परिष्कृत तपःपूत वाणी से होते हैं चमत्कार

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

दिलेरी और हिम्मत

देवियो, भाइयो! हिम्मत और मनोबल ही समस्त सफलताओं का मूल है। डाकू सुनसान में अकेला ही चल पड़ता है और डकैती डालने के बाद फिर से जंगल में, बीहड़ में चला जाता है। बीहड़ कैसे होते हैं? भाई साहब! बीहड़ ऐसे होते हैं, जिनमें झाड़ियाँ होती हैं, खाई-खंड्ड होते हैं। फिर वह रात को कहाँ सोया करता है? किसी खाई-खड्ड में जाकर पड़ा रहता है और सो जाता है। खाई-खड्ड में साँप-बिच्छू आ जाएँ तो? हाँ, साँप-बिच्छू आ जाएँगे तो काट सकते हैं। वहाँ रात के अँधियारे में बत्ती तो जलती होगी? नहीं साहब! बिजली नहीं जलती, घोर अँधेरा छाया रहता है। सुनसान जंगल के अँधेरे में ठोकर भी लग सकती है। लेकिन ठोकरों का मुकाबला करते हुए, साँप-बिच्छू का डर, भूत का डर मन से निकाल करके वह डाकू हिम्मत के साथ, बहादुरी के साथ आगे बढ़ता चला जाता है। इसी का नाम डकैत है। हिम्मत का, मनोबल का बस यही फायदा है।

मित्रो! शरीर के हिसाब से, वजन के हिसाब से आदमी-आदमी में कोई खास फरक नहीं होता। डाकू और साधारण आदमी में क्या फरक होता है? दोनों में केवल यही फरक होता है कि एक में बहुत हिम्मत होती है। हिम्मत की कीमत पर एक-दो डाकू ही सारे के सारे गाँव में तहलका मचा देते हैं, सबको डरा देते हैं, सब पर हावी हो जाते हैं और सबका माल लूटकर के चंपत हो जाते हैं। गाँव में पचास-सौ आदमी रहते हैं, पर दो ही डाकू उन्हें लूटकर चले जाते हैं। दोनों में क्या फरक है? हिम्मत का है। छोटे-बड़े सभी कामों में जो रिस्की काम होते हैं, उनमें हिम्मत काम करती है। दुनिया में महापुरुष क्या करते हैं? बेटे! वे रिस्की काम करते हैं। उन्होंने हमेशा जिंदगी का जुआ खेला है, महापुरुष जुआरी होते हैं। मारे गए तो? मारे भी जा सकते हैं। वे किस तरीके से रिस्क उठाते हैं? रिस्क उठाने में एक चीज की जरूरत है, जिसका नाम है—दिलेरी और हिम्मत। दिलेरी और हिम्मत बढ़ाने का एक तरीका है—जप।

जप के साथ भी जरूरी है यह ताकत

मित्रो! आप जप करते हैं। ठीक है, आप जप भी करें, लेकिन साथ में दिलेरी भी बढ़ाइए। दिलेरी अगर आपके भीतर नहीं है तो आपका जप लकीर पीटने के बराबर है। इससे कोई खास फायदा आपको नहीं हो सकता। इसीलिए जप में अनुष्ठानों की शक्ति ज्यादा बताई गई है। अनुष्ठानों के फल ज्यादा होते हैं। अनुष्ठानों में चमत्कार दिखाई पड़ते हैं। अनुष्ठानों की महिमा बहुत गाई गई है। गायत्री मंत्र वही होता है, माला वही होती है, जप भी वही होता है, पर अनुष्ठानों में शक्ति क्यों पैदा हो जाती है? क्योंकि इसमें कसाव-कड़क ज्यादा पैदा हो जाती है। आपको हमने यहाँ चांद्रायण व्रत करने के लिए बुलाया है और आपके साथ में कड़ाई बरतने का निश्चय किया है; जैसा कि प्रत्येक अनुष्ठानों में किया जाता रहा है और किया भी जाना चाहिए।

मित्रो! हमारे साथ हमारे गुरु ने कसाई और कड़ाई इस्तेमाल की। इस कड़ाई ने हमको मजबूत बना दिया है। हथौड़ों की चोट खा-खाकर के लोहा मजबूत बन जाता है, कड़क बन जाता है। उससे हथियार बन जाते हैं और औजार बन जाते हैं। पिटाई के बाद में, घिसाई के बाद में चाबुक के ऊपर अथवा तलवार के ऊपर धार तेज हो जाती है, नोक पैनी हो जाती है। घिसाई न करें तब? तब नोक पैनी नहीं हो सकती। चमक आ जाएगी? चमक भी नहीं आ सकती। किसके ऊपर? जो हथियार जो औजार हमारे पास हैं, उन पर चमक पैदा करने के लिए और धार तेज करने के लिए कसाई आवश्यक है। इसके लिए घिसाई होनी चाहिए, कड़ाई होनी चाहिए। अनुष्ठानों की प्रक्रिया के पीछे यही सिद्धांत काम करता है। अनुष्ठान के सामान्य नियम तो हम आपको नवरात्र में बताते और कराते रहे हैं। नवरात्र में जब भी आपने अनुष्ठान किए होंगे तो आपमें क्या फरक पड़ा है? सत्ताईस माला का जप करना पड़ा है। बेटे! सत्ताईस माला तो आप वैसे भी कर सकते हैं। चारपाई पर पड़े-पड़े मानसिक जाप भी कर सकते हैं। इसमें कोई रोक भी नहीं है, लेकिन किसी अनुष्ठान में आपके ऊपर क्या कोई प्रतिबंध, बंधन नहीं लगाया गया है? आपके ऊपर कोई कड़ाई नहीं की गई? आपके भीतर के मनोबल का इम्तहान नहीं लिया गया और इस बात की परीक्षा नहीं हुई कि इतनी कड़क बरदाश्त करने के लिए आपके भीतर संकल्प और मनोबल है कि नहीं?

कसाई और कड़ाई से आती है जप में सामर्थ्य

संकल्प और मनोबल जब हम उपासना में लगा देते हैं तो उपासना सामर्थ्यवान हो जाती है; शक्तिशाली हो जाती है; चमत्कारी हो जाती है और फल दिखाने लगती है। मित्रो! हमारे ऊपर जो कसाई और कड़ाई बरती गई, हम चाहते हैं कि उस कसाई और कड़ाई का आप भी महत्त्व समझें। न केवल महत्त्व समझें, बल्कि उसको स्वीकार करने के लिए हिम्मत भी दिखाएँ। हमारी जिंदगी के चौबीस अनुष्ठान—हर साल में हमने एक अनुष्ठान पूरा किया है। कितने समय में पूरा किया है? प्रतिदिन छह घंटे में किया है। साहब! छह घंटे में हम भी कर लें तो? आपके में और हमारे में फरक पड़ता है। कैसे पड़ता है? हमारे शरीर के ऊपर बहुत सारे बंधन थे। उनमें ढील की कोई गुंजाइश नहीं थी। आसन के बारे में आपको मालूम नहीं है कि एक ही आसन में बैठना चाहिए। क्यों साहब! लंबे पैर कर लें, लंबी टाँग कर लें, इधर बैठ जाएँ, उधर घूम लें तो? नहीं भाई साहब! आप ऐसा नहीं कर सकते हैं। जरा कसिए तो सही अपने शरीर को। कड़क तो कीजिए। जरा दबाव तो डालिए अपने ऊपर। जब दबाव डालेंगे, तब आपको मालूम पड़ेगा और प्रत्येक क्षण यह महसूस होगा कि हमको कसा गया था और हम अपने को तपाने के बाद ही निकल कर आए हैं।

जीभ की घिसाई हो—पकाया जाए

साथियो! चांद्रायण व्रत कई तरह के होते हैं। आप बच्चों को देखकर के हम कुछ ढील भी कर देते हैं। जिनमें मनोबल का अभाव होता है, जिनके तन-मन बहुत कमजोर होते हैं, उनके लिए हम शिशु चांद्रायण व्रत कराते हैं। इससे कम से कम उन्हें यह तो मालूम पड़े कि उन्होंने भी ऐसा कुछ किया था। साथ ही वे यह महसूस करें कि वे भी तप की कठोरता को बरदाश्त कर सकते हैं। मन तो मन है। मन को साधा व सिखाया भी जा सकता है। कुछ चांद्रायण व्रत के तरीके ज्यादा कड़े भी हैं। ज्यादा कड़े नियम हम आपको इसलिए नहीं बताते, क्योंकि आप उन्हें निभा नहीं पाएँगे। जितना वजन आप उठा नहीं सकते, जितना भार बरदाश्त नहीं कर सकते, उतना भार हम आपके ऊपर नहीं डालते, लेकिन हमारे ऊपर कसाव और कड़ाई बराबर रखे गए हैं। हम आपसे खान-पान के संबंध में निवेदन कर रहे थे। खान-पान के संबंध में भी हमारे ऊपर कड़ाई लागू की गई। क्या कड़ाई लागू की गई? मित्रो! चौबीस साल तक हमें यह हुक्म दिया गया कि जिस जीभ से आपको जप करना है; जिस जीभ से मंत्रों का उच्चारण करना है; जिस जीभ से भगवान की प्रार्थना करनी है; जिस जीभ से लोगों को वरदान देने हैं; आशीर्वाद देने हैं; जिस जीभ से लोगों को ऐसा सलाह-मशविरा देना है, जिसे वे मानने को तैयार हो जाएँ; जिस जीभ से ऐसे व्याख्यान देने हैं, जो लोगों के हृदयों में कोई विचार पैदा कर सकें—उस जीभ को उसी तरह से मुश्तैद करना चाहिए; उसी तरीके से उसकी घिसाई करनी चाहिए; उसी तरीके से पकाया जाना चाहिए, जिस तरीके से लोहे को स्टील बनाने के लिए, फौलाद बनाने के लिए पकाया और गरम किया जाता है। फिर? फिर जिस तरीके से तलवार के ऊपर धार रखी जाती है, तलवार, घिसी हुई तलवार जिस तरीके से मजबूत और सही काम करती है, उसी तरीके से हमारी जीभ को उस तलवार का काम करना है। इसीलिए हमारी जीभ पर बहुत सारे बंधन लगा दिए गए और यह कहा गया कि इस जीभ के साथ में आपको सख्ती के साथ पेश आना चाहिए। जीभ के साथ में हम चौबीस साल तक बराबर सख्ती से पेश आए।

कसने का परिणाम : जीभ में आई ताकत

मित्रो! दूसरों को खाते हुए देखकर हमारा भी मन खाने को किया होगा। जीभ ने कहा—दूसरे लोग ज्यादा खाते हैं तो हमको भी खाना चाहिए। जीभ से हमने कहा—नहीं, आपको हमारा कहना मानना पड़ेगा। आप हमारे मुँह में रहती हैं, हमारे घर में रहती हैं। हम आपके घर में नहीं रहते। आप हमारा कहना क्यों नहीं मानेगी! जीभ ने कहा—फिर तो हमको छुट्टी दे दीजिए। नहीं, आपको छुट्टी नहीं दे सकते। आप हमारे लिए पैदा की गई हैं और हमारे घर में रखी गई हैं। इसलिए आपकी गुलामी हमको स्वीकार नहीं है। आपको हमारी गुलामी स्वीकार करनी चाहिए। साथियो! जीभ के साथ हमारी बराबर जद्दोजहद होती रही। जीभ ने चौबीस साल में कई बार कहा—भाई साहब! हमको भी मिठाई खिला दीजिए। जब घर में त्योहार आते, ब्याह-शादियाँ होती तो जीभ कहती—आपको भी खाना चाहिए। हमने कहा नहीं, हमारे ऊपर बंधन लगा दिया गया है। हमारे ऊपर कुछ सिद्धांत लागू होते हैं। सब लोग तो खाते हैं? सब लोगों की नकल हम नहीं कर सकते। सब लोगों में और साधक में फरक होता है। साधक, साधक होता है। तपस्वी, तपस्वी होता है। ब्राह्मण, ब्राह्मण होता है। लोग, लोग होते हैं। लोग तो बड़े वाहियात, बड़े स्वार्थी और बड़े ढीले होते हैं। लोग तो अपने लिए ज्यादा छूट चाहते हैं, लेकिन साधक को अपने लिए छूट चाहने का अधिकार भी नहीं रहता। ऐसा हमने जीभ से कहा और उसने हमारा कहना मान लिया।

