समय की पुकार सुनें
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी — 1
परमवन्दनीया माताजी के व्याख्यानों की यह मौलिकता है कि वे आत्मीय परिजनों के मध्य प्रेमपूर्ण सुगम भाषा का भी प्रयोग सहजता से कर लेती हैं तो वहीं अपरिचित और अनजानों के लिए गुह्य ज्ञान का ऐसा संकेत कर देती हैं कि वो उनसे जुड़े बगैर रह नहीं पाते। अपने एक ऐसे ही प्रस्तुत उद्बोधन में वन्दनीया माताजी अध्यात्म की मूलभूत परिभाषा देते हुए कहती हैं कि अध्यात्म का वास्तविक अभिप्राय कही जा रही बातों को जीवन में उतारने से है। वे परमपूज्य गुरुदेव का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि पूज्य गुरुदेव ने इसी अध्यात्म को सच्चा व वास्तविक अध्यात्म माना और इन्हीं सूत्रों पर अपने जीवन को जीकर दिखाया। वन्दनीया माताजी कहती हैं कि भक्ति एकांगी नहीं होती और उसका बड़ा विस्तृत परिणाम आता है, पर वो प्राप्त करने के लिए भक्ति का सच्चा होना अनिवार्य है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को .......
सत्यं वद्—सदा सत्य बोलें
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
हमारे आत्मीय परिजनो ! पता नहीं कि आपने उस स्वाति की बूँद का रसास्वादन किया है अथवा नहीं किया है। किया है तब तो आप धन्य हो गए और अब से आपका नया जन्म हो गया। अब जिस नए जन्म में आप आए हैं, शरीर तो यही रहना है; लेकिन आपका पिछला जो जन्म था, आपके रहन-सहन का जो तरीका था, वह सारा-का-सारा छूट जाना चाहिए। अब नए पाठ को याद करना चाहिए।
नया पाठ आपको याद हुआ कि नहीं हुआ, मालूम नहीं। उन्होंने कहा था—किसने? द्रोणाचार्य ने। उन्होंने शिष्यों को बताया—"सत्यं वद्।" अच्छा, दुर्योधन सामने आ गया।
उनने कहा—बोलो, तो सही बेटे! उसने बता दिया। युधिष्ठिर ने क्या कहा? युधिष्ठिर ने कहा कि भगवन्! अभी हमारी समझ में नहीं आया है। अभी हम इस लायक नहीं बने कि आपके इस प्रश्न का उत्तर दे सकें। हमें इस लायक बनने में समय लगेगा।
उनने कहा कि बेटे ! जो यह कहते हैं कि हम बनकर दिखा देंगे, रटकर नहीं, बनकर दिखा देंगे। चाहे हमें विलम्ब ही क्यों न लग जाए? लेकिन हम बनने के लिए तैयार हैं। बेटे ! विजय उन्हीं की होती है।
युधिष्ठिर की विजय हुई, क्योंकि उन्होंने इस श्लोक को अन्त:करण में उतार लिया। उन्होंने जीभ में नहीं, अन्त:करण में धारण कर लिया। जो चीज अन्त:करण में समा जाती है, अरे वह तो सारे शरीर में समा गई। जो बात सारे शरीर में समा गई, तो फिर उसका तो कहना ही क्या है?
एकांगी नहीं होती भक्ति
भक्ति जिनके अन्दर आ गई, अरे ! उनका तो कहना ही क्या है? भक्ति अगर एकांगी रह गई, तो एकांगी ही रहेगी। वह तो समाज के और मानव के चरणों पर समर्पित होने ही वाली है।
बेटे ! भक्ति कभी एकांगी नहीं होती। जितने भी हमारे सन्त और ऋषि, पैगम्बर हुए हैं, उन्होंने जितनी प्राथमिकता समाजसेवा को दी है, उतनी भक्ति को नहीं दी है। दीपक है, वह आत्मपरिष्कार के लिए है; लेकिन समाजसेवा के बगैर हमारी भक्ति अधूरी रह जाती है और यही गुरुजी ने किया है।
गुरुजी ने केवल अपने गुरु के आदेश और निर्देश का पालन किया है। क्या आदेश है? क्या निर्देश है? जो दिशाधारा तय कर दी, वे उसी पर अटूट विश्वास, अटूट निष्ठा के साथ इतनी लम्बी अवधि तक इतना लम्बा जीवन पार कर पाए और समाज के लिए, राष्ट्र के लिए और सारे विश्व के लिए वह अनुदान जो देने में शायद ही कोई और समर्थ होता। इसमें घाटा पड़ा? नहीं, घाटा नहीं पड़ा। नफा हुआ और इतना नफा हुआ कि हम आपसे क्या कहें?
भावनाओं का करें योगदान
बेटे ! जो ये कहते हैं कि हमारे पास बच्चा नहीं है, अरे बेटे ! हमसे ले जाओ। एक-से-एक क्वालिटी के बच्चे हैं कि इनका क्या कहना है। आप ऐसे बच्चे पैदा कर सकते हैं? नहीं, आप नहीं, पैदा कर सकते। हम पैदा कर सकते हैं और कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। हमें आपकी भावनाओं की आवश्यकता है। आपकी निष्ठा की आवश्यकता है और आपकी आस्था की आवश्यकता है।
आज बहुत बड़ी आवश्यकता है, जिसमें कि आप लोगों को बढ़-चढ़कर योगदान देना चाहिए। अब योगदान का समय आ गया है। कौन-सा योगदान दें?
