गायत्री के पांच मुख - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। पंचमुख शंकर की भांति गायत्री भी पंच मुखी है। पुराणों में ऐसा वर्णन कई जगह आया है जिसमें वेदमाता गायत्री को पांच मुख वाली कहा गया है। अधिक मुख, अधिक हाथ पांव वाले देवताओं का होना कुछ अटपटा सा लगता है। इसलिए बहुधा इस सम्बन्ध में संदेह प्रकट किया जाता है। चार मुख वाले ब्रह्माजी, पांच मुख वाले शिवजी, छह मुख वाले कार्तिकेय जी बताए गये हैं। चतुर्भुज विष्णु, अष्टभुजी दुर्गा, दशभुजी गणेश प्रसिद्ध हैं। ऐसे उदाहरण कुछ और भी हैं। रावण के दस सिर और बीस भुजाएं भी प्रसिद्ध हैं। सहस्रबाहु की हजार भुजा और इन्द्र के हजार नेत्रों का वर्णन है।
यह प्रकट है कि अन्योक्तियां एवं पहेलियां बड़ी आकर्षक एवं मनोरंजक होती हैं, उनके पूछने और उत्तर देने में रहस्योद्घाटन की एक विशेष महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है। छोटे बच्चों से पहेलियां पूछते हैं, वे उस विलक्षण प्रश्न का उत्तर खोजने में अपने मस्तिष्क को दूर दूर तक दौड़ते हैं। और उत्तर खोजने में बुद्धि पर काफी जोर देते हैं, स्वयं नहीं सूझ पड़ता तो दूसरों से आग्रह पूर्वक पूछते हैं जब तक उस विलक्षण पहेली का उत्तर उन्हें नहीं मिल जाता तब तक उनके मन में बड़ी उत्सुकता एवं बेचैनी रहती है। इस प्रकार सीधे साधे नीरस प्रश्नों की अपेक्षा, टेड़े मेडे उलझन भरे विलक्षण प्रश्न, पहेलियों के द्वारा हल करने से बालकों को बौद्धिक विकास और मनोरंजन दोनों ही प्राप्त होते हैं।
देव दानवों के अधिक मुख और अधिक अंग ऐसी ही रहस्यमय पहेली हैं जिनमें तत्संबन्धी प्रमुख तथ्यों का रहस्य सन्निहित होता है। इस विलक्षणता के कारण जिज्ञासु का कौतूहल बढ़ता है वह सोचता है ऐसी विचित्रता क्यों हुई? इस प्रश्न पहेली का बुझोअल करने के निमित्त जब वह अन्वेषण करता है तब पता चल जाता है कि इस बहाने कैसे महत्वपूर्ण तथ्य उसे ज्ञान होते जाते हैं वह अनुभव करता है कि यदि इस प्रकार उलझी पहेली न होती तो शायद उसका ध्यान भी उन रहस्य मय बातों की ओर न जाता और वह उस अमूल्य जानकारी से वंचित रह जाता। पहेलियों के उत्तर बालकों को ऐसी दृढ़ता पूर्वक याद हो जाते हैं कि वे भूलते नहीं। अध्यात्म कक्षा का विद्यार्थी भी अधिक मुख वाले देवताओं को समझने के लिए जब उत्सुक होता है तो उसे वे अद्भुत बातें सहज ही विदित हो जाती हैं जो उस दिव्य महाशक्ति से सम्बद्ध हैं।
कभी अवसर मिलेगा तो सभी देवताओं की आकृतियों के बारे में विस्तार पूर्वक पाठकों को बतायेंगे। हनुमान जी की पूंछ, गणेश जी की सूंड़, हयग्रीव का अश्व मुख, ब्रह्माजी के चार मुख, दुर्गा जी की आठ भुजाएं, शिवजी के तीन नेत्र, कार्तिकेय जी के छह मुख, तथा इन देवताओं के मूषक, मोर, बैल, सिंह आदि वाहनों में क्या रहस्य है इसका विस्तृत वर्णन फिर कभी करेंगे। आज तो गायत्री के पांच मुखों के सम्बन्ध में प्रकाश डालना है।
गायत्री, सुव्यवस्थित जीवन का, धार्मिक जीवन का, अविच्छिन्न अंग है तो उसे भली प्रकार समझना उसके मर्म रहस्य, तथ्य और उपकरणों को जानना भी आवश्यक है। डॉक्टर, इंजीनियर, यंत्र विद्, बढ़ई, लुहार, रंगरेज, हलवाई, सुनार, दर्जी, कुम्हार, जुलाहा, नट, कथावाचक, अध्यापक, गायक, किसान, आदि सभी वर्ग के कार्यकर्ता अपने अपने काम की बारीकियों को समझते हैं और प्रयोग विधि तथा हानि लाभ के कारणों को समझते हैं। गायत्री विद्या के जिज्ञासुओं और प्रयोक्ताओं को भी अपने विषय से भली प्रकार परिचित होना चाहिए अन्यथा उसकी सफलता का क्षेत्र अवरुद्ध हो जायगा। ऋषियों ने गायत्री के पांच मुख बनाकर हमें बताया है कि इस महाशक्ति के अन्तर्गत पांच तथ्य ऐसे हैं जिनको जानकर और उनका ठीक प्रकार अवगाहन करके संसार सागर के सभी दुस्तर दुरितों से पार हुआ जा सकता है।
गायत्री के पांच मुख वास्तव में उसके पांच भाग हैं।
1— ॐ
2— भूर्भुवः स्वः
3— तत्सवितुर्वरेण्यम्
4— भर्गो देवस्य धीमहि
5— धियो योनः प्रचोदयात् ।
यज्ञोपवीत के भी पांच भाग हैं—तीन लड़ें, चौथी मध्य ग्रन्थियां, पांचवे ब्रह्मग्रन्थि। पांच देवता प्रसिद्ध हैं—ॐ अर्थात् गणेश, व्याहृति अर्थात् भवानी, गायत्री का प्रथम चरण—ब्रह्मा, द्वितीय चरण—विष्णु, तृतीय चरण—महेश इस प्रकार यह पांच देवता गायत्री के प्रमुख शक्ति पुंज कहे जा सकते हैं।
गायत्री के इन पांच भागों में वे सन्देश छिपे हुए हैं जो मानव जीवन की वाह्य एवं आन्तरिक समस्याओं को हल कर सकते हैं। हम क्या हैं, किस कारण जीवन धारण किये हुए हैं, हमारा लक्ष्य क्या है, अभाव ग्रस्त और दुःखी रहने का कारण क्या है, सांसारिक सम्पदाओं की और आत्मिक शान्ति की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है; कौन बन्धन हमें जन्म मरण के चक्र में बांधे हुए हैं, किस उपाय से छुटकारा मिल सकता है, अनन्त आनन्द का उद्गम कहां है, विश्व क्या है, संसार का और हमारा क्या सम्बन्ध है, जन्म मृत्यु के त्रास दायक चक्र को कैसे तोड़ा जा सकता है, आदि जटिल प्रश्नों के सरल उत्तम उपरोक्त पंचकों में मौजूद है।
गायत्री के पांच मुख असंख्यों सूक्ष्म रहस्य और तत्व अपने भीतर छिपाये हुए हैं। उन्हें जानने के बाद मनुष्य को इतनी तृप्ति हो जाती है कि कुछ जानने लायक बात उसे सूझ नहीं पड़ती। महर्षि उद्दालक ने उस विद्या की प्रतिष्ठा की थी। जिसे जानकर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह विद्या गायत्री विद्या ही है। चार वेद और पांचवा यज्ञ यह पांचों ही गायत्री के पांच मुख हैं जिनमें समस्त ज्ञान विज्ञान और धर्म कर्म, बीज रूप से केन्द्रीभूत हो रहा है।
शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है और आत्मा के पांच कोष हैं। मिट्टी, पानी, हवा, और आकाश के सम्मिश्रण से देह बनती है। गायत्री के पांच मुख बताते हैं कि यह शरीर और कुछ नहीं केवल पंच भूतों के जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र है। यह हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी, औजार सेवक एवं वाहन है। अपने आपको शरीर समझ बैठना भारी भूल है। इस भूल को ही माया या अविद्या कहते हैं। शरीर का एवं संसार का वास्तविक रूप समझ लेने पर जीव मोह निद्रा से उठता है और संचय स्वामित्व एवं भोगों की बाल क्रीड़ा से मुंह मोड़कर आत्म कल्याण की ओर लगता है। पांच मुखों का एक संदेश यह है—पंच तत्वों से बने पदार्थों को केवल उपयोग की वस्तु समझें उनमें लिप्त, तन्मय, आसक्त एवं मोह ग्रस्त न हों।
पांच मुखों का दूसरा संकेत आत्मा के पांच कोशों की ओर है। जैसे शरीर के ऊपर बनियान, कुर्त्ता, बासकट, कोट और ओवर कोट, एक के ऊपर एक पहन लेते हैं वैसे ही आत्मा के ऊपर यह पांच आवरण चढ़े हुए हैं। इन पांचों को
1— अन्नमय कोश,
2— प्राणमय कोश
3— मनोमय कोश,
4— विज्ञानमय कोश,
5— आनन्दमय कोश, कहते हैं।
इन पांच परकोटों के किले में जीव बन्दी बना हुआ है। जब इसके फाटक खुल जाते हैं। तो आत्मा बन्धन मुक्त हो जाता है।
यों तो गायत्री के पांच मुखों में अनेक पंचकों के अद्भुत रहस्य छिपे हुए हैं। पर इन सब की चर्चा इस पुस्तक में नहीं हो सकती। यहां तो हमें इन पंच कोशों पर ही कुछ प्रकाश डालना है। कोष खजाने को भी कहते हैं। आत्मा के पास यह पांच खजाने हैं इनमें से हर एक में बहुमूल्य सम्पदाएं भरी पड़ी हैं। जैसे धन कुबेरों के यहां नोट रखने की, चांदी रखने की, सोना रखने की, जवाहरात रखने की, हुण्डी चैक आदि रखने की जगह अलग-अलग होती हैं वैसे ही आत्मा के पास भी यह पांच खजाने हैं। सिद्ध किये हुए पांचों कोशों के द्वारा ऐसी अगणित सम्पदाएं सुख सुविधाएं मिलती हैं जिनको पाकर इसी जीवन में स्वर्गीय आनन्द की उपलब्धि होती है योगी लोग उसी आनन्द के लिए तप करते हैं और देवता लोग नर तनु धारण के लिए उसी आनन्द को तरसते रहते हैं। कोशों में सदुपयोग अनन्त आनन्द का उत्पादक है और उनका दुरुपयोग पांच परकोटों वाले कैदखाने के रूप में बन्धन कारक बन जाता है।
पंच कोषों का उपहार प्रभु ने हमारी अनन्त सुख सुविधाओं के लिए दिया है। यह पांच सवारियां हैं जो हमें चाहे जहां सैर करा लाती हैं, तप पांच हथियार हैं जो अनिष्ट रूपी शत्रुओं का विनाश और आत्म संरक्षण करने के लिए अतीव उपयोगी हैं यह पांच वस्त्र हैं जो असुविधा से बचाते और शोभा को बढ़ाते हैं। यह पांच शक्तिशाली सेवक हैं जो हर घड़ी आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। इन पांच खजानों में अटूट सम्पदा भरी पड़ी है। इस पंचामृत का ऐसा स्वाद है कि जिसे इसकी बूंदें चखने के लिए मुक्त हुई आत्माएं लौट लौट कर तन में अवतार लेती रहती हैं।
बिगड़ा हुआ अमृत विष हो जाता है। स्वामिभक्त कुत्ता पागल हो जाने पर अपने पालने वालों को ही संकट में डाल देता है। सड़ा हुआ अन्न विष्ठा कहलाता है, जीवन का आधार रक्त जब सड़ने लगता है तो दुर्गन्धित पीप बनकर वेदना कारक फोड़े के रूप में प्रकट होता है। पंच कोषों का विकृत रूप भी हमारे लिए ऐसा ही दुखदायी होता है। नाना प्रकार के पाप तापों, क्लेश कलहों, दुख दुर्भाग्यों, चिन्ता शोकों, अभाव दरिद्रों और पीड़ा वेदनाओं में तड़फते हुए मानव इस विकृति के ही शिकार हो रहे हैं। सुन्दरता और दृष्टि ज्योति के केन्द्र नेत्रों में जब विकृति आ जाती है, दुखने लगती है तो सुन्दरता एक ओर रही, उलटी उन पर चिथड़े की पट्टी बंध जाती है, सुन्दर दृश्य देखकर मनोरंजन करना तो दूर दर्द के बारे मछली की तरह तड़पना पड़ता है। आनन्द के उद्गम पांच कोशों की विकृति ही जीवन को दुखी बनाती है अन्यथा ईश्वर का राजकुमार जिस दिव्य रथ में बैठकर जिस नन्दन वन में आया है उसमें आनन्द ही आनन्द आना चाहिए। दुख दुर्भाग्य का कारण इस विकृति के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता।
पांच तत्व, पांच कोश, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां पांच प्राण, पांच उपप्राण, पांच तन्मात्राएं पांच यज्ञ, पांच देव, पांच योग, पांच अग्नि, पांच अंग, पांच वर्ण, पांच स्थिति, पांच अवस्था, पांच शूल, पांच क्लेश आदि अनेक पंचक गायत्री के पांच मुखों से सम्बन्धित हैं। इनको सिद्ध करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, महर्षि और देवर्षि कहलाते हैं। आत्मोन्नति की पांच कक्षाएं हैं। पांच भूमिकाएं हैं उनमें से जो जिस कक्षा की भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाता है। किसी समय भारत भूमि ऋषियों की भूमि थी। वहां ऋषि से कम तो कोई था ही नहीं पर आज तो लोगों ने उस पंचामृत का तिरष्कार कर रखा है और बुरी तरह प्रपंच में फंसकर पंच क्लेशों से क्लेशित हो रहे हैं।
अनन्त आनन्द की साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीय वल्ली (भृगु वल्ली) में एक बड़ी ही महत्व पूर्ण आख्यायिका आती है। उसमें पंच कोशों की साधना पर मार्मिक प्रकाश डाला गया है।
वरुण के पुत्र भृगु ने अपने पिता के निकट जाकर प्रार्थना की कि—
‘‘अधीहि भगवो ब्रह्मेति’’
अर्थात् हे भगवान्! मुझे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिए।
वरुण ने उत्तर दिया—
‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्य मिसं विशति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति ।’’
अर्थात्—हे भृगु! जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं, और अन्त में जिसमें विलीन हो जाते हैं तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।
पिता के आदेशानुसार पुत्र ने, उस ब्रह्म को जानने के लिए तप आरम्भ कर दिया। दीर्घ कालीन तप के उपरान्त भृगु ने अन्नमय जगत (स्थूल संसार) में फैली हुई ब्रह्म की विभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुंचा।
भृगु ने वरुण से फिर कहा—
‘‘अधीहि भगवो ब्रह्मेति’’
अर्थात् हे भगवन, मुझे ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा दीजिए।
वरुण ने उत्तर दिया—
‘‘तपसी ब्रह्म विजिसासत्व तपो ब्रह्मेति’’
अर्थात् हे पुत्र, तू तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न कर। क्योंकि ब्रह्म को तप द्वारा ही जाना जाता है।
भृगु ने फिर तपस्या की और
‘‘प्राणमय जगत’’ की ब्रह्म विभूति को जान लिया। और फिर वह पिता के पास पहुंचा। वरुण ने फिर उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश किया।
पुत्र ने पुनः कठोर तप किया और
‘‘मनोमय जगत्’’ की ब्रह्म विभूति का अभिज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता ने उसे फिर तप में लगा दिया अब उसने विज्ञानमय जगत की ईश्वरीय विभूति को प्राप्त कर लिया। अन्त में पांचवीं बार भी पिता ने उसे तप में ही प्रवृत्त किया और भृगु ने उस आनन्दमयी विभूति को भी उपलब्ध कर लिया।
‘आनन्द मय’ जगत की अन्तिम सीढ़ी पर पहुंचने से किस प्रकार पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीयवल्ली के पांचवे मन्त्र में बताया गया है कि—
‘‘आनन्दो ब्रह्मेति विजानात्—आनान्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि, जीवन्ति आनन्द प्रयन्त्यभि सविशन्तीति। सैषां भार्गवी वारूणी विद्या परमेव्योम न प्रतिष्ठिता’’
अर्थात् उस (भृगु) ने जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द से ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं।
उपनिषदकार ने उपरोक्त आख्यायिका में ब्रह्मानन्द, परमानन्द, आत्मानन्द में ही ब्रह्मज्ञान का अन्तिम लक्ष बताया है। आनन्द मय जगत में, कोश में, पहुंचने के लिए तप करने का संकेत किया है। कोशों की सीड़ियां जैसे जैसे पार होती जाती हैं वैसे ही वैसे ब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है। आगे बताया गया है कि—
‘‘सय एवं वित् अस्मांल्लोकात्प्रेत्य, ऐतमन्नमयमात्मान मुपसंक्रामति, एतं प्राणभयमात्मानमुप संक्रामति, एतं मनोमयमात्मानमुप संकामति, एतं विज्ञान मयमात्मानमुप संक्रामति, एतमानन्द मयमात्मान मुप संक्रामति ।।’’
अर्थात्—इस प्रकार जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है वह इस अन्नमय कोश को पार करता है, इस प्राणमय कोश को पार करता है, इस मनोमय कोश को पार करता है, इस विज्ञानमय कोश को पार करता है, इस आनन्द मय कोश को पार कर सकता है।
जीवन इस लिए है कि ब्रह्म रूपी आनन्द को प्राप्त किया जाय न कि इसलिए कि पग पग पर अभाग्य, दुख, दारिद्र और दुर्भाग्य का अनुभव किया जाय। जीवन को लोग सांसारिक सुविधाओं के संचय में लगाते हैं पर उनके भोगने से पूर्व ही ऐसी अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं कि वह अभिलषित सुख जब प्राप्त होता है तो उसमें कुछ सुख नहीं रह जाता और सारा प्रयत्न मृगतृष्णावत् व्यर्थ गया मालूम देता है।
संसार के पदार्थों में जितना सुख है उससे अनेक गुणा सुख आत्मिक उन्नति में है। स्वस्थ पंच कोशों से संपन्न आत्मा जब अपने वास्तविक स्वरूप में पहुंचती हो तो उसे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता है। यह अनुभव होता है कि ब्राह्मी स्थिति का क्या मूल्य और महत्व है। संसार के क्षुद्र सुखों की अपेक्षा असंख्य गुने सुख आत्मानन्द के लिए अधिकतम त्याग एवं तप करने में किसी प्रकार का संकोच क्यों हो? विज्ञ पुरुष ऐसा ही करते भी हैं।
तैत्तिरेयोपनिषद की आठवीं वल्ली में आनन्द की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि
‘‘कोई मनुष्य यदि पूर्ण स्वस्थ, सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान्, सौभाग्यवान एवं समस्त संसार की धन सम्पत्ति का स्वामी हो तो उसे जो आनन्द हो सकता है उसे एक मानुसी आनन्द कहेंगे। उससे करोड़ों एवं अरबों गुने आनन्द को ब्रह्मानन्द कहते हैं।’’ ब्रह्मानन्द का ऐसा ही वर्णन
शतपथ ब्राह्मण 14।7।1।31 में तथा
वृहदारण्यक उपनिषद् में 4।3।33 में भी आया है।
पंच मुखी गायत्री की साधना, पंच कोशों की साधना है। एक एक कोश की एक एक ब्रह्म विभूति है। ये ब्रह्म विभूतियां वे सीढ़ी हैं जो साधक को अपना सुखास्वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अग्रसर करती हैं।
जीवन जैसी बहुमूल्य संपदा कीट पतंगों की तरह व्यतीत करने के लिए नहीं है। चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करते हुए नर तन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसको तुच्छ स्वार्थ में नहीं परम स्वार्थ में, परमार्थ में, लगाना चाहिए। गायत्री साधना ऐसा परमार्थ है जो हमारे व्यक्तिगत, और सामाजिक जीवन को सुख, शान्ति और समृद्धि से भर देता है।
अगले पृष्ठों पर वेदमाता, जगज्जननी आदि शक्ति गायत्री के पांच मुखों की उपासना का, आत्मा के पांच कोशों की साधना का विधान बताया जायगा। भृगु के समान जो इन तपश्चर्याओं को करेंगे वे ही ब्रह्म प्राप्ति के अधिकारी होंगे।
अन्नमय कोश की साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
गायत्री के पांच मुखों में, आत्मा के पांच कोशों में प्रथम कोश का नाम अन्नमय कोश है। अन्न का सात्विक अर्थ है—पृथ्वी का रस। पृथ्वी से जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आदि पैदा होते हैं। उन्हीं से दूध, घी, मांस आदि भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं। इन्हीं के द्वारा रज, वीर्य बनते हैं और उन्हीं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती और पुष्ट होती है तथा अन्त में अन्न रूपी पृथ्वी में ही भस्म होकर या सड़गल कर मिल जाती है। अन्न से उत्पन्न होने वाली और उसी में मिल जाने वाला यह देह इसी प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश’ कहा जाता है।
यहां एक बात ध्यान रखने की है कि हाड़-मांस का जो पुतला दिखाई देता है वह अन्नमय कोश की आधीनता में है पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता। वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूतयोनि में या स्वर्ग नरक में उन भूख, प्यास, सर्दी गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन्हें उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएं वैसी ही आहार विहार की रहती हैं जैसी कि शरीर धारी मनुष्यों की होती है। इससे प्रकट है कि अन्नमय कोश, शरीर का संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है पर उससे प्रथक भी है। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।
रोग हो जाने पर डॉक्टर, वैद्य, उपचार, औषधि, इंजेक्शन, शल्य क्रिया आदि द्वारा उसे ठीक करते हैं। चिकित्सा पद्धतियों की पहुंच स्थूल शरीर तक ही है। इसलिए वह केवल उन्हीं रोगों को दूर कर पाते हैं जो कि हाड़, मांस, त्वचा आदि के विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं। परन्तु कितने ही रोग ऐसे भी हैं जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें शारीरिक चिकित्सक लोग ठीक करने में प्रायः असमर्थ ही रहते हैं।
अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढांचा और रंग रूप बनता है, उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियां होती हैं। बालक जन्म से ही कितनी ही शारीरिक त्रुटियां अपूर्णताएं या विशेषताएं लेकर आता है। किसी को देह आरम्भ से ही मोटी किसी की जनम से ही पतली होती है। आंखों की दृष्टि, वाणी की विशेषता, मस्तिष्क का भोंड़ा या तीव्र होना, किसी विशेष अंश का निर्बल या न्यून होना अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है। माता-पिता के रज वीर्य का भी उसमें थोड़ा प्रभाव होता है पर विशेषता अपने कोश की ही रहती है। कितने ही बालक माता पिता की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत भिन्न पाये जाते हैं।
शरीर अन्न से बनता और बढ़ता है। पर अन्न के भीतर जो सूक्ष्म जीवन तत्व रहता है वह अन्नमय कोश को बनाता है। जैसे शरीर में पांच कोश हैं वैसे ही अन्न में तीन कोश हैं स्थूल, सूक्ष्म, कारण। स्थूल में स्वाद और भार, सूक्ष्म में प्रभाव और गुण तथा कारण के कोश में अन्न का संस्कार रहता है। जिह्वा से केवल भोजन का स्वाद मालूम होता है। पेट उसके बोझ का अनुभव करता है, रस में उसकी मादकता, उष्णता आदि प्रकट होती है। अन्नमय कोश पर उसका संस्कार जमता है। मांस आदि अनेक अभक्ष पदार्थ ऐसे हैं जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं, देह को मोटा बनाने में भी सहायक होते हैं पर उनमें सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म जन्मान्तरों तक कुरूपता एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में चलता है। इसलिए आत्म विद्या के ज्ञाता सदा सात्विक सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं ताकि स्थूल शरीर में बीमारी, कुरूपता, अपूर्णता, आलस्य एवं कमजोरी की बढ़ोतरी न हो जो लोग अभक्ष खाते हैं वे अब नहीं तो भविष्य में, ऐसी आंतरिक विकृति में ग्रस्त हो जायेंगे जो उनको शारीरिक सुख से वंचित रखे रहेगी।
कितने ही शारीरिक विकारों की जड़ अन्नमय कोश में होती है। उनका निवारण दवादारू से नहीं योगिक साधनाओं से हो सकता है। जैसे संयम, चिकित्सा, शल्य क्रिया, व्यायाम, मालिश, विश्राम एवं उत्तम आहार विहार, जल वायु द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य में बहुत कुछ अन्तर हो सकता है वैसे ही कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा अन्नमय कोश को परिमार्जित एवं परिपुष्ट किया जा सकता है और विविध विधि शारीरिक अपूर्णताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। ऐसी पद्धतियों में
1— उपवास,
2— आसन,
3— तत्व शुद्धि,
4— तपश्चर्या
यह चार मुख्य हैं। इन चारों पर इस प्रकरण में कुछ प्रकाश डालेंगे।
उपवास - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
जिसके शरीर में मलों का भार संचित हो रहा हो उस रोगी की चिकित्सा आरम्भ करने से पहले चतुर चिकित्सक प्रथम उसे जुलाब देते हैं ताकि दस्त होने से पेट साफ हो जाय और औषधि अपना काम कर सके। यदि चिर संचित मल के ढेर की सफाई न की जाय तो औषधि भी उस मल के ढेर में मिलकर प्रभाव हीन हो जायगी। अन्न मय कोश की अनेक सूक्ष्म विकृतियों का परिमार्जन करने में उपवास वही काम करता है जो चिकित्सा से पूर्व जुलाब लेने से होता है।
मोटे रूप से उपवास के लाभों से सभी परिचित हैं। पेट में रुका अपच पच जाता है, विश्राम करने से पाचन अंग नव चेतना के साथ दूना काम करते हैं, आमाशय में भरे हुए अपक्व अन्न से जो विष उत्पन्न होता है वह नहीं बनता, आहार की बचत से आर्थिक लाभ होता है, आदि उपवास के लाभ ऐसे हैं जो हर किसी को मालूम हैं। डाक्टरों का यह भी निष्कर्ष प्रसिद्ध है कि ‘‘स्वल्पाहारी दीर्घजीवी होते हैं।’’ जो बहुत खाते हैं पेट को ठूंस ठूंस कर भरते हैं, कभी पेट को चैन नहीं लेने देते एक दिन की भी उसे छुट्टी नहीं देते वे अपनी जीवन सम्पत्ति को जल्दी ही समाप्त कर लेते हैं और स्थिर आयु की अपेक्षा बहुत जल्दी उन्हें दुनिया से बिस्तर बांधना पड़ता है। आज के राष्ट्रीय अन्न संकट में तो उपवास देश भक्ति भी है। यदि लोग सप्ताह में एक दिन उपवास करने लगें तो विदेशों से करोड़ों रुपये का अन्न न मंगाना पड़े तो अन्न सस्ता होने के साथ साथ अन्य सभी चीजें भी सस्ती हो जायें।
गीता में ‘
‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन’’ श्लोक में बताया है कि उपवास से विषय विकारों की निवृत्ति होती है। मन का विषय विकारों से रहित होना एक बहुत बड़ा मानसिक लाभ है इसे ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य के साथ उपवास को जोड़ दिया है। कन्यादान के दिन माता-पिता उपवास रखते हैं। यज्ञोपवीत, व्रतवंध, समावर्तत, वेदारम्भ आदि संस्कारों के दिन ब्रह्मचारी को उपवास रखना पड़ता है। अनुष्ठान के दिन यजमान तथा आचार्य उपवास रखते हैं। नव दुर्गाओं के नौ दिन कितने ही स्त्री पुरुष पूर्ण या आंशिक उपवास रखते हैं। ब्राह्मण भोजन करने से पूर्व उस दिन घर वाले भोजन नहीं करते। स्त्रियां अपने पति तथा सास ससुर आदि पूज्यों को भोजन कराये बिना भोजन नहीं करतीं। यह आंशिक उपवास भी चित्त शुद्धि की दृष्टि से बड़े उपयोगी होते हैं।
स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का असाधारण महत्व है। रोगियों के लिए तो इसे जीवन मूरि ही कहते हैं। चिकित्सा शास्त्र का रोगियों को एक दैवी उपदेश है कि ‘‘बीमारी को भूखा मारो।’’ भूखे रहने से बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है। संक्रामक, कष्ट साध्य एवं खतरनाक रोगों में लंघन ही एक मात्र चिकित्सा है। मोतीझरा, निमोनिया, विशूचिका, प्लेग सन्निपात; टाइफ़ाइड जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक उपवास कराये बिना रोग को अच्छा नहीं कर सकता। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में तो समस्त रोगों में पूर्ण या आंशिक उपवास को ही प्रधान उपचार माना गया है।
इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने भली प्रकार समझा था उनने हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्व स्थापित किया था।
अन्नमय कोश की शुद्धि के लिए उपवास की विशेष आवश्यकता है। शरीर में कई जाति की उपत्यिकाएं देखी जाती हैं जिन्हें शरीर शास्त्री ‘नाड़ी गुच्छक’ कहते हैं। देखा गया है कई स्थानों पर ज्ञान तन्तुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियां आपस में लिपटी होती हैं। यह गुच्छक कई बार रस्सी की तरह आपस में लिपटे और बंटे हुये होते हैं। कई जगह यह गुच्छक गांठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं।
कई बार यह समानान्तर लहराते हुए सर्प की भांति चलते हैं और अन्त में इनके सिरे आपस में जुड़ जाते हैं। कई जगह इनमें से बरगद वृक्ष की तरह शाखा प्रशाखाएं फैली रहती हैं और इस प्रकार के कई गुच्छक परस्पर सम्बद्ध होकर एक परिधि बना लेते हैं। इनके रंग आकार एवं अनुच्छेद में काफी अन्तर होता है। यदि गहरा अनुसंधान किया जाय तो उनके ताप मान अणु पराक्रम एवं प्रतिभा पुंज में काफी अन्तर पाया जाता है।
वैज्ञानिक इन नाड़ी गुच्छकों के कार्य का कुछ विशेष परिचय अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं पर योगी लोग जानते हैं कि यह उपत्यिकाएं शरीर में अन्नमय कोश की बन्धन ग्रन्थियां हैं। मृत्यु होते ही सब बन्धन खुल जाते हैं और फिर एक भी गुच्छक दृष्टिगोचर नहीं होता। यह उपत्यिकाएं अन्नमय कोश के गुण दोषों की प्रतीक हैं। ‘इन्धिका’ जाति की उपत्यिकाएं चंचलता, अस्थिरता, उद्विग्नता की प्रतीक हैं। जिन व्यक्तियों में इस जाति के नाड़ी गुच्छक अधिक हों तो उनका शरीर एक स्थान पर बैठकर काम कर सकेगा, उन्हें कुछ खटपट करती रहनी पड़ेगी। ‘दीपिका’ जाति की उपत्यिकाएं जोश, क्रोध, शारीरिक ऊष्मा, अधिक पाचन, गर्मी, खुश्की आदि उत्पन्न करेंगी। ऐसे गुच्छकों की अधिकता वाले लोग चर्मरोग, फोड़ा-फुन्सी नकसीर फूटना, पीला पेशाब, आंखों में जलन आदि रोगों के शिकार होते रहेंगे।
‘मोचिकाओं’ की अधिकता वाले व्यक्ति के शरीर से पसीना, लार, कफ, पेशाब आदि मलों का निष्कासन अधिक होगा। पतले दस्त अक्सर हो जाते हैं और जुकाम की शिकायत होते देर नहीं लगती ‘आप्यायिनी’ जाति के गुच्छक आलस्य, अधिक निद्रा, अनुत्साह, भारीपन, उत्पन्न करते हैं ऐसे व्यक्ति थोड़ी सी मेहनत में थक जाते हैं। उनसे शारीरिक या मानसिक कार्य विशेष नहीं हो सकता।
‘पूषा’ जाति के गुच्छक काम वासना की ओर मन को बलात खींच ले जाते हैं। संयम ब्रह्मचर्य के सारे आयोजन रखे रह जाते हैं, पूषा का तनिक सा उत्तेजन मन को बेचैन कर डालता है और वह बेकाबू होकर विकार ग्रस्त हो जाता है। शिवजी पर शर संधान करते समय कामदेव ने अपने कुसुम वाण से उस प्रदेश की पूषाओं को उत्तेजित कर डाला था।
‘चिन्द्रका’ जाति की उपत्यिकाएं सौन्दर्य बढ़ाती हैं। उनकी अधिकता से वाणी में मधुरता नेत्रों में मादकता चेहरे पर आकर्षण, कोमलता एवं मोहकता की मात्रा रहेगी। ‘कपिला’ के कारण नम्रता, डर लगना दिल की धड़कन, बुरे स्वप्न, आशंका, मस्तिष्क की अस्थिरता, नपुंसकता, वीर्य रोग आदि लक्षण पाएं जाते हैं। ‘धूमार्चि’ में संकोचन शक्ति बहुत होती है। फोड़े देर में पकते हैं, कफ मुश्किल से निकलता है। शौच कड़ा और देर में होता है।, मन की बात कहने में झिझक लगती है। ‘ऊष्माओं’ की अधिकता से मनुष्य हांफता रहता है। जाड़े में भी गर्मी लगती है। क्रोध आते देर नहीं लगती। जल्द बाजी बहुत होती है। रक्त की गति में श्वास प्रस्वास में तीव्रता रहती है।
‘अमाया’ वर्ण के गुच्छक दृढ़ता, मजबूती, कठोरता गम्भीरता, हठधर्मी, के प्रतीक होते हैं। इस प्रकार के शरीरों पर वाह्य उपचारों का कुछ असर नहीं होता। कोई दवा काम नहीं करती। वे स्वेच्छापूर्वक रोगी या रोग मुक्त होते हैं। उन्हें कोई कुपथ्य रोगी नहीं कर पाता परन्तु जब गिरते हैं तो संयम नियम का पालन भी कुछ काम नहीं आता।
चिकित्सक लोगों के उपचार अनेक बार असफल होते रहते हैं। कारण कि उपत्यिकाओं के अस्तित्व के कारण शरीर की सूक्ष्म स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि चिकित्सा कुछ विशेष काम नहीं करती। उद्गीथ, उपत्यिकाओं की अभिवृद्धि से सन्तान होना बन्द हो जाता है। यह जिस पुरुष या स्त्री में अधिक होगी वह पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी सन्तानोत्पादन के अयोग्य हो जायेगा।
स्त्री पुरुष में से ‘असिता’ की अधिकता जिसमें होगी वही अपने लिंग की सन्तान उत्पन्न करने में विशेष सफल रहेगा। ‘असिता’ से सम्पन्न नारी को कन्याएं और पुरुष को पुत्र उत्पन्न करने में सफलता मिलती है। जोड़े में से जो अधिक असिता, होगा उसकी शक्ति जीतेगी।
युक्त ‘हिंस्रा’ जाति के गुच्छक क्रूरता, दुष्टता, परपीड़न की प्रेरणा देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को चोरी जुआ, व्यभिचार, ठगी आदि करने में बड़ा रस आता है। आवश्यक धन सम्पत्ति होते हुये भी उन्हें अनुचित मार्ग अपनाने को मन चलता रहता है। कोई विशेष कारण न होते हुये भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और आक्रमण का आचरण करते हैं। ऐसे लोग मांसाहार, मद्यपान, शिकार खेलना, मारपीट करना या लड़ाई झगड़े में दौर पंच बनना बहुत पसंद करते हैं। हिंसा उपत्यिकाओं की अधिकता वाला शरीर सदा ऐसे काम करने में रस लेगा जो अशान्ति उत्पन्न करते हों, ऐसे लोग अपना सिर फोड़ लेने आत्म हत्या करने अपने बच्चों को बेतरह पीटने जैसे कुकृत्य करते देखे जाते हैं।
उपरोक्त पंक्तियों में कुछ थोड़ी सी उपत्यिकाओं का वर्णन किया गया है। इनकी 96 जातियां जानी जा सकी हैं। संभव है इससे भी वे अधिक होती हों। यह ग्रंथियां ऐसी हैं जो शारीरिक स्थिति को इच्छा अनुकूल रखने में बाधक होती हैं। मनुष्य चाहता है कि में अपने शरीर को ऐसा बनाऊं वह उसके लिए कुछ उपाय भी करता है पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते। कारण यह है कि ये उपत्यिकाएं भीतर ही भीतर शरीर में ऐसी विलक्षण क्रिया एवं प्रेरणा उत्पन्न करती हैं जो वाह्य प्रयत्नों को सफल नहीं होने देतीं और मनुष्य अपने को बार बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है।
अन्नमय कोश को शरीर से बांधने वाली यह उपत्यिकाएं शारीरिक एवं मानसिक अकर्मों से उलझ कर विकृत होती हैं सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती हैं। बुरा आचरण यह खाई खोदता है और शरीर को उस खाई में गिरकर रोग शोक आदि की पीड़ा सहनी पड़ती है। इन उलझनों को सुलझाने के लिए आहार विहार का संयम एवं सात्विक रखना, दिनचर्या ठीक रखना, प्रकृति के आदेशों पर चलना आवश्यक है। साथ कुछ ऐसे ही विशेष योगिक उपाय भी हैं जो उन आन्तरिक विकारों पर काबू पा सकते हैं जिनको कि केवल बाह्योपचार से सुधारना कठिन है।
उपवास का उपत्यिकाओं के संशोधन परिमार्जन और सुसंतुलन से बड़ा सम्बन्ध है। योग साधना में उपवास का एक सुविस्तृत विज्ञान है। अमुक अवसर पर, अमुक मास में, अमुक मुहूर्त में अमुक प्रकार से उपवास करने का अमुक फल होता है।
ऐसे आदेश शास्त्रों में जगह जगह पर मिलते हैं। ऋतुओं के अनुसार शरीर की छह अग्नियां न्यूनाधिक होती रहती हैं। ऊष्मा, वहुवृच, ह्वादी, रोहिता, आप्ता, व्याप्ति यह छह शरीर गत अग्नियां ग्रीष्म से लेकर वसन्त तक छह ऋतुओं में क्रियाशील रहती हैं। इनमें से प्रत्येक के गुण भिन्न भिन्न हैं।
1—उत्तरायण दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति
2—चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलाएं
3—सूर्य की अंशकिरणों का मार्ग,
इन चारों बातों का शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ सम्बन्ध होने से क्या परिणाम होता है इसका ध्यान रखते हुये ऋषियों ने ऐसे पुण्य पर्व निश्चित किए हैं जिनमें अमुक विधि उपवास किया जाय तो उसका अमुक परिणाम हो सकता है। जैसे कार्तिक कृष्णा चौथ जिसे करवाचौथ कहते हैं उस दिन का उपवास दम्पत्ति प्रेम को बढ़ाने वाला होता है क्योंकि उस दिन की गोलार्ध स्थिति, चन्द्र कलाएं, नक्षत्र प्रभाव, एवं सूर्य मार्ग का सम्मिश्रित परिणाम शरीरगत अग्नि के साथ समन्वित होकर शरीर एवं मन की स्थिति को ऐसा उपयुक्त बना देता है जो दाम्पत्ति सुख को सुदृढ़ और चिरस्थाई बनाने में बड़ा सहायक होता है।
इस प्रकार अन्य अनेकों व्रत उपवास हैं जो अनेक इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में तथा बहुत से अनिष्टों को टालने में उपयोगी सिद्ध होते हैं।
उपवासों के पांच भेद होते हैं।
1—पाचक
2—शोधक
3—शामक
4—आनक
5—पावक।
(1.) पाचक— उपवास वे हैं जो पेट के अपच अजीर्ण कोष्ट बद्धता को पचाते हैं। शोधक वे हैं जो रोगों को भूखा मार डालने के लिये किए जाते हैं इन्हें लंघन भी कहते हैं। शामक—वे हैं जो कुविचारों, मानसिक विकारों, दुष्प्रवृत्तियों एवं विकृत उपत्यकाओं का शमन करते हैं। आनक—वे हैं जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किए जाते हैं। पावक वे हैं जो पापों के प्रायश्चित के लिए, आत्मिक पवित्रता के लिए किए जाते हैं।
किस व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन-सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिये सूक्ष्म विवेचना की आवश्यकता है।
साधक का अन्नमय कोश किस स्थिति में है, उसकी उपत्यिकाएं विकृत हो रही हैं? किस उत्तेजित संस्थान को शान्त करना एवं किस मर्म पर स्थूल सतेज करने आवश्यकता है यह देखकर निर्णय किया जाना चाहिए कि कौन व्यक्ति किस प्रकार का उपवास कब करे।
पाचक उपवास में तब तक भोजन छोड़ देना चाहिए जब तक कि कड़ाके की भूख न लगे। एक बार का एक दिन का या दो दिन का आहार छोड़ देने से आमतौर से कब्ज पक जाता है। पाचक उपवास में सहायता देने के लिए नींबू का रस गरम जल एवं किसी पाचक औषधि का सेवन किया जा सकता है।
(2.) शोधक उपवासों के साथ विश्राम आवश्यक है। यह लगातार तब तक चलते हैं जब तक कि रोगी खतरनाक स्थिति को पार न करले औटाकर ठण्डा किया हुआ पानी ही ऐसे उपवासों में एक मात्र अवलम्बन होता है।
(3.) शामक उपवास दूध, छाछ, फलों का रस आदि पतले, रसीले, हलके पदार्थों के आधार पर चलते हैं। इन उपवासों में स्वाध्याय, आत्म चिन्तन, एकान्त सेवन, मौन, जप-ध्यान, पूजन, प्रार्थना आदि आत्मशुद्धि के उपचारों को भी साथ में होना चाहिए।
( 4.) आनक उपवास में सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति को आह्वान करना चाहिए। सूर्य की सप्तवर्ण किरणों में राहु केतु को छोड़कर अन्य सातों ग्रहों की राशियां सम्मिलित होती हैं।
सूर्य— में तेजस्विता, उष्णता, पित्त प्रकृति, प्रधान हैं।
चन्द्रमा—शीतल, शान्तिदायक, उज्ज्वल, कीर्तिकारक।
मंगल—कठोर, बलवान, संहारक।
बुध—सौम्य, शिष्ट, कफ प्रधान, सुन्दर, आकर्षक।
गुरु—विद्या बुद्धि धन सूक्ष्म दर्शिता शासक न्याय राज्य का अधिष्ठाता।
शुक्र—वात प्रधान, चंचल, उत्पादक, कूटनीतिक।
शनि— स्थिरता, स्थूलता सुखोपभोग दृढ़ता परिपुष्ट का प्रतीक है।
जिस गुण की आवश्यकता हो, उसके अनुरूप दैवी तत्वों को आकर्षित करने के लिए सप्ताह में उसी दिन उपवास करना उचित है। इन उपवासों में लघु आहार उन ग्रहों की शक्तियों से समता रखने वाला होना चाहिए। तथा उसी ग्रह के अनुरूप रंग की वस्तुएं, वस्त्र आदि का जहां तक संभव हो अधिक प्रयोग करना चाहिए।
रविवार को श्वेत रंग और गाय के दूध का दही उचित आहार है।
सोमवार को पीला रंग और चावल का मांड़ उपयुक्त है।
मंगल को—लाल रंग, भैंस का दही या छाछ।
बुध को नीला रंग और खट्टे मिट्ठे फल।
गुरु को नारंगी रंग मीठे फल।
शुक्र को—हरा रंग, बकरी का दूध दही गुड़ का उपयोग ठीक रहता है। प्
रातःकाल की किरणों में सम्मुख होकर नेत्र बन्द करके निर्धारित किरणें अपने में प्रवेश होने का ध्यान करने से वह शक्ति सूर्य रश्मियों द्वारा अपने में अवतरित होती है।
(5.) पावक उपवास प्रायश्चित स्वरूप किए जाते हैं ऐसे उपवास केवल जल लेकर करने चाहिए। अपनी भूल के लिए प्रभु से सच्चे हृदय से क्षमा याचना करते हुए भविष्य में वैसी भूल न करने का प्रण करना चाहिए। अपराध के लिये शारीरिक कष्ट साध्य तितीक्षा एवं शुभ कार्य के लिए इतना दान करना चाहिये जो पाप की व्यथा को पुण्य की शान्ति के बराबर कर सके। चांद्रायण व्रत, कृच्छ चांद्रायण, आदि ऐसे ही पावक व्रतों में गिने जाते हैं।
प्रत्येक उपवास में यह बातें विशेष रूप से ध्यान रखने की हैं
1—उपवास के दिन जल बार बार पीना चाहिए, बिना प्यास को भी पीना चाहिए।
2—उपवास के दिन अधिक शारीरिक श्रम न करना चाहिए
3—उपवास के दिन यदि निराहार न रहा जा सके तो अल्प मात्रा में रसीले पदार्थ, फल, दूध आदि ले लेना चाहिए। मिठाई, हलुआ आदि गरिष्ठ पदार्थ भरपेट
खा लेने से उपवास का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता
4—उपवास तोड़ने के बाद हलका, शीघ्र पचने वाला, आहार स्वल्प मात्रा में लेना चाहिए। उपवास समाप्त होते ही अधिक मात्रा में भोजन कर लेना हानि
कारक है।
5—उपवास के दिन अधिकांश समय आत्म चिन्तन स्वाध्याय या उपासना में लगाना चाहिए।
उपत्यिकाओं के शोधन परिमार्जन और उपयोगी करण के लिए उपवास किसी विज्ञ पथ प्रदर्शक की सलाह से करने चाहिए पर साधारण उपवास जो प्रत्येक गायत्री उपासक के अनुकूल होता है रविवार के दिन होना चाहिए। उस दिन सातों ग्रहों की सम्मिलित शक्ति पृथ्वी पर आती है जो विविध प्रयोजनों के लिए उपयोगी होती है। रविवार को प्रातःकाल स्नान करके या सम्भव न हो तो हाथ मुंह धोकर शुद्ध वस्त्रों से सूर्य के सम्मुख मुख करके बैठना चाहिए और एक बार खुले नेत्रों से सूर्य नारायण को देखकर फिर नेत्र बन्द कर लेने चाहिए और वैसे ही गायत्री के तेजपुंज रविमंडल का ध्यान करना चाहिए ‘‘इस सूर्य के तेजपुंज रूपी समुद्र में हम स्नान कर रहे हैं वह हमारे चारों ओर ओत प्रोत हो रहा है।’’ ऐसा ध्यान करने से सविता की ब्रह्म रश्मियां अपने भीतर भर आती हैं। बाहर से चेहरे पर धूप का पड़ना और भीतर से ध्यानाकर्षण द्वारा उसकी सूक्ष्म रश्मियों को खींचना उपत्यिकाओं को सुविकसित करने में बड़ा सहायक होता है। यह साधना 15 से 30 मिनट तक की जा सकती है।
उस दिन श्वेत वर्ण की वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना चाहिए, वस्त्र भी अधिकांश सफेद ही हों। दोपहर को बारह बजे बाद फलाहार करना चाहिए। जो लोग रह सकें वे निराहार रहें जिन्हें कठिनाई होती हो वे फल, दूध, शाक लेकर रहें। बालक, वृद्ध, गर्भिणी, रोगी या कमजोर व्यक्ति चावल, दलिया आदि दोपहर को और दूध रात को ले सकते हैं। नमक एवं शकर इन दो स्वाद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को छोड़ कर बिना स्वाद का भोजन भी एक प्रकार का उपवास हो जाता है। आरम्भ में अस्वाद आहार के आंशिक उपवास से भी गायत्री साधक अपनी प्रवृत्ति को बढ़ा सकते हैं।
आसन - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मोटे तौर से आसनों को शारीरिक व्यायाम में ही गिना जाता है। उनसे वे सब लाभ मिलते हैं जो व्यायाम द्वारा मिलने चाहिए। साधारण कसरतों से जिन भीतर के अंगों का व्यायाम नहीं हो पाता उनका आसनों द्वारा हो जाता है।
ऋषियों ने आसनों को योग साधन में इसलिए प्रमुख स्थान दिया है कि वे स्वास्थ्य रक्षा के लिए अतीव उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों में रहने वाली ‘
‘हव्य वहा’’ और
‘‘कव्य वहा’’ तड़ित शक्ति को क्रियाशील रखते हैं। मर्मस्थल वे हैं जो अतीव कोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है कि साधारणतः उन तक वाह्य प्रभाव नहीं पहुंचता। आसनों से इनकी रक्षा होती है।
इन मर्मों की सुरक्षा में यदि किसी प्रकार की बाधा पड़ जाय तो जीवन संकट में पड़ सकता है। ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं। कंठ कूप, स्कन्ध पुच्छ, मेरु दण्ड और ब्रह्मरंध्र से सम्बन्धित 36 मर्म हैं। इनमें कोई आघात लग जाय, रोग विशेष के कारण विकृति आ जाय रक्ताभिषरण रुक जाय और विष बालुका जमा हो जाय तो देह भीतर ही भीतर घुलने लगती है बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता पर भीतर ही भीतर देह खोखली होती जाती है। नाड़ी में ज्वर नहीं होता पर मुंह का कडुआपन, शरीर में रोमांच भारीपन, उदासी, हड़फूटन, सिर में हलका सा दर्द, प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं। वैद्य डॉक्टर कुछ समझ नहीं पाते। दवा दारु देते हैं पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता।
मर्मों में चोट पहुंचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है। तांत्रिक अभिचारी, जब मारण प्रयोग करते हैं तो उनका आक्रमण इन मर्म स्थलों पर ही होता है। हानि, शोक, अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्म स्थल क्षत विक्षत हो जाते हैं और उस व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। मर्म अशक्त हो जायं तो गठिया, गंज, श्वेत कुष्ठ, पथरी, गुर्दे की शिथिलता त्वचा की खुश्की, बहुमूत्र, बवासीर, जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं।
सिर और धड़ में रहने वाले मर्मों में ‘हव्य वहा’ नामक धन (पॉजिटिव) विद्युत का निवास है और हाथ पैरों में ‘कव्य वहा’ ऋण (निगेटिव) विद्युत की विशेषता है। दोनों का संतुलन बिगड़ जाय तो लकवा, अर्धांग, संधिवात जैसे उपद्रव खड़े हो जाते हैं।
कई बार मोटे तगड़े और स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मन्द रोगों से ग्रसित हो जाते हैं जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे। इन मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गड़बड़ी है। कारण यह है साधारण परिश्रमों या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाता। औषधियों की वहां तक पहुंच नहीं होती, शल्य किया या सूची भेद (इंजेक्शन) भी उनको प्रभावित करने में समर्थ नहीं होते। उस विकट गुत्थी को सुलझाने में केवल ‘योग आसन’ ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं जो मर्म शोधन में अपना चमत्कार दिखाते हैं।
ऋषियों ने देखा अच्छा आहार विहार रखते हुए भी, विश्राम व्यायाम की समुचित व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्म स्थल विकृत हो जाते हैं और उनमें रहने वाली ‘हव्य वहा’ और ‘कव्य वहा’ तड़ित शक्ति का संतुलन बिगड़ जाने से बीमारी तथा कमजोरी आ घेरती हैं जिससे योग साधना में बाधा पड़ती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान और अनुभवों द्वारा ‘आसन’ क्रिया का आविष्कार किया है।
आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्म स्थलों पर पड़ता है। प्रधान नस नाड़ियों और मांस पेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म ककेरुकाक्षों का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन, प्रकुंचन होता है कि उनमें जमे हुए विकार हट जाते हैं, तथा फिर नित्य सफाई होते रहने से नये विकार जमा नहीं होते। मर्म स्थलों की शुद्धि, स्थिरता एवं परिपुष्ट के लिए आसनों का अपने ढंग के सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है।
आसन अनेक हैं। उनमें से 84 प्रधान हैं। उन सबकी विधि व्यवस्था और उपयोगिता वर्णन करने का यहां अवसर नहीं है। सर्वांगपूर्ण आसन विद्या की शिक्षा इस पुस्तक में नहीं दी जा सकती। सुविधानुसार इस सम्बन्ध में एक विशद ग्रन्थ लिखेंगे। आज तो हमें गायत्री की योग साधना करने की इच्छुकों को कुछ ऐसे सुलभ आसन बताना पर्याप्त होगा। जो साधारणतः उनके सभी मर्म स्थलों की सुरक्षा में सहायक हों।
आठ आसन ऐसे हैं जो सभी मर्मों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। इनकी उपयोगिता एवं सरलता अन्य आसनों से अधिक है। इनमें से दो चार या अधिक अपने लिए सुविधाजनक हों भोजन से पूर्ण कर लेने चाहिए। उपासना के पश्चात् ही इनको करना चाहिए जिससे रक्त की गति तीव्र हो जाने से उत्पन्न हुई चित्त की चंचलता ध्यान में बाधक न हो।
सर्वांगासन — आसन पर चित्त लेट जाइये और शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। हाथ को जमीन से ऐसा मिला रखिए कि हथेलियां जमीन से चिपकी रहें। अब घुटने सीधे कड़े करके दोनों पैर मिले हुए ऊपर को उठाइये और इन्हें पेड़ की तरह सीधे तान दीजिए। शरीर को भी उठाइये और पैरों को ले जाकर सिर के पीछे जमीन से लगाइए। केवल पैर के पंजे जमीन से दूने चाहिए। पैर मुड़ने न पावें बल्कि सीधे तने हुए रहें। हाथ चाहे जमीन पर रखिये चाहे सहारे के लिए कमर से लगा दीजिए। ठोड़ी कण्ठ के गण्डारे से चिपकी रहनी चाहिए।
सिद्ध पद्मासन — पालथी मार कर बैठिये। फिर दोनों हाथ पीठ के पीछे से ले जाकर दाहिने पैर का अंगूठा पकड़िये और बांया हाथ उसी तरह ले जा कर बांए पैर का अंगूठा पकड़िये पीठ को बिलकुल सीधा तान दीजिए और दृष्टि नासिक के अग्रभाग पर जमाइए। ठोड़ी को कण्ठ के मूल में गड़ाये रखिये। बहुतों के हाथ शुरू में ही पीठ के पीछे घूम कर अंगूठा नहीं पकड़ सकते। इस कारण उनकी इन नसों का शुद्ध और पूरे फैलाव में न होना है। इसलिए जब तक दोनों पैरों में अंगूठे न जा सकें तब तक एक ही पैर का अंगूठा पकड़ कर अभ्यास बढ़ाना चाहिए।
पाद हस्तासन — सीधे खड़े हो जाइये। फिर धीरे-धीरे हाथों को नीचे झुकाइये। और नीचे ले जाकर हाथों से पैरों के दोनों अंगूठों को पकड़िये। पैर आपस में मिलें और बिलकुल सीधे रहें, घुटने मुड़ने न पावें। इसके बाद सिर दोनों हाथों के बीच से भीतर की ओर ले जा कर नाक घुटनों से मिलाइये। दाहिने हाथ से बांये पैर और बांये हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा पकड़ करके भी किया जाता है। इस आसन को करते समय पेट को भीतर की ओर खूब जोर से खींचना चाहिए।
उत्कटासन — सीधे खड़े हो जाइए। दोनों पैर घुटने एड़ी और पंजे आपस में मिले रहने चाहिए। दोनों हाथ कमर पर रहें। पेट को कुछ भीतर की ओर खींचिए और घुटनों को मोड़ते हुए, शरीर सीधा रखते हुए उसे धीरे-धीरे पीछे की ओर झुकाइए। इस प्रकार बिलकुल उसी प्रकार हो जाइए जैसे कुर्सी पर बैठते हैं। जब कमर झुककर घुटनों के सामने आ जाय तो उसी दशा में स्थिर हो जाना चाहिए।
इसका अभ्यास हो जाने पर एड़ियों को भी जमीन से उठा दीजिए और केवल पंजों के बल स्थिर हूजिए। उसका भी अभ्यास हो जाय तो घुटनों को खोलिए और उन्हें काफी फैला दीजिए। ध्यान रहे घुटनों को इस प्रकार रखिए कि दोनों हाथों की उंगलियां घुटनों के बाहर जमीन को छूती रहें।
पश्चिमोत्तान आसन — पैरों को लम्बे फैला दीजिए। दोनों पैर मिले रहें। घुटने मुड़े न हों बिलकुल सीधे रहें। टांगें जमीन से लगी रहें। इसके बाद टांगों को झुका कर दोनों हाथों से पैरों के दोनों अंगूठों को पकड़िए। ध्यान रहे कि पैर जमीन से जरा भी न उठने पावें। पैरों के अंगूठे पकड़ कर सिर दोनों घुटनों के बीच में करके यह प्रयत्न करना चाहिए कि सिर घुटनों पर या उनके भी आगे रखा जाय।
यदि बन सके तो हाथ की कोहनियों को जमीन से छुआना चाहिए। शुरू में पैर फैलाकर और घुटने सीधे रख कर कमर आगे झुका कर अंगूठे पकड़ने का प्रयत्न करना चाहिए धीरे-धीरे पकड़ने लग जाने पर सिर घुटनों पर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
सर्पासन — पेट के बल आसन पर लेट जाइए। फिर दोनों हाथों के पंजे जमीन पर टेक कर हाथ खड़े कर दीजिए। पंजे नाभि के पास रहें। शरीर पूरी तरह जमीन से चिपटा हो। मूल घुटने यहां तक कि पैरों के पंजों की पीठ तक जमीन से पूरी तरह चिपकी हो। अब क्रमशः सिर, गर्दन, गला, छाती और पेट को धीरे-धीरे जमीन से उठाते जाइए और जितना तान सकें तान दीजिए। दृष्टि सामने रहे। शरीर सांस के फन की तरह तना खड़ा रहे। नाभि के पास तक शरीर जमीन से उठ जाना चाहिए।
धनुषासन — आसन पर लेट जाइए। फिर दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ कर पीछे की तरफ ले जाइए और हाथ भी पीछे ले जाकर दोनों पैरों को पकड़ लीजिए, अब धीरे-धीरे सिर और छाती को ऊपर उठाइए साथ ही हाथों को भी ऊपर की ओर खींचते हुए पैरों को ऊपर की ओर तानिए। आगे पीछे शरीर इतना उठा दीजिए कि केवल पेट और पेड़ू जमीन से लगे रह जाएं।
शरीर का बाकी तमाम हिस्सा उठ जाय और शरीर खिंच कर धनुष के आकार का हो जाय। पैर, सिर और छाती के तनाव में टेढ़ापन आ जाय दृष्टि सामने रहे और स ना निकला हुआ मालूम हो।
मयूरासन — घुटनों के सहारे आसन पर बैठ जाइए फिर दोनों हाथ जमीन पर साधारण अन्तर से ऐसे रखिए कि पंजे पीछे (भीतर) की ओर रहें। अब दोनों पैरों को पीछे ले जाकर पंजों के बल हूजिए और हाथों को दोनों कोहनियों नाभि के दोनों तरफ लगाकर छाती और सिर को आगे की ओर दबाते हुए पैरों को जमीन से ऊपर उठाने का प्रयत्न कीजिए।
जब पैर जमीन से उठा कर कोहनियों के समानान्तर आ जायं तो सिर और छाती को भी सीधा कर दीजिए। सारा शरीर हाथों की कोहनियों पर सीधा आकर तुल जाना चाहिए।
यह आठ आसन ऐसे हैं जो अधिक कष्ट साध्य न होते हुए भी मर्मों और संधियों पर प्रभाव डालने वाले हैं। शास्त्रों में इनकी विशेष प्रशंसा है।
इन सब के द्वारा जो लाभ होते हैं उनका सम्मिश्रित लाभ सूर्य नमस्कार से होता है। यह एक ही आसन कई आसनों के मिश्रण से बना है उनका परस्पर ऐसा क्रमवत् तारतम्य है कि अलग अलग आसनों की अपेक्षा यह एक ही आसन अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।
हम गायत्री साधकों को बहुधा सूर्य नमस्कार करने की ही सलाह देते रहते हैं। हमारे अनुभव में सूर्य नमस्कार के लाभ अधिक महत्व पूर्ण रहे हैं। किन्तु जो कर सकते हों वे उपरोक्त आठ आसनों को भी करें। वे बड़े लाभदायक हैं।
सूर्य नमस्कार की विधि - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
प्रातः काल सूर्योदय समय के आस पास इन साधना को करने के लिए खड़े हूजिए। यदि अधिक सर्दी गर्मी या हवा हो तो हलका कपड़ा शरीर पर पहने रहिए। अन्यथा लंगोट या नेकर के अतिरिक्त सब कपड़े उतार दीजिए। खुली हवा में स्वच्छ खुली खिड़कियों के कमरे में कमर सीधी रखकर खड़े हूजिए।
मुख पूर्व की ओर कर लीजिए। नेत्र बन्द करके हाथ जोड़ कर भगवान सूर्य नारायण का ध्यान कीजिए और भावना कीजिए की तेजस्वी आरोग्य मयी किरणें आपके शरीर में चारों ओर से प्रवेश करती हुई आपको तेज धारण आरोग्य प्रदान कर रही हैं अब निम्न प्रकार क्रिया आरम्भ कीजिए।
1—पैरों को सीधा रखिए। कमर पर से नीचे की ओर झुकिए, दोनों हाथों को जमीन पर लगाइए। मस्तक घुटनों से लगे, यह हस्तपादासन है। इससे टखनों का, टांग के नीचे के भागों का, जंघा का, चूतड़ों का, पसलियों का, कन्धों के पृष्ट भाग तथा बांहों के नीचे के भाग का व्यायाम होता है।
2—सिर को घुटनों से हटा कर लम्बा श्वांस लीजिए। पहले दाहिने पैर को पीछे ले जाइए और पंजे को लगाइए। बाएं पैर को आगे की ओर मुड़ा रखिए। दोनों हथेलियां जमीन से लगी रहें। निगाह सामने और सिर कुछ ऊंचा रहे। इससे जांघों के दोनों भागों का तथा बांए पेड़ू का व्यायाम होता है इसे ‘‘एकपादप्रसरणासन’’ कहते हैं।
3—बांए पैर को भी पीछे ले जाइए। उसे दाहिने पैर से सटा कर रखिए। कमर को ऊंचा उठा दीजिए। सिर और सीना कुछ नीचे झुक जायगा।
यह द्विपादप्रसरणासन है। इससे हथेलियों की सब नसों का, भुजाओं का, पैरों की उंगलियों और पिंडलियों का व्यायाम होता है।
4—दोनों पांवों के घुटने, दोनों हाथ, छाती तथा मस्तक इन सब अंगों, को सीधे रख कर भूमि से स्पर्श कराइए। शरीर तना रहे—कहीं लेटने की तरह निःचेष्ट न हो जाइए। पेट जमीन को न छुये।
इसे
अष्टांग प्रणिपातासन कहते हैं। इससे बाहों, पसलियों, पेट गर्दन, कन्धे तथा भुजदंडों का व्यायाम होता है।
5—हाथों को सीधा खड़ा कर दीजिए। सीना ऊपर उठाइए। कमर को जमीन की ओर झुकाइए सिर ऊंचा कर दीजिए आकाश को देखिये। घुटने जमीन पर न टिकने पावें। पंजे और हाथों पर शरीर सधा रहे। कमर जितनी मुड़ सके मोड़िए ताकि धड़ ऊपर को अधिक उठ सके।
यह सर्पासन है। इससे जिगर का आंतों का तथा कण्ठ का अच्छा व्यायाम होता है।
6—हाथ और पैरों के पूरे तलुए जमीन से स्पर्श कराइए। घुटने और कोहनियों के टखने झुकने न पावें। कमर को जितनी हो सके ऊपर उठा दीजिए। ठोड़ी कण्ठ मूल में लगी रहे, सिर नीचा रखिए।
यह मूधरासन है। इससे गर्दन, पीठ, कमर, कूल्हे, पिंडली, पैर तथा भुजदण्डों की कसरत होती है।
7—यहां से अब पहले की हुई क्रियाओं पर वापिस जाया जायगा। दाहिने पैर को पीछे ले जाइए। पूर्वोक्त नं0 2 के अनुसार एकपाद प्रसारणासन कीजिए।
8—पूर्वोक्त नं0 1 की तरह हस्त पादासन कीजिए।
9—सीधे खड़े हो जाइए। दोनों हाथों को ऊपर आकाश की ओर ले जाकर हाथ जोड़िए। सीने को जितना पीछे ले जा सकें ले जाइए। हाथ जितने पीछे जा सकें ठीक है। पर वे मुड़ने न पावें। यह ऊर्ध्व नमस्कारासन है इससे फेफड़े और हृदय का अच्छा व्यायाम होता है।
10—अब उसी आरम्भिक स्थिति पर आ जाइए। सीधे खड़े होकर हाथ जोड़िए और भगवान सूर्य नारायण का ध्यान कीजिए।
यह एक सूर्य नमस्कार हुआ। आरम्भ पांच से करके सुविधानुसार थोड़ी थोड़ी संख्या धीरे धीरे बढ़ाते जाना चाहिए। व्यायाम काल में मुंह बन्द रखना चाहिए। सांस नाक से ही लेनी चाहिए।
तत्वशुद्धि - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
यह सृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है। प्राणियों के शरीर भी इन तत्वों से ही बने हुए हैं। मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश इन पांच तत्वों का ही यह सब कुछ संप्रसार है। जितनी वस्तुएं दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं उन सब की उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई है। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से ही होता है।
यह प्रसिद्ध है कि जल वायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। शीत प्रधान देशों के योरोपियन लोगों का रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य, अफ्रीका के उष्ण प्रदेश वासियों के रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली, मद्रासी, लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है। यह जलवायु का ही अन्तर है।
किन्हीं प्रदेशों में मलेरिया, पीला बुखार, पेचिस, चर्मरोग, फील पांव, कुष्ट आदि रोगों की बाढ़ सी रहती है और किन्हीं स्थानों का जलवायु ऐसा होता है कि वहां जाने पर तपैदिक सरीखे कष्ट साध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं। पशु, पक्षी, घास, अन्न, फल, औषधि आदि के रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण प्रकृति आदि में भी जलवायु के अनुसार अन्तर पड़ता है। इसी प्रकार वर्षा, गर्मी, सर्दी, का तत्व परिवर्तन प्राणियों में अनेक प्रकार सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है।
आयुर्वेद शास्त्र में वात, पित्त, कफ का असंतुलन रोगों का कारण बताया गया है।
वात का अर्थ है—वायु,
पित्त का अर्थ है—गर्मी,
कफ का अर्थ है—जल!