मित्रो! चौबीस साल तक जीभ को बंधन में रखने का परिणाम यह हुआ कि उससे जो मंत्र बोले गए, जो जप-तप किए गए, वे सब सामर्थ्यवान हुए। उन्होंने फल दिखाए, चमत्कार दिखाए। अगर यह कसावट न होती तब? तब हम कुछ नहीं कह सकते। हाँ, जप की संख्या तो पूरी हो जाती। संख्या पूरी हो जाने के बाद में कोई परिणाम सामने आ सकते थे? नहीं, क्योंकि यदि जीभ को नियंत्रित न किया होता तो शायद परिणाम न आते। जीभ में चमत्कार होते हैं। जीभ से लोगों को कथा सुनाई जा सकती है, व्याख्यान दिए जा सकते हैं। जीभ से लोगों के कल्याण किए जा सकते हैं। ऐसी जीभ जो अनुष्ठान के द्वारा पकाई जाती है, वह बहुत शानदार होनी चाहिए। जीभ के चमत्कार का मैं आपको एक किस्सा, एक चमत्कार सुनाता हूँ। श्रृंगी ऋषि की जीभ ने कुछ शब्दों का उच्चारण करके और कुछ मंत्रों का उच्चारण करके राजा दशरथ को पुत्र उत्पन्न करने के आशीर्वाद दिए थे। वे सौ फीसदी सफल होकर के रहे। मंत्र सफल हुए थे? हाँ बेटे! उनकी जीभ से बोले गए मंत्र सफल हुए थे।

मंत्रों में सामर्थ्य आती है तप से

मंत्र में कोई शक्ति होती है? नहीं मित्रो! मंत्र में कोई शक्ति नहीं होती। मंत्र थोड़े से अक्षरों के समुच्चय का नाम है, जो छापेखाने में छपे हुए मिल सकते हैं। आप कहें तो हम इन अक्षरों को टेप करा सकते हैं और आप चाहे जहाँ सुनते-सुनाते रहिए। जप करते रहिए। यह देवी जी का मंत्र है, यह बिच्छू उतारने का, यह साँप दंश उतारने का मंत्र है। लाइए, हम टेप करा देंगे। ये सुना दिया करें? हाँ, भाई साहब! सुना दिया करिए। तो सुना देने से बिच्छू का दंश, साँप का दंश क्या अच्छा हो जाएगा? भूत भी भाग जाएगा? बेटे! हम कह नहीं सकते, पर मंत्र तो यही हैं। इनमें चमत्कार नहीं आएगा? शब्दों में शक्ति नहीं होती, पर मंत्र में शक्ति होती है। मंत्र में और शब्दों में क्या फरक होता है? केवल एक ही फरक पड़ता है कि मंत्र को उच्चारित करने के लिए साधक की वाणी, साधक का व्यक्तित्व, साधक का चरित्र, ये सब काम करते हैं और शब्द के उच्चारण करने में जीभ काम करती है। बस, और कुछ काम नहीं करता। शब्द किसी भी भाषा के बोल सकते हैं। संस्कृत के श्लोक बोल सकते हैं, मराठी भी बोल सकते हैं, अँगरेजी भी बोल सकते हैं। आप चाहे जिस भाषा में बोल सकते हैं। आपकी जीभ सही होनी चाहिए। बस, इतना काफी है।

अगर शब्दों का उच्चारण करने का नाम मंत्र है और इसमें केवल कुछ शब्दों को, अंकों को बार-बार उलटा-पलटा जाए तो मैं समझता हूँ कि यह हरेक के लिए सुगम है। साथ ही मंत्र के लिए कोई बंधन नहीं होना चाहिए कि अमुक आदमी मंत्र बोलेगा तो अमुक का यह फल होगा, तमुक का यह होगा। इस तरह का बंधन होना तो नहीं चाहिए, लेकिन हम देखते हैं कि वाणी का बहुत फरक होता है। जिन श्रृंगी ऋषि का किस्सा मैं अभी सुना रहा था, उन्हीं का एक और किस्सा मुझे याद आ गया। वह उनकी जीभ के संबंध में है। श्रृंगी ऋषि के पिता का नाम था शमीक। शमीक ऋषि उनके गुरु भी थे और पिता भी थे। उन्होंने स्वयं ही उनको दीक्षा दी और स्वयं ही अपने बच्चे को पढ़ाया भी था। जिस समय श्रृंगी ऋषि छोटे बच्चे ही थे और कहीं खेलने चले गए। उस समय क्या हुआ? राजा परीक्षित कहीं से आश्रम में आए। शमीक ऋषि तप में, ध्यान में बैठे हुए थे। राजा परीक्षित ने सोचा कि ये हमारे लिए उठकर खड़े नहीं हुए, हमको सम्मान नहीं दिया गया। उनको बहुत बुरा लगा। उन्होंने गाली गलौज तो दी नहीं, पर उनके साथ उन्होंने एक मजाक कर दिया। वहीं पास में एक मरा हुआ साँप पड़ा था, सो राजा परीक्षित ने उसे उठाकर के उनके गले में डाल दिया। किनके गले में डाल दिया? उनके, जिनका मैं शमीक ऋषि नाम ले रहा हूँ। ऋषि ध्यान में बैठे थे, सो उनको कुछ पता नहीं चला। राजा परीक्षित तो चले गए।

ऋषि की वाणी का चमत्कार

लेकिन जब शृंगी ऋषि आए तो उन्होंने देखा कि हमारे पिता का उपहास उड़ाने के लिए, मजाक उड़ाने के लिए किसी ने उनके गले में मरा हुआ साँप डाल दिया है। श्रृंगी ऋषि को बहुत गुस्सा आया कि हमारे पिता के साथ में ऐसा मखौल किसने किया है? वे क्रोधित हो गए, गुस्से के मारे आँखें लाल हो गईं। गुस्से में ही उन्होंने हाथ में जल लिया और यह कहा कि यह मरा हुआ साँप जिंदा हो जाए। मरा हुआ साँप जिंदा हो गया। मित्रो! मैं आपको वाणी का असर बता रहा हूँ। वाणी का चमत्कार बता रहा हूँ। साँप जब उठकर खड़ा हो गया, तो उनने उससे कहा कि देखिए, हमारे पिताजी का जिस किसी आदमी ने अपमान किया है, वह कहीं भी रहता हो—आसमान पर रहता हो या जमीन पर रहता हो—आप जाइए और तक्षक नाग से कहिए कि उसको एक सप्ताह के अंदर जान से मार डाले। वह जेलखाने में रहता है, पाताल में रहता है, लोहे की तिजोरी में रहता है—कहाँ रहता है? यह हमको नहीं मालूम है, पर यह तक्षक को पता लगाना चाहिए और उसके बचाव की जो सारी की सारी दीवार है, उसको तोड़कर आपको उसके ऊपर हमला करना चाहिए और उसको मार डालना चाहिए।

राजा परीक्षित की तलाश करने के लिए तक्षक फौरन चल पड़ा। साँप में शक्ति थी? नहीं भाई साहब! वह उनकी शक्ति थी, जिनकी वाणी ने मरे हुए साँप के ऊपर हावी होकर उसे जिंदा कर दिया था। वह शृंगी ऋषि की शक्ति थी, जो मरे हुए साँप को उठा करके, उसका लबादा ओढ़ करके चल पड़ी थी। साँप चला था? नहीं, साँप नहीं चला था। वह तो बहुत दिन पहले ही मर गया था। वह कैसे जिंदा हो जाता? फिर वह कैसे जिंदा हो गया और कैसे चला? वह इसलिए चला कि श्रृंगी ऋषि का शाप उस मरे हुए साँप की चमड़ी के भीतर हावी हो गया और तक्षक के माध्यम से हावी होकर के उस ओर चल पड़ा, जहाँ राजा परीक्षित थे।

मंत्र हैं शब्दभेदी बाण

शमीक ऋषि की जब आँखें खुली तो सारा माजरा देखा कि यह तो अनर्थ हो गया। राजा परीक्षित तो अज्ञानी था, लेकिन हमारे बेटे को तो ऐसा नहीं करना चाहिए था। खैर जो बात हो गई, सो हो गई। शब्दभेदी बाण चल गए और वे निशाने पर जा करके रहेंगे। बीच में कोई रोकेगा? अब ये रुकेंगे नहीं और रोके भी नहीं जा सकते। शृंगी ऋषि के शाप को कोई हटा नहीं सकता। तो अब क्या करना चाहिए? शमीक ऋषि ने फौरन राजा परीक्षित के पास खबर भेजी कि भाई! एक सप्ताह का समय रह गया है, तुम्हारी जान बचेगी नहीं, लेकिन कोई ऐसा इंतजाम कर सकते हो, जिससे तुम्हारी जिंदगी के बचे हुए दिन सार्थक हो जाएँ, तो ज्यादा अच्छा है। उनके संदेशवाहक गए और राजा परीक्षित को सूचित किया कि आपको एक सप्ताह के भीतर मौत के मुँह में जाना पड़ेगा और आप चाहे जितना बचाव कर लीजिए, आपका बचाव हो नहीं सकेगा।

मित्रो! इधर तक्षक चल पड़ा। परीक्षित के पास बहुत थोड़ा समय रह गया था। वे विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए? यहाँ से एक नया अध्याय प्रारंभ होता है और पहला अध्याय समाप्त होता है। किसका? श्रृंगी ऋषि का। मंत्र किसे कहते हैं? ऋषि की वाणी से निकला हुआ वचन मंत्र होता है। मंत्र की बनावट के ऊपर मत जाइए। नहीं साहब! मंत्र तो उसे कहते हैं, जो शब्दों का गुच्छा होता है। शब्दों का गुच्छा कैसे होता है? ऐसे होता है जैसे ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। यह क्या हो गया? शब्दों का गुच्छा हो गया। यह जरूरी नहीं कि संस्कृत में ही शब्द बोले जाएँ, मंत्र बोले जाएँ। अन्य देशों में संस्कृत में मंत्र नहीं बोले जाते। जो जिस देश की भाषा है, वे (मंत्र) उसी भाषा में बोले जाते हैं। ईसाइयों को संस्कृत भाषा में मंत्र नहीं आते। वे अंगरेजी के मंत्र बोलते हैं। जापान में संस्कृत नहीं बोली जाती, जबकि जापानी भी मंत्र साधना करते हैं। तो उनके मंत्र किस भाषा में होते हैं? जापानी भाषा में होते हैं। इसी तरीके से मुसलमान संस्कृत नहीं जानते। मुसलमानी देशों में भी मंत्र होते हैं, लेकिन वे संस्कृत भाषा में नहीं होते। तो फिर किस भाषा में होते हैं? उन्हीं की मुसलमानी भाषा में—अरबी, फारसी में होते हैं।

मंत्र निकलते हैं तपःपूत वाणी से

क्यों साहब! फिर शब्दों की बनावट और मंत्र की शक्ति तथा मंत्र के उच्चारण का क्या प्रभाव हुआ? भाई साहब! यह मंत्र के उच्चारण की शक्ति नहीं है, आप समझते क्यों नहीं हैं। कोई भी शब्द अगर ऋषि की वाणी से बोले जाएँगे, तो वे मंत्र हो जाएँगे। संस्कृत में हों तो क्या, अरबी में हों तो क्या, जापानी में हों तो क्या, अंगरेजी में हों तो क्या! भाषा से इनका कोई ताल्लुक नहीं है। आप तो केवल भाषा समझ पाते हैं और बार-बार यह शिकायत करते हैं कि इस भाषा में कोई अक्षर गलत हो गया होगा, उच्चारण गलत हो गया होगा, इसकी मात्रा गलत हो गई होगी। मित्रो! मंत्र मात्रा के ऊपर निर्भर नहीं है। वाल्मीकि ने शब्दों की दृष्टि से सही उच्चारण नहीं किया था। नारद जी ने उन्हें जो 'राम' नाम सिखाया था, वे सही 'राम' नाम उच्चारण करने में सफल नहीं हो सके। उन्होंने 'मरा'-'मरा' जपना शुरू कर दिया—प्रोनाउन्सिएशन गलत किया। 'मरा'-'मरा' होता है कि 'राम-राम'? भाई साहब! 'राम-राम' होता है। इसे बच्चे भी जानते हैं, किंतु उन्होंने तो उलटे अक्षर जप डाले, परंतु उनके उलटे अक्षर के जप भी सार्थक हो गए थे। क्यों? क्योंकि वे ऋषि की वाणी से निकले थे। ऋषि की वाणी से नहीं निकलते, तब? तब वह दिल्लगीबाजी है, मखौल है।

राम-नाम और नारायण का नाम लेने से कोई मुक्ति हो सकती है? भाई साहब! मुक्ति नहीं हो सकती। जब हम छोटे क्लासों में पढ़ते थे, पाँचवें दरजे की बात है। हमको एक किताब पढ़ाई जाती थी। उसमें एक बैरगिया नाले का किस्सा आता था। अब तो मालूम नहीं कि किसी किताब में आता है कि नहीं। आप लोगों में से किसी ने शायद पढ़ा हो, पर हमने पढ़ा था। उसमें चोरों ने इशारे बना रखे थे। उसमें कुछ ऐसा था—"बैरगिया नाला जुलम जोड़कर। तामें रहें साधु के भेष चोर।। नारायण-नारायण सो कहत नीच। ले जाएँ ताए नाले के बीच॥" इसमें इशारा था कि वो नारायण, नाले में ले जाओ। बस, ऐसे ही इशारे कर रखे थे। आप लोगों ने भी शब्दों के हिसाब से ऐसे ही इशारे कर रखे हों तो आपके शब्दों का उच्चारण किया जाना भी लगभग उसी तरह का जा पहुँचेगा, जैसे कि अभी मैं बैरगिया नाले का हवाला दे रहा था। आप शब्द का महत्त्व मत देखिए, शब्दों को महत्त्व मत दीजिए, कृपा कीजिए।

राम-नाम से मुक्ति

महाराज जी! राम-नाम लेने से मुक्ति हो सकती है? मुक्ति हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है तथा राम-नाम लेने से नरक में भी जा सकते हैं। कैसे? जैसे कि अभी मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि बैरगिया नाले के चोरों ने इशारे कर रखे थे। आप भी इशारे करके लोगों को बहकाने लगें, जेल में डालने लगें और लूटने लगें तो राम-नाम क्या करेगा? तब राम-नाम आपके लिए नुकसानदायक हो जाएगा। तब राम-नाम से मुक्ति नहीं हो सकती। नहीं साहब! राम-नाम से बहुतों की मुक्ति हो गई है। कौन-कौन से व्यक्तियों की हो गई है? खराब से खराब आदमियों की हो गई है। अच्छा तो आप जरा उनके नाम तो बताइए, फिर हम आपकी बात को मान लेंगे। केवल नामों के—शब्दों के उच्चारण करने से, जिसमें राम-नाम भी आता है और गायत्री मंत्र भी आता है, इन शब्दों का उच्चारण करने से जिन लोगों का भला हो गया है, उनमें से एक-दो का नाम तो बताइए। लीजिए साहब! बहुत से नाम बताते हैं। तो बताइए न? साहब! ये हैं—"गणिका, गीध, अजामिल तारे, तारे सदन कसाई।" इन लोगों ने राम का नाम लिया था और उनका उद्धार हो गया। बेशक, आपकी बात हमने मान ली, लेकिन एक बात का जवाब दीजिए, तब आपकी बात पूरी होगी। इसके पहले आपकी बात पूरी नहीं हो सकती।

(क्रमशः)

ऋषिकल्प जीवन के साथ राम-नाम

मित्रो! जिन लोगों ने राम-नाम लेना शुरू किया था, उससे पहले वे किस तरह की जिंदगी जी रहे थे? राम नाम लेने के बाद में, राम का भजन करने के बाद में वे ऋषि हुए थे कि नहीं हुए थे अथवा उसी तरह के घटिया आदमी बने हुए थे? जिनके-जिनके नाम आपने अभी लिए हैं, उनका हवाला दीजिए और यह बताइए कि जो राम-नाम जप करते थे और उनके मंत्र में जो चमत्कार आया था, तो उनकी जिंदगी का क्रम क्या था? जिस गणिका का नाम आपने पहले लिया था, उसका उद्धार हो गया था? हाँ साहब! राम-नाम लेने से गणिका का उद्धार हो गया था। अच्छा तो आप यह बताइए कि गणिका जो थी, राम-नाम जप करने के बाद में, राम नाम की दीक्षा लेने के बाद में वेश्यावृत्ति करती रही कि नहीं करती रही? नहीं साहब! फिर तो बंद कर दिया था। नहीं, बताइए, शायद करती रही हो? नहीं साहब! जिस दिन से उसने राम का नाम लिया, उस दिन से राम का काम करती रही तथा रामभक्त का उत्तरदायित्व उठाती रही।

मित्रो! राम के उत्तरदायित्व के लिए यह आवश्यक है कि आदमी को ऋषिकल्प जीवन जीना चाहिए। ऋषिकल्प जीवन की ओर जितनी मात्रा में आप आगे बढ़ेंगे, उतनी ही मात्रा में चमत्कार आ जाएगा। सौ फीसदी आप बढ़ सकेंगे तो सौ फीसदी चमत्कार आ जाएगा। पाँच फीसदी आपके भीतर ऋषिकल्प जीवन आ जाएगा तो पाँच फीसदी चमत्कार आ जाएगा। पंद्रह फीसदी में पंद्रह फीसदी चमत्कार आ जाएगा। शून्य प्रतिशत ऋषिकल्प आया तो मंत्र से आपको राई-रत्ती भर भी कोई लाभ नहीं होगा। मंत्र से फिर क्या फायदा होगा? मंत्र से बस, इतना ही फायदा होगा कि आप उतने समय तक खराब काम करने से रुके रहेंगे, बुरे काम नहीं करेंगे। रेडियो नहीं सुनेंगे। तो फिर क्या करें साहब? सीलोन रेडियो न सुनकर आप शाम को एक घंटा जप किया कीजिए। इससे आप गंदे फिल्मी गीत सुनने से बच गए और उस समय का उपयोग खराब काम में न होकर राम-नाम के जप में हो गया। बस, इसका इतना ही चमत्कार है, और कोई चमत्कार नहीं है; क्योंकि आपने इस बात को महसूस नहीं किया है कि आपका जीवन शालीन और श्रेष्ठ बनना चाहिए।

राम-नाम ने तारा तुलसीदास को

अच्छा, आप यह बताइए कि 'गणिका, गीध, अजामिल तारे' के अतिरिक्त और कौन-कौन से व्यक्ति हैं, जिनका उद्धार हो गया? हाँ साहब! तुलसीदास जी का उद्धार हो गया। तुलसीदास जी का उद्धार कैसे हो गया और उनमें क्या खराबी थी? साहब! आपको मालूम नहीं है, वे बहुत खराब आदमी थे। तुलसीदास जी बडे कामुक थे। उनकी काम-वासना इतनी तीव्र थी कि सावन के महीने में उनकी बीबी मायके गई हुई थी तो उन्होंने कहा कि हम तो अपनी पत्नी के पास जाएँगे। मुरदे के ऊपर सवारी गाँठकर उनने नदी पार की थी। घर वाले सब सोए हुए थे तो पनाले को छलाँग मारकर छत पर लटक रहे साँप को रस्सी समझकर ऊपर चढ़ गए थे और वहाँ जा पहुँचे थे, जहाँ सब सोए हुए थे। वहाँ बीबी को जगाया और पूछने पर बताया कि हम इस प्रकार से ऊपर चढ़े थे और तुमसे मिलने के लिए आए थे। बीबी ने धिक्कारते हुए कहा कि जितना प्रेम आपको हमसे है, इस शरीर से है, उतना प्रेम यदि आपको भगवान से होता तो आपका कल्याण भी हो सकता था।

उच्चारण मात्र नहीं, जीवन में उतरे

इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपना रवैया बदल लिया था। रवैया बदल लेने के बाद में जब राम-नाम लिया तो राम के नाम को अपनी जिंदगी में समावेश कर लिया। दोनों का समन्वय हो गया तो तुलसीदास जी का राम का नाम चमत्कार भी दिखाने लगा। कैसे? 'तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुवीर॥' तुलसीदास जी के पास तिलक देने के लिए रघुवीर स्वयं पहुँचे थे। तो महाराज जी! रामचंद्र जी हमारे पास आएँगे? आपके पास नहीं आएँगे। क्यों नहीं आएँगे? इसलिए नहीं आएँगे कि तुलसीदास जी ने राम के नाम को ग्रहण करने के पश्चात राम की रीति-नीति से जीवनयापन किया था। इसलिए उनके जीवन में चमत्कार आ गया। आप तो केवल शब्दाें का उच्चारण करते हैं और अपनी जिंदगी में उन तत्त्वों का समावेश नहीं करना चाहते तो फिर रामचंद्र जी आपका चंदन लगाने के लिए कैसे आ सकते हैं ! आप अपनी जिंदगी की बात को क्यों नहीं कहते? नहीं साहब! हम तो शब्दों की बात कहते हैं। शब्द काफी नहीं होते। शब्दों के साथ-साथ में उनका 'बैकग्राउंड' भी होना चाहिए। नहीं साहब! हम चैक काट देंगे। इतने रुपये का चैक काट देने से बैंक वाला उसे कैश नहीं करेगा और यों कहेगा कि पचास रुपये जमा हैं, तो आप पैंतालीस रुपये का चैक काट दीजिए. उनचास रुपये का काट दीजिए। इससे ज्यादा का चैक आप नहीं काट सकते।

राम-नाम ही नहीं, राम का काम

साथियो! आपके व्यक्तित्व के भीतर चेतना का जितना समावेश है, उसी हिसाब से आप चमत्कार दिखा सकते हैं। तो अच्छा! ऐसे होता है? हाँ भाई साहब! यही बात है। वाल्मीकि राम का नाम लेने से ऋषि हो गए थे। आप भी ऋषि होना चाहते हैं? साहब! उसी प्रकार से हम भी ऋषि होना चाहते हैं, जिस प्रकार से वाल्मीकि राम का नाम लेने से संत और ऋषि हो गए थे। तो आप एक बात बताइए कि वे राम का नाम जपते थे? हाँ साहब! जपते थे। आप भी जप करेंगे? हाँ साहब! हम भी जप करेंगे। अच्छा तो यह बताइए कि नारद जी से राम-नाम की दीक्षा लेने के बाद में क्या वाल्मीकि ने डकैतियाँ डाली थीं? नहीं साहब! उसके बाद तो नहीं डाली थीं; क्योंकि उन्होंने देखा कि जिस रास्ते पर चलना है, उसी रास्ते पर चलना चाहिए। चलना हो ऋषिकेश की तरफ और आप मुख कर डालें हरिद्धार की तरफ, तो आप फिर गंतव्य पर कैसे पहुँचेंगे! राम-नाम का जप करना चाहते हैं तो जो राम के नाम के ढंग और तरीके, नियम और कायदे तथा मर्यादाएँ हैं, उन्हें आप अख्तियार कीजिए। अगर आप नहीं कर सकते तो राम का नाम लेना बंद कीजिए।

अपने मन को देखें

नहीं साहब! हमारी मरजी तो ऐसी है, जैसी रावण की थी। रावण बहुत मालदार बनना चाहता था और अपने बेटे-पोतों के लिए दौलत जमा करना चाहता था। बेटे! मैंने समझ लिया कि आपका रास्ता कौन सा है? अभी आप किसका नाम ले रहे थे? नाम तो हम रामचंद्र जी का ले रहे थे। मेरी समझ से आपने गलती कर दी। आपको रावण का जप करना चाहिए था। क्या करना चाहिए था आपको? फिर आपको हमसे नया मंत्र पूछना चाहिए था। अगर आपका मकसद यह था कि हमको रावण के तरीके से मालदार और दौलतमंद होना चाहिए और हमारी सारी की सारी ताकत और सारी की सारी अक्ल जो खरच हो, वह केवल दो आदमियों के लिए होनी चाहिए, जिसमें हमारे बेटे और पोते के अलावा तीसरा शामिल नहीं हो सकता। अगर आपकी मरजी यही थी तो फिर आपने राम के नाम को झमेले में क्यों डाला? जिस जगह जाना था, उसका टिकट क्यों नहीं लिया? नहीं साहब! हमको तो हरिद्वार जाना था। तो भाई साहब! आपने ऋषिकेश का टिकट क्यों लिया? कलकत्ता (कोलकाता) जा रहे थे तो फिर आपने बंबई (मुंबई) का टिकट क्यों लिया? आपने गलती कर दी। अब आप स्टेशन बाबू से कहिए कि साहब! हमको कलकत्ता (कोलकाता) का टिकट दीजिए। अगर आपने बंबई (मुंबई) का टिकट खरीद लिया और जाना था कलकत्ता (कोलकाता) तो भी आप गलती करते हैं। इसमें पैसा भी जाएगा और परेशानी भी पैदा होगी।

नाम जपें तो रास्ता बदलें

मित्रो! हमारा जो मन है, उसे अगर यहाँ-वहाँ जाना हो तो हमें राम-नाम के जंजाल में नहीं फँसना चाहिए? किसका जप करना चाहिए? मेरे ख्याल से आपको रावण का जप करना चाहिए—रावणाय नमः, कुंभकरणाय नमः, मेघनादाय नमः, मारीचाय नमः, भस्मासुराय नमः, कंसाय नमः, हिरण्यकश्यपाय नमः, सहस्रबाहुवे नमः, वृत्रासुराय नमः, महिषासुराय नमः आदि ये जप आपको करना चाहिए। नहीं साहब! इनका तो हम जप नहीं करना चाहते। हम तो रामचंद्र जी का जप करेंगे। हनुमान जी का करेंगे, गणेश जी का करेंगे। तो फिर आप इनके रास्ते पर चलिए। नहीं साहब! इनके रास्ते पर तो हम नहीं चलना चाहते। तो फिर आप उनका नाम जपना बंद कीजिए। नाम तो जपना बंद नहीं करेंगे। तो फिर अपना रास्ता बदलिए। ठीक है साहब! रास्ता सही रखेंगे, पर जप कैसे करेंगे? भाई साहब! ऐसी गलती मत कीजिए। जहाँ जाना चाहते हैं, उधर की ओर मुँह कीजिए, उधर की ओर ही देखिए। उसी का तरीका अख्तियार कीजिए, उसी के ढंग से चलिए। ढंग बनाते हैं संत का और कुचाल चलते हैं। आप इस तरह की गलती करते हैं, फिर फायदा कैसे होगा! वाल्मीकि ने भी तो यही किया था? हाँ साहब! किया था। और किसने-किसने किया था? जहाँ तक मैंने जिन-जिन लोगों के नाम सुने हैं, उनमें से प्रत्येक आदमी ऐसा ही था।

फिर होना चाहिए कायाकल्प

अंगुलिमाल डाकू का नाम आपने सुना होगा? वह बहुत खराब आदमी था और महात्मा बुद्ध को मारने के लिए गया था। लेकिन बाद में क्या हुआ? फिर कुछ ऐसा हुआ कि बुद्ध भगवान से बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद में अंगुलिमाल डाकू संत हो गया, ऋषि हो गया। फिर कहाँ चला गया था? बुद्ध भगवान ने उसे हिंदुस्तान से बाहर काम करने के लिए भेजा था। उसकी प्रतिभा और क्षमता को देखकर उन्होंने उसे इंडोनेशिया भेज दिया। इंडोनेशिया से लेकर जावा, मलाया होते हुए वह सिंगापुर गया था। बहराइच जिले से चलने के बाद अंगुलिमाल बाईस साल तक इन देशों के सारे के सारे इलाकों में बौद्ध धर्म का प्रचार संत बनकर के करता रहा। क्यों साहब! एक बात बताइए कि जब वह संत था तो फिर कभी-कभी डकैती जरूर डालता रहा होगा? नहीं भाई साहब! ऐसी बात नहीं है। नहीं साहब! आपको मालूम नहीं है। दिन में तो वह भजन करता होगा और रात में डकैती करता होगा। कैसे? जैसे आप करते हैं। हाँ साहब! हम तो ऐसा ही करते हैं। आप क्या करते हैं? जब हम जप करने के लिए बैठ जाते हैं, तब आप हमारी शीशे में शक्ल देखें तो ऐसा मालूम पड़ेगा कि कोई महात्मा बैठा है, ऋषि बैठा है और जब हम माला छोड़कर बाहर निकलते हैं, कमरे से बाहर निकलते हैं, तब आप हमारी शक्ल देखिए, साक्षात् शैतान हमारे ऊपर सवार हो जाता है।

बहुरूपिया न बनें, मुखौटा उतारें

महाराज जी! तब हमारी अक्ल, हमारे विचार, हमारे क्रियाकलाप, हमारा व्यवहार इस तरीके से हो जाते हैं, जैसे दैत्य के होने चाहिए। और जब कोठरी में चले जाते हैं, तब? तब हम देव हो जाते हैं। और फिर क्या होता है आपका? जब हम रामलीला में जाते हैं तो वहाँ लक्ष्मण भी बन जाते हैं और जब रामलीला खत्म हो जाती है, तब हमारा बाप धुनिए की अपेक्षा करता है और तब हम धुनिए हो जाते हैं। अच्छा तो आप यह सब करते हैं? हाँ साहब! हमारा नाम बहुरूपिया है। बहुरूपिया कैसा होता है? बहुरूपिया ऐसा होता है, जो कभी सिपाही बन जाता है, कभी हनुमान जी बन जाता है, कभी स्त्री बन जाता है तो कभी बाबाजी बन जाता है। बहुरूपिया तरह-तरह के मुखौटे बाँधकर तरह-तरह का बन जाता है। अच्छा! तो अब मेरी समझ में आया कि आपने बहुरूपिए का धंधा कर रखा है। हाँ साहब! जब हम पूजा में जाते हैं तो भगत बन जाते हैं। अच्छा और जब बाजार में जाते हैं, तब? तब हम शैतान बन जाते हैं। अच्छा तो आप कितनी तरह के लिबास बना लेते हैं? गुरुजी! आपको तो अभी मालूम ही नहीं है। हमने अपने पास बहुत तरह के लिबास, बहुत तरह की पोशाकें बना करके रखी हैं, ठीक उसी तरह से, जैसे ड्रामा खेलने वाले रखते हैं। वे कभी दाढ़ी लगाकर महात्मा बन जाते हैं, कभी मुकुट लगाकर राजा बन जाते हैं, कभी झाड़ू लेकर भंगी बन जाते हैं, कभी क्या बन जाते हैं। हम तरह-तरह के भेष बना सकते हैं और तरह-तरह की शक्ल बना सकते हैं। अच्छा, तो आप यही धंधा करते हैं। नहीं साहब! कभी-कभी हम भजन भी कर लेते हैं। कमाल करते हैं आप! आपने तो जिंदगी का त्रिमुख बिठाया है। नहीं साहब! हम त्रिमुख क्यों बिठाएँ, हम तो धंधा करते हैं, मखौल करते हैं, मजाक उड़ाते हैं। भाई साहब! भजन की भर्त्सना बंद कीजिए, क्योंकि फिर इससे आपको शिकायत होगी। फिर आप यह कहेंगे कि हमारी सारी मेहनत बेकार चली गई और हमको कुछ फायदा नहीं हुआ।

जीभ को संस्कारित बना लें

मित्रो! फायदा उठाने के लिए जरूरत इस बात की है कि जिस जीभ से आपको भजन-पूजन करना है तो उस जीभ को अच्छा बनाएँ, संस्कारित करें। इस संबंध में हम श्रृंगी ऋषि का हवाला पहले ही दे चुके हैं। अभी हम आपको जीभ के और चमत्कार बताते हैं, जो दूसरों को नसीहत भी दे सकते हैं और दूसरों को वरदान, आशीर्वाद देने में भी समर्थ हो सकते हैं। हम आपको इस चांद्रायण अनुष्ठान में जिस उपासना को सिखाते हैं, उसमें जीभ पर अंकुश रखना भी सिखाते हैं। उस जीभ के बारे में मैं फिर एक बार आपको बताता हूँ। जिस राजा परीक्षित की बात आपसे कह रहा था, उस राजा के पीछे जब तक्षक लग गया तो प्रश्न यह उठा कि अब परीक्षित को क्या करना चाहिए? उस जमाने के मुताबिक यह तय हुआ कि राजा परीक्षित को भागवत की कथा सुननी चाहिए। इससे उनका उद्धार हो जाएगा। राजा परीक्षित को जो सात दिन की मोहलत मिली थी, उसमें वे कथा सुनेंगे और यह सारा समय उनका कथा सुनने में लगेगा; यह तय हुआ।

ऐसी कथा से लाभ नहीं

यह निश्चय होने के पश्चात यह सवाल पैदा हुआ कि आखिर कथा कहेगा कौन? कहने से क्या है—पैंतीस रुपये में किसी पंडित जी को बुला लीजिए। पाँच रुपये रोज के हिसाब से पंडित जी को नकद पैसा दे दीजिए, भोजन करा दीजिए और भोजन कराने के बाद में कपड़ा दे दीजिए और कथा सुन लीजिए। ऐसी कथा से कोई फायदा हो सकता है? नहीं, ऐसी कथा से कोई फायदा नहीं हो सकता, केवल कहानी सुनी जा सकती है। कृष्ण भगवान कब पैदा हुए थे? उनका ब्याह कब हुआ था? वे कब बुड्ढे हुए थे? उनकी लड़ाई कब हुई थी? यह कहानी आप सुन लीजिए, कोई भी सुना सकता है, पर भागवत नहीं सुनी जा सकती। भागवत किससे सुनी जा सकती है? भागवत उसके मुँह से सुनी जा सकती है, जिसकी वाणी में से मंत्र की शक्ति निकलती हो। नहीं साहब! कोई भी सुना देगा? कोई भी सुनाएगा तो हम किस्सा सुन लेंगे। भाई साहब! रामायण सुना दीजिए? हम रामायण सुना देंगे। क्या थी रामायण की कथा? सुनिए—रामचंद्र जी थे और उनके तीन भाई थे। एक बाप था, जिसने राम को वनवास दे दिया। वे बीबी को लेकर जंगल को चले गए। वहाँ रावण सीताजी को चुरा ले गया। तब सीताजी को खोजने के लिए रामचंद्र जी ने हनुमान जी को भेजा। हनुमान जी को भेजने के बाद में फिर युद्ध हुआ और उन्होंने रावण को मार डाला। फिर सीताजी घर आ गईं। धोबी ने शिकायत की तो, सीताजी को घर से निकाल दिया। तो हो गई रामायण? हाँ साहब! हो गई रामायण। इसको सुनकर वैकुंठ को जाएँगे? नहीं जाएँगे।