बेटे ! हम तो इस तरीके से चाहते हैं, जिस तरीके से भवानी ने तलवार दी थी शिवाजी को और यह कहा था कि अब चल रण में। रण में चल, यह अक्षय कटारी है। तेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। किसने कहा था? समर्थ गुरु रामदास ने कहा था। उन्होंने कहा—यह कटारी लेकर के चल।
स्वामी विवेकानन्द से रामकृष्ण परमहँस ने कहा था | चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से कहा था और कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि चला तीर। हम तुझे सिखाते हैं। नहीं साहब! मैं हार गया तो? अरे हार कैसे जाएगा। जब हम तेरे साथ हैं, फिर हारने की तो कोई बात नहीं है। जीतने की बात है, तो क्या कोई वस्तु मिलेगी? अरे बेटे ! वस्तु तो नहीं मिलेगी; लेकिन इतिहास के पन्नों पर अमर जरूर हो जाएँगे। वस्तु कोई चीज नहीं होती। वस्तु तो आने-जाने वाली है।
वस्तुएँ आती-जाती हैं
बेटे ! लक्ष्मी भी तो आने-जाने वाली है। आज इसके घर, कल उसके घर में। यह कभी साथ नहीं जाने वाली। न साथ आए, न साथ जाए। खाली हाथ ही आए हैं और खाली हाथ ही जाना है।
यही तो विडम्बना है व्यक्ति की कि वह यह सोचता रहता है कि ये कमा लूँ, ये रख लूँ और ये मेरे काम आएगी, मेरे नाती-पोतों के काम आएगी। फिर उसके कुछ काम आई? अरे तेरे काम में क्या आया है? कुछ नहीं, वही दो रोटी, एक धोती और कुरता।
अरे, यह तो वैसे भी पैदा हो सकता है। तो क्या इसी के लिए मरना-खपना है? नहीं, ऊँचे लक्ष्य के लिए आप लोगों को पैदा किया गया है, जहाँ तक मेरा अनुमान है। आपका पता नहीं कैसा है, पर मेरा अनुमान तो यही है कि आप लोगों को एक विशेष लक्ष्य के लिए पैदा किया है।
जिस तरीके से भगवान राम के समय में सभी देवताओं को रीछ-वानर के रूप में भेजा था। रीछ-वानर बनकर उनके सहयोगी के रूप में सारे-के-सारे देवता अवतरित हुए थे। इसी तरीके से भगवान कृष्ण के समय में सारे-के-सारे ग्वाल-बाल कौन थे? ये सब उनके सहयोगी थे, मित्र थे। अरे बेटा ! वे सारे-के-सारे देवता थे, जिनके अन्दर ये भावनाएँ पैदा हुईं कि हमको उनका साथ देना चाहिए।
भगवान से लेना नहीं? भगवान के सामने दानी होकर के जाना चाहिए। याचक होकर के नहीं, भिखारी होकर के नहीं। भगवान से भीख माँगेंगे। क्यों? भगवान ने इतनी बड़ी अमानत जो हमको दी है, उसका क्या होगा?
शरीर के रूप में, मस्तिष्क के रूप में भगवान ने तो दिया-ही-दिया है। फिर और कौन-सी चीज रह गई? जिसको कि हम भगवान से प्राप्त करने के लिए लालायित होते हैं। ऐसा हम क्यों करते हैं? हमारा अपना पुरुषार्थ, कर्म अपने साथ हैं। इनका उपयोग भगवान के निमित्त करना चाहिए।
अपनी जिम्मेदारी याद करें
बेटे ! आपके मन में यह विचार आना चाहिए कि भगवान ! जो आपकी आवश्यकता है, जो विश्व की माँग है और जो समाजसेवा है। हम उसके लिए अपने को समर्पित करते हैं। बच्चियाँ अभी यही भावगीत गा रहीं थीं। यहाँ से आप जाएँ, तो संकल्प लेकर के जाइए। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है।
संकल्प में हजार हाथियों का बल होता है। यदि दृढ़ता के साथ संकल्प का पालन किया जाए तब? संकल्प का पालन, यदि दृढ़ता के साथ नहीं किया गया, तो आज कुछ कह गए, कल समाप्त। एक व्यक्ति रोज मेरे पास आए, रोज मेरे पाँव छुए, रोज रोवे और रोज शराब पीकर आए।
एक बार मुझसे रहा नहीं गया, मैंने उसे इतनी बुरी तरह से डाँटा और कहा कि अब आइन्दा तू यहाँ शक्ल मत दिखाना। क्यों? शक्ल दिखाने की जरूरत नहीं है। इसलिए कि तू अपनी आदत छोड़ेगा नहीं और हर बार आएगा। पाँव छुएगा, मिन्नतें करेगा, पर तेरे ऊपर कोई आशीर्वाद काम नहीं कर सकता; क्योंकि भीतर का तेरा मनोबल कच्चा है।
मनोबल को बढ़ाने पर बड़े-से-बड़े जो भी दोष हों, वे छूट सकते हैं। यदि व्यक्ति इसी पर आमादा हो जाए कि इनको छोड़ना है, तो छूट जाएँगे। जिसको समाज के, राष्ट्र के उद्धार के लिए कुछ काम करना है, तो वह करेगा ही करेगा।
आपसे एक ही निवेदन है कि आज चलते- चलते अपने बच्चों से फिर दोबारा वही बात दोहरानी चाहूँगी, जो मैंने पहले प्रथम दिन आपसे कही थी। मैंने क्या-क्या कहा था? मैंने यह कहा था कि सारा समय आपका और आपकी बीबी का परिवार पालने, खाना बनाने का, बच्चा पैदा करने का, केवल यही जिम्मेदारी नहीं है।
समय का करें सदुपयोग
आपकी एक और जिम्मेदारी है, जो राष्ट्र के लिए, समाज के लिए और मिशन के लिए बहुत आवश्यक है। आपकी हमें भी आवश्यकता है। सारा का सारा हीरा जैसा समय आप गँवाते हुए चले जा रहे हैं।
समय की कोई कीमत नहीं है क्या? आप समझ क्यों नहीं रहे हैं। इसी समय के सदुपयोग से लोग कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए। उनकी योग्यता का क्या कहना? समय तो सबके पास समान ही है।
एक व्यक्ति ने 80 भाषाएँ अपने समय में से ही पढ़ी थीं। जो भी व्यक्ति आगे बढ़े हैं। जिन्होंने भी महान कार्य किए हैं, वे समय के साथ में अपनी भावनाओं को, अपनी आस्था को, अपनी श्रद्धा को जोड़े रहे हैं। समय की कीमत जिन्होंने समझी है। वे ही आगे की पंक्ति में आए हैं और जिन्होंने उसकी कीमत नहीं समझी, वे पीछे की पंक्ति में रहे।
हम चाहेंगे कि हमारे परिजन पीछे की पंक्ति के बजाय, आगे की पंक्ति में आएँ। क्योंकि सारा-का-सारा विश्व आज देख रहा है कि क्या कोई मिशन ऐसा है? क्या कोई ऐसी संस्था है? क्या ऐसा कोई व्यक्तित्व है या ऐसा कोई ऋषि है, सन्त है, जो कि जलती हुई अग्नि पर पानी डाल सके? जलती हुई लौ में घी डालने का काम तो कोई भी कर जाते हैं; लेकिन पानी का काम हरेक नहीं करता।
बेटे ! सारे विश्व की निगाहें हम पर हैं। जो कोई यहाँ आता है, वह धन्य होकर के जाता है और वह यह कहकर जाता है कि ऐसा मिशन तो हमने देखा ही नहीं। इतने बड़े ऋषि और सन्त, उनके इतने उच्चकोटि के विचार। विचार ही नहीं; बल्कि उन्होंने क्रिया के रूप में विचारों को रख दिया है। रख ही नहीं दिया, उसके अनुसार चलना और चलाना भी सिखा दिया है। चलते तो बहुत रहे हैं, लेकिन किसी ने चलाया नहीं है। उन्होंने चलाकर के दिखाया है।
बेटे ! आज तो हम आपको दिखाई पड़ रहे हैं। सम्भव है कि अगली बार आओ तो न दिखाई पड़ें। यह कोई जरूरी तो नहीं है; लेकिन आगे हो भी सकता है। यह कोई हमारे हाथ की बात नहीं है। दिखाई भी पड़ सकते हैं, लेकिन जो आज आपके अन्दर स्फूर्ति भर रहे हैं, क्या मात्र शरीर ही भरेगा?
