वर्तमान पर्यावरण परिदृष्य—एक विनम्र प्रयास-समाधान .pdf file
वर्तमान पर्यावरण परिदृष्य—एक दृष्टि में .pdf file
वातावरण के परिवर्तन का एक आध्यात्मिक प्रयोग पुस्तक
Climate change at a glance .pdf file
0. उद्देश्य— वर्तमान पर्यावरण परिदृष्य पर परस्पर चर्चा-परिचर्चा
1. पर्यावरण अर्थात जल, वायु, भूमि (स्थूल स्तर) और वातावरण (सूक्ष्म स्तर-आस्थाएँ,
चिन्तन, भावनाएँ)
2. वर्तमान प्रगति— सच्चाई नकारें कैसे?
3. वर्तमान प्रगति पर एक प्रश्न— महत्ता ही नहीं सत्ता पर प्रश्नचिह्न?
4. वर्तमान प्रगति की वस्तुस्थिति खुली आँखों से— हमें पूर्वजों से क्या मिला?
हमने अपने बच्चों को क्या दिया?— 6E's – Empathy > Energy > Ecology >
Environment > Epidemics > Economy crises
5. आश्चर्य इस बात का है—
6. वर्तमान कार्यशैली—
7. मौलिक कारण—
8. वर्तमान दृष्टिकोण—
9. वर्तमान समस्याओं की गहराई में उतरें—
10. पू०गुरुसत्ता की भविष्यवाणी—
11. समाधान?— करो (बचो) या मरो - विचार बदलें या शरीर बदलें
12. समाधान किनसे-कैसे?—
13. समाधान के आधार—
14. बस एक ही विकल्प— हम बदलेंगे (तो)-युग बदलेगा
15. समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान—
16. कार्यशैली— गायत्री और यज्ञ के तत्त्वदर्शन-तकनीकी का उपयोग
0. उद्देश्य— वर्तमान पर्यावरण परिदृष्य पर परस्पर चर्चा-परिचर्चा — प्रस्तुत आशंकाओं के प्रति सावधानी-सतर्कता, सुरक्षा और साहस-पराक्रम भरे समाधान हेतु चर्चा
1. पर्यावरण अर्थात जल, वायु, भूमि (स्थूल स्तर) और वातावरण (सूक्ष्म स्तर-आस्थाएँ,
चिन्तन, भावनाएँ)
2. वर्तमान प्रगति— सच्चाई नकारें कैसे?
अपने समय को अभूतपूर्व प्रगतिशीलता का युग कहा और गर्वोक्तियों के साथ बखाना जाता है। इस अर्थ में बात सही भी है कि जितने सुविधा साधन इन दिनों उपलब्ध हैं, इतने इससे पहले कभी भी हस्तगत नहीं हो सके। जलयान, वायुयान, रेल, मोटर जैसे द्रुतगामी वाहन, तार, रेडियो, फिल्म, दूरदर्शन जैसे संचार साधन, इससे पूर्व कभी कल्पना में भी नहीं आए थे। कल-कारखानों का पर्वताकार उत्पादन, सर्जरी-अङ्ग प्रत्यारोपण जैसी सुविधाएँ भूतकाल में कहाँ थीं? कहा जा सकता है कि विज्ञान ने पौराणिक विश्वकर्मा को कहीं पीछे छोड़ दिया है।
बुद्धिवाद की प्रगति भी कम नहीं हुई है। ज्ञान, पुरातन एकाकी धर्मशास्त्र की तुलना में अब अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञानशास्त्र जैसे अनेकानेक कलेवरों में असाधारण रूप से बढ़ा और भविष्य में और भी अधिक खोज लेने का दावा कर रहा है। शोध संस्थानों की, प्रयोगशालाओं की उपलब्धियाँ घोषणा कर रही हैं कि निकट भविष्य में मनुष्य इतना अधिक ज्ञान-विज्ञान खोज लेगा कि पुरातन काल की समस्त उपलब्धियों को उसके सामने बौना ठहराया जा सके।
3. वर्तमान प्रगति पर एक प्रश्न —
मनुष्य की महत्ता ही नहीं, सत्ता पर प्रश्नचिह्न?
यह स्पष्ट है कि इन दिनों विभिन्न क्षेत्रों में जो प्रगति हुई वह असाधारण एवं
अभूतपूर्व है। विकास विस्तार तो हर भले-बुरे उपक्रम पर लागू हो सकता है। इन अर्थों
में आज की प्रगतिशीलता की दावेदारी को स्वीकार करना ही पड़ता है। फिर भी एक प्रश्न
सर्वथा अनसुलझा ही रह जाता है कि यह तथाकथित प्रगति, अपने साथ दुर्गति के असंख्यों
बवण्डर क्यों और कैसे घसीटती, बटोरती चली जा रही है?
