बहुत खो चुके—अब और न खोयें

प्रस्तुत अवगति के कारणों पर विचार करते हैं, तो उनमें सबसे अधिक भयावह भूल यह प्रतीत होती है कि अपनी ही कुल्हाड़ी से अपना ही आधा अंग क्षत-विक्षत करके रख दिया । आधी शक्ति नर की और आधी नारी की है । आधी शक्ति को असमर्थ बना दिया जाय तो शेष आधी को ही शेष सारा भार वहन करना पड़ेगा । अक्षम न होने पर आधी शक्ति जो काम कर सकती थी, उससे वंचित रहना पड़ेगा । समुन्नत नारी कंधे से कंधा मिला कर काम करती—पैर से पैर मिलाकर चलती तो प्रगति की मंजिल कितनी आसान रहती ।

मोटी आँखों से देखने पर लगता है कि नारी के साथ कोई अनीति नहीं हुई, वरन् उसे अधिक सुविधा दी गई, मर्द कमाता है—औरत बैठी-बैठी खाती है, मर्द को कठोर श्रम करना पड़ता है, अक्ल लड़ानी पड़ती है, अनेक प्रकार की जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती हैं और मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, जबकि स्त्रियाँ घर में निश्चिन्त बैठी रहती हैं, उन्हें हलका-फुलका काम करना पड़ता है और किन्हीं कठिनाइयों में नहीं उलझना पड़ता, इसलिए वे अधिक सुखी हैं । मर्दों के कारण वे सुरक्षा भी अनुभव करती हैं । आदि-आदि कितनी हैं बातें कही जा सकती हैं, जिनके आधार पर मर्द यह समझे कि वह नारी पर बहुत बड़ा अहसान कर रहा है ।

पर तनिक गहराई तक प्रवेश करने के उपरान्त सहज ही इस आत्म प्रवंचना की कलई खुल जाती है और दर्प का मुलम्मा उतर जाता है । यह दलील बहुत पुरानी और घिसी-पिटी है, उन्हें अनेक लोग और उदाहरणों के साथ अनेक प्रकार से अनेक अवसरों पर देते रहते हैं, पर उनकी वाक् चातुरी पर किसी ने भी कभी भी विश्वास नहीं किया । अंग्रेज जब से अपने देश में आये और जिस दिन गये तब तक एक ही बात कहते रहे कि हमने भारत को पराधीन बनाकर उसके ऊपर बहुत बड़ा अहसान किया है । विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर आ गई हैं और सुविधा साधन बढ़ाने के लिए अनेकों उपाय किये हैं, इसलिए भारत को हमारा कृतज्ञ होना चाहिये । दास प्रथा जब जोरों पर थी और मनुष्य पकड़े तथा खरीदे बेचे जाते थे तब भी यही ढोल जोरों से पीटा जाता था कि इन लोगों को अनिश्चित स्थिति में से निकाल कर निश्चिन्तिता की परिस्थिति में ला दिया गया है ।

तर्क की दृष्टि से यह प्रतिपादन एकबार तो सही भी लगते हैं और सद्भाव पूर्ण भी । बुद्धि बड़ी चमत्कारी है वह गलत और सही किसी का भी प्रभावी समर्थन कर सकती है । वकीलों की बुद्धि का चमत्कार देखकर दंग रह जाना पड़ता है । वे अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए ऐसी-ऐसी दलीलें और नजीरें पेश करते हैं कि एकबार दर्शक तो क्या न्यायाधीश भी चक्कर में फँस सकता है । बात की यथार्थता खुलती है तब जब दूसरा पक्ष भी सामने आता है । एक पक्ष की बात तो गुड़ जैसी मीठी होने की कहावत है ।

हमारी भूलों में यह सबसे अग्रणी, सबसे भारी और सबसे अधिक दुखदायी है कि नारी को ऐसे बन्धनों में बाँधने की चेष्टा की गई जो मनुष्य के मौलिक अधिकारों का अपहरण और हनन करते हैं । अपने साथ अनीति बरतना प्रकारान्तर से आत्महत्या ही है । नारी और नर दो वर्ग दो पक्ष नहीं हैं, एक ही चेतना के, एक ही सत्ता के दो अविच्छिन्न पहलू हैं, दोनों को समान रूप से विकसित होने देना ही श्रेयस्कर है । न मालिकी श्रेयस्कर है, न गुलामी हितकर है । यह सहकारिता का युग है । इसमें सहयोग की गरिमा एक स्वर से स्वीकार कर ली गई है और यह समझ लिया गया है कि सहयोग-स्वेच्छा से ही हो सकता है ।

