अध्यात्म और कुछ नहीं, भावनाओं का खेल है
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
कौड़ियों की मोल का शरीर
देवियो, भाइयो! मैं आपको प्राण और शरीर का अंतर समझाने की कोशिश करता रहता हूँ और यह बताता हूँ कि शरीर का क्या मूल्य हो सकता है और प्राणों का क्या मूल्य हो सकता है? और दोनों की कीमत में कितना फरक किया जा सकता है? हमारा शरीर काम का तो है, लेकिन अगर यह मर जाए, इसमें से प्राण निकल जाए तब? क्या कीजिएगा इस शरीर को? तब इस शरीर की कितनी कीमत उठा पाइएगा? आप इस शरीर को बाजार में ले जाइए और कहिए कि यह आचार्य जी का मरा हुआ शरीर बिकाऊ है, खरीद लीजिए। कोई आदमी खरीदने के लिए तैयार नहीं होगा। अगर आप इसे किसी केमिकल परीक्षण वाले के सुपुर्द कर दें तो इसमें से तीन-चार रुपये कीमत ही वसूल की जा सकती है। शरीर में हड्डियाँ कितनी हैं? ये इतनी हैं कि इनके भस्मीभूत होने पर इससे दस फीट चौड़ी और सात फीट लंबी रिक्त दीवार को पोता जा सके। यह चूना कितने दाम का हो सकता है? यह तीन आने का हो सकता है। हड्डियों में लोहा कितना है? इसमें से एक बड़ी कील बनाने लायक लोहा मिल सकता है। यह कितने पैसे का हो सकता है? दस पैसे का हो सकता है।
मात्र ढक्कन है काया
मित्रो! मैं इस शरीर की व्याख्या कर रहा हूँ। अच्छा साहब! इस शरीर के अंदर और क्या-क्या है? इसके अंदर चरबी है। हमारे शरीर में चरबी या फैट की इतनी मात्रा है कि इससे साबुन के सात टिक्के बनाए जा सकते हैं। यह कितने पैसे का हो सकता है? बारह आने का हो सकता है। इसके अंदर तीन बालटी पानी है। और क्या क्या चीज इसके अंदर है? इसके अंदर और बहुत सी छोटी-मोटी चीजें हैं; जैसे—फास्फोरस। इसमें इतना फास्फोरस है कि उससे तीन डिब्बी दीयासलाइयाँ बनाई जा सकती हैं। बस, आप इसे ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। आपको तीन रुपये मिल जाएँगे। आप हमको ले जाइए और नीलाम कर दीजिए। दस हजार रुपये महीने में कहीं भी आप हमको बेच दीजिए। हम ऐसी चीजें लिखेंगे, जिससे कि वह आदमी, जो हमारे लिखे लेखों को छापेगा, वह मालामाल हो जाएगा और उसकी सात पीढ़ियाँ मालदार हो जाएँगी। यह हमारी अक्ल की कीमत है। इस शरीर की क्या कीमत हो सकती है—यह तो अध्यात्म का एक हिस्सा है, जिसे हम 'कलेवर' कहते हैं। कलेवर कितनी कीमत का है? किसी कीमत का नहीं है। यह बेकार जैसा है, लिफाफा जैसा है। अँगूठी के लिए आप सुनार के पास जाइए। वह आपको अँगूठी के साथ एक डिब्बी देगा। साहब! यह डिब्बी कितने पैसे की है? दस आने की है। अँगूठी कितने रुपये की है? साढ़े छह सौ रुपये की है। डिब्बी को देखकर आप यह ख्याल करते हैं कि यह मखमल की बनी हुई है, चमकदार है, चमचमाती बनी हुई है, पर यह तो दस आने की है।
कर्मकाण्ड कलेवर मात्र
मित्रो! यह आध्यात्मिकता का वह हिस्सा है, जिसको हम कर्मकाण्ड कहते हैं। यह दो कौड़ी का है, दस पैसे का है। यह केवल दिखावा है और उसके अंदर कोई ज्ञान नहीं है। ज्ञान किसके अंदर है, इसी बात को आपको समझाने की मैं कोशिश कर रहा था। आध्यात्मिकता का जो प्राण है, वह चेतना से संबंध रखता है। उसका हमारे क्रियाकलापों से कोई ताल्लुक नहीं है। हमारे क्रियाकलाप, जो हाथ-पाँव से किए जा सकते हैं, जीभ की नोक से किए जा सकते हैं, वस्तुओं की हेरा-फेरी से किए जा सकते हैं। मित्रो! ये सारे के सारे कलेवर हैं और ये सारे के सारे कर्मकाण्ड उस प्राण की रक्षा के लिए हैं; जैसे कि नारियल की गिरी की रखवाली के लिए ऊपर से खोपरा बना दिया जाता है। यह कर्मकाण्ड भी खोपरे के पैसे के बराबर का है। यह खोपरा हमारे किसी काम का नहीं है, केवल जलाने के काम आ सकता है। और गिरी? गिरी तो बेटे! बारह आने की हो सकती है, एक रुपये की हो सकती है। जायका किसमें है? गिरी में है। और खोपरे में? खोपरा चबाइए और दाँत तोडि़ए। खोपरे की कोई कीमत है? नहीं है। कर्मकाण्ड, जिसके बारे में लोगों ने यह ख्याल बनाकर रखा है कि यह कर्मकाण्ड करने से उनको यह फायदा हो जाएगा और अमुक कर्मकाण्ड करने से उनको यह सिद्धि मिल जाएगी। यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवी प्रसन्न हो जाएगी और यह कर्मकाण्ड करने से अमुक देवता प्रसन्न हो जाएगा।
मर्मस्थल कहीं और है
मित्रो! यह नहीं हो सकता। अध्यात्म के सारे के सारे लाभ अगर कहीं हैं तो उस स्थान पर हैं, उस मर्मस्थल से जुड़े हैं, जहाँ आदमी का प्राण, जहाँ आदमी की चेतना और जहाँ आदमी की निष्ठाएँ और विश्वास काम करते हैं और जहाँ से आदमी का जीवन प्रभावित होता है। वास्तव में यह जीवन को प्रभावित करने के लिए, आस्थाओं को प्रभावित करने के लिए, विचारणाओं को प्रभावित करने के लिए, क्रियाओं को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म का प्राण विनिर्मित किया गया है, ताकि आदमी उसके प्रभाव में आकर श्रेष्ठ व्यक्ति बन सके, आदर्श व्यक्ति बन सके, महान व्यक्ति बन सके, उज्ज्वल व्यक्ति बन सके, महात्मा बन सके और परमात्मा बन सके। सारे के सारे कर्मकाण्ड को मैं अब खेल कह सकता हूँ। जिसे आप पूजा कहते हैं, पाठ कहते हैं, कथा कहते हैं और रामायण कहते हैं, इसको मैं खेल भी कह सकता हूँ। यह सारे के सारे खेल इसलिए खड़े किए गए हैं, ताकि आदमी का विश्वास, आदमी का चिंतन, आदमी के विचार और आस्थाएँ परिष्कृत होती चली जाएँ, विकसित होती चली जाएँ। इनका उद्देश्य आप जानेंगे नहीं, इनके कारण को आप जानेंगे नहीं तो फिर आपको लाभ नहीं मिल सकेगा। आपकी जितनी मरजी हो, उतने कर्मकाण्ड करते रहिए, परंतु आपको खाली हाथ रहना पड़ेगा। सिवाय शिकायत करने के और कोई चीज हाथ लगने वाली नहीं है।
जैसे कि कलम द्वारा इम्तिहान दिया जाना
मित्रो! हम आपको कर्मकाण्ड इसी मायने में समझा देते हैं और कर्मकाण्ड की व्याख्या और उसके प्राण की व्याख्या, जो सिद्धांतवादिता से संबंध रखता है। उसको इसी रूप में कर रहे थे, जैसे कलम, कागज, पेंसिल द्वारा सारे लेख लिखे जाते हैं। बी०ए० पास करना, एम०ए० पास करना, पी-एच०डी० की थीसिस लिखना—इन दोनों में क्या संबंध है? बाहर से आप देखिए—कलम के द्वारा ही इम्तिहान दिए जाते हैं और कलम के द्वारा ही पी-एच०डी० के सब काम किए जाते हैं। कागज के द्वारा होते हैं क्या? अगर हम आपको बेहतरीन, अच्छा वाला टीटागढ़ का कागज लाकर दे दें और पार्कर का पेन दे दें तथा स्वॉन की स्याही लाकर दे दें, तो आपका यह ख्याल है कि आप एम०ए० पास कर सकते हैं? क्या आपका यह ख्याल है कि आप बी०ए० फर्स्ट डिवीजन ले आएँगे? अगर आपका यह ख्याल है, तो गलत है। अगर आप फाउंटेनपेन की महत्ता मानेंगे तो मैं कहूँगा कि आपकी बात गलत है, लेकिन जब कोई आदमी आपसे यह कहे कि फाउंटेनपेन बेकार होता है, कागज बेकार होता है, स्याही बेकार होती है, तब मैं उससे लड़ने के लिए तैयार हूँ। फिर मैं यह कहूँगा कि आपका ज्ञान कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपका अध्ययन कितना ही बड़ा क्यों न हो, आपकी मानसिक स्थिति का विकास कितना ही बड़ा क्यों न हो, लेकिन जब आप इम्तिहान देने जाएँगे और आपके पास कागज नहीं होगा, कलम नहीं होगी, स्याही आपके पास नहीं होगी, तो आपके लिए पेपर का जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। फिर आप पास नहीं हो सकते। नहीं साहब! हमको तो जबानी याद है, हम तो मास्टर साहब को वैसे ही बता देंगे, प्रिंसिपल साहब को सब किस्सा सुना देंगे और हम तो पास हो जाएँगे। नहीं बेटे! ऐसे पास नहीं हो सकते। इसके लिए कापी की जरूरत है और कलम की भी जरूरत है।
अध्यात्म का मूल मर्म है यह
मित्रो! कापी-कागज और कलम की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत कर्मकांडों की है। कर्मकाण्ड वे, जिन्हें गायत्री उपासना के माध्यम से हम आपको इस शिविर में सिखाते हैं। मसलन जल प्रक्षालन, आचमन आदि सारे क्रियाकलाप। ये सारे के सारे क्रियाकलाप विशुद्ध कर्मकाण्ड हैं। इन विशुद्ध कर्मकांडों के पीछे छिपे हुए प्राण को अगर आपको हम समझाएँ नहीं, उसके भीतर छिपे हुए संकेतों को समझाएँ नहीं, उसके भीतर जो जीवन भरा हुआ पड़ा है. उसको समझाएँ नहीं, तो मित्रो! हम आपके साथ विश्वासघात करने वाले हैं और अपनी आत्मा के साथ दगाबाजी करने वाले हैं। अगर हम आपको यही समझाते रहें कि यह कर्मकाण्ड अमुक फायदा करा देगा। देवी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है, चंडी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और शिवजी का पाठ करने से यह फायदा हो सकता है और चौबीस हजार का जप करने से यह फायदा हो सकता है। अगर मैं आपको यही समझाता रहूँ और आपको यही कहता रहूँ कि आपको जीवन के संशोधन करने की कोई जरूरत नहीं है। आप पापी जीवन जिएँ और पाजी जीवन जिएँ। आप निकृष्ट जीवन जिएँ और घटिया जीवन जिएँ। देवी जी की खुशामद कर लें, संतोषी माताजी की खुशामद कर लें, गणेश जी की खुशामद कर लें, हनुमान जी की खुशामद कर लें, बस, आपका काम सिद्ध हो जाएगा और आपका उल्लू सीधा हो जाएगा। अगर मैं ऐसे विश्वास जमाने वाला होऊँ तो मैं अध्यात्मवाद के साथ और जीवों की जीवात्मा के साथ और जिन्होंने यह सारा का सारा अध्यात्मवाद का कलेवर खड़ा किया है, उन सबके साथ विश्वासघात करने वाला होऊँ।
महत्त्व है प्रेरणाओं-शिक्षाओं का
मित्रो! मैं विश्वासघात करने वाला नहीं हो सकता। मैं आपको असलियत समझा करके ही रहूँगा। आप अध्यात्म को करना चाहें तो आपकी मरजी और न करना चाहें, तब भी आपकी मरजी। मैं कर्मकांडों का बादलों के तरीके से और हिमालय के तरीके से माहात्म्य नहीं बता सकता। मैं तो आपको यह बताऊँगा कि यदि सारे के सारे माहात्म्य अगर कहीं हैं तो वे उसकी उन धाराओं में, दिशाओं में हैं, प्रेरणाओं और शिक्षाओं में हैं, जो इन कर्मकांडों के माध्यम से हम आपको सिखाते हैं और समझाते हैं। अगर ये माध्यम नहीं होंगे, तो हम किस तरीके से आपको सिखा पाएँगे? ब्लैकबोर्ड हमारे पास नहीं होंगे, खड़िया हमारे पास नहीं होगी तो हम आपको गणित कैसे सिखा पाएँगे? जरा आप बताइए तो सही। नक्शा अगर हमारे पास नहीं है तो हम किस तरीके से आपको सड़क दिखा पाएँगे? अथवा आपको टाइम-टेबिल कैसे बताएँगे कि कौन सी रेलगाड़ी कहाँ से कहाँ तक जाएगी? और आपको किस गाड़ी से या बस से जाना चाहिए। मैप—नक्शा हमारे पास है नहीं, टाइम टेबिल है नहीं, फिर इसके बिना हम कैसे समझा पाएँगे?
