31.   हरीतिमा से स्नेह बढ़ायें, फूल उगायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


प्राणि जगत की तरह ही वनस्पति जगत भी है। इन दोनों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक दूसरे पर निर्भर हैं। इनमें से एक की स्थिति दुर्बल पड़ेगी, तो दूसरे को भी दुर्दशाग्रस्त होना पड़ेगा।

प्राणियों का आहार वनस्पतियाँ हैं। माँसाहारी प्राणी भी मात्र उन्हीं को खाते हैं, जो शाकाहार पर निर्भर रहते हैं। माँसाहारी माँसाहारी को खाने लगे तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। प्राणियों का मल-मूत्र खाद के रूप में वनस्पतियों को मिलता है। उनके द्वारा छोड़ी हुई साँस वनस्पतियों को सजीव साँस प्रदान करती है। इसी प्रकार वृक्षों द्वारा छोड़ी हुई प्राणवायु से प्राणियों का गुजारा चलता है। अन्न, शाक, फल आदि के सहारे मनुष्य और घास पत्ते खाकर अन्य प्राणी जीवित रहते हैं।

कृषि उद्यान के व्यवसाय से अधिकाँश मनुष्यों की आजीविका चलती है। भारत जैसे कितने ही कृषि प्रधान देश इस संसार में हैं। उनके प्रजाजन अन्न-वस्त्र की सुविधा जुटाने वाले अनेकानेक कार्य करते और गुजर चलाते हैं। वृक्ष-वनस्पति का वर्षा से, मौसम से नदी नालों को नियंत्रित रखने से, भूमि क्षरण रोकने से, पशु-पालन व्यवसाय से सघन सम्बन्ध है। जलाऊ लकड़ी से लेकर इमारती प्रयोजनों में, फर्नीचरों में जिनका निरन्तर उपयोग होता है, उन वृक्षों को मानव जीवन का अविच्छिन्न सहचर ही माना जाना चाहिए। इनका परिपोषण संवर्धन अपने ही अंग अवयवों एवं परिजनों के परिपालन जैसा ही माना जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में हमारा ध्यान तथा रुझान सदा ही केन्द्रित रहना चाहिए कि हरीतिमा हमारे इर्द-गिर्द रहे और हम उसके सम्पर्क सान्निध्य में अधिकाधिक समय गुजारे। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से यह आवश्यक भी है और उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण भी।

वृक्षों के आरोपण संरक्षण के लिए उपयुक्त पर्याप्त भूमि चाहिए। हरीतिमा संवर्धन से सम्बन्धित कृषि कार्य के लिए खेतों की आवश्यकता है। इन दो कार्यों को साधन सम्पन्न ही कर सकते हैं। पर इस संदर्भ में दो कार्य ऐसे हैं, जिन्हें हर वनस्पति प्रेमी सहज ही कर सकता है। एक है घरेलू शाक वाटिका दूसरा है पुष्प वाटिका। पहला शरीर पोषण के लिए और दूसरा का मानसिक उल्लास के लिए सस्ते में, सरलता पूर्वक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पोषण प्रदान करते हैं। अपने समाज में हरे भोजन का प्रचलन कम है। तले-भुने, पिसे और और छिलका उतारे हुए अन्न में कुछ सार रह नहीं जाता, वह कोयले जैसा नीरस निरुपयोगी होता है। जीवन, जीवन प्रदान करता है, इस दृष्टि से हरे-भरे शाक-फलों का भोजन में बाहुल्य रहना चाहिए। हरी पत्ती वाले कच्चे शाक सलाद, चटनी की तरह प्रयुक्त होते रहें तो भी स्वास्थ्यप्रद आहार की आवश्यकता पूरी हो सकती है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि फूल तो दूर शाक भाजी तक पर्याप्त मात्रा में लेने का प्रचलन नहीं है। कहीं कुछ है तो उसे भी इतना तला भुना उबाला जाता है कि वह भी कोयले के सदृश्य ही बनकर रह जाता है। यही कारण है कि हमारा समूचा समाज कुपोषण का शिकार है। इस मामले में धनी, निर्धन सब समान है। निर्धन को दरिद्रता के कारण और सम्पन्नों को चटोरेपन तथा पाक विज्ञान से सर्वथा अनजान रहने के कारण ऐसे भोजन पर निर्भर रहना पड़ता है, जो सस्ता हो या मँहगा। भोजन की मौलिक विशेषताओं से रहित ही होता है।

इस कमी की पूर्ति बहुत अंशों में घरेलू शाक वाटिका कर सकती है। टोकरों में गमलों में, क्यारियों में टूटे कनस्तरों में मिट्टी भर कर शाक भाजी उगाये जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में बेलों वाले तथा पत्तियों वाले शाक अधिक मात्रा में उत्पन्न हो सकते और कम जगह रहते हुए भी अधिक फसल दे सकते हैं। लौकी, तोरी, सेम आदि की बेलें कम जगह में बोई जा सकती हैं और जिधर-तिधर फैल कर पर्याप्त मात्रा में बहुत दिन तक शाक की आवश्यकता पूरी करती रह सकती है। इसी प्रकार पालक, मैथी, बथुआ, चौलाई, पोदीना, धनिया जैसे पत्ती वाले शाक भी उबाल कर या कच्चे चटनी की तरह काम आते रह सकते हैं। जमीन में बोने की दृष्टि से अदरक सबसे लाभ दायक है। हमें अपने घरों पर इन्हें बोने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि जीवनदायक हरे आहार की आवश्यकता पूरी होती रहे और बिना खर्च के कुपोषण की समस्या से निपटने का प्रयोग मिलता रह सके।

मानसिक आवश्यकता को पूरी करने में हरीतिमा संवर्धन, पुष्प वाटिका का उतना ही महत्त्व है जितना कि शरीर के लिये आहार का, इस भारी कमी को दूर करने के लिए घरेलू शाक वाटिका उगाने की हमारे प्रत्येक घर में फूलों के पौधे और बेलें रहनी चाहिए। इनके माध्यम से नेत्रों को शीतलता, मन को प्रसन्नता का लाभ मिलता है। कला और सौन्दर्य की आन्तरिक पिपासा को समाधान मिलता है तथा उत्पादन संरक्षण की प्रवृत्ति को वैसा ही पोषण मिलता है, जैसा कि बालकों के लालन पालन में अभिभावकों को आनन्द, उत्साह एवं कौशल बढ़ाने का सुयोग बनता है।

पेट आहार से भरता है और कंठ की प्यास पानी से बुझती है। किन्तु अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ भी ऐसी हैं जिन्हें अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पदार्थों की माँग रहती है। इन इन्द्रियों में कान के लिए पोषक विषय संगीत है। ज्ञान वर्धन तो शिक्षण और परामर्श के आधार पर भी चल जाता है, किन्तु कानों के माध्यम से अन्तराल में गुदगुदी उत्पन्न करने का कार्य संगीत के माध्यम से ही बन पड़ता है। इस माध्यम से मिलने वाली दिव्य अनुभूति को नाद ब्रह्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है। संगीत के अभाव में अन्तरंग नीरस रहने लगता है। भाव संवेदनाएँ प्रदान करने में यदि कर्ण कुहरों को संगीत तरंगों की उपलब्धि न हो तो भीतर ही भीतर कुछ ऐसी शुष्कता उत्पन्न होने लगती है जिसे कायिक दुर्बलता एवं रुग्णता उत्पन्न करते देखा जा सके। यही कारण है जीवनचर्या में कहीं न कहीं संगीत का स्थान रखने और व्यवस्था करने को महत्त्व दिया जाता है। भजन में स्तवन और कीर्तन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे आत्मोपचार के लिए संगीत तरंगों का उपचार ही कहा जा सकता है।

नेत्रों और नाक को अभीष्ट रस प्रदान करने के लिए प्रकृति ने हरीतिमा उगाई है साथ ही उसे पुष्पों से भी लादा है। पुष्प मात्र शोभा सज्जा ही नहीं है वरन् उनमें ऐसी विशेषताएँ भी भरी पड़ी हैं, जो न केवल दर्शनीय सुषमा का रसास्वादन कराती है, न केवल नासिका को मन भावन सुगन्ध प्रदान करती हैं अपितु चेतना में ऐसा उल्लास भी भरती हैं जिससे प्रसन्नता, निरोगिता एवं प्रेरणाप्रद उमंगों का लाभ भी मिल सके। इन उमंगों के सहारे मनुष्य की भाव कल्पना जगती है। और उन प्रसुप्त केन्द्रों में उभार आता है, जो समझदारी और सूझबूझ से सम्बन्धित हैं।

जहाँ फूल खिले होते हैं वहाँ दृष्टि अनायास ही खिंचती चली जाती है। ठहरने और देखने को मन करता है। पैर ठिठक जाते है और जी करता है कि इस शोभा-सुषमा को देखते ही रहा जाय। वसन्त ऋतु में सरसों फूलती है तो लगता है धरती ने पीली चुनरी ओढ़ ली। छोटे पौधे जहाँ-तहाँ उगे होते हैं उन पर भी उन दिनों फूल खिलते हैं। वे अपनी जगह जमे रहते हैं। कोई उन्हें तोड़ता नहीं, वे किसी से कुछ माँगते नहीं, फिर भी उनकी उपस्थिति भर से दर्शकों का मन फूलों की तरह ही प्रफुल्लित हो उठता है। उनका सृजन ही भगवान ने इस निमित्त किया है, कि वे स्वयं खिलें और दूसरों को खिलायें।

दर्शनीय स्थानों में किले, मकबरे, घाट, मन्दिर, फल, बाँध ही सब कुछ नहीं है, पुष्पोद्यान भी दर्शनीय स्थानों में आते हैं और प्रकृति प्रेमी बड़े चाव पूर्वक वहाँ पहुँचते हैं। उत्तराखण्ड में हेमकुण्ड के समीप फूलों की घाटी को इसलिए ख्याति मिली कि उस क्षेत्र पर अँग्रेजों की नजर गई। वहाँ की खोजबीन हुई, उस क्षेत्र से संग्रह करके विचित्र पुष्पों के बीज इंग्लैण्ड भेजे गये और उनकी बहुत चर्चा योरोप में हुई। ऐसी-ऐसी अनेकों फूलों की घाटियाँ हिमालय के उत्तराखण्ड में है। देश के, विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे पुष्पोद्यान हैं जिनमें सामान्य और असामान्य स्तर की अनेकानेक जातियाँ पाई जाती हैं। प्रकृति प्रेमियों के लिए यही तीर्थ है। भगवान की बनाई यह कलाकृतियाँ ऐसी हैं जिन्हें देखकर हर किसी का मन लुभाता है।

महाभारत में वर्णन आता है कि पाण्डव जब द्रौपदी से किसी इच्छित उपहार की माँग करने को कहने लगे तो उसने कोई बहुमूल्य आभूषण नहीं वरन् हिमालय पर पाये जाने वाले ब्रह्म कमल पुष्प की माँग की। भीम बहुत खोज के उपरान्त उसे ले भी आये। इससे प्रतीत होता है कि कला प्रेमियों में पुष्पों के प्रति कितना मान और आकर्षण रहा है। पुष्प जितने नयनाभिराम होते हैं, उतने ही मादक गंध की विशेषता से भी भरे पूरे रहते हैं।

विज्ञान के आरम्भिक दिनों में जलयान, वायुयान, रेल, मोटर आदि सवारियों पर चढ़ने और सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन आदि देखने का शौक उमड़ा था। वह नशा अब ठंडा हो चला है और कला प्रेमी, लोक मानस फिर पुरातन काल जैसी प्रकृति शोभा का रसास्वादन करने के लिए मुड़ा है। अब पुष्पोद्यान लगाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लोग घर आँगन में, पुष्प लगाना चाहते हैं। पार्कों को उनकी शोभा से संजोया जा रहा है। महलों, कोठियों से लेकर गरीबों के झोंपड़ों तक बेलों और पुष्पों की हरीतिमा को शोभा सज्जा का प्रधान माध्यम बनाया जा रहा है। जहाँ पक्की जगह है वहाँ गमलों की व्यवस्था की जा रही है। ऐसे पौधे तलाशे जा रहे हैं, जो बन्द कमरों में भी हरे भरे रह सकें। उत्सवों में फूलों का बाहुल्य रहता है। विवाहों में अब वधुओं के आभूषण सोने चाँदी के पहनने-पहनाने का रिवाज घट रहा है और उनके स्थानों पर फूलों के आभूषण बनाये और पहनाये जा रहे हैं। यह सुरुचि की बढ़ोत्तरी का चिन्ह है। इसे प्रकृति का सम्मान और प्रेम ही कहा तथा सराहा जायेगा।

शारीरिक, नई मानसिक चिकित्सा की दृष्टि से फूलों ने अपना अनोखा स्थान बनाया है। जिस प्रकार पिछले दिनों जड़ी-बूटियों के सेवन से रोग निवारण का प्रयोग चलता था, अब ठीक उसी प्रकार फूलों के रंग, गन्ध तथा रासायनिक प्रभाव का उपयोग करके स्वास्थ्य संवर्धन एवं रोग निवारण की बात सोची जा रही है। इस दिशा में उत्साह वर्धक प्रगति भी हुई है।

गंध की क्षमता दृश्य प्रभाव से कम महत्त्व की नहीं। कीड़े-मकोड़े और छोटे जीव-जन्तुओं की अन्य इन्द्रियाँ विकसित नहीं होती वे मात्र गंध के सहारे ही अपना आहार खोजते, रास्ता तलाश करते, शत्रु से बचते और प्रणय निवेदन करते हैं। उनकी दुनियाँ गंधमय है। हिंस्र पशुओं को शिकार ढूँढने में बहुत कुछ सहायता गंध से ही मिलती है। जासूसी कुत्ते इसी आधार पर अपराधियों को तलाश करने में सफल होते हैं।

गंध का मनुष्य के लिए भी बहुत महत्त्व है पर उसे व्यवहार में सुरुचि या कुरुचि का ही माध्यम माना जाता है। दुर्गन्ध पर नाक-भौं सिकोड़ी जाती है, उससे बीमारी का खतरा अनुभव किया जाता है। सुगन्ध को सुरुचि का प्रतीक माना जाता है और विलास शृंगार के लिए उसे काम में लाया जाता है। देवता को प्रसन्न करने में भी चन्दन, केशर, अगरबत्ती, हवन सामग्री आदि का प्रयोग होता है। अमीरों के यहाँ इत्रों की महक उठती रहती है।

अब इससे अगला प्रयोग स्वास्थ्य संवर्धन और रोग निवारण के लिए किया जाने लगा है। कुछ समय पूर्व संगीत द्वारा स्नायु संस्थान को उत्तेजित करके रोग निवारण के प्रयोग चले थे। अब इसी शृंखला में गंध उपचार की एक नई कड़ी और जुड़ने जा रही है। इस आविष्कार को पुष्प-चिकित्सा नाम दिया गया है।

पुष्पों के रंगों और आकृतियों की विशेषता मनमोहक मानी जाती रही है। इसलिए लोग पुष्प वाटिकाएँ लगाते हैं। मेजों पर गुलदस्ते सजाते हैं। मालाएँ पहनते और पहनाते हैं। महिलाओं के जूड़ों में और पुरुषों के कोटों में पुष्प लगे देखे जाते हैं। देवाराधना में, हर्षोत्सवों में, स्वागत सत्कारों में, सज्जा प्रयोजनों में तो उनकी प्रधानता रहती ही है। अब यह पाया गया है कि पुष्पों की चित्र-विचित्र गन्धें विभिन्न रोगों के उपचार में भी काम आ सकती है। उनमें मन मोहक गुण तो है ही, स्वास्थ्य संवर्धन और रोग निवारण की विशेषता भी उत्साह वर्धक मात्रा में विद्यमान है।

सोवियत संघ के वाकू नगर में इसी प्रयोजन के लिए एक अस्पताल खोला गया है। उसमें मात्र रोगों के अनुसार अमुक गन्ध वाले पुष्पों के सूँघने की व्यवस्था है। रोगी को उन पुष्पों के गमलों के बीच बिठा दिया जाता है। उसे गहरी साँस लेकर सुगन्ध को खींचने और शरीर में भरने के लिए कहा जाता है। रोगी वैसा ही करता है। किसे कितनी देर तक, किस समय, किस पुष्प की गन्ध सूँघनी चाहिए, यह उसके रोग निदान और निर्धारण के आधार पर किया जाता है। भिन्न-भिन्न पुष्पों में भिन्न-भिन्न रोगों के निवारण की क्षमता खोजी गई है। तदनुसार यह चिकित्सा पद्धति विकसित की गई है।

जो रोगी चल फिर नहीं सकते उनके पलंग के इर्द-गिर्द गमले सजा दिये जाते हैं और सिरहाने इस प्रकार के पुष्प पर्याप्त मात्रा में बिछाए जाते हैं कि रोगी को सरलतापूर्वक उनकी गन्ध मिलती रहे। अब तक ऐसे १५ प्रकार के पुष्प पौधे चुने गये हैं। जिनमें बल वर्धक एवं विषाणु नाशक गुण बड़ी मात्रा में हैं। अन्य तो सभी शोभा एवं प्रसन्नता की पूर्ति कर सकने वाले ही समझे जा रहे हैं। ठंडक के दिनों रोगियों के कमरे गरम हवा से युक्त रखे जाते हैं ताकि गन्ध को उड़कर नासिका तक पहुँचने में अड़चन न पड़े। समय-समय पर हलके या तेज गति से हवा फेंकने वाले पंखों का भी उपयोग किया जाता है, जिससे रोगी के बिना अतिरिक्त प्रयास किये ही अपने स्थान पर बैठे या लेटे रहने पर भी पुष्पों की गन्ध का सान्निध्य प्राप्त होता रहे।

न केवल रोग निवारण हेतु अपितु मानव समुदाय का रुझान सुरुचिपूर्ण बनाने तथा नैसर्गिक सौन्दर्य के माध्यम से प्रसन्नता भरा वातावरण लाने के लिए यह अनिवार्य है कि घर-घर, गाँव-गाँव पुष्प-वाटिका, शाक-वाटिका का आन्दोलन चल पड़े। इसके बहुमुखी लाभ बताते हैं कि इसमें किसी प्रकार के घाटे का सौदा नहीं, नफा ही नफा है। हमें आर्थिक ही नहीं, अन्तः के परिशोधन पक्ष पर भी ध्यान देना है। प्रकृति की ओर उन्मुख होकर मनुष्य उस शाश्वत सौन्दर्य-रस का रसास्वादन करता है जो सदा-सदा से उसे प्रेरणा देता चला आया है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

32.    परिवार की प्रगति भावना और व्यवहार के समन्वय पर निर्भर
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


भावना जीवन वृक्ष की जड़ है और उसके द्वारा खींचा जाने वाला पोषक पदार्थ व्यवहार। दोनों के समन्वय से ही परिवार को उपयुक्त परिपोषण मिलता है। जमीन में उर्वरता और नमी न हो तो जड़ें खुराक कहाँ से खींचें, इसी प्रकार पोषक तत्वों का जमीन में बाहुल्य होते हुए भी जड़े सड़ी गली हो तो पौधों को आहार पाने और बढ़ने का अवसर कैसे मिले? एकांगी स्थिति अपर्याप्त है। दिन-रात, नर-नारी, ताना-बाना, ऋण-धन मिलकर जिस तरह एक संयुक्त शक्ति बनते और गाड़ी के दो पहियों की तरह गतिशील बनते हैं। ठीक उसी तरह परिवार में सर्वतोमुखी प्रगति का वातावरण बनाने के लिए भावना और व्यवहार के दोनों ही पक्षों को उच्चस्तरीय होना चाहिए।

भावना में आत्मीयता की सघनता होती है। उससे दूसरों को लाभ पहुँचाते समय उल्लास और उनका दुःख बँटाते समय सन्तोष की अनुभूति होती है। परिस्थितियाँ दोनों ही प्रकार की आती हैं। निपटना तद्नुकूल पड़ता है, पर भावनाशील को घाटा कहीं भी नहीं पड़ता। उतार और चढ़ाव में उसे तृप्ति मिलती ही रहती है, कभी खट्टी कभी मीठी। मैत्री का स्थायित्व आत्मीयता पर अवलम्बित है। वह दूसरी ओर से समुचित प्रतिक्रिया न होने पर भी एक पक्षीय चलता ही नहीं, बढ़ता भी रहता है। प्रतिमा न कोई उत्तर देती है न कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। इतने पर भी भावना उसका आश्रय लेकर अपने बलबूते बढ़ती और परिपक्व होती रहती है। मीरा के कृष्ण, एकलव्य के द्रौण और रामकृष्ण परमहंस की काली ने जिस समर्थता का परिचय दिया, उसे भक्त की भावना का चमत्कार ही कह सकते हैं। देवता की अनुकम्पा नहीं भावना अपने आप में आत्मा की तरह ही पूर्ण है, पर उसको भी तो व्यवहार का शरीर चाहिए। शरीर के बिना आत्मा का अस्तित्व कैसे प्रकट हो? व्यवहार का आश्रय पाये बिना भावना की बेल ऊँची कैसे चढ़े?

