गायत्री उपासना का स्वरूप

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

यहाँ इस शिविर में आपको गायत्री जयन्ती के समय पर गायत्री साधना करने के लिये बुलाया गया है। इस समय आपको घूमने-फिरने के लिए नहीं, शुद्ध रूप से साधना करने के लिए हमने आपको निमन्त्रण दिया था। साधना करने के उद्देश्य से जो आये हैं, उनको ठहरना चाहिए। घूमने-फिरने के लिए हरिद्वार आना बहुत व्यर्थ ही रहता है। शुद्ध रूप से इच्छा होनी चाहिए। साधना किसकी, गायत्री की। गायत्री की साधना के सम्बन्ध में आपको क्यों बुलाना पड़ा? इससे पहले भी हम आपको कई बार साधना करा चुके हैं, आपको बता चुके हैं, फिर क्या जरूरत पड़ गई इस साधना को सिखाने की—इस साधना को बताने की। मित्रो! बहुत समय से हम आपको गायत्री उपासना का कर्मकाण्ड एवं क्रिया-कलाप समझाते रहे हैं कि पावन गायत्री मंत्र क्या होती है और गायत्री उपासना कैसे की जा सकती है? कर्मकाण्ड तो कलेवर मात्र है। यह उपासना का शरीर मात्र है, जिसे अभी हमने आपको बताया।

शरीर किसे कहते हैं? शरीर उसे कहते हैं जो दिखायी पड़ता है, जो देखा जा सकता है, जो अनुभव में लाया जा सकता है। हमारा शरीर आपके सामने बैठा हुआ है, कैसा है? इसमें अँगुलियाँ हैं, हाथ हैं, नाक है, कान है, दाँत है, बाल हैं। इसे हम देखते हैं। छू भी सकते हैं इस शरीर को, लेकिन इसके भीतर एक ऐसी विशेषता छिपी हुई है, जिसे आप देख भी नहीं सकते और सुन भी नहीं सकते। केवल अपने गहन अनुभव के द्वारा ही इसको जाना जा सकता है। आपका प्राण कैसा है—बताइये। साहब, प्राण दिखायी तो नहीं पड़ता, कितना शक्तिशाली है मालूम नहीं पड़ता? कितना ज्ञानवान है मालूम नहीं पड़ता, कितना चरित्रवान है मालूम नहीं पड़ता। आँखों से मालूम नहीं पड़ सकता, दिखायी नहीं पड़ सकता। केवल विचारणा के द्वारा आप यह जान सकते हैं कि आपके शरीर में कोई प्राण होगा। फिर आप उससे भी गहरायी में जानना चाहें तो यह जान सकते हैं कि आचार्य जी का प्राण कितना शक्तिशाली होगा, कितना सामर्थ्यवान, कितना महत्त्वपूर्ण होगा, कितना विकसित होगा? आप ज्यादा खोजबीन करेंगे तो ही, आपको यह मालूम पड़ेगा। ज्यादा खोजबीन नहीं करेंगे तो आपको केवल हमारा शरीर दिखायी पड़ेगा। आप यहाँ हमारा दर्शन करने के लिए आये हैं, अच्छा साहब क्या देख करके आये? हमारा शरीर देखकर आये। तो क्या फायदा हुआ इससे? कुछ भी फायदा नहीं हुआ। बूढ़ा आदमी था, बैठा हुआ था, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं, सफेद बाल वाला था। हमने देखा तो माला पहना दी। क्या फायदा कर लाया? कोई फायदा नहीं हुआ।

वस्तुतः दर्शन करने, सुनने की चीज नहीं। असल में जो फायदा उठाना चाहते हैं, वह किससे मिल सकता है? जीवात्मा के आशीर्वाद से। शरीर का कोई आशीर्वाद नहीं है। हमारा आशीर्वाद हमारी भावनाओं में जुड़ा हुआ है—हमारे स्नेह में जुड़ा हुआ है। अगर स्नेह के साथ में तुम्हें कोई आशीर्वाद दें या परामर्श दे दें तो उसका कोई असर शरीर पर पड़ेगा क्या? शरीर पर कोई असर नहीं पड़ सकता। गायत्री उपासना—गायत्री साधना का क्रियापरक कर्मकाण्ड की तुलना शरीर से—कलेवर से की जा सकती है। शरीर और चेतना दो भिन्न चीजें हैं। इससे शरीर का लाभ है क्या? शरीर का भी लाभ है। हम क्या सेवा कर सकते हैं हाथ से? हम आपके लिये पानी पिला सकते हैं, तेल मालिश कर सकते हैं, हजामत बना सकते हैं और क्या कर सकते हैं? पैर दाब सकते हैं। हाथ-पाँव से यही सेवा कर सकते हैं, लेकिन हम अपने ज्ञान के द्वारा आपका काया-कल्प कर सकते हैं और अपनी ज्ञान की भावनाओं के द्वारा कोई आशीर्वाद देना चाहें तो आपके जीवन का विकास कर सकते हैं। शरीर की अपेक्षा प्राण बहुत बलवान् हैं। शरीर हमारा वैसे भी कमजोर हैं, छोटा-सा है। लेकिन प्राण की शक्ति असीमित हैं। इसी तरह गायत्री उपासना का कर्मकाण्डपरक क्रिया-कृत्य भी है। गायत्री साधना का यह कर्मकाण्ड आप लोगों ने बहुत समय से सीखा है और जाना है। एक खास बात मैं समझता हूँ कि इतना लाभ तो जरूर हुआ होगा कि मन की एकाग्रता हुई होगी। गायत्री उपासना आप बहुत दिनों से करते रहे हैं फिर क्या लाभ हुआ? अपनी दशा अस्वस्थ हो तो प्रगति रुक गयी होगी उससे और क्या लाभ हुआ होगा और कोई खास लाभ तो नहीं हुआ होगा, क्योंकि आपकी उपासना क्रिया-कलाप तक सीमित थी, कलेवर तक सीमित थी। यह भजन था उसका, कलेवर था, शरीर था जो कि बहुत दिनों से आपको हम सिखाते हुए चले आ रहे थे। उसमें क्रियाएँ करनी होती थी। किससे? शरीर से। अब तक आपने कलेवर सीखा होगा। उसमें क्रियाएँ करनी पड़ती थीं।

क्रियाएँ क्या करनी पड़ती थीं? कैसी क्रियाएँ करनी पड़ती थीं? शरीर से करनी पड़ती थीं जैसे माला घुमानी पड़ती थी, किससे घुमानी पड़ती थी? हाथ की उँगलियों से घुमानी पड़ती थी। किसकी माला? लकड़ी की। लकड़ी की माला चमड़े की अँगुलियों से घुमानी पड़ती थी। हेरा-फेरी उपासना की, जिसको हम भजन कहते हैं, कलेवर कहते हैं। अब तक जो आप उपासना करते रहे हैं, जिसको मुख से उच्चारण करना पड़ता था, जीभ से उच्चारण करना पड़ता था, वह किस चीज की बनी है? चमड़े की। चमड़े की जीभ क्या बोलती थी? गायत्री मंत्र बोलती थी, ‘ॐ नमः शिवाय’ बोलती थी, राम-राम बोलती थी। अभी तक जो उपासना धूपबत्ती के माध्यम से, चन्दन के माध्यम से, अगरबत्ती के माध्यम से, चावल के माध्यम से आप पूजा-उपासना जो करते रहे हैं सब भजन था। इस भजन-उपासना का लाभ उतना ही बन सकता है, जितना कि हमारे शरीर और हमारे कान के बीच अन्तर है, वही अन्तर भजन और उपासना में है।

अब इस समय हम यह मान लेते हैं कि आपको पौराणिक कबूतर वाली कहानी की कोई जरूरत नहीं रही। अब आपको सुन्दरता का प्रोनाउन्सिएशन बताना चाहिए, उच्चारण बताना चाहिए। अब आपको बालकन की गोलियों की विशेष आवश्यकता नहीं रही। अब किण्डर गार्डन के माध्यम से आपको अक्षरों का लिखना बताया जाएगा। हम समझते हैं कि आप रोज तो क्या, जिन्दगी भर किण्डर गार्डन के द्वारा अक्षर सीखते रहें। अब हमें आपको अक्षर सिखाना चाहिए, आपको लिखना सिखाना चाहिए, अब हमें आपको बोलना सिखाना चाहिए। अब हमें आपको उच्चस्तरीय शिक्षा देनी चाहिए। दूसरी बातें बतानी चाहिए, ताकि उसका वास्तविक लाभ उठा सकें। अब वास्तविक लाभ उठाने के लिए हमने आपको इस शिविर में बुलाया है। वह उपासना जो आदमी को समर्थ बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को शक्तिवान बना सकती है, वह उपासना जो आदमी को सिद्धपुरुष बना सकती है, वह उपासना जो इस भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही जीवनों में आदमी को उठाकर कहीं से कहीं ले जा सकती है। उसका मूल, उसका प्राण, हम आपको सिखाएँ, यही उद्देश्य है इस शिविर का। यह गायत्री का प्राण, साधना का प्राण है। चलिए हमारे साथ-साथ गहराई में डुबकी लगाइए ताकि आपको गायत्री की बावत अब तक जो जानकारी है, उसकी अपेक्षा अधिक जानकारी मिले।

साधना का अर्थ कर्मकाण्ड मात्र पूरा कर लेना नहीं है और न ही गायत्री कोई देवी है। नहीं साहब, वह देवी होती है जो हंस पर सवारी करती है, जो फर्र से इस पेड़ पर से उस पेड़ पर चली जाती है, फिर उस पेड़ पर से उस पेड़ पर चली जाती है। आप जानते हैं गायत्री कहाँ रहती है? हाँ, महाराज जी आपने समझाकर तो भेजा है। एक हाथ में पानी का कमण्डलु लेती है। बेटे, हाथ में पानी का थर्मस लेकर चलती है? पानी का गिलास छोड़ जाएगी तो कैसे काम चलेगा? एक हाथ में किताब लेती है। कौन-सी किताब लेकर चलती है? अखण्ड-ज्योति की किताब लेती है, दूसरी किताब नहीं लेती है। नावेल पढ़ने के लिए नहीं है। रास्ते में किताब नहीं पढ़ेगी तो बेचारी को कैसे याद होगा? और सवारी? कौन-सी सवारी करती है? रिक्शा, साइकिल की जरूरत नहीं है, मोटर की जरूरत नहीं है। गायत्री जाती है तो हंस पर सवार होकर जाती है। मोटर पेट्रोल खर्च करा लेती है, बहुत सारा खर्चा करा लेती है। गायत्री माता ने मोटर दूसरी तरह की खोज ली है। वह हवाई जहाज का भी काम कर सकती है और जमीन पर भी चल सकती है। किसकी सवारी है? वह हंस की है, वह सिर्फ हंस पर सवारी करती है। पेट्रोल भी नहीं खाता है। ड्राइवर भी नहीं है। लगाम, लगाम भी नहीं है। गायत्री माता कह देती है भाई चल हरिद्वार की तरफ, तो चल देता है। गायत्री बड़ी विचित्र है, छोटी-सी गायत्री है, ऐसी गायत्री है जैसी तुम बच्चों की होनी चाहिए। रानी गायत्री की पूजा और भजन कैसा है? वैसा ही जैसा कि बाराती गाते हैं, फूल चढ़ा देते हैं? चावल चढ़ा देते हैं, अक्षत चढ़ा देते हैं। गायत्री मंत्र बोल लेते हैं। यह क्यों है? बेटे! बालकों की गायत्री है, बालकों की साधना है। अब हम आपको जवानों की, दार्शनिकों की, विचारशीलों की गायत्री समझाना चाहेंगे, अब मैं आपको साहसियों की, विचारशीलों की, तपस्वियों की साधना सिखाना चाहूँगा। मैं समझता हूँ कि अब आप बच्चे नहीं रहे, वरन् जवान हो गए हैं, इसलिए जवानों से जवानों की-सी बात कहनी चाहिए। बच्चों को बच्चों की-सी बात कहनी चाहिए। जवानों को गायत्री की शिक्षा क्या है? भाइयो! मैं क्या कह सकता हूँ आपसे गायत्री की कितनी शिक्षाएँ हैं? आज मैं पहले यही बताना चाहूँगा आपको कि गायत्री की क्या शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ हैं। फिर गायत्री उपासना और साधना के रहस्य समझाऊँगा। यह सारे के सारे रहस्य इस शिविर में बताते हुए चला जाऊँगा, जिसके लिए मैंने आपको बुलाया है।