पांच तत्वों में पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है। मिट्टी से ही यह देह बनी है और जला देने या गाढ़ देने पर केवल मिट्टी के रूप में ही इसका अस्तित्व बनता है। इसलिए पृथ्वी तत्व तो शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बनता।
दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से, बुद्धि से एवं इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है। स्थूल शरीर पर जल वायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है। और उन्हीं प्रभावों के आधार पर रोग एवं स्वास्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं।
वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कम्प, अड़कन, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं अग्नि तत्व के विकार से फोड़े-फुन्सी, चेचक ज्वर, रक्त पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वास, उपदंश, दाह, रक्त विकार आदि बढ़ते हैं।
जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिस, संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम, प्रदर, जुकाम, खांसी आदि रोग पैदा होते हैं। अग्नि की मात्रा कम हो तो शीत, जुकाम, अड़कन, अपच, शिथिलता सरीखे रोग उठ खड़े होते हैं। इसी प्रकार अन्य तत्वों का घटना बढ़ना अनेक रोग उत्पन्न करता है।
आयुर्वेद के मत से विशेष प्रभावशाली, गतिशील, सक्रिय एवं स्थूल शरीर की स्थिति करने वाले कफ, वात, पित्त, जल, वायु, गर्मी ही है। और दैनिक जीवन में जो उतार चढ़ाव होते रहते हैं उनमें इन तीन का ही प्रधान कारण होता है। फिर भी शेष दो तत्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप से काफी प्रभाव डालते हैं।
मोटा या पतला होना, लम्बा या ठिगना होना, रूपवान या कुरूप होना, गोरा या काला होना, कोमल या सुदृढ़ होना शरीर में पृथ्वी तत्व की स्थिति से सम्बन्धित है। इसी प्रकार चतुरता, मूर्खता, सदाचार-दुराचार, नीचता-मानता, तीव्र बुद्धि—मन्द बुद्धि, सकन—दूरदर्शिता, खिन्नता प्रसन्नता एवं गुण, कार्य, स्वभाव, इच्छा, आकांक्षा, भावना, आदर्श, लक्ष आदि बातें इस बात पर निर्भर रहती हैं कि शरीर में आकाश तत्व की स्थिति क्या है।
उन्माद, सनक, दिल की धड़कन, अनिद्रा, पागलपन, दुःस्वप्न, मृगी, मूर्छा, घबराहट, निराशा आदि रोगों में भी आकाश ही प्रधान कारण होता है।
रसोई का स्वादिष्ट तथा लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उसमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों। चावल दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में अग्नि का प्रयोग कम रहे या अधिक हो जाय तो वह खाने लायक न होगी। इसी प्रकार पानी, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या अधिक हो जाय तो भोजन का स्वाद, गुण तथा रूप बिगड़ जायगा।
यही दशा शरीर की है। तत्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है। जल, वायु, सर्दी, गर्मी (ऋतु प्रभाव) के कारण रोगी मनुष्य निरोग और रोगी बन सकता है।
योग साधकों को जान लेना चाहिए कि पंच तत्वों से बने शरीर को सुस्थिर रखने का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि देह में सभी तत्व स्थिर मात्रा में रहें। गायत्री के पांच मुख, शरीर में पांच तत्व बनकर निवास करते हैं। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों को क्रियाशील रखते हैं। लापरवाही, अव्यवस्था, और आहार विहार के असंयम से तत्वों का सन्तुलन बिगाड़ कर रोग ग्रस्त होना एक प्रकार से पंचमुखी गायत्री माता का, देह परमेश्वरी का तिरष्कार करना है।
वेदान्त शास्त्र में इन पंच तत्वों को आत्मा का आवरण एवं बन्धन माना गया है। भगवान शंकराचार्य ने ‘तत्वबोध’ की संकेत पिटिका में पंचीकरण विद्या बताई है। उनका कथन है कि बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पहले हमें यह भली भांति जान लेना चाहिए कि यह संसार और कुछ नहीं केवल पंचभूतों के परमाणुओं का इधर उधर उड़ते फिरना, संयुक्त ओर वियुक्त होते रहना मात्र है। जैसे वायु से प्रेरित बादल इधर उड़ते हैं तो उसके संयोग वियोग से आकाश में पर्वत, रीछ, सिंह, पक्षी, घर, वृक्ष, गुफा जैसे नाना प्रकार के कौतूहल पूर्ण चित्र क्षण क्षण में बनते और बिगड़ते रहते हैं उसी प्रकार इस संसार में नाना प्रकार के निर्माण, विकास और ध्वंस होते रहते हैं।
जैसे बादलों के बनने वाले चित्र मिथ्या हैं, भ्रम हैं, भुलावा हैं, स्वप्न हैं, वैसे ही यह संसार माया भ्रम, या स्वप्न है। यह पांच भूतों के उड़ते फिरने का खेल मात्र है। इसी लिये इसे लीलाधर की लीला, नटवर की कला का माया बताया गया है।
कई अदूरदर्शी, व्यक्ति ‘संसार स्वप्न’ है कि उक्ति सुनते ही आग बबूला हो जाते हैं। और वेदान्त शास्त्र पर यह आरोप लगाते हैं कि ‘‘‘इन विचारों के द्वारा लोगों में अकर्मण्यता, निराशा, निरुत्साह, अनिच्छा पैदा होगी और सांसारिक उन्नति की महत्वाकांक्षा शिथिल हो जाने से हमारा समाज या राष्ट्र पिछड़ा रह जायगा।’’ यह आक्षेप बहुत ही उथला और अविवेक पूर्ण है।
वेदान्त विरोधी भी इतना तो जानते ही हैं कि हमें मरना है और मरने पर कोई भी वस्तु साथ नहीं जाती। इतनी जानकारी होते हुए भी वे सांसारिक उन्नति को छोड़ते नहीं। स्वप्न में भी सब काम होते रहते हैं। इसी प्रकार शरीर का निर्माण ही ऐसे ढंग से हुआ है, उसमें पेट की, इन्द्रियों की, मन की क्षुधाएं इतनी प्रबल लगादी गई हैं कि बिना कर्तव्य परायण हुए कोई प्राणी क्षण भर भी चैन से नहीं बैठ सकता। निष्क्रिय व्यक्ति के लिए तो जीवन धारण किये रहना भी असम्भव है।
वेदान्त ने संसार को दार्शनिक विवेचना करते हुए उसे पंच भूतों का अस्थिर परमाणु पुंज स्वप्न बताया है तो इसका फलितार्थ यह होना चाहिए कि हम आत्मिक लाभ के लिए ही सांसारिक वस्तुओं का उपार्जन एवं उपयोग करें। वस्तुओं की मोहकता पर आसक्त होकर उनके संचय, स्वामित्व एवं अनियंत्रित भोगों की मृग तृष्णा में अपने आत्मिक हितों का बलिदान न करें।
कर्तव्य रत रहना तो शरीर का स्वाभाविक धर्म है इसे त्यागना किसी भी जीवित व्यक्ति के लिए संभव नहीं। वेदान्त की यह शिक्षा कि ‘‘यह संसार पंच भूतों की क्रीड़ा स्थली मात्र है’’ पूर्णतया विज्ञान सम्मत है। दार्शनिकों की भांति वैज्ञानिक भी यही बताते हैं कि अणु परमाणुओं के द्रुत गति से परिभ्रमण करने के कारण संसार की गति शीलता है और यह पांच तत्वों से बने हुए 96 जाति के परमाणु ही संसार की असंख्य वस्तुओं देहों, योनियों के उत्पादन एवं विनाश के हेतु हैं।
‘पंचीकरण विद्या’ के अनुसार साधक जब भली प्रकार यह बात हृदयंगम कर लेता है कि यह संसार उड़ते हुए परमाणुओं के संयोग वियोग से क्षण क्षण में बनने बिगड़ने वाली चित्रावली मात्र है तो उसका दृष्टिकोण भौतिक न रहकर आत्मिक हो जाता है। वह वस्तुओं का अनावश्यक मोह न करके उन बुराइयों से बच जाता है जो लोभ और मोह को भड़का कर नाना प्रकार के पाप, तृष्णा, द्वेष, चिन्ता, शोक और अभाव जन्य क्लेशों से जीवन को नारकीय बनाये हुए हैं।
पंचीकरण विद्या के अनुसार यह बताया जाता है कि हमारे शरीर एवं मस्तिष्क के प्रत्येक अंग, प्रत्येक इच्छा, गुण, कर्म, स्वभाव आदि पंच भूतों और तन्मात्राओं से उत्पन्न होते हैं। यह अनात्म तत्व हैं। उन पर अपना स्वामित्व या मोह न होना चाहिए।
देह या मन को अपना मानने का कोई कारण नहीं, यह जड़, नश्वर, परिवर्तन शील, देह भी संसार के अन्य पदार्थों की भांति ही पंच भौतिक है। इसलिए इसको अपने उपयोग की वस्तु, औजार या सवारी समझ कर आनन्द मयी जीवन यात्रा के लिए प्रयुक्त तो करना चाहिए पर देह या मन की अनावश्यक तृष्णाओं के पीछे आत्मा को परेशान न करना चाहिए। इस मान्यता को हृदयंगम कराने के लिए शरीर का विश्लेषण करते हुए तत्वबोध में बताया गया है किस तत्व से शरीर का कौन सा भाग बनता है।
पृथ्वी तत्व की प्रधानता से अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी, रोम, आदि भारी ठोस पदार्थ बने हैं। जल की प्रधानता से पसीना, मूत्र, कफ, रक्त, शुक्र, आदि प्रवाही पदार्थ बनते हैं। अग्नि तत्व के कारण—भूख, प्यास, श्रम, थकान, निद्रा, कान्ति आदि का अस्तित्व है। वायु तत्व में चलना, फिरता, गति, क्रिया, सिकुड़ना फैलना होता है। आकाश तत्व से—काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि वृत्तियों, इच्छाओं और विचार धाराओं का आविर्भाव हुआ करता है तात्पर्य यह है कि शरीर में जो कुछ भी अंग प्रत्यंग, पदार्थ तथा प्रेरणा है वह पंच तत्वों के आधार पर है।
जब इस प्रपंच संसार को, और पंचावरण शरीर में से ‘अहम्’ की मान्यता हटा कर विश्व व्यापी चैतन्य आत्मा में अपने को परव्याप्त मान लेता है तो वह परिपूर्ण मान्यता ही मुक्ति बन जाती हैं। शरीर और संसार की पंच भौतिक सत्ता को ‘प्रपंच’ शब्द से सम्बोधित किया गया है और वेदान्त शास्त्र के योग साधनों को आदर्श दिया है कि—मैं और मेरा, द्वैत छोड़ कर केवल ‘मैं’ का अद्वैत सीखो। विश्व में जो कुछ है वह मैं आत्मा हूं। मुझसे भिन्न कुछ नहीं।’’ यह मान्यता अद्वैत ब्रह्म को प्राप्त करा देती है।
इसी बात को भक्ति मार्गी दूसरे शब्दों में कहते हैं। ‘‘जो कुछ है तू है। मेरा अलग अपनत्व कुछ नहीं।’’ दोनों ही मान्यताएं बिलकुल एक हैं। भक्ति मार्ग और वेदान्त में शब्दों के फेर के अतिरिक्त वस्तुतः कुछ अन्तर नहीं है।
अन्नमय कोश के परिमार्जन के लिए तीसरा उपाय ‘तत्व शुद्धि’ है। स्थल रूप से शरीर के पंच तत्वों को ठीक रखने के लिए जल, वायु, ऋतु प्रदेश और वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है। सूक्ष्म रूप से पंचीकरण विद्या के अनुसार तत्व ज्ञान प्राप्त करके आत्म तत्व और अनात्म तत्व के अन्तर को समझते हुए प्रपंच से छुटकारा पाना चाहिए। तत्व शुद्धि के दोनों ही पहलू महत्व पूर्ण हैं। जिसे अपना अन्नमय कोश ठीक रखना चाहिए उसे व्यवहारिक जीवन में पंचतत्वों की शुद्धि सम्बन्धी बातों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।
(1) जल तत्व—जल तत्व जल से शरीर और वस्त्रों की शुद्धि बराबर करता रहे, स्नान करने का उद्देश्य केवल मैल छुड़ाना नहीं है वरन् पानी में रहने वाली ‘विशिवा’ नामक विद्युत से देह को सतेज करना एवं ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि बहुमूल्य तत्वों से शरीर को सींचना भी है। सवेरे शौच जाने से बीस-तीस मिनट पूर्ण एक गिलास पानी पीना चाहिए जिससे रात का अपच धुल जाय और शौच साफ हो।
पानी को सदा घूंट-घूंट कर धीरे-धीरे दूध की तरह पीना चाहिए हर घूंट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए कि ‘‘इस अमृत तुल्य जल में जो शीतलता, मधुरता और शक्ति भरी हुई है उसे खींच कर में अपने शरीर में धारण कर रहा हूं।’’ इस भावना के साथ पिया हुआ पानी दूध के समान गुण कारक होता है।
जिन स्थानों का पानी भारी, खारी, तेलिया, उथला तालाबों का तथा हानिकारक हो वहां रहने से अन्नमय कोश में विकार पैदा होता है। कई स्थानों में पानी ऐसा होता है कि वहां फीलपांव, अंडवृद्धि, नासूर, जलोदर, कुष्ठ, खुजली, मलेरिया, जुएं, मच्छर आदि का बड़ा प्रसार होता है। ऐसे स्थानों को छोड़ कर स्वच्छ, हलके, सुपाच्य जल के समीप अपना निवास रखना चाहिए। धनी लोग दूर स्थानों से भी अपने लिए उत्तर जल मंगा सकते हैं।
कभी कभी एनिमा द्वारा पेट में जल चढ़ाकर आंतों की सफाई कर लेनी चाहिए। उससे संचित मलों से विष पेट में से निकल जाते हैं और चित्त बड़ा हलका हो जाता है। प्राचीन काल में वस्ति क्रिया योग का आवश्यक अंग था। अब एनिमा यन्त्र द्वारा यह क्रिया बड़ी सुगम हो गई है।
जल चिकित्सा पद्धति रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए बड़ी उपयुक्त है। डॉक्टर लुई कूने ने इस विज्ञान पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी बताई हुई पद्धति से किये गए कटि स्नान, मेहन स्नान, मेरुदण्ड स्नान, गीली चादर का लपेटना, कपड़े को पट्टी, गीली मिट्टी का पलस्तर आदि से रोग निवारण में बड़ी सहायता मिलती है।
(2) अग्नि तत्व—सूर्य के प्रकाश के अधिक संपर्क में रहने का प्रयत्न करना चाहिए। घर में सभी खिड़कियां खुली रखनी चाहिए ताकि धूप और हवा खूब जाती रहे। सवेरे की धूप नंगे शरीर पर लेने का प्रयत्न करना चाहिए। धूप में रख कर तपाये हुए जल का उपयोग करना, भीगे बदन पर धूप लेना उपयोगी है।
सूर्य की सप्त किरणों में अल्ट्रा वायलेट और अल्फा वायलेट किरणें स्वास्थ्य के लिए बड़ी उपयोगी साबित हुई है वे जल के साथ धूप का मिश्रण होने से खिंच आती है। धूप में रख कर रंगीन कांच की बोतलों में पानी, शक्कर, तेल, दूध आदि को सूर्य शक्ति युक्त करके उससे सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा करने की विस्तृत विधि हम अपनी ‘सूर्य चिकित्सा विज्ञान’ पुस्तक में लिख चुके हैं, अग्नि और जल के सम्मिश्रण से भाप बनाकर उसके उपचार से रोगों को किस प्रकार मार भगाया जा सकता है। इसकी विधि ‘‘पंच तत्वों से सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा’’ पुस्तक में लिख चुके हैं।
रविवार को उपवास रखना सूर्य की तेजस्वता एवं बलदायिनी शक्ति का सूक्ष्म आह्वान है। पूरा या आंशिक उपवास शरीर की कान्ति और आत्मिक तेज को बढ़ाने वाला सिद्ध होता है।
(3) वायु तत्व—घनी आबादी के वे मकान जहां धूलि, धुआं, सील की भरमार रहती है और शुद्ध वायु का आवागमन जहां नहीं होता वे स्थान स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है। हमारा निवास खुली हवा में होना चाहिए। दिन में वृक्ष और पौधों से औषजन वायु (ऑक्सीजन) निकलती है यह मनुष्य के लिए बड़ी उपयोगी है। जहां तक हो सके वृक्ष पौधों के बीच अपना दैनिक कार्यक्रम करना चाहिए अपने घर आंगन चबूतरे आदि पर फूल पौधे लगाने चाहिए।
प्रातः काल की वायु बड़ी स्वास्थ्य प्रद होती है उसे सेवन करने के लिए तेज चाल से टहलने के लिए जाना चाहिए। दुर्गन्धित, एवं बंद हवा के स्थानों से अपना निवास दूर ही रखना चाहिए। तराई, सील, नमी के स्थानों की वायु ज्वर आदि पैदा करती है। तेज हवा के झोकों से त्वचा फट जाती है। अधिक ठंडी या गर्म हवा से निमोनिया या लू लगना जैसे रोग हो सकते हैं उस प्रकार के प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करनी चाहिए।
प्राणायाम द्वारा फेफड़ों का व्यायाम होता है और शुद्ध वायु से रक्त की शुद्धि होती है। इसलिए स्वच्छ वायु के स्थान में बैठकर नित्य प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम की विधि—प्राणायाम कोश की साधना के प्रकरण में लिखेंगे।
हवन करना—अग्नि तत्व के संयोग से वायु को शुद्ध करता है। जो वस्तु अग्नि में जलाई जाती है वह नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर वायु मण्डल में फैल जाती है। भिन्न भिन्न वृक्षों की समिधाओं एवं हवन सामग्रियों में अलग-अलग गुण हैं। उनके द्वारा ऐसा वायु मण्डल रखा जा सकता है जो शररी और मन को स्वस्थ बनाने में सहायक हो। किस समिधा और किन-किन सामग्रियों से किस विधान के साथ हवन करने का क्या परिणाम होता है। इसका विस्तृत विधान बताने के लिए एक स्वतंत्र पुस्तक लिखने का विचार है।
गायत्री साधकों को तो अपने अन्नमय कोश की वायु शुद्धि के लिए एक हवन सामग्री बनाकर रख लेनी चाहिए, जो धूप दानी में थोड़ी-थोड़ी जला कर उससे अपने निवास स्थान की वायु को शुद्ध करते रहना चाहिए।
चन्दन-चूरा; देवदारु, जायफल, इलायची, जावित्री; अगर तगर, कपूर, छारछबीला, नागरमोथा, खस, कचूर-कचरी तथा मेवाएं जौकुट करके थोड़ा घी और शंकर मिलाकर धूप बन जाती है। इस धूप की बड़ी मन मोहक एवं स्वास्थ्य वर्धक गन्ध आती है। बाजार से भी कोई अच्छी अगरबत्ती या धूपबत्ती लेकर काम चलाया जा सकता है। साधना काल में सुगन्ध का ऐसी व्यवस्था कर लेना उत्तम है।
सांस को मुंह से नहीं सदा नाक से ही लेना चाहिए। कपड़े से मुंह ढक कर नहीं सोना चाहिए और किसी के मुंह इतना पास नहीं ले जाना चाहिए कि उसकी छोड़ी हुई सांस अपने भीतर जाय। धूलि, धुआं और दुर्गन्ध भरी अशुद्ध वायु से सदा बचना चाहिए।
(4) पृथ्वी तत्व—शुद्ध मिट्टी में विष निवारण की अद्भुत शक्ति होती है। गन्दे हाथों को मिट्टी से मांजकर शुद्धि किया जाता है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जमीन खोद गुफा बना लेते थे और उसमें रहा करते थे। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा असर पड़ता था।
मिट्टी उनके शरीर के दूषित विकारों को खींच लेती थी, साथ ही भूमि से निकलने वाले वाष्प द्वारा देह का पोषण भी होता रहता था। समाधि लगाने के लिये गुफाएं उपयुक्त स्थान समझी जाती हैं क्योंकि चारों ओर मिट्टी से घिरे होने के कारण शरीर को सांस द्वारा ही बहुत-सा आहार प्राप्त हो जाता है और कई दिन तक भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम भोजन से काम चल जाता है।
छोटे बालक जो प्रकृति के अधिक समीप हैं पृथ्वी के महत्व को जानते हैं। वे भूमि पर खेलना, भूमि पर लेटना, गद्दी तकियों की अपेक्षा अधिक पसन्द करते हैं। पशुओं को देखिये वे अपनी थकान मिटाने के लिए जमीन पर लेट लगाते हैं और लोट-पोट कर पृथ्वी की पोषण शक्ति से फिर ताजगी प्राप्त कर लेते हैं तीर्थ यात्रा एवं धर्म कार्यों के लिए नंगे पैरों चलने का विधान है। तपस्वी लोग भूमि पर शयन करते हैं।
इन प्रथाओं का उद्देश्य धर्म साधना के नाम पर पृथ्वी की पोषक शक्ति द्वारा साधनों को लाभान्वित करना ही है। पक्के मकानों की अपेक्षा मिट्टी की झोंपड़ी में रहने वाले सदा अधिक स्वस्थ रहते हैं।
मिट्टी के उपयोग द्वारा स्वास्थ्य सुधार में हमें बहुत सहायता मिलती है। निर्दोष पवित्र भूमि पर नंगे पावों टहलना चाहिए। जहां छोटी छोटी घास उग रही हो वहां टहलना तो और भी अच्छा है।
पहलवान लोग चाहे वे अमीर ही क्यों न हो रुई के गद्दों पर कसरत करने की अपेक्षा मुलायम मिट्टी के अखाड़ों में ही व्यायाम करते हैं ताकि मिट्टी के अमूल्य गुणों का लाभ उनके शरीर को प्राप्त हो। साबुन के स्थान पर पोतनी या मुल्तानी मिट्टी का उपयोग किया जा सकता है। वह मैल को दूर करेगी, विष को खींचेगी और त्वचा को कोमल, ताजा, चमकीली और प्रफुल्लित कर देती है।
मिट्टी शरीर पर लगाकर स्नान करना एक अच्छा उबटन है। उससे गर्मी के दिनों में उठने वाली मरोड़ियां और फुंसियां दूर हो जाती हैं। सिर के बालों को मुल्तानी मिट्टी से धोने का रिवाज अभी तक मौजूद है इससे सिर का मैल दूर होता है। खुरट जमने बन्द होते हैं। बाल काले मुलायम और चिकने रहते हैं तथा मस्तिष्क में बड़ी तरावट पहुंचती है। हाथ साफ करने और बर्तन मांजने के लिए मिट्टी से अच्छी और कोई चीज नहीं है।
फोड़े, फुन्सी, दाद, खाज, गठिया, दर्द, जहरीले जानवरों के काटने, सूजन, जख्म, गिल्टी, नासूर, दुखती हुई आंखें, कुष्ट, उपदंश, रक्त विकार आदि रोगों पर गीली मिट्टी बांधने से आश्चर्यजनक लाभ होता है। डॉक्टर लुईकु ने अपनी जल चिकित्सा में मिट्टी की पट्टी के अनेक उपचार लिखे हैं। चूल्हे की जल हुई मिट्टी से दांत मांजने, नाक के रोगों में मिट्टी के ढेले पर पानी डाल कर सुंघाने, लू लगने पर पैरों के ऊपर मिट्टी थोप देने की विधि से सब लोग परिचित हैं।
किसी स्थान पर बहुत समय तक मल मूत्र डालते रहें तो डालना बन्द कर देने के बाद भी बहुत समय तक वहां दुर्गन्ध आती रहती है। कारण यह है कि भूमि में शोषण शक्ति है। वह पदार्थों को सोख लेती है और उनका प्रभाव बहुत समय तक अपने धारण किये रहती है।
पृथ्वी की सूक्ष्म शक्ति लोगों के सूक्ष्म विचारों और गुणों को भी सोख कर अपने में धारण कर लेती है। जिस स्थान पर हत्या, व्यभिचार, जुआ, मद्यपान आदि दुष्कर्म होते हैं उन स्थानों का वातावरण ऐसा घातक होता है कि वहां जाने वाले पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
श्मशान भूमि जहां अनेक मृत शरीर नष्ट हो जाते हैं, अपने में एक भयंकरता छिपाये बैठी रहती है। वहां आने पर एक विलक्षण प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। कई तांत्रिक साधनाएं तो ऐसी हैं जिनके लिए केवल मात्र मरघट का वातावरण ही उपयुक्त होता है।
भूमिगत प्रभाव से गायत्री साधकों को लाभ उठाना चाहिए। जहां सत्पुरुष रहते हैं, जहां स्वाध्याय, सद्विचार, सत्कार्य होते हैं वह स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ हैं उन स्थानों का वातावरण साधक की सफलता में बड़ा लाभदायक होता है। जिस स्थानों में किसी समय में कोई अवतार या दिव्य पुरुष रहे हैं उन स्थानों की प्रभाव शक्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करके तीर्थ बनाये गये हैं। जहां कोई सिद्ध पुरुष या तपस्वी बहुत काल तक रहे हैं। वह स्थान सिद्ध पीठ बन जाते हैं और रहने वालों पर अनायास ही अपना प्रभाव डालते हैं।
सूक्ष्म दर्शी महात्माओं ने देखा है कि भगवान कृष्ण की प्रत्यक्ष लीला तरंगें अभी तक ब्रज भूमि में बड़ी प्रभाव पूर्ण स्थिति मौजूद हैं। तीर्थ वासियों के दूषित चित्तों के बावजूद इस भूमि की प्रभाव शक्ति अब भी बनी हुई है और साधक को उसका स्पर्श होते ही शान्ति मिलती है।
कितने ही मुमुक्षु अपनी आत्मिक शान्ति के लिए इस पुण्य भूमि में निवास करने का स्थायी या अल्प कालीन अवसर निकालते हैं। कारण यह है कि क्लेश युक्त वातावरण के स्थानों में जितने श्रम और समय में जितनी सफलता मिलती है उसकी अपेक्षा पुण्य भूमि के वातावरण में कहीं जल्दी और कहीं अधिक लाभ होता है। तीर्थ स्थानों में नंगे पैर भ्रमण करने का भी महात्म्य इसीलिए है कि उन स्थानों की पुण्य तरंगें अपने शरीर से प्रत्यक्ष स्पर्श करके आत्म शान्ति का हेतु बनें।
(5) आकाश तत्व — आकाश तत्व पिछले चार तत्वों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिशाली है। विश्वव्यापी पोल में शून्याकाश में एक शक्ति तत्व भरा हुआ है जिसे अंग्रेजी में ‘ईथर’ कहते हैं। पोले स्थान को खाली नहीं समझना चाहिए जैसे समुद्र में पानी भरा रहता है उसी प्रकार पोल में ‘ईथर’ भरा हुआ है। वह वायु से भी सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं होता। तो भी उसका अस्तित्व पूर्णतया प्रमाणित है।
रेडियो द्वारा जो गायन, समाचार, भाषण आदि हम सुनते हैं वे ईथर में, आकाश तत्व में, तरंगों के रूप में आते हैं। जैसे पानी से ढेला फेंक देने पर उसकी लहर बनती हैं और वह लहर जलाशय के अंतिम छोर तक चली जाती हैं इसी प्रकार ईथर में आकाश शब्द की तरंगें पैदा होती हैं और वह पलक मारते विश्व भर में फैल जाती हैं। इसी विज्ञान के आधार पर रेडियो यन्त्र का आविष्कार हुआ है।
एक स्थान पर शब्द तरंगों के साथ बिजली की शक्ति मिला कर उन्हें अधिक बलवती करके प्रवाहित कर दिया जाता है। अन्य स्थानों पर जहां रेडियो यन्त्र लगे हैं उन आकाश में बहने वाली तरंगों को पकड़ लिया जाता है और प्रेरित सन्देश सुनाई देने लगते हैं।
वाणी चार प्रकार की होती है।
1—बैखरी-जो मुंह से बोली और कान से सुनी जाती है, जिसे ‘शब्द’ कहते हैं।
2—मध्यमा-जो संकेतों से, मुखाकृति से, भावभंगी से, नेत्रों से कही जाती है इसे ‘भाव’ कहते हैं।
3—पश्यन्ति-जो मन से निकलती है और मन से ही उसे सुन सकता है उसे ‘विचार’ कहते हैं।
4—परा-यह आकांक्षा, इच्छा, निश्चय प्रेरणा, शाप वरदान आदक रूप में अन्तःकरण से निकलती है। इसे संकल्प कहते हैं।
यह चारों ही वाणियां आकाश में तरंग रूप से प्रवाहित होती हैं। जो व्यक्ति जितना प्रभावशाली है उसके शब्द, भाव, विचार और संकल्प आकाश में उतने ही प्रबल होकर प्रवाहित होते रहते हैं।
आकाश असंख्य प्रकृति के असंख्य व्यक्तियों द्वारा असंख्य प्रकार की स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दावली प्रेरित होती रहती है। हमारा अपना मन जिस केन्द्र पर स्थिर होता है उसी जाति के असंख्य प्रकार के विचार हमारे मस्तिष्क में धंस जाते हैं और अदृश्य रूप से उन अपने पूर्व निर्धारित विचारों की पुष्टि करना आरम्भ कर देते हैं। यदि हमारा अपना विचार व्यभिचार करने का हो तो असंख्य व्यभिचारियों द्वारा आकाश में प्रेरित किये गये वैसे ही शब्द, भाव, विचार और संकल्प हमारे ऊपर बरस पड़ते हैं और उनके उपाय, सुभाव, मार्ग बताकर उसी ओर उत्साहित कर देते हैं।
हमारे अपने स्वनिर्मित विचारों में एक मौलिक चुम्बकत्व होता है। उसी के अनुरूप आकाशगामी विचार हमारी ओर खिंचते हैं। रेडियो में जिस स्टेशन के मीटर पर सुई करदी जाय उसी के सन्देश सुनाई पड़ते हैं और उसी समय में जो अन्य स्टेशन बोल रहे हैं उनकी वाणी हमारे रेडियो से टकराकर लौट आती है वह सुनाई नहीं देती। उसी प्रकार हमारे अपने स्वनिर्मित मौलिक विचार ही अपने सजातियों को आमन्त्रित करते हैं।
मरी लाश को देख कर एक कौआ चिल्लाता है तो अन्य कौए उसकी आवाज सुनकर जमा हो जाते हैं ऐसे ही अपने विचार भी सजातियों को बुलाकर एक अच्छी खासी सेना जमा कर लेते हैं। फिर उस विचार से सैन्य की प्रबलता के आधार पर उसी दिशा में कार्य भी आरम्भ हो जाता है।
आकाश तत्व की इस विलक्षणता को ध्यान में रखते हुए हमें कुविचारों से विषधर सर्प की भांति सावधान रहना चाहिए। अन्यथा वे अनेक स्वजातियों को बुलाकर हमारे लिये एक संकट उत्पन्न कर देंगे। जब कोई कुविचार मन में आवे तो तत्क्षण उसे मार भगाना चाहिए अन्यथा वह सारे मानस क्षेत्र को वैसे ही खराब कर देगा जैसे विष की थोड़ी-सी बूंदें सारे भोजन को बिगाड़ देती हैं।
मन में सदा उत्तम, उच्च, उदार, सात्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिए जिससे उसी जाति के विचार अखिल आकाश में से खिंचकर हमारी ओर चले आवें और सन्मार्ग की ओर हमें प्रेरित करें। उत्तम बातें सोचते रहने, स्वाध्याय मनन, आत्म चिन्तन, परमार्थ और उपासना मया मनोभूमि हमारा बहुत कुछ कल्याण कर सकता है यदि प्रतिकूल कार्य न हो रहे हों तो उच्च विचार धारा से भी सद्गति प्राप्त हो सकती है भले ही उन विचारों के अनुरूप कार्य न हो रहे हों।
संकल्प कभी नष्ट नहीं होते, पूर्व काल में ऋषि-मुनियों के महापुरुषों के जो विचार प्रवचन एवं संकल्प थे वे अब भी आकाश में गूंज रहे हैं। यदि हमारी मनोभूमि अनुकूल हो तो उन दिव्य आत्माओं का पथ-प्रदर्शन एवं सहारा भी हमें अवश्य ही प्राप्त होता रहेगा।
परब्रह्म की ब्रह्मा प्रेरणाएं, शक्तियां, किरणें एवं तरंगें भी आकाश द्वारा ही मानव अन्तःकरण को प्राप्त होती हैं। देव शक्तियां ईश्वर की विविध गुणों वाली किरणें ही तो हैं, आकाश द्वारा मन के माध्यम से उनका अवतरण होता है।
शिवजी ने आकाश वाहिनी गंगा को अपने सिर पर उतारा था, तब वह पृथ्वी पर बही थी। ब्रह्म की सर्व प्रधान दिव्य शक्ति आकाश वाहिनी गायत्री गंगा को साधक सबसे पहले अपने मनःक्षेत्र में उतारता है। यह अवतरण होने पर ही जीवन के अन्य अंगों में वह पतित पावनी पुण्य धारा प्रवाहित होती है।
शरीर में मन या मस्तिष्क आकाश का प्रतिनिधि है। उसी में आकाशगामी परम कल्याण कारक तत्वों का अवतरण होता है। इसलिए साधक को अपना मनःक्षेत्र ऐसा शुद्ध, परिमार्जित स्वस्थ एवं सतेज रखना चाहिए जिससे गायत्री का अवतरण बिना किसी कठिनाई के हो सके।
तपश्चर्या - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
तप का अर्थ है—उष्णता, गति, क्रियाशीलता, घर्षण, संघर्ष, तितीक्षा, कष्ट सहना। किसी वस्तु को निर्दोष, पवित्र एवं लाभदायक बनाना होता है तो उसे तपाया जाता है। सोना तपने से खरा हो जाता है। डॉक्टर अपने औजारों को पहले गरम कर लेते हैं तब उनसे आपरेशन करते हैं। चाकू को शान पर न घिसा जाय तो वह काटने की शक्ति खो बैठेगा। हीरा खराद पर न चढ़ाया जाय तो उसमें चमक और सुन्दरता पैदा न होगी।
व्यायाम का कष्ट साध्य श्रम किये बिना कोई मनुष्य पहलवान नहीं बन सकता। अध्ययन का कठोर श्रम किये बिना विद्वान बनना सम्भव नहीं। माता बच्चे को गर्भ में रखने एवं पालन पोषण का कष्ट सहे बिना मातृत्व का सुख लाभ नहीं कर सकती। कपड़ों को धूप में न सुखाया जाय तो उनमें बदबू आने लगेगी। कोठी में बन्द रखा हुआ अन्न धूप में न डाला जाय तो घुन जायगा। ईंट यदि भट्टे में न पके तो उसमें मजबूती नहीं आ सकती। बिना पका भोजन प्राण रक्षा नहीं कर सकता।
प्राचीन काल में पार्वती ने तप करके मन चाहा फल पाया था, भागीरथ ने तप करके गंगा को भू-लोक पर बुलाया था, ध्रुव के तप ने भगवान को द्रवित कर दिखा दिया था, तपस्वी लोग कठोर तपश्चर्याएं करके सिद्धियां प्राप्त करते थे, रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हिरण्य कश्यप, भस्मासुर आदि ने भी तप के प्रभाव से विलक्षण वरदान पाए थे। आज भी जिस किसी को कुछ प्राप्त हुआ है। वह तप के ही प्रभाव से प्राप्त हुआ है।
ईश्वर तपस्वी पर प्रसन्न होता है और उसे ही अभीष्ट आशीर्वाद देता है। जो धनी, सम्पन्न, समृद्ध, सुन्दर स्वस्थ, विद्वान, प्रतिभाशाली, नेता, अधिकारी आदि के रूप में चमक रहे हैं उनकी चमक अब के या पिछले तप के ऊपर ही अवलम्बित है। यदि वे नया तप नहीं करते और पुरानी तपश्चर्या की पूंजी को खा रहे हैं तो उनकी चमक पूर्व पूंजी चुकते ही धुंधली हो जायगी।
जो लोग आज गिरे हुए हैं उनके उठने का एक मात्र मार्ग है तप। बिना तप के कोई भी सिद्धि, कोई भी सफलता नहीं मिल सकती न सांसारिक न आत्मिक। कल्याण की ताली तप की तिजोरी में रखी हुई है। जो उस खोलेगा वही अभीष्ट वस्तु पावेगा।
दोनों हथेलियों को रगड़ा जाय तो वे गरम हो जाती हैं। दो लकड़ियों को घिसा जाय तो अग्नि पैदा हो जायगी। गति उष्णता क्रिया, तेजी, यह रगड़ का ही परिणाम है। मशीन को चलाने के लिए उसके किसी भी भाग में धक्का या दचका लगाना पड़ेगा अन्यथा कीमती से कीमती मशीन भी बन्द पड़ी ही रहेगी।
शरीर को झटका लगाने के लिए व्यायाम या परिश्रम करना आवश्यक है आत्मा में तेजस्विता, सामर्थ्य एवं चैतन्यता उत्पन्न करने के लिए तप करना होता है। बर्तन मांजे बिना, मकान को झाड़े बिना, अशुद्धि और मलीनता पैदा हो जाती है तपश्चर्या छोड़ देने पर आत्मा भी अशक्त, निस्तेज एवं विकार निस्तेज एवं विकार ग्रस्त हो जाती है। आलसी और आराम तलब शरीर में अन्नमय कोश की स्वस्थता स्थिर नहीं रह सकती, इसलिए उपवास, आसन, तत्व शुद्धि के साथ ही तपश्चर्या को प्रथम कोश की सुव्यवस्था का आवश्यक अंग बताया गया है।
प्राचीन काल में तपश्चर्या को बड़ा महत्व दिया जाता था। जो व्यक्ति जितना परिश्रमी, कष्टसहिष्णुता, साहसी, पुरुषार्थी एवं क्रियाशील होता था उसकी उतनी प्रतिष्ठा होती थी। धनी, अमीर, राजा महाराजा सभी के बालक गुरुकुलों में भेजे जाते थे ताकि वे कठोर जीवन की तपश्चर्या की शिक्षा प्राप्त करके अपने को इतना सुदृढ़ बनालें कि आपत्तियों से लड़ना और सम्पत्ति को प्राप्त करना सुगम हो सके।
आज तप के कष्ट सहिष्णुता के महत्व को लोग भूल गये हैं, और आरामतलबी, आलस्य, नजाकत को अमीरी का चिन्ह मानने लगे। फलस्वरूप पुरुषार्थ घटता जाता है, योग्यता द्वारा उपार्जन करने की अपेक्षा, लोग छल धूर्तता एवं अन्याय द्वारा बड़े बनने का प्रयत्न कर रहे हैं।
गायत्री साधकों को तपस्वी होना चाहिए। अस्वाद व्रत, उपवास, ऋतु प्रभावों का सहना, तितीक्षा, कर्षण, आत्म कल्प प्रदातव्य, निष्कासन, साधन, ब्रह्मचर्य, चांद्रायण, मौन, अर्जन आदि तपश्चर्या की विधि गायत्री महाविज्ञान के प्रथम खण्ड में सविस्तार लिख चुके हैं। उसकी पुनरुक्ति करने की आवश्यकता नहीं। यहां तो इतना कहना पर्याप्त होगा कि अन्नमय कोश को स्वस्थ रखना है तो शरीर और मन का कार्य व्यस्त रखना चाहिए। श्रम, कर्तव्य परायणता जागरूकता और पुरुषार्थ को सदा साथ रखना चाहिए। समय को बहुमूल्य सम्पत्ति समझ कर एक क्षण का भी निरर्थक न जाने देना चाहिए।
परोपकार, लोक सेवा, सत्कार्य के लिए दान, यज्ञ भावना से किया जाने वाला परमार्थ मद्य जीवन प्रत्यक्ष तप है। दूसरों के लाभ के लिए अपने स्वार्थों का बलिदान करना तपस्वी का जीवन प्रधान चिन्ह है। आज की स्थिति में प्राचीन काल की भांति अब तप नहीं किए जा सकते। अब शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं रह गई है कि भागीरथ, पर्वती या रावण के जैसे उग्र तप किये जा सकें। दीर्घ काल तक निराहार रहना या बिना विश्राम किए लम्बे समय तक साधना रत रहना आज सम्भव नहीं है। वैसा करने से शरीर तुरन्त पीड़ा ग्रस्त हो जायगा और प्राण संकट सामने आ जायगा।
सतयुग में लम्बे समय तक दान तप होते थे क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्व प्रधान था। त्रेता में शरीरों में अग्नितत्व की प्रधानता थी। द्वापर में जल तत्व अधिक था उन युगों में जो साधनाएं हो सकती थीं आज नहीं हो सकतीं क्योंकि आज कलयुग में मानव देहियों में पृथ्वीतत्व प्रधान है। पृथ्वी तत्व अन्य सभी तत्वों से स्थूल है इसलिए आधुनिक काल के शरीर उन तपस्याओं को नहीं कर सकते जो सतयुग त्रेता आदि में आसानी से होती थीं।
कुछ समय पूर्व तक नेति, धोति, वास्ति, न्योली, वज्रोली, कपालभाति आदि क्रियाएं आसानी से हो जाती थीं। उनके करने वाले अनेक योगी देखे जाते थे। पर अब युग प्रभाव से उन की साधना कठिन हो गई है। कोई विरले ही हठयोग में सफल हो पाते हैं। जो किसी प्रकार इन क्रियाओं को करने भी लगते हैं वे उनसे वह लाभ नहीं उठा पाते जो इन क्रियाओं से होना चाहिए।
अधिकांश हठयोगी तो इन कठिन साधनाओं के कारण किन्हीं कष्ट साध्य रोगों में ग्रसित हो जाते हैं। रक्त पित्त, अन्त्र दाह, मूत्राघात, कफ, अनिद्रा, जैसे रोगों से ग्रसित होते हुए हमने अनेक हठ योगी देखे हैं। इसलिए वर्तमान काल की शारीरिक स्थितियों का ध्यान रखते हुए तपश्चर्या में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। आज तो समाज सेवा, ज्ञान प्रचार, स्वाध्याय, दान, इन्द्रिय संयम आदि के आधार पर ही हमारी तप साधना होनी चाहिए।
प्राणमय कोश - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
प्राण, शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रतीक है। मानव शरीरों के बीच जो अन्तर पाया जाता है वह बहुत साधारण है। एक मनुष्य जितना आहार करता है, जितना श्रम करता है, जितना लम्बा, मोटा भारी है, दूसरा भी उससे थोड़ा बहुत ही न्यूनाधिक होगा परन्तु मनुष्यों के बीच जो जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है उसका कारण उनकी आन्तरिक शक्ति है।
विद्या, चतुराई, अनुभव, दूरदर्शिता, साहस, लगन, शौर्य, जीवन शक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरुषार्थ, महानता आदि नामों से इस आन्तरिक शक्ति का परिचय मिलता है, आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राण शक्ति कहते हैं।
प्राण नेत्रों में होकर चमकता है, चेहरे पर बिखरा फिरता है, हाव भाव में उसकी तरंगें बहती हैं। प्राण की गंध में एक ऐसी विलक्षण मादकता होती है जो दूसरों को विभोर कर देती है। प्राणवान स्त्री पुरुष मन को ऐसे भाते हैं उन्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता।
प्राण वाणी में घुला होता है उसे सुन कर सुनने वाले की मानसिक दीवारें हिल जाती हैं। मौत के दांत उखाड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जब मनुष्य चलता है तो उसके पास प्राण शक्ति की ही ढाल तलवार होती है। चारों ओर निराशा जनक घनघोर अन्धकार छाया होने पर भी प्राण शक्ति आशा की प्रकाश रेखा बनकर चमकती है। बालू में तेल निकालने की मरुभूमि में उपवन लगाने की, असंभव को संभव बनाने की राई को पर्वत करने की सामर्थ्य केवल प्राणवान में ही होती है। जिसमें स्वल्प प्राण हैं उसे जीवित मृतक कहा जाता है शरीर से हाथी के समान स्थूल होने पर भी उसे पराधीन पर मुखापेक्षी ही रहना पड़ता है। अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों पर थोपकर किसी प्रकार मन को सन्तोष देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा के लिए वह अपनी सामर्थ्य पर विश्वास नहीं करता। किसी सबल व्यक्ति की, नेता की, अफसर की, धनी की, सिद्ध पुरुष की, देवी देवता की सहायता ही उसकी आशाओं का केन्द्र होती है। ऐसे लोग सदा ही अपने दुर्भाग्य का रोना रोते रहते हैं।
प्राण द्वारा ही वह श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है जो भव बन्धनों को काटकर आत्मा को परमात्मा से मिलाती है, ‘मुक्ति’ को परम पुरुषार्थ माना गया है। संसार के अन्य सुख साधनों को प्राप्त करने के लिए जितने विवेक, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है, मुक्ति के लिए उससे कम की नहीं वरन् अधिक की ही आवश्यकता होती है।
मुक्ति विजय का उपहार है जिसे साहसी शूर वीर ही प्राप्त करते हैं। भगवान अपनी ओर से न किसी को बन्धन देते हैं न मुक्ति, दूसरा न कोई स्वर्ग में ले जा सकता है न नरक में। हम स्वयं ही अपनी आन्तरिक स्थिति के आधार पर जिस दिशा में चलते हों उसकी लक्ष्य पर जा पहुंचते हैं।
उपनिषद का वचन है कि
‘‘नायमात्मा वल हीनेन लभ्यः’’ यह आत्मा बल हीनों को प्राप्त नहीं होती। निस्तेज व्यक्ति जब अपने घरवालों, पड़ौसियों, रिश्तेदारों, मित्रों को प्रभावित नहीं कर सकते तो भरा परम आत्मा, परमात्मा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? तेजस्वी व्यक्ति ही आत्मलाभ भी कर सकते हैं। इसलिए प्राणसंचय के लिए योग शास्त्रों में अत्यधिक बल दिया गया है। प्राणायाम का महिमा से सारा अध्यात्म शास्त्र भरा पड़ा है।
जैसे सर्वत्र ईश्वर को महामहिमामयी गायत्री शक्ति व्याप्त है वैसे ही निखिल विश्व में प्राण का चैतन्य समुद्र भी भरा पड़ा है। जैसे श्रद्धा और साधना से गायत्री शक्ति को खींचकर अपने में धारण किया जाता है वैसे ही अपने प्राणमय कोश को सतेज और चेतन करके विश्व व्यापी प्राण में से यथेष्ट मात्रा में प्राण तत्व खींचा जा सकता है। यह भण्डार जितना अधिक होगा उतने ही हम प्राणवान बनेंगे और उसी अनुपात से सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्तियां प्राप्त करने के अधिकारी हो जायेंगे।
दीर्घ जीवन उत्तम स्वास्थ्य, चैतन्यता स्फूर्ति, उत्साह, क्रियाशीलता, कष्ट सहिष्णुता, बुद्धि की सूक्ष्मता, सुन्दरता, मन मोहकता आदि विशेषताएं प्राण शक्ति रूपी फुलझड़ी की छोटी छोटी चिनगारियां हैं।
प्राणायाम— सांस को खींचने, उसे अन्दर रोक रखने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अन्दर भरा जाता है जैसे साइकिल की पम्प से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता तो है पर वापिस नहीं खींचता। प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। साधारण श्वांस प्रश्वांस क्रिया में वायु के साथ वह प्राण इसी प्रकार आता जाता रहता है जैसे सड़क पर मुसाफिर चलते रहते हैं किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वांस प्रश्वांस क्रिया होती है तो वायु में से प्राण को खींच कर खास तौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्था पूर्वक टिकाया जाता है।
भारतीय योग शास्त्र षट्चक्रों में सूर्य चक्र को बहुत अधिक महत्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी सूर्य ग्रन्थि का सूक्ष्म तंतुओं को केन्द्र स्वीकार किया है। और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है।
कुछ वैज्ञानिकों ने इसे ‘पेट का मस्तिष्क’ नाम दिया है। यह सूर्य चक्र या ‘सोलर प्लैक्सस’ आमाशय के ऊपर हृदय की धुकधुकी के ठीक पीछे मेरुदंड के दोनों ओर स्थित है, यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गुद्दी से बना हुआ है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आन्तरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों की उन्नति अवनति का आधार यही केन्द्र है। किन्तु सच बात यह है कि यह खोज अभी अपूर्ण है, सूर्य चक्र का कार्य और महत्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाय तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है।
योग शास्त्र इस केन्द्र को प्राण कोश मानता है और कहता है कि यहीं से निकल कर एक प्रकार का मानवी विद्युत प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इसी संस्थान में रहती है।
प्राणायाम द्वारा इस सूर्य चक्र की एक प्रकार से हलकी हलकी मालिश होती है जिससे उसमें गर्मी, तेजी और उत्तेजना का संचार होता है और उसकी क्रिया शीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुफ्फुसों में वायु भरती है और वे फूलते हैं, यह फुलाव सूर्य चक्र की परिधि को स्पर्श करता है।
बार बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम सेवन—अंगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुफ्फुस के सूर्य चक्र का स्पर्श होना वहां एक सनसनी, उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन् सम्बन्धित सारे अंग प्रत्यंगों को जीवन और बल प्रदान करती है जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है।
मेरु दण्ड का दाहिने बायें दोनों और नाड़ी गुच्छकों की दो श्रृंखलाएं चलती हैं यह गुच्छक आपस में सम्बन्धित हैं और इन्हीं में सिर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गये हैं। अन्य अनेक नाड़ी तन्तुओं का भी यहां जमघट है। इनका प्रथम विभाग जिसे ‘मस्तिष्क मेरु विभाग’ कहते हैं शरीर के ज्ञान तंतुओं से घनी भूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य ‘बहुत ही बारीक’ भूरे तन्तु निकल कर रुधिर नाड़ियों में फैल गये हैं और अपने अन्दर बहने वाली विद्युत शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं।
ऊपर बताया जा चुका है कि मेरुदण्ड के दायें बायें नाड़ी गुच्छकों की दो प्रधान श्रृंखलाएं चलती हैं इन्हीं को योग में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वांस क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचारित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छकों के ऊपर प्रधान रूप से है। प्राणायाम साधना में इन इड़ा पिंगला नाड़ियों को नियत विधि के अनुसार बलवान बनाया जाता है। जिससे उनसे संबंधित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनन्ददायी स्वस्थता प्राप्त हो सके।
अत्यन्त प्राचीन काल से आध्यात्म वेत्ता पुरुष प्राणायाम के महत्व और उसके लाभों को अनुभव करते रहे हैं। तदनुसार समस्त भूमण्डल में योगी लोग अपनी-अपनी विधि से इन क्रियाओं को करते रहते हैं। महाप्रभु ईसामसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर प्रार्थना किया करते थे। कहा जाता है इस ऊंची चढ़ाई में आध्यात्मिक श्वांस क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था।
बौद्ध धर्म में ‘जजन’ नामक प्राणायाम बहुत काल से चला आता है। प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेशी ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान से प्लेरन से भी बहुत पहले इस विज्ञान की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्य देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रभाव मिलते हैं।
योगदर्शन सावन पाद के सूत्र 52, 54 में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अन्धकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रगट होती है और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाएं भी सुनी जाती हैं कि प्राण को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। प्राण शक्ति से अपने और दूसरों के रोगों को दूर करने का एक अलग विज्ञान है जिसे हम अपनी प्राण चिकित्सा विज्ञान पुस्तक में प्रकट कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य प्रकार के प्राणायामों से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है।
इन पंक्तियों में उन अद्भुत और आश्चर्य जनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञान समस्त प्रभाव पड़ते हैं जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी संचालन, पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, गाढ़ निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिह्न स्पष्ट रूप दृष्टि गोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता, प्रसन्नता उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है।
आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिरता, दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ साथ ही वृद्धि होती जाती है। इन लाभों पर विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की एक महत्वपूर्ण साधना है।
प्राण तत्व का वायु से विशेष सम्बन्ध है। पाश्चात्य वैज्ञानिक तो प्राण को वायु का ही एक सूक्ष्म भेद मानते हैं। सांस को ठीक तरह लेने न लेने पर प्राण की मात्रा का घटना बढ़ना निर्भर रहता है। इसलिए कम से कम सांस लेने के सही तरीके से प्रत्येक बाल वृद्ध को परिचित होना ही चाहिए।
हमें गहरी और पूरी सांस लेनी चाहिए जिससे वायु फेफड़े के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु मन्दिरों में से रक्त की सफाई कर सके, अधूरी और उथली सांस लेने से कुछ थोड़े से वायु मन्दिरों की सफाई हो पाती है क्योंकि उथली सांस का दबाव इतना नहीं होता कि वह हर एक कोठे तक पहुंच सके, जब हवा वहां तक पहुंचेगी ही नहीं तो सफाई, किस प्रकार होगी? सांस का संपर्क होने पर रक्त की अशुद्धता— कार्बोनिक एसिड गैस बाहर निकल जाती है और सांस का प्राण-ऑक्सीजन रक्त में घुल जाता है।
यह प्राण शक्ति उस शुद्ध हुए रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग प्रत्यंगों में पहुंच कर उन्हें ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग ऑक्सीजन का होता है। यदि इस में न्यूनता हो जाय तो उसका प्रभाव पाचन क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मन्द होने लगती है।
इन सब प्रक्रियाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें पूरी गहरी सांस लेने की आवश्यकता है। जिससे रक्त की सफाई अच्छी तरह होकर अशुद्धता शेष न रहने पावे और शुद्ध हुए रक्त में पर्याप्त ऑक्सीजन मिल जाय जिससे अंग प्रत्यंगों में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुंचती रहे और पाचन शक्ति में निर्बलता न आने पावे।
जठराग्नि मन्द होने से अन्य अंगों में शिथिलता आने लगती है और वे अपने काम को अधूरा एवं दोष पूर्ण छोड़ते हैं यह क्रम यदि कुछ समय जारी रहे तो जीवन यात्रा में नाना प्रकार की विघ्न बाधायें उपस्थित हो सकती हैं और विविध भांति के रोगों का सामना करना पड़ता है।
अधूरी सांस लेने वालों के फेफड़े का बहुत सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती उनमें गन्दगी, मकड़ी-मच्छर, छिपकली, कीड़े-मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है इसी प्रकार फेफड़ों के जिन वायु कोष्ठों में सांस की वायु नहीं पहुंचती उनमें क्षय, खांसी, जुकाम, उरक्षत, कफ, दमा आदि के रोग कीट जड़ जमा लेते हैं धीरे धीरे वहां वे निर्वाध रीति से पलते रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असम्भव हो जाता है।
प्राणायाम विज्ञान का सबसे पहला और आरंभिक पाठ यह है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेनी चाहिए। यह आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिए सदैव इस प्रकार सांस ली जाय कि वायु से पूरे फेफड़े भर जायं। यह कार्य झटके से या उतावली में नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे इस प्रकार पूरी सांस खींचनी चाहिए कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाय और फिर उसी धीरे क्रम से वायु को बाहर निकाल देना चाहिए।
यह रीति, फेफड़ों को स्वस्थ रखने वाली, रक्त को शुद्ध रखने वाली, शरीर के अंग प्रत्यंगों में चैतन्यता देने वाली, पाचन शक्ति ठीक बनाये रहने वाली है इसलिए आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।
पूरी सांस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्त संचार की क्रिया में एक चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों को श्वांस विज्ञान के इस तथ्य को गम्भीरता पूर्वक विचारना चाहिए और अविलम्ब पूरी एवं गहरी सांस लेने की आदत डालने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिए। कुछ दिन सांस क्रिया पर ध्यान रखने से और भूल सुधारते रहने से यह आदत भली प्रकार पड़ जाती है।
प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा ‘नाक का सांस लेना’ है। यद्यपि मुंह से भी सांस ली जा सकती है पर वह उतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जितनी कि नाक से लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली, डाक्टरों ने इनकी विशेष सावधानी से जांच करते रहने का प्रयत्न किया। मृतकों के बारे में उनकी रिपोर्ट थी कि यह लोग मुंह से सांस लेते थे। उस जहाज में एक भी मनुष्य ऐसा न मरा जिसे नाक से श्वांस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जांच का यही निष्कर्ष है कि मुंह खोलकर सांस लेने से इनका प्रकोप विशेष रूप से होता है और भी अनेक छोटे बड़े रोग इसी बुरी आदत के कारण होते देखे गये हैं।
नाक से फेफड़ों तक जो हवा पहुंचाने वाली नली गई है उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वायु का उचित रूप से संशोधन, परिमार्जन करके भीतर पहुंचावे। नासिका के छिद्रों में छोटे-छोटे बाल होते हैं यह एक प्रकार की चलनी है जिसमें धूलि व गन्दगी के अणु अटके रह जाते हैं और छनी हुई वायु भीतर जाती है। जब आप नासिकों के छिद्रों में अंगुली डाल कर उनकी सफाई करते हैं तो उनमें से कुछ मैल निकलता है। यह मैल वह कचरा है जो वायु के छानने से जमा हुआ है।
नासिका में एक प्रकार का तरह पदार्थ स्रवित होता रहता है, बालों में अटकाने के सिवाय जो कचरा बच रहता है वह इस स्राव में चिपक जाता है वायु का इतना संशोधन नासिका के छिद्रों में हो जाने के उपरान्त वह आगे चलती है। श्वांस नली जो फेफड़ों तक मस्तिष्क में होती हुई गई है, काफी लम्बी है। इतनी लम्बाई में यात्रा करते हुए वायु का तापमान सह्य हो जाता है। यदि वह गरम हुई तो श्वांस नली के ताप के अनुसार ठण्डी हो जाती है यदि ठण्डी हुई तो गरम हो जाती है। इस प्रकार फेफड़ों तक पहुंचते-पहुंचते वह सब प्रकार सह्य और संशोधित हो जाती है। किन्तु यदि मुंह से सांस लें तो परिणाम बिलकुल दूसरी ही प्रकार का हो जाता है।
मुंह में नासिका की तरह बाल नहीं हैं जो वायु को छानें। दूसरे मुंह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमें वायु का गर्द गुवार बिना रुकावट के चला जा सकता है। तीसरे मुंह से फेफड़ों की दूरी बहुत कम है, इसलिए वायु की सर्दी गर्मी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता। इस प्रकार बिना छनी, गर्द-गुवार युक्त सर्द-गर्म हवा मुंह के द्वारा जब फेफड़ों में पहुंचती है तो उन्हें हानि पहुंचाती है और बीमारियों की उत्पत्ति करती है। देखा गया है कि जो लोग रात में मुंह से सांस लेते हैं सवेरे उनका मुंह सूखा हुआ, दाय युक्त कड़ुवा और बदबूदार होता है। रोगियों को यह लत हो तो उनके स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी लग जाती है।
योगियों की प्राणायाम के अभ्यासियों को यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से सांस लिया करें। यदि नासिका मार्ग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुंह से सांस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता हो तो नासिका रंध्रों की सफाई कर लेनी चाहिए।
संगीत से फेफड़े बहुत मजबूत होते हैं। गायन में जिन्हें रुचि होती है उन्हें छाती सम्बन्धी रोग कम होते देखे गये हैं। अत्यधिक गाने से या अनुचित अवस्था में अविधि पूर्वक गाने से बीमारियां हो सकती हैं परन्तु साधारणतः संगीत की गणना फेफड़े को मजबूत बनने वाले अभ्यासों में है।
कण्ठ, हृदय, पसली, आमाशय, आंत, यकृत आदि सभी धड़ के अन्तर्गत रहने वाले अंगों पर संगीत से अच्छा व्यायाम होता है। यदि अच्छे बाजे के साथ ध्वनि पूर्वक गाया बजाया जाय तो एक प्रकार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होकर स्नायु-तन्तुओं को तरंगित करती रहती है, जिससे श्वांस संचालन क्रिया में विशेष रूप से सहायता मिलती है और मंद एवं शिथिल गति से कार्य करने वाले अंगों में गतिशीलता का आविर्भाव होता है। जिन्हें गाना बजाना आता है उन्हें भोजन के पश्चात कम से कम दो तीन घण्टे बचाकर सुविधानुसार अपना अभ्यास करना चाहिए। जो बजा न सकते हों उन्हें केवल गाना ही चाहिए। सुविधानुसार यदि वाद्य गायन सुनाने का अवसर मिले तो उसे भी लाभ उठाना चाहिए। क्योंकि संगीत से उत्पन्न होने वाली विद्युत लहरें सुनने वाले को भी प्रभावित करती हैं।
प्रातः सायं गायन वाद्य तथा नृत्य के साथ संकीर्तन करने की धार्मिक प्रथा का स्वास्थ्य से बड़ा घना सम्बन्ध है। संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों के गले का एवं फेफड़ों का व्यायाम हो जाता है। जोर जोर से धार्मिक भजन गाने या शंख बजाने से भी फेफड़े का व्यायाम होता है और बहुत अंशों में प्राणायाम का लाभ मिलता है।
सर्व साधारण के लिए एक सर्व सुलभ प्राणाकर्षण क्रिया नीचे लिखी जाती है। यह स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध सभी के लिए उपयोगी है। इससे साधक में धीरे-धीरे प्राणतत्व की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहती है। गायत्री की ब्रह्म सन्ध्या में बताये हुए प्राणायाम की तरह निम्नलिखित प्राणाकर्षण क्रिया भी सबके लिए लाभ दायक एवं सरल है।
प्राणाकर्षण की सुगम क्रियाएं - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्ति होकर साधना के लिए किसी स्वच्छ शान्ति दायक स्थान में आसन बिछा कर बैठिये दोनों हाथ दोनों घुटनों पर रखिये। मेरुदण्ड सीधा रहे। नेत्र बन्द कर लीजिये।
फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिए। अब धीरे धीरे नासिका द्वारा सांस लेना आरम्भ कीजिए जितनी अधिक मात्रा में भर सकें फेफड़ों में हवा भर लीजिए। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिए। इसके पश्चात् सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वार से बाहर निकालना आरम्भ कीजिए। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें कीजिए। अब कुछ देर सांस को बाहर ही रोक दीजिए, अर्थात् बिना सांस के रहिये, इसके बाद पूर्ववत् वायु खींचना आरम्भ कर दीजिए। यह एक प्राणायाम हुआ।
सांस निकालने को रेचक, खींचने को पूरक और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं। सांस को भीतर भरकर रोके रखना ‘अन्तर कुम्भक’ और खाली करके बिना सांस रहना ‘वाह्य कुम्भक’ कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लगाना चाहिए पर कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है।
पूरक करते समय भावना करनी चाहिए कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूं मेरे चारों ओर चैतन्य विद्युत जैसी जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। सांस द्वारा वायु के साथ-साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूं।
अन्तर कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि उस चैतन्य प्राण शक्ति को मैं अपने भीतर भरे हूं। समस्त नस नाड़ियों में, अंग प्रत्यंगों में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोख कर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्ल, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।
रेचक करते समय भावना करनी चाहिए कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले हुए विष, मन में धंसे हुए विकार सांस छोड़ने पर वायु के साथ-साथ बाहर निकाले जा रहे हैं।
वाह्य कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष सांस के द्वारा बाहर निकाल कर भीतर का दरवाजा बन्द कर दिया गया है ताकि वे विकार वापिस लौटने न पावें।
इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करने चाहिए। आरम्भ में पांच प्राणायाम करें फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जावें।
कहीं एकान्त स्थान में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछा कर पीठ के बल लेट जाओ मुंह ऊपर को रहे। पैर, कमर, छाती, सिर सब एक सीध में रहें। दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहां पसलियां और पेट मिलता है) रहें, मुंह बन्द रखो। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दो मानो वह कोई निर्जीव वस्तु हैं और उससे तुम्हारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जायगा। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा सांस खींचना आरम्भ करो और दृढ़ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्व व्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण, सांस के साथ खींच रहा हूं और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढ़ता के साथ उतारो कि प्राणशक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में घूमती हुई चित्रवत् दीखने लगें और अपना रक्त का दौरा एवं नाड़ी समूह तस्वीर की तरह दीखें तथा उसमें प्राण प्रवाह बहता हुआ नजर आवे। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे।
फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो और पांच से दस सेकिण्ड तक उसे भीतर रोके रहो। आरम्भ में पांच सेकिण्ड काफी हैं, पश्चात् अभ्यास बढ़ने पर दस सैकिण्ड तक रोक सकते हैं। सांस रोकने के समय अपने अन्दर प्रचुर परिणाम में प्राण भरा हुआ है अनुभव करना चाहिए। अब वायु को मुंह द्वारा धीरे धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष रोग और विष इसके द्वारा निकाल बाहर किये जा रहे हैं। दस सेकिण्ड तक बिना हवा के रहो और फिर पूर्ववत् प्राणाकर्षण प्राणायाम करना आरम्भ करदो। स्मरण रखो कि प्राणाकर्षण का मूल तत्व सांस खींचने छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार अपने शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।
इस प्रकार की श्वांस प्रश्वांस की क्रियाएं दस मिनट से लेकर धीरे धीरे आधे घन्टे तक बढ़ा लेनी चाहिए। श्वांस द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है इसकी विशेष रूप से भावना करो। यदि मुंह द्वारा सांस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगे तो यह सारी क्रिया व्यर्थ हो जायगी और कुछ भी लाभ न मिलेगा।
ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्य चक्र जाग्रत होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ का आमाशय के स्थान पर तो गड्ढा है वहां सूर्य के समान एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु मानस नेत्रों से दीखने लगता है। यह गोला आरम्भ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुंधला मालूम देता है। किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ने लगता वैसे-वैसे वह साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान् होता जाता है। जिसका अभ्यास बढ़ा चढ़ा है उन्हें आंखें बन्द करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है। वह प्रकाशित तत्व सचमुच प्राणशक्ति है। इसकी शक्ति से कठिन कार्यों में अद्भुत सफलता प्राप्त होती है।
अभ्यास पूरा करके उठ बैठो। तुम्हें मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है और सारे शरीर में एक बिजली सी दौड़ रही है अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शान्तिमय स्थान में बैठना चाहिए और हो सके तो किसी सात्विक वस्तु का जलपान कर लेना चाहिए। अभ्यास से उठ कर एक दम किसी काम में जुट जाना, स्नान, भोजन या मैथुन करना निषिद्ध है।
ऊपर सर्व साधारण के उपयोग की श्वांस प्रश्वांस क्रियाओं का वर्णन हो चुका है। इसके उपयोग से गायत्री साधकों की आन्तरिक दुर्बलता दूर होती है और प्राणवान होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्राणमय कोश की भूमिका को पार करते हुए दश प्राणों को संशोधित करना पड़ता है।
मनुष्य शरीर में दस जाति के प्राणों का निवास है। इनमें से पांच को महा प्राण और पांच को लघु प्राण कहते हैं।
1—प्राण
2—अपान
3—समान
4—उदान
5—व्यान
यह पांच महा प्राण हैं , और
1—नाग
2—कूर्म
3—कृकल
4—देवदत्त
5—धनंजय,
यह पांच लघु प्राण हैं।
शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं जिनमें जाने से प्राण तत्व की क्रिया एवं स्थिति उन भ्रमरों के अनुकूल ही हो जाती है। बिजली की धारा बल्व के स्पर्श से प्रकाश करती है, पंखे के साथ मिलकर हवा करती है, मोटर में जाकर ताकत पैदा करती है रेडियो में उसका कार्य ध्वनि को पकड़ना होता है।
प्राण तत्व एक प्रकार की विद्युत शक्ति के समान है। बहते हुए पानी में जैसे भ्रमरों के गड्ढे पड़ते हैं वैसे ही सूक्ष्म शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं जिनके साथ प्राण का सम्मिश्रण होने से एक विशेष प्रक्रिया बन जाती है।
पांच महा प्राणों को ‘‘ओजस्’’ ओर पांच लघु प्राणों को ‘‘रेतस्’’ कहते हैं। दोनों प्राण एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं। दोनों नेत्र, दोनों नथुने, दोनों कान, दोनों हाथ, दोनों पैर एक दूसरे के सहायक, पूरक एवं साथी हैं इसी प्रकार महा प्राण और लघु प्राण भी आपस में सम्बद्ध तथा सहायक हैं। इनको एक ही प्राण के दो भाग कहा जा सकता है। एक होते हुए भी कुछ विशेष भेदों के कारण मस्तिष्क को अगला (बड़ा) मस्तिष्क और पिछला (छोटा मस्तिष्क) दो भागों में बांटा गया है वैसे ही एक प्राण तत्व भी दो भागों में विभाजित हुआ।
‘प्राण’ वायु का निवास स्थान हृदय है। ‘नाग’ भी उसके समीप रहता है। ‘अपान’ गुदा और मूत्रेन्द्रिय के बीच में मूलाधार के निकट रहता है, उसी के पास ‘कूर्म’ लघु प्राण का निवास है। ‘समान’ और ‘कृकाल’ नाभि में रहते हैं। ‘उदान’ और ‘देवदत्त’ का स्थान कण्ठ है। ‘व्यान’ और ‘धनंजय’ में आकाश तत्व का मिश्रण अधिक रहने से ये सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हैं पर उनका प्रधान केन्द्र मस्तक का मध्य भाग है।
