ज्ञान और पराक्रम का पथ अध्यात्म

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

ज्ञान और पराक्रम की परंपरा

देवियो, भाइयो! संसार में आध्यात्मिक बल और भौतिक बल—ये दो प्रमुख शक्तियाँ हैं। इनमें समन्वय और संतुलन बना रहे, तभी सुख-शान्ति और समृद्धि कायम रहती है। अगर हम ज्ञानवान हैं, तो हमें पराक्रमी भी होना चाहिए। पराक्रम और आध्यात्मिक ज्ञान की परंपरा को हम जब अपने चारों ओर देखते हैं तो पाते हैं कि यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है।

हमने देखा है कि एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला की नसीहत देने वाले कितनी बार, कितने संत आए। उन्होंने हमें माला हाथ में थमाई और हमसे कहा—"जब तक बने एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला लेकर चलिए।" ज्ञान और पराक्रम की परंपरा भारत की धर्म और संस्कृति का प्राण है। इन दोनों को मिलाए बिना हम जिंदा नहीं रह सकते। दोनों को मिलाकर ही सफल हो सकेंगे।

मित्रो! बगीचे में बीज बोया जाता है तो उसकी रखवाली भी करनी चाहिए। रखवाली नहीं करेंगे तो चिड़ियाँ आपका दाना खा जाएँगी। आपका परिश्रम बेकार चला जाएगा। रखवाली का भी इंतजाम कीजिए। पानी का भी इंतजाम कीजिए। नहीं साहब! हमने तो बगीचे में पानी का ही इंतजाम किया है। बेटा! अच्छा किया है, पर यह तो बता कि तुमने निराई-गुड़ाई का इंतजाम किया कि नहीं? निराई की क्या आवश्यकता है ? बेटे! पौधों के पास खर-पतवार उग आएँगे और सारे खाद-पानी को खा जाएँगे। पौधों को उगने-बढ़ने भी नहीं देंगे।

कभी जाकर देखता है कि नहीं देखता! नहीं साहब! जाता तो नहीं हूँ। तब तेरा बगीचा नहीं बन सकता। रखवाली का इंतजाम किया? नहीं साहब! रखवाली का तो इंतजाम नहीं किया है। तो मैं बताए देता हूँ कि जब फल आएँगे तो उन पर चिड़ियाँ आएँगी, कौए आएँगे, तोते आएँगे और सूअर आएँगे, सियार आएँगे, नीलगाय आएँगी और तेरे सारे खेत को, बगीचे को नष्ट कर देंगे। कुछ भी नहीं बचेगा। तेरा बीज, खाद-पानी सब-का-सब बेकार चला जाएगा। पहले चिड़ियों से रखवाली का प्रबंध करना चाहिए।

आध्यात्मिक तेज विकसित करें

मित्रो! हमारे भीतर एक और माद्दा होना चाहिए, जिसका नाम है—तेज। तेज अगर हमारे और आपके भीतर नहीं है तो बेटे! कुछ बात बनेगी नहीं। तेज का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हाँ, इस्तेमाल तो करना ही पड़ेगा। आपने एक कहानी सुनी होगी। कौन-सी वाली कहानी? जिसमें एक साँप था और स्वामी जी ने उससे कहा कि किसी को काटना मत। लोगों ने उसे सताना और पिटाई करना शुरू कर दिया।

फिर महाराज जी आए, तो साँप ने कहा—आपने गलत शिक्षा दे दी। तो महाराज जी ने कहा—काट मत, पर फुफकारना जारी रख। जब साँप फुफकारने लगा, तब लोग डरकर भाग गए। ऐसा नहीं है कि दया करना अच्छा नहीं है। दया के बिना कोई जिंदा नहीं रह सकता। दया और क्षमा की शक्ति है तो महत्त्वपूर्ण, लेकिन कब है, जब उसके साथ-साथ में तेज जुड़ा हुआ हो।

मित्रो! ब्रह्मतेज हमेशा से हमारी भारतीय संस्कृति की परंपरा रही है और उससे आगे भविष्य में कभी भी धर्म का जीवन जिया जाए, अध्यात्म को जिया जाए, शालीनता को जिया जाए तो मनुष्य की विषमताएँ जिएँगी, तो सबको मिलाकर जिएँगी। एक नहीं जी सकती। न एक अकेला क्रोध जिएगा, न एक अकेला तेज जिएगा। दोनों को मिला करके हमको इस तरीके से चलना पड़ेगा, जैसे शृंगात्मक स्थिति। ये बेटे प्राचीनतम हैं। नहीं साहब! वे हथियार नहीं चलाते थे। हथियार नहीं चलाते थे, तो उनके पास आध्यात्मिक हथियार थे।

कौन से हथियार थे? श्रृंगी ऋषि के पिता लोमश ऋषि को राजा परीक्षित ने अपमानित किया। गले में मरा हुआ साँप डाल दिया। बाल शृंगी ऋषि को पता चला कि हमारे पिता का अपमान किया गया है। श्रृंगी ऋषि ने हाथ में पानी लेकर के कहा—"मरा हुआ साँप जिंदा हो जाए।" साँप जिंदा हो गया तो कहा—"चल, जिसने हमारे पिता का अपमान किया, उसे काट खा।" राजा परीक्षित ने सारे-के-सारे इंतजाम कर लिए कि साँप से बच सकें, पर साँप ने खा लिया। क्यों साहब! हथियार तो नहीं चलाया था। बेटे! हथियार नहीं, आदमी की अंत:तेजस्विता से यह सब संभव है।

मित्रो! व्याघ्र की कहानी आपने सुनी होगी। दमयंती ने आँखों से देखा था और देखने मात्र से व्याघ्र खाक हो गया था। ऐसा भी हो सकता है? हाँ बेटे, ऐसा हो सकता है। हथियार की बात है तो हथियार बंदूक भी हो सकती है, चाकू भी हो सकता है, लाठी भी हो सकती है और गाली भी हो सकती है। वशीकरण दृष्टि भी हो सकती है। कौन सा हथियार चलाया जाए और कब चलाया जाए, यह तो मैं नहीं कहता, पर मैं यह कहता हूँ कि हमारे पास मूल सिद्धांत के साथ आध्यात्मिक तेजस्विता का समावेश होना चाहिए। आध्यात्मिक तेज का संग्रह हमें रोज करना पड़ेगा।

हमारे पीछे ऐसे चोर पड़े हैं, जो हमें जिंदा नहीं रहने देंगे। बेटे! हमारे भीतर जो चोर बैठे हैं, वे पिटाई के बिना काबू में नहीं आ सकते। कौन-कौन से हैं ये चोर? एक का नाम है—काम, एक का नाम है—क्रोध, एक का नाम है—लोभ, एक का नाम है—मोह, एक का नाम है—मद और एक का नाम है—मत्सर। ये ऐसे गुप्त हैं कि हमें आगे बढ़ने ही नहीं देते। जब भी हम आगे बढ़ने की बात सोचते हैं, तो हमारी टाँगों को ऐसे घसीटते हैं, जैसे गज और ग्राह। गज और ग्राह की कहानी आपने सुनी है कि कैसे ग्राह गज को खींचता था। उसकी टाँग घसीटता था।

षड् रिपुओं से कैसे बचें?

लेकिन मित्रो! हमारी तो छह टाँगें पकड़ रखी हैं। दो टाँगें, अगले दो हाथ, एक नाक, एक मुँह, सब पकड़कर रखा है। हम तो मरने के कगार पर हैं। छह दुश्मन पीछे पड़े हैं। महाराज जी! इस ग्राह से कैसे छुटकारा मिलेगा। ऐसे ही छूटेगा, जैसे कि पहले छूटा था। ग्राह से बचाने के लिए विष्णु भगवान आए थे। हमारा विष्णु भगवान, हमारा जीवात्मा सुदर्शन लेकर आएगा और चैलेंज देगा और कहेगा कि ठहर जा, मैं अभी तुम्हारा सर्वनाश करता हूँ, तुम हावी होते चले जा रहे हो।

एक घटना स्वामी विवेकानन्द के जीवन से जुड़ी हुई है। स्वामी विवेकानन्द बनारस की विश्वनाथ गली में जा रहे थे। बहुत सारे बंदर आ गए और उनका कुरता फाड़ दिया। वे भागे। एक आदमी उधर से निकला, उसने कहा—"ठहर जाओ, भागो मत, खड़े हो जाओ। ये जो बंदर आ रहे हैं, इनके सामने आपके पास जो कुछ भी है—लाठी, डंडा, लोटा, घूसा जो कुछ है, उसको लेकर के डटकर खड़े हो जाओ।" उनके पास कुछ भी नहीं था, पर दृढ़ता से खड़े हो गए। बंदर आए और घुड़की देने लगे। उनके पास कोई हथियार तो नहीं था, पर दृढ़ता से खड़े रहने पर बंदर भाग गए। उस व्यक्ति ने कहा—"आइंदा कभी आएँ तो ऐसे ही मुकाबला करना।"

मित्रो! ये बंदर हमारा कुरता फाड़ रहे हैं। हमारे स्वभाव के ऊपर हावी हो रहे हैं और हम भाग रहे हैं। कुछ ऐसा कीजिए, जिससे हमारी वासना दूर हो जाए। ये सब हमारे काबू से बाहर हो रहे हैं। यदि काबू में होता, तो मैं आपसे न नहीं कहता। हाँ! कुछ उपाय बता सकता हूँ। एक डंडा लेकर खड़े हो जाओ और अपना शौर्य, अपना पराक्रम—इनके माध्यम से इन्हें निकाल बाहर करो। अच्छा तुम हम पर हावी होना चाहते हो, निकलो बाहर। फिर देखना, यह वासनारूपी बंदर कैसे भागते हैं दुम दबाकर और आपको पता ही नहीं चलेगा।

एक भाईसाहब थे। वे बहुत हुक्का पीते थे, इतना कि रात को भी उठ करके चिलम भरते और हुक्का पीते। दिन में तो पीते ही थे। हमारे गाँव में यह रिवाज था कि जो उस बिरादरी का होगा, वह मुँह लगाकर चिलम पिएगा। दूसरी बिरादरी का चिलम नहीं पिएगा। उस जमाने में कुछ ऐसा रिवाज था। एक बार कोई आदमी आया। वह खाँसता जाए और हुक्का पीता जाए। उसका कफ़ निराली नली में भर गया और भाईसाहब ने जब उस हुक्के को पिया, तो वह कफ़ उनके मुँह में भर गया। उन्होंने कहा—"अरे! यह कफ़ कहाँ से आया?" उनको गुस्सा आया और चिलम को ले जाकर के मारा पत्थर पर और हुक्का एक कोने में रखा रहा। उन्हें इतनी नफरत हुई कि हुक्का छूट गया।

ओजस, तेजस, वर्चस् का पराक्रम

मित्रो! जो भी काम करना है, उसे सोच-समझकर करें। आइए मैं बताता हूँ कि कौन-सा शुक्र भड़कता है। कौन-सी कामवासना है। मैंने ठान लिया है कि इसकी कमर तोड़कर रख दूँगा, जरा आए तो मेरे पास। मित्रो! यह प्रचंड पराक्रम है, जिसको मैं कहता हूँ—तेजस्। ओजस्—जो हमारे शरीर में काम करता है, तेजस्—जो हमारे मस्तिष्क में काम करता है और ब्रह्मवर्चस्—जो हमारी आत्मा में काम करता है। वर्चस् हमारी आत्मा में काम करता है, तेजस् हमारे मस्तिष्क में काम करता है, ओजस् शरीर में काम करता है।

ओजस्, तेजस् और वर्चस्—ये तीन शक्तियाँ हैं । मित्रो! इनके बिना काम नहीं चल सकता। इसलिए मैं आपसे यह कहता हूँ कि भीतरी शत्रुओं का मुकाबला करने से लेकर के जो हमारी गलत आदतें आ गई हैं, उनसे भी मुकाबला करना है। अरे! हम तो ऐसा कर ही नहीं सकते। क्यों नहीं कर सकते? जल्दी सोओ, जल्दी उठो। नहीं महाराज जी! देरी से सोना हमारी आदत हो गई है।

आदत क्या होती है? धैर्य और पराक्रम से आपके आंतरिक जीवन में, बहिरंग जीवन में, आलस्य और प्रमाद जैसे दुश्मन भाग जाएँगे। भीतर के छह दुश्मन बताए हैं और बाहर के ये दुश्मन, इनसे आपकी सारी-की-सारी भौतिक उन्नति के दरवाजे बंद हो जाते हैं। तब आप भौतिक उन्नति नहीं कर पाएँगे। आपका भविष्य अंधकार में पड़ा रहेगा और आप किसी काम के नहीं हैं, जो भी काम हाथ में लेंगे, उठा-पटक कर देंगे।

मित्रो! दो दुश्मन आपके पीछे पड़े हैं, सी0बी0आई0 के कर्मचारी की तरह से, जो आपका एक भी काम सफल नहीं होने देंगे। आप जो भी काम करेंगे, रास्ते में रोककर खड़े हो जाएँगे। ये कौन हैं ? दिशाशूल और योगिनी। जहाँ कहीं भी आप जाएँगे, ये दो साथ में जाएँगे। दिशाशूल कहाँ है—सामने और योगिनी—बाएँ। छींक आ गई और अब काम बिगड़ जाएगा। अरे! छींक हो गई और बिल्ली ने रास्ता काट दिया। अब नहीं जा रहे, अब तो काम नहीं बनेगा। तो काम करना बंद कर दें। ये कौन हैं? क्या मतलब है आपका? मेरा मतलब यह है कि छींक और बिल्ली, दिशाशूल और योगिनी—ये आपके पीछे पड़े हैं। ये हर काम असफल बना देंगे।

मित्रो! आलस्य—एक और प्रमाद—दो। ये दो ऐसे दुश्मन हैं, जो जीवन को पंगु बना देते हैं । आलस्य एक तरह का मानसिक लकवा है। लकवा कैसा होता है ? शरीर में लकवा हो जाता है, तो हाथ ऐंठ जाते हैं, पैर काम करना कम कर देते हैं। क्या हो गया? लकवा हो गया। चलिए, अरे साहब! चलें क्या, लँगड़ाकर चलते हैं। यह क्या है ? लकवा है। एक और भी लकवा होता है बेटे! जो दिखाई नहीं देता। उसका नाम है—आलस्य।

आलस्य अर्थात मानसिक शिथिलता

आलस्य लकवा है, जो आदमी की हालत खराब कर देता है। अगर आदमी चाहे तो यही समय, जिसमें हम और आप रहते हैं। यही समय एक छोटी-सी जिंदगी, जो हमको और आपको मिली है। इसी में दुनिया के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने क्या-से-क्या कर डाला। जगद्गुरु शंकराचार्य बत्तीस वर्ष तक जिए। गजब कर गए, कमाल कर गए। स्वामी विवेकानन्द गजब कर गए, कमाल कर गए। छोटी-सी जिंदगी में भी समय का ठीक से उपयोग करने वाले स्फूर्तिवान आदमी, परिश्रमी आदमी, पुरुषार्थी आदमी, काम करने वाले जीवन सार्थक कर गए।

मित्रो! आपको तो लकवा हो गया है। इसका कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि इसे लकवा हो गया है। नहीं साहब! लकवा कहाँ हुआ, हाथ-पाँव तो ठीक हैं। बेटे! परिश्रम कर। कुछ ऐसी बीमारी, जो दिखाई नहीं पड़ती। तेरे रोम रोम में हावी हो गया है—आलस्य। आलस्य हमारी शारीरिक शक्ति को तबाह करके छोड़ेगा और सत्यानाश कर देगा। एक और भी चीज है। एक और भी दुश्मन है। उसका नाम है—प्रमाद।

जैसे शरीर का लकवा होता है, ऐसे ही दिमाग का एक लकवा होता है। आदमी को काम करना चाहिए, लेकिन अधूरे मन से, आधे मन से, काने मन से, कुबड़े मन से, देख रहा है कहीं, और चल रहा है कहीं। सोच रहा है कहीं, बोल रहा है कहीं कुछ। न कोई दिशा है, न धारा है। एक तरह की क्रिया हो जाए, क्रिया और विचार इस तरह मिल जाएँ, जैसे बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव दोनों तार मिल जाते हैं, तो उनमें से करेंट निकलता है। चिनगारियाँ निकलती हैं। बिजली के बल्ब जल जाते हैं।

आदमी का चिंतन, आदमी की रुचि, आदमी की इच्छा और आदमी की क्रिया—इन सबको मिला दीजिए, तो गजब हो जाएगा। कमाल हो जाएगा। ऐसा बढ़िया काम होगा कि देखने वाले को तमाशा लगेगा और कहेगा कि कैसा बढ़िया काम हुआ है। कैसा शानदार काम हुआ है। किसने करके दिखाया है, उसके हाथ चूमने का मन करेगा।

मित्रो! आदमी ने तन्मय हो करके जो काम नहीं किया है, तो समाज हमको जिंदा मार डालेगा। तो क्या हमारा सुधार नहीं हो सकता। महाराज जी! शनि और राहु का प्रकोप है। शनि और राहु तेरा वह नुकसान नहीं करेंगे, जो चौबीस घंटे हमारे साथ रहने वाले शैतान कर रहे हैं । इनसे अपना पीछा छुड़ा ले। राहु से बचा देंगे और अपने शनिश्चर को भी मेरे ऊपर छोड़ दे।

इनसे तो मैं निपट लूँगा। इनको मैं टेलीफोन करूँगा और कहूँगा कि भाईसाहब! आप हमारे इस परिजन को क्यों तंग कर रहे हैं? वह कहेंगे कि हम तो इन्हें नहीं जानते, हम क्यों कुछ करेंगे। इन्होंने हमारा क्या बिगाड़ा है, जो हम इन्हें तंग करेंगे। नहीं साहब! वो पंडित जी कह रहे थे कि शनिश्चर आ गया। अरे भाईसाहब! कोई और आ गया होगा। हमसे इनका क्या मतलब। हम तो इनसे कितनी दूर रहते हैं। आपकी पृथ्वी के चक्कर काट लेते हैं और मस्त रहते हैं। हम किसी को क्या तंग करेंगे। हम तो प्रकृति के अनुकूल रहते हैं।

मित्रो! आप अपना काम कीजिए। अपना काम क्या करेंगे? ये जो समस्याएँ आपने अपने दिमाग में पैदा कर ली हैं कि अमुक हमें परेशान करता है, उसे निकाल दें। समस्या शब्द की व्याख्या मैं कर दूँ, तो समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। 'समःसा'। इन दोनों को मिला करके समस्या बना है। समन् के आगे जो विसर्ग लगे हैं, संस्कृत के हिसाब से 'स' हो गया है। 'समः सा'। आलसी आदमी और प्रमादी आदमी को क्या करना पड़ेगा? अपने आप से लोहा लेना पड़ेगा, भिड़ना पड़ेगा।

महाराज जी! बिना भिड़े काम नहीं चल सकता। नहीं, बिना भिड़े जिंदगी नहीं चल सकती। भिड़ने के लिए तैयार हो जाइए। झगड़ने वाली बात मुझे अच्छी नहीं लगती। मैंने गीता और रामायण पढ़ीं। गीता रामायण से अलग है। रामायण में भाई, भाई को सब कुछ देने के लिए तैयार है। अच्छा भाई तुम सब ले लो। गीता में जब अर्जुन यह कहने लगा था कि नहीं हम तो भीख माँगकर खा लेंगे, हमें कुछ नहीं चाहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था—

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥

हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो। यह उचित नहीं है। अपने हृदय की क्षुद्रता को, दुर्बलता को त्याग करके युद्ध के लिए तैयार हो जा। श्रीकृष्ण ने गालियाँ सुनाईं, बहुत बुरा-भला कहा।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसी-ऐसी गालियाँ सुनाईं कि उसने गाण्डीव उठा लिया।

गीता आध्यात्मिक किताब है। ऐसा ज्ञान कहाँ प्राप्त होगा। हमारे जीवन के हर पहलू का ज्ञान है उसमें। कुछ लोग कहते हैं कि यह तो लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट सिखाती है। ऐसी है गीता। इससे मैंने यह समझा कि महाभारत को तो हजारों वर्ष हो गए। पुराने कहानी-किस्सों से क्या फायदा? आज तो लड़ाई हो नहीं रही है, फिर चिंता करने से हमें क्या फायदा है। फिर मैंने पीछे देखा कि गीता में आखिर नसीहत क्या है ? और पहला वाला श्लोक जब मैंने पढ़ा तो मेरी आँखें खुल गईं। आ हा... यह मामला है। यह चक्कर है। इसमें—

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥

धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में सेना एकत्र हुई है। धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र हमारा जीवन है। इसमें संघर्ष होता रहता है। समय पर यदि आपने अपने गाण्डीव को उठा लिया, तो हम हावी हो जाएँगे। तो क्या हम बच जाएँगे? नहीं बेटे! तब भी नहीं बचेंगे आप। पाण्डव भाग गए थे। कहाँ बचे। लाक्षागृह में जलाए गए। बेचारे कहाँ-कहाँ भागे फिरे। बेचारों को चैन थोड़े ही लेने दिया।

नहीं महाराज जी! हम भाग जाएँगे, तो चैन से रहेंगे। कहाँ भाग जाओगे। मैं तो गुफा में चला जाऊँगा। चला जा गुफा में, फिर देखना, न शान्ति मिलेगी, न मन लगेगा। तो फिर यहाँ आ जाऊँ शान्तिकुञ्ज में। बेटे! यहाँ वाले वैसे ही अशांत हैं। खटमल पैदा हो गए हैं, देख ले। शान्ति कहीं नहीं मिलेगी, बेटे! शान्ति तो आंतरिक है। अशान्ति पर विजय प्राप्त करने के बाद जो आनंद है, वह शान्ति है। संघर्ष करके जो विजय प्राप्त होती है, वह शान्ति है।

आंतरिक महाभारत में विजयी बनें

मित्रो! शान्ति को प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना पड़ेगा? हमको सूर्य की उपासना करनी पड़ेगी। राम और लक्ष्मण की उपासना करनी पड़ेगी। ज्ञान और कर्म की उपासना करनी पड़ेगी। कृष्ण और अर्जुन की उपासना करनी पड़ेगी।

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥

इन दोनों की संगति में ही हमारे भीतर का महाभारत जीता जा सकता है। जीवन में महाभारत में इन दोनों योद्धाओं की समान आवश्यकता है। कृष्ण भगवान की हम उपासना करेंगे, तो अर्जुन को भी आना पड़ेगा। रामचंद्र जी के हम भक्त हैं, तो लक्ष्मण को नहीं भुला सकते। महायोद्धा अर्जुन को कैसे भुला सकते हैं। धनुर्धारी लक्ष्मण और धनुर्धारी अर्जुन को कैसे भुला सकते हैं। ये जो जड़ हैं, पेड़ हैं, इनको काट देंगे तो समस्या बढ़ेगी। यदि लक्ष्मण जी को हम हटा दें और रामचंद्र जी को रखें, तो रामायण अधूरी है। सारा-का-सारा क्रम गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए हमको दोनों को ही लेकर चलना पड़ेगा। एक से काम नहीं चलेगा। चंद्रमा और सूर्य, दोनों को मिलाकर हमें चलना पड़ेगा। इसके बिना काम चलेगा नहीं।

मित्रो! ज्ञान भी हमको चाहिए और विज्ञान भी चाहिए। इन दोनों की उपासना का क्रम बहुत पुराने समय से चला आ रहा है, जिसे हम भूल गए। जिसने भौतिकता को ध्यान दिया, आध्यात्मिकता को भूल गया। आध्यात्मिकता का ध्यान किया तो भौतिकता को भूल जाना है। जिसने शक्ति की उपासना की, उसने ज्ञान को तिलाञ्जलि दे दी। जिसने ज्ञान की उपासना की, उसने शक्ति की आवश्यकता नहीं समझी। इस अपूर्णता को हमें दूर करना है।

व्यक्ति के जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में अपूर्णता दूर करनी है। क्यों साहब! पिछले जन्म में? नहीं बेटे! मेरा संपर्क नहीं है। मैं तो इस जीवन की बात कहता हूँ। मैं तो सामाजिक जीवन की बात कहता हूँ। हर क्षेत्र की बात कहता हूँ। विज्ञान से लेकर के ज्ञान तक, हर क्षेत्र की बात कहता हूँ। जीवन में दोनों शक्तियों का समन्वय आवश्यक है।

[क्रमशः अगले अंक में समापन]

ज्ञान और पराक्रम का पथ अध्यात्म
(उत्तरार्द्ध)

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अध्यात्म को एक साहसिक पथ के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। वे कहते हैं कि अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति समस्याओं से भागने की तैयारी करने लगे, वरन अध्यात्म के पथ पर वही बढ़ पाता है, जो ज्ञानार्जन करने के अतिरिक्त पराक्रम प्रदर्शित करने का साहस भी रखता है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि जिस पराक्रम की आवश्यकता है, वह पराक्रम आंतरिक शत्रुओं जिनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि शामिल हैं—उनके ऊपर विजय प्राप्त करके दिखाया जाता है। वे कहते हैं—"इसी शौर्य और पराक्रम का नाम आध्यात्मिक भाषा में तेज, ओज और वर्चस् है। इनकी प्राप्ति ही आध्यात्मिक साधना का मुख्य उद्देश्य कहा जा सकता है।" आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

संकल्प बल है जरूरी

मित्रो! आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी भगवान की भक्ति की जरूरत है। प्रेम की जरूरत है, कला की जरूरत है, श्रद्धा की जरूरत है, दया की जरूरत है। ध्यान की जरूरत है, लय की जरूरत है, तप की जरूरत है, लेकिन एक और चीज की जरूरत है, जिसका नाम है—संकल्प बल, प्राण बल। संकल्प बल यदि आपका नहीं हुआ तो आपका यह मन आपके काबू में नहीं रहेगा। तब आपका कोई कार्य पूरा नहीं होगा। यह अशांत होकर भागता फिरेगा। जब तक आप डंडा लेकर इसे धमकाएँगे नहीं कि देख अगर बदमाशी की तो डंडा मार-मारकर तेरी खाल उतार दूँगा। कल सवेरे उठना पड़ेगा। अगर नहीं उठा तो तुझे खाना नहीं मिलेगा। नहीं साहब! मन तो यह कहता है, मन तो वह कहता है। मन नहीं लगता। मन ही हो गया तेरा सब कुछ। मन के कहने पर ही चलेगा। मन तो मक्कार है, चोर है, दुष्ट है। इसे सही रास्ते पर लाना पड़ेगा। नहीं साहब! मन नहीं होता। मन नहीं होता तो घूम इसके साथ, तेरा बुरा यही करेगा। भला भी तेरा यही करेगा।

मित्रो! फिर क्या करेगा? अगर नहीं माना तो बेकाबू बैल की तरह इधर-उधर सींग मारता फिरेगा। इसे खूटे से बाँध दे। फिर क्या करेगा? खोल दिया तो घास खा जाएगा, चारा खा जाएगा, खेती चर जाएगा। कहना न माने तो पिटाई कर। तो इसको बाँध। मन क्या है? घोड़ा है। अगर इसकी लगाम आपके हाथ में है, तो जिधर चाहेंगे, वह उधर ही चलेगा और बिना लगाम का जहाँ मन होगा, खाई, पहाड़, जंगल कहीं भी घूमेगा। अपने मन को काबू में रखो अन्यथा मन कभी काबू में आने वाला नहीं है। मस्तिष्क भी काबू में आने वाला नहीं है।

जिसको हम तेजस्विता कहते हैं, उसके गुण तुम्हें नहीं पता। यह तो हमारी कमजोरियाँ हैं, जो सब कुछ साफ कर देंगी। भीतर वाली कमजोरी, बाहर वाली कमजोरियों पर इतना ज्यादा घेरा डालकर खड़ी हो जाएगी कि आगे बढ़ना मुश्किल हो जाएगा। न भविष्य के बारे में सोच सकेगा, न अध्यात्म के बारे में सोच सकेगा। मित्रो! भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों उन्नति प्राप्त करने के लिए हमें जो हिम्मत, जो साहस और पराक्रम दिखाने की जरूरत है, वह आध्यात्मिकता का अंग है। नहीं साहब! आध्यात्मिकता में कोई दम नहीं है। नहीं बेटे, आध्यात्मिकता के साथ जीवन जुड़ा हुआ है। इसके बिना अधूरा है।

दो धाराएँ—योग और तप

मित्रो! योग और तप की दो धाराएँ हैं। दोनों मिली हुई हैं। योग बेटे, ध्यान को कहते हैं। योगधाराओं की दृष्टि से अपने को और परमात्मा को मिलाने का प्रयास करते हैं। उस वृत्ति का नाम योग है। हम अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलाते हैं । शरणागत होते हैं । समर्पण करते हैं । एक होने का प्रयास करते हैं। यह मैं योग की बाबत कह रहा हूँ। शिक्षापद्धति में इसे ब्रह्मविद्या, योग कहते हैं।

यह भावनात्मक उछाल है। भावनात्मक प्रवाह है। भावनात्मक परिष्कार है। भावनाओं को परिष्कृत करेंगे, भावनाओं को उज्ज्वल बनाएँगे, श्रेष्ठ बनाएँगे। भावनाओं को चारित्रिक बनाएँगे, भावनाओं को कोमल बनाएँगे। भावनाओं को संवेदनशील बनाएँगे, ताकि हमारी भावनाएँ ऐसी हो जाएँ जिसमें कि हम ब्रह्म को महसूस करने के लिए जितना प्रबल अपने आप को बनाएँगे और हम अपने आप को इतना गरम करेंगे, जितना कि ब्रह्म। दोनों को ऊँची क्वालिटी का बना लेंगे। हम दोनों की तरंगें एक हो जाएँगी।

मित्रो! पानी दूध में मिल सकता है। नहीं साहब! पत्थर का चूरा मिला दें। नहीं बेटे, यदि दूध में कुछ मिल सकता है, तो पानी मिल सकता है। मिट्टी का तेल मिला दीजिए। बेटे, मिट्टी का तेल ऊपर आ जाएगा और दूध नीचे रह जाएगा। पानी भारी है और मिट्टी का तेल हलका है। दोनों नहीं मिल सकते। ब्रह्म और जीव को मिलाने के लिए अपनी चेतना को, अपनी काया को, अपनी मनःस्थिति को कोमल बनाते हैं। मन को शीलवान बनाते हैं, चरित्रवान बनाते हैं, दिव्य बनाते हैं। उसका नाम योग है। तो फिर महाराज जी! योग से सिद्धि मिल जाएगी। नहीं, यह योग से नहीं मिलेगी। योग का एक और भाई है, पर भाई को लेकर के भी सिद्धि नहीं मिलेगी। मैं बता देता हूँ। महाराज जी! मैं खूब समाधि लगाया करूँगा, ध्यान लगाया करूँगा। सिद्धि नहीं मिलेगी, मैं कहे दे रहा हूँ। इसका एक और सहायक है। उसको लेकर के चल। सहायक कौन-सा है ? उसका नाम है—तप।

मित्रो! तप क्या चक्कर है ? तप से अपनी वृत्तियों को सुधारने का प्रयास करते हैं। शरीर क्या कहता है ? हम तो आराम से सोयेंगे। सरदी-गरमी बरदाश्त नहीं करेंगे। ठंढक बरदाश्त नहीं करेंगे। अच्छा, तेरी हुकूमत हमारे ऊपर है या हमारी हुकूमत तेरे ऊपर है। पहले हमारी हुकूमत मंजूर कर, फिर हम तेरी बात मानेंगे और तभी बात करेंगे। हम हुकूमत चलाते हैं कि हम ठंढक में रखेंगे। नहीं साहब? ठंढक में तो हम नहीं रहेंगे। नहीं रहना पड़ेगा। यह क्या है—तप है। जमीन पर चल। अरे साहब? गरमी में कैसे चलेंगे। नहीं, नंगे पैर चलना पड़ेगा। नंगे पैर परिक्रमा लगानी पड़ेगी। काहे की, कहाँ की परिक्रमा लगा दूँ। गोवर्धन को नंगे पैर परिक्रमा लगानी पड़ेगी। नंगे पैर स्वयं चलना पड़ेगा। तो फिर नहीं जाते हैं। नहीं, शरीर को हमारी बात माननी पड़ेगी। यूँ बोल जाएगा। तू शरीर है न? हम पर हुकूमत चलाना चाहता है। अगर शरीर हमारे ऊपर हावी होता है और यह कहता है कि शरीर की मरजी से मन को चलना पड़ेगा। नहीं, अब हमने यह कसम खाई है कि हमारा शरीर हमारे मन की आज्ञा पर चलेगा और उसको मानना पड़ेगा। हमने हुक्म दिया है कि चल, तो उसको चलना पड़ेगा और हमने हुक्म दिया है कि खाना नहीं मिलेगा। पेट में तो भूख लगेगी और खाना मिला नहीं, तो नींद नहीं आएगी। फिर उलटा-पुलटा कुछ भी खा लेगा। खाने में क्या चीज है? शरीर पर कंट्रोल करने से पेट हमारी बात मानेगा। शरीर को अपने वश में रखने के लिए एक छोटा-सा प्रयास है, यह अनुशासन है। यह डिसिप्लिन है। इसे मानना ही होगा।

स्वयं को तपाना है तप

मित्रो! सिपाही जब खाली-खाली कवायत करता है, हुक्म देने के बाद—अबाउट टर्न का अभ्यास करता है, तब वास्तव में माना जाता है कि यह मोर्चे पर जाने के लायक है। अरे साहब! हमें तो मोर्चे पर भेज दीजिए, फिर देखिए, हमारे कमाल । वहाँ जा करके हम क्या-क्या करके आते हैं। वहाँ तो आप जरूर करेंगे, पर यहाँ हम हुक्म देते हैं, जो अनुशासन देते हैं, पहले उसका पालन करके दिखाइए। नहीं साहब! यहाँ पर क्या फायदा। यहाँ कोई लड़ाई हो रही है क्या? जहाँ लड़ाई होगी, वहाँ करेंगे। लड़ाई में क्या करेंगे, पहले शरीर को उसके लिए तैयार तो कर। हमको अपनी प्रत्येक चीज के साथ, हर अंग के साथ नियंत्रण में रहना, इसका नाम है—तप। तप में हम अपने आप को तपाते हैं।

मित्रो! जिस जमाने में मैं आया, उसमें नास्तिकता का बोल-बाला था। आध्यात्मिकता के बारे में यह कहते थे कि आध्यात्मिकता तो बेकार है और वाहियात है। नास्तिकों से हमें कोई खास शिकायत नहीं। नास्तिकों से मैं हैरान नहीं। कम्युनिस्टों से मुझे कोई हैरानी नहीं; क्योंकि मैं यह समझता हूँ कि ये कहते रहेंगे कि हमने भगवान को देखा नहीं है, हमें दिखा दीजिए, अन्यथा भगवान नहीं है। हमारी लैबोरेटरी में सिद्ध कर दीजिए, हम मान लेंगे। ठीक है, बात तो उनकी सही है और आम आदमी की समझदारी और अक्लमंदी की निशानी है। अक्ल की बात कहें तो "जो बात जानो तो मानो।"

जो जान नहीं पाते, तो उसको क्यों मानते हैं । मैं यह समझता हूँ कि यह ईमानदार आदमी है और कल न सही परसों साइंस की कसौटी पर, लॉजिक की कसौटी पर, सत्य की कसौटी पर हर किसी को दिखा दूँगा कि देखिए, अभी-अभी आइन्स्टाइन रास्ता खोलकर गए हैं। दूसरे लोगों ने भी रास्ते खोल दिए हैं। इसमें एटम के पीछे कोई रिंग फोर्स काम करती है, विशिष्ट शक्ति काम करती है, लाइट काम करती है। लाइट से एक्टीविटीज पैदा होती है। लाइट नहीं होगी, तो एक्टीविटीज खतम हो जाएँगी। पूरी दुनिया में हलचल होती है, पेड़-पौधे उगते हैं, बड़े होते हैं, फल देते हैं, इसके पीछे कोई चीज काम करती है।

मित्रो! इन परिस्थितियों में मेरा मन था कि मैं परिस्थितियों को कहाँ-से-कहाँ ले जाऊँ? इसलिए खासतौर से मैं अपना जन्म लेकर के आया कि लोगों के सामने एक सबूत पेश करूँ कि असली अध्यात्म असली ढंग से असली वृत्तियों का उदाहरण रखूँ। असली अध्यात्म मैंने इस शिविर में सिखाने की कोशिश की और नकली अध्यात्म, जो वहम के रूप में आपके दिमागों पर न जाने कब से चढ़ा हुआ है कि भगवान जी को उल्लू बनाएँगे। भगवान जी की चमचागिरी करेंगे। भगवान जी को धूपबत्ती दिखाएँगे और भगवान जी से मनोकामना पूरी कराएँगे। यह असली अध्यात्म नहीं था। यह नकली अध्यात्म था। बे-बुनियाद का अध्यात्म, बे-सिलसिले का अध्यात्म था।

असली अध्यात्म का स्वरूप

मैंने आपको असली अध्यात्म का स्वरूप समझाया। असली अध्यात्म किसी आदमी की समझ में आए। एक और असली ढंग से करे, जैसे कि मैंने किया। पूजा की कोठरी तक मेरा अध्यात्म सीमित नहीं रहा। रोम-रोम में मैंने अध्यात्म को समाया। अपनी क्रिया में, अपनी वाणी में, अपने मन में, अपने वचन में, अपने तन में आध्यात्मिकता को पूरी तरह से समा लिया, जैसे कि शराब रोम-रोम में रम जाती है। आँखों में क्या, ओंठों में क्या, पैरों में क्या, दिमाग में शराब, हर जगह छाई रहती है। इस तरीके से मैंने शराब के तरीके से राम-राम किया और उसे रोम-रोम में रमा लिया।

मित्रो! अब मेरा बड़ा जबरदस्त सही वाला अध्यात्म है। सही-असली के द्वारा न केवल भगवान जी की पूजा-पाठ करने के लिए न केवल तस्वीरें मिलाईं, बल्कि अपना व्यक्तित्व सही बनाया, जिससे भगवान की शक्तियों का आना संभव हो सके । मैंने अपने आप को धोया और अपने आप को धुना। अपने आप को धोना और अपने आप को धुनना, ताकि रँगाई ठीक से हो सके। मित्रो! यही सही अध्यात्म है, असली अध्यात्म है। असली अध्यात्म सही ढंग से असली लक्षणों द्वारा अपनाया जाए। अध्यात्म की फिलॉसफी असली होनी चाहिए—एक। उपासना का असली क्रम केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित नहीं, वरन हमारे जीवन की प्रत्येक धारा से जुड़ा हुआ होना चाहिए। असली वाला अध्यात्म पूरी तरह से निष्ठा से भरा हुआ हो, श्रद्धा से भरा हुआ हो, चरित्र से भरा हुआ हो। अगर ऐसा होगा, तो असली परिणाम आएगा।

मित्रो! मैंने आपको साफ-साफ दिखा दिया है। आपको दिखाई नहीं पड़ता चमत्कार। आप चमत्कार देखिए। लाखों लोगों को देखिए, ज्ञान की धारा को देखिए। लोग हमको चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया कहते हैं और आप पैसे का हिसाब देखेंगे? एक आश्रम पहले से बना चुके हैं और एक आश्रम यह बना रहे हैं। एक आश्रम और बनाएँगे। आपके पास अपना मकान है क्या? नहीं साहब! किराये के मकान में रहते हैं। हम तो मकान नहीं बना सके। देखिए यहाँ मकान-पर-मकान, जायदाद-पर-जायदाद बनाते जाते हैं और जो भी बनाते हैं, लाखों रुपये की बनाते हैं। आपकी तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज और आगे भी बनाएँगे।

आपके पास पैसा है? हाँ, अंधाधुंध पैसा है। प्रभाव है? हाँ, हमारे पास इतना बड़ा प्रभाव है कि हम कहीं नहीं जाते और लोग हमारे पास आते हैं। दुनिया हमारे पास आती है। यह प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता आपको। कितने आदमी आँखों में से आँसू भरे हुए आते हैं और हँसते हुए चले जाते हैं। आपको नहीं मालूम है। आपको मालूम होना चाहिए। आप अपने दुःखों को लेकर आते हैं, दरद लेकर के आते हैं, पीड़ा को लेकर के आते हैं, कठिनाइयों को लेकर के आते हैं और रोते हुए आते हैं। फिर हँसते हुए चले जाते हैं। क्या आपको चमत्कार नहीं मालूम पड़ता। बाकी ढेरों चमत्कार हैं, जो हम आपको बताना नहीं चाहते। उन्हें बताने की जरूरत नहीं है।

गुरुदेव के असली शिष्य बनिए

मित्रो! अभी मैंने आपको असली अध्यात्म का लाभ बताया। आप असली अध्यात्म अगर सीख पाए तो मजा आ जाएगा। मैं नहीं जानता कि आप में से कोई तैयार हुआ कि नहीं हुआ। मैं अब विदा हो रहा हूँ और मेरे मन में यह तमन्ना बनी रहेगी कि मैं अपने पीछे कोई नमूने छोड़ करके नहीं आया। लोग गुरुजी के बारे में बताएँगे, तो बातें केवल कहानियाँ हैं, किंवदंतियाँ हैं क्या? मैं चाहता था कि मैं चला जाता तो मेरे पीछे ऐसे आदमी बाकी रहे होते, जो यह कहते कि नहीं साहब! ये किंवदंतियाँ नहीं हैं, कहानियाँ नहीं हैं। देखिए गुरुजी भी ऐसे थे और हम भी ऐसे हैं।

मित्रो! इस बात की बड़ी जरूरत थी, इसीलिए मैंने शिविर लगाए और आपको बुलाने की कोशिश की। आप आए। विवेकानंद को तलाश करने के लिए रामकृष्ण परमहंस स्वयं उनके पास गए थे, लाखों शिष्यों में से एक के पास। शिष्यों की भीड़ लगी रहती थी। केले लाने वाले चेले, माला पहनाने वाले चेले रामकृष्ण परमहंस के पास झक मारते रहते थे और हमारे पास भी झक मारते रहते हैं; लेकिन हमको ऐसे शिष्यों की तलाश थी, जो अपने जीवन की दिशा को, धारा को बदल देने की हिम्मत दिखा सकते हों और उतना आगे चल सकते हों, जैसे कि हम अपने गुरु की राह पर चले और हमारा गुरु हमारी राह पर चला। हमारे गुरु की सारी दौलत हमारी हो गई और हमारी दौलत सब गुरु की हो गई।

मित्रो! ऐसा आदान-प्रदान, ऐसा सहयोग करने में कोई समर्थ रहा होता, तो हम धन्य हो जाते। हम तलाश में हैं कि शायद कोई ऐसा आदमी मिल जाए। हम तलाश करते रहते हैं, इस मेले में पैंठ लगाते रहते हैं और देखते रहते हैं कि कोई आदमी हमारे काम का भी है इन सब में से। बेटे, खोजते-खोजते, खोटे सिक्के फेंकते-फेंकते हमारी इतनी उम्र आ गई। हमको असली सिक्के मिल जाते, तो हम धन्य हो जाते और हम भी निहाल हो जाते। अपनी इन पीड़ाओं को ले करके, दरदों को ले करके, ख्वाहिशों को ले करके, स्वार्थों को ले करके हम ये शिविर लगाते रहते हैं और हम क्या कर सकते हैं?

हम और आप बैरी की तरह से आमने-सामने बैठे हुए हैं। कहने को तो हम गुरु-शिष्य हैं, पर वास्तव में बैरी हैं। असल में आप मानें तो सत्य में हम और आप एक-दूसरे के बैरी हैं। बाहर से दिखाई पड़ते हैं कि गुरु-शिष्य हैं । पैर भी छूते हैं, पर एकदूसरे को काटना चाहते हैं। हमारा तप और हमारा पुण्य जो किसी अच्छे काम में खरच हो सकता था, वह न हो और आपकी ख्वाहिशों में खरच हो जाए।

मित्रो! आप यही चाहते हैं न? हाँ साहब! यही चाहते हैं। तो बस, इसका मतलब यह हो गया कि आप हमको काटना चाहते हैं। हमारे पुण्य का लाभ जो हमको मिलना चाहिए था, वह आप लेना चाहते हैं। हाँ साहब! गुरुजी! आप तो भूखे रहिए, पर हमको मिठाई खिलाइए। हम समझ गए आपकी बात कि आप हमको काटना चाहते हैं। उन लोगों को काटना चाहते हैं, जिनकी जीवात्मा में शक्ति की जरूरत है। आप अपनी भौतिक कामनाओं के लिए उन लोगों को मारना चाहते हैं, जो बेचारे दु:खी हैं। जिनको सहायता की आवश्यकता है। आप अपने सुखों के लिए, अपनी संपत्ति के लिए, अपनी तरक्की के लिए, अपना पैसा बढ़ाने के लिए, मालदारी के लिए हमको काटना चाहते हैं और उन लोगों को अपने हक से महरूम रखना चाहते हैं, जो आज दुःखों में, कष्टों में डूबे हुए हैं।

आपका मतलब यही है न! हाँ साहब! यही है। तो बस ठीक है, आप हमको काटने के लिए आए हैं, हम जानते हैं और बेटे, हम भी आपको काटने के लिए खड़े हुए हैं, अगर हमारा लग गया दाँव। दाँव तो नहीं लगता। शतरंज बिछी हुई है। आप हमारा काटिए गुलाम और हम आपकी काटेंगे बेगम। दोनों की चाल बिछी हुई है। हम दोनों एक-दूसरे के ऊपर मार करने और घात लगाने के लिए बैठे हुए हैं।

मित्रो! हमारा कहीं दाँव लगे तो हम आपको ऐसा पलटा मारें कि आपको भी नानी याद आ जाए। गुरुजी से क्या माँगने गए थे। हमारे गुरु ने ऐसा पलटा मारा कि हमारा सब कुछ छीन लिया। हमें भिखारी बना दिया। बेटे, हमारे घर की जायदाद छीन ली, खेती-बारी छीन ली। हमारी अक्ल छीन ली और हम भिखारी के तरीके से शरीर पर जो कपड़े पहने बैठे हैं और जो अपने पेट में खा लें, इसके अलावा कुछ नहीं है। कंगाल हैं। हमसे बड़ा कंगाल दुनिया में कोई नहीं हो सकता। जिसके पास अपना कहने के लायक अपना शरीर भी नहीं है, इसकी भी वसीयत की हुई है। हमारे गुरु ने सब ले लिया और हमको खाली कर दिया। हमारा दिवाला निकाल दिया और हमको बिकवा दिया।

हमसे जुड़िए और धन्य बनिए

अगर हमारा मौका लगे तो हम आपको सही कहते हैं, अगर हमारी घात चल जाए आपके ऊपर तो हम आपको मार सकते हैं, पर क्या कर सकते हैं, आप तो बड़े होशियार हैं। आप तो अपनी कौड़ी अलग रखते हैं। गुरुजी! हमारे पास मत आइए, दूर ही रहिए। हम आपको समझते हैं। यदि हम आपको बीज के तरीके से गला दें और आप वृक्ष के तरीके से उगें, तब आपके ऊपर पत्तों का, फूलों का और फलों का ऐसा अंबार लगे कि हम देखने वाले भी धन्य हो जाएँ, पर आप तो बीज के तरीके से गलने को तैयार ही नहीं हैं। हमारे और आपके बीच में रस्साकशी बनी हुई है। काश! यह रस्साकशी खतम हो जाती, तो हमारा शिविर सार्थक हो जाता।

मित्रो! अंधे और पंगे के तरीके से हमने अपना तरीका अख्तियार कर लिया होता तो मजा आ जाता। एक अंधा और एक पंगा था। अंधे की नहीं थीं आँखें और पंगे की नहीं थीं टाँगें। बेटे, हमारे पास अध्यात्म बल है, लेकिन सांसारिक बल और भौतिक बल नहीं है। हम अकेले असहाय के तरीके से बैठे रहते हैं। अगर हमारा पेअर, आपका और हमारा मिल जाता तो मजा आ जाता हमारी जिंदगी में। पंगे ने अंधे के ऊपर सवारी की और पंगे ने रास्ता बताया। बस, अंधे-पंगे दोनों एक साथ चले और पार हो गए। हम भी पार हो सकते थे. अगर हनुमान और राम के तरीके से हम और आप मिल जाते। हनुमान की भौतिक शक्ति और राम की आध्यात्मिक शक्ति। अर्जुन और कृष्ण के तरीके से हम और आप मिल जाते । गाँधी और जवाहर के तरीके से हम और आप मिल जाते । बुद्ध और अशोक के तरीके से हम और आप मिल जाते। ईसा और सेंट पॉल के तरीके से हम और आप मिल जाते। समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी की तरह हम और आप मिल जाते। चाणक्य और चंद्रगुप्त के तरीके से हम और आप मिल जाते। मित्रो! फिर कितना शानदार योग बनता और हम धन्य हो जाते। हमारे शिविर कितने सार्थक हो जाते और हमारे कार्य सफल हो जाते।

मित्रो! आप अपनी शक्ति की भावना हमको दे देते और हम अपने ज्ञान की भावना आपको दे देते, तो दोनों का ही उद्धार हो जाता, दोनों का ही कल्याण हो जाता। अंधे और पंगे के निशान बनाकर चलते। बेटे, मुश्किल मालूम पड़ता है हमें। अब हम कुछ उम्मीदें लगाते नहीं हैं। बड़ी निराशा के साथ, बड़ी मायूसी के साथ बात कर रहे हैं। मालूम नहीं, इसका कुछ परिणाम होगा भी या नहीं। अगर कुछ हुआ तो आपके लिए भी आना सार्थक और हमारे लिए भी बुलाना सार्थक। अगर आपने अपने भीतर कायाकल्प किया, विचार करने की नई शैली अख्तियार की और भावी जीवन की धारा में कोई नया कायाकल्प किया, तो यह शिविर धन्य हो जाएगा और धन्य हो जाएँगे हम और धन्य हो जाएँगे आप। आज की बात समाप्त करते हैं बड़ी शुभकामनाओं के साथ, बड़े प्रेम और मुहब्बत के साथ और यह अपेक्षा करते हुए कि शायद आपकी प्रार्थना सुन करके हम कुछ करने का प्रयास करेंगे। हम आपकी सुनेंगे, लेकिन आप भी हमारी प्रार्थना कुछ सुनने की कोशिश कीजिए, अपने आप का कायाकल्प करने के रूप में। तभी सब सार्थक होगा।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