141. आत्मिक प्रगति की कुंजी अचेतन की परिणति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीरगत भली बुरी विशेषताओं के लिए अब मनःस्थिति को ही प्रधानतया उत्तरदायी ठहराया गया है। भौतिक जीवन की सफलताओं के लिए भी उसी को आधारभूत माना जाता है। यही सामान्य दीखते हुए भी असामान्य निष्कर्ष है। पिछले दिनों परिस्थितियों एवं साधनों को मनुष्य की प्रगति अवगति का कारण माना जाता था। उत्थान-पतन का निमित्त दूसरों के सहकार एवं अपकार को समझा जाता था। कई बार शारीरिक स्थिति को ही सफलता-असफलता का श्रेयाधिकारी ठहराया जाता था। अब वैसी स्थिति नहीं रहीं। मनःशास्त्रियों द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्तित्व के प्रायः सभी क्षेत्र मानसिक स्थिति से प्रभावित होते हैं अस्तु यदि किसी को अपनी गई-गुजरी स्थिति सुधारनी है और महत्त्वपूर्ण प्रगति करनी है तो मुरझाये पेड़ के पत्ते धोने की अपेक्षा उनकी जड़ों में पानी लगाना चाहिए।

बुद्धि के केन्द्र चेतन मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूल, कालेजों एवं अन्य ज्ञान संस्थानों का प्रबन्ध है पर अब जाना यह गया है कि बुद्धिमत्ता से अधिक महत्त्वपूर्ण है-आदतें। आदतों के सही होने पर स्वल्प बुद्धि से भी व्यवस्थित रीति-नीति अपनाकर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा जा सकता है। इसके विपरीत तीक्ष्ण बुद्धि व्यक्ति भी बुरी आदतों का शिकार बनकर-समय और शक्तियों का अपव्यय करता है और घाटा उठाता तथा असफल रहता है। अब नई शोध का विषय हैं-अतीन्द्रिय विज्ञान। जिसे पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान कहा जाता है। इन अनुसंधानों में ऐसी घटनाओं की प्राथमिकता जाँची जाती है जो प्रकृति के सामान्य घटनाक्रम एवं मनुष्य के साधारण साधनों से भिन्न प्रकार की होती हैं। मानवी चेतना पर अवतरित होने वाली अद्भुत जानकारियों का स्रोत कहाँ है? वे किस आधार पर घटित होती हैं? वे अनायास ही-व्यक्ति विशेष पर ही घटित होती हैं, या प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति पैदा की जा सकती है? यह ऐसे ही अनेक प्रश्नों की शृंखलाएँ सामने प्रस्तुत हैं जिनके समाधान खोजने के लिए परा-मनोविज्ञान क्षेत्र के अनुसंधानकर्ता प्रयत्नशील है।

इस प्रयास में अभी बहुत थोड़े ही निष्कर्ष निकल सकते है। जो जानना बाकी है उसे देखते हुए सफलताओं को नगण्य ही कहा जा सकता है। फिर भी कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं जिनके आधार पर अतीन्द्रिय क्षमता के कारणों पर थोड़ा प्रकाश पड़ता है। यह माना गया है कि मस्तिष्क का अचेतन क्षेत्र शरीर संचालन की गतिविधियों का सूत्रधार तो है, पर उसकी सामर्थ्य उतने तक ही सीमित नहीं है। मन की दोनों परतों को जितनी मात्रा में विकसित होने का अवसर मिलता है उतना ही वे व्यक्तित्व को अधिकाधिक प्रतिभा सम्पन्न बनाती हैं और सफलताओं के नये-नये द्वार खोलती हैं। व्यक्तित्व के समग्र विकास में शरीरगत समर्थता की तुलना में मानसिक बलिष्ठता की भूमिका असंख्य गुणी बढ़ी चढ़ी होती है। मनोबल सम्पन्न मनुष्य दुर्बल और रुग्ण होते हुए भी अपनी प्रखरता बनाये रह सकता है और उसी स्थिति में ऐसा कुछ करता या कराता रह सकता है जिसे आश्चर्यजनक एवं सराहनीय कहा जा सके। इसके विपरीत शरीर से बलिष्ठ एवं सुगठित होते हुए भी मनोबल की दृष्टि से गये-गुजरे लोग सुविधा साधनों के रहते हुए भी गई-गुजरी स्थिति में दिन काटते, पग-पग पर असफल होते और उपहासास्पद बनते देखे जाते है। दैनिक जीवन की अधिकांश सफलताएँ प्रायः विकसित मनःस्थिति की ही प्रतिक्रिया होती हैं। आदतें और कुछ नहीं अन्तर्मन की वर्तमान दृढ़ता ही उनका निर्माण करती है। इसी को व्यक्तित्व कहते हैं। प्रगति और अवगति इसी पृष्ठभूमि पर निर्धारित रहती है।

कुछ समय पूर्व बीमारियों के कारण रोग कीटाणुओं के आक्रमण संग्रहीत विजातीय द्रव्य एवं अमुक अवयवों की टूट-फूट आदि माने जाते थे और इन्हीं को निरस्त करने के लिए चिकित्सकों द्वारा उपाय उपचार किये जाते थे। अब गहराई तक जाने पर यह निष्कर्ष निकला है कि यह कारण गौण और अचिंत्य चिंतन की मानसिक विकृतियाँ प्रधान कारण है। अब मनोविकारों को न केवल मस्तिष्कीय रोगों का वरन् शारीरिक रोगों का भी सर्वोपरि कारण माना जा रहा है। यह पाया गया है कि मनोबल सम्पन्न, साहसी और सन्तुलित व्यक्ति सामान्य अथवा घटिया शारीरिक स्थिति में निरोग की तरह काम करता और प्रसन्नचित्त रहता है। जबकि अस्त-व्यस्त मनःस्थिति वाला अकारण ही गिरी-मरी स्थिति में पड़ा रहता है। कितने ही दर्द एवं रोग ऐसे होते हैं जिनकी जड़ शरीर में नहीं मन में होती है। शरीर की जाँच पड़ताल करके डाक्टर कहता है इसमें कोई रोग नहीं है, पर रोगी अपने को रुग्ण एवं पीड़ा ग्रसित अनुभव करता है। ऐसी बीमारियाँ विशुद्ध मानसिक रोग होने पर भी उतनी ही कष्टकारक होती हैं, जितनी कि वास्तविक रुग्णता।

आँखों की चमक चेहरे का आकर्षण, होठों पर नाचती मुस्कराहट, वाणी में प्रभाव जैसे व्यक्तित्व को मनोरम बनाने वाली विशेषताएँ शारीरिक गठन पर नहीं मानसिक उत्साह पर निर्भर रहती है। रंग रूप की दृष्टि से सुन्दर दीखने वाले व्यक्ति भी मानसिक अस्त-व्यस्तता होने पर उपेक्षणीय एवं उपहासास्पद बने रहते है। प्रथम दर्शन में जो आकर्षण प्रभाव उत्पन्न हुआ था वह सम्पर्क में आने वाले व्यक्तित्व का परिचय मिलने के साथ ही समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत काले, कुरूप मनुष्य भी आंतरिक उत्साह के कारण बड़े तेजस्वी एवं आकर्षक प्रतीत होते हैं, उनकी कल्पना, सूझबूझ, वाणी, आकांक्षा, स्फूर्ति, साहसिकता एवं उमंग देखकर हर किसी को सम्पर्क में आने की इच्छा होती है। ऐसे लोगों के सान्निध्य में हर कोई प्रसन्नता अनुभव करता है। आरोग्य से लेकर आकर्षण तक शरीर की सभी विशेषताएँ मनोबल पर निर्भर रहती है। सक्रियता से लेकर सफलता तक का सारा क्षेत्र मनःस्थिति से ही प्रभावित पाया जाता है।

मनोबल भी यान्त्रिक विद्युत की तरह ही एक प्रभावशील तत्व हैं। उसका प्रभाव मनुष्यों एवं दूसरे प्राणियों पर होते हुए आये दिन देखा जाता है। एक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने समीपवर्ती लोगों को किस प्रकार अपना बनाता है उसका प्रमाण सर्वत्र उपलब्ध होता है। अन्य प्राणियों को प्रभावित करने में भी कुछ मनस्वी लोग असाधारण रुप से सफल होते हैं। सरकस में पशुओं के शिक्षक क्रूर प्रकृति के हिंस्र प्राणियों को भी दुलार फटकार के सहारे प्रशिक्षित करते और उन्हें कठपुतली की तरह नचाते हुए देखे जाते है। महावत का कहना हाथी मानता है और मनस्वी घुड़सवार के पीठ पर पहुँचते ही अड़ियल घोड़ा भी सीधा हो जाता है। कितने ही लोग भिन्न प्रकृति के प्राणियों की जन्मजात द्वेष बुद्धि को स्नेह सहयोग से बदल देते हैं। ऋषियों के आश्रम में सिंह और गाय के साथ रहने की बात प्रसिद्ध है। अभी भी कइयों ने कुत्ते-बिल्ली इस प्रकार पाले होते हैं कि वे सहोदर भाई-बहिन की तरह रहते हैं। इटली का एक किसान अपनी मुर्गियों के फार्म की रखवाली पालतू बिल्लियों से करता था। कुत्ते और मनुष्यों की मित्रता एवं वफादारी के जो अनेक प्रसंग सुने जाते हैं, उसमें पालने वालों का मानसिक प्रभाव ही प्रधान रूप से काम करता है। पूरे परिवार में किसी व्यक्ति विशेष के साथ अतिरिक्त लगाव रखने वाले पालतू पशु वस्तुतः किसी की मनःस्थिति से प्रभावित हुए होते है।

ज्ञान सम्पदा का अपना महत्त्व है। बौद्धिक तीक्ष्णता के लाभ और चमत्कार सर्वविदित हैं, पर यदि आदतों का मूल्यांकन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि उनका वजन मस्तिष्कीय तीक्ष्णता की सम्मिलित उपलब्धियों की तुलना में भी भारी पड़ता हैं। बुरी आदतें क्षति पहुँचाती हैं, उनकी भरपाई अन्य विशेषताओं से नहीं हो सकती। आलस्य को ही लें, वह देखने में छोटी सी बुराई है पर उसकी प्रतिक्रिया हर काम को अधूरा अस्त व्यस्त और अनकिया हुआ पड़ा रहने के रूप में सामने आती है। फलतः सुयोग्य और साधन सम्पन्न व्यक्ति भी अपनी अकर्मण्यता के कारण पग पग पर असफल होते रहते है। ऐसी बहुमूल्य प्रतिभाएँ जो बहुत कुछ कर गुजरती थी और अपनी विशेषताओं के कारण चमत्कार उत्पन्न कर सकती थीं वे आलस्य और प्रमाद की दल-दल में फँसे रहने के कारण अपंग असमर्थों जैसी दयनीय स्थिति में पड़ी रही। इसके विपरीत कर्मनिष्ठ, श्रमशील, नियमित और व्यवस्थित लोग स्वल्प बुद्धि और स्वल्प साधनों की सहायता से ही अभीष्ट प्रयोजनों में तत्परता पूर्वक लगे रहने के कारण उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचे। कटु स्वभाव, अधीरता, चटोरापन, नशेबाजी, फिजूलखर्ची जैसी छोटी दीखने वाली आदतें धीरे-धीरे जितनी हानि पहुँचा देती हैं उतनी भयंकर दुर्घटनाएँ एवं आकस्मिक विपत्तियाँ भी नहीं कर सकती। संसार के महामानव परिस्थितियों वश यशस्वी नहीं हुए है और न साधन ही उन सफलताओं के कारण बने है। उस प्रखर मनस्विता ने ही उन्हें आगे बढ़ाया है जो आदतों के रूप में चिन्तन तथा क्रिया पद्धति को उच्चस्तरीय बनाये रही।

स्मरण रहे आदतों का सीधा सम्बन्ध अचेतन मन से है। उनका आरम्भ भले ही भले-बुरे चिन्तन से अथवा अनुकरण से होता है, पर जब वे जड़े जमा लेती हैं फिर उन्हें उखाड़ना कठिन हो जाता है। नशेबाजी के सम्बन्ध में प्रायः यहीं होता है। दुष्परिणामों को देखते, समझते हुए भी नशेबाज अपनी आदत के सामने एक प्रकार से विवश हो जाता है और छोड़ने की कल्पना जल्पना करते रहने पर भी कुछ बन नहीं पड़ता। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक एवं समाज सम्मान की अपार क्षति सहन करते हुए वह दम तो तोड़ देता है, पर उस आदत से पिण्ड छुड़ाने में अपने को असमर्थ पाता है। यहीं बात अन्यान्य भली-बुरी आदतों के बारे में भी कही जा सकती है। हलकी-फुलकी हो तो बात अलग है अन्यथा स्वभाव का अंग बन जाने वाली-गहरी जड़े जमा लेने वाली आदतें व्यक्तित्व का अंग बन जाती और प्रगति-अवगति का महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध होती हैं।

आदतों का केन्द्र अचेतन मन है। उस क्षेत्र को यों सामान्य दृष्टि से उपेक्षित माना जाता है, पर वस्तुतः उसकी गरिमा बुद्धि संस्थान से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी है। विचार तो आदमी क्षण भर में बदल सकता है, पर स्वभाव को बनाना या बदलना उतना सरल नहीं है। चिन्तन का ढर्रा, इच्छाओं का रुझान, विश्वासों का गठन, अभ्यास का पुनरावर्तन जैसे तत्त्व ही मिलकर स्वभाव का सृजन करते है और उसी को व्यक्तित्व के साथ में प्रस्फुटित होते देखते है। इस प्रकार अचेतन मन ही वस्तुतः सारे जीवन पर छाया हुआ मिलता है। आदतें तो अचेतन मन में रहती हैं, पर उन्हें पूरी करने के लिए योजना बनाना, व्यवस्था करना एवं समर्थन में तर्क गढ़ना, प्रमाण ढूँढ़ना चेतन मन का काम है। समझने की सुविधा के लिए यह चेतन-अचेतन का विभाजन है वस्तुतः वह एक ही मनःतत्त्व की दुहरी क्रिया पद्धति है। एक ही व्यक्ति विद्वान और पहलवान, चित्रकार और साहित्यकार, वक्ता और नर्तक हो सकता है। देखने में यह क्रियाएँ एक दूसरे से असम्बद्ध लगती हैं पर पेड़ में फूल और फल आने की तरह यह दुहरी प्रक्रिया आसानी से चलती रह सकती है। मन वस्तुतः एक है। उसे स्थूल शरीर की सूक्ष्म संचालक शक्ति कह सकते है और समझने की सुविधा के लिए बिजली तथा मशीन के सहयोग से चलने वाली फैक्टरी का उदाहरण दे सकते हैं। शरीर को मशीन और मन को बिजली कहा जाए, तो यह उदाहरण ठीक ही होगा।

मन के दो भाग हैं एक अचेतन, दूसरा चेतन। अचेतन का काम आकुंचन-प्रकुंचन, श्वाँस-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, पाचन-विसर्जन, क्षुधा-पिपासा, निद्रा-जागृति जैसी व्यवस्थाएँ जुटाते रहना होता है। तरह-तरह की आदतें तथा आस्थाएँ भी उसी में जड़ जमाये बैठी रहती हैं और अविज्ञात रूप से जीवनक्रम का परोक्ष संचालन करती रहती हैं। चेतन का काम इच्छा, ज्ञान और क्रिया का धारण तथा उनके सहारे आवश्यक व्यवस्थाएँ बनाते एवं जुटाते रहना होता है। अध्यात्म की भाषा में चेतन को बुद्धि और अचेतन को चित्त कहते है। इन्हीं दोनों के सहारे जड़ पदार्थों से बना पंच भौतिक शरीर चैतन्य सत्ता की तरह काम करता दीखता है।

यो शरीर यात्रा के लिए भी प्राणि चेतना को बहुत कुछ उपलब्धियाँ ब्रह्माण्ड चेतना से ही मिलती हैं किन्तु जब आत्मिक प्रगति की, चेतना के परिष्कृत एवं प्रखरता की बात आती है तब तो उस ब्रह्माण्ड शक्ति सागर का, ब्रह्म सम्बन्ध का अधिक सघन सम्बन्ध चल पड़ता है। सामान्य शरीर यात्रा प्रकृति की स्वसंचालित विधि-व्यवस्था के सहारे ही चलती रहती है। उसके लिए व्यवहारिक प्रशिक्षण, समाज सम्पर्क एवं स्कूली अध्ययन से काम चल जाता है, पर आत्मिक प्रगति की चेतनात्मक प्रखरता की आवश्यकता अतिरिक्त रूप से साधना प्रयास करने पर ही सम्भव होती है। योगाभ्यास एवं तपश्चर्या की सारी विधि व्यवस्था इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुई है। कभी-कभी ऐसे अपवाद भी देखे जाते हैं कि बिना किसी साधना के चेतना का असाधारण विकास पाया गया है, पर यह अनायास दीखते हुए भी वस्तुतः पूर्व जन्मों की संग्रहीत सम्पदा होती है।

अचेतन का परिष्कार ही अध्यात्म भाषा में आत्म निर्माण, आत्म साक्षात्कार, आत्मबोध, आत्मोद्धार आदि नामों से पुकारा जाता है। सुसंस्कृत और अधःपतित मनुष्य में स्थूल दृष्टि से कोई बड़ा अन्तर नहीं होता। उनके शारीरिक अवयव एवं ज्ञान कौशल आदि में बहुत कुछ समानता रहते हुए भी प्रकृति में जमीन आसमान जितना अंतर पाया जाता है। इन्हीं कारणों से उन्हें निन्दा-प्रशंसा का-सफलता का भागी बनना पड़ता है।

अध्यात्म विज्ञान की यदि तात्त्विक समीक्षा की जाय तो प्रतीत होगा कि यह हमारी प्रतिष्ठापना, और घेराबन्दी अचेतन की पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाकर मानवता की उच्चस्तरीय संस्कारिता में बदलने के लिए खड़ी की गई है। तत्त्वदर्शन के आधार पर जिस दृष्टिकोण को आस्थाओं के रूप में हृदयंगम किये जाने पर जोर दिया गया। है वे अचेतन की दिशा धारा को परिष्कृत करने का उद्देश्य लेकर ही प्रतिष्ठापित की गई हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


142. अध्यात्मवादी मनःशास्त्र की उपयोगिता समझी जाय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

आज धर्म को अनुपयोगी इसलिए कहा जाने लगा है कि उसमें पूर्वाग्रह, रूढ़िवादिता एवं साधारण कर्मकाण्डों का अत्युक्तिपूर्ण माहात्म्य भर दिया गया है। निहित स्वार्थों से प्रेरित धर्माचार्यों ने अन्धविश्वास के ऐसे तथ्य धर्मक्षेत्र में घुसेड़ दिये हैं जिनसे उनका व्यक्तिगत लाभ तो खूब होता है पर श्रद्धालु के पल्ले समय और पैसे की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता, यदि यह दोष निकाल दिया जाय तो धर्म का नैतिक एवं सामाजिक पक्ष अपने असली स्वरूप में आ सकता है उसका बुद्धिवाद का हर पक्ष एक स्वर से समर्थन कर सकता है। मनोविज्ञानी धर्म को मनःचेतना पर अनावश्यक और अवांछनीय भार डालने वाला जब बताते है तब वस्तुतः उसका मंतव्य उसी धर्म विडम्बना की कटु आलोचना करना होता है जो आज पाखण्ड के रूप में सभी सम्प्रदायों ने समान रूप से अपना रखी है।

मनोविज्ञान वेत्ता विनियम जेम्स, डीवे तथा जुंग ने धर्म में नैतिक अनैतिक एवं यथार्थ भ्रान्त तत्त्वों के संशोधन की आवश्यकता पर बल दिया है वे कहते है जब तक धर्म के शुद्ध और अशुद्ध पक्षों का वर्गीकरण न किया जायेगा तब तक उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहेगा। उसकी संतुलित विवेचना भी संभव न हो सकेगी और न इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि धर्म की उपयोगिता में कितना तथ्य है।

स्पष्ट है कि यह समीक्षा धर्म प्रवंचना की ही है। यदि धर्म तत्त्व अपने मूल रूप से परिष्कृत स्तर का बन सके तो उसे मनोविज्ञान दर्शन के आधार पर भी अनावश्यक एवं भारभूत न ठहराया जा सकेगा।

धर्म के मूलतत्त्वों को भूल कर जो स्थानीय और सामयिक धर्म प्रवर्तकों में खो जाते है वे ही धर्म को बदनाम करते है। पूर्वजों के कुछ आचरण और निर्देश अपने समय में ठीक समझे और कहे जाते होंगे पर बदली हुई परिस्थितियों में उनका यथावत बने रहना संभव नहीं। वास्तव में धर्मतत्त्व का मूल दर्शन ही है। उसके आचरण में अन्तर होते रहते हैं। यदि तथ्य को भुलाकर किसी समय के धर्माचरण को ही मुख्य मान लिया जाय अथवा अमुक धर्म प्रवर्तक की उक्तियाँ अथवा गति विधियों को सनातन मान लिया जाय तो फिर धर्म प्रतिगामी ही बन जायेगा और कालान्तर में विकृत होकर विग्रह ही उत्पन्न करेगा।

तत्त्वदर्शियों के अभिवचनों में धर्म शब्द के अन्तर्गत जिस आधार की चर्चा की जाती है उसे उत्कृष्टता वादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्तृत्व के अन्तर्गत ही गिना समझा जाना चाहिए। कर्तव्य परायणता का ही दूसरा नाम धर्म है। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक और सार्वभौमिक जिम्मेदारियों से मनुष्य की उच्छृंखलता को मर्यादित किया गया है। उसे अपने स्तर के अनुरूप सृष्टि संतुलन के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ भी निबाहनी होती है। धर्म का प्रयोजन इसी मानवोचित शालीनता और कर्तव्य निष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रखना है। संस्कृति और सम्प्रदायों में क्षेत्रीय और सामयिक परिस्थितियों के अनुसार उनमें बार बार सुधार परिवर्तन करना पड़ता है पर धर्म के बारे में ऐसी बात नहीं है वह शाश्वत और सनातन है। उसका स्वरूप सदाचार, मर्यादा और लोक हित के रूप में चिर अतीत से ही निर्धारित किया जा चुका है उसमें परिवर्तन की आवश्यकता कभी भी किसी को भी नहीं पड़ सकती।

सुख शान्ति के लिए अधिक सुविधा जनक साधनों की खोज में विज्ञान और शासन के प्रयास जुटे रहते है पर यह भुला दिया जाना चाहिए मनुष्य एक चेतनात्मक परिपूर्ण सत्ता है। आनन्द का उद्गम उसके भीतर है। वही अन्तर्ज्योति जब बाह्य जगत पर प्रतिबिम्बित होती है तो सौन्दर्य सन्तोष एवं रसानुभूति का अनुभव होता है। विचारणा का स्तर ऊँचा उठाये बिना विपुल साधन सम्पत्ति होने पर भी न आनन्द मिल सकेगा न उल्लास न सन्तोष। विचारणा को उत्कृष्टता के स्तर तक उठाने और सुदृढ़ बनाने में धर्म का तत्त्वज्ञान समर्थ हो सकता है। भौतिक विज्ञान इस प्रयोजन की पूर्ति में बहुत अधिक सहायता नहीं कर सकता।

मनोविज्ञान को जिस प्रयोजन के लिए आजकल प्रयोग किया जाता है वह उसके मूल शब्दार्थ का एक बहुत छोटा भाग ही प्रकट करता है। अँग्रेजी में जिसे साइकोलॉजी कहते है उसका मूल अर्थ है आत्मा का विज्ञान। इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले सन् 1590 में रुडोल्फ गोमेकले ने किया। मूल रूप में यह यूनानी भाषा के साइके और लोगोस दो शब्दों से मिल कर बना है। साइके का अर्थ है-आत्मा। लोगोस कहते हैं चर्चा अथवा विज्ञान। जिस संदर्भ में आत्मा की चर्चा या विवेचना की जाय इसे साइकोलॉजी कहा समझा जाना चाहिए। प्लेटो और अरस्तू इसे इसी अर्थ में प्रयोग करते रहे हैं।

आत्मिकी पर आधारित मनःशास्त्र बताता है मन की भौंड़ी परत के नीचे दो और मन है। अतीन्द्रिय मन और समष्टिगत मन। अचेतन मन के यह दो भाग कितने महत्त्वपूर्ण हैं इसे मनस्वी और मनःक्षेत्र की साधना करने वाले लोग ही जान सकते हैं। चेतन मन के स्वरूप और प्रभाव से सभी लोग परिचित हैं। उसे सुयोग्य बनाने के लिए अध्ययन, अनुभव, परामर्श, मनन, चिन्तन आदि को उपयोग में लाया जाना चाहिए। बुद्धिमान बनने के उपायों और परिणामों से सभी परिचित हैं। अचेतन मन की गरिमा और संभावनाओं का पता लगाने के लिए मनःशास्त्री जितने गहरे उतरते जाते हैं, उतना ही यह अनुभव करते हैं कि रत्नागार में छिपी बहुमूल्य सम्पदा इतनी अपार और असीम है जिसकी कल्पना तक कर सकना कठिन है।

अतीन्द्रिय मन में वे समस्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं जिनका योगी तपस्वी तथा सिद्ध पुरुषों के चमत्कारों तथा सिद्धि साधनों के संदर्भ में वर्णन किया जाता है। परोक्ष जगत में जिन अनैतिकताओं और अति मानवी उपलब्धियों की चर्चा होती रहती है उनका बीज मूल इस अचेतन मन में ही प्रसुप्त स्तर पर पड़ा होता है, जो उसे जागृत कर लेते हैं वे उस अद्भुत को भी प्रत्यक्ष करते हिते हैं जो साधारण तथा असंभव और अप्रत्याशित समझा जाता है।

समष्टि मन को दूसरे शब्दों में विश्वात्मा कह सकते हैं। प्राणि मात्र में एक ही दिव्य ज्योति विभिन्न रंग रूपों और आकार प्रकारों में जल रही है। सामूहिकता, सद्भावना, प्रेम, उदारता, सेवा, संयम, करुणा, ममता जैसी उच्च प्रवृत्तियाँ इसी स्तर के प्रस्फुरण से विकसित होती हैं। तुच्छ से नरपशु को महामानव के रूप में परिणत कर देने का श्रेय इसी मनःस्तर को है। अनीति की ओर बढ़ते कदमों को यही अन्तःप्रेरणा रोकती है। त्याग और बलिदान के लिए साहस इसी स्तर की हलचलों से जागृत होता है। अतीन्द्रिय और समष्टि मन की अन्तःस्फुरणाओं के प्रभाव से ही व्यक्ति ऋषि दृष्टा, तत्त्वज्ञानी, देवदूत एवं अवतारी बनता है। समष्टि मन का प्रभाव ही समाज सेवा, लोक मङ्गल एवं चरित्र निर्माण के रूप में देखा जाता है और अतीन्द्रिय मन की विभूतियों का सौन्दर्य अतिमानवों के ,, देवदूतों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ देखा जा सकता है।

सच तो यह है कि नैतिक भावनाओं का उन्नयन मन को अत्यन्त सबल एवं उदात्त बना देता है और ऐसे आनन्द सन्तोष से भर देता है जिसकी तुलना में काम वासना सरीखी पशु प्रवृत्तियों का तुष्टीकरण तुच्छतम ही प्रतीत हो सकता है। अनैतिक आकांक्षाएँ और कुछ नहीं नैतिक भावनाओं के उत्थान के अभाव में बनी रहने वाली अंधकार भरी रिक्तता ही है। धूप जहाँ नहीं पहुँचती वहाँ सीलन रहती है, प्रकाश जहाँ नहीं होता वहाँ अँधेरा रहता है। ठीक इसी प्रकार समष्टि मन के मूर्च्छित पड़े रहने पर स्वार्थवादी एवं इन्द्रिय परायण अहंता जग पड़ती है और उसकी ललक, वासना तृष्णा की पशु चेष्टाओं में भटकाती रहती है। फ्रायड सरीखे मनोविज्ञानी इसी भटकाव को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति मान बैठे है। वे यह नहीं सोच सके कि उनके निष्कर्ष मानवी महानता को पतनोन्मुखी बनाने का कितना घातक परिणाम प्रस्तुत करेंगे।

मनःशास्त्री जुंग ने समष्टि मन की क्षमता पर बहुत प्रकाश डाला है उसका कहना है कि इसी की प्रेरणा से वे सभी गतिविधियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य और समाज का सराहनीय रूप बनता है। वस्तुतः यही मूल प्रवृत्ति है और इसी ने मनुष्य में विचारशीलता, सहकारिता एवं आदर्शवादिता की प्रवृत्तियाँ विकसित करके उसे आज की समुन्नत स्थिति तक पहुँचाया है। देवत्व यही है। सतोगुण एवं आत्मबल इसी को कहते है। वातावरण की गन्दगी मन पर जमते रहने पर एक अनैतिक परत भी जमती रहती है। पर उसके उन्मूलन में भी दैवी प्रवृत्ति निरन्तर संलग्न रहती है। समुद्र मन्थन का अन्तर्द्वन्द्व यही है। सद्गुरु की शिक्षा एवं आत्म-प्रेरणा के रूप में इसी संशोधन परिष्कार को आत्मवेत्ता चित्रित करते रहे है। समष्टिगत आकांक्षाओं के प्रतिकूल उच्छृंखलता एवं अनैतिक आचरण करने वालों को न केवल राजसत्ता द्वारा, सामाजिक घृणा द्वारा दण्ड मिलता है वरन् आत्मताड़ना द्वारा अनेकों शारीरिक मानसिक रोगों की उत्पत्ति भी होती है। यह तथ्य अब दिन-दिन अधिकतम स्पष्ट होते चले जा रहे है। और उच्छृंखलता वादी मनोवैज्ञानिक प्रतिपादनों की निरर्थकता स्वयं सिद्ध होती चली जा रही है।

जिस प्रकार धान के ऊपर अनुपयोगी छिलका चढ़ा होता है उसी प्रकार किसी -किसी के मन की ऊपरी परतें भी ऊबड़ खाबड़ हो सकती है। पर यह आवश्यक नहीं कि सुसंस्कृत वातावरण में जन्मे और पले व्यक्ति भी शुद्ध चिन्तन की व्याधि ये हर ग्रसित हों। आज के वातावरण में बहुसंख्यक लोगों की मनोवृत्तियों में पशु प्रवृत्तियों का भी बाहुल्य हो सकता है। उन्हीं के आधार पर मनुष्य के स्तर को पाशविक प्रवृत्तियों से ग्रस्त मान बैठना वस्तुतः मानवता के साथ अन्याय करना ही है। संभवतः फ्रायड से यही भूल जान या अनजान में हुई है। वे मनुष्य को कामुकता की कीचड़ में सड़ते रहने वाले कृमि कीटक मात्र ही समझ सके हैं। वस्तुतः मानवी सत्ता की गरिमा उससे कहीं ऊँची है जैसा कि उनने समझा है।

भौतिक विज्ञान इतना ही मानता है कि मनुष्य का पूर्वपक्ष भूतकाल उसके माता-पिता, पितामह आदि पूर्वजों के साथ जुड़ा है और उत्तर-भविष्य पुत्र पौत्रों के साथ। चेतना की शृंखला की दृष्टि से आत्म विज्ञान मानता है कि जीव का पूर्वज परमात्मा है और उसका भविष्य भी उसी के साथ जुड़ा हुआ है इस दृष्टि भेद की प्रतिक्रियाएँ अत्यन्त दूरगामी होती है। भौतिकता वादी अपने अलावा अपने वंश परिवार की ही सुख समृद्धि सोच सकता है पर आत्मवादी को परमात्मा के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निबाहने की बात ध्यान में रखनी पड़ती है। वह समाजनिष्ठ होता है जबकि भौतिकवादी की महत्त्वाकाँक्षाएँ अपने घर परिवार तक सीमित होकर रह जाती है।

सर ओलीवर लाज, मेडम ब्ल्वास्की प्रभृति तत्त्ववेत्ता अतीन्द्रिय विज्ञान की आधुनिक शोध में महत्त्वपूर्ण ...... पा चुके है। ऑकल्ट साइन्स, परा साइकोलॉजी, मेटा फिजिक्स के अन्तर्गत इस संदर्भ में शोध कार्य जारी है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, परोक्षानुभूति, परिचित विज्ञान, परकाया प्रवेश जैसे कितने ही प्रयोग प्रत्यक्ष प्रयोगशालाओं में होते हैं। मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म को अब टोना टोटका नहीं माना जाता वरन् उसके आधार को विज्ञान सम्मत स्वीकार कर लिया गया है। कितने ही ऐसे व्यक्ति समय समय पर प्रकाश में आते रहते है जो मनुष्य की अलौकिकताओं की संभावना को हर कसौटी पर प्रमाणित कर सकें। यह सारी परिधि अतीन्द्रिय मन की अद्भुत शक्ति सामर्थ्य पर ही प्रकाश डालती है। भूतकाल का इतिहास तो इस ब्रह्म विद्या की महत्ता से ही भरा पड़ा है। वह दिन दूर नहीं जब अतीन्द्रिय विज्ञान के शोधकर्ता मनुष्य की महान महत्ता को सहस्र गुणी अधिक अद्भुत सिद्ध कर सकेंगे। तब प्रकृति के नहीं चेतना जगत के एक से एक बढ़कर महत्त्वपूर्ण रहस्यों का उद्घाटन मात्र मानवी शरीर एवं मन रूप यन्त्र से ही सरल संभव हो सकेगा।

मनोविज्ञान आज भले ही भ्रान्तियों की उलझन में उलझ गया हो पर आशा करनी चाहिए यथार्थता अगले दिनों प्राप्त कर ही ली जायेगी और पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा उठा कर मनुष्य को देव स्तर तक पहुँचाने में मनःशास्त्र अपनी उचित भूमिका सम्पादन करेगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


143. कायविद्युत के ऊर्जा स्रोत को नष्ट न होने दें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीर शास्त्री और मनोविज्ञान वेत्ता यह बताते है कि नर-नर का सान्निध्य, नारी-नारी का सान्निध्य मानवीय प्रसुप्त शक्तियों के विकास की दृष्टि से इतना उपयोगी नहीं जितना कि भिन्न वर्ग का सान्निध्य। विवाहों के पीछे सहचरत्व की भावना ही प्रधान रूप से उपयोगी है, सच्चे सखा सहचर की दृष्टि से परस्पर हँसते, खेलते जीवन बिताने वाले पति-पत्नी यदि आजीवन काम सेवन न करे, तो भी एक दूसरे की मानसिक एवं आत्मिक अपूर्णता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं। मनुष्य में न जाने क्या ऐसी रहस्यमय अपूर्णता है कि वह भिन्न वर्ग के सहचरत्व से अकारण ही बड़ी तृप्ति और शान्ति अनुभव करता है। अविवाहित जीवन में सब प्रकार की सुविधाएँ होते हुए भी एक उद्विग्नता अतृप्ति और अशान्ति बनी रहती है। विवाह के बाद एक निश्चिन्तता सी अनुभव होती है। साथी की प्रगाढ़ मैत्री का विश्वास करके व्यक्ति अपनी समर्थता दूनी ही नहीं दस गुनी अनुभव करता है। एकांकी जीवन में जो शून्यता थी उसकी पूर्ति तब होती है जब यह विश्वास बन जाता है कि हम अकेले नहीं दूसरे साथी को लेकर चल रहे हैं जो हर मुसीबत में सहायता करेगा और प्रगति के हर स्वप्न में रंग भरेगा। यह विश्वास मन में उतरते ही मनोबल चौगुना बढ़ जाता है और उत्साह भरी कर्मठता और आशा भरी चमक से जीवन क्रम में एक अभिनव उल्लास दृष्टिगोचर होता है। विवाह का मूल लाभ भिन्न वर्ग के सान्निध्य से होने वाले उभय पक्षी सूक्ष्म शक्ति प्रक्रिया का अति महत्त्वपूर्ण प्रत्यावर्तन तो है ही, एक मनोवैज्ञानिक लाभ अन्तरंग का एकाकीपन दूर करना और समर्थता को द्विगुणित हुई अनुभव करना भी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना की आशा पूर्ण भविष्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।

काम सेवन विवाहित जीवन में आवश्यकतानुसार मर्यादाओं के अन्तर्गत होता रहे तो उसमें कोई बड़ा अनर्थ नहीं हैं। पर उसे आवश्यक या अनिवार्य न माना जाय। मोटे तौर से पति-पत्नी की परस्पर मनःस्थिति वैसी ही होनी चाहिए जैसे दो पुरुष या दो नारियों की सघन मित्रता होने पर होती है। सखा, साथी, मित्र, स्नेही का रिश्ता पर्याप्त है। कामुक और कामिनी को दृष्टि में रखकर किए गए विवाह घृणित हैं। रूप, रंग, शोभा, सौन्दर्य के आधार पर उत्पन्न हुआ आकर्षण एक आवेश मात्र है। उस आधार पर जो जोड़े बनेंगे वे सफल न हो सकेंगे। रूप, यौवन की सारी चमक एक छोटा सा रोग बात की बात में नष्ट करके रख सकता है। फिर कोई दूसरा अधिक सुन्दर आकर्षण सामने आ जाय तो मन उधर लुढ़क सकता है। रूपवान में दोष, दुर्गुण भरे पड़े हो तो भी निर्वाह देर तक नहीं हो सकेगा। हो सकता है कोई काला कुरूप व्यक्ति योगी अष्टावक्र, नीतिज्ञ चाणक्य अथवा पाँचाली द्रौपदी की तरह उच्च मनःस्थिति धारण किए हो। रूपवती नर्तकियाँ, अभिनेत्रियाँ, नट-नायक कोई उच्च भावनाशील थोड़े ही होते हैं। बन्दीगृह में क्रूर कर्म करने के दण्ड में अगणित नर-नारी आते रहते हैं। उनके कुकर्मों का विवरण सुनकर रोमांच खड़े हो जाते हैं। रूप-रंग के आवरण में उनके भीतर प्रेत-पिशाच का वीभत्स नृत्य देखकर दिल दहल जाता है। विवाह का वास्तविक आनन्द और लाभ जिन्हें लेना हो उन्हें साथी का चुनाव करने में रंग-रूप की बात उठाकर ताक में रख देनी चाहिए। केवल सद्भावना, निष्ठा, सौजन्य, उदारता, दूरदर्शिता, उत्साह और हँस मुख प्रकृति जैसे सद्गुणों पर ही ध्यान देना चाहिए। सज्जनों के बीच चिरस्थायी मैत्री का निर्वाह होता है। दुर्जन तो क्षण भर में मित्र बनते हैं और पल भर में शत्रु बनते देर नहीं लगती। अभी बहकावे की मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, अभी तनिक सी बात पर खून के प्यासे बन सकते हैं। प्रेम के जाल में ऐसे ही लोग दूसरों को फँसाते फिरते बहुत देखे जाते हैं। इसलिए विवाह की सोचने से पहले साथी के चुनाव की कसौटी निश्चित करनी चाहिए और वह यह होनी चाहिए कि रंग-रूप कैसा ही क्यों न हो, साथी की आन्तरिक स्थिति में स्नेह सौजन्य का समुचित पुट होना ही चाहिए। जिन्हें ऐसा साथी मिल जाय समझना चाहिए कि उसका विवाह करना सार्थक हो गया।

काम सेवन के सम्बन्ध में उपेक्षा वृत्ति बरती जानी चाहिए। इस प्रयोग का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। कम ही लोग ऐसे होते है जिनके पास अपनी शारीरिक मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त इतना ओजस् संचित रहे जिसे क्रीड़ा कल्लोल में व्यय कर सके। आमतौर से वर्तमान परिस्थितियों में लोग इतनी ही शक्ति उपार्जित कर पाते है, जिसके आधार पर किसी प्रकार काम चलता रहे और गाड़ी लुढ़कती रहे। इस स्वरूप उत्पादन को यौन सम्पर्क में अपव्यय किया जायेगा तो उसका प्रभाव सीधा स्वभाव, स्वास्थ्य और जीवन यात्रा पर पड़ेगा। विषयी मनुष्य अपनी श्रमशीलता, तेजस्विता, स्फूर्ति, निरोगता, प्रतिभा, स्मरण शक्ति, साहसिकता, स्थिरता, सन्तुलन आदि की सभी शारीरिक मानसिक विशेषताएँ खोते चले जाते हैं। यह अपव्यय जितना बढ़ता है उतना ही खोखलापन बढ़ता चला जाता है, आसक्ति का शिकंजा अपने गले में कसा जाना हर कामुक व्यक्ति निरन्तर अनुभव करता रहा है। यह एक प्रकार से स्वेच्छापूर्वक, हँसते खेलते मन्दगति से की जाने वाली आत्महत्या ही हैं।

प्रजनन जब उचित और आवश्यक हो तो उचित मर्यादाओं के अन्तर्गत काम-सेवन में ढील छोड़ी जा सकती हैं। यदि अपनी या साथी की तन्दुरुस्ती या मनःस्थिति ठीक ना हो तो इस प्रकार की छेड़छाड़ का कोई तुक नहीं रह जाता। पति-पत्नी के बीच इस प्रकार का धैर्य, सन्तुलन रहना ही चाहिए कि जब तक अति आवश्यक न हो, दोनों की पूर्ण सहमति न हो तब तक इस प्रसंग को उपेक्षित ही किया जाय। साथी की अनिच्छा रहने पर उसे विवश करना एक प्रकार से बलात्कार जैसा अपराध ही है, भले ही वह विवाहित साथी के साथ किया गया हो। कानून उसे भले ही दण्डनीय ना माने, पर नैतिक दृष्टि से उसे निर्लज्ज बलात्कार ही कहा जायेगा। ऐसा प्रसंग जिससे साथी का मन रोष या क्षोभ से भर जाय, निश्चित रूप से कामुक पक्ष के लिए हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होगा। क्षणिक उद्वेग शान्त करके जितनी प्रसन्नता पाई गई थी, कालान्तर में उसकी प्रतिक्रिया अनेक गुणी अप्रसन्नता की परिस्थिति लेकर सामने आवेगी। अस्तु हर समझदार पति-पत्नी की आदि से अन्त तक ऐसी मनःस्थिति विनिर्मित करनी चाहिए कि कोई किसी को कठिनाई, क्षति या असमंजस में न डाले। दाम्पत्य जीवन के बीच ब्रह्मचर्य की निष्ठा का जितना प्रभाव होगा, उतना ही पारस्परिक सद्भाव प्रगाढ़ होता जायेगा और वह लाभ मिलेगा जिसे प्राप्त करना विवाह का मूल प्रयोजन हैं।

जननेन्द्रिय का अमर्यादित उपयोग यौन रोग उत्पन्न करता है। विशेषतया नारी को तो इससे अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। औसत नारी महीने में एकाध बार से अधिक काम-क्रीड़ा का दबाव सहन नहीं कर सकती। प्रजनन की दृष्टि से हर बच्चे के बीच कम से कम पाँच वर्ष का अन्तर होना चाहिए। जल्दी-जल्दी बच्चे उत्पन्न करने और काम-क्रीड़ा का अधिक दबाव पड़ने पर नारी अपना शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी खो बैठती है। दैनिक काम-क्रीड़ा का स्वरूप हँसी-विनोद, मनोरंजन, चुहल, छेड़छाड़ तक सीमित रहे तभी ठीक है। हर्षोल्लास बढ़ाने वाले छुटपुट क्रिया-कलाप चलते रहे, तो चित्त प्रसन्न रहता है ,, परस्पर घनिष्ठता बढ़ती है और सान्निध्य का मनोवैज्ञानिक ही नहीं काम-प्रयोजन भी पूरा हो जाता है। यौन सम्पर्क को यदा-कदा तक सीमित रखना चाहिए। आए दिन की इस विडम्बना में फँसकर मनुष्य अपना स्वास्थ्य ही नष्ट नहीं करता, प्रतिक्रिया के आनन्द से भी वंचित हो जाता है। कामुक व्यक्ति बहुत घटिया और उथला आनन्द ले पाते हैं। उसमें जो ऊँचे स्तर का उल्लास है उसे प्राप्त करने के लिए देर तक की संग्रहीत शक्ति होनी चाहिए। जिन्हें यौन रोगों से बचना हो उन्हें इस प्रकार की सतर्कता रखना ही चाहिए।

इस संदर्भ में यह समझ लिया जाय कि जननेन्द्रिय का सीधा सम्पर्क मस्तिष्क से है। वहाँ जो कुछ गड़बड़ होगी उसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा। मनोविज्ञान वेत्ताओं के अनुसार उचित समय पर उचित काम-सेवन को अवसर न मिलने से जहाँ अपस्मार, मूर्छा, भूत-प्रेत, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, स्मरणशक्ति की कमी, सिर दर्द, हृदय रोग, नाड़ी विकृति आदि रोग उत्पन्न होते हैं वहाँ अति काम-सेवन भी ऐसे ही उद्वेग उत्पन्न करता है। लम्पटों का शरीर जितना क्षीण होता है मन उससे भी अधिक विक्षिप्त, असन्तुलित रहने लगता है। उन्हें अनेकों मानसिक रोगों से त्रस्त पाया जायेगा, जिन्होंने काम सेवन की दिशा में अति बरती।

काम-सेवन का वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि शरीरों की विद्युतशक्ति का इस प्रयोग द्वारा अति द्रुतगति से प्रत्यावर्तन होता है। मानवीय विद्युत की मात्रा शरीर में भी पाई जाती है, पर उसका भण्डार चेतन संस्थान में ही देखा पाया जाता है। यौन संस्थान की नींव में यह बिजली अकूत मात्रा में भरी पड़ी है। जैसे ही जननेन्द्रिय निकट आती है वैसे ही प्रसुप्त शक्तिबीज सजग और प्रबल हो उठता है और तत्काल दोनों पक्ष अपनी विद्युत शक्ति का विनिमय करने लग जाते हैं। ऋण विद्युत धारा धन की ओर और धन धारा ऋण की ओर दौड़ने लग जाती हैं। नर-नारी को और नारी नर को अपना शक्ति प्रवाह प्रस्तुत करते हैं। इस सम्मिलन एवं प्रत्यावर्तन का ही वह परिणाम है जो काम-सेवन के आनन्द के रूप में उस क्षण अनुभव किया जाता है। यह विशुद्ध रूप से प्राण और रयि शक्ति के, अग्नि और सोम के परस्पर प्रत्यावर्तन की अनुभूति है। यह प्रयोग अति महत्त्वपूर्ण है उससे जहाँ व्यक्तित्वों का विकास हो सकता है वहाँ विनाश भी सम्भव है। प्रबल विद्युत धारा वाला पक्ष, निर्बल पक्ष को अपना अनुदान देकर उसे ऊँचा उठने और परिपुष्ट बनने में सहायता कर सकता है, पर जिसके शरीर में क्षीण प्राण है वह साथी को क्षति पहुँचा सकता है।

वेश्या शरीर का क्षरण करते रहने पर भी अपना रूप-सौन्दर्य बनाए रहती है। इसके कारण शरीर शास्त्री नहीं बता सकते। इसका उत्तर प्राण विद्या के ज्ञाताओं के पास है। वे मनस्वी कामुकों की शक्ति चूसती रहती है और जिस स्थिति में सामान्य गृहस्थ नारी मृत्यु के मुख में जा सकती थी उस स्थिति में भी अपने चेहरे पर चमक और शरीर में स्फूर्ति बनाए रहती हैं। यदि उनके प्रेमी घटिया स्तर के रोगी या मूर्ख स्तर के हो, तो फिर उनका स्वास्थ्य और तेज कभी स्थिर न रहेगा। शरीर की दृष्टि से युवाकाल में नर-नारियों में बिजली अधिक रहती है इसी से उसका आकर्षण युवा वर्ग के साथ काम-सेवन की लालसा संजोए रहता है। शरीर में विद्युत शक्ति है तो, पर थोड़ी और घटिया स्तर की ही पाई जाती है। असली शक्ति भण्डार मस्तिष्क और हृदय में भरा रहता है। स्वस्थ और सुन्दर व्यक्ति भी यदि मनोबल की दृष्टि से घटिया है तो इस सन्दर्भ में अशक्त ही माना जायेगा। कुरूप और ढलती आयु का व्यक्ति भी उसके आन्तरिक स्तर के अनुरूप प्रबल प्राण रह सकता है। असलियत यह है कि शरीर की स्थिति से प्राण क्षमता का सम्बन्ध बहुत ही कम है। किसी भी आयु में मनःस्थिति के अनुरूप प्राण प्रबलता या न्यूनता हो सकती है और उसका लाभ-हानि साथी को भोगना पड़ सकता है।

यों ब्रह्मचर्य सभी के लिए उचित है, पर उन प्राण सम्पन्न उच्च व्यक्तित्वों के लिए बहुत ही आवश्यक है। वे इस प्रकार का व्यतिक्रम करके अपनी प्रगति को ही रोक देंगे। साथी को उतना लाभ न मिलेगा जितनी स्वयं क्षति उठा लेंगे। इसलिए ब्रह्मचर्य की महत्ता असन्दिग्ध है। प्राण को संचित करते रहा जाय और यदा कदा उसका उपयोग काम-क्रीड़ा में कर लिया जाय तो साथी की सहायता की दृष्टि से भी समर्थ पक्ष की यही बुद्धिमत्ता होगी। कामुक व्यक्ति बाहर से ही चमक-दमक के भले दीखें, भीतर से खोखले होते हैं और वे जिससे भी सम्पर्क बनाते हैं उसी की शक्ति चूसने लगते हैं। लम्पट व्यक्ति के साथ दाम्पत्य जीवन बनाकर उसका साथी शारीरिक और मानसिक क्षति ही उठा सकता है। क्षीण प्राण वाला व्यक्ति समर्थ पक्ष की हानि ही कर सकता है। ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी ही अपनी विशेष विद्युत धाराओं से एक दूसरे को लाभान्वित कर सकते है। प्रशंसनीय केवल इसी स्तर का काम-सेवन कहा जा सकता है जिससे प्रबल शक्ति प्रवाह का लाभ दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी आवश्यकता की पूर्ति और अतृप्ति निवारण के लिए कर सकें।

सन्तान उत्पादन के सत्परिणाम संयम शीलता पर निर्भर है। कामुकता की दिशा में अति करने वाले दम्पत्ति कुछ ही दिनों में अपनी जननेन्द्रियों की मूल सत्ता को खो बैठते हैं। ऐसे पुरुष नपुंसक और नारी को बन्ध्या होते देखा जाता है। गर्भ रहे भी तो गर्भपात होने, दुर्बल या मृत सन्तान होने का खतरा बना रहता है। ऐसे माता-पिता मूर्ख, दुर्गुणी रोगी, अविकसित सन्तान ही उत्पन्न कर सकते हैं। समर्थ सन्तान के लिए जिस परिपक्व शुक्र की आवश्यकता है उसका निर्माण ब्रह्मचारी जीवन से ही सम्भव है। पुष्ट शरीर वाले युवक युवती मिलकर पुष्ट शरीर वाले बालक को तो जन्म दे सकते हैं पर उसकी मनःस्थिति बुद्धिमत्ता एवं तेजस्विता अपूर्ण ही रह जायेगी। आन्तरिक समस्त विशेषताएँ और विभूतियाँ प्राण शक्ति से सम्बन्धित हैं। प्राण का परिपाक ब्रह्मचर्य ही कर सकता है। इसलिए जिन्हें आन्तरिक दृष्टि से मेधावी, प्रतिभावान, दूरदर्शी सन्तान अपेक्षित हो उन्हें अपनी अंतःक्षमता की सुरक्षा एवं परिपुष्टि का ध्यान रखना चाहिए। यह उपलब्धि अधिक संयम से ही प्राप्त कर सकना सम्भव है।

दो वस्तुएँ मिलने से तीसरी बनने की प्रक्रिया रसायन कहलाती है। केमिस्ट्री इस विज्ञान का नाम है। रज वीर्य के मिलने से भ्रूण की उत्पत्ति होती है और नौ महीने की अवधि पूरी करते ही भ्रूण बालक के रूप में प्रसव होता है। यह स्थूल गर्भ धारण या प्रजनन हुआ। इसके अतिरिक्त भी एक प्राण प्रत्यावर्तन होता है जिसे अनेक अवसरों पर अनेक रूपों में देखा जा सकता है। शिष्य के प्राण में गुरु अपनी शक्ति प्रतिष्ठापित करके उसकी मेधा और विद्या को प्रखर बनाता है। यह कार्य स्कूली मास्टर नहीं कर सकते, वे तो बेचारे मात्र जानकारी दे सकने वाले पाठ भर पढ़ा सकते हैं। वह विद्या जो शिष्य को गुरु के समान ही प्रखर बना दे केवल तपस्वी गुरुओं द्वारा ही उपलब्ध हो सकती है। योगी अपने साधकों को शक्तिपात करते हैं, वे अपनी तपःशक्ति शिष्य को देकर बात की बात में उच्च भूमिका तक पहुँचा देते हैं। मरणासन्न रोगी को रक्तदान देकर पुनर्जीवन प्रदान किया जा सकता है इसी प्रकार दुर्बल प्राण को सबल बनाने का कार्य शक्ति प्रत्यावर्तन जैसी प्रक्रिया से संभव होता है। काम-सेवन का ऊँचा स्तर यही है। वह बच्चे पैदा करने के लिए नहीं, दो प्राणों के समन्वय से एक नवीन प्रतिभा विकसित करने के लिए किया जा सकता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

144. अन्तःकरण का परिष्कार, प्रखर उपासना से ही संभव
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

व्यक्तियों की गतिविधियाँ जब श्रेष्ठता से समन्वित रहती है तो उनके श्रम, समय, मनोयोग एवं साधनों का उपयोग सत्प्रयोजनों में होता है, फलतः सुखद परिस्थितियाँ बढ़ती जाती हैं, निरर्थक कार्यों में लगने से पिछड़ेपन की और अनर्थ कार्यों से अधःपतन की परिस्थितियाँ बनती हैं। जब जन प्रवाह पतनोन्मुख होता है तो स्वभावतः अभाव, संकट एवं विद्रोह बढ़ते हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया का कुचक्र चलता है और बुरे युग के-पाप युग, नरक युग के समस्त लक्षण सर्वत्र दृष्टिगोचर होते है। सत्प्रयत्नों के सत्परिणाम तो स्पष्ट ही हैं। धर्मराज्य, सतयुग आदि ऐसे ही समय को कहा जाता है। युग कैसा है? कैसा होगा? इन प्रश्नों का उत्तर यह पर्यवेक्षण करके दिया जा सकता है कि लोग क्या कर रहे है और क्या करने की तैयारियों में लग रहे हैं।

कुविचार और कुकर्म बढ़ने लगे तो वातावरण में भावनात्मक विषाक्तता उत्पन्न होनी स्वाभाविक है। उसका प्रतिफल व्यापक रूप से दुःखद दुर्घटनाओं के रूप में परिलक्षित होता है। यही कलियुग है। चन्दन वृक्ष सुगन्धित होते हैं, उन्हें छूकर जो पवन चलता है वह दूर-दूर तक सुवास बिखेरता है। पुष्प वाटिका भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में सुगन्धित और जीवन दायिनी प्राण वायु बिखेरती हैं। सज्जनों को चन्दन वृक्ष और पुष्प पादपों की संज्ञा दी जा सकती है। वे स्वयं तो आन्तरिक प्रसन्नता और साथियों की सद्भावना से सुखी सन्तुष्ट रहते ही हैं, अपनी गरिमा का उपहार सारे वातावरण को प्रदान करते हैं ।। कीचड़ और कूड़े से, सड़े नाले से बदबू उठती है, विषाणु बढ़ते हैं, कुरुचिपूर्ण वातावरण बनता है और बीमारियाँ फैलती है मनुष्यों के व्यक्तित्व यदि सड़े नाले और कूड़े के ढेर जैसे बने रहे तो उनकी विकृतियाँ उन अकेले को ही कष्ट नहीं देगी, वरन् समूचे वातावरण में अवांछनीय विक्षोभ उत्पन्न करेंगी। यही कलियुग का-पाप युग का स्वरूप है। युगों के भले-बुरे होने में व्यक्तियों का स्तर ही प्रधान कारण होता है। जन समूह के द्वारा अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियाँ अपनी प्रतिक्रिया से समूचे वातावरण में ऐसी ही विषाक्तता उत्पन्न करती हैं, जो सबके लिए सब प्रकार दुखदायी परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करती चली जाय।

विषाक्तता के वायुमण्डल का दूषित होना पदार्थ विज्ञान के आधार पर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान के आधार पर यह जानने में भी कठिनाई न होनी चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों के कारण प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल विक्षुब्ध होता है और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी व्यापक परिस्थितियों के रूप में बरसती है, जिनसे संसार को संकटों का सामना करना पड़े। प्रकृति प्रकोप की दुर्घटनाएँ ऐसे ही विक्षुब्ध वातावरण की देन है। आवश्यक नहीं कि जहाँ के लोगों की दुष्प्रवृत्तियाँ हों वही बरसे। सूर्य की गर्मी से समुद्र में बादल उत्पन्न होते हैं आवश्यक नहीं कि वे समुद्र में ही बरसे। वे कहीं भी जाकर बरस सकते है। जब सारी धरती और सारा आसमान एक है तो बादलों को कहीं भी बरसने की छूट रहती है।

प्रकृति प्रकोप के रूप में सामूहिक दण्ड व्यवस्था ही चलती है। अति वृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, तूफान, महामारी, भूमि कीटक आदि के रूप में कई प्रकार की विकृतियाँ आये दिन दरवाजे पर लगी रहने की घटनाएँ पाप युग में होती हैं। सतयुग के सम्बन्ध में विवरण मिलता है कि तब मनुष्य दीर्घजीवी होते थे। बाप के सामने बेटा नहीं मरता था। वृक्ष मनचाहे फल देते थे। भूमि से प्रचुर अन्न उपजता था। गौएँ बहुत दूध देती थी। वर्षा उपयुक्त समय पर उपयुक्त मात्रा में होती थी। प्रकृति प्रकोप कभी नहीं होता था। यह प्रकृति की अनुकूलता मनुष्य की सत्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है। इकॉलाजी विज्ञान के अनुसार प्रकृति की विचारशीलता, सन्तुलन व्यवस्था, दूरदर्शिता एवं न्याय प्रियता का अब क्रमशः अधिकाधिक परिचय मिलता जा रहा है। सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों का सामूहिक दण्ड भी उसी व्यवस्था के अन्तर्गत आता है।

व्यक्ति के कर्म का दण्ड व्यक्ति को मिलना चाहिए। यह व्यवस्था तो चलती ही है, पर सामूहिक उत्तरदायित्वों से बँधा रहने के कारण मनुष्य को सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों की रोक थाम करने का भी जिम्मेदार माना है। उसकी उपेक्षा की जाय तो वह भी एक पाप बनता है। स्वयं अच्छा रहना तो उचित ही है, पर उतना ही आवश्यक यह भी है कि जिस समाज में रहा जा रहा है उसे परिष्कृत बनाये रहने की जिम्मेदारी निबाहने में भी उतनी ही तत्परता बरती जाय। अपने आप के हित साधन में लगे रहने वाले, दूसरों की उपेक्षा करने वाले स्वार्थी कहलाते है और निन्दा के पात्र बनते हैं। यद्यपि स्वार्थ साधन कोई प्रत्यक्ष अपराध नहीं है और न उससे किसी मर्यादा का प्रत्यक्षतः उल्लंघन ही होता है। फिर भी व्यक्तिवादी स्वार्थ परायण व्यक्ति निन्दित ठहराये जाते हैं, उसका एक ही कारण है कि मनुष्य के लिए सामाजिक सुव्यवस्था के प्रति उतना ही जागरूक रहना आवश्यक माना गया है जितना कि अपने निर्वाह और सुरक्षा का प्रबन्ध करना।

सरकार कई अपराधों के लिए सामूहिक जुर्माना करती है। समीपवर्तीय क्षेत्र में अपराध होता रहे इसका हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं, यह सोचकर उसे रोका न जाय तो इस उपेक्षा को भी मानवी कर्तव्य शास्त्र में दण्डनीय अपराध माना गया है। सामूहिक जुर्माना ऐसे ही अपराधों में किये जाने की दण्ड व्यवस्था है। पड़ोस के गाँव में डकैती पड़ती रहे और जिसके पास बन्दूक का लाइसेन्स है वह डाकुओं का सामना करने न गया, तो उस कायरता को अपराध माना जायेगा और उसकी बन्दूक जब्त कर ली जायेगी। सामूहिक प्रकृति प्रकोप भी ऐसे ही सामूहिक दण्ड विधान के रूप में समूचे मनुष्य जाति पर बरसते है। आवश्यक नहीं कि जिन्हें कष्ट भुगतना पड़ा है मात्र उन्हीं का अपराध हो। मुहल्ले में गन्दगी के ढेर जमा हो तो जमा करने वाले भी और उसे न रोकने वाले भी उस सड़न से हानि उठावेंगे। पड़ोस का छप्पर जलता रहे और अपने घर शान्ति पूर्वक बैठे रहा जाय तो बढ़ती हुई आग अपने को भी लपेटने लगेगी। मुहल्ले में गुण्डागर्दी बढ़ती रहे तो अनेक सौम्य प्रकृति के बालक भी उस कुचक्र के शिकार किसी न किसी प्रकार बनकर ही रहेंगे। एक व्यक्ति दुष्टकर्म करता है बदनामी सारे परिवार या गाँव की होती है।

यही बात प्रशंसनीय कार्य करने के सम्बन्ध में भी है। सत्कर्म करने वाला अपने वंश, परिवार, क्षेत्र, देश, युग सभी को प्रतिष्ठित करता है। यह सामूहिकता का उत्तरदायित्व जिन दिनों ठीक तरह निबाहा जाता है उन दिनों प्रकृति के अनुग्रह की वर्षा सभी पर होती हैं। और जिन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलबाला होता है तो दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती है, वातावरण बिगड़ता है और दण्ड उनको भी भुगतना पड़ता है, जो प्रत्यक्षतः तो निर्दोष दिखाई पड़ते हैं, पर समूचे मानव समाज की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने और सत्प्रवृत्तियों में संलग्न होने के प्रयास की जिम्मेदारी न निभाने से अनायास ही अपराधी वर्ग में सम्मिलित हो जाते है।

युग परिवर्तन के लिए व्यक्ति और समाज में उत्कृष्टता के तत्वों का अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रबल प्रयत्नों का किया जाना आवश्यक है। व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ ही नहीं समाजनिष्ठ भी होना चाहिए। मात्र अपने आपको अच्छा रखना ही पर्याप्त नहीं। अपनापन भी विस्तृत होना चाहिए।

आस्थाओं की पृष्ठभूमि वस्तुतः एक अलग धरातल है। उसका निर्माण मस्तिष्कीय संरचना की तुलना में कहीं अधिक जटिल और कहीं अधिक कठोर है। अंतःकरण की अपनी स्वतन्त्र रचना है। उस पर बुद्धि का थोड़ा बहुत ही प्रभाव पड़ता है। सच तो यह है कि अंतःकरण ही बुद्धि की कठपुतली को अपने इशारे से नचाता है। आन्तरिक आस्थाओं और आकांक्षाओं की जो अभिरुचि होती है उसी को पूरा करने के लिए चतुर राजदरबारी की भूमिका मस्तिष्क को निभानी पड़ती है। उसका अपना अभिमत जो भी हो, उसे करना वही पड़ता है जो अधिपति का निर्देश है। हो सकता है कि मस्तिष्क वस्तुतः भौतिकता का पक्षधर हो, किन्तु व्यवहार में लाते समय वह तब तक समर्थ न हो सकेगा जब तक अन्तःकरण भी अनुकूल न हो जाये। किसी भी नशेबाज से वार्तालाप किया जाय तो वह समझाने वाले से भी अधिक ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर देगा जिससे नशा पीने की हानियों का प्रतिपादन होता है। इतनी जानकारी होते हुए भी वह उस लत को छोड़ने के लिए तत्पर न हो सकेगा। उसका कारण एक ही है कि नशे के पक्ष में उसके अन्तःकरण में इतनी गहरी अभिरुचि जम गयी है, जिसे विचारशीलता मात्र के सहारे पलट सकना सम्भव नहीं हो पाता। शराबी आये दिन अपने को धिक्कारता है, शपथ लेता है किन्तु जब अन्दर से लत भड़कती है तो असहाय की तरह शराब खाने की ओर इस प्रकार घिसटता चला जाता है मानों कोई बल पूर्वक उसे अपनी पीठ पर लाद कर लिये जा रहा हो। रास्ते में संकल्प विकल्प भी उठते है। लौटने को मन भी करता है। पर सारे तर्क एक कोने पर रखे रह जाते हैं। आदत अपनी जगह स्थिर रहती है।

मस्तिष्क की यहाँ निरर्थकता नहीं बताई जा रही है और न तर्क, प्रभाव अध्ययन का, विचार साधन का महत्त्व कम किया जा रहा है। उसकी उपयोगिता तो है ही और रहेगी ही। बात इतनी भर है कि मस्तिष्क भौतिक जीवन में अत्यन्त पेचीदा समस्याओं को सुलझाने और महत्त्वपूर्ण फैसले करने और पेचीदगियों को सरल बनाने में अद्भुत सूझ-बूझ का परिचय दे सकने में समर्थ होते हुए भी अन्तःकरण में जमे हुए संचित संस्कारों को प्रभावित करने में यत्किंचित् ही सहायक हो पाता है। कारण कि वह गहरी परत मस्तिष्क के प्रभाव क्षेत्र में पूरी तरह है नहीं। वरन् उलटे मस्तिष्क को ही अपने इच्छानुकूल चलने के लिए विवश करता है।

अंतःकरण ही मानवी सत्ता का केन्द्र बिन्दु है। वह जितना महत्त्वपूर्ण हैं उतना ही अद्भुत इस अर्थ में कि उसमें तनिक सा अन्तर आते ही मनुष्य का सारा स्वरूप बदल जाता है। अद्भुत इस अर्थ में कि भावनाओं, संवेदनाओं की दृष्टि से अति सरल होते हुए भी अपनी स्थिति के संबन्ध में इतना दुराग्रही है कि बदलने में अत्यन्त कठोरता का परिचय देता है। परिवर्तन के लिए किये जाने वाले साधारण प्रयत्नों को तो ऐसे ही उपहास में उड़ा देता है। ईश्वर से मिलने की, सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साधने की क्षमताएँ इसी मर्म स्थल में सन्निहित हैं। ऋद्धियों और सिद्धियों की समस्त रत्न राशियाँ इसी तिजोरी में भरी हुई हैं। इतने पर भी इसका खोल सकना अत्यन्त कठिन है। जानकार लोग भी अपने आपको असहाय पाते हैं। आत्मबोध की आवश्यकता समझने-समझाने वाले-उसके द्वारा मिलने वाले चमत्कारों का स्वरूप समझने वाले भी इतना सङ्कल्प नहीं जुटा पाते कि आत्म जागृति का लाभ उठा सके और साक्षात्कार कर सके। अपनी जानकारी से स्वयं लाभान्वित न हुआ जा सके, तो समझना चाहिए कि कोई बहुत बड़ा कारण या अवरोध काम करता है।

अन्तःकरण की स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन होते ही जीवन के स्वरूप में असाधारण परिवर्तन प्रस्तुत होता है। वाल्मीकि, अजामिल अम्बपाली, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल आदि अनेकों के दुष्ट जीवनों ने पलटा खाया और देखते-देखते कायाकल्प कर लिया। बोधि वृक्ष के नीचे एक दिन गौतम राजकुमार के अन्तःकरण ने पलटा खाया और वे दूसरे दिन ही भगवान बुद्ध बन गये। समर्थ गुरु रामदास का विवाह मुहूर्त निकट था, उनके भीतर दुस्साहस पूर्वक दूसरे प्रकार का निश्चय कर बैठा। देखते-देखते सारी दिशाधारा ही उलट गई। गृहस्थों जैसा सामान्य जीवन क्रम दूसरे ही दिन महामानवों की, ऋषियों की पंक्ति में जा विराजा। ऐसे चमत्कार अन्तःकरण के परिवर्तन से ही होते रहे हैं।

उत्थान से पतन और पतन से उत्थान के अचानक परिवर्तनों के अगणित प्रमाण, उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर विद्यमान हैं। आरंभिक परिस्थितियों से अन्तिम उपलब्धि तक क्रमिक गति से चलते हुए आकाश-पाताल जितना अन्तर उत्पन्न करने वाली घटनाएँ तो अपनी आँखों के सामने ही असंख्यों देखी जा सकती हैं। इसका मूल कारण एक ही है अंतःक्षेत्र की प्रबल आस्था और प्रचण्ड आकांक्षा। इतना भर सार तत्त्व जहाँ भी होगा, वहाँ विपरीत परिस्थितियाँ काई की तरह फटती चली जायेंगी और टिड्डी दल की तरह परामर्शों; सहयोगों और अनुकूलताओं का समूह एकत्रित होता चला जायेगा। पतित, सामान्य और महान जीवनों के अन्तरों में परिस्थिति नहीं मनःस्थिति ही आधारभूत कारण रही है।

अन्तःकरण के कठोर क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का तत्व दर्शन और साधना उपचार ही प्रभावी सिद्ध होता है। योग साधना और तपश्चर्या का समूचा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। कठोर चट्टानें हीरे की नोंक वाले बरमे के अतिरिक्त और किसी औजार से छेदी नहीं जाती। अन्तःकरण में जमी अवांछनीयता को निरस्त करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा। उसी विद्या में पारंगत इंजीनियर अध्यात्मवेत्ता इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान कर सकेगा। विकृत विपन्नताओं के स्थान पर परिष्कृत परिस्थितियों की स्थापना यदि सचमुच हो तो उसका हल अध्यात्म विद्या का अवलम्बन लिये बिना और किसी प्रकार निकलेगा नहीं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही दिशा निर्धारण और सार्थक श्रम करने में सुविधा रहेगी।

व्यक्ति निर्माण के लिए भौतिक उपायों की सार्थकता तब है जब अन्तःकरण के स्तर में परिवर्तन हो-दृष्टिकोण सुधरे। यह कार्य प्रशिक्षण मात्र से नहीं हो सकेगा। आस्थाओं का स्पर्श आस्थाएँ करती है। भावनाओं को भावनाओं से छुआ जाता है। काँटा काँटे से निकलता है और विष, विष से ही मारा जाता है। आस्था अन्तःकरण की अत्यन्त गहरी परतों में अपनी जड़ जमाये बैठी रहती है। उन तक पहुँचना और सुधार परिवर्तन करना सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं, उसके लिए उच्च स्तर के प्रयत्न करने पड़ते है। इनमें उपासनात्मक उपचारों के अतिरिक्त अन्य प्रयत्न अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करते।

उपासना की प्रक्रिया को अन्तःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए। कुसंस्कारों की, कषाय कल्मषों की महाव्याधि से छुटकारा पाने के लिए मात्र यही रामबाण औषधि है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

145. उथल-पुथल की बेला एवं उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सन् १९८० से लेकर २००० तक की अवधि को युग सन्धि बेला माना गया है। इसे प्रभात कालीन ब्रह्ममुहूर्त के समतुल्य समझा जाना चाहिए। कुछ समय पूर्व की सन्नाटा भरी घोर तमिस्रा को थोड़ी देर बाद हलचल भरे प्रकाश में परिणत कर देने का श्रेय ऊषाकाल के अरुणोदय को मिलता है। ठीक उसी तरह सर्वत्र छाई हुई अवांछनीयता को गलाने और उसे सदाशयता में ढाल देने के लिए इन दिनों महाकाल की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया चल रही हैं। इसे तत्त्वदर्शी महामनीषियों ने युगसंधि पर्व का नाम दिया है। इस अवधि में विनाश और संस्थापन की द्रुतगामी प्रक्रिया चलेगी। यह समय बीतते-बीतते ऐसा समय आ जायेगा जिसे नवयुग कहा जा सके।

कुछ विनाशकारी कारण इन दिनों ऐसे उभरे हैं जैसे पूर्वकाल में कभी भी नहीं थे। ये दिन-दिन प्रबल होते जा रहे हैं। फलतः विश्व संकट के बादल भी घनीभूत होते जा रहे हैं ।। यह महाप्रलय नहीं रचे तो ऐसी विपन्नता अवश्य पैदा करेंगे जिसे मानवी प्रयासों से नियन्त्रित करना सम्भव नहीं दीखता। ऐसी विपन्नताओं को हटाने के लिए महाकाल को अनुपयुक्तता को निरस्त करने के लिए भयानक तोड़-फोड़ करनी पड़ती है ताकि संकट उत्पन्न करने वाले तत्वों का उन्मूलन हो सके। असुरता घटने पर ही देवत्व को पनपने का अवसर मिलता है। लंका दहन और राम राज्य संस्थापन की दुहरी प्रक्रिया ऐसे ही अवसरों पर पूर्वकाल में भी सम्पन्न होती रही हैं। इन दिनों प्रस्तुत बीस वर्ष की अवधि को ऐसी ही समझना चाहिए जिसमें काली घटाएँ कड़कड़ाती बिजली के साथ बरसेंगी और हरीतिमा भरे वातावरण का अभिनव सृजन करेंगी।

(१) परमाणु बम, अन्तरिक्ष यान, मिसाइलें, मृत्यु किरण, विषबम, लेसर हाइड्रोजन बम जैसे प्रलयंकर अस्त्रों के पर्वत खड़े होते जाना।

(२) अणु विस्फोटों से अन्तरिक्ष में भयानक विकिरण बढ़ते जाना और उसके फलस्वरूप प्राणी समुदाय को पीढ़ियों तक अभिशाप सहने के लिए विवश किया जाना।

(३) बढ़ते हुए कल कारखानों से वायु और जल का भयानक रूप से विषाक्त होना, फलतः दम घुटने की स्थिति बनना।

(४) ईंधन का अत्यधिक प्रयोग होने से वातावरण का गर्म होते जाना, ध्रुवों की बरफ पिघलने से समुद्र की सतह का ऊपर उठना, फलतः आबादी और उपजाऊ जमीन का उसमें डूबना बढ़ती हुई अप्रत्याशित जनसंख्या के कारण आहार, जल, निवास आदि का संकट खड़ा होना। ईंधन साधनों के चुक जाने से नये किस्म के अवरोध का खड़ा होना। ये कुछ कारण है जिनसे महाविनाश की सम्भावनाएँ निकट दीखती हैं।

मानवी आचरणों से प्रकृति का सूक्ष्म वातावरण प्रभावित होता है। सतयुग में मानवी सद्भावनाएँ प्रकृति को अनुकूल बनाये रहती थी। धरती से धान्य, बादलों से जल और अन्तरिक्ष से जीवन प्राण के अजस्र अनुदान मिलते थे, सर्वत्र सुख शान्ति की परिस्थितियाँ बनी रहती थी। अब जबकि मनुष्य के दृष्टिकोण और आचरण में निकृष्टता भर गई है, सूक्ष्म जगत चेतन विषाक्तता से भरता चला जा रहा है फलतः प्रकृति प्रतिकूल होती जा रही है और क्रुद्ध हाथी की तरह आये दिन विनाश का संकट प्रस्तुत करती रहती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, तूफान, बाढ़, महामारी जैसे प्रकृति प्रकोप दिन-दिन बढ़ते ही जा रहे हैं। सूर्य कलंकों का बढ़ना, सौर मंडल का ग्रह सन्तुलन बिगड़ना जैसे कारणों को देखते हुए अन्तरिक्ष विज्ञानी चिन्तातुर हैं कि इन असन्तुलनों का प्रभाव अपनी धरती की परिस्थितियों में विनाशकारी उथल-पुथल प्रस्तुत कर सकता है।

युगसंधि के बीस वर्षों में सन् १९८० से २००० तक सूर्य ग्रहणों की असाधारण शृंखला चलेगी। इनमें तीन खग्रास और अतिप्रभावी होंगे-एक १६ फरवरी १९८०, दूसरा २४ अक्टूबर १९९५ का और तीसरा ११ अगस्त १९९९ का। इनमें से एक तो हो चुका। इन तीनों का संयुक्त प्रभाव इस अवधि में पृथ्वी के वातावरण को विचित्र रूप से प्रभावित करेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार इनके कारण अन्तरिक्षीय प्रभाव ऐसे उत्पन्न होंगे जो प्राणियों को रुग्णता, पदार्थों को अस्त-व्यस्तता की ओर धकेलेंगे, मौसमी संतुलन बिगाड़ेंगे और प्रकृति प्रकोपों का सिलसिला बढ़ायेंगे। इस अवधि में चन्द्र ग्रहणों और सूर्यग्रहणों का ऐसा उपक्रम बन रहा है जिसे असामान्य कहा जा सके। इस योग के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘मौज जात मसीह’’ के पृष्ठ १४६ पर हजरत इमाम बाकर का हवाला देते हुए कहा गया है-ऐसे कुयोग आने पर समझा जाय कि कयामत नजदीक आ गयी।

युगसंधि में सूर्य पर धब्बे उभरेंगे। उनकी चुम्बकीय प्रतिक्रिया अत्यन्त तीव्र होगी। इस कारण समुद्रों और नदियों का पानी तेजी से भाप बनकर उड़ने लगेगा। समुद्रों की धाराओं तथा परतों में परिवर्तन आने से मौसम अस्त-व्यस्त होंगे। ध्रुवों की बरफ पिघलने से नये संकट खड़े होंगे। अमेरिका के ऊर्जा आयोग ने आँकड़ों के आधार पर सिद्ध किया है-जब भी सौर कलंक चरम स्थिति में होते हैं तो दुर्घटनाएँ प्रायः छः गुनी अधिक बढ़ जाती है। न्यूयार्क के प्रख्यात डाक्टर बेकर की खोज है कि तीव्र सौर प्रतिक्रिया से मानसिक रोगियों की संख्या में असाधारण वृद्धि होती है। भारत के पुरातन ज्योतिर्विदों में से गर्ग, पाराशर, देवल, कश्यप आदि ने भी इस संदर्भ में ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं।

संसार भर के महान वैज्ञानिकों ने मानवी गतिविधियों द्वारा विनिर्मित होती जाने वाली परिस्थितियों का गम्भीर पर्यवेक्षण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि सन् १९८० से लेकर २००० तक की मध्यावधि में प्रकृति प्रकोपों से लेकर मानवी विग्रहों तक की ऐसी कितनी ही विभीषिकाएँ दृष्टिगोचर होंगी, जिनसे विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के संकट उभरेंगे और कल्पनातीत विपत्तियाँ उत्पन्न करेंगे। इस प्रकार के प्रतिवेदन प्रस्तुत कर्ताओं में मूर्धन्य विज्ञानियों की लम्बी शृंखला है। उनमें से जीव शास्त्री रासेल कारमन, खगोल शास्त्री कार्ल सागन, दार्शनिक ओ स्वाल्ट स्पेंगुलर, पत्रकार वगजी लेटीना आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

बाइबिल में डेनियल तथा रिवेलेशन अध्यायों में युग परिवर्तन के सम्बन्ध में जो भविष्यवाणियाँ दी हैं वे सेविन टाइम्स के नाम से जानी जाती है। उन्हें लेकर अंग्रेजी में कितनी ही पुस्तकें छपी हैं। इनकी गूढ़ विवेचनाओं में अगणित विद्वानों ने अपना सिर खपाया है। इनमें युद्ध, अकाल, महामारी, भूकम्प जैसे प्रकृति प्रकोपों से महाविनाश की सूचना के साथ ही यह भी कहा गया है कि इसी बीच महाप्रभु का अवतरण होगा और वे सदाशयता को पुनर्जीवित करने में सफल होंगे। यह सेविन टाइम कब हो सकता है इस सम्बन्ध में जेम्स ग्राण्ट ने अनेकों आधार लेकर गणना की है और उसे सन् १९८५ से लेकर २००० के मध्य का बताया है।

युगसंधि की इस छोटी सी अवधि में महाविनाश की सम्भावनाओं से महामनीषी समय-समय पर सर्वसाधारण को जानकारी और चेतावनी देते रहे हैं। इनमें कई महत्त्वपूर्ण हैं। इस्लाम धर्म के प्रवक्ता चौदहवीं सदी में कयामत होने की चर्चा करते रहे हैं। भविष्य पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है। इसके अतिरिक्त मूर्धन्य भविष्य दर्शियों ने समय-समय पर इसी तथ्य को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है जिनके भविष्य कथन विश्व घटनाओं के सम्बन्ध में सर्वथा खरे उतरते रहे हैं।

विश्व विख्यात भविष्य वक्ता कीरो के कथन उनके जीवनकाल में तथा मरण के उपरान्त भी लगातार सही होते चले आये हैं उनने विश्व भविष्य के सम्बन्ध में लिखा है-मध्य पूर्व में अरबों और यहूदियों की भयानक टक्कर होगी। इसी बीच एक नई-नई विश्व सभ्यता उभरेगी और संसार के वर्तमान ढाँचे में उसके कारण असाधारण परिवर्तन सन् २००० से पूर्व ही हो जायेगा। भारत का भविष्य अन्य सभी देशों की तुलना में अधिक उज्ज्वल है। उसका आश्चर्यजनक अभ्युदय होगा।

पिछले दिनों जिन अदृश्य दर्शियों के भविष्य कथनों की धूम संसार भर में रही है उनमें मूर्धन्य सात हैं-१. जीन डिक्सन २. जूल वर्न ३. प्रो. हरार ४. पीटर हरकौस ५. नोस्ट्राडेमस ६. जान सेवेज ७. एण्डरसन। इन्हें आस्तिक, नास्तिक, राजनीति, दर्शन विज्ञान आदि के सभी वर्गों ने हर कसौटी पर कसा और ९० प्रतिशत सही पाया है। इन सातों ने युगसंधि के दिनों घटित होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में जो संकेत दिये हैं उनका तीन तथ्यों में सन्निहित सार संक्षेप इस प्रकार है-१. इन बीस वर्षों में मनुष्य जाति के सामने असाधारण कठिनाइयाँ खड़ी रहेंगी। २. साथ ही उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ विकसित होंगी। वर्तमान व्यवस्था बदलेगी। लोगों के दृष्टिकोण सुधरेंगे। ३. विश्व सन्तुलन में भारत की भूमिका महान होगी। इस अवधि में उसे विश्व सेवा का उच्च स्तरीय अवसर मिलेगा।

भारत के मान्य ज्योतिषी श्री गोपीनाथ शास्त्री चुलैट ने एक रात स्वप्न देखा कि नये युग का आविर्भाव सन्निकट है। उठकर उनने स्वप्न की कुण्डली बनाई और उसके आधार पर अनेकों फलितार्थ निकाले जो युग परिवर्तन पुस्तक में छपे। इन घोषणाओं में से अधिकांश सही सिद्ध हो चुकी है। इस आधार पर जो अगले दिनों घटित होने वाला है वह इस प्रकार है-यह युगसंधि का समय है। अन्धकार घटता और प्रकाश बढ़ता जायेगा। यह समय संसार भर के लिए प्रसव पीड़ा की तरह कष्टप्रद होगा। किन्तु अन्ततः ऐसे सुखद परिवर्तन होंगे, जिससे नये युग के लोग हर दृष्टि से समुन्नत हो सके।

हरिवंश के भविष्य पर्व की काल गणना के अनुसार इसी युग संधि के दिनों कलियुग की समाप्ति और शुभ युग की शुरुआत होनी है। पुरातत्व शोध संस्थान ने इस समय को ब्रह्मरात्रि का तपोमय संधिकाल कहा है। महाभारत वन पर्व के अनुसार जब युग संधियाँ आती है तब संसार में तीव्र संघर्ष और विनाश विग्रह खड़े होते हैं।

पटना की खुदाबख्श ओरियेंटल लाइब्रेरी में बुखारा के प्रख्यात सन्त शाहनियर मतुल्लावली साहब की लिखी फारसी कसीदों की एक पुस्तक है, जिसमें विश्व भविष्य के सम्बन्ध में अनेकों जानकारियाँ तथा चेतावनियाँ छपी हैं। उनमें से अधिकांश अब तक अक्षरशः सही सिद्ध हो चुकी है। जिनका प्रभाव आगे आने वाला है वे इस प्रकार है-तृतीय विश्वयुद्ध बड़ा भयंकर होगा। उससे श्वेत जातियाँ बहुत कमजोर पड़ जायेंगी। भारत का अभ्युदय आश्चर्यजनक होगा। इस देश में एक फरिश्ता आयेगा जो सामान्य लोगों को संगठित करके उनसे असामान्य काम करा लेगा। इन प्रयत्नों से मनुष्य का गौरव बढ़ेगा और भविष्य उज्ज्वल होगा।

कुछ समय पूर्व संसार भर के ऐसे मूर्धन्य एक सौ चार भविष्य वक्ताओं का सम्मेलन कोरिया में हुआ था जिनकी भविष्यवाणियाँ ८० प्रतिशत सही उतरती रही है। उन लोगों ने संयुक्त रूप से सन् ८० से २००० तक के बीस वर्षों का भविष्य बहुत सोच विचार और अध्यात्म तथा ज्योतिर्विज्ञान का सहारा लेकर प्रकाशित किया था। उनमें प्रमुख बातें यह थी-१९८५ के लगभग ऐसा महायुद्ध हो सकता है जिसे विश्व युद्ध की संज्ञा मिल जाय। पूर्वात्य तथा पाश्चात्य देशों की राजनैतिक तथा आर्थिक स्थिति में भारी उथल पुथल होगी। प्रकृतिगत विपदाएँ बढ़ेगी। भूकम्प आयेंगे और अकाल पड़ेंगे। पारस्परिक कलह बढ़ेंगे और विद्वेष फूटेंगे। वैज्ञानिक प्रगति ध्वंसात्मक उत्पादनों में लग जायेगी और ईंधन की कमी सर्वत्र अनुभव होगी। लोग कई कारणों से खिन्न रहेंगे।

इन्हीं दिनों १०४ मूर्धन्य भविष्यवक्ताओं की संयुक्त घोषणा में इन्हीं दिनों में घटित होने वाला एक शुभ संवाद भी है-व्यापार, धन धान्य, कृषि, पशु-पालन विज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्र का एशियाई नेतृत्व भारत कर सकता है। राजनैतिक उथल-पुथल के बीच विचार क्रान्ति उभरेगी और उसका असर सारी दुनिया पर पड़ेगा। यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट भी अपनी वर्तमान मान्यताओं में बहुत कुछ सुधार करेंगे। यह बौद्धिक परिवर्तन आध्यात्मिक तथ्यों का प्रतिपादन करेगा। वर्ग, सम्प्रदायों तथा भाषा, भेष के अन्तर घटेंगे और एकात्म की दिशा में मानवी प्रयत्न तेजी से बढ़ेंगे। इस विश्व क्रान्ति का सूत्रपात एवं नेतृत्व एशिया का कोई मनीषी करेगा और उसका प्रयास सफल होकर रहेगा।

पिछले दिनों संसार के प्रमुख ५० राष्ट्रों के ६००० ऐसे महामनीषी टोरोण्टो में एकत्रित हुए जो फ्यूचरालॉजी विज्ञान में निष्णात थे। फ्यूचरालॉजी अर्थात् वर्तमान को देखते हुए तथ्यों के आधार पर भविष्य का सही अनुमान लगा सकने की विद्या। इस सम्मेलन का नाम फर्स्ट ग्लोबल कान्फरेंस आन फ्यूचर दिया गया। इसमें प्रस्तुत विभीषिकाओं और भावी सम्भावनाओं पर गम्भीर विचार विनिमय के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि भविष्य चिन्ताजनक है, पर हम आशावादी हैं। कहने सोचने का समय चला गया। अब कुछ करने पर उतरना होगा। कहने लायक एक बुरी खबर है और एक अच्छी। बुरी यह कि अगले बीस वर्षों में संसार का अन्त समीप हैं, चूँकि प्रकृति से खिलवाड़ करके मनुष्य ने अपनी कब्र आप खोद ली है। पर एक शुभ समाचार यह है कि ऐसे प्रयास जिनके द्वारा संकट को टाला जा सके, उत्साहपूर्वक चल पड़े हैं। कोई कारण नहीं कि सृजन की सुनियोजित क्रिया पद्धति विश्व स्तर पर अपनाई जा सके तो अन्धकार को प्रकाश में न बदला जा सके।

सम्मेलन ने नारा दिया है-थिंकिंग ग्लोबली, एक्टिंग लोकली अर्थात् उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श आचरण। नवयुग के बारे में इन मनीषियों की सर्व सम्मत मान्यता है अगले दिनों सभी एक साथ मरेंगे, एक साथ जियेंगे, हिल-मिलकर काम करेंगे और मिल-बाँटकर खायेंगे। न गरीबी रहेगी और न असमानता। भेद मिटेंगे और एकत्व बढ़ेगा। संयोजकों ने परामर्श तो शासकों को भी दिया है किन्तु आशा प्रतिभावान उदार चेताओं से ही की है कि नवसृजन में उन्हीं की भूमिका प्रमुख होगी। प्रयत्नों के पीछे उद्देश्य की उत्कृष्टता, कर्ताओं की नीति निष्ठा और प्रयास की व्यापकता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहनी चाहिए।

संकेत सभी ओर से यही मिलते हैं कि प्रस्तुत बेला युग परिवर्तन की है जागरूकता की अपेक्षा ऐसे समय में समझदारों से ही की जाती है ऐसे प्रयास महाकाल की ओर से तो चल पड़े है, पर सहगामी होना है कि नहीं यह मनुष्य पर, उसके चिन्तन पर निर्भर है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

146. नशाः एक घातक दुर्व्यसन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

दुर्व्यसनों में यों तो कहने को कई ऐसे है जो छिटपुट रूप में विभिन्न वर्गों में प्रचलित है, पर जन साधारण तक दो ही प्रमुखतः पहुँच पाए है। ये है तम्बाकू एवं शराब। छिटपुट में अफीम, गाँजा, चरस हशीश, कोकीन, एल. एस. डी. एवं अन्य मादक औषधियों का दुरुपयोग आता है। जितना अधिक विरोधी प्रचार एवं हानियों का वर्णन तम्बाकू सेवन का किया गया है सम्भवतः किसी अच्छी लाभदायक वस्तु का विधेयात्मक रूप में भी न किया गया होगा। फिर जन मानस में इसकी जड़ें कितनी गहरी है इसका एक अनुमान कुछ आँकड़े देते हैं।

भारत में कुल 4 लाख 1 हजार हेक्टेयर भूमि में तम्बाकू की खेती होती है एवं सरकारी आँकड़ों के अनुसार हमारे यहाँ प्रति वर्ष साढ़े पाँच लाख टन तम्बाकू पैदा की जाती है। 8 लाख व्यक्ति इसके उत्पादन में सक्रिय रूप से लगे हैं, एवं 20 लाख अन्य इस उद्योग के माध्यम से रोजी कमाते हैं। भारत की तम्बाकू की पैदावार सारे विश्व की तम्बाकू की कुल आठ प्रतिशत है। भारत में 17 करोड़ सिगरेटों एवं 44 करोड़ बीड़ियों का उत्पादन प्रतिदिन होता है। सारे विश्व में 23 खरब 82 अरब सिगरेट प्रतिवर्ष एवं भारत में 70 अरब सिगरेट प्रतिवर्ष तैयार की जाती है। इनकी खपत भी इतनी तेजी से होती है कि फैक्ट्री में इनकी माँग सतत बनी रहती है। जब एक सैम्पल सर्वे विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक टीम द्वारा किया गया तो पता चला कि एक दो लाख की आबादी वाले भारतीय शहर में 2 करोड़ 70 लाख सिगरेटों एवं 5 करोड़ 12 लाख बीड़ियों की खपत प्रतिदिन विक्रेताओं के माध्यम से होती है। यह सब उस वैधानिक चेतावनी के बावजूद है जो, हर सिगरेट के पैकेट पर अंकित रहती है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

एक पौण्ड तम्बाकू में निकोटीन नामक जहर की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी मात्रा 1/३८०० गुनी मात्रा (करीब ६ मिलीग्राम) एक कुत्ते को तीन मिनट में मार देती है। प्रेक्टिशनर पत्रिका के अनुसार कैंसर (श्वाँस संस्थान का) से मरने वालों की संख्या ११२ प्रति लाख उनकी है जो धूम्रपान करते हैं ।। जो इस दुर्व्यसन के आदी नहीं, इनमें से कैंसर से मरने वालों की संख्या प्रति लाख मात्र १२ है। आई. सी. एम. आर. की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार मुँह एवं गले के कैंसर के रोगी भारत में अन्य देशों की अपेक्षा ५० गुनी अधिक है। इसका कारण है-तम्बाकू का विभिन्न रूपों में प्रयोग। ज्ञातव्य है कि भारत में तम्बाकू न केवल बीड़ी सिगरेट के रूप में अपितु सुरती, नसवार, हुक्का आदि अनेकानेक रूपों में प्रचलित है। एक अनुमान है कि भारत की शहरी आबादी (करीब १३.५ करोड़) में से करीब ३ करोड़ विभिन्न रूपों में तम्बाकू, जर्दा, चुरुट, सिगरेट, बीड़ी एवं ग्रामीण आबादी (करीब ५४.५ करोड़) में से करीब १५ करोड़ व्यक्ति, जिनमें खेत पर काम करने वाली मजदूर स्त्रियाँ व १२ वर्ष के छोटे बच्चे भी शामिल हैं-बीड़ी, सुरती, हुक्का आदि के रूप तम्बाकू से जुड़े हुए हैं। आश्चर्य इस बात का है कि इतनी बड़ी संख्या जो कि भारत की जनसंख्या का करीब एक तिहाई हैं, एक ऐसे नशे के चंगुल में है जो धीरे-धीरे उनकी सम्पत्ति, तन्दुरुस्ती एवं खुशहाली को अपने चंगुल में लेता चला जा रहा है, फिर भी किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।

राष्ट्रीय अर्थ नीति ने भी तम्बाकू को एक कैश क्राप माना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय के विरुद्ध अमेरिका के खाद्य संगठन ने तम्बाकू की खेती को काफी बढ़ावा दिया है। अकेले विकासशील राष्ट्रों में १९७९-१९८० वर्ष में इससे होने वाली आय ८ अरब ६४ करोड़ रुपये थी।

ब्रिटिश अमेरिकी टोबेको कम्पनी की रिपोर्ट के अनुसार तम्बाकू की खपत प्रतिवर्ष आठ प्रतिशत बढ़ रही है। गत वर्ष का एक रोचक आँकड़ा है कि सिगरेट कम्पनियों ने विज्ञापन पर ४२ करोड़ २० लाख डालर खर्च किये जबकि कैंसर सोसायटी को शोध कार्य के लिए एक सिगरेट विरोधी अभियान के लिए मात्र १ करोड़ डालर का अनुदान मिला। चूँकि सिगरेट नाम काफी बदनाम हो गया है, पाश्चात्य जगत में स्मोक लेस टोबेको को हानि रहित का जामा पहनाकर नसवार एवं सुरती की खपत काफी हो रही है।

यह सभी भली-भाँति जानते हैं कि नशे न किसी प्रकार के पोषक टानिक हैं न ही मानसिक क्षमता बढ़ाने वाले। ये तो एक प्रकार के हलके विष है जो तात्कालिक स्फूर्ति एवं क्षणिक मानसिक उत्तेजना मात्र देते हैं। इसी को आधार मानकर व इसी लाभ के गुण गाकर थकान मिटाने, बोरियत भगाने के नाम पर इनका सेवन किया जाता है। यहाँ तक कि इसे प्रगतिशीलता का चिन्ह मान लिया गया है। जहाँ-जहाँ सम्पत्ति बढ़ी है एवं औद्योगीकरण, शहरीकरण बढ़ता चला गया है, ये दुर्गुण कई गुने बढ़े हैं। नशेबाज धन खोता है, जीवनी शक्ति खोता है। दरिद्रता उससे आ लिपटती है एवं बीमारियाँ पीछा नहीं छोड़ती। मनोबल, दूरदर्शिता, बुद्धि कौशल, धैर्य, साहस जैसी मानसिक विशेषताएँ बेतरह नष्ट होती चली जाती है। परिवार अस्त-व्यस्त हो जाते हैं एवं इसका प्रभाव पूरे समाज राष्ट्र पर पड़ता है। विकृत एवं गई गुजरी परिस्थितियों में पड़े व्यक्ति समाज में जो विग्रह उत्पन्न करते हैं, उससे अपराध, अनाचारों की ही वृद्धि होती है। इसीलिये नशेबाजी जैसी समस्या से इस राष्ट्र का हर व्यक्ति जुड़ा हुआ है क्योंकि वह भी समाज का एक अंग है।

यदि वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय हानियों के आर्थिक एवं स्वास्थ्य परक पक्ष को ही फैलाया जाए तो मात्र तम्बाकू जैसे दुर्व्यसन से ही होने वाली हानि को देखकर आँखें चकाचौंध हो जाती है। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में धूम्रपान करने वालों में ७२ प्रतिशत बीस वर्ष की अवस्था से पूर्व ही धूम्रपान शुरू कर देते हैं जिस पर न्यूनतम २० रुपये से लेकर अधिकतम १०० रुपये मासिक खर्च होता है। यदि भारत की कुल जनसंख्या में से करीब २५ प्रतिशत को तम्बाकू का किसी रूप में सेवन करते मान लिया जाये, जैसा कि पूर्व वर्णित आँकड़ों में उद्धत है, तो करीब १७ करोड़ व्यक्ति औसतन ६० रुपया प्रतिमाह मात्र विभिन्न रूपों में तम्बाकू खरीदने में खर्च करते हैं। यह राशि कुल मिलाकर १ खरब २ अरब रुपये प्रति माह आती है। इस राशि को उस राशि से अलग माना जाना चाहिये जो कि इस उद्योग में पूर्व से ही लगी हुई है। प्रतिवर्ष इस प्रकार करीब सवा बारह खरब रुपया नशे की होली में फूँक दिया जाता है। इस राशि को यदि उपयोगी उद्योगों में लगा दिया गया होता तो देश में चारों ओर खुशहाली दिखाई देती। इस राशि से यदि भारत के पौने दो करोड़ बेरोजगारों के लिए काम के अवसर निकाल लिए गये होते तो इतनी बड़ी जनशक्ति का अपव्यय न हुआ होता।

तम्बाकू सेवन का स्वास्थ्य सम्बन्धी एक पक्ष ऐसा भी है जो अपनी स्थूल प्रतिक्रियाओं के रूप में प्रत्यक्ष सामने दिखाई देता है। करीब डेढ़ लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष धूम्रपान अन्य रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। इनकी बीमारी पर यदि प्रति व्यक्ति चिकित्सा, आहार, सेवा-सुश्रूषा का अन्दाज लगाया जाए तो करीब १५ करोड़ रुपया राष्ट्र का प्रति वर्ष इसी में नष्ट हो जाता हैं। इन बीमारियों के कारण १०,००० पलंग अस्पतालों में हमेशा घिरे रहते हैं एवं सैकड़ों मजदूरों को व्याधि के कारण काम तथा कल कारखानों पर अनुपस्थिति से देश को २७० करोड़ रुपये प्रतिवर्ष हानि उठानी पड़ती है।

भारत की एक सिगरेट पीने वाले की आयु में ५ मिनट कम कर देती है। २० सिगरेट अथवा १५ बीड़ी प्रतिदिन पीने वाला एवं करीब ५ ग्राम सुरती, खैनी आदि के रूप में तम्बाकू खाने वाला व्यक्ति अपनी आयु में से १० वर्ष कम कर लेता है। जितने भी वर्ष वह जीता है असंख्य व्याधियों से ग्रस्त होकर समाज के लिए एक भार बनकर ही जीता है। एक माह में यदि वह औसतन पचास रुपये इस व्यसन के लिए खर्च करता है तो उसकी शेष आयु में से उसकी व्याधि चिकित्सा पर होने वाला खर्च अनुमानतः १०० रुपये प्रति माह आता है जो उसको समाज को एवं राष्ट्र को वहन करना पड़ता है।

सिगरेट-बीड़ी पीने से मृत्यु संख्या न पीने वालों की अपेक्षा ५० से ६० वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में ६५ प्रतिशत अधिक होती है। यही संख्या ६० से ७० वर्ष की आयु में बढ़कर १०२ प्रतिशत हो जाती है। सिगरेट-बीड़ी पीने वालों को होने वाली मुख्य व्याधियाँ जिनके कारण या तो वे शीघ्र ही मृत्यु की गोद में जाते हैं अथवा धीमी मौत मरते हुए लाश जैसा जीवन जीते हैं जैसे मुँह, श्वास नली, फेफड़ों का कैंसर, क्राॅनिक ब्रोंकाइटिस एवं दमा, फेफड़ों की टी.बी. (क्षयरोग), रक्त कोशिकावरोध (बर्जर डीसिज) जिसके कारण १० प्रतिशत रोगियों की प्रारम्भ में अथवा आगे पैरों को कटवाना पड़ता है, दृष्टि सम्बन्धी दोष, हृदय रोग एवं जल्दी ही आ जाने वाला बुढ़ापा।

भारत में मुँह का, जीभ का एवं ऊपरी श्वाँस तथा भोजन नली (नेजोफेरिंक्स) का कैंसर सारे विश्व की तुलना में अधिक पाया जाता है। इसका कारण बताते हुए एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका लिखता है कि यहाँ तम्बाकू चबाना, पान में जर्दा, बीड़ी अथवा सिगरेट को उल्टी दिशा से पीना (रिवर्स स्मोकिंग) एक सामान्य बात है। तम्बाकू में विद्यमान कार्सिनोजनिक १ दर्जन से भी अधिक हाइड्रोकार्बन्स जीवकोषों की सामान्य क्षमता को नष्ट कर उन्हें गलत दिशा में बढ़ने को विवश कर देते हैं जिसकी परिणति कैंसर की गाँठ के रूप में होती हैं।

जिस समय तक ऐसा रोगी विशेष कर ग्रामीण जनसंख्या का जो करीब ५४ करोड़ है, का एक अंग चिकित्सक के पास तब पहुँचता है, जब स्थिति काबू के बाहर हो जाती है। प्रतिवर्ष कैंसर निदान केन्द्रों में ऐसे २ लाख ७० हजार रोगियों का निदान किया जाता है जिनमें से २ लाख पता लगने के १ वर्ष के भीतर ही मृत्यु की गोद में चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त तम्बाकू के धुएँ से निकोटीन जहर के कारण होने वाली व्याधि जब फेफड़ों के कैंसर को जन्म देती है तो निदान के ६ माह के भीतर ही व्यक्ति मौत की गोद में चला जाता है। फेफड़ों के कैंसर में पिछले १५ वर्षों में ११३ प्रतिशत वृद्धि आँकी गई है।

कैंसर के बाद दूसरा मुख्य रोग है क्रानिक बोंकाइटिस, एम्फीजिमा एवं दमा। तीनों ही परस्पर सम्बन्धित हैं। इन रोगों का बाहुल्य विशेषकर पिछले वर्षों में देखने में आया है। ४५ वर्ष से ६५ वर्ष की उम्र की वय सीमा वाले व्यक्तियों में इस एक शताब्दी में ही दमे की ४०० प्रतिशत वृद्धि हुई है। इस रोग से मरने वाले धूम्रपान से मरने वालों की तुलना में ६ गुने अधिक हैं। जब ऐसे व्यक्तियों के फेफड़ों की कार्य क्षमता का अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि इनमें इन सभी मानकों का अनुपात काफी कम होता है।

धूम्रपान छोड़ने से प्रतिमाह औसतन १०० से ३०० की अतिरिक्त बचत के अलावा खोये स्वास्थ्य की प्राप्ति, मानसिक प्रसन्नता कुछ ऐसे अनुदान हैं जिनकी जानकारी हर धूम्रपान प्रेमी को करानी चाहिए। नित्य प्रतिक्षण होने वाली हानि की जानकारी एवं इसके निवारण हेतु उठाये गये कदम व्यक्ति को किस प्रकार लाभ पहुँचा सकते हैं, यह जानना बहुत जरूरी है।

इसी प्रकार टी. बी. (क्षयरोग), बर्जरडीसिज, दृष्टिदोष, हृदय रोग ऐसी व्याधियाँ है जो अन्ततः मारक ही सिद्ध होती है अथवा ऐसा अपंग पराश्रित बनाकर छोड़ती हैं कि उसे प्रत्यक्ष नारकीय जीवन ही कहा जाना चाहिये।

मात्र यही पक्ष नहीं कुछ तथ्य और भी ऐसे हैं जो समाज को सीधे प्रभावित करते हैं। खेत से काटी गई तम्बाकू की कच्ची पत्तियाँ पहले आग में सुखाकर कड़क बनाई जाती हैं। हर ३०० सिगरेटों की तम्बाकू को पकाने के लिये एक भरा-पूरा पेड़ जलाकर राख कर दिया जाता है। १ एकड़ की तम्बाकू की फसल को पकाने के लिये प्रति वर्ष एक एकड़ का हरा-भरा जंगल जलाकर धुँआ कर दिया जाता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार ३,६३,९०० टन प्रतिवर्ष तम्बाकू उत्पादन हेतु १२ लाख ८६ हजार भूमि में विद्यमान जंगलों को मात्र भारत में वृक्ष विहीन कर दिया गया। जैसे-जैसे सिगरेटों की खपत बढ़ी वैसे जंगल नष्ट किये जा रहे हैं, जिसका वर्तमान ऊर्जा संकट के समय में न केवल एक गरीब के चूल्हे की लकड़ी को चुराती है अपितु प्रदूषण वृद्धि, पर्यावरण असन्तुलन में योगदान देकर उसके स्वास्थ्य, धन एवं परिवार की प्रसन्नता को भी चौपट कर देती है।

जब तक इस प्रचलन के विरोध में एक व्यापक आन्दोलन खड़ा न किया जायेगा, इसके प्रति लोगों के मन में घृणा उत्पन्न करना दुष्कर ही लगता है। बीड़ी विरोधी जुलूस प्रदर्शन के साथ धूमधाम से उसकी होली जलाना, व्यक्ति से जन समूह के समक्ष प्रतिज्ञा करवाना, बुराइयों की जानकारी हेतु व्यापक प्रचार-प्रसार करना जैसे कुछ ऐसे माध्यम हैं, जिनका उपयोग कर समाज सेवी संगठन इस कार्य में निश्चित ही सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

सिगरेट कम्पनियों के एकमन विरोध व सरकार को तम्बाकू व टैक्स से प्राप्त असीम आमदनी के बावजूद एक विशाल जनमत पिछले दिनों अमेरिका में तैयार किया गया। समाज सेवी संगठनों द्वारा संचालित इस आन्दोलन ने ऐसा व्यापक स्वरूप लिया कि अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। वहाँ उत्पादन पर नियन्त्रण लगा दिया गया हैं एवं इनके किसी भी प्रकार से विज्ञापन पर (टी.वी., सिनेमा, समाचार पत्र आदि) प्रतिबन्ध भी है। यह तो सरकार द्वारा लिये गये कदमों का एक सशक्त स्वरूप हुआ। पर इसके लिये जनशक्ति को भी आगे आना होगा। मनुष्य को यह जानना होगा कि अर्थ, श्रम, कौशल, शिक्षा, स्वास्थ्य का एक समग्र स्वरूप ही व्यक्ति की आन्तरिक एवं बाह्य सम्पन्नता का निर्धारण करता है। यदि दुर्व्यसनों से मुक्ति न पाई गई तो ये सभी छिनते चले जायेंगे एवं अन्त बुरा ही होगा।

मानसिक गिरावट स्वास्थ्य के लिये हानि, आर्थिक घाटा, सन्तान पर घातक प्रभाव, परिवार एवं समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव तथा पर्यावरण में असन्तुलन ये सभी पक्ष आँकड़ों के साथ इसी तथ्य का समर्थ प्रतिपादन करते हैं कि तम्बाकू सेवन जैसे व्यसन से समाज को निश्चित ही मुक्त किया जाना चाहिए। इसके लिये लोक शिक्षण, जन प्रचार, प्रदर्शनी आदि जो भी माध्यम अपनाये जायें, प्रयुक्त होना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

147. सृजन के साथ ध्वंस की अनिवार्यता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

युग परिवर्तन की इस प्रभात बेला के आरम्भ में कष्ट कठिनाइयों की घटाएँ घुमड़ती दिखाई देती हैं। प्रकृति प्रकोप आकाश में बिजली की तरह तड़पते, चमकते और उठते देखे जा सकते हैं। मनुष्य की अपनी दुर्बुद्धि का परिपाक दुष्प्रवृत्तियों में हो रहा है और उसके फलस्वरूप परिस्थितियाँ विषम और जटिल होती चली जाती है। समूहगत अनाचार से विग्रहों और समस्याओं की उत्पत्ति बरसाती कृमि-कीटकों की तरह हो रही है। वे त्रास देते हैं, उनसे बचने और भागने के प्रयत्नों में भी कोई कमी नहीं रहने दी जाती। इतने पर भी उनका उपद्रव और आतंक बना रहता है। न मच्छर मरते न मक्खी पतंगों से छुटकारा मिलता है। हर क्षेत्र में बढ़ते हुए विग्रहों और संकटों को इसी रूप में देखा जा सकता है।

नव सृजन की इस पुण्य बेला में इस कष्ट प्रक्रिया को उभरते देखकर एक बार तो निराशा होती है कि कठिनाइयों के समाधान में राहत कार्य होने चाहिए थे। भगवान को सुख सुविधाओं की वर्षा करनी चाहिए थी और अनुग्रह के साथ-साथ सुविधाएँ बढ़ानी चाहिए थी, पर हो ठीक उलटा रहा है। वह युग सृजन कैसा, जिसमें विपत्तियाँ बढ़ती चली जायें। इस असमंजस का समाधान पाने के लिए सृष्टा की क्रिया पद्धति को समझना होगा। भवन बनाने का स्पष्ट उद्देश्य निवास के लिए सुखद आच्छादन उपलब्ध करना है। इमारतें जमीन से ऊँची उठती है फिर भी उनका शुभारम्भ कुछ ऐसा अटपटा होता है कि प्रत्यक्षदर्शी को उल्टी क्रिया एवं नासमझी अपनाई गई प्रतीत होती है। नींव खोदने से गहरा गढ्ढा बढ़ता जाता है। जो मिट्टी जमी हुई थी उसे भी उखाड़ा और फेंका जाता है। जबकि आवश्यकता तो ठीक उल्टी थी। बाहर से ईंट गारा लाकर जिस जमीन पर जमाने से ही भवन निर्माण की बात बनती, पर यहाँ तो समतल भूमि को भी खोदने का उपक्रम चल रहा है। इसमें तो घाटा ही घाटा है। खोदने और फेंकने का श्रम तो बेकार जाना ही है। इस गढ्ढे को पाटने के लिए पहले जैसी समतल स्थिति तक पहुँचने के लिए उस गढ्ढे में व्यय साध्य सामान लगाना और जमाना पड़ेगा। यह दुहरी मूर्खता हुई। इससे तो अच्छा रहता है कि नींव खोदने और उस पर नया जमाने जैसा व्यर्थ का झंझट मोल न लिया जाता और जैसी कुछ जमीन थी उसी पर दीवार चुनना आरम्भ कर दिया जाता। सामान्य बुद्धि इतना ही सोच सकती है।

इतने पर भी विज्ञजनों को वस्तुस्थिति को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। वे जानते हैं कि सुदृढ़ भवन को बनाने के लिए नींव मजबूत होनी चाहिए अन्यथा इमारत का वजन बढ़ते ही जमीन में धँसने लगेगी। दीवारें फटने और गिरने लगेंगी। फलतः इस निर्माण में जो श्रम और धन लगा था वह निरर्थक चला जाएगा। अपयश और पश्चाताप सहना पड़ेगा सो अलग।

भगवान् एक नया भवन बना रहे हैं और युगसंधि की इस बेला में नींव खोदने और मजबूत मसाला भरने का उपक्रम कर रहे हैं। भगवान इन दिनों बहुमूल्य फसल उगाने के लिए सुविस्तृत योजना बना रहे हैं। उन्हें भूमि को जोतने का परिश्रम करना पड़ रहा है। समतल को ऊबड़-खाबड़ बनाना और संचित सम्पदा को बाहर फेंकने का उन्माद उन पर नहीं छाया है, पर किया क्या जाय। कंकड़ पत्थरों और ठूँठ ठूँठों के रहते नये पौधों को जड़ जमाने का अवसर कैसे मिले? अतएव अप्रिय और अनावश्यक लगने वाली प्रक्रिया भी उन्हें अपनानी पड़ रही है। यों हर कोई सृजन में प्रसन्नता और ध्वंस में खिन्नता अनुभव करता है। भगवान को भी प्रथमतः ऐसा ही लगता होगा, पर कई बार प्रिय के लिए अप्रिय को अपनाना भी तो आवश्यक हो जाता है।

कष्ट से कराहता हुआ रोगी अस्पताल पहुँचता है, उसे अपेक्षा रहती है कि वहाँ पहुँचते-पहुँचते दयालु डाक्टर उसका कष्ट तत्काल दूर कर देंगे। पर भर्ती होने के उपरान्त कुछ दूसरा ही दृश्य उपस्थित होता है। आपरेशन की तैयारी होती है। फाड़-चीर के सरंजाम किए जाते हैं। रोगी के शरीर में से चमड़ी और माँस काटा जाता है, रक्त बहता है और डाक्टरों की क्रिया ऐसी दीखती है जिसे निर्दय हत्यारे अपनाया करते हैं। प्रत्यक्षदर्शी को तात्कालिक घटनाक्रम का अनुमान लगाने पर इतना ही प्रतीत होता है कि अस्पताल और डाक्टर के सम्बन्ध में यह सोचना गलत है कि यहाँ राहत मिलती और दयालुता बरती जाती है। बेचारे कष्ट पीड़ित को राहत पहुँचाना तो दूर यहाँ तो ठीक उल्टा व्यवहार किया गया, इस दृष्टि से देखने और इस बुद्धि से सोचने वालों को चिकित्सकों की, अस्पताल बनाने वालों की सदाशयता पर सन्देह ही हो सकता है।

यह सन्देह उन्हें नहीं हो सकता है जो गहराई में उतरकर कारण ढूँढ़ते और इस अप्रिय उपचार के पीछे हुई दूरदर्शिता एवं सद्भावना को समझने का प्रयत्न करते हैं। वे जानते है कि फोड़े के भीतर जो मवाद भरा था वहाँ दर्द का प्रमुख कारण था। यदि उसे बाहर न निकाला जाता तो अपने क्षेत्र की अन्य माँस पेशियों को विषाक्त बनाकर गलाने लगता। यों फोड़े पर सुन्न करने की दवा चुपड़कर तत्काल कुछ राहत दी जा सकती थी, पर इससे समस्या का समाधान कहाँ होता। रोगी को चुप कर देना ही तो उपचार नहीं है। इस प्रकार छुपाने पर भी मवाद अवयवों को सड़ाने वाली प्रक्रिया तो जारी ही रहती। फलस्वरूप खतरा बढ़ता ही जाता और प्राण संकट जैसी नौबत आ पहुँचती। इन परिस्थितियों में कुशल चिकित्सक का निर्णय ऑपरेशन की विवशता को अपनाने का ही हो सकता है। इसमें न निर्दयता है न दुर्भावना। अपने बच्चे की स्थिति भी यदि ऐसी होती तो भी डॉक्टर का निर्णय आपरेशन के पक्ष में ही होता। अप्रिय प्रसंगों में भी कई बार दूरवर्ती सुखद सम्भावनाएँ और स्नेहसिक्त सद्भावनाएँ छिपी रहती है।

नव निर्माण की इन आरम्भिक घड़ियों में भी विनाश लीलाओं का बाहुल्य देखा जाता है। समस्याएँ और विपत्तियाँ पहले से ही बहुत थी। उनके हल निकलते और सरलता के साधन बनते तो बात भी थी। पर यहाँ तो कोढ़ में खाज की तरह उल्टी विपत्तियाँ बढ़ रही हैं। यह कैसा नव निर्माण? यह कैसा प्रभु अवतरण? इस असमंजस का समाधान प्राप्त करने के लिए दर्द पीड़ित रोगी के लिए डॉक्टर द्वारा की गई आपरेशन व्यवस्था के साथ संगति बिठाते हुए यह सोचना पड़ेगा कि यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है?

लम्बे अन्धकार युग में कचरा बहुत जमा हो गया है। हर क्षेत्र में गन्दगी चरम सीमा पर पहुँच गयी है। उसे यथावत बनी रहने दिया जाय और सुविधा सम्वर्धन का प्रयत्न चल पड़े तो इससे अभीष्ट परिणाम निकलेगा नहीं। संचित गन्दगी चुप नहीं बैठेगी और अपनी विषाक्तता के दूषण का विस्तार करती रहेगी। यह विनाश क्रम इतना बढ़ा-चढ़ा होगा कि सृजन के लिए किए गए प्रयत्न व्यर्थ ही चले जायेंगे।

रात्रि में कितनी विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं यह सभी जानते हैं, फलतः उठते ही प्रथम कार्य गन्दगी को साफ करना होता है। उठते ही मल-मूत्र त्यागने के लिए दौड़ना पड़ता है। दाँत माँजने पड़ते हैं। स्नान किया जाता है, कपड़े धोते हैं, कमरे में झाड़ू लगती है। नालियों की सफाई होती है, प्रभात काल की प्रथम प्रक्रिया यही है। इसके बाद सुखद व्यवस्थाएँ बनती हैं। रसोईघर गरम किया जाता है और जलपान से लेकर मध्यान्ह आहार तक का बनना प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इससे पहले चौका चूल्हा, बर्तन आदि के धोने-माँजने की व्यवस्था बनाई जाती है। अन्यथा संचित गन्दगी के रहते बनाये हुए भोजन के विषाक्त होने का डर बना रहेगा। बिना मल-मूत्र त्यागे, बिना कुल्ला दातौन किए जो खाना खाने लगते हैं वे भूल जाते हैं मुँह की गन्दगी पेट में पहुँचकर हानि पहुँचा सकती है।

मोटी बुद्धि यही सोच सकती थी कि प्रभात होते ही भोजन, शृंगार, उपार्जन जैसे साधन तत्काल जुटने चाहिए थे, पर अब देखा जाता है कि सब लोग प्रथम काम गन्दगी हटाने का ही समझ रहे हैं और घर की चीजें बाहर पटक रहे हैं तो लगता है इन लोगों पर कही विक्षिप्तता तो नहीं चढ़ दौड़ी? पेट का आहार मल रूप में विसर्जित करना, घर का कूड़ा घूरे पर फेंकना, बासी बचा भोजन कुत्तों को डालना, घड़ों में भरा पानी नाली साफ करने में बहाना यह समस्त गतिविधियाँ ऐसी ही लगती हैं कि उठते ही फेंकने हटाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जैसा सोचा गया था कि प्रभात के साथ-साथ सुखद दृश्य और उपहार उमड़ते चले आवेंगे पर यहाँ तो ठीक उल्टा हो रहा है। यहाँ तो घर के सब लोग गन्दगी से उलझने-सुलझने को ही सर्वप्रथम कार्य मान बैठे हैं।

युग परिवर्तन की सन्धि बेला का प्रभात काल होते ही गन्दगी समेटने की सर्वत्र चलने वाली प्रक्रिया के साथ ताल-मेल बिठाकर सोचा जाना चाहिए। सड़कों पर मेहतर झाड़ू लगाते, नालियाँ साफ करते और कचरा ढोते पाये जाते है पहली धूम शौचालय और स्नान घरों में होती है। शृंगार सज्जा की बात इसके बाद बनती है।

सहस्राब्दियों से चली आ रही तमिस्रा का अब अन्त हो रहा है। ऊषा की लालिमा स्पष्ट है। ऐसे समय में आसमान से फूल बरसने और इत्र छिड़कने की आशा करना अनुचित नहीं है। पर जब दृश्य उल्टा दिखता है तो आश्चर्य होता है। सब जगह गन्दगी ही गन्दगी की धूम। उसे ही हटाना सबका पहला काम बन जाता है तो यह अनुमान लगने में भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि सृष्टा को सर्व प्रथम संचित कचरे को साफ करना उपयुक्त लगता होगा। उसमें उसकी प्रकृति में दुर्गन्ध उड़ाना नहीं वरन् स्वच्छता का सुरुचिकर वातावरण बनाना ही उद्देश्य पाया जा सकता है। प्रिय की स्थापना में अप्रिय का उन्मूलन आवश्यक होता है। यही युगसंधि के प्रथम चरण बढ़ती हुई विभीषिकाओं के सम्बन्ध में भी समझा जा सकता है।

माली का उद्देश्य उद्यान लगाना होता है, फल-फूलों से लदी सुरम्य वाटिका को विकसित करना ही उसका उद्देश्य है। इसी भावना से वह प्रयास में निरत रहता है। हरे-भरे गुल्म पादपों को सुन्दर सुसज्जित बनाना ही उसकी आशा अपेक्षा और कल्पना का केन्द्र बिन्दु रहता है। इसी में उसकी गरिमा है और सफलता भी। यह सब होते हुए भी उसकी दैनिक गतिविधियों को प्रत्यक्षवादी दृष्टि से देखने और निष्कर्ष निकालने पर क्रिया बिल्कुल उल्टी लगती है। उसी बगीचे की भूमि पर उगे हुए अगणित छोटे-छोटे पौधों को वह खर पतवार कह कर निरन्तर निराता-उखाड़ता रहता है। दयालु माली का यह निर्दय कृत्य क्यों? विकास का लक्ष्य रखने वाले द्वारा अपनाई गई यह विनाश लीला क्यों है? जब उगाना ही अभीष्ट है तो उखाड़ने का क्या काम?

सरकार के द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, उत्पादन, सिंचाई आदि के अनेकों उपयोगी कार्य हाथ में लिए जाते हैं, पर साथ ही पुलिस, जेल, फाँसी जैसी ध्वंस प्रयोजनों के लिए उनकी व्यवस्था ढीली नहीं रहती। इस दिशा में उपेक्षा बरती जाए तो दुष्टता के द्वारा इतना विनाश होने लगेगा जितना कि प्रगति के लिए प्रयत्नों से विकास की उपलब्धि भी प्रस्तुत न कर सकेगी।

ऋषियों की जीवनचर्या सदुद्देश्यों के लिए समर्पण भावना पर निर्धारित रहती थी, पर उन्हें भी सुनसान आरण्यकों में धूनी में अग्नि प्रज्वलित रखनी और फरसे पर धार रखनी पड़ती थी। हिंस्र पशुओं के लिए आक्रमण एवं सर्दी से निपटने, झाड़ियों के अवरोध को निरस्त करने के लिए आग का भी उपयोग होता था और शस्त्रों का भी। आस्तिकता और औचित्य की रक्षा के लिए ऋषियों तक को ध्वंस साधनों को प्रयुक्त करना अनिवार्य हो जाता है तो कोई कारण नहीं कि सृष्टा को अपने उद्यान में जो अनपेक्षित है उसे हटाने के लिए उन उपायों को न अपनाना पड़े, जो मोटी दृष्टि से ध्वंस एवं विनाश जैसे प्रतीत होते हैं। संसार शुभ अशुभ के ताने-बाने से बुना है। इसका निर्माण देव और दानव के सम्मिश्रण से हुआ है। ऐसी दशा में एक को हटाने और दूसरे को बढ़ाने का उपक्रम भी अनिवार्य चलता ही रहेगा। सूर्य जहाँ इस जगत का प्राणाधार हैं वहाँ अपनी ऊर्जा से सड़न और सीलन में पलने वाले कृमि-कीटकों का ध्वंस विनाश हर दिन करता है। यदि उसकी यह ध्वंस लीला न चले तो विषाणुओं और कृमि कीटकों की चरम अभिवृद्धि से कुछ ही समय में प्राणियों एवं वनस्पतियों की सत्ता ही इस धरती पर से समाप्त हो जाए। सूर्य जहाँ जीवन देता है वहाँ उसकी विनाश लीला भी कम नहीं वरन् अपेक्षाकृत भारी ही पड़ती है। आलोक और ऊर्जा का वितरणकर्ता अन्धकार और अवसाद का हरण और दमन करने से भी नहीं चूकता।

सृजन का अभिवर्धन तो निश्चित है पर साथ ही यह तथ्य भी समन्वित है कि देवत्व की श्रेष्ठता का ही उन्नयन अभिवर्धन है। जो अवांछनीय है उसका मिटाना और हटाया जाना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि श्रेष्ठता का बढ़ाना। भगवान के अवतारों का उद्देश्य सदा से स्पष्ट रहा है। वे अधर्म का नाश और धर्म का संस्थापन करने की दुहरी भूमिका सम्पन्न करते हैं। लंका की असुरता का विनाश और अयोध्या की सतयुगी संस्कृति का अभिवर्द्धन, यह दोनों ही पक्ष रामावतार में समान रूप से सम्पन्न हुए थे। कृष्णावतार में धरती का बढ़ा हुआ भार उतरा। साथ ही बृज की रक्षा गो सम्वर्द्धन, धर्म की स्थापना एवं सुदामापुरी का काया कल्प जैसे सृजन प्रयोजन भी सम्पन्न हुए। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तक ने जहाँ तान्त्रिक अनाचार का उन्मूलन किया, वहाँ स्नेह सौजन्य की संस्कृति को विश्वव्यापी भी बनाया। गाँधी ने जहाँ अँग्रेजों के आधिपत्य एवं शोषण को निरस्त किया, वहाँ स्वतन्त्र भारत को सुखद सम्भावनाओं का अधिकारी भी बनाया। अवतारों की गतिविधियाँ उभयपक्षीय रही हैं उनकी आधी शक्ति अवांछनीयता से जूझने, उसे निरस्त करने में लगी है और शेष आधी से धर्म संस्थापन का प्रयोजन पूरा किया गया है।

द्रोणाचार्य के हाथों में वेद और कन्धे पर धनुष था। देवता जहाँ असुरों से लड़ते हैं वहाँ भक्त सज्जनों पर अनुग्रह बरसाने में भी निरत रहते हैं। सरकार पुरस्कार भी देती है और दण्ड व्यवस्था भी करती है। इस विश्व व्यवस्था पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से यह स्वाभाविक और आवश्यक लगता है कि श्रेष्ठता के सम्वर्द्धन का दूसरा पूरक पक्ष निकृष्टता का उन्मूलन भी चलता रहे। इन दिनों यही हो रहा हैं, युगसंधि में विभीषिकाएँ काली घटाओं की तरह आकाश में घुमड़ रही है साथ ही उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावनाओं का सुनिश्चित आश्वासन भी मिल रहा है। ऐसा सुनिश्चित जिस पर किसी को भी सन्देह नहीं करना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

148. जनमानस का परिष्कार धर्मतंत्र के मंच से
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलने और उसका सदुपयोग करके जीवन लक्ष्य प्राप्त करने का अवसर अतिशय सौभाग्य माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में प्रमाद करने पर फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। इस शास्त्र प्रतिपादन को ध्यान में रखने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मानव जीवन एक अद्भुत उपलब्धि है और उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में ही होना चाहिए। पेट प्रजनन जैसे पशुकर्मों में उसका न्यूनतम भाग ही लगाना चाहिए।

उपरोक्त सभी दृष्टिकोणों से लोक-मंगल के लिए बढ़-चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करना मनुष्य का परम पवित्र कर्तव्य ठहरता है। पूजा-पत्री के कर्मकाण्डों की टन्ट-घन्ट में मन को इस प्रकार बहकाना उचित नहीं कि नाम रट से पाप कट जायें और ईश्वर मिल जाये। यह सर्वथा निस्सार विडम्बना है जीवन लक्ष्य की पूर्ति और ईश्वर प्राप्ति जैसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए मनुष्य को विश्व मानव की सेवा साधना में संलग्न होना पड़ता है। इस राजमार्ग को छोड़कर और किसी पगडण्डी से जीवनोद्देश्य की पूर्ति हो नहीं सकती। वानप्रस्थ जीवन इसी परमार्थ प्रयोजन की पूर्ति के लिए नियत निर्धारित है। उत्तरार्द्ध आयु को लोकमंगल के लिए समर्पित करके उन महान उत्तरदायित्वों को पूरा किया जा सकता है जो सामाजिक ऋण से उऋण होने के लिए, ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य अनुदान का सही उपयोग करने के लिए और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मिले अलभ्य अवसर का सदुपयोग करने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। यह प्रयोजन लोक-मंगल में ही प्रवृत्त होने से सम्भव हो सकता है। विश्व मानव की सेवा साधना से बढ़कर ईश्वरभक्ति पूजा और नर जन्म की सार्थकता का और कोई मार्ग है भी नहीं। सच पूछा जाय तो ज्ञान साधना और योग साधना की उपयोगिता भी इसी दृष्टि से है कि इन उपायों से परिष्कृत किये गये व्यक्तित्व द्वारा अधिक उच्चस्तरीय सेवा साधना सम्भव हो सके, अधिक उच्च कोटि का आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सके।

स्पष्ट है कि वानप्रस्थ परक परमार्थ जीवन में प्रवेश करने वालों को जहाँ ज्ञान साधना और योग साधना द्वारा आत्मबल सम्पादन करना है, वहाँ लोक-मंगल के लिए अपनी विभूतियों को समर्पित करते हुए विश्व मानव को अधिकाधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाने में निरत निमग्न भी रहना है। जिन्हें सेवा धर्म पर आस्था न हो, मात्र जप तप और निवृत्ति परक एकान्त सेवन अथवा सुख चैन के बिना झंझट भरे दिन काटने हों, उन्हें इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं करना चाहिए। वह स्थिति मरण काल के निकट आ जाने पर थके हारे और अशक्त असमर्थ लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकती है। इसे वैराग्य निवृत्ति संन्यास आदि अन्य किसी नाम से भले ही पुकारा जाय पर तेजस्वी वानप्रस्थ के साथ तो नहीं ही जोड़ा जा सकता।

मनुष्य को जहाँ समाज प्रदत्त अगणित सुख सुविधाएँ उपलब्ध है, वहाँ उसे इस उत्तरदायित्व से भी लाद दिया गया है। वह सामाजिक उत्कर्ष के लिए बढ़-चढ़ कर अनुदान प्रस्तुत करे और लोक सेवा की दृष्टि से इतना कुछ कर दिखाये, जिससे उस पर चढ़ा हुआ भारी ऋण किसी न किसी प्रकार चुकता अथवा हलका हो सके। जो इस उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता है वह समाज द्रोही कहा जा सकता है।

अध्यात्म के दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर देखा जाय तो मनुष्य को जो कुछ विशेषताएँ अन्य प्राणियों से अधिक दी हैं वे विशुद्ध रूप से एक अमानत हैं। परमात्मा के सभी प्राणी समान रूप से पुत्र और प्रिय हैं। सब को समान अनुदान देना उसके लिए सामान्य न्याय था। पर मनुष्य को सबसे अधिक विभूतियाँ मिली हैं, उन्हें मौज मजा करने के लिए दिया गया पक्षपात पूर्ण उपहार नहीं माना जाना चाहिए वरन् ऐसी पवित्र अमानत माना जाना चाहिए जिसका उपयोग विश्व वसुधा को समुन्नत और सुविकसित बनाने में ही किया जाना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी के रूप में इसीलिए सृजा है कि विश्व व्यवस्था में उसकी अति महत्त्वपूर्ण भूमिका एवं उपयोगिता संभव हो सके।

वानप्रस्थ को लोकसेवा के जिस क्षेत्र को हाथ में लेना पड़ता है वह जन मानस का भावनात्मक परिष्कार ही है। स्पष्ट है कि संसार की समस्त समस्याएँ मानवी चिन्तन की विकृतियों ने ही उत्पन्न की हैं। उनका समाधान आज या हजार वर्ष बाद जब भी होगा, लोकप्रवृत्तियों के अधोगामी प्रवाह को उलट कर ऊर्ध्वगामी बनाने से ही सम्भव होगा। भौतिक सम्पदाएँ एवं सुविधाएँ चाहे कितनी ही क्यों न बढ़ा ली जाय यदि दृष्टिकोण में विकृतियाँ भरी होगी तो बढ़ी हुई सम्पदा विनाश सर्वनाश के सरंजाम में ही बढ़ोत्तरी करेगी, सर्वनाश का दिन ही निकट लावेगी। इसलिए धन वैभव की, भौतिक सुख सुविधाओं की अभिवृद्धि का कार्य दूसरे लोगों पर छोड़कर वानप्रस्थ को एक ही अछूता काम हाथ में लेना चाहिए कि उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के लिए आवश्यक वातावरण एवं उत्साह किस प्रकार उत्पन्न किया जाय। ज्ञान यज्ञ एवं विचार क्रान्ति इसी प्रक्रिया को कहा जा सकता है। यह नींव यदि ठीक तरह भर ली जाय तो नवयुग निर्माण का भवन खड़ा करने की आधी समस्या सुलझ जायेगी। तब अनायास ही अगणित रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रिया कलाप उठ खड़े होंगे और अधर्म के उन्मूलन एवं धर्म के संस्थापन का ईश्वरीय प्रयोजन सहज ही पूरा करेंगे।

लोकशक्ति की प्रचण्डता और प्रखरता का हमें अनुभव करना होगा और संघबल उत्पन्न करके उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में संलग्न करना होगा। यह कार्य इतना महान और इतना समर्थ है, जिसकी तुलना अपराजेय महादैत्य से ही की जा सकती है। जनशक्ति का देव दानव जिस मोर्चे पर भी डट जायेगा उसे जीत कर ही छोड़ेगा। उसके सामने बड़ी से बड़ी शक्ति को भी झक मारनी पड़ती है।

दुर्गा अवतरण की कथा प्रसिद्ध है। असुरों के मुकाबले जब देव हारने लगे तब प्रजापति ने देवताओं को एकत्रित करके उनकी शक्ति का एक-एक अंश इकट्ठा किया, उस संचय से दुर्गा विनिर्मित कर दी। दुर्गा ने अपने प्रचण्ड पराक्रम से देखते-देखते शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर, मधुकैटभ जैसे दुर्दान्त दैत्यों का उन्मूलन करके रख दिया। इस प्रकार देवताओं का संकट दूर हुआ। ठीक इसी प्रकार की त्रेता कालीन कथा वह है जिसमें असुरों से संत्रस्त ऋषियों ने अपना रक्त एकत्रित करके एक घड़े में बन्द किया और जमीन में गाड़ दिया। राजा जनक का हल उस घड़े से टकराया और उसमें से सीता नामक बालिका निकली। विख्यात है कि सीता के कारण ही लंका काण्ड प्रस्तुत हुआ और असुरों का समग्र निराकरण सम्भव हो गया। यह कथाएँ संघ शक्ति की प्रचण्डता का रहस्योद्घाटन करती हैं और बताती हैं कि बड़े से बड़े संकट विग्रह संघशक्ति के सामने धराशायी होकर रहते हैं।

इतिहास के पृष्ठ इस तथ्य के प्रतिपादन से रंगे पड़े हैं। रीछ वानरों द्वारा समुद्र का पुल बाँधना और प्रतापी दानवों का परास्त किया जाना वस्तुतः जनशक्ति की ही विजय है। ग्वाल बालों की लाठी का सहारा लेकर कृष्ण ने उँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाया था। भगवान बुद्ध के ढाई लाख शिष्य समस्त विश्व में प्रव्रज्या के लिए निकले थे और व्यापक अहिंसा पर विजय प्राप्त करके धरती के कोने-कोने में अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठापना की थी। गाँधी की सत्याग्रही सेना ने प्रतापी अँग्रेजी सल्तनत की पाताल तक गहरी जमी हुई जड़ों को उखाड़ कर किस चमत्कारी ढंग से फेंका इसका विवरण विश्व विख्यात है। फ्रांस की, रूस की, चीन की, अमेरिका की, आयर लैण्ड की, इटली की राज्य क्रान्तियों के इतिहास जिनने पढ़े हैं, उन्हें भली प्रकार विदित है कि साधन सम्पन्न सरकारें किस प्रकार जनशक्ति की टक्कर के सामने बालू के महल की तरह धराशायी हो गई। तब से लेकर अब तक न जाने कितने ताज तख्तों को संगठित जनता ने गेंद की तरह उछाल कर कूड़े करकट के ढेर में फेंक दिया है। भारत के राजाधिराजाओं की कैसी दुर्गति हुई, यह देखकर कोई भी यह अनुमान लगा सकता कि भगवान के बाद दूसरी समर्थ सत्ता के रूप में जनशक्ति की ही गणना की जा सकती है। अन्य पार्टियों के मुकाबले में काँग्रेस के हाथों शासन सौंपने का श्रेय जनमत को ही है। यदि वह चाहे तो उसे गद्दी से उतार कर किसी को भी बिठा सकता है।

यह तो राजनीति एवं शासन सत्ता के संदर्भ में जनशक्ति की चर्चा हुई। वानप्रस्थी परमार्थ जीवन की दिशा राजनीति नहीं समाज संरचना है, बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष है। सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन एवं सर्वतोमुखी विकृतियों का उन्मूलन अपना लक्ष्य है। इस प्रयोजन के लिए भी जनशक्ति को ही उभारने, सुधारने और दिशा देने की आवश्यकता पड़ेगी। युग निर्माण जैसे महान प्रयोजन की अगणित आवश्यकताओं की पूर्ति लोकशक्ति को साथ लिये बिना और किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। इसलिए वानप्रस्थी सेवा साधना में जन सम्पर्क बढ़ाना जीवन्त एवं भावनाशील व्यक्तित्वों को ढूँढ़ना, उन्हें दिशा देना, साथ लेना और नव निर्माण में संलग्न कर देना यही है समग्र क्रिया पद्धति, जिसमें लोक मंगल के समस्त आधारों को सन्निहित समझा जा सकता है।

धर्म के प्रति जन आस्था की जो थोड़ी सी संलग्नता है उसका चमत्कार आँखों के सामने हैं। कुछ समय पूर्व इस देश में ५६ लाख धर्म व्यवसायी थे, नई जनगणना के अनुसार वह संख्या ८० लाख हो गई। जनगणना में जिन्होंने धर्म को व्यवसाय कोष्ठक में नहीं लिखाया है, जिनकी आधी चौथाई आजीविका इसी क्षेत्र से चलती है, उनकी संख्या भी इससे कम नहीं हो सकती है। इस प्रकार पूरे अधूरे धर्म व्यवसायी लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ तक जा पहुँचती है। जनता किसी दबाव जबरदस्ती से नहीं, वरन् स्वेच्छा और प्रसन्नता पूर्वक इनका व्यय भार वहन करती है जो सहज ही न्यूनतम पाँच करोड़ रुपया प्रतिदिन जा पहुँचता होगा। पाँच करोड़ प्रतिदिन अर्थात् वर्ष में १८०० करोड़, १८० अरब। कितनी बड़ी धनराशि है यह। यह तो धर्मक्षेत्र में संलग्न मनुष्यों का निर्वाह व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त लगभग १ लाख मन्दिरों का खर्च, तीर्थ यात्राओं में खर्च होने वाली विपुल धनराशि भी कम से कम इतनी तो होगी ही। इस प्रकार वह राशि ३६० अरब वार्षिक हो जाती है। सोमवती अमावस्या पर गंगा जमुना इन दो नदियों के स्नान को ही लें उनके उद्गम से लेकर विलय स्थान तक कम से कम एक करोड़ व्यक्ति तो अवश्य ही उस पर्व पर स्नान करने जाते होंगे। एक व्यक्ति के ऊपर मार्ग व्यय, काम का हर्ज, भोजन, दान पुण्य आदि का खर्च बीस रुपया भी जोड़ा जाय तो एक करोड़ व्यक्तियों पर बीस रुपये के हिसाब से २० करोड़ रुपया होता है। ऐसी ऐसी चार पाँच सोमवती अमावस्याएँ वर्ष में पड़ती है उनका खर्च १ अरब तक जा पहुँचता है। इसके अतिरिक्त कथा, कीर्तन, यज्ञ, समारोह, भोज भण्डारों आदि का हिसाब तैयार किया जाय तो वह राशि न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचेगी। इस प्रकार देखने पर उपेक्षित जैसा लगने वाला धर्मक्षेत्र ही इतनी धन सम्पत्ति खर्च करा लेता है, श्रम और समय लगा लेता है जितना कि तरह तरह के दबाव डालने वाली सुसंगठित सरकार भी लगा नहीं पाती। सरकारी टैक्स लोग कुड़कुड़ाते हुए देते हैं, पर धर्म टैक्सों को स्वेच्छा से देते हैं और पास में न होने पर कर्जा उधार करके भी लगाते हैं।

यहाँ धर्म के नाम पर लगने वाले धन और श्रम का समर्थन खण्डन नहीं किया जा रहा है सिर्फ यह बताया जा रहा है कि लोक रुचि की एक लहर कितने प्रचुर साधन बात की बात में प्रस्तुत कर सकती है। तम्बाकू, चाय और सिनेमा जैसे व्यसनों में जितना पैसा और श्रम लगता है उसकी नाप तौल भी धर्म एवं शासन पर पड़ने वाले खर्च के ही समतुल्य आँकी जा सकती है। यह लोक रुचि की प्रतिक्रिया का परिचय मात्र है। यदि इसी लोक रुचि को अभिनव सृजन की दिशा में मोड़ा जा सके, तो जो कार्य असम्भव दीखते हैं, साधनों के अभाव में जिन कार्यों का हो सकना कठिन लगता है वे चुटकी बजाते प्रस्तुत हो सकते हैं और अनहोनी, होनी बनकर सामने आ सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में जनशक्ति के महादैत्य की क्षमता का थोड़ा सा आभास कराया गया है। उसे जगाया, संगठित किया जाना और सृजन के महान लक्ष्य में नियोजित किया जाना, कठिन दीखता अवश्य है पर वैसा है नहीं। पचास करोड़ की आबादी वाले देश में एक लाख सुयोग्य और भावनाशील वानप्रस्थों का मिल जाना न तो कठिन है और न असम्भव। ८० लाख धर्म व्यवसायी जिस देश में उद्भिज घास पात की तरह उग पड़े, वहाँ युग उद्बोधन पर एक लाख वानप्रस्थ न निकले यह नहीं हो सकता। बुद्ध को ढाई लाख तपस्वी शिष्य मिले थे और गाँधी को भी सत्याग्रह आन्दोलन में लगभग इतने ही कर्मवीर मिल गये थे। देश-धर्म और समाज संस्कृति के पुनरुत्थान की बात यदि विचारशील वर्ग के गले उतारी जा सके तो एक लाख वानप्रस्थों के लिए की गई युग पुकार उपेक्षित न रहेगी। सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए यदि समुचित उत्साह पैदा किया जा सके तो सृजन सेना का नेतृत्व करने के लिए इतने वानप्रस्थ सहज ही अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे।

इन वानप्रस्थों का एक ही काम होगा जन जागरण लोकशक्ति का गठन, जन मानस का परिष्कार, भावनाशील लोगों का चयन और उन्हें लोक मंगल के लिए प्रवृत्त होने का प्रोत्साहन-मार्गदर्शन। यह एक काम ही इतना बड़ा है जिससे सम्बन्धित विविध क्रिया कलापों में वानप्रस्थ वर्ग को निरन्तर लगा रहना पड़ेगा। यह कार्य जिस सीमा तक पूरा होने लगेगा उसी अनुपात में अगणित रचनात्मक और संघर्षात्मक क्रिया कलाप पनपते दिखाई देंगे और समाज की विभिन्न समस्याओं को स्थायी उपाय उपचारों के आधार पर हल करने में निरत होंगे।

कहना न होगा कि यह समस्त क्रिया कलाप धर्म धारणा पर ही आधारित होना चाहिए। भावना स्तर का स्पर्श कर सकना धर्म और अध्यात्म दर्शन के लिए ही सम्भव है। राजनीति, समाज संगठन, अर्थनीति आदि आधार भी पुनरुत्थान के हो सकते हैं, पर भारत जैसे अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों और घोर देहातों में रहने वाले लोगों के लिए वे आधार उतने हृदयग्राही न हो सकेंगे जितना धर्म का आधार। भारत की वर्तमान परिस्थितियों में नव निर्माण के समग्र अभियान की सफलता धर्म आस्था का अवलम्बन लेकर ही प्राप्त की जा सकती है। यों मानव तत्व में उत्कृष्टता की स्थापना का प्रयोजन अन्ततः परिष्कृत धर्म धारणा के आधार पर ही संभव हो सकता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

149. व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने वाली संकल्प शक्ति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भगवान ने मनुष्य को जहाँ अन्य प्राणियों की तुलना में अनेकों शारीरिक मानसिक विशेषताएँ, साधनों की विशेषताएँ प्रदान की है वहाँ एक और भी विलक्षण अनुदान संकल्प बल भी दिया है। इसकी सामर्थ्य अपार है। आत्म सत्ता के अन्तराल में अगणित विभूतियाँ छिपी पड़ी हैं। इन्हें रहस्यमय कहा जा सकता हैं। सामान्य परिस्थितियों को चीरते हुए उन्नति के शिखर पर जा पहुँचना, अवरोधों से लड़ सकना, उपयुक्त साधनों को व्यक्तित्व के चुम्बकत्व द्वारा खींचने और जुटाने में सफल होना, असंख्यों का सम्मान सहयोग पा सकना यह परिष्कृत व्यक्तित्व के लिए बाँयें हाथ का खेल है। संकल्प बल ही है जो सन्मार्ग पर चल पड़े तो व्यक्तित्व को इतना ऊँचा उठा सकता है जिस पर देवता भी ईर्ष्या करने लगें।

सदुद्देश्यों के लिए अग्रगमन, पर्वत शिखर पर चढ़ने के समान गौरवास्पद है साथ ही कष्ट साध्य भी। उसमें सुसंस्कार और दिग्भ्रान्त जन समाज पग-पग पर थकान उत्पन्न करता है। जिस आधार पर यह साहसिक यात्रा सम्पन्न होती है उसे परिपक्व संकल्प ही कहा गया है। नेपोलियन ने इसी के सहारे अजेय आल्पस पर्वत को सेना सहित पैदल पार करके संसार में अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया था। शेरपा तेनसिंह और हिलेरी ने संसार के सर्वोच्च पर्वत शिखर एवरेस्ट पर जा पहुँचने का दुस्साहस किया था और वहाँ अपनी विजय पताका फहराते हुए यह उद्घोष किया था कि इस संसार में कुछ भी ऐसा दुष्कर नहीं है जिसे संकल्प बल से निरस्त न किया जा सके।

उदाहरण बताते हैं कि वाल्मीकि और अंगुलिमाल जैसे डाकू सन्त बने। किसी समय का क्रूर निर्दयी शासक अशोक जब बदला तो उसने धर्म में अपनी विभूतियों को लगा देने का अनोखा परिवर्तन सम्भव कर दिखाया। किसी समय अनेकों को भरमाने, गिराने वाली नगर वधू अम्बपाली व्रत लेकर परम साध्वी बनी और ऋषियों जैसी श्रद्धा के साथ सर्वत्र सराही गई। अजामिल सदन आदि अनेकों क्रूर कर्मियों के समय-समय पर ऐसे ही आन्तरिक कायाकल्प उनकी संकल्प शक्ति प्रस्तुत करती रही है। ऐसे असंख्यों काया कल्प संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव होते रहे हैं।

असफलताएँ सिर्फ इतना बताती हैं कि सफलता पाने के लिए जो तत्परता बरती जानी चाहिए थी, उसमें कहीं भी कोई कमी तो नहीं रह गई है। मनस्वी हारते नहीं, वे हर असफलता के बाद दूने साहस, चौगुने उत्साह के साथ अपने सुनिश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। अब्राहम लिंकन चुनावों में १७ बार पराजित होने के उपरान्त ही राष्ट्रपति का चुनाव जीत पाये थे। निर्धन परिवार में जन्म होने के कारण उन्हें हर प्रकार की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती थी। फिर भी वे कभी निराश नहीं हुए। कठिनाइयों के साथ पग-पग पर संघर्ष करते हुए आगे ही बढ़ते चले गये, जार्ज वाशिंगटन अमेरिका के श्रद्धापात्र राष्ट्रपति माने जाते हैं, उनका जन्म से ही घोर गरीबी के साथ वास्ता पड़ा और प्रौढ़ बनने तक अपने ही पुरुषार्थ के सहारे क्रमिक विकास करने संलग्न रह सके। अपने आप के अतिरिक्त और किसी का महत्त्वपूर्ण सहारा उन्हें मिल ही नहीं सका।

भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया और उसे बिना किसी कठिनाई के पूरा कर दिखाया। गिराता शरीर नहीं मन है। मनोबल ऊँचा रहने पर न तो मानसिक दुर्बलताओं की दाल गलती है और न पशु प्रवृत्तियाँ ही सिर पर चढ़ बैठने का साहस करती हैं।

भागीरथ को गंगावतरण अभीष्ट था। वे उसके लिए सतत प्रयत्नशील रहने की तत्पर तपश्चर्या के सहारे उसे पूरा कर सकने में सफल हुए। शीरी का प्रेमी फरहाद भी ऊँचा पहाड़ खोदकर लम्बी नहर खोद निकाल लाने में सफल हो गया था।

जगद्गुरु शंकराचार्य की आरम्भिक परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थी जिनमें उसके द्वारा किसी बड़े उपक्रम की आशा की जा सके, किन्तु वे अपनी प्रचण्ड प्रतिभा को समझते हुए जब किसी महान प्रयोजन में जुट गये तो उनके द्वारा किए गए महान कृत्यों से संस्कृति को एक नवीन दिशाधारा का लाभ मिल सका।

सामान्य मनुष्य आदर्शों के प्रति आस्था दुर्बल होने के कारण अपनी कामुक दृष्टि पर अंकुश नहीं रख पाते, पर यदि आन्तरिक दृढ़ता के तत्व विद्यमान हो तो प्रलोभन और अवसर की कमी न रहते हुए भी मनुष्य इस प्रकार के पतन पराभव से अपने आप को सहज ही बचाये रह सकता है। बाधक परिस्थितियाँ नहीं मनःस्थिति होती है। अर्जुन ने उर्वशी के अनुचित प्रस्ताव को अमान्य ठहराते हुए उसके चरणों की धूलि मस्तक पर लगाते हुए उसे माता कुन्ती की तरह पूजनीय ठहराया था। शिवाजी ने भी अपने अधिकार में आयी युवती के प्रति मातृश्रद्धा ही व्यक्त की थी। गान्धारी ने वृद्ध और अन्ध पति के अतिरिक्त और किसी की ओर वासना दृष्टि न जाने देने के उद्देश्य से जन्म से आँखों पर पट्टी ही बाँधे रखी। ऐसी व्रतशीलता किसी भी विषम परिस्थिति में किसी भी व्रतधारी की चरित्र रक्षा कर सकने में पूर्ण समर्थ हो सकती है।

कोलम्बस अपनी नाव लेकर सोने की चिड़िया समझे जाने वाले भारत को खोजने निकला और तभी समुद्र यात्रा की प्राणघातक चुनौतियों का सामना करते-करते अमेरिका को खोज निकालने में सफल हो सका। नेपोलियन की आरम्भिक स्थिति और सफलताओं की महान उपलब्धियों के बीच केवल मनोबल का चमत्कार ही काम करते दृष्टिगोचर होते हैं। अन्धी, गूँगी, बहरी हेलन केलर का विद्या का मूर्तिमान भाण्डागार बन सकना, सत्रह विश्व विद्यालयों से डाक्टर का सम्मान दिला सकना, उसकी संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है। इसके विपरीत साधन सम्पन्न छात्र भी असफलता का रोना रोते रहते हैं। इसमें अन्य कारण कम और मनोबल की दुर्बलता ही प्रधान अवरोध उत्पन्न कर रही होती है।

अँग्रेजी के विश्व विख्यात साहित्यकार एच. जी. वेल्स की माता घरों में बर्तन माँजने की मजदूरी करके अपना और बच्चे का पेट पालती थी। ऐसे बालक का सामान्यतया कोई भविष्य नहीं होता किन्तु वेल्स ही थे जो अपने अदम्य उत्साह से शिक्षा प्राप्त करने के अवसर ढूँढ़ते रहे और उस प्रयास से चलते चलते उच्चकोटि के साहित्यकार बन गये। वैज्ञानिक एडीसन की जीवन गाथा भी लगभग वेल्स से ही मिलती जुलती है। ढूँढ़ने पर देश विदेश के ऐसे अगणित प्रमाण उदाहरण अपने इर्द-गिर्द ही बिखरे मिल सकते हैं, जिनमें आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक, सामाजिक कठिनाइयों से जूझते हुए मनस्वी लोगों ने अपने अभीष्ट प्रयोजनों में इतनी बड़ी सफलता पाई है जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। वस्तुतः संकल्प ही अपने प्रत्यक्ष जीवन का ऐसा देवता है जिसके वरदान का लाभ उठा सकना किसी के लिए भी सम्भव हो सकता है।

सदुद्देश्य की पूर्ति के लिए आदर्शवादी जब आगे बढ़ते हैं तो उन्हें धीरे-धीरे दूसरे सज्जनों की सहायता भी मिलती चली जाती है। इस तथ्य को रामचरित के साथ भली प्रकार जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। लक्ष्मण, भरत, केवट यहाँ तक कि रीछ वानर तक उनको सहायता करते हैं और शत्रु का भाई तक उनके साथ आ मिलता है। आदर्शवादी दृढ़ता में आरम्भिक कठिनाइयाँ अवश्य हैं किन्तु अपनी दृढ़ता और सच्चाई प्रमाणित कर देने पर हर दिशा से सहयोग की वर्षा होने लगती है। तब प्रतीत होता है कि उत्कृष्टता अपनाने की साहसिकता में आरम्भ में जो कठिनाई उठानी पड़ी, आगे चलकर कितनी अधिक सुखद और श्रेयस्कर सिद्ध होती है।

कितने ही व्रतशील उच्च उद्देश्यों को लेकर कार्य क्षेत्र में उतरे और तुच्छ सामर्थ्य के रहते हुए भी महान कार्य कर सकने में सफल हुए हैं। उन्हें निरन्तर आगे बढ़ने और अवरोधों को गिराने की सामर्थ्य आन्तरिक मनोबल में से ही मिली है। बिहार के हजारीबाग जिले के हजारी नामक किसान ने इस प्रदेश के गाँव-गाँव में आम के बगीचे लगाने का निश्चय किया था। यदि दृढ़ संकल्प प्रबल आकाँक्षा बनकर उभरे तो फिर मस्तिष्क को उसका सरंजाम खड़ा करने और शरीर को उसे व्यवहार में परिणत करते देर नहीं लगती। यही सदा सर्वदा से होता रहा है यही हजारी किसान ने भी कर दिखाया। उसने उस सारे इलाके में आम के दरख्त लगाये और अन्ततः उन आम्र उद्यानों की संख्या एक हजार तक जा पहुँची। वही इलाका इन दिनों हजारीबाग जिला कहलाता है। सत्संकल्पों की परिणति सदा इसी प्रकार से व्यक्ति और समाज के लिए महान उपलब्धियाँ प्रस्तुत करती रही हैं।

नर हो या नारी, बालक हो या वृद्ध, स्वस्थ हो या रुग्ण, धनी हो या निर्धन परिस्थितियों से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। प्रश्न संकल्प शक्ति का है। मनस्वी व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ बनाते और सफल होते हैं। समय कितना लगा और श्रम कितना पड़ा उसमें अन्तर हो सकता है पर आत्म निर्माण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अपनी आकाँक्षा को सक्रियता एवं प्रखरता के अनुरूप देर सवेर में सफल करके ही रहता है। यह निश्चित है नारी की परिस्थितियाँ नर की तुलना में कई दृष्टियों से न्यून मानी जाती है किन्तु यह मान्यता वही तक सही है जहाँ तक कि उनका मनोबल गया गुजरा बना रहे। यदि वे अपनी साहसिकता को जगा लें, संकल्प शक्ति को सदुद्देश्य के लिए उपयोग करने लगें तो कोई कारण नहीं कि अपने गौरव गरिमा का प्रभाव देने में किसी से पीछे रहें।

मैत्रेयी याज्ञवल्क्य के साथ पत्नी नहीं धर्म पत्नी बनकर रही। रामकृष्ण परमहंस की सहचरी शारदामणि का उदाहरण भी ऐसा ही है। सुकन्या ने च्यवन के साथ रहना किसी विलास वासना के लिए नहीं उनके महान लक्ष्य को पूरा करने में साथी बनने के लिए किया था। जापान के गाँधी कागावा की पत्नी भी दीन दुखियों की सेवा का उद्देश्य लेकर ही उनके साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधी थी। नर पामरों को जहाँ दाम्पत्य जीवन में विलासिता के पशु प्रयोजन के अतिरिक्त और कोई उद्देश्य दृष्टिगोचर ही नहीं होता वहाँ ऐसी आदर्शवादी नर-नारियों की भी कमी नहीं जो विवाह बन्धन की आवश्यकता तभी अनुभव करते हैं जब उससे वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति का कोई उच्चस्तरीय उद्देश्य पूरा होता है।

कुन्ती भी सामान्य रानियों की तरह एक महिला थी। जन्मजात रूप से तो सभी एक जैसे उत्पन्न होते हैं। प्रगति तो मनुष्य अपने पराक्रम पुरुषार्थ के बल पर करता है। कुन्ती ने देवत्व जगाया, आकाशवासी देवताओं को अपना सहचर बनाया और पाँच पराक्रमी पुत्रों को जन्म दे सकने में सफल बन सकी। सुकन्या ने अश्विनी कुमारों को और सावित्री ने यम को सहायता करने के लिए विवश कर दिया था। उच्चस्तरीय निष्ठा का परिचय देने वाले देवताओं, की ईश्वरीय सत्ता की सहायता प्राप्त कर सकने में भी सफल होते हैं। टिटहरी के धर्म युद्ध में महर्षि अगस्त सहायक बनकर सामने आये थे। तपस्विनी पार्वती अपने व्रत संकल्प के सहारे शिव की अर्धांगिनी बन सकने का गौरव प्राप्त कर सकी थी। पति को आदर्श पालन के लिए प्रेरित करने वाली लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला स्वयं भी वनवास जैसी साधना घर रहकर करती रही। इन महान गाथाओं में आदर्शवादी संकल्प ही अपनी गरिमा प्रकट करते दीखते हैं।

बंगाल के निर्धन विद्वान प्रताप चन्द्र राय ने अपनी सारी शक्ति और सम्पत्ति को बाजी पर लगाकर महाभारत के अनुवाद का कार्य हाथ में लिया व उसे अपने जीवन में पूरा न कर सके तो उनकी पत्नी ने अपना संस्कृत ज्ञान पूरा करके उस अधूरे काम को पूरा करके दिखा दिया। ऐसी साहसिकता वहाँ ही दिखाई पड़ती है जहाँ उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश हो।

विद्वान कैयट व्याकरण शास्त्र की संरचना में लगे हुए थे। उनकी पत्नी भारती मूँज की रस्सी बटकर गुजारे का प्रबन्ध करती थी। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्लमार्क्स भी कुछ कमा नहीं पाते थे यह कार्य उनकी पत्नी जैनी करती। वे पुराने कपड़े खरीदकर उनमें से बच्चों के छोटे कपड़े बनाती और फेरी लगाकर बेचती थी। आदर्शों के लिए पतियों को इस प्रकार प्रोत्साहित करने और सहयोग देने में उनका उच्चस्तरीय संकल्प बल ही कार्य करता था।

जहाँ सामान्य नारियाँ अपने बच्चों को मात्र सुखी सम्पन्न देखने भर की कामना संजोये रहती हैं वहाँ ऐसी महान महिलायें भी हुई हैं जिन्होंने अपनी सन्तान को बड़ा आदमी नहीं महामानव बनाने का सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए अपनी दृष्टि और चेष्टा में आमूलचूल परिवर्तन कर डाला। ऐसी महान महिलाओं में विनोबा की माता आती हैं, जिन्होंने अपने तीनों बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया। शिवाजी की माता जीजाबाई को भी यही गौरव प्राप्त हुआ। मदालसा ने अपने सभी बालकों को बाल ब्रह्मचारी बनाया था। शकुन्तला अपने बेटे भरत को, सीता अपने लव−कुश को सामान्य नर वानरों से भिन्न प्रकार का बनाना चाहती थी। उन्हें जो सफलताएँ मिली, वे अन्यान्यों को भी मिल सकती है, शर्त एक ही है कि आदर्शों के अन्तःकरण में गहन श्रद्धा की स्थापना हो सके और उसे पूरा करने के लिए अभीष्ट साहस संजोया जा सके। संकल्प इसी को कहते हैं।

वंश परम्परा या पारिवारिक परिस्थितियों की हीनता किसी की प्रगति में चिरस्थाई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकी है। इस प्रकार की अड़चनें अधिक संघर्ष करने के लिए चुनौती देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकती। सत्यकाम जाबालि वेश्या पुत्र थे। उनकी माता यह नहीं बता सकी थी कि उस बालक का पिता कौन था। ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता ऋषि ऐतरेय इतरा रखैल के पुत्र थे। महर्षि वशिष्ठ, मातगी आदि के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है। रैदास, कबीर, वाल्मीकि आदि का जन्म छोटे कहे जाने वाले परिवारों में ही हुआ था। पर इससे इन्हें महानता के उच्च पद तक पहुँचाने में कोई स्थाई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ। मनुष्य की संकल्प शक्ति इतनी बड़ी है कि वह अग्रगमन के मार्ग में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक बाधा को पैरों तले रौंदती हुई आगे बढ़ सकती है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

150. नव सृजन हेतु सृजनात्मक संकल्पों की आवश्यकता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

धर्म परम्परा में संकल्प कृत्य को प्रमुखता दी गयी है। सन्ध्या वन्दन से लेकर ब्रह्मभोज तक के धर्म कृत्यों के आरम्भ में पुरोहित अपने यजमानों से संकल्प कराते हैं। हाथ में जल, अक्षत, पुष्प लेकर अमुक धर्म कृत्य सम्पन्न करने की घोषणा को संस्कृत भाषा की शब्दावली में जोर-जोर से उच्चारित किया जाता है। यजमान के वंश, गोत्र, वर्तमान काल के तिथि मास का उच्चारण भी इस संकल्प घोषणा में रहता है। संकल्प कृत्य न कराने पर धर्मानुष्ठान अधूरे माने जाते हैं। श्रावणी पर्व पर उपकर्म किया जाता है, उसमें हेमाद्रि संकल्प ही प्रधान है।

विचारणीय यह है कि संकल्प कृत्य को प्रमुखता और प्राथमिकता क्यों दी गई? खोजने पर यह मनोवैज्ञानिक तथ्य सामने आ खड़ा होता है जिसमें किसी प्रयास को सफलता के लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए उसका आरम्भ दृढ़ संकल्प के साथ किए जाने की आवश्यकता बताई गई है।

आमतौर से लोग अनेक मनोरथों के लिए मन चलाते रहते है, इन्हें मनोकामना कहा जाता है। उसमें कल्पना भर होती है, सुखद प्रतिफल का लालच भर मनःक्षेत्र में पाया रहता है। रंगीन कल्पनाओं की उड़ाने उड़ाते रहने वाले ललचाते तो रहते है, पर अभीष्ट को प्राप्त करने का कोई आधार नहीं पाते और इच्छा पूर्ण न होने का रोना रोते रहते है। इसका कारण एक ही है कि इच्छा मात्र इच्छा ही बनकर रह गई। वह संकल्प के रूप में विकसित न हो सकी। शेखचिल्ली की बहुचर्चित कहानी सर्वविदित है, वह कल्पना की आधार रहित उड़ाने उड़ाता रहा, फलतः वर्तमान की जागरूकता को उस दिव्य स्वप्न के लिए गँवा बैठा। बेचारे को मजूरी से हाथ धोना पड़ा, अपमानित हुआ सो अलग। उपहास तो उसका इस समय भी उड़ा रहे हैं। यों शेखचिल्ली की योजना गलत नहीं थी। कम पूँजी से भी व्यवसाय बढ़ते है और उसमें वैसी सफलता मिलने के अनेकों उदाहरण भी है जैसी कि उसने चाही थी। फिर असफलता क्यों मिली? इस प्रश्न के एक ही उत्तर में उसे संकल्प का अभाव ही कह सकते हैं।

धर्मकृत्यों को पूर्ण करने में तो इस क्षमता को विकसित करने की आवश्यकता इसलिए भी पड़ती है कि सांसारिक लाभ न होने के कारण कहीं निश्चय न बदल जाय, उत्साह ठण्डा न पड़ जाय, अन्यमनस्कता न छाने लगे, उदासी के साथ-साथ निष्क्रियता उत्पन्न न होने लगे। उस आशंका को निरस्त करने के लिए पहले से ही संकल्प की सार्वजनिक घोषणा की जाती है। इससे वह कृत्य प्रतिष्ठा का प्रश्न बनता है। पूर्वजों का उल्लेख करके उस संकल्प के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी जोड़ ली जाती है। संकल्प विस्मरण न होने लगे इसलिए पुरोहित उस उद्घोष के साथ वंश परम्परा, वर्तमान तिथि, मास का भी हवाला देते हैं। इतना कर लेने पर एक मनोविज्ञान सम्मत सुदृढ़ मनःस्थिति उत्पन्न होती है। श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ने के लिए तो उसकी नितान्त आवश्यकता है, यों जरूरत तो उसकी सामान्य व्यावसायिक कामकाजों और कुछ नया निर्माण करने में भी आये दिन पड़ती है।

संकल्प का अपना विज्ञान है। उसे कर्म का बीजारोपण कह सकते है। बेसिर पैर की, अनिश्चित और असंगत कामनाएँ बाल चंचलता की श्रेणी में गिनी जाती है, उनके सफल होने के लिए देवी देवताओं से लोग मनौती माँगते रहते हैं, किन्तु कोई योजनाबद्ध प्रयास आरम्भ नहीं करते फलतः वे रंगीनियाँ प्रायः असफल ही रहती हैं। संकल्प इससे भिन्न है उसमें सोच विचार कर निश्चय किये जाते हैं। निश्चयों को मन में छिपाकर नहीं रखा जाता, वरन् प्रकट किया जाता है। उसकी क्रमबद्ध योजना बनाई जाती है। तत्परता पूर्वक और तन्मयता पूर्वक मन लगाने के लिए साहस जुटाया जाता है। साधन एवं सहयोग एकत्रित करने का ताना-बाना बुना जाता है। उसके लिए समुचित दौड़ धूप की जाती है। कठिनाइयाँ आ सकती है और उनका सामना अथवा समाधान करने के लिए पहले से ही क्या तैयारी रखी जा सकती है। इन सब प्रश्नों पर गम्भीरता एवं दूरदर्शिता के साथ विचार किया जाता है। जानकारों के साथ परामर्श लिया जाता है। सामयिक परिवर्तनों की गुंजायश रहती हैं। ऐसे सुनिश्चित प्रयत्नों को संकल्प कहते हैं।

निश्चय कही उधेड़ बुन की अनिश्चित स्थिति में ही न पड़े रहे, इसलिए परिचय क्षेत्र में उसकी जानकारी कराई जाती है। इससे स्वजन सहयोगियों को उस कार्य में सहायता कर सकना सम्भव होता है। अपने सामने भी आत्म प्रतिष्ठा का प्रश्न खड़ा हो जाता है। सफलता मिलने पर अपने चिन्तन एवं प्रयास को प्रतिष्ठा मिलती है। असफल होने पर उपहासास्पद बनना पड़ता है। अपनी हेठी न होने देने के लिए लोग बहुत कुछ दाँव पर लगाते हैं। शिथिलता से जूझते और पुरुषार्थ को जगाते हैं। इस प्रकार की मनोभूमि बन जाना, अभीष्ट प्रगति की सुनिश्चित रूपरेखा बन जाना एक प्रकार से सफलता का आधा सोपान पूर्ण कर लेना है। असफलता का बहुत बड़ा कारण परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं, मनःस्थिति की दुर्बलता होती हैं। अनिश्चित अव्यवस्थित अनुत्साह की स्थिति ही असफलता के लिए जिम्मेदार होती है।

संकल्प और असंकल्प का अन्तर समझने वालों को असफलता से बचने और सफलता के लक्ष्य तक पहुँचने में विशेष कठिनाई नहीं होती, धर्मानुष्ठानों में संकल्प कृत्य के इस महान तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रमुखता और प्राथमिकता दी गई है। वह दृश्य मात्र धर्मकृत्यों तक सीमित नहीं है वरन् प्रत्येक प्रयास को सफल बनाने के लिए समान रूप से लागू होता है। सरकारी और गैर सरकारी, वैयक्तिक और सामूहिक, धार्मिक और भौतिक क्षेत्रों के महत्त्वपूर्ण कार्य सर्वप्रथम योजना बद्ध रूप में ही सामने आते हैं। घोषणा करने वालों के पुरुषार्थ और व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा के दाँव पर अपनी बाजी लगानी पड़ती है। मनुष्य का आलसी और चंचल स्वभाव इससे कम दबाव में बेकाबू ही रहता है। कछुए और खरगोश की दौड़ में कछुए का बाजी मारना और खरगोश का पिछड़ जाना संकल्प शक्ति की प्रखरता और उपेक्षाग्रस्त आलस्य के परिणामों पर ही प्रकाश डालते है।

प्रत्येक परिवार को नव निर्माण के लिए, अगले दिनों कुछ करने के लिए सुनिश्चित संकल्प लेने के लिए पुकारा और झकझोरा जा रहा है। बात यह है कि किसी उपयोगी तथ्य से परिचित होना, उसमें सहमत होना, समर्थन करना है तो अच्छा, पर इतने भर से उस दिशा में कुछ करने की स्थिति बनती नहीं है। इस प्रकार यह भी हो सकता है कि किन्हीं बुरी बातों में बुराई समझ ली जाय, उसके दोष दुष्परिणाम जानकारी में रहें, पूछने पर उन्हें उचित और हानिकारक कह भी दिया जाय। किन्तु इतने भर से यह आशा नहीं की जा सकती कि यदि वे बुराइयाँ अभ्यास में आ गई हो तो उन्हें छोड़ने के लिए कुछ कदम उठ सकेगा। अभ्यास और स्वभाव एक बहुत बड़ा कारण है। ढर्रे पर जीवनचर्या की गाड़ी लुढ़कती है। जो होता रहा है वह करते रहने के लिए मन करता है। परिवर्तन की बात कहने सुनने में तो अच्छी लगती है, पर जब कुछ उलट-पुलट करने की घड़ी होती है तो उसका साहस नहीं होता। अभ्यास को छोड़ने में संकोच होता और डर भी लगता है। ढर्रा बदलने में कितनी असुविधा होती है, इसे वे लोग भली प्रकार जानते हैं जिन्हें मकान बदलने और बदली पर अन्यत्र जाने के अवसर सामने आते हैं। चिर अभ्यस्त प्रक्रिया मनुष्य के स्वभाव का अंग बन जाती है और उसे छोड़ने पर असुविधा ही महसूस अनुभव होती है। क्रिया तन्त्र में परिवर्तन में उतनी कठिनाई नहीं होती जितनी कि मन को नई परिस्थिति के लिए सहमत करने में। इन भीतरी और बाहरी अवरोधों से जूझने में एक ही सबसे बड़ा आधार काम करता है, वह है संकल्प। संकल्पवान हर परिस्थिति का सामना करने के लिए साहस उभारते है। आन्तरिक और परिस्थिति जन्य अवरोधों से जूझने का पराक्रम करते है। फलतः असमंजस हटता है और पुरुषार्थ की गतिशीलता प्रखर होती चली जाती है। लक्ष्य तक पहुँचने का यही राजमार्ग है।

समय की माँग है कि खण्डहरों का कूड़ा करकट साफ किया जाय और उनके स्थान पर प्रगतिशीलता का भव्य भवन खड़ा किया जाय। जिन परिस्थितियों में इन दिनों हम रह रहे है वे घुटन से भर गई हैं। अवांछनीयताओं की काली घटाये घिर रही हैं। घटाटोप अन्धेरा छाया हुआ है। प्रकाश के अभाव में ठोकर पर ठोकर लगने का कष्ट सहना पड़ रहा है। परिवर्तन की हर दिशा में माँग है। प्रश्न एक ही है कि प्रवाह को बदले कौन? अँधेरे को प्रकाश में बदलने के लिए दीपक की तरह जले कौन? भीरुता के असमंजस में खड़े हुए लोगों को मार्गदर्शन कराने के लिए अग्रिम पंक्ति में चले कौन? इन प्रश्नों का उत्तर जाग्रत आत्माओं की प्रखरता के अतिरिक्त अन्य कहीं से मिलता नहीं है। दुष्टता का दुस्साहस करने में ही अगणित कुकर्मियों को अभ्यस्त और पारंगत पाया जा सकता है, पर सदाशयता की परम्पराएँ प्रचलित करने के लिए अग्रगमन कर सकने में तो उच्चस्तरीय साहसिकता की आवश्यकता पड़ती है पर उसका प्रचलन भी इन दिनों नहीं है। एक को देखकर दूसरे प्रेरणा ले सकें। सत्प्रवृत्तियों के समर्थन में ऐसा वातावरण भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी दशा में युग अवतरण के लिए भागीरथी साहस कौन अपनाए? सर्वत्र छाए हुए सन्नाटे में अपना मौन खोलने के लिए जाग्रत आत्माओं के अतिरिक्त और किसी से भी आशा नहीं है।

फिर ऐसा क्यों होता है कि वे अपनी अन्तरात्मा को सन्तोष नहीं दे पाते, ईश्वर की अभिलाषा अधूरी रह जाती है, उनके द्वारा समाज को, युग को जो लाभ मिल सकता था उनके लिए वह भी कलपता बिलखता रह जाता है। यह दुर्घटना क्यों होती है? यह दुखदाई दुर्भाग्य क्यों कर आँखों के सामने खड़ा रहता है? यह हटाए क्यों नहीं हटता? श्रेय सौभाग्य से व्यक्ति, ईश्वर, समाज सबको क्यों वंचित रह जाना पड़ता है? ऐतिहासिक भूमिका निभा सकने में सर्व समर्थ प्रतिभाएँ क्यों पछताते रहने और पछताते रखने की स्थिति में संसार से विदा होती है? इन अनेकों प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़े नहीं मिलता। सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं की विडम्बना हटती क्यों नहीं, घटती क्यों नहीं, मिटती क्यों नहीं? इस अनबूझ पहेली का उत्तर खोजने पर भी कोई दे नहीं पा रहा है।

फुरसत न मिलने, व्यस्तता रहने, परिस्थितियाँ न होने जैसे बहाने आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और किसी काम के है नहीं। उस शब्दाडम्बर में तथ्य एक ही रहता है कि उन कार्यों को निरर्थक समझा गया है। जिन कार्यों को महत्त्व दिया जाता है प्रमुखता उन्हीं को मिलती है। समय, श्रम, साधन पूरी तरह उन्हीं में जुटे रहते है, जिन्हें महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। युगसृजन का उत्तरदायित्व यदि शरीर निर्वाह और परिवार पोषण समझा जाने लगे, तो सहज ही अपनी क्षमताओं का एक बड़ा अंश उन कार्यों के लिए भी नियोजित होने लगेगा। इस विभाजन में अनुभव हीनता के कारण जो काल्पनिक हानि दीखती है, समय आने पर प्रतीत होगा कि वह आशंका सर्वथा निरर्थक थी। एकाकी स्वार्थहीनता में तल्लीन रहने वालों की तुलना में वे हर दृष्टि से नफे में रहते है, जो स्वार्थ परमार्थ का समन्वय मिला लेते हैं। सर्वोपरि बुद्धिमान वे हैं जो परमार्थ को ही स्वार्थ साधन मान लेते हैं। ऐसे लोग ही इस धरती के देवता बनते हैं, महामानवों में गिने जाते हैं। प्रकाश की ओर उन्मुख होने के कारण वह माया भी छाया की तरह पीछे-पीछे चलती दिखाई पड़ती है जो पकड़ने का आग्रह करने वालों से दूर ही रहती है।

श्रेष्ठता की साधना संकल्प से ही सम्भव होती है। संकल्प को ही तप कहते है। व्रतधारी ही तपस्वी और मनस्वी कहलाते हैं। लक्ष्य की ओर शब्दवेधी बाण की तरह सनसनाते हुए चल पड़ने की क्षमता उन्हीं में होती है। संकल्प का कार्य है अमुक कार्य करने का, अमुक लक्ष्य तक पहुँचने का निश्चय। दृढ़ निश्चय का अर्थ है काम को करने की सुव्यवस्थित योजना बनाना, उसके लिए समुचित श्रम, साधन और मनोयोग लगाने की प्रतिज्ञा। प्रतिज्ञा का अर्थ है आत्मगौरव को दाँव पर लगा देना, प्रयास को चरम पुरुषार्थ के साथ पूरा करना। मनःसंस्थान की संरचना कर सकना संकल्प का ही काम है। इसी से कहा जाता है कि प्राणवानों के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते। असफलताओं में बहुत बड़ा कारण लक्ष्य का निकृष्ट और कार्य पद्धति का अनिश्चित, अस्त-व्यस्त होना होता है। यदि आदर्श ऊँचा हो, उसे करने के लिए सच्चे और पक्के मन से निश्चय किया गया हो, तो समझना चाहिए आधा काम पूरा हो चुका। अगली सफलता हाथ में आ गई। अब तो उसको काम काजी आवरण पहनाना ही बाकी रह गया है। पेड़ की विशालता और स्थिरता उसकी जड़ों की मजबूती और गहराई पर निर्भर रहती है। जमीन में जितनी गहरी जड़े घुसती है पेड़ का तना उतना ही मोटा, ऊँचा, हरा-भरा और फला-फूला दीखता है। संकल्प को जड़ और सफलता को तना कहा जा सकता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्व वेत्ताओं ने व्रतशील संकल्प के निर्धारण को कार्य की आधी सफलता माना है। यह मान्यता अक्षरशः सत्य है। जिसे संदेह हो वह इस सच्चाई की परीक्षा स्वयं करके देख सकता है।

समय आ गया कि नव निर्माण की प्रवृत्तियों में अधिक प्रखरता का समावेश किया जाय। युग परिवर्तन के गतिचक्र की तीव्रता और अधिक बढ़ाई जाय। अवांछनीयता की सुरसा, अनैतिकता की ताड़का और मूढ़ मान्यता को सूर्पणखा की प्रस्तुत उच्छृंखलता को इसी तरह बरतने की छूट मिलती रहेगी तो इस विश्व उद्यान की शोभा सुषमा जलते भुनते, वीभत्स भयानक श्मशान में परिणत होती चली जायेगी। इस विनाश का कलंक उनके मत्थे बँधेगा जो समर्थ होते हुए भी मूक दर्शक बने बैठे रहे और समय चूक जाने का पश्चात्ताप अपने ऊपर लादे रहे।

जागरूकता पुरुषार्थ का प्रथम संकल्प है। हम में से प्रत्येक को कुछ सृजनात्मक संकल्प करने चाहिए। सृजनात्मक गतिविधियाँ अपनाना ही अपनी प्रौढ़ता का चिन्ह है। समय आ गया है कि सद्विचारों को सत्कर्मों के साथ जोड़ दिया जाय। जिसने श्रेष्ठता स्वीकार कर ली हैं उससे उस उपलब्धि की सक्रियता के रूप में विकसित करने का अनुरोध करना चाहिए। श्रद्धा अन्तःकरणों में छिपी बैठी न रहे। वह शक्ति बनकर उभरे और परिवर्तन के लिए अपनी प्रचण्डता का परिचय प्रस्तुत करे।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार