महिला जागरण दिशा और धारा

अनुक्रमणिका

१.     नारी की सनातन गरिमा
२.     नारी की क्षमता का सदुपयोग हो
३.     नारी उत्थान सबसे बड़ी आवश्यकता
४.     कुरीतियों के कुचक्र से बचें
५.     समाधान के लिए ठोस प्रयास हों
६.     उत्कर्ष के लिए स्वयं आगे बढ़ें
७.     नारी रचनात्मक मोर्चे पर भी डट जाए

१. नारी की सनातन गरिमा

नारी आज जिस स्थिति में रह रही है, उसे अच्छा नहीं समझा जा सकता, यह बात सभी स्वीकार करते हैं। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी की स्थिति और स्तर बदलने की आवाज इसीलिए उठाई जा रही है और हर समझदार व्यक्ति इसका समर्थन कर रहा है। फिर भी कुछ परम्परावादी यह आग्रह करते हैं कि नारी की वर्तमान स्थिति को बदला न जाए। इस सम्बन्ध में उनका तर्क यह होता है कि हमारे पूर्व पुरुष अधिक समझदार थे। उन्होंने जो नियम तथा मर्यादाएँ बनाई हैं, उन्हें बदलना उनका अपमान करने जैसा है। कुछ की तो आस्था इस विषय में इतनी अधिक है कि इन रूढ़ियों को ही वे धर्म-मर्यादाएँ मानते हैं और उनमें सुधार करना उन्हें धर्म विरुद्ध लगता है।

ऐसा कहने वाले व्यक्ति यदि सचमुच पूर्वजों के प्रति सम्मान तथा धर्म के प्रति आस्था रखकर ऐसा करते हैं, तो उनकी भावना का आदर किया जा सकता है। किन्तु उनसे एक विनम्र निवेदन करना उचित लगता है—वह यह कि वे सही अर्थों में अपने पूर्वजों के आदर्श तथा धर्म का स्वरूप समझने के लिए कुछ सौ वर्ष की परम्पराओं तक ही सीमित न रह जाएँ। भारत के उस गौरवमय अतीत का भी अध्ययन करें, जब यह देश विश्व-गुरु का सम्मान पाए हुए था।

यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिए—वह है सिद्धान्तों, आदर्शों तथा प्रथाओं-परम्पराओं का अन्तर। नैतिक आदर्शों तथा श्रेष्ठ सिद्धान्तों को ही सनातन माना जाता है। आत्मसंयम, कर्तव्यपालन, लोकहित की भावना, जैसे उच्च आदर्शों को ही न बदले जाने योग्य धर्म-सिद्धान्त कह सकते हैं। उन्हीं के पालन के लिए लोगों पर दबाव डालना उचित हो सकता है। खाने-पीने, उठने-बैठने जैसे मोटे नियम तो बराबर बदलते ही रहते हैं।

यदि अपने पूर्वकाल और आज की स्थिति के बीच हम इन स्थूल नियमों के आधार पर ही विचार करें, तब तो उनमें जमीन-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। उस समय के खान-पान, रहन सहन, मकान और आने-जाने के साधनों में भारी अन्तर पड़ गया है। हजारों वर्ष पुरानी बात छोड़कर यदि कुछ सौ वर्ष पहले की स्थिति देखें तो पता पड़ता है कि बिजली, रेल, मोटर, डाक, तार, घड़ी, चश्मा, फाउण्टेन पैन आदि का अता-पता भी नहीं था। उनके बिना ही सारा काम चलता था। जिन साधनों से पहले काम चलता था, अब वे प्रयोग में नहीं आते। नई सुविधाजनक वस्तुओं का विरोध कोई इसलिए नहीं करता है कि उन्हें पूर्वज प्रयोग नहीं करते थे, तो अब हम क्यों करें? ठण्ढक के दिनों में जो कपड़े पहने जाते हैं, उन्हें गरमी के दिनों में कोई नहीं पहनता। इसी प्रकार गरमी के हलके कपड़े सरदी में काम नहीं देते, इस परिवर्तन का कोई विरोध नहीं करता। सरदी के दिनों में मोटे कपड़े पहने जाते थे और बन्द घरों में सोया जाता था, इस प्रचलन को क्यों तोड़ें? यह तर्क देकर कोई गरमी में भी ऊनी कपड़े पहनने और बन्द घर में सोने का आग्रह नहीं करता। बच्चे जिन कपड़ों को पहनते हैं, बड़े होने पर उनसे काम नहीं चलता। बचपन के कपड़े उसी को ही आजीवन पहने रहने का आग्रह इस आधार पर नहीं किया जाता कि हमारे पूज्य पिता जी ने जो पोशाक सिलवाई थी, वह बड़ी आयु में भी काम देनी चाहिए।

केवल पुरानी होने के आधार पर किसी चीज को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता। पुरानी रस-भस्में अच्छी मानी जा सकती हैं, पर दस साल पुराना घी खाने के लिए कोई तैयार न होगा। पुराने कपड़े, पुराने जूते, पुराने मकान—नए की तुलना में घटिया माने जाते हैं। प्रश्न उपयोगिता का है, नए पुराने का नहीं। यदि पुरानापन ही श्रेष्ठता का चिह्न रहा होता तो कबाड़ियों की दुकान पर बिकने वाली फटी-पुरानी चीजें नई की तुलना में अधिक मूल्यवान ही होती। हमारा आग्रह नए पुराने का नहीं होना चाहिए, उपयोगिता को ही महत्व देना चाहिए। यह सही है कि बच्चे की तुलना में बूढ़े समझदार होते हैं, पर यह भी गलत नहीं है कि सरकारी भरती में नौजवान ही चुने जाते हैं और बूढ़े रिटायर कर दिए जाते हैं। आज की स्थिति में जो उपयोगी है हमें उसी बात का बुद्धिमत्तापूर्ण चुनाव करना चाहिए।

फिर भी यदि परम्पराओं पर ही दृष्टि डालनी है तो यह कार्य भी समझदारी से किया जाए। पिछले हजार वर्षों में तो हमारे राष्ट्र का पतन ही हुआ है। वह अन्धकार युग था, उन दिनों की परम्पराएँ अनुकरण के योग्य नहीं कही जा सकतीं। अपने गौरवमय अतीत से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है। नारी के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। नारी के सम्बन्ध में उस समय की मान्यताओं को देखें-समझें तो पता पड़ता है कि पुरुष की अपेक्षा नारी कम नहीं, अधिक सम्मान योग्य ही समझी जाती रही है। पुराने धर्मशास्त्रों को देखने से पता पड़ता है कि अपने ऋषियों-तत्त्वदर्शियों ने उसे मूर्तिमान देवी की तरह पूज्य माना है। प्राणिमात्र जिसकी गोद में पलता है उस मातृशक्ति के आगे नमस्तस्यै-नमस्तस्यै कहते हुए बार-बार मस्तक झुकाया है।

नारी और नर दोनों मनुष्य जाति के समान अंग होने के नाते समान अधिकार तथा समान सम्मान के अधिकारी हैं। किन्तु यदि यह मानकर चला जाए कि समाज के हर वर्ग में कुछ न कुछ अन्तर तो होता ही है, तो वरिष्ठता नर की अपेक्षा नारी के पक्ष में ही जाती है। भारतीय संस्कृति में नारी को आदिशक्ति—परा प्रकृति की प्रतीक माना गया है। उसे मानवी नहीं, देवी कहा जाता है। भगवान मनु का कहना है—'यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं के निवास स्वर्ग जैसा वातावरण रहता है। पूजा का अर्थ यहाँ उसे श्रेष्ठ मानकर सम्मान देते रहने और सन्तुष्ट रखने से ही है।

नारी मनुष्य को जन्म देती है। क्या पुरुष, क्या स्त्री—मनुष्य जाति के दोनों ही पक्ष नारी के उदर से उत्पन्न होते हैं। उसी का दूध और स्नेहपान करके जीवित रहते हैं। सुरक्षा, सुशिक्षा, स्नेह, दुलार, माता से प्राप्त करने के साथ-साथ ही बच्चे का जीवन प्रारम्भ होता है। माँ से, नारी से यह अनुदान न मिले तो, शरीर का जीवित रहना और मन का विकसित होना सम्भव नहीं। माता, पत्नी, बहन और बेटी के दिव्य अनुदान पाकर ही मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनता है। पाने वाले की अपेक्षा देने वाले का पद बड़ा है। उपहार पाकर कोई अपने सौभाग्य को सराह तो सकता है, पर उस दाता की बराबरी नहीं कर सकता, जिसने अपना स्नेह उड़ेलकर, खून-पसीना एक करके हमें पाला-पोसा और सजाया-सँवारा है। माता हो या पत्नी, दोनों स्वरूप में नारी आदि से अन्त तक अनुदानों से भरी है। बहन और बेटी मनुष्य जीवन में पवित्र प्रेरणा का प्रवाह सदा से पैदा करती रही हैं। उनसे अधिक पवित्रता, स्नेह और ममता का बोध शायद ही कहीं और दीख पड़े। उनकी समीपता से, सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी कवि-कलाकार जैसी भावभरी मनोभूमि में पहुँच जाता है। गंगा और नर्मदा के दर्शन से लोगों के हृदय में श्रद्धा भावना उमड़ती होगी, किन्तु उससे अनेक गुनी अधिक भावना, अपनी बहन-बेटी की समीपता से सहज ही फूट पड़ती है। उनमें मनुष्य को फूल जैसी निश्चलता और बरफ जैसी शीतलता मिलती है। कला और पवित्रता का ऐसा उच्चतम उद्गम देखना हो तो बहन-बेटी को ही गंगोत्तरी-यमुनोत्तरी के रूप में मानकर देखा जा सकता है।

नारी के स्वभाव में ही, पाना कम और देना अधिक है। पसीने के रूप में श्रम और सेवा से लेकर, दूध और भाव अनुदान तक उसका देने तक का क्रम बराबर चलता रहता है, कोई उसको माने या न माने। स्वभाव से ही नारी में दया, करुणा, ममता, सेवा, सद्भावना, उदारता, आत्मीयता जैसी देववृत्तियाँ अधिक मात्रा में रहती हैं। पाप, अपराध, स्वार्थ और क्रूर कर्मों में उसका हिस्सा नहीं के बराबर ही रहता है। निष्ठुर-नृशंसता के कामों में तो नर ही आगे रहता है। नारी को दैवी वृत्ति जन्म से ही दिव्य वरदान के रूप में मिली है। इसीलिए उसे देवी शब्द का सम्बोधन दिया जाना हर तरह से उचित है। पुष्पा देवी, सीता देवी, शान्ति देवी, कमला देवी आदि नामों में नारी के लिए देवी शब्द सार्थक ही प्रयुक्त होता रहा है।

स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्रता है, कला है और वह सब कुछ है जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य के रूप में दृष्टिगोचर होता है। रामकृष्ण परमहंस की दृष्टि से नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है, ऋद्धि है और वह सब कुछ है जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, कष्टों और संकटों का निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जा सके तो वह सोमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है।

कवीन्द्र रवीन्द्र की दृष्टि में नारी स्रष्टा की सर्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, ममत्व, प्रेम आदि अनुदानों की अमृतधाराएँ उसी के अन्त:करण से निकलकर, इस संसार को जीवनदान दे रही हैं।

मध्यकाल में वह श्रेष्ठ चिन्तन समाप्त सा ही हो गया। यह अन्धकार युग था, जिसमें सामन्तों का बोलबाला रहा। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का मत्स्यन्याय, जंगल का कानून मनुष्य समाज में भी चल पड़ा। मध्यकालीन अनाचार मनुष्य जाति के मुँह पर पुता हुआ कलंक है। उस समय में लगभग सभी क्षेत्रों में भ्रष्ट परम्पराओं ने जड़ जमा ली थीं। उन्हीं दुर्दिनों की देन है कि नारी देवी को सिंहासन से उतारकर कैदियों से भी गई-गुजरी हालत में पहुँचा दी गई। पददलित और प्रतिबन्धित स्थिति के गर्त में वह जा गिरी।

नारी पर बन्धन उन दिनों लगाए गए थे, जब अनाचारी शासक प्रजा का धन ही नहीं लूटते थे, वरन बहू-बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं रहने देते थे। उन दिनों आत्मरक्षा के लिए यही उचित समझा गया था कि स्त्रियाँ घर से बाहर न निकलें, घूँघट मारकर रहें ताकि उनके रूप-सौन्दर्य का लुटेरों को पता ही न चले और कोई संकट खड़ा न होने पावे। छोटी उम्र में लड़कियों के विवाह की प्रथा भी उन्हीं दिनों चली। युवावस्था आने से पहले ही वे घर-गृहस्थी वाली बन जाती थीं। इससे उनका स्वास्थ्य तो बिगड़ता था, पर किसी प्रकार प्राण तो बच जाते थे। उन दिनों आपत्ति धर्म के रूप में इस तरह की प्रथाएँ आरम्भ की गई थीं। निस्सन्देह उस समय यह आरम्भ बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का प्रतीक था, पर आज तो वैसी विपत्ति नहीं, फिर हम क्यों उसी लकीर के फकीर बने रहें और क्यों नुकसान उठाते रहें? किसी समय सामन्तों-नवाबों में बड़ी संख्या में औरतें-रखैलें रखने की होड़ चल पड़ी थी। स्त्रियों से अन्त:पुर भरे रहते थे। उनमें असन्तोष और विद्रोह के भाव उठते थे। उन्हें दबाए रहने के लिए वे लोग स्त्रियों पर कैदियों जैसे प्रतिबन्ध लगाते रहे होंगे। पर आज तो वैसी अनीति का अस्तित्व रह नहीं गया है, फिर उन घृणास्पद बन्धनों में नारी को जकड़े रहने की आवश्यकता क्यों समझी जाए? अरब के रेगिस्तान में उड़ने वाले सूखे रेत से आँखों की रक्षा करने के लिए बुरका ओढ़े रहने का औचित्य हो सकता है, पर अपने यहाँ वैसी कोई कठिनाई नहीं, फिर मुँह पर नकाब ओढ़ने की जरूरत किसलिए मानी जाए? भारतीय समाज में, नारी के प्रति उच्च भावना और उच्च मान्यताएँ सदा से रही हैं। यहाँ नारी मात्र को अभी भी माता-बहन की पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे वातावरण में भूखे भेड़ियों से उनके शील की रक्षा के लिए परदा ओढ़ने की आवश्यकता किस आधार पर अनुभव की जानी चाहिए? यह प्रथा भारतीय पुरुष समाज पर गहरा लांछन है कि उनकी बहनों और बेटियों को परदा ओढ़कर किसी तरह अपना शील बचाना पड़ता है। इस कलंक को जितनी जल्दी धो डाला जाए उतना ही अच्छा है। परम्पराएँ वे ही स्वीकार की जानी चाहिए, जो अपने समय की परिस्थितियों से मेल खाती हों और औचित्य एवं उपयोगिता की कसौटी पर खरी उतरती हों।

परम्पराओं को ही देखना हो तो उस युग को देखना चाहिए जिनकी गौरव-गरिमा से आज भी हमारा मस्तक ऊँचा हो जाता है। जिन दिनों अपना देश देवमानवों-नररत्नों की खदान था। जिन दिनों अपना देश ज्ञानक्षेत्र में जगद्गुरु, शक्तिक्षेत्र में चक्रवर्ती और अर्थक्षेत्र में सोने की चिड़िया कहा जाता था। उन दिनों उसकी परम्पराएँ भी महान थी। वे ऐसी थीं जिनका अनुकरण करके सारा संसार, समस्त मानव समाज धन्य बनता था। उन दिनों नारी पैर की जूती नहीं थी वरन् प्रतिष्ठा के उच्च सिंहासन पर विराजमान थी। उसकी श्रेष्ठता के आगे सर्वत्र मस्तक झुकाया जाता था। यह उचित भी था। माता के चरणों में हर किसी की भावभरी श्रद्धा अर्पित होनी ही चाहिए। पुत्री और बहन के प्रति मनुष्य की तो पवित्र भावना ही उमड़ेगी। दाम्पत्य जीवन राम-भरत जैसी अगाध आत्मीयता से भरा-पूरा होना चाहिए। नारी को बनाते समय उसमें उच्चस्तरीय भावना और आदर्शवादिता कूट-कूटकर भरी गई है। इस तथ्य को और किसी ने समझा हो या न समझा हो, किन्तु भारत के ऋषिपुत्रों ने अवश्य समझा है। इसीलिए यहाँ नारी को हर स्तर पर श्रेष्ठतम सम्मान दिया जाता रहा है।

तीन प्रत्यक्ष देवताओं में माता, पिता और गुरु का उल्लेख होता है। उन्हें क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है। सृजनकर्ती माता, पोषणदाता पिता और अज्ञानहर्ता गुरु अपने लोक के ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। उनमें प्रथम माता को माना गया है। दशरथ द्वारा राम को वनवास दिए जाने पर माता कौशल्या राम से कहती हैं कि पिता से माता बड़ी है, इसलिए उनकी आज्ञा उल्लंघन करके भी तुम मेरी आज्ञा मानकर रुक सकते हो।

जौ केवल पितु आयसु ताता।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।

राम द्वारा लोकमंगल की पूर्ति हो सके इसलिए उन्होंने उन्हें रोका नहीं, किन्तु इससे उनकी श्रेष्ठता कम नहीं होती बढ़ती ही है।

नारी को प्रथम सम्मान और इतना महत्त्व अकारण नहीं दिया गया था। घर की देहरी से बाहर न निकल सकने वाली, घूँघट से मुँह न निकाल सकने वाली, अशिक्षित, दीन स्थिति में नारी को यह गौरवमय पद नहीं मिल सकता था। उन दिनों वह हर क्षेत्र में आगे रहती थी। वह न तो अयोग्य थी और न उस पर प्रतिबन्ध ही थे। भगवान को धरती पर अवतार लेने के लिए विवश करने वाली तपश्चर्या में पहली भूमिका शतरूपा की थी। पौराणिक उपाख्यानों के आधार पर शतरूपा के आग्रह से सहमत होकर मनु भी तपश्चर्या में पत्नी सहित संलग्न हुए थे। तप सफल हुआ। शतरूपा जी कौशल्या बनी और भगवान रामरूप में उनकी गोदी में खेले। इसी प्रकार अदिति के आग्रह से महर्षि कश्यप ने भगवान के अवतरण के लिए तप किया। अदिति यशोदा बनीं और उन्हें, यह विश्व बनाने वाले भगवान को जन्म देने का श्रेय मिला। राम और कृष्ण बड़े हैं, उनकी भगवान के रूप में मान्यता भी है। पर जिनकी कोख में उनने पैर पसारे, जिनका दूध पिया, जिनका संरक्षण और दुलार पाकर बड़े हुए, उन माताओं का गौरव उनसे कुछ कम नहीं।

तपस्या के हर क्षेत्र में नारी को प्रवेश का अधिकार रहा है और उनकी उपलब्धियाँ भी किसी से कम नहीं रही हैं। भगीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने की कथा सर्वविदित है परन्तु यह उपाख्यान कम ही लोगों को मालूम है कि ठीक उसी प्रकार का तप करके अत्रि पत्नी अनुसूया ने चित्रकूट के समीप बहने वाली मन्दाकिनी नदी को अवतरित किया था। रामायण में इस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार मिलता है—

नदी पुनीत पुराण बखानी।
अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।
सुरसरि धार नाम मन्दाकिनि।
जो सब पातक पोतक डाकिनि॥

इन्हीं तपस्विनी अनुसूया की गोद में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का बालक बनकर खेलना पुराण साहित्य की प्रसिद्ध कथा है।

तप की तरह ज्ञान के क्षेत्र में भी नारी अनादि काल से नर के समान ही रही है। अनेक वेदमंत्रों के अवतरण में ऋषियों के ही नहीं ऋषिकाओं के भी नाम मिलते हैं। ऋषिपद नर एवं नारी को समान रूप से प्राप्त होता था। वेद ऋचाओं की द्रष्टा के रूप में भी विश्ववारा, गोधा, सरमा, घोषा, अपाला, यमी, अदिति, लोपामुद्रा, शची आदि का बड़ा सम्मानपूर्ण स्थान है। यही नहीं, सर्वोच्च सप्तऋषि पद तक भी नारी की गति थी। अरुन्धती का सप्तऋषि पद पाना सर्वविदित है।

आज इन सब तथ्यों को भुलाकर नारी को वेदमंत्रों के पाठ तक का अधिकारी नहीं माना जाता। कैसे दुःख और आश्चर्य की बात है कि रूढ़िवादिता के पक्षपाती व्यक्तियों की समझ में यह छोटी सी बात भी नहीं आती, कि जब नारियाँ वेदमंत्रों की स्रष्टा हो सकती हैं तो उन्हें पढ़ने का अनधिकारी कैसे कहा जा सकता है?

ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में तो नर-नारी का भेद करना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। परब्रह्म—आदि सत्ता, नर नारी के भेद से परे है। उसे उस अव्यक्त रूप में मनुष्य की बुद्धि समझ नहीं पाती। प्राणी उसे समझ सके, इस दृष्टि से जब उसने स्वयं को व्यक्त किया तो दोनों ही रूपों में समान रूप से व्यक्त किया है। उसे परम पुरुष—परमात्मा कहा जाता है तो आदिशक्ति—आदिचेतना भी कहा जाता है। पुरुष और प्रकृति के नामों से भी उसे जाना-समझा जाता है। दोनों के पीछे तत्त्व एक ही है, केवल नाम भेद है।

सृष्टि निर्माण की व्याख्या के साथ भी यही तथ्य जुड़ा हुआ है। ईश्वर की प्रकृति ने उसे 'एकोऽहं बहुस्यामि' के लिए, एक से अनेक होने के लिए बाध्य कर दिया। ब्रह्म की इच्छा अथवा आदि चेतना में संकल्प उठने के प्रसंग से सृष्टि निर्माण के पीछे नर और नारी दोनों ही रूपों की समान महत्ता बतलाई गई है। पुराणों में लिखा है कि ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के पहले महाशक्ति गायत्री की उपासना की थी। उससे प्राप्त शक्ति द्वारा ही उन्हें प्रजापति कहलाने का अवसर मिला। अन्य देवशक्तियों-देवताओं के सन्दर्भ में भी यही बात सामने आती है। लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, सीताराम, राधेश्याम आदि में पहले नारी का पीछे नर का नाम आता है।

भारतीय धर्म—संस्कृति का स्रोत गायत्री है। आगम और निगम का सारा ज्ञान-विज्ञान इसी से उत्पन्न हुआ है। अनादि काल से गुरुमंत्र तथा प्रधान उपास्य गायत्री को ही माना जाता है। भारतीय धर्म के प्रतीक शिखा और सूत्र का प्राण यही है। बाद में अनेक उपासनाएँ चल पड़ने पर भी, यह मान्यता सभी की है कि बिना गायत्री के कोई भी उपासना सफल नहीं होती। आदि ज्ञान के प्रतीक चारों वेद भी गायत्री के चार चरणों की व्याख्या के रूप में बने। स्पष्ट है कि महाशक्ति गायत्री के रूप में नारी विग्रह को पूज्य घोषित किया गया है। गायत्री महाशक्ति की इस महिमा में भारतीय संस्कृति एवं तत्त्वज्ञान की आत्मा की झलक है।

किसी भी पक्ष से विचार करें, बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है, जहाँ परब्रह्म को ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन रूपों में व्यक्त किया गया है। वहाँ आदिशक्ति महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली के रूपों में व्यक्त होती हैं। देवस्थलों की तुलना में शक्तिपीठ कम नहीं हैं। देवरूप में उपासना करने वालों की अपेक्षा देवीरूप को प्रधानता देने वाले अधिक ही होंगे। पुराणों में जहाँ कहीं भी देवासुर संग्राम का वर्णन आता है, वहाँ यही तथ्य मिलता है कि देवताओं के पराजित होने पर देवी शक्ति, किसी न किसी रूप में सामने में आकर उन्हें विजयी बनाती है।

इन सब प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि नारी को किसी भी क्षेत्र में अनधिकारी ठहराना हमारी भूल ही है। यह गलत मान्यता हमारी प्रगति में रुकावट ही डालती रहेगी। जब हमारा देश हर दिशा में आदर्श माना जाता था उन दिनों नारी आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र थी और उसने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता और उपयोगिता की धाक जमा रखी थी। इसके ढेरों उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं।

महर्षि पुलोमा की पुत्री शची महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में रहकर ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण बनी। उसकी साधना तथा प्रतिभा से प्रभावित होकर देवराज इन्द्र उसे माँगने के लिए पुलोमा के द्वार पर पहुँचे। वही ऋषिकन्या शची आगे चलकर इन्द्राणी बनी।

कुन्ती ने अपनी तपश्चर्या से देवशक्तियों को आकर्षित करके दिव्य विभूति सम्पन्न सन्तानें उत्पन्न की थीं। सूर्य की शक्ति से कर्ण, इन्द्र की शक्ति से अर्जुन और वायु की शक्ति से महाबली भीम जैसे देवमानवों का सृजन करना भारतीय ललनाओं के लिए कुछ कठिन न था। देवी अंजनी ने भी इसी प्रकार समुद्र लाँघने वाले पवनपुत्र हनुमान की जननी बनने का गौरव प्राप्त किया था।

मनु को अपने बाजपेय यज्ञ के लिए उपयुक्त पुरोहित न मिला तो उन्होंने उस काल की महान मनीषी अपनी पुत्री इला को यज्ञाचार्य नियुक्त करके उस अनुष्ठान को सम्पन्न कराया था।

ऋषि काशीवान की पुत्री घोषा ने दुर्भिक्ष को समाप्त करने के लिए तप किया था और पानी बरसाकर अकाल शान्त कर दिया था। कुरूप अपाला को जब पति ने त्याग दिया तो वह अपने पिता कण्व के आश्रम में लौट आई और निरर्थक गृहस्थ जंजाल से मुक्ति पाने पर प्रसन्नता व्यक्त करती हुई ज्ञान साधना में लग गई। उसने उच्चस्तरीय वैदिक सम्मेलन का सृजन कर दिखाया। देवी मयन्ता ने युवावस्था में वैधव्य के दुःख को सहन करते हुए पति का स्मारक विद्वान पुत्र के रूप में बनाया। ऋषि दीर्घतमा अपनी माता मयन्ता द्वारा ही विद्याध्ययन करके महापण्डित बने थे।

राजा जनक के दरबार में महाविदुषी गार्गी और महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। उस विवाद में महर्षि सिटपिटाने लगे और क्रोध में आकर उन्हें शाप देने पर उतारू हो गए। उन दिनों गार्गी के समतुल्य विदग्धा, उद्यालिका, बोचावन्ती, अनुसूया, गौतमी, यमी, सूर्या आदि विदुषियाँ भी प्रख्यात थीं।

ऋषि शाण्डिल्य की पुत्री श्रीवन्ती ने अत्यन्त कठोर तप करके सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। महाभारत शान्ति पर्व में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिसने शास्त्रार्थ में राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के दाँत खट्टे कर दिए थे। भागवत में स्वधा की पुत्री वपुना का, धारिणी का वर्णन है, वे ब्रह्मविद्या में अद्वितीय थीं।

आद्य शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ में देवी भारती निर्णायक बनी थी। उनकी विद्वत्ता दोनों ही विद्वानों ने स्वीकार की थी।

देवी उशिज ने अपने पुत्र काशीवान को अपने ही संरक्षण में न केवल विद्वान वरन योग विद्या में कुशल भी बनाया था। महर्षि पंचशिखा ने योगशास्त्र पर कई ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें उल्लेख है कि यह ज्ञान उन्होंने अपनी माता सुलभा से पाया था।

दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान भास्कराचार्य की लिखी 'सिद्धान्त शिरोमणि' पुस्तक के उत्तरार्द्ध की रचना उनकी पुत्री लीला द्वारा की गई। यह सिद्धान्त आज भी अकाट्य सिद्ध होते हैं।

नारी की यह गौरवगाथा माता एवं पुत्री अथवा अविवाहित साधिकाओं के रूप में ही नहीं, धर्मपत्नियों के रूप में भी मिलती है। आदर्शवादी नारियाँ भोग-विलास, सुविधा अथवा अपने संरक्षण के लिए विवाह नहीं करती थीं, उनका उद्देश्य अपने पतियों के महान कार्यों में हाथ बँटाना भी होता था। सुविधा को लात मारकर अपना जीवन आदर्शों की पूर्ति के लिए किन्हीं सुयोग्य विद्वानों-कलाकारों के हाथ में अपने को सौंप देने का त्याग-बलिदान भी उन्होंने समय-समय पर प्रस्तुत किया है।

महर्षि याज्ञवल्क्य की द्वितीय पत्नी मैत्रेयी सांसारिक सुख के लिए नहीं, विशुद्ध आत्मसाधना के लिए ही उनकी सहधर्मिणी बनी थीं। सांसारिक सुखेच्छा के बारे में महर्षि ने जब भी उनसे पूछा, वे उनसे स्पष्ट इनकार करती रहीं। राजकुमारी सुकन्या ने अन्धे और अतिवृद्ध च्यवन ऋषि से केवल इसीलिए विवाह किया था कि वे उनकी तपस्या के लिए आवश्यक साधन जुटाने में सहायता कर सकें। सावित्री राजा अश्वपति की प्राणप्रिय, विदुषी एवं रूपवती पुत्री थी। उन्होंने वनवासी, अति निर्धन सत्यवान से इसीलिए विवाह किया कि उसके वनौषधि शोधकार्य में सहायक होकर लोकमंगल के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें।

विद्वान कैयट को अपने ग्रन्थ लेखन-कार्य में लगे रहने देने के लिए उनकी पत्नी भामती मूँज की रस्सी बँटती थीं। उस श्रम से जो उपार्जन होता उसी से वे अपना और पतिदेव के निर्वाह का साधन जुटाती थीं। साध्वी पत्नी की इस सेवा-साधना के प्रति कृतज्ञता स्वरूप कैयट ने अपनी संस्कृत टीकाओं का नाम भामती रख दिया।

पतियों को सुयोग्य बनाने और सन्मार्ग पर लाने की भूमिका निभाने में नारी कभी पीछे नहीं रही। पत्नी का धर्म पति का हित साधन करना है। यदि पति सही मार्ग पर है, आदर्श पर चल रहा है, तो उसका समर्थन और सहयोग करने में ही दोनों का हित है। परन्तु यदि पति सही मार्ग पर बढ़ने में झिझकता है अथवा गलत मार्ग पर चलता है, तो फिर बात दूसरी हो जाती है। फिर पत्नी का धर्म पति का समर्थन नहीं उसे सही दिशा देना हो जाता है। भारतीय नारी अपनी इस तेजस्विता का परिचय भी हमेशा देती आई है।

विदुषी विद्योत्तमा का विवाह अशिक्षित कालिदास से हो गया। कालिदास अपनी योग्यता बढ़ाने का महत्त्व ही नहीं समझते थे। विद्योत्तमा ने पहले तो उन्हें उत्तेजित करके ज्ञान के प्रति उनमें लगन पैदा कर दी और फिर उनके अध्ययन की उच्चस्तरीय व्यवस्था बना दी। इसी का फल था कि निरक्षर कालिदास महाकवि कालिदास बन गए। इसी प्रकार रत्नावली ने अपनी सुख-सुविधा को महत्त्व न देकर तुलसीदास जी की प्रतिभा को कामुकता की ओर से मोड़कर ईश्वर भक्ति की ओर कर दिया। यह रत्नावली का सत्साहस ही था जिसने समाज को तुलसी जैसा संत और 'रामचरितमानस' जैसा ग्रन्थ उपलब्ध कराया।

पत्नी के रूप में नारी की तेजस्विता के अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने कुमार्गगामी पतियों का डटकर विरोध भी किया है। मन्दोदरी का कहना रावण माना तो नहीं, पर वह निर्भीकतापूर्वक उसका विरोध आदि से अन्त तक करती रही। बालि की पत्नी तारा ने भी सुग्रीव के साथ बरती गई अनीति को चुपचाप नहीं सहा था वरन वे पति का सम्मान करते हुए भी नीतिपालन के लिए बराबर आग्रह करती रहीं। न मानने और तिरस्कृत होने का खतरा उठाकर भी उन्होंने कुमार्ग से अपने पति को हटाने में जो भी बन सकता था सब कुछ किया।

सुसन्तति निर्माण में नारी हमेशा बेजोड़ रही है। शकुन्तला के संरक्षण में बालक भरत का विकास हुआ था। बचपन में ही वह सिंह शावकों के साथ खेलता था और बड़े होने पर उसने विशृंखलित देश को एक झण्डे के नीचे संगठित किया। उसी के नाम पर इस देश को भारत कहा गया है।

लव-कुश का पालन-पोषण अभावग्रस्त परिस्थितियों वाले वाल्मीकि आश्रम में हुआ था, पर सीता के सत्प्रयत्नों से वे बच्चे अपने पिता के समान ही हर दृष्टि से सुयोग्य बन सके।

सन्त विनोबा तीन भाई थे और तीनों ही ब्रह्मचारी रहकर समाज सेवा के अति महत्त्वपूर्ण कार्यों में संलग्न रहे। इन तीनों को इस रूप में विकसित करने का श्रेय उनकी संस्कारवान माता को है।

सम्राट शान्तनु की पत्नी गंगा ने अपने सभी बच्चों को वसु ब्रह्मचारी बनाया था। उनके विवाह से पूर्व ही पति से यह समझौता कर लिया था कि उसकी सभी सन्तानें ज्ञान और तप साधना में संलग्न रह सकने की दृष्टि से गंगा किनारे ऋषि आश्रमों में भेज दी जावेंगी। उनके अन्तिम पुत्र भीष्म थे। शान्तनु के अनुरोध पर गंगा इस बात के लिए सहमत हो गई थीं कि उन्हें राज्य-संचालन के लिए वहीं रहने दिया जाए। किन्तु माँ के संस्कारवश सामान्य सी बात का आधार लेकर वे अधिकार से दूर और ब्रह्मचारी ही बने रहे।

ऋतध्वज की पत्नी मदालसा ने अपने सभी बालकों को ब्रह्मचारी बनाया था। इसके लिए सारा शिक्षण उन्होंने स्वयं ही दिया था। पति के आग्रह पर उन्होंने भी अन्तिम पुत्र को राजनेता बनाया था। सुभद्रा भी अर्जुन की तरह ही शास्त्र और शस्त्र कला में समान रूप से प्रवीण थी। उसी का प्रभाव था कि अभिमन्यु गर्भ से ही चक्रव्यूह-भेदन जैसी युद्ध कला सीखकर पैदा हुआ। भर्तृहरि के भानजे गोपीचन्द को संसार-सुख छोड़कर विश्व कल्याण की तप साधना में प्रवृत्त होने की प्रेरणा उनकी माता ने ही दी थी।

शौर्य, साहस और पराक्रम के क्षेत्र में भी नारी ने चमत्कार कर पुरुषार्थ दिखाए हैं। भगवती दुर्गा द्वारा मधु कैटभ, महिषासुर जैसे नृशंस दैत्यों को नष्ट कर देने की कथा प्रसिद्ध है। सीता ने शिवधनुष को बचपन में ही उठाकर राजा जनक को चकित कर दिया था। ऐसी शक्ति अपनी पुत्री में देखकर राजा जनक ने निश्चय किया था कि वे अपनी पुत्री का विवाह समर्थ-बलशाली से ही करेंगे। तदनुसार धनुषयज्ञ रचाया था और उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही राम के साथ उनका विवाह किया गया था।

एक बार चित्रसेन गन्धर्व को उसके अपराध की अपेक्षा बड़े दण्ड से बचाने के लिए अर्जुन को श्रीकृष्ण का सामना करना पड़ा। कृष्ण जैसे योद्धा के साथ युद्ध में अर्जुन का सारथी बनने योग्य कोई व्यक्ति न मिला तो द्रौपदी ने वह कार्य बड़ी कुशलता से सँभाला था। यह कथा विस्तार से 'कृष्णार्जुनीयम' ग्रन्थ में मिलती है।

एक बार इन्द्र ने शंबर नामक राक्षस के विरुद्ध युद्ध करने में राजा दशरथ से सहायता माँगी। उस युद्ध में कैकेयी भी साथ गई। युद्ध के बीच रथ के पहिये की कील निकलती देखकर कैकेयी ने अपनी उँगली उस जगह लगा दी थी। इस प्रकार रथ के गिरने पर प्राण संकट में फँस जाने से अपने पति को बचा लिया। राजा दशरथ ने अपनी पत्नी के शौर्य-साहस से प्रभावित होकर ही उन्हें वरदान देने का वचन दिया था।

कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में धनुर्धारी महिलाओं का उल्लेख किया है और तत्कालीन समाज में लड़की-लड़कों की समान शिक्षा के प्रचलन की चर्चा की है। भरहुत की खुदाई में ईसा से ७०० वर्ष पूर्व की बनी मूर्तियों में घोड़े पर सवार सैनिक वेश में, हथियारों से लैस भारतीय नारियों की प्रतिमाएँ भी मिली हैं। उससे पता चलता है कि उस काल की महिलाएँ युद्धकला में भी निपुण थीं।।

देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा में भी भारतीय नारियों का योगदान कम नहीं रहा है। धर्मप्रचार से लेकर लोकसेवा के विभिन्न प्रयोजनों के लिए, घर-द्वार छोड़कर, सुख-वैभव को लात मारकर, जन-जन के द्वार पर अलख जगाने के कठिन कार्य को भी वे प्रसन्नतापूर्वक अपने कन्धों पर उठाती रही हैं।

आचार्य बृहस्पति की पुत्री देवहुति और आचार्य भावभव्य की पुत्री रोमशा अपने पिता और पति से आज्ञा लेकर देश-देशान्तरों में धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए परिव्राजक बनकर लँबी यात्राओं पर गई थीं। अभृण ऋषि की कन्या याकूती के आचार्यत्व में चलने वाला गन्धमादन क्षेत्र का गुरुकुल छात्र और छात्राओं के लिए समान रूप से खुला था।

अम्बपाली बुद्धकाल की अद्वितीय रूपवती नर्तकी थी। उसे बहुत धन, वैभव और यश प्राप्त था। भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर उसने अपनी जीवनधारा ही बदल दी। वह तपस्विनी बनकर ज्ञान साधना और धर्म प्रचार में संलग्न हुई तथा अपनी सारी सम्पत्ति बौद्ध विहारों के संचालन में समर्पित कर दी।

सम्राट अशोक की पुत्री राजकुमारी संघमित्रा ने गृहस्थ-सुख और राज-सुख से सर्वथा इनकार करके धर्मप्रचारिका बनना स्वीकार किया, आजीवन कुमारी रहकर देश-विदेश में धर्मप्रचार करती रही। उनकी प्रेरणा से असंख्य महिलाओं ने नवजीवन का प्रकाश प्राप्त किया। इसी प्रकार सम्राट हर्षवर्द्धन की बहन राजश्री भी अविवाहित रही और सारा जीवन परिव्राजक बनकर धर्मप्रसार में लगा दिया। बुद्ध धर्म को सारे देश और विश्व के कोने-कोने में जिन आत्माओं की सेवाएँ मिलीं, उनमें स्त्रियों के नाम बड़ी संख्या में हैं। नन्दा, सुजाता, किसा, गौतमी, भद्रा, कापिला, मण्डपदायिका, ब्रह्मदत्ता, सुप्रिया, मिगारमाता, विशाखा, पट्टाचारा, धर्मदिन्ता, उत्पलवर्णा तथा महाप्रज्ञावती खेमा के नाम उनमें से प्रमुख हैं। इन कन्याओं ने अपनी इस साधना में हर चुनौती का सामना किया और किसी भी प्रलोभन से विचलित नहीं हुईं।

जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में भी महिलाओं का बड़ा योगदान रहा है। वैशाली के राजा चेटक की कन्या मृगावती, जिनदास की पुत्री सुभद्रा तथा वेन्नातट के एक धनाढ्य परिवार में जन्मी सुनन्दा ने जैन धर्म के विस्तार में अपूर्व भूमिका निभाई थी।

राजकुमारी मधूलिका अपने समय में वेद ज्ञान के नष्ट होने और मनमाने मतों के फैल जाने से दुखी होकर आँसू बहा रही थी। रास्ता निकलते कुमारिल भट्ट के हाथ पर राजकुमारी के आँसू गिरे। उन्होंने सिर उठाकर ऊपर देखा और रोने का कारण पूछा। मधूलिका ने कहा—को वेदानुद्धरिस्यसि अर्थात वेदों का उद्धार कौन करेगा! कुमारिल का ब्रह्मतेज जाग पड़ा, उन्होंने उत्तर दिया—मा विषीद वरारोहे भट्टाचार्योऽसि भूतले। अर्थात भद्रे ! खिन्न मत होओ, इस कार्य को पूरा कर सकने की क्षमता सम्पन्न कुमारिल भट्ट अभी इस पृथ्वी पर जीवित है। इतना कहकर वे जिस कार्य से जा रहे थे उसे स्थगित करके वहीं से वापस लौट पड़े और परिव्राजक बनकर वेद धर्म की पुन: स्थापना के कार्य में जुट गए। इस उद्बोधन का श्रेय मधूलिका को ही था। चन्दबरदाई द्वारा पृथ्वीराज को और भूषण द्वारा शिवाजी को उद्बोधन देने जैसी ही भूमिका राजकुमारी की भी रही।

इस प्रकार के उदाहरणों का कोई अन्त नहीं है। इस सबका सारांश यह है कि नारी को किसी भी श्रेष्ठ दिशा में बढ़ने से रोकना हमारी पुण्य परम्परा के अनुकूल नहीं है और नारी में किसी भी उत्तरदायित्व का भार उठाने योग्य क्षमता भी है। आज समय की पुकार है कि नारी फिर से अपने उस शानदार स्वरूप में सामने आए। यह होना कठिन नहीं है। उसका तो जीवन ही स्नेह, करुणा, वात्सल्य, सेवा, समर्पण जैसे दिव्य तत्त्वों से मिलकर बना है। उसे बढ़ने, विकसित होने से रोका न जाए, थोड़ा सहयोग-समर्थन भर दे दिया जाए तो वह अपनी विशेषताओं के लाभ से समाज को सम्पन्न बना सकती है। वह अपने अभिभावकों को सन्तति को, साथी-सहचर को परिवार को, और अपने सम्पर्क के हर व्यक्ति को, समाज को कोमल सम्वेदनाएँ और प्रखर प्रेरणाएँ दे सकती है, जिसके द्वारा वे पशुता से मनुष्यता की ओर बढ़ सकें, मनुष्यता के स्तर पर दृढ़ रह सकें और ऊँचे उठते हुए देवत्व तक पहुँच सकें।

देवलोक की लक्ष्मी के बारे में बहुत सी आकर्षक कल्पनाएँ की जाती हैं। पता नहीं उनमें कितना सत्य है, किन्तु नारी को गृहलक्ष्मी के रूप में विकसित होने देकर उसके आश्चर्यजनक लाभ हर व्यक्ति पा सकता है। आदर्शपरायण, विकसित, सन्तुष्ट, प्रसन्न और उल्लसित नारी साक्षात गृहलक्ष्मी सिद्ध होती है। उसके अनुदान से सारा परिवार घर में ही स्वर्ग जैसी अनुभूति करता है। घर में सभी तरफ सजीवता की चमक और सुन्दरता की झलक मिलती है। कठिन और भयंकर लगने वाली परिस्थितियाँ भी हलकी-फुलकी और आसान बन जाती हैं। दम घोंटने वाली मनहूसी पर स्नेहजनित उल्लास छा जाता है और कठिनाइयों से भरे दिन भी हँसते-हँसाते बीत जाते हैं। आज मनुष्य हर तरफ से बुरी तरह उलझा हुआ है। व्यक्तिगत : जीवन से शान्ति-सन्तोष न जाने कहाँ चला गया है। परिवार के सदस्यों में स्नेह, आत्मीयता न रहने से परिवार स्वयं में एक समस्या बनते जा रहे हैं। महँगाई और आर्थिक तंगी के कारण कठिनाइयाँ और भी बढ़ रही हैं। जीवनयापन इतना भारी हो गया है कि अकेला घर का मुखिया उसे उठाने-खींचने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। उसकी कमर टूटी जा रही है, गरदन झुकी जा रही है। उधर सहधर्मिणी कहलाने वाली नारी, बेचारी लाचार सी बनी हुई चुपचाप तमाशा देखने, दुःख से आँसू बहाने अथवा क्रोध से झल्ला पड़ने के अलावा कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है। जिन गुणों और क्षमताओं के द्वारा वह भार उठा सकती है, हाथ बँटा सकती है उन्हें कौन जगाए, कौन बढ़ाए? वह स्वयं उन्हें भूल चुकी है और समाज उसके विकास को अधर्म एवं अनावश्यक माने बैठा है। यदि उस पर लगे प्रतिबन्ध हटाए जा सकें, उसे प्रोत्साहन दिया जा सके तो समस्याओं के समाधान निकालने में वह महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।

अतीत के महान गौरव को वापस लौटाने के लिए, विश्व विभीषिकाओं को निरस्त करने के लिए, खोए मानवी मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए, सर्वत्र छाए हुए विषाद को उल्लास में बदलने के लिए, पति को नई सहधर्मिणी, बच्चों की नई निर्मात्री और परिवार को नई गृहलक्ष्मी दिलाने के लिए, राष्ट्र को समर्थ बनाने के लिए, भारतीय समाज को उस पर लगे अनीति के कलंक से छुटकारा दिलाने के लिए नारी को मनुष्य स्तर पर लाया ही जाना चाहिए। इससे कम में आज की सर्वभक्षी विभीषिकाओं की चुनौती का सामना किया ही नहीं जा सकता।

२. नारी की क्षमता का सदुपयोग हो

स्वस्थ, शिक्षित, सक्षम, सुयोग्य और कुशल नारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध हो सकती है। उसकी गतिविधियाँ यदि चौके-चूल्हे तक, बच्चे पैदा करने और घर की चौकीदारी भर करने तक ही सीमित न रहने दी जाएँ—उसे विकसित होने दिया जाए तो मानव जाति की सर्वतोमुखी प्रगति में भारी सहयोग मिल सकता है। जो भार आज अकेले पुरुष को उठाना पड़ रहा है, उससे कन्धा मिलाने वाला दूसरा साथी भी मिल जाए तो प्रगति का चक्र दूनी गति से घूमने लगेगा। यह कल्पना तो हमें अच्छी लगती है लेकिन उस स्थिति से हम बहुत दूर हैं। नारी की वर्तमान स्थिति दयनीय भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी। दयनीय इस अर्थ में कि उसके मनुष्यता के अधिकार छिन गए हैं। पशुओं के लिए भी अनुचित लगने वाले बन्धनों में उसका शरीर और मन जकड़ा हुआ है। दुर्भाग्य इस अर्थ में कि इस अनीति को बदलने की जगह उसे स्वाभाविक माना जा रहा है, उसे स्वीकार किया जा रहा है। इस स्थिति को बदल डालने के लिए किसी भी वर्ग में कोई खास उत्सुकता या आतुरता नहीं दिखाई देती। लगता है जैसे सबने अफीम की गोली खा रखी हो। स्थूल दृष्टि से न सही पर विवेक की दृष्टि से हर वर्ग किसी न किसी नशे में ही डूबा हुआ है। इसीलिए इस अति महत्त्वपूर्ण पक्ष को किसी न किसी स्वार्थ की आड़ में उपेक्षित किया जा रहा है।

पुरुष वर्ग सोचता है कि अपने बड़प्पन के झूठे अहंकार को बनाए रखने का यह अच्छा रास्ता है। नारी के अविकसित होने से अपनी उचित-अनुचित मनमानी चलाने का अवसर वह क्यों खोए? नारी वर्ग इसलिए सन्तुष्ट है कि उसे पिंजड़े में पाले पक्षी की तरह निश्चिन्त रहने का ठिकाना मिल जाता है। समाज इसीलिए चुप है कि वैसे ही हर क्षेत्र में असन्तोष के विस्फोट हो रहे हैं, नारी समाज को उत्साहित करके एक और सिरदरद क्यों मोल लिया जाए? राजनेता इसलिए सहमकर रह जाते हैं कि विकसित नारी अपने लिए नए कार्य और नए क्षेत्र माँगने लगेगी। कलाकारों को धन कमाने के लिए नारी के अश्लील भद्दे रूप उभारने की छूट चाहिए। लेखनी, चित्रकारी, मूर्तिकला, संगीत और अभिनय कला के सभी क्षेत्रों में नारी के शील की धज्जियाँ उड़ाने में ही अपनी सार्थकता समझी जा रही है। सस्ती प्रशंसा और थोड़े श्रम में अधिक कमाई उन्हें इसी रास्ते से मिलती दिखाई देती है। जाग्रत नारी अपनी ऐसी दुर्गति कभी सहन नहीं करेगी, तो फिर इन कलाकारों को भी आजीविका के लिए श्रमिकों जैसा कठोर श्रम करना पड़ सकता है। यह उन्हें क्यों अच्छा लगने लगा? व्यापारी को विज्ञापनबाजी के लिए भी यही रास्ता पसन्द है। नारी के यौवनोन्मत्त रूप को हर वस्तु के साथ जोड़ने से ही उसे अपना अधिक लाभ होता दिखता है। पुस्तक-प्रकाशक, चित्र-प्रकाशक, फिल्म-निर्माता सभी उसकी हत्या करके ही लाभ कमाने पर तुले हुए हैं। इसी प्रकार मनुष्य की पशुता उभारकर वे उनकी जेब से मनमाने पैसे निकलवा पाते हैं। जाग्रत नारी के साथ ऐसी बेहूदा खिलवाड़ करना सम्भव न हो सकेगा। इसलिए यह अपना लाभ इसी में सोचते हैं कि नारी अविकसित ही बनी रहे। उसके प्रति हमदरदी दिखाने के लिए झूठे आँसू बहाए जावें, किन्तु ऐसा कुछ न होने दिया जाए जिसके आधार पर नारी समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सके।

धर्म और अध्यात्म क्षेत्र के व्यक्तियों में भी इस सन्दर्भ में विशेष आशा नहीं की जाती। उँगलियों पर गिनने लायक थोड़े से व्यक्तियों को छोड़कर उनमें से लगभग सभी श्रेष्ठता-महानता के केवल स्वप्न ही देखा करते हैं। वे आदिशक्ति, ब्रह्मविद्या, सरस्वती, गायत्री, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूपों में नारी की पूजा तो करते हैं किन्तु उनकी अन्धश्रद्धा केवल आकाश में रहने वाली अदृश्य देवियों तक ही सीमित है। धरती के यथार्थ जीवन पर उनका विश्वास ही नहीं होता, इसलिए धरती पर रहने वाली देवियों के प्रति उनके मनों में न सम्वेदना जागती है और न श्रद्धा। नारियों की पूजा करके धरती को स्वर्ग बनाने की भगवान मनु की उक्ति वे दोहराते भले हों परन्तु उनका व्यवहार तो उसके विपरीत ही होता है। नारी पर प्रतिबन्ध लगाना वे धर्म मानते, मनु के आदर्शों को क्रियान्वित होने में रोड़ा ही अटकाते रहते हैं।

ऐसी स्थिति में जब कि हर क्षेत्र के साधन और क्षमता-सम्पन्न व्यक्तियों की ओर से निराशा होती है, एक दिशा से आशा की चमक अभी भी दिखाई देती है—वह है जनसामान्य की संयुक्त शक्ति। जनसाधारण के पास शक्ति और साधन सीमित होते हैं यह बात सही है, किन्तु यह भी सही है कि बूँद-बूँद से सागर बनता है। जनशक्ति जब किसी दिशा में एक साथ लग पड़ती है तो वह दुर्गा बन जाती है। इसी चण्डी से इस अनाचार की असुरता के विनाश की आशा की जा सकती है। नारी के प्रति बरते जाने वाले अनाचार की तुलना महिषासुर से की जा सकती है। यह असुर संसार की आधी जनसंख्या को दुर्भाग्य और संकट सहने के लिए मजबूर किए है। लोकशक्ति की सिंहवाहनी ही इस प्रचलन की समाप्ति—इस असुरता का संहार करने में समर्थ है। अपने देश में और विश्व में अनेक बड़े-बड़े परिवर्तन हुए हैं और हो रहे हैं। उनका श्रेय कोई भी ले ले, नेता कोई भी कहला ले, किन्तु उसके पीछे प्रधान भूमिका इसी लोकशक्ति की ही होती है।

समाज के मूर्धन्य कहलाने वाले अगुआओं, मुखियाओं ने यदि इस दिशा में उचित ध्यान दिया होता तो समस्या का समाधान अब तक हो भी चुका होता। सत्ताधारी, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, प्रतिभावान, धनवान आदि वर्ग के लोग नारी उत्थान के लिए चाहकर भी कुछ न कर सकें, ऐसी स्थिति नहीं है। जिनमें जीवन है, साहस है ऐसी आत्माएँ साधनरहित होने पर भी बहुत कुछ कर लेती हैं। आदर्श के प्रति लगन हो तो वह किसी भी क्षेत्र में चमत्कार पैदा कर सकती है। युग ने उसी को आज पुकारा है। समय की माँग है कि आदर्श के लिए कुछ कर गुजरने की सजीवता उभरे। न्याय के पक्ष में औचित्य को जीवित रखने की जागरूकता बढ़े। सजगता और क्रियाशीलता केवल तुच्छ स्वार्थों में उलझकर ही न रह जाए, अपने युग की पीड़ाओं और अनीतियों को मिटाने-हटाने के लिए साहस भरा सहयोग दे।

इतिहास साक्षी है कि भारतीय परम्परा नारी को हीन मानने की, प्रतिबन्धित रखने की नहीं रही है। नारी का प्रधान कार्यक्षेत्र घर तथा पुरुष का कार्यक्षेत्र बाहर रहा है। यह सुविधा और व्यवस्था की बात है, कोई बन्धन नहीं। आवश्यकता के अनुसार पुरुष भी घरेलू काम कर सकते हैं और नारी भी आजीविका उपार्जन जैसे बाहर वाले कार्य कर सकती है। बहुत से पुरुष घरेलू नौकरों के रूप में भोजन बनाने, बरतन साफ करने, बच्चों को खिलाने आदि का कार्य करते हैं। ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि यह काम तो केवल महिलाएँ ही कर सकती हैं, पुरुष नहीं। इसी प्रकार महिलाओं पर भी यह प्रतिबन्ध उचित नहीं है कि वे नौकरी-व्यवसाय जैसे कार्य न करें।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नारियों को प्रगतिशील बनने के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे कार्य करने ही चाहिए, किन्तु उन्हें हर दृष्टि से स्वावलम्बी बनने देने में कोई प्रतिबन्ध कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। परम्परा के नाम पर उन्हें घर के पिंजड़े में बन्द कर देना, घर के बाहर पैर न रखने देना आदि प्रतिबन्धों को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। बीच के कुछ सौ वर्ष के अन्धकार युग को छोड़कर भारतीय समाज में नारी कभी प्रतिबन्धित नहीं रही। वह पुरुष के साथ हर क्षेत्र में कन्धे से कन्धा मिलाकर, कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती रही है। जो काम नर कर सकता है, उसे नारी ने भी उसी उत्साह और कुशलता से पूरा कर दिखाया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति के गौरव भरे आकाश में प्रतिभाशाली नारियों के चरित्र तेजस्वी नक्षत्रों की तरह चमकते दिखाई देते हैं। मध्य युग में हजार प्रतिबन्ध होने पर भी जब भी मौका मिला, नारी की तेजस्विता की अनोखी चमक बीच-बीच में देखने को मिलती रही है। उसने अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ के बल पर अपने क्रिया-कलापों में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। व्यक्तिगत प्रखरता में वह पिघलकर नहीं रही, अग्रिम पंक्ति में ही खड़ी हुई है। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें यह कहा जा सके कि अवसर मिलने पर भी नारी फिसड्डी सिद्ध हुई है। हाथ-पैर जकड़कर मुँह और आँख पर पट्टी बाँधकर लोहे के पिंजड़े में बन्द कर देने पर तो किसी की भी दुर्गति हो सकती है। नारी का वर्तमान पिछड़ापन स्वाभाविक नहीं, बलपूर्वक थोपा गया अभिशाप है। अन्यथा नारी की प्रतिभा कभी भी कुण्ठित होने जैसी नहीं है। मध्य युग में भी उसकी प्रखरता समय-समय पर प्रकट होती ही रही है।

फ्राँसीसी भारत यात्री वर्नियर ने अपनी पुस्तक 'भारत यात्रा' में जोधपुर नरेश यशवन्त सिंह की वीर पत्नी का बड़े भावनापूर्ण शब्दों में उल्लेख किया है। यशवन्त सिंह औरंगजेब की सेना से लड़ने जाते हैं, पर रूपवती पत्नी के मोह एवं युद्ध में लाभ-हानि का हिसाब लगाकर वापस लौट पड़ते हैं। रानी को जब यह समाचार मिलता है तो उनके किले में घुसने से पहले ही भीतर से फाटक बन्द करा देती हैं और कहलवा देती हैं कि लौटने वाला मेरा पति वीर यशवन्त नहीं हो सकता, वह कायरतावश वापस नहीं लौट सकता। जो लौटा है वह नकली यशवन्त सिंह होगा, उसे किले में प्रवेश न करने दिया जाए। इस धिक्कार पर वे फिर लड़ने के लिए लौट गए। जब वे विजयी बनकर वापस आए तो उन्हें किले में प्रवेश मिला।

बूँदी की हाड़ारानी ने अपने रूप-मोह में अपने पति सरदार चूड़ावत को युद्ध से कतराते देखा तो कहा, मुझे भी सदा के लिए साथ ले जाइए पर कायरता मत दिखाइए। रानी ने अपने हाथों अपना सिर काटकर उसके हाथ पर रखते हुए उसे मोह मुक्त कर दिया। वे तत्काल युद्धक्षेत्र को चले गए।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को कौन नहीं जानता। सन् १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने युद्ध संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अँगरेजी सेना से अद्भुत पराक्रम के साथ लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुई। अँगरेजी सेनापति ने उनके सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट में लिखा था—'शी वाज दि बैस्ट एण्ड ब्रेवैस्ट एमंग्स्ट दैम' अर्थात उस समय के योद्धाओं-सेनानायकों में वह सबसे अधिक योग्य और सबसे अधिक बहादुर थी। छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई एक बार अनीति के विरुद्ध अपने पिता से ही तलवार लेकर लड़ने खड़ी हो गईं और पिता को अपने कदम वापस लेने पड़े। शाहजी तो नवाब की नौकरी में ही सारा समय लगाते थे। शिवाजी को हर पक्ष से अद्वितीय बनाने का सारा का सारा श्रेय माता जीजाबाई को ही मिलता है।

चित्तौड़ के राजा अरिसिंह कहीं से सैनिकों सहित वापस लौट पड़े थे। एक कृषक कन्या हाथों में दो भैंसों की रास पकड़े और सिर पर पानी का भारी घड़ा रखे उसी रास्ते जा रही थी। एक अहंकारी सरदार ने लड़की का मखौल बनाने की ओछी दृष्टि से अपना घोड़ा उसी ओर दौड़ा दिया। साहसी लड़की ने इस उद्दण्डता का मजा चखाने का निश्चय किया और भैंसों के गरदन में से लोहे की जंजीर खोलकर घोड़े को इतने जोर से मारी कि घोड़ा और सवार दोनों ही चारों खाने चित्त गिर पड़े। राजा अरिसिंह लड़की की निर्भीक-साहसिकता पर मुग्ध हो गए और पिता से प्रार्थना करके उससे विवाह कर लिया। यही निर्भीक कृषक कन्या इतिहास प्रसिद्ध योद्धा वीर हमीर की जन्मदात्री थी।

गढ़ मण्डला की विधवा रानी दुर्गावती ने कई बार मुगल आक्रमणकारियों से अपने किले की रक्षा करने के लिए असाधारण साहसिकता भरे युद्ध कौशल का परिचय दिया। अन्तिम आक्रमण से आत्मरक्षा करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुईं, उनका शौर्य-साहस सदा अमर रहेगा। पन्ना धाय की स्वामिभक्ति को इतिहास सदा स्मरण रखेगा। अपनी सुरक्षा में सोए हुए मालिक के बच्चे के प्राण बचाने के लिए उसने अपने सगे बेटे को उसकी जगह लिटा दिया।

वीरांगना ताराबाई, कर्मावती, कमला, कर्णवती, जैसी अनेकों भारतीय महिलाओं की शौर्य गाथाओं से इतिहास के पृष्ठ सदैव जगमगाते रहे हैं।

इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई एक छोटे से गाँव में जन्मी निर्धन किसान परिवार की कन्या थी। उनकी साधना, निष्ठा तथा साहसिकता के अनेक वृत्तान्त राजभवन में चर्चा के विषय बने रहते थे। राजा ने उसके पिता से स्वयं अनुरोध करके उस लड़की को महारानी बनाया था। अहिल्याबाई के शासनकाल को अन्य देशी रजवाड़ों की तुलना में आदर्श माना जाता है।

चाँदबीबी ने आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाली लड़ाई किस सफलता के साथ लड़ी थी, यह इतिहास के विद्यार्थियों को भली प्रकार मालूम है। शाहजहाँ के शासन की असली बागडोर उसकी पुत्री जहाँआरा के हाथ में रहती थी।

दिल्ली के अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह ने अंगरेजी शासन उखाड़ने के लिए आयोजित विद्रोह का सूत्र-संचालन किया, ऐसा इतिहासकारों ने लिखा है। पर वास्तविकता यह है कि सब कुछ स्वयं बादशाह ने नहीं वरन उनकी पत्नी बेगम जीनत महल ने किया था। बहादुरशाह के साथ ही बेगम जीनत महल को भी देश निकाला दिया गया था। उन्हीं दिनों एक घुड़सवार वृद्धा का नाम भी गदर के नेताओं में अंगरेजी इतिहासकारों ने लिया है। यह महिला हरे वस्त्र पहनती थी इसलिए उसे 'सब्जपरी' कहा जाता था। अँगरेज सेनापति हडसन ने उसकी बहादुरी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वह अँगरेजों से लड़ते हुए घायल हुई थी और बन्दी बना ली गई थी। अँगरेज सेनापति रसल ने एक और क्रान्तिकारिणी बेगम हजरत महल की वीरता और युद्धकला के सम्बन्ध में लिखा है कि उसकी चतुराई और वीरता देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं की आहुतियाँ इतनी अधिक हैं कि उनका विवरण इकट्ठा करने पर हमारा मस्तक गर्व से ऊँचा उठ जाता है। ईश्वर भक्ति और धर्म प्रचार में पिछली शताब्दियों की अगणित महिलाओं के उज्ज्वल व्यक्तित्व सामने हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रही हैं। शासकीय उत्तरदायित्वों को उन्होंने भली प्रकार निभाया है, वे कुशल प्रशासक सिद्ध होती रही हैं। शिक्षा एवं कला कौशल में उनने अपने को पीछे नहीं रहने दिया।

भारत के वर्तमान तिरंगे झण्डे की आदि जन्मदात्री एक भारतीय लड़की भीका जी कामा है। वह जर्मनी के विश्व समाजवादी सम्मेलन में अब से ९२ वर्ष पूर्व भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से सम्मिलित हुई थी, तब उसने ही भारत का तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज अपनी सूझ-बूझ से बनाया था। बाद में उसी में कुछ संशोधन करके यह रूप दे दिया गया है।

सुभाषचन्द्र बोस के साथ लक्ष्मीदेवी ने आजाद हिन्द फौज की भारतीय महिलाओं की अन्तर्राष्ट्रीय सेना लक्ष्मी ब्रिगेड बनाई थी और उसने महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे।

भारत कोकिला श्रीमती सरोजनी नायडू राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम मोर्चे पर लड़ी। उनकी साहित्यिक क्षमता भी अद्भुत थी। वे उत्तर प्रदेश की राज्यपाल भी रहीं। सामाजिक जीवन में उनकी अनेकानेक सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी।

पं. जवाहरलाल नेहरू की बहन श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की प्रतिभा विश्वविख्यात रही है। वे बहुत समय तक राष्ट्र संघ की अध्यक्षा भी रह चुकी हैं।

सार्वजनिक सेवा, ज्ञान, वैराग्य, लोकहित, आदर्शवादी जीवनयापन तथा लोकमंगल के लिए बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने में अपने गए गुजरे जमाने में भी कितनी ही महिलाएँ अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करती रही हैं। विषम परिस्थितियों में रहते हुए भी उनने जो कुछ कर दिखाया उसके लिए मनुष्य जाति चिरकाल तक कृतज्ञ बनी रहेगी।

मीरा के गीत आज न केवल भावनाओं को आलोकित करते हैं अपितु वे राष्ट्र की महान साहित्यिक सम्पदा बन गए हैं। अपनी साधना और संस्कारों के विकास के लिए उन्हें अपने कुटुम्बियों के अपमान का सामना करना पड़ा, पर वे उससे बिलकुल विचलित न हुईं और प्रत्येक कसौटी पर खरी उतरीं। बाल विधवा लक्ष्मीबाई ने अपना जीवन रोने-कलपने में लगाने की अपेक्षा महिला सेवा के लिए समर्पित करना उत्तम समझा। उन्होंने हाथरस (उ.प्र.) में एक शानदार कन्या गुरुकुल खड़ा कर दिया, जहाँ से सुयोग्य स्नातिकाएँ और समाज सेविकाएँ मुद्दतों से निकल रही हैं।

नागपुर में किसी समय की नर्स कक्षा की छात्रा कमला हास्पेट ने अपने अंगरेज अध्यापक के दुर्व्यवहार से खिन्न होकर स्कूल छोड़ दिया और एक समानान्तर अस्पताल बनाने की ठानकर उसी कार्य में जुट गई। उसकी लगन, योग्यता और प्रामाणिकता से प्रभावित जनता ने मुक्तहस्त से सहयोग दिया और अब उनका साधन-सम्पन्न अस्पताल जनता की भारी सेवा कर रहा है।

त्रिवेन्द्रम की डॉ. पूजम ने डॉक्टरी की उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद आजीविका उपार्जन की बात मस्तिष्क में प्रवेश ही नहीं करने दी और 'मातृ एवं शिशु कल्याण' आन्दोलन चलाने में लग गईं। उनने इस प्रयोजन की शिक्षा देने वाले कितने ही केन्द्र स्थापित किए और आजीवन सेवा कार्यों में जुटी रहीं।

लोकहित के सार्वजनिक कार्यों में अपना सारा जीवन होम देने वाली, आजीवन कुमारी रहकर देश, धर्म और समाज-संस्कृति को ऊँचा उठाने के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देने वाली महिलाओं के नाम गिनना और संख्या बताना कठिन है। ऐसे उदाहरण किसी भी क्षेत्र से बड़ी संख्या में मिल सकते हैं जिनमें उन्होंने अपनी सारी की सारी धन सम्पदा परमार्थ कार्यों के लिए समर्पित कर दी। पूजा-पाठ और दान-पुण्य के मामले में तो स्त्रियाँ सदा से ही भावुक रही हैं। उन्हीं के अनुदान धर्म संस्थानों का प्रधान रूप से पोषण करते रहे हैं। थोड़ा सा सहारा मिलते ही अब उनमें प्रगतिशीलता एवं विवेकशीलता भी जाग उठी है। वे अपनी सहज उदारता तथा सेवाभावना का लाभ युग निर्माण आन्दोलन और महिला जागरण अभियान जैसे सच्चे धर्मकृत्यों में लगाने के लिए भी मुड़ रही हैं। इस दिशा में भी उनका उत्साह वैसा ही रहता है जैसा पहले साधारण धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए था।

केवल हमारे देश का ही नहीं, सारी दुनिया का इतिहास नारी वर्ग द्वारा दिए गए गौरवमय अनुदानों की कहानी कह रहा है। संसार के पिछड़े हुए या प्रगतिशील किसी भी देश पर दृष्टि डाली जाए, नारी को जहाँ भी जो भी मौका मिला है, वह अपनी विशेषताओं का परिचय देती रही है। उसके व्यक्तिगत जीवन में आदर्श प्रेम, कार्यों में पुरुषार्थ की प्रखरता और लोकसेवा के लिए उदारतापूर्वक समर्पण की चमक किसी न किसी रूप में देखने को मिल ही जाती है।

फ्राँस में जोन ऑफ आर्क का नाम उसी श्रद्धा से लिया जाता है जैसा कि हमारे देश में झाँसी की रानी का। कुमारी जोन आर्क गाँव के एक साधारण किसान परिवार की बेटी थी। उस समय फ्राँस पर अँगरेजों का शासन था। जोन ने राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए संघर्ष सेना गठित की। उसके नेतृत्व में साधनहीन किसानों और साधारण नागरिकों ने सब प्रकार से प्रशिक्षित और सभी हथियारों से लैस शस्त्र सेना को नाकों चने चबवा दिए। बाद में धोखे से जोन को गिरफ्तार कर लिया गया। बड़े से बड़े लोभ और भयंकर से भयंकर भय उसे डिगा न सके। खीझकर क्रूर शासकों ने उसे चौराहे पर जिन्दा जला दिया। किन्तु उसके बलिदान ने जो आग जला दी वह स्वतंत्रता लेकर ही शान्त हुई। उसे आज भी फ्राँस के नागरिक देवी की तरह पूजते हैं और सारा संसार उससे प्रेरणाएँ प्राप्त करता है।

सम्राट जार के आतंक से सारे रूस का घर-घर काँप रहा था। उसकी आततायी प्रवृत्ति रोकने के प्रयास में एक युवक को अपराधी ठहराया गया और उसे फाँसी की सजा दी गई। उसकी वीर माता ने अपने दूसरे बेटे से कहा, "बेटे! अब तुम्हारी बारी है। जब तक अन्याय का अन्त न हो, तब तक बलिदान की परम्परा बन्द नहीं होनी चाहिए।" अपने पुत्र को इस तरह प्रेरणा देकर 'महान लेनिन' बनाने में उनकी माता इलिया को एकमात्र श्रेय दिया जाता है।

रूस के स्वतंत्रता संग्राम में कैथराइन, जोया कोस्मोट जैसी हजारों महिलाओं ने फाँसी का तख्ता चूमा था और बढ़-चढ़कर त्याग बलिदान के आदर्श प्रस्तुत किए थे।

शासन का सूत्र-संचालन जब भी नारियों के हाथ आया है तब उन्होंने उसे भली प्रकार सँभाल सकने में अपनी दक्षता का परिचय दिया है। इंग्लैण्ड की साम्राज्ञी विक्टोरिया, इसराइल की गोल्डा मेयर, लंका की भण्डारनायके और भारत की इन्दिरा गाँधी की सफलताओं को कौन नहीं जानता। संसार भर में नारियों के हाथ में समय-समय पर शासन की बागडोर पहुँचती रही है। इन क्षेत्रों में भी उनकी क्षमता और कुशलता पुरुषों की तुलना में कमजोर सिद्ध नहीं हुई।

प्राणिमात्र के प्रति सम्वेदना नारी का महत्त्वपूर्ण गुण है। उसका यह गुण उसके अन्दर से प्रचण्ड शक्ति पैदा कर देता है, जिसके सहारे वह अभूतपूर्व काम कर दिखाती है।

स्काटलैंड की एक महिला एलिजाबेथ फ्राई ने बन्दियों की दुर्दशा देखी तो वे रो पड़ीं। उनका रोना असहायों जैसा न था। बन्दियों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने प्रचण्ड आन्दोलन चलाया। उनकी आवाज सुनी गई और न केवल स्काटलैंड में वरन सारे संसार के जेलखानों की व्यवस्था को फ्राई के आन्दोलन ने प्रभावित किया। संसार भर के कैदी इस महिला के सदैव ऋणी बने रहेंगे।

एमिली ग्रीन ने पुरुषों की तुलना में नारी का दर्जा नीचा न रहने देने की दृष्टि से न केवल अमेरिका में ही, बल्कि सारे यूरोप में भी शक्तिशाली आन्दोलन चलाया था। वहीं की जैन एडम्स नामक एक बूसरी समाजसेविका के सहयोग से सशक्त अन्तर्राष्ट्रीय महिला लीग बनी। उनकी समाजसेवा के सम्मान में उन्हें सन् १९४६ का नोबुल पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने सुख-सुविधाओं को लात मारकर गिरे हुओं को ऊँचा उठाने में अपना जीवन समर्पित किया। जीवन भर कुमारी रहीं और पैतृक तथा स्वयं कमाए धन को दीन-दुखियों की सेवा में लगाती रहीं। उनके द्वारा संचालित अनेकों सेवाकेन्द्र अभी भी फल-फूल रहे हैं। बच्चों के सुधार का एक कानून 'जेन एडम्स कानून' है। कानून का यह नामकरण उस देवी की सेवा-साधना के उपलक्ष में उस देश की सरकार ने किया।

अमेरिका में काले लोगों को दासता से मुक्त करने के लिए गोरे लोगों को विवश कराने का आन्दोलन करने वाली महिला हैरियट स्टो का नाम सदा लिया जाता रहेगा। वे एक सामान्य गृहिणी थीं। लेकिन उनकी लिखी पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ने पूरे अमेरिका में ऐसी आग जला दी थी जो दास प्रथा का अन्त करके ही शान्त हुई।

जापान के गाँधी कहे जाने वाले 'कागावा' कॉलेज से निकलने के बाद पीड़ितों और पतितों की सेवा में लग गए। उस निर्धन सेवा साधक का सहयोग करने के लिए एक सुयोग्य लड़की आई। यह उन्हीं के साथ विवाह बन्धन में बँधकर अपने पति का हाथ जीवन भर बड़ी निष्ठा के साथ बँटाती रही। उसका नाम था 'स्प्रिंग' अर्थात वसन्त ऋतु। वह देवी कागावा के कठिनाइयों से भरे जीवन में अपने स्नेह भरे सहयोग से सचमुच ही वसन्ती बहार बिखेरे रही।

रूस के कीव नगर में एक बढ़ई के घर जन्मी लड़की इसराइल देश की प्रधान मंत्री बनी और गोल्डा मेयर के नाम से विश्वविख्यात है। उसने अपनी प्रतिभा एवं चरित्र निष्ठा से अपने देशवासियों में प्राण फूँक दिए। उस रेगिस्तान में बसे हुए छोटे से देश को अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया। वह राजनेता की तुलना में समाजसेविका अधिक रही है। अपने देश को कहाँ से कहाँ पहुँचा देने का श्रेय उनकी अनन्य सेवा साधना को ही दिया जाता है। घायलों, बीमारों की सेवा करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था 'रैड क्रास' को जन्म देने वाली फ्लोरेन्स नाइटेंगिल, संसार में फैले हुए थियोसॉफी आन्दोलन की सफल संचालिका मैडम ब्लेवैट्स्की, मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता मैडम क्यूरी जैसी महिलाओं की गौरवगाथा कभी भी भुलाई नहीं जा सकेगी।

यूरोप की कितनी ही सुयोग्य महिलाएँ अपना सुख-साधन छोड़कर भारत के पिछड़े वर्ग की सेवा करने इस देश में आईं और इसी देश की मिट्टी में समा गईं। ऐसी देवियों में मानवतावादी मदर टैरीसा, सिस्टर निवेदिता, मिस स्लेड, ऐनी बेसेण्ट, मेरी कीड आदि का नाम अत्यन्त आदरपूर्वक लिया जाता है। उन्होंने संन्यासियों जैसा जीवन बिताया और जीवन भर सेवा-साधना में लगी रहकर अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया।

शिक्षा और साहित्य का क्षेत्र भी नारी से छूटा नहीं है। उसमें भी वह अपनी प्रतिभा दिखाती रही है।

'स्वतः लिखी आत्मकथा' तथा 'मेरा अन्तर्जगत' इन दो अमूल्य पुस्तकों की लेखिका कुमारी हेलन केलर अन्धी, बहरी और गूँगी भी थी, किन्तु अपने मन की लगन और लगातार श्रम द्वारा उन्होंने अनेक परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास की। वे अँगरेजी, जर्मन, लैटिन तथा फ्रेन्च भाषाओं की महान विदुषी हुईं। संसार के अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि देकर सम्मानित किया था।

नार्वे की सिग्रिड अनसेट एक निर्धन परिवार में जन्मी। उसने प्रेरणाप्रद साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया और तन्मयता के साथ उसी में जीवन भर लगी रहीं। नारी और बच्चों के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत ही खोजपूर्ण साहित्य लिखा है। नोबुल पुरस्कार इन्हें भी मिला था। संसार भर में एक मनोवैज्ञानिक बाल शिक्षा प्रणाली 'माण्टेसरी' पद्धति के नाम से प्रख्यात है। उस आधार को बहुत उपयोगी माना गया है। दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पद्धति के लाखों बाल विद्यालय चल रहे हैं। इस विधि को जन्म देने वाली महिला माण्टेसरी इटली के एक गरीब परिवार में जन्मी थी। किशोरावस्था से वे किसी भयंकर बीमारी से पीड़ित हुईं और मरने की स्थिति तक पहुँच गईं। रोग शय्या पर पड़े-पड़े ही उनने निश्चय किया कि यदि बच गईं तो सारा जीवन लोकहित में लगा देंगी। अच्छी होते ही उन्होंने बाल विकास को अपना कार्यक्षेत्र चुना और मरते दम तक उसी सिलसिले में तरह-तरह के प्रयोग करने और विद्यालय चलाने में लगी रहीं। अन्त में उनकी बाल शिक्षा-पद्धति को संसार भर में मान्यता मिली।

नारी और नर दो वर्ग, दो पक्ष नहीं हैं; एक ही चेतना के, एक ही सत्ता के दो, एक से पहलू हैं, दोनों को समान रूप से विकसित होने देना ही उचित है। न मालिकी में सम्मान है और न गुलामी में आराम। यह सहकारिता का युग है। इसमें सहयोग की उपयोगिता एक स्वर से स्वीकार कर ली गई है और यह समझ लिया गया है कि सहयोग स्वेच्छा से ही हो सकता है।

समुन्नत देशों में जहाँ भी नारी को मनुष्योचित अधिकार मिले हैं, वहीं वह पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही है, किन्तु भारत में नारी समाज आज भी नितान्त पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ा है। पिछड़ी हुई नारी, नर के लिए भी किसी भी क्षेत्र में सहायक न हो सकेगी। भारत में वह प्रयोग दीर्घकाल तक हो चुका और वह सर्वथा हानिकारक सिद्ध हुआ, अब उस प्रचलन को बनाए रखने में कोई बुद्धिमानी नहीं है।

यूगोस्लाविया की महिलाएँ उस देश की पूरी कृषि व्यवस्था सँभालती हैं। पुरुष फौज, पुलिस, दफ्तर, कारखाने सँभालते हैं। कृषि, पशुपालन में उन्हें कोई श्रम या हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता। चीन, रूस आदि श्रमनिष्ठ देशों में जाकर देखा जाए तो पता चलेगा कि पारिवारिक और राष्ट्रीय सम्पदा, सुरक्षा एवं सुख-सुविधा बढ़ाने में वे कितना बड़ा योगदान दे रही हैं। रूस की शिक्षा व्यवस्था का अधिकांश उत्तर दायित्व महिलाएँ ही वहन करती हैं। शिक्षा संस्थाओं में पुरुषों की संख्या बहुत ही कम दिखाई पड़ेगी। अस्पतालों एवं स्वास्थ्य संस्थाओं का उत्तरदायित्व भी उन्हीं का है। डॉक्टर, कम्पाउन्डर, नर्स आदि का कार्य करती हुई महिलाएँ ही देखी जाएँगी, पुरुष तो जहाँ-तहाँ ही दृष्टिगोचर होंगे।

जापान की महिलाएँ उद्योग-धन्धों के विकास में पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करती हैं। घर-घर में लगे छोटे कुटीर उद्योगों में संलग्न रहकर, वे अपने समय का उपयोग घर-परिवार को और समूचे राष्ट्र को सम्पन्न बनाने में करती हैं। जर्मनी में कल-कारखानों को सँभालने में महिलाएँ पुरुष इंजीनियरों, कारीगरों एवं व्यवस्थापकों से घटिया नहीं बढ़िया ही सिद्ध होती हैं। इंग्लैण्ड, फ्राँस, कनाडा, अमेरिका में दुकानें चलाने में महिलाओं की प्रमुखता है, वे व्यापारकुशलता में पुरुषों से आगे हैं। शिशुपालन, गृह-व्यवस्था तो उनके लिए खेल मनोरंजन है। ये सब तो हँसते-हँसाते निपटाती हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों को सँभालने में गृह-व्यवस्था उनके लिए तनिक भी बाधक सिद्ध नहीं होती।