कष्टकारी गलतफहमियाँ
लेकिन अगर आपका दिमाग खराब हो और हम एक नक्शा आपके हवाले कर दें, एक टाइम टेबिल आपके हवाले कर दें और कहें कि यह सड़क जा रही है, आप इस पर चले जाइए। साहब! हम कैसे जा सकते हैं, हमारे पास तो पैसा भी नहीं है। हमारी टाँग भी काम नहीं करती, हमारी अक्ल भी काम नहीं करती तो इस मैप से हम क्या काम कर सकते हैं? आप हमारा बेकार में समय खराब करते हैं। ठीक है बेटे! जब अक्ल तुम्हारे पास नहीं है, पैसा तुम्हारे पास नहीं है, जाने की योग्यता तुम्हारे पास नहीं है तो फिर मैप की कोई जरूरत नहीं है। वह बेकार है। नक्शे से कोई फायदा नहीं है। नक्शे का फायदा तो तब है, जब आपमें जाने की अक्ल हो, जाने का सामान हो। जाने की अक्ल नहीं है, जाने का सामान नहीं है और कहते हैं कि लीजिए साहब! हम नक्शा ले आए। किसका नक्शा ले आए? चारों धाम का ले आए। बदरी, केदार जाएँगे और देखिए, यह रही गंगोत्तरी, यह रही यमुनोत्तरी। ठीक है बेटे! इसी कागज के आस-पास चक्कर लगा ले, तेरे चारों धाम हो जाएँगे। नहीं महाराज जी! ऐसे तो नहीं हो सकता। मेरी टाँग में जब ताकत होगी, तब जा सकता हूँ। बेटे! अभी तो ताकत है नहीं, इसलिए नहीं जा सकता।
मात्र कथा सुनने से कोई कल्याण नहीं
मित्रो! आध्यात्मिकता के बारे में एक गलतफहमी कितनी ज्यादा कष्टकारक, कितनी ज्यादा अज्ञान से भरी हुई, कितनी ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कितनी ज्यादा अनैतिक है—'इम्मोरल' है, जिसमें हमें बता दिया गया कि यह कार्य करने से और यह कथा सुनने से यह फायदा हो सकता है। कथा सुनने मात्र से अगर कोई फायदे रहे होते तो रोज कथाएँ होती रहती हैं और इन्हें सुनने वालों का कोई न कोई फायदा, कोई न कोई उद्धार हो गया होता। इनसे कोई फायदा हो सकता है? कोई फायदा नहीं हो सकता, अगर आपने कान से कथा सुनी है और जीभ से कथा सुनाई गई है, तब लेकिन अगर आपने कथा सुनी और कथा सुनने के बाद में उसका प्राण, उसका जीवन और उसका रहस्य, उसका मर्म आपके जीवन में आ गया और आपने यह निश्चय कर लिया कि हम इस कथा की प्रेरणा के अनुसार, इस रामायण के अनुसार, इस भागवत के अनुसार जीवन जिएँगे और अपने क्रियाकलापों को विनिर्मित करेंगे तो मित्रो! मैं आपको यकीन दिला सकता हूँ कि राजा परीक्षित के तरीके से आपको भागवत का फायदा मिल सकता है। लेकिन अगर आप परीक्षित के तरीके से जिंदगी नहीं जिएँगे तो मैं उस सिद्धांत का खंडन करने के लिए तैयार हूँ, जिसमें बताया गया था कि जो धुंधकारी था, वह बाँस के कोए फाड़ता—फाड़ता सात दिन की भागवत सुनकर फट से उसमें से निकल गया था।
प्रच्छन्न नास्तिकता
मित्रो! मैं इस बात का खंडन करता हूँ और कहता हूँ कि यह बात गलत है, ऐसा नहीं हो सकता। कहानी सुनने के बाद कोई व्यक्ति अध्यात्म के लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि वह उसको अपने जीवन में धारण न करे। उस रास्ते पर चलने के लिए तैयार न हो। इस रास्ते पर चलने के लिए हमको उपेक्षा की बात बताई गई है और यह बताया गया है कि रास्ता चलना कोई जरूरी नहीं है। सुन लेना काफी है, कर लेना काफी है। उसी से यह सब सत्यानाश हो गया और नास्तिकता का विस्तार हो गया। नास्तिकता का पक्ष तो मुझे बहुत बुरा नहीं लगता। इसको हम 'कम्युनिज्म' कहते हैं। उसके पीछे कुछ थोड़े से फैक्ट्स हैं, कुछ थोड़ी सी सचाई है और मित्रो! कोई दिन आएगा, जब आप देखेंगे कि हम आध्यात्मिकता की दीक्षा में कम्युनिस्टों को सबसे पहले लेंगे, क्योंकि वे विचारशील हैं। वे कहते हैं कि भगवान नहीं होता है। भगवान को हमने नहीं देखा है, इसलिए हम नहीं मानते हैं। हाँ, साहब! ठीक बात है। आपने नहीं देखा है, तो क्यों मानेंगे? लेकिन जिस दिन हम उनको भगवान को दिखा देंगे और भगवान को अक्ल से साबित कर देंगे, क्योंकि वे सचाई की वजह से, प्रत्यक्षवाद की वजह से इनकार करते हैं, इसलिए हम प्रत्यक्षवाद के सिद्धांतों के आधार पर, विज्ञान के आधार पर और दूसरे आधारों पर जिस दिन हम साबित कर देंगे, हमारा विश्वास है कि तब सारी दुनिया के कम्युनिस्ट हमारे शिष्य हो जाएँगे, लेकिन आप कभी नहीं हो सकते, क्योंकि आपने आध्यात्मिकता के आधारभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया है और सत्यानाश करके फेंक दिया है। इसलिए आप पक्के नास्तिक हैं और सारी जिंदगी भर पक्के नास्तिक रहेंगे। भगवान के द्रोहियों को जैसा होना चाहिए, उसी तरह का आचरण आप करते रहेंगे।
कर्मों की अवमानना स्वयं से धोखा
मित्रो! आस्तिकता का मूलभूत सिद्धांत है—कर्मफल। आदमी को श्रेष्ठ कर्म करना चाहिए और बुरे कर्मों से अपना बचाव करना चाहिए। आध्यात्मिकता का मूलभूत सिद्धांत यह है कि आदमी अनैतिक आचरण से बचे और श्रेष्ठ आचरण की ओर चले। मनुष्य अवांछनीयताओं से दूर हो और वांछनीयता की ओर चले। लेकिन हाय रे भगवान ! यह क्या हो गया? हमारा अध्यात्म नास्तिकवादी हो गया, जिस पर हम और आप विश्वास करने लगे। यह नास्तिकवादी अध्यात्म है, जिसने मूलभूत सिद्धांतों को काटकर फेंक दिया, मटियामेट कर दिया और ठीक उलटा प्रचार करना शुरू कर दिया। हमारे अध्यात्म ने हमको एक गंदी बात सिखा दी कि आप गंदे काम कीजिए। गंदे काम करने की आपको पूरी तरह से छूट है। आप गंगा जी में स्नान कीजिए। गंगा जी स्नान करने के बाद आपके सारे के सारे पापों का कर्मफल समाप्त हो सकता है। मैं आपसे यह पूछता हूँ कि लोगों को चकमा देने का अभ्यास तो हमको पहले से ही था। हम समाज को चकमा दे सकते थे। हम अनैतिक होते हुए भी कोई ऐसा ढोंग बना सकते थे, जिससे लोगों को यह मालूम पड़े कि यह तो संत हैं, महात्मा हैं। यह तो चारों धाम की यात्रा करते हैं। यह तो तिलक लगाते हैं और भजन करते हैं। समाज को चकमा देने का हमें पूरा-पूरा अभ्यास था कि लोग हमको धर्मात्मा भी समझते रहें और हम बुरे कर्म भी करते रहें।
सस्ते शॉर्टकट
मित्रो! सरकार को चकमा देने का हमको पूरा-पूरा अभ्यास है। रिश्वत दे करके, दूसरे तरीके अख्तियार करके और दो बही-खाते रख करके हम सरकार को बहुत दिनों से चकमा देने के अभ्यस्त हैं। हम कानून को पहले से ही चकमा देते आ रहे हैं। बस, एक ही आधार रह गया था—परलोक का और पुनर्जन्म का, सो इस गंदे अध्यात्म ने उसे पूरा कर दिया। चलिए, मैं इस अध्यात्म पर लांछन लगाता हूँ कि यह भ्रष्ट और दुष्ट है। यह किस तरीके से भ्रष्ट है? यह इस तरीके से भ्रष्ट है कि इसने यह समर्थन किया है कि आपको अनैतिक काम करने का कोई दंड नहीं मिल सकता है और न कोई सजा मिल सकती है। आपके अनैतिक कामों को दंड से बचाने के लिए हमारे पास बड़े सस्ते, बड़े सरल, बड़े चीप तरीके मौजूद हैं, जिसमें आपको एक पैसा भी खरच नहीं करना पड़ेगा और आपके सारे पाप भी ठीक हो जाएँगे। कौन सा है डैम चीप तरीका? गंगा जी में नहाइए और पाप बहाइए, पाप-दंड बहाइए। चाहे जितना पाप कीजिए। हर साल सौ मन पाप कीजिए, एक बार गंगा में डुबकी लगाइए और सारे पापों से छुटकारा पाइए।
हमने सब कुछ बहुत सस्ता बना दिया
मित्रो! इसका क्या मतलब है? इसका मतलब प्रत्यक्ष है कि आपको पाप करने की पूरी तरीके से छूट है और आपको भगवान के दंड से डरने की जरूरत नहीं है। भगवान को आप झुठला सकते हैं। भगवान को आप बहका सकते हैं। भगवान को आप सुला सकते हैं। भगवान को चकमा देने के लिए हमने आपको नए तरीके सिखा दिए हैं। सरकार को चकमा देने के लिए तो आपको इंस्पेक्टर को रिश्वत देनी पड़ती थी और समाज को चकमा देने के लिए आपको बहुत सारा ढोंग भी बनाना पड़ता था। भगवान जी को चकमा देना तो सबसे सरल है। इसमें गंगा जी के पानी में एक डुबकी लगाइए, बस हो गया उद्धार। बेटे! यह क्या हो गया? यह कौन सा तरीका आ गया? मित्रो! ये ऐसे गंदे तरीके हैं, जिनने अध्यात्म के मूल उद्देश्य का सफाया कर दिया। यह ऐसा गंदा तरीका है, जिसने अध्यात्म को भ्रष्ट कर दिया। हमको अध्यात्म इसलिए सिखाया गया था कि आदमी श्रेष्ठ जीवन जिए। सामाजिक जीवन जिए। चरित्रनिष्ठ जीवन जिए, आदर्श जीवन जिए। इसका एक ही कारण था। सारे के सारे धर्मशास्त्र इसीलिए बनाए गए थे, पूजा-पाठ इसीलिए बनाए गए थे, जप-तप इसीलिए बनाए गए थे, सारी की सारी चीजें इसीलिए बनाई गई थीं, लेकिन हमने सब साफ कर दिया। डैम चीप कर दिया। किसको कर दिया? स्वर्ग को कर दिया, भगवान की प्रसन्नता को कर दिया। भगवान की प्रसन्नता, परलोक और स्वर्ग हमारे लिए डैम चीप हैं। अब आपको श्रेष्ठ काम करने की कोई जरूरत नहीं है। लोक-मंगल के लिए त्याग-बलिदान की परंपरा अपनाने की आपको कोई जरूरत नहीं है। आप घटिया और सस्ता उपाय इस्तेमाल कीजिए।
सत्यनारायण भगवान की कथा
कौन सा सस्ता उपाय करें? बस, सत्यनारायण की कथा कहलवा लीजिए और पंडित जी को सवा रुपया दे दीजिए। इहलोके सुखं भुक्त्वा, चान्ते सत्यपुरोमये।—एक राजा था, जो चोर था। सत्यनारायण स्वामी की कथा कहलवाने के पश्चात इस लोक में सारे के सारे सुखों को प्राप्त करता गया और अंत में सत्यलोक स्वामी के महाराज के ब्रह्मलोक में चला गया। बोलो सत्यनारायण स्वामी की जय! अरे दुष्टो! यह क्या कर रहे हो? अरे अभागो! यह क्या कर रहे हो? आध्यात्मिकता के सिद्धांतों का सत्यानाश कर रहे हो। कर्मकाण्ड कराने के पश्चात सवा रुपया देकर के, देवी-देवताओं के पत्थर के खिलौनों को देखने के पश्चात आपने ये ख्वाब बना रखे हैं कि हमको वो सद्गति मिलने वाली है, भगवान का प्यार मिलने वाला है। हमारा कल्याण होने वाला है। इसके लिए हमको आदर्श जीवन जीने की कोई जरूरत नहीं है। छोटा-मोटा कर्मकाण्ड कर लीजिए। कहीं जा करके पत्थर के खिलौने को कुछ दे करके आ जाइए।
इतनी सस्ती मुक्ति!
मसलन आप बदरीनाथ चले जाओ। अमुक-अमुक जगह चले जाइए। चारों धाम की यात्रा का टिकट खरीद लीजिए। एक टिकट कितने रुपये का आया है? साहब! तीन सौ इक्यावन रुपये का है। अच्छा साहब! चारों धाम की यात्रा करने के बाद में अब क्या हो सकता है? वैकुंठ जाना पड़ेगा। अच्छा! और? स्वर्गलोक जाना पड़ेगा। अच्छा! और? मुक्ति मिलेगी और स्वर्ग मिलेगा और शांति मिलेगी। तीन सौ इक्यावन रुपये में सबके सब मिल जाएँगे। आप इससे सब चीजें खरीद सकते हैं और चारों धाम की यात्रा, सैर-सपाटा भी कर सकते हैं। मौज-मस्ती भी कर सकते हैं। सिनेमा भी देख सकते हैं, जगह-जगह की इमारतें भी देख सकते हैं और फोकट में वैकुंठ भी खरीद सकते हैं।
पर्यटन की तीर्थयात्रा
क्या यह संभव है? संभव है। मित्रो! इस प्रसंग पर मुझे एक कहानी याद आ जाती है—एक थे सेठ जी। पंडित जी ने उन्हें यह समझा दिया कि तुम चारों धाम की यात्रा कर लो, भगवान तुम्हारे वश में हो जाएँगे। वे वहीं स्वर्गलोक में तो रहते हैं। भगवान भी तुम्हारी खुशामद करेंगे, ब्रह्मा जी भी करेंगे, विष्णु जी भी करेंगे और शंकर जी भी करेंगे। परलोक में जाएँगे तो सब खुशामद करेंगे और सब नौकर हो जाएँगे। अतः आप चारों धाम की यात्रा कर लीजिए। सेठ जी रजामंद हो गए। इतने कम दाम का इतना सस्ता सौदा भला क्या हो सकता है! इसमें न त्याग करना पड़ा, न संयम करना पड़ा, न जीवन में कुछ हेर-फेर करना पड़ा। तीन सौ इक्यावन रुपये में सारे देवी-देवता गुलाम हो गए। वैकुंठ भी गुलाम हो गया। ब्रह्मा जी भी गुलाम हो गए और स्वर्गलोक की सीट भी रिजर्व हो गई।
अच्छा तो हम चारों धाम की यात्रा के लिए चलेंगे। सेठानी थोड़ी समझदार थी। उसने कहा कि स्वामी ! हम चलेंगे तो सैर करने के हिसाब से चलेंगे। हमें सैर करना है और तमाशा देखना है। इस ख्याल से आप क्यों जाते हैं कि इससे हमको वैकुंठ मिलने वाला है। भगवान मिलने वाला है। हम भी चलेंगे और आप भी चलेंगे। जहाँ-जहाँ सैर करने के ज्यादा अच्छे मौके हैं, वहाँ चलेंगे। धर्मशालाओं में ठहरेंगे, होटलों में ठहरेंगे। सिनेमा देखेंगे, मौज करेंगे। इसमें भगवान जी को क्यों शामिल करते हैं। घूमना अच्छी बात है, पर्यटन करना अच्छी बात है, पर पर्यटन करने और घूमने से भगवान का और मुक्ति का क्या ताल्लुक हो सकता है? आप यह विचार दिमाग से निकाल दीजिए। नहीं साहब! हम तो वैकुंठ देखने जाएँगे और चारों धाम की यात्रा करने के लिए जाएँगे। तब सेठानी ने एक काम किया। वह बोली कि तब तो हम भी चलेंगे। अच्छा साहब! चलिए, आप भी चलिए।
सेठानी ने दिलाया आत्मबोध
सेठ और सेठानी, दोनों चारों धाम की यात्रा के लिए रवाना हो गए। रवाना होने से पहले सेठानी ने एक रूमाल निकाला और उसमें सँभालकर एक बैंगन रख लिया। बैंगन बड़ा था, उसे रूमाल में बाँध लिया और जहाँ-जहाँ भी स्नान किया, उन नदियों में उस बैंगन को भी नहलाया। सेठ जी ने पूछा कि यह क्या कर रही हो? अरे साहब! इससे आपको क्या मतलब है? हम इसको वैकुंठ ले जाने वाले हैं और इसे मुक्ति दिलाने वाले हैं। हम बैंगन को नहलाएँगे। बदरीनाथ जी का मंदिर आ गया। बैंगन को रूमाल से खोलकर सबसे पहले भगवान जी के दर्शन कराए, पीछे अपनी आत्मा को दर्शन कराए। बेचारी बैंगन को रूमाल में बाँधकर लाई और सब जगह नदी-नालों में नहलाया। तीर्थयात्रा करके जब वह घर आ गई, तो उसने सेठ जी से कहा कि हम आपको एक चीज खिलाएँगे। क्या खिलाओगी? साक्षात् अमृत खिलाएँगे। देवता लोग क्या खाते हैं? अमृत खाते हैं। स्वर्गलोक में क्या रहता है? अमृत रहता है। हम आपको अमृतपान कराएँगे, जो आपने कभी नहीं किया है। अच्छा, कराइए। बस, चारों धाम यात्रा के दौरान जो अमृत मिला है, उसे आपको खाना चाहिए। हाँ साहब! खिलाइए। बैंगन जो था, वह तीन महीने की यात्रा के पश्चात बिलकुल सड़ गया था। सेठानी ने उसे पकाया और पकने के बाद में सेठजी की कटोरी में रखा।
बस, यही अमृत है, आप खाइए। सड़ा हुआ, बुसा हुआ और बदबूदार बैंगन सेठ जी की नाक के पास जैसे ही गया, तो बहुत बुरी गंध आई और मुँह में गया तो कड़ुआ लगा और उलटी हो गई। अरे अभागिन! यह क्या खिला रही है—जहर? नहीं, जहर नहीं खिला रही थी, मैं तो चारों धाम की यात्रा का फल खिला रही थी। चारों धाम की यात्रा का फल सुना रही थी। उसने कहा कि अगर चारों धाम की यात्रा करने के बाद बैंगन का जायका इतना बदल गया और यह बैंगन पहले की अपेक्षा और अधिक सड़ गया तो आपको यह कैसे विश्वास हो गया कि जगह-जगह के खिलौने देखने के पश्चात और तमाशा देखने के पश्चात और पर्यटन करने के पश्चात हमारा कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा हो सकता है? बेटे! कोई आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।
(क्रमश:)
प्रस्तुत प्रवचन की प्रथम किस्त में पाठकों ने पढ़ा कि जैसे यह काया मात्र एक ढक्कन है—उसके अंदर जो चेतना है, वही सब कुछ है, इसी तरह कर्मकाण्ड मात्र कलेवर है। अध्यात्म के सारे लाभ उस मर्मस्थल से जुड़े हैं, जहाँ व्यक्ति का प्राण, निष्ठाएँ और विश्वास काम करते हैं। जैसे पी-एच०डी० का प्राण वह पेन नहीं, जिससे उसे लिखा गया, उसी तरह कर्मकांडों का भी अस्तित्व है। बिना आत्मशोधन के कोई भी कर्मकाण्ड आपका फायदा नहीं करा सकता। महत्त्व उन शिक्षाओं का है, जो इनके साथ दी जाती हैं। कथा-कहानी सुनने से कोई लाभ नहीं, जब तक अपना आपा, अपनी भावनाएँ उनसे जुड़ें नहीं। कर्मफल की महत्ता सभी को समझनी चाहिए और यह मानना चाहिए कि यह कानून कभी नहीं बदलता। चारधाम यात्रा के परिप्रेक्ष्य में एक सेठ जी की कथा गुरुवर ने सुनाई थी, जिसमें सेठानी जी ने उन्हें वास्तविक बोध कराया। अब आगे पढ़ें—
खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया
मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जगह कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए, एक डर तो खतम हुआ। झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए। पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और वैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए और वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए, वे वरदान मिलने चाहिए?
हर जगह है अध्यात्म की लाश
साथियो! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना-चौगुना हो गया। सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह-चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है और यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होती, तो हम सीधे वैकुंठ चले जाते और बीच में किराया-भाड़ा भी खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ती है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अध्यात्म का जीवन समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है। हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।
हमने की गायत्री की तप-साधना
मित्रो! ऐसे समय में आप लोगों को यहाँ आना पड़ा। गायत्री उपासना, जिसके लिए हमारा सारे का सारा जीवन समर्पित हो गया। गायत्री उपासना, जो हमारे जीवन का प्राण है। जिसके लिए हम जिएँगे और उसी के लिए मरेंगे। जिसके लिए हमने अपनी भरी जवानी निछावर कर दी। दूसरे आदमी भरी जवानी में तरह-तरह की कामनाएँ करते हैं। उस जमाने में हमने छह घंटे रोज के हिसाब से चौबीस साल तक—पंद्रह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक हम जमीन पर सोए। छाछ और जौ की दो रोटियों के अलावा हमने तीसरी चीज ही नहीं देखी। नमक कैसा होता है, चौबीस वर्ष तक हमने कभी छुआ ही नहीं। शक्कर कैसी होती है, चौबीस वर्ष तक हमारी निगाह में ही नहीं आई। शाक-दाल किसे कहते हैं, हमने जाना भी नहीं। केवल गायत्री उपासना के लिए। सारी दुनिया हमको पागल कहती रही। बेवकूफ और बेहूदा बनाती रही। पैसा हम कमा नहीं सके। जमीन पर पड़े रहे। खाने का जायका हम ले नहीं सके। इंद्रियों का जायका उठा नहीं सके। यश प्राप्त न कर सके। सम्मान प्राप्त न कर सके। जिस गायत्री मंत्र के लिए, जिस गायत्री की महत्ता के लिए बेटे! हम निछावर हैं और हमारा जीवन जिसके लिए समर्पित है, वह ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसका आधार इतना बड़ा है कि मनुष्य के भीतर वह देवत्व का उदय कर सकती है और मनुष्य अपने इसी जीवन में स्वर्ग जैसा आनंद लेने में समर्थ हो सकता है।
इस उपासना का मजाक न उड़ाएँ
मित्रो! ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति, चमत्कारों की देवी, ज्ञान की देवी, विज्ञान की देवी, सामर्थ्य की देवी गायत्री माता, जिसका कि हम इन शिविरों में अनुष्ठान करने के लिए आपको बुलाते हैं। हमारी बड़ी भावना थी कि इन शिविरों में हम लोगों को अनुष्ठान करने के लिए बुलाएँ, पर क्या करें, आप तो हमें कई तरह से परेशान कर देते हैं, हैरान कर देते हैं। हमारा मानसिक संतुलन खराब कर देते हैं। आप तो शांतिकुंज को धर्मशाला बना देते हैं। आप तो इसको अन्नक्षेत्र बना देते हैं और बेटे! उन लोगों को लेकर चले आते हैं, जिनका कि इस अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है; उपासना से कोई संबंध नहीं है; अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है; आप भीड़ लाकर खड़ी कर देते हैं और हमारा अनुशासन बिगाड़ देते हैं। भीड़ पग-पग पर हमको हैरान करती है और पग-पग पर अवज्ञा करती है। एक के स्थान पर पाँच लोग आ जाते हैं। कल एक व्यक्ति आया और बोला—साहब! हम अनुष्ठान नहीं कर सकते। हम तो अपनी औरत की वजह से यहाँ आए हैं, जो यह कहती है कि हमारे बाल-बच्चे नहीं होते हैं। हम तो इसी कारण से आए हैं, अन्यथा किसी अनुष्ठान से हमारा कोई ताल्लुक नहीं है और हम कोई अनुष्ठान नहीं करेंगे। नहीं करेंगे, तो बेटे! ऐसा कर कि तेरी औरत के अगर बच्चा होने वाला होगा तो वहाँ धर्मशाला में ही हो जाएगा और अगर न होना होगा तो यहाँ भी नहीं हो सकता। तू कल ले जा। कल मैंने उसे भगा दिया।
ऐसों से कैसे बनेगा स्तर
मित्रो! मैं चाहता था कि संस्था का स्तर अच्छा बना रहता और अनुष्ठानों का स्तर अच्छा बना रहता, पर मैं क्या कर सकता हूँ! मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसलिए भेजे थे कि आप क्वालिटी के आदमी कहीं न कहीं से ढूँढ़ कर लाएँगे, जिनकी मुझे बहुत जरूरत है। लोग फार्म भर करके मंजूरी मँगा लेते हैं, लेकिन उससे क्वालिटी के आदमी नहीं आ पाते। क्वालिटी के आदमी न आने से मुझे बड़ा क्लेश होता है। मैं किसे समझाऊँ, क्यों समझाऊँ और क्या समझाऊँ? लेकिन मैंने आपको निमंत्रणपत्र इसीलिए भिजवाए थे कि शायद आप अच्छे आदमी और बेहतरीन आदमी ले आएँगे, लेकिन आपने ये क्या कर डाला! आप तो सैलानियों को इकट्ठा कर लाए, जो कि हरिद्वार घूमने के लिए आए थे। वे ऋषिकेश घूमना चाहते थे, बदरीनाथ घूमना चाहते थे। इनके लिए आपने यहाँ पड़ाव डाल दिया। कहाँ जा रहे हो? साहब! बदरीनाथ जा रहे हैं। पड़ाव कहाँ पड़ेगा? शांतिकुंज में। कितने दिन रहेंगे? दस दिन रहेंगे। पड़ाव में खूब मजा आएगा। वहाँ सस्ता भोजन मिलता है। ठहरने को फोकट में मिलता है। कोई किराया खरच नहीं करना पड़ता है। वहाँ पर वरदान भी फोकट में मिलता है। चलिए, गुरुजी से आशीर्वाद लेंगे। बेटे! आपने यह क्या कर डाला! आपने सत्यानाश कर दिया। बेकार के आदमी, बुड्ढे-बुढ़िया, सड़े-गले, लूले-लँगड़े, काने-कुबड़े, जो न अध्यात्म को समझते हैं, न भजन को समझते हैं, न पूजा को समझते हैं। सैलानियों के तरीके से तमाशा देखने के लिए हरिद्वार चले थे, आपने लाकर उन्हें मेरी गरदन पर सवार करा दिया।
नासमझों की भीड़ नहीं
बेटे! आपने यह कैसी आफत बुला ली। आपने बेकार की भीड़ इकट्ठी कर ली, जिसे देखकर मेरी आँखों में रोष आता है और उन्हें शाप देने को मन करता है। मैंने शिविरों का आयोजन इसलिए किया था कि इनमें अच्छे लोग आएँगे, समझदार लोग आएँगे, लेकिन आपने निकम्मों की, वाहियात लोगों की भीड़ इकट्ठी करके तमाशा बना दिया है। मैंने इसीलिए तमाशबीनों पर प्रतिबंध लगाए थे, बच्चों पर प्रतिबंध लगाए थे, बुड्ढे-बुढ़ियों पर प्रतिबंध लगाए थे, ताकि अनावश्यक आदमी और बेकार की भीड़, बेकार के दर्शक जमा न हो जाएँ और यहाँ का स्तर खराब न करें। धर्मशाला की तरह से यहाँ भी नरक न बना डालें और हमको परेशान न कर डालें, लेकिन आपने तो वही कर डाला यहाँ। बेटे! जो मैं नहीं चाहता था, आपने वही परेशानी खड़ी कर दी। खैर चलिए, जो हो गया, सो हो गया।
बड़ी शक्तिशाली है यह साधना
मित्रो! गायत्री मंत्र कितना सामर्थ्यवान मंत्र है! मैं चाहता था कि उस सामर्थ्य का लाभ उठाने के लिए मेरे बाद दूसरे आदमी भी रहे होते तो मजा आ जाता। अभी जो लोग रोज गालियाँ दिया करते हैं और कहते हैं कि हमको तीन साल गायत्री मंत्र जप करते हो गए, पर इससे कोई फायदा नहीं हुआ। यदि मैं अपने पीछे ऐसे आदमी छोड़कर मरा होता जो मेरे ही तरीके से गरदन ऊँची करके लोगों से यह कहने में समर्थ रहे होते कि अध्यात्म बड़े काम का है और यह बहुत उपयोगी है, फायदेमंद है और यह शक्तिशाली है और बड़ा चमत्कारी है। जैसे कि हम हिम्मत के साथ कहते हैं कि आप में से भी ऐसे आदमी होते और हम आपको यह सिखाते कि अध्यात्म क्या हो सकता है? गायत्री क्या हो सकती है? उपासना क्या हो सकती है और उपासना के आधार क्या हो सकते हैं? बेटे ! मैंने इसीलिए शिविर में आपको बुलाया था कि गायत्री उपासना के जो पाँच अंग, पाँच कोश—अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश हैं—इन पाँचों कोशों की उच्चस्तरीय उपासना, जो इसमें जुड़ी हुई है, उसे सामान्य प्रक्रिया में भी जोड़कर रखा है। यह ऊँचे स्तर की भी है। इसे मैं आपको समझाना चाहता था कि इन पाँचों कोशों का अनावरण कैसे किया जाता है। अभी तक जो ज्ञान आपको दिया गया, वह यह समझकर दिया गया कि अभी आप बालक हैं। समय आएगा तो मैं समझा दूँगा, सिखा दूँगा।
सीखें यह सच्चा अध्यात्म
मित्रो! सोचता हूँ, अब शुरुआत तो करूँ, आपको पट्टीपूजन तो कराऊँ, ओलम-बारहखड़ी तो सिखाऊँ, अक्षरज्ञान तो सिखाऊँ, गिनती गिनना तो सिखाऊँ। फिर पीछे फिजिक्स सिखा दूँगा, केमिस्ट्री सिखा दूँगा, रेखागणित सिखा दूँगा, गणित सिखा दूँगा। ये सब चीजें मैंने छिपाकर रखी थीं। अभी मैंने आपको गिनतियाँ याद कराई थीं और पहाड़े याद कराए थे और आपको जप करना सिखाया, अनुष्ठान करना सिखाया था, माला घुमाना सिखाया था, प्राणायाम करना सिखाया था और इनकी विधि सिखाई थी, कर्मकाण्ड सिखाया था। इन सबका प्राण तो मैंने सिखाया भी नहीं था। मैं चाहता था कि चलते-चलते इनका प्राण सिखा जाऊँ, ताकि आपका अध्यात्म जीवंत हो सके; ताकि आपकी गायत्री जीवंत हो सके; ताकि आपकी उपासना जीवंत हो सके और जीवंत उपासना का जो लाभ आपको मिलना चाहिए, वह लाभ आपको मिलने में समर्थ हो सके और आप अपनी जिंदगी में यह अनुभव कर सकें कि हमको कोई ऐसी चीज बताई गई थी। अगर हमने नहीं की तो ठीक है, लेकिन की तो उसका पूरे का पूरा फायदा उठाया। हम आपको ऐसा ही अध्यात्म सिखाने के इच्छुक हैं। आपको ऐसा अध्यात्म सीखना चाहिए और ऐसा अध्यात्म जानना चाहिए।
पहला चरण आत्मशोधन
मित्रो! अध्यात्म में आत्मशोधन पहली प्रक्रिया है। पंचमुखी गायत्री के पाँच मुखों को पाँच दिशाओं, पाँच धाराओं, गायत्री उपासना के पाँच टुकड़ों में बाँट दिया गया है। इसमें तीन चरण हैं, एक पर्व है। इसमें एक 'ॐ' है। गायत्री पाँच हिस्सों में बँटी हुई है, जिसकी हम पाँच हिस्सों में व्याख्या कर सकते हैं। इसको हम पाँच कोशों का जागरण कह सकते हैं। इसके लिए हम आपको पाँच उपासनाएँ सिखा सकते हैं, जिसे आपको समझना चाहिए। गायत्री माता का पहला वाला खंड वह है, जिसे हम प्रत्येक क्रिया-कृत्य के साथ-साथ सबसे पहले सिखाते हैं और कहते हैं कि इसके बिना कोई कृत्य पूरा नहीं हो सकता। वह क्या हो सकता है? वह है—आत्मशोधन की प्रक्रिया। आत्मशोधन-प्रक्रिया के कौन-कौन से अंग हैं? आप उसके बिना जप नहीं कर सकते; उसके बिना हवन नहीं कर सकते। उसके बिना कोई कर्मकाण्ड नहीं कर सकते; यह तो हमारे कर्म का प्रारंभ है और यह हमारे अध्यात्म का प्रारंभ है, जिसको हम आत्मशोधन की प्रक्रिया कहते हैं।
यह द्वार है
उसमें क्या-क्या चीजें आती हैं? बेटे! इसमें पहला अंग 'पवित्रीकरण' का आता है। ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतो पिवा.......। यह पहला पाठ है। इसके बाद आपको तीन आचमन करना सिखाते हैं। तीन आचमन करने के बाद में प्राणायाम सिखाते हैं, न्यास सिखाते हैं, शिखाबंधन सिखाते हैं और आपको पृथ्वी पूजन सिखाते हैं। ये छह क्रियाएँ हैं, जिन्हें 'षट्कर्म' भी कहा गया है। आप षट्कर्म का प्राण समझिए और अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश कीजिए और गायत्री उपासना के दरवाजे को खोलिए। आप उसमें घुसने का प्रयत्न कीजिए। यहाँ से प्रयत्न आरंभ होता है। इसके बाद और सब काम होते हैं। गायत्री जप इसके पीछे होता है। ध्यान उसके पीछे होता है और सब क्रिया-कृत्य इसके पीछे होते हैं। सबसे पहले आपको क्रिया करनी पड़ेगी। अगर आपने यह नहीं किया तो आपका सब काम अधूरा है। आत्मशोधन की प्रक्रिया से आपको उपासना आरंभ करनी चाहिए थी। आत्मशोधन के पीछे क्या है? बेटे! यह वास्तव में अपनी आंतरिक सफाई की प्रक्रिया है। आंतरिक सफाई किस तरह से की जाती है? जिस तरह से आपने जमीन से कच्चा लोहा निकलते देखा है। भारी और कच्ची मिट्टी का नाम लोहा है। भारी मिट्टी लोहा कैसे हो जाती है? स्टील कैसे हो जाती है? बेटे! उसको गरम करना पड़ता है, शोधन करना पड़ता है। इसकी मिट्टी अलग निकाल देते हैं, जला देते हैं। आप बोकारो चले जाइए, सारी की सारी फैक्टरियों में आप चले जाइए और यह कहिए कि साहब! यहाँ लोहे का काम होता है? हाँ साहब! यहाँ कच्चा लोहा पकाया जाता है। अच्छा, तो लाइए, कच्चा लोहा दिखाइए। कच्चे लोहे में मिट्टी मिली होगी। मिट्टी को साफ करना और साफ करके लोहा निकालना, सबसे पहला काम है।
धुलाई और रँगाई
इसी तरह मित्रो! सबसे पहला काम है—आत्मशोधन। हमारी जीवात्मा जो निकृष्ट स्तर की घटिया हो गई है, गई-गुजरी बनी हुई है, इसमें न कोई शक्ति है, न कोई चमत्कार है। अज्ञान में डूबी हुई है। असहाय, दीन, दुर्बल, प्रत्येक क्षण चिंताओं से घिरी हुई, पाप और अनाचारों से घिरी हुई, दुःख और दरद से घिरी हुई, शोक और संताप से घिरी हई अर्थात मलावरण से हमारी चेतना घिरी हुई है। इसको क्या करना पड़ेगा? इसको बेटे! उसी तरह से अलग करना पड़ेगा, जैसे कि लोहे को मिट्टी से अलग करना पड़ता है। अगर आप यह प्रक्रिया पूरी कर लें तो समझना चाहिए कि आपने आध्यात्मिकता का पहला वाला सिद्धांत सीख लिया। रँगाई से पहले धुलाई की जाती है। भक्ति से पहले, कर्मकांडों से पहले, अनुष्ठानों से पहले धुलाई आवश्यक है। अगर कपड़े की धुलाई नहीं की गई है तो रँगाई नहीं कर सकते। नहीं साहब! ऐसे ही रंग दीजिए। क्या रँग दें? हमारा कोट। कैसा रंग दें? गुलाबी रंग दीजिए। अच्छा ला, कहाँ है कोट? तेल में डूबा हुआ, मैल में डूबा हुआ, मिट्टी में डूबा हुआ—सारा का सारा मैला पड़ा है। बेटे! यह नहीं रँगा जा सकता। नहीं साहब! रँग दीजिए। बेटे! हम गुलाबी रंग रँगेंगे तो हमारा रंग खराब हो जाएगा। यही नहीं रंगा जा सकता।
पहली शर्त अपनी सफाई
यह कैसे रंगा जा सकता है? इसको पहले धोबी के यहाँ ले जाओ। धोबी क्या करेगा? इसके ऊपर जो मलिनताएँ चढ़ी हुई हैं, उन मलिनताओं को वह पहले साफ करेगा; पापों को साफ करेगा; अनाचारों को साफ करेगा। जिस दिन वह सारे के सारे जो आवरण चढ़े हुए हैं, उन्हें साफ कर देगा, उस दिन तू हमारे पास ले आना। फिर जो भी रंग कहेगा, हम तेरे कुरते को उसी रंग से रंग देंगे। महादेव जी का गुलाबी रंग रंग देंगे, हनुमान जी का पीला रंग रंग देंगे, लक्ष्मी जी का वासंती रंग रंग देंगे। जिस भी देवता का कहेगा, हम फौरन रंग देंगे, लेकिन रँगने से पहले तुझे सफाई करनी पड़ेगी, आत्मशोधन करना पड़ेगा। अगर आपने सफाई नहीं की और रंग करना शुरू कर दिया, जप करना शुरू कर दिया, अनुष्ठान करना शुरू कर दिया, ध्यान करना शुरू कर दिया और पूजा करना शुरू कर दिया तो बेटे! आपका रंग खराब हो जाएगा। पहले धोकर लाइए। धोने की इस प्रक्रिया का नाम ही आत्मशोधन है, जो सबसे पहले आपको सिखाई गई थी और जिसकी आज मैं व्याख्या कर रहा हैं। रँगाई से पहले अंगारे के ऊपर चढ़ी राख की परत को हटाते हैं। अंगारे के ऊपर राख की परत जम जाती है। राख की परत को जब हटा देते हैं तो अंगार लाल दिखाई पड़ता है, चमकदार दिखाई पड़ता है। अंगारे के ऊपर से राख की परत हटाना आवश्यक है, ताकि उसकी चमक, उसकी गरमी दिखाई पड़ने लगे। जब तक अंगारे के ऊपर राख की परत जमी रहती है, वह काला दिखाई पड़ता है, ठंढा दिखाई पड़ता है।
मलिनता मिटे तो चमत्कार प्रकटें
मित्रो! इसी तरह हमारे ऊपर जो मलिनताओं के आवरण—कषाय-कल्मष शारीरिक पापों के रूप में, मानसिक पापों के रूप में और आध्यात्मिक पापों के रूप में छा गए हैं, उनका आपको निराकरण करना चाहिए। अगर आप अपने ऊपर चढ़ी हुई मलिनता को साफ कर पाएँ तो आपके भीतर वह शक्ति का स्रोत, शक्ति का पुंज, जिसको हम जीवात्मा कहते हैं, स्वयमेव अनायास ही शक्तिशाली होता हुआ, उभरता हुआ, उठता हुआ चला जाएगा और फिर आप अपनी आत्मा का चमत्कार, अपनी साधना का चमत्कार देख सकते हैं। देवताओं के चमत्कार नहीं, अपनी आत्मा के चमत्कार को देख सकते हैं। देवताओं के अनुग्रह नहीं, अपनी जीवात्मा का अनुग्रह देख सकते हैं। बाहर वाले देवताओं का जो नाम रखा है, वास्तव में हमने अपनी भीतरवाली सत्ता का प्रकारांतर से बाहर का नाम रखा है। बाहर से हमको कभी कोई सहायता नहीं मिलती। बाहर का कोई वरदान हमको कभी नहीं मिलता। बाहर का कोई भगवान कभी सहायक नहीं हुआ। भीतर वाला ही वह भगवान है, जो जब जाग्रत होता है तो बाहर वाले भगवान को खींचता हुआ चला आता है; पकड़ता हुआ चला आता है; घसीटता हुआ चला आता है। हमारा भीतर वाला मैग्नेट सोया हुआ हो, भीतर वाला मैग्नेट गया-गुजरा हो तो आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते—न भगवान को पकड़ सकते हैं; न सिद्धियों को पकड़ सकते हैं; न आशीर्वादों को पकड़ सकते हैं; न वरदान को पकड़ सकते हैं। आप कोई चीज नहीं पकड़ सकते हैं। आप मुरदे के तरीके से पड़े रहेंगे।
संशोधन का महत्त्व
इसलिए मित्रो! अंगारे के ऊपर से राख हटाना आवश्यक है। बहुत से लोग विषों का संशोधन करते रहते हैं। हकीम जी करते हैं। कहिए साहब! क्या-क्या और किस-किसकी दवाई बना रहे हैं? अरे साहब! यह दमे की दवाई है। हमने इसमें संखिया मिलाया हुआ है। अरे हकीम साहब! हमें संखिया खिलाकर मार डालेंगे क्या? नहीं, हमने संखिया को संशोधित किया हुआ है। कुचला को संशोधित किया हुआ है। किसलिए करते हैं? कुचला को इसलिए संशोधित किया हुआ है कि इससे हम वात की बीमारियों और घुटने के दरद को ठीक कर देंगे। गंधक को हम शोधित करते हैं। इससे हम खाज-खुजली को अच्छा कर सकते हैं। इस तरह हमने गंधक को संशोधित कर दिया है और वह हमारा काम करता है। कुचला हमारा काम करता है। संखिया हमारा काम करता है। हर तरह का जहर हमारे लिए उपयोगी बन जाता है, अमृत बन जाता है। इसी तरह अगर आप कच्चे पारे को ठीक कर लें, संशोधित कर लें तो पारा रसायन बन जाता है।
डिस्टिल्ड वाटर बनिए
मित्रो! अपने आप की सफाई आत्मशोधन की पहली प्रक्रिया है। दर्पण के ऊपर जब तक गंदगी की परत चढ़ी होती है, मलिनता की परत चढ़ी होती है, तब तक हमको उसमें अपना चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। जिस वक्त आप शीशे के ऊपर से परत हटा देते हैं, उस वक्त आपको भगवान दिखाई पड़ता है। पूजा दिखाई पड़ती है, भक्ति दिखाई पड़ती है; अपनी मलिनता दिखाई पड़ती है—"दिल के आइने में है तसवीरे यार की, जब जरा गरदन उठाई देख ली।" मित्रो! अपनी मलिनता को साफ कीजिए और भगवान को अपने भीतर देखिए। अपने दर्पण की सफाई कीजिए। डिस्टिल्ड वाटर का उपयोग आप जानते हैं? लाइए डॉक्टर साहब! एक कुनैन मिक्सचर का इंजेक्शन लगाइए। अच्छा पानी लाइए। अरे! इस पानी से थोड़े ही लगेगा। इसमें तो कीटाणु-जीवाणु हैं। इसका इंजेक्शन लगा देंगे तो आप मर जाएँगे। तो किस पानी से लगाएँगे? डिस्टिल्ड वाटर से। डिस्टिल्ड वाटर किसे कहते हैं? बेटे! उसे कहते हैं, जो भाप के द्वारा उड़ाया हुआ है। डिस्टिल्ड वाटर अर्थात वह आदमी, जो भगवान का भक्त कहला सकता है। और गंदा पानी कौन? वह आदमी, जो दुहाई तो भक्ति की देता है। भक्ति के कर्मकाण्ड करता है, जिसे मैं नखरे कहता हूँ। ऐसा आदमी भक्ति के नखरे तो करता है, लेकिन असल में उसने अपने आप को इतना घटिया बनाकर रखा है कि उसके अंदर क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता, बेटे! हम उसके ऊपर कोई विश्वास नहीं कर सकते। हमारे लिए अपने भीतर की सफाई करना अत्यधिक आवश्यक है।
बुद्ध की शिक्षा सेठ जी को
भगवान बुद्ध एक शिष्य के यहाँ भिक्षा माँगने के लिए गए। भिक्षा के लिए अपना कमंडल साथ ले गए। सेठ जी को पता था कि आज भगवान बुद्ध हमारे यहाँ आने वाले हैं, सो उन्होंने मेवे की खीर बनाकर रखी कि मैं भगवान को भिक्षा में खीर दूँगा। भिक्षा के लिए जब उन्होंने कमंडल आगे बढ़ाया तो सेठ जी ने देखा कि कमंडल के भीतर गोबर भरा पड़ा था। सेठ जी ने कहा कि भगवान! आप यह क्या कर रहे हैं—बताइए कि आप गोबर भरे हुए कमंडल में खीर लेंगे? तो बेटे! इसमें क्या हर्ज है। स्वामी जी! इसमें दो हर्ज हैं—पहला यह कि इसमें गोबर भरा हुआ है। इसमें जो खीर डालेंगे, वह जमीन पर गिर पड़ेगी, इस कमंडल में नहीं आएगी। दूसरा, अगर थोड़ी-बहुत खीर आ भी गई, तो गोबर में मिल जाएगी और अगर आपने इसे खाना शुरू भी कर दिया, तो खीर और गोबर, दोनों चीजों को मिलाकर खाने से उल्टी हो जाएगी और हमारा सारा प्रयत्न बेकार हो जाएगा। तो बेटे ! अब क्या करना चाहिए, गलती तो हो गई। लाइए, कमंडल हमें दीजिए। सेठ जी कमंडल ले गए। उसे धोया, साफ किया और साफ करने के बाद में उसमें खीर भरी और बुद्ध से प्रार्थना की कि भविष्य में कहीं भी भिक्षा माँगने जाया करें तो गोबर के कमंडल को धोकर के ले जाया कीजिए, ताकि कोई आदमी आपको भिक्षा दे तो उस भिक्षा का फायदा उठा सकें और देने वाले का नियम भी सार्थक हो सके। देने वाले की भावना सार्थक हो सके और आपने जो पाया है, उसका आप पूरा फायदा उठा सकें।
कमंडल साफ रखें
बुद्ध भगवान ने कहा कि बेटा! शिक्षा तो तूने अच्छी दी। आइंदा से अब मैं ऐसा ही करूँगा। वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले—बेटा! एक कमी रह गई। तू जो संत-महात्माओं की सेवा करता है, भगवान का भजन करता है, वह किस काम के लिए करता है? यही वरदान माँगने के लिए, आशीर्वाद पाने और कुछ सिद्धियाँ पाने के लिए करता हूँ। बेटे! ये सिद्धियाँ, ये वरदान और आशीर्वाद तेरी खीर के बराबर हो सकती हैं। नहीं महाराज जी! खीर तो हमने दो रुपये की बनाई है, लेकिन सिद्धि तो बहुत दाम की हो सकती है; चमत्कार तो बहुत दाम का हो सकता है। भगवान का प्यार तो बहुत दाम का हो सकता है। हाँ बेटे ! लेकिन अगर कोई इसे देगा तो मैले कमंडल में कैसे देगा? मैला कमंडल कैसा है? जैसा तू है—भीतर से भी मैला और बाहर से भी मैला। पहले इसे धो करके ला, ताकि तुझे कोई वरदान तो दे, आशीर्वाद दे तो देने वाले का श्रम सार्थक हो सके। तुमने अभी जो पाया है, उसको भी कोई ठीया-ठिकाना मिल सके, ठीक से उपयोग कर सके, अन्यथा गोबर से भरा हुआ कमंडल दोनों को मिलाकर गुड़-गोबर कर देगा।
अन्नमयकोश की धुलाई पहले
गुड़-गोबर किसे कहते हैं? जो न खाने के काम आता है, न लीपने के काम आता है। यह क्या लाए साहब! यह तो गुड़-गोबर लाए। गुड़ में गोबर मिलाकर लाए। बेटे! यह तो किसी काम का नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि यह गुड़-गोबर है। इससे आप लीपेंगे तो मक्खियाँ भिनकेंगी, पैर चिपक जाएगा। यह किसी काम का नहीं रहा। इससे तो अच्छा होता कि आपने गुड़ को अलग रखा होता और गोबर को अलग रखा होता। गोबर हमारा जीवन और अध्यात्म हमारा भगवान। बेटे! इसके साथ यदि हम भगवान की भक्ति को इकट्ठा करना चाहते हैं तो इससे कोई फायदा नहीं होगा। हमारा सारा श्रम बेकार चला जाएगा, इसलिए अच्छा है कि आप कमंडल को साफ करके चलें। यह शिक्षा हम आपको किसमें देते हैं? हम आपको गायत्री के पहले वाले चरण में देते हैं। गायत्री का पहला वाला चरण, पहला वाला शिक्षण, पहली वाली धारा, पहला वाला सूक्त, पहला वाला प्रयोग, जो हम आपको सिखाते हैं, वह गायत्री के पाँच मुखों में से एक है। पंचकोशों की जाग्रति में वह पहला वाला कोश है। पहले वाले कोश को, जिसे अन्नमय कोश कहते हैं, उसकी मलिनता का निराकरण करें। मलिनता का निराकरण अगर आप नहीं करेंगे और खाना खाते जाएँगे, मैले को भीतर रोककर रखेंगे तो मरेंगे। आपको खुराक नहीं मिलेगी।
मारेंगी हमारी मलिनताएँ
मित्रो! फिर आध्यात्मिकता की खुराक आपके हिस्से में नहीं आने वाली। किसी देवी-देवता का वरदान नहीं आने वाला। आपको किसी सिद्धपुरुष का अनुग्रह नहीं मिलने वाला है और कोई आध्यात्मिक चमत्कार नहीं दिखाई देने वाला है। अगर आप अपने आप को साफ करके नहीं आएँगे तब। बेटे! हमको कई काम करने पड़ते हैं। पसीना निकालना पड़ता है। अगर हम पसीना नहीं निकालें तब? पेशाब न करें तब? साँस नहीं लें तब? इन सबके द्वारा जो हम मलिनताओं को निकालते हैं, अगर हम इन मलिनताओं को नहीं निकालें अर्थात साँस नहीं लें, पसीना नहीं निकालें, पेशाब नहीं करें, तब मलिनताएँ हमारे शरीर में जमा होती चली जाएँगी और मित्रो! कोई और तो मारेगा नहीं, हमारी कोई हत्या करने तो नहीं आएगा, कोई चाकू और छुरी लेकर के तो नहीं आएगा, लेकिन मलिनताएँ हमको मार डालेंगी।
[क्रमशः]
प्रस्तुत प्रवचन की द्वितीय किस्त आपने मार्च माह में पढ़ी। उसके माध्यम से आपने जाना कि खिलौनों ने, हमारी क्षुद्रताओं ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया है। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम प्रगति की राह पर नहीं चल सकते। गुरुदेव ने जीवन भर गायत्री की तप-साधना की; किसी मनोकामना से नहीं, मात्र भक्तिभाव से—गुरु का आदेश मानकर। उन्होंने कहा कि कितना शक्तिशाली है यह गायत्री मंत्र, यह समझ में आ जाए तो जीवन निहाल हो जाएगा, पर अध्यात्म की बारहखड़ी तो समझ में आई नहीं, गायत्री-साधना करेंगे कैसे! आत्मशोधन सबसे पहला चरण है। जीवत्मा, जो निकृष्ट स्तर की हो गई है, उसे शक्तिशाली इसी माध्यम से बनाना है। बिना धुलाई के रँगाई नहीं हो सकती। मलिनता मिटेगी, तो ही चमत्कार प्रकट होगा; विषों का संशोधन होगा, तो ही वे औषधि बनेंगे। डिस्टिल्ड वाटर बनने का प्रयास करें। इस संदर्भ में बुद्ध द्वारा सेठ को दी गई शिक्षा का उल्लेख भी किया 'गया था। अन्नमयकोश हमारा सबसे प्रथम है। उसकी धुलाई सबसे पहले होनी चाहिए। मलिनताओं से मुक्ति अध्यात्म की पहली शर्त है। अब आगे पढ़ें—
हम भी ऐसे ही लंगूर हैं
मित्रो! मुझे मथुरा की एक घटना याद आ जाती है। मथुरा में एक बार रामलीला हो रही थी। रामलीला में कुछ बच्चों को बंदर बना दिया, कुछ को रीछ, नल, नील और हनुमान। एक को लंगूर बना दिया। लंगूर कैसा होता है? कैसे बनाया? उन्होंने लंगूर ऐसे बनाया कि उस बच्चे के शरीर पर शीरा पोत दिया। शीरा जानते हैं, किससे बनता है? गुड़ में से निकलता है। बच्चों ने आपस में रुई चिपका दी और वह बन गया लंगूर। उसके एक पूँछ लगा दी और वह लँगोटी लगाकर उछलता फिरा। साहब यह रामलीला का लंगूर है। एकाध घंटे तक वह उछलता फिरा, फिर जमीन पर गिर पड़ा। अरे! लंगूर को क्या हुआ? उसे उठाकर ले गए और पंखा झलने लगे। लंगूर बेहोश हो गया। अब क्या करें, उसे पानी पिलाया, फिर भी होश में नहीं आया। उसकी आँखें पलट गईं। आखिर में लंगूर को अस्पताल ले गए। अस्पताल वालों ने कहा कि यह तुमने क्या कर डाला! क्यों साहब! इसमें क्या हर्ज हो गया? इसके शरीर से जो भाप निकलती थी, पसीना निकलता था, जो शरीर के जहर को बाहर निकालता है। तुमने शरीर पर शीरा चिपका करके उसे अंदर ही रोक दिया है। अब तो यह इस जहर की वजह से मर जाएगा। डॉक्टर ने फौरन रुई को हटाया और शीरे को हटाया। उस शीरे को धोकर साफ किया, तो देखा कि अब तक सारे शरीर में इतना जहर फैल चुका था कि उसको बचाना संभव न हो सका। बहुत इलाज किया गया, किंतु एक घंटे के उस जहर का परिणाम बच्चे की जान लेकर सामने आया।
पहले अंदर का जहर तो निकालिए
मित्रो! आपके भीतर कषाय-कल्मषों के रूप में जो जहर भरा हुआ है, उसकी सफाई की जरूरत है; उसके निराकरण की जरूरत है; उसको हटाने की जरूरत है। यदि आप यह कर पाएँ तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपको अध्यात्म के लाभ अवश्य मिलेंगे। अध्यात्म मार्ग में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए पहला वाला जो पाठ पढ़ाया जाता है, पहली वाली जो शिक्षा दी जाती है, वह यह नहीं दी जाती कि कौन सा बीजमंत्र लगाऊँ? माला किस चीज की लूँ? बेटे! माला किसी भी लकड़ी की ले ले। बेटे! यह पाठ पहला नहीं है। यह ग्यारहवाँ है। महाराज जी! बीजमंत्र लक्ष्मी जी का लगाऊँ या हनुमान जी का लगाऊँ? बेटे! चाहे जिसका लगा देना, पर यह पाठ तेरहवाँ है। सबसे पहले पहला वाला पाठ पढ़। नहीं साहब! पहला वाला पाठ पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। हमको तो फिजिक्स पढ़ाइए, केमिस्ट्री पढ़ाइए। बेटे! यह भी पढ़ाएँगे, पर अभी तो तुझे वर्णमाला भी नहीं आती। गिनती गिनना भी नहीं आता। फिर कुंडलिनी जगा दीजिए, चक्रवेधन कर दीजिए और फलाना कर दीजिए। ये बेसिलसिले की बातें, बेसिर-पैर की बातें हैं। कुंडलिनी के नीचे तो कोई बात ही नहीं करना चाहता; चक्रवेधन से पहले तो कोई बात सुनना भी नहीं चाहता; आत्मसाक्षात्कार से कम तो किसी की फरमाइश ही नहीं है। भगवान को देखे बिना तो किसी को चैन ही नहीं पड़ता है। मानो भगवान किसी का नौकर है।
माला या मशीनगन?
हे भगवान! चल हमको दर्शन दे। हाँ, लीजिए साहब! कीजिए दर्शन। तू भगवान को ऐसा समझता है? नहीं महाराज जी! आप बुला दीजिए। बेटे! हममें तो ताकत है नहीं, तुझमें ताकत है तो बुला ले हनुमान जी को। हमारे कहने से तो कोई एकाध मित्रों ने भगवान जी को बुलाया, सो भी वे नहीं आए। तेरे कहने से वे आ सकते हों तो भले बुला ले, पीछे हम भी बुला लिया करेंगे। नहीं साहब! वे सपने में आ जाएँगे और दर्शन दे जाएँगे। किस कीमत पर तुझे दर्शन दे जाएँगे? साहब! माला घुमाता हूँ। बेटे! तू अपनी माला को क्या समझता है—मशीनगन? खटाखट, फटाफट चलाऊँगा और सबको मार डालूँगा। किसको मार डालेगा? हनुमान जी को मार डालूँगा, संतोषी माता को मार डालूँगा और उनकी लाश को ले आऊँगा और उससे मजा उड़ाऊँगा। ऐसे कैसे हो सकता है—ले जा तू अपनी माला को।
पढ़ाई दुर्गुणों को हटाने के बाद आरंभ होगी
मित्रो! माला मुख्य नहीं होती। आप वहाँ से पढ़ना शुरू कीजिए, जहाँ से आध्यात्मिकता का आरंभ होता है। आप अपने आप को मुलायम करने की कोशिश कीजिए। मुलायम करने से बेटे! क्या हो सकता है? आपने अपने मुँह में घास भर रखी है, उसको हटाइए, ताकि आपको दूध पीने का मौका मिले। आप अपनी वासनाओं और तृष्णाओं को हटाइए। कमजोरियों को हटाइए, ताकि जो खाली स्थान हो, उसमें श्रेष्ठता का समावेश संभव हो सके। नहीं साहब! हम अपने पाप को नहीं हटाना चाहते और अपने दोष-दुर्गुणों को नहीं हटाना चाहते। अब हम भक्ति का वरदान पाना चाहते हैं और भगवान का आशीर्वाद पाना चाहते हैं। अब सिद्धि का चमत्कार देखना चाहते हैं। अगर ऐसा संभव हो सकता है तो बेटे! हमको बताना। हमको तो पता नहीं है। हमने तो अपने आप की इतनी धुलाई की है कि जिस सख्ती से धोबी कपड़े के साथ करता है। धोबी उसे भट्ठी पर चढ़ाता है, गरम करता है, उसमें तेजाब डालता है। तेजाब डालने के बाद कहाँ ले जाता है? घाट पर ले जाता है और क्या करता है? उसे पत्थर पर पछाड़-पछाड़ कर दे मारता है और धो-धो करके उसका सारा का सारा मैल निकाल देता है। हमने तो धोबी के तरीके से अपनी मलिनताओं का निवारण करने के लिए सख्ती अपने साथ की है। आपको इससे सस्ता कोई तरीका याद हो तो तलाश करना।
हमने धुनिए की तरह धुना है स्वयं को
बेटे! हमने तो अपने आप को धुनिए के तरीके से धुना है। जरा सी रुई की जब धुनाई होती है तो वह फूल-फूल करके इतनी बड़ी हो जाती है। राजस्थान एक पाव की रुई के लिए मशहूर है। इंदिरा गांधी जब वहाँ भरतपुर गई थीं तो उनको एक पाव की रजाई भेंट की गई थी। एक पाव रुई से सारी की सारी रजाई का लिहाफ भर दिया गया था और भर जाने के बाद में उनको यकीन दिलाया गया था कि अगर आप एक पाव की बनाई गई रजाई को ओढ़ करके जाड़े के दिनों में सोएँगी तो आपकी ठंढक दूर हो जाएगी। आपको ठंढक की शिकायत नहीं होगी। एक पाव की रजाई कैसे हो सकती है? हमारे लिहाफ में तो दो किलो रुई आती है, ढाई किलो आती है। हाँ बेटे! बिना धुनी वाली ढाई किलो भी कम है, पाँच किलो डालनी चाहिए। लेकिन रुई अच्छी तरह से धुनी हुई है तो एक पाव का लिहाफ ही काफी हो सकता है। बेटे! हमने अपने आप को धुना है और अपने आप को धोया है। धुनने के बाद हमारा फैलाव होता चला गया, विस्तार होता चला गया। बेटे! धोने के बाद हमारा कपड़ा इतना साफ होता चला गया कि जैसे टिनोपॉल लगा हुआ है। हम झकाझक, चमाचम कपड़ा पहनकर आते हैं। हम ऐसे मालूम पड़ते हैं, जैसे कि कोई नेता हों और कोई मिनिस्टर हों। हम बहुत बढ़िया कपड़ा पहनकर आते हैं। बेटे! धुला हुआ लिहाफ ओढ़कर आते हैं। हमको मजा आता है।
भावनात्मक सफाई
मित्रो! धुलाई की ओर ध्यान दीजिए। आप धुलाई की ओर ध्यान नहीं देना चाहते हैं। यह क्या गलती कर रहे हैं! आप शुरुआत नहीं करना चाहते हैं, पढ़ना नहीं चाहते हैं, यह कैसे हो सकता है! मित्रो! आपको यह जो पहले वाले पाठ का शिक्षण दिया गया, जिसे हम पाँच क्रियाओं के हिसाब से षट्कर्म कहते हैं। इसमें पाँच क्रियाएँ पंचमुखी गायत्री की और एक क्रिया वह, जो भूमिपूजन के नाम से विख्यात है। इसको हम पृथ्वीपूजन के नाम से जानते हैं। पाँच क्रियाएँ कौन-कौन सी हैं, इसे आप जरा समझने की कोशिश करना। पहला वाला कृत्य, जो हम आपको गायत्री उपासना करने से पहले सिखाते हैं, आत्मशोधन की प्रक्रिया के भीतर कराते हैं, वह है पवित्रीकरण। बाईं हथेली में जल रखा और दूसरे हाथ से ढका ॐ अपवित्रः पवित्रो वा...... का मंत्र बोला। अगर यह मंत्र नहीं आता है तो गायत्री मंत्र बोल लीजिए। कोई फरक नहीं पड़ता है। मंत्र बोलकर आप इसे अपने ऊपर छिड़क लीजिए। पानी छिड़कने से क्या हो जाएगा? यह किस काम के लिए छिड़का गया था, यह हमने बताया नहीं था? हाँ, महाराज जी! पर इस पानी से क्या होगा? एक बालटी पानी से तो मैं रोज ही स्नान कर लेता हूँ और आप तो जरा सा जल हथेली पर लेने के लिए कहते हैं। इससे मैं क्या पवित्र हो जाऊँगा? पवित्र होना होगा तो दो बालटी से नहाएँगे, साबुन से नहाएँगे, बाथरूम में नहाएँगे। हाँ बेटे! उससे ज्यादा सफाई हो सकती है, पर इससे सफाई कैसे हो सकती है? यह भावनात्मक सफाई है, मान्यात्मक सफाई है।
मखौल मत करिए
मित्रो! सारे का सारा अध्यात्म वास्तव में भावनाओं का खेल है, और कुछ नहीं। इसमें कर्मकांडों की कीमत राई की नोंक के बराबर है और इसमें जो सारी की सारी शक्ति और सामर्थ्य भरी पड़ी है, यह चिंतन के ऊपर टिकी पड़ी है, आस्थाओं के ऊपर टिकी पड़ी है, दबी पड़ी है, विचारणाओं के ऊपर जमी पड़ी है। अगर आपके पास विचारणाएँ नहीं हैं, आस्थाएँ नहीं हैं, मान्यताएँ नहीं हैं, श्रद्धा आपके पास नहीं है तो समझना चाहिए कि केवल आप खेल-खिलौने बना रहे हैं और मखौल कर रहे हैं। किसका कर रहे हैं? उस पवित्रता का। एक बूँद पानी सिर पर छिड़क लिया और हो गया पवित्र। मुझे एक घटना याद आ गई—कुंभ मेले का मार्जन स्नान। एक बहुत बड़े नेता थे, नाम तो मैं नहीं लूँगा। उस कुंभ मेले में सब लोग गए। चलिए साहब! आज कुंभ का स्नान है, सब लोग नहाइए। नेताजी पैंट पहने हुए थे, बोले—हम तो नहीं नहा सकते। इस बावत नाव में बैठे हुए थे। पंडे को मजाक सूझा और उसने कहा कि आप ऐसा कर लीजिए कि मार्जन स्नान कर लीजिए। मार्जन स्नान क्या होता है? आप अपने शरीर पर छींटे लगा लीजिए। इससे क्या हो जाएगा? इससे आपको कुंभ के दिन गंगाजी में स्नान का पुण्य मिल जाएगा। इस पर नेताजी रजामंद हो गए। पंडे ने गंगाजल लाकर दिया और उन्होंने ऐसा ही किया। हो गया स्नान? हाँ साहब! हो गया। अगर आप भी ऐसा ही स्नान करते हैं, ऐसा ही पवित्रीकरण करते हैं, पवित्रीकरण का ऐसा ही मखौल बनाते हैं तो आपकी मरजी, लेकिन अगर आप वास्तव में मखौल नहीं बनाते हैं, तो आपको गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और यह विचार करना पड़ेगा कि हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा होती है। जैसे देवता फूलों की वर्षा करते थे, उसी प्रकार से इस बादल में से, इस अनंत आकाश में से ऐसी वर्षा होती चली जा रही है। ऐसा बादल बरसता चला जा रहा है, जिसकी सघन बौछार हमारे ऊपर होती चली जा रही है, जो हमको सूक्ष्म और पवित्र करता चला जाता है। पवित्रीकरण करते समय आप यह अनुभव करें।
पवित्रता की—देवत्व की वर्षा
मित्रो! मैं आपको एक उदाहरण और बता सकता हूँ। गरमी के दिनों में सड़क पर मिट्टी पड़ी होती है, धूल पड़ी होती है? हाँ साहब! धूल उड़-उड़कर आँखों में जाती है? हाँ साहब! म्युनिसिपल बोर्ड की जब गाड़ी आती है, तो सारे के सारे धूल-धक्कड़ को दबाती हुई, पानी छिड़कती चली जाती है। जब गाड़ी चली जाती है, तो सब जगह सड़क ठंढी हो जाती है और तरावट आ जाती है। इस धूल-धक्कड़ वाली सड़क पर जब म्यूनिसिपल बोर्ड की पानी से भरी हुई गाड़ी आती है? कौन सी? ॐ अपवित्रः पवित्रो वा..... की जलधारा छिड़कती हुई चली जाती है और धूल को दबाती हुई-गलाती हुई चली जाती है और ठंढक देती हुई चली जाती है। जब बरसात होती है तो क्या होता है? बेटे! हरियाली पैदा होती है। यह जल जो आपने अपनी बाई हथेली पर रखा था, उसको हम अपने ऊपर उछालते हैं, छिड़कते हैं। यह करते हुए आप ध्यानमग्न हो जाइए कि हमारे ऊपर पवित्रता की वर्षा हो रही है, देवत्व की वर्षा हो रही है, जो हमारे शारीरिक कषायों को और मानसिक कल्मषों को धोती हुई चली जा रही है। बेटे! यही तो है—गंगास्नान और क्या है? गंगा में पानी है। गंगा और यमुना के पानी में कोई फरक नहीं है। अच्छा यह बात है तो मुझे आप कहने दीजिए। अभी पिछले महीने अखबारों में आया था कि इलाहाबाद की त्रिवेणी का जल लेबोरेटरियों में भेजा गया था। उसमें हजारों कीड़े पाए गए और यह घोषित किया गया कि त्रिवेणी का कच्चा पानी नहीं पीना चाहिए। जो कच्चा पानी पीएगा, वह मरेगा। इसीलिए इसको फिल्टर करके पीना चाहिए और उबाल कर पीना चाहिए।
गंगाजल से लाभ कब
मित्रो! गंगाजी के जल का फरक यह है कि जिस समय हमारी मान्यताएँ और हमारी भावनाएँ यह मानकर चलती हैं कि इस दिव्य जल में, पवित्र जल में विष्णु का वास है और शिवजी की जटाओं का आधार है। स्वर्गलोक से अवतरित देवी भागीरथी हमको शुद्ध-पवित्र करती चली जा रही है। वास्तव में यह उतना ही पवित्र है, जितना कि गंगाजी हैं। अगर आप यह मान लें कि आपको गंगाजी में मछली मारने का ठेका इक्यावन हजार रुपये में मिल जाए तो आप रोजाना गंगाजी में से कितनी मछली पकड़ेंगे? आज कितनी पकड़ी गईं? आज साहब! चालीस मन पकड़ी गईं। दूसरे दिन अठारह मन पकड़ी गईं। और क्या करते हैं? साहब! गंगाजल में स्नान करते हैं, गंगाजल पीते हैं और मछली पकड़ते हैं। हम तो गंगाजी में जिंदा हैं। अच्छा तो आपको फायदा हो सकता है? मेरे ख्याल से आपको गंगाजल से कोई फायदा नहीं हो सकता। इससे आपको कोई मुक्ति नहीं मिल सकती, अगर पानी का ख्याल है तब। लेकिन अगर आपका ख्याल, आपकी भावना यह है कि गंगा से मुक्ति होगी, तो बेटे! आपको वही लाभ होगा, जो जगन्नाथ मिश्र को हुआ था।
जगन्नाथ मिश्र की गंगा-साधना
साथियो! जगन्नाथ मिश्र के मन में आया था कि हम अपनी माँ की गोदी में प्रवेश करते जाते हैं। दिव्यता की देवी, मातृत्व की देवी की गोदी में हम प्रवेश करते जाते हैं। वे 'गंगालहरी' के बावन श्लोकों में से एक-एक श्लोक बोलते हुए, एक-एक कदम बढ़ाते हुए गंगाजी में चले गए और उसी में प्रवाहित हो गए थे। स्वामी रामतीर्थ भी टिहरी में माँ गंगा की गोदी में लिपटने के लिए व्याकुल हो गए थे। उन्होंने किनारे पर अपने कपड़े रख दिए थे और "माँ! तेरी गोदी में रहूँगा और तेरे तरीके से बहूँगा, तेरे तरीके से चलूँगा। तेरा उद्देश्य हिमालय से निकलकर बिना किसी की चिंता किए हुए अपनी शुद्धता और पवित्रता से असंख्यों का उत्कर्ष करते हुए समुद्र में समा जाना है। माँ ! मैं भी तेरे साथ चलूँगा।" रामतीर्थ जी गंगाजी में बह गए थे और जगन्नाथ मिश्र भी बह गए थे। उनका मन किन भावनाओं के साथ उछल रहा था! उन्होंने गाया—
समृद्धं सौभाग्यं सकलवसुधायाः किमपि तन्,
महेश्वर्यं लीलाजनितजगतः खण्डपरशोः।
श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्तं सुमनसां,
सुधा सौन्दर्य ते सलिलमशिवं न शमयतु॥
इस तरह गाते हुए जगन्नाथ मिश्र भावविभोर होकर माँ गंगाजी में चले गए। उनका उद्धार हुआ होगा? हाँ बेटे! मेरा विश्वास है कि जरूर हुआ होगा। गंगाजी के स्नान का जो फल मिलना चाहिए, वह जरूर मिला होगा। उनकी आत्मा शुद्ध और पवित्र जरूर हो गई होगी। पानी की वजह से नहीं, वरन पानी के साथ-साथ उन्होंने जो अपनी दिली भावनाओं का समावेश किया था, उसकी वजह से हुआ होगा। बेटे! पानी में कोई ताकत नहीं है। नहीं साहब! गंगाजल में शक्ति है। नहीं, कोई शक्ति नहीं है। गंगाजल और जमुना जल में क्या फरक पड़ता है—पानी-पानी सब एक से हैं।
शक्ति निष्ठा में, विश्वास में है
मित्रो! जो कुछ भी शक्ति या सामर्थ्य है कलेवर में, कर्मकांडों में नहीं है, उन निष्ठाओं में है, विश्वासों में है, जो न केवल हमारे शरीर का शोधन करती हैं, वरन हमारी जीवात्मा का भी संशोधन करती हैं। न केवल हमारे कर्म का संशोधन करती हैं; वरन हमारे विचारों का भी संशोधन करती हैं और हमारी आत्मा की आस्थाओं का संशोधन करती हैं, जैसा कि आप जल में भावना सहित नहाए हैं। फिर मैं आपसे यह कह सकता हूँ कि कलश में सारे देवताओं का जो हम आह्वान करते हैं, वे आते हैं। कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः...... अर्थात कलश में ब्रह्मा जी बैठे हैं, रुद्र जी बैठे हुए हैं, गणेश जी बैठे हुए हैं। सभी देवता इस पानी में चल रहे हैं, फिर रहे हैं। इससे आप नहाइए तो आपको अवश्य फल मिलेगा। नहीं साहब! कलश का पानी बहुत कीमती है। नहीं बेटे! कोई कीमती नहीं है। जैसे और पानी है, वैसे ही कलश का पानी है। यह सब भावनाओं का खेल है। आप समझते क्यों नहीं हैं ! नहीं साहब! कर्मकांडों का खेल है। नहीं बेटे! कर्मकांडों का खेल नहीं है, यह भावनाओं का खेल है। भावनाओं के साथ-साथ में अगर आपने पवित्रीकरण किया है कि इससे हमारा व्यक्तित्व और हमारी आस्थाएँ शुद्ध और पवित्र बनती चली जा रही हैं, तो मैं आपसे कह सकता हूँ कि आपने गायत्री उपासना का पहला वाला कृत्य, आत्मशोधन का पहला वाला चरण समाप्त कर लिया है और आप उसका उद्देश्य जान गए।
अंतर्जगत का स्नान है आचमन
दूसरा वाला उद्देश्य क्या है? आचमन है। कितने आचमन करने पड़ते हैं। तीन आचमन करने पड़ते हैं—'ॐ अमृतोपस्तरणमसिस्वाहा।' 'ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।' ''ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा।' तीन बार आचमन से तीनों शरीरों को स्नान कराना पड़ता है। एक को स्नान कराने से काम नहीं चलता। गायत्री का जप करने से पहले हमें स्नान करना चाहिए। आप बीमार हैं और स्नान नहीं किया है तो आप ऐसा कर लीजिए कि भीगा हुआ तौलिया लेकर उससे आप अपना शरीर पोंछ सकते हैं। धर्म के प्रत्येक कर्मकाण्ड में स्नान आवश्यक है; खासतौर से गायत्री अनुष्ठान में स्नान करके बैठा कीजिए। बिना स्नान के गलती मानी जाएगी। हम किसका स्नान कराते हैं? तीन का स्नान कराते हैं, जो हमारे भीतर निवास करते हैं। कौन-कौन निवास करता है? शरीर नहीं, चमड़ी नहीं। चमड़ी को ही तो आप स्नान करा देते हैं। इससे कोई काम नहीं बनने वाला है। चमड़ी को स्नान करा लिया, नहा लिए। नहीं बेटे! यह नहाना काफी नहीं है। इससे आध्यात्मिकता की आवश्यकता पूरी नहीं हुई। बेटे! तूने पेट में स्नान करा लिया? नहीं महाराज जी! पेट में तो मल भरा हुआ है, पेशाब भरा हुआ है। अच्छा, तो तू उसको नहीं निकाल सकता है, पर यह बता दे कि जो रामनाम के गान करेगा, गायत्री मंत्र बोलेगा, वह किससे बोलेगा। साहब! जीभ से बोलूँगा। जीभ किसकी है? चमड़े की है। अच्छा, इसमें माँस तो नहीं है? हाँ पंडित जी! माँस तो है ही। थूक तो नहीं है? हाँ है। तो इस जीभ को काट दे और फिर प्लास्टिक की जीभ लगा ले। अच्छा महाराज जी! प्लास्टिक की? हाँ बेटे! भजन तो तभी हो सकता है। गंदी जीभ से क्या भजन हो सकता है! इसको स्नान करा। कुल्ला कर ले। हाँ बेटे! कुल्ला कर ले। इससे इसमें जितना भी माँस है, चमड़ा है, सब निकल कर अलग हो जाएगा और खालिश जीभ रह जाएगी। महाराज जी! ऐसे कैसे हो सकता है? यह जीभ तो चमड़े की ही रहेगी।
किनका स्नान कराएँ?
बेटे! फिर एक काम कर, तेरे मुँह में यह जो सफेद-सफेद भाग दिखाई दे रहा है, यह क्या है? ये हड्डियाँ हैं। अरे राम-राम! हड्डी से गायत्री मंत्र? अरे बेटे! यह तो रुद्राक्ष से जपा जाता है, हड्डी से नहीं। इन्हें उखाड़ दे। डॉक्टर के पास जाना और यह कहना कि साहब हमारे दाँत उखाड़ दीजिए। फिर क्या कहूँ? फिर कहना कि साहब! इसकी जगह प्लास्टिक के दाँत लगा दीजिए। नीचे से ऊपर तक प्लास्टिक के दाँत लगवा ले। और जीभ को? जीभ के लिए कोई ऐसा उपाय कर कि यह जीभ तो खराब है। इससे तो जप नहीं हो सकता, गायत्री माता अशुद्ध हो जाएँगी। महाराज जी! फिर किसकी जीभ लाऊँ? प्लास्टिक की। अच्छा गुरुजी! प्लास्टिक की जीभ और दाँत लगा लूँगा, तो फिर मैं मंत्र कैसे बोलूँगा। देख ले बेटे! यह तेरी मरजी की बात है। स्नान करना चाहता हो तो इससे कम में नहीं हो सकता। चमड़ी के स्नान से कुछ काम बन सकता है? नहीं। वास्तव में स्नान उनको कराना चाहिए, जो गंदे हैं। शरीर तो गंदा है ही, यह शुरू से आखीर तक गंदा है। यह तो बाहर-बाहर ही अच्छा दीखता है। बगल को सूँघिए। अरे महाराज! इससे बड़ी बदबू आती है। बेटे! यह बदबू का घर तो है ही। इसको स्नान कराने से कुछ काम बन सकता है? हाँ बेटे! इसको स्नान तो कराना चाहिए, इसका खंडन मैं नहीं करता, पर मैं यह कहता हूँ कि जिनका स्नान कराना आवश्यक है, वे धाराएँ तीन हैं।
बाहर की चमड़ी को न देखें
महाराज जी! वे कौन-कौन सी तीन धाराएँ हैं? बेटे! ये तीनों धाराएँ वो हैं, जो हमारी चेतना से ताल्लुक रखती हैं। इनमें से एक हमारे कर्म से संबंध रखती है, एक हमारे विचार से और एक हमारे भाव से संबंध रखती है। हमारे तीन शरीर हैं—एक स्थूलशरीर, एक सूक्ष्मशरीर और एक कारणशरीर। स्थूलशरीर का जो आध्यात्मिक स्वरूप है, वे हैं हमारे कर्म। इसकी शक्ल या बनावट पर मत जाइए। एक बार अष्टावक्र राजा जनक की सभा में गए। उनके हाथ-पाँव टूटे हुए थे। वे झुक कर चल रहे थे। कूबड़ निकला हुआ था। उन्हें देखकर राजा के सभी सभासद हँसने लगे। उन्होंने राजा के सभासदों से और राजा से कहा क्यों रे राजा! तैने अपनी सभा में सारे के सारे चमार भरती करके रखे हैं? ये चमार थोड़े ही हैं। ये तो ब्राह्मण हैं, ठाकुर हैं, बनिये हैं। नहीं, सबके सब चमार हैं? क्यों, चमार कैसे हुए? चमार ऐसे हुए कि ये सिर्फ चमड़े को देख पाते हैं। चमड़े को जो देख पाता है, चमड़े का जो व्यापार करता है, चमड़े का जो धंधा करता है, उसका नाम चमार होना चाहिए। तूने हमारे ज्ञान को क्यों नहीं देखा, जो देखने लायक है। चमड़े को क्यों देखता है?
शरीर का मूल्यांकन आध्यात्मिक आधार पर
मित्रो! यह जो हमारा शरीर है, इसका बाहरी चमड़ा अष्टावक्र के तरीके से है। अष्टावक्र का चमड़ा टूटा हुआ था। हमारा माँस से भरा हुआ है, गंदगी से भरा हुआ है, चमड़ी से भरा हुआ है और मल से भरा हुआ है। इस चमड़ी में है क्या? असल में इस चमड़े का जो अध्यात्म है, स्थूलशरीर का जो अध्यात्म है, उसका नाम है—कर्म। आप कुरूप हैं या खूबसूरत हैं, इसका निर्णय हम नहीं कर सकते। आपकी चमड़ी गोरी होने से या काली होने से कुछ नहीं होता। हमें निर्णय करने दीजिए कि आपके कर्म क्या हैं? कर्म की वजह से हम आपके स्थूलशरीर के बारे में यह फैसला करेंगे कि आपका स्तर क्या है? और आपकी वकत क्या है? आपकी औकात क्या है? स्थूलशरीर का वजन और वकत जो ली जाती है, वह उसके कर्मों के आधार पर ली जा सकती है। उसकी वकत को शक्ल के आधार पर नहीं, सूरत के आधार पर नहीं, जवानी के आधार पर नहीं और रंग-रूप के आधार पर नहीं, बालों के आधार पर नहीं, किसी आधार पर नहीं आंका जा सकता। असल में अगर शरीर का मूल्यांकन करना है तो अध्यात्म के आधार पर करना है। स्थूलशरीर का मूल्यांकन कर्म के आधार पर किया जा सकता है। इसलिए कर्म की सफाई कीजिए।
विचार हमारे सही हों
मित्रो! कर्म की सफाई के लिए आचमन नंबर एक और विचारों की सफाई के लिए आचमन नंबर दो। कौन आदमी बी०ए० पढ़ा है, कौन एम०ए० पढ़ा है, बेटे! इससे हमारा कोई रिश्ता नहीं है। आध्यात्मिकता के हिसाब से हम किसी आदमी को यह महत्त्व देने को तैयार नहीं हैं कि आपने बी०ए० पास किया है, एम०ए० पास किया है। बेटे! इससे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। आपका एम०ए० पास करना और बिना पढ़ा होना हमारे आध्यात्मिकता के इम्तिहान में एकसमान है। "ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" और "पंडित मूरख एकसमान।" आध्यात्मिकता की दृष्टि से पंडित और मूरख तब तक एकसमान हैं, जब तक कि आदमी के विचार करने का तरीका, सोचने का तरीका उत्कृष्ट व आदर्शवादी नहीं हो जाता।
भावनाओं का स्नान
मित्रो! हमको अपनी विचारणाओं का अर्थात सूक्ष्म शरीर का परिशोधन करना चाहिए। हमारे तीन शरीर हैं, परंतु तीनों शरीर ऐसे नहीं हैं कि एक घोड़े का शरीर, एक कुत्ते का शरीर और एक बंदर का शरीर है। ऐसा नहीं है। तीन शरीर हमारे भीतर हैं। एक सूक्ष्मशरीर हमारे भीतर है। यह दूसरे नंबर का है, जिसका स्वरूप है—विचार और चिंतन। विचारों की सफाई, विचारों का स्नान, कर्म का स्नान और भावों का स्नान। भावनाएँ, श्रद्धा, निष्ठाएँ, आस्थाएँ, विश्वास, रुचियाँ—ये सारी की सारी चीजें भावनाओं से जुड़ी हुई हैं। संवेदनाओं से जुड़ी हुई हैं। भावनाओं और संवेदनाओं का स्नान—एक, विचारणाओं का स्नान—दो, क्रियाओं का स्नान—तीन। इन तीनों की सफाई करने के लिए हम ध्यान देते हैं और यह विश्वास करते हैं कि हमको इन तीनों को साफ करना पड़ेगा। हम इन तीनों को स्वच्छ बनाकर चलेंगे। ये दो बातें हमने आपको बता दी, एक पवित्रीकरण की बात और दूसरी आचमन की बात।
[क्रमशः] (समापन किस्त) इस प्रवचन-श्रृंखला में पूज्य गुरुदेव आत्मशोधन को हर आध्यात्मिक पुरुषार्थ की धुरी बताते हैं। वे कहते हैं कि हम सबके भीतर कषाय-कल्मषों के रूप में जहर भरा पड़ा है। उसकी सफाई की जरूरत है। यदि यह हट जाए तो अध्यात्म के लाभ अवश्य मिलेंगे। लोग उपकरणों को—माला, पूजा के सामान आदि को ही सब कुछ मान बैठते हैं। दोष-दुर्गुण हटाए बिना भगवान के वरदान कैसे मिलेंगे! वे अपने बारे में बताते हैं कि उन्होंने स्वयं को गुरु के आदेश से धुनिए की तरह धुना है। पवित्रता का जब हम आह्वान करते हैं तो हम पर देवत्व की वर्षा होती है। आचमन जब हम करते हैं तो तीनों शरीरों को स्नान कराते हैं। हमारे तीन शरीर हैं—स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण। आचमन द्वारा हम भाव-संवेदना का स्नान सभी को कराते हैं। अब पढ़ें यह समापन किस्त—
अंकुश की तरह है शिखा
मित्रो! अभी आपको पंचकोश की बात बता रहे थे। उसके प्रारंभिक चरण षट्कर्मों के अंतर्गत पवित्रीकरण और आचमन की बात हो गई। अगर आप इन्हें भावनात्मक दृष्टि से करेंगे तो आपको लाभ मिलेगा, अन्यथा नहीं। आचमन के बाद आता है—शिखावंदन। शिखा क्या है? शिखा के पीछे तीन चीजें छिपी पड़ी हैं। हिंदू समाज में शिखा की शिक्षाएँ तीन बताई जाती हैं। इसके पीछे तीन कारण हैं, तीन उद्देश्य हैं। शिखा का एक उद्देश्य है—जिस तरह हाथी के कंधे के ऊपर कान के पास अंकुश लगा दिया जाता है। अगर यह अंकुश न हो तो वह कितना खूँखार हो सकता है और कितना भयंकर काम कर सकता है। वह पेड़ों को उखाड़ सकता है, बच्चों को कुचल सकता है। वह कहीं भी जा सकता है और किसी की भी फसल उजाड़ सकता है। बिना अंकुश का हाथी पेड़ को भी तोड़ सकता है और किसी भी दिशा में जा सकता है। हाथी के सिर पर अंकुश होता है तो उसे सही राह पर चलना पड़ता है। हम अपने सिर पर भगवान का, आदर्शवादिता का, आध्यात्मिकता का अंकुश स्थापित कर दें, जो कि हमारे सिर का सबसे ऊँचा वाला भाग है तो वह हमको हमेशा याद दिलाता रहेगा कि हमको बिना अंकुश के—निरंकुश नहीं होना है। हमको उच्छृंखल नहीं होना है; मर्यादारहित नहीं होना है; अनुशासनरहित नहीं होना है। इसलिए हमारे सिर पर अंकुश लगा हुआ है। यह हुआ शिखा का उद्देश्य नंबर एक।
एक झंडे के समान
मित्रो! शिखा का उद्देश्य नंबर दो यह है कि यह हमारा किला है। यह हमारा दिल्ली का लाल किला है। दिल्ली के लाल किले के ऊपर हमने झंडा फहरा दिया है। जिस दिन हिंदुस्तान को स्वराज मिला था, उस दिन लाल किले के ऊपर, पार्लियामेंट भवन के ऊपर, राष्ट्रपति भवन के ऊपर और दूसरी महत्त्वपूर्ण जगहों पर तिरंगा फहरा दिया गया था और यूनियन जैक उतार लिया गया था। उसी दिन अँगरेजी सरकार की हुकूमत चली गई थी और कांग्रेस सरकार की हुकूमत कायम हो गई थी। तिरंगा झंडा—राष्ट्रीय ध्वज सब जगह फहरा दिया गया। बेटे! हमने सबसे ऊँचे स्थान पर राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया है। विवेकशीलता का झंडा, आदर्शवादिता का झंडा, सिद्धांतवादिता का झंडा, राष्ट्रीयता का झंडा हम अपने सिर के सर्वोच्च शिखर पर फहराते हैं। निरंकुशता का नहीं, पशुता का नहीं, यूनियन जैक का नहीं, वरन आदर्शवादिता का झंडा हमारे किले के ऊपर फहरा रहा है। अब हमारे दिमाग के ऊपर किसकी हुकूमत है? अब हमारे जीवन के ऊपर किसकी हुकूमत है? अब हमारे ऊपर गायत्री माता की हुकूमत है; विवेकशीलता की हुकूमत है; आदर्शवादिता की हुकूमत है। विवेकशीलता की देवी गायत्री माता—धियो यो नः प्रचोदयात् की देवी, सहकारिता की देवी—'न:' माने हम सब, 'धियो' माने बुद्धि, प्रज्ञा की देवी गायत्री माता का झंडा अब हमारे ऊपर फहराता है। अब हमारे शरीर के ऊपर, दिमाग के ऊपर उसी की हुकूमत है। उसी की हुकूमत के मुताबिक हमारी अक्ल काम करती है। अब उसी की हुकूमत के मुताबिक हमारी इच्छाएँ काम करेंगी, हमारी क्रियाएँ काम करेंगी। सारी मिनिस्ट्री उसी की हुकूमत मानेगी। हमारे शरीर की जितनी भी मिनिस्ट्रियाँ हैं, उन सबको उसी का हुक्म मानना पड़ेगा। इस झंडे के लिए वफादार होना पड़ेगा। यह विवेकशीलता का झंडा है, गायत्री माता का झंडा है, जो हमारे मस्तिष्क पर फहरा दिया गया है।
गायत्री की मूर्ति, उनका स्थान
मित्रो! शिखावंदन क्या है? इसके पीछे एक और बात छिपी हुई है। क्या छिपी हुई है? इसके पीछे भगवान की मूर्ति छिपी हुई है। शंकर जी की जब मूर्ति स्थापित की जाती है तो उसमें यह विशेषता है कि आपको मंदिर बनाने की आवश्यकता नहीं है। आप एक चबूतरा बनाइए और चबूतरे के ऊपर एक गोल-मटोल पिंड स्थापित कर दीजिए और खुले में पड़े रहने दीजिए। वर्षा होगी? हाँ साहब! शंकर भगवान जी को कोई एतराज नहीं। धूप पड़ेगी? तो भी भगवान जी को कोई एतराज नहीं है। वे धूप में पड़े रह सकते हैं; छाया में पड़े रह सकते हैं; वर्षा में पड़े रह सकते हैं; ठंढक में पड़े रह सकते हैं। आप चबूतरे पर शंकर भगवान को स्थापित कर दें। बस, शंकर भगवान जी की पूजा हो गई और शंकर भगवान जी का मंदिर बन गया। हर जगह ऐसे मंदिर बनाए जा सकते हैं और उसे बनाने में कोई एतराज नहीं। बेटे! यह क्या है? साहब! यह चबूतरा है। किसका चबूतरा है? पिताजी का बना रखा है। कहाँ बना रखा है? खुले में बना रखा है। छाया में क्यों नहीं बनाया? अरे साहब! एक बार हमारे पिताजी सपने में दिखाई पड़े थे और उन्होंने कहा था कि हमारा स्थान बना दे। बस, हम गए थे और एक छोटी सी चबूतरी बनाकर उस पर उनके चरणों के निशान बनाकर आ गए थे। अब हर साल हम वहीं पर जाते हैं और पूजा कर देते हैं और इसी से वो, जो उनका भूत था, चला गया। बेटा! अब हमको शांति मिल गई है। अब हम ठीक हैं।
मंदिर जैसा पवित्र हो अंतस्
साथियो! किसका स्थान बना दिया गया है? गायत्री माता का। यह गायत्री माता का चबूतरा है। अच्छा साहब! इस चबूतरे पर किसकी मूर्ति रख लूँ? बेटे! तुझे क्या बताऊँ, किसी की रख ले; भले से लोहे की रख ले। महाराज जी! मैं तो रात को सोऊँगा, तो यह मेरे ऊपर गिर पड़ेगी। हाँ बेटे! लोहे की होगी तो गिर पड़ेगी। किसकी रखेगा इस पर? महाराज जी! पत्थर की रख लूँ? नहीं बेटे! अगर टोपी पहनेगा, तो दिक्कत आएगी। तो किसकी रखू? चल मैं तुझे ऐसी चीज बता देता हूँ, जो कि मूर्ति भी बने रहे, गिरे भी नहीं और तुझे रखवाली भी नहीं करनी पड़े और बनी बनाई रखी भी रहे। तो गुरुजी! किसकी मूर्ति बना दूँ? बेटे! तू बालों की गायत्री की मूर्ति बना दे। बस, यह बालों की शिखा रूप में जो गायत्री माता की मूर्ति है, उस स्थान पर स्थापित हो गई। अब यह भगवान का स्थान हो गया और यह सारा का सारा शरीर मंदिर हो गया और इसमें गायत्री माता की मूर्ति स्थापित हो गई। इसको मंदिर के तरीके से पवित्र और दिव्य रहना चाहिए। इसके अंदर जो वातावरण बनना चाहिए, मंदिर जैसा बनना चाहिए। मंदिर में अनाचार नहीं किए जाते।
सतत यही भाव
मंदिर में कोई शेर-चीता आता है? मंदिर में कोई सिगरेट पीता है? मंदिर में कोई सिगरेट मत पीना। साहब! हमको सिगरेट पीने की आदत है। आदत है, तो बेटे! मंदिर के बाहर पीना। ऐसा भी क्या गंदा लड़का है, जो मंदिर में भगवान जी के ऊपर धुआँ फेंक देता है। वहाँ मत पीना ठाकुर जी के सामने, नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे। अच्छा गुरुजी! वहाँ नहीं पीऊँगा। यह क्या है? यह बेटे! मंदिर है। मंदिर में धुआँ मत फूँकना, गंदे काम मत करना, बुराई मत पैदा करना। हर समय यह मानकर चलना कि यह मंदिर है। मंदिर की भावना लेकर के चलेगा तो यह भावना तेरे मन में चौबीसों घंटे छाई हुई रह सकती है और जब भी तू बुरे काम करने के लिए चलेगा, तभी यह मंदिर तुझे याद दिलाता रह सकता है कि अरे अभागे! यह मंदिर है। इसे क्यों खराब करता है!
शिखा पूजन इसीलिए
मित्रो! यह अंकुश आपको याद दिला सकता है कि अच्छा, तू गलत रास्ते पर जाएगा, तो पिटेगा। हाथी ने गलत काम किया तो महावत ने उसे एक अंकुश चुभो दिया और हाथी सही रास्ते पर चलने लगा। आपके सिर पर यह गायत्री माता का अंकुश लगा हुआ है और यह झंडा फहरा रहा है। झंडे की लाज, झंडे की शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए। इसलिए मित्रो! इसकी शान मत जाने देना। इस किले पर झंडा फहरा रहा है। यह शान और यह आदर्शवादिता आपके भीतर बनी रहे और आप इसका ध्यान बनाए रखें। इसको आप बार-बार भूल जाते हैं। इसलिए आपको शिखावंदन, शिखा पूजन हम पहले कराते हैं। इन भावनाओं की कीमत समझिए, इन भावनाओं की वकत को समझिए, इन भावनाओं की इज्जत को समझिए। अगर आप इन भावनाओं की इज्जत को नहीं समझेंगे तो मैं कहूँगा कि आप अध्यात्म को ही नहीं समझते।
कर्मकाण्ड मात्र सिंबल
अगर आप कर्मकांडों को ही अध्यात्म मानते हैं तो गलती करते हैं। कर्मकाण्ड अध्यात्म नहीं हो सकते। कर्मकाण्ड आध्यात्मिकता की राह पर चलने के लिए हमारे लिए सिंबल हो सकते हैं। हमारे सहायक हो सकते हैं, मददगार हो सकते हैं। हमारे आधार हो सकते हैं। ये कर्मकाण्ड हमारे लिए मीडियम हो सकते हैं। लेकिन ये लक्ष्य नहीं हैं, साधन हैं। कर्मकाण्ड साध्य नहीं हैं, साधन हैं। साध्य है हमारी जीवात्मा का दिव्यत्व और देवत्व। जीवात्मा को दिव्यत्व और देवत्व प्राप्त करने के लिए हमारे कर्मकाण्ड मददगार हों तो अच्छा है, उन्हें होना चाहिए। इन सारी की सारी चीजों को हमने इसीलिए बनाकर रखा है।
अच्छाई को खींचिए प्राणायाम द्वारा
मित्रो! इसके बाद चौथे नंबर की क्रिया, जो आपको हम बताते और सिखाते रहते हैं षट्कर्म के अंतर्गत, वह है प्राणायाम। प्राणायाम में क्या बात होती है? प्राणायाम में दो प्रक्रियाएँ होती हैं—एक हम साँस को अंदर खींचते हैं और दूसरी बाहर फेंकते रहते हैं। एक ओर साँस निकालते रहते हैं। यह क्या कर रहे हैं साहब? बेटे! हम रेचक प्राणायाम कर रहे हैं और यह दूसरा? पूरक प्राणायाम कर रहे हैं। यह क्या है? साँस खींचने की प्रक्रिया और बाहर निकालने की प्रक्रिया है। साँस खींचने की प्रक्रिया और फेंकने की प्रक्रिया का हमको बराबर ध्यान रखना चाहिए। कल मैं आपको वृक्षों का हवाला दे रहा था, आप लोग भूले नहीं होंगे। वृक्ष अपने मैग्नेट के द्वारा पानी को खींचते रहते हैं, बादलों को खींचते रहते हैं। कल मैं आपको खदानों का भी उदाहरण दे रहा था। खदानें भी अपनी बिरादरी के छोटे-छोटे कणों को अपनी ओर चारों ओर से खींचती रहती हैं और वे खदानें बड़ी होती रहती हैं। आपको भी चारों ओर से खींचना चाहिए। चारों ओर से संकलन करना चाहिए। इस दुनिया में भलाई भी है कि नहीं? हाँ साहब! है। अच्छे विचार भी हैं? हाँ साहब! हैं। अच्छे लोग भी हैं? हाँ साहब! हैं। दुनिया अच्छे विचारों से, अच्छे लोगों से और अच्छी क्रियाओं से खाली नहीं है। प्राणायाम का अर्थ यह है कि आप खींचिए। जो भी श्रेष्ठता है, उसको समझिए, देखिए, ग्रहण कीजिए, अंगीकार कीजिए और अपने भीतर भरने की कोशिश कीजिए।
क्षुद्रताएँ छोड़िए
मित्रो! यह प्राणायाम का वह पहलू है, जिसको हम पूरक कहते हैं, रेचक कहते हैं। रेचक का अर्थ है कि जो चीजें हमको हैरान करती हैं, जो चीजें हमको आंतरिक कमजोरियों के रूप में परेशान करती हैं, उनको आप हटाइए और उनको आप फेंकिए। भगवान के प्रशिक्षण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था—क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ अर्थात हे अर्जुन! अपने हृदय की दुर्बलताओं को, चारित्रिक कमजोरियों को, भावनात्मक निकृष्टताओं को छोड़ और ऊपर उठ। इससे पहले नहीं उठ सकता।
भगवान के दर्शन की आस
मित्रो! मुझे प्राणायाम के सिलसिले में एक कहानी याद आ गई। एक था चोर। वह एक बाबाजी के पास जाया करता था और बाबाजी से यह पूछा करता था कि स्वामी जी! आपने भगवान को देखा है? हाँ साहब! हमने देखा है। अच्छा तो आप फिर हमको दिखाइए। बस, पहले तो बाबाजी शेखी मारते रहे, लेकिन जब उसने कहा कि हमको दिखाइए, तो फिर बाबाजी की हवा बिगड़ी। उन्होंने कहा कि हम नहीं दिखा सकते। तो फिर समझ लीजिए कि आपके कमंडलु की खैर नहीं है; आपकी कुटिया की खैर नहीं है; आपके कंबल की खैर नहीं है; आपकी चप्पलों की खैर नहीं है। आपकी खड़ाऊँ की खैर नहीं है। मैं आपकी सब चीजें गायब कर दूँगा और आपको तंग करूँगा और जब भी मौका मिल जाएगा, आपकी पिटाई करूँगा। आप समझ लीजिए। या तो भगवान का हमें दर्शन करा दीजिए, नहीं तो फिर आपका ठिकाना नहीं है।
यों कराए दर्शन
महाराज जी ने सोचा कि क्या करना चाहिए—यह तो बहुत बड़ी आफत आ गई! बाबाजी समझदार थे। उन्होंने कहा कि बेटे! यह जो दूर पर पहाड़ दिखाई देता है न? हाँ महाराज जी! बेटे! उस पहाड़ की चोटी पर भगवान दिखाई पड़ेगा। चलिए, मैं तो तैयार हूँ। चोर तैयार हो गया। क्या करना चाहिए? बाबाजी ने कहा कि अच्छा तो बेटा! तू ऐसा कर कि चार भारी-भारी पत्थर ले और उन्हें सिर पर रखकर चल। कहाँ चलूँ महाराज जी? उस पहाड़ की चोटी पर चल, वहाँ से मैं तुझे भगवान जी को दिखा दूँगा। ये जो चार पत्थर हैं, तुझे उनकी सेवा-पूजा करनी पड़ेगी और वहाँ भजन-पूजन करना पड़ेगा। तब ये जो चार पत्थर हैं, वे तुझे भगवान दिखा देंगे। अच्छा महाराज जी! चलिए। चार पत्थर सिर पर रखकर के चोर थोड़ी दूर गया फिर उसने कहा कि महाराज जी! ये तो बड़ा कष्ट देते हैं। इनसे तो हमारी गरदन टूट गई। तब महाराज जी ने कहा कि बेटे! इनमें से एक पत्थर फेंक दे। उसने एक पत्थर फेंक दिया।
तरीका भगवान को पाने का
फिर और आगे चला चोर। उसने कहा कि महाराज जी! एक पत्थर फेंक दिया, फिर भी देखिए हमारी गरदन में दरद होने लगा। ये तीनों पत्थर भी कितने भारी हैं। आपको दिखाई नहीं पड़ते? ठीक है बेटे! एक पत्थर और फेंक दे। उसने एक और फेंक दिया। दो और रह गए। उसने कहा कि महाराज जी! एक को और फिंकवा दें, अच्छा तो एक और फेंक दे। एक और फिंकवा दिया। महाराज जी! अब तो थक गया। अब और नहीं चला जाता और हम तो वहाँ तक नहीं पहुँच सकते, चोटी तक नहीं पहुँच सकते। बेटे! तूने अभी भी सिर पर पत्थर रख रखा है। हाँ महाराज जी! आपने यह जाल-जंजाल काहे को लदवा दिए हैं? ये हमको चलने नहीं देते। बेटे! इसको भी गिरा दे। चौथा पत्थर भी गिरा दिया। चारों पत्थर गिराने के बाद में बाबाजी और वह चोर खटखट वहाँ पहुँच गए। चोर ने कहा कि साहब! अब दिखाइए भगवान? बेटे! तेरे लिए भगवान तक पहुँचने का तरीका बता तो दिया। तेरे लिए शिक्षा दे तो दी। तेरे सिर पर जब तक पत्थर रखे हुए थे, तब तक तू चोटी तक नहीं पहुँच सका और थक गया, गिर गया और बैठ गया। आपने अपने आध्यात्मिक जीवन पर जो पत्थर रखे हुए हैं, उनको गिरा दीजिए। उनको गिरा देंगे, तो ही भगवान तक पहुँच सकते हैं। भगवान को पा सकते हैं।
चार पत्थर हमारे सिर पर
मित्रो! कौन-कौन से ये चार पत्थर हैं, जो आपके सिर पर सवार हैं? ये चारों हैं—काम, क्रोध, लोभ और मोह। इन्हें गिरा दें, फिर भगवान को देखें। बेटे! प्राणायाम के द्वारा हम अपनी मलिनताएँ, अपने कषाय और कल्मष, अपने पाप और ताप को फेंकने के लिए कोशिश करते हैं और जो श्रेष्ठताएँ हैं, उनको अपने भीतर धारण करने की कोशिश करते हैं। प्राणायाम का यही उद्देश्य है। यह आध्यात्मिक उद्देश्य है। क्रिया तो आपको मालूम है। भीतर साँस खींचिए, दूसरी ओर से साँस बाहर निकालिए, फिर बाहर रोकिए। यही बताते हैं न? हाँ महाराज जी! यह तो बड़ी सरल विधि है। हमको एक सेकंड में आ गई थी। बेटे! यह एक सेकंड में सरल तो है, लेकिन सहज राम को नाम है, कठिन राम को काम। करत राम को काम जब, परत राम से काम।। राम का काम तो नहीं महाराज जी! पर राम का नाम लूँगा। राम का नाम लेने से कोई फायदा नहीं, फरक नहीं, राम का काम करने में फरक है। बेटे ! राम का काम करने में बड़ा फायदा है। प्राणायाम करने के पीछे जो निष्ठाएँ दबी पड़ी हैं, छिपी पड़ी हैं, उनको आपको जानना चाहिए और समझने की कोशिश करनी चाहिए।
न्यास किसलिए?
मित्रो ! प्राणायाम के पश्चात फिर आप 'न्यास' पर आते हैं। 'न्यास' किसे कहते हैं? बेटे! न्यास को यह समझ ले कि जैसे छुरे पर धार रखी जाती है और उसे तेज किया जाता है, उसी तरह यह धार रखी जाती है। इसे न्यास कहते हैं। न्यास में पानी हथेली पर रखा और उसमें पाँचों उँगलियाँ डुबोईं और मुँह पर लगा दिया, नाक पर लगा दिया और कान पर लगा दिया। ये जो हमारी इंद्रियाँ हैं, इनको वास्तव में हम शिक्षण देते हैं। इनको सिखाते हैं, इनको परिष्कृत करते हैं, इनको डुबकी लगवाते हैं कि आपको क्या करना है। वाङ्मे आस्येऽस्तु—मुँह को लगाइए। अच्छा साहब! मुँह को लगा लिया। जल को मुँह से लगाने का क्या मतलब है? सीधे जाकर कुल्ला कीजिए न! ऐसा कर कि बालटी भरकर पानी ला और सारे शरीर को धो डाल। नहीं साहब! मुँह धोना है। तो कुल्ला कर, यह क्या करता है? हथेली पर जरा सा पानी और उसमें पाँचों उँगलियाँ? इससे क्या हो जाएगा? इससे तो ओष्ठ भी नहीं साफ होंगे। इससे तो अच्छा है कि ओष्ठ पर क्रीम लगा ले, वेसलीन लगा ले। नहीं महाराज जी! यह तो पानी है। इससे क्या हो जाएगा। बेटे! इसके भीतर गुप्त चीजें हैं। मुँह से हम दो बार पानी लगवाते हैं। मुँह के भीतर शक्तियों के स्रोत भरे पड़े हैं। जीभ तो एक है; लेकिन यह साँपिन है। साँप के तरीके से इस जिह्वा को दो इंद्रिय माना गया है। जिह्वा एक कर्मेंद्रिय है और एक ज्ञानेंद्रिय है। इसे हम दो इंद्रियों में गिनते हैं।
रसना और वाणी पर नियंत्रण
हमारी जिह्वा एक रसना है और एक वाणी है। रसना को नियंत्रित कीजिए और अस्वाद व्रत रखिए। वे चीजें जो जायके के लिए खाई जाती हैं और पेट खराब करती हैं, उनको रोकिए। जीभ पर काबू रखिए। जो व्यक्ति अस्वाद व्रत का पालन कर सकता है और जीभ पर संयम रख सकता है, वही कामेंद्रिय पर संयम रख सकता है और उसके लिए ब्रह्मचर्य रखना संभव हो सकता है। जिसका जीभ पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी कभी ब्रह्मचारी नहीं हो सकता और उसका विचारों पर नियंत्रण भी नहीं हो सकता। गाँधी जी ने अस्वाद व्रत को प्रमुख माना है। सबसे पहले जीभ को रोकिए, जीभ पर कंट्रोल कीजिए। जीभ के द्वारा अपने मरने के लिए कब्र मत खोदिए। हकीम लुकमान कहते थे कि आदमी दफन होने के लिए अपनी जीभ से अपनी कब्र खोदता है। बेटे! हमने जायके की वजह से और अनावश्यक चीजों की वजह से और न खाने वाली चीजों को खाने की वजह से अपने पेट का सत्यानाश कर लिया। अपनी सेहत को खराब कर लिया। अगर आपको सेहत ठीक रखनी है, मानसिक स्तर ठीक रखना है, तो आप संयम कीजिए। वाङ्मे आस्येऽस्तु—मुख के ऊपर काबू पाइए।
अहं पर नियंत्रण करें, कडुए वचन न बोलें
मित्रो! मुख के अंदर एक और चीज रहती है, जिसका नाम है—वाणी। जिसको वाक् कहते हैं, सरस्वती कहते हैं। सरस्वती इसके भीतर रहती हैं। "कौआ काको धन हरे, कोयल काको देत, मीठे वचन सुनायके जग अपनो कर लेत।" "वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।" आपकी वाणी हर वक्त बिच्छू के डंक के तरीके से अपने अहंकार का विज्ञापन करती रहती है और दूसरों का असम्मान करती रहती है। साहब! आप कड़ुए वचन बोलते हैं तो हमको बड़ा गुस्सा आता है। हाँ, बड़ा गुस्सा आता है, घमंडी कहीं का! जो आदमी दूसरों को छोटा समझता है, वही कड़ुए वचन बोल सकता है। जो आदमी घमंड से भरा हुआ है, वही कड़ुए वचन बोल सकता है। मित्रो! हम तो सही बात कहते हैं, इसलिए गुस्सा आ जाता है और कड़ुए वचन कहते हैं। बेटे! सत्य का कड़ुएपन से कोई ताल्लुक नहीं। कड़ुएपन का जो ताल्लुक है, वह आदमी के अहंकार से है। आदमी घमंड से चूर होकर के रावण के तरीके से चाहे जो बोलने लगता है, चाहे जो करने लगता है और सामने वाले व्यक्ति का सम्मान जब गिरा देता है, पटक देता है, तब कड़ुए वचन बोलने लगता है। आप सामने वाले की इज्जत कीजिए। अगर सामने वाले से शिकायत है तो उसे प्यार से समझाइए। जिनकी शिकायत आप दूर करना चाहते हैं, उनको समझाने की कोशिश कीजिए। अपने दिमाग का संतुलन रखकर के मुहब्बत के साथ उन्हें बुरी से बुरी बात समझाई जा सकती है।
वाङ्मे आस्येऽस्तु इसीलिए
मित्रो! बारह घंटे का बुखार और आधे घंटे का क्रोध, दोनों से समान नुकसान होता है। आप सभी करके देख लेना। जलाने वाला वह वचन, जिसको हम क्रोध कहते हैं, जिसको हम मिथ्या भाषण कह सकते हैं, गलत सलाह कह सकते हैं। इस तरह गलत सलाह—एक; कड़ुए वचन—दो; असत्य भाषण—तीन; बुरी चीजें खाना-अभक्ष्य खाना—चार; ये वाणी के असंयम हैं। अगर आप जीभ पर संयम रख सकें तो मित्रो! आपको आध्यात्मिकता के वे लाभ मिल सकते हैं, जिनसे आपको शाप देने और वरदान देने की शक्ति मिल सकती है। अगर आप-वाङ्मे आस्येऽस्तु—मुख का संयम करना सीखें, मुख के ऊपर धार लगाना सीखें। अभी यह जीभ भोंथरी हो गई है। इस पर आप धार लगाइए, ताकि यह पैनी तलवार के तरीके से काम कर सके। नहीं साहब! हम तो मुख में पानी लगाएँगे। बेटे! पानी लगाने से कोई फायदा नहीं है। लगा ले तो तेरी मरजी, नहीं लगाए तो तेरी मरजी।
स्वाभिमानी बनें
मित्रो! वाङ्मे आस्येऽस्तु के बाद आता है—नसोर्मे प्राणोऽस्तु। नाक से क्या होता है? गंध लेना, सूँघना, पता लगाना। कुत्ते सूँघकर पता लगाते हैं—चोरी का माल कहाँ गया? सी०आई०डी० के कुत्ते आते हैं और सूँघकर पता लगा लेते हैं। कहाँ गया माल? उनकी नाक कुछ ऐसी तेज बनाई गई है, जैसे गणेश जी की थी। गणेश जी की नाक बड़ी लंबी थी, सब कुछ पता लगा लेती थी। क्या चक्कर है? वह सूँघकर सब पता लगा लेते थे। खोज करने के अर्थ में सूँघना आता है। यह गंध के अर्थ में नहीं आता। नसोर्मे प्राणोऽस्तु अर्थात नाक में पानी लगाते हैं। अरे ! तेरी नाक कट जाएगी। अरे साहब! हमारी नाक बहुत बड़ी है। नाक को प्रेस्टिज प्वाइंट, इज्जत, आबरू और स्वाभिमान से जोड़कर रखा गया है। नाक कटने से सब समझ में आता है। अपनी नाक को कटने मत देना, गिरने मत देना। नाक को ऊँचा रखना। बेटे! नसोर्मे प्राणोऽस्तु के अंतर्गत यह भी आता है।
दिव्यता का दर्शन करें
इसके बाद आता है—अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। हमारी आँखें दिव्य बनें। दिव्यं ददामि ते चक्षुः—अर्जुन को भगवान ने दिव्यचक्षु दिए थे। अर्जुन ने तब इसी संसार में घट-घटवासी भगवान को देखा था। दिव्यचक्षु भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता यशोदा को दिए थे। उससे उन्होंने घट-घट में समाए हुए भगवान को देखा। रामचंद्र जी ने अपनी माँ को दिए थे। कौशल्या माता ने भी भगवान के विराट रूप को देखा। भगवान राम ने काकभुशंडि जी को दिव्यचक्षु दिए थे, जिससे उन्होंने सारे के सारे विश्व में भगवान को देखा। हमारी वे आँखें जिंदा रहें और प्रत्येक चीज में सौंदर्य को देख सकें, श्रेष्ठ देख सकें, शालीनता को तलाश सकें और जो कुछ भी इस संसार में दिव्य है, उस दिव्यता को देख सकने में सक्षम हों। हम दिव्यता को तो देख नहीं पाते, केवल छिद्रान्वेषण कर पाते हैं। हमारी आँखें ऐसी गंदी हैं कि सिवाय बुराई के कुछ नहीं देख पाती। स्त्री के भीतर की देवी हमको दिखाई नहीं देती। स्त्री के भीतर का शैतान हमको दिखाई पड़ता है। पाप हमको दिखाई पड़ता है। स्त्री का अनाचार हमको दिखाई पड़ता है। स्त्री का देवत्व हमको दिखाई नहीं पड़ता। उसकी शालीनता हमको दिखाई नहीं पड़ती। उसका प्रेम हमको दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए बेटे! हमको चाहिए दिव्यं ददामि ते चक्षुः—जो दिव्यता को देख सके। जो दूरदर्शी हो। जो टेलिस्कोप के तरीके से हो। शंकर जी ने जिस दिव्य आँख को खोलकर कामदेव को जला दिया था, वह विचारशीलता की हमारी आँख, विवेकशीलता की हमारी आँख खुलनी चाहिए, जो अवांछनीयता को जला करके खाक कर सके और समाप्त कर सके।
कान व बाँहों को जल का स्पर्श क्यों?
अगली क्रिया है—कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। कान हमारे ऐसे होने चाहिए, जो रेडियोएक्टिविटी के तरीके से फिल्टर का काम कर सकें। आपका जो रेडियो या ट्रांजिस्टर होता है. उसमें एक फिल्टर लगा होता है। एक साथ उसमें बहुत सारी आवाजें आती हैं और एक साथ चलती हैं। सब हवा में पहुँचती हैं, लेकिन जिस फ्रीक्वेंसी की आवाज हमको पकड़नी है, उसे पकड़ लेता है। उनमें वे भी ध्वनियाँ होती हैं जो मित्र और दोस्त हो सकती हैं, जिनको फ्रेंड कहते हैं। इनमें से केवल आप वही आवाज सुनिए, जो आपको भगवान के और अपनी आत्मा के सम्मत सुनाई देती है। कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु के बाद बाह्वोर्मे बलमस्तु—बेटे! हम अपनी भुजाओं को किसलिए स्पर्श करते हैं? हम इसलिए स्पर्श करते हैं कि हमारी भुजाएँ हमेशा परिश्रमी बनी रहें। श्रमशील बनी रहें; कर्त्तव्यपरायण बनी रहें। हमारे हाथ पसारने के लिए नहीं हैं। किसी के भी आगे हाथ न पसारना, भगवान के सामने भी मत पसारना, देवताओं के आगे भी मत पसारना। देवी के सामने भी मत पसारना और गुरुजी के सामने भी मत पसारना। ये हाथ इसके लिए नहीं हैं। ये बड़े सौभाग्यशाली हाथ हैं। बेटे ! ये पसारने के लिए नहीं हैं, ये माँगने के लिए नहीं हैं, ये देने के लिए हैं, इसलिए देवत्व हमारे हाथ में भरा हुआ पड़ा है। हम लोगों की मदद करें, लोगों की सहायता करें, लोगों की सेवा करें और इन हाथों को धन्य बनाएँ। हम माँगें नहीं, कर्ज नहीं उठाएँ, लोगों का ऋण नहीं लें और अपने ऊपर वजन नहीं लादें। इसकी जरूरत नहीं है कि हम अपने आप को गँवाएँ। इसलिए बेटे! यह हाथ श्रम करने के लिए हैं, पुरुषार्थ करने के लिए हैं और देने के लिए हैं, इसलिए हम दोनों हाथों को बाह्वोर्मे बलमस्तु करते हैं।
चरैवेति से अनिष्ट-निवारण तक
अब आता है—ऊर्वोमें ओजोऽस्तु। मित्रो! हमारी ये जँघाएँ संयमशीलता की ओर, ब्रह्मचर्यपरायणता की ओर इशारा करती हैं। ऊरु माने जंघा। यह इशारा करती हैं कि हमारी टाँगों को चलने के लिए—'चरैवेति-चरैवेति' के लिए बनाया गया है। लोगो चलते चले जाओ, रुको मत। प्रगति की ओर, उत्थान की ओर, शांति की ओर, महानता की ओर, गरिमा की ओर, भगवान की ओर चलते चले जाओ। रुको मत। हम पैरों को ऐसा बना दें कि वे रुकें नहीं, उठे और चलते रहें। मित्रो! अंतिम है—अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु। हमारे भीतर जो अरिष्ट भरे हुए हैं। जो संसार में दुःख और कष्ट देने वाले अनिष्ट हैं, वे दूर हों। अनिष्ट का अर्थ है—मन:स्थिति और कष्ट का अर्थ है—परिस्थिति। ये अनिष्ट हमारे भौतिक जीवन में कष्ट बनकर के आते हैं—यह एक सत्य है कि जितनी भी मुसीबतें हैं, उनको न्योत बुलाने की जिम्मेदारी हमारी खुद की है। हमने अपनी मुसीबतों को जान-बूझकर मोल लिया हुआ है और हमने स्वयं विष के बीज बोए हैं, जब काँटे हमारे सामने आते हैं तो हम कहते हैं कि साहब काँटे हमें कष्ट देते हैं। बेटे! बोए किसने हैं? स्वयं खुद ने बोए हैं तो निराकरण भी स्वयं ही करना होगा। मनःस्थिति बदलने से परिस्थितियाँ बदल जाएँगी। इसलिए अपने आप को भीतर, बाहर से स्वच्छ, पवित्र और संयमी बनाते हुए हम देवपूजन के लिए, देवता बनने के लिए आगे बढ़ते हैं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