शरीर तो आगे नहीं रहेगा; लेकिन एक बात का ध्यान रखना कि हमने जो यह बगीचा लगाया है। इसमें बढ़ोत्तरी होने वाली है, चाहे शरीर रहे या न रहे। शरीर में रहते हुए, तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। व्यवस्था से लेकर कार्यक्रमों तक।
कार्यकर्त्ताओं से लेकर लेखन, मार्गदर्शन न जाने क्या-क्या, सारा दिन गुरुजी का इसी में जाता है। फलाने कार्यकर्त्ताओं को यह कहना है, उससे वह कहना है। इसे बुलाओ, उसे बुलाओ। हमारा सुबह से शाम तक का समय इसी में चला जाता है। शरीर से नहीं रहेंगे, तो सूक्ष्मरूप से और भी ज्यादा तीव्रगति से काम कर सकेंगे।
युगसन्धि पुरश्चरण
बेटे ! यह विचार मत करना कि अरे गुरुजी-माताजी तो हैं ही नहीं! आप इस विशाल कार्य को देखें, विराट रूप को देखें। हम कहाँ नहीं हैं? बिलकुल हैं। आगे भी ऐसा ही शान्तिकुञ्ज आप पाएँगे, जो कि इस समय अब है; बल्कि इससे भी ज्यादा ही होगा। युगसन्धि पुरश्चरण के लिए जो पहले दिन मैंने कहा था कि आपको यह प्रयास करना है कि यहाँ एक करोड़ व्यक्ति आएँगे। क्यों साहब! आप दोनों नहीं रहेंगे, तो किसके लिए आएँगे?
हम तो यह समझते हैं कि आपके लिए और गुरुजी के लिए एक करोड़ व्यक्ति आएँगे। नहीं बेटे ! हमारे लिए और गुरुजी के लिए नहीं आएँगे; बल्कि उनके बनाए हुए उसूलों के लिए आएँगे। उनके लक्ष्य के लिए आएँगे, उनके मिशन के लिए आएँगे। जो केवल गुरुजी-माताजी के लिए आएगा, वह तो केवल पाँव छूकर के चला जाएगा और हमें अब पाँव नहीं छुवाने हैं।
बेटे ! हम अब नाक तक भर गए हैं। अब तो हमें यही करना पड़ रहा है कि नौ दिन में बस एक दिन बैठ जाया करेंगे दोनों और आठ दिन की छुट्टी। इनको भी काम करने दो और हम भी काम करें।
पाँव छूने से ही क्या कोई लाभ है? यदि लाभ हुआ होता, तो जिस तरीके से विवेकानन्द का हुआ था और कबीर का हुआ था, वैसा ही कुछ होता। कबीर की छाती पर केवल उनके गुरु का पैर लग गया था, उसी से उनको ज्ञान प्राप्त हो गया।
बेटे ! आप तो बार-बार दिन में छत्तीस बार पाँव छूते हैं, फिर भी आपमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। आखिर क्यों परिवर्तन नहीं हुआ? इसका एक रहस्य है। परिवर्तन इसलिए नहीं हुआ कि आपने हमें अपने भीतर से स्वीकार नहीं किया। भीतर से आप स्वीकार करेंगे, तो आप कुछ बदल जाएँगे, कुछ बन जाएँगे। फिर आपको पाँव छूने की जरूरत नहीं पड़ेगी और न हमें छुवाने की। आप कहें तो हम ही आपके पाँव छू लें, दिन में छत्तीस बार।
हम जानते हैं कि आज का जमाना यही है, बेटा ! कि बड़ों को झुकना पड़ता है बच्चों के आगे तो कोई बात नहीं, हम भी झुक जाएँगे। हम तेरे पाँव छूते हैं। चल बन जा जाहिल। जाहिल घर में बैठा रहता है।
हमारी आवाज तो सुनता नहीं है। न हम दिखाई पड़ते हैं और न ही हमारी आवाज आपके अन्तःकरण में जाती है, तो फिर परिवर्तन कैसे होगा? माला को लेकर बैठा रहता है। उससे क्या होगा? जा वैकुण्ठ चला जा। वहाँ तेरे स्वागत के लिए खड़े हैं द्वारपाल।
समय की पुकार सुनें
बेटे ! अब यह समय की पुकार है कि आपका ज्यादा-से-ज्यादा समय रचनात्मक दिशा में लगे। यह तो मैं कहने नहीं आई हूँ, जो कि ये लड़के कह चुके हैं, बता चुके हैं। जिस माध्यम से आपको जनसम्पर्क के लिए जाना चाहिए। वो सारे-के-सारे माध्यम ये बच्चे बता चुके हैं।
आपको घर- घर जनसम्पर्क के लिए दीपयज्ञों के बहाने जाना पड़ेगा। हाँ बेटे! घर-घर में दीपयज्ञ। पहले तो यह था कि ये हल्ला-गुल्ला के होंगे, बड़े जबरदस्त होंगे। जबरदस्त का तो हमने सफाया कर दिया है। दीपयज्ञ सादगीपूर्वक ही सम्पन्न होंगे।
अपने लड़कों को यहाँ के काम में लगाएँगे। कितना बड़ा मिशन है? ये लड़के बाहर-ही-बाहर घूमते हैं, सो यहाँ इनको ठोंक-पीटकर हमको ठीक करना है। इनके अन्दर हमें और भी प्रेरणा देनी है; ताकि ये सारे संसार को प्रेरणा देने में सक्षम हो सकें। परिवार विस्तृत होता जा रहा है, उसका मार्गदर्शन भी आवश्यक है।
हमारा समय तो आ गया चला-चली का और ये घूमते फिरेंगे, तो फिर रोएँगे। अरे, हमारे माँ-बाप कहाँ गए? इसलिए हमने इनको रोका है। आगे वहीं क्षेत्रों में ही छोटे-छोटे कार्यक्रम होंगे और घर-घर में जो दीपयज्ञ का कार्यक्रम बनाया गया है। यह एक आन्दोलन है। इस आन्दोलन को आप गति दीजिए।
