१. बच्चों को प्रारम्भ से ही उचित दिशा मिलें
२. बच्चों से मैत्री करें और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप भी
३. बच्चों से बातचीत करते समय आप ध्यान रखें
४. बच्चों से मित्रता कीजिए
५. अभिभावकों और सन्तानों के बीच भावनात्मक प्रगाढ़ता जरूरी
६. उन्हें सामाजिक जीवन का प्रशिक्षण दें
बच्चों को प्रारम्भ से ही उचित दिशा मिलें
बच्चे के व्यक्तित्व की सर्वाङ्गीण उन्नति के लिए उचित वातावरण और आवश्यक परिस्थितियाँ पैदा करना माता-पिता का सर्वोच्च कर्तव्य है क्योंकि बच्चों में जन्म से ही कुछ गुण-अवगुण विद्यमान होते हैं जिनके लिए उचित परिस्थितियाँ न मिलने पर उनके व्यक्तित्व में गलत छाप भी पड़ सकती है और उसी के अनुसार उनका व्यक्तित्व ढलता जाता है।
बालक सबसे पहले घर के वातावरण से प्रभावित होता है। घर एक प्राथमिक पाठशाला होती है जिसमें माता और पिता उसके गुरू होते हैं। अपने अभिभावकों के जीवन का बालक पर बहुत गहरा असर पड़ता है। यदि माता-पिता का गृहस्थ जीवन सुखी नहीं है तो बच्चा कभी भी सुखी नहीं रह सकता है। यदि घर में हमेशा कलह क्लेश मची रहती है, माता-पिता की आपस में अनबन रहती है तो बालक पर इसका गलत प्रभाव पड़ता है और अपने भावी सामाजिक जीवन में असफल रहता है। जब घर में लड़ाई-झगड़ा लगा रहता है और बालक उस स्थिति को देखता है तो उसके मन में गृहस्थ जीवन के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है। आपस में लड़ने-झगड़ने वाले माता-पिता बालक को एक अच्छा नागरिक नहीं बना सकते। अत: बच्चों को समाज का उत्तम नागरिक बनाने के लिए माता-पिता को उत्तम माता-पिता बनना चाहिए। क्योंकि जैसा बीज बोयेंगे, वैसा ही फल पैदा होगा। लड़ाई-झगड़े के अतिरिक्त कई और ऐसी बातें होती हैं जिनका बालक के ऊपर अदृश्य रूप से प्रभाव पड़ता है। जैसे किसी गलती के कारण यदि पिता बच्चे को मार देता है और माँ बच्चे का पक्ष लेकर पिता से लड़ने लगती है तो बच्चे के मन में माता-पिता के प्रति भेद भाव पैदा हो जाता है।
जिस घर में बच्चे ज्यादा हों। माता-पिता को उन सबसे समान रूप से व्यवहार करना चाहिए। अधिकतर यही देखा जाता है कि किसी बच्चे पर माता-पिता का अत्यधिक लगाव होता है तथा अन्य बच्चों को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे व्यवहार से बच्चों में वैमनस्य पैदा हो जाता है। अतः बच्चों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। जो बच्चा कमजोर है उसे तो और भी अधिक स्नेह और सहानुभूति मिलनी चाहिए तथा उसकी सब तरह सहायता करनी चाहिए। लेकिन हम ऐसे बच्चों को व्यंगपूर्ण बातें कहकर उनका परिहास उड़ाते हैं। इस तरह से उसका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। इससे उसके मन में हीनता की भावना भर जाती है। अतः ऐसे बच्चों के प्रति हमें अधिक प्यार और सहानुभूति रखनी चाहिए, जिससे वह अपनी उन्नति कर सके।
घर के वातावरण में बालक ५-६ वर्ष तक शिक्षण लेता है। इसके बाद उसे स्कूल भेजा जाता है। जहाँ उसका मानसिक विकास होता है। इस वातावरण में बालक पर अपने समवयस्क साथियों तथा शिक्षकों के रहन-सहन तथा व्यवहार का अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। स्कूल के नये बालकों के साथ उसे सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। यहाँ बालक को अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के बालकों से मिलना पड़ता है। इस तरह उनके साथ रहकर उसे अच्छे बुरे की पहिचान होती है। यदि स्कूल का वातावरण ठीक नहीं है, वहाँ के बालक उच्छृंखल प्रकृति के हैं तो उसमें भी वैसी ही आदतें आ जाती हैं। यदि अच्छा वातावरण होगा तो अच्छी आदतें सीखेगा। स्कूल में यदि गलत बच्चों का साथ मिल जाता है तो चोरी इत्यादि आदतें आ जाती हैं। अतः माता-पिता को बच्चे की हरकतों पर ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक के चरित्र का बालक के ऊपर बहुत असर पड़ता है। यदि शिक्षक दुश्चरित्र है, उसका आचरण ठीक नहीं है, कक्षा में वह व्यंगपूर्ण बातें करता है, पक्षपात की नीति अपनाता है तो इससे बालक में शिक्षक के प्रति घृणा और क्रोध की भावना जाग्रत हो जाती है। वह विद्रोही बन जाता है। सारे समाज से विद्रोह करने लगता है। इस तरह स्कूल के वातावरण से ही बालक का सामाजिक विकास प्रारम्भ हो जाता है।
सामाजिक विकास के साथ अन्य विकासों का भी सम्बन्ध होता है जैसे शारीरिक विकास, मानसिक विकास और व्यक्तित्व विकास। इनका सामाजिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस प्रकार ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
दूसरों के सम्पर्क में आकर बालक सामाजिक व्यवहार सीखता है। जितना ही अवसर उसे अधिक मिलेगा वह उतना ही ज्यादा विकास करेगा। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बालक बुरे लोगों के वातावरण में न रहे अन्यथा उस पर बुरी आदतों का प्रभाव पड़ेगा और उसका सामाजिक विकास दूषित हो जायेगा। अतः माता-पिता एवं शिक्षक का कर्तव्य होता है कि वे इस ओर ठीक से ध्यान दें, नहीं तो यही बालक आगे चलकर समाज के लिए मुसीबत बन जाता है। इसीलिए पहले से ही उसे उचित मार्ग दर्शन देकर एक सही दिशा का निर्धारण करना चाहिए।
कोई भी माता-पिता यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा कमजोर ही रहे किन्तु अनजाने में ही उनसे ऐसी भूलें हो जाती हैं, जिन्हें वे समझ नहीं पाते हैं। हर बात को हम मजाक के रूप में ले जाते हैं। लेकिन मजाक भी ऐसी होती है कि व्यक्ति का कलेजा चीर देती है। इसीलिए कहा गया है कि सत्य बोलो-मीठा बोलो। कोई बच्चा काला है या कुरुप है, यदि हम उसे हमेशा कालू कहेंगे तो एक बार, दो बार, वह उस बात को महसूस नहीं करेगा किन्तु उसके बाद उसे भी बुरा लगेगा। कोई व्यक्ति यदि पागल नहीं है और उसे बार-बार पागल-पागल कहा जायेगा तो वह अवश्य ही पागल हो जायेगा। यह मनौवैज्ञानिक सत्य है। अतः प्रत्येक अभिभावक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनसे ऐसी गलती न होवे जिससे बच्चे के दिल पर चोट पहुँचे।
हर मनुष्य में यह अभिलाषा होती है कि समाज के लोग उसे सम्मान की दृष्टि से देखें। छोटा-सा बच्चा भी यही चाहता है कि लोग उसके क्रिया-कलापों की प्रशंसा करें। उसकी ओर आकर्षित हों। इस तरह की स्वाभाविक बातें हैं जो व्यक्ति के अन्दर पाई जाती हैं। इस तरह से बालक का सामाजिक विकास क्रम चलता है। उसे कोई कार्य करने को कहा जाता है तो वह उसमें सन्देह करता है। अपने साथियों का साथ छोड़ना चाहता है तथा अकेले ही रहना चाहता है। उसे जीवन नीरस लगने लगता है, उसमें कुछ नई रुचियाँ जाग्रत होने लगती हैं।
बालक में असामाजिक प्रवृत्तियों के जाग्रत होने के दो कारण होते हैं— (१) स्वास्थ्य ठीक न होना (२) उचित वातावरण न मिलना। स्वास्थ्य गिर जाने से बालक के व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है। घर की आर्थिक परिस्थिति, माता-पिता का व्यवहार, वातावरण—इन सभी कारणों का बालकों पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि बालकों पर गलत प्रभाव पड़ता है।
बच्चों को जब हम किसी चीज के लिए सजा देते हैं तो हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि बच्चा सजा का कारण समझ सके कि उसे किस कारण से सजा मिली है। अन्यथा उसमें आत्महीनता की भावना जाग्रत हो जाएगी। उसे गलती को समझाना चाहिए। गलती कहाँ हुई है। अब ऐसा न करो। इस तरह बालक को समझा सकते हैं। किन्तु ज्यादा डाँट से बच्चे बिगड़ जाते हैं। अतः उन्हें डाँटने की जगह समझाना ही ठीक रहता है। अनुशासन रखना बच्चों पर बहुत जरूरी होता है। बालक में आत्म मनोबल जाग्रत करते रहना चाहिए। अन्यथा बालक आगे नहीं बढ़ सकेगा। इसलिए बालक को प्रोत्साहन मिलना जरूरी है।
बच्चों को समय-समय पर निर्देश करते रहना चाहिए। बच्चा कोई गलत कार्य करता है तो उसे उस तरफ से हटाने का प्रयास करना चाहिए। उसके अच्छे कार्यों की प्रशंसा करनी चाहिए तथा उसको आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहिए। बच्चों को बात-बात पर डाँटना, झिड़कना भी ठीक नहीं होता है। इससे बालक में आत्महीनता की भावना घर कर जाती है जो कि बालक की आत्मोन्नति और चरित्र विकास में बाधक होती है। बच्चे जब ज्यादा शैतानी करते हैं तो उनकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए। इससे बालक वे क्रियाएँ अपने आप ही बन्द कर देगा। इस तरह से बालक के रुख को मोड़ा जा सकता है।
सरलता बच्चे का स्वाभाविक गुण है। कोई जोर जबरदस्ती न की जाय, कोई अनावश्यक दबाव न डाला जाय, तो बच्चों में प्रतिक्षण सरलता के भाव देखे जाते हैं। यदि उसका स्वाभाविक रूप से विकास होने दिया जाय तो यह गुण उनके व्यक्तित्व में स्थाई रूप से जुड़ जाता है। स्मरणीय है बच्चों की प्रवृत्ति अनुकरण प्रधान है। उन्हें दबाकर रखा जाय तो भी वे माता-पिता की आदतें सीखते हैं, उनका प्रभाव ग्रहण करते हैं और उनसे मित्रतापूर्ण रवैया अपनाया जाय तब तो वे और भी अनुकरण करने लगते हैं। यहाँ तक कि नहाने-धोने और खाने-पीने तक में, ऐसी स्थिति में अपनी ऐसी कोई आदत नहीं बनने देनी चाहिए कि बच्चे भी उसका अनुकरण कर अपने स्वभाव को बिगाड़ लें।
बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ अभिभावकों पर हैं, उन्हें पूरा करने में निस्सन्देह कठिनाइयाँ भी बहुत आती हैं पर केवल इसी कारण उन पर अधिकार भावना प्रकट नहीं की जा सकती। जिम्मेदारियाँ अधिक होने से अभिभावक बड़े अवश्य हैं, पर बच्चों से मित्रवत् व्यवहार करते हुए स्वयं भी लाभान्वित हुआ जा सकता है और बच्चों का भी विकास किया जा सकता है।
बालक को धमकाने, डराने, मारने, दुत्कारने से उसमें सिर्फ कुण्ठा और कुढ़न पैदा होगी। उसे दिशा देने का तरीका स्रेह-दुलार से परिपूर्ण दृढ़ अनुशासन का ही हो सकता है। यह अनुशासन स्वयं अभिभावक के अपने व्यक्तित्व का अंग होना चाहिए ताकि बच्चे के अन्तर्मन पर भी अभिभावक के निर्देश का असर पड़े।
अभिभावकों को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि बच्चा एक चेतन प्राणी होता है। वह किसी भी निर्देश को वस्तुत: तभी अपनायेगा, जब उसकी चेतना उसे स्वीकारने योग्य समझेगी। जब तक ऐसा न होगा, चेतना विद्रोह करती रहेगी। इसलिए अभिभावक को अपने बड़े होने का अर्थ चाहे जैसा प्रभाव डाल सकने में समर्थ हो गया नहीं समझना चाहिए। ऊपरी तौर पर बच्चा भले ही चुप हो जाय, दब जाय और डरकर आज्ञा पालन करता भी दिखे, पर वस्तुतः वह उस प्रभाव को हृदय से तभी स्वीकार करेगा, जब भावनात्मक रूप से वह प्रभाव आकर्षक लगेगा। इसलिए अभिभावकों को यह तथ्य भी सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि सन्तान के साथ उनका भावनात्मक रिश्ता अधिकाधिक सघन और गहरा हो। भावनात्मक आदान-प्रदान ही टिकाऊ और सुदृढ़ होता है। इसलिए अभिभावकों तथा सन्तानों के बीच भावनात्मक आदान-प्रदान की स्थिति बनी रहनी चाहिए।
बच्चों से मैत्री करें और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप भी
प्रारम्भ में बच्चा अपने बड़ों के उदाहरण से ही सीखता है। विशेषकर उनकी बातचीत का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उसके मनोवेग, क्रियाएँ तथा भाषा पर बड़ों की बातचीत अपनी छाप डालती है। उनकी बोली तोतली व मीठी होती है। लेकिन धीरे-धीरे उस शुद्ध भाषा का प्रयोग करता है जिसमें उसका सारा समाज बोलता है। अपने माँ-बाप परिवार के परिजनों से ही वह बोली सीखता है। जैसे वे सब बोलते हैं उसी प्रकार वह भी बोलने लगता है। अपने भाषा ज्ञान का वह सही प्रयोग कर सके, उसे उचित शब्दों में अपने विचार प्रकट करने आ सकें, दूसरों की बात का वह सही अर्थ लगा सके, इसके लिए यह आवश्यक है कि उसके साथ सही ढंग से, ठीक शब्दों में बातचीत की जाए। बच्चों में उस अवस्था में तर्क बुद्धि का विकास नहीं होता। वे अपने से बड़ों की बात को ही सच मानते हैं। सुनी-सुनाई बात पर वे विश्वास करते हैं। वे ज्ञान-उपलब्धि बड़ों की बातचीत से करते हैं।
एक विद्वान का कहना यह है कि बाल्यावस्था ही ऐसी अवस्था है जिसमें विशेष परिश्रम के बिना ही वस्तु का ग्रहण हो सकता है, इस अवस्था में न अश्रद्धा है, न कुतर्क है और न किसी मत का आग्रह ही है। अतएव इसी अवस्था को सुरक्षित समझकर बालकों को मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य और चरम आनन्द की प्राप्ति के सन्मार्ग में लगाने का प्रयत्न प्रत्येक मनुष्य को सीखना चाहिए।
हम बच्चों को सिखाते हैं कि अपने बड़ों के अधिकार, विचार तथा मान-मर्यादा का ध्यान रखकर उनसे किस प्रकार बातचीत करें। कोई बात उनके मुँह से ऐसी न निकले कि वे रुष्ट हो जाएँ या उनकी हरकत से बड़ों की भावना खराब हो जाए अथवा उनकी मानसिक चिन्ता बढ़ जाए। यह शिष्टाचार सिखाना ठीक ही है, परन्तु इस आशा के चाहने वाले कितने बड़े इस बात की चेष्टा करते हैं कि बच्चों से किस प्रकार बातचीत करनी चाहिए कहीं ऐसा न हो कि हमारे व्यंग्य से उनका नन्हा-सा दिल चोट खा जाए, या बढ़ावा पाकर वे इतने निडर हो जाएँ कि नियमों का उल्लंघन करने लगे और फिर बाद में उन्हें सिर चढ़ा, बदतमीज आदि की उपाधि मिले अथवा प्रशंसा सुनकर वे इतने सिरफिरे हो जाएँ कि दिनभर उन्हें स्वाभाविक रूप से शान्त रखना कठिन हो जाए।
गलत ढंग— बच्चे से बात करने या उसे हँसाने का भी गलत ढंग लोग प्रायः अपनाते हैं। बच्चा बैठा हुआ खाना खा रहा है और पिताजी का कोई मित्र या माता की कोई सहेली आती हैं और बच्चे में अपनी दिलचस्पी दिखाने तथा उसके माता-पिता की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए वह बच्चे के सँवारे हुए बालों में उँगलियाँ फेर कर कहती हैं 'अहा ! कैसे सुन्दर काले-काले घुँघराले बाल हैं, कजरारी आँखें कैसी सुन्दर लगती हैं। इसके बाद उसे गुदगुदी लगाकर हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देती हैं।
बस, बच्चे को उत्तेजित करने के लिए इतना ही क्या कम है? अब दिन भर उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है। आत्म प्रशंसा सुनकर वह फूल उठा है। इससे वह कुछ अस्वाभाविक और बिगड़ी हुई हरकतें करके अपने माँ-बाप को भी परेशान करता है।
बच्चों से बातचीत करने का भी सलीका होता है। बड़ों से बातें करना तो सरल होता है, परन्तु बच्चे से बातें करना कठिन है। उसके लिए प्रेम, आत्मीयता एवं धैर्य चाहिए।
बच्चों से बातचीत करते समय आप ध्यान रखें—
१-बच्चा बड़ों की बातचीत से ही बहुत कुछ सीखता है। अतएव जब आप उससे बात करें, उसे खिलौना न समझकर एक जीवित व्यक्ति समझें।
२-उसे गुदगुदाकर, उछालकर या विस्मयबोधक उद्गारों द्वारा हँसाने तथा चकित करने की चेष्टा न करें | बच्चों का मनोरंजन करने के अनेक ढंग हैं। उनकी पढ़ाई, खेल आदि के विषय में पूछें। आपको समय हो तो कुछ कहानी या गीत सुनाकर या कुछ क्षण उसके साथ खेल कर मन बहलाएँ। प्रायः होता क्या है कि बड़े अपना मनोरंजन करने के लिए बच्चों को एक तमाशा बना देते हैं। लाड़ में आकर वह उत्तेजित हो जाता है और ऐसी हरकत तथा भूल कर बैठता है जिसके कारण बाद में उसे डाँट या सजा मिलती है या माँ के झुँझलाने से वह रो देता है, उसका 'मूड' बिगड़ जाता है। वह चाचा और चाची को तो प्रसन्न-चित्त समझने लगता है और माँ उसके लिए एक पहेली बन जाती है। वह सोचता है कि जिस बात से आगन्तुक प्रसन्न हुए, उसी पर माँ नाहक, चिढ़ क्यों गई।
३-जब कोई सहेली माता से मिलने आए तो उसे चाहिए कि पहले बच्चे की माता का अभिवादन करके तब बच्चे की ओर मुड़े। कुशल समाचार पूछने के बाद उसकी दिलचस्पी की दो-चार बातें कर फिर उसकी माता से बातचीत करे। अगर कोई बच्चे की बिल्कुल उपेक्षा करेगा तो वह कोई अन्य तरीके से उसका ध्यान आकृष्ट करेगा। बच्चे से फुरसत पाकर वह उसकी माता से निश्चिन्तता से बात कर सकेगी। बच्चा यदि किसी के घर जाए तो उसे घर की गृहिणी को कभी भी इस प्रकार का बढ़ावा न देना चाहिए कि मेरे घर में तुम अमुक कार्य कर सकते हो, यहाँ तुम्हारी माँ कुछ नहीं कहेगी।' बड़ों (माँ-बाप) की उपेक्षा करना बच्चों को कभी भूल से भी न सिखाएँ। जो बात बच्चे की सामर्थ्य या अधिकार के बाहर है, उस विषय में बच्चे को उलाहना न दें। यथा तुम मेरे यहाँ क्यों नहीं आए? तुमने अपने जन्मदिन की पार्टी पर हमें तो बुलाया नहीं? ऐसी बातों में बच्चा स्वाधीन नहीं होता, यह जानते हुए भी उसे शर्मिन्दा करना उचित नहीं।
४-बच्चा अगर तुतलाकर बोलता है तो आप भी उससे बातचीत करते समय तुतला कर न बोलें, बच्चा सुन-सुनकर ही शुद्ध आचरण सीखता है। गलत बोलकर आपको उसे इस सुविधा से वंचित न करना चाहिए | उसके तोतलेपन की हँसी उड़ाकर या आलोचना करके आप उसे लज्जित न करें, नहीं तो वह आपसे बात करते झिझकेगा अथवा आपका मनोरंजन होते देखकर वह हमेशा तुतलाकर बोलेगा।
५-प्रकट रूप में बच्चा चाहे अपने खेल में ही व्यस्त दीखे, परन्तु उसके सामने उसकी आलोचना या प्रशंसा न करें। पूरी बात न समझ सकने पर भी वह अपनी कल्पना से कुछ बेसिर-पैर की बात जोड़ कर उसका उल्टा सीधा मतलब निकालेगा। हो सकता है कि आपकी चर्चा का उस पर बुरा असर पड़े और उसके मन में कई दुःशंकाएँ उठ खड़ी हों।
६-अगर बच्चे को कभी चोट लग जाए, आप सहानुभूति दिखाएँ, उसकी मदद करें, परन्तु बार-बार उस घटना का वर्णन करने का प्रोत्साहन न दें। बच्चे बिचारे का सिर फूट गया, ओहो, बड़ा कष्ट है, तू गिर गया था, कैसे गिरा था? किसने मारा? कहाँ चोट लगी है? आदि प्रश्नों के उत्तर में वह जो अभिनय करेगा, उससे आपका मनोरंजन तो होगा, परन्तु बच्चे के लिए हितकर नहीं हैं, वह अपने राई से दुःख को भी पहाड़ समझने लगेगा। अगर आप कोई अन्य मनोरंजक प्रसंग चलाकर उसका ध्यान दूसरी ओर लगा दें तो ज्यादा अच्छा है। बच्चे के गिर पड़ने पर आप उसे उठा तो लें, पर साथ ही 'ओहो ! बच्चे ने तो छलाँग लगाई। उठो, उठो मुन्ना, देखो कोई चींटी तो दबकर नहीं मर गई?' आपके ऐसा कहने से बच्चा अपनी चोट भूलकर चींटी की फिक्र में लग जाएगा।
७-बच्चे से बातचीत करते समय उसकी समझ तथा जानकारी का ध्यान जरूर रखें। छोटे वाक्य, सरल भाषा तथा अपरिचित विषय चुनना, क्योंकि बच्चे आपकी बोलचाल की भाषा ही समझ सकते हैं। अगर उसे कोई बात मालूम नहीं है तो ऐसा न कहें 'अरे ! तुम यह भी नहीं जानते।' अपितु इस ढंग से जानकारी दें कि बच्चा अपनी जानकारी की कड़ी से आप द्वारा दी गई जानकारी को सहज ही जोड़ ले। अगर वह शरमाता है तो बार-बार उसके पीछे मत पड़ें। भैया! एक गाना गाओ, कविता ही सुना दो, अच्छा जरा नाचना तो, अरे भाई शर्माने की क्या बात है? जरा सुना ही दो, आपके बार-बार ऐसा कहने से वह सचमुच में शर्माने लगेगा या फिर अपना महत्त्व बनाए रखने के लिए आप से बार-बार आग्रह करवाएगा। अतएव बार-बार कहना व्यर्थ ही है।
८-बच्चे से बातचीत करते समय जोर-जोर से हँसना, धमका कर या चिल्लाकर बोलना, हँसी मजाक में अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, हाथ-मुँह बनाकर बात करना आदि ढंग बुरे हैं। बच्चे इन दुर्गुणों की झट नकल कर लेते हैं। बातचीत में दोष आ जाने से बच्चों का व्यक्तित्व प्रभावहीन हो जाता है। जल्दी-जल्दी बोलना, कुछ तकिया कलाम यथा—'समझे न' 'होंगे' 'क्या समझे' 'बड़े आए', 'ठीक है ठीक है' 'बड़े अच्छे', 'क्या कहने आपके' आदि निरर्थक शब्दों का प्रयोग बच्चे सुन-सुनकर ही सीख जाते हैं। इसी प्रकार हाथ हिला-हिला कर बात करना, मुँह बनाना, आँखें झपकाना, कचर कचर, जल्दी-जल्दी कतरनी सी जीभ चलाना आदि दोष भी बच्चों में देखा देखी ही आ जाते हैं।
प्रत्येक मनुष्य का यह सामाजिक कर्त्तव्य है कि वह बच्चों से बातचीत करना सीखे। कई बार ऐसा होता है कि बड़ों की बेपरवाही से बच्चों के नन्हे से मन में बहुत चोट लग जाती है, उन्हें गलतफहमी हो जाती है तथा वे उलझन में पड़ जाते हैं।
बच्चों को जली-कटी न सुनायें— स्त्रियों में यह विशेष दोष है कि जब वे किसी बच्चे के माता-पिता की उपस्थिति में अपना क्रोध व्यक्त करने में असमर्थ होंगी, तो बच्चों से बातचीत करते समय उनके माँ-बाप को बुरा भला कहना शुरू कर देंगी।
'ऐ तेरी माँ तो ऐसी बुरी है कि कुछ पूछो मत, उसके मुँह पर तो सब थूकते हैं, इतना पैसा है पर है महाकंजूस। कभी अपने सगों को तो देना ही नहीं जानती। यह तो हमारे भाई ने सिर चढ़ाया है, मेरा बस चले तो दो दिन में डण्डे मारकर ठीक कर दूँ। अपनी बुआ की ऐसी बातें सुनकर नन्हे बच्चों को इतना बुरा लगा कि वे अपनी माँ से आकर बोले, "माँ ! हम अब कभी भी बुआ के घर नहीं जाएँगे। जाते ही वह हमें ताने देने लगी—तुम्हारे बारे में ऐसा-ऐसा कह रही थी और दादी जी पास में बैठी हँसती जा रही थी और कह रही थीं जाने दे चुप भी हो जा, ये बच्चे भोले नहीं हैं, अपनी माँ से सब जाकर कहेंगे।' यह सुनकर बुआ बोली "कहने दो उसे जलाने के लिए ही तो मैं सुना रही हूँ।" यह कह कर सब लोग हँसने लगी।
जो स्त्रियाँ बच्चों की ओट में इस प्रकार अपनी ईर्ष्या प्रकट करती हैं वे महामूर्ख हैं। बच्चों से बातचीत करते समय किसी की आलोचना या निन्दा से उन्हें परेशान करना या उनके मन को कलुषित करना बड़ी भूल है।
जिस घर में सम्मिलित पारिवारिक जीवन प्रथा है, वहाँ अगर बहू-बेटियों में मेल-मिलाप है, तब तो बच्चों से सभी प्यार से बोलते हैं अन्यथा देवरानी-जेठानी या ननद-भावज द्वेषवश एक-दूसरे के बच्चों को नाहक ही कटु वचन सुनाती हैं, अकारण ही उन्हें घुड़क देती हैं, उनकी आलोचना करती, उन पर लांछन लगाती हैं, उनके कटु शब्द सुनकर बच्चे भी कटु भाषी बन जाते हैं।
इसके अतिरिक्त छोटे बच्चों की खिल्ली उड़ाकर कई बड़ों को आनन्द भी आता है। वे पहले तो प्यार से बच्चों को अपने पास बुला लेंगे, फिर उसकी वेश-भूषा, चाल-ढाल, बातचीत योग्यता आदि की हँसी उड़ावेंगे।
'वाह तुम तो ढीला पाजामा पहन कर पूरे जोकर लग रहे हो, किसका माँग कर पहने हो? बेचारा सदैव सबके उतरे कपड़े ही पहनने को पाता है, बेचारे को कोई पूछता ही नहीं।
ऐ मुन्नी, देख तेरी चुटिया तो बिल्कुल चूहे की दुम के सदृश्य खड़ी है। देख लेना तुझे पीछे से बिल्ली न आकर दबोच ले।
'अरे मोहन ! तुम तो गा रहे थे, हम तो समझे गधा रेंक रहा था। बस, ऐसी आलोचना सुनकर बच्चे-बच्ची मन ही मन कट कर रह जाते हैं और कभी दोबारा बड़ों की उपस्थिति में गाने आदि की चेष्टा नहीं करते।
बड़ों की दृष्टि में उनकी इस प्रकार की बातचीत मामूली बात है, पर बच्चे को दुःख होता है। वह चिड़चिड़ा बन जाता है। कोई और बहाना करके रोने लगता है या अपना गुस्सा प्रकट करता है। बच्चा अपने बड़ों के प्रत्येक निर्देश को बहुत महत्त्व देता है। अगर वे उनकी बातचीत तथा कामों में दिलचस्पी लेते हैं, अपनी कहानियाँ तथा चुटकुलों से उनका मनोरंजन करते हैं तो बच्चे उनसे बातचीत करने के लिए विशेष उत्सुक रहते हैं। कैलाश के कई मामा हैं सगे और चचेरे भी परन्तु वह अपने चचेरे बड़े मामा को सबसे अधिक पसन्द करता है। कारण वे जब भी आते हैं, कैलाश की पढ़ाई, खेल-खिलौनो, प्रतियोगिता, हॉबीज तथा संगी-साथियों के बारे में पूछते हैं, उसे कुछ नए सुझाव देकर प्रोत्साहन देते हैं और अपने नौकरी के अनुभवों से उसका खूब मनोरंजन करते हैं | उनमें एक विशेषता है, वे बच्चे की समझ और रुचि को खूब परखते हैं, इसीलिए सभी बच्चे उनकी बातचीत से प्रभावित होते हैं। परन्तु बच्चों को चकित करने के लिए वे भयोत्पादक वर्णन बात बढ़ा कर कभी नहीं करते क्योंकि उनका कहना है कि ऐसी चर्चा जिससे बच्चे उलझन में पड़ जाएँ, उनके लिए हानिकारक है।
बच्चे बहुत-सी बातें बड़ों से सीखते हैं। वे उनके वर्णन का ढंग, लहजा, भाव-भंगिमा, मुहावरे आदि को दोहराने की चेष्टा करते हैं।
अगर माँ बच्चे को गाली देकर 'ए छोरी इधर आ, अबे नालायक किधर मर गया? क्या बहरा हो गया है?' इस तरह अपशब्द कहकर बुलाती हैं और पिताजी भी हमेशा घुड़क कर बोलते हैं, तो बच्चे भी अपने संगी-साथियों से इसी प्रकार बात करेंगे। बच्चों की शिष्टता और विनम्रता पूर्वक बातचीत सुनकर इस बात को समझते देर नहीं लगती कि ये कुलीन घर के बच्चे हैं। जिस प्रकार अच्छी वेश-भूषा व्यक्तित्व को उभारती है उसी प्रकार शिष्ट और मधुर बातचीत भी मनुष्य के सुशिक्षित और सभ्य होने की द्योतक है। इसलिए बड़ों पर इस बात की विशेष जिम्मेदारी है कि उनकी बातचीत का ढंग शिष्ट, दोष रहित तथा सरल और सुबोध हो।
ठीक शब्दों का प्रयोग करें : बच्चों से बातचीत करते समय बड़ों को ऐसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिनके अर्थ स्पष्ट हों। जैसे जब बच्चा कोई बाल-सुलभ चपलता दिखाता है उस समय भी उसे दुलार में 'शैतान" कहना और अपराध करने पर भी उसे "शैतान" कहना ठीक नहीं है। बच्चे का नटखटपना और दुष्टता दोनों एक से कार्य नहीं हैं। बुरा, गन्दा, मूर्ख, शैतान, नटखट, नालायक आदि शब्दों का ठीक अर्थ में ही प्रयोग करना चाहिए। जरा-जरा सी बात पर निरर्थक धमकियाँ देना भूल है। कोई-कोई माताएँ बात-बात पर बच्चे को इस प्रकार धमकाती हैं, "ठहर जा, आकर तेरा सिर फोड़ती हूँ, तेरी जान न ले ली तो कहना, ठहर तेरा कचूमर निकालती हूँ, आज तुझे भूखों न मारा तो नाम नहीं, तू कहना नहीं सुनता, हम बस चले जाएँगे और तुझे यहीं पर बन्द कर जाएँगे। इस प्रकार की निरर्थक धमकियों का बच्चों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता उल्टा वे डाँट-डपट को मामूली बात समझने लगते हैं और ढीठ तथा कर्कश बन जाते हैं।
ढीठ न बनाएँ : आप अपने बच्चे को एक नुमायशी पुतला न बनाएँ। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों से बड़ों का मजाक उड़वाते हैं। अजी अपने चाचा की नकल हमारा बच्चा खूब करता है, देखो तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाओगे। हाँ बच्चा, जरा बता दे तेरे चाचा कैसे डाँटते हैं चाची को? अब बच्चा प्रशंसा प्राप्त करने के लिए मजाकिया ढंग से चाचा-चाची के झगड़े की नकल करता है। उस समय बड़े यह बात भूल जाते हैं कि हम स्वयं ही अपने बच्चों को ढीठ, अशिष्ट और आलोचक बना रहे हैं।
बच्चों से इस प्रकार के प्रश्न न करें : हाँ तू वहाँ खड़ा था, क्या बातें हो रही थीं? तूने क्या कहा? वहाँ कौन थे? फिर क्या हुआ?' आपके ऐसे प्रश्न बच्चे को दूसरे की बातों में दखल देने की प्रेरणा देते हैं। बड़ों की बातचीत से बच्चा घुमा फिरा कर बातें करना, बहानेबाजी तथा सवाल-जबाव करना सीखता है और बड़े भी अपनी स्वार्थ सिद्ध होते देख अपने बच्चों की इन बातों की प्रशंसा करते हैं, अरे ! हमारा लड़का बड़ा होशियार है, वह तो बाल की खाल निकालता है। उसे चकमा देना सरल नहीं।' 'देखना हमारी बच्ची तो पूरी खबर लेकर आएगी। और सचमुच बच्ची माँ को प्रसन्न करने के लिए नमक-मिर्च लगाकर इधर का उधर गढ़ती है फलस्वरूप घरों में लड़ाई मच जाती है। अगर माँ ने अपनी बच्ची की अहितकर प्रशंसा न की होती तो वह चुगलखोर कभी न बनती।
बच्चों की उपस्थिति में बड़े जो राय प्रकट करते हैं अथवा अपना स्वार्थ-सिद्ध करने के लिए बच्चों को साधन बनाते हैं, उससे उनका बड़ा अहित होता है। जैसे 'जा बेटा, यह चिट्ठी अमुक को दे आ, पर अकेले में देना।' 'चुपके से मेरे लिए वहाँ से यह चीज उठा ला।' आप सोचते होंगे कि यह यथार्थ बात बच्चे को भला क्या पता, परन्तु बच्चे यह बात जरूर ताड़ जाते हैं कि बड़े कुछ अनुचित कार्य कर रहे हैं, पर उसे छिपाकर करने में वे कोई बुराई नहीं समझते।
बच्चे जब प्रायः आपको आपस में झूठ बोलते, बहाने बनाते तथा एक-दूसरे को चकमा देते या झगड़ते देखते हैं तो आपकी बातचीत से परोक्ष रूप में उन्हें भी असामाजिक व्यवहार करने की प्रेरणा मिलती है।
बड़ों की बेतुकी बातें : स्त्रियों में यह एक विशेष दोष है कि वे अपनी किसी सहेली से मिलने जाएँगी तो उसे प्रसन्न करने के लिए उसके बच्चे के विषय में अनावश्यक चर्चा करेंगी। अगर वह कोई शैतानी कर रहा है तो मुस्कुराकर कहेंगी 'बड़ा शैतान है, अरे नटखट इधर आ।' तब बच्चा सोचेगा कि शैतानी करना अच्छी बात है, वह जान बूझकर कुछ न कुछ काम बिगाड़ेगा। किसी छोटे बच्चे से यह पूछना कि 'हम तुम्हारा खिलौना ले लें?' तुम्हारे छोटे भैया को ले जाएँ?' "तुम हमारे घर चलोगे?' "हमारे बेटे बनोगे?' आदि बातें बेतुकी-सी हैं और नन्हे बच्चों पर इन प्रश्नों का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। भला, अपना प्यारा खिलौना या भाई माँगने वाला व्यक्ति उसे कैसे अच्छा लग सकता है?'
बच्चों के सामने सन्देहात्मक विचार प्रकट न करें : बच्चे से बातचीत करते समय बिना पूरी जाँच किए उसके विषय में संदेहात्मक विचार प्रकट करना ठीक नहीं है। 'मुझे विश्वास है कि तुमने अपने स्कूल का काम पूरा कभी न किया होगा। भला तू कभी पास हो सकता है?' 'भला तुझ से कोई अच्छे काम की आशा की जा सकती है?" आपके इस प्रकार कहने से बच्चे का विश्वास हिल जाता है। बच्चे के विषय में अपनी ऐसी राय प्रकट करके आप उसके विश्वास को कुंठित करते हैं। 'मेरी मुन्नी शर्माती है' माँ के इस प्रकार राय प्रकट करने पर सचमुच मुन्नी शर्माने लगती है क्योंकि बच्ची समझती है कि मेरी माता मुझ से ऐसे ही व्यवहार की आशा करती हैं और तब उसकी माँ लाड़ से उसे अपनी ओर खींच लेती हैं। इस प्रकार लड़की एक नुमायशी ढंग से व्यवहार करना सीख जाती है। धीरे-धीरे यह बनावटी ढंग उसका स्वभाव बन जाता है।
कभी-कभी बच्चे छोटे मुँह बड़ी बात कर बैठते हैं। उस समय माता-पिता प्रशंसा की दृष्टि से कहते हैं "लो सुनो इसकी बात, इसे छोटा न समझो, इसके तो पेट में दाढ़ी है। ऐसा उत्तर देता है कि तुमको-हमको न सूझे।' अपनी ऐसी प्रशंसा सुन बच्चा आगे के लिए बड़ों की बात में दखल देने तथा बोलने में चतुराई समझने लगता है।
बच्चे को ऐसी प्रतिज्ञा करने को कभी न कहें जिसका पालन उसके लिए असम्भव हो ! "कान पकड़ और कह कि अब कभी झूठ नहीं बोलूँगा' या 'अब बहिन को कभी नहीं मारूँगा।' आपके ऐसा कहने को बाध्य करने पर बच्चा चाहे ऐसा कह देगा पर इससे उसका कुछ सुधार नहीं होगा। उल्टा वह प्रतिज्ञा करके तोड़ने का आदी हो जाएगा। 'सच बोलने की चेष्टा करूँगा, ऐसा काम न करने की चेष्टा करूँगा।' ऐसा कहलवाना अधिक उचित होगा।
जो व्यक्ति बच्चों की समझ तथा भावनाओं का ध्यान रख कर बातचीत करना जानता है, वह बच्चों में जल्द लोकप्रिय हो जाता है। उसकी बात का बच्चों पर असर भी अच्छा पड़ता है। वे उसकी बात भी सुनते हैं। वह उन्हें अपनी बात समझाने-सिखाने और कहना मनवाने में भी सफल होता है।
ऐसे व्यक्ति बच्चों के आदर्श बन जाते हैं, वे उनका अनुकरण करने में गौरव का अनुभव करते हैं। उनकी बात-चीत में उन्हें विशेष रस आता है। इसी आकर्षण के वशीभूत होकर बच्चे किसी शिक्षक को अधिक पसन्द करते हैं किसी को नहीं। जो व्यक्ति बातचीत में कटु, अधीर, आलोचक तथा नीरस होते हैं, बच्चे उनके सामने जाने तक में कतराते हैं ! 'मैं नहीं जाऊँगा उनके सामने, वे हमेशा जलीकटी सुनाते रहते हैं।' 'वे बात-बात में बिगड़ते हैं।''उनकी आवाज सुनकर मेरे प्राण सूख जाते हैं फिर भला उनका पढ़ाना क्या खाक समझ में आएगा।'
बच्चों का आरम्भिक शब्द ज्ञान बड़ों की बातचीत से ही बढ़ता है। इसलिए इस बात की बहुत आवश्यकता है कि बड़ों की बातचीत विशेष कर बच्चों की उपस्थिति में बहुत, सरल शिष्ट तथा सार्थक हो। कई व्यक्ति प्रायः ऐसा कहा करते हैं कि 'राम जाने लोगों को बच्चों से बातचीत करने में क्या मजा आता है? मुझ में तो धीरज है नहीं बच्चों से सिर खपाने की। बच्चों से क्या बात की जाए मेरी तो समझ में नहीं आता।'
सचमुच बच्चों से बातचीत करना उतना सरल नहीं है जितना कि हम उसे समझते हैं। बच्चों से बातचीत करने में आपकी धीरता, योग्यता, शिष्टता तथा समझदारी की परीक्षा होती है और देखा गया है कि असावधानी के कारण अधिकांश लोग इसमें सफल नहीं हो पाते।'
पं० जवाहरलाल नेहरू को बच्चे कितने प्यारे थे, यह सर्व विदित है। एक स्थान पर उन्होंने कहा है—मैं इस संसार में अपने मित्रों के कारण बहुत सुखी हूँ। ये जो भोले-भाले बच्चे हैं, ये ही मेरे प्रिय सखा हैं। पं० नेहरू के कहे ये शब्द बच्चों की प्रियता का कारण बताते हैं। बच्चे जितने अच्छे और मित्रता के गुणों से पूर्ण सम्पन्न होते हैं, उतना गुणवान मित्र कोई प्रौढ़ साथी सिद्ध नहीं होता। कहा गया है कि मित्र सच्चा, सरल और निष्कपट होना चाहिए | ऐसे मित्रों की तलाश सभी को रहती है जिससे अपनी गुप्त से गुप्त बात कहकर भी यह आशंका न रह जाए कि वह बात कहीं और फैल जाएगी। ऐसे मित्र की सभी जगह अपेक्षा रहती है जो प्रत्येक त्रुटि को उदारतापूर्वक क्षमा कर सके और हर कार्य में सच्चा सहयोगी सिद्ध हो।
लेकिन ऐसी मित्रता इस संसार में अपवाद स्वरूप ही मिलती है। हमें जितने भी मित्र मिलते हैं वे या तो किसी स्वार्थ के कारण हमारे निकट आते हैं और मित्रता गाँठते हैं अथवा उनमें इतनी निर्दोषता नहीं रहती कि परिस्थितियों में ढीलापन आने के कारण आत्मीयता के बन्धन भी ढीले होने लगे। कई बार तो इस तरह के सम्बन्ध ऐसे बिगड़ने लगते हैं कि घनिष्ठ मित्र भी एक दम घोर शत्रु बन जाते हैं और मित्रता दुश्मनी में बदलने लगती है।
मित्रता के गुणों की दृष्टि से देखा जाए तो वे सभी गुण बच्चों में अच्छी तरह देखे जा सकते हैं। उनके साथ यदि आत्मीयता का विस्तार किया जाए तो वे सच्चे, सगे, स्नेही और सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि मनुष्य जन्मतः तो सभी मानवी गुणों को लेकर उत्पन्न होता है। उसमें विकार वातावरण तथा संसर्ग दोष के कारण ही आते हैं। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बच्चों को परमात्मा की प्रतिमूर्ति बताते हुए कहा है 'परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है तो उन्हें मैंने बच्चों में पाया। बालकों को मैं अपने जीवन का प्रेरणा-स्रोत मानता हूँ।'
निश्छलता और पवित्रता मित्रता की दो अनिवार्य शर्तें हैं। ये शर्ते बच्चे जितनी तत्परता से पूरी करते हैं उतनी तत्परता से कोई नहीं कर सकता। बच्चों से मित्रता की बात सोचते समय हम समझते हैं कि यह बात हास्यास्पद है क्योंकि वे हमारे लिए किसी प्रकार सहायक सिद्ध नहीं हो सकते। उनमें क्या शक्ति है और क्या सामर्थ्य जो हमें आड़े वक्त में सहयोग दे सकें। वस्तुतः हम मित्र नहीं, सहायक खोजते हैं और सहायक खोजते-खोजते मित्रता की बात इस तरह भूल जाते हैं कि फिर हमें वैसाखी या सीढ़ी भर की तलाश रह जाती है, जिसके बल पर हम आगे बढ़ सकें या ऊँचा उठ सके। सहायक की खोज के मूल में होती है, स्वार्थ भावना और स्वार्थपूर्ति, इसी के लिए तो हम अनेक लोगों से मिलते हैं, मीठी-मीठी बातें करते हैं। खुशामद, चापलूसी, प्रशंसा और प्रसन्न करने के लिए आवभगत न जाने क्या-क्या करते रहते हैं।
यों देखा जाए तो बच्चे सहायक के रूप में भी कम सिद्ध नहीं होते। अपनी स्वाभाविक सूझ-बूझ और प्रतिभा के कारण समय-समय पर वे जो परामर्श देते हैं, वे बड़े मूल्यवान सिद्ध होते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब घर में नजरबन्द थे तो उनकी सारी गतिविधियाँ बन्द पड़ी थीं। नजरबन्द होने के कारण न वे घर से बाहर निकल पाते थे और न कहीं जा पाते थे। यह स्थिति उन्हें बड़ी अखरी और उन्होंने बाहर जाने को सोचा। पर जाएँ तो जाएँ कैसे? घर के चारों ओर तो सादे वेश में पुलिस के आदमी मँडराते रहते थे। ऐसी परिस्थिति में उनकी एक छोटी-सी भतीजी ने उन्हें मौलवी का वेष बनाकर घर से बाहर निकालने की योजना बनाई। बच्चों में पूर्व जन्म की प्रतिभा छिपी होती है। कई बच्चों में तो यह प्रतिभा वयस्क व्यक्तियों से भी ज्यादा होती है। माता-पिता सुयोग्य और समझदार होते हैं तो वह प्रतिभा विकसित हो जाती है अन्यथा ज्यों की त्यों पड़ी रहती है और कुन्द हो जाती है।
बच्चे परिवार की बगिया के फूल कहे जाते हैं, पर इस बगिया में फूलों की जितनी उपेक्षा होती है जंगल में खड़े किसी पौधे के फूल की शायद उतनी उपेक्षा नहीं होती। घर में वयस्क सदस्यों के क्रिया-कलाप और घर में चल रही हलचलों को बच्चे बड़े ध्यान से देखते हैं, परन्तु अभिभावक बच्चों की इस रुचि की ओर ध्यान ही नहीं देते। इससे वे बड़े निराश हो जाते हैं। अधिक उत्साही बच्चे कोई प्रोत्साहन न मिलने पर भी अपनी ओर से परामर्श दे बैठते हैं, पर उन्हें यह कहकर घुड़क दिया जाता है कि तुम क्या जानते हो?
बच्चों को अल्पबुद्धि समझकर उनकी उपेक्षा कभी न की जानी चाहिए और न ही उन्हें इस तरह की हीनता बोधक बातों से हतोत्साहित करना चाहिए। बच्चा यदि वास्तव में ही अल्पबुद्धि है तो उसमें आत्मविश्वास जगाना चाहिए न कि हीनता का भाव।
घर का बजट जब तैयार किया जा रहा हो अथवा किसी काम काज की योजना बन रही हो प्रायः सभी बच्चे उसमें रुचि लेते दिखाई देते हैं, पर कई अभिभावक उस समय बच्चों की उपस्थिति को सहन नहीं कर पाते और उन्हें यह कहकर भगा देते हैं कि यहाँ तुम्हारे मतलब की बात नहीं। तुम यहाँ क्यों बैठे हो? बाहर जाकर खेलते क्यों नहीं? बच्चों की प्रतिभा पर यह कुठाराघात ही कहा जाएगा कि उनकी स्वाभाविक रुचि को प्रताड़ित किया जाए तथा उसे निखरने से पहले ही उपेक्षा के कीचड़ में फेंक दिया जाए। जिस बच्चे को लेकर उसके जन्म पर आह्लाद व्यक्त किया गया था वह क्या इतना बुरा हो गया कि उसकी रुचियों को ही तोड़-मरोड़ दिया जाए और उन्हें हतोत्साहित कर दिया जाए।
इस तरह का अमैत्रीपूर्ण रवैया अपनाकर हम लोग बच्चों से मिल सकने वाले आनन्द और सहयोग से वंचित हो जाते हैं। वे सुख-दुख में सच्चे आत्मीय की तरह हमारे साथ रहें। प्रौढ़-मित्रों में इस नियम का कितना पालन होता है यह कहा नहीं जा सकता। अधिकांश संगी मौज़ मजे में ही साथ निभाते हैं, कठिनाइयाँ आते ही उनका चेहरा भी खोजे नहीं दीखता पर इतना निश्चिन्ततापूर्वक विश्वास किया जा सकता है कि बच्चों में बड़ों की अपेक्षा अधिक सम्वदेनशीलता होती है।
वे अपने माता-पिता को दुःखी देख कर तुरन्त मुरझा जाते हैं। घर में जब प्रसन्नता का कोई अवसर आए तो सारे घर को उल्लास से भर देते हैं। देखा जा सकता है कि माता-पिता में जब किसी प्रसंग को लेकर गरमागरम विवाद चल रहा हो तो वह हल्ला-गुल्ला सुनकर ही बच्चे रो उठते हैं। ऐसे अवसरों पर बच्चे की आत्मीयता का अनुभव कर सच्चा आत्मसन्तोष प्राप्त किया जा सकता है।
दुःख के समय बालकों के महत्त्व से दुःख घटता है और सुख की घड़ियों में उनकी उपस्थिति से घर का सारा वातावरण उल्लासमय हो जाता है। साथ ही साथ किन्हीं अवसरों पर उन पर हल्का उत्तरदायित्व डाला जाए तो वे स्वाभिमान और आत्मीयता की भावना से भर उठते हैं। ऐसा व्यवहार रखने से बच्चों की मानसिक स्थिति का काफी परिष्कार होता है और उनका उत्साह भी खुलता है।
मित्र, सच्चा, सरल और निष्कपट मित्र ! ऐसे मित्र की तलाश संसार में किसे न होगी, जिससे अपनी प्रत्येक गुप्त से गुप्त बात प्रकट कर सके तो भी ऐसी आशंका न रहे कि वह बात कहीं अन्यत्र फैल जाएगी। जो इतना सरल हो कि अपनी प्रत्येक त्रुटि को उदारतापूर्वक क्षमा कर सके, जो हर कार्य में सच्चा सहयोगी सिद्ध हो सके। अभिन्न हृदय, अभिन्न आत्मा, न कोई छल न कपट। ऐसा मित्र मिल जाय तो पूर्वजन्म का कोई पुण्य, कोई सुकृत ही समझना चाहिए।
पर ऐसी मित्रता इस जगत में अपवाद ही हो सकती है। प्रायः मित्रता किसी लाभ या स्वार्थ की दृष्टि से कायम होती है और जब उन परिस्थितियों में ढीलापन आने लगता है तो आत्मीयता के बन्धन भी समाप्त होने लगते हैं। अनेक बार ये सम्बन्ध इतने कटु हो जाते हैं कि जिगरी दोस्त भी जानी दुश्मन हो जाते हैं, मित्रता शत्रुता में बदल जाती है।
हमारी दृष्टि में अपने बच्चों की मित्रता अधिक निश्चित उपयोगी हो सकती है। मित्र में जो गुण होने चाहिए, वे बच्चों में मौलिक रूप में देखे जा सकते हैं। बच्चों के साथ आत्मीयता का विस्तार किया जाए तो वे सबसे प्रिय संगी, स्नेही और सहयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर कहा करते थे—'परमात्मा की पवित्रता और निश्छलता यदि कहीं है, तो उन्हें मैंने बच्चों में पाया। बालकों को मैं अपने जीवन का प्रेरणास्रोत मानता हूँ।' पं० जवाहरलाल जी की बालकों के साथ घनिष्ठता विश्व-विख्यात है, उन्होंने एक बार कहा था—"मैं इस संसार में अपने मित्रों के कारण बहुत सुखी हूँ, ये जो भोले-भाले बच्चे हैं, ये ही हमारे प्रिय सखा हैं।"
पारिवारिक सौमनस्य और बालकों के जीवन निर्माण की दृष्टि से भी अपने बच्चों की मैत्री बहुमूल्य होती है। इसके लिए बालक सदैव इच्छुक दिखाई देंगे, किन्तु घरों में बच्चों को अल्प-बुद्धि समझ कर प्रायः उनकी उपेक्षा की जाती रहती है। उनकी सूझ-बूझ कई बार इतनी महत्वपूर्ण होती है कि वयस्कों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। सच तो यह है कि बालकों में सही निर्णय की क्षमता दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है, किन्तु उन्हें ऐसा करने के लिए अवसर नहीं दिया जाता, यह दुःख की बात है।
घर का बजट या किसी काम-काज की योजना बनाते समय लोग बच्चे को यह कहकर भगा देते हैं कि जाओ, खेलो—यहाँ तुम्हारे मतलब की कोई बात नहीं, पर ऐसा करते हुए अभिभावक यह भूल जाते हैं कि ऐसा करने से न केवल बालक की रचनात्मक बुद्धि को आघात पहुँचता है, वरन् वे एक महत्त्वपूर्ण सहयोग से वंचित रह जाते हैं। बजट बनाते समय बच्चे कई इतनी उपयोगी बातें बता देते हैं, जहाँ हमारी कल्पना भी नहीं पहुँचती। यह तो साधारण बात हुई। बालकों से बड़े व्यक्तियों को कई बार ऐसे सुझाव मिले हैं कि यदि वे न मिलते तो उनके कार्यों या कृतियों में अनेक दोष रह जाते।
जार्ज बर्नार्डशा के एक नाटक में किसी पात्र के मुँह से ऐसी बात कहलाई गई थी, जो उसे न कहनी चाहिए थी। उसे एक बालक ने ठीक किया था। 'पिताजी, मनुष्य को उद्देश्यहीन उत्सवों में नहीं शामिल होना चाहिए।' यह उपदेश बालक नैपोलियन ने अपने पिता को दिया था। सुभाषचन्द्र बोस अपने घर में नजरबन्द थे, तो वहाँ से मौलवी के वेश में निकल जाने की योजना उनकी छोटी भतीजी ने बताई थी। बच्चों में दरअसल असाधारण सूझ-बूझ होती है, उसे यदि ठुकराया न जाए तो वे ऐसी सुघड़ सलाह देते हैं, जैसी कोई मित्र भी नहीं दे सकता।
बच्चे में पूर्वजन्म की प्रतिभा छिपी होती है। किन्हीं-किन्हीं में तो यह मात्रा वयस्कों से भी अधिक होती है। सुयोग्य सहयोग के लिए हर माता-पिता को उस प्रतिभा का लाभ लेना चाहिए और उसको विकसित करने का प्रयत्न भी करना चाहिए।
कभी-कभी मित्रों के गुण सौन्दर्य बहुत प्रभावित करते हैं। किसी में आत्मीयता अधिक होती है, किसी से मनोविनोद होता है, कोई प्राणवान होती हैं, कोई कर्तव्य-पालन और व्यवहार कुशलता में श्रेष्ठ होते हैं। बच्चों में इस प्रकार के अनेक सदगुणों और सद्भावों का सम्मिलित एकीकरण देखा जा सकता है, पर उसे कृपया पुत्र होने की अधिकार भावना से न देखकर मैत्रीपूर्ण भावनाओं से देखिए। एक-दूसरे पर समान अधिकार का आश्वासन देकर ही एक दूसरे के गुणों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
सरलता बालकों का स्वाभाविक गुण है। यदि उनके साथ कोई जोर जबर्दस्ती न की जाए या अनावश्यक दबाव न डाला जाए तो उनमें प्रतिक्षण सरलता के भाव देखे जाते हैं। वे प्रतिदिन ऐसे मनमोहक दृश्य उपस्थित करते रहते हैं। कभी बच्चा कपड़ों और देह में मिट्टी लपेट कर आपके समक्ष आ खड़ा होगा। ठीक बाल शिव की तरह उसे देखकर आप मुस्कुराए बिना न रहेंगे, उसे कपड़े पहनने के लिए कहेंगे तो उल्टी कमीज पहनकर आ जाएगा, आपकी किताबों को सारे कमरे में बिखेर देगा, उन्हें इस तरह खोलेगा मानों किसी विशेष सन्दर्भ की तलाश हो। बड़ों को हाथ-मुँह धोता देखकर वह भी वैसा ही अनुकरण करता है, पर हाथ में लिया हुआ पानी कभी एक गाल के लिए ही पर्याप्त होगा, कभी मुँह में उँगली डालकर दाँत साफ की-सी क्रिया करेगा। यह सब वह अपनी बाल सरलता से करता है। गलती-सही का उसे जरा भी अन्दाज नहीं होता। आप को भी उसकी इन क्रियाओं से मनोविनोद करना चाहिए, पर यदि उसे इन कौतुकों के फलस्वरूप आपकी डाँट-डपट, मार-झिड़क मिली तो कुछ ही दिनों में उसकी सारी सरलता कठोरता में बदलने लगेगी। यदि आप इन आदतों में से किसी को सुधारना ही चाहते हैं तो उसका सही नमूना बार-बार उसके आगे प्रदर्शित कीजिए, बच्चा अपने आप उसका अनुसरण कर लेगा। समझाएँ भी तो हँसते हुए, कुछ कहें तो आत्मीयता के साथ। "नहीं, मुन्ने ऐसे नहीं कंघा यों पकड़ना चाहिए और ऐसे बाल ठीक करना चाहिए।" इस प्रकार कहते हुए आप कोई बात उसे समझाइए। चिल्लाकर, चौंका कर कोई बात कहेंगे, बच्चा डर जाएगा और आपके प्रति उसकी भावनाओं में कठोरता आने लगेगी। यह दबाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुटिल परिणाम उपस्थित करने वाला होता है।
बच्चे बड़े निष्कपट होते हैं, पर गलत उदाहरण देकर ही उनकी निष्कपटता नष्ट कर दी जाती है। घर में कुछ आता है, आप उसे छुपाते हैं, झूँठ बोलते हैं, एक-सा व्यवहार नहीं करते। इन तमाम बातों को आधार मानकर बच्चा भी उन्हें आवश्यक समझने लगता है और खुद भी उसी तरह का छलपूर्ण व्यवहार सीखने लगता है। कोई वस्तु घर में आए तो भले ही वह बच्चे के उपयोग की वस्तु न हो पर उसे दिखाइए अवश्य। सो रहा हो या विद्यालय गया हो तो उसके घर आते ही आप इन सारी वस्तुओं को बाहर निकालिए और बताइए कि अमुक वस्तु अमुक के लिए है, यह इतने पैसे में आई, वहाँ से खरीदी गई। उसे यथासम्भव सारी बातें बता दीजिए ताकि उसके मन में किसी प्रकार की गलत फहमी पैदा न हो।
आपके बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ आप पर हैं। इनको पूरा करने में निःसन्देह कठिनाइयाँ भी बहुत अधिक आती हैं, पर इससे बालक पर स्वामित्व या अधिकार की भावना प्रकट करना उचित नहीं। आपके घर वह परमात्मा का मेहमान बनकर आता है। आत्मा की दृष्टि से आप में और बच्चे में कोई असमानता नहीं होती। जिम्मेदारियाँ अधिक होने से आप बड़े अवश्य हैं, पर अपने तमाम कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह आप बच्चों के साथ मित्रवत् व्यवहार करके ही पूरा कर सकते हैं। आप उन्हें इस दृष्टि से देखा करें तो निःसन्देह उनका बड़ा भला कर सकते हैं और स्वयं भी आत्म-लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
अभिभावकों और सन्तानों के बीच भावनात्मक प्रगाढ़ता जरूरी
परिवार में स्वर्ग की कल्पना एवं अनुभूति जिस आधार पर की जा सकी—की जा सकती है, वह उसके सदस्यों के बीच कोमल सम्वेदनात्मक आदान-प्रदान ही हैं। यों हर परिवार के सदस्यों में बातचीत, हास-परिहास से लेकर वस्तुओं के आदान-प्रदान का कुछ न कुछ क्रम चलता ही रहता है किन्तु यह सब यदि सम्वेदना हीन स्थिति में है—मात्र शिष्टाचार, लोकलाज, अथवा अपने बड़प्पन के प्रदर्शन के लिए किए जाते हैं तो उससे परिवार में स्वर्ग सृजन की कल्पना नहीं की जा सकती। धनी परिवारों में सामान्य प्रसंगों पर भी परिजन एक-दूसरे को मूल्यवान उपहार दिया करते हैं, पिकनिक, मनोरंजन जैसे कार्यक्रमों में लम्बे समय तक साथ-साथ रहते, हँसते-बोलते हैं, किन्तु गरीब परिवारों में न तो लोगों के पास भेंट आदि देने के लिए अतिरिक्त धन होता है और न मनोरंजन आदि के लिए उतना समय ही वे लगा सकते हैं, किन्तु इतने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि अमीर घरों में स्वर्ग रहेगा—गरीब घरों में नहीं। बल्कि इसके विपरीत अमीरों की तड़क-भड़क के पीछे नारकीय यंत्रणाओं की झलक और गरीबी के पीछे से उठती स्वर्गीय सुगन्ध का अनुभव किया जा सकता है। स्थूल समय-साधन कितने जुट पाते हैं, यह बात गौण रह जाती है व आत्मिक चेतना का अपनत्व भरा प्रवाह कितना उठता है, यह बात प्रमुख हो जाती है। परिवार के सभी सदस्यों में इसी का विकास और संचार अभीष्ट है।
परिवार के सम्बन्धों की चर्चा उठते ही अभिभावकों एवं सन्तान के कर्तव्यों का स्मरण अनायास ही हो जाता है। यह हर छोटे-बड़े परिवार के अनिवार्य घटक हैं। माता-पिता अथवा पुत्री-पुत्र के रूप में संसार के हर व्यक्ति को रहना ही पड़ता है। उनके परस्पर एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है। माता-पिता के सन्तान के प्रति तथा सन्तान के माता-पिता के प्रति कर्तव्यों की सूची बहुत विषद है। उनका पालन करने वालों को लौकिक यश एवं समृद्धि तथा पारलौकिक पुण्य एवं सद्गति प्राप्त होने की बात कही जाती है। विवेक इस कथन को अलंकारपूर्ण तो मान सकता है किन्तु निराधार नहीं।
परन्तु इन सभी उक्तियों की गरिमा को सांसारिक, स्वार्थपरक दृष्टिकोण से नहीं नापा-आँका जा सकता है। सूक्ष्म सम्वेदनाओं को भुलाकर यदि स्थूल दलीलों से इन सम्बन्धों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया जाए तो वे मात्र मखौल बनकर रह जाएँगे। उदाहरण के लिए 'माँ सम्बन्ध' को लें। भारतीय संस्कृति में 'माँ' को सर्वोच्च सम्मान एवं गौरव दिया गया है। उसके द्वारा बालक को गर्भ में रखने, दूध पिलाने, पालने पोषने जैसी अनेक भाव भरी उक्तियाँ प्रचलित हैं। उसके इस ऋण से उऋण होने की बात कही जाती है। सन्तान उसके अनुदानों की कल्पना मात्र से पुलकित, रोमांचित हो उठती है। माँ तो सन्तान की कल्पना के आधार पर ही प्रसव जैसे मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाने वाले प्रकरण को भूल जाती है। ये सम्वेदनाएँ उस आत्मिक सुख सन्तोष की अनुभूति कराती हैं, जिनके ऊपर संसार का बड़े से बड़ा सुख वैभव न्यौछावर किया जाना भी सामान्य-सी बात लगती है।
यह तो भावनात्मक व्याख्या हुई। स्थूल बुद्धि से इन्हीं की विवेचना की जाए तो सारा महत्त्व ही समाप्त हो जाएगा। सम्वेदनाओं को न देखा जाए तो माँ बच्चों के लिए इतना कष्ट क्यों सहे? प्रसव का प्राणान्तक कष्ट क्यों स्वीकार करे? उनके लिए अपने खाने-पीने से लेकर घूमने-फिरने तक पर क्यों बन्धन नियंत्रण लगाए? यदि बच्चों से खिलौने की तरह मन बहलाना अच्छा लगता है तो किराए के बच्चे प्राप्त करना कहीं अधिक सुगम रह सकता है। कहने का तात्पर्य यह कि यदि मात्र सम्वेदनाओं को हटा दिया जाए तो मातृत्व का उत्तरदायित्व स्वीकार करने के लिए भी किसी को तैयार करना कठिन है। आज मातृत्व के कर्तव्यों की उपेक्षा जितने अंशों में होती है वह सब भावनात्मक स्तर के हनन का ही दुष्परिणाम है।
इसी प्रकार सन्तान की ओर से भी तर्क प्रस्तुत हो सकते हैं। माँ के अनुदानों के प्रति सन्तान के हृदय में कृतज्ञता भरी मृदुलता क्यों कर रह सकेगी? मातृदेवोभव आदि उक्तियाँ निरर्थक हो जाएँगी। मातृ ऋण को लोग क्यों स्वीकार करेंगे या महत्त्व देंगे? यदि उसे किसी रूप में स्वीकार भी किया जाए तो कोई पुत्र उसका हिसाब गणितीय ढंग से करके मुक्ति पा सकते हैं। जैसे माँ ने बाल्यावस्था में कितना दूध पिलाया? गर्भ के ६-७ पौण्ड भार को लिए फिरने में कितना श्रम लगा। बच्चे की सेवा-सुश्रूषा में कितना समय लगाया—उस सबका बाजार की दर पर हिसाब लगाया जा सकता है। फिर बच्चे से माता-पिता ने कितना मनोरंजन किया—कितना घरेलू काम कराया इसे उसमें से घटा कर शेष हिसाब चुकता करके ऋण मुक्त हुआ जा सकता है।
यह सब चर्चा तर्क-संगत भले ही कही जाए किन्तु गले नहीं उतरती। ऐसा कहना पवित्र सम्बन्धों का अच्छा-खासा मखौल उड़ाना ही कहा जाएगा। कहीं यह हिसाब लगाया जाने लगे तो वैसा करने वालों को तर्क सम्मत बुद्धिजीवी की संज्ञा न देकर घटिया निकृष्ट स्तर का व्यक्ति कहा जाएगा। निश्चित रूप से भावनात्मक स्तर ही मानवीय गरिमा के अनुरूप परिवारों का गौरवमय स्तर बना सकते हैं।
अभिभावक एवं सन्तान को अपने अन्दर इसी दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए। मनुष्य के अन्दर छिपी हुई स्नेह, अपनत्व की दिव्य भावनाओं की तुष्टि उसके बिना सम्भव नहीं। पिता पुत्र को ही लें तो वे वयस्क होने के पूर्व पुत्र अथवा वृद्ध हो जाने पर पिता एक दूसरे से अपनी शारीरिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति भर से सन्तुष्ट नहीं हो सकते, उनकी आत्मिक आकांक्षाएँ भी होती हैं। एक दूसरे से आत्मीयता भरा स्नेह-सम्मान पाए बिना उनका समाधान नहीं होता। वह आकर्षण, वह लगाव पैदा किए बिना पिता पुत्र के बीच आदर्श सम्बन्धों की स्थापना, आदर्श कर्तव्यों का पालन कठिन एवं अस्थाई ही नहीं—असम्भव जैसे ही हो जाते हैं।
पिता-पुत्र के सम्बन्ध संसार में सबसे घनिष्ठ होते हैं और कोमल भी। इतने घनिष्ठ कि पुत्र पिता की आत्मा का अंश ही नहीं, उसका प्रतिबिम्ब होता है। पुत्र के गुण-कर्म-स्वभाव देखकर पिता के गुण-कर्म-स्वभाव का अनुमान किया जा सकता है और पिता के देख लेने के बाद पुत्र के देखने की ही जरूरत हो, ऐसा नहीं। पुत्र अधिकांशतः पिता का उत्तराधिकारी होता है। पिता-पुत्र की यह समानता उनकी घनिष्ठता का ही प्रमाण है।
यह सम्बन्ध कोमल भी कम नहीं होता। किसी ओर से प्रमाद हो जाने से यह टूट भी जल्दी जाते हैं। अनेक बार तो पिता-पुत्र के सम्बन्ध जब एक बार टूट जाते हैं, तब जीवन भर नहीं जुड़ते। बाहर से वे भले ही पास-पास रहते रहें, एक दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य करते रहें किन्तु अन्तर में वह एकता नहीं रहती जो पिता-पुत्र के सम्बन्धों की पवित्र शोभा है। इस सम्बन्ध को यथावत् तथा यथायोग्य बनाए रखने के लिए दोनों ओर से सतर्क और सावधान रहना चाहिए, केवल रक्त अथवा जन्म पर ही निर्भर रहने से प्रमाद हो जाने का डर रहता है |
आज पिता-पुत्र के बीच सम्बन्धों में वह सामीप्य और स्नेह, श्रद्धा कम देखने में आती है जिसकी आशा की जाती है और जिसे होना भी चाहिए। यह अशोभनीय तथा अहितकर है। ऐसा नहीं होना चाहिए। पिता-पुत्र की इस कमी से परिवार का विकास रुक जाता है। आर्थिक पतन हो जाता है। प्रतिष्ठा जाती रहती है। लोग हँसते हैं। परिवार का भावी उत्तराधिकारी टूटकर अलग हो जाए तो पिता के बूढ़ा होने पर उस धुरी को कौन धारण करेगा? कौटुम्बिक कार-व्यापार को कौन सँभालेगा? पिता-पुत्र में अन्तर होते ही लोग बीच में आकर स्थान बनाने का प्रयन करते हैं। दोनों को अलग-अलग पाकर लाभ उठाने और अपना हस्तक्षेप करने के लिए प्रयत्नशील होने लगते हैं। तरह-तरह के कारण गढ़ कर जनश्रुतियाँ बनाते, अफवाहें फैलाते और उपहास उड़ाते हैं। पिता को दृढ़ रहने और पुत्र को उत्तराधिकार माँगने के लिए उकसाते, सहायक बनते, परामर्श देते और न्यायालय तक ले जाते हैं। ऐसी दुष्टताएँ समाज में कम नहीं चल रही हैं। इसलिए प्रत्येक सद्गृहस्थ को अधिक से अधिक सावधान रहना चाहिए। यहाँ तक कि पिता-पुत्र ही नहीं, परिवार के किन्हीं भी सदस्यों में फूट न पड़े। इसके लिए कोई भी त्याग करना पड़े, करने को तैयार रहना चाहिए। सहनशीलता तो एक दैवी गुण है, उसे तो ग्रहण किए रहना चाहिए।
इस सम्बन्ध की रक्षा में पहला कर्तव्य पिता का है। पुत्र के अस्तित्व में आने से बहुत पूर्व ही पिता प्रौढ़, पूर्ण और योग्य हो चुका होता है। पुत्र उसके सामने जन्मता और उसकी गोद में खेलता और देख-रेख और निर्देश में पलता, बढ़ता और जवान होता है। इस बीच में सोलह-सत्रह साल की इतनी पर्याप्त अवधि होती है कि पुत्र को इच्छानुसार ढाला जा सकता है। यदि उसके संस्कार पुत्रोचित बना दिए जाएँ तो कोई कारण नहीं कि पुत्र जीवन भर पिता का आज्ञाकारी एवं अनुगत न बना रहे। तब तक उसका स्वभाव और संस्कार इतने गहरे हो सकते हैं कि बाहर का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव उनको बदल सकना तो दूर हिला भी नहीं सकता। खेद है कि लोग पिता तो आसानी से बन जाते हैं किन्तु पुत्र को पुत्र बनाने का प्रयत नहीं करते। वे रक्त के नैसर्गिक सम्बन्ध के बलबूते बेखबर पड़े रहते और उसका निर्माण करना आवश्यक नहीं समझते। विधिवत निर्माण के अभाव में जंगली झाड़ी की तरह जिधर चाहते-बढ़ते रहते हैं, सँभाली पौध की तरह सुव्यवस्थित नहीं हो पाते।
बनने को तो कोई भी पिता बन जाता है किन्तु यह उत्तरदायित्व कम गम्भीर नहीं है। सन्तान पैदा करने का अर्थ है समाज में एक नया नागरिक बढ़ाना। यदि वह नागरिक योग्य हुआ तो समाज का हित करेगा। अयोग्य हुआ तो हानि पहुँचाएगा। उसके द्वारा पारिवारिक अशान्ति के विषय में तो कहा ही क्या जाए? एक अयोग्य सन्तान परिवार की अतीतकालिक प्रतिष्ठा ही नहीं गिरा देती, भविष्य भी खराब कर देती है। घर में फूट डाल देना, आर्थिक दशा बिगाड़ देना तो उसके लिए साधारण सी बात होती है। ऐसी ही अयोग्य सन्तानों और पिता के बीच नहीं बनती और वे एक दूसरे के विरोधी तक बन जाते हैं।
पुत्र को पिता का प्रतिबिम्ब बतलाया गया है। जैसा पिता होगा पुत्र भी बहुत कुछ वैसा ही होगा। पिता के रहन-सहन और आचार-विचार का पूरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। इसलिए पुत्र को सुशील और योग्य बनाने के लिए पिता को स्वयं भी वैसा ही बनना पड़ेगा। व्यसनी, दुर्गुणी, क्रोधी, अनुदार अथवा संकीर्ण स्वभाव वाले पिता यदि यह चाहें कि उनको सुशील, सभ्य और विनम्र सन्तान मिल जाए यह सम्भव नहीं। उन्हें अपनी ही तरह की सन्तान पाने और वह सब व्यवहार सहने के लिए तैयार रहना चाहिए जैसा कि वे दूसरों से करते आ रहे हैं।
पिता पुत्र का जनक ही नहीं उसका पथ-प्रदर्शक और मित्र भी है। जो पिता पुत्र का ठीक पथ-प्रदर्शन करते और मित्र की तरह व्यवहार करते हैं उनके बीच कभी विरोध पैदा नहीं होता। पुत्र को अपने स्नेही और स्पष्टवादी पिता के प्रति बड़ी श्रद्धा होती है। वे उनकी तरफ इतना आकर्षित रहते हैं कि पिता के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते। बहुत बार तो अपने गुणों के कारण पिता पुत्र को वश कर रखने में माँ को भी पीछे कर दिया करता है। अनेक परिवार ऐसे देखे जा सकते हैं जिनमें बच्चे पिता को ज्यादा चाहते और अधिक देर उन्हीं के पास रहना पसन्द करते हैं, जितनी देर पिता घर में रहता है वे उसे छोड़कर कहीं जाना ही पसन्द नहीं करते। वे माँ की अपेक्षा पिता के साथ खाना-पीना, घूमना फिरना और सोना ज्यादा पसन्द करते हैं। माँ के पास सोते होने पर भी पिता की आहट पाकर उसके पास उठ जाते हैं। बच्चों का स्वाभाविक आकर्षण होता तो माँ की तरफ ही है, किन्तु प्रेम की प्रबलता से वे पिता की ओर खिंच जाते हैं। सच बात तो यह है कि भावनात्मक सन्तुष्टि अन्य सभी आकर्षणों को पीछे छोड़ देती है। जिस परिवार में वह उपलब्ध हो, उस परिवार के लोग—क्या छोटे, क्या बड़े बाहर तरह-तरह की संगति में भटकते नहीं हैं। देश, विदेश के किशोरों का सर्वेक्षण करने से ये तथ्य उभर कर सामने आए हैं कि जो बालक-बालिकाएँ अभिभावकों से भावनात्मक सन्तुष्टि पाते हैं, वे संगी, साथियों, घूमने-फिरने और खेलकूद का आकर्षण छोड़कर भी उन्हीं के साथ अधिक से अधिक समय बिताना पसन्द करते हैं। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के विद्रोह, अवज्ञा जैसे प्रसंग खड़े होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
यह सोचना गलत है कि आज के बच्चे अनुशासन में रहना पसन्द नहीं करते। अनुशासन आतंक से नहीं आत्मीयता से स्थापित होता है। सर्वेक्षणों से स्पष्ट हुआ है कि बालक ढीले-पोले माता-पिता को नहीं व्यवस्थित एवं अनुशासन प्रिय अभिभावकों को अधिक पसन्द करते हैं। हाँ उसका रूप भावनात्मक हो—आतंकपरक नहीं।
बहुधा गलती यह होती रहती है कि जनक, पालक और वयोवृद्ध होने के कारण पिता अपने को पुत्र का स्वामी समझने लगता है और उस पर हुक्म चलाना अपना जन्मजात ही नहीं, नैसर्गिक अधिकार मान लेता है। अपना अधिकार व्यक्त करने के लिए उनको आदेश देना और उसको मनवाना अपना गौरव मानता है। यह एक दोष है। ठीक है कि पिता को आदेश देने का अधिकार है, पुत्र का कर्तव्य है कि उसका पालन करे। तथापि अधिकार प्रकट करने के लिए हुक्म चलाना ठीक नहीं। जो काम आदेश द्वारा कराया जा सकता है, वह स्नेहपूर्वक भी कराया जा सकता है। इससे पुत्र के स्वाभिमान पर ठेस नहीं लगती और न वह अपने को अधीन ही अनुभव करता है। कृपणता और संकीर्णता भी पिता के लिए बड़े दुर्गुण माने गए हैं।
पिता केवल एक पुत्र का ही तो पिता नहीं होता। वह अनेक सन्तानों का पिता और पूरे परिवार का अधिष्ठाता और व्यवस्थापक होता है। इसलिए उसमें न्यायप्रियता, निष्पक्षता व समानता का गुण भी होना चाहिए। उसके अभाव में किसी न किसी की भावनाओं को चोट लगती ही रहेगी। उसे भाई-भाई का झगड़ा पूरी बुद्धिमानी और निष्पक्षता से ही निपटाना चाहिए। अनेक बार अनेक पुत्रों के बीच पिता के स्नेह का अनुदान बराबर नहीं होता। वह किसी को अधिक और किसी को कम चाहता है और इसकी अभिव्यक्ति व्यवहार तक में हो जाती है। बहुधा पिता या तो सबसे बड़े बेटे को सबसे ज्यादा चाहता है अथवा सबसे छोटे को। बीच वाले बेचारे यों ही गौण अथवा उपेक्षित रह जाते हैं। पहला बेटा तो स्वाभाविक रूप से प्यारा होता ही है। वही माता-पिता में वात्सल्य का उदय किया करता है और फलस्वरूप उसके पूरे वेग का अधिकारी भी बनता है। सबसे छोटा बच्चा उनकी अन्तिम रचना होती है इसलिए उस पर प्यार भी कुछ अधिक होता है। कई बार यह भी होता है कि अपनी सुशीलता और सुकुमारता के कारण किन्हीं पिताओं को बेटे से कहीं अधिक बेटी प्यारी होती है। वह उसे अच्छे से अच्छा खिलाने, पहनाने और हर इच्छा पूरी करने की यह सोचकर कोशिश करते हैं कि कुछ दिन बाद पराई हो जाएगी तब न जाने उसे यह चीज मिली या न मिली, उसके विवाह और देने के लिए बचाने के प्रयत्न में पुत्रों की उपेक्षा कर जाते हैं। सम्भव है यह प्रवृत्ति कुछ स्वाभाविक हो। तब भी बुद्धिमान और नीतिवान पिता को यह अन्तर प्रकट नहीं होने देना चाहिए। इससे मनोमालिन्य पैदा होता है। उपेक्षित लड़के पिता को पक्षपाती समझकर उससे विरत होने लगते हैं। अभिभावकों की यह भूल उनके प्रति पुत्रों की श्रद्धा कम करने का कारण तो बनती ही है, भाई-बहिनों के परस्पर स्नेह सम्बन्ध भी तोड़ देती है।
बहुत बार बड़ों की शिकायत पर छोटों की डाँट डपट और ताड़ना तक हो जाती है किन्तु छोटे की शिकायत पर उसे ही उल्टी डाँट मिलती है। बहिन की शिकायत पर भाई को तो घुड़की मिलती है, किन्तु भाई की शिकायत हँसकर टाल दी जाती है। चाहे स्नेहवश ही क्यों न हो किन्तु है यह पक्षपात ही। भावनात्मक स्तर का निर्वाह बड़ा कठिन होता है। उसे पूरा करने के लिए अपनी इच्छाओं तक का बलिदान करना पड़ता है और वह हर बुद्धिमान पिता को करना ही चाहिए। पक्षपाती पिता का कोई न कोई पुत्र विद्रोही हो ही जाता है, इसलिए अपने व्यवहार और स्नेह में पिता को न्याय और निष्पक्षता की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। अयोग्य लड़कों के लिए तो पिताओं का अस्सी प्रतिशत स्नेह मर जाता है। वे उसे फूटी आँख नहीं सुहाते। जो कुछ उसके साथ करते हैं उसे लोक-लज्जा के कारण मजबूरी समझते हैं। वे हर समय उन्हें टेढ़ी नजर और घृणा भरे हृदय से देखते रहते हैं। स्वाभाविक होने पर भी इसका परिणाम और भी खराब होता है। घृणा और तिरस्कार पाकर वह बिगड़ा हुआ लड़का और भी बिगड़ जाता है और पिता का शत्रु की तरह विरोधी हो जाता है।
परिवार के भावनात्मक सम्बन्धों पर आघात करके उन्हें जर्जर बनाने के लिए पुत्र और पुत्री के बीच का भेदभाव भी है। प्रारम्भ से ही उनके बीच भेद के बीज पड़ जाने से वे परिवार और समाज में अनेक शाखाओं, उपशाखाओं के रूप में फैलने लगते हैं। परिवार लड़के-लड़कियों, महिलाओं-पुरुषों से ही मिलकर बनता है। कन्या के साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार सिर्फ इसलिए कि वह कन्या है, नारी है, स्पष्ट रूप से मानवीय भावनाओं का हनन है। कारण जो भी रहे हों इस स्तर का पक्षपात आज भारतीय समाज में बुरी तरह घुसा हुआ है। उसके कारण बच्चों के मनों में अहंकार अथवा आत्महीनता एवं द्वेष के बीज अनचाहे-अनजाने ही पड़ते चले जाते हैं।
पुत्र जन्मा तो बहार आ गई, हँसी-खुशी, राग-रंग, बधाइयाँ, भोज, दावतें और न जाने क्या-क्या? पुत्री जन्मी तो पतझड़, दुःख, निराशा और भाग्यहीनता के उच्छवास। हमारी भारतीय संस्कृति में नारी की दयनीय दशा की करुण कहानी यहीं से प्रारम्भ होती है और अन्त तक दुःखान्त ही चली जाती है।
पुत्र का नामकरण संस्कार किया जाता है, अन्न प्राशन संस्कार कराया जाता है, विद्यारम्भ और यज्ञोपवीत आदि संस्कार धूमधाम से कराए जाते हैं और कल्पना की जाती है कि यह संस्कार बालक के जीवन में शक्ति, शुचिता और तेजस्विता का अभिवर्धन करेंगे किन्तु कन्या को इन संस्कारों से वंचित रखा जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने आदर्श शास्त्रीय मान्यताओं तक ही सीमित हैं। व्यवहार में कन्या के उज्ज्वल पक्ष की बात भी सोचना भारतीय परम्परा के विपरीत हो गया है | नर और नारी दोनों आत्मिक परिपूर्णता का समान उद्देश्य लेकर ही मनुष्य शरीर प्राप्त करते हैं। एक को मार्गदर्शन मिले, प्रकाश मिले, सम्बल मिले और दूसरे को प्रेरणा व प्रोत्साहन तो दूर, मानवीय जीवन की गरिमा ही समझने न दी जाए, यह कहाँ का न्याय और कैसी सभ्यता है?
शहरों की बात दूसरी है जहाँ सामाजिक जीवन अब नई करवट लेता जा रहा है, पर गाँवों में आज भी स्थिति यह है कि यदि किसी ने बच्ची को पढ़ाने-लिखाने का साहस दिखाया तो कक्षा ७-८ या अधिक से अधिक सुविधा वाले क्षेत्रों में कक्षा १० तक पढ़ा दिया और इस पढ़ाई तक पहुँचने के पूर्व ही उसके लिए सांकल तलाश दी। बेचारी ने जरा साँस ली कि गले में विवाह का बन्धन डाल दिया। लड़के आवारागर्दी करें तो भी माँ-बाप की यही इच्छा रहती है कि बेटा पढ़-लिखकर कुछ हो जाए। उधर कन्या पढ़ने-लिखने की हार्दिक अभिलाषा को कुचल कर मन मसोसे रह जाती है। फिर वह चाहे कितनी ही बौद्धिक क्षमता सम्पन्न क्यों न हो?
छोटे भाइयों को, भाइयों के बच्चे को, चाचा ताऊ के बच्चों को, पालने का अधिकांश भार बेचारी कन्याएँ ही उठाती हैं। चौके-चूल्हे की बोझ इन कोमल कलियों पर डाल कर भी माँ-बाप का फतवा होता है 'अजी, घर में नहीं सीखेगी तो सुसराल में नाम धराएगी।' घर वालों की नाक न कटे इस अपयश के भय से किशोरी कन्याएँ मन में आत्महीनता की भावनाएँ लिए घर में अपमान भरा जीवन जीती और वहाँ से यथाशीघ्र निकाले जाने की प्रतीक्षा करती रहती हैं। यह है अपनी सुसंस्कृत कही जाने वाली जाति की सुघड़ कही जाने वाली व्यवस्था और परम्परा जिसे हम लम्बे समय से लादे हुए चले आ रहे हैं।
इनके निवारण के लिए कार्यक्रम बहुत कुछ बनाए जा सकते हैं, किन्तु वह सब चलेंगे भावनात्मक आधार पर ही। अभिभावक यदि बेटी की पीड़ा को समझ सकें तो अपने परिवार के भावनात्मक सन्तुलन से लेकर दूसरे परिवारों में स्वर्ग सृजन तक का लाभ ही उठा सकते हैं।
उसकी उपेक्षा अनेक रूपों में विकृतियाँ पैदा करके उपेक्षा करने वालों को दण्डित करती रहती है। इस पक्षपात से बेटी ही पीड़ित नहीं होती, अभिभावक एवं परिवार के अन्य सदस्य भी उसका दण्ड पाते हैं। समाज इस दयनीय दुर्दशा का हर्जाना भी उसके माँ, बाप से खूब अच्छी तरह वसूल करता है। कन्या को स्वस्थ और प्रकाशपूर्ण वातावरण में रखा गया होता, उसे शिक्षित, स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनाया गया होता तो लड़के वाले नाक रगड़ते और लड़की वालों के दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े रहते कि यह कन्या हमें मिल जाए तो सुनसान घर में रोशनी आ जाए। कूड़े, कचरे को उठाने के लिए मुआवजा चाहिए सो लड़के वाले अच्छी तरह से वसूल करते हैं और कन्या को दयनीय स्थिति में रखने का पाप उसके माँ-बाप भी अच्छी तरह भुगतते हैं।
स्पष्ट है कि पक्षपात मुक्त माता-पिता और हीन भाव से मुक्त सुयोग्य कन्याएँ इस दुष्टतापूर्ण परम्परा को जरा सी देर में समाप्त कर सकती हैं। घरों को स्वर्ग में परिणत कर सकने वाली गृह लक्ष्मी को लोग आदर सहित कृतज्ञता मानते हुए सहर्ष स्वीकार करेंगे। जो उसका महत्त्व न समझें, उन पर कन्या को थोपने का कोई कारण नहीं। पुत्र के समान कन्या भी स्वावलम्बी जीवन बिता सकती हैं। भावनात्मक समानता के वातावरण में पली कन्या के लिए ऐसा करना जरा भी कठिन नहीं होगा।
किसी भी पक्ष से देखें, अभिभावकों एवं सन्तानों के बीच भावनात्मक प्रगाढ़ता आवश्यक भी है और उपयोगी भी। बच्चों के मन में इसी आधार पर वह श्रद्धा सद्भाव जाग्रत हो सकता है, जो माता-पिता के लिए भी सुखद हो और बच्चों को जीवन में प्रगति की अनेक दिशाएँ खोल दे। इस सद्भाव के अभाव में ही घरों में लड़कों को बागी होते देखा जाता है। लड़कियाँ प्रत्यक्ष बगावत तो नहीं करतीं किन्तु उनके अन्दर जो असन्तोष एवं आत्महीनता दबी रहती है, वह उनकी सन्तानों में कुसंस्कार के बीजों के रूप में स्थापित हो जाती है। अस्तु कुशल गृहिणी एवं गृहपति को परिवार में वह वातावरण प्रारम्भ से ही बनाना चाहिए जहाँ सन्तान पर समुचित अनुशासन कायम रखते हुए भी उनके बीच भावनात्मक निकटता भी बढ़ती चले। यही भावनात्मक प्रगाढ़ता जब विस्तृत क्षेत्र में फैलती है, तो सामाजिक चेतना का स्वरूप धारण कर लेती है। जिन बच्चों को भावनात्मक सन्तुष्टि नहीं मिलती उनमें सामाजिक भावना का भी विकास नहीं होता।
उन्हें सामाजिक जीवन का प्रशिक्षण दें
जन्म के पश्चात् एक-दो-तीन वर्ष तो बच्चों को अपना शरीर सँभालने में लग जाते हैं। वह अपने लिए ही जीता है, अकेला खेलता है, स्वयं मस्त रहता है। शनैः-शनै: वह माँ-बाप, बहिन-भाई तथा अन्य बच्चों के साथ मिलकर खाना-पीना खेलना सीखता है तथा दिनचर्या में सहयोग देने लगता है। माँ से अलग उसे अपने अस्तित्व का भान हो जाता है। अब वह चौबीस घण्टे माँ के आँचल में बँधा हुआ रहना नहीं चाहता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है समाज में अपना स्थान बनाने की चेष्टा करता है। उसकी दैनिक क्रिया भी नियमित हो जाती है। उपयुक्त स्थान पर टट्टी-पेशाब करना, भूख लगने पर भोजन माँगना, थक जाने पर सो जाना आदि कर्म वह स्वतंत्र होकर करता है।
अब वह प्रेम, ममता तथा क्रोध और प्रसन्नता को समझता है। वह अनुभव तो बहुत कुछ करता है, परन्तु अपने उद्गार ठीक से प्रकट नहीं कर सकता। जो वह कहने में असमर्थ है, उसकी पूर्ति उसकी आँखें तथा मुख के भाव तथा आवेग कर देते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों के आवेग को रोकना नहीं चाहिए। प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि के आवेग जब निकल जाते हैं तब बच्चा अधिक स्वस्थ रहता है। अन्यथा वह इन आवेगों को रोककर अन्दर ही अन्दर घुटता रहेगा और एक दिन कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी के रूप में घुटन का विस्फोट हो उठेगा। यही कारण है कि अधिक दबाए हुए बच्चे छल-प्रपंच प्रिय, झेंपू, डरपोक तथा झूठे होते हैं। इनमें आत्मबल कम होता है। बाल्यकाल के अभाव तथा असन्तोष की छाप उन पर इतनी गहरी पड़ जाती है कि बड़े होकर भी वे उस कमी की पूर्ति नहीं कर पाते। जब नींव ही कच्ची रहे तो इमारत कैसे ऊँची उठ सकती है? वे अपने बचपन का कटु अनुभव आगे जाकर अधिक तीव्रता के साथ दूसरों को करवाते हैं या प्रतिक्रिया रूप स्वयं उच्छृंखल हो जाते हैं।
बच्चों के मन को चोट न पहुँचाएँ : बच्चा छोटा है, नन्हा है, बल में कम है, यह सोचकर उसका महत्त्व कम नहीं करना चाहिए। अगर आप छोटे बच्चे के प्रति सज्जनता, शिष्टता तथा सहनशीलता दिखाएँगे तो बचपन से ही उसमें अच्छे तरीके आ जाएँगे। वह जोर से चिल्लाकर बातचीत नहीं करेगा नहीं तो रोकर, मचलकर, बेबात सबको परेशान करेगा। अपने क्रोध और प्रेम को भी ठीक ढंग से प्रदर्शित करेगा। अपने संगी-साथियों के प्रति सहनशील होगा, उसे उनके साथ हिल-मिलकर खेलना, परस्पर निभाना आ जाएगा। इस तरह वह समाज में अपना स्थान ठीक से बना सकेगा। बच्चे को सिखाने के लिए उदाहरण ही काफी है। रोकने-टोकने की अगर आवश्यकता पड़े तो उसकी आलोचना करके या आक्षेप करके वर्जित न करें। अपितु जो बात ठीक हो उसका उल्लेख करके या दिखाकर शेष भार उस पर ही छोड़ दें।
अपने पर किए हुए भरोसे की रक्षा करना बच्चे खूब जानते हैं। एक बार आठ वर्ष के मोहन को उसकी माँ ने १५) रुपए उसके स्कूल की फीस पकड़ा दी। पिता ने रोका भी कि कहीं मोहन रुपए खो न दे। परन्तु माँ ने कहा कि मुझे पूरा भरोसा है, मोहन फीस सँभालकर रखेगा और कक्षाध्यापक को दे देगा। उस दिन मोहन अभी स्कूल के फाटक पर ही था प्रार्थना की घण्टी बज गई। जल्दी के कारण मोहन बस्ता बरामदे में रखकर प्रार्थना भवन में चला गया। इसी बीच वह रुपए किसी लड़के ने निकाल लिए। क्लास टीचर को देखकर मोहन को रुपए की याद आई। बहुत खोजने पर भी जब उसे रुपए न मिले तो वह रोने लगा। कक्षाअध्यापक ने उसे बहुतेरा समझाया कि उसके पिताजी से वह कह देंगे—वे सजा नहीं देंगे, पर मोहन बोला—'फीस के रुपए तो पिताजी और भी दे देंगे, परन्तु माँ ने मुझ पर जो भरोसा किया था, अब वह कभी भरोसा नहीं करेगी।' यह कहकर वह और भी रोने लगा। कक्षा अध्यापक पर मोहन का और भी प्रभाव पड़ा। उन्होंने स्कूल के स्काउट मास्टर पर चोरी का पता लगाने का भार छोड़ा। दोपहर की छुट्टी में चाट वाले से १०) रुपए का नोट भुनाते समय एक लड़का पकड़ा गया। सो चोरी का पता चल गया। प्रिन्सिपल महोदय ने मोहन के पिता को चिट्ठी में लिखा 'मैं आपको मोहन के द्वारा आपके भरोसे की इतनी कद्र किए जाने पर बधाई देता हूँ।'
बच्चा जैसे के संग तैसा व्यवहार करता है— बच्चा इज्जत तभी करता है जबकि उसे इज्जत मिलती है। इसी प्रकार ममता, दया, सहानुभूति दिखाने की प्रेरणा भी उसे अपने से बड़ों के व्यवहार को देखकर मिलेगी। आदान-प्रदान, बाँटकर काम करना, बाँटकर चीजों का उपयोग करना भी वह देखा-देखी सीखता है। बड़ों के प्रति वह वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने बहिन-भाइयों को करते देखता है। इसी प्रकार औरों के प्रति भी वैसा व्यवहार करता है, जैसा बड़े उसके प्रति करते हैं। एक परिवार में तीन बच्चे थे। बड़ा लड़का बहुत काल तक इकलौता होने के कारण बड़ा ऊधमी, जिद्दी और असहनशील बन गया। इस कारण उसे सब डाँटते थे। शेष दो बच्चे बड़े सीधे थे। बड़ा बच्चा एक ओर बड़ों के साथ मुँह जोरी करता था, साथ अपने छोटे भाई-बहिनों को भी रुलाता और परेशान करता था। सभी घर में आश्चर्य करते कि दोनों छोटे बच्चे इतने सभ्य और नेक हैं, यह बड़ा किस पर पड़ा है? अब देखिए बड़ों की भूल के कारण ही बड़ा बच्चा समाज में अपना स्थान ठीक से न बना सकेगा। यह उखड़ेपन की भावना बड़े होकर भी उसे परेशान करेगी।
बच्चे के जीवन की प्रारम्भिक भूलें स्वाभाविक होती हैं। उन्हें हम ठीक रास्ते पर ले जाने वाली चेतावनी देते रहें तो अत्युक्ति न होगी। उन भूलों के पीछे उन्हें डाँटना, डपटना. लांछित करना महामूर्खता है। फिर तो इलाज ही रोग बन जाता है। हम बच्चों को ठीक से समझाने की चेष्टा नहीं करते, इसी से वे जिद्दी, चिड़चिड़े, असहनशील तथा असन्तोषी बन जाते हैं। हर समय उन्हें डाँटना, डपटना या दबाना उचित नहीं है |
प्राकृतिक रूप से विकसित होने के लिए उनके जीवन में प्रेम, सहानुभूति, मनोरंजन, सुविधाएँ तथा प्रोत्साहन की आवश्यकता है। छोटा बच्चा दिन भर माँ के साथ रहता है। माँ उसकी कल्पना की पूरी देवी है, उससे लाड़-प्यार तथा सहानुभूति पाकर वह गद्गद् होता है। माँ उसकी दीन-दुनियाँ सब कुछ है। कोई अगर बच्चे को उँगली दिखावे तो वह तुरन्त माँ से कह देने की शिकायत करता है, मानो माँ बड़ी जज है जो तुरन्त दोषी को दण्ड दे देगी। किसी ने एक चाँटा मारा नहीं कि तुरन्त माँ से शिकायत हो गई मानो वे पुलिस इंसपेक्टर हैं। माँ उसकी दीन-दुनिया सब कुछ है। वह अगर झूठमूठ को भी रोती है तो बच्चा बिलख-बिलख कर रोने लगता है। वह चाहता है कि माँ उसके संग ही सोए, खाए और खेले। माँ जब बच्चे को खाना खिलाती है तो उसको एक विशेष तृप्ति होती है। थका, हारा-डरा हुआ बच्चा माँ की गोद में जाकर आँचल में मुख ढाँककर सब दुःख-दर्द भुला देता है। यह बात उसकी कल्पनाओं के परे है कि उसकी माँ, किसी की पत्नी तथा गृहणी भी है। बस अपनी माँ पर एक छत्र अधिकार चाहता है। शाम को जब पिता घर वापस आते हैं, माँ बच्चे को छोड़कर उनकी सेवा में लग जाती है। बाप को बच्चे का माँ के पीछे-पीछे चलना अच्छा नहीं लगता, वह थका-माँदा घर आता है, बच्चों का ठुनकना उसे पसन्द नहीं है। वह एक घुड़की देकर उसकी बाँहें पकड़कर एक कुर्सी पर बिठा चुप रहने का आदेश देता है।
एक महात्मा कहा करते हैं कि बालक का सुधार वही कर सकता है, जो अपने मन का सुधार कर सकता है। इसी कारण प्राचीनकाल में बालकों को उनकी देखभाल में रखा जाता था, जो मन तथा इन्द्रियों को जीतकर सेवा तथा सत्य की खोज में एवं भगवत् चिन्तन में लगे रहते थे, किन्तु आज दुर्भाग्यवश बालकों को मोहयुक्त माता-पिता की गोद में अथवा बिगड़े हुए नौकरों की गोद में ही पोषण तथा शिक्षण मिलता है। मोह की गोद में न्याय और नौकरी की गोद में यथेष्ठ स्नेह नहीं मिलता। न्याय न मिलने से बालक में बेईमानी और स्नेह न मिलने के कारण हृदय हीनता आ जाती है, जो सभी दोषों का मूल है। जब तक सुयोग्य एवं सुशिक्षित माताओं द्वारा बालकों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी लेकर मोहयुक्त माता-पिता तथा नौकरों की गोद से मुक्त न कर दिया जाएगा, तब तक वे ईमानदार तथा सुहृदय न हो सकेंगे।
हर प्रतिक्रिया का कारण होता है— कई घर ऐसे हैं, जहाँ बाप-बेटे की बिल्कुल नहीं पटती। लड़का बाप के प्रति असहनशील है, जबकि माँ का अनुरोध नहीं टाल सकता। लड़के की इस असहनशीलता के मूल में अवश्य ही बचपन का कुछ कटु अनुभव छिपा है। या तो बाप कन्या या दूसरे बच्चे के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता होगा या वह माँ को लड़के के प्रति अधिक दुलार दिखाने से उसके सामने ही रोकता-टोकता होगा। बस बाप के इस प्रतिरोधी व्यवहार ने बच्चे को जब वह बड़ा हुआ तो असहनशील बना दिया। माँ-बाप को बच्चे की उपस्थिति में इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वह भी उनके स्नेह का हिस्सेदार बना रहे। शाम को घर आकर बाप पहले बच्चे को पुचकारे, दुलारे, तब पत्नी से बात करे, इसी प्रकार जाते समय या सोने से पूर्व अथवा प्रातःकाल उठने, पर बच्चे को प्यार का हिस्सा अवश्य मिलना चाहिए। जिस प्रकार हम बच्चों को भोजन दिए बिना खाना अनुचित समझते हैं, उसी प्रकार परस्पर अथवा अन्य बच्चों को दुलारते समय किसी एक बच्चे को भी नहीं भूलना चाहिए।
बच्चे को अपने माँ-बाप प्यारे हैं, बहिन, भाई से उसे स्नेह है, अपना घर उसे अच्छा लगता है। वह किसी को दुःखी करना नहीं चाहता। जब जानबूझकर कोई बुरा काम करना नहीं चाहता परन्तु उत्सुकता से तथा कुछ करने एवं जानने की भावना से कभी-कभी वह ऐसे काम कर बैठता है कि लोग उसे दुष्ट, शरारती, ढीठ, उद्दण्ड और बदमाश कहने लगते हैं। बच्चे को अपने पिताजी बहुत अच्छे लगते हैं, अतएव वह उनकी नकल यहाँ तक करता है कि एक दिन सिगरेट जलाकर, या उनका हुक्का गुड़गुड़ा कर पिता का अभिनय करने लगता है। उसे ठसका लग जाता है या हजामत करते समय ब्लेड से हाथ कट जाता है। पकड़े जाने पर उसकी पिटाई होती है। यहाँ तक कहा जाता है 'इसने तो गजब कर दिया, अभी से सिगरेट पीने और हजामत करने का शौक लगा है, आगे जाकर, राम जाने क्या करेगा?' यही दशा छोटी लड़की की होती है। वह माँ का अभिनय करते समय ड्रेसिंग मेज के पास खड़ी हो पाउडर बिन्दी लगाकर साड़ी का छोर सिर पर डालकर घूँघट खींच, बहूरानी बनने की चेष्टा करती है अथवा गुड़िया को सीने से चिपकाए फिरती है। जब कोई उसे ऐसा करते देखता है तो उसकी भी मजाक बनती है।
असामाजिक व्यवहार क्यों?— बच्चा जब कोई काम आपके आदर्शों के विरुद्ध करे, तब उसके मूल में उन्हें प्रेरणा देने वाले हेतु की खोज अवश्य करें। कभी-कभी बच्चे बातें मन से भिड़ाकर सुनाते हैं, बात का बतंगड़ सुनकर आप उन्हें झूठा और चुगलखोर समझ लेते हैं। परन्तु जिन बच्चों की कल्पना बहुत तेज होती है, अपने सपने में देखी हुई तस्वीरों तथा इधर-उधर की कहानियों को जोड़कर ऐसी बातें गढ़ लेते हैं, जिनके न सिर होते हैं, न पैर।
बच्चों को इस प्रकार की बातें "बच्चा उनसे कह दो, हम तुमसे नहीं बोलते, तुम खराब हो, तुम जाओ, हम तुम्हें मारेंगे, तुम्हें यह चीज नहीं देंगे' आदि कहना न सिखाएँ। आरम्भ में बच्चे के मुँह से ऐसी बातें सुनना चाहे बुरी न लगें परन्तु बाद में आपके बिना सिखाए ही वह गाली देना, मारना तथा कठोर शब्द कहना सीख जाएगा। आपको चाहिए अपने बच्चों के साथ सामाजिक जीवन का आरम्भ ठीक से करें। जिससे वह अच्छे संगी-साथियों का चुनाव, उनके साथ सहयोग, एक दूसरे के जन्मदिवस तथा तीज त्यौहारों पर खुशियाँ मनाना, हार-जीत, सुख-दुःख में सम्वेदना तथा हर्ष प्रकट करना सीखें। आपको अपने मित्रों के साथ मिलते-जुलते तथा प्रीति-भोज, विवाह-शादियों में सम्मिलित होते देखकर बच्चे का भी मन होता है कि वह भी अपने मित्रों को बुलावे। उनके यहाँ जाए। समझदार माँ-बाप अपने बच्चों के लिए इस प्रकार की सुविधाएँ अवश्य प्रकट करते हैं और उसमें स्वयं भी शामिल होकर उनके सामाजिक जीवन को महत्त्व प्रदान करते हैं।
बच्चा तो धीरे-धीरे समाज में अपना स्थान बनाता है | घर के बाद उसका स्कूली जीवन भी कम महत्त्व नहीं रखता। शाम को जब वह घर आता है, दिनभर की घटनाएँ-अध्यापक तथा संगी-साथियों की खबरें, किसने क्या किया, क्या कहा, स्कूल में आज किसे सजा मिली, किसकी प्रशंसा हुई आदि खबरें सुनाने के लिए वह भी उतावला रहता है। उसकी बातों को कुछ देर तो आप अवश्य सुनें, उसके संगी-साथियों में दिलचस्पी नहीं दिखाएँ, उसके पालतू कुत्ते, बिल्ली या तोता मैना का हाल-चाल पूछे। कुछ अपनी ओर से सुझाव दें। इससे बच्चा अपने सामाजिक जीवन में उन्नति करेगा, आपकी सलाह के अनुसार कार्य कर अपनी अड़चनें हल कर सकेगा। ‘अपनी बक-बक से सिर चाट गया, तेरे दोस्त ने क्या किया या अध्यापक ने क्या कहा, हमें क्या पड़ी है, यह सुनने की, चुप रह'—इस प्रकार कहकर आप बच्चे की बहुत हानि करेंगे। बच्चे जिस प्रकार काम करते नहीं थकते, वैसे ही बात करते भी नहीं थकते। उनके विचार तेजी के साथ दौड़ लगाते हैं, अपने भाव प्रकट कर वे स्वस्थता अनुभव करते हैं। जो बच्चा चुपचाप रहता है, साथियों के साथ खेल में भाग नहीं लेता, शैतानी नहीं करता, उसे सम्भालना चाहे सुविधाजनक हो, परन्तु उसका विकास स्वाभाविक नहीं हो पावेगा।
बच्चों को बाल्यकाल से ही सामाजिक जीवन की थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारी समझायें, ताकि वे दूसरों के अधिकारों की इज्जत करें, धाँधली मचाकर सभी चीज और सुविधायें खुद ही प्राप्त करने की भूल न करें। शनैः शनैः उन्हें अच्छे नागरिक बनने की भी ट्रेनिंग दी जाए। जहाँ-तहाँ कूड़ा-कचरा फेंकना, मल-मूत्र त्यागना, थूकना, फूल-पत्ती तोड़ना, दूसरों की शान्ति भंग करते हुए हल्ला करना आदि बातों की भूल को वे अच्छी तरह से समझ जाएँ।
मेल मिलाप से रहना सिखाएँ— अपनी चीजों की सम्भाल, स्कूल में संगी-साथियों के साथ मिलकर काम करना, अपनी छोटी-छोटी सेवाओं से दूसरों को प्रसन्न करना, अपने दल, मित्र तथा परिजनों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझना आदि बातों की शिक्षा उन्हें बचपन में ही मिलनी चाहिए। घर और बाहर जहाँ भी रहें अपने बालकों और अभिभावकों की चिन्ता का विषय न बनें, उनके काम में हाथ बटाएँ। बड़ों को भी चाहिए कि उनकी आयु और योग्यता के अनुरूप उन्हें काम सौंपकर उनका सहयोग प्राप्त करें। जब कोई छुट्टी या त्योहार आए तो सबके साथ मिलकर कैसे उत्सव मनाएँगे, इसका विचार करना सिखाएँ। इसी प्रकार काम में सफलता मिलने पर अपने संगी-साथियों को क्या इनाम देंगे। इस रूप में वे सोच सकें न कि 'मुझे क्या इनाम मिलेगा' इस प्रकार की आशा लगाएँ। निःस्वार्थ तथा परसेवा से उन्हें सुख और प्रसन्नता हो, ऐसी आदत डालें।
वे दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखें, दूसरों की विशेषताओं को समझें पर उनकी कमियों की आलोचना करके स्वयं को अच्छा प्रमाणित करने की चेष्टा न करें। दूसरे के सिर बुराई थोपकर या दूसरे को बुरा प्रमाणित करके मैं प्रेम प्राप्त कर लूँ यह प्रवृत्ति बहुत बुरी और समाज के लिए अहितकर है। इसे बचपन से ही रोकना चाहिए।
बड़ों के दृष्टान्त से बच्चों पर छाप इस सीमा तक पड़ती है कि मित्रों के चुनाव, उनके प्रति व्यवहार, अपने अवकाश के समय को किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए आदि बातें बच्चे अपने बड़ों से ही सीखते हैं। जितने प्रसिद्ध लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक या राजनीतिज्ञ हुए हैं उनके बाल्यकाल के इतिहास में अवश्य इस प्रकार घटनाएँ घटित हुई होंगी, जिनका प्रभाव उनके चरित्र पर इतना सजीव पड़ा कि बड़े होकर वे इतनी सफलता प्राप्त कर सके। अपने पिता को साहित्यकारों, कलाकारों अथवा राजनीतिज्ञों के सम्पर्क में बैठकर चर्चा करते देख उनके भी संस्कार प्रबल हो गए होंगे।
बच्चों में सामाजिकता की भावना विकसित हो, इस हेतु अभिभावकों का बाह्य प्रयास नहीं, उनका आन्तरिक व्यक्तित्व ही प्रभावकारी सिद्ध हो पाता है। जिन बच्चों को अपने अभिभावकों से भावनात्मक पोषण मिलता है और उनका परस्पर भावनात्मक आदान-प्रदान होता रहता है, उनमें सामाजिकता के बीज स्वाभाविक ढंग से फूटते और विशाल वृक्ष के रूप में बढ़ते, फलते-फूलते देखे जा सकते हैं। सामाजिक भावना का श्रीगणेश भी अभिभावकों और सन्तानों के बीच भावनात्मक सम्प्रेषण से ही होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके सुविकसित होने का अर्थ ही है उसके भीतर श्रेष्ठ सामाजिकता, नागरिकता का विकास। अतः बच्चों के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए, उन कोमल पौधों की हरियाली बनाए रखने और बढ़ाते रहने के लिए भावनात्मक आदान-प्रदान की रसपूर्ण प्रक्रिया चलती रहनी आवश्यक है।