वाणी में हो प्राण

मित्रो! एक बार सुन लीजिए, हमारी बात सुन लीजिए कि यदि रामायण पाठ करना है तो क्या करना चाहिए? रामायण का पाठ करने के लिए जिस जीभ की जरूरत है और जिसमें से कमाल निकलता है, चमत्कार निकलते हैं, उसमें वाणी की बनावट मुख्य है। कहानी कहना मुख्य नहीं है। आप रामायण कह लें, तो भी मुक्ति हो सकती है और भागवत कह लें, तो भी मुक्ति हो सकती है और मैं तो यह भी कहता हूँ कि आप मरे हुए चूहे की बात कह लीजिए, तो भी मुक्ति हो सकती है। इसमें रामचंद्र जी और हनुमान जी की बात नहीं है, मुख्य बात है वाणी की, जो शिक्षा देती है और जिससे आदमी में कमाल और चमत्कार पैदा होता चला जाता है। परीक्षित के सामने भी यही सवाल था कि भागवत सुननी है तो किसी ऐसे व्यक्ति से सुनिए, जिसकी जीभ में ताकत हो। वाणी में शब्दों के साथ-साथ प्राण हो। जिसकी वाणी भीतर से निकलती हो, जो परावाणी से बोलता हो। जीभ से तो टेपरिकॉर्डर भी बोल देते हैं, ग्रामोफोन के रिकॉर्ड भी बोल देते हैं। जीभ से तो पक्षी भी बोल देते हैं, सुग्गे भी बोल देते हैं।

तोता भी बोलता है मंत्र

जब मैं अफ्रीका गया तो वहाँ केन्या में कांगो का एक व्यक्ति एक सुग्गे को गायत्री मंत्र ऐसे तैयार कराकर लाया था, जैसे कि मैं टेप करा कर लाया हूँ। आप कहें तो मैं आपको सुना दूँ। यह ऐसा बढ़िया बोलता है कि उस तरह से आप भी नहीं बोल सकते। उस सुग्गे का नाम था—'पौली।' उन्होंने उसका यही नाम रखा हुआ था। काले रंग का वह सुग्गा कबूतर से भी बड़ा था और ऐसे सही-सही मंत्र बोलता था, जैसे कोई आदमी जीभ से बोल सकता है। जीभ में कोई कमाल है? कोई भी कमाल नहीं है। फिर किसका कमाल है? मित्रो, कमाल वहीं से निकलता है, जिसमें कि वाणी को परिष्कृत कर दिया गया हो। राजा परीक्षित के सामने यही प्रश्न था। लोगों ने कहा कि व्यास जी, जिन्होंने भागवत कथा लिखी है, जो उसके लिखने वाले हैं, उन्हीं को बुलाया जाए। व्यास जी जरूर आ जाएँगे और कथा सुनाने के लिए रजामंद भी हो जाएँगे, पर उनकी कही हुई कथा से हमारा उद्धार नहीं हो सकता। हमारी मुक्ति नहीं हो सकती।

शुकदेव जी ही क्यों?

तो फिर किसी और विद्वान को बुलाइए। लोगों ने औरों के नाम बताए, पर राजा परीक्षित मना करते रहे। तब लोगों ने कहा कि आप ही बताइए? तब उन्होंने कहा कि मेरा सुझाव है कि आप शुकदेव जी को बुला लें। शुकदेव जी कौन हैं? शुकदेव जी व्यास जी के बालक हैं, जिनकी उमर चौबीस-पच्चीस साल है। चौबीस साल के बच्चे को बुला लें और नब्बे साल के बुड्ढे को, जिसने कितना सारा तप किया है, कितना सारा भजन किया है और कितना बड़ा विद्वान व ऋषि है, उसे रहने दें। क्यों साहब आप उनसे क्यों नहीं सुनना चाहते? उन्होंने कहा कि अगर शुकदेव जी कथा कहेंगे तो हमारी आत्मा का उद्धार हो जाएगा। उनके शब्द हमारे जीवन का उद्धार करने में समर्थ हो सकेंगे, व्यास जी से यह नहीं हो सकेगा। बात आगे बढ़ी। लोगों को बहुत अचंभा हुआ। उन्होंने कहा कि साहब! आप शुकदेव जैसे बच्चे के ऊपर जोर क्यों दे रहे हैं और बुड्ढे को क्यों मना कर रहे हैं? राजा परीक्षित ने कहा कि ठीक है, अगर आप लोग नहीं मानते हैं तो आपको व्यास जी का और शुकदेव जी का हम एक किस्सा सुनाते हैं। इससे आप समझ जाएँगे कि हमारे जिद करने का मतलब क्या है? कारण क्या है?

शुकदेव जी के पक्ष में और व्यास जी के खिलाफ जो राय थी, वह उन्होंने बताई। क्या कहा उन्होंने? राजा परीक्षित ने कहा कि इसका कारण एक है। एक बार हम शिकार खेलने गए और रास्ता भूल गए। हमारे बाकी सारे के सारे साथी तो कहीं और चले गए और हम कहीं और चले गए। शिकार का पीछा करते-करते हम रास्ता भूल गए। रास्ता भूलने के पश्चात घोड़े को भी प्यास लगी और हमको भी प्यास लगी। अब हम कहाँ जाएँ? खाने को भी नहीं था और पीने को भी नहीं था। झाड़ियाँ भरी पड़ी थीं। कहाँ आफत में आ गए? विचार करने लगे कि अब किधर चलें? खाना न मिले तो कोई हर्ज नहीं, पर पानी तो मिलना ही चाहिए। पानी की तलाश करते करते एक ऐसी जगह पहुँच गए, जहाँ बहुत ही सुंदर एक तालाब था। उसमें निर्मल पानी भरा हुआ था। मालूम पड़ता था कि यहाँ कोई देवता रहते हैं।

तालाब में स्नान का दृश्य

राजा परीक्षित को बहुत खुशी हुई कि हम भी पानी पिएँगे और घोड़े को भी पानी पिलाएँगे। उन्होंने तालाब को गौर से देखा तो रुक गए। क्या देखा? उस तालाब के भीतर सयानी कन्याएँ नहा रही थीं। कपड़े उन्होंने तालाब के बाहर रख दिए थे और नंगी होकर के तालाब में नहा रही थीं। देवताओं की लड़कियाँ थीं। बड़ी उम्र की सयानी लड़कियाँ थीं। राजा परीक्षित ने सोचा कि लड़कियाँ हैं, नंगी हैं, अभी इनको नहा लेने देना चाहिए। इनको शरम लगेगी, इसलिए छिपकर खड़े हो गए और इंतजार करने लगे कि लड़कियाँ नहाकर जाएँ, तब हम पानी पिएँ। चुपचाप तमाशा देखते रहे। उन्होंने देखा, लडकियाँ तालाब में उछल-कूद कर रही थीं। तभी चौबीस साल का एक छोकरा आ गया। वह बिलकुल नंगा। उसके शरीर पर एक लँगोटी भी नहीं थी। वह भी आया और उसी तालाब में पानी पीने लगा। फिर उसका मन आया तो वह भी नहाने लगा। लड़कियाँ भी नहाती रहीं और लड़का भी नहाता रहा। दोनों वहीं नहाते रहे। नहा-धो लेने के बाद लड़का चला गया। लड़कियों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वे नहाती-धोती रहीं। आपस में हँसती-खेलती रहीं।

राजा परीक्षित को बड़ा अचंभा हुआ कि ये सयानी लड़कियाँ हैं और वह भी सयाना लड़का है और वह भी नंगा, बिना लँगोटी के है। तभी क्या देखते हैं कि थोड़ी देर में वहाँ एक साधु आया और बोला, पानी पी लेते हैं। उसे देखकर लड़कियाँ तालाब से निकलकर बाहर भागीं और अपने-अपने कपड़े उठाकर झाड़ियों में छिप गईं। झाड़ी में छिपी बैठी लड़कियाँ घूर-घूर कर देखती रहीं कि बुड्ढा बैठा है कि चला गया। जब बुड्ढा वहाँ से चला गया तो बड़ी मुश्किल से लड़कियाँ झाड़ियों से बाहर निकली और देखा कि बुड्ढा तो कहीं नहीं है और तब कपड़े पहनकर के अपने घर चलने की तैयारी करने लगी। राजा परीक्षित फिर से अचंभित हुए कि वह बुड्ढा खाली पानी पी रहा था, नहा भी नहीं रहा था और सारे कपड़े भी पहने हुए था, तो भी लड़कियों को इतनी शरम आई और जवान लड़के से कोई शरम नहीं आई। उनके मन में असमंजस हुआ।

राजन की जिज्ञासा

असमंजस होने के पश्चात में राजा परीक्षित ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया और कहा कि बच्चियो! तुम जा रही हो तो एक बात बताती जाओ? आप कौन हैं? हम राजा परीक्षित हैं। अच्छा पूछिए, हम आपकी बात का उत्तर अवश्य देंगे। परीक्षित ने कहा कि वह जवान नंग-धड़ंग लड़का तुम्हारे साथ में नहाता रहा तो तुम्हें शरम नहीं आई और जब वह बुड्ढा पानी पी रहा था, तब तुमको शरम आ गई। तुमने उसके सामने नहाना बंद कर दिया और झाड़ियों में जा छिपी। क्या कारण है? उन्होंने कहा कि राजा परीक्षित! आप नहीं जानते कि ये कौन थे? आपको नहीं मालूम है, परंतु हमें मालूम है कि ये कौन थे? यह लड़का जो अभी-अभी नहाकर गया है, इसका नाम था शुकदेव। शुकदेव को इस बात का ज्ञान नहीं है कि मर्द कौन होता है, औरत क्या होती है। इन्हें दोनों में फरक का ज्ञान नहीं था। ये परमहंस थे। उनकी दृष्टि में कोई अंतर नहीं था। हमने उनकी दृष्टि को देखा और पहचान लिया कि ये परमहंस हैं। इनको मर्द और औरत में कोई भेद मालूम नहीं पड़ता, इसलिए इनके साथ नहाने में हमको कोई एतराज नहीं है, इसलिए हम नहाए, लेकिन यह जो बुड्ढे स्वामी जी आए थे, इनके पिता थे। इन स्वामी जी का तो किस्सा आपको मालूम नहीं है, हमें मालूम है। क्या है, बताइए? उन्होंने कहा कि इनके खानदान वालों को इस बात की जरूरत हुई थी कि हमारा वंश डूब जाएगा तो कोई ऐसा खानदान का आदमी होना चाहिए, जो अपने खानदान वालों के साथ में रहे और बाल-बच्चे पैदा हो जाएँ। किसको तलाश करें? इन्हीं स्वामी जी से कहा था कि बाल-बच्चों के बिना जीवन तो बेकार है। स्वामी जी ने कहा कि ठीक है। स्वामी जी—व्यास जी चले गए। व्यास जी की वजह से रानियों को तीन संतानें हुईं। एक का नाम था पांडु, एक का नाम था धृतराष्ट्र और एक का नाम था विदुर। ये तीन भाई इन्हीं से पैदा हुए थे। तीनों रानियों से बच्चा पैदा करने के बाद में वे भाग आए। ऐसे थे ये स्वामी जी, इन नंग-धड़ंग शुकदेव के पिता।

मंत्र नहीं, व्यक्तित्व प्रधान

राजा परीक्षित ने कहा कि तो फिर हमें इन स्वामी जी से कथा नहीं सुननी। इनकी कथा सुनने से कोई फायदा नहीं है। लोगों को उन्होंने यह किस्सा सुनाया और यह बताया कि कहानी कहना, मंत्र बोलना ही काफी नहीं है। अक्षरों का उच्चारण करना ही काफी नहीं है, वरन अक्षरों को उच्चारित करने वाले का जो व्यक्तित्व काम करता है, असल में वही चीज है। उसके बाद राजा परीक्षित ने शुकदेव जी को बुलाया। शुकदेव जी ने भागवत की कथा सुनाई। भागवत की कथा सुनने के बाद उनका उद्धार हो गया।

[क्रमश: समापन अगले अंक में]

मंत्र बनाम उच्चारण

मित्रो! मैं यह क्या कह रहा हूँ। मंत्र की शक्ति की बात कह रहा हूँ आपसे। जो मंत्र स्वयं के कल्याण के लिए, दूसरों को वरदान देने, आशीर्वाद देने के लिए, भगवान को प्रभावित करने के लिए प्रयुक्त होता हो, वह उस व्यक्ति की वाणी से इतना बलसंपन्न हो, जो भगवान के कानों के ऊपर हावी हो सके। भगवान से कहें कि आप हमारी बात सुनिए, आपको सुननी चाहिए। ऐसी आवाज जिसकी वाणी से निकलती हो, ऐसे शब्द जिसके मुँह से निकलते हों, उस आवाज को मंत्र कहते हैं। और अन्यों को? उच्चारण कहते हैं, प्रोनाउन्सिएशन कहते हैं। यह हम और आप बोलते हैं। लोग तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं। इस तरह की बोलियाँ बोलकर आप भगवान को कोई खास प्रभावित नहीं कर सकते। अगर आपका यह ख्याल है कि जो शब्द हम बोलते हैं, जिसको आप मंत्र कहते हैं, उन शब्दों की बनावट को सुनाकर के हम भगवान जी को प्रभावित कर सकते हैं तो ऐसा नहीं हो सकता। भगवान जी शब्दों की बनावट को सुनकर के, आपकी आवाज को सुनकर के, आपके मुँह से जो शब्द निकलते हैं, उन्हें सुनकर के, आपकी स्तुति को सुनकर के, प्रार्थना को सुनकर के, आपके श्लोक सुनकर के प्रसन्न हो जाते हैं, तो ऐसी बात नहीं है। आपने गलत समझा है।

ठाकुर रामायण

मित्रो! आपका यह ख्याल है कि भगवान जी को शब्दों से कोई खास मुहब्बत है तो यह समझ लें कि भगवान जी को शब्दों से कोई खास मुहब्बत नहीं है। यदि भगवान जी ऐसे रहे होते तो फिर हम अपने गाँव के ठाकुर रामायण से उनका मुकाबला करा देते हैं। हमारे गाँव में एक ठाकुर साहब रहते थे। गाँव के सारे बच्चे उनको जानते थे। वे जहाँ कहीं बैठते, बच्चे उन्हें घेर लेते और कहते कि ताऊ जी! पहले बिल्ली की बोली बोलकर सुनाइए, नहीं तो निकलने नहीं देंगे। अच्छा बैठ जाओ, ऊधम मत मचाना। पहले चिलम पी लें, तब सुनाएँगे। अच्छा साहब! पी लीजिए। ताऊ जी! अब तो पी ली चिलम, अब तो सुनाइए। बस, वे मुँह उठाकर म्याऊँ-म्याऊँ ऐसे बोलने लगते थे। बच्चे खूब खुश होते और कहते कि ताऊ जी! अब कुत्ते की बोली सुनाइए। अच्छा, चुप बैठना, अब कुत्ते की सुनाता हूँ—भौंऽऽभौं-बस, ऐसे करते थे। अब बकरी की बोली सुना दीजिए। अच्छा, बकरी की सुनाते हैं—मैंऽऽमैं। बच्चों को मजा आ जाता और आधे घंटे के बाद बच्चे चले जाते और ताऊ जी भी चले जाते थे। सारे गाँव में वे मशहूर थे। ये ताऊ जी कौन थे और क्या बोलते थे? वे कुत्ते की बोली बोलते थे, बिल्ली की बोली बोलते थे, गधे की बोली बोलते थे, घोड़े की बोली बोलते थे, भैंसे की बोली बोलते थे। वे सब जानवरों की बोलियाँ बोलते थे।

क्रियाकलाप महत्त्वपूर्ण

नहीं मित्रो! यह मैं आपसे किसकी बात कह रहा हूँ? ताऊ जी की बात कह रहा हूँ। तो हमसे क्यों कह रहे हैं? इसलिए कि आप भी ताऊ जी हैं और तरह तरह की बोलियाँ, तरह-तरह के श्लोक, तरह-तरह के मंत्र, तरह तरह की प्रार्थनाएँ, तरह-तरह की पूजा करके भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं। उस भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं, जो आपके ईमान की बात सुनना चाहता है; जो आपके भीतर बसना चाहता है; जो आपके क्रियाकलाप के बारे में ज्यादा महत्त्व नहीं देता कि आप क्या करते हैं और क्या नहीं करते हैं। आप किस चीज का इस्तेमाल करते हैं और किस चीज का इस्तेमाल नहीं करते। आप तो भगवान को वस्तुओं से बहकाना चाहते हैं। आप वस्तुओं को दिखाकर बच्चों को बहका सकते हैं, परंतु भगवान को नहीं बहका सकते। नहीं साहब! हम रुद्राक्ष की माला से जप करेंगे, तो भगवान जी प्रसन्न हो जाएँगे। तो बेटे! रुद्राक्ष की माला से क्या भगवान को मुहब्बत हो सकती है? हाँ साहब! भगवान जी तो ऐसे हैं, जो रुद्राक्ष की माला देखकर के फूलकर के कुप्पा हो जाते हैं। अच्छा, ऐसी बात है? हाँ साहब! इंदिरा गांधी को नेपाल में किसी बाबाजी ने रुद्राक्ष की माला दी थी तो वे प्रधानमंत्री हो गईं। तो आपका क्या मन है? हमको भी कहीं से ऐसा ही रुद्राक्ष मिल जाता, हम भी प्रधानमंत्री न सही, मुख्यमंत्री तो हो गए होते। एक सज्जन ऐसे ही थे। उनके पास एक असली रुद्राक्ष की माला थी। कहीं से उनके पिताजी लाए थे और नौकरी से लग गए थे। उन्होंने कहा कि गुरुजी! अब यह माला बेकार पड़ी है और हम नहीं चाहते कि यह जहाँ-तहाँ पड़ी रहे। इसे आप ले लीजिए। अच्छा, फिर दे जा। आप मेरे पास आइए, मैं दे दूँगा। मैंने अपनी पूजा में रख ली और भजन करने लगा।

उनके साथ ही जब कभी एक व्यक्ति और आ जाता और रुद्राक्ष की बात ही चिल्लाता। उसका मतलब शायद यह था कि मेरी पूजा की कोठरी में जो रुद्राक्ष की माला रखी है, वह मुझे मिल जाए, तो मेरा भला हो जाए। माला न मिले तो उसका एक दाना ही मिल जाए। उसका यह ख्याल था कि गुरुजी को जो सिद्धियाँ मिली हैं, वे रुद्राक्ष की वजह से हैं। उसका यह वहम रुद्राक्ष के मनके के लिए था। आदमी बाहर से तलाश करता है कि गुरुजी महात्मा कैसे हो गए? वे कैसे लंबे-लंबे बाल बनाते हैं और बाल खड़े रखते हैं? आप क्या करना चाहते हैं? हम भी बाल खड़े रखेंगे? तो क्या हो जाएँगे? आचार्य जी हो जाएँगे। यह तो बहुत सस्ता है। इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है! नकल बनानी है, तो ऐसी नकल बनाएगा, घटिया वाली नकल? नहीं! तुझे रुद्राक्ष की माला चाहिए, तो यह ले जा बेटे, मेरी ले जा। नहीं गुरुजी! आपकी नहीं लेंगे, इससे आपके हाथ की सिद्धि चली जाएगी और फिर आप खाली हाथ रह जाएँगे। बेटे! हम और तुम तो एक ही हैं, फिर हमारे चमत्कार कहाँ जाएँगे! हमारे पास से जाकर के तेरे घर चले जाएँगे। जब कभी चमत्कार की जरूरत पड़ेगी तो हम माँग लेंगे। तू हमारी माला को भी ले जा और चमत्कार भी ले जा। दोनों चीजों को ले जा, घर में रखे रहना। हमें कोई जरूरत पड़ेगी या मुसीबत आ जाएगी तो माला को मँगा लेंगे या तेरे पास चमत्कार होंगे, उनको मँगा लेंगे। कोई भी चीज मँगा लेंगे। अभी तू ले जा। नहीं गुरुजी! मेरा मतलब यह नहीं था। बेटे! तेरा मतलब तो नहीं है, पर मेरा है। क्योंकि तेरी नीयत यहीं रुद्राक्ष के पास पड़ी रहेगी, इसलिए तू मेरे कहने से इसे ले जा। आपके कहने से? हाँ बेटे! मेरे कहने से ले जा। मैंने उसको रुद्राक्ष की माला दे दी।

सामग्री कर्मकाण्ड का कोई महत्त्व नहीं

इसी तरीके से एक कोई व्यक्ति मुझे दक्षिणावर्ती शंख दे गया। दक्षिणावर्ती शंख दक्षिण की ओर घूमने वाला शंख होता है। सारे शंख तो बाईं ओर घूमते हैं, पर किसी-किसी का मुँह दाहिनी ओर घूम जाता है। इस तरह के शंख सेशेल्स स्थल में पाए जाते हैं। सेशेल्स स्थान कहाँ है? सेशेल्स एक फ्रांसीसी टापू है। जब हम वहाँ से दारेसलाम से करांची की ओर अरेबियन सागर से होकर चलते हैं, तब वहाँ एक फ्रांसीसी टापू मिलता है—सेशेल्स। वह पहले फ्रांस में था, अब दो वर्ष पहले आजाद हो गया है। वहीं पर ये पाए जाते हैं। नारियल भी पाए जाते हैं और बिकते हैं। जब वहाँ पर पानी का जहाज रुका था, तो लोगों ने कहा था कि अगर आपको दक्षिणावर्ती शंख चाहिए तो ले जाइए। यहाँ मिल जाते हैं। मैंने कहा कि मेरा इसमें कोई इंट्रेस्ट नहीं है। दक्षिणावर्ती शंख का मैं क्या करता!

राजस्थान में अलवर नाम का एक स्टेट है। वहाँ के एक राजा साहब अक्सर हमारे पास आते रहते थे। वे जब भी आते तो यही कहते कि दक्षिणावर्ती शंख में बड़ा चमत्कार होता है। अगर यह मिल जाए तो बहुत फायदा है। वे बार-बार यही कहते कि आप कहीं से एक दक्षिणावती शंख मँगा देते तो बहुत अच्छा होता। पहले तो मेरी समझ में नहीं आया, फिर पीछे ख्याल आया कि एक शंख तो मेरे पास ही रखा है, इसलिए शायद यह कहता रहता है। कभी वह कहता कि गुरुजी! आपने कहीं दक्षिणावर्ती शंख तलाश कराया? बेटे! उससे क्या फायदा होता है? उससे लक्ष्मी आती है। ऐसा शंख जहाँ कहीं भी रहेगा गुरुजी! वहाँ लक्ष्मी आ जाएगी। अच्छा, तो लक्ष्मी आ जाएगी? फिर तो देख लेंगे। फिर मैंने कहा कि एक शंख तो मेरे पास भी रखा हुआ है, इसे ले जाओ। यह असली दक्षिणावर्ती शंख है। नहीं गुरुजी! इसे तो आप रखिए। नहीं बेटे! तू इसे ले जा। फिर तो गुरुजी! आपकी लक्ष्मी चली जाएगी? तो चली जाने दे। लक्ष्मी तो ऐसी बेशरम है कि इसको मारो तो भाग-भाग कर चली आती है और खुशामद करो तो यह गालियाँ देती है और नखरे दिखाती है। इसको तो भगाना ही है। बाबाजी के पास लक्ष्मी रहेगी, तो बाबाजी को हैरान करेगी। तू ले जा इसे और जब मार-मारकर भगाएगा तो फिर यह आएगी और अगर खुशामद करोगे तो यह आपसे दूर भागेगी। अच्छा, तो यह लक्ष्मी थी? हाँ थी। मैंने वह शंख उसे दे दिया।

साल भर बाद राजा साहब फिर आए। मैंने कहा—क्यों भाई! तुम कह रहे थे कि ढाई लाख रुपया कर्ज देना रह गया है, तो अब उस दक्षिणावर्ती शंख ने तो चुका ही दिया होगा? नहीं साहब! वह नहीं चुकाया। तो फिर ब्याज तो चुका ही दिया होगा? नहीं साहब! ब्याज भी नहीं चुकाया। धत तेरे की.....तो फिर तुम उसे बेकार ही ले गए। नहीं गुरुजी! आपका शंख वापस कर दूँगा। मैंने कहा कि नहीं, तू उसे रखे रह।

अध्यात्म जादूगरी नहीं है

मित्रो! ये बातें सुनकर मुझे बहुत दुःख होता है कि लोग अध्यात्म को मैजिक समझते हैं, जादूगरी समझते हैं। जादूगरी का अर्थ होता है—क्रिया-कृत्य। क्रिया-कृत्यों के माध्यम से, आवाज के माध्यम से, जीभ की नोंक के माध्यम से, बोले हुए शब्दों के माध्यम से लोग चमत्कार दिखाना चाहते हैं। बेटे ! यह बाजीगरी है। जादूगर को अपना व्यक्तित्व बनाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। उसको बस शब्दों की हेरा-फेरी आनी चाहिए और हाथ की हेरा-फेरी आनी चाहिए। आपको भी हाथ की हेरा-फेरी आती है, नमस्कार करना आता है, मुद्राएँ बनानी आती हैं, हाथ जोड़ना आता है। यह शंख मुद्रा है, यह अमुक मुद्रा है। आपको अगर हाथ-पाँव चलाना आता है, तो आपके लिए यह काफी है कि आपके लिए अध्यात्म जादूगरी है और अगर अध्यात्म जादूगरी नहीं है, तब? तब फिर आपको अपना व्यक्तित्व विकसित करना पड़ेगा।

मित्रो! वाणी के द्वारा मंत्र बोले जाते हैं। इसको आपको अनुशासित करना चाहिए। वाणी क्या है? वाणी सरस्वती है। बाकी देवी-देवता कहाँ रहते हैं, यह मैं फिर कभी बताऊँगा, आज तो मैं आपको यह बताता हूँ कि सरस्वती का वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकता है। सरस्वती वह है, जिसके शब्द सार्थक होकर के रहते हैं। यह देवी कहलाती है, वाणी कहलाती है, वाक कहलाती है। सरस्वती ज्ञान की देवी है। कल्याण की देवी है। सरस्वती जीभ में रहती है। नहीं साहब! जीभ तो माँस की है। हाँ बेटे! है तो माँस की, लेकिन अगर आप उपासना कर लें तो आपकी जीभ साक्षात् सरस्वती हो जाएगी। अगर हम कोई उपासना न करें? आप कोई उपासना मत कीजिए। बस, दो उपासनाएँ कर लीजिए। मैं आपसे वायदा करता हूँ और वचन देता हूँ कि आपकी जीभ में से सरस्वती उत्पन्न हो जाएगी और आपके वचन मंत्र हो जाएँगे, अगर आप दो तरीके से जीभ की उपासना कर लें तब। कैसे? एक उपासना के बाबत कल मैं आपसे निवेदन कर रहा था और यह कह रहा था कि आपको आहार के बारे में गौर करना चाहिए। आहार की बनावट के बारे में नहीं, आहार के 'बेस' के बारे में ध्यान देना चाहिए। आहार का बेस—जो आप खाते हैं, उसमें पहनावा भी शामिल है।

खान-पान, रहन-सहन महत्त्वपूर्ण

मित्रो! खाना वहाँ तक सीमित नहीं है, जो केवल मुँह के भीतर अनाज डाला जाता है। खाने से मतलब उस सारे सामान से है, जो हमारी जिंदगी के लिए काम आते हैं। इसमें वे खाद्य पदार्थ भी शामिल हैं, जिनको हम अन्न कहते हैं। अन्न के अलावा वस्तु भी अन्न है। जैसे पानी, हवा, अनाज, पहनना, चाय—ये सभी अन्न हैं, जो आपके शरीर के गुजारे के लिए काम आते हैं। जो चीजें हमारे गुजारे के काम आती हैं, जो हमारे शरीर का और जीवनक्रम का निर्माण करती हैं। आप समझते क्यों नहीं हैं? इनसे हमारा जीवन तैयार होता है। इनसे हमारा सारे के सारा कलेवर तैयार होता है। इन वस्तुओं से हमारा व्यक्तित्व तैयार होता है। हम जो खाते हैं, उससे खून बनता है। खून से माँस बनता है। माँस से हड्डियाँ बनती हैं। उनसे अमुक चीज बनती है और उनसे बन जाता है हमारा मन। हमारा मन क्या है? अरे भाई! खाद्य पदार्थ है और क्या है मन। हमें क्या करना चाहिए? वाणी को परिष्कृत करने के लिए हमारा आहार ऐसा होना चाहिए, जिसमें पूरी तरीके से सात्त्विकता का समावेश हो।

मित्रो! कल मैं आपसे खान-पान के बारे में कह रहा था, सात्त्विकता की बाबत कह रहा था कि हमारा आहार तमोगुणी नहीं होना चाहिए। माँसाहार और नशेबाजी से मिली हुई चीजें हमारा खाद्य पदार्थ नहीं होना चाहिए, पर इसके आगे की एक मोटी बात भी मैंने कही थी कि आप अपनी थाली का मुआयना कर सकते हैं। जो अपनी थाली का मुआयना नहीं कर सकते, वे कुछ और भी चीजें खा सकते हैं। अत: आप उन्हीं चीजों का चयन कीजिए, जो आपके साधक जीवन को बनाने में सहायक होती हैं। आपको यह देखना है कि आपका जिन चीजों से गुजारा होता है, वह कहीं पाप की कमाई तो नहीं है? पाप की कमाई से अगर आप गुजारा करते हैं तो आपका समग्र व्यक्तित्व, जिसमें आपकी जीभ भी शामिल है, परिष्कृत नहीं हो सकती। अगर जीभ परिष्कृत नहीं होगी तो जो मंत्रों के चमत्कार बताए गए हैं, राम नाम का जो माहात्म्य बताया गया है, गायत्री मंत्र की जो गरिमा बताई गई है, उस गरिमा से आप लाभ नहीं उठा सकेंगे।

जीवन में सात्त्विकता का समावेश

मित्रो! जीभ से हमारा मतलब केवल खाद्य पदार्थ से नहीं है। जीभ से मतलब जहाँ मुख है, वहीं हमारे गुजारे के माध्यमों से भी मतलब है। उसमें ईमानदारी का मिश्रण होना चाहिए। अगर यह नहीं है और आपको बेईमानी की कमाई पर चलना है तो आपका आहार, जिसके द्वारा माँस बना हुआ है, रक्त बना हुआ है, जिसके आधार पर आपका हृदय बना हआ है, जिसमें आप भगवान का साक्षात्कार करना चाहते हैं, वह मस्तिष्क बना हुआ है, जिसके द्वारा आप ध्यान करना चाहते हैं, जिस मन को आप स्थिर करना चाहते हैं, वह मन स्थिर नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि आपका मन जिन वस्तुओं से बना हुआ है, वे वस्तुएँ सात्त्विक नहीं हैं। यदि आप सात्त्विक वस्तुओं से बना दें तो मन स्थिर हो जाएगा। गुरुजी! मन को स्थिर करने की विधि बता दीजिए। बेटे! कोई भी विधि नहीं है। दुनियाँ में केवल एक ही विधि है कि आपके जीवन में सात्त्विकता का अधिकाधिक समावेश जितनी अधिक मात्रा में होता चला जाएगा, बिना किसी कोशिश के, बिना किसी मेहनत के, बिना किसी दबाव के, बिना किसी योगाभ्यास के आपका मन भगवान के चरणों में लीन होता हुआ चला जाएगा। ऐसा लीन होता हुआ चला जाएगा, जो हटाए नहीं हटेगा।

मौन : एक प्रकार का तप

मित्रो! अभी मैं आहार की बात, जीभ की बात कह रहा था। यह इसलिए कह रहा था कि आपको बोलने के संबंध में सावधानी बरतनी चाहिए; क्योंकि जीभ के द्वारा हमारी सामर्थ्य बहुत व्यय होती है। जैसे हम एकाग्रता में, समाधि में हिस्सा लेते हैं, इसी तरीके से जीभ का भी काम है। जो हम मौन के द्वारा अभ्यास करते हैं। अभी आपको दो घंटे का मौन बताया गया होगा। न बताया गया हो तो अब हम बता देंगे कि प्रात:काल रोज दो घंटे आपको मौन रहना चाहिए। गाँधी जी सप्ताह में एक दिन मौन रखते थे। उनके मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी। उन्हें इतने जरूरी काम करने पड़ते थे कि क्या कहना, लेकिन वे मौन रहते थे। मौन रहने से उनकी शक्तियाँ बच जाती थीं। आपको भी अपनी वाणी का, सरस्वती की शक्ति का बचाव करने के लिए अनावश्यक बातचीत से बचना चाहिए, बाज आना चाहिए। अनावश्यक बातें मत कीजिए। लप-लप इधर-उधर की बात मत कीजिए। गपबाजी मत कीजिए। इनमें आपकी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और आपको मंत्र के लिए जो सामर्थ्य संचित करनी चाहिए, उसमें कमी आती है। आप कम बोला कीजिए। जरूरत भर की चीजें बोला कीजिए। वजनदार चीजें बोला कीजिए। विचारपूर्वक बोला कीजिए। समझदारी की बातें बोला कीजिए। यह भी एक तरह का मौन है। आप समझते क्यों नहीं हैं !

वाणी : परम शक्तिशाली

गुरुजी! मौन से क्या फायदा होगा? बेटे! आपको मालूम नहीं है कि बोलने में आदमी की कितनी शक्ति खरच होती है? जो शक्ति आपको आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है, वह इससे कितनी खरच होती है? अच्छा, हम आपको इस तरीके से तो नहीं बता सकते, पर यों बता सकते हैं—आपने किसी मरने वाले को देखा है? हाँ साहब! देखा है। मरने वाले की आँखें खुली रहती हैं। हाथ चलते रहते हैं, लेकिन क्या बंद रहता है? आदमी की आवाज बंद रहती है। बोलना पहले से ही बंद हो जाता है। आँखें काम करती रहती हैं। आँखों में से पानी निकलता रहता है। आँसू आते रहते हैं। कोई बाहर का आदमी आ गया तो आँसू भी आ जाते हैं। सिर भी हिल जाता है, लेकिन जीभ नहीं हिलती। क्यों? आप नहीं जानते कि जीभ से बोलने के लिए कितने सारे कल पुरजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। हमारे मुँह से जब शब्द निकलते हैं तो हमारे प्राचीनकाल के ऋषियों के मुताबिक एक सौ आठ कल-पुरजों का इसमें इस्तेमाल होता है। एक भी पुरजा इसमें से चक्कर में आ जाए तो हमारी वाणी बंद हो जाती है, बेहोश हो जाती है, मौन हो जाती है। वाणी हमेशा के लिए काम करना भी बंद कर देती है।

हमारी वाणी जबरदस्त क्यों?

मित्रो ! वाणी में बहुत शक्ति होती है। जिस वाणी को हम सरस्वती कहते हैं, उसमें शक्ति होती है। आपको उस सरस्वती में तीव्रता पैदा करनी चाहिए, उस सरस्वती में मंत्रशक्ति पैदा करनी चाहिए, जिस सरस्वती के माध्यम से आपको जप करना है तो क्या करना पड़ेगा? सरस्वती को जीभ पर नहीं, सरस्वती के द्वारा जीभ से जप करने के लिए आपको अपनी वाणी को मौन का अभ्यास कराना चाहिए। कम बोलना चाहिए। जरूरत से ज्यादा बेकार की बातें मत बोला कीजिए। यह भी एक मौन है—दो घंटे का। हमें भी मौन रहना पड़ता है। हमारे गुरुदेव जब एक साल के लिए हिमालय बुला लेते हैं तो हमें भी मौन रहना पड़ता है। बात कीजिए। किससे बात करेंगे? हमको ऐसी जगह रख देते हैं, जहाँ कोई और नहीं होता हमारे अलावा। अपने आप से बात करनी है तो हमारी मरजी है। वास्तव में बात करने के लिए वहाँ कोई और होता नहीं, कोई जानवर भी नहीं होता है। जब हम वाणी को विश्राम देकर के आते हैं तो हमारी वाणी सामर्थ्यवान हो जाती है, ताकतवर हो जाती है। जबरदस्त हो जाती है। इसीलिए हम अपनी वाणी को बंद रखते हैं। कितनी देर बात करते हैं? हमने यह नियम बना रखा है कि जब कभी कोई हमसे मिलने के लिए आता है तो हमने उससे मिलने के लिए सीमित समय निर्धारित कर रखा है। बाकी समय क्या करते हैं? बाकी समय मौन रहते हैं। अधिक से अधिक कितनी देर लोगों से बात कर सकते हैं? लोगों से हम छह घंटे से ज्यादा बात नहीं कर सकते। हमने लोगों से मिलने के लिए छह घंटे निर्धारित कर रखा है। इससे ज्यादा हम बात नहीं करते। ऐसा क्यों करते हैं? वाणी की शक्ति को संचित करने के लिए करते हैं।

शब्दों के पीछे नैतिकता

मित्रो! वाणी का संयम, जिसमें अनावश्यक शब्दों का उच्चारण भी शामिल है, अनावश्यक खाद्य पदार्थों का खाना भी शामिल है और एक अन्य बात भी शामिल है—जिस तरीके से अन्न के पीछे नैतिकता जुड़ी रहनी चाहिए उसी तरह से शब्दों के पीछे नैतिकता जुड़ी रहनी चाहिए। हमारे शब्द इस तरह के न हों. जो दूसरों को गुमराह करने वाले हों। दूसरों को गलत सलाह देते हों। दूसरों को झूठी दिलासा देते हों, दूसरों की हिम्मत को कम करते हों। दूसरों को इस तरह के ख्वाब में ले जाते हों, जिससे कि आदमी हैरान होते हों, परेशान होते हों। क्या करना चाहिए? हमारी वाणी को सत्य बोलना चाहिए। ये सभी बातें सत्य में शामिल हैं। नहीं साहब! हम तो बड़ा सत्य बोलते हैं, पर हमसे सब लोग नाराज रहते हैं। भाई साहब! जो देखा-सुना है, वह कह देना ही सत्य में शामिल नहीं है। इसमें एक और बात शामिल होती है। सत्य का दायरा बहुत बड़ा है। जो देखा-सुना है, उसमें तो हम आपको छूट भी दे सकते हैं। अगर आप सी०आई०डी० में हैं तो आपको इस बात के लिए पूरी छूट है, जिससे आपकी सत्यवादिता में कोई फरक नहीं आएगा। आप जहाँ डकैतों का पता लगाने के लिए, चोरों का पता लगाने के लिए जाएँ और अपना नाम बदल लें और कोई झूठी बात कह दें और खबर ले आएँ, तो आप झूठे नहीं हैं। फिर आप सत्य का पालन कर रहे हैं।

जीभ को कुसंस्कारी न बनाएँ

सत्य बड़ी चीज है। सत्य वहाँ भी शामिल होता है, जहाँ पर दूसरों के साथ में मुहब्बत जुड़ी होती है। सत्य, जो शब्द जैसा कहा गया है, वैसा होना चाहिए, उसमें व्यक्ति का अहंकार नहीं जुड़ा होना चाहिए। अक्सर बात-बात में प्रत्येक वाणी में आदमी का अहंकार भरा हुआ होता है। इसलिए वचन इतने कड़ुए हो जाते हैं, भारी हो जाते हैं कि दूसरे आदमी के लिए सहन करना कठिन हो जाता है। आपके वचन जब 'हैवी वाटर', जो कि एटम बम बनाने के काम आता है, की तरह से बड़े भारी हो जाते हैं, तो दूसरों को सहन करना मुश्किल हो जाता है। कब? जब उसमें अहंकार जुड़ा हुआ होता है और दूसरों का तिरस्कार जुड़ा होता है। आप नम्रता से बात नहीं कर सकते? आप दूसरों के सम्मान की रक्षा करते हुए बात नहीं कर सकते? नहीं साहब! हम नाराज हैं और पुलिस वाले हैं। हम तो गालियाँ देंगे। भाई साहब! गालियाँ देकर के आप अपने वजन को और अपनी जबान को गंदा क्यों करते हैं? अगर आप अपनी जीभ को इसी तरीके से कुसंस्कारी बनाते चले जाएँगे, संस्कारविहीन बनाते चले जाएँगे तो आप आध्यात्मिकता का उद्देश्य पूरा न कर सकेंगे। अध्यात्म इतना छोटा नहीं है, जैसा कि आपने समझ रखा है कि पालथी मारकर किसी चौकी के पास जा बैठते हैं और वहाँ जो थोड़ा बहुत क्रिया-कृत्य बता दिया, उसको पूरा कर लेते हैं। माला घुमा देने, किसी मंत्र या श्लोक का उच्चारण कर देने, धूपबत्ती जला देने, अक्षत-पुष्प इधर-उधर रख देने जैसे क्रिया-कृत्यों को आप अध्यात्म समझते हों और यह ख्याल करते हों कि इतना भर कर देने से हमको वह आनंद मिल जाएगा, वह लाभ मिल जाएगा, जो आध्यात्मिकता के परिणामस्वरूप बताए गए हैं। राम नाम के जप के बताए गए हैं तो आप गलती करते हैं। आपने तो आध्यात्मिकता को मैजिक मान लिया है और यह समझ लिया है कि शब्दों का उच्चारण और थोड़े से क्रियाकलापों की हेरा-फेरी करने से वे लाभ मिल जाते हैं, जो कि संतों को मिलने चाहिए; ऋषियों को मिलने चाहिए; श्रेष्ठ व्यक्तियों को मिलने चाहिए। आपने यह बहुत बड़ी गलती कर डाली। आध्यात्मिकता तो जीवन जीने की एक कला है, व्यक्तित्व-निर्माण करने का ढंग है, एक फिलॉसफी है और एक साइंस है।

आत्मानुशासन जरूरी

मित्रो! इस चांद्रायण व्रत के क्रम में मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि आपको अपने ऊपर अनुशासन स्थापित करना चाहिए। इस अनुशासन में पहला क्रम यह था कि आप अपनी जिह्वा और वाणी का परिष्कार करें। जिह्वा और वाणी दो हैं। जिह्वा जो खाने के काम आती है, जिसको 'रसना' कहते हैं और दूसरी वाणी है, जो उच्चारण करने के काम आती है। कहने को तो यह एक हैं, पर असल में दो हैं। एक ज्ञानेंद्रिय है और दूसरी कर्मेंद्रिय है। जीभ हमारी कर्मेंद्रिय है, जो खाने के काम आती है, रोटी चबाने और खाना हजम करने के काम आती है, दूसरी वाणी, वह शक्ति है, जो हमारे बोलने के लिए काम आती है। बोलने की शक्ति, जिसमें प्रेम जुड़ा हुआ रहना चाहिए, सचाई जुड़ी हुई रहनी चाहिए; मुहब्बत और सद्भावना जुड़ी हुई रहनी चाहिए; दूसरों का हित जुड़ा हुआ रहना चाहिए; दूसरों का सही मार्गदर्शन जुड़ा हुआ रहना चाहिए और दूसरों का सम्मान जुड़ा रहना चाहिए। इसमें अपना अहंकार न होकर, उसमें विनम्रता, सज्जनता और शराफत जुड़ी रहनी चाहिए। अगर आपने इन सब चीजों को जोड़ करके रखा है तो मैं कहता हूँ कि आपकी जीभ सरस्वती है। इस सरस्वती के माध्यम से अगर आपने गायत्री का अनुष्ठान किया है तो मैं आपसे वायदा करता हूँ कि वह सफल और सार्थक होगा। इससे जो चमत्कार मिलने चाहिए, वे आपको जरूर मिल जाएँगे, अगर आपने जीभ को सही कर लिया है तब। जीभ को सही नहीं किया है तो भाई साहब! मैं आपसे कुछ नहीं कह सकता।

जप की सफलता का मूल

मित्रो! एक बार आपसे फिर कहता हूँ कि जप करें तो अच्छी बात है; अनुष्ठान करें तो बहुत अच्छी बात है; पूजा करें, ध्यान करें तो और अच्छी बात है, लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि आप अपनी जीभ को ऐसा अनुशासित बनाएँ, जिसके द्वारा निकले हुए वचन मंत्र होते हुए चले जाएँ और ऐसे हों, जो भगवान की अक्ल को ठिकाने लगाने में समर्थ हो सकें। जो आपको सफलता दिलाने में समर्थ हो सकें और जो सारे के सारे वातावरण को, वायुमंडल को परिष्कृत बनाने में समर्थ हो सकें। ऐसा काम अगर आप कर लें तो अनुष्ठान का पहला चरण पूरा हो जाएगा। अनुष्ठानों में इसी तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं, जैसा कि मैंने जीभ पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा है। अन्यान्य प्रतिबंधों की बात, जिसको योगाभ्यास अथवा तपश्चर्या कहा है, उसे मैं आपको क्रमश: इन अनुष्ठानों के बीच में बताऊँगा।

आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