क्यों साहब ! इसको गति देने से क्या लाभ है? इससे बेटे ! इतना लाभ कि जो विभीषिकाएँ छाई हुई हैं, जो प्रदूषण है, उसको समाप्त करने में यह सहायक होगा और हर घर में श्रेष्ठ संस्कार पैदा होंगे। आप भी करिए और ये लड़कियाँ भी करें। नहीं साहब! ये लड़कियाँ क्यों करेंगी? इन लड़कियों को क्या समझ रखा है? आपसे कहीं ज्यादा हैं? देख लो, अब राजीव गाँधी ने कल की घोषणा में कहा है कि इतने करोड़ नारी जागरण के लिए निवेश करेंगे।
इस कथन का मतलब है ऋण देंगे। उस ऋण की तो हमें आवश्यकता नहीं है। लड़कियों को काहे की आवश्यकता है? इनको आवश्यकता है भावनाओं की और श्रद्धा की। इनको भावनात्मक दृष्टि से आप ऊँचा उठाइए। आगे बढ़ने का अवसर दीजिए, ताकि जो आप कर रहे हैं, वे भी आपके समकक्ष हो जाएँ। झोला पुस्तकालय आप चलाते हैं।
ये भी झोला पुस्तकालय चलाएँगी। आप ज्ञानरथ चलाते हैं, तो ये भी चलाएँगी। क्यों, इनमें क्या बात हो गई? इन्हें भी ज्ञानरथ चलाना चाहिए। नहीं साहब ! ये तो लड़कियाँ हैं, महिलाएँ हैं और ये तो बुद्धू होती हैं और ये तो दब्बू होती हैं। नहीं, ये दब्बू नहीं होतीं, आप दब्बू होते हैं; जो इन्हें दब्बू और बुद्धू बनने पर मजबूर करते हैं। ये काहे की दब्बू हैं।
बेटे ! इनको उठाया नहीं गया, आगे बढ़ाया नहीं गया है। जिस दिन ये हिम्मतवाली बन जाएँगी, तो आपको एक कोने में फेंक देंगी। अच्छा ऐसा? हाँ, बिलकुल और अगले दिनों ये ऊँचा उठने वाली ही हैं, यह समझ लेना अन्यथा पछताओगे। रचनात्मक गतिविधियों में इनका भी उपयोग किया जाना चाहिए।
बाल संस्कारशाला से लेकर, विवाहदिन, जन्मदिन आदि जो भी आपके संस्कार मनाए जाते हैं। वे सारे- के-सारे संस्कार ये भी मनाएँ और आप भी मनाइए। अब तो गुरुजी ने बहुत कुछ छोटा और सरल कर दिया है। जिनको श्लोक बोलना नहीं आता, वे सूत्रपद्धति से आसानी से संस्कार सम्पन्न करा सकते हैं।
दीप प्रज्ज्वलित कर लीजिए, गायत्री मन्त्र से आहुतियाँ दीजिए और आपका दीपयज्ञ हो गया। कोई भी घर ऐसा न रहे, जिस घर में अखण्ड ज्योति पत्रिका और सत्साहित्य न पहुँचे।
यह गुरुजी की वाणी है। गुरुजी की लेखनी है। इसके माध्यम से उनके विचार लोगों तक पहुँचेंगे और उन विचारों से समाज में जो परिवर्तन आएगा; वह इस तरीके से आएगा, जिस तरीके से अमेरिका की हैरियट बीचर स्टो नाम की एक महिला ने 'टाम काका की कुटिया' नाम की एक पुस्तक लिखी थी।
उससे इतनी क्रान्ति हुई, इतनी क्रान्ति हुई कि काले और गोरे का जो भेद था, वह समाप्त हो गया। उसमें जब वे विजयी हुईं, तो उसको मेज पर खड़ा कर दिया गया। उन्होंने कहा कि इस छोटी-सी, नाटी-सी महिला का कमाल है, जो इन्होंने ऐसी क्रान्तिकारी पुस्तक लिखी कि सारे देश में तहलका मचा दिया। यह कमाल उस पुस्तक में भावनात्मक शब्दों का था।
[ क्रमशः अगले अंक में समापन ]
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी—उत्तरार्द्ध
समय की पुकार सुनें (गतांक से आगे)
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह मौलिकता रही है कि वे आध्यात्मिक विचारों को एक ऐसी सुगमता के साथ प्रस्तुत करती हैं कि हर साधक एवं श्रोता के अन्तरंग में वे बातें गहराई के साथ आत्मसात् हो जाती हैं। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में वन्दनीया माताजी ऐसे ही एक महत्त्वपूर्ण सूत्र की ओर इशारा करती प्रतीत होती हैं। वे कहती हैं कि आध्यात्मिक साधनाओं को करने का मूल्य तभी है, जब हम समय की पुकार को सुन सकें। भक्ति भावना का भी मूल्य तभी है, जब हम उन सिद्धान्तों को जीवन में अपना सकें। युधिष्ठिर से लेकर अनेकों आख्यानों का सन्दर्भ देते हुए वन्दनीया माताजी हर गायत्री परिजन से ये आह्वान करती हैं कि हम वातावरण के अन्धकार से भरे इस समय में समाज में सार्थक परिवर्तन लाने के लिए प्रतिबद्ध हो सकें। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
समाज में परिवर्तन हो
बेटे! आपके दिमागों में भी तहलका मचे और बाहर समाज में भी परिवर्तन हो। परिवार, समाज के लोग भी विवश हो जाएँ—अपने आचरण को श्रेष्ठ बनाने के लिए, अपना व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए और परिष्कृत होने के लिए। प्रतिभा का जब तक परिष्कार नहीं होगा, तब तक कौन व्यक्ति किसके साथ बैठने वाला है? कोई क्यों बैठेगा?
