टी में हम तपाएँगे। इस भट्टी में तपने के लिए जिसकी आस्था हो उसे। श्रद्धा हो उस व्यक्ति को भेजो, मरे-मराए आ जाएँगे तो हमें नहीं चाहिए, गंगाजी में डालने पड़ेंगे, कोई कहेगा आप अशुभ कैसे कह रही हैं? वह नहीं, मैं ठीक बोल रही हूँ। पढ़े-लिखे नहीं तो हम उनका क्या करेंगे? हमें वह व्यक्ति चाहिए जो खुद जानदार हैं और दूसरों में भी जान डालें। दूसरों में जान डालें ऐसे व्यक्ति हमको चाहिए ताकि सारे समाज को, राष्ट्र को उठाने में मदद करें। हमें प्राणवान चाहिए जिसमें डाल फूटे और फूटते हुए चली जाए। इसमें कितने ही लड़के हमारे ऐसे बैठे हैं, उनका हाथ चूमने को मन करता है, उनको छाती से लगाने का मन करता है कि शानदार, जानदार बच्चे बैठे हैं जो अपना घर छोड़कर भी आए, यह अपना समय दान से लेकर के कितना मिशन का काम करते हैं। पैसा मत दीजिए भले ही लेकिन समय दीजिए, हमें पैसा नहीं चाहिए, पैसा रक्खो। तुम्हें पैसा-पैसा की लगती है, हाय पैसे के बिना क्या हमारा काम नहीं चलेगा? तुम नहीं दोगे, तो भगवान देगा ऊपर से। भगवान ने सारे काम पूरे किए हैं, वही पूरा करता रहेगा। आपके पैसे के बिना मेरा कोई काम नहीं रुका पड़ा है। न मानो तो देखो अच्छे कार्य हेतु जो परिवर्तन आता है, जो क्रान्ति आती है, वो तो आकर ही रहेगी। वह रुकने वाली नहीं है, लेकिन बहती गंगा में हाथ पखार लो। यह बहती गंगा है। गंगा के पास भी आप बैठे रहे और प्यासे के प्यासे चले गए तो यह बेटे धिक्कार है, आपके लिए भी और हमारे लिए भी। आप हमारे सम्पर्क में हैं, आप जुड़े हुए हैं, गुरुजी से और आप अज्ञानी ही बने रहेंगे? अज्ञानी नहीं। आप ज्ञानवान की पंक्ति में आइए, आप आगे-आगे चलिए और पीछे हम हैं। आपकी पीठ थपथपाएँगे, आपको आगे करेंगे, हम पीछे रहेंगे। आगे रहेंगे, नहीं बेटे हम आगे बच्चों को करेंगे। हर माता-पिता यह चाहते हैं कि हमारा लड़का आगे-आगे चले और हम पीछे-पीछे चलें। श्रेय आपको देंगे, शक्ति आपको देंगे। बराबर आपके अन्दर शक्ति आती ही चली जाएगी जैसे कि गुरुजी के अन्दर शक्ति आती हुई चली गई क्योंकि उनके गुरु की शक्ति उन्हें मिलती चली गई। वह सारा का सारा आप देख रहे हैं, और उनकी तपश्चर्या भी, उन्होंने सारे समाज को अनुदान दिया है, वह आप देख रहे हैं, बुद्धि के रूप में और शरीर के रूप में और शक्तियों के रूप में, सिद्धियों के रूप में जो उन्हें मिला है, वही सारा का सारा अपने गुरुजी के चरणों में उनने न्यौछावर कर दिया। हम यह तो नहीं कहते कि आप सारी धन-दौलत समर्पित कर जाओ। नहीं बेटे! आप तो एक चीज समर्पित कर जाओ, आपकी निष्ठा, आपकी भावना। आपकी संकीर्णता है उसको छोड़कर चले जाइए, बस। आगे की पंक्ति में आप योद्धा की तरह से चलिए, आपको शक्ति हर समय मिलती रहेगी और आज का दिन शक्ति का ही दिन है, उसी का पर्व है। आज के दिन ही उनके गुरु छाया के रूप में आए और उनको प्रेरणा शक्ति का पुँज बना गए। जो आज आप देख रहे हैं, इससे आप भी प्रेरणा लीजिए, आप भी शक्ति लीजिए, यह शक्ति वितरण का ही दिन है। आज गुरुजी का जन्म दिन है। आइए, हम और आप उनके लिए प्रार्थना करें कि हे भगवान! जो दीपक आज के दिन जला था, वह लाखों वर्ष तक प्रकाश देता रहे। बस यही हम सबकी प्रार्थना है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।