समग्र जीवन के सुदृढ़ आधार—योग एवं तप
परमपूज्य गुरुदेव की उद्बोधनशैली की यह मौलिकता है कि वे मनुष्य को एक सर्वांगीण और सार्थक जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। प्रस्तुत उद्बोधन में परमपूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक जीवन के दो सशक्त आधारों के विषय में चर्चा करते हैं, जिनका नाम योग एवं तप है। युगऋषि कहते हैं कि योग का अर्थ मात्र शारीरिक प्रक्रियाओं से नहीं है, वरन इसका उद्देश्य भगवान में पूर्णरूपेण लय हो जाने से है और ऐसा तभी संभव है जब हम अपने अहंकार का संपूर्ण विसर्जन करने के लिए तैयार व तत्पर हों। वे कहते हैं कि यह जीवन तृष्णाओं और कामनाओं की पूर्ति में भटकने में ही व्यर्थं चला जाता है और यदि हमें जीवन को एक समग्र स्वरूप प्रदान करना है तो इन आध्यात्मिक आधारों को अपनाना ही होगा। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
अपूर्ण से पूर्ण बनने का पथ
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना है। हम अपूर्ण हैं। अपूर्णता को क्रम से पार करते हुए हमें पूर्णता तक चले जाना है। पूर्णता की लंबी मंजिल को पार करना है। यही हमारा लक्ष्य है और यही हमारे जीवन का क्रियाकलाप है। हमको लंबी मंजिल पार करनी है। चलते हुए इन टाँगों पर सवार होकर हमको लंबी मंजिल पार करनी पड़ेगी। वे टाँगें क्या हैं? वे कदम क्या हैं? लेफ्ट और राइट हैं।
लेफ्ट और राइट के तरीके से करते हुए, सिपाही से लेकर के सामान्य नागरिक तक वह हर पल, प्रतिपल बढ़ता हुआ चला जाता है। वह दो पाँवों को क्रमशः उठाता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। वे दो पाँव कौन से हैं? अपूर्णता से पूर्णता को प्राप्त करने के लिए जीवभाव को समाप्त करके, ब्रह्मभाव तक जा पहुँचने के लिए कौन-सी मंजिलें हैं? मंजिलें दो हैं—एक को हमने योग के नाम से पुकारा है और एक को हमने तप के नाम से पुकारा है।
मित्रो! योग और तप—यही दो मंजिलें हैं। यही दो राहें हैं, जिनको पूर्ण करते हुए जीवात्मा परब्रह्म परमात्मा तक जा पहुँचता है। ये दो राहें क्या हैं? दो मंजिलें क्या हैं? दो कदम क्या हैं? योग क्या है? योग का अर्थ होता है जोड़ देना। किसको किसके साथ जोड़ देना? जीव को ब्रह्म के साथ जोड़ना, क्षुद्रता को महानता के साथ जोड़ देना। हमारी परिधियाँ, हमारी सीमाएँ बहुत छोटी हैं। छोटे वाले दायरे में हैं। इसे किसके साथ जोड़ना है? उस महानता के साथ जोड़ना, जो चहुँ ओर फैली हुई है। हम अपने छोटे से दायरे को समाप्त करेंगे और विशाल में लय हो जाएँगे, लीन हो जाएँगे। जैसे कि हम कितनी बार गंगा का उदाहरण दे चुके हैं। छोटा वाला नाला गंगा में लय हो जाता है, लीन हो जाता है। छोटी वाली बूँद अपनी हस्ती को और अपने अस्तित्व को मिटाकर के समुद्र में लीन हो जाती है और लय हो जाती है। हमको भी लीन हो जाना है और लय हो जाना है। कहाँ लय हो जाना है? भगवान में लय हो जाना है।
भगवान में लय होना योग
मित्रो! भगवान में किस तरीके से लय होना होगा? भगवान कहाँ रहता है? भगवान के पास हम किस तरीके से जाएँगे? भगवान में किस तरीके से लय होंगे? भगवान व्यापक है और भगवान विभु है। सबमें समाया हुआ है। उसका दृष्टिकोण बड़ा विशाल है। स्वयं के लिए कुछ चाहता है कि नहीं? हमसे और आपसे भगवान क्या चाह सकता है और हम और आप भगवान को क्या दे सकते हैं? हम तो एक जर्रा हैं, कण हैं और वह तो ब्रह्माण्ड के बराबर विस्तृत है। हम क्या दे पाएँगे उसको? हम उसको कुछ नहीं दे सकते। फिर क्या दे सकते हैं? मित्रो! हमको अपने आप को, अपनी हस्ती को भगवान को प्रदान करना पड़ेगा। अपनी हस्ती को क्यों? अपनी हस्ती, जो कि पानी का एक बबूला है, जो अपने चारों ओर हवा का एक घेरा बना करके बैठा है। उसके अंदर हवा भर दी गई है। हवा के भर जाने के कारण पानी का जो बबूला था, उसने अपना घेरा अलग बना लिया। अपना दायरा अलग बना लिया। लोगों ने उसका मजाक उड़ाया कि देखो, वो बबूला चल रहा है। अब बबूला समाप्त हो गया।
मित्रो! जब कोई अलग हो जाता है, तो पानी का बबूला हो जाता है। क्षणभर में मजाक की चीज बन जाता है। कभी उसकी संपदाएँ बनती हैं और कभी उसकी संपदा बिगड़ती है, नष्ट हो जाती है। ये संपदाएँ क्या हैं? यह हमारा 'मैं' का एक छोटा-सा दायरा हमने हवा का भर दिया और वह बबूला अलग हो गया। किससे? पानी से अलग हो गया, हवा से अलग हो गया, लहरों से अलग हो गया। तब दिखाई पड़ने लगा कि इससे भिन्न होने के माद्दे को, भिन्न होने की वृत्ति को अब हम समाप्त करेंगे और पानी की लहर बनकर रहेंगे और पानी की धारा बनकर रहेंगे। पानी का बबूला, हमारा जो अलग नाम था, हम उसे खतम करेंगे। यह क्या है? संकल्प है। मित्रो! यह योग का संकल्प है। जोड़ देने का संकल्प है। बबूले ने संकल्प किया कि अब हम अपना छोटापन और छोटा-सा दायरा खतम करेंगे और पानी की धारा में मिल करके, लहरों में होकर के आगे चले जाएँगे। अपनी हस्ती को मिटा देंगे। योग इसी का नाम है। योग के लिए कई प्रकार के क्रियाकलाप करने पड़ते हैं और कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। कर्मकाण्ड साधन हैं, साध्य नहीं हैं, जैसा कि आम लोगों ने समझ लिया है।
शरीर व मन की शुद्धि का मार्ग
मित्रो! नेति, धौति, वस्ति, वज्रोली और कपालभाति आदि क्रियाएँ इसलिए की जाती हैं, ताकि हमारे शरीर की और मन की शुद्धि हो सके। शरीर के ऊपर कितने कषाय कल्मष, पाप और ताप हमारे ऊपर चढ़े हुए हैं। अगर हम इनका समाधान नहीं कर सकेंगे, तो आगे बढ़ना मुश्किल है। मल, आवरण और विक्षेप—यही तो हैं बाँध देने वाले बंधन, जिन्होंने हमें और हमारे भगवान—दोनों को अलग कर दिया है। इन मलों को हम दूर करेंगे। इन्हें दूर करने वाली प्रक्रियाएँ हठयोग कहलाती हैं, जिनमें कि हम मलों की मलीनताओं को साफ करने के लिए उस ओर कदम बढ़ाते हैं। इस शरीर में—पेट में जो गंदगी भरी पड़ी है, उस मल को हम वस्ति-क्रिया के द्वारा बाहर निकालते हैं और पेशाब के भीतर जो मलीनताएँ भरी पड़ी हैं, उनको हम वज्रोली क्रिया के द्वारा बाहर निकालते हैं और जो हमारे मस्तिष्क में गंदगी भरी पड़ी है, उसको नेति के द्वारा और गले में, पेट में जो गंदगी भरी पड़ी है, उसे धौति के द्वारा बाहर निकालते हैं, वमन-विरेचन के माध्यम से निकालते हैं।
मित्रो! योग का पहला क्रियाकलाप क्या है? गंदगी की सफाई कर देना और गंदगी को दूर करना। आप केवल शरीर की सफाई कर लेंगे, तो काम नहीं चलेगा। आपने नेति, धौति, वस्ति, बज्रोली के रूप में यह जो क्रियाकलाप किया था और उससे केवल शरीर का ही संशोधन कर लिया, तो बात कैसे बनेगी? कल फिर से कफ इकट्ठा हो जाएगा। कल फिर मल इकट्ठा हो जाएगा। परसों फिर मल इकट्ठा हो जाएगा। नाक में फिर से कफ इकट्ठा हो जाएगा, कान में गंदगी इकट्ठी हो जाएगी।
आप शरीर का संशोधन कहाँ तक करते रहेंगे? अच्छा यही मान लें कि शरीर का संशोधन तो आप कर ही लेंगे, तो उसमें शरीर का ही तो लाभ होगा न, शरीर का ही तो परिष्कार होगा न? जीभ तो अलग है न। शरीर मिलने वाला होगा, तो मिट्टी में ही तो मिलेगा न। शरीर को कभी मिलना पड़ा, तो वह भगवान में मिल ही नहीं सकता। शरीर हमेशा मिट्टी में ही मिलने वाला है। पानी में, हवा में मिलने वाला है। मरने के बाद हमारा शरीर हवा में मिल जाएगा और पानी में, मिट्टी में शामिल हो जाएगा। भगवान में कहाँ से मिलेगा? शरीर तो जड़ है। जड़ पेड़ में मिल जाएगी। जड़ का संशोधन आप करते हुए चले जाइए। मान लीजिए कि आपने आँखों की सफाई कर ली। नाक की, कान की, मल-मूत्र की सफाई कर ली। सारी सफाई के बावजूद हुआ क्या? शरीर तो साफ हो गया न, तो ज्यादा-से-ज्यादा क्या होगा? शरीर की बीमारियाँ नहीं होंगी। ठीक है, आप अच्छी तरह से रहेंगे। आपको बुखार नहीं होगा। बात समाप्त हो गई। यह तो शुरुआत हुई।
मित्रो! प्रत्येक कर्मकाण्ड के पीछे एक धारा जुड़ी हुई है, एक दिशा जुड़ी हुई है, एक लक्ष्य जुड़ा हुआ है। वह लक्ष्य; दिशा और धारा आपके ध्यान में नहीं आई, तो मित्रो! बात कुछ बनेगी नहीं। आप नाक में से पानी निकालते रहेंगे और नेति, वस्ति से पानी निकालते रहेंगे। आप यह सब इसलिए करते रहेंगे कि हम योगी हो गए और हमने योगाभ्यास कर लिया। मित्रो! किसी भी तरह से यह बात बनने वाली नहीं है। शरीर स्थूल है। स्थूल की सफाई करके हम इस बात से अगला वाला कदम यह बढ़ाते हैं कि हमारे मन की सफाई होनी चाहिए। हमारे अंतःकरण की सफाई होनी चाहिए और हमारे विचारों की सफाई होनी चाहिए। योग का मतलब सिर्फ एक है—भगवान के साथ में अपने आप को जोड़ देना। उस जोड़ देने के कारण बीच में जो दीवार खड़ी हो गई है, उस दीवार को खतम कर देना। हमारे और भगवान के बीच में दीवार क्या है? हमारा 'मैं' हमारा 'अहं'। हमारा 'अहं' जो है, एक ही चीज है। अहं किस तरह से प्रकट होता है? अहं का विस्तार कैसे होता हुआ चला जाता है? अहं का दायरा कैसे बढ़ता चला जाता है?
अहंकार का दायरा कैसे बढ़ता है
मित्रो! अहं का कीड़ा किस तरीके से अपने घरौंदों को—घरों को बनाता हुआ चला जाता है। केंचुओं के घर आपने देखे हैं, कैसे टेढ़े-मेढ़े बनते हुए चले जाते हैं। केंचुओं के घरों के तरीके से हमारा अहं, हमारा छोटा-सा अहं कितना दायरा बढ़ाता हुआ चला जाता है। कल मैं दो का हवाला आपको दे रहा था—लोभ और मोह का। वासना और तृष्णा का, जो उसी की देन हैं। जब अहं शरीर से जुड़ा हुआ है, तो वह क्या चाहता है? शरीर के जो सूराख हैं, इन सूराखों में खुजली मचा करती है।
आँख के सूराख में खुजली मचा करती है। जिस तरीके से दाद पैदा होता है और उसमें खुजली होती है और यह खुजली हमको अच्छी मालूम पड़ती है। जो चीज हमको पसंद है, उसको हम देखें। खून हमको पसंद है, खून को हम देखें। नई उम्र हमको पसंद है। नई उम्र के लोगों को हम देखें। हमको सिनेमा पसंद है। हमको अमुक चीज पसंद है, हम उसको देखें। यह क्या है? हमारी आँख की खुजली है और हमारी जीभ की खुजली है। हमारी जीभ में खुजली मचती रहती है और वह मिठाई चाहती है, शक्कर चाहती है, नमक चाहती है, पकौड़ी चाहती है और मिर्च-मसाला चाहती है। चटनी, अचार चाहती है। यह क्या है? खुजली है।
मित्रो! इस खुजली का संबंध किससे है? शरीर से नहीं है। अहं से है, मैं जो हूँ, उससे है। मैं की बात हम सोचते रहते हैं। हमारा मैं उस शरीर में सीमाबद्ध हो जाता है। शरीर में जब सीमाबद्ध हो जाता है, तो शरीर में जहाँ तहाँ छिद्र हैं, सूराख हैं, उन सूराखों में खुजली मचती रहती है। उस खुजली को पूरा करने में हम यह सुख अनुभव करते हैं कि हमारा लक्ष्य पूरा हो गया। हमारा उद्देश्य पूरा हो गया। हमारा सुख पूरा हो गया। यह क्या है? यह हमारे अहं का विस्तार है और कुछ भी नहीं है।
मित्रो! एक और खुजली मचती है। वह शरीर में नहीं, वरन दिमाग में मचती है। दिमाग की इस खुजली को हम तृष्णा कहते हैं। शरीर की भी तृष्णा कहलाती है। तृष्णा उन चीजों की, जिनको हम पकड़ नहीं सकते। जो हमारी नहीं हो सकती हैं, लेकिन हमारा अहं उन चीजों को अपने दायरे में जकड़ता, पकड़ता हुआ चला जाता है। यह हमारा घर है, यह हमारी जमीन है। अच्छा आपकी है, तो आप उठाकर के अपनी जेब में रखिए। नहीं साहब! हम तो अपनी जेब में जमीन को नहीं रखेंगे, तो क्या करेंगे? यह मेरी जमीन है। मेरी जमीन है, तो क्या यह आपने बनाई थी? नहीं, हमने तो नहीं बनाई। तो आपके पिताजी ने बनाई होगी? नहीं साहब! पिताजी ने तो नहीं बनाई, किसने बनाई?
यह तो ब्रह्मा जी ने बनाई थी। जब समुद्र में काई फैली हुई थी और काई को समेट-समेट करके उन्होंने यह जमीन बनाई थी। उसको बने तो करोड़ों और अरबों वर्ष हो गए, तो फिर जिसको आप यह कहते हैं कि यह जमीन मेरी है, तो फिर यह आपकी कैसे हुई? यह तो ब्रह्मा जी की हुई। हाँ साहब! ब्रह्मा जी की हुई। फिर लाखों-करोड़ों आदमी आपकी तरह यह कहते हुए फना हो गए, फिदा हो गए कि यह मेरी जमीन है। यह आपकी हो ही नहीं सकती। यह मकान आपका है? नहीं, यह आपका नहीं हो सकता। यह तो तहस-नहस होने वाला है। सौ-दो सौ वर्ष बाद यह नष्ट हो जाएगा। अभी तो सीमेंट का बना हुआ है। फिर मिट्टी में शामिल हो जाएगा और बहकर कहीं चला जाएगा।
मित्रो! यह आपका मकान है। नहीं, आपका मकान नहीं है। यह मिट्टी का मकान है और मिट्टी में से जहाँ हमने गड्ढा खोदा था, बाद में वह उसी गड्ढे में चला जाएगा। यह तो यहीं-का घूमता रहेगा। फिर मेरा कैसे हो गया? यह मेरा नहीं हो सकता। कोई भी चीज, किसी भी तरह से हमारी नहीं है। सारी-की-सारी चीजें दुनिया में जहाँ-की-तहाँ थीं, वहीं रहेंगी। आप उनमें से राई की नोंक के बराबर भी नहीं ले जा सकते। यहाँ तक कि आप जो अनाज खाते हैं, वह भी नहीं ले जा सकते। वह यहीं का है और प्रकृति कहती है कि इसे ले जाने का हक आपका नहीं है। आप यहीं का छोड़िए। आप पानी पी लेते हैं, रोटी खा लेते हैं चौबीस घंटे में, यह सब प्रकृति का है और प्रकृति का सब कुछ हमको वापस करना पड़ेगा। हमने सुबह जो रोटी खाई, पानी पिया, शाम को मल-मूत्र के रूप में जमीन का, जमीन को दे आते हैं। कोई भी चीज हम ले नहीं जा सकते। फिर कोई भी चीज आपकी कैसे हो सकती है? आपने जो खा लिया, वह भी चीज आपकी नहीं हो सकती।
तृष्णा का संसार