साधारणतः ऐसा माना जाता है कि प्राण के द्वारा शब्द एवं मस्तिष्क का पोषण होता है। अपान से मलमूत्र स्वेद आदि का विसर्जन होता है। समान के पाचन, परिपाक, उष्णता का संचार होता है। उदान विविध वस्तुएं बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। व्यान का काम रक्त संचार है। लघु प्राणों में नाग से डकार आती है। कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। कृकल से छींकें और देवदत्त से जंभाई आती है। धनंजय जीवित अवस्था में शरीर पोषण करता है और मरने पर देह को सड़ा गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है।
यह मान्यताएं सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। जिस स्थान पर जिस प्राण का निवास बताया गया है। वहां एक प्रकार के वायु भ्रमर होते हैं जिनमें कठिन प्राणों का विशेष संचार रहता है। गर्मी के दिनों में जब वायु अधिक गरम हो जाती है तो एक प्रकार ‘वायु भ्रमर’ उत्पन्न होते हैं जो घूमते और नाचते हुए अन्धड़ की तरह आगे को चलते हैं। इसी प्रकार के कुछ भ्रमर शरीर में पाये जाते हैं।
सूक्ष्म निरीक्षण करने पर पता चला है कि इन स्थानों पर शरीर गत वायु और प्राण की उष्णता के कारण एक प्रकार के भ्रमर चक्र उत्पन्न हो जाते हैं। भ्रमर सदा ऊपर से चौड़े होते हैं और नीचे की तरफ ढलवां होते जाते हैं तथा अन्त में बहुत ही छोटे नोंक मात्र रह जाते हैं। ऊपर के सबसे चौड़े भाग को ‘स्तर’ और नीचे के सबसे नुकीले भाग को बिन्दु कहते हैं। इसी प्रकार प्राण वायु के भ्रमर का ऊर्ध्व भाग महा प्राण और अधः भाग लघु प्राण कहा जाता है। एक स्तर है तो दूसरा बिन्दु। वस्तुतः दोनों एक ही महत्तत्व के दो विभाग मात्र हैं।
वस्तुतः प्राण का कार्य जीवन चलाना है। हृदय की धड़कन जीवन की प्रतीक है। घड़ी में फिनर की ऐंठ ही सब कल पुर्जों को चलाती है। फिनर की चाबी समाप्त हो जाय तो पुर्जों का चलना बन्द हो जायगा। प्राण के द्वारा हृदय की धड़कन होती है फिर उससे रक्त संचार होता है, सांस आती जाती है इसके बाद शरीर की अन्य क्रियाएं होती हैं।
प्राण में शिथिलता आपने पर जीवनी शक्ति घट जाती है और उसके अत्यन्त न्यून हो जाने पर हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। समाधि लगाने वाले, महात्माओं का प्राण पर अधिकार होता है वे दीर्घ काल निस्तब्ध रहने पर भी जब चाहते हैं तब शरीर में प्राण का स्पन्दन बढ़ाकर हृदय का धड़कना आरम्भ कर देते हैं और साधारण जीवन जीने लगते हैं। जब तक उनका प्राण खिंचकर ब्रह्माण्ड में संचित किया रहता है तब तक हृदय की धड़कन बन्द रहती है और शरीर मृत तुल्य हो जाता है। इसलिए उनको दीर्घ काल तक समाधि सुख मिलता रहता है।
प्राण पर अधिकार प्राप्त किये बिना लम्बे समय तक स्थिर समाधि नहीं लग सकती। प्राण पर अधिकार करके दीर्घ काल तक जीवन स्थिर रखना, मृत्यु को इच्छानुवर्ती बना लेना सम्भव है। एक मनुष्य दूसरे को प्राण दान दे सकता है। जैसे एक मनुष्य का रक्त दूसरे के शरीर में पहुंचाया जा सकता है वैसे ही एक का प्राण दूसरे के शरीर में प्रवेश करके उसे जीवन एवं मनोबल दे सकता है।
‘अपान’ का स्थूल कार्य मलों को ठीक प्रकार विसर्जन करना है। देह के भीतर सदा पैदा होने वाले मल, मूत्र, पसीना, कफ, कीचड़, विष, विजातीय पदार्थ आदि त्याज्य पदार्थों को अनेक छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालता रहता है। यदि अपान अपनी यह क्रिया न करे तो शरीर में मल निकालने की शक्ति घट जायगी और अपच जुकाम आदि अनेक रोग पैदा हो जायेंगे।
इसके अतिरिक्त अपान की सूक्ष्म क्रिया जननेन्द्रिय में होती है। काम वासना का आधार इसी पर निर्भर है। मन को मथ डालने वाली, चित्त को आधीर व्यग्र एवं आतुर कर डालने वाली, वासना अपान के उत्तेजित हो जाने से होती है। यह यदि शिथिल हो जाय तो तरुण पुरुष भी नपुंसक हो जायगा। सन्तान का सौन्दर्य, स्वास्थ्य, बुद्धि, पराक्रम एवं स्वभाव अपान में बहुत कुछ सम्बन्धित है। अपान का सहवर्ती ‘कूर्म’ लघु प्राण यदि सुषुप्त अवस्था में होगा तो शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ होने पर भी गर्भ की स्थापना कदापि न हो सकेगी।
जिन स्त्री पुरुषों में अपान साम्य होता है उन्हें काम सेवन में असाधारण आनन्द आता है। रूप सौन्दर्य पर नहीं काम तुष्टि, अपान की समानता पर निर्भर रहती है। पुरुष में अपान और स्त्री में कूर्म प्रधान होता है। दोनों के परस्पर मिलन से एक ऐसा प्राण परिवर्तन होता है जो अनेक शारीरिक और मानसिक अभावों की पूर्ति करता है। अपान पर अधिकार की पद्धति न जानते हुए भी जिन्हें हठ पूर्वक ब्रह्मचर्य रखना पड़ता है वे प्रायः किन्हीं न किन्हीं रोगों में ग्रसित रहते हैं।
आज विधुरों और विधवाओं में से अधिकांश का स्वास्थ्य खराब देखा जाता है और जन गणना की रिपोर्टों से पता चलता है कि गृहस्थों की अपेक्षा विधुरों की मृत्यु संख्या अनुपात कहीं अधिक है। जिनमें अपान की समानता है वे अकारण ही आपस में घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। उन्हें एक दूसरे के साथ रहने में बड़ी शान्ति मिलती है। ऐसे मित्रों को ही ‘प्राणसखा’ कहते हैं। उन्हें आपसी वियोग मर्मान्तक दुख देता है।
समान प्राण उदर में नाभि के नीचे रहता है। पाचन इसका मुख्य कार्य है। गर्मी, उष्णता, एवं पित्त को समान का प्रतीक कहते हैं। शरीर में चंचलता, स्फूर्ति, उत्साह, छरहरा पन एवं चमक इसी के कारण होती है। त्वचा की चिकनाई, कोमलता, चमक में कृकल प्राण का आस्तित्व परिलक्षित होता है। खूब भूख लगना अधिक आहार करना, जल्दी पचा लेना, सर्दी के प्रभाव से व्यथित न होना समान की विशेषता है। जिनमें यह प्राण कम होगा वे सर्दी बर्दाश्त न कर सकेंगे। जाड़े में उनकी देह लुंजपुंज सी हो जायगी। कानों को, उंगलियों को, पैरों को बड़ी ठंड लगेगी, ठंडे जल से जाड़े के दिनों में स्नान करना उन्हें बड़ा कष्टकर होगा। अधिक कपड़े लादे रहने पर ठंड न छूटेगी।
ऐसे लोगों का जरा से भोजन में पेट भर जाता है। गरम पदार्थ खाने की धूप या अग्नि के निकट बैठने की इच्छा रहती है। ऐसे मनुष्य अपनी निर्बलता के कारण गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते पर गर्मी का मौसम उनकी प्रकृति के अनुकूल पड़ता है। ‘समान’ की न्यूनता के कारण शरीर में उष्णता कम रहती है उसकी पूर्ति गरम मौसम से हो जाती है। ऐसे लोगों की नाड़ी पतली चलती है।
समान प्राण का स्वास्थ्य से बड़ा संबंध है। इन्द्रियों की रसानुभूति समान के आधार पर घटती बढ़ती रहती है। स्वादिष्ट पदार्थ, मनोरम दृष्टि, मधुर ध्वनि, सुखद स्पर्श सुरभित गंध को भली प्रकार ग्रहण करने और उनसे आनंदित होने की क्षमता ‘समान’ शक्ति वाले में होती है। जिसका समान घट जायगा वह सब प्रकार की सुखद् परिस्थिति होते हुए भी खिन्न, असंतुष्ट एवं झुंझलाया हुआ रहेगा। देह का कोई न कोई अंग बीमारी का कष्ट पाता रहेगा।
ऐसे लोगों को सन्निपात मोतीझला आदि तीव्र रोग तो नहीं होते पर जुकाम, खांसी, पेट का भारीपन, सिर का दर्द कमर, का दर्द, दांतों का हिलना, आंखों की कमजोरी, देह का टूटना, थकान जैसे मंद रोग घेरे रहेंगे। एक से पीछा टूटने से पहिले ही दूसरा नया उत्पन्न हो जायगा।
‘समान’ पित्त का प्रतीक है। ‘कृकल’ कफ का प्रतिनिधि है। दोनों के मिलने से ‘वात’ बनता है। इन तीनों को उलझने सुलझने, घटने बढ़ने से बीमारी और तंदुरुस्ती का चक्र घूमता है। कहा जाता है कि बीमारी की जड़ पेट में है। इसका अर्थ यही है कि नाभि चक्र के निवासी समान और कृकल ही हमारे स्वास्थ्य के अधिपति हैं। इन पर अधिकार होने से चिरस्थायी स्वास्थ्य का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।
‘उदान’ प्राण का निवास कंठ है। यह श्री और समृद्धि का स्थान है। लक्ष्मीजी का केन्द्र कंठ कूप की ‘स्फुटा’ ग्रन्थि को माना गया है। लक्ष्मीजी की पूजा एवं स्फुटा के उत्तेजन के निमित्त कंठ में स्वर्णाभूषण धारण किये जाते हैं। स्फुटा पर धातुओं और रत्नों का जो प्रभाव पड़ता है उसे जानने वाले गले में रत्न, कवच, आभूषण एवं मालाएं बनाकर कंठ में धारण करते हैं और उनके सूक्ष्म परिणामों से लाभान्वित होते हैं।
उदान के परिपुष्ट होने से मनुष्य में वह योग्यताएं, सामर्थ्यं शक्तियां, विशेषताएं एवं चतुरताएं प्राप्त हो जाती हैं जिनके कारण सांसारिक आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती रहती हैं। तृष्णाओं को तो अन्त नहीं उन्हें तो कुबेर भी पूरी नहीं कर सकता पर जीवनोपयोगी कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसे उदान प्राण की सामर्थ्य से प्राप्त न किया जा सकता हो।
जिनकी ‘स्फुटा’ ग्रन्थि जागृति है वे कभी भी अभाव ग्रस्त नहीं रह सकते, उनकी हर उचित आवश्यकता समय पर पूरी हो जाती है। ‘देवदत्त’ सूक्ष्म प्राण आध्यात्मिक सम्पदाओं का स्वामी है। अष्ट सिद्धियां नव निद्धियां, देवदत्त से सम्बन्धित हैं। शाप, वरदान, दूर दर्शन, देर श्रवण, अणिमा, महिमा, लघिमा आदि चमत्कारों का केन्द्र यही है।
अमीर, सम्पन्न, बड़े आदमी, व्यापारी, धनी, लक्ष्मीपति बनना, वैसे घर में जन्म पाना, वैसी आकस्मिक सहायताएं प्राप्त होना, वैसे अवसर, सुझाव या मित्र मिल जाना, उदान प्राण शक्तिशाली होने पर निर्भर है। जब वह प्राण निर्बल हो जाता है तो लक्ष्मी विदा होते देर नहीं लगती ऐसे गलत कदम उठ जाते हैं, ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके कारण घाटे पर घाटा होने लगता है, चोट पर चोट लगती है मनुष्य कुछ दिनों में निर्धन एवं दीन हीन बन जाता है।
जब तक स्फुटा जाग्रत रहती है तब तक बड़ी बड़ी हानि होने पर भी स्थायी रूप से दरिद्रता नहीं आ सकती। कारण यह कि ‘स्फुटा’ में उदान प्राण के सम्पर्क से एक ऐसी चैतन्य स्फुरणा उत्पन्न होती है जो अदृश्य लोक में छिपे हुए भविष्य का परिचय पाती रहती है। उसे अज्ञात रूप से अनायास ही ऐसा आभास होता रहता है कि ‘‘यह करना ठीक है और यह करना अनिष्टकारक होगा।’’ एक अज्ञात शक्ति उसका पथ प्रदर्शन करती सी मालूम होती है। वह खतरों से बचाती है, आगे बढ़ने का मार्ग बताती है और कठिन परिस्थितियों में वह सहारा देती है जिससे कि डूबता हुआ बेड़ा पार हो जाता है।
उदान चैतन्य—स्फुटा—को शरीर वासिनी लक्ष्मी कहा जाता है। जब कण्ठ कूप का ‘देवदत्त’ प्रबुद्ध होता है ऐसा पुरुष महा चमत्कारी परम सिद्ध पुरुष बन जाता है। वह चाहे तो अपने प्राण बल से अद्भुत उथल पुथल उत्पन्न कर सकता है।
‘व्यान’ का स्थान मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह चार अन्य प्राणों का नियन्त्रण करता है। दोनों कानों के बीच एक रेखा खींची जाय और दूसरी रेखा भ्रू मध्य भाग से लेकर सिर के पीछे तक खींची जाय तो दोनों जहां मिलेंगी वह स्थान त्रिकुटी कहा जायगा। यही ‘व्यान’ का अवस्थान माना जाता है। इसका सहायक धनंजय है। व्यान को कृष्ण, धनंजय को अर्जुन कहते हैं। इसी त्रिकुटी में, युद्ध स्थली के मध्य भाग में कृष्णार्जुन सम्वाद रूपी गीता का आविर्भाव होता है। मध्य मस्तक में शतदल कमल में अवस्थित जिस अमृतकलश का योग शास्त्रों में वर्णन है उसे व्यान और धनंजय का प्रसाद ही समझना चाहिए।
व्यान के प्रबुद्ध होने से ऋतम्भरा प्रज्ञा मिलती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा उस उच्च विचार धारा को कहते हैं जो जीव को आत्म कल्याण की ओर ले जाती है। सत्कर्म-शुभ संकल्प सद्वृत्ति आदि दैवी गुण, कर्म, स्वभावों का प्रकाश, व्यान द्वारा ही होता है। आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, ब्रह्म प्राप्ति, दिव्य दृष्टि एवं समाधि का केन्द्र व्यान है। व्यान को गरुड़ कहा गया है। भगवान का वाहन गरुड़ है। जिसका व्यान जागृत हो गया उसके मानस में परमात्मा का प्रत्यक्ष निवास परिलक्षित होने लगता है।
मस्तिष्क में अनेक शक्तियां हैं जिनके कारण मनुष्य अपनी सर्वोपरि प्रधानता सिद्ध करता है। संसार में ऐसे कितने ही महा पुरुष हुए हैं जिनकी अद्भुत मानसिक योग्यता एवं प्रतिभा ने लोगों को हैरत में डाल दिया है। यह धनंजय प्राण के विकास का चमत्कार है। मस्तिष्क में अनेक शक्तियों का निवास है। व्यवस्था शक्ति, ग्रहण शक्ति, निर्णय शक्ति, रचना शक्ति, उपार्जन शक्ति, आमोद शक्ति, उपक्रान्ति शक्ति, अनुवर्तन शक्ति आदि अगणित शक्तियां मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं।
सभी प्रकार की भली बुरी, तुच्छ महान शक्तियों का भण्डार मस्तिष्क है। इस भण्डार की सुव्यवस्था एवं अव्यवस्था का आधार धनंजय प्राण है। यदि उसमें कुछ गड़बड़ी हो तो मनुष्य में अनेक मानसिक त्रुटियां उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे लोग मूर्ख, मन्द बुद्धि, चिंतित, दुःखी एवं उलझनों में उलझे रहते हैं। किसी व्यक्ति का पूर्ण मस्तिष्कीय विकास तभी हो सकता है तब उसका व्यान प्राण ठीक हो और उसका मन्त्री धनंजय जागृत होकर काम करे।
दस प्राणों को सुषुप्त दशा से उठाकर जागृत करने, उसमें उत्पन्न हुई प्रवृत्तियों का निवारण करने, प्राण शक्ति पर परिपूर्ण अधिकार करने एवं इस महाशक्ति के द्वारा सांसारिक एवं आत्मिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए ‘प्राणविद्या’ का जानना आवश्यक है। जो इस विद्या को जानता है उसको प्राण सम्बन्धी न्यूनता एवं विकृति के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयां दुःख नहीं देतीं।
प्राण विद्या को ही हठयोग भी कहते हैं। हठयोग के अन्तर्गत प्राण परिपाक के लिए (1) बन्ध (2) मुद्रा और (3) प्राणायाम के साधन बताये गये हैं। तीन बन्ध—और नौ प्राणायामों का वर्णन नीचे किया जाता है।
तीन बन्ध - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मूल बन्ध — प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्र को सिकोड़ कर ऊपर की ओर खींचे रखना मूल बन्ध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से अपान स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रवाह रुक कर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति रुक कर ऊर्ध्वगति होती है। मूलाधार स्थिति कुण्डलिनी में मूलबन्ध से चैतन्यता उत्पन्न होती है। आंतें बलवान होती हैं, मलावरोध नहीं होता, रक्त संचार की गति ठीक रहती है, अपान और कूर्म दोनों पर ही मूल बन्ध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तन्तुओं में बिखरे हुए फैले रहते हैं उनका संकुचन होने से यह बिखरापन एक केन्द्र पर एकत्रित होने लगता है।
जालन्धर बन्ध — मस्तक को झुका कर ठोड़ी को कण्ठ कूप (कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है उसे कण्ठ कूप कहते हैं) में लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं। जालन्धर बन्ध से श्वास प्रश्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञान तन्तु बलवान होते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध के सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है। 1-पादांगुष्ठ, 2-गुल्फ, 3-घुटने, 4-जंघा, 5-सीवनी, 6-लिंग, 7-नाभि, 8-हृदय, 9-ग्रीवा, 10-कण्ठ, 11-लम्बिका, 12-नासिका, 13-भ्रू, 14-कपाल, 15-मूर्धा और 16-ब्रह्म रंध्र, यह सोलह स्थान जालन्धर बन्ध के प्रभाव क्षेत्र हैं। विशुद्ध चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।
अड्डियान बंध — पेट में स्थिति आंतों को पीठ की ओर खींचने की क्रिया को उड्डियान बन्ध कहते हैं पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके उतना खींच कर उसे पीछे की ओर पीठ से चिपका देने का प्रयत्न इस बन्ध में किया जाता है। इसे मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाला कहा गया है।
जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उड्डियान से मिलता है। आंतों की निष्क्रियता दूर होती है। अंत्र पुच्छ, जलोधर, पाण्डु, यकृत वृद्धि, बहुमूत्र सरीखे उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बन्ध से बड़ा लाभ होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है और स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जागृति होने योग्य हो जाते हैं।
सात मुद्राएं - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
महा मुद्रा — बायें पैर की एड़ी को गुदा तथा मूत्रेंद्रिय के बीच के सोवत भाग में लगाइए और दाहिना पैर लम्बा कर दीजिए। लम्बे किए हुए पैर के अंगूठे को दोनों हाथों से पकड़े रहिए। सिर को घुटने से लगाने का प्रयत्न कीजिए। नासिका के बांए छिद्र से सांस पूरक खींचकर कुछ देर कुंभक करते हुए दाहिने छिद्र से रेचक प्राणायाम कीजिए आरम्भ में पांच प्राणायाम बांई मुद्रा से करने चाहिए फिर दाएं पैर को सिकोड़ कर गुदा भाग से लगाने और बांए पैर को फैलाकर दोनों हाथों से उसका अंगूठा पकड़ने की क्रिया करनी चाहिए। इस दशा में दांये नथुने से पूरक और बाएं से रेचक करना चाहिए। जितनी देर बांए भाग से यह मुद्रा की थी उतनी ही देर दांये भाग से करनी चाहिए।
इस महा मुद्रा से, कपिल मुनि से सिद्धि प्राप्त की थी। इससे अहंकार, अविद्या, भय, द्वेष, मोह आदि के पंच क्लेश दायक विकारों का शमन होता है। भगन्दर, बवासीर, संग्रहणी, प्रमेह आदि रोग दूर होते हैं। शरीर का तेज बढ़ता है और वृद्धावस्था दूर हटती जाती है।
खेचरी मुद्रा — जीभ को लम्बी करके उसे उलटना और तालू में के गड्ढे में जिव्हा का अग्र भाग लगा देने को खेचरी मुद्रा कहते हैं। तालु के पिछले भाग में एक पोला सा स्थान है जिसमें आगे चलकर मांस की एक छोटी सूंड़ सी लटकती रहती है। उसे कपाल कुहर भी कहते हैं। यही स्थान जिव्हा के अग्रभाग को लगाने का होता है।
प्राचीन काल में जिव्हा को लम्बी करने के लिए कुछ ऐसे उपाय काम में लाये जाते थे जो वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक नहीं है। 1-जिव्हा को इस तरह दुहना जैसे पशु के थन को दुहते हैं। 2-जिह्वा को शहद, काली मिर्च आदि से सहलाते हुए आगे की ओर सूंतना या खींचना। 3-जीभ के नीचे की नाड़ी तन्तुओं को काट देना। 4-लोहे की शला से दबा दबा कर जीभ बढ़ाना। यह क्रिया देश, काल, ज्ञान की वर्तमान स्थिति के अनुरूप नहीं है जैसे अब प्राचीन काल की भांति हजारों वर्षों तक निराहार तप कोई नहीं कर सकता वैसे ही खेचरी मुद्रा के लिए जिह्वा बढ़ाने के कष्ट साध्य उपाय भी अब असामयिक हैं।
काली मिर्च और शहद की जिह्वा पर हलकी मालिश कर देने से वहां के तन्तुओं में उत्तेजना आ जाती है और उसी पीछे की ओर लौटाने में सहायता मिलती है। उसी रीति से जिव्हा के अग्र भाग को तालू गह्वर में लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिव्हा धीरे-धीरे चलती रहे जिससे तालु गह्वर की हलकी सी मालिश होती रहे, दृष्टि भ्रू मध्य भाग में रखनी चाहिए।
खेचरी मुद्रा से कपाल गहर में होकर प्राण शक्ति का संचार होने लगता है और सहस्रदल कमल में अवस्थित अमृत निर्झर झरने लगता है। जिसके आस्वादन से एक बड़ा ही दिव्य आनन्द आता है। प्राण का ऊर्ध्वगति हो जाने से मृत्यु काल में जीव ब्रह्म रंध्र में होकर ही प्रयाण करता है इसलिए उसे मुक्ति या स्वर्ग की सद्गति प्राप्ति होती है। गुदा आदि अधो मार्गों से जिनका प्राण निकलता है वह नरक गामी, मुख, नाक, कान से प्राण छोड़ने वाला मृत्युलोक में भ्रमण करता रहता है। किन्तु जिसका जीव ब्रह्म रंध्र में होकर जायेगा वह अवश्य ही सद्गति प्राप्त करेगा। खेचरी मुद्रा के द्वारा ब्रह्माण्ड स्थिति शेष शाया सहस्रदल निकासी परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यह मुद्रा बड़ी ही महत्वपूर्ण है।
विपरीत करणी मुद्रा — मस्तक को जमीन पर रखकर दोनों हाथों को उनके समीप रखना और पैरों को सीधे ऊपर की ओर उलटे कर देना इसे विपरीत करणी मुद्रा कहते हैं। शीर्षासन भी इसी का नाम है। सिर का नीचे और पैरों का ऊपर होना इसका प्रधान लक्षण है।
तालु के मूल से चन्द्र नाड़ी और नाभि के मूल से चन्द्र नाड़ी निकलती है। इन दोनों के उद्गम स्थान विपरीत करणी मुद्रा द्वारा सम्बन्धित हो जाते हैं। ऋण प्राण और धन प्राण का इस मुद्रा द्वारा एकीकरण होता है जिससे मस्तिष्क को बल मिलता है।
योनि मुद्रा — इसे षड्मुखी भी कहते हैं। पद्मासन पर बैठकर दोनों हाथों के अंगूठों से दोनों कान, दोनों हाथों की तर्जनियों से दोनों आंखें, दोनों मध्यमाओं से दोनों कानों के छेद और दोनों अनामिकाओं से मुंह को बन्द कर देना चाहिए। होठों को कौए की चोंच की तरह बाहर निकाल कर धीरे-धीरे सांस खींचते हुए उसे गुदा तक ले जाना चाहिए। फिर उलटे क्रम से उसे धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए। योनि मुद्रा की यह साधना योग सिद्धि में बड़ी सहायक होती है।
शाम्भवी मुद्रा — आसन लगाकर दोनों भवों के बीच में दृष्टि को जमा कर भृकुटी में ध्यान करने को शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। कहीं कहीं अधखुले नेत्र और ऊपर चढ़ी हुई पुतलियों से जो शान्त चित्त ध्यान किया जाता है। उसे भी शाम्भवी मुद्रा कहा है। भगवान शम्भु के द्वारा साधित होने के कारण इन साधनाओं का नाम शाम्भवी मुद्रा पड़ा है।
अगोचरी मुद्रा — मन को रोककर नासिका के अग्रभाग पर मन को रोकना।
भूचरी मुद्रा — नासिका से चार अंगुल आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना।
इसके अतिरिक्त नभो मुद्रा, महा बन्धु शक्ति चालनी मुद्रा, ताड़गी, माण्डवी, अधोधारण, आम्भसी वैश्वानरी, वायवी नभोधारणा, अश्वनी, पाशिनी, काको, सातंगी, भुजंगनी, आदि 25 मुद्राओं का घेरण्ड संहिता में सविस्तार वर्णन है। यह सभी अनेक प्रयोजनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। प्राणमय कोश के अनावरण में जिन मुद्राओं का प्रमुख कार्य है उन सात का संक्षिप्त वर्णन ऊपर कर दिया है। अब 96 प्राणायामों में से प्रधान 9 प्राणायामों का उल्लेख नीचे करते हैं।
नौ प्राणायाम - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
(1) लोम विलोम, प्राणायाम — सिद्धासन, पद्मासन या स्वस्तिकासन पर मूल बन्ध लगाकर बैठें। मेरुदंड को सीधा रखें। भीतर भरी हुई सांस बाहर निकाल दें। अब बांई नासिक से सांस खींचिए। और जालन्धर बन्ध लगाकर उड्डियान बन्ध लगाकर दाहिने नथुने से धीरे-धीरे वायु निकाल दीजिए। फिर एक सेकिण्ड बिना वायु के रहिए तत्पश्चात् दाहिने नथुने से सांस खींचिए। फिर कुछ देर भीतर सांस रोककर बांए नथुने से उसे बाहर निकाल दीजिए। इस प्रकार दो प्राणायाम हो जाते हैं।
पुनः एक सेकिण्ड बाह्य कुम्भक करके पहले की भांति दुहराना चाहिए। इस प्रकार आरम्भ में 10 प्राणायाम करने चाहिए और प्रतिदिन एक एक बढ़ाने हुए अन्त में उन्हें 40 तक पहुंचा देना चाहिए। दाहिने नथुने से रेचक या पूरक करना हो सांस छोड़नी या खींचनी हो तो दाहिने हाथ की अनामिका और कनिष्ठिका उंगलियों से बांये नथुने को बन्द करलें। इसी प्रकार जब बांए नथुने से वायु ग्रहण करनी या छोड़नी हो तो दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिने नथुने को बन्द करें।
(2) सूर्य भेदन प्राणायाम — दाहिने नथुने से वायु खींचिए, यथा शक्ति कुंभक कीजिए और दाहिने नथुने से बाहर निकाल दीजिए। इस प्रकार इस क्रिया को बार बार करें। यही सूर्य भेदन प्राणायाम है। अनुलोम विलोम प्राणायाम में दोनों नथुनों से पूरक और रेचक होता है परन्तु इसमें एक ही नथुने (दाहिने से पूरक और बाएं से रेचक) होता है।
इस प्राणायाम से शरीर में उष्णता बढ़ती है इसलिए यह शीत प्रकृति वालों के लिए अथवा शीत ऋतु में विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
(3) उज्जयी प्राणायाम — सिर को कुछ झुकालें। कंठ से वायु खींचने का घर्षण शब्द करते हुए पूरक करें। चार पांच सैकिण्ड कुंभक करें। इसके पश्चात् बायें नथुने से वायु बाहर निकाल दें। इस प्राणायाम में रेचक पूरक और कुंभक तीनों ही थोड़ी मात्रा में होते हैं। इसमें बंधो का प्रयोग करना आवश्यक नहीं है। चलते फिरते बैठते उठते या सोते हुए यह उज्जयी प्राणायाम आसानी से किया जा सकता है। रोगी लोग शैया पर पड़े पड़े इसे कर सकते हैं पेट के रोगों के लिए यह उपयोगी है। इससे भी उष्णता बढ़ती है।
(4) शीतकारी प्राणायाम — दोनों नथुने बन्द करके जिव्हा और होठों द्वारा वायु खींचे। यथा शक्ति रोके रहें और फिर धीरे धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दें।
दांतों के बीच जिव्हा को बाहर होट तक निकाल कर होटों को फुलाकर मुख से सीत्कार करते हुए श्वांस खींचने की क्रिया प्रधान होने के कारण इसे शीतकारी प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम में जिव्हा के सहारे वायु भीतर प्रवेश करती है। यह प्राणायाम शीतल है। इसलिए उष्ण प्रकृति के लिये अथवा ग्रीष्म ऋतु में यह विशेष उपयोगी है। यह शरीर को निर्विष बनाता है। कहते हैं काकभुसुण्डि जी ने इसी प्राणायाम से सिद्धि प्राप्त की थी।
(5) शीतली प्राणायाम — दोनों नथुने बन्द कर लीजिये। होठों को कौए की चोंच की तरह बनाकर जिव्हा को उसमें थोड़ा बाहर निकाल दीजिये। फिर मुख द्वारा धीरे धीरे वायु भीतर खींचिये यथा शक्ति कुंभक करके दोनों नथुनों से धीरे-धीरे वायु बाहर निकाल दीजिये यह शीतली प्राणायाम कहलाता है। यह भी शीतल प्रकृति का है। रूप लावण्य को बढ़ाता है।
(6) भस्त्रिका प्राणायाम — पद्मासन लगाकर बांई नासिका से वेग पूर्वक जल्दी जल्दी दस बार लगातार पूरक रेचक कीजिये। कुंभक करने की आवश्यकता नहीं है। फिर ग्यारहवीं बार उसी नासिका से लम्बा पूरक कीजिये। यथा शक्ति कुंभक करने के उपरान्त दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु को बाहर निकाल दीजिये। इसी क्रिया को दाहिने नथुने से दोहराइये। यही भस्त्रिका प्राणायाम है आरम्भ में इसे पांच पांच बार से अधिक नहीं करना चाहिये।
यह सम शीतोष्ण है। ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि तीनों का यह भेदन करता है। इसके द्वारा सुषुम्ना में से प्राण तत्व की विहंगम गति ऊर्ध्व प्रदेश की ओर बढ़ती है। इसी से अग्नि तत्व प्रदीप्त होता है इसे आरम्भ में अधिक संख्या में या अधिक वेग से नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से फुफ्फुस कोष पर आघात पहुंचने का भय रहता है।
(7) भ्रामरी प्राणायाम — पद्मासन लगाकर नेत्र बंद करके बैठिए। भ्रकुटी के मध्य भाग में ध्यान कीजिए। जालंधर बन्ध लगाइये। फिर नाक द्वारा, भ्रमर नाद के समान गुंजन स्वर करते हुए पूरक कीजिए। पश्चात् तीन सेकिंड कुंभक करके धीरे धीरे भ्रमर गुंजन ध्वनि के साथ रेचक करिए। यही भ्रामरी प्राणायाम है।
कोई योगी दोनों नासापुटों से वायु खींचने और छोड़ने के पक्ष में है और कोई लोम विलोम प्राणायाम की भांति दाहिने बांये नथुनों से इसे करने को अच्छा बताते हैं।
कुंभक को अवस्था में रुकी हुई वायु का मस्तिष्क में बांई ओर से दाहिनी ओर लगातार कई बार घुमाकर तब रेचक करते हैं इस वायु को भ्रमण कराने की क्रिया के कारण तथा भ्रमर नाद जैसी ध्वनि होने के कारण इस प्राणायाम का नाम भ्रामरी रखा गया है। यह मन की एकाग्रता एवं प्राण की स्थिरता के लिये लाभदायक है।
(8) मूर्छा प्राणायाम — दोनों हाथों के अंगूठे दोनों कानों में, दोनों तर्जनी दोनों आंखों पर दोनों मध्यमा नासिका पुटों पर और अनामिकाएं तथा कनिष्टकाएं मुख पर रखकर मूलबन्ध तक जालंधर बन्ध की आरम्भ से अन्त तक स्थिर रख करके बाएं नथुने से पूरक करे। यथा शक्ति कुंभक करके दाहिने नथुने से रेचक करे। यह मूर्छा प्राणायाम हुआ।
इस प्राणायाम में रेचक करते समय बन्द नेत्रों से भ्रू मध्य भाग में ध्यान करने पर पंच तत्वों के रंग दिखाई पड़ते हैं। शरीर में जो तत्व अधिक होगा उसी का रंग अधिक दृष्टिगोचर होगा। पृथ्वी का रंग पीला, जल का सफेद, अग्नि लाल, वायु का हरा और आकाश का नीला होता है। इन वर्णों की चिन्दियां सी तथा बादल से उड़ते परलक्षित होते हैं। इन तत्वों का शोधन करने से नादनुसंधान तथा समाधि में सुविधा होती है।
(9) प्लाविनी प्राणायाम — पद्मासन से बैठिए, दोनों भुजाओं को ऊपर की ओर लम्बी तथा सीधी रखिए अब दोनों नथुनों से परक कीजिए और सीधे लेट जाइए। लेटते हुए, दोनों हाथों को समेट कर तकिए की तरह सिर के नीचे लगा लीजिए। कुम्भक कीजिए और जब तक कुम्भक रहे तब तक भावना कीजिए मेरी देह रुई के समान हलकी है। फिर बैठ कर पूर्व स्थिति में आ जाइए और धीरे धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दीजिए। यह प्लाविनी प्राणायाम है। इससे दोनों ऋद्धियों और सिद्धियों का मार्ग प्रशस्त होता है।
किस प्राण को, किस मात्रा में, किस प्रयोजन के लिये, किस प्रकार जागृत किया जाय इसका निर्णय करना इतना सुगम नहीं है कि उसे एक सांस में बताया जा सके। कारण यह है कि साधक की आन्तरिक स्थिति, सांसारिक परिस्थिति, शरीर का गठन, आयु, मनोभूमि, संस्कार, आदि के आधार पर ही यह विचार किया जा सकता है कि उसके लिये वर्तमान स्थिति में किस प्रकार की साधना उपयोगी एवं आवश्यक है। यह निर्णय किसी अनुभवी परामर्श दाता की सलाह से करना चाहिए।
प्राणमय कोश को सुव्यवस्थित करने के लिए साधारणतः बन्ध मुद्रा तथा प्राणायाम की क्रियाएं ही प्रयुक्त होती हैं। इन्हीं में हेर फेर करके दस प्राणों का उन्नायक विधान बनाया जाता है। फिर भी कई बार ऐसे उपाय प्रयुक्त होते हैं। जिनमें इन साधनों में से किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती और प्राण विद्या की सांगोपांग सफलता मिल जाती है।
गायत्री का द्वितीय मुख प्राणमय कोश है। इस कोश को अनुकूल बना लेना ही वेदमाता को प्रसन्न करके उनके दूसरे मुख से आशीर्वाद प्राप्त कर लेना है। प्राणमय कोश को शुद्ध एवं प्रबुद्ध करना मानो एक प्रकार से गायत्री माता की प्राणमयी उपासना है। इसे ही आत्मोन्नति की द्वितीय भूमिका कहा जाता है।
मनोमय कोश - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
पंच कोशों में तीसरा मनोमय कोश है। इसे गायत्री का तृतीय मुख भी कहा गया है। मन बड़ा चंचल और वासना मय है। यह सुख प्राप्ति की अनेक कल्पनाएं किया करता है। कल्पनाओं के यह ऐसे रंग बिरंगे चित्र तैयार करता है कि उन्हें देख कर बुद्धि भ्रमित हो जाती है और मनुष्य ऐसे कार्यों को अपना लेता है जो उसके लिए अनावश्यक एवं हानिकर होते हैं, तथा जिनके लिए उसे पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। अच्छे और प्रशंसनीय कार्य भी मन की कल्पना पर अवलंबित हैं। मनुष्य को नारकीय एवं घृणित पतितावस्था तक पहुंचा देना तथा उसे महा मानव-भूसुर बना देना मन का ही खेल है।
मन में प्रचंड प्रेरक शक्ति है। इस प्रेरक शक्ति से अपने कल्पना चित्रों को वह ऐसा सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ने लगता है। रंग बिरंगी तितलियों के पीछे जैसे बच्चे दौड़ते फिरते हैं, तितलियां जिधर जाती हैं उधर ही उन्हें भी जाना पड़ता है। इसी प्रकार मन में जैसी कल्पनाएं, इच्छाएं, वासनाएं, आकांक्षाएं, लालसाएं, तृष्णाएं उठती हैं उसी ओर शरीर चल पड़ता है।
चूंकि सुख की आकांक्षा ही मन के अन्तराल में प्रधान रूप से काम करती है। इसलिए वह जिस बात में भी, जिस जिस दिशा में सुख प्राप्ति की कल्पना कर सकता है उसी के अनुसार एक सुन्दर मनमोहक रंग बिरंगी योजना तैयार कर देता है, मस्तिष्क उसी ओर लपकता है। शरीर उसी दिशा में काम करता है। परन्तु साथ ही मन की चंचलता भी प्रसिद्ध है इसलिए वह नई कल्पनाएं करने में भी पीछे नहीं रहता। कल की योजना पूरी नहीं हो पाई थी कि उससे भी नई एक और तैयार हो गई। पहली को छोड़कर नई में प्रवृत्ति हुई। फिर यही क्रम आगे भी चला। उसे छोड़कर और नया आयोजन किया गया।
इस प्रकार अनेक अधूरी योजनाएं पीछे छूटती जाती है और नई बनती जाती है। अनियंत्रित मन का यही कार्यक्रम है। वह मृग तृष्णाओं में मनुष्य को भटकाता है और असफलताओं की, अधूरे कार्यक्रमों की, अगणित ढेरियां लगाकर जीवन को मरघट जैसा कर्कश बना देता है।
गीता में कहा गया है कि मन की मनुष्य का शत्रु और मन ही मित्र है। बन्धन और मोक्ष का कारण भी यही है। वश में किया हुआ मन अमृत के समान और अनियंत्रित मन को हलाहल विष जैसा अहितकर बताया गया है। कारण यह है कि मन के ऊपर जब कोई नियंत्रण या अनुशासन नहीं होता तो वह सबसे पहले इन्द्रिय भोगों में सुख खोजने के लिए दौड़ता है।
जीभ से तरह तरह के स्वाद चाटने की लपक उसे सताती है। रूप यौवन के क्षेत्र में काम किलोल करने के लिए इन्द्र के परिस्तान का कल्पना जगत में ला खड़ा करता है। नृत्य, गीत वाद्य, मनोरंजन सैर सपाटा, मनोहर दृश्य सुवासित पदार्थ उसे लुभाते हैं और उसके निकट अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। सरकस, थियेटर, सिनेमा, क्लब, खेल आदि के मनोरंजन क्रीड़ा स्थल उसे रुचिकर होते हैं। शरीर को सजाने या आराम देने के लिए बहुमूल्य वस्त्राभूषण, उपचार, मोटर, विमान आदि सवारियां, कोमल पलंग पंखे आदि की व्यवस्था आवश्यक प्रतीत होती है। इन सब भोगों को भोगने एवं वाहवाही लूटने अहंकार की पूर्ति करने, बड़े बनने, का शौक पूरा करने के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता होती है। उसके लिए अर्थ संचय करना, अर्थ संग्रह की योजना बनाना, मन का प्रधान काम हो जाता है।
असंस्कृत, छुट्टल मन प्रायः इन्द्रिय भोग, अहंकार की तृप्ति और धन संचय के तीन क्षेत्रों में ही सुख ढूंढ़ पाता है। उसके ऊपर कोई अंकुश न होने से वह उचित अनुचित का विचार नहीं करता, और ‘‘जैसे बने वैसे करने’’ की नीति अपनाकर जीवन की गति विधि को कुमार्ग गामी बना देता है। मन की दौड़ स्वच्छन्द हो जाने पर बुद्धि का अंकुश भी नहीं रहता फल स्वरूप एक योजना छोड़ने, दूसरी अपनाने में योजना के गुण दोष ढूंढ़ने की कोई बाधा नहीं रहती।
पाशविक इच्छाओं की पूर्ति के लिए अव्यवस्थित कार्यक्रम बनाते बिगाड़ते रहना और उस अव्यवस्था के कारण जो उलझनें उत्पन्न होती हैं उनमें भटकते हुए ठोकरें खाते रहना, साधारणतः यही एक कार्य प्रणाली सभी स्वच्छंद मन वालों की होती है। इसकी प्रतिक्रिया जीवन भर क्लेश, असफलता, असंतोष, पाप, अनीति, निन्दा और दुर्गति होना ही हो सकती है।
मन को वश में होने का अर्थ है उसका बुद्धि के विवेक के नियन्त्रण में होना। बुद्धि जिस बात में औचित्य अनुभव करे, कल्याण देखे, आत्मा का हित, लाभ और स्वार्थ समझे उसके अनुरूप कल्पना करने, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाय तो समझना चाहिए कि मन वश में हो गया। कण कण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियां और कल्पनाओं में भ्रमण करना अनियंत्रित मन का काम है। जब वह वश में हो जाता है तो जिस एक काम पर लगा दिया उस में लग जाता है।
मन की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। जितने भी विद्वान, लेखक, कवि, वैज्ञानिक, अन्वेषक, नेता, महापुरुष अब तक हुए हैं। उन्होंने मन की एकाग्रता से ही काम किया है।
सूर्य की किरणें चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं उनका कोई विशेष उपयोग नहीं होता। पर जब आतिशी शीशे द्वारा उन किरणों को एकत्रित कर दिया जाता है। तो जरा से स्थान की धूप से अग्नि जल उठती है और उस जलती हुई अग्नि से भयंकर दावानल लग सकती है एक दो इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप का केन्द्रिय करण भयंकर दावानल के रूप में प्रकट हो सकता है। मन को बिखरी हुई कल्पना, आकांक्षा और प्रेरणा शक्ति भी जब एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होती है तो उसके फलितार्थों की कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है।
पातंजलि ऋषि ने ‘योग’ की परिभाषा करते हुए कहा है कि ‘‘योगिश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोक कर एकान्त करना ही योग है। योग साधना का विशाल कर्मकाण्ड इसलिए है कि चित्त वृत्तियां एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदर्शानुसार उनकी गति उनकी गतिविधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा में सन्निहित समस्त ऋषि सिद्धियों का स्वामी बन जाता है वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जायगा उसी ओर आश्चर्य जनक चमत्कार उपस्थित हो जायेंगे। संसार के किसी कार्य में उसे लगाया जाय तो उसी दशा में सफलता प्राप्त होगी। धन, ऐश्वर्य नेतृत्व, प्रतिभा, यश, विद्या, स्वास्थ्य, भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चय ही प्राप्त होकर रहेगी। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती।
सांसारिक उद्देश्य ही नहीं उससे पारमार्थिक आकांक्षाएं भी पूरी होती हैं। समाधि सुख ‘मनोलय’ का ही एक चमत्कार है। एकान्त मन से की हुई उपासना से इष्टदेव का सिंहासन हिल जाता है और उसे गज के लिए गरुड़ को छोड़ कर नंगे पैर भागने वाले भगवान की तरह भागना पड़ता है। अधूरे मन की साधना अधूरी और स्वल्यवीर्य होने से न्यून फल दायक होती है परन्तु एकाग्र वशवर्ती मन तो वह लाभ क्षण भर में प्राप्त कर लेता है जो योगी लोगों को जन्म जन्मान्तरों को तपस्या से मिलता है। सदन कसाई, गणिका, गीध, अजामिल आदि असंख्य पापी जो जीवन भर दुष्कर्म करते रहे, क्षण भर के आर्तनाद से तर गये।
मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, पर्सनल मेग्नेटिज्म, मेन्टलथेपी, आकल्ट साइंस, मेंटल हीलिंग, स्प्रिचुआलिज्म आदि के चमत्कारों की पाश्चात्य देशों में धूम है। तंत्र क्रिया मंत्र शक्ति, प्राण विन्मिय, सावर विद्या, छाया पुरुष, पिशाच सिद्धि, शव साधन, दृष्टिबंध, अभिबार, घात चौकी सर्प कीलन, जादू आदि चमत्कारी व्यक्तियों से भारतवासी भी चिर परिचित हैं। यह सब खेल-खिलौने एकाग्र मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के छोटे-छोटे मनोविनोद मात्र हैं।
संकल्प की पूर्ण शक्ति से हमारे पूजनीय पूर्वक परिचित थे जिन्होंने अपने महान आध्यात्मीय गुणों के कारण समस्त भूमण्डल पर चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित किया था और जिन्हें जगद्गुरु कहकर सर्वत्र पूजा जाता है। उनकी संकल्प शक्ति ने भूलोक, स्वर्गलोक, पाताल लोक को पड़ोसी मुहल्लों की तरह सम्बद्ध कर लिया था। उस शक्ति के थोड़े-थोड़े भौतिक चमत्कारों को लेकर अनेकों व्यक्तियों ने रावण जैसी उछल-कूद मचाई थी। परन्तु अधिकांश योगियों ने मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति को स्व, पर कल्याण में ही लगाया था।
अर्जुन को पता था मन को वश में करने से कैसी अद्भुत सिद्धियां मिल सकती हैं। इसलिए उसने गीता में भगवान कृष्ण से पूछा है कि—‘‘हे अच्युत ! मन को वश में करने की विद्या मुझे बताइए, क्योंकि यह वायु को वश में करने के समान कठिन है’’ महत्वपूर्ण वस्तुओं की प्राप्ति स्वभावतः कठिन होती है वश में किया हुआ मन भूलो का कल्प वृक्ष है ऐसे महान पदार्थ को प्राप्त करना कठिन होना भी चाहिए।
अर्जुन ने ठीक ही कहा है कि मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान कठिन है। वायु को तो यंत्रों के द्वारा किसी डिब्बे में बंद भी किया जा सकता है पर मन को वश में करने का तो कोई यंत्र भी नहीं है।
भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये हैं ।
(1) अभ्यास,
(2) वैराग्य।
अभ्यास का अर्थ है—वे योग साधनाएं जो मन को रोकती हैं।
वैराग्य का अर्थ है—व्यवहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।
विषम विकार, आलस प्रमाद, दुव्यर्य, दुराचार, लोलुपता समय का दुरुपयोग, कार्यक्रम की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, मोह, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।
शारीरिक मानसिक और सामाजिक बुराइयों से बचते हुए सादा, सरल आदर्शवादी शान्तिमय जीवन बिताने की कला वैराग्य कहलाती है। कई आदमी घर छोड़कर भीख-टूक मांगते फिरना, विचित्र वेश बनाना, अव्यवस्थित कार्य क्रम से जहां तहां मारे-मारे फिरना ही वैराग्य समझते हैं और ऐसा ही ऊटपटांग जीवन बनाकर पीछे परेशान होते हैं। वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है रोगों से निवृत्त होना।
बुरी भावनाओं और आदतों से बचने का अभ्यास करने के लिए ऐसे वातावरण में रहना पड़ता है जहां उनसे बचने का अवसर हो। तैरने के लिये पानी का होना आवश्यक है। तैरने का प्रयोजन ही यह है कि पानी में डूबने के खतरे से बचने की योग्यता मिल जाय। पानी से दूर रहकर तैरना नहीं आ सकता। इसी प्रकार राग द्वेष जहां उत्पन्न होते हैं उस क्षेत्र में रहकर उन बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ही वैराग्य की सफलता है।
कोई व्यक्ति जंगल में एकान्त वासी रहे तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह वैरागी हो गया क्योंकि जंगल में उसके वैराग्य की परीक्षा नहीं होती। जब तक परीक्षा द्वारा यह नहीं जान लिया गया कि हमने राग उत्पन्न करने वाले अवसर होते हुए भी उन पर विजय प्राप्त करली तब तक यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एकान्त वासी वस्तुतः वैरागी ही है। प्रलोभनों को जीतना ही वैराग्य है और यह विजय वहीं हो सकती है जहां वे बुराइयां मौजूद हों। इसलिए गृहस्थ में, सांसारिक जीवन में, सुव्यवस्थित रहकर रागों पर विजय प्राप्त करने का वैराग्य प्राप्त करना चाहिए।
अभ्यास के लिए योग शास्त्रों में ऐसी कितनी ही साधनाओं का वर्णन है जिनके द्वारा मन की चंचलता घुड़दौड़ विषयलोलुपता और ऐषणा प्रवृत्ति को रोककर उसे ऋतम्भरा बुद्धि के, अन्तरात्मा के, आधीन किया जा सकता है। इन साधनाओं को ‘मनोलय’ योग कहते हैं।
मनोलय के अन्तर्गत
1-ध्यान
2-त्राटक
3-जप
4-तन्मात्रा साधन,
यह चार साधन प्रधान रूप से आते हैं। इन चारों का मनोमय कोश की साधना में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
ध्यान - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मनःक्षेत्र में की जाती है मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे आकर्षण का प्रधान केन्द्र बनती है। उस आकर्षण की ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियां खिंच जाती हैं। फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीकरण होने लगता है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौह कणों को सब दिशाओं से खींच कर अपने पास जमा कर लेता है इसी प्रकार ध्यान द्वारा सब ओर से मन खींच कर एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होता है। बिखरी हुई चित्त वृत्तियां एक जगह सिमट आती हैं।
कोई आदर्श, लक्ष, इष्ट, निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। सांचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी ही आकृति बन जाती है जैसी उस सांचे की होती है। कीट-भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले आती है और उससे चारों ओर लगातार गुंजन करती है। झींगुर उस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को, उसकी चेष्टाओं को, एकाग्र भाव से निहारता रहता है। झींगुर का मन भृंग मय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढांचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, मास, नस, नाड़ी त्वचा आदि में कन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े ही समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वांग पूर्ण काया कल्प होता है।
साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर परिवर्तन नहीं होता। उसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएं करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक काया कल्प करने में हर मनुष्य ध्यान साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि हर साधक को अपना इष्ट देव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है जीवन का प्रधान लक्ष स्थिर करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है—उस लक्ष में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है, कि मन की बिखरी हुई शक्तियां एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं, एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दशा में सभी मानसिक शक्तियां लग जाती हैं। फलस्वरूप साधक गुण, तर्क, स्वभाव, विचार, प्रयत्न, उपाय, एवं कर्म अद्भुत गति से बढ़ते हैं जो उसे अभीष्ट लक्ष तक सरलता पूर्वक स्वल्प काल में ही पहुंचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।
ध्यान साधना के लिए आदर्शों को, इष्टों को, दिव्य रूप धारी देवताओं के रूप में मानकर उनको मानसिक तन्मयता स्थापित करने का योगिक विधान है। प्रीति, सजातियों में होती है। इसलिए लक्ष रूपी इष्ट को दिव्य देहधारी देव मानकर उसमें तन्मय होने का गूढ़ एवं रहस्यमय मनोवैज्ञानिक आधार स्थापित करना पड़ा है। एक एक अभिलाषा एवं आदर्श का प्रतीक एक एक इष्टदेव है। जैसे बल की प्रतीक दुर्गा, धन की प्रतीक लक्ष्मी, बुद्धि की प्रतीक सरस्वती, धार्मिक सम्पदा की प्रतीक गायत्री, एवं भौतिक विज्ञान की प्रतीक सावित्री मानी गई है। गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातर, लोक मातर, धृष्टि, पुष्टि तुष्टि, आत्मदेवी यह षोडश मातृकाएं प्रसिद्ध हैं। शैल पुत्री, ब्रह्म चारिणी, चन्द्रघण्टा, कूस्माण्डा, स्कन्द माता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी सिद्ध दात्री यह नव दुर्गाएं अपनी अपनी विशेषताओं के कारण हैं।
ऐसा भी हो सकता है कि एक ही इष्ट देव को आवश्यकतानुसार विभिन्न गुण वाला मान लिया जाय। एक ही महाशक्ति की विविध प्रयोजनों के लिये काली, तारा, षोडसी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, घूमावती, बगला, मातंगी, कमला, इन्द्राणी, वैष्णवी, ब्रह्मणी, कौमरी, नरसिंही, बाराही, माहेस्वरी, भैरवी, आदि विविध रूपों में उपासना की जाती है। एक ही महा गायत्री की र्हृीं, श्रीं, क्लीं (सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा) के तीन रूपों में आराधना होती है। फिर इन तीनों में से अनेक भेद हो जाते हैं। जो साधक मातृ शक्ति की अपेक्षा पितृ शक्ति में अधिक रुचि रखते हैं, जिन्हें नारी परक शक्ति तत्व को पुरुषत्व प्रधान (पुल्लिंग) दिव्य तत्व में विशेष मन लगता है वे गणेश, कुबेर, हनुमान, नृसिंह, भैरव, शिव, विष्णु आदि इष्ट की उपासना करते हैं।
यहां किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं ‘अनेक देववाद’ का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियां ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं मनुष्य अपनी इच्छा, रुचि और आवश्यकतानुसार उन ईश्वरीय शक्तियों को प्राप्त करने के लिए अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, उन्हें अपना इष्ट एवं लक्ष चुनता है। और उनमें तन्मय होने को मनोवैज्ञानिक उपासना पद्धति द्वारा उन शक्तियों को अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में धारण कर लेता है। इष्टदेव पूजा का यही रहस्य है।
ध्यान योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष को, इष्ट को भी प्राप्त करके योग स्थिति उत्पन्न करने का दुहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मनःक्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पांच अंग हैं।
1—स्थिति
2—संस्थिति,
3—विगति,
4—प्रगति,
5—संस्मिति ।
इन पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।
स्थिति का तात्पर्य है—साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तटपर, एकान्त में, श्मशान में, स्नान करके, बिना स्नान करके, पद्मासन से, सिद्धासन से, किस ओर मुंह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय, इस सम्बन्ध में की व्यवस्था को स्थिति कहते हैं।
संस्थिति का अर्थ है—इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख, आकृति, आकार, मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव आदि को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
विगति कहते हैं- गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएं, शक्तियां, सामर्थ्य, परम्पराएँ, एवं गुनावालियाँ हैं ? उनको जानना विगति कहलाती है ।
‘
प्रगति’ कहते हैं—उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु, मित्र, माता, पिता, पति, पत्नी, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते में उपास्य देव को मनाना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने के लिये इष्टदेव के प्रमुख ध्यानावस्था में अपनी उन आन्तरिक भावनाओं का विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना ‘प्रगति’ कहलाती है।
‘
सस्मिति’ वह अवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता भृंग कीट की सी तन्मयता द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झांकी, उपास्य और उपासक का अभेद, ‘‘मैं स्वयं इष्ट देव हो गया हूं, या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूं’’ ऐसी अनुभूति का होना। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है उसे संस्थिति कहते हैं।
एक ही इष्टदेव के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से ध्यान किए जाते हैं। साधक की आयु, स्थिति, मनोभूमि, वर्ण संस्कार आदि के विचार से भी ध्यान की विधियों में स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति एवं संस्मिति में अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण पद्धति है उसका सविस्तार वर्णन तो इन पृष्ठों से हो नहीं सकता। यहां तो हमारा प्रयोजन मनोमय कोश को व्यवस्थित बनाने के लिए ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि बताना मात्र है। इसके लिए कुछ ध्यान नीचे दिए जाते हैं।
- चिकने पत्थर या धातु की सुन्दर सी गायत्री प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गंध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों से पूजन कीजिये। इस प्रकार नित्य प्रति का पूजन आरम्भिक साधकों के लिये श्रद्धा बढ़ाने वाला, मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधन में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान यह पार्थिव पूजन ही है। मंदिरों में मूर्ति पूजा का आधार, यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।
- शुद्ध होकर पूर्व की ओर मुंह करके कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैठिए। सामने गायत्री का चित्र रख लीजिए विशेष मनोयोग पूर्वक उसकी मुखाकृति या अंग प्रत्यंगों को देखिए। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र को भावना क्षेत्र में देखिए। थोड़े दिनों के अभ्यास से उस चित्र की बारीकियां भी ध्यानावस्था में भली भांति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टांग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
- एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए। ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य पूर्व दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में विशेष मनोयोग पूर्वक देखिए। उसके बीच में हंसारूढ़ माता गायत्री की धुंधली सी छवि दृष्टिगोचर होगी। अभ्यास से धीरे धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।
- भावना कीजिए कि इस गायत्री- सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रहीं हैं और वे रोम कूपों में होकर प्रवेश करती हुई अपनी दिव्य आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।
- दिव्य तेज युक्त, अत्यन्त सुन्दर, इतनी सुन्दर जितनी कि आप अधिक से अधिक कल्पना कर सकते हों माता को आकाश में दिव्य वस्त्रों भूषणों से सुसज्जित ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने से सुविधा होती है। माता के एक एक अंग को विशेष मनोयोग पूर्वक देखिये। उसकी मुखाकृति चितवन, चेष्टा, मुसकान, भावभंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए। माता अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मनःक्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेगी।
- शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर शरीर की नस नाड़ियों को निर्जीव की भांति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊंचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे में से निकल कर एक नील वर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा की तरह अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क तथा हृदय में ऋतम्भरा बुद्धि के रूप में, तरण तारिणी प्रज्ञा के रूप में, प्रवेश कर रही है। उस परम दिव्य, परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय में सद्भाव और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहे हैं जैसे समुद्र में ज्वार भाटा उमड़ते हैं। वह ध्रुव तारा जो इस दिव्यधारा का प्रेरक है, सत् लोक वासनी गायत्री माता ही है। भावना कीजिए कि जैसे बालक अपनी माता की गोद में खेलता और क्रीड़ा करता है वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।
- मेरुदंड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भ्रू मध्य भाग, भ्रकुटि में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत केन्द्र की भांति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषण एवं जागरण कर रही हैं, ऐसा विश्वास कीजिए।
- भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी चार घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजमयी माता विराजमान है और घोड़ों की लगाम उनने अपने हाथ में थाम रखी है। जो घोड़ा बिचकता है वे चाबुक से उनका अनुशासन करती हैं और लगाम झटक कर उनको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ-प्रदर्शन करती हैं। घोड़े भी माता से आतंकित होकर उनके अंकुश को स्वीकार करते हैं।
- हृदय स्थान के निकट सूर्य चक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश का ध्यान कीजिए। यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें माता की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा के वस्तु स्वरूप की झांकी होती है। आत्म साक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्य चक्र ही है।
- ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग तथा मनःक्षेत्र की उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है। अपने समस्त पाप ताप विकार संस्कार जल गए हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।
ऊपर सुगम एवं सर्वोपयोगी ध्यान बताये गये हैं। यह सरल हैं और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना उत्तम है। वैसे अवकाश के अन्य समयों में भी जब चित्त शान्त हो तो इन ध्यानों में से अपनी रुचि का ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में कन को संयम, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है, साथ ही उपासना का अध्यात्म लाभ मिलने से यह म्यान दुहरा हित साधन करते हैं।
त्राटक - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
त्राटक भी ध्यान का ही एक अंग है। अथवा यों कहिए कि त्राटक का ही एक अंग ध्यान है। आन्तर त्राटक और वाह्य त्राटक दोनों का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है। नेत्र बन्द करके किसी एक वस्तु पर भावना को जमाने और उसे आन्तरिक नेत्रों से देखते रहने की क्रिया आन्तर त्राटक कहलाती है। पीछे जो दस ध्यान लिखे गए हैं वे सभी आन्तर त्राटक हैं। मैस्मरेजम के ढंग से जो लोग आन्तर त्राटक करते हैं वे केवल प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करते हैं। इससे एकांगी लाभ होता है। प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करने से मन तो एकाग्र होता है पर उपासना का आत्म लाभ नहीं मिल पाता इसलिए भारतीय योगी सदा ही आन्तर त्राटक का, इष्ट ध्यान के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।
वाह्य त्राटक का उद्देश्य वाह्य साधनों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त वृत्तियों का एकीकरण करना है मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें मन को तन्मयता पूर्वक प्रवेश करने से नेत्रों द्वारा प्रकीर्ण होने वाला मनः तेज एवं विद्युत प्रवाह एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने लगता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है दूसरे नेत्रों का प्रभाव चुम्बकत्व बढ़ जाता है ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को ‘‘बेधक दृष्टि’’ कहते हैं।
बेधक दृष्टि से देखकर किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मैस्मरेजम करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाय वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है। उस बेहोश या अर्ध तन्द्रित व्यक्ति के मस्तिष्क पर वेधक दृष्टि वाले व्यक्ति का कब्जा हो जाता है और उससे जो चाहे वह काम ले सकता है। मैस्मरेजम करने वाले, किसी व्यक्ति को अपनी त्राटक शक्ति से पूर्ण निद्रित या अर्द्ध निद्रित करके उसे नाना प्रकार के नाच नचाते हैं।
मैस्मरेजम द्वारा सत्संकल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊंची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं। दुष्ट प्रकृति के वेधक दृष्टि वाले अपने दृष्टि तेज से किन्हीं स्त्री पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रम ग्रस्त कर देते हैं और उनका सतीत्व, तथा धन लूटते हैं कई एक वेधक दृष्टि से खेल तमाशे करके पैसे कमाते हैं। यह इस महत्वपूर्ण शक्ति का दुरुपयोग है।
वेधक दृष्टि को किसी के अन्तःकरण में भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मनःस्थिति को, मनोगत भावनाओं को, जाना जा सकता है वेधक दृष्टि फेंककर दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है। नेत्रों में ऐसा चुम्बकत्व त्राटक द्वारा पैदा हो सकता है। मन की एकाग्रता चूंकि त्राटक के अभ्यास में अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है इस लिए उसका साधन साथ साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ काबू हो जाता है।
1— एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा चौकोर कागज या पट्ठा लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बना लो। स्याही एक सी हो, कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर निशान छोड़ दो और उस सफेदी में पीला रंग भर दो। इस कागज को किसी दीवार पर टांग दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आंखों के सामने सीध में रहे।
साधना का कमरा ऐसा होना चाहिए, जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अंधेरा। न अधिक सर्दी हो न गर्मी। पालथी मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान है, उस पर दृष्टि जमाओ चित्त की सारी भावनाएं एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है कुछ देर इस प्रकार देखने से आंखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास को बन्द करदो।
अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत स्थान पर बैठना चाहिये। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आंख थक जाती हैं और पानी आ जाता है, पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है, प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ।
दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह तरह की आकृतियां पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायगा, तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिनगारियां सी उड़ती दीखेंगी, कभी बादल से छाये हुये प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा। किंतु जैसे जैसे दृष्टि स्थिर होनी शुरू हो जायगी और उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियां बन्द हो जावेंगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।
2— एक फुट लम्बे चौड़े दर्पण के बीचों−बीच चांदी की चवन्नी बराबर काले रंग के कागज का गोल टुकड़ा काट कर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर एक पीला बिन्दु बनाते हैं इस अभ्यास को एक एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू किया जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुंह देखते हुए अपनी बांई आंख की पुतली पर दृष्टि जमा लेते हैं और उस पुतली में बड़े ध्यान पूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।
3— गौ घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आधा इंच से कम उठी हुई न हो, इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिछला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाये इस अग्नि शिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकरा कर उसी में घुली जा रही है।
4— प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय या तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेट कर ऊपर को आंखें करनी पड़ेंगी यह दोनों ही स्थितियां हानिकारक हैं। इसलिए उदय होता हुआ सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।
5— त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो उन्हें वाह्य त्राटक की अपेक्षा आन्तर त्राटक उपयुक्त है जो कि ध्यान प्रकरण में लिखे जा चुके हैं। आन्तर त्राटक को पाश्चात्य योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्नि शिखा, सूर्य चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश, पन्द्रह सेकिण्ड खुले नेत्रों से देखा फिर आंख बन्द करली और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूं तथा अपनी सारी इच्छा शक्ति को तेज नोकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर-पार कर रहा हूं।
अपनी सुविधा, स्थिति या रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियम पूर्वक करते रहना चाहिए। इससे मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता, पारदर्शिता एवं प्रभावशीलता की अभिवृद्धि होती है।
त्राटक पर से उठने के पश्चात गुलाब जल से आंखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया जा सकता है। आंख धोने के लिए छोटी कांच की प्यालियों अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान पर मिलती हैं वह सुविधाजनक होती हैं। न मिलने पर कटोरी में पानी भर के उसमें आंख खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आंखें धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आंखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी से समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शरबत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम का हलुआ, च्यवनप्राश अवलेह आदि वस्तुएं भी उपयोगी होती हैं।
जप साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मनोमय कोश की स्थिरता एवं एकाग्रता के लिये जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। इसकी उपयोगिता निर्विवाद है कि सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, माला की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। जप करने से मन की प्रवृत्तियों को एक ही हेतु में लगा देना सरल हो जाता है।
कहते हैं कि एक बार एक मनुष्य ने किसी भूत को सिद्ध कर लिया। भूत बड़ा बलवान था उसने कहा मैं तुम्हारे वश में आ गया, ठीक है, जो आज्ञा मिलेगी सो करूंगा, पर मुझ से बेकार नहीं बैठा जाता। यदि मैं बेकार रहा तो आप को ही खा जाऊंगा। यह मेरी शर्त अच्छी तरह समझ लीजिये। उस आदमी ने भूत को बहुत से काम बताये उसने थोड़ी-थोड़ी देर में सब काम कर दिये। भूत की बेकारी से उत्पन्न होने वाला संकट उस सिद्ध को बेतरह परेशान कर रहा था। तब वह दुखी होकर अपने गुरु के पास गया। गुरु ने उस सिद्ध को बताया कि आंगन में एक श्वांस गाढ़ दिया जाय और भूत से कह दिया जाय कि जब तक दूसरा काम न बताया जाया करे तब तक उस बांस पर बार-बार चढ़ें और बारबार उतरे। यह काम मिल जाने पर भूत से काम लेते रहने की भी सुविधा हो गई और सिद्ध के आगे उपस्थित रहने वाला संकट हट गया।
मन ऐसा ही भूत है जो जब भी निरर्थक बैठता है तभी कुछ न कुछ खुराफात करता है। इसलिए यह जब भी काम से छुट्टी पावें तभी इसे जप पर लगा देना चाहिए। जप केवल समय काटने के लिए ही नहीं है वरन् वह एक बड़ा ही उत्पादक एवं निर्माणात्मक मनोवैज्ञानिक श्रम है। निरन्तर पुनरावृत्ति करते रहने से मन में उस प्रकार का अभ्यास एवं संस्कार बन जाता है जिससे वह स्वभावतः उसी ओर चलने लगता है।
पत्थर बार-बार रस्सी की रगड़ लगने से उसमें गड्ढा पड़ जाता है। पिंजड़े में रहने वाला कबूतर, बाहर निकाल देने पर भी लौटकर उसी में वापिस आ जाता है। गाय को जंगल में छोड़ दिया जाय तो भी वह रात को स्वयंमेव लौट आती है। निरन्तर के अभ्यास से मन भी ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि अपने दीर्घ काल तक सेवन किये गये कार्यक्रम में अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है।
अनेक निरर्थक कल्पना प्रपंचों में उछलते-कूदते फिरने की अपेक्षा आध्यात्मिक भावना की एक सीमित परिधि में भ्रमण करने के लिए जप की प्रक्रिया बड़ी ही उत्तम है। दीर्घ काल तक निरन्तर जप का अभ्यास करने से मन एक ही दिशा में प्रवृत्त रहने लगता है। आत्मिक क्षेत्र में मन का लगा रहना उस दिशा में एक दिन पूर्ण सफलता प्राप्त होने का सुनिश्चित लक्षण है। मन रूपी भूत बड़ा बलवान है। यह सांसारिक कार्यों को भी बड़ी सफलता पूर्वक करता है और जब आत्मिक क्षेत्र में जुट जाता है तो भगवान के सिंहासन को हिला देने में भी नहीं चूकता मन की उत्पादक, रचनात्मक एवं प्रेरक शक्ति इतनी विलक्षण है कि उसके लिए संसार की कोई वस्तु असम्भव नहीं। भगवान को प्राप्त करना भी उसके लिए बिलकुल सरल है। कठिनाई केवल एक नियत क्षेत्र में जमने की ही है सो जप के व्यवस्थित विधान से वह भी दूर हो जाती है।
हमारा मन कैसा ही उच्छृंखल क्यों न हो पर जब उसको बार-बार किसी भावना पर केन्द्रित किया जाता रहेगा तो कोई कारण नहीं कि कालान्तर से वह उसी प्रकार का न बनने लगे। लगातार प्रयत्न करने से सरकस में खेल दिखाने वाले बन्दर, सिंह, बाघ, रीछ जैसे उद्दण्ड जानवर मालिक की मर्जी का काम करने लगते हैं, उसके इशारे पर नाचते हैं, तो कोई कारण नहीं कि चंचल और कुमार्गगामी मन को वश में करके इच्छानुवर्ती न बनाया जा सके। पहलवान लोग नित्य प्रति अपनी नियत मर्यादा में, गिनती में, डंड बैठक आदि करते हैं उनकी इस क्रिया पद्धति से उनका शरीर दिन-दिन हृष्ट-पुष्ट होता जाता है और एक दिन वे अच्छे बलवान बन जाते हैं। नित्य का जप एक आध्यात्मिक व्यायाम है। जिससे आत्मिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ सूक्ष्म शरीर को पहलवान बनाने में, महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
एक एक बूंद जमा करने से घड़ा भर जाता है चींटी एक एक दाना ले जाकर अपने बिलों में बनो अनाज जमा लेती है। एक एक अक्षर पढ़ने से थोड़े दिनों में विद्वान बना जा सकता है। एक एक कदम चलने से लम्बी मंजिलें पार हो जाती हैं, एक एक पैसा जोड़ने से खजाने जमा हो जाते हैं, एक एक तिनका मिलने से मजबूत रस्सी बन जाती है, जप में भी यही होता है। माला का एक एक दाना फेरने से बहुत कुछ जमा हो जाता है, और इतना जमा हो जाता है कि उससे आत्मा का कल्याण हो जाता है इसीलिए योग ग्रन्थों में जप को यज्ञ बताया गया है। उसकी बड़ी महिमा गाई है और आत्म मार्ग पर चलने की इच्छा करने वाले पथिकों के लिए जप करने का कर्तव्य आवश्यक रूप से निर्धारित किया गया है।
गीता के अध्याय 10 श्लोक 25 में कहा गया है कि ‘‘यज्ञो में जप यज्ञ श्रेष्ठ है।’’ मनुस्मृति में अध्याय 2 श्लोक 86 में बताया गया कि ‘‘होम’’ बलिकर्म, श्राद्ध, अतिथि सेवा, पाक यज्ञ, विधि-यज्ञ, दशपौर्णमासादि यज्ञ सब मिल कर भी जप यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते।’’ महर्षि भारद्वाज ने गायत्री व्याख्या में कहा है कि ‘‘समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में हिंसा होती है पर जप यज्ञ में नहीं है। जितने कर्म, यज्ञ, दान, तप हैं सब जप यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते। समस्त पुण्य साधनों में जप यज्ञ सर्व श्रेष्ठ हैं।’’ इस प्रकार के अगणित प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। इन शास्त्र वचनों में जप यज्ञ की उपयोगिता एवं महत्ता का बहुत जोर प्रतिपादन किया गया है। कारण यह है कि जप मन को वश में करने का रामवाण अस्त्र है। और यह सर्व विदित तथ्य है कि मन को वश में करना इतनी बड़ी सफलता है कि उसकी प्राप्ति होने पर जीवन को धन्य माना जा सकता है। समस्त आत्मिक और भौतिक सम्पदाएं संयत मन से ही तो उपलब्ध की जाती हैं।
जप यज्ञ के संबंध में कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—
1—जप के लिए प्रातःकाल एवं ब्राह्म मुहूर्त काल सर्वोत्तम है। दो घण्टे रात रहे से सूर्योदय तक ब्राह्म मुहूर्त कहलाता है। सूर्योदय से दो घण्टे दिन चढ़े तक
प्रातः काल होता है। प्रातःकाल से भी ब्राह्म मुहूर्त अधिक श्रेष्ठ है।
2—जप के लिए पवित्र एकान्त स्थान चुनना चाहिए मन्दिर, तीर्थ, बगीचा, जलाशय आदि एकान्त के शुद्ध स्थान जप के लिए अधिक उपयुक्त हैं। घर में
जप करना हो तो भी ऐसी जगह चुननी चाहिए जहां अधिक खटपट न होती हो।
3—संध्या को जप करना हो तो सूर्य अस्त से एक घण्टा उपरान्त तक जप समाप्त कर लेना चाहिए। प्रातःकाल के दो घण्टे और सायंकाल का एक घण्टा
इन तीन घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री मंत्र नहीं जपा जाता।
4—जप के लिये शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता या
अस्वस्थता की दशा में हाथ मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। नित्य धुले वस्त्रों की व्यवस्था न हो सके तो
रेशमी या ऊनी वस्त्रों से काम लेना चाहिए।
5—जप के लिए बिना बिछाये न बैठना चाहिए। कुश का आसन, चटाई आदि घास के बने आसन अधिक उपयुक्त हैं। पशुओं के चमड़े, मृगछाला आदि
आजकल उनकी हिंसा से ही प्राप्त होते हैं इसलिये वे निषिद्ध हैं।
6—पद्मासन से, पालती मारकर, मेरुदंड को सीधा रखते हुए जप के लिए बैठना चाहिए। मुंह प्रातःकाल पूर्व की ओर और सांयकाल पश्चिम की ओर रहे।
7—माला तुलसी की या चंदन की लेनी चाहिये। कम से कम एक माला नित्य जपनी चाहिए। माला पर जहां बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो वहां हाथ
को कपड़े से या गौमुखी से ढक लेना चाहिये।
8—माला जपते समय सुमेरु (माला के प्रारम्भ का सबसे बड़ा केन्द्रीय दाना) को उल्लंघन न करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों
से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिये।
9—लम्बे सफर में, स्वयं रोगी हो जाने पर, किसी रोगी की सेवा में संलग्न रहने पर, जनन मृत्यु का सूतक लग जाने पर, स्नान आदि पवित्रताओं की
सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिये। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता चलते या किसी भी पवित्र अपवित्र दशा
में किया जा सकता है।
10—जप इस प्रकार करना चाहिये कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें परन्तु समीप बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मंत्र को सुन न सके। मल
मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिए साधना के बीच में ही उठना पड़े तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दुबारा बैठना चाहिये। जप काल में यथा
संभव मौन रहना उचित है। कोई बात कहना आवश्यक हो तो इशारे से कह देनी चाहिये।
12—जप नियत समय पर, नियत संख्या में, नियत स्थान पर, शान्त चित्त एवं एकाग्र मन से करना चाहिये। पास में जलाशय या जल से भरा पात्र होना
चाहिये। आचमन के पश्चात् जप आरम्भ करना चाहिये। किसी दिन अनिवार्य कारण से जप स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन प्रायश्चित्य स्वरूप एक
माला अधिक जपनी चाहिये।
13—जप के लिए गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। गुरु द्वारा ग्रहण किया हुआ मंत्र ही सफल होता है। स्वेच्छा पूर्वक मन चाही विधि से, मन चाहा मंत्र, जपने से
विशेष लाभ नहीं होता। इसलिए अपनी स्थिति के अनुकूल आवश्यक विधान किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक से मालूम कर लेना चाहिए।
उपरोक्त नियमों के आधार पर किया हुआ गायत्री जप मन को वश में करने एवं मनोमय कोष को सुविकसित करने में बड़ा ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।
तन्मात्रा साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
यह बात प्रकट है कि हमारा शरीर एवं समस्त संसार पंच तत्वों का बना हुआ है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पांच तत्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार प्रकार और गुण धर्म की वस्तुएं बन जाती हैं।
इन पांच तत्वों की जो सूक्ष्म शक्तियां हैं उनकी इन्द्रिय जन्य अनुभूति को ‘तन्मात्रा’ कहते हैं। शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। यह पांच तत्वों से बने हुये पदार्थों के संसर्ग में आने पर जैसा अनुभव करती हैं उस अनुभव को ‘‘तन्मात्रा’’ नाम से पुकारते हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, यह पांच तन्मात्राएं हैं।
आकाश की तन्मात्रा—‘शब्द’ है यह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय है। अग्नि तत्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है। यह अग्नि प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आंखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। रस का जल प्रधान इन्द्रिय जिव्हा द्वारा अनुभव होता है, षट् रसों का, खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कडुए, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा ‘गंध’ है गंध को, पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा स्पर्श का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तंतु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उनके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
इन्द्रियों में तन्मात्राओं को अनुभव करने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। जीव को संसार में जीवन यापन की सुविधा भले ही हो, पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एक मात्र कारण ‘‘तन्मात्रा’’ शक्ति है। कल्पना कीजिए कि हम संसार के किसी पदार्थ का रूप न देख सकें तो सर्वत्र अन्धकार प्रतीत होगा, शब्द सुन न सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी, स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकर सड़ांद और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु सेवन, कोमल शय्या, काम सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।
परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्राएं उत्पन्न करके और उनके अनुभव के लिए शरीर में ज्ञानेन्द्रियां बनाकर शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ संबद्ध कर दिया है यदि पंच तत्व केवल स्थूल ही होते, उनमें तन्मात्राएं न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता। सब कुछ नीरस, निरर्थक और बेकार सा दीख पड़ता और यदि तत्वों में तन्मात्राएं होती तो पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियां न होती तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव जीवन भी नीरस हो जाता। इन्द्रियों की संवेदना शक्ति और तत्वों की तन्मात्राएं मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म मरण के चक्र में, भव बन्धन में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है।
आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्म कल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके सम्पर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग बिरंगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती। कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग करने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही कांपते हां, इसका एक मात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण है वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरस है। कष्ट सहते हुए भी, उनके कारण खिन्न रहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।
पांच इन्द्रियों के खूंटे से, पांच तन्मात्राओं के रस्सों से, जीव बंधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं इन रसों में चमकीला रंगीन रेशम और सुनहरी कलाबत्त लगा हुआ है। खूंटे चांदी सोने के बने हुए हैं उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं। जीव रूपी घोड़ा इन खूंटों से, इन रस्सों से बंधा है। वह बंधन के दुख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूंटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा करना तक छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। दिन भर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूंटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बाल बुद्धि को अदूर दर्शिता को, वास्तविकता न समझने को, शास्त्रों में अविद्या, माया, भ्रान्ति आदि नामों से पुकारा गया है। और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।
इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के मिश्रण से जो खुजली उत्पन्न होती है उसे ही खुजाने के लिए मनुष्य के विविध विचार और कार्य होते हैं। वह दिन रात इसी खाज को खुजाने के गोरख धन्धे में लगा रहता है। मन को वश में करने एवं एकाग्र करने में सबसे बड़ी बाधा यह खुजली है जो दूसरी ओर चित्त को जाने ही नहीं देती। खुजाने में जो मजा आता है उसकी तुलना में और सब बातें हलकी मालूम देती हैं। इसलिए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है।
तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है, बहुत ही हल्की छोटी और महत्वहीन वस्तु है यह भावना अन्तःभूमि में जमाने के लिए, मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए ‘तन्मात्राओं की साधना’ के अभ्यास बताये गये हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि—‘तन्मात्राएं’ अमात्म वस्तु हैं। यह जड़ पंच तत्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र हैं। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती हैं और एक निरर्थक का झमेला, गोरखधन्धा फंसा कर हमें लक्ष प्राप्ति से वंचित कर देती हैं। इसलिए इनकी वास्तविकता, व्यर्थता, एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।
आगे चलकर पांचों तन्मात्राओं की छोटी छोटी सरल साधनाएं बताई जायेंगी। जिनकी साधना करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है, कि शब्द रूप, रस, गंध स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोगी है जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यकता नहीं है।
दूसरी बात यह भी है कि मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो अपने विषय में लगता भी है और उसे जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनः शक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।
अब पंच तन्मात्राओं की संक्षिप्त साधनाएं लिखी जाती हैं—
शब्द साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
एकान्त स्थान में जाइए जहां किसी प्रकार के शब्द या कोलाहल न होते हों। बाहर के शब्द भी सुनाई न पड़ते हों। रात्रि को जब चारों ओर शान्ति हो जाती है इस साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे की किवाड़ बन्द कर लेनी चाहिए ताकि बाहर से शब्द भीतर न आवें।
- शान्त चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइए और उसकी टिक् टिक् को ध्यान पूर्वक सुनिए। अब धीरे धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइए और ध्यान देकर उसकी टिक् टिक् को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइए। धीरे धीरे अभ्यास से घड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक् टिक् कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रवाह शिथिल हो जाय तो घड़ी को कान के पास लाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटाकर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।
- घड़ियाल में एक चोट मारकर उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना, जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर फिर उस ध्वनि को ताजा कर लेना इसी साधना का मुष्टि योग नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है।
- किसी झरने के निकट या नहर की झाल के निकट जाइए जहां जल प्रताप का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए फिर कानों की उंगली डालकर बन्द कर लीजिए। और सूक्ष्म कर्णेंद्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिए। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उंगली ढीली करके उसे सुनिए और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए।
इन शब्द साधनाओं में लगा रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जागृत होती है। जिसके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं, सुदूर हो रही गुप्त वार्ताओं का आभास हो जाता है। देश विदेशों में हो रहे, नृत्य, गीत, वाद्य आदि की ध्वनि तरंगें कानों में आकर चित्त को उल्लास आनन्द से भर देती हैं। आगे चलकर यही साधना ‘‘कण पिशाचिनी’’ सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहां क्या हो रहा है, कौन क्या कह रहा है, किस के मन में क्या विचार उठ रहा है। किस की बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियां क्या क्या कह रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है, आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुंह रख कर सारी बातें कह रहा हो। इस सफलता को ‘‘कर्ण पिशाचिनी सिद्धि’’ कहते हैं।
रूप साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
- वेद माता गायत्री को, या सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी, राम, कृष्ण आदि इष्टदेव का जो सब से सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले लीजिए। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिए जहां पर्याप्त प्रकाश हो। इस चित्र या प्रतिमा के अंग प्रत्यंगों को मनोयोग पूर्वक देखिए। उनके सौन्दर्य एवं विशेषताओं को खूब बारीकी के साथ देखिए। एक मिनट इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिए। अब उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियां विशेषताएं अथवा सुन्दरताएं चित्र में देखी थीं, उन सब को कल्पना शक्ति द्वारा ध्यान चित्र में आरोपित कीजिए। फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छवि को देखिए। ध्यान के साथ साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार बार करने से वह रूप मन में बस जायेगा। उसका दिव्य नेत्रों से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आवेगा। धीरे धीरे इस चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी, हंसती, मुस्कराती नाराज होती उपेक्षा करती हुई भाव भंगिमाएं दिखाई देगी यह प्रतिमा स्वप्न में अथवा जागृत अवस्था में नेत्रों के सामने आवेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है जिसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके। आरंभ में यह साक्षात्कार धुंधला होता है फिर धीरे धीरे ध्यान सिद्धि होने से वह छवि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले वह दिव्य दर्शन ध्यान क्षेत्र में ही रहता है फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है।
- किसी मनुष्य के रूप का ध्यान जिन भावनाओं के साथ प्रबल मनोयोग पूर्वक किया जायगा। उन भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा। किसी के विचारों को बदलने द्वेष मिटाने, मधुर सम्बन्ध उत्पन्न करने बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से हानि लाभ पहुंचाने आदि के प्रयोग इस साधना के ही आधार पर होते हैं। तांत्रिक लोग विशेष कर्म काण्डों एवं मंत्रों द्वारा किसी मनुष्य का रूप आकर्षण करके उसे रोगी, पागल एवं वशवर्ती करते देखे गये हैं।
- छाया पुरुष की सिद्धि भी रूप साधना का एक अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों के बिना भोजन किये मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आकृति ध्यान पूर्वक देखिए। थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए। अपनी छवि आपको दृष्टिगोचर होने लगेगी। कई व्यक्ति दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में, तिल के तेल में, या पिघले हुए घृत में अपनी छवि देख कर उसका ध्यान करते हैं। दर्पण की साधना मनोरंजक, जल की साधना शान्ति दायक, तेल की संहारक और घृत की उत्पादक होती है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में खड़े होने पर अपनी छाया 3।। हाथ रहे उस समय अपनी छाया पर भी इस प्रकार साधन किया जाता है। सूर्य का साधन सिद्धि दाता और चन्द्र का साधन कल्याण कारक माना गया है।
दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में अपनी मुखाकृति स्पष्ट दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता है। सूर्य चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भले प्रकार देखने के उपरान्त आंखें बन्द करके उस काली छाया का ध्यान करते हैं कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस छाया में अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है।
कुछ काल निरंतर इस छाया साधन को करते रहा जाय तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण होते जाने से वह एक स्वतंत्र चेतना का प्राणी बन जाता है। उसके आस्तित्व को ‘अपना जीवित भूत’ कह सकते हैं। आरंभिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने आस पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब अपना नियंत्रण हो जाता है तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है उसका यह मानस पुत्र छाया पुरुष भी निर्बल होगा और अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है उनका छाया पुरुष दूसरे अदृश्य शरीर की भांति कार्य करता है। एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह, दो प्रकट देहें, पाकर साधक बहुत से महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही रूप साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना तो प्रत्यक्ष लाभ है ही।
रस साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर है तो उसके छोटे छोटे पांच टुकड़े लीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्र भाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का अनुभव करें। फिर इस टुकड़े को फेंक दें और उस पूर्व स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिए और पूर्ववत् उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पांच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।
धीरे धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय रखना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस का अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है।
शरीर के लिये जिन रसों की आवश्यकता है वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। रस साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा संकल्प शक्ति के आकर्षण द्वारा खींच कर उदरस्थ किया जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि लोग दीर्घ काल तक बिना अन्न जल के तपस्याएं करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकाश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे इसलिए बिना अन्न जल के भी उनका काम चल जाता था। इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थों औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। तथा दूसरों के लिए यह वस्तुएं आकाश से उत्पन्न करके इस तरह दें सकता है मानों किसी के द्वारा कहीं से मंगा कर दी हों।
गन्ध साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
नासिका के अग्र भाग पर त्राटक करना इस साधना में आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्रभाग पर त्राटक नहीं हो सकता, इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बांई ओर करना उचित है। दाहिने को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बांए नेत्र को प्रधानता देकर बांए हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए। आरम्भ एक एक मिनट से करके अन्त में पांच पांच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक से नासिका की सूक्ष्म शक्तियां जाग्रत होती हैं।
इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर एक मिनट तक धीरे धीरे सूंघिए और उसकी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध को दो मिनट तक स्मरण कीजिए। इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पांच फूलों को पंद्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम से कम एक सप्ताह तक एक ही फूल प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।
कोई भी सुन्दर पुष्प गन्ध साधना के लिए लिया जा सकता है। भिन्न पुष्पों के भिन्न गुण हैं -
गुलाब का—प्रेमोत्पादक
चमेली—बुद्धि वर्धक,
गेंदा—उत्साह बढ़ाने वाला,
चम्पा—सौन्दर्य दायक,
मोगरा—सन्तान वर्धक,
केतकी—रोग नाशक,
कदम—शान्ति दायक,
कन्नेर—उष्ण,
सूर्यमुखी—ओज वर्धक है।
प्रत्येक पुष्प में कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं। जिस पुष्प को सामने रखकर उसका ध्यान किया जायगा उसी के सूक्ष्म गुण अपने में बढ़ेंगे।
हवन, गंध योग से संबंधित है। किन्हीं पदार्थों की सूक्ष्म प्राण शक्ति को प्राप्त करने के लिए उससे विधि पूर्वक हवन किया जाता है। जिससे उसका स्थूल रूप तो जल जाता है पर सूक्ष्म रूप वायु के साथ चारों ओर फैलकर निकटस्थ लोगों की प्राण शक्ति में अभिवृद्धि करता है। सुगंधित वातावरण में अनुकूल प्राण की मात्रा अधिक होती है। इसी से उसे नासिका द्वारा प्राप्त करते हुए अन्तःकरण प्रसन्न होता है।
गंध साधना से मन की एकाग्रता के अतिरिक्त भविष्य का आभास प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर दांया और चन्द्र स्वर बांया सिद्ध हो जाने पर साधक अच्छा भविष्य ज्ञाता हो सकता है। हमारी ‘‘स्वर योग से दिव्य ज्ञान’’ पुस्तक में स्वर विद्या की विस्तृत चर्चा की गई है। नासिका द्वारा साधा जाने वाला स्वर योग भी गंध साधना की एक शाखा है।
स्पर्श साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
- बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे हटालें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वही ठंडक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श करा कर उसकी अनुभूति कायम रखने की भावना करनी चाहिए। पंखा झल कर हवा करना, चिकना कांच का गोला या रुई की गेंद त्वचा पर स्पर्श करके फिर उस स्पर्श को ध्यान रखना भी इसी प्रकार का अभ्यास है। ब्रुस से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना, जैसे अभ्यासों की भी इसी प्रकार ध्यान भावना की जा सकती है।
- किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछा कर उस पर चित्त लेटे रहिए कुछ देर इसकी कोमलता का स्पर्श—सुख अनुभव करते रहिए इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइए। कठोर भूमि पर पड़े रह कर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए, फिर पलट कर गद्दे पर आ जाइए और उस कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श साधना में सफलता प्राप्त करने पर शारीरिक कष्टों को हंसते हंसते सहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
स्पर्श साधना से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट होते हैं उनके कारण त्वचा में जाल की तरह फैले हुए ज्ञान तंतु ही हैं। यह ज्ञान तन्तु छोटे से आघात कष्ट या अनुभव को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं तदनुसार मस्तिष्क को पीड़ा का भान होने लगता है, कोकिन का इंजेक्शन लगाकर इन ज्ञान तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाय तो आपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती। कोकिन इंजेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी पहुंचाता है पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई ‘‘ज्ञान तन्तु-नियंत्रण शक्ति’’ किसी प्रकार की हानि पहुंचाना तो दूर उलटा नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में सफल होती है साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान नहीं होने देती।
भीष्मपितामह उत्तरायन सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने बाणों से छिदे हुये पड़े रहे थे। तिल तिल शरीर में बाण घुसे पड़े थे, फिर भी उनके कष्ट से चिल्लाना तो दूर वो उपस्थित लोगों को बड़े ही गूढ़ विषयों पर उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी संभव हो सका जब उन्हें तितीक्षा की सिद्धि थी, अन्यथा हजारों बाण छिदे होना तो दूर एक सुई या कांटा लग जाने पर लोग होश हवास भूल जाते हैं।
स्पर्श साधना से चित्त की वृत्तियां एकाग्र होती हैं। मन को वश में होने से जो लाभ मिलते हैं उनके अतिरिक्त तितीक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों का दुख भोगने से साधक बच जाता है।
मन को आज्ञानुवर्ती, नियंत्रित, अनुशासित बनाना, जीवन को सफल बनाने की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्या है। अपना दृष्टिकोण चाहे अध्यात्मिक हो चाहे भौतिक चाहे अपनी प्रवृत्तियां परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की ओर पर मन का नियंत्रण हर स्थिति में आवश्यक है। उच्छृंखल, चंचल या अव्यवस्थित मन से न लोक न परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए मनो निग्रह प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक आवश्यकता है।
मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त करने के लिए इस प्रकरण में जो साधनाएं बताई गई हैं वे बड़ी उपयोगी, सरल एवं सर्व सुलभ हैं। ध्यान, त्राटक, जप, एवं तन्मात्रा साधन से मन की चंचलता दूर होती है साथ ही अतिरिक्त सिद्धियां भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य योगियों की मैस्मरेजम के तरीके से की गई मनः साधनाओं की अपेक्षा भारतीय विधि से योग पद्धति से की गई साधना द्विगुणित लाभ दायक होती है।
वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है। वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है जिन्हें पाकर मानव जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा कल्प वृक्ष बताया जाता है जिसके नीचे बैठकर मन चाही कामनाएं पूरी हो जाती हैं। मर्त्य लोक में, वश में किया हुआ मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त हो गया उसे अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया समझिए।
अनियंत्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहां रखी जायगी उसी स्थान को जलावेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा उसमें नित नई विपत्तियां, कठिनाइयां आपदाएं, बुराइयां बरसती रहेंगी, इसलिए अध्यात्म विद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की साधना को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है।
गायत्री का तृतीय मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा को पार कर लेना है।
विज्ञानमय कोश - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय इन तीनों कोशों के उपरांत आत्मा का चौथा आवरण, गायत्री का चौथा मुख विज्ञान मय कोश है। आत्मोन्नति की चतुर्थ भूमिका में विज्ञानमय कोश की साधना की जाती है।
विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। साधारण ज्ञान के द्वारा हम लोक व्यवहार को, अपनी शारीरिक, व्यापारिक, सामाजिक, कलात्मक, धार्मिक समस्याओं को, समझते हैं। स्कूलों में इसी साधारण ज्ञान की शिक्षा मिलती है। राजनीति, अर्थ शास्त्र, शिल्प, रसायन, चिकित्सा, संगीत, वक्तृत्व, लेखन, व्यवसाय, कृषि, निर्माण, उत्पादन आदि विविध बातों की जानकारी विविध प्रकार से प्राप्त की जाती है। इन जानकारियों के आधार पर शरीर से संबंध रखने वाला सांसारिक जीवन चलता है। जिसके पास यह जानकारियां जितनी अधिक होंगी, जो लोक व्यवहार में जितना प्रवीण होगा, उतना ही उसका सांसारिक जीवन उन्नत, यशस्वी, प्रतिष्ठित, सम्पन्न एवं ऐश्वर्यवान होगा।
किन्तु इस साधारण ज्ञान का परिणाम स्थूल शरीर तक ही सीमित है। आत्मा का उससे कुछ हित सम्पादन नहीं हो सकता। देखा जाता है कि कई व्यक्ति बड़े धनवान, प्रतिष्ठित, नेता और गुणवान होते हुए भी आत्मिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए होते हैं। कई मनुष्य आत्मा परमात्मा के बारे में बहुत बातें करते हैं ईश्वर, जीव प्रकृति, वेदान्त, योग, आदि के बारे में बहुत सी बातें पढ़ सुन कर अपनी जानकारी बढ़ा लेते हैं और बड़ी बड़ी बातें बढ़ चढ़ कर करते हैं तथा साथियों पर अपनी विशेषता की छाप जमाते हैं। इतना करते हुए भी वस्तुतः उनकी आत्मिक धारणाएं बड़ी निर्बल होती हैं। श्रद्धा और विश्वास की दृष्टि से उनकी स्थिति साधारण लोगों से कुछ विशेष अच्छी नहीं होती।
गीता, उपनिषद्, रामायण, वेद शास्त्र आदि सद्ग्रन्थों के पढ़ने एवं सत्पुरुषों के, आचार्यों के, प्रवचन सुनने से आत्मिक विषयों की जानकारी बढ़ती है। जो उस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले जिज्ञासुओं के लिए आवश्यक भी है। परन्तु इन विषयों की विस्तृत जानकारी प्राप्त होने पर भी यह आवश्यक नहीं कि उस व्यक्ति को आत्मज्ञान हो ही जाय।
इस पुस्तक के आरम्भ में वरुण और भृगु की कथा दी गई है। भृगु पूर्ण विद्वान थे। वेद वेदांगों के पूरे ज्ञाता थे। फिर भी वे जानते थे कि मुझे आत्म ज्ञान, ब्रह्मज्ञान विज्ञान, प्राप्त नहीं है इसलिए वरुण के पास जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि ‘हे भगवन्! मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दीजिए।’ वरुण ने भृगु को कोई पुस्तक नहीं पढ़ाई और न कोई लम्बा चौड़ा प्रवचन ही सुनाया। वरन् उन्हें आदेश किया कि—‘तप करो।’ तप करने से एक एक कोश को पार करते हुए क्रमशः उन्होंने ब्रह्म को प्राप्त किया। ऐसी ही अनेक कथाएं हैं। उद्दालक ने श्वेत केतु को, ब्रह्मा ने इन्द्र को, अंगिरा ने विबिस्वान को, इसी प्रकार तप करके ब्रह्म को जानने का आदेश किया था।
ज्ञान का अभिप्राय है जानकारी। विज्ञान का अभिप्राय है श्रद्धा, धारणा, मान्यता, अनुभूति। आत्म विद्या के सभी जिज्ञासु यह जानते हैं कि ‘‘आत्मा अमर है, शरीर से भिन्न है ईश्वर का अंश है। सच्चिदानन्द स्वरूप है।’’ परन्तु इस जानकारी का एक कण भी अनुभूति भूमिका में नहीं होता। स्वयं को तथा दूसरों को मरते देखकर हृदय विचलित हो जाता है शरीर के लाभ के लिए आत्मा के लाभों की उपेक्षा प्रति क्षण होती रहती है। दीनता, अभाव, तृष्णा, लालसा हर घड़ी सताती रहती है। तब कैसे कहा जाय कि आत्मा की अमरता, शरीर की भिन्नता तथा ईश्वर के अंश होने की मान्यता पर हमें श्रद्धा है, आस्था है, विश्वास है।
अपने संबंध में तात्विक मान्यता स्थिर कराना और उसको पूर्णतया अनुभव कराना, यही विज्ञान का उद्देश्य है। आमतौर से लोग अपने को शरीर मानते हैं, स्थूल शरीर से जैसे कुछ हम हैं वही उनकी आत्म मान्यता है। जाति वंश प्रदेश, सम्प्रदाय, व्यवसाय, पद, विद्या, धन, आयु स्थिति लिंग आदि के आधार पर यह मान्यता बनाई जाती है कि मैं कौन हूं? यह प्रश्न पूछने पर कि आप कौन हैं? लोग इन्हीं बातों के आधार पर अपना परिचय देते हैं। अपने को समझते भी वे यही हैं। इस मान्यता के आधार पर ही अपने स्वार्थों का निर्धारण होता है। जिस स्थिति में स्वयं हैं उसी स्थिति का अहंकार अपने में जागृत होता है और स्थिति तथा अहंकार की पूर्ति पुष्टि तथा संतुष्टि जिस प्रकार होनी संभव दिखाई पड़ती है वही जीवन की अन्तरंग नीति बन जाती है।
बाहर से लोग धर्म और सदाचार की, सिद्धान्तों और आदर्शों की बातें करते रहते हैं, पर उनका अन्तःकरण उसी दिशा में काम करता है जिस ओर उनकी अन्तरंग जीवन नीति प्रेरणा देती है। जब अपने को शरीर मान लिया गया तो शरीर का सुख ही अभीष्ट होना चाहिए। इन्द्रिय भोगों की मौज मजे की, मान बड़ाई की, ऐश आराम की, प्राप्ति ही शरीर का सुख हैं, इन सुखों के लिए धन की आवश्यकता है। अस्तु धन को अधिक से अधिक जुटाना और भोग ऐश्वर्य में निमग्न रहना यही प्रधान कार्यक्रम हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो किया जाता है वह तो एक प्रकार की तफरीह के लिए, विनोद के लिए होता है। ऐसे लोग कभी कभी धर्म चर्चा या पूजा पाठ भी करते देखे जाते हैं यह उनका मन बहलाव मात्र है। स्थिर लक्ष तो उनका वही रहेगा जो आत्म मान्यता के आधार पर निर्धारित किया गया है। आमतौर से आज यही भौतिक दृष्टि सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। धन और भोग की छीना झपटी में लोग एक दूसरे से बाजी मारने में इसी दृष्टिकोण के कारण जी जान से जुटे हुए हैं। परिणाम स्वरूप जिन कलह क्लेशों का सामना करना पड़ रहा है वह सामने है।
विज्ञान, इस अज्ञान रूपी अन्धकार से हमें बचाता है जिस मनोभूमि में पहुंच कर जीव यह अनुभव करता है कि ‘‘मैं शरीर नहीं वस्तुतः आत्मा ही हूं’’ उस मनोभूमि को विज्ञानमय कोश कहते हैं। अन्नमय कोश में जब तक जीव की स्थिति रहती है तब तक वह अपने को स्त्री पुरुष, मनुष्य पशु, मोटा, पतला, पहलवान, काला गोरा आदि शरीर संबंधी भेदों से अपने को पहचानता है। जब प्राणमय कोश में जीव की स्थिति होती है तो गुणों के आधार पर अपने पन का बोध होता है। शिल्पी, संगीतज्ञ, विद्वान, मूर्ख, कायर, शूरवीर, लेखक, वक्ता, धनी, गरीब आदि की मान्यताएं प्राण भूमिका में होती है। मनोमय कोश में स्थिति पहुंचने पर अपनेपन की मान्यता स्वभाव के आधार पर होती है। लोभी, दम्भी, चोर, उदार, विषयी, संयमी, नास्तिक, आस्तिक, स्वार्थी, परमार्थी, दयालु, निष्ठुर, आदि कर्तव्य और धर्म की, औचित्य अनौचित्य संबंधी मान्यताएं जब अपने सम्बन्ध में बनती हों, उन्हीं पर विशेष ध्यान रहता हो, तो समझना चाहिए कि जीव मनोमय भूमिका में तीसरी कक्षा में पहुंचा हुआ है। इससे ऊंची चौथी कक्षा विज्ञान भूमिका है, जिसमें पहुंच कर जीव अपने को यह अनुभव करने लगता है कि मैं शरीर से, गुणों से, स्वभाव से, ऊपर हूं। मैं ईश्वर का राजकुमार अविनाशी आत्मा हूं।
जीभ से अपने को आत्मा कहने वाले असंख्य लोग हैं। उन्हें आत्मज्ञानी नहीं कह सकते। आत्मज्ञानी वह है जो दृढ़ विश्वास और पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने भीतर यह अनुभव करता है कि ‘‘मैं विशुद्ध आत्मा हूं आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं।’’ शरीर मेरा वाहन है। प्राण मेरा शस्त्र है। मन मेरा सेवक है। मैं इन सब से ऊपर, इन सब से अलग, इन सबका स्वामी आत्मा हूं। मेरे स्वार्थ इनसे अलग हैं। मेरे लाभ और स्थूल शरीर के लाभों में, स्वार्थों में भारी अन्तर है। इस अन्तर को समझ कर जब जीव अपने लाभ, स्वार्थ, हित और कल्याण के लिए कटिबद्ध होता है, आत्मोन्नति के लिए अग्रसर होता है, तो उसे अपना स्वरूप और भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है।
विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुंचे हुए जीव का दृष्टिकोण, सांसारिक जीवों से बहुत भिन्न होता है। गीता में योगी का लक्षण बताया गया है कि—‘‘जब सब जीव सोते हैं तब योगी जागता है और जब सब जीव जागते हैं तब योगी सो जाता है।’’ इन अलंकारिक शब्दों में रात को जागने और दिन में सोने का विधान नहीं है वरन् यह बताया गया है कि जिन चीजों के लिए साधारण लोग बेतरह इच्छुक, प्यासे, लालायित, सतृष्ण और आकांक्षी रहते हैं योगी का मन उधर से फिर जाता है क्योंकि वह देखता है कि कामनी और कांचनी की माया शरीर को गुदगुदाती है पर आत्मा को ले बैठती है, इससे क्षणिक सुख के लिए स्थिर आनन्द का नाश करना उचित नहीं। जिन धन संतान, कुटुम्ब कबीला, शत्रु, मित्र, हानि, लाभ, आगा पीछा, निन्दा स्तुति आदि की समस्याओं में साधारण लोग बेतरह फंसे रहते हैं वे बातें योगी के लिए अबोध बच्चों की ‘‘बाल क्रीड़ा’’ से अधिक कुछ भी महत्व की दिखाई नहीं देतीं। इसलिए वे उनकी ओर से उदास हो जाते हैं, इस झमेले को बहुत कम महत्व देते हैं फलस्वरूप यह समस्याएं उनके लिए अपने आप सुलझ जाती हैं या समाप्त हो जाती हैं।
जिन कार्यों में, जिन विचारों में कामी लोग, माया ग्रस्त व्यक्ति, अत्यन्त मोह ग्रस्त होकर चिपके रहते हैं उनकी ओर से योगी मुंह फेर लेता है। इस प्रकार वह वहां सोया हुआ माना जाता है जहां जीव जागते हैं। इसी प्रकार जिन कार्यों की ओर संयम, त्याग, परमार्थ, आत्म लाभ की ओर जीवों को बिलकुल ध्यान नहीं होता उनमें योगी दत्त चित्त होकर संलग्न रहता है। इस स्थिति के बारे में ही गीता ने कहा है कि जब जीव सोते हैं तब योगी जागता है।
शरीर यात्रा के लिए प्रायः सभी मनुष्यों का मिलता जुलना कार्यक्रम रखना पड़ता है पर योगी और भोगी की जीवन रीति में भारी अन्तर होता है। प्रायः सभी लोग तड़के उठते, नित्य कर्म से निवृत्त होते और भोजन करके काम से लगते हैं। शाम तक जो श्रम करना पड़ता है उसमें से अधिकांश समय, अन्न, वस्त्र जीवन तथा आश्रितों की व्यवस्था में जल जाता है। शाम को फिर नित्य कर्म भोजन और रात को सो जाना। इसी धुरी पर सबका जीवन घूमता है। परन्तु अन्तः स्थिति में जमीन आसमान का भेद है। एक मनुष्य अपने को शरीर मानकर शरीर सुख के लिए धन और भोग इकट्ठे करने की योजना सामने रख कर अपने हर विचार और कार्य करता है दूसरा अपने को आत्मा समझ कर आत्म कल्याण की नीति पर चलता है वह दृष्टिकोण ही एक के कामों को पुण्य एवं यज्ञ बना देता है और इसी भेद के कारण दूसरे के काम पाप एवं बन्धन बन जाते हैं।
आत्मज्ञान, आत्म साक्षात्कार, आत्म लाभ, आत्म प्राप्ति, आत्म दर्शन, आत्म कल्याण को जीवन लक्ष माना गया है। यह लक्ष तभी पूरा होता है जब हमारी अन्तः चेतना अपने बारे में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास भावना के साथ यह अनुभव करे कि मैं वस्तुतः परब्रह्म परमात्मा का अविच्छिन्न अंश अविनाशी आत्मा हूं। इस भावना की पूर्णता, परिपक्वता एवं सफलता का नाम ही आत्मसाक्षात्कार है।
आत्म साक्षात्कार की चार साधनाएं नीचे दी जाती हैं।
1- सोऽहं साधना
2- आत्मानुभूति
3- स्वर संयम
4- ग्रन्थि भेद ।
यह चारों ही विज्ञानमय कोश को प्रबुद्ध करने वाली हैं।
अजपा जाप - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
आत्मा के सूक्ष्म अन्तराल में अपने आप के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान मौजूद हैं वह अपनी स्थिति की घोषणा प्रत्येक क्षण करती रहती है ताकि बुद्धि भ्रमित न हो और अपने स्वरूप को न भूले। थोड़ा सा ध्यान देने पर आत्मा की इस घोषणा को हम स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं उस ध्वनि पर निरन्तर ध्यान दिया जाय तो उस घोषणा करने वाले अमृत भण्डार आत्मा तक ही पहुंचा जा सकता है।
जब हम सांस लेते हैं तो वायु प्रवेश के साथ साथ एक सूक्ष्म ध्वनि होती है जिनका शब्द ‘‘सो ोोोो...............’’ जैसा होता है। जितनी देर सांस भीतर ठहराती है अर्थात् स्वाभाविक कुंभक होता है उतनी देर आधे ‘‘अ् ऽ ऽ ऽ’’ की सी विराम ध्वनि होती है और जब सांस बाहर निकलती है तो ‘‘ह............’’ जैसी ध्वनि निकलती है। इन तीनों ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करने से अजपा जाप की ‘सो ऽ हं’ साधना होने लगती है।
प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व नित्यकर्म से निबट कर पूर्व को मुख करके किसी शान्त स्थान में बैठिए। मेरुदंड सीधा रहे। दोनों हाथों को समेट कर गोदी में रख लीजिए। नेत्र बन्द रखिए। जब नासिका द्वारा वायु भीतर प्रवेश करने लगे तो सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को सजग करके ध्यान पूर्वक अवलोकन कीजिये कि वायु के साथ साथ सो की सूक्ष्म ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार जितनी देर ‘अ’ और वायु निकलते समय ‘हं’ की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। साथ ही हृदय स्थित सूर्य चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय स्फुल्लिंग की श्रद्धा कीजिए। जब सांस भीतर जा रही हो और ‘सो’ की ध्वनि हो रही हो तब अनुभव करिए कि यह तेज बिन्दु परमात्मा का प्रकाश है। ‘सो’ अर्थात् वह परमात्मा। ‘ऽहम्’ अर्थात्-मैं। जब वायु बाहर निकले और ‘हं’ ध्वनि हो तब उसी प्रकाश बिन्दु में भावना कीजिए कि ‘‘यह मैं हूं’’
‘अ’ की विराम भावना परिवर्तन के अवकाश का प्रतीक है। आरंभ में उस हृदय चक्र स्थिति प्रकाश बिन्दु को ‘सो’ ध्वनि के समय ब्रह्म माना जाता है और पीछे उसी को ‘हं’धारणा में जीव भावना हो जाती है इस भाव परिवर्तन के लिए ‘अ’ का अवकाश काल रखा गया है। इसी प्रकार जब ‘हं’ समाप्त हो जाय वायु बाहर निकल जाय और नई वायु प्रवेश करे उस समय भी जीव भाव हटाकर उस तेज बिन्दु में ब्रह्म भाव बदलने का अवकाश मिल जाता है। यह दोनों ही अवकाश ‘अ ऽ ऽ ऽ’ के समान हैं पर इनकी ध्वनि सुनाई नहीं देतीं। शब्द तो केवल ‘सो हं’ का ही होता है।
‘सो’ ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। ‘ऽ’ प्रकृति का प्रतिनिधि है। ‘हं’ जीव का प्रतीक है। ब्रह्म प्रकृति और जीव का सम्मिलन इस अजपा जाप में होता है। सोऽहम् साधना में तीनों महा कारण एकत्रित हो जाते हैं। जिनके कारण आत्म जागरण का स्वर्ण सुयोग एक साथ ही उपलब्ध होने लगता है।
‘सो हं’ साधना की उन्नति जैसे जैसे होती जाती है वैसे ही वैसे विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता जाता है। आत्मज्ञान बढ़ता है और धीरे धीरे आत्म साक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है। आगे चलकर सांस पर ध्यान जमना छूट जाता है और केवल मात्र हृदय स्थित सूर्य चक्र में विशुद्ध ब्रह्म तेज के ही दर्शन होते हैं उस समय समाधि की सी अवस्था हो जाती है। हंस योग की परिपक्वता से साधक ब्राह्मी स्थिति का अधिकारी हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने विज्ञानमय कोश की साधना के लिये ‘अनुभूति योग’ की विधि बताई है। उनके अमेरिकन शिष्य रामाचरक ने भी इस विधि को मेन्टल डवलपमेन्ट नामक पुस्तक में विस्तार पूर्वक लिखा है।
आत्मानुभूति योग - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
1— किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइये। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिये चुनना चाहिए। इस प्रकार का स्थान घर का स्वच्छ, हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ मुंह धोकर साधना के लिये बैठना चाहिये। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है।
सुविधा पूर्वक बैठ जाइए। तीन लम्बे-लम्बे सांस लीजिए पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फिर फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा सांस कहलाता है। तीन पूरे सांस लेने से हृदय और फुफ्फुस की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने हाथ पांव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है।
तीन पूरी सांस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए। शरीर के हर अंग में से खिंच कर प्राण शक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है। ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ पांव आदि सभी अंग प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव निष्प्राण हो गये हैं ऐसी भावना करना चाहिए। मस्तिष्क के सब विचार धाराएं और कल्पनाएं शान्त हो गई हैं और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नील आकाश व्याप्त हो रहा है। ऐसी शान्त शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है।
2— उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन करने को साधना इस योग में प्रथम साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चाहिये। दूसरी भूमिका की साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है।
3— ऊपर खिली हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिए। ‘‘मैं ही यह प्रकाशवान् आत्मा हूं।’’ ऐसा निश्चित संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पंद अवस्था में पड़ा हुआ देखिए, उसके अंग प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। यह हर एक कल पुर्जा मेरा औजार है। मेरा वस्त्र है। यह यंत्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिये प्राप्त हुआ है। इस बात को बार बार मन में दुहराइए। इस निस्पंद शरीर को खोपड़ी का ढक्कन उठा कर ध्यानावस्था में मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिए। वे दोनों हाथ बांधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। इस शरीर और मन बुद्धि को देख कर प्रसन्न हूजिए कि इच्छानुसार कार्य करने के लिए यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्म स्वार्थ के लिए ही करूंगा। यह भावनाएं बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूंजती रहनी चाहिए।
4—जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए।
अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिए। ‘‘मैं समस्त भूमंडल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूं। संसार मेरा कर्म क्षेत्र और लीला भूमि है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को इच्छित प्रयोजन के लिए काम में लाता हूं पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंच भूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं। मैं किसी भी सांसारिक हानि लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध चैतन्य सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूं। मैं आत्मा हूं, महान आत्मा हूं। महान् परमात्मा का विशुद्ध स्फुलिंग हूं।’’ यह मंत्र मन ही मन जपिये।
तीसरी भूमिका ध्यान जब अभ्यास के कारण पूर्व रूप से पुष्ट हो जाय और हर घड़ी वही भावना रोम रोम में प्रतिभाषित होने लगे तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्राप्त हो गई यही जागृत समाधि या जीवन मुक्त अवस्था कहलाती है।
आत्म चिन्तन की साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
रात को सब कार्यों से निवृत्त होकर जब सोने का समय हो तो सीधे चित्त लेट जाइए। पैर सीधे फैला दीजिए। हाथों को मोड़ कर पेट पर रख लीजिए। शिर सीधा रहे। पास में दीपक जल रहा हो तो बुझा दीजिए या मन्द कर दीजिए। नेत्रों को अध खुले रखिए।
अनुभव कीजिए कि आपका आज का एक दिन, एक जीवन था। अब जब कि एक दिन समाप्त हो रहा तो एक जीवन की इति श्री हो रही है। निद्रा एक मृत्यु है। अब इस घड़ी में एक दैनिक जीवन को समाप्त करके मृत्यु की गोद में जा रहा है।
आज के जीवन का आध्यात्मिक दृष्टि से समालोचना कीजिए। प्रातःकाल से लेकर सोते समय तक के कार्यों पर दृष्टिपात कीजिए। मुझ आत्मा के लिए वह कार्य उचित था या अनुचित? यदि उचित था तो जितनी सावधानी एवं शक्ति के साथ उसे करना चाहिए था उसके अनुसार किया या नहीं? बहुमूल्य समय का कितना भाग उचित रीति से कितना अनुचित रीति से, कितना निरर्थक रीति से व्यतीत किया? यह दैनिक जीवन सफल रहा या असफल? आत्मिक पूंजी में, लाभ हुआ या घाटा? सद्वृत्तियां प्रधान रहीं या असद्वृत्तियां? इस प्रकार के प्रश्नों के साथ दिन भर के कामों का निरीक्षण कीजिए।
जितना अनुचित हुआ हो उसके लिए आत्म देव के सम्मुख पश्चात्ताप कीजिए। भविष्य में भूल को न दुहराने का निश्चय ही सच्चा पश्चात्ताप है। जो उचित हुआ हो उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि आगामी जीवन में, कल के जीवन में, उस दिशा में विशेष रूप अग्रसर करे। इसके पश्चात शुभ वर्ण आत्म ज्योति का ध्यान करते हुए निद्रा देवी की गोद में सुख पूर्वक चले जाइए।
दूसरी साधना
प्रातःकाल जी नींद पूरी तरह खुल जाय तो अंगड़ाई लीजिए। तीन पूरे लम्बे सांस खींच कर सचेत हो जाइए।
भावना कीजिए कि आज नया जीवन ग्रहण कर रहा हूं। नया जन्म धारण करता हूं। इस जन्म को इस प्रकार खर्च करूंगा कि आत्मिक पूंजी में अभिवृद्धि हो। कल के दिन, पिछले दिन जो भूलें हुई थी, आत्म देव के सामने जो पश्चाताप किया था, उसको ध्यान में रखता हुआ आज के दिन का अधिक उत्तमता के साथ उपयोग करूंगा।
दिन भर के कार्यक्रम की योजना बनाइए। इन कार्यों में जो खतरा सामने आने को है उसे विचारिए और उससे बचने के लिए सावधान हूजिए। उन कार्यों में आत्मलाभ होने वाला है वह और अधिक हो इसके लिए तैयारी कीजिए। यह जन्म, यह दिन, पिछले की अपेक्षा अधिक सफल हो, यह चुनौती अपने आपको दीजिए और उसे साहस पूर्वक स्वीकार कर लीजिए।
परमात्मा का ध्यान कीजिए और प्रसन्न मुद्रा में, एक चैतन्यता, ताजगी, उत्साह, साहस, आशा एवं आत्म विश्वास की भावनाओं के साथ उठ कर शय्या का परित्याग कीजिए। शय्या से नीचे पैर रखना मानों आज के नव जीवन में प्रवेश करना है।
इस आत्म चिन्तन की साधना से दिन दिन शरीराध्यास घटने लगता है। शरीर को लक्ष करके किये जाने वाले विचार और कार्य शिथिल होने लगते हैं तथा वह विचार धारा एवं कार्य प्रणाली समुन्नत होती है जिसके द्वारा आत्म लाभ के लिए अनेक प्रकार के पुण्य आयोजन होते हैं।
स्वर योग - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
विज्ञानमय कोश वायु प्रधान कोश होने के कारण इस स्थिति में वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता है। इस वायु तत्व पर यदि अधिकार प्राप्त कर लिया जाय तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा सकता है।
स्वर शास्त्र के अनुसार श्वास प्रश्वास के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या 7200 है। इनको नसें न समझना चाहिए, स्पष्टतः यह प्राण वायु के आवागमन-मार्ग हैं। नाभि में इसी प्रकार की एक नाड़ी कुंडली के आकार में है, जिसमें से
1- इडा,
2- पिंगला,
3- सुषुम्ना,
4- गांधारी,
5- हस्त जिह्वा,
6- पूषा,
7- यशस्वनी,
8- अलंबुषा,
9- कुहू तथा
10-शंखिनी
नामक दस नाड़ियां निकलती हैं और यह शरीर के विभिन्न भागों की ओर चली जाती हैं इसमें से पहली तीन प्रधान हैं। इडा को ‘चन्द्र’ कहते हैं जो बांए नथुने में है। पिंगला को ‘सूर्य’ कहते हैं यह दाहिने नथुने में है। ‘सुषुम्ना’ को 'वायु' कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना अपना काम करते हैं, उसी प्रकार इडा पिंगला भी इस जीवन में अपना अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। इन तीनों के अतिरिक्त अन्य सात प्रमुख नाड़ियों के स्थान इस प्रकार हैं—
पूषा- नाक में,
हस्त जिह्वा- दाहिनी आंख में,
पूषा- दाहिने कान में,
यशस्विनी- बांए कान में,
अलंबुषा- मुख में,
कुहू- लिंग देश में और
शंखनी- गुदा में ।
इस प्रकार शरीर के दसों द्वारों में दस नाड़ियां हैं।
हठयोग में नाभि कन्द अर्थात् कुंडलिनी का स्थान गुदा द्वार से लिंग देश की ओर दो अंगुल हठ कर मूलाधार चक्र में माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर-योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि, मध्य केन्द्र-गुदा मूल में नहीं, वरन् उदर की टुण्डी में ही हो सकती है। इसलिये यहां नाभि देश का तात्पर्य उदर की टूण्डी मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उदर से ही है। इसलिए प्राणायाम द्वारा उदर संस्थान तक प्राण वायु को ले जाकर नाभि केन्द्र से इस प्रकाश घर्षण किया जाता है कि नाभि केन्द्र की सुप्त की शक्तियों का जागरण हो सके।
चन्द्र और सूर्य की अदृश्य रश्मियों का प्रभाव स्वरों पर पड़ता है। सब जानते हैं कि चन्द्रमा का गुण शीतल और सूर्य का उष्ण है। शीतलता से स्थिरता, गंभीरता, विवेक प्रभृति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से, तेज, शौर्य चंचलता, उत्साह क्रियाशीलता बल आदि गुणों का आविर्भाव होता है। मनुष्य को सांसारिक जीवन में शान्ति पूर्ण और अशान्ति पूर्ण दोनों ही तरह के काम करने पड़ते हैं किसी भी काम का अन्तिम परिणाम उसके आरम्भ पर निर्भर है, इसलिये विवेकी पुरुष अपने कामों को आरम्भ करते समय यह देख लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार के काम करने के अनुकूल है कि नहीं। एक विद्यार्थी को रात्रि में उस समय पाठ याद करने के लिए दिया जाय जब कि उसकी स्वाभाविक स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद न कर सकेगा। यदि वही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल स्थिति में दिया जाय, तो आसानी से सफलता मिल जायगी। ध्यान, भजन, पूजा, मनन, चिन्तन के लिए एकान्त की आवश्यकता है, किन्तु उत्साह भरने और युद्ध के लिए कोलाहल पूर्ण वातावरण की बाजों की घोर ध्वनि की आवश्यकता है। ऐसी उचित स्थितियों में किए कार्य अवश्य ही फलीभूत होते हैं। इसी दृष्टिकोण के आधार पर स्वर योगियों ने आदेश किया है कि विवेक पूर्ण और स्थायी कार्य चन्द्र स्वर में किये जाने चाहिए जैसे—विवाह, दान, मन्दिर, कुंआ, तालाब बनाना, नवीन वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण बनवाना, शान्ति के काम, पुष्टि के काम, शपथ खाना, औषधि देना, रसायन बनाना, मैत्री, व्यापार बीज बोना, दूर की यात्रा, विद्यारम्भ धर्म यज्ञ दीक्षा मन्त्र, विद्याभ्यास योग क्रिया आदि यह सब कार्य ऐसे हैं जिनमें अधिक गम्भीरता और बुद्धि पूर्वक कार्य करने की आवश्यकता है, इसलिये इनका आरम्भ भी ऐसे ही समय में होना चाहिये, जब शरीर के सूक्ष्म-कोश चन्द्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहे हों।
उत्तेजित और आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनके लिये सूर्य स्वर उत्तम कहा गया है। जैसे—क्रूर कर्म स्त्री भोग, भ्रष्ट कार्य, युद्ध करना देश का ध्वंस करना, विष खिलाना, शिकार खेलना, मद्य पीना, हत्या करना, काठ, पत्थर, पृथ्वी, रत्न, आदि को तोड़ना, तन्त्र विद्या, जुआ, चोरी व्यायाम, नदीपार करना आदि। यहां उपरोक्त कठोर कर्मों का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो एक वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन तत्व उत्तेजित हो रहा हो। शान्तिपूर्ण मस्तिष्क से भली प्रकार ऐसे कार्यों को कोई व्यक्ति कैसे कर सकेगा?
कुछ क्षण के लिये जब दोनों नाड़ी (सुषुम्ना) चलती है जब प्रायः शरीर संधि अवस्था में होता है। यह संध्या काल है। दिन के उदय और अस्त को भी संध्या काल कहते हैं, इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनाएं मनुष्य में जागृत होती हैं, और संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की संध्या से भी मनुष्य का चित्त सांसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चाताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ, कुछ आत्म चिन्तन की ओर झुकता है। वह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है, अल्प काल के लिये आती है इसलिये हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिन्तन और ईश्वराधन का अभ्यास किया जाय तो निस्संदेह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है, किन्तु सांसारिक कार्यों के लिये यह स्थिति उपयुक्त नहीं है, इसीलिये सुषुम्ना स्वर में आरम्भ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता, वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दशा में मानसिक विकार दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा बहुत उदय होता है, इसलिये इस समय में दिये हुए शाप या वरदान अधिकांश फलीभूत होते हैं क्योंकि उन भावनाओं के साथ आत्म तत्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है। इडा शीत ऋतु है तो पिंगला ग्रीष्म ऋतु। जिस प्रकार शीत ऋतु के महीनों में शीत की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार चन्द्र नाड़ी शीतल होती है और ग्रीष्म ऋतु के महीनों में जिस प्रकार गर्मी की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार सूर्य नाड़ी में उष्णता एवं उत्तेजना का प्राधान्य होता है।
स्वर बदलना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
कुछ विशेष कार्यों के सम्बन्ध में स्वर शास्त्रज्ञों के जो अनुभव हैं उनकी जानकारी सर्व साधारण के लिये बहुत ही सुविधा जनक होगी। बताया गया है कि प्रस्थान करते समय चलित स्वर के शरीर भाग को हाथ से स्पर्श करके उसी चलित स्वर वाले कदम को आगे बढ़ा कर (यदि चन्द्र नाड़ी चलती है, 4 बार और सूर्य स्वर है, तो 5 बार उसी पैर को जमीन पर पटक कर) प्रस्थान करना चाहिए। यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो अचलित स्वर (जो स्वर न चल रहा हो) के पैर को पहले आगे बढ़ा कर प्रस्थान करना चाहिये, और अचलित स्वर की ओर उस पुरुष को करके बातचीत करनी चाहिये। इस रीति से उसकी बढ़ी हुई उष्णता को आपका अचलित स्वर की ओर का शान्त भाग अपनी आकर्षक विद्युत से खींच कर उसे शान्त बना देगा और मनोरथ में सिद्धि प्राप्त होगी। गुरु मित्र, अफसर, राज दरबार से जब कि बाम स्वर चलित हो तो वार्तालाप या कार्यारम्भ करना ठीक है।
कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब कार्य अत्यन्त ही आवश्यक हो सकता है किन्तु उस समय स्वर विपरीत चलता है। तब क्या उस कार्य किये बिना ही बैठे रहना देना चाहिये? नहीं, ऐसा करने की जरूरत नहीं है। जिस प्रकार जब रात को निद्रा आती है, किन्तु उस समय कुछ काम करना आवश्यक होता है तो चाय आदि किसी उत्तेजक पदार्थ की सहायता से शरीर को चैतन्य करते हैं। उसी प्रकार हम कुछ उपायों द्वारा स्वर को बदल भी सकते हैं। नीचे कुछ ऐसे ही नियम लिखे जाते हैं—
1— जो स्वर नहीं चल रहा है, उसे अंगूठे से दबायें और जिन नथुने से सांस चलती है उससे हवा खींचें, फिर जिससे श्वांस खींची है उसे दबा कर पहले नथुने
से यानी जिस स्वर को चलाना है उससे श्वांस छोड़ें। इस प्रकार कुछ देर तक बार बार करें। श्वांस की चाल बदल जावेंगी।
2— जिस नथुने से श्वांस चल रहा हो, उसी करवट लेट जावें, तो स्वर बदल जावेगा। इस प्रयोग के साथ पहला प्रयोग करने से स्वर और भी शीघ्र बदलता
है।
3— जिस तरफ का स्वर चल रहा हो, उस ओर की कांख (बगल) में कोई सख्त चीज कुछ देर दबा कर रखो तो बदल जाता है। पहले और दूसरे प्रयोग के
साथ वह प्रयोग भी करने से शीघ्रता होती है।
4— घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना कहा जाता है।
5— चलित स्वर में पुरानी स्वच्छ रुई का फोहा रखने से स्वर बदलता है।
बहुधा जिस प्रकार बीमारी की दशा में शरीर को रोग मुक्त करने के लिए चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार स्वर को ठीक अवस्था में लाने के लिये इन उपायों को काम में लाना चाहिये।
स्वर संयम से दीर्घ जीवन - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
प्रत्येक प्राणी का पूर्ण आयु प्राप्त करना, दीर्घजीवी होना उसकी श्वांस क्रिया पर अवलम्बित हैं। पूर्व कर्मों के अनुसार जीवित रहने के लिये परमात्मा एक नियत संख्या में श्वांस प्रदान करता है वह श्वांस समाप्त होने पर प्राणान्त हो जाता है। इस खजाने को जो प्राणी जितनी होशियारी से खर्च करेगा, वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रह सकेगा और जो इन्हें जितना व्यर्थ गंवाएगा उतनी ही शीघ्र उसकी मृत्यु हो जायगी। सामान्यतः हर एक मनुष्य दिन रात में 21600 श्वांस लेता है। इससे कम श्वांस लेने वाला दीर्घ जीवी होता है क्योंकि अपने धन का जितना कम व्यय होगा, उतने ही अधिक काल तक वह संचित रहेगा। हमारी श्वांस की पूंजी की भी यही दशा है। विश्व के समस्त प्राणियों में जो जीव जितनी कम श्वांस लेता है, वह उतना ही अधिक काल तक जीवित रहता है। नीचे की तालिका से इसका स्पष्टीकरण हो जाता है।
नाम प्राणी — श्वांस की गति प्रति मिनट — पूर्ण आयु खरगोश 38 बार 8 वर्ष
बन्दर 32 बार 10 वर्ष
कुत्ता 29 बार 12 वर्ष
घोड़ा 19 बार 25 वर्ष
मनुष्य 13 बार 120 वर्ष
सांप 8 बार 1000 वर्ष
कछुआ 5 बार 2000 वर्ष
साधारण काम काज करने में 12 बार दौड़ धूप करने में 18 बार और मैथुन करते समय छत्तीस बार प्रति मिनट के हिसाब से श्वांस चलती है, इसलिए विषयी और लम्पट मनुष्य की आयु घट जाती है और प्राणायाम करने वाले योगा अभ्यासी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं। यहां यह न सोचना चाहिए कि चुपचाप बैठे रहने से कम सांसें चलती हैं, इसलिये निष्क्रिय बैठे रहने से आयु बढ़ जायगी। ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि निकम्मे बैठे रहने से शरीर के अन्य अंग निर्बल, अशक्त और बीमार हो जायेंगे, तदनुसार उनकी श्वांस का वेग बहुत बढ़ जायगा इसलिये शारीरिक अंगों को स्वस्थ रखने के लिए परिश्रम करना आवश्यक है। किन्तु शक्ति से बाहर परिश्रम भी नहीं करना चाहिये।
सांस सदा पूरी और गहरी लेनी चाहिए तथा झुककर कभी न बैठना चाहिए। नाभि तक पूरा श्वांस लेने पर एक प्रकार से कुम्भक हो जाता है और श्वासों की संख्या घट जाती है। मेरु दण्ड के भीतर एक प्रकार का तरल जीवन तत्व प्रवाहित होता रहता है जो सुषुम्ना को बलवान बनाये रखता है, तदनुसार मस्तिष्क की पुष्टि होती रहती है यदि मेरु दण्ड को झुका हुआ रखा जाय तो उस तरल तत्व का प्रवाह रुक जाता है और निर्बल सुषुम्ना मस्तिष्क का पोषण करने से वंचित रह जाती है।
सोते समय चित्त होकर न लेटना चाहिये इससे सुषुम्ना स्वर चल कर विघ्न पैदा होने की संभावना रहती है। ऐसी दशा में अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। इसलिये भोजनोपरांत प्रथम बांए फिर दाहिने करवट लेटना चाहिये। भोजन के बाद कम से कम 15 मिनट आराम किये बिना सफल करना भी उचित नहीं है।
शीतलता से अग्नि मन्द पड़ जाती है और उष्णता से तीव्र होती है। वह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता है। सूर्य स्वर में पाचन शक्ति की वृद्धि रहती है, अतएव इसी स्वर में भोजन करना उत्तम है। इस नियम को सब लोग जानते हैं कि भोजन के उपरान्त बांए करवट लेटने से दक्षिण स्वर चलता है, जिसके पाचन शक्ति प्रदीप्त होती है।
इड़ा पिंगला और सुषुम्ना की गति विधि पर ध्यान रखने से वायु तत्व पर अपना अधिकार होता है। वायु के माध्यम से कितनी ही ऐसी बातें जानी जा सकती हैं जिन्हें साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी को वर्षा से बहुत पहले पता लग जाता है कि अब मेघ बरसने वाला है तदनुसार वह अपनी रक्षा का प्रबंध पहले से ही कर लेती है कारण यह है कि वायु के साथ वर्षा का सूक्ष्म संयोग मिला रहता है। उसे मनुष्य नहीं समझ पाता पर मकड़ी की चेतना यह अनुभव कर लेती है कि इतने समय बाद इतने वेग से, इतना पानी बरसने वाला है मकड़ी में जैसी सूक्ष्म वायु परीक्षण चेतना होती है उससे भी अधिक प्रबुद्ध चेतना स्वर योगी को मिल जाती है। वह वर्षा गर्मी ही नहीं वरन् उससे सूक्ष्म बातें, भविष्य की संभावनाएं, परिवर्तन-शीलताएं, विलक्षणताएं अपनी दिव्य दृष्टि से जान लेता है।
कई स्वर ज्ञाता, ज्योतिषियों की भांति इस विद्या द्वारा भविष्य वक्ताओं जैसा व्यवसाय करते हैं। स्वर के आधार पर ही एक मूक प्रश्न, तेजी मंदी, खोई वस्तु का पता, शुभ अशुभ मुहूर्त आदि बातें बताते हैं। असफल होने की आशंका वाले दुस्साहस पूर्ण कार्य करने वाले लोग भी स्वर का आश्रय लेकर अपना काम करते हैं। चोर डाकू आदि इस संबंध में विशेष ध्यान रखते हैं। व्यापार, राजद्वार चिकित्सा आदि जोखिम और जिम्मेदारी के कामों में भी स्वर विद्या के नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस संबंध में अखंड ज्योति प्रेस से स्वर योग में दिव्य ज्ञान पुस्तक अलग से छप चुकी है। इसके अतिरिक्त और भी अन्यत्र ग्रन्थ उपलब्ध है। उस सुविस्तृत ज्ञान का विवेचन यहां नहीं हो सकता। इस समय तो हमें केवल यह विचार करना है कि स्वर साधना से विज्ञानमय कोश की सुव्यवस्था में हमें किस प्रकार सहायता मिल सकती है।
विज्ञान कोश की वायु साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
1— शान्त वातावरण में मेरुदंड सीधा करके बैठ जाइए और नाभि चक्र में शुभ्रे ज्योति मंडल का ध्यान कीजिए। उस ज्योति केन्द्र में समुद्र के ज्वार भाटे की तरह हिलोरें उठती हुई परिलक्षित होंगी।
2— यदि बांया स्वर चल रहा होगा तो उसे ज्योति केन्द्र का वर्ण चन्द्रमा के समान पीला होगा और उसके बांये भाग से निकलने वाली इड़ा नाड़ी में होकर श्वांस प्रवाह का आवागमन होगा। नाभि से नीचे की ओर मूलाधार चक्र (गुदा और लिंग का मध्यवर्ती भाग) में होती हुई मेरुदंड में होकर मस्तिष्क के उपरि भाग की परिक्रमा करती हुई नासिका के बांए नथुने तक इड़ा नाड़ी जाती है। नाभि केन्द्र के वाम भाग को क्रिया शीलता के कारण यह नाड़ी काम करती है और बांया स्वर चलता है। इस तथ्य को भावना के दिव्य नेत्रों द्वारा भली भांति, चित्रवत् परिवेक्षण कीजिए।
3— यदि दाहिना स्वर चल रहा होगा तो नाभि केन्द्र का ज्योति मंडल सूर्य के समान तनिक नीलिमा लिये हुए श्वेत वर्ण का होगा और उसके दाहिने भाग में से निकलने वाले पिंगला नाड़ी में होकर श्वांस प्रश्वांस क्रिया होगी। नाभि से नीचे मूलाधार में होकर मेरुदंड तथा मस्तिष्क में होती हुई दाहिने नथुने तक पिंगला नाड़ी गई है और नाभि चक्र के दाहिने भाग में चैतन्यता होती है और दाहिना स्वर चलता है। इस सूक्ष्म क्रिया को ध्यान शक्ति द्वारा ऐसे मनोयोग पूर्वक निरीक्षण करना चाहिए कि वस्तु स्थिति ध्यान क्षेत्र में चित्र के समान स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे।
4— जब स्वर संधि होती है तो वह नाभि चक्र स्थिर हो जाता है। उसमें कोई हलचल नहीं होती और न उतनी देर तक वायु का आवागमन होता है। इस संधि काल में एक तीसरी नाड़ी मेरुदंड में अत्यन्त द्रुत वेग से बिजली के समान कोंधती है साधारणतः एक क्षण के सौवें भाग में यह कोंध जाती है, इसे ही सुषुम्ना कहते हैं।
5— सुषुम्ना का जो विद्युत प्रवाह है वही आत्मा की चंचल झांकी है। आरम्भ में यह झांकी एक हलके झटके के समान किंचित प्रकाश की मंद किरण जैसी होती है। साधना से यह चमक अधिक प्रकाशवान और अधिक देर ठहरने वाली होती है। कुछ दिन बाद वर्षा काल में बादलों के मध्य चमकने वाली होती है। कुछ दिन बाद वर्षा काल में बादलों के मध्य चमकने वाली बिजली के समान उसका प्रकाश और विस्तार होने लगता है। सुषुम्ना ज्योति में किन्हीं रंगों की आभा होना, उसका सीधा टेढ़ा तिरछा या वर्तुलाकार होना आत्मिक स्थिति का परिचायक है। तीन गुण, पांच तत्व, संस्कार एवं अन्तःकरण की जैसी स्थिति होती है उसी के अनुरूप सुषुम्ना का रूप ध्यानावस्था में दृष्टिगोचर होता है।
6— इड़ा पिंगला की क्रियाएं जब स्पष्ट दीखने लगें तब उनको साक्षी रूप से अवलोकन किया कीजिए। नाभि चक्र के जिस भाग में ज्वार भाटा आ रहा होगा वही स्वर चल रहा होगा और केन्द्र के उसी आधार पर सूर्य या चन्द्रमा का रंग होगा। यह क्रिया जैसे जैसे हो रही है उसको स्वाभाविक रीति से होते हुए देखते रहना चाहिए। एक सांस के भीतर पूरा प्रवेश होने पर जब वह लौटती है तो उसे ‘‘आभ्यांतर संधि’’ और जब सांस पूरी तरह बाहर निकल कर नई सांस भीतर निकलना आरम्भ करती है तब उसे ‘वाह्य संधि’ कहते हैं। इन कुम्भक कालों में सुषुम्ना की द्रुत गति गामिनी विद्युत आभा का अत्यन्त चपल प्रकाश विशेष सजगता पूर्वक दिव्य नेत्रों से देखना चाहिए।
7— जब इड़ा बदल कर पिंगला में या पिंगला बदल कर इड़ा में जाती है। अर्थात् एक स्वर जब दूसरे में परिवर्तित होता है तब सुषुम्ना की संधि बेला आती है। अपने आप स्वर बदलने के अवसर पर स्वाभाविक सुषुम्ना का प्राप्त होना प्रायः कठिन होता है। इसलिए स्वर विद्या के साधक पिछले पृष्ठों में बताये गये स्वर बदलने के उपायों से वह परिवर्तन करते हैं और महा सुषुम्ना की संधि आने पर आत्म ज्योति का दर्शन करते हैं। यह ज्योति आरम्भ में चंचल और विविध आकृतियों की होती है पर अन्त में स्थिर एवं मंडलाकार हो जाती है। यह स्थिरता ही विज्ञानमय कोश की सफलता है। इसी स्थिति में आत्म साक्षात्कार होता है।
सुषुम्ना में अवस्थित होना, वायु पर अपना अधिकार कर लेना है। इस सफलता के द्वारा लोक लोकान्तरों तक अपनी पहुंच हो जाती है और विश्व ब्रह्माण्ड पर अपना प्रभुत्व अनुभव होता है। प्राचीन काल में स्वर शक्ति द्वारा अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियां प्राप्त होती थी। आज के युग प्रवाह में वैसा तो नहीं होता पर ऐसे अनुभव होते हैं जिससे मनुष्य शरीर रहते हुए भी मानसिक आवरण में देव तत्व की प्रचुरता हो जाती है। विज्ञानमय कोश के विजयी को भूसुर भूदेव या नरतनु धारी दिव्य आत्मा कह सकते हैं।
ग्रन्थि भेद - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुंचने पर जीवन को प्रतीत होता है कि तीन सूक्ष्म बन्धन भी मुझे बांधे हुए हैं। पंच तत्वों से शरीर बना है उनके शरीरों में पांच कोश हैं। गायत्री के यह पांच कोश ही पांच मुख हैं। इन पांच बन्धनों को खोलने के लिए कोशों की अलग अलग साधनाएं बताई गई हैं, विज्ञानमय कोश के अन्तर्गत तीन बन्धन हैं जो पंच भौतिक शरीर न रहने पर भी देव, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि की योनियों में भी वैसा ही बन्धन बांधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी को होता है।
यह तीन बन्धन-ग्रन्थियां, रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, ब्रह्म ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह सकते हैं रुद्र-ग्रंथि-अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज, ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात्। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर, ऊंचा उठ जाने पर आत्मा शान्ति और आनन्द का अधिकारी होता है।
इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को ध्यान में रखने के लिए कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज, सत के तीन गुणों द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण, शरीर बने हुए हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियां लगाई जाती है इसका तात्पर्य है कि रुद्र ग्रंथि विष्णु ग्रंथि तथा ब्रह्म ग्रंथि से जीव बंधा पड़ा है। इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ ऋण, ऋषि ऋण देव ऋण है। तम को प्रकृति, रज को जीव, सत को आत्मा कहते हैं।
व्यवहारिक जगत में तम को-सांसारिक जीवन, रज को, व्यक्तिगत जीवन, सत को-आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं। जैसे हमारे पूर्ववर्ती लोगों ने, पूर्वजों ने, अनेक प्रकार के उपकारों, सहयोगों द्वारा निर्बल दशा से ऊंचा उठाकर हमें बल, विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति आदि से सम्पन्न किया है वैसे ही हमारा भी कर्तव्य है कि संसार में अपनी अपेक्षा किसी भी दृष्टि से जो लोग पिछड़े हुए हैं उन्हें सहयोग देकर ऊंचा उठावें। सामाजिक जीवन को मधुर बनावें। देश जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें यही पितृ ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है। व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना, अपनी को मनुष्य जाति का एक सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन निदिध्यासन आदि आत्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अपवित्रताओं का हटाकर आत्मा को परम निर्मल-देव तुल्य बनाना यह देव ऋण से उऋण होना है।
दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर
तम का अर्थ होता है—शक्ति ।
रज का अर्थ होता है—साधन ।
सत् का अर्थ होता है—ज्ञान । इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत अवस्था-बन्धन कारक, अनेक उलझनों कठिनाइयों और बुराइयों को उत्पन्न करने वाली हो जाती है। इसलिए जब इन तीनों की स्थिति संतोश जनक होती है तब त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती है।
आध्यात्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुणों, तीन शरीरों, तीन क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों पर निर्भर रहता है सभी दिशाओं को उत्तम बनाने से यह केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुंच सकते हैं। दूसरा उपाय यह भी है कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत अवस्था में ले जाया जाय तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों को ऐसी स्थिति पर पहुंचाया जा सकता है कि जहां उनके लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे।
साधक की जब विज्ञानमय कोश में स्थिति होती है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई, हलकी, गांठें हैं। इनमें से एक गांठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में विदित होती है। यह तीनों ही पीठ के मध्य भाग में मेरुदंड के समीप होती हैं। इन गांठ में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रंथि और सिर वाली को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीन को दूसरे शब्दों में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं।
इन तीन महाग्रंथियों की दो दो सहायक ग्रंथियां भी होती हैं। जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती है इन्हें ही चक्र भी कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियां मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र कहलाती हैं। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखाएं मणिपूर चक्र और अनहद चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास करने वाली ब्रह्म ग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों को विशुद्ध चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग की विधि से षट् चक्रों का वेधन किया जाता है। इस षट् चक्र वेधन विधि के संबंध में गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में हम काफी प्रकाश डाल चुके हैं। उसकी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं। जिन्हें हठयोग की अपेक्षा गायत्री की पंच मुखी साधना के अन्तर्गत विज्ञानमय कोश में ग्रन्थि भेद करना है उन्हीं के लिए आवश्यक जानकारी देने का यहां प्रयत्न किया जायगा।
रुद्र ग्रन्थि का आकार बेर के समान ऊपर को नुकीला नीचे को भारी, पेंदे में गड्ढा लिए हुए होता है, इसका वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है। इस ग्रन्थि के दो भाग हैं दक्षिण भाग को रुद्र और वाम भाग को काली कहते हैं। दक्षिण भाग के अन्तरंग गह्वर में प्रवेश करके जब उसकी झांकी की जाती है तो ऊर्ध्व भाग में श्वेत रंग की एक छोटी सी नाड़ी हलका सा श्वेत रस प्रवाहित करती है, एक तन्तु तिरछा पीत वर्ण की ज्योति सा चमकता है। मध्य भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी सांप की तरह मूलाधार से लिपटी हुई है, प्राण वायु का जब उस भाग से सम्पर्क होता है तो डिम डिम जैसी ध्वनि उसमें से निकलती है। रुद्र ग्रन्थि की आन्तरिक स्थिति की झांकी करके ऋषियों ने रुद्र का सुन्दर चित्र अंकित किया है। मस्तक पर गंगा की धारा, जटा में चन्द्रमा, गले में सर्प, डमरू की डिम डिम ध्वनि, ऊर्ध्व भाग नुकीलापन त्रिशूल के रूप में अंकित करके भगवान शंकर का एक ध्यान करने लायक सुन्दर चित्र बना दिया। उस चित्र में अलंकारिक रूप से रुद्र ग्रन्थि की वास्तविकताएं ही भरी गई हैं। उसी ग्रन्थि का वाम भाग जिस स्थिति में है उसकी वायु शृंखलाएं कोण, स्फुल्लिंग, तरंगें, नाड़ियां जिस स्थिति में हैं उसी स्थिति के अनुरूप काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्म दर्शी आध्यात्मिक चित्रकारों ने अंकित कर दिया है।
विष्णु ग्रन्थि किस पर्ण की किस गुण की, किस आकार की, किस आन्तरिक स्थिति की, किस ध्वनि की, किस आकृति की है यह सब हमें विष्णु के चित्र से सहज ही प्रतीत हो जाता है। नील वर्ण, गोल आकार, शंख ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बन माला यह चित्र उस मध्य ग्रन्थि का सहज प्रतिबिम्ब हैं।
जैसे मनुष्य को मुख की ओर से देखा जाय तो उसकी झांकी दूसरी प्रकार की होती है और पीठ की ओर से देखा जाय तब वह आकृति दूसरी ही प्रकार की होती है। एक ही मनुष्य के दो पहलू दो प्रकार के हो जाते हैं। इसी प्रकार एक ही ग्रन्थि दक्षिण भाग से देखने में पुरुत्व प्रधान उसी आकार प्रकार की और बांई ओर से देखने पर स्त्रीत्व प्रधान आकार प्रकार की होती है। एक ही ग्रन्थि को रुद्र या शक्ति ग्रन्थि कहा जा सकता है। विष्णु लक्ष्मी, ब्रह्मा और सरस्वती का संयोग भी इसी प्रकार है।
ब्रह्म ग्रन्थि मध्य मस्तिष्क में है। इससे ऊपर सहस्रार शतदल कमल है, यह ग्रन्थि ऊपर से चतुष्कोण और नीचे से फैली हुई। इसका नीचे का एक तन्तु ब्रह्म रंध्र से जुड़ा हुआ है। इसी को सहस्र मुख वाले शेष नाग की शय्या पर लेटे हुए भगवान के नाभि कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है। वाम भाग में यही ग्रन्थि चतुर्भुजी सरस्वती है। वीणा की झंकार से ॐकार ध्वनि का यहां निरन्तर गुंजार होता है।
यह तीनों ग्रन्थियां जब तक सुप्त अवस्था में रहती हैं बंधी हुई रहती हैं तब तक जीव साधारण दीन हीन दशा में पड़ा रहता है, अशक्ति, अभाव और अज्ञान उसे नाना प्रकार से दुख देते रहते हैं पर जब इनका खुलना आरम्भ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है। मुंह बन्द कली में न रूप है न सौंदर्य न गंध है आकर्षण, पर जब वह कली खिल पड़ती है और पुष्प के रूप में प्रकट होती है तो एक सुन्दर दृश्य उपस्थित हो जाता है। जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है थैली का मुंह बन्द है, तब तक दरिद्रता दूर नहीं हो सकता पर जैसे ही रत्न राशि का भंडार खुल जाता है वैसे ही अतुलित वैभव का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।
रात को कमल का फूल बन्द होता है तो भौंरा भी उसमें बंद हो जाता है पर प्रातःकाल वह फूल फिर खिलता है तो भौंरा बन्धन मुक्त हो जाता है। यह तीन कलियां, तीन तीन ग्रन्थियां, जीव को बांधे हुए हैं जब यह खुल जाती हैं तो मुक्ति का अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त हो जाता है। इन रत्न राशियों का ताला खुलते ही शक्ति सम्पन्नता और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हस्तगत हो जाता है।
चिड़िया अपनी छाती की गर्मी से अंडों को पकाती हैं, चूल्हें की गर्मी से भोजन पकता है, सूर्य की गर्मी से वृक्षों, वनस्पतियों और फलों का परिपाक होता है। माता नौ महीने तक बालक को पेट में पका कर उस को इस स्थिति में लाती है कि वह जीवन धारण कर सके। विज्ञानमय कोश की यह तीन ग्रन्थियां भी तप की गर्मी से पकती हैं। तप द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश—सरस्वती, लक्ष्मी, काली सभी का परिपाक हो जाता है। यह शक्तियां समदर्शी हैं। न उन्हें किसी से प्रेम है न द्वेष। रावण जैसे असुर ने भी शंकर जी से वरदान पाये थे और अनेक सुर भी कोई सफलता नहीं प्राप्त कर पाते। इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है। श्रम और प्रयत्न ही परिपक्व होकर सफलता बन जाता है।
रुद्र, विष्णु और ब्रह्म ग्रन्थियों को खोलने के लिए उस ग्रन्थि के मूल भाग में निवास करने वाली बीज शक्तियों का संचार करना पड़ता है। रुद्र ग्रन्थि के अधोभाग में बेर के डंठल की तरह एक सूक्ष्म प्राण अभिप्रेत होता है जिसे क्लीं बीज कहते हैं। विष्णु ग्रन्थि के मूल में श्रीं बीज का निवास है और ब्रह्म ग्रन्थि के नीचे ह्रीं तत्व का अवस्थान है। मूल बन्ध बांधते हुए एक ओर से अपान और दूसरी ओर से कूर्म प्राण को चिमटे की तरह बनाकर रुद्र ग्रन्थि को पकड़ कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते हैं। इन दबाव की गर्मी से क्लीं बीज जागृत हो जाता है। वह नोकदार डंठल आकृति का बीज अपनी ध्वनि और रक्त वर्ण प्रकाश ज्योति के साथ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है।
इस जागृत क्लीं बीज की अग्रिम नोंक से कंचुकी क्रिया की जाती है। जैसे किसी वस्तु में छेद करने के लिए कोई नोकदार कील कोंची जाती है इस प्रकार की वेधन साधना को कंचुकी क्रिया कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि के मूल केन्द्र में क्लीं बीज की अग्र शिखा से जब निरन्तर कंचुकी होती है तो प्रस्तुत कालिका में भी भीतर ही भीतर एक विशेष प्रकार के लहलहाते हुए तड़ित प्रवाह उठने लगते हैं। इनकी आकृति एवं गति सर्प जैसी होती है इन तड़ित प्रवाहों को ही शंभु के गले में फुसकारने वाले सर्प बताया है। जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत के उच्च शिखर पर धूम मिश्रित अग्नि निकलती है उसी प्रकार रुद्र ग्रन्थि के ऊपरी भाग में पहले क्लीं बीज की अग्नि जिह्वा प्रकट होती है। इसी को काली की बाहर निकली हुई जीभ माना गया है। इस को शंभु का तृतीय नेत्र कहते हैं।
मूल बन्ध, अपान और कूर्म प्राण के आघात से जागृत हुए क्लीं बीज की कंचुकी क्रिया से धीरे धीरे रुद्र ग्रन्थि शिथिल होकर वैसे ही खुलने लगती है जैसे कली धीरे धीरे खिलकर फूल बन जाती है। इस कमल पुष्प के खिलने को पद्मासन कहा गया है। त्रिदेवों के कमलासन पर विराजमान होने के चित्रों का तात्पर्य यही है कि वे विकसित रूप से परिलक्षित हो रहे हैं।
साधक के प्रयत्न के अनुरूप खुली हुई रुद्र ग्रन्थि का भीतरी भाग जब प्रकटित होता है तब साक्षात् रुद्र का, काली का, अथवा रक्त वर्ण सर्प के समान लहलहाती हुई क्लीं घोष करती हुई अग्नि शिखा का, साक्षात्कार होता है। यह रुद्र जागरण साधक में अनेक प्रकार की गुप्त प्रकट शक्तियां भर देता है। संसार की सब शक्तियों का मूल केन्द्र रुद्र ग्रन्थि ही है। उसे रुद्र लोक या कैलाश भी कहते हैं। प्रलय काल में संसार संचालिनी शक्ति व्यय होते होते पूर्ण शिथिल होकर जब सुषुप्त अवस्था को चली जाती है तो रुद्र का ताण्डव नृत्य होता है उस महा मंथन से इतनी शक्ति फिर उत्पन्न हो जाती है जिससे आगामी प्रलय तक काम चलता रहे। घड़ी में चाबी भरने के समान रुद्र का प्रलय तांडव होता है। रुद्र शक्ति की शिथिलता से ही जीवों की तथा पदार्थों की मृत्यु हो जाती है इसीलिए रुद्र को मृत्यु का देवता माना गया है।
विष्णु ग्रन्थि को जागृत करने के लिए जालन्धर बन्ध बांधकर ‘समान’ और ‘उदान’ प्राणों द्वारा दबाया जाता है तो उसके मूल भाग का श्रीं बीज जागृत होता है यह गोल गेंद की तरह और इसकी अपनी धुरी पर द्रुत गति से घूमने की क्रिया होती है। इस घूर्णन क्रिया के साथ साथ एक ऐसी सनसनाती हुई सूक्ष्म ध्वनि होती है जिसको दिव्य श्रोत्रों से ‘श्रीं’ जैसा सुना जाता है।
श्रीं बीज को विष्णु ग्रन्थि की वाह्य परिधि में भ्रामरी क्रिया के अनुसार घुमाया जाता है। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है उसी प्रकार परिभ्रमण करने को भ्रामरी कहते हैं। विवाह में वर वधू की भांवरिया फेरे पड़ना, देव मन्दिरों के यज्ञ की परिक्रमा या प्रदक्षिणा होना भ्रामरी क्रिया का ही एक रूप है। विष्णु की उंगली पर घूमता हुआ चक्र सुदर्शन चित्रित करके योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव किये गये इसी रहस्य को प्रकट किया है कि श्रीं बीज जब विष्णु ग्रन्थि की भ्रामरि गति से परिक्रमा करने लगता है तब उस महा तत्व का जागरण होता है।
पूरक प्राणायाम की प्रेरणा देकर समान और उदान द्वारा जागृत किये गये श्रीं बीज से जब विष्णु ग्रन्थि के वाह्य आवरण की मध्य परिधि में भ्रामरी क्रिया की जाती तो उसके गुंजन से उसका भीतरी भाग चैतन्य होने लगता है इस चेतना की विद्युत तरंगें इस प्रकार उठती है जैसे पक्षी के पंख दोनों बाजुओं में हिलते हैं। उसी गति के आधार पर विष्णु का वाहन गरुण निर्धारित किया गया है।
इस साधना से विष्णु ग्रन्थि खुलती है और साधक की मानसिक स्थिति के अनुरूप विष्णु, लक्ष्मी या पीत वर्ण अग्नि शिखा की लपटों के समान महान् ज्योति पुंज का साक्षातकार होता है विष्णु का पीताम्बर इस पीत ज्योति पुंज का ही प्रतीक है। इस ग्रन्थि का खुलना ही बैकुंठ, स्वर्ग, एवं विष्णु लोक को प्राप्त करना है। बैकुंठ या स्वर्ग को अनन्त ऐश्वर्य का केन्द्र माना जाता है वहां सर्वोत्कृष्ट सुख साधन जो संभव हो सकते हैं वे प्रस्तुत हैं। विष्णु ग्रन्थि वैभव का केन्द्र है जो उसे खोल लेता है उसे विश्व के ऐश्वर्य पर परिपूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्म ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में सहस्र दल कमल की छाया में अवस्थित है। उसे अमृत कलश भी कहते हैं। बताया गया है कि सुरलोक में अमृत कलश की रक्षा सहस्र फनों वाले शेष नाग करते हैं। इसका अभिप्राय इसी ब्रह्म ग्रन्थि से है।
उड्डियान बन्ध लगाकर व्यान और धनंजय प्राणों द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि को पकाया जाता है। पकने से उसके मूलाधार में वास करने वाली ह्रीं शक्ति जागृत होती हैं। इसकी गति को प्लाविनी कहते हैं। जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती हैं और निरन्तर आगे को ही लहराती हुई चलती है उसी प्रकार ह्रीं बीज की प्लाविनी गति से ब्रह्म ग्रन्थि में दक्षिणायन से उत्रायण की ओर प्रेरित करते हैं। चतुष्कोण ग्रंथि के ऊर्ध्व भाग में यह ह्रीं तत्व रुक रुक कर गांठें सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता है और अन्त में परिक्रमा करके अपने मूल स्थान को लौट आता है।
गांठ बनाते चलने की नीची ऊंची गति के आधार पर माला के दाने बनाये गये हैं। 108 दचके लगाकर तब एक परिधि पूरी होती है इसलिए माला में 108 दाने होते हैं। इस ह्रीं तत्व की तरंगें मन्थर गति से इस प्रकार चलती है जैसे हंस चलता है। ब्रह्मा या सरस्वती का वाहन हंस इसी लिए माना गया है। वीणा के तारों की झंकार से मिलती जुलती ‘ह्रीं’ ध्वनि सरस्वती की वीणा का परिचय देती है।
कुंभक प्राणायाम की प्रेरणा से ह्रीं बीज की प्लाविनी क्रिया आरम्भ होती है। यह क्रिया निरन्तर होते रहने पर ब्रह्म ग्रन्थि खुल जाती है। तब उसका ब्रह्म के रूप में, सरस्वती के रूप में, अथवा श्वेत वर्ण प्रकम्पित शुभ्र ज्योति शिखा के समान साक्षात्कार होना है। यह स्थिति आत्मज्ञान ब्रह्म प्राप्ति, ब्राह्मी स्थिति की है। ब्रह्म लोक एवं गो लोक भी इसे कहते हैं। इस स्थिति को उपलब्ध करने वाला साधक ज्ञान बल से परिपूर्ण हो जाता है। उसकी आत्मिक शक्तियां जागृत होकर परमेश्वर के समीप पहुंचा देती है, अपने पिता का उत्तराधिकार उसे मिलता है और जीवन मुक्त होकर ब्राह्मी स्थिति का आनन्द, ब्रह्मानन्द उपलब्ध करता है।
षट चक्र बेधन का हठयोग सम्मत विधान अथवा महायोग का यह ग्रन्थि भेद, दोनों ही समान स्थिति के हैं। साधक अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें अपनाते हैं दोनों से ही विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता है।
आनन्दमय कोश - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
गायत्री का पांचवां मुख आनन्दमय कोश है। जिस आचरण में पहुंचने पर आत्मा को आनन्द मिलता है जहां उसे शान्ति, सुविधा स्थिरता, निश्चिंतता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है वहीं आनन्दमय कोश है। गीता के दूसरे अध्याय में ‘‘स्थित प्रज्ञ’’ की परिभाषा की गई है। ‘समाधिस्थ’’ के जो लक्षण बताये गये हैं, वे ही गुण कर्म स्वभाव आनन्दमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक परमार्थ साधना में मनोयोग पूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएं बहुत सीमित रह जाती हैं। उनकी पूर्ति में इसलिए बाधा नहीं आती कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है।
प्रकृति के परिवर्तन, विश्व व्यापी उतार चढ़ाव, कर्मों की गहन गति, प्रारब्ध भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव की चंचल चपलता आदि कारणों से जो उलझन भरी परिस्थितियां सामने आकर परेशान किया करती हैं, उन्हें देख कर वह हंस देता है। सोचता है प्रभु ने इस संसार में कैसी धूप छांह का, आंख मिचौनी का खेल खड़ा कर दिया है। अभी खुशी तो अभी रंज, अभी वैभव तो अभी निर्धनता अभी जवानी तो अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई यह दुरंगी दुनिया कैसी विलक्षण है। दिन निकलते देन नहीं हुई कि रात की तैयारी होने लगी। रात को आये जरा सी देर हुई कि नव प्रभाव का आयोजन होने लगा। यह तो यहां का अनादि खेल है, बादल की छाया की तरह पल पल में धूप छांह आती है। मैं इन तितलियों के पीछे कहां कहां दौड़ूं, मैं इन क्षण क्षण पर उठने वाली लहरों को कहां तक गिनूं, पल में रोने पल में हंसने की बालक्रीड़ा मैं क्यों करूं।’’
आनन्दमय कोश में पहुंचा हुआ जीव अपने पिछले चार शरीरों, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय को भली प्रकार समझ लेता है, उनकी अपूर्णता और संसार की परिवर्तन शीलता दोनों के मिलने से ही एक विषैली गैस बन जाती है जो जीवों को पाप तापों के काले धुएं से कलुषित कर देती है। यदि इन दोनों पक्षों के गुण दोषों को समझ कर उन्हें अलग अलग रखा जाय, बारूद और अग्नि को इकट्ठा न होने दिया जाय तो विस्फोट की कोई सम्भावना नहीं है। यह समझ कर वह अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता तात्त्विकता, वास्तविकता सूक्ष्म दर्शिता को प्रधानता देता है तदनुसार उसे सांसारिक समस्याएं बहुत हलकी और महत्व हीन मालूम पड़ती है। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दुखी रहते हैं उन स्थितियों को वह हलके विनोद की तरह समझ कर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्मिक भूमिका में अपना दृढ़ स्थान बनाकर सन्तोष और शान्ति का अनुभव करता है।
गीता के दूसरे अध्याय में भगवान ने बताया है कि ‘स्थित प्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म स्थिति में रमण करता है। सुख दुख में समान रहता है, न प्रिय में राग करता है न अप्रिय में द्वेष करता है। इन्द्रियों को इन्द्रियों तक ही सीमित रहने देता है, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता, और कछुआ जैसे अपने अंगों को समेट कर अपने भीतर कर लेता है वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अन्तः भूमिका में ही समेट लेता है। जिसकी मानसिक स्थिति ऐसी है उसे योगी ब्रह्म भूत जीवन मुक्त या समाधिस्थ कहते हैं।’’
आनन्दमय कोश की स्थिति पंचम भूमिका है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की है। काष्ठ समाधि भाव समाधि, ध्यान समाधि, प्राण समाधि, सहज समाधि आदि 27 समाधियां बताई गई हैं मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफार्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ समाधि कहते हैं, किसी भावना का इतना व्यतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टाएं संज्ञा शून्य हो जाय उसे भाव समाधि कहते हैं। ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाय कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, ध्यान समाधि कहते हैं। इष्टदेव के दर्शन जिन्हें होते हैं उन्हें ध्यान समाधि की अवस्था में ऐसी अचेतनता आ जाती है कि यह अन्तर उन्हें नहीं विदित होने पाता कि हमें दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आंखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे थे। प्राण समाधि ब्रह्म रंध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत समान बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।
इस प्रकार की 27 समाधियों में से वर्तमान देश काल पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्होंने सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को उन्होंने इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है—
साधो! सहज समाधि भली ।
गुरू प्रताप भयो जा दिन से सुरति न अनत चली ।।
आंखन मूँ दूँ कान न रूँ दूँ, काया कष्ट न धारूँ ।
खुले नयन में हँस हँ देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ।।
कहूँ सोई नाम, सुनूँ सोई सुमिरन, खाऊँ सोई पूजा ।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ।
जहां-जहां जाऊँ सोई परिक्रमा जो कछु करूँ सो सेवा ।
जब सोऊँ तब करूँ दंडवत पूजूँ और न देवा ।
शबछृ निरंतन मनुआ राता, मलिन वासना त्यागी ।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरै, ऐसी ताड़ी लागी ।।
कहैं ‘कबीर’ यह उनमनि रहनी सोई प्रकट कर गाई ।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ।।
उपरोक्त पद में सद्गुरु कबीर ने सहज समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है—सर्व सुलभ है—सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है, इसलिए उसे ‘सहज समाधि’ का नाम दिया गया है। हठ साधनाएं कठिन हैं उसका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुंचना असाधारण कष्ट साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या, षट्कर्मों के श्रम साध्य साधन सब किसी के लिए सुलभ नहीं हैं। अनुभवी गुरू के सम्मुख रह कर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियाएं साधनी पड़ती हैं फिर यदि उनका साधन खंडित हो जाय तो वे संकट भी सामने आ सकते हैं जो योग भ्रष्ट लोगों के सामने कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीर जी सहज योग को प्रधानता देते हैं। सहज योग का तात्पर्य है—सिद्धान्त मय जीवन, कर्तव्य पूर्ण कार्यक्रम। इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों, एवं काम क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्य-क्रम निर्धारित करते हैं।
सहज समाधि असंख्य प्रकार की योग साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति में सांसारिक कार्य करते हुए भी साधना क्रम चलता रहता है। इसी बात को यों भी कहना चाहिए कि दैनिक जीवन के सामान्य सांसारिक कार्य ही साधनामय बन जाते हैं सहज योगी अपने दिन भर के कार्यों को कर्तव्य, यज्ञ, धर्म, ईश्वरीय आज्ञा पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत् रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थों का चुनाव करते समय शरीर का स्वस्थता उसका ध्येय रहता है, स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं। कुटुम्ब का पालन पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका के माली की भांति सिंचन, संवर्धन का ध्यान रखता है, कुटुम्बियों को अपनी सम्पत्ति नहीं मानता जीविकोपार्जन को ईश्वर प्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधन मात्र समझता है। अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती। बात चीत करना, चलना फिरना, खाना, पीना, सोना, जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम, द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्तव्य को, धर्म को, प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम काज भी यज्ञ रूप हो जाते हैं।
जब हर काम के मूल में कर्तव्य भावना की प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से सद्भाव से, किये हुए कार्यों द्वारा अपने आपको और दूसरों को सुख शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सतकार्य मुक्ति प्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्विकता सद्भावना और लोक सेवा की पवित्र आकांक्षा के साथ जीवन संचालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य प्रणाली पूर्णतया अभ्यस्त हो जाती है। और जो चीज अभ्यास में आ जाती है वह प्रिय लगने लगती है, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की खर्चीली, प्रत्यक्ष हानिकारक, दुष्प्राप्य, नशीली, चीजें मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि चीजें जब कुछ दिन के बाद प्रिय लगने लगती हैं और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ते नहीं बनता। जब जब तामसी तत्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राण-प्रिय हो जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सात्विक तत्व उससे अधिक प्रिय न हो सकें।
सात्विक सिद्धान्त को जीवन आधार बना लेने से उन्हीं के अनुसार विचार और कार्य करने से, आत्मा को सत तत्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है यह अभ्यास जैसे जैसे परिपक्व होता जाता है वैसे वैसे सहज योग का रसास्वादन होने लगता है। उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता श्रद्धा, विश्वास उत्साह एवं साहस के साथ सत् परायणता में, सिद्धान्त संचालित जीवन में, संलग्न रहता है तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है, उसे उसी में तन्मयता रहती है एक दिव्य आवेश सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता संतुष्टता असाधारण होती है। इस स्थिति को सहज योग की समाधि या सहज समाधि कहा जाता है।
कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है वे कहते हैं—हे साधुओ! सहज समाधि श्रेष्ठ है जिस दिन से गुरु की कृपा हुई है यह स्थिति प्राप्त हुई है उस दिन से सुरति दूसरी जगह नहीं गई। चित्त डामा डोल नहीं हुआ। मैं आंख मूंद कर, कान मूंद कर, कोई हठ योग की काया कष्ट दायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आंख खोले रहता हूं और हँस हँस कर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूं। जो कहता हूं सो ना-जप है। जो सुनता हूं सो सुमिरन है, जो खाता पीता हूं सो पूजा है। घर और जंगल एक सा देखता हूं, और द्वैत का भाव मिटाता हूं। जहां जहां जाता हूं, सोई परमात्मा है और जो कुछ करता हूं सोई सोई सेवा है। जब सोता हूं तो वही मेरी दंडवत है। मैं एक को छोड़ कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़ कर निरन्तर शब्द में, अन्तःकरण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूं। ऐसी तारी लगी है-निष्ठा जमी है कि उठते बैठते वह कभी नहीं विसरती। कबीर कहते हैं कि मेरी यह उनमनि, हर्ष शोक से रहित स्थिति है जिसे प्रकट करके गाया है। दुख सुख से परे लो एक परम सुख है मैं उसमें समा रहा हूं।’’
यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत’ रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं—सत् की दिशा में ही चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं—और उन्हीं को जीवन नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत’ सहज योगी उस परम आनन्द को सहज समाधि हैं सुख को प्राप्त होते हैं। चूंकि उनका उद्देश्य ऊंचा रहता है देवी प्रेरणा पर निर्भरता रहती है इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप, बन जाते हैं, जैसे खांड़ के बने हुए खिलौने आकृति में कैसे ही क्यों न हों होंगे मीठे ही इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किये हुए काम वाह्य आकृति में कैसे ही क्यों न दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञ रूप ही, पुण्यमय ही। सत्य परायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य, छोटे से छोटे कार्य, यहां तक कि चलना, सोना, खाना, देखना तक ईश्वर आराधना बन जाते हैं।
स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीवन का दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करे। दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से ऊंचे उठकर योग में आस्था आरोपण करें इस दिशा में जो जितनी प्रगति करेगा उसे उतने ही अंशों में समाधि के लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा।
आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से तीन प्रमुख साधनाएं नीचे दी जाती हैं। सहज समाधि की भांति यह तीन महासाधना भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं साथ ही उनकी सुगमता भी असंदिग्ध है।
नाद साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
‘शब्द’ को ब्रह्म कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक शृंखला में बांधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भांति शब्द भी दो प्रकार का है सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद।
ब्रह्म लोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं। ईश्वर निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करता है जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती है, उसको यदि सुना और समझना जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्संदेह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुत गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचार धारा हमारी आत्मा से टकराती है।
हमारा अन्तःकरण एक रेडियो है जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार लहरियों का चुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष सुनाई पड़ सकती है। इसी को आकाशवाणी कहते हैं। हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं? हमारे लिए क्या उचित है क्या अनुचित? इसका प्रत्यक्ष संदेश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है। अन्तःकरण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय संदेश आकाशवाणी तत्वज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यंत्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य संकेत को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं वे आत्मदर्शी एवं ईश्वर परायण कहलाते हैं।
ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है वे ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं। इस दिव्य मिलन के लिए हाड़ मांस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्तःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द दिव्य विचार तब तक धुंधले रूप में सुनाई पड़ता है जब तक कषाय कल्मष आत्मा में बने रहते हैं जितनी जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है उतना ही यह दिव्य संदेश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप पुण्य का संकेत होता है, बुरा कार्य करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच, आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्म संतोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है।
यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है, किस के लिए क्या भवतव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है यह सब कुछ उसे प्रगट हो जाता है। और भी ऊंची स्थिति पर पहुंचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं होती जो उससे छिपी हो, परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बाल बुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्य ज्ञान पड़ जाय तो वे उसे बाजीगरी की खिलवाड़ खड़ी करने में ही नष्ट करदे पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचा कर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।
शब्द ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म हैं वह है नाद। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों के द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया कलाप चलता है। यह प्रारंभिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्रों में होकर गुजरती है वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर जाता है। वंशी के छिद्र में हवा फूंकते हैं तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र में जितनी हवा निकाली जाती है उसी के अनुसार भिन्न भिन्न स्वरों की ध्वनियां उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती है। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नाद योग है।
पंच तत्वों से प्रति ध्वनित हुई ॐकार की स्वर लहरियों को सुनने की नाद योग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत से सुनने में इतना आनन्द आता है जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन को सुनने में नहीं आता दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का प्रस्फुटन होता है। सर्प जब संगीत सुनता है तो उसकी नाड़ियों में एक विद्युत लहर प्रवाहित हो उठती है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुन कर इतना उल्लासित हो जाता है कि उसे तन बदल का होश नहीं रहता, योरोप में गौऐं दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाद का दिव्य संगीत सुनकर मानव मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियां विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में प्रगति होती है।
तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर—नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियां एकत्रित होती है और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है। यह सफलता कितनी शानदार है इसे प्रत्येक आध्यात्म मार्ग का जिज्ञासु भली प्रकार जानता है। आतिशी कांच द्वारा एक दो इंच जगह की सूर्य किरणें एकत्रित कर देने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। मानव प्राणी के सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण ऐसी महान शक्ति उत्पन्न करता है जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।
नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते पकड़ते साधक ॐ की रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुंच जाता है जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, दूसरे शब्दों में मुक्ति, निर्वाण, परमपद आदि नामों से पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचता है और अभीष्ट लक्ष को प्राप्त कर लेता है। नाद का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए अब इस पर कुछ प्रकाश डालते हैं—
अभ्यास के लिए ऐसा स्थान तलाश कीजिए जो एकांत हो और जहां बाहर की अधिक आवाज न आती हों। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिए कोई अंधेरी कोठरी ढूंढ़नी चाहिए। एक पहर रात जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रातः 9 बजे तक और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नित्य नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए। अपने नियत कमरे में एक आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठो। यदि आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसन्द, या कपड़े की गठरी आदि रख लो। यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो।
भावना करो कि मेरा शरीर रुई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ रहा हूं। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जायगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर उधर को ढुलने लगेगा। आराम कुर्सी, मसन्द या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा। साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बना कर उन्हें कानों से इस प्रकार लगा लो कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उंगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी। यदि पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटा कर अपने मूर्धा स्थान पर ले आओ। और वहां जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यान पूर्वक सुनने का प्रयत्न करो।
आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो चार दिन के प्रयत्न के बाद जैसे जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जायगी, वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जायगी। पहले पहल कई प्रकार के शब्द सुनाई देते हैं। शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है। उसकी आवाज रेल की तरह धक् धक् धक् धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है। यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं। मन में जो चंचलता की लहरें उठती हैं वे मानस तन्तुओं पर टकरा कर ऐसे शब्द करती हैं, मानो टीम के ऊपर मेह बरस रहा हो। और जब मस्तिष्क बाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है, तो ऐसा मालूम होता है मानों कोई प्राणी सांस ले रहा हो। यह पांचों शब्द शरीर और मन के है। कुछ ही दिन के अभ्यास से साधारणतः दो तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह सब शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियां निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है।
जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ती जाती है, तो बंशी या सीटी से मिलती जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियां सुनाई पड़ती हैं, यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं की परिचायक हैं। बहुत दिनों से बिछड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुंचाया जाता है, तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है, ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है, जिन सूक्ष्म शब्द ध्वनियों को आज वह सुन रहा है।
वास्तव में वह उसी तत्व के निकट से आ रही है, जहां से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ है और जहां पहुंच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं। धीरे धीरे यह शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन मन की सुध भूल जाता है। अन्तिम शब्द ॐ का है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घटा ध्वनि के समान होती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झन-झनाती रहती है, उसी प्रकार ‘ॐ’ का घन्टा शब्द सुनाई पड़ता है।
ॐकार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है तो निन्द्रा, तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख का—तुरीय अवस्था का, आनन्द लेने लगता है। उस स्थिति से ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अन्ततः पूर्णतया परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है।
अनहद नाद का शुद्ध रूप है अनाहत नाद। आहत नाद वे होते हैं जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होने हैं। वाणी के आकाश तत्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियां उत्पन्न होती हैं उन्हें अनाहत या अनहद कहते हैं। इन शब्दों को सुनने को साधना को सुरत कहते हैं।
अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखतः दश होते हैं जिनके नाम
1— संहारक
2— पालक
3— सृजक
4— सहस्रदल
5— आनन्द मंडल
6— चिदानन्द
7— सच्चिदानन्द
8— अखंड
9— अगम
10—अलख है।
इनकी ध्वनियां क्रमशः पायजेब की झंकार सी, सागर की लहर की, मृदंग की, शंख की, तुरही की, मुरली की, बीन सी, सिंह गर्जन की, नफीरी की, बुलबुल की सी होती है।
जैसे अनेक रेडियो स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्राडकास्ट होते रहते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं। उनके कारण, उपयोग और रहस्य अनेक प्रकार हैं। 64 अनाहत अब तक गिने गये हैं पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए संभव नहीं। जिनकी आत्मिक शक्ति जितनी ऊंची होगी वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे। पर उपरोक्त दश शब्द सामान्य आत्म बल वाले भी आसानी से सुन सकते हैं।
यह अनहद सूक्ष्म लोकों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत में किस स्थान पर क्या हो रहा है, किस प्रयोजन के लिए कहां क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्य इन शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं। कौन साधक किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मन्द सुनेगा यह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है।
अनहद नाद एक बिना तार की दैवी संदेश प्रणाली है। साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म कल्याण कारक और शेष धुनियां विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी हैं। इस पुस्तक में उनका विस्तृत वर्णन नहीं हो सकता। गायत्री योग द्वारा आनन्दमय कोश के जागरण के लिए जितनी जानकारी की आवश्यकता है वह इन पृष्ठों पर दे दी गई है।
विन्दु साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
विन्दु साधना का एक अर्थ ब्रह्मचर्य भी है। इस बिन्दु का अर्थ ‘वीर्य’ अन्नमय कोश के प्रकरण में किया गया है, आनन्दमय कोश की साधना में विन्दु का अर्थ होगा—परमाणु। सूक्ष्म से सूक्ष्म जो अणु है वहां तक अपनी गति हो जाने पर भी ब्रह्म की समीपता तक पहुंचा जा सकता है और समीप्य सुख का अनुभव किया जा सकता है।
किसी वस्तु को कूट कर यदि चूर्ण बनालें। और चूर्ण को खुर्दबीन से देखें तो छोटे छोटे टुकड़ों का एक ढेर दिखाई पड़ेगा। यह टुकड़े कई और टुकड़ों से मिलकर बने होते हैं। इन्हें भी वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से कूटा जाय तो अन्त में जो न टूटने वाले न कुटने वाले टुकड़े रह जायेंगे उन्हें परमाणु कहेंगे। इन परमाणुओं की लगभग 100 जातियां अब तक पहचानी जा चुकी हैं जिन्हें अणु तत्व कहा जाता है।
अणुओं के दो भाग हैं एक सजीव दूसरे निर्जीव। दोनों ही एक पिण्ड या ग्रह के रूप में पूर्ण मालूम पड़ते हैं पर वस्तुतः उनके भीतर भी और टुकड़े हैं। प्रत्येक अणु अपनी धुरी पर बड़े वेग से परिभ्रमण करता है। पृथ्वी तो सूर्य की परिक्रमा के लिए प्रति सैकिण्ड 18।। मील की चाल से चलती है पर इन 300 परमाणुओं की गति चार हजार मील प्रति सैकिण्ड मानी जाती है।
यह परमाणु भी अनेक विद्युत कणों से मिलकर बने हैं। जिनकी दो जातियां हैं 1—ऋण कण 2—धन कण। धन कणों के चारों ओर ऋण कण एक लाख अस्सी हजार मील की गति से परिक्रमण करते हैं। उधर धन कण, ऋण की परिक्रमा के केन्द्र होते हुए भी शान्त नहीं बैठते। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगाती है और सूर्य अपने सौर मंडल को लेकर ‘कृतिका’ नक्षत्र की परिक्रमा करता है वैसे ही धन कण भी परमाणु की अन्तरगति का कारण होते हैं। ऋण कण जोकि द्रुत गति से निरन्तर परिक्रमण में संलग्न है अपनी शक्ति, सूर्य से अथवा विश्व व्यापी अग्नि तत्व से प्राप्त करते हैं।
वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि एक परमाणु के अन्दर की शक्ति पुंज छूट पड़े तो क्षण भर में लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म कर सकता है। इस परमाणु के विस्फोट की विद्या मालूम करके ही ‘एटम बम’ का अविष्कार हुआ है। एक परमाणु के फोड़ देने से भयंकर विस्फोट होता है उसका परिचय गत महायुद्ध में मिल चुका है। इसकी और भी भयंकरता का पूर्ण प्रकाश होना अभी बाकी है जिसके लिए वैज्ञानिक लगे हुए हैं।
यह तो परमाणु शक्ति की बात रही अभी उनके अंग ऋण कण और धन कणों के भी सूक्ष्म भागों का पता चला है। वे भी अपने से अनेक गुने सूक्ष्म परमाणुओं से बने हुए हैं जो ऋण कणों के भीतर एक लाख छियासी हजार तीन सो तीस मील प्रति सैकिण्ड की गति से परिभ्रमण करते हैं। अभी उनके भी अन्तर्गत कर्षाणुओं की खोज हो रही है और विश्वास किया जाता है कि उन कर्षाणुओं के भीतर भी सर्गाणु हैं। परमाणुओं की अपेक्षा ऋण कण तथा धन कणों की गति तथा शक्ति अनेक गुनी है उसी अनुपात से इन सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्म तम अणुओं की गति तथा शक्ति होगी। जब परमाणु के विस्फोट की शक्ति लन्दन जैसे तीन शहर को जला देने की है तो सर्गाणु की शक्ति एवं गति की कल्पना करना भी हमारे लिए कठिन होगा। उसके अन्तिम सूक्ष्म तम केन्द्र को अप्रितम, अप्रमेह, अचिन्त्य ही कह सकते हैं।
देखने में पृथ्वी चपटी मालूम पड़ती है पर वस्तुतः वह लट्टू की तरह अपनी धुरी पर घूमती रहती है। चौबीस घंटे में उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। पृथ्वी की दूसरी चाल भी है वह सूर्य की परिक्रमा करती है इस चक्कर में उसे एक वर्ष लग जाता है। तीसरी चाल पृथ्वी की यह है कि सूर्य अपने ग्रह उपग्रहों को साथ लेकर बड़े वेग से अभिजित नक्षत्र की ओर जा रहा है। अनुमान है वह कृतिका नक्षत्र की परिक्रमा करता है। इसमें पृथ्वी भी साथ है। लट्टू जब अपनी कील पर घूमता है तो वह इधर उधर झुकता उठता भी रहता है इसे मंडलाने की चाल कहते हैं। पृथ्वी की चौथी चाल मंडलाने की है जिसका एक चक्कर करीब 26 हजार वर्ष में पूरा होता है। कृतिका नक्षत्र भी सौर मंडल आदि अपने उपग्रहों को लेकर ध्रुव की परिक्रमा करता है इस दशा में पृथ्वी की गति पांचवीं हो जाती है।
सूक्ष्म परमाणु के सूक्ष्मतम भाग सर्गाणु तक मानव बुद्धि की पहुंच हुई है और बड़े से बड़े महा अणुओं के रूप में पांच गति तो पृथ्वी की विदित हुई। आकाश के असंख्य ग्रह नक्षत्रों का पारस्परिक सम्बन्ध न जाने कितने बड़े महा अणु के रूप में पूरा होता होगा उस महानता की कल्पना भी बुद्धि को थका देती है। उसे भी अप्रतिम, अप्रमेय और अचिन्त्य ही कहा जायगा।
सूक्ष्म से सूक्ष्म और महत् से महत् केन्द्रों पर जाकर बुद्धि थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की कल्पना नहीं हो सकती उस केन्द्र को ‘बिन्दु’ कहते हैं।
अणु को योग की भाषा में अण्ड भी कहते हैं। वीर्य का एक कण ‘अण्ड’ है। वह इतना छोटा होता है कि बारीक खुर्दबीन से भी मुश्किल से ही दिखाई देता है पर जब वह विकसित होकर स्थूल रूप में आता है तो वही बड़ा अण्डा हो जाता है। उस अण्डे के भीतर जो पक्षी रहता है उसके अनेक अंग प्रत्यंग विभाग होते हैं, उन विभागों में असंख्य सूक्ष्म विभाग और उनमें भी अगणित कोषाण्ड रहते हैं। इस प्रकार शरीर भी एक अणु है इसी से अण्ड या पिण्ड कहते हैं। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में अगणित सौर मंडल आकाश गंगा और ध्रुव चक्र हैं।
इन ग्रहों की दूरी और विस्तार का कुछ ठिकाना नहीं। पृथ्वी बहुत बड़ा पिण्ड है पर सूर्य तो पृथ्वी से भी तेरह लाख गुना बड़ा है। फिर सूर्य से भी करोड़ों गुने ग्रह आकाश में मौजूद हैं। इसकी दूरी का अनुमान इससे लगाया जाता है कि प्रकाश की गति प्रति सैकिण्ड 30 हजार मील है और उन ग्रहों का प्रकाश पृथ्वी तक आने में 30 लाख वर्ष लगते हैं। यदि कोई ग्रह आज नष्ट हो जाय तो उसका अस्तित्व न रहने पर भी उसकी प्रकाश किरणें आगामी तीस लाख वर्ष तक यहां आती रहेंगी। जिन नक्षत्रों का प्रकाश पृथ्वी पर आता है उनके अतिरिक्त ऐसे ग्रह बहुत अधिक हैं जो अत्यधिक दूरी के कारण पृथ्वी पर दुर्बीनों से भी दिखाई नहीं देते। इतने बड़े और दूरस्थ ग्रह जब अपनी परिक्रमा करते होंगे, अपने ग्रह मंडल को साथ लेकर परिभ्रमण को निकलते होंगे तो वे कितने अधिक विस्तृत शून्य में घूम जाते होंगे उन शून्य के विस्तार की कल्पना कर लेना मानव मस्तिष्क के लिए बहुत कठिन है।
इतना बड़ा ब्रह्माण्ड भी एक अणु या अण्ड है। इसलिए उसे ब्रह्म+अण्ड=ब्रह्माण्ड कहते हैं। पुराणों में वर्णन है कि जो ब्रह्माण्ड हमारी जानकारी में है उसके अतिरिक्त भी ऐसे ही और अगणित ब्रह्माण्ड हैं और उन सबका समूह एक महा अण्ड है और उस महा अण्ड की तुलना में पृथ्वी उससे भी छोटी बैठती है जितना कि परमाणु की तुलना में सर्गाणु छोटा होता है।
इस लघु से लघु और महान से महान अण्ड में जो शक्ति व्यापक है, जो इन सबको गतिशील, विकसित, परिवर्तित, चैतन्य रखती है। उस सत्ता को ‘विन्दु’ कहा गया है। यह विन्दु ही परमात्मा है। उसको छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहा जाता है। ‘‘अणोरणीयान् महतोमहीयान्’’ कह कर उपनिषदों ने उस परब्रह्म का परिचय दिया है।
इस विन्दु का चिन्तन करने से आनन्दमय कोश स्थित जीव को उस परब्रह्म के रूप की कुछ झांकी होती है और उसे प्रतीत होता है कि परब्रह्म की, महा अण्ड की, तुलना में मेरा अस्तित्व, मेरा पिण्ड कितना तुच्छ है। इस तुच्छता का भान होने से अहंकार और गर्व विगलित हो जाते हैं। दूसरी ओर जब सर्गाणु से अपने पिण्ड की, शरीर की तुलना करते हैं तो प्रतीत होता है अटूट शक्ति के अक्षय भंडार सर्गाणुओं की इतनी अकूत संख्या और शक्ति जब हमारे भीतर है तो हमें अपने को अशक्त समझने का कोई कारण नहीं। उस शक्ति का उपयोग जान लिया जाय तो संसार में होने वाली कोई भी बात हमारे लिए असम्भव नहीं हो सकती।
जैसे महाअण्ड की तुलना में हमारा शरीर अत्यन्त क्षुद्र है और हमारी तुलना में उसका विस्तार अनुपमेय है। इसी प्रकार सर्गाणुओं की दृष्टि में हमारा पिण्ड, शरीर एक महाब्रह्माण्ड जैसा विशाल होगा। इस तुलनात्मक लघुता और तुलनात्मक महानता का चिन्तन करते करते अन्त में जो स्थिति समझ में आती है वह प्रकृति के अण्ड से भिन्न एक दिव्य शक्ति के रूप में विदित होती है। लगता है कि मैं मध्य विन्दु हूं, केन्द्र हूं सूक्ष्म से सूक्ष्म में और स्थूल से स्थूल में मेरी व्यापकता है।
लघुता महत्ता का एकान्त चिन्तन ही विन्दु साधन कहलाता है। इस साधना के साधक को सांसारिक जीवन की अवास्तविकता और तुच्छता का भली प्रकार बोध हो जाता है साथ ही यह भी प्रतीत हो जाता है कि अनन्त शक्ति का उद्गम होने के कारण उस सृष्टि का महत्वपूर्ण केन्द्र हूं। जैसे जापान पर फटा हुआ परमाणु ही ऐतिहासिक ‘एटम बम’ के रूप में चिरस्मरणीय रहेगा, वैसे ही जब अपने शक्ति पुंज का सदुपयोग किया जाता है तो उसके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से संसार का भारी परिवर्तन करना सम्भव हो जाता है।
विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र के पिण्ड को एटम बम बनाकर ‘‘असत्य’’ के साम्राज्य पर इस प्रकार विस्फोट किया था कि लाखों वर्ष बीत जाने पर भी उसकी ‘एक्टिव किरणें’ अभी समाप्त नहीं हुई है और अपने प्रभाव से असंख्यों को बराबर प्रभावित करती चली आ रही हैं। महात्मा गांधी ने बचपन में राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र पढ़ा था, उनने अपने आत्म चरित्र में लिखा है कि मैं उसे पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि स्वयं भी हरिश्चन्द्र बनने की ठान ठानली। अपने संकल्प बल द्वारा वे सचमुच हरिश्चन्द्र बन भी गये। राजा हरिश्चन्द्र आज नहीं है पर उनकी आत्मा अब भी उसी प्रकार अपना महान कार्य कर रही है न जाने कितने अप्रकट गांधी उसके द्वारा निर्मित होते रहते होंगे। गीताकार आज नहीं है पर आज उनकी गीता कितनों को अमृत पिला रही है। यह पिण्ड का सूक्ष्म प्रभाव ही है जो प्रकट या अप्रकट रूप से स्वपर कल्याण का महान आयोजन प्रस्तुत करता है।
कार्लमार्क्स के सूक्ष्म शक्ति केन्द्र से प्रस्फुटित हुई चेतना आज आधी दुनिया को कम्युनिस्ट बना चुकी है। पूर्वकाल में महात्मा ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, कृष्ण आदि अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने संसार पर बड़े महत्वपूर्ण प्रभाव डाले हैं। इन प्रकट महापुरुषों के अतिरिक्त ऐसी अनेक अप्रकट आत्माएं भी हैं जिन्होंने संसार की सेवा में जीवों के कल्याण में गुप्त रूप से बड़ा भारी काम किया है। हमारे देश से योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास आदि द्वारा जो कार्य हुआ तथा आज भी अनेक महापुरुष जो कार्य कर रहे हैं उसको स्थूल दृष्टि से नहीं समझा जा सकता है। युग परिवर्तन निकट है उसके लिए रचनात्मक और ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म जगत में जो महान आयोजन हो रहा है उस महाकार्य को हमारे चर्म चक्षु देख पावें तो जाने कि कैसी अद्भुत एवं अभूतपूर्व परिवर्तन चक्र प्रस्तुत हुआ। और वह चक्र निकट भविष्य में ही कैसे कैसे विलक्षण परिवर्तन करके मानव जाति को एक नये प्रकाश की ओर ले जा रहा है।
विषयान्तर चर्चा करना हमारा प्रयोजन नहीं है, यहां तो हमें यह बताना है कि लघुता और महत्ता के चिन्तन की विन्दु साधना से आत्मा का भौतिक अभिमान और लोभ विगलित होता है साथ ही उस आन्तरिक शक्ति का विस्तार होता है जो स्वपर कल्याण के लिए अत्यन्त ही आवश्यक एवं अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।
बिन्दु साधक की आत्म स्थिति उज्वल होती जाती है, उसके विकार झड़ जाते हैं फलस्वरूप उसे उस अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है जिसे प्राप्त करना जीवन धारण का प्रधान उद्देश्य है।
कला साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
‘कला’ का अर्थ है-किरण। प्रकाश, यों तो अत्यन्त सूक्ष्म है, पर उस सूक्ष्मता का ऐसा समूह जो हमें एक निश्चित प्रकार का अनुभव करावे ‘कला’ कहलाता है। सूर्य से निकल कर अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाश तरंगें भूतल पर आती हैं उनका एक समूह ही इस योग्य बन पाता है कि नेत्रों से या यन्त्रों से उसका अनुभव किया जा सके। सूर्य किरणों के सात रंग प्रसिद्ध है। परमाणुओं के अन्तर्गत जो ‘प्रभाणु’ होते हैं उनकी विद्युत तरंगें जब हमारे नेत्रों से टकराती हैं तभी किसी रंग रूप का ज्ञान हमें होता है। रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम कला द्वारा ही होता है।
कलाएं दो प्रकार की होती हैं 1-आप्ति 2-व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे हैं जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं इन्हें ‘‘तेजस’’ भी कहते हैं। वस्तुएं पंच तत्वों से बनी हुई होती हैं, इसलिए प्रभाणुओं से निकलने वाली किरणें अपने प्रधानतत्व की विशेषता भी साथ लिए होती है। यह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती है। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इसमें पंच तत्वों में से कौनसा तत्व, किस मात्रा में विद्यमान है। पंच तत्व चिकित्सा एवं सूर्य किरण चिकित्सा सम्बन्धी अपनी पुस्तकों में हम इस सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाल चुके हैं।
व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के तेजस् में परिलक्षित होती है। यह तेजस् मुख के आस पास प्रकाश मंडल की तरह विशेष रूप से फैला होता है यों तो यह सारे शरीर के आस पास प्रकाशित रहता है। इसे अंग्रेजी में ‘‘औरा’’ और संस्कृत में ‘‘तेजोवलय’’ कहते हैं। देवताओं के चित्रों में उनके मुख के आस पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है यह उनकी कला का ही चिन्ह है। अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुरामजी में तीन, रामचन्द्रजी में बारह, कृष्ण में सोलह, कलाएं बताई गई हैं। इसका तात्पर्य है उनमें साधारण मात्रा से इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी।
सूक्ष्म दर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आंतरिक स्थिति का पता उसके तेजोवलय और रंग रूप, चमक और चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं। ‘कला’ विद्या की जिसे जानकारी है वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थों को वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए उनके गुण, प्रभाव एवं महत्वों को आसानी से जान लेता है। किसी मनुष्य में कितनी कलाएं हैं उसमें क्या क्या शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएं हैं तथा किन किन गुण, दोषों, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है यह सहज ही पता चल जाता है। इस जानकारी के होने से किसी व्यक्ति से समुचित सम्बन्ध रखना सरल हो जाता है।
कला विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की तात्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर उसे आत्म बल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन, परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का, माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चय कर सकता है कि उसकी उन्नति हो रही है या नहीं, उसे सन्तोष जनक सफलता मिल रही है या नहीं।
सब ओर से चित्त हटा कर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग बिरंगी धज्जियां चिन्दियां तथा तितलियां भी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। इनके रंगों का आधार तत्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वी रंग का तत्व पीला, जल का श्वेत, अग्नि का लाल, वायु का हरा आकाश का नीला होता है। जिस रंग की झिलमिल होती हो उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हम में किन तत्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है।
प्रत्येक रंग में अपनी अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में क्षमा, गम्भीरता, पाचन, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में-शान्ति, रसिकता कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, वृद्धि, प्रेम। लाल रंग में-गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अनिष्ठ, शूरता, संघर्ष, दाह, उत्तेजना, कठोरता, वासना, कामुकता, तेज, प्रभाव शीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में—चंचलता, कल्पना, स्वप्न शीतलता, हलकापन, जकड़ना, दर्द, पीला, अपहरण, धूर्तता, गति शीलता, विनोद, प्रति शीलता, विनोद, प्राण पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में-विचार शीलता, बुद्धि, सूक्ष्मता, विस्तार, सात्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, संवर्धन सिंचन, आकर्षण आदि गुण होते हैं।
जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के प्रकट रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश ज्योति से यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु या प्राणी का गुण, क्रम, स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है। साधारणतः यह पांच तत्वों की पांच कला हैं जिनके द्वारा यह लाभ हो सकते हैं
1— व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना
2— अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असंतुलित किसी गुण दोष को संतुलित करना
3— दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना
4— तत्व के मूल आधार पर पहुंच कर तत्वों की गति विधि तथा क्रिया पद्धति को जानना
5— तत्वों की गति विधि तथा क्रिया पद्धति को जानना 5—तत्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना।
यह उपरोक्त पांच लाभ ऐसे हैं जिनकी व्याख्या की जाय तो वे ऋद्धि सिद्धियों के समान आश्चर्य जनक प्रतीत होंगे। यह पांच भौतिक कलाएं हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मंत्र योगी तथा तांत्रिक अपने अपने ढंग से करते हैं। और इस तात्विक शक्ति का अपने अपने ढंग से सदुपयोग दुरुपयोग करके भले बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा सांसारिक भोग वैभव भी मिल सकता है, आत्म कल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं दुख शोक संतप्त भी बनाया जा सकता है। पंच तत्वों की कलाएं ऐसी ही प्रभाव पूर्ण होती हैं।
आत्मिक कलाएं तीन हैं सत, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का मध्य केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्य कश्यपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोमुखी कलाएं विष्णु से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, बृहस्पति, ध्रुव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी। सतोगुणी सिद्धियां ब्रह्म से आविर्भूत होती हैं, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गांधी आदि ने सात्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।
आत्मिक कलाओं की साधना गायत्री योग के अन्तर्गत ग्रन्थि भेद द्वारा होती हैं। रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और ब्रह्म ग्रन्थि खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीरों में आकाश तत्व अधिक था इसलिए उन्हें इन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्यें प्राप्त हो जाती थीं पर आज के युग में जन समुदाय के शरीरों में पृथ्वी तत्व प्रधान है। इसलिए अणिमा महिमा आदि तो नहीं पर सत, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से जब भी आश्चर्य जनक हित साधन हो सकता है।
पांच कलाओं तात्विक साधना - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
पृथ्वी तत्व — इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अण्डकोश की ओर हट कर सीवन में स्थिति हैं। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक तत्व चक्र का आकार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।
पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलबाय आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थिति करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।
साधन विधि — सवेरे जब एक पहर अंधेरा रहे तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़ कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उलटे करके घुटनों पर इस प्रकार रखो, जिससे उंगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘लं’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी का ध्यान करे। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जायगी और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय ऊपर कहे हुए पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘लं’ इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्वनि रूप से) जप करते जाना चाहिए।
जल तत्व — पेडू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘भुवः’ लोक का प्रतिनिधि है। रंग श्वेत, आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।
साधन विधि — पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठ कर ‘बं’ बीज वाले अर्ध चन्द्राकार, चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान करना चाहिये। इससे भूख प्यास मिटती है और सहन शक्ति उत्पन्न होती है।
अग्नि तत्व — नाभि स्थान में स्थित मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, रंग लाल, गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पांव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं। इसके सिद्ध हो जाने पर मंदाग्नि अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है।
साधन विधि — नियत आसन पर बैठ कर ‘रं’ बीज मंत्र वाले, त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि तत्व का मणिपूरक चक्र में ध्यान करे। इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।
वायु तत्व — यह तत्व हृदय देश में स्थित अनाहत चक्र में है। एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है। गुण स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय त्वचा और कर्मेन्द्रिय हाथ है। वात, व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।
साधन विधि — नियत विधि से स्थिति होकर ‘यं’ बीज वाले गोलाकार, हरी आभा वाले, वायु तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करे। इससे शरीर और मन में हलका पन आता है।
आकाश तत्व — शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान में ‘जन लोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।
साधन विधि — पूर्वोक्त आसन पर से ‘हं’ बीज मन्त्र का जप करते हुए चित्र विचित्र रंग वाले आकाश तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिये। इससे तीनों कालों का ज्ञान ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
नित्य प्रति पांच तत्वों का छह मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्वों की सामर्थ्यें, कलाएं बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएं अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।
तुरीयावस्था - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मन को पूर्णतया संकल्प रहित कर देने से जो रिक्त मानस की निर्विषय स्थिति होती है उसे तुरीयावस्था कहते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का एक भी संकल्प न रहे। ध्यान, भाव, विचार, संकल्प, इच्छा, कामना को पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया जाय और भाव रहित होकर केवल आत्मा के एक केन्द्र में अपने अन्तःकरण को पूर्णतया समाविष्ट कर दिया जाय तो साधक तुरीयावस्था में पहुंच जाता है। इस स्थिति में इतना आनन्द आता है कि उस आनन्द के व्यतिरेक में अपने पर की सारी सुधि बुधि छूट जाती है। शरीर संचालन की क्रियाएं उस समय शिथिल हो जाती हैं और पूर्ण मनोयोग होने से बिखरा हुआ आनन्द एकीभूत होकर साधक को आनन्द से परिप्लुत कर देता है, इसी स्थिति को समाधि कहते हैं।
समाधि काल में अपना संकल्प ही एक सजीव एवं अनन्त शक्तिशाली देव बन जाता है और उसकी झांकी दृश्य जगत से भी अधिक स्पष्ट होती है। नेत्रों के दोष और चंचलता से कई वस्तुएं हमें धुंधली दिखाई पड़ती है और उनकी बारीकियां नहीं सूझ पड़तीं। परन्तु समाधि अवस्था सम्पूर्ण दिव्य इन्द्रियों और चित्त वृत्तियों का एकीकरण जिस संकल्प पर होता है वह संकल्प सब प्रकार मूर्तिमान एवं सक्रिय परिलक्षित होता है। जिस किसी को जब कभी भी ईश्वर का मूर्तिमान साक्षात्कार होता है तब समाधि अवस्था में, उसका संकल्प ही मूर्तिमान हुआ होता है।
भावावेश में भी क्षणिक समाधि हो जाती है। भूत प्रेतों का आवेश, देवोन्माद, हर्ष शोक की मूर्छा, नृत्य वाद्य में लहरा जाना, आवेश में अपनी या दूसरे की हत्या आदि भयंकर कृत्य कर डालना, क्रोध का व्यतिरेक बिछुड़ों के मिलन का प्रेमावेश, कीर्तन आदि के समय भाव विह्वलता, अश्रुपात, चीत्कार, आर्तनाद करुण क्रंदन, हूक आदि में आंशिक समाधि होती है। संकल्प में, भावना में, आवेश की जितनी अधिक मात्रा होगी उतनी ही गहरी समाधि होगी और उसका फल भी सुख या दुख के रूप में उतना ही अधिक होगा। भय का व्यतिरेक, आवेश, होने पर डर के मारे भावना मात्र से लोगों की मृत्यु तक होती देखी गई है। कई व्यक्ति फांसी पर चढ़ने से पूर्व ही डर के मारे प्राण त्याग चुकते हैं।
आवेश की दशा में अन्तरंग शक्तियों और वृत्तियों का एकीकरण हो जाने से एक प्रचंड भावोद्वेग होता है। वह उद्वेग भिन्न भिन्न दशाओं में मूर्छा, उन्माद, आवेश, आदि नामों से पुकारा जाता है पर जब वह दिव्य भूमिका में आत्म तन्मयता के साथ होता है तो उसे समाधि कहते हैं। पूर्ण समाधि में पूर्ण तन्मयता के कारण पूर्णानन्द का अनुभव होता है। आरम्भ स्वल्प मात्रा की आंशिक समाधि के साथ होता है दैवी भावनाओं में एकाग्रता एवं तन्मयता पूर्ण भावावेश जब होता है तो आंखे झपक जाती हैं, सुस्ती तन्द्रा या मूर्छा भी आने लगती है, माला हाथ से छूट जाती है, जप करते करते जिह्वा रुक जाती है। अपने इष्ट की हलकी सी झांकी होती है और एक ऐसे आनन्द की क्षणिक अनुभूति होती है जैसा कि संसार के किसी पदार्थ में नहीं मिलता। यह स्थिति आरम्भ में स्वल्प मात्रा में ही होती है पर धीरे धीरे इसका विकास होकर परिपूर्ण तुरीयावस्था की ओर चलने लगता है। और अन्त में सिद्धि मिल जाती है।
आनन्दमय कोश के चार अंग प्रधान हैं
1— नाद,
2— विन्दु
3— कला
4— तुरीया ।
इन साधनाओं द्वारा साधक अपनी पंचम भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है। गायत्री के इस पांचवे मुख को खोल लेने वाला साधक जब एक एक करके पांचों मुखों से माता का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है, तो उसे और प्राप्त करना कुछ शेष नहीं रह जाता।
पंच कोशी साधना का ज्ञातव्य - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
पिछले पृष्ठों पर पंच कोशों की साधना के अन्तर्गत योग विद्या की वे साधनाएं बताई गई हैं जो सर्व साधारण के लिए सरल एवं उपयोगी हैं। यह प्रकट है कि आध्यात्मिक महातत्व गायत्री ही है। जितना भी ज्ञान विज्ञान और योग है वह सब गायत्री से आविर्भूत होता है। इसलिए ऐसी कोई साधना हो नहीं सकती जो गायत्री की महापरिधि से बाहर हो। सम्पूर्ण योग शास्त्र निश्चित रूप से गायत्री के अन्तर्गत है।
योग साधनाएं अनेक हैं। यह सब एक ही महातत्व की प्राप्ति के लिए हैं। गायत्री का नाम ही ‘मुक्ति’ है और उसी को ‘सिद्धि’ कहते हैं। जैसे किसी नगर में पहुंचने से अनेक दिशाओं से अनेक रास्ते होते हैं उसी प्रकार प्रभु प्राप्ति के लिए अनेक योग हैं। प्रत्येक मार्ग में अलग अलग प्रकार के दृश्य, पदार्थ और मनुष्य मिलते हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लोग निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचने का मार्ग निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक योग साधन की यह विशेषता है कि उसके मार्ग में अपने अपने ढंग के अनोखे अनुभव होते हैं, भिन्न भिन्न सिद्धियां शक्तियां एवं अनुभूतियां प्राप्त होती हैं। अन्त में पहुंचते सब एक ही स्थान पर हैं।
योग साधनाएं अनेक प्रकार की इसलिए हैं कि मनोभूमि स्थिति शक्ति, सुविधा, रुचि, देश काल पात्र के भेद से भिन्न भिन्न परिस्थिति के लोग उन्हें अपना सकें। युग परिवर्तन के अनुसार तत्वों की स्थिति में अन्तर आता रहता है। पूर्वकाल के जल, वायु, में जो गुण था वह अब नहीं है। जो अब है वह आगे न रहेगा। सृष्टि धीरे धीरे बुड्ढी होती जाती है। बालक में जितनी स्फूर्ति, कोमलता, चंचलता, उमंग और सुन्दरता होती है वह बुड्ढे में नहीं रहती। जवान आदमी जितना बोझ उठा सकता है उतना वृद्ध पुरुष के लिए सम्भव नहीं।
सतयुग सृष्टि का बालकपन है। त्रेता जवानी, द्वापर अधेड़ अवस्था है तो कलियुग बुढ़ापा। पंच तत्वों की यही स्थिति होती है जब बुढ़ापा अधिक आ आता है तो सृष्टि मर जाती है, प्रलय हो जाती है। फिर उसका नया जन्म होता है। सतयुग के बालक पंच तत्वों में प्राणियों के शरीर भी वैसे ही थे, खाद्य पदार्थ तथा जलवायु में भी वैसी ही विशेषता थी। मानसिक चेतना, इन्द्रिय लालसा, आहार विहार, आयु एवं शरीर का ढांचा भी युग प्रभाव से बहुत कुछ सम्बन्धित रहता है।
भूगर्भ विज्ञान के अन्वेषकों ने कुछ हजार वर्ष पुराने ऐसे जीव जन्तुओं के प्रमाण पाये हैं जो वर्तमान जीवों की अपेक्षा कहीं भिन्न आकृति के और कहीं अधिक बड़े थे। ऐसे मनुष्यों के अस्थि पिंजर मिले हैं जो दस फीट लम्बे थे। महागज, महामकर और महाशूकर अपने वर्तमान वंशजों की अपेक्षा पांच गुने से लेकर सैंतीस गुने तक बड़े थे ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं। जिस प्रकार सूर्य लोक में अग्नि तत्व प्रधान शरीर वाले प्राणी रहते हैं उसी प्रकार सतयुग में आकाश तत्व की प्रधानता इस पृथ्वी पर होने से उस समय उसी तत्व की प्रधानता वाले प्राणी इस पृथ्वी पर थे। उनके लिए आकाश में बिना पंखों के भी उड़ना सरल था। हनुमानजी ने बिना पंखों के छलांग मारकर समुद्र को पार किया था। त्रेता में ऐसा करना कुछ थोड़े लोगों के लिए ही संभव रह गया था इसलिए हनुमानजी को विशेष महत्व मिला। सतयुग में यह बिलकुल साधारण बात थी।
पूर्व युगों की स्थिति का कुछ परिचय यहां हमें इसलिए देना पड़ा है कि पाठक यह जान जायं कि जो योग साधनाएं सतयुग के मनुष्यों के लिए अत्यंत सरल और स्वाभाविक थी वह अब नहीं हो सकती, जो सिद्धियां पूर्वकाल में थोड़ी सी साधना से मिल जाती थीं वे अब लगभग असंभव हैं। पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए कितने लम्बे समय तक कितना कष्ट साध्य तप किया था। वैसा आज की स्थिति में किसी के लिए सम्भव नहीं है। संभव इसलिए भी नहीं है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष रह गई है और पृथ्वी तत्व प्रधान हो जाने से शरीर में जड़ता का अंश अधिक आ गया है। किसी समय में शरीर में पाप के होने न होने की परीक्षा अग्नि में तपा कर वैसे ही करली जाती थी जैसे कि आजकल सोने को तपा कर करली जाती है। सीताजी ने हंसते हंसते उस प्रकार की अग्नि परीक्षा दी थी और उनके शरीर को जरा भी कष्ट न हुआ था। पर आज तो परम साध्वी का शरीर भी अग्नि के जले बिना नहीं रह सकता। कलियुग में सती प्रथा का इसी लिए निषेध है कि पति की चिता पर जलने से आज कोई स्त्री कष्ट पीड़ित हुए बिना नहीं रह सकती। इसलिए पूर्वकाल की सतियों की भांति वह पति को शान्ति देना तो दूर, उलटे अपने आर्तनाद से पति की आत्मा को अत्यन्त दुख और नारकीय व्यथा में डुबा देती है।
कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि युग की स्थिति के अनुसार योग साधना का मार्ग और परिणाम बदलता है। इसीलिए साधना क्रमों की व्यवस्था और विधि विधान में अन्तर पड़ता जाता है। इस युग के तत्ववेत्ता अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अन्वेषण करके यह निश्चित करते हैं कि आज की स्थिति में कौन सा साधन आवश्यक है और किस प्रकृति का किस मनोभूमि का साधक किस साधना को ठीक प्रकार कर सकेगा। यह निर्णय ठीक न हो तो योग साधना से कई बार लाभ के बदले उलटी हानि होती देखी जाती है।
ऐसी अनेक दुर्घटनाएं हमने अपनी आंखों देखी हैं। प्राण को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर वापिस लौटाने की क्रिया से अपरिचित होने के कारण एक साधक की आधे घंटे में मृत्यु हो गई थी। एक सज्जन कुण्डलिनी जागरण के सिलसिले में पक्षाघात के चंगुल में फंस गये, कुण्डलिनी का कूम मेरु जरा सा विचलित हुआ ही था कि वे पिंगला में ‘कृकल’ प्राण का प्रवेश करने लगे, फल स्वरूप वायु कुपित हो गई और लकवा से उनके हाथ पांव जकड़ गये। गायत्री तंत्र की साधना करते हुए प्राण कोष की हिंस्रा ग्रन्थि को एक सज्जन जगा रहे थे। किसी दूसरे पर घात चलाने का उनका इरादा था। पर हिंस्रा जाग्रत न हो सकी भूल से उसके वाम पार्श्व में रहने वाला तिर्यग अणु फट गया, बस वे मुह और नाक से खून डालने लगे। तीन सेर खून निकल जाने से उनकी मृत्यु 40 मिनट के भीतर हो गई।
हठयोग की हम अधिक चर्चा सुनते हैं। क्योंकि वह निकट भूत में कलियुग के प्रारम्भ में काफी क्रियाशील था। नागार्जुन हठयोग के पूर्ण सिद्ध चुके हैं। नाथ सम्प्रदाय के आचार्य गोरखनाथ और मछीन्द्रनाथ पूर्ण हठयोगी थे। बौद्ध काल में महायान, वज्रयान आदि का काफी प्रचलन था। पर अब हठयोग का समय भी बीत चला था। स्वस्थ हठ योगी जहां तहां ही एकाध दीख पड़ता है। षट् कर्म-नेति धोति, वस्ति, न्योलि, वज्रोली, कपाल भाति, करते हुए कितने ही साधक हमने उदर रोगों से ग्रस्त देखे हैं। नासिका में होकर सूत की डोरी चढ़ाते हुए एक सज्जन अपने नेत्र खो बैठे। मुंह से कपड़े की पट्टी पेट में पहुंचाने की क्रिया आरम्भ करते हुये एक सज्जन संग्रहणी में ग्रस्त हुए और फिर उस रोग से उन्हें छुटकारा न मिला, वज्रोली क्रिया करने वाले अक्सर बहुमूत्र और गुर्दे की सूजन से ग्रसित हो जाते हैं।
कारण यह है कि साधक की स्थिति का भली प्रकार निरीक्षण किये बिना यदि उसकी प्रकृति से विपरीत साधन बता दिया जाय तो इससे उसका अहित ही हो सकता है। कई साधक ऐसे दुस्साहसी, अहंकारी और जल्दबाज होते हैं कि बिना उपयुक्त पथ प्रदर्शक की सलाह के लिए अपनी मन मर्जी से, कहीं पए़ सुनकर मनमानी साधना करने लगते हैं। मनमाने लाभों की कल्पना कर लेते हैं। मनमानी विधि व्यवस्था रच लेते हैं, ऐसे लोग एक खतरनाक खेल खेलते हैं। इससे उन्हें लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है इन्हीं कारणों से योग मार्ग में गुरु का होना आवश्यक माना गया है।
इस पुस्तक में पंच कोशों की साधना की चर्चा करते हुए गायत्री योग का उल्लेख किया है। उसमें कितनी ही योग क्रियाओं की बिलकुल चर्चा नहीं की गई है यद्यपि वे भी इन्हीं पांचों के अन्तर्गत हैं। कारण यह है कि जो साधनाएं द्वापर, त्रेता, सतयुग के पूर्व युगों के उपयुक्त थीं, जिन्हें आकाश, अग्नि, वायु एवं जल प्रधान शरीरों वाले साधक ही आसानी से कर सकते थे उनकी चर्चा इस सर्व साधारण के लिए लिखी गई पुस्तकों में अनावश्यक ही नहीं अनुचित भी होती क्योंकि सम्भव है कोई व्यक्ति उस आधार पर साधन करने लगते तो उनसे उन्हें लाभ तो कुछ न होगा उलटे समय का अपव्यय, निराशा, अश्रद्धा, अरुचि एवं कोई हानि हो जाने का भय और बना रहता। इसलिए उन्हीं साधनाओं की चर्चा की गई है जो आज की स्थिति में भी उपयुक्त हो सकती है।
जिन साधनाओं का वर्णन है उनके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि यह संक्षिप्त रूप में लिखी गई हैं और इनका पूरा विधि विधान, समस्त नियमोपनियम नहीं बताये गये हैं। इसका कारण यह है कि एक योग की सबके लिए एक विधि व्यवस्था नहीं हो सकती। नाद योग को सब लोग एक विधि से नहीं साध सकते। उष्ण प्रकृति वालों को-अस्थिर, चंचल, अनेक ध्वनियों का मिला हुआ नाद सुनाई देता है ऐसे साधक को वे उपाय बताये जाते हैं जिससे उसकी उष्णता शान्त हो और दिव्य ध्वनियां ठीक प्रकार सुनाई देने लगें। इसके विपरीत जिनकी प्रकृति शीत प्रधान है उनको अनाहत नाद बड़े मंद रुक रुक कर देर में सुनाई पड़ता हैं, उसकी दिव्य कर्णेन्द्रियों को उष्णता प्रधान साधनों से उत्तेजित करके इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे नाद भली प्रकार खुल जाय। जैसे शीत और उष्ण प्रकृति के दो भेद ऊपर बताए हैं वैसे और भी अनेक भेद उपभेद हैं। जिनके कारण एक ही साधना के लिए अनेकों प्रकार के नियम उपनियम बनाने पड़ते हैं। ऐसी दशा में यह संभव नहीं कि समस्त प्रकार की प्रकृति वाले मनुष्यों की परिस्थिति भेद के कारण किये जाने वाले समस्त विधानों का एक पुस्तक में उल्लेख हो सके।
चिकित्सा शास्त्र में निदान, निघटु, तथा औषधि-निर्माण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ अब तक नहीं छपा जिसमें समस्त रोगों, समस्त प्रकार के रोगियों की, समस्त परिस्थितियों के अनुसार, समस्त चिकित्सा विधियों का वर्णन हो। ऐसा लिखा जाना सम्भव भी नहीं है। यह तो तत्कालीन स्थिति पर निर्भर रहता है। यही बात योग साधना के बारे में भी लागू होती है। यदि किसी एक छोटी साधना के सम्बन्ध में भी साधक भेद से उसके अन्तरों को लिखा जाय तो एक भारी ग्रन्थ बन सकता है फिर भी वह ग्रन्थ अपूर्ण रहेगा। ऐसी स्थिति में गायत्री की पंच मुखी साधना के अन्तर्गत जो साधनाएं इस पुस्तक में लिखी गई हैं वे मोटे तौर से भली प्रकार समझाकर ही लिखी गई हैं फिर भी उनमें अपूर्णता का दोष तो रहेगा ही।
यह आवश्यक नहीं कि पंच कोशों के अन्तर्गत आने वाली सभी साधनाएं करने पर जीवनोद्देश्य प्राप्त हो। जिस साधक की जिस कोश में वर्तमान स्थिति हे वह उसी कोश की सीमा में बताई गई साधनाएं करके अपने बन्धन खोल सकता है। इस पुस्तक में चौबीस से अधिक साधनाएं बताई गई हैं। इनके अतिरिक्त अनेकों और साधना है, छोटे से जीवन में उन सबका साधन मनुष्य नहीं कर सकता, करना आवश्यक भी नहीं है।
आयुर्वेद में हजारों औषधियों का वर्णन है। वे सभी निरोगता दूर करके स्वस्थ बनाने के एक ही उद्देश्य के लिए बताई गई है, फिर भी कोई ऐसा नहीं करता कि जितनी भी औषधियों का वर्णन है उन सब का सेवन करे। बुद्धिमान लोग देखते हैं कि रोगी की क्या बीमारी है, उसकी आयु स्थिति एवं प्रकृति क्या है, तब यह निर्णय किया जाता है कि कौन औषधि किस अनुपात से दी जाय। कई बार थोड़ी थोड़ी करके कई औषधियों को मिश्रण करके देना होता है। साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है। अपनी मनोभूमि के अनुसार साधना का चुनाव होना बड़ी आवश्यक है। जो लोग सबको एक ही लकड़ी से हांकते हैं, सब धान बाईस पसेरी तोलते हैं वे भारी भूल करते हैं।
रोगी अपने आप अपने लिए औषधि का निर्णय नहीं कर सकता। कोई वैद्य या डॉक्टर बीमार पड़ता है तो वह भी किसी कुशल चिकित्सक से ही अपना इलाज कराता है कारण यह कि अपने आपको समझना सब के लिए बड़ा कठिन है। अक्सर लोग दूसरों की बुराई किया करते हैं पर अपनी गलतियां उनको नहीं सूझती। दूसरों की आंख हमें दिखाई पड़ती है पर अपनी आंख को आप नहीं देख सकते। अपनी आंख की बात जाननी हो तो किसी दूसरे से पूछना पड़ेगा या दर्पण की मदद लेनी पड़ेगी। यही बात अपनी मनोभूमि को परखने और उसके उपयुक्त उपचार ढूंढ़ने के बारे में है। इसमें किसी दूसरे अनुभवी मनुष्य की सहायता आवश्यक है। इस आवश्यक सहायता का सुव्यवस्था का नाम ही ‘‘गुरु का वरण’’ है। अच्छा पथ प्रदर्शक मिल जाना आधी सफलता मिल जाने के बराबर है।
इन साधनाओं का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है। स्त्री, पुरुष, बाल वृद्ध की स्थिति भेद से साधना विधियों में अन्तर होता है परन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि गायत्री साधना से अमुक वर्ग को वंचित रखा जाय। माता के सभी पुत्र हैं। उसे अपने सभी बालकों पर समान ममता है सभी का वह भरपूर दुलार करती है और सभी की अपना पय पान कराना चाहती है। कोई माता ऐसा नहीं करती कि अपने पुत्र को तो पय पान कराये और कन्या जन्मे तो उसे दुत्कार दे। ऐसा दुर्व्यवहार न मनुष्यों में होता है और न पक्षियों में, फिर परम दिव्य सत्ता ऐसा पक्षपात, भेदभाव करेगी इसकी कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए पूर्व काल में अनेक ब्रह्मवादिनी, परम योगिनी महिलाएं हुई हैं। वे वेदोक्त कार्यों में सदैव पुुुरुषों का वामांग बनकर समान रूप से भाग लेती रहती हैं। माता के सभी पुत्र बिना किसी भेद भाव से उसकी उपासना कर सकते हैं और प्रसन्नता पूर्वक उसका स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
आधुनिक परिस्थितियों में जो साधनाएं सध सकें उन्हें ही अपनाना उचित है। अब पूर्व काल के सतयुग आदि युगों की सी स्थिति नहीं है इसलिए वैसे योग साधन भी नहीं हो सकते और उन साधनाओं के फलस्वरूप वैसी सिद्धियां भी नहीं मिल सकतीं जैसी कि उन युगों में मिलती थीं। अणिमा, लघिमा, महिमा आदि जिन सिद्धियों का योग ग्रन्थों में वर्णन है वे पूर्व युगों की ही हैं। शरीरों का अत्यन्त छोटा कर लेना, अत्यन्त बड़ा बना लेना, अदृश्य हो जाना शरीर बदल लेना, आकाश में उड़ना, पानी पर चलना जैसी शरीर सम्बन्धी सिद्धियां आकाश तत्व प्रधान शरीर और युग में होती थी।
त्रेता में बिना यंत्रों के आत्मिक शक्ति से वे सब काम होते थे जो आज वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा होते हैं। विमान, रेडियो, विद्युत, दूर दर्शन, दूर श्रवण अत्यंत भारी चीजों का उठाना जैसे कामों के लिए आज तो वैज्ञानिक यंत्रों की आवश्यकता होती है पर त्रेता में यह सब कार्य मंत्र बल से, प्राण शक्ति से, हो जाते थे। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हनुमान नल नील आदि के चरित्र पढ़ने से पता चलता है कि वे प्रकृति की उन विज्ञान भूत सूक्ष्म शक्तियों से मन माना काम लेते थे जिनका आज बहुमूल्य यंत्रों द्वारा भी बहुत थोड़ा उपयोग संभव हो सकता है।
महाभारत में दिव्य अस्त्र शस्त्रों का वर्णन मिलता है। शब्दबेधी बाण, अग्नि अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, सम्मोहन अस्त्र, चक्र सुदर्शन आदि का प्रयोग उस महायुद्ध में हुआ था। उस काल में मनुष्यों और पशु पक्षियों में विचारों का आदान प्रकार सम्भव रहा। पशु पक्षी और मनुष्य की वाणी में, उच्चारण में अन्तर था पर दोनों के शरीर में अग्नि तत्व तथा जल तत्व की सूक्ष्मता पर्याप्त मात्रा में रहने से एक दूसरे से अपने विचारों से भली भांति आदान प्रदान कर लेते थे। त्रेता तथा द्वापर की अनेक ऐसी कथाएं उपलब्ध है जिनमें मनुष्यों तथा पशु पक्षियों का संभाषण का विस्तृत उल्लेख है।
इस युग में प्रकृति का अन्तराल पहले की भांति सूक्ष्म नहीं रहा, सृष्टि का बालक पन समाप्त हो गया और वृद्धावस्था आ रही है। इन दिनों जल तत्व और पृथ्वी तत्व की मिश्रित सधि चल रही है। जल तत्व का गुण मन है। ऊंचे उसे हुए अध्यात्मिक महापुरुषों का आज मनोबल विकसित पाया जाता है, उसमें विचार शक्ति, इच्छा शक्ति, प्रेरणा शक्ति अब भी पर्याप्त है इस मनोबल द्वारा वे अपना तथा दूसरों का बहुत कुछ हित साधन कर सकते हैं। इस युग में बुद्ध ईसा, मुहम्मद गांधी कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि महा पुरुषों ने अपनी प्रचंड प्रेरणा शक्ति से संसार को बहुत हद तक प्रभावित किया है।
मैस्मरेजम मनोबल का ही एक खेल है। दूसरों को अपने विचार देना, उनके विचार जानना या किसी के विचार परिवर्तन करना यह मनोबल की सिद्धियां हैं। और भी कितनी ही छोटी मोटी सिद्धियां इन दिनों हो सकती हैं जिनका इस पुस्तक में यंत्र तंत्र वर्णन किया है। कोई सिद्ध पुरुष कभी कभी ऐसे भी मिल जाते हैं जिन्हें पूर्व युगों की भांति सिद्धियां प्राप्त होती हैं पर अब उनकी संख्या नहीं के बराबर है। जल तत्व घट रहा है इसलिए अध्यात्मिक पुरुष प्रयत्न करके मनोबल ही सम्पादित कर पाते हैं। धीरे धीरे यह भी कम होता जायगा और जब पृथ्वी तत्व की जड़ता व्यापक हो जायगी तो केवल शरीर बल ही लोगों की विशेषता रह जायगी। आगे चलकर जो शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली होगी उसे ही तत्कालीन सिद्ध पुरुष माना जायगा।
कई व्यक्ति योग साधना द्वारा ऐसे चमत्कार प्राप्त करने की फिराक में रहते हैं कि वे लोगों को आश्चर्य में डाल कर उन पर अपनी महत्ता की छाप जमा सकें। इसी उधेड़ बुन में वे इधर उधर फिरते हैं और धूर्तों के चंगुल में पड़कर अपना बहुत-सा समय और धन बर्बाद करते हैं। हमने स्वयं चमत्कारी सिद्धों की खोज में अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगाया है। एक दो अज्ञात रहने वाले महापुरुषों के अतिरिक्त हमें सभी चमत्कारी लोगों में धूर्तता मिली जिसका वर्णन हम अपनी ‘‘योग के नाम पर मायाचार’’ पुस्तक में विस्तार पूर्वक कर चुके हैं।
अपने पाठकों को हमारी सलाह है कि वे चमत्कारी बनने की बालक्रीड़ा में न उलझें क्योंकि पहले तो वर्तमान युग ही ऐसी सिद्धियों के अनुकूल नहीं हैं फिर कदाचित बहुत परिश्रम से कुछ मिले भी तो बहुमूल्य परिश्रम की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ होगा। बाजीगर कैसे कैसे खेल दिखाते हैं, सरकस वाले लोगों को हैरत में डाल देते हैं, पर इससे वे क्षणिक कौतूहल और मनोरंजन के अतिरिक्त और क्या कर पाते हैं। यह सब बच्चों की सी बात हैं। इस ओर किसी बुद्धिमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
गायत्री की पंच मुखी योग साधना का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। इन साधनाओं से साधक की अन्तःचेतनाओं का परिष्कार होता है। उस आत्म विकास के कारण सर्वतोमुखी स्वस्थता प्राप्त होती है। मन और शरीर के विकार दूर होते हैं। इच्छा, रुचि, भावना, आकांक्षा, बुद्धि, विवेक, गुण, स्वभाव, विचार धारा, कार्य प्रणाली आदि में ऐसा अद्भुत सतोगुणी परिवर्तन होता है जिसके कारण जीवन की सभी दिखाएं आनन्द से परिपूर्ण हो जाती हैं। उसे स्वास्थ धन, विद्या, चतुरता एवं सहयोग की कमी नहीं रहती। इन वस्तुओं को उचित मात्रा में उपलब्ध करके वह प्रतिष्ठा, कीर्ति, प्रीति तथा शान्ति के साथ जीवन बिताता है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक जीवन में उसे आत्म ज्ञान, आत्म दर्शन, आत्म अनुभव, आत्म लाभ, आत्म कल्याण की अमूल्य सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी तुलना में समस्त चमत्कार, कौतूहल, आश्चर्यजनक कृत्य मिलकर तराजू के पासंग के बराबर भी महत्व नहीं रखते। गायत्री के उपासक पंच मुखी माता की उपासना श्रद्धा पूर्वक करें तो उन्हें आशा जनक लाभ होते हैं। चमत्कारी बाबा वे भले ही न कहलावें पर गृहस्थ रह कर भी वे अपने आप में ऐसा परिवर्तन पा सकते हैं जो अनेक चमत्कारों की तुलना में उनके लिए अधिक मंगलमय होंगे।
‘‘सद्बुद्धि’’ मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। जिसके पास यह सम्पदा होगी उसे कभी किसी बात की कमी न रहेगी। वस्तुओं का अभाव तथा परिस्थितियों की कठिनाई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जिसके पास कि सद्बुद्धि है। गायत्री सद्बुद्धि का महामन्त्र है। इस मंत्र द्वारा साधक को उस दिव्य शक्ति की प्राप्ति होती है, जो संसार के समस्त सौभाग्यों की जननी है।
पंच मुखी साधना का उद्देश्य - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मोटी दृष्टि से देखने में एक शरीर के अन्दर एक जीव मालूम पड़ता है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि एक ही आवरण में पांच चैतन्य सत्ताएं मौजूद हैं। देखा जाता है कि मनुष्य में अनेक परस्पर विरोधी तत्व विद्यमान रहते हैं। जब जो तत्व प्रबल होता है उसके आधार पर वह अपनी दृष्टि के अनुसार पूर्ण तत्परता से काम करता है।
देखा जाता है कि एक मनुष्य बड़ा लोभी है, खाने और पहनने में बड़ी कंजूसी करता है, पैसे को दांत से दबा कर पकड़ता है परन्तु वही व्यक्ति अपने लड़के लड़कियों की विवाह शादी का अवसर आने पर इतनी फिजूल खर्ची करता है कि धन को होली की तरह फूंक देता है। यह परस्पर विरोधी बातें एक ही व्यक्ति में समय समय पर प्रकटित होती हैं।
एक समय में एक व्यक्ति बड़ा दयालु होता है दूसरों के साथ बड़ी उदारता एवं सज्जनता का व्यवहार करता है परन्तु दूसरे समय में किसी के प्रति इतना अनुदार एवं दुर्जन बन जाता है कि इन दो प्रकार की भिन्नताओं में संगति बिठाना कठिन हो जाता है। एक ही व्यक्ति बहुत संयमी एवं सदाचार होता है पर कभी कभी उसका वह व्यक्तित्व प्रबल हो जाता है जिसके कारण वह दुराचार में लिप्त हो जाता है। इसी प्रकार आस्तिकता नास्तिकता, सुधारकता रूढ़िवादिता, दयालुता-निष्ठुरता, सदाचार-दुराचार, सत्य-असत्य, लोभ-त्याग, मूर्खता-बुद्धिमत्ता, निष्कपटता-वंचकता के परस्पर विरोधी रूप समय समय पर मनुष्यों में प्रकट होते रहते हैं।
इन विसंगतियों को देखकर अक्सर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि अमुक व्यक्ति वास्तव में एक प्रकार का है, दूसरा रूप तो उसने धोखा देने के लिए बनाया है। प्रायः बुराई के आधार पर मनुष्य का वास्तविक रूप माना जाता है। और उसमें जो अच्छाई थी उसे ढोंग कह दिया जाता है। कोई व्यक्ति दानी भी है और चोर भी तो आमतौर पर उसे सब लोग चोर मानेंगे और यह खयाल करेंगे कि दान का ढोंग तो उसने दूसरों को भ्रम में डालने के लिए रचा है। परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। कोई व्यक्ति केवल मात्र आडंबर के लिए अपना समय, श्रम, धन, आदि अधिक मात्रा में खर्च नहीं कर सकता। जब किसी दशा में विशेष तत्परता एवं श्रद्धा होती है तभी उसके लिए अधिक त्याग एवं श्रम किया जाना सम्भव है।
बात यह है कि एक ही शरीर में कई व्यक्तित्वों का निवास होता है। एक घोंसले में कई बच्चे साथ साथ रहते हैं परन्तु बाहर से घोंसला एक ही दिखाई पड़ता है, गूलर के फल के भीतर कितने भुनगे उड़ते रहते हैं पर बाहर से उनकी प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार इस देही के अन्दर कई प्रकृतियों स्वभावों और रुचियों के अलग अलग व्यक्तित्व रहते हैं। एक घर में रहने वाले कई व्यक्तियों की प्रकृति, रुचि और कार्य प्रणाली अलग-अलग होती है इसी तरह मनुष्य की अन्तरंग प्रवृत्तियां भी अनेक दिशाओं में चलती रहती हैं।
सिर एक है पर उसमें नाक, कान, आंख, मुख, त्वचा की पांच इन्द्रियां अपना अपना अलग काम करती रहती हैं। हाथ एक है पर उसमें पांच उंगलियां लगी रहती हैं पांचों का काम अलग अलग है। वीणा एक है पर उसमें कई तार होते हैं। इन तारों की संतुलित झंकार से ही कोई स्वर लहरी बजती है। हाथ की पांचों उंगलियों के सम्मिलित प्रयत्न से कोई काम पूरा हो सकता है। सिर में यदि पांचों ज्ञानेन्द्रिय जुड़ी न हों तो मस्तक का कोई मूल्य न रह जाय। तब खोपड़ी भी चूतड़ की तरह एक साधारण अंग मात्र रह जायगी। विसंगतियों का एकीकरण ही जीवन है, इन भिन्नताओं के कारण ही जीवन में चेतना, क्रियाशीलता, विचारकता, मंथन और प्रगति का संचार होता है।
सूक्ष्म दर्शी ऋषियों ने अपने योग बल से जाना कि मनुष्य के शरीर में पांच प्रकार के व्यक्तित्व पांच चेतना, पांच तत्व विद्यमान हैं। इन्हें पांच कोश कहते हैं। शरीर पांच तत्वों का बना है। इन तत्वों की सूक्ष्म चेतना ही पंच कोश कहलाती है। यह पांचों पृथक पृथक होते हुए भी एक ही मूल केन्द्र से जुड़े हुए हैं। गायत्री के पांच मुखों का अलंकार इसी आधार पर है। मानव प्राणी की पांच प्रकृतियां हैं, यही गायत्री के पांच मुख हैं। यह पांचों मुख एक ही गर्दन पर जुड़े हुए हैं इसका तात्पर्य है कि पांचों कोश एक ही आत्मा से सम्बन्धित हैं।
महाभारत को आध्यात्मिक गूढ़ रहस्य के अनुसार पांच पांडव-शरीरस्थ पांच कोश ही है। पांचों की एक ही स्त्री द्रोपदी है। पांच कोशों की केन्द्रीय शक्ति एक आत्मा है। पांचों पांडवों की अलग अलग प्रकृति हैं, पांच कोशों की प्रवृत्ति भी अलग अलग हैं। इस पृथकता को जब एक रूपता में संतुलित समस्वरता में ढाल लिया जाता है तो उनकी शक्ति अजय हो जाती है। पांचों पांडवों की एक पत्नी, एक निष्ठा, एक श्रद्धा, एक आकांक्षा हो जाती है तो उनका रथ हांकने के लिए स्वयं भगवान को आना पड़ता है और अन्त में उन्हें ही विजय श्री मिलती है।
पांच कोशों को मनुष्य की पंचधा प्रकृति भी कहते हैं।
1— शरीराध्यास
2— गुण
3— विचार
4— अनुभव
5— सत् ।
इन पांच चेतनाओं को ही अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश कहा जाता है। यही गायत्री के पांच मुख हैं।
साधारण तथा इन पांचों में एकस्वरता नहीं होती। कोई किधर को चलता है कोई किधर को। स्वास्थ्य, योग्यता, बुद्धि, रुचि और लक्ष्य में एकता न होने के कारण मनुष्य ऐसे विलक्षण कार्य करता रहता है जो किसी एक दिशा में उसे नहीं चलने देते। किसी रथ में पांच घोड़े जुते हों, वे पांचों अपनी इच्छानुसार अपनी इच्छित दिशा में रथ को खींचें तो उस रथ की बड़ी दुर्दशा होगी। कभी वह एक फर्लांग पूरब को चलेगा तो कभी एक मील उत्तर को जायगा कोई घोड़ा उसे पश्चिम को घसीटेगा तो काई उत्तर की ओर खींचेगा। इस प्रकार रथ किसी निश्चित लक्ष पर न पहुंच सकेगा, घोड़ों की शक्तियां आपस में एक दूसरे के प्रयत्न को रोकने में खर्च होती रहेंगी और इस खींच तान में रथ बेतरह टूटता फूटता रहेगा।
यदि घोड़े एक निर्धारित दिशा में चलते, सबकी शक्ति मिलकर एक शक्ति बनती तो बड़ी तेजी से, बड़ी आसानी से वह रथ निर्दिष्ट स्थान तक पहुंच जाता। वीणा के तार बिखरे हुए हों तो उनको बजाने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता पर यदि वे एक स्वर केन्द्र पर मिला लिये जायं और निर्धारित लहरी में उन्हें बजाया जाय तो हृदय को प्रफुल्लित करने वाला मधुर संगीत निकलेगा। जीवन में परस्पर विरोधी, इच्छाएं, आकांक्षाएं, रुचियां, प्रकृतियां, प्रवृत्तियां, भावनाएं, मान्यताएं, इस प्रकार क्रियाशील रहती हैं जिससे प्रतीत होता है कि एक ही देह में पांच आदमी बैठे हैं और पांचों अपनी अपनी मर्जी चला रहे हैं, जब जिसकी बन आती है तब वह अपनी ढपली पर अपना राग बजाता है।
अध्यात्म विद्या के ज्ञाताओं ने इस पृथकता को विसंगति को, एक स्थान पर केन्द्रित करने, एक सूत्र में सम्बन्धित करने के लिए पंच कोशों की, पंचमुखी गायत्री साधना का संविधान प्रस्तुत किया है। गायत्री के चित्र में पांच मुख दिखाये गये हैं। पांचों की दिशाएं, आकृतियां, चेष्टाएं देखने में अलग मालूम पड़ती हैं परन्तु वे एक ही मूल केन्द्र से सम्बद्ध होने के कारण एक स्वरता धारण किये हुए हैं। यही आदर्श गायत्री साधक का होना चाहिए उसकी दिनचर्या, श्रमशीलता, योग्यता, विचार धारा, अभिरुचि एवं आकांक्षा एक ही निर्धारित लक्ष्य से संलग्न रहनी चाहिए। पांडव पांच होते हुए भी एक थे। एक ही ‘पांडव’ शब्द कह देने से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पांचों का बोध हो जाता है। ऐसी ही एकता हमारे भीतरी भाग में रहनी चाहिए।
डाक्टर जानते हैं कि रक्त में विजातीय पदार्थों का प्रवेश हो जाय तो अनेक रोग घेर लेते हैं। ओझा लोग जानते हैं कि देह में भूत घुस आवे, एक शरीर में दो सत्ताएं प्रवेश कर जायं तो मनुष्य रोगी या उन्माद ग्रस्त हो जाता है। घर में विरोधी स्वभाव की बहुएं आ जायं तो परिवार में भारी क्लेश और कलह उत्पन्न हो जाता है। जब तक परस्पर विरोधी तत्व मनोभूमि में काम करते रहेंगे, उनकी दिशाएं पृथक पृथक रहेंगी तब तक कोई व्यक्ति चैन से नहीं बैठ सकता, उसके अन्तस्तल में घोर अशान्ति घुसी रहेगी। आमतौर से लोग इसी अशांति में ग्रसित रहते हैं और पर्याप्त साधन सम्पन्न होते हुए भी मनुष्य जन्म जैसे अमूल्य सौभाग्य से कुछ लाभ नहीं उठा पाते। आन्तरिक विरोधों से उत्पन्न हुई गुत्थियां ही उनके लिए एक समस्या बन जाती हैं और मृत्यु समय तक वे सुलझ नहीं पातीं।
गायत्री की पंच मुखी साधना का उद्देश्य आन्तरिक विरोधों को मिटाकर उनमें समस्वरता की स्थापना करना है। अन्तर में सत् असत् की रस्साकशी होती रहती है, देवासुर संग्राम, राम रावण युद्ध, महाभारत होता रहता है। यह कलह तभी शांत हो सकता है जब एक पक्ष अशक्त हो जाय। असुर का-असत् का, पक्ष ग्रहण करके यदि सत् को पूर्णतया कुचलने का प्रयत्न किया जाय तो यह सम्भव भी नहीं क्योंकि असुरता स्वयं एक विपत्ति होने के कारण अपने आप अनेक संकट उत्पन्न कर लेती है। दूसरे सत् की स्थिति आत्मा में इतनी सुदृढ़ है कि उसे पूर्णतया कुचलना सम्भव नहीं है इसलिए आन्तरिक संघर्षों की समाप्ति का एक ही उपाय है कि—सत् का समर्थन एवं पोषण करके उसे इतना प्रबल कर लिया जाय कि असत को उससे संघर्ष का साहस ही न हो। लड़ाकू बकरा जब अपने सामने सिंह को खड़ा देखे गो तो उसे लड़ने की हिम्मत ही न होगी। आसुरी तत्व तभी तक प्रबल रहते हैं जब तक कि दैवी तत्व कमजोर होते हैं जब साधन द्वारा सतोगुण को पर्याप्त मात्रा में बढ़ा लिया जाता है तो फिर असुरता अपने हथियार डाल देती है और शान्ति का शासन स्थापित हो जाता है।
पंच कोशों की जो साधना पीछे बताई गई हैं वे मनुष्य की पांच महा शक्तियों को विनाशकारी मार्ग पर जाने से रोकती हैं उन्हें नियंत्रण में लाकर उपयोगी दशा में लगाती हैं। सरकस वाले खूंखार शेर चीतों को जंगल में से पकड़ लाते हैं और उन्हें इस प्रकार सधाते हैं कि वे जानवर किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाना तो दूर, उलटे उन सधाने वालों का प्रचुर धन तथा यश देने के माध्यम बन जाते हैं। पांच कोश-पांच शेर हैं, इन्हें सधाने के लिए सरकस वालों की तरह गायत्री साधकों को भी अटूट साहस, अविचल धैर्य एवं सतत् प्रयत्न शीलता को अपनाना होता है। इस साधना का प्रारम्भ काफी कठिनाइयों और निराशाओं से भरा हुआ होता है परन्तु धीरे धीरे सफलता मिलने लगती और गायत्री साधक जब इन पांच महा सिंहों को, पंच कोशों को, वश में कर लेता है तो उसे अनन्त ऐश्वर्य एवं अक्षय कीर्ति का लाभ होता है। सरकस के शेरों की अपेक्षा इन आत्मिक सिंहों की महत्ता अनेक गुनी है, इसीलिए उनके सध जाने पर सरकस वालों की अपेक्षा लाभ भी असंख्य गुने हैं। कायर इस साधना की कल्पना मात्र से डर जाते हैं पर वीरों के लिए आपत्तियों से भरा हुआ परम पुरुषार्थ ही आनन्द दायक होता है।
कोशों के असंतुलित, अविकसित, अनियंत्रित रहने से मानव अन्तःकरण की विषम स्थिति रहती है। उसमें परस्पर विरोधी विचार धाराएं भावनाएं और रुचियां उभरती और दबती रहती हैं। गायत्री साधना से इनमें एकता उत्पन्न होती है और अन्तर के समस्त संकल्प विकल्पों की उधेड़बुन समाप्त होकर एक सुव्यवस्थित गतिशीलता का आविर्भाव होता है। यह व्यवस्थित गतिशीलता जिस दिशा में भी चलेगी उसी दिशा में आशा जनक सफलता मिलेगी।
योग साधन का सबसे बड़ा लाभ मानसिक स्थिति का परिमार्जित हो जाना है। परिमार्जित मनोभूमि एक प्रकार का कल्प वृक्ष है जिसके कारण वह सभी वस्तुएं प्राप्त की जाती हैं जो मानव जीवन के लिए उपयोगी, आवश्यक, लाभदायक एवं आनन्द वर्धक हैं। पांच व्यक्तित्वों को एक व्यक्तित्व में सुसंयुक्त कर देना एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है जिसके द्वारा अपनी शक्ति पांच गुनी हो जाती है। चूंकि यह केन्द्रीकरण सतोगुण के आधार पर किया जाता है इसलिए सात्विक आत्मबल की प्रचंड अभिवृद्धि से पंचमुखी गायत्री साधना का साधक महामानव, महापुरुष, महा आत्मा बन जाता है।
कीट पतंगों की तरह सभी जीते हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन की तुच्छ क्रियाओं में संलग्न रह कर सांसे पूरी कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है, इस रीति से तो पशु पक्षी भी जी लेते हैं। इस दृष्टि से तो अन्य जीव, मनुष्य से कहीं अच्छे हैं। उन्हें ईर्ष्या द्वेष, मत्सर, छल, दम्भ, काम, क्रोध, कुढन, असन्तोष, शोक, वियोग, चिन्ता आदि की आन्तरिक अग्नियों में तो हर घड़ी झुलसते रहना नहीं पड़ता। वे अनेक प्रकार के पापों की गठरी तो अपने ऊपर जमा नहीं करते रहते। मनुष्य इन सब बातों में अन्य जीव जन्तुओं की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहता है। मरते मरते अन्य जीव जन्तु अपने मृत शरीर से दूसरों का कुछ भला कर जाते हैं पर मनुष्य वह भी नहीं कर पाता।
मानव जीवन की जो प्रशंसा और महत्ता है वह उस आत्मिक विशेषताओं के कारण है। यदि वह विशेषताएं आज स्वस्थ रूप में विकसित हों तो ही मनुष्य सच्चे अर्थों में मानव जीवन का लाभ प्राप्त कर सकता है। योग साधना का उद्देश्य व्यक्ति का पूर्ण विकास करना है। उसके भीतर जो अद्भुत शक्तियां छिपी पउ़ी हैं उनको योग द्वारा इतनी उन्नत दशा तक पहुंचाया जाता है कि मनुष्य में देवत्व की गुण आने लगें।
भारतीय जीवन की आदि काल से यह विशेषता रही है कि उसमें उद्देश्यमय, आदर्शयुक्त, परमार्थक जीवन को ही प्रधानता दी गई है। इस देश में उस व्यक्ति को मनुष्य माना जाता रहा है जो उद्देश्यमय आदर्श जीवन जीता है। अज्ञान, अशक्ति और अभाव से संघर्ष करने का व्रत करने वाले ही द्विज कहे जाते हैं। जो द्विज नहीं है अर्थात् जिसने परमार्थिक जीवन का व्रत नहीं लिया है उस स्वार्थी, लोभी, विषयी मनुष्य को शूद्र बताकर निन्दा की है। और कई प्रकार से उसका अर्थ सामाजिक बहिष्कार किया गया है। आज तो व्यापक रूप से शूद्रता फैली हुई है। गुण और स्वभाव की दृष्टि से आज चाण्डालत्व और शूद्रता का विशेष प्रसार हो रहा है।
भारतीय संस्कृति की यह अद्भुत महानता है कि वह अपने हर अनुयायी को यह प्रेरणा देती है कि पशु पक्षियों, कीट पतंगों जैसा शिशनोदर परायण तुच्छ जीवन न जिये वरन् अपना प्रत्येक क्षण महान् आदर्शों की पूर्ति में लगावे। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को, शरीर निर्वाह की जरूरतों को, कम से कम रखें जिससे उनको कमाने में कम से कम समय और मन देकर बचे हुए अवकाश, बुद्धिबल एवं उत्साह को महानता के सम्पादन में लगाया जा सके।
इस सांस्कृतिक प्रेरणा को ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं सद्बुद्धि नाम से पुकारा गया है। इसी को गायत्री कहते हैं। गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। यह सद्बुद्धि प्राचीन काल में अधिकांश भारतवासियों को प्राप्त थी, इसी से इस भूमि को पुण्य भूमि, तपो भूमि, स्वर्गादपि गरीयसी, आदि नामों से सम्बोधन किया जाता था और यहां जन्म लेने के लिए देवता भी इच्छा करते थे जीवन मुक्त आत्माएं ललचा ललचा कर इस देश में अवतार लेने के लिए मुक्ति धाम से वापिस लौट आती थीं। ऋतम्भरा बुद्धि ने ही इस देश को महान मानवों से पाट रखा था। विद्या में, बुद्धि में, बल में, पराक्रम में, विज्ञान में, धन में, स्वास्थ में, सौन्दर्य में, यह देश भरा पूरा था। कारण कि सद्बुद्धि ने भारतवासियों की अन्तः भूमिका को ऐसा परिमार्जित कर दिया था कि उसमें भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों का अक्षय भंडार उद्भव होना स्वभाविक ही था।
सद्बुद्धि उन सब कठिनाइयों को नष्ट करती है जो हमारी उन्नति एवं सुख शान्ति में रोड़ा बनती है। सद्बुद्धि उन सब सुविधाओं को बढ़ाती है जो हमें सुसम्पन्न बनाने के लिए आवश्यक हैं। सद्बुद्धि का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आधार गायत्री है इस महामन्त्र के एक एक अक्षर में जो गूढ़ ज्ञान भरा हुआ है वह इतना उज्ज्वल है कि उसके प्रकाश में अज्ञान का सारा अन्धकार दूर हो जाता है। इन 24 अक्षरों में ऐसा अद्भुत ज्ञान भंडार भरा हुआ है जिसमें दर्शन, धर्म, नीति, विज्ञान, शिक्षा, शिल्प आदि सभी कुछ पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। इस ज्ञान का अवगाहन करने पर तुच्छ मानव, महामानव बन सकता है।
गायत्री के अक्षरों में ज्ञान भण्डार तो भरा ही हुआ है इसके अतिरिक्त इस महामन्त्र की रचना भी ऐसे विलक्षण ढंग से हुई है कि उसका उच्चारण एवं साधन करने से शरीर और मन के सूक्ष्म केन्द्रों में छिपी हुई अत्यन्त महत्वपूर्ण शक्तियां जागृत होती हैं। जिनके कारण दैवी वरदान की तरह सद्बुद्धि प्राप्त होती है। सद्बुद्धि द्वारा अनेक लाभ उठाना तो सरल है, पर असद् बुद्धि वाले के लिए यह बड़ा कठिन है कि वह अपने आप अपने कुसंस्कारों को हटाकर सुसंस्कारित सद्बुद्धि का स्वामी बन जाय। इस कठिनाई का हल गायत्री महामन्त्र की उपासना द्वारा होता है। जो इस साधना को करते हैं, वे अनुभव करते हैं कि कोई अज्ञात शक्ति रहस्यमय ढंग से उनके मनःक्षेत्र में नवीन ज्ञान, नवीन प्रकाश, नवीन उत्साह, आश्चर्यजनक रीति से बढ़ा रही है।
गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुकूल पंच मुखी गायत्री की पांच साधनाओं में से एक उपयुक्त साधना चुन लेनी चाहिए। जो विद्यार्थी जिस कक्षा का होता है उसे उसी कक्षा की पुस्तकें पढ़ने को दी जाती हैं। बी.ए. के विद्यार्थी को छठवें दर्जे की पुस्तकें पढ़ाई जायं तो इससे उसकी उन्नति में कोई सहायता न मिलेगी। इसी प्रकार पांचवें दर्जे के छात्र को बारहवें दर्जे का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाय तो घोर परिश्रम करने पर भी उसमें सफलता न मिलेगी। साधना के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। जो साधक अपनी मनोभूमि के अनुरूप साधना चुन लेते हैं वे प्रायः असफल नहीं होते।
गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है। उसका परिणाम देखने के लिए देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। साधना आरम्भ करते ही चित्त में सात्विकता, शान्ति, प्रफुल्लता, उत्साह एवं आशा का जागरण होता है। कोई व्यक्ति कितनी ही कठिनाई, परेशानी, असुविधा, एवं संकट में पड़ा हुआ क्यों न हो। उसकी मानसिक चिन्ता, बेचैनी, घबराहट में तत्काल कमी होती है।
जैसे दर्द करते हुए घाव के ऊपर शीतल मरहम लगा देने से तत्काल चैन पड़ जाता है और दर्द बन्द हो जाता है वैसे ही अनेक कठिनाइयों की पीड़ा के कारण दुःखी हृदय पर गायत्री साधना की मरहम ऐसी शीतल एवं शांति दायक प्रतीत होती है कि बहुत सा मानसिक बोझ तो तत्काल हलका हो जाता है।
साधक को ऐसा लगता है कि वह चिरकाल से बिछुड़ा हुआ फिरते रहने के बाद, अपनी सगी माता से मिला हो। माता से बिछड़ा हुआ बालक बहुत समय इधर उधर भटकने के बाद जब माता को ढूंढ़ पाता है तो उसकी छाती भर आती है और माता से लिपट कर उसकी गोदी में चढ़कर ऐसा अनुभव करता है मानो उसकी जन्म जन्मांतरों की विपत्ति टल गई हो। हिरन का बच्चा अपनी माता के साथ घने वनों में हिंसक जानवरों के बीच फिरते हुए भी निर्भय रहता है। वह निश्चिन्त हो जाता है कि जब माता मेरे साथ है तो मुझे क्या फिक्र है। हिरनी भी अपने शिशु शावक की सुरक्षा के लिए कोई बात उठा नहीं रखती। वह उसे अपने प्राणों के समान प्यार करती है, माता का प्यार उससे कदापि कम नहीं होता।
विपत्ति स्वयं उतना कष्ट नहीं पहुंचाती जितनी कि उसकी आशंका, कल्पना, भावना, दुःख देती है। किसी का व्यापार बिगड़ जाय, घाटा आ जाय तो उसे घाटे के कारण शरीर यात्रा में कोई प्रत्यक्ष बाधा नहीं पड़ती, रोटी, कपड़ा, मकान आदि को वह घाटा नहीं छीन लेता और न घाटे के कारण शरीर में दर्द, दाह, ज्वर आदि होता है फिर भी लोग मानसिक कारणों से बेतरह दुःखी रहते हैं। इस मानसिक कष्ट में गायत्री साधना से तत्काल शान्ति मिलती है। उसे एक ऐसा आत्म बल मिलता है, ऐसी आंतरिक दृढ़ता एवं निर्भयता प्राप्त होती है जिसके कारण अपनी कठिनाई उसे तुच्छ दिखाई पड़ने लगती है और विश्वास हो जाता है कि वर्तमान कठिनाई का जो बुरे से बुरा परिणाम हो सकता है उसके कारण भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता। असंख्य मनुष्यों की अपेक्षा फिर भी मेरी स्थिति अच्छी रहेगी।
गायत्री साधना की यह विशेषता है कि उससे तत्काल आत्म बल प्राप्त होता है जिसके कारण मानसिक पीड़ाओं में तत्क्षण कमी होती है। हमें ऐसे अनेक अवसर याद हैं जब दुःखों के कारण आत्म हत्या करने के लिए तत्पर होने वाले मनुष्यों के आंसू रुके हैं और उनने सन्तोष की सांस छोड़ते हुए आशा भरे नेत्रों को चमकाया है। घाटा बीमारी, मुकदमा, विरोध, गृह कलह, शत्रुता आदि के कारण उत्पन्न होने वाले परिणामों की कल्पना से जिनके होट सूखे रहते थे। चहरा विषाद ग्रस्त रहता था उन्होंने माता की कृपा को पाकर हंसना सीखा और मुस्कुराहट की रेखा उनके कपोलों पर दौड़ने लगी।
‘‘जो होना है, होकर रहेगा। प्रारब्ध भोग हमें स्वयं भोगने पड़ेंगे। जो टल नहीं सकता उसके लिए दुःखी होना व्यर्थ है। अपने कर्मों का परिणाम भोगने के लिए वीरोचित बहादुरी को अपनाया जाय?’’ इन भावनाओं के साथ वह अपनी उन कठिनाइयों को तृणवत् तुच्छ समझने लगता है जिन्हें कल तक पर्वत के समान भयंकर और दुन्त समझता था।
काया कल्प करना है। जिन्हें काया कल्प कराने की विद्या मालूम है वे जानते हैं कि इस महा अभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री आराधना का आध्यात्मिक कायाकल्प और भी अधिक महत्व पूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं हैं वरन् शरीर मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नव निर्माण होता है और स्वास्थ्य मनोबल एवं सांसारिक सुख सौभाग्यों में वृद्धि होती है।
ऐसे असाधारण महत्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्य पूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दंड बैठक कुश्ती आदि के कष्टसाध्य कर्मकाण्ड करने होते हैं। दूध, घी, मेवा, बादाम आदि में काफी खर्च होता रहता है तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है। क्या आध्यात्मिक काया कल्प करना पहलवान बनने से भी कम महत्व का है? बी.ए. की उपाधि लेने वाले जानते हैं कि उनने कितना धन, समय, श्रम और अध्यवसाय लगा कर तब उस उपाधि पत्र को प्राप्त कर पाया है। गायत्री की सिद्धि प्राप्त करने में यदि पहलवान या ग्रेजुएट के समान प्रयत्न करना पड़े तो यह कोई घाटे की बात नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने जो आश्चर्य जनक सिद्धियां प्राप्त की थीं उसका उन्होंने समुचित मूल्य चुकाया था। हर एक लाभ की उचित कीमत देनी होती है। गायत्री साधना का आध्यात्मिक काया कल्प यदि अपना उचित मूल्य चाहता है तो उसे देने में किसी भी ईमानदार साधक को आना कानी नहीं करनी चाहिए।
यह सत्य है कि कई बार जादू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है। आई हुई विपत्ति अति शीघ्र दूर हो जाती है और अभीष्ट मनोरथ आश्चर्य जनक रीति से पूरे हो जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि अकाट्य प्रारब्ध भोग न टल सके और अभीष्ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, राम मोरध्वज जैसे महापुरुषों को होनहार भवितव्यता का शिकार होना पड़ा था। इसलिए सकाम उपासना की अपेक्षा निष्काम उपासना ही श्रेष्ठ है। गीता में भगवान ने निष्काम कर्म योग का ही उपदेश दिया है। साधना कभी निष्फल नहीं जाती। उसका तो परिणाम मिलेगा ही, पर हम अल्पज्ञ होने के कारण अपना प्रारब्ध और वास्तविक हित नहीं समझते। माता सर्वज्ञ होने से सब समझती है और वह वही फल देती हैं जिसमें हमारा वास्तविक लाभ होता है। साधन काल में एक ही कार्य हो सकता है या तो मन भक्ति में तन्मय रहे या कामनाओं के मन मोदक खाता रहे। मनमोदकों में उलझे रहने से भक्ति नहीं रह पाती फलस्वरूप अभीष्ट लाभ नहीं हो पाता। यदि कामनाओं को हटा दिया जाय तो उस ओर से निश्चित होकर समग्र मन भक्ति पूर्वक साधना में लग जाता है तदनुसार सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
कोई युवक किसी दूसरे युवक को कुश्ती में पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साह पूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित वह कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखावेगी ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बल वीर्य की अधिकता, निरोगता, दीर्घजीवन, कार्य क्षमता, बलवान सन्तान आदि अनेक लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा, ठीक, पर शरीर की बल वृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वंचित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल नहीं हो सके तो भी उसे अन्य अनेकों भागों से ऐसे लाभ मिलेंगे जिनकी आशा बिना साधना किये नहीं की जा सकती।
बालक चीजें मांगता है पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब मांगें भी बुद्धिमान वैद्य या परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक और रोगी के समान है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और हानि करने वाली हैं इसे हम नहीं जानते पर ईश्वर जानता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता, भक्त वत्सलता पर सच्चा विश्वास है तो कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ में ही रहेंगे।
इतिहास जानता है कि अकबर रास्ता भूल कर एक निर्जन वन में भटक गये थे वहां एक अपरिचित वनवासी ने उनका उदार आतिथ्य किया। उसकी रूखी सूखी रोटी का अकबर ने कुछ दिन बाद विपुल धन राशि में बदला दिया यदि उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत उसी वक्त मंगली होती तो वह राजा का प्रीति भाजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले मतलबी भक्तों की अपेक्षा माता को निष्काम भक्तों की श्रद्धा अधिक प्रिय लगती है। वे उसका प्रतिफल देने में अकबर से भी अधिक उदारता दिखाती हैं।
हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। न उलटा परिणाम ही होता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम धैर्य स्थिरता, विवेक और मनोयोग पूर्वक कदम बढ़ावें। इस मार्ग में छिछोरपन से नहीं सुदृढ़ आयोजन से ही लाभ होता है। इस दिशा में किया हुआ सच्चा पुरुषार्थ अन्य किसी भी पुरुषार्थ से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। गायत्री साधना में जितना समय, श्रम, धन और मनोयोग लगता है सांसारिक दृष्टि से इस सबका जो मूल्य है वह कई गुना होकर साधक के पास निश्चित रूप से लौट आता है।
गायत्री का तन्त्रोक्त वाममार्ग - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
वाम मार्ग का, तंत्र विद्या का आधार प्राणमय कोश है। जितनी शक्ति प्राण में या प्राणमय कोश के अन्तर्गत है केवल उतनी ही ‘‘तंत्रोक्त प्रयोगों’’ द्वारा चरितार्थ हो सकती है। ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, जीवन मुक्ति, अन्तःकरण का परिमार्जन आदि कार्य तंत्र की पहुंच से बाहर हैं। वाम मार्ग से तो वही भौतिक प्रयोजन सध सकते हैं जो वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा सिद्ध हो सकते हैं।
बन्दूक की गोली मारकर या विष का इंजेक्शन देकर किसी मनुष्य का प्राण घात किया जा सकता है। तंत्र द्वारा अभिचार क्रिया करके किसी दूसरे का प्राण लिया जा सकता है। निर्बल प्राण वाले मनुष्य पर तो यह प्रयोग और भी आसानी से हो जाते हैं जैसे छोटी चिड़ियों को मारने के लिए स्टेनगन की जरूरत नहीं पड़ती गुलेल में रख कर फेंकी गई मामूली कंकड़ी के आघात से ही चिड़ियां गिर पड़ती है और पंख फड़फड़ा कर प्राण त्याग कर देती है। इसी प्रकार निर्बल प्राण वाले कमजोर, बीमार, बालक वृद्ध या डरपोक मनुष्यों पर मामूली शक्ति का तांत्रिक भी प्रयोग कर लेता है और उन्हें घातक बीमारी और मृत्यु के मुख में ढकेल देता है।
शराब, चरस, गांजा आदि नशीली चीजों की मात्रा शरीर में अधिक पहुंच जाय तो मस्तिष्क की क्रिया पद्धति विकृत हो जाती है। नशे में मदहोश हुआ मनुष्य ठीक प्रकार सोचने, विचारने, निर्णय करने एवं अपने ऊपर काबू रखने में असमर्थ होता है उसकी विचार धारा, वाणी एवं क्रिया में अस्त व्यस्तता होती है। उन्माद या पागल पन के सब लक्षण उस नशीली चीज की अधिक मात्रा से उत्पन्न हो जाते हैं इसी प्रकार तांत्रिक प्रयोगों द्वारा एक ऐसा सूक्ष्म नशीला प्रभाव किसी के मस्तिष्क में प्रवेश कराया जा सकता है कि उसकी बुद्धि पदच्युत हो जाय और तीव्र प्रयोग की दशा में कपड़े फाड़ने वाला पागल बन जाय अथवा मंद प्रयोग की दश में अपनी बुद्धि की तीव्रता खो बैठे और चतुरता से वंचित होकर वज्र मूर्ख हो जाय।
कुछ विषैली औषधियां ऐसी होती हैं जिन्हें भूल से सेवन कर लिया जाय तो शरीर में भयंकर उपद्रव उठ खड़े होते हैं। कै, दस्त, हिचकी, छींक, बेहोशी, मूर्छा, ज्वर, फोड़े, फुन्सी, रक्त विकार, कोढ़, गठिया, दर्द, अनिद्रा, भ्रम आदि रोग हो जाते हैं। इसी प्रकार तान्त्रिक विधान में ऐसी विधियां भी हैं जिनके द्वारा एक प्रकार का विषैला पदार्थ किसी के शरीर में प्रवेश किया जा सकता है।
विज्ञान ने रेडियो किरणों की शक्ति से अपने आप उड़ने वाला ‘‘रेडार बम’’ नामक यंत्र ऐसा बनाया है जो किसी निर्धारित स्थान पर जाकर गिरता है। कृत्या, घात, मारण आदि के अभिचारों में ऐसी ही सूक्ष्म क्रिया प्राण शक्ति के आधार पर की जाती है, दूरस्थ व्यक्ति पर वह तांत्रिक ‘‘रेडार’’ ऐसा गिरता है कि लक्ष को क्षत विक्षत कर देता है।
युद्ध काल में बम बारी करके खेत, मकान, कारखाने, उद्योग उत्पादन, रेल, मोटरों, सड़कों पुल आदि नष्ट कर दिये जाते हैं। जिससे उस स्थान के मनुष्य साधन हीन हो जाते हैं, उनकी सम्पन्नता और अमीरी उस बमबारी द्वारा नष्ट हो जाती है और वे थोड़े ही समय में असहाय बन जाते हैं। तंत्र द्वारा किसी के सौभाग्य वैभव और सम्पन्नता पर बमबारी करने से उसे इस प्रकार नष्ट किया जा सकता है कि वह हैरत में रह जाय कि उसका सब कुछ इतनी जल्दी इतने आकस्मिक रूप से कैसे नष्ट हो गया या होता जा रहा है।
कूटनीतिक जासूस और व्यवसायी ठग ऐसा छद्म वेश बनाते और ऐसा जाल रचते हैं जिसके आकर्षण, प्रलोभन और कुचक्र में फंस कर समझदार आदमी भी बेवकूफ बन जाता है मैस्मरेजम एवं हिप्नोटिज्म द्वारा किसी के मस्तिष्क को अर्द्ध सम्मोहित करके वशवर्ती बना लिया जाता है फिर उस व्यक्ति को जैसे आदेश दिये जायं तदनुसार ही वह आचरण करता है। मैस्मरेजम तंत्र में वशीभूत मनुष्य उसी प्रकार सोचता है विचारता अनुभव करता है जैसा कि प्रयोक्ता का संकेत होता है। इसकी इच्छा और मनोवृत्ति भी उस समय वैसी ही हो जाती है जैसी कि करने के लिए उसे प्रेरणा दी जा रही है। तंत्र विद्या में मैस्मरेजम से अनेक गुनी प्रचंड शक्ति है उसके द्वारा जिस मनुष्य पर गुप्त रूप से बौद्धिक वशीकरण का जाल फेंका जाता है वह एक प्रकार की सूक्ष्म तन्द्रा में जाकर दूसरे का वशवर्ती हो जाता है उसकी बुद्धि वही सोचती वैसी ही इच्छा करती है, वैसा ही कार्य करती है जैसा कि उससे गुप्त षड़यन्त्र द्वारा कराया जा रहा है। अपनी निज की विचार शीलता से वह प्रायः वंचित हो जाता है।
व्यभिचारी पुरुष किन्हीं सरल स्वभाव स्त्रियों पर इस प्रकार का जादू चलाते हैं और उन्हें पथ भ्रष्ट करने में सफल हो जाते हैं। सीधी साधी, कुल शील का पूरा संकोच और सम्मान करने वाली देवियां, दूसरों के वशीभूत होकर अपनी प्रतिष्ठा, धर्म, लोक लाज आदि को तिलांजलि देकर ऐसा आचरण करती हैं जिसे देख कर हैरत होती है, कि इनकी बुद्धि ऐसे आकस्मिक तरीके से विपरीत हो क्यों गई? परन्तु वस्तुतः वे बेचारी निर्दोष होती हैं। वे बाज के चंगुल में फंसे हुए पक्षी या भेड़िये के मुंह में लगी हुई बकरी की तरह जिधर घसीटी जाती हैं उधर घसिट जाती हैं।
इसी प्रकार दुराचारिणी स्त्रियां किन्हीं पुरुषों पर अपना तांत्रिक प्रभाव डाल कर उनकी नाक में नकेल डाल लेती हैं और मन चाहे नाच नचाती हैं। कई वेश्याओं को इस प्रकार का जादू मालूम होता है वे ऐसे पक्षी फंसा लेती हैं जो अपना सब कुछ खो बैठने से पहले उस चंगुल से छूट नहीं पाते वे उन फंसे हुए पक्षियों का स्वास्थ्य सौन्दर्य और धन अपहरण करके अपने स्वास्थ्य सौन्दर्य और धन को बढ़ाती रहती हैं।
तंत्र द्वारा स्त्री पुरुष आपस में एक दूसरे की शक्ति को चूसते हैं। ऐसे साधन तंत्र प्रक्रिया में मौजूद है जिनके कारण एक पुरुष अपनी सहगामिनी स्त्री की जीवनी शक्ति को, प्राण शक्ति को, चूस कर उसे छूंछ कर सकता है और स्वयं उससे परिपुष्ट हो सकता है। अंडों की प्राण शक्ति चूसकर तगड़े बनने एवं दूसरों के रक्त का इंजेक्शन लेकर अपने शरीर को पुष्ट होने के उदाहरण अनेक होते हैं। पर ऐसे भी उदाहरण होते हैं कि समागम द्वारा साथी की सूक्ष्म प्राण शक्ति को चूस लिया जाय। तांत्रिक प्रधानता के मध्यकालीन युग में बड़े आदमी इसी आधार पर वहुविवाह की ओर अग्रसर हो गये थे। रनवासों में सैकड़ों रानियां रखी जाने लगीं थीं।
इस प्रक्रिया को स्त्रियां भी अपना लेती हैं। जादूगरनी स्त्रियां सुन्दर युवकों का मेंढा बकरा तोता आदि बना लेती थीं ऐसी कथाएं सुनी जाती हैं। तोता बकरा बनाना आज कठिन है पर अब भी ऐसी घटनाएं देखी गई हैं कि वृद्धा तंत्र साधिनी, युवकों को चूसती हैं और वे अनिच्छुक होते हुए भी अपनी प्राण शक्ति खोते रहने के लिए विवश होते हैं। इससे एक पक्ष पुष्ट होता है और दूसरा अपनी स्वभाविक शक्ति से वंचित होकर दिन दिन दुर्बल होता जाता है।
वाम मार्ग के पंच मकरों में, पंचम मकार ‘मैथुन’ है। अन्नमय कोश और प्राणमय कोश के सम्मिलित मंथन से यह महत्वपूर्ण क्रिया होती है। इसमें अगणित गुप्त अन्तरंग शक्तियों के अनुलोम विलोम क्रम से आकर्षण, विकर्षण, घूर्णन, चूर्णन, आकुंचन, विकुंचन, प्रत्यारोहण, अभिवर्द्धन, ऋणीकरण, अत्यावर्तन आदि सूक्ष्म मंथन होते हैं जिनके कारण जोड़े में स्त्री पुरुषों के शरीरों में आपसी महत्वपूर्ण आदान प्रदान होता है। रति क्रिया साधारणतः एक अत्यन्त साधारण शारीरिक क्रिया दिखाई देती है। पर उसका सूक्ष्म महत्व अत्यधिक है, उस महत्व को समझते हुए ही भारतीय धर्म में सर्व साधारण की सुरक्षा का, हितों का ध्यान रखते हुए इस सम्बन्ध में अनेक मर्यादाएं बांधी गई हैं।
मस्तिष्क, हृदय और जननेन्द्रिय शरीर में यह तीन शक्ति पुंज हैं। इन्हीं स्थानों में ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, रुद्र ग्रन्थि हैं। वाम मार्ग काली तत्व से सम्बन्धित होने के कारण रुद्र ग्रन्थि से जब शक्ति संचय करने के लिए कूर्म प्राण को आधार बनाना होता है तो मैथुन द्वारा सामर्थ्य का भण्डार जमा किया जाता है। जननेन्द्रिय के सूक्ष्म प्रभाव क्षेत्र में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, वज्र पेरु, तड़ित कच्छप, कुण्डल सर्पिणी, रुद्र ग्रन्थि, समान, कृकल, अपान, कूर्म प्राण, अलम्बुषा, डाकिनी, सुषुम्ना आदि के अवस्थान हैं। इनका आकुंचन, प्रकुंचन जब तंत्र विद्या के आधार पर होता है तो यह शक्ति उत्पन्न होती है और वह शक्ति दोनों ही दिशा में उलटी सीधी चल सकती है। इस विद्या के ज्ञाता जननेन्द्रिय को उचित रीति से प्रयोग करके आशातीत लाभ उठाते हैं परन्तु जो लोग इस विषय में अनभिज्ञ हैं वे स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति को खो बैठते हैं। साधारणतः रति क्रिया में क्षय ही अधिक होता है, अधिकांश नर नारी उसमें अपने बल को खोते ही हैं पर तंत्र के गुप्त विधानों द्वारा अन्नमय और प्राणमय कोशों की सुप्त शक्तियां जगाई भी जा सकती हैं।
वाम वार्ग में मैथुन को इन्द्रिय भोग की क्षुद्र सरसता के रूप में नहीं लिया जाता वरन् शक्ति केन्द्रों के जागरण एवं मंथन द्वारा अभीष्ट सिद्धि के लिए उसका उपयोग होता है। सुप्त प्राणों का जागरण एवं एक की सामर्थ्यों का दूसरे शरीर में परिवर्तन, हस्तान्तरण करने के लिए इसको रयि साधना के रूप में प्रयोग होता है। मानव प्राणी के लिए परमात्मा द्वारा दिये हुये अत्यंत महत्वपूर्ण उपहार, इस ‘रयि’ और ‘प्राण’ के पुंज को, ईश्वरीय भाव से परम श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। शिव लिंग के साथ शक्ति योनि के तादात्म्य की जो मूर्तियां आमतौर से पूजी जाती हैं उनमें जननेन्द्रिय में स्थिति दिव्य शक्ति के प्रति उच्च कोटि की श्रद्धा का संकेत है। क्षुद्र सरसता के लिए उसका प्रयोग तो हेय ही माना गया है।
चूंकि इस विद्या के सार्वजनिक उद्घाटन से उसका दुरुपयोग होने और अनैतिकता फैलने का पूरा खतरा है। इसलिए इसे अत्यन्त गोपनीय रखा गया है। हमारा प्रयोजन यहां उस महाशक्ति का परिचय कराना मात्र था। उपरोक्त पंक्तियों में तंत्र में सन्निहित शक्तियों के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालना ही यहां अभीष्ट है।
किसी अस्त्र को आगे की ओर भी चलाया जा सकता है और पीछे की ओर भी। ईख से स्वादिष्ट मिष्ठान्न भी बन सकता है और मदिरा भी। गायत्री महा शक्ति को जहां आत्म कल्याण एवं सात्विक प्रयोजनों के लिए लगाया जाता है वहां उसे तामसिक प्रयोजनों में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। गायत्री का दक्षिण मार्ग भी है और वाम मार्ग भी। दक्षिण मार्ग—वेदोक्त, सतोगुणी, सरल, धर्म पूर्ण एवं परम कल्याण का साधन है। वाम मार्ग तंत्रोक्त, तमोगुणी, दुस्साहस पूर्ण, अनैतिक एवं सांसारिक चमत्कारों को सिद्ध करने वाला है।
गायत्री के दक्षिण मार्ग को शक्ति का स्रोत ब्रह्म का परम सतोगुणी ह्रीं तत्व है। और वाम मार्ग का महत्तत्व क्लीं केन्द्र से अपनी शक्ति प्राप्त करता है। अपने या दूसरे के प्राण का मंथन करके तंत्र की तड़ित शक्ति उत्पन्न की जाती है। रयि और प्राण के मंथन, एवं रतिकर्म के सम्बन्ध में पिछले पृष्ठ पर कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। दूसरा मंथन किसी प्राणी के वध द्वारा होता है प्राणान्त समय में भी प्राणी का प्राण मैथुन की भांति ही उत्तेजित उद्विग्न एवं व्याकुल होता है उस स्थिति में भी तांत्रिक लोग उसकी प्राण शक्ति का बहुत भाग खींच कर अपना शक्ति भण्डार भर लेते हैं। नीति अनीति का ध्यान न रखने वाले तांत्रिक पशु पक्षियों का बलिदान इसी प्रयोजन के लिए करते हैं।
मृत मनुष्यों के शरीरों में कुछ समय तक उप प्राणों का अस्तित्व सूक्ष्म अंश में बना रहता है। तांत्रिक लोग श्मशान भूमि में मरघट जगाने की साधना करते हैं। अघोरी लोग शव साधना करके मृतकों की बची खुची शक्ति चूसते हैं। देखा जाता है कि कई अघोरी मृत बालकों की लाशों को जमीन में से खोद ले जाते हैं, मृतकों की खोपड़ियां संग्रह करते हैं, चिताओं पर भोजन पकाते हैं। यह सब इसलिए किया जाता है कि मरे हुए शरीर के अस्ति भागों के भीतर, विशेषतः खोपड़ी में जहां तहां उप प्राणों की प्रसुप्त चेतना मिल जाती है। दाना दाना बीन कर अनाज की बोरी भर लेने वाले कंजूसों की तरह अघोरी लोग हड्डियों का फास्फोरस मिश्रित ‘द्यु’ तत्व एक बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर लेते हैं।
दक्षिण मार्ग, किसान के विधि पूर्वक खेती करके न्यायानुमोदित अन्न उपार्जन करने के समान है। किसान अपने अन्न को बड़ी सावधानी और मितव्ययिता से खर्च करता है क्योंकि उसमें उसका दीर्घकालीन कठोर श्रम लगा है। पर डाकू की स्थिति ऐसी नहीं होती वह दुस्साहस पूर्ण आक्रमण करता है और यदि सफल हुआ तो उस कमाई को होली की तरह फूंकता है। योगी लोग चमत्कार प्रदर्शन में अपनी शक्ति खर्च करते हुए किसान की भांति झिझकते हैं पर तांत्रिक लोग अपने गौरव और बड़प्पन का आतंक जमाने के लिए क्षुद्र स्वार्थों के कारण दूसरों को अनुचित हानि-लाभ पहुंचाते हैं। अघोरी, कापालिक, रक्त बीज, वैतालिक, ब्रह्म राक्षस आदि कई सम्प्रदाय तांत्रिकों के होते हैं उनकी साधना पद्धति एवं कार्य प्रणाली भिन्न भिन्न होती है। स्त्रियों में डाकिनी, शाकिनी, कपाल कुण्डला, सर्प सूत्रा पद्धतियों का प्रचार अधिक पाया जाता है।
बन्दूक से गोली छूटते समय वह पीछे की ओर झटका मारती है। यदि सावधानी के साथ छाती से सटा कर बन्दूक को ठीक प्रकार न रखा गया तो वह ऐसे जोर का झटका देगी कि चलाने वाला औंधे मुंह पीछे की ओर गिर पड़ेगा। कभी-कभी इससे अनाड़ियों के गले की ‘हंसली’ हड्डी तक टूट जाती है। तंत्र द्वारा भी बन्दूक जैसी तेजी के साथ स्फोट होता है उसका झटका सहन करने योग्य स्थिति यदि साधक की न हो तो उसे भयंकर खतरे में पड़ जाना होता है।
तंत्र का शक्ति स्त्रोत दैवी, ईश्वरीय, शक्ति नहीं वरन् भौतिक शक्ति है। प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु अपनी धुरी पर द्रुत गति से भ्रमण करते हैं तब वे उसके घर्षण से जो ऊष्मा पैदा होती है उसका नाम काली या दुर्गा है। इस ऊष्मा को प्राप्त करने के लिये अस्वाभाविक, उलटा, प्रतिगामी मार्ग ग्रहण करना पड़ता है। जल का बहाव रोका जाय तो उस प्रतिरोध से एक शक्ति का उद्भव होता है। तांत्रिक वाम मार्ग पर चलते हैं फल स्वरूप काली शक्ति का प्रतिरोध करके अपने को एक तामसिक, पंच भौतिक बल से सम्पन्न कर लेते हैं। उलटा आहार, उलटा विहार, उलटी दिनचर्या, उलटी गतिविधि सभी कुछ उनका उलटा होता है। अघोरी, कापालिक, रक्तबीज, डाकिनी आदि के सम्पर्क में जो लोग रहे हैं वे जानते हैं कि उनके आचरण कितने उलटे घृणित और वीभत्स होते हैं।
द्रुत गति से एक नियत दशा में दौड़ती हुई रेल, मोटर, नदी, वायु आदि के आगे आकर उसकी गति को रोकना और उस प्रतिरोध से शक्ति प्राप्त करना यह खतरनाक खेल है। हर कोई इसे कर भी नहीं सकता। क्योंकि प्रतिरोध के समय झटका लगता है। प्रतिरोध जितना कड़ा होगा झटका भी उतना ही जबरदस्त लगेगा। तंत्र साधक जानते हैं कि जन कोलाहल से दूर एकांत खण्डहरों श्मशानों में अर्ध रात्रि के समय जब उनकी साधना का मध्यकाल आता है तब कितने रोमांचकारी भय सामने आ उपस्थित होते हैं। गगन चुम्बी राक्षस, विशालकाय सर्प, लाल नेत्रों वाले शूकर और महिष, छुरी से दांतों वाले सिंह साधक के आसपास जिस रोमांचकारी भयंकरता से गर्जन तर्जन करते हुये कुहराम मचाते और आक्रमण करते हैं उनसे न तो डरना और न विचलित होना यह साधारण काम नहीं है। साहस के अभाव में यदि इस प्रतिरोधी प्रतिक्रिया से साधक भयभीत हो जाय तो उसके प्राण संकट में पढ़ सकते हैं ऐसे अवसरों पर कई व्यक्ति पागल, बीमार, गूंगे, बहरे, अन्धे हो जाते हैं कइयों को प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। इस मार्ग में साहसी और निर्भीक प्रकृति के मनुष्य ही सफलता पाते हैं।
ऐसी कितनी ही घटनाएं हमें मालूम हैं जिन में तंत्र साधकों को खतरे में होकर गुजरना पड़ा है। विशेषतः जब किसी सूक्ष्म प्राण सत्ता को वशीभूत करना होता है तो उसकी प्रतिरोधी प्रतिक्रिया बड़ी विकट होती है। सूक्ष्म जगत रूपी समुद्र में मछलियों की भांति कुछ चैतन्य प्राणधारी स्वतंत्र सत्ताओं का अस्तित्व पाया जाता है। जैसे समुद्र में मछलियां अनेक जाति की होती हैं उसी प्रकार यह सत्ताएं भी अनेक स्वभावों, गुणों शक्तियों से सम्पन्न होती है। इन्हें पितर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, देव, दानव, ब्रह्म राक्षस, वैताल, कूष्माण्ड, भैरव, रक्तबीज आदि कहते हैं। उनमें से किसी को सिद्ध करके उसकी शक्ति से अपने प्रयोजनों को साधा जाता है। इनको सिद्ध करते समय वे उलट कर कुचले हुए सर्प की तरह ऐसा आक्रमण करते हैं कि निर्बल साधक के लिए उस चोट को झेलना कठिन होता है। ऐसे खतरों में पड़ कर कई व्यक्ति इतने भयभीत एवं आतंकित होते हमने ऐसे देखे हैं जिनकी छाती की रक्त वाहिनी नाड़ियां फट गईं और मुख नाक तथा मल मार्ग से खून बहने लगा। ऐसे आहात लोगों में से अधिकांश को मृत्यु के मुख में प्रवेश करना पड़ा जो बच्चे उसका शरीर और मस्तिष्क विकार ग्रस्त हो गया।
भूतोन्माद मानसिक भ्रम, आवेश, अज्ञात आत्माओं द्वारा कष्ट दिया जाना, दुःस्वप्न, तांत्रिकों के अभिचारी आक्रमण आदि किसी सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा जो व्यक्ति आक्रान्त हो रहा हो उसे तांत्रिक प्रयोगों द्वारा रोका जा सकता है और उस प्रयोक्ता पर उसी के प्रयोग को उलटा कर उस अत्याचार का मजा चखाया जा सकता है, परन्तु इस प्रकार के कार्य दक्षिण मार्गी गायत्री उपासना से भी हो सकते हैं। अभिचारियों या दुष्टों पर तात्कालिक उलटा आक्रमण करना तो तंत्र द्वारा ही सम्भव है पर हां उनके प्रयत्नों को वेदोक्त साधना से भी निष्फल किया जा सकता है और उनकी शक्ति को छीनकर भविष्य के लिए उन्हें विष रहित सर्प जैसा हत वीर्य बनाया जा सकता है। तंत्र द्वारा किन्हीं स्त्री पुरुषों के काम शक्ति का अपहरण करके उन्हें नपुंसक बना दिया जाता है पर अति असंयम को संयमित दक्षिण मार्ग द्वारा भी यह किया जा सकता है। तंत्र की शक्ति प्रधानतः मारक एवं आक्रमण कारी होती है, पर योग द्वारा शोधन, परिमार्जन संचय एवं रचनात्मक निर्माण कार्य किया जाता है।
तंत्र के चमत्कारी प्रलोभन असाधारण हैं। दूसरों पर आक्रमण करना तो उसके द्वारा बहुत ही सरल है। किसी को बीमारी, पागलपन, बुद्धिभ्रम, उच्चाटन उत्पन्न कर देना प्राण घातक संकट में डाल देना आसान है। सूक्ष्म जगत में भ्रमण करती हुई किसी ‘‘चेतना ग्रन्थि’’ को प्राणवान बङङङङङङ कर उसे प्रेत, पिशाच, बेताल, भैरव, कर्णपिशाचनी, छाया पुरुष आदि के रूप में सेवक की तरह काम लेना, सुदूर देश से अजनबी चीजें मंगा देना, गुप्त स्थानों में गुप्त रखी हुई चीजें या अज्ञात व्यक्तियों के नाम पते बता देना तांत्रिक के लिए सम्भव है। आगे चलकर वेष बदल लेना या किसी वङङङङ का रूप बदल देना भी उनके लिए सम्भव है। इसी प्रकार अनेकों विलक्षणताएं उनमें देखी जाती हैं जिससे लोग बहुत प्रभावित होते हैं और उनकी भेंट पूजा भी खूब होती है परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इन शक्तियों का स्रोत परमागत ऊष्मा (काली) ही है जो परिवर्तन शील है। यदि थोड़े दिनों साधना बन्द रखी जाय या प्रयोग छोड़ दिया जाय तो उस शक्ति का घट जाना या समाप्त हो जाना अवश्यंभावी है।
तंत्र द्वारा कुछ छोटे मोटे लाभ भी हो सकते हैं। किसी के तांत्रिक आक्रमण को निष्फल करके किसी निर्दोष की हानि को बचा देना ऐसा ही सदुपयोग है। तांत्रिक विधि से ‘शक्तिपात’ करके अपनी उत्तम शक्तियों का कुछ भाग किसी निर्बल मन वाले को देकर उसे ऊंचा उठा देना भी सदुपयोग ही है। और भी कुछ ऐसे ही प्रयोग हैं जिन्हें विशेष परिस्थिति में काम में लाया जाय तो वह भी सदुपयोग ही कहा जायगा। परन्तु असंस्कृत मनुष्य इस तमोगुण प्रधान शक्ति का सदा सदुपयोग ही करेंगे इसका कुछ भरोसा नहीं। स्वार्थ साधन का अवसर हाथ में आने पर उनका लोभ छोड़ना किन्हीं विरलों का ही काम होता है।
तंत्र अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं है। वह एक विशुद्ध विज्ञान है। वैज्ञानिक लोग यंत्रों और रासायनिक पदार्थों की सहायता से प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का उपयोग करते हैं। तांत्रिक अपने अन्तर्जगत को ही ऐसी रासायनिक एवं यांत्रिक स्थिति में ढाल लेता है कि अपने शरीर और मन को एक विशेष प्रकार से संचालित करके प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का मनमाना उपयोग करे। इस विज्ञान का विद्यार्थी कोमल परमाणुओं वाला होना चाहिये साथ ही साहसी प्रकृति का भी। कठोर बनावट और कमजोर मन वाले इस दिशा में अधिक प्रगति नहीं कर पाते। यही कारण है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक आसानी से सफल तांत्रिक बनते देखी गई हैं। छोटी छोटी प्रारम्भिक सिद्धियां तो उन्हें स्वल्प प्रयत्न से ही प्राप्त हो जाती है।
तंत्र एक स्वतंत्र विज्ञान है। विज्ञान का दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी। परन्तु इसका आधार गलत और खतरनाक है और शक्ति प्राप्त करने के उद्गम स्रोत अनैतिक अवांछनीय हैं साथ ही प्राप्त सिद्धियां भी अस्थायी हैं। आमतौर से तांत्रिक घाटे में रहता है, उससे संसार का जितना उपकार हो सकता है उससे अधिक अपकार होता है इसलिए चमत्कारी होते हुए भी इस मार्ग को निषिद्ध, एवं गोपनीय ठहराया गया है। अन्य समस्त तंत्र साधनों की अपेक्षा गायत्री का वाम मार्ग अधिक शक्तिशाली है। अन्य सभी विधियों की अपेक्षा इस विधि से मार्ग सुगम पड़ता है फिर भी निषिद्ध वस्तु त्याज्य है सर्व साधारण के लिए तो उससे दूर रहना ही उचित है।
यों तंत्र की कुछ सरल विधियां भी हैं, अनुभवी पथ प्रदर्शक इन कठिनाइयों का मार्ग सरल बना सकते हैं हिंसा अनीति एवं अकर्म से बचकर ऐसे लाभों के लिए साधन कर सकते हैं जो व्यवहारिक जीवन में उपयोगी हों और अनर्थ से बचकर स्वार्थ साधन होता रहे। पर यह लाभ तो दक्षिण मार्गी साधना से भी हो सकते हैं। जल्दबाजी का प्रलोभन छोड़कर यदि धैर्य और सात्विक साधन किये जायं तो उसके भी कम लाभ नहीं हैं। हमने दोनों मार्गों का लम्बे समय तक साधन करके यही पाया है कि दक्षिण मार्ग का राज पथ ही सर्व सुलभ है।
गायत्री द्वारा साधित तंत्र विद्या का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। सर्प विद्या, प्रेत विद्या, भविष्य ज्ञान, अदृश्य वस्तुओं का देखना, परकाया प्रवेश, घातप्रतिघात, दृष्टिबंध, मारण, उन्मादी करण, वशीकरण, विचार संदीप, मोहन मंत्र रूपांतरण विस्मृति, संतान सुयोग, छायापुरुष, भैरवी, अपहरण, आकर्षण अभिकर्षण, आदि अनेकों ऐसे ऐसे कार्य हो सकते हैं जिनको अन्य किसी भी तांत्रिक प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि तंत्र की प्रणाली सर्वोपयोगी नहीं है। उसके अधिकारी कोई विरले ही होते हैं।
दक्षिण मार्गी वेदोक्त, योग सम्मत, गायत्री साधन, किसान द्वारा अन्न उपजाने के समान धर्म संगत, स्थिर लाभ देने वाली और लोक परलोक में सुख शान्ति देने वाली है। पाठकों का वास्तविक हित इसी राजपथ के अवलम्बन में है। दक्षिण मार्ग से, वेदोक्त साधन से, जो लाभ मिलते हैं वे ही आत्मा को शान्ति देने वाले, स्थायी रूप से उन्नति करने वाले एवं कठिनाइयों को हल करने वाले हैं। तंत्र में चमत्कार बहुत हैं वाम मार्ग से आसुरी शक्तियां प्राप्त होती हैं उनकी संहारक एवं आतंकवादी क्षमता बहुत है, परन्तु इससे किसी का भला नहीं हो सकता। तत्कालिक लाभ को ध्यान में रख कर जो लोग तंत्र के फेर में पड़ते हैं वे अन्ततः घाटे में रहते हैं। तंत्र विद्या के अधिकारी वही हो सकते हैं तो तुच्छ स्वार्थी से ऊंचे उठे हुए हैं। परमाणु बम के रहस्य और प्रयोग हर किसी को नहीं बताये जा सकते इसी प्रकार तंत्र की खतरनाक जिम्मेदारी केवल सत्पात्रों को ही सौंपी जा सकती है।
गायत्री मंजरी - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
जिस पुस्तक की व्याख्या स्वरूप, यह पुस्तक लिखी गई है, उस ‘गायत्री मंजरी’ को हिन्दी टीका समेत नीचे दिया जा रहा है —
एकदा तु महादेवं कैलाश गिरि संस्थितम् ।
पप्रच्छ पार्वती वन्द्या वन्द्यं विवुध मण्डलैः ।1।
एक बार कैलाश पर्वत पर विराजमान देवताओं के पूज्य महादेव जी से वन्दनीय पार्वती ने पूंछा।
कतमं योगमासीनो योगेश त्वमुपाससे ।
येन हि परमां सिद्धिं प्राप्नुवान् जगदीश्वर ।2।
हे संसार के स्वामी योगीश्वर महादेव आप किस योग की उपासना करते हैं जिससे आप परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
श्रुत्वा तु पार्वती वाचं मधुसिक्तां श्रुति प्रियाम् ।
समुवाच महादेवो विश्व कल्याण कारणः ।3।
कर्ण प्रिय एवं मधुर पार्वती की वाणी को सुनकर विश्व का कल्याण करने वाले महादेव जी बोले।
महद्रहस्यं तद्गुप्तं यत्तु पृष्ठं त्वया प्रिये ।
तथापि कथयिष्यामि स्नेहात्तत्त्वा महं समम् ।4।
फिर भी स्नेह के कारण वह सारा रहस्य में तुमसे कहूंगा।
गायत्री वेद मातास्ति साद्या शक्तिर्मता भुवि ।
जगतां जननी चैव तामुपासेऽहमेव हि ।5।
गायत्री वेद माता है, पृथ्वी पर वह आद्य शक्ति कहलाती है और वह ही संसार की माता है। मैं उसी की उपासना करता हूं।
योगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये ।
गायत्र्येव मता लोके मूलधारो विदांवरैः ।6।
हे प्रिये समस्त यौगिक साधनाओं की मूलाधार विद्वानों ने गायत्री को ही माना है।
अति रहस्य मय्येषा गायत्री तु दश भुजा ।
लोकेऽति राजते पञ्च धारयन्ति मुखानि तु ।7।
दस भुजाओं वाली अत्यन्त रहस्यमयी यह गायत्री संसार में पांच मुखों को धारण करती हुई अत्यन्त शोभित होती है।
अति गूढ़ानि संश्रुत्वचानानि शिवस्य च ।
अति सबृद्ध जिज्ञासा शिवमूचे तु पार्वती ।8।
शिव के अत्यन्त गूढ वचनों को सुनकर अतिवृद्ध जिज्ञासा वाली पार्वती ने शिव से पूंछा।
पञ्चास्य दशवाहु नामेतेषां प्राण वल्लभ ।
कृत्वां कृपां कृपालोत्वं किं रहस्यं तु में वद ।9।
हे प्राण बल्लभ कृपालु कृपा करके इन पांच मुख और दस भुजाओं का रहस्य मुझे बतलाइये ।
श्रुत्वात्वे तन्महादेवः पार्वती वचनं मृदु ।
तस्याः शंका मया कुर्वन् प्रत्युवाच निजां प्रियाम् ।10।
पार्वती के इन कोमल वचनों को सुन कर महादेवी पार्वती की शंका का समाधान करते हुए अपनी प्रिया पार्वती से बोले।
गायत्र्यास्तु महाशक्तिर्विद्यते याहि भूतल ।
अनन्य भावतोऽह्यस्मिनोतप्रोतोऽस्ति चामनि ।11।
पृथ्वी पर गायत्री को जो महान् शक्ति है वह इस आत्मा में अनन्य भाव से ओत प्रोत हो रही है।
विभिर्ति पंचावरणान् जीवः कोशास्तु ते मताः ।
मुखानि पंच गायत्र्या स्तानेव वेद पार्वति ।12।
जीव पंच आवरणों को धारण करता है वे ही कोश कहलाते हैं। हे पार्वती उन्हीं को गायत्री के पांच मुख समझो।
विज्ञानमयान्नमय प्राणमय मनोमयाः ।
तथानन्दमयश्चैव पंच कोशाः प्रकीर्तिताः ।13।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय ये पांच कोश कहलाते हैं।
एष्वेव कोश कोशेषु ह्यनन्ता ऋद्धि सिद्धयः ।
गुप्ता आसाद्य या जीवो धन्यत्वमधि गच्छति ।14।
इन्हीं कोश रूपी भण्डारों में अनन्त ऋषि सिद्धियां छिपी हुई हैं जिन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है।
यस्तु योगीश्वरो ह्येतान् पंचकोशान्नु वेधते ।
स भव सागरं तीर्त्वा वन्धनेभ्यो विमुच्यते ।15।
जो योगी इन पांच केशों को बेधता है वह भव सागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है।
गुप्तं रहस्यमेतेषां कोशाणां योऽवगच्छति ।
परमां गतिमाप्नोति से एव नात्र संयः ।16।
जो इन कोशों के गुप्त रहस्य को जानता है वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है।
लोकानां तु शरीराणि ह्यन्नादेव भावन्ति नु ।
उपत्यकासु स्वास्थ्यं च निर्भरं वर्तते सदा ।17।
मनुष्यों के शरीर अन्न से बनते हैं। उपत्यिकाओं पर स्वास्थ्य निर्भर रहता है।
आसनेनोप वासेन तत्व शुद्ध्या तपस्यया ।
चैनान्नमय कोशस्य संशुद्धिरभि जायते ।18।
आसन, उपवास, तत्व शुद्धि और तपस्या से अन्नमय कोश की शुद्धि होती है।
ऐश्वर्य पुरुषार्थश्च तेज ओजो यशस्तथा ।
प्राणशक्त्या तु वर्धन्ते लोकानामित्यसंशयम् ।19।
प्राण शक्ति से मनुष्यों का ऐश्वर्य, पुरुषार्थ, तेज, ओज, एवं यश निश्चय से बढ़ते हैं।
पंचभिस्तु महाप्राणैर्लघुप्राणैश्च पंचभिः ।
एतै प्राणमयः कोशों जातो दशभिरुत्तमः ।20।
पांच महा प्राण और पांच लघु प्राण इन दस से उत्तम प्राणमय कोश बना है।
बन्धेन मुद्रयाचैव प्राणायामेन चैव हि ।
एषः प्राणमयः कोशो यतमानं तु सिद्ध यति ।21।
बन्ध मुद्रा और प्राणायाम द्वारा यत्नशील पुरुष को यह प्राणमय कोश सिद्ध होता है।
चेतनाया हि केन्द्रं तु मनुष्याणां मनो मतम् ।
जायते महतीत्वन्तः शक्तिस्तस्मिन् वशंगते ।22।
मनुष्यों में चेतना का केन्द्र मन माना गया है उसके वश में होने से महान अन्तः शक्ति पैदा होती है।
ध्यान त्राटक तन्मात्रा जपानां साधनैर्नंनु ।
भवत्यत्युज्वलः कोशः पार्वत्येश मनोमयः ।23।
ध्यान, त्राटक, तन्मात्रा और जप इनकी साधना करने से हे पार्वती मनोमय कोश अत्यन्त उज्वल हो जाता है। यह निश्चय है।
यथावत् पूर्णतो ज्ञानं संसारस्य च स्वस्य च ।
नूनामित्येब विज्ञानं प्रोक्तं विज्ञान वेतृभिः ।24।
संसार का और अपना ठीक ठीक और पूरा पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान वेत्ताओं ने विज्ञान कहा है।
साधना सोऽहमित्येषा तथा वात्मानुभूतयः ।
स्वराणां संयमश्चैव ग्रन्थिभेदस्तथैव च ।25।
एषां संसिद्धिभिर्नून यतामानस्य ह्यात्मिनि ।
नु विज्ञानमयः कोशः प्रिये याति प्रबुद्धताम् ।26।
सोऽहं की साधना, आत्मानुभूति, स्वरों का संयम और ग्रन्थि भेद इनकी सिद्धि से यत्नशील की आत्मा में हे प्रिये विज्ञानमय कोश प्रबुद्ध होता है।
आनन्दावरणोन्नत्यात्यन्त शान्ति प्रदायिका ।
तुरीयावस्थितिर्लोके साधकं त्वधि गच्छति ।27।
आनन्द आवरण की उन्नति से अत्यन्त शान्ति को देने वाली तुरीयावस्था साधक को संसार में प्राप्त होती है।
नादा विन्दु कलानातु पूर्णा साधनया खलु ।
नन्वानन्द मयः कोशः साधकेहि प्रबुद्ध्यते ।28।
नाद, विन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक में आनन्दमय कोश जाग्रत होता है।
भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः ।
लाक आश्रयनेनामु सर्वमे बाधि गच्छति ।29।
विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। संसार इसका आश्रय लेकर सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
पंचास्यायास्तु गायत्र्याः विद्यां यस्त्वव गच्छति ।
पंचतत्व प्रपंचात्तु सनूनं हि प्रमुच्यते ।30।
पांच मुख वाली गायत्री विद्या को जो जानता है यह निश्चय ही पंच तत्वों के प्रपंच से छूट जाता है।
दशभुजास्तु गायत्र्याः प्रसिद्धा भुवनेषुयाः ।
पंच शूल महा शुलान्येताः संकेतयन्ति हि ।31।
संसार में गायत्री की जो दश भुजाएं प्रसिद्ध हैं ये भुजाएं पांच शूल और पांच महाशूल की ओर संकेत करती हैं।
दशभुजानामेतासां यो रहस्यं तु वेत्तिसः ।
त्रासं शूल महाशूलानां ना नैवावगच्छति ।32।
जो मनुष्य इन दश भुजाओं के रहस्य को जानता है वह शूल और महाशूल के भय को नहीं पाता।
दृष्टिस्तु दोष सन्दुष्टा परेषामवलम्बनम् ।
भयश्च क्षुद्रता सावधानता स्वार्थ युक्तता ।33।
अविवेकस्तथावेश स्तृष्णालस्यं तथै बच ।
एतानि दश शूलानि शूलदानि भवन्ति हि ।34।
दोषयुक्त दृष्टि, परावलम्बन, भय, क्षुद्रता, असावधानी, स्वार्थपरता, अविवेक, आवेश, तृष्णा, ये दुखदायी दस शूल होते हैं।
निजैर्दश भुजैर्नूनं शूलान्येतानि तु दश ।
संहरते हि गायत्री लोक कल्याण कारिणी ।35।
संसार का कल्याण करने वाली गायत्री अपनी दश भुजाओं से इस दश शूलों का संहार करती है।
कलौ युगे मनुष्याणां शरीराणीति पार्वति ।
पृथ्वी तत्व प्रधानानि जानास्येव भवन्तिहि ।36।
हे पार्वती कलियुग में मनुष्यों के शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान होते हैं यह तो तुम जानती ही हो।
सूक्ष्मतत्व प्रधानान्य युगोद्भूत नृणामतः ।
सिद्धिनां तपसामेते न भवन्त्यधिकारिणः ।37।
इसलिये अन्य युग में पैदा हुए सूक्ष्म तत्व प्रधान मनुष्यों की सिद्धि और जप के ये अधिकारी नहीं होते।
पंचांग योग संसिद्ध या गायत्र्यास्तु तथापि ते ।
तद्युगानां सर्वश्रेष्ठां सिद्धिं संप्राप्नुवन्त हि ।38।
फिर भी वे गायी के पंचांग योग की सिद्धि द्वारा उन युगों की सर्व श्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करते हैं।
गायत्र्या वाम मार्गीयं ज्ञेयमत्युच्चसाधकैः ।
उग्रं प्रचण्डम यन्तं वर्तते तंत्र साधनमृ ।39।
उत्कृष्ट साधकों द्वारा जानने योग्य गायत्री का वाम मार्गी तंत्र साधन अत्यन्त उग्र और प्रचण्ड है।
अत एव तु तद्गुप्तं राक्षतं हि विचक्षणैः ।
स्याद्यतो दुरुपयोगो न कुपात्रैः कथंचन ।40।
इसलिये विद्वानों ने इसे गुप्त रखा है जिससे कुपात्रों द्वारा उसका किसी प्रकार दुरुपयोग न हो।
गुरुणैव प्रिये विद्या तत्वं हृदि प्रकाश्यते ।
गुरुं बिना तु सा विद्या सर्वथा निष्फला भवेत् ।41।
हे प्रिये, विद्या का तत्व गुरु के द्वारा ही हृदय में प्रकाशित किया जाता है। बिना गुरु के वह विद्या नितान्त निष्फल हो जाती है।
गायत्री तु परा विद्या तत्फला वाप्त ये गुरुः ।
साधकेन विद्यातव्यो गायत्री तत्व पंडितः ।42।
गायत्री परा विद्या है अतः उसके फल की प्राप्ति के लिये साधक को ऐसा गुरु करना चाहिये जो गायत्री तत्व का ज्ञाता हो।
गायत्री यो बिजानाति सर्व जानाति सननु ।
जानात्यतां न यस्तस्य सर्वा विद्यास्तु निष्फलाः ।43।
जो गायत्री को जानता वह सब कुछ जानता है। जो इसको नहीं जानता उसकी सब विद्या निष्फल है।
गात्र्येव तपो योगयः साधनं ध्यान मुच्यते ।
सिद्धोनां सा मता माता नातः किंचिद्वृहत्तरम् ।44।
गायत्री तप है, योग है, साधन है, ध्यान है और वह ही सिद्धियों की माता मानी गई है। इस गायत्री से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है।
गायत्री साधना लोके न कस्यापि कदापि हि ।
याति निष्फलता मेतत् ध्रुवं सत्यं हि भूतले ।।45।।
कभी भी किसी की गायत्री साधना संसार में निष्फल नहीं जाती यह पृथ्वी पर ध्रुव सत्य है।
गुप्तं मुक्तं रहस्यं यत् पार्वती त्वां पति व्रताम् ।
प्राप्स्यन्ति परमां सिद्धि ज्ञास्यन्त्येतत् तु ये जनाः ।।46।।
हे पार्वती तुझ पतिव्रता को जो मैंने यह गुप्त रहस्य कहा है इसे जो लोग जानेंगे वे परम सिद्धि को प्राप्त होंगे।
गायत्री मंजरी के थोड़े से श्लोकों में ही योग शास्त्र का अत्यन्त गम्भीर ज्ञान सूत्र रूप से बता दिया गया है। इसे गायत्री योग के छिपे हुए रत्न भंडार की चाबी कहा जा सकता है। इसके एक एक श्लोक की विस्तृत व्याख्या की जाय तो उस पर विस्तृत प्रकाश पड़ सकता है। गायत्री महाविज्ञान का तीसरा खण्ड इन 46 श्लोकों की विवेचना के रूप में लिखा गया है। अधिक अनुभवी एवं मर्मज्ञ महानुभाव इस सम्बन्ध में और अधिक प्रकाश डालकर योग मार्ग के पथिकों का मार्ग सरल कर सकते हैं।
गायत्री की रहस्यमयी गुप्त शक्ति - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
वेदोक्त और तंत्रोक्त मंत्रों का शब्दार्थ साधारण महत्व का होता है परन्तु उन मंत्रों में एक बड़े ही रहस्यमय प्रकार से ऐसी गुप्त शक्तियां सन्निहित होती हैं जो मनुष्य के लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती हैं। मंत्रों के अक्षरों का अर्थ कुछ विशेष कठिन नहीं होता, छपी पुस्तकों के आधार पर मामूली पढ़ा लिखा आदमी उन अर्थों को जान सकता है पर मंत्र की गूढ़ शक्तियों का गुप्त ज्ञान एवं प्रयोग उन्हीं लोगों को विदित होता है जो उसे साधना द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हैं।
‘गायत्री’ सर्वोपरि मंत्र है। उसके शब्दार्थ में तो केवल भगवान से यह प्रार्थना की गई है कि ‘‘हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाइए’’ परन्तु इस महा मंत्र की गूढ़ शक्ति इतनी अद्भुत है कि उसका वैज्ञानिक प्रयोग करने से मनुष्य अपने में वह शक्तियां प्राप्त कर सकता है जो सुखी जीवन एवं आत्म कल्याण के लिए आवश्यक है।
तलवार स्वतः निष्क्रिय है पर किसी योद्धा के हाथ का सहारा पाकर वह रण चंडी बन जाती है। मंत्र साधारणतः कुछ अक्षरों का समूह मात्र है पर उनमें प्राण शक्ति का समावेश हो जाने से वे चमत्कारी बन जाते हैं। अनुपान के साथ ली हुई दवा लाभ करती है पर बिना अनुपान के वह व्यर्थ है। इसी प्रकार गुरु का प्राण घुला हुआ गायत्री मन्त्र शिष्य के लिये संजीवनी बूटी का काम करता है, पर वही अपने आप रट लिया गया हो तो उसका मूल्य एक मामूली पद्य याद कर लेने से अधिक नहीं है। गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। उसके साथ गुरु का प्राण तत्व आवश्यक रूप से घुला हुआ हो तभी उसका समुचित लाभ मिल सकता है।
अनादि गुरु मंत्र गायत्री - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)
मनुष्य में अन्य प्राणियों की अपेक्षा जहां कितनी ही विशेषताएं हैं वहां कितनी ही कमियां भी हैं। एक सबसे बड़ी कमी यह है कि पशु पक्षियों के बच्चे बिना किसी के सिखाये अपनी जीवन चर्या की साधारण बातें अपने आप सीख जाते हैं पर मनुष्य का बालक ऐसा नहीं करता है, यदि उसका शिक्षण दूसरों के द्वारा न हो तो वह उन विशेषताओं को प्राप्त नहीं कर सकता जो मनुष्य में होती हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व की बात है दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में एक मादा भेड़िया मनुष्य के दो छोटे बच्चों को उठा ले गई। कुछ ऐसी विचित्र बात हुई कि उसने उन्हें खाने की बजाय अपना दूध पिला कर पाल लिया। वे बड़े हो गये। एक दिन शिकारियों का एक दल भेड़ियों की तलाश में उधर से निकला तो हिंसक पशुओं की मांद में मनुष्य के बालक देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें पकड़ जाये। ये बालक भेड़ियों की तरह चलते थे, वैसे ही गुर्राते थे वही सब खाते थे और उनकी सारी मानसिक स्थिति भेड़ियों जैसी थी। कारण यही था कि उन्होंने जैसा देखा वैसा सीखा और वैसे ही बन गये।
जो बालक जन्म से बहरे होते हैं वे जीवन भर गूंगे भी रहते हैं। क्योंकि बालक दूसरों के मुंह से निकलने वाले शब्दों को सुनकर उनकी नकल करना सीखता है। यदि कान बहरे होने की वजह से वह दूसरों के शब्द सुन नहीं सकता तो फिर यह असम्भव है कि वह शब्दोच्चारण कर सके धर्म संस्कृति, रिवाज, भाषा, वेष भूषा, शिष्टाचार, आहार विहार, आदि बातें बालक अपने निकटवर्ती लोगों से सीखता है। यदि कोई बालक जन्म से ही अकेला रखा जाय तो वह उन सब बातों से वंचित रह जायगा जो मनुष्य में होती हैं।
पशु पक्षियों के बच्चों में यह बात नहीं है। बया पक्षी का छोटा बच्चा पकड़ लिया जाय और वह मां बाप से कुछ न सीखे तो भी बड़ा होकर अपने लिए वैसा ही सुन्दर घोंसला बना लेगा जैसा कि अन्य बया पक्षी बनाते हैं। पर अकेला रहने वाला मनुष्य का बालक भाषा, कृषि, शिल्प, संस्कृति, धर्म, शिष्टाचार, लोक व्यवहार श्रम, उत्पादन आदि सभी बातों से वंचित रह जायगा। पशुओं के बालक जन्मते ही चलने फिरने लगते हैं और माता का पय पान करने लगते हैं पर मनुष्य का बालक बहुत दिन में कुछ समझ पाता है। आरम्भ में तो वह करवट बदलना दूध का स्थान तलाश करना तक नहीं जानता, अपनी माता तक को नहीं पहचानता। इन बातों में पशुओं के बच्चे अधिक चतुर होते हैं।
मनुष्य कोरे कागज के समान है, कागज पर जैसी स्याही से जैसे अक्षर बनाये जाते हैं वैसे बन जाते हैं। फोटोग्राफी के प्लेट पर जैसी छाया पड़ती है वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है। मानव मस्तिष्क की रचना भी कोरे कागज एवं फोटो-प्लेट की भांति है। वह निकटवर्ती वातावरण में से अनेक बातें सीखता है। उसके ऊपर जिन बातों का विशेष प्रभाव पड़ता है उन्हें वह अपने मानस क्षेत्र में जमा कर लेता है। मनुष्य गीली मिट्टी के समान है उसे जैसे सांचे में ढाल दिया जाय वैसा ही खिलौना बन जाता है। उच्च परिवारों में पलने वाले बालकों में वैसी विशेषताएं होती हैं और निकृष्ट श्रेणी के बीच रहकर जो बालक पलते हैं उनमें वैसी क्षुद्रताएं बहुधा पाई जाती हैं।
हमारे पारदर्शी पूर्वज, मनुष्य का इस कमजोरी को भरी प्रकार समझते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यदि बालकों पर अनियंत्रित प्रभाव पड़ता रहा, उसमें सुधार और परिवर्तन का प्रारम्भ से ही ध्यान न रखा गया तो यह बहुत मुश्किल है कि वे अपनी मनोभूमि को वैसा बना सकें जैसा कि मानस प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। आमतौर से सब माता पिता उतने सुसंस्कृत नहीं होते कि अपने बच्चों पर केवल अच्छा प्रभाव ही पड़ने दें और बुरे प्रभाव से उन्हें बचाते रहें। दूसरे यह भी है कि मां बाप में बालक के प्रति लाड़ प्यार स्वभावतः अधिक होता है, वे उनके प्रति अधिक उदार एवं मोह ग्रस्त होते हैं ऐसी दशा में अपने बालकों की बुराइयां उन्हें सूझ भी नहीं पड़ती। फिर इतने सूक्ष्मदर्शी मां बाप भी कहां होते हैं जो अपनी संतान की मानसिक स्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण एवं विश्लेषण करके कुसंस्कारों का परिमार्जन तत्काल करने को उद्यत रहें।
सत् शिक्षण की आवश्यकता —
मनुष्य की यह कमजोरी कि वह दूसरों से ही सब कुछ सीखता है, उसके उच्च विकास में बाधक होती है। कारण कि साधारण वातावरण में भले तत्वों की अपेक्षा बुरे तत्व अधिक होते हैं। उन बुरे तत्वों में ऐसा आकर्षण होता है कि कच्चे दिमाग उनकी ओर बड़ी आसानी से खिंच जाते हैं। फल स्वरूप वे बुराइयां अधिक सीख लेने के कारण आगे चलकर बुरे मनुष्य साबित होते हैं। छोटी आयु में यह पता नहीं चलता कि बालक किन संस्कारों को अपनी मनोभूमि में जमा रहा है, बड़ा होने पर जब वे संस्कार एवं स्वभाव प्रकट होते हैं तब उन्हें हटाना कठिन हो जाता है क्योंकि दीर्घकाल तक वे संस्कार बालक के मन में जमे रहने एवं पकते रहने के कारण ऐसे सुदृढ़ हो जाते हैं कि उनका हटाना कठिन होता है।
ऋषियों ने इस भारी कठिनाई को देख कर एक अत्यन्त ही सुन्दर और महत्वपूर्ण उपाय यह निश्चित किया कि प्रत्येक बालक पर मां बाप के अतिरिक्त किसी ऐसे व्यक्ति का भी नियंत्रण रहना चाहिये जो मनोविज्ञान को सूक्ष्मताओं को समझता हो, दूरदर्शी, तत्वज्ञानी और पारदर्शी होने के कारण बालक के मन में जमते रहने वाले संस्कार बीजों को अपनी पैनी दृष्टि से तत्काल देख लेने और उनमें आवश्यक सुधार करने की योग्यता रखता हो। ऐसे मानसिक नियंत्रण कर्ता की उनने प्रत्येक बालक के लिए अनिवार्य आवश्यकता घोषित की।
शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य के तीन प्रत्यक्ष देव हैं (1) माता (2) पिता (3) गुरु। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपमा दी है। माता जन्म देती है इसलिए ब्रह्मा है, पिता पालन करता है इसलिए विष्णु है, गुरु कुसंस्कारों का संहार करता है इसलिए शंकर है। गुरु का स्थान माता पिता के समकक्ष है। कोई यह कहे कि मैं बिना माता के पैदा हुआ तो उसे झूठा कहा जायगा क्योंकि बिना माता के गर्भ में रहे, भला कोई किस प्रकार जन्म ले सकता है? इसी प्रकार कोई यह कहे कि मैं बिना बाप का हूं। तो उसे ‘वर्णशंकर’ कहा जायगा क्योंकि जिसके बाप का पता न हो ऐसे बच्चे तो वेश्याओं के यहां ही पैदा होते हैं। उसी प्रकार कोई कहे कि मेरा कोई गुरु नहीं है। तो समझा जायगा कि यह असभ्य एवं असंस्कारित है। क्योंकि जिसके मस्तिष्क पर विचार, स्वभाव, ज्ञान, गुण, कर्म आदि पर किसी दूरदर्शी का नियंत्रण नहीं रहा उसके मानसिक स्वस्थता का क्या भरोसा किया जा सकता है? ऐसे असंस्कृत व्यक्तियों को ‘निगुरा’ कहा जाता है। ‘निगुरा’ का अर्थ है—बिना गुरु का। किसी समय में ‘निगुरा’ कहना भी ‘वर्णशंकर’ या ‘मथ्याचारी’ कहलाने के समान गाली समझी जाती थी।
बिना माता का, बिना पिता का, बिना गुरु का, भी कोई मनुष्य हो सकता है यह बात प्राचीन काल में अविश्वस्त समझी जाती थी। कारण कि भारतीय समाज के सुसंबद्ध विकास के लिए ऋषियों की यह अनिवार्य व्यवस्था थी कि प्रत्येक आर्य का गुरु होना चाहिए। जिससे वह महान पुरुष बन सके। उस समय प्रत्येक माता पिता को अपने बालकों को महापुरुष बनाने की अभिलाषा रहती थी। इसके लिए यह आवश्यकता थी कि उनके बालक किसी सुविज्ञ आचार्य के शिष्य हों।
गुरुकुल प्रणाली का उस समय आम रिवाज था। पढ़ने की आयु के होते ही बालक ऋषियों के आश्रम में भेज दिये जाते थे। राजा महाराजाओं तक के बालक गुरुकुलों का कठोर जीवन बिताने जाते थे ताकि वे कुशल नियंत्रण में रहकर सुसंस्कृत बन सकें और आगे चलकर मनुष्यता के महान गौरव की रक्षा करने वाले महापुरुष सिद्ध हो सकें। ‘मैं अमुक आचार्य का शिष्य हूं।’ यह बात बड़े गौरव के साथ कही जाती थी। प्राचीन परिपाटी के अनुसार जब कोई मनुष्य किसी दूसरे को अपना परिचय देता था तो कहता था ‘‘मैं अमुक आचार्य का शिष्य, अमुक पिता का पुत्र, अमुक गौत्र का, अमुक नाम का व्यक्ति हूं।’’ संकल्पों में, प्रतिज्ञाओं में, साक्षी में, राज दरबार में, अपना परिचय इसी आधार पर दिया जाता था।
मनोभूमि का परिष्कार —बगीचे को यदि सुन्दर बनाना है तो उसके लिये किसी कुशल माली की नियुक्ति आवश्यक है। जब आवश्यकता हो तब सींचना, जब अधिक पानी भर गया हो तो उसे बाहर निकाल देना, समय पर गोड़ना, निराई करना, अनावश्यक टहनियों को छांटना, खाद देना, पशुओं को चरने न देने की रखवाली करना आदि बातों के सम्बन्ध में माली सदा सजग रहता है, फल स्वरूप वह बगीचा हरा भरा, फला फूला सुन्दर और समुन्नत रहता है।
मनुष्य का मस्तिष्क एक बगीचा है, इसमें नाना प्रकार के मनोभाव, विचार, संकल्प, इच्छा, वासना, योजना रूपी वृक्ष उगते हैं उनमें से कितने ही आवश्यक और कितने ही अनावश्यक होते हैं। बगीचे में कितने ही पौधे झाड़ झंखाड़ के अपने आप उग आते हैं, वे बढ़ें तो बगीचे को नष्ट कर सकते हैं इसलिए माली उन्हें उखाड़ देता है और दूर दूर से लाकर अच्छे अच्छे बीज उसमें बोता है। गुरु अपने शिष्य के मस्तिष्क रूपी बगीचे का माली होता है वह अपने क्षेत्र में से जंगली झाड़ झंखाड़ जैसे अनावश्यक संकल्पों संस्कारों, आकर्षणों और प्रभावों को उखाड़ता रहता है और अपनी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं चतुरता के साथ ऐसे संस्कार बीज जमाता रहता है जो उस मस्तिष्क रूपी बगीचे को बहुमूल्य बनावें।
कोई व्यक्ति यह सोचे कि ‘‘मैं स्वयं ही अपना आत्म-निर्माण करूंगा, अपने आप अपने को सुसंस्कृत बनाऊंगा मुझे किसी गुरु की आवश्यकता नहीं।’’ तो ऐसा किया जा सकता है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। अपना कल्याण करने की शक्ति इसमें मौजूद है। परन्तु ऐसे प्रयत्नों में कोई मनस्वी व्यक्ति ही सफल होते हैं। सर्व साधारण के लिये यह बात बहुत कष्ट साध्य है। क्योंकि बहुधा अपने दोष अपने को नहीं दीखते, अपनी आंखें अपने आपको स्वयं दिखाई नहीं देतीं। किसी दूसरे मनुष्य या दर्पण की सहायता से ही अपनी आंखों को देखा जा सकता है। जब कोई वैद्य डॉक्टर बीमार होते हैं तो स्वयं अपना इलाज आप नहीं करते क्योंकि अपनी नाड़ी स्वयं देखना, अपना निदान आप कर लेना साधारण तथा बहुत कठिन होता है इसलिए वे किसी दूसरे वैद्य डॉक्टर से अपनी चिकित्सा कराते हैं।
कई सुयोग्य व्यक्ति भी आत्म निरीक्षण में सफल नहीं होते। हम दूसरों की जैसी अच्छी आलोचना कर सकते हैं, दूसरों को जैसी नेक सलाह दे सकते हैं वैसी अपने लिए नहीं कर पाते। कारण यही है कि अपने सम्बन्ध में आप निर्णय करना कठिन होता है। कोई अपराधी ऐसा नहीं जिसे यदि मजिस्ट्रेट बना दिया जाय तो अपने अपराध के सम्बन्ध में उचित फैसला ले सके। निष्पक्ष फैसला कराना हो तो किसी दूसरे जज का आश्रय लेना पड़ेगा। आत्म निर्माण का कार्य भी ऐसा ही है जिसके लिए दूसरे सुयोग्य सहायक की गुरु की आवश्यकता होती है।
समुचित बौद्धिक विकास की सुव्यवस्था के लिए ‘गुरु’ की नियुक्ति को भारतीय धर्म में आवश्यक माना गया है। जिससे मनुष्य की विचारधारा, स्वभाव, संस्कार, गुण, प्रकृति, आदतें, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, कार्य पद्धति आदि का प्रवाह उत्तम दिशा में हो और मनुष्य अपने आप में संतुष्ट प्रसन्न, पवित्र और परिश्रमी रहे एवं दूसरों को अपनी उदारता तथा सद्व्यवहार से सुख पहुंचावे। इस प्रकार के सुसंस्कृत मनुष्य जिस समाज में, जिस देश में, अधिक होंगे वहां निश्चय पूर्वक सुख शान्ति की, सुव्यवस्था की, पारस्परिक सहयोग की, प्रेम की, साथ ही सहयोग की बहुलता रहेगी। हमारा पूर्व इतिहास साक्षी है कि सुसंस्कारित मस्तिष्क के भारतीय महापुरुषों ने कैसे महान कार्य किये थे, और इस भूमि पर किस प्रकार स्वर्ग को अवतरित कर दिया था।
हमारे पूर्व कालीन महान् गौरव की नींव में ऋषियों की दूरदर्शिता छिपी हुई थी जिसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को अपना मानसिक परिष्कार कराने के लिए किसी उच्च चरित्र, आदर्शवादी, सूक्ष्मदर्शी, विद्वान के नियंत्रण में रहना आवश्यक होता था जो व्यक्ति मानसिक परिष्कार कराने की आवश्यकता से जी चुराते थे उन्हें ‘निगुरा’ की गाली दी जाती थी ‘निगुरा’ शब्द का अपमान करीब करीब ‘बिना बाप का’ या ‘वर्ण शंकर’ कहे जाने के बराबर समझा जाता था। धन कमाना, विद्या पढ़ाना, शस्त्र चलाना, सभी बातें आवश्यक थीं पर मानसिक परिष्कार तो सबसे अधिक आवश्यक था। क्योंकि असंस्कृत मनुष्य तो समाज का अभिशाप बनकर ही रहता है भले ही उसके पास कितनी ही अधिक भौतिक सम्पदा क्यों न हो। गुरु को प्रत्यक्ष तीन देवों में तीन परम पूज्यों में स्थान देने का यही कारण था।
दूषित वातावरण का प्रभाव —आज वह प्रथा टूट चली है। गुरु कहलाने के अधिकारी व्यक्तियों का मिलना मुश्किल है। जिनमें गुरु बनने की योग्यता है वे अपने व्यक्तिगत आत्मिक या भौतिक लाभों के संपादन में लगे हुए हैं। लोक सेवा एवं राष्ट्र निर्माण की रचनात्मक प्रवृत्ति की ओर, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व शिर पर लेने की ओर उनका ध्यान नहीं है। वे इससे स्वल्प लाभ, अधिक झंझट और भारी बोझ अनुभव करते हैं। इसकी अपेक्षा वे दूसरे सरल तरीकों से अधिक धन और यश कमा लेने के अनेक मार्ग जब सामने देखते हैं तो ‘गुरु’ का गहन उत्तरदायित्व ओढ़ने से कन्नी काट जाते हैं।
दूसरी ओर, ऐसे अयोग्य व्यक्ति जितना चरित्र, ज्ञान, अनुभव, विवेक, तप आदि कुछ भी नहीं है जिनमें दूसरों को संस्कृत करने की क्षमता होना तो दूर जो अपने आपको सुसंस्कृत नहीं बना सके, जो अपना निर्माण नहीं कर सके ऐसे लोग पैर पुजाने और दक्षिणा लेने के लोभ में कान फूंकने लगे, खुशामद दीनता और भिक्षा वृत्ति का आश्रय लेकर शिष्य तलाश करने लगे तो गुरुत्व की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। जिस काम को कुपात्र लोग हाथ में ले लेते हैं वह अच्छा काम भी बदनाम हो जाता है और जिस साधारण काम को यदि भले व्यक्ति करने लगें तो वह अच्छा हो जाता है। दीन दुखियों के हाथ में रहने से चरखा चखाना ‘दुर्भाग्य’ का चिन्ह समझा जाता था पर गांधी जी जैसे महापुरुष के हाथ पहुंच कर वही चरखा यज्ञ बन जाता है। ऋषियों के हाथ में जब तक ‘गुरुत्व’ था तब तक उस पद की प्रतिष्ठा रही आज जब कि कुपात्र, भिखारी और क्षुद्र लोग गुरु बनने का दुस्साहस करने लगे तो वह महान पद ही बदनाम हो गया। आज ‘गुरु’ या ‘गुरु घंटाल’ शब्द किसी पुराने पापी या धूर्त राज के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
लोगों ने देखा कि एक आदमी दक्षिणा भी लेता है पैर भी पुजवाता है पर वह किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं पहुंचाता तो उनने भी इस व्यर्थ के झंझट को तोड़ देना उचित समझा। गुरु शिष्य की परम्परा शिथिल होने लगी और धीरे धीरे उसका लोप होने लगा। ठीक भी है निष्प्रयोजन, निष्प्राण, निरुपयोगी, होने पर भी जो परम्पराएं खर्चीली है वे देर तक जीवित नहीं रह सकतीं। अब बहुत कम मनुष्य ऐसे रह गये हैं जो गुरु की नियुक्ति आवश्यक समझते हों, या ‘निगुरा, कहलाने में अपना अपमान समझते हों।
आज के दूषित वातावरण ने सभी दिशाओं में गड़बड़ी पैदा कर दी है। असली सोना कम है पर नकली सोना बेहिसाब तैयार हो रहा है। असली घी मिलना मुश्किल है पर वेजीटेबल घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। असली मोती, असली जवाहरात कम हैं पर नकली मोती, और इमीटेशन रत्न ढेरों बिकते हैं। इतना होते हुए भी असली चीजों का महत्व कम नहीं हुआ है। लोग घासलेट घी को खूब खरीदते बेचते हैं पर इससे असली घी की उपयोगिता घट नहीं जाती। असंख्य गड़बड़ियां होते रहने पर भी असली घी के गुण वही रहेंगे और उसके लाभों में कोई कमी न होगी। असली सोना, असली रत्न, आदि भी इसलिए निरुपयोगी नहीं हो जाते कि नकली चीजों ने उस क्षेत्र को बदनाम कर दिया है। मिलावट, नकली पन धोखाधड़ी के हजार पर्वत मिलकर भी वास्तविकता, वस्तु स्थिति का, महत्व राई भर भी नहीं घटा सकते।
‘‘व्यक्ति द्वारा, व्यक्ति का निर्माण’’ एक सचाई है, जो आज की विषम स्थिति में तो क्या, किसी भी बुरी से बुरी स्थिति में भी गलत सिद्ध नहीं हो सकती। रोटी बनानी होगी तो आटे की, पानी की, आग की, जरूरत पड़ेगी। चाहे कैसा ही भला या बुरा समय हो इस अनिवार्य आवश्यकता में कोई अन्तर नहीं आ सकता। अच्छे मनुष्य, सच्चे मनुष्य, प्रतिष्ठित मनुष्य, सुखी मनुष्य की रचना के लिए यह आवश्यक है कि अच्छे सुयोग्य और दूरदर्शी मनुष्यों द्वारा हमारे मस्तिष्कों का नियंत्रण, संशोधन, निर्माण और विकास किया जाय। मनुष्य कोरे कागज के समान है वह जैसा प्रभाव ग्रहण करेगा, जैसा सीखेगा, वैसा करेगा। यदि बुराई से बचना है तो अच्छाई से सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक है। मनुष्य का मन खाली नहीं रह सकता, उसे अच्छाई का प्रकाश न मिलेगा तो निश्चय ही उसे बुराई के अन्धकार में रहना होगा।
शिक्षा और विद्या का महत्व —मनुष्य को सुयोग्य बनाने के लिए उसके मस्तिष्क को दो प्रकार से उन्नत किया जाता है (1) शिक्षा द्वारा (2) विद्या द्वारा। शिक्षा के अन्तर्गत वे सब बातें आती हैं जो स्कूलों में कालेजों में, ट्रेनिंग कैम्पों में हाट बाजार में, घर में, दुकान में, समाज में सिखाई जाती हैं। गणित, भूगोल, इतिहास भाषा, शिल्प, व्यायाम, रसायन, चिकित्सा, निर्माण, व्यापार, कृषि, संगीत, कला, आदि बातें सीखकर मनुष्य व्यवहार कुशल, चतुर, कमाऊ, लोक प्रिय एवं शक्ति सम्पन्न बनता है। विद्या द्वारा मनोभूमि का निर्माण होता है। मनुष्य की इच्छा आकांक्षा, भावना, श्रद्धा, मान्यता, रुचि, एवं आदतों के अच्छे ढांचे में ढालना विद्या का काम है। चौरासी लाख योनियों में घूमते हुए आने के कारण पिछले पाशविक संस्कारों से मन भरा रहता है उनका संशोधन करना विद्या का काम है।
शिक्षक ,शिक्षा देता है। शिक्षा का अर्थ है—सांसारिक ज्ञान। विद्या का अर्थ है—मनोभूमि की सुव्यवस्था। शिक्षा आवश्यक है, पर विद्या उससे भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा बढ़नी चाहिए, पर विद्या का विस्तार उससे भी अधिक होना चाहिए। अन्यथा दूषित मनोभूमि रहते हुए यदि सांसारिक सामर्थ्यं बढ़ीं तो उसका परिणाम भयंकर होगा। धन की, चतुरता की, शिक्षा की, विज्ञान की, इन दिनों बहुत उन्नति हुई है पर यह स्पष्ट है कि उन्नति के साथ साथ हम सर्वनाश की ओर ही बढ़ रहे हैं कम साधन होते हुए भी कम शिक्षा होते हुए भी, विद्यावान् मनुष्य सुखी रह सकता है परन्तु केवल बौद्धिक या सांसारिक शक्तियां होने पर दूषित मनोभूमि का मनुष्य अपने लिए तथा दूसरों के लिए केवल विपत्ति, चिन्ता, कठिनाई क्लेश एवं बुराई ही उत्पन्न कर सकता है। इसलिए विद्या पर भी उतना ही बल्कि उससे भी अधिक जोर दिया जाना चाहिए जितना कि शिक्षा पर दिया जाता है।
आज हम अपने बालकों को ग्रेजुएट बना देने के लिए ढेरों पैसा खर्च करते हैं पर उनकी आन्तरिक भूमिका को सुव्यवस्थित करने की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं करते, फलस्वरूप ऊंची शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भी वे बालक अपने प्रति, अपने परिवार के प्रति, अपने समाज के प्रति कोई आदर्श व्यवहार नहीं कर पाते। किसी भी ओर उनकी प्रगति ऐसी नहीं होती जो प्रसन्नता दायक हो। शिक्षा के साथ उनमें जो अनेक दुर्गुण आ जाते हैं उन दुर्गुणों में ही उनकी योग्यता द्वारा होने वाली कमाई बर्बाद होती रहती है।
इस तथ्य को हमारे पूर्वज जानते थे कि शिक्षा से भी, विद्या का महत्व अधिक है। इसलिए वे छोटी ही आयु में अपने बच्चों पर गुरु का नियंत्रण स्थापित करा देते थे। गुरु लोग अपने गम्भीर ज्ञान, विशाल अनुभव, सूक्ष्मदर्शी विवेक और निर्मल चरित्र द्वारा शिष्य को प्रभावित करके उसकी मनोभूमि का निर्माण करते थे। अपनी प्रचण्ड शक्ति किरणों द्वारा उसके अन्तःकरण में ऐसे बीज अंकुरित कर देते थे जो फलने फूलने पर उस व्यक्ति को महापुरुष सिद्ध करें।
गायत्री द्वारा द्विजत्व की प्राप्ति —भारतीय धर्म के अनुसार, गुरु की आवश्यकता प्रत्येक भारतीय के लिए है। जैसे ईश्वर के प्रति, शास्त्रों के प्रति भारतीय आचार के प्रति, ऋषियों और देवताओं के प्रति आस्था एवं आदर बुद्धि का होना भारतीय धर्म के अनुयायी के लिए आवश्यक है वैसे ही यह आवश्यक है कि वह ‘निगुरा’ न हो। उसे किसी सुयोग्य सत्पुरुष का ऐसा पथ प्रदर्शन प्राप्त होना चाहिए जो उसके सर्वांगीण विकास में सहायक हो सके।
संभ्रान्त भारतीय धर्मानुयायी को ‘द्विज’ कहते हैं। द्विज वह है जिसका दो बार जन्म हुआ है। एक बार माता पिता के रज वीर्य से सभी का जन्म होता है। इस तरह मनुष्य जन्म पा लेने से कोई मनुष्य प्रतिष्ठित आर्य नहीं बन सकता। केवल जन्म मात्र से मनुष्य का कोई गौरव नहीं कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो पशुओं से भी गये बीते होते हैं। स्वभावतः जन्म जात पशुता तो प्रायः सभी में होती है इस पशुता का मनोविज्ञान परिष्कार किया जाता है उस परिष्कार की पद्धति को द्विजत्व या दूसरा जन्म कहते हैं।
शास्त्र में बताया गया है कि—‘‘जन्मनां जायते शूद्र संस्कारात् द्विज उच्चते।’’ अर्थात् जन्म से सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं। संस्कारों द्वारा, प्रभावों द्वारा मनुष्य का दूसरा जन्म होता है, यह दूसरा जन्म माता गायत्री और पिता आचार्य द्वारा होता है। गायत्री के 24 अक्षरों में ऐसे सिद्धान्त और आदर्श सन्निहित हैं जो मानव अन्तःकरण को उच्च स्तर पर विकसित करने के प्रधान आधार हैं। समस्त वेद शास्त्र पुराण, स्मृति, उपनिषद् आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र आदि ग्रन्थों में जो कुछ भी शिक्षा है वह गायत्री के अक्षरों में सन्निहित शिक्षाओं की व्याख्या मात्र है। समस्त भारतीय धर्म, समस्त भारतीय आदर्श, समस्त भारतीय संस्कृति का सर्वस्व गायत्री के 24 अक्षरों में बीज रूप से मौजूद है। इसलिए द्विजत्व के लिए, दूसरे जन्म के लिए, गायत्री को माता माना गया है।
चूंकि वे शिक्षाएं केवल मंत्र याद कर लेने या पुस्तकों में लिखी हुई बातें पढ़ लेने मात्र से हृदयंगम नहीं हो सकती। पढ़ने से किसी बात की जानकारी तो हो जाती है पर हृदय में उनको प्रवेश करा देना किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा ही हो सकता है दीपक को दीपक से जलाया जाता है, अग्नि से अग्नि उत्पन्न होती है, सांचे में वस्तुएं ढाली जाती हैं, व्यक्तियों से व्यक्तियों का निर्माण होता है। इसलिए गायत्री की शिक्षाओं को व्यवहारिक रूप में जीवन में घुला देने का कार्य न तो अपने आप किया जा सकता है और न उसके पढ़ने मात्र से होता है, उसके लिए किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्ति को गुरु कहते हैं। दूसरे जन्म का, द्विजत्व का, आदर्श जीवन का, पिता गुरु को माना गया है।
गुरु द्वारा गायत्री के आधार पर जो शिक्षाएं दी जाती हैं उनको भली प्रकार हृदयंगम करने, सदा छाती से चिपटाये रहने, उनका पूरी तरह प्रयोग करने का उत्तर दायित्व कंधे पर रखा हुआ अनुभव करने की बात हर समय आंखों के आगे रहे, इसके लिए द्विजत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत पहना दिया जाता है। यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान प्रतिमा है। गायत्री में नौ पद हैं 1-तत् 2-सवितुः 3-वरेण्यं 4-भर्गो 5-देवस्य 6-धीमहि 7-धियो 8-योनः 9-प्रचोदयात् यज्ञोपवीत में नौ धागे हैं। प्रत्येक धागा गायत्री के एक एक पद का प्रतीक है। यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियां और एक अन्तिम ब्रह्म ग्रन्थि होती है। बड़ी ग्रन्थि गायत्री के ‘ॐ’ की, और शेष तीन गाठें भूः भुवः स्वः की प्रतीक हैं। जैसे पत्थर या धातु की मूर्ति में देवता की प्रतिष्ठा करके उसकी पूजा की जाती है वैसे ही गायत्री की मूर्ति सूत की बना कर हृदय मन्दिर पर प्रतिष्ठित की जाती है। मन्दिर की मूर्ति के सम्मुख हर घड़ी नहीं रहा जा सकता पर गायत्री की प्रतिमा का तो, यज्ञोपवीत का तो, हर घड़ी पास रहना आवश्यक है, उसे तो क्षण भर के लिए भी अलग नहीं किया जा सकता। वह तो हर घड़ी हृदय के ऊपर झूलता रहता है, उसका बोझ तो हर घड़ी कन्धे पर रखा रहता है। इस प्रकार गायत्री पूजा को, गायत्री की प्रतिमा को, गायत्री की शिक्षा को, जीवन संगिनी बनाया गया है। कोई प्रतिष्ठित भारतीय धर्मानुयायी यज्ञोपवीत को छोड़ नहीं सकता, उसकी महत्ता से, आवश्यकता से, इनकार कर नहीं सकता।
कहा जाता है गायत्री का अधिकार केवल द्विजों का है। द्विजत्व का तात्पर्य है—गुरु द्वारा गायत्री को ग्रहण करना। जो लोग अश्रद्धालु हैं, आत्म निर्माण से जी चुराते हैं, आदर्श जीवन बिताने से उदासीन हैं, जिनकी सन्मार्ग में प्रवृत्ति नहीं, ऐसे लोग ‘शूद्र’ कहे जाते हैं। जो दूसरे जन्म का आदर्श जीवन का, मनुष्यता की महानता का, सन्मार्ग का, अवलम्बन नहीं करना चाहते, ऐसे लोगों का जन्म पाशविक ही कहा जायगा। ऐसे लोग गायत्री में क्या रुचि लेंगे? जिसकी जिस मार्ग में श्रद्धा न होगी वह उसमें क्या सफलता प्राप्त करेगा? इसलिए ठीक ही कहा गया है कि शूद्रों को गायत्री का अधिकार नहीं, इस महा विद्या का अधिकारी वही है जो आत्मिक कायाकल्प का लक्ष रखता है, जिसे पाशविक जीवन की अपेक्षा उच्च जीवन पर आस्था है, जो द्विज बनकर सैद्धान्तिक जन्म लेकर सत्पुरुष बनना चाहता है।
उत्कीलन और शाप मोचन —
शास्त्रों में बताया गया है कि गायत्री मंत्र कीलित है, उसका जब तक उत्कीलन न हो जाय तब तक वह फल दायक नहीं होता। यह भी कहा गया है कि गायत्री को शाप लगा हुआ है। उस शाप का जब तक ‘अभिमोचन’ न कर लिया जाय तब तक उससे कुछ लाभ नहीं होता। कीलित होने और शाप लगने के प्रतिबन्ध क्या हैं? और उत्कीलन एवं अभिमोचन क्या है? यह विचारणीय बातें हैं।
यह कहा जा सकता कि ‘‘औषधि विद्या कीलित है।’’ क्योंकि अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो शरीर शास्त्र निदान नघंटु, चिकित्सा विज्ञान की बारीकियों को नहीं समझता, अपनी अधूरी जानकारी के आधार पर अपनी चिकित्सा आरम्भ करदे तो उससे कुछ भी लाभ न होगा, उलटी हानि हो सकती है। यदि औषधि से कोई लाभ लेना है तो किसी अनुभवी वैद्य की सलाह लेना आवश्यक है। आयुर्वेद ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा हुआ है, उन्हें पढ़ कर बहुत सी बातें जानी जा सकती हैं, फिर भी वैद्य की आवश्यकता तो है ही। वैद्य के बिना हजारों रुपये के चिकित्सा ग्रन्थ और लाखों रुपयों का औषधालय भी रोगी को कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकता। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि ‘औषधि विद्या कीलित है।’ गायत्री महा विद्या के बारे में भी यही बात है। साधक की मनोभूमि के आधार पर साधना विधान में नियमोपनियमों में, आदर्शों में, ध्यान में, अनेक हेर फेर करने होते हैं। सबकी साधना एक-सी नहीं हो सकती, ऐसी दशा में उस व्यक्ति को पथ प्रदर्शन आवश्यक है जो इस विज्ञान का ज्ञाता एवं अनुभवी हो। जब तक ऐसा निर्देशक मिले तब तक औषधि विद्या की गायत्री विद्या भी साधक के लिए कीलित ही रहेगी। उपयुक्त निर्देशक का मिल जाना ही उत्कीलन है। ग्रन्थों में बताया है कि गुरु द्वारा ग्रहण कराई गई गायत्री ही उत्कीलित होती है। वही सफल होती है।
स्कंद पुराण में वर्णन है कि—एक बार वशिष्ठ, विश्वामित्र और ब्रह्मा ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप दिया कि ‘‘उसकी साधना निष्फल होगी।’’ इतनी बड़ी शक्ति के निष्फल होने से हाहाकार मच गया तब देवताओं ने प्रार्थना की कि इन शापों का विमोचन होना चाहिए। अन्त में ऐसा मार्ग निकाला गया कि जो शाप मोचन की विधि को पूरा करके जो गायत्री की साधना करेगा उसका प्रयत्न तो सफल होगा और शेष लोगों का भ्रम निरर्थक जायगा। इस कथा में एक भारी रहस्य छिपा हुआ है जिसे न जानने वाले केवल ‘‘शाप मुक्तोभव’’ वाले मंत्रों को पढ़ लेने मात्र से यह मान लेते हैं हैं कि हमारी साधना शाप मुक्त हो गई।
विश्वामित्र का अर्थ है—संसार का मित्र, लोक सेवी परोपकारी। वशिष्ठ का अर्थ है—विशेष रूप से श्रेष्ठ। ब्रह्मा का अर्थ है—ब्रह्म परायण। इन तीन गुणों वाले पथ प्रदर्शक के आदेशानुसार होने वाले आध्यात्मिक प्रयत्न ही सफल एवं कल्याणकारी होते हैं।
स्वार्थी दूसरे का बुरा करने को उद्यत, वाम मार्गी मनोवृत्ति का मनुष्य यदि साधक को वैसी ही साधना सिखावेगा तो वह अपना और शिष्य का, दोनों का नाश करेगा। जिसका चरित्र उच्च नहीं, जो उदार नहीं, जिसमें महानता और प्रतिभा नहीं, वह दूसरों का क्या निर्माण करेगा? इसी प्रकार जो ब्रह्म परायण नहीं, जिसकी साधना एवं तपस्या नहीं, ऐसा गुरु किसी की आत्मा में क्या प्रकाश दे सकेगा? तात्पर्य यह है कि विश्वामित्र-उदार, वशिष्ठ–महानता युक्त, ब्रह्मा-ब्रह्म परायण, इन तीनों गुणों से युक्त निर्देशक जब किसी व्यक्ति का निर्माण करेगा तो उसका प्रयत्न निष्फल नहीं जा सकता। इसके विपरीत कुपात्र, अयोग्य और अनुभव हीन व्यक्तियों की शिक्षानुसार की गई साधना तो इसी प्रकार व्यर्थ रहेगी मानो किसी ने शाप देकर उसे निष्फल कर दिया हो! शाप लगने और उसके विमोचन करने का गुप्त रहस्य उपयुक्त मार्ग दर्शक की अध्यक्षता में अपनी कार्य पद्धति का निर्माण करना ही है।
गायत्री उच्च मानव जीवन की जन्मदात्री, आधार शिला, एवं बीज शक्ति है। भारतीय संस्कृति रूपी ज्ञान गंगा की उद्गम भूमि गंगोत्री यह गायत्री ही है, इसलिए इसे द्विजों की माता कहा गया है। माता के पेट में रहकर मनुष्य देही का जन्म होता है, गायत्री माता के पेट में रहकर मनुष्य का आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक, दिव्य विशेषताओं वाला, दूसरा जन्म होता है। परन्तु यह माता, सर्व सम्पन्न होते हुए भी पिता के अभाव में अपूर्ण हैं, द्विजत्व का दूसरा शरीर, माता और पिता दोनों के ही तत्व बिन्दुओं से निर्मित होता है। गायत्री माता की अदृश्य सत्ता को, गुरु द्वारा ही ठीक प्रकार से शिष्य की मनोभूमि में आरोपित किया जाता है। इसीलिए जब द्विजत्व का संस्कार होता है तो इस दूसरे आध्यात्मिक जन्म में गायत्री को माता और आचार्य को पिता घोषित किया जाता है।
उच्च आदर्शों की शिक्षा, न तो अपने आप प्राप्त हो जाती है न केवल आधार ग्रन्थों से। हीन चरित्र के अयोग्य व्यक्ति भी उन उच्च आदर्शों की ओर दूसरों को आकर्षित नहीं कर सकते। बढ़िया धनुष बाण पास होते हुए भी कोई व्यक्ति शब्द वेधी बाण चलाने वाला नहीं बन सकता, और न अनाड़ी शिक्षक द्वारा बाण विद्या में पारंगत बना जा सकता है। अच्छा शिक्षक और अच्छा धनुष बाण दोनों मिलकर ही सफल परिणाम उपस्थित करते हैं। गायत्री के कीलित एवं शापित होने का और उसका उत्कीलन एवं शाप विमोचन करने का यही रहस्य है।
आत्म कल्याण की तीन कक्षाएं —आध्यात्मिक साधना क्षेत्र तीन भागों में बंटा हुआ है। तीन व्याहृतियों में उनका स्पष्टीकरण कर दिया है। (1) भूः (2) भुवः (3) स्वः यह तीन आत्मिक भूमिकाएं मानी गई हैं। भूः का अर्थ है स्थूल जीवन, शारीरिक एवं सांसारिक जीवन। भुः का अर्थ है—अन्तकरण चतुष्टय, मन, बुद्धि चित्त, अहंकार का कार्य क्षेत्र। स्वः का अर्थ है—विशुद्ध आत्मिक सत्ता। मनुष्य की आन्तरिक स्थिति इन तीन क्षेत्रों में ही होती है।
‘‘भूः’’ का सम्बन्ध अन्नमय कोश से है। ‘‘भुवः’’ प्राणमय और मनोमय कोश से आच्छादित है। ‘‘स्वः’’ का प्रभाव क्षेत्र विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश हैं। शरीर से सम्बन्ध रखने वाली, जीविका उपार्जन, स्वास्थ्य, लोक व्यवहार, नीति, शिल्प, कला स्कूली शिक्षा, व्यापार, सामाजिक राजनैतिक ज्ञान, नागरिक कर्तव्य आदि बातें भूःक्षेत्र में आती है। ज्ञान, विवेक, दूरदर्शिता, धर्म, दर्शन, मनोबल, प्राण शक्ति, तांत्रिक प्रयोग, योग साधन, आदि बातें भुवः क्षेत्र की है। आत्म साक्षात्कार, ईश्वर परायणता ब्राह्मी स्थिति, परमहंस गति समाधि, तुरीयावस्था, परमानन्द, मुक्ति का क्षेत्र ‘स्वः’ के अन्तर्गत हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र के यह तीन लोक हैं। पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग की भांति ही हमारे भीतर भूः भुवः स्वः तीन लोक है।
इन तीन स्थितियों के आधार पर ही गायत्री के तीन विभाग किये गये हैं। उसे त्रिपदी कहा गया है, उसके तीन चरण हैं। पहली भूमिका, प्रथम चरण, भूः क्षेत्र के लिए है। उसके अनुसार वे शिक्षाएं दी जाती हैं जो मनुष्य के व्यक्तिगत और सांसारिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक होती है।
गायत्री गीता एवं गायत्री स्मृति में गायत्री के चौबीस अक्षरों की व्याख्या की गई है। एक एक अक्षर एवं शब्द से जिन सिद्धान्तों आदर्शों एवं उपदेशों की शिक्षा मिलती है वे इतने अमूल्य हैं कि उनके आधार पर जीवन नीति बनाने का प्रयत्न करने वाला मनुष्य दिन दिन सुख, शान्ति, समृद्धि, उन्नति, एवं प्रतिष्ठा की ओर बढ़ता चला जाता है। गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में गायत्री कल्प वृक्ष का चित्र बनाकर यह समझाने का प्रयत्न किया है कि तत्, सवितुः, वरेण्यं, आदि अक्षरों का मनुष्य के लिए कैसा आवश्यक एवं महत्वपूर्ण शिक्षण है। वे शिक्षाएं अत्यन्त सरल, तत्काल अपना परिणाम दिखाने वाली, एवं घर बाहर सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने वाली हैं।
गायत्री की दस भुजाओं के सम्बन्ध में ‘‘गायत्री मंजरी’’ में यह बताया गया है कि इन दस भुजाओं से माता दस मूलों को नष्ट करती है। 1—दूषित दृष्टि 2—परावलंबन 3—भय 4—क्षुद्रता 5—असावधानी 6—स्वार्थ परता 7—अविवेक 8—आवेश 9—तृष्णा 10—आलस्य, यह दस शूल माने गये हैं। इन दस दोषों, मानसिक शत्रुओं को नष्ट करने के लिए 1 प्रथव ध्याहृति, तथा 9 पदों द्वारा दस ऐसी अमूल्य शिक्षाएं दी गई हैं जो मानव जीवन में स्वर्गीय आनन्द की सृष्टि कर सकती हैं। नीति, धर्म, सदाचार, सम्पन्नता, व्यवहार, आदर्श, स्वार्थ और परमार्थ का जैसा सुन्दर समन्वय इन शिक्षाओं में है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। वेद शास्त्रों की सम्पूर्ण शिक्षाओं का निचोड़ इन अक्षरों में रख दिया गया है। इनका, जो जितना अनुसरण करता है वह तत्काल उतने ही अंशों में लाभान्वित हो जाता है।
प्रथम भूमिका मंत्र दीक्षा —जीवन का प्रथम चरण ‘भूः’ है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक व्यवहार में जो अनेकों गुत्थियां उलझनें, कठिनाइयां आती हैं उन सबका सुलझाव इन अक्षरों में दी हुई शिक्षा से होता है। सांसारिक जीवन का कोई भी कठिन प्रश्न ऐसा नहीं है, जिनका उत्तर और उपाय इन अक्षरों में न हो। इस रहस्यमय व्यवहारिक ज्ञान की आपके उपयुक्त व्याख्या कराने के लिए जिस गुरु की आवश्यकता होती है उसे ‘‘आचार्य’’ कहते हैं। आचार्य ‘मंत्र दीक्षा’ देते हैं। मंत्र का अर्थ है—विचार। तर्क, प्रमाण अवसर, स्थिति पर विचार करते हुए आचार्य अपने शिष्य को समय समय पर ऐसे सुझाव, सलाह, उपदेश, गायत्री मंत्र की शिक्षाओं के आधार पर देते हैं जिससे उसको उसकी विभिन्न समस्याओं का समाधान होता चले और उसकी उन्नति का पथ प्रशस्त होता चले। यह प्रथम भूमिका है। इसे भः क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र के शिष्य को आचार्य द्वारा ‘मन्त्र दीक्षा’ दी जाती है।
मन्त्र दीक्षा लेते समय शिष्य प्रतिज्ञा करता है कि ‘‘मैं गुरु का अनुशासन पूर्ण श्रद्धा के साथ मानूंगा। समय समय पर उनकी सलाह से अपनी जीवन नीति निर्धारित करूंगा, अपनी सब भूलें निष्कपट रूप से उन पर प्रकट कर दिया करूंगा’’, आचार्य शिष्य को मन्त्र का अर्थ समझाता है और माता गायत्री को यज्ञोपवीत रूप से देता है। शिष्य देव भाव से आचार्य का पूजन करता है और गुरु पूजा के लिए उन्हें वस्त्र, आभूषण, पात्र, भोजन, दक्षिणा आदि की सामर्थ्यानुसार भेंट चढ़ाता है। रोली, अक्षत, तिलक, कलावा, वरण, आदि के द्वारा दोनों परस्पर एक दूसरे को बांधते हैं। मंत्र दीक्षा एक प्रकार से दो व्यक्तियों में आध्यात्मिक रिश्तेदारी की स्थापना है। इस दीक्षा के पश्चात् पाप पुण्य में एक प्रतिशत के भागीदार हो जाते हैं। शिष्य के सौ पापों में से एक पाप का फल गुरु को भोगना पड़ता है और गुरु के पापों का इसी प्रकार शिष्य को भोगना पड़ता है। इसी प्रकार पुण्य में भी एक दूसरे के साझी होते हैं। यह सामान्य दीक्षा है। यह मंत्र दीक्षा साधारण श्रेणी के सुशिक्षित सत्पुरुष, आचार्यत्व ग्रहण करके प्रारम्भिक श्रेणी के साधक को दें सकते हैं।
द्वितीय भूमिका-‘अग्नि दीक्षा’—दूसरी भुवः भूमिका में पहुंचने पर दूसरी दीक्षा लेनी पड़ती है। इसे प्राण दीक्षा या अग्नि दीक्षा कहते हैं। प्राणमय कोश एवं मनोमय कोश के अन्तर्गत छिपी हुई शक्तियों को जागृत करने की साधना का शिक्षण क्षेत्र यही है। साधन संग्राम के अस्त्र शस्त्रों को पहनना, संभालना और चलाना इसी भूमिका में सीखा जाता है। प्राण शक्ति की न्यूनता का उपचार इसी क्षेत्र में होता है। साहस, उत्साह, परिश्रम, दृढ़ता, स्फूर्ति, आशा, धैर्य, लगन, आदि वीरोचित गुणों की अभिवृद्धि इस दूसरी भूमिका में होती है। मनुष्य शरीर के अन्तर्गत ऐसे अनेक चक्र उपचक्र, भ्रमर, उपत्यय, सूत्र प्रत्यावर्तन, बीज, मेरु आदि गुप्त संस्थान होते हैं, जो प्राणमय भूमिका की साधना से जागृत होते हैं। इस जागरण के फल स्वरूप साधक में ऐसी अनेक विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं जैसी कि साधारण मनुष्यों में नहीं देखी जातीं।
भुवः भूमिका में ही मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के चतुष्टय का संशोधन, परिमार्जन एवं विकास होता है। यह सब कार्य ‘मध्यमा’ और ‘पश्यन्ति’ वाणी द्वारा किया जाता है। बैखरी वाणी द्वारा वचनों के माध्यम से प्रारम्भिक साधक को भूः क्षेत्र के मन्त्र दीक्षित को सलाह शिक्षा आदि दी जाती है। जब प्राण दीक्षा होती है तो गुरु अपना प्राण शिष्य के प्राण में घोल देता है। बीज रूप से अपना आत्मबल साधक के अन्तःकरण में स्थापित कर देता है। जैसे आग से आग जलाई जाती है बिजली की धारा से बल्ब जलते या पंखे चलते हैं उसी प्रकार अपना शक्ति भाग बीज रूप से दूसरे की मनोभूमि में जमा कर वहां उसे सींचा और बढ़ाया जाता है। इस क्रिया पद्धति को अग्नि दीक्षा कहते हैं। अशक्त को सशक्त बनाना, निष्क्रिय को सक्रिय बनाना, निराश को आशान्वित करना प्राण दीक्षा का काम है। मन्त्र से विचार उत्पन्न होता है, अग्नि से क्रिया उत्पन्न होती है। अन्तः भूमि में हलचल, क्रिया, प्रगति, चेष्टा, क्रान्ति, बेचैनी, आकांक्षा, का तीव्र गति से उदय होता है।
साधारणतया लोग आत्मोन्नति की ओर कोई ध्यान नहीं देते, थोड़ा सा देते हैं तो उसे बड़ा भारी बोझ समझते हैं, कुछ जप तप करते हैं तो उन्हें अनुभव होता है मानो बहुत बड़ा मोर्चा जीत रहे हों। परन्तु जब आन्तरिक स्थिति भुवः क्षेत्र में पहुंचती है तो साधक को बड़ी बेचैनी और असंतुष्टि रहती है। उसे अपना साधन बहुत साधारण दिखाई पड़ता है और अपनी उन्नति उसे बहुत मामूली दीखती है। उसे छटपटाहट एवं जल्दी होती है कि मैं किस प्रकार शीघ्र से शीघ्र लक्ष्य तक पहुंच जाऊं? अपनी उन्नति चाहे कितने ही सुव्यवस्थित ढंग से हो रही हो पर उसे सन्तोष नहीं होता। यह व्याकुलता उसकी कोई भूल नहीं है वरन् भीतर ही भीतर जो तीव्र क्रिया शक्ति काम कर रही है, उसकी प्रतिक्रिया है। भीतरी क्रिया, प्रवृत्ति और प्रेरणा का वाह्य लक्षण असन्तोष है। यदि असन्तोष न हो तो समझना चाहिए कि साधक की क्रिया शक्ति शिथिल हो गई। जो साधक दूसरी भूमिका में है उसका असन्तोष जितना ही तीव्र होगा उतनी ही क्रिया शक्ति तेजी से काम करती रहेगी। बुद्धिमान पथप्रदर्शक, दूसरी कक्षा के साधक में सदा असन्तोष भड़काने का प्रयत्न करते हैं ताकि उसकी आन्तरिक क्रिया और भी सतेज हो। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वह असन्तोष कहीं निराशा में परिणत न हो जाय।
अग्नि दीक्षा लेकर साधक का आन्तरिक प्रकाश स्वच्छ हो जाता है और उसे अपने छोटे से छोटे दोष दिखाई पड़ने लगते हैं। अंधेरे में या धुंधले प्रकाश में बड़ी वस्तुएं भी ठीक प्रकार नहीं दीखतीं, पर तीव्र प्रकाश में मामूली चीजें भी भली प्रकार दीखती हैं और कई बार तो प्रकाश की तेजी के कारण वे वस्तुएं भी अधिक महत्वपूर्ण दीखती हैं। आत्मा में ज्ञानाग्नि का प्रकाश होते ही साधक को अपनी छोटी छोटी भूल, बुराइयां, कमियां भली प्रकार दीख पड़ती हैं। उसे मालूम पड़ता है मैं असंख्य बुराइयों का भण्डार हूं। नीची श्रेणी के मनुष्यों से भी मेरी बुराइयां अधिक है। अब भी पाप मेरा पीछा नहीं छोड़ते। इस प्रकार वह अपने अन्दर घृणास्पद तत्वों को बड़ी मात्रा में देखता है। जिन गलतियों को साधारण श्रेणी के लोग कतई गलती नहीं मानते उनका नीर क्षीर विवेक वह करता है। मनसा पापों तक से दुखी होता है।
महात्मा सूरदास जब परम भागवत हो रहे थे तब उन्हें अपनी बुराइयां सूझी। जब तक वे वस्तुतः पापी और व्यभिचारी रहे तब तक उन्हें अपने काम में कोई बुराई न दीखी, पर जब वे भगवान की शरण में आये तो भूतकाल की बुराइयों का स्मरण करने मात्र से उनकी आत्मा कांप गई और उनने तीव्र संवेदना को शान्त करने के लिए अपने नेत्र फोड़ डाले। फिर भी आत्म निरीक्षण करने पर उन्हें अपने भीतर दोष ही दोष दीखे, जिनकी घोषणा उन्होंने अपने प्रसिद्ध पद में की—‘‘मो सम कान कुटिल, खल, कामी’’
भुवः भूमिका में पहुंचे हुए साधक के तीन लक्षण प्रधान रूप से होते हैं (1) आत्म कल्याण के लिए तपश्चर्या में तीव्र प्रवृत्ति (2) अपनी प्रगति को मन्द अनुभव करना अपनी उन्नति के प्रति असन्तोष (3) अपने विचार, कार्य एवं स्वभाव में अनेक बुराइयों का दिखाई देना। यह भूमिका धीरे धीरे पकती रहती है। जब तक दाल नहीं पकती तब हांडी में बड़ी उथल पुथल रहती है। यदि हांडी के भीतर शान्ति हो तो उसके दो कारण समझे जा सकते हैं 1-या तो अभी पकना आरम्भ नहीं हुआ, हांडी गरम नहीं हुई 2-या पक कर दाल बिलकुल तैयार हो गई। या तो मूर्ख, अज्ञानान्धकार में डूबे हुए जड़ प्रकृति के लोग मुदित रहते हैं और अपनी बुराइयों से मौज करते हैं या फिर अन्तिम कक्षा में पहुंचा योगी आत्म साक्षात्कार करके, ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर शान्त हो जाता है। मध्यम कक्षा में तप, प्रयत्न, असंतोष एवं वेदना की प्रधानता रहती है। चूंकि यह स्थिति आवश्यक है। इसे ही आत्मा का अग्नि संस्कार कहते हैं। इसमें अन्तःकरण का परिपाक होता। शरीर को तपश्चर्याओं की अग्नि में और अन्तःकरण को असंतोष की अग्नि मं तपा कर पकाया जाता है। पूरी मात्रा मं अग्नि संस्कार हो जाने पर न तो शरीर को तपाने की आवश्यकता रहती है और न मन को तपना पड़ता है। तब वह तीसरी कक्षा ‘स्वः’ की शान्ति भूमिका है।
मन्त्र दीक्षा के लिए कोई भी विचारवान, दूरदर्शी, उच्च चरित्र, प्रतिभाशाली, सत्पुरुष उपयुक्त हो सकता है। वह अपनी तर्कशक्ति और बुद्धिमत्ता से शिष्य के विचारों का परिमार्जन कर सकता है। उसके कुविचारों को, भ्रमों को, सुलझाकर अच्छाई के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक सलाह, शिक्षण एवं उपदेश दें सकता है, अपने प्रभाव से उसे प्रभावित भी कर सकता है। अग्नि दीक्षा के लिए ऐसा गुरु चाहिए जिसके भीतर पर्याप्त मात्रा में हो, तप की पूंजी का जो धनी हो, दान वही कर सकता है जिसके पास धन हो, विद्या वही दें सकता है जिसके पास विद्या हो। जिसके पास जो वस्तु नहीं वह दूसरों को क्या देगा? जिसने स्वयं तप करके प्राण शक्ति संचित की है। अग्नि अपने भीतर प्रज्वलित कर रखी है, वही दूसरों को प्राण या अग्नि देकर उन्हें भुवः भूमिका की दीक्षा दें सकता है।
तीसरी भूमिका ब्रह्म दीक्षा—तीसरी भूमिका ‘‘स्वः’’ है। इसे ब्रह्म दीक्षा कहते हैं। जब दूध अग्नि पर औटाकर नीचे उतार लिया जाता है और ठंडा हो जाता है तब उसमें दही का जामन देकर उसे जमा दिया जाता है, फलस्वरूप वह सारा दूध दही बन जाता है। मन्त्र द्वारा दृष्टिकोण परिमार्जन करके साधक अपने सांसारिक जीवन को प्रसन्नता और सम्पन्नता से ओत प्रोत करता है, अग्नि द्वारा अपने कुसंस्कारों, पापों, मलों, कषायों दुर्बलताओं को जलाता है उनसे अपना पिण्ड छुड़ाकर बन्धन मुक्त होता है एवं तप की ऊष्मा द्वारा अन्तःकरण को पका कर ब्राह्मी भूत करता है। दूध पकते पकते जब रबड़ी मलाई आदि की शकल में पहुंच जाता है तब उसका मूल्य और स्वाद बहुत बढ़ जाता है।
पहली ज्ञान भूमि दूसरी शक्ति भूमि और तीसरी ब्रह्म भूमि होती है। क्रमशः एक के बाद एक को पार करना पड़ता है। पिछली दो कक्षाओं को पा कर साधक जब तीसरी कक्षा में पहुंचता है तो उसे सद्गुरु द्वारा ब्रह्म दीक्षा लेने की आवश्यकता होती है। यह ‘परा’ वाणी द्वारा होती है। वैखरी वाणी द्वारा-मुंह से शब्द उच्चारण करके ज्ञान दिया जाता है। मध्यमा और पश्यन्ति वाणियों द्वारा शिष्य के प्राणमय और मनोमय कोश में अग्नि संस्कार किया जाता है। परा वाणी द्वारा-आत्मा बोलती है और उसका सन्देश दूसरी आत्मा सुनती हैं। जीभ की वाणी कान सुनते हैं, मन की वाणी नेत्र सुनते हैं, हृदय की वाणी हृदय सुनता है और आत्मा की वाणी आत्मा सुनती है। जीभ ‘वैखरी’ वाणी बोलती है। मन ‘मध्यमा’ बोलता है, हृदय की वाणी ‘पश्यन्ति’ कहलाती है और आत्मा ‘परा’ वाणी बोलती है। ब्रह्म दीक्षा में, जीभ, मन, हृदय किसी को नहीं बोलना पड़ता। आत्मा के अन्तरंग क्षेत्र से जो अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे दूसरी आत्मा ग्रहण करती है। उसे ग्रहण करने के पश्चात वह भी ऐसी ही ब्राह्मी भूत हो जाती है जैसे थोड़ा सा दही पड़ने से औटाया हुआ दूध सबका सब दही हो जाता है।
काला कोयला या सड़ी गली लकड़ी का टुकड़ा जब अग्नि में पड़ता है तो उसका पुराना स्वरूप बदल जाता है और वह अग्निमय होकर अग्नि के ही सब गुणों से सुसज्जित हो जाता है। वह कोयला या लकड़ी का टुकड़ा भी अग्नि के गुणों से परिपूर्ण हो जाता है और गर्मी प्रकाश तथा जलाने की शक्ति भी उसमें अग्नि के समान ही होती है। ब्राह्मी दीक्षा से ब्रह्मभूत हुए साधक का शरीर तुच्छ होते हुए भी उसकी अन्तरंग सत्ता ब्राह्मी भूत हो जाती है। उसे अपने भीतर बाहर चारों ओर सत् ही सत् दृष्टिगोचर होता है। विश्व में सर्वत्र उसे ब्रह्म ही ब्रह्म परिलक्षित होता।
गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर अपना विराट रूप दिखाया था, अर्थात् उसे वह ज्ञान दिया था जिससे विश्व के अन्तरंग में छिपी हुई अदृश्य ब्रह्म सत्ता का दर्शन कर सके। भगवान सब में व्यापक है पर उसे कोई विरले ही देखते, समझते हैं। भगवान ने अर्जुन को वह दिव्य दृष्टि दी जिससे उसकी तीक्ष्ण शक्ति इतनी सूक्ष्म और पारदर्शी हो गई कि वह उन दिव्य तत्वों का अनुभव करने लगा जिसे साधारण लोक नहीं कर पाते। इस दिव्य दृष्टि को ही पाकर योगी लोग आत्मा का, ब्रह्म का, साक्षात्कार अपने भीतर और बाहर करते हैं तथा ब्राह्मी गुणों से, विचारों से स्वभावों से, कार्यों से, ओत प्रोत हो जाते हैं। यशोदा ने, कौशल्या ने, काकभुषुण्डि ने ऐसी ही दिव्य दृष्टि पाई थी और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था, ईश्वर का दर्शन इसे ही कहते हैं। ब्रह्म दीक्षा पाने वाले शिष्य ईश्वर में अपनी समीपता और स्थिति वैसे ही अनुभव करता है जैसे कोयला अग्नि में पड़कर अपने को अग्निमय अनुभव करता है।
द्विजत्व की तीन कक्षाएं हैं (1) ब्राह्मण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य। पहली कक्षा है—वैश्य। वैश्य का उद्देश्य है, सुख सामग्रियों का उपार्जन। मन्त्र (विचार) द्वारा वह लोग व्यवहार सिखाया जाता है, वह दृष्टिकोण दिया जाता है जिसके द्वारा सांसारिक जीवन सुखमय, शान्तिपूर्ण, सफल एवं सुसम्पन्न बन सके। बुरे गुण, कर्म, स्वभावों के कारण लोग अपने आपको चिन्ता, भय, दुःख, रोग, क्लेश, एवं दरिद्रता के चंगुल में फंसा लेते हैं यदि उनका दृष्टिकोण सही हो, दश शूलों से बचे रहें तो निश्चय ही मानव जीवन स्वर्गीय आनन्द से ओत प्रोत होना चाहिए।
क्षत्रिय तत्व का आधार है शक्ति। शक्ति तप से उत्पन्न होती है। दो वस्तुओं को घिसने में गर्मी पैदा होती है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। बिजली की उत्पत्ति घर्षण से होती है। बुराइयों के, त्रुटियों के, कुसंस्कारों के विकारों के विरुद्ध संघर्ष कार्य को तप कहते हैं। तप से आत्मिक शक्ति उत्पन्न होती है और उसे जिस दिशा में भी प्रयुक्त किया जाय उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाते हैं। शक्ति स्वयं ही चमत्कार है। शक्ति का नाम ही सिद्धि है। अग्नि दीक्षा से तप का प्रारम्भ होता है, आत्म दमन के लिए युद्ध छेड़ा जाता है। गीता में भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया था कि तू ‘‘निरन्तर युद्ध कर’’ निरन्तर युद्ध किससे करता? महाभारत तो थोड़े ही दिन में समाप्त हो गया था, फिर अर्जुन निरन्तर किससे लड़ता? भगवान का संकेत आन्तरिक शत्रुओं से संघर्ष जारी रखने का था। यही अग्नि दीक्षा का उपदेश था। अग्नि दीक्षा से दीक्षित के क्षत्रियत्व का, साहस का, शौर्य का, पुरुषार्थ का, पराक्रम का विकास होता है। इससे यह यश का भागी बनता है।
मन्त्र दीक्षा से साधक व्यवहार कुशल बनता है और अपने जीवन को सुख, शान्ति, सहयोग एवं सम्पन्नता से भरा पूरा कर लेता है। अग्नि दीक्षा से उसकी प्रतिमा प्रतिष्ठा ख्याति, प्रशंसा एवं महानता का प्रकाश होता है। दूसरों का सिर उसके चरणों पर स्वतः झुक जाता है। लोग उसे नेता मानते हैं उसका अनुसरण और अनुगमन करते हैं। इस प्रकार उपरोक्त दो दीक्षाओं द्वारा वैश्व और क्षत्रिय बनने के उपरान्त साधक ब्राह्मण बनने के लिए अग्रसर होता है। ब्रह्म दीक्षा से उसे ‘‘दिव्य दृष्टि’’ मिलती है। इसे नेत्रोन्मीलन कहते हैं।
शंकर जी ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला दिया था। अर्जुन को भगवान ने ‘‘दिव्यं ददामि ते चक्षुम्’’ दिव्य नेत्र देकर अपने विराट् स्वरूप का दर्शन सम्भव करा दिया था। यह तृतीय नेत्र हर योगी का खुलता है, उसे वे बातें दिखाई पड़ती हैं जो साधारण व्यक्तियों को नहीं दीखतीं। उनको कण कण में परमात्मा का पुण्य प्रकाश बहुमूल्य रत्नों की तरह जगमगाता हुआ दिखाई देता है। भक्त माइकेल को प्रत्येक शिला में एक स्वर्गीय अप्सरा दिखाई पड़ती थी। सामान्य व्यक्तियों की दृष्टि बड़ी संकुचित होती है वे आज के हानि लाभों में ही रोते हंसते हैं पर ब्रह्मज्ञानी दूर तक देखता है, वह वस्तु स्थिति पर पारदर्शी विचार करता है और प्रत्येक परिस्थिति में प्रभु की लीला एवं दया का अनुभव करता हुआ प्रसन्न रहता है। विश्व मानव की सेवा में ही वह अपना जीवन लगाता है। इस प्रकार ब्रह्म दीक्षा में दीक्षित हुआ साधक परम भागवत होकर, परम शान्ति को अन्तःकरण में धारण करता हुआ दिव्य तत्वों से परिपूर्ण होता जाता है। इस श्रेणी के साधकों को ही भूसुर कहते हैं।
कल्याण मन्दिर प्रवेश द्वार —तीन दीक्षाओं से तीन वर्णों में प्रवेश मिलता है। दीक्षा का अर्थ है—विधिवत् व्यवस्थित कार्यक्रम और निश्चित श्रद्धा। यों कोई विद्यार्थी नियत कोर्स न पढ़कर, नित्य कक्षा में न बैठ कर, कभी कोई, कभी कोई, पुस्तक पढ़ता रहे तो भी धीरे उसका ज्ञान बढ़ता ही रहेगा और क्रमशः उसके ज्ञान में उन्नति होती ही जायगी। सम्भव है वह अव्यवस्थित क्रम से भी ग्रेजुएट बन जाय, पर यह मार्ग है कष्ट साध्य और लम्बा। क्रमशः एक एक कक्षा पार करते हुए एक एक कोर्स पूरा करते हुए, निर्धारित क्रम से यदि पढ़ाई जारी रखी जाय तो अध्यापक को भी सुविधा रहती है और विद्यार्थी को भी। यदि विद्यार्थी आज कक्षा 5 की कल कक्षा 10 की, आज संगीत की, कल डाक्टरी की, पुस्तकें पढ़े तो उसे याद करने में और शिक्षक को पढ़ाने में असुविधा होगी। इसलिए ऋषियों ने आत्मोन्नति की तीन भूमिकाएं निर्धारित करदी हैं। द्विजत्व को तीन भागों में बांट दिया है। क्रमशः एक एक कक्षा में प्रवेश करना और नियम, प्रतिबन्ध, आदेश एवं अनुशासन को श्रद्धा पूर्वक मानना इसी का नाम दीक्षा है।
तीन कक्षाओं को उत्तीर्ण करने के लिए तीन बार भर्ती होना पड़ता है। कई जगह एक ही अध्यापक तीनों कक्षाओं को पढ़ाते हैं, कई जगह हर कक्षा के लिए अलग अध्यापक होते हैं कई बार तो स्कूल ही बदलने पड़ते हैं। प्राइमरी स्कूल उत्तीर्ण करके हाईस्कूल में भर्ती होना पड़ता है। और हाई स्कूल पास करके कालेज में नाम लिखाना पड़ता है। तीनों विद्यालयों की पढ़ाई पूरी करने पर एम.ए. की पूर्णता प्राप्त होती है।
इन तीन कक्षाओं के अध्यापकों की योग्यता भिन्न भिन्न होती है। प्रथम कक्षा में सद् विचार और सत् आचार सिखाया जाता है। इसके लिए कथा, प्रवचन, सत्संग, भाषण, पुस्तक, प्रचार, शिक्षण, सलाह, तर्क आदि साधन काम में लाये जाते हैं। इनके द्वारा मनुष्य की विचार भूमिका का सुधार होता है, कुविचारों के स्थान पर सद्विचार स्थापित होते हैं, जिनके कारण साधक अनेक शूलों और क्लेशों से बचता हुआ, सुख शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर लेता है। इस प्रथम कक्षा के विद्यार्थी को गुरु के प्रति ‘श्रद्धा’ रखना आवश्यक है। श्रद्धा न होगी तो उन वचनों का, उपदेशों का न तो महत्व समझ में आवेगा और न उन पर विश्वास होगा। प्रत्यक्ष है कि उसी बात को कोई महापुरुष कहे तो लोग उसे बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं और उसी बात को यदि तुच्छ मनुष्य कहे तो कोई कान नहीं देता। दोनों ने एक ही बात कही पर एक के कहने पर उपेक्षा की गई दूसरे के कहने पर ध्यान दिया गया इसमें कहने वाले के ऊपर सुनने वालों की श्रद्धा या अश्रद्धा का होना ही प्रधान कारण है। किसी व्यक्ति पर विशेष श्रद्धा हो तो उसकी साधारण बातें भी असाधारण प्रतीत होती हैं।
रोज सैकड़ों कथा, प्रवचन, व्याख्यान होते हैं। अखबारों में, पर्चों, पोस्टरों में तरह तरह की बातें सुनाई जाती हैं, रेडियो से नित्य ही उपदेश सुनाएं जाते हैं पर उन पर कोई कान नहीं देता, कारण यही है सुनने वाले की उन सुनाने वालों के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा नहीं होती, इसलिए वे महत्वपूर्ण बातें भी निरर्थक एवं उपेक्षणीय मालूम देती हैं। कोई उपदेश तभी प्रभावशाली हो सकता है जब उसका देने वाला, सुनने वालों का श्रद्धास्पद हो। वह श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी उतना ही अधिक उपदेश का प्रभाव पड़ेगा। प्रथम कक्षा के मन्त्र दीक्षित गायत्री का समुचित लाभ उठा सकें इस दृष्टि से साधक को, दीक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा रखेगा। उसे वह देवतुल्य या परमात्मा का प्रतीक मानेगा। इसमें कुछ विचित्रता भी नहीं है। श्रद्धा के कारण जब मिट्टी पत्थर और धातु की बनी मूर्तियां, हमारे लिए देव बन जाती हैं तो कोई कारण नहीं कि एक जीवित मनुष्य में देवत्व का आरोपण करके अपनी श्रद्धानुसार अपने लिए उसे देव न बना लिया जाय।
श्रद्धा का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता —एकलव्य भील ने, मिट्टी के द्रोणाचार्य बना कर उनसे बाण विद्या सीखी थी, और उस मूर्ति ने उस भील को बाण विद्या का इतना पारंगत कर दिया था कि उसके द्वारा वाणों से कुत्ते का मुंह सी दिये जाने पर द्रोणाचार्य से प्रत्यक्ष पढ़ने वाले पाण्डवों को ईर्ष्या हुई थी। स्वामी रामानन्द के मना करते रहने पर भी कबीर उनके शिष्य बन बैठे और अपनी तीव्र श्रद्धा के कारण वह लाभ प्राप्त किया जो उनके विधिवत् दीक्षित शिष्यों में से एक भी प्राप्त न कर सका था। रजोधर्म होने पर गर्भाशय में एक बूंद वीर्य का पहुंच जाना गर्भ धारण कर देता है। जिसे रजो दर्शन न होता हो उस बन्ध्या स्त्री के लिए पूर्ण पुंसत्व शक्ति वाला पति भी गर्भ स्थापित नहीं करा सकता। श्रद्धा एक प्रकार का रजोधर्म है, जिससे साधक के अन्तःकरण में सदुपदेश जमते और फलते फूलते हैं। अश्रद्धालु के मन पर ब्रह्मा का उपदेश भी कुछ प्रभाव नहीं डाल सकता। श्रद्धा के अभाव में किसी महापुरुष के दिन रात साथ रहने पर भी कोई व्यक्ति कुछ लाभ नहीं उठा सकता है और श्रद्धा होने पर दूरस्थ व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। इसलिए आरम्भिक कक्षा के मन्त्र दीक्षित को गुरु के प्रति तीव्र श्रद्धा की धारणा करनी पड़ती है।
विचारों को मूर्तिमान रूप देने के लिए उनको प्रकट रूप से व्यवहार में लाना पड़ता है। जितने भी धार्मिक कर्म-काण्ड, दान-पुण्य, व्रत-उपवास, हवन-पूजन, कथा-कीर्तन आदि हैं वे सब इसी प्रयोजन के लिए हैं कि आन्तरिक श्रद्धा व्यवहार में प्रकट होकर साधक के मन में परिपुष्ट हो जाय। गुरु के प्रति मन्त्र दीक्षा में ‘‘श्रद्धा’’ की शर्त होती है। श्रद्धा न हो या शिथिल हो तो वह दीक्षा केवल चिन्ह पूजा मात्र है। अश्रद्धालु की गुरु दीक्षा से कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। दीक्षा के समय स्थापित हुई श्रद्धा, कर्मकाण्ड के द्वारा सजग रहे इसी प्रयोजन के लिए समय समय पर गुरु पूजन किया जाता है। दीक्षा के समय वस्त्र, पात्र, पुष्प भोजन, दक्षिणा द्वारा गुरु का पूजन करते हैं। गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ सुदी 15) को यथा शक्ति उनके चरणों में श्रद्धांजलि के रूप में कुछ भेंट पूजा अर्पित करते हैं। यह प्रथा अपनी आन्तरिक श्रद्धा को मूर्त रूप देने, बढ़ाने एवं परिपुष्ट करने के लिए है। केवल विचार मात्र से कोई भावना परिपक्व नहीं होती। क्रिया और विचार दोनों के सम्मिश्रण से एक संस्कार बनता है, जो मनोभूमि में स्थिर होकर आशा जनक परिणाम उपस्थित करता है।
प्राचीन काल में यह नियम था कि गुरु के पास जाने पर शिष्य कुछ वस्तु भेंट के लिए ले जाता था चाहे वह कितने ही स्वल्प मूल्य की क्यों न हो। समिधा की लकड़ी हाथ में लेकर शिष्य गुरु के सम्मुख जाते थे इसे ‘समित्पाणि’ कहते थे। वे समिधाएं उनकी श्रद्धा की प्रतीक होती हैं चाहे उनका मूल्य कितना ही कम क्यों न हो। शुकदेव जी जब राजा जनक के पास ब्रह्म विद्या की शिक्षा लेने गये तो राजा जनक मौन रहे उनने एक शब्द भी उपदेश न दिया। शुकदेव जी वापिस लौट आये। पीछे उन्हें ध्यान आया कि भले ही मैं संन्यासी हूं, राजा जनक, गृहस्थ हैं, पर जब कि मैं उनसे कुछ सीखने गया तो अपनी श्रद्धा का प्रतीक साथ लेकर जाना चाहिए था। दूसरी बार शुकदेव जी हाथ में समिधाएं लेकर नम्र भाव से उपस्थित हुए तो उनने विस्तार पूर्वक ब्रह्म विद्या समझाई।
श्रद्धा न हो तो सुनने वाले का और कहने वाले का श्रम तथा समय निरर्थक जाता है। इसलिए शिक्षण के समान ही श्रद्धा बढ़ाने का भी प्रयत्न जारी रहना चाहिए। निर्धन व्यक्ति भले ही न्यूनतम मूल्य की वस्तुएं ही क्यों भेट न करें उन्हें सदैव गुरु को बार बार अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह भेट पूजन एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है जिससे श्रद्धा रूपी ‘‘ग्रहण शक्ति’’ का तीव्र विकास होता है। श्रद्धा ही वह अस्त्र है जिससे परमात्मा को पकड़ा जा सकता है। भगवान और किसी वस्तु से वश में नहीं आते वे केवल मात्र श्रद्धा के ब्रह्म पास में ही फंस कर भक्त के गुलाम बनते हैं। ईश्वर को परास्त करने का एटम बम श्रद्धा ही है। इस महानतम दैवी सम्मोहनास्त्र को बनाने और चलाने का प्रारम्भिक अभ्यास गुरु से किया जाता जब यह शस्त्र भली प्रकार हाथ में आ जाता है तो उससे भगवान को वश में कर लेना साधक के बाएं हाथ का खेल हो जाता है।
आरम्भिक कक्षा का रसास्वादन करने पर साधक की मनोभूमि काफी सुदृढ़ और परिपक्व हो जाती है। वह भौतिकवाद की तुच्छता और आत्मिकवाद की महानता व्यवहारिक दृष्टि से, वैज्ञानिक दृष्टि से दार्शनिक दृष्टि से समझ लेता है, तब उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि मेरा लाभ आत्म कल्याण के मार्ग पर चलने में ही है। श्रद्धा परिपक्व होकर जब निष्ठा के रूप में परिणित हो जाती है तो वह भीतर से काफी मजबूत हो जाती है। अपने लक्ष को प्राप्त करने के लिए उसमें इतनी दृढ़ता होती है कि वह कष्ट सह सके तप कर सके, त्याग की परीक्षा का अवसर आवे तो विचलित न हो। जब ऐसी पक्की मनोभूमि होती है जो ‘गुरु’ द्वारा उसे अग्नि दीक्षा देकर कुछ और गरम किया जाता है जिससे उसके मल जल जायं, कीर्ति का प्रकाश हो तथा तप की अग्नि में पक कर वह पूर्णता को प्राप्त हो।
तपस्वी की गुरु दक्षिणा —गीली लकड़ी को केवल धूप में सुखाया जाता है। उसे थोड़ी सी गर्मी पहुंचाई जाती है। धीरे धीरे उसकी नमी सुखाई जाती है। पर जब वह भली प्रकार सूख जाती है तो उसे अग्नि में देकर मामूली लकड़ी से महा शक्तिशाली प्रचंड अग्नि के रूप में परिणित कर दिया जाता है। गीली लकड़ी को चूल्हे में दिया जाय तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। प्रथम कक्षा के साधक पर केवल गुरु श्रद्धा की जिम्मेदारी है और दृष्टिकोण को सुधार कर अपना प्रत्यक्ष जीवन सुधारना होता है। यह सब प्रारम्भिक छात्र के उपयुक्त है। यदि आरम्भ में ही तीव्र साधना में नये साधक को फंसा दिया जाय तो वह बुझ जायगा। तप की कठिनाई देखकर वह डर जायगा और प्रयत्न छोड़ बैठेगा। दूसरी कक्षा का छात्र चूंकि धूप में सूख चुका है इसलिए उसे कोई विशेष कठिनाई मालूम नहीं देती वह हंसते हंसते साधना के श्रम का बोझ उठा लेता है।
अग्नि दीक्षा के साधक को तपाने के लिए कई प्रकार के संयम, व्रत, नियम, त्याग आदि करने कराने होते हैं। प्राचीन काल में उद्दालक, धौम्य, आरुणि, उपमन्यु, कच, श्लीमुख, जरुत्कार, हरिश्चन्द्र, दशरथ, नचिकेता, शेष, विरोचन, जाबालि सुमनस, अम्बरीष, दलीप आदि अनेक शिष्यों ने अपने गुरुओं के आदेशानुसार अनेक कष्ट सहे और उनके बताये हुए कार्यों को पूरा किया। स्थूल दृष्टि से इन महापुरुषों के साथ गुरुओं को जो व्यवहार था वह ‘हृदय हीनता’ कहा जा सकता है। पर सच्ची बात यह है कि उन्होंने स्वयं निन्दा और बुराई को अपने ऊपर ओढ़ कर शिष्यों को अनन्त काल के लिए प्रकाशवान एवं अमर कर दिया। यदि कठिनाइयों में होकर राजा हरिश्चन्द्र को न गुजरना पड़ा होता तो वे भी असंख्यों राजा रईसों की भांति विस्मृति के गर्त में चले गये होते।
अग्नि दीक्षा पाकर शिष्य गुरू से पूछता है कि—‘‘आदेश कीजिए, कि मैं आपके लिए क्या गुरु दक्षिणा उपस्थित करूं?’’ गुरू देखता है कि शिष्य की मनोभूमि, सामर्थ्य, योग्यता, श्रद्धा, त्याग वृत्ति कितनी है उसी आधार पर वह उससे गुरू दक्षिणा मांगता है। यह याचना अपने लिए रुपया पैसा, धन दौलत देने के रूप में कदापि नहीं हो सकती। सद्गुरु सदा परम त्यागी, अपरिग्रही, कष्ट सहिष्णु एवं स्वल्प संतोषी होते हैं। उन्हें अपने लिए शिष्य से या किसी से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं होती। जो गुरु अपने लिए कुछ मांगता है वह गुरु नहीं भिक्षुक है। ऐसे लोग गुरु जैसे परम पवित्र पद के अधिकारी कदापि नहीं हो सकते। अग्नि दीक्षा देकर गुरु जो कुछ मांगता है वह शिष्य को अधिक उज्ज्वल, अधिक सुदृढ़, अधिक उदार, अधिक तपस्वी, बनाने के लिए होता है। यह याचना उसके यश का विस्तार करने के लिए, पुण्य को बढ़ाने के लिए, एवं उसे त्याग का आत्म संतोष देने करने के लिए होती है।
‘‘गुरु दक्षिणा मांगिए’’ शब्दों में शिष्य कहता है कि ‘मैं सुदृढ़ हूं, मेरी आत्मिक स्थिति की परीक्षा लीजिए।’ स्कूल कालेजों में परीक्षा ली जाती है। उत्तीर्ण छात्र की योग्यता एवं प्रतिष्ठा को, वह उत्तीर्णता का प्रमाण पत्र अनेक गुना बढ़ा देता है। परीक्षा न दी जाय तो योग्यता का क्या पता चले? संसार में किसी व्यक्ति की महानता का पुण्य प्रसार करने के लिए, उसके गौरव को सर्व साधारण पर प्रकट करने के लिए, साधक को अपनी महानता पर आत्म विश्वास कराने के लिए, गुरु अपने शिष्य से गुरु दक्षिणा मांगता है। शिष्य उसे देकर धन्य हो जाता है।
प्रारम्भिक कक्षा में मंत्र दीक्षा का शिष्य सामर्थ्यानुसार गुरु पूजन करता है। श्रद्धा रखना और उसकी सलाहों के अपने दृष्टिकोण को सुधारना, बस इतना ही उसका कार्य क्षेत्र है। न वह गुरु दक्षिणा मांगने के लिए गुरु से कहता है और न गुरु उससे मांगता ही है। दूसरी कक्षा का शिष्य अग्नि दीक्षा लेकर ‘‘गुरु दक्षिणा मांगने’’ के लिए, उसकी परीक्षा लेने के लिए प्रार्थना करता है। गुरु इस कृपा को करना स्वीकार कर के शिष्य की प्रतिष्ठा महानता, कीर्ति एवं प्रमाणिकता में चार चांद लगा देता है गुरु की याचना सदैव ऐसी होती है जो सबके लिए, सब दृष्टियों से, परम कल्याण कारक हो, उस व्यक्ति का तथा समाज का उससे भला होता हो। कई बार निर्बल मनोभूमि को लोग भी आगे बढ़ाये जाते हैं उनसे गुरु दक्षिणा में ऐसी छोटी चीज मांगी जाती है जिन्हें सुनकर हंसी आती है। अमुक फल, अमुक शाक, अमुक मिठाई आदि का त्याग कर देने जैसी याचना कुछ महत्व नहीं रखती। पर शिष्य का मन हलका हो जाता है वह अनुभव करता है कि मैंने त्याग किया, गुरु के आदेश का पालन किया गुरु दक्षिणा चुका दी, ऋण से उऋण हो गया और परीक्षा उत्तीर्ण करली। बुद्धिमान गुरु साधक की मनोभूमि और आन्तरिक स्थिति देखकर ही उसे तपाते हैं।
ब्रह्म दीक्षा की दक्षिणा ‘आत्म दान’ —क्रमशः दीक्षा का महत्व बढ़ता है, साथ ही उसका मूल्य भी बढ़ता है। जो वस्तु जितनी बढ़िया होती है उसका मूल्य भी उसी अनुपात से होता है। लोहा सस्ता बिकता है। कम पैसे देकर मामूली दुकानदार से लोहे की वस्तु खरीदी जा सकती है पर यदि सोना या जवाहरात खरीदने हों तो ऊंची दुकान जाना पड़ेगा और बहुत दाम खर्च करना पड़ेगा। ब्रह्म दीक्षा में न विचार शक्ति से काम चलता है और न प्राण शक्ति से। एक आत्मा दूसरी आत्मा से ‘परा’ वाणी द्वारा वार्तालाप करती हैं। आत्मा की भाषा को ‘परा’ कहते हैं। वेखरी वाणी को कान सुनते हैं, ‘मध्यमा’ को मन सुनता है, पश्यन्ति हृदय को सुनाई पड़ती है और ‘परा’ वाणी द्वारा दो आत्माओं में संभाषण होता है। अन्य वाणियों की बात आत्मा नहीं पाती। जैसे चींटी की समझ में मनुष्य की वाणी नहीं आती और मनुष्य चींटी की वाणी को नहीं सुन पाता, उसी प्रकार आत्मा तक व्याख्यान आदि नहीं पहुंचते उपनिषद् का वचन है कि ‘‘बहुत पढ़ने से, बहुत सुनने से आत्मा की प्राप्त नहीं होती। बल हीनों को भी वह प्राप्त नहीं होती’’ कारण स्पष्ट है यह बातें आत्मा तक पहुंचती ही नहीं तो वह सुनी कैसे जायगी!
कीचड़ में फंसे हुए हाथी को दूसरा हाथी ही निकालता है। पानी में बहते जाने वाले को कोई तैरने वाला ही पार निकालता है। राजा की सहायता करना किसी राजा को ही सम्भव है। एक आत्मा में ब्रह्म ज्ञान जागृत करना, उसे ब्राह्मीभूत, ब्रह्म परायण बनाना केवल उसी के लिए संभव है जो स्वयं ब्रह्म तत्व से ओत प्रोत हो रहा हो। जिसमें स्वयं अग्नि होगी वही दूसरों को प्रकाश और गर्मी दे सकेगा अन्यथा अग्नि का चित्र कितना ही आकर्षक क्यों न हो उससे कुछ पकाने का प्रयोजन सिद्ध न होगा।
कई व्यक्ति साधु महात्माओं का भेष बना लेते हैं पर उनमें ब्रह्मतेज की अग्नि नहीं होती, जिसमें साधुता हो वही साधु है, जिसकी आत्मा महान् हो वही महात्मा है, जिसको ब्रह्म का ज्ञान हो वही ब्राह्मण है, जिसने रागों से मन को बचा लिया है वही वैरागी है, जो स्वाध्याय में मनन में लीन रहता हो वही मुनि है, जिसने अहंकार को मोह ममता को त्याग दिया है वही संन्यासी है, जो तप में प्रवृत्त हो वही तपसी है। कौन क्या है? इसका निर्णय गुण कर्म से होता है, वेश से नहीं। इसलिए ब्रह्म परायण होने के लिए कोई वेश से नहीं। इसलिए ब्रह्म परायण होने के लिए कोई वेश बनाने की आवश्यकता नहीं। दूसरों को बिना प्रदर्शन किये, सीधे साधे तरीके से रहकर जब आत्म कल्याण किया जा सकता है तो व्यर्थ में लोक दिखावा क्यों किया जाय? सादा वस्त्र, सादा वेष और सादा जीवन में जब महानतम आत्मिक साधना हो सकती है तो असाधारण वेश तथा अस्थिर कार्यक्रम क्यों अपनाया जाय? पुराने समय अब नहीं रहे, पुरानी परिस्थितियां भी अब नहीं है। आज की स्थिति में सादा जीवन में ही आत्मिक विकास की संभावना अधिक है।
ब्राह्मी दृष्टि का, दिव्य दृष्टि का, प्राप्त होना ही ब्रह्म समाधि है। सर्वत्र सब में ईश्वर का दिखाई देना, अपने अन्दर तेज पुंज की उज्ज्वल झांकी होना, अपनी इच्छा और आकांक्षाओं का दिव्य, दैवी हो जाना, यही ब्राह्मी स्थिति है। पूर्व युगों में आकाश तत्व की प्रधानता थी दीर्घ काल तक प्राणों को रोक कर ब्रह्माण्ड में एकत्रित कर लेना और शरीर को निःचेष्ट कर देना ‘समाधि’ कहलाता था उन युगों में वायु और अग्नि तत्वों की प्रधानता थी। आज के युग में जल और पृथ्वी तत्व की प्रधानता होने से ब्राह्मी स्थिति को ही समाधि कहते हैं। इस युग के सर्व श्रेष्ठ शास्त्र ‘भगवद् गीता’ के दूसरे अध्याय में इसी ब्रह्म समाधि की विस्तार पूर्वक शिक्षा दी गई है। इस स्थिति को प्राप्त करने वाला ब्रह्म समाधिस्थ ही कहा जायगा।
अब भी कई व्यक्ति जमीन में गड्ढे खोद कर उनमें बन्द हो जाने का प्रदर्शन करके अपने को समाधिस्थ सिद्ध करते हैं। यह बाल क्रीड़ा अत्यन्त उपहासास्पद है। वह मन की घबराहट पर काबू पाने की मानसिक साधना का चमत्कार मात्र है। अन्यथा लम्बे चौड़े गड्ढे में कोई भी आदमी काफी लम्बी अवधि तक सुख पूर्वक रह सकता है। रात भर लोग रुई की रजाई में मुंह बन्द करके सोते रहते हैं रजाई के भीतर की जरा सी हवा से रात भर का गुजारा हो जाता है तो लम्बे चौड़े गड्ढे की हवा आसानी से दस पन्द्रह दिन काम दे सकती है। फिर भूमि में स्वयं भी हवा रहती है। गुफाओं में रहने का अभ्यासी मनुष्य आसानी से जमीन में गढ़ने की समाधि का प्रदर्शन कर सकता है। ऐसे क्रीड़ा कौतुकों की ओर ध्यान देने की सच्चे ब्रह्मज्ञानी को कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती।
परावाणी द्वारा अन्तरंग प्रेरणाआत्मा में ब्रह्म तत्व का प्रवेश करने में दूसरी आत्मा द्वारा आया हुआ ब्रह्म संस्कार बड़ा काम करता है। सांप जब किसी को काटता है तो तिल भर जगह में दांत गढ़ता है, और विष भी कुछ रत्ती ही डालता है। पर वह तिल भर जगह में डाला हुआ रत्ती भर विष धीरे धीरे सम्पूर्ण शरीर में फैल जाता है, सारी देह विषैली हो जाती है और अन्त में परिणाम मृत्यु होता है। ब्रह्म दीक्षा भी आध्यात्मिक ‘सर्प दंशन’ है। एक का विष दूसरे को चढ़ जाता है। अग्नि की एक चिनगारी सारे ढेर को अग्नि रूप कर देती है। भले प्रकार स्थिति किया हुआ दीक्षा संस्कार, तेजी से फैलती है थोड़े ही समय में पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाता है। ब्रह्मज्ञान की पुस्तक पढ़ते रहने और आध्यात्मिक प्रवचन सुनते रहने से मनोभूमि तो तैयार होती है पर बीज बोये बिना अंकुर नहीं उगता, और अंकुर को सींचे बिना, शीतल छाया और मधुर फल देने वाला वृक्ष नहीं होता। स्वाध्याय और सत्संग के अतिरिक्त आत्म कल्याण के लिए साधना की भी आवश्यकता होती है। साधना की जड़ में सजीव प्राण और सजीव प्रेरणा हो तो वह अधिक सुगमता और सुविधा पूर्वक विकसित होती है।
ब्राह्मी स्थिति का साधक, अपने भीतर और बाहर ब्रह्म का पुण्य प्रकाश प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है। उसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह ब्रह्म की गोदी में किलोल कर रहा है, ब्रह्म के अमृत सिन्धु में आनन्द मग्न हो रहा है। इस दशा में पहुंच कर वह जीवन मुक्त हो जाता है। जो प्रारब्ध बन चुके हैं उन कर्मों का लेखा जोखा पूरा करने के लिए वह जीवित रहता है। जब वह हिसाब बराबर हो जाता है तो पूर्ण शान्ति एवं पूर्ण ब्राह्मी स्थिति में जीवन लीला समाप्त हो जाती है, फिर उसे भव बन्धन में लौटना नहीं होता। प्रारब्धों को पूरा करने के लिए वह शरीर धारण किये रहता है, सामान्य श्रेणी के मनुष्यों की भांति सीधा साधा जीवन बिताता है, तो भी उसकी आत्मिक स्थिति बहुत ऊंची होती है। हमारी जानकारी में ऐसे अनेक ऋषि राजर्षि और ब्रह्मर्षि हैं जो बाह्यतः बहुत ही साधारण रीति से जीवन बिता रहे हैं पर उनकी आन्तरिक स्थिति सतयुग आदि के श्रेष्ठ ऋषियों के समान ही महान है। युग प्रभाव से आज चमत्कारों का युग नहीं रहा तो भी आत्मा की उन्नति में कभी कोई युग बाधा नहीं डाल सकता। पूर्व काल में जैसी महान आत्माएं होती थीं, आज भी वह सब क्रम यथावत जारी है। उस समय वे योगी आसानी से पहचान लिये जाते थे, आज उनका पहचानना कठिन है। इस कठिनाई के होते हुए भी आत्म विकास का मार्ग सदा की भांति अब भी खुला हुआ है।
ब्रह्म दीक्षा के अधिकारी गुरु शिष्य ही इस महान सम्बन्ध को स्थापित कर सकते हैं। शिष्य, गुरु को आत्म समर्पण करता है, गुरु उसके कार्यों का उत्तरदायित्व एवं परिणाम अपने ऊपर लेता है। ईश्वर को आत्म समर्पण करने की प्रथम भूमिका गुरु को आत्म समर्पण करना है। शिष्य अपना सब कुछ गुरु को समर्पण करता है। गुरु उस सबको अमानत के तौर पर शिष्य को लौटा देता है और आदेश कर देता है कि इन सब वस्तुओं को गुरु की समझ कर उपयोग करो इस समर्पण से प्रत्यक्षतः कोई विशेष हेर फेर नहीं होता। क्यों कि ब्रह्म ज्ञानी गुरु अपरिग्रही होने के कारण उस सब ‘समर्पण’ का करेगा भी क्या? दूसरे व्यवस्था एवं व्यवहारिकता की दृष्टि से भी उसका सौंपा हुआ सब कुछ उसी के संरक्षण में ठीक प्रकार रह सकता है। इसलिए बाह्यतः इस समर्पण में कुछ विशेष बात प्रतीत नहीं होती पर आत्मिक दृष्टि से इस ‘आत्म दान’ का मूल्य इतना भारी है कि उसकी तुलना और किसी त्याग या पुण्य से नहीं हो सकती।
जब दो चार रुपया दान करने पर मनुष्य को इतना आत्म संतोष और पुण्य प्राप्त होता है तब शरीर भी दान कर देने से पुण्य और आत्म संतोष की अन्तिम मर्यादा समाप्त हो जाती है। आत्म दान से बड़ा और कोई दान इस संसार में किसी प्राणी से सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए इसकी तुलना में इस विश्व ब्रह्माण्ड में और कोई पुण्य फल भी नहीं है। नित्य सवा मन सोने का दान करने वाला कर्ण ‘दान वीर’ के नाम से प्रसिद्ध था, पर उसके पास भी दान के बाद कुछ न कुछ अपना रह जाता था। जिस दानी ने अपना कुछ छोड़ा ही नहीं उसकी तुलना किसी दानी से नहीं हो सकती।
‘आत्म दान’ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक महान कार्य है। अपनी सब वस्तुएं जब वह गुरु की, अन्त में परमात्मा की, समझ कर उनके आदेशानुसार नौकर की भांति प्रयोग करता है, तो उसके स्वार्थ, मोह, अहंकार, मान, मद, मत्सर, क्रोध आदि सभी समाप्त हो जाते हैं। जब अपना कुछ रहा ही नहीं तो ‘मेरा’ क्या? अहंकार किस बात का? जब उपार्जित की हुई वस्तुओं का स्वामी गुरु या परमात्मा ही है तो स्वार्थ कैसा? जब हम नौकर मात्र रह गये तो हानि लाभ में शोक संताप कैसा? इस प्रकार ‘आत्म दान’ में वस्तुतः ‘अहंकार’ का दान होता है। वस्तुओं के प्रति ‘मेरी’ भावना न रहकर ‘गुरु की’ या परमात्मा की भावना हो जाती है। यह ‘‘भावना परिवर्तन’’ आत्म परिवर्तन-एक असाधारण एवं रहस्यमय प्रक्रिया है। इसके द्वारा साधक सहज ही बन्धनों से खुल जाता है। अहंकार के कारण जो अनेक संस्कार उसके ऊपर लदते थे वे एक भी उसके ऊपर नहीं लदते। जैसे छोटा बालक अपने ऊपर कोई बोझ नहीं लेता, उसका सब कुछ बोझ माता पिता पर रहता है। इसी प्रकार आत्म दानी का बोझ भी किसी दूसरी उच्च सत्ता पर चला जाता है।
ब्रह्म दीक्षा का शिष्य गुरु को ‘आत्म दान’ करता है। मंत्र दीक्षित को ‘गुरु पूजा’ करनी पड़ती है। अग्नि दीक्षित को ‘गुरु दीक्षा’ देनी पड़ती है। ब्रह्म दीक्षित को आत्म समर्पण करना पड़ता है। राम को राज्य का अधिकारी मानकर उनकी खड़ाऊं सिंहासन पर रख कर जैसे भरत राज काज चलाते रहे वैसे ही आत्म दानी अपनी वस्तुओं का समर्पण करके उनके व्यवस्थापक के रूप में स्वयं काम करता रहता है।
वर्तमानकालीन कठिनाइयाँ - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ -
आज व्यापक रूप से अनैतिकता फैली हुई है। स्वार्थी और धूर्तों का बाहुल्य है। सच्चे और सत्पात्रों का भारी अभाव हो रहा है। और आज न तो तीव्र उत्कंठा वाले शिष्य हैं और न सच्चा पथ प्रदर्शन की योग्यता रखने वाले चरित्रवान तपस्वी, दूरदर्शी एवं अनुभवी गुरु ही रहे हैं। ऐसी दशा में गुरु शिष्य सम्बन्ध की महत्वपूर्ण आवश्यकता का पूरा होना कठिन हो रहा है। शिष्य चाहते हैं कि उन्हें कुछ न करना पड़े, कोई ऐसा गुरु मिले जो उनकी नम्रता मात्र से प्रसन्न होकर सब कुछ उनके लिए करके रख दे। गुरुओं की मनोवृत्ति यह है कि शिष्यों को उल्लू बनाकर उनसे आर्थिक लाभ उठाया जाय, उनकी श्रद्धा को दुहा जाय। ऐसे जोड़े—‘‘लोभी गुरु लालची चेला। दुहूं नरक में ठेलम ठेला।’’ का उदाहरण बनते हैं। ऐसे ही लोगों की अधिकता के कारण यह महान सम्बन्ध शिथिल हो गया है। अब किसी को गुरु बनाना एक आडम्बर में फंसना और किसी को शिष्य बनाना एक झंझट मोल लेना समझा जाता है। जहां सचाई है वहां दोनों ही पक्ष सम्बन्ध जोड़ते हुए कतराते हैं। फिर भी आज की विषम स्थिति कितनी ही बुरी और कितनी ही निराशा जनक क्यों न हो पर एक भारतीय धर्म की मूलभूत आधार शिला का महत्व कम नहीं हो सकता।
गायत्री द्वारा आत्म विकास की तीनों कक्षाएं पार की जाती हैं। सर्व साधारण की जानकारी के लिए ‘‘गायत्री महाविज्ञान’’ के तीन खंडों में यथा सम्भव उपयोगी जानकारी देने का हमने प्रयत्न किया है। उन पुस्तकों में वह शिक्षा मौजूद है जिसे दृष्टिकोण का परिमार्जन एवं मंत्र दीक्षा कहते हैं। यज्ञोपवीत का रहस्य, गायत्री ही कल्प वृक्ष है, गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री रामायण, गायत्री उपनिषद्, गायत्री की दस भुजा आदि प्रकरणों में यह बताया गया है। कि हम अपने विचारों, भावनाओं और इच्छाओं में संशोधन करके किस प्रकार सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इन्हीं तीनों खंडों में अग्नि दीक्षा की द्वितीय भूमिका की शिक्षा भी विस्तार पूर्वक दी गई है। ब्रह्म संध्या, अनुष्ठान, ध्यान पाप नाशक तपश्चर्याएं, उद्यापन विशेष साधनाएं, उपवास, प्राण विद्या, मनोमय कोश की साधना, तंत्र, पुरश्चरण आदि प्रकरणों में शक्ति उत्पन्न करने की शिक्षा दी गई है। ब्रह्म दीक्षा की शिक्षा गायत्री पंजर, गायत्री हृदय, कुंडलिनी जागरण, ग्रन्थि भेद, विज्ञानमय कोश की वेधना एवं आनन्दमय कोश की साधना के अन्तर्गत भली प्रकार दी गई है। शिक्षाएं इस प्रकार मौजूद ही हैं उपयुक्त व्यक्ति की तलाश करने से कई बार दुष्प्राप्य वस्तुएं भी मिल जाती हैं।
यदि उपयुक्त व्यक्ति न मिले तो किसी स्वर्गीय, पूर्व कालीन या दूरस्थ व्यक्ति की प्रतिमा को गुरु मानकर यात्रा आरम्भ की जा सकती है। आवश्यक परम्परा का लोप न हो जाय इसलिए किसी साधारण श्रेणी के सत्पात्र से भी काम चलाया जा सकता है। गुरु का निर्लोभ, निरहंकारी एवं शुद्ध चरित्र होना आवश्यक है। यह योग्यताएं जिस व्यक्ति में हों, वह काम चलाऊ गुरु के रूप में काम दें सकता है। यदि उसमें शक्ति दान एवं पथ प्रदर्शक की योग्यता न होगी तो भी वह अपनी श्रद्धा को बढ़ाने में साथी की तरह सहयोग अवश्य देगा। ‘निगुरा’ रहने की अपेक्षा मध्यम श्रेणी के पथ प्रदर्शक से काम चल सकता है। गेहूं न मिले तो ज्वार बाजरा खाकर भी काम चलता है। यज्ञोपवीत धारण करने एवं गुरु दीक्षा लेने की प्रत्येक द्विज को अनिवार्य आवश्यकता है। चिह्न पूजा के रूप में यह प्रथा चलती रहे तो समयानुसार उसमें सुधार भी हो सकता है पर यदि उस शृंखला को ही तोड़ दिया तो उसकी नवीन रचना कठिन होगी।
गायत्री द्वारा आत्मोन्नति होती है यह निश्चित है। मनुष्य के अन्तःक्षेत्र के संशोधन, परिमार्जन, संतुलन एवं विकास के लिए गायत्री से बढ़कर और कोई ऐसा साधन भारतीय धर्म शास्त्रों में नहीं है जो अतीत काल से असंख्यों व्यक्तियों के अनुभवों में सदा खरा उतरता आया हो। मन, बुद्धि चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय गायत्री द्वारा शुद्ध कर लेने वाले व्यक्ति के लिए सांसारिक जीवन में सब ओर से, सब प्रकार की सफलताओं का द्वार खुल जाता है। उत्तम स्वभाव अच्छी आदतें, स्वस्थ मस्तिष्क, दूर दृष्टि, प्रफुल्ल मन, उच्च चरित्र, कर्तव्य निष्ठा प्रवृत्ति को प्राप्त कर लेने के पश्चात् गायत्री साधक के लिए संसार में कोई दुःख, कष्टकर नहीं रह जाता, उसके लिए सामान्य परिस्थितियों में भी सुख ही सुख उपस्थित रहता है।
परन्तु गायत्री का यह लाभ केवल 24 अक्षर के मन्त्र मात्र से उपलब्ध नहीं हो सकता। एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिए की गाड़ी नहीं चलती, एक पंख का पक्षी नहीं पड़ता इसी प्रकार अकेली गायत्री साधना अपूर्ण है उसका दूसरा भाग गुरु का पथ प्रदर्शन है। गायत्री गुरु मन्त्र है। इस महा शक्ति की कीलित कुंजी अनुभवी एवं सुयोग्य गुरु के पथप्रदर्शन में सन्निहित है। जब साधक को उभय पक्षीय साधन, गायत्री माता और पिता गुरु की छत्र छाया, प्राप्त हो जाती है तो आशा जनक सफलता प्राप्त होने में देर नहीं लगती।