समुन्नत देशों में जहाँ भी नारी को मनुष्योचित अधिकार मिले हैं, वहीं वह पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही है, किन्तु भारत में नारी समाज आज भी नितान्त पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ा है । पिछड़ी हुई नारी, नर के लिए किसी भी क्षेत्र में सहायक न हो सकेगी । भारत में यह प्रयोग दीर्घकाल तक हो चुका और वह सर्वथा हानिकारक सिद्ध हुआ, अब उस प्रचलन को बनाये रखने में कोई बुद्धिमानी नहीं है ।

यूगोस्लाविया की महिलायें उस देश की पूरी कृषि व्यवस्था सँभालती हैं । पुरुष फौज, पुलिस, दफ्तर, कारखाने सँभालते हैं । कृषि, पशुपालन में उन्हें कोई श्रम या हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता । चीन, रूस आदि श्रम-निष्ट देशों में जाकर देखा जाय तो पता चलेगा कि पारिवारिक और राष्ट्रीय सम्पदा सुरक्षा और सुख-सुविधा बढ़ाने में वे कितना बड़ा योगदान दे रही हैं । रूस की शिक्षा व्यवस्था का अधिकांश उत्तरदायित्व महिलायें ही वहन करती हैं । शिक्षा संस्थाओं में पुरुषों की संख्या बहुत ही कम दिखाई पड़ेगी । अस्पतालों एवं स्वास्थ्य-संस्थाओं का उत्तरदायित्व भी प्रायः उन्हीं का है । डाक्टर, कम्पाउण्डर, नर्स आदि का कार्य करती हुई महिलायें ही देखी जायेंगी, पुरुष तो जहाँ-तहाँ ही दृष्टिगोचर होंगे ।

जापान की महिलायें उद्योग-धन्धों के विकास में पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करती हैं । घर-घर में लगे छोटे कुटीर-उद्योगों में संलग्न रहकर वे अपने समय का उपयोग घर-परिवार को और समूचे राष्ट्र को सम्पन्न बनाने में करती हैं । जर्मनी में कल-कारखानों को सँभालने में महिलाएँ पुरुष इंजीनियरों, कारीगरों एवं व्यवस्थापकों से घटिया नहीं बढ़िया ही सिद्ध होती हैं । इंगलैंड, फ्राँस, कनाडा, अमेरिका में दुकानें चलाने में महिलाओं की प्रमुखता है, वे व्यापार कुशलता में पुरुषों से आगे हैं । शिशु पालन, गृह व्यवस्था तो उनके लिए खेल-मनोरंजन है । ये सब तो वे हँसते-हँसाते निपटाती हैं । अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों को सँभालने में गृह व्यवस्था उनके लिए तनिक भी बाधक सिद्ध नहीं होती ।

यह सब इसीलिए सम्भव हुआ कि उन देशों के निवासियों ने यह नहीं सोचा कि नारी को कैद में जकड़ देने से उनके शील-सदाचार की रक्षा हो जायगी और मर्दों की इज्जत बढ़ेगी । भारत की तरह नारी को रुग्णता और दुर्बलता की दयनीय स्थिति में धकेल देने का दुर्भाग्य उन्हें वहन नहीं करना पड़ा । जब पाप ही नहीं किया तो दण्ड किस बात का ?

भारत में पुरुष अनीति बरतता है और नारी उसे अपनी मानसिक अशक्तता के कारण डरी-सहमी सहन करती है । अनीति करने वाले की तरह, अनीति सहने वाला भी पापी माना गया है । रिश्वत लेने वाला ही नहीं, देने वाला भी अपराधी गिना जाता है । अपराध सिद्ध होने पर दोनों को ही सजा मिलती है । अपने देश में नारी कितनी सुकोमल है दूसरे शब्दों में कितनी दुर्बल है, यह सहज ही सर्वत्र देखा जा सकता है । पिछड़ा हुआ कहा जाने वाला श्रमिक वर्ग इस क्षेत्र में तथाकथित कुलीन और बड़े आदमियों की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी हैं । गरीबी के कारण ही सही, उनकी स्त्रियाँ कैद खाने से बाहर भी भागती दौड़ती हैं और अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी अपना स्वास्थ्य बचाये रहती हैं ।

शारीरिक दृष्टि से नारी स्वभावतः तनिक भी अक्षम नहीं है । खेल-कूदों की जो रिपोर्ट अखबारों में छपती रहती हैं, उनसे प्रतीत होता है कि किसी भी स्वास्थ्य प्रतियोगिता में वे कमजोर नहीं पड़ती । स्वास्थ्य के अतिरिक्त प्रकृति ने उन्हें सुन्दरता का दुहरा उपहार दिया है । सरकसों में नारी की स्फूर्ति, कुशलता एवं स्वास्थ्यता देखते ही बनती है । संगीत, साहित्य और कला पर उनका विशेष अधिकार है । भावना क्षेत्र में उनकी प्रकृति प्रदत्त प्रधानता है । उसी आधार पर तो अपने परिवार के लिए बढ़-चढ़ कर अनुदान दे पाती है, और समर्पित जीवन को बिना खीजे जी लेती है । इसी विशेषता को साहित्य, संगीत कला के क्षेत्र में प्रस्फुटित होने का अवसर मिलता है । प्रगति क्रम सहज ही द्रुतगामी हो जाता है । नारी का मधुर स्वर कण्ठ और भाव स्पन्दन समस्त संसार को गुद-गुदा रहा है । गायन में नर नहीं, नारी आगे है । नाट्य, अभिनय, चलचित्र क्षेत्रों में उन्हीं का वर्चस्व है, अवसर न मिले तो बात दूसरी है अन्यथा साहित्य सृजन में उनकी सहज क्षमता को पुरुष चुनौती नहीं दे सकता । कवि और चित्रकार जब भी उन्हें बनने दिया गया है उन्होंने अपनी वरिष्ठता ही सिद्ध की है । मूर्तिकार तो वे अद्वितीय हैं । पत्थर की नहीं वे प्राणवान प्रतिमाएँ अपने शरीर की प्रयोगशाला में बनाकर प्रस्तुत करती है । उनके समान मूर्तिकार, चित्रकार, कलाकार कौन हो सकता है ? उनसे अधिक आकर्षक, सुन्दर, कलात्मक, कोमल कला कृति इस संसार में दूसरी नहीं है । परमेश्वर ने अपना सारा दृश्यमान और चेतनात्मक सौन्दर्य उसी में उड़ेल दिया है । कठोरता प्रधान पुरुष पक्ष यदि नारी की कोमलता का स्पर्श न कर सका होता तो वह पशु-प्रवृत्ति की ओर न जाने कितना नीचा गिरता चला जाता ।

देवी और द वी दोनों ही शब्द उसके लिए सार्थक ही प्रयुक्त होते हैं । उसकी सत्ता और चेतना लोकोत्तर है । देवत्व की अगणित विशेषताएँ उसके नख-शिख तक भरी पड़ी हैं । आवश्यकता केवल इसी बात की है कि उन विशेषताओं को विकसित होने का, फलने-फलने का अवसर मिल सके । प्राचीन भारत में उनकी आध्यात्मिक, भावनात्मक विशेषताओं को प्रस्फुटित होने का अवसर मिला था तो उनने मदालसा बनकर इस भूमि पर ब्रह्मवेत्ताओं, ऋषियों, तपस्वियों, ज्ञानियों, और महामानवों के उद्यान खड़े कर दिये ।

अवांछनीयता अपना कर हमने क्या खोया ? क्या पाया ? इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिए । प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं का उपभोग करने का अवसर यदि नारी को मिला होता तो वह पुरुष की तुलना में शरीर की दृष्टि से किसी भी प्रकार दुर्बल नहीं होती । मेवाड़ के गाडिया लुहार दूर-दूर तक अपनी आजीविका कमाने के लिये प्रभावशील जीवन यापन करते हैं । उनकी स्त्रियाँ भारी घन चलाती हैं और मर्द गरम लोहे की उलट-पुलट करते हैं । स्त्रियाँ मर्दों से शारीरिक बल में कम नहीं अधिक ही बैठती हैं । खाने को उन्हें बहुमूल्य भोजन कहाँ मिलता है ? सर्दी-गर्मी से बचने का भी प्रबन्ध नहीं होता । गाड़ी की छाया में ही गुजर कर लेते हैं, फिर भी उनके शरीर उस लोहे के समान ही मजबूत होते हैं, जिसे कि वे जन्म से लेकर मरण पर्यन्त पीटती हैं । बच्चे जनती रहती हैं, प्रसूति की छुट्टी दस-पाँच दिन की ही लेती हैं और फिर वही कठोर श्रम करने लगती हैं । स्वास्थ्य की यह सुरक्षा उन्हें स्वच्छ हवा में साँस लेने, खुली सूर्य किरणों के सम्पर्क में रहने और समुचित श्रम करने की सुविधा मिलने से ही सम्भव होती है । यदि उन्हें भी एक छोटे पिंजड़े में कैद कर दिया जाय और मुँह पर डाकुओं जैसा नकाब लटका दिया जाय तो कुछ ही दिनों में वे अपनी स्वास्थ्य-सम्पदा खो बैठेंगी ।

नारी की उपयोगिता स्वीकार की जानी चाहिए । उसे भोग्या भर न मान लिया जाय । मध्य काल में उसकी उपासना अघोरी कापालिकों के रूप में की गई । फलतः वह सर्वनाशी कृत्या बन कर विघाती ताण्डव करने पर उतारू हो गई । स्वयं तो जली पर उसकी आग में सारा देश, सारा समाज बेतरह जल-झुलस गया । एक हजार वर्ष तक नारी की जिस अघोर उपासना में अपना समाज संलग्न रहा उसका प्रतिफल भोग लिया, अब दिशा बदलने की आवश्यकता है ।

नारी को विश्वस्त मित्र और सम्मानास्पद स्वजन का स्थान मिलना चाहिये । उसे प्रताड़ित, पददलित रखने में नहीं, सघन सहयोगी बनाने में लाभ समझा जाना चाहिये । उदारता के बीज बोकर नारी की सत्ता द्वारा धरती की माता के प्रतिदानों की अपेक्षा कम नहीं कुछ अधिक ही पाने की आशा की जानी चाहिए । यही नीति श्रेयस्कर है । लाखों वर्षों तक इसी नीति पर चल कर भारत ने बहुत कुछ पाया था ।

राजनैतिक स्वतन्त्रता इस शताब्दी की हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है । हजार वर्ष की शासन परतन्त्रता का दुःसह दुःख सिर पर से उतर गया । अब बनाने-बिगाड़ने की हमें पूरी स्वतन्त्रता है । दूसरी उपलब्धि इसी युग की यह होनी चाहिए कि भारत ने नारी उत्पीड़न का कलंक भी अपने मुख से धो डाला । यह अवसर पाया कि वह अपनी स्वन्तत्र प्रतिभा का विकास कर सके, स्वाधीनता की स्वच्छ वायु में साँस ले सके, उदीयमान आलोक में बैठकर अपनी जकड़ी-अकड़ी नस-नाड़ियों को गरमा करके फैला-फुला सके । उसका दोहन छोड़ा जाय, और स्वेच्छया-सहयोग पाया जाय | यह कितनी सुखद स्थिति होगी । इसकी कल्पना करने मात्र से हृदय हुलसने लगता है । देश की राजनैतिक पराधीनता से मुक्त करने वालों ने स्वतंत्र भारत के सुनहरे स्वप्न देखे थे और उन चित्रों में रंग भरने के लिए अपना भाव-भरा उत्सर्ग प्रस्तुत किया था । स्तन्त्रतता का उत्तरार्ध उससे कम नहीं अधिक महत्त्व का है । उसके लिए अपनी पीढ़ी को ऐसे ही स्वप्न सँजोने चाहिये और उत्सर्ग के ऐसे ही ठाठ रोपने चाहिए जैसे कि बलिदानी वीरों ने सँजोवे थे । पिछली पीढ़ी अपनी परीक्षा में सफल हो गई और श्रेयाधिकारी बनकर यशस्वी भूमिका निभा गई, पर अपनी पीढ़ी का काम है कि लड़ाई के उत्तरार्ध को पूरा करे । नारी मुक्ति के स्वतन्त्रता संग्राम में—महिला जागरण अभियान में अपनी ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करे ।

पराधीनता के निविड़ बन्धनों से मुक्ति पाते ही नारी अपना खोया हुआ स्वास्थ्य, ज्ञान, मनोबल, अनुभव, व्यक्तित्व, वर्चस्व आदि कुछ ही समय में पुन: उपलब्ध उपार्जित कर लेगी । पिछड़ापन उसके ऊपर थोपा गया है, वस्तुतः वह वैसी प्रकृतितः नहीं है, जैसी कि बना दी गई है । अवसर मिलने भर की कठिनाई है । तनिक सी सुविधा मिले तो वह संसार भर की प्रगतिशील नारियों की तुलना में अधिक आगे की पंक्ति में खड़ी दिखाई देगी । विकसित भारतीय नारी अपने सहयोग और अनुदान से अपने समाज और राष्ट्र को कितनी ऊँची कितनी सुख-शान्ति भरी स्थिति पहुँचा सकती है, इसके कल्पना-चित्र जब आँखों के आगे से गुजरते हैं, तो उज्ज्वल भविष्य की झाँकी अन्तःकरण को पुलकित कर देती है । ईश्वर करे वह दिन परसों नहीं कल ही आ जाय और उसका शुभारम्भ आज ही हो जाय ।