सभ्यता और शालीनता आज हमारे यहाँ परिवारों से समाप्त होती जा रही है। हमारे समूचे राष्ट्र से भी सभ्यता व शालीनता समाप्त होती जा रही है। हर व्यक्ति को सभ्य और शालीन होना चाहिए।
हर व्यक्ति को कायदे-करीने से रहना चाहिए; ताकि वह जहाँ कहीं भी जाए और जो कुछ भी कहे, वह नपा-तुला और सन्तुलित ही कहे। इसके लिए हमें आगे आना चाहिए। हमें जनसम्पर्क के लिए लोगों के बीच जाना ही होगा।
नहीं साहब! हम कैसे जाएँगे? देखिए हम तो व्यापारी हैं। हम तो ऑफिसर हैं। हम तो गाड़ी में चलते हैं, तो पैदल कैसे घूमेंगे? हाँ बेटा! आपको पैदल ही घूमना पड़ेगा। यह वैसा ही समय है, जैसा कि भगवान बुद्ध के समय में धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए लोगों ने अपनी आहुतियाँ दी थीं। आहुतियों का मतलब शरीर की आहुति नहीं। वे लोग मरे तो नहीं थे, पर भीतर से उनकी समाजसेवा की भावनाएँ थीं। हमारी आहुति, हमारे समर्पण की भावना से कितने ही व्यक्ति उनके साथ थे।
उन्होंने पहले तो यहीं सारे देश में प्रचार-प्रसार किया और बाद में विदेशों में भी बौद्ध धर्म फैलता हुआ चला गया था और लोगों ने कहा कि हम अकेले नहीं, सपरिवार आपके साथ हैं। अशोक का पूरा परिवार था, अन्यान्य थे, जिसमें न जाने कितने मूर्द्धन्य व्यक्ति भी शामिल थे। वैसा ही समय आ गया है। गुरुजी ने भी आपको पुकारा है और यह कहा है कि आप हमारे साथ कदम-से-कदम और कन्धे से कन्धा मिलाकर के चलिए।
राजी या बिना राजी—गुरुकार्य करें
आप कहेंगे माताजी! यह क्या हुआ? हम तो कुछ ऐसी बात सुनना चाहते थे जैसे कि स्वर्ग की बात, कुछ कहानियाँ, कुछ किस्से आदि। बेटे! कहानी-किस्से, तो तुमने इन सबसे सुन लिए होंगे और मेरी भी एकाध कहानियाँ तो आपने सुन ही ली हैं। एकाध कहानी तो सुनी, पर इन कहानियों से कुछ भला होने वाला नहीं है। भला उससे होने वाला है, जो तथ्यपूर्ण बात है और जो आपके गले उतर जाए। आपके व्यवहार में उतर आए।
हम किसलिए आपका समय लगाएँ? किसी-न-किसी कार्य में आपको लगाना ही पड़ता है; क्योंकि आप सुनते नहीं हैं। कुछ इधर कान लगाए हैं, कुछ उधर कान लगाए हैं। खाली बैठने से तो कुछ करना अच्छा है। जिससे आप समय बरबाद न करें।
हम यही कहेंगे कि अगर आपके गले उतर जाए, तो पाँच मिनट में ही कार्य समाप्त कर दें और गले न उतरे, तो हम आपके पीछे डेढ़ घण्टे पड़े रहें, तो भी कम।
डेढ़ घण्टे ही क्यों पड़े रहें? बेटे! अब तो हमने यह कहना शुरू कर दिया है कि या तो आप राजी से काबू में आ जाओ, तो ठीक है। यदि राजी से काबू में नहीं आते हो, तो आप गैर राजी से काबू में आओगे। गैर राजी जानते हैं, कैसी होती है? आप सबको मालूम ही होगा।
आप जब बच्चे थे और बात नहीं मानते थे, तो माँ क्या करती थी, जरा बताना? एक इधर-से और एक उधर-से चपत लगाती थी। यही करती थी न? खैर आप अब दाढ़ी-मूँछ वाले हो गए हो, तो हमें वैसा कुछ नहीं करना है। हमारी बात अलग है। हम नहीं रहेंगे, तो फिर क्या करेंगे? फिर बनेंगे बेटे भूत |
बेटे! अभी तो हमारी आवाज सुनने के लिए बड़े लालायित होते हो। अरे साहब! हम तो धन्य हो गए, आज माताजी आ गईं, तो आज का दिन बहुत अच्छा रहा। फिर माताजी-गुरुजी को देखकर के भागोगे। अरे साहब! घर में भूत आ गए भागो-भागो। फिर जिधर जाएँगे, बस उधर ही गुरुजी-माताजी दिखाई पड़ेंगे। बेटे! जिधर करवट लेगा, उधर को ही दिखेंगे। दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे चारों तरफ दिखेंगे। क्यों साहब! फिर तो हमें गंगा नहाना पड़ेगा? चाहे आप गंगा नहाना और चाहे जितने दान-पुण्य करना, हम तो काबू में आने वाले हैं नहीं।
हम तो पक्के हैं। पक्के हैं, तो हमारे ऊपर न गंगा जी का असर होता है और न बेटा! कुछ और का असर होता है। हमारी दुनिया का ही हमारे ऊपर असर होता है और कुछ असर नहीं होता। अपने विचार ही असर करते हैं तो फिर आपको डराया-धमकाया जाएगा। इसलिए आप होशियार हो जाओ और पहले से ही अपनी मनःस्थिति बनाओ कि आपको किधर जाना है?
बेटे! इधर जाना है या उधर जाना है? जहाँ तक मैं समझती हूँ, आपको उधर नहीं जाना है। आपको इधर ही आना है। इधर का रास्ता साफ है, आप इसी पर चलिए। नहीं साहब! हमारी तो पत्नी नहीं मानती है, हमारी तो फलानी नहीं मानती। बेटे! ये सारे-के-सारे बहाने तो अपना संकीर्ण मन कहता है। किसी को किसी ने कभी भी नहीं रोका है और न कोई रोक सकता है। मैं कहती हूँ कि आपकी पत्नी सन्त तुकाराम की पत्नी जैसी तो नहीं है।
सन्त तुकाराम की कहानी तो मैं नहीं कह रही हूँ, पर एक बात बताती हूँ। सन्त तुकाराम और उनकी पत्नी, दोनों में पटरी नहीं खाती थी; लेकिन वे निभाते हुए चले गए। आपको मालूम है सन्त तुकाराम जब एक ही गन्ना लेकर आए, तो उसने उनकी पीठ पर गन्ना दे मारा था। दो टुकड़े उसी ने कर दिए, तो सन्त ने कहा—"एक तुम खा लो और एक मैं खा लूँ।"
बस, दोनों में सुलहनामा हो गया। कहने का मतलब है कि आपकी पत्नी तो ऐसी नहीं है। उसको साथ लेकर के चलिए। आप जब उसको साथ लेकर के चलेंगे, तो वह आपकी आलोचना नहीं करेगी। वह आपकी आलोचना तब करती है, जब आप बच्चों को देखते नहीं हैं। मुँह उठाए घूम रहे हैं। उसको कैसे विश्वास आए कि आप अच्छे कार्य के लिए घूम रहे हैं या किसके लिए घूम रहे हैं?
मेरे गुरु—मेरे भगवान
बेटे! उसे बताइए तो और उसे यह भी बताइए कि गुरुजी ने इतना बड़ा जो कार्य किया है, उसमें माताजी ने कभी कोई रोड़ा नहीं अटकाया; बल्कि उनके कार्यों में हमेशा सहायक होती हुई चली गईं। सारी गृहस्थी से लेकर के और सभी बाहर से आने-जाने वालों की सारी की सारी व्यवस्था हमने की है। इस तरीके से आप सहयोगी बनिए और उनको भी सहयोगी बनाइए; ताकि उसका भी लाभ समाज और राष्ट्र उठा सके।
भगवान की भक्ति यदि सार्थक है, तो वह समाजसेवा में ही निहित है। इसलिए आपको भी समाजसेवा करनी चाहिए। जितने भी सन्तों ने, ऋषियों ने और भक्तों ने अग्रणी कार्य किए हैं। हनुमान जी ने भी अग्रणी काम किया। ये जो मैं अभी आपको उदाहरण दे रही हूँ। इन सभी ने वही कार्य किए, जो समय की पुकार थी। हनुमान जी ने भगवान राम का काम किया था। अब आप को भी राम का काम करना है। भगवान शब्द मैंने हटा दिया है; ताकि आप लोगों के मन में यह न आए कि माताजी इतना बड़ा भगवान शब्द कह रही हैं। मेरे लिए तो बेटा भगवान ही हैं। आपको तो मुझे मालूम नहीं कि आपके लिए भगवान हैं कि नहीं? पर मेरे लिए तो जरूर हैं।
बेटे! मैंने अभी तक तो भगवान कहीं देखा ही नहीं। उपासना जरूर करते हैं; लेकिन कभी नहीं देखा। मुझसे गायत्री माता कभी बात करने नहीं आईं, जो सुविधाएँ और जो साधन अर्जित किए हैं, जो भी है, वह एक आत्मिक बन्धन है। इसलिए मेरे लिए तो भगवान हैं। अब मैं नहीं समझती कि आपके लिए भगवान हैं कि नहीं? पर मेरे लिए तो वे भगवान ही हैं। देखो, मुझे उन्होंने अपने समतुल्य बना दिया। आप उनकी वही छवि मेरे अन्दर देख सकते हैं और मेरी छवि गुरुजी के हृदय में देख सकते हैं। हम दोनों की छवि आप एक-दूसरे में देख सकते हैं। क्यों?
