इस प्राण तत्त्व को प्रखर बनाया जाये

महिला जागरण अभियान के अन्तर्गत दिखाई देने वाले चार कार्यक्रम इस वर्ष — सन् ७५ में पूरा करने के लिए निर्धारित किये गये हैं — (१) संगठन (२) सत्संग (३) प्रचार (४) विद्यालय । यह चारों ठीक तरह चल पड़े तो समझना चाहिए कि सूत्र संचालकों, सदस्यों और सभ्य सहायकों ने अपने उत्तर-दायित्व का पूर्वार्ध पूरा कर लिया । इतना जहाँ बन पड़ेगा, वहाँ आगे के लिए बड़ी से बड़ी आशा की जा सकेगी । हर वर्ष एक सप्ताह का या दस दिन का वार्षिकोत्सव होता रहे । उसमें पाँच-कुण्डी गायत्री यज्ञ समेत महिला जागरण सम्मेलन होता रहे तो उत्साह का वातावरण बना रहेगा और प्रगति की दिशा में नये कदम बढ़ते रहने की व्यवस्था बनती रहेगी । जहाँ उत्साही महिलाएँ और प्रबुद्ध पुरुष मिल-जुल कर इसके लिए प्रयत्न करेंगे, वहाँ निश्चित रूप से यह कार्यक्रम पूरा हो जायगा जो सन् ७५ में पूरा कर लिए जाने के लिए निर्धारित किया गया है ।

जहाँ निष्क्रियता और उपेक्षा होगी वहाँ तो इतना बन पड़ना इस वर्ष में भी कठिन है पर जहाँ यह कदम उठाने की आवश्यकता भली प्रकार समझ ली गई होगी और उसके लिये कुछ कर गुजरने का साहस जग गया होगा, वहाँ इतना कार्य अवश्य ही पूरा हो जायगा । इतना चल लेने पर यह विश्वास किया जा सकेगा कि यह रोपा हआ वट वृक्ष सिंचाई, रखवाली की आरम्भिक सहायता प्राप्त करके स्वावलम्बी हो गया । तब उसे जङ्गली जानवर चर जाने का दुस्साहस नहीं करेंगे वरन् छाया में बैठ कर सुस्ताने का लाभ प्राप्त करेंगे । प्रगतिशील कदम उठाने के आरम्भिक प्रयास में कितना उपहास, कितना अपमान और कितना विरोध सहना पड़ता है, साधन जुटाने में कितना प्रबल पुरुषार्थ करना होता है, इसे भुक्त-भोगी ही जानते हैं । इतने पर भी यह तथ्य सदा एक रस रहेगा कि मनस्वी और पुरुषार्थी, मरुभूमि में उद्यान लगा सकना संभव करके दिखाते रहे हैं । लगन और परिश्रम का संयोग जहाँ भी होगा, वहाँ जादू जैसी चमत्कारी परिस्थितियाँ एवं सफलताएँ उत्पन्न होती रहेंगी ।

युग-निर्माण आन्दोलन के कुशल लोकनायक जब महिला जागरण का ढाँचा खड़ा करने में तत्पर होंगे तो कोई कारण नहीं कि सन् ७५ के लिए उपरोक्त कार्यक्रम पूरा न हो सके । आशा की जानी चाहिए कि समस्त विश्व में सन् ७५ महिला जागरण के रूप में मनाया जा रहा है, उसकी मूल प्रेरणा जिन सूत्रों से चली है वे अपने परिवार में भी उत्साह भरेंगे और प्रबुद्ध परिजनों से इतना बलपूर्वक करा लेंगे जिसे पूरा करना हर दृष्टि से नितान्त आवश्यक ही कहा जा सकता है । हममें से किसी को भी इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करना ही होगा और यह थोड़ा-थोड़ा मिलकर भी कितना अधिक हो जाता है इसका उत्साहवर्धक स्वरूप जन-साधारण के समक्ष एक चमत्कार के रूप में प्रस्तुत करना ही होगा । उपरोक्त दृश्यमान कार्यक्रमों के पीछे उनका प्राण उन सत्प्रवृत्तियों के रूप में सन्निहित है जो दिखाई तो नहीं देती पर सम्बद्ध व्यक्तियों के चिन्तन एवं कर्तृत्व का अङ्ग बन कर परम श्रेयष्कर प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती हैं । मात्र संस्था खड़ी करना और उसकी हलचलें देखकर प्रसन्न होने भर से काम नहीं चलेगा वरन् उस प्राण तत्त्व को प्रखर बनाना पड़ेगा जिसके लिए यह कलेवर खड़ा किया गया है, संरजाम जुटाया गया है ।

जो भी नर-नारी इस अभियान के सम्पर्क में आवें उन्हें वे प्रेरणाएँ मिलनी चाहिए जिनसे वे उन अवांछनीयताओं को हटाने और सत्यप्रवृत्तियों को बढ़ाने के लिए घनघोर प्रयत्न करें जो इस महान आन्दोलन का प्रधान लक्ष्य है । जन-मानस का भावनात्मक नव-निर्माण ही हमारा एक मात्र प्रयोजन है । इसी के लिए गायत्री परिवार, युग-निर्माण आन्दोलन, महिला जागरण अभियान आदि कितनी ही हलचलें आरम्भ की गई हैं । युगान्तर चेतना का आलोक सम्बद्ध व्यक्तियों के बदले हुए दृष्टिकोण में ही ढूँढ़ा जा सकता है । अनुपयुक्त को हर क्षेत्र से पदच्युत करने और उसके स्थान पर उपयुक्त की प्रतिष्ठापना करने के लिए ही अपने समस्त प्रयास गतिशील हो रहे हैं । इस तथ्य को हर घड़ी याद रखा जाना चाहिए ।

महिला सदस्यों और पुरुष सहायक सभ्यों को उन प्रेरणाओं से अपने आपको प्रभावित करना चाहिए जो मिशन का प्राण एवं लक्ष्य हैं । हमारे विचार और आचरण ऐसे हों जो दूसरों को प्रेरणा दे सकें और अपने आपको सन्तोष एवं उल्लास से भर सकें । इसके लिए अभियान के सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको ढालने, बदलने का प्रयास करे यह नितान्त आवश्यक है ।

हर विवेकशील पुरुष को नारी के प्रति स्नेह, सम्मान, सहयोग से भरा-पूरा सच्ची मित्रता का प्रामाणिक आचरण अपनाना चाहिए । दूसरा पक्ष किन्हीं गुणों या योग्यताओं में पिछड़ा हुआ है तो भी नदी-नाले का संयोग बनाकर उसमें सामंजस्य ही बिठाना चाहिए । अविकसित बालक के अटपटे आचरणों को माता यदि बिना आक्रोश के ऐसे ही हँसते-हँसते सह सकती है तो कोई कारण नहीं कि प्रबुद्ध पुरुष पिछड़ी नारी को सहन न कर सके और उसे सहज सद्भाव-सहयोग देकर मनोमालिन्य की खाई न पाट सके । यह परिवर्तन अपने परिवार के पुरुष सदस्यों में से प्रत्येक में परिलक्षित होना ही चाहिए । जहाँ पहले से ही सद्भाव रहा है वहाँ उस हीरे पर और भी अधिक पालिस करके चमक उत्पन्न की जानी चाहिए ।

घर की अस्त-व्यस्त व्यवस्था पर ध्यान दिया जाना चाहिए । प्रत्येक कार्य में स्वयं रुचि लेनी चाहिए और व्यवस्था में सहज मनोरंजन समझ कर हाथ बँटाना चाहिए । इसे अहसान या अपमान प्रदर्शित करने के लिए नहीं वरन् परिवार में एक नई पद्धति प्रचलित करने की दृष्टि से घर के कामों में हाथ बँटाकर अन्य सभी को उस क्षेत्र में रुचि लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । यह एक अच्छा आरम्भ है जो आगे चलकर दूसरों के लिए अनुकरणीय बनेगा और घर का क्षेत्र छोटा या हेय न माना जायगा । स्त्रियों को हर घड़ी जुटा न रहना पड़े ऐसी व्यवस्थित कार्य-पद्धति विकसित की जानी चाहिए । वर्तमान ढर्रे में काम तनिक सा और व्यस्तता सारे दिन की बनी रहती है इसे बदला जाना चाहिए ताकि महिलाओं को शिक्षा, स्वाध्याय, स्वावलम्बन, स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं मनोरंजन के लिए कुछ अवकाश मिल सके । प्रगति का द्वार खोलना हो तो वैसा अवसर भी देना ही पड़ेगा ।

अपने घरों की महिलाओं को अभियान में कुछ सहयोग देने का—भाग लेने का उत्साह उत्पन्न हो इसके लिए उन्हें लगातार प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन एवं अवसर देने का—पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रकार वे न केवल समाज के लिए वरन् अपने निज के व्यक्तित्व का विकास करने एवं परिवार को सुनियोजित बनाने में भी बहुत कुछ सफल हो सकेंगी ।

यहाँ एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि बच्चों की संख्या न बढ़ाई जाय । जितने हो चुके उन्हें ही पर्याप्त माना जाय । अपने गरीब देश में वर्तमान आबादी के लिए भी अन्न नहीं है । फिर नये बच्चों का भार बढ़ाना ही एक प्रकार से मातृ-भूमि की छाती पर अनावश्यक भार बढ़ाना ही है । स्त्रियाँ तो अपना स्वास्थ्य, शरीर, समय और सन्तुलन इसी जंजाल में समाप्त कर बैठती हैं । उनके प्रति यदि मन में थोड़ी भी सहानुभूति हो तो इस भार से मुक्ति देने की उदारता दिखानी ही चाहिए । इसके बिना उन्हें वह अवसर ही न मिलेगा जिसमें अपना, अपने परिवार का—समाज का कुछ हित-साधन कर सकें, पति का किसी कदर हाथ बँटा सकें । परिवार की आर्थिक स्थिति दयनीय बनाने, अपने ऊपर उत्तर-दायित्वों का कमर तोड़ने वाला भार लाद लेने और पत्नी का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य चौपट कर देने के अतिरिक्त अवांछनीय संख्या में सन्तानोत्पादन का और कोई परिणाम नहीं है । नये बच्चों को तो उस अभाव-ग्रस्त स्थिति में साक्षात् नरक ही भुगतना पड़ता है । इतनी विकृतियाँ उत्पन्न करने वाला बच्चों की संख्या सम्वर्धन, रोकने की दूरदर्शिता परिवार के प्रत्येक सदस्य को दिखानी ही चाहिए और दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए ।

नारी के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण का परिचय देने के लिए उपरोक्त कदम उठाये ही जाने चाहिए और नर को अपनी आज की वरिष्ठ स्थिति में नारी पुनरुत्थान के लिए इतना परिवर्तन तो व्यक्तिगत जीवन में प्रदर्शित करना ही चाहिए ।

सदस्याओं का उत्तरदायित्व भी कम नहीं है । उन्हें अभियान में सम्मिलित होने वाली नारी में जो विशेषता उत्पन्न होनी चाहिए उसे प्रस्तुत करके दूसरों के लिए यह आकर्षण उत्पन्न करना चाहिए कि इस आलोक के सत्परिणाम देख कर अनायास ही आकर्षण होने लगे । उसे सर्वत्र सम्मानास्पद माना जाने लगे ।

शरीर को, घर को, बच्चों को अधिकाधिक स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखना अपना प्रथम प्रयास है । बार-बार समाज में जाना पड़ेगा और दूसरों को भी अपने घर आना-जाना पड़ेगा, परिचय क्षेत्र सहज ही बढ़ाना है । उसमें अपने को गन्दा, फूहड़, अव्यवस्थित समझकर उपहासास्पद न समझा जाय, इसी दृष्टि से यह नितान्त आवश्यक है कि स्वच्छता की स्थापना अपने यहाँ पूरी सावधानी के साथ की जाय । अपने शरीर को—अपने कपड़ों को सदा स्वच्छ रखा जाय । घर का सारा सामान सुव्यवस्थित रीति से दबा-ढका, सजा-सजाया यथा स्थान सुरुचिपूर्ण ढङ्ग से रखा जाय । फटी-टूटी चीजों की मरम्मत करना—सादगी में सज्जनता का—बड़प्पन का—समावेश है, यह ध्यान में रखते हुए नये सिरे से अपने घर का सारा वातावरण ही स्वच्छता—सुव्यवस्था और सुसज्जा से परिपूर्ण बनाने के लिए पूरी तत्परता एवं श्रमशीलता को नियोजित कर देना चाहिए । इस परिवर्तन का पहले घर के सब लोगों पर प्रसन्नतादायक प्रभाव पड़ेगा और जो भी घर में प्रवेश करेगा वह इस स्थिति को देखकर प्रभावित होता जायगा ।

वाणी में मधुरता और व्यवहार में शिष्टता की मात्रा अधिकाधिक बढ़ाने के लिए अपने में क्या सुधार किया जा सकता है । इसे सोचने के लिए पूरी तरह आत्म-चिन्तन और आत्मनिरीक्षण करना चाहिए । पुरानी आदतों के कारण यदि कटु-कर्कश बोलने की अवज्ञा, अपमान, उच्छृंखलता एवं अहम्मन्यता प्रकट करने वाली कटुभाषण की झलक यदि यदाकदा भी जबान पर आ जाती हो तो उसे बदलना चाहिए । बच्चों को गालियाँ देने की सास-ननद, देवरानी-जिठानी आदि से लड़-झगड़ की यदि आदत पड़ गई हो तो उसे तुरन्त सुधारना चाहिए । छोटे में, समान आयु वालों से, बड़ों से किस प्रकार स्नेह-सम्मान युक्त मधुर वर्तालाप होना चाहिए और शिष्टता, शालीनता का व्यवहार में किस तरह समावेश करना चाहिए, ऐसे अपने व्यवहार को एक अनुकरणीय आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए । इससे एक परंपरा बनेगी और प्रथा प्रचलित होगी । घर के लोग इस परिवर्तन को न केवल सराहेंगे वरन् बदलेंगे, पूरा-पूरा सद्भाव, सहयोग भी देंगे । इसका अनुकरण करने की प्रेरणा देने वाला आवश्यक प्रभाव अनायास ही उत्पन्न होगा और अपने परिवर्तन से घर के अन्य सभी लोगों को अपना व्यवहार बदलने का अवसर मिलेगा । घर-परिवार में श्रेष्ठ परम्पराओं का प्रचलन अपने वचन और व्यवहार में परिवर्तन करके ही किया जा सकता है । इस पुण्य प्रचलन का शुभारम्भ करना महिला जागरण अभियान की प्रत्येक सदस्या को अपना पवित्र कर्तव्य मान कर चलना चाहिए ।

आलस्य की दुष्प्रवृत्ति अपने में न्यूनाधिक जितनी मात्रा में भी हो उसे पूरी तरह निरस्त करने की संकल्पपूर्वक ठान-ठान लेनी चाहिए । आलसी, दीर्घ-सूत्री, प्रमादी एक प्रकार से जड़, अथवा मूर्छित अर्ध मृतक ही कहा जायगा । उसकी अधिकांश शक्तियाँ मन्द गति से उपेक्षा पूर्वक काम करने की बुरी आदत से ही नष्ट हो जाती हैं । अन्यमनस्क होकर—भार-भूत समझ कर—उत्साहरहित होकर आधी-अधूरी मनःस्थिति में जो भी काम किया जायगा वह कुरूप, अपूर्ण और अस्त-व्यस्त होगा, उसमें ढेरों त्रुटियाँ रहेंगी और जितने समय में हो सकता था उसकी अपेक्षा दूनी-चौगुनी देर लग जायगी । यह सब आलसी के चिन्ह हैं । यह दुर्गुण मिटाया ही जाना चाहिए अन्यथा घर का काम ही मन्दता के कारण निपट न सकेगा । समय ही न बचेगा । आत्मोन्नति और सामाजिक प्रगति के लिए तो कुछ करते-धरते बन ही न पड़ेगा । पूरे मन से—उत्साहपूर्वक उछलती-फुदकती चिड़िया की तरह दौड़-दौड़ कर— मन लगाकर हँसी-खेल समझते हुये यदि किया जाय तो अपनी क्रिया शक्ति दूनी-चौगुनी बढ़ जाती है, चित्त प्रसन्न रहता है और घर के सब लोग उस उत्साह भरे परिश्रम को देखकर सच्चे मन से सराहना करते हैं । अपनी और दूसरों की सेवा कर सकना भी ऐसी ही प्रकृति होने पर संभव है ।

अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रहने के लिए आरोग्य के नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए । जल्दी सोना, जल्दी उठना, शौच-स्नान आदि में ढील-पोल न बरतना, भूख से कम खाना, शरीर, वस्त्र और भोजन में सफाई का ध्यान रखना, पकवान, मिष्ठान, अचार, मिर्च-मसाले, बासीकूसी, गरिष्ठ पदार्थों से परहेज करना, दिनचर्या बनाकर चलना, शारीरिक परिश्रम से जी न चुराना, जैसे मोटे-मोटे स्वास्थ्य नियमों का यदि ठीक तरह पालन किया जाता रहे तो स्वास्थ्य ठीक बना रहेगा और सौंदर्य नष्ट होने का पश्चाताप न करना पड़ेगा ।

हँसने-हँसाने की—मुस्कराने और विनोद प्रियता की आदत ईश्वरीय वरदान है । इससे मनुष्य का सौंन्दर्य कमल-पुष्प की तरह खिल पड़ता है । मन में कुढ़न, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, चिन्ता, निराशा, विक्षोभ जैसे मनोविकारों को पनपने न देने का एक ही उपाय है कि हँसते-मुस्कराते रहने की—हलकी-फुलकी, निश्चिन्त और आशान्वित मनःस्थिति रखी जाय । इस सद्गुण को अपनाकर कोई भी स्त्री सच्चे अर्थों में देवी बन सकती है ।

महिला जागरण परिवार के सदस्यों और सदस्याओं को अपने व्यक्तिगत जीवन में गुण-कर्म स्वभाव का ऐसा परिष्कार प्रस्तुत करना चाहिए जिससे उनके समूचे परिवार और समाज को आदर्श अनुकरणों की प्रेरणा मिल सके ।