नारी मीनार से खाई में कैसे जा गिरी ?
अपने देश में अनादि काल से नारी को अत्यन्त उच्च स्थान और सम्मान प्राप्त होता रहा है । जिस गर्भ से मनुष्य जन्म लेता है उस मातृ-शक्ति के लिये उसका कण-कण कृतज्ञता के भार से दबा होना ही चाहिये । माता से, पत्नी से, भगिनी से, और पुत्री से जो कुछ प्राप्त होता है वह इतना अधिक है जिसे संसार में अन्य सूत्रों से मिलने वाली समस्त उपलब्धियों की तुलना में अत्यधिक ही कहा जाना चाहिये । भौतिक रूप से इस अनुदान का प्रतिदान चुकाया जा सकना संभव नहीं । किन्तु इतना तो हो ही सकता है कि उसके प्रति भाव भरी श्रद्धा और गहरी कृतज्ञता अन्तःकरण में जमी रहे । भारतीय संस्कृति ने इस संदर्भ में नर को कड़ी चेतावनी दी है कि वह नारी की अवमानना का कोई अवसर न आने दे । इस दिशा में की गई उपेक्षा उसी के लिए घातक सिद्ध होगी । जड़ पर कुठाराघात करने से वृक्ष जी नहीं सकता । नारी को अशक्त असमर्थ बना कर पुरुष की न तो प्रगति हो सकती है और न सुरक्षा स्थिर रह सकती है । इस तथ्य को हृदयंगम किये रहने वाला और तदनुरूप आचरण करने वाला प्राचीन भारत हर क्षेत्र में समुन्नत था । आज हम अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मार कर असह्य कष्टदायक पीड़ाएँ सहन कर रहे हैं ।
आश्चर्य होता है कि जिस देश में नारी को मानवी का नहीं 'देवी' का स्थान प्राप्त था उसी में उसकी इतनी दुर्गति कैसे हो गई, जिसे देखकर निष्ठुरता की आँखों में से भी आँसू झरते हैं और अनीति की भी छाती फटती है ।
अपने देश में आज नारी के प्रायः सभी मानवी अधिकार छिन गये हैं । उसे क्रीत दासी की तरह पराश्रित होकर दीन दयनीय दशा में रहना पड़ रहा है । उसकी अपनी इच्छा, अपनी आकांक्षा, अपनी आत्मा, अपनी स्थिति कुछ भी नहीं रह गई है । मालिक लोग अपनी इच्छानुसार उसका उपयोग-उपभोग करते हैं । जो उचित-अनुचित कहा जाय वही उसे स्वीकार करना चाहिए । मशीन की तरह उसे अपनी स्थिति माननी चाहिए । चलाने वाले जिस तरह चलायें उसी तरह चलना चाहिये, यही उसके लिए 'धर्म-कर्तव्य' नियत कर दिये गये हैं ।
कूप मंडूक की जिन्दगी जीते-जीते उनकी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, प्रखरता बुरी तरह कुंठित हो गई है । अब वे अशक्त, असहाय की स्थिति में पड़ी हुई रोटी बनाना, बच्चे पैदा करना और घर की चौकीदार रहना यह तीन काम ही कर सकती हैं । अपने परिवार और समाज की समृद्धि-प्रगति में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकना उनके लिए संभव ही नहीं रह गया है ।
प्राचीन काल में नारी की गौरव-गरिमा—तेजस्विता और समूची मानवता को ऊँची उठाने में संलग्न प्रतिमा की तुलना आज की अपनी गई-गुजरी स्थिति के साथ करने पर लगता है कि मीनार पर चढ़े हुए व्यक्ति को गहरी खाई में धकेल दिया गया हो । यह अप्रत्याशित और अवांछनीय परिवर्तन आखिर हो कैसे गया ? गंगा की उलटी धारा बहने कैसे लगी ? सूर्य पच्छिम से उदय और पूर्व में अस्त कैसे हो रहा है ? इस पहेली को बूझने के लिए हमें पिछले एक हजार वर्ष के मध्यकालीन अन्धकार युग का लेखा-जोखा लेने से उन कारणों का पता चल जाता है जिनके कारण यह विपन्नता आ खड़ी हुई हैं ।
कहना न होगा कि अपने देश का दुर्भाग्य वहाँ से आरम्भ हुआ जहाँ उच्च आदर्शों की देव परम्परा को छोड़ कर लोग संकीर्ण स्वार्थों की असुरता अपनाने के लिए उतारू हो गये । शायद उन दिनों की क्षुद्र बुद्धि ने सोचा होगा कि जंगल का कानून अधिक लाभदायक है—मत्स्य न्याय अधिक स्वाभाविक है । जब बड़ा पेड़ छोटे की खुराक खा जाता है और बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है तो शक्तिशाली मनुष्य भी वैसा ही क्यों न करे ? यही विचार विकृति भारत के पतन का कारण बनी । बुद्धिमान और शक्तिशाली दोनों ही वर्ग इस संकीर्ण स्वार्थ साधनों की दुरभिसंधि में सम्मिलित हो गये । एक के बाद एक अनाचारी कदम उठाये जाने लगे । इससे समर्थ वर्ग तो लाभान्वित हुआ; पर सामान्य वर्ग बुरी तरह पिस गया । जिन दिनों इस अनाचार का बोलबाला रहा है उसे हम अज्ञानान्धकार काल अथवा मध्य कालीन सामन्तवादी युग कह सकते हैं । इम अवधि में प्रायः सभी प्राचीन आदर्श उलट गये और ऐसे प्रचलन गतिवान हुए जिन्हें भारतीय संस्कृति पर कलंक के नाम से पुकारा जा सकता है ।
उस पिछले असुर युग में कुछ डाकू बड़े-बड़े गिरोह बना कर जनता को लूटते और अपने किले-महल खड़े करते थे । डकैतों का सरगना राजा, जागीरदार बन जाता था और वे लोग फिर आपस में भी लड़ते-मरते थे । बुन्देलखण्ड, राजस्थान आदि प्रान्तों के इतिहास पृष्ठ ऐसे ही रक्त रंजित इतिहास से भरे पड़े हैं । जनता की खुली लूट, कत्लेआम, परस्पर लड़ मरना किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के लिये नहीं नृशंस पशु प्रवृत्तियों के पोषण के लिए ही होता रहा है । यह परम्परा भारत तक सीमित न रही, उसे पड़ोस के दूसरे देशों ने भी सीखा । मध्य एशिया से विदेशी लोगों ने अन्तःकलह से जर्जरित भारत पर हमले बोले और वही किया जो इस देश में पहले से ही होता आ रहा था । विदेशी आक्रमणों से भारत की कमर टूट गई । राजनैतिक पराधीनता के साथ साथ सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, मानसिक, आर्थिक क्षेत्रों की अनेकानेक विकृतियाँ भी उस पर लद गईं ।
सामन्ती लूट पाट धन-सम्पत्ति तक ही सीमित नहीं रही । पीछे तरुण पुरुष और तरुणी स्त्रियाँ भी लूट के नाम में सम्मिलित कर ली गई । जिस क्षेत्र में संगठित डाकू हमला बोलते वहाँ के शासक को समाप्त करने से पहले प्रजा का कचूमर निकाल देते थे । धन सम्पत्ति लूट ली जाती, कोई सिर न उठा सके इसलिये कत्ले-आम मचा दिये जाते और तरुणों को दास एवं तरुणियों को दासी के रूप में पकड़ लिया जाता था । उन्हें बंदी पशु मानकर उनके शरीरों का जो भी उपयोग हो सके, किया जाता था । दास-दासी पशुओं की तरह हाट-बाजारों में बिकते थे । जो खरीदता वह पूरी तरह उनका मालिक होता और मनचाहा उपभोग करता ।
इस कुकृत्य ने 'दास' उत्पन्न किये । उनकी संतानें 'नीच' मानी गईं, वे शूद्र बने । नारियाँ दासी बनीं । उनसे रखैलों का काम लिया गया । इस्लाम के जन्म से पूर्व अरब देशों के लोग बहुत-बहुत औरतें रखते थे । उनसे हर साल ढेरों बच्चे उत्पन्न होते । बच्चों से स्त्रियों की कार्य क्षमता नष्ट होती है इसलिए उन्हें अमुक त्यौहारों पर 'बुतों' पर बलि चढ़ा दिया जाता । इस्लाम ने इस स्थिति में बहुत सुधार किया । एक पुरुष को एक समय में मात्र चार पत्नियाँ रखना ही धर्मोचित बताया और बच्चों की बलि के स्थान पर पशुओं की बलि पर्याप्त होने का प्रतिपादन किया । उस जमाने की दृष्टि में यह क्रान्तिकारी सुधार था, अपने समय की स्थिति सुधारने में इस्लाम ने भारी उदारता और साहसिकता का परिचय दिया, भले ही आज की स्थिति में उसे अपर्याप्त माना जाय ।
भारत में भी लगभग यही हो रहा था । बड़े आदमी के पास बड़ा महल, बड़ा खजाना, बड़ा ठाठ-बाट ही नहीं बड़ा 'हरम' भी होना चाहिये । जिसके अन्त:पुर में जितनी पत्नियाँ, उप-पत्नियाँ, दासियाँ होती थीं, वह उसी अनुपात से बड़ा आदमी कहा जाता था । एक व्यक्ति के पास इतनी अधिक पत्नियाँ होने से वे स्वभावतः असंतुष्ट रहेंगी, विग्रह उत्पन्न करेंगी—भागने या प्रतिशोध का ताना-बाना बुनेंगी । इस विद्रोह से बचने के लिए आवश्यक हो गया कि उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाये जायें । पर्दे में मुँह छिपाये रहना, किसी से बातचीत न करना, घर की देहर से बाहर पैर न रखना, बाहर जाना हाे तो निरीक्षक का कठोर नियंत्रण रहना आदि बंधन इसी कारण लगे कि 'हरम'—अन्तःपुर विद्रोह के अग्नि कुण्ड बनकर उस विलासी असुरता को भस्मसात न कर दें ।
अन्तःपुर पर कड़े प्रतिबंधों को उचित ठहराने के कितने ही तर्क गढ़े गये, उन्हें आवश्यक और उचित सिद्ध किया गया । देवताओं, ऋषियों और अवतारों को अनेकों पत्नियाँ रखने वाला सिद्ध करने के लिये अर्थ लोलुप संस्कृतज्ञ भी तत्पर हो गये । उनने पुराण के पुराण लिख दिये और भगवान श्रीकृष्ण तक को घसीट कर इसी पंक्ति में खड़ा कर दिया । पतिव्रत धर्म के लम्बे-चौड़े महात्म्य, सती प्रथा का प्रचलन, विधवा का तिरस्कार इसी दृष्टि से था कि कोई नारी अपने मालिक के विरुद्ध मन में भी विद्रोह के भाव न ला सके । उसे यथा स्थिति में ही लाभ अनुभव हो और उसी में संतुष्ट रहे । सत्ताधारी और विद्याव्यसनी वर्ग मिल कर ऐसा वातावरण बनाने में सफल हो गये जिसमें नारी पर लगे प्रतिबंध उचित ही नहीं, धर्म सम्मत भी सिद्ध किये जा सके । धीरे-धीरे वातावरण वैसा ही बन गया जिससे अनुचित को उचित स्वीकार कर लिया गया ।
बड़े लोग जो कुछ करते हैं, छोटे भी उसी की नकल करने लगते हैं । 'यथा राजा तथा प्रजा' की उक्ति पिछड़े लोगों पर तो शत-प्रतिशत लागू होती है । स्त्रियों पर प्रतिबंध—धर्माचरण माना गया, कुलीनता का चिन्ह घोषित किया गया और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया गया । सामन्तों की चमड़ी भी तभी बचती थी जब प्रजा भी उसी रीति को अपना ले । निन्दा से बचने का यही तरीका अधिक सरल है कि बहुत लोग उसी कुकृत्य को अपना कर एक प्रथा बना लें । पंडितों और शासकों की सम्मिलित चेष्टा से वह दुरभि संधि पूरी तरह सफल हुई । प्रजाजनों ने भी अपने घरों में नारी को प्रतिबंधित करने में अपनी प्रतिष्ठा अनुभव की । प्रथा चली सो चली ।
मध्यकालीन अज्ञानान्धाकार युग में इस नारी प्रतिबंध प्रथा में एक सामयिक लाभ भी समझा गया कि उन दिनों देशी और विदेशी शासक सुन्दर युवतियों को छीन ले जाने के लिये घात लगाये रहते थे, उनके गुप्तचर इसी की टोह लगाते रहते थे । सर्व साधारण ने सोचा पर्दा प्रथा अपना लेने से अपने घरों की बहू बेटियों की स्थिति का बाहर के लोगों को पता न चलेगा और उनकी सुरक्षा बनी रहेगी । स्त्रियाँ भी इस आपत्ति धर्म को अपनाने के लिये सहमत हो गईं और वह प्रतिबंध परम्परा सरलतापूर्वक व्यापक रूप से सर्वमान्य होती चली गई । बाल-विवाह भी उसी युग की देन हैं । लड़कियाँ वयस्क होने से पहले ही वधू बन जायें—संतान वाली बन जायें इसमें उनकी अधिक सुरक्षा समझी गई । विवाह के बाद जल्दी ही संतान होने की आकांक्षा भी इसी दृष्टि से बलवती होती गई कि इस ढाल के नीचे नव वधू की आततायियों से सुरक्षा हो सकेगी ।
आगे चल कर नारी का स्वभाव आलसी होने लगा होगा । उसने पर्दे में रह कर कमाने-धमाने, भाग-दौड़ करने और उत्तरदायित्वों को वहन करने के झंझट से छुटकारा अनुभव किया होगा और चैन की रोटी खाने की बात सोची होगी और उस स्थिति को सहन करके अपने स्वभाव का अंग बना लिया होगा ।
बहुपत्नी प्रथा, पर्दा प्रचलन, घरों में कड़ाई से कैद रखा जाना, शिक्षा और स्वावलम्बन की सुविधा से वंचित करके उन्हें पंख कटा पक्षी बना देना, सती प्रथा, विधवा तिरस्कार जैसे सामाजिक अनाचार उसी सामन्ती काल की देन हैं, जिसे असुर युग भी कह सकते हैं । उन प्रचलनों का प्राचीन भारतीय संस्कृति के साथ कोई ताल-मेल नहीं खाता । स्वर्ग और नरक में—आकाश-पाताल में जितना अन्तर है उतना ही नारी के प्रति प्राचीन काल में उच्च स्तरीय श्रद्धा रखे जाने और सुविधा दिये जाने की स्थिति में और इस हेय प्रतिबंधन की स्थिति में समझा जा सकता है ।
भारतीय धर्म ने नर-नारी को सदा से समान माना है । दोनों के लिए समान नियम, बंधन तथा आदर्श निर्धारित किये हैं । यदि बहुपत्नी प्रथा उचित होती तो बहुपति प्रथा का निश्चित रूप से रिवाज रहा होता । यदि नारी की शील रक्षा के लिये पर्दा उचित होता तो पुरुषों को भी पर्दा ओढ़ कर अपना शील बचाने के लिये निर्देश दिया जाता । पुरुष भी बंदी बना कर रखे गये होते । घर से बाहर निकलने पर घर की नारियाँ कड़ाई के साथ उनकी चौकीदार रहतीं । मृत पत्नी के साथ 'सत्ता' होकर पति को भी स्वर्ग का आनंद लूटने के लिये कहा जाता । विधुर पुरुषों का मुँह देखना अशुभ माना जाता । पुनर्विवाह के लिये विधुरों पर भी विधवाओं जैसी रोक होती । उदार और समदर्शी भारतीय धर्म नर-नारी के बीच भेद-भाव कर ही नहीं सकता । न्याय की तराजू में पक्षपात करने की नीति अपना कर भारतीय दर्शन अपने को कलंकित कर ही नहीं सकता, विश्व के विचारशील लोगों की दृष्टि में अपने को निन्दनीय ठहराये जाने वाले अवांछनीय प्रचलनों का समर्थन कर ही नहीं सकता ।
प्राचीन काल में कारण जो भी रहे हो—आज की स्थिति में वे नितान्त अनुचित एवं अवांछनीय ही कहे जायगें । इससे मनुष्य के जन्मजात अधिकारों का हनन होता है । नारी का स्वेच्छया समर्पण ही पर्याप्त है । वह सहज ही अपने पति के लिए, परिवार के लिए, बच्चों के लिए सब कुछ निछावर किये रहती है । उसका वही भावनात्मक अनुदान इतना अधिक है कि मानव मात्र को सदा-सर्वदा कृतज्ञतापूर्वक उसके चरणाें में मस्तक झुकाये रहना पड़े । उतने को अपर्याप्त मान कर पशुओं जैसे, कैदियों जैसे हेय बंधनों में जकड़ा जाना, पर कटे पक्षी की तरह शिक्षा और स्वावलम्बन से वंचित करते हुए असहाय बनाया जाना, नर की तुलना में उसे निकृष्ट अथवा दासी ठहराया जाना हर दृष्टि से अनुचित है । आसुरी, अनौचित्य का अब जितनी जल्दी परित्याग कर दिया जाय उतना ही उत्तम है । मनुष्य द्वारा मनुष्य के साथ बरते जाने वाले इस अनौचित्य का—नारी के प्रति बरते जाने वाले अनाचार का अन्त करके ही हम अपना मुख उज्ज्वल कर सकेंगे । प्रगति की संभावना का पथ प्रशस्त तभी होगा जब नारी को भी मनुष्य माना जायगा और उसे पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर काम करने का अवसर दिया जायगा ।