हमारा समर्पण है न इसलिए। आपने उनको हृदय से स्वीकार नहीं किया है। जब हृदय से स्वीकार करेंगे, तो आप भी इसी तरीके से बन सकते हैं, जिस तरीके से आज मैं आपको दिखाई पड़ रही हूँ। बिलकुल ऐसे ही आप भी दिखाई पड़ेंगे। अब आप ऐसे ही बनने की कोशिश करना। आप जरा अपने दृष्टिकोण को तो बदलना। अभी आपका दृष्टिकोण नहीं बदला है।
जिस दिन दृष्टिकोण बदल जाएगा, उसी दिन आपको बदलने में देरी नहीं लगेगी। आप स्वतः ही बदलते हुए चले जाएँगे। सारा समाज एक तरफ और आप एक तरफ। जिस तरीके से समुद्र में मछली जाती है और छरछराती हुई अपना रास्ता बनाती चली जाती है। कौन किसका रास्ता बनाता है? रास्ता तो स्वयं ही बनाना पड़ता है। सही राह पर जा रहे हैं, गलत राह पर जा रहे हैं, यह निर्धारण तो आपको ही करना पड़ेगा।
सही रास्ते पर चलें
परिवारवाले आपका साथ देंगे? नहीं देंगे। आप नीतिपूर्वक धन कमा रहे हैं या अनीति से कमा रहे हैं। क्या कर रहे हैं, क्या नहीं? उन्हें क्या मतलब? उन्हें तो केवल अपनी उदरपूर्ति से मतलब है। उनको जो सुविधाएँ-साधन मिलने चाहिए, उससे मतलब है। आपसे उन्हें क्या मतलब कि आप क्या कर रहे हैं? आप अच्छे रास्ते पर जा रहे हैं या गलत रास्ते पर। उनकी बला से, किसी पर भी जाओ। निर्धारण आपको करना चाहिए कि कौन सा रास्ता सही है और कौन-सा रास्ता गलत है, किस रास्ते पर हमको चलना है? सही रास्ता तो यही है, जैसा कि मैंने अभी आपसे निवेदन किया है।
बेटे! और कोई रास्ता होता, तो हम जरूर बता देते। फिर अस्सी साल की उम्र तक तिल-तिल गलने की क्या आवश्यकता थी, जरा बताना। क्यों घर छोड़ने की आवश्यकता थी? क्यों बच्चे छोड़ने की आवश्यकता थी? क्यों जिस दिन से आए, तो उधर मुँह करके भी नहीं देखा? आखिर क्यों आवश्यकता थी? कोई आवश्यकता नहीं थी। जैसे आप अपने घर-गृहस्थी में लिप्त हैं। ऐसे वे भी रहते, पर ठुकरा दिया और ठुकरा करके यह दिखाया है कि यह समाज बहुत महत्त्वपूर्ण है। आपको एक महायज्ञ करना है। महायज्ञ कैसा? अभी तो आप कह रही थीं कि दीपयज्ञ बंद करने हैं, फिर महायज्ञ कैसा करना है? बेटे! महायज्ञ का समय आ गया है और अभी से आपको उस महायज्ञ के लिए पूर्णतया तैयार होना है।
बेटे! मैंने अभी कहा न कि शरीर, मन और अर्थ इन तीनों से ही आपको सम्पन्न होना है और तीनों को ही उस महायज्ञ की पूर्णाहुति में समर्पित करना है। इसका मतलब आप यह मत समझना, यह विचार मत करना कि धन समर्पित कर देंगे, तो हम क्या खाएँगे? नहीं बेटा! हमारा यह मतलब नहीं है, पर आपकी भावनाएँ तो होनी चाहिए। आपकी श्रद्धा तो उसमें जुड़ी होनी चाहिए। हम खाएँगे-ही खाएँगे, किसी को कुछ खिलाएँगे नहीं।
गिलहरी जैसा प्रयास तो करें
यज्ञ भगवान को खिलाइए, शान्तिकुञ्ज को खिलाइए, हाँ बेटा! खिलाना तो पड़ेगा ही। इतना बड़ा बनाया काहे के लिए, खिलाओगे नहीं, तो और क्या करोगे? आपको सेवा-सहायता करनी चाहिए। चाहे भले ही आपका सहयोग गिलहरी के समान ही क्यों न हो, पर उसके अन्दर भावनाएँ होनी चाहिए। एक कहानी कई बार पहले भी मैंने बताई है कि गाँधी जी एक बार उड़ीसा गए। वहाँ कोई सम्मेलन था। वे जहाँ भी जाते कुछ-न-कुछ माँग करके लाते थे; क्योंकि राष्ट्र के लिए उन्हें कुछ चाहिए ही था।
वहाँ एक बच्चा अपनी माँ से बोला—"माँ, इन्हें हम क्या दे सकते हैं? हमारे पास तो कुछ भी नहीं है।" माँ ने कहा—"हाँ बेटा! हमारे यहाँ कुछ है तो नहीं।" वह बोला—"हम इस सन्त को क्या दे सकते हैं?" उसकी माँ बोली—"बेटा! यह मत कहना कि घर में कुछ नहीं है। मेरे पास अभी कुछ है।" घर में एक काशीफल रखा था। उसने काशीफल गाँधी जी की झोली में डाल दिया। गाँधी जी ने कहा—"आज मुझे सबसे बड़ा दान मिल गया है, आज मैं किसी और से दान नहीं लूँगा। वह दान, जो उसकी भावनाओं और आस्थाओं से ताल्लुक रखता है। वह मुझे मिल गया है। आज मैं दूसरा दान नहीं लूँगा।"
बेटे! गिलहरी जैसा प्रयास क्यों न हो? पर हो तो सही। लोक-मंगल की राह पर चलने के लिए हो सके, तो आप यह साहस अवश्य दिखाना। हम चाहेंगे कि आप में से ही वे व्यक्ति आगे आएँ, जो कि मिशन के कार्यों के लिए आगे बढ़-चढ़कर कुछ करने की हिम्मत करें। आप यहाँ समयदान दें। जहाँ आपकी प्रतिभा की उपयोगिता होगी, वहाँ हम आपका उपयोग करेंगे।
अगर आवश्यकता हुई, तो वहाँ आपके क्षेत्र में उपयोग करेंगे। आपको इस लायक बनाएँगे; ताकि आप कुछ बन करके समाज की सेवा कर सकें। आपको ढालना है, आप अभी अनगढ़ हैं। इन अनगढ़ों को हमें गढ़ना पड़ेगा। इसकी बहुत आवश्यकता है। हमको इनके अन्दर बहुत-सी खूबसूरतियाँ लानी हैं। अभी हमको इनकी बहुत कुछ कटाई-छँटाई करनी है।
समय-समय पर आप नौ दिवसीय सत्रों में, एक महीने के प्रशिक्षण में आप आइए। आपकी पत्नी भी आए, पढ़े-लिखे अपनी योग्यता बढ़ाए। बेटे! वजन बढ़ाने वाले लोग हमको नहीं चाहिए, जो केवल सोते रहें, खाते रहें, गन्दगी करें और यहाँ-वहाँ घूमते रहें। वे भी नहीं चाहिए, जो जरा-जीर्ण अवस्था में हैं, जिनके सिर, हाथ-पैर काँप रहे हैं, ऐसों के लिए हमें यहीं कफन-काठी की तैयारी करनी पड़ेगी। ये हमें नहीं चाहिए।
