गृह-व्यवस्था के सूत्र

समय की चपेट में भारतीय नारी अपनी योग्यता खो बैठी है। समय की माँग तो बहुत बड़ी है, पर उसके जिम्मे घर गृहस्थी की साज-सँभाल काम-काज हमेशा से बना रहा है—वह भी उसे नहीं आता। समय की गति के साथ व्यक्ति की व्यस्तता बढ़ती जा रही है। पुरुषों को आर्थिक व्यवस्था जुटाने में सारा समय लगा देना पड़ता है। इन बदलती हुई परिस्थितियों में घर का सन्तुलन बनाना गृहणी का ही कार्य है।

शास्त्र में कहा गया है 'गृहिणी-गृहमुच्यते'—गृहणी ही घर है। यह ठीक है कि नारी को आदर्श समाज की रचना के लिए हर क्षेत्र में विकास का अवसर एवं अधिकार मिलने चाहिए। इसके लिए हमारे प्रयास चल रहे हैं, चलने चाहिए और चलते रहेंगे। किन्तु गृहणी के रूप में ही नारी जो कुछ कर सकती है, वह भी आरम्भ करने के लिए कम नहीं हैं। मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ रोटी, कपड़ा और मकान, इनका संचालन और व्यवस्था गृहिणी के हाथ में है। इनकी सुव्यवस्था और सुचारु संचालन मात्र से घर में चमत्कार हो सकता है। कहने के लिए तो अभी भी घर नारियाँ ही चला रही हैं किन्तु गृहस्थियों का सुसंचालन एक बात है और उसे घसीटना दूसरी। घरों की—गृहस्थियों की सुव्यवस्था और सुसंचालन के लिए हमें नारियों की योग्यता को विकसित करना होगा। उन्हें इन दक्षताओं के लिए जानकारी देनी होगी, उनका ज्ञान और योग्यता विकसित करनी पड़ेगी। गृह लक्ष्मी की भूमिकाएँ ठीक प्रकार से निभाई जा सकें, तो इनसे नारी की प्रतिष्ठा ही बढ़ेगी।

१. अर्थ व्यवस्था—आजकल अधिकांश परिवारों की अर्थ व्यवस्था बहुत ही डाँवाडोल चलती है। जिनकी आमदनी कम है, उनकी शिकायत है कि खर्च पूरा नहीं होता, किसी कदर मान्य हो सकती है किन्तु हजार-हजार रुपया मासिक और इससे अधिक पाने वाले भी माह के तीसरे चौथे सप्ताह में ही रुपये की कमी की बात करना प्रारम्भ कर देते हैं। टाटा, भिलाई, धनबाद जैसे (इन्डस्ट्रियल) औद्योगिक क्षेत्रों में तो हजारों रुपया पाने वाले इन्जीनियर्स और अधिकारियों को कर्ज लेते देखा जाता है। बड़ी-बड़ी लम्बी ब्याज की दरों पर लिया गया पैसा क्रमश: उन पर अधिकाधिक भारी होता रहता है। वे बड़ी कठिनाई से उस कर्जे से मुक्त हो पाते हैं। इस प्रकार बड़ी-बड़ी रकमें वेतन में पाने के बाद भी वह महीने भर पूरा नहीं होता। इसका कारण है हमारा तथाकथित 'स्टैण्डर्ड आफ लिविंग'—रहन-सहन का उच्च स्तर। इस स्टैण्डर्ड आफ लिविंग ने, जिसका कि हम ठीक-ठीक अर्थ भी नहीं समझते हैं हमें तबाह कर रखा है। जहाँ रहन-सहन के उच्च स्तर का अर्थ हमारा शालीन, सभ्य, संस्कारित, व्यवस्थित और विकसित जीवन होना चाहिए उसके स्थान पर तड़कीले, भड़कीले बहुमूल्य कपड़े, मकान में बहुमूल्य फर्नीचर, रेडियो, टेलीविजन, फ्रीज, स्कूटर, कार आदि उसके अङ्ग बन गए। फलतः इस तथाकथित स्टैण्डर्ड आफ लिविंग के चक्कर में सारे पैसे बरबाद हो जाते हैं और मुख्य आवश्यकताओं के लिए भी कमी पड़ जाती हैं। कर्जदारों के चक्कर में रहना पड़ता है।

अपनी अर्थ व्यवस्था को समुचित एवं सन्तुलित रूप मे संचालित करने के लिए हर गृहणी को बजट बनाकर खर्च करने का स्वभाव बनाना चाहिए। मनुष्य की मूल आवश्यकता है भोजन। किन्तु विडम्बना इस क्षेत्र में भी भर गई है। हमारे चौके भी हमारी अर्थ व्यवस्था का सन्तुलन बिगाड़ने में कम अवरोधक नहीं है। जहाँ चौके में दाल-चावल, एक साग, सलाद आदि से बड़ी अच्छी तरह काम चलाया जा सकता है वहाँ तरह-तरह के व्यंजन, चटनी, अचार, चिप्स आदि तले-भुने और मसालों की भरमार पर बहुत खर्चा होता है, आमदनी का अधिकांश भाग यह विलासी भोजन प्रक्रिया भी खा जाती है। हमें इस फिजूलखर्ची से बचते हुए स्वास्थ्य के लिए उपयोगी साधारण भोजन द्वारा इस मद को व्यवस्थित करना चाहिए। वस्तुस्थिति यह है कि हमने कमाना तो सीखा है किन्तु यह नहीं जानते कि खर्च किस प्रकार किया जाय। यदि हम खर्च करना सीख लें तो न केवल हमारे परिवारों ही की अर्थ व्यवस्था सन्तुलित हो जाय बल्कि इसका प्रभाव सारे देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ सकता है। इस अर्थ व्यवस्था को व्यवस्थित और सन्तुलित बनाने के लिए गृहिणी को सक्रिय और जागरूक होना चाहिए। पुरुष कमाता अवश्य है किन्तु गृहस्थी का अर्थ सन्तुलन बनाए रखना गृहणी का ही कार्य है। पुरुष कितना ही कमाए पर यदि गृह संचालिका खर्चीली, फूहड़ और असन्तुलित खर्च करने वाली है तो घर में रोज ही हंगामा मचा रहेगा। मुख्य आवश्यकताएँ रखी रहेंगी, उनके लिए पैसे की माँग होती रहेगी और अनावश्यक वस्तुओं, सिनेमा, मनोरंजन आदि में व्यर्थ ही पैसे की बरबादी होती रहेगी। यदि कुशल महिला द्वारा बजट बनाकर सबसे पहले नित्य की भोजन, वस्त्र, निवास जैसी मुख्य आवश्यकताओं तथा शिक्षा-चिकित्सा आदि के लिए और तब बचत में से आराम और सुख-सुविधा के लिए, मनोरंजन के लिए, इस क्रम से मितव्ययितापूर्वक खर्च किया जाय तो कम से कम आय से भी घर की अर्थ व्यवस्था सन्तुलित बनाए रखी जा सकती है।

हमारे समाज में कुछ वर्ग ऐसा है जिसे आपने हमेशा साफ सुधरे, नये चमकदार कपड़े और सजे-सँवरे लिबास में देखा होगा। ये हैं सिन्धी महिलाएँ—कभी उनके घर के पास से निकलिए तो आपको सदैव ही काम करते मिलेंगी। कभी कपड़ा सिल रही हैं, कभी स्वेटर बुन रही हैं. कभी कढ़ाई कर रही हैं, बड़ी, पापड़, चिप्स, चावल, साबूदाने के पापड़ तथा अन्य सामान घर में बनाकर वे अपने घर में ही एक गृह-उद्योग का संचालन करती हैं। एक बार एक सिन्धी भाई ने, जो एक मध्यम श्रेणी के ही व्यक्ति थे, पूछने पर उन्होंने बतलाया कि वे इन महिलाओं के इन कीमती लिबासों एवं शौकीनी पर अपनी कमाई का एक पैसा भी खर्च नहीं करते, वे स्वयं ही कढ़ाई, बुनाई करके सिलाई मशीन खरीद लेती हैं और सिलाई करके अपन स्वयं के व बच्चों के कपड़े लत्ते, ऊनी कपड़े, रेशमी, कपड़े सब खरीदती व तैयार करती रहती हैं। यह उनका पुरुषों को सहयोग ही नहीं, स्वावलम्बन का एक स्वरूप है।

२. आहार—आहार मनुष्य की सबसे मुख्य आवश्यकता है। स्वास्थ्य, आरोग्य और विकास का प्रमुख आधार सन्तुलित आहार ही है। क्या खायें? कैसे खायें? इसका ज्ञान आज किसी को नहीं। केवल घी, दूध, फल, मेवा पौष्टिक पदार्थ ही हमारे स्वास्थ्य को बनाते हैं और वे समुचित मात्रा में हमें कहाँ मिलते हैं जिससे हम उत्तम स्वास्थ्य को बना सकें, आरोग्यता को प्राप्त कर सकें, यही शिकायत हमारी रहती है। किन्तु अभावों का यह रोना गलत है। समझदारी से यदि काम लिया जाय और जो उपलब्ध है उसी से सही तरीके से, वैज्ञानिक और सन्तुलित ढंग से काम लिया जाय तो आश्चर्यजनक लाभ हो सकता है।

दृष्टिकोण—हमारा आहार जो कुछ भी है स्वादपरक होता है। हम हर वस्तु स्वाद की दृष्टि से खाते हैं। प्रात: काल से ही जहाँ भोजनालय का कार्य आरम्भ होता है, प्रश्न खड़ा होता है कि आज क्या पकाया जाय? बस स्वाद के ख्याल से एक पर एक वस्तुओं की होड़ लगना प्रारम्भ होता है। साग-सब्जियाँ, रोटी-पूड़ी, पराँवठा, कचौड़ी, समोसे, पकौड़ी-मगौड़ी, चटनी-अचार तमाम वस्तुएँ स्वाद की दृष्टि से खाई जाती हैं। स्वादिष्ट लगने से कुछ तो स्वभावतः ही अधिक खाया जाता है फिर गृहणियों का अनुरोध कि थोड़ा तो और ले लीजिए, खाने वाले को अधिक खा जाने का कारण बनता है। इस प्रकार खाये जाने वाले आहार से लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। स्वास्थ्य कहाँ से बनेगा, उल्टा अनपच, कब्ज आदि के कारण रोगों को ही आमन्त्रण करते हैं। फल स्वास्थ्य वर्धक माने जाते हैं किन्तु वे भी स्वाद की दृष्टि से बे तरीके और असन्तुलित खाये जाते हैं, उनका दुरुपयोग किया जाता है। हमारा आहार जो भी हो उसे स्वाद की दृष्टि से नहीं, उपयोगिता की दृष्टि से, स्वास्थ्यप्रद ढंग से पकाया और खाया जाना चाहिए।