अलंकार की दृष्टि से ऋषियों ने बड़े महत्त्वपूर्ण विषयों को समझाने की कोशिश की है। सारे आर्ष-ग्रंथों, अठारह पुराणों के मैंने भाष्य किए हैं। पुराणों को लोग इतिहास मान बैठते हैं और फिर यह कहते हैं कि पुराणों में गप्पें लिखी हैं। लेकिन बेटे पंचतन्त्र की किताबों में भी गप्पें लिख रही हैं जैसे कौवे से लोमड़ी ने कहा—अरे भाईसाहब! गाना गा दीजिए। अच्छा तो मैं गाना गाता हूँ—रोटी का टुकड़ा मुँह में से गिरा और लोमड़ी लेकर के भाग गई। क्यों साहब, लोमड़ी की बातचीत कौवा सुन सकता है? नहीं। तो क्या कौवे की बातचीत लोमड़ी समझ सकती है? नहीं साहब! तो फिर इन कहानियों में ये क्या झूठ लिखा है? नहीं बेटे! ये झूठ नहीं है। बालकों को आकर्षक ढंग से, पहेली के ढंग से, प्रिय बुजुर्गों के ढंग से उनको महत्त्वपूर्ण बात समझा देती है तो क्या हर्ज है। उसमें मनोरंजन भी रहता है आकर्षण भी रहता है। इसी तरह का शिक्षण है। पुराणों में कोई क्या समझे? पुराणों में विचित्र कहानियाँ हैं। कहानियों के माध्यम से लोगों को शिक्षण देने की कोशिश की है। बताने की कोशिश की है। बड़े महत्त्वपूर्ण विषयों को, जो साधारणतः समझ में नहीं आती है, कठिन विषयों, जटिल विषयों, फिलॉसफी को समझाने के लिए कथानकों का माध्यम लिया गया है, जो मैं आपको सुना चुका हूँ, इसका क्या अर्थ होता है। आत्मबल, आत्मशक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। इसे प्राप्त करने के लिए गायत्री का, ऋतम्भरा-प्रज्ञा का अवलम्बन लेना होता है।

गायत्री का ही दूसरा नाम ऋतम्भरा-प्रज्ञा है। ऋतम्भरा-प्रज्ञा—इसका नाम गायत्री है। कितनी शिक्षाएँ इसमें हैं? यह भी काम कर सकती है। एक काम यह कर सकती है कि जो पाप, ताप, शोक और सन्ताप, कष्ट और अभाव जो हमारे जीवन में हैं, उन्हें यह उसी तरह सींगों से मारकर भगा सकती है जैसे कि विश्वामित्र और उनकी सेना को, जो गुरु वशिष्ठ को हैरान करने और नन्दिनी को हैरान करने के लिए आए थे, तो नन्दिनी ने उनको मार गिराया और सफाया कर दिया था। इसी तरीके से अपने जीवन की मौलिक कठिनाइयाँ और बाधाएँ जो हमको रास्ते पर चलने में रुकावट डालती हैं, उन सारी की सारी कठिनाइयों को, हमारी भ्रामक मनःस्थितियों को, भ्रामक यश-लिप्सा को ऋतम्भरा-प्रज्ञा मारकर भगा सकती है। इस कहानी का यही अर्थ है कि यह मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं का द्वार खोल सकती है। हालाँकि आध्यात्मिक शक्ति, आन्तरिक शक्ति हमारे पास है। अकल की शक्ति का चमत्कार तो आपने देखा ही है। अकल आपके पास हो तो अच्छी नौकरी मिलेगी। कहाँ तक पढ़े हैं? मैट्रिक पास हैं। अच्छा साहब, दो सौ रुपया तनख्वाह मिलेगी। आप क्या पास हैं? बी.ए. पास हैं, तो आपको साढ़े तीन सौ रुपये तनख्वाह मिलेगी। एम.ए. पास हैं तो पाँच सौ रुपये से आपकी स्टार्ट करेंगे। पी.एच.डी. हैं तो जिस तरह से आपकी जानकारी होगी, उसी तरह से आपको पैसा मिलता जाएगा। यदि आप कमजोर हैं तो आपको एक रुपया रोज मिलेगा। पहलवान हैं, वजन ढोने वाले हैं तो चले जाइए ढकेल पर और पल्लेदारी कीजिए, बाइस रुपया रोज देंगे। अकल की ताकत देखी है आपने? हाँ देखी है। धन की ताकत देखी है? बैंक में रुपया जमा कर दीजिए, ब्याज पर ब्याज मिलता चला जाएगा। यह तो हुई धन की ताकत। अब आप आध्यात्मिकता की ताकत को देखेंगे, जो दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। इसके मुकाबले में दुनिया के पर्दे पर कोई नहीं है, क्योंकि ये चेतना की ताकत है। जड़ की ताकत सीमित है। जड़ क्या है? जड़ हमारा शरीर है। जड़ क्या है? जड़ हमारा पैसा है। जड़ क्या है? जड़ हमारा व्यापार है। दिमाग भी हमारा जड़ पदार्थ का बना है, जिसे ज्ञानेन्द्रिय कहा जाता है, ये भी जड़ है। पदार्थ की सीमा है। पैसे की शक्ति, बुद्धि की शक्ति सब शक्तियाँ जड़ हैं। जड़ के द्वारा जो फायदा मिल सकता है, चेतना के द्वारा उससे हजारों गुना ज्यादा फायदा हो सकता है। लाखों गुना ज्यादा फायदा हो सकता है। चेतना की शक्ति अगर हमारे पास हो जिसे हम ब्रह्मबल कहते हैं और आत्मबल कहते हैं तो फिर उसका कहना ही क्या?

मित्रो! मैं कहानी का अर्थ समझाना चाहूँगा आपको, ताकि गायत्री की परिभाषा आपकी समझ में आ जाए कि गायत्री क्या हो सकती है? गायत्री ऋतम्भरा-प्रज्ञा का नाम है। एक कहानी सावित्री और सत्यवान की है। एक लड़की बड़ी रूपवती, बड़ी कुलवती, बड़ी सुन्दर, ऐसी सुन्दर कि ख्याति संसार भर में फैल गयी। सभी राजकुमार उसे देखकर यही कहते कि यह तो बड़ी सुन्दर राजकुमारी है। यदि यह हमको मिल जाती तो अच्छा होता। लड़की के पिता के सामने सभी राजकुमार हाथ पसारने लगे कहने लगे कि इसे हमको दीजिये। लड़की ने अपने पिता से कहा कि हमको अपनी मर्जी का दूल्हा चुनने दीजिए। अच्छा तो आप चुन लें। ठीक है, रथ पर सवार होकर सेना को साथ लेकर सावित्री रवाना हुई। रवाना होते-होते वह सारे देशों के राजकुमारों से मिली और यह पता लगाया कि हमारे लिए कोई दूल्हा है क्या? कोई भी दूल्हा उसको पसन्द नहीं आया। जंगल में एक दिन निकलकर जा रही थी सावित्री रथ समेत। उसने एक लड़के को देखा। वह एक लकड़हारा था। लकड़हारा बड़ा तेजस्वी मालूम पड़ता था और चेहरे पर उसके यशस्विता भी टपक रही थी। दृढ़ निश्चय भी टपक रहा था। सावित्री ने उसको रोका और पूछा लकड़हारे तुम कौन हो और कैसे हो? उसने कहा—लकड़हारा तो इस समय पर हूँ, पर पहले लकड़हारा नहीं था। हमारे माता-पिता अन्धे हो गए हैं। यहाँ जंगल में आकर तप करते हैं, उन्हीं की रक्षा करने के लिए हमने यह आवश्यक समझा कि उनको भोजन कराने से लेकर के सेवा करने तक के लिए हमको कुछ काम करना चाहिए और जिम्मेदारी को निभाना चाहिए। इस जंगल में और तो कोई पेशा है नहीं, लकड़ी काटकर ले जाते हैं और गाँव में बेच देते हैं, पैसे लाते हैं और उनका सामान खरीदकर लाते हैं। माता-पिता को रोटी खिलाते हैं, सेवा करते हैं। आपने अपने भविष्य के बारे में क्या सोचा है? भविष्य के बारे में क्या? शादी नहीं करना चाहते? अभी हमारे माता-पिता का कर्ज हमारे ऊपर रखा हुआ है, अभी हम शादी कैसे कर सकते हैं? सावित्री ने कहा—तुम कुछ और नहीं कर सकते क्या? पैसा नहीं कमा सकते? पैसा कमा करके हम क्या करेंगे? कर्तव्यों का वजन हमारे ऊपर रखा है। पहले कर्तव्यों का वजन तो कम कर लें, तब सम्पत्तिवान बनने की बात सोची जाएगी या शादी करने की बात देखी जाएगी। अपनी सुविधा की बात बहुत पीछे की है। पहले तो वह करेंगे जो हमारे ऊपर कर्ज के रूप में विद्यमान है, इसीलिए माता-पिता, जिन्होंने हमारे शरीर का पालन किया, पहला काम उनकी सेवा का करेंगे, इसके बाद और बातों को देखेंगे। पढ़ना होगा तो पीछे पढ़ेंगे। नौकरी करनी होगी तो पीछे करेंगे या शादी करनी होगी तो पीछे करेंगे। अभी तो हमको कर्ज चुकाना है, माता-पिता की सेवा करनी है।

लकड़हारे की बात सुनकर राजकुमारी रुक गई। अब वह विचार करने लगी कि बाहर से ये लकड़हारा है, लेकिन भीतर से कितना शानदार है? कितना शानदार इसका कलेजा, कितना शानदार इसका दिल, कितना शानदार इसकी जीवात्मा? इसने अपने सुख और भौतिक सुविधाओं को लात मार दी और अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता दी। यह बड़ा जबरदस्त है। लकड़हारा है तो क्या हुआ? लकड़हारे से सावित्री ने कहा कि हम तो दूल्हा तलाश करने चले थे, पर अब हम आप से ब्याह करेंगे। अब हम आपको ही माला पहनाना चाहते हैं। वह हँसा, उसने कहा—हमको अपने पेट का तो गुजारा करना ही मुश्किल पड़ता है फिर तुम्हारा गुजारा कैसे कर सकते हैं? उसने कहा हम पेट पालने के लिए आपकी सहायता माँगने के लिए नहीं आए? आपकी सहायता करने के लिए आए हैं। हमारा बाप बहुत बड़ा मालदार है, हमारे पासा बहुत सारा पैसा है। हम आपकी सेवा कर सकते हैं? यह सुनकर राजकुमार बोला—नारद जी बता गए थे कि एक साल बाद हमारी मृत्यु होने वाली है। सावित्री ने कहा कि—हमारे पास इतनी विशेषता है कि हम आपकी जान बचा सकते हैं। हम आपको सम्पन्न बना सकते हैं। आपको यशस्वी बना सकते हैं? हम आपको सब कुछ उपलब्ध करा सकते हैं। हम बड़े मालदार हैं। सावित्री ने गले में माला पहना दी। क्या आपने सावित्री सत्यवान की कहानी पढ़ी है? पढ़ी होगी तो जानते होंगे कि फिर क्या हुआ था? राजकुमारी से विवाह करने के बाद सत्यवान के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया था जब यमराज आए थे और सत्यवान का प्राण निकालकर ले गए थे। तब सावित्री ने कहा था-नहीं, यमराज बड़े नहीं हो सकते। हम बड़े हैं। आखिर सावित्री ने यमराज से अपने पति क प्राण छीन लिया था। आपने सुना है या नहीं सुना है। हमें नहीं मालूम पर, यह एक कहानी है, जो गायत्री का प्राण, गायत्री की जीवात्मा, गायत्री की वास्तविकता और गायत्री की फिलॉसफी है। आप इस फिलॉसफी की गहराई में जाइए। समुद्र के किनारे-किनारे द्वीपों में घोंघे पड़े होते हैं। गहरी डुबकी मारिए और मोती ढूँढ़कर लाइए। नहीं साहब! मोती किनारे पर बिखरे होते हैं। हम तो किनारे पर डुबकी मारेंगे और मोती मिल जाएगा। बेटे ऐसा नहीं होता। किनारे पर मोती कैसे मिल जाएगा? ठीक इसी तरह किनारे पर बैठकर गायत्री का भजन करेंगे तो उससे क्या मिलेगा? यह तो किनारे बैठकर किनारे का भजन है। अरे डुबकी मार करके गायत्री के भजन की वास्तविक स्थिति ढूँढ़कर के ला। जहाँ से लोग शक्तिवान बन जाते हैं। सिद्धपुरुष बन जाते हैं। चमत्कारी बन जाते हैं। वहाँ तक डुबकी मार। वहाँ तक डुबकी नहीं मारेगा, किनारे तक बैठा रहेगा और नजर घुमाता रहेगा तो बेटे, सीप मिल सकती है, घोंघे मिल सकते हैं, समुद्र के किनारे। समुद्र दिखाई दे सकता है। झाग मिल सकता है, पर कीमती चीज नहीं मिल सकती। यह कहानी यही कहती है।

सावित्री किसे कहते हैं? सावित्री बेटे गायत्री का ही दूसरा नाम है और सत्यवान? सत्यवान उसे कहते हैं, जिस साधक ने अपना जीवन समय के लिए, सिद्धान्तों के लिए अर्थात् आदर्शों के लिए समर्पित किया है, उस आदमी का नाम है सत्यवान। सावित्री-गायत्री के लिए यह आवश्यक है कि उसका भक्त सत्यवान हो अर्थात् सिद्धान्तवादी हो। आदर्शवादी हो। उत्कृष्ट चिन्तन में लगा हो। कर्तव्यों में लगा हुआ हो। इस तरह का अगर कोई व्यक्ति है तो उसे गायत्री का साधक कह सकते हैं। साहब, हम भी तो साधक हैं, दिन भर चोरी-चकारी करते हैं, सारी जिन्दगी इसी में व्यतीत करते हैं और सबेरे एक घण्टा वक्त मिल जाता है तो माला लेकर बैठ जाते हैं। बेटे, यह साधना नहीं, उसका मखौल है। इसी तरह कितने लोग पूछते रहते हैं कि चंदन की माला अच्छी होती है कि रुद्राक्ष की। अरे बेटे चंदन से क्या मतलब है या रुद्राक्ष से क्या मतलब है? अपने हृदय की बात कहते हैं, अन्तरात्मा की बात कहते हैं। चन्दन में क्या रखा है और रुद्राक्ष में क्या रखा है? बेटा, तू समझता ही नहीं, अभी साधना के लिए पकड़ना पड़ेगा चेतना का स्तर, जहाँ शक्तियाँ निवास करती हैं, उस स्थान का नाम, उस स्तर का नाम वह भूमि हैं, जिसे दिव्यलोक कहते हैं। जहाँ गायत्री माँ निवास करती हैं। चेतना निवास करती है, जिसको हमने ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहा है। चलिए हमें ऋतम्भरा-प्रज्ञा ही कहने दीजिये। ऋतम्भरा-प्रज्ञा क्या है? वह प्रज्ञा, वह धारणा, वह निष्ठा—जो आदमी को ऊँचा उठा देती है। ऊँचा उछाल देती है जिसकी प्रेरणा से आदमी ऊँची बातों पर विचार करता है और नीची बातों से ऊँचा उठता चला जाता है, उसे ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञावान के सामने आदर्श रहते हैं, ऊँचाई रहती है। छोटी-छोटी चीजों को—जिनमें कीड़े-मकोड़े लगे रहते हैं, कीड़े-मकोड़े समझता रहता है। चलिए मनुष्य कह देता हूँ। मनुष्यों की शक्ल होते हुए भी आप कीड़े-मकोड़े हो सकते हैं। हम कीड़े-मकोड़े उन्हें कहते हैं, जिनके उद्देश्य दो होते हैं। एक तो पेट पालना और दूसरा काम-वासना को पूरा करना। जानवर सिर्फ दो काम के अलावा तीसरा कोई विचार नहीं करते। पेट की भूख उनकी जब जबरदस्ती धक्का मारती है तो खाना तलाश करने के लिए चल देते हैं। घास खाने के लिए चल देते हैं। पेट भरने के लिए चल देते हैं। शिकार करने के लिए चल देते हैं। पेट की पुकार, पेट की आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो आदमी काम करता रहता है, जो भी प्राणी काम करता रहता है, उसका नाम है कीड़ा, उसका नाम है मकोड़ा, उसका नाम है-पशु। इसका उद्देश्य केवल पेट भरना है। पैसे इकट्ठा करना है। पैसा और पेट भरना एक ही बात है। छोटे कीड़े पेट भरकर चुप हो जाते हैं। शहद की मक्खी समझदार है, इसलिए अपने छत्ते में जमा कर लेती है। चींटी जरा-सी समझदार है, इसलिए अपने बिल में जमा कर लेती है। आदमी जरा कुछ ज्यादा समझदार है, इसलिए बैंक में जमा कर लेता है। जमीन में गाड़ लेता है। फर्क कुछ नहीं है। वह आदमी कीड़ा-मकोड़ा है, पशु और पक्षी है। उसका भी लक्ष्य केवल पेट पालना और औलाद पैदा करना है। बस एक सीमा में ही वह रहना पसन्द करता है।

मित्रो! कीड़ा-मकोड़ा वह जिसे कुछ बात ध्यान में नहीं आता, बस पेट भरने जैसा एक फितूर आदमी के दिमाग में हावी होता है। दूसरों पर भी हावी होता है। कीड़े-मकोड़ों पर भी। कीड़े-मकोड़ों में मादा पर हावी होता है, पीछे नर उसका हिमायत करता रहता है, उसकी आवश्यकता पूरी करता है। कीड़े-मकोड़ों में नर ने कभी आज तक किसी मादा को नहीं छेड़ा। छेड़ा होगा तो मादा ने। उसी ने हुकुम दिया होगा। मादा ने इच्छा प्रकट की होगी तो नर ने उसकी सेवा कर दी होगी, बस। लेकिन सृष्टि का ये नियम है कभी कोई नर, कभी कोई जानवर चाहे जितने भी जाति-प्रजाति से क्यों न हों, सभी में यही नियम लागू होता है। बकरियों के झुण्ड में आप चले जाइये। एक बकरे को देखिए। बकरा चुपचाप कान लटकाये चल रहा होगा। बकरियाँ सौ होंगी, पर क्या मजाल की बकरा किसी को आँख उठाकर देख ले, किसी की तरफ किसी को तंग कर दे। वह बकरी को कभी छेड़ेगा नहीं। बकरी का समय जब आ जाएगा और वह इशारा करेगी तो बकरा सेवा भी करेगा, लेकिन मनुष्य? मनुष्य की वह मर्यादाएँ भी चली गईं। जानवर दो काम करते हैं—तीसरा कोई काम नहीं। जब उन पर खुराफात सवार होती है। काम-वासना के सम्बन्ध में दिमागी खुराफात पैदा होती है तो वे कामसेवन कर लेते हैं। बच्चे पैदा कर लेते हैं। बस यही दो काम हैं, उनको तीसरा कोई काम नहीं है। आज का इनसान भी पशु है, कीड़ा-मकोड़ा है, उसके सामने भी जीवन का कोई लक्ष्य नहीं, केवल दो ही लक्ष्य हैं। सारा समय, सारा श्रम, सारी शक्ति, सारी अकल, सारी सत्ता उसी काम में खर्च हो जाती है। किसमें? पेट भरने में और बच्चे पैदा करने में और शादी-ब्याह करने में। काम-वासना के ख्वाब देखने और सपने देखने में। बेटे! इनका नाम पशु और कीड़े ही हो सकता है, आदमी नहीं हो सकता।

बेटे! ऋतम्भरा-प्रज्ञा किसको कहते हैं? ऋतम्भरा-प्रज्ञा उसे कहते हैं जो आदमी को उछाल देती है ऊपर की तरफ। ऊँचे जाने वाली चीजों को कभी आपने देखा होगा। हवाई जहाज में हमने बहुत सारे सफर किए हैं। हवाई जहाज के सफर में हमने देखा तो नीचे जमीन की चीजें बहुत छोटी-छोटी जान पड़ीं। हमने हवाई जहाज में से चलती हुई रेलगाड़ियाँ देखीं। रेंगते हुए मनुष्यों को देखा, जरा-जरा से फुदकने वाले जानवरों की तरीके से-वे ऊपर से नन्हे-नन्हे दिखाई पड़ते थे। खेत देखे, गन्ने के खेत ऐसे मालूम पड़ते थे जैसे जरा-जरा से घास-फूँस हों और मित्रो! हमने तालाब देखे, झीलें देखीं, नदियाँ देखीं, एक लकीर की तरीके से पानी बहती हुई जरा-जरा सी झीलें। आदमी जब उछल जाता है ऊपर की तरफ, तो उसमें दो बातें हो जाती हैं। एक तो यह कि जितना दायरा दिखाई पड़ता था, पहले मान लीजिए यहाँ से इतनी लम्बी-चौड़ी जगह दिखाई पड़ती है, अब हम अगर किसी टीले पर खड़े हो जाएँ तो हमें टीले पर से चार मील दायरा दिखाई पड़ेगा। हवाई जहाज पर जब आप चले जाएँगे तो आपको ढाई सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का दायरा दिखाई पड़ेगा। ऊँचे उठे हुए व्यक्ति का दायरा बड़ा हो जाता है और विचार करने का, देखने का और सोचने का स्तर ऊँचा उठ जाता है, तब जबकि ऋतम्भरा-प्रज्ञा जग जाती है ऐसे व्यक्ति के लिए वे सभी वस्तुएँ, चीजें बिल्कुल नाचीज हैं, जिनकी जीवन में कुछ खास अहमियत नहीं है। आदमी की दैनिक जीवन की जरूरतें बिल्कुल थोड़ी-सी हैं, नगण्य-सी हैं। पेट भरने को जरा-सा मुट्ठी भर अनाज चाहिए, तन ढकने को मुट्ठी भर कपड़ा चाहिए और रहने को जरा-सी जगह चाहिए। आदमी की जरूरतें इतनी कम हैं कि छह फुट लम्बे आदमी का पेट आसानी से भरा जा सकता है और आदमी खुशी की जिन्दगी जी सकता है, पर आदमी जिस बेअकली की वजह से, जिस बेवकूफी की वजह से सारी जिन्दगी दुःखों में व्यतीत कर देता है, कष्टों में व्यतीत कर देता है, चिन्ताओं में व्यतीत कर देता है, हाहाकार में व्यतीत कर देता है। रोते-झींकते व्यतीत कर देता है, वह बेटे, नासमझी है। इस नासमझी पर विजय प्राप्त करने वाली जो हमारी मनःस्थिति है, उसका नाम है ऋतम्भरा-प्रज्ञा। जीवन का लक्ष्य क्या हो सकता है? जीवन में शान्ति कहाँ से आ सकती है? जीवन की दबी हुई सामर्थ्यों को हम कैसे विकसित कर सकते हैं? ये हमारी मूर्च्छित सामर्थ्य है, शोचनीय सामर्थ्य है, गयी-गुजरी सामर्थ्य है, लेकिन इससे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण जो सामर्थ्य है, उनको विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, ये समझ और ये अकल जहाँ से आती है उसका नाम ऋतम्भरा-प्रज्ञा है।