बेटे! हमको चाहिए जो जीवन्त, प्रतिभाशाली, प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति हैं, वे ही कुछ कार्य कर सकते हैं। जो भावनाशील हैं, वे ही समाज को कुछ योगदान दे सकते हैं। जिसके अन्दर से श्रद्धा ही गायब हो गई, वह क्या करेगा? वह तो मशीन है। एक-दो रोज तक अपनी कला दिखाएगा, फिर उसकी पोल खुल जाएगी कि वह व्यक्ति कुछ नहीं करता। किसी काम का नहीं है, यह बेकार समय गँवाने वाला है।
दृष्टिकोण का परिवर्तन करें
ऐसा व्यक्ति हमको नहीं चाहिए। आप में से बहुतों की हमें इतनी जरूरत है, बेटे कि हम क्या कहें? कोई कहता है कि हमारे इतने सारे बच्चे हो गए? हम थकते नहीं हैं, अभी हमें बहुत बच्चे पैदा करने हैं। आप लोग आइए, कुछ बनिए और आपके द्वारा दूसरे लोग भी बनते हुए चले जाएँ। आपको अपने दृष्टिकोण को बदलना है, दृष्टिकोण का परिवर्तन करना है।
एक छोटी-सी कहावत है, जिसमें कहा है—'किश्ती ने मोड़ा रुख तो किनारे बदल गए।" यदि दृष्टिकोण को बदल दिया जाए, तो व्यक्ति कुछ से कुछ हो जाता है। इतनी स्फूर्ति, साहस और हिम्मत उसके अन्दर आ जाती है कि वह दूसरों से हजार गुना कर्मठ मालूम पड़ता है। ऐसा लगता है कि बस, अब तो यह न जाने क्या करेगा? किधर को जाएगा? जिधर को जाएगा, उधर ही सफल होता चला जाएगा।
मानसिक विकृतियाँ दूर करें
बेटे! मैं थोड़ा-सा कहकर अपनी बात समाप्त करूँगी। आपको इस दौड़ में आगे-आगे दौड़ना है। महिलाओं को भी दौड़ना है। आप साप्ताहिक सत्संग करिए, सत्संगों के द्वारा अपनी बात कहिए; ताकि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व ऊँचा उठता हुआ चला जाए। इसमें नर भी शामिल हों, नारी और बच्चे भी शामिल हों। दहेज से लेकर के अन्य विकृतियाँ, जो समाज में कोढ़ के तरीके से फैली हुई हैं। उस कोढ़ को किसी-न-किसी तरीके से मिटाना है।
जहाँ कहीं भी आपको ऐसा जान पड़ता हो कि ये हमारे सगे-सम्बन्धी हैं, उनके यहाँ मत जाइए। हमारे सम्बन्धी हैं, पर ऐसे आदमी जो माँगते हैं, उनके यहाँ हम क्यों जाएँगे? हम भिखारी हैं क्या? भिखारियों का हम नहीं खाएँगे। भिखारियों का खाएँगे, तो हमारे ऊपर भी वही असर पड़ेगा, जो उनमें है। हम भिखारी नहीं हैं। हम देने वालों में से हैं, लेने वालों में से नहीं हैं।
यह विचारधारा प्रत्येक जगह फैलानी चाहिए। समाज के मध्यम वर्ग से लेकर विशेष वर्ग तक जहाँ कहीं भी बुराइयाँ हैं, उन्हें हटाना-मिटाना है। सत्प्रवृत्तियों के लिए आप जा रहे हैं, तो झोला पुस्तकालय आपको चलाना ही है। यह संकल्प, तो आप लेकर के जाएँगे ही, साथ में जो सामाजिक कुरीतियाँ हैं, उनको हटाने के लिए भी आपके मन में बात आनी चाहिए।
बेटे! आज विदाई के वक्त आपको भी लगेगा कि हम बिछुड़ करके जा रहे हैं और हमें भी लगेगा कि बच्चे हमारे पास नौ दिन रहे और आज आँख से ओझल हो रहे हैं। यह मानकर चलना बेटे कि विदाई शरीरों की जरूर है, पर मन की विदाई नहीं है। शरीर को आपके कर्मक्षेत्र के लिए हमने ललकारा है, आह्वान किया है, तो शरीर को तो कर्मक्षेत्र में जाना ही है। माँ के पास कौन-कौन-सा बच्चा बैठ सकता है? उनको तो बाहर जाना ही पड़ेगा और जाना ही चाहिए।
आपके दुःख, कष्ट और कठिनाइयों के बारे में हमने भले ही आप से पूछा नहीं है। आपसे लिखवाकर जरूर लिया है। आपने कहा है या नहीं कहा है? हम आपसे पूछते भी रहे हैं। हम आपको आश्वासन दिलाते हैं कि जिस तरीके से एक वफादार गुरु, वफादार माता-पिता अपनी जान की बाजी लगा करके भी बच्चों को ऊँचा उठाते हैं, उसको हिम्मत दिलाते हैं। आपकी परिस्थितियाँ, हमारी परिस्थितियाँ हैं। यह मत समझना कि आपको कोई दुःख, कष्ट है, तो हमारे ऊपर असर नहीं पड़ेगा। ऐसा कैसे हो सकता है?
बेटे! हम उस कबूतर-कबूतरी के तरीके से तो नहीं हैं। एक कबूतर और एक कबूतरी थे। एक दिन एक बहेलिया भूखा-प्यासा और पेड़ के नीचे लेट गया। कबूतरी और कबूतर, दोनों विचार करने लगे कि यह अतिथि आज हमारे दरवाजे पर आया है। क्या यह भूखा ही चला जाएगा? उन्होंने कहा नहीं, जो अतिथि हमारे यहाँ आया है, वह भूखा क्यों जाना चाहिए? तो क्या करें? उन्हें एक युक्ति समझ में आई।
एक कहीं से जलती तीली लाया, एक ने घास-फूँस इकट्ठा किया और उसको जलाया। फिर दोनों उसमें भस्म हो गए। बहेलिया उठा, तो उसने अपने भाग्य को सराहा और यह कहा कि भगवान, आज तूने मेरी भूख मिटा दी। मैं कितने दिन का भूखा था।
बेटे! हम उस कबूतर-कबूतरी के तरीके से तो नहीं हैं कि भस्म हों और न ही आप बहेलिया हैं, पर हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि जब तक हम जिन्दा हैं और नहीं भी रहेंगे जिन्दा, तो हमारी जीवात्मा तो रहेगी।
हम इसी तरीके से छाए रहेंगे, जिस तरीके से हमसे इस समय आपको प्यार, दुलार, स्नेह, प्रेरणा और मदद मिलती रहती है—वह जन्म-जन्मान्तरों तक मिलती ही रहेगी। बस, इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात खतम करती हूँ।
॥ॐ शान्तिः॥