सन्तुलित आहार की जानकारी होना आवश्यक है। सामान्यतः हमारे भोजन में दाल, चावल, रोटी, शाक, फल, दूध, दही, घी, गुड़, शक्कर, तेल आदि होते हैं। उनसे हमें प्रोटीन, श्वेतसार, चिकनाहट, लोहा, आयोडीन, खनिज, विटामिन आदि प्राप्त होते हैं। हमारे दैनिक आहार में मूल्यवान आहार नहीं मिल पाता यह आम शिकायत मध्यम श्रेणी के व्यक्ति की रहती है, किन्तु सामान्य दाल-चावल और रोटी के साथ यदि हम मीठा या नमकीन दलिया सलाद, अंकुरित अन्न, ऋतु फल, शाक-सब्जियों का उपयोग करें तो हमारे आहार की समस्त आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं।

आज हमारे यहाँ दूध की बहुत कमी है, थोड़ा सा दूध जो भी होता है चाय पे खर्च हो जाता है और हलवाइयों के पास मिठाइयों के लिए खोआ बनाने से नष्ट हो जाता है। दूध की आवश्यकता पूरी नहीं होती। हम चाहें तो मूँगफली और सोयाबीन से दूध और दही का निर्माण कर उसकी पूर्ति कर सकते हैं। यह दूध, दही, बाजार के दूध, दही से सस्ता भी पड़ता है और मिलावटी दूधों की तुलना में अच्छा भी रहता है।

पाक विधि—सामान्यतः हमारा जो भोजन बनता है वह, तरह-तरह के मिर्च, मसालों से भरपूर रहता है। शाक-सब्जियों को तो घी-तेल में तलकर, भूनकर उन्हें कोयला बना देते हैं। उनका सारा जीवन तत्व नष्ट कर देते हैं, ऊपर से मिर्च, मसालों की भरमार और तेल-घी की चिकनाहट से उसे दुष्पाच्य बना लेते हैं। ऐसी शाक, सब्जियाँ स्वाद की दृष्टि से तो अच्छी किन्तु स्वास्थ्य के लिए लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध होती हैं। शाक-सब्जियों में जो जीवन तत्त्व होते हैं वे अधिक घी, तेल में तलने और अधिक भूनने से नष्ट हो जाते हैं, फिर उनका स्थूल अंग-कोयला ही शेष रह जाता है और हमारे लिए उपयोगी नहीं रह जाते। शाक-सब्जियों को या तो हमें भाप में कुकर द्वारा या घर में बने डब्बों में पकाना चाहिए या फिर उन्हें अधिक तलने-भूनने की अपेक्षा पानी के साथ उबालना-पकाना चाहिए। भाप से पकने पर सब्जियों के अधिकांश जीवन तत्त्व सुरक्षित रहते हैं। पानीदार सब्जियों में भी उसके कुछ तत्त्व शेष रह जाते हैं और पानी (रसा) में मिल जाते हैं। दाल और चावल भी यदि कुकर में पकाये जाँय तो उनकी शक्ति हमारी शारीरिक आवश्यकताओं की अधिक पूर्ति कर सकती है। चावल को यदि वैसे भी पकाया जाय तो उसे माड सहित पकाना चाहिए जिससे उसका तत्त्व उसी में रह जायगा अन्यथा उसका सारा जीवन तत्त्व माड के रूप में बाहर चला जाता है और दुष्पाच्य भी हो जाता है। जिह्वा का स्वभाव स्वादपरक है जिसे साधारणतया लोग छोड़ नहीं सकते। स्वाद वाले पदार्थ खाने की रुचि स्वाभाविक तो है किन्तु उसे शरीर के लिए हितकारी अनेकों प्रकार के शाकाहारी व्यंजनों द्वारा पूरा किया जा सकता है। सलाद, ऋतु फल, सोयाबीन, मूँगफली के व्यंजनों और खाये जाने वाली शाक-भाजियों, गोभी, टमाटर, पालक, मूली, चुकन्दर हरा धनिया और अंकुरित चना, मूँग, गेहूँ, आदि के विभिन्न प्रकार से प्रयोगों से स्वाद की रुचि पूरी हो सकती है।