मनुष्य जाति आज जिस दिशा में चल पड़ी है, उससे उसकी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी
समापन होते दीखता है। संचित बारूद के ढेर में यदि कोई पागल एक माचिस की तीली फेंक
दे, तो समझना चाहिए कि यह अपना स्वर्गोपम धरालोक धूलि बनकर आकाश में न छितरा जाए।
विज्ञान की बढ़ोत्तरी और ज्ञान की घटोत्तरी ऐसी ही विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने
में बहुत विलम्ब भी नहीं लगने देंगी। ऐसा दीखता है।
4. वर्तमान प्रगति की वस्तुस्थिति खुली आँखों से—
हमें पूर्वजों क्या मिला? हमने अपने बच्चों को क्या दिया?—
प्रदूषण, युद्धोन्माद, खाद्य-संकट, अपराधों की वृद्धि आदि समस्याएँ समस्त तटबन्ध
तोड़ती चली जा रही हैं। अस्वस्थता, दुर्बलता, कलह, विग्रह, छल-प्रपञ्च जैसे दोष,
व्यवहार तथा चिन्तन को धुआँधार विकृतियों से भरते क्यों चले जा रहे हैं? निकट भविष्य
के सम्बन्ध में मूर्द्धन्य विचारक यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि स्थिति यही रही,
रेल इसी पटरी पर चलती रही, तो विपन्नता बढ़ते-बढ़ते महाप्रलय जैसी स्थिति में पहुँचा
सकती है। वे कहते हैं कि हवा और पानी में विषाक्तता इस तेजी से बढ़ रही है कि उसे
धीमी गति से सर्वभक्षी आत्महत्या का नाम दिया जा सकता है। बढ़ता हुआ तापमान यदि
ध्रुवों की बरफ पिघला दे और समुद्र में भयानक बाढ़ ला दे तो उससे थल निवासियों
के लिए डूब मरने का संकट उत्पन्न कर सकता है। वनों का कटना, रेगिस्तान का द्रुतगामी
विस्तार, भूमि की उर्वरता का ह्रास, खनिजों के बेतरह दोहन से उत्पन्न हुआ धरित्री
असन्तुलन, मौसमों में आश्चर्यजनक परिवर्तन, तेजाबी मेघ वर्षण, अणु विकिरण, बढ़ती
हुई जनसंख्या के अनुरूप जीवनसाधन न बढ़ पाने का संकट जैसे अनेकानेक जटिल प्रश्न
हैं। इनमें से किसी पर भी विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि तथाकथित प्रगति
ही उन समस्त विग्रहों के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है। वह प्रगति किस काम की, जिसमें
एक रुपया कमाने के बदले सौ का घाटा उठाना पड़े।
उदाहरण के लिए प्रगति के नाम पर हस्तगत हुई उपलब्धियों को चकाचौंध में नहीं उनकी
वस्तुस्थिति में खुली आँखों से देखा जा सकता है। औद्योगीकरण के नाम पर बने कारखानों
ने संसार भर में वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण भर दिया है। अणु शक्ति की बढ़ोत्तरी
ने विकिरण से वातावरण को इस कदर भर दिया है कि तीसरा युद्ध न हो तो भी भावी पीढ़ियों
को अपंग स्तर की पैदा होना पड़ेगा। ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग ने संसार का तापमान
इतना बढ़ा दिया है कि हिम प्रदेश पिघल जाने पर समुद्रों में बाढ़ आने और ओजोन नाम
से जानी जाने वाली पृथ्वी की कवच फट जाने पर ब्रह्माण्डीय किरणें धरती की समृद्धि
को भूनकर रख सकती हैं। रासायनिक खाद और कीटनाशक मिलकर पृथ्वी की उर्वरता को विषाक्तता
में बदलकर रखे दे रहे हैं। खनिजों का उत्खनन जिस तेजी से हो रहा है, उसे देखते
हुए लगता है कि कुछ ही दशाब्दियों में धातुओं का, खनिज तेलों का भण्डार समाप्त
हो जाएगा। बढ़ते हुए कोलाहल से तो व्यक्ति और पगलाने लगेंगे। शिक्षा का उद्देश्य
उदरपूर्ति भर रहेगा, उसका शालीनता के तत्त्वदर्शन से कोई वास्ता न रहेगा। आहार
में समाविष्ट होती हुई स्वादिष्टता प्रकारान्तर से रोग-विषाणुओं की तरह धराशायी
बनाकर रहेगी। कामुक उत्तेजनाओं को जिस तेजी से बढ़ाया जा रहा है, उसके फलस्वरूप
न मनुष्य में जीवनी शक्ति का भण्डार बचेगा, न बौद्धिक प्रखरता और शील-सदाचार का
कोई निशान बाकी रहेगा। पशु-पक्षियों और पेड़ों का जिस दर से कत्लेआम हो रहा है,
उसे देखते हुए यह प्रकृति छूँछ होकर रहेगी। नीरसता, निष्ठुरता, नृशंसता, निकृष्टता
के अतिरिक्त और कुछ पारस्परिक व्यवहार में कोई ऊँचाई शायद ही दीख पड़े। मूर्धन्यों
का यह निष्कर्ष गलत नहीं है कि मनुष्य सामूहिक आत्म-हत्या की दिशा में तेजी से
बढ़ रहा है। नशेबाजी जैसी दुष्प्रवृत्तियों की बढ़ोत्तरी देखते हुए कथन कुछ असम्भव
नहीं लगता। स्नेह सौजन्य और सहयोग के अभाव में मनुष्य पागल कुत्तों की तरह एक-दूसरे
पर आक्रमण करने के अतिरिक्त और कुछ कदाचित ही कर सके।
भौतिक विज्ञान के सुविधा-साधन बढ़ाने वाले पक्ष ने समर्थ जनों के लिए लाभ उठाने
के अनेकों आधार उत्पन्न एवं उपस्थित किए हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। बहिरंग
की इसी स्तर की चमक-दमक को देखकर अनुमान लगता है कि विज्ञान ने अपने समय को बहुत
सुविधा-सम्पन्न बनाया है। परन्तु दूसरी ओर तनिक-सी दृष्टि मोड़ते ही पर्दा उलट
जाता है और दृश्य ठीक विपरीत दीखने लगता है। सुसम्पन्न, समर्थ, चतुर लोग संख्या
में बहुत कम है। मुश्किल से दस हजार के पीछे दस। विज्ञान द्वारा उत्पादित सुविधा-सामग्री
में से अधिकांश उन्हीं के हाथों में सीमित होकर रह गयी है। उन्होंने जो बटोरा है
वह भी कहीं आसमान से नहीं टपका वरन् दुर्बल दीख पड़ने वाले भोले भावुकों को पिछड़े
हुए समझकर उन्हीं के अधिकारों का अपहरण करके वह सम्पन्नता थोड़े लोगों के हाथों
में एकत्रित हुई है। जिसे विज्ञान की देन, युग का प्रभाव, प्रगति का युग आदि नामों
से श्रेय दिया जाता है। इस एक पक्ष की बढ़ोत्तरी ने अधिकांश लोगों का बड़ी मात्रा
में दोहन किस प्रकार किया है, इसे देखते हुए विवेकवानों को उस असमंजस में डूबना
पड़ता है कि दृष्टिगोचर होने वाली प्रगति क्या वास्तविक प्रगति है? इसके पीछे अधिकांश
को पीड़ित शोषित, अभावग्रस्त रखने वाला कुचक्र तो काम नहीं कर रहा है। .......
भौतिक विज्ञानी बढ़ते हुए प्रदूषण और तापमान को भावी विनाश की पूर्व भूमिका बताते हैं।...P13-VPKAP खतरा समस्त मानव जाति को और युगों-युगों का संचित संस्कृति को है।...P17-VPKAP
6E's— Empathy > Energy > Ecology > Environment > Epidemics > Economy crises
Empathy > Interacting “Mother Earth” as “Matter Earth”
Energy Imbalance > Accumulated energy equals at least 400,000 Hirosima level
atom bomb per day (James Hansen, Ex. head of the NASA Goddard Institute, 2012
data)
Ecology > Extinction of 150-200 species per day.