परिवार निर्माण में उस आचार संहिता को भी महत्त्व और प्रश्रय देना होगा जो भावनाओं के अनाचार को रोकती है। रेलगाड़ी की सामर्थ्य कितनी ही बड़ी क्यों न हो, पटरी की मर्यादा में उसे अनुशासित न रखा जाय तो वह बहकेगी ही और अन्ततः अपना तथा दूसरों का विनाश करेगी। भावुक अक्सर ठगे जाते हैं। इसका कारण यह नहीं कि भावना की श्रेष्ठता में कोई संदेह है, वरन् यह है कि व्यवहार और मर्यादाओं का नियन्त्रण न रहने से उस दिव्य संवेदना का दुरुपयोग होता है। धूर्तों को इस कला में प्रवीणता प्राप्त होती है कि वे भावुकता भड़काकर किस प्रकार उस संवेदनशील मनोभूमि का लाभ उठायें। विपत्ति की सम्भावना बताकर ज्योतिषी और चिकित्सक किस प्रकार उनके स्वजन परिजनों का अनुचित दोहन करते है, इसके प्रमाण उदाहरण हर जगह उपलब्ध हो सकते हैं। शिशु वात्सल्य की अतृप्त भावना को पूर्ण करने के लिए पराये बच्चे दत्तक लिए जाते हैं। इस दुर्बलता को वे बच्चे थोड़ी सी समझ आते ही भाँप लेते हैं और अपने परिपालकों का बुरी तरह शोषण ही नहीं करते उनको त्रास भी देते हैं।

बच्चों के बिगड़ने में जितनी कुसंग की भूमिका होती है उससे भी अधिक अभिभावकों के अनुचित दुलार की होती है। वे बच्चों की मर्जी पूरी करने में तरह-तरह की छूट या सुविधा देने में दुलार की सार्थकता मानते हैं। दूसरों का नुकसान करने, झगड़ने पर वस्तुस्थिति को समझते हुए भी अथवा गैर जानकारी में पक्षपात अपने का ही लेते है। उनको भूल के लिए समझाने और उद्दण्डता के लिए धमकाने का प्रयत्न ही नहीं करते। फलतः दुर्गुण बढ़ते रहते हैं। यही अभिवृद्धि धीरे-धीरे परिपक्व होती रहती है और वयस्क होते-होते बालकों को कुसंस्कारी बनाकर रख देती है। वे जहाँ भी जाते है तिरस्कृत होते हैं। जहाँ भी हाथ डालते हैं असफल रहते हैं, जिससे भी मिलते है, विग्रह खड़ा करते हैं।

इस विषम विडम्बना में अभिभावकों का वह अनुचित लाड़-दुलार भी एक बड़ा कारण होता है जो उनके अभिभावकों ने स्नेह की भावुकता के वशीभूत होकर अनावश्यक मात्रा में दिया और यह ध्यान में नहीं रखा कि भविष्य में इस अनौचित्य की प्रतिक्रिया उनके लिए कितनी दुःखद हो सकती हैं।

युवक-युवतियों के प्रेम प्रसंगों में भावुकता की उड़ानें ही आकाश में पतंगों की तरह उड़ती दीखती हैं। सन्ध्या काल की रंगीनी आकाश के पश्चिम भाग में कितनी मनोहर लगती है, पर उसका न तो कोई अस्तित्व होता है और न आधार। ऐसा ही उन्माद इन तथाकथित प्रेम-प्रसंगों के मूल में रहता है। न औचित्य समझ में आता है और न यथार्थ। नशे पर नियन्त्रण कौन करें? सपनों की सीमा कैसे बाँधे? प्रेमोन्माद भी लगभग ऐसा ही होता है। बेल मगरे तो चढ़ती नहीं, चढ़ती है तो एक ही झोंके में लुढ़ककर छितराती और अस्त-व्यस्त दीखती है। इस उभार में उन बालकों को निन्दित तिरस्कृत बनना पड़ता है। अप्रामाणिकता का कलंक सिर पर बँधता है और उस क्षति की पूर्ति कदाचित ही कभी हो पाती है। इन प्रेमोन्मादी बालकों के परिवारों पर क्या बीतती है और उन्हें कितने प्रकार की कितनी हानि सहनी पड़ती है। इसका अनुमान लगा सकना यदि उस उन्माद के दिनों किसी प्रकार सम्भव रहा होता तो वे अपनों की दृष्टि से इतने न गिरते और इतनी क्षति एवं व्यथा न सहते जितनी कि ऐसे कुछ प्रसंगों में अन्ततः उन्हें सहनी पड़ती है। आमतौर से भावुक लड़कियाँ ही इस प्रकार के शोषण का शिकार बनती है। धूर्त उन्हें ललचाते और अन्ततः उन्हें भारी विपत्ति में धकेल कर छोड़ते हैं।

मैत्री के नाम पर कितना शोषण होता है, इसका अपना एक अलग ही क्षेत्र है। पुराने जमाने में शत्रु आमना−सामना करते लड़ाई लड़ते और हानि पहुँचाते थे। आज के जमाने का आधुनिकतम आविष्कार यह है कि मित्रता गाँठी जाय, वफादारी का प्रमाण दिया जाय और रंगीन सपने दिखाकर अथवा अपनी कठिनाई जताकर मित्र का शोषण आरम्भ कर दिया जाय। दाँव लगते ही उसे चित्त पट्ट करके रफू चक्कर बना जाय। भावुकता की ऐसी-ऐसी शतरंजें जहाँ-तहाँ बिछी देखी जाती हैं। हिरन और साँप को पकड़ने वाले बहेलिया बीन बजाया करते हैं। मछली को आटा और पक्षी को दाना दिखाकर पकड़ा जाता है। मित्रता की नशीली चाट खिलाते और बेहोशी आते ही जेब काट लेने वाले धूर्तों की कही कमी नहीं है। यह सब भावुकता के सहारे चलने और पनपने वाले अनाचार हैं जो अपने दुःखदायी दुष्परिणाम हर क्षेत्र में उत्पन्न करते रहते हैं।

परिवार के क्षेत्र में भावुकता की प्रौढ़ता रहना स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। उसके औचित्य एवं महत्त्व से कोई इन्कार नहीं कर सकता। पर देखना यह भी होगा कि कहीं उसका व्यतिक्रम तो नहीं हो रहा है और सदाशयता की आड़ में विष वृक्ष तो नहीं पनप रहा है। इस जागरूकता के समर्थन में ही दूरदर्शी सदा यह कहते रहे हैं कि एक आँख दुलार की और दूसरी सुधार की रखी जाय तभी प्रेम की सार्थकता है अन्यथा अमृत की भी अनावश्यक मात्रा विष का काम करती देखी गई है।

पति-पत्नी की द्विधसत्ता को एकत्व में परिणित कर देने का प्रधान कारण आत्मीयता की सघन भावुकता नहीं है। यही पतिव्रत की उच्च सच्चरित्रता के रूप में परिलक्षित होती है। एक दूसरे के प्रति परिपूर्ण वफादारी का आधार यही है। एक दूसरे को बहुत कुछ, सब कुछ देने की उमंगें इस सन्दर्भ में उठती भी है और उठनी भी चाहिए। किन्तु यदि यह उभार औचित्य की मर्यादा लाँघने लगे तो समझना चाहिए कि अर्थ का अनर्थ होने जा रहा है। सम्पन्न लोग पत्नी को कुछ भी शारीरिक श्रम न करने देने के लिए नौकरों की व्यवस्था करते हैं। शृंगार और विनोद के अनेकानेक साधन जुटाते हैं। इसके प्रबन्ध के पीछे उनका उद्देश्य पत्नी पर भारी स्नेह होने का परिचय देना भर होता है। इस एकांगी चिंतन में अन्ततः पत्नी की स्वस्थता, समर्थता, प्रखरता और प्रतिभा को बुरी तरह क्षति पहुँचती है और वह अन्ततः किसी कृषक, मजदूरों की श्रमजीवी पत्नी से भी अधिक घाटे में रहती है। गुड़िया बने रहने में उसने क्या खोया और क्या पाया?

पति को प्रसन्न करने के लिए उसे कामुकता की मनमानी छूट देना न तो पतिभक्ति है और न भाव समर्पण है। जिसमें दोनों की ही शारीरिक और मानसिक क्षति होती है, उसके लिए परिपूर्ण सद्भावना के साथ समझाने बुझाने से लेकर असहयोग विरोध करने तक का उपक्रम चल सकता है। नशेबाजी, जुआ, यारवाशी, आवारागर्दी जैसी कुटेवों में फँसे हुए पति को उसकी मनमर्जी करते रहने देना, रोकथाम न करना, देखने में पतिभक्ति, स्वामिभक्ति जैसी बात भले प्रतीत होती हो वस्तुतः वैसी है नहीं। प्यार में जहाँ हित, कामना, स्वेच्छा साहसिकता आदि अनेकों अनुकूलताओं का समावेश है वहाँ अनौचित्य को बदलने, सुधारने का तथ्य भी पूरी तरह संयुक्त है। इसे हटा देने पर तो अंधी भावुकता ही शेष रह जायेगी और उसमें निरन्तर ठोकरें लगने का खतरा बना रहेगा।

कितने ही घरों में नव वधुएँ संयुक्त परिवार से पृथक रहने का आग्रह अपने पतियों से इसलिए करती हैं कि उन्हें पति की स्वामिनी बनने और कमाई का लाभ उठाने का अवसर मिलेगा। संयुक्त परिवार में तो यह उपलब्धियाँ प्रत्यक्षतः बँट ही जाती है। भले ही बाद में उसके सत्परिणाम अनेक गुने होकर मिलते रहे। भावुकता वश पति भी उनके आग्रह को मानते और उत्तरदायित्व से विमुख होते देखे गये है। मोटी दृष्टि से यह पति-पत्नी की एक दूसरे के साथ दूध-पानी हो जाने जैसी घनिष्ठता हुई। किन्तु दूरदर्शिता के आधार पर देखा जाय तो उस आग्रह और स्वीकृति के पीछे अनीति ही काम करती दिखाई पड़ेगी। जिस परिवार ने अपनी समृद्धि और सद्भावना का एक बड़ा अंश लड़के की शिक्षा-दीक्षा पर कमाऊ बनाने की स्थिति तक पहुँचाने पर लगाया है। उसे प्रतिफल के समय ऐसी बेरुखी का सामना करना पड़े तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा। इसमें सारे परिवार का अर्थ-सन्तुलन एवं भविष्य बिगड़ता है। दम्पत्ति प्रेम का परिचय देने की भावुकता और समूचे परिवार की सुव्यवस्था में से क्या चुनना चाहिए इसका निर्णय करने में यदि पत्नी का आग्रह अस्वीकार करना पड़े, तो भी विवेक की कसौटी यह नहीं कहेगी कि दम्पत्ति प्रेम के साथ जुड़े हुए कर्तव्य की अवहेलना की गई।

छोटों का अधिक काम करना बड़ों को अधिक आराम देना सहज शिष्टाचार है। छोटों का कर्तव्य है कि वे बड़ों से ऐसा कहें भी और उसके लिए प्रयत्न भी करें। किन्तु यह शिष्टाचार पूर्णतया व्यवहार ही बन जाय यह आवश्यक नहीं। बड़े कुछ न करे तो उनका शरीर और मन अपनी गतिशीलता निरन्तर खोता चला जायेगा और वे कुछ ही दिनों में कूड़ा-करकट जैसे निरर्थक बन जायेंगे। इस बेकारी में वे अपना समय तो गँवाएँगे ही, किसी और साथी को तलाश कर उसे भी गप्पबाजी या ताश, शतरंज जैसे शुबत में फँसा देंगे। बड़ों को आराम देने का अर्थ उन्हें आलसी और दुर्व्यसनी बना देना है, तो उससे कहीं अच्छा यह है कि उन्हें व्यवस्था, शिक्षा एवं लोक सेवा जैसे किसी उपयोगी काम में जुटाये रखने का ताना-बाना बुना जाय।

मोहवश बच्चों को दूर पढ़ने भेजने से अभिभावकों, विशेषतया माताओं को कतराते देखा गया है। बच्चा प्यारा है इसलिए उसे आँखों के सामने ही रहना चाहिए। यह भावुकता का तकाजा है, विवेक का नहीं। प्राचीन काल में बालकों को सुदूर गुरुकुलों में पढ़ने के लिए खुशी-खुशी भेज दिया जाता था। इसका अर्थ यह नहीं कि उनके अभिभावक प्यार नहीं करते थे। इसका अर्थ इतना ही है कि हित चिंतन को प्रथम और मोह ममता को द्वितीय स्थान दिया जाता था। इसमें बालकों को भी अभिभावकों की ही तरह विछोह कष्ट होता होगा, पर अन्ततः भावुकता ही तो सब कुछ नहीं है।

जो कमाया जाय उसका उत्तराधिकार सन्तान को ही मिले, यह प्रचलन हर दृष्टि से निन्दनीय है। इसमें सन्तान को मुफ्तखोरी की लानत उठानी पड़ती है और संचयकर्ताओं को मोहग्रस्त कहा जायेगा। औचित्य इतना ही है कि अभिभावक अपनी सन्तान को समर्थ, सुसंस्कृत बनाने के साथ अपने कर्तव्य की इतिश्री समझें और सन्तान भी अपने पूर्वजों से इससे अधिक की आशा न करें। असमर्थ आश्रितों को ही पूर्वजों की कमाई पर गुजारा करने का अधिकार रहना चाहिए, पर जो अपने बाहुबल से कमाने में समर्थ हैं उन्हें स्वावलम्बन पूर्वक निर्वाह क्यों न करना चाहिए। बिना परिश्रम की कमाई चाहे वह चोरी में, लाटरी में या उत्तराधिकार में या किसी दूसरे रास्ते मिली हो, तथ्यतः अनैतिक है। जो कमायें सो खायें, यही सिद्धान्त सही है। इसमें इतना ही परिशिष्ट जोड़ा जा सकता है कि असमर्थ आश्रित अपने पूर्ववर्ती की सम्पदा से निर्वाह प्राप्त करें। समर्थों को मिला उत्तराधिकार उनके लिए मुफ्त का माल होने से बेरहमी के साथ खर्च होगा। दूसरे ऐसे धन पर स्वभावतः लोक मंगल का जो अधिकार है उससे उस क्षेत्र को वंचित रहना पड़ेगा और असंख्यों सत्प्रवृत्तियों को उस पोषण के सहारे पनपने का लाभ मिल सकता था उससे उन्हें वंचित रहना पड़ेगा।

मोहग्रस्त अभिभावक भावुकता वश अपनी संचित कमाई का उत्तराधिकार अपने वंशजों के लिए छोड़ते हैं तो प्रचलन के अनुसार इसे स्वाभाविक ही कहा जायेगा, किन्तु जहाँ तक विवेक एवं औचित्य का प्रश्न है, इस हस्तान्तरण का कोई औचित्य नहीं है। कृषि, उद्योग आदि के तन्त्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहें, उनके सहारे परिवार को काम मिलता रहे यह व्यवस्था अलग है इसका समर्थन भी हो सकता है, किन्तु जहाँ ऐसा कुछ नहीं, बाप की कमाई बेटों में बँटनी भर है वहाँ निश्चित रूप से भावुकता का अनुचित उपयोग ही है। इसमें देने वाले और लेने वाले दोनों पर ही अनौचित्य का, भावुकता के दुरुपयोग का कलंक लदता है। ऐसा धन विशुद्ध रूप से सार्वजनिक उपयोग के लिए प्रयुक्त होना चाहिए। भले ही उसे मृत्यु टैक्स के रूप में सरकार वसूल करे अथवा प्राचीन काल की श्राद्ध व्यवस्था के अनुसार उसे स्वेच्छा पूर्वक धर्म प्रयोजन के लिए वितरित कर दिया जाय।

इन दिनों भी परिवारों में भावना का अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान है। भाव सम्वेदनाएँ घटती तो जा रही है, पर वे आधी भी समाप्त नहीं हुई है। जो विद्यमान है वह बताती है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति का अस्तित्व इस गई गुजरी स्थिति में भी अपनी सत्ता बचाये हुए है। अब जो करने योग्य है वह यह है कि उस दैवी तत्व का उपयोग विवेकपूर्वक होने दिया जाय। पारिवारिकता अपने सही स्वरूप में पनपे, उसे मोहग्रस्तता की विकृत स्थिति में न रहना पड़े। भावना और व्यवहार में यदि उत्कृष्टता का समावेश बना रहे तो सच्चे अर्थों में पारिवारिकता पनपेगी और उस आधार पर सर्वतोमुखी प्रगति एवं समृद्धि का पथ प्रशस्त होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

33.   अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


कर्मफल एक ऐसी सच्चाई है जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार ही करना होगा। यह समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की शृंखला में जकड़ी हुई है। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम कण-कण पर लागू होता है और उसकी परिणति का प्रत्यक्ष दर्शन पग-पग पर होता है।

भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता बनकर सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने, देर तक जीने या जल्द मरने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते हैं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित हैं, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया गया था। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैं, जो हाथों-हाथ फसल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही घूँसा तनता है। दिन भर परिश्रम करते ही शाम को मजदूरी मिलती है। टिकट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेकों काम हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे हैं, जो देर लगा लेते हैं। असंयमी लोग जवानी में ही खोखले बनते रहते हैं, उस समय कुछ पता नहीं चलता। दस-बीस वर्ष बीतने नहीं पाते कि काया भी जर्जर होकर अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय साध्य परिणतियों को देखकर अनेकों को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों-हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते हैं और बुरे काम करने वाले अधिक निर्भय निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूठ बोलते ही मुँह में छाले भर जाय। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप-कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय। उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजायश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचाने और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करे।

कर्म फलित होने में देर लगाते हैं। जौ बोने के दस दिन में ही उनके अंकुर छः इंच ऊँचे उग आते हैं। किन्तु जिनका जीवन लम्बा है, जो चिर स्थायी हैं, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती हैं। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है। जबकि एरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतने ही जल्दी हैं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धि सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव-संवेदनाएँ और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धँसी रहती हैं, इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैं, इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है।

अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई हैं। उसमें स्नेह-सौजन्य सद्भाव सच्चाई जैसी प्रवृत्तियाँ ही भरी पड़ी हैं। जीवन यापन की रीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र में अनायास ही मिली रहती है। इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती हैं, तो सहज उसकी प्रतिक्रिया होती हैं। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते हैं तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने के लिए प्राणपण से संघर्ष छेड़ते हैं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्तःकरण की दैवी चेतना आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीवन सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके रहते आन्तरिक जीवन उद्विग्न अशान्त ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रिया फूट-फूटकर बाहर आती रहती हैं।

दो साँड़ लड़ते हैं, तो लड़ाई की जगह को तहस-नहस करके रख देते हैं। खेत में लड़ें तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियाँ जब भी जहाँ भी अवसर पाती हैं वहीं घुसपैठ करने, जड़ जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखली करती हैं और चिनगारी की तरह चुप-चुप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती हैं। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ आत्मसत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती हैं, किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं, अस्तु वह विरोध पर अड़ी रहती है। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है और उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक सन्तापों के रूप में सामने आते रहते हैं। मनोविज्ञानी इस स्थिति को दो व्यक्तित्व कहते हैं। एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति सहयोग पूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते-बिल्ली की, साँप-नेवले की दोस्ती कैसे निभे? एक म्यान में दो तलवार ठूँसने पर म्यान फटेगी ही। शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो कैसी दुर्दशा होती है, इसे सभी जानते हैं। नशेबाजों की दयनीय स्थिति देखते ही बनती हैं। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही हैं, जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

आत्मा को कितना ही कुचला जाय वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी, उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर काँपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय, उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियाँ उस घुसपैठ से अपना पैर वापस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शान्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैं। प्रगतिपथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक संविधान की सामान्य क्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था के और भी ऐसे कितने ही आधार हैं, जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार से भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोकथाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग अक्सर उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक, मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि उन्हें घेरती है और तिल-तिल करके रेतने, काटने जैसा कष्ट देती है। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियन्त्रण में आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, ग्रहण-विसर्जन आदि अनेकों स्वचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती हैं। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती हैं। शरीर तभी तक जीवित है जब तक उसमें चेतना का अस्तित्व है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र स्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया-कलापों का अनुभव करते हैं। यह संस्थान मनोविकारों से पाप-ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर भी पड़ता है और मानसिक सन्तुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों में नित नई शोध होती है और आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती हैं। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती तो हैं, पर दूसरे ही क्षण रोग अपना रूप बदलकर नई आकृति में फिर सामने आ खड़े होते हैं। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। शिर दर्द, आधा शीशी, जुकाम, अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग हैं। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, आत्महीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण जैसे आवेश मनःसंस्थान को ज्वार-भाटों की तरह असंतुलित बनाये रहते हैं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग निरर्थक चला जाता है एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएँ विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो हैं। तरह-तरह की सनकों के कितने ही लोग सनकते रहते हैं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते हैं। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना तथा अपने साथियों का कितना अहित करते हैं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ रही है। जनसंख्या इसी चपेट में आई हुई दिखाई पड़ेगी। शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति ही बहुत स्वल्प संख्या में मिलेंगे।

रंगाई से पूर्व धुनाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला-कुचैला है, तो उस पर रंग ठीक तरह न चढ़ेगा। इस प्रयास में परिश्रम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरान्त उसकी रंगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करते है। दीवार बीच में हो तो उसके पीछे बैठा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय-कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।

उपासना का प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्मशोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर शोधन के लिए नेति-धोति, वस्ति, न्यौली-व्रजोली आदि क्रियाएँ करने का विधान है। राजयोग में यह शोधन कार्य यम-नियमों में करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका-चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई कर ली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण-कर्म को सुधारा जाय और पिछले जमा कूड़े करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के कायाकल्प विधान में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन आदि कृत्यों द्वारा पहले मल-शोधन किया जाता है, तब उपचार आरम्भ होता है। आत्म-साधना के सम्बन्ध में भी आत्मशोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

आज की दुःखद परिस्थितियों के लिए भूतकाल की भूलों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। इसी प्रकार सुखी समुन्नत होने के सम्बन्ध में भी पिछले प्रयासों को श्रेय दिया जा सकता है। इस पर्यवेक्षण का सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि अशुभ विगत को धैर्यपूर्वक सहन करें या फिर उसका प्रायश्चित करके परिशोधन की बात सोचें। शुभ पूर्वकृत्यों पर सन्तोष अनुभव करें और उस सत्प्रवृत्ति को आगे बढ़ाये। यह नीति निर्धारण की बात हुई। अब देखना यह है कि आधि-व्याधियों के रूप में अशुभ कर्मों की काली छाया सिर पर घिर गई है तो उसके निवारण का कोई उपाय है क्या?

जो कर्मफल पर विश्वास न करते हों, उन्हें भी मानवी अन्तःकरण की संरचना पर ध्यान देना चाहिए और समझना चाहिए कि वहाँ किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं। पूजा प्रार्थना से भी दुष्कर्मों का प्रतिफल टलने वाला नहीं है। देव-दर्शन, तीर्थ-स्नान आदि से इतना ही हो सकता है कि भावनायें बदलें, भविष्य के दुष्कृत्यों की रोकथाम बन पड़े। अधिक बिगड़ने वाले भविष्य की सम्भावना रुके। पर जो किया जा चुका, उसका प्रतिफल सामने आना ही है। उसके उपचार के लिए शास्त्रीय परम्परा और मनःसंस्थान की संरचना को देखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि खोदी हुई खाई को पाटा जाय। प्रायश्चित के लिए भी वैसा ही साहस जुटाया जाय, जैसा कि दुष्कर्म करते समय मर्यादा उल्लंघन के लिए अपनाया गया था। यही एकमात्र उपचार हैं, जिससे दुष्कर्मों की उन दुःखद प्रक्रियाओं का समाधान हो सकता है, जो शारीरिक रोगों, मानसिक विक्षोभों, विग्रहों, विपत्तियों, प्रतिकूलताओं के रूप में सामने उपस्थित हो कर जीवन को दूभर बनाये दे रही हैं। यह विषाक्तता लदी ही रही, तो भविष्य के अन्धकारमय होने की भी आशंका है। अस्तु प्रायश्चित प्रक्रिया को अपनाकर वर्तमान भविष्य को और सुखद बनाना ही दूरदर्शिता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

34.    नव निर्माण हेतु विभूतियों का आह्वान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


यों सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं, पर जिनमें विशेष विभूतियाँ चमकती हैं उन्हें ईश्वर के विशेष अंश की सम्पदा से सम्पन्न समझा जाना चाहिए। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान कृष्ण ने विशिष्ट विभूतियों में अपना विशेष अंश होने की बात उदाहरणों समेत बताई है। यों जीवनयापन तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी करते हैं, पर जिनके पास विशेष शक्तियाँ, विभूतियाँ हैं, कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य वे ही कर पाते हैं। इसलिए भावनात्मक नव निर्माण जैसे युगान्तरकारी अभियानों में उनका विशेष हाथ रहना आवश्यक है।

विभूतियों को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) भावना (२) शिक्षा-साहित्य (३) कला (४) सत्ता (५) सम्पदा (६) भौतिकी (७) प्रतिभा। इन सातों के सदुपयोग से ही व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है।

(१) भावना (धर्म एवं अध्यात्म)-व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और गतिविधियों को आदर्श बनाने की अन्तःप्रेरणा को भावना कहा जाता है। धर्म धारणा और अध्यात्म साधना के समस्त कलेवर को इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। पिछले दिनों कुछ कर्मकाण्डों, परम्पराओं एवं विधानों को पूरा कर लेना भर धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता समझी जाती रही है। वस्तुतः चरित्र गठन का नाम धर्म और अपनी क्षमताओं को लोक मंगल के लिए समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाओं के कल्पना लोक में नहीं उड़ते रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने तथा समाज के समग्र निर्माण में संलग्न होना चाहिए। यही उनका वास्तविक प्रयोजन भी है।

धर्म की प्राचीनता और दार्शनिकता से प्रभावित लोगों को कहा जा रहा है कि अपने सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने, धर्म परिवर्तन के प्रति उत्साह में शक्तियों का अपव्यय न करें। हमारा सतत प्रयास है सब धर्मों के प्रति परस्पर सहिष्णुता, समन्वय की वृत्ति उत्पन्न करना। वे अपने स्वरूप को भले ही पृथक बनाये रहे, पर विश्वधर्म का एक घटक बनकर रहें और अपने प्रभाव को चरित्र गठन एवं परमार्थ प्रयोजन में ही नियोजित करें। प्रथा परम्पराओं वाले कलेवर को गौण समझें। सभी धर्म सम्प्रदाय अपनी परम्पराओं में से उत्कृष्टता का अंश अपनाकर विश्व एकता के, उत्कृष्ट मानवता और आदर्श समाज रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े और एक ही केन्द्र पर केन्द्रित हो। धर्मों के जीवित रहने का, अपनी उपयोगिता बनाये रहने का मात्र यही तरीका है।

(२) शिक्षा एवं साहित्य-व्यक्ति की समस्त गरिमा उसकी मनःस्थिति पर, विचार प्रक्रिया पर निर्भर है। इस जीवन प्राण के मर्म स्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के निर्माण में शिक्षा और साहित्य की महत्ता सर्वविदित है। युग परिवर्तन की इन घड़ियों में दोनों माध्यमों का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए।

सरकारों को अपने ढंग से काम करने देना चाहिए। वर्तमान वातावरण में उनके लिये यह कठिन ही है। नये युग के अनुरूप मस्तिष्क ढालने वाली वाली शिक्षा पद्धति के बारे में वे सही ढंग से कुछ सोच सकें और वैसा ही कुछ सही कदम उठा सकें। सरकारें भौतिक जानकारियाँ देने वाली जो शिक्षा प्रक्रिया चला रही हैं उससे लाभ उठाना चाहिये, किन्तु भाव परिष्कार की पूरक धर्म शिक्षा, नैतिक शिक्षा, भावनात्मक नव निर्माण की शिक्षा पद्धति का संचालन जनता स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी जनता को ही अपने हाथ में लेना चाहिए। ये सरकारी स्तर पर नहीं, जन स्तर पर ही हल हो सकता है। विवाहित महिलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध सरकारी विद्यालय कर सकेंगे, यह आशा रखनी व्यर्थ है। दृष्टिकोण का परिष्कार, आज की परिस्थितियों में चरित्र निर्माण का व्यवहार पक्ष, समाज संरचना की अगणित समस्याएँ और हल, विश्व परिवार के लिए बाध्य करने वाले प्रचण्ड वातावरण का निर्माण, यह सब प्रयोजन जन स्तर के विद्यालय ही पूरा कर सकेंगे। पूरे या अधूरे समय के-जहाँ वे जिस स्तर पर भी खुल सकें खोले जायें। जनता अपनी रोटी, कपड़ा, दवा, मनोरंजन आदि का खर्च स्वयं उठाती है, इसके लिए सरकार से अनुदान नहीं माँगती, तो फिर भावनात्मक नव-निर्माण की शिक्षा के लिए सरकार का मुँह ताका जाय, इसकी क्या आवश्यकता है?

साहित्यकारों से इसी दिशा में लेखनी उठाने के लिए कहा जा रहा है। कवियों से मूर्छना को जागृति में परिणित कर सकने वाले अग्नि गीत लिखने के लिए कहा गया है। कहानीकार कथा माध्यमों से हृदयग्राही चित्रण प्रस्तुत कर सकते हैं। पत्रकार अपने पत्र-पत्रिकाओं में इस प्रकार के समाचारों और लेखों को स्थान देना आरम्भ करें। प्रकाशक ऐसी ही पुस्तकें छापें। संसार में लगभग ६०० भाषाएँ हैं। भारत में ही सरकारी मान्यता प्राप्त १४ भाषाएँ है और इससे कई गुनी संख्या उन भाषाओं की है जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है। इन सभी भाषाओं में प्रचुर साहित्य लिखा जाना, अनुवादित किया जाना, छापा जाना और विक्रय किया जाना आवश्यक है। इस प्रकाशन व्यवसाय के लिए पूँजी और प्रतिभा दोनों की ही जरूरत है। मात्र लेखक नहीं प्रकाशक भी जब इस क्षेत्र में उतरेंगे तो उनके परस्पर सहयोग, समन्वय से कुछ काम चलेगा।

(३) कला मंच से भाव स्पन्दन-कला मंच में चित्र, मूर्तियाँ, नाटक, अभिनय, संगीत आदि आते हैं। संगीत विद्यालय हर जगह खुलें। ध्वनियाँ सीमित हो, बाजे भी सीमित हो, सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम हो, जो वर्षों में नहीं महीनों में सीखे जा सकें। प्रचण्ड प्रेरणा भरे गीतों का प्रचलन इन विद्यालयों द्वारा हो और हर्षोत्सवों पर प्रेरक गायनों की ही प्रधानता रहे। अग्नि गीतों की पुस्तिकाएँ सर्वत्र उपलब्ध रहें। संगीत सम्मेलन, संगीत गोष्ठियाँ, कीर्तन, प्रवचन, सहगान, क्रिया गान, नाटक, लोकनृत्य जैसे अगणित मंच मण्डप सर्वत्र बनें और वे लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें।

चित्र प्रकाशन अपने आप में एक बड़ा काम है। कैलेण्डर तथा दूसरे चित्र आजकल खूब छपते, बिकते है उनमें प्रेरक प्रसंगों को जोड़ा जा सके तो उससे जन-मानस को मोड़ने में भारी सहायता मिल सकती है। इसमें चित्रकारों से अधिक सहयोग चित्र प्रकाशकों का चाहिए। आदर्शवादी चित्र प्रकाशन की योजना हो, तो चित्रकार उस तरह की तस्वीरें और भी अधिक प्रसन्नतापूर्वक बना देंगे। यह कार्य ऐसे है जिनमें प्रतिभा, पूँजी, सूझबूझ और लगन का थोड़ा भी समन्वय हो जाय तो बिना किसी खतरे का सामना किये सहज ही आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

यंत्रीकरण के साथ कला का समन्वय होने से ग्रामोफोन रिकार्ड, टेप रिकार्डर तथा फिल्म सिनेमा के नये प्रभावशाली माध्यम सामने आये हैं। उनका सदुपयोग होना चाहिए। चित्र प्रदर्शनियों के उपयुक्त बड़े साइज के चित्र छपने चाहिए। रिकार्ड बनाने का कार्य योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। यों शुरुआत दस रिकार्डों से की गई थी। पर अभी उसे सभी भाषाओं के लिए, सभी प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बनाने में बड़ी शक्ति तथा पूँजी लगानी पड़ेगी। इसी प्रकार फिल्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। आँकड़े यह बताते हैं कि समाचार पत्र और रेडियो मिलकर जितने लोगों को सन्देश सुनाते है, उससे कहीं अधिक सन्देश अकेला सिनेमा पहुँचाता है। समाचार पत्रों के पाठकों और रेडियो सुनने वालों की मिली संख्या से भी सिनेमा देखने वालों की संख्या अधिक है। यदि यह उद्योग विवेकवान और दूरदर्शी हाथों में हो और वे उसका उपयोग जन-मानस को परिष्कृत करने तथा नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में कर गुजरें तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकता है। जिनके हाथ में इन दिनों यह उद्योग है, उनका दृष्टिकोण बदला जाय तथा नये लोग नई पूँजी और नई लगन के साथ इस क्षेत्र में उतरें, तो इतना अधिक कार्य हो सकता है जिसकी कल्पना भी इस समय कठिन है।

(४) विज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं। उसने मानवी सुख सुविधाओं में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि की है। पर यह भी सही है कि उसके दुरुपयोग से होने वाली हानियाँ भी कम नहीं उठानी पड़ रही हैं। अस्त्रों के उत्पादन में विशेषतया गैसें, किरणें एवं अणु विस्फोटजन्य अस्त्रों ने तो संसार के अस्तित्व को ही संकट में डालने वाली विभीषिका उत्पन्न कर दी है। यदि यह शोध, आविष्कार सृजनात्मक प्रयोजनों तक ही सीमित रहे, तो उसका प्रतिफल धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाये जा रहे हैं, यदि उन्हें मानवी अभावों और शोक-सन्तापों की निवृत्ति में लगा दिया जाय, तो उसका प्रतिफल इस संसार को स्वर्गोपम बनाने में हो सकता है। समुद्र के खारे पानी से मीठा जल प्राप्त किया जा सकता है। जमीन के नीचे बहने वाली विशाल नदियों का जल धरती पर लाया जा सकता है और सारी दुनियाँ सचमुच शस्यश्यामला बन सकती है। कृषि, पशुपालन, बागवानी, वन सम्पदा, स्वास्थ्य सम्वर्धन और मस्तिष्कीय विकास की दिशा में विज्ञान को अभी बहुत काम करना बाकी है। प्रकृति के प्रकोपों से लोहा लेने के साधन जुटाने में, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, भूकम्प, बाढ़, तूफान, शीत-ताप की असहनीयता का सामना करने योग्य शक्ति का उपार्जन हो सकता है। वाहनों को सरल एवं सस्ता बनाया जा सकता है, संचार साधनों के विस्तार की अभी बहुत गुंजायश है।

(५) शासन सत्ता-राज सत्ता जिनके हाथ में इन दिनों है अथवा अगले दिनों आने वाली है, उन्हें संकीर्ण राष्ट्रीयता के अपने प्रिय क्षेत्र या वर्ग के लोगों को लाभान्वित करने की बात छोड़कर समस्त विश्व में समान रूप से सुख शान्ति की बात सोचनी होगी और समस्त संसार को एक परिवार बनाने की नीति अपना कर प्रकृति प्रदत्त साधनों एवं मानवी उपार्जन को समान रूप से सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध करना होगा। युद्धों की भाषा में सोचना बन्द कर न्याय का आधार स्वीकार करना होगा। वर्गभेद और वर्णभेद की जड़े उखाड़नी होंगी।

(६) सम्पदा-विभूतियों में इन दिनों सर्वोपरि मान्यता पूँजी को मिली है। धन का वर्चस्व सर्वविदित है। सम्पत्ति में स्वयं कोई दोष नहीं। दोष उसके दुरुपयोग में है। व्यक्तिगत विलासिता में, अहंता की वृद्धि में यदि उसका उपयोग होता है, संग्रह बढ़ता है एवं उसका लाभ बेटे-पोतों तक ही रखने का प्रयत्न किया जाता है, तो निस्संदेह ऐसा धन निन्दनीय है। अगले दिनों समता के आधार पर ही समाज व्यवस्था बनेगी। सामर्थ्य भर श्रम एवं आवश्यकता भर साधन प्राप्त करने का क्रम चले तभी सम्पदा पर व्यक्ति का नहीं समाज का अधिकार होगा। न कोई गरीब दिखाई देगा न अमीर। पर जब तक वह स्थिति नहीं बन जाती तब तक संग्रहीत पूँजी को लोकमंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता दिखाने के लिए धनपतियों को कहा जायेगा।

दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि युग परिवर्तित का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही यह व्यवसाय बुद्धि से किया जाय तो भी इतना होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रिया कलापों की चर्चा की गई है, जिसमें पूँजी के रूप में भी यदि धन लग सके, यदि उन क्रिया कलापों को व्यावसायिक रूप में खड़ा किया जा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता है। (१) साहित्य प्रकाशन (२) चित्र प्रकाशन (३) अभिनय मंडलियाँ (४) ग्रामोफोन रिकार्ड (५) फिल्म निर्माण। यह पाँच कार्य ऐसे हैं, जिनके लिए विशालकाय अर्थसंस्थान खड़े किये जाने चाहिए और लोकमानस को परिष्कृत बनाने की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए।

(७) प्रतिभायें-प्रतिभा एक वशिष्ठ और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्फूर्तिवान् सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रियाकुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लें उसी को अपने मनोयोग एवं व्यवहार कुशलता के आधार पर गतिशील बनाते चले जाते है और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझबूझ, आत्म विश्वास, कर्मठता जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों के संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलतायें उनके पीछे छाया की तरह फिरती हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।

प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल सन्त, राजनेता, समाजसेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभाएँ ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करती हैं। सेनाध्यक्षों के रूप में, लड़ाकू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी तरह के लोग बनते हैं। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हो वहाँ से उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडम्बनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में नियोजित कर दें जिसमें उनका, उनकी प्रतिभा का तथा समस्त संसार का हित साधन हो सके।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

35.    तीर्थयात्राः प्रयोजन और प्रतिफल
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


तीर्थ यात्रा किस प्रकार की जाय, इसका शास्त्रीय प्रतिपादन यह है कि उसे पद यात्रा के रूप में सम्पन्न किया जाना चाहिए। वाहनों का उपयोग निषिद्ध है। अभी भी तीर्थ यात्रा की इस प्राचीन परम्परा का स्वरूप अनेक स्थानों पर, अनेक प्रसंगों पर देखने को मिलता है। गोवर्धन, गिरनार आदि पर्वतों की, ब्रजधाम, प्रयाग, पंचकोशी आदि क्षेत्रों की, नर्मदा आदि नदियों की परिक्रमा होती है। इन्हें पैदल ही किया जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव प्रतिमाओं पर गंगा जल चढ़ाने के लिए अभी भी कन्धे पर काँवर रखकर तीर्थ यात्रा की जाती है। श्रवण कुमार ने गंगाजल के स्थान पर अपने अन्धे माता-पिता को काँवर में बिठाकर तीर्थ यात्रा की थी। जो लोग दूर नहीं जा सकते, समीप ही तीर्थ यात्रा का पुण्य लेना चाहते हैं, वे विशिष्ट पर्वों पर पीपल, बरगद, आँवला, तुलसी आदि की अमुक संख्या में परिक्रमा कर लेते हैं। देवालयों की प्रदक्षिणा की जाती है। यज्ञ की पूर्णाहुति के समय चार परिक्रमाएँ करने का विधान है। इन प्रचलनों के पीछे उस आदि परम्परा की झाँकी की जा सकती है, जिसमें तीर्थों की स्थापना के साथ दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए पदयात्रा जैसी कुछ नियम-मर्यादाओं का समावेश किया गया था।

योग साधनाओं में, तपश्चर्याओं में, धर्मानुष्ठानों में महत्त्वपूर्ण स्थान तीर्थ-यात्रा का भी है। यह इसलिए कि विचारशील धर्मज्ञ जन-जन में धर्म धारणा जागृत रखने के लिए गाँव-गाँव पहुँचते, घर-घर जाते और अलख जगाते थे। यह इसलिए आवश्यक था कि पिछड़े हुए क्षेत्र या वर्ग के लोग अपनी निर्वाह समस्याओं में ही उलझे रहते हैं, उन्हें धर्म-दर्शन अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ सम्पर्क मिलाने की इच्छा ही नहीं होती। इच्छा हो तो अवसर नहीं मिलता। नगरों से दूर छोटे देहातों में प्रायः हर तरह के साधनों का अभाव रहता है। ऐसी दशा में उनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति इस योग्य नहीं रहती कि वे जीवन-लक्ष्य को समझने और उसे उपलब्ध करने के लिए उपयुक्त प्रकाश प्राप्त कर सकें। बड़े नगरों में सम्पन्न लोगों के पास ज्ञानवान और विद्वान भी आसानी से पहुँचते रहते है, सुविधा साधन हर किसी को अपने निकट खींच बुलाते हैं। कथा प्रवचनों और सत्संगों की वहाँ कमी नहीं रहती। लाभ उठाना, न उठाना इच्छा पर निर्भर है, पर वहाँ ज्ञान का आलोक पहुँचने में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। देहातों की स्थिति ऐसी नहीं है। वहाँ छाया हुआ आर्थिक एवं बौद्धिक पिछड़ापन न तो धर्म जिज्ञासा के प्रति उत्साह उत्पन्न होने देता है और न साधनों के अभाव में परिस्थितियों के दबाव से कहीं दूर स्थान पर जाकर धर्म प्रवीणों के साथ सम्पर्क साधने का अवसर ही मिल पाता है। वे अन्यत्र जा नहीं सकते, उनके पास कोई पहुँचता नहीं। ऐसी दशा में पिछड़े क्षेत्र में धर्म चेतना से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्रायः प्राप्त ही नहीं कर पाते।

धर्म प्रचारकों को भी ऐसे क्षेत्रों में पहुँचने में उत्साह नहीं होता। दक्षिणा, सुविधा, सम्मान का अभाव, यातायात साधनों की असुविधा उन्हें उन क्षेत्रों में जाने से निरुत्साहित करती है। जब साधन सम्पन्न क्षेत्रों में ही उनकी बहुत माँग है और उन्हीं से फुरसत नहीं मिलती, तो फिर पिछड़े क्षेत्रों में अनेकानेक असुविधाओं का सामना करने के लिए क्यों जाया जाय? यही व्यवधान है, जो पिछड़ेपन को प्रगतिशीलता में परिवर्तित करने वाले प्राणवान सत्संग सम्पर्क का सुयोग नहीं बनने देते और एक बहुत बड़े वर्ग के पिछड़ेपन की समस्या जहाँ की तहाँ उलझी रह जाती है। बड़ा वर्ग पिछड़े लोगों का है। जनसंख्या की दृष्टि से वे भारत में तीन चौथाई के लगभग हैं। उन तक प्रकाश कैसे पहुँचे? उनमें उत्कृष्टता का आलोक कौन जगाये? बिना उत्थान प्रयासों के कुसंस्कारी निकृष्टता कैसे घटे? उत्थान का सम्बल कहाँ से मिले? इन प्रश्नों का उत्तर एक ही निकाला गया-तीर्थ यात्रा का प्रचलन।

व्यक्तिगत स्तर की साधनाओं में ही रुचि सन्तों को भी रहती है। व्यक्तिगत सम्पर्क की ललक ही कुछ ऊँचे क्षेत्र में चलकर निजी सिद्धियों के रूप में अपना मुखौटा बदल लेती है। स्वर्ग और मुक्ति को स्वार्थपरता का थोड़ा ऊँचा स्तर कह सकते है। सेठ और सन्त की प्रवृत्ति प्रायः एक ही दिशा में बहती देखी जा सकती है। आत्म साधन का यह स्वरूप न तो वास्तविक है और न उच्चस्तरीय। जिसमें परमार्थ सम्मिलित न हो उसमें अन्तःकरण के विकास-विस्तार की सम्भावना भी नहीं है। करुणा के बिना कोई सन्त नहीं हो सकता। उदारता अपनाये बिना आत्म-विस्तार का, आत्म-कल्याण का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर ऋषियों ने तीर्थ यात्रा को ऐसी आत्म-साधना के रूप में विकसित किया, जिसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों का समान समन्वय है।

धर्म परायण व्यक्ति छोटी-बड़ी मण्डलियाँ बनाकर तीर्थ-यात्रा के लिए निकलते थे। कहाँ से चलकर, किस मार्ग से, किन-किन स्थानों पर ठहरते हुए, कब तक वापस लौटेंगे, इसकी रूप रेखा प्रत्येक मण्डली अपनी-अपनी पृथक-पृथक बनाती थी। मार्ग में जो भी गाँव, झोंपड़े, नगले-पुरबे मिलते थे, उनमें रुकते, ठहरते किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे। यही क्रम निरन्तर चलता था। दिन में जहाँ रुकना वहाँ चर्चा करना, लोगों को कथा सुनाना और उन्हें उपयुक्त मार्गदर्शन देना यह क्रम प्रातः से सायंकाल तक चलता था। रात्रि में जहाँ रुकते वहाँ कथा-कीर्तन का, शंका समाधान का सत्संग क्रम बनता था। यही कार्य पद्धति पूरी यात्रा अवधि में बनी रहती थी। काय-चिकित्सा, मानसिक-समाधान, उपयोगी परामर्श, समर्थ शुभ कामना जैसे अनेकों लाभ इस सन्त मण्डली के सम्पर्क से जन साधारण को मिलते थे। इन मण्डलियों के स्तर एवं क्रिया-कलाप से जन-जन के मन-मन में अपार श्रद्धा उमड़ती थी। अस्तु वे उनके प्रति न केवल भाव-भरा सम्मान व्यक्त करते थे वरन् उनके लिए आवश्यक सुविधा-साधन जुटाने में पूरा-पूरा सहयोग भी करते थे।

अतिथि को भारतीय संस्कृति में देव की संज्ञा दी गई है और उसका सत्कार करने की बात गृहस्थ धर्म में अविच्छिन्न रूप में सम्मिलित की गई है। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव की ही तरह अतिथि देवो भव को भी मान्यता दी गई है। माता, पिता, गुरु की तरह ही अतिथि को भी देव मानने और उसका सम्मान सत्कार करने का अनुशासन है।

अतिथि दो माने गये हैः-तीर्थयात्री और अपंग। अपंगों पर करुणा की जाती है और उदार सहृदयता की अभिव्यक्ति के लिए उनके निर्वाह की व्यवस्था की जाती है। तीर्थयात्री का सत्कार उनकी गरिमा के प्रति नत मस्तक होकर श्रद्धा सहित अर्पण किया जाता है। तीर्थयात्री जहाँ से गुजरते थे, जहाँ भी ठहरते थे वहाँ उनके लिए भोजन, निवास आदि का प्रबन्ध करके स्थानीय व्यक्ति अतिथि-सत्कार के रूप में अपनी शालीनता का परिचय देते थे। विदेशी भारत-यात्रियों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि भारत में दूध की नदियाँ बहती हैं। इसका तात्पर्य यह था कि वे जहाँ भी गये वहाँ उन्हें दूध आदि से परिपूर्ण सत्कार मिला। पुण्य प्रयोजनों में जहाँ अतिथि-सत्कार की चर्चा होती है, वहाँ तीर्थयात्री समुदाय की सुव्यवस्था बनाने और उनकी गतिविधियों में अड़चन न आने देने के नागरिक कर्तव्यों का ही संकेत रहता हैं।

तीर्थयात्री के लिए उसकी धर्म प्रचार पद यात्रा एक उच्चस्तरीय तप-साधना प्रक्रिया थी और जहाँ वे रुकते थे उनके लिए सौभाग्य, सुअवसर जैसी दैवी अनुकम्पा। इसी भावनात्मक तालमेल के कारण तीर्थयात्रा प्रक्रिया का धर्म प्रवाह सर्वत्र बहता था और उससे नदी सरोवरों से भी अधिक मात्रा में जन-जन को लाभान्वित होने का अवसर मिलता था।

तीर्थ यात्रियों को अतिथि मानने और उनके सत्कार का प्रबन्ध करने की व्यवस्था को भारतीय जन-जीवन का अंग माना गया था। इसके लिए हर व्यक्ति अपना कुछ अंशदान नित्य नियमित रूप से निकालता था। एक परम्परा यह भी थी, कि अपने भोजन से पूर्व अतिथि को भोजन कराया जाय। यदि वे उस दिन उपलब्ध न होते थे, तो उस निमित्त निकाला हुआ अन्न सुरक्षित रख लिया जाता था और आवश्यकतानुसार उसे उसी प्रयोजन में लगा दिया जाता था, दैनिक बलिवैश्व यज्ञ में एक आहुति अतिथि देव की भी है। कुछ अन्न नित्य उस प्रयोजन के लिए हर परिवार में निकाला जाता था। इससे पता चलता है कि उन दिनों अतिथि तीर्थ यात्री कितने अधिक गौरवान्वित होते थे और उनकी उपयोगिता, आवश्यकता किस कदर समझी जाती थी। यह महत्त्व अकारण नहीं मिला था। तीर्थ यात्री कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाकर धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए जो उदारता बरतते और तितीक्षा सहते थे, उसी के फलस्वरूप वे अपने देव प्रयोजन में संलग्न रहने के बदले देव स्तर का आत्म-सन्तोष एवं लोक-सम्मान प्राप्त करते थे।

प्राचीन काल में अनेकानेक मन्दिर, मठ एवं धर्मशाला बनाने को बहुत बड़ा पुण्य-फल माना जाता था। उनका खर्च चलाने के लिए स्थायी सम्पत्ति की व्यवस्था की जाती थी। भेंट-पूजा, चढ़ोत्तरी आदि के माध्यम से जन साधारण द्वारा उनकी समृद्धि बढ़ाने में योगदान दिया जाता था। यह धन प्रायः तीर्थयात्रा को निकले धर्म प्रचार जत्थों की व्यवस्था पर ही खर्च किया जाता था। धर्मशाला बनाने का उद्देश्य था, धर्म प्रचार जत्थों के ठहरने के लिए उपयुक्त डाक-बंगले। कुछ समय विश्राम करने, अगली यात्रा के लिए आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करने की सुविधा तीर्थ यात्रियों को इन्हीं मठों से, धर्मशालाओं से मिल जाती थी। वस्त्र, जूते, पात्र, साबुन, औषधि आदि दैनिक वस्तुएँ अगली यात्रा के लिए वही से उपलब्ध कर लेते थे। धर्मचर्चा के लिए अनेक व्यक्ति इन चलते फिरते ज्ञान भाण्डागारों से भेंट करने के लिए जिन स्थानों पर पहुँचते थे, उन्हें धर्मशाला कहा जाता था। धर्म प्रयोजनों के लिए बनी हुई इन शालाओं के बनाने वाले इसलिए पुण्य के भागी बनते थे, कि उनके धन से बनी हुई शाला, इमारत सच्चे अर्थों में धर्म प्रयोजन की पूर्ति कर रही है। मठों में लगी हुई, मन्दिरों में देव प्रतिमाओं पर चढ़ी हुई सम्पत्ति का एक ही उपयोग था-तीर्थयात्रा के नाम से उत्पन्न की जाने वाली धर्मचेतना के लिए सरलता उत्पन्न करना। निरन्तर तीर्थ यात्रा के लिए परिभ्रमण करने वाले धर्म प्रचारक परिव्राजक कहलाते थे। उनमें वानप्रस्थ वर्ग का बाहुल्य रहता था।

जिन दिनों यह पुण्य परम्परा अपने असली रूप में क्रियान्वित होती होगी, उन दिनों कितना सुखद सुअवसर मिलता होगा, जन-जन का इसकी कल्पना मात्र से हृदय हुलसने लगता है। निरन्तर धर्म चेतना उत्पन्न करने के पवित्र प्रयोजन में संलग्न परिव्राजक एक प्रकार से चलते-फिरते जीवन्त तीर्थ ही रहे होंगे। उनकी तपःपूत ज्ञान सरिता में स्नान करके न जाने कितने पवित्र होते होंगे, कितनों को भव सागर से पार होने का नित्य ही अवसर मिलता होगा। ऐसी दशा में यदि यह देश किसी समय धर्मप्राण कहलाता रहा हो, यहाँ के नागरिक देवोपम जीवन जीते रहे हों, अपने सम्पर्क क्षेत्र को सुख शान्ति की ,, प्रगति और समृद्धि की स्वर्गीय परिस्थितियों से भरा-पूरा रखे रहे हो तो आश्चर्य ही क्या है। तैंतीस कोटि देव नागरिकों की स्वर्गादपि गरीयसी यह भारत भूमि स्वयं गौरवान्वित रही और समस्त भूमण्डल को अपने अनुदानों से कृत-कृत्य बनाया, इसका परिचय उन विशेषणों से सहज ही लग जाता है, जो संसार भर में इस देश के लिये प्रयुक्त होते थे। जगद्गुरु, चक्रवर्ती, नर-रत्नों के भाण्डागार इस देश को धरती का स्वर्ग कहा जाता था।

पानी की आवश्यकता खेतों को रहती है, वह बादलों तक याचना के लिए जा नहीं सकते। ऐसे साधन भी नहीं है कि वे आमन्त्रित करने एवं बुला सकने में सफल हो सकें। बादल ही अपनी सहज करुणा से अपने पैरों चलकर अपने कन्धों पर जल राशि लादकर खेतों तक पहुँचाते हैं और आवश्यकता से अधिक जल देकर उन्हें तृप्त करते हैं। संसार में छाये हुए शीत का निवारण करने के लिए धरती सूर्य के समीप नहीं पहुँच सकती। सूर्य ही उसकी आवश्यकता समझकर स्वयं उस पर अपना तेजस बखेरते हैं। रात्रि के अन्धकार की व्यापकता कैसे मिटे? चन्द्रमा के निकट चाँदनी माँगने निशा कैसे पहुँचे। चन्द्रमा स्वयं ही परिभ्रमण करते हुए रात्रि की तमिस्रा को घटाते हैं। उनके पास अपना प्रकाश नहीं है, तो भी वे उदार सूर्य से माँगकर लाते हैं और रात्रि की कुरूपता मिटाते हैं। प्राणियों का जीवन प्राणवायु पर निर्भर है। उस बहुमूल्य पदार्थ को कौन, कहाँ से, कैसे खरीदे। पवन स्वयं ही प्राण वायु अपने ऊपर लादकर हर जीवधारी के पास पहुँचता है और उसे जीवन सम्पदा प्रदान करता है। यदि यह उदारता संसार में न रहे। हर कोई बदला ही चाहे, बिना स्वार्थ के कोई किसी के काम न आये तो समझना चाहिए कि यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ न होगा। यहाँ जो कुछ सौन्दर्य सुषमा का दर्शन होता है, उसके पीछे शालीनता ही काम करती है। इसी शालीनता का जब धर्म क्षेत्र में प्रयोग होता है, तो उसे तीर्थ यात्रा जैसी पुण्य-प्रक्रिया में प्रयुक्त होते देखा जाता है।

भूकम्प, बाढ़, दुर्भिक्ष, अग्निकाण्ड, तूफान आदि दुर्घटनाओं से पीड़ित व्यक्ति तात्कालिक सहायता के लिए साधन-सम्पन्नों का दरवाजा खटखटाते हुए पहुँचने की स्थिति में नहीं होते। उदार व्यक्तियों को ही अपनी सहज करुणा से प्रेरित होकर उन पीड़ितों की सहायता करने पहुँचना पड़ता है और अपने श्रम, सौहार्द्र एवं साधनों की सहायता से उन्हें ही आगे बढ़कर पीड़ितों का कष्ट हलका करना पड़ता है। तीर्थ यात्रा को ठीक इसी स्तर की परम्परा कहा जा सकता है जिसमें जन-जन तक घर-घर तक पहुँचने का प्रयत्न सद्भावना सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा जब-तब नहीं वरन् सुनियोजित रीति से किया जाता है।

प्राचीन समय में तीर्थ केन्द्रों के माध्यम से देश भर में, विश्व भर में, धर्म चेतना सुव्यवस्थित रखने का महान कार्य सम्पादित होता था। इस सूझबूझ और सुव्यवस्था को देखते हुए तीर्थ स्थापना करने वाले महान तत्त्वज्ञानियों की दूरदर्शिता के सम्मुख सहज ही श्रद्धा से प्रत्येक विचारशील का मस्तक झुक जाता है। लगता है यदि यही परम्परा न्यूनाधिक रूप में जीवित बनी रही होती तो आज जैसी परिस्थितियाँ न बनी होती।

तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। परिस्थितियों के बदलते परिवेश में वाहनों का भी प्रयोग किया जा सकता है। उद्देश्य यदि जन जागरण का हो, तो लोकमानस के परिष्कार की यह साधना जीवन में फलीभूत हो अनगिनत सत्परिणाम उसी प्रकार देती रह सकती है जैसे कि प्राचीन समय में समाज को लाभान्वित करती थी।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

36.    परिवार संस्था समर्थ और सशक्त बने
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


परिवार निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से आत्म निर्माण और समाज निर्माण के दोनों उद्देश्य अनायास ही पूरे होते चलते हैं। तालाब में तैरना यों एक सामयिक और सीमित अभ्यास है। पर उससे तैराकी के बहाने शिक्षार्थी अपने अंग-प्रत्यंगों को विशेषतया फेफड़ों को मजबूत बनाने का लाभ उठाता है। साथ ही आवश्यकतानुसार किसी नदी, तालाब को पार करने, डूबते को बचाने जैसी विशेषताओं से अपने को सुसम्पन्न बनाता है। व्यायामशाला में कसरत करना भी एक सामयिक अभ्यास है। उसे करते समय स्फूर्ति, साहसिकता का परिचय भर मिलता है। किन्तु प्रवीणता आने पर शरीर सुडौल और बलिष्ठ होने के कारण साथियों पर छाप छोड़ने, शत्रुओं को आतंकित करने, दंगल में कुश्ती जीतने, व्यायाम शिक्षण पाने जैसे अन्यान्य लाभ उठाना भी सम्भव हो जाता है। परिवार निर्माण को इसी स्तर का कार्य समझना चाहिए, जिसमें तत्काल तो अर्थ सन्तुलन, सद्व्यवहार, स्नेह सौहार्द्र, सुसंस्कृत वातावरण, सभी के लिए प्रगति अवसर जैसे लाभ मिलते हैं और उस व्यवस्था को देखने वाले सराहना करते-करते नहीं थकते। यह प्रत्यक्ष लाभ हुआ। दूरवर्ती और परोक्ष लाभ इसके अतिरिक्त हैं।

स्वभावतः परिजनों के प्रगतिशील, समुन्नत, यशस्वी, समृद्ध एवं सुसंस्कृत होने की आकाँक्षा रहती है। यह शुभेच्छा मात्र कल्पना करने या आशीर्वाद देने से सम्भव नहीं हो जाती। इन्हें फलित करने के लिए उस वातावरण को समर्थ बनाना पड़ता है, जिसमें पलकर किसी अनगढ़ को सुगढ़, अविकसित को समुन्नत बनने का अवसर मिलता है। जलवायु की अनुकूलता में वृक्ष वनस्पतियाँ फलित होती हैं। प्रतिकूलता रहने पर बहुमूल्य पौधे भी सूखते, दम तोड़ते देखे गये हैं। यही बात प्राणियों के सम्बन्ध में भी है। समर्थ वर्ग के जीव-जन्तु भी अनुपयुक्त परिस्थितियों में दुर्बल, रुग्ण रहने और अस्तित्व गँवाने लगते हैं। मनुष्य की आत्म सत्ता महान अवश्य है, किन्तु उसको भी साँस लेनी पड़ती है। घुटन भरे घेरे में रहकर उसे अपनी स्वाभाविक चेतना से हाथ धोना पड़ता है। विष खाने से ही नहीं विषाक्त गैस से भी मृत्यु होती है। व्यक्ति के निजी दोष-दुर्गुण प्रगति पथ में जितना अवरोध उत्पन्न करते हैं, उससे कम नहीं कुछ अधिक ही बाधा उस वातावरण के कारण उत्पन्न होती है जो परिवार में कुसंस्कारी परिस्थितियों के कारण बना होता है।

कल्पना एक बात है, योजना दूसरी। योजना एक बात है और व्यवस्था दूसरी। व्यवस्था एक बात है और तत्परता दूसरी। कुटुम्बियों को सुखी समृद्ध देखने की कल्पना शुभेच्छा उचित भी है और स्वाभाविक भी। पर उतने भर से काम कुछ नहीं बनता। कल्पना तो सिंहासनारूढ़ होने या आसमान के तारे तोड़ लाने की भी हो सकती है। पर उसका कोई आधार न बनता हो, तो शेखचिल्ली जैसी उपहासास्पद ही बनना पड़ेगा।

छोटे से लेकर बड़े कामों तक की व्यावहारिक योजना बनानी पड़ती है। उसे क्रियान्वित करने में तन्मयता एवं तत्परता नियोजित करनी पड़ती है। आवश्यक साधन जुटाने होते हैं। पानी के ढलान की तरह क्रम सहज लुढ़कने लगता है। पर सदुद्देश्यों के लिए, सृजनात्मक प्रयास खड़े करने और उन्हें गतिशील रखने में अनवरत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। पतन पथ पर पानी से लेकर ढेले तक को सहज लुढ़कते देखा जा सकता है। वे जब तक जीवित हैं तब तक बिना किसी प्रेरणा के अधिक गहरे गर्त में गिरने के लिए स्वयमेव बढ़ते रह सकते हैं।

उत्कर्ष की बात दूसरी है। उसके लिए निरन्तर शक्ति जुटानी पड़ती है। कुँए से पानी खींचने में हाथ रुकने से वह जहाँ का तहाँ रुक जाता है। छत पर चढ़ने के लिए जब तक पैर बढ़ेंगे तभी तक प्रगति होगी। रुकते ही सब कुछ ठप्प हो जायेगा। गिरने का क्रम अलग है और उठने का दूसरा। ढेला ऊपर फेंकना हो तो वह प्रयत्न उतनी ही दूर तक सफल होगा जब तक उसके पीछे फेंकने वाले की शक्ति काम करती रहेगी। परिवार निर्माण की प्रक्रिया पर भी यही तथ्य लागू होते हैं। सभी जानते है कि खर्च जुटाने के लिए आमदनी के स्रोत निरन्तर खुले रखने की आवश्यकता होती है। आमदनी बन्द होते ही खर्च के लाले पड़ जाते हैं। ठीक इसी प्रकार परिवार निर्माण के लिए प्रेरणाप्रद वातावरण बनाने में जागरूकता एवं तत्परता जब तक काम करती रहेगी तभी तक वह प्रयास सफल होता रहेगा। इस सन्दर्भ में न तो उथले प्रयत्न सफल होते और न हाथ खींच लेने पर भी स्वयमेव चलते रह सकते हैं। जब हर छोटा बड़ा काम सफलता के स्तर तक पहुँचने के लिए आवश्यक सूझबूझ, श्रमशीलता और साधन सामग्री की अपेक्षा करता है तो उसका अपवाद कैसे हो सकता है?

परिवार निर्माण का प्रत्यक्ष पक्ष इतना ही है, कि उस परिधि में रहने वाले प्रत्येक परिजन का वर्तमान सुखद और भविष्य उज्ज्वल बनता है। निर्माताओं को इसके बदले में आत्म सन्तोष, गर्व गौरव एवं श्रद्धा-सम्मान यश श्रेय प्राप्त होता है। फले-फूले उद्यान को लगाने, सजाने वाला माली सामान्य श्रमिकों की तुलना में कुछ अधिक ही श्रेय और लाभ कमाता है। परिवार निर्माण में तत्पर मनुष्यों की उपलब्धियाँ किसी कुशल माली, भवन निर्माता, सफल उद्योगपति, सर्कस के रिंग मास्टर से अधिक आँकी जाती है कम नहीं।

यह तो प्रत्यक्ष की चर्चा हुई। परोक्ष इससे अलग क्षेत्र है। निर्माता अपने आप उच्चस्तरीय प्रवीणता प्राप्त करता है। वाद्ययन्त्रों के ध्वनि प्रवाह से श्रोताओं को तरंगित होने का अवसर मिलता है। पर इसके लिए प्रयासरत वादक की कला भी निखरती है और उसके व्यक्तित्व की कीमत भी बढ़ती है। मूर्तियाँ मन्दिरों और भवनों की शोभा बढ़ाती हैं, पर उनके निर्माण में प्रवीणता अर्जित करने वाले धन और यश भी कमाते हैं। साहित्यकार, कलाकार, लोकरंजन की कुशलता अनेकों को गुदगुदाती है। पर उस परमार्थ के बदले उन्हें जो व्यक्तिगत लाभ मिलता है, वह पाठकों और दर्शकों की अपेक्षा कम नहीं अधिक मूल्य का ही होता है।

दूसरे के हाथों को रचाने के लिए मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही रच जाते हैं। इत्र बनाने वाले श्रमिकों के हाथ और कपड़े बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही महकते रहते हैं। सत्प्रयत्नों में संलग्न व्यक्तियों को उस प्रयोजन से सम्बन्धित अनेकों विशेषताओं और प्रवीणताओं का लाभ सहज ही मिलता रहता है। रंगमंच सजाने का काम करने वाले कर्मचारी उस दृश्य का आनन्द मुफ्त में ही लेते रहते हैं। परिवार निर्माण में प्रधानतया सद्विचारों और सद्गुणों का प्रयोग करना पड़ता है। परिजनों को वही सिखाना पड़ता है।

व्यक्ति निर्माण में कभी भी मात्र बौद्धिक प्रशिक्षण कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। प्रभावी प्रवचनों और प्रदर्शनों से यदि व्यक्तित्वों को ढालना सम्भव रहा होता, तो यह काम कब का हो गया होता और इसे समर्थ लोगों ने कब का पूरा कर लिया होता। ज्योति से ज्योति जलती है और तेजस्वी व्यक्तित्वों के प्रभाव से नए व्यक्ति ढलते हैं। अस्तु परिवार के जिन मूर्धन्य लोगों को अपने क्षेत्र में नव सृजन करना है, उन्हें यह सब कुछ पहले अपने स्वभाव में उतारना होगा जो परिजनों से कराना है। समझाने भर से काम चल जाता तो कितना अच्छा होता। तब समझ की तूती बोलती और चरित्र निष्ठा के द्वार खटखटाने की आवश्यकता न पड़ती। किन्तु विवशता का क्या किया जाय? प्राचीन काल में भी गुरुकुलों के कुलपति उसे नर रत्नों की टकसाल बनाकर दिखाते थे और वही प्रक्रिया अनन्तकाल तक चलेगी भी।

सुशिक्षण में पाठ्य विधि पर्याप्त नहीं, उसके लिए उच्चस्तरीय व्यक्तित्व से सुसम्पन्न अध्यापक चाहिए। यह प्रबन्ध न बन पड़ा तो समझना चाहिए कि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही बना रहेगा और उससे कौशल सम्वर्धन का छोटा सा प्रयोजन भर पूरा हो सकेगा। शिक्षा से व्यक्तित्व का निर्माण यदि सच है तो उसके साथ यह शर्त भी अनिवार्य रूप से जुड़ी रहेगी कि शिक्षक का स्तर प्रवक्ता भर का नहीं रहना चाहिए वरन् सृजेता के स्तर तक ऊँचा उठकर अपनी दक्षता का प्रमाण भी प्रस्तुत करना है।

परिवार निर्माण की दृष्टि से तो यह नितान्त आवश्यक है। मखौल बाजी और विडम्बना बनानी हो तो पर उपदेश कुशल रहने से भी काम चल सकता है, किन्तु यदि वस्तुतः सत्परिणाम ही चाहिए तो सृजेताओं को यह सिद्ध करना होगा जो कहा जा रहा है उस पर उनकी गहन आस्था है। यह प्रमाण अपने चिन्तन और चरित्र में उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश किए बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। जो इस सत्य को समझेंगे और परिवार निर्माण के लिए वस्तुतः इच्छुक होंगे, उन्हें वह प्रयास आत्म निर्माण से आरंभ करना होगा ताकि ढलाई की प्रक्रिया को सरल और सम्भव बनाया जा सकें। यह है वह लाभ जो परिवार निर्माण के लिए प्रयास करने वालों को आत्म निर्माण के रूप में अनायास ही उपलब्ध होता है।

घर को तपोवन बनाने की बात कही जाती रही है। गृहस्थ को योग की संज्ञा दी गयी है। पतिव्रत, पत्नीव्रत, पितृव्रत, पितृसेवा, शिशु वात्सल्य, समता, सहकार की सत्प्रवृत्तियाँ यदि सघन सद्भाव की मनःस्थिति से सम्पन्न की जा सके तो उनका महत्त्व योगाभ्यास एवं तप साधन से किसी प्रकार कम नहीं होता। इस प्रतिपादन से, सहस्रों कथा गाथाओं से इतिहास, पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। कर्मयोग की जितनी उत्तम साधना गृहस्थ में हो सकती है उतनी कदाचित ही अन्यत्र बन पड़े। एक प्रसंग में यह कहना भी अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि आत्म समर्पण के लिए सरल और सार्थक साधना पद्धति परिवार निर्माण के रूप में ही प्रत्युत हो सकती है। ऋषि इसी कार्य को गुरुकुलों के आरण्यकों में चलाते हुए सम्पन्न करते थे। परिवार का तात्पर्य समुदाय है। विशेषतया पिछड़े वर्ग का समुदाय। शिवजी की बारात का वर्णन जिनने पढ़ा है वे जानते हैं ‘तनुछी न कोऊ अति पीन पावन कोऊ अपावन तनु धरे’ भूत पलीतों का पिछड़ा वर्ग ही उनका दयालु समुदाय था। दयालु व्यक्ति इसी समुदाय पर अपना ध्यान केन्द्रित करते और उनकी सुख सुविधा जुटाने में आत्मोत्सर्ग करते रहते हैं। मूर्धन्यों की पारिवारिकता इसी स्तर पर परिलक्षित होती है।

परिवार निर्माण की प्रतिक्रिया समाज निर्माण में होने की बात समझने में किसी विचारशील को कोई कठिनाई नहीं हो सकती। जिन महामानवों ने विश्व इतिहास में महती भूमिकाएँ सम्पन्न की हैं। उनके व्यक्तित्व सुसंस्कृत वातावरण में ही ढले थे। निजी प्रतिभा का मूल्य, स्वरूप और प्रभावी वातावरण की क्षमता महान है। प्रतिभायें कुसंस्कारी वातावरण में ढलती हैं तो वे दुष्ट दुरात्मा बनकर अपना और दूसरों का अहित ही करती रहती हैं। यदि उन्हें सुसंस्कृत परिस्थितियों में पलने और परिपक्व होने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही स्थिति सर्वथा भिन्न रहती। परिस्थितियों ने जिसे डाकू बना दिया, यदि उसे दिशा और सहायता मिली होती तो किसी सेना का कुशल सेनापति अथवा साहसिक नेतृत्व कर सकने में पूर्णतया सफल सिद्ध हुआ होता। व्यक्ति की मौलिक प्रतिभा को कितना ही महत्त्व या श्रेय क्यों न दिया जाय, वातावरण के प्रभाव को झुठलाया नहीं जा सकता। कहना न होगा कि मनुष्य को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में सबसे अधिक सामर्थ्य परिवार के वातावरण में ही होती है। जो उसका निर्माण कर सके वे प्रकारान्तर से सच्चे सेवक हैं। जिस खदान से नर रत्न उपलब्ध हो सके, उसकी प्रशंसा हजार जीभों से करनी पड़ेगी।

रस्सा और कुछ नहीं बिखरे हुए धागों का संयुक्त समुच्चय भर है। समाज और कुछ नहीं परिवार में बसे हुए मनुष्यों का समुदाय मात्र है। व्यक्तियों का उत्पादन ही नहीं परिपोषण और परिष्कार भी उसी में होता है। समाज जैसा भी कुछ है। पारिवारिक परम्पराओं की देन है। समाज को जैसा भी कुछ बनाना है वैसी परिस्थितियाँ परिवार में उत्पन्न करनी होगी। व्यक्ति के एकाकी निर्माण की कोई तुक नहीं। बहरे इसलिए गूँगे होते है कि वे सुन नहीं पाते। शब्दोच्चार की प्रक्रिया का अनुकरण करने का अवसर नहीं पाते। यदि कोई बहरा सुनने लगे तो कुछ ही दिन में उसका गूँगापन अच्छी खासी बोलचाल में बदल जायेगा। यह अनुकरण का चमत्कार है। व्यक्ति की आन्तरिक ढलाई का मात्र दो तिहाई कार्य दस वर्ष में पूरा हो चुका होता है। प्रवृत्ति की दृष्टि से व्यक्ति शेष जीवन में एक तिहाई संस्कार ही ग्रहण कर पाता है। दस वर्ष की आयु प्रायः परिवार की परिधि में व्यतीत होती है। प्रौढ़ावस्था आने पर भी मनुष्यों को प्रायः तेरह घण्टे घर के भीतर ही रहना पड़ता है। स्त्रियाँ और बाल वृद्ध तो अपना अधिकांश समय उसी सीमा में रहकर व्यतीत करते हैं। इस क्षेत्र में यदि शालीनता बनी होगी, तो निश्चय ही उस परिधि में रहने वालों को ऐसा अनुदान मिलता रहेगा, जिसके सहारे वे अपनी उपयोगिता एवं विशिष्टता का परिचय दे सकें। इसे समाज निर्माण का सुदृढ़ और चिरस्थायी आधार समझा जाना चाहिए।

किसी राष्ट्र की समृद्धि, सामर्थ्य एवं वरिष्ठता सरकारी दफ्तरों या अफसरों में सीमित नहीं होती, वहाँ तो उसकी झाँकी मात्र मिलती है। छावनियों में रहने वाली सेना ही किसी राष्ट्र की शक्ति नहीं है। वास्तविक शौर्य पराक्रम तो गली-मुहल्लों और घर-परिवारों में उगता और बढ़ता है। छावनियों में सेना उपजती नहीं, वह परिवारों से ही आती है। राष्ट्रीय समृद्धि के लिए सरकारी कोश की नाप-तोल करना अपर्याप्त है। समृद्धि तो उन पर टैक्स लगाकर निचोड़ती भर है। राष्ट्रीय चरित्र का मूल्यांकन अफसरों को देखकर नहीं नागरिकों के स्तर से किया जाता है। सन्त, ऋषि, महापुरुष, सुधारक, प्रज्ञावान, मूर्धन्य, कलाकार आसमान से नहीं टपकते। उन्हें आवश्यक प्रकाश पारिवारिक वातावरण तथा सम्पर्क में आने वाले परिजनों से ही उपलब्ध होता है। अन्न कोठों में भरा तो रहता हैं, पर उसका उत्पादन खेतों में होता है और खेत का हर पौधा उस सम्पदा को बढ़ाने में समर्थ सहभागी की भूमिका निभाता है।

समाज निर्माण के लिए कुछ भी किया या कहा जाता रहे। आन्दोलन और प्रचार के लिए किसी भी प्रक्रिया को अपनाया जाय। प्रचार तन्त्र और सृजन संस्थान का कितना ही बड़ा ढाँचा खड़ा किया जाय किन्तु वास्तविकता की आधारशिला परिवार के प्रचलन में सुधारात्मक प्रवृत्तियों के समावेश से ही सम्भव हो सकेगी। जड़ को सींचे बिना पत्ते, पौधे और उद्यान को सुरम्य बनाने में अन्य उपाय आधे अधूरे ही बने रहेंगे। वृक्षों को खुराक तो जड़ों से मिलती है। समाज का अक्षय वट अपना परिपोषण परिवारों से, उनमें व्यवस्थित क्रम से रहने वाले व्यक्तियों से ही प्राप्त करता है। अस्तु समाज निर्माण की, समाज सुधार की बात सोचने वालों को उस महान आरोपण के लिए परिवार की क्यारियाँ ही उर्वरता सम्पन्न बनानी होंगी। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

37.    शिशु निर्माण में अभिभावकों की महती भूमिका
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


बच्चों में सहज प्रवृत्ति होती है कि उसे प्यार करें और सम्मान दें। प्यार वाली बात तो ठीक पर सम्मान की बात कुछ समझ में नहीं आती है परन्तु ऐसी बात नहीं है, समान की भूख जन्म से ही पाई जाती है। यदि वह उसे उचित मात्रा में और उचित समय पर नहीं मिल पाती है तो बच्चे के हृदय में हीन ग्रन्थी बनना प्रारम्भ हो जाती है। प्यार और सम्मान के अभाव में बालक इन्हें पाने के लिए ऐसे प्रयत्न करता है, जिससे सभी का ध्यान उसकी ओर बरबस ही आकर्षित हो जाता है। हाँ, कोई उपयोगी क्रिया करके आकर्षित करने की स्थिति में तो वह नहीं रहता है, पर वस्तुओं को तोड़-फोड़कर, फेंक-फाँककर और खराब करके सभी को अपनी ओर खींच लेता है। ऐसे क्षणों में वस्तुओं की रक्षा के लिए सभी को उसकी ओर ध्यान देना ही पड़ता है। अस्तु प्यार एवं सम्मान यदि मिलता रहता, तो वह इस प्रकार की दुर्घटना की शरण लेकर अपनी उपेक्षा न करवाता।

बच्चों और बड़ों के बीच बहुत अधिक स्तर का अन्तर होगा तो उनके बीच खाई बनती चली जावेगी। इसका परिणाम होगा बच्चा लुक-छिपकर अपनी गतिविधि को सम्पन्न करेगा। इस प्रकार के भेदभाव की वृत्ति अभिभावक और बालक के बीच पनपती रहेगी। इसे बढ़ावा न देते हुए बच्चों के सामने अभिभावकों को हर छोटे बड़े कार्य करते रहना चाहिए, जिनका अनुकरण बच्चे घरों में करते रहें। इससे बच्चे यह भी समझने लगेंगे कि अभिभावक का व्यवहार उनकी समझ के स्तर के अनुसार हो रहा है। बालकों की बहुत सी समस्याएँ तो हल होंगी ही साथ ही बच्चों में अच्छी आदतों का निर्माण भी होगा।

हर अभिभावक यह चाहता है कि उनके बच्चे सभ्य, शिष्ट एवं सुसंस्कारवान बनें। किन्तु बच्चों में इन्हें लाने का प्रयत्न इतना कम होता है, जिससे बच्चे ऐसे नहीं बन पाते हैं। अभिभावकों का अति लाड़ प्यार बच्चों को जैसा वे चाहते हैं, वैसा बनने में रुकावट पैदा करता है। बच्चों की हर बात में लाड़-प्यार के कारण उन्हें बढ़ावा देते रहने से एक दिन वे ही बच्चे उद्दण्ड एवं चोर होते देखे गये हैं। जब लाड़-प्यार का परिणाम यहाँ तक पहुँचता है तब अभिभावक की आँखें खुलती हैं। यदि वे इसके पूर्व ही छान बीन करते हुए अपने बालक को उचित-अनुचित का ज्ञान करवाते रहते तो बच्चे इस सीमा तक नहीं पहुँच पाते।

बच्चों को अपने-पराये का ज्ञान वयस्कों के समान नहीं होता है। इस कारण उसे जो भी वस्तु पसन्द आती है उसे पाने का प्रयत्न करता है। इसे बालक बुद्धि समझकर माता-पिता भी इस पर ध्यान नहीं देते हैं। इधर बालक निगाह चुराकर हर कहीं से पसन्द की वस्तु को हथियाने लग जाता है। धीरे-धीरे यही उसकी वृत्ति बन जाती है। बच्चे की आवश्यकता को समय पर पूरा कर दिया जाता तो चुराने का साहस कैसे करता? ऐसी माँगों के समय अभिभावक केवल दो ही बातों का ध्यान रखें कि यदि बच्चे की माँग हितकर एवं उपयोगी है तो पैसे न देते हुए उसकी माँगी गई वस्तु ला देना उचित है। यदि माँग बेहूदी और अनुपयोगी है तो अभिभावक ठीक तरह से समझा दें, डाँट-डपट कर उपेक्षा न की जावे। बालकों में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक कारणों से अपराध पनप जाया करते हैं। माता-पिता को इस पर पैनी निगाह रखनी चाहिए। यदि ऐसा न किया गया तो बालक मानसिक दुर्बलता के कारण भी अपराध की ओर कदम बढ़ाते हैं। इस दुर्बलता का कारण या तो बाल्यकाल में उचित शिक्षा का अभाव या दुर्बल बुद्धि का होना होता है। इस कारण वह उचित-अनुचित का निर्णय नहीं कर पाता। ऐसे समय में जब उसे किसी वस्तु को पाने की तीव्र आकाँक्षा जाग्रत होती है और वह सामान्य ढंग से नहीं मिल पावे तो लुक छिप कर प्राप्त करता है। बस यही से चोरी की वृत्ति का पनपना प्रारम्भ हो जाता है। अस्तु बच्चों का मानसिक स्तर भी शारीरिक स्तर के साथ-साथ बढ़ रहा या नहीं, माता-पिता को इसके प्रति सतर्क रहना चाहिए। ऐसा भी होता है कि बालक विविध वस्तुओं का संग्रह करना चाहता है। घर से ही संग्रह करें तब तक तो कोई बात नहीं। पर जब वह दूसरे के घरों से भी संग्रह करने हेतु प्रयत्न करने लगे तो वह चोरी आदि की शरण ले सकता है। क्योंकि संग्रह-वृत्ति उसमें लोभ को बढ़ावा देती है। ऐसे समय में माता पिता मौन निगाह के साथ उसकी संकलन वृत्ति तो बढ़ावे पर संग्रह-वृत्ति नहीं।

बालकों को अनुशासित रखना तो अभिभावक चाहते हैं। लेकिन इनके लिए जो प्रयत्न करते हैं, वे बालोपयोगी नहीं हैं। वे अनुशासन का उचित शिक्षण तथा अनुशासित व्यवहार प्रस्तुत करने की अपेक्षा तत्काल ही नियंत्रित करने के लिए डाँट-डपट की शरण ले लेते हैं। इससे बच्चा सही बात को नहीं पकड़ता-खीझ का प्रकटीकरण, तोड़-फोड़, चोरी, अन्य अपराध करने में देखा जाता है। एक तरफ तो कड़ा नियंत्रण तो दूसरी ओर अति लाड़ प्यार के कारण वे उसे बच्चा समझ हर गलती पर छोड़ दिया करते हैं। इससे बच्चा और अधिक अनुशासन हीन होने लगता है। अस्तु कठोर अनुशासन एवं अनुचित प्यार को अभिभावक त्यागते हुए बालक के साथ अनुशासित व्यवहार करें तो बच्चे अनुशासन बद्ध होंगे।

बच्चों की भी अपनी दुनियाँ होती है। उनका भी अपना एक साम्राज्य होता है, जिसमें वे सभी कुछ होते हैं। भावी जीवन की झलक उस दुनियाँ में देखने को मिल सकती है। पर शर्त एक ही है कि अभिभावक इस दुनियाँ में व्यर्थ का हस्तक्षेप नहीं करें। यदि हस्तक्षेप शुरू कर दिया तो उन्हीं क्रियाओं को छिप-छिप कर करेंगे। यह छिपाव बालक को चोरी आदि अपराध की ओर प्रवृत्त करता है। बच्चों के संसार में हस्तक्षेप उतना ही हो, जितना सुधार, निर्देश, सुझाव आदि से सम्बन्धित हो। तो फिर बच्चों को भावी कल का स्वरूप सहज ही दिखाई देगा।

प्रतिस्पर्धाओं के आयोजन भी बच्चों को अपराधी बनाने में सहायता करते हैं। कितने ही बच्चे शक्तिहीन होने के कारण प्रतिस्पर्धा में स्थान प्राप्त नहीं कर सकते हैं या परीक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण नहीं हो सकते हैं। ऐसे छात्र वस्तु की तोड़-फोड़ करके या नकल पट्टी करके प्रतियोगिता में आगे निकलने का प्रयत्न करते है। यही परिस्थिति आगे जाकर दुष्प्रवृत्ति का रूप धारण कर लेती है। ऐसे बालकों के लिए साधन, सुझाव, साहस, उत्साह आदि देते रहना चाहिए। ताकि थोड़ी बहुत भी सफलता उन्हें अपने जीवन में दिखाई देगी तो फिर वे इस दुष्प्रवृत्ति की शरण न लेंगे।

बच्चों पर संगति का प्रभाव शीघ्र पड़ता है। बच्चा अनुकरण प्रिय होता है। उसके सामने जो भी गतिविधि आती है उसका अनुकरण करने की चेष्टा करता है। अस्तु बच्चों को कुसंग से दूर रखने के लिए हर संभव प्रयत्न किये जाना चाहिए। यही नहीं, उन्हें अच्छी संगति मिले, ऐसा वातावरण भी उपस्थित किया जाना चाहिए।

बच्चों को भले बुरे का बोध धीरे-धीरे होता रहता है। इस प्रगतिशील समय में यदि माता-पिता सावधानी पूर्वक हर क्षण हर बात पर बच्चे को इसका बोध कराते रहें तो बच्चा अच्छी बातों की ओर प्रवृत्त होने लगेगा, लेकिन यह तभी सम्भव होगा जबकि माता-पिता बुरे काम की बुराई करके उसके बुरे परिणाम तथा अच्छे काम की प्रशंसा कर उसके लाभ समझाते रहें। ऐसा करते रहने से बच्चे में भले-बुरे का बोध होने लगेगा, जो बाद में जाकर विवेक जागृत करने में अधिक सहायक रहेगा।

कुछ अभिभावक भी अपनी ओर से कर्तव्य निभाने का प्रयत्न करें तो बालकों की बहुत सारी समस्याएँ पैदा ही नहीं होगी। हर अभिभावक अपने बच्चों के साथ कुछ समय निश्चित ही व्यतीत करें, जिसमें मानसिक स्तर की सामान्य चर्चा करें, खेल-खेल से वातावरण में सारे निर्देश देते रहें तथा बच्चों की जिज्ञासा यथा सम्भव शान्त करते रहें। इससे उनमें सही और गलत का निर्णय करने की सामर्थ्य पैदा होगी और अच्छाई की ओर बढ़ने का उत्साह बढ़ेगा। यही नहीं, बल्कि अभिभावक बालकों की बहुत सी बारीक समस्याओं को निकट से देख सकेंगे, जिन्हें वे सहज ही बिना कहे समाधित कर लिया करेंगे।

आज कल का युग आर्थिक संकट का है। हर परिवार की आर्थिक क्षमता सीमित है। अस्तु इस बिन्दु को ध्यान में रखते हुए बच्चों में इतनी इच्छाएँ जन्म न ले पावें जो सीमा के बाहर हों। पर उसमें यह भी ध्यान रखना है कि बच्चों की महत्त्वाकाँक्षा दब नहीं जावे। हाँ, उनकी महत्त्वाकाँक्षाओं को ऐसा स्वरूप देते रहना चाहिए जो आर्थिक सीमाओं में पूरी की जा सकें।

अभिवावक कभी-कभी काम को शीघ्र करवाने की दृष्टि से या हठी बालक से काम करवाने के लालच में बच्चों को पैसा देकर काम करवाते हैं। ऐसा माताएँ अधिक किया करती हैं। इससे बालक में लालच का विकास होगा और फिर वह कोई भी कार्य बिना लालच की पूर्ति किये नहीं करेगा। अस्तु माता-पिता पैसों की आदत तो कभी नहीं डालें। पर पुरस्कारी, प्रोत्साहन आदि के सहारे काम भी लिया जा सकता है, जो थोड़ा असामान्य है और अच्छे कामों के लिए प्रेरित भी किया जा सकता है। ऐसा करने से बालकों में आत्मानुशासन जाग्रत होगा, और वे कुंठित, हीन और निराश न होंगे।

यदि माता-पिता हर क्षण बालक के लिए तत्पर रहें तो बाल-समस्या का समाधान एक खेल ही है। किन्तु इसके लिए माता-पिता केवल उपदेश की घुड़की दिलाने की आदत रखेंगे तो समस्या सुलझने की नहीं है, उन्हें भी अपने जीवन में व्यवहारिक बनना होगा। जो उपदेश वे देने जा रहें है उसकी व्यवहारिक झलक उनके दैनिक जीवन में है तो बच्चे को कहने की ही आवश्यकता नहीं, वे अनुकरण से ही उसे जीवन में अपना लेंगे। यह मौन अनुशासनात्मक प्रभाव उपदेशों के नुस्खे की अपेक्षा बाल समस्या का समाधान करने में कारगर रहेगा।

कभी-कभी लड़के लड़कियों में अनावश्यक भय, संकोच और दब्बूपन पाया जाता है। वे अपनी सही बात तक माता-पिता, शिक्षक, समाज के अन्य वयस्कों आदि के सामने नहीं रख पाते हैं। अभिभावक प्रारम्भ से ही ऐसे बच्चों के प्रति सतर्क रहते हुए, उसे भय, संकोच और दब्बूपन से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करें। इसके लिए वे स्वयं व्यक्तिगत एवं व्यवहारिक रुचि लेकर बच्चे को दूसरे के सामने अभिव्यक्त करने हेतु प्रेरित करें। धीरे-धीरे ऐसा करने से उनकी भीरुता दूर हो जावेगी।

कभी-कभी बच्चे भीरु एवं भयभीत माता-पिता के कारण भी हो जाया करते हैं। उन्हें वे भूत-पलीत की डरावनी कहानियाँ सुनाकर या डर बता कर भयग्रस्त कर दिया करते हैं। बच्चे को बार-बार निरुत्साहित करने से भी भीरु प्रवृत्ति के बन जाते हैं। इसके निवारण के लिए अभिभावक आत्मविश्वास से भरपूर, साहसिक और वीर कहानियाँ बच्चों को सुनाया करें। बच्चों को छोटे-छोटे काम सुपुर्द करके उनमें आत्म-विश्वास की भावना जाग्रत करना चाहिए। ऐसा करते रहने से वे साहसी आत्मविश्वासी एवं कर्मठ बनने लगेंगे।

अधिकाँश बच्चे अपने बाल्य काल में इसलिए निष्क्रिय हो जाया करते है कि उन्हें अपनी रुचि का काम, विषय, वातावरण आदि नहीं मिल पाता है। माता-पिता बच्चे को निष्क्रिय समझ करके उसे निरुत्साहित और निराश किया करते हैं। किन्तु उसकी निष्क्रियता का कारण मालूम करने की चेष्टा नहीं करते हैं। उत्साह और उमंग वहीं होता हैं, जहाँ रुचि का काम मिल पाया हो। अस्तु अभिभावक बालकों की रुचि का पता लगाकर उसके अनुकूल ही उन्हें दिशा देने का काम करें। ऐसा करने से बालकों में उमंग और उत्साह का वर्धन होगा और वे सक्रिय बनने लगेंगे।

कभी-कभी बच्चे अपने दैनिक जीवन में गन्दी आदतों के शिकार हो जाते हैं। दैनिक जीवन की हर क्रिया में अनियमितता रखना और ठीक तरह से काम नहीं करना उनकी आदत सी बन जाती है। इसके लिए माता-पिता बालकों की दिनचर्या पूर्व ही निर्धारित कर दिया करें कि किस समय कौन-कौन सा काम उन्हें करना है। जब उनके सामने स्थिति स्पष्ट हो जावेगी तो बच्चे वैसा करने लगेंगे। बीच-बीच में दिनचर्या के अनुसार कार्य कर रहे हैं या नहीं, इसका निरीक्षण भी करते रहना चाहिए, जिससे बालक दिनचर्या के नाम पर धोखा न देने लगें। इसके लिए सन्तुलित आहार की जितनी व्यवस्था की जानी सम्भव हो, की जानी चाहिए। क्योंकि दुर्बल बच्चे ही अनियमित अधिक हुआ करते हैं।