कैसे खायें?—भोजन पकाने के बाद तीसरी महत्त्वपूर्ण बात भी हमें जानना चाहिए कि भोजन कब, कितनी बार, कितने अन्तर से, कितने समय बाद खाना चाहिए। यदि यह जानकारी न रही तो भी उपयुक्त से उपयुक्त भोजन हानिकारक सिद्ध हो सकता है। भोजन उपयुक्त समय पर नियमित किया जाना चाहिए। नियमित समय पर भोजन किए जाने से ठीक उसी समय भूख जागृत होती है। हमारे पाचन अंग निश्चित समय पर भोजन की आवश्यकता अनुभव करते हैं और हमें भूख लगती है। समय की नियमितता न रहने से पाचनांग भी अव्यवस्थित हो जाते हैं और खाया हुआ भोजन भी ठीक से नहीं पचता। दो बार के भोजन में छै-आठ घण्टे का अन्तर रहे तो स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होता है। यदि बीच में कुछ खाना ही पड़े तो ४ घण्टे के बीच में कुछ भी न खाया जाय अन्यथा पेट का खराब होना निश्चित है। बार-बार कुछ न कुछ खाते रहना बुरा है। एक बार का खाया अभी पाचन की तैयारी कर ही रहा था कि और भार आमाशय में पड़ गया। इस प्रकार आमाशय की क्रिया में व्यवधान उपस्थित होता है और पाचन शक्ति खराब होती है।

भोजन खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। भोजन उस अवस्था तक चबाना चाहिए जब तक वह मुँह की लार के साथ एक रस होकर सरलता पूर्वक निगलने योग्य न हो जाय। आरोग्य शास्त्रियों के अनुसार एक ग्रास को प्राय: ३२ बार चबाना चाहिए। इतनी देर तक चबाने से भोजन लार के साथ एक दम मिल जाता है और बिना निगलने का प्रयास किए गले के नीचे उतर जाता है। चिकित्मा-विज्ञान के ज्ञाताओं का कथन है कि भगवान ने हमें मुँह में दाँत दिये हैं। आँतों में दाँत नहीं हैं। अत: भोजन को दाँतों से खूब चबाकर खाना चाहिए। मुँह में ही भोजन की आधी पाचन क्रिया हो जानी चाहिए। भोजन के पाचन में जल का बड़ा सहयोग है। अत: जल का सेवन पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए, किन्तु वह भोजन के साथ-साथ या तुरन्त बाद नहीं। भोजन के साथ तो मात्र इतना ही पी लेना काफी होगा कि हमारे मुख की शुद्धि हो जाय। भोजन के आधा, एक घण्टे बाद पर्याप्त मात्रा में लगभग एक लीटर पानी पीना चाहिए और दिन भर में २-३ लीटर जाड़े में और ४-५ लीटर गर्मियों में पिया जाना चाहिए। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार कम अधिक भी हो सकता है। पर पानी पीना बहुत आवश्यक है स्वास्थ्य के लिए। पानी अपने स्वाभाविक रूप में पिया जाना चाहिए, बरफ का, फ्रीज का पानी हानिकारक सिद्ध होता है। अक्सर गला खराब हो जाता है, टांसिल फूल जाते हैं, खाँसी हो जाती है।

भोजन के समय जिन बातों को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए और जिनका प्रभाव हमारी आन्तरिक वृत्तियों पर पड़ता है वह हैं—भोजन में अन्न देवता का—भगवान के प्रसाद का भाव होना चाहिए और जो कुछ भी, जैसा भी मिला है रूखा-सूखा भी वह भी प्रसन्नतापूर्वक खाया जाना चाहिए। गृहणियों, का कर्तव्य है कि भोजन कराते समय चौके का वातावरण, स्वस्थ, स्वच्छ और सुन्दर हो। वाणी में माधुर्य और सरसता हो। भोजन परोसने और कराने में प्रसन्नता का वातावरण रहे। भोजन के समय क्रोध, रोष, शिकायत का वातावरण रहने से उसका प्रभाव खाने वाले के मन-मस्तिष्क स्वास्थ्य पर उत्तम नहीं पड़ता। महाराष्ट्र में भोजन कराते समय चौके में रंगीन चूरे से फूल-पत्ती बेल बूटे के चौक बनाए जाते हैं, धूप-अगरबत्ती जलाकर चौके का वातावरण सुगन्धित और सुरुचिपूर्ण बना दिया जाता है। ऐसे वातावरण में किया हुआ भोजन अपना अच्छा प्रभाव डालता है। रूखा-सूखा भोजन भी स्वास्थ्य की अभिवृद्धि करता है और खाने वाले की वृत्तियाँ सात्विक बनती हैं।

यह बातें गृहणियों को जाननी चाहिए, उन्हें बतलाई-सिखाई जानी चाहिए। किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं। उनके प्रति उनकी आस्था भी जागृत की जाय तभी वे सिद्धान्त जीवन में चरितार्थ होकर लाभ पहुँचा सकेंगे। यदि गृहणियाँ इस सन्दर्भ में प्रमाद छोड़ें, थोड़ी सी तत्परता एवं सूझ-बूझ का परिचय दें तो अपनी सीमित आय में भी, बिना आर्थिक सन्तुलन बिगाड़े, वे परिवार के सदस्यों को सरस एवं स्वास्थ्यप्रद आहार उपलब्ध करा सकती हैं। इस प्रकार प्रतिष्ठा, भीतरी सन्तोष तथा स्वास्थ्य का लाभ परिवार के हर सदस्य को प्राप्त हो सकता है।

३. वस्त्र—मनुष्य की मुख्य आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान को माना गया है। रोटी के बाद दूसरी आवश्यकता वस्त्र की है। वस्त्र जहाँ मनुष्य को सभ्य और सुन्दर बनाता है वहाँ शरीर रक्षा के लिए भी परमावश्यक है।

शरीर की सुरक्षा की दृष्टि से—हर मौसम में मौसम के अनुसार, वस्त्रों का उपयोग आवश्यक है। कड़कती ठण्ड में यदि पर्याप्त कपड़े न पहने जाएँ तो ठण्ड लग जायगी, किन्तु गर्मियों में न्यूनतम वस्त्र ही उपयुक्त लगते हैं। ऋतु प्रभावकूलता के साथ-साथ कपड़े सभ्यता के अनुरूप भी होने चाहिए। जो भी कपड़े पहनें वे सादा और शालीन हों। उन्हें केवल मनोरंजन, कौतुक अथवा अहंकार—प्रदर्शन का माध्यम न बनाया जाय। कपड़े सलीके से पहिने, उनसे फूहड़पन या बचकानापन नहीं झलकना चाहिए। आजकल फैशन का बोलबाला है। सिनेमा प्रेमी नर-नारी नित्य नए सिनेमा देखते हैं और कपड़े वाले जूते, चप्पल आदि के पहनावे, उढ़ावे के नित्य नये फैशन ईजाद कर रहे हैं। इनकी सिलाई भी इतनी अधिक होती है कि कई बार तो सिलाई कपड़े के दाम से अधिक होती है। सिलकर भी वे फूहड़ और बचकाने दिखाई पड़ते हैं। आज की फैशन की तरंग में कपड़े इस प्रकार के पहिने जाते हैं कि शालीनता और सभ्यता की दृष्टि से जहाँ शील और संकोच का दर्शन होना चाहिए था वहाँ लज्जास्पद अंगों में उभार और उठान लाकर प्रदर्शन का रूप दिया जाता है। ब्लाउज छोटे होते चले जा रहे हैं जिनसे पेट, पीठ सब नंगे दिखते है। साड़ियाँ इस प्रकार पहिनी-ओढ़ी जाती हैं कि प्रायः सारा शरीर ही नंगा रहता है। बैलबाटम के साथ बिना दुपट्टे के कुर्ते या शर्ट, ढीले कुर्ते और लुंगी के साथ एक दम ऊँची एड़ी की चप्पल और जूते तथा बिखरे या कटे हुए बालों में भारतीय नारी 'हिप्पी' जैसी कुसंस्कारी लगती है। यह बचकानापन भारतीय नारी की गरिमा समाप्त करने पर उतारू है। ऊँची एड़ी के जूते और चप्पल पहिन कर चलना सबका काम नहीं। कहीं पैर मुड़ गया तो बिना पैर में मोच आये न रहेगी।

वस्त्रों के सम्बन्ध में यह सब दिखावा शरीर की सुविधा, सुरक्षा तथा आर्थिक सन्तुलन आदि सभी दृष्टियों से प्रतिकूल ही पड़ते हैं। किन्तु विवेक शून्य होकर दूसरों की नकल करने में, लोग इन सबको भी भुला देते हैं। केवल एक वहम मन में जमा रहता है कि सम्भवतः ऐसा करने से लोग हमें प्रगतिशील तथा सम्पन्न मानेंगे। यह दोनों ही मान्यताएँ गलत हैं। होता इससे उल्टा ही है। इस प्रकार का वेष विन्यास धारण करने वालों को अविकसित-बाल बुद्धि का ठहराया जाता है। अर्थ सन्तुलन बिगड़ता है सो अलग।

समझदार गृहणियाँ स्वयं तथा अपने परिवार के सदस्यों को इस प्रकार के वहम से मुक्त रख सकती हैं। वस्त्रों में सुरुचि एवं शालीनता होना एक बात है तथा फैशन का बचकानापन दूसरी बात है। परिवार के हर सदस्य की रुचि सादगी एवं शालीनता परक बनायी जाय तथा वस्त्र भी उस मान्यता के द्योतक हों, यह हर परिवार के लिए हितकर है।

स्वच्छता—वस्त्रों का सदुपयोग तभी हो सकता है और उनकी शालीनता तभी बनाए रखी जा सकती है जब उन्हें स्वच्छ रखा जाय। स्वास्थ्य के लिए भी यह आवश्यक है। पहिनते समय उनमें पसीना, घीगस और धूल-मैल आदि लगते रहते हैं। उन्हें साफ न किया जाय तो वही मैल वस्त्रों के माध्यम से रोमकूपों में प्रवेश करने के अथवा चमड़ी पर परत की तरह जमकर बीमारियाँ उत्पन्न करना प्रारम्भ कर देंगे। पसीने से जुएँ, चिल्लर पड़ेंगे और काटकर हानि पहुँचायेंगे। बदबू के कारण साथ उठने-बैठने वालों से उसके आलस्य, प्रमाद और असभ्यता की चुगली करेंगे। सभ्यता और शालीनता की दृष्टि से भी हमें कपड़ों की स्वच्छता का ध्यान रखना आवश्यक है। सभ्य लोगों में गन्दे, बदबूदार कपड़े पहिनने से हमारी प्रतिष्ठा कम होगी और भौंड़ेपन का प्रदर्शन होगा। अन्दर वाले कपड़े जैसे बनियान, अण्डर वियर, कमीज, पेटीकोट, ब्लाउज आदि तो नित्य ही धोकर साफ रखने चाहिए। ऊपर वाले वस्त्र जो शरीर से कम स्पर्श करते हैं, जब भी मैले दिखाई देने लगें, तुरन्त धो डालने चाहिए। कपड़े यदि घर में ही स्वयं धो लिये जाएँ तो लाभप्रद होगा। इससे धुलाई का खर्च कम पड़ेगा, वे अधिक दिन जीवित रहेंगे तथा शरीर का व्यायाम हो जायगा। कपड़ों के रंगों की सुरक्षा होगी। धोबी के यहाँ दिये गए कपड़ों के रंग खराब हो जाने और कमजोर या फटने की बहुत सम्भावना रहती है।

धुलाई के लिए कपड़े निकालते ही पहले उनकी जेबें खाली कर लेना चाहिए। कभी-कभी भूल से उसमें नोट या महत्त्वपूर्ण कागज रह जाते हैं और धुलाई में बर्बाद हो जाते हैं। कई भुलक्कड़ों को पीछे पछताते या धोबियों के घर ढूँढ़ते, चक्कर काटते देखा जाता है। यदि कपड़े बाहर धुलाई को देना हो तो देते समय एक कापी में जो इसी प्रयोजन के लिए काम में लाई जाय, धोबी के सामने ब्यौरेवार नोट कर लिया जाय। कपड़े धुलाई में देने या घर में धोने से पूर्व उन्हें ठीक से देख लिया जाय। कहीं फटे-टूटे हों तो उनकी मरम्मत कर दी जाय अन्यथा वे धुलाई में और अधिक फटते जाएँगे। बाजार की धुलाई की दुकानों पर कपड़े देकर रसीद ले लेनी चाहिए जिससे वापस लेते समय भूल की सम्भावना न रहे।

प्रैस करने से कपड़ों की सिकुड़न आदि दूर हो जाती है और कपड़े सुन्दर दिखते हैं। समय पर प्रैस न हो तो थोड़े कम सूखे कपड़ों को तह करके बिस्तर में तकिए के नीचे या अधिक कपड़ों के नीचे दबा देने से प्रेस की आवश्यकता पूरी हो सकती है।

धोने के लिए सामान्य साबुन, पाउडर, या साबुन के चूरे से कपड़े धोये जा सकते हैं। गरम पानी का प्रयोग करने से वे अधिक साफ हो जाते हैं। यदि कपड़े मोटे और अधिक गन्दे हों तो पहले उन्हें गरम पानी में सोड़े में डुबाकर रख दें। फिर थोड़ी देर बाद उन्हें धोकर, साबुन आदि से धोयें। रेशमी और गरम कपड़ों को अलग तरह से डिटर्जेन्ट पाउडर से ठण्डे पानी में धोना चाहिए। जहाँ धब्बे लगे हों, उन्हें सूखे पाउडर से मलें।

सुरक्षा—कपड़ों का धोना जितना महत्त्वपूर्ण है उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी सुरक्षा। धुले हुये कपड़ों को यदि लापरवाही से कहीं भी टाँग दिया जाय या रख दिया जाय ताे वे पुनः गन्दे हो जाएँगे और सारी मेहनत बेकार साबित होगी। अतः यह आवश्यक है कपड़ों को धो, सुखाकर, प्रैस या तह करके सुरक्षित रखा जाय। अस्त-व्यस्त पड़े रहने से कई बार चूहे या कीड़े भी कपड़े को काट डालते हैं।

केवल पहिनने के ही नहीं ओढ़ने-बिछाने के कपड़े भी साफ रखना चाहिए। समय-समय पर उन्हें धूप दिखानी चाहिए। मैले न भी हों तो भी धूप न दिखाने से कई बार कपड़ों में बदबू आने लगती है। अत: धूप दिखाना आवश्यक है। चादर, तकिए और लिहाफ आदि के खोल साफ न करने से गन्ध देने लगते हैं, चिकनाहट जम जाती है और भद्दे लगते हैं, अतः उन्हें समय-समय पर धोते रहना आवश्यक है। गरमी पड़ना शुरू होने पर रजाई, कम्बल आदि उठाकर तह करके रख देना चाहिए पर ध्यान रहे कि उन्हें भी सुरक्षित ढंग से रखना जरूरी है अन्यथा चूहे, दीमक, कीड़े आदि से कपड़े खराब हो जाते हैं। कई बार तहकर के रजाई, कम्बल आदि किसी चौकी, टेबिल आदि पर दीवाल के किनारे रख देते हैं, दीवाल में सीलन होने से दीवाल के किनारे का हिस्सा गल जाता है या भद्दा रंग हो जाता है। बरसात में तो यह सावधानी बहुत आवश्यक है। कम्बलों में फिनायल की गोली डाल देनी चाहिए। जहाँ गोली न मिले, सूखे नीम के पत्ते डाल देना चाहिए। समय-समय रखते-उठाते कपड़ों को देखते रहना चाहिए। यदि कहीं फटे, टूटे हों तो उनकी सिलाई या रफू कर देना अच्छा होता है। अंग्रेजी की कहावत है कि समय पर लगाया हुआ एक टाँका नौ टाँके लगाने के श्रम और खर्च को बचाता है। पहिनने के कपड़ों के भी कालर पलटने, जेबें बदलने और अन्दर के अस्तर आदि ठीक करते रहना चाहिए।

मरम्मत—सुघड़ एवं समझदार महिलाएँ वस्त्रों को स्वच्छ, सुरक्षित रखने के साथ ही उनकी पूरी उपयोगिता प्राप्त करने का प्रयत्न करती हैं। ऐसा नहीं कि कोई वस्त्र थोड़ा सा फटा और उसे फेंक दिया। बल्कि बड़े वस्त्रों में से छोटों के लिए फटे, टूटे हिस्से निकालकर सिल दिए जा सकते हैं। छोटे कपड़ों जैसे कुरते में से बनियान, पजामा से अण्डर वियर, फुलपैंट से हाफ पेंट, कमीज से हाफ कमीज, बैड शीट से तौलिये, पर्दे, कुर्सी की गदि्दयों-सोफे की गद्दियों के खोल, धोतियों से लुंगी, अण्डरवियर, बनियान, साड़ियों में से फ्राॅक, ब्लाउज, खिड़की, अलमारियों के पर्दे आदि बनाकर पुराने कपड़ों का उपयोग करके आर्थिक बचत की जा सकती है।

यह सब बड़ा सरल है—यदि मन में उमंग हो, उत्तरदायित्व समझें तथा क्रियाशील रहें तो। अन्यथा आलस्य में पड़े रहने, पड़े-पड़े गन्दे उपन्यास पढ़कर या आस-पड़ोस की महिलाओं में निन्दा-चुगली की बातें करके जहाँ समय बरबाद किया जाता है, वहीं मन-मस्तिष्क, शरीर को भी अस्त-व्यस्त और विकृत कर लिया जाता है। आलसी आर्थिक संकट को भी स्वयं बुलावा देते हैं।

४. मकान—रोटी कपड़े के बाद मकान तीसरी अनिवार्य आवश्यकता है। उसका प्रबन्ध हर कोई किसी न किसी प्रकार करता ही है। पर उसकी साज-सम्भाल की जिम्मेदारी गृहणी पर ही आती है। कुशल गृहिणी अपने मकान को जहाँ साज-सम्भाल के साथ देव मन्दिर सरीखा बनाकर रखती है, वहीं फूहड़ गृहिणी का घर घूरे के समान अस्त-व्यस्त, मैला-कुचैला, ऊबड़-खाबड़ पड़ा रहता है। यह अन्तर केवल व्यवस्था बुद्धि का ही है अधिक कुछ नहीं।

स्वच्छता—मकान चाहे पक्का हो चाहे कच्चा, चाहे टूटा-फूटा पुराना अथवा नया यदि उसकी साज-सम्भाल, देख-भाल न रखी जाय, तो कितना भद्दा लगता है। मकान की पुताई कम से कम साल में एक बार तो करानी ही चाहिए इससे दीवालों के ऊपर के प्लास्टर की रक्षा होती है और सुन्दर भी दिखता है। कच्चे मकानों की लिपाई-पुताई और भी अधिक आवश्यक है। यदि उनकी एक वर्ष ही बरसात के बाद साज-सम्भाल, लिपाई, पुताई न की गई तो दूसरे वर्ष छीजन शुरू हो जायगी। समझदार लोगों के सुन्दर घर दूर से ही पहचान में आ जाते हैं। हनुमान जी जब लंका में सीताजी की खोज करने गए थे तो विभीषण की कुटिया स्वच्छता और शालीनता के कारण दूर से ही पहिचान में आ गई थी।

मकान की स्वच्छता—मनुष्य के चेहरे के समान ही है, इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर रखा जाना चाहिए। बाहर से मकान सुन्दर रंगा-पुता, स्वच्छ है तो कोई भी व्यक्ति मकान मालिक की शालीनता से प्रभावित होगा अन्यथा यदि दीवारें मैली-कुचैली हों, धूल चढ़ रही हो, मकड़ी के जाले लगे हों तो वह हर गुजरने वाले व्यक्ति से मकान में रहने वाले व्यक्ति के गन्दे-फूहड़ होने की चुगली करता रहता है। मकान को हमें बाहर लिपा-पुता, रंगा हुआ, महापुरुषों के चित्रों से सज्जित, साफ-सुथरा रखना चाहिए, आदर्श वाक्य दीवालों पर लिखना चाहिए। टट्टी, पेशाब स्नान घर, रसोई घर इनकी नियमित सफाई अत्यन्त आवश्यक हैं अन्यथा थोड़े ही समय में वहाँ बदबू, गन्दगी, फैलेगी और बीमारी का कारण बनेगी। पेशाब, घर, स्नान घर की सफाई न करने और उनमें काई जम जाने, चिकनाहट बैठ जाने के तो कई बार बड़े दुष्परिणाम उठाने पड़ते हैं। फिसलन से कई लोग गिरे पैर, हाथ की हड्डियाँ टूटीं और अनेकों कष्ट उठाने पड़े। इन्हें नित्य नियमित रूप से साफ करना चाहिए। रसोई घर भी यदि बराबर साफ न करते रहा जाय तो चारों ओर धुएँ की कालिख, मकड़ी के जाले, चिकनाहट आदि जमकर हानि पहुँचावेंगे। गन्दगी देखकर लोग हमारे आलस्य की निन्दा मन ही मन करते हैं। घर के कोने, जाले, धूल, चूहों के बिल, अलमारियाँ, खिड़कियाँ, रोशनदान आदि समय-समय पर साफ करते रहना चाहिए। चौके को नित्य नियमित कच्चा हो तो गोबर या पोतनी मिट्टी से और पक्का हो तो उसे धो-पोंछकर साफ रखना चाहिए।

मकान के बर्तनों की सफाई पर भी पूरा-पूरा ध्यान देना आवश्यक है। नित्य काम में आने वाले बर्तन अच्छी तरह राख, मिट्टी, सोडा, विम आदि से जैसी भी स्थिति हो साफ करते रहना चाहिए। यदि इसमें असावधानी रखी गई तो आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी दोनों प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती हैं। दूध के बरतन को साफ करने में थोड़ी भी सावधानी न बरती गई तो नया दूध फट जायगा इसी प्रकार अन्य वस्तुएँ भी खराब हो जाती हैं। गन्दगी से रोग कीटाणु भोजन के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और इस कारण सारे जीवन कष्ट उठाना पड़ता है। कभी-कभी काम आने वाले बर्तनों को भी समय-समय पर साफ करते रहना चाहिए। उठाकर प्रयोग करने से पहले उन्हें माँज-धो लेना चाहिए। रखे-रखे उनमें एक प्रकार की हरी सी काई सी एवं धूलि जम जाती है। इसलिए उन्हें साफ करना आवश्यक होता है। बरतनों को सम्भाल कर करीने से, तरीके से, सुन्दर ढंग से जमाकर इस तरह रखें कि देखने में सुन्दर दिखाई दें। कई कुशल महिलाएँ इस तरह सजाकर बरतन व क्राकरी को रखती हैं कि देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है। कड़ाही, बाल्टी, टब आदि साफ करके सुखाकर इस प्रकार रखें कि उनमें जंग न लग जाय।

बड़े बरतनों में बहुत पैसे लगते हैं, उन्हें बार-बार नहीं खरीदा जा सकता। उन्हें बड़ी सावधानी से रखना पड़ता है। न उन्हें घसीटना ही चाहिए और न इस प्रकार उठाएँ, रखें कि उनमें दचके पड़ जाय। बर्तनों को गिरने से बचाना चाहिए। धातु के बर्तन तो पिचक कर भद्दे हो जाएँगे किन्तु काँसे के व चीनी, काँच के बर्तन तो गिरने से टूट ही जाएँगे।

सामान उपकरण—पुस्तकें, फर्नीचर आदि भी हमारे ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सावधान करते रहते हैं। पुस्तकें तो थोड़ी सी असावधानी बरतने से बर्बाद हो जाती हैं। इन्हें चूहों, दीमक और कीड़ों से बचाने के लिए आवश्यक है कि समय-समय पर उनकी देख-भाल करते रहा जाय। आवश्यक हो तो धूप भी दिखा देना चाहिए। पुस्तकों की अलमारियों में गैमिक्सीन या डी०डी०टी० पाउडर या फिनायल की गोलियाँ भी डाल देनी चाहिए। पुस्तकों की सम्भाल के साथ उनकी मरम्मत भी हो सके तो कर लेनी चाहिए। पुस्तकें हमारी मार्ग दर्शक, अकेले का साथी संकट में सान्त्वना देने वाले वरिष्ठ संरक्षक की भाँति होती हैं। उनके प्रति उपेक्षा न बरतनी चाहिए।

यह सब कार्य गृहिणी अकेले ही कर ले यह सम्भव नहीं। उसका यह कर्तव्य है कि परिवार के अन्य सभी सदस्यों में भी स्वच्छता, व्यवस्था की बुद्धि उत्पन्न करें, उनके स्वभाव में लाये। बच्चों को अपने साथ-साथ काम में हाथ बँटाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। साथ ही इन सब की उपयोगिता भी काम करते—व्यवस्था बनाते समझायी जाय। यह सब कुशल गृहिणी बड़ी आसानी से कर सकती है। छुट्टी और अवकाश से समय मनोरंजन की तरह सफाई, टूट-फूट की मरम्मत आदि में अन्य लोगों का सहयोग लिया जा सकता है। इस तरह हँसते-खेलते मनोरंजन के साथ ये सब काम अत्यन्त सरलता से पूरे हो सकते हैं। इन सबका मूल मन्त्र है—उत्तरदायित्व की भावना और कर्तव्य बुद्धि को जागृत करना।

कहने की आवश्यकता नहीं कि कुशल गृहिणी अपनी तत्परता तथा परिवार के सदस्यों में उपयुक्त विवेक एवं सहयोग की वृत्ति जगाकर गृह व्यवस्था में इतना कुछ सुधार कर सकती है कि उसे चमत्कारी भी कहा जा सके। हर घर में ऐसी स्थिति पैदा हो, यह प्रयास किए जाना हर दृष्टि से शुभ है—कल्याणकारी है।