Environment > climate.nasa.gov CO2 level > 404.07ppm
Epidemics > Continuously increasing health problems.
Economy > Total global debt is about $60 trillion in 2016.
5. आश्चर्य इस बात का है—
आश्चर्य इस बात का है कि आखिर यह सब हो क्यों रहा है एवं कैसे हो रहा है? इसे कौन करा रहा है? आखिर वह चतुराई कैसे चुक गई, जो बहुत कुछ पाने का सरंजाम जुटाकर अलादीन का नया चिराग जलाने चली थी। पहुँचना तो उसे प्रकृति विजय के लक्ष्य तक था, पर यह हुआ क्या कि तीनों लोक तीन डगों में नाप लेने की दावेदारी, करारी मोच लगने पर सिहरकर बीच रास्ते में ही पसर गई। उसे भी आगे कुआँ पीछे खाई की स्थिति में आगे पग बढ़ाते नहीं बन रहा है। साँप-छछून्दर की इस स्थिति से कैसे उबरा जाए, जिसमें न निगलते बन रहा है और न उगलते।
6. वर्तमान कार्यशैली—
फूटे घड़े में पानी भरने पर वह देर तक ठहरता नहीं है। चलनी में दूध दुहने पर दुधारू गाय पालने वाला भी खिन्न-विपन्न रहता है। ऐसी ही कुछ भूल मनुष्य से भी बन पड़ी है, जिसके कारण अत्यन्त परिश्रमपूर्वक जुटाई गई उपलब्धियों को हस्तगत करने पर भी, लेने के देने पड़ रहे हैं।
बड़प्पन को कमाना ही पर्याप्त नहीं होता, उसे सुस्थिर रखने और सदुपयोग द्वारा लाभान्वित होने के लिए और समझदारी, सतर्कता और सूझबूझ चाहिए। भाव-संवेदनाओं से भरे-पूरे व्यक्ति ही उस रीति-नीति को समझते हैं, जिनके आधार पर सम्पदाओं का सदुपयोग करते बन पड़ता है। अपने समय के लोग इन्हीं भाव-संवेदनाओं का महत्त्व भूल बैठे और उन्हें गिराते-गँवाते चले जा रहे हैं। यही है वह कारण, जो उपलब्धियों को भी विपत्तियों में परिणत करके रख देता है।
7. मौलिक कारण—
कर्मफल की व्यवस्था / बोए हुए को काटने की अकाट्य व्यवस्था की भूल।
प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण - वासना, तृष्णा और अहंता - संकीर्ण स्वार्थपरता और स्वच्छंद उपयोग - अनावश्यक संचय और अवांछनीय उपभोग - निष्ठुरता, भाव-सम्वेदनहीनता, शोषण, दोहन और दुरुपयोग आधारित भोगवादी जीवनशैली।
8. वर्तमान दृष्टिकोण—
इन दिनों हर क्षेत्र में प्रवेश किए हुए समस्याओं, अवांछनीयताओं, विडम्बनाओं के लिए दोष किसे दिया जाए? और उसका समाधान कहाँ ढूँढ़ा जाए? इस सन्दर्भ में मोटे तौर से एक ही बात कही जा सकती है कि प्रत्यक्षवाद की पृष्ठभूमि पर जन्मे भौतिकवाद ने लगभग सभी नैतिक मूल्यों की उपयोगिता, आवश्यकता मानने से इंकार कर दिया है। उसी प्रत्यक्षवादिता को प्रामाणिकता का एक स्वरूप मानने वाले जन-समुदाय ने हर प्रसंग में यही नीति अपना ली है कि प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ माना जाए। जिसमें हाथों-हाथ भौतिक लाभ मिलने की बात बनती हो, उसी को स्वीकारा जाए। इस कसौटी पर नीति, सदाचार, उदारता, संयम जैसे उच्च आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं रह जाती है। इस प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने ही मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन परम्पराओं को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन एवं वर्जनाओं का परित्याग करने के लिए दबाव डालती और सहायता करती थीं।
9. वर्तमान समस्याओं की गहराई में उतरें—
वर्तमान कठिनाइयों के निराकरण हेतु आमतौर से सम्पदा, सत्ता और प्रतिभा के सहारे ही निराकरण की आशा की जाती है। इन्हीं तीनों का मुँह जोहा जाता है। इतने पर भी इनके द्वारा जो पिछले दिनों बन पड़ा है, उसका लेखा-जोखा लेने पर निराशा ही हाथ लगती है। प्रतीत होता है कि जब भी, जहाँ भी वे अतिरिक्त मात्रा में संचित होती हैं, वहीं एक प्रकार का उन्माद उत्पन्न कर देती हैं। उस अधपगलाई मनोदशा के लोग सुविधा संवर्धन के नाम पर उद्धत् आचरण करने पर उतारू हो जाते हैं और मनमानी करने लगते हैं। अपने-अपनों के लाभ के लिए ही उनकी उपलब्धियाँ खपती रहती हैं। प्रदर्शन के रूप में ही यदाकदा उनका उपयोग ऐसे कार्यों में लग पाता है, जिससे सत्प्रवृत्ति संवर्धन में कदाचित् कुछ योगदान मिल सके। वैभव भी अन्य नशों की तरह कम विक्षिप्तता उत्पन्न नहीं करता, उसकी खुमारी में अधिकाधिक उसका संचय और अपव्यय के उद्धत् आचरण ही बन पड़ते हैं। ऐसी दशा में इस निश्चय पर पहुँचना अति कठिन हो जाता है कि उपर्युक्त त्रिविध समर्थताएँ यदि बढ़ाने-जुटाने को लक्ष्य मानकर चला जाए तो प्रस्तुत विपन्नताओं से छुटकारा मिल सकेगा।
वर्तमान स्थिति - कुएँ में नशा, रक्त कैंसर
10. पू०गुरुसत्ता की भविष्यवाणी—
विज्ञान आगे भी अनर्थ पैदा करता रह सकेगा; ऐसी आशंकाएँ किसी को भी नहीं करनी चाहिए;
क्योंकि खनिज तेल, विद्युत उत्पादन जैसे स्रोत ही सूख जाएँगे, तब विज्ञान जीवित
कैसे रह सकेगा? लोगों को लौटकर फिर प्राकृतिक जीवन अपनाना पड़ेगा, जिसमें विकृतियों
के अभिवर्धन की कोई गुंजायश ही नहीं है।
विज्ञान जीवित रहेगा; पर उसका नाम भौतिक विज्ञान न होकर अध्यात्म विज्ञान ही हो