बालक छोटे-छोटे शिष्टाचार के नाम पर चाहे जैसे सलूक किया करते हैं, जिससे सामाजिक जीवन में उन्हीं बच्चों के कारण नत मस्तक होना पड़ता है और दूसरी ओर बच्चों को समाज में उचित स्थान नहीं मिल पाता है। अस्तु छींकना, खाँसना, खाना, पानी पीना, कपड़े पहनना, मंजन करना, हँसना, बोलना आदि छोटी-छोटी क्रियाओं में शिष्टाचार का पुट दिया जाना चाहिए। इससे आगे जाकर बच्चे गुणात्मक शिष्टाचार को भली-भाँति पकड़ पावेंगे।

आजकल के बच्चे स्वच्छता और सादगी के प्रति उदासीन रहते हैं। कुछ तो अभिभावक ही स्वच्छता और सादगी से कोसों दूर रहते है फिर बच्चों को क्या कहा जावे। पर माता-पिता को बालक को स्वच्छता, घर सम्बन्धी स्वच्छता एवं सामाजिक स्वच्छता का व्यवहारिक ज्ञान देना चाहिए। इसके लिए अभिभावक स्वयं भी अनुशासित रहें। इससे बच्चे अपने आप अनुकरण करेंगे एवं व्यवहारिक क्रियाओं के द्वारा उनमें स्वच्छता के प्रति रुझान होने लगेगा।

बच्चा भी माता-पिता, स्कूली वातावरण, सामाजिक वातावरण देखकर अपनी खर्चीली माँग प्रस्तुत करता रहता है। किन्तु यदि माता-पिता सादा-जीवन जीने की ओर चेष्टा करें तो बालकों को भी उसके लिए समझ दी जानी सम्भव है। सादा जीवन जीने में वैज्ञानिक लाभ दर्शाते हुए, वैभवपूर्ण जीवन जीने में हानियों का प्रतिपादन किया जावे तो बालकों में सादा-जीवन जीने की आदत आ सकती है।

बालकों की ढेरों समस्याएँ होती हैं, शीघ्र समझना एवं समाधान निकालना बड़ा कठिन है। सामयिक समस्याओं के उठते ही अभिभावक सामयिक समाधान निकालने की सतर्कता रखे रहें। ऐसा करते रहने से घर की बगिया में बच्चे फूल से खिलते दीखेंगे। साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी अच्छे नागरिक बिना प्रयत्न के मिल जावेंगे।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

38.    युग देवता का अनुरोध आमंत्रण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


गीता का कृष्ण-अर्जुन संवाद द्वापर में मुखर हुआ था। पर परिस्थितियों को देखते हुए वह आज के लिए भी उतना ही प्रयुक्त होता है, जितना उन दिनों कारगर सिद्ध हुआ था। भगवान सामन्ती अनाचार से अस्त-व्यस्त भारतीय समाज को न केवल एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत लाना चाहते थे वरन् सिकुड़-सिकुड़ कर छोटे होते जाने वाले भारत को महाभारत, विशाल भारत बनाना चाहते थे। इस प्रयोजन के लिए उन्होंने धर्मक्षेत्र में न केवल युद्ध रचाया था वरन् विचार विनिमय द्वारा रचनात्मक निर्धारण के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ का प्रबन्ध भी किया था। इस प्रयोजन के लिए उन्हें समर्थ और मित्र का दुहरा कार्य कर सकने वाला अर्जुन ही दीखा। उससे उन्होंने इस महान उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए कटिबद्ध होने का अनुरोध किया।

अर्जुन न तो परामर्श के साथ समाहित दूरगामी श्रेय सत्परिणाम को समझ पा रहा था और न उसके साथ जुड़ी हुई सघन आत्मीयताजन्य उपलब्धियों की परिकल्पना कर पा रहा था। संकीर्ण सीमा बन्धन ही उसके दृष्टिकोण पर छाये हुए थे। इसलिए निजी एवं तात्कालिक लाभ-हानि का लेखा-जोखा सामने रखकर उस महान जिम्मेदारी से इन्कार कर रहा था, जिसमें तात्कालिक लाभ कम अथवा संदिग्ध प्रतीत हो रहा हो। जिन्दगी के दिन गुजारने के लिए उसे किसी प्रकार पेट भर लेने की व्यवस्था बनाने के अतिरिक्त और कोई बात महत्त्वपूर्ण लग ही नहीं रही थी।

भगवान ने अर्जुन के मन की दुर्बलता को समझा और उसके तर्कों को आदर्शवादी प्रतिपादन के सहारे काटा। इस प्रसंग में सबसे वजनदार एवं प्रभावोत्पादक बात वह निकली कि अनाचार को, अनाचारियों को भगवान ने पहले से ही मार रखा है। उनकी प्रत्यक्ष अन्त्येष्टि करने भर से विजेता का श्रेय उसे प्राप्त करना है। इस चौंकाने वाले तथ्य से अर्जुन की स्वार्थ परता ने भी यह स्वीकार किया कि इस प्रयास को अपनाने में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। अस्तु वह भगवान का प्रिय, यशस्वी तथा वैभवशाली विजेता का बहुमुखी श्रेय पाने के लिए तत्काल तैयार हो गया। इस सामयिक बुद्धिमानी ने सचमुच उसे निहाल कर दिया।

इतिहास के महान परिवर्तनों में ऐसे ही अगणित चमत्कारी पृष्ठ भरे पड़े हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि अग्रगामी लोगों के पुरुषार्थ की तुलना में अवरोधों की शक्ति असंख्य गुनी अधिक थी फिर भी इस या उस प्रकार अनुकूलता बनती चली गई। परिस्थितियों ने साथ दिया और स्वल्प प्रयासों से उतने बड़े काम सम्पन्न हो गये जिन्हें कुछ समय पूर्व सोच सकना तक कठिन था। सफलता से पूर्व कोई यह नहीं कह सकता था कि जो सोचा जा रहा है उसके इतनी जल्दी इतनी सरलता पूर्वक सफल होने की कोई आशा की जा सकती है।

रूस की राज क्रान्ति जब मुट्ठी भर श्रमिकों ने सम्पन्न कर ली और लेनिन को उसका नेतृत्व सौंपा गया तो वे स्वयं चकित रह गए कि इतना कठिन, इतना समय साध्य कार्य इतनी जल्दी, इतने स्वल्प प्रयासों से आखिर हो कैसे गया? अब्राहम लिंकन दक्षिण अमेरिका में प्रचलित गुलाम प्रथा के पक्षधरों की कट्टरता और कठोरता को देखते हुए शंकाशील ही बने रहे कि इतना कठिन कार्य न जाने कितनी देर में, कितनी कठिनाई से पूरा हो सकेगा? किन्तु प्रवाह कुछ इस प्रकार उल्टा कि दास प्रथा का अन्त ही हो गया और इसके लिए उतना बल प्रयोग नहीं करना पड़ा, जितना कि अनुमान लगाया जाता था। भारत से अंग्रेजों का चला जाना भी कुछ ऐसा ही चमत्कारी है, जिसके सम्बन्ध में न केवल सत्याग्रही वरन् क्रान्तिकारी भी समय आ धमकने से पूर्व यह नहीं सोच पाये कि इतनी जल्दी इतना महान् परिवर्तन कैसे होने जा रहा है? अंग्रेजों की शक्ति और कूटनीति, स्वतन्त्रता सैनिकों की स्वल्प संख्या और शक्ति दोनों के बीच कोई ऐसी संगति नहीं बैठती थी कि इतना कठिन कार्य इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से सम्पन्न हो जायेगा। न तो अंग्रेज इतने दुर्बल थे, न सत्याग्रही इतने समर्थ जिसके कारण वैसे प्रतिफल की आशा की जा सकती जैसा कि सम्पन्न हुआ। यों कहने को तो श्रेय टक्कर लेने वालों और योजना बनाने वालों को भी दिया जाता है, दिया भी जाना चाहिए, किन्तु तात्त्विक पर्यवेक्षण करने और संगति बिठाने पर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि अविज्ञात शक्तियाँ अपना अदृश्य ताना-बाना पर्दे के पीछे बुन रही थी और उस अनुकूलता ने स्वतन्त्रता प्राप्ति की उत्साह भरी उपलब्धि का साहस जुटा दिया।

कुछ समय पूर्व भारत की अधिकांश जनता पर सामन्तों और राजाओं का एकछत्र शासन था। समूची भूमि के स्वामी वे ही थे। शस्त्र और सैन्य शक्ति के कारण उन्हीं की तूती बोलती थी। शताब्दियों और सहस्राब्दियों से चली आ रही यह निरंकुश सामन्त शाही इतनी गहरी जड़े जमा चुकी थी, कि राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उसकी प्रत्येक मर्जी को पूरा करना प्रजा ने एक प्रकार से अपना धर्म ही मान लिया था। किसी को आशा नहीं थी कि इस मनःस्थिति और परिस्थिति से दीन दुर्बल बनी हुई जनता इस आतंक से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकेगी जैसी कि उसने पाई। देश भर में फैले हुए ६०० राजा, महाराजा और लाखों सामन्त जमींदार इस तरह एक हवा के झोंके के साथ उड़ गए मानों वे कोई वजनदार वस्तु न होकर मात्र सूखे तिनके पत्तों जैसे हलके-फुलके थे। इस घटनाक्रम को इतिहासकार समय के मदारी द्वारा दिखाई गई कौतूहल भरी बाजीगरी ही कह सकते हैं। यों इस परिवर्तन में अग्रणी लोगों की भूमिका को ही श्रेय दिया जाता है। इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है। किन्तु पर्वत जैसे भारी अवरोध और उसे उखाड़ने के लिए कितना हल्का सा प्रतिरोध, इन दोनों का तारतम्य बिठाने में कुछ और भी रहस्य सामने आते हैं। यह समझने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि अदृश्य जगत में क्रिया की प्रतिक्रिया हो रही थी और उसने न केवल श्रेयाधिकारियों को उभारा वरन् उन्हें सफल बनाने वाली अनुकूलता उत्पन्न करने में भी कोई कमी न रहने दी।

संसार में समय-समय पर आदर्शों के पक्षधर महान परिवर्तन होते रहे हैं। दास प्रथा, सामन्तशाही, नारी का पद दलन, समर्थों द्वारा दुर्बलों का शोषण जैसे अनाचारों ने परम्परा एवं कानून बनाकर चिरकाल तक अपने कुचक्र में जन समुदाय को जकड़े रखा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस का मत्स्य न्याय जंगली कानून अपने क्षेत्रों में अपने ढंग से प्रकट होता और विजय पताका फहराता रहा है। इतने पर भी दानव को चिरस्थायी बनने का अवसर न मिल सका। कई ऐसे कारण उत्पन्न हुए जिनसे समर्थता का तख्त उलटा और वह औंधे मुँह जा गिरा। आज अनेकों ऐसे अनाचार मात्र उपाख्यान बनकर रह गये हैं जो किसी समय अपने चंगुल में अधिकांश जन समुदाय को जकड़े हुए थे। आज न दास प्रथा है न सती प्रथा, न राजा हैं न सामन्त। कुप्रथाएँ और दुष्ट परम्पराएँ अपनी अन्तिम साँसें गिन रही हैं। जगह-जगह मार्टिन लूथर और दयानन्द पैदा हो रहे हैं। विभिन्न शासन पद्धतियों को पददलित करता हुआ समाजवाद हावी होता चला आ रहा है। बिखराव को, विभेद को निरस्त करके एकता, समता के आधार खड़े करने वाले अदृश्य प्रवाह दिन-दिन प्रचण्ड होते चले जा रहे हैं। जिन्हें दिव्य दृष्टि की एक किरण भी प्राप्त है, वे अनुभव करेंगे कि इन दिनों युग प्रवाह का साथ देना और उसके अग्रदूतों में सम्मिलित होना ही वास्तविक बुद्धिमत्ता का परिचायक है। जो ऐसा साहस जुटा सकेंगे वे असीम सन्तोष और अजस्र सम्मान के भागी बनेंगे यह निश्चित है।

दूरदर्शिता की दो चिन्तन धाराएँ सर्वविदित हैं। एक के अनुसार दूरगामी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए कोई निर्णय करने होते हैं। भविष्य में जिनकी प्रतिक्रिया दुःखद होनी है उन्हें छोड़ना पड़ता है। दूरी मात्र मीलों की नहीं होती। समय के अन्तर को भी दूरी कहते हैं। जो गन्तव्य स्थान तक पहुँचने पर मिलने वाले सुखद परिणामों की बात सोचता है वह दूरदर्शी है। उसी प्रकार जो समयानुसार उत्पन्न होने वाले भले या बुरे परिणामों को ध्यान में रखते हुए आज की कार्य पद्धति का निर्धारण करता है, रीति-नीति अपनाता है उसे भी दूरदर्शी कहते हैं।

कोई आँख खोलकर देखना चाहे तो अपने चारों ओर ऐसे अगणित प्रमाण, उदाहरण ढूँढ़ सकता है जिनमें उपरोक्त प्रतिपादन की सच्चाई को जाँचा परखा जा सके। ऐसी घटनाएँ आए दिन सामने आती रहती हैं। अदूरदर्शिता अपनाकर बरती गई चतुरता अन्ततः मूर्खता से भी अधिक मँहगी पड़ी और जिस लाभ की आशा की गई थी उसकी तुलना में दुर्भाग्य जैसी दुर्घटनाएँ ही पल्ले पड़ी हैं।

चासनी के कढ़ाव को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर, पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे बैठकर धीरे-धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मुक्त आकाश में बेखटके विचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल बहुत कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती, जिसमें कि नीति पूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता पूर्वक संभव हो सके।

मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढूँढ़, समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।

जाल में फँसने वाले पक्षियों की भी ऐसी ही दुर्गति होती है। वे दूर उड़ कर जाने और परिश्रम पूर्वक एक एक दाना ढूँढ़ने की तुलना में जाल पर बिखरे दानों को एक सौभाग्य जैसा मानते हैं और उससे लाभ उठाने में चूकने की बात नहीं सोचते। उन्हें यह सोचने की फुरसत नहीं होती कि लाभ उठाते समय उसके पीछे कोई दूरगामी संकट तो नहीं छिपा है उसे भी देखने की आवश्यकता है। हर लोभी अधीर, आतुर होता है और तात्कालिक लाभ के कुछेक दाने चुग लेने के बाद उस पक्षी की तरह बेमौत मरता है जिसे सामने बिखरे आकर्षण के उपरान्त अन्य कोई बात सूझती ही नहीं।

पूरी रोटी स्वयं ही खा जाने की फिराक में दो बिल्लियों में से प्रत्येक घाटे में रही। मिल बाँटकर खाती और सन्तोष सहयोग का आश्रय लेकर प्रसन्न रहती तो कितना अच्छा होता। पर उनके लिए लालच से ऊपर उठकर कुछ स्वार्थ, कुछ परमार्थ की न्यायोचित नीति अपनाना संभव न हो सका। लड़ी, मरी, घायल हुई और अन्ततः बन्दर बाँट करने की मूर्खता अपना कर खाली हाथ घर लौटी और देर से समझ आने पर उदास मन होकर पछताई। हममें से कितने ही मात्र अपनी ही बात सोचते हैं। साथियों, सहयोगियों, समकालीनों को भी उपलब्धियों में हिस्सा देना है, इसके लिए रजामन्द नहीं होते।

भेड़ अपनी ऊन दूसरों को देती और आदर पूर्वक पाली जाती है। बाल कटाने के उपरान्त उसे प्रकृति के नये अनुदान मिलते हैं और क्षति पूर्ति के अतिरिक्त यश, गौरव एवं स्नेह सहयोग भी मिलता है। यों इस प्रकार का अनुदान लोक परम्परा में मूर्खता ही कहा जायेगा। आज तो उन रीछों की ही प्रशंसा होती है, जो अपने बाल किसी को छूने तक नहीं देते और जो मिले उस पर हमला करने के लिए आमादा रहते हैं। बुद्धिमानी से पर्यवेक्षण करना होगा कि भेड़ और रीछ द्वारा अपनाई गई भिन्न-भिन्न नीतियों को अपनाकर किसे क्या मिला? रीछ बदनाम तो है ही, उसे स्नेह सहयोग कौन देगा? इतना ही नहीं प्रकृति ने उसके बाल बढ़ाए भी नहीं। जितने आरम्भ में थे उतने ही अन्त तक बने रहे। जबकि भेड़ बार-बार अनुदान पाती और अपने को, दूसरों को कृत-कृत्य करती रही। इसमें समर्थता को नहीं दूरदर्शी सद्भावना को ही श्रेय मिलता देखा जा सकता है।

पेड़ अपने पत्ते गिराते, जमीन को खाद देते और बदले में जड़ों के लिए उपयुक्त खुराक उपलब्ध करते हैं। फल-फूलों से दूसरों को लाभान्वित करते हैं। यह परमार्थ व्रत आज की चिन्तन धारा के अनुसार तो मूर्खता ही ठहराया जायेगा और व्यंग उपहास का ही कारण बनेगा। किन्तु पर्यवेक्षकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि विश्व व्यवस्था में ऐसी परिपूर्ण गुंजायश है कि परमार्थ परायणों को लोक सम्मान ही नहीं दैवी अनुदान भी अजस्र परिमाण में मिलते रहें। पेड़ों को बार-बार नये पल्लव और नये फल-फूल देते रहने में प्रकृति कोताही नहीं बरतती। उदारमना घाटा उठाते लगते भर हैं वस्तुतः वे जो देते है उसे ब्याज समेत वसूल कर लेते हैं।

इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित महामानवों में से प्रत्येक ने परमार्थ परायणता की दूरदर्शिता पूर्ण नीति अपनाई है। वे बीज की तरह गले और वृक्ष की तरह फलें हैं। इस मार्ग पर चलने के लिए उन्हें प्राथमिक पराक्रम यह करना पड़ा कि संचित कुसंस्कारों की पशु-प्रवृत्तियों से जूझे और उन्हें सुसंस्कारी बनने के लिए पूरी तरह दबाया, दबोचा और तब छोड़ा जब वे चीं बोल गई और संकीर्ण स्वार्थ परता से ऊँचे उठकर आदर्शवादी परमार्थ प्रवृत्ति को अंगीकार करने के लिए सहमत हो गई। इसी प्रकार इन सभी प्रातः स्मरणीय महामानवों में से प्रत्येक को अपने तथाकथित स्वजन परिजनों को भी असन्तुष्ट करना पड़ा है और उनके परामर्श अनुरोधों और आग्रहों को विनय पूर्वक अस्वीकार करना पड़ा है। मनुष्य की सामान्य प्रकृति परम्परा प्रिय है। हर किसी को प्रचलित और अभ्यस्त ढर्रा ही सुहाता एवं सही लगता है। ऐसी दशा में अपना स्वभाव, अभ्यास भी ढर्रे का ही समर्थन करता है। हितैषी शुभ चिन्तक भी इसी दृष्टिकोण को अपना कर सोचते और भले-बुरे का निर्णय करते हैं। यही प्रमुख अवरोध है जिनके कारण आदर्शवादिता अपनाने की हानियाँ समझी और समझाई जाती है। उठती हुई उमंगें इन्हीं चट्टानों से टकराकर आमतौर से बिखरती, छितराती और अस्त-व्यस्त होती देखी जाती हैं।

गीता के कृष्ण-अर्जुन संवाद का प्रमुख विषय यही है। जो कुछ कहा सुना गया है उसका एकमात्र उद्देश्य इतना ही था कि सामयिक स्वार्थ परता की दूरदर्शिता से ऊपर उठकर दूरगामी सत्परिणामों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय। कृष्ण के इस परामर्श को जब अर्जुन ने स्वीकार कर लिया तो वह दूरदर्शी बना और उस दूरदर्शिता ने भगवान के द्वारा किये गये महान कार्य का अनायास ही श्रेयाधिकारी बना दिया। जागृत आत्माएँ यदि युग देवता के अनुरोध को सुन सके, तो वे भी अर्जुन की तरह ही भगवान के निकटतम स्वजनों में गिने जाने और महानता का समग्र श्रेय पाने का सौभाग्य अर्जित कर सकती हैं।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

39.    

40.    महानता से जुड़ें-समय को पहचानें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


युग-परिवर्तन के इस समय में एक तथ्य विशेषतया हृदयंगम करने योग्य है कि अवसर को पहचानने और उसका सदुपयोग करने वाले ही सदा से श्रेयाधिकारी बनते जा रहे हैं। जब-जब भी समय बदला है, एक अकेले से नहीं अग्रगामियों के समूह के माध्यम से वह पुरुषार्थ सम्पन्न हुआ है। अवतारों की परम्परा भी इसकी साक्षी है। विगत अवतारों में उनके सामयिक सहयोगियों का अविस्मरणीय अनुदान रहा है। राम अवतरण में लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, विभीषण, सुग्रीव, नल-नील जैसे बलिष्ठ और सामान्य रीछ-वानरों जैसे कनिष्ठ समान रूप से सहगामी रहे हैं। गिद्ध-गिलहरी जैसे अकिंचनों ने भी सामर्थ्यानुसार भूमिकाएँ निभाई हैं। कृष्ण काल में पाण्डवों से लेकर ग्वालों तक का सहयोग साथ रहा है। बुद्ध के भिक्षु और गाँधी के सत्याग्रही कन्धे से कन्धा मिलाकर जुटे और कदम से कदम मिलाकर चले हैं। भगवान सर्व समर्थ हैं वे चाहें उँगली पर उठा सकते हैं, किन्तु प्रियजनों को श्रेय देना भी अवतार का एक बड़ा काम है। शबरी, कुब्जा जैसी महिलाओं और केवट, सुदामा जैसे पुरुषों को भी अवतार के सखा सहचर होने का लाभ मिला था। गाँधी के सान्निध्य में विनोबा और बुद्ध के सहचर आनन्द जैसे असंख्यों को श्रेय मिला था। भगवान के अनन्त भक्तों में से नारद जैसे देवर्षि, वशिष्ठ जैसे महर्षि और विभीषण जैसे अगणितों को अविच्छिन्न यश पाने का अवसर मिला है। सहकारिता को, संगठन को, सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिपादित करने के लिए महान शक्तियाँ सदा ही यह प्रयत्न करती रही हैं कि जागृतों को महत्त्वपूर्ण अवसरों पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए उभारा जाय। अर्जुन के साथ तो इसके लिए भर्त्सना उपाय बरते गये थे। सुग्रीव को धमकाने लक्ष्मण पहुँचे थे। परमहंस विवेकानन्द को घसीटकर आगे लाए थे। अम्बपाली, अंगुलिमाल, हर्षवर्धन और अशोक से जो लिया गया था उससे असंख्य गुना उन्हें लौटाया गया था। भामाशाह के सौभाग्य पर कितने ही धनाध्यक्ष ईर्ष्या करते रहते हैं।

भगतसिंह और सुभाष जैसा यश मिलने की सम्भावना हो, तो उस मार्ग पर चलने के लिए हजारों आतुर देखे जाते हैं। समझाया जाय तो कितने ही केवल बिना उतराई लिये पार उतारने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं। पटेल और नेहरू बनने के लिए कोई भी अपनी वकालत छोड़ सकता है, पर दुर्भाग्य इतना ही रहता है कि समय को पहचानना और उपयुक्त अवसर पर साहस जुटाना उन लोगों से बन ही नहीं पड़ता। जागरूक ही है जो महत्त्वपूर्ण निर्णय करते, साहसिकता अपनाते और अविस्मरणीय महामानवों की पदवी प्राप्त करते हैं। ऐसे सौभाग्यों में श्रेयार्थी का विवेक प्रमुख होता है अथवा उपनिषद्कार के अनुसार ‘‘महानता जिसे चाहती है उसे वरण कर लेती है’’ की उक्ति में सन्निहित दैवी अनुकम्पा के प्रतिपादनों में से कौन सा सही है।

महानता की अपनी निजी सामर्थ्य है। उसके आधार पर वह स्वयं तो अपनी प्रखरता एवं गरिमा प्रकट करती ही है, साथ ही अपने सम्पर्क परिकर को भी उन विशेषताओं से भरती और कृत-कृत्य बनाती देखी गई है। अतएव महान बनने के लिए जहाँ आत्म साधना और आत्म विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है, वहाँ इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी प्रखरता से सम्पर्क साधने और लाभान्वित होने का अवसर भी न चूका जाय। यों ऐसे अवसर कभी-कभी ही आते और किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं। किन्तु कदाचित वैसा सुयोग बैठ जाय तो ऐसा अप्रत्याशित लाभ मिलता है जिसे लाटरी खुलने और देखते-देखते मालदार बन जाने के समतुल्य कहा जा सके।

चन्दन के समीप उगे झाड़ झंखाड़ों के सुगन्धित बन जाने और उसी मूल्य में बिकने की किम्वदन्ती प्रख्यात है। पानी के दूध में मिलकर उसी भाव बिकने की उक्ति आये दिन दुहराई जाती रहती है। पारस को छूकर काले कुरूप और सस्ते मोल वाले लोहे का सोने जैसे गौरवास्पद बहुमूल्य धातु में बदल जाना प्रख्यात है। स्वाति की बूँदों के लाभान्वित होने पर सीप जैसी उपेक्षित इकाई को मूल्यवान मोती प्रसव करने का श्रेय मिलता है। पेड़ से लिपटकर चलने वाली बेल उसी के बराबर ऊँची जा पहुँचती और अपनी प्रगति पर गर्व करती है। जबकि वह अपने बलबूते मात्र जमीन पर ही थोड़ी दूर रेंग सकती है, उसकी दुर्बल काया को देखते हुए इतने ऊँचे बढ़ जाने की बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती, किन्तु पेड़ का सान्निध्य और लिपट पड़ने का पुरुषार्थ जब सोना सुहागा बनकर समन्वय बनाते हैं तो उससे महान पक्ष की तो कुछ हानि नहीं होती पर दुर्बल पक्ष को अनायास ही दैवी वरदान जैसा लाभ मिल जाता है।

यह उदाहरण उस सुयोग का महत्त्व समझाने के लिए दिये जा रहे हैं जिसमें महानता के साथ सम्पर्क साधना, उसके सहयोग का सुयोग पा लेना भी कई बार अप्रत्याशित सौभाग्य बनकर सामने आता है। यों वैसे अवसर सदा सर्वदा हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं रहते।

रामचरित्र के साथ जुड़ जाने पर कितने ही सामान्य स्तर के प्राणियों ने सामान्य क्रिया कलापों के सहारे असामान्य श्रेय पाया। बन्दर स्वभावतः इधर-उधर लकड़ी पत्थर फेंकते रहते हैं, समुद्र पर पुल बनाने में प्रायः इतनी ही कूद-फाँद उन्हें करनी पड़ी होगी, पर उसे सुयोग ही कहना चाहिए कि उतनी छोटी सी उदार श्रमशीलता को ऐतिहासिक बना दिया और कथा वाचक उसकी भावभरी चर्चा करते-करते अघाते नहीं, ऐसे आदर्शवादी सहयोगों की सफलता में कर्ताओं का पुरुषार्थ ही नहीं दैवी सहायता भी काम करती है और श्रेय उन अग्रगामी साहसियों के पल्ले बँध जाता है। नल-नील ने समुद्र पर पुल बनाया और पत्थर पानी पर तैरने लगे। दैवी प्रयोजनों में दैवी सहायता की असाधारण मात्रा उपलब्ध होती है।

हनुमान का उदाहरण इसी प्रकार का है। वे सदा से सुग्रीव के सहयोगी थे, पर जब बालि ने उसकी सम्पदा एवं गृहिणी का अपहरण किया तो वे प्रतिरोध में कोई पुरुषार्थ न दिखा सके। इससे प्रतीत होता है कि उस अवसर पर सुग्रीव की तरह हनुमान ने भी अपने को असमर्थ पाया होगा और जान बचाकर कहीं खोह-कन्दरा का आश्रय लेने में ही भला देखा होगा। पर वे जब प्राण हथेली पर रख राम-काज के परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हुए तो पर्वत उठाने, समुद्र लाँघने, अशोक उद्यान उजाड़ने, लंका जलाने जैसे असम्भव पराक्रम दिखाने लगे। सुग्रीव पत्नी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहने पर भी अन्य देश में समुद्र पर बसे अभेद्य दुर्ग को बेधकर वे सीता को मुक्त कराने में सफल हो गये। इसमें दैवी सहायता की बात प्रत्यक्ष है। ऐसा अनुग्रह उन सभी को मिल सका, जिन्होंने राम की गरिमा को, उनके लीला क्रम को सहयोग देने की परिणति की पूर्व कल्पना कर ली। वयोवृद्ध जामवन्त और जटायु, अकिंचन गिलहरी, दरिद्र केवट और शबरी की सामर्थ्य और भूमिकाओं को देखा जाय तो उनके द्वारा प्रस्तुत किए गये अनुदान अकिंचन जितने ही कहे जा सकते हैं। इतने पर उनकी गाथाएँ अजर-अमर बन गई। वे श्रेयाधिकारी बने और अपने उदाहरणों को भावभरी प्रेरणाएँ दे सकने में समर्थ हुए। इस सौभाग्य भरी उपलब्धि में प्रमुख श्रेय उस सूझबूझ को है, जिसने अपनी श्रद्धा सहायता को महान व्यक्तित्व और महान अवसर के साथ जोड़कर लाखों गुना अधिक श्रेय कमाया।

कृष्ण चरित्र पर दृष्टिपात करने से भी यह तथ्य असाधारण रूप से उभरकर आगे आता है। गोपियों का छाछ पिलाना, थोड़ी सी हँसी ठिठोली कर देना, ग्वाल-बालों की लाठी का सहारा जैसे कृत्य ऐसे नहीं हैं, जिन्हें दैनिक जीवन में सर्वत्र घटित होते रहने वाले सामान्य उपक्रमों से भिन्न समझा जा सके। अर्जुन, भीम जैसों को श्रीकृष्ण से जुड़कर जो श्रेय मिला उनकी गरिमा असामान्य हो गई। अर्जुन, भीम वे ही थे, जिन्हें वनवास के समय पेट भरने के लिए बहुरूपिये बनकर दिन गुजारने पड़े थे। द्रौपदी को निर्वसन होते आँखों से देखने वाले पाण्डव यदि वस्तुतः महाभारत जीत सकने जैसी समर्थता के धनी रहे होते, तो न तो दुर्योधन, दुःशासन वैसी धृष्टता करते और न पाण्डव ही उसे सहन कर पाते। कहना न होगा कि पाण्डवों की विजयश्री में उनकी वह बुद्धिमत्ता ही मूर्धन्य मानी जायेगी, जिसमें उनने कृष्ण को अपना और अपने को कृष्ण का बनाकर भगवान से घोड़े हँकवाने जैसे छोटे काम कराने को विवश कर दिया था। यदि वे वैसा न कर पाते और अपने बलबूते जीवन गुजारते तो स्थिति सर्वथा भिन्न होती और यायावरों की तरह जैसे-तैसे जिन्दगी व्यतीत करते।

सुदामा की कृष्ण से सघन मित्रता जमा सकने की दूरदर्शिता ही उन्हें मित्र के समतुल्य बना देने का श्रेय दिला सकी। कृष्ण सुदामा की संयुक्त चर्चा अनेकानेक अवसरों पर होती रहती है। कोई कृष्ण की उदारता को, कोई सुदामा की गौरव गरिमा को प्रधानता देते हैं। जो हो दोनों का समन्वय रहा तो ऐसा ही, जिसमें महानता का सान्निध्य समन्वय अपनी चमत्कारी परिणति सिद्ध कर सके।

बुद्ध और गाँधी के महान व्यक्ति होने के सम्बन्ध में दो राय नहीं हो सकती। पर इस तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उनके सघन सम्पर्क में आने वाले असाधारण रूप से लाभान्वित हुए और सौभाग्यशाली बने।

बुद्ध के साथ जुड़ने का साहस न कर पाते तो हर्षवर्धन, अशोक, आनन्द, राहुल, कुमारजीव, संघमित्रा, अम्बपाली की जीवन चर्या कितनी नगण्य रह गई होती इसका अनुमान लगा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। गाँधी के साथ यदि विनोबा, राजगोपालाचार्य, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रबाबू आदि न घुले होते, अपना पृथक-पृथक वर्चस्व बनाकर चले होते तो वह स्थिति बन नहीं पाती जो बन सकी। नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की घनिष्ठता प्रसिद्ध है। यदि उस सघनता को ताक पर रख दें और अपने-अपने बलबूते उठने-बैठने की बात सोचें तो फिर परिणाम भी कुछ दूसरे ही स्तर के होने की बात सामने आ खड़ी होगी।

चाणक्य के साथ चन्द्रगुप्त, समर्थ के साथ शिवाजी, परमहंस के साथ विवेकानन्द की सघनता दोनों ही पक्षों के लिए कितनी सन्तोषजनक परिणाम प्रस्तुत कर सकी, इसे कौन नहीं जानता। मान्धाता ने आद्य शंकराचार्य के साथ जुड़कर चारों धाम बनाने का श्रेय पाया। भामाशाह का अनुदान राणा प्रताप के साथ सम्बन्ध होने पर ही सार्थक हुआ अन्यथा इतना पैसा तो सेठ साहूकारों के यहाँ से चोर ठग भी उठा ले जाते हैं और बेटे पोतों में, दुर्व्यसनों में उड़ाते-फूँकते देखे जाते हैं। महामानवों के साथ जुड़ जाने पर श्रेय पथ कितनी द्रुतगति से प्रशस्त होता है, इनके असंख्य उदाहरणों में टिटहरी का वह कण भी सम्मिलित है जिसमें अगस्त्य ऋषि की सहायता से समुद्र सोखे जाने और अण्डे वापिस मिलने की घटना कही जाती है।

असामान्य पतियों की अर्धांगिनी बनकर कितनी ही ऐसा उच्चस्तरीय श्रेय पा सकी हैं जैसा कि अपने बलबूते उनके लिए पा सकना सम्भव नहीं था। कस्तूरबा गाँधी, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई जैसी अगणित महिलायें इसी श्रेणी में आती हैं। पौराणिक युग की राधा, अरुन्धती, शची, मैत्रेयी, द्रौपदी आदि की गौरव गरिमा में उनके पतियों के व्यक्तित्वों का योगदान नहीं रहा है। इस सौभाग्य के अभाव में उन्हें सामान्य महिलाओं की तरह ही जीवन यापन करना पड़ता।

महानता आग के समान हैं, उसके सम्पर्क मे जो भी आता है गरिमायुक्त एवं तद्रूप होता चला जाता है। पृथ्वी का वैभव सूर्य के अनुदान से मिला है। यदि सूर्य का तापमान मात्र तीस डिग्री घट जाय तो समूची धरती चालीस फुट बर्फ से ढक जायेगी। इसी प्रकार तीस डिग्री तापमान बढ़ जाय तो यहाँ भी बुद्ध ग्रह जैसी भयानक गर्मी तपेगी और वृक्ष वनस्पतियों से लेकर जल, थल और नभचर प्राणियों में से किसी का भी जीवित रह सकना सम्भव नहीं होगा। इसे पृथ्वी का सौभाग्य कहना चाहिए कि वह एक उपयुक्त स्तर के स्नेह सूत्र में सूर्य के साथ बँधी और आदान-प्रदान का उपयोगी सिलसिला चल पड़ा।

संसार भर के आन्दोलनों में जो सर्वप्रथम आगे आये वे प्रख्यात हुए। यों पीछे आने वाले असंख्यों, अविज्ञातों का भी त्याग बलिदान कम नहीं था। स्वतन्त्रता संग्राम में जिन्होंने भावभरी भूमिका निभाई वे पेन्शन पाने, शासन में उच्चपद पाने के श्रेयाधिकारी बने थे। वह समय निकल जाने के उपरान्त कोई उस सौभाग्य को पाना चाहे तो यही कहना पड़ेगा कि समय निकल गया। उनींदे लोग उन दिनों असमंजस की स्थिति में पड़े रहने पर मात्र पश्चाताप ही कर सकते हैं। गाँधी की डाँडी यात्रा एवं धरसना के नमक सत्याग्रह का स्मरण सदा ही किया जाता रहेगा। बाद में तो कितनों ने ही नमक बनाया और कारागार भुगता था।

सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान वे हैं जो किसी महान अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। महान व्यक्ति भी सदा नहीं जन्मते। जन्मते हैं तो उनके साथ जुड़कर स्वल्प पराक्रम से असीम यश पाने का सुअवसर हर किसी को कहाँ मिलता है। इसे दैवी वरदान या पूर्व संचित पुण्यों का प्रतिफल कहना चाहिए कि महानता उभरे और उसके साथ सघनता स्थापित करने का साहस जग पड़े।

समय पर शादी के प्रस्ताव आते हैं और सुयोग्य वधू मिलने का अवसर रहता है। आगत प्रस्तावों को ठुकराते रहने वाले ढलती उम्र में इच्छा उठने पर भी उपयुक्त विवाह का सुयोग खो बैठते हैं। इन दिनों महाकाल ने आग्रहपूर्वक प्राणवानों को सहयोग देने के लिए बुलाया है। वस्तुतः यह श्रेयाधिकारी बनने का सौभाग्य संदेश भर है। भगवान के काम समय के उपक्रम एवं दिव्यशक्तियाँ अपनी अदृश्य क्षमता के आधार पर स्वयं ही सम्पन्न कर लेती हैं। रीछ वानर रूठ-मटक कर बैठ जाते तो भी सीता वापसी और लंका की दुर्गति निश्चित थी। ऐसे अवसरों का सबसे बड़ा लाभ वे अग्रगामी उठाते हैं, जो संकीर्ण स्वार्थपरता को छोड़कर समय की माँग पूरी करने के लिए बिना समय गँवाये अग्रिम मोर्चे पर जा खड़े होते हैं। प्रस्तुत प्रभात बेला को ठीक ऐसा ही मुहूर्त समझा जाना चाहिए, जिसमें साहसी, सदाशयी छोटे-छोटे कदम बढ़ाने पर भी अत्यधिक श्रेय संचित कर सकने वाले दूरदर्शियों में गिने जायेंगे।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार