171. धर्म और सम्प्रदाय का अन्तर समझें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अन्य प्राणियों और मनुष्य में मौलिक अन्तर यह है कि मनुष्य में दूरगामी प्रतिक्रिया का पूर्व अनुमान लगा लेने की सामर्थ्य है, जबकि अन्य जीवधारी मात्र वर्तमान को ही देख समझ पाते हैं। शारीरिक आवश्यकताएँ पूर्ण करने के लिये मिली हुई प्रकृति प्रेरणा एवं इंद्रिय क्षमता ही उनका बौद्धिक अवलम्बन होती है। इस सीमित उपलब्धि के कारण वे कोई योजना बनाने में, नीति निर्धारित करने में समर्थ नहीं होते। जिन्दगी पूरी करने के लिये ही जीते हैं। न सामने कोई लक्ष्य होता है और न भविष्य। अतएव उन्हें न अपने संबन्ध में कुछ सोचना पड़ता है न अन्य जीवधारियों के सम्बन्ध में!
मनुष्य की मौलिक दूरदर्शिता ने उसे अनेकों व्यवस्था बनाने तथा नीति मर्यादाएँ अपनाने के लिये प्रेरित किया है। परिवार गठन, आहार उत्पादन, आच्छादन, संभाषण, संचय, विनिमय, पारस्परिक सहयोग, सामूहिक संघर्ष जैसी अनेकों आवश्यकताएँ उसके सामने आयी, उनके लिये योजनाएँ बनानी पड़ी और वे परम्परा के रूप में सभी ने स्वीकार की। इतने पर भी मत्स्य न्याय का जंगली कानून चलता ही रहा। समर्थों ने असमर्थों का शोषण करने की आक्रामक नीति अपनाए ही रखी। इस वर्ग के लोगों के लिये प्रतिरोध के अतिरिक्त दूसरा उपाय नीति मर्यादा समझाने का उपक्रम बना। ऐसा उपक्रम जो टकराव की स्थिति उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति की ही जड़ काटता रहे। इतना ही नहीं परस्पर स्नेह, सहयोग एवं उदार व्यवहार की भावनात्मक पृष्ठभूमि भी बनाता रहे। यह निर्धारण मानवी प्रगति का सबसे सशक्त माध्यम सिध्द हुआ। इसी को अपना कर वह सामाजिक प्राणी बना और हर क्षेत्र में क्रमिक प्रगति करते-करते उस स्थिति तक पहुँचा जिसमें कि आज है। जिसमें उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाता है।
सुविधा-साधनों का भौतिक उत्पादन जितना महत्त्वपूर्ण है-उतना ही यह आवश्यक है कि उनका उपयोग, उपभोग करने में एक ऐसा व्यवस्था क्रम बनाये रखा जाय जिसमें औचित्य का, न्याय का समुचित समावेश हो, जिसकी उपयोगिता तर्क और तथ्य के सहारे समझी समझाई जा सके। स्वार्थों को औचित्य की सीमा तक रखने का अनुशासन और टकराव की स्थिति में बलपूर्वक नियमन की उभय पक्षीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये सामयिक निर्णयों की अपेक्षा यह अच्छा समझा गया कि एक आचार संहिता बने और उसे लोग स्वेच्छा पूर्वक पालन करें। साथ ही यह व्यवस्था भी बनी कि उच्छृंखलता को दमन करने वाला तन्त्र भी समर्थ बनकर रह सके। यहीं है मानवी प्रगति के शुभारम्भ की घड़ियों में बनाई, अपनाई गई व्यवस्था। इसी ने उसे सज्जन बनाया सहयोग का पाठ पढ़ाया, अनुशासन में रखा और उदार बनने के लिए उत्तेजित किया। यदि ऐसी व्यवस्था न बनी होती तो चातुर्य एवं कौशल के आधार पर उपार्जित की गई सुविधा सामग्री का दुरुपयोग होता। आपाधापी और छीना झपटी के कुचक्र में फँसकर मनुष्य विग्रही बनता और सम्पन्नता एवं बुद्धिमत्ता ऐसे विनाश का कारण बनती, जिससे मानवी अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता।
अराजकता और अनास्था को यदि इन दिनों छूट मिल सके तो मानवी गतिविधियाँ देखते-देखते दुष्प्रवृत्तियों में जुट पड़ेंगी। अनाचार फैलेगा और चिरसंचित प्रगति क्रम को अस्त-व्यस्त होने में देर न लगेगी। भूतकाल में भी यह तथ्य समझा गया और मनुष्य ने अपने कौशल उपार्जन को टकराव होने से बचाने के लिए नीति मर्यादाओं का निर्धारण किया। उन्हें परम्परा के रूप में अपनाया साथ ही यह प्रबन्ध भी किया कि जो उस अनुशासन को तोड़े, कड़े प्रतिरोध का, दण्ड-विधान का सामना करना पड़े। यह व्यवस्था उतनी ही सराहनीय कही जाएगी जितनी कि उपार्जन में समर्थ श्रमनिष्ठ बुद्धिमत्ता।
संक्षेप में यही है धर्म की आदिम स्थापना। इस अनुशासन को पराक्रम के समतुल्य ही माना जा सकता है। भूतकाल में मनुष्य का सम्पर्क एवं कार्य क्षेत्र सीमित था इसलिए समस्याएँ भी थोड़ी थी और उनका समाधान भी छोटे रूप में ही बन जाता था। तब मात्र एक ही अनुशासन तन्त्र था ‘धर्म’। उसी से चिन्तन और चरित्र के परिष्कार एवं नियमन का उभय पक्षीय प्रयोजन पूरा हो जाता था। शासन और अनुशीलन तक एक ही छत्रछाया में पनपते। अभिवर्धन और परिशोधन की दोनों ही आवश्यकता एक ही मंच से पूरी होती रहती थी। धर्म की उपयोगिता-आवश्यकता उन दिनों हर किसी ने समझी थी और उसे परिपुष्ट बनाने में पूरा-पूरा सहयोग दिया था।
प्रगति क्रम विस्तृत हुआ। कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ। फलतः व्यवस्था को दो खण्डों में विभाजित करने की आवश्यकता समझी गई है। भौतिक प्रगति और सहयोग, संरक्षण, अनुशासन का उत्तरदायित्व राजतन्त्र के कंधों पर आया और आस्था, विचारणा, शालीनता, सहकारिता जैसे व्यक्तिगत चरित्र चिन्तन से सम्बन्धित सभी काम धर्मतन्त्र के अन्तर्गत संभाले जाने लगे। एक ही मर्यादा परम्परा ने मनःस्थिति और परिस्थिति को प्रगतिशील बनाने की जिम्मेदारी दो भागों में विभक्त होकर संभाली। एक को धर्म कहा गया दूसरे को शासन।
पशु की स्वेच्छाचारिता और मनुष्य की नीति मर्यादा का अन्तर समझने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना सरल होगा कि मात्र बुद्धिमत्ता ने ही उसे आगे नहीं बढ़ाया है। दूरदर्शी शालीनता के अनुशासन ने भी उस सुनियोजित क्रम परम्परा के आधार पर आगे बढ़ने, ऊँचा उठने की सुविधा प्रदान की है। इस दृष्टि से धर्म और शासन की उपयोगिता लगभग समान ही बैठती है। चातुर्य और पराक्रम अनुशासन के अभाव में मात्र विनाशकारी ही सिद्ध हो सकता है। एक जंगल में दो शेर नहीं रहते है। देखते ही आधिपत्य के गर्व में एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं। फलतः वे अभी भी उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में रह रहे हैं, जबकि अन्य जीवधारी टकराव से बचे रहने के कारण संख्या और सुविधा की दृष्टि से आगे ही बढ़ते चले आये हैं। मनुष्य ने चिंतन और चरित्र का अनुशासन न अपनाया होता तो उसको भी सिंह, व्याघ्रों जैसी स्थिति में रहना पड़ता। एक दिन में न सही, कालान्तर में उसे अपना अस्तित्व गँवाने के लिये विवश होना पड़ता।
शासन तन्त्र पुरातन काल में एक ही विधि से चलता था। राजा और पुरोहित मिलकर नीति-न्याय का निर्धारण करते थे। बाद में उतना पर्याप्त नहीं माना गया और अधिक विज्ञजनों का सहयोग भी उसमें सम्मिलित करना आवश्यक समझा गया। फलतः शासन तन्त्र खड़े हुए, उनकी कार्य पद्धति बनी, संविधानों और संहिताओं का सृजन हुआ। आज विभिन्न क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुसार अनेकों प्रकार शासन तन्त्र चल रहे हैं। प्रजातन्त्र, राजतन्त्र, अधिनायकवाद, साम्यवाद, समाजवाद, सम्प्रदाय, शासन जैसी अनेकों विधि-व्यवस्थाएँ इन दिनों अपने अपने ढंग से काम करती हुई देखी जाती हैं।
धर्मतन्त्र के सम्बन्ध में भी यही हुआ। वैयक्तिक चरित्र चिन्तन को प्रभावित करने वाली नीति-मर्यादाएँ एवं व्यवहार परम्पराएँ यों होनी तो मनुष्य मात्र की एक ही चाहिए, पर क्षेत्रीय परिस्थितियों एवं मनीषियों ने अपनी सूझबूझ के अनुसार अन्तर किये और कितने ही प्रकार के धर्म चल पड़े। वस्तुतः इन पृथक निर्धारणों को सम्प्रदाय कहा जाना चाहिए। क्योंकि धर्म शब्द के अन्तर्गत तो औचित्य एवं अनुशासन का परिपालन ही आता है और वह सार्वभौम, सार्वजनीन ही हो सकता है। स्थानीय परिस्थितियों एवं क्षेत्रीय परम्पराओं के आधार पर धर्मानुशासन को कहाँ, किस प्रकार, किस सीमा तक प्रयुक्त किया जाय ऐसी व्यवस्थाएँ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आती हैं। सम्प्रदायों की मान्यताओं और परम्पराओं में अंतर है। जबकि धर्म को नीति-मर्यादा का संस्थापक, संरक्षक होने का सार्वभौम श्रेय मिला हुआ है।
विग्रह की पूर्व भूमिका विभेद है। यह विष-बीज न्यूनाधिक मात्रा में हर सम्प्रदाय में पाया जाता है। यों अपनी मान्यता भी विवेक की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही स्वीकारी जानी चाहिए, पर समाधान के लिए इतना भी माना जा सकता है कि अपनी मान्यताओं के प्रति-निष्ठावान रहने की बात व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सम्मिलित है। पर दूसरों को भी वैसा ही अधिकार है यह सहिष्णुता भी तो रहनी चाहिए। यथार्थता का नियंत्रण तो विश्व मनीषा के न्यायालय में ही हो सकता है। जब तक वैसी स्थिति न आये हर सम्प्रदाय के सदस्य की औचित्य मर्यादा यहीं तक रहती है कि वह अपनी मान्यताओं को अपनाये रहे, किन्तु दूसरों के मन्तव्यों का तब तक विरोध न करे, जब कि वे मानवी आचार संहिता की नीति-मर्यादा का उल्लंघन न करते हो। किन्तु प्रचलन उससे सर्वथा भिन्न है। पूर्वाग्रहों से प्रेरित हठवादिता ही साम्प्रदायिक सच्चाई बनकर रह रही है। परम्पराओं को ही धर्म माना जाता है, भले ही वे कितनी ही असुविधाजनक या अनुचित, अवांछनीय ही क्यों न हो। साम्प्रदायिक हठवादिता अपने समुदाय को न्याय औचित्य की तुलना में परम्परा अपनाये रहने के लिए ही बाधित करती है।
धर्म-धारणा की श्रेयस्कर और सृजनात्मक शक्ति इस प्रकार सामुदायिक हठवादिता की पक्षधर बने, विलगाव और विग्रह उत्पन्न करे, विवेक और औचित्य की तुलना से परम्पराओं पर जोर दे, तो समझना चाहिए कि एक उपयोगी प्रतिष्ठापना अपनी गरिमा गवाँ बैठी और हेय प्रचलनों, प्रतिपादनों की बिरादरी में जा सम्मिलित हुई। आज की यही स्थिति है।
प्रस्तुत साम्प्रदायिक विडम्बना की उपेक्षा करने या उथला विरोध करने से काम नाहीं चलेगा। वरन् दुष्परिणामों को ध्यान में रखते हुए उसे दुर्घटना स्तर का समझ कर सुधार-उपचार का प्रयत्न करना होगा। धर्म धारणा के लाभों का परित्याग और उसकी स्थानापन्न दुरभिसन्धियों का दुष्परिणाम यह दुहरा घाटा नहीं ही सहा जाना चाहिए। इस महामारी का उपचार होना ही चाहिए।
मनीषा का सामयिक उत्तरदायित्व है कि वह धर्म तत्व की आत्मा के प्रकाश को जिन भ्रान्तियों और विकृतियों ने इन दिनों आन्दोलित किया हुआ है उसके सम्बन्ध में यह बतायें कि मूलभूत प्रतिष्ठा के जो अनुरूप है, उन्हीं को मान्यता मिले। धार्मिकता का तात्पर्य आदर्शों के प्रति आस्था, दृष्टिकोण की उत्कृष्टता, चरित्र की पवित्रता और व्यवहार की प्रखरता ही हो सकती है, जो इन रीति मर्यादाओं को जितने अंश में अपनाता है; वह उसी अनुपात में धार्मिक है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए।
सम्प्रदायों को स्थानीय एवं सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनी प्रक्रिया के रूप में सिद्ध किया जाना चाहिए, ऐसी प्रक्रियाएँ जो परिस्थिति बदलने के साथ-साथ बदलती रही हैं और बदलती रहनी चाहिए। नीति-मर्यादाओं को छोड़कर किसी प्रथा परम्परा को पत्थर की लकीर न माना जाय। सुधारक हर सम्प्रदाय में होते रहे हैं। सत्य की दिशा में मनुष्य की शोध क्रमिक गति से बढ़ी है। पुरातन प्रतिपादनों के स्थान पर जब भी अधिक यथार्थवादी तथ्य सामने आये हैं, तो उन्हें प्रसन्नता पूर्वक सुधारा अपनाया जाता रहा है। यह क्रम अपनाये रहने के लिए हर सम्प्रदाय में मान्यता विकसित की जाय। पुरातन के प्रति कट्टरता, हठवादिता का जो इन दिनों गहरा नशा छाया है उसका आवेश हल्का किया जाय।
प्रचलित अन्यान्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता और सहकारिता का भाव रहे। नैतिक सिद्धान्तों से प्रायः सभी धर्म एक मत हैं, एक लक्ष्य की दिशा में कई रास्तों से पहुँचने वाले इन सभी यात्रियों के प्रति सद्भावना होनी चाहिए। इतना ही नहीं मानवी गरिमा के अनुरूप व्यक्तियों और समाज को बनाने वाली प्रेरणाओं को सभी धर्म मिल-जुलकर प्रोत्साहित करें। इस प्रकार से सभी एक दूसरे का सहयोग समर्थन करने की विद्या अपनाये, जिससे उनके बीच निकटता एवं सहकारिता बढ़ेगी। एक दूसरे का सम्मान करेंगे और जिस धर्म में जितने सर्वोपयोगी एवं सम्मत तथ्य हैं, उन्हें मिल-जुलकर उभारने में प्रयत्नरत रहेंगे। जहाँ मतभेद हैं उन्हें पीछे कभी अनुकूल वातावरण बनने पर सुलझाने के लिए छोड़ देंगे। मतभेदों के आधार पर विग्रह बढ़ाना, एक दूसरे से टकराना इस विषम वेला में सर्वथा छोड़ ही दिया जाना चाहिए। मान्यताओं के पक्ष में तर्क, तथ्य तो प्रस्तुत किये जाय, पर लोभ या भय के आधार पर उन्हें किसी पर लादा न जाय।
सभी धर्म संप्रदाय अपने-अपने क्षेत्र से ऐसी रचनात्मक, सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ खड़ी करे, जिससे शालीनता उभरे और प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन संभव हो सके। प्रौढ़ शिक्षा, स्वाध्याय मंडल, वृक्षारोपण, नशा निवारण, अपव्यय की रोकथाम; सत्प्रयोजनों के लिए श्रमदान, अवांछनीयताओं का प्रतिरोध, स्वच्छता अभियान, जैसी अनेकों प्रवृत्तियाँ है, जिन्हें सभी सम्प्रदाय अपने-अपने क्षेत्र में विकसित करने के लिए अनुयायियों को अग्रसर कर सकते हैं। यह कार्य मिल-जुलकर सम्भव हो सके तो और भी अच्छा।
धर्म रचनात्मक शक्ति है, उसे विपरीत दिशा में भटकने न दिया जाय। लोक शिक्षण एवं लोक निर्माण में ही उसकी प्रत्येक तरंग का उपयोग हो। पिछले अन्धकार युग में अहमन्यता और हठवादिता ने जो खाई खोदी है, उसे इन दिनों पाटने का प्रबल प्रयत्न किया जाय। एक दूसरे के निकट आने, विवेक दृष्टि से समझने का अवसर दिया जाय। सर्व सम्मत सत्प्रयोजनों के अभिवर्धन में सभी सम्प्रदायों को नियोजित करके उनकी रचनात्मक क्षमता से सर्व साधारण को अवगत, अभ्यस्त कराया जाय, ताकि बढ़ती हुई अनास्था पर अंकुश लग सके। साथ ही उत्कृष्टता उभारने का मूलभूत धर्म प्रयोजन भी प्रत्यक्ष बन सके।
उपरोक्त वातावरण बनाने के लिए नवयुग की मनीषा को सभी धर्म सम्प्रदायों में से ऐसे उदाहरण, कथा प्रसंग ढूँढ़ निकालने होंगे, जिनकी प्रेरणाएँ प्रगतिशील, समन्वयवादी प्रवृत्तियों को उभारती हैं। ऐसी सामग्री प्रत्येक सम्प्रदाय में प्रचुर परिमाण में विद्यमान है, उपेक्षित पड़ी है। कट्टरता पर ही जोर दिया जाता है। मतभेदों को उभारने और दूसरों को हेय सिद्ध करने, उन्हें नीचा दिखाने पर धर्म मंच द्वारा जोर दिया जाता रहा है। अस्तु वही उभरकर ऊपर भी आये हैं और रूप ऐसा बन गया है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें से कोई एक सत्य है तो अन्य सभी असत्य हैं।
बिखराव को एकत्रित करना और बहुमुखी खींचतान को एक सुनिश्चित श्रेय मार्ग पर अग्रसर
कर सकना कठिन तो है पर असंभव नहीं। धर्म के सृजनात्मक उपयोग की दिशा में युग मनीषा
को गम्भीरता पूर्वक सोचना है। न केवल सोचना है वरन् बौद्धिक तथा रचनात्मक ढाँचा
भी ऐसा खड़ा करना है, जो उपरोक्त प्रयोजन की पूर्ति भली प्रकार कर सकने में समर्थ
हो सके।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
172. सर्वांगीण प्रगति शिक्षा एवं विद्या के समन्वय से ही सम्भव
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
प्राणि जगत में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। संसार के अन्य सारे पशुओं पर उसने सदा से शासन किया है। उन्हें अपने अधीन बनाया, प्रशिक्षण दिया और उपयोगी बनाया है। यों तो प्राणि शास्त्र के अनुसार मनुष्य व पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं है। मनुष्य भी एक पशु ही है। प्राणि जगत में सर्वोपरिता का गौरव पाने और अन्य पशुओं पर शासन कर उनको उपयोगी बना सकने का जो श्रेय मनुष्य को मिला है, उसका मूल कारण उसकी विकसित बुद्धि एवं विवेक ही है। पशुओं एवं मनुष्यों के बीच यही तो एक अन्तर है। मनुष्य में यही एक ऐसी विशेषता है, जिसके कारण वह अन्य प्राणि जगत का स्वामी तथा गुरु बना हुआ है। यद्यपि शारीरिक रूप से अन्य असंख्यों पशु ऐसे हैं जिनकी तुलना में मनुष्य बहुत ही निर्बल तथा अपूर्ण है। किन्तु परमात्मा के विशेष वरदान के रूप में मिली बुद्धि ने उसे सर्वश्रेष्ठता एवं ज्येष्ठता प्रदान करा दी है।
पशुओं में मनुष्यों की तरह आगे की बात सोच सकने, वर्तमान को समझ सकने और परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीं होती। वे तो सामने की, जो भी खाने-पीने तथा प्रजनन सम्बन्धी बातें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति पर ही जान पाते हैं। जबकि मनुष्य दिन, मास, वर्षों तथा युगों की बात आज ही सोच सकता है।
मनुष्य के बौद्धिक विकास के प्रमाण रूप में हम आज के उन्नत ज्ञान आश्चर्य जनक वैज्ञानिक प्रयोग, विशाल उद्योग, यातायात तथा न्याय, चिकित्सा आदि की ओर विस्मय तथा संतोष के साथ देखते और मनुष्य होने पर गर्व करते हैं। यह सब कुछ मनुष्य की विकसित बुद्धि के ही चमत्कार हैं। बुद्धि के विकास से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है, उसका मनुष्य होना सार्थक और संसार से सुन्दरतर हो जाता है। बुद्धि विकास के अभाव में मनुष्य अन्य पशुओं की भाँति ही सींग पूँछ से रहित पशु ही रहता है। मनुष्यता का लक्षण बुद्धि एवं विवेक का विकास ही है। पूर्ण मनुष्य बनने और सर्वोपरिता का श्रेय पाने के लिये हर सम्भव उपाय से मनुष्य को अपने बुद्धि विकास में लगा ही रहना चाहिये।
ईश्वर की ओर से लगभग समान बुद्धि तत्व का हर मनुष्य को अनुग्रह मिलता है। कोई जन्म जात मेधावी विद्वान अथवा विवेकी कदाचित ही होता है जन्म लेने और चेतना अनुभव करने के बाद मनुष्य अपने अध्यवसाय के बल पर ही विकसित होता तथा बढ़ता है। जो जन्मजात मेधावी माने जा सकते हैं, वे भी अपने पूर्व जन्म के अध्यवसाय के फलस्वरूप वह विशेषता लेकर वर्तमान जीवन में जाग्रत होते हैं। आशय यह कि मनुष्य के लिए विवेक एवं बुद्धि का विकास उसके अध्यवसाय के आधार एवं अनुपात पर ही होता है।
मनुष्य के बुद्धि विकास के अध्यवसायों में विद्याध्ययन का स्थान प्रमुख तथा व्यापक है। विद्या की आवश्यकता न केवल बुद्धि विकास के ही लिये है, प्रत्युत यह लोक से लेकर परलोक तक की सभी सफलताओं का आधार है। जीवन को सफल, उच्च तथा परिपक्व बनाने के लिये युगों से संचित मानवीय ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। उन सारे महान व्यक्तियों ने, जिन्होंने उन्नति के चरम शिखरों को छूने का प्रयास किया है, अपने जीवन में अध्ययन सम्बन्धी अध्यवसाय की प्रधानता ही है। उन्होंने लाख संकट उठाये, हजारों अभावों में रहे, कितनी ही व्यग्रता एवं व्यथा की परिस्थितियाँ क्यों न आई हों अपने अध्ययन एवं ज्ञान सम्बन्धी अभ्यास में व्यवधान न आने दिया। वे पुराने ज्ञान से जीवन का अनुभव और तात्कालिक विषयों का अधिकाधिक अध्ययन कर आधुनिक ज्ञान का लाभ उठाते ही गये।
यदि उन्हें ज्ञान की इतनी उत्कट अभिलाषा न होती या उसके महत्त्व को कम आँक कर यों ही मनोरंजन के रूप में कुछ पढ़ कर काम चलाने की सोची होती, तो निश्चय ही वे उन्नति के उन सोपानों पर भी चरण न रख सकते, जिसके अधिकारी बनकर आज विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विवेक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों के उदाहरण बन चुके हैं। नित्य नियम से उत्तमोत्तम ग्रन्थों तथा विषयों का अध्ययन करते रहने से मनुष्य की बुद्धि में उस प्रखरता का सचमुच विकास होता रहता है, जिसके आधार पर अच्छाई, बुराई, पाप-पुण्य का ठीक-ठीक निर्णय किया जा सकता है, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर विजय पाई जा सकती है और प्रगति की ओर विश्वस्त तथा निर्भय पग बढ़ाया जा सकता है।
विद्या के अभाव में उन्नति असम्भव है। यही वह पूँजी है जो सच्चे अर्थों में मनुष्य का उत्थान कराती और यश व गौरव का अधिकारी बनाती है। ऐसा एक भी उदाहरण इस संसार में नहीं पाया जा सकता, जिसके आधार पर यह कहने का साहस किया जा सके कि बिना ज्ञान एवं विद्या के भी उन्नति एवं प्रगति सम्भव मानी जा सकती है।
निःसन्देह विद्या ऐसी ही अक्षय सम्पदा है जिसका तीनों लोक, तीनों कालों में नाश नहीं होता। वह जन्म-जन्मान्तरों में मित्र की तरह मनुष्य के साथ बनी रहती है। प्रथम तो विद्या का फल आर्थिक सफलता के रूप में देखना ही नहीं चाहिये। फिर भी यदि वह अर्थकारी न भी हो पाती है तथापि उसके ज्ञान का जो एक अनिवर्चनीय एवं अहैतुक सन्तोष, शान्ति अथवा आनन्द है, उसको तो कोई परिस्थिति नहीं छीन सकती।
विद्या के सर्वथा अभाव में सम्पन्नता भी नहीं और यदि वह उत्तराधिकार, संयोग अथवा किन्हीं उचित-अनुचित उपायों से सुलभ भी हो गई, तब भी उसका कोई मूल्य महत्त्व मनुष्यता के रूप में नहीं माना जा सकता। सच्चा मनुष्य वही है जिसके पास ज्ञान की विशेषता है, विद्या का भी धन है। विद्या की कृपा से मनुष्य का जीवन सार्थक बनता है। विद्या के कारण ही मनुष्य सभ्य समाज में आदर का अधिकारी बनता है। धन के आधार पर विद्या रहित व्यक्ति का आदर, आडम्बर तथा प्रदर्शन मात्र होता है। उसमें कोई सत्यता अथवा हार्दिकता नहीं होती है। वह लोग उसे ठगने अपना उल्लू सीधा करने के लिये ही ऊपरी मन से आदर दिया करते हैं। सफलता, समाज, परिवार, आनन्द, उल्लास, आदर सम्मान आदि के जो भी भौतिक सुख हैं, विद्यावान् व्यक्ति उन्हें यथार्थ रूप में भोगता ही है, साथ ही वह उसी आधार पर आगे बढ़ता हुआ आत्म प्रकाश अथवा मोक्ष पद तक पा लेता है। विद्या ही सारे सुखों की जड़ और अविद्या ही सारे दुःखों का हेतु माना गया है।
धन, वैभव, जमीन-जायदाद, शक्ति, सुन्दरता आदि के आधार पर किसी की उन्नति, विकास अथवा व्यक्तित्व को परखने की कसौटी मूर्ख जनों की होती है। सज्जन एवं सत्पुरुष की कसौटी तो विद्या, बुद्धि, सद्ज्ञान, सदाचार, योग्यता एवं प्रतिभा ही रहा करती हैं। जिनने विद्वानों तथा बुद्धिमानों से सम्मान पाया, श्रेष्ठता तथा सफलता का प्रमाण पत्र प्राप्त किया है, वही वास्तव में सफल एवं श्रेष्ठ हैं अन्यथा व्यक्ति तो सफलता एवं श्रेष्ठता का झूठा सन्तोष कर आत्म-प्रवंचना किया करते हैं।
अध्येता अपनी आत्मा का सफल चिकित्सक माना गया है। अध्ययन द्वारा उपार्जित ज्ञान से वह शीघ्र ही अपनी आत्मा की व्याधियों को पहचान लेता है और उसी आधार पर उसका उपचार भी करता है। अविद्या से ग्रस्त मनुष्य की आत्मा प्रकाश से वंचित रह जाती है। आत्मिक प्रगति के अभाव में मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह ही हीन अवस्था में पड़ा रहता है और उन्हीं की तरह प्राकृतिक प्रेरणा से अपना जीवन यापन किया करता है। मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य, अधोगामी परिस्थितियों से उठकर ऊर्ध्व दिशा की ओर अभियान करना है। धर्म का सच्चा रूप पहचान कर उन पारमार्थिक कर्तव्यों को पूरा करना है, जिससे उसकी आत्मा दिनों दिन मुक्ति की ओर ही अग्रसर होती रहे। नर तन पाकर भी जो मुक्ति की ओर अग्रसर होने से रह गया, वह मानों सब कुछ होते हुए असफल एवं अभाग्यवान ही है। यह आत्मिक प्रगति विद्या के अभाव में कदापि सम्भव नहीं हो सकती। उन्नति एवं अवनति के कर्मों का निर्णय विवेक के आधार पर किया जा सकता है, उसका विकास विद्या के बिना हो ही नहीं सकता।
न केवल आध्यात्मिक प्रगति ही वरन् भौतिक प्रगति भी विद्या के बिना नहीं हो सकती। मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा वैयक्तिक हर प्रकार की उन्नति का मूल विद्या ही है। विद्या से मनुष्य का मानसिक संस्थान सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित हो जाता है, जिससे वह अच्छाई-बुराई, हानि-लाभ, उत्थान-पतन आदि की परिस्थिति पर ठीक-ठीक विचार कर सकता है और उनको समुचित दिशा प्रदान कर सकता है।
समाज में जिधर देखिये, विद्यावान् को ही हाथों हाथ लिया जाता है। अशिक्षित तथा अज्ञानी की कहीं पूछ नहीं होती। लोग उसका मन ही मन तिरस्कार किया करते हैं और सम्पर्क में आने पर मूर्ख, गँवार अथवा अज्ञानी समझकर टालने, हटाने का उपक्रम किया करते हैं। परिवारों में भी प्रायः उन्हीं सदस्यों का प्रभाव रहता है और उन्हीं की बात ज्यादा मानी जाती है, जो शिक्षित तथा विद्यावान् होते हैं। अशिक्षित तथा अज्ञानी सदस्यों के प्रति बहुधा उपेक्षा का ही दृष्टिकोण रहा करता है। बच्चों में भी स्नेह तथा प्यार का अनुपात उसी मात्रा में रहा करता है, जिस मात्रा में वे शिक्षा की ओर अधिकाधिक अग्रसर रहा करते हैं। शिक्षित सन्तान पिता के गौरव तथा सन्तोष का कारण बनती हैं।
जिस प्रकार नेत्रहीन के लिये सारा संसार अन्धकार पूर्ण रहता है, सुन्दर दृश्यों तथा रंगों के आनन्द से वह वञ्चित रह जाता है। उसी प्रकार ज्ञानान्ध के लिये भी संसार का मधुर रहस्य, ज्ञान-विज्ञान के चमत्कार, साहित्य तथा कलाओं का आनन्द युग-युग संग्रहीत ज्ञान का रसास्वादन आदि सारे सुख निरर्थक ही रहते हैं। वह इन स्वर्गीय सम्पदाओं के बीच भी एक पशु की तरह ही केवल उदर पालन की क्रिया में ही बहुमूल्य मानव जीवन को नष्ट कर देता है। संसार से लेकर आत्मा तक के जितने सुख माने गये हैं, विद्या के अभाव में, अज्ञानी पुरुष उन सबसे सर्वथा वंचित ही रह जाता है।
ज्ञान से दृष्टिकोण परिमार्जित होता है, विचार शक्ति बढ़ती है और युक्तायुक्त निर्णय की क्षमता प्राप्त होती है। क्या पाप है, क्या पाप नहीं हैं, इसका ज्ञान जीवन एवं कर्म दर्शन सम्बन्धी पुस्तकों से ही प्राप्त हो सकता है और वे सद्ग्रन्थ हैं ,, वेद शास्त्र, गीता, उपनिषद्, रामायण आदि आध्यात्मिक एवं धार्मिक पुस्तकें। इन आर्ष ग्रन्थों के अतिरिक्त विद्वानों द्वारा लिखा हुआ एक से एक बढ़कर नैतिक साहित्य भरा पड़ा है। योग्यता तथा युग के अनुसार उसका लाभ भी उठाया जा सकता है।
ज्ञान-गुण प्राप्त करने के लिये जिस वस्तु की प्रथम एवं प्रमुख आवश्यकता है, वह है शिक्षा। शिक्षा ज्ञान की आधारभूमि है। जो अशिक्षित है, पढ़ा लिखा नहीं है, वह किसी भी जीवन अथवा कर्म-दर्शन सम्बन्धी पुस्तक का अध्ययन किस प्रकार कर सकता है? किस प्रकार उसकी शिक्षाओं को समझ सकता है? और किस प्रकार हृदयंगम कर सकता है? उसके लिये तो ज्ञान से भरी पुस्तक भी रद्दी कागज से अधिक कोई मूल्य न रखेगी।
अनेक लोग कबीर, दादू, नानक, तुकाराम, रैदास, नरसी यहाँ तक कि सुकरात, मुहम्मद और ईसा जैसे महात्माओं एवं महापुरुषों का उदाहरण देकर कह सकते हैं कि यह लोग शिक्षित न होने पर भी पूर्ण ज्ञानवान तथा आध्यात्मिक सत्पुरुष थे, इनका सम्पूर्ण जीवन आजीवन निष्पाप रहा और निश्चय ही इन्होंने आत्मा को बन्धन मुक्त कर मोक्ष पद पाया है। इससे सिद्ध होता है कि निष्पाप जीवन की सिद्धि के लिए शिक्षा अनिवार्य नहीं है। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि अनायास ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष अपने पूर्व जन्म के संस्कार साथ लेकर आते हैं।
एक ही शरीर में जीवन की इतिश्री नहीं हो जाती। इसका क्रम जन्म-जन्मान्तरों तक चला है और तब तक चलता रहता है, जब तक जीवात्मा पूर्ण निष्पाप होकर मुक्त नहीं हो जाती। अनायास ज्ञानज्ञों का उदाहरण देने वालों को विश्वास रखना चाहिये कि उक्त देवात्माओं ने अपने पूर्व जन्मों में ज्ञान पाने के लिये अथक पुरुषार्थ किया होता है। उसके इतने अनुपम एवं उर्वर बीज बोये होते हैं। अपने मन, मस्तिष्क एवं आत्मा को इतना उज्ज्वल बनाया होता है कि किसी समय भी पुनर्जीवन में आँख खोलते ही उनका संस्कार रूप में साथ आया हुआ ज्ञान खुल, खिलकर उनके आदर्श व्यक्तित्व में प्रतिबिम्बित एवं मुखरित हो उठता है। ज्ञान प्राप्ति का प्रारम्भिक चरण शिक्षा के अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानवान नहीं बन सकता।
जीवन पद्धति को आध्यात्मिक मोड़ दिये बिना आत्मा के विकास की सम्भावनाएँ उज्ज्वल नहीं हो सकती। जीवन में आध्यात्मिक गुणों को उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता, दयाशीलता आदि को जागृत करने का काम शिक्षा द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। शिक्षा मनुष्य को ज्ञानवान ही नहीं, शीलवान बनाकर निरामय मानवता के अलंकरणों द्वारा उसके चरित्र का श्रृंगार कर देती हैं। शिक्षा सम्पन्न व्यक्ति ही वह विवेक शिल्प सिद्ध कर सकता है, जिसके द्वारा गुण, कर्म एवं स्वभाव को वांछित रूप में गढ़ सकना सम्भव हो सकता है। अशिक्षित व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन क्या बाह्य और क्या आन्तरिक विकारों एवं विकृतियों से भरा हुआ ऊबड़-खाबड़ बना रहता है। अशिक्षित व्यक्ति न तो जीवन की साज सँभाल कर सकता है और न उसका उद्देश्य ही समझ सकता है।
यदि आपको जीवन में सुख-सम्मान पाना है, अपनी आत्मा को उन्नत बनाकर परमात्मा तक
पहुँचने की जिज्ञासा है, तो आज से ही विद्या रूपी धन संचय करने में लग जाइये। यदि
आपकी सांसारिक व्यस्तता आपके लिये अधिक समय नहीं छोड़ती तो भी थोड़ा ज्ञान संचय ही
करते जाइये। बूँद-बूँद करके घट भर जाता है। जीवन के जिस क्षेत्र में आपको उन्नति
करने की अभिलाषा है, आप जिस प्रकार की सफलता प्राप्त करना चाहते हैं। उसी विषय
एवं क्षेत्र के अध्ययन में निरत हो जाइये। यदि आपका लक्ष्य सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
है तो आप उसी से उन्नति करते हुए अन्ततः अपने परम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार तक पहुँच
ही जायेंगे। मनुष्य ज्यों-ज्यों अपना विकास करता जाता है, ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों-त्यों
उसकी ज्ञान पिपासा बढ़ती जाती है और वह अध्ययनशील बनता जाता है। संसार का कोई भी
विषय पृथक नहीं है। वे सब ही ज्ञान सागर की बूँदें हैं, जो अन्ततः एक ही चिरशान्ति
के लक्ष्य पर पहुँचा देती है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
173. शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सुशिक्षितों की बढ़ती हुई बेकारी एवं बेरोजगारी इस तथ्य का बोध कराती है कि जिन आधारों को लेकर आज की शिक्षा प्रणाली चल रही है उसमें कहीं न कहीं कोई दोष अवश्य हैं। अशिक्षित मेहनत मजदूरी करके अपना गुजारा कर ले और सुशिक्षितों को नौकरी के लिए दर-दर भटकना पड़े, यह बात कुछ समझ में नहीं आती। किसान का एक अशिक्षित लड़का होश संभालते और शरीर से समर्थ होते ही पिता के कार्यों में हाथ बटाने लगता है। अन्य कोई काम न मिलने पर कृषि को ही अपनी आजीविका का साधन बना लेता है। बढ़ई, लुहार, नाई, धोबी आदि के लड़के पैतृक धन्धा अपनाकर शिक्षा के अभाव में भी परिवार का गुजारा चलाते देखे जाते हैं। दुकान, ठेला आदि लगाकर भी जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक उपार्जन कर लेने वालों की कमी नहीं है, पर आश्चर्य तब होता है जब ऊँची शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी कितने ही युवक नौकरी न मिल पाने का बहाना बनाकर परावलम्बी जीवन व्यतीत करते तथा परिवार एवं समाज के लिए भारभूत सिद्ध होते हैं। कारण ढूँढ़ने पर ढर्रे की शिक्षा व्यवस्था तथा चिंतन प्रणाली दोनों में ही कमी दिखाई पड़ती हैं।
आजकल रेडियो से प्रायः अब्दुल करीम के अचार का विज्ञापन प्रसारित होता रहता है। लाखों रुपयों का विज्ञापन खर्च भरने वाले अब्दुल करीम न तो डाक्टर हैं और न इन्जीनियर। शिक्षा के नाम पर उन्हें क ख ग का भी ज्ञान नहीं था। राजस्थान के सिरोही जिले में रहने वाला उनका परिवार कई पीढ़ियों से बँधुआ मजदूरी करके अपना पेट पालता था। अब्दुल करीम को यह स्थिति पसन्द न आई, वे बम्बई चले गये। एक दिन एक डाक्टर के मुँह से भारती अचार बनाना नहीं जानते सुनकर अब्दुल करीम को नया सूत्र हाथ लग गया। जिस देश में फलों की, तिलहन की, मसालों की कोई कमी न हो, उसके माथे पर यह कलंक लगना वस्तुतः दुःखद है। वे उस दिन से अचार बनाने लगे। अच्छा अचार, बढ़िया अचार, पूरी मेहनत और ईमानदारी का यह प्रतिफल हुआ कि आज दुनिया के ७६ देशों में उनके अचार का निर्यात होता है। हमारे देश में संसाधनों की कहीं कमी नहीं, इतने पर भी यदि लोग आजीविका के लिए भटकें तो समझना चाहिए कि कहीं कोई बड़ी भूल हो रही है।
‘‘लाओजी’’ चाय के निर्माता लिपटन जी प्रारम्भ में ऐसे ही अशिक्षित निर्धन थे, प्रेस उद्योगों का निर्माता गुटेन बर्ग ने जिल्दसाजी से अपनी जिन्दगी शुरू की थी। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिससे यह पता चलता है कि आजीविका और सम्पन्नता शिक्षा के अभाव में भी चलाई जा सकती है। फिर शिक्षित होकर बेरोजगार होना तो एक तरह का अभिशाप ही समझा जाना चाहिये।
यह आश्चर्य तब और भी बढ़ता है जब सर्वेक्षण रिपोर्ट यह बताती हैं कि बढ़ते हुए अपराधों में युवा पीढ़ी के सुशिक्षितों का अधिक योगदान होता है। चोरी, उठाईगीरी जैसे सामान्य अपराधों को छोड़कर बड़े संगीन जुर्मों में तथाकथित शिक्षित युवा पीढ़ी का ही रोल होता है। कानून की पकड़ से बचने के लिए गम्भीर अपराधों में जिस बुद्धिमत्तापूर्ण तकनीक की जरूरत पड़ती है वह अधिकतर शिक्षित बुद्धिमानों में ही पायी जाती है। पढ़े-लिखे युवकों में बढ़ती हुई अपराध की प्रवृत्ति आने वाले आगामी संकटों का संकेत देती है तथा बताती है कि समाज के मेरुदण्ड युवा वर्ग का नैतिक अवमूल्यन हर दृष्टि से खतरनाक है। अपेक्षाकृत शिक्षितों से अशिक्षित कहीं अधिक सीधे साधे पाये जाते हैं तथा अपराधों में प्रवृत्त होने का अनुपात भी उनमें कम है। यह विचित्र निष्कर्ष प्रचलित शिक्षा की उपयोगिता अनुपयोगिता के अध्ययन एवं विश्लेषण के लिए बाध्य करता है।
उल्लेखनीय है कि स्वतन्त्रता की अवधि में लार्ड मैकाले की बनायी हुई शिक्षा प्रणाली आज भी अनेकों परिवर्तनों के बावजूद विद्यमान है जिसका एक मात्र लक्ष्य था आफिसों के योग्य बाबुओं का निर्माण करना। निरुद्देश्य शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ जाते-जाते अंग्रेज एक मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव यह भी छोड़ते गये कि शरीर से श्रम करना बड़प्पन का परिचायक नहीं है। पराधीनता मनुष्य की शारीरिक ही नहीं मानसिक शक्तियों को भी कुण्ठित कर देती है। स्वतन्त्र चिंतन की क्षमता नहीं रहती। विशिष्टों की बात तो अलग है, पर सामान्यों की स्थिति ऐसी ही होती है। बहुतायत इन्हीं की होती है। भारत वासियों की मानसिकता को समझते हुए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण भ्रान्तियों को जन मानस में गहराई तक जमा देने में अंग्रेज सफल रहे। वे चले तो गये पर उपरोक्त ऐसे अभिशापों को छोड़कर, जिनके रहते न तो व्यक्ति की प्रगति सम्भव थी और न ही समाज की।
बढ़ती हुई बेकारी और बेरोजगारी की तह में श्रम से जी चुराने की मनोवृत्ति जहाँ एक कारण है वहाँ व्यवहारिक जीवन की समस्याओं से दूर रहने वाली शिक्षा प्रणाली भी प्रमुख कारण है। विश्व के सभी मूर्धन्य विचारकों एवं शिक्षा शास्त्रियों ने शिक्षा के तीन प्रमुख लक्ष्य बताये हैं १. स्वावलम्बन २. व्यक्तित्व का निर्माण ३. सामाजिक सद्भावना का विकास। शिक्षा की पूर्णता एवं समग्रता इन तीनों के समन्वय से बनती है। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अपने देश की वर्तमान प्रणाली पर ध्यान देने पर मालूम होता है कि तीनों ही दृष्टियों से वह अक्षम है। शिक्षा का पहला लक्ष्य है कि शिक्षार्जन के उपरान्त युवक सक्षम स्वावलम्बी बने। ऐसी योग्यता उसके भीतर विकसित हो जाय कि उसे आजीविका के लिए नौकरी की खोज में भटकना न पड़े। आवश्यकता आ पड़ने पर अपने एकाकी बलबूते ही अपनी भौतिक समस्याओं का समाधान ढूँढ़ ले। रूस, अमेरिका, इंग्लैण्ड ने यह व्यवस्था बनायी है कि औपचारिक शिक्षा के साथ अनौपचारिक तकनीकी शिक्षा भी किशोरों को दी जाय ताकि आरम्भ से ही वह किसी भी कार्य विशेष में ऐसी दक्षता विकसित कर लें जिससे भविष्य में वह समाज पर बोझ न बने और अपनी उस तकनीकी विशेषता के आधार पर उपार्जन की व्यवस्था बना ले। जापान में तो बच्चों को ऐसी तकनीकी ट्रेनिंग घर पर ही मिल जाती है क्योंकि लगभग हर घर में छोटे छोटे कुटीर उद्योग स्थापित हैं। अपने देश में ऐसी व्यवस्था यत्किंचित स्थानों पर है। स्कूल एवं कालेजों में ज्ञान सम्वर्धन कराने वाले तथा डिग्रियाँ प्रदान कराने वाले विषयों की तो भरमार है, पर स्वावलम्बन के लिए तकनीकी शिक्षा के अभाव में वह समर्थता नहीं विकसित हो पाती कि अपने गुजारे की व्यवस्था आप कर लें। एक मात्र सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं की सेवाओं में नौकरी प्राप्त करने का आधार बचता है। अधिकाँश युवक शिक्षा प्राप्ति के बाद अपने देश में इसी फिराक में रहते हैं कि इन संस्थाओं में कोई छोटी मोटी नौकरी मिल जाय। मूर्धन्य स्तर की प्रतिभाओं की बात अलग है, पर उनकी संख्या सीमित होती है। अतिरिक्त विशिष्ट क्षमता के कारण उनकी माँग तो सर्वत्र रहती है प्रस्तुत समस्या के अन्तर्गत वे नहीं आते।
सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं में भी स्थान सीमित होने के कारण सीमित व्यक्ति ही नौकरी प्राप्त करने में सफल हो पाते हैं। शिक्षित युवकों की एक बड़ी संख्या को प्रतिवर्ष नौकरी पाने से वंचित रह जाना पड़ता है। अन्य देशों की भाँति सामान्य शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा का भी क्रम जुड़ा होता तो इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता तथा इतनी तीव्र गति से बेरोजगारी नहीं बढ़ने पाती। कहीं नौकरी न मिलने पर कोई भी छोटा मोटा उद्योग करके अपना गुजारे का साधन बना लेता।
प्रारम्भिक ज्ञान सम्वर्धन की दृष्टि से आरम्भिक कक्षाओं में हर विषयों का समावेश शिक्षण में होना आवश्यक तो है, पर आगे की कक्षाओं में कितने ही ऐसे विषयों का भार शिक्षार्थी के ऊपर रहता है जिनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं रहती। मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर बच्चों की अभिरुचि देखते हुए किसी विषय विशेष में विशेषता हासिल करने की शिक्षण व्यवस्था के साथ-साथ निरुद्देश्य विषयों के स्थान पर तकनीकी ज्ञान की शिक्षा का क्रम जोड़कर प्रस्तुत समस्या के समाधान में सफलता पायी जा सकती है।
स्वावलम्बन ही पर्याप्त नहीं है व्यक्तित्व की श्रेष्ठता एवं प्रौढ़ता भी तो आवश्यक है। वह न हुआ तो युवक के भटकाव की गुंजाइश रहेगी। इस सत्य को वर्तमान देश की परिस्थितियों में सर्वत्र देखा जा सकता है। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत लेने एवं देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। स्वावलम्बी होते हुए भी पैसे के लालच में अपना ईमान खोते तथा कर्तव्यों से च्युत होते कितने ही कर्मचारियों एवं अफसरों को देखा जा सकता है। स्थिति यहाँ तक जा पहुँचती है कि ईमानदारी को मूर्खता की श्रेणी में गिना जाने लगा है। स्पष्ट है कि जब तक घटिया स्तर के व्यक्ति शिक्षित एवं योग्य होते हुए भी सरकारी एवं गैर सरकारी सेवाओं में मात्र योग्यता के आधार पर पहुँचते रहेंगे, उपरोक्त समस्या यथावत बनी रहेगी। कानून एवं न्याय व्यवस्था का दण्ड विधान तथा बाह्य दबाव रोकथाम कर पाने में तब तक असमर्थ सिद्ध होगा जब तक कि नागरिकों के भीतर से चरित्रनिष्ठा नहीं उभरेगी। इसके लिए आरम्भ से ही प्रयास करना होगा। वह मनोवैज्ञानिक प्रणाली विकसित करनी होगी ताकि छात्र चरित्र निष्ठा को सर्वोपरि महत्त्व दें तथा उसके विकास के लिए हर सम्भव प्रयास करें। अपने देश का एक दुर्भाग्य यह है कि विद्वता की तो सर्वत्र प्रशंसा एवं पूजा होती है, पर चरित्र की नहीं। होना यह चाहिए कि विद्वता वह अभिनन्दित हो, जो नीतिमत्ता की पक्षधर हो। विद्वानों एवं चरित्रवानों में से चयन की बात आये कि किसको सम्मान दिया जाय तो प्राथमिकता चरित्रवानों को मिलनी चाहिए।
ब्रेन वाशिंग के कितने ही प्रयोग पिछले दिनों सारे विश्व में चले हैं। हिटलर ने नाजीवाद के रंग में रंगने के लिए शिक्षा को ही सर्वप्रथम माध्यम बनाया। शिक्षण संस्थाओं में वह मनोवैज्ञानिक व्यवस्था बनायी गयी कि प्रत्येक शिक्षार्थी के मन में राष्ट्रीयता की उमंग उमँगने लगे तथा वह नाजीवाद की महत्ता स्वीकार कर ले ऐसा ही हुआ। अपने प्रयोग में हिटलर पूर्णतया सफल रहा। कम्युनिस्ट देशों में कप्यूनिज्म की विचारधारा शिक्षा के माध्यम से ही भरी जाती है। विचारशीलता यदि चरित्र की श्रेष्ठता की महत्ता स्वीकार करती है तथा समाज एवं देश की प्रगति के लिए आवश्यक मानती है तो इसके लिए प्रयास आरम्भिक शिक्षण के साथ ही करना होगा। प्रौढ़ व्यक्ति उस सूखे बाँस की भाँति होते हैं जिनमें परिवर्तन कठिन पड़ता है। बच्चे वे कोपल है जिन्हें जैसा चाहे मोड़ा जा सकता है। यदि अगली पीढ़ी को व्यक्तित्व की दृष्टि से श्रेष्ठ बनाना है, तो सर्वप्रथम शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षण की समग्र व्यवस्था बनानी होगी।
उद्दण्डता एवं उच्छृंखलता के लिए आज की युवा पीढ़ी बदनाम है। दोष मात्र उनका ही नहीं है, उस वातावरण का भी है जिसमें उच्छृंखलता को बढ़ावा देने वाले तत्वों की बहुलता है। आत्मानुशासन का जो पाठ बालकों को बचपन से न केवल पढ़ाया जाना चाहिए था वरन् उनके आचरण में घुलना चाहिए था, उसका इस शिक्षण व्यवस्था में अभाव है। पुरातन काल की गुरुकुल शिक्षण व्यवस्था में आत्मानुशासन छात्र की पात्रता की पहली कसौटी होती थी। श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न आचार्यों के निर्देशन में गुरुकुल चलते थे। वे छात्रों का न केवल शिक्षण करते थे वरन् चरित्र की दृष्टि से महान बनाने के लिए हर प्रकार के भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रयोग करते थे। जितना शिक्षण करते थे उससे अधिक उनके प्रखर व्यक्तित्व से छात्र प्रेरणा लेते थे। फलस्वरूप गुरुकुलों से निकलने वाले छात्र ज्ञान एवं चरित्र दोनों ही दृष्टियों से समुन्नत होते थे। आज विद्यालयों में प्रतिभा बढ़ाने की तो व्यवस्था है, पर चरित्र निर्माण के लिए कोई सुनियोजित तंत्र नहीं है। शिक्षा व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र तीनों ही के लिए अधिक उपयोगी बने, इसके लिए नैतिक शिक्षा का भी शिक्षण में समावेश करना होगा।
तीसरा प्रमुख लक्ष्य शिक्षा का यह है कि युवक शिक्षा प्राप्ति के बाद आत्म केन्द्रित न रहकर समाज परायण अर्थात् समाज के प्रति उदार बनें। जिस समाज से उसने अनेकों प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त की, उसके प्रति भी कुछ कर्तव्य होता है। उस कर्तव्य का निर्वाह इसी प्रकार हो सकता है कि अपनी क्षमता के अनुसार हर युवक को समाज की प्रगति एवं उन्नति में भी सहयोग देना चाहिए। सामाजिक सद्भावना का विकास ही सही अर्थों में सुशिक्षित होने की पहचान है। शिक्षित होने के बाद भी कोई यदि संकीर्ण स्वार्थों की परिधि में रह जाता है, तो उसमें और किसी प्रकार मेहनत मजदूरी से पेट भरने वाले अशिक्षितों में क्या अन्तर रहा?
कहना न होगा उपरोक्त लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रचलित शिक्षण प्रणाली में आवश्यक हेर-फेर अभीष्ट है। यह किस प्रकार सम्भव होगा देश के विचारशील वर्ग को उसके लिए ठोस प्रयास करना होगा। सरकारी तंत्र पर पूर्णतया निर्भर रहने की अपेक्षा गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं द्वारा भी ऐसे अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
तथ्य इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि अपनी प्रचलित शिक्षण परम्परा पूरी तरह दोषपूर्ण है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन अनिवार्य हो गया है। आजकल शिक्षा तंत्र जिस तरह सरकारी नियंत्रण में जकड़ा है उस स्थिति में तो यह कार्य सरकार को ही करना चाहिए, पर यदि कहीं ऐसे राष्ट्रीय महत्त्व के कार्य को सरकार भरोसे छोड़ दिया गया तो फिर सर्वनाश हुआ ही समझना चाहिए। जिनके मन में स्वाधीनता संग्राम के समय की कांग्रेस जैसी राष्ट्रभक्ति की भावना हो, जो वस्तुतः परमार्थ परायण हों उन्हें इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए और ऐसे विद्यालयों की स्थापना में योगदान करना चाहिए, जिनमें शिक्षा के साथ स्वावलम्बन, व्यक्तित्व का विकास तथा चरित्र निर्माण का व्यवहारिक शिक्षण भी जुड़ा हुआ हो।
इसमें कोई कठिनाई नहीं हैं। शिक्षा प्राचीन काल में भी सामाजिक उत्तरदायित्व थी
आज भी बहुत से विद्यालय परमार्थिक न्यासों के, सहकारी समितियों के अन्तर्गत चलते
हैं इनमें सरकार का उतना हस्तक्षेप नहीं होता। उन्हें सरलतापूर्वक नये ढाँचे में
ढाला जा सकता है। जिनके मन में शिक्षा संस्थान खोलने की उमंग उठे, उन्हें तो बार-बार
उपरोक्त तथ्यों पर विचार करना और जन सहयोग के सहारे ऐसे शिक्षण संस्थान खड़े करने
के लिए कटिबद्ध होना चाहिए, जो नवयुवकों को आर्थिक परावलम्बन की आत्महीनता से मुक्त
कर सकें, उन्हें अपराधों से बचा सकें साथ ही प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन, गुरुकुल
काँगड़ी हरिद्वार को जिस तरह किसी समय महापुरुषों के निर्माण की प्रयोगशाला समझा
जाता था वैसे विद्यालयों की सारे देश में स्थापना कर सकें।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
174. नागरिकों के स्तर पर राष्ट्र की प्रगति निर्भर
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
किसी भी देश की प्रगति एवं समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ के नागरिकों
का स्तर कैसा है। राष्ट्रीय विकास के लिए बनने वाली योजनाओं की अपनी उपयोगिता है
पर उनकी सफलता नागरिकों की चरित्रनिष्ठा के ऊपर निर्भर करती है। योजनाएँ कितनी
भी सशक्त एवं समर्थ क्यों न हो, उनकी सफलता तब तक संदिग्ध बनी रहेगी जब तक व्यक्तियों
का नैतिक स्तर गिरा हुआ है अस्तु, समाज एक देश की स्थायी प्रगति एवं समृद्धि के
लिए सर्व प्रथम नैतिक आधारों को सुदृढ़ बनाना आवश्यक हो जाता है।
नैतिकता के अन्तर्गत वे सारे तत्व समाहित है जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के सर्वांगीण
विकास में योगदान देते हो। श्रमशीलता, ईमानदारी, प्रामाणिकता उसके बाह्य पक्ष है,
तो शालीनता, शिष्टता, उदारता, मिलनसारिता अन्तरंग। कोई व्यक्ति अपने काम के प्रति
ईमानदार है पर सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रहा है तो उसे नीतिवान,
चरित्रवान नहीं कहा जा सकता। नैतिकता समस्त समाज की बात सोचने, सबकी प्रगति के
लिए तदनुरूप आचरण करने का ही पर्याय है, जो व्यक्तिगत परिधि तक सीमित न रहकर सामाजिक
एवं राष्ट्रीय प्रेम के रूप में प्रस्फुटित होती है फलतः समग्र प्रगति का मार्ग
प्रशस्त होता है।
समाज एवं देश प्रेम का एक तूफानी झोंका बीसवीं सदी के आरम्भ में आया था। समाज सेवियों,
अनुपम अविस्मरणीय त्याग बलिदान का आदर्श प्रस्तुत करने वाले क्रान्तिकारियों, देश
प्रेमियों की एक समर्थ एवं सशक्त टोली पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ते के लिए उठ
खड़ी हुई। असामान्य ही नहीं सामान्य व्यक्तियों के मन में भी देश प्रेम की लहरे
हिलोरें ले रही थी। सबने अपने अपने स्तर पर प्रयास किया। फलतः सैकड़ों वर्षों से
चली आ रही गुलामी की जंजीरें टूट कर छिन्न भिन्न हो गई और अंग्रेजों को भागना पड़ा।
राष्ट्रीय चरित्र का, देश प्रेम का एक अनूठा और ऐतिहासिक उदाहरण उन दिनों प्रस्तुत
हुआ जिसे याद कर आज भी रोमांच हो आता है।
प्रगति के लिए द्वितीय चरण उठाने की आवश्यकता थी। उत्कृष्टता का जो आवेग एवं आवेश
उन दिनों प्रकट हुआ तथा स्वाधीनता का कारण बना, वह चिरन्तन रहा होता, नव निर्माण
के प्रयासों में उसी प्रचण्ड वेग के साथ नियोजित रहा होता तो आज देश की स्थिति
कुछ और ही होती। असमर्थता एवं अभाव ग्रस्तता का जो रोना पड़ रहा है यह स्थिति न
आती। टालने के लिए, मन बहलाने के लिए कुछ भी बहाने बाजी की जा सकती है, कि देश
में साधनों का अभाव है, अशिक्षा का प्रकोप है आदि अवगति के कारणों में एक सीमा
तक इनका भी योगदान हो सकता है पर पूर्णतया इन्हें ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता
है। इस तथ्य से कोई भी विचारशील इन्कार नहीं कर सकता कि पिछले कुछ दशकों में राष्ट्रीय
चरित्र का बुरी तरह अवमूल्यन हुआ है। स्वतन्त्रता संग्राम में देश की कर्मठता,
चरित्र निष्ठा, देश प्रेम की भावना जागी वह स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद एकाएक
ही विलुप्त हो गई। नैतिक अवमूल्यन का प्रतिफल सामने आया। काम के प्रति अवमानना
सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा, कामचोरी, हरामखोरी की बढ़ती हुई प्रवृत्ति, अहमन्यता,
अन्यमनस्कता प्रकारान्तर से नैतिक पतन की ही परिणति है जिसने देश के विकास में
भारी अवरोध पैदा किया है।
भारत और जापान ने अपनी विकास यात्रा करीब करीब एक साथ आरम्भ की है। भारत पर अंग्रेजों
का प्रभुत्व था। द्वितीय विश्व युद्ध में जकड़ा ग्रेट ब्रिटेन भारत में बन रही परिस्थितियों
एवं स्वयं की अन्तर्राष्ट्रीय उलझनों के कारण जहाँ भारत को १९४७ में स्वतन्त्र
करने पर विवश हुआ, वहाँ जापान को भी इसी युद्ध में जर्मनी के साथी होने की परिणति
के रूप में हिरोशिमा, नागासाकी के आणविक विस्फोट की प्रलय विभीषिका के उपरान्त
अपना अभ्युत्थान नये सिरे से करना पड़ा। गत पैंतीस वर्षों में सारे विश्व ने कई
उतार चढ़ाव देखे हैं। फिर भी जिस क्रम से इस छोटे से राष्ट्र जापान ने नैतिक एवं
भौतिक दोनों ही दृष्टि से प्रगति की है, वह अनायास ही सबके लिए प्रेरणा का स्रोत
बन गई है।
कलात्मक वस्तुएँ, तकनीकी सामान, मोटर पार्ट्स, घड़ी, रेडियो, इलेक्ट्रानिक्स के
क्षेत्र में जापान विश्व भर में अग्रणी है। विश्व के प्रसिद्ध औद्योगिक राष्ट्रों
में जापान का औद्योगिक उत्पादन सबसे अधिक है। प्रतिवर्ष ५-३ प्रतिशत की दर से उसमें
अभिवृद्धि हो रही है। बेरोजगारी नहीं के बराबर है। मात्र काम योग्य व्यक्तियों
में से एक प्रतिशत बेकार हैं। वर्तमान में जापान विश्व में स्टील एवं मोटर का सबसे
बड़ा उत्पादक है। दैनिक अंग्रेजी पत्र स्टेट्स मैन में पीटर हेजल हर्थ द्वारा प्रकाशित
२८ दिसम्बर १९८० के एक आँकड़े के अनुसार वर्ष १९८० में जापान में १ करोड़ १० लाख
मोटर कारें बनी। यह संख्या अमेरिका के इस वर्ष के कुल उत्पादन से ३० लाख अधिक है।
इस्पात का उत्पादन ११ करोड़ १७ लाख टन हुआ जो अमेरिका उत्पादन से १ करोड़ १७ लाख
टन अधिक है। उल्लेखनीय है कि उनके निर्माण के लिए अधिकांश कच्चा माल बाहर से मँगाया
जाता है।
मोटर साइकिल एवं इलेक्ट्रानिक्स कम्प्यूटर्स आदि के उत्पादन में भी जापान सभी देशों
से आगे है। स्विट्जरलैंड कभी घड़ियों के लिए प्रख्यात था किन्तु जापान ने उसकी यह
ख्याति छीन ली है। स्विट्जरलैंड की ८६७ कम्पनियों में जितनी घड़ियाँ बनती है उससे
९० लाख अधिक मात्र जापान की कम्पनियाँ बना देती हैं। विश्व भर में जितने जहाज बन
रहे है उनका ४९ प्रतिशत जहाज बनाने का आर्डर अकेले जापान ने लिया है। फोटोग्राफी
कैमरा अच्छे किस्म के जर्मनी में बनते थे किन्तु अपने पुरुषार्थ और मनोयोग के बलबूते
जापान इस क्षेत्र में भी जर्मनी से कही आगे निकल गया। वर्ष १९८० में हवाई जहाज
उद्योग एवं आधुनिकतम कम्प्यूटर तकनीक में भी जापान ने विश्व के सभी देशों को पीछे
छोड़ दिया।
पीटर हेजल हर्थ ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि निश्चित ही यह आश्चर्यजनक बात
है कि विश्व की कुल जनसंख्या का मात्र ३ प्रतिशत वाला देश जापान मात्र कुल भूभाग
के दशमलव तीन प्रतिशत भूभाग पर बसा हुआ है किन्तु समूचे विश्व की १० प्रतिशत आर्थिक
गतिविधियों का संचालन करता है। जापान की इस प्रगति को देखते हुए हडसन इन्स्टीट्यूट
अमेरिका के भविष्य विज्ञानी प्रो. हरमन कान ने भविष्यवाणी की है कि इस शताब्दी
के अन्त तक जापान का व्यापार ४ लाख करोड़ रुपये तक पहुँच जायेगा।
जापान की इस चमत्कारी प्रगति के कारणों पर विचार करने पर एक ही तथ्य हाथ लगता है
कि देश वासियों के उत्कृष्ट चरित्र ने ही उन्हें वर्तमान स्थिति तक पहुँचाया है।
प्रामाणिकता, ईमानदारी, सहिष्णुता, श्रमशीलता की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी है।
हर व्यक्ति व्यक्तिगत लाभ की तुलना में राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि महत्त्व देता
है। प्रस्तुत बहुचर्चित घटनाक्रमों में उनकी देश भक्ति स्पष्ट झलकती है।
अभी द्वितीय विश्वयुद्ध को बीते कुछ ही दिन हुए थे। जापानवासियों पर युद्ध ने जो
कहर ढाया था उसकी क्षतिपूर्ति के लिए वे खून पसीना एक कर रहे थे। एक अमेरिका फर्म
के संचालक ने अपने फर्म में काम कर रहे जापानी श्रमिकों की सुविधा के लिए उनके
श्रम के दिनों में कटौती करके काम के सप्ताह को छै दिनों के स्थान पर पाँच दिनों
का कर दिया। दूसरे ही दिन अप्रत्याशित प्रतिक्रिया सामने आयी। सभी जापानी कर्मचारियों
ने हड़ताल कर दी। संचालक ने कारण का पता लगाया। कर्मचारी ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष
ने सदस्यों द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव फर्म के संचालक के समक्ष प्रस्तुत किया
जिसमें प्रतिवेदन था कि युद्ध ने हमारी आर्थिक व्यवस्था को नष्ट कर दिया है। हमें
अपनी बिगड़ी स्थिति को सुधारने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी होगी। ऐसे में संचालक महोदय
द्वारा श्रम के दिनों में कटौती कर दर्शायी गयी हमदर्दी हमारे देश की प्रगति के
लिए हानिकारक है। अस्तु कृपया अपने निर्णय को वापिस लें और हमें उठने के लिए अधिक
श्रम करने का मौका दें। संचालक को अपना निर्णय वापिस लेना पड़ा। जिस देश के नागरिकों
में देश प्रेम इतना उच्च स्तरीय हो भला वह देश पीछे कैसे रह सकता है।
समृद्धि की चोटी पर पहुँचने के बाद भी जापान के नागरिकों में देश भक्ति की भावना
में किसी भी प्रकार कमी नहीं आयी है। हर व्यक्ति श्रम की अवमानना, कामचोरी, हरामखोरी
को नैतिक अपराध मानता है। इन दिनों विश्व भर में अधिकारों की माँग एवं उनकी आपूर्ति
के लिए सामूहिक हड़तालों का एक सिलसिला चल पड़ा है। कानूनी दृष्टि से निर्धारित नियमों
के अन्तर्गत आने पर हड़तालों को वैध भी माना जाता है। इतने पर भी जापान की स्थिति
सर्वथा भिन्न है। वहाँ लम्बी हड़तालों को नैतिक अपराध की श्रेणी में गिना जाता है।
टोकियो के सूफीजी विभाग में विश्व का सबसे आधुनिकतम प्लान्ट अवस्थित है जिसमें
हजारों की संख्या में कर्मचारी काम करते हैं। इस प्रेस से आशीसिम्बुन नामक प्रमुख
समाचार पत्र का प्रकाशन होता है। १ करोड़ २० लाख प्रतियाँ प्रतिदिन प्रातः एवं सायं
संस्करण के रूप में निकलती है। पत्र के प्रकाशक हैं-दाताशी कितनी। एक इण्टरव्यू
में उनसे कर्मचारियों के हड़ताल के विषय में पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया कि
विगत पाँच वर्षों में दो बार हड़ताल हुई थी। एक बार एक घण्टे की जिसमें कुछ भी नुकसान
नहीं हुआ क्योंकि हड़ताल काम के घण्टों में नहीं हुई थी। दूसरी हड़ताल वर्ष १९७९
में कर्मचारी यूनियन द्वारा चाय की छुट्टी के समय में की गई जो मात्र १५ मिनट की
थी। प्रकाशक के अनुसार इस पत्र का प्रकाशन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कभी भी नहीं
बन्द हुआ।
२१ अप्रैल १९८१ के हिन्दुस्तान टाइम्स में एक व्यक्ति ने अपना एक रोचक संस्मरण
लिखा था कि उन्हें जापान से भारत हवाई जहाज द्वारा वापिस लौटना था। जिस दिन का
टिकट था उसी दिन सूचना मिली कि हवाई सेवा के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी है। उन्हें
चिन्ता हुई। पैसे भी समाप्त हो चले थे जिसके कारण अधिक दिनों तक रुकना संभव न था।
सम्बन्धित अधिकारियों से पता लगाने पर आश्चर्यजनक बात मालूम हुई। अधिकारियों ने
बताया कि हमारे देश में दो दिनों से अधिक की हड़ताल नहीं होती। क्योंकि इससे देश
को भारी क्षति उठानी पड़ती है। इससे भाई श्री दिनकर को प्रसन्नता हुई और आश्चर्य
भी। प्रसन्नता का कारण यह था कि हड़ताल दो दिनों से अधिक नहीं चलेगी। चिन्ता से
मुक्ति मिली। आश्चर्य इस बात का था कि जापान के प्रतिव्यक्ति की औसत आय ८ हजार
डालर प्रतिवर्ष से भी अधिक है। सामान्यतः व्यक्तिगत आर्थिक क्षति अधिक न उठानी
पड़े इसलिए हड़ताल समाप्त की जाती है पर जापान के कर्मचारियों के साथ तो ऐसी कोई
मजबूरी न थी। वे चाहते तो अधिक दिनों तक हड़ताल चला सकते थे। निस्सन्देह यह जापान
वासियों का देश के प्रति उत्कट आदर्श एवं प्रेम का परिचायक था। जिसके कारण हर व्यक्ति
देश के प्रति अपने नैतिक दायित्वों को समझता एवं निर्वाह के लिए प्रयत्नशील रहता
है।
एक ओर जापान वासियों के देश प्रेम को देखकर हृदय गदगद हो उठता है वही दूसरी ओर
अपने देश की स्थिति को देखकर भारी निराशा होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के तैतींस
वर्षों बाद भी स्वावलम्बन की दिशा में आशा जनक एवं अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है।
प्रति व्यक्ति की औसत आय प्रतिवर्ष १२०० रुपये है। इस विषम स्थिति में भी यहाँ
किसी भी सरकारी एवं गैर सरकारी विभाग में महीनों तक हड़ताल चलना एक सामान्य सी बात
है। जापान में दो दिनों से अधिक हड़ताल चलाना देश के लिए हानिकारक समझा जाता है।
जबकि हमारे यहाँ प्राप्त आँकड़ों के अनुसार वर्ष १७७९ में मात्र हड़ताल के कारण
४ करोड़ ३० लाख श्रमदिनों की क्षति हुई। अनुमानतः १९७९ में एक भी हड़ताल नहीं होती
तो उससे होने वाले लाभ से हजारों व्यक्तियों को रोजगार देने के साधन जुटा लिए जाते।
ये तो हड़ताल के कारण होने वाली क्षति के आँकड़े हैं। बेमन से, आधे-अधूरे रूप में
किए जाने से काम के स्तर एवं मात्रा दोनों में कमी आती है। कामचोरी की इस घातक
मनोवृत्ति का भी लेखा-जोखा लिया जाय तो मालूम होगा कि हड़ताल से होने वाली क्षति
की तुलना में इसकी क्षति कहीं अधिक है। बढ़ती हुई इस प्रवृत्ति से उत्पादन घटता
तथा काम का स्तर गिरता है। फलतः व्यक्ति और समाज दोनों को ही समान रूप से नुकसान
उठाना पड़ता है। प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है। जिस देश में समृद्धि के मूलभूत
स्रोत श्रम की अवमानना की जाती हो और काम न करना बड़प्पन का चिन्ह माना जाता हो
उसकी प्रगति कैसे सम्भव है। अपने देश में पिछले दिनों यही घातक भूल होती रही है।
सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों को गौण मानकर उपेक्षा करने एवं व्यक्तिगत हितों
को अत्यधिक महत्त्व देने की दुष्प्रवृत्ति की एक कड़ी और जुड़ जाने से संकीर्ण स्वार्थपरता
को ही प्रोत्साहन मिला। शिष्टता, शालीनता के नागरिक नियमों की अवमानना तो एक सामान्य
सी बात हो गई है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण रास्ते चलते हाट बाजारों में, मोटर रेलगाड़ी
में सफर करते हुए देखा जा सकता है। अनुशासन हीनता एवं स्वेच्छाचार को स्वतन्त्रता
का पर्याय समझने की दुष्प्रवृत्ति से सामाजिक सुव्यवस्था एवं सन्तुलन बुरी तरह
डगमगा गया है।
इस तथ्य को भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिए कि किसी भी देश के विकास में उपलब्ध
भौतिक साधनों का उतना महत्त्व नहीं होता जितना कि नागरिकों के चारित्रिक स्तर का
विकास के लिए परिस्थितियाँ विपन्न होते हुए भी नागरिकों का नैतिक आधार सुदृढ़ हो
और हर व्यक्ति देश एवं समाज के प्रति अपने दायित्वों को समझकर उनके निर्वाह के
लिए जुट पड़े तो कोई कारण नहीं है कि प्रगति का पथ प्रशस्त न हो सके और पिछड़ेपन
का अभाव ग्रस्तता का अभिशाप जुड़ा रहे। छोटे छोटे देशों के ज्वलन्त उदाहरण हमारे
सामने हैं। प्रकृति प्रदत्त साधनों की दृष्टि से, जलवायु की दृष्टि से उनकी स्थिति
अपने देश से अधिक अच्छी नहीं है फिर भी वे द्रुतगति से आगे बढ़े हैं। जापान, इसराइल,
स्वीडन, फिनलैंड, डेनमार्क जैसे छोटे छोटे देशों की चन्द वर्षों में चमत्कारी प्रगति
को देखते है तो उस सफलता के पीछे एक ही कारण नजर आता है कि वहाँ के निवासियों के
उत्कृष्ट चरित्र, देश प्रेम की उदात्त भावना ने ही उन्हें वर्तमान स्थिति तक पहुँचाया
है। इसके विपरीत अरब राष्ट्रों का उदाहरण हमारे सामने है कि प्रकृति प्रदत्त तेल
का विपुल भण्डार होते हुए वे सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ी स्थिति में पड़े हुए हैं।
सर्वाधिक आन्तरिक दंगे फसाद एवं संघर्ष आये दिन इन्हीं देशों में होते रहते हैं।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
175. बालकों से माता-पिता का व्यवहार कैसा हो?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पीस इन द होम लीग नामक एक संगठन बना कर शिकागो में कुछ बच्चों ने निश्चय किया है कि वे अपने घरों में शान्ति का वातावरण बनाये रखने के लिए प्रयत्न और आवश्यकतानुसार सत्याग्रह करेंगे।
बच्चों के इस प्रकार के संगठन और उनके इस संकल्प को बाल स्वभाव कहकर उपेक्षा की जा सकती है किन्तु मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाय तो पता चलेगा कि इस तरह के प्रयत्न के पीछे बच्चों की कौन सी आन्तरिक पीड़ा उद्भासित हो रही है।
बात यह है कि इन दिनों यूरोप के अन्य भागों की तरह शिकागो में भी चमक दमक, रूप-सज्जा, वासना विलासिक जीवन में इस तरह ओछापन बढ़ता जाता है, तो उससे पारिवारिक बन्धन, दाम्पत्य प्रेम और परस्पर आत्मीयता के भाव नष्ट होने लगते हैं, स्वार्थ के साथ कलह, कपट, कुविचार और दुष्कर्मों का प्रवाह बढ़ जाता है। कहना न होगा कि इसका सबसे कटु प्रभाव सौम्य एवं सुकोमल चित्त बालकों पर ही पड़ता है। वे अपने माता-पिता के प्रति ही नहीं समाज के प्रति भी उदासीन होने लगते हैं, यही वृत्ति धीरे-धीरे उद्दण्डता और अपराध में परिवर्तित हो जाती है।
इस प्रकार के प्रयास का मूल संकल्प ऐसे ही कारणों से भोले-भाले बच्चों के मन में पैदा हुआ। इस लीग के प्रधान १४ वर्षीय बालक हीदर ग्रे ने बताया कि हमारे माता-पिता आपस में झगड़ते हैं या अपने अपने स्वार्थ को लेकर कलह और मनोमालिन्य उत्पन्न करते हैं तो घर में जो क्षोभ और दुराशा का वातावरण बनता है उससे हमें घुटन अनुभव होती है। यदि एक का पक्ष ले तो दूसरे के कड़ुवे बने, जबकि दोनों ही बाहें अपनी हैं। माँ से बिछुड़े तो पिता के स्नेह, प्रेम और आदर से वञ्चित, पिता से हृदय जोड़ कर रखे तो माँ के वात्सल्य सौम्यता और दुलार को खोये। हमारे लिए दोनों ही स्थितियाँ कष्टकारक हैं इसलिए अब बुराई के विरुद्ध सत्याग्रह करने का निश्चय किया है।
हीदर ग्रे जब अपने परिवार और बालकों की इस मनोदशा का वर्णन कर रहा था तो भावातिरेक से बार बार उसके आँसू भर आते थे, गला रुँध जाता था। इससे पता चलता था, बच्चों के लिए प्रेम स्नेह, शान्ति और सौम्यतापूर्ण व्यवहार का कितना अधिक महत्त्व है, इन रस भरी भावनाओं का आकर्षण हो तो बच्चों को महान व्यक्तित्व बड़ी सुगमता से प्रदान किया जा सकता है।
पारिवारिक जीवन में दुराग्रहों, दुष्प्रवृत्तियों के बढ़ने की यह स्थिति कितनी चिन्ताजनक है और उस दिशा में अभिभावकों की कितनी जिम्मेदारी का पालन करना चाहिए, इसका अनुमान इस समाचार से होगा। बच्चों ने निश्चय किया है कि झगड़ालू माता-पिताओं को यह दण्ड देंगे कि उनके बच्चे उनके प्रत्येक झगड़े के बाद एक सप्ताह तक बात नहीं करेंगे। यह दण्ड यद्यपि बालकों की आत्म पवित्रता के अनुरूप ही है, पर इससे उन अभिभावकों पर कितना प्रभाव पड़ेगा कहा नहीं जा सकता, यदि वे स्वयं स्थिति की गम्भीरता को नहीं अनुभव करते और अपनी मनोवृत्तियाँ बदलने के लिए स्वेच्छा से राजी नहीं होते।
यदि पति-पत्नी एक समझौता कर ले कि अपने बच्चों को पोषण, विकास और उन्हें सज्जन, उदार, सद्गुणी बनाने के लिए वे परस्पर अत्यधिक प्रेम, सौजन्यता, उदारता और आत्मीयता का जीवन जियेंगे और भोग-वासना आदि कलह बढ़ाने वाले, प्रेम श्रृंखलित करने वाले कारणों को जन्म नहीं देंगे तब तो बच्चों का यह सत्याग्रह भी सफल हो सकता है अन्यथा बालक तो बालक ही हैं, इससे अधिक बेचारे और क्या कर सकते हैं?
यह बात सुनने में तो जरूर कुछ अटपटी सी लगेगी कि कुछ अभिभावक प्रेम के नाम पर बच्चों से दुश्मनी करते हैं। अर्थात् उनका प्रेम प्रदर्शन कुछ इस प्रकार का होता है जिससे कि उन्हें बड़ी हानि होती है।
कुछ अभिभावकों का स्वभाव होता है कि वे बच्चों के खाने पीने का बड़ा ध्यान रखते हैं। ध्यान इस माने में नहीं कि उसने ठीक समय पर खाना खाया है या नहीं। वह कोई ऐसी चीजें तो नहीं खा-पी रहा है जो उसके स्वास्थ्य के लिए अहितकर हो। ध्यान इस बात का रखते हैं कि क्या बात है कि बच्चे ने आज ठीक से नहीं खाया, क्या कुछ पसन्द नहीं आया? न हो तो कुछ अच्छी चीज बनवा दी जाये या बाजार से ही कुछ बढ़िया चीज ले दी जाये।
ऐसा करने से बच्चे चटोरे और तरह-तरह की चीजें खाने के आदी हो जाते हैं। उनको स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य की चीजों का ज्ञान नहीं रहता वे अपव्ययी और बाजारू हो जाते हैं, जिससे उन्हें घर की बनी सामान्य और साधारण चीजें अरुचिकर हो जाती हैं।
बहुत से अभिभावक तो बच्चों को बार-बार खिलाते हैं। माँ खाती है तो अपने साथ खिलाती है, पिता खाने बैठता है तो अपने साथ बिठाल लेता है और अलग से तो उसे भोजन करना ही पड़ता है। यही नहीं कि माता-पिता अपने साथ केवल बिठाल ही लेते हो। जब तक स्वयं खाते हैं तब तक उसे भी खिलाने की कोशिश करते हैं और यदि वह नहीं खाता तो उसे प्यार से अनुरोध करके या पैसे देने का वायदा करके खाने को विवश करते हैं और इस प्रकार जब उसकी पाचन क्रिया बिगड़ जाती है तो तरह तरह की दवाइयाँ खिलाकर भूख बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।
बहुत से अभिभावक बहुत सी चीजें बच्चों को खिलाते पिलाते रहते हैं। जैसे अभी चाय
पिलाई गई तो कुछ देर बाद उसे दूध पिलाते हैं, फिर नाश्ते का नम्बर आता है। पुनः
मैं तुम्हारे लिए केले लाया था खा लिये या नहीं? और जाओ, माँ से अपनी मिठाई का
हिस्सा तो ले लो जाकर, यानि उनका वे खाने पीने का कुछ ऐसा क्रम लगा देते हैं कि
बच्चे को आधे घण्टे का भी अवकाश बिना खाये नहीं मिलता।
कुछ अभिभावक दूध, दही, घी, मलाई, मक्खन आदि गरिष्ठ वस्तुओं का प्रयोग ही स्वास्थ्य
का आधार मान लेते हैं और उन्हें खूब खिलाते हैं। वे उसकी औकात और उसकी पाचन शक्ति
का विचार बिलकुल नहीं रखते। उनकी इस प्रकार की भोजन सम्बन्धी चिन्ता और तत्परता
बच्चे के स्वास्थ्य को ठिकाने लगा देती है। किन्तु किया क्या जाये उन्हें बच्चे
से प्रेम जो है।
बहुत से अभिभावक बच्चों को बहुत ही कीमती वस्तु पहनाने में सन्तोष अनुभव करते हैं। उनका दृष्टिकोण उपयोगिता का नहीं, तड़क-भड़क, शान-शौकत और प्रदर्शन का रहता है। वे बच्चों को स्वयं बाजार ले जाते हैं और अच्छे से अच्छे कपड़े खुद उनसे पसन्द करा कर खरीदते हैं, फिर वे चाहे कितनी ही कीमती, कमजोर और अनुपयोगी क्यों न हो? अभिभावकों की इस दुर्बलता से दुकानदार खूब लाभ उठाते हैं। वे बच्चों की पसन्द के कपड़ों का अच्छा खासा मूल्य वसूल करते हैं कि जो कपड़ा बच्चा पसन्द कर लेगा, लेने से इन्कार नहीं कर सकते। इधर इस छूट के कारण बच्चे वस्त्रों की उपयोगिता, उनसे सम्बन्धित मितव्ययता और उनके मजबूत व टिकाऊ होने के विचार से वञ्चित रह जाते हैं और जीवन भर इसका महत्त्व नहीं जान पाते हैं।
बच्चों के पास बहुत से फैशनेबुल दिखाऊ और कीमती कपड़े होने से वे उनकी बार-बार पहनने, बदलने और दिखाने में ही लगे रह कर अन्य कामों की ओर बहुत कम ध्यान दे पाते हैं। साथ ही कपड़ों की बहुतायत होने से उनको ठीक से रखने और ठीक से उपयोग करने की ओर से लापरवाह हो जाते हैं। बहुत अच्छे कपड़े पहने होने के कारण कोई काम करते वक्त उनका ध्यान कपड़ों की ओर अधिक, काम की ओर कम रहता है, जिससे कोई काम वे सुचारुता से नहीं कर करते फलतः किसी काम में दक्ष भी नहीं होने पाते।
इसके अतिरिक्त वे साधारण कपड़ों वाले अन्य बच्चों से अपने को श्रेष्ठ और अमीर समझते हैं जिससे उनके स्वभाव में विषमता का भाव पैदा हो जाता है और वे अपने साथियों को भी हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। उनका अभिमान उनके व्यवहार में व्यक्त होने से दूसरे बच्चे उनसे ईर्ष्या और घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार से दोनों ओर से विषमता की खाई और चौड़ी हो जाती है। कुछ बच्चों पर इसकी प्रतिक्रिया हीन भावना के रूप में होती है, जिससे वे अपने भाग्य और अभिभावकों को मन ही मन कोसने लगते हैं। इस प्रकार भावों में एकता का अभाव हो जाने से समाज में बहुत तरह के असन्तोष पैदा हो जाते हैं जो सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत अहितकर हैं।
अब आती है बच्चों के जेब में खाने उड़ाने के लिए पैसे नहीं हैं, तो कोई बात ही नहीं बनती। स्कूल चलते वक्त या कहीं जाते समय बच्चों को कुछ पैसे देना एक साधारण सी बात है। जब बच्चा हर तरह खूब खा पीकर स्कूल जा रहा है तब उसको कुछ खाने के लिए पैसे देने का ठीक-ठीक अर्थ है कि वह उन पैसों को बिलकुल फिजूल में खर्च करे और आगे के लिए अपनी आदत बिगाड़ ले, लेकिन क्या किया जाये, बच्चे से प्यार जो बहुत है। माता-पिता का जी नहीं मानता कि बच्चा घर से खाली जेब स्कूल जाये, क्या पता उसका जी कुछ खाने को करने लगे। या दूसरे बच्चे जेब खर्च करेंगे तो वह क्या उनका मुँह ताकेगा? इस प्रकार भविष्य भाव से वे उसे जेब खर्च के नाम पर कुछ फिजूल खर्च अवश्य देते हैं।
इतने पर भी वह बहुत कहने सुनने पर नाश्ता स्कूल नहीं ले गया है तो किसी के हाथ भेजेंगे या खुद लेकर जायेंगे। उन्हें यह विश्वास किये बगैर धैर्य ही नहीं आता कि थोड़ी देर बाद स्कूल में उसे भूख जरूर लगेगी। यद्यपि भूख के बहुत देर तक बच्चे के आस-पास से भी गुजरने की कोई सम्भावना नहीं होती तथापि प्रेमवश अभिभावकों को अपने कल्पना में वह भूख से तड़पता नजर आता है। इस प्रकार का प्रेम उसके स्वास्थ्य के पीछे लट्ठ लिए घूमने के सिवाय और क्या उपकार कर सकता है?
यदि स्कूल से आने में उसे किसी कारणवश पन्द्रह मिनट की भी देर हो गई तो बस दौड़े-दौड़े स्कूल पहुँचे और उसे अपनी हमराही में घर लेकर आये। बच्चे के लिए इस प्रकार की चिन्ता उसे बिलकुल निकम्मा और अबोध बना देती है। साथ ही उसे एक ऐसा बन्धन हो जाता है कि वह दस पन्द्रह मिनट को किसी खेल या मैच में ठहर भी नहीं सकता।
कुछ अभिभावक जरा सर्दी बढ़ जाने अथवा पानी बरस जाने से बच्चे को स्कूल जाने से रोक लेते हैं और यह कहकर घर में ओढ़-लपेट कर बैठे रहने का निर्देश कर देते हैं कि कहीं सरदी लग जायेगी या जुकाम हो जायेगा, इस प्रकार के निरर्थक बचावों और हिफाजत से बच्चा बिलकुल सुकुमार और असहिष्णु हो जाता है। जब तब सरदी-गरमी का बहाना करके पढ़ने से जी चुराने लगता है।
फिर यदि जब कभी वह खेलने कूदने की इच्छा करता है तो उसे यह कहकर निरुत्साहित कर देते हैं कि बच्चों का खेलना ठीक नहीं, खेलने से चोट लग जाती है। इस प्रकार अभिभावकों द्वारा प्रेमवश उसके स्वास्थ्य के साथ किये गये अन्याय के निराकरण की जो थोड़ी बहुत आशा की जा सकती थी, वह भी उसके खेलने कूदने पर प्रतिबन्ध लग जाने से समाप्त हो गई। अतः इस प्रकार का सारा लाड़-दुलार मिलकर उसे अस्वस्थ कर ही देता है।
पथ्य में यदि बच्चे को कुछ खाना पीना मना कर दिया गया है तो जितना कष्ट बच्चे को नहीं होगा उससे अधिक स्वयं उन्हें होगा। वे बच्चे के निराहार की कल्पना से त्रस्त हो उठेंगे और खाना न सही खाने की बातें करके ही अपना और सबका मन बहलायेंगे, क्या तुम्हें भूख तो नहीं लगी मुन्ने? जरूर लगी होगी। कल डाक्टर साहब से जरूर खाने के लिए कहेंगे आज और धीरज रखो कल फिर खूब अच्छी अच्छी यह चीजें, वह चीजें खाने को देंगे, बाजार से अमुक दुकान से अमुक चीज ला देंगे। गर्ज कि यहाँ तक खाने पीने की बात करेंगे कि इच्छा न होते हुए भी उसकी भोजन वृत्ति जाग जाती है और तब उनका लाड़ला झूठी भूख अनुभव करके खाने के लिए जिद करने लगता है, जिसका फल यह होता है कि माता से बचा तो पिता और पिता से बचा तो माता भोजन अवश्य करा ही देती है, निदान रोग की आयु एक दिन से बढ़कर एक सप्ताह हो जाती है। किन्तु लाभ न होने की शिकायत डाक्टर से करते हैं, बहुत कुछ पूछने पर भी जहाँ तक सम्भव होता है अपने प्यार की कारगुजारी डाक्टर से छिपाये रहते हैं।
कोई कोई माता-पिता डाक्टर के बताये पथ्य में कुछ हल्का सा हेर-फेर अपनी ओर से कर लेने में कोई हर्ज नहीं समझते। जैसे डाक्टर ने केवल परवल का पानी बतलाया है, तो वे पानी को साधारण शोरबे का रूप देने को कोई अपथ्य नहीं मानते। यदि डाक्टर ने हल्की चाय बतलाई है, तो वे बच्चे की कमजोरी दूर करने के विचार से दो चम्मच दूध बढ़ा देना जरूरी समझते हैं। इस प्रकार यदि रोगकाल में बच्चे को प्यार करने वाले अभिभावकों को क्रिया कलाप का पूरा-पूरा ब्योरा दिया जावे तो स्पष्ट पता चल जायेगा कि बच्चे के प्रति उनके प्यार का क्या अर्थ है?
बहुत से अभिभावक अपने बच्चों को बहुधा दूसरे बच्चों के साथ खेलने नहीं देते। उन्हें अपने बच्चों के सिवाय दुनिया के सब बच्चे लड़ाकू और झगड़ालू दिखाई देते हैं। अपने बच्चों को रोकने के लिए वे ऐसा भाव उनके मस्तिष्क पर थोप देते हैं। जिससे वह अन्य बच्चों को लड़ाकू और झगड़ालू समझ कर उनसे डरने लगते हैं। जिसका फल यह होता है कि वे अकेले पड़ जाते हैं और कुछ दिनों में उन्हें एकाकीपन का विषाद घेरने लगता है, वे उदास रहने लगते हैं और उनका सारा मानसिक विकास रुक जाता है।
सारांश यह कि इस प्रकार लाड़ले बच्चों के अभिभावक गण जितने भी उपाय हर प्रकार
से बच्चे की जिन्दगी खराब होने के हो सकते हैं, प्यार की संज्ञा देकर उठाने में
कोई कोर कसर बाकी नहीं रखते। अब वह अपने भाग्य से कुछ बन जाय तो दूसरी बात है।
इस प्रकार का प्यार बच्चे के साथ दुश्मनी के सिवाय और क्या कहा जायेगा? नीति यही
होनी चाहिए, एक आँख दुलार की, एक सुधार की तभी बच्चे का संतुलित विकास संभव है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
177. किशोरावस्था में दुलार और सुधार की संतुलित नीति अपनाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
किशोरावस्था की आयु में बच्चों का अभिभावकों द्वारा समुचित शिक्षण एवं मार्गदर्शन आवश्यक है, क्योंकि शक्तियों के संचय और संग्रह की यही आयु है। इस समय यदि वे चूक गये तो उस चूक का प्रभाव सम्पूर्ण जीवन पर पड़ता है। किशोरावस्था की लापरवाही का परिणाम जीवन भर भोगना होता है। अतः शरीर, मन और बुद्धि सम्बन्धी सभी आवश्यक जानकारियाँ उन्हें इस आयु में समझा देनी चाहिए। आहार-विहार की नियमितता तथा स्वास्थ्य संवर्द्धन के नियम उन्हें बताये जाने चाहिए। भोजन के बारे में उनका सही दृष्टिकोण विकसित कर दिया जाय। पेट में हवा और पानी की जगह रखने हुए भोजन किया जाय, समय से भोजन किया जाय और ठीक से चबाकर किया जाय। जायके का लालच हर तरह से हानिकर है। यह सब उन्हें भली-भाँति समझा दिया जाय। समय पर सोने, सुबह जल्दी उठने स्वच्छता रखने आदि के नियम तथा उठने-बैठने के कायदे सिखा दिये जाये।
किशोरों की खेलकूद की स्वाभाविक रुचि को प्रोत्साहित किया जाय और उस हेतु आवश्यक व्यवस्था जुटाई जाये। जो किशोर किन्हीं कारणों से खेलकूद से विरत रहते हो, उनकी उस प्रवृत्ति का कारण ढूँढ़कर उसे समाप्त किया जाय। झिझक, संकोच, हीनता या अन्य किसी मानसिक कुण्ठा के कारण ही किशोरों में खेलकूद के प्रति उत्साह शिथिल हो सकता है। उनकी स्थिति को समझकर प्रेमपूर्वक खेलकूद में उनकी रुचि पुनर्जागृत करना आवश्यक है। अन्यथा उनकी यह कुण्ठा उनके व्यक्तित्व को ठीक से विकसित न होने देगी। व्यायाम में उनकी रुचि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। उन्हें बताया जाय कि स्वास्थ्य और स्वभाव दोनों के निर्माण का यही समय है। अतः वे व्यायाम खेलकूद, अध्ययन एवं संयम-शालीनता के अभ्यास में इस समय पूरी रुचि लें।
स्वास्थ्य इस समय कमजोर होता गया या लापरवाही, प्रमाद के कारण उसकी जड़ों पर आघात पहुँचाया गया तो जीवन में कोई भी उपलब्धि सम्भव न होगी। न तो उत्साह, आनन्द टिक सकेगा, न ही उपार्जन सम्भव होगा और न ही किसी भी कार्यक्षेत्र में प्रगति हो सकेगी।
स्वास्थ्य से भी अधिक गरिमा है स्वभाव की। स्वास्थ्य की दुर्बलता तो स्वयं को ही तंग करेगी, औरों की स्वास्थ्य हीनता के प्रति सहानुभूति या उपेक्षा की ही प्रतिक्रिया हो सकती है। किन्तु स्वभाव के दोष तो स्वयं का मन-मस्तिष्क भी कडुआ विषैला बनायेंगे और चारों ओर ऐसी गन्दगी फैलायेंगे, जिसकी प्रतिक्रिया दूसरों द्वारा क्रोध, प्रहार, प्रतिशोध और घृणा के भयंकर रूपों में सामने आ सकती है। उस स्थिति में जी पाना ही कठिन हो सकता है। वाणी का तीखापन, आवेश, जल्दबाजी आदि किशोरावस्था में स्वभाव में उभरते हैं। शक्ति के उमड़ते प्रवाह की वे असंस्कृत अभिव्यक्ति होते हैं, उन्हें संयमित सुसंस्कृत रूप देने का अभ्यास करने का भी यही समय है। अन्यथा यह स्वभाव का अनगढ़पन व्यक्तित्व का ही अंग बन जायेगा और सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को पीड़ा देगा।
अध्ययनशीलता का स्वभाव में समावेश कराने की भी यही आयु है। उन्हें शिक्षा का महत्त्व समझाकर उसके संवर्द्धन की प्रेरणा दी जाये। पढ़ाई में पिछड़ते हुए किशोर की मनःस्थिति ठीक से समझी जाय। इसकी बुद्धि ही कमजोर है, ऐसा सोचकर शान्त न बैठा जाय, न ही उदासीनता बरती जाय। सामर्थ्य हर किशोर में होती है। उनका सक्रिय मस्तिष्क अत्यधिक ग्रहणशील होता है। फर्क यह है कि यह ग्रहणशीलता उन विषयों के प्रति होती है जिन्हें उसका किशोर मन महत्त्वपूर्ण समझता है। जब उसे घर में समुचित स्नेह नहीं मिलता है, पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है, झिड़कियों और आलोचनात्मक टिप्पणियों से उसकी भूलों का निषेध तो किया जाता है, किन्तु सकारात्मक विधेयात्मक पक्ष की प्रेमपूर्वक जानकारी नहीं दी जाती है ,तो उसका जिज्ञासु मस्तिष्क असंतुष्ट रहता है। बाहर के बिगड़े हुए छोकरों की संगति में उसे जिज्ञासा का सन्तोष प्राप्त होता दिखता है। गलत और खतरनाक ही जानकारियाँ सही, पर वे उसे उत्साहपूर्वक इन दोस्तों द्वारा सिखाई जाती है। आवारागर्दी, मौज और चक्करबाजी का महत्त्व उसे बताया जाता है। उसकी दृष्टि में ऐसा ही जीवन, वीर जीवन बन जाता है। वह स्वयं भी वैसी ही वीरता के साथ बीड़ी-सिगरेट का धुँआ उड़ाते, लोगों को चकमा देते, अश्लील चेष्टाएँ करते घूमने को ही अपना वास्तविक पुरुषार्थ मान बैठता है। इन हरकतों से उसे जो विकृत रस मिलता है, सनसनाहट भरी उत्तेजना होती है। अपनी विचित्र मानसिक तरंगों और दूसरों की अनोखी प्रतिक्रियाओं का अनुभव होता है। उसकी दृष्टि में ये सब नूतन जानकारियाँ होती है जिन्हें पाना वह अत्यन्त आवश्यक समझता है। ऐसे में पुस्तकें उसे बोझ और कूड़ा नजर आती है। उनमें समय तथा श्रम लगाना वह फिजूल का काम समझता है। इस स्थिति को शिक्षक, अभिभावक उसकी बुद्धि की कमजोरी समझ बैठते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि उसे शिक्षा का महत्त्व समझा दिया जाय। उसे बताया जाय कि जानकारियों के सही स्रोत श्रेष्ठ पुस्तकें और शिक्षा ही है। भ्रांत जानकारियों से असीमित हानि होती है। इस समय शिक्षा में बरती लापरवाही से न तो नौकरी पाने की पात्रता आ सकती, न शादी ब्याह की ओर, न ही सम्मान प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकेगी। उपार्जन न करने वाले के मित्र भी नहीं बनते, टिकते। चारों ओर अपने प्रति असम्मान का भाव आ जाने पर लोगों का सहयोग भी नहीं मिलेगा। इस प्रकार जो लोग आज तुम्हारे आगे पीछे-घूमते हैं, वे ही तुमसे किनाराकशी करने लगेंगे।
ये सभी बातें उन्हें डाँट डपटकर नहीं, स्नेह प्यार के साथ समझाई जायें। शिक्षा, स्वास्थ्य और शील के लाभों को विस्तार से निरन्तर बताया जाये, ताकि वे इनके द्वारा हो सकने वाली उपलब्धियों को ठीक से हृदयंगम कर सके। इनकी उपेक्षा से होने वाली हानियों की भयंकरता समझ सकें। पास पड़ोसी के उदाहरणों से उन्हें समझाया जाय। हमेशा उन्हें सीधे सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। कई बार जब पारिवारिक गोष्ठी जुड़े, उस समय ऐसे प्रसंग छेड़े जायें। जिन लोगों ने स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सुशील स्वभाव का महत्त्व समझकर अपना विकास किया है उनकी प्रशंसा की जाय। यह प्रशंसा उन गुणों और क्रियाओं की हो जिनके कारण विकास हुआ। हवाई प्रशंसा न की जाये, जैसे यह कि अमुक आदमी कितना अच्छा है कितना बड़ा है आदि। वह अच्छा, बड़ा कैसे बना यह बताया समझाया जाय। अन्यथा प्रशंसा का अपेक्षित प्रभाव न पड़ेगा।
कहानियों द्वारा शिक्षण भी किशोरों के लिए उपयोगी होता है। कहानियाँ ऐसी हो जो गुणों पर प्रकाश डालें, उनके लाभ तथा दोषों की भयंकरता समझाएँ।
स्वभाव में सुव्यवस्था और शालीनता सिखाते समय यह ध्यान रखा जाय कि यह उम्र हड़बड़ी और आवेश की होती है। हड़बड़ी से अव्यवस्था तथा आवेश से अशिष्टता का जन्म होता है। ये दोनों प्रवृत्तियाँ भी घर के वातावरण के अनुसार घटती बढ़ती हैं। किशोर उपदेश से नहीं आचरण से सीखता है। व्यवस्था उसे प्रत्यक्ष रूप में दिखलाई जाय। प्रेम से स्वयं वस्तुओं को सुव्यवस्थित करके उन्हें समझाएँ। अपने कपड़े, जूते, बस्ते नियत स्थान पर ही रखे, टाँगें। यह सिर्फ कहे नहीं बल्कि बाहर से घर आने पर जब इन वस्तुओं को हड़बड़ी में इधर उधर फेंक दें, तब उन्हें अभिभावक खुद सहेज कर रखें और तब समझाएँ।
ध्यान रखना चाहिए कि किसी बात को समझ लेना एक बात है, उसे अभ्यास में उतारना बिल्कुल दूसरी बात है। कह देने भर से किशोर किसी बात को समझ तो जाते है, पर उनका वैसा अभ्यास नहीं हो पाता। अभ्यास धीरे धीरे ही हो पाता है। यह भी ध्यान रखा जाय कि किशोर जैसा भी अभ्यास सीखते हैं, अपनी तीव्र ग्रहणशीलता के कारण वे उसकी बार-बार आवृत्ति करते हुए उसे गहरा बना लेते हैं। अतः वह अभ्यास यदि गलत हुआ तो भी एकदम से नहीं छूट पाता। पूर्व अभ्यास को बदलने और नया अभ्यास ठीक से सीखने में समय लगता है। उस हेतु अपेक्षित धैर्य अभिभावकों में आवश्यक है।
किशोरों द्वारा सीखने के क्रम में एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे किसी भी नये व्यवहार का क्रम ठीक से नहीं बैठा पाते। यह उनकी आवेशमूलक प्रकृति की विवशता होती है। अतः उन्हें प्रेमपूर्वक क्रमबद्धता सिखाएँ उनकी क्रम विहीनता पर झल्लाए नहीं।
शालीनता के बारे में भी वही बात लागू होती है, जो सुव्यवस्था के बारे में। घर का वातावरण शालीनता का हुआ, माँ-बाप, भाई-बहनों के आपसी व्यवहार में सुसंस्कारिता रही तो किशोर के मन पर उसका प्रभाव अवश्यम्भावी है। बाहरी प्रभाव से उनमें कभी अशिष्टता तुनकमिज़ाजी आदि के इस व्यवहार को भी वे उसी पैनेपन के साथ हृदयंगम कर लेंगे। अतः शिष्टता शालीनता भी उन्हें सौभाग्यता पूर्वक ही सिखाई जानी चाहिए।
किशोरों में अपने को बड़ा और उत्तरदायी समझने की भावना आ जाती है। कठोर नियंत्रण और झिड़की भरे निर्देशों का उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे हर अच्छी बुरी बात को अपने दृष्टिकोण से देखते और अपनी इच्छा के अनुसार पसन्द, नापसन्द करते हैं। अतः उन्हें कोई भी बात उदाहरणों, प्रमाणों और कहानियों के आधार पर ही समझाई जा सकती है। समझाते समय भाषा और भाव गूढ़ न हो, सरल हों। अन्यथा यह गूढ़ता उनके लिए एक नई समस्या बन जायेगी। उनमें हीनताजन्य कुण्ठा घर कर जायेगी। इसी प्रकार बात-बात में झिड़ककर यह कहने से भी कि ‘तुम यह नहीं समझ सकते’ ‘तुममें कुछ समझ नहीं है’ उनमें हीनता का भाव आ जाता है और उनके मानसिक बौद्धिक विकास को क्षति पहुँचती है।
किशोरों की आत्म-गौरव की भावना को पुष्ट करते हुए उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वभाव की उत्कृष्टता का महत्त्व समझा दिया जाये तो उनका जीवन शुद्धता एवं श्रेष्ठता की दिशा में ही गतिशील रहकर धन्य बनता है। किशोरावस्था में त्रुटियों, भूलों और कल्मषों का क्रम शुरू होता गया तो फिर गहन पश्चाताप के बाद भी वैसी स्वाभाविक निर्मलता कठिनाई से ही आ पाती है।
जिस प्रकार बच्चों को दुलार के नाम पर उन्हें अपने मनोविनोद का साधन बना डालने से प्यार नहीं, अहित सिद्ध होता है, उसी प्रकार किशोरों की वास्तविक आवश्यकताओं की उपेक्षा करने से तथा उन्हें मार्गदर्शन न दिये जाने से उनका भी सम्यक् विकास नहीं हो पाता।
माता पिता सोचते है कि अब तो बच्चा बड़ा हो गया। अब उसको सिखाने लायक जो कुछ है वह सब स्कूल में ही सिखाया जायेगा। वे स्कूल भेज देते हैं, फीस देते हैं, पुस्तकें खरीदते हैं, आवश्यक उपकरण एवं वस्तुओं की व्यवस्था कर देते हैं, अब समय अलग से कहाँ से निकालें। इतनी सारी व्यवस्था करने के लिये ही तो वे कमाते हैं, दौड़-धूप करते हैं।
काश। अभिभावक यह समझ सकते कि सुविधाओं का संवर्धन मात्र व्यक्तित्व विकास के लिये पर्याप्त सहायक नहीं हो पाता। सुविधाओं की ऐसी भरमार जो किशोर को अपनी शक्ति के उपयोग के अवसर तक सीमित कर दे, उन्हें लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाती है। बहुत अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराना, प्यार नहीं, दुलार की विकृति है। सच्चा प्यार वह है जो किशोर की शारीरिक, मानसिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उसे क्रियाशीलता के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराये तथा साथ ही सक्रियता की दिशा भी दिखाएँ।
किशोरावस्था उत्साह, जोश-खरोश की एक अनोखी ही उम्र होती है। शक्ति के नये-नये स्रोत भीतर से उमड़ते हैं। समझदारी का दायरा नित्य प्रति बढ़ता है। अब सिर्फ खिलौनों से और माता-पिता के लाड़ प्यार से मन नहीं बहलता। अपने समकालीन संसार को जानने-पहचानने की प्रचंड जिज्ञासा प्रतिदिन विस्तृत होती जाती है। यौन उभार का भी यही समय है। उससे किशोर के पूरे शरीर में एक नयी ही हलचल भरी उमंग उफान लेती है। मस्तिष्क अपरिपक्व रहता है। न तो इन उमंगों का स्वरूप ज्ञात होता न ही सदुपयोग की दिशा। अतः यह स्थिति प्यार भरे मार्गदर्शन की अपेक्षा करती है। मात्र सुविधा सरंजामों को जुटा देने से किशोर की समस्या हल नहीं होती उल्टे और उलझन ही बढ़ती है।
माता-पिता का यह दायित्व है कि वे अपनी व्यस्तता में से समय निकालें। सुविधा साधनों के उपार्जन में थोड़ी कमी भी करना पड़े तो हर्ज नहीं। किशोर की वास्तविक आवश्यकता की उपेक्षा अधिक महँगी पड़ेगी। इस समय उसे सामान्य जानकारियों की, अधिकाधिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सामाजिकता के शिक्षण की यही उम्र है। यह शिक्षण सर्वोत्तम रीति से माँ-बाप के ही द्वारा दिया जा सकता है। इस हेतु उन्हें समय भी निकालना चाहिए और अपने भावों की अभिव्यक्ति भी इस प्रकार करनी चाहिए जिसे किशोर उन्हें ठीक से समझ सकें और अनुकरण कर सकें।
प्रत्येक माँ बाप को इस उम्र में बच्चे से वार्तालाप के लिये नियमित समय निकालना चाहिए। उसके साथ गम्भीर चर्चा भी करनी चाहिए और विनोद भी। चर्चा वार्तालाप के जरिये उसे शिष्टाचार के अनेक नियमों कायदों की जानकारी दी जाये, सामान्य ज्ञान की जानकारी दी जाये, ताकि वह सामाजिक व्यवहार में दक्ष हो। डाक-तार, रेल-बस, सभा-सोसायटी, परिवार, रिश्तेदार, मित्र, परिचित आदि से सम्बन्धित दैनन्दिन व्यवहार की आवश्यक जानकारियाँ दी जायें। बाजार से चीजें खरीदते समय अपेक्षित जानकारियाँ व सावधानियाँ बताई जायें। घर में ऐसी उपयोगी ज्ञानवर्धक सुरुचिपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ मँगाई जाये, जिनसे किशोर का सामान्य ज्ञान बढ़े।
उनके प्रश्नों के उत्तर उत्साह पूर्वक दिये जाये। साथ ही उनके साथ मिलकर काम किया
जाय और खेलों में रुचि ली जाये ताकि वे माँ-बाप से अधिक घुल मिल सकें। घुलने-मिलने
पर ही इस उम्र में बच्चे माँ-बाप की सिखाई बातें सीख सकते हैं। अन्यथा वे उनकी
उपेक्षा करने लगते हैं। इस वय में अभिभावकों को पूरी सतर्कता एवं जागरूकता उनके
निर्माण में बरतनी आवश्यक है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
178. दाम्पत्य जीवन का प्रयोजन एवं सुनियोजन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रजनन प्रक्रिया में जो आवेश उद्वेग है, नर-नारी के बीच जो आकर्षण है, वह प्रकृति ने इस प्रयोजन के लिए सँजोया है कि उस आधार पर दो व्यक्तित्वों के मिलन की भावनात्मक एवं रासायनिक क्रिया इस जगती के लिए कुछ उपयुक्त अनुदान प्रस्तुत करती रहे।
दो वस्तुओं के मिश्रण से तीसरी वस्तु बनने की रासायनिक प्रक्रिया से हर कोई परिचित है। औषधि शास्त्री जानते है कि यदि अमुक वनस्पतियों, धातुओं अथवा क्षारों का अलग-अलग सेवन किया जाय तो उसमें सामान्य परिणाम ही रहेगा, पर यदि उन्हें मिला दिया जाय तो इस मिश्रण से एक नई वस्तु, नई प्रक्रिया उत्पन्न होगी। रसायन शास्त्र इस रीति-नीति को खोजता रहता है और उपलब्ध ज्ञान के आधार पर नित नये आविष्कार करता रहता है।
यही मिश्रण सृष्टि निर्माण क्रम में चलता रहने से रंग-बिरंगे और विविध प्रतिभाओं से सुसम्पन्न फूल और तरह-तरह के स्वाद वाले फल उत्पन्न होते हैं। नर-नारी के बीच ऐसे अद्भुत घुलनशील तत्व है कि यदि वे गहन स्तर तक परस्पर मिल सकें, तो एक नया व्यक्तित्व उत्पन्न होता है और उसके प्रभाव से दोनों अपना पुराना स्तर खोकर नये स्तर के बन जाते हैं। कुमारी अवस्था में लड़की जिस स्तर की थी उसमें विवाह के बाद काया कल्प जैसा परिवर्तन होता है और किशोर लड़के विवाह से पूर्व जिस प्रकृति के थे विवाह बाद वे इतने बदल जाते हैं कि केवल आकृति ही पुरानी रह जाती है, प्रकृति में जमीन-आसमान जैसा अन्तर उपस्थित होता है। पर यह होगा तभी जब वे दोनों भाव गह्वर में गहराई तक उतरकर एक दूसरे में घुल जाने की स्थिति प्राप्त कर लें। शारीरिक संयोग बहुत उथला है। वह नाई की दुकान पर हजामत बनवा लेने या तेल मालिश करा लेने, दाद खुजाने जैसी नगण्य और तुच्छ क्रिया है, वह भी विवाह का एक प्रयोजन है, पर उतने भर से व्यक्तित्वों का मिलन या घुलन पूरा नहीं होता, उसके लिए ममता, आत्मीयता, भावुकता, वफादारी और आत्म-समर्पण के भाव गहन स्तर पर उतर कर एकत्व में परिणत होने चाहिए।
व्यक्तित्व के घुलन का अर्थ है भावनात्मक इतनी सघनता, जिसमें शरीरों की भिन्नता का आभास ही नष्ट हो जाय। एक प्राण दो शरीर का आभास होने लगे। इतनी सघनता के प्रतिफल दो होते हैं, एक प्रखर, एक अभिनव व्यक्तित्व का ऐसा नव निर्माण, जिसकी आभा से दोनों शरीर समान रूप से जगमगा उठें। दूसरा प्रतिफल होता है सन्तान की ऐसी उपलब्धि भी जो अगणित प्रतिभाओं और विशेषताओं से सम्पन्न हो। विवाह का मूल प्रयोजन यही है। नर-नारी के बीच स्वाभाविक आकर्षण का कारण यही है। रति क्रिया में जिस आनन्द, आवेश का समावेश है उसका कारण यही है। प्रकृति चाहती है उसकी दुनियाँ में जीवधारियों का वंश ही न बना रहे वरन् उनका स्तर भी विकसित होता रहे। भावनात्मक सघनता का सम्मिश्रण व्यक्तित्वों का स्तर विकसित करता है और पीढ़ियों में विशेषता भरता है। यही प्रतिक्रिया जब शारीरिक सघनता में परिणित होती है तो उच्चकोटि के गुणों से सम्पन्न सन्तति का जन्म होता है।
जहाँ पति पत्नी की प्रकृति मिल जाती है और दोनों में परस्पर सघन सहयोग होता है, वहाँ इच्छित सन्तान का होना सुनिश्चित है।
कोर्ट फील्ड (इंग्लैंड) के कर्नल जान फ्रान्सिवान की पत्नी लुईस एलिजावेथ अत्यन्त धार्मिक प्रकृति की विदुषी महिला थी। पति भी उनके ठीक उसी प्रकृति के थे। दोनों दूध-पानी की तरह एक थे। सन्तान के सम्बन्ध में दोनों की इच्छाएँ भी एक सी थी। पति को जब अवसर मिलता, गिरजा जाते पर पत्नी तो बहुत ही भक्ति भाव सम्पन्न थी, वे घण्टों उपासना करती थी और यही प्रार्थना करती थी कि उनकी सभी संतानें धर्म की सेवा में ही अपने जीवन का उत्सर्ग करें। उनकी यह मनोकामना पूर्णतः सफलीभूत हुई। लुईस के ८ लड़के और ५ लड़कियाँ थी। वे सभी धर्मसेवी बने, अविवाहित रहे और सारा जीवन ईसाई मिशन के लिए दान कर दिया। पादरी और ननों के रूप में पवित्र जीवन बिताने वाले पवित्र माता के इस पवित्र बच्चों की चर्चा पाश्चात्य जगत में शताब्दियों तक चर्चा का विषय रही है।
दो व्यक्तियों के मिलन की जादूगरी रासायनिक प्रक्रिया, भावनात्मक प्रक्रिया उत्पन्न करने की असाधारण उपलब्धि के लिए पति-पत्नी के बीच सघन प्यार और विश्वास होना चाहिए। उसमें आशंकाओं और तुनक मिजाजी के लिए कोई स्थान नहीं। जब साथी के गुण ही गुण दिखाई पड़े और भूल, अपेक्षा अथवा विनोद, उपहास की वस्तु बन जाय उसके कारण मनोमालिन्य उत्पन्न होने की सम्भावना ही न हो, तब समझना चाहिए कि सच्चे मन से समर्पण या घुलने की बात पूरी हुई।
जर्मनी का प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ लेखक और कवि कार्ल्स हम्बोर अपनी पत्नी को अत्यधिक प्यार करता था। पत्नी का नाम था-कैटोलिन वान। पत्नी यों गुणवती और सुयोग्य भी थी, पर पति के प्यार ने उसकी दृष्टि में उसे मानवी नहीं देवी बना लिया था। वह उसके सम्बन्ध में प्रायः प्रतिदिन १०० पंक्तियों की कविता लिखता था। ३८ वर्ष की उम्र में उसने यह विवाह किया था। पत्नी अधिक दिन जीवित न रही। पर उसने दूसरा विवाह नहीं किया और सौ पंक्तियों की कविता का क्रम उसने विदुर होने के बाद भी जारी रखा। जब तक वह इस श्रद्धांजलि को उसकी कब्र पर चढ़ा नहीं देता था तब तक वह सोता नहीं था।
यदि इतनी सघनता न हो तो दोनों में से जिसका व्यक्तित्व अधिक प्रतिभा सम्पन्न और जबरदस्त होता है उसी की छाप सन्तान पर पड़ती है। इसलिए सन्तान का स्तर उसी दिशा मे विकसित होता है। हलके स्तर का सरल व्यक्तित्व अपनी कोमलता के कारण दब जाता है। ऐसे गृहस्थ तो चलता रह सकता है पर एक पक्षीय प्रयत्न एक हाथ से ताली बजाने की तरह अपूर्ण ही रहता है।
फ्रांस के एक पादरी यह सिद्ध करना चाहते थे कि यदि एक पक्ष सज्जन है तो दूसरे को अपने में ढाल सकता है। यह बात तभी हो सकती है जब दूसरा पक्ष जैसा भी कुछ है अपना पूर्ण समर्पण कर दे। यदि दोनों व्यक्ति अपनी अहंता अलग-अलग बनाये रहें तो उनमें जो जबरदस्त होगा उसी की विजय होगी। पर सज्जन पादरी एकांगी बात सोचते थे, वे पुरुष की सज्जनता के महत्त्व को ही सब कुछ मानते थे। उनने अपनी बात यही सिद्ध करने के लिए विपरीत गुण, स्वभाव वाली पत्नी से विवाह करके सुयोग्य सन्तान की बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया, पर वे सफल न हो सके।
क्लारमान्ट (फ्रांस) के पादरी क्रेटीन यह दावा करते थे कि वंश परम्परा से अपराधों का कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुष्य का भला या बुरा होना शिक्षा, संस्कार तथा वातावरण पर निर्भर है। वंशानुक्रम की अद्भुत विशेषताओं पर बल देने वाले वैज्ञानिकों को चुनौती देने के लिए उन्होंने गृहस्थ जीवन स्वीकार किया और एक अपराधी वंश की लड़की से विवाह कर लिया। उसका बाप पड़ोसी के घर में ईर्ष्यावश आग लगाने के अपराध में जेल काट चुका था। विवाह के बाद संतानें भी हुई। उनकी शिक्षा-दीक्षा पर भी यथा सम्भव ध्यान दिया गया। किन्तु वंश परम्परा का प्रभाव सन्तान पर समयानुसार उभरता ही गया और वे कई पीढ़ियों तक आगे भी अपराध करते रहे।
कइयों का वंश परम्परा की रक्षा और रक्त शुद्धि पर बहुत ध्यान रहा है। उनका कहना यह रहा है कि अपना रक्त अपने रक्त में घुलकर ही शुद्ध रह सकता है। दूसरी जाति या स्वभाव के लोगों के साथ रक्त का सम्मिश्रण नहीं होना चाहिए। इससे रक्त दूषित होता है और अवांछनीय सन्तान उत्पन्न होती है। अभी भी रोटी बेटी को वंश कुल की मर्यादाओं में सीमित रखने की बात यही सोचकर की जाती है। इस सम्बन्ध में मिश्र में तो अति ही बरती गई। वहाँ के शासक सोचते थे कि राजवंश का रक्त अत्यन्त पवित्र है। उसे दूसरे रक्त के साथ घुलकर अपनी विशेषता नहीं खोनी चाहिए, इसलिए विवाह शादी अपने घर-परिवार में नहीं, सगे बहिन-भाइयों में ही सीमित रखी जाय। यह प्रयोग किया तो बहुत दिन गया पर सफल नहीं हुआ।
मिश्र के टाल्मी राजवंश में प्राचीनकाल में भाई-बहिन की शादी का प्रचलन था। वह वंश अपने को दैवी शक्तियों से उत्पन्न मानता था और दूसरे लोगों के साधारण रक्त के साथ अपना रक्त नहीं मिलाना चाहता था। रक्त शुद्धि की दृष्टि से उन लोगों ने यह प्रथा चलाई और बहुत समय तक चलती भी रही। इतिहासकारों के अनुसार यह क्रम तेरह पीढ़ियों तक चला और तब बन्द हुआ जबकि एक बार सब लड़के ही लड़के पैदा हो गये और बाहरी लड़की लिए बिना वंश डूबने का ही खतरा पैदा हो गया।
मिश्र के दूसरे उच्च समझे जाने वाले घरानों में भी राजवंश की देखा-देखी यह प्रथा चल पड़ी थी। मिश्र की अति सुन्दर साम्राज्ञी क्लियोपात्रा अपने रूप लावण्य के लिए प्रख्यात थी उसने अपने विनोद कौतुक की तृप्ति के लिए एक-एक करके दोनों सगे भाइयों से विवाह किया और पसंदगी से उतर जाने पर दोनों को मरवा भी डाला।
टैक्सास के गवर्नर हेनरी स्मिथ ने एक-एक करके अपनी तीनों सगी बहिनों से खुद ही विवाह किया था। लोग जब उसकी निन्दा करते थे तो वह यही कहता नर-नारी की घनिष्ठता को आवश्यकतानुसार प्रणय से बदलना प्रकृति के कानून में दोषयुक्त नहीं, मनुष्य समाज ने भले ही उस पर बन्धन लगाये हों।
मूल प्रश्न रक्त शुद्धि का नहीं व्यक्तियों की घुलनशीलता का है। इसके लिए एक पक्ष का प्रयास सफल नहीं हो सकता है, इसमें दोनों को ही पिघलना पड़ता है और यह प्रयत्न करना पड़ता है कि घनिष्ठ एकता को हर कीमत पर बनाये रहा जाय। यदि ऐसा न हुआ तो फिर जो पक्ष अधिक सबल होगा दूसरे पर छा जाने का प्रयत्न करेगा। यहाँ समर्थता का अर्थ शारीरिक या बौद्धिकता, सबलता से नहीं वरन् भावनात्मक प्रचण्डता से है। यदि किसी में घृणा या प्रतिहिंसा की भावना तीव्र है तो उसी की तीव्रता रहेगी।
बॢलन (जर्मनी) की एक महिला इमगार्डब्रन्स ने पाँच बार विवाह किये। उनमें से प्रत्येक को क्रमशः आत्महत्या करके ही अपने जीवन का अन्त करना पड़ा। उसकी भावनात्मक प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि पति उसके शिकार होकर अपना सन्तुलन खोते चले गये।
कई बार कई व्यक्तियों को यह सनक सवार रही है कि चूँकि पुरुष पक्ष बहुत स्वस्थ, सुयोग्य एवं समर्थ है इसलिए उसे बहुत विवाह करने चाहिए और बहुत बच्चे पैदा करने चाहिए, ताकि वे उसी के जैसे गुण वाले हों, और उनका नाम या वंश अधिक ख्याति प्राप्त करे। यह प्रयोग अनेक जगह हुए हैं, पर उससे संख्या मात्र बढ़ी। पति-पत्नी में सघन विश्वास का वातावरण न बना, प्रेम और सौहार्द्र भी पैदा न हुआ, फलस्वरूप सन्तान संख्या वृद्धि की बात तो सहज थी सो पूरी हो गई, पर पिता के गुण ही सब सन्तान में होंगे यह प्रयोजन पूरा न हुआ। घृणा और अविश्वास के वातावरण में चलने वाले दाम्पत्य जीवन किसी प्रकार गाड़ी धकेलते तो रहते हैं, पर उनको जो शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं वंश परम्परागत लाभ मिलना चाहिए वह बिल्कुल भी नहीं मिलता।
मोरक्को का एक नगर है। यहाँ के सभी निवासी अपने को राज कुमार कहते हैं। इस नगर का संस्थापक था मुलाई इस्माइल नामक एक मुसलमान राजा। उसने कितने ही युद्ध किये और गुलाम पकड़े। पकड़े गये पुरुषों को उसने शहर की इमारतें बनाने में लगाया और स्त्रियों को बच्चे उत्पन्न करने में लगाया। इन दो शौकों को पूरा करने के लिए ही वह युद्ध लड़ता और आक्रमण करता था। उसकी मृत्यु के समय तक जीवित और समर्थ बच्चों की संख्या ८८८ हो गई थी और गुलाम इतना बड़ा नगर बना चुके थे जिसमें इन सब बच्चों के स्वतन्त्र परिवार रह सकें इस कार्य में उसे बीस वर्ष लगे। उसकी छोड़ी हुई इन ८८८ सन्तानों की वंशवृद्धि से ही पूरा-पूरा नगर बसा है, अस्तु वे सभी राजा के वंशज होने के कारण अपने को राजकुमार या राजकुमारी कहते है।
हाँ कई पत्नियाँ होते हुए भी उनके बीच स्नेह, सौहार्द्र विश्वास और प्रेम का वातावरण बना रहे तो उस विषमता के बीच भी सन्तुलन बना रह सकता है और सामूहिकता के साथ सौजन्य का एकत्रीकरण सफल हो सकता है।
हंगरी के प्रसिद्ध वायलिन वादक रैक्ज पाली अपनी कई पत्नियों द्वारा उत्पन्न तथा गोद लिए हुए ४९ बच्चों के पिता थे। उन्हें अपनी वायलिन वादन कला की ही तरह बालकों के समूह में भी आनन्द आता है। उनने अपनी इन दोनों अभिरुचियों को परस्पर मिला कर रखा। सभी बच्चों को वायलिन वादन सिखाया और उनमें से एक को छोड़कर शेष सभी अपने पिता की तरह वायलिन कलाविदों के रूप में प्रख्यात हुए।
भारत में बहुपत्नी प्रथा कभी थी। इनमें श्रीकृष्ण भगवान को भी सम्मिलित बताया जाता है। पर यह प्रयोग सफल तभी हो सकता है, जब इस सारे समूह का स्तर बहुत ही उच्चकोटि का हो, अन्यथा ईर्ष्या-द्वेष की आग जब एक पत्नी एक पति वाली स्थिति में नरक उत्पन्न कर देती है, तब बहुपत्नी या बहुपति वाली स्थिति घटिया स्तर से तो सर्वनाश ही प्रस्तुत करेगी।
विवाह का उद्देश्य यदि संख्या वृद्धि करने वाला पशु प्रजनन हो तो बात दूसरी है
अन्यथा व्यक्तियों में प्रखर प्रत्यावर्तन उत्पन्न करना और प्रतिभाशाली सन्तान
प्राप्त होना तभी सम्भव है जब नर-नारी के बीच अत्यन्त गहरे एवं सघन स्तर की आत्मीयता
स्थापित हो सके। ऐसे ही विवाह सच्चे अर्थों में विवाह है अन्यथा उन्हें एक मजबूरी
का निर्वाह मात्र ही कहा जा सकता है।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
179. परिवार संस्था की सुव्यवस्थित आचार संहिता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
परिवार एक संस्था है, वरन एक दूसरे के साथ आत्मीयता के सूत्र में बँधता है और कर्तव्य एवं अधिकार की आचार संहिता का भी परिपालन करता है। इस प्रकार का जन समुच्चय जहाँ भी बनता हो, उसे निःसंकोच परिवार कहा जा सकता है। आवश्यक नहीं है कि यह परिधि थोड़े से अंश वंश के लोगों तक सीमित रखी जाय। पारिवारिक दृष्टि जितनी छोटी होगी उतनी ही सड़न पैदा होगी उतनी ही सड़न पैदा होगी। जहाँ सड़न होती है, वहाँ मक्खी कीटकों, दुर्गन्धित प्रवाहों एवं विषाणुओं की सेना उपज पड़ती है। परिवार दर्शन अंश वंश तक ही रखता और उपज पड़ती है। परिवार दर्शन अंश वंश तक ही रखता और उतने को ही अनावश्यक दुलार एवं वैभव से लादते रहना उन्हीं के लिए चिन्तित और न संचालक का। संकीर्ण स्वार्थपरता पर आधारित मोह ग्रस्तता यदि परिवार में पनपेगी तो उससे पक्षपात बढ़ेगा। पक्षपात में कुछ को विशिष्ट मानना पड़ता है और उनकी सुख सुविधा एवं प्रसन्नता का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। यह असन्तुलन आरम्भ होते ही प्रकारान्तर से दूसरों की उपेक्षा होने लगती है। यह उपेक्षा अनीति मूलक है। परिवार के सदस्यों में उनकी आवश्यकतानुरूप साधनों का न्यूनाधिक अनुदान मिलने से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह तर्क संगत और कारणों पर निर्भर है। किन्तु जब औचित्य न होने पर भी अमुक को अधिक सुविधा या सम्पदा इस आधार पर दी जाती है कि अमुक अपना है तो स्वभावतः अन्य लोग विराने हो जाते है। इस स्तर का भेदभाव अन्य सभी में ईर्ष्या, द्वेष, अविश्वास एवं आक्रोश उत्पन्न करता है। विभाजन की पृष्ठभूमि यही से बनती है। दरारें पड़ती है और वे चौड़ी होती जाती हैं। विघटन का बीजारोपण कुछ के साथ पक्षपात करने से आरम्भ होता है। यह वस्तुओं को कम अधिक देने तक नहीं, प्यार, सहकार और ध्यान देने से भी सम्बन्धित है। एक से घनिष्ठता और उपेक्षा का परिचय, वार्तालाप और व्यवहार में ही नहीं रुझान तक में सम्मिलित रहता है। यह अन्तर छिपाये नहीं छिपता। वस्तुएँ छिपाई जा सकती हैं, पर भावनाएँ नहीं। अस्तु पारिवारिकता को जीवन्त और सक्षम रखने के लिए साम्ययोग का अभ्यास करना पड़ता है। साम्यवाद की चर्चा आये दिन होती रहती है और उसकी व्याख्या विवेचना में अनेक अर्थ शास्त्रियों और दार्शनिकों के खोजपूर्ण प्रतिपादन प्रस्तुत होते रहते हैं। किन्तु यदि सच्चे साम्यवाद का व्यावहारिक रूप देखना हो तो वह परिवार की उस परम्परा में देखा जा सकता है, जिसमें अपने पराये का अन्तर नहीं किया जाता। सभी सदस्यों को अपना माना जाता हैं। न किसी को विशिष्टता प्रदान की जाती है और न किसी की उपेक्षा होती है। मोह को विष कहा गया है। वह पनपता है तो एक को प्रसन्न करके अनेकों को कष्ट देता हैं। आत्मीयता और संगठन की जड़ों पर मोह की कुल्हाड़ी की कुठाराघात करती है। अस्तु ,, प्यार और मोह के अन्तर को समझ कर चलना होता हैं। प्यार सृजनात्मक है। मोह ध्वंसात्मक। प्यार में आत्मीयता है और मोह में दुरभिसंधि। परिवार को यदि सुसंस्कृत बनाना हो तो उसके संचालकों को कुछ के प्रति मोह की दृष्टि समाप्त करके सबके प्रति प्रेम की नीति अपनानी होगी।
समाजवाद की चर्चा बहुत है। उसके स्वरूपों की विवेचना और प्रयोगों की सम्भावना पर मनोरंजक विवाद होता रहता है। पर यदि समाजवाद का व्यावहारिक स्वरूप देखना हो तो वह परिवार संस्था की सुनियोजित आचार संहिता के मध्य ही देखा जा सकता है। योग्यतानुसार श्रम, आवश्यकतानुसार ग्रहण की रीति नीति अपनाने पर ही पारिवारिकता सुसन्तुलित रह सकती है। उपार्जन करने वाले अपनी कमाई घर में जमा करते है और उसमें से उतना ही अंश अपने लिए स्वीकार करते हैं, जो नितान्त आवश्यक हैं।
जो सदस्य कमाऊ नहीं है वे भी पारिवारिक सम्पदा का समान लाभ प्राप्त करते हैं। बच्चे, बूढ़े, बीमार कमाते कुछ नहीं, किन्तु खर्च अन्यों के बराबर ही नहीं, कई बार अधिक चाहते हैं। उन्हें वह प्रसन्नतापूर्वक दिया जाता है। कमाने वाले का यह दावा नहीं होता कि हम अधिक योग्य हैं, अधिक कमाते हैं, इसलिए हमें सुख साधन अधिक मात्रा में मिलने चाहिए। चूँकि असमर्थ कम कमाते हैं, अस्तु उन्हें या तो मिलना ही नहीं चाहिए, अन्यथा यत्किंचित देकर टरका देना चाहिए। योग्यता के अनुसार वेतन की नीति ही पूँजीवाद है। इसमें असमर्थों और अयोग्यों के विकास का रास्ता बन्द होता है। जिसकी लाठी तिसकी भैंस के पीछे यही दर्शन काम करता है कि छीन झपट में जिसका दाँव जितना चढ़ सके, नैतिक नियम की उपेक्षा करके जो जितना प्राप्त कर सके, अपनी समर्थता के आधार पर उतना पाने की स्वेच्छाचारिता बरते। समाज में यही दृष्टिकोण अनीति बढ़ाता और असन्तोष भड़काता है। समाजवादी समाज की संरचना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो उसे परिवारों की नर्सरी में उगाया और समाज के सुविस्तृत उद्यान में लगाया जाना चाहिए।
परिवार एक समूचा शासन तन्त्र है। उसे चलाने में प्रशासन को पूरी कुशलता अपनानी पड़ती है। शासन के अनेक पक्ष है। उत्पादन, संरक्षण, अभिवर्धन, उन्मूलन की अनेकों व्यवस्थाएँ सरकार को बनानी पड़ती है और उनके बीच सन्तुलन बिठाना पड़ता है। कुशलता प्रशासन के लिए ऐसी दूरदर्शिता आवश्यक है जिसमें सर्वतोमुखी विकास का सन्तुलित उपक्रम भी चलता रहे और ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को खुल खेलने का अवसर ही न मिले। सरकारों के अनेकों मन्त्रालय होते हैं, वे अपने-अपने कार्यक्षेत्र की योजनाएँ बनाते और कार्यान्वित करते हैं। साथ ही यह भी ध्यान रखने हैं कि उनके अत्युत्साह से अन्य विभागों में अवरोध उत्पन्न न होने पावे। शतरंज की चाल चलने में प्रतिपक्षी के आक्रमण से बचाव करते हुए अपने सीट आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना होता है। शासन तन्त्र भी इसी नीति से चलते है। परिवार का आकार छोटा है और देश का बड़ा। फिर भी दोनों के बीच नीतिमत्ता, कुशलता एवं दूरदर्शिता का समान उपयोग करना होता है। अकुशल प्रशासक स्वयं बदनाम होते और देश को बर्बाद करते है। इसी प्रकार परिवार संचालन में जहाँ सर्वतोमुखी श्रेय है, वहाँ अपयश भी कम नहीं है। प्रशासन की नियोजन एवं संचालन की योग्यता ही इस संसार की सबसे बड़ी योग्यता मानी जाती है।
पारिवारिकता एक दर्शन है, जो गृहस्थी के लिए ही नहीं विरक्तों के लिए भी अपनाये जाने योग्य है। कुमार और कुमारी उसमें बँधे रहते हैं। स्त्री बच्चों का परिवार भी परिवार की परिधि में गिना जा सकता है, किन्तु इस महान संख्या को इतने ही लोगों तक सीमित कर दिया जाना सर्वथा आपत्तिजनक है। घर में स्वभावतः कई व्यक्ति रहते हैं। वयोवृद्ध, काम काजी प्रौढ़ विद्यार्थी, किशोर, नन्हे मुन्ने, वयस्क महिलाएँ छोटे बड़े बहिन भाई, विधवाएँ, आश्रित, सम्बन्धी आदि कई सम्बन्ध सूत्रों से जुड़े हुए कई व्यक्तियों को मिलाकर एक परिवार बनता है। इन सबकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति एक दूसरे से भिन्न होती है। कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व भी भिन्न भिन्न होते हैं। उनकी आवश्यकताएँ एवं अपेक्षाएँ भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती हैं। इस सबका तालमेल बिठाना हर एक को उचित सुविधा देना और हर किसी में पनपने वाली सहज विशृंखला का नियमन करना देखने में छोटा किन्तु समझने में बहुत बड़ा काम है। इसे ठीक तरह सम्पन्न करने के लिए कुशल प्रशासक की दूरदर्शिता सन्त जैसी उदार निस्पृहता और माता जैसी ममता चाहिए। इन तीनों का जो समन्वय कर लेगा वही सफल परिवार संचालक सिद्ध हो सकेगा। अन्यथा कांंजी हाउस में बन्द मवेशियों को जिस तरह एक ग्वाला भूसा पानी देता और उछल कूद करने वालों को डण्डे से पीटता रहता है, उसी प्रकार कोई भी अनाड़ी अविचारी कुटुम्ब को बढ़ाता और उसकी दुर्गति का भौंड़ा खेल खेलता रह सकता है।
यह तो उस परिवार की बात है, जिसे वस्तुतः घर गृहस्थी कह सकते हैं। इसमें प्रायः अंश वंश के लोग ही रहते हैं। संकीर्णता के इस युग में तो संयुक्त परिवार एक प्रकार से टूटते ही जा रहे हैं। पाश्चात्य देशों में उनका सफाया हो गया। अपने देश की सांस्कृतिक परम्परा ने उस ढाँचे को अभी भी खड़ा तो रखा हैं, किन्तु आपाधापी और अव्यवस्था के कारण वे भी टूटने और बिखरते ही जाते हैं। मनुष्य जाति के भाग्य निर्माण में सर्व समर्थ इस संस्था को पुनर्जीवन तथा प्रखर जीवन बनाने के लिए कुछ ऐसा कदम उठाना होगा, जिसमें व्यावहारिकता, सुगमता, सद्भावना एवं शालीनता के सभी तत्वों का समुचित समावेश है। रचनात्मक प्रयासों में यही सर्वोपरि है।
परिवार दर्शन का व्यापक विस्तार ही आत्मिक और भौतिक प्रगति का केन्द्र बिन्दु है। विश्व परिवार की, विश्व नागरिकता की मान्यता से जन जन को अनुप्राणित करना आवश्यक है। व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थ परता से पिण्ड छुड़ाने के लिए उसके स्थान पर समष्टिवाद की सहकारिता प्रधान नीति को मान्यता देनी होगी। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना ही आत्मीयता का विस्तार कर सकती है और उसी आधार पर सुख दुःख को बाँटने की, जिओ और जीने देने की, मिल बाँटकर खाने की सदाशयता पनप सकती है। जाति, धर्म, भाषा, देश आदि के नाम पर जिस संकीर्णता का इन दिनों उद्धत परिपोषण हो रहा है, उसी की प्रतिक्रिया आक्रमण, शोषण, अपहरण के रूप में दृष्टिगोचर होती है। युद्धों की पृष्ठभूमि यही है। अपने वर्ग को अधिक श्रेय सुविधा दिलाने के लिए ही छोटे या बड़े युद्ध लड़े जाते है। देशभक्ति, सम्प्रदाय भक्ति, भाषाभक्ति आदि की कट्टरता जितनी प्रबल होती है, उतना ही पक्षपात पनपता और विद्वेष भड़कता है। व्यापक अशान्ति का यह बहुत बड़ा कारण है। इसका निवारण वसुधैव कुटुम्बकम् की, विश्व परिवार की धारणा से ही सम्भव हो सकता है।
समाज संरचना के जितने तत्व एवं आधार हैं, उनमें सामूहिकता, सहकारिता को ही प्रधान मानकर चलना होगा। आदि मानव और सभ्य मानव की मध्यवर्ती शृंखला सामूहिक सहकारिता अपनाये जाने की दूरदर्शिता भर है। संकीर्ण व्यक्तिवाद ही मनुष्य को स्वार्थी एवं निष्ठुर बनाता है। उसी का बढ़ा हुआ रूप अपहरण आक्रमण है। अपराधों के मूल में लालच एवं औद्धत्य की दुष्प्रवृत्तियाँ ही काम करती हैं। संक्षेप में यह अनुदारता और कुछ नहीं, मनुष्य द्वारा अपनाये गये एकाकीपन की प्रतिक्रिया भर है। समाज में अनैतिकताएँ अवांछनीयताओं के अनेकानेक स्वरूप विविध विधि संकट, विग्रह एवं सन्ताप उत्पन्न करते देखे जाते हैं। यह अनीति और अनौचित्य भी मौलिक दुर्गुण नहीं है। दूसरों का दुःख दर्द समझने, दूसरों के सुख जिसे पाशविक या पैशाचिक कहा जा सके। समाज में अनेकों कुप्रथाएँ प्रचलित हैं। लोग इन कुरीतियों से होने वाले दुष्परिणामों को भी समझते हैं। फिर उन्हें सहन क्यों करते हैं, बदलते क्यों नहीं। इन प्रचलनों में सहयोग क्यों देते रहते हैं? उन्हें अपनाये हुए क्यों हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक है उनके कारण उत्पन्न होने वाले संकटों के प्रति संवेदनशील न होना।
व्यक्तित्व का पतित और समुन्नत होने का जहाँ तक प्रश्न है वहाँ विश्लेषण विवेचन करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जिन आदर्शों पर परिवारों का गठन और सुसंचालन होता है, उन्हें भुला देने पर व्यक्ति उद्दण्ड उच्छृंखल एवं दीन आलसी बनता है। जिन्हें सुसंस्कृत वातावरण में पलने का अवसर नहीं मिले, जो कुसंग में घिरे रहे, जिन्हें श्रेष्ठ सज्जनों का स्नेह, सहयोग नहीं मिल सका, उन्हें ही पतन के गर्त में गिरना पड़ता है। अभाव, अज्ञान, असम्मान और अवसाद की लानत ऐसे ही लोगों पर छाई रहती है। संक्षेप में व्यक्ति एक सामाजिक इकाई है। उसका उत्थान जिन सद्गुणों पर निर्भर रहता है, वे भी उसे सम्बद्ध वातावरण से ही उपलब्ध होते हैं। घुमा फिराकर बात वहीं आ गई कि व्यक्ति का उत्थान पतन जिन परिस्थितियों का प्रतिफल है, वे उसके घर गृहस्थी के अन्तर्गत बने हुए उस वातावरण की देन हैं, जिसे छोटा या बड़ा परिवार ही कहा जा सकता है।
परिवार स्वयं ही एक आनन्द, उल्लास, सन्तोष, समाधान, निर्वाह, सहयोग जैसी सुखद सम्वेदनाओं एवं परिस्थितियों का भरा पूरा गुलदस्ता है। उस कल्पवृक्ष की छाया में सभी सदस्यों को अपने अपने ढंग की विभूतियों से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है। पति पत्नी गृहस्थ के बन्धनों में बँधकर एक प्रकार का रसास्वादन करते है। भाई-भाई दूसरी तरह का, बहिन-बहिन तीसरी तरह का, भाई-बहिन चौथी तरह का, माता-सन्तान पाँचवीं तरह का, बालक और अभिभावक छठी तरह का, वृद्ध सातवीं तरह का, अतिथि-आगन्तुक आठवीं तरह का, पड़ोसी-सम्बन्धी नौवीं तरह का। इन रसास्वादनों की कल्पना सम्वेदना की अनुभूति से घर के सभी सदस्यों की आप बीती से भी बढ़कर अन्य बीती की गुदगुदी का आनन्द मिलता है। पोषण, सुरक्षा, सुविधा, सहायता, शिक्षा की अनेकानेक उपलब्धियाँ हर किसी को मिलती हैं। साथ ही अनुशासन, उत्तरदायित्व और शिष्टाचार के निर्वाह का ऐसा अभ्यास बनता है, जिसके बिना मनुष्य का स्तर वनमानुष से बढ़कर नहीं हो सकता। सभ्यता और संस्कृति का आरम्भिक और अमिट प्रभाव छोड़ने वाला विद्यालय परिवार का वातावरण ही है।
इन समस्त तथ्यों को एक सूत्र में पिरो देने से प्रतीत होता है कि परिवार संस्थान
ऐसा सुरम्य उद्यान है, जो अपनी अनुपम शोभा-सुषमा से न केवल स्वयं गौरवान्वित रहता
है, वरन् सम्बद्ध लोगों को भी ऐसे मधुर फल चखाता है, जिनकी तुलना अन्य क्षेत्रों
में मिलने वाली उपलब्धियों से हो ही नहीं सकती। खेद एक ही बात का है कि इन दिनों
परिवार दर्शन को जितनी दुर्गति का शिकार होना पड़ा है, उतना इतिहास में इससे पूर्व
कभी नहीं हुआ।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
180. परिवार निर्माण हेतु पंचशील
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
बौद्ध धर्म में मनुष्य जाति के अनेक वर्गों के लिए उनके कार्यक्षेत्र के अनुरूप
पाँच पाँच प्रमुख ‘शील’ अनुशासन बनाये गये हैं। शासन, समाज, धर्म, शिक्षा, स्वास्थ्य,
उपार्जन आदि क्षेत्रों में काम करने वाले इन मर्यादाओं का पालन करें, यही उनका
शील है। यह मर्यादाएँ पाँच पाँच की संख्या में निर्धारित होने के कारण पंचशील कहलाती
हैं।
यहाँ पारिवारिक पंचशीलों का प्रसंग है। इन्हें १. सुव्यवस्था २. नियमितता ३. सहकारिता
४. प्रगतिशीलता ५. शालीनता की पाँच सत्प्रवृत्तियों के रूप में समझा जा सकता है।
इन्हें अपनाने से व्यक्ति परिवार एवं समाज को उन विकृतियों से बचे रहने का लाभ
मिलता है जो समस्त समस्याओं और विपत्तियों के लिए उत्तरदायी हैं। इन्हें अपनाने
में सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुलता है और उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर चल
पड़ने का अवसर मिलता है।
सुव्यवस्था-पंचशीलों में प्रथम है-सुव्यवस्था। अपने आपको, अपनी क्षमताओं को, साधनों
को सुनियोजित सुव्यवस्थित रखने का नाम सभ्यता है। असभ्य और अव्यवस्थित लोग न तो
उपलब्ध साधनों का ही सदुपयोग कर पाते है और न कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त
कर सकने योग्य मनोयोग जुटा पाते हैं। साधना और अवसर अनेकों को प्राप्त होते है।
क्षमता और कुशलता भी बहुतों में होती है पर वे उन्हें व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप
से क्रियान्वित नहीं कर पाते फलस्वरूप उन सफलताओं से वंचित रह जाते है जिन्हें
वे नियमन एवं नियन्त्रण की बुद्धि होने पर सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। सद्गुणों
में सबसे प्रमुख व्यवस्था ही है। महान कार्यों को सम्पादित करने और बड़ी सफलतायें
पाने वालों में व्यवस्था बुद्धि की विशेषता ही उन्हें श्रेयाधिकारी बनाती है। इसी
के अभाव में पिछड़ापन लदा रहता है और पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती हैं।
वस्तुओं का सुन्दर सुसज्जित ढंग से यथा क्रम रखना, साथियों को उपयुक्त कामों में
क्रमबद्ध रूप से लगाये रहना, साधनों को सँभालना और उन्हें उचित समय पर उचित कार्य
में, उचित मात्रा में प्रयुक्त करना, उपार्जन और व्यय का सन्तुलन बिठाये रहना जैसे
कौशल व्यवस्था बुद्धि के अन्तर्गत ही आते हैं। आज की स्थिति और भविष्य की आवश्यकताओं
को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की नीति अपनाना जिसमें कठिनाइयों से बचा जा सके,
प्रगतिक्रम विधिवत् चलता रहे दूरदर्शी सूझबूझ का काम है।
सम्भव हो तो आरम्भ में सफाई का एक घण्टा रख जाय, जिससे सब लोग मिल जुल कर घर की
प्रत्येक वस्तु को ध्यान पूर्वक देखें और उसे अधिक सुव्यवस्थित, स्वच्छ एवं सुसज्जित
बनाने का प्रयत्न करें। इस काम के लिए बुहारी, टोकरी, झाड़न जैसे अस्त्र-शस्त्र
हाथ में लेकर चला जा सकता है। सुई, साबुन, आरी, हथौड़ी, चूना, वार्निश जैसे उपकरणों
को अपनाने और आगे रखने में उत्साह रहना चाहिए। मात्र झाडू लगाना ही काफी नहीं है।
वस्तुओं का यथा स्थान, यथा क्रम रखना भी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता का चिन्ह माना जा
सकता है। जमीन, कोने, छतें बुहारी के सहारे स्वच्छ रखी जा सकती हैं। नालियों, रसोई
घर, शौचालय आदि को पानी के सहारे धोया जाता है। गन्ध दूर करने के लिए चूना, फिनायल,
केरोसिन तेल आदि का प्रयोग करना होता है। मकान की टूट फूट ठीक करने के लिए थोड़े
से सीमेंट और कन्नी वसूली जैसे राजमिस्त्रियों के हाथ में रहने वाले उपकरणों का
प्रयोग सीखा जा सकता है। घर की लिपाई पुताई मिल जुल कर आसानी से हो सकती है। किवाड़ों
और फर्नीचरों पर रंग रोगन करने में थोड़ा सा खर्च और श्रम तो लगता है पर घर का स्वरूप
ऐसा निखर जाता है मानों आज ही दिवाली मनाई गई है।
चारपाइयों की चूलें तथा रस्सियाँ अक्सर टूटती रहती हैं, उन्हें सुधारने के लिए
मिस्त्री की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। इसी प्रकार किवाड़ें कुर्सी, मेजें, चौकियाँ
आदि की समय-समय पर मरम्मत होती रहे तो उनकी मजबूती और शोभा बनती रहेगी। लालटेन,
स्टोव, बर्तन आदि की टूट-फूट सँभल देने में ताश खेलने जितनी बुद्धि लड़ाने से काम
चल सकता है। पुस्तकों की जिल्दें घर पर बन सकती हैं। कपड़ों की मरम्मत, सिलाई, धुलाई,
रंगाई का अधिकांश काम घर पर ही किया जा सकता है। आँगन में फूल और छत पर सब्जियाँ
उगाने का काम पक्षी पालने से अधिक मनोरंजक है, साथ ही लाभदायक भी। इस प्रकार के
अनेकों काम घर में हो सकते हैं जिनसे अव्यवस्था हटाने और सुव्यवस्था बढ़ाने के,
गन्दगी भगाने और सुन्दरता बढ़ाने के उभय पक्षीय प्रयोजन पूरे हो सकें।
एक घण्टा नित्य सबको छोटे बड़ों को साथ लेकर सफाई अभियान में लगाया जाय। सुसज्जा के लिए श्रमदान कराया जाय तो धीरे धीरे दृष्टिकोण सुव्यवस्था का बनने लगता है। व्यक्तिगत उपयोग की वस्तुओं को तो हर व्यक्ति स्वच्छ सुसज्जित रखे ही साथ ही दूसरों द्वारा बरती गई अव्यवस्था को भी देखते ही संभल देने का उत्साह दिखाये। साप्ताहिक छुट्टी का दिन तो विशेष रूप से इस काम में लगाया जाना चाहिए।
नियमितता-श्रम और समय के समन्वय को नियमितता कहा गया है। समय ही जीवन है। उसका
एक-एक पल हीरे मोतियों में तोलने योग्य है। एक क्षण भी बेकार नहीं गँवाया जाना
चाहिए। ईश्वर प्रदत्त दिव्य सम्पदा ‘समय’ ही है। उसके मूल्य पर हर स्तर की विभूतियाँ
एवं सफलतायें प्राप्त हो सकती हैं। समय गँवाना अर्थात् जीवन के ऐश्वर्य एवं आनन्द
को बर्बाद करना। परिवार की परम्परा में इस आदर्श का सावधानी के साथ समावेश होना
चाहिए कि कोई भी व्यर्थ समय न गँवाये। उसे श्रम के साथ जोड़े रहे। श्रम से जी चुराना
व्यर्थ के कामों में समय गुजारना, परिश्रम में असम्मान अनुभव करना ऐसे दुर्गुण
हैं जिनके रहते पिछड़ेपन से, दरिद्रता से छुटकारा नहीं परया जा सकता है। शारीरिक
आलस्य और मानसिक प्रमाद यही दो सबसे बड़े शत्रु है जिन्हें प्रश्रय देने वाला दुर्भाग्य
ग्रस्त रहता और दुर्गति के गर्त में गिरता है।
श्रमशीलता मनुष्य की उच्चस्तरीय सत्प्रवृत्ति है। काम को ईश्वर की पूजा माना जाय।
श्रम से सम्मान अनुभव किया जाय। श्रम में शरीर घिसता नहीं वरन् परिपुष्ट होता है।
अपने कार्यों का स्तर एवं स्वरूप प्रशंसनीय बनाये रहने में मनुष्य की प्रतिष्ठा
है। स्फूर्तिवान् दीर्घजीवी होते हैं। परिश्रमी के पास दरिद्रता नहीं फटकती और
न दुर्गुणों को अपनाने, दुर्व्यसनों से ग्रसित होने का अवसर मिलता है। समृद्धि,
प्रगति और सफलता की सिद्धियाँ साधना से ही उपलब्ध होती हैं। जो समय की बर्बादी
को बचा सके और उसे अभीष्ट दिशा में क्रमबद्ध रूप से लगाये रहे सफलताओं ने उन्हीं
का चरण चूमा है। आलसी और प्रमादी, कामचोर, हरामखोर और समय गँवाने वाले ऐसे अभागे
हैं जो अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारते और आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना का त्रास
सहते हैं। भविष्य तो उनका अन्धकारमय रहता ही है।
परिवार की परम्परा यह रहनी चाहिए कि हर सदस्य अपनी दिनचर्या बनाये। परिश्रम में
जुटा रहे। बीच बीच में जितना विश्राम नितान्त आवश्यक है उतना ही ले। मन्दगति से
काम न करे। प्रमाद वश कामों को अधूरा न छोड़े। समाप्त करने या बीच में रोकने के
समय वस्तुओं को बिखरा न पड़ा रहने दे। जो भी काम हाथ में हो उसे पूरे मनोयोग एवं
परिश्रम के साथ प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर सम्पन्न करे। श्रमशील रहने और समय का
सदुपयोग करने का महत्त्व जिसने जान लिया और दिनचर्या बनाकर योजनाबद्ध रूप से काम
करने का अभ्यास कर लिया समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने की कुंजी
उसके हाथ आ गई।
गृह व्यवस्थापक का कर्तव्य है कि वह समस्त परिजनों को उनकी स्थिति एवं आवश्यकता
के अनुरूप दिनचर्या बनाकर काम करने के लिए सहमत करे। आरम्भ में कुसंस्कारिता इसमें
बहुत बाधक होती है। अनगढ़ पशु प्रवृत्ति आवारागर्दी पसन्द करती है। उसे अनुशासन
में बाँधना और आलस्य पर अंकुश लगाने में बड़ी अड़चन होती है और बहानेबाज़ी चलती है।
इस स्थिति को बदलना ही होगा। व्यस्त रहने का स्वभाव बनाना ही चाहिए। हर काम समय
पर और क्रमबद्ध रूप में होना चाहिए। इस आवश्यकता को परिवार के सभी लोग अनुभव करें।
उसके लिए सफल मनुष्यों की दिनचर्या का समय समय पर उल्लेख करते रहना चाहिए। हर काम
का समय निर्धारित हो। सभी अपना काम नियत समय पर नियमित रूप से करें।
महिलाओं के समय की बर्बादी इसलिए होती है कि उनसे सम्बन्धित काम दूसरों के समय
पर न आने के कारण अस्त व्यस्त पड़े रहते हैं। उनका तीन चौथाई समय इसी में नष्ट होता
है। अन्यथा वे गृह कार्यों को कुछ ही घण्टों में निपटा कर अन्य उपयोगी कामों में
लगा सकती हैं।
सहकारिता-सहकारिता प्रगति का मूल मन्त्र हैं। इसी विशिष्टता को अपना कर मनुष्य
ने इतनी प्रगति की है। जहाँ भी यह सत्प्रवृत्ति जितनी मात्रा में अपनाई जायेगी
वहाँ उसी अनुपात में सद्भावना की वृद्धि बढ़ेगी। मिल जुल कर करने में काम का आनन्द
भी बढ़ता है और स्तर भी अधिक सुयोग्यों से सीखने और कम योग्यों को सिखाने का अवसर
तभी मिलता है जब साथ साथ काम करने की आदत डाली जाय।
स्वच्छता अभियान में मिल जुल कर घर के काम काने की बात कही गई है। उस आधार पर सहकारिता
भी पनपती है। भोजन खाने में ही नहीं पकाने में भी यदि सहकार प्रयत्न चल सकें तो
उससे अच्छा खासा मनोरंजन भी रहेगा और अभ्यास भी बढ़ेगा। कपड़े धोने में, टूट-फूट
की मरम्मत में, पुताई रंगाई में सहकारी प्रयत्न घर को स्वच्छ और सुव्यवस्थित ही
नहीं रखते सहकारिता की सत्प्रवृत्ति को भी बढ़ाते हैं।
अधिक योग्यों को कम योग्यों की ज्ञान वृद्धि एवं प्रगति में स्थिति के अनुरूप करने
का ध्यान रखना चाहिए। अधिक पढ़े, कम पढ़ों को पढ़ाया करें। छोटी आयु के, बड़ों के कामों
में हाथ बँटाया करे। एकाकीपन दूर किया जाय। रिजर्व नेचर के अपने तक सीमित रहने
वाले व्यक्ति या तो स्वार्थी बन जाते हैं या आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित होकर
अनगढ़ असामाजिक रह जाते है। अस्तु परिवार व्यवस्था के हर कार्य में सहकारी प्रयत्नों
को यथा सम्भव अधिकाधिक स्थान दिया जाना चाहिए।
प्रगतिशीलता-भौतिक दृष्टि से आगे बढ़ने और आत्मिक दृष्टि से ऊँचे उठने की प्रक्रिया
को प्रगतिशीलता कहते है। मात्र महत्त्वाकाँक्षा गढ़ते रहने से कोई काम नहीं बनता।
परिस्थितियों को ध्यान में न रखकर ऊँची उड़ाने उड़ते रहने वाले, योग्यता एवं साधनों
के अभाव में कुछ कर नहीं पाते। अतृप्त महत्त्वाकाँक्षाएँ खीज़ और निराशा ही पैदा
करती हैं। अस्तु हवाई उड़ाने उड़ने से रोकना और प्रगति के लिए आवश्यक योग्यता बढ़ाने
में ही हर परिजन को मनःस्थिति नियोजित करनी चाहिए। सफलताओं की लालसा तभी सार्थक
हैं, जब उसके उपयुक्त परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए प्रबल प्रयास किया जाय। इसके
लिए योग्यता बढ़ाना भी आवश्यक है अन्यथा अक्षमता के रहते मात्र परिश्रम से भी कुछ
बड़ा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
इस सन्दर्भ में परिवार के सदस्यों को सुशिक्षित बनाने के लिए अध्ययन का, बलिष्ठ
बनाने के लिए व्यायाम का, कुछ कमाने के लिए गृह उद्योगों का, शिल्प कौशलों का,
गायन वादन का चस्का लगाया जाय और उसके लिए साधन जुटाये जाय। वर्तमान स्थिति में
अगले दिनों अधिक सुयोग्य बनाने के लिए अवसर मिला सके, इसके लिए जहाँ जो सम्भव हो
किया जाना चाहिए। सम्पदा की ललक कभी कभी इतना आतुर हो जाती है कि वह योग्यता बढ़ाने
और पुरुषार्थ करने की अपेक्षा अनीति पूर्वक सम्पदा, सफलता पाने के लिए मचलने लगती
है। अस्तु महत्त्वाकाँक्षाओं को योग्यता एवं सक्रियता बढ़ाने में नियोजित करने के
लिए हर परिवार में कुछ न कुछ प्रयत्न चलना चाहिए। ऊँचे उठने और आगे बढ़ने के लिए
कहाँ, किस प्रकार क्या हो सकता है, इसको खोजने से उपयुक्त मार्ग निश्चित रूप से
मिल जाते हैं।
शालीनता-शिष्टता, सज्जनता, मधुरता, नम्रता आदि सद्गुणों के समुच्चय को शालीनता
कहते हैं। ईमानदारी, प्रामाणिकता, नागरिकता, सामाजिकता की मर्यादाओं को निष्ठापूर्वक
अपनाना शालीनता का चिन्ह है। सामान्य शिष्टाचार की भी अपनी महत्ता है। दूसरों का
सम्मान करने और अपने को विनम्र सिद्ध करने के लिए वाणी में मिठास और व्यवहार में
शिष्टता का समावेश रहना चाहिए। उदारता, सेवा सहायता की सत्प्रवृत्ति अपनाने से
ही दूसरों का स्नेह, सम्मान एवं सहयोग मिलता है। परायों को अपना बनाने की जितनी
शक्ति शालीनता में है उतनी प्रलोभन देकर फुसलाने तथा दबाव देकर विवश करने में भी
नहीं है। शालीनता जन जन के मन पर आधिपत्य जमाने की असाधारण विशेषता है। इससे घर
के हर सदस्य को परिचित एवं अभ्यस्त कराया जाना चाहिए। उपरोक्त पारिवारिक पंचशीलों
का अभ्यास किस घर में किस प्रकार किया जाय, इसका एक नियम नहीं बन सकता। हर घर परिवार
के सदस्यों की स्थिति अलग होती है, अस्तु निर्धारण एवं क्रियान्वयन अवसर के अनुरूप
ही किया जा सकता है। इन पाँचों विभूतियों से घर के हर सदस्य को अलंकृत करने का
प्रयास चलता रहे तो समय समय पर वह उपाय भी सामने आते रहेंगे कि किस में क्या कमी
है और उसे किस प्रकार पूरा किया जा सकता है। पंचशीलों से परिवार को भरने का प्रयत्न
ऐसा ही है जैसे पाँच रत्नों के भण्डार से घर को भरना और कुबेर से अधिक वैभववान
बनना।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार