191. आत्म विस्मृति की यह स्थिति कब तक रहेगी?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व हमें अपने भविष्य का अधिकार प्राप्त नहीं था। हमारी गतिविधियों, क्रिया कलापों और प्रयासों पर ऐसी शक्तियों का प्रभुत्व था जो केवल अपने लाभ के लिए ही हमारा उपयोग जानती थी। छल-छद्म से ही अथवा कूटनीति और शस्त्रबल से विदेशी सरकार भारतीय जनता को उन्हीं क्षेत्रों में काम करने की छूट देती थी जिससे उसके व्यापारिक हित सधते थे। इस विवशता के कारण चारों ओर दीनता और दरिद्रता का साम्राज्य फैला हुआ था। न हम अपना हित अहित सोच सकते थे और सोचते भी तो उस सम्बन्ध में कुछ करने से मजबूर थे। राष्ट्र के आर्थिक पहलू से लेकर सामाजिक साँस्कृतिक और शैक्षणिक सभी पहलुओं पर पराधीनता की विवशता छायी हुई थी।

दासता का यह अभिशाप सभी क्षेत्रों में पिछड़ेपन के रूप में फलित हुआ। यद्यपि अंग्रेजी सभ्यता के संसर्ग से भारतीय समाज ने कई लाभ भी अर्जित किये। उदाहरण के लिए आधुनिक विज्ञान का प्रवेश अंग्रेजी सभ्यता के साथ ही हुआ। मुगलकाल तक हमारे देश में इस बात की कोई जानकारी ही नहीं पहुँच सकी थी कि पश्चिम में विज्ञान ने मनुष्य को क्या वरदान बाँट दिये है। उन वरदानों को तथा विज्ञान की शक्ति को साथ लेकर ही अंग्रेजों ने इस देश में पाँव रखा और मेहमान बनकर आने वाले घर के मालिक बन बैठे, वाली उक्ति चरितार्थ हुई। विज्ञान की शक्ति ने अतिथि व्यापारियों को यहाँ का शासक बना दिया, यह दुर्भाग्य घटित हुआ। कहा जाता है कि दुर्भाग्य जनित परिस्थितियाँ अपने दुष्परिणामों के साथ कुछ न कुछ वरदान भी दे जाती है। इन वरदानों को अधिक सरल भाषा में सीख-समझ भी कहा जा सकता है। यह सत्य भारतीय समाज के साथ भी घटित हुआ और पराधीनता के साथ अंग्रेजी सभ्यता के संसर्ग से एक नये दृष्टिकोण का उदय भी हुआ। विज्ञान की शक्ति से लाभ उठाने की प्रेरणा भी उत्पन्न हुई। रूढ़िवादिता के प्रति विद्रोह की भावना जन्मी और शिक्षा के महत्त्व को साधारण स्तर पर समझा जाने लगा। भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व के समाज का यदि अध्ययन किया जाय तो विदित होगा कि तत्कालीन समाज दो भिन्न छोरों पर आसीन था। शासक और शासित, प्रभुता सम्पन्न और निम्न श्रेणी के वर्ग विभाजन की रेखा खाई बन कर इस प्रकार खिंची हुई थी कि एक का दूसरे से कोई सम्बन्ध ही नहीं जुड़ पाता था। न कभी इन दोनों वर्गों में कोई सम्वाद या सम्पर्क स्थापित हो पाता था।

यों उच्च और निम्न वर्ग सभी काल में सभी समाजों में होते है परन्तु एक दूसरे से इतने पृथक नहीं रहते जितने कि मध्यकाल में अपने देश में रहे। विदेशी शासकों ने किसी न किसी रूप में एक दूसरे से सम्बन्ध सूत्र जोड़े ही। भले ही वे सम्बन्ध स्वामी-सेवक, जमींदार-खेतिहर, अफसर-नौकर के रूप में स्थापित हुए हो। इससे पूर्व भारत में परलोक को ही सब कुछ समझा जाता था और उसी की चिन्ता करते हुए इस लोक को सदा महत्त्वहीन माना जाता था। अंग्रेजों के ऐश्वर्य, उनके ठाट-बाट और उनकी उपलब्धियों को देखकर लोगों को दीनता के साथ ही सही, यह अनुभव तो हुआ कि इस लोक का जीवन भी कुछ अर्थ रखता है और उसे महत्त्व दिया जाना चाहिए। निस्संदेह उस समय ऐहिक जीवन को अर्थपूर्ण बनाने की सामर्थ्य आदमी में नहीं थी, परन्तु उसका अनुभव तो होने लगा ही।
जीवन के प्रति दृष्टिकोण जागृत होने के साथ ही विज्ञान की शक्ति का परिचय भी हमें मिला। बैलगाड़ी से आगे बस, मोटर, विमान की कल्पना उससे पूर्व के भारतीय मस्तिष्क में सम्भवतः नहीं थी। अंग्रेजी सभ्यता के संसर्ग ने न केवल उस कल्पना को जन्म दिया वरन् उससे साक्षात् भी कराया। यह बात और है कि इस तरह की व्यवस्था अपने हितों को ध्यान में रखकर ही की गयी होगी। इन सब लाभों से बड़ा लाभ सोचने, विचारने के ढंग में परिवर्तन आने के रूप में हुआ। तब तक उसमें उचित प्रमाणम् की ही परम्परा थी और परम्परा सो परम्परा। उसमें उचित अनुचित का विवेक लाभ हानि देखने की क्या आवश्यकता? इसी प्रवृत्ति का सर्वव्यापी अनुकरण किया जा रहा था। परम्पराओं के प्रति अन्ध भक्ति आज भी मिटी नहीं है, परन्तु उनके सम्बन्ध में औचित्य की दृष्टि से पुनः विचार करने की आवश्यकता सभी विचारशील व्यक्ति अनुभव करते हैं। उन दिनों तो विचारशील वर्ग, समाज का बौद्धिक नेतृत्व करने वाला ब्राह्मण भी परम्पराओं को अकाट्य प्रमाण मानकर चलने का आदी था।

परम्पराओं के प्रति वस्तु परक व्यावहारिक और औचित्य की दृष्टि से सोचने की प्रवृत्ति ब्रिटिश काल में ही जन्मी। राजा राम मोहन राय का ब्रह्म समाज, केशव चन्द्र सेन का प्रार्थना समाज, एनी बेसेण्ट की थियोसाॅफी और स्वामी दयानन्द का आर्य समाज जैसे सुधारवादी आन्दोलन ब्रिटिश काल में ही उद्भूत हुए। इन सुधार आन्दोलन में कहीं न कहीं अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव जरूर रहा था।

जन साधारण के लिए शिक्षा की सुलभ व्यवस्था भी उन्हीं दिनों विकसित हुई। प्राचीन काल में गुरुकुल और आश्रमों के रूप में जीवन निर्माणकारी शिक्षा सर्वसुलभ रही थी। परन्तु मध्यकाल में वह व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी और केवल उन्हीं परिवारों के लिए शिक्षा सुलभ रह सकी जो घर पर अपने बच्चों के लिए पढ़ने की व्यवस्था कर सकते थे। अध्यापकों को वृत्ति देकर अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए नियुक्त कर सकते थे। अथवा वे ही बच्चे पढ़ पाते थे जिनके अभिभावक स्वयं शिक्षित होने के साथ-साथ अपनी सन्तान के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता अनुभव कर सकते थे। अंग्रेजी शिक्षा चाहे जितनी दोषपूर्ण रही हो पर उससे पूर्वापेक्षा अधिक आसानी से लोग अपने बच्चों को पढ़ने लिखने की सुविधा प्राप्त करने लगे। यद्यपि सर्व साधारण में शिक्षा के प्रति रुचि जागृत नहीं हुई फिर भी जिनमें रुचि थी और समर्थ साधनों के अभाव में जो अपनी आकांक्षा पूरी नहीं कर पा रहे थे उनके जिए वह अवरोध हटा।

इस दृष्टि से ब्रिटिश काल में शैक्षणिक प्रगति भी हुई। उसे नाम मात्र के लिए ही उपयोगी और लाभदायक समझा जाय पर उसे उपलब्धि के तौर पर एकदम नकारा नहीं जा सकता। इस विवेचन का उद्देश्य यह नहीं है कि दासता का वह युग अच्छा था अथवा उसमें सचमुच कोई प्रगति हुई। इन स्थितियों के निर्माण में विदेशी शासन ने जहाँ कही भी थोड़ा बहुत सहयोग किया उसका उद्देश्य अपना स्वार्थ साधना ही रहा था लेकिन जैसा कि कहा जा चुका है दैन्य और दुर्भाग्य अपने घातक प्रहारों के साथ कहीं न कहीं ऐसे चिन्ह जरूर छोड़ जाते हैं जिन्हें शुभ कहा जा सके। यद्यपि उसके लिए मँहगी कीमत चुकानी पड़ती है और विदेशी दासता के रूप में तो हमें अपनी आत्मा बेचनी पड़ी। इसलिए उपरोक्त उपलब्धियों और परिवर्तनों को सुखद वरदान किसी भी तरह नहीं कहा जा सकता।

जो भी हो, देश के विचारशील वर्ग में यह जागृति आयी कि गुलामी की जिन्दगी से आजादी की मौत अच्छी है। राष्ट्र में यह बोध उत्पन्न हुआ कि स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और यह संकल्प जगा कि हम उसे लेकर रहेंगे। इस बोध ने राष्ट्र की आहत आत्मा सोये हुए स्वाभिमान को जगाया और सारा देश संगठित होकर स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ने लगा। पचास वर्ष से ऊपर के कई व्यक्तियों को हम आज भी कहते हुए सुनते है कि इस जमाने से तो अंग्रेजों का राज्य अच्छा था। अतीत की यादों में पलायन कर जाने की इस प्रवृत्ति का कारण आज की मँहगाई और उस जमाने के सस्ते मूल्य हो अथवा आज की ढीली-पोली व्यवस्था के स्थान पर तब की सख्त और कठोर व्यवस्था है, वही व्यक्ति भी आज के समय में अतीत को सुनहरा बताते और उसके गीत गाते हैं। उन दिनों स्वतन्त्रता के संकल्प को देश अपनी श्वाँस-श्वाँस में भर रहा था। और इन आदर्शों को अपना जीवन सूत्र बनाये हुए था कि गुलामी की जिन्दगी से आजादी की मौत बेहतर है। कहने का अर्थ यह है कि सारा राष्ट्र एक स्वाभिमान से भर उठा, जन जन में स्वतन्त्रता के लिए बढ़-चढ़ कर उत्सर्ग करने की होड़ जाग उठी।

देश स्वतन्त्र हुआ। शासन सत्ता विदेशी हाथों से निकल कर अपने हाथों में आयी। यह राजनैतिक स्वतन्त्रता थी, राजनैतिक दृष्टि से आज भी हम स्वतन्त्र है। पर राजनीति के सिंहासन पर बैठ कर विदेशी हाथों ने हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को जिस प्रकार निचोड़ा उसे धो पोंछ कर अपना रंग भरने की चेष्टा की और उस कुचेष्टा में जितनी सफलता प्राप्त की उससे हम अभी तक कहाँ मुक्त हो पाये हैं। अर्थात् उन दिनों अंग्रेजी दासता राजनीति से नीचे और गहरी उतरती हुई जिस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानसिक स्तर तक बैठती चली गयी, उसका कुप्रभाव अभी भी ज्यों का त्यों छाया हुआ है।

सभ्यता, संस्कृति और भाषा किसी भी देश के राष्ट्रीय स्वाभिमान को जीवित रखने वाले जीवन तत्व हैं। अंग्रेजी शासन का यदि कोई सबसे बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा है तो वह यह कि हम इन जीवन तत्वों के मूल्य और महत्त्व को हीन करते गये, इस स्थिति तक हमारा पतन हुआ कि हमने अपना मनोबल तक गिरा लिया। यह सब यदि अंग्रेजी शासन काल में हुआ होता तो भी यह सोचकर संतोष किया जा सकता था कि मजबूरी है क्या किया जाय? शोचनीय तो यह है कि आज जबकि अपने निर्माण का अधिकार हमें स्वयं ही मिला हुआ है तब भी हम स्वयं को हीन समझते हुए पश्चिमी सभ्यता के साँचे में ढलने के लिए अपने हाथ पैर कटाने को तैयार बैठे हुए हैं। यह भी कहा जा सकता है कि काट रहे हैं।

हमारे सामाजिक जीवन में चतुर्दिक छाया हुआ अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव इस बात का प्रतीक है कि हम अपने ही प्रति कितने अविश्वास से भर गये है। प्रत्येक संस्कृति की अपनी मौलिक विशेषताएँ होती हैं, भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता है अपनत्व का विस्तार, परमार्थ भावना का विकास। इसी प्रकार जीवन को धर्म और अध्यात्म प्रधान बनाने का दृष्टिकोण। यदि इन विशेषताओं को तथाकथित सभ्य लोगों में खोजने के लिए निकला जाय तो शायद ही कहीं इनके दर्शन हो। सभ्य और सुसंस्कृत की परिभाषा ही बदल कर यह हो गयी है कि जो व्यक्ति जितना अधिक आत्म केन्द्रित हो वह उतना अधिक सुसंस्कृत अर्थात् मैच्योर है। अपने पड़ोसी तक को न जानना, अथवा परिचित व्यक्ति को जान बूझ कर अपरिचित की दृष्टि से देखना उच्च स्तर की सोसाइटी का प्रमाण है, वसुधैव कुटुम्बकम् और आत्मवत् सर्व भूतेषु की जीवन दर्शन को प्रतिपादित करने वाली भारतीय संस्कृति इतनी संकीर्ण अथवा स्वकेन्द्रित होने के लिए तो प्रेरित नहीं कर सकती।

इन उच्च आदर्शों को समग्र रूप से जीवन में उतार पाना सहज संभव नहीं है यह माना जा सकता है। परन्तु जीवन की दिशा एकदम उसे विपरीत तो नहीं जानी चाहिए। आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को ग्रहण करने वाले व्यक्ति में इतनी अनुदारता और स्वार्थपरता भी नहीं होनी चाहिए कि पत्नी की बीमारी को स्वयं के लिए शान्ति भंग का कारण समझे और उसे चुपचाप पड़ी रहने के लिए कहने लगे। यह तो एक छोटा सा उदाहरण है, अन्यथा यहाँ तक सुना गया कि पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर उच्च वर्ग के कई व्यक्ति विवाहित जीवन और यौन आदर्शों को भी उसी तुला पर तौलने लगे हैं, जिस पर कि पश्चिमी लोग। कहाँ तो विवाह को जन्म जन्मान्तरों का बंधन पवित्र साहचर्य मानने वाला भारतीय आदर्श और कहाँ माता पुत्र के स्नेह वात्सल्य में भी वासना की सड़ांध सूँघने के लिए प्रयत्नशील पश्चिमी जीवन मूल्य।

अपने स्वरूप और गौरव गरिमा के विस्मरण तथा पश्चिमी सभ्यता के आकर्षण में उत्पन्न हुई चौंधियाहट पराधीनता से भी बुरी स्थिति है। किसी विचारक ने कहा है कि परिस्थिति जन्य दासता से वैचारिक गुलामी कई गुना भयंकर है। क्योंकि इस स्थिति में हम दास होते हैं फिर भी स्वयं को दास अनुभव नहीं करते वरन् उसी में अपना गौरव समझने लगते है।

मुट्ठी भर लोग बाहुबल और संख्या बल में भी अधिक हिन्दुओं को रौंदते रहे और यहाँ तक कि उन पर अपनी प्रभुता भी जमा ली। फिर भी हिन्दू धर्म चौके चूल्हे तक और ऊँच नीच तक ही समझा जाता रहा। जिस धर्म दर्शन ने आत्मवत् सर्वभूतेषु का सन्देश दिया उसकी कौन सी शिक्षा का यह अर्थ लगाया गया कि वंश और व्यवसाय विशेष के कारण कोई व्यक्ति इतना ऊँचा है कि दूसरा व्यक्ति उसकी छाया पर भी पाँव नहीं रख सकता। और कोई व्यक्ति इतना नीचा है कि उसका मुँह देखना भी पाप हो गया। जिस किसी भी अन्धयुग में यह मान्यता प्रतिष्ठित की गयी उस युग ने हिन्दू समाज को एक अभिशाप दे दिया जिससे वह आज तक भी अभिशाप है।

उस अभिशाप के दुष्परिणाम तत्काल ही सामने आने लगे। पराजय के रूप में, विघटन, दुर्बलता और प्रतिगामिता के रूप में। सच है कि विवशता के कारण स्वीकार की गयी पराधीनता से स्वेच्छा या स्वीकार किया गया बंधन अधिक घातक होता है क्योंकि स्वेच्छया स्वीकार के साथ ही आत्म समर्पण भी हो जाता है। इन दिनों हमारे जीवन मूल्यों में जो पतन होते दिखाई दे रहे है, उसका कारण यही है कि हमने अंग्रेजी सभ्यता से प्रभावित सम्मोहित होकर बाह्य सुखों को ही सर्वोपरि उपलब्धि मान लिया है। इधर एक और विडम्बना देखी जा रही है पश्चिमी देशों के लोग बाह्य सुखों से ऊब कर आन्तरिक सुख, आत्मिक संतोष की प्राप्ति के लिए भारत की ओर निहार रहे हैं तथा वहाँ से मार्ग दर्शन मिलने की अपेक्षा कर रहे हैं। वहीं हम उनके द्वारा फेंके गये जीवन मूल्य उत्सर्जित कर दिये गये आदर्शों को छाती से चिपटाने में ज्ञान समझने लगे हैं। इन विषम परिस्थितियों में आवश्यकता इस बात की है कि हम आत्म विस्मृति की मूर्छा से जगें तथा सही मार्ग अपनाये।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

192. सर्वांगीण प्रगति की दूरदर्शी रीति नीति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मानवीय सभ्यता का विकास किसी चमत्कारिक ढंग से नहीं हुआ है। वह क्रमशः ही आगे बढ़ी है और निरन्तर आगे बढ़ती हुई वर्तमान स्थिति तक पहुँच सकी है। इस प्रगति क्रम का अध्ययन करने के बाद यह अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं रह जाता कि फूँक मारते ही जादू की तरह कहीं कोई एक दम उन्नत हो जाता है। इस तरह की उन्नति यदि कही कोई होती भी है तो उसे जादू ही कहा जायेगा और इसकी नींव भी उतनी ही खोखली होगी। जादू से तुरत-फुरत पेड़ उगाए जा सकते है, उनमें फल भी लगाए जाते हैं, पर उनकी उपयोगिता मनोरंजन तक ही सीमित रहती है। यथार्थ जगत में पेड़ और उनके फल खाने के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है क्योंकि कोई भी विकास आकस्मिक और चमत्कारिक ढंग से नहीं होता।

आत्मिक विकास के क्षेत्र में भी यही नियम लागू होते हैं। कोई व्यक्ति मन्त्र पढ़कर, आशीर्वाद लेकर देवी देवताओं की औंधे सीधे ढंग से पूजा कर अकस्मात् उच्च आत्मिक कक्षा में बैठ जाना चाहे तो उसकी यह आशा आकाँक्षा दुराशा ही सिद्ध होगी। कभी कभी कोई चमत्कारी उपलब्धि होती दिखाई भी दे तो वह जादुई पेड़ की तरह होगी जिसकी उपयोगिता मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकती। कारण कि ठोस विकास और प्रगति क्रमबद्ध ढंग से, अपने नियम के अनुसार ही होती है। अकस्मात् या अचानक कुछ नहीं होता।

व्यक्तिगत जीवन में इस तरह की घटनाओं का भले ही कोई प्रत्यक्ष अनुभव न होता हो कि प्रगति क्रमशः हुई पर वस्तुतः वह स्थिति लम्बे और सुदीर्घ प्रयासों से ही होती है। निश्चित नियम के अनुसार क्रमबद्ध विकास इस सृष्टि का शाश्वत नियम है। इसमें कहीं कोई अपवाद नहीं है। अपवाद दिखाई भी पड़ते हैं तो उन्हें विकास नहीं कहा जा सकता। अन्ततः उनकी परिणति अवगति में ही होती है। इस तथ्य का विवेचन किया जाय और इस नियम पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो इसकी पुष्टि में ढेरों प्रमाण मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए हम मानव सभ्यता के विकास क्रम को ही लें। व्यक्ति का जीवन तो इतना जटिल है कि उसे लेकर किसी सिद्धांत का विवेचन करने में ढेरों भ्रांतियाँ होने की संभावना रहती है। उन भ्रांतियों का निराकरण करते हुए इस तथ्य का प्रतिपादन एक वृहद ग्रंथ में ही सम्भव हो सकता है।

वैज्ञानिकों की मान्यता है कि मनुष्य दूसरे प्राणियों के ही विकास की एक कड़ी है। जीवशास्त्रियों के अनुसार मनुष्य के आदि पूर्वज आदि मानव पेड़ों पर रहते थे। वह हाथ पैरों की मदद से चौपाये जानवरों की तरह चलते थे। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य के इस पूर्वज के जीवन में जिसे वन मानुष कहा गया है अगले दो पैरों का बहुत महत्त्व था, पेड़ पर चढ़ना हो या कंद मूल फल उठाना हो वह अपने अगले दोनों पैरों से ही अधिक काम लेता था। फलतः पिछले पैरों और अगले दो पैरों में विभिन्नता आने लगी। धीरे-धीरे वनमानुषों ने पेड़ों पर रहना छोड़ दिया। वे पेड़ों को छोड़ कर जमीन पर, गुफाओं और कंदराओं में रहने लगे। यह घटना आब से दस लाख वर्ष पूर्व घटी बताई जाती है। तब पृथ्वी की स्थिति भी आज की अपेक्षा भिन्न थी। वह अलग चर्चा का विषय है। दस लाख वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने दो पैरों पर चलना आरम्भ किया तब वह वनमानुष से आदि मानव बन गया। इस घटना के कारण ही वह सभ्यता के पथ पर आगे बढ़ने में समर्थ हो सका।

आज मनुष्य के हाथ जिस तरह के दिखाई देते हैं आदि मानव के हाथ इससे सर्वथा भिन्न थे। वैज्ञानिकों का कहना है कि चारों हाथ पैरों के बल पर चलने का संस्कार मनुष्य की चेतना में आज भी विद्यमान है। इसकी पुष्टि में तर्क दिया जाता है कि मनुष्य दोनों पैर से चलता है तब उसके दोनों हाथ भी अनजाने में हिलने लगते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे के वह चारों हाथ पैरों के बल पर चलता था। दाया पैर आगे बढ़ता है तो उसके साथ बाँया हाथ आगे की ओर हिलता है तथा बाँया पैर आगे के लिए उठता है तो दाँया हाथ आगे की तरफ हिलता है। यद्यपि ऐसा करने से चलने में कोई सहायता नहीं मिलती किन्तु बताया जाता है कि मनुष्य की चेतना में आदि मानव से पूर्व की स्थिति के संस्कार आज भी विद्यमान हैं। तथ्य जो भी हो पर यह सत्य है कि वनमानुष से आदि मानव के रूप में ढलना मनुष्य की विकास यात्रा का पहला चरण था।

आदि मानव का शिक्षक कोई नहीं था इसलिए उसने जो कुछ भी सीखा वह अपने प्रयत्न और अनुभवों से स्वयं ही सीखा। आज भी मनुष्य की स्थिति ऐसी कि वह बिना किसी के सिखाए कुछ नहीं सीखता, यदि किसी मानव शिशु को जंगल में छोड़ दिया जाय तो उसके बचने की कोई संभावना नहीं है। निश्चित रूप से वह मर जायेगा। यदि वह थोड़ा बड़ा हुआ और उसमें यत्किंचित जिजीविषा रही और प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष काने की थोड़ी बहुत क्षमता रही तो वह कंद मूल फल खाकर जीवित रहने की चेष्टा करेगा। इससे आगे वह कुछ नहीं कर सकेगा, न आग का उपयोग जानेगा और दरवाजे पर खड़ा कर दिया जाय तो ना ही वह उसे खोल सकेगा। इस तरह की सारी बातें मनुष्य अपने परिवार के लोगों से, पड़ोसियों से, मित्रों से और अन्यान्य निकटवर्ती लोगों से सीखता है। मानव को यह सब सिखाने के लिए कोई शिक्षक तो था नहीं, अतएव उसने जो कुछ भी सीखा अपने ही प्रयत्नों और पिछले अनुभवों से।

यह सब उस काल की बातें हैं जिसे प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। इस काल को अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भागों में बाँटा गया है।

(१) पूर्व पाषाण काल (२) उत्तर पाषाण काल (३) धातु काल। पूर्व पाषाण काल में जब मनुष्य ने दो पैरों से चलना और दो हाथों से काम करना सीखा तथा पेड़ों से उतर कर जमीन पर रहने लगा तब उसके सामने कई समस्याएँ आई। इसी काल में उसने पत्थरों के हथियार बनाए ताकि जंगली प्राणियों से सुरक्षा की जा सके। हथियार ही नहीं उस समय मनुष्य ने पत्थर से दूसरी वस्तुएँ भी बनाई। पुरातात्त्विक अनुसंधान से जो बातें जानने में आई हैं, उनसे प्रतीत होता है कि इस काल के लोग धातु से परिचित नहीं थे। उनके हथियार आदि पत्थरों से बने होते थे और उनमें जानवरों की हड्डियों की मूठें लगा दी जाती थीं। पत्थर और हड्डी के अलावा बाद में लकड़ी का भी प्रयोग किया जाने लगा और मनुष्य ने धीरे-धीरे हथौड़े घन, डण्डे, बरमे, खुरपी, कुल्हाड़ी, फरसे, छोटे बड़े चाकू, बरछे, खंजर आदि वस्तुएँ बनाने लगा। पूर्व पाषाण काल में उस बात के कोई संकेत नहीं मिलते कि इस समय मनुष्य को वस्त्र पहनने का ज्ञान था। उस काल में लोग नंगे ही रहते थे। न उन्हें खेती का ज्ञान था और न वस्त्र बनाने का। आगे चलकर उन लोगों ने पेड़ की पत्तियों और छाल से अपने तन को ढाँकना आरम्भ कर दिया। सम्भवतः तब उन्हें सर्दी गर्मी का अनुभव होने लगा था। इस काल में सभ्यता और विचारशीलता की दृष्टि से मनुष्य पशुओं से दो चार कदम ही आगे था। मुर्दों को जंगल में ही फेंक दिया जाता, जो जंगली जानवरों का आहार बनते पर उस समय के मनुष्य में इतनी संवेदना जागृत हो गई थी कि वह अपने सजातीय मनुष्यों का भक्षण नहीं करता था।

नितान्त असभ्य, जंगली और संस्कार रहित होने के उपरान्त भी यह आश्चर्य की ही बात कही जायेगी कि उस समय के लोग दीवारों पर चित्र बनाने लगे थे। से चित्र प्रायः बारहसिंघे, हाथी, घोड़े आदि के स्तर की प्रतिमाएँ भी देखने को मिलती हैं जिन्हें देखकर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उस काल के लोगों को कला कौशल का ज्ञान था।

इस काल का अध्ययन करने के बाद यही प्रतीत होता है कि उस समय के मनुष्य में संवेदना तत्व का जागरण हो गया था। इसी संवेदना के फलस्वरूप उसमें कलात्मक प्रेरणाएँ उत्पन्न हुई यदि यह कहा जाय कि संवेदना और कलात्मक प्रेरणाओं के परिणाम स्वरूप वह निरन्तर सभ्यता के पथ पर अग्रसर होता गया, तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, पूर्व पाषाण काल के बाद मनुष्य जाति ने उत्तर पाषाण काल में संक्रमण किया। अब मनुष्य पहले की अपेक्षा सभ्य हो चुका था। यद्यपि अभी भी पत्थरों के ही औजार बनाये जाते थे, पर उनमें पहले की अपेक्षा कलात्मकता का समावेश कर लिया गया था। औजारों को तब रगड़कर नुकीला और चमकदार बनाया जाने लगा था।

इस काल में मनुष्य ने एक स्थान पर टिक कर रहना भी शुरू किया। उसमें पशुओं को पालने तथा उनसे लाभ उठाने का भी ज्ञान विकसित हुआ। वह गाय, बैल, बकरी, घोड़े, कुत्ते आदि पशु पालने लगा। दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न काम-काज भी किये जाने लगे। इस काल में मनुष्य ने अग्नि का आविष्कार भी कर लिया था। निवास के लिए झोंपड़ी कृषि, पशुपालन आदि बातों ने परिवार संस्था को जन्म दिया। फलतः भाई-बहन, माता-पिता, पति-पत्नी जैसे पारिवारिक संबन्ध स्थापित हुए।

इस स्थिति मे रहते हुए कुछ शताब्दियों के बाद मनुष्य ने धातु का प्रयोग करना सीखा। पत्थर की तुलना में धातु से अधिक अच्छी शक्ल के तथा अधिक उपयोगी छुरे, चाकू, कुल्हाड़ी, हथौड़े आदि बनाये जा सकते है यह सोच कर मनुष्य ने धातु का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। सबसे पहली धातु जो मनुष्य को मिली वह ताँबा बताई जाती थी परन्तु ताँबे से बने उपकरण जल्दी ही भोथर तथा बेकार हो जाते हैं यह देखकर मनुष्य ने ताँबे में टीन को मिलाकर एक नई धातु काँसा बनाई। इस प्रकार काँस्य युग का आरम्भ हुआ।

मानवीय संस्कृति और सभ्यता के विकास में धातु का व्यवहार एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इससे मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ गई और वह सभ्यता के प्रवेश द्वार पर पहुँच गया। इतिहासकार इस युग को सभ्यता का उषा काल कहते हैं। मनुष्य ने इस युग में धातु को गलाना और उसे इच्छित रूप देना आरम्भ कर दिया था। आधुनिक मशीन युग की आधारभूत चीजों में से चक्र, पहिए आदि को वह जान गया था। इतिहासकारों के अनुसार यह क्रम ईसा से ३०००-३५०० वर्ष पहले तक चलता रहा। इसके बाद का इतिहास तो ज्ञान है।

मनुष्य की इस विकास यात्रा के वृत्त को लेकर विद्वानों में मतभेद है, पर इस तथ्य को सभी स्वीकार करते है कि उन्नति किसी भी क्षेत्र में हो क्रमिक ही होती है। बीज एक दिन में ही फूटकर अंकुरित नहीं हो जाता और न ही वृक्ष बन जाता है। पैदा होते ही कोई बच्चा प्रौढ़ प्राणियों की तरह व्यवहार नहीं करने लगता। से सारे परिवर्तन धीरे-धीरे और क्रमशः होते हैं। यह क्रम इतना सुनियोजित और सुव्यवस्थित होता है कि पता ही नहीं चलता कब परिवर्तन हो गया।

हृदयंगम करने योग्य तथ्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति क्षमता सम्पन्न है। अकूत क्षमताओं का भण्डार है। सृष्टा ने जब मनुष्य जाति की रचना की तब सबसे पहले उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रखा होगा और फिर उनका सामना करने के लिए विलक्षण क्षमताओं का समावेश किया। पर आज मानव वर्ग गुमराह हो गया है। अपनी क्षमताओं, प्रतिभाओं को देख परख नहीं पाता। स्वयं को उस स्तर का नहीं आँकता जिस स्तर का वास्तव में वह है। यदि ऐसा हो पाता तो मनुष्य आज इतना त्रस्त नहीं होता। उससे घुटने टेकने की प्रवृत्ति जाती रहती।

महान दार्शनिक नारमन विनसेंट पील ने विभिन्न प्रकार के लोगों से साक्षात्कार किया और पाया कि व्यक्ति यदि चाहे तो अपनी कठिनाइयों को स्वयं निरस्त करके उन पर विजय प्राप्त कर सकता है। उसमें अद्भुत क्षमताओं का भण्डार भरा पड़ा हैं।

यदि जीना दूभर हो जाये तो अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि समस्या का निदान करना चाहिए। हर समस्या का हल अपने में मौजूद है। भगवान बुद्ध का कहना था-मन ही सब कुछ है। आप जो भी चाहेंगे वह हो सकता है। यदि हम कमजोर हो गए और हार गए तो इसका मतलब यह होता कि हमने असफलताओं को अपने विचारों पर हावी होने का मौका दे दिया एवं अपने आपको जानने समझने में वास्तविकता से विपरीत दिशा में बढ़ गए। यह स्वयं को अन्धेरे में भटकाने जैसी बात होगी तथा इससे क्षमताएँ कुण्ठित होंगी।

इससे बचने का एक मात्र उपाय यही है कि अपने प्रति बनी गलत धारणाएँ बदली जाये जो हमारे अन्तर्मन में जड़ जमाती और अपने सम्बन्ध में सही मूल्यांकन करने में असमर्थ रही हैं।

मन के हारे हुओं को सफलता शायद ही कभी मिलती है। उनके मन मस्तिष्क में यह बात बुरी तरह घर कर गई होती है कि वे अक्षम हैं। कठिनाइयों, परेशानियों, संकटों का सामना करने, उन्हें हटा सकने की क्षमता उनमें नहीं हैं। फलतः यदि कहीं सफलता के चिन्ह दृष्टिगोचर होते भी हैं तो उन्हें स्वीकार एवं ग्रहण नहीं हो पाते। इसके विपरीत सशक्त मनोबल वालों के सामने बड़ी विघ्न बाधाएँ भी नत-मस्तक हो जाती हैं। कारण कि वे हर प्रकार की समस्याओं का हल निकालने के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं। अस्तु, अन्ततः से सफल भी होते हैं।

विकास क्रम का इतिहास बताता है कि अगणित महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए मनुष्य जाति को कठोर पुरुषार्थ करना पड़ा है। आतुरता से कुछ नहीं हासिल होता। अगले सोपानों पर चढ़ने के लिए भी उतने ही धैर्य एवं कर्म−कौशल का परिचय देना होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

193. जीवन सम्पदा का स्वरूप और सदुपयोग
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इस विश्व ब्रह्माण्ड की अजस्र शक्ति और सम्पदाओं में से जीवात्मा के हिस्से में जो सर्वोपरि उपहार आता है, उस वैभव को मनुष्य जीवन कहा जा सकता है। दृष्टि पसार कर देखने पर प्राणी के लिए इससे बड़ी उपलब्धि और कुछ हो ही नहीं सकती। अन्य जीवधारियों को जो काय कलेवर मिला है उससे प्रकृति की इच्छा ही पूरी होती है। आत्मा या परमात्मा को कोई प्रसन्नता की या सम्भावना की आशा नहीं रहती। क्योंकि उन शरीरों की क्षमता मात्र इतनी ही है कि निर्धारित आयुष्य को पूरा करने के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भर करते रह सकें।

शरीर के लिए आहार, आहार के लिए श्रम, श्रम की प्रेरणा भूख से यह प्राणि जगत की हलचलों का एक प्रयोजन है। दूसरा है वंश रक्षा। प्रकृति चाहती है धरती प्राणियों से रहित न रहे। मरण की तरह जन्म की प्रक्रिया भी चलती रहे। इस कष्ट साध्य कार्य का दबाव पड़ता है। इस व्यर्थ के कष्टकर झंझट को कोई क्यों वहन करे। इस उलझन को सुलझाने के लिए मनःक्षेत्र में एक ऐसी उमंग उत्पन्न की गई, जिससे प्रेरित होकर प्राणी यौन कर्म की ओर आकर्षित हो और परिवार बढ़ाये। यही है दो प्रयोजन जिनमें हर वर्ग और स्तर के प्राणी निरत पाये जाते हैं। इन्हीं दो उपक्रमों में उनकी जीवन चर्या घड़ी के पेण्डुलम की तरह झूले झूलती रहती है। इन दोनों के लिए हर प्राणी में सामर्थ्य एवं कुशलता है। न इससे कम न अधिक।

मनुष्य जीवन इस सामान्य की तुलना में कहीं अधिक असामान्य है। उसे ऐसी काय संरचना तथा बुद्धि सम्पदा उपलब्ध है, जिसके सहारे वह आगे की सोच सकता है और ऊँचा उठ सकता है। काया की संरचना भी ऐसी है जिसे न केवल असामान्य प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जा सके, वरन् कला कौशल के ऐसे भाव सम्वेदन भी हस्तगत कर सके जिसमें अन्तःकरण प्रफुल्लता से भर सके। अपना बहुमुखी हित साधन हो सके और उपलब्धियों का लाभ असंख्यों को वितरण करके कृत कृत्य हो सके।

मनुष्य ही है जिसने भाव सम्वेदना एवं निर्धारण की क्षमता को सुसंस्कृत, सुनियोजित बनाकर अपनी आन्तरिक गरिमा को उच्चस्तरीय बनाया है। महामानव से लेकर नर-नारायण बन सकने जैसी विभूतियों को करतल किया है। प्रसुप्त क्षमताओं को जाना, उभारा और लाभ उठाया है। शरीर की इन्द्रिय तृप्ति सर्वविदित है, किन्तु मनुष्य ही है जिसने भाव सम्वेदना को परिष्कृत करके सन्तोष, आनन्द, उत्साह, उमंग जैसी अदृश्य भाव सम्वेदनाओं से अपने आपको देवोपम बनाया है। स्वर्ग और मुक्ति उसकी अपनी उपलब्धियाँ हैं। तृप्ति, तुष्टि और शान्ति का आनन्द वही लेता है। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के कारण भाव विभोर रहने और गर्व गौरव अनुभव करने का अवसर उसी को मिला है। जबकि अन्यान्य प्राणी मात्र पेट प्रजनन के निमित्त कुछ करने और कुछ पाने का ही उथला सा आनन्द ले सके।

मनुष्य ही है जिसने प्रकृति को मथ डाला और उसके अन्तराल में गहरी डुबकी लगाकर रहस्यमयी रत्न राशि पर कब्जा जमाया। प्रकृति ने हर प्राणी को उसके निर्वाह भर के अनुदान दिये हैं। शेष को किन्हीं अविज्ञात प्रयोजनों के लिए अपनी रहस्य भरी तिजोरी में सात तालों के भीतर छिपा रखा है। मनुष्य ने चाबी ढूँढ़ी और रहस्य भरे वैभव का भारी मात्रा में माल असबाब अपने कब्जे में कर लिया। अभी भी उसका प्रयास यह है कि प्रकृति को नंगी करके छोड़े और उसकी समूची सम्पदा हस्तगत करके सृष्टा न सही अधिष्ठाता, अधिकारी कहाने का श्रेय तो प्राप्त कर ही ले। पौराणिक युग के रावण, वृत्तासुर, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, मारीच, सहस्रार्जुन आदि आज के मनुष्य की तुलना में बहुत पीछे रह गये हैं।

यह है मानवी उपलब्धियाँ। आत्मिक क्षेत्र का उसे बृहस्पति और भौतिक क्षेत्र का शुक्राचार्य दोनों का समन्वय कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। यह उस विश्वमानव का, समष्टि मानव का स्वरूप है जिसकी उपलब्धियों की मुक्त कण्ठ से सराहना करनी पड़ेगी। यों उसका एक विनाशकारी पक्ष भी है जिसमें उपलब्धियों के दुरुपयोग की दुःखद दुर्घटना भी सम्मिलित है। ऐसी दुर्घटना जिसके कारण वह स्वयं पिछड़ी, पतित और कष्टकर स्थिति में फँसा और समूचा वातावरण विषाक्त बनाकर रख दिया। अवांछनीय आकाँक्षा और आदतों को अपनाकर जिस दुर्गति का वरण किया है, उसे देखते हुए कई बार आश्चर्य होता है कि क्या यही मनुष्य है जिसने आत्मिक विभूतियों और भौतिक सिद्धियों का आश्चर्य जनक वैभव अर्जित करने में सफलता पाई।

ऊपर की पंक्तियों में जो कुछ भी ऊहापोह किया जा रहा है वह मनुष्य जीवन की समर्थता एवं सम्भावना की एक उथली सी झाँकी है। मनुष्य जन्म सचमुच ही इतना बड़ा दैवी उपहार है, जिसकी तुलना में अधिक मूल्यवान् इस समूचे संसार में और कुछ मिल सकना कठिन है। मानवी सत्ता की वरिष्ठता को खोजने में यदि बढ़ते ही चला जाय तो वहाँ पहुँचना पड़ेगा जहाँ उसने ईश्वर की, देवताओं-तत्त्वदर्शन की, कला कौशल की, धर्म शासन की, भौतिकी-आत्मिकी की, शिक्षा-चिकित्सा की तथा और भी न जाने किस-किस की सृष्टि की है। ब्रह्माण्ड का सृष्टा तो परमात्मा ही है, पर इस सृष्टि में जो कुछ भी शोभा सज्जा, प्रगति एवं प्रसन्नता दिखाई पड़ती है, उसे प्रकारान्तर से मनुष्य का ही अर्जन, उपार्जन कहना चाहिए। इस सबका श्रेय मनुष्य के सर्व समर्थ जीवन को है। उसकी अनन्त सम्भावनाओं में से अभी कुछ ही चरितार्थ हुई हैं, जिनका प्रकटीकरण शेष है उनकी तो कल्पना करने भर से रोमांच हो उठता है।

असमंजस इस बात का है कि इतना समर्थ, इतना विशिष्ट होते हुए भी मनुष्य को इन दिनों ऐसी दुर्गति का सामना करना पड़ रहा है जिसमें शरीर दुर्बलता, रुग्णता से ग्रसित होकर आमतौर से अकाल मृत्यु का वरण करता है। मानसिक दृष्टि से तनाव, असन्तोष, खीज़, भय, आशंका, चिन्ता, आक्रोश जैसी उद्विग्नताओं के कढ़ाव में उबलता रहता है। जिस अद्भुत मनःसंस्थान से हर घड़ी प्रसन्नता प्रफुल्लता झरती रहनी चाहिए, उस पर श्मशान जैसी वीभत्स जुगुप्सा छाई रहे तो उसे दुर्भाग्य, दुर्विपाक ही कहना चाहिए। अन्य प्राणियों की तुलना में निर्वाह स्वल्प एवं सरल, उपार्जन की क्षमता अत्यधिक-इस स्थिति में उसे साधनों के सम्बन्ध में हर घड़ी प्रसन्न सन्तुष्ट रहना चाहिए। इतने पर भी यदि आर्थिक तंगी छाई रहे, दरिद्रता और कंगाली का अभिशाप लदा रहे तो समझना चाहिए कि कहीं न कहीं भयानक गलती हो रही है।

कहाँ तो मनुष्य की विशिष्टता, वरिष्ठता और कहाँ पशु पक्षियों से भी गई बीती हेय हीनता। आखिर यह आकाश, पाताल जैसा अभ्यन्तर बना कैसे? आया कहाँ से? लद पड़ा क्यों कर? इन अनबूझ पहेलियों को सुलझाते-सुलझाते, ओर छोर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहाँ पहुँचना पड़ता है, जहाँ विडम्बना के उद्गम केन्द्र को जाना पहचाना जा सके। असमंजसों की जन्मदात्री है-मानवी गरिमा के प्रति छाई हुई अनभिज्ञता। इस विभूति का सही मूल्यांकन न कर सकने और उसके सदुपयोग से अपरिचित होने की मूढ़ता।

समर्थता से, सम्पन्नता से लाभान्वित होने की बात तभी बनती है जब उसकी उपयोगिता समझी जा सके। साथ ही विभूतियों का सदुपयोग करा सकने वाली दूरदर्शिता उभरे, अन्यथा सामर्थ्य दुधारी तलवार है। वह जहाँ सुरक्षा का उद्देश्य पूरा करती है, आततायी आक्रमणों को रोकती है, वह वहाँ उलटकर आत्मघात का भी निमित्त कारण बनती है। ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि अनुकम्पा की प्रतीक जीवन सम्पदा है। इससे बढ़कर जीव को देने योग्य ईश्वर के खजाने में और कोई रत्न राशि है नहीं। साथ ही यह भी निश्चित है कि प्राणी के समस्त अभावों को दूर कर सकने में सर्व समर्थ उपादान प्राप्त करने के उपरान्त और कोई आवश्यकता रह भी नहीं जाती।

प्रश्न सदुपयोग कर सकने की क्षमता का है। वह न बन पड़े तो हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति पर उलट कर उतनी ही घातक भी सिद्ध होती है। आग, बिजली, बारूद, औषधि, अस्त्र की तरह ही वैभव की भी गरिमा माननी पड़ती है, किन्तु सर्वविदित है कि यदि इनका दुरुपयोग होने लगे तो कोई व्यक्ति देखते-देखते अपना और अपने परिवार का सर्वनाश कर सकता है। विभूतियाँ जितनी महत्त्वपूर्ण है उनसे भी अधिक उस विवेक बुद्धि की गरिमा है जो उनके सदुपयोग की पृष्ठभूमि बनाती, व्यवस्था जुटाती और अग्रगमन की साहसिक मनोभूमि उत्पन्न करती है। वह न हो तो समझना चाहिए उपलब्धियाँ उलट कर विपत्ति ही बनेंगी।

ऐसी स्थिति में तो अभाव ग्रस्त ही नफे में रहते हैं। वे स्वल्प से गुजारा तो करते हैं, पर साथ ही किसी विपत्ति में तो नहीं फँसते। पशु पक्षी किसी प्रकार दिन काटने जितनी सुविधा ही प्राप्त कर सके हैं, किन्तु उतने भर से ही चैन की जिन्दगी जी लेते हैं। चहकते, फुदकते उठते हैं, उछलते-कूदते दिन बिताते हैं और दिन छिपते ही पैर फैलाकर सोते हैं। मनुष्य जितना खिन्न उद्विग्न है उनमें से एक भी नहीं देखा जाता। फिर विभूतियाँ पाने का लाभ क्या हुआ? अपने को, सम्बन्धियों को जलाते-कुढ़ाते जी लेने और अन्त में पाप की गठरी सिर पर लद कर अँधेरे भविष्य की ओर चल पड़ने में क्या कुछ हाथ लगा? जिस सौभाग्य पर समस्त प्राणि जगत ईर्ष्या कर सकता है उसे भव सागर के नाम से जानी जाने वाली, सड़ी कीचड़ में धँसे-फँसे रहकर उजाड़ देने को क्या कहा जाय? दुर्भाग्य इसलिए कहते नहीं बन पड़ता कि जीवन ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है। ऐसा उपहार जिसके लिए प्राणि जगत का प्रत्येक सदस्य लालायित रहता है। सौभाग्य कह सकना इसलिए कठिन है उससे न अपना भला हुआ और न किसी अन्य ने सुख पाया सराहा।

इस विसंगति भरी विपन्नता विडम्बना का कारण क्या हो सकता है, जिसके कारण उपलब्ध सौभाग्य भी भारभूत बना रहता और कष्ट कारक सिद्ध होता है। जबकि इतने ही साधन के सहारे असंख्यों को भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र की महान उपलब्धियाँ करतलगत करने का श्रेय सौभाग्य मिलता है।

परिस्थितियों और सुविधाओं की न्यूनता प्रतिकूलता को आमतौर से प्रगति पथ का व्यवधान कहा जाता है, किन्तु वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। इतिहास साक्षी है कि अभावग्रस्त गई गुजरी परिस्थितियों में जन्मे पले व्यक्ति अभीष्ट प्रयोजनों की दिशा में बढ़े और व्यवधानों को चीरते हुए सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचे हैं। मोटी बुद्धि कुछ भी समझती रहे, दुनिया कुछ भी कहती रहे पर यह तथ्य अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों को बनाती, सुधारती है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता इसी कारण है कि वह अपने दृष्टिकोण, स्वभाव एवं पराक्रम को उपयोगी बनाकर व्यक्तित्व की प्रचण्ड सृजनात्मक शक्ति का प्रमाण परिचय दे सकता है।

मनुष्य की उपलब्धियाँ महान हैं, पर भ्रान्तियाँ, अवांछनीयताएँ भी इतनी है जिन्हें किसी अभिशाप जैसी कहा जाना चाहिए। अभिशापों में सबसे दुरूह, सबसे दुस्तर, सबसे कष्ट कारक है जीवन की गरिमा न समझ पाना और उसका स्तर उभारने के सम्बन्ध में अन्यमनस्क रहना। इस एक गलती को सुधारा जा सके और किसी प्रकार यह हृदयंगम कराया जा सके, कि लोक प्रचलन एवं अभ्यस्त ढर्रा जीवन सम्पदा के सदुपयोग में सहायक नहीं है। उसका नये सिरे से पर्यवेक्षण एवं निर्धारण की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।

उपेक्षा बरतने से कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य, परिवार आदि सभी क्षेत्रों में घाटा सहना पड़ता है। जीवन की उपयोगिता, क्षमता सम्भावना एवं सही प्रयोग प्रक्रिया के प्रति उपेक्षा भी ऐसी कष्टकारक है, जिसे दूसरे शब्दों में अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने या आत्महत्या करने जैसी स्वनिर्मित विपत्ति कहा जा सकता है। सर्वत्र फैले हुए पिछड़ेपन के कारणों में यों गिनाया तो बहुत कुछ जा सकता है, पर उनमें प्रमुख एक ही है-जीवन के प्रति ही दृष्टिकोण एवं सदुपयोग की सही विधा के प्रति अज्ञान अथवा उपेक्षा भाव।

हममें से अधिकांश सृजनात्मक शक्ति का महत्त्व ही नहीं समझ पाते तथा उस शक्ति की पूर्णतः अवहेलना कर देते हैं। कुछ लोग सोचते हैं सृजनात्मक शक्ति केवल कुछ प्रतिभाशाली लोगों को ही अनुदान स्वरूप मिलती है। वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। हर व्यक्ति में अपने व्यक्तित्व और भविष्य का इच्छित निर्माण कर सकने की क्षमता विद्यमान है।

माइकल ड्रूरी का कहना है कि सृजनात्मक शक्ति प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात रूप से निहित होती है, परन्तु इस सामर्थ्य का उपयोग करना साहसी, धैर्यवान् और प्रयत्नशील लोगों से ही बन पड़ता है।

ड्रूरी का कहना है कि जब हम किसी बड़े कार्य को हाथ में लेते हैं तो सृजनात्मक शक्ति का विकास होता है। सूर्य समय पर उगता, पृथ्वी धीरे-धीरे घूमती है। किन्तु वे अपने कार्य को सुनिश्चित गति से व्यवस्था पूर्वक करते रहते हैं। यही सृजनात्मक शक्ति का स्वरूप एवं रहस्य है।

यदि हम कोई काम प्रभावशाली ढंग से प्रारम्भ नहीं कर सकते तो उसे शुरू करना भी नहीं चाहते। यह सृजनात्मक शक्ति के लिए घातक है। हेलेन केलर ने लिखा है जब हम किसी संकल्प को या अच्छे मनोभाव को बिना किसी उपयोग के नष्ट हो जाने देते हैं, तो उसका अर्थ होता है कि हमने सौभाग्य गँवा दिया। इसी प्रवृत्ति के कारण यथार्थतः कामों की सफलता में रुकावट आती है।

दार्शनिक ड्रूरी का कहना है कि यदि हम कुछ करना, बनाना या दिखाना चाहते हैं तो बिखरी हुई अनेकों संभावनाओं में से एक को अपना लक्ष्य चुनकर उसी के लिए संकल्प एवं धैर्य पूर्वक कार्य करना चाहिए। केवल लक्ष्य के प्रति ही नहीं, प्रतिदिन के क्रिया कलापों में भी गहरी रुचि होनी चाहिए। प्रयत्नों की आरम्भिक असफलता के बावजूद हमें पूर्ण तन्मयता से अपने निर्धारित प्रयास में तत्परता पूर्वक तब तक लगे रहना चाहिए, जब तक कि हम पूर्ण रूप से परिष्कृत होकर अपने उद्देश्य को न पा लें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


194. उज्ज्वल भविष्य के लिए वर्तमान का सदुपयोग करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

एक मजदूर पहाड़ पर बैठा पत्थर काट रहा था। उसने सोचा भला यह भी कोई जिन्दगी है। दिनभर पत्थर तोड़ते रहना। उसने अधिक अच्छी स्थिति में पहुँचने, अधिक समर्थ बनने की सोची। सुन रखा था कि पर्वत पर एक ऐसी देवी रहती है जो सबकी मनोकामनाएँ पूरी कर देती है। सो मजदूर ने विचार किया कि उसी से वरदान माँगकर समर्थ बनना चाहिए। सामने उसके एक समस्या यह उत्पन्न हुई कि देवी से क्या वरदान माँगा जाय और क्या बना जाय?

मजदूर के मन में आया कि राजा बड़ा होता है। राजा बनने का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। इतने में कल्पना उठी कि राजा का राज्य छोटा होता है। सूर्य का विस्तार अधिक और यश सर्वत्र है। इसलिए सूर्य बनना ठीक रहेगा पर दूसरे ही क्षण नया विचार आया कि सूर्य को तो बादल ही अपने अंचल में छिपा लेता है। इस तरह बादल बड़े हुए। जब बड़ा बनना ही है तो सबसे बड़ा क्यों न बना जाय, यह सोचकर उसने बादल बनना अधिक उत्तम समझा। पूरी तरह अभी वह निश्चय कर भी नहीं पाया था कि एक नयी सूझ उपजी कि पवन अधिक बलिष्ठ होता है, वह बादलों को एक झोंके के साथ उड़ा ले जाता है। इसलिए पवन बनना चाहिए। किन्तु पवन से अधिक सामर्थ्यवान तो पर्वत होते हैं। वे अपनी ऊँचाई और दृढ़ता के कारण हवा की गति को भी रोक देते हैं। ऐसी स्थिति में पर्वत बनना अधिक बड़प्पन का चिन्ह माना जायेगा। इतना सोच चुकने के बाद उसके मन में आया कि पर्वत को तो एक मजदूर काटकर धराशायी कर देता है फिर मजदूर रहना ही क्या कम बड़प्पन की बात है। वर्तमान स्थिति को छोड़कर और कुछ अनुपलब्ध अव्यावहारिक बनने की कामना में अपने समय और सामर्थ्य को क्यों बर्बाद करूँ।

देवी से बड़प्पन की स्थिति का वरदान माँगने के लिए जाते समय मजदूर के मन में यह विचार उठते रहे कि अधिक से अधिक ऊँची स्थिति पर पहुँचने की प्रार्थना करनी चाहिए। अधिक ऊँची स्थिति क्या हो सकती है उसकी कल्पना में विचार उठते गये, उनमें से अन्तिम विचार यही उपयुक्त लगा कि अपनी जो आज की स्थिति है उसे कम महत्त्व न दिया जाय। उसी को अधिक परिष्कृत और श्रेष्ठ बनाने का प्रयास किया जाय। इस निर्णय के उपरान्त वह देवी के मन्दिर से अनुपयुक्त इच्छा का परित्याग करके वापिस लौट पड़ा और मनोयोग पूर्वक अपना पत्थर काटने का काम नये उत्साह के साथ करने में जुट गया।

समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे ही होते हैं जो वर्तमान का महत्त्व नहीं समझते। उपलब्ध परिस्थितियों का सदुपयोग न कर पाने और अनुपलब्ध की कामना करते रहने वाले पाते कुछ नहीं गँवाते ही अधिक हैं। जीने का आनन्द और लाभ तब है जब हम वर्तमान में जियें। भविष्य की कल्पना में वे ऐसी दुनियाँ में रहते हैं जिसका अस्तित्व बहुत समय पूर्व समाप्त हो गया था। कितनों को अपने भूतकाल के प्रसंगों का वर्णन करने की ललक रह रह कर उठती है। वे अपने मीठे कड़ुए अनुभवों की स्मृतियाँ उभारते हैं और विगत के विछोह में दुखित रहते हैं। वे यह नहीं सोचते कि उन स्मृतियों के साथ उलझने में अब कोई सार नहीं रह गया है। जितना मानसिक दबाव उन स्मृतियों के कारण सहा जाता है उतने में वर्तमान की कई उपयोगी व्यवस्थाएँ करने और समस्याएँ सुलझाने का प्रयोजन पूरा हो सकता है।

भविष्य में क्या सफलताएँ पाकर क्या क्या आनन्द उठाया जायेगा। इसके सुन्दर सपने कई व्यक्ति इस प्रकार संजो लेते हैं कि वे यथार्थ जैसे लगते हैं। शेख चिल्ली की कहानी प्रख्यात है जिसने तेल ढोने की मजदूरी मिलने के पूर्व ही उससे मुर्गी, बकरी, बीबी बच्चे प्राप्त होने का सपना इतना गहरा गढ़ लिया था जिसमें तन्मय होकर वह सिर पर रखे घड़े को ही गँवा बैठा और मालिक द्वारा प्रताड़ना सहता फिरा। इसका कोई निश्चय नहीं कि भविष्य में क्या होगा। प्रयत्न करने पर परिस्थितियाँ मनचाही बन जाय यह कोई ठीक नहीं। चाहना ही सब कुछ नहीं है। परिस्थिति कहीं से कहीं मोड़ ले सकती हैं और जैसा सोचा गया था उससे सर्वथा पृथक प्रकार का जीवन यापन करना पड़ सकता है। सोचना एक बात है और पाना दूसरी। ऐसी दशा में अवास्तविकताओं के कल्पना लोक में विचरण करते रहने से किसी का क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है।

महत्त्व वर्तमान का ही है। भूत के अनुभवों का मात्र इतना ही लाभ है कि जो सीखा गया है, उससे वर्तमान को अधिक सुव्यवस्थित बनाया जाय। भविष्य चिन्तन की उपयोगिता इतनी ही है कि उसके आधार पर वर्तमान की गतिविधियों को सुनियोजित किया जाय। वर्तमान के सुनियोजन न कर पाने और कुछ विशिष्ट बनने की कल्पना करते रहने वालों के हाथ से समय निकल जाता है और अन्ततः उस किशोर की भाँति पश्चाताप की अग्नि में जलना पड़ता है जो जीवन पर्यन्त भटकता रहा।

अपने अध्ययन काल में एक किशोर एक संगीतज्ञ से अत्यधिक प्रभावित हुआ। अध्ययन को बीच में ही छोड़कर संगीत सीखने लगा। कुछ ही माह बीते होंगे उसका परिचय एक चित्रकार से हुआ जो चित्र बनाने में निपुण था। चित्रकला सीखने की इच्छा हुई। चित्रकार से सम्पर्क साधा और संगीत साधना छोड़कर चित्रकारी का अभ्यास करने लगा। एक दिन उसने एक वक्ता का भाषण सुना। विशाल जन समूह को आकर्षित हुआ देखकर उसने सोचा क्यों न वक्ता बना जाय। चित्रकारी का अभ्यास अधूरा छोड़कर वह भाषण कला सीखने लगा। सायंकाल वह एक दिन घर वापिस लौट रहा था कि मालूम हुआ कि पहलवानों की कुश्ती हो रही है। जाकर कुश्ती देखने लगा। एक पहलवान को दूसरे द्वारा पछाड़ते देखकर उसने सोचा शरीर बल के बिना सब कुछ अधूरा है, उस दिन से वह व्यायाम कसरत के द्वारा शरीर निर्माण में लग गया। पैसे की तंगी पड़ी तो ध्यान आया कि धन के बिना कोई काम नहीं हो सकता। व्यापार करना चाहिए यह सोचकर उसने काम आरम्भ किया। व्यापार में कुछ लाभ होने लगा तो एक दिन किसी विद्वान की विद्वता देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ। व्यवसाय बन्द करके वह अध्ययन करने लगा। तब तक उसके जीवन की आयु पूरी हो चुकी थी। शरीर, मन और मस्तिष्क भी कमजोर हो चुके थे उसे तब ध्यान आया कि एक निश्चित लक्ष्य के अभाव में कुछ नहीं बन सका और सारा जीवन व्यर्थ चला गया।

किसी विचारक का कथन है कि जो भूत के साथ गुँथे रहते हैं वे वृद्ध हैं। जो मात्र भविष्य की कल्पनाएँ गढ़ते हैं, वे बच्चे हैं तथा जो वर्तमान का सदुपयोग करते हैं वे युवक हैं। बाल और वृद्ध की स्थिति से निकल कर हर व्यक्ति को अपनी युवा मनोभूमि का परिचय देना चाहिए। वर्तमान के सदुपयोग का अर्थ है-अपनी परिस्थितियों, योग्यताओं और साधनों को सुनियोजित करना। प्रसिद्ध विचारक जे. कृष्ण मूर्ति ठीक ही कहते हैं कि जो वर्तमान में जीवित है वही जीवित है, अन्य तो अज्ञान के अन्धकार में भटकते हैं।

भूत और भविष्य जिस सन्धि बेला में मिलते हैं उसे वर्तमान कहते हैं। सच पूछा जाय तो अस्तित्व वर्तमान का है, न कि भूत और भविष्य का। एक स्मृति है तो दूसरा कल्पना की उड़ान। अस्तित्व के धरातल पर दोनों में से कोई भी नहीं आते। इस कारण भी जिसका अस्तित्व है बात उसी की सोचनी होगी। मनुष्य जीवन पर्यन्त वर्तमान में जीता है। वर्तमान में सोचना, आज का सही उपयोग करना ही सफलता का मूलमंत्र है। इस तथ्य को समझ लेने से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

कितने ही व्यक्ति भूतकाल की सुखद स्मृतियों में खोये रहते हैं तथा बीते दिनों का रोना रोते रहते हैं। वर्तमान का अलभ्य अवसर यों ही चला जा रहा है इसका ध्यान नहीं रहता। सदुपयोग का अभाव भविष्य को अंधकारमय बनाता है। कुछ ऐसे भी होते हैं जो भविष्य की कल्पना-जल्पना में ही अपना सारा समय गँवा देते हैं। फलतः वर्तमान की उपलब्धियों से वंचित हो जाते हैं। इसके विपरीत बुद्धि एवं सामर्थ्य की दृष्टि से न्यून, किन्तु वर्तमान में सोचने एवं समय का सदुपयोग करने वाले सफलता के मूर्धन्य शिखरों पर जा चढ़ते हैं। संसार में किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट सफलता करतलगत करने वालों का एक ही मन्त्र रहा है, वर्तमान में जीना और वर्तमान का सही उपयोग करना। महापुरुषों एवं विचारकों ने भी अपने अनुभव के आधार पर इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है। प्लेटो कहा करते थे कल की चिन्ता छोड़ दो। कल अपनी सुध आप ही लेगा। आज की कठिनाइयाँ ही क्या कम है, जिनका समाधान ढूँढ़ना छोड़कर भविष्य की कल्पनाओं में उलझा जाय। रोमन के प्रसिद्ध कवि हो रस ने एक कविता लिखी है। उसका भाव इस प्रकार है-मानव प्रकृति की सबसे शोचनीय प्रवृत्ति यह है कि वह वस्तुस्थिति से पलायन कर जाता है। यह प्रवृत्ति उसी प्रकार है जैसे खिले हुए पुष्पों के सौन्दर्य एवं सुगन्ध की उपेक्षा करके हम अन्तरिक्ष के काल्पनिक नन्दन वन में खो जायें।

डेल कार्नेगी अपनी पुस्तक हाऊ टू स्टाप थिंकिंग एण्ड स्टार्ट लिविंग में लिखते है कि विगत और आगत का भार एक साथ वर्तमान में लेकर चलने वाला प्रचण्ड पराक्रमी भी लड़खड़ा जाता है। अतएव आगत को भी विगत की ही तरह दृढ़ता के साथ भूल जायें। आपका कल आज है। वस्तुतः कल नाम की वस्तु का अस्तित्व नहीं है। मानव की सफलता एवं मुक्ति वर्तमान में है न कि भविष्य और भूत के चिन्तन में।

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व ग्रीक में एक दार्शनिक हुआ नाम था हेराक्लीट्स। ग्रीक में अब भी उसका उपदेश शास्त्र आप्त वाक्य के रूप में प्रचलित है। अपने शिष्यों से उसने एक बार कहा कि सब कुछ बदलता रहता है। मात्र परिवर्तन का नियम नहीं बदलता, बहती हुई नदी के हर क्षण परिवर्तित होने वाले जल में एक बार पैर रखकर उसी स्थान पर दूसरी बार उसी जल में पैर नहीं रखा जा सकता क्योंकि तब तक जल काफी आगे जा चुका होता है। सरिता का जल हर क्षण परिवर्तित और निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। मानव जीवन के साथ भी कुछ इसी प्रकार का नियम है। जीवन निरन्तर बदलता रहता है इसलिए आज ही शाश्वत है। ऐसी स्थिति में भूत की स्मृतियों और निरन्तर परिवर्तित अनिश्चित भविष्य की चिन्ताओं में वर्तमान को क्यों नष्ट किया जाय?

जान रास्कन अपनी मेज़ पर एक पत्थर का टुकड़ा रखते थे जिस पर आज शब्द लिखा हुआ था। एक मित्र को इसका रहस्य पूछने पर उन्होंने बताया कि मेरे हाथ से कहीं वर्तमान यों ही न निकल जाय इसलिए मैं यह अंकित पत्थर सदा अपने पास रखता हूँ। यह पत्थर मुझे सदा आज की याद दिलाता तथा एक क्षण भी बेकार न जाये इस बात की प्रेरणा देता है।

प्रसिद्ध कवि कालिदास ने एक कविता लिखी है जिसमें इसी तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। कविता का सारांश है आज का अभिनन्दन करो यही जीवन एवं जीवन का सार है। मानव अस्तित्व की समस्त विविधताएँ, विशेषताएँ एवं वास्तविकताएँ इसी में सन्निहित हैं। इस तथ्य में विकास की सम्भावनाएँ हैं। कर्म का महात्म्य एवं सिद्धि का वैभव है। भूत तो एक सपना है और भविष्य मात्र कल्पना। सुखद वर्तमान से भूत के सुखद स्वप्न की सृष्टि होती तथा आने वाला कल भी आशाजनक होता है।

राबर्ट लुईस्टी वेन्सन लिखते हैं कि आज का सर्वोत्तम उपयोग ही जीवन का सूत्र है। भारी से भारी बोझ भी आज कोई ढो सकता है। सूर्यास्त तक इस क्रम में चलते हुए कोई भी व्यक्ति सुख सन्तोष एवं शान्ति से भरा दिन व्यतीत कर सकता है, इसी को जीना कहते है। जिसने आज का सदुपयोग कर लिया उसने जीवन का रहस्य समझ लिया।

सर विलियम ओसलर का कहना है कि अभी हम भूत और भविष्य के संधि स्थल पर रुके हैं। एक ओर गुजरा हुआ भूत है जो कभी वापस नहीं आता, दूसरी ओर भविष्य है जो तेजी से हमारी ओर बढ़ रहा है। वर्तमान की उपेक्षा करके क्षण मात्र के लिए भी हम उन दोनों युगों में से किसी एक में नहीं जी सकते। भूत की यादों में खोने अथवा भविष्य की रचनाओं में निरत रहने से हमारी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का ह्रास होता है और असीम सम्भावनाओं से युक्त वर्तमान हाथ से निकल जाता है। अतएव जिस काल में हम रहते हैं उसी के चिन्तन एवं सदुपयोग की बात सोचनी चाहिए।

विचारकों मनीषियों एवं महापुरुषों के उद्घोष वर्तमान की सत्ता एवं महत्ता का बोध कराते हैं। सफलताएँ वर्तमान के सदुपयोग के मूल्य पर ही खरीदी जाती हैं। यह सिद्धान्त भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की सफलताओं के लिए लागू होता है। अधिक से अधिक भूत एवं भविष्य की महत्ता यह है कि भूतकाल के अनुभवों से प्रेरणा ली जा सकती है तथा आज के आधार पर कल की, भविष्य की योजनाएँ बनायी एवं उसके लिए तैयारियाँ की जा सकती है पर जीना तो वर्तमान में ही होगा।

जिन्हें सफलताएँ अभीष्ट हों उन्हें इस शाश्वत सूत्र को हृदयंगम करना होगा। आज की परिस्थितियों में हम अपनी क्षमता, योग्यता एवं प्रतिभा का सही नियोजन किस प्रकार कर सकते हैं यह विवेक बुद्धि आ जाने पर हर प्रकार की सफलताओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कोई भी इस सूत्र का अवलम्बन लेकर अभीष्ट सफलताएँ अर्जित कर सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


195. पौष्टिक आहार सर्वसुलभ और सस्ता भी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीर को भोजन की आवश्यकता मुख्यतः दो कारणों से पड़ती है। पहले शरीर की वृद्धि और मरम्मत के लिए तथा दूसरे शरीर में वांछित गर्मी और शक्ति उत्पन्न करने के लिए। मनुष्य का शरीर निरन्तर निर्मित होती रहने वाली अभिवृद्धि करने वाली प्रकृति की अद्भुत रचना है। किसी मकान का निर्माण करने के लिए जिस प्रकार ईंट, चूना, सीमेन्ट, लकड़ी और लोहे के सामान जरूरी होते हैं उसी प्रकार शरीर के लिए भी विभिन्न पोषक तत्व आवश्यक होते हैं जो खाद्य पदार्थों से मिलते हैं।

शरीर निरन्तर गतिशील, क्रियाशील भी रहता है। इसके लिए एक शक्ति की आवश्यकता होती है। रेल को चलाने के लिए वाष्पशक्ति चाहिए, अन्य मशीनें और कल कारखाने भी वाष्प शक्ति या विद्युत शक्ति से चलते हैं। यदि उन्हें वह शक्ति मिलना बन्द हो जाय तो सम्बन्धित यन्त्र बन्द हो जाते हैं। शरीर भी किसी मशीन से कम नहीं है। उसे चलाने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता रहती है वह भोजन से ही प्राप्त होती है। हम जो आहार ग्रहण करते हैं ,, जो कुछ भी खाते हैं उससे हमारा पाचन संस्थान पोषक तत्व चुन लेता है और उन्हें रक्त में मिलाकर रक्त परिवहन संस्थान को सुपुर्द कर देता है। यहाँ से जिन अंगों को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है वहाँ रक्त द्वारा वे तत्व पहुँच जाते हैं।

भोजन से प्राप्त होने वाले पोषक तत्व ही शरीर में शक्ति पैदा करते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर को जीवित रखने के लिए गर्मी भी अपेक्षित होती है जिससे हमारा शरीर गर्म रहता है। इस गर्मी को हम जीवन की गर्मी भी कह सकते हैं। भोजन के पोषक तत्व जब शरीर में शक्ति पैदा करते हैं तो उनसे जीवन की यह वांछित गर्मी स्वयं ही प्राप्त हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि हम जो भोजन करें उस भोजन में पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में विद्यमान रहे ताकि शरीर को आवश्यक पोषण मिलता रहे।

स्वस्थ और शक्तिशाली शरीर के लिए वैज्ञानिकों ने जिन पोषक तत्वों को आवश्यक बताया है वे हैं-प्रोटीन्स, खनिज लवण, कार्बोहाइड्रेट्स, चर्बी और विटामिन्स। भोजन में यह तत्व पर्याप्त मात्रा में रहे तो शरीर की अभिवृद्धि और उसकी अद्भुत मशीन में होने वाली टूट-फूट का कार्य भली प्रकार चलता रह सकता है।

समझा जाता है कि इन पोषक तत्वों के लिए उच्च कोटि का आहार चाहिए। जैसे प्रोटीन्स के लिए सोयाबीन, सूखे मेवे और सूखी फलियों वाले शाक। चर्बी के लिए बादाम, अखरोट, पिस्ता, काजू, घी, विटामिन्स के लिए फल, दूध, दही आदि। जिन खाद्य पदार्थों में ये तत्व पर्याप्त मात्रा में हैं उनकी एक लम्बी सूची है और कई बहुत मँहगे होने के कारण सर्व साधारण के लिए खाद्य पदार्थ सुलभ भी नहीं हो पाते। इसलिए सामान्य जनता के दुर्बल स्वास्थ्य में कुपोषण भी एक बड़ी समस्या है।

जब भी कभी पौष्टिक भोजन की बात चलती है तो औसत स्तर के व्यक्ति इसे मँहगा होने के कारण अपने लिए दुर्लभ ही बताते हैं। परन्तु बात ऐसी नहीं है। साधारण भोजन भी ठीक प्रकार से खाया पकाया जाये तो उसमें भी पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक तत्व मिल जाते हैं। गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि अनाज शकरकन्दी, आलू, अरबी, मूली जैसे शाक। दूध, दही, नींबू, गुड़ आदि में भी पर्याप्त विटामिन होते हैं और वे उन मँहगे खाद्य पदार्थों की तरह ही शरीर के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी करते हैं। वैज्ञानिक विश्लेषणों से पता चला है कि गन्ने, शहद और खजूर में भी उतने ही विटामिन्स तथा लवण होते हैं जितने कि किशमिश और मुनक्का जैसे सूखे मेवों में।

अधिकांशतः सामान्य खाद्य पदार्थों में भी पर्याप्त मात्रा में विटामिन्स और पोषक तत्व मिल जाते हैं जितने कि मँहगे और सूखे फलों में। गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि अनाज तथा शाक, सब्जियाँ भी पोषक तत्वों से भरपूर हैं। फिर क्या कारण है कि इन पोषक तत्वों में पर्याप्त मात्रा में विटामिन्स होते हुए भी अधिकांश व्यक्तियों का भोजन पोषण रहित या अपर्याप्त पोषण देने वाला होता है। किसी स्वास्थ्य वैज्ञानिक ने इसका कारण बताते हुए लिखा है-अधिकाँश लोग इसलिए बीमार नहीं पड़ते कि उन्हें पोषक आहार जो मँहगे बताये जाते हैं, नहीं मिलते बल्कि इसलिए अस्वस्थ लगते है उनके खानपान का तरीका अवैज्ञानिक होता है।

आमतौर पर लोगों को यह कहते सुनते पाया जाता है कि दूध नहीं मिलता, घी मँहगा होने के कारण नहीं खरीद सकते, वनस्पति के दर्शन हैं आदि। मँहगाई के कारण कई वस्तुओं के सुलभ न होने की बात एक सीमा तक सही है क्योंकि इनकी आवश्यकता शरीर को पौष्टिकता प्रदान करने के लिए पड़ती है। जबकि दूध और घी के अलावा भी अन्य पौष्टिक खाद्य है जो सर्व साधारण के नियमित व्यवहार में आते हैं। लेकिन उनका प्रयोग गलत ढंग से किये जाने के कारण उनसे उचित लाभ नहीं मिलता। फिर भी आहार में पोषक तत्वों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। इस सदी में आहार सम्बन्धी जो शोधें हुई तथा उनके परिणाम स्वरूप जो निष्कर्ष आये वे सर्व साधारण तक नहीं पहुँच पाये। यही कारण है कि अधिकांश व्यक्ति घी, दूध और मेवों, मँहगे फलों को ही स्वास्थ्य वर्धक पौष्टिक खाद्य मानते हैं। प्रायः कहा जाता है कि आजकल मँहगाई के जमाने में केवल अमीर लोग ही घी, दूध खा पीकर स्वस्थ रह सकते हैं। गरीबों या मध्य वर्ग के व्यक्तियों के लिए तो पोषक आहार स्वप्न की ही बात है।

यह बात आधुनिकतम वैज्ञानिक निष्कर्षों और अनुसंधानों के आधार पर गलत सिद्ध हो रही है। यह सच है कि घी, दूध पोषक तत्वों से परिपूरित आहार है किन्तु यह भी सच है कि यही एक मात्र पोषणपूर्ण खाद्य नहीं है। पूरा पोषण प्राप्त करने के लिए अन्य खाद्य पदार्थों की भी आवश्यकता रहती है। यदि बुद्धिमानी से भोजन का चुनाव किया जाय तो हम काफी सस्ते मूल्य में परिवार के लिए अच्छा और पोषणपूर्ण भोजन जुटा सकते हैं।

उदाहरण के लिए दूध को ही लें। अच्छी किस्म के दूध का मूल्य प्रायः तीन रुपये प्रति लीटर बैठता है। सर्व साधारण की इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि वह तीन चार रुपये रोज दूध पर खर्च कर सकें। फलतः दो ढाई सौ ग्राम दूध लेकर चाय के रूप में ही सुबह नाश्ता कर लिया जाता है। वैज्ञानिकों द्वारा किये गये प्रयोगों से यह निष्कर्ष सामने आये है कि ५० ग्राम अंकुरित चने २५० ग्राम दूध के बराबर पौष्टिक होते हैं। अंकुरित चनों को खूब चबा-चबाकर खाने से उसका रस मुँह में भरता रहता है। इस प्रकार अंकुरित चने खाने से दूध के समान ही पौष्टिक तत्व प्राप्त होते हैं।

आरम्भ में इस प्रकार अंकुरित चने खाने से उनमें स्वाद नहीं आता। फीके और अस्वाद होने के कारण चने खाने को मन नहीं करता, परन्तु उसका अपना एक अलग ही स्वाद होता है। यदि इनमें रुचि ली जाय तो अंकुरित चनों के खाने और उनमें रस लेने की आदत डाली जा सकती है। इसके लिए चनों में हलका सा नमक डालकर और कागजी नींबू निचोड़कर स्वाद पैदा किया जा सकता है। नींबू का रस और नमक डालकर चने खाने से भरपूर मात्रा में प्रोटीन, विटामिन और खनिज लवण प्राप्त किये जा सकते हैं। मूल्य की दृष्टि से भी यह नाश्ता मँहगा नहीं होता। मुश्किल से पाँच व्यक्तियों के परिवार के लिए पचास पैसे का नाश्ता पड़ता है। चाय में तो इससे ज्यादा ही खर्च पड़ता है।

पोषक तत्वों की पर्याप्त प्राप्ति के लिए जब फलों की बात चलती है तो लोगों का ध्यान अंगूर, अनार और सेब जैसे फलों की ओर जाता है तथा मँहगाई की कठिनाई सामने आती है। लेकिन कोई जरूरी नहीं कि मँहगे फल ही खाये जायें। सभी क्षेत्रों में होने वाले मौसमी फल मिल जाते हैं जो काफी सस्ते भी रहते हैं जैसे खीरा, ककड़ी, अमरूद, जामुन, आम, चीकू, पपीता आदि। तीसरे पहर प्रायः सभी घरों में चाय बनती है और नाश्ता के लिए कुछ न सही तो रोटी और चावल का प्रयोग तो किया ही जाता है। उसे रोककर यदि ताजे और मौसमी फल खाये जाये तो अपराह्न कालीन नाश्ते में पर्याप्त पौष्टिक तत्व मिल सकते हैं। जाड़े के दिनों में सन्तरे बहुतायत से मिलते हैं औसत साइज का एक सन्तरा २५ पैसे तक मिल जाता है। पूरे परिवार के लिए पाँच सन्तरे पर्याप्त होते हैं।

इतना खर्च भी अपनी शक्ति से बाहर लगे तो एक किलो गाजर भी काफी है। कच्ची गाजर में पर्याप्त मात्रा में विटामिन ए तथा खनिज लवण होते हैं। गाजर के अलावा इन दिनों शलजम, मूली, टमाटर आदि सब्जियाँ भी बेहद सस्ती मिलती है और पर्याप्त पोषक तत्वों से भी परिपूर्ण रहती है।

इसी प्रकार आँवला भी पर्याप्त पोषणपूर्ण खाद्य है। इनमें विटामिन भी बहुत अधिक मात्रा में होता है जो कि दाँतों और रक्त के लिए बहुत आवश्यक है। जिन दिनों ताजे आँवले मिलते हैं उन दिनों कच्चे आँवले खाने चाहिए। यदि अच्छे न लगे तो उनकी चटनी बनायी जा सकती है। जब आँवलों की फसल खत्म हो जाय तो सूखा आँवला इस्तेमाल किया जा सकता है। रात को आँवला भिगोकर उसे सिल बट्टे पर पिसवाकर चटनी बनवाई जा सकती है। इस प्रकार कितने ही तरीकों से आँवलों का उपयोग किया जा सकता है। विटामिन सी और खनिज लवण के अतिरिक्त आँवलों में और भी कई पोषक तत्व होते हैं। आयुर्वेद में तो उसे वृद्ध व्यक्तियों को भी यौवन प्रदान करने वाला बताया गया है।

दूध की आवश्यकता भी सभी घरों में पड़ती है और प्रायः सभी लोग थोड़ी बहुत मात्रा में दूध खरीदते हैं। यह बात और है कि मँहगा होने के कारण दूध पर्याप्त मात्रा में नहीं खरीदा जा सकता। ऐसी दशा में दूध का विकल्प सपरेटा दूध खरीदा जा सकता है। सपरेटा दूध शुद्ध दूध की अपेक्षा सस्ता होता है। शुद्ध दूध से उसमें एक ही गुण कम है वह है घी अथवा मक्खन। शुद्ध दूध में से घी या मक्खन निकालकर ही सपरेटा तैयार किया जाता है। उसमें घी भले ही नहीं रहता परन्तु उसके अलावा सभी पोषक तत्व प्रोटीन्स, कैल्शियम, खनिज लवण और विटामिन्स उतनी ही मात्रा में रहते हैं जितने कि शुद्ध रूप में।

ऊपर जिन खाद्य पदार्थों के सुझाव दिये गये हैं वे भी सस्ते हैं और सर्व साधारण की क्रयशक्ति की सीमा में आते हैं। इनका प्रयोग सभी कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त खाना पकाने की विधि में भी थोड़ा सुधार कर लिया जाय तो पकाते समय जो बहुत से विटामिन पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं उन्हें बचाया जा सकता है। जैसे आमतौर पर गृहणियाँ आटे को छानकर चोकर फेंक देती है। चोकर के साथ बहुत से विटामिन फेंक दिए जाते हैं। जिन सब्जियों के छिलके कड़े नहीं होते उन्हें भी छील दिया जाता है जबकि ऐसा करने से कई विटामिन नष्ट हो जाते हैं।

आहार के पोषक तत्वों की रक्षा के लिए सब्जियों को अधिक देर तक नहीं पकाया जाना चाहिए और न ही उनमें बेहद मसाले वगैरह डालकर उनकी पौष्टिकता को नष्ट करना चाहिए। इस प्रकार साधारण आमदनी वाले परिवार भी अपने लिए पर्याप्त पोषणपूर्ण आहार अपनी शक्ति सामर्थ्य के भीतर रहकर ही प्राप्त कर सकते हैं।

बिना पकाये हुए अनाजों के प्रयोग में गेहूँ की घास बनाकर खाने की एक नई कड़ी और जुड़ी हुई है और उस विधि को प्रयोगकर्ताओं तथा उपयोग करने वालों ने अतीव उपयोगी बताया है। अमेरिका की एक महिला डॉक्टर एन. बिरामोर ने अपनी पुस्तक ह्वीटग्रास मैनुअल में इसके प्रयोगों और अनुभवों का सविस्तार वर्णन लिखते हुए यह भी बताया है कि किस प्रकार गेहूँ की घास का उपयोग विभिन्न रोगों की चिकित्सा में उपयोगी और प्रभावकारी सिद्ध होता है। उन्होंने गेहूँ को हरित रक्त की संज्ञा देते हुए यह बताया है कि यह रस मनुष्य के रक्त से ४० प्रतिशत मिलता जुलता है।

डॉ. विरामोर का कथन है कि स्वस्थ व्यक्ति यदि इसका सेवन करें तो उनके शरीर में जीवनी शक्ति प्रखर होती है और रोगियों में शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता आश्चर्यजनक रीति से बढ़ती है। इससे पोषण के लिए उपयुक्त इतने अधिक बहुमूल्य तत्व उपलब्ध होते हैं जितने कि अच्छी से अच्छी खुराक से भी प्राप्त नहीं हो सकते। इसे किसी भी रोग में दवा के रूप में दिया जा सकता है और कोई भी इसे श्रेष्ठतम टॉनिक के रूप में सेवन कर सकता है।

गेहूँ की घास से हरित रक्त बनाने की विधि बहुत सरल है। कुछ टोकरे या रद्दी पेटियों में खाद मिली मिट्टी भर दी जाती है। इनकी संख्या दस बारह होनी चाहिए। प्रत्येक टोकरी में बारी-बारी से गेहूँ के अच्छे बीज बो दिये जाते हैं। उन्हें छाया में रख दिया जाता है और पानी दिया जाता रहता है। तीन चार दिन में ही ये बीज उग आते है और आठ दस दिन में करीब सात आठ इन्च ऊँचे हो जाते हैं, इस प्रकार दस बारह दिन में पहले बोये बीजों से उगे तीस चालीस पौधे उखाड़कर उनकी जड़ें काटकर हटा दीजिए। अंकुरों को धोकर थोड़े पानी के साथ सिल पर पीसकर कपड़े में छान लीजिए। इस प्रकार जो पेय तैयार होता है उसे एक गिलास प्रतिदिन पीने से सम्पूर्ण पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी हो जाती है। दूसरे दिन बोये अंकुर लिए जाना चाहिए और जिस टोकरे में से उन्हें उखाड़ा जाए उसमें दुबारा बोने का क्रम नियमित रूप से जारी रखना चाहिए। इस प्रकार सिलसिला टूटने नहीं पायेगा और प्रतिदिन गेहूँ की घास मिलती रहेगी।

इस गेहूँ की घास के चमत्कारी सत्परिणामों का सविस्तार उल्लेख करते हुए डॉ. विरामोर ने एक और प्रयोग लिखा है जो गेहूँ घास के बराबर तो नहीं फिर भी बहुत कुछ लाभदायक है। वह विधि यह है कि आधा कप धुले और बीने हुए गेहूँ किसी काँच या चीनी के बर्तन में डालिये और उन पर दो कप पानी डालकर ढक दीजिए, बारह घंटे तक इन्हें भिगोये रखने के बाद गेहूँ को मसलकर अलग कीजिए और पानी को छानकर पीजिए। यह पानी भी बहुत गुणकारी है। भीगे हुए गेहूँ दलिया आदि के काम में लाये जा सकते हैं।

इस प्रकार खाद्य पदार्थों को यथा संभव उनके प्राकृतिक रूप में लिया जाए। उन्हें कम से कम भुना या पकाया जाए और उनके उपयोगी अंश को नष्ट न किया जाए। इतनी साधारण सी सावधानी बरतने पर गरीबी जैसा उपलब्ध आहार भी अपनी पोषक विशेषता बनाये रह सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


196. स्वाद की गुलामी तो स्वीकार न करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य शरीर को स्वस्थ और समर्थ बनाये रखने के लिए आहार का बड़ा महत्त्व है। यद्यपि उसे प्रतिदिन का काम चलाने योग्य शक्ति अन्य स्रोतों से भी प्राप्त होती रहती हैं, परन्तु उन स्रोतों से प्राप्त साधनों का उपयोग तभी हो पाता है जबकि शरीर में उन साधनों का उपयोग करने योग्य शक्ति हो। वह शक्ति भोजन द्वारा ही आती है।

आग भी हो और पानी भी हो किन्तु ईंधन न हो तो आग थोड़ी देर जल कर ही बुझ जायेगी और पानी भाप न बन सकेगा। भाप जो बड़ी-बड़ी मशीनों को चलाती है, नहीं बनेगी तो मशीनें बन्द पड़ी रहेंगी और उनकी कोई उपयोगिता भी नहीं रह जायेगी। स्वच्छ वायु और खुला प्रकाश हो किन्तु भोजन न किया जाय तो शरीर में शक्ति का उत्पादन भी बन्द हो जायेगा। इसीलिए भोजन की तुलना मशीनों में प्रयुक्त किये जाने वाले ईंधन, उन्हें चलाने के लिए प्रयुक्त होने वाली शक्ति के उत्पादन हेतु इस्तेमाल किये जाने वाले साधनों से की गयी है।

निर्बाध और पर्याप्त भाप तैयार करने के लिए स्वच्छ तथा मजबूत ईंधन जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार स्वस्थ और सबल शरीर के लिए भोजन का पौष्टिक तथा निर्दोष होना आवश्यक है। यह कैसे जाना जाय कि कौन सा भोजन पौष्टिक है और किस तरह का भोजन जीवन तत्वों से भरपूर है। यह जानने से पूर्व हमें अपने भोजन का विश्लेषण करना चाहिए।

किसी भी क्रिया का प्रयोजन उसके प्रभावों और परिणामों को स्पष्ट कर देता है। जो भोजन हम करते हैं ,, उसके सम्बन्ध में बहुत कम लोग यह सोचते हैं कि जो खाया जाय वह जीवन तत्वों से भरपूर होना चाहिए। बल्कि अधिकांश व्यक्तियों की तो यही धारणा रहती हैं, कि जो कुछ खाया जाय वह स्वादिष्ट और जायकेदार होना चाहिए। और स्वाद का परीक्षण करने, भोजन में रस लेने का कार्य जीभ द्वारा ही होता है।

खाद्य क्रिया जीभ का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस प्रक्रिया में दोनों ओर के गाल, सुदृढ़ दीवार का काम देते हैं। उन्हीं के सहारे यह मुँह के ग्रास को आगे पीछे ऊपर नीचे और दाँतों व दाढ़ों के बीच लाती ले जाती हैं। ग्रास की लुगदी बन जाने पर गोली बनाकर उसे कण्ठ में आहारनाल के द्वार पर इस तरह पहुँचा देती है कि वह सरलता से नाल में उतरता चला जाय। इस क्रिया में इसकी लार उत्पादक ग्रन्थियाँ विशेष सहायक होती हैं। यदि लार उत्पन्न न हो तो सूखा ग्रास आहार नाल को क्षति पहुँचाता हुआ जाएगा। लार की सहायता से ही ग्रास नर्म होकर सरलता से सरकता चला जाता है।

इस प्रकार भोजन का स्वाद परखने तथा उसे आगे बढ़ाने में जीभ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जीभ का एक मात्र कार्य भोजन का स्वाद चखना, रस ग्रहण करना, या आगे बढ़ाना ही नहीं है। जीभ बोलने का, दूसरों से वाणी द्वारा सम्पर्क करने का भी काम करती है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से जीभ असंख्य स्नायविक तन्तुओं का एक समूह है, जिसमें रक्त लाने, ले जाने के लिए शिराओं तथा वाहनियों का जाल बिछा रहता है। समझा जाता है कि जीभ केवल स्वाद की ही जानकारी देती है, अथवा बोलने का ही काम करती है, परन्तु इसके अलावा भी जीभ अनेक कार्य करती है, जैसे वह मनुष्य के स्वास्थ्य का परिचय भी देती है। स्वास्थ्य का परिचय देने के लिए तो जीभ वस्तुतः एक मीटर का काम देती है। और कुशल चिकित्सक उसे देख कर कितने ही रोगों को पढ़ लेते हैं।

रस ग्रहण, भोजन को आगे बढ़ाने और बोल चाल द्वारा दूसरों से सम्पर्क स्थापित करने में जीभ पर दोहरा दायित्व आ जाता है। अध्यात्म ने इसीलिए जीभ को दोहरी इन्द्रिय माना है। इसे ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों का कार्य सम्पन्न करना पड़ता है। न केवल यह विचारों और भावों को व्यक्त करती है, बल्कि शरीर की आन्तरिक स्थिति को भी अपनी छाती पर लिख कर बता देती है। लेकिन आमतौर पर इससे दो ही कार्य लिए जा सकते हैं-भोजन और भाषण। उनमें भी भोजन का स्वाद चखने तथा आहार को आगे बढ़ाने का कार्य जीभ को अकेले पूरा करना पड़ता हैं, जबकि बोलने में तो स्वर, कण्ठ, तालु आदि भी सहयोग देते हैं।

प्रकृति ने जीभ में यह व्यवस्था केवल इसलिए कर रखी हैं, कि मनुष्य को आहार की उपयोगिता अनुभव रहे, तथा वह रुचि पूर्वक भोजन ग्रहण करता रहे। अभिरुचि और तन्मयता पूर्वक किये गये कार्य अपना संपूर्ण परिणाम प्रस्तुत करते हैं। सम्भवतः इसलिए प्रकृति ने जीभ में स्वाद कलिकाएँ बनायी है और उसमें रसना का आकर्षण उत्पन्न किया है। लेकिन मनुष्य उस प्रयोजन को भूल कर केवल स्वाद के लिए ही भोजन करता है। यह विपर्यय हानिकारक परिणाम ही उत्पन्न करता है, जिसे किसी भी दृष्टि से समझदारी नहीं कहा जा सकता है।

हम शताब्दियों से अपने खाने में नमक का प्रयोग करते आ रहे हैं, पर यह सोचने की कभी आवश्यकता अनुभव नहीं की कि भोजन में इसकी क्या उपयोगिता है? बायोकेमिस्ट बंगे ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर बताया है कि पूर्व काल में भूमि में पोटैशियम और सोडियम की मात्रा में ठीक-ठाक सन्तुलन था, पर सहस्रों वर्षों की वर्षा ने अधिक घुलनशील सोडियम लवणों को धो बहाया। इसका दुष्परिणाम यह निकला कि भूमि से उत्पन्न खाद्य पदार्थों में पोटैशियम की वृद्धि तथा सोडियम की कमी हो गई।

मानव और मानवेत्तर प्राणी इस अभाव को पूर्ण करने हेतु आतुर हो उठे, आखिर उन्हें एक चीज मिली सोडियम क्लोराइड अथवा नमक। यह जितनी सस्ती थी उतनी ही स्वास्थ्य के लिए खतरनाक, पर व्यक्ति अपने स्वाद के लिए अखाद्य वस्तुओं को भी खाने को तैयार हो जाता है। जैसे शरीर में कैल्शियम के अभाव को कैल्शियम क्लोराइड से पूर्ण नहीं कर सकते, वैसे ही प्राकृतिक सोडियम की कमी नमक खाकर पूरी नहीं की जा सकती।

शरीर के पाचन यन्त्रों के लिए इस प्रकार के रासायनिक पदार्थ हानिकारक है, क्योंकि इन्हें कोषाणु खपा नहीं पाते। जब नमकीन भोजन किया जाता है तो थोड़ी देर बाद काफी प्यास लगती है। पाचन यन्त्र गुर्दे के मार्ग से उसे बाहर निकालने के लिए तत्पर हो जाता है। इससे आमाशय यन्त्र की श्लैष्मिक झिल्ली पर चोट पहुँचाती है। शरीर के सब अंगों में गुर्दों को ही नमक से अधिक हानि होती है। नमक खाने से गुर्दे के अनेक रोगों को जन्म तो मिलता ही है। गुर्दे के रोगी जब चिकित्सक के पास पहुँचते हैं तो परहेज में सबसे पहले नमक ही बन्द किया जाता है।

यदि नमक की मात्रा इतनी अधिक है जिसे गुर्दे बहाकर बाहर नहीं निकाल पाते, तो वह पैर के निचले भाग में जमा हो जाता है और पानी एकत्र होने लगता, उनमें सूजन और दर्द शुरू हो जाता है। नमक रासायनिक प्रणाली में गड़बड़ी पैदा करता है, हृदय की गति तथा रक्तचाप में वृद्धि हो जाती है। कितने ही हृदय रोग ऐसे हैं जिनमें नमक की अल्प मात्रा भी बहुत हानिकारक है। शरीर इसका कोई उपयोग नहीं करता क्योंकि इसमें किसी प्रकार का पोषक तत्व नहीं होता। इससे मिरगी तथा पक्षाघात की प्रवृत्ति में वृद्धि होती है। नमक स्वाभाविक प्रणाली को अधिक उत्तेजित करने वाला है।

आहार विशेषज्ञ चिकित्सक रेमाण्ड बर्नाड नमक को भोजन नहीं मानते। जिस तरह किसी औषधि विक्रेता की दुकान में रखे पोटैशियम क्लोराइड का प्रयोग तर्क संगत नहीं कहा जा सकता, वही स्थिति भोजन के लिए नमक की भी है। इससे शरीर में कैल्शियम की मात्रा घट जाती है। प्यास शान्त करने के लिए जो द्रव्य लिए जाते हैं वह कैल्शियम लवण को अपने साथ बहा कर बाहर ले जाते हैं और अनेक अम्ल सम्बन्धी रोगों को पैदा कर देते हैं। शरीर अपनी आँतों में हानिकारक पदार्थों को बाहर निकालने के लिए ही पानी जमा कर लेता है।

इसी प्रकार चीनी भी एक हल्का विष है। वैज्ञानिक तकनीक के विकास के पहले कहीं भी श्वेत चीनी का उपयोग खाद्य पदार्थों में नहीं होता था। या तो शर्करा युक्त पदार्थों को प्राकृतिक रूप में प्रयोग किया जाता था अथवा उनकी शर्करा को कम से कम रूपान्तरित करके उपयुक्त मात्रा में ही लिया जाता था। लोग आज की तुलना में रोगी भी कम होते थे, साथ ही दीर्घ जीवी एवं जीवन के अन्तिम दिनों तक कार्यक्षम बने रहते थे। पता नहीं यह भ्रान्ति लोगों के मन में कैसे जम गई, कि सफेद चीनी सभ्य लोगों की चीज है और गुड़, शीरा आदि सस्ते शर्करायुक्त खाद्य गरीबों के लिए हैं। इस भ्रान्ति का ही परिणाम है कि तथाकथित बड़े रोगों में अधिकांश मधुमेह के रोगी पाये जाते हैं।

इस तथ्य से सभी शरीर शास्त्री सहमत हैं कि शरीर को ऊर्जा प्राप्त करने के लिए कार्बोहाइड्रेट्स में शर्करा का विशेष योगदान होता है। इसके पाचन में समय भी अपेक्षाकृत कम लगता है। परन्तु आजकल शर्करा के लिए परिष्कृत चीनी की जिस प्रकार खपत बढ़ रही है, उसे देखकर चिकित्सक एवं वैज्ञानिक वर्ग चिन्तित हैं। शर्करा शरीर के लिए आवश्यक तो है किन्तु उस रूप में नहीं, जिसमें कि अधिसंख्य लोग अन्धाधुन्ध प्रयोग करते हैं। विगत दो-तीन दशकों से वैज्ञानिक चेतावनी देते आ रहे हैं कि परिष्कृत चीनी का अत्यधिक प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यहाँ तक कि परिष्कृत श्वेत चीनी को श्वेत विष की संज्ञा से सम्बोधित किया जाने जगा है।

देखने में तो लाल गुड़ की अपेक्षा श्वेत चीनी बहुत आकर्षक लगती है और लोग पसन्द भी उसे ही अधिक करते हैं। तथाकथित शहरी लोगों की देखा-देखी ग्रामीण लोगों की भी अभिरुचि श्वेत चीनी के प्रयोग की ओर बढ़ने लगी है। अन्धानुकरण का जो परिणाम हुआ करता है, वही हो भी रहा है। जो ग्रामीण गुड़ का प्रयोग छोड़ कर श्वेत चीनी का अधिक प्रयोग करने लगे हैं-सर्वेक्षण से पता चला है कि उनके स्वास्थ्य में गिरावट आई है। यहाँ यह तो नहीं कहा जा रहा है कि केवल चीनी के ही प्रयोग से स्वास्थ्य संकट बढ़ रहा है, अन्यान्य कारणों के साथ यह भी एक मुख्य कारण है।

चीनी के परिष्कृतीकरण के कारण उसमें किसी प्रकार के खनिज लवण, विटामिन्स या एन्जाइम्स शेष नहीं रह जाते, जिससे उसके निरन्तर प्रयोग से अनेक प्रकार की बीमारियाँ, विकृतियाँ उत्पन्न होकर पनपने लगती हैं। दन्त चिकित्सकों का कहना है कि दाँतों के क्षय का मूल कारण अधिक चीनी का उपयोग करना है। वे तो छोटे बच्चों को चीनी से दूर रखने का ही परामर्श देते हैं। चीनी के अत्यधिक प्रयोग से शरीर में कैल्शियम और फास्फोरस का सन्तुलन बिगड़ता है जो सामान्यतया ५ और २ होता है। साथ ही चीनी के पाचन के लिए अतिरिक्त कैल्शियम की आवश्यकता पड़ती हैं। शरीर में उसकी कमी हो जाने से आर्थराइटिस, कैंसर, वायरस संक्रमण आदि अनेक रोगों के होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

चिकित्सा शास्त्रियों का यह भी कहना है कि चीनी को पचाने के लिए शरीर के पाचन तन्त्र में बी काम्पलेक्स का होना अनिवार्य है। अधिक चीनी का प्रयोग करने से विटामिन बी काम्पलेक्स की कमी होने लगती है, जिसके कारण अपच, अजीर्ण, चर्म रोग, हृदय रोग, कोलाइटिस, स्नायुतंत्र सम्बन्धी बीमारियाँ उत्पन्न होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। श्वेत चीनी के अधिक प्रयोग से यकृत में ग्लाइकोजिन की मात्रा घटती है, जिसके फलस्वरूप थकान, उद्विग्नता, घबराहट, सिर दर्द, दमा, डाइबिटीज आदि विविध व्याधियाँ आ घेरती है और व्यक्ति असमय काल के गाल में समा जाता है। लन्दन मेडिकल कालेज के सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर लुइकिन अधिकांश हृदय रोगों के लिए चीनी को उत्तरदाई मानते हैं और शरीर को ऊर्जा प्राप्ति के लिए गुड़, खजूर, मुनक्का, अंगूर, शहद, आम, केला, मौसम्मी, खरबूजा, तरबूजा, पपीता, शकरकन्द, गन्ने का रस आदि में से जो सामान्यतया उपलब्ध हो, लेने का सुझाव देते हैं।

इसी प्रकार भोजन में नमक का प्रचलन सदियों से चला आ रहा है। सर्वसाधारण की मान्यता यही है कि अन्य भोज्य पदार्थों की तरह ही नमक भी अनिवार्य है। परन्तु आधुनिकतम वैज्ञानिक शोधों के निष्कर्ष एवं प्रयोग इस मान्यता को सर्वथा निराधार बताते हैं। लवण शरीर के लिए आवश्यक एवं उपयोगी हैं, लेकिन तभी जब वे खाद्य पदार्थों में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले रूप में ग्रहण किए जाय। भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए ऊपर से मिलाये गये सोडियम क्लोराइड को हानिकर बताया गया है। यह स्लो पाइजन, मन्द विष का काम करता है। जिस प्रकार लकड़ी के अच्छे खासे शहतीर को घुन भीतर ही भीतर खोखला करके रख देते हैं, उसी प्रकार नमक शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को गलाकर रख देता है।

गत वर्ष मोनेक्को के माँटेकार्मों नामक स्थान पर वहाँ के चिकित्सा शास्त्र विशेषज्ञों की कान्फरेंस हुई। कान्फरेंस का मुख्य प्रयोजन जन स्वास्थ्य के गिरते हुए कारणों का पता लगाना और उनका समाधान खोजना था। कान्फरेंस के चिकित्सा शास्त्रियों के विचार मन्थन से जो निष्कर्ष निकले, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था कि सर्व साधारण के भोजन में लिया जाने वाला कृत्रिम नमक स्वास्थ्य के लिए हर दृष्टि से हानिकारक है। खाद्य पदार्थों में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले खनिज लवण ही मनुष्य शरीर के अनुकूल हैं। शरीर के लिए उपयुक्त नमक की व्यवस्था प्रकृति ने खाद्य-पदार्थों, फलों, साग-सब्जियों के रूप में पहले से ही कर रखी हैं, ऊपर से अतिरिक्त कृत्रिम नमक लेने की आवश्यकता नहीं। ८ अगस्त १९७७ के नव भारत टाइम्स में नमक जहर से भी खतरनाक नामक लेख में इसी तथ्य की पुष्टि की गई कि जीभ के लिए लिया जाने वाला कृत्रिम नमक मनुष्य के लिए निरर्थक ही नहीं वरन् हानिकारक भी है।

चिकित्सा विज्ञान की शोधों ने इस तथ्य की पुष्टि की है कि रक्तचाप के रोगों का प्रमुख कारण कृत्रिम नमक का प्रयोग है। यह तो सर्वविदित है कि उच्च रक्तचाप के रोगियों को चिकित्सक भोजन में नमक लेने पर प्रतिबन्ध लगाने का परामर्श देते हैं। जो रोगी नमक छोड़ देते है वे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करते हैं और जो उच्च रक्तचाप के रोगी नमक नहीं छोड़ते वे आजीवन त्रस्त रहते हैं।

पिछड़े जंगली आदिवासियों की अनेक जातियों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि उनमें से कितनी ही जातियाँ ऐसी हैं, जिनके आहार क्रम में नमक का कोई स्थान नहीं। आधुनिक सभ्यता से अछूते वे लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे आगे हैं। शर्करा की पूर्ति वे खाद्य पदार्थों से ही कर लेते हैं।

स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने के लिए आहार सम्बन्धी इन भ्रान्त मान्यताओं का छोड़ा जाना आवश्यक है। सभ्य समाज में प्रारम्भ में कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ आ सकती हैं, उनसे तालमेल बिठाते हुए अथवा विनम्रता पूर्वक अस्वीकृति से बचा जा सकता है। यदि स्वास्थ्य रक्षा अभीष्ट है तो भोजन में चीनी और नमक का प्रयोग समझ-बूझकर किये बिना और कोई चारा नहीं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


197. अपना ही नहीं समाज का भी हित सोचें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

समाज के विकास के साथ ही व्यक्ति के विकास की सम्भावना जुड़ी है। समाज से प्रथक रहकर अथवा उसके हित की ओर से विमुख होकर कोई व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता। जब-जब मनुष्यों के बीच सामाजिक भावना का ह्रास होता है तब-तब समाज में कलह और संघर्ष की परिस्थितियाँ बढ़ने लगती हैं। चारों ओर अशान्ति और असुरक्षा का वातावरण व्याप्त रहने लगता है। समाज की प्रगति रुक जाती है। और उसी के साथ व्यक्ति की प्रगति भी। इसी हानि से बचाने के लिए हमारे समाज के निर्माता ऋषियों ने वेदों में स्थान-स्थान पर पारस्परिक सहयोग और सद्भावना का उपदेश दिया है, बताया गया है-

‘‘अज्येष्ठासो ऽकनिष्ठासः स भ्रातरो वावृधु सौभगाय’’

इस वेद वाक्य का आशय यही है कि हम सब प्रभु की सन्तान एक दूसरे के भाई-भाई है। हममें न कोई छोटा है और न बड़ा। यह एक उत्कृष्ट सामाजिक साधना है। इसी भावना के बल पर ही तो भारतीय समाज संसार में सबसे पहले विकसित और समुन्नत हुआ। इसी भावना के प्रसाद से उसके मनीषियों ने संसार में सभ्यता का प्रकाश फैलाने का श्रेय पाया है और इसी बन्धुत्व की भावना के आधार पर वह जगद्गुरु की पदवी पर पहुँचा है।

इसके विपरीत जब से भारतीय समाज की वैदिक भावना क्षीण हो गई, वह पतन की ओर फिसलने लगा और यहाँ तक फिसलता गया कि आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक गुलामी तक भोगनी पड़ी है। किन्तु अब वह समय फिर आ गया है कि भारतीय समाज अपनी प्राचीन बन्धु भावना को समझे, उसे पुनः अपनाये और आज के अशान्त संसार में अपने वैदिक आदर्श की प्रतिष्ठा द्वारा शान्ति की स्थापना का पावन प्रयत्न करे।

शाश्वत सिद्धान्त है कि दूसरों को उपदेश देने और मार्ग दिखलाने का वही सच्चा अधिकारी होता है जिसका आचरण स्वयं उसके आदर्श के अनुरूप हो। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पहले हम अपनी भावनाओं और व्यवहार में सुधार करें, उसमें पारस्परिक भाई चारे का समावेश करें और तब संसार के सामने वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श उपस्थित करें। इस सुधार को सरल बनाने के लिए सबसे पहले व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध समझ लेना होगा। एक के विचारों और कार्यों का दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है यह जान लेना होगा।

जीवन निर्वाह करने के लिए कुछ साधन, परिस्थितियाँ और कुछ सहयोग अपेक्षित होता है। यह सब सुविधाएँ समाज में समाज द्वारा ही प्राप्त होती है। एक अकेला व्यक्ति न तो इन्हें उत्पन्न कर सकता है और न इनका उपयोग। इनके लिए उसे समाज पर ही निर्भर होना होगा। विभिन्न शिक्षण संस्थाएँ, उनमें कार्य करने वाले व्यक्ति जीवन निर्वाह के साधन, ज्ञान विज्ञान की सुविधाएँ अन्वेषण आविष्कार, व्यापार, व्यवसाय, अनुभव और अनुभूतियाँ आदि मानव विकास के जो भी साधन माने गये हैं, उनकी उत्पत्ति समाज के सामूहिक प्रयत्नों द्वारा ही होती है। किसी का मस्तिष्क काम करता है तो किसी के हाथ-पाँव, किसी का धन सहयोग करता है तो किसी का साहस। इस प्रकार जब पूरा समाज एक गति और एक मति होकर अभियान करता है तभी व्यक्ति और समूह दोनों के लिए कल्याण के द्वार खुलते चले जाते हैं। एक अकेला व्यक्ति संसार में कभी कुछ नहीं कर सकता।

समाज से पृथक रहकर अथवा समाज के सहयोग के बिना व्यक्ति एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। कोई विशेष प्रगति कर सकना तो दूर, इस पारस्परिकता के अभाव में जीवन ही संदिग्ध हो जाय। जीवन की सुरक्षा और उसका अस्तित्व समाज के साथ ही सम्भव है। समाज की शक्ति का सहारा पाकर ही हमारी व्यक्तिगत क्षमताएँ एवं योग्यताएँ प्रस्फुटित होकर उपयोगी बन पाती हैं। यदि हमारे गुणों और शक्तियों को समाज का सहारा न मिले तो वे निष्क्रिय रहकर बेकार चली जाएँ। उनका लाभ न तो स्वयं हमको होगा और न समाज को। सच्ची बात तो यह है कि व्यक्तिगत जीवन नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं है। हम सब व्यक्तिगत रूप में दीखते हुए भी समष्टि रूप में जीते हैं। व्यक्तिवाद को त्यागकर समष्टिगत जीवन को महत्त्व देना ही हम सबके लिए हितकर तथा कल्याणकारी है। समष्टिगत जीवन समूहगत उन्नति ही हमारा ध्येय होना चाहिए। वह जितना विकसित और शक्तिशाली बनता जाएगा, उसी अनुपात से हमारा व्यक्तिगत जीवन भी चढ़ता जाएगा।

समाज जब समग्र रूप से निर्बल हो जाता है तो उस पर सामूहिक संकटों का सूत्रपात होने लगता है। उस सामूहिक संकट से व्यक्तिगत रक्षा कर सकना सम्भव नहीं होता। निर्बल समाज पर जब बाहरी आक्रमण होता है अथवा कोई संक्रामक रोग फैलता है, तब व्यक्ति उससे अपनी रक्षा कर पाने में सफल नहीं हो पाता फिर वह अपने आप में कितना ही शक्तिशाली एवं स्वस्थ क्यों न हो। ऐसी समूहगत संक्रान्ति से सामूहिक रूप से ही रक्षा सम्भव हो पाती है। समाज की शक्ति ही व्यक्ति की वास्तविक शक्ति है। इस सत्य को कभी भी न भूलना चाहिए। अपनी शक्ति का उपयोग एवं प्रयोग भी इसी दृष्टि से करना चाहिए जिससे हमारी व्यक्तिगत शक्ति भी समाज की शक्ति बने और उलट कर वह व्यापक शक्ति हमारे लिए हितकारी बन सके।

समाज की शक्ति ही व्यक्ति ही वास्तविक शक्ति मानी गई है व्यक्ति का अकेला शक्तिशाली होना कोई अर्थ नहीं रखता। अस्तु समाज को शक्तिशाली बनाने के लिए हमें चाहिए कि हम अपने समग्र व्यक्तित्व को उसमें ही समाहित कर दे। जो कुछ सोचे समाज को सामने रखकर सोचें, जो कुछ करें समाज के हित के लिए करें। यदि हम ऐसी समष्टि चेतना को स्थान नहीं देते और अपने व्यक्तित्व की सत्ता की अलग कल्पना कर उसी तक सीमित रहते हैं, तो एक प्रकार से समाज को निर्बल बनाने की गलती करते हैं। हमारी यह अहंकारपूर्ण भावना का समाज विरोध कार्य होगा। इसका कुप्रभाव समाज पर पड़ेगा ही, पर हम स्वयं भी इस असहयोग से अछूते न रह सकेंगे। हमारा यह सामाजिक पाप प्रकाश में आ जाएगा और तब हमको पूरे समाज के आक्रोश तथा असहयोग का लक्ष्य बनना पड़ेगा। हम जैसा करेंगे वैसा ही भरना होगा। इस न्याय से बच सकना सम्भव नहीं।

इस संकीर्ण मनोवृत्ति का कुप्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर एक प्रकार से और भी पड़ता है। वह है उसका मानसिक पतन। ऐसे असामाजिक वृत्ति के लोगों का अन्तर आलोक हीन होकर दरिद्री बन जाता है। उसके सोचने और समझने की शक्ति न्यून हो जाती है। उसकी क्षमताओं, योग्यताओं और विशेषताओं का कोई मूल्य नहीं रहता।

असामाजिक भाव वाले व्यक्तियों की शक्ति को समाज अपने लिए खतरा समझने लगता है और कोशिश करता है कि वे जहाँ की तहाँ निष्क्रिय एवं कुण्ठित होकर पड़ी रहें। उन्हें विकसित अथवा सक्रिय होने का अवसर न मिले। ऐसे प्रतिबन्धों के बीच कोई असहयोगी व्यक्ति अपना कोई विकास कर सकता है यह सर्वथा असम्भव है। समाज के निषेध से जहाँ व्यक्ति की असाधारण शक्ति भी सीमित और वृथा बन जाती है, वहाँ समाज में समाहित होकर किसी की न्यून एवं साधारण शक्ति भी व्यापक और असाधारण बन जाती है। अपनी एक शक्ति समाज के साथ संयोजित कर व्यक्ति असंख्य शक्तियों का स्वामी बन सकता है।

समाज को अपनी शक्ति सौंपकर उसकी विशाल शक्ति को अपनाने के लिए हमें चाहिए कि हम अपने भीतर सामूहिक भावना का विकास करे। हमारा दृष्टिकोण जीवन के क्षेत्र में अपने पर से प्रेरित न होकर समाज की मंगल भावना से प्रेरित हो। हम अपना कदम उठाने से पूर्व अच्छी तरह यह सोच लें कि इसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ेगा। यदि हमें अपने उस कदम में समाज का जरा भी अहित दिखलाई दे तो तुरन्त ही उसे स्थगित कर देना चाहिए। हमारे लिए वे सारे प्रयत्न त्याज्य होने चाहिए, जिनमें व्यक्तिगत लाभ भले ही दिखता हो पर उससे समाज का कोई अच्छा होने की सम्भावना न हो।

मनुष्य एक सहकारी प्राणी है। सहकारिता ही उसकी अद्यावधि प्रगति का केन्द्रीय कारण एवं आधार है। एकाकी मनुष्य की तो अस्तित्व रक्षा भी असम्भव है। जन्म से लेकर विकास की जिन मंजिलों को पार करते हुए मृत्यु की गोद में सोने तक मनुष्य औरों का मुहताज होता है। फिर प्रेम, सदाचार, सेवा, न्याय-नीति, सौजन्य, सौहार्द, उदारता, सहानुभूति आदि आनन्ददायक प्रवृत्तियों की तो बात ही क्या? एकाकी मनुष्य के लिए तो उनसे परिचित हो पाना भी सम्भव नहीं। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक विकास के आधार सामूहिक प्रयत्नों से ही एकत्र होते रहे हैं। मनुष्य के सुख दुःख का बहुलांश दूसरों की क्रिया एवं व्यवस्था पर अवलम्बित है।

मनुष्य ही क्यों, वृक्ष वनस्पतियों, कीट-पतंगों में भी सामूहिकता एवं सहयोग की प्रवृत्ति भरपूर है। धान के खेतों में चने के पौधों को उपयोगी अंश मिलता है जो कि धान के पौधे छोड़ जाते हैं। चना की फसल उस अंश का सदुपयोग कर बढ़िया बनती है। फिर चने के पौधे भी धान के लिए उपयोगी अंश छोड़ देते हैं। अरहर ज्वार साथ-साथ बोए जाते हैं। अरहर नाइट्रोजन खींचकर ज्वार को भी उसका समुचित अंश देती रहती है और दोनों विकसित होते हैं। आम की सघन छाया में पान की बेलें और नारियल की छाया में इलायची फूलती फलती है। चीकू का एक पेड़ अकेले में जितने फल देता है समूह में होने पर प्रत्येक पेड़ उससे अधिक फल देता है।

कीट पतंगों के जीवन में सामाजिकता भरपूर होती है। चींटी की सामूहिकता प्रसिद्ध है मधुमक्खियों द्वारा मधु संचय सामूहिकता की शक्ति द्वारा ही सम्पन्न होता है। कोई चूहा जब किसी दीमक के किले में घुसता है तो सैकड़ों दीमक संगठित आक्रमण कर अपने डंकों के प्रहार से उसे मार डालते हैं। पशु-पक्षियों में भी सामूहिकता की प्रवृत्ति के सुन्दर स्वरूप की झाँकी दिखाई पड़ती है। हाथी, हिरन, गाय आदि सामूहिकता के लाभों से भली-भाँति परिचित होते हैं और लाभ उठाते हैं।

जीवाणुओं की सामूहिक हलचल ही जीवनगति है। एकाकी जीवन असंभव ही है। यह समस्त विश्व एक शरीर की ही तरह है। मनुष्य इसी का एक अंग मात्र है। इसलिए सामूहिकता उसकी नियत ही है। अहंकार में की गई सामूहिकता की अवहेलना घातक सिद्ध होती है। समाज से अलगाव व्यक्ति को एकाकीपन तथा अभावों की पीड़क अनुभूति प्रदान करता है। सामूहिकता के अनेक अनुदान मनुष्य को विभूतिवान बनाते हैं। जो इन सम्पदाओं का सदुपयोग नहीं जानता वह दरिद्र ही रह जाता है।

यों फूल का अपना अलग महत्त्व भी है। पर महापुरुष या देवता के गले में लिपटने का सौभाग्य माला में गूँथने पर ही प्राप्त होता है। यह गुँथना तभी सम्भव है जब फूल सूत्रात्मा को आत्म समर्पण कर दे। इस समस्त विश्व का सूत्रात्मा परमात्मा है। माला की मणियों या पुष्पों के मध्य पिरोए हुए धागे की तरह वही समस्त प्राणियों को परस्पर एक सूत्र में बाँधें बसन्त में वही प्रतिभासित हो रहा है। उस परमात्म सत्ता के बन्धन में बँधे रहना ही श्रेयस्कर है। पृथकता के अहंकार से एकाकीपन की तुच्छता ही हाथ लगने वाली है।

विशाल सागर की हिलोरों में से प्रत्येक लहर का अस्तित्व भिन्न दिखाई तो पड़ सकता है, पर अलगाव की आकाँक्षा उन्हें बिखराव ही देगी, वे क्षण भर में प्रचंड सूर्य किरणों से वाष्पीकृत हो जायेंगी या किसी गड्ढे में पड़कर सूख जायेंगी। उनकी सरसता समाप्त हो जायेगी। ज्वार भाटे का दृश्य वे सामूहिकता द्वारा ही पैदा करती रहती है तथा स्वयं भी उन जीवन क्रीड़ाओं का आनन्द लेती रह सकती हैं। गरजती हुई ध्वनि, नौकाओं को उलट लेने वाली शक्ति भी तभी तक है जब तक वे अपने पृथक अस्तित्व की मूढ़ आकाँक्षा नहीं पालती।

ईंटों की सामूहिकता विशाल और आकर्षक भवन के रूप में गरिमा मंडित होती है। बादल की अंशभूत बूँदें मुक्त विहार तथा लोक जीवन में रस संचार की सुविधा एवं गौरव अर्जित करती हैं। पुर्जों का समन्वय ही मशीन के रूप में बड़े-बड़े क्रिया कलाप सम्पादित करता है। योद्धाओं का समूह ही सेना कहलाता है और कर्मचारियों का संगठित स्वरूप विशेष ही शासन तन्त्र बनता है। अन्तरिक्ष यात्राएँ वैज्ञानिकों के सामूहिक प्रयासों का ही परिणाम है। मानव को उपलब्ध सम्पूर्ण ज्ञान राशि ही सामूहिक साधना और अनुभूति का परिणाम है। ज्ञान विज्ञान और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रियाशीलता का एकमेव आधार सामूहिकता ही है।

वस्तुतः व्यक्ति समूह का एक अविच्छिन्न घटक मात्र है। सामूहिकता में ही उसका विकास संभव है। व्यक्तिवाद, संकीर्णता से प्रेरित क्षुद्र स्वार्थ साधनायें उसे दरिद्र और दयनीय ही बनाती है। दूसरों को पीछे छोड़कर एकाकी आगे बढ़ जाने की नई योजनाएँ अन्ततः अप्रत्याशित आपत्तियों से घिरी असफलता में ही जाकर समाप्त होती हैं। पृथकता तभी तक लाभदायक दीखती है जब तक वह कल्पना में सीमित है, व्यवहारिक क्षेत्र में उतरने पर उसका खोखलापन ही सामने आता है।

समाज से अपने को पृथक मानने की परिणति आशंका, अनिश्चित और भय से भरी मनःस्थिति में ही होती है। निजी स्वार्थों के लिए नीति मर्यादाओं का उल्लंघन कर समूह स्वार्थ की उपेक्षा करते चलने पर उसे समष्टि सहयोग से तो वंचित रहना ही पड़ता है जो आनन्द, उल्लास और संतोष का प्रमुख आधार है साथ ही प्रतिक्रिया स्वरूप न केवल लोक निन्दा ही मिलती है अपितु अन्ततः सामाजिक दण्ड भी भोगना ही पड़ता है। यदि धूर्ततापूर्ण छीना झपटी से समाज में प्रतिष्ठा बना ली जाए तो भीतर असुरक्षा आत्मीयता, आत्महीनता, अशान्ति और असंतोष ही बढ़ता है।

समिधाओं का एकाकी उपयोग विकृतियों को ही पैदा करता है। भीतर आत्मग्लानि परिवार में आपा धापी मचाती है, बाहर ईर्ष्या द्वेष की वृद्धि होगी। अन्त में तिरस्कार, पतन और एकाकीपन ही हाथ लगता है। उस समय सामूहिकता की तीव्रतम इच्छा मन को मथती ललचाती है और सह का विश्वास भी खो देने पर तो एकाकीपन की घुटन बढ़ती ही जाती है।

व्यक्तिगत बड़प्पन का फेर हमें अन्ततः संकीर्णताओं में ही घेरकर रख देता है। आनन्द, उल्लास का मार्ग यही है कि अपने आपको समाज का एक घटक अनुभव किया जाए। समूह का एक अंग हम है ही अतः उसी रूप में रहे। सबकी उन्नति में ही हमारी उन्नति है, यह तथ्य पहचानने पर ही प्रगति और उत्कर्ष सम्भव है उपलब्ध प्रतिभा सम्पदा एवं गरिमा समाज का ही अनुदान है उसे सज्जनतापूर्वक समाज को लौटा देना ही कर्तव्य भी है और वही सच्ची उपलब्धियाँ भी बनती हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


198. समृद्धि के लिए दूरदर्शी नीति अपनायी जाय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

आदि मानव ने जब एक पत्थर पर दूसरा पत्थर मारा तो अग्नि की चिनगारी फूट पड़ी और महत्त्वपूर्ण आविष्कार हाथ लगा-आग जलाने की कला का। वन्य पशुओं की भाँति नंग-धड़ंग घूमने वाले आदि मानव को जीवन यापन के लिए एक आवश्यक साधन उपलब्ध होते ही कौतूहल बढ़ा। कौतूहल ने बुद्धि के सदुपयोग और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया। सभ्यता की ओर असभ्य मानव के प्रयास चल पड़े और तब से लेकर अब तक एक से बढ़कर एक साधन उपलब्ध होते गये। जीवन यापन के लिए अनेकानेक विद्याओं भोजन पकाने, वस्त्र बनाने, मकान विनिर्मित करने जैसी आवश्यक जानकारियों से लेकर छोटे-मोटे दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के निर्माण तक की कलायें विकसित हुई। ये विधाएँ एवं कलायें मानवी विकास में असामान्य रूप से सहयोगी सिद्ध हुई। कला एवं तकनीक जब तक विकेन्द्रित थी और मनुष्य की सहचरिणी थी, उसके श्रम-कौशल को बढ़ाने में सहायक थी तब तक मनुष्य जाति के लिए उपयोगी सिद्ध हुई। तकनीकी साधन उस सीमा तक सार्थक है जब तक वे मनुष्य को श्रमशील और कौशल युक्त बनाते तथा अधिक से अधिक व्यक्ति उनसे लाभान्वित होते हैं। जो तकनीक एवं विकास के साधन मनुष्य के हाथों से श्रम और उसका कौशल छीन कर विशालकाय मशीनों, कारखानों में केन्द्रित कर दे, वह कालान्तर से समाज का हित नहीं, अहित करती और अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती है।

पिछले दिनों यही हुआ। प्रगतिशील कहे जाने वाले देशों में उत्पादन बढ़ाने के लिए औद्योगीकरण की होड़ चली। उत्पादन बढ़ा, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता, किन्तु इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि मनुष्य के हाथों से श्रम और कौशल छीनकर दैत्याकार मशीनों में सिमटता गया। सीमित आबादी वाले देशों में जहाँ कि बेकारी, गरीबी की समस्या नहीं है। वहाँ तो एक सीमा तक उनकी भौतिक प्रगति में सहायक सिद्ध हुआ। यद्यपि एकांकी भौतिकता से उत्पन्न अनेकानेक अभिशाप तो उनके साथ में जुड़ गये हैं, किन्तु जिन देशों की आबादी अधिक है, गरीबी एवं बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जो ग्रस्त हैं उनके लिए तो यह अन्धानुकरण की प्रवृत्ति सर्वाधिक हानिकारक सिद्ध हुई।

देश की आर्थिक प्रगति के लिए वह योजना ही अधिक सफल हो पाती है, जिससे अधिक से अधिक व्यक्तियों को लाभ पहुँचता हो। यन्त्र उस सीमा तक सहयोगी हैं जहाँ तक वे सामूहिक प्रगति में सहायक हों। प्रगति मात्र उत्पादन बढ़ने से नहीं होती वरन् इस तथ्य पर अवलम्बित है कि अधिक से अधिक व्यक्तियों के श्रम एवं कौशल का सदुपयोग हो, जिसके माध्यम से अधिक व्यक्ति रोजगार प्राप्त कर सके। अर्थनीति की सफलता ऐसे ही साधनों पर अवलम्बित है जिनमें उपरोक्त तथ्य को ध्यान में रखा गया हो, नीति मात्र उत्पादन की रही हो तो वह कुछ सीमित व्यक्तियों जिनके हाथों में ऐसे औद्योगिक साधन हैं, को तो लाभ पहुँचा सकती है, सार्वजनीन और सर्वतोमुखी सामाजिक प्रगति का आधार नहीं बन सकती।

जिन देशों में गरीबी और बेकारी की समस्या नहीं है उनके लिए भी औद्योगीकरण अन्ततः हानिकारक सिद्ध हुआ है। प्रदूषण एवं इससे उत्पन्न अनेकानेक रोग तो इन दिनों बहुचर्चित हैं ही। सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि यान्त्रिक जीवन क्रम में वहाँ के निवासी सहज प्रकृति, अनुकूल जीवन से दिन प्रतिदिन दूर हटते जा रहे हैं और स्वाभाविक सहज जीवन क्रम से उपलब्ध होने वाले आनन्द दुर्लभ हो गए हैं। प्रस्तुत इस समस्या से चिन्तित प्रसिद्ध विचारक ‘टापस एक्विनस’ ने अपनी व्यथा इन शब्दों में व्यक्त की है-‘मनुष्य दिमाग और हाथों वाला प्राणी है, जिसे सबसे अधिक आनन्द अपने दिमाग और मस्तिष्क की सहायता से किये जाने वाले सृजनात्मक, उपयोगी और उत्पादक काम करने से मिलता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की उपेक्षा होती जा रही है। दस्तकारी से अपने कौशल के उपयोग द्वारा आनन्द प्राप्त करने की तुलना में समृद्ध बनने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह इस सीमा तक बढ़ चली है कि मनुष्य सोचने लगा है कि उसे इतना धनवान होना चाहिए कि थोड़ा भी श्रम न करना पड़े। निस्सन्देह यह स्थिति यंत्रीकरण की पराकाष्ठा होगी, जिसके द्वारा श्रम तो नहीं करना होगा, किन्तु मनुष्य का पुरुषार्थ एवं कौशल कुण्ठित होकर जड़वत् हो जायेगा। प्रकारान्तर से यह विकास का नहीं पराभव का चिन्ह होगा’।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं विचारक ‘ई. एफ. शुमाकर’ लिखते हैं कि-‘हाथ और मस्तिष्क के सदुपयोग से किए जाने वाले पुरुषार्थ से जो आनन्द और संतोष की प्राप्ति हो सकती थी, मशीनीकरण ने मनुष्य को उससे वंचित कर दिया है। लगभग सारा ही उत्पादन एक अमानवीय और अप्राकृतिक प्रक्रिया बनकर रह गया है, जिससे आदमी को किसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का बोध नहीं होता उल्टे वह शून्यता अनुभव करता है। कारखाने से निर्जीव वस्तुएँ तो बन सँवर कर निकलती है, किन्तु मनुष्य अपनी मौलिकता से उतना ही दूर हटता जाता है’। प्रगतिशील कहे जाने वाले औद्योगिक राष्ट्रों में यह स्थिति सर्वत्र देखी जा सकती है। यंत्रीकरण से मनुष्य भी यन्त्र की भाँति बन गया है। फलस्वरूप जीवन उबाऊ, नीरस और बोझ भरा प्रतीत होता है। अपनी भाव सम्वेदना एवं सहजता को खो देने से वह अन्तरंग के संतोष और आनन्द की उपलब्धियों से वंचित हो गया है। इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण है-इन देशों में बढ़ते हुए मानसिक रोगियों की संख्या, जो प्रकारान्तर से शान्ति, संतोष एवं आनन्द के बदले खरीदी गई सम्पन्नता के ही अभिशाप हैं। समृद्धि की उपलब्धि के बावजूद भी पश्चिम की इस स्थिति को देखकर वहाँ के अधिकांश विचारक चिन्तित है और कुछ कारगर हल ढूँढ़ने में लगे हुए हैं। अर्थशास्त्री शूमाकर ने समाज के सर्वांगीण विकास के लिए कुछ उपयोगी सुझाव दिए हैं जो औद्योगिकी के सन्दर्भ में है तथा हर देश के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। उनका कहना है कि औद्योगिक नीति ऐसी हो जो प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच के भीतर हो। वे छोटे पैमाने पर काम करने के लिए उपयुक्त हों। मनुष्य की सृजनात्मक प्रवृत्तियों के अनुकूल तथा विकास में सहायक हो। यह सब बड़ी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना द्वारा नहीं, छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों की प्रतिष्ठापना से ही सम्भव है।

‘आल्डुअस हक्स्ले’ उस तकनीक एवं औद्योगिक नीति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जो अधिक से अधिक व्यक्तियों को रोजगार दे, न कि उनके हाथों से काम छीनकर विशाल यंत्रों में केन्द्रित कर दे। उनका कहना है कि इससे न केवल मानवी श्रम का सदुपयोग, रोजगार और सृजनात्मक प्रवृत्तियों के विकास का अवसर मिलेगा वरन् सुख और सन्तोष की दृष्टि से भी आज की तुलना में मनुष्य की स्थिति श्रेष्ठ होगी। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से पैदा होने वाली विषाक्त, एवं पर्यावरण असन्तुलनों के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करते हुए प्रो. लियोपोल्ड कोट् लिखते हैं कि स्थायी प्रगति उत्पादन के आधार पर नहीं आँकी जाती, वरन् समग्र जीवन को प्रभावित एवं विकसित करने वाले तत्वों से आँकी जाती है। बड़ी मशीनें उत्पादन तो बढ़ाती है किन्तु उसी अनुपात में बेकारी को जन्म देती तथा मानवी कौशल को नष्ट करती हैं। उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से विभिन्न प्रकार के रोग फैलते हैं। मेरे विचार से छोटी औद्योगिक इकाइयों की स्थापना में इन समस्याओं से बचाव होगा। इन इकाइयों में लगी पूँजी की लागत की उच्चतम सीमा उतनी होनी चाहिए जितनी कि एक कुशल, प्रवीण श्रमिक की वर्ष पर अथवा दो वर्ष की कमाई होती है। अर्थात् यदि एक श्रमिक दो वर्ष में 10 हजार रुपये कमाता है तो छोटे उद्योग में लगने वाली पूँजी 1 0 हजार रुपये के लगभग होनी चाहिए।

इस नीति से बड़े उद्योगपतियों के ऊपर श्रमिकों की पराधीनता घटेगी। साथ ही श्रम, पूँजी और उद्योगों के विकेन्द्रीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा। श्रमिक और उद्योगपतियों के बीच चलने वाला शोषण का क्रम बन्द होगा। आपसी मन-मुटाव एवं इससे उत्पन्न होने वाले संघर्ष तथा हड़तालों से प्रति वर्ष होने वाली व्यापक क्षति रुकेगी। गरीब और अमीर के बीच दिन प्रति-दिन बढ़ती हुई खाई पटेगी और समाजवाद का, मानवतावाद का वास्तविक स्वरूप प्रकट होगा।

इसी तथ्य को प्रख्यात अर्थशास्त्री डोरोथी एल. सेयर्य अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि-श्रम के यंत्रीकरण की अपेक्षा मानवीकरण करने की दिशा में सोचने एवं स्थायी कदम उठाने से ही प्रगति टिकाऊ बन सकती है। पूँजीवादी देश और पूँजीपति इस नीति के सर्वथा विरोधी होते हैं। फलस्वरूप उनके प्रयास यंत्रीकरण की दिशा में ही नियोजित रहते हैं ताकि अधिकाधिक व्यक्तिगत लाभ कमाया जा सके। इसका परिणाम यह हुआ है कि वे समृद्ध तो बनते जा रहे हैं, किन्तु अपनी मानवोचित विशेषताओं से उतने ही दूर हटते जा रहे हैं। उल्टे चल रहे इस प्रवाह को उलटा न गया तो वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य का मूल्य एक यन्त्र से भी कम हो जायेगा, क्योंकि भौतिक मूल्यांकन की दृष्टि से यन्त्र कहीं अधिक उत्पादन करने वाला होगा-अपेक्षाकृत के।

समृद्ध देशों के मूर्धन्य अर्थशास्त्री, विचारक प्रगति की एकांकी औद्योगिक अर्थनीति जिससे मात्र उत्पादन बढ़ता हो किन्तु मनुष्य की मौलिक विशेषताएँ, कला-कौशल एवं संवेदनाएँ नष्ट होती हो, को देखकर चिन्तित हो रहे हैं। कई देशों में नये सिरे से औद्योगिक नीति निर्धारित करने तथा पुराने ढर्रे में आमूल-चूल परिवर्तन करने के विषय में गम्भीर विचार किया जा रहा है। यह तो समृद्ध और सम्पन्न देशों की स्थिति है, जहाँ बेकारी और गरीबी की समस्या तो नहीं है किन्तु औद्योगीकरण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं और उन दूरगामी दुष्परिणामों को, जो मानवी गरिमा का अवमूल्यन करते हैं, के प्रति जागरूक हो रहे हैं।

अविकसित, गरीबी एवं बेकारी से ग्रस्त राष्ट्रों के लिए तो समृद्ध देशों की औद्योगीकरण की, अन्धानुकरण की नीति और भी अधिक घातक है। जो गरीब एवं पिछड़े हुए हैं उनके लिए तो ऐसी प्रौद्योगिकी, जो उत्पादन तो बढ़ाती है किन्तु मनुष्य के हाथों से उसका श्रम छीनकर दैत्याकार मशीनों के हाथों सौंप देती है, अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हुई है। बहुत समय पूर्व कार्ल मार्क्स जैसे विचारक ने भी इस खतरे को अनुभव किया था, वे लिखते हैं कि हम उत्पादन को उपयोगी वस्तुओं तक ही सीमित रखना चाहते हैं। यदि इस सीमा रेखा का उल्लंघन किया गया तो बेकारी बढ़ेगी, जो प्रगति की नहीं अवगति का कारण बनेगी। महात्मा गाँधी ने भी इस सत्य को अपने शब्दों में व्यक्त किया था कि-दुनियाँ के गरीब लोगों की सहायता बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली विशालकाय मशीनों को बढ़ाकर नहीं, उनको बड़ी संख्या में उत्पादन कार्यों में लगाकर ही की जा सकती है।

भारतीय परिस्थितियों का अध्ययन एवं विश्लेषण करने वाले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं विद्वान आर. एच. कैसने का कहना है-भारत को विशालकाय औद्योगिक नीति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। दूसरे देशों में चल रहीं इस होड़ का अन्धानुकरण प्रगति में सहायक सिद्ध नहीं हो सकेगा। उल्टे बेकारी और बेरोजगारी अधिक बढ़ेगी। यहाँ के लिए छोटे-छोटे कम ऊर्जा से चलने वाले कुटीर एवं गृह उद्योग ही प्रगति में सहयोगी बन सकते हैं।

शहरी बड़े उद्योगों और कारखानों की ओर ताकते रहने की अपेक्षा असली भारत की ओर ध्यान देना पड़ेगा, जो छोटे देहातों में बिखरा पड़ा है। इसके लिए सिंचाई भूमि विकास, वन विकास, विद्युतीकरण, गृह निर्माण, सड़क निर्माण, पशु व्यवसाय, पेय जल पूर्ति, लघु उद्योग विकास जैसी परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। हर कार्य नौसिखिए बाबू लोगों की कागजी घुड़दौड़ और ठेकेदारी के नये स्रोत खोल देने भर से पूरे नहीं हो सकते। इन कार्यों पर अब तक करोड़ों रुपया खर्च हो चुका है, पर उसका परिणाम देखकर यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि इस प्रयोजन में लगे हुए श्रम, बुद्धि धन तथा साधनों का ठीक उपयोग हो गया।

सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में आर्थिक प्रगति के लिए अपने-अपने ढंग से जो प्रयत्न हो रहे हैं उनके बाहरी स्वरूप में नुक्ताचीनी करने की गुंजायश नहीं है, पर एक बहुत बड़ी कमी रह जाती है वह है सच्चाई और तत्परता की कमी, यह तत्व जब तक पैदा न किया जायेगा, प्रचुर प्रयास और असीम साधन होते हुए भी कोई कहने लायक सफलता स्वप्न के लिए देखते हुए प्रतीक्षा में बैठा रहना पड़ेगा।

साधन स्वल्प होने से भी काम चल सकता है। आवश्यकता चरित्र निष्ठा की है। इस दिशा में मार्गदर्शन उन्हें करना चाहिए जिन्हें नेतृत्व का अवसर प्राप्त है। उचित और सरल यही है कि अर्थ व्यवस्था से लेकर शिक्षा, सुरक्षा तक के सभी क्षेत्रों से लोक नायकों की असंदिग्ध ईमानदारी और कर्तव्य परायणता काम करे। तब नौकरशाही की वे चालें भी निरस्त हो जायेगी जो सरकारी धन और जनता की सुविधा से खिलवाड़ करती रहती है और प्रगति के रथ को आगे बढ़ने देने की अपेक्षा पीछे ही घसीटती है।

असावधान नेतृत्व जनता में नव चेतना उत्पन्न नहीं कर सकता और असावधान जनता पर से असावधान नेतृत्व का लदा भार हलका नहीं हो सकता। हमें सर्वतोमुखी सतर्कता और प्रखरता उत्पन्न करनी होगी, जिसका सबसे पहला कदम होगा चरित्र निष्ठा की पुनः प्राण प्रतिष्ठा। यह सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यक है। इस आवश्यकता को पूरा किये बिना हम आर्थिक प्रगति का स्वप्न पूरा न कर सकेंगे।

देश की समृद्धि एवं समुन्नति में यह दूरदर्शी नीति ही सफल हो सकती है। इससे मात्र बेकारी समस्या का हल ही नहीं, उन खतरों से भी बचाव होगा जिनसे इन दिनों औद्योगिक राष्ट्र अत्यन्त चिन्तित हैं। जिससे सबको भरपूर श्रम करने, अपने बुद्धि कौशल को नियोजित करके आन्तरिक सन्तोष, प्रसन्नता एवं आनन्द की अनुभूति करने का सुअवसर मिले, ऐसी औद्योगिक नीति ही सफल एवं सार्थक है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


199. व्यक्ति की प्रगति समाज की उन्नति में
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

आज हम जिधर दृष्टिपात करते हैं उधर ही भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कर्तव्य हीनता, दुर्व्यसन, फैशन परस्ती और असंयम का नग्न नृत्य दृष्टिगोचर हो रहा है। मानव दानव बना हुआ है। उसके सोचने विचारने के दृष्टिकोण बदल रहे हैं। वह अनेक विकृतियों और भ्रान्तियों का शिकार हो रहा है। इसका मूल कारण सामाजिक विकृतियाँ ही हैं। न परम्पराएँ सही हैं और न रीति रिवाजों में ही शुद्धता और मौलिकता रही है।

यदि विचार किया जाय तो यह जानने में तनिक भी विलम्ब नहीं लगेगा कि विकृतियाँ और अनैतिकता के प्रचार-प्रसार के लिए हमारे यहाँ प्रत्यक्ष रूप से कोई पाठशाला नहीं चलती है। स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रमाण और साधन दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी एक दूसरे के क्रिया कलापों के अनुकरणों से अनैतिक प्रशिक्षण मिल रहा है। चोरी और अनैतिकता के अपराध में पकड़ा एक व्यक्ति जाता है और सजा का भागीदार भी वही होता है, परन्तु क्या आप इसमें उस व्यक्ति का ही एकमात्र दोष मानते हैं? चोरी और अनैतिकता की प्रवृत्ति क्या उस व्यक्ति की है? क्या समाज का इसमें कोई अनुदान नहीं? यह बात नहीं मानी जा सकती कि यह केवल उस व्यक्ति का ही दोष है जिसने चोरी की है।

मानवी दृष्टि से देखा जाय तो चोर में चोरी की प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव समाज से ही हुआ है। मनुष्य अनुकरण प्रिय प्राणी है। जैसा देखेगा और सुनेगा वैसा ही करने लगेगा। समाज को सुधारना ही व्यक्ति को सुधारना है। बालकों की समुचित शिक्षा न होना, उन्हें नैतिक ढाँचे में न ढालना आदि दोष व्यक्ति मात्र के नहीं हो सकते समाज ही का तो दोष है। आज झूठ बोलकर, छल एवं धोखा देकर धनपति बन जाने पर भी, उसका समाज में सम्मान होता है। वहीं दूसरी ओर सज्जन और ईमानदार व्यक्ति के पेट भरने की यथोचित व्यवस्था भी नहीं होती। इस प्रकार के अनेक कारण कम बुद्धि वाले लोगों में अनैतिकता की बातें भर देते हैं।

जिस व्यक्ति को बाल्यकाल से ही तीखे-चटपटे, बासी तथा गरिष्ठ खाद्य पदार्थ खाने को मिले हैं और परिणाम स्वरूप उसका स्वास्थ्य, उसका मन विकृत हो रहा हो तो इसमें व्यक्ति का क्या दोष? यह सारा दोष उसके निर्माण करने वाले समाज का ही है, जिसने अपनी प्रारम्भिक पाठशाला में उस बालक की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया।

जिन घरों में बीड़ी और शराब पी जाती हो तथा जिनमें चोरी, जुआ, छल, फरेबी द्वारा धन का उपार्जन किया जाता हो, उस घर के बालकों में उपर्युक्त दुर्व्यसन एवं अवगुण ही आवेंगे। उन घरों के बालकों को कोई सदाचारी देखना चाहे तो कभी सम्भव नहीं हो सकता।

सुधार की प्रक्रिया जीवनारम्भ से ही लागू रही होती तो इससे कुछ लाभ भी होता, पर एक व्यक्ति समाज के कुसंस्कार लेकर कुसंस्कारी बन गया तो इसमें व्यक्ति विशेष को ही इतना दोष देना बुद्धि संगत प्रतीत नहीं होता। इन दोषों के निर्माण में समाज का हाथ था जिसने इनको व्यक्ति में परिपक्व होने का अवसर प्रदान किया।

मानव की बौद्धिक एवं भौतिक उपलब्धियों के निर्माण में जो श्रेय सम्मान सामाजिकता को दिया जा सकता है, उसकी अवनति और पतन का उत्तरदायी भी समाज ही होगा। क्या मनुष्य जन्म से खराब और कुसंस्कारी होता है? नहीं, अधिकतर संस्कार निर्माण में उसके वातावरण का हाथ भी रहता है। बाल्यकाल में उसे जो कुछ खिलाया पिलाया जाता है वह खाने पीने लगता है, जिन संस्कारों में उसका लालन-पालन होता है उसी के अनुकूल वह जीवन पर्यन्त चलता है। यहाँ तक कि खाने-पीने से लेकर वस्त्र पहनने, उठने, बैठने, आचार, व्यवहार करने का अनुसरण बड़ों की आदतों के अनुसार ही बालक करने लगता है। गुण, कर्म और स्वभाव का विकास कुटुम्ब और समाज की पाठशाला में ही होता है।

माता, पिता और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के संस्कार स्वयमेव ही बालकों में आते हैं। जो संस्कार और आदत बचपन में पड़ जाती है, उनका प्रभाव जीवन भर रहता है। जैसा समाज का ढाँचा और स्तर होता है, उसके नागरिक उसी ढाँचे और स्तर में विकसित होते हैं।

मनुष्य ने आज जितनी भी प्रगति की है, उसका सम्पूर्ण श्रेय समाज को है। सृष्टि के अन्य सम्पूर्ण प्राणी तो जन्म से ही स्वावलम्बी हो जाते हैं, परन्तु बेचारा मनुष्य तो बहुत अधिक समय तक पराश्रयी और परावलम्बी रहता है। वह कच्चा शरीर, कच्ची बुद्धि लेकर जन्म लेता है और समाज का रस पी-पीकर बड़ा होता है। माँ उसे दूध पिलाती है। पिता कपड़े पहनाता है। घर पर भाइयों और बहिनों से वह आदतें सीखता है, अध्यापक और गुरुजन उसे शिक्षा देकर सुसंस्कारवान बनाते हैं। पुस्तकें उसकी प्रतिभा को प्रखर करती हैं।

ऐसी अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व जब समाज उठाता है, तभी मनुष्य कुछ स्वतन्त्र चिन्तन, श्रेष्ठ कार्य अथवा आविष्कार और अन्वेषण करने में समर्थ हो पाता है। बिना समाज के एक पग भी आगे बढ़ना कठिन सा है।

इसी कारण हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षियों ने समाज की गरिमा को गम्भीरता से अनुभव किया और मानवीय प्रगति में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान माना। सामाजिकता ही मानवीय प्रगति की एक मात्र जननी है। इससे वे भली-भाँति परिचित थे। मानवीय मनोविज्ञान का गहन अध्ययन उनका विषय था। इसलिए समाज द्वारा उन पर पड़ने वाले प्रभाव को गहनता से आँका।

मनुष्य का स्वभाव है कि वह अनुकरण से अधिक सीखता है। एक दूसरे के आचरण को धीरे-धीरे जीवन में ढालता चलता है। इसीलिए जब आज हम मनुष्य को अनैतिक अपराध करते देखते हैं तो उस पर न खीज़कर सम्पूर्ण समाज को दोष देने लगते हैं। संसार के सभी महापुरुष ईसा, बुद्ध, गाँधी, दयानन्द, मार्टिन लूथर तथा ज्ञानेश्वर ने अपना जीवन समाज-सुधार में लगाया और यह माना कि समाज-सुधार से ही मानव-सुधार सम्भव है। अकेले मनुष्य के भले बन जाने से पूरा मानव समाज नहीं बदल सकता। मनुष्य के तौर-तरीके आचार-विचार हाव-भाव और व्यवहार में परिवर्तन करने के लिए समाज को परिष्कृत करना होगा। आज की परिस्थितियों को बदलने और मनुष्यों में सद्प्रवृत्तियों के प्रादुर्भाव के लिए सामाजिक संस्कारों पर ध्यान देना होगा। जैसी सामाजिक संस्कारों की त्रिवेणी प्राचीन काल में बही थी वैसी ही सुसंस्कारों की भागीरथी वर्तमान काल में प्रवाहित करनी पड़ेगी।

यदि अपनी स्थिति पर खेद करने रहने के बजाय उसके कारणों पर विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि हमने जो विचार और कार्य पद्धति अपना रक्खी है, वह ही ठीक नहीं है और इसलिये हम उन्नति और विकास से वंचित बने हुए हैं। हम सोचते यह हैं कि संसार की सारी सम्पदा, सारा वैभव और सारे सुख-साधन हमें ही प्राप्त हो जायें। हमें हास-विलास और आमोद-प्रमोद की परिस्थितियाँ मिलें, हम समाज में सबसे अधिक धनवान और शक्तिशाली बनें, समाज में हमारी पूजा प्रतिष्ठा हो।

न केवल इस प्रकार सोचते ही हैं बल्कि उसके अनुरूप अपने आचरण का भी व्यवहार करते हैं। व्यापार में अधिक से अधिक मुनाफा कमाता चाहते हैं। नौकरियों में दूसरों को पीछे धकेल कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर दूसरों की चिन्ता नहीं करते। जहाँ भी रहते और जहाँ भी जाते हैं, अपनी ही सुख सुविधा और लाभ पर ध्यान रखते हैं। दूसरे की सुविधा असुविधा अथवा सुख-दुःख का कोई ध्यान नहीं रखते। हमारे ये स्वार्थपरक विचार और कार्य ही हमारी उन्नति एवं प्रगति में बाधक बने हुए हैं।

हम यह नहीं सोच पाते कि हम केवल एक अकेले व्यक्ति नहीं हैं। हमारा अस्तित्व सामाजिक है। हमारा सर्वस्व अभिन्न रूप से हमारे समाज के साथ जुड़ा हुआ है। जितनी देर तक हम अपने को एक अलग इकाई मानकर अपनी उन्नति और विकास के लिये सोचते और कार्य करते रहेंगे, हमें निराश ही रहना पड़ेगा। जब तक हमारा जीवन-कोण और कार्य-पद्धति समष्टिगत न होकर व्यक्तिगत रहेगा हमें अपनी स्थिति पर इसी प्रकार खेद करते रहने पर विवश होना पड़ेगा।

हमारा जीवन समाज का दिया हुआ है। वह हमारी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है। समाज की एक धरोहर है। इनका उपयोग समाज के कल्याण और उसके हित के लिये ही होना चाहिये। इस तथ्य को तब ही चरितार्थ किया जा सकता है, जब हम यह आधार लेकर चलें कि हमारा जीवन अपने व्यक्तिगत रूप में भले ही कुछ कष्ट पूर्ण क्यों न हो, पर दूसरों के लिए यह हितकारी है। दूसरों का सुख और दूसरों की सुविधा ही हमारी सुख-सुविधा है और दूसरों का दुःख क्लेश हमारा दुःख क्लेश है, यह परमार्थ भाव मनुष्य में जिस व्यक्तित्व का विकास करता है, वह बड़ा आकर्षक होता है। इतना आकर्षक कि समाज की शक्ति और विकास मूलक सद्भावनाएँ आपसे आप खिंचती चली आती हैं। पूरा समाज उसका अपना परिवार बन जाता है, कुटुम्ब के रूप में बदल जाता है। ऐसी बड़ी उपलब्धि मनुष्य को किस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा सकती?

किन्तु यहाँ पर भी एक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। बहुत बार लोग प्रारम्भ में सामाजिक बने रहते हैं। समाज के लिये सोचते और बहुत कुछ करते हैं, किन्तु जब उस परमार्थ के परिणाम स्वरूप किसी पद पर पहुँच जाते हैं, तो स्वार्थ में पड़े जाते हैं। लोभ में आकर अपने लिये संचय एवं संग्रह करने लगते हैं। वे समाज के उस अनुग्रह को अपना अधिकार और अपनी सम्पत्ति मानकर चलने लगते हैं। बस यही से उनका पतन प्रारम्भ हो जाता हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कोई भी शक्ति, सम्पदा, पद अथवा प्रतिष्ठा, वह चाहे सद्व्यवहार के परिणाम स्वरूप समाज के बीच से अर्जित हुई हो अथवा संयोग वश उत्तराधिकार में मिल गई हो, कभी भी अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति न मानी जानी चाहिए।

हम जियें। खूब हँसी खुशी और आनन्द पूर्वक जियें, यह ठीक भी है और इसका हमें अधिकार भी है। तथापि हमें अपनी हँसी खुशी में दूसरों को भी भाग देना चाहिए। हम तो आमोद-प्रमोद और आनन्द मंगल चलें और हमारे आस-पास का समाज दुःख के आँसुओं से भीगता रहे तो हमारी हँसी-खुशी एक सामाजिक अपराध है। हमें अपने व्यक्तिगत अामोद-प्रमोद में इस सीमा तक नहीं डूबा रहना चाहिए कि आस-पास का क्रन्दन ही सुनाई न दे। आस-पास के क्रन्दन के बीच में भी जो उपेक्षा भाव से खुशियाँ मनाता रहता है, उसे तो क्रूर और अकरुण व्यक्ति मानना होगा। ऐसे समाज के विरोधी व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि उसकी यह क्रूर पाशविक वृत्ति शीघ्र ही उसकी सारी हँसी-खुशी छीन लेगी। हँसी-खुशी तो उसी की स्थायी और सुरक्षित रह पाती है, जो अपने साथ दूसरों को भी उसमें भागीदार बनाकर मंगल मनाया करता है।

संसार के अन्य समाजों की बात तो नहीं कही जा सकती, पर अपने भारतीय समाज की यह पद्धति कभी नहीं रही कि दूसरों के कष्ट-क्लेशों की उपेक्षा करके आनन्द मनाया जाये। आनन्द जीवन की सहज प्रवृत्ति है। यह सुर दुर्लभ मानव शरीर मिला ही अनन्त आनन्द को पाने और मनाने के लिए है। फिर भी एकाकी आनन्द मनाने का निषेध भी है। दूसरों के साथ मिलकर ही आनन्द का उपभोग वास्तविक उपभोग है। अन्यथा वह एक अन्याय है, अनुचित है और चोरी जैसी बात है। हमें आनन्द का संयोग मिला है, उसकी सुविधा उपलब्ध है, तो हमें उसे जन-जन को साथ लेकर मनाना चाहिए। भारतीय संस्कृति और धर्म में सामूहिक मेले, त्यौहार, पर्व और पारिवारिक उत्सव मिल जुलकर मनाने का नियम है। नीतिकारों ने व्यक्तिगत एकाकी आनन्दोपभोग को अनुचित कहा है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत जिन पर्वों, त्यौहारों मेलों एवं उत्सवों की व्यवस्था की गई, उन सबको सामाजिक आधार पर मनाने का निर्देश भी किया गया है।

इस सामूहिक आनन्दोपभोग के पीछे एक बड़ा कल्याणकारी मन्तव्य सन्निहित है। वह यह कि इससे समाज में संगठन, सद्भावना, शक्ति और पारस्परिक प्रेम की वृद्धि होती है। लोगों में बन्धुत्व की भावना का विकास होता है। समाज को पीछे ढकेलने वाली ईर्ष्या द्वेष और स्वार्थ की विकृतियों का हतोत्साहन होता है। समाज में अमन चैन और सुख शान्ति के वातावरण की स्थिति होती है। व्यक्ति व्यक्ति और व्यक्तियों के साथ पूरा समाज उन्नति और प्रगति की ओर अग्रसर होता चलता है। संसार में प्रतिष्ठा और नेकनामी का गौरव प्राप्त होता है।

इस प्रकार जिस दिन हमारे प्रयत्नों और प्रवृत्तियों का आधार ‘बहुजन हिताय’ की भावना में बह न जायेगा, हमें अपनी प्रगति एवं विकास के लिए विचलित न होना होगा। समाज स्वयं ही हमें हाथों हाथ ऊपर उठा लेगा। हमें सहयोग और सहायता की कमी न रहेगी। हम न स्वयं एकाकी रह जायेंगे और न हमारे प्रश्न और हमारी समस्याएँ ही हमारी मात्र रह जायेंगी। वे सबकी, पूरे समाज की बन जायेंगी और पूरा समाज उन्हें हल करने में हमारा साथ देने लगेगा। इसीलिए तो वेदों में स्थान-स्थान पर कहा गया है— ‘समानी प्रया सहवोऽन्नभागः’ तुम्हारे खाने पीने के अन्न और स्थान एक जैसा हो। ‘समानी व आकृतिः समानो हृदयानिव’ —तुम्हारे हृदय के संकल्प भावनायें एक जैसी हो। ‘संगच्छध्वम् सम्वद्ध्वम्’-तुम्हारी गति और वाणी में एकता हो आदि आदि।

इस प्रकार सामूहिक और सामाजिक भावना को जीवन में स्थान देने पर व्यक्ति एवं समाज दोनों की उन्नति एक साथ और एक समान होती चलती है। अस्तु व्यक्तिगत विकास के लिए भी सामाजिक वृत्ति का विकास करना होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


200. अपनी भाव सम्पदा जगाएँ—श्रेय पाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सृष्टि का भार विस्तार बहुत बड़ा है। इसका संतुलन बनाये रखना और नियन्ता की गौरव गरिमा के अनुरूप उसका स्वरूप बनाये रखना एक बहुत बडी़ बात हैं। इसी प्रयोजन में सहायक बनने-सहायता पहुँचाने हेतु ईश्वर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति के रूप में मनुष्य को सृजा है। अन्यथा उसके लिए सभी प्राणी समान प्रिय होने के कारण समान रूप से अनुदान पाने के अधिकारी थे। मनुष्य को जो कुछ अधिक अतिरिक्त मिला है उसका प्रयोजन उसकी वैयक्तिक सुख सुविधाओं का अभिवर्धन नहीं वरन् यह है कि वह इन अतिरिक्त साधनों के आधार पर उसका हाथ बटाने में सृष्टि संतुलन के सुखद पक्ष को भारी बनाये रहने में महत्त्वपूर्ण भूमि का निभा सके। विवेकवान मानव प्राणी को मात्र शरीर यात्रा के ताने बाने बुनने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। लोभ मोह के जाल जंजाल में जकड़ा नहीं रहना चाहिए। वरण उन तथ्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए जो अतिरिक्त रूप में मिले हुए मानव जीवन की विशेषताओं के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जीवन के स्वरूप, प्रयोजन, लक्ष्य और उपयोग का चिन्तन न किया जाय, उसे उपेक्षा के गर्त में डाले रहा जाय तो इस प्रमाद का परिणाम अब न सही अगले दिनों अनन्त पश्चाताप के रूप में ही भुगतना पड़ सकता है।

आत्मिक प्रगति की कसौटी एक यही है कि मनुष्य आत्मचिंतन, आत्मसुधार और आत्मविकास में कितना रस लेता है। यदि चिह्न−पूजा की तरह पूजा पत्री की थोड़ी सी लकीर भर पिटती है तो समझना चाहिए कि अभी बाल बुद्धि-बाल क्रीड़ा में ही निरत है। ईश्वर की सच्ची उपासना के साथ ईश्वर का प्रगाढ़ अनुग्रह भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, जो आत्मबोध के रूप में ही हो सकता है।

भौतिक सुविधाएँ मनुष्य अपनी सहज सुलभ क्षमता का सदुपयोग करके पाता रहता है। जो सतर्कता और तत्परता नहीं बरतता वह रोता कलपता रहता है--दीन दयनीय स्थिति में पड़ा रहता है उसमें ईश्वर का कुछ लेना देना नहीं। भौतिक उन्नति अवनति एवं सुख-दुःख की अनुभूति में मनुष्य का स्तर ही प्रधान कारण है। ईश्वर ने हर किसी को कर्म करने और तदनुरूप फल पाने के लिए खुले रूप में छोड़ दिया है। हमें अपने सुव्यवस्थित जीवन क्रम का श्रेय पुण्य पुरुषार्थ को देना चाहिए और दुःख दारिद्र के पीछे भी अपने पिछले क्रियाकलाप का मूल्यांकन करना चाहिए। इस झंझट में ईश्वर को अकारण ही सम्मिलित नहीं करना चाहिए।

हर विवेकवान व्यक्ति को यह तथ्य अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक हृदयंगम करना चाहिए कि निर्वाह के अतिरिक्त उसे जो कुछ उच्चस्तरीय अनुदान मिले हैं वे मौज मजा करने के लिए नहीं-बेटे पोतों को गुलछर्रे उड़ाने के लिए दौलत जमा करने के लिए नहीं वरन् ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए हैं। कोई अमीर कोई गरीब, कोई अज्ञ कोई विज्ञ बनकर रहे और इस दुनियाँ में विषमता विशृंखलता फैले यह अव्यवस्था ईश्वर को अभीष्ट नहीं ,, वह अपने सभी मानव पुत्रों को लगभग एक ही स्वर का निर्वाह करते हुए समता को अपनाकर चलते हुए देखना चाहता है। दूसरों की तुलना में अधिक विलासी और संग्रही होकर जीना स्पष्टतः जीवन उद्देश्य से विपरीत मार्ग पर चलना है। इस मनोवृत्ति के व्यक्ति की विडम्बना रचकर भी ईश्वरीय अनुग्रह का एक कण प्राप्त कर सकेंगे, इसमें सन्देह ही समझना चाहिए।

विभूतिवानों को अपने अतिरिक्त सौभाग्य पर सन्तोष और गर्व अनुभव करना चाहिए उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक उच्च पद और अधिक भारी उत्तरदायित्व सौंपा गया है । सेना में सिपाही बहुत होते हैं पर नायक ,, कप्तान, जनरल आदि के पद तो चुने और छँटे हुए व्यक्तियों को ही दिये जाते है। जिन्हें पेट और परिवार पालने से अधिक आगे बढ़ने की उत्कंठा एवं योग्यता प्राप्त है उन्हें मुक्त कण्ठ से ईश्वर का विशिष्ट कृपा पात्र एवं प्रतिनिधि समझा जाना चाहिए। इस कृपा को सार्थक बनाने के लिए उस स्तर के व्यक्तियों को लोभ और मोह का अन्धकार चीरते हुए आगे बढ़ना चाहिए और अवरोधों को कुचलते हुए साहसपूर्वक उस मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर कि सच्चे भगवद्भक्त अनादिकाल से चलते रहे है।
विभूतिवानों की गणना में भावनाशील प्रतिभाशाली विद्या-बुद्धि सम्पन्न, कलाकार, लोकनायक, विज्ञानी, राजनेता, धनीमानी प्रभृति वर्ग के लोगों को गिना जाना है। जिन्हें अपने में इन विभूतियों का जितना अंश दृष्टिगोचर हो उन्हें अपने को ईश्वर का उतना ही विश्वास पात्र और उच्च पद पर नियुक्त प्रिय पुत्र मानना चाहिए कि वह इस धरोहर का श्रेष्ठतम उपयोग करने के प्रयत्न में कुछ कोर कसर न छोड़े।

सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान व्यक्ति वह है जिसके अन्तःकरण में उत्कृष्ट जीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है। ऐसा साहस होता रहता है जो लोभ, मोह के भव बन्धनों के रोके रुक ही न सके। व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के जाल जंजाल में ही आम तौर से लोग परिवार वालों की मनोकामनाएँ पूरी करते रहने में जुटे रहते है। इस चक्रव्यूह को बेध सकना उन्हीं के लिए सम्भव है जिनके भीतर आत्मबोध का आलोक प्रस्फुटित होने लगा। भावनाशील व्यक्ति ही ऐसा साहसपूर्ण निर्णय करते हैं कि निर्वाह मात्र के साधनों में संतोष करें और परिवार को उतना ही सम्पन्न बनाने तक अपने कर्तव्य की इतिश्री माने जितने में कि अपने समाज के औसत नागरिक को जीवन-निर्वाह करना पड़ता है। भावनाशीलता की दिव्य विभूति की सार्थकता के लिए इस प्रकार का साहसिक निर्णय नितान्त आवश्यक हैं अन्यथा परमार्थ के लम्बे-चौड़े सपने मात्र कल्पना ही बनकर रह जायेंगे।
वासना और तृष्णा, लोभ और मोह के पिशाचों का मुँह इतना सर्वभक्षी है कि मनुष्य अपना समय, श्रम, बुद्धि बल, मनोबल ही नहीं, दीन ईमान, लोक परलोक होम देने पर भी इन्हें तृप्त नहीं कर सकता। इनका आकर्षण भी इतना प्रचण्ड है कि जो इनसे लिपटा उसे समय का एक क्षण एवं सम्पत्ति का एक कण भी किसी अन्य कार्य के लिए लगा सकना सम्भव नहीं होता। सत्कार्यों के लिए फुरसत न मिलने,-समस्याओं में उलझे रहने और आर्थिक तंगी का बहाना करने रोना रोने के अतिरिक्त और कुछ करते धरते बनता ही नहीं। यदि निर्वाह मात्र से सन्तुष्ट रहने और परिवार के प्रति उचित कर्तव्य पर निभाने की सीमा में सीमित रहा जाय तो सामान्य स्तर का व्यक्ति भी जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये पर्याप्त अवसर प्राप्त कर सकता है और इतना कुछ कर सकता है कि उस अनुकरणीय आदर्शवादिता की मुक्तकंठ से सराहना की जा सके।

भावनाओं को यदि उत्कर्ष की दिशा में बढ़ चलने का अवसर मिले तो उसके लिए एक दिशा है-वह है, अपने चिन्तन से उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का सघन समावेश करने की। चिन्तन की उत्कृष्टता की निरन्तर प्रेरणा यह रहती है कि उसका व्यक्तित्व आदर्श, उज्ज्वल अनुकरणीय हो। ऐसा व्यक्ति संयम, सदाचार, कर्तव्य का पूरा-पूरा ध्यान रखता है और अपने पुरुषार्थ को प्रखर बनाकर मानवी क्षमता के सदुपयोग से सम्भव हो सकने वाली प्रगति को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है। उत्कृष्ट चिन्तन हर घड़ी इसी प्रयास में लगा रहता है कि किस प्रकार गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर श्रेष्ठतम बनाया जाय, पुरुषार्थ को किस प्रकार प्रखर और व्यवस्थित किया जाय। आत्मनिर्माण में प्रचण्ड तत्परता को देखकर ही यह प्रमाण प्राप्त होता है कि चिन्तन में वस्तुतः उत्कृष्टता का कितना अंश घुल मिल सका है। भावना का अदृश्य पक्ष यहीं है।

भावनात्मक उत्कर्ष का दृश्य पक्ष है आदर्शवादी क्रिया कलाप। लोक लोक मंगल, जन कल्याण, समाजोत्थान, सेवा साधना एवं परमार्थ प्रयोजन की गतिविधियों में इस तथ्य को गतिशील रहता देखा जा सकता है। भावनाशील व्यक्ति स्वार्थ भरी संकीर्णता की सड़न में कृमि-कीटकों की तरह संतुष्ट रह ही नहीं सकता। उसे उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले पंछी की तरह अपना हर क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत दीखता है। विश्वमानव की समस्याएँ होती हैं। विश्व कल्याण में उसे अपना निज का स्वार्थ दिखाई पड़ता है अस्तु, निजी महत्त्वाकांक्षाओं की ओर से उसे मुँह मोड़ना पड़ता है पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकेषणा की विविध स्वार्थपरताएँ उसे दुर्बुद्धिजन्य दुर्गन्ध मात्र प्रतीत होती है।

भावनाशील व्यक्तियों की कुछ न कुछ उपलब्धियाँ विश्व कल्याण के लिये समर्पित होती ही रहती हैं। ऐसे व्यक्ति सोचते हैं यदि कुटुम्ब में एक व्यक्ति और अधिक होता तो उसके भोजन वस्त्र का भी प्रबन्ध करना ही पड़ता। परमार्थ को घर का एक अतिरिक्त सदस्य मान लेने पर उसके ऊपर होने वाला खर्चा अखरता नहीं वरन् अनिवार्य आवश्यकताओं में जुड़ जाता है। फिर न उसके लिए कटौती करनी पड़ती है और न हिचक, कंजूसी की जरूरत रहती है तो उनका खर्च अनिवार्य और स्वाभाविक प्रतीत होने लगता है यदि परमार्थ प्रयोजनों को भी जीवन क्रम में सम्मिलित कर लिया जाय तो वह न तो भारी प्रतीत होता है और न असह्य। वरन् सहज सरल गति से निर्धन स्थिति में भी यथा क्रम चलता ही रहता है।

चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता का प्रगाढ़ समावेश कर सकने में समर्थ मनस्विता और तेजस्विता की आवश्यकता पड़ती है। उसे अपनाने का जो शौर्य साहस प्रदर्शित कर सके उसे भावनाशील कहा जायगा। दूसरे शब्दों में सदुद्देश्य के लिए दुस्साहसपूर्ण संकल्प करने वाले एवं उनके परिपालन में बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करने के सुदृढ़ निश्चय को भावशीलता कह सकते हैं। सद्भाव सम्पन्न व्यक्ति उच्चस्तर पर सोचते हैं और उच्च आचरण पर तत्परतापूर्वक, कटिबद्ध अड़े खड़े रहते दीखते हैं। यदि ऐसा न होता तो भावना के खदान में से ही नर रत्न निकलने का तथ्य कैसे मूर्तिमान रहता? ऐतिहासिक महापुरुषों में से प्रत्येक अनिवार्य रूप से भावनाशील रहा है। उसके अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आकांक्षा कोलाहल करती रहती है। क्रमशः वे इतनी प्रखर हो जाती हैं कि उन्हें तृप्त किये बिना चैन नहीं मिलता।

युग परिवर्तन के महान् प्रयोजन की पूति के लिये जिस पूँजी की सबसे प्रथम, सबसे अधिक मात्रा में आवश्यकता है। वह ‘भावना’ ही है। इसका जागरण, अभिवर्धन किये बिना और किसी प्रकार युगधर्म की माँग को पूरा नहीं किया जा सकता। यों युग-निर्माण परिवार की शृंखला में ऐसी ही कड़ियाँ जोड़ी गई हैं जिसमें जन्म जन्मान्तरों से संचित भाव सम्पदा का समुचित अंश विद्यमान हैं। पत्रिकाओं के ग्राहक अथवा किसी संगठन के सदस्य मात्र वे लोग नहीं हैं जो आज नव निर्माण के पुण्य प्रयोजन में लोक नायक की भूमिका सम्पन्न करने के लिए अग्रसर हो रहे हैं यह परिवार अनायास ही इकट्ठा नहीं हो गया है वरन् किसी दिव्यदर्शी के जन सागर में से अपनी पैनी दृष्टि से ढूँढ़-ढूँढ़ कर इन मणि मुक्तकों को एकत्रित किया है और एक बहुमूल्य हार के रूप में उसे पिरोया संजोया है। युग निर्माण परिवार के निर्माण का तात्त्विक स्वरूप यही है। जिसके पीछे कुछ ठोस आधार न हो उसे ठोक पीट कर भी कुछ अधिक नहीं बनाया बढ़ाया जा सकता। बालू के महल कहाँ खड़े होते हैं। लकड़ी के शस्त्र कहाँ काम देते हैं, खोटे सिक्कों से व्यापार कहाँ होता है? जिनसे महानता के रूप में परिणत होने वाली पात्रता के तत्व विद्यमान हैं, उन का संकलन संगठन युग-निर्माण परिवार के रूप में हुआ है।

बीजांकुर के रूप में जो भाव सम्पदा प्रज्ञा परिवार के सदस्यों में विद्यमान है उसे उभारना और विकसित परिपक्व किया जाना आज की महती आवश्यकता है। इन पंक्तियों द्वारा उसी का आह्वान उद्बोधन किया जा रहा है। अहंता और ममता के परिपोषण तक ही जिनकी गतिविधियाँ सीमित हैं जिन्हें धन, भोग और अहंता की पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं ऐसे धरती के भार लोगों की गणना अंधकार में भटकने वाले असुरों में ही होगी भले ही वे कितने ही वैभव सम्पन्न क्यों न हो।

अपने परिवार के हर परिजन को अपनी भाव सम्पदा का अवलोकन करना चाहिए उसे उठाना और उभारना चाहिए। चिन्तन में उत्कृष्टता का और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश होना चाहिए। व्यावहारिक
अध्यात्मवाद यही है।

भावना की शक्ति जितनी ही उभरेगी-परिपक्व होगी उतनी ही प्रतिभा निखरती चली जायेगी। प्रतिभाशाली व्यक्तियों की प्रखरता सभी को आकर्षित प्रभावित और मुग्ध करती है। हर कोई प्रतिभाशाली बनना चाहता है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों की सफलतायें बहुत करके प्रतिभावानों को ही मिलती हैं। वे जिस कार्य को हाथ में लेते है उसे समग्र सजगता के साथ पूरा करते हैं। फलस्वरूप बड़ी खूबसूरती के साथ सफल होते है। आधे अधूरे मन से उपेक्षा और अन्यमनस्कता के साथ किये गये काम अस्त-व्यस्त, असंबद्ध होते है अस्तु उनका असफल, अपूर्ण अथवा कुरूप होना भी स्वाभाविक ही है। ऐसे लोगों पर उदासी एवं निराशा छाई रहती है। दूसरे लोग उनकी भर्त्सना उपेक्षा करते हैं तिरस्कार उपहास का व्यवहार करते हैं। इन्हीं सब बातों का संमिश्रण असफल जीवन क्रम के रूप में दृष्टिगोचर होता है। प्रतिभाशाली इन अवमाननाओं से बचे रहते हैं क्योंकि उनकी प्रखर भावनाशीलता क्रमशः सजग कर्मठता के रूप में बदलती चली जाती है। फलतः व्यक्तित्व में सर्वतोमुखी निखार उत्पन्न होता है, प्रतिभा इसी भाव परिपक्वता का नाम है।

कहा जाता रहा है कि मानव जाति के भविष्य निर्माण का यह अभियान विभूतियों की साधन सामग्री पर्याप्त मात्रा में जुटाने से ही सम्भव होगा। विभूतियों में भावना और प्रतिभा दो का महत्त्व अस्सी प्रतिशत है। शेष विद्या, कल, सम्पत्ति, सत्ता की विभूतियाँ तो बहिरंग मानी जाती है उन सबका सम्मिलित मूल्य बीस प्रतिशत है। संसार में जो कुछ महत्त्वपूर्ण होता रहा है उन घटनाक्रमों के पीछे भावना की महता सर्वोपरि रही है। इतिहास की महान उपलब्धियों का श्रेय बहुत करके भाव-उत्कृष्टता को ही दिया जाना चाहिए। भावना ही जब मनोयोग और पुरुषार्थ के साथ जुड़ कर प्रखर सक्रिय होती है तो उसी को प्रतिभा कहा जाता है। प्रतिभा जन्मजात भी हो सकती है पर जहाँ उसकी न्यूनता हो वहाँ मनस्वी भाव सम्पदा बोध के द्वारा उसकी पूर्ति सहज ही की जा सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार