जिएँ ईमानदारी का जीवन

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

जिएँ ईमानदारी का जीवन

परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह मौलिकता है कि उनमें परमपूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त जीवन सूत्रों की अत्यन्त ही मनोरम एवं हृदयस्पर्शी व्याख्या की गई है। ऐसे ही प्रस्तुत अपने इस उद्बोधन में गुरुदेव द्वारा दिए गए ईमानदारी के सूत्र की एक गम्भीर विवेचना वन्दनीया माताजी करती हुई दिखाई पड़ती हैं। वे कहती हैं कि मनुष्य के जीवन में एक ईमानदारी से परिपूर्ण दृष्टिकोण का जो मूल्य होता है, वो किसी भी अन्य साधन के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। परमवन्दनीया माताजी अनेकों उदाहरणों को देने के अतिरिक्त स्वयं पूज्य गुरुदेव का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि पूज्य गुरुदेव ने जीवन में जो भी सिद्धियाँ प्राप्त की, वो ईमानदारी से भरा जीवन जीने के कारण ही प्राप्त की। उनकी उनके लेखन के प्रति ईमानदारी, साधना के प्रति ईमानदारी एवं जीवन उद्देश्य के प्रति ईमानदारी ने ही उन्हें कितने उच्च स्थान पर पहुँचाया। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........

ईमानदारी के संस्कार

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

बेटियो! आत्मीय प्रज्ञा परिजनो। ईमानदारी से जीवन जीने को व्यक्ति यह समझते हैं कि यह घाटे का सौदा है। घाटे का नहीं; वरन वह नफे का ही सौदा होता है। आत्मतुष्टि तो अहं में होती है, चालबाजी में होती है, बेईमानी में होती है; पर वस्तुतः जो शान्ति और सन्तोष मिलता है, जो संस्कार मिलते हैं, वे ईमानदारी में ही निहित हैं। ऐसा हमारा विश्वास है। केवल विश्वास ही नहीं, बल्कि लम्बे जीवन का अनुभव भी है।

मथुरा में एक पेशकार रहते थे। वे जब सुबह जाते थे, तो साइकिल पर अपनी खुरपी साथ लेकर के जाते थे और शाम को जब आते थे, तो घास काटकर लाते थे क्योंकि उनके घर में बकरी और गाय पल रही थी। उतना पैसा उनके पास नहीं था कि बाजार से घास खरीदकर मँगाएँ और जानवरों को खिलाएँ। शाम को वे थके-माँदे घर आते थे।

उनके कपड़ों का यह हाल होता था कि फटे हुए कपड़े होते थे और जहाँ-तहाँ कपड़ों में थेगड़ी लगी होती थी। जो फजूलखर्ची और उच्छृंखल लोग थे, उनकी निगाहों में वे बददिमाग और पागल थे, ऐसा वे समझते थे, पर वस्तुत: ऐसा कुछ नहीं था। उनका ईमानदारी का जीवन था। जिस समय वे कचहरी में जाते थे, तो उनके सम्मान के लिए जज भी एक बार उठकर खड़े हो जाते थे और अगर कोई बात पेशकार जी ने कह दी, तो उस बात को जज की यह हिम्मत नहीं होती थी, कि वे टाल जाएँ।

बच्चो! यह क्या था? उन्होंने ऐसे संस्कार बना रखे थे कि हमारा जीवन ईमानदारी का है, इसको देखिए और जो बेईमानी का जीवन है, उसको देखिए। जब उनका देहावसान हो गया, तब उनके चार लड़के थे। घर में इतना पैसा नहीं था कि उनकी विधवा पत्नी अपने बच्चों का लालन-पालन अच्छे तरीके से कर सके। उन्हें पढ़ा-लिखा सके और किसी योग्य बना सके, लेकिन ईमानदारी की छाप ऐसी पड़ी उनके बॉस पर, अधिकारियों पर कि जब वे नहीं रहे, तो एक बच्चे को कोई ऑफिसर ले गया। एक को कोई दूसरा ऑफिसर ले गया।

इस तरीके से चारों लड़कों को चार ऑफिसर ले गए अपने साथ और उन्हें पढ़ाया-लिखाया। अच्छी-अच्छी नौकरी पर लगाया। अगर कोई ऐसा लोभी-लालची होता, तो भले से मकान कोठी बना सकते थे। बच्चों को अय्याशी के लिए धन भी छोड़ सकते थे लेकिन अपनी ईमानदारी की छाप, सदाचार की छाप लोगों पर नहीं रहती। उसका परिणाम यह हुआ कि उनके बच्चे भी बड़े सुयोग्य और ईमानदार हुए। यह मैं आपको ईमानदारी के सन्दर्भ में बता रही हूँ।

लकड़हारे की कहानी

एक लकड़हारा था। एक पेड़ के नीचे सो रहा था। कदाचित् उसकी जो कुल्हाड़ी थी, वह खो गई। कुल्हाड़ी के खोने से वह रोने लगा। उस पेड़ के ऊपर एक दैत्य रहता था। वह ऊपर से उतरकर आया। दैत्य ने पूछा—"तू क्यों रो रहा है?" उस लकड़हारे ने कहा—"मेरी कुल्हाड़ी खो गई है।" उसने कहा—"कुल्हाड़ी ऐसी कौन-सी बड़ी चीज है? तेरी कुल्हाड़ी लोहे की है?" लकड़हारे ने कहा—"आपके लिए तो लोहे की है, पर मेरे पास तो पैसे नहीं हैं। मेरे लिए तो वह सोने-चाँदी से भी ज्यादा कीमती है। मैं कहाँ से लाऊँ, मेरे पास कुछ है नहीं?"

उस दैत्य ने लकड़हारे को सोने-चाँदी की कुल्हाड़ी दी, ले कुल्हाड़ी। लकड़हारे ने कहा—"महाराज! मेरी नीयत को मत डिगाइए। मुझे सोने-चाँदी का लोभ नहीं चाहिए। मुझे तो मेरी वही लोहे की कुल्हाड़ी चाहिए? उसे मैं प्राणों से प्यारी चीज की तरह रखता था, जो कि मेरी जीविका चलाती थी। उसी से मुझे सन्तोष और शान्ति प्राप्त होती थी। मुझे तो वही कुल्हाड़ी चाहिए।" अन्त में उसको वही कुल्हाड़ी मिली। उसने लोभ और लालच को ठोकर मार दी।

इसी तरीके से महाभारत में एक कथा आती है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए पाण्डवों ने निमंत्रण दिलवाया। एक ब्राह्मण जो सदाचारी था, ईमानदारी की कमाई खाता था, वह रोने लगा। युधिष्ठिर, अर्जुन और श्रीकृष्ण को यह मालूम था कि सारे-के-सारे अतिथि जो हमने बुलाए थे, वे आ गए; लेकिन उनमें से एक ब्राह्मण नहीं आया। उस तक खबर भेजी। ब्राह्मण आ तो गया, पर फूट-फूटकर रोने लगा। उन्होंने रोने का कारण पूछा—"भाई क्या बात है? हमारी दावत में कोई कमी है क्या? तुम्हारे स्वागत में कोई कमी है क्या? या हमने आपको जो बुलाया है, तो सम्मानपूर्वक नहीं बुलाया? क्या बात है, जरा बताइए तो सही?"

उस ब्राह्मण ने एक बात कही—"आप हैं राजा और मैं हूँ ब्राह्मण। अगर आपका कहना नहीं मानता, आपके यहाँ नहीं आता, तब भी बुरा था और मैं आता हूँ, खाता हूँ, तो मेरी जीवात्मा नहीं मानती है; क्योंकि खाने का मतलब है कुधान्य खाना। मैं आपके यहाँ खाऊँगा, तो मुझे ऐसा लगेगा कि मैंने कुधान्य खा लिया। अगर कुधान्य खा लिया, तो मुझे वह कैसे पचेगा? मैं तो स्वयं अपना ही कमाता हूँ और खाता हूँ और स्वयं ही बोता हूँ; स्वयं ही काटता हूँ। स्वयं अपना भोजन बनाता हूँ और अपना ही खाता हूँ। मैं दूसरे के यहाँ भोजन नहीं करता? आप राजा हैं तो क्या? मैं यह मानता हूँ कि आप युधिष्ठिर हैं; लेकिन है तो यह पराया धन ही न? मेरी कमाई का उपार्जित धन तो नहीं है। उपार्जित धन नहीं है, तो मैं किस प्रकार इसको खा सकता हूँ? इसलिए आपके निमंत्रण में मैं आना नहीं चाहता था, लेकिन आपने बुलाया, तो मैं आ जरूर गया हूँ, पर मुझे क्षमा किया जाए और मुझे मेरे घर जाने की आज्ञा दी जाए।"

ईमानदारी की विजय

इस बात पर युधिष्ठिर, अर्जुन और श्रीकृष्ण तीनों रोने लगे कि यह ब्राह्मण हमसे बड़ा है। हमने जो यज्ञ किया है, जो भोज कराया है, वह उस कीमत पर कराया है कि हमारे भाई-भाइयों में, चाचा-ताऊ के भाई-भाइयों में खून-खराबा हुआ। महाभारत रचा गया और लाखों लोगों का खून बहाया गया। उसके उपरान्त हम गद्दी पर बैठे, तो वास्तव में यह हमारा धान्य नहीं है। कुधान्य ही है। यह सोचकर तीनों-के-तीनों रोये। विजय किसकी हुई? ईमानदारी की विजय हुई। सन्तोष कहाँ प्राप्त हुआ? ईमानदारी में हुआ।

शान्ति कहाँ मिली? ईमानदारी में मिली, भले से वह जौ की रोटी क्यों न हो, सत्तू की क्यों न हो? वह मोहनभोग से ज्यादा है, मेवा से ज्यादा है, मिठाई से ज्यादा है, फल से ज्यादा है, घी से ज्यादा है, दूध से ज्यादा है। व्यक्ति यदि ईमानदार है, तो उसको रूखी-सूखी रोटी से भी उतना ही बल मिलेगा, जितना घी-दूध खाने वालों को मिलता है। उतना ही उसको जौ की रोटी में, सत्तू में मिलेगा। गरीबों के लिए फल कहाँ रखे हैं? गरीबों के लिए दूध कहाँ रखा है? गरीबों के लिए मेवा कहाँ मुहैया है, पर उनको जो शान्ति और सन्तोष मिलता है, वह अमीरों से ज्यादा उनको अपनी गरीबी में प्राप्त होता है।

एक बुढ़िया थी। उसे निमंत्रण देकर बुलाया गया। बुढ़िया ने कहा—"रखिए आप अपना भोज, मेरी कुटिया में तो जो मेरी सूखी रोटी है, मैं सारे दिन घास काटकर के जो कमाती हूँ, मेरे लिए तो वही पर्याप्त है। मेरे लिए तो यही भोज है। आपके यहाँ एक दिन खाने से मेरी जिन्दगी थोड़े ही कटेगी; वरन मेरे संस्कार खराब हो जाएँगे। जो संस्कार मैं अपने इस अन्न के द्वारा बनाती हूँ, वे आपके एक दिन के अन्न से नष्ट हो जाएँगे।"

बेटे! यही उसूल हमेशा आचार्य जी का रहा है। वे जब बाहर जाया करते थे, तो वे जौ के सत्तू लेकर जाया करते थे। मैंने उनसे कहा नहीं। बोले—क्यों? मैंने कहा कि ये बच्चे हमारे हैं। गायत्री परिवार हमारा है। युग निर्माण परिवार हमारा है और हमारे साथ में यदि यह सब चला, तो बुरा लगेगा। हमारे ही घर कोई अतिथि आए और वह अपना खाना बाँधकर लाए, तो हमको बुरा लगेगा। जब हमको बुरा लगेगा, तो फिर ये तो हमारे बच्चे हैं। इनके ऊपर भावनात्मक प्रभाव अच्छा नहीं पड़ेगा। आप सत्तू न ले जाएँ, तो अच्छा है। बहुत दिन तक वह चालू भी रहा, फिर मैंने ही आग्रह करके इसे बन्द कराया था।

ईमानदारी एक विशिष्ट गुण

ईमानदारी वह गुण है कि इसके सहारे लम्बी मंजिल शान्ति और सन्तोष से पार की जा सकती है। एक बार एक सन्त के पास एक व्यक्ति गया। उसने कहा—"मेरा यह जो बच्चा है, मिठाई बहुत खाता है। गुड़ खाता है, यह मानता नहीं है। इसका लिवर बढ़ गया है। डॉक्टर कहते हैं कि इसको मिठाई नहीं देनी चाहिए? इसका पेट खराब हो जाएगा और भी कोई दिक्कत खड़ी हो सकती है, पर यह मानता ही नहीं है। महात्मन्! इसको कोई आशीर्वाद दीजिए। आपके आशीर्वाद से बच्चा मान जाएगा और ठीक हो जाएगा।"

उन्होंने कहा—"ऐसा कर, एक सप्ताह बाद आना।" उसने सोचा यह तो सन्त हैं, महान हैं और हमसे कहते हैं कि एक सप्ताह बाद आना। वे हमको टालना चाहते हैं। वह चला तो गया, यह सोचकर कि ये महात्मा हैं। इनके सामने हम क्या कहें कि आप तो अभी दूर कर सकते थे? पर हमको टाल रहे हैं सप्ताह भर के लिए। वह एक सप्ताह बाद आया। उन्होंने पूछा—"तेरे बच्चे ने अब गुड़ खाना, मिठाई खाना छोड़ा कि नहीं छोड़ा?" उसने कहा—"हाँ, महाराज जी! छोड़ दिया।" उसने कहा—"आपने तब क्यों नहीं कहा—"जब मैं पहले आया था?" उन्होंने कहा "देख! मैं आज आशीर्वाद देने में समर्थ हूँ; क्योंकि मैंने एक सप्ताह से गुड़ नहीं खाया। पहले मैंने अपनी जीभ पर संयम किया कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, वस्तुत: वह गुण मेरे अन्दर है कि नहीं है।"

बेटे ! ईमानदारी से जीवन जीना। बेईमानी से कमाया हुआ धन सारा-का-सारा बरबाद हो जाता है और परिवार के जो व्यक्ति हैं, वे कुसंस्कारी हो जाते हैं। जितना धन उनको मिलेगा, वे उसे सट्टे में लगाएँगे। शराब में उड़ाएँगे, जुए में लगाएँगे, अय्याशी में लगाएँगे; क्योंकि वह हराम का कमाया हुआ होता है। स्वयं की शक्ति से जो उपार्जित होता है, उसमें व्यक्ति को फजूलखर्च करने में दरद होता है।

ईमानदारी की कमाई

पहली बात तो यह है कि ईमानदारी की कमाई फजूलखर्च करने के लिए होती ही नहीं है। वास्तव में ईमानदारी और श्रम से जो कमाया हुआ धन है, वह उतना ही होता है, जिससे पेट भरा जा सके। परिवार का पालन पोषण किया जा सके। अगर इससे ज्यादा होता है, तो ईमानदार व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह स्वयं के बच्चों के लिए ही नहीं, अपितु लोक-मंगल के कार्यों में, जरूरतमन्दों की सहायता में उस धन को खरच करे।

पिता की कमाई बेटा क्यों खाएगा? वह अगर समर्थ है, तो पिता के बाद, पिता की कमाई को माता-पिता के श्राद्ध में ही लगाना चाहिए। ईमानदारी का तकाजा तो यही है और बेईमानी का यह है कि हमारे माता-पिता जो धन छोड़ गए हैं, वह हमारे लिए ही खरच होना चाहिए? अगर माता-पिता जीवित हैं, तो बच्चे उनसे झगड़ा करते हैं कि आपने हमें पैदा किया है, तो आपका कर्तव्य होता है, फर्ज होता है कि हमारे लिए धन लाइए, क्यों लाइए? किस कारण से लाइए? किसके लिए लाइए? इसकी वजह बताइए? जबकि पढ़ा-लिखाकर नौकरी से लगा दिया है। शादी-ब्याह भी कर दिया है। हर दृष्टि से योग्य बना देने के बाद भी आपको माता-पिता धन क्यों दें, बताइए? बेईमानी कहती है कि धन देना चाहिए।

ईमानदारी कहती है कि नहीं, जो कुछ भी है, उसका उपार्जन हमने नहीं किया है। वह हमारे माता-पिता का है, तो यह धन उन्हीं के निमित्त लगना चाहिए। श्राद्ध के रूप में लगना चाहिए। श्राद्ध का मतलब भोज नहीं होता है कि हम उस धन को भोज में, मिठाई खिलाने में, पान खिलाने में खरच कर दें। नहीं, वह धन तो सत्प्रेरणाओं के लिए, सद्विचारणाओं के लिए, सत्कार्यों के लिए खरच करना चाहिए; लेकिन ऐसी सद्बुद्धि नहीं आती है; क्योंकि रग-रग में तो बेईमानी और लालच समाया हुआ है। ईमानदारी हमसे कहती है कि मितव्ययिता से चलिए। सद्गुण—गुण, कर्म और स्वभाव की श्रेष्ठता—यही व्यक्ति के काम आते हैं। यह ईमानदारी के अन्तर्गत आते हैं। श्रमशीलता, मितव्ययिता और शिष्टाचार, यह भी ईमानदारी के अन्तर्गत आते हैं। इन गुणों को ग्रहण करना चाहिए और जहाँ बेईमानी का पुट लग रहा है, जहाँ ईमानदारी पर शक है, उसको ग्रहण नहीं करना चाहिए।

एक पेड़ पर हंस का एक जोड़ा बैठा था। हंस और हंसिनी दोनों आपस में बात कर रहे थे। हंसिनी कह रही थी कि राजा जनक बड़े दानी हैं और हंस कह रहा था कि नहीं रैक्य हैं। रैक्य माने गाड़ीवान। जब दोनों बात कर रहे थे, तो राजा जनक वहाँ सुन रहे थे। राजा जनक ने जैसे ही ऊपर की ओर निगाह उठाई, हंस-हंसिनी का जोड़ा वहाँ से उड़ गया। दूसरे दिन राजा जनक ने उस रैक्य को बुलाने के लिए खबर भेजी। रैक्य आया। राजा ने सोचा—हंस और हंसिनी जो बात कर रहे हैं, मेरा और इसका मुकाबला कहाँ? राजा ने उसको बहुत सारा धन दिया और कहा—"तू तो साधारण किसान है न?" उसने कहा—"हाँ, मैं किसान हूँ।" उन्होंने कहा—"तेरी पूर्ति नहीं हो पाती होगी, सो यह धन ले जा?" रैक्य ने कहा—"महाराज जी! मुबारक हो आपके दान को। मेरे लिए तो मेरी झोंपड़ी और मेरे जो खेत हैं, वही मेरे लिए बहुत हैं। मैं तो उस सूखी रोटी में सन्तोष कर लेता हूँ। मैं ईमानदारी का जीवन जीता हूँ। इसमें मुझे सन्तोष है।" इस बात को सुनकर के राजा जनक शरमिंदा हो गए। उन्होंने कहा—"वास्तव में यह रैक्य ही बड़ा है। इसके सामने मैं छोटा पड़ता हूँ।"

पूज्य गुरुदेव की ईमानदारी

ईमानदारी का जीवन जीना यदि सीखना है, तो आचार्य जी से—गुरुजी से सीखिए, जो अपने एक-एक क्षण, समय के प्रति ईमानदार, वफादार रहे हैं। उन्होंने समय का एक-एक क्षण, एक-एक लम्हा कभी निरर्थक नहीं जाने दिया। पाँच मिनट भी उनके कभी बेकार नहीं गए। समय के साथ ईमानदारी, पैसे के साथ ईमानदारी, वह भी कैसी ईमानदारी? अपने लिए खरच कम करना। समाज से पाया जरूर, लेकिन वह समाज का ही है, वह अपना नहीं है। जिस दिन उसको खाया जाएगा, उन्हें उलटी हो जाएगी, दस्त हो जाएँगे। वह पचेगा नहीं, यह दान का दिया पैसा पचेगा नहीं। यह समाज का है, तो समाज के लिए, लोक-मंगल के कार्यों में ही खरच होना चाहिए। उन्होंने एक-एक पैसे को इस ईमानदारी के साथ खरच किया है कि शायद ही कोई और व्यक्ति इस ईमानदारी में खरा उतरे, मुझे शक है। हमेशा से उन्होंने ईमानदारी का परिचय दिया है।

साधना में 6 घंटे नित्यप्रति, चाहे जो भी हो लेकिन उन्हें अपने समय पर उपासना करनी है, तो वह करनी है। उन्होंने हर काम ईमानदारी के साथ किया है। अधिकतर व्यक्ति कहते हैं—"अजी आज नहीं कर पाए, तो हम कल कर लेंगे। आज अमुक काम नहीं किया, तो कल देखा जाएगा। आज उपासना नहीं की, तो कोई बात नहीं, कल और ज्यादा देर तक बैठ लेंगे।" लेकिन नहीं, ईमानदारी कहती है कि जो काम हाथ में लिया है, हमें ईमानदारी से उसे पूरा करना चाहिए। हम तो नहीं देख रहे हैं, दूसरा कोई और तो नहीं देख रहा है। लेकिन अपनी जीवात्मा तो देख रही है। अपनी जीवात्मा तो धिक्कारेगी, जहाँ बेईमानी होगी। चाहे वह समय हो, चाहे वह किसी के धन के साथ खिलवाड़ हो, कहीं कुछ भी हो, बेईमानी-तो-बेईमानी है।

बेईमानी हमें नीचे गिराती है और ईमानदारी ऊँचा उठाती है। ईमानदारी का तो उनको हमेशा ध्यान बना रहा। साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने ईमानदारी की जिन्दगी जी, लेखन में ईमानदारी। उनको लेखन करना है तो हर हालत में, चाहे कोई कैसी भी परिस्थितियाँ हों, उन्होंने लेखन किया। आपको मालूम है 8 जनवरी, 1984 की घटना, जिस घटना से हमारे सारे परिजन हिल गए थे; लेकिन वे नहीं हिले। गुरुजी ने कहा—मुझे तो अवकाश मिल गया। जीवन में कभी अवकाश नाम की चीज नहीं थी। उन्होंने कहा—समय के साथ खिलवाड़ नहीं। हम ईमानदारी के साथ जिए हैं और ईमानदारी से जिएँगे। बीस दिन न जाने उन्होंने कैसे काट लिए? जब तक टाँके नहीं कटे, उतने दिन तक फिर कलम वापस हाथ में। जितनी देर तक काम करना है, वह होगा ही। लेखन करना है, तो लेखन ही होगा। उपासना करनी है, तो उपासना ही होगी।

उनके जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी कूट-कूटकर भरी हुई है। पैसे के साथ में, धन के साथ में ईमानदारी। एक-एक पैसा इस तरीके से खरच किया जाता है, मानों हजारों रुपये खरच कर रहे हों, एक पैसा खरच करने में ऐसा महसूस होता है। हजार बार सोचते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जनता का पैसा, अपने परिजनों का पैसा कहीं फजूलखर्च तो नहीं कर रहे। कहीं अनावश्यक खरच तो नहीं हो गया। वहीं खरच हुआ, जहाँ उपयोगिता थी अथवा कहीं दूसरी जगह खरच हुआ। हजार बार सोचकर के ईमानदारी के साथ वही किया, जो करना चाहिए था। यह उनके जीवन का रहस्य है।

यह ईमानदारी है। इस ईमानदारी ने कितनी बड़ी मंजिल पार कराई है, वह आप सब जानते हैं। जहाँ तक लम्बी मंजिल को पार करके आए हैं और थोड़ा-सा जीवन जो है, भगवान वह भी पूरा करेगा। वे ईमानदारी के साथ जी रहे हैं और आगे भी जीते रहेंगे। यह सबक हमारे परिजनों को भी सीखना चाहिए। जीवन का वो अंश क्यों मुझे आपसे कहने की जरूरत पड़ गई? इसकी आवश्यकता थी, यह समझाने के लिए कि ईमानदारी क्या चीज होती है? इसको अपनाने से व्यक्ति को क्या मिलता है? इससे विश्वास मिलता है, बल मिलता है।

बेटे! कांग्रेस आन्दोलन में उनके पास लाखों रुपये रहते थे। यहाँ यू०पी० के एक व्यक्ति मिनिस्टर रह चुके हैं। इस समय मुझे उनका नाम याद नहीं है। जब कांग्रेस आन्दोलन में चर्चा हुई कि कौन ऐसा हो सकता है, जिसके पास हम पैसा रख सकते हैं और हमको यह विश्वास हो जाए कि हमारा पैसा सुरक्षित रहेगा। तो वहाँ जगन प्रसाद रावत जी, उन्होंने कहा कि एक स्वयंसेवक है, जिसकी नीयत पर कोई शक नहीं है। वह इतना ईमानदार है, जो समय पर पूरी तरह जागरूक रहता है और दूसरे के पैसे को वह ऐसे समझता है, जैसे वह मिट्टी हो। अगर कुछ रखने के लिए दिया है, तो जी-जान से उसको सुरक्षित रखने के लिए वह अपने जीवन को भी दाँव पर लगा देगा और वैसा ही उनको पाया गया। जब वे बाहर से आते थे, उन सज्जन का शायद केशकर ऐसा ही कुछ नाम था। जब वे आते, तो किवाड़ें खुली हुई मिलती थीं और रोटी भी बनी हुई तैयार मिलती थी। कोई और खाना बनाने वाला नहीं था। ईमानदारी के साथ उन्होंने कहा कि यह लड़का नहीं है। यह भगवान है। यह पूजने लायक है। है तो यह जरा-सा, लेकिन यह पूजने योग्य है।

बेटे ! यह है ईमानदारी का प्रतिफल। ईमानदारी ने उन सभी को, जो बड़े थे, उन सभी को छोटा बना दिया। उन्होंने भी यह महसूस किया कि हम बड़े जरूर हैं; लेकिन ईमानदारी में बड़ा यही है। आपसे आज मैंने यह ईमानदारी के सन्दर्भ में कुछ बातें कही हैं। आशा है कि आप इस पर ध्यान देंगे और उनके जीवन से सीखेंगे कि ईमानदारी किस तरीके से की जा सकती है। ईमानदारी का तात्पर्य यह नहीं होता कि हम अर्थोपार्जन नहीं करेंगे। हमको सीमित धन कमाना चाहिए। नहीं, यह नहीं होता। अर्थोपार्जन जरूर कीजिए; लेकिन अर्थ की उपयोगिता कहाँ है? खरच उस जगह कीजिए। नहीं, यह तो हमारे बेटे के लिए होगा, यह तो हमारी पत्नी के लिए होगा। यह तो बेटी के लिए होगा। नहीं, उनको संस्कार दीजिए। संस्कारवान बनाइए। ईमानदारी सिखाइए, मितव्ययिता सिखाइए। फिर आपके धन की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। आज मैंने आचार्य जी के जीवन के वे सभी सन्दर्भ सुनाए जो ईमानदारी, सहिष्णुता, सहनशीलता, श्रमशीलता आदि के थे। आशा है कि आप इस पर जरूर ध्यान देंगे।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