मित्रो! क्या होता है? हमारा अहं तृष्णा के रूप में जब विकसित होता चला जाता है, तो अनेक चीजों को मेरी-मेरी कहता हुआ चला जाता है। आप कहते हैं कि यह जमीन मेरी है, यह बेटा मेरा है, पोता मेरा है। यह बेटा आपका है? आपका नहीं हो सकता। आपका यह बेटा हजारों जन्मों से न जाने किसका-किसका बेटा होता हुआ चला आ रहा है और उस जीवात्मा को अभी हजारों-लाखों बार कितनों का बेटा बनना बाकी है। नहीं साहब! यह मेरा बेटा है। नहीं, आपका बेटा नहीं हो सकता। यह आपका बेटा कैसे हो सकता है? पानी के बहाव में लकड़ी के गट्ठे आपस में इकट्ठे हो जाते हैं और थोड़ी देर तक वे मिलते हैं, फिर बहकर दूर तक चले जाते हैं। बहकर चलने के बाद में हवा का एक झोंका आता है और दोनों में टक्कर मारता है। टक्कर से पानी की लहरें अलग-अलग हो जाती हैं और लकड़ी के गट्ठे बहकर अलग हो जाते हैं।
नहीं साहब! हमारा भाई था। अरे बेटे! कहाँ का भाई, किसका भाई? दो लकड़ी के पीस थे, न जाने कहाँ से बहते हुए चले आ रहे थे? गंगा का जल गंगोत्तरी से बहकर कोलकाता तक चला जा रहा है। ऐसा हजारों बार होता है कि लकड़ी का टुकड़ा न जाने कहाँ से बहकर मिलता है और फिर अलग हो जाता है। मेरा बेटा, तेरा बेटा, न जाने क्या लगा रखा है? यह हमारा खिचड़ीपन है, जिसमें कि हम चंद आदमियों को अपना मान बैठे हैं कि ये मेरे हैं और कुछ चीजों को, कुछ मिट्टी के टुकड़ों को, कुछ लोहे के टुकड़ों को, कुछ सोने, चाँदी और ताँबे के टुकड़ों को यह मानकर बैठ जाते हैं कि ये हमारे हैं। ये आपके नहीं हो सकते।
मित्रो! चाँदी कब बनी थी? जब ब्रह्मा जी ने जमीन बनाई थी. तब चाँदी भी बनाई थी। जमीन में चाँदी मिली हुई थी। ठीक है, जिन लोगों ने उसे जमीन से निकाल लिया, चाँदी उनकी हो गई। फिर जिसने खरीद लिया, उसकी हो गई। फिर टकसाल की हो गई। फिर टकसाल वालों ने उसे ढाल दिया, गवर्नमेंट की हो गई। फिर किसी ने खरीद ली; उसकी हो गई। दूसरे ने खरीदा, उसकी हो गई। चाँदी आपकी है? नहीं, आपकी नहीं हो सकती। चाँदी को धीरे-धीरे घिसते-पिसते, फिर जमीन में शामिल होना पड़ेगा, जहाँ से उसे निकाला था।
चीजों के बारे में जो लोभ है, वह लोभ वास्तव में दिमागी खुजली के अलावा कुछ है ही नहीं। वासनाएँ क्या हो सकती हैं? मित्रो! वासनाएँ कुछ भी नहीं हैं एक क्षण की, सेकण्डों की चीजें हैं, जो झकझोर देती हैं। एक चीज जो अभी हमने खाई थी, बड़ी जायकेदार मालूम पड़ी। पेट जैसे ही भरा, खुजली ने मना कर दिया कि अब हमको इसकी आवश्यकता नहीं है। अब आप ले जाइए। अब हम मिठाई नहीं खाने वाले हैं, न पकौड़ी खाने वाले हैं? नहीं साहब! खानी पड़ेगी। नहीं भाई साहब! अब हम नहीं खाएँगे? हमारे पेट में दरद हो जाएगा। खुजली सेकण्डों में खतम हो गई।
मित्रो! उस सत्ता के साथ हमारा कोई संबंध नहीं था, जिसको मैं जीवात्मा कहता हूँ। उसको, जिसको मंजिल पार करनी है, लक्ष्य पूरा करना है, वह लक्ष्य पूरा करने वाला जीव, जीव की सत्ता चारों ओर से कसकर बाँध दी गई है। बाँध देने के बाद में मंजिल जहाँ से चलना चाहिए, हमारी मंजिल पूरी नहीं होने पाती। कदम आगे नहीं बढ़ पाते; क्योंकि हमारी टाँगें बँधी हुई हैं और हमारे हाथ बँधे हुए हैं। हमारी कमर बँधी हुई है। हर चीज बँधी हुई है। बँधी होने की वजह से हम मंजिल की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ पाते, लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ पाते। हमारा योग क्षणभर के लिए नहीं हो पाता। फिर योग किस तरीके से होगा?
योग, मित्रो! कर्मकाण्डों से नहीं होगा। आप इस वहम को निकाल दीजिए कि हम योग कर लेंगे। नाक से पानी पी जाएँगे, तो योग हो जाएगा। बेटे, इस तरीके से नहीं होगा। चाहे नाक में पानी भर ले या नल लगा ले और सारे-के-सारे नल को खोल दे, फिर भी नहीं होगा। तो फिर कैसे होगा योग? योग कर्मकाण्ड है ही नहीं। कर्मकाण्ड के माध्यम से हम योग की दिशा में अग्रसर होते हैं। बस, यहीं तक बात खतम नहीं हो जाती है, इससे आगे वाली बात है ही नहीं।
मित्रो! कर्मकाण्ड और क्रिया-कृत्य, जिनमें जप भी शामिल है, पूजा-पाठ भी शामिल है, ये सारे-के-सारे कर्मकाण्ड हैं और कर्मकाण्डों का उद्देश्य जीवात्मा को मूल स्थिति से जोड़ने का संकेत करना और चिह्नित करना है, जिसको हम जीवात्मा कहते हैं। जीवात्मा के ऊपर से एक ही चीज आपको हटानी पड़ेगी। उसको आप हटा देते हैं, तो क्या हो जाता है? तब आप योगी हो जाते हैं। तब आप अपने आप को भगवान से, परमात्मा से जोड़ देते हैं। स्त्री और पुरुष अपने आप को जोड़ देते हैं। दोनों की सृष्टि एक हो जाती है। दोनों का गोत्र एक हो जाता है। दोनों का वंश एक हो जाता है। दोनों की परंपरा एक हो जाती है। दोनों की संतान एक हो जाती है। माता की संतान एक और पिता की संतान का एक ही नाम है; क्योंकि दोनों सम्मिलित हो गए न, तो फिर संतान सम्मिलित कैसे नहीं होगी?
मित्रो! हम अपने आप को जब भगवान के सुपुर्द कर देते हैं, तो क्या हो जाता है? स्वभावतः भगवान अपने आप को सुपुर्द कर देता है। हम दोनों एकदूसरे के सुपुर्द हो जाते हैं और हमारे जीवन का जो विकास होता है, हमारे जीवन का जो परिष्कार होता है, उनको हम सिद्धियाँ कह सकते हैं। जिनको हम चमत्कार कह सकते हैं, जिनको हम महानता कह सकते हैं, जिनको हम शिवपन कह सकते हैं, जिनको हम पैगंबरपन कह सकते हैं, जिनको हम ब्राह्मणत्व कह सकते हैं। जिनको हम पृथ्वी तत्त्व कह सकते हैं। यह सारी-की-सारी हमारी संतान हैं। संतानें कब पैदा होती हैं? जब हमारे जीवात्मा और परमात्मा दोनों एक में शामिल हो जाते हैं।
[क्रमशः समापन अगले अंक में]
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव साधकों को अपने व्यक्तित्व का समग्र रूपांतरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं कि एक समग्र जीवन के दो सुदृढ़ आध्यात्मिक आधार हैं। इनमें से पहले का नाम योग और दूसरे का नाम तप है। योग का अर्थ उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए स्वयं के जीवन को समर्पित कर देने से है। जो इस हेतु अपने जीवन को समर्पित करते हैं, वे स्वतः ही ईश्वरीय चेतना से एकाकार हो जाते हैं और उसी मिलन का नाम योग कहा जा सकता है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सही अर्थों में भावनाओं के परिष्कार का नाम योग है और परिष्कृत भावनाएँ जब परमात्मा के पास से प्रतिध्वनित हो करके लौटती हैं तो साधक के जीवन में जो रूपांतरण करती हैं, वही योग कहा जाता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
भावना की भूमिका में प्रवेश
मित्रो! जीवात्मा और परमात्मा को एक में शामिल होने के लिए हमको गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा और भावना की भूमिका में प्रवेश करना पड़ेगा। चेतना की भूमिका में प्रवेश करना पड़ेगा। भावना की भूमिका में प्रवेश करने की हिम्मत आप में नहीं थी। आपने अपने बहिरंग क्रियाकलापों को अपने जीवन के लिए काफी मान लिया और आपने यह बात जान ली कि हमने जो कुछ भी शरीर से कर लिया, वह काफी हो गया। जबान की नोक से जो जप कर लिया, वह काफी हो गया। पुस्तकों में हमने पढ़ लिया, वह काफी हो गया। नाक से पानी पी लिया, कान से घंटी बजने की आवाज को सुन लिया, वह काफी हो गया। तो मित्रो! मैं आपको बालक कहूँगा, बच्चा कहूँगा और गैरजानकार, नासमझ कहूँगा। क्या आप इन सारे-के-सारे क्रियाकलापों को यह मानते हैं कि हमारी जीवात्मा का स्तर ऊँचा हो गया और लक्ष्य पूरा हो गया। वह सब हो गया, जो संत को होना चाहिए था। एक ऋषि को होना चाहिए था।
मित्रो! संत और ऋषि का स्तर बढ़ाने के लिए आपको अपने अहं को ठीक करना पड़ेगा, सुधारना पड़ेगा। अगर आपका अहं काबू में नहीं आया, तो आपके सारे-के-सारे कार्य जैसे एक टाँग पर खड़े रहना, पानी में बैठे रहना, धूनी तपाते रहना, एकादशी का उपवास करने का मतलब कुछ है ही नहीं, आप सही मान लीजिए। फिर और कोई मतलब नहीं है, अगर आपने दूसरी वाली मंजिल पूरी न की, जिस काम के लिए ये सब कृत्य किए गए थे। साधन काम के लिए किए जाते हैं। साध्य अलग होता है। साधना का महत्त्व अपने आप में होगा।
मैं यह कैसे कहूँ कि साधना का महत्त्व नहीं है; लेकिन साध्य अलग चीज है। साध्य वह है, जो हमारे जीवात्मा के स्तर को सही करता है। ठीक बनाता है और हमारी अहंता का निराकरण करता है। हमारी अहंता का जब निराकरण हो जाता है, तब हम योगी हो जाते हैं। हमने अपने आप को भगवान से जोड़ लिया। जोड़ने के लिए पूजा-पाठ की, स्तोत्र की विधियाँ अपने आप में उपयोगी होंगी। कैसे उपयोग में नहीं होंगी? मैं तो सिखाता रहता हूँ कि ये उपयोगी हैं, पर पूर्ण नहीं हैं, समग्र नहीं हैं।
मित्रो ! मैं निवेदन यह कर रहा था कि हमको मूलतः चेतना के स्तर तक प्रवेश करना पड़ेगा। अगर चेतना के स्तर तक हमारा प्रवेश नहीं हो सकता, तो बात कुछ बनने वाली नहीं है। हमारी अहंता को हलका पड़ना चाहिए और ढीला पड़ना चाहिए। हमारी अहंता को कम होना चाहिए और 'मैं' का भाव हट करके 'हम' में प्रवेश होना चाहिए।
गायत्री का केंद्र
गायत्री मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता जो मुझे मालूम पड़ी, सारे-का-सारे जादू जो उसका मालूम पड़ा, उसकी सारी-की-सारी दिशाएँ मालूम पड़ीं, प्रेरणाएँ मालूम पड़ीं, जो प्रकाश मुझे गायत्री के अंदर मालूम पड़ा, उससे मैं धन्य हो गया। मुझे यह मालूम पड़ा कि इसका प्राण कहाँ है? इसका न्यूक्लियस कहाँ है? गायत्री का केंद्र कहाँ है? केंद्र को मैंने सारे में तलाश किया। जो जर्रा होता है, एटम होता है, हमारे जीवाणु होते हैं। हमारे जीवाणु का एक बीच वाला भाग होता है, जिसको हम ध्रुवकेन्द्र कहते हैं, न्यूक्लियस कहते हैं, नाभिक कहते हैं।
गायत्री का नाभिक कहाँ है? नाभिक को—न्यूक्लियस को तलाश किया, तो मुझे यह मालूम हुआ कि 'धियो यो नः' जो शब्द है, इसका न्यूक्लियस ही है। मैं नहीं हम .... हम। हमारा 'मैं' जितना ढीला होता चला जाता है, जितना हलका होता हुआ चला जाता है। हमारी अहंता जितनी कम होती चली जाती है और हमारी व्यापकता जितनी विस्तृत होती चली जाती है, हमारा दायरा बढ़ता हुआ चला जाता है।
मित्रो! हम छोटे से दायरे के लिए नहीं हैं। थोड़े से लोगों के लिए नहीं हैं ।। हम शरीर तक सीमित नहीं हैं। हमारे कुटुंब के लोगों तक, उनकी खुशहाली तक हमारे स्वार्थ सीमित नहीं हैं। हमारे स्वार्थ सारे विश्व तक व्यापक हो गए हैं। अध्यात्म तक व्यापक हो गए हैं। आस्तिकवाद तक व्यापक हो गए हैं। मानवीय पीड़ा, हमारी पीड़ा है। मानवीय सुख और शांति, हमारी सुख और शांति है। इसलिए ये हमारे स्वार्थ के लिए हैं और हमें अपनी रोजी-रोटी कमानी चाहिए, कपड़े पहनने चाहिए। यही दरद, यही इच्छा जब विस्तृत और व्यापक होकर के इतने असीम हो जाते हैं कि जो खुराक हमको जरूरी है, वह सबको मिलनी चाहिए। पैसे की जो जरूरत हमको है, वह सबको मिलनी चाहिए और यही विद्या जो हमको जरूरी है, सबको मिलनी चाहिए। यही सुख जो हमको जरूरी है, सबको मिलना चाहिए।
मित्रो! जब ये भावनाएँ हमारे भीतर आ जाती हैं, तो हम योगी हो जाते हैं और भगवान से जुड़ जाते हैं। यही भावनाओं की प्रतिक्रिया लौटकर के हमारे पास आ जाती है और हम भगवान हो जाते हैं। भगवान क्या है? भगवान मित्रो! प्रतिध्वनि है और प्रतिच्छाया है। भगवान और कुछ नहीं है, वह प्रतिध्वनि और प्रतिच्छाया है। जैसे हमारे विचार होते हैं, जैसी हमारी भावना होती है, उसी की प्रतिक्रिया, प्रतिध्वनि गूँज करके हमारे पास आ जाती है। भगवान के जवाब ठीक वही होते हैं, जो हमारे जवाब होते हैं।
प्रतिध्वनि है भगवान
भगवान से जब हम यह कहते हैं कि अमुक चीज चाहिए, अमुक चाहिए। निकालिए, हमें बेटा दीजिए, लाइए हमको पैसा दीजिए। लाइए हमको ये दीजिए, लाइए हमको वो दीजिए। लाइए हमको नौकरी में तरक्की कराइए ।। लाइए हमारी बीमारी अच्छी कीजिए। यह सारी-की-सारी बातें जो हम कहते हैं, ठीक उन्हीं की प्रतिध्वनि इस अंतरिक्ष में से होकर के हमारे पास चली आती हैं और हमसे ये पूछती हैं कि लाइए, आपके पास पैसा कहाँ है? हमको दीजिए। आपके पास शरीर-श्रम कहाँ है? हमको दीजिए। आपके पास नौकरी में तरक्की कहाँ है? नहीं साहब! हमारी नौकरी में तरक्की कराइए। हमको पैसे की जरूरत है, हमारी सहायता कीजिए। हमको संतान की जरूरत है और वह भगवान की संतान जैसी होनी चाहिए। लाइए हमको संतान दीजिए।
मित्रो! यह कौन कहता है? भगवान कहता है। किससे कहता है? उस माँगने वाले से कहता है। माँगने वाले में जद्दोजहद बराबर बनी रहती है और ऐसी बनी रहती है, जैसे कि दाराशिकोह और उसके भाई में बनी रहती थी। दारा और उसका भाई दोनों ही यही कहते थे कि हमको उम्र चाहिए और राज्य चाहिए। दोनों भाइयों में जद्दोजहद होने लगी और लड़ाई होने लगी। लड़ाई में बड़े भाई ने, छोटे भाई का सिर कटवा दिया और सिर कटवा करके थाली में रखकर मँगवा लिया। हम और हमारा भगवान दाराशिकोह और औरंगजेब हैं और दोनों बैठे हैं कि राज्य हमको चाहिए और दौलत हमको चाहिए। हम कहते हैं कि दौलत हमको चाहिए और भगवान कहते हैं कि तेरी दौलत हमको चाहिए। तेरे पास क्या है? निकाल और हम कहते हैं कि तेरी दौलत कहाँ है? निकाल, दे हमको। भगवान कहता है कि निकाल तेरे पास कहाँ है? हम दोनों अपने-अपने चाकू लिए हुए हैं, तलवार लिए हुए हैं, छुरे लिए हुए बैठे हैं। कब किसका सिर काट डालें और कब किसका खातमा कर डालें।
लेकिन मित्रो! जब यह प्रतिध्वनि, यह प्रतिक्रिया बदल जाती है, उस क्षण जब हम भगवान से यह कहते हैं कि हमारी सारी चीजें तुम्हारी हैं। हमारी भावना तुम्हारी है और हमारा धन तुम्हारा है। हमारा सब कुछ तुम्हारा है। हमारे पास जो कुछ भी है, सब तुम्हारा है और तुम्हारे लिए है। यह विचार जिस क्षण हमारे मन में आ जाता है, तो हमारी लड़ाई का मोर्चा बदल जाता है और हमारी लड़ाई के लड़ने वाले शूरवीरों की शक्लें बदल जाती हैं। हमारी लड़ाई के लड़ने वाले शूरवीर राम और भरत जैसे हो जाते हैं।
रामचंद्र जी कहते थे कि भरत गद्दी तेरे लिए है। तुझे लेनी चाहिए। गद्दी पर तुझे बैठना चाहिए। मैं बड़ा हूँ, मैं तो जंगल में अभी रहूँगा। तू छोटा बच्चा, छोटा भाई है और तुझे ही गद्दी पर बैठना चाहिए? तू गद्दी पर बैठ। भरत कहते थे कि आप बड़े भाई हैं और आप पिता के तुल्य हैं, आपको ही गद्दी पर बैठना चाहिए। मैं तो आपका सेवक हूँ, मैं क्यों बैठूँगा? दोनों में खूब बहस हुई। फिर जीता कौन? धर्म जीता और योग जीता और हारा कौन? 'मैं' हार गया, 'अहं' हार गया। रामचंद्र जी वनवास को चले गए और भरत जी नंदगाँव में जाकर के उसी तरह साधुओं जैसा लिबास पहनकर भूमि पर सोने लगे और राम की तरह वनवासी जीवन जीने लगे। अयोध्या के सिंहासन पर राम जी की खड़ाऊँ रखकर के राजपाट चलाने लगे।
योग का सच्चा दर्शन
मित्रो! यह क्या हो गया? राम और भरत की कथा हम पढ़ते हैं, सुनते हैं। राम और भरत का चित्रकूट में मिलन हम पढ़ते हैं। छाती-से मिलाकर जब हम मिलते हैं, तो कितना आनंद आता है। सारी रामायण एक ओर और राम-भरत का मिलन एक ओर ।। जब गहराई से इसको पढ़ते हैं, तो हमको ऐसा आनंद आता है और मालूम पड़ता है कि आध्यात्मिकता का सार, रामायण का सारे-का-सारे सार उसी में रखा है। यह रामायण का न्यूक्लियस वहाँ है, केंद्र वहाँ है, जहाँ राम और भरत छाती-से मिलाकर मिलते हैं। ऐसा आनंद और कहीं नहीं आता। बार-बार मन करता है कि रामायण के प्रसंगों को पढ़ना चाहिए।
यह क्या हो रहा है? यह मैं योग की व्याख्या कर रहा हूँ। आप जिस उद्देश्य के लिए, जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए यहाँ आए हैं, उस उद्देश्य का नाम है—योग। हमने आपको योग सिखाने के लिए बुलाया है। आपने तो समाज की सेवा करना बता दिया और यज्ञ करना बता दिया। आपने योग करना कहाँ बताया? आप यकीन रखना, मैंने सचमुच योग बताया है। झूठ वाले योग बताने वालों में से मैं नहीं हूँ, ताकि मैं आपको तरह-तरह के खेल-खिलौने हथेली पर देकर के यह कहूँ कि देख बेटा, चंद्रमा मँगा दिया। मुझे लक्ष्मी जी मँगवा दीजिए। अच्छा बेटा! मैं तुझे लक्ष्मी जी मँगा दूँगा।
तो गुरुजी! कब देंगे? कल सवेरे दे दूँगा। आज शाम को लक्ष्मी जी को मँगा लूँगा और वह सवेरे ही आ गया, लाइए लक्ष्मी जी दे दीजिए। हाँ बेटे! ले लक्ष्मी जी। लक्ष्मी जी किसकी बनी है? दोनों तरफ हाथी बैठे हैं और बीच में लक्ष्मी जी बैठी हैं। दोनों हाथी लक्ष्मी जी के ऊपर पानी चढ़ा रहे हैं। लक्ष्मी जी कमल के फूल के ऊपर बैठी हैं। ले बेटा, ले जा लक्ष्मी जी को। दो आने की खरीद करके लाए हैं, ले जा। गुरुजी! ये कैसी लक्ष्मी जी हैं? ये तो बिरला के बराबर भी धनवान नहीं बना सकीं और टाटा के बराबर भी नहीं और मफतलाल के बराबर भी नहीं बना सकीं। ये कैसी लक्ष्मी जी हैं? बेटे, जैसी तैने माँगी थीं, वैसी लक्ष्मी जी मैंने दे दीं। नहीं साहब! हमको असली लक्ष्मी दीजिए और हमको बिरला, टाटा तो बना ही दीजिए। आपने यह क्यों दे दिया? बेटे! यह बच्चों का खिलौना है। तू भी तो खिलौना ही माँग रहा था, सो मैंने तेरे हाथ में खिलौना थमा दिया। नहीं गुरुजी! हमको तो योग बता दीजिए। देख बेटा, अभी बताते हैं। नाक बंद कर-खोल, लंबा-लंबा श्वास ले, निकाल—बस योग आ गया। नहीं बेटे, यह तो योग नहीं हुआ।
भावनाओं का परिष्कार है योग
मित्रो! योग ऐसे नहीं बनता है। नाक में कहीं योग रखा है। नहीं साहब! हवा खींचूँगा और निकालूँगा। बिलकुल पागल आदमी है। नाक की हवा में कहाँ है योग? नाक में तो कफ़ भरा पड़ा है। नहीं साहब! मैं तो नाक से योग करूँगा। बेटे, नाक में योग नहीं है, तो फिर कहाँ है? योग, मित्रो! भावनाओं में है। विचारणा में है। भावनाओं का और विचारणाओं का परिष्कार करना वास्तव में, असल में यही योग है। आपको जब कभी भी यह बात समझ में आ जाए, चाहे आज आए, चाहे हजारों वर्षों बाद आए। योग का मतलब कभी भी आपको जानना पड़े, समझना पड़े तो एक ही दिशा आपको मालूम पड़ेगी और एक ही बात आपको मालूम पड़ेगी कि योग का अर्थ दो तत्त्वों का जुड़ना है अर्थात चेतन तत्त्वों का जुड़ना, एकाकार होना। जड़ चीजों की तो मैं नहीं कहता। जड़ चीजों की तो एक भी अलग हस्ती बनी रहती है, पर चेतन जब कभी भी मिलेगा, तो वे दोनों एक हो जाएँगे। एकदूसरे में विलय हो जाएँगे, फिर दोनों की हस्ती कभी अलग रह ही नहीं सकती। हाइड्रोजन गैस और ऑक्सीजन गैस जब कभी भी आपस में मिलेंगी, तो पानी बन जाएँगी और दोनों की शक्ल बदल जाएगी। कुछ और ही बन जाएगी।
मित्रो! मनुष्य और भगवान जब कभी भी मिलेंगे, तो मनुष्य, मनुष्य रह ही नहीं सकता और भगवान, भगवान रह ही नहीं सकता। फिर मनुष्य और भगवान दोनों जब मिल जाएँगे, तो हम भी भगवान बन जाएँगे। देवता बन जाएँगे और हम संत बन जाएँगे, ब्राह्मण बन जाएँगे। इससे कम में हमारा गुजारा हो ही नहीं सकता। इससे कम हमारी हस्ती रह ही नहीं सकती। भक्त और भगवान दो अलग रह ही नहीं सकते।
मित्रो! मैं योग की बात कह रहा हूँ। चेतन चीजों को जब आप मिला देंगे, तो वे फिर किस तरीके से अलग रह जाएँगी। गंगाजल और यमुनाजल मिला दीजिए, दोनों एक ही हैसियत के हो गए। क्यों? क्योंकि आपने दोनों को मिला दिया। अब आप अलग कर दीजिए न, गंगाजल और यमुनाजल को? कहाँ अलग हो सकते हैं? आपने उन्हें मिला जो दिया। अब वे अलग नहीं हो सकते। दोनों एक हो गए। भगवान के साथ जब जीवात्मा मिल जाएगा, तो फिर दोनों एक हो जाएँगे। दो अलग रह नहीं सकते। योग करने की शिक्षा इसीलिए मैं आपको दे रहा था।
कौन है भोगी, कौन है योगी?
मित्रो! आपको न केवल भावनाओं की दृष्टि से, बल्कि क्रियाओं की दृष्टि से भी असल में योगी होना चाहिए। इसीलिए मैं आपको योगी बनाना चाह रहा हूँ। मेरा असली लक्ष्य आपको योगी बनाना है। योगी बनने के लिए आपको अपनी भूमिका भोगी से हटा देनी पड़ेगी; क्योंकि योगी और भोगी, दोनों एकदूसरे की भिन्न दिशाएँ हैं। भोगी वह है, जो माँगता रहता है और चाहता रहता है। जरूरतमंद बनना चाहता है, मालदार बनना चाहता है और संपन्न बनना चाहता है, अमीर बनना चाहता है। उस आदमी का नाम क्या है? भोगी है। भोगी से भिन्न प्रकार का स्तर जो है, वह क्या है? उसका नाम योगी है।
योगी भगवान के लिए समर्पित होता है और भोगी भगवान को अपने लिए समर्पित कराना चाहता है। वह भगवान से तरह-तरह की ख्वाहिशें और तरह-तरह की फरमाइशें पेश करता रहता है। भगवान के पास कोई बल है, शक्ति है और ताकत है, सो अपने लिए माँगता रहता है। उसका नाम भोगी है। योगी उस आदमी का नाम है, जो माँगता नहीं है, बल्कि भगवान से यह कहता है कि हमारे पास जो चीजें हैं, सो हम आपको सब देंगे। ये चीजें आपकी हैं। बस, मूलत: मनोवृत्ति में इतना फरक है।
मित्रो! वास्तव में एक मनोवृत्ति का नाम योग है और दूसरी मनोवृत्ति का नाम भोग है। अन्यथा जिंदा तो आपको भी रहना पड़ता है और हमको भी रहना पड़ता है। योगी को भी रहना पड़ता है और संत को भी रहना पड़ता है। अनाज तो आप भी खाते हैं। अनाज तो संत भी खाते हैं। कपड़ा आप पहनते हैं। संत छाल पहनता है, कंबल पहनता है और मृगछाला पहनता है। शरीर को वह भी ढकता है। शरीर को ढके बिना किसका काम चला है? किसी का भी नहीं चला है। खाए बिना न आपका काम चला है और न उनका काम चला है। शरीर-निर्वाह की क्रियाएँ तो मित्रो! एक-सी ही होती हैं। क्या योगी की, क्या भोगी की? सबको अपना पेट भरना पड़ता है। ठीक है आपने गेहूँ से भर लिया, योगी ने मक्का से भर लिया; पर अन्न तो उसको भी लेना पड़ा। शरीर का निर्वाह करने के लिए सोना आपको भी पड़ता है और संत को भी सोना पड़ता है। आप पलंग पर सो जाते हैं और वह जमीन पर पत्ते-घास बिछाकर सो जाता है। बात तो एक ही हो गई न। उसमें और आप में फरक कहाँ रहा? जीवन-निर्वाह करने की क्रिया और जीवनयापन करने में योगी और भोगी में कुछ खास फरक नहीं होता। विचार करने की शैली में फरक होता है। सोचने के तरीके में फरक होता है। आदमी सोचता है कि भगवान का नाम लेकर के, पूजा करके वह हमारे वश में आ जाएगा, हमारे काबू में आ जाएगा। बेटे, यह उसका अज्ञान है।
मित्रो! मैं आपसे क्या कह रहा था? मैं आपको योगी बना रहा था और यह कह रहा था कि आप अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को कम कर दीजिए और यह करना शुरू कर दीजिए कि हमको शरीर मिला है, तो शरीर का निर्वाह करने के लिए हम परिश्रम करेंगे। अपनी कमाई से ही हम अपना पेट भरेंगे। यह हमारा ऑटोमेटिक शरीर है। हमको किसी से माँगने की, किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत क्या है? हमको भगवान ने हाथ दिए हैं, कलाइयाँ दी हैं। हम जमीन में लात मारेंगे और पानी निकाल लेंगे। अपनी कलाइयों से मेहनत करेंगे और रोटी खा लेंगे। शरीर-निर्वाह के लिए आपके ऊपर यह एक छोटे से बगीचे की जिम्मेदारी दी है। इसके लिए आपको अपने फ़र्जों को पूरा करना चाहिए। कुटुंब, परिवार जो भी है, उसको शिक्षित बनाना आपका काम है। उसको संस्कारवान बनाना, स्वावलंबी बनाना आपका काम है, बस, उससे आगे नहीं। उससे आगे जो भी कदम आप उठाएँगे, तो परिवार के साथ अत्याचार कर रहे होंगे। इन लोगों को खुश करने के लिए, उनकी इच्छानुसार चलने के लिए अगर आपने कदम बढ़ाए, तो मित्रो! आपकी दुर्गति होना सुनिश्चित है।
मित्रो! आप सबको खुश नहीं रख सकते, तो फिर किसे खुश करना चाहिए? एक भगवान को खुश करना चाहिए और एक अपनी अंतरात्मा को खुश करना चाहिए। इन दो के अलावा किसी तीसरे को खुश करने की जरूरत नहीं है। आप इन दो को खुश कीजिए; क्योंकि आगे जो आपको राह पार करनी है, मंजिल पार करनी है, वह केवल भगवान के सहारे पार करनी है और अपनी जीवात्मा के सहारे पार करनी है। मिलाना तो इन दोनों को ही है न। दुनियावालों को तो नहीं मिलाना है। मित्रो! इसीलिए मैंने आपको योगी बनाने के लिए बुलाया है, ताकि अपने आप को आप भगवान में समर्पित कर दें। उसके लिए क्या करना पड़ेगा? वही, जो मैंने आपसे पहले कहा और फिर कहता हुआ चला जाऊँगा कि आप अपने आप की सफाई कीजिए। अपने मन की मलीनताओं की सफाई कीजिए। मन की मलीनताओं की सफाई का मतलब साबुन से साफ करना नहीं है। नेति, धौति और गंगा जी में नहाना नहीं है, वरन वे कषाय, कल्मष जो आपके ऊपर लोभ के रूप में, मोह के रूप में, वासना-तृष्णा के रूप में हावी हो गए हैं, सवार हो गए हैं, आपको उन्हीं की सफाई करनी है और किसी की सफाई नहीं करनी है।
मित्रो! शरीर के धोने न धोने से भगवान नाराज नहीं हो सकते। भगवान जी जब भी आपसे नाराज होंगे और जब कभी भी नाखुश होंगे, जब आपके मन के ऊपर मलीनताएँ छाई रहेंगी। योग इसी आत्मशोधन का, आत्मपरिष्कार का नाम है। मैंने आपको यही सिखाया कि आपको योगी बनना चाहिए और वह योगाभ्यास करना चाहिए; जिसमें कि आपकी अहंता, जिसमें कि आपकी स्वार्थपरता, जिसमें आपके लोभ का निराकरण होता हो, समाधान होता हो। इसके लिए जो कर्मकाण्ड बताए, आत्मशोधन की प्रक्रियाएँ बताईं, आत्मविस्तार की प्रक्रियाएँ बताईं, वह सारा-का-सारा योगाभ्यास ही है और वह भावनात्मक योग है। आपको इसे ही सीखना है और जीवन में धारण करना है।
आज की बात समाप्त