121. दिव्य वनस्पतियों के अमृतोपम लाभ उठायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

वनस्पति और प्राणियों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक जियेगा तो दूसरा जियेगा। मनुष्य का आहार वनस्पति है। जीवन की अधिकांश आवश्यकताएँ इन्हीं के सहारे उपलब्ध होती हैं। ईंधन, मकान, शैया, कपड़े, अनाज, शाक, औषधि यह सभी वृक्ष वनस्पतियों के सहारे ही उपलब्ध होते हैं। पेड़ ही बादलों को खींचते और बरसने के लिए विवश करते हैं। उनके अभाव में किसी प्राणी का जीवन सुरक्षित नहीं। वनस्पतियाँ आक्सीजन छोड़ती हैं। उससे मनुष्य को साँस द्वारा वायु मिलती है। मनुष्य द्वारा छोड़ी कार्बन डाय आक्साइड से पेड़ पलते हैं। प्राणियों द्वारा उपयोग में लाई हुई वनस्पतियाँ खाद बनकर वनस्पति उगाती हैं। वायु प्रदूषण, भूमि क्षरण जैसी अनेकों विपत्तियों से बचाने में वृक्ष वनस्पतियों की असाधारण भूमिका है। हमें अपने इस प्राणाधार क्षेत्र के प्रति भावनाशील एवं जागरूक होना चाहिए। उनका उत्पादन, संरक्षण एवं अभिवर्धन प्रकारान्तर से अपनी सुविधा सम्पदा एवं प्रगति का पथ प्रशस्त करना है।

वनस्पतियाँ उगाने में हमारा पूरा उत्साह नियोजित रहे साथ ही अवांछनीय रूप से उनका नष्ट किया जाना भी रोकना चाहिए। जितना उनका उपयोग होता है उतना ही आरोपण अभिवर्धन भी चलना चाहिए।

जिनके पास भूमि है वे उसका एक अंश उद्यान लगाने के लिए सुरक्षित रखें। मात्र अनाज से ही कमाई नहीं होती। वृक्ष भी तात्कालिक न सही दूरवर्ती लाभ देते और सत्परिणाम उत्पन्न करते हैं। जलाऊ लकड़ी नित्य काम आती है तो उस भण्डार में साथ-साथ जमा भी करते चलना चाहिए। खाली भूमि में जलाऊ, छायादार, चारा-पानी वाले, फलदार या औषधियों में काम आने वाले वृक्ष लगाते रहना चाहिए। जिनके पास अपनी भूमि नहीं वे दूसरों की, सरकार की भूमि में उन्हीं के निमित्त वृक्ष लगाकर लोकहित की एक उपयोगी सेवा साधना कर सकते हैं। फल उद्यान लगाना घाटे का नहीं नफे का सौदा है। अनाज की फसल तो आदि से लेकर अन्त तक सेवा चाहती है। पर वृक्षों को कुछ ही दिन सँभालने के उपरान्त वे फिर कोई सेवा नहीं माँगते और निरन्तर बहुमुखी प्रतिफल प्रस्तुत करते रहते हैं।

वृक्ष आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, शरीर निर्वाह और मानसिक सन्तुलन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। जहाँ हरीतिमा नहीं होती वहाँ बंजर या रेगिस्तानों के निवासी क्रूर, कठोर प्रकृति के पाए जाते हैं। अपराध, मनोरोग और विग्रह भी ऐसे क्षेत्रों में अधिक होते हैं। हरीतिमा न केवल नेत्रों को शीतलता एवं ज्योति प्रदान करती वरन् मानसिक सन्तुलन बनाने, शालीनता एवं प्रसन्नता तथा बलिष्ठता प्रदान करने की भी भूमिका निभाती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि स्वार्थ साधना से लेकर परमार्थ प्रयोजन तक के समन्वय का दृष्टिकोण अपनाते हुए हरीतिमा सम्वर्धन के लिए प्रयत्नरत रहे। अपनी या पूर्वजों की स्मृति में वृक्षारोपण को श्राद्ध परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी समझा जा सकता है। अपना उपयोगी स्मारक किसी को बनाना हो, तो उसे उद्यान लगाने, वृक्षारोपण करने की सस्ती किन्तु हर दृष्टि से श्रेयसिक्त योजना बनानी चाहिए।

हर स्तर का व्यक्ति इतना तो कर ही सकता है कि अपने घरों में पुष्प वाटिका, शाक वाटिका लगाए। पुष्प वाटिका में खिलते हुए फूल अपनी मुस्कान से हर किसी का मन लुभाते और सहज प्रसन्नता प्रदान करते हैं। पूजा उपचार में, अतिथि सत्कार में उनसे अच्छा और सस्ता दूसरा उपचार हो नहीं सकता। अतिथि के हाथ में एक छोटा सा बटन गुलदस्ता थमा दिया जाय तो किसी भी भावनाशील को कृतज्ञता उभरेगी। घर के वातावरण में प्राणवायु का बाहुल्य रखने में पुष्प वाटिका का अपना महत्त्व है।

घरेलू शाक वाटिका की उपयोगिता का तो कहना ही क्या। आँगन में, छत पर, छोटे टोकरों-गमलों में शाक-भाजी के पौधे लगाए जा सकते हैं। छप्परों पर सेम, अंगूर, लौकी, तोरई, परवल आदि की बेलें चढ़ाई जा सकती हैं। इसमें न बहुत श्रम पड़ता है, न समय लगता है और न बड़े साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। मनोरंजन, कौतूहल एवं उत्साह की अभिवृद्धि का यह एक अच्छा स्वरूप है। जो इस आरोपण में रुचि लेते हैं, उन्हें सृजनात्मक सत्प्रवृत्ति उभारने का अवसर मिलता है और उस आधार पर बढ़ने वाली अभिरुचि आगे चलकर बड़े निर्माणों के लिए आधारभूत कारण बनती है। शिशु पालन, पशु पालन की तरह वनस्पति उत्पादन, अभिवर्धन भी एक उपयोगी प्रसंग है। इस अभ्यास में जितना श्रम, समय लगता है उसकी तुलना में लाभ निश्चित रूप से अनेक गुना अधिक होता है।

इन दिनों कुपोषण की सर्वत्र शिकायत है। भोजन में पोषक तत्व घटते जाने से अनेकानेक रोगों की अभिवृद्धि होती चली जा रही है। कुपोषण का प्रमुख कारण आहार में हरी वनस्पतियों की कमी होना है। एक तो चटोरेपन की आदत ने ऐसे ही लोगों को तली-भुनी चीजें खाने का आदी बना दिया है और हरे शाकों में स्वाद की कमी देखकर उपेक्षा बरती जाती है। दूसरे उनका खरीदना भी कम बोझिल नहीं है। अन्य वस्तुओं की तरह शाक भी कम महँगे नहीं हैं। कभी-कभी तो उनका भाव इतना मँहगा हो जाता कि उन्हें मात्र अमीर ही खरीद सकें। ऐसी दशा में शाकों के उपयोग से वंचित रहने वाले जन समुदाय को यदि कुपोषणजन्य दुर्बलता एवं रुग्णता का शिकार बनना पढ़ता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

घरेलू शाक वाटिकाएँ इस समस्या का सहज समाधान प्रस्तुत करती हैं। आँगनवाड़ी, छतवाड़ी, छप्परवाड़ी के रूप में थोड़ी सी जानकारी प्राप्त करके थोड़े से उत्साह परिश्रम का प्रयोग करने भर से यह हो सकता है कि एक छोटी गृहस्थी के लिए काम चलाऊ मात्रा में हर मौसम में सब्जी उपलब्ध होती रह सके।

कम से कम चटनी वाटिका तो कोई भी लगा सकता है। गमलों में धनिया, पोदीना, पालक, अदरक, मिर्च आदि भी उतनी मात्रा में उगा ही सकते हैं कि उनकी एक-एक कटोरी चटनी घर के हर सदस्य को मिल सके। आँवला, नीबू आदि उसमें बाहर से खरीद कर मिला देने पर मात्रा, उपयोगिता एवं स्वादिष्टता और भी अधिक बढ़ जाती है। कुपोषण के संकट से निपटने में उतना उपाय उपचार भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। हमें इस प्रचलन को न केवल अपने घर में वरन् अपने प्रभाव क्षेत्र में अधिकाधिक विस्तृत करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसमें प्रत्यक्ष लाभ और पुण्य परमार्थ के दोनों ही प्रयोजन समान रूप से सन्निहित हैं।

चिकित्सा की दृष्टि से जड़ी-बूटियाँ सर्वथा निरापद हैं। एण्टीबायोटिक्स रसायनों का प्रचलन तत्काल भले ही कुछ लाभकारी दीखता हो, पर पीछे उनकी प्रतिक्रिया स्वस्थ जीवाणुओं के संहार से हानिकारक ही सिद्ध होती है। चिकित्सा प्रयोजन में जड़ी-बूटियों के पुरातन प्रचलन को इन दिनों नये सिरे से पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।

आँगन में तुलसी का बिरवा रोपने की धर्म परम्परा बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं श्रेयस्कर है। वनस्पति को भगवान की प्रतिमा मानकर उस स्थापना के सहारे आँगन में भगवान का खुला मन्दिर बन जाता है। एक लोटा जल चढ़ा देने भर से तुलसी का सिंचन और सूर्यार्घ्यदान की देवपूजा बन पड़ती है। अगरबत्ती, दीपक जलाने, आरती-परिक्रमा करने से सामूहिक या एकाकी पूजा-अर्चा का उपक्रम परिवार में चल पड़ता है। इससे परिवार में धार्मिकता का भावनात्मक वातावरण बनता है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की जड़े भी तुलसी के बिरवे के सहारे हरी रहती हैं।

तुलसी के स्पर्श से बहने वाली वायु में न केवल सर्प, बिच्छू आदि कृमि-कीटक भगाने का गुण है वरन् उसमें विषाणु नाशक, स्वास्थ्य संवर्धक गुण भी है।

तुलसी एक रामबाण औषधि की तरह घरेलू चिकित्सा के काम आने वाली समस्त रोगों में प्रयुक्त की जा सकने वाली उपचार पिटारी भी है। तुलसी के पत्ते एक तोले, काली मिर्च एक माशे पीसकर मूँग के बराबर गोली बनाकर रख लें। बच्चों को एक और बड़ों को तीन गोली शहद या पानी के साथ दिन में दो बार सभी रोगों में दे सकते हैं। फोड़ों पर तुलसी की पुल्टिस बाँधी जा सकती है या लेप किया जा सकता है। भिन्न-भिन्न रोगों में अनुपात भेद से तुलसी का पृथक उपचार भी है। उसका विस्तृत वर्णन तुलसी के चमत्कारी गुण पुस्तक में दिया गया है।

घर-घर तुलसी के थाँवले बनाने के रूप में देव मन्दिरों की स्थापना का एक नया आन्दोलन इन दिनों प्रज्ञा अभियान द्वारा हाथ में लिया गया है। लक्ष्य २४ लाख बिरवे रोपकर तुलसी की महत्ता जन-जन तक पहुँचाने का है। इसके लिए एक क्यारी में बीज बोकर पौधे उगाए जायें और घर-घर जाकर यह पूछताछ की जाय कि इस स्थापना के लिए कौन तैयार है। जो तैयार हों उनके यहाँ पौधे मुफ्त में पहुँचाने और लगाने में योगदान करने का प्रयास व्यापक रूप से चलना चाहिए। अपने घर-गाँव में तुलसी औषधालय स्थापित करने के लिए हमें भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। लगे हाथों पुष्प वाटिका लगाने का आन्दोलन भी साथ-साथ चल सकता है। इसके लिए शाक, पुष्प एवं तुलसी के पौधों की नर्सरी लगाने की चेष्टा विशेष रूप से करनी चाहिए। इसी आधार पर पौधों का वितरण और स्थापना का उपक्रम ठीक प्रकार से चल सकेगा। बीजों के पैकेट क्षेत्रीय प्रज्ञा संस्थानों से ही उपलब्ध हो सकें, इसका प्रयास किया जा रहा है।

प्रज्ञापीठों में से प्रत्येक के पास थोड़ी बहुत खाली भूमि है। उसमें जड़ी-बूटी उद्यान लगाया जाना चाहिए। शान्तिकुञ्ज में वह लगा भी है। प्रायः २४ औषधियों से सामान्य रोगों का घरेलू उपचार इनके सहारे सरलता पूर्वक हो सकता है। इनका विस्तृत वर्णन, विवेचन एवं उपचार क्रम ‘‘जड़ी-बूटियों द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण’’ पुस्तक में किया गया है। इस पुस्तक में वनौषधि की पहचान, गुणधर्म, शुद्धाशुद्ध परीक्षा, प्रयोग अनुपान सम्बन्धी विवरण जन सुलभ भाषा में विस्तार से दिया गया है। दो भागों में शीघ्र ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित होने जा रहा है। इसे मार्गदर्शिका मानकर अपने यहाँ खाली जमीनों पर इन्हें वातावरण की अनुकूलता के अनुसार लगाया जा सकता है। जो बड़े वृक्ष रूप में हैं, वे संभवतः वे अपने यहाँ न लग सकें, इसलिये उनके तो प्रयुक्त अंगों को ही चूर्ण रूप में वीर्यकालावधि भली-भाँति जानकर सुरक्षित किया जा सकता है। जो क्षुप या रेंगने वाली वाली वनौषधियाँ है, उन्हें तो हर कोई अपने घर आँगन, प्रज्ञा संस्थान, ज्ञान मन्दिर के प्रांगण में बो सकता है।

किसी स्थानीय चिकित्सक के परामर्श से इन्हीं को ताजा खिलाकर या पुस्तक में दी गयी विधि के अनुसार फाण्ट, क्वाथ, कल्क बनाकर प्रयुक्त किया जा सकता है। हर प्रज्ञा संस्थान में इस तरह वनौषधि चिकित्सा केन्द्र स्थापित हो सकता है। पीड़ितों की सेवा सहायता हेतु ईसाई चर्च में डिस्पेंसरियाँ होती हैं। रामकृष्ण मिशन ने भी इसी तरह औषधालय बनायें हैं। चीन की तो पूरी चिकित्सा पद्धति ही सर्व सुलभ वनौषधि प्रयोग पर टिकी हुई है। फिर वैसा ही प्रबन्ध २४०० प्रज्ञा संस्थानों, पंद्रह हजार स्वाध्याय मण्डलों एवं अगणित प्रज्ञा केन्द्रों में क्यों नहीं हो सकता? लोक सेवा तो इसमें है ही, जन सम्पर्क सत्प्रवृत्ति संवर्धन और मिशन की विचारणा का विस्तार कार्यक्रम भी साथ जुड़ा हुआ है। हर कोई चिकित्सक तो नहीं बन सकता, सत्परामर्शदाता तो बन ही सकता है। प्रचलित अनेकानेक सम्मिश्रण युक्त संदेहों के जाल में उलझी आयुर्वेद पद्धति तथा दुष्प्रभावों तथा महँगी लागत के कारण आलोचना की शिकार एलोपैथी चिकित्सा प्रणाली से यदि जन साधारण को विरत कर शुद्ध काष्ठ औषधि प्रयोग के लिए सहमत किया जा सके, तो यह भी अपने आप में एक क्रान्ति होगी।

निर्धारित जड़ी-बूटियाँ जिनका शरीर एवं मन के उपचार, स्वास्थ्य संरक्षण हेतु प्रयोग सुझाया गया है इस प्रकार है (१) आमाशय एवं ऊर्ध्वगामी पाचन संस्थान हेतु मुलेठी, आँवला (२) अधोगामी पाचन संस्थान हेतु हरीतकी, बिल्व (३) हृदय एवं रक्तवाही संस्थान हेतु अर्जुन, पुनर्नवा (४) श्वाँस संस्थान के लिए वासा एवं भारंगी (५) केन्द्रीय स्नायु संस्थान हेतु ब्राह्मी, शंखपुष्पी (६) वात नाड़ी संस्थान हेतु शुण्ठी एवं निर्गुंडी (७) रक्त शोधन हेतु नीम एवं सारिवाँ (८) ज्वर आदि प्रकोपों एवं प्रतिसंक्रामक के नाते गिलोय, चिरायता (९) प्रजनन मूत्रवाही संस्थान हेतु अशोक, गोक्षुर एवं (१०) स्वास्थ्य वर्धक रसायन के रूप में शतावरी, अश्वगंधा। इनके अतिरिक्त तुलसी को सभी लोगों के उपचार के रूप में तथा नीम, घृत कुमारी, अपामार्ग, हरिद्रा, लहसुन को स्थानीय उपचार हेतु रखा गया है।

उपरोक्त औषधियों के अतिरिक्त गत दिनों ही दस ऐसी औषधियाँ और इस अमृतोपम वनौषधि समूह में जोड़ी गयी हैं जिनके ऊपर प्रयोग केन्द्र में किये गये व विभिन्न रोग समूहों के लिए प्रयुक्त करने का विधान बनाया गया है। ये हैं-बला, बहेड़ा, ज्योतिष्मती, बाकुची, रास्ना, वरुण, लोध्र, शंकपुरवा, अमलतास, इन्द्रजौ (कुटज)। आगे भी आवश्यकता पड़ने पर औषधियाँ बतायी जाती रहेंगी।

इनके अतिरिक्त और भी अनेकों जड़ी-बूटियाँ हैं जो स्थानीय जलवायु के अनुरूप उगाई जा सकती है। उनका गुण, विवेचन एवं उपयोग किसी आयुर्वेद ज्ञाता से जाना जा सकता है। किसी क्षेत्र में उत्पन्न हुई वनस्पतियाँ वहाँ के निवासियों के लिए अन्न, फल, शाक की तरह ही उपयोगी पड़ती है। एक बार में एक औषधि लेने से वह अपना पूरा प्रभाव दिखाती हैं। एक साथ कइयों का सम्मिश्रण कर देने से उन सभी के स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाते है और उसका प्रतिफल भी विचित्र हो जाता है। इसलिए जड़ी-बूटी उपचार में एक समय एक ही औषधि का प्रयोग प्रचलन उपयुक्त है। चूर्ण बनाना हो तो पत्तियों, टहनियों का उपयोग करना चाहिए। क्वाथ बनाना हो तो जड़, तना, पत्ते, फूल, फल इन सभी का पंचांग प्रयुक्त किया जाना चाहिए। छोटी जड़ी-बूटियों की तरह बड़े औषधि वृक्ष भी होते हैं। हरड़, बहेड़ा, आँवला, अशोक, अमलतास आदि को उगाने लगाने से औषधि वृक्षों के उद्यान भी लग सकते हैं।

औषधि वृक्षों के उद्यान और जड़ी-बूटियों के कृषि फार्म लगाकर स्वास्थ्य रक्षा की महत्त्वपूर्ण सेवा साधना की जा सकती है। पंसारियों के यहाँ वर्षों पुरानी, सड़ी-गली, कुछ के स्थान पर कुछ उपलब्ध होने के कारण आयुर्वेद विज्ञान की दुर्गति हुई है। शाकाहार कम पड़ने से भी स्वास्थ्य गिरे है। इन अभावों की पूर्ति के लिए प्रज्ञा परिजनों को कुछ कहने लायक प्रयास में जुटना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

122. बोलती दीवारें-आदर्श वाक्य लेखन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्वाध्याय का सर्वविदित उपाय सत्साहित्य का अध्ययन है। पर उसका एक और भी प्रेरणाप्रद स्वरूप है, वह है पोस्टर प्रचलन। दुकानों, दफ्तरों पर साइन बोर्ड इसी निमित्त लगे होते हैं कि वहाँ क्या सुविधा उपलब्ध है, इसे जानने पर जिन्हें आवश्यकता है वे सम्पर्क साधें। सिनेमा और औषध क्षेत्र के व्यवसायी अपने ग्राहक तलाश करने के लिए भारी खर्च उठाकर दीवार लिखते या कागज के पोस्टर चिपकाते हैं। प्रयोजन यह है कि इस प्रकार की आकाँक्षा एवं अभिरुचि को उत्तेजना, आकर्षण मिले और वे उत्पादकों, व्यवस्थापकों के साथ सम्पर्क साधें। इस आधार पर उनका प्रचार भी होता है और बिक्री भी बढ़ती है। ऐसा न होता तो हानिकारक धन्धे में कोई क्यों हाथ डालता।

अधिक लोगों की आँखों में अपने व्यवसाय की जानकारी देना एक बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास है। जिसमें ख्याति और आजीविका का साथ-साथ उपार्जन बनता है। यह पोस्टर प्रचार किस प्रकार कहाँ किया जाय वह अपनी सूझबूझ की बात है। अखबारों में विज्ञापन छपते हैं। दफ्तरों और मेजों पर रहने वाले कैलेण्डर बड़े व्यवसायी अपने सम्पर्क क्षेत्र में मुफ्त पहुँचाते हैं। इसका उद्देश्य प्रस्तोताओं का नाम और काम स्मृति पटल पर सजीव बनाये रहना है।

प्रयास में कोई भी अग्रणी क्यों न हो, तथ्य को समझा जाना चाहिए। और उसका उपयोग उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी किया जाना चाहिए। सरकार एवं लोकसेवी संस्थानों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर स्वास्थ्य रक्षा, नीति मर्यादा आदि से सम्बन्धित पोस्टर उपयुक्त स्थानों पर लगाये जाते हैं ताकि जन साधारण को उस स्तर की प्रेरणा मिले और सार्वजनिक हित साधन का सुयोग बने। उत्सव समारोहों की जानकारी प्रायः इसी तरह फैलती है।

चुनाव के अवसरों में तो इस प्रयास में एक प्रकार से प्रतिस्पर्धा ही बन जाती है। जिसके पोस्टर बड़े और अधिक होते हैं, उसका पक्ष प्रबल होने तक की बात लोग सोचने लगते हैं। इस प्रक्रिया को कौन किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार प्रयुक्त करता है, यह दूसरी बात है पर इतना असंदिग्ध है कि जन मानस को खींचने, मोड़ने की दृष्टि से इस प्रयास की उपयोगिता एवं क्षमता असाधारण है।

नवनिर्माण भी अपने ढंग का एक व्यवसाय है। उसमें जन मानस में घुसी हुई अनेकानेक अवांछनीयताओं को उखाड़ने, उजाड़ने की योजना है। साथ ही बहुत कुछ उगाने और भड़काने का उद्देश्य है। विचारक्रान्ति आन्दोलन एवं प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत दृष्टिकोण और प्रचलन के वर्तमान प्रवाह को दिशा देने का असाधारण नियोजन है। इसे मरुस्थलों को उद्यान में परिवर्तित करने और बाढ़ वाली उफनती नदियों पर बाँध रोककर खेत को सींचने वाली नहर निकालने के समतुल्य कहा जा सकता है।

यह युग निर्माण योजना खाई पाटने, सड़क बनाने जैसी है, इसके लिए लोक मानस में अनुकूलता उत्पन्न करने तथा जन समर्थन, जन सहयोग अर्जित करने की इन्हीं दिनों अत्यधिक आवश्यकता है। यह सब कार्य किसी दफ्तर में बैठे-बैठे सोचने या टाइप करते रहने भर से नहीं हो सकता। उपाय एक ही है जन सम्पर्क। इसके लिए जहाँ-तहाँ मिलने-जुलने, कहने-सुनने की आवश्यकता है वहाँ तद्विषयक साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का भी अपना महत्त्व है। इस शृंखला में एक और महत्त्वपूर्ण कड़ी जुड़ती है, जिसे पोस्टर आन्दोलन या आदर्श वाक्य लेखन कहा जा सकता है। इस आधार पर कोटि-कोटि लोगों को स्वल्प काल में ही अभीष्ट प्रयोजन से अवगत कराया जा सकता है। जहाँ प्रचारक या अख़बार नहीं पहुँचते, वहाँ भी इस आधार पर उधर से गुजरने वाले राहगीरों को भी यह बताया जा सकता है कि इस समय क्या हो रहा है, क्या होने जा रहा है और क्या होना चाहिए।

प्रज्ञा अभियान के प्रथम चरण में सृजन शिल्पियों के सम्मुख कार्यान्वित करने के लिए पंचसूत्री योजना प्रस्तुत की गई है। उसे स्वाध्याय, सत्संग प्रधान कहना चाहिए। जन जागरण के यही दो प्रमुख उपाय, उपचार हैं। इन पाँच कार्यक्रमों में एक है दीवारों को बोलती पुस्तकें बनाना। रास्ते के किनारों में चित्र कैलेण्डर स्तर के आदर्श वाक्यों का टाँगना, यह दोनों ही उपचार एक-दूसरे के पूरक समझे जा सकते है।

हर वर्ष बीस आदर्श वाक्य प्रचारार्थ प्रसारित करते रहने का निश्चय किया गया है। गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक प्रभावी माना गया है। तुक रहने के कारण वह स्मृति पटल पर भी अपना ध्यान जल्दी बना लेता है और बहुत समय तक स्मरण भी बना रहता है। इसलिए दो-दो कड़ी के पद्यों के रूप में ही इन्हें रखने का निश्चय किया गया है। इन्हें दीवारों पर लिखा जाना चाहिए। पेंटिंग के निमित्त कच्ची और पक्की स्याहियाँ बाजार में बिकती हैं। ब्रुश के सहारे उन्हें पेन्टरों की तरह सुन्दर अक्षरों में लिखा जा सके, तो बहुत समय तक टिकाऊ रहती है। गेरू या कागज में थोड़ा पानी और सरेस या गोंद मिलाकर भी ब्रुश से लिखा जा सकता है। इस हेतु उपयुक्त नीला रंग भी मिलता है।

टीन या प्लास्टिक के स्टेन्सिल काटकर उस पर स्याही या ब्रुश पोता जाय और जहाँ अक्षरों के ज्वाइन्ट हैं वहाँ उन्हें पतले ब्रुश से भर दिया जाय तो अक्षर भी सुन्दर होते हैं और जल्दी भी लिखे जा सकते है। इस आधार पर जिनकी लिखावट अच्छी नहीं है वे भी सुन्दर अक्षरों में आदर्श वाक्यों से विनिर्मित बोलती दीवारें प्रस्तुत करते रह सकते हैं। हजारी किसान ने हजार आम्र उद्यान लगाकर संकल्प को पूरा किया था। हमें पुण्य परमार्थ के लिए अथवा किसी पाप का परिशोधन, परिमार्जन करने के लिए आदर्श वाक्य लेखन नियत संख्या में करने का निर्धारण करके जन जागृति का वातावरण बनाने के लिए अपने क्षेत्र में दूर-दूर तक परिभ्रमण का निश्चय करना चाहिए। यह तीर्थ यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण प्रचार उपक्रम है।

जहाँ स्याही, ब्रुश की व्यवस्था न हो सके वहाँ गेरू या मुल्तानी मिट्टी या खड़िया से मोमबत्ती जैसी पेन्सिलें बनाकर उनसे ही दीवार लेखन का कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। इन पेन्सिलों में गोंद या सरेस मिला देने से वे मजबूत हो जाती हैं और टूटती नहीं। अक्षर उतने आकर्षक एवं टिकाऊ तो नहीं होते तो भी इस आधार पर जल्दी बहुत होती है। एक व्यक्ति एक ही दिन में सौ से अधिक वाक्य आसानी से लिख सकता है। वर्षा में अक्षर घुल जाते हैं जब उन्हें नये सिरे से लिखना पड़ता है। यह कठिनाई होते हुए भी रंग का डिब्बा और ब्रुश साथ लेकर चलने की कठिनाई से बचा जा सकता है और जेब से पेन्सिल निकालकर कहीं भी उस कार्य को आरम्भ किया जा सकता है।

इस प्रयोजन के लिए छोटी-छोटी रबड़ की मोहरें भी बनाई गई हैं। इन्हें अपने पत्र व्यवहार में काम लाया जा सकता है। बिल, पर्चों, रसीदों में, निमन्त्रण पत्रों पर लगाया जा सकता है। विद्यार्थी अपनी पुस्तकों, कापियों पर लगाकर उस प्रेरणा को साथियों की और अध्यापकों की दृष्टि के सामने से बार-बार गुजार सकते हैं। इन वाक्यों को मोटे कार्ड बोर्ड के टुकड़ों पर लगवा कर किसी हर्ष विनोद के, पर्व त्यौहार, बारात, जन्मदिन आदि के अवसर पर मित्रों में वितरित किया जा सकता है। यह जिनकी आँखों के सामने से गुजरेंगे उनमें नयी दिशा देने और नया उत्साह भरने की भूमिका सम्पन्न करेंगे।

युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि मथुरा में पिछले दिनों अत्यन्त प्रेरणाप्रद आदर्श वाक्य छपे हैं। साइज भी बड़ा है। मूल्य लागत जितना सस्ता। उन्हें चित्रों और कलेण्डरों की तरह दुकानों में लगाया जा सकता है। निरर्थक और बेतुके चित्रों की अपेक्षा इन उद्देश्य युक्त वाक्य चित्रों को सामने लगाने का प्रभाव यह होता है कि घर में जो भी आता है वह युग चेतना से अवगत अनुप्राणित तो होता ही है, साथ ही मन में यह मान्यता भी बनाता है कि जिस घर में इन्हें टाँगा गया है उसका वातावरण तो ऐसा होगा ही। इस घर के निवासियों में इन आदर्शों के प्रति आस्था होगी, वे अपेक्षाकृत अधिक उदार आदर्शवादी होंगे।

कहना न होगा कि ऐसी मान्यता जिनके सम्बन्ध में बनेगी, उन्हें अधिक सज्जन और प्रामाणिक माना जायेगा। उन पर अधिक विश्वास किया जा सकेगा। फलतः अधिक सहयोग के, आदान-प्रदान का द्वार खुलेगा। इस प्रकार घर में इन वाक्यों का टाँगना न केवल कमरों की शोभा सज्जा का उद्देश्य पूरा करता है, वरन् शालीनता की दृष्टि से भी उसमें रहने वालों का स्तर ऊँचा उठता है। इन लाभों को देखते हुए इस सज्जा के निमित्त मुट्ठी भर पैसे खर्च कर दिये जाते हैं, तो उन्हें अन्ततः सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला बीजारोपण ही कहा जा सकता है।

रास्ता चलते स्थानीय अथवा बाहरी व्यक्ति जब उधर से गुजरते हैं तो अनायास दृष्टि पड़ने पर न केवल उपयोगी जानकारी मिलती है, वरन् अचेतन मन पर अच्छी छाप पड़ती है। चिन्तन और रुझान तदनुरूप ढलता है। प्रतीत होता है कि जिस क्षेत्र में यह वाक्य लिखे है वहाँ का वातावरण भी वैसा ही होगा। अनेक स्थानों पर अनेक गाँवों में यह आदर्श वाक्य लिखे या टंगे मिलें तो प्रतीत होता है कि इस समूचे क्षेत्र पर यह विचारधारा हावी है। लोग बहुसंख्यकों के पीछे दौड़ते हैं। जब प्रतीत होता है कि कोई प्रवाह व्यापक रूप से बहा है, तब अनुकरण प्रिय अचेतन मन इसी नतीजे पर पहुँचता है कि हमें भी बहुसंख्यकों के साथ चलना चाहिए। जन आन्दोलन इसी तरह पनपते और प्रखर होते हैं। इस तरह यह पोस्टर अभियान सविनय अवज्ञा आन्दोलन से कहीं अधिक सशक्त भूमिका निभा सकता है।

किवाड़ों, अलमारियों, गाड़ियों, हैण्ड बैगों, अटैचियों पर चिपकाए जा सकने वाले स्टीकर भी गायत्री तपोभूमि से नगण्य से मूल्य पर मिलते हैं। उन्हें न केवल अपनी वस्तुओं पर चिपकाना चाहिए, वरन् दूसरों को भी वैसा ही करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। आदर्श वाक्यों के प्रसार विस्तार में संलग्न होकर प्रेरणाप्रद वातावरण बनाने का उद्देश्य पूर्ण होता है और इस आधार पर सत्प्रवृत्ति संवर्धन का एक नया मार्ग बनता है। दीवार लेखन आदर्श वाक्यों के कैलेण्डर, स्टीकर्स प्रकारान्तर से स्वाध्याय की पूर्ति ही करते है। मात्र पुस्तक पढ़ना ही स्वाध्याय नहीं। आज कामुकता का वातावरण फैलाने में जितनी बड़ी भूमिका इस प्रयोजन से दीवालों पर लिखे गए, चिपकाए गए पोस्टरों ने निभाई है, उसे नकारा नहीं जा सकता। वातावरण की इस विषाक्तता से भी निपटना ही होगा। संव्याप्त निषेधात्मक स्थिति का उन्मूलन तभी संभव है, जब बदले में विधेयात्मक वातावरण बनाया जाय। सत्साहित्य के प्रति, आदर्शवादिता के प्रति अभिरुचि जगाने हेतु प्रचार का यही स्वरूप जन-जन तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त हो सकता है।

प्रजातन्त्र प्रधान हमारे राष्ट्र की कुछ परिस्थितियाँ भी ऐसी हैं कि इस प्रक्रिया के क्रियान्वयन में बाधक नहीं बन सकती। किसी को भी ऐसे आदर्श, श्रेष्ठता को व्यवहार में उतारने वाले निम्नलिखित चुने हुए वाक्य अपने यहाँ लगाने दीवार पर लिखवाने में किसी प्रकार का संकोच होगा भी नहीं। वोट से लेकर दवाओं के विज्ञापनों की जब दीवालों पर भाँति-भाँति की चित्रकारी कर दी जाती हैं, तो ऐसी प्रवृत्ति की ओर मोड़े गये प्रयासों को किये जाने पर सफलता अवश्य मिलेगी।

इस वर्ष के बीस आदर्श वाक्य

इस वर्ष के लिए २० वाक्यों का चयन किया गया है। प्रतिवर्ष ये बदले जाते रहेंगे। ये वाक्य दीवाल लेखन के हैं। पोस्टर्स, सद्वाक्य तथा चिपकाने वाले स्टीकर्स इनके अतिरिक्त हैं। वे तपोभूमि मथुरा से मँगाये जा सकते हैं। लिखे जाने वाले वाक्य-

(१) हम बदलेंगे-युग बदलेगा। हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा।

(२) सतयुग फिर आयेगा कब? जन-जन जब चाहेगा तब।।

(३) देव संस्कृति के निर्माता। यज्ञ पिता गायत्री माता।।

(४) सादा जीवन-उच्च विचार। संयम बरतें-रहें उदार।।

(५) सज्जन व्यक्ति-सभ्य परिवार। न्याय विवेक-समाज सुधार।।

(६) नया संसार बनायेंगे। एकता, समता लायेंगे।।

(७) प्रचलन नहीं विवेक प्रधान। तर्क, तथ्य को दे सम्मान।।

(८) नर और नारी एक समान। जाति वंश सब एक समान।।

(९) अनाचार बढ़ता है तब सदाचार चुप रहता जब।।

(१०) जिनने बेच दिया ईमान। करें नहीं उनके गुणगान।।

(११) जैसी करनी वैसा फल। आज नहीं तो निश्चय कल।।

(१२) विग्रह छोड़े-स्नेह बढ़ायें। अपना सोया भाग्य जगायें।।

(१३) अपनी गलती आप सुधारें। अपनी प्रतिभा आप निखारें।।

(१४) रोटी, कपड़ा और मकान। साथ-साथ नैतिक उत्थान।।

(१५) अधिक कमायें, अधिक उगायें। लेकिन बाँट-बाँटकर खायें।।

(१६) अगर रोकनी है बर्बादी। बन्द करो खर्चीली शादी।।

(१७) अपनी गुत्थी खुद सुलझायें। आश्रय तकें न दीन कहायें।।

(१८) हाथ चलायें पैर बढ़ायें। श्रमरत रहें-समृद्ध कहायें।।

(१९) प्रजनन रोकें-वृक्ष उगायें। शुभ शिक्षा सहकार बढ़ायें।

(२०) हँसना सीखें-सृजन विचारें। आशा रखें-भविष्य सुधारें।।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

123. सम्भाषण एवं संगीत जन जागरण के प्रमुख माध्यम
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रज्ञा परिजनों को अपनी वाणी मुखर करनी होगी। विचार क्रान्ति की पृष्ठभूमि विचार विनिमय के बिना बनती ही नहीं। प्रज्ञा साहित्य का स्वाध्याय करने के लिए भी लोगों को सर्वप्रथम उसका महत्त्व और महात्म्य समझना पड़ता है। अन्यथा इस अश्रद्धा और कुरुचि के माहौल में गंदे उपन्यास पढ़ने के अतिरिक्त कोई कुछ पढ़ता ही नहीं, पढ़ना भी नहीं चाहता। सत्साहित्य में अभिरुचि उत्पन्न करना प्रथम चरण है। इसमें भी प्रभावी वार्ता के बिना गुजारा नहीं। इसके बाद तो नव सृजन की समस्त विधि व्यवस्था सत्संग परक हो जाती है। और उसमें अपनों से, परायों से निरन्तर वार्तालाप ही करना होता है। भले ही वह परामर्श संभाषण के रूप में अथवा कथा प्रवचन, आयोजन, भाषणों के रूप में अधिक जन-समुदाय के सम्मुख प्रस्तुत करना पड़े।

मन की बात प्रकट कर देने से जी की घुटन दूर होती है। अभ्यास से विचारों का प्रवाह, तारतम्य सुव्यवस्थित होता है, आत्म विश्वास बढ़ता है। तथा लोगों की दृष्टि में अपना सम्मान महत्त्व बढ़ता है। दूसरों को प्रभावित आकर्षित करने में, मैत्री के संवर्धन में इस कला का बड़ा उपयोग है। जन नेतृत्व के लिए उसकी महती आवश्यकता है। युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए तो उसकी आवश्यकता पग-पग पर पड़ेगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वाणी को मुखर करने का अभ्यास हममें से प्रत्येक को करना चाहिए।

अनभ्यस्तों के लिए हर नया काम कठिन होता है, पर अभ्यास करने पर तो मनुष्य सरकस के अवाक् कर देने जैसे कार्य करने लगता है। समस्त कलायें अभ्यास से आती है, उन्हें साथ लेकर कोई नहीं जन्मता। कठिनाई केवल अपने डर की है। झिझक, संकोच, आत्म विश्वास का अभाव ही किसी को वक्तृत्व कला में प्रवीणता प्राप्त करने से रोकते हैं। यदि इन्हें रास्ते से हटा दिया जाय और क्रमबद्ध बोलने का अभ्यास जारी रखा जाय, तो समझना चाहिए कि इस क्षमता को विकसित करने की आधी मंजिल पार हो गई।

जिन्हें अभ्यास करना हो उन्हें इसके लिए सर्वप्रथम एकान्त से शुभारम्भ करना चाहिए। बन्द कमरे में या अन्यत्र खेत, मैदान, सुनसान में जाकर वहाँ बिखरे हुए सामान पर नजर डालनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि जड़ पदार्थ एक विशेष प्रकार के मनुष्य ही विराजमान है। इनके सामने विचार व्यक्त करने में वैसी कठिनाई नहीं होनी चाहिए जैसी कि भीड़ को सामने देखकर घबराहट होती है और भयभीत मनःस्थिति में वाणी के प्रवाह और विचार क्रम में अकारण ही गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। यह कठिनाई एकान्त में बिखरे हुए सामान को जन समुदाय मान लेने भर से सहज ही हल हो जाती है।

होता यह है कि जब सामने बड़ा जन समुदाय बैठा दीखता है तो लगता है कि इनमें जो समझदार होंगे वे वक्तृता को घटिया समझेंगे, उपहास करेंगे, नासमझ लोग कथन को समझेंगे नहीं और उठकर चलने लगेंगे। योग्यता की, अभ्यास की कमी से भी परेशानी उत्पन्न होती है। अनेक लोगों की दृष्टि एक ही चेहरे पर जमे तो भी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होती है। इन सबसे बचने के लिए आरम्भिक अभ्यास के लिए पौधों, बर्तनों, पुस्तकों, पत्थरों को ही मनुष्य मानकर उस संकोच से छुटकारा पा लिया जाय, जो उपस्थित समुदाय को देखकर घबराहट के रूप में उत्पन्न होता है। भय, संकोच, असमंजस हटे तो समझना चाहिए कि काम बन गया, प्रगति की राह खुल गई।

दूसरी कठिनाई भाषण में यह होती है कि क्या कहना है, किस क्रम से कहना है इसकी रूपरेखा पहले से न बनने पर प्रवाह क्रम टूटता जाता है। अप्रासंगिक बातें मुँह से निकलती है और जो कहना चाहिए था वह विदित होने पर भी विस्मरण हो जाता हैं, इसलिए बिना तैयारी के मंच पर बैठने और कुछ भी अंट-शंट कहने की भूल नहीं करनी चाहिए, जो कहना है उसे क्रमबद्ध करके कागज पर नोट कर लिया जाय, निर्धारण विस्मृत न होने लगे इसके लिए अच्छा तरीका यह है कि एक बड़े कागज पर मोटे अक्षरों में प्वाइन्टों को संकेत रूप में नोट कर लिया जाय। बोलते समय कागज सामने रखा जाय। कितने समय में कितना प्रसंग बोलना है उसके समय सूचक संकेत भी उसी कागज पर अंकित कर लेने चाहिए।

कालेजों के प्रोफेसर यही करते हैं, वे अगले दिन का लेक्चर रात में तैयार करते हैं। उसे डायस पर रख लेते हैं, खड़े होकर बोलते हैं और कागज पर नजर डालकर शिक्षण का तारतम्य ठीक से बनाये रखते हैं और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर जो महत्त्वपूर्ण भाषण होते हैं, उनमें भी यही किया जाता है। ऐसे भाषण आमतौर से छाप लिए जाते हैं और पढ़कर सुनाने के उपरान्त लोगों को बाँट दिये जाते हैं।

छापना-बाँटना तो कठिन हैं, पर प्वाइन्टों के संकेत नोट करने और अवधि विभाजन के समय सूचक चिन्ह लगाने की तैयारी तो करनी ही चाहिए। घड़ी सामने रहनी भी आवश्यक है जो कहना हैं, उसे मात्र क्रमबद्ध करके नोट ही नहीं कर लेना चाहिए वरन् इसका कई-कई बार अभ्यास भी करना चाहिए। कहते हैं चलती का नाम गाड़ी है, बहुत दिन खड़ी रहने पर अथवा नई-नई गाड़ी चलाने पर गाड़ी भी अड़चन उत्पन्न करती है, उसे गतिशील रखना पड़ता है, गायक, वादक, नट, नर्तक, अभिनेता अपनी पार्टी का पूर्ण रिहर्सल करते रहते हैं। रियाज के बिना हाथ रुकता है। मिलिटरी के सैनिकों को रोज कवायद करनी पड़ती है, ताकि अभ्यास में कमी न आने लगे। परीक्षा में जाने से पूर्व विद्यार्थी एक बार फिर से उस दिन के विषय पर सरसरी नजर डाल लेते हैं।

भाषण की पूर्व तैयारी में भी वही करना पड़ता है। अन्यथा विद्वान भी सही एवं सर्वांगपूर्ण वक्तृता दे नहीं सकेगा। कुछ जोड़ेगा कुछ बहकेगा। विस्मृतजन्य कठिनाई में बगलें झाँकने और हिचकी जम्हाई लेने लगेगा। आरम्भ में दो तीन भाषण ही अभ्यास में चुनने चाहिए। उनमें तर्क तथ्य प्रमाण उदाहरण समुचित मात्रा में भरने चाहिए ताकि सुनने वालों के गले आसानी से उतर सकें। मात्र सैद्धान्तिक विवेचन सर्व साधारण के लिए भारी पड़ता है, इसलिए कथन को सरस और सुबोध बनाने के लिए उसमें घटनाक्रमों को समावेश करना चाहिए और तथ्यों को उदाहरणों के साथ जोड़ना चाहिए।

एकान्त अभ्यास के उपरान्त छोटे एवं परिचित के सम्मुख भाषण का अगला कदम उठाना चाहिए। इस दृष्टि से बच्चों में कहानियाँ कहना सबसे सरल पड़ता है। मित्र मंडली एक जगह बैठ कर परस्पर भाषण देने सुनने का अभ्यास चला सकती है। स्कूलों में बच्चों की भाषण प्रतियोगिताएँ इसी दृष्टि से होती हैं कि वक्तृत्व कला का अभ्यास कर सकें। प्रयत्न करने पर यह व्यवस्था भी बन सकती है। स्लाइड प्रोजेक्टर के चित्रों का परिचय प्रायः डेढ़ दो मिनट के भीतर ही पूरा करना पड़ता है, इसके लिए व्याख्या पुस्तिकाएँ भी छपी हैं, उस आधार पर डेढ़-डेढ़, दो-दो मिनट के व्याख्यानों का अभ्यास भी बड़े भाषण दे सकने की योग्यता निखारने में बहुत सहायक सिद्ध होता है।

प्रज्ञा पुराण के कथा प्रवचन इस प्रयोजन के लिए स्वतन्त्र भाषणों के ढलाव में कही अधिक सरल पड़ते हैं। उनमें घटना प्रसंग भरे पड़े हैं। पन्ने उलटते हुए उन्हें धारा प्रवाह रूप से कहते रहा जा सकता है। यह अभ्यास अपने घर परिवार में प्रारम्भ करना चाहिए और जब गाड़ी चल पड़े, तो फिर बड़े समुदायों के सम्मुख उसे प्रस्तुत करने के लिए बेधड़क निकल पड़ना चाहिए। हर हालत में अपना आत्म विश्वास तो बनाए ही रहना चाहिए। भय, संकोच, झिझक को आड़े नहीं आने देना चाहिए।

प्रज्ञा मंचों से प्रस्तुत किए जाने वाले विषय ऐसे हैं, जिनके सम्बन्ध में जन साधारण को अपरिचित न सही अनभ्यस्त तो कहा ही जायेगा। ऐसी दशा में यदि शिक्षक और शिक्षार्थी जैसी मान्यता अभ्यास काल में कुछ देर के लिए बना ली जाय तो उसे न तो अत्युक्ति समझना चाहिए और न अहंकारिता। यह कल्पना, वास्तविकता से बहुत दूर भी नहीं है। फिर आरम्भिक क्षणों के उपरान्त उसे हटा कर स्वाभाविक निरहंकारिता भी तो अपना ली जानी है। ऐसी दशा में अभिनय सज्जा की तरह अपनाया गया यह मान्यता प्रयोग अनुपयुक्त भी नहीं रह पाता।

वक्तृता में विचारों से वक्ता स्वयं कितना प्रभावित हो रहा है, इसका परिचय पाकर सुनने वालों की भावना उमंगती है। जो स्वयं प्रभावित नहीं हैं, वह दूसरों को भी नहीं कर सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वक्ता को अपने कथन प्रतिपादन से स्वयं प्रभावित होना चाहिए, और वैसा ही परिचय अंग संचालन से देना चाहिए। थिरकन इसी को कहते हैं। नृत्य अभिनय में यह अंग संचालन ही दर्शकों को भाव विभोर करता है वक्ता की अपनी सीमा, मर्यादा एवं स्थिति है तो भी उसे पाषाण प्रतिमा की तरह जड़ बनकर नहीं बैठना चाहिए। हाथ, उँगलियाँ, कंधे, गरदन, होठ, आँख, आदि के सहारे यह परिचय देना चाहिए कि जो कहा जा रहा है उससे वक्ता स्वयं भी कम प्रभावित नहीं है।

इसके लिए अभ्यास काल में दर्पण सामने रखकर अपनी आकृति देखते चलने से भी यह पता चलता है कि अपनी आकृति उपयुक्त स्तर की बन रही है या नहीं। वेश-भूषा प्रभावोत्पादक है या नहीं। स्मरण रहे प्रज्ञा मंच ऋषि परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उस स्थान पर बैठने वालों को अपने अनुरूप ही आच्छादन धारण करने चाहिए।

वार्तालाप संभाषण के सम्बन्ध में सबसे ध्यान रखने योग्य बात यह है कि मिलन भेंट के लिए निर्धारित शिष्टाचारों का पूरी तरह पालन करना चाहिए। जिस समय दूसरे को कुछ सुनने की सुविधा नहीं है, उस समय उसके ऊपर लदना नहीं चाहिए। किस समय, कितनी देर, किससे किस स्तर की बात की जाय, इसका ध्यान रखने पर ही किसी का परामर्श उपदेश सुना जा सकता है। हर व्यक्ति अपनी सुविधा को प्रमुखता देता है। इसलिए किसी को यह अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि अवांछनीय अतिथि की तरह बेवक्त पहुँचा जाय और उसके अन्य कार्य के लिए निर्धारित समय का व्यतिरेक किया जाय। अच्छा हो समय सम्बन्धी निर्धारण पहले ही कर लिया जाय अथवा अनायास पहुँचने पर उनसे सुविधा के समय वाली बात अब या फिर कभी के लिए कर ली जाय। दूसरे का सम्मान अपनी विनय इन दोनों का समुचित समन्वय वार्तालाप में रखने की आवश्यकता है। हर कोई अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है। अच्छा हो जिसमें जो अच्छाइयाँ दृष्टिगोचर हो उनका जिक्र करते हुए, प्रसन्नता, अनुकूलता का वातावरण बना लिया जाय। मतभेद के प्रसंगों पर कटु विवाद न करके उस दिशा में उँगली पकड़ने के बाद कलाई पकड़ने की नीति अपनानी चाहिए विवादास्पद विषयों को ही प्रारम्भ में ले लिया गया तो समझना चाहिए कि बात बीच में ही भंग कर देने का पूर्ण निश्चय करके शुरू की गई है।

वार्ता का आरम्भ उस प्रसंग से किया जाय जो सामने वाले को प्रिय रुचिकर एवं अभीष्ट हो। कठिनाइयों में सहानुभूति प्रकट करते हुए उसमें अपने मिशन के या परामर्श के कुछ आधार प्रस्तुत किये जा सकते हैं। मिशन की विचारधारा बहुमुखी है, उसमें हर क्षेत्र में बहुत कुछ कहने करने योग्य है। चर्चा ऐसे तालमेल वाले विषयों से आरम्भ करके क्रमशः वहाँ तक पहुँचाई जा सकती है, जो मिलन का तात्कालिक उद्देश्य है। अपरिचित अरुचिकर विषयों पर अनायास चर्चा चल पड़ने से व्यक्ति ऊबने लगता है, शिष्टाचार का पालन न करने से मनुष्य खीझने लगता है ऊबा और खीझा हुआ व्यक्ति उन प्रसंगों का ही विरोध करने लगता है, जिनके कारण यह मिलन वार्ता आरम्भ हुई। वार्ता में मिठास, स्नेह सौजन्य का जितना पुट रहेगा, उतनी ही वह प्रभावी एवं सफल रहेगी। उत्तेजनापूर्ण कटु कर्कश ढंग से किए गये प्रस्तुतीकरण सही और उपयोगी होते हुए भी मनों में दरार उत्पन्न कर देते हैं और सफलता की सम्भावना भी असफलता में बदल जाती है। ऐसे में कुशल लोगों के सम्पर्क में रहकर जाना सीखा और अपनाया जा सकता है।

भाषण सम्भाषण की तरह ही संगीत का भी महत्त्व है। सैद्धान्तिक प्रतिपादनों को अपने अशिक्षित देहात में बिखरे अधिकाँश जन समुदाय के गले उतारना इस आधार पर जितनी अच्छी तरह संभव हो सकता है उतना अन्य किसी प्रकार नहीं। संगीत नर, नारी, बाल, वृद्ध, शिक्षित, अशिक्षित सभी को प्रिय लगता है। लोक रंजन और लोकमंगल के सम्मिश्रण में संगीत की महती आवश्यकता हो सकती है। सुगम संगीत का अभ्यास आसानी से हो सकता है। ढपली मंजीरा जैसे सरल वाद्ययंत्रों को कहीं भी साथ लेकर जाया जा सकता है। स्ट्रीट सिंगर स्तर का गायन वादन सीखकर युग संगीत के माध्यम से जन जागरण की प्रक्रिया अधिक व्यापक बनाई जा सकती है।

युग संगीत जन साधारण में प्रचलन हेतु प्रज्ञा अभियान की सत्परामर्श परम्परा की भाँति ही सुगम गीतों को एकत्र करके एक से अधिक वाद्ययन्त्रों के माध्यम से दुष्प्रवृत्ति निवारण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की दिशा देने वाले गीतों के कैसेट्स बनाये जा रहे हैं। दिशा विहीन गीत तो बाजार चौपालों पर नित्य बजते रहते हैं। परन्तु जनमानस का परिशोधन परिष्कार का संकल्प लेकर चलने वाले इस मिशन ने सदैव भावनाओं को छू लेने वाले गीतों का सहारा लिया है। केन्द्र में तो यह प्रक्रिया चलती ही थी। अब यहाँ व्यापक प्रशिक्षण की व्यवस्था कर ली गयी है तथा भक्ति संवेदना, प्रखरता, संघर्ष परायणता तथा आस्तिकता, सामाजिकता की दिशा देने वाले नये-नये गीत लिखे व वाद्ययंत्रों पर सेट किये गए हैं। इन्हें थोड़े से अभ्यास से ही सीखा जा सकता व जन-जन में इनका प्रचलन किया जा सकता है। प्रज्ञा परिजनों की वाणी मुखर करने के लिए संभाषण एवं युग संगीत इन दोनों ही कलाओं का अभ्यास करना ही चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

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126. सादगी भरे विवाहों की सत्परम्परा सब ओर चल पड़े
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इन दिनों अपने समाज पर छाई हुई दुष्प्रवृत्तियों में सर्वाधिक भयावह शादियों के नाम पर होने वाली बर्बादी है। अपने समाज में लड़की-लड़के बिकते हैं। वनवासी स्तर के पिछड़े अनगढ़ लोगों में लड़की बिकती है। लड़के वालों को उसके बदले में इतना पैसा देना पड़ता है, जिसका कर्ज चुकाते-चुकाते सारा जीवन ही चला जाय। वे इस पैसे को किसी उपयोगी काम में नहीं लगाते, वरन् पंच बिरादरी इकट्ठी करने, नाच-नशे की धूमधाम मनाते और खा उड़ाकर समाप्त कर देते है। लड़की वाला बदनाम हुआ लड़के वाले के सिर पर कभी न चुक सकने जितना कर्ज लद गया। इसे बेवकूफी कहा जाय या बदमाशी। कुछ कहते नहीं बनता।

दूसरा एक और वर्ग है जो है तो शिक्षितों सम्पन्नों और सभ्य समझे जाने वालों का। किन्तु अदूरदर्शी मूढ़ मान्यता अपनाने की दृष्टि से उसे भी अनगढ़ आदिवासियों की ही पंक्ति में खड़ा किया जा सकता है। प्रचलन उनने भी प्रायः उसी स्तर के अपना रखे हैं। लड़की वालों से अपने लड़के के माँस जितना पैसा दहेज के रूप में माँगते हैं। प्रचलन के दबाव से बेटी वाले को वह पैसा कहीं न कहीं से जुटाना पड़ता है। कहीं न कहीं शब्द से तात्पर्य है-चोरी, बेईमानी, रिश्वत आदि अनुचित अनैतिक उपायों के सहारे। या फिर बर्तन, कपड़े, खेत, खलिहान आदि बेचकर कर्ज या और भी जो कुछ समझ में आये बन पड़े। भले ही उसकी परिणति अन्ततः कितनी ही भयानक क्यों न हो?

सभी जानते हैं कि इन दिनों मँहगाई का समय है। ९९ प्रतिशत लोगों को रोज कुआँ खोदना और रोज पानी-पीना है। शिक्षा चिकित्सा जैसी आवश्यकताएँ जुटाने तक की तंगी पड़ती है। मुश्किल से पेट भरने और तन ढकने का संयोग बन पड़ता है। मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ऐसे है जो कुछ इतना बचा पाते हैं, जिसे शादी की धूल जैसे नितान्त मूर्खतापूर्ण कार्य के लिए बचाकर रखा जा सके।

यह भी सर्वविदित है कि प्रचलन के हिसाब से बारात, दावत, नंग चलन, बाजे-गाजे, आतिशबाजी आदि में कितना पैसा होली की तरह जलता है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि बेटे वाले लड़की वाले से दहेज की मोटी रकम चाहते हैं साथ ही तरह-तरह के साज सज्जा के भेंट उपहारों के आडम्बर भी साथ ले जाना चाहते हैं। इस सरंजाम में भी नकद दहेज के लगभग ही राशि लगती है। इतना धन उस परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने में लगता तो भी बात कुछ समझ में आने लायक थी। डाकू हत्यारे धन लूटकर लाते हैं, कमाई में आग तो नहीं लगाते। कम से कम अपने मित्रों, कुटुम्बियों का तो भला करते हैं। किन्तु दहेज के लुटेरे उस कमाई को हाथों-हाथ स्वाहा करते चलते हैं। वधू को गुड़िया बनाकर सजाने के लिए जेवर और कपड़ों में इतना पैसा काटते हैं, दावत, दिखावे, जश्न और धूमधाम में इतना लुटाते हैं, कि लूट के माल में से उनके पल्ले भी कुछ नहीं पड़ता। सब ऐसे ही फुलझड़ी जलाने में उड़ जाता है। कई बार तो उसमें उलटा घर से भी लगाना पड़ता है। इसे कहते हैं ‘गुनाह वे लज्जत’ बेटी के बाप का घर उजड़ गया। उसका परिवार दीन हीन, जर्जर और दिवालिया हो गया। बदले में लुटेरों का घर भी तो नहीं भरा। आर्थिक दृष्टि से इसे ऐसी विडम्बना कह सकते हैं, जिसमें धूर्तता और मूर्खता के अतिरिक्त समझदारी का कहीं एक कण तक नहीं दीखता।

नैतिक दृष्टि से इस अवांछनीयता को जितना अधिक कोसा जाय उतना ही कम है। जिस परिवार ने अपनी लड़की को सुयोग्य बनाकर आजीवन रोटी के बदले अहर्निश सेवा करने के लिए प्रदान किया, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने, ऋणी रहने की बात सोचने के स्थान पर उसके बच्चों के कपड़े उतरवा लेने जैसी दुरभिसंधि रची जाय, तो इसमें कृतघ्नता, निष्ठुरता और दुष्टता के अतिरिक्त और कहीं कोई भलमनसाहत जैसी बात दीखती तक नहीं। जिसका शोषण हुआ है उसके घाव आजीवन हरे रहेंगे। बाहर से कोई शिष्टाचार वश दाँत भले ही निपोरता रहे, पर भीतर घुसकर देखने पर पता चलेगा कि कितनी घृणा, कितनी पीड़ा, कितनी विवशता भरी आग वहाँ जल रही है। जो लड़के विलायत जाने का खर्चा और मोटर स्कूटर की फरमाइश ससुराल वालों से करते हैं, समझना चाहिए कि इनकी मनुष्यता और लज्जा जड़ धूल से उखड़कर किसी आँधी तूफान में उड़ गई।

अपने समाज के हर गृहस्थ को अपनी आजीविका की प्रायः एक तिहाई राशि विवाह शादियों में खर्च करनी पड़ती है। पेट भरने के बाद जो बचता है उसका अधिकांश भाग इसी खड्ड में गिरकर नष्ट हो जाता है। ऐसी दशा में दरिद्रता से उबरने का कोई रास्ता नहीं। आजीविका बढ़ी तो शादियों का खर्च भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर शेष की ऐसी स्थिति ही नहीं बन पाती कि परिवार में शिक्षा, चिकित्सा आदि का समुचित प्रबन्ध कर सके या आर्थिक उन्नति के लिए कोई पूँजी संग्रह कर सके। निरन्तर आर्थिक समस्या से व्यग्र रहने और उसकी पूर्ति के लिए अनैतिक उपाय सोचते रहने के अतिरिक्त और कोई रास्ता भी तो नहीं मिलता। ऐसी दशा में सामाजिक दृष्टि से अपना समाज दिन-दिन अधिक गई गुजरी स्थिति में गिरता चला जाय तो आश्चर्य ही क्या है?

लड़की वाला अपने समय पर सुधारवादी बनता है और देन दहेज को कोसता है, पर जब अपने लड़के का समय होता है तो वह गाय न रहकर भेड़िये की तरह गुर्राता है, यह दुमुँही दोगली नीति अपनाते हुए देखकर लगता है समाजगत शालीनता एक प्रकार से दिवालिया होती चली जा रही है।

संसार में सहस्रों देश और सैकड़ों धर्म हैं। पर कहीं किसी में भी ऐसा प्रचलन नहीं है कि विवाह में ऐसा लेन-देन और धूम-धमाका चलता हो। पारिवारिक उत्सव की तरह सीधे-सीधे ढंग से प्रचलित चिन्ह पूजा करते हुए लड़की विदा हो जाती है। न अग्निकाण्ड जैसी गुहार चलती है और न डकैती जैसी लूटमार जैसे हाहाकारी दृश्य उपस्थित होते हैं। गरीबों द्वारा अमीरी का स्वांग रचना आमतौर से बड़ा घिनौना और बचकाना माना जाता है, पर अपने समाज में तो इस कुकृत्य को भी नाक की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाता है। अनैतिकता, अनैतिकता है वह एक जगह पनपती है तो अपनी लपेट ही के हर सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित करती है। लड़की-लड़कों का क्रय-विक्रय निश्चित रूप से कसाइयों जैसा व्यवसाय है उसकी हर दृष्टि से भर्त्सना ही की जा सकती है।

कहते-सुनते, लिखते-पढ़ते बहुत दिन हो गये कि इस सत्यानाशी कुप्रथा से अपने समाज को छुटकारा दिलाया जाना चाहिए और देव संस्कृति के मुँह पर पुती इस कालिख को हर कीमत पर छुड़ाया जाना चाहिए। किन्तु कठिनाई यह रही है कि एक ने दूसरे का मुँह तका है। दूसरे ने तीसरे का, आगे बढ़ने की बारी जब भी आई तो बगलें झाँकी गई हैं। दकियानूसी वातावरण में पले लाल बुझक्कड़ों के सामने प्रगतिशीलों ने अपने को हारा-हारा या खोया-खोया सा अनुभव किया है। यदि यही क्रम चलता रहा तो सुधार में हजारों वर्ष लगेंगे। इतनी लम्बी प्रतीक्षा न करनी हो तो उपाय एक ही है कि हम बिना खर्च, बिना दहेज की शादी सादगी और शालीनता से भरे पूरे वातावरण में सम्पन्न करने की बात अपने घर-परिवारों से ही आरम्भ करें। दूसरों में आगे बढ़ने का जब प्रचलन चल पड़े तब उसके अनुकरण की प्रतीक्षा में न बैठे रहकर हमें भी अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए और लंका को अपनी पूँछ से जलाकर अन्यान्य रीछ वानरों की हिम्मत बढ़ानी चाहिए।

प्रज्ञा परिजनों की बिरादरी बीस लाख के लगभग है। शादियाँ हम अपने ही लोगों में पक्की करें। दूसरों से भी सम्पर्क साधें तो, पर मालदार ढूँढ़ने की अपेक्षा प्रगतिशीलता को महत्त्व दें। लड़की-लड़के श्रमपूर्वक गुजर करें, यह उसकी तुलना में कहीं अधिक अच्छा है कि किसी धनी प्रतिगामी के घर लड़की को सड़ने-सुबकने के लिए खदेड़ा जाय और अपना घर खाली किया जाय। उपजातियों की कट्टरता अब समाप्त होनी चाहिए। उसमें कोई दम नहीं। न वह शास्त्रीय है न तथ्यपूर्ण। दायरों में बँधे रहने के कारण भी अच्छे सम्बन्ध मिलने में भारी कठिनाई पड़ी और दहेज की माँग बढ़ी है। हमें यह बन्धन भी शिथिल करने चाहिए।

प्रज्ञा परिजन निश्चय करें कि वे अपने घर के तथा प्रभाव क्षेत्र के लड़की-लड़कों की शादियाँ मिशन की निर्धारित विधि व्यवस्था के अनुरूप ही करेंगे। जिसमें बारात, गाजे-बाजे, दहेज प्रदर्शन, जेवर, सज-धज आदि का निषेध हो। कोई पिता देना चाहे तो लड़की को पाँच साल के फिक्स डिपोजिट में राशि को दूना होने के लिए दे सकता है। दोनों ओर से मात्र वर-वधू के कपड़ों का आदान-प्रदान हो। जेवर के नाम पर अँगूठी बदलने की छूट हो सकती है। सोने की न हो वह चाँदी की हो सकती है। कोई उपहार देने की बात हो तो उसका प्रदर्शन तनिक भी न किया जाय। इस प्रकार सादगी और शालीनता भरे हुए विवाह प्रचलन चलेंगे तो उनका अनुसरण अन्य लोग भी करेंगे।

विवाह योग्य लड़के-लड़की से इस प्रकार की प्रतिज्ञायें कराने का आन्दोलन चलाया जाय। वे सादे कागज पर अपनी प्रतिज्ञा लिखकर स्थानीय प्रज्ञा संस्थान में जमा करें। इसी प्रकार अभिभावक भी वैसी ही प्रतिज्ञा करें और उस घोषणा की जानकारी नोट करायें। इन सबकी एक-एक नकल शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में भी पहुँचती रहे तो लड़की-लड़के तलाश करने, बताने में सुगमता पड़ेगी। यह कार्य ऐसे क्षेत्रीय सम्मेलनों के माध्यम से ही हो सकता है, जिनमें विवाह योग्य लड़की-लड़के अपने अभिभावकों के साथ आयें, बातचीत करके उपयुक्त सम्बन्ध तलाश करने का प्रयत्न करें। इस दृष्टि से प्रगतिशील जातीय सम्मेलनों के आयोजन भी बहुत उपयोगी हो सकते हैं। बन पड़ा तो हर बड़ी बिरादरी के ऐसे सम्मेलन शान्तिकुञ्ज में प्रान्तीय प्रज्ञापीठों से बुलाने की व्यवस्था की जायेगी।

सन् ८३-८४ के दो वर्षों में यह प्रयत्न किया जाय कि प्रज्ञा परिजनों की लड़के-लड़कियों के विवाह शान्तिकुञ्ज में ही सम्पन्न हुआ करें। दोनों पक्ष के दस-दस से अधिक व्यक्ति वहाँ न पहुँचें और इस वातावरण में परिपूर्ण सादगी के साथ विवाह कार्य सम्पन्न करें। दोनों पक्ष मिल-जुलकर एक साथ भोजन बनायें और साथ बैठकर खायें। ठहरने, खाने आदि की सारी व्यवस्था यहाँ है। कर्मकाण्डी पंडितों द्वारा पूर्ण शास्त्रोक्त विधि से विवाह प्रक्रिया यहाँ सम्पन्न कराई जाती है। यहाँ एक बात स्मरण रखने योग्य है कि बाल विवाह या अनमेल विवाह यहाँ नहीं किये जाते। वर-कन्या का सुयोग्य होना तथा दोनों की पसन्दगी होना आवश्यक है।

इस निर्धारण में सबसे बड़ा एक लाभ देखा गया है कि स्थानीय क्षेत्र के प्रतिगामी लोगों के दबाव, उपहास से बच जाने पर दुर्बल मनोबल वाले भी असमंजस से बच सकते हैं। अन्यथा कुटुम्बी सम्बन्धियों में से कितने ऐसे भी होते हैं जिनका रिश्ते या आयु के कारण दबाव मानना पड़ता है और करे-धरे का गुड़ गोबर हो जाता है। इस झिझक असमंजस को खोलने के लिए यह सोचा गया है कि दो वर्ष तक प्रज्ञा परिवारों के लड़की-लड़कों के विवाह शान्तिकुञ्ज हरिद्वार अथवा गायत्री तपोभूमि मथुरा में ही सम्पन्न किये जाय।

स्मरण रहे शुभारम्भ के मुहूर्त में जैसा वातावरण होता है वैसा प्रभाव अन्त तक बना रहता है। विवाह दो आत्माओं का मिलन है। उसे एक प्रकार से नया जन्म कह सकते हैं। उस अवसर पर यदि बुद्धि काम न करे, अहंकारिता छाई रहे और रुदन करके एवं घृणा-विद्वेष का भाव रहे तो समझना चाहिए कि उस दम्पत्ति के जीवन पर वह माहौल प्रेत पिशाच की तरह आजीवन छाया रहेगा। पति-पत्नी में से कोई सुखी न रहेगा। दोनों असन्तोष और विग्रह से आक्रान्त रहेंगे। अच्छा हो इस तथ्य को समझा जाय, विवाहोत्सव को पूर्ण सात्विकता, शालीनता और सद्भावना के वातावरण में सम्पन्न किया जाय। लक्ष्य नष्ट करने वाली विडम्बना का सर्वथा परित्याग ही किया जाय। यह प्रक्रिया शान्तिकुञ्ज के देव वातावरण में विवाहोत्सव कराने पर अधिक अच्छी तरह सम्पन्न हो सकती है। उसमें मितव्ययता भी है और साथ ही उच्चस्तरीय आशीर्वाद की उपलब्धि भी।

यही वह समय है जब प्रज्ञा परिजनों को उत्साह पूर्वक आगे आना चाहिए एवं शुभारम्भ स्वयं से अपने प्रभाव के परिचित जनों से करना चाहिए। मूक दर्शक की तरह बहुओं को जलते देखना, समधी-समधिनों को लोभी लालची वृत्ति के रूपों में छाई अनीति में हस्तक्षेप न करने की अपनी नीति बना लेना भी प्रकारान्तर से उस अनाचार में सहयोग ही देना है। हमें ध्यान रखना है कि कहीं यह लांछन हममें से किसी पर तो नहीं लग रहा है। अपनी लड़कियों की सादगी भरे विवाहों में अत्युत्साह एवं अपने लड़कों की शादी की चर्चा पर मुखौटा बदलने की नीति कहीं परिजन तो नहीं अपना रहे?

समाज की अन्यान्य समस्याएँ अपनी जगह है और विवाह अपव्यय दहेज की एक ओर। बीस लाख प्रज्ञा परिजन एवं उनके परिचय के लगभग एक करोड़ से भी अधिक व्यक्ति इस समस्या से भली-भाँति अवगत हैं। यदि सादगी भरे विवाहों की सत्परम्परा शान्तिकुञ्ज मथुरा गायत्री तपोभूमि से आरम्भ होकर सारे प्रज्ञा संस्थानों में भली भाँति चल जाय तो समझना चाहिए कि समस्या का अत्यधिक समाधान खोज लिया गया। स्थापना में समय लगता है, निर्वाह में नहीं। एक बार सही परिणतियाँ सामने आने पर वैसा वातावरण बनने में तनिक भी देर न लगेगी।

प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह सादगी और शालीनता भरी शादियों के प्रचलन में पूरा-पूरा रस लें, उत्साह प्रदर्शित करे और अपने अपने क्षेत्रों में वैसा वातावरण बनाने में कुछ कमी न रहने दें।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

127. जीवन साधना के त्रिविध पंचशील
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

साधना चाहे घर पर की जाय अथवा एकान्तवास में रहकर, मनःस्थिति का परिष्कार उसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। साधना का अर्थ यह नहीं कि अपने को नितान्त एकाकी अनुभव कर वर्तमान तथा भावी जीवन को नहीं, मुक्ति-मोक्ष को, परलोक को लक्ष्य मानकर चला जाय। साधना विधि में चिन्तन क्या है, आने वाले समय को साधक कैसा बनाने और परिष्कृत करने का संकल्प लेकर जाना चाहता है, इसे प्रमुख माना गया है। व्यक्ति, परिवार और समाज इन तीनों ही क्षेत्रों में बँटे जीवन सोपान को व्यक्ति किस प्रकार परिमार्जित करेंगे, उसकी रूपरेखा क्या होगी, इस निर्धारण में कौन कितना खरा उतरा इसी पर साधना की सफलता निर्भर है।

कल्प साधना में भी इसी तथ्य को प्रधानता दी गयी है। एक प्रकार से यह व्यक्ति का समग्र काया कल्प है, जिसमें उसका वर्तमान वैयक्तिक जीवन, पारिवारिक गठबंधन तथा समाज सम्पर्क तीनों ही प्रभावित होते हैं। कल्प साधकों को यही निर्देश दिया जाता है कि उनके शान्तिकुञ्ज वास की अवधि में उनकी मनःस्थिति एकान्त सेवी, अन्तर्मुखी, वैरागी जैसी होनी चाहिए। त्रिवेणी तट की बालुका में माघ मास की कल्प साधना फूस की झोपड़ी में सम्पन्न करते हैं। घर परिवार से मन हटाकर उस अवधि में मन को भगवद् समर्पण में रखते हैं। श्रद्धा पूर्वक नियमित साधना में संलग्न रहने और दिनचर्या के नियमित अनुशासन पालने के अतिरिक्त एक ही चिन्तन में निरत रहना चाहिये, कि काया कल्प जैसी मनःस्थिति लेकर कषाय-कल्मषों की कीचड़ धोकर वापस लौटना है। इसके लिए भावी जीवन को उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने का ताना-बाना बुनते रहना चाहिये।

व्यक्ति, परिवार और समाज के त्रिविध क्षेत्रों में जीवन बंटा हुआ हैं, इन तीनों को ही अधिकाधिक परिष्कृत करना इन दिनों लक्ष्य रखना चाहिये। इस सन्दर्भ में त्रिविध पंचशीलों के कुछ परामर्श क्रम प्रस्तुत हैं। भगवान बुद्ध ने हर क्षेत्र के लिए पंचशील निर्धारित किये थे। प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार हैं:-

व्यक्तित्व का विकास

(१) प्रातः उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उपार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य कामकाजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।

(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट-बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।

(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूर्ति में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव-बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है-प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा-थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।

(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत्त होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन-मनन में उपयोग। यही है त्रिविध सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त-व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।

(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मनःस्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्न रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।

कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्त्वाकाँक्षाओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटाएँ पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्त्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते-हँसाते रहना और हल्की-फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

परिवार निर्माणः-

(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने का अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान में सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे साँचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढाँचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।

(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की-लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।

(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्पराएँ प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य-प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र-विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।

(४) पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं, जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें।

(५) उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन मे यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण-पोषण, शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ है। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सहायता के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते ही आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बियों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों की छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते।

समाज निर्माणः-

(१) हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गूँथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।

(२) मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्त उसका सतत प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।

(३) किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय-समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से लिंग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।

(४) सहकारिता का प्रचलन हर क्षेत्र में किया जाय। अलग-अलग पड़ने की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों और संस्थानों को महत्त्व दिया जाय। संयुक्त परिवार से लेकर संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त विश्व को लक्ष्य बनाकर चला जाय। विश्व परिवार का आदर्श कार्यान्वित करने का ठीक समय यही है। सभी प्रकार के विलगावों को निरस्त किया जाय। व्यक्ति की सुविधा की तुलना में समाज व्यवस्था को वरिष्ठता मिले। प्रशंसा ऐसे ही प्रयत्नों की हो जिन्हें सर्वोपयोगी कहा जाय। व्यक्तिगत समृद्धि, प्रगति एवं विशिष्टता को श्रेय न मिले। उसे कौतूहल मात्र समझा जाय।

(५) अवांछनीय मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को छूत की बीमारी समझा जाय। वे जिस पर सवार होती है उसे तो मारती ही हैं, अन्यान्य लोगों को भी चपेट में लेती और वातावरण बिगाड़ती हैं। इसलिए उनका असहयोग, विरोध करने की मुद्रा रखी जाय और जहाँ सम्भव हो उनके साथ समर्थ संघर्ष भी किया जाय। समाज के किसी अंग पर हुआ अनीति का हमला समूचे समाज के साथ बरती गई दुष्टता माना जाय और उसे निरस्त करने के लिए जो मीठे-कड़ुवे उपाय हो सकते हों, उन्हें अपनाया जाय। अपने ऊपर बीतेगी तब देखेंगे, इसकी प्रतीक्षा करने की अपेक्षा कहीं भी हुए अनीति के आक्रमण को अपने ऊपर हमला माना जाय और प्रतिकार के लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति अपनायी जाय।

व्यक्तिगत परिवार और समाज क्षेत्र के उपरोक्त पाँच-पाँच सूत्रों को उन-उन क्षेत्रों के पंचशील माना जाय और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जो भी अवसर मिले उन्हें हाथ से जाने न दिया जाय।

आवश्यक नहीं कि इस सभी का तत्काल एक साथ उपयोग करना आरम्भ कर दिया जाय। उनमें से जितने जब जिस प्रकार कार्यान्वित किये जाने सम्भव हों, तब उन्हें काम में लाने का अवसर भी हाथ से न जाने दिया जाय। किन्तु इतना काम तो तत्काल आरम्भ कर दिया जाये कि उन्हें सिद्धान्त रूप से पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाये। आदर्शवादी महानता से गौरवान्वित होने वाले जीवन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर जिये जाते हैं। अनुकरणीय प्रयास करने के लिए जिन्होंने भी श्रेय पाया है, उनने त्रिविधि पंचशीलों में से किन्हीं सूत्रों को अपनाया और अन्यान्यों द्वारा अपनाये जाने का वातावरण बनाया है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

128. नारी का सहज सौम्य स्वरूप पुनः प्रतिष्ठित हो
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

पिछले दिनों अग्नि तत्व को बहुत महत्त्व मिला और सोम एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहा फलतः सृष्टि का, समाज का सारा सन्तुलन गड़बड़ा गया। हवन कुण्ड के चारों ओर पानी की एक नाली भरी रखी जाती है। कर्मकाण्ड के ज्ञाता जानते है कि यज्ञ कुण्ड में अग्नि कितनी ही प्रदीप्ति क्यों न रहे उसके चारों ओर घेरा सोम का, जल का ही रहना चाहिए। अग्नि को उतने समारोह पूर्वक यज्ञ आयोजनों में स्थापित नहीं किया जाता जितनी कि धूमधाम के साथ जल यात्रा की जाती है, और जल देवता को स्थापित किया जाता है। अग्नि का, ग्रीष्म ऋतु का उत्ताप तीव्र होते ही वर्षा ऋतु दौड़ आती है और उस तपन का समाधान प्रस्तुत करती है।

नर को अग्नि, ऊष्मा और नारी को सोम, जल कहा गया है। नर की प्राणशक्ति का, पुरुषार्थ, क्षमता कठोरता का, बौद्धिक प्रखरता का अपना स्थान है और उसका उपयोग किया जाना चाहिए, पर यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया गया, नारी का नियन्त्रण उस पर न हुआ तो सृष्टि में क्रूरता और दुष्टता का उत्ताप ही बढ़ता चला जायेगा। परम्परा यह रही है कि नर के श्रम साहस का उपयोग क्रम चलता रहा है, पर नारी ने अपनी मृदुल भावनाओं से उसे मर्यादाओं में रहने के लिए नियन्त्रित और बाध्य किया है। उसकी मृदुल और स्नेहसिक्त भावनाओं ने क्रूरता को कोमलता में बदलने की अद्भुत सफलता पाई है। यह क्रम ठीक चलता, पुरुष का शौर्य, ओजस् अपनी प्रखरता से सम्पदायें उपार्जित करता और नारी अपनी मृदुलता से उसे सौम्य और सहृदय बनाती रहती तो दोनों ही पहियों की गाड़ी से प्रगति की दिशा में सृष्टि व्यवस्था की यात्रा ठीक प्रकार सम्पन्न होती रहती। चिर काल तक वही क्रम चला। उपार्जन नर ने किया और उसका उपयोग नारी ने। अब वह क्रम नहीं रहा। अब उच्छृंखल नर हर क्षेत्र में सर्व सत्ता सम्पन्न हुआ दैत्य, दानव की तरह निरंकुश सत्ता का उद्धत उपयोग कर रहा है। नारी तो मात्र भोग्या, रमणी, कामिनी बनकर विषय विकारों की तृप्ति के लिए साधन सामग्री मात्र रह गई है। उसके हाथ से सब अधिकार छीन लिए गए जो अनादि काल से उसे सृष्टिकर्ता ने सौंपे थे।

वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में दिशा-निर्धारण के सूत्र नारी के हाथ में रहने चाहिए। तभी उपलब्ध सम्पदाओं का सौम्य सदुपयोग सम्भव हो सकेगा। आज हर क्षेत्र में विकृतियों की विभीषिकाएँ नग्न नृत्य कर रही है। इसके स्थूल कारण कुछ भी हों, सूक्ष्म कारण यह है कि नारी का वर्चस्व नेतृत्व कहीं भी नहीं रहा, सर्वत्र नर की ही मनमानी चल रही है। उसकी प्रकृति में जो कठोरता, भला या बुरा तत्व अधिक है उसी के द्वारा सब कुछ संचालित हो रहा है फलस्वरूप हर क्षेत्र में उद्धतता का बोलबाला दीख पड़ता है। जल के अभाव में अग्नि सर्वनाशी दावानल का विकराल रूप धारण कर लेती है। इन दिनों नारी को उपेक्षित तिरष्कृत करने के उपरान्त जो विद्रूप अपनाया है उसका परिणाम व्यापक हाहाकार के रूप में सामने प्रस्तुत है।

स्थिति को बदलने और सुधारने के लिए भूल को फिर सुधारना होगा और वस्तुस्थिति उपलब्ध करने के लिए पीछे लौटना होगा। नारी का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जाय और उसके हाथ में नेतृत्व सौंपा जाय, यह समय की पुकार, परिस्थितियों की माँग है उसे पूरा करना ही होगा। नवयुग निर्माण के लिए जन-मानस में जिन कोमल भावनाओं का परिष्कार किया जाना है वह नारी सूत्रों से ही उद्भूत होगा। युद्ध, संघर्ष, कठोरता, चातुर्य, बुद्धि कौशल के चमत्कार देख लिए गए। उनने सम्पदायें तो कमाई पर उसकी एकांकी उद्धत प्रकृति उसका सदुपयोग न कर सकी। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव, सफलता की प्रतीक तो नारी है। उसका वर्चस्व मृदुलता का संचार कर सकने में समर्थ है। उसे उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय तो उपार्जन कितना भी किसी देश में क्यों न होता रहे, सदुपयोग के अभाव में वह विश्वासघातक ही सिद्ध होता रहेगा। नारी को पुनः उसके पद पर प्रतिष्ठापित किया जाय। भावनात्मक नव निर्माण का यह अति महत्त्वपूर्ण सूत्र है। नारी का पिछड़ापन दूर किए बिना, उसे आगे लाये बिना कोई गति नहीं इस कदम को उठाये बिना हमारी धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने और मनुष्य में देवत्व का उद्भव करने के हमारे स्वप्न साकार न हो सकेंगे।

प्रतिबन्धित नारी को स्वतन्त्रता के स्वाभाविक वातावरण में साँस ले सकने की स्थिति तक ले चलने में प्रधान बाधा उस रूढ़िवादी मान्यता की है, जिसके अनुसार उसे या तो अछूत, बन्दी, अविश्वस्त घोषित कर दिया गया है, या फिर उसे कामिनी की लाँछना से कलंकित कर दिया है। इन मूढ़ मान्यताओं पर प्रहार किए बिना, उनका उन्मूलन किए बिना यह सम्भव न हो सकेगा कि अन्ध परम्परा के खूनी शिकंजे ढीले किए जा सकें और नारी को कुछ कर सकने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग कर सकना सम्भव हो सके।

सर्व साधारण को यह समझना और समझाया जाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरुष पुरुष मिलकर कुछ काम करे या स्त्रियाँ स्त्रियाँ मिलकर सहयोग सान्निध्य जगावें तो व्यभिचार अनाचार की आशंका नहीं की जा सकती। उसी प्रकार नर और नारी मिल जुलकर रहे तो उसमें प्रकृतितः कोई जोखिम या कुकल्पना की ऐसी आशंका नहीं है, जिसमें भयभीत होकर आधे मनुष्य समाज पर, नारी पर अवांछनीय प्रतिबन्ध आरोपित किए जायें। नर-नारी का प्राकृतिक मिलना कितना उपयोगी आवश्यक एवं उल्लासपूर्ण है, इसका परिचय हम भरे पूरे परिवार में जिसमें सभी वर्ग के नर-नारी अति पवित्रता के साथ रहते हैं, आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। घर परिवार में पति पत्नी के जोड़ों के अतिरिक्त कौन किसे कुदृष्टि से देखता या कुचेष्टा करता है। यह स्थिति विश्व परिवार में भी लाई जा सकती है और सर्वत्र नर-नारी समान रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, स्नेह-सद्भाव का संवर्द्धन करते हुए आत्मिक और भौतिक विकास में परस्पर अति महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। यह स्थिति लाई ही जानी चाहिए, बुलायी ही जानी चाहिए।

अवरोध केवल गर्हित दृष्टिकोण ने प्रस्तुत किया है। इसके लिए अधिक दोषी कलाकार वर्ग है, जिसने समाज के सोचने की दिशा ही अति भ्रमित करके रख दी। नारी को रमणी, कामिनी और वेश्या के रूप में प्रस्तुत करने की कुचेष्टा में जब कला के सारे साधन झोंक दिए गए तो जन मानस विकृत क्यों न होता? चित्रकार जब उसके मर्मस्थलों को निर्लज्ज, निर्वसन बनाने के लिए दुःशासन की तरह अड़े बैठे हैं, कवि जब वासना भड़काने वाले ही छन्द लिखें, गायक जब नख-सिख का उत्तेजक उभार और लम्पटता के हाव-भावों भरे क्रिया कलापों को अलापें, साहित्यकार कुत्सा ही कुत्सा सृजन करते चले जाये और प्रेस तथा फिल्म जैसे वैज्ञानिक माध्यमों से उन दुष्प्रवृत्तियों को उभारने में पूरा-पूरा योगदान मिले तो जन मानस को विकृत और भ्रमित कर देना क्या कुछ कठिन हो सकता हैं? हमें इस विकृति के मूल स्रोत कला के अनाचार को रोकना बदलना होगा। स्नेह और सद्भाव की देवी सरस्वती के साथ किया जाने वाला यह बर्बर व्यवहार यदि उल्टा जा सकता हो, तो लोक मानस में नारी के प्रति स्वाभाविक सौजन्य फिर पुनः जीवित किया जा सकता है।

रूढ़िवादियों से यदि कहा जाय कि वे दिन में आँखें मल कर न बैठे रहें। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। औचित्य की प्रतिष्ठा करने के लिए बुद्धिवाद की प्रखरता प्रातःकालीन ऊषा की तरह उदय होती चली आ रही है। उसे रोका न जा सकेगा। कथा पुराणों की दुहाई देकर प्रथा परम्परा का पल्ला पकड़कर अब देर तक वे प्रतिबन्ध जीवित न रखे जा सकेंगे, जो नारी को व्यभिचारिणी और अविश्वस्त समझकर उसे अगणित बन्धनों में जकड़े हुए हैं। विवेक और न्याय की आत्मा तड़प रही है, वह इस बात के लिए मचल पड़ी है कि नारी के साथ बरती जाने वाली बर्बरता का अन्त किया जाय। सो वह सब होकर रहेगा। उसे कोई भी अवरोध देर तक रोक न सकेगा। अगले दिनों निश्चित रूप से नर और नारी परस्पर सहयोगी बनकर स्नेह सद्भाव के साथ स्वाभाविक जीवन जियेंगे और एक दूसरे को आशंका या यौन आकर्षण की दृष्टि से न देखकर पुण्य के सौजन्य के आधार पर निर्माण और निर्वाह के क्षेत्रों में प्रगतिशील कदम बढ़ाते चलेंगे। रूढ़िवाद के लिए उचित यही है कि समय रहते बदले अन्यथा समय उनकी अवज्ञा ही नहीं दुर्गति भी करेगा। उदीयमान सूर्य रुकेगा नहीं, उल्लू, चमगादड़ और वन बिलाव ही चाहे तो किसी कोने में विश्राम लेने के लिए अवकाश प्राप्त कर सकते हैं।

इसी प्रकार तथाकथित सन्त महात्माओं को कहा जाना चाहिए कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता और कलुषिता से डरे, उसे ही भवबन्धन मानें। नरक की खान वही है। नारी को उस लांछना से लाँछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करे, जिसके पेट से वे स्वयं पैदा हुए हैं और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए हैं। अच्छा हो हमारी जीभ पुत्री को न कोसे, भगिनी को लाँछित न करे, नारी नरक की खान हो सकती है यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धान्त से तालमेल नहीं खाती। यदि बात वैसी ही होती तो अपने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाएँ न रहती। सरस्वती, काली, लक्ष्मी आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता। निरर्थक की डींगें न हाँके तो ही अच्छा है। अन्तरात्मा प्रज्ञा, भक्ति, साधना, मुक्ति, सिद्धि यह सभी स्त्रीलिंग है। यदि नारी नरक की खान है तो इन स्त्रीलिंग शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा है अध्यात्मवाद के नाम पर भोंडा भ्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रमित करने की अपेक्षा उसे समेटकर अजायबघर की कोठरी में बन्द कर दिया जाय।

सर्व साधारण को इस तथ्य से परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी को सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाय तो उससे किसी को कुछ भी हानि नहीं है, वरन सबका सब प्रकार लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाय। उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के अधिकार मिलने ही चाहिए। विश्व में राजनैतिक स्वतन्त्रता की माँग पिछले दिनों बहुत प्रबल होती चली आई है और उसने परम्परागत ताज, तख्तों को जड़ मूल से उखाड़ फेंक दिया। यह प्रवाह परिवर्तन राजनीति तक ही सीमित न रहेगा। मनुष्य के समान स्वाधीनता दिला कर ही वह गति रुकेगी। गुलाम प्रथा का अन्त हो गया। अब दास-दासी खरीदे व बेचे नहीं जाते, वर्ग-भेद और रंगभेद के नाम पर बरती जाने वाली असमानता के विरुद्ध आरम्भ हुआ विद्रोह प्रबल से प्रबलतर हो चला जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जबकि मानवीय सम्मान और अधिकार से वंचित कोई व्यक्ति कहीं न रहेगा। जन्म-जाति, वंश, वर्ण आदि के नाम पर बरती जाने वाली असमानता अब देर तक जिन्दा रहने वाली नहीं है। वह अपनी मौत के दिन गिन रही है। इसी संदर्भ से यह भी गिरह बाँध लेनी चाहिए नर और नारी के बीच बरता जाने वाला भेदभाव भी उसी अन्याय की परिधि में आता है। नारी की पराधीनता मनुष्य के आधे भाग की जनसंख्या की पराधीनता है। यह कैसे सम्भव है वह आगे भी आज की ही तरह बनी रहे। स्वतन्त्रता का प्रवाह नारी को भी इन अनीतिमूलक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर रहेगा।

नर-नारी के सम्मिलन से खतरा केवल एक ही है कि यह वर्तमान विकृत वासना का ताण्डव रोका नहीं गया तो पाश्चात्य देशों की तरह स्वच्छन्दता के वातावरण में बढ़ चला यौन अनाचार बिखर पड़ेगा और वह भी कम विघातक न होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जहाँ नारी स्वातन्त्र्य के लिए हमें प्रयत्न करना ,, वहाँ यह चेष्टा भी करनी है कि कामुकता की ओर बहती हुई मनोवृत्तियों को परिष्कृत करने में कुछ भी उठा न रखा जाय। नारी का सौम्य और स्वाभाविक चित्रण इस सन्दर्भ में अति महान है। कला के विद्रूप को कोसने से काम न चलेगा, उसे गन्दे हाथों से छीन लेना शासन सत्ता के लिए तो सम्भव है, पर हम लोग जन स्तर पर प्रजातन्त्र पद्धति के रहते कुछ बड़ा प्रतिरोध नहीं कर सकते। हम यही कर सकते है कि दूसरा कलामंच खड़ा करें और उसके माध्यम से नारी की पवित्रता प्रतिपादित करते हुए लोक-मानस की यह मान्यता बनाएँ कि नारी वासना के लिए नहीं पवित्रता का पुण्य स्फुरण करने के लिए है। कलामंच यह सब आसानी से कर सकता है। साहित्य का सृजन इसी दिशा में हो, कविताएँ ऐसी ही लिखी जायें, चित्र इसी प्रयोजन के लिए बनें, गायक यही गायें, प्रेस यही छापें, फिल्म यही बनायें तो कोई कारण नहीं कि नारी का स्वाभाविक एवं सरल सौम्य स्वरूप पुनः जन-मानस में प्रतिष्ठापित न किया जा सके। ऐसी दशा में वह जोखिम न रहेगा जिसे पाश्चात्य लोग भुगत रहे हैं। उनने नारी स्वतन्त्रता तो प्रस्तुत की, पर विकारोन्मूलन के लिए कुछ करने के बजाय उल्टे उसे भड़काने में लग गए और दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। हमें यह भूल नहीं करनी चाहिए। हम दृष्टिकोण के परिष्कार के प्रयत्नों को भी नारी स्वातन्त्र्य आन्दोलन के साथ जोड़कर रखें तो निश्चय ही वैसी आशंका न रहेगी जिससे विकृतियों के भड़क पड़ने का विद्रूप उठकर खड़ा हो जाय।

साथ ही हमें आध्यात्मिक काम विज्ञान के उन तथ्यों को सामने लाना होगा जिनके आधार पर यौन सम्बन्ध की, काम क्रीड़ा की उपयोगिता और विभीषिका को समझा जा सके और उसके दुरुपयोग के खतरे से बचने एवं सदुपयोग से लाभान्वित होने के बारे में समुचित ज्ञान सर्व साधारण को मिल सके।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

129. नारी सम्बन्धी अतिवाद को अब तो विराम दें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कुछ समय से नर-नारी के सान्निध्य का प्रश्न अतिवाद के दो अन्तिम सिरों के साथ जोड़ दिया गया है। एक ओर तो नारी को इतनी आकर्षक चित्रित किया गया कि उसकी माँसलता को ही सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति सिद्ध कर दिया गया। कला ने नारी के अंग-प्रत्यंग की सुडौलता को इतना सराहा कि सामान्य भावुक व्यक्ति यह सोचने के लिए विवश हो गया कि ऐसी सुन्दरता को काम तृप्ति के लिए प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। गीत, काव्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र, मूर्ति आदि कला के समस्त अंग जब नारी की माँसलता और कामुकता को ही आकाश तक पहुँचाने में जुट जाये, तो बेचारी लोकवृत्ति को उधर मुड़ना ही पड़ेगा। इस कुचेष्टा का घातक दुष्परिणाम सामने आया। यौन प्रवृत्तियाँ भड़की, नर-नारी के बीच का सौजन्य चला गया और एक दूसरे के लिए अहितकर बन गये। यौन रोगों की बाढ़ आई, शरीर और मन जर्जर हो गया, पीढ़ियाँ दुर्बल से दुर्बलतर होती चली गई, मनःस्थिति उस कुचेष्टा के चिन्तन में तल्लीन होने के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण चिन्तन कर सकने में असमर्थ हो गयी। तेज, ओज, व्यक्तित्व, प्रतिभा, मेधा, शौर्य और वर्चस्व जो कुछ महान था, वह सब कुछ इसी कुचेष्टा की वेदी पर बलि हो गया। दुर्बल काया और मनःस्थिति को लेकर दीन-हीन और पतित-पापी ही बन सकता था, सो बनता चला गया। नारी को रमणी सिद्ध करके तुच्छ सा मनोरंजन भले पाया हो, पर उससे जो हानि हुई उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। जिनने भी मानवीय प्रवृत्तियों को इस पतनोन्मुख दिशा में मोड़ने के लिये प्रयत्न किया है वस्तुतः एक दिन वे मानवीय विवेक और ईश्वरीय न्याय की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किये जायेंगे।

अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वैश्या आदि बना कर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा है कि उसे पर्दे, घूँघट की कठोर जंजीरों में जकड़ कर अपंग सदृश्य बना दिया गया, उस पर इतने प्रतिबन्ध लगाये गये जितने बन्दी और पशु भी सहन नहीं कर सकते। जेल के कैदियों को थोड़ा घूमने-फिरने की, हँसने-बोलने की आजादी रहती है। पर घर की छोटी सी कोठरी में कैद नववधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालों के सामने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालों से तो उसे पर्दा ही करना होता है। न उनके सामने मुँह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पर्दा सो पर्दा, प्रथा सो प्रथा, प्रतिबन्ध सो प्रतिबन्ध। इससे न्याय, औचित्य और विवेक के लिए क्यों गुंजायश छोड़ी जाय। पशु को मुँह पर नकाब लगाकर नहीं रहना पड़ता। वे दूसरों के चेहरे देख सकते हैं और अपने दिखा सकते है। जब मर्जी हो चाहे जिसके सामने अपनी टूटी-फूटी वाणी बोल सकते हैं। पर नारी को इतने अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।

इस अमानवीय प्रतिबन्ध की प्रतिक्रिया बुरी हुई। नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई। भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रन्थियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन-हीन अपराधिन की तरह वह यहाँ-वहाँ लुकती छिपती देखी जा सकती है अन्याय अत्याचार और अपमान पग-पग पर सहते-सहते क्रमशः अपनी सभी मौलिक विशेषताएँ खोती चली गई। आज औसत नारी उस नीबू की तरह है, जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है। नव यौवन के दो चार वर्ष ही उसकी उपयोगिता प्रेमी पतिदेव की आँखों में रहती है। अनाचार की वेदी पर जैसे ही उस सौन्दर्य की बलि चढ़ी कि वह दासी मात्र रह जाती है। आकर्षण की तलाश में भौंरे फिर नये-नये फूलों की खोज में निकलते और इधर-उधर मँडराते दीखते हैं। जीवन की लाश का भार ढोती हुई, गोदी के बच्चों के लिए वह किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करती है। जो था वह दो चार वर्ष में लुट गया, अब बेचारी को कठोर परिश्रम के बदले पेट भरने के लिए रोटी और पहनने को कपड़े भर पाने का अधिकार है। बन्दिनी का अन्तःकरण इस स्थिति के विरुद्ध भीतर ही भीतर कितना ही विद्रोही बना बैठा रहे, प्रत्यक्षतः वह कुछ न कर सकने की परिस्थितियों में ही जकड़ी होती है, सो गम खाने और आँसू पीने के अतिरिक्त उसके पास कुछ चारा नहीं रह जाता।

तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के सन्दर्भ से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष-दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग-मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या-क्या मनगढ़न्त गढ़कर खड़ी कर दी गई। लोग घर छोड़कर भागने में, स्त्री, बच्चों को बिलखता छोड़कर भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े। समझा गया इसी तरह योग साधना होती होगी इसी तरह स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि मिलती होगी। पर देखा ठीक उलटा गया। आन्तरिक अतृप्ति ने उनकी मनोभूमि को सर्वथा विकृत कर दिया और वे तथाकथित सन्त महात्मा सामान्य नागरिकों की अपेक्षा भी गई गुजरी मनःस्थिति के दलदल में फँस गये। विरक्ति का जितना ही ढोंग उनने बनाया अनुरक्ति की प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती चली गई। उनका अन्तरंग यदि कोई पढ़ सकता हो, तो प्रतीत होगा कि मनोविकारों ने उन्हें कितना जर्जर कर रखा है। स्वाभाविक की उपेक्षा करके अस्वाभाविक के जाल-जंजाल में बुरी तरह जकड़ गये हैं। ऐसे कम ही विरक्त मिलेंगे जिनने बाह्य जीवन में जैसे नारी के प्रति घृणा व्यक्त की है, वैसे ही अन्तरंग में भी उसे विस्मृत करने में सफल हो पाये हो। सच्चाई यह है कि विरक्ति का दम्भ अनुरक्ति को हजार गुना बढ़ा देता है। बन्दर का चिन्तन न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करते ही बरबस बन्दर स्मृति पटल पर आकर उछलकूद मचाने लगता है।

आध्यात्मिक काम विज्ञान का प्रतिपादन यह है कि अतिवाद की भारी दीवारें गिरा दी जाय और नारी को नर की ही भाँति सामान्य और स्वाभाविक स्थिति में रहने दिया जाय। इससे एक बड़ी अनीति का अन्त हो जायेगा। अतिवाद के दोनों ही पक्ष नारी के वर्चस्व पर भारी चोट पहुँचाते हैं और उसे दुर्बल, जर्जर एवं अनुपयोगी बनाते हैं। इसलिए इन जाल-जंजालों से उसे मुक्त करने के लिए उग्र और समर्थ प्रयत्न किये जाय।

प्रयत्न होना चाहिए कि नारी की माँसलता की अवांछनीय अभिव्यक्तियाँ उभारने वालों से अनुरोध किया जाय, कि वे अपने विष बुझे तीर कृपाकर तरकस में बन्द कर लें। फिल्म वाले इस दिशा में बहुत आगे बढ़ गये हैं। उनने बन्दर के हाथ तलवार लगने जैसी कुचेष्टा की आशंका की, वैसी ही करतूतें आरम्भ कर दी हैं। आग लगा देना सरल है बुझाना कठिन। मनुष्य की पशु प्रवृत्तियों को, यौन उद्वेग और काम विकारों को भड़का देना सरल है पर उस उभार से जो सर्वनाश हो सकता है, उससे बचाव की तरकीब ढूँढ़ना कठिन है। नासमझ लड़के-लड़कियों पर आज का सिनेमा क्या प्रभाव डाल रहा है और उनकी मनोदशा को किधर घसीटे लिये जा रहा है, इस पर बारीकी से दृष्टि डालने वाला दुखी हुए बिना न रहेगा। कला के अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले विभूतिवानों से करबद्ध प्रार्थना की जाय कि वे नारी को पददलित करने के पाप पूर्ण अभियान में जितना कुछ कर चुके, उतना ही पर्याप्त मान लें आगे की ओर निशाने न साधें। कवि लोग ऐसे गीत न लिखें, जिनसे विकारोत्तेजक प्रवृत्तियाँ भड़के। साहित्यकार, उपन्यासकार कलम से नारी के गोपनीय सन्दर्भों पर भड़काने वाली चर्चा छोड़कर सरस्वती की साधना को अगणित धाराओं में प्रयुक्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दें। गायक विकारोत्तेजना और शृंगार रस को कुछ दिन तक विश्राम कर लेने दें। सामन्तवादी अन्धकार युग के दिनों उसे ही तो एक छत्र राज्य मिला है। गायन का अर्थ ही पिछले दिनों कामेन्द्रिय रहा है। राज्य दरबारों से लेकर मनचले आवारा हिप्पियों तक उसी को माँगा जाता रहा है। अब कुछ दिनों से गान विश्राम ले लें और दूसरे रसों को भी जीवित रहने का अवसर मिल जाय तो क्या हर्ज है? कुछ दिन तक घुँघरू न बजें, पायल न खनकें तो भी कला जीवित रहेगी। चित्रकार नव यौवना की शालीनता पर पर्दा पड़ा रहने दें, पतित दुःशासन द्वारा द्रौपदी को नंगा करने की कुचेष्टा न करें, तो भी उनकी चित्रकारिता सराही जा सकती है। चित्रकला के दूसरे पक्ष भी हैं, क्यों न कुशल चित्रकार सुरुचि उत्पन्न करने वाले चित्र बनायें। मूर्तिकार क्यों न मानवीय अन्तर्वेदना को उभारने वाली प्रतिमायें बनायें।

नारी के प्रति हमारा चिन्तन सखा, सहचर और मित्र जैसा सरल स्वाभाविक होना चाहिए। उसे सामान्य मनुष्य से न अधिक माना जाय न कम। पुरुष और पुरुष, स्त्रियाँ और स्त्रियाँ जब मिलते है तो उनके असंख्य प्रयोजन होते हैं, काम सेवन जैसी बात वे सोचते भी नहीं। ऐसे ही नर-नारी का मिलन भी स्वाभाविक सरल और सौम्य बनाया जाना चाहिए। यह स्थिति निश्चित रूप से आ सकती है, क्योंकि वही प्राकृतिक है। इसी प्रकार रूढ़िवादियों से कहा जाना चाहिए कि प्रतिबन्धों से व्यभिचार रुकेगा नहीं बढ़ेगा। जिस स्त्री का मुँह ढँका होता है उसे देखने को मन चलेगा पर मुँह खोले सड़क पर हजारों लाखों स्त्रियों में से किसी की ओर नजर गड़ाने की इच्छा नहीं होती चाहे वे रूपवान हो या कुरूप।

इसी प्रकार अध्यात्मवाद के नाम पर नारी तिरस्कार और बहिष्कार की बेवक्त शहनाई बन्द कर देनी चाहिए। जिन भगवान की हम उपासना करते है और जिनसे स्वर्ग मुक्ति सिद्धि माँगते हैं वे स्वयं सपत्नीक हैं। एकाकी भगवान एक भी नहीं। राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि किसी भी देवता को लें सभी विवाहित हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली जैसी देवियों तक को दाम्पत्य जीवन स्वीकार रहा है। हर भगवान और हर देवता के साथ उनकी पत्नियाँ विराजमान है फिर उनके मनों को अपने इष्ट देवों से भी आगे निकल जाने की बात क्यों सोचनी चाहिए?

सप्त ऋषियों में सातों के सातों विवाहित थे और उनके साधना काल की तपश्चर्या अवधि में भी पत्नियाँ उनके साथ रही। इससे उनके कार्य में बाधा रत्ती भर नहीं पहुँची, वरन् सहायता ही मिली। प्राचीन काल में जब विवेकपूर्ण आध्यात्म जीवित था तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि आत्मिक प्रगति में नारी के कारण कोई बाधा उत्पन्न होगी।

रामकृष्ण परमहंस को विवाह की आवश्यकता अनुभव हुई और उनने उस व्यवस्था को तब जुटाया जब वे आत्मिक प्रगति के ऊँचे स्तर पर पहुँच चुके थे। काम सेवन और नारी सान्निध्य एक बात नहीं है। इसके अन्तर को भली-भाँति समझा जाना चाहिए। योगी अरविन्द घोष की साधना का स्तर कितना ऊँचा था, उसमें सन्देह करने की कोई गुंजायश नहीं है। उनके एकाकी जीवन की पूरी-पूरी साज सँभाल माताजी करती रही। इस सम्पर्क से दोनों की आत्मिक महत्ता बढ़ी ही घटी नहीं। प्रातः स्मरणीय माताजी ने अरविन्द के सम्पर्क से भारी प्रकाश पाया और योगिराज को यह सान्निध्य गंगा के समान पुण्य फलदायक सिद्ध हुआ। प्राचीन काल का ऋषि इतिहास तो आदि से अन्त तक इस सरल स्वाभाविक की सिद्धि करता चला आया है। तपस्वी ऋषि सपत्नीक स्थिति में रहते थे। जब जरूरत पड़ती प्रजनन की व्यवस्था बनाते अन्यथा आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भी नारी सान्निध्य की व्यवस्था बनाये रखते। यह उनके विवेक पर निर्भर रहता था, प्रतिबन्ध जैसा कुछ नहीं था। यह स्थिति आज भी उपयोगी रह सकती है। सन्त लोग अपना व्यक्तिगत जीवन विवाहित या अविवाहित जैसा भी चाहें बिताये पर कम से कम उन्हें इस अतिवाद का ढिंढोरा पीटना तो बन्द ही कर देना चाहिए, जिसके अनुसार नारी को नरक की खान कहा जाता है। यदि ऐसा वस्तुतः होता तो गाँधी जी जैसे सन्त नारी त्याग की बात सोचते। कोई अधिक सेवा सुविधा की दृष्टि से या उत्तरदायित्व हलके रखने की दृष्टि से अविवाहित रहे, तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ये भी कोई प्रतिबन्ध हो सकता है या होना चाहिए। सच तो यह है कि सन्त लोग यदि सपत्नीक सेवा कार्य में जुटें, तो वे अपना आदर्श लोगों के सामने प्रस्तुत करके उच्च स्तरीय गृहस्थ जीवन की सम्भावना प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रस्तुत कर सकते हैं।

काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनन्द है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। काम क्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य सा माध्यम हो सकता है, पर वह कोई निरन्तर की वस्तु तो है नहीं। यदा-कदा ही उसकी उपयोगिता होती है। इसलिए मैथुन को एक कोने पर रखकर उपेक्षणीय मानकर भी काम लाभ किया जाता है। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्च स्तरीय अभिव्यक्तियाँ जिस परिधि में आती हैं उसे आध्यात्मिक काम कह सकते हैं।

नर-नारी के बीच व्यापक सद्भाव सहयोग की, सम्पर्क की स्थिति में ही व्यक्ति और समाज का विकास सम्भव है। उससे हानि रत्ती भर भी नहीं। स्मरण रखा जाय पाप या व्यभिचार का सृजन सम्पर्क से नहीं दुर्बुद्धि से होता है। पुरुष डाक्टर नारी के प्रजनन अवयवों तक का आवश्यकतानुसार आपरेशन करते है। उसमें न पाप है, न अश्लील, न अनर्थ। रेलगाड़ी की भीड़ में नर-नारियों के शरीर चिपके रहते हैं। जहाँ पाप वृत्ति न हो वहाँ शरीर का स्पर्श दूषित कैसे होगा? हम अपनी युवा पुत्री के शिर और पीठ पर स्नेह का हाथ फिराते है तो पाप कहाँ लगता है। सान्निध्य पाप नहीं है। पाप तो एक अलग ही छूत की बीमारी है जो तस्वीरें देखकर भी चित्त को उद्विग्न कर सकने में समर्थ है। इलाज इस बीमारी का किया जाना चाहिए। हमारी कुत्सा का दण्ड बेचारी नारी को भुगतना पड़े, यह सरासर अन्याय है। इस अनीति को जब तक बरता जाता रहेगा, नारी की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी और इस पाप का फल व्यक्ति और समाज को असंख्य अभिशापों के रूप में बराबर भुगतना पड़ेगा।

भगवान वह शुभ दिन जल्दी ही लाये जब नर-नारी स्नेह सहयोग की तरह, मित्र और सखा की तरह एक दूसरे के पूरक बनकर सरल स्वाभाविक नागरिकता का आनन्द लेते हुए जीवनयापन कर सकने की मनःस्थिति प्राप्त कर लें। हम विकारों को रोके, सान्निध्य को नहीं। सान्निध्य रोककर विकारों पर नियन्त्रण पा सकना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें उन स्रोतों को बन्द करना पड़ेगा, जो विकारों और व्यभिचार को भड़काने में उत्तरदायी हैं। अग्नि और सोम, प्राण और रयि, ऋण और धन विद्युत प्रवाहों का समन्वय इस सृष्टि के संचरण और उल्लास को अग्रगामी बनाता चला आ रहा है। नर-नारी का सौम्य सम्पर्क बढ़ाकर हमें खोना कुछ नहीं पाना अपार है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

130. महाकाल का स्वरूप और उनकी भावी रीति-नीति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह युगसन्धि की बेला है। परिवर्तन की घड़ियाँ सदा जटिल होती हैं। एक शासन हटता दूसरा आता है तो उस मध्यकाल में कई प्रकार की उलट-पुलट होती देखी गई है। गर्भस्थ बालक जब छोटी उदरदरी से बाहर निकल कर सुविस्तृत विश्व में प्रवेश करता है तो माता को प्रसव पीड़ा सहनी पड़ती है और बच्चा जीवन-मरण से जूझने वाला पुरुषार्थ करता है। प्रभात काल से पूर्व की घड़ियों में तमिस्रा चरम सीमा तक पहुँचती है। दीपक के बुझते समय बाती का उछलना, फुदकना देखते ही बनता है। मरणासन्न की साँसें इतनी तेजी से चलती हैं मानो वह निरोग और बलिष्ठ बनने जा रहा है। चींटी के जब अन्तिम दिन आते हैं तब उसके पर उगते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि परिवर्तन की घड़ियाँ असाधारण उलट-पुलट की होती हैं। उन दिनों अव्यवस्था फैलती, असुविधा होती और कई बार संकट विग्रहों की घटा भी घुमड़ती है। युग परिवर्तन की इस सन्धि बेला में भी ऐसा ही हो रहा है। असुरता जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रही है और देवत्व को उसे पदच्युत करके सिंहासनारूढ़ होने में अनेक झंझटों का सामना करना पड़ रहा है। भूतकाल में भी ऐसे अवसरों पर यही दृश्य उपस्थित हुए हैं, ऐसे ही घटनाक्रम चले हैं जैसे कि इन दिनों सामने हैं।

परिवर्तन की प्रक्रिया चल तो बहुत समय से रही है, पर उसकी आरम्भिक मन्दगति को द्रुतगामी बनने का अवसर इन्हीं दिनों मिला है। प्रकृति तब रुग्ण शरीर से विषाक्तता को निकाल बाहर करने के लिए अधिक तत्परता बरतती है तो कई प्रकार के उपद्रव उठ खड़े होते हैं। उल्टी, दस्त, ज्वर आदि में रोगी को कष्ट तो अवश्य होता है, पर संचित मलों की सफाई इससे कम में हो भी नहीं सकती। रक्त में भरी विषाक्तता फोड़ा-फुन्सी बनकर बाहर आती और मवाद बनकर विदा होती है। देखने में यह अरुचिकर लगता है, पर चिकित्सक यही कहते है घबराने की कोई बात नहीं। प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिए। जो सफाई चिकित्सक मुद्दतों में नहीं कर सकते थे वह उस उभार में कुछ ही दिनों में सम्पन्न हो जाती है। विषमता के निष्क्रमण में ऐसा होता भी है। सेना भागते-भागते अपने क्षेत्र को नष्ट कर जाती है ताकि शत्रु के हाथ में कोई सुविधा जनक परिस्थिति न लगे। लगता है सफाई के दिनों में ऐसी ही रणनीति चल रही है। लगता है नाली साफ करते समय उड़ने वाली बदबू की तरह इन दिनों जो असुखद घटित हो रहा है उसके पीछे सुखद सम्भावनाएँ ही झाँक रही है।

प्रसव पीड़ा में एक ओर प्रसूता को अत्यधिक कष्ट होता है। दूसरी ओर नवजात शिशु के आगमन की कल्पना में हृदय भी हुलसता है। हर परिवर्तन ऐसे ही विग्रह करता है, कन्या ससुराल जाती है तो परिवार का विछोह कम व्यथित नहीं करता किन्तु ससुराल में घर की रानी बनने का सपना उसे धैर्य बँधाता है और आश्वासन भी देता है। परिवर्तन की इस बेला में आगत कष्टों को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। अदृश्य दर्शियों के भविष्य दर्शन इन दिनों को अधिक त्रास दायक बताते हैं। उनका कथन है कि सन् १९८० से २००० के मध्यवर्ती बीस वर्ष भारी उथल-पुथल के हैं। उनमें एक ओर दुष्प्रवृत्तियों की कष्टकारक दण्ड व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर होगी तो दूसरी ओर नवसृजन के आधार भी खड़े होंगे। इन परस्पर विरोधी गतिविधियों से असमंजस तो होता है पर साथ ही यह जानकर समाधान भी मिलता है कि ऐसे समयों पर इस स्तर की दुहरी गतिविधियों का चलना अस्वाभाविक नहीं है। किसान हल चलाकर खेत के खर पतवार और कंकड़ पत्थर हटाता है, साथ ही बीज बोने की तैयारी भी करता है। इनमें से एक कार्य ध्वंसात्मक है दूसरा सृजनात्मक। दोनों के मध्य परस्पर विरोध देखा जा सकता है, पर वस्तुतः वह पूरक भी तो होता है। डॉक्टर आपरेशन करने में जितनी कुशलता दिखाता है उतनी ही तत्परता घाव भरने के उपक्रम में भी बरतता है। माता का दुलार और सुधार साथ चलता है। पतझड़ में पुरातन पत्र पल्लव गिरते झड़ते हैं, साथ ही वसन्त की हरीतिमा का पूर्वाभास भी होता है।

दूरदर्शियों के अनेक वर्ग है और उन सबने अपने-अपने ढंग से इस सन्धि बेला को दुहरी संभावनाओं से भरा-पूरा बताया है। वे निकट भविष्य में सुखद की सम्भावना बनाते हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उनके दृष्टिकोण तो अलग-अलग है, पर निष्कर्ष एक ही तथ्य पर जा पहुँचते हैं। सभी की यह मान्यता है कि कष्टकारक दिन समीप है। ऐसे पूर्व कथन हानिकारक भी होते हैं और लाभदायक भी।

हानिकारक उनके लिए जो डरते, घबराते और हड़बड़ी में चिन्ताग्रस्त, हतप्रभ और किंकर्तव्य विमूढ़ बनते हैं। यह हड़बड़ी वास्तविक विपत्ति से अधिक हानिप्रद होती है। कहावत है कि जितने व्यक्ति मौत से मरते हैं, उससे अधिक मरण-भय से असंतुलित होकर बेमौत मरते हैं।

लाभदायक उनके लिए जो अशुभ संभावनाओं का पूर्वाभास पाकर अपनी जागरूकता बढ़ाते हैं। सूझ-बूझ से काम लेते और धैर्य, साहस को निखारते हैं। ऐसे पराक्रमी अपने कौशल को निखारने में इन संकट की घड़ियों को दैवी वरदान की तरह सहायक मानते हैं। विपत्तियों से जूझने के सत्परिणामों की जानकारी प्राप्त करनी हो तो उसका विस्तृत विवरण मोर्चे पर लड़ने वाले योद्धा, संयम की साधना करने वाले तपस्वी, संघर्षों से जूझकर महामानव बनने वाले परमार्थ परायण लोक सेवक ही भली प्रकार बता सकते हैं। वे एक स्वर से यही कहते पाये जायेंगे कि परीक्षा की घड़ी कठिन तो अवश्य थी, पर तपने और कसने के उपरान्त खरा-खोटा कहलाने का जो श्रेय मिल सका उस कष्टसाध्य प्रक्रिया में होकर गुजरे बिना और किसी तरह उपलब्ध नहीं हो सकता था। सम्भव है विश्व मानव को इसी प्रकार से भट्टी में गलाया और नये साँचे में ढाला जा रहा हो।

इन दिनों अशुभ सम्भावनाओं के सम्बन्ध में खगोल विज्ञानी कहते कि सूर्य पर इन्हीं दिनों भारी विस्फोट कलंक उभरते जा रहे हैं। उनकी ज्वालाएँ लाखों मील ऊँची लपकेंगी और असाधारण ऊर्जा अन्तरिक्ष में फेकेंगी। उसका प्रभाव पृथ्वी के पदार्थों और प्राणियों पर बुरा पड़ेगा। यह विघातक प्रक्रिया कई वर्षों तक चलती रहेगी। अन्तरिक्ष विज्ञानी अन्तर्ग्रही परिस्थितियों के कारण धरती के वातावरण में तापमान बढ़ने और उससे संचित हिम भण्डार गलने की बात कहते हैं। उससे जल प्रलय जैसी घटनायें घटित हो सकती है। भूगोल का पर्यवेक्षण करने वाले बताते हैं कि यन्त्रों से बढ़ते वायु प्रदूषण से अगले दिनों घुटन पैदा होगी। बढ़ता हुआ कोलाहल विक्षिप्तता उत्पन्न करेगा। अणु विस्फोटों से उत्पन्न विषाक्त विकिरण से जीवनी शक्ति का भयानक ह्रास होगा। भूगर्भ वेत्ता बताते हैं कि पेयजल, ईंधन तथा खनिज सम्पदा का जिस गति से दोहन और ह्रास हो रहा है, उसे देखते हुए इन साधनों से धरती के दिवालिया हो जाने का खतरा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के पर्यवेक्षक कहते हैं-भय, लोभ और अविश्वास के तत्व शासनाध्यक्षों के मन में बुरी तरह घुस रहे हैं। फलतः तीसरे महायुद्ध की सम्भावना बढ़ रही है। अणु आयुधों के बारूद खान में एक चिनगारी पड़ने की देर है कि विस्फोट से धरती की स्थिति विषाक्त बादलों से भर जायेगी। फलतः प्राणियों का अस्तित्व इस रूप में नहीं बच सकेगा, जैसा आज है।

नृतत्व विज्ञानी कहते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या अपने समय की सबसे बड़ी समस्या है। कुछ ही दिनों में अनियन्त्रित प्रजनन पर भूख, प्यास, युद्ध और महामारी की गाज गिरेगी और फलतः यह अवांछनीय प्रजनन स्वयं तो मरेगा ही, धरती की परिस्थितियों को भी इस योग्य न रहने देगा जिसमें बचे-खुचे लोगों को निर्वाह मिल सके।

समाज वेत्ता कहते हैं कि स्वार्थपरता, संग्रह, विलास और उपभोग की लिप्सा पारस्परिक स्नेह सहयोग की उन परम्पराओं को नष्ट कर देगी, जिसके आधार पर मानवी विकास सम्भव हुआ है। अनुशासन की अवहेलना, उच्छृंखलता में गर्व, अपराधों पर अनियन्त्रण की स्थिति, जिस क्रम से बढ़ रही है उससे समाज संस्था में आदर्श नाम की कोई चीज बच नहीं पायेगी। लोग भूखे भेड़िये की तरह एक दूसरे पर घात-प्रतिघात लगाते और यादवी आत्मघात के शिकार बनते पाये जायेंगे। ये सभी सम्भावनाएँ उन मूर्धन्य लोगों ने व्यक्त की है, जिनके निष्कर्ष तथ्यपूर्ण और प्रामाणिक माने जाते हैं। इन समस्याओं के रहते भविष्य अन्धकारमय लगता है। जिनके हाथ में संसार के भाग्य निर्धारण की शक्ति है, वे पारस्परिक अविश्वास के वातावरण में रह रहे है और ऐसा कुछ कर नहीं पा रहे है कि विनाश के प्रवाह को रोकने और विकास के ठोस आधार खड़े करने में सफल हो सकें। वे भी चिन्तित और निराश दीखते हैं। दो हाथ जोड़ने का प्रयत्न करने पर रस्सी चार हाथ अन्यत्र से टूटने लगे तो प्रयत्नकर्ताओं को भी हार मानते देखा जाता है।

संसार में ऐसे अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न भविष्यवक्ता भी यदा-कदा देखने सुनने में आते हैं, जिनके कथन सुनिश्चित माने जाते हैं। जो कथन अब तक सही सिद्ध हो चुके वे यही बताते हैं कि इनके द्वारा कही गई बातें भविष्य में भी सच हो सकती हैं। इस स्तर के सूक्ष्मदर्शियों की भविष्यवाणियों में निकट भविष्य को कष्टकारक माना गया है। मनुष्यकृत उपद्रवों के अतिरिक्त दैवी प्रकोपों की सम्भावना व्यक्त की गई।

अध्यात्म वेत्ता कहते हैं कि समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते और पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उनकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में विषाक्त विक्षोभ पैदा करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप संकटों और त्रासों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही सीमित न रहे, वरन् आगे बढ़कर सम्पर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है। सामूहिक कर दण्ड की तरह निर्दोषी समझे जाने वालों को भी त्रास सहना पड़ता है। गेहूँ के साथ घुन पिसता है, सूखे के साथ गीला जलता है जैसी उक्तियाँ इस अर्थ में सच है कि सामूहिक उत्तरदायित्वों की अवहेलना व्यापक विपत्तियों का निमित्त कारण बनती है।

सूर्य का पृथ्वी से सीधा सम्बन्ध है और इसी का प्रभाव विशेष रूप से धरती के वातावरण को प्रभावित करता है। पर इस बार बृहस्पति ग्रह में भी विलक्षण प्रकार की उत्तेजनाएँ उत्पन्न हो रही हैं और उनका सीधा प्रभाव अपनी धरती पर भी पहुँचने की सम्भावना है। सूर्य स्पॉट और बृहस्पति के विकिरण का प्रभाव कोढ़ में खाज की तरह दुहरी विपत्ति का निमित्त बन सकता है।

ऐसे ही अनेक कारणों को दृष्टि में रखते हुए सूक्ष्मदर्शियों ने सन् १९८० से २००० के मध्यवर्ती २० वर्षों को अव्यवस्था, विक्षोभ और विपत्ति से भरे पूरे बताया है। इन प्रतिपादनों की एक संगति यह भी बैठती है कि युग परिवर्तन की सन्धि बेला आ गई। उसमें ऐसी उलट-पुलट होनी स्वाभाविक है। असुरता अपना स्थान छोड़ते-छोड़ते जीवन मरण की लड़ाई लड़ेगी। देवत्व को भी इन्हीं दिनों सत्तारूढ़ होना है। इसलिए प्राचीन काल के देवासुर संग्राम की तरह इन दिनों भी व्यापक विग्रह दृष्टिगोचर हो और उससे सामान्य जन-जीवन में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो तो उसे अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए।

इस विषम बेला में विपत्तियों का निराकरण और सन्तुलन का समापन बड़ा काम है। इस दुहरे समापन का उत्तरदायित्व सृष्टा ही संभाल सकता है। समय-समय पर प्रस्तुत होते रहने वाले असन्तुलनों को संभालने के लिए उस आद्यशक्ति को स्वयं अवतरित होना पड़ा है, जिसने समस्त ब्रह्माण्ड में इस अद्भुत विश्व उद्यान की संरचना की है और उसे सर्वत्र सुन्दर बनाने में अपनी कलाकारिता दाँव पर लगा दी है। मनुष्य ससीम है, वह सीमित क्षेत्र में, सीमित मात्रा में, सीमित उत्तरदायित्व ही वहन कर सकता है। व्यापक समस्याओं के समाधान में सृष्टा को बागडोर सँभालनी पड़ती है। इसके सुनिश्चित आश्वासन गीता के पृष्ठों में ‘‘यदा-यदा हि धर्मस्य.....’’ के रूप में अंकित हैं। इस बार भी अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन की भूमिका उसी को निभानी है।

भगवान् निराकार है। उनका कर्तृत्व चेतना क्षेत्र में उभरता है और वह प्राणियों में दृष्टिगोचर होता है। हलचलें पदार्थ में होती है। कर्म शरीर करता है और ज्ञान का उदय अन्तराल में होता है। अन्तराल ब्रह्मक्षेत्र है। पुरुषार्थ कर्मक्षेत्र। भगवान क्षेत्राधिपति है इसलिए वे चेतना को झकझोरते ।। इससे उत्पन्न उभार ही कार्यरत होता है और पुरुषार्थ के रूप में उसका परिचय मिलता है। प्रज्ञावतार की प्रेरणाएँ देव मानवों का अन्तराल उछालेंगी और उसके अनुशासन में ढलने वालों के मन को उत्कृष्ट चिन्तन तथा शरीर को श्रेष्ठ आचरण के लिए विवश होना पड़ेगा। भूतकाल में भी यही होता रहा है। यही अब भी होना है। भगवान अपनी अवतरण लीलाएँ देवमानवों के द्वारा सम्पन्न करेंगे। इस युग सन्धि में व्यापक परिवर्तन की जो महान प्रक्रियाएँ सम्पन्न होने जा रही हैं उनमें भगवान और उसके भक्तों की सम्मिलित भूमिका होगी। राम ने, कृष्ण ने अकेले ही अधर्म उन्मूलन का प्रयोजन पूरा नहीं किया था। उनका हाथ बटाने में कितने ही देव मानव सहभागी बने थे। हर अवतार का लीला सन्दोह इसी प्रकार का रहा है। प्रज्ञावतार की कार्य पद्धति भी उस पूर्व परम्परा के अनुरूप ही रहेगी।

देव मानवों का अवतरण समयानुसार हो चुका। वे अब इतने समर्थ हो गए कि अपने जीवनोद्देश्य युग अवतार के सहभागी बनने की भूमिका को निभा सकें। अरुणोदय की प्रथम किरणें पर्वत शिखर पर चमकती है। उसके बाद उसका आलोक नीचे उतरता और ऊर्जा का व्यापक वितरण करता है। जाग्रत आत्माएँ देव मानवों के रूप में अपनी विशिष्टता का इन्हीं दिनों परिचय देंगी और महाकाल के संकेतों पर अपनी रीति-नीति निर्धारित करेंगी। विनाश की सम्भावनाओं से जूझने और भविष्य का निर्माण, निर्धारण करने का बहुमुखी कार्यक्रम सामने है। प्रज्ञा परिजनों को अपने हिस्से का उत्तरदायित्व अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर स्वयं ही अपने कंधे पर वहन करना है। उसी में उनके वर्चस्व की सार्थकता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार