नष्ट और दुर्बल करने के लिए विरोध या आक्रमण आवश्यक नहीं। यह कार्य उपेक्षा से भी पूरी तरह सम्भव हो जाता है। भले ही इसमें कुछ देर लगती है। ध्वंस और आक्रमण का प्रतिफल तत्काल दृष्टिगोचर होता हैं। विरोध संघर्ष का प्रत्यक्ष और निन्दा चुगली का परोक्ष आक्रमण समयानुसार अपना परिणाम प्रस्तुत करता है। पर इसमें एक अच्छाई भी है कि सामने वाला सजग हो जाता है और आत्मरक्षा से लेकर प्रतिशोध, प्रत्याक्रमण तक के अनेकों उपाय सोचता है। इससे जागरूकता और सक्रियता के फलस्वरूप बहुत अंशों में आक्रमण से बचाव भी हो जाता है और आक्रमणकारी को निराश होना पड़ता है। आक्रमण और प्रत्याक्रमण का गतिचक्र दोनों ही पक्षों को निरुत्साहित करता हैं। फलतः हानि उतनी नहीं हो पाती जितनी सम्भव थी। आक्रमण प्रत्याक्रमण से जो अन्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, वे समझदारी अपनाने के लिए दबाव डालती है और क्रुद्ध उत्तेजित व्यक्ति अन्ततः निराश और शिथिल होकर दूसरा रास्ता अपनाने और इस कुचक्र से पीछा छुड़ाकर अन्य आवश्यक समस्याओं को सुलझाने में लग जाते हैं।
सहयोग का प्रतिपक्षी है-विद्वेष। एक सौम्य होने से साधारण लगता है और दूसरा उत्तेजक होने के कारण उभर कर ऊपर आ जाता है। इतने पर भी विवेक अपना काम करता है और लोग देर सबेर में समझ ही जाते है कि सृजन की उपलब्धियाँ ही काम आती हैं। ध्वंस से तो जी की जलन भर ठण्डी होती है। वह ठण्डक भी देर तक ठहरती नहीं। उस प्रयास में जो खोया वह इतना मँहगा होता है कि उद्दण्डता स्वयं ही पछताती है और आत्म प्रताड़ना की आग में जलती हैं। इस प्रकार ध्वंस यदा-कदा आवश्यक होने पर भी सब मिलाकर हानिकर ही सिद्ध होता है। अहित के लिए ही नहीं आक्रान्ता के लिए भी।
विनाश लीला की एक और सहेली है-उपेक्षा। यह भोली बनी एक कोने में बैठी रहती है। अपनी दुरभिसंधियों का किसी को पता भी नहीं चलने देती। प्रकट में उसका कोई कुकृत्य सामने भी नहीं आता। फलतः बचने-बचाने की सावधानी बरतने की आवश्यकता भी नहीं समझी जाती। उसकी भर्त्सना भी नहीं होती। जिसकी हानि ही न समझी जाय उससे बचने का प्रयत्न भी कोई क्यों करेगा? अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ अपना व्यवसाय इसी रूप में चलाती हैं। वे मनुष्य के विचार, स्वभाव और व्यवहार में धीरे धीरे घुसती चली जाती है और एक आदत के रूप में व्यक्तित्व का अंग ही बन जाती हैं।
आहार विहार का असंयम इसी स्तर का है-आलस्य प्रमाद को भी इसी श्रेणी में सम्मिलित रखा जा सकता है। अपव्यय, सजधज, व्यसन, कुसंग जैसे कितने ही दुर्गुण ऐसे है जो धीरे धीरे अभ्यास में आते रहते है और चेतना पर पूरी तरह कब्जा जमा लेते है। नशेबाजी जैसी घातक आदत धीरे धीरे पड़ती है और परिपक्व बनने पर आवश्यकता ही नहीं विवशता बनकर दिमाग पर छाई रहती है। यह सब होता कैसे है? इसका इतिहास एक ही है-दुर्गुणों की उपेक्षा। उनकी हानि पर ध्यान न देना और विष-बेल के उगते ही उसके उन्मूलन का प्रयत्न न करना। बीमारियाँ भी इस क्रम से शरीर में घुसती हैं, घुन की तरह उसे भीतर ही भीतर खोखला करती हैं, प्रकट तब होती है जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है। सद्गुणों के सम्बन्ध में बरती जाने वाली उपेक्षा ही मनुष्य को पिछड़ी स्थिति में पड़े रहने की जिम्मेदार है। कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सम्वर्धन की ओर जागरूक रहने लगे और उन प्रयत्नों में रस लेने लगे तो इतने भर से उसका शरीर दुर्बलता और रुग्णता से पिण्ड छुड़ा कर बलिष्ठ दीर्घजीवी बन सकता है। अध्ययन में रस आने लगे तो व्यस्त व्यक्ति भी जैसे तैसे उसके लिए अवसर निकालता रह सकता है और अन्ततः अन्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विद्वान बुद्धिमान बन सकता है। अवसर न मिलने का का बहाना विशुद्ध रूप से आत्म प्रवंचना है। जिस भी काम में रस आने लगेगा उसके लिए न केवल समय मिलेगा वरन् सोचने और करने के लिए भी सुविधा मिलेगी। साथ ही साधन भी जुटते चलेंगे।
प्रगतिशील लोगों की सफलता पर गम्भीर दृष्टिपात किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उत्कर्ष का बीजारोपण अभीष्ट प्रयोजन से रस लेने से आरम्भ हुआ था और तत्परता बरतने भर से सहयोग मिलने और साधन बनने के आधार खड़े होते चले गये। पिछड़े लोगों के दुर्भाग्य का पर्यवेक्षण करने पर भी प्रायः यही निषेधात्मक पक्ष सामने आता है। उनके पास भी समर्थता एवं परिस्थिति में कमी नहीं थी। न साधनों का अभाव था न अवसर की कमी। कठिनाई एक ही रही कि सच्चे मन से न प्रगति की आवश्यकता समझी गई और न तत्परतापूर्वक उसकी चेष्टा की गई। फलतः पिछड़ापन लदता चला गया। साधन एक-एक करके समाप्त हो गए और दरिद्रता का दुर्भाग्य जड़ जमाकर बैठ गया।
लकड़ी को घुन, शरीर को विषाणु, धन को दुर्व्यसन, यश को दुराचरण नष्ट करता है। मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने में उस उपेक्षा वृत्ति का सबसे बड़ा हाथ रहता है जो न तो अवांछनीयता को पहचानने और न उसे हटाने में तत्परता प्रदर्शित करती है। सौभाग्य आकाश से नहीं टपकता, वह प्रयत्नपूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। साधना से सिद्धि का सिद्धांत सौभाग्य के देवता का अनुग्रह उपार्जित करने में पूरी तरह लागू होता है। साधना का अर्थ जागरूकता तत्परता और सद्भावना के समन्वय से बनने वाली श्रद्धा है। जहाँ श्रद्धा है वही साधना है। जहाँ साधना होगी वहाँ आज नहीं तो कल सिद्धि को जा पहुँचने के लिए विवश होना पड़ेगा। इन तथ्यों की जब तक उपेक्षा होती रहेगी मनुष्य को इतनी हानि उठानी पड़ेगी जितनी आक्रमण या ध्वंस के रूप में आने वाले संकटों से भी नहीं होती।
परिवार संस्था की प्रस्तुति दुर्गति के मूल में यही एक विडम्बना काम करती है और विभीषिका के रूप में परिणत होती देखी जा सकती है। शरीर के बाद जीवनयापन की दूसरी व्यवस्था परिवार के साथ ही जुड़ी हुई है। घर परिवार को दूसरा शरीर कहा गया है। एकाकी जीवनयापन तो बहुत छोटे दर्जे के कृमि कीटक ही कर पाते हैं। अन्यथा हर विकसित प्राणी को सहयोगी जीवन पद्धति पारिवारिकता अपनानी पड़ती है। चींटी, दीमक, मधुमक्खी, टिड्डी जैसे छोटे कीड़े अपनी निर्वाह प्रक्रिया सहकारिता के आधार पर चलाते हैं। पशु पक्षियों में तो वह और भी अधिक विकसित होती जाती है। मनुष्य की वरिष्ठता का तो एकमात्र कारण यह सहकारी प्रवृत्ति ही है जिसके कारण पारस्परिक आदान-प्रदान सम्भव हुआ और उपलब्धियों की परम्परा से पीढ़ियाँ अधिकाधिक लाभान्वित होती चली गई।
बुद्धिमत्ता उपार्जन है, सहकारिता बीजारोपण। इस सहकारिता का जो प्रयोग मनुष्य को सबसे अधिक प्रभावित करता है वह परिवार संस्था के अन्तर्गत चलने वाला सहकारी जीवन ही है। शरीर के विभिन्न अवयव अपनी-अपनी विशेषता और क्रियाशीलता से जीवन को समर्थ और समृद्ध बनाने में योगदान देते हैं। ठीक इसी प्रकार परिवार में चलने वाली विभिन्न प्रवृत्तियों के फलस्वरूप गृहपति का ही नहीं उस परिवार में रहने वाले पूरे समुदाय का निर्वाह क्रम चलता और भविष्य निर्धारण भी होता है। महत्त्व की दृष्टि से शरीर के बाद दूसरा नम्बर परिवार का ही आता है। यहाँ एक बात बार-बार ध्यान रखने योग्य है कि परिवार का अर्थ अंश-वंश के लोगों का जमघट मात्र ही नहीं वरन् वह व्यवस्था है जिसमें जीवन निर्वाह की प्रक्रिया मिलजुल कर चलाई जाती है। गुरुकुलों एवं आरण्यकों को भी परिवार प्रक्रिया का ही सुविकसित अंग माना गया है, यों छावनियों और सरायों को भी एक दृष्टि से इसी व्यवस्था में सम्मिलित कर सकते हैं।
शरीर यात्रा के लिए आवश्यक साधन जुटाने में लोग प्रयत्नशील रहते हैं। परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करने का प्रयत्न भी होता ही है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इन दोनों को ही समर्थ और उत्कृष्ट बनाने के लिए न तो आवश्यक जागरूकता ही बरती जाती है और न तत्परता। फलतः शरीर जैसा बहुमूल्य यंत्र दुर्बल और रुग्ण बना रहता है। जितनी सेवा संभव थी उतनी कर नहीं पाता। टूटी-फूटी स्थिति में रोता कलपता दिन गुजारता और अकाल मृत्यु के मुख में धँस जाता है। यही दुर्गति परिवार की भी होती है। व्यवस्था की दृष्टि से कुरूपता, गन्दगी, बर्बादी, विशृंखलता का दौर छाया रहता है।
भावना की दृष्टि से स्वार्थों का थोड़ा सा तालमेल भर जिस तिस में दीखता है शेष को बाड़े में बन्द भेड़ों, जेल में बन्द कैदियों या सराय में पड़े हुए मुसाफिरों की तरह अपना समय गुजारना पड़ता है। ना सहयोग न सद्भाव। न विचार-विनिमय का आदान प्रदान। आपाधापी ही सिर पर चढ़ी रही और सबको अधिक पाने की ही धुन सवार हो, सींचने सँजोने का काम एक दो बार ही छोड़ा जाय और अन्य सब उसमें से अधिक पाने या उपेक्षा बरतने में ही अपना लाभ समझें तो निश्चय रूप से वह संस्थान नीरस और निष्फल ही बना रहेगा। न उत्साह दृष्टिगोचर होगा न उल्लास। न समृद्धि बढ़ेगी और न प्रगति सम्भव होगी।
शरीर की महत्ता समझी गई होती और परिवार की गरिमा को ध्यान में रखा गया होता तो इन दोनों ही बहुमूल्य तन्त्रों की उपेक्षा का शिकार न होना पड़ता। उत्तेजना गरम आग है और उपेक्षा ठण्डी। अत्यधिक गर्मी की तरह अति शीतता भी समान रूप से विनाशकारी होती है। आवश्यक नहीं कि पौधे को उखाड़ फेंकना ही आवश्यक हो। उसे खाद पानी न देने, सर्दी-गर्मी से न बचाने एवं पशु पक्षियों द्वारा नष्ट किये जाने की सुरक्षा न रखने पर भी पौधा अपनी मौत मर जायेगा यह अहिंसक हिंसा है जिसका दूसरा नाम उपेक्षा भी है।
विनाश के मूलभूत कारणों में ध्वंस और आक्रमण की भूमिका भी कम नहीं, पर यह ध्यान रखने योग्य है कि उद्दण्डता जब तब ही आँधी तूफान की तरह आती और चली जाती है। निरन्तर की हानि स्थाई प्रदूषण से ही होती है। उपेक्षा वह विषाक्तता है जो क्रमशः नस नाड़ियों में प्रवेश करती है और सम्बद्ध सभी घटकों को मूर्छित एवं विकृत बनाकर रख देती है। संसार के हर क्षेत्र में प्रकृति की असीम सम्भावना विद्यमान है। यदि तत्परता और जागरूकता का सहारा कुछेक लोगों ने ही नहीं जन साधारण ने भी लिया होता तो जो कुछ सामने है उसमें असंख्य गुना वैभव मनुष्य को उपलब्ध हो गया होता।
विनाश और व्यवधान के कारण भी अनेक हैं उनके द्वारा उत्पन्न की जाने वाली अड़चनें भी अगणित हैं। उनके कारण जो हानियाँ उठानी पड़ी हैं उसका विवरण भी बढ़ा चढ़ा है। किन्तु यह ध्यान रखने योग्य है कि प्रगति का अवरोध और अवगति का निर्धारण करने में उपेक्षा ने जितनी क्षति पहुँचाई है, उसकी तुलना में समस्त अवरोध मिलकर भी तुच्छ बैठते हैं।
जहाँ तक परिवार संस्था का सम्बन्ध है उन्हें शरीरों की तरह ही उपेक्षा के गर्त में गिरना और अनेकानेक विपत्तियों, विकृतियों का शिकार बनना पड़ा है। लोग इतने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं कि उनने कुटुम्बियों के लिए कितनी मात्रा में सुख साधन जुटाया और उत्तराधिकार में कितना धन वैभव छोड़ा। यह भयंकर भूल है। इस प्रयास में प्रयत्नकर्ताओं का तो कचूमर निकलता ही हैं, कुटुम्बियों को भी उस अनौचित्य को स्वीकार करने पर अपनी पवित्रता, प्रतिभा और प्रखरता से हाथ धोना पड़ता है। लाड़-दुलार में पलने वाली अमीरों की सन्तान तथा निर्धन परिवार में पले लोगों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो प्रतीत होगा कि व्यक्तित्व की दृष्टि से सम्पन्नता ने ही हानि पहुँचाई है विपन्नता ने नहीं। भोजन अपने परिश्रम से ही पचता है। वैभव भी उतना ही हजम होता है जितना कि अपने निज के पराक्रम पुरुषार्थ से कमाया गया हो। परिवार को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नरत मनुष्यों को यदि इतनी समझ और भी रही होती तो कितना अच्छा होता कि सुसंस्कारिता ही मानव जीवन की चिरस्थाई और कल्याणकारी सम्पदा हैं।
परिवारों की उपेक्षा उस अर्थ में होती रही है कि उनमें सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न करना न तो आवश्यक समझा जाता है और न उसके लिए प्रयत्न किया जाता है। जिस सन्दर्भ में जागरूकता बरती जायेगी उसकी अभिवृद्धि होगी और जिसकी उपेक्षा होगी उसकी क्रमशः अवनति ही होती जायेगी। परिवार निर्माताओं ने जाने या अनजाने में दुष्प्रवृत्तियों का वातावरण बनाया है फलतः उन्हें फलते-फूलते देखा जा सकता है। हर कुटुम्ब दोष-दुर्गुणों का भण्डार बनता जा रहा है। उसमें श्रेय उस नीति को है जो परिवार निर्माताओं द्वारा अपनाई गई है। जहाँ तहाँ ऐसे भी कुटुम्ब दीख पड़ते हैं, जिन्हें धरती पर स्वर्ग के अवतरण का दृश्य कह सकते हैं। नररत्नों की खदानें पहले भी समुन्नत परिवारों में ही दृष्टिगोचर होती थी और अभी भी वैसे ही उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। इस अन्तर का मूलभूत कारण एक ही है कि सुसंस्कारिता की उपयोगिता आवश्यकता समझी नहीं गई और उसके लिए चेष्टा भी नहीं हुई। फलतः सद्भावना सम्पन्न शालीनता के दर्शन भी दुर्लभ हो रहे हैं जिसमें गृहपति समेत अन्य सभी परिजनों की उल्लास भरी मनःस्थिति और प्रगतिशील परिस्थिति का लाभ मिलता। प्राचीनकाल में मनुष्यों की काया में देवत्व की झाँकी मिलती थी। आज भी उसकी पुनरावृत्ति पूर्णतया सम्भव है। शर्त एक ही है कि सम्पन्नता की ही तरह शालीनता का भी महत्त्व समझा जाय और उसके अभिवर्धन का भी वैसा ही प्रयत्न रुचिपूर्वक किया जाय जैसा कि सुविधा साधन बढ़ाने के लिए किया जाता है। परिवारों को स्वर्गोपम बनाना हो उनमें देव समुदाय को लीला विहार करते देखना हो तो उस क्षेत्र में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का उत्पादन करने के लिए कटिबद्ध होना होगा। इस सन्दर्भ में बरती जाने वाली उपेक्षा तो अविलम्ब समाप्त करनी होगी।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
जो समर्थ हैं उन्हें सहायता देना उचित है ताकि साधनों के अभाव में जो प्रगति रुकी पड़ी थी उसका पथ प्रशस्त हो सके। समुन्नत व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे दूसरे पिछड़े हुए व्यक्तियों को ऊँचा उठाने के लिए साधन उपलब्ध करें और वह प्रकाश भरी प्रेरणा प्रदान करें, जिससे निराशा और अवसाद की मनःस्थिति को साहस एवं उत्साह का जन जीवन मिल सके। ऐसी सहायता करना किसी समर्थ व्यक्ति की उदारता का चिन्ह है, दूसरे शब्दों में इसे महानता की प्रतीति भी कह सकते हैं। यह उदार सहकारिता समाज को स्वस्थ परम्परा प्रस्तुत करती है और हर सामर्थ्यवान को यह उद्बोधन करती है कि सफलताओं का लाभ अपने तक ही सीमित न रखा जाय वरन् उससे उन्हें भी लाभान्वित होने दिया जाय जो उचित मार्ग दर्शन एवं सहकार के अभाव में गई गुजरी स्थिति में पड़े हुए दिन काट रहे हैं। यह उदारता की सद्भावना का उज्ज्वल पक्ष हुआ।
दान वृत्ति का एक अँधेरा पक्ष भी है। वह यह कि कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होने की स्थिति में रहने पर भी श्रम और मनोयोग का उपयोग करने में आलस्य, प्रमाद बरते, काम से जी चुराये, मेहनत से कतराये और दूसरों के कन्धों पर लदकर सुविधाएँ प्राप्त करते रहने का प्रयास करे। यह बुरी बात है। इसे भिक्षावृत्ति के हेय नाम से पुकारा जाता है। किसी समर्थ व्यक्ति के लिए इससे अधिक अपमान की बात दूसरी नहीं हो सकती कि वह स्वयं निर्वाह कर सकने की क्षमता सम्पन्न होते हुए भी गुजारे के लिए दूसरों के सामने हाथ पसारे, ऐसा परावलम्बन उन्हें ही स्वीकार हो सकता है जो आत्म सम्मान खो चुके हों।
अहर्निश परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तियों की सम्मानपूर्वक निर्वाह व्यवस्था करना विज्ञ समाज का कर्तव्य है सो किया भी जाता है। लोकसेवी साधु ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक ब्रह्मभोज एवं दान दक्षिण की व्यवस्था जनता चिरकाल से करती रही है, किन्तु वह लाभ जब वैसा ही वेष बनाकर व्यक्तिवादी जीवन जीने वाले मुफ्तखोर लोग प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो इससे भ्रष्टाचार पनपता है। जो बिना उचित बदला चुकाये प्राप्त किया गया है वह स्पष्टतः अनधिकार है, अग्राह्य है। मुफ्तखोरी को चारित्रिक भ्रष्टता का पापाचार माना जाना चाहिए। भले ही उसे अपनाने वाले किसी भी वेष या वंश के लोग क्यों न हों।
मुफ्तखोरी को प्रोत्साहन देना उस उद्देश्य से सर्वथा विपरीत है जो उदार दानवृत्ति से साथ जुड़ा हुआ है। सहायता इसलिए दी जानी चाहिए कि प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए उन साधनों की उपलब्धि हो सके, जिसके बिना पिछड़े हुए व्यक्ति को विकास की दिशा मे कदम उठा सकना शक्य नहीं हो रहा था, दान का उपयोग बीज बोने की तरह किया जाना चाहिए जिसका प्रतिफल बहुमुखी प्रगति एवं समृद्धि के रूप में देख जा सके।
जो सर्वथा अपंग हैं जिनकी समस्त उपार्जन क्षमताएँ समाप्त हो गई, उन्हें जीवित रहने के लिए समाज की उदारता पर निर्भर रहने का अधिकार है। उस असमर्थ व्यक्ति को करुणापूर्वक निर्वाह मिलना चाहिए। किन्तु इससे आगे बढ़ने वाली भिक्षावृत्ति को सर्वथा निरुत्साहित किया जाना चाहिए। प्रकृति ने जिन्हें बाधित बनाया, मनुष्य का कर्तव्य है कि उस बाधा पर विजय प्राप्त करने के लिए उन्हें पुरुषार्थ का अवसर दे। अपंगों को, अविकसितों को, पिछड़े हुओं को ऐसा सहकार मिलना चाहिए, जिसके आधार पर वे काम करके उपार्जन की क्षमता एवं सुविधा प्राप्त कर सकें। इसके लिए श्रम संस्थाएँ एवं उद्योग ग्रहों की स्थापना होनी चाहिए।