अपने देश में जिन प्रान्तों और जातियों में नारी पर जितना कम बन्धन है, वहाँ वह अपने परिवार के लिए उतनी ही अधिक सहायक सिद्ध हो रही है। केरल प्रान्त में नारी शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया है, विवाह के लिए भी जल्दबाजी नहीं की जाती। इसका फल यह है कि वहाँ का पारिवारिक और आर्थिक स्तर अन्य प्रान्तों की तुलना में कहीं अच्छा है। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, दक्षिण भारत आदि क्षेत्रों में परदा प्रथा जितनी कम है, कृषि व्यवसाय आदि क्षेत्रों में नारी का जितना प्रवेश है उतना ही स्वास्थ्य, सम्पन्नता और व्यवस्था का स्तर वहाँ बढ़ रहा है। जिन जातियों और क्षेत्रों में स्त्रियों को जितने कठोर बन्धन में रखा जाता है उतना ही उनका, उनके परिवार का स्तर गिरता हुआ चला जा रहा है। यदि अपने देश का भ्रमण करके देखा जाए तो पता चलेगा कि अभावग्रस्त स्थिति में भी पिंजड़े से बाहर निकल सकने वाली श्रमजीवी अशिक्षित स्त्रियाँ भी परदानशीनों की तुलना में कितनी सुखी हैं।

प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को यह अनुभव करना चाहिए कि कालचक्र तेजी से आगे बढ़ रहा है। उससे अनीति भरे प्रचलन देर तक सहन नहीं किए जा सकेंगे। कुछ समय पूर्व संसार के अनेक क्षेत्रों में असहाय लोग गुलामों की तरह पकड़े और बेचे जाते थे तथा उनसे मनचाहे काम लिए जाते थे। बेचारे गुलाम तो मालिकों से लड़कर मुक्ति न पा सके परन्तु विश्व के जाग्रत विवेक ने उनका पक्ष लिया। फलस्वरूप मालिकों को वह अपना दुष्टता भरा लाभदायक धन्धा छोड़ना पड़ा। अमेरिका के समझदार-समझदार वर्ग ही दास-प्रथा के समर्थन और विरोध के लिए आपस में लड़ पड़े। उस भयंकर गृहयुद्ध का अन्त तभी हुआ जब गुलाम प्रथा का अन्त कानूनी रूप से हो गया।

राजतंत्र दुनिया में से मिट गए या मिटने जा रहे हैं। उनमें कोई बहुत बड़ा खून-खराबा नहीं हुआ है। समय की प्रबलता ने उनकी कमर में लात मारकर उन्हें औंधे मुँह धकेल दिया। सरदार पटेल कहते थे कि सफाईकर्मी की झाड़ अधिक कारगर साबित हुई। पूँजीवाद बुरी तरह बरफ के समान गलता चला जा रहा है, उसके स्थान पर समता के प्रचलन किस तेजी से अपनाए जा रहे हैं। इस परिवर्तन के चक्र को तेजी से घूमते हुए कोई भी आँखों वाला देख सकता है। इन परिवर्तनों में शोषकों और शोषितों के बीच मल्लयुद्ध नहीं हुआ है। भीतरी विरोध ही उन्हें तोड़ डालने के लिए काफी रहे हैं। साम्यवाद के सैद्धान्तिक समर्थकों में निर्धन लोग ही आगे नहीं आए, उनके प्रतिपादकों, प्रचारकों और योद्धाओं में बड़ी संख्या उनकी थी जो दरिद्र नहीं सम्पन्न थे। टॉलस्टाय, बिस्मार्क, क्रोपाटकिन, बर्नार्ड शा, बर्ट्रेड रसल, नेहरू आदि दरिद्र या शोषित वर्ग के नहीं थे, फिर भी उनने वकालत शोषितों की ही की।

यह आवश्यक नहीं कि नर के सामने नारी को विद्रोही बनकर ही खड़ा होना पड़े। यह कार्य उसकी वकालत पर उतारू विश्वात्मा ही कर देगी। उतनी लड़ाई तो उसके पक्ष में नवयुग का जाग्रत विवेक ही लड़ लेगा। विवेक का सूर्य उगेगा और अन्धेरा अपना सा मुँह लेकर स्वयं भाग जाएगा। युगद्रष्टाओं की भविष्यवाणी यह है कि नर-नारी के बीच मोर्चाबन्दी नहीं होगी। सत्याग्रह, संघर्ष, फसाद, हड़ताल, अभियोग, विद्रोह आदि का अवसर नहीं आएगा। दोनों पक्षों की जाग्रत अन्तरात्माएँ अपना-अपना करवट बदलेंगी और उस छोटे से परिवर्तन भर से आज की उलटी परिस्थितियाँ कल स्वयं ही उलटकर सीधी हो जाएँगी। न तो नर इन प्रतिबन्धों में कोई लाभ देखेगा और न नारी उन्हें सहन करने को तैयार होगी। इस अस्वीकृति मात्र से वह बात बन जाएगी जो आज की परिस्थिति में बहुत अधिक आवश्यक हो गई है।

नर-नारी के बीच भेदभाव और उसके कारण हृदयहीनता की मनमानी अब देर तक चल नहीं सकेगी। अगले ही दिनों वे दोनों माता और पुत्र के सच्चे स्नेह-दुलार के आँचल से ढके हुए पुलकित हो रहे होंगे, भाई-बहन की भावभरी ममता आँख-मिचौनी खेल रही होगी, पिता के कन्धे पर चढ़ी पुत्री अपने घोड़े को उल्लासपूर्वक हाँक रही होगी और पति-पत्नी एकदूसरे के लिए अपना सच्चा समर्पण प्रस्तुत कर रहे होंगे। अपनी सुविधा छोड़कर दूसरे की असुविधा दूर करने में दोनों पक्षों के बीच होड़ ठनी होगी। कौन, किसके लिए, कितना त्याग कर सकता है। इस होड़ में दोनों आगे निकलने के लिए पसीना बहा रहे होंगे।

नारी को साथ लिए बिना नर प्रगति के रास्ते पर दूर तक चल नहीं सकेगा। एक पैर से लम्बी मंजिल चल सकना और ऊँचे पहाड़ पर चढ़ सकना कठिन है। इसके लिए दोनों पैर समान रूप से समर्थ होने चाहिए। उज्ज्वल भविष्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जो लड़ाई लड़नी पड़ेगी, वह एक हाथ से नहीं लड़ी जा सकती। उसके लिए एक हाथ में ढाल और दूसरे में तलवार पकड़नी पड़ेगी। गाड़ी के दोनों पहियों का समान होना आवश्यक है।

गणित के विद्यार्थी जानते हैं कि १ का एक अंक ऊपर और एक अंक नीचे रखकर जोड़ किया जाए तो उनका योग २ होता है, पर यदि १ और १ के दो अंक बराबर रख दिए जाएँ तो वह संख्या २ न रहकर ११ बन जाएगी। नर और नारी में से एक ऊपर एक नीचे रहेगा तो वह असमानता अधिक से अधिक उन्हें केवल दो जीवित प्राणी भर बनाए रहेगी। पर जब वे समानता के आधार पर, स्वेच्छा से सहयोग करने के लिए सच्चे मन से आगे बढ़ेंगे तो उसका प्रतिफल ५.५ गुनी शक्ति के रूप में सामने आएगा। हर बुद्धि रखने वाला प्राणी इतना तो जानता ही है कि दूसरे पक्ष द्वारा उसके साथ क्या व्यवहार हो रहा है। यदि वह मानवोचित नहीं है तो उसकी सहज प्रतिक्रिया सच्चे सहयोग में बाधा ही उत्पन्न करेगी। चालू दृष्टिकोण में, उस स्नेह-सौजन्य की गन्ध नहीं है, जो दो व्यक्तियों को परस्पर स्नेह-सहयोग के सूत्र में बाँधती रही है, बाँध सकती है।

पति और पत्नी का, बहन और भाई का, पिता और पुत्री का, माता और सन्तान का स्नेह-सहयोग जितना गहरा, जितना वास्तविक, जितना आदर्श और जितना भावभरा होगा उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही सुखद होगी। विकसित नारी के द्वारा जो पाया जा सकता है उसकी कल्पना करने मात्र से एक उज्ज्वल भविष्य का उत्साह भरा चित्र आँखों के आगे नाचने लगता है। भारत के अतीत का गौरव नारी के सहयोग का ही प्रतिफल था। जब देव-सन्तानें अपने महान कार्यों से संसार के कोने-कोने में सुख-शान्ति की स्थापना करती थीं। उनकी संगति पाकर विश्व के समस्त मनुष्य निरन्तर ऊँचा उठाने वाली प्रेरणा और सहायता प्राप्त करते थे। 'स्वर्गादपि गरीयसी' भारतमाता कामधेनु की तरह इस देश की जनता का ही नहीं, सारी मानव जाति का भी हितसाधन करती थी। नर के माध्यम से दिया हुआ यह परोक्ष अनुदान नारी का ही था। उसके गढ़े खिलौने अपने तेज और व्यवहार से मनुष्यता को धन्य बना सकने में समर्थ होते थे।

यह प्रयोग अपने देश में लाखों वर्षों तक अपनाया गया और सही पाया गया। नारी को दी गई कामधेनु गौ जैसी श्रद्धा असंख्य गुनी होकर वापस लौटी और उसका अमृत भरा पयपान करके समस्त मानवता धन्य होती रही।

आवश्यकता इस बात की है कि उन्हीं परिस्थितियों को, उन्हीं मान्यताओं को, उन्हीं प्रचलनों को फिर से स्थापित किया जाय, जिनमें रहकर नर और नारी एकदूसरे को सहयोग-सद्भाव प्रदान करने और मिल-जुलकर प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने में एकदूसरे की भरपूर सहायता करते रहें। हम सबका कल्याण इसी में है।

३. नारी उत्थान सबसे बड़ी आवश्यकता

मनुष्य के स्वभाव में एक विचित्र बात यह है कि उसे अपनी हर आदत प्यारी लगने लगती है। अपने अभ्यास में आए हुए दोष-दुर्गुण जो दूसरों को सहन भी नहीं होते, स्वयं को प्रिय लगते हैं। अगर कोई उन्हें छोड़ने, बदलने के लिए कहता है तो बुरा लगता है। अपने स्वभाव में सुधार की बात कहने वाले को लोग हितैषी नहीं, आलोचक और शत्रु के रूप में देखने लगते हैं।

नारी समस्या के बारे में भी कुछ ऐसी ही विचित्र घटना घट रही है। जो ढर्रा चल रहा है उसे बदलने की कोशिश क्यों की जाए? जो कुछ हो रहा है उसमें पुरुष को अपना लाभ दिखाई देता है और नारी उसकी अभ्यस्त हो गई है। ऐसी हालत में बेकार छेड़छाड़ क्यों की जाए? इस प्रकार के प्रश्न कई परम्परावादी उठाया करते हैं।

स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहने देने से, उथल-पुथल के झंझट से बचा जा सकता है, लेकिन उस अनीति के बने रहने से जो नुकसान हो रहा है उससे तो नहीं ही बचा जा सकता। आगे उज्ज्वल भविष्य जिस आधार पर बन सकता है, वह आधार तो उचित परिवर्तन लाए बिना नहीं ही बन सकते।

यह ओछी दृष्टि है कि जब तक कोई प्रत्यक्ष हानि, उठा-पटक शुरू न हो, तब तक किसी बात पर ध्यान ही न दिया जाए, उसे समस्या ही न माना जाए। बाँध बनाने के लिए मेहनत करने से, धन लगाने से इनकार कर दिया जाए, क्योंकि हाल में सामने कोई परेशानी तो दिखाई ही नहीं पड़ती और बाढ़ आने पर ही भाग-दौड़ की जाए तो यह कोई समझदारी नहीं। भूकम्प और तूफान से प्रभावित क्षेत्र को तो समस्या माना जाए लेकिन फालतू पड़ी अनुपजाऊ बंजर भूमि अथवा रेगिस्तानी इलाके को उपजाऊ बनाने को कोई काम ही न समझा जाए क्योंकि वहाँ कोई अशान्ति तो है नहीं। यों मोटी दृष्टि से देखा जाए तो रक्त में मिले रोगाणु और लकड़ी में लगे घुन भी कोई प्रत्यक्ष अशान्ति नहीं फैलाते। नशा पीने और पिलाने वाले, रिश्वत लेने और देने वाले, एकदम शान्ति से चुपचाप अपना काम कर लेते हैं। सटोरिये, जुआरी और व्यभिचारी अपने-अपने ग्राहकों के साथ ऐसी पटरी बिठाकर रखते हैं कि न किसी के पास शिकायत पहुँचती है, न पंच फैसलों की जरूरत पड़ती है और न सरकारी सहायता लेनी पड़ती है। कोई झगड़ा-टंटा खड़ा नहीं हो रहा है इसलिए इन गलत कार्यों को न रोका जाए, यह कोई तर्क नहीं है।

मिट्टी में पैदावार की ताकत न होना भी उतना ही कष्टकारक है जितना निरन्तर ओले बरसने पर या टिड्डी दल के आक्रमण से हरी-भरी फसल का नष्ट हो जाना। महामारी फैलने के कारण कोई क्षेत्र खाली हो जाना अथवा पानी आदि जीवन-साधन समाप्त हो जाने के कारण वहाँ से लोगों का चले जाना परिणाम की दृष्टि से समान है। मोटी अकल अग्निकाण्ड जैसे उपद्रवों को ही विपत्ति मानती है। सूक्ष्म दृष्टि यह बतलाती है कि उत्पादन कम होना भी एक समस्या है। समझदारी की दृष्टि से नदी पर पुल बन जाने से यातायात में सुविधा हो जाना भी एक बड़ा काम है। नदी के किनारे कोई झंझट खड़ा नहीं होता है। इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि रास्ता न होने के कारण कोई हानि ही नहीं हो रही है। विचारशील लोगों ने ऊबड़-खाबड़, अनुपजाऊ जमीनों को हरी-भरी बनाया है। गहरे समुद्र पर तैरने वाले जलयानों और आकाश में उड़ने वाले वायुयानों की रचना की है। दूरदर्शी लोगों की ही यह सूझ-बूझ थी कि जिनने समुद्र और आकाश में यातायात मार्ग बनाने में सफलता प्राप्त की। ऐसे ही विचारशीलों का कर्तव्य है कि वे नारी का स्तर गिरने के कारण हो रही भौतिक एवं आत्मिक हानि पर विचार करें, उसकी भयंकरता को समझें और उसे दूर करने की प्रभावशाली योजना बनाएँ।

यों नारी के ऊपर लगे हुए बन्धनों के कारण होने वाली कठिनाइयों का समाधान भी कम महत्त्व का काम नहीं है परन्तु उससे भी अधिक महत्त्व की बात यह है कि अविकसित-पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ी हुई नारी को योग्य बनाया जाए। उसकी प्रतिभा से वह लाभ उठाया जाए जिसके बिना सारी मनुष्य जाति की उन्नति का मार्ग ही रुका हुआ है। सम्पन्नता और खुशहाली पैदा करने के कई आधार कहे जाते हैं। कल कारखाने, कृषि-फार्म, व्यापार-संस्थान, यातायात के साधन आदि महत्त्वपूर्ण आधार माने जाते हैं। लेकिन यदि विकसित और योग्य नागरिकों को भी इसका आधार समझा जाए तो यह मानना ही पड़ेगा कि अकेले नर के बूते ही सब कुछ नहीं हो सकता, उसमें नारी का भी सहयोग चाहिए और समुन्नत हुए बिना नारी ऐसा सहयोग दे नहीं सकती।

कोई उपद्रव नहीं हो रहा है, इसलिए नारी जागरण के कार्य को कोई समस्या न मानने वाले भी, अगर थोड़ी गहराई से सोचें तो उन्हें यह अवश्य लगेगा कि आधी जनसंख्या को निर्जीव से सजीव बना देने की, अनुपयोगी से उपयोगी बना देने की समस्या आज की सबसे बड़ी समस्या है। वह अपना समाधान आज ही अभी ही किए जाने का आग्रह कर रही है। नारी के साथ बरता जाने वाला भेदभाव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे देश के असम्मान का कारण बना हुआ है। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरे और काले रंग वालों के साथ बरते जाने वाले भेदभाव के विरुद्ध जब आन्दोलन खड़ा किया था, तो उन्हें यह कहकर चिढ़ाया गया था कि आप भारतवासी भी तो अछूतों और स्त्रियों के साथ समान व्यवहार नहीं करते हैं? हमसे वैसा न्याय पाने की माँग करने से पहले आप अपने यहाँ तो सामाजिक न्याय लागू कीजिए। हम जब भी जहाँ भी, मनुष्य द्वारा मनुष्य के साथ बरती जाने वाली अनीति के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो विपक्षी लोग तत्काल इसी अतीत की याद दिलाकर हमें निरुत्तर कर देते हैं। सरकारी कानूनों में, संविधान में इस भेदभाव भरे अन्याय को अपराध ठहराया गया है। किन्तु इससे क्या? जब तक हमारा व्यवहार न बदले तब तक उस कानूनी सुधार भर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

समाज में एक वर्ग को पिछड़ा बनाए रखना फायदे का नहीं, घाटे का सौदा है। पिछड़ा वर्ग समर्थ वर्ग के लिए हमेशा गले का पत्थर बना रहेगा। एक पिछड़ेपन से कराह रहा होगा और दूसरे की कमर दोहरा भार ढोने से टूट रही होगी। पिछड़ी नारी न घर-परिवार के लिए उत्पादक होती है और न किसी दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्य में हाथ बँटा पाती है। जल्दी-जल्दी बच्चे पैदा होने से एक ओर उसका स्वास्थ्य चौपट होता है, तो दूसरी ओर परिवार की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाती है। छोटे घरों के पिंजड़े में, परदे के अन्दर कैद रहने वाली स्त्री का स्वास्थ्य, खुली हवा और रोशनी के अभाव में बिगड़ जाना बिलकुल स्वाभाविक है। शरीर जर्जर, मानसिक रूप में पिछड़ी हुई अनुभवहीन, अन्धविश्वासों से जकड़ी हुई, बच्चों के भार से लदी हुई, सताई हुई और अपमानित आज की नारी अपने लिए और अपने समाज के लिए भार बनकर ही रहेगी। जिनने उसका पिछड़ापन दूर करने की कोशिश नहीं की, वे ही इसका नुकसान उठाएँगे।

परदा प्रथा विवेकपूर्ण नहीं है, मगर उस समय तो अविवेक की हद ही हो जाती है जब वह अपने ही माता-पिता के समान अभिभावकों से किया जाता है। ससुर-पति का पिता, वधू के लिए अपने निज के पिता से भी अधिक पूज्य है। उम्र और भावना की दृष्टि से ससुर और पुत्रवधू के बीच सगे बाप-बेटी से भी अधिक पवित्र सम्बन्ध होने चाहिए। पति के बड़े भाई-जेठ आदि के सम्बन्ध भी इसी प्रकार के होते हैं। सास से परदा तो और भी विचित्र है। नारी को नारी से परदा किसलिए करना चाहिए? माँ-बेटी के बीच, पिता-पुत्री के बीच परदा कैसा? इससे तो उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान ही रुक जाता है। कोई किसी से मन की बात कह भी नहीं पाती। परदा प्रथा के कारण संकोच की ऊँची दीवार खड़ी रहने से तो अपने ही परिवार के व्यक्ति एक-दूसरे के साथ, एक ही घर में रहते हुए भी, पड़ोसी, अनजान जैसी स्थिति में ही बने रहते हैं।

दुराव-छिपाव की जरूरत तब पड़ती है जब कोई ऐसी स्थिति सामने हो, जिसे उचित नहीं समझा जाता। चोर-डाकुओं से, जो विश्वास के योग्य नहीं हैं—ऐसे लोगों से असलियत छिपाकर रखी जाती है। जीवन की लज्जाजनक घटनाओं पर परदा डाल देते हैं ताकि उन्हें जानने पर लोगों की घृणा न उभरे। मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा ढककर रखते हैं, ताकि उनकी दुर्गंध उड़कर लोगों का मन खराब न करे। अनैतिक काम, अपराध, अश्लील आचरण भी परदे के पीछे किए जाते हैं। मरे मुरदे पर कफन डाल दिया जाता है, ताकि उसकी बिगड़ी हुई सूरत देखकर डर न लगे। फाँसी लगाते समय कैदी का मुँह ढक दिया जाता है। डाकू भी नकाब पहनकर हमला करते हैं ताकि वे पहचाने न जा सकें। नारी को न जाने इनमें से किसके स्तर के बराबर समझा गया है और उसे परदे में मुँह छिपाकर रहने की आज्ञा दी है।

नारी पर ऐसे प्रतिबन्ध क्यों लगे हैं? कोई व्यक्ति यदि इसका उचित कारण विवेक से सोचना चाहे तो दो ही अंदाज लगाए जा सकते हैं—एक तो यह कि अपने समाज का पुरुष वर्ग इतना चरित्र भ्रष्ट है कि उसके आगे मुँह खोलकर रहना खतरे से खाली नहीं है। दूसरा यह कि नारी थोड़ी भी विश्वसनीय नहीं है, वह परदे की जंजीरों में जकड़े बिना चरित्रनिष्ठ नहीं रह सकती। यह दोनों ही आशंकाएँ हमारे आचरण पर कलंक की कालिख पोतती हैं।

एक सभ्य परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, छोटे-बड़े, वयस्क प्रौढ़, किशोर, सभी आयु के नर-नारी होते हैं। वे पूर्ण सुरक्षा और निश्चिन्ततापूर्वक रहते हैं। शालीनता के रहते किसी प्रकार के परदे की जरूरत नहीं पड़ती।

परदे का बन्धन दुराचार रोक सकता है, यह सोचना बेकार है। मनुष्य का शरीर ही कपड़े से ढका जा सकता है, उसकी नीयत नहीं ढकी जा सकती। मनुष्य की चतुरता का कोई ठिकाना नहीं है। कैदी जेल से सुरंगें खोदकर भाग निकलते हैं। पाकेटमार भरी भीड़ में अपना करतब दिखाते हैं। लोहे के पिंजड़े में हाथ-पैर बाँधकर और मुँह तथा आँखों पर पट्टी बाँधकर किसी को बन्द कर दिया जाए तो बात दूसरी है, नहीं तो अपराध करने वाला व्यक्ति अपने साथी हर स्थिति में ढूँढ़ लेते हैं या पैदा कर लेते हैं। मन काबू में न हो तो बाहरी रोकथाम एक बहुत छोटी सीमा तक ही काम कर पाती है। सचाई यह है कि जिन देशों और जातियों में परदे का रिवाज अधिक है उनमें दुराचार भी उतना ही बढ़ा-चढ़ा है।

परदा अनाचार की रोकथाम के लिए किया जाता है, यदि यह बात मान भी ली जाए तो फिर उसकी व्यवस्था नारी से भी अधिक कड़ाई से नर के साथ होनी चाहिए, क्योंकि घर से बाहर स्वच्छंद फिरने के कारण उसी के द्वारा गड़बड़ी होने का खतरा अधिक है। उच्छृंखलता में सदा पुरुष ही आगे रहता है।

स्पष्ट है कि परदे के पक्ष में कोई उचित तर्क या कारण नहीं है। उससे हानियाँ अनेक हैं। नारी के शारीरिक स्वास्थ्य, मस्तिष्क के विकास और व्यवहार में अनुभव बढ़ाने के लिए परदा जैसी निरर्थक बीमारी को जितनी जल्दी हो सके दूर कर दिया जाना चाहिए।

एक और बहुत ही दुःखदायी मान्यता यह है कि पुरुष नारी के साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है। आज भी छोटी-छोटी सी बातों पर हमारे घरों में स्त्रियों के साथ मार-पीट की जाती है। मनुष्य द्वारा मनुष्य के प्रति ऐसा व्यवहार पशुता का सूचक है। सभ्य देशों की तो अदालतों से भी कोड़े मारने का दण्ड उठा दिया गया है। स्कूली बच्चों को मारना अध्यापकों के लिए अपराध है। पशुओं को सताना भी अब दण्डनीय अपराध गिना गया है। पशु का अपराध नहीं, लेकिन जीते जी उसे सताना, उनके लिए क्रूरता का व्यवहार करना कानून के खिलाफ है। किसी जमाने में बड़े-बूढ़े लोग बड़ी उम्र के लड़कों की भी मार-पीट किया करते थे। अब सामान्य रूप से लोगों की स्वाभिमान की भावना बढ़ी है और जवान लड़के अभिभावकों की मारपीट या गाली-गलौज का खुला विरोध करने लगे हैं। स्वाभिमान के साथ रहना मनुष्य का स्वभाव है, उसे सुरक्षित ही रखा जाना चाहिए। नारी होना ऐसा अपराध नहीं है, जिसके कारण उसके स्वाभिमान को ताक पर रख दिया जाए, और उसके साथ मनमाना, भौंड़ा व्यवहार किया जाए।

आज भारत में नारी की वर्तमान स्थिति देखकर किसी भी भावनाशील के दिल पर गहरी चोट लगती है। प्रश्न उठता है कि नारी को इस तरह सताने से नर को क्या लाभ मिला? उसे असहाय बनाकर किसने, क्या पाया? घर-परिवार के लोगों को इससे क्या सुविधा बढ़ी? पति को उससे क्या सहयोग मिला? बच्चे क्या सुरक्षा पा सके? देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक प्रगति में पिछड़ी नारी ने क्या योगदान दिया? स्वयं नारी, जीवन का क्या आनन्द पा सकी? इन प्रश्नों पर विचार करने से लगता है कि नारी को सताकर, नीचे गिराकर, बन्धनों में बाँधकर उपेक्षित रखा जाना, किसी प्रकार उचित नहीं है। समय पूछता है कि अनुचित को कब तक सहन किया जाएगा और कब तक उसे इसी तरह चलने दिया जाएगा।

आइए हम और आप मिलकर लोकशक्ति का आह्वान करें। नारी के बारे में जो सोचा जा रहा है, उसके साथ जो व्यवहार किया जा रहा है, उसे बदलने के लिए लोगों के दिमाग बदल दें। यदि जनसाधारण का विवेक नारी के पतन की हानि और उत्कर्ष के लाभ को समझ सके तो कदम-कदम पर उठ खड़ी होने वाली समस्याएँ मिट जाएँ और उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर चलते नए युग को धरती पर ला दिखाने का लक्ष्य निश्चित रूप से पूरा किया जा सकेगा।

भगवती दुर्गा और पतित पावनी गंगा नारी की शक्ति एवं पवित्रता का प्रतीक मानी जाती हैं। महालक्ष्मी का ही छोटा रूप गृहलक्ष्मी है। सुयोग्य नारी अभाव की स्थिति में भी अपने सद्गुणों से परिवार में इतनी सुख-शान्ति बनाए रख सकती है जो बड़े-बड़े धन सम्पन्न लोगों को भी नसीब नहीं हो पाती।

नारी हर कदम पर पुरुष के लिए आवश्यक और उपयोगी है। माता के स्नेह-सहयोग के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही इस जगत में सम्भव न होगा। जगती से भी जननी बड़ी है। पत्नी के रूप में वह पति की अपूर्णता दूर करती है। बहन के रूप में सज्जनता और मर्यादा के प्रतिबन्ध लगाती है। बेटी बनकर भावभरी कोमलता से मनुष्य की सहृदयता और सद्भावना को बनाए रहती है। नर का और नर के लिए भी सद्भाव-सहयोग हो सकता है, पर नारी तो न केवल जीवन बल्कि जीवन को समृद्ध, सरल और सफल बनाने वाले सारे आधार ही उड़ेल देती है।

व्यक्ति और समाज के बीच की कड़ी परिवार संस्था है। परिवारों के छोटे-छोटे समूह मिल-जुलकर ही समाज कहलाते हैं। छोटे-छोटे अंगों से मिलकर शरीर बना है, उसी प्रकार समाज, देश और विश्व सभी का ढाँचा परिवारों के समूह मिलकर ही खड़ा करते हैं। शरीर के छोटे-छोटे कोशों में दोष आ जाने पर पूरे शरीर का ढाँचा लड़खड़ाने लगता है। ठीक इसी प्रकार परिवारों की व्यवस्था और उनके आधार लड़खड़ाने लगें तो कोई भी देश या समाज अपनी शान बनाए नहीं रह सकता।

परिवार संस्था वह धुरी है जो व्यक्ति और समाज दोनों को ही ऊँचा उठाती है। सभ्य परिवार के सुसंस्कृत वातावरण में पले हुए व्यक्ति के जीवन में कदम-कदम पर हर कार्य में महानता की छाप मिलती है। वे स्वयं तो महान जीवन जीते ही हैं, अपनी संगति में आने वाले असंख्यों को ऊँचा उठाने में सहायक सिद्ध होते हैं। सैनिकों का जो स्तर होगा, सेना की शक्ति उसी हिसाब से होती है। परिवारों की स्थिति ही समाज को मिलती है। भ्रष्ट परम्पराओं से घिरे हुए, ऊटपटाँग रीति-नीति अपनाकर, दुःख-कष्ट में फँसे हुए परिवारों का समूह देश को हर दृष्टि से दुर्बल बनाता चला जाता है। यदि किसी समाज से राष्ट्र को मजबूत और उन्नतिशील बनाना हो तो परिवारों की इन इकाइयों को पहले सँभालना होगा।

जिस खानदान में से नररत्न निकलते हैं, वह समुन्नत परिवार के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कोयले की खदानें कोयला और सोने की खदानें सोना उगलती हैं। परिवार का स्तर गया-गुजरा होगा तो उसमें पलने और बढ़ने वाले व्यक्ति भ्रष्ट और दुष्ट ही बनेंगे। सुसंस्कृत परिवार ही नररत्नों को, महामानवों को गढ़ सकते हैं।

करोड़ों रुपये की लागत से बनने वाले कल-कारखाने और चलने वाले उद्योग देश के लिए हितकारी होते हैं, इसमें शक नहीं। लेकिन श्रेष्ठ नागरिक-प्रामाणिक व्यक्ति, इन सबसे अधिक कल्याणकारी सिद्ध होते हैं। यदि किसी देश के नागरिक चरित्रवान, कर्तव्यपरायण, सद्गुणी, स्वस्थ और सज्जन हों तो तमाम अभाव होने पर भी वह मजबूत बना रहेगा और सम्मान पाता रहेगा। लेकिन अगर नागरिक शरीर और मन से कमजोर हों, उनके चाल-चलन भ्रष्ट हों तो उन्हें कितनी भी सम्पत्ति दे दी जाए, कितना ही पढ़ा-लिखा दिया जाए, कितना ही योग्य बनाया जाए, वे अपने गिरे हुए स्तर के कारण, समाज और राष्ट्र को कमजोर, बदनाम और खोखला ही करते रहेंगे। अच्छा चरित्र मनुष्यता की रीढ़ है। उसी के सहारे समाज में भी जीवन आता है। ऐसे चरित्र, स्वभाव और संस्कारों का विकास जिस वातावरण में होता है, वह केवल परिवारों में ही मिलना सम्भव है।

स्कूलों में तरह-तरह की जानकारियाँ और कुशलताएँ सिखाई पढ़ाई जाती हैं। विद्यालय हमें सुयोग्य बना सकते हैं, सज्जन नहीं। शालीनता, सज्जनता, सहृदयता जैसे मनुष्यता की शोभा बढ़ाने वाले सद्गुण सुसंस्कृत परिवारों के सुन्दर वातावरण में ही सीखे-सिखाए जा सकते हैं। विशेषज्ञ यह बताते रहे हैं कि गर्भ में आने के दिन से लेकर पाँच वर्ष की आयु पूरी होने तक, बालक की अधिकांश संस्कार-शिक्षा पूरी हो चुकती है। गुण, कर्म, स्वभाव की पूँजी ही वह सच्ची सम्पत्ति है, उसके आधार पर व्यक्ति महान या ओछे स्तर का बनता है। रूप, धन और कला-कौशल तो केवल ऊपरी शोभा शृंगार हैं। असली शोभा तो शारीरिक स्वास्थ्य ही होता है। सजावट तो उसे आकर्षक भर बना देती है। शक्ति का आधार तो खून है, वह जितना साफ और अधिक मात्रा में होगा, मनुष्य में उतनी ही शक्ति होगी। कोई व्यक्ति केवल धनी, विद्वान आदि होने भर से वजनदार नहीं बनता। उसका महत्त्व तो इस बात से आँका जाता है कि वह कितना प्रामाणिक है, उसका चरित्र कितना उज्ज्वल है, प्रतिभा कितनी प्रखर है। इस चरित्र निष्ठा के बीज बालक में पाँच वर्ष की आयु तक बोए जा चुके होते हैं। पीछे तो उनका सींचना भर शेष रह जाता है। यह बीज जैसे होते हैं, समय पर उसकी फसल निकृष्ट या उत्कृष्ट व्यक्तियों के रूप में सामने आती है।

स्कूल-कॉलेजों में गणित, भूगोल, इतिहास, शिल्प, विज्ञान आदि विषय पढ़ाए जा सकते हैं, पर वहाँ व्यक्तित्वों के निर्माण का कोई साधन नहीं। अध्यापक लोग पौन-पौन घण्टे के लैक्चर झाड़कर नौ दो ग्यारह होते हैं। विद्यार्थी घूम सकने के लिए इकट्ठे हुए पक्षियों की तरह चहचहाते, फुदकते हुए स्कूलों के प्रांगण में दिखाई पड़ते हैं और घण्टी बजते ही जेल से छूटे कैदी की तरह अपने-अपने घरों की ओर दौड़ पड़ते हैं। आज के विद्यालयों में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाती जो आदर्शवादी चरित्र-निष्ठा को बोने, सींचने और उगाने-बढ़ाने का काम कर सकें। प्राचीनकाल में गुरुकुलों की स्थिति दूसरी ही थी। वहाँ आचार्य वर्ग एक पारिवारिक वातावरण बनाता था। उन छात्रों को वहीं वर्षों तक लगातार रहना पड़ता था। उन परिस्थितियों में रहकर छात्र अपना व्यक्तित्व निखारते थे। इन गुरुकुलों में प्रवेश भी देख-परखकर दिया जाता था। प्रवेश से पहले यह छान-बीन की जाती थी कि छात्र किस वातावरण में जन्मा और बढ़ा है। प्रशिक्षक सोचते थे कि यदि निकृष्ट परिस्थितियों ने बालक की मनोभूमि में विकार पैदा कर दिए होंगे तो बाद में दी जाने वाली गुरुकुल शिक्षा भी उतनी सफल न हाे सकेगी। अधिक प्रभाव तो उस शुरू की शिक्षा का ही पड़ता है जो जन्म से लेकर पाँच वर्ष की आयु तक पूरी हो जाती है। शिशु विज्ञान के जानने वाले सदा से यही कहते आए हैं कि बच्चों के व्यक्तित्व का विकास प्रधानतया घर की पाठशाला से ही होता है। इससे बढ़कर महत्त्वपूर्ण और कोई शिक्षण संस्था हो ही नहीं सकती।

यदि हमें अपने देश और समाज को सुदृढ़-समुन्नत बनाना हो और हमें अपने देशवासियों को चरित्रवान एवं प्रतिभावान देखना हो, तो व्यक्ति और समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली परिवार संस्था को, सद्गुणों और श्रेष्ठ संस्कारों से सजाना-सँवारना होगा और उसके वातावरण में से स्वार्थभरी खींचतान और निरादर की भावना को हटाकर प्रेम पैदा करना होगा। अगर यह सचाई, यह तथ्य हमारी समझ में आ जाए तो फिर यह स्वीकार करना कठिन न होगा कि यह कार्य जैसा होना चाहिए वैसा तो केवल नारी ही कर सकती है। परिवार का वातावरण नारी रूपी पुष्प की महक से ही महकता रहता है। कई फूल सुगन्धयुक्त होते हैं और कई घोर दुर्गन्ध फैलाते हैं। अपना बगीचा जिस तरह के फल-पौधे का होगा उसकी महक उसी प्रकार की मिलेगी। गए-गुजरे स्तर की नारी न तो परिवार का स्तर ऊँचा उठा सकती है और न उससे जन्मने, पालने एवं आश्रय पाने वाले व्यक्ति ही ऊँचे स्तर के हो सकते हैं। नारी की स्थिति के अनुरूप परिवार का वातावरण बनता है, उसी के अनुसार पलने वालों का स्तर ढलता है और इसी निर्माण का प्रभाव समूचे देश एवं समाज पर अपनी छाप डालता है। दूसरे शब्दों में नारी ही परोक्ष रूप से पूरे समाज पर छाई रहती है। उसे जिस भी स्थिति में रखा जाएगा पूरा समाज निश्चित रूप से उसी स्थिति में दिखाई देगा।

प्रकृति ने नारी को ही गर्भ धारण करने की क्षमता दी है, उसका कुछ कारण है। मनुष्य केवल माँस, रक्त और हड्डी से ही नहीं बन जाता, उसे मानवीय गुण और सम्वेदना भी चाहिए। नारी के अन्दर कोमलता, स्नेह, सज्जनता, सहृदयता जैसी वे दैवी प्रवृत्तियाँ हैं, जिनसे मनुष्य में मनुष्यता पैदा हो सकती है। वह उन्हें बच्चों को भी देती है और उन्हीं भावना के धागों में परिवार के सभी सदस्यों को भी बाँधकर रख सकती है। इस नाते नारी में वह क्षमता है कि वह व्यक्ति और परिवार के बीच की कड़ी बन सके, परिवार संस्था को संगठित बनाए रखने वाली सूत्र संचालिका का श्रेय पा सके।

लेकिन आज की स्थिति देखकर मुख से 'हाय' निकल पड़ती है। नारी अपनी इन जिम्मेदारियों को निभा सकने की क्षमता बराबर खोती चली जा रही है। अपने महान कार्य को पूरा करने योग्य कुशलता, दूरदृष्टि, धैर्य, सन्तुलन और कार्य में जुटे रहने की क्षमता नारी में समाप्त होती जा रही है। यों बच्चे अभी भी वही पैदा करती है, गृहिणी भी वही कहलाती है, लेकिन वह हीरे पैदा करने वाली खदान अब नहीं रह गई है। अब वे परिवार कहाँ रह गए हैं, जो नररत्न, महामानव, देव पुरुष उत्पन्न करके दिखा सकें?

आज नारी बुरी तरह टूट गई है और उसके फलस्वरूप परिवार संस्था भी टूट रही है, फिर यह कैसे सम्भव हो सकता है कि उसके आश्रय में रहने वाले स्वर्गीय सुख-शान्ति का रस चख सकें? जब साँचा ही बिगड़ गया है तो उसमें ढलकर निकलने वाले देवमानवों का दर्शन कैसे हो?

हमारे हर परिवार को सज्जनता, सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास कराने वाली एक प्रयोगशाला के रूप में तैयार होना चाहिए। घर का वातावरण ऐसा बनना चाहिए, जिसमें रहकर हर व्यक्ति क्रमशः अधिक अच्छे संस्कारों वाला बनता चला जाए। सम्पन्नता के बिना काम चल सकता है, पर सज्जनता के बिना तो केवल दुर्गति ही हाथ रह जाती है। बहुत कीमती कपड़े और जेवर भले ही न हों, कीमती भोजन भले न मिले, लेकिन परिवार में ईमानदारी, उदारता जैसे आवश्यक सद्गुणों की सम्पत्ति अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ाते रहने का अवसर तो मिलना ही चाहिए। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि परिवार को सच्चे अर्थों में सुसंगठित बना लिया गया।

मनुष्य के लिए मनुष्यता ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। धन-दौलत तो खेतों और कारखानों से कमाई जा सकती है, लेकिन मनुष्य की सच्ची दौलत, सच्चा धन—सद्गुणों की विभूतियाँ कमाने का सबसे अच्छा स्थान, श्रेष्ठ वातावरण वाला परिवार ही हो सकता है। मनुष्य का विकास इन्हीं गुणों के आधार पर होता है। मनुष्य का दृष्टिकोण विशाल होना चाहिए। जो अपने हीन स्वार्थों में ही फँसा रहता है, वह छोटा निकृष्ट व्यक्ति कहलाता है। जिसने अपने अपनत्व के क्षेत्र को जितना बढ़ा लिया है, दूसरे के दुःखों को बाँट लेने तथा अपने सुखों को बाँट देने की प्रबल इच्छा जिसके अन्दर उमड़ती रहती है, वह महान, आत्मवान, दिव्य सम्पदाओं का धनी व्यक्ति कहलाता है। अपने अन्दर यह विशेषताएँ पैदा करने की, बढ़ाने की साधना परिवार में रहकर बड़ी आसानी से की जा सकती है। परिवार जितना बड़ा हो, साधना उतनी ही अच्छे स्तर को हो सकती है। उसमें हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा और अधिकार की उपेक्षा करके परिवार के सभी सदस्यों को एक-दूसरे का सहयोग करना पड़ता है। उदार सहयोग का व्यावहारिक अभ्यास कुटुम्ब की पाठशाला में पढ़ना पड़ता है। सादगी, श्रमशीलता, व्यवस्था, सहानुभूति, मधुरता, स्वच्छता, सेवा-शिष्टता, जैसे अनेकों सद्गुण सुव्यवस्थित परिवार के सदस्यों के स्वभाव में सहज ही सम्मिलित किए जा सकते हैं। छोटों को जो कुछ सिखाना है जैसा बनाना है, वह बड़ों को उपदेश द्वारा नहीं स्वयं उस तरह का आचरण करके सिखाना पड़ता है। जहाँ इन सब बातों का ध्यान रखा जाता होगा वहाँ परिवार का हर सदस्य आत्मनियंत्रण, कर्तव्यपालन और व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की दिशा में ही बढ़ता दिखेगा। यही वे सद्गुण हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने इच्छित लक्ष्य की ओर आगे बढ़े हैं और सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचे हैं। यह सफलता किसी के व्यापार में अधिक से अधिक धन कमा लेने और किसी ऊँचे पद पर पहुँच जाने से बढ़कर है कि कुटुम्ब के सदस्य प्रामाणिक एवं सम्माननीय समझे जाएँ।

संयुक्त परिवार से उसके हर सदस्य का हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। शरीर एक परिवार है। सब अंग, सभी हिस्से मिल-जुलकर रहते हैं तो सारा शरीर स्वस्थ और उपयोगी रहता है। अलग कटकर रहने में जो अंग अपना लाभ सोचेगा, वह नुकसान ही उठाएगा, यह तथ्य स्पष्ट है। पर यह भी सत्य है कि समझदारी तो तभी है जब उसके पीछे आस्तिकता, उदारता और कर्तव्यपालन में सन्तोष करने जैसे उत्कृष्ट भावनात्मक तत्त्व काम कर रहे हों। यह गुण उसी में हो सकते हैं जिसका जन्म संस्कारवान परिवार में हुआ हो। परिवार का सूत्र संचालन विशेष रूप से नारी के हाथ में रहता है। सारे दिन मिनट-मिनट पर उठने वाली समस्याएँ उसी को हल करनी पड़ती हैं। यदि वह सुसंस्कृत है तो घर में देवमन्दिर जैसी मन को लुभा लेने वाली स्थिति तो बनी रहेगी, साथ ही परिवार के हर सदस्य के हृदय में उल्लास भी भरा रहेगा।

परिवार एक प्रयोगशाला है, उसमें रहने वाले सभी सदस्य अपने गुण, कर्म तथा स्वभाव को बढ़िया से बढ़िया बनाने का प्रयोग और प्रयत्न करते हैं। अकेला मनुष्य अधिक स्वार्थी और अधिक उच्छृंखल हो सकता है, पर जिन्हें मिल-जुलकर साथ रहना और एक-दूसरे की सुख-सुविधा का, कठिनाई एवं आवश्यकता का ध्यान रखना है, उन्हें स्वभावत: अपने ऊपर अधिक अंकुश रखना पड़ता है; संयमशीलता का, अनुशासन का पाठ पढ़ना पड़ता है।

परिवार की प्रयोगशाला में ऐसा वातावरण बनना चाहिए, जिसमें उसके सदस्य के जीवन-विकास का पूरा-पूरा मौका मिले। उसमें सिर्फ भौतिक ही नहीं, आत्मिक-विकास का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यह प्रयास नर-नारी द्वारा मिले-जुले रूप से करने पर ही सफल हो सकता है। पुरुष की भूमिका उसमें नारी के मुकाबले कम ही है। अतः अकेला तो वह उसे पूरा कर ही नहीं सकता। यहाँ यह बात समझ ली जाए कि कहीं भी एक साथ रहने वाले मनुष्यों के झुण्ड को परिवार नहीं कहा जा सकता। जैसे किसी मजबूरी के कारण भेड़ें एक बाड़े में बन्द रहती हैं, उसी तरह कुछ मनुष्य किसी घर में एक-दूसरे से उदासीन-बेरुखे से होकर बने रहें तो उसे परिवार कह भले ही लें, लेकिन है वह सिर्फ प्राणहीन ढाँचा! परिवार का प्राण तो पारिवारिक भावना है। उसमें हर सदस्य एक-दूसरे के प्रति स्नेह और कृतज्ञता के भाव रखता है, उदारता और सहयोग का व्यवहार करता है, संयुक्त परिवार के एक अंग के रूप में अपनी जिम्मेदारी समझता है और अपने कर्तव्यों को पूरा करता है। ऐसा परिवार एक छोटे, लेकिन व्यवस्थित राष्ट्र की तरह शानदार होता है। उसका हर सदस्य उस व्यवस्था का लाभ उठाता रहता है।

ऐसे परिवारों के गठन में सबसे बड़ी रुकावट नारी का पिछड़ापन है। लम्बे समय तक प्रतिबन्धों की जकड़ के कारण नारी शरीर से कमजोर हो गई है और मानसिक तथा आत्मिक स्तर पर तो जैसे कुचल कर ही रख दी गई है। इसका फल यह हुआ है कि वह बहुत छोटे दायरे में सोच पाती है। इसलिए उसे अपने परिवार के सदस्य ही पराये जैसे लगते हैं। उनके साथ वह तुनक मिजाज ही बनी रहती है, सहयोग न ले पाती है और न दे पाती है। इसलिए छोटी सी बातों पर कलह मचता रहता है। यह कहावत बन गई है कि नारी के ओछेपन से बने घर भी बिगड़ जाते हैं। लेकिन यह बात ध्यान में रखी जाए कि नारी स्वभाव से ऐसी नहीं है, यह तो उसके ऊपर थोपे गए पिछड़ेपन का अभिशाप है।

इस दुःखदायी स्थिति का एक विचित्र पक्ष यह भी है कि महिलाओं में एकदूसरे के प्रति सद्भावना और उदारता का बड़ा अभाव पाया जाता है। वैसे देखा यह जाता है कि जिस वर्ग को सताया गया हो, उसके सदस्य एक-दूसरे से मिल-जुलकर रहते हैं। शोषक-सताने वाले ही, अपने अहंकार के कारण एक दूसरे से लड़ते और एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते देखे जाते हैं।

नारी के लिए उचित यही था कि वह अपने वर्ग के लिए अधिक नहीं तो उचित सम्वेदना और सहानुभूति तो रखती ही। एक-दूसरे का दुःख समझती और एक-दूसरे के अधिकारों की रक्षा करती। लेकिन स्थिति एकदम उलटी है। बेटे की तुलना में बेटी के साथ दुर्व्यवहार पिता की अपेक्षा माँ ही अधिक करती है। दहेज या रंग-रूप का बहाना बनाकर घर के पुरुष भले ही बहू को अपमानित करते, लेकिन सास को तो उसका दरद समझना ही चाहिए। भाभी की स्थिति में अपने आप को रखकर ननद तो उसके दुःख का अंदाज लगा सकती है। कुछ ही दिन पहले उसी घर में बहू बनकर आई जेठानी भी अपनी स्थिति भूलकर अपनी उस बेबस बहन के प्रति कैसे हृदयहीन बन पाती है?

एक नारी दूसरी नारी के दुःख-दरद को कम करने की जगह उल्टे उसे बढ़ाने में ही अपना सहयोग क्यों देने लगती है? यह आश्चर्य और दुःख की बात तो है, लेकिन स्थिति को देखकर चुप ही रह जाना पड़ता है। अविकसित मस्तिष्क भला-बुरा सोच ही नहीं पाता, फिर उससे भले की आशा कैसे की जाए? कैकेयी और मंथरा ने तो अपनी समझ में उस समय बहुत अच्छा ही कार्य किया था, लेकिन वह अनिष्टकारी सिद्ध हुआ। आज की पिछड़ी हुई नारी के अज्ञान का दण्ड भी यदि परिवार और समाज को भुगतना पड़ रहा है तो क्या आश्चर्य?

इसलिए यदि हमें अपने देश और समाज की स्थिति अच्छी रखनी हो तो उसके लिए नारी का स्तर ऊँचा उठाए बिना और कोई रास्ता नहीं। कल-कारखाने हमारी भौतिक सम्पत्ति बढ़ा सकते हैं, पर आत्मिक सम्पदा तो श्रेष्ठ व्यक्तियों से ही बढ़ सकती है। जब तक तेजस्वी व्यक्तियों की संख्या काफी न होगी, तब तक सच्चे अर्थों में हम प्रगतिशील नहीं बन सकते और न ही अपनी श्रेष्ठता ही सिद्ध कर सकते हैं, मात्र धन पर आधारित शिक्षा के सहारे बड़प्पन का जो दान दिया जाता है, वह सर्वदा खोखला है। यदि मनुष्य के अन्त:करण में मनुष्यता नहीं है, तो बढ़ी हुई सम्पन्नता बहुत करके मनुष्य को पतन के मार्ग पर ही धकेलती है और दुःख-दरद पैदा करने वाली बुरी आदतों का शिकार बनाती है।

प्रगति के लिए लोग धन-वैभव को मुख्य आधार मान लेते हैं, यह गलती है। धन-सम्पत्ति प्रगति के कारण भी बन सकते हैं और दुर्गति के भी। हाथी ढेरों काम भी कर सकता है और भयानक बरबादी भी। धन-वैभव अगर श्रेष्ठ आदर्शों से जुड़कर रहे तो कल्याण कर सकता है, नहीं तो उलटी विपत्ति खड़ी कर सकता है। धन-वैभव तो मनुष्य की प्रतिभा की देन है। प्रतिभा जड़ है तो धन-वैभव टहनियाँ और पत्ते। प्रतिभाएँ ही इन सबको बनाने वाली हैं।

लेकिन ध्यान रहे कि प्रतिभाएँ हाड़-माँस या तन्तुओं और कोशों से नहीं गुण, कर्म, स्वभाव से पैदा होती हैं। इसके लिए बहुत लम्बे समय तक संस्कार देने पड़ते हैं। लम्बे समय तक लगातार श्रेष्ठ संस्कार दे सकना नारी के लिए ही सम्भव है। बच्चों पर तो माता के शरीर और मन की स्थिति का सीधा असर पड़ता ही है, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्य भी उससे कम प्रभावित नहीं होते। उन्हें भी उत्थान या पतन की दिशा में प्रेरणा बहुत अंशों में नारी से ही मिलती है।

नारी के पुनरुत्थान के लिए विशेष ध्यान देना हमारे लिए दो दृष्टियों से उचित और आवश्यक है। एक तो नारी के साथ अब तक जो अनीति बरती गई है, उसका प्रायश्चित किया जाना चाहिए, दूसरे उसके माध्यम से हम सारी मनुष्यता की उन्नति के नए रास्ते खोल सकते हैं। नारी के विकास से सबका हित जुड़ा है। औसत आदमी, नौकरी और काम-धन्धे के सिलसिले में लगभग दस घण्टे बाहर रहता है, बाकी चौदह घण्टे घर में ही बिताता है। यदि उसके इस समय का अच्छा उपयोग हो, उसे उचित मात्रा में आराम, मनोरंजन, स्नेह, सहयोग और उल्लास मिले तो वह अधिक स्वस्थ, अधिक प्रसन्न, अधिक शक्तिशाली और अधिक क्रियाशील हो सकता है। इसकी जगह अगर मनमुटाव, असन्तोष, फूहड़पन, द्वेष, ईर्ष्या के वातावरण में रहना पड़े तो उसे साक्षात नरक के दर्शन होते रहेंगे। इस नरक की आग में जिन्दगी का अधिकांश रस तो समाप्त ही हो जाता है। इसलिए व्यक्ति और परिवार के हित की दृष्टि से भी नारी का विकास जरूरी है।

नारी का अर्थ है—संसार की आधी जनसंख्या। नारी के पिछड़ेपन की समस्या अपने देश की ही नहीं, समस्त विश्व की, समूची जाति की समस्या है, उसे सुलझाने के लिए इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा करना पड़ेगा, जिसका विस्तार और स्वरूप आज तो कल्पना में भी नहीं आता। यह जरूरी नहीं कि हर आन्दोलन का स्वरूप विरोध प्रदर्शन, विद्रोह या उत्तेजना भरा ही हो। रेडक्रास, किंडरगार्टन, स्काउट, श्रमदान, भूदान, हरितक्रान्ति, साक्षरता आन्दोलन, वृक्षारोपण, सहकारिता, स्वच्छता अभियान, बचत योजना, परिवार नियोजन आदि अनेक अभियान ऐसे हैं जिनमें घृणा, आक्रोश आदि उत्पन्न नहीं करने पड़ते बल्कि करुणा और सहृदयता ही उभरती है। साथ ही चिन्तनात्मक कार्यों में अनेकों को संलग्न रहना पड़ता है। अपनी 'युग निर्माण योजना' पिछले चार दशक से इसी आधार पर चल रही है। लोकमानस के परिष्कार तथा रचनात्मक प्रवृत्तियों में उत्साह जगाया गया है। इस दिशा में लाखों व्यक्ति जुटाए गए हैं। महिला जागरण अभियान इन सभी सृजनात्मक आन्दोलनों से अधिक बड़ा है। संसार की आधी जनता को पिछड़ेपन के गड्ढे से निकालकर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचाने का कार्य जितना महान है उसी हिसाब से इसमें जाग्रत आत्मा के ठोस सहयोग और बड़ी मात्रा में साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। इन्हें जुटाने में सबसे पहला योगदान हमारा ही होना चाहिए, इस महायज्ञ में पहली आहुति हमारी ओर से ही पड़नी चाहिए।

लोहे और सोने की दोनों ही जंजीरों से नारी को मुक्ति मिलनी चाहिए। उसे ईश्वर से प्रदत्त अपनी विशेषताओं को विकसित कर सकने का अवसर मिलना चाहिए, जिससे वह सच्चे अर्थों में देवी बन सके और अपने कार्यक्षेत्र को देवत्व के वरदानों से भर दे। यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने से नहीं होगा। इसके लिए भारी प्रयत्न करने होंगे। कितनी ही प्रतिभाओं को अपने आप को होम देने का साहस करना होगा, अब तक नारी समस्या को हलकी-फुलकी माना जाता रहा है और ऐसे ही उथले प्रचार पुस्तकों तक ही सुधार कार्य सीमित रहता रहा है। अब समय ने ठोस कार्य करने का आह्वान किया है। युग की चुनौती स्वीकार करने के लिए हममें से बहुतों को साहसपूर्वक आगे आना चाहिए।

इसके लिए आवश्यक है कि कुछ लोग अपने आप को पूरी तरह उसी में खपा दें, उसी के लिए सोचें और उसी के लिए करें। यह एकाग्रता चमत्कारी परिणाम उत्पन्न कर सकती है। पिछले दिनों कुछ ऐसे महामानव हुए हैं जिन्होंने अपना जीवन नारी उत्कर्ष के लिए ही लगा दिया। महर्षि कर्वे का नाम इस क्षेत्र में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने इसी एक समस्या पर सोचा और एकनिष्ठ भाव से उसी के समाधान में लगे रहे। राजा राममोहनराय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, हीरालाल शास्त्री जैसी आत्माओं के प्रति अपनी पीढ़ी सदा कृतज्ञ रहेगी, जिन्होंने नारी जागरण को अपने युग की सबसे बड़ी समस्या माना और उसी के हल करने में सारी शक्ति लगा दी। महिलाओं में अम्बपाली, संघमित्रा, मीरा जैसी कितनी ही आत्माएँ नारी जागरण का काम करती रही हैं। झाँसी वाली लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की एक पराक्रमी सेना खड़ी की थी। आजाद हिन्द फौज वाली लक्ष्मी बाई की लक्ष्मी ब्रिगेड ने भी बड़ा काम किया था। तीसरी लक्ष्मी बाई कन्या गुरुकुल हाथरस की संस्थापिका थी, जिन्होंने जंगल में लकड़ियाँ अपने हाथों काट-काटकर उस संस्था को बनाया। उन्होंने लगातार श्रम और लगन के द्वारा उसे अपने क्षेत्र की अद्वितीय संस्था के रूप में खड़ा कर दिखाया।

धुन के धनी व्यक्ति जिस भी काम में लग जाते हैं, उसे सफलता की चोटी तक पहुँचाकर रहते हैं। इस काम में महिला वर्ग को तो आगे आना ही चाहिए, लेकिन भावनाशील पुरुष वर्ग भी पीछे न रहे। नारी का मातृत्व उन्हें पुकारता है, नारी की कीमत जो समझते हैं और जिनकी कलाइयों में ताकत है, उनके लिए विश्व नारी ने राखी भेजी है, अपने उद्धार में योगदान माँगने के लिए बहन ने भाई के आगे आँचल फैलाया है। क्या उसे निराश कर दिया जाएगा? क्या पौरुष अपनी भूमिका भुला देगा? नहीं, जहाँ पुरुषार्थ जिन्दा है, वहाँ इस दिशा में तुरन्त सक्रियता दिखाई देगी।

महिलाओं में से अनेकों के पास बहुत समय रहता है। साधनों की भी कमी नहीं है। कमी है तो एकमात्र प्रबल इच्छा की। यदि वे चाहें तो अपनी आत्मा को समस्त नारी जाति से जुड़ा हुआ देख सकती हैं। अपने निज के लिए जो सोचती हैं, सारे नारी समाज के लिए सोच सकती हैं। लगन हो तो गृहस्थ की जिम्मेदारी होते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है। जिनके ऊपर गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, वे प्रौढ़ महिलाएँ-विधवाएँ, परित्यक्ताएँ, नि:सन्तान सधवाएँ उनके लिए बड़ा शानदार और सौभाग्य से भरा अवसर सामने है। वे नारी उत्कर्ष में अपना समय और साधन लगाकर वर्तमान स्थिति की तुलना में कहीं अधिक गौरव और शान्ति पा सकती हैं। कुमारियाँ इस अवसर को पहचान सकें तो अपना थोड़ा सा, अधिकांश, पूरा समय इस पुण्य कार्य में लगाकर अपनी प्रतिभा को सार्थक बना सकती हैं।

४. कुरीतियों के कुचक्र से बचें

समाज को आगे बढ़ाने और ऊँचा उठाने के लिए आजकल काफी हलचलें मचाई जा रही हैं। उसके लिए बहुत तरह के कार्यक्रम बन रहे हैं। लेकिन समाज को घुन की तरह पोला और जर्जर बनाने वाली कुरीतियों को दूर करने के सन्दर्भ में कुछ भी उल्लेखनीय काम नहीं हो सका है। समाज में ऐसी तमाम कुरीतियाँ फैली हैं जो किसी भी दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं। उन्हें जरा भी सहन नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन दुःख और आश्चर्य होता है कि जिन कुरीतियों और अन्धविश्वासों से सिर्फ हानि ही हानि होती है, उन्हें हम छाती से चिपकाए फिरते हैं। उन्हें बुरा-भला सब कहते हैं लेकिन छोड़ने का साहस कोई एकाध ही कर पाता है। अधिकांश लोग उनसे कष्ट पाते हुए भी, एक-दूसरे को देखकर उन्हीं में फँसे रहते हैं। हमारे समाज की स्थिति अन्धी भेड़ों जैसी हो रही है, एक भेड़ गड्ढे में गिरे तो सब उसी में गिरती चली जाती हैं। जिन कुप्रथाओं के साथ न तर्क है, न न्याय है और न औचित्य, उन्हीं के हम समर्थक बनते चले जाते हैं। एक को देखकर दूसरे भोले-भाले मनुष्य अपना समय, श्रम, धन इत्यादि इन्हीं कुरीतियों की होली में झोंकते चले जाते हैं।

सामाजिक कुरीतियों में सबसे भयंकर विवाहों की कुरीतियाँ हैं। खरचीली शादियाँ हमें आर्थिक दृष्टि से दरिद्र और स्वभाव से बेईमान बनाती हैं। सामाजिक दृष्टि से उन्हें पशुबलि के समतुल्य कन्याबलि की कुप्रथा कहा जा सकता है। इनके फलस्वरूप जो अगणित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, उससे समाज का पूरा ढाँचा ही चरमरा रहा है।

संसार भर में विवाह एक छोटे घरेलू उत्सव के रूप में मनाया जाता है। विवाह योग्य लड़की-लड़कों का गठबन्धन समाज के हर वर्ग में और हर स्तर पर किया जाने वाला सहज-सुलभ प्रचलन है। हर गृहस्थी में ऐसे कई-कई अवसर आते हैं जब कई लड़कियों की और कई लड़कों की शादियाँ करनी पड़ती हैं। संसार भर के लोग इन अवसरों को खुशी का दिन मानते हैं और छोटा घरेलू उत्सव मनाते हैं। दोनों पक्ष के दस-बीस सम्बन्धी-मित्र मिलकर कुछ घण्टे की गीत-वाद्य, उपहार, आशीर्वाद, पूजन-वन्दन, जलपान जैसी प्रसन्नता प्रकट करने वाली रीति-रस्म पूरी करते हैं और अपने-अपने घर चले जाते हैं। इसमें न तो अनावश्यक धन खरच होता है और न समय एवं श्रम नष्ट करना जरूरी समझा जाता है। दुनिया में धनी-मानी, सुशिक्षित-प्रगतिशील देशों से लेकर पिछड़े समझे जाने वाले लोगों तक में सभी जगह ऐसा ही रिवाज है। पर अपने देश की स्थिति विचित्र है। यहाँ विवाह को महाभारत जीतने या इन्द्रासन पाने जैसा महत्त्व दिया जाता है। बच्चे के जन्मदिन से ही उसके विवाह का ताना-बाना बुनना आरम्भ कर दिया जाता है। वर-कन्या का जोड़ा कैसा ढूँढ़ा जाए, यह सोचने की अपेक्षा विवाहोत्सव में खरच होने वाली धनराशि के लिए चिन्ता करना आरम्भ कर दिया जाता है।

शादियों में धन की कितनी बरबादी होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। बरात, दावत, धूमधाम, गाजे-बाजे, रोशनी, आतिशबाजी और सजधज को देखकर लगता है कि शादी वालों के घरों में लक्ष्मी के अनाप-शनाप भण्डार भरे पड़े हैं और वे लोग उसे दोनों हाथों से उलीचने के लिए पैसे को कूड़ा-करकट समझकर उसकी होली जलाने के लिए आतुर हो रहे हैं। गरीब लोगों का अमीरी का स्वाँग बनाया जाना कितना बड़ा मखौल होता है, इसे हम दूसरे की आँखों से अपने को देखकर ही जान सकते हैं। लोग समझते हैं कि इस प्रकार प्रदर्शन से उनका सम्मान होगा, लेकिन यह भ्रम है। शादियों के समय गरीब लोगों द्वारा अमीरी का स्वाँग भरना उनकी क्षुद्रता और मूर्खता का ही चिह्न माना जा सकता है, भले ही वे इसमें अपनी नाक या इज्जत बढ़ती समझते रहें।

विवाहों की कुरीति का एक पक्ष दहेज भी है। वर पक्ष द्वारा दहेज माँगने की प्रथा नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक हर दृष्टि से अवाँछनीय और अमाननीय है। सुयोग्य कन्या जिस घर में केवल रोटी-कपड़े के मूल्य पर आजीवन सेवा करने आ रही है, उनका रोम-रोम उस कन्या के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। छोटे से उपचारों के बदले कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और देने वाले का आदर पूर्वक स्मरण किया जाता है, फिर कन्या तो गृहलक्ष्मी होती है। यदि कोई कहीं से रत्न पाता है तो देने वाले का एहसान मानना चाहिए, लेकिन होता इससे बिलकुल उलटा है। कन्या को मरी बधिया समझकर उसे उठा ले जाने का मेहनताना दहेज के रूप में माँगा जाता है। लड़के वालों द्वारा रिश्ता स्वीकार करने को इतना बड़ा उपकार समझा जाता है, जिसके लिए लड़की वालों को जीवनभर नतमस्तक रहना चाहिए, नाक रगड़नी चाहिए। लड़की वाला विवाह के समय ही दहेज-उपहार देकर छुटकारा नहीं पा लेता। उसे तीज-त्यौहारों के बहाने आए दिन के खरचीले चलन अलग से चुकाने होते हैं। न्याय पूछता है कि वसूली का यह निर्णय किस ऋण के बदले में किया जाता है? कन्या देकर उसने क्या अपराध कर डाला, जिसका जुरमाना घर की कुर्की करा देने पर भी पूरा नहीं होता? समय-कुसमय उसकी माँग-फरमाइश का दबावपूर्ण सिलसिला सदा ही चलता रहता है। जब भी कुछ कमी पड़ती है, तभी अपमानित होना पड़ता है।

इस घोर महँगाई के जमाने में सीमित आमदनी करने वाले व्यक्ति को ईमानदारी से अपनी गृहस्थी का खरच चलाना ही मुश्किल हो जाता है। लड़की की शादी के लिए दहेज में नकदी, जेवर, कपड़े, बरतन, फर्नीचर आदि तरह-तरह के उपहार देने तथा धूमधाम की होली जलाने के लिए हजारों की धनराशि कहाँ से जमा हो? इसके लिए बेइमानी से पैसा कमाने के अलावा और क्या तरीका हो सकता है? ईमानदार व्यक्ति के लिए घर की सारी जमा पूँजी स्वाहा करने के बाद भी एक कन्या के विवाह का सरंजाम जुटाना कठिन पड़ता है। एक शादी में खोखला हो जाने और ऋण लाद लेने के उपरान्त दूसरी, तीसरी, चौथी कन्या के विवाह का प्रबन्ध किस प्रकार किया जाए, इस समस्या की भयंकरता को भुक्तभोगी ही समझ सकता है। जिसके घर में चार लड़कियाँ विवाह योग्य बैठी हैं, जिसके घर पूँजी समाप्त हो गई है, ऋण मिलने की सम्भावना समाप्त हो चुकी है, उसके आँखों के आगे चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार है। इस विषम स्थिति से निकलने के लिए किन्हें, क्या-क्या करना और क्या-क्या सहना पड़ता है। यदि उस करुण कथा पर से परदा उठ सके तो उसे देखकर धैर्यवानों का भी धैर्य छूट जाए। इस सर्वनाशी कुरीति ने दुष्ट राक्षसों की तरह ऐसा नरसंहार मचा रखा है कि कोई भी दिलवाला उसे सहन नहीं कर सकता।

आज कन्या का जन्म माता-पिता के लिए अभिशाप बनकर रह गया है। सीता को जन्म देकर जनक और पार्वती को जन्म देकर हिमराज धन्य बने थे, पर आज पुत्री केवल भार बनी हुई है, उपेक्षा और अवज्ञा के गर्त में पड़ी हुई बिलख रही है। उसकी न शिक्षा पर ध्यान दिया जाता है, न स्वास्थ्य पर और न सुख-सुविधा एवं प्रगति पर। यह सब तब तक हो भी नहीं सकता, जब तक कन्या को कुड़की की डिग्री माना जाता है और उससे मुक्त होने के लिए पूरा परिवार परेशान और चिन्तित रहता है।

यह दहेज के पिशाच का ही कुकृत्य है, जिसके आधार पर कन्या को दुर्भाग्य का प्रतीक बना दिया गया। इसी ने पुत्र-पुत्री में भेद पैदा कर दिया है। ईश्वरीय सृष्टि में यह भेदभाव का विषवृक्ष लगाकर हमने सुख-शान्ति के मार्ग पर, पैरों को छलनी बनाने वाले काँटे बिखेर दिए हैं। शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो आँख, दो फेफड़े, दो गुरदे होते हैं, दोनों का महत्त्व समान है। नर और नारी प्रभु की पवित्र सृष्टि के आवश्यक और एक-दूसरे के पूरक अंग हैं। उनमें न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई वरिष्ठ है और न कोई कनिष्ठ। प्राचीनकाल में भी यही मान्यता थी और प्रगतिशील देशों में वैसा प्रचलन अभी भी है। गाड़ी के दो पहिये बराबर के रहें तभी वह ठीक तरह आगे बढ़े भी। पर आज तो दहेज के पिशाच ने इस सन्तुलन को बुरी तरह नष्ट करके रख दिया है। कन्या तथा उसके परिवार के सदस्य अपने आप को हेय, कातर, दुर्भाग्यग्रस्त स्थिति के शिकार अनुभव करते हैं। उन्हें किसी से कृपा की भीख माँगनी पड़ती है। अपनी माँग को सफल बनाने के लिए धन का इंतजाम करना पड़ता है, उसी में खपकर रह जाना पड़ता है। दहेज द्वारा की जाने वाली अनीति कहीं भी देखी जा सकती है। यह तो घर-घर की समस्या है। यह नारी को, उसके सम्बन्धियों को और सारे समाज को कैसे पटक-पटककर तोड़ रहा है, इसका रोमांच भरा अनुभव कोई भी कहीं भी कर सकता है।

अपने लिए किसी से कुछ माँगना बहुत निकृष्ट काम समझा जाता है, लेकिन दहेज माँगने में न जाने क्यों किसी को शरम का अनुभव नहीं होता? मुफ्त का अनीतिपूर्ण धन पाने की लालसा वर पक्ष को पागल बनाए रहती है। अपनी श्रेष्ठता का झूठा अहंकार उन्हें अमानवीय शोषण के लिए उत्साहित करता है। मोटी दृष्टि से देखने पर ऐसा करके वर पक्ष कुछ फायदा भी उठा लेता है। योग्य बहू बिना वेतन की दासी के रूप में मिल जाती है और ऊपर से मुफ्त का धन और सामान हाथ लग जाता है। सब कुछ देकर भी कन्या पक्ष को उनके सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है। वर पक्ष इसे अपनी जीत, अपनी चतुराई समझकर गर्व से इठला भले ले, लेकिन विवेक की दृष्टि से देखा जाए तो इस लाभ के पीछे उसकी नैतिक पराजय साफ दिखाई देती है। ऐसा करके पशुता भले ही अट्टहास करे किन्तु मनुष्यता के तो आँसू ही टपकते रहते हैं। जिससे कुछ अनुदान पाया हो, उसको बदले में कुछ प्रतिदान देना शोभा देता है, लेकिन जिसने अपने कलेजे का टुकड़ा अपनी प्राणप्रिय कन्या दे दी, उसे कोल्हू में पेलकर निचोड़ डालना मनुष्य का तो काम नहीं है। आर्थिक लाभ उससे थोड़ा-बहुत भले हो जाता हो लेकिन इनसानियत तो लुट ही जाती है। इस घिनौने व्यवहार को, न्याय की दृष्टि से तो केवल धिक्कारा ही जा सकता है।

विवाह के वर्तमान ढर्रे में लड़के वाले नफे में रहते मालूम तो पड़ते हैं, वस्तुत: वे भी घाटे में ही रहते हैं। जो मिलता है उससे कुछ अधिक ही उन्हें उस धूमधाम के राक्षस पर भेंट चढ़ाना पड़ता है। वधू के लिए जेवर-कपड़ा, बरात की धूमधाम, लम्बी-चौड़ी दावत, गाजे-बाजे आदि का इतना लम्बा जूता सिर पर पड़ता है कि सिर खुजलाते ही रह जाते हैं और कमाने के लोभ में गँवा कर ही घर लौटते हैं। कन्या पक्ष इसके लिए उन्हें उत्तेजित भी करता है। जिन लोगों ने उस गरीब का घर उजाड़ दिया, उन्हें भी तो बरबादी का मजा चखना चाहिए। कन्या पक्ष बाहर से शिष्टाचारवश धूमधाम को मना भले ही करे, पर उनमें घृणा और क्रोधान्धता को तभी राहत मिलती है, जब लड़के वाले भी उस अनीति की कमाई को होली की तरह स्वाहा करके खाली हाथ घर लौटें। फर्नीचर, बरतन, कपड़े-मिठाई के उपहार निरर्थक घर घेरते हैं। न वे चीजें कोई खास काम आती हैं और न बिकती हैं। कन्या पक्ष का घर खाली हुआ, वर पक्ष के घर में कूड़ा-करकट बढ़ा, तमाशबीनों को ही इस अंगड़-खंगड़ की उठक-पटक में मजा आ सकता है। नकदी जो मिलता है उतना तो जेवर चढ़ाने में भी कम पड़ता है। लगाना उन्हें भी घर से पड़ता है। बदनामी और कलंक सिर पर लदता है सो अलग। इसे दोहरी मूर्खता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

कन्या के माता-पिता यदि स्नेहवश अपनी बेटी को कोई उपहार या पैसा दें तो इसमें हर्ज नहीं, पर वह स्वेच्छापूर्वक श्रद्धा और सामर्थ्यानुसार दिया हुआ होना चाहिए। स्त्रीधन के रूप में वह सब भविष्यनिधि की तरह कन्या के अधिकार में ही रहना चाहिए। ससुराल वाले न तो उसे अपने अधिकार में लेने का प्रयत्न करें और न ही उसके लिए दबाव डालें। पिता पक्ष और ससुराल पक्ष की ओर से दी हुई एक सम्मिलित निधि कन्या के पास किसी आपत्तिकालीन स्थिति का सामना करने के लिए सुरक्षित रहे, यही दहेज का उद्देश्य हो सकता है। वर अथवा उसके अभिभावक कन्या पक्ष से दहेज की माँग करे, यह जरा भी उचित नहीं। बिना परिश्रम की कमाई को चोरी के बराबर माना गया है, फिर हाथ-पाँव रहते भीख माँगना तो और बुरा है। कन्या देकर जिस परिवार ने असाधारण अनुदान दिया है उसी से उलटे धन वसूल करना, सो भी डाकुओं की तरह दबाव डालते हुए, सोचने की बात है कि यह सब कितना बड़ा पाप है! फिर भी अपने समाज में उसे प्रथा के रूप में मान्यता मिली हुई है और ऐसी वसूली करने वाले लज्जित होने की अपेक्षा उलटे मूँछें ऐंठते और बड़प्पन की डींग हाँकते देखे जाते हैं।

समय आ गया है कि विवाहों में पागलों की तरह, उन्मादियों की तरह धन की होली जलाना बन्द किया जाए। यदि यह न किया गया तो यह प्रथा चलते रहने पर दरिद्रता और अनीति की कमाई से पीछा न छूट सकेगा। वर पक्ष और कन्या पक्ष के बीच शोषक और शोषित की स्थिति बनी रहने से कभी भी उनमें सहज-सौजन्य उत्पन्न न हो सकेगा। कन्या पक्ष इस दुष्टता को जीवन भर नहीं भूल सकता कि उसकी बेबसी से लाभ उठाकर डाकुओं की तरह उनके परिवार को दिन दहाड़े लूटा गया था। दहेज और दिखावे के रूप में की गई कुर्की उस परिवार का भविष्य बुरी तरह अन्धकारमय बनाती रहेगी और उसका घाव जीवन भर हरा ही बना रहेगा। जमाई अथवा समधी जो भी इस प्रकार का आग्रह करते हैं, वे विचारशील कन्या एवं उसके परिवार की श्रद्धा कभी भी न पा सकेंगे। बाहर से भले ही उनके साथ शिष्टाचार बरता जाता रहे, पर भीतर से इस शोषित पक्ष की घृणा ही उनके प्रति बनी रहेगी। मनुष्य के लिए सबसे मूल्यवान इन सद्भावनाओं की कुरबानी करके, दहेज के रूप में चाँदी के ठीकरे इकट्ठे करने वालों में अगर मनुष्यता का स्वाभिमान जिन्दा होगा तो उनके कलेजे में भी यह भूल काँटे की तरह हमेशा चुभती रहेगी। ऐसी क्रूरता से धन पाकर कोई फल-फूल नहीं सकेगा।

अपने देश का जितना धन विवाह-शादियों में खरच होता है, यदि उसे बचाकर कृषि उत्पादन, पशुपालन, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य, शिल्प कला आदि में लगाया जा सके तो उतने धन से सर्वतोमुखी प्रगति की अनेकों पंचवर्षीय योजनाएँ चलाई जा सकती हैं। उसी बचत के धन का सदुपयोग करके हम भौतिक सम्पत्ति में अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्राँस, जापान, रूस जैसे समृद्ध बन सकते हैं। शिक्षा, संस्कृति और लोकमंगल में वह धन लगा सकें तो हम प्राचीनकाल जैसी स्वर्गीय परिस्थिति में फिर से पहुँच सकते हैं।

समय पुकार-पुकारकर कह रहा है कि अब हम नए सिरे से अपनी समस्याओं पर विचार करें। प्रचलित मान्यताओं की नई दृष्टि से जाँच करें और जहाँ पर चूक होती चली आ रही है, वहाँ आगे बढ़कर उसके सुधारने का साहस दिखाएँ। इस दिशा में विवाह-शादियों में होने वाले अपव्यय को बन्द करने का कदम सबसे पहले उठाया जाना चाहिए। सभ्य और विचारशील देशों में विवाहोत्सव एक सरल, स्वाभाविक, छोटे घरेलू उत्सव आयोजन की तरह मनाया जाता है। परिवारों के दस-बीस महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मिलकर वर-कन्या को आशीर्वाद दें, पूजा-प्रतिज्ञा आदि सम्पन्न कराएँ, थोड़ा मंगल गीत, सहभोज, पुष्पहार जैसे उपहारों का आदान-प्रदान हो जाए और विवाह की मंगल कामना करते हुए सब लोग अपने-अपने घर चले जाएँ। न इसमें समय और श्रम की बरबादी है, न भागदौड़, न परेशानी और न चख-चख। आदर्श विवाहों का प्रचलन ही सब प्रकार कल्याणकारी है। वह चल पड़े तो कन्या किसी के लिए भार न रहेगी। लोग लड़कियों को भी सुशिक्षित और सुयोग्य बनाने के प्रयत्न करेंगे। धन व्यय की शर्त न रहने पर सुयोग्य जोड़े तलाश कर सकना कुछ भी कठिन न रहेगा। आज घोर महँगाई के समय में तो यह बेहद जरूरी है कि अपव्यय के नाम पर नष्ट होने वाली एक-एक पाई बचाई जाए और उन पैसों का उपयोग उन्नति के कार्यों में किया जाए। समय ने इस प्रकार के परिवर्तन की माँग की है। दूरदर्शिता का तकाजा है कि इन आत्महत्या जैसी मूर्खता भरी परम्पराओं को एक क्षण के लिए भी सहन न किया जाए और उनके स्थान पर उन प्रचलनों का शुभारम्भ किया जाए जो 'जियो और जीने दो' की सम्भावनाओं का द्वार खोलते हैं।

विवाह योग्य बच्चों के अभिभावकों को निश्चय करना चाहिए कि वे उन्मादियों की तरह नहीं, विचारशील लोगों की तरह कार्य करेंगे। न दहेज लेंगे और न देंगे। कम से कम खरच में छोटा सा सरल, सीधा सा घरेलू आयोजन करके हँसी-खुशी के वातावरण में विवाह-शादी कर लिया करें। विवाह योग्य लड़कों और लड़कियों को इस सन्दर्भ में उचित बात को ही स्वीकार करने की प्रतिज्ञा भी करनी चाहिए। अपने विवाहों में दहेज एवं अपव्यय न होने देने की भी उन्हें तैयारी करनी चाहिए। इस पुण्य-प्रयोजन के लिए यदि उन्हें परिवार के लोगों का विरोध सहना पड़े तो भी प्रह्लाद, भरत, विभीषण की तरह उसे सहने के लिए तैयार होना चाहिए। यह ठीक है कि कुटुम्बी लोगों का सम्मान किया जाना चाहिए। पर यदि वे अनीति और आत्महत्या पर उतारू हों तो विरोध एवं असहयोग करना ही उचित है। पुरानी पीढ़ी के लिए उचित है कि केवल उन्हीं परम्पराओं का समर्थन करें, जो न्याय विवेक और औचित्य की कसौटी पर खरी उतरती हैं। नई पीढ़ी का काम है कि अपनी साहस और तेजस्विता को सही दिशा में लगाएँ। जो विकृतियाँ मनुष्य की मनुष्यता चूसकर उन्हें छूँछ बना रही हैं, जिनने भारी समस्याओं के पहाड़ सामने खड़े कर दिए हैं और जीना हराम कर रखा है, उन्हें उखाड़ फेंकने में युवा पीढ़ी अपना शौर्य दिखाए। वे डटकर प्रयास करें तो शादियों में धन की बरबादी और लड़कों की नीलामी को बन्द करना कठिन नहीं है।

महिला जागरण अभियान का भाव-भरा अनुरोध हर विवेकशील से है कि अपने युग के इस महाराक्षस विवाहोन्माद का अन्त करने में हाथ बँटाए। इसका अन्त होना ही चाहिए। इसके स्थान पर सज्जनता और सहृदयता की स्थापना करने वाले, आदर्श विवाहों का क्रम प्रारम्भ किया जाना चाहिए। यदि रूढ़िवादी लोग इस हठधर्मी को छोड़ने को तैयार नहीं हों तो नई पीढ़ी को भी यह अधिकार है कि वे इस अमानवीय ढंग से विवाह करने से इनकार कर दें। यह शर्त लगा दें कि आदर्श विवाहों की स्थिति बनने पर ही विवाह करेंगे अन्यथा नहीं। इस प्रकार का आदर्श लड़के और लड़कियाँ दोनों ही प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसा करने में जो कुछ कठिनाइयाँ सामने आती हैं, तो उनका साहस के साथ सामना किया जाना चाहिए। रावण, कुम्भकर्ण, कंस, जरासन्ध, महिषासुर, हिरण्यकशिपु आदि असुरों से समाज को छुटकारा दिलाने के लिए बहुतों ने अपने सुखों का बलिदान किया था और जीवन होम दिया था। विवाहोन्माद का असुर भी उन असुरों से कम घातक नहीं है। जिनमें विचार और भावना है, उन्हें इस असुर का अन्त करने के लिए आगे बढ़ना ही चाहिए। समय ने हमारे सामने चुनौती फेंकी है, उसे साहसपूर्वक स्वीकार करने में ही भलाई है, शान है। हमारे सामने दो ही रास्ते हैं—या तो विवाहोन्माद के धूमधाम और दहेज के रूप में व्याप्त असुर को समाप्त करने का साहस जुटाएँ या फिर एक-एक करके सभी लोग सर्वनाश के इस गड्ढे में गिरकर समाप्त होते जाएँ।

अलन-चलन के नाम पर, तीज-त्योहारों से लेकर मुण्डन जचकी, शादी आदि जैसी छोटी-छोटी पारिवारिक घटनाओं में भी कन्या पक्ष को वर पक्ष के पास किस्म-किस्म के उपहार भेजने पड़ते हैं। जिनके घर वे पहुँचती हैं उनके किसी काम नहीं आती। जो भेजते हैं उनको अपने पेट पर पट्टी बाँधकर महँगा आडम्बर जुटाना पड़ता है। बड़प्पन का झूठा दिखावा ही इस खरचीली विडम्बना का एकमात्र कारण होता है। हम इतने अमीर हैं, हमारे रिश्तेदार इतने अमीर हैं, जिनके लिए छोटे-छोटे प्रसंगों पर इतने कीमती उपहार भेज पाना सहज सुलभ है। यह दिखाना और मुहल्ला पड़ोस में चर्चा का विषय बनाना, यही है इन अलन-चलनों का प्रयोजन। इसी के लिए कर्ज लेकर या पेट काटकर पैसा खरच करना पड़ता है। यह सब एक-दो बार देने से भी काम नहीं चलता, यह सिलसिला आजीवन और पीढ़ियों तक चलता रहता है। इच्छा एवं स्थिति न होते हुए भी विवशता में दिए गए यह दान-अनुदान कितने निरर्थक और कितने भारभूत हैं, इसे गम्भीरतापूर्वक विचारा जाना चाहिए।

जब फालतू पैसा लोगों के पास था या अभी भी जिनके पास फूँकने के लिए ही दौलत भरी पड़ी है, वे ऐसे प्रदर्शनों में कुछ भी खरच करें, पर जिन्हें रोज कुआँ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है उनके लिए यह भारभूत प्रथाएँ कमर तोड़ने और दम घोटने का ही काम करती हैं। बच्चों की फीस और बीमारों की दवा में कटौती करके भी अलन-चलन भेजना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है और उसकी चिह्नपूजा किए बिना काम नहीं चलता। ऐसी हालत में यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि क्या इन मूर्खतापूर्ण रीति-रस्मों से पिण्ड नहीं छुड़ाया जा सकता जिनमें किसी का कुछ भी लाभ नहीं है। प्रदर्शन, बड़प्पन, अहंकार और घण्टे आधे घण्टे की भली-बुरी चर्चा—उखाड़-पछाड़ के अतिरिक्त और कुछ बनता नहीं। समय की माँग है कि इस जाल-जंजाल को एक झटके में ही उखाड़कर फेंक दिया जाए।

विवाह विकृतियों की शृंखला में उन्मादियों जैसा उत्सव-आवेश तो सबसे मुख्य है ही, उस असुर परिवार में और भी कितने ही मारीच, खरदूषण, इधर-उधर छिपे पड़े हैं। अपने-अपने ढंग की विनाश लीलाएँ वे भी कम नहीं रच रहे हैं, प्रयत्न इन सभी के निराकरण का होना चाहिए। बाल विवाह और अनमेल विवाह, दो की गणना इसी वर्ग में की जा सकती है। जिन बालकों का गृहस्थ का उत्तरदायित्व पालन कर सकने योग्य शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हुआ है, उन अविकसित अबोध शिशुओं पर वह वजन नहीं पड़ना चाहिए जिससे बोझ में दबकर वे अपना व्यक्तित्व एवं भविष्य ही गँवा बैठें। गृहस्थ एक बहुत कठिन और बड़ा वजनदार उत्तरदायित्व है। उसका निर्वाह करना वयस्क और परिपक्व लड़की-लड़कों का ही काम है। कम आयु के बैल-घोड़े न हल चला पाते हैं और न रथ खींच सकते हैं। कम उम्र के बालकों के कन्धों पर विवाह का बोझ डालना उनकी प्रगति का द्वार बन्द करने के अलावा और कुछ भी नहीं है।

जिस तरह कठपुतलियों का तमाशा देखने के लिए बच्चे आतुर होते और मचलते रहते हैं उसी प्रकार कुछ बुढ़िया-बुड्ढी भी रट लगाए रहते हैं कि उनके बेटे-पोतों की शादी उनके सामने हो जाए। इस धूम-धाम को देखकर मरें, तब उन्हें चैन पड़े। अपनी खुशी के लिए वे बच्चों का कितना अहित करते हैं, उनमें यह समझ सकने की दूरदर्शिता ही नहीं होती। बाल विवाहों के बन्धन में बँधे हुए छोटे-छोटे बालक अपने स्वास्थ्य को जन्म भर के लिए चौपट कर लेते हैं। उनके खोखले शरीर जीवन भर दुर्बलता और रोगों का रोना रोते रहते हैं। यह ऋण पीढ़ी दर पीढ़ी चक्रवृद्धि दर से बढ़ता ही चला जाता है, जिससे राष्ट्रीय स्वास्थ्य को अपार क्षति पहुँचती है। बाल विवाह के कारण उत्पन्न हुआ शारीरिक और मानसिक खोखलापन प्रगति के प्रत्येक द्वार को अवरुद्ध करता है। ओजस्वी और तेजस्वी पीढ़ियों का स्वप्न मटियामेट कर देने में बाल विवाह से अधिक घातक कारण शायद ही कोई अन्य होता हो।

समय आ गया कि बच्चों के भाग्य और भविष्य के साथ खिलवाड़ करना बन्द किया जाए। उत्सव का तमाशा-कुतूहल देखने के मूल्य पर सन्तान को विनाश के गड्ढे में धकेल देने का बेतुका मरण नृत्य बन्द किया जाय। बच्चों को स्वास्थ्य, विद्याध्ययन और अनुभव एकत्रित करने में ही संलग्न रहने दिया जाए। विवाहोत्सव की तब तक प्रतीक्षा की जाए जब तक उसका उपयुक्त अवसर नहीं आ जाता। पेड़ पर जल्दी फल उगाने की उतावली बरतने में लाभ कम और हानि अधिक है। परिपक्व आयु के बच्चे ही गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को सँभाल सकने योग्य क्षमता उत्पन्न कर पाते हैं। उन्हें अपने भविष्य निर्माण के लिए उपयुक्त तैयारी करने की छूट मिलनी चाहिए। इस दिशा में बरती गई उतावली व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अनेकों संकट उत्पन्न करेगी, यह समझ हर अभिभावक में उत्पन्न की जानी चाहिए। जिनमें इतना भी ज्ञान नहीं है कि उत्सव और बच्चों के हित के बीच किसे चुनना चाहिए। उन उखड़े दाँत और सफेद बाल वाले बालकों को, उन नाममात्र के बड़े-बूढों को यह पाठ पढ़ाया जाना चाहिए कि अक्ल को चौराहे पर नीलाम न करें। जिस प्रकार दूसरी बातों में बच्चों को अनहित से बचाने और हित में लगाने का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार बाल विवाह के कारण आने वाली सर्वनाशी विपत्तियों से भी उनकी रखवाली करें।

अपने समाज में विवाह को इतना महत्त्व मिला है मानो वह जीवन का ही दूसरा नाम हो। अपंग-असमर्थों तक को किसी न किसी के साथ बन्धन से बाँध देने की बात सोची जाती है। सभ्य देशों में विवाह केवल वे ही करते हैं जो शारीरिक, मानसिक, आर्थिक दृष्टि से अपने को सम्पन्न अनुभव करते हैं और निश्चय करते हैं कि अपना तथा अपने साथी का, बच्चों तथा कुटुम्बियों का बोझ भली प्रकार अपने कन्धे पर उठा सकते हैं। जिन्हें अपनी इस योग्यता पर तनिक भी सन्देह होता है, वे लड़की-लड़के अविवाहित रहना ही पसन्द करते हैं। अपने देश में तो विवाह न होना कोई पाप-अभिशाप समझा जाता है, जबकि वस्तु स्थिति सर्वथा भिन्न है। लड़का जब तक इतना न कमाने लगे कि स्त्री-बच्चों का भली प्रकार निर्वाह होने लगे, तब तक उसे विवाह की बात सोचनी ही नहीं चाहिए। बूढ़े माता-पिता की सहायता करना बच्चे का कर्तव्य है, पर जब वे बचपन में ही गृहस्थी के भार से लद जाते हैं तो उनके लिए स्त्री को सँभालना भी कठिन पड़ता है। इसमें भी अभिभावकों की सहायता लेनी पड़ती है। फिर माता-पिता की, भाई-बहनों की, परिवार के अन्य असमर्थों की सहायता कैसे की जाय? उचित मात्रा में धन कमाने की स्थिति पा लेने से पहले किसी को न तो स्वयं शादी करनी चाहिए और न इसके लिए उसे दबाया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में शारीरिक और मानसिक स्थिति का इस योग्य होना भी आवश्यक है कि अपने साथी को सन्तुष्ट रख सके। किन्तु हम हैं जो इन बातों पर तनिक भी विचार नहीं करते और हर लड़की-लड़के का जिस प्रकार भी हो सके, जितनी जल्दी हो सके, विवाह कर देने की बात सोचते हैं। अच्छा होता कि विवाह करने, न करने का निर्णय वयस्क होने के उपरान्त बच्चों को स्वयं ही करने दिया जाता।

जो बालक सर्वथा अनजान हैं उनकी बात दूसरी है, पर जिनमें थोड़ी भी समझदारी पैदा हो गई हो उन्हें इस सम्बन्ध में सावधान रहना चाहिए। अन्य सतर्कताओं की तरह यह सावधानी भी रखनी चाहिए कि उन्हें अपने ही अभिभावकों द्वारा बेवक्त विवाह के जंजाल में ठेल न दिया जाए। यदि बड़ों का दबाव पड़ रहा हो तो अत्यन्त नम्रता किन्तु पूरी दृढ़ता के साथ इन हितैषियों को यह कहना चाहिए—"आप अभी तो हमारे भविष्य के लिए ९९ कामों का बोझ ही अपने ऊपर रखें और १ बोझ समय आने तक के लिए बिना उठाए ही पड़ा रहने दें। समर्थ हो लेंगे तब उस समस्या को हल करने में हम स्वयं भी आपकी थोड़ी मदद कर देंगे।" लड़की हो या लड़का, दोनों में ही शारीरिक, मानसिक विकास के लिए समान समय चाहिए। इसलिए अब तक विवाह की आयु के सम्बन्ध में जो मान्यता चली आ रही है उनमें क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। बाल विवाह के पक्ष में जो सोचा और जो कहा जाता है उसे औचित्य की कसौटी पर कसा जाना चाहिए और यदि वह अनुपयुक्त बैठता है तो खोटे सिक्के की तरह, सड़े-गले कूड़े-करकट की तरह उसे बुहारकर फेंक ही दिया जाना चाहिए।

अनमेल विवाह भी बाल विवाह की तरह ही अनुपयुक्त हैं। पति-पत्नी के बीच आयु और परिस्थिति की समानता होनी चाहिए। विधुर-विधवाओं के साथ विवाह करें, प्रौढ़-प्रौढ़ाओं के साथ और वृद्ध-वृद्धाओं के साथ, इसमें कोई बुराई नहीं, पर वृद्धों के साथ छोटी उम्र की लड़कियों का गठबन्धन अनुचित है। इससे दाम्पत्य जीवन में असन्तोष, दुर्भाग्यपूर्ण वैधव्य, गृहकलह, छोटे बच्चों के अनाथ रहने जाने, अवांछनीय प्रचलन जैसी अनेकों समस्याएँ पैदा होती हैं और वातावरण में विषाक्त विक्षोभ फैलता है।

बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा के सम्बन्ध में भी समान स्तर पर नियम रहने चाहिए। पतिव्रत धर्म और पत्नीव्रत धर्म को समान श्रेय मिलना चाहिए। उनमें कड़ाई और ढिलाई एक जैसा रहनी चाहिए। जिसने अधिकार हथिया लिए हैं, वह चाहे जो कुछ करे, जो कमजोर है उसे कोई हक न रहे, यह गलत है। इन दिनों जिसकी लाठी उसकी भैंस का फूहड़ नियम नहीं चल सकता। यह जंगली कानून यदि मनुष्य समाज में भी प्रचलित रहा तो धर्म, अध्यात्म, नीति, न्याय, संस्कृति, विवेक, औचित्य एवं आदर्शवाद कहने-सुनने भर की वस्तु बनकर रह जाएँगे। नारी भी मनुष्य है। मनुष्य के कानूनों में जाति, लिंग, वर्ण, वंश के आधार पर पिछले दिनों भेदभाव भले ही चलता रहा हो, पर अब उसका अन्त होना चाहिए। सती प्रथा, परदा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, विधुर विवाह, वृद्ध विवाह आदि के प्रचलनों में नर को स्वेच्छाचारी बनाया और नारी को दबोच देने का पक्षपात साफ दिखाई देता है। समाज के मुखियों का काम है कि सबल और निर्बल पक्ष के लिए बनाए गए इन भेदभाव भरे तरीकों पर फिर से विचार करें। नियम जो भी हों, मनुष्य जाति के दोनों अंगों पर समान रूप से लागू हों।

विवाह विकृतियों के अलावा अन्य तमाम कुरीतियाँ भी अपने समाज को खोखला बनाने में लगी हुई हैं। मजबूत शहतीर को भी छोटा सा घुन कुछ ही समय में पोला बनाकर, उसे धराशायी कर देता है। कुरीतियों के कीड़े इसी तरह के हैं जिन्होंने हमारे पुराने गौरव को तार-तार कर दिया और हमें ऐसी विषम स्थिति में लाकर पटक दिया है।

जाति-पाति की विषमता ने हमें टुकड़ों में बाँट दिया है। एक ही भारतमाता के पुत्र, एक ही संस्कृति की छाया में पले-पनपे हम लोग जाति-पाति के बंधनों में जकड़े हुए अपने आप को एकदूसरे से भिन्न समझने लगे हैं। जातियों और उपजातियों के सदस्य एक दूसरे में परायापन समझने लगे हैं और रोटी-बेटी के व्यवहार से कतराते हैं। यहाँ तक कि एकदूसरे को छूने तक में एतराज करते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था समाज में हर व्यक्ति को उसकी रूचि और योग्यताओं के अनुरूप कार्य और उत्तरदायित्व पा सकने के लिए बनाई गई थी। इस महान परम्परा के आविष्कर्ताओं ने कभी कल्पना भी न की होगी कि एक ऐसा समय भी आएगा जब इन पवित्र प्रचलनों का ऐसा अर्थ-अनर्थ किया जाएगा। लोग जाति और वंश के नाम पर अपने को एक-दूसरे से ऊँचा या नीचा समझने लगेंगे।

मनुष्य सत्कार्यों से ऊँच और कुकर्मों से नीच बनता है। हमारे पूर्वज सम्मान के योग्य थे, इसलिए हमें भी वैसा माना जाए, ऐसा नहीं हो सकता। डॉक्टर के बेटे-पोतों के अशिक्षित होने पर भी उन्हें डॉक्टर का ही सम्मान नहीं दिया जा सकता। ऊँचे समझे जाने का दावा अपनी व्यक्तिगत विशेषता के आधार पर किया जा सकता है, अपने पूर्वजों की कथा-गाथाओं के सहारे नहीं। फिर ऊँचा बनने के लिए यह कोई आधार नहीं कि अपने अतिरिक्त अन्यों को नीचा समझ लिया जाए।

हम सब एक ही जाति, एक ही वर्ण, एक ही धर्म और एक ही समाज के अंग हैं। जाति-पाति के नाम पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच की मान्यता का कोई आधार नहीं। अपने समाज को अनेक भागों में विभक्त करने वाली, बिखराव से राष्ट्रीय एकता को अपार क्षति पहुँचाने वाली, इस भेदभाव भरी मान्यता का परित्याग करने में ही कल्याण है।

जाति-पाँति की तरह नर-नारी के बीच भी खाई खोद दी गई है। मनुष्य जाति के इन दो समान एवं अविच्छिन्न अंगों में से एक को ऊँचा और दूसरे को नीच समझा जाता है। एक ने शासक की पदवी प्राप्त की है और दूसरे को गुलाम बनकर रहना पड़ रहा है। पशुओं को भी मुँह खोलकर चलने और इच्छानुसार बोलने की आजादी है, पर नारी तो उतने की भी अधिकारिणी नहीं रहने दी गई है। उसे घूँघट में, परदे में तन को इस तरह ढँककर रखना पड़ता है, मानो सारी अपवित्रता उसी पर लद गई हो। जेल में कैदी भी चेहरे पर नकाब लगाकर नहीं रहते, उन्हें बन्दीगृह में भी खुले मुँह रहने और एक-दूसरे से हँसने, बोलने एवं मिलने-जुलने की छूट रहती है। परन्तु नारी को तो उससे भी वंचित कर दिया गया है। मनुष्य के मौलिक अधिकारों का इतना अपहरण, मध्यकालीन डाकुओं द्वारा की जाने वाली लूटमार जैसा ही कुकृत्य है, जिसे आज सामाजिक मान्यता भी मिल गई है। नारी को पददलित और प्रतिबन्धित बनाकर हमने कितनी अपार हानि उठाई है। इसका लेखा-जोखा लिया जा सके तो पता पड़ेगा कि आधे जनसमाज को जबरदस्ती अपंग, लकवे से पीड़ित जैसा बनाकर डाल दिया है। अपने पैरों इतनी गहरी कुल्हाड़ी मारी गई है कि इस आघात के कारण समाज लँगड़ा ही हो गया है।

युग ने पुकारा है कि नारी को बन्दिनी न रहने दिया जाए और उसे हर क्षेत्र में कन्धे से कन्धा मिलाकर प्रगति के पथ पर तेज गति से बढ़ चलने और चढ़ सकने की क्षमता से सुसम्पन्न सहयोगिनी बनाया जाए। जाति और लिंग के बीच बरती जाने वाली विषमता आज के समतावादी युग में चल ही नहीं सकेगी। विश्वमानव की जाग्रत अन्तरात्मा इन विकृतियों को सहन न कर सकेगी और वे जड़-मूल से नष्ट होकर रहेंगी। बुद्धिमानी इसी में है कि हम अन्ध परम्पराओं की दुहाई बन्द करें और अनीति पर आधारित असमानता के आग्रह को अपनी इच्छा से ही छोड़ दें। भलाई इसी में है। अन्धकार युग की रीति-नीति इस प्रभात वेला में जब चलने वाली है ही नहीं, तो उन्हें गले से बाँधे रहना समझदारी की निशानी नहीं है। समय ने न्यायोचित परिवर्तन की माँग की है। जाति और लिंग के बीच बरता जाने वाला भेदभाव जितनी जल्दी छोड़ा जा सके उतना ही अच्छा है।

अपने समाज में मृतकभोज भी एक भारी कुरीति है। मृतकभोज के नाम पर लम्बे-चौड़े प्रीतिभोज करना मृतात्मा के प्रति गहरा असम्मान है। संसार भर में प्रीतिभोज आयोजन हर्षोत्सव के रूप में ही चलते रहे हैं और चल रहे हैं। किसी भी समय कोई विदेशी व्यक्ति भारत में मृतकभोजों को देखकर यही निष्कर्ष निकालेगा कि मृतक का घर से उठ जाना पीछे वालों को बहुत अच्छा लगा है और वे इसकी खुशी को व्यक्त करने के लिए लम्बे-चौड़े प्रीतिभोज का आयोजन कर रहे हैं। मरने वाले की आत्मा को शान्ति, सद्गति या पुण्य प्राप्त हो इस उद्देश्य की पूर्ति निठल्ले लोगों को दावत देने से नहीं हो सकती। इसके लिए पीड़ा और पतन से राहत देने वाले लोकोपयोगी कार्यों में पैसा या श्रम खरच किया जाना चाहिए। पुण्य-परमार्थ की बात तभी बनेगी। आज की महँगाई में धन की यह बरबादी हर दृष्टि से मूर्खतापूर्ण ही कही जाती है। इस भार से सामान्य स्तर के परिवार का कचूमर ही निकल जाता है। इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अपव्यय के कारण कितने ही परिवार अपना आर्थिक सन्तुलन खो बैठते हैं और कर्जदार-निर्धन बनकर भारी दुःख सहते हैं। दावत खाने वालों में भी निर्लज्ज ढीठता उत्पन्न होती है, वे अपने परिचित सम्बन्धियों के शोक को हलका करने की अपेक्षा दावत उड़ाकर उलटा भार बढ़ाते हैं। यह अदूरदर्शिता का परिचय देना ही है। मृतकभोज जैसी कुरीतियाँ हमारी अर्थव्यवस्था नष्ट करने का बहुत बड़ा कारण बनी हुई हैं। उन्हें जड़-मूल से उखाड़ फेंकना आवश्यक है। जाग्रत विचारशीलता को चाहिए कि इन अवांछनीयताओं के उन्मूलन में साहस भरी भूमिका निभाए। उन्हें इन कुप्रथाओं का अन्त करके ही दम लेना चाहिए।

एक और भी कुप्रचलन अपने देश में ऐसा है जिसने जनशक्ति, धनशक्ति और नीति-निष्ठा पर भारी कुठाराघात किया है वह है—भिक्षा व्यवसाय। अपंग, असमर्थ एवं विपत्ति में फँसे व्यक्ति भिक्षा के अधिकारी होते हैं। लोकहित के कार्यों के लिए याचना करने का भी औचित्य है। पर इस प्रथा का समर्थन विवेक की कोई भी धारा नहीं कर सकती कि हट्टे-कट्टे निठल्ले और लोकोपयोगी सेवाकार्यों से हजारों मील दूर रहने वाले लोग वंश और वेश के नाम पर भीख माँगकर गुजारा करें। शरीर से हट्टे-कट्टे, लोकसेवा से दूर रहने वाले व्यक्ति भी जब भिक्षा को व्यवसाय बनाने की बेशरमी अपनाते हैं तो मानवी स्वाभिमान को भारी आघात पहुँचता है। चोर बुरा है, पर समर्थ एवं लोकसेवा से दूर भिक्षुक उससे भी बुरा है। अपने देश में लगभग ६० लाख से अधिक व्यक्ति भिक्षा व्यवसाय से आजीविका उपार्जित करते हैं। उनमें से सही अर्थों में असमर्थ और लोकसेवा में लगे रहने वाले ब्रह्मदेवों की संख्या तो उँगलियों पर गिनने जितनी है। शेष तो तनिक सी असमर्थता का बहाना बनाकर अथवा वेशभूषा की महिमा बखानते हुए अपने आपको दान वसूल करने का अधिकारी मानते हैं। ऐसे लोग स्वयं बिना लज्जा-संकोच के माँगते हैं और न देने वालों को खरी-खोटी सुनाते हैं।

साठ लाख की संख्या बहुत अधिक है, इससे भी कम लोग अपना शासनतंत्र चला रहे हैं। इतने लोगों की सेवा जिस देश के पास हो वह प्रचण्ड शक्तिशाली गिना जाएगा। इतने लोग उत्पादन में जुट पड़ें तो देश की आर्थिक स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँचा सकते हैं। इतनी संख्या के धर्मोपदेशक सारे विश्व को एक संस्कृति के नीचे ला सकने के स्वप्न देख सकते हैं। अपना दुर्भाग्य ही है कि इतनी बड़ी जनसंख्या आत्म गौरव को खोकर भिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपना जीवन चलाती है। इनका भार समाज को ही उठाना पड़ता है, इससे हमारी आर्थिक स्थिति पर भारी दबाव पड़ता है। इतना ही नहीं 'खाली दिमाग शैतान का घर' की कहावत भी इन पर लागू होती है। ये लोग अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए तरह-तरह की मूढ़ मान्यताओं और भ्रम-जंजालों को फैलाते फिरते हैं। भोली-भाली जनता की मनोभूमि में गलत मान्यताओं के विष-बीज ये लोग ही बोया करते हैं। ये कुकृत्य बन्द किए जाने चाहिए।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि किसी को सहयोग देने का क्रम ही बन्द कर दिया जाए। असमर्थों को सहारा देने और समाजसेवा के कार्यों के लिए याचना करने और उत्साहपूर्वक देने की पुण्य प्रक्रिया तो जारी रहनी चाहिए, पर करुणा और उदारता की इस देव प्रकृति की आड़ में पलने वाले हानिकारक भिक्षा व्यवसाय का तो अन्त ही होना चाहिए। देश-वेश और धूर्तता का सहारा लेकर जो लोग मनुष्यता की मर्यादा को नष्ट करने पर तुले हुए हैं, उनके प्रति बेरुखी दिखाई जानी भी आवश्यक है। कुपात्रों को दिया हुआ दान दाता को नरक में ले जाता है। शास्त्र का यह वचन हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए। उदारता विवेकपूर्ण होनी चाहिए। सहायता सार्थक हो, इस लक्ष्य पर भी नजर रहनी चाहिए। भिक्षा व्यवसाय में लगे हुए लोगों को श्रम करके सम्मान के साथ आजीविका कमाने का अवसर मिलना चाहिए और उन्हें उसके लिए मजबूर किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत स्वर्ग, मुक्ति-सिद्धि आदि कामों के लिए लगे रहने वाले व्यक्तियों को भी कहा जाना चाहिए कि वे भजन या जो भी करना चाहें करें, पर उस आधार पर दूसरों पर भार न डालें। अपनी कमाई पर रहने वालों का ही भजन-पूजन भी उनके लिए लाभप्रद हो सकता है; नहीं तो उनका जप-तप भी उन्हीं के साथ बिक जाएगा, जो उन्हें मुफ्त की रोटी खिलाते हैं। भिक्षावृत्ति में लगे हुए लाख-लाख कुपात्रों को सिखाया जाना चाहिए कि वे किस प्रकार इज्जत के साथ स्वावलम्बन की रीति-नीति अपना सकते हैं और आज की अपेक्षा कल कहीं अधिक अच्छी स्थिति में कैसे पहुँच सकते हैं।

देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में और भी अनेक प्रकार की कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ, रूढ़ियाँ, कुप्रथाएँ आदि फैली हुई हैं। अन्धविश्वास का भ्रम-जंजाल शिक्षित और अशिक्षित, धनी और निर्धन सभी वर्गों में अपने-अपने रंग-ढंग से फैला हुआ है। आवश्यकता इस बात की है कि हर व्यक्ति को विवेक दृष्टि मिले। सही स्थिति को खोज सकने योग्य तर्क और विवेक को जाग्रत किया जाए। भ्रम-जंजालों से छूटा जाए और औचित्य को ही अपनाने का साहस जुटाया जाए।

विवेक, औचित्य और न्याय को अपनाकर ही उस सतयुग को लाया जा सकना सम्भव हो सकता है जिनके लिए मानवता की आशा हमें सदा से लगी रही है। जिसको अपने ही समय में धरती पर अवतरित करने के लिए महिला जागरण अभियान ने शपथपूर्वक प्रतिज्ञा ली है। आइए, हम सब मिलकर इस महान अभियान को पूरा करने के लिए साहसपूर्वक कदम बढ़ाएँ और हर कीमत पर उसे सार्थक बनाने के लिए जुट जाएँ।

५. समाधान के लिए ठोस प्रयास हों

महिला जागरण की आवश्यकता और महत्त्व अब किसी से छिपा नहीं है। इसके लिए प्रयास भी हो रहे हैं और होंगे भी। एक बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि इस युग में नर-नारी के बीच यह रिश्ता नहीं चल सकता, जिसके अनुसार एक वर्ग स्वामी कहलाए और दूसरा उसकी सम्पत्ति। समय का चक्र अपनी गति से चल रहा है, अन्धकार का समय बीत चुका है, अरुणोदय की वेला सामने खड़ी है, अब हमें न्याय और औचित्य की माँग सुननी ही पड़ेगी, उसे मान्यता देनी ही पड़ेगी, उसे स्वीकार करना ही होगा। पर परम्पराओं की दुहाई देकर अब सिद्धान्त की आड़ में अपने स्वार्थों को प्रधानता नहीं दी जा सकती। परिवर्तन होना निश्चित है, उसे कोई चाहे तो भी रोक नहीं सकता।

नए युग में नई मान्यताएँ होंगी। नर और नारी समानता और सहकारिता के आधार पर नए समाज की रचना करेंगे। उसमें न कोई शोषक होगा न शोषित, न कोई अधिपति होगा और न दास, कोई किसी का मोहताज नहीं रहेगा। सचाई यह है कि मनुष्य जाति के ये दोनों ही अंग अपने आप में पूर्ण हैं। दोनों ही परम प्रभु की समर्थ भुजाएँ हैं। दोनों का स्तर और वर्चस्व समान है। दोनों को समान कर्तव्य और समान अधिकार में सँजोया गया है। दो भुजाएँ एकदूसरे की पूरक और सहायक तो हैं पर कोई किसी पर आश्रित नहीं। दोनों टाँगें लम्बी यात्रा में समान योगदान करती हैं, पर कोई किसी की दास या स्वामी नहीं है। इनमें से किसी को दुर्बल या सबल नहीं कहा जा सकता। सहयोग की शक्ति का सबको ज्ञान है। इसमें दोनों ही पक्षों को लाभ है। अलग रहने में दोनों को ही घाटा है। प्रकृति ने नर और नारी दोनों को समान बनाया है। दो कान, दो आँख, दो नथुने, दो फेफड़े, दो गुरदे, दो ओंठ, दो गाल अपने शरीर में हैं। इनमें न कोई वरिष्ठ है और न कोई कनिष्ठ। गाड़ी के दो पहिये समान आकार-प्रकार के हों तो ही वे ठीक तरह लुढ़कते हैं। अब इस सहज स्वाभाविक समता को मान्यता देनी ही पड़ेगी।

नर को यह बात एकदम भुला देनी चाहिए कि वह स्वयं तो अधिपति है और नारी उसकी सम्पत्ति। पिता कन्या का दान करे, बेचे या अयोग्य के साथ अनमेल विवाह कर दे—लड़की को इसमें विरोध नहीं करना चाहिए, यह मान्यता अब टिक नहीं सकती। पति उसे तिरस्कृत, लाँछित करे, निरन्तर अपमानजनक और गाली-गलौज के कटु शब्द बोले, नृशंस मार-पीट करे तब भी स्त्री को सब कुछ चुप रहकर सहन करना चाहिए, यह थोथा सिद्धान्त टूटकर गिरेगा ही। पुत्र पैदा न होने व कुरूप होने जैसी परिस्थिति के बदले आए दिन स्त्रियाँ ठोकर मार कर घर से निकाल दी जाती हैं और देखते ही देखते दूसरी शादी कर ली जाती है। पिता की सम्पत्ति का पुत्र ही उत्तराधिकारी होता है, पुत्री तो दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दी जाती है। यों कानून में तो पुत्र की तरह पुत्री का भी पैतृक सम्पत्ति में अधिकार है, पर व्यवहार में वह कब-कितनी मात्रा में प्रयुक्त होता है, उसे हर कोई जानता है। पुत्री और पुत्र के बीच कितना भेदभाव चलता है, इससे कौन परिचित नहीं है? अब तक यह कहा जाता रहा है कि स्त्रियों को गायत्री जपने, हवन करने, यज्ञोपवीत पहनने जैसे शुभ कर्म करने तक का अधिकार भी नहीं है। वे घर की देहरी से बाहर अकेली नहीं जा सकती। अपने ही कुटुम्बियों, सम्बन्धियों, पूजनीय लोगों तक के सामने मुँह नहीं खोल सकतीं। इन मान्यताओं को बदला जाना चाहिए और अनुभव किया जाना चाहिए कि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं। उनमें भी आत्मा है, ऐसी आत्मा जो मनुष्यता के अधिकारों की समान न्याय की माँग करती है—करना चाहती है।

नारी को क्या करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, किस तरह सोचना चाहिए—इस सन्दर्भ में धर्मशास्त्रियों द्वारा और समाज नेताओं द्वारा बराबर एक से एक बढ़कर उपदेश हमेशा से दिए जाते रहे हैं। पतिव्रत धर्म का महत्त्व और माहात्म्य विस्तारपूर्वक बताया जाता रहा है। वह सब कुछ ठीक है, पर उसमें एक कड़ी यह भी जुड़ी रहनी चाहिए कि नर के लिए पत्नीव्रत धर्म भी उतना ही आवश्यक है और उसका पुण्य-माहात्म्य भी पतिव्रत जैसा ही है। ताली एक हाथ से नहीं दोनों हाथों से बजती है। एकपक्षीय आदर्शवाद देर तक टिका नहीं रह सकता। राम की पत्नी सीता ने आजीवन पतिव्रत इसलिए निभाया कि उनका पति भी पत्नीव्रती था। रावण की पत्नी मन्दोदरी ने वैधव्य अस्वीकार करके विभीषण से विवाह कर लिया। भेदभाव की महत्ता और आदर्शवाद की निरर्थकता का दर्शन मन्दोदरी को अपने पति के आचरण से ही सीखने को मिला था। पतिव्रत धर्म जीवित रखना हो तो पत्नीव्रत को भी उतना ही महत्त्व देना होगा।

मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन सामाजिक परिस्थितियों के कारण बहुत ही विक्षोभकारी बन गया है, पारिवारिक उलझनों में हर व्यक्ति बेतरह उलझा हुआ है। महँगाई ने आर्थिक तंगी को चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। जीवनयापन की नाव इतनी भारी हो गई है कि एकाकी गृहस्वामी उसे खींच नहीं पा रहा है। सहधर्मिणी-सहचरी कहलाने वाली नारी इस दयनीय स्थिति में भी मूक दर्शक बनी खड़ी है। वह किसी प्रकार का सहारा नहीं दे सकती। अपना वजन तक हलका नहीं कर सकती। शारीरिक और मानसिक दुर्बलता, अनुभव-हीनता, अविकसित मनःस्थिति, अर्थ-उपार्जन में सर्वथा असमर्थता, उसे कुछ भी ऐसा करने नहीं देती, जिससे वह पति की-परिवार की कुछ सेवा-सहायता कर सके। यद्यपि जन्मजात क्षमता की दृष्टि से वह पुरुष की तुलना में किसी भी प्रकार हेय या हीन नहीं है। परिस्थितियों ने ही उसे मरोड़-दबोचकर रख दिया है। दबाव को यदि हटाया जा सके तो वह बहुत कुछ कर सकती है। इतना कुछ जिससे परिवार की आर्थिक तथा दूसरी परिस्थितियों में कायाकल्प जैसा अन्तर दृष्टिगोचर होने लगे।

अतीत के गौरव को वापस लौटाने के लिए, विश्व विभीषिकाओं को निरस्त करने के लिए, खोए हुए मानवी मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए, सर्वत्र छाए हुए विषाद को उल्लास में बदलने के लिए, पति को नई सहधर्मिणी और परिवार को नई गृहलक्ष्मी दिलाने के लिए, राष्ट्र को समर्थ बनाने के लिए, अनीति अपनाने के कलंक से मुक्त होने के लिए नारी को मनुष्य स्तर पर लाया ही जाना चाहिए। इससे कम में सर्वभक्षी विभीषिकाओं की चुनौती का सामना किया ही नहीं जा सकता।

परिवर्तन की पुण्य वेला में पुरुष को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। पुनरुत्थान के लिए जितना कुछ सम्भव हो, वह पूरी भावना और उदारता के साथ करना चाहिए। साथ ही यह भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि इस महान परिवर्तन में नारी को अपने स्वयं के प्रयास भी कम नहीं करने पड़ेंगे।

एक समय था, जब जनता के हितों का ध्यान न रखकर शासक अपनी मनमानी करते थे। समय के प्रभाव से उन्होंने स्वयं उदारतापूर्वक जनता को उसके अधिकार साैंप दिए या फिर उन्हें मजबूर होकर सौंपने पड़े। लेकिन यह हुआ तभी जब जनता स्वयं अपने अधिकारों को पाने और अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए तनकर खड़ी हो गई। पीड़ित वर्ग अपने उद्धार के लिए पुकार भी न करे, प्रयास भी न करे और लोग चुपचाप उसे बिना माँगे ही सहायता देते रहें, ऐसा शायद ही कभी होता हो।

जरूरत इस बात की है कि नारी वर्ग अपनी मुक्ति तथा प्रगति के लिए व्याकुल होकर प्रयास करे और पुरुष समाज उनके समर्थन में अपना भावभरा सहयोग प्रदान करे। पुरुषों द्वारा बीच में बरती गई अनीति का यह सुन्दर प्रायश्चित भी हो जाएगा और भूल सुधार का लाभ भी मिल जाएगा। समाज की प्रगति की गाड़ी दलदल में फँसकर रह गई है, उससे निकलने के लिए नर-नारी का संयुक्त प्रयास ही आवश्यक है। नारी जागरण अभियान ऐसी ही स्थिति पैदा करने के लिए प्रयत्न कर रहा है। जगह-जगह इसके लिए व्यवस्थित संगठन खड़े किए जा रहे हैं और उनके द्वारा ठोस कार्यक्रम हाथ में लिए जा रहे हैं।

नारी को समर्थ बनाने के लिए सबसे पहले उसे सुशिक्षित बनाना होगा। लड़कियों की शिक्षा तो स्कूलों में भी चल सकती है, लेकिन बड़ी उम्र की जो महिलाएँ अशिक्षित और अविकसित स्थिति में गुजर कर रही हैं, उनके लिए प्रौढ़ शिक्षा का इंतजाम बड़े पैमाने पर करना होगा। सरकार के लिए स्कूली शिक्षा का इंतजाम कर पाना ही कठिन पड़ रहा है। गृहस्थ और प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा की समस्या का हल हमें जनस्तर पर ही निकालना होगा। इस महत्त्वपूर्ण कार्य को पीछे कभी के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। लड़कियाँ बड़ी होकर समाज को प्रभावित करने की स्थिति में पहुँचें, उतना समय प्रतीक्षा में नहीं बिताया जा सकता। प्रौढ़ नारी की शिक्षा का प्रबन्ध आज ही करना होगा ताकि कुछ ही समय में उसके सत्परिणाम सामने आ सकें। यह कार्य जनस्तर पर बहुत बड़े रूप से आरम्भ की जाने वाली प्रौढ़ शिक्षा योजना से ही सम्भव हो सकता है। उसके लिए अब तुरन्त प्रयत्न आरम्भ कर दिए जाने चाहिए।

आमतौर से तीसरे प्रहर दो से पाँच तक—तीन घण्टे ही प्रौढ़ महिलाओं के पास फुरसत के रहते हैं। उसी समय में हर जगह सुव्यवस्थित महिला प्रौढ़ विद्यालय चल पड़ें, इसकी सुनिश्चित योजना चल ही पड़नी चाहिए। इसके लिए जो भी साधन जुटाने आवश्यक हैं उन्हें जुटाना समय की अनिवार्य माँग समझी जानी चाहिए। इसके लिए भावनाशील नर-नारियों को तन, मन और धन, तीनों ही प्रकार के सहयोग उदारतापूर्वक देने चाहिए।

जहाँ महिला संगठन हैं उन्हें इसके लिए अच्छी से अच्छी व्यवस्था बनानी चाहिए। जहाँ संस्था का अपना महिला भवन बन सके, वहाँ उसके लिए प्रयत्न किया जाए। यह निर्माण मन्दिर, धर्मशाला, तालाब, अन्नक्षेत्र आदि पुण्य के नाम पर किए जाने वाले सभी निर्माणों से कहीं अधिक पुण्य और सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला होगा। इस कारण निर्माणकर्ताओं को इसमें अधिक श्रेय प्राप्त होगा। उदार और प्रभावशाली लोग यदि इस निर्माण की उपयोगिता समझ सकें तो उनकी सहायता से अथवा जनसाधारण का मुट्ठी-मुट्ठी सहयोग एकत्रित करके यह निर्माण भी हर जगह सम्भव हो सकता है। सम्पन्न और भावनाशील लोगों तक यह आवाज पहुँचाई जानी चाहिए। जिनके कान में यह बात पड़े, वे यदि नारी जागरण की उपयोगिता अनुभव कर सकें तो उन्हें ऐसे निर्माणों को करने या कराने का संकल्प ले ही लेना चाहिए। उसके लिए समय एवं धन देने के लिए बढ़ी-चढ़ी उदारता का परिचय देना चाहिए। ऐसे शुभ संकल्पों में ईश्वरीय सहायता मिलती है। आदर्श एवं पुरुषार्थ का समन्वय सदा ही सफलता प्रस्तुत करता रहा है। सम्पन्न और पुरुषार्थी लोगों का साहस एवं उत्साह जाग पड़े तो कोई कारण नहीं कि कुछ ही समय में हर जगह एक साधन सम्पन्न महिला मन्दिर बनकर खड़ा न हो जाए।

यदि वैसा न हो सके तो माँगकर या किराए का कोई स्थान लेकर इस नारी प्रौढ़ शिक्षा का पुनीत कार्य जल्दी से जल्दी चालू कर देना चाहिए। मन्दिरों, धर्मशालाओं तथा अन्य सार्वजनिक संस्थानों में ढेरों जगह खाली पड़ी रहती है। स्कूलों के कमरों का भी उपयोग इसके लिए किया जा सकता है। जहाँ वैसी सुविधा हो वहाँ उसका भी लाभ लिया जा सकता है।

अपने प्रौढ़ महिला विद्यालयों में—(१) शिक्षा (२) स्वावलम्बन और (३) सर्वतोमुखी प्रगति के—तीन क्रिया-कलाप मिले-जुले रूप में चलने चाहिए। शिक्षा का पहला चरण निरक्षरता-निवारण और दूसरा सद्ज्ञान बढ़ाना रहना चाहिए। जो महिलाएँ निरक्षर हैं उन्हें साक्षर बनाया जाना चाहिए। सरकारी प्राथमिक स्कूलों का पाँचवें दरजे जितनी शिक्षा हर नारी को मिलनी ही चाहिए। इसके लिए स्थानीय प्राथमिक शालाओं में चलने वाला पाठ्यक्रम ज्यों का त्यों लिया जा सकता है। दूसरा ज्ञान सम्वर्द्धन वाला पाठ्यक्रम शिक्षितों और अशिक्षितों, दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य जीवन के विभिन्न पक्षों, उनकी समस्याओं और समाधानों की जानकारी देना होना चाहिए। व्यक्ति, परिवार और समाज सभी के सम्बन्ध में तथ्य, तर्क और प्रमाण सहित शिक्षण दिया जाए। जीवन जीने की कला, बच्चों का पालन-पोषण, घर की व्यवस्था, धन का सन्तुलन, उसे खरच करने का ढंग, रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाला सामान्य ज्ञान, भोजन पकाने का सुधरा हुआ ढंग, स्वास्थ्य रक्षा, शिष्टाचार, रोगियों की देखभाल, सफल दाम्पत्य के सूत्र, संयुक्त परिवार के लिए आवश्यक जानकारी, परिवार के सदस्यों में भावनात्मक एकता बनाए रखने का ढंग, अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार, जीवन का लक्ष्य तथा उसे पाने का क्रम हँसते-हँसाते जीवन जीने का दृष्टिकोण, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व बनाना, परिवार संस्था का नवनिर्माण, नारी की प्रगति कैसे हो? इसकी दिशा, सम्भावना और योजना, अध्यात्म का व्यावहारिक रूप जैसे अनेकों विषय इस ज्ञान सम्वर्द्धन पाठ्यक्रम में शामिल रहने चाहिए।

प्रश्न यह उठता है कि यह सब विषय कैसे पढ़ाए जाएँ? उनके लिए पाठ्य पुस्तकें कहाँ से मिलें? यह सच है कि ऐसे साहित्य का अब तक नितान्त अभाव रहा है। किन्तु अब महिला जागरण अभियान का केंद्रीय संस्थान जल्दी ही उसकी पूर्ति करने के लिए जुट पड़ा है। महिला जागरण की मूर्तिमान प्रतिमा माता भगवती देवी के मार्गदर्शन में ऐसा साहित्य इन्हीं दिनों तेजी से लिखा और छापा जा रहा है। अब हर जगह महिला संगठन बनाने और उसकी प्रारम्भिक कक्षाएँ चलाने का क्रम चलाया जाना चाहिए। अधिक से अधिक संख्या में योग्य महिलाओं को महिला जागरण अभियान में जुट पड़ने के लिए तैयार कर लिया जाना चाहिए। हो सके तो महिला मन्दिर के निर्माण का लक्ष्य भी पूरा कर लेना चाहिए।

प्रौढ़ शिक्षा के साथ-साथ गृह उद्योगों का प्रशिक्षण भी चलाया जाना चाहिए। इससे आर्थिक प्रगति के साथ-साथ और भी लाभ होता है। बुद्धि में पैनापन आता है और रचनात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में भी बहुत सहायता मिलती है। जापान कुटीर उद्योग में अग्रणी है, वहाँ हर घर एक छोटा कारखाना है। घर के सभी लोग अवकाश के समय में कुछ काम करते हैं और पैसा कमाते हैं। निठल्ले बैठने से जो तरह-तरह के दुर्गुण उत्पन्न होते हैं, उनके लिए गुंजाइश ही नहीं रहती। उपार्जन की क्षमता बढ़ाने से मनुष्य का आत्मविश्वास बढ़ता है और आगे बढ़ने का उत्साह उत्पन्न होता है। अपने देश में कुटीर उद्योगों के विकास की बहुत अधिक आवश्यकता है। इस दिशा में आवश्यक प्रशिक्षण अपनी प्रौढ़ पाठशालाओं का अंग अवश्य रहना चाहिए। सिलाई, बुनाई, खिलौने, टूट-फूट की मरम्मत, शाक-वाटिका तथा स्थानीय स्थिति के अनुरूप हर क्षेत्र में अनेकों उद्योग सम्भव हो सकते हैं। उनमें से जहाँ जिन्हें उपयुक्त समझा जाए, वहाँ उनका इस गृह उद्योग विभाग में समावेश किया जा सकता है।

संगीत भी इस शिक्षण में सम्मिलित रखा जाना चाहिए। सद्भाव-सम्वेदनाओं को हुलसित करने के लिए संगीत से बढ़कर सरस, सरल और सफल माध्यम दूसरा नहीं हो सकता। इसके लिए सुगम संगीत पद्धति में गाने का तथा जहाँ जो साज प्रचलित हों, वहाँ उन्हें बजाने का शिक्षण दिया जा सकता है। संगीत और भाषण दोनों को सिर्फ मनोरंजक कला नहीं बल्कि जीवन की उपयोगी शक्तियाँ माना जाना चाहिए। इन दोनों का उपयोग जनमानस से अवांछनीयता उखाड़ फेंकने में एक शक्तिशाली औजार की तरह हो सकता है। हमारी प्रौढ़ पाठशालाओं में इन दोनों कलाओं का शिक्षण, इन शक्तियों का समुचित सम्वर्द्धन किया जाना चाहिए।

यह तो प्रौढ़ महिला विद्यालय का वह भाग हुआ, जो दो से पाँच के बीच तीन घण्टे रोज स्कूली ढंग से पढ़ाया जाया करेगा। साक्षरता, कुटीर उद्योग, सामान्य ज्ञान, संगीत, भाषण आदि उस पाठ्यक्रम के अंग हैं, जो विद्यालय की चहारदीवारी के भीतर पढ़ाया जाना है। इससे अगला प्रशिक्षण वह है, जो घर-घर जाकर जन-जन से सम्पर्क बनाकर दिया जाता है। अलख जगाने की पुरानी परिपाटी के साथ इसकी संगति मिलाई जा सकती है। संगठन, साप्ताहिक सत्संग, संस्कार, त्योहार, कथाएँ, परिवार गोष्ठी, चल-पुस्तकालय जैसी प्रचारात्मक-रचनात्मक गतिविधियाँ इसी प्रकार की हैं, जिन्हें जनसम्पर्क द्वारा ही आगे बढ़ाया जा सकता है। सामाजिक कुरीतियाँ, अन्धविश्वास, गलत परम्पराएँ, अनैतिकताएँ, अवांछनीयताएँ अपने समाज में इतनी अधिक हैं कि उनके विरुद्ध संघर्ष किए बिना छुटकारे का और कोई रास्ता नहीं है। जैसे-जैसे अपना संगठन मजबूत होता जाएगा वैसे-वैसे विवाहोन्माद, दहेज, बालविवाह, परदा-प्रथा, मृतकभोज जैसी कुरीतियों से जूझने का मोर्चा तेज करना पड़ेगा। इन सभी गतिविधियों का केन्द्र अपना महिला मन्दिर ही हो सकता है। शिक्षा, स्वावलम्बन और सर्वतोमुखी प्रगति की तीनों धाराओं का उद्गम यही छोटा सा भवन होगा। ये तीनों धाराएँ परस्पर मिलकर पतित पावनी गंगा की तरह प्रवाहित होंगी। यह धारा सगर पुत्रों की तरह नरक की आग में जलने वाले जनसमाज को स्वर्ग जैसी परिस्थितियों में बदल देने का लाभ दे सकेगी।

हर जगह ऐसे महिला केन्द्र स्थापित हो सकें, इसी उद्देश्य से शान्तिकुञ्ज की छात्राओं की प्रचार टोलियाँ भेजकर जगह-जगह आयोजन किए जा रहे हैं। इस माध्यम से युगद्रष्टा परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा का सन्देश और अनुरोध जन-जन तक पहुँचाया जा रहा है। यह आशा की जाती है कि जिनमें विचारशीलता और भावना है, वे इसका महत्त्व समझेंगे और आगे आएँगे। आवश्यकता यह है कि हर व्यक्ति इस दिशा में निश्चित संकल्प करे कि अपने श्रम, समय और कमाई को उदारतापूर्वक पूरे मन से इस काम में लगाएँगे। उत्साह एवं लगन के साथ इसके लिए साधन जुटाएँगे और उदार व्यक्तियों का दरवाजा खट-खटाकर जनसहयोग की एक-एक मुट्ठी इकट्ठी करके महिला मन्दिरों की स्थानीय आवश्यकता पूरी करके रहेंगे। यदि एक समारोह में जानदार व्यक्ति ऐसा संकल्प कर ले तो अगले वर्ष के समारोह में महिला मन्दिर का उद्घाटन भी किया जाना सम्भव हो सकता है। जहाँ ऐसा हो सके वहीं यह समझा जा सकता है कि आयोजन सच्चे अर्थों में सफल हुआ। विश्वास किया जाना चाहिए कि हर जगह ऐसे कुछ व्यक्ति तो निकल ही आएँगे जो इस आशा के अनुरूप कार्य कर दिखाएँगे।

नारी समस्या कोई छोटी समस्या नहीं है। आधी जनसंख्या के पिछड़ेपन को दूर करने की—पुनरुत्थान की बात सामान्य नहीं कही जा सकती। हजार वर्ष से जड़ जमाए बैठी नर और नारी के सहयोग में भारी अड़ंगा बनकर खड़ी हुई इस भयानक स्थिति को दूर करना बड़ा महत्त्वपूर्ण काम है। इसका क्षेत्र कितना बड़ा है? काम कितना वजनदार है? यह देखते हुए अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है कि इसके लिए कितने बड़े प्रयत्न करने होंगे और कितने अधिक साधन जुटाने होंगे। जिनने भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास पढ़ा है और उसे निकट से देखा है, वे जानते हैं कि उसमें कितनी जनशक्ति झोंकनी पड़ी थी। आधी जनसंख्या को लकवा जैसी मोहताजों की स्थिति से मुक्त कराने के लिए उससे कम नहीं, बल्कि कुछ अधिक ही त्याग-बलिदान की जरूरत पड़ेगी, उससे कुछ अधिक ही प्रयत्न करने होंगे। हमें युग की महती आवश्यकता को अपने समय की चुनौती समझकर स्वीकार करना चाहिए, इसके लिए हर घर में प्रयास करने होंगे।

घरों में कठोर परदा-प्रथा के बन्धन ढीले होने चाहिए। घर की दिनचर्या ऐसी बननी चाहिए जिनमें स्त्रियों को चौबीसों घण्टे न उलझा रहना पड़े। समय की नियमितता बरती जाए और सब लोग मिल-जुलकर हँसी-खेल की तरह घर का काम निपटा लिया करें तो ढेरों समय बच सकता है। उसमें शिक्षा, स्वावलम्बन एवं सर्वतोमुखी प्रगति के लिए कुछ कर सकना सम्भव हो सकता है। इतने दिनों बन्धनों में रहने से, अनुभव की कमी से और संकोची स्वभाव के कारण नारी को स्वयं आगे बढ़ने में कठिनाई होगी। हर पुरुष नारी को आगे बढ़ाने का अपना पवित्र कर्तव्य समझे और उसे महिला जागरण अभियान के कार्यक्रमों में शामिल होते रहने के लिए उत्साह दिलाता रहे, मार्गदर्शन प्रदान करे, तो प्रगति काफी तेजी के साथ हो सकती है। आजकल पुरुष वर्ग बहुत व्यस्त है। यह बहुत कठिन है कि वह घर में ही महिलाओं के प्रशिक्षण की लम्बी व्यवस्था बना सके। वह केवल अच्छा सहयोगी बन सकता है। यदि वह अपने परिवार की नारियों को अभियान के साथ जोड़ने भर का साहस दिखा सके तो आगे की प्रगति अपने ढंग में आप ही होने लगेगी। इतना तो हर व्यक्ति को करना ही चाहिए। उसे उपेक्षित नारी को मानवोचित स्तर तक पहुँचाने की उपयोगिता-आवश्यकता समझ ही लेनी चाहिए। जहाँ उतनी बात मान ली जाएगी, वहाँ बहुत सोचना और करना भी सम्भव हो जाएगा। सच्चे मन से किए गए प्रयत्न सदा अच्छे फल देते रहे हैं और देते रहेंगे।

नारी को यदि बढ़ने का अवसर दिया जा सके तो कुछ ही दिनों में उसके चमत्कारी लाभ सामने आ सकते हैं। प्रशिक्षित नारी परिवार संस्था का पुनर्निर्माण करके घर में स्वर्गीय वातावरण बना सकती है। पति के लिए सच्ची सहयोगिनी, सन्तान के लिए महान निर्माणकर्त्री और पूरे परिवार के लिए सच्ची गृह-लक्ष्मी सिद्ध हो सकती है। अपने आप में उसका व्यक्तित्व शारीरिक एवं मानसिक समर्थता से भरा-पूरा बन सकता है।

साहित्य और कला क्षेत्र में यदि नारी को बढ़ने दिया जाए तो उसकी सहज प्रकृति उसको भी अशुभ से शुभ बना सकती है। इन दोनों क्षेत्रों को शालीनता से इस प्रकार भर सकती है कि जनमानस की भावना का प्रवाह स्वर्गीय सम्वेदनाओं की ओर तेज गति से बढ़ता देखा जा सके। आज तो साहित्यकार, कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, प्रकाशक, सभी मिलकर मातृशक्ति को द्रौपदी की तरह भरी सभा में नंगी करने पर तुले हुए हैं। कामुक अश्लीलता की पशुता भड़काने और नारी को रमणी, कामिनी के रूप में प्रस्तुत करके पैसा कमाने का लोभ जिनके ऊपर प्रेत-पिशाच की तरह चढ़ा हुआ है, उन्हें पीछे धकेलकर, सुसंस्कृत साहित्यकार और कलाकार महिला ही अपनी शालीनता का स्तर बनाए रख सकती है। यदि इन क्षेत्रों में नारी का प्रवेश सम्भव हुआ हो तो नवयुग के सपने कल-परसों ही सार्थक होते दिखाई पड़ेंगे।

राजनीतिक क्षेत्र में भी यदि नारी को प्रवेश करने का अवसर मिला तो वह अपनी सहज पवित्रता और उदारता का समावेश करके, राजनीति को भी धर्मनीति की तरह पवित्र बना देगी। ऐसा हुआ तो आज की कूटनीति, तब सतयुगी शासनतंत्र का संचालन कर रही होगी। पुरुष ने लम्बे समय तक शासनसूत्र सँभाला है, अब उस अनुभव का अवसर नारी को भी देना चाहिए। टाउनएरिया, म्युनिसपल बोर्ड, जिला परिषद, विधानसभा, लोकसभा आदि में उसे स्थान देना चाहिए। आज शक्ति की समस्त धाराएँ एकत्रित होकर शासनतंत्र में मिल गई हैं। इस शक्ति को शालीनता के साथ उपयोग में लाने के लिए उस पर नारी का प्रभाव आवश्यक है।

इस क्षेत्र में प्रवेश करना नारी के लिए कठिन नहीं है। मतदान में नारी स्पष्ट बहुमत पा सकती है। आधे वोट उनके अपने हैं। पुरुषों में से विचारशील वर्ग जो नारी के राजनीति में प्रवेश के लाभ समझते हैं, वह भी उन्हें बड़ी संख्या में समर्थन देंगे। इस प्रकार लगभग दो-तिहाई वोटों के बहुमत से सुयोग्य महिलाएँ बड़ी आसानी से सत्तारूढ़ हो सकती हैं। आज तो यह सब विनोद-उपहास जैसा लगता है, पर यह एक सचाई भी है कि यदि राजनीति में, शासन संचालन में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व मिल सका तो आज की कूटनीति कल धर्मनीति में बदलते देर न लगेगी। आज का राज-काज कल धर्मराज्य के, रामराज्य के रूप में परिणत होता दिखाई पड़ेगा।

सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी विभागों में भले ही अन्य सारे विभाग पुरुषों को दे दिए जाएँ पर शिक्षा, चिकित्सा और समाज-कल्याण विभाग तो मात्र नारी के लिए ही सुरक्षित रखे जाने चाहिए। यह तीन विभाग ऐसे हैं जिनमें आकर सहृदयता, सहसहिष्णुता एवं अधिक सृजनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इन तीनों मोर्चों पर वह बहादुरी और कुशलता के साथ लड़ सकती है और इन क्षेत्रों में वह शानदार परम्पराओं को जन्म दे सकती है।

रूढ़िवादी लोग नारियों और शूद्रों को उनके मानवोचित अधिकारों, इनसानियत के हकों से वंचित करते रहे हैं। इन दोनों ही वर्गों को उन्होंने पवित्र ग्रन्थों के अध्ययन तथा दूसरे क्षेत्रों में सामान्य नागरिक अधिकारों से वंचित रखा है। इस कारण से वे दोनों ही पिछड़ गए। प्रतिबन्धों की दृष्टि से नारी शूद्रों से भी अधिक घाटे में रही। शूद्रों को परदे में तो नहीं जकड़ा गया। हमारे सम्विधान ने इन दोनों वर्गों को कानूनी दृष्टि से समानता के अधिकार दिए हैं, यह उचित ही हुआ। हरिजनों का पिछड़ापन दूर करने के लिए उन्हें शासन द्वारा कई सुविधाएँ दी गई हैं। नारी को भी वैसी ही विशेष सुविधाएँ मिलनी चाहिए, ताकि हरिजनों की भाँति उसे भी अपना पिछड़ापन दूर करने का अवसर मिल सके।

जिनके पास श्रमशक्ति, बुद्धिशक्ति, प्रभावशक्ति, धनशक्ति आदि विभूतियाँ हैं, उन्हें नारी जागरण अभियान के लिए नियोजित किया जाना चाहिए, उन्हें आग्रहपूर्वक इसमें लगाया जाना चाहिए। इस कार्य की आवश्यकताएँ बहुत हैं, बहुत तरह की हैं। उन्हें पूरा करने के लिए तरह-तरह के सामान जुटाने पड़ेंगे। वे उदार तबीअत के विवेकशील लोगों के सहयोग से ही पूरे होंगे। युगदेवता ने याचना की है कि जाग्रत आत्माएँ कंजूसी न बरतें, वरन बढ़ा-चढ़ा उदार योगदान दें और समय की अति महत्त्वपूर्ण माँग को पूरा करने के लिए अपने कर्तव्य का पालन करें।

पत्रकार, प्रकाशक, साहित्यकार, कवि, गीतकार, चित्रकार, अभिनेता, वक्ता, विद्वान, धर्मोपदेशक और राजनेता वर्ग के लोग जन-जन को नारी के प्रति अधिक उदार बनाने की भावभरी प्रेरणाएँ दे सकते हैं। धनी वर्ग को अपनी दानशीलता की धारा कुछ दिन तो इस उपेक्षित क्षेत्र को सींचने के लिए विशेष रूप से मोड़ ही देनी चाहिए।

धर्म, अध्यात्म, कृषि, पशुपालन, व्यवसाय, उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा जैसे किसी भी क्षेत्र के उत्तरदायित्व नारी को सौंपे जाएँ, तो प्रतीत होगा कि उसने जिम्मेदारियों को अधिक जागरूकता, मुस्तैदी और शालीनता के साथ निभाया है। नर का दृष्टिकोण थोड़ा उदार बन जाए और नारी को चरणदासी बनाए रहने की अपेक्षा सहयोगिनी के रूप में साथ लेकर चले तो सारा वातावरण ही बदल जाएगा और आज की उलझी हुई समस्याएँ कल सहज ही सुलझी हुई दिखाई देने लगेंगी। ऐसा करके पुरुष वर्ग भी यश और लाभ का ही भागीदार बनेगा।

पराधीनता के कठिन बन्धनों से मुक्ति पाते ही भारतीय नारी अपना खोया हुआ स्वास्थ्य, ज्ञान, मनोबल, वर्चस्व, अनुभव, व्यक्तित्व आदि कुछ ही समय में फिर से प्राप्त कर लेगी। पिछड़ापन उसके ऊपर थोपा गया है। वास्तव में वह वैसी नहीं है, जैसी कि बना दी गई है। अवसर मिलने भर की कठिनाई है। तनिक सी सुविधा मिले तो वह संसार भर की प्रगतिशील नारियों की तुलना में अधिक आगे की पंक्ति में खड़ी दिखाई देगी। विकसित भारतीय नारी अपने सहयोग और अनुदान से अपने समाज और राष्ट्र को कितनी ऊँची, कितनी सुख-शान्ति भरी स्थिति तक पहुँचा सकती है, इसके कल्पनाचित्र जब आँखों के आगे से गुजरते हैं तो उज्ज्वल भविष्य की झाँकी हृदय को प्रसन्नता से भर देती है।

ऐसी ही सुखद स्थिति को साकार बनाने के लिए महिला जागरण सम्मेलनों का देशव्यापी क्रम चलाया गया है। इन महिला सम्मेलनों के साथ-साथ गायत्री महायज्ञ भी विशेष उद्देश्य से जोड़े गए हैं। आद्य-शक्ति वेदमाता गायत्री का आह्वान करके, उस माध्यम से लोगों में मातृशक्ति के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को फिर से बनाया जा सकता है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। महिला आयोजनों के साथ इन्हें जोड़कर अपने सांस्कृतिक गौरव को फिर से स्थापित कर लेने का भाव-भरा उद्घोष किया जाता है।

गायत्री हमारा गुरुमंत्र है। शिखा रूप में मस्तक पर और यज्ञोपवीत रूप में कन्धों पर उसी को धारण किया जाता है। इसका अर्थ है कि हमारा मस्तक सदा से माता के प्रति झुका हुआ है, उसे हम अपने मस्तक पर धारण करते हैं और मानते हैं कि पवित्रता तथा उदारता की साकार अवतार मातृशक्ति के प्रति हमारी सर्वोच्च श्रद्धा बराबर बनी रहेगी। कन्धों पर यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ है कि अपना संस्कृति वर्चस्व अक्षुण्ण बनाए रहने का उत्तरदायित्व हम शपथपूर्वक अपने कन्धों पर उठाते हैं। शिखा को गायत्री और यज्ञोपवीत को यज्ञ का प्रतीक कहा गया है। भारतीय धर्म के इन महान प्रतीकों के माध्यम से यही स्मरण दिलाया जाता है कि मातृशक्ति की गरिमा, क्षमता, पवित्रता एवं वरिष्ठता सर्वोच्च है। इसे उसके उचित स्थान पर बनाए रहने का धर्म-कर्तव्य हम अनन्तकाल तक निबाहेंगे, मनुष्यता के शानदार उत्तरदायित्व का भार प्रसन्नतापूर्वक कन्धों पर धारण किए रहेंगे।

गायत्री यज्ञों के अनेकों भौतिक और आध्यात्मिक लाभ हैं। अन्न और जल से भी बढ़कर वायु हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। इस प्राणतत्त्व को स्वच्छ और जीवनीशक्ति युक्त बनाना, उसमें भरे विषैलेपन को दूर करना, गायत्री यज्ञों का विशेष प्रयोजन है। ऐसे धर्मानुष्ठान को स्वास्थ्य बढ़ाने वाला, मानसिक विकृतियों को दूर करने वाला, प्राणशक्ति को पोषण देने वाला, सुसंस्कार देने में समर्थ, समृद्धिदाता, ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस् का विकास करने वाला माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार इसे आयु, प्राण, प्रजा, कीर्ति, धन आदि भौतिक और अनेक दिव्यशक्तियों को बढ़ाने वाला माना गया है। वातावरण में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को अधिक से अधिक मात्रा में भर देने के उद्देश्य से गायत्री यज्ञ किए जाते हैं। अग्नि को ईश्वर का मुख कहा गया है। उसमें पवित्र द्रव्यों को शक्तिशाली वेदमंत्रों के साथ हवन कराते हुए यज्ञकर्ता अध्वर्यु, ऋत्विज, उद्गाता, आचार्य लोग जनसाधारण को महत्त्वपूर्ण शिक्षा देते हैं और यह प्रेरणा देते हैं कि मानव जीवन निकृष्ट प्रयोजनों के लिए नहीं, आदर्शवादी देवताओं जैसी परम्पराओं का निर्वाह करने के लिए है। इसके लिए प्रबल पुरुषार्थ, कठोर श्रम, उत्साह भरे मनोयोग एवं प्रामाणिक चरित्रनिष्ठा की आवश्यकता पड़ती है। हम निश्चित रूप से हर प्रकार समृद्ध बन सकते हैं, यदि इन देव गुणों को अपने व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बनाने के लिए कमर कसकर तैयार हों। इसी प्रकार हम अनगिनत अध्यात्म दिव्य विभूतियों के स्वामी भी बन सकते हैं यदि पवित्रता, उदारता, कर्तव्यनिष्ठा, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तव्य के तत्त्वदर्शन को अपने अन्दर गहराई से बिठा सकें। गायत्री यज्ञ इसी प्रकार की सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियों को दृढ़ बनाने, विकसित करने के लिए आयोजित किए जाते हैं।

यज्ञ आयोजन के पहले मंत्रों के द्वारा देव शक्तियों का आह्वान किया जाता है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार धर्मानुष्ठान पूरा होने पर देवशक्तियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए दक्षिणा समर्पित की जाती है। अपने लोकाचार में भी यह प्रथा प्रचलित है कि गुरुजनों एवं महामानवाें के पधारने पर उनका सत्कार पूजा-उपचार से, भेंट-उपहार से सम्पन्न किया जाता है। दक्षिणा यज्ञ की पत्नी है। दक्षिणारहित यज्ञ को शास्त्रकारों ने निष्फल कहा है। इसलिए अपने आयोजनों में पूर्णाहुति के समय यज्ञ में उपस्थित हर व्यक्ति को देवशक्तियों के प्रति अपनी भावनिष्ठा व्यक्त करने के लिए उदार मन से देवदक्षिणा देने की प्रेरणा दी जाती है। यह विचार पहले से ही कर लेना चाहिए कि यज्ञ को सार्थक बनाने वाली इस पुण्य-प्रक्रिया को किस प्रकार सम्पन्न किया जाए?

इसके लिए पूर्णाहुति के एक-दो दिन पहले ही प्रत्येक नर-नारी को गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति में भाग लेने के लिए समय से पहले ही पधारने का विशेष आग्रह किया जाता है। पूर्णाहुति के लिए आवश्यक चरु सामग्री यज्ञस्थल पर सभी को मिल जाती है, इसके लिए कोई पदार्थ घर से लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। देवदक्षिणा के लिए जिनके मन में उत्साह और भावना हो, उन्हें अपने साथ एक प्रतिज्ञापत्र लेकर आना होता है। वह संकल्पपत्र पहले से मिल जाते हैं। उसमें छपे संकल्पों पर लोगों को भली प्रकार विचार करना आवश्यक होता है। उसमें छपी दुष्प्रवृत्तियों में से कुछ को हटाने और कुछ नई सत्प्रवृत्तियों को जीवन में अपनाने का प्रयत्न निष्ठापूर्वक आरम्भ करना पड़ता है। देवदक्षिणा देने के इच्छुक व्यक्ति वह पत्र बिना धक्का-मुक्की किए पंक्ति-कतार बनाकर निश्चित स्थान से अपने-अपने साथ ले जा सकते हैं। पूर्णाहुति के लिए आते समय यह निश्चय भी साथ ही करते हुए आना चाहिए कि आमंत्रित देवशक्तियों के सम्मुख अपनी निष्ठा और श्रद्धा का क्या प्रमाण प्रस्तुत करेंगे? देवदक्षिणा का प्रतिज्ञापत्र ही हमारे अन्दर जाग्रत दैवी भावना का सच्चा सबूत माना जा सकता है।

प्रतिज्ञापत्र में वे ही प्रतिज्ञाएँ रहती हैं, जिनके पालन से मनुष्य महामानव और देवमानव बन सकें। कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं— (१) संस्कार और पर्व परम्परा को पुनः प्रचलित किया जाएगा। पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, वानप्रस्थ, जन्मदिन, विवाहदिन आदि संस्कार आयोजन अपने घरों में समय-समय पर मनाए जाते रहेंगे, ताकि परिवार संस्था को, घर को स्वर्ग में विकसित करने वाली सनातन परम्पराएँ पुनर्स्थापित हो सकें। इस माध्यम से अपने गौरव भरे अतीत को वापस लाने वाली, घर-घर में नररत्न उपजाने वाली परिवार प्रशिक्षण की पुनीत प्रक्रिया फिर से चल पड़े। महिला जागरण शाखाएँ इन आयोजनों को घर-घर जाकर बिना किसी खरच के सम्पन्न कराने की व्यवस्था बना देती हैं। यह आयोजन कराने वाले लोग उनसे सम्पर्क स्थापित करें और समय-समय पर इन आयोजनों को अपने-अपने घरों में सम्पन्न करावें।

(२) सामाजिकता, सामूहिकता, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को विकसित एवं मजबूत बनाने के लिए दूरदर्शी ऋषियों ने पर्व आयोजनों का विधान बनाया है। इनका उद्देश्य यह है कि समय-समय पर सब लोग एकत्रित होकर पर्वों के धर्मानुष्ठान सम्पन्न करें, साथ ही हर पर्व के साथ जुड़ी हुई नागरिकता की, सामाजिक कर्तव्यपालन की प्रेरणा लेने के लिए प्रशिक्षण-उद्बोधन एवं प्रकाश प्राप्त करें। दीपावली, गीता जयन्ती, वसन्त पर्व, होली, रामनवमी, गायत्री जयन्ती, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, जन्माष्टमी, विजयादशमी जैसे पर्वों पर सब लोग इकट्ठे मिल जुलकर बैठा करें। सामूहिक रूप से इन पर्वों को मनाया करें और प्रत्येक पर्व के साथ जुड़ी हुई सत्यनिष्ठा, सत्प्रवृत्तियों आदि को कार्य रूप में परिणत करने की प्रेरणा प्राप्त किया करें।

(३) आलस्य, प्रमाद, कटुभाषण, अशिष्टता, अस्वच्छता, नशेबाजी, माँसाहार, फैशन, जेवर, जूठन छोड़ने जैसी अन्न की बरबादी, समय की बरबादी, धन का अपव्यय जैसी अवांछनीयताएँ त्यागी जावें।

चोरी, बेईमानी हराम की कमाई, छल, मुनाफाखोरी, शोषण-उत्पीड़न जैसी अनैतिकताएँ छोड़ी जावें। भाग्यवाद, फलित ज्योतिष, भूत-पलीत, उद्भिज देवी-देवता, शकुन, मुहूर्त, भविष्य कथन, टोने-टोटके, जैसी मूढ़ मान्यताओं से पीछा छुड़ाया जाए।

दहेज, विवाहों में अपव्यय, अलन-चलन, मृतकभोज, भिक्षा व्यवसाय, जाति-पाति के आधार पर ऊँच-नीच, नर-नारी की असमानता, परदाप्रथा, पशुबलि, जैसी कुरीतियाँ अस्वीकार की जाएँ। जहाँ तक सम्भव हो, उन्हें न तो स्वयं बरता जाए और न अपना वश चलते दूसरों को बरतने दिया जाए।

(४) महिला जागरण को शक्तिशाली बनाने के लिए शक्ति भर योगदान दिया जाए। नारी को नर के बराबर माना जाए। मनुष्यता के मौलिक अधिकारों से उसे वंचित न किया जाए। संगठन, प्रेरणा-प्रवाह, शिक्षा, स्वावलम्बन एवं सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में उन्हें बढ़ाने के लिए शक्तिभर प्रयत्न किया जाए। स्थानीय महिला मन्दिर की स्थापना में भरपूर योगदान दिया जाए। नारी प्रगति के लिए आवश्यक प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक कार्यक्रमों के लिए कम से कम एक घंटा समय नित्य दिया जाए। घरों में ज्ञानघट स्थापित करके उनमें एक मुट्ठी अन्न या दस पैसा रोज नारी उत्कर्ष के लिए जमा किया जाए। शान्तिकुञ्ज की सेवाओं से लाभ उठाया जाए। महिला जाग्रति पत्रिका के अधिकाधिक पाठक बनाए जाएँ। एक मासीय युग शिल्पी सत्र से लेकर तीन महीने वाली संगीत शिक्षा एवं छह महीने के देव संस्कृति विश्वविद्यालय के विभिन्न विषयों में सर्टिफिकेट कोर्स से लेकर तीन वर्षीय डिग्री कोर्स एवं एक वर्षीय डिप्लोमा कोर्स तथा दो वर्ष का मास्टर डिग्री कोर्स और आगे शोध कार्यों के लिए शान्तिकुञ्ज की अभिनव स्थापना देव संस्कृति विश्वद्यिालय, गायत्रीकुञ्ज, हरिद्वार में अधिकाधिक छात्राएँ भेजी जाएँ। अपने प्रभावक्षेत्र की महिलाओं को अभियान की गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन एवं सहयोग दिया जाए।

(५) चरित्रनिष्ठा, सज्जनता, शिष्टता, नागरिकता, सामूहिकता, उदारता, नियमितता, कर्तव्यपरायणता, श्रमशीलता, सहिष्णुता, नैतिकता, सादगी, जैसी गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टताओं को अधिक से अधिक मात्रा में अपने व्यक्तित्व में सम्मिलित किया जाए। नित्य बड़ों के चरण स्पर्श जैसी श्रेष्ठ परम्पराओं को दैनिक आचरण में लाने का संकल्पपूर्वक निश्चय किया जाय।

यह याद रखा जाए कि महिला जागरण अभियान केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि नारी से छीने गए उसके मानवीय अधिकार ही उसे वापस करा दिए जाएँ। यह उसका प्रथम चरण है। पददलित और प्रताड़ित नारी को जिस दिन न्याय मिल जाएगा, उसे पूर्ण मनुष्य मान लिया जाएगा। उस दिन उसकी प्रगति का द्वार खुलेगा और वह अपनी प्रतिभा को सुविकसित करने के लिए तेज गति से बढ़ती दिखाई देगी। नर को इस सम्बन्ध में निश्चित रहना चाहिए, सुविकसित नारी से उसे किसी प्रकार का खतरा अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों के मन में दो प्रकार के भय छाए रहते हैं। एक तो यह कि कहीं नारी समर्थ होते ही अपने पिछले अपमान का बदला न लेने लगे। दूसरा यह कि अपने हाथ से मुफ्त की चरणदासी निकल जाएगी, यह बड़े घाटे की बात रहेगी।

इस अपडर से भयभीत रहने वाले वस्तुत: बहुत ही छोटी बुद्धि के लोग कहला सकते हैं। वे नारी की प्रकृति और सहज करुणा से अपरिचित ही होते हैं। सर्वत्र यह निश्चिन्तता रहनी चाहिए कि माता अपने पुत्र से, पत्नी अपने पति से, बहन अपने भाई से, पुत्री अपने पिता से प्रतिशोध नहीं ले सकती। जिसने सहना सीखा है और समर्पण भी, उसकी अन्तरात्मा में ममता और करुणा की वे गंगा-यमुनाएँ बहती हैं जो न केवल स्वयं ही पवित्र हैं वरन अपने समीप वाले को भी पवित्र बना देती हैं। सताए जाने पर वह रो सकती है, पर अपनों के प्रति प्रतिहिंसा पर कभी भी उतारू नहीं हो सकती। उसमें चण्डी तत्त्व है तो उसे महिषासुर मर्दिनी और असुर निकन्दनी महाशक्ति के रूप में वज्र की तरह टूटती भी देखा जा सकता है, पर उसका यह रौद्र रूप मात्र दुष्टता के विरोध में ही उभरता है। अपनों के लिए तो जन्म से लेकर मरण तक वह श्रम-सीकर के रूप में स्नेह-दुग्ध और भाव भरे आँसू ही समर्पित कर सकती है, करती रही है और करती रहेगी। विकसित नारी अपने लिए, अपने परिवार-समाज के लिए और देश-धर्म समाज-संस्कृति के लिए, समूची मानवता और विश्व शान्ति के लिए केवल वरदान ही सिद्ध हो सकती है। नारी का उत्कर्ष हम सबका सामूहिक उत्कर्ष है, उसमें उज्ज्वल भविष्य की इतनी अधिक सम्भावनाएँ सन्निहित हैं कि आज तो उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है।

आइए, हम सब नया साहस समेटें, नया दृष्टिकोण विकसित करें, नीति और न्याय का समर्थन करें तथा नया समाज, नया संसार बनाने में जुट जाएँ। महिला जागरण इसी दिशा में एक अति महत्त्वपूर्ण चरण है। मानव जीवन की सार्थकता के लिए, उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए हम सब को बहुत कुछ करना है। उसी की याद दिलाने के लिए स्थान-स्थान पर महिला सम्मेलनों में पूज्य माताजी के सन्देश को जन-जन के पास पहुँचाया जा रहा है। सन्देश पहुँचाने का काम आसान है लेकिन उसको चरितार्थ करना समर्थ लोगों का ही काम है। आशा की जाती है कि इसके लिए सबल संकल्प लेकर मनोबल सम्पन्न व्यक्ति आगे आएँगे, सशक्त हाथों से इस भार को उठाएँगे और दृढ़ चरणों से, तीव्र गति के साथ प्रगतिपथ पर बढ़ चलेंगे।

६. उत्कर्ष के लिए स्वयं आगे बढ़ें

महिला जागरण के सम्बन्ध में बहुत सी योजनाएँ बनी हैं और बहुत से कार्यक्रम चालू किए गए हैं। उन सबको पूरा करने में समाज के बहुत से अंगों को अपने-अपने हिस्से की भूमिका निभानी होगी। लेकिन उनमें सबसे प्रधान भूमिका स्वयं नारी की ही होगी। नारी के खोए हुए गौरव को और छीने हुए अधिकारों को वापस किसी भी ढंग से, किसी के भी द्वारा लाया जाए, लेकिन उसे धारण तो नारी ही करेगी। अपने महान गौरव के अनुकूल तथा अधिकारों के सदुपयोग के योग्य क्षमता नारी को अपने अन्दर विकसित करनी ही होगी। इसके लिए नारी समाज को सबसे अधिक प्रयास करना होगा।

इस दिशा में प्रयास करने से नारी को उसकी झिझक ही रोकती है। झिझक भी दो प्रकार की है। एक तो इतने दिनों तक जिस ढर्रे में नारी चली है, वह कितना ही दुःखदायी हो नारी की आदत में शामिल हो गया है। उसे लगता है कि शायद वह ढर्रे से हटकर चल न सकेगी। यह झिझक अपनी स्थिति को देखकर उसमें उठती है। दूसरी झिझक समाज को देखकर पैदा होती है। लगता है कि जो विकृतियाँ समाज में इतने दिनों से घर बनाए हुए हैं, वे कैसे दूर होंगी? नारी के अधिकारों को कौन स्वीकार करेगा? उसे समानता का स्तर देना किसे अच्छा लगेगा?

यह दोनों ही प्रकार की झिझक बिलकुल भ्रान्तिपूर्ण है। हर नारी को और उसका हित चाहने वालों को इसे अपने मन से निकाल फेंकना चाहिए। नारी चेतना रूप है। तीव्र से तीव्र परिवर्तन भी उसके लिए स्वाभाविक हैं। उसके लिए यह रोजमर्रा का क्रम है। बेटी आज अपना घर छोड़ती है और कल बहू बनकर एकदम नए वातावरण में, पहले से बिलकुल भिन्न जीवनक्रम अपना लेती है। दोनों जीवनों में जमीन-आसमान जैसा अन्तर होता है, पर वह उसे स्वाभाविक रूप से निभा लेती है। कर्तव्य की माँग के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता नारी को जन्म से ही प्राप्त है। नारी जागरण से सम्बन्धित कोई भी परिवर्तन उसके लिए कठिन या अस्वाभाविक नहीं है।

इसी प्रकार समाज में फैले हुए नारी के प्रति दृष्टिकोण और व्यवहार को देखकर भी शंका नहीं की जानी चाहिए। यह युग परिवर्तन का समय है। नए युग के चिह्न अब साफ दिखाई देने लगे हैं। पुराने समय की सड़ी-गली मान्यताएँ और अनैतिक परम्पराएँ अब टिक नहीं सकतीं—इसके प्रमाण सभी तरफ मिल रहे हैं। राजनीतिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, धार्मिक क्षेत्र—सभी में पिछले ही दिनों ऐसे परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें असाधारण ही कहा जा सकता है। जनता को अपना दास तथा धरती को अपनी जागीर समझने का राजाओं का पैदाइशी हक समाप्त हो चुका है। राजा भगवान का रूप है, और वह चाहे जैसी मनमानी कर सकता है—यह मान्यता अपनी जड़ छोड़ चुकी है। उसके स्थान पर जनतंत्र स्थापित हो गया है। सामाजिक क्षेत्र में जिसके पास अधिक धन संचित है, वह भाग्यशाली होता है, यह मान्यता पहले कभी रही होगी। अब तो उसे अनैतिकता का चिह्न माना जाता है। समान वितरण की परिपाटी जोर पकड़ती चली जा रही है। उत्पादन के लिए समान श्रम और उपयोग के लिए बराबरी का हक सबको दिए जाने की स्थिति बनती जा रही है। धार्मिक जगत में वेश के नाम पर पूजा और श्रद्धा पाने वालों की उपेक्षा होने लगी है, उसके स्थान पर ज्ञान और कर्म की कसौटियों को मान्यता मिल रही है। भारत में जन्म के कारण ही अछूत कहे जाने वाली लगभग एक-तिहाई आबादी ने यह अनीति मानने से इनकार कर दिया है और हर समझदारों का समर्थन तथा सहयोग भी उन्हें प्राप्त है। मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाकर, उससे पशुओं की तरह व्यवहार करना दुनिया के किसी भी भाग में अब सहन नहीं किया जाता। पीड़ित वर्ग तथा समाज का विचारशील वर्ग इस दिशा में एकजुट हो गया है। उसके संयुक्त धक्के से वह पाशविक प्रथा चरमराकर टूट चुकी है।

यह सब परिवर्तन इस बात के प्रमाण हैं कि जमाना तेजी से बदल रहा है, समय की गति को कोई रोक नहीं सकता। विश्व की आधी जनसंख्या महिला समाज की समस्या का समाधान भी समय की माँग है। उसे पूरा होना ही है। पुरुष समाज का झूठा अहंकार इसमें रुकावट नहीं डाल सकता। इसी प्रकार स्वयं नारी समाज भी आलस्य या आदत के कारण प्रगति की उपेक्षा नहीं कर सकता। जो भी समय के प्रवाह के साथ चलने में ढील दिखाएगा उसे ही जोरदार झटका खाना पड़ेगा।

नवयुग के अनुरूप सबसे पहले नारी समाज को अपनी मान्यताओं में हेर-फेर करना पड़ेगा। परिवर्तनों का आधार इसके बाद ही बन पड़ेगा। हर एक नारी को यह अनुभव करना होगा कि उसका जन्म कुछ व्यक्तियों की उचित-अनुचित इच्छापूर्ति करते रहने और बदले में पेट भर लेने भर के लिए नहीं, बल्कि किसी विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है। नारी जीवन का यह महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है—परिवार संस्था का ठीक से संचालन और उसे उन्नत स्तर का बनाना। व्यक्ति निर्माण के लिए धर्म-अध्यात्म और कला क्षेत्र के लोग प्रयास करते हैं। समाज-निर्माण के लिए राज्य के अधिकारी, धनवान-वर्ग, विद्वान और वैज्ञानिक, अपने-अपने ढंग से काम करने में जुटे रहते हैं। व्यक्ति और समाज-निर्माण दोनों के बीच की कड़ी है, परिवार। परिवार संस्था ही वह खदान है जिसके आदर्श होने पर एक से एक बड़े नररत्न निकलते हैं। समाज और कुछ नहीं, वह परिवार की इकाइयों का सुगठित रूप ही है।

इन तथ्यों के साथ इस सचाई से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि परिवार के निर्माण और विकास में नर की अपेक्षा नारी की भूमिका हजारों गुनी अधिक प्रभावशाली होती है। यों नारी का प्रवेश और प्रभाव हर क्षेत्र में है। उसके कार्यक्षेत्र को किसी छोटी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता, तो भी इतना माने बिना काम नहीं चलता कि परिवार संस्था को ठीक प्रकार चलाना नारी के सहयोग बिना नर के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यहाँ नारी का तात्पर्य न तो पत्नी से है और न नर का मतलब पति से। परिवार में नारी की कितनी ही भूमिकाएँ हैं और वे सभी एक से एक बढ़कर हैं। दादी, ताई, चाची, माता, बुआ, बहन, पुत्री, भाभी, ननद आदि कई रिश्तों में वह सारे परिवार को प्रभावित करती है। कुमारी, विधवा, परित्यक्ता होते हुए भी नारी किसी घर-परिवार में रहती ही है और जहाँ भी उसका निवास होता है, वहाँ वह उस स्थान के वातावरण को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। पत्नी के रूप में भी वह पति के सहयोग से कुटुम्ब का निर्माण और विकास करती है। पर बिना पति के भी वह एकाकी भूमिका निभाती हुई अपने व्यक्तित्व का लाभ परिवार संस्था की उन्नति में भली प्रकार देती रह सकती है। दूसरी ओर नर के लिए अकेले में वैसा निर्वाह सम्भव नहीं होता। निस्सन्देह नारी परिवार संस्था की रचना, पोषण और सुधार में समर्थ है। उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सम्मिलित देवशक्ति कहा जा सकता है।

परिवार-निर्माण के इतने बड़े उत्तरदायित्व को पूरा करने में समर्थ सिद्ध होने के लिए उसे अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का विकास करने के लिए पूरी-पूरी रुचि लेनी चाहिए। खान-पान, रहन सहन सम्बन्धी नियमों का पालन करने में अधिक से अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। प्रकृति के कठोर नियम किसी के साथ भी ढिलाई नहीं बरतते। जो भी उपेक्षा या अवज्ञा करता है वही मार खाता है। अपने ऊपर भी कमजोरी और रोगों के तमाचे न पड़ें, इसलिए पहले से ही सतर्क रहना चाहिए। सभी जानते हैं कि जीभ का चटोरापन, वासनात्मक असंयम, अनियमितता तथा अस्त-व्यस्त दिनचर्या और दिमागी तनाव जैसे कारण ही स्वास्थ्य की बरबादी के प्रमुख कारण हैं। आलस्य और प्रमाद, अस्वच्छता से बचा जा सके तो सब कुछ उत्साहवर्द्धक बना रहेगा। स्वास्थ्य रक्षा के नियमों की जानकारी सभी को रहती है या थोड़ी सी पूछताछ करने से ही मिल सकती है। नारीवर्ग उसके बारे में उपेक्षा भर न बरते। यदि आहार-विहार, श्रम-विश्राम आदि में सतर्कता और सुव्यवस्था बरती जाए तो गरीबी में भी स्वास्थ्य ठीक रखा जा सकता है। आमतौर से पुरुषों द्वारा खाने-सोने में अनियमितता बरतने के कारण स्त्रियों का अधिकतर समय ऐसे ही बरबाद चला जाता है। वे न तो ठीक विश्राम कर पाती हैं और न शिक्षा और मनोरंजन आदि के लिए ही समय निकाल पाती हैं। प्रयत्न करना चाहिए कि परिवार के हर सदस्य की दिनचर्या नपी-तुली हो और किसी को परेशानी न सहनी पड़े, तो स्त्रियों को अपना स्वास्थ्य संरक्षण कर सकना भी सम्भव हो जाएगा और मानसिक विकास के लिए काफी समय मिल सकना भी सम्भव हो जाएगा।

मानसिक विकास के लिए शिक्षा की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। महिलाओं को और उनके हितैषियों को चाहिए कि वे वस्त्र आभूषण, सौंदर्य-शृंगार, विनोद आदि सबसे अधिक महत्त्व शिक्षा को दें। विद्या से बढ़कर और कोई सम्पत्ति नहीं। अशिक्षितों की तुलना पशुओं और अन्धों से की जाती है। यह बहुत हद तक सही भी है। बिना पढ़े लोगों का ज्ञान घर-गृहस्थी और पास-पड़ोस से मिलने वाली जानकारियों तक ही सीमित रहता है। शिक्षितों को साहित्य के सहारे दुनिया भर के विद्वानों द्वारा दिए गए अति महत्त्वपूर्ण ज्ञान का लाभ मिलता है। उस ज्ञान की सम्पत्ति के आधार पर मनुष्य कितना ऊँचा उठ सकता है, इसकी असीम सम्भावना को केवल शब्दों से नहीं समझाया जा सकता। अशिक्षित व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं पा सके हैं। इसलिए जिन्हें अपना भविष्य अच्छा बनाने की इच्छा हो उन्हें सुशिक्षित बनने के लिए पूरा प्रयास करना ही चाहिए। निरक्षर महिलाएँ साक्षर बनने का प्रयत्न करें और साक्षर अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ाने के लिए उपयोगी साहित्य का नियमपूर्वक अध्ययन करें। एकमात्र स्कूली परीक्षाएँ पास कर लेने से ही शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। व्यक्ति एवं समाज के जीवन से सम्बन्धित अनेकानेक समस्याओं का स्वरूप और सही समाधान जानना जरूरी है। इसके लिए अनुभवी युगद्रष्टाओं के विचारों को समझना आवश्यक है। बेतुके उपन्यास या ऐसे दूसरे ही बेहूदे साहित्य को पढ़ने से ज्ञान-सम्वर्द्धन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए ऐसी पुस्तकें चाहिए, जो महिला जीवन से सम्बन्धित हर पक्ष की आदर्शवादी किन्तु व्यावहारिक शिक्षा दे सकने में समर्थ हों। जो ऊँची स्कूली शिक्षा पा चुके हैं, वे भी जीवन के लिए उपयोगी ज्ञान की दृष्टि से प्रायः पिछड़े हुए ही रहते हैं। इस अभाव की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर साधन जुटाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आवश्यक है कि हर जगह ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना हो जिनमें महिला-समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाला उपयोगी साहित्य पर्याप्त मात्रा में हो, जिससे उस क्षेत्र की शिक्षित महिलाओं की ज्ञान की भूख शान्त करने का साधन बनता रहे। इसके लिए आरम्भ में पैसा लगाना पड़ेगा, स्थान तथा अलमारियों की आवश्यकता पड़ेगी, पुस्तकें देने और वापस लेने का जिम्मेदार किसी को बनाना पड़ेगा। हर महीने अच्छा साहित्य मँगाने के लिए कुछ बजट रखना पड़ेगा और उसकी पूर्ति के लिए मासिक सहयोग या दूसरी तरह से धन इकट्ठा करने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अच्छा तो यह है कि घरों पर पुस्तकें देने और वापस लाने के लिए भी व्यवस्था रहे। कोई अवैतनिक स्वयंसेविका या वैतनिक कर्मचारी इसके लिए नियुक्त रहे। उतना न हो तो भी साप्ताहिक सत्संग के दिन पुस्तकें लेने और वापस करने का सिलसिला चलता रह सकता है। जो महिलाएँ पढ़ी नहीं हैं, उनके घर वालों में से कोई भी शिक्षित व्यक्ति उपयोगी पुस्तकें पढ़कर सुनाने का कार्य अपने जिम्मे ले सकता है। मुहल्ले-मुहल्ले में सामूहिक रूप से भी यह पढ़ने और सुनाने का क्रम प्रेरक कथा-प्रसंगों के रूप में चल सकता है। महिलाओं के पास दोपहर बाद का समय खाली बच जाता है, उसे इस कार्य में लगाया जा सकता है। पास-पड़ोस की महिलाओं को इकट्ठा करके शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों को ही ज्ञान-सम्वर्द्धन का लाभ दिया जा सकता है। अपनी सुविधा के समय पढ़ने का जिन्हें मौका मिल सके, वे वैसा करें, लेकिन सबके साथ बैठकर सुनने-सुनाने का सामूहिक क्रम तो एक श्रेष्ठ परम्परा के रूप में हर जगह चलना ही चाहिए।

स्वास्थ्य और शिक्षा वृद्धि के दो प्रयासों के अतिरिक्त तीसरा प्रयास घर की सुव्यवस्था तथा परिवार को सुसंस्कृत बनाने का किया जाना चाहिए। आमतौर से घरों में सफाई और सुसज्जा की बड़ी कमी रहती है। अस्त-व्यस्तता की कुरूपता यह बताती रहती है कि यहाँ आलस्य और प्रमाद का राज्य है। यह दरिद्रता की निशानी है। हममें से प्रत्येक का घर देवमन्दिर की तरह स्वच्छ और व्यवस्थित रहना चाहिए। गन्दगी कहीं भी दीख न पड़े। कचरा कूड़ेदान के अलावा और कहीं न रहने पाए। बुहारी, साबुन, पानी, सुई का प्रयोग बराबर होता रहे। पाखाने, पेशाबघर, स्नानघर, रसोईघर इतने साफ-सुथरे रहें कि वहाँ दुर्गन्ध का, मक्खी भिनकने का नाम भी न हो। जुएँ, खटमल, मक्खी, मच्छर, मकड़ी, छिपकली, चूहे, छछूँन्दर आदि घर में भरे रहते हैं तो समझना चाहिए कि यहाँ गृहिणी का स्तर गया-गुजरा है।

यह संकेत बिलकुल ही सामान्य है। प्रत्येक सुगृहिणी यह जानती है कि इस प्रकार की सुव्यवस्था रखने में बार-बार दौड़-धूप तो जरूर करनी पड़ती है, पर उससे घर के वातावरण में सुसंस्कारिता का समावेश होता है। अपना जी प्रसन्न होता है और आने-जाने वालों के मुँह से प्रशंसा ही निकलती है। अपना आलस्य और प्रमाद हटते ही ऐसी सुव्यवस्था बड़ी आसानी से बन जाती है तथा उससे प्रभावित घर का हर व्यक्ति उसे बनाए रखने में योगदान देना सीखता है। कहने-सुनने में यह एक छोटी सी बात है, पर यदि यह सतर्कता बरती जाने लगे तो परिवार का हर व्यक्ति व्यवस्था बुद्धि का अभ्यस्त बन जाता है। यह छोटी सी आदत समय-समय पर सामने आने वाले कार्यों को सही ढंग से निपटाने में सहायता करती है। फलत: मनुष्य सफलता प्राप्त करते हुए उन्नति के शिखर तक जा पहुँचता है।

परिवार के लोगों में स्नेह, सहयोग, सद्भाव बना रहे तो इससे स्वर्गीय वातावरण का सृजन होता है। सभी सदस्य एक-दूसरे के सम्मान का-सुविधा का ध्यान रखें, सहयोग, आत्मीयता और उदारता भरी सद्भावना बरतें, स्नेह-दुलार में, श्रम-नम्रता में भी कमी न रखें तो कोई कारण नहीं कि अभावग्रस्त स्थिति में भी स्वर्गीय सुख-शान्ति से भरा हर्षोल्लास वहाँ छाया न रहे। यह स्थिति अपने आप ही नहीं बन जाती, इसे बनाने के लिए परिवार के हर सदस्य में प्रेरणा भरनी पड़ती है। इसके लिए गृहिणी को अपनी वाणी में अमृत घोलना चाहिए। छोटों से असीम दुलार, स्नेह, ममता के साथ और बड़ों में सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने वाला विनम्र वार्तालाप तथा व्यवहार किया जाए। जीभ में अमृत भी रहता है और जहर भी। कड़ुए असम्मानसूचक वचन बोलकर किसी को भी शत्रु बनाया जा सकता है, किन्तु यदि मिठास को स्वभाव का अंग बना लिया गया है तो उस मधुर व्यवहार से प्रभावित करके पराये को भी अपना बनाया जा सकेगा। मधुर व्यवहार का वशीकरण मंत्र जिसे भी आता है, वह दूसरों का हृदय जीत लेता है और हर किसी के मन में, अपने लिए जगह बना लेता है। पराये घर में, ससुराल में पितृगृह से एकाकी जाकर भी कोई नारी पूरे परिवार को अपनी मुट्ठी में कर सकती है। शर्त एक ही है कि उसे नम्रता, मधुरता, सेवा-उदारता जैसे दिव्य गुणों का अभ्यास हो।

गृहलक्ष्मी वे हैं जो अपने स्वभाव में मधुरता और सद्भाव से अशान्त लोगों को भी धैर्य बँधाती, दिशा देती और हँसने-मुस्कराने के लिए विवश कर देती हैं। इसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। चन्दन का वृक्ष अपने पास उगे हुए पौधों को भी सुगन्धित बना देता है। सुगृहिणी ओछे और असंस्कृत लोगों के बीच रहकर भी उन्हें अपने प्रभाव से प्रभावित करती है और स्नेह-सौजन्य के, सहयोग-सद्भाव के ऐसे बीज बोती है जो आगे चलकर उस घर को हर क्षेत्र में प्रगतिशील बना देने वाले कल्पवृक्ष का रूप धारण करते हैं। ऐसे परिवार अपने सद्गुणों के कारण भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ते, ऊँचे उठते ही दिखाई पड़ते हैं।

जिस प्रकार घर को स्वच्छ, सुव्यवस्थित और सुसज्जित रखने में उसकी शोभा और सुरक्षा बनी रहती है, उसी प्रकार परिवार के लोगों में सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ती रहने से भी वे सुगठित रहते हैं और एक-दूसरे के प्रति सहयोग रखते हुए सुविकसित होते हैं। यदि परस्पर उदासीनता-उपेक्षा का भाव रहे तो फिर समझना चाहिए कि कई जानवरों को एक बाड़े में बन्द कर देने पर जो स्थिति होती है, वही बन गई। ऐसे परिवार कभी फलते-फूलते नहीं। स्नेह-सौजन्य के अभाव में, धर्मशाला या होटल में साथ-साथ रहने वालों की तरह किसी प्रकार दिन ही कटते हैं, वह लाभ नहीं मिलता जो परिवार संस्था के हर सदस्य को स्वाभाविक रूप से मिलना चाहिए।

अधिकारों को आगे रखने और कर्तव्यों को भूल जाने से मनुष्य का व्यक्तित्व ओछा हो जाता है। इससे परस्पर खींचतान बढ़ती है और समाज में नित नए विग्रह खड़े होते हैं। परिवारों के जहाज इसी दुर्बुद्धि की चट्टान से टकराकर चूर-चूर होते रहते हैं। छोटे-छोटे स्वार्थों को ही सब कुछ समझ लेने की आदतें नर पशु में पाई जाती हैं। वे दाँत, सींग और पंजे फैलाए एकदूसरे पर घात लगाते हैं। मनुष्य देखने में ही भोला-भाला लगता है, उसके भीतर भी अहंकार-द्वेष, छीना-झपटी और एहसान भुला देने जैसी बुराइयों की मात्रा कुछ कम नहीं होती। यदि उन्हें काबू में न किया जाए तो जिस घर में ऐसे लोग रहेंगे, वहाँ नरक का वातावरण बनाए रखेंगे।

भौतिक कठिनाइयों को सुलझाने में भी एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है, फिर विचारों और भावनाओं की गुत्थियों को सुलझाना तो और भी कठिन होता है। इस भारी जिम्मेदारी को सुसंस्कृत नारी यदि चाहे तो सहज ही उठा सकती है। उसके भीतर प्रकृति ने सद्भावनाओं का कभी न सूखने वाला झरना बना रखा है। इस अमृत के भण्डार में से वह एक-एक चुल्लू उस घर के लोगों को पिला सकती है और टेढ़े स्वभाव के व्यक्तियों को भी शिवजी की सेना कहलाने का सौभाग्य प्रदान करा सकती है। सरकस वाले तरह-तरह के जानवरों को साधकर उनकी सहज शत्रुता भुलाकर उन्हें मित्र जैसा व्यवहार करने का आदी बना देते हैं। यह बाजीगरी नारी की मूल प्रकृति में मौजूद है। वह चाहे तो इस कौशल का उपयोग करके किसी भी स्तर के लोगों में स्नेह-सौजन्य भरा सहयोग पैदा कर सकती है।

आमतौर से परिवार भर के दोष-दुर्गुणों का दुःखदायी प्रभाव नारी अपने ऊपर सहती है। यह सहनशीलता तारीफ करने योग्य तो है किन्तु इतना भर काफी नहीं। दुर्गुण और दुर्भाग्य जहाँ के तहाँ बने रहेंगे तो आपस का सहयोग बन ही नहीं पड़ेगा। स्नेह-सौजन्य का खाद पानी पाए बिना उस छोटे बगीचे का कोई भी पौधा पूरी तरह विकास पा नहीं सकता।

साधारण मनुष्य के स्वभाव में पशुओं जैसे कुसंस्कारों की मात्रा कम नहीं होती। मनुष्य बनने के पहले जीव तमाम पशु-पक्षियों के जन्मों में रहता है। उस समय की आदतों की जड़ उसमें काफी गहरी जमी होती हैं। इन्हें उखाड़ देना मात्र धर्मोपदेशों से नहीं हो सकता। यदि वैसा सम्भव रहा होता तो अब तक उपदेशकों और साहित्यकारों ने कब का यह कार्य कर लिया होता। भावनाओं को शुद्ध बनाने में बड़ी सावधानी से संघर्ष करना पड़ता है। ध्यान यह रखना पड़ता है, कि दोषों को उखाड़ भी दिया जाए और किसी के स्वाभिमान को चोट भी न लगे। इसके लिए परिवार के हर सदस्य के साथ बड़ा गहरा तालमेल बिठाना पड़ता है। ऐसा कर लेना मनोविज्ञान की दृष्टि से बड़ी चतुरता और सफलता कही जा सकती है। नारी को यह कठिन काम भी सरल करके दिखाना चाहिए। वह ऐसा कर भी सकती है। इसी से उसकी भावगरिमा का प्रमाण मिलेगा।

इसके लिए परिवार के हर सदस्य को मानसिक रूप से तैयार करना होगा। वे परिवार को सद्गुण बढ़ाने की पाठशाला-प्रयोगशाला मानने लगें और उसी के अनुसार अपना आचरण बनाते चलें तो काम बन जाए। उनमें से हर एक सदस्य ऐसा कुछ करने को तैयार रहे जिससे परिवार का स्तर ऊँचा उठता हो, सद्गुणों का अभ्यास बढ़ता हो और एकदूसरे के सहयोग का वातावरण बनता हो। घर की पाठशाला में (१) श्रमशीलता (२) स्वच्छता (३) नियमितता (४) मितव्ययता (५) सुव्यवस्था (६) मधुरता (७) सहकारिता (८) उदारता (९) धर्मभावना आदि नौ पाठ पढ़े जा सकते हैं। यदि सद्गुणों को स्वभाव का अंग बनाने में सफलता प्राप्त की जा सके तो समझना चाहिए की घरों में देवताओं जैसा जीवन जी सकने की सम्भावना बन गई। घर के छोटे सदस्यों को भी बड़े होने पर किसी कुटुम्ब का नेतृत्व करना होगा, बड़ों को आगे आकर घर-परिवार की अधिक वजनदार और अधिक बड़ी जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ेंगी। इसलिए क्या छोटे, क्या बड़े सभी के लिए यह उचित है कि वे अपने में घुस पड़ी दुष्प्रवृत्तियों को हटाने और सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने का अभ्यास करें। कहना न होगा कि इस कुशलता के निर्वाह में सुयोग्य नारी की भूमिका सदा सफल होकर ही रहती है।

ध्यान रखने योग्य एक बात यह है कि घर का कोई भी व्यक्ति निठल्ला न बैठा रहे। उसे कुछ न कुछ रचनात्मक प्रयत्न करते रहने में लगाए ही रखा जाना चाहिए। विश्राम निठल्लेपन को नहीं कहते। रात को गहरी नींद सोना और आवश्यकतानुसार सुस्ता लेना उचित है, पर विश्राम के नाम पर बेकार पड़े नहीं रहना चाहिए। 'खाली दिमाग शैतान की दुकान' वाली कहावत सब जानते हैं। अपने परिवारों में यह कुप्रथा बेतरह धँस पड़ी है कि कुछ लोग कोल्हू के बैल की तरह पिसें और बाकी लोग निठल्ले रहकर समय बरबाद करें। प्रश्न केवल यह नहीं कि क्रियाशील भी निठल्ले न बन जाएँ? समस्या यह है कि हर सदस्य का खाली समय किस प्रकार रचनात्मक काम में लगाया जाए। इससे परिवार का स्तर तथा परिजनों की आदतों को श्रेष्ठ बनाना सम्भव होगा। इसके लिए आवश्यक है कि हर सदस्य की पहले से पड़ी हुई आदतों को बदला जाए। लेकिन यह काम बड़ी समझदारी से करने का है। इसके लिए किसी को सीधा हुक्म देने से उनके अहंकार को चोट लग सकती है। इसलिए नम्रता के साथ अपने कार्यों में थोड़ा सहयोग देने की बात ही दबी जबान से कहनी चाहिए। हो सकता है आनाकानी, बहानेबाजी या इनकारी का उत्तर मिले, पर इससे निराश नहीं होना चाहिए और रुक-रुककर समय-समय पर काम की जरूरत समझाते हुए थोड़ी-बहुत टोकटाक का क्रम चलाते ही रहना चाहिए। धीरे-धीरे वे लोग अपनी इच्छा से ही उत्साह प्रकट करने लगेंगे। यहाँ अपने अपमान को आड़े नहीं आने देना चाहिए। बल्कि परिवार का हितसाधन, भविष्य-निर्माण ध्यान में रखकर प्रयास चालू रखना चाहिए। इसके लिए यदि उपेक्षा और अपमान के कड़ुए घूँट पीने पड़ें तो भी प्रसन्नतापूर्वक पी लेने चाहिए।

घर में नित्य ही ढेरों काम होते हैं, उनमें बराबरी वालों तथा छोटों को साथ लेकर चलने से सबका मनोरंजन भी होता है और सबको-सब कामों में रुचि लेने की आदत पड़ती है। सबमें स्वच्छता, व्यवस्था और श्रमशीलता का अभ्यास बढ़ता है। घर की सफाई, वस्तुओं को यथास्थान सजाना, पाखाने-नाली आदि को अच्छी तरह धोना, कपड़े धोना, सुखाना जैसे ढेरों काम हर दिन करने होते हैं। इन्हें एक ही व्यक्ति करता रहे इसकी अपेक्षा कहीं अच्छा यह है, कि उन्हें खेल-खेल की तरह हँसते-हँसाते मिल-जुलकर निपटाया जाए। साप्ताहिक अवकाश के दिन बरतन, कपड़े, जूते, फर्नीचर, पुस्तकें, मकान आदि की टूट-फूट को सुधारने का काम करना पहले से निश्चित करके रखा जा सकता है। सबका श्रम घर की स्वच्छता एवं सुसज्जित करने में लगे तो गरीबों के झोपड़े भी अमीरों के महल से बढ़कर सुरुचिपूर्ण लग सकते हैं।

परस्पर सहयोग के कितने ही आधार हो सकते हैं। बड़ी आयु के शिक्षित छोटी आयु वालों को पढ़ाया करें। ऊँची कक्षा में पढ़ने वाले निचली कक्षा वालों को पढ़ाया करें। रात को इकट्ठे बैठने, कहानियाँ कहने या उपयोगी पुस्तक सुनाने का सामूहिक क्रम चलाया जाए। इससे ज्ञान सम्वर्द्धन का सिलसिला चल पड़ता है और बोलने का अभ्यास बढ़ता है। बड़े बच्चे छोटों को पढ़ाएँ तो ट्यूशन फीस बचती है, अच्छे नम्बरों से पास होने की सम्भावना तो बढ़ती ही है, परस्पर सहयोग के साथ जुड़ी हुई सद्भावना का विस्तार भी होता है। समय की पाबन्दी के लिए हर किसी को कहा जाना चाहिए। जल्दी सोने और जल्दी उठने की परम्परा चलनी चाहिए। दिनचर्या का पालन करने, अनियमित न होने और समय की बरबादी बचाने के लाभ घुमा-फिराकर समझने-समझाने की बात चलती ही रहनी चाहिए। अनियमितता के कारण मनुष्य के स्वभाव, समय और प्रगति में, सृजन-अभिवर्द्धन में बेहिसाब नुकसान होता है। शरीर को आलस्य और मस्तिष्क को प्रमाद से बचाना बहुत जरूरी है। संसार के हर महापुरुष ने इनसे बचकर पुरुषार्थ, समय और मनोयोग के सहारे ही सफलताएँ पाई हैं। समय को श्रम में उत्साहपूर्वक लगाए रहने वाली मनःस्थिति को ही दूसरे शब्दों में सिद्धियाँ कहते हैं।

घर के वातावरण में शिष्टाचार का—श्रद्धा, सम्मान, ममत्व और वात्सल्य का गहरा पुट रहना चाहिए। बड़ों के प्रति छोटों में कृतज्ञता और सम्मान के भाव रहने चाहिए। प्रात:काल उठकर बड़ों को चरणस्पर्शपूर्वक प्रणाम करने की अपनी सांस्कृतिक परम्परा को फिर से जीवित किया जाना चाहिए। पिता, चाचा, ताऊ, माता, चाची, ताई, बुआ, बड़ी बहन, बड़ा भाई, बड़ी भावज, सास-ससुर, जेठ-जिठानी आदि को सभी छोटी आयु के स्त्री-पुरुष प्रातः उठते ही चरण छूकर प्रणाम किया करें। बराबर वाले परस्पर अभिवादन करें। छोटों के सिर पर हाथ फेरकर स्नेह, दुलार देने, वात्सल्य भरी मुस्कान से आशीर्वचन बोलने में बड़ों को भी कंजूसी नहीं करनी चाहिए। मात्र झूठा संकोच ही इसमें आड़े आता है। यदि एक बार उसे साहसपूर्वक तोड़कर इसका शुभारम्भ कर दिया जाए तो समझना चाहिए कि पीढ़ियों तक यह चक्र घूमता रहेगा और बड़ों तथा छोटों के बीच मुरझाते हुए स्नेह सम्बन्ध फिर हरे-भरे हो जाएँगे। गाली-गलौच, तू-तड़ाक, मार-पीट जैसे असभ्य प्रचलन हममें से किसी के भी घर में सहन नहीं किए जाने चाहिए। जहाँ वे चल रहे हैं, वहाँ से कड़ाई के साथ उनका उन्मूलन कर दिया जाना चाहिए।

छोटों द्वारा बड़ों के अनुचित, अनैतिक और असामयिक निर्देशों को मानने में असमर्थता व्यक्त की जा सकती है, या टाल-टूल की नीति अपनाई जा सकती है। पर जहाँ तक सम्मान का, शिष्टाचार का तथा सेवा-सहायता का प्रश्न है, उसमें कहीं भी शिथिलता नहीं रहनी चाहिए। बड़ों के लिए भी उचित यही है कि आयु भले ही अधिक हो जाए, पर घर के छोटों को बालक मानकर उन्हें वैसा ही स्नेह-दुलार देते रहें। एक आँख प्यार की एक सुधार की रखी जानी चाहिए। केवल दुलार से भी मनुष्य बिगड़ता चला जाता है। गलतियों के लिए आड़े हाथों लिया जाना चाहिए, पर वह सब होना चाहिए आत्मीयता और शिष्टता की मर्यादाओं की रक्षा करते हुए ही। छोटी आयु के सदस्य भी आखिर मनुष्य ही तो हैं और आत्मसम्मान की भूख तो उन्हें भी रहती है।

सास-बहू के बीच माता और पुत्री जैसा स्नेह, जेठानी-देवरानी में सगी बहनों जैसी ममता होनी चाहिए। जो पक्ष जितना विवेकशील होगा, वह दूसरे पक्ष की गलतियों को दर-गुजर करते हुए स्नेह-सूत्रों को बनाए रह सकता है। अपने लिए अधिक, दूसरे के लिए कम की नीति ही सारे झंझटों की जड़ है। स्वयं कम पाने और अधिक करने की नीति अपना ली जाए, तो फिर ओछी प्रकृति वालों के साथ भी निर्वाह हो सकता है। मैत्री इसी उदारता के आधार पर स्थिर और सुदृढ़ रह सकती है। ससुर, जेठ आदि बड़ों को पिता जैसा सम्मान और देवर, भतीजे, ननद आदि को उनकी आयु के अनुसार समानता का अथवा बच्चों जैसा दुलार दिया जा सकता है। ऐसा व्यवहार स्वयं करते रहना भर पर्याप्त नहीं। प्रयत्न यह होना चाहिए कि वैसी दूरदृष्टि, उदारता एवं आत्मीयता परिवार के हर सदस्य में बढ़ती चले। सुख-दुःख में एक-दूसरे के साथ जुड़े रहने, कष्ट को हलका करने तथा उचित बात में प्रोत्साहन एवं सहयोग देने में कुछ उठा न रखें। एक-दूसरे के चरित्र पर पूरा ध्यान रखें। सद्गुणों के बढ़ाने में परामर्श दें और साथ लेकर वैसा करने का अनुभव-अभ्यास करावें। दुर्गुणों के प्रति तीखी नजर रखें और जब भी जिनमें भी जो भी दुष्प्रवत्ति पनप रही हो, उसे उखाड़ने के लिए सभी अपने-अपने ढंग से प्रयास करें। शरीर में रोग उठने पर जैसे पूरे घर-परिवार को चिन्ता होती है, उसी प्रकार दुर्गुणों का, दुर्बुद्धि का मन:क्षेत्र में उत्पन्न होने को भी एक भयंकर विपत्ति समझा जाना चाहिए। दूरदर्शितापूर्ण सन्तुलित नीति अपनाकर, शारीरिक अस्वस्थता की तरह मानसिक तथा चरित्र सम्बन्धी रोगों से भी छुटकारा पाया जा सकता है। घर में सबको स्वास्थ्यप्रद भोजन मिल सके, इसके लिए भी कुछ परिवर्तन लाने जरूरी हैं। चटोरापन छोड़कर सुपाच्य और प्राणवान आहार की तरफ सबकी रुचि मोड़े बिना परिवार भर की स्वास्थ्य समस्या उलझी ही पड़ी रहेगी। भाप से भोजन पकाने में कुछ कठिनाई तो होती है, पर आहार के जीवनतत्त्वों को पोषण दे सकने योग्य बनाए रहने का और कोई रास्ता भी तो नहीं है। हाथ की चक्की का आरम्भ करना दकियानूसीपन, कंजूसी, काम के दबाव को और अधिक बढ़ाना तो समझा जा सकता है, पर उपयोगी व्यायाम तथा अन्न को जीवनदाता बनाए रहने के लिए यह कदम उठाया जाना भी आवश्यक है।

थाली में जूठन न छोड़ने की आदत घर के हर सदस्य में डाली जानी चाहिए। वर्तमान परिस्थितियों में अन्न का एक दाना भी बरबाद नहीं किया जाना चाहिए। खाते समय देख लिया जाए कि कहीं थाली में किसी वस्तु की अनावश्यक मात्रा तो नहीं आ गई है। दोबारा माँगने में हर्ज नहीं, पर जो अधिक प्रतीत होता है उसे पहले से ही निकाल दिया जाना चाहिए। इसमें परोसने वाले को भी अनावश्यक शिष्टाचार बरतने की अपेक्षा समझदारी से काम लेना चाहिए। सप्ताह में एक दिन या एक जून उपवास करने की, शाकाहार पर रहने की परम्परा चल पड़े तो इससे पेट को विश्राम मिलने से स्वास्थ्य भी सुधरेगा और अन्न की देशव्यापी कमी को सहज ही पूरा कर लेने का एक बहुत उपयोगी मार्ग बन जावेगा।

यह सब छोटी-छोटी बातें भी परिवार और समाज की व्यवस्था पर बहुत प्रभाव डालती हैं। यह जितनी आसान लगती है उतनी ही कठिन भी है। कोई व्यक्ति किसी एक स्थान पर इन्हें बड़ी आसानी से लागू कर सकता है, लेकिन घर-घर जन-जन के स्तर पर इन्हें लागू करना बहुत कठिन है। इन्हें इस विशाल स्तर पर लागू करने का एक ही रास्ता है और वह है कुशल गृहिणियों को इसके लिए तैयार करना।

यदि उन्हें इसका महत्त्व समझाया जा सके तथा परिवारों में नई परम्पराएँ चालू करने योग्य सूझ-बूझ उनमें पैदा की जा सके, तो फिर यह कठिन दिखने वाले काम खेल की तरह पूरे हो सकते हैं। पारिवारिक स्तर पर अनेकों ऐसे कार्यक्रम चालू करने की, श्रेष्ठ परम्पराएँ बनाने की आवश्यकता है, जिनके बिना प्रगति के मार्ग रुके पड़े हैं। यह जितनी जल्दी सम्भव हो सके उतना ही अच्छा है।

परिवार में इस प्रकार के कल्याणकारी परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि नारी अपने आप को शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से सुयोग्य बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करे। अनुभव तथा विचारों की पूँजी बढ़ाए और वह कुशलता विकसित करे जिसके आधार पर उन्हें अपने महान उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सफलता मिल सकती है। असल में यह कार्य पुरुषों का है कि वे नारी को रसोईदारिन, चौकीदारिन एवं धाय के अलावा अन्य जिम्मेदारियाँ उठाने की क्षमताएँ विकसित करने के लिए समुचित अवसर तथा सहयोग दें। पर यदि वे उतनी उदारता तथा दूरदर्शिता न दिखा सकें तो भी नारी का कर्तव्य है कि वह आत्मविकास के लिए स्वयं आगे बढ़े और जो भी साधन मिल सकें उन्हीं के सहारे ऊँचे उठने और आगे बढ़ने के लिए जी तोड़ प्रयत्न चालू कर दे। इसके लिए नारी को अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ेगा। लेकिन यह सब जिस उच्च भावना से और उत्साह के साथ किया जाना है, उसके कारण इस श्रम से किसी प्रकार की थकान या परेशानी अनुभव नहीं होगी।

आज हर महिला को यह तथ्य भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि हमें अपने बलबूते आत्मोत्कर्ष के लिए अनेकानेक प्रयत्न करने होंगे। पिछड़ी हुई पददलित स्थिति से त्राण पाने में अपनी ही उमंग भरी साहसिकता काम देगी। हम उठना चाहेंगी तो फिर आज का दबाव कल अपने आप बदलेगा और शोषण के स्थान पर सहयोग में परिवर्तित करना पड़ेगा।

७. नारी रचनात्मक मोर्चे पर भी डट जाए

नवजागरण की दिशा में नारी को बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है—यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। नारी की दिव्य क्षमताओं को कसौटी पर कसे जाने की घड़ी आ पहुँची है। इस कसौटी पर नारी खरी उतरेगी भी, भले ही उसे इसके लिए दोहरा श्रम करना पड़े। उसे लम्बे समय तक बन्धनों में जकड़े रहने से पैदा हुए अपने पिछड़ेपन से मुक्ति पाकर अपनी योग्यता और क्षमता को विकसित करना होगा और नए निर्माण की भूमिका बनाने में भी हाथ बँटाना होगा। अपने विकास के लिए स्वयं अपने आप में संघर्ष करना होगा तथा मार्ग में रुकावट डालने वाली परिवार और समाज में फैली रूढ़ियों से भी निपटना पड़ेगा। यह सब कठिन अवश्य है, लेकिन नारी इसे अवश्य कर लेगी। महाकाल ने उसे जो कार्य सौंपा है उसे अपनी जन्मजात दैवी क्षमताओं के सहारे वह निश्चित रूप से पूरा कर सकती है। विचारशील पुरुषवर्ग का भी पूरा समर्थन एवं सहयोग उसे मिलना चाहिए, और वह मिलेगा भी।

यहाँ यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि नारी परिवार या समाज के निर्माण में तभी हाथ बँटा सकेगी जब पहले आत्मनिर्माण का कार्य पूरा कर लेगी। ऐसा सोचना भूल है। यह दोनों कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे को साथ लिए बिना इनमें से कोई भी कार्य अकेला ही पूरा नहीं किया जा सकता। आत्मविकास के साथ नारी को सुधार कार्य भी किसी न किसी रूप में हाथ में लेने ही चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि प्रारम्भ बहुत बड़े स्तर पर किया जाए, छोटे से छोटा किन्तु सुनिश्चित क्रम तो प्रारम्भ कर ही देना चाहिए।

छोटे-मोटे सुधार और प्रचलन अपने ही घरों में अति सरलता पूर्वक किए जा सकते हैं। वे देखने में छोटे लगते हुए भी परिवर्तन के शुभारम्भ की भूमिका माने जा सकते हैं और भविष्य के बड़े कार्यों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकते हैं। घरों में लड़के और लड़कियों के बीच बरता जाने वाला भेदभाव तुरन्त समाप्त किया जाना चाहिए। लिंग-भेद के कारण किसी को न तो सम्मान मिले और न तिरस्कार। न तो लड़के लड़कियों को छोटी नजर से देखें और न लड़कियाँ अपने को हीन अनुभव करें। ऐसा व्यवहार स्वयं भी करना चाहिए और दूसरे को भी वैसा ही बरतने के लिए कहना चाहिए। भोजन करना, शिक्षा-दीक्षा, दुलार, सम्मान आदि में किसी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए। लड़के कमाई खिलाते और वंश चलाते हैं, लड़कियाँ पराये घर का कूड़ा, कर्जे की डिग्री होती हैं, ऐसी बुद्धि रखकर बच्चों में भेदभाव करना यह बताता है कि यह लोग अभिभावक कहलाने तक के अधिकारी नहीं, सहज वात्सल्य का इनमें उदय नहीं हुआ है। हमें इस प्रकार के भेदभाव को अपने मनों से पूरी तरह निकाल ही फेंकना चाहिए। पुत्र जन्म की खुशी और कन्या जन्म पर रंज मनाया जाना मनुष्यता की शान पर बट्टा लगाता है। नर और नारी की असमानता मिटाने का आरम्भ यहीं से होना चाहिए। महिलाएँ, बच्चों के बीच बरते जाने वाले इस भेदभाव का अन्त स्वयं करेंगी तो ही पुरुषों को उस परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होगी।

परदाप्रथा का अन्त होना ही चाहिए। यह कार्य स्त्रियाँ स्वतः करें। सास अपनी पुत्रवधू को बेटी कहकर सम्बोधित करे और बताएँ कि अन्य बच्चों की तरह वह भी इस परिवार की सदस्य है। बाहर के दुष्ट-दुराचारियों से परदा करने की कुछ उपयोगिता भी हो सकती है, परन्तु अपने ही आत्मीय जनों के साथ बिरानेपन का अनुभव करना व्यर्थ है। इसी घर में पैदा हुए लोगों की ही तरह उसे भी घुल-मिलकर हँसते-हँसाते वातावरण में रहना चाहिए। बड़ों के सामने सिर ढकने जैसे सामान्य शिष्टाचार बरतने में हर्ज नहीं, पर उतना बड़ा घूँघट निरर्थक है, जिसके कारण परस्पर वार्तालाप तक पर प्रतिबन्ध लग जाए। नर नारी पर परदे के लिए न तो दबाव डाले और न प्रोत्साहित करे। घर की महिलाएँ आपस में मिल-जुलकर इस कुरीति का अन्त करें, यह सम्भव है। विचारशील पुरुषों को भी इसमें कोई बड़ी आपत्ति नहीं होगी और इस पिछड़ेपन की निशानी का सहज ही अन्त हो जाएगा।

जेवरों की अनुपयोगिता स्पष्ट है। उनमें व्यर्थ ही पैसा रुकता है। धातुओं में मिलावट, टाँका, बट्टा, मीना तथा गढ़ाई, बनाई, टूट-फूट के कारण उनमें लगे धन की कीमत आधी भी नहीं उठती। उतना पैसा बैंक में रखा जाए तो ब्याज के कारण बढ़ता चला जाएगा। जबकि जेवरों में वह निरन्तर घिसता और घटता ही है। चोरी, हत्या, ईर्ष्या, अहंकार, उद्धत प्रदर्शन, प्रतिस्पर्धा जैसी कितनी ही हानियाँ हैं जो जेवरों के कारण आए दिन होती रहती हैं। सोना, चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ राष्ट्रीय कोश में संग्रहित न रहकर जब घरों में बिखर जाती हैं तो उसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। जिन अंगों पर जेवर लदे रहते हैं, उनकी त्वचा कड़ी पड़ जाती है, पसीना रुकता है और कुरूपता तथा रुग्णता उत्पन्न होती है। नाक और कान में सूराख करके जेवर पहनना तो किसी असभ्य काल में प्रचलित हुई रूढ़ि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इन सूराखों से इन सुन्दर अंगों का स्वाभाविक सौंदर्य अकारण नष्ट होता है। नाक के जेवर उसकी भीतरी सफाई में बाधा उत्पन्न करते हैं और अपने में सूखे मैल की दुर्गंध जमा कर लेते हैं। साँस के साथ उसके मस्तिष्क और फेफड़ों में वह पहुँचते रहने से कई तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं। जेवरों का प्रचलन घटाने और हटाने के लिए हमारे मनों में उत्साह उत्पन्न होना चाहिए। उस पूँजी को बचत योजनाओं में लगाने से आर्थिक बरबादी की समाप्ति होकर आर्थिक प्रगति का नया द्वार खुल सकता है।

फैशन के नाम पर खरचीला भोंड़ापन आजकल बढ़ता चला जा रहा है। अमीरों, शिक्षितों और शौकीनों की नकल अब गरीब लोग भी करने को मचलते हैं। इससे पैसा और समय तो बरबाद होता ही है, अवांछनीय सजधज से शृंगारिक अश्लीलता बढ़ती है और चरित्रों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। भड़कीली सजधज मनुष्य के ओछेपन और बचकानेपन की निशानी है। इससे ऊपरी आकर्षण भले ही बढ़ जाए, सम्मान नहीं बढ़ता। सादगी, शालीनता और सज्जनता हमारी नीति होनी चाहिए। अनावश्यक सजधज के प्रति भारतीय परिवारों में अनुत्साह रहना ही अपनी संस्कृति के अनुरूप है। जहाँ भी उद्धत सजधज पनप रही है, वहाँ उसको निरुत्साहित ही किया जाना चाहिए।

परिवार-निर्माण के कुछ सूत्रों की संक्षिप्त जानकारियाँ पहले दी जा चुकी हैं। इससे आगे की असामान्य जानकारी यह है कि घर में आस्तिकता का, आध्यात्मिकता का और धार्मिकता का वातावरण बनाना चाहिए। नास्तिकता मनुष्य को उच्छृंखल और मर्यादाहीन बना देती है। कर्मफल, परलोक, ईश्वरीय नियंत्रण आदि को स्वीकार न करने के कारण यह मनोवृत्ति अवसर आने पर कुछ भी क्रूर कर्म करने के लिए तैयार हो सकती है। मनुष्य को पशु और पिशाच बनने से रोकने में सच्चे ईश्वर विश्वास से बढ़कर और कोई आत्मानुशासन नहीं हो सकता।

आध्यात्मिकता का अर्थ है—आत्मनिर्भरता, आत्मबोध; जीवन का महत्त्व, स्वरूप और लक्ष्य समझकर तदनुसार रीति-नीति निर्धारित करना। परावलम्बी-बहिर्मुखी व्यक्ति अपनी भीतरी कमजोरियों के कारण बाहरी जीवन में भी डरा-मरा, हारा-थका, दीन-हीन ही बना रहता है। आत्मगौरव-आत्मसन्तोष जैसे दिव्य उपहार उसे कभी मिल ही नहीं पाते। आत्मबल संसार का सबसे बड़ा बल है और वह केवल अपनी गरिमा समझने वालों को ही मिलता है। बाहर से कुछ पाने के लिए सभी उत्सुक रहते हैं, पर यदि भीतर से कुछ पाने के लिए उतना ही प्रयास किया जाए तो चमत्कारी प्रभाव पैदा हो सकता है। अपने अन्दर की सोई हुई शक्तियाँ जाग्रत होकर साधारण मनुष्य को भी देवताओं जैसी विभूतियों से सजा सकती हैं। वे उपलब्धियाँ प्रगति का प्रत्येक द्वार खोल सकती हैं। जिनमें आत्मविश्वास है, जिन्होंने आत्म निर्माण किया है, ऐसे व्यक्ति ही महामानवों की कतार में खड़े हो सकने योग्य बने हैं। इतिहास उन्हीं के गीत गाता है। जाग्रत नारी का कर्तव्य है कि वह व्यक्तिगत मान्यताओं में भी आस्तिकता और आध्यात्मिकता को गहराई तक उतारे और उन्हें परिवार के अन्य लोगों की आस्थाओं में भी बिठाने के लिए लगातार प्रयत्न करे।

धार्मिकता का अर्थ है—कर्तव्यपालन, कर्मयोग। आज अधिकारों की ही माँग है, कर्तव्य को हर क्षेत्र में उपेक्षित रखा जा रहा है। नवयुग में कर्तव्य पालन को पहला स्थान मिलेगा, अधिकारों को नहीं। धर्म का विशालकाय ढाँचा केवल इसी एक आदर्श की जड़ें जन-मानस में गहराई तक जमाने के उद्देश्य से खड़ा किया गया है। यों आज आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता को भ्रम एवं पाखण्डों ने घेर लिया है। इन क्षेत्रों में दुःखदायी विकृत्तियाँ घुस पड़ी हैं, तो भी मूल रूप में ये तीनों ही धाराएँ इतनी पवित्र और इतनी उपयोगी हैं, कि उन्हें अपनाए बिना मनुष्यता का असली स्वरूप स्थिर नहीं रखा जा सकता। हमारे घरों में आदर्शवादी तत्त्वज्ञान की त्रिवेणी बहनी चाहिए और उसमें स्नान करके परिवार के हर सदस्य को देवमानव बनने का अवसर मिलना चाहिए।

हमारे घरों में पूजा-उपासना का वातावरण रहना चाहिए। अच्छा तो यह है कि परिवार के सभी लोग प्रातःकाल नित्यकार्य से निपटकर कछ समय ईश्वर की गोद में बैठने की भावना के साथ उपासना के लिए शान्तचित्त से एकान्त में बैठें। गायत्री मंत्र का जाप और उगते हुए सूर्य की दिव्य किरणें अपने शरीर, मन और अन्त:करण में प्रविष्ट होने का ध्यान करें। समय का अभाव हो तो पन्द्रह मिनट भी इसके लिए लगाते रहने से काम चलता रह सकता है। उपासना भी नित्य के दैनिक कार्यों में सम्मिलित रहनी चाहिए। यदि अधिक व्यस्तता या अरुचि का वातावरण हो तो भी इतना तो होना ही चाहिए कि पूजा-स्थल पर गायत्री माता का, भगवान का चित्र स्थापित हो और कामकाज में लगने से पहले वहाँ जाकर, घर का प्रत्येक सदस्य दो मिनट मौन खड़ा होकर गायत्री मंत्र का पाँच बार जप मन ही मन कर लिया करे और प्रणाम करके इस छोटे से उपासना क्रम को पूरा कर लिया करे। इसमें बाधा केवल अरुचि और उपेक्षा के कारण ही हो सकती है, परन्तु आस्तिकता के अनेक प्रकार के लाभों को समझा देने पर श्रद्धा के बीजांकुर उगाए जा सकते हैं। उसके लिए बहुत सा साहित्य युग निर्माण योजना द्वारा तैयार किया जा चुका है। भोजनशाला में प्रवेश करने से पूर्व हर महिला को कुछ समय गायत्री मंत्र का विधिवत अथवा मानसिक जप करना चाहिए। भोजन बन जाने पर चूल्हे में से अग्नि निकालकर रोटी के नन्हे-नन्हे टुकड़े घी और शक्कर में मिलाकर गायत्री मंत्र के अन्त में स्वाहा शब्द लगाकर होम देने चाहिए। इसके बाद एक चम्मच से उसके चारों ओर जल की धार घुमा देनी चाहिए। यह अति संक्षिप्त गायत्री हवन हो गया। भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री और भारतीय धर्म का पिता यज्ञ है। यह दिव्य माता-पिता नित्य ही हमारी श्रद्धा द्वारा पूजे जाने चाहिए, इसमें उपेक्षा न बरती जाए तो ही ठीक है। इस तत्परता से घर में दिव्य वातावरण बनता है और उसका प्रभाव किसी न किसी रूप में हर किसी के लिए कल्याणकारी होता है।

घर में एक स्थान पर पूजा की सुसज्जित चौकी होनी ही चाहिए। घर में भगवान का निवास है, इस आस्तिक मान्यता की छाप घर भर पर बनी रहे, इसके लिए भगवान का सिंहासन सजाने में घिरने वाली जगह और थोड़ी सी सामग्री लगा देना उचित है। यह क्रम अपने भौतिक मूल्य की तुलना में असंख्य गुने सत्परिणाम उपस्थित करता है। दोनों समय सामूहिक आरती, दोनों समय चौके में बनी रसोई की थाली का भोग—यह दोनों क्रिया चल पड़ें तो समझना चाहिए कि अपना घर देवमन्दिर बन गया और उसमें उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ झाँकने लगेंगी।

आध्यात्मिकता और धार्मिकता की आस्थाएँ परिवार के लोगों में जमाने और विकसित करने के लिए हमें कई प्रकार के प्रयास करने पड़ेंगे और उन्हें धैर्य के साथ लम्बे समय तक चलाते रहना पड़ेगा। इसके लिए कथा बाँचने जैसा सत्संग प्रयोग नित्य ही चलना चाहिए। रामायण कथा, गीता कथा आदि धर्मग्रंथों की यदि प्रगतिशील युग की समस्याओं को सुलझा सकने वाले स्तर की व्याख्या हो सके तो वे धर्मग्रन्थ भी भावनात्मक नवनिर्माण के आधार बन सकते हैं। रूढ़िवादी लकीर पीटने से तो वे ग्रन्थ भी प्रतिगामी कूड़ा-करकट ही गले बाँध देते हैं। घर में रात्रि के समय कथा-प्रसंग होते रहें और उसमें न केवल घर के वरन पड़ोस के नर-नारी भी भाग लेते रहें तो वह दीखने में छोटी किन्तु वास्तव में बहुत बड़ी बात होगी। इस बीजारोपण का कुछ दिनों में ही आश्चर्यजनक सत्परिणाम देखा जा सकता है। धार्मिकता के संस्कारों को फलने-फूलने का अवसर मिल सके तो वे किसी सामान्य मनुष्य में भी महामानव बनने की सम्भावना पैदा कर सकते हैं।

आवश्यक नहीं कि कथा में धर्मग्रन्थ ही पढ़े-सुने जाएँ और उनका समय रात्रि का ही हो। सुविधा और रुचि के अनुसार इसमें परिवर्तन किए जा सकते हैं। रात्रि की अपेक्षा तीसरे प्रहर भी इसका समय हो सकता है। व्यक्ति, परिवार और समाज की समस्याओं के स्वरूप को समझाने वाली और उनके समाधान बताने वाली पुस्तकें भी एक प्रकार से धर्मग्रन्थ ही हैं। संस्कृत में बात कही गई हो या देशी भाषा में, इसमें कुछ अन्तर नहीं आता।

प्राचीनकाल के ऋषियों ने अपने समय की समस्याओं पर उसी समय की परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए प्रकाश डाला था। आज की स्थिति उस समय से भिन्न है। आज वे समस्याएँ नहीं, जो प्राचीनकाल में थीं। अब नई समस्याएँ सामने हैं और उनके समाधान आज के हिसाब से ही ढूँढ़ने होंगे। यह काम युगद्रष्टाओं और कालपुरुषों का है। विवेकानन्द, दयानन्द, गाँधी, विनोबा आदि को हम युगद्रष्टाओं में गिन सकते हैं और उनके द्वारा दिए गए सुझावों के अनुसार अपनी विचारधारा परिष्कृत करने का लाभ उठा सकते हैं। कथा का उद्देश्य युगद्रष्टाओं के साहित्य से भली प्रकार पूरा हो सकता है।

बच्चों को कहानियाँ सुनने का बहुत शौक होता है। बड़ों को भी इसमें कम रुचि नहीं होती। रात्रि के अवकाश में कोई भी कुशल महिला कहानियाँ कहने का काम अपने कन्धों पर लेकर घर भर के आकर्षण का केन्द्र बन सकती है। प्रेरणाप्रद कथाएँ तथा जीवनियाँ युग निर्माण योजना द्वारा ढेरों प्रकाशित होती रहती हैं। इन्हें पढ़कर उनका उपयोगी अंश रोचक टिप्पणियों सहित कहा जा सकता है। टिप्पणियाँ इस होशियारी से लगाई जावें कि कथा का प्रवाह सुनने वालों के स्तर के अनुरूप बन पड़े और रोचकता का पुट भी बना रहे। दिन में उस साहित्य को पढ़कर काम की कथाएँ छाँटी जाया करें और उन्हें रात को सुना दिया जाए, तो यह कथा का भण्डार कभी भी समाप्त न होगा। रोज एक से एक बढ़कर उपयोगी प्रसंग आते रहेंगे। कहना न होगा कि सीधे-सीधे उपदेश देने की जगह कथाओं के सहारे शिक्षा देने की शैली अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। उसमें किसी के अहंकार को चोट भी नहीं लगती और मनोरंजक ढंग से वह प्रकाश भी मिल जाता है, जिसकी घर के सभी लोगों को बहुत जरूरत रहा करती है। मनोविज्ञान के अनुसार किसी को सुधारने-बदलने या दिशा-प्रेरणा देने के लिए, कहानियों से बढ़कर प्रभावशाली कदम दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक गृहलक्ष्मी को अपने घरों में कथापद्धति का प्रचलन करना चाहिए। यह अपनी रुचि एवं सुविधा की बात है कि इसके लिए समय रात्रि का रहे या तीसरे प्रहर का, उसमें रामायण-गीता पढ़ी जाए या अपने युग के विचारकों का साहित्य पढ़कर सुनाया जाए। कहानी सुनने के लिए बच्चे तो खुद ही आ जाते हैं, प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि अन्य लोग भी उस मनोरंजन का लाभ उठाएँ, प्रकाश ग्रहण करें और स्वयं भी इस कला की जानकारी प्राप्त करें।

सामूहिक भजन-कीर्तन, गायन-वादन की परम्परा भी घरों में चल पड़े तो उससे मनोरंजन की एक बहुत बड़ी आवश्यकता पूरी हो सकती है। भगवान के गुणगान से लेकर जीवन के भीतरी और बाहरी क्षेत्र में आदर्शवादी उमंग उत्पन्न करने और प्रगति की दिशा में चरण बढ़ाने तक के विभिन्न विषय इन सहगानों में हो सकते हैं।

परिवार का भावनात्मक निर्माण करने के लिए साप्ताहिक परिवार गोष्ठियों में घर की समस्याओं पर परस्पर विचार-विनिमय करने, बजट बनाने तथा भावी रीति-नीति निश्चित करने का सिलसिला चलाया जा सकता है। समस्याओं का समाधान ढूँढ़ा जा सकता है और प्रगति के नए चरणों का निर्धारण किया जा सकता है। हर नारी को इसके लिए सुनिश्चित रूपरेखा बनानी होगी और अपने निज के व्यक्तित्व को विकसित करने के साथ समूचे परिवार का नवनिर्माण करने के लिए साहस समेटना पड़ेगा।

नारी को निर्मात्री कहा जाता रहा है। इस कथन की सार्थकता में सन्देह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। यदि वह केवल जन्म देने वाली रही होती, तो उसे जननी भर कहा जाता। अपने से सम्बन्धित लोगों के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण कर सकने की क्षमता होने के कारण ही उसे निर्माणकर्त्री कहा गया है। छोटे-छोटे कुटुम्ब भी वास्तव में अपने आप में एक समाज, राष्ट्र अथवा संगठन हैं। राष्ट्रों की अपनी समस्याएँ और अपनी आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए जैसा कुछ सोचना और करना पड़ता है, छोटे रूप में लगभग वैसा ही परिवार के लिए आवश्यक हो जाता है। परिवार को सुविकसित, सुसंस्कृत बनाने के लिए भी वैसी ही योग्यता, समझदारी और सूझ-बूझ पैदा करनी पड़ती है। परिवार-निर्माण की समूची रूपरेखा एकबारगी मस्तिष्क में बिठानी पड़ती है और उसे पूरा करने के लिए अपने आप को एक प्रकार से होम ही देना पड़ता है। समर्पण की देवी नारी ही यह सब कर सकती है। पति इस समर्पण का प्रतीक भर होता है, वस्तुत: नारी को नवनिर्माण तो सारे परिवार का करना पड़ता है।

यहाँ यह हजार बार याद रखा जाना चाहिए कि किसी की पत्नी बनकर ही नारी सृजन कार्य कर सकती है, यह भ्रम सर्वथा असंगत है। दादी, नानी, माता, बुआ आदि रूपों में भी उसकी भूमिका होती है। बहन तथा पुत्री के रूप में भी वह अपने परिवार को प्रभावित करती है। सधवा की अपनी ही भूमिका हो सकती है, पर विधवा या कुमारियाँ भी परिवारों के निर्माण में किसी भी प्रकार हलकी भूमिका नहीं निभातीं। फिर सारा समाज ही एक बड़ा परिवार है, विभिन्न संस्थाएँ एवं संगठन भी परिष्कृत परिवार ही हैं। उनके मूल में यदि कहीं नारी को भिन्न-भिन्न रूपों में अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिल रहा होगा तो यह कुछ अनोखी बात नहीं होगी। गायत्री तपोभूमि और शान्तिकुञ्ज में चल रही प्रवृत्तियों के पीछे भी नारी की सृजन शक्ति को किसी झरोखे से झाँकते हुए देखा जा सकता है। जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण करने का, युग परिवर्तन एवं निर्माण का विश्वव्यापी उत्तरदायित्व नारी के कन्धे पर ही महाकाल ने सौंपने का निश्चय किया है, इसमें उसकी ईश्वरप्रदत्त विशिष्टता ही मुख्य कारण है। नारी में वे सभी गुण हैं, जिनमें वह अपनी सन्तान का, परिवार का, समाज का और समूची मानव जाति के मनुष्यों का निर्माण कर सकती है।

यह महान उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए नारी को शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वावलम्बन इन तीनों ही मोर्चों पर आगे बढ़ना है। उसे व्यक्तिगत जीवन में घुसे हुए आलस्य और अवसाद को छोड़ना होगा तथा प्रगति के लिए अवकाश एवं साधन प्राप्त करने होंगे। यह देखना होगा कि वर्तमान की अस्त-व्यस्तताओं को किस प्रकार कितनी मात्रा में सुधारा जा सकता है? यह क्रम आरम्भ तो कर ही देना चाहिए। अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए और साथ ही परिवार के अन्य लोगों की भी दिनचर्या बनानी चाहिए। नियमितता के बिना वैसा कुछ बन नहीं पड़ेगा जो प्रगति के लिए आवश्यक है। प्रचण्ड उत्साह, प्रबल पुरुषार्थ और प्रखर दृष्टिकोण ही वे हथियार हैं जिनके उपयोग से आत्मोत्कर्ष की सम्भावना फलित हो सकती है।

शिक्षा और स्वावलम्बन की दिशा में नई उमंगें उठनी चाहिए। अध्ययन का शौक उत्पन्न किया जाए। बिना पढ़ी प्रौढ़ महिलाएँ पढ़ना आरम्भ करें, पढ़ी आगे का अध्ययन जारी रखें। आवश्यक नहीं कि यह पढ़ाई स्कूली परीक्षा उत्तीर्ण करने की दृष्टि से ही हो। उपयोगी ज्ञान बढ़ाना ही अपनी शिक्षा का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। महिलाओं की प्रौढ़ पाठशालाओं का संगठित प्रयास गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में होना चाहिए। यों घर के शिक्षितों की सहायता से यह क्रम व्यक्तिगत रूप से भी जारी रखा जा सकता है। ज्ञान-सम्वर्द्धन के लिए महिला पुस्तकालयों की स्थापना की जानी चाहिए। लड़कियों को स्कूल भेजने में आना-कानी या उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। विवाह की जल्दी या शादी में खरच की बात सोचकर लड़कियों की शिक्षा में कंजूसी बरती जाती है, इस उपेक्षावृत्ति का अन्त होने से ही नारी का स्तर ऊँचा उठेगा और भविष्य उज्ज्वल होगा।

स्वावलम्बन की दृष्टि से हर घर में गृह-उद्योगों का प्रचलन आवश्यक है। कपड़ों की धुलाई, सिलाई, मरम्मत इस दिशा में सर्वप्रथम हैं। इस कला की अभ्यस्त हर नारी को होना चाहिए। इससे कौशल भी बढ़ता है और पैसा भी बचता है। टूट-फूट की मरम्मत और शाक-वाटिका जैसे दो उद्योग भी ऐसे हैं जो प्रत्येक गृहिणी को जानने और चलाने चाहिए। इनके अलावा आस-पास के क्षेत्र में खपत होने योग्य कुछ वस्तुएँ, अपनी सुविधा देखते हुए बनाने का प्रयास किया जा सकता है। यों यह कार्य सहकारी समितियों से अधिक अच्छी तरह हो सकता है। ये कच्चा माल उचित मूल्य पर दें और उत्पादन खरीदकर बाजार में खपाएँ। ऐसे उत्पादन की शिक्षा देने का प्रबन्ध भी हो सके तो घर-घर में गृह-उद्योग चल सकते हैं और बेकारी तथा गरीबी को दूर करने में भारी सहायता मिल सकती है। संगठित रूप में न बन पड़े तो भी व्यक्तिगत प्रयत्नों से ही इस दिशा में कुछ न कुछ करते रहने की आवश्यकता है। उत्पादन और निर्माण की दिशा में हमारे धीमे या तेज कदम उठने ही चाहिए। नारी स्वावलम्बन की दिशा में इन प्रयासों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है।

रचनात्मक प्रवृत्ति बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम तथा सबके लिए उपयुक्त घरेलू उद्योग, घरेलू शाकवाटिका है। इसका प्रारम्भ फूलों से भी किया जा सकता है। यदि घर के अन्दर अथवा बाहर कच्ची जमीन न हो तो टूटे कनस्तर, फूटे घड़े, डिब्बे, रद्दी टोकरे, गमले इसके लिए काम दे सकते हैं। इनमें मिट्टी भरकर आँगन में या छतों पर भी हरियाली उगाई जा सकती है। बेलें छाई हुई हों, फूल खिले हुए हों, तो घर बिना किसी अन्य खरच के ही बड़ा सुन्दर बनाया जा सकता है। इसके लिए बीज-पानी, देख-रेख की मामूली सी जानकारी और थोड़े से साधनों को जुटा लेना पर्याप्त है। उत्साह हो तो यह उपयोगी शौक और अच्छा खासा मनोरंजन भी है। सुरुचि, कला, प्रेम, सौन्दर्यनिष्ठा, प्रकृति-प्रेम आदि कितने ही सद्गुण इस प्रयास के साथ उभर कर आते हैं। इससे अपना और दूसरों का चित्त समान रूप में प्रसन्न होता है।

इसी सन्दर्भ में अगला कदम शाकवाटिका है। जिन गमलों, टोकरियों या लकड़ी की टूटी पेटियों में फूल, बेल आदि लगाते हैं। उन्हीं की संख्या बढ़ाकर शाक-भाजियाँ भी उगाई जा सकती हैं। थोड़ी कच्ची जमीन भी घर के आस-पास खाली हो तब तो कहना ही क्या! बाड़ा बनाकर उसकी घेराबन्दी कर ली जाए और उसमें लौकी, तोरई, सेम, परवल, अंगूर आदि की बेलें लगा दी जाएँ। उनको छतों-छप्परों पर चढ़ाने से शोभा के अतिरिक्त शाक-फल भी मिलते रहते हैं। बैंगन, टमाटर, गोभी, गाजर, मूली, पालक, मेंथी, मिरच, धनियाँ, सौंफ, अदरक, जैसी कितनी ही चीजें ऋतुओं के अनुसार अदल-बदलकर लगाई जाती रह सकती हैं। इन्हें बोने, उगाने-सँभालने की जानकारी कोई भी किसान या माली बता सकता है। यह शौक यदि चल पड़े तो इन पौधों के सींचने-सँभालने में बच्चे-बड़े सभी रुचि लेते दिखाई पड़ेंगे। अपनी वस्तु सभी को बड़ी प्यारी लगती है। घर पर शाक उगा लेने का आर्थिक लाभ तो स्पष्ट ही है। इसके माध्यम से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ने का मानसिक लाभ और भी बड़ा है। इस प्रगति का सत्परिणाम अनेकों सफलताओं के रूप में जीवन भर मिलता रहता है।

इस सिलसिले में तुलसी के पौधे घर-घर लगाए जाने का अभियान भी चलाना चाहिए। उसके पत्ते, फूल, बीज आदि सभी उपयोगी औषधि का काम करते हैं। जुकाम, बुखार, सरदी, खाँसी आदि कितने ही रोगों में उनका प्रयोग हो सकता है। तुलसी के स्पर्श से वायु शुद्ध होती और मच्छर-मक्खी भागते हैं। सबसे बड़ी बात है—घर के वातावरण में धार्मिकता का समावेश। गाय पालने की तरह ही तुलसी लगाने का महत्त्व है। फूल-शाक आदि न लग सकें तो भी वृक्षारोपण के प्रतीक चिह्न के रूप में तुलसी का पौधा हर घर में सम्मानपूर्वक लगाया जाना चाहिए। रचनात्मक अभियान का यह भी एक अच्छा शुभारम्भ माना जाएगा। निर्माण के साथ-साथ अनीति उन्मूलन के मोर्चे पर भी नारी को सक्रिय होना पड़ेगा। कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं और अन्धविश्वासों ने नारी जाति को असीम क्षति पहुँचाई है। उन्हें एक-एक करके उखाड़ने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। छोटी उम्र में बच्चों का विवाह कर देना बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है। अठारह से कम आयु की लड़कियों एवं बीस से कम उम्र के लड़कों का विवाह करके उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट कर देने वाली भूल अब बिलकुल बन्द हो जानी चाहिए। विवाह-शादियों में पागलों की तरह की जाने वाली धूम-धाम और पैसे की जलाई जाने वाली होली की कोई उपयोगिता नहीं। दहेज का लेन-देन माँस की खरीद-फरोख्त से भी अधिक घिनौना है। इस कुप्रथा के कारण अपने समाज में गरीबी और बेईमानी का कुचक्र चल रहा है, उससे चरित्रनिष्ठा की नींव डगमगाने लगी है। दो कुटुम्बों को एक सूत्र में बाँधने के स्थान पर दहेज उन्हें भीतर ही भीतर शत्रुता जैसी स्थिति में ला पटकता है। सुयोग्य लड़कियों को उपयुक्त लड़के नहीं मिल पाते, और न जाने कितने घिनौने अनर्थ इस पिशाचिनी दहेज प्रथा के कारण होते हैं। समय आ गया कि इस प्रथा का अन्त कर दिया जाए और नितान्त सादगी के साथ कम खरच की शादियाँ चल पड़ें।

जाति-पाँति के कारण ऊँच-नीच की मान्यताओं ने भी देश की तिहाई जनता को उसी प्रकार पिछड़ेपन के गर्त में धकेला है, जिस प्रकार नारी समाज को। मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति-वंश के आधार पर किसी को अहंकार करने और किसी को दीनता अनुभव करने की स्थिति आज सहन नहीं की जानी चाहिए।

वंश और वेश के नाम पर लाखों की संख्या में लोग दान-दक्षिणा बटोरने एवं भिक्षा माँगने का व्यवसाय करें, यह सचमुच ही अनर्थ है। इससे मनुष्यता का गौरव गिरता है और कर्महीन लोगों के व्यय-भार से निर्धन देश की कमर टूटती है। दान तो केवल शरीर से अपंगों को, अथवा समाज की प्रगति के लिए ही दिया जाना चाहिए। हर माँगने वाले को बिना समझे दे देना पुण्य का नहीं, पाप का रास्ता है। मृतक भोज, भूत-पलीत, टोना-टोटका, ज्योतिष-मुहूर्त जैसे भ्रम-जंजाल में समय, धन और सन्तुलन गँवाने से लाभ रत्ती भर भी नहीं, हानि अपार है। देवी-देवताओं के नाम पर पशुबलि और नरबलि के जो कुकर्म देखने को मिलते हैं उन्हें लज्जाजनक मूढ़ मान्यता के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता।

इस प्रकार न चलने योग्य ढेरों अन्धपरम्पराएँ बहुत करके नारी समाज का सहारा पाकर ही जीवित हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए उसे ही अपना विवेक जाग्रत करना होगा। साहसपूर्वक इन हानिकारक अवांछनीयताओं से अपना पीछा छुड़ाना होगा।

एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखने की यह है कि नारी उत्कर्ष जैसा महान अभियान संगठित रूप में ही चल सकता है। इतने में बड़े परिवर्तन के लिए अकेले प्रयत्नों से काम नहीं चलेगा। सौ दो सौ परिवार सुधर जाएँ इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। परिवर्तन को व्यापक रूप से ही होना चाहिए। एक क्षेत्र में एक प्रकार से तो दूसरे क्षेत्र में दूसरे ढंग से नारी को पददलित स्थिति में रहना पड़ रहा है। कहाँ किस प्रकार, क्या सुधार होने चाहिए, यह बात दूसरी है। क्या विकसित क्या अविकसित सभी क्षेत्रों की समस्या भले ही भिन्न हों, पर परिस्थितियाँ घुमा-फिराकर एक ही जैसी हैं। उन्हें बदलने के लिए हवा गरम करनी पड़ेगी और वातावरण बदलना पड़ेगा। इसके लिए संगठित प्रयासों से कम में किसी भी प्रकार काम नहीं चल सकता। जन-मानस की दिशा बदलने में सामूहिक चेतना उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कोई उपाय है ही नहीं।

अपनी महिला शाखाओं के सुगठन, विस्तार और अभिवर्द्धन में प्रत्येक नारी को सहयोग देना ही चाहिए। सदस्यता की कोई फीस नहीं है। नारी पुनरुत्थान में विश्वास करने वाले और उसमें योगदान देने की इच्छुक महिला अपने संगठन की सदस्या बन सकती है। इसके लिए निर्धारित फार्म पर हस्ताक्षर करने होते हैं और सदस्यता का प्रमाणपत्र मिल जाता है। सहयोगी तो सभ्य पुरुष भी बन सकते हैं। शाखा संगठन की सदस्याओं को रविवार के तीसरे प्रहर होने वाले सत्संगों में उपस्थित होना चाहिए। वहाँ जप, हवन, कीर्तन, सहगान, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहते हैं। प्रधान उद्देश्य महिलाओं की संघशक्ति का विकास करना, एक-दूसरे के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करना और प्रगति के लिए योजनाबद्ध रीति से सोचना तथा कदम मिलाकर कुछ करने की दिशा में बढ़ चलने का उत्साह उत्पन्न करना है। इन सत्संगों में संख्या बढ़े, यह प्रयास किया जाना चाहिए।

परिवार प्रशिक्षण के लिए अपनी एक विशिष्ट परिपाटी है—संस्कार आयोजनों का पुनर्जीवन। इसके लिए सदस्याओं के जन्मदिन, गर्भवतियों के पुंसवन तथा बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन और विद्यारम्भ संस्कारों के उत्सवों की प्रक्रिया अपनाई गई है। यह चिर प्राचीन भी है और बिलकुल नवीन भी। चिर-प्राचीन इसलिए कि भारतीय संस्कृति में साथ-साथ संस्कारों की पद्धति आवश्यक रूप से जुड़ी हुई है और इसे बहुत सूझ-बूझ के साथ प्रचलित किया गया है। चिर-नवीन इसलिए कि पारिवारिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की जानकारी तथा उसे ठीक तरह निभाने की व्यावहारिक रीति-नीति इस अवसर पर दिए जाने वाले प्रशिक्षण में बड़ी सुन्दरता से जुड़ी हुई है। संस्कार आयोजनों को बिना किसी खरच का किन्तु अत्यन्त उत्साहवर्द्धक बनाया गया है। अपने-अपने घरों पर सभी शाखा सदस्याएँ इन आयोजनों को करती रह सकती हैं। भरे-पूरे परिवार में जल्दी-जल्दी वैसे अवसर आते रह सकते हैं और उस उमंग भरे वातावरण में आदर्शवादी परिवर्तनों की जड़ जमाने का अवसर बार-बार मिलता रह सकता है।

अपने गली-मुहल्ले या गाँव-नगर के सभी नर-नारियों को इकट्ठा करके सामूहिक रूप से पर्व-त्योहार मनाने के कार्यक्रम बनाने चाहिए। दीपावली, वसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गायत्री जयन्ती, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, विजयादशमी आदि त्योहारों को सार्वजनिक आयोजनों के रूप में मनाया जाना चाहिए और इन पर्वों के पीछे व्यक्ति निर्माण, परिवार-निर्माण के जो सूत्र भरे पड़े हैं, उनसे जनसाधारण को अवगत कराना चाहिए। समाज के नवनिर्माण में इन आयोजनों का क्रान्तिकारी प्रभाव देखा जा सकता है। अपने मिशन ने इन्हें मनाने के जो विधान बनाए हैं तथा प्रतिपादन के जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं, वे अभूतपूर्व हैं। उनमें आज की समस्याओं के प्रखर समाधानों को कूट-कूटकर भर दिया गया है।

अगले दिनों प्रौढ़ महिला पाठशाला भी हर जगह चलाई जानी है। उनमें शिक्षा के अतिरिक्त संगीत एवं गृह उद्योगों की कक्षाएँ भी रहनी हैं। आरम्भ में यह स्थापना माँगे के या किराये के मकान में भी चल सकती है, पर पीछे तो इसके लिए अपनी निज की इमारत होनी चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा तथा शाखा की अन्य गतिविधियों को सुसंचालित रखने के लिए अर्थव्यवस्था का प्रबन्ध भी करना होगा। इसके लिए समय-समय पर लोगों से विशेष सहायता भी माँगी जानी चाहिए, किन्तु स्थिर प्रबन्ध के रूप में सदस्याओं को अपने-अपने घरों पर 'ज्ञानघट' स्थापित करने चाहिए। उनमें न्यूनतम एक रुपया या एक मुट्ठी अनाज नित्य डालना चाहिए। इस राशि को शाखा का मासिक चन्दा माना जा सकता है और उससे मिशन की अनेकानेक प्रचारात्मक एवं सुधारात्मक गतिविधियों का संचालन हो सकता है।

नारी जागरण की इस पुण्य वेला में प्रत्येक भावनाशील महिला को सक्रिय होना चाहिए। अभीष्ट परिवर्तन का एक पक्ष है—संघर्ष, दूसरा है—सृजन। हमें इन दोनों ही मोर्चों पर अपने वर्चस्व का परिचय देना चाहिए। इस साहस के सहारे ही नारी को अपने तथा समूची मानवता के उज्ज्वल भविष्य का नवनिर्माण करना सम्भव हो सकेगा।