गायत्री किसका नाम है? ऋतम्भरा-प्रज्ञा का। गायत्री किसे कहते हैं? ऋतम्भरा-प्रज्ञा को। गायत्री कोई देवी नहीं होती, कोई देवता नहीं होता। ऋतम्भरा-प्रज्ञा का ही नाम गायत्री है। वास्तव में अगर यही ऋतम्भरा-प्रज्ञा हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाए तो हमको मालदार कर सकती है। सावित्री और सत्यवान की तरीके से। अगर वही गायत्री जिसको हमने ऋतम्भरा-प्रज्ञा के नाम से कहा है, हम पर प्रसन्न हो जाए तो हमको गुरु वशिष्ठ बना सकती है, विश्वामित्र बना सकती है और हम विश्वामित्र के तरीके से राज-पाट को भी ठोकर मार दें और ऋतम्भरा-प्रज्ञा को प्राप्त करने के लिए कोशिश करें।

मित्रो! केवल नारी के ही भीतर जाने से काम चलने वाला नहीं है और भी आगे बढ़ें। इसके लिए क्या करें? ‘‘मातृवत् परदारेषु’’, ‘‘लोष्ठवत् परद्रव्येषु’’, ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु।’’ ये तीन आधार हैं, ये तीन कसौटियाँ हैं, जिनके ऊपर कसा जा सकता है कि आप फल प्राप्त करने के अधिकारी भी हैं कि नहीं और आत्मबल आपको मिल भी सकता है कि नहीं। आत्मबल आप सँभाल भी सकते हैं कि नहीं और आत्मबल की जिम्मेदारी वहन करने के लायक आपके भीतर कलेजा और हिम्मत है भी कि नहीं। ये बेटे तीन परीक्षाएँ हैं। ये तीन पेपर हैं पी.एम.टी.के.। मैडिकल कॉलेज में भर्ती होने के लिए तीन पेपर दीजिए। नहीं साहब, हम पेपर नहीं देना चाहते। हम तो धक्का मारकर मेडिकल कॉलेज में घुसना चाहते हैं। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। इम्तिहान दीजिए पास हूजिए। पी.एम.टी. में डिवीजन लाइए और हम आपको दाखिल कर लेंगे। नहीं साहब, धक्का-मुक्की चलेगी। हम तो धक्के मारेंगे और धक्के मारकर सबसे आगे निकल जाएँगे। बेटे, पहले रेलवे स्टेशनों पर ऐसा होता था हमारे जमाने में। जो धक्के मारता था वो सबसे आगे चला जाता था। टिकट वही ले आता था। बाकी रह जाते थे। अब तो ‘क्यू सिस्टम’ हो गया हैं ना। आप कमजोर हैं ना। सबसे पीछे खड़े हो जाइए। नहीं साहब, वह पीछे वाला पहलवान खड़ा हुआ है। हटाइए उनको, नम्बर से खड़ा होना पड़ेगा। जो धक्के मारेगा वह आगे चला जाएगा। यह सब पुराने जमाने में चलता था और धक्के मारने वाला टिकट ले आता था, पर अब धक्केशाही चलती नहीं। साहब हम तो धक्के मारेंगे, काहे में धक्के मारेंगे? भगवान जी को धक्के मारेंगे और सबसे पहले वरदान ले आएँगे। धक्केशाही नहीं चलेगी अब, लाइन में खड़ा हो, ‘क्यू’ में खड़ा हो और अपनी जगह साबित कर और अपनी हैसियत साबित कर और वह वरदान ले आ, ताकत ले आ।

गायत्री मन्त्र क्या हो सकता है, यह मैं आपको समझा रहा था। यह समझा रहा था कि गायत्री की कृपा और गायत्री का अनुग्रह हर आदमी को नहीं मिल सकता। माला घुमाने से नहीं मिल सकता। माला घुमाने से मिला होता तो आप में से हर एक को मिल गया होता। आप गायत्री मन्त्र की माला कब से घुमा रहे हैं? अरे साहब, बहुत दिन हो गए। आपको छह वर्ष, आपको ग्यारह वर्ष, आपको तीस वर्ष हो गये, पर आपको क्या मिला? महाराज जी, बस यही मिला है कि नाक कट गयी तो कह दिया कि नाक की ओट में भगवान छिपा हुआ है, अब कट गयी तो भगवान दिखने लगा है। बस इसी तरह ग्यारह माला जप करते हुए हमें 22 वर्ष हो गए और हम यूँ कहें कि हमें कुछ फायदा नहीं होता तो सब लोग यही कहेंगे कि अरे तू बड़ा पागल है, तूने काहे को नाक कटा ली। इसीलिये हम तो यही कहते रहते हैं हर एक से कि गायत्री माता अभी है, हमको प्रत्यक्ष तो नहीं दिखाई पड़ती पर रात को सपने में दिखाई पड़ती है। सपने में दिखाई पड़ती है तो क्या लेकर आती है तेरे लिए? नहीं महाराज जी, लेकर तो कुछ नहीं आती मेरे लिए, वैसे ही खाली हाथ आ जाती है। धत् तेरे की। अबकी गायत्री माता मिलेगी तो खूब गालियाँ सुनाऊँगा। हमारे यहाँ तो कुछ लेकर आए हो। हाँ महाराज जी, देखिए हम तो केला लेकर आए। हाँ बेटा, खाली हाथ साधु के यहाँ नहीं आते। केला लेकर जरूर आना चाहिए और तू लेकर भी आया था। जब हम किसी के घर जाते हैं तो बच्चों और छोटों को देख लेते हैं। बच्चे घर में हैं क्या? टॉफी लेकर के जाते हैं। लेमनचूस लेकर के जाते हैं। कुछ लेकर के जाते हैं। गुरुजी आए हैं, प्रसाद लेकर के आए हैं। मथुरा-वृन्दावन का प्रसाद लेकर के आए हैं। बेटे, कुछ लेकर के जाते हैं? खाली हाथ नहीं जाते। रात में सपने में हनुमान जी तेरे लिए कुछ लेकर के आते हैं। नहीं महाराज जी, खाली हाथ आते हैं। धत् तेरे की। अब मुझे मिलेगा तो मैं गाली सुनाऊँगा हनुमान जी को। कहूँगा तू मेरे बेटे के यहाँ गया था और सपने में दिखाई पड़ा, पर तुझसे यह भी नहीं बन पड़ा कि पाँच सौ रुपयों के नोटों की गड्डी तो दे जाता। नहीं महाराज जी, वह तो कभी नहीं दे गए। धन्य हैं तेरे सपने के हनुमान जी। बेटे! सपने का हनुमान कोई चीज नहीं दे सकता।

मैं यह चाहता था कि अब गायत्री की शिक्षा, गायत्री की वास्तविकता आपको बताऊँ। कलेवर सिखाने के बाद में वह बात सिखाऊँ जहाँ से गायत्री के चमत्कार, गायत्री की सिद्धियाँ, गायत्री का गौरव छिपा हुआ है। जिसको हम ऋतम्भरा-प्रज्ञा कहते हैं। वास्तव में गायत्री का अर्थ आज ऋतम्भरा-प्रज्ञा करना पड़ेगा। ऋतम्भरा-प्रज्ञा कैसी होती है? बेटे! ऐसी होती है ऋतम्भरा-प्रज्ञा जिसको जो कोई भी आदमी अपने काम में लाएगा उसको कई तरीके अख्तियार करने पड़ेंगे। गायत्री का वाहन हंस है। गायत्री किस पर सवार होगी? हंस पर सवार होगी और किस पर सवार होगी? कौवे पर। नहीं महाराज जी, कौवे पर नहीं हो सकती गायत्री, हँस पर सवार होती है। हंस किसे कहते हैं? हँस एक प्रतीक है। तू समझता क्यों नहीं है। अरे ये प्रतीक हैं। हंस पर गायत्री नहीं बैठ सकती। हंस पर कैसे बैठ सकती है, हंस तो जरा-सा होता है और गायत्री कितनी बड़ी होती है बता और इतनी बड़ी गायत्री हंस पर बैठेगी तो क्या हो जाएगा बेचारे का? बेचारे का कचूमर निकल जाएगा। हंस पर क्या करेगी बैठकर? गायत्री को बैठना होगा तो मोटर मँगा देंगे, हैलीकॉप्टर मँगा देंगे। हवाई जहाज दिला देंगे। गायत्री माँ को जाना होगा तो बेचारे गरीब हंस पर क्या बैठना होगा? हंस पर नहीं, उस पर तो पैर समेटने को भी जगह नहीं है, पालथी मारकर भी नहीं बैठ सकती। जैसे चेयर होती है, पैर पसारने की वैसी भी जगह नहीं है उस पर टाँग को समेटकर बैठे तो भी उस पर नहीं बैठ सकती। अतः वह हंस पर क्या बैठेगी? हंस की आफत आयेगी। फिर क्या है हंस? हंस बेटे! वह व्यक्ति है जिसकी दृष्टि ऋतम्भरा-प्रज्ञा के अनुकूल है। ऋतम्भरा-प्रज्ञा कैसी होती है, जैसे हंस की होती है। हंस की कैसी होती है? हंस कीड़े नहीं खाता। वह मोती खाता है अर्थात् जो मुनासिब है, जो ठीक है, जो उचित है, उसको करेगा, पर जो गैर मुनासिब है, अनुचित है उसके बगैर काम नहीं चलेगा तो मर जाएगा, भूखा रह लेगा, चाहे मरना ही क्यों न पड़े, पर न तो कुछ अनुचित करेगा और न अभक्ष्य खायेगा। वह सोच लेगा कि न खाने से क्या आफत आ जाएगी। अच्छा साहब, मरेंगे, पर गलत काम नहीं करेंगे। ऐसी क्रिया का नाम है—सफेद स्वच्छ-निर्मल हंस। हंस उस व्यक्ति का नाम है जो नीर और क्षीर का भेद करना जानता है। पानी और दूध को मिलाकर दीजिए। नहीं साहब पानी हमें नहीं लेना है। हमको दूध लेना है। दूध को फाड़कर अलग कर देगा। पानी को फेंक देगा और दूध को ले लेगा। यहाँ भी वही स्थिति है। हंस केवल उचित को ही ग्रहण करता है, अनुचित को नहीं ग्रहण करता। ऋतम्भरा-प्रज्ञा उसी चीज का नाम है। इसे ही जाग्रत करने के लिए हम आपको गायत्री की साधना कराते हैं।

मित्रो! साधना-उपासना का प्राण है—समर्पण। बस समर्पण कर लीजिए, फिर देखिये ऐसे ही मारा-मारी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मैं पहले ही कहे देता हूँ कि माला मत फिरा समर्पण करना सीख। बेटा ऐसा कर, इसमें बाँस की बाँसुरी की तरह अपने को खाली कर दे। फिर देख मजा आ जाएगा। नहीं गुरुजी आप तो कर्मकाण्ड बता दीजिये, क्रिया-कृत्य बता दीजिए। बेटे अभी हम इसी कलेवर की बात कह रहे थे, लेकिन बेटे कलेवर ही सब कुछ नहीं है। प्राण को भी समझ। प्राण किसे कहते हैं? प्राण उसे कहते हैं जिसमें हमें अपनी चेतना का परिमार्जन करना पड़ता है और चेतना को साफ करना पड़ता है। चेतना की जो गलतियाँ हैं, चेतना की जो भूलें हैं, चेतना में जो दोष हैं, चेतना के ऊपर जो भ्रम, आवरण और मल-विक्षेप चढ़े हुए हैं, उनको हमें धोना पड़ता है, साफ करना पड़ता है और ऐसी रगड़ाई करनी पड़ती है जैसे कि जग खाए हुए लोके के बर्तन को साफ करने के लिए—चमकाने के लिए ऐसे रगड़ना पड़ता है, कभी जूट से रगड़ते हैं तो कभी ईंट से रगड़ते हैं, कभी बालू से रगड़ते हैं। बार-बार रगड़ते हैं, नहीं साफ होता है तो फिर रगड़ते हैं और जब तक जंग साफ नहीं हो जाती है, जब तक चमकने नहीं लगता, तब तक रगड़ते ही रहते हैं। अपनी अन्तर्चेतना पर भी जो मल, आवरण और दोष के तीनों आवरण चढ़े हुए हैं इनको साफ करने के लिए जो हमको मेहनत करनी पड़ती है, मशक्कत करनी पड़ती है, लड़ाई लड़नी पड़ती है, सख्ती बरतनी पड़ती है, उसको साधना कहते हैं। ‘मन साधे सब सधे’ यही साधना का स्वरूप है।

मैं अब आपको समझाने की कोशिश करूँगा कि साधना का स्वरूप क्या हो सकता है? असली साधना क्या है? नकली की तो मैं क्या कहूँगा आपसे। असली साधना कैसे की जाती है? यह बताता हूँ आपको। असली साधना करता है किसान। किसके साथ-जमीन के साथ। जमीन के साथ में क्या काम करता है? बेटे! धूप में खड़ा रहता है। रगड़ता रहता है, खोदता रहता है, गाड़ता रहता है। साल भर तक अपना शरीर और अपना पसीना इस मिट्टी में मिला देता है। ठीक साल भर बाद इस मिट्टी में पसीना मिलाने के बाद में क्या करता है? फसल पैदा होती है। अनाज पैदा होता है और मालदार हो जाता है। अपने आप के साथ में करेगा रगड़ तो गेहूँ का खेत जिस तरीके से फसल देने लगता है, उसी तरीके से हमारी परिष्कृत चेतना फसल दे सकती है और मैं बताऊँ? अभी मैं बताता हूँ कि उपासना कैसे की जाती है? उपासना ऐसे की जाती है जैसे कि अपने शरीर को पहलवान अभ्यास द्वारा मजबूत बना लेता है। कमजोर वाला आदमी जब शरीर के साथ मशक्कत करना शुरू कर देता है और उस पर चढ़े मुलम्मों को दूर करना शुरू कर देता है, निग्रह करना शुरू कर देता है और अपने आहार-विहार को नियमित बनाना शुरू कर देता है तो बेटे वह चंदगी राम पहलवान हो जाता है। टी.बी. की शिकायत उसकी दूर हो जाती है और वह मजबूत हो जाता है। साधना करने से। शरीर की साधना यदि आप करें तो बीमार होते हुए भी चंदगीराम पहलवान की तरीके से 22 वर्ष की उम्र में टी.बी. के मरीज होते हुए भी आप अपनी इसी जिन्दगी में पहलवान बन सकते हैं, अगर आप शरीर की साधना करना चाहें तब। साधना किसे कहते हैं? अभी तो मैं बता चुका हूँ कि साधना मलाई को कहते हैं और रगड़ाई को कहते हैं। जैसे किसान अपने शरीर की और मिट्टी की मलाई करता है और रगड़ाई करता है। शरीर के साथ में मलाई कीजिए और आप पहलवान बन जाइए। यह तो हुई साधना शरीर की। आप अपनी अकल और दिमाग के साथ में रगड़ शुरू कीजिए, मलाई कीजिए, घिसाई कीजिए और देखिए कि आपका दिमाग गया-गुजरा होते हुए भी—घटिया होते हुए भी बेअकल होते हुए भी, आप कालिदास की तरीके से पहलवान बनते हैं कि नहीं बनते। आप पहलवान बन सकते हैं, कालिदास के तरीके से। रस्सी को पत्थर पर हम बार-बार घिसते हैं तो निशान बन जाता है। बेटे हमारी रगड़ इतनी जबरदस्त है कि अगर हम अपनी भौंड़ी अकल के साथ भी रगड़ करना शुरू कर दें तो हम विद्वान बन सकते हैं। राजा के तरीके से और कालिदास की तरीके से। अगर हम रगड़ करना शुरू कर दें तो प्रगति के किसी भी क्षेत्र में हमारे पास सिद्धियाँ आ सकती हैं और चमत्कार आ सकते हैं।

अकल की बाबत हमने कहा और शरीर की बाबत हमने कहा। लीजिए अब पैसे की बाबत बताते हैं। बाटा नाम का एक मोची था, बारह वर्ष की उम्र में जिसकी माता जी का देहान्त हो गया था। जूते सीना सड़क पर उसने शुरू किया। लेकिन इस विश्वास के साथ शुरू किया कि जूते की मरम्मत के साथ सिद्धान्त जुड़े हुए हैं और हमारा प्रत्यक्ष प्राण जुड़ा हुआ है, प्रेस्टिज प्वाइंट जुड़ा हुआ है कि जूता ऐसा न बन जाए कहीं कि कोई आदमी हमसे ये कहे कि ये जूता घटिया बनाकर के दे दिया। वाहियात बना करके दे दिया। जो भी काम हाथ में लिया तो उसे प्रेस्टिज प्वाइंट मानकर लिया, कि अपने हाथ से की हुई मरम्मत कहीं ऐसी न हो जाए कि आदमी कहे कि किस बेवकूफ ने मरम्मत की है? सारी अकल खर्च कर दी फिर भी उसने सही मरम्मत नहीं की। कई आदमियों ने उसकी प्रशंसा की और कहा कि अरे मरम्मत करने वाला तो सबसे अच्छा लड़का वह है, जो नीम के दरख्त के नीचे बैठा रहता है। वह बारह साल का लड़का है, उससे बीसियों आदमियों ने मरम्मत कराई और उसने ऐसी बढ़िया मरम्मत की कि लोग बाग-बाग हो गए। उसने पुराने जूतों को नया बना दिया। लोगों ने बहुत मरम्मतें कराईं। लड़का बड़ा हो गया, लोगों ने कहा बाटा क्या तू यह कर सकता है कि हमारे लिए अच्छे नये जूते बना दे? नए जूते मैं कहाँ से बना सकता हूँ। मेरे पास चमड़ा भी नहीं है, सामान भी नहीं है, दराँती भी नहीं है, चीजें भी नहीं हैं। अगर यह मुझे मिल जाता तो मैं बना देता। लोगों ने कहा अच्छा दराँती हम देंगे, तू बना दिया कर। लोगों ने सामान लाकर के दिया। बाटा ने जूता बना दिया। जो जूते छह महीने चला करते थे वे एक साल चले, लोगों ने अपने परिचितों से कहना शुरू किया कि अच्छे जूते पहनने हैं, मुलायम जूते पहनने हैं तो आप बाटा की दुकान पर चले जाइए और इस तरह बाटा की दुकान चलते-चलते एक शानदार जगह पर जा पहुँची, जहाँ आज सारे हिन्दुस्तान में ही नहीं, वरन् विश्व भर में बाटा का जूता प्रसिद्ध हो गया। कहीं भी आप चले जाइए, देहात में चले जाइए, मैं भी तो एक बार अमेरिका गया वहाँ भी हर जगह वही बाटा का जूता देखने को मिला। हिन्दुस्तान में भी वही, वहाँ भी वही बाटा। सब जगह वही। अफ्रीका के गाँव में भी मुझे बाटा की दुकान मिली। न केवल हिन्दुस्तान बल्कि अफ्रीका में भी छाया हुआ था बाटा। मैं देखकर के आया हूँ। बाटा एक करोड़पति, उद्योगपति का नाम है।

मित्रो! कहाँ से आता है पैसा? कहीं से नहीं आता। पैसा रगड़ से, मेहनत से आता है। रगड़ता चले जा। रगड़ता तो है ही नहीं। शरीर को बचाए-बचाए फिरता है। काम से बचता-फिरता है, दूर-दूर रहता है। हरामखोर और कामचोर। कहता है हमको पैसा नहीं मिलता। हमारी उन्नति नहीं होती आर्थिक उन्नति नहीं होती। न तो योग्यता बढ़ाता है? न श्रम में विश्वास करता है। न श्रम के साथ मनोयोग लगाता है। श्रम के साथ मन तो लगाता नहीं है। मनोयोग लगा। शरीर से बेकार धौंकनी के तरीके से, कोल्हू के बैल के तरीके से उल्टा-सुल्टा काम करके फेंक दिया। योग्यता बढ़ाता ही नहीं है। बाटा के जमाने में योग्यता थी। नौवें दर्जे तक पढ़ा हुआ है। अभी भी विदेशों में चमार, धोबी, मोची और भटियारे रात को दो घंटे नाइट स्कूलों में पढ़ने के लिये जाते रहते हैं। और जिन्दगी गुजरने तक एम.ए. कर लेते हैं और पी.एच.डी. बन जाते हैं और आपको फुरसत ही नहीं मिलती है। हरामखोरी और कामचोरी में समय बर्बाद करते रहते हैं। न योग्यता बढ़ाते है, न अपनी सामर्थ्य बढ़ाते हैं, न क्षमता बढ़ाते हैं, न मेहनत में दिलचस्पी लेते हैं, न मेहनत में मन लगाते हैं। ताकत घटिया कामों, बेकार कामों से नहीं मिलती। क्या हाल हो रहा है, भीतर वाली कमजोरी निकलती नहीं, योग्यता बढ़ती नहीं, तो उन्नति कैसे होगी? भीतर वाले को योग्यता के रूप में विकसित करना होगा। मन से काम करना सीखना होगा, मशक्कत से काम करना सीखना होगा और बेटे मैं किसके सम्बन्ध में बताऊँ? धन के सम्बन्ध से लेकर तू प्रतिभा, प्रतिष्ठा तक कहीं भी चला जा। परिश्रम करने वाले को ही सफलता मिलती है।

साधना के साथ में भी परिश्रम जुड़ा हुआ है। सच्ची साधना करता है वैज्ञानिक। छोटे वाले दर्जे के साथ में बड़ा वैज्ञानिक बड़ी मेहनत करता है और ताकतवर एटमबम बना देता है। यदि वह फट जाए तो सैकड़ों मील का सफाया कर दे। यह ताकत कहाँ से आती है? एटम में से आती है? एटम में से नहीं आती है, बेटे, साधना से आती है। साधना से ताकत को उभारा, ताकत को निखारा और ताकत को काम में लाया—ताकत को इस्तेमाल किया जाता है। ताकत को तो निखारता है नहीं, उभारता है नहीं, फिर सिद्धियाँ कहाँ से आएँ? साधना किस चीज का नाम है? साधना बेटे, इस चीज का नाम है जिसमें हम अपनी भीतर वाली क्षमता का, भीतर वाली चेतना का विकास करते हैं और उसको उभारते हुए चले जाते हैं, विकसित करते हुए चले जाते हैं। चेतना का तो आप मूल्य भी नहीं समझते, मैं क्या करूँ? चेतना का तो आप मूल्य भी नहीं पहचानते, आप तो बाहर ही बाहर तलाश करते हैं। इस देवी के सामने नाक रगड़ते हैं। उस देवता के सामने नाक रगड़ते हैं। इस मन्त्र के सामने नाक रगड़ते हैं, उस गुरु के सामने नाक रगड़ते हैं। इस पड़ोसी के सामने नाक रगड़ते हैं, उस अफसर के सामने नाक रगड़ते हैं, उस बॉस के सामने नाक रगड़ते हैं। आपको तो नाक रगड़ने की विद्या आ गई है। किसी कि खुशामदें कीजिए, किसी की चापलूसी कीजिए, किसी के हाथ जोड़िए और वहाँ से काम बनाकर लाइए। बेटे, किसी के सामने चापलूसी करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हमारे भीतर सामर्थ्य का स्रोत भरा पड़ा है, सामर्थ्य की शक्ति भरी पड़ी है। उसको उभारने में हम समर्थ हो सकें, उसे काम में लाने में समर्थ हो सकें, तो मजा आ जाए हमारी जिन्दगी में। हमारी जिन्दगी में क्या-क्या होता है? हमारी भीतर वाली शक्ति कितनी है? बेटे, यह समझो कि सारे सौरमण्डल मे जितनी ताकत और जो ढर्रा है वह सब ढंग और ढर्रा छोटे-से एटम के भीतर भरा पड़ा है। वृक्ष जो है, उसका पूरा रूप छोटे-से बीज के भीतर दबा पड़ा है। छोटे-से बीज के भीतर में पत्तियाँ और टहनी, फल और फूल सबका नक्शा, सबका खाका, सबका आधार इस बीज के अन्दर भरा पड़ा है। इसी तरह ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, हमारे पिण्ड में दबा पड़ा है। भगवान के सारे के सारे ब्रह्माण्ड में जो शक्तियाँ और ताकतें हैं, वे सब बीज रूप में हमारे भीतर विद्यमान हैं। बीज को हम बोएँ, उगाएँ, बढ़ाएँ, खिलाएँ-पिलाएँ तो उससे पूरा का पूरा बरगद पेड़ खड़ा हो सकता है। साधना इसी का नाम है। बीज को विकसित करके बरगद कैसे बनाया जा सकता है? साधना उसी प्रक्रिया का नाम है। साधना और कुछ नहीं है? अपनी जीवात्मा को—अपनी अन्तर्चेतना को विकसित करते-करते हम महात्मा एक, देवात्मा दो और परमात्मा तीन, यहाँ तक जा पहुँचते हैं। इसे प्रायमरी स्कूल, इण्टरमीडिएट और कालेज की पढ़ाई समझ सकते हैं। यही है आत्मा से परमात्मा तक विकसित होने की प्रक्रिया।

महात्मा, देवात्मा और परमात्मा और कुछ नहीं अपने आपे का विकास-विस्तार है। अपने आपका विकास ही साधना है और कुछ नहीं है। साधना और कोई करके देता है क्या? नहीं कोई नहीं देता, हम अपने आपका विकास स्वयं करते हैं, अपने आपका निखार स्वयं करते हैं। आत्मशक्ति को आपने देखा नहीं। इंजन कितना बड़ा होता है? इंजन साहब छह लाख रुपये का आता है। लेकिन ड्राइवर 250 रुपये का आता है। ड्राइवर घसीटता है इन्जन को। उसने कहा—खड़ा हो जा, इंजन खड़ा हो जाता है और हवाई जहाज। हवाई जहाज को चलाता कौन है? हवाई जहाज कितने का आता है? पाँच करोड़ रुपये का। कौन चलाता है? बेटे! पायलट चलाता है। पायलट नहीं होगा तो हवाई जहाज रखा रहेगा। मशीनें कितनी बड़ी क्यों न हों, आटोमैटिक क्यों न हों, कम्प्यूटराइज्ड क्यों न हों, लेकिन आदमी के बिना नहीं चल सकतीं। चेतना की शक्ति इतनी बड़ी है, जिसको उभारने की प्रक्रिया हम आपको सिखाते हैं, गायत्री मन्त्र के माध्यम से। चेतना, जो आपकी सो गई है, जो खो गई है, चेतना जो आपकी मर गयी है, जिसको आपने गँवा दिया है। जिस चेतना का आपने महत्त्व नहीं समझा। उस चेतना को हम आपको उभारना सिखाते हैं। गायत्री साधना उसी का नाम है। चेतना हमारी कितनी ताकतवर है? यह हमारी भौतिक और चेतना दोनों क्षेत्रों का मुकाबला करने में सक्षम है। इसका मैं उदाहरण देना चाहूँगा। ये पृथ्वी कितनी बड़ी है? साहब बहुत बड़ी है। पृथ्वी का वजन कितना है? अरे साहब क्या कहने पृथ्वी का। बहुत वजन है और पृथ्वी की चाल? पृथ्वी की चाल साहब 1 घंटे में छह हजार मील है। बहुत बड़ी है ना। हाँ बहुत बड़ी है पृथ्वी। जहाँ इसका उत्तरी ध्रुव है वहाँ अगर एक इनसान का बच्चा चला जाए जहाँ पृथ्वी का ‘बैलेंसिंग प्वाइंट’ है और उस जगह पर एक बच्चा घूँसा मार दे खींचकर तो पृथ्वी अपनी नींव पर से डगमगा जाएगी। वह जिस कक्षा में घूमती है, उस कक्षा में न घूम करके अगर घूमना बन्द कर दे अथवा कोई और कक्षा बना ले तो हो सकता है कि वह बड़ी बना ले। हो सकता है ये कक्षा बहुत छोटी हो जाए। बच्चे का घूँसा लगे तो सम्भव है यह पृथ्वी भागती हुई चली जाए और ग्रह से टकरा जाए। मान लीजिए मंगल ग्रह में टक्कर मार दे और मंगल ग्रह का चूरा हो जाए और हमारी पृथ्वी का भी चूरा हो जाए तब यह हो सकता है कि बड़े दिन होने लगे। 365 दिन की अपेक्षा सम्भव है 20-20 दिनों का एक वर्ष हो जाए। सम्भव है 24 घंटों की अपेक्षा 6 घंटे का दिन हो जाए अथवा छह हजार घंटे का दिन हो जाए। कुछ पता नहीं कुछ भी हो सकता है। एक बच्चे की चपत खा कर—घूँसा खाकर। चेतना के सामने जड़ तो कुछ भी नहीं है। चेतना, जिसको आप भूल गए? चेतना जिसको आपने समझा ही नहीं? चेतना जिसका आप मूल्य ही नहीं समझते? चेतना जिसका विकास ही नहीं करना चाहते? यही है गायत्री साधना का उद्देश्य कि आप अपनी चेतना को परिष्कृत करें, समर्थ बनाएँ।

चेतना कितनी सामर्थ्यवान है? बेटे, चेतना की सामर्थ्य दिखाने के लिए मैं आपको बीस लाख वर्ष पहले ले जाना चाहूँगा, जबकि पृथ्वी छोटे-छोटे जंगली जीवों और जानवरों से भरी पड़ी थी और इस पृथ्वी पर ऊबड़-खाबड़ गड्ढे जैसे चन्द्रमा पर सब जगह गड्ढे-टीले दीखते हैं, उसी तरह पृथ्वी पर हर जगह गड्ढे-टीले थे। ऊबड़-खाबड़ बड़ी कुरूप पृथ्वी थी और उसमें बहुत भयंकर जानवर घूमा करते थे। इसमें बाद में क्या कुछ परिवर्तन हुए? यह आदमी की अकल और आदमी की चेतना है, जिसने सारी की सारी पृथ्वी को कैसा बना दिया है? कहीं ताजमहल बने हुए हैं, कहीं पार्क बने हुए हैं, हजारों एकड़ जमीन समतल बनी हुई है। किसी जमाने में झाड़-झंखाड़ थे अब पता नहीं क्या से क्या हो गया। चम्बल जहाँ डाकुओं के रहने की जगह थी, देखना थोड़े दिनों बाद क्या हो जाता है? बेटे, वहाँ बगीचे लहलहाते हुए दिखाई पड़ेंगे, कितनी फसलें उगती हुई दिखाई पड़ेंगी। धान पैदा होता हुआ दिखाई पड़ेगा और वहाँ गाँव और शहर बसे हुए दिखाई पड़ेंगे। आदमी की अकल, आदमी की चेतना की सामर्थ्य का क्या कहना?

प्राणी जब पैदा हुआ था, तब आदिमानव के रूप में था, बन्दर के रूप में था। चेतना ने आवश्यकता समझी कि तुम्हें काम करना चाहिए और हमारे हाथों की अँगुलियाँ बन्दर की अपेक्षा ये दसों अँगुलियाँ ऐसी बेहतरीन अँगुलियाँ बन गयीं कि दुनिया में किसी के पास नहीं है, जैसी हमारे पास हैं। ऐसा बेहतरीन हाथ दुनिया में और किसी के पास नहीं है, जो यहाँ से भी मुड़ता हो वहाँ से भी मुड़ता हो। जो हर जगह से मुड़ जाता हो। ऐसा किसी जानवर का हाथ नहीं है। कहीं नहीं है। यह सब कैसे हो गया? हमारी इच्छाशक्ति ने पैदा किया। सारी चीजें पैदा कर दीं। सारे के सारे चमत्कार ये चेतना के हैं, जमीन की सफाई से लेकर सभ्यता, संस्कृति और वाहन और विज्ञान सब किसका है? ये आदमी की चेतना का चमत्कार है न, तू समझता क्यों नहीं है? चेतना को अगर सँवारा जा सके, चेतना को अगर सँजोया जा सके तो आदमी क्या हो सकता है? हम नहीं कह सकते कि आदमी क्या हो सकता है? कहते हैं कि आदमी और भगवान एक हो सकते हैं। आदमी इतना विकसित हो सकता है जितना भगवान। चेतना का परिष्कार-चेतना का सुधार-इसी का नाम साधना है। जो चीजें ऊबड़-खाबड़ हैं, बेतुकी हैं, उन्हें ठीक तरीके से ठीक बना देने का नाम साधना है।

साथियो! मैं आपको एक बात बताना चाहूँगा कि मनुष्य जीवन कैसा ऊबड़-खाबड़, बेघड़, कुसंस्कारी है। हमारा जीवन कैसा संस्कारविहीन, दिशाविहीन, लक्ष्यविहीन, क्रियाविहीन, अनुशासनविहीन और अस्त-व्यस्त है। इन चीजों को अगर ठीक तरीके से बना लिया जाए, विचारणाओं को अगर ठीक तरीके से बना लिया जाए, भावनाओं को ठीक तरीके से बना लिया जाए, क्रिया शक्ति को ठीक तरीके से बना लिया जाए तो मित्रो! हम कैसे सुन्दर हो सकते हैं? हम कैसे सुघड़ हो सकते हैं? मैं आपको क्या बताऊँगा? मैं तो एक ही शब्द में कह सकता हूँ कि अगर आपने चमत्कार वाली बात सुनी हो, लाभ वाली बात सुनी हो, वरदान वाली बात सुनी हो, आशीर्वाद वाली बात सुनी हो, वैभव वाली बात सुनी हो अध्यात्म की महत्ता वाली बात सुनी हो। अकल की बात सुनी हो। वरदान और आशीर्वाद वाली बात आपने सुनी हो तो समझना कि ये सारी की सारी विशेषताएँ जो बताई जा रही हैं, ये आदमी की अन्तर्चेतना के विकसित स्वरूप की बताई जा रही हैं और किसी की नहीं बताई जा रही हैं। देवी की बताई जा रही हैं तो चलिए देवी क्या हो सकती है? यह बताता हूँ आपको। हमारी अन्तर्चेतना के अलावा कोई देवी नहीं है। हमारी अन्तर्चेतना जब विकसित होती तो कैसी हो जाती है? ऐसी हो जाती है जिसको सिद्धि कहते हैं, जिसको हमको सँभालना और सँजोना आता है, इसे जीवन में हम संस्कृति कहते हैं। सभ्यता कहते हैं। जीवन में साधना इसी को कहते हैं। नाई क्या करता है? नाई हमारी हजामत बना देता है और हमें ऐसा बना देता है जैसे मूँछें अभी निकली ही नहीं। यह मिरैकिल है, जादू है हजामत बनाने वाले का। हमको खूबसूरत बनाने वाले का। दर्जी, जो हमारे फटे-पुराने से कपड़े थे, उनका कुर्ता बना देता है। जॉकेट बना देता है। अरे बेटे, यह कपड़ा तो वही है ढाई गज जो सबेरे पड़ा हुआ था अब कैसा सुन्दर बना हुआ है कमाल है। यहाँ भी बटन यहाँ भी कच्चा। यहाँ भी गोट। यहाँ भी बाजू। देख ले ये किसका कमाल है? दर्जी का कमाल है। अभी कैसा था कपड़ा? मैला-कुचला। उल्टा-सीधा सीम बँटी हुई थी। नील लग करके आ गई। टिनोपाल लग करके आ गया। ये क्या चीज है। ये चमत्कार है। ये साधना है। कपड़े की साधना किसकी है? ये धोबी की साधना है। मूर्तिकार की साधना है? पत्थर का एक टुकड़ा नाचीज-सा छैनी और हथौड़े को लेकर के मूर्तिकार जा बैठा और घिसने लगा, ठोकने लगा, घिसने और रगड़ने लगा। दो चार दिन के पीछे ऐसी बढ़िया लक्ष्मी की मूर्ति बन गई कि मालूम नहीं पड़ा कि यह वही पत्थर का टुकड़ा है कि लक्ष्मी जी हैं। बेटे ये क्या है? ये साधना है और क्या है?

अभी आपको मैं साधना का महत्त्व बता रहा था। ये घटिया वाली जिन्दगी, बेकार जिन्दगी, पत्थर जैसी जिन्दगी को आप बढ़िया और शानदार बना सकते हैं। सोने का एक टुकड़ा ले जाइए साहब! अरे हम क्या करेंगे? कहीं गिर पड़ेगा। अच्छा तो अभी हम आते हैं। उसका क्या बना दिया? ये कान का बुन्दा बना दिया। ये अँगूठी बना दी। मीना लगी हुई। अरे, साहब बहुत सुन्दर बन गया है यह। क्या यह वही टुकड़ा है? हाँ यह सुनार का कमाल है। सुनार की साधना है। उसने खाबड़-खूबड़ धातु के टुकड़े की कैसी सुन्दर अँगूठी बना दी, कैसा जेवर बना दिया? कैसा नाक का जेवर बना दिया। कैसा-कैसा जेवर बना दिया। ये हमारी जिन्दगी? बेतुकी जिन्दगी-बेसिलसिले की जिन्दगी? बेतुकी जिन्दगी। बेहूदी जिन्दगी को हम जिस तरह से सँभाल पाते हैं? साधना इसका नाम है। असल में साधना इसी का नाम है। वह जो हमने अभ्यास कराया था, शुरू में कि आपको तमीज सिखाएँ और तहजीब सिखाएँ। कौन-सी? कल मैं इसको बताऊँगा कि पालथी मारकर बैठें। अरे तमीज से सीख। कभी ठीक काम करता है, कभी अकल के काम करता है कभी नहीं करता है। कमर ऐसी करके बैठना। हाँ साहब, ऐसे ही करके बैठूँगा। मटक नहीं, सीधे बैठ। मचक-मचक करता है। मित्रो! ये सारे के सारे अनुशासन, सारी की सारी डिसीप्लीन यह आज का विषय नहीं है। यह मेरा कल का विषय है। इसे कल बताऊँगा आपको जो भी आपको साधना के बहिरंग क्रिया-कलाप सिखाते हैं, आखिर क्या उद्देश्य है इनका? क्रिया का कोई उद्देश्य होना चाहिए। क्यों साहब, पालथी मारकर क्यों बैठते हैं? पद्मासन में क्यों बैठते हैं, हम तो ऐसे ही बैठेंगे टाँग पसारकर। नहीं, बेटे, टाँग पसारकर मत बैठिए। नहीं साहब हम तो टाँग लम्बी करेंगे, इसको छोटी करेंगे। नहीं बेटे, ये भी गलत हैं। नहीं हम तो यूँ माला जप करेंगे। सिर के नीचे तकिये लगाकर। नहीं बेटे, ऐसे मत करना। ये ठीक नहीं है। यह क्या है-डिसीप्लीन है। साधना के माध्यम से हम अपने व्यावहारिक जीवन को किस तरीके से अनुशासित रूप दे सकते हैं, किस तरीके से उसे ढाल सकते हैं? किस तरीके से अपने कर्म को, अपने विचारों को। अपनी इच्छाओं को, आस्थाओं को परिष्कृत एवं अनुशासनबद्ध कर सकते हैं, क्रमबद्ध कर सकते हैं। असल में साधना इसी का नाम है।

स्वर्णकार के तरीके से, कलाकार के तरीके से, गायक के तरीके से और वादक के तरीके से जो अपने को साध लेता है, उसे ही सच्चा साधक कहा जाता है। उसकी ही सही रागिनी निकलती है। सुर निकलता है। कैसे निकलता है? बा ऽऽऽ। अरे बेटे ये क्या बोलता है? यूँ मत बोल, तो फिर कैसे बोलूँ? तू ऐसे बोल जैसे कि भैरवी रागिनी गायी जाती है। गुरु जी सिखाइए। बेटा तू आ जाना हमारे पास हम तुझे सिखायेंगे स रे ग म-सा रे गा म प सिखा देंगे। तब तू ऐसे बोलना जैसे कोयल बोलने लगती है, जैसे मोर। अभी तू जैसे चिल्ला रहा था इसे सुर नहीं कहते। बेटे, ऐसे फिर मत बोलना। सुर को, गले को इस तरीके से साध कि ऐसी मीठी-मीठी आवाज आए कि बस मजा आ जाए और ये धागे और तार जो सितार में तार बँधे हुए हैं, उन्हें हिला, इस भन् भन् भन् मक्खी की तरीके से नहीं हम जैसे बताएँ उस तरीके से बजा। इस तार के बाद उसे बजा। इसके बाद इसे बजा फिर देख किस तरीके से इसमें से कैसी-कैसी सुरलहरी निकलती है, तरंगें निकल सकती हैं? कैसी-कैसी ध्वनि निकल सकती हैं? जिन पर तू थिरकने लगेगा और नाचने लगेगा तो महाराज जी यह कैसे बजेगा? बेटे यह एक साधना है। किसकी? धागों की, तारों की। यह किसकी है साधना? गले की। यह है साधना पत्थर की। ये किसकी है साधना? हर चीज की है। सोने की साधना, मुख की साधना और जीवन की साधना कि जीवन कैसे जिया जा सकता है? जीवन कैसे उद्यमशील बनाया जा सकता है? जीवन कैसे देवोपम बनाया जा सकता है? जीवन की अस्त-व्यस्तता का उदारीकरण कैसे किया जा सकता है? जीवन ठीक तरीके से कैसे जिया जा सकता है? अगर ठीक तरीके से आप यह जान पाएँ तो बेटे आप धन्य हो सकते हैं, सब कुछ हो सकते हैं। आप बाहर का ख्याल निकाल दीजिए।

अब तक आप सोचते थे कि यह सब आप बाहर से पायेंगे। आपका ख्याल था कि बाहर बहुत सारी चीजें होती हैं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप ये सोच अपने मन से निकाल दीजिए। जो चीज बाहर दिखाई पड़ती है वास्तव में वह भीतर से ही आती है। बाहर तो उसकी खुशबू बिखरती हुई चली जाती है। जैसे—कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है, परन्तु उसे यह मालूम पड़ता है कि हवा में से पूरब से वह आती है। पश्चिम से आ रही है। बेटे, सुगंध कहीं बाहर से नहीं आती? भीतर से निकलती है। भीतर से क्या आती है? महक। अच्छा साहब यह बताइए कि शहद की मक्खियाँ जो शहद इकट्ठा करती हैं वह शहद कहाँ से आता है? फूल के भीतर से आता है। चलिए हम आपको फूल देते हैं, आप इसमें से शहद निकाल दीजिए, आप नहीं निकाल सकते तो इसे अपने कैमिस्ट के पास ले जाइए, किसी लैबोरेट्री में ले जाइए और उनसे कहिए कि गुरुजी ने भेजे हैं ये फूल और इसमें से आप शहद निकाल दीजिए। कोई नहीं निकाल सकता। मधुमक्खी के मुँह में जो केमिकल्स होते हैं वे फूल के रस को अपने ढंग से इस तरीके से डाइल्यूट करते हैं, इस तरह से कन्वर्ट करते हैं कि वे सारे के सारे रस शहद बन जाते हैं। इस तरह शहद कहाँ से आता है? मक्खी के भीतर से आता है। नहीं साहब, बाहर से आता है फूलों में से। नहीं, फूलों में से नहीं आता है मात्र सहायता मिलती है फूलों से। दूध कहाँ से आता है, साहब? गाय का दूध कहाँ से आता है? घास में से आता है। अच्छा आप ले जाइए घास, मैं आपको बीस किलो घास देता हूँ इसमें से निकाल लाइए दूध। अरे! महाराज जी इसमें तो नहीं है। इसमें नहीं है तो कहाँ से आ गया दूध? कहीं से नहीं आ गया। गाय के भीतर जो केमिकल्स हैं, गाय के भीतर जो पदार्थ हैं वे घास को इस तरीके से कन्वर्ट करते हैं कि वह दूध के रूप में परिणत हो जाते हैं। गाय के पेट की जो मशीन है वास्तव में वह गाय के दूध की मशीन है। नहीं साहब, घास में दूध होता है, बिनौले में दूध होता है, खली में दूध होता है। नहीं बेटे, न बिनौले में दूध होता है, न खली में और न ही खली की वजह से गाय ज्यादा दूध पैदा कर लेती है, लेकिन असल में जो दूध पैदा करता है, वह इसका सिस्टम पैदा करता है। बाहर से कुछ नहीं आता। नहीं साहब, दूध बाहर से आता है। नहीं बाहर से नहीं आता। चर्बी कहाँ से आती है सूअर में? साहब, उसको मक्खन खाने को दिया जाता है। सूअर को कौन मक्खन खाने को देगा? सूअर को मक्खन खाते देखा है। कोई खिलाता है। कोई नहीं खिलाता कहाँ से आ जाता है? गंदा मैला होता है। उसमें इतनी सारी चर्बी इकट्ठी होती है। चर्बी कहाँ से आती है? अरे बेटा भीतर से पैदा होती है? नहीं साहब कोई बाहर चला जाता है। चुपचाप। जब सोये रहते हैं कोई आता है और छटाँक भर घी खिला जाता है। घास में से। घास में से नहीं आता है। उसके पेट में से आता है। जहर कहाँ से आता है। बता दो जरा? कहाँ से आता है साहब। साँप मिट्टी खाता है, कीड़े खाता है। मिट्टी में कहाँ जहर है। नहीं है और कीड़े में कहाँ है जहर? इसमें भी नहीं है जहर। चूहे में भी नहीं है। साँप में लाइए कहाँ से आ गया जहर? उसके भीतर से पैदा होता है।

पेड़ जो होते हैं वे धरती और वायुमण्डल में से जल खींच लाते हैं। जहाँ कहीं भी पेड़ घने होते हैं, वहाँ वर्षा होती रहती है। लीबिया वालों ने गलती की। वहाँ पेड़ बहुत सारे थे। पेड़ों के ठेकेदार आए और उन्होंने पेड़ों को काटना शुरू कर दिया, पेड़ खत्म हो गए। बस बारिश खत्म हो गयी। वर्षा खत्म हो गयी। वर्षा खत्म होने से क्या परिणाम हुए? सारे का सारा लीबिया रेगिस्तान हो गया। राष्ट्र संघ ने अपना पैसा देकर यह कहा कि इतने समृद्ध मुल्क में फिर से पानी बरसना चाहिए और पानी बरसाने के लिए आवश्यक है कि इसमें पेड़ लगाये जाएँ। ऐसे पेड़ लगाये जाएँ, पानी का ऐसा इन्तजाम किया जाए कि फिर से उस जमीन पर पेड़ उग आएँ, वह क्षेत्र हरा-भरा बन जाए। रेगिस्तान इसीलिए रेगिस्तान है कि वहाँ पर पेड़ नहीं हैं। अगर वहाँ पेड़ होने लगें, पेड़ लगाये जाने लगे तो थोड़े समय बाद सारा रेगिस्तान फिर से हरा-भरा हो सकता है। पेड़ों में वर्षा को खींचने की ताकत है, मैग्नेट है। मैग्नेट में खींचने की ताकत है। वह लोहे को खींच लेता है। धातुएँ जब बनती हैं, धातुओं की जब खदानें बनती हैं तो उसका तरीका यह है कि धातुओं के कण जहाँ कहीं भी होते हैं, वे अपने चुम्बक के जोर से मैग्नेट के जोर से जहाँ कहीं सजातीय कण होते हैं, जर्रे-जर्रे से खींच लेते हैं। सोने का जर्रा जहाँ पड़ा है, उसको खींचते चले जाएँगे। इस तरह सोने का जर्रा-जर्रा धीरे-धीरे खिंचता चला जाएगा और उस खदान में शामिल हो जाएगा। धातु की खदान बढ़ती चली जाएगी, बड़ी होती चली जाएगी, क्योंकि उसका चुम्बकीय मैग्नेट अपने सजातियों को खींचता चला जाता है। बेटे लाभ, उन्नति, प्रगति, वैभव, सिद्धियाँ और चमत्कार ये कुछ भी नहीं हैं। ये आदमी की विकसित चेतना के आकर्षण हैं, मैग्नेट हैं। अपनी चेतना का विकास कीजिए और पाइए हर चीज को।

प्रायः यह कहा जाता है कि जब गुरु मिलेगा तो ही सब मिलेगा। नहीं बेटे, ऐसे गुरु नहीं मिलेगा। तेरे भीतर की चेतना जाग्रत होगी तो गुरु आवेगा और तेरे पैर चूमेगा, तेरे भीतर की चेतना विकसित नहीं है। तूने अपने आपको घिनौना बनाकर रखा है। कमीना बनाकर रखा है, तो गुरु आएगा भी तो उसकी नाक कट जाएगी और सड़ जाएगी और सड़ी हुई नाक को लेकर के भाग जाएगा, कहेगा कि अरे! बाबा ये कहाँ से आ गया मैं? किसके पास आ गया? नहीं गुरु के हाथ जोड़ूँगा, पैर छुऊँगा। नहीं बेटे! नहीं हो सकता। देवता की शक्ति प्राप्त करने के लिए आपके अन्दर देवत्व विकसित होना चाहिए। भगवान की शक्ति का विकास करने के लिए आपके अन्दर भक्ति का विकास होना चाहिए। मन्त्र की शक्ति का विकास करने के लिए आपके भीतर संयमशीलता का विकास होना चाहिए। अपने आपको सुधारना, अपने आपको सँवारना, अपने आपको ठीक करना, बेटा इसी का नाम है अध्यात्म। इसी का नाम है गायत्री। इसी का नाम है—उपासना। इसी का नाम है, भजन। ताकि हम अपने भीतर की महानता को विकसित कर सकें, जगा सकें। किस तरह से हम अपनी अन्तर्चेतना को विकसित कर सकते हैं? कैसे हम सम्पत्तिवान बन सकते हैं? कैसे हम सेठ आदमी बन सकते हैं? इस उपासना को मैं कल से आपको बताऊँगा।

अभी आपको गायत्री उपासना के आधार पर जो संकेत दिए गए थे, सिम्बल बताए गए थे। क्रियाएँ बताई गई थीं, उसके पीछे क्या उद्देश्य है? क्या प्रेरणा है? उसके कलेवर के पीछे प्राण कहाँ है? बाहर वाला परिवर्तन वह है, जो हम आपको बता चुके हैं। अब हम उसका प्राण बताएँगे। शिक्षाएँ बताएँगे, दिशाएँ बताएँगे। धाराएँ बताएँगे। प्रेरणाएँ बताएँगे ताकि आप यह जान पाएँ कि हम अपने जीवन का परिष्कार करके किस तरीके से भगवान को पा सकते हैं? मित्रो! आध्यात्मिकता का यह एक ही उद्देश्य है। गायत्री उपासना का भी एक ही उद्देश्य है। गायत्री उपासना में जो शक्ति आती है, वहीं से आती है और कहीं से नहीं आती। गायत्री उपासना करें या नमाज पढ़ें, कहीं से भी आपको शक्ति आएगी तो अपने भीतर से ही आएगी। भगवान ने कहा है—‘‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मै रिपुरात्मनः’’ अपनी आत्मा ही अपनी दुश्मन है और अपनी आत्मा ही अपनी मित्र है। इसलिए मित्रो! ‘‘उद्धरेदात्मनाऽत्मानं’’ तुम अपनी आत्मा का उद्धार स्वयं करो। स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करो। बाहर के लोगों से नहीं और न ही देवताओं के द्वारा उद्धार होगा। भगवान के द्वारा नहीं, गुरुओं के द्वारा नहीं, किसी के द्वारा नहीं, उद्धार होने वाला है। ‘‘उद्धरेदात्मनाऽत्मानं’’ अर्थात् उद्धार होगा तो अपने आप द्वारा ही अपना उद्धार होगा। ‘‘नात्मानमवसादयेत्।’’ अपने आपको गिराओ मत। नहीं साहब, कोई और गिरा जाता है मुझे। कौन गिरा जाता है तुझे? भावी गिरा जाता है, भूत गिरा जाता है, भगवान गिरा जाता है, राहु गिरा जाता है। चल जाहिल कहीं का, बेकार की बात करता है। राहु पर इल्जाम लगाता है और केतु पर इल्जाम लगाता है। औरों पर इल्जाम लगाता है। बेकार के इल्जाम लगाता है और अपने ऊपर इल्जाम नहीं लगाता।

मित्रो! क्या करना पड़ेगा आपको? आपको यह करना पड़ेगा कि ‘नात्मानमवसादयेत्’ अपने आपको गिराओ मत, अपने आपको उठाओ। अपने आपको उठाओ। आप ही अपने सबसे बड़े मित्र हैं, हम आप ही अपने आपके सबसे बड़े शत्रु हैं। इस तथ्य को आपने भगा दिया। इसको आपने विस्मृति के गर्त में फेंक दिया। अपने-अपने बारे में जिसके बारे में अध्यात्म यह सिखाता है ‘‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।’’ मूर्खों अपने आपको जानो, अपने आपको देखो, अपने आपको समझो। अपने आपको सुधारो और अपने आपको सही करो। फिर देखो जो कुछ भी तुम चाहते हो सब चीजें तुम्हारे पास खिंचती हुई चली आती है कि नहीं। जब तक आप अपना उद्धार स्वयं करने को तैयार न होंगे, तब तक आपकी सफलताएँ दूर ही दूर बनी रहेंगी। मित्रो! हमारी इसी विकसित अन्तर्चेतना, हमारी विकसित दृष्टि का नाम है स्थित-प्रज्ञता। इसी का नाम ऋतम्भरा-प्रज्ञा है। इसी का नाम है गायत्री। गायत्री की अगर उपासना हम कर सकें, साधना कर सकें, परिश्रम के द्वारा, आत्मशोधन के द्वारा, आत्म-परिष्कार के द्वारा, आत्म-संघर्ष के द्वारा तो मित्रो! गायत्री के सारे के सारे चमत्कार और सिद्धियाँ आपके चरणों में स्वयं खिंचती हुई चली आएँगी। इसके बारे में अथर्ववेद में कहा गया है—

‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानां। आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिम् द्रविणम् ब्रह्मवर्चसम् मह्यमदत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।’’

आयु से लेकर के प्राण तक सब सारी की सारी चीजें—जिसमें धन भी शामिल है, सन्तान भी शामिल है, पुत्र भी शामिल है, असंख्य चीजें शामिल हैं, सारी चीजें मिल सकती हैं, उनको जो ऋतम्भरा-प्रज्ञा के रूप में प्राणवान् गायत्री की साधना करते हैं। साधना द्वारा ही हमको अपने अन्तरंग के मल और आवरणों का निराकरण करना होता है और अपनी दबी हुई विशेषताओं को, क्षमता को उभारना पड़ता है। यही है गायत्री उपासना का प्रारम्भिक रूप, यही है गायत्री की भूमिका। कल से मैं बताऊँगा कि गायत्री उपासना के जो क्रिया-कृत्य, कर्मकाण्ड बताए गये हैं, उसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा, कैसे करना पड़ेगा, कौन-कौन से ऋषियों ने ऋतम्भरा-प्रज्ञा की उपासना की और क्या पाया-आदि। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