सस्ती भावुकता के साथ प्रदर्शित की गई दानशीलता कई बार पुण्य के बदले भयंकर पाप जैसा दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। अपने को लोगों की दृष्टि में पुण्यात्मा प्रदर्शित करने के लिए कितने ही दानशीलता के पाखण्ड रचते हुए अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं। दंभ, प्रदर्शन और अहंकार की पूर्ति के सस्ती विज्ञापन बाजी जैसी भ्रष्ट दानशीलता का ही आज बाहुल्य है। धर्म के नाम पर ऐसी ही विडम्बनाएँ चलती रहती हैं। इसका परिणाम एक ही होता है अकर्मण्यता और परावलम्बन का अभिवर्धन। प्रकारान्तर से यह प्रवृत्ति समाज और व्यक्ति के लिए अभिशाप ही सिद्ध होती है। भिक्षुक ने निर्वाह के लिए कुछ प्राप्त करके जो लाभ उठाया उसकी तुलना में आत्म गौरव खोने तथा परोपजीवी निष्क्रियता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ओढ़ लेने की हानि भी तो उठानी पड़ी। वस्तुतः यह हानि इतनी बड़ी है जिसकी तुलना में भिक्षा से मिला लाभ नगण्य ही समझा जाना चाहिए।
वातावरण ऐसा बनाया जाना चाहिए जिसमें भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन न मिले। आज के भिक्षुकों में अधिकाँश ऐसे है, जो यदि चाहें तो प्रसन्नता पूर्वक उपार्जन कर सकते और स्वावलम्बी सम्मानित जीवन जी सकते हैं। उन्हें भिक्षा माँगने की आदत इसलिए हो जाती है कि उथली भावुकता, दम्भी अहंकारिता और धर्मध्वजी बनने की प्रदर्शन प्रियता कहीं न कहीं अपना पैसा बिखेरेगी ही। उसे कोई तो लेगा ही। अतः आलसी उस दान वृत्ति के लिए बढ़कर आगे आ जाते हैं और हाथ पसार कर उन धर्म दम्भियों की मनोकामनापूर्ण करते हैं जो कुछ ही पैसे देकर सस्ती स्वर्ग की टिकट खरीदने के लिए आतुर फिरते रहते हैं। वे यह भूल जाते है कि जिन्हें दान दिया जा रहा है उन्हें मुफ्तखोरी की बुरी आदत लगाने और स्वाभिमान बेचकर आत्मिक पतन के गर्त में धकेलने का कितना बड़ा उपहास उनके साथ किया जा रहा है। उथली दानशीलता यदि दूरदर्शी विवेक में रहती और इन समर्थ भिक्षुकों को निराश रहना पड़ता तो सम्भवतः इनमें तीन चौथाई लोग अपने स्वावलम्बी उपार्जन की समस्या हल कर चुके होते। ऐसा नहीं बन पड़ा इसका एक कारण जहाँ भिक्षुकों की आत्म हीनता को कारण माना जायेगा वहाँ इन सस्ते दानवीरों को भी कम दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
अहंकारवश या उदारता का बड़प्पन सिद्ध करने वालों की तरह बिना सोचे समझे दान देने वालों का वर्ग अन्ध श्रद्धालु कहा जा सकता है। दान पुण्य करना धर्म है, दरवाजे आये भिखारी को खाली हाथ लौटने देना पाप है, आदि की मान्यता रखने वाला कम पढ़ा लिखा और अशिक्षित आदमी धर्म मानकर भी देश काल पात्र का विचार किये बिना दानी बनने लगता है। भगवद्गीता में प्रत्युपकार की भावना से रहित होने के साथ देश काल पात्र का विचार कर दान देने की बात कही गयी है। किस समय में कैसे व्यक्ति को, किस स्थान पर दान देना चाहिए, दान को धर्म स्तर का बनाये रखने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि यदि कुपात्र को हर कहीं और हर कभी देता रहा जाय तो दाता का गौरव और धन तो घटता ही है, जिसे दिया जाता है उसका भी पतन होता है। जैसे कोई व्यक्ति मदिरालय के सामने खड़ा है, भिक्षा पात्र को इसलिए फैलाये खड़ा है कि इसमें कुछ दिया जाय और जो पैसा मिले उससे मद्यपान का व्यसन पूरा हो। अहंकार को तुष्ट करने अथवा अन्ध श्रद्धा से प्रेरित होकर ऐसी स्थिति में देने वाले का दान कभी सत्प्रयोजनों में नहीं लगता। समाज के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही यदि दान का अर्थ है तो यह कैसी कृतज्ञता जो समाज के दूसरे सदस्य को पतन की ओर धकेल दे।
भीख माँगने वाला दी गयी भीख का उपयोग किन कार्यों में करता है, यह जाने बिना केवल अहंकार की पूर्ति के लिए ही कुछ दिया जाता है तो वह तामसी दान या निकृष्ट स्तर का कृत्य सिद्ध होता है। असाहयावस्था में सचमुच इसी आधार पर अपना निर्वाह करने के लिए विवश लोगों को कुछ दिया जाय, वहाँ तक तो बात समझ में आती है। लेकिन आज कल भिक्षा का एक व्यवसाय सा ही चल पड़ा है और उसमें पात्र को पहचान पाना भी एक कठिन समस्या है। मानवी स्वाभिमान की प्रेरणा यह है कि हर व्यक्ति अपनी जीविका स्वयं कमाये। जो विवश हैं उनकी बात को जाने दें, तो भी भिक्षा को निर्वाह का एक आसान उद्योग मानकर चलने वालों की संख्या बहुत बड़ी है।
भिक्षाजीवियों में सर्वप्रथम तो साधु बाबा आते हैं। जिनके रूप में आबादी का एक बड़ा हिस्सा भिक्षाजीवी है सब के सब कोई उपयोगी श्रम किये बिना सर्वसाधारण की अन्ध श्रद्धा का लाभ उठा कर ही शक्कर खाते हैं। समाज का यदि कुछ काम कर रहा होता तो यह वर्ग अपना सारा समय और श्रम जन हित में लगाता। यदि सभी साधु बाबा ऐसा करते तो उनके निर्वाह का दायित्व समाज द्वारा उठाना भी उचित था, पर कहीं मन्दिर में तो कहीं मठ में, कहीं आश्रम में तो कहीं अखाड़े में अपने चेले और भक्तों की संख्या बढ़ाने के लिए भी इतनी आतुरता इसलिए है कि अधिक मौज मजे का जीवन व्यतीत किया जा सके।
उनहत्तर करोड़ की आबादी वाले अपने इस देश में १५० लाख भिक्षुक हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या यदि किसी उत्पादक कार्य में लगे तो अपने देश का नया कायाकल्प हो सकता है। उत्पादन बढ़ने से लेकर कृषि के उन्नत होने की सम्भावनाएँ बन सकती हैं। कुछेक लोग सचमुच विकलांग हो सकते हैं जिनका जीवन समाज के अन्य सदस्यों की उदारता पर निर्भर है। पर वैसे लोगों की संख्या नगण्य है। कोई उस स्थिति में होता भी है तो स्वाभिमान के विरुद्ध मानकर भिक्षावृत्ति को अपनाने के लिए तुरन्त निश्चय नहीं कर लेता, इस आधार पर करीब-करीब दिखाई देने वाले सभी भिक्षुकों को भिक्षा व्यवसायी कहा जा सकता है।
महानगरों में तो कई ऐसे गिरोह भी पकड़े गये हैं जिनका काम केवल बच्चे उड़ाना और उन्हें लूले लँगड़े बना कर उनसे भिक्षा मँगवाना है। कितने ही अपराधी और असामाजिक व्यक्ति भी अपने आपको छुपाने के लिए इस भीड़ का सहारा लेते हैं। इस प्रकार भिक्षा व्यवसाय कोई साधारण समस्या न रह कर विकट प्रश्न बन गया है। इस व्यवसाय में लगे व्यक्तियों से कुछ कहने की उतनी गुंजायश नहीं है, जितनी कि उन्हें प्रोत्साहन देने वालों से। चोर, डाकू तो अपने कामों में लगे ही रहते हैं, जन स्तर पर उन्हें परास्त करने, सीधी राह पर लाने की व्यवस्था भी बनायी जा सकती है। जो लोग अवांछनीय क्रिया कलापों द्वारा फायदा उठाने की प्रवृत्ति अपना चुके होते हैं और उन्हें इस रास्ते पर जितना निर्बाध लाभ दीखता है, यह वृत्ति इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी होती है कि उन परिस्थितियों में समझाने बुझाने से ही सही रास्ते पर आ जाने की आशा पूरी होना मुश्किल है। उससे अधिक आसान यह है कि उन द्वारों को ही बन्द किया जाय जिनसे उन्हें प्रोत्साहन मिलता है। उन रास्तों की नाकेबन्दी करना अधिक सहज है, जिन पर वे बेधड़क चले जाते हैं। और भिक्षा व्यवसाय को तो लोग इतना अधिक अवांछनीय समझते भी नहीं हैं, फिर भी इतनी विराट् जनशक्ति का निष्क्रिय, लुंज-पुंज और निर्जीव ही बने रहना वस्तुतः एक विकट समस्या है।
कहा और समझाया जाना उन्हीं लोगों को चाहिए जो दान और पुण्यात्मा बनने के फेर में भिखारियों की संख्या बढ़ाते रहते हैं। इस व्यवसाय में लगे लोगों को जब तक अपना धन्धा लाभदायक और आसान प्रतीत होता रहेगा तब तक उनकी संख्या में कमी नहीं आ सकती। दो चार लोग मान भी जायें तो उससे क्या होता है? इस धन्धे में प्रवेश करने वाले नये लोग संख्या को पूरा कर देंगे। अतः दानी और उदार बनने से पहले यह विचार करना चाहिए कि जो हम दे रहे है वह सार्थक हो रहा है क्या? गम्भीरता पूर्वक विचार के बाद अधिक सम्भावना इसी निष्कर्ष पर पहुँचने की होगी कि निरर्थक ही नहीं अनर्थक भी जा रहा है।
अतः बेहतर यह है कि भिक्षा देना ही बन्द कर दिया जाय। सचमुच जो लोग असहायावस्था में हैं उन्हें भी सहायता व्यक्ति माध्यम से नहीं समाज के माध्यम से मिले। गाँव में जितने घर अपने द्वार आये भिखारियों को भिक्षा देते हैं उसे तत्काल रोक दें और किसी मन्दिर में या किसी मस्जिद में ऐसी व्यवस्था बना दे कि अपात्र या कुपात्र व्यक्ति उससे जरा भी अनुचित लाभ न उठा सके और सही अर्थों में जरूरतमन्दों को उनका उचित भाग मिलता रहे।
दान का श्रेष्ठतम स्वरूप तो यह है कि स्थूल सहायता की अपेक्षा व्यक्ति को अपने पैरों के बल कठिनाइयों को पार करने का रास्ता दिखाया जाय। इसे सत्परामर्श या ज्ञानदान भी कहा जा सकता है। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ स्थूल सहायता का स्वरूप समाज के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए ही बनाया जाय। दान को सही अर्थों में ग्रहण करने, समझने की आवश्यकता है। यह तो धर्म का एक अंग है पर अति और अन्ध श्रद्धा मिल कर उसका स्वरूप विकृत कर देते हैं। आवश्यकता है उसे परिष्कृत करने की।
पूजा, उपासना करते हुए स्वर्ग मुक्ति का लाभ उठाने की प्रक्रिया विशुद्ध व्यक्तिवादी है। अपने लिए लाभ उठाने में निरत लोग अपने निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर करे, यह बड़ी अजीब बात है। जब किसान, दुकानदार, शिल्पी अपने उपार्जन भर निर्वाह करते है तो कोई भजनानन्दी ही भिक्षा पर निर्भर क्यों रहे? प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मणों की परम्परा अलग थी वे भजन भी करते थे, पर साथ ही लोक मंगल के लिए इतना अथक श्रम करते थे जिसका मूल्य उन्हें दी गई भिक्षा से हजारों गुना अधिक होता था, पर आज तो वैसा कुछ नहीं होता। ऐसी दशा में केवल वेष या वंश के आधार पर भिक्षा माँगने या देने की बात किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं रह जाती।
उदारता की सत्प्रवृत्ति को जीवित रहना चाहिए। सेवा, सहकार और दान परम्परा को पूरा प्रोत्साहन मिलना चाहिए ताकि समर्थता को गौरवान्वित होने का अवसर मिले, पिछड़े लोग ऊँचे उठें और मानवीय सहयोग की पुण्य परम्परा का अधिकाधिक पोषण सम्भव हो सके। समाज से पिछड़ापन दूर करने के लिए भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के विविध क्रिया कलापों का अभिवर्धन होना चाहिए और उसमें धनी एवं निर्धन हर व्यक्ति को सहयोग देना चाहिए। यह सब विवेकशीलता और दूरदर्शिता के साथ होना चाहिए। दान का परिणाम मानवी सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में आना चाहिए। असमर्थता को सकरुण सहयोग मिलना चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि हम अविवेकी भावुकता से ऊपर उठकर उदार दानशीलता का महत्त्व समझ सकने योग्य बन सके।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
73. उत्कृष्टता की स्थापना हेतु ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शरीर की संरचना की दृष्टि से मानव प्राणी अन्य जीवधारियों में से कितनों से ही पिछड़ हुआ है। कितनी ही ऐसी विशेषताएँ क्षुद्र जीवों में पाई जाती हैं, जिनके सौभाग्य से आदमी को वंचित ही रहना पड़ता है। प्रकृति प्रकोपों को अन्य प्राणी जितना सह सकता है उतना मनुष्य के लिए शक्य नहीं। उसे परिधान पहनने और आच्छादन ढूँढने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है, जबकि जीवधारियों में से असंख्यों को इसके बिना ही काम चलाते देखा जा सकता है। बुद्धिमत्ता की विशेषता ने ही उसे सुविधा-साधनों से भरा पूरा, प्रगतिशील और प्राणी जगत का मुकुटमणि बनाया है। यह बुद्धिमत्ता उसकी स्व उपार्जित है। आदर्शवादी सद्भावनाओं का ईश्वर प्रदत्त अनुदान ही उसे सहकारी उदार जीवन जीने की प्रेरणा देता रहा है और उसी आधार पर उसने क्रमिक विकास के मार्ग पर अग्रसर होते हुए बुद्धिमत्ता पाई है।
मानवी मौलिक विशिष्टता को अन्तरंग जीवन में उत्कृष्टता और बहिरंग क्षेत्र में शालीनता कहते हैं। इन्हीं दोनों को संस्कृति एवं सभ्यता के नामों से जाना जाता है। पुरातन भाषा में उत्कृष्ट चिन्तन को, संस्कृति को, अध्यात्म एवं उदार सहकारिता को, सद्व्यवहार को धर्म कहते हैं। वैसे इन दोनों को तत्त्वज्ञान, नीतिशास्त्र, ब्रह्म विद्या, धर्म धारणा आदि नाम भी दिये जाते रहे हैं। यदि इस सत्प्रवृत्ति का अभाव रहा होता तो मनुष्य प्राणी अपनी दुर्बल शारीरिक संरचना के कारण प्रकृति संघर्ष में कब का हार गया होता। जब महागज, महासरीसृप, महाव्याघ्र जैसे विशालकाय प्राणी अपने अस्तित्व की रक्षा न कर सके और प्रागैतिहासिक काल की गाथा मात्र बनकर रह गये तो निश्चय ही मनुष्य की दुर्बल काया कब की इस धरती से तिरोहित हो गई होती। बुद्धिमत्ता ने ही उसे जीवित और प्रगतिशील रखा है। इस तथ्य को वन्य क्षेत्र में रहने वाले पशु परम्परा अपनाये हुए मनुष्य की पिछड़ी स्थिति को देखते हुए आज भी जाना जा सकता है। सदाशयता ही वह विशेषता है, जिसने चिन्तन और चरित्र को ऊँचा उठाने और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचने के वरदान उपलब्ध कराये हैं।
उत्कृष्टता का पक्षधर तत्त्वदर्शन और नीति निर्धारण ही अध्यात्म है। इसी को भौतिक व्यवस्था के सन्दर्भ में राजतन्त्र और आत्मिक निर्धारण के सम्बन्ध में धर्मतन्त्र कहा गया है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसे दुर्बल होने दिया जाय। राजतन्त्र लड़खड़ाने लगे तो अराजकता फैलेगी और व्यवस्था तथा प्रगति का ढाँचा लड़खड़ा जायेगा। इसी प्रकार धर्मतन्त्र पर अस्त-व्यस्तता छाई तो संयम, अनुशासन एवं सद्व्यवहार की रीति-नीति को जीवन्त न रखा जायेगा। मत्स्य न्याय का प्रचलन मानव समाज में चल पड़ा तो बुद्धिवादी आक्रामकता अन्ततः यादवी कलह उत्पन्न करेगी और परस्पर लड़कर समाप्त हो जाने की स्थिति बनेगी। न सुरक्षा दृष्टिगोचर होगी न निश्चिन्तता। चिन्तित और शंकाशील, कातर और आतंकित मनुष्य निर्वाह के साधन तक न जुटा सका तो बेमौत मारा जायेगा। राजतन्त्र और धर्मतन्त्र ही वे आधार हैं, जो भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्रों की सुव्यवस्था बनाये रहते हैं।
मध्यकालीन अन्धकार युग में भ्रान्तियों एवं विकृतियों ने सभी क्षेत्रों में प्रवेश किया उससे राजतन्त्र और धर्मतन्त्र जैसी व्यवस्थाएँ भी बेतरह लड़खड़ाई। राजतन्त्र के क्षेत्र में सामन्तवाद, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, अधिनायकवाद जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ घुसी और उस व्यवस्था को निहित स्वार्थों का, आपाधापी का क्षेत्र बनाकर रख दिया। जन साधारण ने उस कुचक्र में फँसकर सुरक्षा के स्थान पर त्रास ही पाया। धर्मतन्त्र की भी ऐसी ही दुर्गति हुई। उस क्षेत्र के अनुयायी मात्र भ्रम जंजालों में अपनी श्रद्धा एवं श्रम सम्पदा का अपव्यय करते रहते हैं। इसके विपरीत धर्मजीवी पुरोहितों को सम्मान एवं वैभव अर्जित करने का लाभ बिना किसी त्याग पुरुषार्थ के ही मिलता रहता है। प्रस्तुत परिस्थितियों को देखने से लगता है धर्म की आत्मा रुष्ट होकर कहीं अन्यत्र चली गई और अपना निष्प्राण कलेवर सड़न और दुर्गन्ध फैलाते रहने के लिए पड़ा छोड़ गई है।
नव जागरण की इस प्रभात बेला में आवश्यक परिवर्तन और उपयोगी निर्धारण हो रहा है। सभी क्षेत्र के शूरवीर अपने-अपने ढंग से प्रयास कर रहे हैं। जागरूकता और गतिशीलता, संघर्ष और कर्मठता जहाँ भी रहती है, वहाँ देर-सबेर में औचित्य तक पहुँचने का साधन बन जाता है। उस दृष्टि से राजतन्त्र का भविष्य आशाजनक है। असमंजस धर्मतन्त्र के सम्बन्ध में है। क्योंकि उस क्षेत्र में जागरूकता, कर्मनिष्ठा और प्रगतिशीलता की तीन आवश्यकताओं में से एक भी पूरी नहीं हो रही है। उस क्षेत्र की प्रतिभाएँ अपने निहित स्वार्थों से बेतरह चिपकी हुई हैं। न कहीं मार्टिन लूथर दीखते हैं न दयानन्द। गुरु गोविन्दसिंह और समर्थ रामदास जैसे सच्चे धर्म रक्षकों का अनुकरण भी कोई नहीं कर रहा है। ऋषि परम्परा की तो चर्चा ही क्या की जाय? सन्त और सुधारकों की पीढ़ी भी धीरे-धीरे बब्बर शेरों की तरह घटती विलुप्त होती चली जा रही है। राजतन्त्र में पीड़ित प्रजाजनों ने स्थान-स्थान पर, समय-समय पर विद्रोह किये और अन्धकार पाये, पर धर्मतन्त्र के समूचे क्षेत्र में कहीं वैसी हलचल भी दिखाई नहीं पड़ती। सर्वत्र श्मशान जैसी निस्तब्धता छाई हुई है। चमत्कार देखने और मनोकामना पूरी कराने की विडम्बना ही साधना सिद्धि का कलेवर ओढ़े जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ती है। कर्मकाण्डों के खर्चीले ढकोसले भी धनीमानी लोगों को आगे करके जब तब खड़े किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त वैसा कुछ नहीं दीखता जिसमें धर्म को, आत्मा को जीवन्त स्थिति में देखा जा सके, जाना जा सके।
निकृष्टता अपनाने पर व्यक्तित्वों का स्तर गया गुजरा हो जाता है। प्रतिभाएँ जब भ्रष्टता और दुष्टता अपनाने पर उतारू होती हैं तो प्रगति का प्रवाह रुकता है और सन्तुलन लड़खड़ाता है। संक्षेप में विश्व-व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न होने का कारण धर्मतन्त्र का लड़खड़ाना ही प्रमुख है। राजतन्त्र के उत्थान-पतन पर भी उसी का प्रभाव पड़ता है। कोई समय था जब यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति सही थी। अब जनतंत्र का प्रचलन होने पर यथा प्रजा तथा राजा की नई स्थापना हुई है। अब वोटर ही शासन सत्ता किसे सौंपी जाय, इसका निर्णय करते हैं। ऐसी दशा में मतदाता का जागरूक, दूरदर्शी और आदर्शों के प्रति निष्ठावान होना आवश्यक है। यह कार्य विशुद्ध रूप से धर्मतन्त्र का है।
राजतन्त्र भौतिक क्षेत्र की व्यवस्थाएँ बना सकता है, पर उसकी प्रकृति कूटनीति प्रधान, दमन नियन्त्रण पर निर्भर होने के कारण आस्थाओं का निर्माण करने जैसी जटिल प्रक्रिया को सम्भाल सकने में समर्थ नहीं रहती है। शिक्षा एवं प्रचार जैसे कार्य तो सरकार या संपन्न लोगों द्वारा हो सकते हैं, पर अन्तःकरण की गहराई तक पहुँच कर व्यक्ति को उदात्त एवं उदार बना सकना उसके बस की बात नहीं है। आस्था क्षेत्र को प्रभावित कर सकना धर्मतन्त्र की ही परिधि में आता है। अस्तु उसे सर्वोपरि महत्त्व मिलने की बात हर दृष्टि से उचित एवं उपयुक्त है।
प्रस्तुत परिस्थिति को बदलने के लिए आवश्यक हो गया है कि नीतिमत्ता के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने का काम नये सिरे से आरम्भ किया जाय। इसे धर्मतन्त्र का पुनर्जीवन, कायाकल्प या नव निर्धारण भी कह सकते हैं। पुरातन का जीर्णोद्धार तो होना ही चाहिए। समय की आवश्यकता को देखते हुए उसमें नये तत्वों का समावेश भी अनिवार्य हो गया है। वैज्ञानिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति की इन शताब्दियों में प्रगति की दिशा धारा अत्यन्त तीव्र हुई है। उसने नई आवश्यकताएँ और समस्याएँ उत्पन्न की हैं। भौतिक क्षेत्र में ही नहीं आत्मिक क्षेत्र में भी। अब बिजली और द्रुतगामी वाहनों के बिना काम चल सकना कठिन है। दो शताब्दी पूर्व इनके बिना काम चल जाता था, पर अब तो ये अन्न-वस्त्र की तरह आवश्यक हो चले हैं। उसी प्रकार चिन्तन और व्यवहार में भी भारी उथल-पुथल हुई है और उनने व्यक्ति तथा समाज को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया है। इन नई उपलब्धियों को धर्मतन्त्र में भी जगह मिलनी चाहिए। गोदान, तीर्थ स्थान, कथा प्रवचन एवं धर्मानुष्ठानों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उसमें पीड़ा और पतन का निवारण कर सकने वाले अनेक तथ्यों का समावेश करना होगा। कुरीतियों का उन्मूलन भी अब परमार्थ में ही माना जायेगा। शिक्षा प्रसार और वृक्षारोपण जैसे कार्य भी अब धर्म क्षेत्र का ही आश्रय पाना चाहेंगे। ज्ञान-यज्ञ की जो परिधि पुरातन काल में थी, अब उसका दायरा कहीं अधिक विस्तृत करने की आवश्यकता पड़ेगी। धर्म क्षेत्र न केवल परिशोधन चाहता है वरन् उसमें बहुत कुछ परिवर्तन भी चाहिए। समय की दौड़ कहाँ से कहाँ पहुँच गई। आस्थाओं को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया को भी समय को पहचानना और तदनुरूप तालमेल बिठाना पड़ेगा।
धर्मतन्त्र को जीवन्त एवं प्रखर बनाने वाले तीन आधार रहे हैं-(१) गतिविधियों का सूत्र संचालन करने के लिए भवन, देवालय (२) निर्धारित प्रयोजनों को व्यापक बनाने के लिए जन सहयोग, सन्त ब्राह्मण, वानप्रस्थ आदि लोकसेवियों का समुदाय (३) कार्यकर्ताओं के निर्वाह तथा क्रियाकलापों को अग्रगामी बनाने के लिए अर्थ साधन। इन्हीं तीन आधारों पर कोई समर्थ तन्त्र खड़ा रह सकता है। शासन को भी अपने अगणित उत्तरदायित्वों की पूर्ति का सूत्र संचालन इमारतों के आश्रय में ही करना पड़ता है। बड़े कारखाने अथवा छोटे निवास गृह सर्व प्रथम स्थान माँगते हैं। धर्म को यदि देवालयों की आवश्यकता पड़ती है, तो यह सर्वथा उचित ही है। जन-समुदाय के सहारे ही शासन व्यवस्था चलती है। कारखाने, छावनी, कला-कौशल, विद्यालय आदि में जनशक्ति का ही बोलबाला है। धर्म में यदि सन्त, ब्राह्मण, वानप्रस्थ जैसे पूरा समय देने वाले तथा धर्मप्रेमी भक्तजनों के रूप में छुटपुट श्रम साधना प्रस्तुत करते रहने वालों का एक बड़ा वर्ग कार्य संलग्न रहता है तो उसे कर्म कौशल ही कहा जायेगा। सरकार टैक्स लगाती है। कारखाने मुनाफे लेते हैं। संस्थाएँ शेयर बेचती या चन्दा वसूल करती हैं। धर्म ने दान दक्षिणा के माध्यम से श्रद्धा−भक्ति, स्वेच्छा, सहयोग उपलब्ध करने का मार्ग निकाला है, तो उसे औचित्य के अन्तर्गत ही लिया जायेगा। तन्त्र चाहे शासकीय हो, आर्थिक हो, बौद्धिक, कलापरायण या धर्म धारणा से सम्बन्धित हो, हर हालत में इन तीनों साधनों को जुटाने की व्यवस्था अनिवार्य रूप से करनी ही पड़ेगी। इन दिनों धर्म को प्रगतिशील बनाने और नव सृजन में समुचित योगदान के लिए समर्थ बनाने में भी इन तीन साधनों का नये सिरे से सरंजाम जुटाना पड़ेगा।
अच्छा होता कि धर्म के सुविस्तृत ढाँचे को ही परिवर्तित कर दिया गया होता और उसके हाथ में जो प्रचुर साधन हैं उनका उपयोग सामयिक आवश्यकता की पूर्ति में सम्भव हो सका होता। पर यह कार्य वर्तमान परिस्थितियों में लगभग असम्भव जैसा है। निहित स्वार्थों का शिकंजा इतना कसा हुआ है कि इसमें से साधनों को छुटकारा दिला सकना कठिन हैं। इसमें धर्म व्यवसायियों की समर्थता नहीं, वरन् सम्बन्धित जन समुदाय की भावनात्मक दुर्बलता भी बहुत बड़ा निमित्त कारण है। जनतन्त्र की ढोल-पोल में बड़े सुधारों के लिए कड़े कदम उठ सकने सम्भव नहीं। इसमें भौतिक अधिकारों की, जनमत की बात आगे आती है और कितनी ही कुरीतियों को भी सहन करना पड़ता है। वर्तमान धर्म विडम्बना का अभीष्ट परिवर्तन इन परिस्थितियों में उतना नहीं हो सकता जितना तत्काल आवश्यक है। सुधार क्रम मंथर गति से चलाया जाय तो इसमें सैकड़ों वर्षों का समय लगेगा। आर्य समाज जैसी सुधारक संस्थाएँ एक शताब्दी का लम्बा समय बीत जाने पर भी उतना कुछ कर नहीं सकी हैं जितनी कि अपेक्षा थी।
ऐसी दशा में एकमात्र उपाय यही रह जाता है कि युगधर्म का निर्वाह कर सकने के लिए उपयुक्त ढाँचे का धर्मतन्त्र खड़ा किया जाय। प्राचीनकाल में भी समय-समय पर इसी प्रकार सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति की गई है। भगवान बुद्ध, समर्थ गुरु रामदास, गुरु गोविन्द सिंह, सन्त कबीर, दयानन्द, महात्मा गाँधी आदि के प्रयासों को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है। उनने अपने-अपने ढंग से ऐसे तन्त्र खड़े किये थे जिनमें भवन, जनसहयोग एवं अर्थ साधनों की आवश्यकता जुटाई गई थी और भावनात्मक उत्कर्ष का कार्य आगे बढ़ाया गया था। पुरातन को सुधारने का लम्बा रास्ता उनमें से किसी को भी सफल होता नहीं दीखा। फलतः उनने अपने ढंग से अपना ढाँचा खड़ा करके कार्य आरम्भ कर दिया। इन प्रयत्नों की शानदार परम्परा और सराहनीय सामयिक उपलब्धि रही है। यह बात दूसरी है कि पीछे उन प्रयासों में विकृतियाँ घुस पड़ी। यह भी नियति की विडम्बना है कि कालान्तर में हर वस्तु जराजीर्ण हो जाती है। उसकी प्रखरता घटती और कुरूपता बढ़ती है। काया की भी ऐसी ही दुर्गति होती है। नव यौवन और जराजीर्ण कार्यों के बीच जमीन-आसमान जैसा अन्तर दीखता है और पतन पराभव पर निराशा होती है। इतने पर भी सृष्टा की यह व्यवस्था उत्साहवर्धक है कि अनुपयोगी होते ही दूसरी समर्थ शक्तियाँ उसे पदच्युत कराने में नहीं चूकती। जराजीर्ण काया को मौत आ दबोचती है और अनुपयुक्त संस्थानों की मरम्मत न बन पड़ने पर उसे तोड़कर नया ढाँचा खड़ा करने के लिए जागरूकता सदा तत्पर रहती है।
समय की माँग है कि संव्याप्त विकृतियों से जूझने और उनके स्थान पर शालीनता की स्थापना का प्रबल प्रयत्न किया जाय। कहना न होगा कि इस आवश्यकता की पूर्ति चिन्तन और चरित्र को प्रभावित, परिष्कृत कर आवश्यकता की पूर्ति के लिए युगधर्म का वह ढाँचा खड़ा करने की आवश्यकता है जो शाश्वत सिद्धांतों का परिपूर्ण पालन करते हुए विकृतियों से जूझने और सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु कटिबद्ध, समर्थ एवं सफल हो सके। समर्थ धर्मतन्त्र ही सशक्त और प्राणवान लोकमत का मूल आधार है। मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण जैसी उपलब्धियाँ चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश किये बिना सम्भव नहीं। यह कार्य धर्मतन्त्र का तत्त्वदर्शन एवं प्रचलन प्रवाह ही सम्पन्न कर सकता है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
74. स्वर्ग और नरक हमारी अपनी करनी के ही फल
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मान्यता यही है कि मरने के बाद स्वर्ग प्राप्त होता है क्योंकि अमुक ने अच्छे काम किये, यह जन्म पुण्य परमार्थ भरा जिया। दुष्ट व्यक्ति को बार-बार यही प्रताड़ना दी जाती है कि मरने के बाद उसे नरक मिलेगा, इसलिए उसे अपना जीवन सुधारना चाहिए। स्वर्ग और नरक कहाँ है? क्या वस्तुतः मरणोत्तर जीवन में आत्मा ऐसे किसी लोक, नगर, ग्राम, या देश में परिभ्रमण करती है? ये सारी जिज्ञासाएँ सहज ही मन में उठती हैं। विज्ञान की प्रगति ने मनुष्य को बुद्धि की दृष्टि से उन ऊँचे आयामों पर पहुँचा दिया हैं कि वह इनके बारे में भी वास्तविकता जानना चाहता है।
आज के प्रगतिशील युग में सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों को खोज लिया गया हैं। इस निखिल ब्रह्माण्ड के तारकों महा सूर्यों और आकाश गंगाओं की अद्यावधि जानकारियों में अब तक ऐसे किसी लोक के अस्तित्व की सम्भावना नहीं दीखती जैसी कि विविध धर्म सम्प्रदायों द्वारा उनका अपने-अपने ढंग से उल्लेख किया गया है।
तब क्या स्वर्ग-नरक मात्र कल्पना भर है? कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए कोई माध्यम नहीं है क्या? जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिल सका, उनके लिए ईश्वर के दरबार में कोई व्यवस्था नहीं है क्या? सद्गति और दुर्गति का कोई माध्यम न हो तो फिर शुभ कर्म और अशुभ कर्म करने वालों को तदनुरूप प्रतिफल कैसे मिलेगा? आदि अनेक प्रश्न उभर कर आते है और यह असमंजस उत्पन्न करते हैं कि यदि स्वर्ग-नरक का अस्तित्व था ही नहीं तो धर्म संस्थापकों ने इतना बड़ा कलेवर रचकर खड़ा क्यों कर दिया?
हमें जानना चाहिए कि स्वर्ग-नरक दोनों का अस्तित्व हैं और उनके माध्यम से शुभ-अशुभ कर्मों के फल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद हैं। अन्तर केवल स्थान विशेष का है सन्देहास्पद बात केवल इतनी भर है कि उनके लिए कही कोई नियत ग्राम या स्थान है या नहीं।
यह लोक हमारा भावनात्मक दृष्टिकोण है। इन दोनों ही लोकों में कर्मफल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद हैं। उसका निर्माण स्वसंचालित प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप की उसमें आवश्यकता नहीं है। यही व्यवहारिक भी था और तर्क संगत भी। एक छोटे से मुकदमे का फैसला कराने में कितने वकील, गवाह, जज, पुलिस आदि कार्यकर्ता लगते हैं। कितने कागज, सबूत इकट्ठे होते और जेल व्यवस्था के लिए कितने उपकरण इकट्ठे करने पड़ते हैं। मनुष्य जीवन में क्षण-क्षण पर भले-बुरे कर्म बनते हैं। एक दिन में ही उनके दण्ड-पुरस्कार की सैकड़ों मिल फाइलें बन सकती हैं। जीवन भर में तो वे असंख्यों हो जायेंगी। फिर तीन सौ करोड़ से अधिक मनुष्य इस धरती पर मौजूद हैं। उन सबका लेखा-जोखा रखना और दण्ड-पुरस्कार का विधान बनना इतना बड़ा हो जायेगा कि उसके लिए मनुष्य लोक से अधिक कर्मचारी लग जायेंगे, अस्तु अन्य सत्ता के माध्यम से दण्ड-पुरस्कार की व्यवस्था होना एक प्रकार से कठिन ही नहीं असम्भव भी है।
मनुष्य को जहाँ इच्छा पूर्वक भले-बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली हैं, वहाँ उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने और परिणाम प्रस्तुत करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी साथ ही जोड़ दी गई है। समस्त सृष्टि में यही हो रहा है, बीज जमीन में बोया जाता है, खाद-पानी मिलते ही वह अंकुरित होता है और पौधा वृक्ष बनने लगता है। ईश्वर सर्वत्र समाया हुआ है इसलिये यह कार्य ईश्वर करता है, यों कहने में भी हर्ज नहीं है। पर ईश्वर भी इतना झंझट कहाँ तक सिर पर लादता, उसने स्वसंचालित प्रक्रिया बनाकर अपना कर्मफल सम्बन्धी प्रयोजन सरल कर लिया है।
चक्की में ऊपर से अनाज डालते है नीचे आटा निकलता जाता है। कोल्हू में ऊपर से सरसों डालते ही तेल टपकता रहता है। मोटर में मीटर लगा रहता है और वह बताता है कि कितने मील चल लिये। यह स्वसंचालित मशीनों का जमाना है। बड़े-बड़े प्रिंटिंग प्रेस घण्टे में हजारों कागज इसी आधार पर छापते हैं। एक बार फिर सारा काम अपने आप वे मशीनें करती हैं। इधर कच्चा माल डाला जाता रहता है उधर से तैयार बनकर निकलता रहता है।
कर्मफल की प्रक्रिया भी इसी तरह की है। बुरे कर्म के दुःखद परिणाम जिन्हें नरक कहते हैं, निश्चित रूप से मिलते है और भले कर्मों का सत्परिणाम जिन्हें स्वर्ग कहा जाता है मिलना भी उतना ही सुनिश्चित है। यह स्वसंचालित ढंग से होता रहता है। शरीर अपने कर्मफल की व्यवस्था स्वयं कर लेता है। बैठे रहिए तोंद बढ़ जायेगी और चलना फिरना कठिन। अपच, दिल की धड़कन आदि कितने ही कष्ट कर रोग घेर लेंगे। श्रम करना धर्म है और हरामखोरी, पसीना न बहाना अधर्म। शारीरिक पाप किया बैठे रहने का, फल मोटापे के साथ जुड़े हुए कष्टों के रूप में सामने आ गया। अधिक खाया-पेट में दर्द, रात भर जगे-सर में दर्द, नशा पिया-मदहोशी, जहर खाया-मौत, स्नान करने में आलस-बदबू, जुँए, खाज। नियमित व्यायाम-पहलवान, पथ्य परहेज-निरोगता। दण्ड पुरस्कार की यह व्यवस्था शरीर अपने आप ही किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतः ही कर लेता है। कर्म करने की अपनी इच्छा फल देने की उस स्वसंचालित ईश्वरीय सत्ता की इच्छा। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। कर्म कर लें, उसके फल से बचे रहें यह नहीं हो सकता।
आलसी दरिद्र रहते हैं, प्रमादी के लिए प्रगति के द्वार बन्द हो जाते हैं, क्रोधी शत्रुओं से घिर जाता हैं, धूर्त मित्रों से वंचित हो जाता है, बेईमान के सहयोगी बिछुड़ जाते हैं, उद्दण्ड को घृणा मिलती है, अपव्ययी ऋणी बनता है। यह दण्ड व्यवस्था हर किसी को पग-पग पर अनुभव होती है। श्रेष्ठ गुण, श्रेष्ठ स्वभाव और श्रेष्ठ कर्म करते हुए मनुष्य सम्मानित, यशस्वी, सहयोग सम्पन्न, समृद्ध, सफल बनता है और उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है। स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को सुखी बनाता हैं। यह कर्मफल की स्वर्ग-नरक प्रक्रिया निरन्तर सामने रहती है। पापी, दुष्ट, दुरात्मा राजदण्ड भुगतते हैं, घृणास्पद बनते हैं और स्नेह सहयोग से वंचित होकर मरघट के प्रेत पिशाच बने एकाकी घूमते हैं। यह घृणित जीवन नरक नहीं है तो और क्या है? सेवाभावी, सद्गुणी, सन्त सज्जन धरती के देवता समझे जाते हैं और मरने के बाद भी वन्दनीय, श्रद्धास्पद ही बने रहते हैं। उनकी यश गाथाएँ अनेकों को प्रेरणा भरा प्रकाश देती रहती हैं। इसे स्वर्ग प्राप्ति न कहें तो और क्या कहें? सम्मानास्पद, श्रद्धा पात्र, सज्जन और प्रामाणिक किसी व्यक्ति को माना जाय, इससे बढ़कर सौभाग्य और सन्तोष की बात और क्या हो सकती है। इस प्रकार के कर्मफल प्राप्त करते रहने की स्वर्ग नरक जैसी प्रक्रिया हम निरन्तर फलित होती देखते रहते हैं।
कई व्यक्ति दूसरों को धोखा देकर अपनी वस्तु स्थिति छिपा लेने में प्रवीण बन जाते हैं और इस प्रकार पाप कर्म करते हुए दूसरों द्वारा मिलने वाले दण्ड से बच निकलने की तरकीब निकालते हैं। यह चतुरता आज कल बहुत चल पड़ी है। इससे कुछ लाभ तो है, पर हानि उससे कहीं अधिक है। लाभ यह है कि सरकार की पकड़ में आने पर राजदण्ड से बच जाते हैं। पाप प्रकट न हो तो दूसरों के द्वारा घृणा, निन्दा एवं विलगता से होने वाली हानि बच जाती है। पर इसमें जो छिपाव का ताना-बाना बुनना पड़ता है वह अन्तर्मन में एक विचित्र प्रकार की घुटन पैदा करता है। दुष्कर्म के साथ दुराव मिल जाने से भाँग में भी अफीम मिली बन जाती है। अन्तर्मन की बनावट ऐसी है कि वह घुटन को पचा नहीं सकती।
नीला थोथा खा लेने पर उलटी हुए बिना रहती नहीं। जमालगोटा खा लेने पर दस्त जाना ही पड़ेगा। कच्चा पारा खा ले तो शरीर में से फोड़े बनकर फूटेगा। यह विष ऐसे है जो पच नहीं सकते। पच जायें तो और भी भयंकर प्रकार के रोग उत्पन्न करते है और जीवन दुर्लभ कर देते हैं। ठीक इसी प्रकार दुष्कर्म और दुराव मिलकर एक ऐसा विष बनाते है, जिसे चतुर मनुष्य देर तक छिपाये तो रह सकते है, पर अन्तर्मन को पचा लेने के लिए रजामंद नहीं कर सकते। सिगरेट का धुआँ पेट में भर लेना तो सम्भव है, पर वह वहाँ रुक नहीं सकता। मुँह बन्द कर ले तो नाक में होकर बाहर आयेगा। भीतर किसी भी हालत में रुकेगा नहीं।
हवा भरे गुब्बारे को पानी में जितने जोर से डुबाते है अवसर मिलते ही वह उसी वेग से उछल कर ऊपर आ जाता है। छिपे हुए पाप शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि बनकर समय-कुसमय ऐसी बुरी तरह फूटते है कि कारण प्रतीत नहीं होता। चिकित्सा उपचार काम नहीं करते। ऐसी व्याधियाँ छिपी रहती है, जो अंदर ही अंदर व्यक्ति को खोखला बनाती हैं। जब तक पापों का प्रकटीकरण नहीं होता, उनका सही अर्थों में प्रायश्चित नहीं किया जाता, हानि के बदले क्षतिपूर्ति नहीं की जाती, मनुष्य सतत मनोरोगों एवं शरीरगत व्याधियों से ग्रस्त बना रहता है। कैंसर जैसी असाध्य घातक व्याधियों तथा हृदयाघात, उच्च रक्तचाप, मस्तिष्क में नस का फट जाना जैसे प्रकोपों के पीछे भावनात्मक अंतर्द्वन्द्व ही मूल कारण माने गए हैं। विभिन्न पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का यही मत है कि यदि इनके अंतरंग की समुचित चिकित्सा की व्यवस्था सही समय पर हो गयी होती तो संभवतः ये विपत्तियाँ न आती।
वस्तुतः होता यह है कि मनुष्य अपने रोगों का कारण बाहर खोजता फिरता है और चिकित्सा के लिए भागता दौड़ता है। बाह्योपचार, पत्तियों को सींचने को ही प्रधानता देने वाले आज के चिकित्सक गण भी उसी प्रकार इलाज भी करते हैं। कोई गहराई से ऐसे रोगी का मनःविश्लेषण करे तो वह जान सकता है कि जीते जी नरक में रहने जैसी स्थिति कैसी होती है। संचित दुष्कर्मों तद्जन्य ग्लानि एवं पाप भावना के जो उतार-चढ़ाव अन्दर आते रहते है वे बाहर प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देते, पर परोक्ष रूप में आधि-व्याधि का बाना पहन कर प्रकट होते है।
यह जानना चाहिए कि ये पाप शरीर और मन को कष्ट देने तक ही सीमित नहीं रहते वरन् अन्तरिक्ष में अनेक अदृश्य विपत्तियों का सृजन करते रहते हैं। पत्थर के कोयले की अँगीठी कितने ही व्यक्ति ठण्ड से बचने के लिए कमरे में बन्द करके रख लेते हैं। तत्काल ठण्ड से तो बचत दीखती है पर अन्दर ऐसा विष भर जाता है जिससे सोते-सोते ही उनकी मौत हो जाती है। शरीर में चोट नहीं लगी, बुखार आया नहीं, मस्तिष्क की नस फटी नहीं, सब कुछ ज्यों का त्यों, मौत का कुछ कारण मोटी आँख से दिखाई नहीं पड़ता, पर जानकार जानते है कि अँगीठी ने वायु में विष घोल दिया और वही मौत का कारण बना। ऐसे कितने ही अज्ञात अप्रत्यक्ष कारण अनायास ही विपत्ति बनकर सामने आ जाते हैं, जिनका अपने तात्कालिक क्रिया कलाप से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं दीखता। इसी प्रकार कई बार सुविधा सफलतायें भी मिल जाती है, जिनके लिए उचित श्रम और प्रयत्न नहीं किया गया होता। यह असंगत अवरोध और अनुदान दैव इच्छा एवं भाग्य का खेल बन कर सामने आते हैं। उनका प्रत्यक्ष कारण नहीं दीखता पर परोक्ष कारण वह स्वसंचालित प्रक्रिया ही होती है, जिसने अपने कर्मों का फलस्वरूप अन्तरिक्ष में धीरे-धीरे तदनुरूप वातावरण बनाया और वह भले-बुरे अप्रत्याशित अवसर सामने आकर खड़े हो गये।
समय लग सकता है। आज का फल आज मिलने से व्यक्ति भ्रम में पड़ सकता है और यह सोच सकता है कि बुरे कर्म दण्ड से बच गये या भला कर्म निष्फल चला गया, पर वस्तुतः ऐसा होता कभी नहीं। तुरन्त या कालान्तर में इसका रहस्य अज्ञात होने के कारण प्रत्यक्षवादी, उतावले, अनास्थावान् हो उठते है, पर यदि धैर्य रखा जाय तो प्रतीत होगा कि इसी जन्म में अथवा अगले जन्म में प्रत्येक कर्म का भला-बुरा परिणाम मिलना सुनिश्चित है। उसी व्यवस्था क्रम पर तो यह विश्व टिका हुआ है, यदि यह असंदिग्ध हो जाय तो फिर ऐसा अन्धेर फैले, ऐसी अराजकता उपजे कि कही कुछ सँभलना-सँभालना सम्भव न हो सके। फिर न कोई पाप से डरे और न पुण्य का झंझट और नुकसान उठाये।
दृष्टिकोण अपने आप में चित्त की प्रसन्नता-अप्रसन्नता, सन्तोष, शान्ति-अशान्ति बनकर पग-पग पर फलित होता रहता है। सत्कर्म करने पर मन में अनायास ही सन्तोष और उल्लास उठता रहता है। किसी कष्ट पीड़ित की सहायता अपना काम हर्ज करके यदि कर दी जाय तो भीतर ही भीतर एक परम सात्विक हलका और शीतल मलयज पवन जैसा आनन्द उठता अनुभव होगा। इसके विपरीत यदि चोरी, ठगी, अनीति बरतकर किसी को क्षति पहुँचाई होगी तो भीतर ही भीतर कोई खटमल, पिस्सू की तरह काट रहा होगा और आत्म ग्लानि से अन्तःकरण में उद्वेग बढ़ रहा होगा। वस्तुतः यही आत्म सन्तोष और आत्म धिक्कार अन्तःकरण को बलिष्ठ और दुर्बल बनाते है और इसी आधार पर प्रगति के अगणित मार्ग खुलते और अवरुद्ध होते हैं। पापी का अन्तरात्मा दिन-दिन दुर्बल होता जाता है। दूसरों पर से ही नहीं अपने पर से भी उसका विश्वास उठ जाता है। आत्मबल खोकर मनुष्य चैन नहीं पा सकता, भले ही उसके पास पैसे, कौड़ियों के टीले क्यों न जमा हो जायें। आत्मग्लानि से भरी मनोभूमि को नरक कहा जा सकता है क्योंकि प्रकारान्तर से अनेक दुश्चिन्ताएँ, विभीषिकाएँ इतना सताती हैं कि उसकी तुलना में नरक वर्णित कष्टों की तुलना सहज ही की जा सकें।
जो हर युवती को अपनी पुत्री की तरह देख सके, पराये पैसे को ठीकरी जैसा समझे, अपने स्वल्प उपार्जन से सादगी का जीवन जीते हुए सन्तुष्ट रहे, चरित्र उज्ज्वल रखे और दूसरे के प्रति स्नेह सहयोग भरा दृष्टिकोण रखे, उसे निरन्तर अपने भीतर एक अमृत जैसी निर्झरिणी कल-कल ध्वनि से प्रवाहित होती हुई अनुभव होगी और लगेगा कि भावना क्षेत्र में स्वर्गीय सुषुम्ना ही प्रादुर्भूत हो रही है। मरने के बाद भी भले-बुरे कर्मों के दण्ड कितने ही प्रकार से मिलते होंगे। दो जन्मों के बीच सुखद और कष्ट कर स्थिति रहती होगी, अगले जन्म उत्कृष्ट या निकृष्ट मिलते होंगे। स्वर्ग-नरक के स्थायी भाव, प्रतिफल की व्यवस्था मरणोत्तर जीवन में भी रहती होगी। पर इस जन्म में तत्काल भी भले बुरे परिणाम मिलते रहते हैं और स्वर्ग नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया भी हमें नियन्त्रण में रहने और विवेकपूर्ण रीति-नीति अपनाने के लिए बाध्य करती रहती है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
75. कर्मफल की स्वसंचालित प्रक्रिया
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम शाश्वत है। इसे सर्वत्र देखा और अनुभव किया जा सकता है। क्रियाओं के जैसे बीज होगे वैसे ही फल परिणाम के रूप में सामने आयेंगे। गेहूँ का बीज गलकर अपने अदृश्य असंख्यों बीज पैदा करता है। आम का बीज गलकर आम ही पैदा करता है। नीम का बीज गलता है तो नीम का वृक्ष ही पैदा करता है। गेहूँ के बीज से नीम का वृक्ष पनपे ऐसा न तो देखा गया और न ही सुना गया। प्रकृति के उपवन में कर्मफल व्यवस्था के उदाहरण सर्वत्र देखे जाते है।
दैनन्दिन जीवन में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। अपवादों को छोड़कर बिना कोई पढ़े विद्वान बन गया हो ऐसा देखा नहीं जाता। बिना नियमित निर्धारित समय तक अध्ययन किये किसी को विशिष्ट डिग्री मिल गयी हो यह सामान्य क्रम में नहीं होता। डाक्टर, इंजीनियर, वकील, वैज्ञानिक बनने के लिए नियत समय तक निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ना और उसमें उत्तीर्ण होना पड़ता है। विद्यार्थी को अभीष्ट प्रकार की योग्यता सम्पादन के लिए पूरे धैर्य का परिचय देना होता तथा परिश्रम की कीमत चुकानी पड़ती है।
माली मन चाहे पुष्पों के लिए उनके पौध लगाता, तत्काल बिना किसी प्रकार के प्रतिदान की अपेक्षा किये उन्हें सींचता रहता है, निराई गुड़ाई करता है। किसान भी इसी प्रकार के मनोयोग, धैर्य का परिचय देता है। फल पाने की उतावली उनमें नहीं होती क्योंकि उन्हें यह मालूम होता है कि समय के परिपाक पर फल मिलेगा ही। कर्मों का सुनिश्चित फल एक अकाट्य नियम है जिसे कुछ बातों में स्पष्ट देखा जा सकता है।
पर कुछ मानवी कृत्य ऐसे होते हैं जिनका तत्काल फल नहीं मिलता। भले कर्मों के सुनिश्चित परिणाम होते हुए भी तुरन्त मिलते न देखकर कितने ही व्यक्ति उस शाश्वत व्यवस्था पर उँगली उठाते, संदेह करते हैं जिसे कर्मफल सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। कितने व्यक्ति तो सृष्टा तथा उसकी नियम व्यवस्था पर भी आशंका व्यक्त करने लगते हैं। उन्हें यह बात भली भाँति जानना चाहिए कि भगवान किसी को न तो दण्ड देता है और न पुरस्कार। वह केवल विधि व्यवस्था का विधायक और नियन्ता मात्र है। सृष्टि की क्रमबद्धता और समस्वरता को बनाये रखने भर का ध्यान रखता है। व्यक्तिगत जीवन में उसका हस्तक्षेप नहीं के बराबर है। हर किसी को उसने यह पूरी आजादी दी है कि जो चाहे जिस तरह सोचे या करे। साथ ही विवेक का अनुदान देकर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि चिन्तन कर्तृत्व का स्तर ही उसके सामने दण्ड पुरस्कार के रूप में सामने आयेगा। स्वतन्त्रता दिशा अपनाने भर की है। पर जो कँटीले मार्ग पर चलेगा वह चुभन से बच न सकेगा यह तथ्य भी पूरी तरह स्पष्ट कर दिया गया। धर्मशास्त्र, तत्व दर्शन और प्रमाण उदाहरणों से भरा इतिहास इसी यथार्थता का पग-पग पर प्रतिपादन करते रहे हैं।
घृणित कर्म करने वाले आप ही अपने को दण्ड देते हैं और सन्मार्ग पर चलने वाले अपनी गतिविधियों के कारण स्वयं ही पुरस्कृत होते हैं। शृंखला अपनी गति से चल रही है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुमार्ग पर चलने वाले सुख शान्ति से रहे और सन्मार्ग अपनाने वालों को दुःख दारिद्र्य से ग्रसित होना पड़े। यदि ऐसा होता तो यहाँ उचित अनुचित के बीच कोई भेद ही न रह जाता और कोई कुकर्म से बचने एवं सत्कर्म अपनाने के लिए तैयार ही न होता। अधर्म का तात्कालिक आकर्षण यदि चिरस्थायी लाभ दे सका होता और उसके दुष्परिणामों की कोई आशंका न होती तो कदाचित् ही कोई उस कष्ट साध्य प्रतीत होने वाली प्रक्रिया को अपनाता।
ईश्वर ने मनुष्य को जितना स्वावलम्बी बनाया है उतना ही परावलम्बी भी। सर्वत्र स्वतन्त्र मनुष्य नहीं, ईश्वर ही है। ईश्वर इसलिए स्वतन्त्र है कि उसने नियम व्यवस्था बनाई है और उसने सर्वप्रथम अपने को बाँधा है। जहाँ विश्व का कण-कण किसी विधान से बँधा है उसी प्रकार ईश्वर भी मर्यादा पुरुषोत्तम है। मर्यादाएँ टूटने न पायें, उन्हें तोड़ने का कोई दुस्साहस न करे इसलिए उसने अपने को भी प्रतिबन्धित किया है। पात्रता की मर्यादा से अधिक अनुदान किसी को नहीं मिलते। कर्मफल की मर्यादा का उल्लंघन करके वह न तो किसी को क्षमा प्रदान करता है और न किसी को भक्त-अभक्त होने के नाम पर राग, द्वेष की नीति अपनाता है। न्याय और निष्पक्षता की रक्षा उसके लिए प्रधान है। बिजली मनुष्य की बहुत सेवा सहायता करती है, पर करती तभी तक है जब तक उसे विधि पूर्वक प्रयुक्त किया जाता है। अविधिपूर्वक व्यवहार करने पर यज्ञाग्नि भी होता को जला सकती है। प्रचुर खर्च करके बिजली के यन्त्रों को सुसज्जा एवं मनोयोग पूर्वक लगाने वाले भी यदि प्रयोगों में प्रमाद बरतें तो वह प्रतिष्ठापित विद्युत यन्त्र प्रयोक्ता के प्राण लिये बिना न छोड़ेंगे। ईश्वर को कर्मफल शृंखला में अग्नि या विद्युत के समतुल्य माना जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
कर्मफल तत्काल मिले ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है। क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच कुछ समय का अन्तराल रहता है। बीज बोते ही फल-फूलों से लदा वृक्ष सामने प्रस्तुत नहीं होता। गर्भाधान के अगले क्षण ही प्रसव नहीं होता और प्रसव के उपरान्त तत्काल नवजात शिशु किशोर या प्रौढ़ नहीं बन जाता। अभिभावकों को उसके लिए धैर्य रखना होता है। बीज का फल वृक्ष और गर्भाधान का फल समर्थ सन्तान होता है यह सही है, पर यह भी सही है कि आरम्भ और परिणाम के बीच कुछ अन्तर अवश्य रहता है। हथेली पर सरसों बाजीगर ही जमा सकते हैं। किसान को उसके लिए छः महीने तक साधना और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। गाय के पेट में घास जाकर दूध में बदलती है इसे कौन नहीं जानता, पर यह लाभ धैर्यपूर्वक ही उठाया जा सकता है। कोल्हू से तेल निकलने की तरह गाय को एक ओर घास खिलाने और दूसरी ओर दूध पाने की आशा की जाय तो सफलता न मिलेगी। ठीक इसी प्रकार कर्म को फल रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया कुछ समय चाहती है।
जन्मजात अपंग, बाधित, असमर्थ, रुग्ण व्यक्तियों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उद्धत आचरण करने वालों के प्रगति साधनों का प्रकृति ने किस प्रकार अपहरण कर लिया। बन्दूक का दुरुपयोग करने वालों का लाइसेन्स जब्त हो जाता है, इसी प्रकार मोटर चलाने में प्रमाद बरतने वालों का लाइसेन्स छिन जाता है। अपराधियों को न्यायालय में समाज से पृथक रहने का यातनापूर्ण कारावास मिलता है और उनके नागरिक अधिकार छिन जाते हैं। जन्मजात बाधितों को देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि मिली हुई कर्म स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करने वालों से प्रकृति किस प्रकार प्रतिशोध लेती है।
सुविधाजनक प्रगतिशील वातावरण में सुसंस्कारी परिवार में जन्म होना पूर्वकृत सत्कर्मों का फल कहा जा सकता है। दुर्भागी व्यक्ति कुसंस्कारी परिस्थितियों में जन्म लेकर असुविधाजनक अड़चन भरे वातावरण में रहते हैं और प्रगति पथ पर बढ़ने में भारी अड़चन अनुभव करते हैं। इस विभेद के पीछे पूर्व जन्मों में संग्रहीत शुभ-अशुभ कर्म के परिणाम झाँकते देख सकते हैं। यों इन अड़चन भरी परिस्थितियों में भी सत्कर्म करने की, आगे बढ़ने की स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रहती है और कोई चाहे तो नियत अवरोधों को सहन करते हुए भी आगे बढ़ने, ऊँचे उठने में सफल हो सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जिनमें अन्धे, अपंग, मूक, बधिर जैसी विषमताओं से ग्रसित लोगों ने इतनी उन्नति कर ली जिसे देखकर सर्व सुविधा सम्पन्न व्यक्तियों को भी आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा।
यदि इस संसार में ऐसी व्यवस्था रही होती कि तत्काल कर्मफल मिला करता तो फिर मानवी विवेक एवं चेतना की दूरदर्शिता की विशेषता कुण्ठित अवरुद्ध हो जाती। यदि झूठ बोलते ही जीभ में छाले पड़ जायें, चोरी करते ही हाथ में दर्द उठ खड़ा हो, व्यभिचार करते ही बुखार आ जाय, छल करने वाले को लकवा मार जाय तो फिर किसी के लिए भी दुष्कर्म कर सकना सम्भव न होता। एक ही निर्जीव रास्ता चलने के लिए शेष रह जाता। ऐसी दशा में स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करने की, भले और बुरे में से एक को चुनने की विचारशीलता नष्ट हो जाती और विवेचना, ऊहापोह का बुद्धि प्रयोग सम्भव न रहता। तब दूरदर्शिता और विवेकशीलता की क्या आवश्यकता रहती और इसके अभाव में मनुष्य की सर्वतोमुखी प्रतिभा का कोई उपयोग ही न हो पाता। बुरे कार्य के दुष्परिणाम और भले कार्य के सत्परिणाम समझने के लिए अन्तःप्रेरणा, अध्यात्म तत्त्वदर्शन, धर्म विज्ञान, नीति सदाचरण, श्रेय साधना का जो उपयोगी एवं आकर्षक सतोगुणी धर्म कलेवर खड़ा किया गया है उसकी कुछ आवश्यकता ही न रहती। सब कुछ नीरस हो जाता यहाँ जो कौतुक कौतूहल दीख रहा है, बहुरंगी, कटु-मधुर अभिव्यंजनाएँ सामने आ रही है उनमें कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर न होता। इन परिस्थितियों में और कुछ लाभ भले ही होता, मनुष्य की वह चेतनात्मक प्रतिभा कुण्ठित ही रह जाती जिसके कारण प्रगति पथ पर इतना आगे तक चल सकना सम्भव हो सका है।
कर्म का फल शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से कुछ विलम्ब से भी मिल सकता है, पर आन्तरिक दृष्टि से तुरन्त तत्काल मिलता है। सद्भावनाएँ धारण करने वाला अन्तःकरण अपने आप में अत्यधिक प्रफुल्लित रहता है। सुगन्ध विक्रेता बिना प्रयास किए निरन्तर उस महक का लाभ उठाता रहता है जिसके लिए दूसरे लोग तरसते ललचाते रहते हैं। सत्कर्म का सबसे बहुमूल्य लाभ आत्म-संतोष है जिसे प्राप्त करने में तनिक भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सन्मार्ग पर चलने वाले का अन्तरात्मा अपने आप को प्रोत्साहन भरा आशीर्वाद देता रहता है। इस आधार पर बढ़ता हुआ आत्मबल मनुष्य की वास्तविक शक्ति को इतना अधिक बढ़ा देता है जिसकी तुलना उपनिषद्कार की उक्ति के अनुसार हजार हाथियों के बल से भी नहीं की जा सकती।
सद्भाव सम्पन्न सन्मार्गगामी का कोई स्वार्थवश कितना ही विरोध क्यों न हो, पर भीतर ही भीतर उसके लिए गहन श्रद्धा धारण किये रहेगा। महात्मा गाँधी पर आक्रमण करने वाले गोड़से ने गोली दागने से पूर्व उनके चरण स्पर्श करके प्रणाम किया था। ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ाने वाले लोग आँसुओं की धार से अपनी श्रद्धाञ्जलि चढ़ा रहे थे। सुकरात को विष पिलाने वाले जल्लाद ने आत्म प्रताड़ना से अपना माथा पीट लिया था।
महामानवों के पास भौतिक सम्पदायें भले ही न रही हो पर उनकी चरित्र निष्ठा, आदर्शवादिता और उदारता की पूँजी इतनी प्रचुर मात्रा में उन्हें विभूतिवान बनाये रही है और वह वैभव इतना बढ़ा रहा है, जिसके ऊपर धन कुबेरों की सम्पन्नता को न्यौछावर किया जा सके। ऋषियों के चरणों में राजमुकुट रखे देखकर यह समझा जा सकता है कि सन्मार्गगामी सर्वथा निर्धन नहीं होते, उनके पास अपने ढंग की ऐसी सम्पदा होती है जिसे पाकर मानव जीवन को सब प्रकार सार्थक एवं धन्य हुआ माना जा सके।
भौतिक विज्ञानियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है कि शारीरिक स्वास्थ्य का आधार मात्र पौष्टिक आहार एवं व्यायाम नहीं है वरन् मनःक्षेत्र की समस्वरता पर आरोग्य एवं दीर्घ जीवन की नींव रखी हुई है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय रोगों के विशेषज्ञ यह कहते हैं कि अधिक मानसिक श्रम करने आदि के कारण वे रोग उत्पन्न नहीं होते वरन् छल, प्रपंच, क्रूर दुराचरण जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ही मनःसंस्थान में अन्तर्द्वन्द्व मचाती हैं और उन्हीं के फलस्वरूप अनिद्रा एवं सनक से लेकर उन्माद जैसे रोग अपने विभिन्न आकार-प्रकार में उठ खड़े होते है। कोई समय था जब वात, पित्त, कफ़, आहार-विहार, कृमि कीटाणु, छूत संक्रमण, ऋतु प्रभाव, गृहदशा, भाग्य प्रारब्ध आदि को विभिन्न रोगों का कारण माना जाता था। वे बातें पुरानी हो गई। मनःशास्त्र के विज्ञानी अब उस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अनैतिक, असामाजिक और अवांछनीय चिन्तन से, इस प्रकार की घुटन से भरा आन्तरिक विग्रह उत्पन्न होता है जो ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से अपने विद्रोह की कोशिकाओं तक पहुँच कर उन्हें रुग्ण कर देता है। इस मानसिक विद्रोह को शान्त करने के लिए अपनी रीति-नीति को सन्मार्गगामी बना लेना ही रोग निवृत्ति का एक मात्र उपाय है। इस आधार पर मनोविज्ञानवेत्ता रोगियों से उनकी भूलें कबूल कराते हैं पश्चाताप और परिवर्तन के संकल्प कराते हैं तदनुसार रोग निवृत्ति का लाभ भी मिलता है।
भारतीय धर्म शास्त्र आधि और व्याधि का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध मानता रहा है। आधि अर्थात् मनःक्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ जिस व्यक्ति में भरी होंगी वह शरीर और मस्तिष्क के रोगों से ग्रसित होता चला जायेगा और वे रोग मात्र औषधि चिकित्सा से कदापि अच्छे न हो सकेंगे। कष्टसाध्य रोगों की एक श्रेणी कर्मजन्य भी होती है। उन्हें अन्तःक्षेत्र में जमी हुई दुर्भावनाओं की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। इन्हें पश्चाताप और प्रायश्चित द्वारा उखाड़ने का विधान है। असाध्य महारोगों के लिए यह प्रायश्चित्त चिकित्सा प्राचीन अध्यात्म विज्ञान और भौतिक मनोविज्ञान के आधार पर समान रूप से उपयुक्त मानी गई है। मन की निर्मलता से बढ़कर शारीरिक रोगों की निवृत्ति का और कोई कारगर उपाय नहीं है।
निश्चित रूप से मनुष्य एक स्वसंचालित यन्त्र है जो कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए परिणाम भोगने की शृंखला में मजबूती के साथ जकड़ा हुआ है। यदि हम सद्भावनाओं का, सत्प्रवृत्तियों का चिन्तन और कर्तृत्व अपनायें तो सहज ही सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसके प्रतिकूल चलना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह है। सुख और दुःख ईश्वर प्रदत्त दण्ड पुरस्कार नहीं वरन् अपने ही सत्कर्म-दुष्कर्म के प्रतिफल हैं।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
76. अपूर्णता से पूर्णता की ओर
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगति कर अपने सुख सुविधाओं के साधन एकत्र कर लेना और उन्हें सुनियोजित ढंग से प्रयुक्त कर अपनी जीवन यापन की पद्धति को ऊँचा उठा लेना मानवी पुरुषार्थ का ही कमाल है। उसने प्रकृति के रहस्यों को अपनी पैनी बुद्धि से खोजा और उनका उपयोग करने की विधा विकसित की। उसके लिए गत शताब्दियों के वैज्ञानिक उद्भव को श्रेय दिया जा सकता है। पर यही सब कुछ नहीं है। आत्मिकी के अनुशासन के अभाव में तो भौतिकी के उच्छृंखल होने के अवसर बढ़ जाते हैं। आत्मिकी अर्थात् अध्यात्म के सिद्धान्तों का सुख सुविधाओं के सुनियोजित उपयोग हेतु परिपालन। यह परिधि इतनी विशाल है कि व्यक्ति से लेकर विश्व परिवार के प्रत्येक घटक को अपने अन्दर समाहित कर लेती है।
अध्यात्म मनुष्य को जीवन जीने की विद्या का शिक्षण देता है। मानवी काया के समस्त यन्त्रों तथा उपार्जित वैभव रूपी पुरुषार्थजन्य अनुदानों का दुरुपयोग किन परिस्थितियों को जन्म दे सकता है, इसका समग्र स्वरूप आत्मिकी की शिक्षाओं में देखने को मिल सकता है। अध्यात्म बताता है कि मनुष्य अपने उच्चस्तर से अपनी दुर्बलताओं के कारण ही अधःपतित होता है और दुःख, क्लेश भरा नरक भोगता है। मनुष्य को इस विश्व के साथ सम्पर्क बनाकर सुखानुभूति प्राप्त करने के तीन उपकरण मिले हुए हैं। यदि वह उनका ठीक तरह से उपयोग जान सके तो उसे पग-पग पर यह अनुभव हो कि यह संसार कितना सुन्दर और जीवन कितना मधुर है। इन तीन उपकरणों के नाम हैं-
१. अन्तरात्मा २. मन ३. इन्द्रिय समूह।
इन्द्रियों की बनावट ऐसी अद्भुत है कि दैनिक जीवन की सामान्य प्रक्रिया में ही उन्हें पग-पग पर असाधारण सरसता अनुभव होती है। पेट भरने के लिए भोजन करना स्वाभाविक है। भगवान की कैसी महिमा है कि उसने दैनिक जीवन की शरीर यात्रा भर की नितान्त स्वाभाविक प्रक्रिया को कितना सरस बना दिया है। उपयुक्त भोजन करते हुए जीव को कितना रस मिलता है और चित्त को उस अनुभूति से कैसी प्रसन्नता होती है।
आँख का साधारण काम है वस्तुओं को देखना ताकि हमारी जीवन यात्रा ठीक तरह चलती रह सके। पर आँखों में कितनी विचित्र विशेषता भर दी है कि वह रूप, सौन्दर्य, कौतुक जैसी रस भरी अनुभूतियाँ ग्रहण करके चित्त को प्रफुल्लित बनाती है। संसार में उत्पादन, परिपुष्टि, विनाश का क्रम नितान्त स्वाभाविक है। मध्यवर्ती स्थिति में हर चीज तरुण और सुन्दर लगती है। क्या पुष्प क्या मनुष्य, हर किसी को तीनों स्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है। मध्यकाल सौन्दर्य लगता है। वस्तुतः यह तीनों ही स्थितियाँ अपने क्रम, अपने स्थान और अपने समय पर सुन्दर हैं। पर आँखों को सुन्दर असुन्दर का भेद करके मध्य स्थिति को सुन्दर समझने की कुछ विचित्र विशेषता मिली है। फलस्वरूप जो कुछ उभरता हुआ विकसित परिपुष्ट दिखता है, सो सुन्दर लगता है। सुन्दर असुन्दर का तात्त्विक दृष्टि से यहाँ कुछ भी अस्तित्व नहीं है, पर हमारी विचित्र आँखें ही हैं जो अपनी सौन्दर्यानुभूति वाली विशेषता के कारण हमारे दैनिक जीवन से सम्बन्धित समीपवर्ती वस्तुओं में से सौन्दर्य वाला भाग देखतीं, आनन्द अनुभव करतीं, उल्लसित और पुलकित होती हैं, चित्त को प्रसन्न करती हैं।
इसी प्रकार जननेन्द्रिय की प्रक्रिया है। प्रजनन मक्खी-मच्छरों, कीट-पतंगों, बीज-अंकुरों में भी चलता है। यह सृष्टि का सरल स्वाभाविक क्रम है। पर हमारी जननेन्द्रिय में कैसा अजीब उल्लास सराबोर कर दिया है कि सम्भोग के क्षण ही नहीं, उसकी कल्पना भी मन के कोने-कोने में सिहरन, पुलकन, उमंग और आतुरता भर देती है। तत्त्वतः बात कुछ भी नहीं है। दो शरीर के दो अवयवों का स्पर्श, इसमें क्या अनोखापन, क्या निरालापन, क्या उपलब्धि है? फिर स्पर्श का कुछ प्रभाव हो भी तो उसकी कल्पना से किस प्रकार, क्यों, किसलिए चित्त को बेचैन करने वाली ललक पैदा होनी चाहिए? बात कुछ भी नहीं है। मात्र जननेन्द्रिय की बनावट में एक अजीब प्रकार की सरसता का समावेश मात्र है जो हमें सामान्य स्वाभाविक दाम्पत्य जीवन के वास्तविक या काल्पनिक प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र में एक विचित्र प्रकार की रसानुभूति उत्पन्न करके जीने भर के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले जीवन को निरन्तर उमंगों से भरता रहता है।
ऊपर जीभ, आँख और जननेन्द्रिय की चर्चा हुई। कान और नाक के बारे में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। यहाँ कान भाग वाला इन्द्रिय समूह अपने साथ रसानुभूति की विलक्षणता इसलिए धारण किए हुए है कि सरस, स्वाभाविक सामान्य जीवन क्रम ऐसे ही नीरस ढर्रे का जीने भर के लिए मिला हुआ प्रतीत न हो, वरन् उसमें हर घड़ी उत्साह, उल्लास, रस, आनन्द बना रहे और उसे उपलब्ध करते रहने के लिए जीवन की उपयोगिता, सार्थकता और सरसता का भान होता रहे। इन्द्रिय समूह हमें इसी प्रयोजन के लिए उपलब्ध हैं। यदि उनका उचित, संयमित, विवेकपूर्ण, व्यवस्था पूर्वक उपयोग किया जा सके तो हमारा भौतिक सांसारिक जीवन पग-पग पर सरसता, आनन्द उपलब्ध करता रह सकता है।
दूसरा उपकरण मन इसलिए मिला है कि संसार में जो कुछ चेतन है, उसके साथ अपनी चेतना का स्पर्श करके और भी ऊँचे स्तर की आनन्दानुभूति प्राप्त करे। इन्द्रियाँ जड़ शरीर से सम्बन्धित हैं। जड़ पदार्थों का स्पर्श करके उस संसर्ग का सुख लूटती हैं। जड़ का जड़ से स्पर्श भी कितना सुखद हो सकता है। इस विचित्रता का अनुभव हमें इन्द्रियों के माध्यम से होता है। चेतन का चेतन के साथ, जीवधारी का जीवधारी के साथ स्पर्श सम्पर्क होने से मित्रता, ममता, मोह, स्नेह, सद्भाव, घनिष्ठता, दया, करुणा, मुदिता जैसी अनुभूतियाँ होती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में द्वेष, घृणा जैसे भाव भी पैदा होते हैं, पर उनका अस्तित्व है इसीलिए कि मित्रता के वातावरण में सम्पर्क संसर्ग का आनन्द बिखरता रहे। यदि अन्धकार न हो तो प्रकाश की विशेषता ही नष्ट हो जाय। वस्तुतः मन की बनावट दूसरों के सम्पर्क, सहयोग, स्नेह भावों के आदान-प्रदान का सुख प्राप्त करने में है। मेलों-ठेलों में, सभा-सम्मेलनों में जाने की इच्छा इसीलिए उठती है कि उन जन संकुल स्थानों से व्यक्ति की घनिष्ठता न सही, समीपता का अदृश्य सुख तो अनायास मिलता ही है।
चूँकि इन्द्रिय सुख और जन सम्पर्क की घनिष्ठता में सहायक एक और नया माध्यम सभ्यता के विकास के साथ-साथ बनकर खड़ा हो गया है, इसलिए अब प्रिय वह भी लगने लगा है। इस तीसरे मनुष्यकृत आकर्षण तत्व का नाम है-धन। धन में स्वभावतः कोई आकर्षण नहीं। इसमें इन्द्रिय समूह या मन को पुलकित करने वाली कोई सीधी क्षमता नहीं है। धातु के सिक्के या कागज के टुकड़े भला आदमी के लिए प्रत्यक्ष क्यों आकर्षक हो सकते हैं? पर चूँकि वर्तमान समाज व्यवस्था के अनुसार धन के द्वारा इन्द्रिय सुख के साधन प्राप्त होते हैं, मैत्री भी सम्यक् होती है, इसलिए धन भी प्रकारान्तर रूप से मन का प्रिय विषय बन गया है। अस्तु, धन की गणना भी सुखदायक माध्यमों से जोड़ ली गई है।
तीन शरीरों को जीवात्मा धारण किए हुए है। तीनों की तीन रसानुभूतियाँ हैं। ऊपर दो की चर्चा हो चुकी। स्थूल शरीर की सरसता इन्द्रिय समूह के साथ जुड़ी हुई है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे सुख इन्द्रियों द्वारा ही मिलते हैं। सूक्ष्म शरीर का प्रतीक मन है। मन की सरसता मैत्री पर, जन सम्पर्क पर अवलम्बित है। परिवार मोह से लेकर समाज सम्बन्ध, नेतृत्व, सम्मिलन, उत्सव-आयोजन जैसे सम्पर्क परक अवसर मन को सुख देते हैं। घटित होने वाली घटनाओं को अपने ऊपर घटित होने की सूक्ष्म सम्वेदना उत्पन्न करके वह समाज की अनेक हलचलों से भी अपने को बाँध लेता है और उन घटनाक्रमों में खट्टी-मीठी अनुभूतियाँ उपलब्ध करता है। उपन्यास, सिनेमा, अख़बार, रेडियो आदि मन को इसी आधार पर आकर्षित करते और प्रिय लगते हैं।
तीसरा रसानुभूति उपकरण है-अन्तरात्मा। उसका कार्यक्षेत्र कारण शरीर है। उसमें उत्कृष्टता, उत्कर्ष, प्रगति, गौरव की प्रवृत्ति रहती है जो उच्च भावनाओं के माध्यम से चरितार्थ होती है। मनुष्यता की श्रेष्ठता और सन्मार्गगामिता प्रखर होती रहे, इसके लिए उसमें भी एक रसानुभूति विद्यमान है, उसका नाम है-वर्चस्व, यश, कामना, नेतृत्व, गौरव प्रदर्शन। उस आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य अगणित प्रकार की सफलताएँ प्राप्त करता है ताकि वह स्वयं दूसरों की तुलना में अपने आपको श्रेष्ठ, पुरुषार्थी, पराक्रमी, बुद्धिमान अनुभव करके सुख प्राप्त करे और दूसरे लोग भी उसकी विशेषताओं, विभूतियों से प्रभावित होकर उसे यश, मान प्रदान करें।
कारण शरीर के साथ एक तथ्य यह और जुड़ा है कि यदि इसे सही दिशा न मिले और विकृति की ओर मुड़ जाय तो अहंता, बड़प्पन की ललक, उद्दण्डता के रूप में इसकी परिणति हो सकती है। श्रेष्ठता सहज है, मानवी गरिमा के अनुरूप है, परन्तु जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कार जो मनुष्य के पल्ले बँधे रहते हैं, सतत संघर्ष हेतु उसे उत्तेजित करते हैं। उनके सामने माथा टेक देने वाले आत्मिक दृष्टि से उन्नति नहीं कर पाते, भ्रम में उलझकर अपनी दुर्गति और करा लेते हैं। कारण शरीर रसमय सम्वेदना का समुच्चय काया का एक अमूल्य उपकरण है। इसका सुनियोजन कर व्यक्ति देशभक्त, सुधारक, परमार्थपरायण, विभूतिवान बनता है। सत्प्रवृत्तियों के साथ सम्मान एवं यश तो सहज ही जुड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति छोटे-छोटे आकर्षणों एवं चाटुकारों की निन्दा से प्रभावित न होकर स्वयं को सन्मार्गगामी बनाए रखते हैं।
जब भी कभी प्रयत्न पुरुषार्थ के साथ उच्चस्तरीय प्रयोजन जुड़ जाते हैं तो यही कारण शरीर कलाकारिता, साहित्य, समाज सेवा, राष्ट्रभक्ति, दलितोत्थान, वैज्ञानिक शोध जैसे क्षेत्रों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ पद पर पहुँचाकर रहता है। अभी तक हुए महामानवों ने इसी स्तर की साधना की है व दैवी अनुग्रह उन पर लोक सम्मान और जन सहयोग के रूप में बरसा है। यश न पचाने वालों ने अब तक विश्व में सारी दुरभिसन्धियाँ रची हैं। सारे षड़यन्त्री कलह, द्वेष के मूल में अहं की विकृति ही मुख्य भूमिका निभाती है। इन सभी में वे सभी विशेषताएँ विद्यमान थीं जो उन्हें ऋषि, देवदूत स्तर तक पहुँचा सकती थी। लेकिन जीवन का एक भटकाव, शरीर के इस उपकरण का विकृत मोड़ मनुष्य को उस श्रेष्ठता से वंचित कर देता है जिसका कि वह श्रेयाधिकारी आसानी से बन सकता था। मानव का यह विश्लेषण उस स्तर तक करना इस कारण अभीष्ट भी है कि अगणित व्यक्ति अपने जीवन प्रवाह के हिचकोलों के मूल कारण को समझ नहीं पाते।
संक्षेप में यह मनुष्य के तीन शरीरों की, तीन रसानुभूतियों की चर्चा हुई। हमारी अगणित योजनाएँ इच्छा, आकांक्षाएँ, गतिविधियाँ इन्हीं तीन मूल प्रवृत्तियों के इर्द गिर्द घूमती हैं। जो कुछ मनुष्य सोचता और करता है, उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। भगवान ने यह तीन उपहार जीवन को सरसता से भरा पूरा रखने के लिए दिए हैं। साथ ही उनका अस्तित्व इसलिए भी है कि व्यक्ति निरन्तर सक्रिय बना रहे। इन सुखानुभूतियों को प्राप्त करने के लिए उसके तीनों शरीर निरन्तर जुटे रहें।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
77. प्राणयोग द्वारा प्राण ऊर्जा का मंथन-संवर्धन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
निर्जन सुनसान जंगलों में कई बार भयंकर आग लगती है और विस्तृत क्षेत्र के गीले-सूखे पेड़ों को जला कर खाक कर देती है। यह मनुष्यों द्वारा वहाँ वैसा होने की कोई सम्भावना नहीं होती। यह आग सूखे पेड़ों की टहनियाँ तेज हवा के कारण हिलने और आपस में टकराने के कारण उत्पन्न होती है। इस कार्य में बाँस सबसे अग्रणी है। झुरमुट में बाँस एक दूसरे से सटकर उगे होते हैं। तेज हवा से उनका टकराना स्वाभाविक है। सूखे बाँस आपस में रगड़ खाकर पहले गरम होते हैं। फिर चिनगारियाँ निकालने लगते हैं। यह आग बढ़ती और फैलती चली जाती है और दावानल का रूप धारण कर लेती हैं।
चकमक पत्थर के दो टुकड़े आपस में टकराकर चिनगारियाँ उत्पन्न करने की कला ही आदि मानव ने सीखी थी। पीछे लोहे और पत्थर को टकराकर भी आग निकालने की तरकीब निकाल ली गई। यज्ञ कार्यों में लकड़ियाँ रगड़ कर अरणि मंथन की क्रिया द्वारा अग्नि उत्पन्न की जाती थी। धूनी जलाकर अखण्ड अग्नि को सुरक्षित रखने का प्रचलन तो पीछे हुआ, आरम्भ में रगड़ से ही अग्नि उत्पन्न की गई। उस समय की साधनहीन परिस्थितियों में यह अग्नि आविष्कार आज के रेडियो विज्ञान से भी बढ़कर महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ था। उसने मानव प्रगति को सौ गुनी बढ़ा दिया था।
प्राणायाम में श्वास-प्रश्वास क्रिया को क्रमबद्ध, तालबद्ध, लयबद्ध बनाया जाता है, साँस लेने की साधारण सी अनवरत प्रक्रिया की अव्यवस्था दूर करके उसे व्यवस्था के बन्धनों में बाँधा जाता है।
सामान्यतः श्वाँस का आवागमन फेफड़ों में सिकुड़ने फैलने की हलचल उत्पन्न करता है। उसी से दिल धड़कता है, रक्त संचार होता है, माँस-पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन क्रम चलता है। जिस प्रकार पेण्डुलम का हिलना घड़ी की गतिविधियों को स्वसंचालित रखने का आधार होता है, उसी प्रकार श्वास-प्रश्वास क्रिया को एक प्रकार से शरीर की समस्त हलचलों का उद्गम केन्द्र कहा जा सकता है। कहावतों में अक्सर ऐसे प्रसंग आते हैं-‘भगवान के यहाँ से जितने श्वाँस मिले हैं उतने दिन ही तो जीना है।’ थोड़े से श्वाँस और शेष रहे हैं आदि। मृत्यु का मोटा ज्ञान श्वास चलना बन्द हो जाने से ही किया जाता है। नाड़ी की धड़कन बन्द होना श्वास बन्द होने का ही लक्षण है।
साँस को जीवन कहा जाता है। तनिक गहराई से विचार करें कि हवा तो जड़ पंच-तत्त्वों में गिनी जाती है उसकी प्रतिक्रिया हलचल भी हो सकती है। तेज हवा से पत्ते हिलते हैं, धूलि कण, तिनके आदि उड़ते हैं, पर इससे जीवन तो उत्पन्न नहीं होता। हवा में जब स्वयं ही जीवन नहीं पाया जाता, तो वह प्राणी को जीवन कहाँ दे सकती है? यदि साँस लेने से जीवन का सम्बन्ध नहीं है, तो उसे प्राण के अर्थ में क्यों प्रयुक्त किया जाता है और प्राण को जीवन का पर्यायवाची क्यों माना जाता है?
बात यह है कि हवा मोटे तौर से एक पदार्थ प्रतीत होती है पर उसकी भीतरी परतों में और भी महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ विद्यमान हैं। दूध में घी दिखाई तो नहीं पड़ता, पर वह उसमें रहता अवश्य है और अमुक विधि से उसे अलग निकाला भी जा सकता है। वनस्पतियाँ मोटे तौर पर मात्र हरियाली लगती हैं, पर प्रयोगशाला में उनका विश्लेषण करने पर प्रोटीन, नमक, चूना, चिकनाई आदि कितने ही स्तर के पदार्थ ढूँढ़े और निकाले जाते हैं। शरीर मोटे तौर पर माँस, चमड़े का होता है पर विश्लेषण से उसमें ढेरों प्रकार के रासायनिक पदार्थ मिलते हैं। इसी प्रकार साँस में प्रवेश करने वाली हवा मात्र स्पर्श तन्मात्रा वाली प्रकृति की हलचल नहीं है, उसके भीतर कितने ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व भरे पड़े हैं-वे भौतिक भी हैं और चेतनात्मक भी। वायुभूत भौतिक पदार्थ आकाश की सुविस्तृत पोल में भरे पड़े हैं, इसे विज्ञानवेत्ता भली प्रकार जानते हैं। विज्ञानियों का कथन है कि चेतना जड़ शरीर में रहने वाली चेतन आत्मा की तरह है। वायुरूपी शरीर के भीतर एक चेतन शक्ति भरी पड़ी है, उसी को प्राण कहा गया है। हवा से सूक्ष्म ईथर, ईथर से सूक्ष्म प्राण, प्राण से सूक्ष्म ब्रह्म इस प्रकार की परतों की कल्पना की जा सकती है। ऐसे परतों की जो पूरी तरह आपस में गुँथे और मिले हुए हैं। माँस में रक्त घुला रहता है और वायु में प्राण। सामान्यतया वे एकत्रित हैं, पर विशेष प्रयत्न द्वारा उन्हें पृथक किया जा सकता है और जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उसे हस्तगत किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार वायु तत्त्व में घुले हुए प्राण तत्त्व को अलग से खींचा जा सकता है और उसे अपने प्राण में सम्मिलित करके अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है।
सामान्यतया साँस लेने से फेफड़ों में हवा पहुँचने और उससे रक्त को आक्सीजन मिलने तथा भीतर उत्पन्न हुई कार्बनडाइआक्साइड को बाहर निकालने भर का, शरीर यात्रा का आवश्यक प्रयोजन पूरा होता है। इस श्वाँस-प्रश्वास प्रक्रिया को विशेष ढंग से, विशेष क्रम से किया जाने लगे तो उससे भिन्न प्रकार की मन्थन क्रिया आरम्भ हो जाती है। मन्थन द्वारा दूध से घी निकलता है। रति क्रिया से वीर्यपात का आधार भी यह मन्थन ही होता है। अनेक वैज्ञानिक प्रयोजनों में यह मन्थन क्रिया की जाती है और उससे अणुओं का विकेन्द्रीकरण होने से छोटे रूप से अणु विस्फोट जैसी स्थिति उत्पन्न होती है और अनोखी उपलब्धियाँ मिलती हैं। दवाओं की घुटाई, पिसाई, घिसाई में भी प्रकारान्तर से यह मन्थन क्रिया ही सम्पन्न होती है और सामान्य सी जड़ी-बूटियाँ चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करती हैं।
यही मन्थन क्रिया हंस-योग की प्राण-प्रक्रिया में विशिष्ट स्तर पर होती है। इससे उत्पन्न ऊर्जा अपने कई तरह के भौतिक और आत्मिक प्रयोजन पूरे करती है। आदिम सभ्यता के विकास काल में चकमक पत्थर के टुकड़े आपस में टकराकर आग उत्पन्न की जाती थी। पीछे लोहे, पत्थर के टकराव से भी चिनगारियाँ उत्पन्न की जाने लगीं। अरणि मथन में लकड़ियाँ आपस में रगड़कर यज्ञ के लिये अग्नि उत्पन्न करना उस कर्मकाण्ड का एक अंग रहा है। सूखे हुए बाँस अथवा अन्य कई लकड़ियाँ तेज हवा के झोंकों से आपस में रगड़ने लगती हैं और उनसे उत्पन्न आग बढ़ते-बढ़ते दावानल बनकर बड़े-बड़े जंगलों को जलाकर खाक कर देती हैं। सीसे की छड़ एकोनाइट से घिसने पर बिजली उत्पन्न होने की बात साइन्स के छात्रों को स्कूली प्रयोगशाला में स्पष्ट दिखाई देती है। यह सब घर्षण के चमत्कार हैं। ऐसी ही ऊर्जा श्वाँस क्रिया का मंथन क्रम चलाने पर उत्पन्न होती है और उससे शारीरिक सक्रियता एवं मानसिक तीक्ष्णता को प्रखर बनाने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।
चलती रेल के पहियों में जब चिकनाई समाप्त हो जाती है अथवा अन्य किसी कारण से घिसाव पड़ने लगता है तो वही उत्पन्न होने वाली गर्मी धुरे तक को जला देती है और दुर्घटना की स्थिति बन जाती है। आकाश में कभी-कभी प्रचण्ड प्रकाश रेखा बनाते हुए ‘तारे टूटते’ दिखाई पड़ते हैं। यह तारे नहीं उल्का पिण्ड होते हैं। अन्तरिक्ष में छितराते हुए धातु पाषाण जैसे छोटे-छोटे टुकड़े कभी-कभी पृथ्वी के वायु-मण्डल में घुस पड़ते हैं और हवा से टकराने पर जलकर खाक हो जाते हैं। उसी जलने का तेज प्रकाश देखकर तारा टूटने का अनुमान लगाया जाता है। यह मात्र घर्षण क्रिया का चमत्कार हैं। प्राणायाम में इसी प्रक्रिया को अपने ढंग से दुहराया जाता है और प्रकाश उत्पन्न करते देखा जा सकता है।
दही मंथन में ‘रई’ को रस्सी के दो छोरों से पकड़ कर उलटा-सीधा घुमाया जाता है। रई घूमती है और उससे दूध में मिला हुआ घी उभर कर बाहर आ जाता है। बायें-दायें नासिका स्वरों से चलने वाले इड़ा पिंगला विद्युत प्रवाहों का अमुक विधि से मंथन करने पर दूध बिलोने जैसी हलचल उत्पन्न होती है। उससे काय चेतना में भरा हुआ ओजस् उभरकर ऊपर आता है इसको विधिवत् उत्पन्न और धारण किया जा सके तो साधक को मनस्वी, तेजस्वी और ओजस्वी बनने का अवसर मिलता है। इस उपलब्धि को जीवन, साहस एवं प्रखरता के रूप में कार्यान्वित होते देखा जा सकता हैं।
कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से सुयोग्य होते हैं, पर साहस का अभाव होने से वे कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-कुशंकाओं से ग्रस्त रहने, आपत्तियों की, असफलताओं की सम्भावना उन्हें पग-पग पर डराती रहती है। थोड़ी सी कठिनाई आने पर डरे घबराये दिखाई पड़ते और गई गुजरी स्थिति में आजीवन पड़े रहते हैं। इसके विपरीत साहसी व्यक्ति स्वास्थ्य, साधन एवं उपयुक्त अवसर न होने पर भी दुस्साहस भरे कदम उठाते और आश्चर्यचकित करने वाली सफलताएँ प्राप्त करते देखे जाते हैं। ऐसे ही दुस्साहसी व्यक्ति इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम अमर करते देखे जाते हैं। किसी भी क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पाने के लिए ऐसी ही साहसिक मनोभूमि का होना आवश्यक है। इस आन्तरिक समर्थता को दूसरे शब्दों में ‘प्राण’ कहा जाता है। प्राणवान का अर्थ जीवित ही नहीं साहसी भी होता है। उस उपलब्धि को स्वास्थ्य और शिक्षा से भी बढ़कर माना जा सकता है। प्राणायाम के प्रयोग इस उपलब्धि से साधक को लाभान्वित करते हैं।
भगवान के अवतार के प्रसिद्ध प्रयोजन दो हैं (1) अधर्म का उन्मूलन (2) धर्म का संस्थापन ।। अनाचार को निरस्त करके ही सदाचार की स्थापना हो सकती है। अस्तु सिक्के के दो भागों की तरह उन्हें परस्पर पूरक एवं अविच्छिन्न भी कह सकते हैं। उद्यान को विकसित करने वाला माली जहाँ जहाँ खाद-पानी लगाता है, वहाँ निराई, गुड़ाई, छटाई, रखवाली जैसी कड़ाई भी बरतता है। आत्मोत्कर्ष के लिए जहाँ सत्प्रवृत्तियों का विकसित किया जाना, पुण्य प्रयोजनों को अपनाना अभीष्ट है, उतना ही दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए तत्परता बरतना भी आवश्यक है। भगवान के अवतार इस दुहरी क्रिया-प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए ही होते रहे हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी इसी प्रगति पथ पर बढ़ने वालों को इसी मार्ग का अवलम्बन करना होता है। संक्षेप में इसे यों कह सकते हैं कि जिसके अन्तःकरण में भगवान की दिव्य ज्योति का अवतरण होगा, उसे अवांछनीयताओं के विरुद्ध लोहा लेने के लिए पराक्रम प्रदर्शित करना होगा और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में जुटना होगा। यह दोनों ही प्रयोजन जिस आन्तरिक साहस द्वारा सम्पन्न होते हैं, उसी को ‘आत्मबल’ कहा गया है। साधना का एक उद्देश्य आत्मबल का उपार्जन भी है। प्राणायाम द्वारा उत्पन्न हुई आन्तरिक ऊर्जा इस उत्पादन में विशेष रूप से सहायक होती है। इन्द्रिय दमन, मनोनिग्रह, कुसंस्कारों का उन्मूलन, सत्प्रयोजन की दिशा में अनवरत प्रयाण, कठिनाइयों से संघर्ष, जन उपहास एवं विरोध का सहन जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य बिना आन्तरिक साहस के अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकते।
व्यक्तित्व का कायाकल्प कर सकने वाले व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में शूरवीर कहे जाते हैं और उन्हीं को भौतिक जगत की प्रत्येक दिशा में बढ़ चलने का द्वार खुला मिलता है। इस जीवन-प्राण कहे जा सकने वाले चेतन तत्त्व को प्राण कहते हैं। प्राणायाम इसी उपलब्धि की साधना है।
अण्डा तब फूटता है जब उसके भीतर के बच्चे की अन्तःचेतना उस परिधि को तोड़कर बाहर निकलने की चेष्टा करती है। प्रसव पीड़ा और प्रजनन की घड़ी तब आती है जब गर्भस्थ शिशु की चेष्टा उस बन्धन को तोड़ कर मुक्ति पाने की आतुर चेष्टा में संलग्न होती है। इन शिशुओं के सङ्कल्प गिरे-मरे हों तो वे भीतर ही सड़ गल कर नष्ट हो जायेंगे। प्रगति के लिए पराक्रम और अवांछनीयता के विरुद्ध संघर्ष का शौर्य साहस अपना कर ही किसी को उत्कृष्ट स्तर तक बढ़ चलने का अवसर मिलता है। पराक्रम विहीन व्यक्ति को प्रतिपक्षी शक्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट करके रख देती हैं। भगवान बुद्ध ने यों अपने समय के अनाचार से शूरवीरों की तरह लड़ाई लड़ी थी, पर पीछे उनके अनुयायियों ने बौद्ध धर्म का सरल पक्ष ही ध्यान में रखा-अहिंसा। यह भुला दिया गया कि आक्रमणकारी हिंसा की दुष्टता से लोहा लिये बिना अहिंसा की आड़ में कायरता ने अड्डा जमा लिया है। लोग जप-तप का सरल आश्रय तो पकड़े रहे, पर अनीति से जूझने की प्रखरता को व्यर्थ समझने की एकाकी दृष्टि अपनाते रहे। मध्य एशिया के लुटेरों ने इस दुर्बलता को समझा और वे भारत पर चढ़ दौड़े। शौर्य गँवा देने पर वे बहुसंख्यक और साधन सम्पन्न होते हुए भी थोड़े से लुटेरों का सामना न कर सके और पराधीनता के पाश में जकड़ गये।
प्रगति के लिए न सही, आत्मरक्षा तक का उद्देश्य बिना प्रचण्ड पराक्रम विकसित किये सम्भव नहीं हो सकता। पराक्रम प्राण का गुण है, इसी को पुरुषार्थ भी कहते हैं। प्राणवान पुरुषार्थी को ही पुरुष कहा जाता है। आत्मबल इसी आन्तरिक ऊर्जा का नाम है, जो मनुष्य को भौतिक और आत्मिक क्षेत्र में प्रबल पुरुषार्थ करने तथा आश्चर्यचकित करने वाली उपलब्धियाँ उपार्जित करने की आधारशिला सिद्ध होती है। इसी ऊर्जा को उपार्जित करना प्राणायाम करने का प्रधान उद्देश्य है। तालबद्ध, क्रमबद्ध संकल्प युक्त विशेष विधान सहित श्वास क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। किस स्तर का प्राण उपार्जित किया जाय, इसके लिए भिन्न-भिन्न विधान हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह पाँच प्राण माने गये हैं। सूर्य की सात किरणों की तरह एक ही प्राण शक्ति के ये भेद-उपभेद सन्निहित शक्ति के वर्गीकरण का ध्यान रखते हुए किये हैं। भस्त्रिका, भ्रामरी, उज्जायी, शीतला, सीत्कारी आदि अनेकों उसके विधि-विधान हैं। इनके उद्देश्य और प्रतिफल भी अनेक हैं। सूक्ष्मदर्शियों ने इन सब में सोऽहम् साधना को सर्वोपरि महत्त्व की तथा सर्व-सुलभ स्तर की माना है अन्य प्राणायामों के विधि-विधान में अन्तर पड़ने से हानि होने की संभावना भी है, पर हंसयोग में सोऽहम् प्राण साधना में वैसा कोई डर नहीं है। जप, ध्यान और प्राण इन तीनों ही आधारों का समन्वय है। इसीलिए उसे गंगा-यमुना के संगम की तरह तीर्थराज तुल्य माना या उससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता और सद्भाव सम्पन्नता के त्रिविधि लाभ उपलब्ध होते हैं।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
78. एकाग्रता की शक्ति और उसका सुनियोजन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शक्ति को उपलब्ध करना बड़ी बात नहीं, उसे बिखराव की निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहीत रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े।
धूप, गर्मी से ढेरों पानी समुद्र तालाबों में से भाप बनकर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती और उमड़ती है। उसका कोई उपयोग नहीं। किन्तु इन्जन में थोड़ा सा पानी भाप बनाया जाता है। उस भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका शक्ति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुँचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इन्जन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्ययुक्त होती है कि अपने साथ-साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है।
सेरों बारूद यदि जमीन पर फैलाकर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी सी चमक दिखाकर भक् से जल जायेगी। उसका कुछ भी उपयोगी परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक की छोटी सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई एक दिशा विशेष की ओर प्रचण्ड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहाँ टकराती हैं, वहाँ सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति को दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने की सार्थकता में कितना अन्तर होता है, इसे सहज ही समझा जा सकता हैं।
सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी सी गर्मी रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है। पर यदि उन किरणों के एक दो इन्च के बिखराव को आतिशी शीशे द्वारा केन्द्र पर केन्द्रित कर लिया जाय तो देखते-देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत कर सकती है।
स्थूल शक्तियों की तरह सूक्ष्म शक्तियों का लाभ भी उन्हें एकत्रित करके किसी दिशा विशेष में लगा देने से ही सम्भव हो सकता है। मस्तिष्क एक सशक्त बिजलीघर है। इसमें निरन्तर प्रचण्ड विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है और उसके शक्तिशाली कम्पन ऐसे ही अनन्त आकाश में उड़ते, बिखरते नष्ट होते रहते हैं। यदि इस प्रवाह को केन्द्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं। एकाग्रता की चमत्कारी शक्ति कहीं भी देखी जा सकती है। सरकस में एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक खेल होते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति का उपयोग कम और एकाग्रता का अधिक होता है। एक पहिये की साइकिल, एक तार पर चलना, एक झूले से दूसरे झूले पर उछल जाना, तश्तरियाँ एक हाथ से तेजी से लगातार उछालना और दूसरे से पकड़ना जैसे खेलों में एकाग्रतापूर्वक कुछ अंगों को सधा लेने का अभ्यास ही कौतूहल उत्पन्न करता है।
द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी नकली मछली की तीर से आँख भर बेध देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा रहे थे। निशाने पर तीर छोड़ने से पूर्व वे छात्रों से पूछते तुम्हें क्या दीखता है? शिष्यगण मछली के आस-पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर दीखने की बात कहते। द्रोणाचार्य उनकी असफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा-मुझे मात्र मछली की आँख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्व घोषणा कर दी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य बेध की शर्त पूरी करके द्रौपदी विवाह का अधिकारी बन सका।
एकाग्रता की शक्ति असाधारण है। भौतिक प्रयोजनों में उसका चमत्कारी उपयोग नित्य ही देखा जाता है। बही-खाता सही रखने और मीजान ठीक जोड़ने में एकाग्रता के अभ्यासी ही सफल होते हैं अन्यथा सुशिक्षितों से भी पन्ने पर भूल होने और काट-फाँस करने की कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। वैज्ञानिकों की यही विशेषता है कि वे अपने विषय में तन्मय हो जाते हैं और विचार समुद्र में गहरे गोते लगाकर नई-नई खोजों के रत्न ढूँढ़ लाते हैं।
लोकमान्य तिलक के जीवन का एक संस्मरण प्रसिद्ध है कि उनके अँगूठे का आपरेशन होना था। डाक्टर ने दवा सुँघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा तो उनने कहा-मैं गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगता हूँ आप बे खटके आपरेशन कर लो। डाक्टर को तब बहुत आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने बिना हिले-डुले शान्तिपूर्वक आपरेशन करा लिया। पूछने पर तिलक ने इतना ही कहा-तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी जिसमें आपरेशन की ओर ध्यान ही नहीं गया और दर्द भी नहीं हुआ।
बिखराव को रोकने की, उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रखकर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। मेडीटेशन की योग प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने, समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत ही बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएँ, उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है। बाँधों में पानी भरा रहता है। पर जब उसे एक छोटे छेद में होकर निकाला जाता है तो पानी के दबाव से वह धारा बड़ी तेजी से निकलती है। इस धारा में असाधारण शक्ति होती है, उसके प्रहार से अमुक मशीनों के पहिये घुमाये जाते है और उनके घूमते ही कई प्रकार के यन्त्र चलने लगते हैं। बड़े-बड़े बिजली घरों का निर्माण बँधे हुए जलाशय बाँधों पर ही होता है। इन्जन या मोटर चलाकर बिजली पैदा करना मँहगा होता है। पर बाँध के सहारे तो यह उत्पादन काफी सस्ता पड़ता है। छोटे-छोटे जल प्रपातों से भी पनचक्की जैसी उपयोगी मशीनें चल पड़ती हैं। यह जलधारा की, झरनों की नहीं एकाग्रता की शक्ति है। फैले क्षेत्र को छोटा कर देने से सहज ही उसकी प्रखरता बढ़ जाती है।
जमीन देखने में मिट्टी, धूलि की निरर्थक सी वस्तु प्रतीत होती है, पर यह उसकी ऊपरी परत का ही मूल्यांकन है। उसे खोदने पर एक से एक बहुमूल्य वस्तुएँ मिलती चली जाती हैं। थोड़ा खोदने पर पानी निकल आता है। उससे दैनिक उपयोग के सारे काम चलते हैं। पेड़ पौधों की सिंचाई तथा कल कारखाने चलते हैं। इससे गहरे उतरने पर अनेक रासायनिक पदार्थ धातुएँ रत्न, गैस, तेल जैसी बहुमूल्य वस्तुएँ हाथ लगती हैं। स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह गहरी खुदाई नोकदार बरमे ही कर सकते हैं। एकाग्रता को कई शक्तियों का एकीकरण कह सकते हैं। इससे अंतःक्षेत्र में छिपी हुई विभूतियाँ और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई सम्पत्तियाँ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकती है और सामान्य सा जीवन असामान्य विशेषताओं और तज्जनित सफलताओं से भरा-पूरा दृष्टिगोचर हो सकता है।
अक्सर लोगों को अपनी स्मरण शक्ति की कमी एवं बुद्धि मन्दता की शिकायत रहती है। इसका छोटा कारण तो मनःसंस्थान की संरचना में यत्किंचित अन्तर का होना भी हो सकता है, पर प्रधान कारण है अन्यमनस्कता, अरुचि एवं उपेक्षा। बहुत करके वे ही बातें होती हैं जो महत्त्वहीन समझी जाती हैं और जिन्हें हल्की दृष्टि से देखा जाता है। जीवन में महत्त्वपूर्ण लगने वाली घटनाएँ कभी विस्मृत नहीं होती। विवाह दिन का घटनाक्रम, कन्वोकेशन में उपाधि पत्र मिलने का सम्मान जैसे उत्साहवर्धक अथवा किसी प्रियजन की मृत्यु, बड़ी चोरी, बड़ा घाटा, आक्रमण जैसे त्रासदायक घटनाक्रम मुद्दतों तक मस्तिष्क में घूमते रहते हैं और उन्हें कभी भी क्रमबद्ध रूप से सुनाया जा सकता है। यदि सचमुच ही स्मरण शक्ति कम रही होती तो वे विशेष घटनाएँ भी विस्मृत ही हो जाती।
इतिहास में असंख्य लोगों के ऐसे विवरण हैं जो बड़ी आयु तक मन्द बुद्धि समझे जाते रहे किन्तु जब उन्होंने अपने व्यक्तित्व को विकसित करने की ओर ध्यान दिया, उत्तरदायित्वों को समझा, अपने को कसा और पूरा ध्यान देकर अध्ययन करना आरम्भ किया तो उनकी बौद्धिक न्यूनता सहज ही दूर हो गई। वे तीव्र बुद्धि माने गये और क्रिया कुशल भी। स्वास्थ्य, धन, प्रभाव, यश, वर्चस्व आदि के क्षेत्रों में भी यही होता रहा हैं। उपेक्षाजन्य आलस्य प्रमाद के कारण ही पिछड़ापन उत्पन्न होता है, पर जब सजग सक्रियता का दौर आरम्भ होता है तो प्रगति का चक्र दस गुने वेग से घूमने लगता है। महत्त्वपूर्ण सफलताएँ केवल उन्हें मिलती है, जिन्हें अपने कार्य में पूरी दिलचस्पी होती है और अभीष्ट प्रयोजन के लिए समग्र तत्परता समेटकर पिल पड़ने में आनन्द आता है। यह सब रुचि का केन्द्रीकरण और मानसिक क्षमता के एकत्रीकरण का ही चमत्कार है। इस प्रयोग से कोई भी मन्द बुद्धि, दुर्बल शरीर, उपेक्षित, अभावग्रस्त मनुष्य अपना काया कल्प कर सकता है।
एकाग्रता का एक चमत्कार मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म भी है। प्रयोगकर्ता अपने दृष्टि को एक बिन्दु पर एकत्रित करने का अभ्यास करता है। अपनी इच्छा शक्ति को समेटकर लक्ष्य केन्द्र में समाविष्ट करता है। फलस्वरूप जादुई शक्ति उत्पन्न होती है और उससे दूसरों को सम्मोहित करके उन्हें इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। उनमें मानसिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं तथा प्रखरता के नये बीज बोये जा सकते हैं। प्राण विद्या के द्वारा शारीरिक, मानसिक चिकित्सा के अनेक कठिन कार्य पूरे किये जाते हैं। यह सब एकाग्रता का ही चमत्कार है।
ध्यानयोग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है, उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से बेधक प्रचंडता उत्पन्न होती जाती है। शब्दवेधी बाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से, दिव्य ऋद्धि-सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा-पूरा दिखाई पड़ेगा। यदि लक्ष्य भौतिक उन्नति है, तो भी इस एकाग्रता का सचमुच लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती चली जायेगी। शक्ति का जब, जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायेगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे।
एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बाँध बना लिये जाते है और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर-दूर तक क्षेत्र हरा-भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़-फोड़कर इधर-उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत निर्माण कारखाने से कम नहीं आँका जाना चाहिए। बिजली घरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती और प्रभाव क्षेत्र जो आज घर-परिवार तक सीमित है वह कल विश्व-व्यापी बन सकता है। बिजली घर के तार निर्धारित वोल्टेज की क्षमता ही धारण किये रहने को बाध्य हैं, पर मस्तिष्क की प्रचण्ड सत्ता परिस्थिति के अनुसार इतनी अधिक क्षमता सम्पन्न हो सकती है कि क्षेत्र, समाज की सीमा को पार करते हुए अपने प्रभाव से समस्त संसार को प्रभावित कर सके और वातावरण बदल देने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके।
विज्ञानी, दार्शनिक, कलाकार, विद्वान, शिल्पी, साहित्यकार, व्यवस्थापक, संयोजक, नेता जैसे महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निबाहने वाले व्यक्ति भी प्रायः सामान्य लोगों जैसे ही होते हैं। न उनके शरीर में कोई अतिरिक्त कलपुर्जा होता है और न मस्तिष्क में जादू की छड़ी गढ़ी होती है। अन्य लोगों से भिन्नता और श्रेष्ठता का जितना कुछ चमत्कार दीखता है, वह उनकी उस आन्तरिक विशेषता का परिणाम है जिसका प्रथम चरण एकाग्रता और दूसरा लक्ष्य-निष्ठा कहा जा सकता है। मस्तिष्कीय ऊर्जा हर किसी में प्रचुर परिणाम में होती है, यहाँ तक कि मन्द बुद्धि समझे जाने वाले लोगों में भी मूल प्रतिभा की कमी नहीं होती। अन्तर प्रसुप्त और जागृत स्थिति के परिमाण का होता है। सोती हुई स्थिति में बुद्धिमान मनुष्य भी अर्धमृतक की स्थिति में पड़ा रहता है। किन्तु जागने पर अपना वर्चस्व सिद्ध करता है। यही बात मस्तिष्क के सम्बन्ध में है। परिस्थितिवश किन्हीं-किन्हीं के मस्तिष्कीय कण प्रसुप्त स्थिति में पड़े होते है और वे मन्द बुद्धि जैसे लगते हैं किन्तु यदि उन्हें प्रयत्नपूर्वक जागृत किया जाय, तो वे न केवल प्रतिभाशाली लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं, वरन् कई बार तो उनसे भी आगे निकल जाते हैं।
विद्या के क्षेत्र में कालिदास, वरदराज जैसे असंख्य लोगों के उदाहरण ऐसे हैं, जिनमें वे युवावस्था तक मन्द मति समझे जाते रहे और लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहे। किन्तु अन्तःस्फुरण के प्रचण्ड रूप में आते ही उनका मनःसंस्थान भी तिलमिला उठा और वे देखते-देखते विद्वानों की प्रथम पंक्ति में जा बैठे। बचपन में जिन्हेंं प्रतिभा शून्य मान लिया गया था, ऐसे असंख्य लोग आगे चलकर अपने विषय में मूर्धन्य बने हैं। ऐसे उदाहरण यदि संग्रह करने आरम्भ किये जाय तो हर क्षेत्र में सहस्रों प्रमाण सरलतापूर्वक मिल सकते हैं। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मन्द बुद्धि होना जितना मस्तिष्कीय विकास की कमी पर निर्भर रहता है उससे अधिक इस बात पर अवलम्बित है कि एकाग्रता और आकांक्षा का समन्वय करके किसी दिशा में बढ़ चलने की बात बनी या नहीं बनी।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
79. आत्मिकीः चेतना को परिष्कृत-प्रखर बनाने वाली फलदायी विधा
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
ब्रह्मविद्या के आत्मिकी के दो भाग हैं-एक आस्था पक्ष दूसरा क्रिया पक्ष। आस्था पक्ष में चिन्तन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले समस्त ज्ञान विस्तार को सम्मिलित किया गया है। वेद शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन, नीतिशास्त्र आदि इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए रचे गये हैं। पाठ, स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन का, कथा-प्रवचनों का, माहात्म्य इसी आधार पर बताया गया है कि उस प्रक्रिया के सहारे मानवी चिन्तन का परिष्कार होता रहे। अवांछनीय पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार छुड़ाने में यह ज्ञान साधना साबुन का काम करती है। विकृतियों से छुटकारा मिलता हैं और विवेक युक्त दूरदर्शिता का पथ प्रशस्त होता है। प्रज्ञा, भूमा, ऋतम्भरा इसी परिष्कृत चिन्तन का नाम है। ‘ज्ञानामुक्ति’, ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते’ जैसी उक्तियों में सद्ज्ञान को अध्यात्म का प्राण माना गया है। वेदान्त दर्शन को तो विशुद्ध रूप से ज्ञान साधना ही कहा जा सकता है।
इसी सद्ज्ञान संवर्धन की बहुमुखी प्रक्रिया को अध्यात्म विज्ञान में ‘योग’ नाम दिया गया है। योग का अर्थ है जोड़ देना-आत्मा को परमात्मा से। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, वरन् शक्ति है। उत्कृष्ट आदर्शवादी आस्थाओं, आकांक्षाओं के रूप में ही उसकी अनुभूति अपने विचार संस्थान में की जा सकती है। आत्म साक्षात्कार का अर्थ यही है कि अपनी आस्थाएँ परिष्कृत स्तर की देवोपम दीखने लगें।
अध्यात्म विज्ञान का दूसरा पक्ष क्रिया परक है-इसे ‘तप’ कहते है। आत्म-निर्माण इसका एक चरण है और लोक-कल्याण दूसरा। इन दोनों के लिए जो भी प्रयत्न करने पड़ते हैं, उनमें अभ्यस्त पशु-प्रवृत्तियों को चोट पहुँचती है। स्वार्थ साधनों में कमी आती है और परमार्थ प्रयोजनों की सेवा साधना करते हुए कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। स्वार्थ सुविधा में कटौती करके ही परमार्थ की दिशा में कुछ किया जा सकता है। प्रत्यक्षतः यह सांसारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है और अभ्यस्त प्रवृत्ति से विपरीत पड़ने के कारण कष्ट, भय भी अनुभव होता है। इन कठिनाइयों को पार करने के लिए शरीर की तितीक्षा का, मन की सादगी का तथा इस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने योग्य आन्तरिक साहसिकता का सहारा लेना पड़ता है। अपने आप को इसी ढाँचे में ढालने के लिए जितने भी प्रयास किये जाते हैं, वे सब ‘तप’ की श्रेणी में गिने जाते हैं।
आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए योग और तप के दोनों कदम बढ़ाते हुए, लेफ्ट-राइट की परेड करते हुए गतिशील होना पड़ता है। ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराएँ गंगा-यमुना की तरह जब मिलती है, तब प्रभु प्राप्ति का संगम, सुअवसर हाथ में आता है। भिन्न-भिन्न परम्पराओं में अपनी ज्ञान साधना और कर्मकाण्ड प्रक्रिया को कई तरह से निर्धारित किया है, पर सभी का मूल प्रयोजन समान है। समस्त संसार में प्रचलित अध्यात्म के ज्ञान पक्ष को योग और क्रिया पक्ष को तप की ही संज्ञा दी जा सकती है। गायत्री को योग और यज्ञ को तप के अर्थ में ही प्रयुक्त साधन के रूप में देखा समझा जाना चाहिए।
आत्मिकी के योग दर्शन को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-(1) आत्मज्ञान (2) ब्रह्मज्ञान (3) तत्त्वज्ञान (4) सद्ज्ञान।
आत्मज्ञान वह है जिसमें जीव का, जीवन का, अन्तःचेतना के उत्थान-पतन का निरूपण किया जाता है और आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास का सूक्ष्मदर्शी प्रकाशयुक्त मार्गदर्शन किया जाता है। दूसरे शब्दों में इसे जीवात्मा की विवेचना भी कह सकते हैं।
ब्रह्मज्ञान वह है जिसमें परमात्मा की सम्पूर्ण सत्ता की व्याख्या तो अचिन्त्य नेति-नेति कहकर बौद्धिक असमर्थता प्रकट कर दी गई है, पर मनुष्य जीवन के साथ परमात्म-सत्ता का जितना तालमेल बैठता है उस पर कई दृष्टियों से प्रकाश डाला जाता है। आत्मा के साथ परमात्मा का मिलन निस्संदेह लोहे और पारस के सम्पर्क से सोना बन जाने वाली किम्वदन्ती सच्चे अर्थों में सार्थक देखी जा सकती है। अमृत और कल्पवृक्ष के लाभ, महात्म्य का जो अलंकारिक वर्णन मिलता है, उसे परमात्मा के सान्निध्य से मिलने वाली भौतिक तथा आत्मिक उपलब्धियों को देखते हुए अक्षरशः सही माना जा सकता है। सिद्धियों का, चमत्कारी अलौकिकताओं का जो विवरण साधना ग्रन्थों में मिलता है उसे परमात्म-सत्ता के साथ जीवात्मा के सान्निध्य, सम्पर्क की सुनिश्चित प्रतिक्रिया कहा जा सकता है।
आस्था का तीसरा पक्ष है तत्त्वज्ञान। इसे विचार विज्ञान कह सकते हैं। विचारों की प्रचण्ड शक्ति और उनकी प्रतिक्रियाओं से बहुत कम लोग परिचित होते हैं। तथ्य यह है कि हाड़-माँस के पुतले में जितना चेतन चमत्कार देखा जाता है वह सब विचार वैभव का ही परिणाम है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता, निकृष्टता, मनुष्य की प्रतिभा, वरिष्ठता और सर्वतोमुखी दुर्बलता का मूल्यांकन किसी के विचारों का स्तर देखकर ही किया जा सकता है। सफलता और असफलता के कारणों में साधनों का, परिस्थितियों का नहीं, संकल्प शक्ति और व्यवस्था-बुद्धि का ही प्रमुख महत्त्व रहता है। लोग गलत ढंग से सोचते हैं और गलत विचारों को अपनाते हैं। फलतः जीवन का स्वरूप और भविष्य दोनों ही अन्धकार से ढक जाते हैं। मस्तिष्क को जिस तरह सोचने की आदत है, उसका गुण-दोष के आधार पर विवेचन करते हुए मात्र औचित्य को अपनाने की साहसिकता को मनस्विता कहते हैं।
चौथा पक्ष सद्ज्ञान है। सद्ज्ञान का तात्पर्य है नीति-शास्त्र, व्यवहार-कौशल, शिष्टाचार, सदाचार, कर्तव्यपालन, उत्तरदायित्वों का निर्वाह। धर्म इसी को कहते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे एकाकी नहीं, सह जीवन जीना पड़ता है। सहकारिता के बिना, पारस्परिक आदान-प्रदान के बिना न स्थिरता रह सकती है न प्रगति संभव हो सकती है। हमें परस्पर मिल-जुलकर ही रहना होता है और सामाजिकता के नियमों का पालन करते हुए, नागरिक उत्तरदायित्वों को निबाहते हुए सज्जनता का जीवन जीना पड़ता है। इस क्षेत्र में जहाँ जितनी उच्छृंखलता बरती जा रही होगी, वहाँ उतनी ही अशान्ति फैलेगी और विपन्नता उत्पन्न होगी। अपने आपके प्रति, स्वजन सम्बन्धियों के प्रति एवं सर्व साधारण के प्रति हमारी रीति-नीति, व्यवहार पद्धति क्या हो? उसकी सही और शालीनता युक्त गतिविधि अपनाने को लोक व्यवहार एवं सद्ज्ञान कहा जाता है।
अध्यात्म का योग पक्ष इन चारों ज्ञान प्रक्रियाओं के परिष्कार एवं समन्वय परक आधार पर विनिर्मित होता है। इस पक्ष के पारंगतों को मनीषी, ऋषि, तत्त्वज्ञानी, ब्रह्मवेत्ता, दृष्टा, आत्मदर्शी आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। वे अपने में परमात्मा का दर्शन करते हैं। वह सब कुछ प्राप्त करते हैं, जो इस संसार में पाने योग्य है।
आत्मिकी का क्रिया पक्ष जिसे तप कहते हैं-तीन भागों में विभक्त हैं (1) आत्म-निग्रह के लिए की गई तितीक्षा और तृष्णा का निग्रह-नियंत्रण।
(2) परमार्थ प्रयोजनों के लिए सेवा-साधना में, त्याग बलिदान में उत्साह और अभ्यास।
(3) साधनात्मक कर्मकाण्डों के माध्यम से आत्म-शिक्षण की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण की प्रक्रिया।
आत्मनिग्रह में अस्वाद व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन, सर्दी-गर्मी के ऋतु प्रवाह का सहन, सादगी, मितव्ययता, दिनचर्या निर्धारण और उसका कड़ाई से पालन, जैसी शरीर और मन की पुरानी अवांछनीय आदतों पर रोकथाम के लिए बरती हुई कड़ाई तप साधना के तितीक्षा वर्ग में आती है।
दान, पुण्य, सेवा, सहायता, सामूहिक सत्कर्मों में सहयोग, लोक कल्याण की प्रवृत्तियों में रस लेना और उसके लिए समय, श्रम एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाना। अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने में लगने वाली चोटों को सहने के लिए साहस एकत्रित करना। उदारता के कारण अपनी सुविधाओं में कमी के लिए तैयार रहना। इसमें अप्रतिष्ठा एवं सम्बन्धियों के स्वार्थों में कमी आने से उनकी नाराजगी सहने को प्रस्तुत रहना। लोक प्रवाह से विपरीत चलने के कारण उपहास, अपमान, विरोध एवं प्रहार की संभावना मानकर चलना और उनका धैर्यपूर्वक सामना करना। इस प्रकार की कष्ट सहिष्णुता तप साधना का दूसरा चरण है।
तीसरे तप वर्ग में विभिन्न प्रकार के साधनात्मक कर्मकाण्ड आते है। जप, ध्यान, प्राणायाम, देवपूजा, संध्या, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि अनेकों सम्प्रदायों में प्रचलित अनेकों विधि-विधान इसी उपासना वर्ग में आते हैं।
योग साधना के चार और तप साधना के तीन कुल मिलाकर ये आत्मिकी के सात सोपान हैं। इन्हीं को सप्तलोक, सप्तऋषि, सप्तमहाव्रत कहा गया है। सप्त-द्वीप, सप्त-समुद्र, सप्त-शिखर, सप्त-रत्न, सप्त-धातु, स्वर-सप्तक, सप्त-सूर्य किरणें, सप्ताह आदि की संगति इन्हीं सात सोपानों से मिलती है। विभिन्न अलंकारों के साथ इन्हीं सात तथ्यों को मनीषियों ने विभिन्न प्रतिपादनों के साथ निरूपित किया है और जनमानस में विभिन्न प्रतिपादनों के साथ प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया है। अध्यात्म के ज्ञान पक्ष और विज्ञान पक्ष को समझने के लिए जो अनेकानेक शास्त्र पढ़ने को और विद्वानों के प्रवचन प्रतिपादन सुनने को मिलते हैं, उनमें सात महा तथ्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि उन्हें सही रीति से समझा और अपनाया जा सके तो मनुष्य में देवत्व का अवतरण हो सकना सुनिश्चित है।
विज्ञान पक्ष की साधना में तपश्चर्या को केन्द्र मानकर चलने वाले विधि-विधानों का उद्देश्य है-प्रसुप्ति से निवृत्ति, मूर्छना से मुक्ति। इसके लिए गर्मी उत्पन्न करनी पड़ती है। गर्मी पाकर प्रसुप्ति से मुक्ति मिलती है। सूर्योदय की बेला निकट आने पर प्राणियों की निद्रा टूटती है और वे जागते, उठते एवं कार्यरत होते हैं। रात्रि में कलियाँ सिकुड़ी पड़ी रहती है, पर जैसे ही सूर्य निकलता है वे हँसने, खिलने लगती हैं। मानवी सत्ता के अन्तर्गत बहुत कुछ है। अत्युक्ति न समझी जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि सब कुछ है किन्तु है वह मूर्च्छित। इस मूर्छना से जगाने के लिए धूप, आग, बिजली आदि से उत्पन्न बाहरी गर्मी से काम नहीं चलता। उसका प्रभाव भौतिक जगत में ही अपनी हलचल उत्पन्न करके रह जाता है। चेतना पर चढ़ी हुई मूर्छना को हटाने के लिए तप करना पड़ता है। उसके लिए भीतरी गर्मी की आवश्यकता पड़ती है। इसे कैसे उगाया और बढ़ाया जा सकता है, इसी विज्ञान को अध्यात्म की भाषा में तप कहते हैं।
मनोविज्ञान इसी का नाम है। निरोध से शक्ति उत्पन्न होती है। खुले मुँह की पतीली में खौलता हुआ पानी भाप बनकर ऊपर उड़ता रहता है और उसके तिरोहित होने में कोई अचंभे जैसी बात मालूम नहीं पड़ती, पर जब उसी को कड़े ढक्कन में बन्द कर दिया जाय, तो फैली हुई भाप उस बर्तन को फाड़ कर भयंकर विस्फोट कर सकती है। स्टोव और प्रेशर कुकर फटने से दुर्घटनाएँ इसी निरोध का परिणाम होती हैं। इन्द्रिय निग्रह और मनोनिग्रह का माहात्म्य इसी आधार पर बताया जाता है। ब्रह्मचर्य की महत्ता का रहस्य यही है कि ‘ओजस्’ को निम्नगामी अधःपतन से रोककर ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। उस शक्ति को गन्दी नाली में बिखेरने की अपेक्षा मस्तिष्कीय चेतना में धारण किया जाता है तो ब्रह्मलोक जगमगाने लगता है। यह निरोध का चमत्कार है।
तप साधना का दूसरा पक्ष है मंथन। समुद्र मंथन की वह पौराणिक आख्यायिका सर्वविदित है, जिसमें देव-दानवों ने मिलकर समुद्र मथा था और चौदह बहुमूल्य रत्न पाये थे। जीवन एक समुद्र है। इसमें इतनी रत्न राशि भरी पड़ी है, जिनकी संख्या सीमित नहीं की जा सकती। सिद्धियों और ऋद्धियों की गणना अमुक संख्या में की जाती रहती है, पर वह बालकों की अपनी अनुभूति भर हैं। जिसने जितना खोजा पाया उसने उतना बताया। समुद्र बहुत विस्तृत है। बच्चे उसमें कितना घुस सके और कितना पा सके, इतने भर से यह अनुमान लगाना उचित नहीं कि समुद्र की समग्र सम्पदा इतनी स्वल्प ही है।
देव-दानवों ने समुद्र मथकर कुछ ही समय में चौदह बहुमूल्य रत्न पाये थे। यह मंथन यदि अधिक समय तक, अधिक गहराई तक जारी रखा जा सके, तो उस आधार पर मिलती रहने वाली उपलब्धियों का कोई अन्त नहीं मिल सकता।
यह मंथन प्रक्रिया ही तप साधना के अन्तर्गत किये जाने वाले सरल संक्षिप्त कर्मकाण्डों द्वारा होती है और इस आधार पर स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण और कारण से अनन्त में प्रवेश करती चली जाती है। आरम्भ के छात्रों को जो कृत्य बताये जाते हैं वे उपहासास्पद लगते हैं और यह समझ में नहीं आता कि इतनी स्वल्प सी शारीरिक, मानसिक हलचलों से इतनी बड़ी उपलब्धियाँ किस प्रकार करतलगत हो सकती हैं।
हम अपने भूलोक के बारे में ही कुछ जानते हैं। अपने लोक की मोटी उपलब्धियों पर हमारी जीवनचर्या निर्भर है। भोजन, वस्त्र, निवास, विश्राम, उपार्जन, उपभोग, विनोद, सुरक्षा, चिकित्सा, यातायात जैसी दैनिक आवश्यकताएँ इन्हीं सामान्य उपलब्धियों के आधार पर मिलती हैं। उन्हीं के सहारे जीवन धारण किये रहना सम्भव होता है। इससे आगे की गहराई में वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार, तत्त्वदर्शी उतरते हैं और वे उच्चस्तरीय विभूतियाँ प्राप्त करके अपने व्यक्तित्व और क्षेत्र को चमत्कृत करते हैं।
इससे आगे के लोक और भी हैं। अध्यात्म क्षेत्र में उनके नाम भू, भुवः, स्वः, तपः, महः, जनः, सत्यम् कहे गये हैं। यह आकाश का विभाजन या किन्हीं ग्रह-नक्षत्रों का वर्णन नहीं, लोकों का विवरण है। लोक का अर्थ है-चेतना के स्तर। कामकाजी श्रमिक और सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिक की चेतना का अन्तर और प्रतिफल हम रोज ही देखते है। इससे आगे की गहराई में उतरकर ऊँचाई में उड़कर यदि अन्य चेतना लोकों में प्रवेश किया जा सके, तो प्रतीत होगा कि जो प्रत्यक्ष में स्थूल भू लोक में देखा पाया जाता है, इससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय भूमिका में विद्यमान अन्य लोकों में भरा पड़ा हैं। उन्हीं के साथ सम्पर्क बनाने में बरती गई तत्परता को योग साधना एवं तपश्चर्या कहा जाता है।
इन्हीं दिव्य उपलब्धियों के लिए साधना क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ता है। साधना कोई जादू चमत्कार नहीं वरन् विशुद्ध विज्ञान है। इसमें देवी-देवताओं को प्रसन्न करके अमुक वरदान पाने की बात सोची और कही जाती है। इस बालबोध में भी कुछ हर्ज नहीं, पर तथ्य दूसरा ही है। मानवी सत्ता के कण-कण में जो भरा है वह दिव्य है, अद्भुत है और अनन्त है। उसी को प्राप्त करने के लिए आकांक्षा, साहसिकता, सक्रियता और तत्परता को जुटा देना साधना है। साधना यदि सही दिशा में इसी प्रक्रिया को अपनाते हुए की जा सके तो उसकी सिद्धि सुनिश्चित है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
80. आत्मचेतना की जागृति का ज्ञान-विज्ञान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मानवी व्यक्तित्व एक प्रकार का उद्यान है। उसके साथ अनेकों आत्मिक और भौतिक विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं। उनमें से यदि कुछ को क्रमबद्ध, व्यवस्थित और विकसित बनाया जा सके तो उनके स्वादिष्ट फल खाते-खाते गहरी तृप्ति का आनन्द मिलता है। पर यदि चित्तगत वृत्तियों और शरीरगत प्रवृत्तियों को ऐसे ही अनियन्त्रित छोड़ दिया जाय तो वे भौंड़े, गँवारू एवं उद्धत स्तर पर बढ़ती हैं और दिशा विहीन उच्छृंखलता के कारण जंगली झाड़ियों की तरह उस समूचे क्षेत्र को अगम्य एवं कंटकाकीर्ण बना देती हैं।
जीवन कल्पवृक्ष की तरह असंख्य सत्परिणामों से भरा पूरा है। पर उसका लाभ मिलता तभी है जब उसे ठीक तरह साधा, सँभाला जाय। इस क्षेत्र की सुव्यवस्था के लिए की गई चेष्टा को साधना कहते हैं। कितने ही देवी-देवताओं की साधना की जाती है और उससे कतिपय वरदान पाने की बात पर विश्वास किया जाता है। इस मान्यता के पीछे सत्य और तथ्य इतना ही है कि इस मार्ग पर चलते हुए अन्तःक्षेत्र की श्रद्धा को विकसित किया जाता है, आदतों को नियन्त्रित किया जाता है, चिन्तन प्रवाह को दिशा विशेष में नियोजित रखा जाता है और सात्विक जीवन के नियमोपनियमों का तत्परतापूर्वक पालन किया जाता है। इन सबका मिला-जुला परिणाम व्यक्तित्व पर चढ़ी हुई दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने तथा सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने में सहायक सिद्ध होता है। सुसंस्कारों का अभिवर्धन प्रत्यक्षतः दैवी वरदान है। उसके मूल्य पर हर व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में अग्रसर हो सकता है और उत्साहवर्धक सत्परिणाम प्राप्त कर सकता है।
साधना आत्मिक क्षेत्र में भी होती है और भौतिक क्षेत्र में भी। कदम जिस भी दिशा में बढ़ते हैं प्रगति उसी ओर होती है। अपनी सतर्कता पूर्ण सुव्यवस्था जिस मार्ग पर गतिशील कर दी जाय उसी में एक के बाद एक सफलता के मील पत्थर मिलते चले जायेंगे।
साधना का महत्त्व किसान जानता है। पूरे वर्ष अपने खेत की मिट्टी के साथ अनवरत गति से लिपटा रहता है और फसल को स्वेदकणों से नित्य ही सींचता रहता है। सर्दी-गर्मी की परवाह नहीं, जुकाम-खाँसी की चिन्ता नहीं। शरीर की तरह ही खेत उसका कर्मक्षेत्र होता है। एक-एक पौधे पर नजर रहती है। खाद, पानी, निराई, गुड़ाई से लेकर रखवाली तक के अनेकों कार्य करने से पूर्व वह उनकी आवश्यकता समझता है और किसी के निर्देश से नहीं, अपनी गति से ही निर्णय करता है कि कब, क्या और कैसे किया जाना चाहिए। किसी के दबाव से नहीं, अपनी इच्छा और प्रेरणा से ही खेत की, उसे सँभालने वाले बैलों की, हल, कुदाल आदि सम्बद्ध उपकरणों की व्यवस्था जुटाये रहने की सूझ-बूझ सहज ही उठती और स्वसंचालित रूप से गतिशील होती रहती है। यह सब होता है बिना थके, बिना ऊबे, बिना अधीर हुए। आज का श्रम कल ही फलप्रद होना चाहिए, इसका आग्रह उसे तनिक भी नहीं होता। फसल अपने समय पर पकेगी, तब तक उसे धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा ही करनी होगी, यह जानने के कारण अनाज की ढेरी कोठे में भरने की आतुरता भी उसे नहीं होती। साधना कैसे की जाती है और साधक को कैसा होना चाहिए, यह किसान से सीखा जा सकता है।
साधना का क्षेत्र अन्तःजगत है। अपने ही भीतर इतने खजाने दबे गढ़े हैं कि उन्हें उखाड़ लेने पर ही कुबेर जितना सुसम्पन्न बना जा सकता है। फिर किसी बाहर वाले से माँगने जाँचने की दीनता दिखाकर आत्मसम्मान क्यों गँवाया जाय? भीतरी विशिष्ट क्षमताओं को ही तत्त्वदर्शियों ने देवी-देवता माना है और बाह्योपचारों के माध्यम से अन्तः संस्थान के भाण्डागार को करतलगत करने का विधि-विधान बताया है। शारीरिक बल वृद्धि के लिए डम्बल, मुद्गर उठाने घुमाने जैसे कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। बल इन उपकरणों में कहाँ होता है? वह तो शरीर की माँसपेशियों से ही उभरता है। उस उभार में व्यायामशाला के साधन-प्रसाधन सहायता भर करते हैं, उनसे मिलता कुछ नहीं। जो मिलता है वह भीतर से ही मिलता है। ठीक यही बात आत्मसाधना के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।
आत्मचेतना की जागृति ही साधना विज्ञान का लक्ष्य है। इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्तृत्व का बिखराव रोककर अभीष्ट प्रयोजन के केन्द्रबिन्दु पर केन्द्रीभूत करना पड़ता है। इसके लिए अपनी गतिविधियाँ लगभग उसी स्तर की रखनी पड़ती है जैसी कि भौतिक क्षेत्र में सफलताएँ पाने वाले लोगों को अपनानी होती है।
किसान का उदाहरण ऊपर दिया गया है। इन्हीं गतिविधियों को प्रत्येक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ पाने वाला व्यक्ति अपनाता है। विद्वान् को विद्या की प्राप्ति चुटकी बजाने भर से किसी जादू मन्त्र से नहीं हो जाती। इसके लिए उसे पाँच वर्ष की आयु से अध्ययन साधना का शुभारम्भ करना पड़ता है और स्कूल के घण्टे तथा घर पर अभ्यास का समय मिलाकर प्रतिदिन लगभग छै घण्टे का मानसिक श्रम करना पड़ता है। इस श्रम में जितनी एकाग्रता, अभिरुचि तथा तन्मयता होती है, उसी अनुपात से प्रगति होती है। परीक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होना इसी मनोयोग तथा उत्साहपूर्ण परिश्रम पर अवलम्बित रहता है। वैज्ञानिक समझा जाने वाला व्यक्ति बालकपन से आरम्भ किए अध्ययन क्रम को स्नातक बन जाने पर भी समाप्त करके चुप नहीं बैठा है, वरन् अपनी रुचि के विषयों को पढ़ने के लिए अनेकानेक ग्रन्थों को घण्टों तक पढ़ते रहने का स्वभाव बनाए रहा है। आज वह विद्वान समझे जाने पर भी अध्ययन से विरत नहीं हुआ है। उसकी रुचि घटी नहीं है। इस ज्ञान साधना से यों उसे धन भी मिलता है और सम्मान भी। पर इससे बड़ी उपलब्धि है उसका आत्मसन्तोष। ‘स्वान्तः सुखाय’ उद्देश्य को ध्यान में रखकर वह भले-बुरे दिनों में, हारी-बीमारी में भी अन्तःप्रेरणा से किसी न किसी प्रकार पढ़ने के लिए समय निकालता रहता है। इसके बिना उसे अन्तःतृप्ति ही नहीं मिलती। आत्म साधक की मनःस्थिति भी यही होनी चाहिए।
व्यायामशाला में नित नये उत्साह के साथ जूझते रहने वाले पहलवान की मनःस्थिति और गतिविधि का यदि गम्भीरता पूर्वक अध्ययन किया जाय तो आत्म साधना के विद्यार्थी को विदित हो सकता है कि उसे आखिर करना क्या पड़ेगा? पहलवान मात्र कसरत करके ही निश्चिन्त नहीं हो जाता, वरन् पौष्टिक भोजन की, संयम, ब्रह्मचर्य की, तेल मालिश की, उपयुक्त दिनचर्या की, प्रसन्नता निश्चिन्तता की भी व्यवस्था करता है। यदि उन सब बातों की उपेक्षा की जाए और मात्र दण्ड बैठकों को ही जादू की छड़ी मान लिया जाय तो सफलता दूर की चीज ही बनी रहेगी। एकाकी कसरत से कुछ भला न हो सकेगा। उपासनात्मक विधि-विधान की अपनी महत्ता है, पर उतने भर से ही काम नहीं चलता। चिन्तन और कर्तृत्व की रीति-नीति भी लक्ष्य के अनुरूप ही ढालनी पड़ेगी।
गायक और वादक एक दिन में अपने विषय में पारंगत नहीं हो जाते, उन्हें स्वर की, नाद की साधना नित्य निरन्तर करनी पड़ती है। रियाज न किया जाय तो गायक का स्वर छितराने लगता है और वादक की उँगलियाँ जकड़-मकड़ दिखाने लगती हैं। संगीत सम्मेलन तो यदा-कदा ही होते हैं, पर वहाँ पहुँचने पर सफलता का श्रेय देने वाली स्वर साधना को नित्य ही अपनाए रहना पड़ता है। गीत सुनने वालों ने कितनी प्रशंसा की और कितनी धनराशि दी, यह बात गौण रहती है। संगीत साधक आत्मतुष्टि की नित्य मिलने वाली प्रसन्नता को ही पर्याप्त मानता है और बाहर से कुछ भी न मिले तो भी वह एकान्त जंगल की किसी कुटिया में रहकर भी आजीवन बिना ऊबे संगीत साधना करता रह सकता है। आत्म-साधक की मनःस्थिति इतनी तो होनी ही चाहिए।
नर्तक, अभिनेता अपना अभ्यास जारी रखते हैं। शिल्पी और कलाकार जानते हैं कि उन्हें अपने प्रयोजन के लिए नित्य नियमित अभ्यास करना चाहिए। फौजी सैनिकों को अनिवार्य रूप से परेड करनी पड़ती है। अभ्यास टूट जाने पर न तो गोली का निशाना ठीक बैठता है और न मोर्चे पर लड़ने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता पड़ती है, वह हाथ रहता है। किसी विशेष प्रयोजन के लिए नियत संख्या तथा नियत अवधि की साधना से किसी पूजा प्रयोजन का संकल्प लेने वाला समाधान हो सकता है। पर आत्म-साधक को इतने भर से सन्तोष नहीं मिलता। वह जानता है कि प्यास बुझाने के लिए रोज ही कुएँ से पानी खींचना पड़ता है और सफाई रखने के लिए रोज ही कमरे को बुहारना पड़ता है। मानवी सत्ता की स्थिति भी ऐसी ही है। उसकी हीरों भरी खदान को हर दिन खोदना कुरेदना चाहिए, तभी नित्य नये उपहार मिलने सम्भव होंगे। शरीर को स्नान कराना, दाँत माँजना, कपड़े धोना नित्यकर्म है। उसकी उपेक्षा नहीं हो सकती। संसार का विक्षोभ भरा वातावरण हर किसी की अन्तःचेतना को प्रभावित करता है। उसकी नित्य सफाई न की जाय तो क्रमशः गन्दगी बढ़ती ही चली जाएगी और अन्ततः कोई बड़ी विपत्ति खड़ी करेगी।
शरीर को जीवित और सुसंचालित रखने के लिए दो कार्य आवश्यक हैं-एक भोजन, दूसरा मल त्याग। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं हो सकती। भोजन न किया जाय तो पोषण के लिए नितान्त आवश्यक रस रक्त की नई उत्पत्ति न होगी और पुराने संचित रक्त की पूँजी समाप्त होते ही काया दुर्बल होकर मृत्यु के मुख में चली जाएगी। इसी प्रकार मल त्याग न करने पर नित्य उत्पन्न होते रहने वाले विष जमा होते और बढ़ते चले जायेंगे और उनका विस्फोट अनेक उपद्रवों के रूप में प्रकट होकर कष्टकारक मृत्यु का आधार बनेगा।
पंचभौतिक शरीर की तरह सूक्ष्म शरीर की दिव्य चेतना की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। उसे भी भूख लगती है। उस पर भी मल चढ़ते हैं और सफाई की आवश्यकता पड़ती है। इन दोनों प्रयोजनों को पूरी करने वाली प्रक्रिया साधना कही जाती है। उससे सत्प्रवृत्तियों को जमाकर वह सब उगाया, पकाया जा सकता है जिससे आत्मा की भूख बुझती है और जीवन भूमि में हरी भरी फसल लहलहाती है। साधना से उन मलीनताओं का, मनोविकारों का निष्कासन होता है जो प्रगति के हर क्षेत्र में चट्टान बनकर अड़े रहते हैं और पग-पग पर व्यवधान उत्पन्न करते हैं।
साबुन और पानी से कपड़ा धोया जाता है और धूप में सुखा देने पर वह भकाभक दीखने लगता है। उसे पहनने वाला स्वयं गौरवान्वित होता है और देखने वालों को उस सुरुचि पर प्रसन्नता होती है। साधना में प्रयुक्त होने वाली आत्मशोधन और आत्मनिर्माण की उभयपक्षीय प्रक्रिया अन्तःक्षेत्र में धँसे-फँसे कुसंस्कारों को उखाड़कर उनकी जगह आम्र वृक्ष लगाती है। कँटीली झाड़ियों से पिण्ड छुड़ाने, स्वादिष्ट फल सम्पदा से लाभान्वित होने का दुहरा लाभ मिलता है। संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने-माने गए हैं, उन सबसे बढ़कर आत्मदेव है। उसकी उपासना कभी भी किसी की भी निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके और विधिवत् साधना की जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस और कल्पवृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती है।
सधाने से सामान्य स्तर के प्राणी आश्चर्यजनक कार्य करके दिखाते हैं। वन गायें मनुष्य को पास भी नहीं आने देतीं और खेतों को उजाड़कर रख जाती हैं, पर जब वे पालतूू हो जाती हैं तो दूध, बछड़े, गोबर आदि बहुत कुछ देती हैं। स्वयं सुखी रहती हैं और उसके पालने वाले भी लाभान्वित होते हैं। यही बात अन्य वन्य पशुओं के बारे में भी लागू होती है। जंगली घोड़े, कुत्ते, सुअर, हाथी आदि स्वयं भूखे मरते, कष्ट उठाते और अनिश्चित जीवन जीते हैं। पालतू बन जाने पर वे स्वयं निश्चिन्तता पूर्वक रहते हैं और अपने पालने वालों को लाभ पहुँचाते हैं। अपने भीतर शरीर तथा मनःक्षेत्र में एक से एक बढ़कर शक्तिशाली धाराएँ प्रवाहित होती हैं। वे निरुद्देश्य और अनियन्त्रित स्थिति में रहकर वन्य पशुओं जैसी असंगत बनी रहती हैं। फलतः विकृत होकर वे सड़ी दुर्गन्ध की तरह अपने समूचे प्रभाव क्षेत्र को विषैला बना देती हैं। आग जहाँ भी रहती है वहीं जलाती है। तेजाब की बोतल जहाँ भी फैलती है वहीं गलाती है। विकृत प्रवृत्तियाँ छितराई हुई आग और फूटी तेजाब की बोतल की तरह हैं, उनसे केवल विनाश ही सम्भव होता है। यह दोनों ही वस्तुएँ यदि सुनियोजित रखी जा सके तो उसके उपयोगी लाभ मिलते हैं और वे इतने बढ़े-चढ़े होते हैं कि सामान्य दीखने वाला मनुष्य पग-पग पर अपनी असामान्य स्थिति का परिचय देता है। साधना जीवन के बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों में सुसंस्कारित सुव्यवस्था उत्पन्न करने का नाम है।
घरेलू उपयोग में आने वाले जानवर भी बिना सिखाए-सधाए अपना काम ठीक तरह कहाँ कर पाते हैं? बछड़ा युवा हो जाने पर भी अपनी मर्जी से हल गाड़ी आदि में चल नहीं पाता। घोड़े की पीठ पर सवारी करना, उसे दुरकी चाल चलाना सहज ही सम्भव नहीं होता। ऊँट-गाड़ी, ताँगा, बैलगाड़ी में जुतने वाले पशु अपने आप चलने नहीं लग जाते। उन्हें कठिनाई से प्यार-फटकार के सहारे धीरे-धीरे बहुत दिन में इस योग्य बनाया जाता है कि अपना काम ठीक तरह अंजाम देने लगें। साधना इसी का नाम है। इन्द्रियों के समूह को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय को वन्य पशुओं के समकक्ष गिना जा सकता है। अपने स्वाभाविक रूप में यह सारा ही चेतना परिवार उच्छृंखल होता है। जन्म-जन्मान्तरों के पाशविक कुसंस्कारों की मोटी परत उस पर जमी होती है। उसे उतारने के लिए जिस खराद का उपयोग किया जाता है, उसे साधना कह सकते हैं।
कठपुतली नचाने वाले, हाथ की सफाई से बाजीगरी के कौतुक दिखाने वाले, बन्दर और रीछ का तमाशा करने वाले जादूगर जैसे लगते हैं और उन्हें चमत्कारी समझा जाता है। यह चमत्कार और कुछ नहीं, किसी विशेष दिशा में तन्मयतापूर्वक धैर्य और उत्साह के साथ लगे रहने का प्रतिफल मात्र है। ऐसा चमत्कार कौतूहल प्रदर्शन से लेकर किसी भी साधारण असाधारण कार्य में आशाजनक सफलता प्राप्त करने के रूप में कभी भी देखा जा सकता है। अपनी ईश्वर प्रदत्त विशेषताओं को उभारने और महत्त्वपूर्ण प्रयोजन में नियुक्त करने का नाम साधना है। साधना का परिणाम सिद्धि के रूप में सामने आता है। यह नितान्त स्वाभाविक और सुनिश्चित है। यदि अपने आपे को साधा जाय, व्यक्तित्व को खरादा जाय तो वह सब कुछ प्रचुर परिमाण में अपने ही घर पाया जा सकता है, जिसकी तलाश में जहाँ-तहाँ मारे-मारे फिरना और मृगतृष्णा की तरह निराश भटकना पड़ता है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार