यह परीक्षा की घड़ी है

गायत्री जयन्ती ( ८ जून ) के अवसर पर विशिष्ट उद्बोधन

परम वन्दनीया माता जी द्वारा गंगा दशहरा—गायत्री जयन्ती १९८८ की पावन वेला में शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन

गायत्री मंत्र हमारे साथ बोलें—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

प्यारे-प्यारे बच्चो! देवियो!
हमारे आत्मीय परिजनो!

आदिकाल से पर्वों की परम्परा चली आ रही है। ज्ञान और विज्ञान के आधार पर सारे के सारे पर्व त्यौहार मनाए जा रहे हैं। होली, दिवाली, दशहरा, विजय दशमी, गायत्री जयन्ती। गायत्री माता का प्रादुर्भाव हुआ, आज के दिन, गायत्री जयन्ती के दिन, एक ऐसे सन्त के द्वारा जिन्हें समझती हूँ कि वे विश्वामित्र से कम नहीं हैं। विश्वामित्र ने गायत्री उपासना की थी, गायत्री उपासना के द्वारा हरिश्चन्द्र के पिता के लिए अन्यत्र स्वर्ग की स्थापना की। उन्होंने अपने तप के द्वारा एक नूतन स्वर्ग की स्थापना भी की थी। अनेकों ऋषियों ने गायत्री मंत्र का सहारा लिया है और जिसने भी इसका सहारा लिया है, वो आगे बढ़ा है। वह तो गायत्रीमय ही हो जाता है, इसमें दो राय नहीं। गुरुजी के जीवन में गायत्री माता आई और जब गायत्री माता का प्रादुर्भाव हुआ तो सारे रोम-रोम में गायत्री माता समा गईं। वे गायत्रीमय ही हो गए जिस तरह से रामकृष्ण परमहंस। लोग यह कहते हैं कि यह तो कालीमय है, रामकृष्ण नहीं है। वे कालीमय हो गए क्योंकि श्रद्धा और निष्ठा से जो उपासना की जाती है, वह फलित होती है। हमारा मन कहीं और रहता है, तन कहीं और रहता है यह भी कोई भक्ति है? भक्ति तो वह है जिसमें आराध्य से भक्त कहता है कि जो भी देना है दीजिए, हमारे पापों का निष्कासन कीजिए, इन्हें निकालिए-निकालिए। ऐसी भक्ति करने वाले गायत्रीमय हो जाते हैं। आज दशहरा भी है और कौन सा दशहरा है? "गंगा दशहरा" है। भागीरथ ने तपस्या की थी। समस्त मानव जाति के उद्धार के लिए। गंगा अनवरत बहती हुई चली आई और उसके माध्यम से उसने समझाना चाहा कि रे दुनियाँ के लोगो! समझो, समझो कि भक्त की परिभाषा क्या होनी चाहिए? करुणा, दया, सेवा, अपने को ऊँचा उठाना और दूसरों को ऊँचा उठाना। यह भक्त की परिभाषा है। आपने कभी किया क्या? किया नहीं है, तो आप गंगा जैसे निर्मल कैसे हो सकते हैं? कैसे पवित्र हो सकते हैं? यह पवित्रता का दिन है।

गायत्री शोधन करती है, ज्ञान को बढ़ाती है, ऊर्जा देती है, धन-दौलत देती है, इसका तात्पर्य यही है कि उससे ब्रह्मतेज जो मिलता है, उसी से लोक-परलोक का लाभ उठा लेता है सच्चा भक्त। इस लोक में इस लायक बन जाता है कि अपना सीना ताने और सिर ऊँचा किए हुए दूसरों को रास्ता बताते चला जाता है, यह कहता हुआ कि भक्ति की परिभाषा यही है कि भक्त को चाहिए कि निर्मल बने, शीतल बने और औरों को शीतलता प्रदान करे। गंगा पापों का हरण करती है और गायत्री हमारे ज्ञान को ऊँचा उठाती है। ज्ञान नहीं है तो कुछ नहीं है। ज्ञान है पर व्यवहार में नहीं है तो भी कुछ नहीं है। शिक्षा तो है पर विद्या नहीं है फिर क्या फायदा? विद्या और शिक्षा, रोजी और रोटी से ताल्लुक रखती है। विद्या का हमारे समूचे मानव जीवन से ताल्लुक है। जो मैंने पहले ही दिन टोली में जाने वालों को कहा था कि हमें तो ब्रह्मबीज की आवश्यकता है। यह ब्रह्मबीज जो विद्या फैलाता है, गायत्री उपासना से ही मिलता है।

गायत्री के विषय में कहा गया है कि यह राजहंस है। इसके दो पंख हैं। एक है—भौतिक, एक है—आध्यात्मिक। आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही इसके पंख हैं। जो चाहो उड़ान भर सकते हो। अभी बच्चों ने एक गीत गाया, उस समय मैं भावुक हो गई थी। इसलिए हो गई कि आज के दिन एक संकल्प लिया गया था, भगीरथी संकल्प। वह संकल्प तो लगभग पूरा होने को है कि गायत्री माता को हम अपने जीवन में धारण करेंगे और इसे विश्व व्यापी बनाएँगे। विश्व का कोई भी कोना ऐसा नहीं छोड़ेंगे जिसमें हमारी गायत्री माता विराजमान न हो। भक्ति की परिभाषा बता रहे हैं आपको कि हर कोने-कोने में, राष्ट्र के कोने-कोने में यह ब्रह्म विद्या पहुँचनी चाहिए। जिस माता ने इतना अनुदान दिया है, जिस माता ने रक्त के कण में से दूध पिलाया हो वह महान है, बड़ी महान है। आज किसी की माँ हो तो वे अंदाजा लगा सकेंगे कि माँ कितनी महान होती है, कितनी दयालु कितनी करुणामयी होती है। अपना सारा जीवन कष्टमय बिताती रहती है और बच्चों को भान भी नहीं होने देती कि कष्ट भी कोई चीज है क्या? माँ बड़ी जबरदस्त होती है। गायत्री माँ का तो कहना ही क्या है? साधारण माँ की बात कह रही थी और चेतना को धारण करने वाली उस शक्ति का तो कहना ही क्या? जिस किसी ने मन से श्रद्धा से पुकारा होगा तो सम्भव है उसके दुःख कष्ट जो उसको पीड़ा पहुँचा रहे थे उनमें उसे कमी आती मिली होगी। निश्चित मिली होगी। मान लीजिए समय ही आ गया है या प्रारब्ध, जो प्रारब्ध हमारे जन्म का भोग है, वह आड़े आ गए होंगे तो बेटे वह तो आएँगे ही। उसके लिए क्या करें? इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भोगो इन्हें, दृढ़ता के साथ। कायर मत बनो, रोओ नहीं। रोने से बुजदिली पैदा होती है, रोने वाले के पास कोई बैठना पसंद नहीं करेगा। मैं आपसे यह निवेदन कर रही हूँ कि आपकी जो छोटी-छोटी दिक्कतें व कठिनाइयाँ होती रहती हैं, उन कठिनाइयों में कैसे मायूस हो जाते हैं और उन्हीं में फँसकर आप रह जाते हैं। आप उस शक्ति के साथ जुड़े नहीं। जुड़े नहीं तो लाभ नहीं मिला। जुड़कर तो देखें! आप तो थोड़े से जुड़े केवल। गुरुजी के पाँव, गुरुजी का शरीर देखा आपने? क्या आपने गुरुजी का आशीर्वाद पाया? हाँ बेटा! पाया, लाखों व्यक्तियों ने पाया और आज यदि उन सभी के बारे में लिखा जाए तो अठारह पुराण बन जाएँगे। अभी आप में से किन्हीं को खड़ा कर दूँ जो मेरे सामने ही बैठे हैं तो दो चार-पाँच दस ऐसे अवश्य होंगे जिन्हें दुःख-कष्ट में कितनी राहत पहुँची। आपके अंतिम समय तक आपकी सेवा होती रही और होती रहेगी, चूँकि आप हमारे परिजन हैं, न। आप हमारे बालक हैं। पाने की दृष्टि से आप इस पर ध्यान देना कि भक्ति का स्वरूप आखिर कैसा हो? गायत्री माता से माँगे ही माँगे या कुछ दें भी। देना क्या है? गुरुजी से माँगें ही माँगे या गुरुजी को कुछ चाहिए भी, क्यों साहब? गुरुजी के लिए क्या चाहिए? रुपया-पैसा, धोती, कपड़ा, खाना-पीना, नहीं बेटे! तो हमारी दो भुजाएँ हैं उनसे हम कमा लेंगे। न हमने मिशन का खाया है और न कभी मिशन का खाएँगे, यह हमारी प्रतिज्ञा है। गुरुजी और माता जी एक मिशन हैं। यह व्यक्ति नहीं हैं। आप फिर समझ लीजिए यह व्यक्ति नहीं हैं, मिशन हैं और यह मिशन अब बहुत तेजी से बढ़ता हुआ चला जा रहा है, कुछ ही दिनों में देखना, यह मिशन कहाँ से कहाँ पहुँचेगा, हम रहें चाहे न रहें। मेरी जीवात्मा कहती है, मेरा साहस कहता है और मेरा पुरुषार्थ कहता है कि मैं किसी भी बच्चे को बुजदिल नहीं होने दूँगी। मैं उनमें बराबर प्रेरणा भरती रहूँगी। गुरुजी भरेंगे, हम भरते रहेंगे। आपको प्रेरित करते हुए उस दिशा में ले जाएँगे जो आज देश सोने की चिड़िया कहा जाता था वहाँ तक ले जाकर ही छोड़ेंगे। सारे विश्व में ब्राह्मणत्व पैदा करके ही छोड़ेंगे।

ब्राह्मणत्व पैदा किया ही जाना चाहिए। ब्राह्मण जैसा जीवन जीया जाना ही चाहिए। ब्राह्मण का कर्तव्य है सारे संसार को ज्ञान देना, ऊँचा उठाना। ब्राह्मण का अर्थ यह नहीं होता कि सीधा दे जाओ। सीधा, खाना एवं उलटा-पुलटा पाठ पढ़ाना कि आओ तुम्हारे ग्रह ऐसे हैं, वैसे हैं। ब्राह्मण ऐसे नहीं होते। ब्राह्मण का तो यह है कि चाहे व्यक्ति की साँसें निकल रही हों लेकिन वह कहेगा नहीं बेटे। इसका क्या बिगड़ा है? यह नहीं कहेगा कि राहू का ग्रह है, अब तेरा बेटा मरा। ब्राह्मण नहीं कहेगा, यह तो चाण्डाल कहेगा। वह तो मनोबल पैदा करेगा। सन्तुलित मनःस्थिति बनाने की ओर प्रेरित करेगा। आप ब्राह्मण की तरह सेवा करना सीखें, लेना ही लेना सीखा है। देना नहीं। शंकर जी भी दे जा, हनुमानजी भी देजा, सन्तोषी माता भी दे जा, अरे सब दे ही जाओ। तो तुम क्या दोगे जरा बताना? हम कुछ नहीं देंगे। तुम काम आओगे समाज के, राष्ट्र के। काम आओगे राष्ट्र के जिस पर विपत्तियाँ छाई हुई हैं। जो विकृतियाँ फैली हुई हैं उन विकृतियों के प्रति आपके अन्दर की जो सम्वेदनाएँ हैं, वह सम्वेदना मर गई हैं, तो भक्त कैसे हो गए? भक्त के अन्दर तो सम्वेदना होती है, ऐसी जैसी कि शिवाजी की। शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास जी ने सोचा कि देख लिया जाए, यह अभी बच्चा ही तो है कि परीक्षा में यह फेल है कि पास है। उनने कहा—बेटे! मेरी आँखों में दर्द हो रहा है। तो गुरुदेव क्या आज्ञा है? दूध चाहिए सिंहनी का, तू दूध लाएगा सिंहनी का। उन्होंने कहा—संकल्प मेरा है और शक्ति गुरुदेव आपकी है, मैं उसको लाकर ही रहूँगा और वे कटोरा भरकर दूध ले आए। ना आँखों में दर्द था ना सिंहनी थी, वह तो माया रूपी सिंहनी थी। केवल परीक्षा लेनी थी। परीक्षा ली थी शिवाजी की उनके गुरु ने। वे थे शक्तिशाली। जिनके अन्दर अपने गुरु के प्रति, अपने इष्ट के प्रति, आराध्य के प्रति, इतना अगाध विश्वास, प्रेम और भक्ति जिस किसी के मन में हो जाएगी, मैं समझती हूँ उसको कोई कठिनाई नहीं होगी। भक्ति का मूल्य यह है कि भक्त का मन कैसा होना चाहिए? समर्पित होना चाहिए। जिस तरीके से नाला नदी में मिल जाता है, गंगा में मिल जाता है, तो पवित्र हो जाता है। गंगा जल हो जाता है। उसका आचमन लेते हैं, उसे शुद्धीकरण में लेते हैं, गंगा जल की आरती उतारते हैं, क्योंकि जो पहले नाला था अब वह पवित्र हो गया है, वो अब गंगा से मिल गया है। बेल पेड़ से चिपक जाती है तो उसके समकक्ष हो जाती है, यह है समर्पण। यह है समर्पण। पत्नी जब अपने पति के साथ आती है तो पिछला जीवन भूलकर आती है आगे का पाठ पढ़ती है। पिया ही मेरा भगवान है, यही मेरा सब कुछ है, ये घर ही मेरा देव मन्दिर है। यही मेरे चारों धाम हैं, यही मेरा तीर्थ है। अरे जिस नारी के मन में ये हो उसे क्या कष्ट हो सकता है? भौतिक जगत का कष्ट कभी उसको प्रभावित नहीं करता। प्रभावित कौन सी चीज करती है? जब हम उसके साथ द्वेष भाव, कटुता से बोलते हैं अथवा उसके बताए मार्ग पर नहीं चलते। जब रामकृष्ण परमहंस जाने लगे तो शारदामणि थी। उनके कोई बच्चा था नहीं। विवेकानन्द थे पीछे। तो जब वे जाने लगे तो उन्होंने कहा शारदामणि! मेरे मन में एक बात आ रही है। क्या तुम उसे सुनने को तैयार हो? तो उन्होंने कहा कि क्या आपको मेरे ऊपर विश्वास नहीं है? इस उपासिका के लिए, इस पुजारिन के लिए जो भी मेरा आराध्य मुझे देगा, भर-भर झोली उसे लूँगी और उस याद को सँजोकर रखूँगी और जो मुझ से कहा गया है, मैं उसका पूरा निर्वाह करूँगी। मैं उदाहरण दे रही हूँ कि भक्ति का स्वरूप कैसा हो? तो उन्होंने एक बात यह कही—हमारा आगा पीछा है, तुम छोटी हो, हम बड़े हैं, लेकिन तुम मिशन की माँ हो और माँ के नाते बच्चा माँ से प्यार करता है और प्यार के सहारे उठता हुआ चला जाता है। तुम दो काम करना। भले ही पढ़ी-लिखी कम हो, बच्चों को ज्ञान देना, ताकि हमारा यह मिशन बढ़ता हुआ चला जाए। मैं तुम्हें मिशन को देकर जा रहा हूँ, उनने कहा देव! मुझे सब स्वीकार है और कुछ देना चाहते हो तो दे दीजिए। यह होती है भक्ति। यह भक्ति नहीं होती कि अरे! अब क्या करेंगे, अब कैसे होगा? होगा क्या जो सबका होगा वह तुम्हारा होगा। जो होता है होगा अब क्या किया जाए, पर जो लक्ष्य है, उद्देश्य है ऊँचा उठने का, उसे याद रखना चाहिए। अपने इष्ट के प्रति समर्पण भावना यदि है अन्तस् में तो वह वेदना भी होनी चाहिए। अन्तस् में जब वेदना है तो उसको बनना भी चाहिए, बनाना चाहिए तो उससे और लोगों को प्रेरणा भी लेनी चाहिए और लोग प्रेरित भी हों। जो खुद बना ही नहीं है, वह दूसरों को क्या बनाएगा? वाल्मीकि के बारे में नहीं सुना है? सीता को छोड़ा गया उन्हीं के आश्रम में। आखिर पहला जीवन उनका कैसा था। और जब वे राम से जुड़ गए तो वही जब उनकी सम्वेदना जागी और करुणा फूटी तो वे ऋषि हो गए। ऋषि हो गए पक्षी के जोड़े को तिलमिलाते देखा तो उनकी करुणा फूटने लगी। ये जीवन है, नारकीय जीवन। इस जीवन को छोड़ो, अभी छोड़ो और जिनने छोड़ दिया, वे ऋषि बन गए। इसी तरह से सन्त तुलसीदास का भी था। तुलसीदास जी जो कामी थे, उन्हें यह भी होश नहीं कि कहाँ चले जा रहे हैं? नाव में बैठकर जा रहे हैं, कि लाश पर बैठकर जा रहे हैं, कि रस्सी को खींचते हुए जा रहे हैं, कि साँप को खींचते हुए जा रहे हैं, उनको यह भी ज्ञान नहीं था। पर एक नारी के, अपनी पत्नी के इतना कहने से कि इस नश्वर शरीर से इतना लगाव? इतना लगाव भगवान से हो जाए तो आप चमक जाएँगे, आपकी प्रतिभा चमक जाएगी और आप आने वाले समय में इसी तरह से पूजे जाएँगे, जैसे कि भगवान की पूजा होती है।

यही हुआ कि स्वयं भगवान राम उनके पास आए।

चित्रकूट के घाट पर, भई सन्तन की भीड़।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुवीर ॥

भगवान स्वयं तिलक लगाने के लिए आए थे, किनके पास? तुलसीदास के पास। हनुमान जब भगवान राम से जुड़ गए तो शक्तिशाली होते हुए चले गए, जिनको कि हम वानर के रूप में जानते हैं, जो कि डरपोक की तरह बैठे थे व सुग्रीव के नौकर थे। पर जब भगवान से जुड़ गए तो अपार शक्ति उनमें आती हुई चली गई। आपने रामायण में पढ़ा है, उसकी अधिक व्याख्या मैं क्यों करूँ? उन्होंने लंका दहन किया, सुरसा के मुँह में से निकले, समुद्र भी लाँघा, इतने शक्तिशाली हो गए। लेकिन हम जरा-जरा सी परिस्थिति में ऐसे जकड़ जाते हैं कि जैसे मकड़ी के जाले में मकड़ी फँस जाती है। किन्तु जब शक्ति के रूप में गायत्री आती है तब परिस्थितियाँ स्वतः सुलझती चली जाती हैं।

यदि सच्ची श्रद्धा है आपकी गुरुजी के प्रति, गायत्री माता के प्रति और इस माँ के प्रति और विश्वास भी आपको दिलाया है तो फिर हम भी आपको विश्वास दिलाते हैं कि जो भी सेवा आपकी कर सकते होंगे, जरूर करेंगे। एक कबूतर और कबूतरी थी। एक बहेलिया था—भूखा बहेलिया। वह आकर के सो गया पेड़ के नीचे और ऊपर कबूतर और कबूतरी बैठे विचार कर रहे थे। आपस में बोले—यह हमारा अतिथि है जो आज भूखा है, हम इसके लिए क्या उपाय करें और तो हम गरीब कुछ कर नहीं सकते। हाथ-पाँव तो हैं नहीं जो कमा के लाएँ कुछ। अब दोनों ने विचार किया और कहा अच्छा मैं उपाय करता हूँ। वह एक तीली लाया जलती हुई। घास-फूँस इकट्ठा करके दूसरा साथी लाया और तीली को डाल दिया। जब लौ पकड़ने लगी तो दोनों ही उसमें स्वाहा हो गए, दोनों स्वाहा हो गए और बहेलिया की क्षुधा उन दोनों पक्षियों के माध्यम से मिट गई। भगवान को उसने धन्यवाद दिया कि हे भगवान! तूने यह कैसी दया की कि आज हमको भोजन अपने आप मिल गया। वो कबूतर, कबूतरी तो नहीं हैं, जो हम जल रहे हों और आप बहेलिया भी नहीं हैं। आप तो हमारे बहुत काम के हैं। जो छूटा हुआ कार्य है अवतारी सत्ता का वह आप पूरा कर रहे हैं। प्रज्ञा का अवतार हुआ है अब यह कार्य हो रहा है जिसे आप विराट रूप में देखते हैं। तो आप क्या कहना चाहती हैं? गुरुजी को अवतारी बना रही हैं? बेटा! कहने दीजिए, इसमें आपको क्या एतराज होना चाहिए? अवतारी ही हैं। अरे मैं तो यह कहूँगी कि हर व्यक्ति ही अवतारी है, हर व्यक्ति के अन्दर चेतना है, शक्ति है पर उसको व्यक्त नहीं करना चाहता। वह भी भगवान का अंश है, हर व्यक्ति चेतना का एक अंश है, पर जो अपने देवत्व को जगा लेता है अपनी श्रद्धा को जगा लेता है, करुणा को जगा लेता है, अपनी श्रद्धा को जगा लेता है वह अवतार बन जाता है, सन्त. सुधारक और शहीद बन जाता है।

आज गंगा दशहरा के दिन मैं बेटो! तुम सबके लिए यही सन्देश है कि अपनी भक्ति का स्तर जितना बढ़ा सकते हो, बढ़ाओ। अवतारी सत्ता तुम में भी प्रकट हो सकती है। सन्त तुम भी बन सकते हो। गायत्री की ज्ञान गंगा को गुरुजी की तरह यदि घर-घर पहुँचा सको तो तुम्हारा यहाँ आना—गायत्री जयन्ती मनाना निश्चित ही सार्थक हो जाएगा।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।