जाएगा। उस आधार को अपनाते ही वे सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी, जो इन दिनों अत्यन्त
भयावह दीख पड़ती हैं। उन आवश्यकताओं को प्रकृति ही पूरा करने लगेगी, जिनके अभाव
में मनुष्य अतिशय उद्विग्न, आशंकित, आतंकित दीख पड़ता है। न अगली शताब्दी में युद्ध
होंगे, न महामारियाँ फैलेंगी और न जनसंख्या की अभिवृद्धि से वस्तुओं में कमी पड़ने
के कारण चिन्तित होने की आवश्यकता पड़ेगी। जागृत नारी अनावश्यक सन्तानोत्पादन से
स्वयं इंकार कर देगी और अपनी बर्बाद होने वाली शक्ति को उन प्रयोजनों के लिए नियोजित
करेगी, जो समृद्धि और सद्भावना के अभिवर्द्धन के लिए नितान्त आवश्यक है। नारी प्रधान
इक्कीसवीं शताब्दी का वातावरण ऐसा होगा, जिसे सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा की संयुक्त
शक्ति द्वारा अपनाया गया क्रिया-कलाप कहा जा सके। शिक्षा मात्र उदरपूर्णा न रहेगी,
वरन् उसका अभिनव स्वरूप व्यक्तियों को प्रामाणिक, प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाने
की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा।
यों जिस तरह नया आधार सँजोया गया है, उसे देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि हम
और भी अधिक ऊँचे स्तर का ‘‘महासतयुग’’ को अगले दिनों अपनी इसी धरती पर उतारकर रहेंगे।
हम युग की पुकार का बार-बार उद्घोष कर रहे हैं। उचित है कि समय रहते इस युग पुकार
को सुन लिया जाय। न सुना जायेगा तो हम अधिक क्या कहें सिर्फ चेतावनी भर देते हैं
कि अगले ही दिनों महाकाल प्रतिभाओं को व्यक्तिगत स्वार्थ साधना में जुते रहने से
मुक्त करा लेगा। कोई धन का मनमाना अपव्यय न कर सकेगा। किसी की बुद्धि व्यक्तिगत
तृष्णा की पूर्ति में न लगी रहने पायेगी, किसी का बल वासना की पूर्ति में संलग्न
न रहने दिया जायेगा।
नोट करने वाले नोट कर लें, जिसे हम स्वेच्छा एवं सज्जनता से अनुदान के रूप में माँग रहे हैं, यदि वह लोगों से देते न बना, तो वह दिन दूर नहीं जबकि हर कृपण से इन दैवी विभूतियों को महाकाल लात मारकर उगलवा लेगा और तब बहुत देर तक कसक-कराह भरा दर्द सहना पड़ेगा। आज वह त्याग, उदारता, आत्मसंतोष और ऐतिहासिक यश के साथ किया जा सकने का अवसर है।
अगले दिनों संसार में एक भी व्यक्ति अमीर न रह सकेगा। पैसा बँट जायेगा, पूँजी पर समाज का नियंत्रण होगा और हम सभी केवल निर्वाह मात्र के अर्थ साधन उपलब्ध कर सकेंगे।
11. समाधान..............?— करो (बचो) या मरो - विचार बदलें या शरीर बदलें
इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है।.....P3-VPKAP
मनुष्य जाति का इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाना उसे (स्रष्टा को) सहज स्वीकार नहीं हो सकता।...P15-VPKAP
परिस्थितियाँ इतनी जटिल हो चुकी हैं कि मनुष्य के सीमित प्रयास उनका समाधान नहीं कर सकते। उसके लिए सर्वसमर्थ ईश्वरीय सत्ता का हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया है।...P15-VPKAP
इतिहास साक्षी है कि व्यापक असंतुलन को स्रष्टा ने स्वयं ही सँभाला है। अवतार
लेकर उसी ने समस्याएँ सुलझाई हैं। चौबीस अवतारों की कथा-गाथाएँ.....जिन परिस्थितियों
में भगवान को अवतार लेने पड़े हैं, उन सभी संकट वेलाओं की तुलना में आज की परिस्थितियाँ
सबसे अधिक विकट हैं।...P16-VPKAP
.....अपने युग का महादैत्य आस्था संकट है। .....अनास्था के निराकरण में भावश्रद्धा
की प्रखरता ही समर्थ हो सकती है। इसलिए इस बार युग अवतार ब्राह्मी-प्रज्ञा के रूप
में हो रहा है।...P18-VPKAP
‘नव सृजन योजना’ महाकाल की योजना है। वह पूरी तो होनी ही है। उस परिवर्तन का आधार
बनेगा चरित्रनिष्ठ, भाव-संवेदना युक्त व्यक्तित्वों से। ऐसे व्यक्तित्व बनाना विद्या
का काम है, मात्र शिक्षा उसके लिए पर्याप्त नहीं। मात्र शिक्षा-साक्षरता तो मनुष्य
को निपट स्वार्थी भी बना सकती है। उसमें विद्या का समावेश अनिवार्य है। अस्तु,
नवयुग के अनुरूप मन:स्थितियाँ एवं परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए बड़ी संख्या
में ऐसे प्राध्यापकों की आवश्यकता अनुभव हो रही है, जिनकी शिक्षा भले ही सामान्य
हो, पर वे अपने चुंबकीय व्यक्तित्व और चरित्र से निकटवर्ती क्षेत्र को अपनी विशिष्टताओं
से भर देने की विद्या के धनी हों।
इन दिनों नव निर्माण का प्रयोजन भगवान् की प्रेरणा और उनके मार्गदर्शन में चल रहा है। उसे एक तीव्र सरिता-प्रवाह मानकर चलना चाहिये, जिसकी धारा का आश्रय पकड़ लेने के बाद कोई कही-से कहीं पहुँच सकता है। तूफान के साथ उड़ने वाले पत्ते भी सहज ही आसमान चूमने लगते हैं। ऊँचे पेड़ का आसरा लेकर दुबली बेल भी उतनी ही ऊँची चढ़ जाती है, जितना कि वह पेड़ होता है। ‘नव निर्माण’ महाकाल की योजना एवं प्रेरणा है। उसका विस्तार तो उतना होना ही है, जितना कि उसके सूत्र संचालक ने निर्धारित कर रखा है। इस विश्वास को जमा लेने पर अन्य सारी समस्यायें सरल हो जाती हैं। नव निर्माण का कार्य ऐसा नहीं है, जिसके लिये कि घर-गृहस्थी काम धन्धा छोड़कर पूरा समय साधु-बाबाजियों की तरह लगाना पड़े। यह कार्य ऐसा है, जिसके लिये दो घण्टे नित्य लगाते रहने भर से असाधारण प्रगति सम्भव है। लगन हो तो कुछ घण्टे ही परमार्थ प्रयोजन में लगा देने भर से इतना अधिक परिणाम सामने आ उपस्थित हो सकता है, जिसे आदरणीय, अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहा जा सके।
12. समाधान किनसे-कैसे?—
.......स्मरण रहे कि असमंजस की स्थिति लम्बे समय तक टिकती नहीं है। मनुष्य की बुद्धि इतनी कमजोर नहीं है कि वह उत्पन्न संकटों का कारण न खोज सके और शान्तचित्त होने पर उनके समाधान न खोज सके।
युग परिवर्तन में दृश्यमान भूमिका तो प्रामाणिक प्रतिभाओं की ही रहेगी, पर उसके पीछे अदृश्य सत्ता का असाधारण योगदान रहेगा। कठपुतलियों के दृश्यमान अभिनय के पीछे भी तो बाजीगर की अँगुलियों से बँधे हुए तार ही प्रधान भूमिका निभाते हैं। सर्वव्यापी सत्ता निराकार है, पर घटनाक्रम तो दृश्यमान शरीरों द्वारा ही बन पड़ते हैं। देवदूतों में ऐसा ही उभयपक्षीय समन्वय होता है। शरीर तो मनुष्यों के ही काम करते हैं पर उन श्रेयाधिकारियों का पथ प्रदर्शन, अनुदानों का अभिवर्षण उसी महान् सत्ता द्वारा होता है, उपनिषद् जिसे ‘अणोरणीयान्, महतो महीयान्’ कहकर उसका परिचय देने का प्रयास करता है।
यह मनोभाव हमारी तीन उँगलियाँ मिलकर लिख रही हैं। पर किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि जो योजना बन रही है और कार्यान्वित हो रही है, उसे प्रस्तुत कलम, कागज या उँगलियाँ ही पूरा करेंगी। करने की जिम्मेदारी आप लोगों की, हमारे नैष्ठिक कार्यकर्ताओं की है।
इस विशालकाय योजना में प्रेरणा ऊपर वाले ने दी है। कोई दिव्य सत्ता बता या लिखा रही है। मस्तिष्क और हृदय का हर कण-कण, जर्रा-जर्रा उसे लिख रहा है। लिख ही नहीं रहा है, वरन् इसे पूरा कराने का ताना-बाना भी बुन रहा है। योजना की पूर्ति में न जाने कितनों का-कितने प्रकार का मनोयोग और श्रम, समय, साधन आदि का कितना भाग होगा। मात्र लिखने वाली उँगलियाँ न रहें या कागज, कलम चुक जायें, तो भी कार्य रुकेगा नहीं; क्योंकि रक्त का प्रत्येक कण और मस्तिष्क का प्रत्येक अणु उसके पीछे काम कर रहा है। इतना ही नहीं, वह दैवी सत्ता भी सतत सक्रिय है, जो आँखों से न तो देखी जा सकती है और न दिखाई जा सकती है।
......अदृश्य जगत में संव्याप्त दैवी चेतना का अनुपात वर्तमान परिस्थितियों की प्राणचेतना के आधार पर असाधारण रूप में उभरेगा और ऐसे परिवर्तन अनायास ही करता चला जाएगा, जिसे वसन्त का अभिनव अभियान कहा जा सके या उज्ज्वल भविष्य को साथ लेकर आने वाले ‘‘सतयुग की वापसी’’ कहा जा सके। इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य इन्हीं आधारों को साथ लेकर अवतरित होगा। इसी की पृष्ठभूमि इन दिनों बन रही है।
13. समाधान के आधार—वसुधैव कुटुम्बकम्
शरीर और उनकी शक्तियों के भले-बुरे पराक्रम आए दिन देखने को मिलते रहते हैं। समर्थता,
कुशलता और सम्पन्नता की जय-जयकार होती है, पर साथ ही यह भी मानना ही पड़ेगा कि
इन्हीं तीन क्षेत्रों में फैली अराजकता ने वे संकट खड़े किए हैं जिनसे किसी प्रकार
उबरने के लिए व्यक्ति और समाज छटपटा रहा है।
इन तीनों से ऊपर उठकर एक चौथी शक्ति है-भाव-संवेदना। यही दैवी अनुदान के रूप में
जब मनुष्य की स्वच्छ अन्तरात्मा पर उतरती है तो उसे निहाल बनाकर रख देती है। जब
यह अन्त:करण के साथ जुड़ती है तो उसे देवदूत स्तर का बना देती है। वह भौतिक आकर्षणों,
प्रलोभनों एवं दबावों से स्वयं को बचा लेने की भी पूरी-पूरी क्षमता रखती है। इस
एक के आधार पर ही साधक में अनेकानेक दैवी तत्त्व भरते चले जाते हैं।.....युग परिवर्तन
के आधार को यदि एक शब्द में व्यक्त करना हो तो इतना कहने भर से भी काम चल सकता
है कि अगले दिनों निष्ठुर स्वार्थपरता को निरस्त करके उसके स्थान पर उदार भाव-संवेदनाओं
को अन्त:करण की गहराई में प्रतिष्ठित करने की, उभारने की, खोद निकालने की अथवा
बाहर से सराबोर कर देने की आवश्यकता पड़ेगी।
समस्याओं का तात्कालिक समाधान तो नशा पीकर बेसुध हो जाने पर भी हो सकता है। जब होश-हवास ही दुरुस्त नहीं, तो समस्या क्या? और उसका समाधान खोजने का क्या मतलब? पर जब मानवी गरिमा की गहराई तक उतरने की स्थिति बन पड़े तो फिर माता जैसा वात्सल्य हर आत्मा में उभर सकता है और हितसाधना के अतिरिक्त और कुछ सोचते बन ही नहीं पड़ता। तब उन उलझनों में से एक भी बच नहीं सकेगीं, जो आज हर किसी को उद्विग्न-आतंकित किए हुए हैं।
14. बस एक ही विकल्प— हम बदलेंगे (तो)-युग बदलेगा
वर्तमान स्थिति - कुएँ में नशा, रक्त कैंसर
Bit by Bit & Byte by Byte change – Fusion reaction with love.
इस तथ्य को हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों
की जन्मदात्री है। इसलिए यदि परिस्थितियों की विपन्नता को सचमुच ही सुधारना हो,
तो जनसमुदाय की मन:स्थिति में दूरदर्शी विवेकशीलता को उगाया, उभारा और गहराई तक
समाविष्ट किया जाए। यहाँ यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि मन:क्षेत्र एवं बुद्धि
संस्थान भी स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें भावनाओं, आकांक्षाओं, मान्यताओं के आधार
पर अपनी दिशाधारा विनिर्मित करनी होती है। उनका आदर्शवादी उत्कृष्ट स्वरूप अन्त:करण
में भाव-संवेदना बनकर रहता है। यही है वह सूत्र, जिसके परिष्कृत होने पर कोई व्यक्ति
ऋषिकल्प, देवमानव बन सकता है। यह एक ही तत्त्व इतना समर्थ है कि अन्यान्य असमर्थताएँ
बने रहने पर भी मात्र इस अकेली विभूति के सहारे न केवल अपना वरन् समूचे संसार की
शालीनता का पक्षधर कायाकल्प किया जा सकता है। इक्कीसवीं-सदी के साथ जुड़े उज्ज्वल
भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव-संवेदनाओं
को उत्कृष्ट, आदर्श एवं उदात्त बनाया जाए। इस सदाशयता की अभिवृद्धि इस स्तर तक
होनी चाहिए कि सब अपने और अपने को सबका मानने की आस्था उभरती और परिपक्व होती रहे।
सम्पदा संसार में इस अनुपात में ही विनिर्मित हुई है कि उसे मिल-बाँटकर खाने की
नीति अपनाकर सभी औसत नागरिक स्तर का जीवन जी सकें। साथ ही बढ़े हुए पुरुषार्थ के
आधार पर जो कुछ अतिरिक्त अर्जन कर सकें, उससे पिछड़े हुओं को बढ़ाने, गिरते हुओं
को उठाने एवं समुन्नतों को सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु प्रोत्साहित कर सकें।
अनावश्यक सम्पन्नता की ललक ही बेकाबू होने पर उन अनर्थकारी संरचनाओं में प्रवृत्त होती है, जिनके कारण अनेकानेक रंग रूप वाले अनाचारों को व्यापक, विस्तृत और प्रचण्ड होते हुए देखा जा रहा है। लिप्साओं में किसी प्रकार कटौती करते बन पड़े, तो ही वह जुझारूपन उभर सकता है, जो अवांछनीयताओं से गुँथे और पटकनी देकर परास्त कर सके। जिन अभावों से लोग संत्रस्त दीखते हैं, उनसे निपटने की प्रतिभा उनमें उभारी जाए ताकि वे अपने पैरों खड़े होकर, दौड़कर स्पर्द्धा जीतते देखे जा सकें।
आर्थिक अनुदान देने की मनाही नहीं है और न यह कहा जा रहा है कि गिरों को उठाने में, सहयोग देने में कोताही बरती जानी चाहिए। मात्र इतना भर सुझाया जा रहा है कि मनुष्य अपने आप में समग्र और समर्थ है। यदि उसका आत्मविश्वास एवं पुरुषार्थ जगाया जा सके, तो इतना कुछ बन सकता है जिसके रहते याचना का तो प्रश्न ही नहीं उठता, बल्कि इतना बचा रहता है, जिसे अभावों और अव्यवस्थाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में लगाया जा सके ।
इक्कीसवीं सदी भाव-संवेदनाओं के उभरने-उभारने की अवधि है। हमें इस उपेक्षित क्षेत्र को ही हरा-भरा बनाने में निष्ठावान माली की भूमिका निभानी चाहिए। यह विश्व उद्यान इसी आधार पर हरा-भरा फला-फूला एवं सुषमा सम्पन्न बन सकेगा। आश्चर्य नहीं कि वह स्वर्ग लोक वाले नन्दन वन की समता कर सके।
15. हमारी मार्गदर्शक सत्ता— समस्त समस्याओं के एकमात्र समाधान—
उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के
प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव
का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी
ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’
फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों
में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों (विचारों) में ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
— मैंने संकल्प किया है फिर मानव को देव बनाऊँगा, फिर प्यार और सहकार जगा धरती
को स्वर्ग बनाऊँगा। — (पर) स्वर्ग भूतल पर गढ़े कैसे विधाता, नर्क में ही सुख मनुज
यदि मान बैठे। — भले ही कहीं राह दिखती नहीं है, ......
वसुधैव कुटुम्बकम् — सब-हमारे - हम-सबके ("अपने अंग अवयवों के लिए") और सर्वे भवन्तु सुखिनः ("हमारा युग निर्माण सत्संकल्प”) के अनुरूप जीवनशैली।
— मनुष्य में देवत्व का उदय, (तो) धरती पर स्वर्ग का अवतरण।
सहृदयता, भाव-सम्वेदनशीलता, पोषण, सन्तुलन और सदुपयोग आधारित आत्मवादी जीवनशैली।
प्रमाण? — हमारी पू०गुरुसत्ता की जीवनशैली।
हमारी पू०गुरुसत्ता कौन?
गायत्री (ज्ञान-विद्या) और सावित्री (भौतिक विज्ञान) के सिद्ध साधक।
हिमालय की ऋषि-सत्ताओं के साक्षात प्रतिनिधि, महाकाल, शिव-पार्वती।
“लोगों से आप यह मत कहना कि गुरुजी बड़े सिद्ध-पुरुष हैं, बड़े महात्मा हैं और सबको वरदान देते हैं, वरन् यह कहना कि गुरुजी एक ऐसे व्यक्ति का नाम है, जिनके पेट से आग निकलती है, जिनकी आँखों में से शोले निकलते हैं। आप ऐसे गुरुजी का परिचय कराना, सिद्ध-पुरुष का नहीं।”
“लोग हमें सन्त, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं। कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता समझते हैं पर किसने हमारा अन्तःकरण खोलकर पढ़ा, समझा है? कोई उसे देख सका होता, तो उसे मानवीय व्यथा-वेदना की अनुभूतियों की करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इन हड्डियों के ढाँचे में बैठी-बिलखती दिखाई पड़ती।”
प्रत्यक्ष उदाहरण से सभी समस्याओं का समग्र समाधान—
अपने अनन्य आत्मीय प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के नाम हमारी यही वसीयत और विरासत है कि हमारे जीवन से कुछ सीखें। कदमों की यथार्थता खोजें, सफलता जाँचें और जिससे जितना बन पड़े अनुकरण का, अनुगमन का प्रयास करें। यह नफे का सौदा है, घाटे का नहीं।
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
16. समाधान की कार्यशैली - जीवनशैली—शरीर और मन
वर्तमान स्थिति - कुएँ में नशा, रक्त कैंसर
Bit by Bit & Byte by Byte change – Fusion reaction with love.
वाह्य प्रभाव से सुरक्षा-परहेज, हानिकारक तत्त्वों का निष्कासन, पथ्य और रसायन
।
पथ्य / मार्गदर्शन – ग्रहण करना (स्थूल स्तर) + स्वीकारना + पचाना / धारण-आत्मसात
करना (सूक्ष्म/मन स्तर - बुद्धि + भाव) – समझना = जानना + मानना
Acceptibility = (Reception + assimillation)
Technology must include -
1. “Mind over Mind” effect-inspiration-control – ज्ञान-पक्ष - गायत्री विज्ञान
– Software Management
2. “Mind over Matter” effect-inspiration-control – विज्ञान-पक्ष - सावित्री विज्ञान
- Hardware Management - स्वामी विशुद्धानन्द जी
3. Help guidance / connection / interaction / collaboration with higher authority
– power source – संरक्षण-मार्गदर्शन-प्रेरणा-सहयोग भागवत-सत्ता, पू.गुरुसत्ता,
ऋषि-सत्ता, उन्नत अंतरिक्षीय प्राणी
सतत-सम्बन्ध – सतत-प्रयास — भागवत सत्ता से जुड़ें रहें और मार्गदर्शन स्वीकार
करें - जीवन में उतारें।
सर्वोत्तम समाधान कौन दे सकता? — माँ, पिता, गुरु और चिकित्सक
सर्वोत्तम यन्त्र, यज्ञ-व्यवस्था का उदाहरण? — मानव शरीर
— हिमालय के ऋषियों समाधान - वैदिक युगीन समाधान —
गायत्री (माता) (सभी के द्वारा, सभी के हमेशा कल्याण के लिए प्रार्थना-चिन्तन-इच्छा-संकल्प)
और यज्ञ (पिता) (सभी के द्वारा, सभी के हमेशा कल्याण के लिए मिलजुलकर कार्य) के
तत्त्वदर्शन का सामूहिक जीवन में प्रयोग - By the All, For the All and For All
the Time Thinking & Action.
इन दिनों विज्ञान के प्रतिपादन पत्थर की लकीर बनकर जन-जन की मान्यताओं को अपने
प्रभाव क्षेत्र में समेट चुके हैं। आज की मान्यताएँ और गतिविधियाँ उसी से आच्छादित
हैं और तदनुरूप प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर रही हैं। अध्यात्म का स्वरूप विडम्बना
स्तर का बनकर रह गया है, फलस्वरूप उसका न किसी साधनारत पर प्रभाव पड़ता है और न
वातावरण को उच्चस्तरीय बनाने में कोई सहायता ही मिल पाती है। इस दुर्गति के दिनों
से यही उपयुक्त लगा है कि यदि विज्ञान के प्रत्यक्षवाद को, यथार्थता को जिस प्रकार
अनुभव कर लिया गया है, उसी प्रकार अध्यात्म को भी यदि सशक्त एवं प्रत्यक्ष फल देने
वाला माना जा सकने का सुयोग बन सके तो समझना चाहिए कि सोना और सुगन्ध के मिल जाने
जैसा सुयोग बन गया। विज्ञान शरीर और अध्यात्म प्राणचेतना मिलकर काम कर सकें तो
समझना चाहिए कि सब कुछ जीवन्त हो गया। एक प्राणवान दुनियाँ समग्र शक्ति के साथ
नए सिरे से नए कलेवर में उद्भूत हो गई। न विज्ञान झगड़ालू रहा और अध्यात्म के साथ
जो कुरूपता जुड़ गई है, उसके लिए कोई गुंजाइश ही शेष रह गई है।
उपासना, साधना और आराधना के सही स्वरूप की जीवन में अवधारणा अर्थात गायत्रीमय और यज्ञमय जीवन - सादा-जीवन उच्च-विचार आधरित ब्राह्मण जीवन।
उदाहरण-
गीता— जिज्ञासा-प्रार्थना <<>> समाधान >> ग्रहण करना, स्वीकारना
और धारण करना >> संकल्प-करिष्ये वचनं तव >> करें - जीवन में उतारें
>> महाभारत
मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा– बेटा! मैं स्वयं सूर्य स्वरूप हूँ, ब्राह्मण
हूँ जो निरंतर सभी को देना ही जानता है।
प्रातः ध्यान में - सविता देवता— दिव्य प्रेरणा स्रोत, दिव्य चेतना स्रोत अर्थात दिव्य प्राण स्रोत, दिव्य ऊर्जा स्रोत
शरीर परिवर्तन की वेला आते ही...हम दृश्यमान प्रतीक के रूप में उसी अखण्ड दीपक की ज्वलन्त ज्योति में समा जायेंगे।...जो चर्म चक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे, वे इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे। AJ-P29-Jan-1988
प्रज्ञा परिजनों से विशेष रूप से कहा जा सकता है कि आँखों से न दीख पड़ने पर तनिक भी उदास न हों और निरन्तर यह अनुभव करें कि हम उन्हें अधिक प्यार, अधिक उत्कर्ष और अधिक समर्थ सहयोग दे सकने की स्थिति में तब भी होंगे, जब यह पंच भौतिक ढकोसला मिट्टी में मिल जाएगा। जो पुकारेगा, जो खोजेगा उसे हम सामने खड़े और समर्थ सहयोग करते दीख पड़ेंगे। - P30-PMC
कवि टैगोर ने ठीक ही कहा था कि यदि सत्प्रयोजन की दिशा में कुछ करना सँजोना हो तो— ‘‘एकला चलो रे’’ की नीति अपनानी चाहिए। गीताकार के परामर्शानुसार सारा संसार जब मोह निद्रा में लम्बी तानकर सो रहा हो, तब भी योगी को प्रचलन के विपरीत जागते रहने की, जनसुरक्षा की हिम्मत जुटानी चाहिए।.....अकेले चल पड़ने वालों का उपहास और विरोध आरम्भ में ही होता है, पर जब स्पष्ट हो जाता है कि उच्चस्तरीय लक्ष्य की दिशा में कोई चल ही पड़ा, तो उसके साथी-सहयोगी भी क्रमश: मिलते और बढ़ते चले जाते हैं।.....निष्ठा भरे पुरुषार्थ में अद्भुत आकर्षण होता है। उनका प्रभाव भले-बुरे दोनों तरह के प्रयोगों में दिखाई देता है। जब चोर-उचक्के लवार-लफंगे दुराचारी, व्यभिचारी, नशेबाज, धोखेबाज मिल-जुलकर अपने-अपने सशक्त गिरोह बना लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि सृजन संकल्प के धनी, प्रामाणिक और प्रतिभाशालियों को अन्त तक एकाकी ही बना रहना पड़े। भगीरथ ने लोकमंगल के लिए सुरसरि को पृथ्वी पर बुलाया तो ब्रह्मा-विष्णु ने गंगा को प्रेरित करके भेजा और धारण करने लिए शिवजी तत्काल तैयार हो गए। नवसृजन में संलग्न व्यक्तियों की कोई सहायता न करे, यह हो ही नहीं सकता। जब हनुमान्, अंगद, नल-नील जैसे रीछ-वानर मिलकर राम को जिताने का श्रेय ले सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि नवसृजन के कार्यक्षेत्र में जुझारू योद्धाओं की सहायता के लिए अदृश्य सत्ता, दृश्य घटनाक्रमों के रूप में सहायता करने के लिए दौड़ती चली न आए?....नि:सन्देह कठिनाई बड़ी है और उसे पार करना भी दुरूह है। पर हमें उस परम सत्ता के सहयोग पर विश्वास करना चाहिए जो इस समूची सृष्टि को उगाने, उभारने, बदलने जैसे क्रियाकलापों को ही अपना मनोविनोद मानती और उसी में निरन्तर निरत रहती है। मनुष्य के लिए छोटे काम भी कठिन हो सकते हैं, पर भगवान् की छत्रछाया में रहते कोई भी काम असम्भव नहीं कहा जा सकता। विषम वेलाओं में अपनी विशेष भूमिका निभाने के लिए तो ‘‘सम्भवामि युगे-युगे के सम्बन्ध में वह वचनबद्ध भी है। फिर इन दिनों समस्त संसार पर छाई हुई विपन्नता की वेला में उसके परिवर्तन, प्रयास गतिशील क्यों न होंगे?... अदृश्य जगत में संव्याप्त दैवी चेतना का अनुपात वर्तमान परिस्थितियों की प्राणचेतना के आधार पर असाधारण रूप में उभरेगा और ऐसे परिवर्तन अनायास ही करता चला जाएगा, जिसे वसन्त का अभिनव अभियान कहा जा सके या उज्ज्वल भविष्य को साथ लेकर आने वाले ‘‘सतयुग की वापसी’’ कहा जा सके।
17. कम से कम इतना तो करें?—
सूर्योदय के समय वैयक्तिक और सामूहिक गायत्री-मंत्र जप, ध्यान, यज्ञ और प्राणायाम, सूर्याघ्य, दीप-यज्ञ, चिन्तन-मनन, आत्मबोध - तत्त्वबोध, सेवा - पतन और पीड़ा निवारण, ज्ञान-यज्ञ।
Think Globally – Act Locally (like fusion process of SUN)
व्यवहार्य कार्य-क्षेत्र - आदर्श ग्राम योजना को अपने छोटे क्षेत्र में प्रयुक्त
करना
सरल भाषा में सरल समाधान—
सादा-जीवन— (पर्यावरण—स्थूल स्तर प्रभावित)
उच्च-विचार— (वातावरण—सूक्ष्म स्तर प्रभावित)
उपासना— ईश्वर के प्रति सुनिश्चित आत्मीयता की अनुभूति
साधना— जीवन में शालीनता की अविच्छिन्नता
आराधना— करुणा और उदारता से ओतप्रोत अन्तराल में निरन्तर निर्झर की तरह उद्भूत
होती रहने वाली भाव-संवेदनाएँ - सहयोग - सेवा।
धन्यवाद - Thank you.
उपासना प्रकरण में श्रद्धा-विश्वास की शक्ति ही प्रधान है। ..... श्रद्धा और विश्वास
के अभाव में उपेक्षापूर्वक अस्त-व्यस्त मन से कोई भी उपासना क्रम अपनाया जाए, असफलता
ही हाथ लगेगी।
वस्तुत: सच्चा अध्यात्मवादी लोकसेवी ही हो सकता है। जन साधारण की समस्याओं के सामाधान में यदि अध्यात्म का प्रयोग नहीं होगा, तो श्रेष्ठता कैसे पनपेगी और दुष्टता कैसे निरस्त होगी? फिर भगवान् का उद्यान सूखता, कुम्हलाता और नष्ट-भ्रष्ट होता ही दीख पड़ेगा।.....वह शक्ति इन दिनों पर्याप्त नहीं मानी जा सकती जो मात्र परलोक की, परोक्ष जगत की ही चर्चा करे और इस लोक को सुधारने, सँभालने, उठाने और सुख-शान्तिमय बनाने में काम न आ सके। इन दिनों तो विशेषतया ऐसी ही भक्ति की आवश्यकता है जो शक्ति से भी परिपूर्ण हो।
गायत्री का पूरक एक और भी तथ्य है- यज्ञ। दोनों के सम्मिश्रण से ही पूर्ण आधार विनिर्मित होता है। भारतीय संस्कृति के जनक-जननी के रूप में यज्ञ और गायत्री को ही माना जाता है। यह प्रकृति और पुरुष हैं। इन्हें महामाया एवं परब्रह्म की संयुक्त संयोजन स्तर की मान्यता मिली है।
Ex. Propagation of LINUX Operating System based on Open Source concept ie on
ancient Yagya technology.
Today's free DVD costs ~ $12Billion = 12 अरब डालर