ऋषि युग्म की झलक-झाँकी - भाग-1


हमारे आत्मीय स्वजनो!
परम पूज्य गुरुदेव-वन्दनीया माताजी अपने परिजनों को प्रेम-आत्मीयता के साथ दिव्य पोषण देते रहे हैं। सबके व्यक्तित्व में उत्कृष्टता, भावनाओं एवं विचारों में श्रेष्ठता के दिव्य तत्त्व भरते रहे हैं। सबके दुःखों-कष्टों में वे हमेशा साथ रहकर धीरज एवं हिम्मत बढ़ाते रहे हैं। अब वे सभी परिजन अपनी अनुभूतियों को, अपनी गुरुसत्ता के दिव्य अनुदानों को अभिव्यक्त कर रहे हैं। इस जन्म शताब्दी की विशिष्ट वेला में वे किसी भी प्रकार उनके अनुदानों का ऋण उतारने की बड़ी कसक लिये हुए हैं।
आप सबकी श्रद्धा-भावना, समर्पण-साधना और अधिक बढ़े, इसी भाव से उनके दिव्य संस्मरणों को ‘‘ऋषि युग्म की झलक झाँकी’’ नाम की इस पुस्तक में आप सबके सम्मुख लाया जा रहा है। निश्चित ही यह पुस्तक संग्रहणीय होगी। यह हर कठिन अवसर पर प्रेरणा-प्रकाश देने वाली एवं जीवन जीने की कला समझने में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास है।
हमारे विराट् गायत्री परिवार के परिजनों के अनेकानेक ऐसे संस्मरण केवल उनके चित्त की स्मृतियों में ही भरे पड़े हैं, आशा है हमारे नैष्ठिक परिजन अपने सम्पर्क के पुराने कार्यकर्ताओं से ऐसे संस्मरण कलमबद्ध करवायें, या ऑडियो-वीडियो सीडी बनाकर यहाँ भेजते रहें, ताकि आगे भी इसी पुस्तक के अन्य अनेकों खण्ड प्रकाशित होते रह सकें। पूज्यवर के दिव्य, आकर्षक, चुम्बकीय व्यक्तित्व के अन्य अनेकों प्रसंग इसी प्रकार उल्लिखित किये जाने में वे अपना सहयोग प्रदान करेंगे, ऐसी हमारी आकांक्षा है।
आप सबके सर्वांगीण उत्कर्ष की स्नेहपूर्ण शुभकामनाएँ ।।


अनुक्रमणिका

भूमिका                                                     --5
1. ममता की मूर्ति, प्यार के सागर                     --7
2. यह तो गूँगे का गुड़ है                                --28
3. गुरुसत्ता के साथ मनोविनोद के क्षण               --121
4. हम पाँच शरीरों से काम कर रहे हैं                 --133
5. साक्षात् शिव स्वरूप                                 --158
6. वे तंत्र के भी मर्मज्ञ थे                             --178
7. भविष्य द्रष्टा हमारे गुरुदेव                       --184
8. बच्चो! हमारा जन्म-जन्मांतरों का साथ है       --198
9. लाखों का जीवन बदला                            --212
10. बेटा! हम सदा तुम्हारे साथ रहेंगे              --219
11. जिसने जो माँगा, वो पाया                     --228
12. भागीदारी की, नफे में रहे                       --247
13. उनकी चेतना आज भी सक्रिय है             --251


भूमिका

यदा-यदा हि धर्मस्य.... की प्रतिज्ञा निभाने वाले परम स्रष्टा जब धरती पर अवतरित होते हैं, तब स्वयं को इतना गुप्त रखते हैं कि उनके सान्निध्य में निरन्तर कार्यरत व्यक्ति भी उन्हें ठीक से नहीं जान पाते। कभी झलक भी मिलती है, तब उन्हें एकटक देखते हुए यह सोचते हैं कि क्या ये सचमुच ईश्वर रूप हैं? उनके इस प्रकार सोचते ही मायापति अपनी माया से उन्हें आच्छादित कर देते हैं व फिर अति सामान्य की तरह सब के साथ वही सामान्य जीवन क्रम चलता रहता है। उन्हें भान ही नहीं हो पाता कि वे उस परमसत्ता के साथ, उनके अंग-अवयव बन कर जीवन जी रहे हैं।
यही तो है लीलापति की लीला। ‘‘सोई जानइ जेहि देहु जनाई’’ की उक्ति पूर्णतः तब चरितार्थ होती है जब उनकी असीम अनुकम्पा से कोई-कोई भक्त उन्हें जान पाता है। जानने के बाद भी उनकी आकांक्षा के अनुरूप साथ चलने की सामर्थ्य जुटाने हेतु भी उनकी कृपा की आवश्यकता होती है। तभी तो अर्जुन जैसे समर्पित अभिन्न कृष्ण सखा को भी कहना पड़ गया कि ‘‘कार्पण्य दोषोपहृत स्वभावः...। कायरता के दोष से मेरा स्वभाव आहत हो गया है। धर्म के विषय में मैं मोहित चित्त हो गया हूँ, अतः मैं आपसे पूछता हूँ जिस कार्य से मेरा निश्चित भला हो, वही मार्ग बताइये।’’ तब हम सामान्य जनों की क्या बिसात कि उनकी कृपा के बिना उन्हें पहचान सकें, उनकी राह चल सकें।
प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे ही स्वजनों के गुरुसत्ता के साथ जुड़े प्रसंगों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है, जिससे भावी पीढ़ी भी पिछली पीढ़ी के कार्यों को जाने व समझे। अपनी समस्याओं के निदान हेतु उससे मार्ग दर्शन प्राप्त कर सके व अपनी श्रद्धा और समर्पण को निरंतर बढ़ाती रह सके।
साथ ही पूज्यवर के साथी, सहचर, सहयोगी, कदम से कदम मिलाकर चलने वाले, हर आज्ञा पर खड़े रहने वाले, निर्देशों को आँख मूँद कर मानने वाले, स्वयं असीम कष्ट सहकर भी कार्य पूर्ण कर संतोष प्राप्त कर उछलने-कूदने वाले बन्धु भी अपनी अनुभूति को तरोताजा कर रोमांचित हो सकें।
कभी पूज्य गुरुदेव ने कहा था कि बेटा हमने इतने अनुदान बाँटे हैं कि यदि उन सबका लेखा-जोखा रखा जाये तो 18 महापुराण भी कम पड़ जायेंगे। वे परिजन जिन्होंने निज नयनों से उन्हें प्रत्यक्ष में भले ही न देखा हो, किन्तु उनके विचारों पर, उनके आदर्शों पर मर मिटने को तैयार हो गये व उनकी योजना को पूरा करने हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया। जो अपने सांसारिक कार्यों से समय, साधन, श्रम बचा-बचा कर गुरुकार्यों में होम रहे हैं, मिशन के विस्तार में अपना सहयोग देकर तन-मन से युग निर्माण के आकांक्षी हैं। वे सभी स्वजन-बन्धु प्रस्तुत पुस्तक से प्रेरणा, प्रकाश, मार्गदर्शन, उत्साह, उमंग एवं कार्य पथ पर बढ़ने का साहस प्राप्त कर सकेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
इन यादों में वह शक्ति है कि हर परिजन अपने कर्तृत्व के अनुसार यह अनुभव कर सकेगा कि हमारी समर्थ गुरुसत्ता ने जो असीम प्यार-दुलार, स्नेह-सम्मान, ममता, करुणा, कृपा, आशीर्वाद स्थूल रूप में अपने साथियों पर उड़ेला है, उसे अपने सूक्ष्म रूप में आज भी उड़ेल रहे हैं। हमारी श्रद्धा, निष्ठा जितनी सशक्त एवं सार्थक बनकर सक्रियता में परिवर्तित होगी, उतना ही हम उनकी कृपा के अधिकारी बन सकेंगे।
ऋषिसत्ता से जुड़े संस्मरणों को पहले भी प्रकाशित किया जाता रहा है। स्मारिकाओं में, प्रज्ञा अभियान पाक्षिक में, अखण्ड ज्योति पत्रिका में एवं वाङ्मय में भी कुछ विशिष्ट संस्मरण छपते रहे हैं। किन्तु जन्मशताब्दी की इस महत्त्वपूर्ण वेला में परिजनों के संस्मरणों को विशेष तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है। आने वाले समय में एक शृंखलाबद्ध रूप से इस विषय पर भी पुस्तकें निकाली जायेंगी। यह पुस्तक उसका एक नमूना भर है। अतः जागृत परिजनों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर उन परिजनों के संस्मरणों को, जो पूज्य गुरुदेव के सहयोगी रहे हैं और बहुमूल्य यादें अपने अन्दर छिपाये बैठे हैं, लिखित रूप में अथवा आडियो-वीडियो रिकार्डिंग के रूप में, जैसे भी संभव हो सके, शान्तिकुञ्ज भेजें, ताकि हम इस शृंखला को आगे बढ़ा सकें।
--महिला मण्डल, शान्तिकुञ्ज


1. ममता की मूर्ति प्यार के सागर

पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी प्यार-आत्मीयता, दया, करुणा, ममता की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने इस मिशन को स्नेह-वात्सल्य की नींव पर खड़ा किया है। प्रत्येक परिजन यही महसूस करता है कि उन्होंने मुझ पर इतना ममत्व लुटाया है कि सगे माँ-बाप भी क्या लुटाते होंगे। उन्होंने युग निर्माण योजना के इस संगठन को गायत्री परिवार के नाम से भी संबोधित किया है। भाव यह है कि हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं।
वसुधैव कुटुम्बकम के मर्म को उन्होंने अपने जीवन से समझाने का प्रयास किया है। वे कहते हैं, ‘‘मैं अधूरा प्यार करना नहीं जानता। मैंने जिससे भी प्यार किया है, पूरा प्यार किया है।’’ एक जगह पर वे लिखते हैं-‘‘ कोई कहे कि तुम्हारे गुुरु से बड़ा कोई ज्ञानी है तो मान लेना। यदि कोई कहे कि तुम्हारे गुरु से बड़ा कोई दूसरा तपस्वी और सिद्ध-समर्थ है तो भी मान लेना पर यदि कोई कहे कि तुम्हारे गुरु से ज्यादा प्यार करने वाला कोई है तो बेटा! कभी मत मानना। मेरा प्यार तुम लोगों के साथ हमेशा रहेगा। मेरे शरीर के रहने पर और शरीर के न रहने के बाद भी।’’ वे कहते थे, ‘‘मैंने अपने बच्चों से बहुत प्यार किया है।’’ सन् 1971 के विदाई उद्बोधन में वे कहते हैं, ‘‘...प्यार.. प्यार..प्यार। यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।’’ आज भी यह मिशन उनके इसी सूत्र के आधार पर आगे बढ़ रहा है।
फिर भी उनका स्थूल स्नेह जिन परिजनों ने पाया है, उसका आनंद तो वे ही जानते हैं। वास्तव में ऋषिसत्ता ने अपने बच्चों पर जो स्नेह लुटाया, वह अतुलनीय, अद्वितीय, असीम है। परिजनों को लिखे गये उनके पत्रों में ही इतनी आत्मीयता, इतना प्यार झलकता है कि उन्हें पढ़ते समय लगता है, जैसे वे सामने खड़े होकर हमें दुलार रहे हैं तो जब प्रत्यक्ष में मिलते होंगे तो कितना वात्सल्य, कितना ममत्व लुटाते होंगे, इसकी कोई सहज ही कल्पना कर सकता है। यहाँ हम परिजनों के कुछ संस्मरण व उन्हें लिखे पत्रों के कुछ छोटे-छोटे अंश प्रकाशित कर रहे हैं, जिनसे उनके अनोखे स्नेह और वात्सल्य की झलक मिलती है।

गुरुजी-माताजी ने हम सबको अपना अंग-अवयव कहा ही नहीं अपितु अपने पत्रों में किस प्रकार व्यक्त किया है, जानें-समझें.....

वे संबोधन स्वरूप ‘हमारे आत्मस्वरूप’ शब्द का प्रयोग करते थे। कितनी गहरी भावनाएँ छिपी हैं इस संबोधन में। एकत्व का भाव। पढ़ने वाले की क्या मनोदशा होती होगी? मन कितना आह्लादित हो जाता होगा? सहज ही कल्पना कर सकते हैं।

सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव साधना हेतु हिमालय चले गये थे। उन दिनों में 30-10 को अपने एक निकटस्थ परिजन को माताजी के द्वारा लिखे गये पत्र के अंश कुछ इस प्रकार हैं-
‘‘....अत्यधिक व्यस्तता के कारण उत्तर जल्दी नहीं लिख पाई। पर ऐसा कोई दिन नहीं गया होगा, जिस दिन तुम दोनों को स्मरण न किया हो। तुम दोनों हमारी आँखों की पुतलियों की तरह हो। हमारा वात्सल्य तुम्हारे लिये हर घड़ी उमड़ता रहता है। तुम्हारी हर परिस्थिति का पूज्य आचार्य जी को पता है। ऐसा ही मानना चाहिये। भले ही शारीरिक दृष्टि से वे कितने ही सघन एकांत में क्यों न हों।....’’

एक अन्य परिजन को माताजी 2-5 को लिखे गए एक पत्र में लिखती हैं--
‘‘.....आप हमें अपने सगे बच्चों की तरह याद आते रहते हैं। अपनी अंतःकरण की भावनाएँ, अपना स्नेह किन शब्दों में व्यक्त करें?......’’

9-2 को एक परिजन को वे लिखती हैं-
‘‘..... आप बच्चों के अंतरंग जीवन में घुले-मिले रहने से कितनी प्रसन्नता होती है, इसे शब्दों में कैसे व्यक्त करें? आप हमारे सगे बेटे की तरह हैं। यह संबंध अनेकों जन्मों की साधना द्वारा प्रगाढ़ किये हैं। आप अनेक जन्मांतरों तक हमारे स्नेह सूत्र में ऐसे ही बँधे रहेंगे। हमारा वात्सल्य वर्षा की तरह आप दोनों पर, बच्चों पर निरंतर बरसता रहेगा।.....’’

29-3 के इस पत्र के शब्दों की गहराई नापी नहीं जा सकती...
‘‘....आपको परमात्मा ने श्रद्धा की साक्षात् प्रतिमूर्ति बनाकर भेजा है। किसी भी माँ का अपनी नन्हीं संतान के लिये जिस तरह हृदय उमड़ता रहता है, उसी तरह आपको सदैव अपने हृदय से लगाये रखने का मन बना रहता है। आप बच्चे हमें प्राणों से भी प्रिय लगते हैं।...’’

प्रस्तुत पत्र में पूज्य गुरुदेव का स्नेह और सतत संरक्षण का आश्वासन समझने योग्य है।
‘‘हमारे आत्म स्वरूप,
आपका और बेटी श्रीपर्णा का पत्र मिला। होली का गुलाल भी। पत्र पढ़ते समय लगता है, आप दोनों सामने ही बैठे हैं। होली का हमारा आशीर्वाद और माताजी का स्नेह आप चारों को इस पत्र के साथ भेज रहे हैं।
हम लोग भविष्य में कहीं भी क्यों न रहें, आप लोगों को कभी अकेलापन अनुभव न होने देंगे। आप लोग अपने घर, आँगन, छत और कमरे में हमें बैठा, टहलता अनुभव करते रहेंगे।...’’

4-9 को पूज्य गुरुदेव एक परिजन को लिखते हैं-
‘‘हमारे आत्मस्वरूप,
आपका पत्र मिला। कई बार पढ़ा। आपकी भावनाएँ उमड़-उमड़ कर हम तक तो सदा ही पहुँचती रहती हैं। पर जब पत्र आता है तो उनमें ज्वार सा आ जाता है। पत्र लिखते समय लगता है, तुम लोग सामने ही बैठे हो।....’’

17-8 को पूज्य गुरुदेव एक बहन को लिखते हैं--
‘‘... तुम हमारी बेटी की तरह हो। हमसे कुछ न कहो तो भी क्या पिता अपनी संतान के सुख की चिंता नहीं किया करते। तुम्हारे लिये जो भी आवश्यक होगा हम सदैव करते रहेंगे।...’’

28-8 को माताजी एक बहन को पत्र में लिखती हैं-
‘‘... कोख के बच्चे की साज-सँभाल किस तरह की जाती है वह एक माँ ही जानती है। अभी तक जिस तरह तुम्हारे हित का संरक्षण करते रहे हैं, आगे भी उसी तरह करते रहेंगे।...’’

ऐसे ही 20-5 के इस पत्र में एक परिजन की श्रद्धा-निष्ठा को प्रोत्साहित करते हुए वे लिखती हैं-
‘‘... आपकी श्रद्धा हमारा जीवन और प्राण है। यह निष्ठाएँ ही इस देश को नई सामर्थ्य प्रदान करेंगी।...’’

3-8 के इस पत्र के शब्दों को देखें-
‘‘.... तुम्हारी साधना निष्ठा का हृदय से सम्मान करती हूँ। आने वाली पीढ़ी के लिये यह संस्कार और निष्ठा वरदान बनेगी। उसके लिये कोटि-कोटि आत्माएँ तुम्हारा उपकार मानेंगी।....’’

वहीं इसी संबंध में 8-9 में पूज्य गुरुदेव एक परिजन को लिखते हैं-
‘‘...नव निर्माण की दिशाधारा को साकार बनाने में जिस श्रद्धा और तत्परता के साथ संलग्न हैं, उसे देखकर हमारा रोम-रोम पुलकित हो उठता है। आप जैसे कर्मठ स्वजनों के बलबूते पर ही हमने इतने रंगीन सपनों को साकार करने की आशा बाँधी है।...’’

14-10 को एक अन्य परिजन को वे लिखते हैं-
‘‘... पुण्य पर्व दशहरे पर भेजी तुम्हारी हार्दिक शुभकामनाएँ मिलीं। तुम्हारी यह श्रद्धा हमें कितनी शक्ति देती है, उसे हम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते। तुम दोनों तो हमारे प्राण हो। हम अंतःकरण से सदैव ही तुम्हारे साथ जुड़े रहेंगे। इस पुण्य पर्व पर हम अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और आशीर्वाद भेज रहे हैं।...’’
ऐसे असंख्यों पत्र हैं। प्यार-आत्मीयता एवं अपने कार्यों का श्रेय अपने शिष्यों को देने की कला तो कोई गुरुजी-माताजी से ही सीखे।

प्रत्यक्षतः अपने व्यवहार द्वारा स्नेह-आत्मीयता एवं वात्सल्य लुटाता उनका स्वरूप दर्शाते कुछ संस्मरण भी यहाँ प्रस्तुत हैं।


स्वयं रेत पर बैठ जाते

डॉ. अमल कुमार दत्ता, शान्तिकुञ्ज

गुरुजी माताजी का प्यार असाधारण, अलौकिक था। मैं उनसे क्या जुड़ा, उन्होंने मुझे जोड़ लिया। मेरा तो बस प्यार का अधिकार था। कुछ ऐसा सोच लें कि जैसे अचानक ही किसी लड़के या लड़की को प्यार हो जाता है। उनका अपनापन, प्यार भरी बातें, प्रेम से खिलाना इसी सबने मुझे जोड़ लिया। गुरुजी शाम को जब घूमने जाते तो मथुरा में यमुना किनारे हमें भी साथ ले जाते। वह रेत पर अपना तौलिया बिछाकर कहते थे, ‘‘बैठो’’ और स्वयं रेत पर बैठ जाते थे। उनका यह प्यार पागल बना देने वाला प्यार था। मैं उनके साहित्य और अखण्ड ज्योति का भक्त बन गया।


नयन-नयन से हृदय-हृदय से करुणा भरी विदाई

श्रीमती यशोदा शर्मा, शान्तिकुञ्ज

कन्या शिविर की विदाई के वह पल आज भी वैसे ही सजीव हैं। ‘‘हम रो रहे थे। आँसू थम नहीं रहे थे। स्वाभाविक है कि रोते समय नाक भी बहने लगती है। परम पूज्य गुरुदेव समझाते भी जा रहे थे कि बेटा, फिर भी आते रहना और अपने हाथों से आँसू भी पोंछते जा रहे थे।
मेरी आँखों से आँसू बहकर गले तक जा रहे थे और नाक भी बह रही थी। गुरुदेव ने अपने हाथों से आँसू तो पोंछे ही साथ में मेरी नाक भी पोंछी। उनके हाथ में कोई रूमाल नहीं था फिर भी उन्हें नाक पोंछने में भी कोई संकोच नहीं हुआ। ऐसा प्यार, ऐसा दुलार भला कैसे भुलाया जा सकता है।’’
माताजी शिविर समाप्त होने पर विदाई गीत गाया करती थी। ‘‘नयन-नयन से हृदय-हृदय से करुणा भरी विदाई।’’ उनके स्वरों में इतना दर्द भरा रहता था कि हम सब सुबक-सुबक कर रो देते थे। ऐसा लगता था जैसे-माँ के घर से विदा हो रहे हैं। उनके आँचल से बिछुड़ने का किसी का मन नहीं करता था। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जो शान्तिकुञ्ज से विदा होते समय रोया न हो। ऐसा अलौकिक प्यार था, गुरुजी-माताजी का।


मैं हूँ इसकी दादी

श्रीमती कृष्णा उपाध्याय, शान्तिकुञ्ज

मेरे दूसरे बेटे सुनील का जन्म मथुरा में हुआ। वन्दनीया माताजी मुझे लेकर अस्पताल गईं। वहाँ मेरे साथ ही थीं। बच्चे के जन्म के बाद, जब नर्स ‘‘लेबर रूम’’ से मुझे व बच्चे को बाहर लेकर आई, तब उसने आवाज लगाई-‘‘इसकी दादी कौन है?’’ माताजी ने झट से कहा, ‘‘मैं हूँ इसकी दादी।’’
नर्स बोली, ‘‘लड़का हुआ है। खाली हाथ नहीं दूँगी।’’
‘‘कौन खाली हाथ माँग रहा है? मैं तो खाली हाथ लूँगी भी नहीं।’’ और माताजी ने सबको मन पसन्द न्यौछावर देकर बालक को गोद में ले लिया।
स्वयं जगत् जननी के हाथ से न्यौछावर पाकर पता नहीं, न्यौछावर पाने वालों ने अपने भाग्य को सराहा या नहीं। किन्तु मेरी आँखों में उस समय कृतज्ञता के आँसू थे। मैंने अपने व अपने बच्चे के भाग्य की सराहना की कि जाने किस पुण्य से यह शुभ घड़ी मिली जो मेरे बच्चे को स्वयं जगन्माता अपनी गोद में खिला रही हैं। उसके बाद भी वे सुबह, शाम दोनों समय दूध लेकर स्वयं रिक्शे से अस्पताल आतीं। मुझे और बच्चे को दूध पिलाकर, हम दोनों को सँभालकर जातीं और बार-बार कहतीं-‘‘छोरी! तू दूध पीने के लिये संकोच मत करना। जितना पियोगी उतना दूध बढ़ा दूँगी। बिलकुल भी परेशान मत होना।’’
तपोभूमि आने के बाद भी घीयामण्डी से दूध भेजतीं व प्रसूता को ही पिलाने का निर्देश देतीं। इस प्यार में कायल होकर ही बालक उनके अपने हुए। इतना बड़ा संगठन इसी प्यार के सहारे उन्होंने विनिर्मित किया।
आज भी सोचती हूँ तो लगता है, निश्चित ही हमारी कोई पूर्व जन्म की तपस्या होगी, जिससे हमें ऐसे माता-पिता मिले। उन्होंने बहुत-बहुत प्यार दिया।
जब भी उन पलों की याद आती है तो आँखें सजल हो जाती हैं।


यह मेरी बेटी नहीं, बेटा है

श्रीमती सावित्री गुप्ता, शान्तिकुञ्ज

अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से हम लोग पूज्य गुरुदेव से जुड़े। यह पत्रिका हमारे यहाँ, हमारा धोबी लाकर देता था। लेख बहुत पसंद आये। पत्रिका में पता लिखा था, सो मथुरा पत्र डाल दिया। तत्काल जवाब आ गया। यह सिलसिला चलता रहा। हर हफ्ते पूज्यवर के पत्र आ जाते, जवाब हम भी लिखते रहते।
एक बार पूज्यवर को नागपुर आना था। सो उन्होंने लिखा-‘‘सावित्री! मैं नागपुर आ रहा हूँ, तू भी आ जाना। जिस बोगी में मालाएँ लटकी हों, उसी में चढ़ जाना। वहाँ हम मिल जायेंगे।’’
चूँकि अभी तक पूज्यवर के दर्शन नहीं हुए थे, अतः असमंजस था। मेरी बेटी, बेबी तब नागपुर में पढ़ती थी। बेबी से भी मुलाकात हो जायेगी, सोचकर नरखेड़, घर से चली और माला वाली बोगी में चढ़ गई। चढ़ते ही पूज्यवर ने आगे बढ़कर कहा-‘‘सावित्री! आ गई तू। धोबी तरुणकर कैसा है?’’ सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। हम कभी पहले मिले नहीं और नाम लेकर पुकार रहे हैं! साथ ही पत्रिका देने वाले का भी नाम मालूम है। उसके उपस्थित न होने पर भी उनका हाल जानना चाहते हैं..? कितने प्रश्न मन में उठे, और उनकी सहजता ने हृदय को छू लिया व जैसे, परिवार में पिता के साथ बातचीत में कुछ भान नहीं होता। उसी प्रकार प्रथम परिचय में ही बिना किसी बनावट के मैं उनके साथ घुल-मिल गई। उन्होंने अपने पास में बिठाया। पीठ पर हाथ फेरा व कुशल क्षेम पूछी। इसी प्रकार बातचीत करते नागपुर पहुँच गये।
नागपुर में श्री शरद पारधी जी के यहाँ रुके। उनके पिता श्री मोरोपन्त पारधी-मराठी अखण्ड ज्योति पत्रिका के सम्पादक थे। इसलिये गुरुदेव जब भी नागपुर आते, उनके यहाँ अवश्य जाते। हम लोग भी गुरुदेव के साथ शरद जी के घर गये। वहाँ बहुत लोग थे। पूज्यवर के स्वागत के बाद सबका नाश्ता हुआ। उसके बाद गोष्ठी हुई। गोष्ठी में उन्होंने मुझे पास में बिठाया और सभी को सम्बोधित कर कहा-‘‘यह मेरी बेटी नहीं, बेटा है। बहुत काम करेगी।’’ वहाँ से गोष्ठी लेकर वे महासमुन्द के हजार कुण्डीय यज्ञ हेतु निकले। उन्होंने मुझे पूछा-‘‘महासमुन्द चलेगी क्या?’’ मैंने कहा-‘‘गुरुदेव! मैं घर में कहकर नहीं आई हूँ, इसलिये नहीं जा सकती।’’
पूज्यवर ने कहा, ‘‘ठीक है, मथुरा आना।’’ और महासमुन्द के लिये रवाना हो गये। जब मैं शान्तिकुञ्ज आ गई तब तो उनका प्यार, आशीर्वाद व संरक्षण पाकर हम निहाल ही हो गये।


मेरे लिये टिफिन जरूर भिजवाती थीं

श्री अशोक दाश, शान्तिकुञ्ज

माताजी प्यार लुटाने के भी अवसर खोजती रहती थीं। अक्सर ही कुछ न कुछ अपने हाथों से बना कर खिलातीं। कभी बाजरे की रोटी, कभी हलवा। एक दिन बोलीं ‘‘लल्लू, आज मैं तुम लोगों को गरीबों का हलवा बनाकर खिलाती हूँ।’’ उन्होंने बेसन का नमकीन हलवा बनाकर खिलाया। मुझे बहुत ही पसंद आया। घर आकर पत्नी को बताया। पत्नी ने चौके में रहने वाली बहनों से उसकी विधि पूछी, तो माताजी ने स्वयं उसे उसकी विधि बताई। इतना ही नहीं, जब भी माताजी की रसोई में वह बनता, वह मेरे लिये टिफिन जरूर भिजवाती थीं। उन्हें सबका ध्यान रहता था, किसको क्या पसंद है। जब जिसकी पसंद की जो चीज बनती, वह उसके लिये थोड़ा सा बचाकर जरूर रखती थीं।
मैंने तुझे नमकीन हलवा सिखाने के लिये बुलाया है


श्रीमती मणि दाश, शान्तिकुञ्ज

एक दिन दाश जी माताजी के पास नमकीन हलुआ खा कर आये और बोले कि बहुत स्वादिष्ट था। तुम उसे जरूर सीखना। मैंने चौके की एक बहन से उसकी विधि पूछी। उसने मुझे बताया कि बेसन का घोल बना कर उसे बनाते हैं। उसने माताजी से भी कह दिया। एक दिन सुबह-सुबह साढ़े चार बजे माताजी का संदेश आया कि मुझे माताजी ने बुलाया है।
मैं बहुत घबराई कि इतनी सुबह माताजी ने क्यों बुलाया है? मुझसे कोई गलती हो गई है क्या? मैं डरते-डरते माताजी के पास पहुँची। माताजी हँसकर बोली, डरती क्यों है? मैंने तुझे नमकीन हलवा सिखाने के लिये बुलाया है। मैंने देखा, रसोई घर में गैस चूल्हे पर बड़ा सा भगोना रखा है। माताजी ने बेसन घोला और फिर उसे बनाने लगीं। मैं माताजी से बोली, माताजी मैं बनाती हूँ। माताजी बोलीं, ‘‘ना लाली, तू नहीं कर पाएगी।’’ थोड़ी देर में माताजी ने उस पर ढक्कन ढक दिया और बोलीं, ‘‘अब इसे एक तरफ से ढक्कन हटाकर 45 मिनट चलाना है।’’ मैं फिर बोली, ‘‘लाईए माताजी, मैं करती हूँ।’’ इस पर माताजी पुनः बोलीं, ‘‘नहीं, तेरे हाथ में फफोले पड़ जायेंगे। मैं, माँ हूँ न बेटा! मुझे पता है। तू देख, मैं कैसे बनाती हूँ।’’ मैंने घड़ी देखी माताजी लगातार 45 मिनट तक उसे चलाती रहीं।
मैं भाव विभोर हो कर माताजी को देखती रह गई। जब तक माताजी थीं, तब तक जब कभी भी वह हलवा बनता, माताजी टिफिन में भर कर दास जी के लिये जरूर भेजती थीं।


छककर कढ़ी खा

वे शान्तिकुञ्ज में रहने वाले हम लोगों पर ही नहीं अपितु शिविर में आये हुए भाई-बहनों पर भी ऐसा ही प्यार लुटाती थीं। एक बार एक शिविरार्थी भाई ने माताजी से कहा, ‘‘माताजी आज मैं जा रहा हूँ। मैं एक महीने रहा पर इस बार कढ़ी खाने को नहीं मिली।’’ माताजी ने कहा, ‘‘अच्छा बेटा! बैठ।’’ फिर उन्होंने चौके से एक बहन को बुलाया और उन सज्जन के लिये कढ़ी बनाने को कहा। वे सज्जन सकुचाए और मना करने लगे, पर माताजी ने उन्हें अपने सामने भोजन कराया। बोलीं, ‘‘बेटा छककर कढ़ी खा।’’ इतना ही नहीं रास्ते के लिये भोजन भी बाँध कर दिया।


लो बाजरे की टिक्की खाओ

उन दिनों शान्तिकुञ्ज में थोड़े से ही परिवार रहते थे। गुरुजी माताजी के पास आना-जाना, बातचीत करना भी सहज था। माताजी के पास तो कोई भी कभी भी चला जाता था। एक दिन सावित्री जीजी ने माताजी से कहा, ‘‘माताजी, बाजरे की टिक्की खाए बहुत दिन हो गए।’’ माताजी ने तुरंत स्टोर वाले भाई से पुछवाया, ‘‘बाजरा आ गया है क्या?’’ वह बोला माताजी अभी नहीं आया है। माताजी ने उसे कहा ‘‘जैसे ही आये मुझे बताना।’’ अगले दिन, सुबह-सुबह 8:00 बजे ही माताजी ने बुलवा भेजा और बोलीं, ‘‘लो बाजरे की टिक्की खाओ’’ और साथ में दो-चार बाँध कर भी दे दीं।

शान्तिकुञ्ज की बहुत सी बहनें माताजी के साथ बिताये उन पलों को अक्सर याद करते हुए बताती हैं-
प्रारंभ के दिनों में आस-पास का क्षेत्र विकसित नहीं था। छोटा-छोटा सामान लेने के लिये भी हरिद्वार जाना पड़ता था। माताजी सबके सामान की सूची तैयार करवा लेतीं और एक दो लोगों को भेजकर सबका सामान मँगवा लेतीं। फिर स्वयं ही सबको वितरित करतीं।

यूँ तो गुरुजी-माताजी के साथ बिताया हर क्षण त्यौहार जैसा ही था। पर त्यौहारों का तो अपना अलग ही मजा था। माताजी गीत गवातीं, ढोलक बजवातीं, सबको हँसाती भी रहतीं। त्यौहार के दिनों में माताजी के पास सबका भोजन होता था। माताजी कई प्रकार के पकवान बनाती थीं। हम सब शान्तिकुञ्ज की बहनें माताजी के पास पकवान बनवाने जाती थीं। माताजी एक तरफ बैठतीं और लोई (रोटी बेलने, कचौड़ी भरने हेतु आटे का गोला) बनाती जातीं। उनके काम में इतनी फुर्ती थी कि वे पूरे आटे के पेड़े बना देतीं और हम लोग सब मिलकर आधा भी नहीं बेल पाते थे। कभी-कभी वह कहतीं अच्छा, तुम सब मिलकर लोई काटो, मैं बेलती हूँ। हम लोग उसमें भी पिछड़ जाते थे। हम सब मिलकर लोई बनाते और माताजी सब बेलकर कहतीं, इतने लोग लोई बना रहे हो और मैं अकेली बेल रही हूँ, फिर भी पिछड़ जा रहे हो। इतना प्यार, माताजी ने दिया कि कभी लगा ही नहीं कि हम घर-बार छोड़कर परिवार से दूर रह रहे हैं।


हमारी बहू को मेंहदी तो लगा

श्री महेंद्र शर्मा जी व मुक्ति दीदी, शान्तिकुञ्ज

महेंद्र शर्मा जी ने बताया, मुझे हरी मिर्च व धनिया की चटनी बहुत पसंद थी। माताजी अक्सर मेरे लिये वह चटनी पिसवा कर रखती थीं। एक दिन मैं माताजी के पास किसी काम से गया। माताजी के पास एक कटोरी में कुछ हरा-हरा सा रखा दिखाई दिया। मैंने सोचा चटनी रखी है।
मैंने माताजी से पूछा, ‘‘आज चटनी बनी है क्या?’’ माताजी बोलीं, ‘‘न लल्लू! मेंहदी धरी है। आज करवाचौथ है, ले थोड़ी मेंहदी मुक्ति के लिये भी ले जा, वो भी लगा लेगी।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी ये सब महिलाओं का काम है। मैं नहीं करता।’’ फिर मज़ाक में कहा, ‘‘मेरे यहाँ 21वीं सदी नहीं आयेगी माताजी, कि ये सब महिलाओं के काम करता फिरूँ, मैं?.. और... मेंहदी ले जाकर दूँगा?’’ कहकर मैं मेंहदी लिये बिना ही नीचे आ गया।’’
मुक्ति दीदी-‘‘कुछ समय बाद मैं किसी काम से गुरुजी के पास गई। उन दिनों शान्तिकुञ्ज में थोड़े से ही लोग थे और काम खूब रहता था। हम लोग दिन भर काम में व्यस्त रहते थे। गुरुजी ने मुझसे पूछा, ‘‘मुक्ति तूने मेंहदी नहीं लगाई।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी समय नहीं मिला, अभी लगा लूँगी।’’ गुरुजी बोले, ‘‘महेंद्र को बता देना, उसकी भी 21वीं सदी आयेगी और जरूर आयेगी। बेटा, तेरे घर में भी 21वीं सदी आयेगी।’’

मैंने सोचा पता नहीं, गुरुजी क्या कह रहे हैं। मैं माताजी के पास गई तो माताजी ने कहा, ‘‘मुझे पता है, तैने मेंहदी नहीं लगाई होगी। महेंद्र को ले जाने को बोला तो वो यहीं छोड़ गया।’’ फिर निर्मला भाभी (माताजी की बहू) को बोलीं, ‘‘निर्मला, हमारी बहू को मेंहदी तो लगा।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी अब समय ही कहाँ है? पूजा होने वाली है और मुझे पूजा का सामान भी लाना है।’’ माताजी बोलीं, ‘‘अरे, पूजा में अभी आधा घण्टा है। तू मेंहदी लगा फिर या ई संग बैठ के पूजा भी कर लेना।’’ माताजी ने नई चूड़ियाँ मँगवाईं, अपने हाथ से पहनाई और पूजा आदि करने के बाद ही मैं वापिस आई।

कमरे में लौट कर जब मैंने गुरुजी की बात बताई तो इन्होंने माताजी के साथ हुई बातचीत बताई। हम दोनों हैरान थे कि गुरुजी को सब बात कैसे पता हो जाती है? वास्तव में वे दोनों एक ही थे। कोई नीचे माताजी से बात करता, ऊपर गुरुजी को स्वतः ही वह बात पता हो जाती। कभी गुरुजी से कोई बात करता तो माताजी को नीचे सब पता हो जाती थी।

हम लोग अक्सर गुरुजी की डाँट भी सुनते थे। डाँट सुनकर नीचे उतरते तो माताजी पहले ही आवाज लगा कर बुला लेतीं और प्यार-दुलार लुटाकर मन हल्का कर देतीं। हम लोग सोचते ही रह जाते कि माताजी को कैसे पता चल गया कि गुरुजी ने हमें डाँट लगाई है, पर वो तो जगज्जननी थीं। सबके दिल का हाल-चाल उन्हें पता रहता था। उनका प्यार पाते ही हम लोगों को जैसे पंख लग जाते थे और हम गुरुजी की डाँट भूलकर दुगुने उत्साह से काम में लग जाते। ऐसा हम सभी कार्यकर्ता महसूस करते रहे हैं।


जब गुरुजी ने बारिश में खड़े होकर दीक्षा दी

श्रीमती मिथिला रावत बताती हैं कि यह शक्तिपीठों की प्राण प्रतिष्ठा के समय की बात है। 26 जनवरी 1982 को छतरपुर में गुरुदेव का कार्यक्रम चल रहा था। अगला कार्यक्रम वल्लभगढ़ में था। हम गुरुदेव को लेने छतरपुर पहुँचे। गुरुदेव को सुबह 8:00 बजे छतरपुर पहुँचना था। गाड़ी लेट थी सो गुरुदेव 2:00 बजे पहुँचे। लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। उस दिन खूब बारिश हो रही थी। फिर भी स्टेशन से शक्तिपीठ तक जगह-जगह लोग गुरुदेव के स्वागत के लिये छाते लिये, भीगते हुए खड़े थे। सबसे मिलते-मिलाते गुरुदेव 7:00 बजे शक्तिपीठ पहुँच पाये। पंडाल में जनता दीक्षा लेने के लिये बैठी थी। देर हो जाने व तेज बारिश के चलते आयोजकों ने कार्यक्रम में परिवर्तन करना चाहा तो लोगों ने कहा कि हम गुरुजी के दर्शनों के लिये बैठे हैं, हमें तो दीक्षा भी लेनी है।
गुरुजी तक संदेश पहुँचा तो गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा! यदि हमारे बेटे इस बारिश में भी हमें सुनना चाहते हैं और दीक्षा लेना चाहते हैं तो हम तैयार हैं। गुरुदेव के लिये मंच पर कुर्सी रखी गई। आधा घण्टा गुरुजी ने प्रवचन दिया। सबको दर्शन दिया। छतरी के नीचे खड़े-खड़े ही उन्होंने दीक्षा दी। वे थके हुए भी थे, चाहते तो मना भी कर सकते थे। पर भक्तों की इच्छा का मान रखने वाले भक्त वत्सल, वे भला कैसे मना कर सकते थे?

कार्यक्रम के पश्चात् जैसे ही मैं गुरुदेव से मिलने पहुँची, गुरुदेव हमें देखते ही बोले बेटा! तू क्यों चली आई? क्या मैं बच्चा हूँ, जो तू लेने चली आई? अगले दिन 27 तारीख को हम लोग वल्लभगढ़ के लिये रवाना हुए। गुरुजी ने मुझे भी अपने साथ ही बिठा लिया। बोले, ‘‘चल! बैठ, बैठ, बैठ। रास्ते भर कितनी बातें करते गये। मैं थोड़ा संकोच से बैठी थी। बोले बेटा! ठीक से बैठ जा। थोड़ी-थोड़ी देर में ध्यान भी देते रहते कि मैं ठीक से तो बैठी हूँ। रास्ते में एक जगह लघुशंका के लिये गाड़ी रुकवाई। मुझसे बोले, ‘‘बेटा! तू भी चली जा।’’ फिर इधर-उधर नजर दौड़ाई और बोले, ‘‘जा! उधर झाड़ी में चली जा।’’ गिलास में पानी लिये खड़े रहे। मैं लौटी तो बोले, ‘‘ले! पानी ले ले।’’ स्वयं पानी दिया। इतनी आत्मीयता, इतना प्यार, इतनी व्यावहारिकता, कोई पिता भी क्या दे सकता है, जो गुरुजी ने दिया।

हम शान्तिकुञ्ज आये हुए थे। बड़ी बेटी का रिश्ता रावत जी जहाँ करना चाहते थे, वहाँ के लिये वह तैयार नहीं थी। जिसकी चार बेटियाँ हों, उनकी शादी के लिये पिता को चिंता होना तो स्वाभाविक ही है। रावत जी रात में हमें बहुत नाराज हुए। गुस्से में यह भी कह गये कि जा अपने बाप के पास जा। वहीं जाकर कर लेना इसकी शादी। हम रात भर खूब रोये। सुबह होते ही गुरुजी ने हम तीनों को बुलाया और रावत जी से बोले, तू इस पर नाराज क्यों होता है? ये मेरी बड़ी प्यारी बेटी है। इस पर नाराज मत हुआ कर।’’ और बोले, ‘‘जाओ।’’ हम लोग लौट आये।

उसी दिन मुझे घर भी लौटना था। बाकी परिवार घर पर ही था। मैं अपना सामान उठा कर चलने ही वाली थी कि मन में आया, जाते-जाते गुरुजी से मिल लूँ। मैं दौड़ कर गुरुजी के पास चली गई। गुरुजी अपने कमरे में टहल रहे थे। मैंने प्रणाम किया और पता नहीं क्या हुआ, मैं जोर-जोर से रोने लगी। गुरुजी ने मुझे छोटे बच्चे की तरह अपने सीने से लगा लिया। मेरे आँसू पोंछे। प्यार से वे मुझे बेबी बुलाते थे। बोले, ‘‘रो मत बेबी! मैं हूँ न तेरा बाप। मैं करूँगा तेरी बेटियों की शादी। जैसे तू कहेगी, जैसे ब्राह्मण से तू कहेगी, सर्विस वाला, बिजनेस वाला जैसा लड़का कहेगी वैसा ढूँढ़ दूँगा। तू चिंता मत कर। बेटा! मैं तेरा पिता हूँ।’’

फिर बोले, ‘‘अब बेटा तू आ जा। बार-बार कहता हूँ, तू सुनती नहीं।’’ हम शान्तिकुञ्ज आ गये। गुरुजी कहते बेटा लड़कियों की शादी की जिम्मेदारी मेरी है। हमारी सब समस्याएँ उनकी हो गईं। खूब संघर्ष सहा, पर पग-पग पर उन्हें साथ खड़े पाया। इतना प्यार, इतना दुलार उन्होंने दिया कि हमारे पास बताने के लिये शब्द भी नहीं हैं।


क्यों सिकुड़ा बैठा है?

श्री लक्ष्मण अग्रवाल, बिलासपुर

शक्ति पीठों के उद्घाटन हेतु जब छत्तीसगढ़ में पूज्यवर का कार्यक्रम चल रहा था, तब मैंने सोचा, क्यों न गुरुदेव के सान्निध्य लाभ का सौभाग्य प्राप्त किया जाय। घर-दुकान का काम बच्चों को समझाकर एक माह गुरुदेव के साथ रहूँगा। यह सोचकर कार-ड्राइवर व मैं भिलाई हेतु निकल पड़े, क्योंकि गुरुदेव वहाँ के उद्घाटन के बाद सड़क मार्ग से आने वाले थे।
भिलाई के कार्यक्रम के बाद गुरुदेव हमारी गाड़ी में बैठे। मैं अपने सौभाग्य को धन्य मान रहा था। वहाँ से रायपुर आये, इस बीच पूज्यवर ने मुझे अपने पास ही बैठाया। मुझे थोड़ा संकोच हो रहा था अतः मैं सिकुड़ा हुआ बैठा था।
गुरुदेव ने चुटकी ली-क्यों, सिकुड़ा हुआ बैठा है? मैं अछूत हूँ क्या? मुझसे कुछ भी जवाब देते नहीं बना। फिर मैं सहज होकर ठीक से बैठ गया। ऐसे थे गुरुदेव! छोटी-छोटी बात का भी ध्यान रखते थे।


बेटा जयंतिलाल! मैं यहाँ हूँ

श्री जयंतीलाल पटेल, राजनांदगाँव

यह 1969 की बात है। उन दिनों मैं गुजरात में रहता था। एक बार अहमदाबाद में गुरुदेव का कार्यक्रम था। संयोग से मैं खरीदी करने गया हुआ था। स्टेशन पर मैंने परचा लगा देखा। सोचा रात को गुरुजी के पास मिलने चला जाऊँगा। रात में मुझे थोड़ी देरी हो गई। घर खोजते-खोजते रात के 12:30 बज गये थे। मणिनगर में, मैं घर खोज रहा था कि इतने में एक छत पर से आवाज आई, ‘‘बेटा जयंतिलाल! मैं यहाँ हूँ। तू यहाँ आ जा।’’ मैंने ऊपर देखा, छत पर गुरुजी खड़े थे। उन्होंने एक परिजन से कहा कि जाओ दरवाजा खोल दो और इन्हें ऊपर ले आओ। मुझे आश्चर्य हुआ कि गुरुजी को इतनी रात में भी पता चल गया कि मैं रास्ता ढूँढ़ रहा हूँ और वे छत पर से मुझे बुला रहे हैं। जैसे ही मैं ऊपर पहुँचा, गुरुजी बोले, ‘‘आओ बेटा, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।’’
रात्रि का एक बज रहा था, फिर भी गुरुजी ने मुझसे बातचीत की। फिर मुझे सोने के लिये भेज दिया। इतना स्नेह, इतनी आत्मीयता, बच्चों का ऐसा इंतजार। वहाँ कैसे न व्यक्ति सब कुछ न्यौछावर कर दे।


आओ बच्चों तुम्हें माताजी के दर्शन करा दूँ

श्री मदनलाल नामदेव, करही (खरगोन)

बात 1964 सितंबर की है। मैंने अपने दो साथियों श्री दीपचंद राठौर और अन्तरसिंह मंडलोई के साथ संकल्प किया-‘‘मथुरा पहुँचकर पूज्य आचार्य जी से जब तक नहीं मिलेंगे, तब तक भोजन नहीं करेंगे।’’ सो शाम 7 बजे के लगभग मथुरा पहुँचते ही साइकिल रिक्शा किया। किन्तु प्राचार्यजी के आग्रह व निर्देश से द्वारकाधीश की आरती व दर्शन के मोह के कारण हम रात साढ़े आठ के लगभग तपोभूमि पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर बाहर से ही बताया गया कि वे घीयामण्डी चले गये हैं और साढ़े आठ बजे सो जाते हैं। अतः अब मिलना ही हो तो प्रातःकाल आना। अब उनसे मिलना संभव नहीं है। परन्तु हमारा मन उनके दर्शनों को छटपटा रहा था। सो पूर्ण आत्मविश्वास से घीयामण्डी के लिए रिक्शा मोड़ लिया।
दरवाजा ठोका-आवाज लगाई। दरवाजा खुला और खोलने वाले के पीछे-पीछे उस भूतहा मकान की छत पर हम पहुँचे। हमारे इष्टदेव पूज्यवर पुरानी खाट पर, मात्र धोती पहने बैठे थे। जैसे ही आँखें मिली। हम नजदीक पहुँचे और अपनी पूजा के फूल, श्रीफल उनके श्रीचरणों में चढ़ाते, उसके पूर्व ही उन्होंने कहा कि मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ। हम अपनी सुध-बुध भूल गये और उनका अपार प्रेम पाकर अनुग्रहीत हो गये। उन्होंने पकड़कर गले लगाया और जबरन अपने पास बिठा लिया। तीनों से अलग-अलग पारिवारिक प्रश्न पूछे-समाचार जाने। जिसने हमें चमत्कृत, विस्मृत और आह्लादित कर दिया। फिर वे श्रीकृष्ण-अर्जुन और सत्यनारायण कथा के गूढ़ार्थ कहते हुए धर्म की सामयिक परिभाषा समझाने लगे। लगभग बीस मिनट बाद उन्होंने कहा, ‘‘आओ बच्चो तुम्हें माताजी के दर्शन करा दूँ।’’ उन्होंने माताजी को आवाज लगाई-कहा, ‘‘तुम्हारे बेटे आये हैं।’’
एक साँवली सी साधारण पोशाक वाली महिला सामने थी। मुख मंडल पर आभा। हमें तब तक भी नहीं मालूम था कि वे कौन थीं और पूज्यवर का उनसे क्या रिश्ता है। फिर गुरुजी ने अखण्ड ज्योति और उनकी पूजा स्थली (आसन) दिखाई, और कहा कि बेटा, अब अपने प्राचार्यजी और साथियों को लेकर प्रातः तपोभूमि आना, हम वहाँ मिलेंगे। अब हमें उन फूलों व श्रीफल और भेंट का ध्यान आया, जो अब तक हमारे हाथों में थे। संकोच के मारे हमने वे वहीं, माताजी के चरणों में रख दिये। पूज्यवर को प्रणाम किया, विदा हुए। ऐसा उच्चस्तरीय असीम प्यार पाकर हमारे वे क्षण चिरस्मरणीय हो गये। उस आनन्द की अनुभूति आज भी हृदय में अंकित है।


मेरा हनुमान आ गया।

श्री श्रीकृष्ण अग्रवाल जी, शान्तिकुञ्ज

एक बार परम वंदनीया माताजी को रक्षा कवच हेतु चाँदी के ताबीज की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने, सुबह 4.00 बजे मुझे फोन किया।
‘‘बेटा, पचास हजार चाँदी के ताबीज लाना है। तू दिल्ली चला जा। वहाँ से ले आना।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी, सोनी जी से कह देता हूँ। वह दिल्ली जाते रहते हैं, ले आयेंगे।’’
माताजी ने कहा-‘‘नहीं बेटा, मुझे जल्दी जरूरत है। इसीलिये तुझे सुबह चार बजे कह रही हूँ। तू अभी चला जा। यदि प्रणाम करने का मन हो तो मैं किवाड़ खुलवाये देती हूँ। तू प्रणाम कर जा।’’
मैंने कहा-‘‘माताजी, अगर ऐसी बात है तो मैं अभी चला जाता हूँ। तैयार तो हो ही चुका हूँ। आप मुझे फोन पर ही आशीर्वाद दे दें, क्योंकि प्रणाम करने आपके पास आऊँगा तो दरवाजा खोलने आदि में समय लगेगा। तब तक मैं बहुत आगे निकल जाऊँगा।’’
माताजी ने कहा-‘‘मेरा आशीर्वाद है बेटा, तू जा।’’ और मैं चला गया। पाँच बजे हरिद्वार से बस में बैठकर साढ़े दस बजे दिल्ली पहुँचा। घण्टे भर में खरीददारी हो गई। दोपहर 12:00 बजे बस में वापसी हेतु बैठा। शाम 5:00 बजे शान्तिकुञ्ज पहुँच गया। शाम को ही वन्दनीया माताजी को ताबीज देने पहुँचा।
माताजी जैसे मेरा इंतजार ही कर रही थीं। मुझे आते देख बोलीं, ‘‘मेरा हनुमान आ गया।’’ उनके इन प्यार भरे शब्दों को सुनते ही मेरी सारी थकान गायब हो गई। ऐसा लगा जैसे शक्ति संचार हो गया हो।
बाद में इन्हीं चाँदी के ताबीजों में रक्षा कवच भरकर व साथ में रुद्राक्ष रखकर परम वन्दनीया माताजी ने एक-एक प्रतीक अपने सभी गायत्री परिजनों को दिया था। यह अपने जाने के बाद भी उनकी रक्षा करने का आश्वासन था। जिसका लाभ गायत्री परिवार के परिजन आज भी उठा रहे हैं।


मैं, तेरी माँ हूँ

श्री प्रेम जी भाई काका जी, शान्तिकुञ्ज

सन् 83 में मैं हरिद्वार, कच्छी आश्रम आया था। वहाँ केवल मूँग पर एक माह का उपवास कर रहा था। ब्रह्मवर्चस् के श्री जेठा भाई पी. ठक्कर जी कच्छी आश्रम आते थे। एक दिन वे मुझे शान्तिकुञ्ज लाये। उन्होंने मुझे शान्तिकुञ्ज घुमाया व माताजी से भी मिलाया।
मैंने माताजी को प्रणाम किया तो उन्होंने पूछा-कोई तकलीफ है क्या? मैंने कहा-माताजी और तो कोई तकलीफ नहीं है, बस एक पीड़ा है, मेरी माँ जब मैं डेढ़ साल का था, तभी गुजर गई थी। सौतेली माँ ने बहुत सताया, अतः मैं माँ के प्यार से वंचित रहा। बस यही पीड़ा मुझे सताती है।
माताजी ने तुरन्त कहा-‘‘बेटे! मैं, तेरी माँ हूँ। तू यहाँ का हो जा। मेरा काम कर। मन से चिन्ता छोड़ दे, मैं तुझे सँभाल लूँगी। तू हमेशा मुझसे मिलते रहना।’’
उनकी वाणी में न जाने क्या जादू था, मुझे लगा, जैसे मेरी माँ मिल गई। अप्रैल, सन् 1985 में, मैं अपना सब कारोबार समेट कर हमेशा के लिये शान्तिकुञ्ज आ गया। माताजी का असीम प्यार पाया। यही मेरी अनमोल निधि है।


हमें हँसी आ गई

श्रीमती प्रेरणा बाजपेई, शान्तिकुञ्ज

अंतिम दिनों में माताजी का स्वास्थ्य बहुत खराब था। मैं, अंशू और जीजी (आद० शैल जीजी) बारी-बारी से हर समय उनकी सेवा में रहते थे। हम लोग उन्हें एक पल के लिये भी अकेला नहीं छोड़ते थे। उतने कष्ट में भी हमने देखा माताजी की ममता हर पल उमड़ती रहती थी। एक दिन अंशू मुझसे कहकर गई कि आज मैं थोड़ी देर से आऊँगी। तब तक तुम रुकना। मुझे देर तक रुका हुआ देखकर माताजी बोलीं, ‘‘तू जा। खाना खा, तुझे भूख लगी होगी।’’ मैंने कहा, ‘‘खा लूँगी माताजी, अंशू अभी आती ही होगी।’’ माताजी बोलीं, ‘‘तू जा, क्यों चिंता करती है? मैं तो हूँ।’’ जबकि माताजी स्वयं ही अत्यधिक बीमार थीं। उनकी बात सुनकर मैं और शैल जीजी जोर से हँस पड़े। पीड़ा के कारण माताजी हँस नहीं सकीं, पर वो भी मुस्कुरा दीं। किसी भी स्थिति में उनका अपना माँ का भान गया नहीं। वो जगदम्बा जो थीं।


बेटी! तू आ गई

डॉ. मंजू चोपदार, शान्तिकुञ्ज

एक दिन डाकिया एक पत्रिका लाया। जिसका नाम था ‘‘अखण्ड ज्योति’’। उसके साथ एक पत्र भी था जो घीयामण्डी, मथुरा से लिखा गया था। लिखा था, ‘‘इस पत्रिका का उड़िया में अनुवाद करो।’’ मुझे आश्चर्य हुआ। मैं वहाँ न तो किसी को जानती थी और न ही ऐसा कोई पत्र व्यवहार हुआ था, जिससे वह पत्रिका भेजते। फिर भी मैंने उत्सुकतावश उसे पढ़ा, अनुवाद किया व भेजा। उन्हें पसंद आया और क्रम चल पड़ा। इस तरह दो वर्ष अनुवाद करते व्यतीत हो गया।
दो साल तक गुरुदेव का साहित्य पढ़ने व अनुवाद करने पर, मेरा मन उनके प्रति श्रद्घा से भर गया। अतः उनसे मिलने, दर्शन करने की तीव्र इच्छा होने लगी। किन्तु उन दिनों हरिद्वार के लिये कोई सीधी गाड़ी नहीं थी, इसलिये कुछ दिन यूँ ही बीते।
एक दिन मैं अपने आप को रोक नहीं पाई। पाँच सौ रुपये रखे और घर में बिना किसी को बताये अकेले ही ट्रेन में बैठ गई। दूसरे दिन दिल्ली उतरी। कुली से पूछताछ कर रात को मसूरी एक्सप्रेस में बैठ गई। सबेरे हरिद्वार पहुँची। दिसम्बर माह की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से स्टेशन पर पहुँचते ही जम कर बारिश होने लगी। हरिद्वार में इतनी ठण्ड होगी, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। मैंने स्वेटर वगैरह भी नहीं रखा था, ठंड से काँप रही थी। तीन दिन से खाया-पिया भी नहीं था। चलने से पहले कुछ भी सोचा नहीं था। अब हरिद्वार पहुँचने के बाद सोचने लगी, अकेली आ तो गई, गुरुजी को कभी देखा भी नहीं है। पता नहीं वे मुझे पहचानेंगे कि नहीं। यदि नहीं पहचाना तो क्या होगा? आदि-आदि।
इसी प्रकार सोचते-सोचते, ताँगा पकड़ा व शान्तिकुञ्ज पहुँची। पूज्य गुरुदेव नीचे ही मिल गये। देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘बेटी! तू आ गई।’’
न जाने मुझे क्या हुआ, मैं रोने लगी। उन्होंने मुझे बहुत प्यार किया, सिर पर हाथ रखा व कहा, ‘‘अरे! तू तो ठंड से काँप रही है। जा, माँ से मिल ले।’’ मैं जब ऊपर माताजी के पास पहुँची तो गुरुजी ने माताजी से कहा-‘‘छोरी को कपड़े दो, स्वेटर भी नहीं लाई।’’ माताजी ने मुझे कपड़े दिये। स्वेटर पहनाया व स्वयं पास बिठा कर खाना खिलाया। मुझे बहुत चैन मिला और मैं सो गई। बाद में उठकर घर पर फोन किया कि मैं हरिद्वार में हूँ, तब तक घर के लोग काफी परेशान थे।
फिर मेरा मन हुआ कि आई हूँ तो एक अनुष्ठान कर लूँ। मैंने अनुष्ठान किया। मेरे मन में बार-बार विचार आने लगा कि पूर्णाहुति पर गुरुजी माता जी को क्या दूँ? मेरे पास पैसे कम थे अतः मैंने पूर्णाहुति के दिन गुरुजी माताजी की आरती उतारी, पूजा की व अपनी चूड़ी, हार और अँगूठी उतार कर दे दी। माताजी ने सिर पर हाथ रखा, बहुत प्रसन्न हुईं व मुझे प्रसाद स्वरूप मिठाई व फल दिये। रास्ते का खाना एवं टिकिट की व्यवस्था भी की। इस प्रकार गुरुदेव-माताजी से मेरा प्रथम मिलन अविस्मरणीय बन गया।


तेरे घर क्या है?

श्री अगाधू महापात्र, दन्तेवाड़ा (बस्तर)

घटना शक्तिपीठों की प्राण-प्रतिष्ठा के समय की है। दन्तेवाड़ा के प्रमुख कार्यकर्ता श्री अगाधू महापात्र जी ने उद्घाटन हेतु पत्र लिखा। तब जवाब मिला-‘‘गुरुवर दौरे पर निकल चुके हैं। अब संभव नहीं है।’’ क्षेत्रों से सम्पर्क करने पर भी वहाँ के व्यवस्थापकों ने मना कर दिया। अतः हताश होकर निर्माण कार्य शिथिल करा दिया और बुझे मन से बैठ गए।
अचानक एक दिन प्रातः आठ बजे एक कार्यकर्ता आया और कहा-‘‘कल गुरुजी यहाँ उद्घाटन के लिये आ रहे हैं, तैयारी रखें।’’ वे हर्ष विह्वल हो गए। गुरुदेव आये, उद्घाटन हुआ। वे बेचारे बहुत गरीब थे। अतः पूज्यवर व उनके सहयोगियों के भोजन का इंतजाम एक इंजीनियर साहब के घर किया गया। चाहते तो बहुत थे कि पूज्यवर को अपने घर भोजन कराते। पर केवल गुरुदेव को निमंत्रण कैसे दें? सबकी व्यवस्था कर पाना उनके लिये संभव नहीं था। पर महाकाल से कुछ छिपा रहता है भला।
पूज्यवर ने उद्घाटन के बाद कहा-‘‘अगाधू, भोजन का क्या इंतजाम है?’’ ‘‘गुरुजी, इंजीनियर साहब के घर भोजन की व्यवस्था की गई है।’’ अगाधू जी ने उत्तर दिया।
‘‘अच्छा! तेरे घर क्या है?’’ कहते हुए गुरुजी उनके घर की ओर बढ़ गए। वे चुप रह गए। कैसे कहें? इच्छा तो बहुत थी कि गुरुवर मेरे घर में भोजन करते। पर इतनी बड़ी व्यवस्था नहीं कर सकता था, क्योंकि गुरुजी के साथ कई लोग थे।
घर में माँ ने प्रसाद स्वरूप थोड़ी सी खीर बनाई थी, शायद गुरुदेव आ जायें। सो उसी को गुरुदेव को रोटी के साथ कटोरी में दे दिया। गुरुदेव बड़े प्रेम से खीर की प्रशंसा करते हुए खाये जा रहे थे। सभी कार्यकर्ता खड़े थे, व अगाधू जी भाव-विभोर थे। लीलापति की लीला देख सभी धन्य हो रहे थे। ऐसा था, उनका स्नेह। कहीं तो सभी के खाये बिना खाते नहीं, और कहीं अकेले ही भक्त का मान बढ़ा रहे थे।


वह विलक्षण प्यार की अनुभूति थी

श्री जयराम मोटलानी, शान्तिकुञ्ज

उन्हें सबका ध्यान रहता था। मैं उन दिनों नया-नया ही शान्तिकुञ्ज आया था। 1989 का गुरु पूर्णिमा पर्व था। गुरुजी का प्रणाम चल रहा था। हम कुछ भाई भोजन परोसने में तल्लीन थे। प्रणाम का क्रम पूरा होने जा रहा है, इसका हमें पता नहीं चला। तभी एक भाई हमारे पास आए और बोले, ‘‘चलो सब लोग, गुरुजी बुला रहे हैं, प्रणाम का क्रम समाप्त होने वाला है।’’
हम लोग उन भाई के साथ चल दिये। उन्होंने बताया कि जैसे ही प्रणाम का क्रम पूरा होने वाला था। पूज्यवर ने कहा, ‘‘देखना उधर कुछ बच्चे भोजन परोस रहे हैं। उन्होंने प्रणाम नहीं किया है। उन्हें बुला लाओ।’’ ऐसे थे वे दूरद्रष्टा। उनकी निगाह सब पर रहती थी।
1989 में ही पूज्य गुरुदेव ने कार्यकर्ताओं से 11 वर्ष तक घर न जाने का संकल्प पत्र भरवाया था। मैं उस समय शान्तिकुञ्ज में नहीं था। अतः संकल्प पत्र नहीं भर पाया था पर मन ही मन संकल्प कर लिया था। सन् 1992 में मैं टोली में गया था। मेरी छोटी बहन की शादी थी। घर से मेरे लिये बार-बार पत्र आ रहा था। शान्तिकुञ्ज से भी मुझे लौट आने के लिये कहा गया पर मैंने मना कर दिया कि मैं शादी में नहीं जाऊँगा।
तब माताजी ने एक भाई को भेजा व मुझे लौट आने का संदेश भिजवाया। मैं जब माताजी के पास पहुँचा तो माताजी ने पूछा, ‘‘लल्लू तेरी बहन की शादी है। जाता क्यों नहीं?’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी मैंने 11 वर्ष तक घर न जाने का संकल्प लिया है।’’ इस पर माताजी बोलीं, ‘‘संकल्प किसे दिया था, मुझे ही न। मैं ही कह रही हूँ कि जा।’’ माताजी ने मुझे 1000 रुपये दिये और कहा, ‘‘बेटा, बहन की शादी है न, यह बहन को देना।’’
उनकी लीला ही न्यारी थी। कभी तो वे घर जाने के लिये मना करतीं और कभी टोली में से भी वापिस बुला कर भेज देती थीं। इसके पहले एक बार घर वालों का बहुत दबाव पड़ रहा था तो मैंने माताजी से घर जाने के लिये पूछा, तब वे बोली थीं, ‘‘न बेटा न, घर जाओगे तो खेती-बाड़ी और काम धंधे में फँस जाओगे।’’ फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और इतना प्यार दिया, लगा कि उनसे अधिक प्यार करने वाला संसार में और कोई नहीं है। वह विलक्षण प्यार की अनुभूति थी।


वह सुअवसर मुझे फिर कभी नहीं मिला

श्रीमती रुक्मिणी माहेश्वरी, शान्तिकुञ्ज

सन् 1980 की बात है। किसी प्रकार का अभाव न होते हुए भी हमें मानसिक शान्ति नहीं थी।
तब मेरी बड़ी बहन श्रीमती सरला रानी ने गायत्री चालीसा दिया व मंत्र लेखन हेतु कहा। इससे प्रभावित होकर हम गुरुदीक्षा हेतु शान्तिकुञ्ज आये। पूज्य गुरुदेव-वंदनीया माताजी के दर्शन किए। माताजी ने भोजन प्रसाद हेतु कहा, पर एकादशी उपवास के कारण मैंने भोजन नहीं किया। केवल पतिदेव ने किया।
दूसरे दिन पुनः दर्शन, प्रणाम, यज्ञ किया। समय होने पर भोजन के लिये गये, तब माताजी भोजन से पूर्व एक रोटी व चटनी अपने कर कमलों से दिया करती थीं। दूसरे दिन भी मैंने रोटी व चटनी नहीं ली, क्योंकि प्रदोष व्रत था। माताजी ने कहा-‘‘छोरी! तू भी थाली ले ले, प्रसाद खा ले।’’ लेकिन मैं नहीं बैठी।
दोपहर में माताजी से वापस जाने की अनुमति लेने गये, तब उन्होंने कहा, ‘‘यहाँ तो तूने भोजन नहीं किया। अब तुझे बाजार में जाकर दस रुपये का कुछ खिलायेगा। बेटा! उपवास का अर्थ कुछ त्याग करना होता है।’’
माताजी की बात का गूढ़ अर्थ मैं नहीं समझ पाई। हम हरिद्वार चले गये। वहाँ जो हमने फल मिठाई लिये, वे ठीक दस रुपये के थे। अब तो माताजी के शब्द मेरे कानों में गूँजने लगे तथा पश्चात्ताप के आँसू भी बहने लगे।
अगले माह पुनः शान्तिकुञ्ज आये। गुरुदेव ने दीक्षा संस्कार कराया, किन्तु तब तक माताजी ने रोटी चटनी देना बंद कर दिया था। माताजी के हाथ का वैसा प्रसाद पाने का सुअवसर मुझे फिर कभी नहीं मिल पाया। मैं इस बात को पूर्णतः यहाँ आ जाने के बाद समझ पाई कि माताजी के उस प्रसाद में उनका कितना प्यार भरा था। उनके तप का वह महाप्रसाद था, जिसे मैंने ग्रहण नहीं किया, इसका पश्चात्ताप मुझे आज भी कम नहीं है।


डॉ. अमल कुमार दत्ता

मैं, अक्सर गुरुदेव से आध्यात्मिक प्रगति के लिये प्रश्न पूछता रहता था।
मैंने पूछा, ‘‘गुरुदेव! आप सदैव विभिन्न प्रकार के संकल्प कराते रहते हैं, यदि इस बीच किसी का शरीर न रहा व संकल्प अधूरा रहा, तब क्या होगा?’’
गुरुदेवः-बेटे! शान्तिकुञ्ज एक ऐसा स्थान है, जहाँ जो भी सत्संकल्प किये जायेंगे, पूर्ण होंगे। बस, आपका पूर्ण प्रयास होना चाहिए। यदि संकल्प के बीच शरीर न भी रहा तो भी मैं उसे पूर्ण कर दूँगा।
प्रश्नः-और यदि शरीर रहते संकल्प टूट जाय, तब क्या करें?
गुरुदेवः-फिर वही संकल्प करना चाहिए।
प्रश्नः-साधारण व्यक्ति जिसमें साधारण संस्कार हैं। हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या करें?
गुरुदेवः-सतत सम्बन्ध, सतत प्रयास।
प्रश्नः-आत्मा की आवाज कैसे सुनी जाय?
गुरुदेवः-अपना परिष्कार कर, श्रद्धा-विश्वास से, जीवन का आदर्श लक्ष्य तथा आत्मीयता का विस्तार करके सुनी जा सकती है।
प्रश्नः-दुख कैसे दूर किए जायें?
गुरुदेवः-अज्ञान, अभाव और आसक्ति को हटाकर दुख दूर किए जा सकते हैं।


2. यह तो गूँगे का गुड़ है

वे परिजन जो पूज्य गुरुदेव के साथ मथुरा से जुड़े और फिर उनके बुलाने पर शान्तिकुञ्ज भी आ गये। यहीं के हो कर रह गये। जिन्हें गुुरुदेव ने नींव के पत्थर कहा है उनके पास इतने संस्मरण हैं कि यदि सबको प्रकाशित किया जाय तो वाङ्मय के 108 खण्ड भी कम पड़ जायेंगे। उनके निजी जीवन के अनुभवों को तो वे प्रकट भी नहीं करना चाहते। यदि कभी करते भी हैं तो उन्हें प्रकाशन में लाना नहीं चाहते। वे उन क्षणों को याद कर भाव-विभोर होकर बस यही कहते हैं, ‘‘यह तो गूँगे का गुड़ है। जो स्वाद हमने चखा है, उसे बयान करने के लिये शब्द नहीं हैं। बेटा! हमारा जीवन सफल हो गया। हम तो जन्म-जन्मांतरों के लिये अपने गुरु के ऋणी हो गये हैं। हर जन्म उनके साथ रहें, बस यही तमन्ना है।’’
एक बात जो सब कोई कहते हैं, वह यह कि गुरुदेव का जीवन-व्यवहार अति सरल और सादगी भरा था। उनके सादे वेश को देखकर पहली नज़र में तो हर कोई आश्चर्य से भर जाता था कि यही वे उच्च कोटि के संत हैं जिनसे मैं मिलने आया हूँ। संत इतने सरल भी होते हैं। जाने कौन सा चुंबक था, क्या आकर्षण था उनके भीतर कि फिर उस क्षण भर की मुलाकात में ही वह उनका होकर रह जाता था।
सादगी के आवरण में वे स्वयं के अलौकिक स्वरूप को छिपाये रहते थे। उनके साथ रहते हुए हमने अपनी आराध्य सत्ता के विभिन्न रूपों का दर्शन किया है। कभी-कभी हँसी-मजाक करते हुए या सहज बातचीत के क्रम में वे अपने-आप को प्रकट भी करते थे। अचानक कुछ ऐसे वाक्य बोल जाते कि हमें लगता कि कहीं वे अवतारी चेतना तो नहीं, परंतु जब तक हमारा ध्यान उनके संकेतों की ओर जाता, वे बात पलट देते थे।
जब कभी किसी परिजन पर कष्ट पड़ा या हृदय से किसी ने उन्हें पुकारा तब उन्होंने उसे अपने भगवत् स्वरूप के दर्शन भी कराये हैं। यहाँ, जो परिजन उनके साथ लंबे समय तक रहे हैं, उनमें से कुछ थोड़े से परिजनों के थोड़े से संस्मरण दिये जा रहे हैं। शेष परिजनों के संस्मरण पाठकगण अगले संस्करण में पढ़ सकेंगे।


श्री देवराम पटेल

(श्री देवराम पटेल जी 1971 में मथुरा के विदाई समारोह के बाद पूज्य गुरुदेव के आदेशानुसार उनके साथ ही शान्तिकुञ्ज आ गये थे। तब से वे सपरिवार शान्तिकुञ्ज में ही स्थाई रूप से निवास कर रहे हैं। प्रस्तुत हैं,उनके संस्मरण उन्हीं के शब्दों में)

गुरुजी जब युग निर्माण की नींव रख रहे थे, तब उन्होंने स्वयं को सरलता व सादगी के आवरण में इस प्रकार छिपा कर रखा कि उनके साथ रहने वाला भी जान नहीं पाया कि वह साक्षात् भगवद् चेतना के साथ है। और जब लोगों ने उन्हें पहचानना प्रारंभ किया तब उन्होंने स्वयं को एक कमरे में कैद कर लिया। अपने जीवन काल के अंतिम कुछ वर्षों में गुरुजी ने सबसे मिलना छोड़ दिया था।
श्री देवराम पटेल जी बताते हैं कि मथुरा में, मैं जब शुरू-शुरू में आया तो एक दिन मैंने उनके पैर पकड़ लिये। मुझे पता नहीं चला कि क्या हुआ। मैं बहुत देर तक उनके पैर पकड़े रहा। जब बहुत देर हो गई तो गुरुजी बोले अब छोड़ दे और मेरे कंधे पकड़कर मुझे उठाया। फिर बोले, अब तो आ गये, अब कहाँ जाओगे? बात साधारण थी पर अलौकिक थी, क्योंकि उसके बाद मैं उन्हीं का हो गया। साधारण में भी कितनी असाधारण बात कह दी थी उन्होंने, इसका रहस्य तो वे ही जानते थे। 1969 में मैंने उनके दर्शन किये, 1969 में ही मैंने मथुरा में नौ दिन का सत्र किया। 1970 में तीन माह का समयदान और सन् 1971 में मथुरा से विदाई के समय गुरुजी के साथ मैं शान्तिकुञ्ज आ गया। शान्तिकुञ्ज आया तो फिर यहीं का हो गया।


शान्तिकुञ्ज का निर्माण

पटेल जी बताते हैं, गुरुदेव के साथ हरिद्वार आने वाले व शान्तिकुञ्ज के निर्माण कार्य की देखरेख करने वाले पहले कार्यकर्ता श्री रामचंद्र जी थे। सन् 1968 में रामचंद्र जी मथुरा आये थे। उसी समय गुरुजी ने हरिद्वार में शान्तिकुञ्ज के लिये जमीन ली थी। उन्होंने रामचंद्र जी से कहा, ‘‘तुम हमारे काम के लिये शान्तिकुञ्ज चलो।’’ रामचंद्र जी बोले, ‘‘गुरुजी, वहाँ रहने की कुछ व्यवस्था हो जाये, तब तो मैं जाऊँ।’’ तब गुुरुजी बोले, ‘‘बनने पर तो बहुत लोग पहुँच जायेंगे। तुम बनाने में हमारा सहयोग करो।’’
रामचंद्र जी गुरुजी के साथ हरिद्वार आ गये। यहाँ आकर एक झोंपड़ी बनाई गई। जिसमें रामचंद्र जी रहने लगे। उसमें केवल एक खाट डालने जितनी ही जगह थी। उन दिनों गुरुजी मथुरा में ही रहते थे। गुरुजी के जीवन में इतनी सादगी थी कि शान्तिकुञ्ज के निर्माण कार्य की देखरेख करने जब भी आते उसी झोंपड़ी में उनके लिये खाना बनता। रामचंद्र जी बाहर खाट बिछा देते। गुरुजी वहीं बैठ कर खना खा लेते। सोने के लिये सप्तऋषि आश्रम चले जाते।
एक बार रामचंद्र जी ने कहा, ‘‘गुरुजी, कम से कम दो खाट पड़ने लायक जगह तो बना दो। आप बाहर बैठते हैं तो अच्छा नहीं लगता। गुरुजी बोले, ‘‘कैदी जेल में रहता है न, तो इसको जेल मान लो।’’ इस प्रकार कितनी सरलता से उन्होंने सामंजस्य बिठा कर चलने की बात समझा दी।


स्वयं के प्रति कठोर

गुरुजी अपने निजी खर्च के संबंध में बड़े कठोर रहते थे। यह सन् 1968-69 की बात है। शान्तिकुञ्ज अभी बन ही रहा था। चारों ओर जंगल था। ईंट लाने, ठेकेदार से बात करने व अन्य बहुत से कार्यों के लिये शहर जाना पड़ता था। उन दिनों इस क्षेत्र में आवागमन का कोई साधन नहीं था। गुरुजी के मन में आया एक साइकिल खरीद लेते हैं। अपने साथ ज्यादा पैसा वे लाये नहीं थे अतः आधा पैसा स्वयं दिया व आधा पैसा रामचंद्र जी से लिया और साइकिल खरीद ली गई। उसी साइकिल से रामचंद्र जी के साथ साइकिल पर पीछे बैठ कर ईंट भट्ठे वाले के पास चले जाते।
जहाँ भी जाते सामान नकद ही खरीदते थे उधार कभी नहीं करते थे, न ही किसी से अनावश्यक सेवा ही लेते। एक बार एक भट्ठे वाले के पास ईंट का आर्डर दिया और पैसा भी दिया। भट्ठे वाले ने कहा, ‘‘हम आपको स्कूटर पर छोड़ देते हैं।’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘नहीं, नहीं, हमारी तो रामचंद्र जी की साइकिल ही ठीक है।’’
माताजी भी अपने लिये खर्च के मामले में बहुत ही कठोर थीं। अन्य सामान के विषय में भी समझातीं, ‘‘देखो, कम कीमत में बढ़िया सामान होना चाहिये। दो-चार दुकान घूमो और दाम पूछो व सामान देखो। जहाँ कम दाम में बढ़िया सामान मिले, वहाँ से लो, क्योंकि नकद ले रहे हो।’’
प्रारंभ में जब बगीचा लगाया गया तो गुरुजी रामचंद्र जी के साथ स्वयं सब नर्सरियों में जाते थे। वहाँ से पौध आदि खरीद कर लाते थे। बगीचा लगाने में उनकी मदद भी करते। स्वयं कुदाली लेकर गड्ढे भी बनाते। बारिश के दिनों में नेकर पहन लेते और सिर पर पॉलीथीन की थैली लपेट लेते। वे गड्ढे खोदते जाते और रामचंद्र जी बताया करते थे कि मैं, उनमें पौधे रोपता जाता।
गुरुजी का व्यवहार इतना सरल था कि उन्हें देखकर कोई समझ ही नहीं पाता था कि वे इतने बड़े महापुरुष हैं। एक बार वे नीचे किसी काम में व्यस्त थे। उन्हें भूख लगी। ठण्ड के दिन थे। बगीचे में टमाटर, मूली आदि लगा था। रामचंद्र जी पौधों को पानी दे रहे थे। उस समय यहाँ दो-चार ही परिवार थे। कोई मूली को पूछता तक नहीं था।
गुरुजी ने दो मूली उखाड़ी। रामचंद्र जी से उसे धुलवाया, कटवाया और बोले, ‘‘जाओ, माताजी से नमक ले आओ’’ और उन्होंने वहीं बैठकर मूली खा ली और बोले ‘‘नाश्ता हो गया, चलो काम करते हैं।’’


समय का सदुपयोग

गुरुजी समय को इतना महत्त्व देते थे कि किसी कारणवश एक क्षण भी यदि खाली हो तो उसके सदुपयोग की बात सोचते। एक दिन एक सज्जन उनसे मिलने आने वाले थे। उनको देर हो गई। गुरुजी उनका इंतजार कर रहे थे। उन्होंने सोचा, कोई और काम नहीं है तो चलो, भोजन ही कर लेते हैं। उन्होंने माताजी को फोन किया ‘‘माताजी, भोजन करने आ जाऊँ।’’ माताजी बोलीं, ‘‘अभी तो एक ही बजा है!’’ गुरुजी 3ः00-4ः00 बजे तक भोजन करते थे। बोले, ‘‘अच्छा! अभी एक ही बजा है क्या? अच्छा! अच्छा! ठीक है।’’
हम 10-11 बजे के लगभग कभी गुरुजी के पास जाते तो कभी-कभी वे लेख लिख रहे होते। हम चुप-चाप जाकर खड़े हो जाते और उनका लेखन पूरा होने का इंतजार करते। गुरुजी लेख पूरा हो जाने पर जब नज़र उठा कर मुझे खड़ा देखते तो कहते, ‘‘अरे! कब से खड़े हो? बोल देते! तुम्हारा इतना समय बरबाद नहीं होता।’’ गुरुजी, ‘‘आप लिख रहे थे। आपको डिस्टर्ब होता।’’ ‘‘अरे! मैं बाद में भी लिख लेता।’’ इस प्रकार वे दूसरों के समय को भी महत्त्व देते थे।


कार्य की तल्लीनता

काम की धुन इतनी रहती थी कि एक बार सुबह-सुबह चार बजे ही सबको बुला लिया। हम सब आँख मलते हुए भागे-भागे गुरुजी के पास पहुँचे। जब कभी कोई महत्त्वपूर्ण योजना उनके मन में आती तो वे समय का इंतजार नहीं करते थे। कभी भी बुला लेते थे, फिर चाहे सुबह के चार ही क्यों न बजे हों?
काम के आगे भोजन को भी उन्होंने कभी महत्त्व नहीं दिया। हम कभी भी पहुँच जाते थे। कभी-कभी समय का ध्यान नहीं रहता था, तो ऐसे समय भी पहुँच जाते, जब वे भोजन कर रहे होते। भोजन करना बीच में ही छोड़कर पूछते, ‘‘बताओ क्या काम है?’’ मुझे अक्सर काम के ही सिलसिले में जाना पड़ता था। मैं चुप रहता, नहीं बताता तो भी खाना बीच में ही छोड़कर उठ जाते। कहते, ‘‘अच्छा चलो।’’ माताजी कभी-कभी स्नेह भरी नाराजगी प्रकट करतीं ‘‘दुष्ट लोग, आचार्य जी को भोजन भी करने नहीं देते।’’
भोजन ठीक से नहीं करने पर काम करते-करते उन्हें भूख भी लग जाती थी। माताजी उन्हें भुने चने दे देती थीं। कभी भूख लगने पर उन्हें ही मुट्ठी भर खा लेते।
उन दिनों गुड़िया दीदी, (गुरुजी की पोती) यहीं रहती थी। वह गुरुजी के आस पास डोलती रहती, कहती ‘‘दादाजी, चीज दो।’’ गुरुजी कहते, ‘‘जा, माताजी से ले ले।’’ वह कहती, ‘‘दादाजी, आपके पास चने हैं न।’’ गुरुजी हँसते और ‘‘अच्छा, अच्छा! ले लो,’’ कहकर उसे दे देते।
गुरुजी बड़े व्यावहारिक थे। एक दिन गुरुजी की खटिया के पास एक साँप आ गया और फन फैला कर बैठ गया। फुफकारने लगा। गुरुजी खटिया पर लेटे थे। जैसे ही उन्होंने देखा, तत्काल कहा, ‘‘ये काल है, मारो इसे। किसी को काट देगा तो?’’ हम सब खड़े थे। सोच रहे थे, कैसे मारें? गुरुजी बोले ‘‘अच्छा! तुम लोग नहीं मारते। लाओ, मैं मार देता हूँ।’’ उस समय जाँजगीर चाँपा के एक भाई, श्री छेदी लाल साहू जी आये हुए थे। वे तुरंत लाठी लेकर आये और उस साँप को मार दिया।


दिव्य शक्ति सम्पन्न गुरुदेव

गुरुजी दिव्य शक्तियों से सम्पन्न थे, पर उनका व्यवहार इतना सरल था कि जैसे बड़े साधारण हों। वे सदा स्वयं को छिपाये रहे। इसीलिये कहते भी थे, ‘‘मुझे मेरा काम कर लेने दो, जिसके लिये मैं आया हूँ। अभी लोग जान जायेंगे, तो हर की पैड़ी तक लाइन लग जायेगी। इसलिये तुम लोग मुझे चुप-चाप काम कर लेने दो। मेरे जाने के बाद लोग मुझे जानेंगे।’’
हम लोग कभी-कभी काम की अधिकता के कारण गुरुजी से मिलने नहीं जाते थे। सोचते थे कि काम तो गुरुजी का ही कर रहे हैं। व्यर्थ उनका भी और अपना भी समय क्यों खर्च करें। तब कभी-कभी गुरुजी कहते थे, तुम लोग अभी आ नहीं रहे हो। आगे चलकर मेरी चरण पादुका पर प्रणाम करने के लिये भी धक्के खाओगे, इतनी लम्बी लाईन लगी रहा करेगी।

मेरा परिवार गुरुजी से जुड़ा तो बहुत पहले से था पर मैं पहली बार जनवरी 1969, में बिलासपुर में गुरुजी से मिला। गुरुजी वहाँ एक सभा में आये थे। उस समय बिलासपुर में ‘ग्रेजुएट कान्फ्रेंस, ठाकुर छेदीलाल सहकारी सभा कक्ष’ में उन्होंने कहा था, ‘‘यह स्थान नोट कर लो। मेरा यह भाषण नोट कर लो और समय नोट कर लो। ये भाषण मैं कहाँ-कहाँ कर रहा हूँ, पता लगा लेना।’’ उस सभा में बिलासपुर के कर्मठ कार्यकर्ता श्री रामाधार विश्वकर्मा जी व उमाशंकर चतुर्वेदी जी भी थे। इन दोनों भाईयों ने बाद में पता लगाया था। गुरुजी का वह प्रवचन उसी समय में पाँच जगहों में हुआ था। जिसमें से एक कलकत्ता, एक ग्वालियर में हुआ था।

एक बार गुरुजी ने पत्र व्यवहार के क्रम में बुलाया। एक चिट्ठी दिखाते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘इसे जानते हो?’’ उस समय चौके में टीकमगढ़ की एक लड़की रहती थी, सुधा श्रीवास्तव, उसके पिता हरी राम श्रीवास्तव जी का पत्र था। मैंने कहा, ‘‘जानता हूँ गुरुजी, सुधा के पिता जी हैं।’’ पत्र में समाचार लिखा था, उन्हें पुत्र प्रप्ति हुई है। गुरुजी बताने लगे, ‘‘यह साल भर पहले आया था और मेरे साथ घूमने गया था। मैंने इसे खोद-खोद कर पूछा तब इसने बस इतना ही बताया कि मेरी छः लड़कियाँ हैं।’’ (गुरुजी हर मिलने वाले से उसका हाल-चाल, कष्ट-कठिनाई पूछते थे।)
फिर बोले, ‘‘बेटा, इसे माताजी की तरफ से चिट्ठी लिख देना कि तुम्हारी सारी लड़कियों की शादी हम अच्छे घरों में कराएँगे और तुम्हारा लड़का संस्कारवान् होगा।’’

गुरुजी अपने संकल्पों के बड़े पक्के थे। जो एक बार निश्चय कर लिया है वह फिर टूट नहीं सकता। मथुरा छोड़ने पर उन्होंने अपने निजी परिवार के कार्यों से मुक्त हो जाने का संकल्प ले लिया था। एक बार माताजी बीमार थीं। सतीश भाई साहब को चिट्ठी लिखनी थी। माताजी जिस भाई के द्वारा उन्हें पत्र लिखवाती थीं, वे किसी कारणवश अपने घर गये हुये थे। गुरुजी बोले चिट्ठी पटेल लिख देगा। माताजी बोलीं अगर देवराम लिख देगा तो सतीश यह समझेगा कि माताजी बहुत बीमार हैं। वह परेशान हो जायेगा, इसलिये लाइये मैं ही अपने हाथ से धीरे-धीरे लिख देती हूँ। माताजी ने ही चिट्ठी लिखी किन्तु गुरुजी ने नहीं लिखी। कारण, वे मथुरा से विदाई ले चुके थे। अपने नियमों के प्रति बहुत कठोर थे। परिवार से विदाई ले ली, तो ले ली। सारा विश्व ही मेरा परिवार है। फिर उतने छोटे परिवार को ही कैसा महत्त्व?


शान्तिकुञ्ज की महत्ता

गुरुजी शान्तिकुञ्ज में ठहरने, विशेषतः रात रुकने को बहुत महत्त्व देते थे। माताजी अपनी गोष्ठियों में भी कहती थीं, ‘‘बेटा, रात को जब तुम लोग सो जाते हो, तब हम और गुरुजी एक-एक के सिरहाने जाते हैं और तुम लोगों की ब्रेन वाशिंग करते हैं। जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कारों को साफ करते हैं।’’
ठहरने के संदर्भ में गुरुजी चाहते थे कि परिजन शान्तिकुञ्ज में ही ठहरें भले ही थोड़ी-बहुत असुविधा होती हो पर आश्रम के वातावरण में ही रहें। एक बार श्री रामाधार जी शान्तिकुञ्ज आये। उन दिनों शान्तिकुञ्ज बहुत छोटा था। रामाधार जी परिवार समेत आये थे व परमार्थ आश्रम में ठहरे थे। गुरुजी ने पूछा, ‘‘बेटा कहाँ ठहरा है?’’ वह बोले, ‘‘गुरुजी, यहाँ दिक्कत होती इसलिये परमार्थ आश्रम में ठहरा हूँ।’’ गुरुजी ने तुरंत डॉक्टर साहब को बुलाया और बोले, ‘‘प्रणव, इन बच्चों के लिये शान्तिकुञ्ज में जगह नहीं है, इसलिये तुम लोग भी बाहर ही ठहरो।’’ फिर उन्हें बोले, ‘‘जाओ तुरंत अपना सामान लाओ और यहीं ठहरो। जैसी भी जगह मिले।’’
उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। वे तुरंत गये, अपना सामान ले आये और शान्तिकुञ्ज में ही रुके।


गुरुजी प्रेरणाप्रद चीजों को सदा महत्त्व देते थे। गाँधी पिक्चर तब नई-नई आई थी। हरिद्वार में भी दिखाई जा रही थी। उस समय गुरुजी ने सबको 2-2 रुपये दिये थे और गाँधी पिक्चर देखने के लिये कहा था।
इसी प्रकार तब स्लाईड प्रोजेक्टर अभी नया-नया ही आया था। उन्होंने मिशन के प्रचार प्रसार के लिये स्लाईड बनवाईं और बाकायदा उसका प्रशिक्षण दिला कर परिजनों को प्रचार-प्रसार हेतु तैयार व प्रोत्साहित किया।


स्नेह सलिला माताजी

माताजी, गुरुजी की छाया के रूप में रहीं। उन्हें लोग जान भी नहीं पाये। वे गुरुजी की आड़ में स्वयं को छिपाये रहीं। लोगों ने उनका स्वरुप तो तब जाना जब वे अश्वमेध यज्ञों में गईं। लोगों ने माताजी के प्रवचन सुने, उनके आशीर्वादों से निहाल हुए, तब लोग उन्हें जान पाये। गुरुजी का संदेश देश-विदेश में फैला कर, थोड़े ही समय में अपना स्वरूप दिखा कर जल्दी ही उन्होंने अपनी लीला समेट ली।


माताजी का पत्राचार

माताजी के पास हजारों चिट्ठियाँ आती थीं। सबको पढ़ना, जवाब देना कठिन काम था, पर वे बड़ी सहजता से करती चली जाती थीं। प्रारंभ के दिनों में हमें भी एक दिन में 80-90 पत्र लिखने पड़ते थे। उतनी चिट्ठी पढ़ना और जवाब देना सरल काम नहीं था। हम कैसे करते थे, यह हमें भी नहीं पता। ऐसा लगता था जैसे कोई दिमाग में बैठ कर लिखा रहा है। कभी-कभार एक-आध चिट्ठी का जवाब हम पढ़ लेते तो स्वयं आश्चर्य करते थे। ऐसी विलक्षण शक्ति थी माताजी की।
कभी-कभी माताजी बोलतीं, तुम लोग सोचते हो बढ़िया चिट्ठी से बढ़िया आशीर्वाद मिलेगा। हम आशीर्वाद देंगे, तभी तो आशीर्वाद मिलेगा? कलेक्टर की चिट्ठी कलर्क लिखता है, पर जब तक उस पर कलेक्टर के दस्तखत नहीं होते, उसकी क्या कीमत? जब हम दस्तखत करेंगे, तभी तो उसकी कीमत होगी।


वह तो बस माँ थीं

वात्सल्य इतना था कि अपनी माँ भी क्या ध्यान रखती होगी? उन दिनों माताजी के पास ऊपर चौके में ही चाय बनती थी। हम पहले चाय नहीं पीते थे। यहाँ आये तो माताजी के दर्शन के पश्चात् चुप-चाप नीचे उतरने लगते तो माताजी जाने कैसे देख लेती थी। तुरंत बोलतीं, छोरा भाग रहा है, बुला। फिर पूछतीं चाय नहीं पी? यहाँ ठण्ड है, चाय नहीं पियेगा तो मरेगा क्या? चल! चाय पी।
कभी-कभी परिजनों को डाँट कर भी भोजन करा देतीं। एक बार एक परिजन श्री एस. एन. सिंह जी आये। वे बोले, ‘‘माताजी मैं तो रोटी ही खाता हूँ। चावल मुझे नुक्सान करता है।’’ इस पर माताजी बोलीं, ‘‘देख बेटा, इसे चावल ही चावल खिलाना। देखती हूँ, कैसे नुक्सान करता है?’’ और वास्तव में उन्हें कुछ नहीं हुआ।
प्राण प्रत्यावर्तन शिविर में आखिरी दिन सबको पूड़ी-कचौड़ी खिलाती थीं। साथ में रास्ते के लिये बाँध कर भी देती थीं। कहतीं, ‘‘इतने दिन उपवास किया है, मन ललचायेगा, पर तुम लोग बाहर की चीज मत खाना। इसे ले जाओ, रास्ते में यही खाना। घर पहुँचकर घर का बना खाना ही खाना।’’

श्री देवराम पटेल जी की पत्नी बताती हैं कि जब वे सन्1971 में शान्तिकुञ्ज आईं तो उन दिनों में यहाँ चारों ओर जंगल था। कोई विशेष आबादी भी नहीं थी। कुछ भी सामान लाना हो तो शहर जाना पड़ता था। मैं भरा-पूरा घर छोड़ कर आई थी, मेरी भाषा भी थोड़ी अलग थी। सो मुझे घर की बहुत याद आती थी। पर माताजी तो माताजी, वह सबके मन की बात जान जाती थीं। एक दिन मुझे बुलाया और बोलीं, ‘‘घर की याद आती है? माँ की याद आती है? मैं हूँ न तेरी माँ। तू मेरे पास आ जाया कर। मैं तुम्हारी माँ, बाप सब हूँ। लो पानी पियो।’’ उन्होंने मुझे अपने हाथ से पानी पिलाया। मेरा मन भर आया, पर उस दिन के बाद मुझे कभी घर की याद नहीं आई। लगा ही नहीं कि मैं घर से कहीं बाहर हूँ।
सुबह माताजी के साथ आरती करते। भजन गाते। माताजी कुछ न कुछ बात व चुटकुला आदि सुनाकर खूब हँसाती। एक बार बोलीं, ‘‘चलो छोरियो! चूल्हा बनाते हैं।’’ गये तो देखा, माताजी ने खूब सुंदर मिट्टी का चूल्हा बना कर रखा था। क्योंकि हम छत्तीसगढ़ के हैं, सो हमें रोटी बनानी नहीं आती थी। माताजी ने अपने हाथ से हमें रोटी बेलना सिखाया। कहतीं, ‘‘आ छोरी! तुझे रोटी बनाना सिखाऊँ।’’ बाजरे की रोटी, मक्के की रोटी, पूरी, कचौरी, माताजी सब कुछ बनाना जानती थीं। रोटी तो वो फटाफट हाथ से ही बनाती थीं। उसके लिये उन्हें चकले-बेलन की जरूरत नहीं पड़ती थी।

माताजी सब काम जानती थीं। शायद ही कोई काम ऐसा होगा, जो उनसे छूटा हो। गाना-बजाना, लिखना-पढ़ना, सिलना आदि वे सब जानती थीं। प्रारंभ के एक दो साल तो ऐसे कटे, जैसे हम माताजी के साथ पिकनिक मना रहे हों। माताजी दिन भर हँसते-हँसाते किसी न किसी काम में व्यस्त रखती थीं। दोपहर के समय खाना बनाना व गाना-बजाना सब होता। माताजी ढोलक बहुत बढ़िया बजाती थीं।
वे हारमोनियम लेकर बैठतीं तो किसी भी गीत की धुन तुरंत निकाल लेती थीं। माताजी का प्रिय गीत था, ‘‘मैंने तेरी गीता गाई। टूटी फूटी भाषा में भर, जग के कानों तक पहुँचाई। .....गंगा से गंगा जल लेकर, गंगा को जलधार चढ़ाई।’’ उनके पास से हम लोग काम करके, नाच-गाकर आनंदित होकर लौटते। वे सदा कुछ न कुछ नया सिखाती रहतीं।

उनकी दृष्टि हर चीज पर रहती। एक बार बोलीं, ‘‘छोरी तेरा ब्लाऊज पुराना हो रहा है।’’ फिर उन्होंने कपड़ा निकाला और बोलीं, ‘‘चल, मैं तुझे ब्लाऊज सिलना सिखाती हूँ।’’ उन्होंने दराती (हसिया) से ब्लाऊज काटा। मैं देख कर हैरान रह गई। सूई-धागा लेकर हम लोगों को ब्लाऊज-पेटीकोट सिलना सिखाया। स्वयं के लिये भी सिला। हम सबने सूई-धागे से ब्लाऊज-पेटीकोट सिल कर पहने।
माताजी, हम लोगों की चूड़ी, बिंदी, साड़ी-ब्लाऊज आदि हर छोटी-बड़ी चीज का ध्यान रखती थीं। कभी-कभी बुलातीं और पूछतीं, कोई तकलीफ तो नहीं है, फिर लड्डू, मिठाई, चूड़ी-बिन्दी, साड़ी आदि देकर झोली भर कर भेजतीं। जाने कौन सा ऐसा अक्षय भण्डार था उनके पास। फिर धीरे-धीरे कन्या शिविर आदि शुरू हुए तो माताजी की व्यस्तता बढ़ती गई। उतनी व्यस्तता में भी वे एक-एक का ध्यान रखती थीं। कभी भी बुलातीं, ‘‘उस छोरी के पास साड़ी नहीं है,’’ कहकर, बुलाकर साड़ी देतीं। उसके पास अमुक चीज नहीं है, कहकर कुछ देतीं। इस प्रकार सबकी छोटी से छोटी आवश्यकता का भी वह ध्यान रखती थीं। इतना ध्यान तो साक्षात् जगदम्बा ही रख सकती हैं। 6
कभी-कभी हम लोग मिलने जाते, तब माताजी लिख रही होतीं। वे हम लोगों से बात भी करती जातीं और लिखती भी जातीं। सब हाल-चाल पूछतीं और एक दो बात कहकर खूब हँसाती भी, पर हमने देखा इतना सब करते हुए भी कलम उनकी बराबर चलती रहती। बात करते-करते भी कलम रुकती नहीं थी। जैसे दोनों अलग-अलग दिमाग से किये जा रहे हों।


तू तो जा नहीं सकती

सन् 1986 में मैं बहुत बीमार पड़ी। मुझे लकवा हो गया था। मैं बिल्कुल बिस्तर से लग गई। मेरा उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना आदि सब बंद हो गया था। डॉक्टर बोले कि अब यह नहीं बचेंगी। एक माह से भी अधिक समय हो गया था। मैं बिस्तर से उठ भी नहीं सकती थी। सबने मेरे बचने की उम्मीद छोड़ दी थी। तब बच्चे लोग मुझे गोद में उठाकर माताजी के दर्शनों के लिये ले गये। माताजी ने मुझे देखा और कहा, ‘‘तुझे, क्या हुआ है छोरी?’’ ऐसा कहकर, एक थपकी टाँग पर, एक कंधे पर और एक पीठ पर दी। बस तीन थपकी दीं और बोलीं, ‘‘बेटी, क्या हो गया? चिंता मत कर..., ठीक हो जाएगी। बिल्कुल ठीक हो जाएगी... बिल्कुल ठीक हो जाएगी... बिल्कुल ठीक हो जाएगी।’’ तीन बार कहा फिर बोलीं, ‘‘तू तो जा नहीं सकती। तेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। चिंता मत कर, तू ठीक हो जाएगी।’’
माताजी के आशीर्वाद से मैं अगले ही दिन न केवल बिस्तर से उठकर खड़ी हुई, बल्कि स्वयं चल कर शौचालय तक गई। मुझे चलते देखकर बच्चे चिल्लाने लगे, ‘‘माँ, चल मत, तू गिर जाएगी।’’
उन दिनों हम ऋतंभरा भवन में रहते थे। ‘‘मैं चल रही हूँ!’’ सुनकर पास-पड़ौस वाले सब कार्यकर्ता इकट्ठे हो गए। सब मुझे चलते हुए देखकर हैरान थे। जिसने भी सुना, सब काम छोड़कर मुझे देखने दौड़ पड़ा। मुझे आज भी वो दृश्य याद है, जब मुझे देखने के लिये मेला जैसा लग गया था। उस दिन सबने माताजी की शक्ति को अपनी आँखों से देखा था। उस भगवती की लीला को जाना था।
उस दिन के बाद से आज तक 25 वर्ष (1986-2011) हो गये, मैं पूर्णतः स्वस्थ हूँ।


श्रीमती यशोदा शर्मा

(श्री गौरीशंकर शर्मा जी 1970 में भीलवाड़ा में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। यशोदा बहिन ने 1975 में शान्तिकुञ्ज में कन्या सत्र किया। कालांतर में श्री गौरी शंकर शर्मा जी एवं श्रीमती यशोदा शर्मा 1982 में पूज्य गुरुदेव के बुलाने पर स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये। वर्तमान में श्री गौरीशंकर शर्मा जी, शान्तिकुञ्ज में व्यवस्थापक के रूप में कार्यरत हैं।)


लाली! खाना क्यों नहीं खाया?

मैं जब कन्या सत्र में शान्तिकुञ्ज आई थी तो हमारा ग्रुप सबसे बड़ा ग्रुप था। उस सत्र में 250 लड़कियाँ थीं। कुछ विवाहित भी थीं; पर सबके लिये एक सा नियम था। हम लोगों का बैच सर्वाधिक शरारती भी गिना गया।
हमारा सत्र शुरु हुए 5-6 दिन ही हुए थे। हम लोग देखते थे कि कभी-कभी कुछ सीनियर लड़कियाँ घण्टी लगने से पहले ही खाना खा लेती हैं। उस दिन हमें भी थोड़ा जल्दी भूख लग आई। हमारे साथ की बहनें भी बोलीं कि आज अभी से भूख लग रही है। हमने सोचा, चलो आज हम भी जल्दी भोजन कर लेते हैं।
हम चार लोग ऊपर भोजनालय में गए और थाली और पानी का गिलास लेकर बैठ गए। भारती अम्मा और सोमा अम्मा रोटी सेक रही थीं। हमें यूँ बैठे देखकर वे आपस में इशारा कर मुस्कुराईं; पर बोलीं कुछ नहीं। हमें लगा कि शायद हमसे कुछ गल्ती हो गई है। पर फिर सोचा कि अब तो बैठ ही गए हैं, अब क्या करें? बैठे रहते हैं। वे दोनों कुछ देर तक आपस में इशारा कर मुस्कुराती रहीं, फिर अचानक भारती अम्मा उठीं और हमारे सामने से थाली उठाकर ले गईं, बोलीं कुछ नहीं।
हमें बहुत अपमान महसूस हुआ। हम चुपचाप नीचे उतर आये। भोजन की घण्टी बजी, सबने भोजन कर लिया; पर हम चारों भोजन करने नहीं गये। भूख तो बहुत लग रही थी; पर मन में आता कि इतने अपमान के बाद अब कैसे जायें?
उन दिनों जब सब भोजन करते थे तो माताजी सामने बैठती थीं। इतने लोगों में भी उन्हें पता चल गया कि हम चारों भोजन करने नहीं आये हैं। उन्होंने हमें बुलवाया। हिम्मत बटोर कर हम लोग गये। माताजी अपने कमरे में थीं। हम वहीं चले गये। माताजी ने पूछा, ‘‘लाली! खाना क्यों नहीं खाया?’’ माताजी के इतना पूछते ही हमारी रुलाई फूट गई। हम फफक-फफक कर रोने लगे और फिर सब बात बताई। कहा, ‘‘माताजी वो हमें हमारी गलती बतातीं, हमें समझा देतीं, हमें बुरा नहीं लगता। पर इस व्यवहार से अब हम खाना खाने कैसे जायें?’’
माताजी ने भारती अम्मा और सोमा अम्मा को बुलाया और उक्त व्यवहार के लिये डाँट लगाई। फिर आगे से किसी के भी साथ ऐसा व्यवहार करने के लिये मना किया। फिर बोलीं, ‘‘अब इन छोरियों के लिये गरम-गरम खाना बनाओ।’’ माताजी ने दुबारा खाना बनवाया और अपने सामने बिठाकर खूब लाड़-प्यार लुटाते हुए खाना खिलाया। वह क्षण ऐसे थे कि अपनी सगी माँ भी शायद इतना प्यार न लुटाती होगी। उस दिन माँ जगदम्बा का प्यार पाकर हम धन्य हो गए। ऐसे न जाने कितने ही क्षण अनेकों परिजन अपने हृदय में समेटे हुए हैं। आज भी जब हम उन पलों को याद करते हैं तो वो पल सजीव हो उठते हैं।


समझाने की कला

गुरुजी का समझाने का तरीका बड़े गजब का था। कन्या शिविर में अक्सर गुरुदेव पारिवारिकता के संबंध में प्रवचन करते और छोटी-छोटी बातें भी इस ढंग से बताते कि समझ में आ जाता कि उनका कितना महत्त्व है और वे मन में गहराई तक उतरती चली जातीं।
गुरुदेव कहते, ‘‘बच्चियो, तुम जहाँ भी रहो परिवार में स्नेह-आत्मीयता का संचार करती रहो। सबको मिलाने का काम करो, बिखेरने का नहीं। अगर तुम्हारे पास कोई बहू अपनी सास की निंदा करती है, तो कहना अरे! तुम्हारी सास तो तुम्हारी बहुत तारीफ कर रही थी। अगर तुम्हारे पास कोई सास अपनी बहू की निंदा करती है, तो कहना अरे! आपकी बहू तो आपकी बहुत तारीफ कर रही थी। इस तरह परिवार में कलह की जगह प्रेम का संचार होता है। तुम यहाँ से जाकर यही करना। रूठे को मनाना, टूटे को बनाना।’’

बड़ी से बड़ी बात को भी वे बड़े ही मधुर ढंग से समझाते, बिल्कुल एक सच्चे अभिभावक की तरह। यह कन्या सत्र की बात है। हमारा बैच सबसे बड़ा और शरारती बैच था। एक दिन कुछ लड़कियाँ भारती अम्मा जी से किसी कारण नाराज हो गईं। और भी कुछ छोटे-मोटे कारणों से अधिकतर लड़कियाँ उनसे नाराज रहती थीं। सो उन लड़कियों ने मिलकर योजना बनाई कि आज हम हड़ताल करेंगे। जब भोजन की घण्टी लगी तो न तो वे खुद भोजन करने गईं और न ही किसी और को जाने दिया। दो-तीन बार घण्टी बजी पर कोई नहीं गया। तब माताजी को बताया गया। माताजी ने दो-तीन लड़कियों को बुलवाया और सब बात मालूम की।
गुरुजी तक बात पहुँची। गुरुजी ने सबकी गोष्ठी बुलाई और बड़े प्यार से बोले, अच्छा! तुम सब लोग नाराज हो! सब आज भूखे हो! बेटा, भोजन से कैसी नाराजगी? इस तरह तो तुम लोग स्वयं को ही सजा दे रहे हो। जिससे नाराज हो, उसका तो मजा हो गया। उसका काम बच गया। इतना सब खाना फिकेगा तो नहीं। अभी नहीं खाया तो शाम को खाना पड़ेगा।’’
‘‘बेटा, नाराजगी प्रकट करने का यह तरीका सही नहीं है। सही तरीका तो यह है कि तुम लोग दुगना खाना खा जाओ। जिससे कि वह परेशान हो, उसे दुबारा भोजन बनाना पड़े। स्वयं को सजा देने में क्या समझदारी है?’’ उनकी प्यार-दुलार भरी डाँट सुनकर सबकी नाराजगी दूर हो गई। सबको भूख भी लगी ही थी। सबने फटाफट थाली उठाई और भोजन करने बैठ गये।

गुरुजी माताजी को बहुत साज-श्रृंगार पसंद नहीं था। बस माताजी मेंहदी सदा लगाकर रखती थीं। उनके पैरों में मेंहदी सदा लगी रहती थी। शान्तिकुञ्ज में वशिष्ठ, विश्वामित्र भवन के सामने व प्रवचन हॉल के दोनों ओर उन्होंने मेंहदी के बगीचे लगवा रखे थे। हम सबसे तो वे मेंहदी लगाने के लिये कहती ही थीं, साथ ही शिविर में भी जो बहनें आतीं उनसे भी कहतीं, ‘‘ये तुम्हारा मायका है। मेंहदी जरूर लगा कर जाना।’’
सावन के महीने में वे झूला डलवाती थीं। हम लोग खूब झूला-झूलते और मेंहदी लगाते। उनके साथ बिताये क्षण तो वास्तव में अविस्मरणीय हैं। जितना काम करते, उतनी ही मस्ती भी करते थे।


गुरुजी-माताजी मनोरंजन को भी बहुत महत्त्व देते थे।

उनका कहना था कि मनोरंजन स्वस्थ ढंग का होना चाहिये जिसमें आनंद तो आये ही साथ में कुछ सीखने को भी मिलता रहे। वे चाहते थे कि हमारे बच्चे-बच्चियाँ अपने परिवार से दूर यहाँ आये हैं, तो उन्हें अपने परिवार की याद न सताये और वे सब कुछ सीख सकें। उनके अंदर बहुमुखी प्रतिभा हो। इसके लिये वे कभी-कभी मनोरंजन का कार्यक्रम भी रखते थे। जिसमें प्रेरणाप्रद दृष्टांत आधारित एकांकी, लघु नाटिका, प्रहसन, गीत-संगीत, प्रवचन आदि प्रस्तुत करवाये जाते। गुरुजी बैंड, परेड, लाठी चलाना आदि का प्रशिक्षण ही नहीं दिलवाते थे बल्कि, उसका प्रदर्शन भी करवाते और माताजी के साथ स्वयं भी उसमें शामिल होते।
1976-77 में गुरुजी ने टी.वी. मँगवाया और हम सबने माताजी के साथ बैठकर सबसे पहली फिल्म जो देखी वह थी आनंद और दूसरी अनुराग। मनोरंजन के साथ-साथ सबको उसकी प्रेरणाएँ भी समझाईं। गुरुजी को आनंद फिल्म बहुत पसंद आई थी। वह अक्सर उसके बारे में चर्चा किया करते थे। राजेश खन्ना का नाम उन्हें याद हो गया था। किसी को ज़्यादा बना-ठना देखते तो कहते, ‘‘तू राजेश खन्ना है क्या? बेटा! लोकसेवी को सादगी से रहना चाहिये।’’
उस जमाने में जादूगर, कठपुतली वाले अपना खेल दिखाने, बाईस्कोप वाले बाईस्कोप लेकर गली मोहल्ले में आते थे। कभी कोई शान्तिकुञ्ज की तरफ आ जाता तो वह भी दिखवाते और बाद में समझाते भी कि यह सब हाथ की सफाई है।
सन् 1985-86 के आस पास महात्मा गाँधी जी पर फिल्म बनी। जब हरिद्वार की टाकीज़ में वह आई तो गुरुजी ने माताजी से कहकर सबको 2-2 रुपये दिये और कहा, ‘‘जाओ सब लोग गाँधी पिक्चर देख कर आओ। उससे संकल्पनिष्ठा की, देश सेवा की प्रेरणा लेकर आओ।’’ जिसने भी देखी एक प्रेरणा मिली कि देश के हित के लिये हमें किस प्रकार निज सुख वैभव का त्याग करना चाहिये और समाज के लिये काम करना चाहिये।


स्वावलम्बन का महत्त्व

माताजी सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, खिलौने बनाना, जैम, जैली, अचार, मुरब्बे आदि विभिन्न प्रकार के स्वावलंबन का प्रशिक्षण भी दिलाती थीं। यदि कोई किसी विशेष विद्या का जानकार आ जाता और उसे सिखा सकना संभव होता तो गुरुजी-माताजी कहते, ‘‘हमारी छोरियों को भी सब सिखा कर जाना।’’ साथ ही हम लोगों को भी उसका महत्त्व बताकर सीखने के लिये प्रेरित करते।
वे कहती थीं कि महिलाओं को जरूरत के सब काम सीखना चाहिये। कृष्णा उपाध्याय भाभी जी बताती हैं कि जब वे शान्तिकुञ्ज आईं तब थोड़े से ही परिवार शान्तिकुञ्ज में रहते थे। मुश्किल से 10-12 परिवार थे। माताजी हम सबको सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि सीखने के लिये कहतीं। शुरू के दिनों में सिलाई मशीन नहीं थी तो उन्होंने सूई-धागे से भी सिलना सिखाया। फिर सिलाई मशीनें भी मँगाई गईं। कौशल्या जीजी सबको सिलाई सिखाती थीं। माताजी सबका ध्यान रखती थीं, कौन कितना सीख रहा है। मैंने सिलना तो सीख लिया था पर, कटिंग करने में मुझे डर लगता था। एक दिन माताजी ने कौशल्या जीजी से कहा कि अब तुम उपाध्याय की बहू को कटिंग करके नहीं दोगी। वह खुद कटिंग करेगी फिर सिलकर मुझे दिखायेगी।

माताजी ने बच्चों के कपड़े-नेकर, कमीज़ आदि हम लोगों से सिलवाये। मैंने डरते-डरते कटिंग की और सिलाई करके माताजी को दिखाया। जब हम लोग उन्हें दिखाने गये तो बोलीं, ‘‘देखो अब तुम्हारे इतने पैसे बच गये न। नहीं तो अभी इतने पैसे दर्जी को देने पड़ते। अब इस बचत से तुम लोग दूसरी आवश्यक चीजें खरीद सकते हो।’’ इस प्रकार माताजी ने स्वावलंबन के साथ-साथ मेहनत करना, बचत करना और कम पैसे में भी कुशलतापूर्वक अपनी गृहस्थी चलाने के गुर हम लोगों को सिखाये।


तेरा प्रमोशन हुआ?

सन् 1974 में मेरे पति श्री गौरीशंकर शर्मा जी जब प्राणप्रत्यावर्तन शिविर पूरा होने पर गुरुजी से मिलने गये तो गुरुजी ने पूछा, ‘‘तेरा प्रमोशन हुआ या नहीं।’’ इन्होंने कहा, ‘‘नहीं हुआ गुरुजी।’’ तब गुरुदेव ने कहा, ‘‘जा, तेरा प्रमोशन हम करवा देंगे।’’ जब वे जोधपुर वापिस आये तो पहली जनवरी के दिन आफिस में बैठे सोच रहे थे, अगर मेरा प्रमोशन हो जाता तो इतना वेतन हो जाता कि में आराम से वी.आर.एस. ले लेता। इतनी देर में इनके एक दोस्त ने आकर कहा, ‘‘शर्मा, भई बधाई हो, तेरा प्रमोशन हो गया।’’ इन्हें लगा मज़ाक कर रहे हैं, भला यह कैसे संभव है। लेकिन जब लैटर देखा तो विश्वास हुआ और गुरुजी की बात याद आई, ‘‘जा मैं तेरा प्रमोशन करा दूँगा।’’


उनको ठीक तो मैं करूँगा

सन् 1982 में हम पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये। बहुत से संस्मरण हैं, उनके अलौकिक स्वरूप की एक झलक जो हमारे पूरे परिवार के लिये चमत्कार स्वरूप है वह बताती हूँ। यह घटना 19 जनवरी सन् 1989 की है। मेरे देवर, श्री हरिशंकर शर्मा, जो दिल्ली में सर्विस करते हैं, परिवार सहित घूमने गये थे। उन्हें भीलवाड़ा से फोन आया कि पिताजी कोमा में हैं, शीघ्र आ जावें। उन्होंने आगे का प्रोग्राम कैन्सिल कर दिया व सीधे भीलवाड़ा पहुँच गये। देखा, पिता जी कोमा में थे। किसी बात की सुध नहीं। सो परिवार को वहीं घर पर छोड़कर वे सीधे हरिद्वार आ गये। यहाँ आकर घर में इतना ही बताया कि मैं आप लोगों को लेने आया हूँ, पिताजी कोमा में हैं और मैं गुरुजी से मिलने जा रहा हूँ।
वे सीधे ऊपर गुरुजी के पास चले गये व गुरुजी से बताया कि गुरुदेव, पिताजी कोमा में हैं, अतः मैं भैया-भाभी को लेने आया हूँ। गुरुजी ने कहा-‘‘अच्छा! पिताजी कोमा में हैं?’’ कुछ रुके, फिर बोले-‘‘क्या नाम है?’’ देवरजी ने बताया, ‘‘श्री सीताराम शर्मा।’’ ‘‘क्या उमर है?’’ 80 वर्ष। ‘‘कहाँ रहते हैं?’’ ‘‘भीलवाड़ा’’ उस समय गुरुदेव कमरे में ही अपने दोनों हाथ पीछे की ओर बाँधे टहल रहे थे, उन्होंने कागज पेन उठाया और अपने प्रश्नों के उत्तर नोट किए।
कुछ देर सोचते रहे फिर कहा-‘‘अच्छा! तू लेने आया है तो ले जा, देख कर आ जायगा। उनको ठीक तो मैं करूँगा।’’ श्री हरिशंकर जी को कुछ समझ में नहीं आया। सोचने लगे देख कर आ जायगा! कैसे कह रहे हैं? पिताजी तो कोमा में हैं, हो सकता है कुछ दिन रुकना पड़े। मन ही मन सब तर्क-वितर्क चलता रहा। उन्होंने गुरुजी से कुछ कहा नहीं। इतने में गौरीशंकर जी ऊपर पहुँच गये। गुरुदेव ने उनके कुछ कहने से पूर्व ही कहा-‘‘यह तुझे लेने आया है। ऐसा कर, तू घर चला जा। पिताजी को देखकर आ जाना।’’ उन्होंने आदेश शिरोधार्य किया और दोनों भाई आ गये तथा हम सबने भीलवाड़ा हेतु प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर देखा, पिताजी एकदम स्वस्थ थे। डाक्टरों सहित सभी आश्चर्य चकित थे। ‘यह कैसे हुआ?’
घर में सब से बातचीत की तो पता चला जिस क्षण गुरुवर ने पता ठिकाना नोट किया था, उसी क्षण से उनमें चेतना आने लगी थी और हमारे पहुँचने तक तो वे अच्छे भी हो गये थे। वृद्धावस्था-रुग्णता के कारण थोड़ी कमजोरी तो थी, पर उन्हें देखकर कोई कोमा की स्थिति का अन्दाजा भी नहीं लगा सकता था। हम सभी को गुरुजी के उस कथन ‘‘उनको ठीक तो मैं करूँगा’’ और ‘‘देखकर आ जायेगा’’ का रहस्य समझ में आ गया था।
ठीक होने के एक माह बाद पिताजी शान्तिकुञ्ज आये। दूसरे दिन माताजी से मिलने गए, तो माताजी ने पिता जी से हाल-चाल पूछा। फिर बोलीं, ‘‘बहू खाना खिलाती है कि नहीं?’’
क्योंकि, भोजन में परहेज चल रहा था। लम्बे समय से वे केवल उबला भोजन ही ले रहे थे। सो बोले, ‘‘अब, खाना कहाँ माताजी? उबले भोजन में कुछ स्वाद तो होता नहीं।’’
माताजी ने कहा, ‘‘आप तो राजस्थान के हो। आपको तो दाल-बाटी बहुत अच्छा लगता होगा?’’
तो वे बोले, ‘‘कहाँ! दाल बाटी चूरमा?’’ और पिता जी ने उन्हें दाल-बाटी पर एक कविता सुनाई।
कविता सुनने के बाद माताजी ने कहा, ‘‘बेटा! कल मैं तुम्हें दाल-बाटी, सब खिलाऊँगी। उसके बाद डॉ. जो कहे सो करना।’’
अगले दिन माताजी ने टिफिन भर कर दाल-बाटी भेजा व पिता जी ने छक कर खाया। हमें डर भी लग रहा था कि एक-डेढ़ महीने बाद पिताजी भारी भोजन कर रहे हैं, पर माताजी पर विश्वास भी था सो कुछ नहीं बोले। उस दिन से पिताजी ने सब परहेज छोड़ दिया। 3-4 दिन बाद प्रणाम के समय माताजी ने पूछा, ‘‘छोरी! तेरे ससुर की तबीयत कैसी है?’’
मैंने कहा, ‘‘माताजी तबीयत तो ठीक है, पर परहेज नहीं करते, सो डर लगता है।’’
तब माताजी ने कहा, ‘‘छोरी! तू तो, उनको जो इच्छा हो सो खिला। नहीं तो तेरे भी मन में रह जाएगी और उनको भी इसके लिये वापस आना पड़ेगा।’’
इसके बाद वे साल भर स्वस्थ रहे। अगले वर्ष फिर उसी तारीख को बीमार पड़े और 21 जनवरी 1990 को शरीर छोड़ दिया। आज भी जब हम उन पलों को याद करते हैं, तो ऐसा लगता है, जैसे उनकी सब इच्छाओं को पूर्ण करने व जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करने के लिये ही गुरुदेव ने उन्हें एक वर्ष का जीवन दान दिया था।


श्री महेंद्र शर्मा जी एवं श्रीमती मुक्ति शर्मा

(श्री महेन्द्र शर्मा जी 1969 में भिलाई में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद लगातार संपर्क में रहे, क्षेत्र में ही समयदान करते रहे, टोलियों में जाते रहे। 1977 में पूज्य गुरुदेव के बुलाने पर सपरिवार स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)

तू नहीं माँगता, तो मुझे दे

1969 में हम गुरुदेव से जुड़े। मैं उन दिनों भिलाई में काम करता था। भिलाई में गुरुजी का कार्यक्रम था। उसी कार्यक्रम में मैंने दीक्षा ली। अगले दिन मैं पण्डाल में सबसे पीछे बैठा था। गुरुजी ने एक कार्यकर्ता से मेरी ओर इशारा करके कहा, ‘‘उस लड़के को बुलाओ।’’ वे मुझे गुरुजी के पास ले गये। गुरुजी ने मुझसे पूछा-‘‘तुम सिगरेट पीते हो?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं, गुरुजी’’ गुरुजी ने कहा-‘‘मुझसे झूठ बोलते हो? आज के बाद सिगरेट मत पीना।’’ मैं कभी-कभी सिगरेट पीता था। मुझे हैरानी हुई, गुरुजी को कैसे पता चला। उस दिन के बाद मैंने कभी सिगरेट नहीं पी।

उसके बाद मैं मथुरा आने-जाने लगा। दादा गुरुजी के निर्देश पर, सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव ने मथुरा छोड़ दिया। पूज्य गुरुदेव मथुरा विदाई सम्मेलन के बाद हिमालय चले गए। कहाँ गए? कब लौटेंगे? किसी को भी इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं थी। कुछ समीपवर्ती लोगों के पूछने पर उन्होंने कहा कि वे तो अपनी मार्गदर्शक सत्ता के हाथों की कठपुतली भर हैं।
हमें बड़ा दुःख हुआ। अब आगे साधना के बारे में किससे पूछेंगे? कौन मार्गदर्शन देगा? २ वर्ष का समय निकल गया। कैसे गया, पता भी नहीं लगा? अचानक सुनने में आया गुरुदेव हिमालय से लौट आए हैं और विशेष साधनाएँ सिखाने हेतु कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को बुला रहे हैं। हमने भी हिम्मत करके प्राण-प्रत्यावर्तन साधना के लिए आवेदन भेजा। आश्चर्य तब हुआ जब भिलाई के सभी कार्यकर्ताओं को छोड़कर स्वीकृति हमारे ही नाम आई। सभी ने इसे गुरु कृपा कहा। सत्र प्रारम्भ हुआ अन्तिम दिन पूज्य गुरुदेव ने सबको एक-एक करके कमरे में बुलाया और बात की। वन्दनीया माताजी भी साथ ही थीं। उन्होंने माताजी की ओर संकेत करते हुए कहा कि ‘‘इस लड़के को पहचान गई? ये वो ही है।’’ वन्दनीया माताजी के ‘‘अच्छा-अच्छा’’ कहते ही हमारे अन्दर कम्पन सा हो गया। गुरुदेव ने पास बैठाकर कहा कि ‘‘जीवन का लक्ष्य क्या है, पता है?’’ हमने कहा, ‘‘हिमालय जाना चाहते हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘अभी समय अनुकूल नहीं है, आगे हम अवश्य ले जाएँगे।’’ और बोले, ‘‘आज जो भी इच्छा हो, हमसे माँग लो।’’ हमने कहा, ‘‘यदि इस वरदान को आप भविष्य के लिए सुरक्षित रख सकें तो अच्छा हो।’’ वे अपने स्थान से उठे और बोले, ‘‘तू नहीं माँगता, तो मुझे दे। मैं माँगता हूँ।’’ भारी चिन्ता में पड़ते हुए हमने इतना ही पूछा ‘‘आप क्या चाहते हैं?’’ उन्होंने कहा,‘‘सम्पूर्ण समर्पण करना है। तुम्हारा श्रम हमारे लिए, चिन्तन हमारे लिए, समय भी अब हमारा ही होगा। तुम अपने विषय में कुछ भी नहीं जानते हो।’’ बिना हमारे बताए ही उन्होंने हमारा गाँव, घर, सम्बन्धी सभी बता दिए। फिर कहा, ‘‘पिछली बार तुम बीच में भाग गए थे। इस बार ऐसा न हो।’’ और तत्काल उन्होंने अपने लैटर पैड से कागज निकालकर हमसे पूर्ण समर्पण का संकल्प लिखवा लिया। उस दिन के बाद से आज तक कठिन से कठिन समय में भी वन्दनीया माताजी और गुरुदेव सामने खड़े दिखाई देते हैं।

मेरे लिए क्या लाई है?

मैं शान्तिकुञ्ज में ही पहली बार गुरुजी-माताजी से मिली। भिलाई की ही एक कार्यकर्ता, विजया बहन मुझे अपने साथ ले कर आई थी। उनका मन था हरितालिका तीज की पूजा शान्तिकुञ्ज में करेंगे। उसी अनुसार कार्यक्रम बनाया और 4-5 दिन के लिये ही आये थे। मैं बेटे मनीष को पड़ोसी के पास छोड़ कर आई थी।
शान्तिकुञ्ज पहुँचकर जैसे ही मैं माताजी से मिली, पता नहीं मुझे क्या हुआ, मेरी रुलाई फूट गई। माताजी ने अपनी गोद में मुझे भर लिया और मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ फिराने लगीं। मैं और भी जोर से रोने लगी। विजया बहन मुझे चुप हो जाने के लिये बोलीं तो माताजी बोलीं, ‘‘रो लेने दे इसे, जी हल्का हो जायेगा। बहुत दिनों बाद माँ से मिली है न तो रोना तो आयेगा ही।’’ और माताजी प्यार से मेरा सिर सहलाती रहीं। विजया बहिन ने माताजी से कहा, ‘‘माताजी अब तो आप इन्हें पकड़ ही लो।’’ तब माताजी बोलीं, ‘‘अब तो मैंने जकड़ लिया, अब कहाँ जायेगी?’’
जब हम लोग हरितालिका तीज की पूजा करने गये, तो गुरुजी-माताजी दोनों ही बैठे थे। बहिनें उन्हें रोली-चन्दन लगाकर पूजा कर रही थीं। दोनों ऐसे मस्त बैठे थे, जैसे साक्षात् शिव-पार्वती बैठे हों। बहिनों ने रोली-चावल लगाकर उन्हेंं खूब रंग दिया था। जब मेरी बारी आयी, तो माताजी गुरुजी से बोलीं, ‘‘ये है हमारी बेटी, सुबह मैंने बताया था न। पहचाना इसे?’’ गुरुजी ने गौर से मुझे देखा। मेरे हाथ में माताजी के लिए भेंट थी। उसे देखकर माताजी बोलीं, ‘‘तू तो हरितालिका व्रत नहीं करती। तेरे यहाँ तो करवा चौथ होती है।’’ मैंने कहा, ‘‘जी माताजी, पर मैंने सोचा पूजा तो कर ही लेती हूँ।’’ फिर बोलीं, ‘‘ये सब क्या है? इसकी क्या जरूरत थी? बेटा, तेरा तो सब कुछ मेरा ही है।’’ जल्दी-जल्दी में गुरुजी के लिए, मैं कुछ खरीद नहीं पाई थी, सो उनके लिए मैंने कुछ पैसे हाथ में रखे। उन्हें देखकर विजया बहिन ने कहा, ‘‘गुरुजी को पैसे मत चढ़ा देना। वे बहुत नाराज होंगे।’’ सो मैंने वह पैसे रूमाल में रख दिये। जैसे ही गुरुजी को प्रणाम किया, वे बोले, ‘‘मेरे लिए क्या लाई है?’’ मेरे हाथ में माताजी का दिया प्रसाद था, मैंने कहा, ‘‘यही है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘ला खिला।’’ और मुँह खोल दिया। मेरे हाथ में आधा केला था, मैंने वही खिला दिया। विजया बहन ने कहा, ‘‘गुरुजी मैं भी खिलाऊँगी।’’ तो उन्होंने उनके हाथ से भी प्रसाद खा लिया। ये थी मेरी गुरुजी-माताजी से पहली मुलाकात। माताजी ने पूरे दस दिन हमें रोका। उसके बाद ही वापस आने दिया।


एक वर्ष की स्वर्ण जयंती साधना

इसके पश्चात् सन् 76 में गुरुजी ने हम लोगों से एक वर्ष की स्वर्ण साधना करवाई, और भी बहुत सारे परिजनों से करवाई थी। उस समय हम लोग भिलाई में ही थे। सूर्योदय से 45 मिनट पहले इस साधना को प्रारम्भ करना होता था। पहले सोहम् साधना, फिर तीनों शरीरों की साधना, और अन्त में खेचरी मुद्रा करनी होती थी। ठीक सूर्योदय के साथ अर्घ्य देकर साधना समाप्त होती थी। सबका समय निश्चित था। हमने नियमित रूप से यह साधना की। उस समय हमें खूब अनुभव हुए। साधनाकाल में प्रायः ही गुरुजी-माताजी दिखाई देते। कभी-कभी वे श्रीरामकृष्ण परमहंस व माँ शारदा के रूप में भी दिखाई देते। इस साधना के पश्चात् उन्होंने हमें शान्तिकुञ्ज बुला लिया।
शान्तिकुञ्ज में जब करवाचौथ पड़ी, तो मैंने माताजी से पूजा के विषय में पूछा। माताजी ने कहा, ‘‘नीचे सब बहनें पूजा करती हैं, तुम भी उनके संग ही कर लेना।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी, जब साक्षात शिव-पार्वती हैं, तो मैं मिट्टी के शिव-पार्वती क्यों पूजूँ?’’ माताजी बोलीं, ‘‘अच्छा ठीक है, जा गुरुजी से पूछ ले।’’ मैंने गुरुजी से पूछा तो वे खड़े हो गये और बोले, ‘‘अभी चलना है?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं गुरुजी, जब माताजी बुलाएंगी।’’ वे बोले, ‘‘अच्छा, अच्छा! और बैठ गये।’’
सभी बहनों को खबर भिजवाई गई। उस समय अधिकांश परिवार ब्रह्मवर्चस में रहते थे। सब बहनें अपना सब काम छोड़कर फटाफट जो कुछ पास में था, लेकर पहुँच गईं। गुुरुजी-माताजी दोनों बैठ गये। हम सबने उनकी पूजा की रोली-चंदन भोग आदि लगाया। फिर गुरुजी ने सबको चाय पीने के लिये कहा। किसी बहन नेकहा, ‘‘चाँद को अर्घ्य देने के बाद ही कुछ खायेंगे-पीयेंगे।’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘हमसे बड़ा भी कोई सूरज-चाँद है क्या?’’ माताजी ने सबके लिये चाय बनवाई।
उस दिन रविवार था। तब तक शान्तिकुञ्ज में टी.वी. आ चुका था। माताजी ने सबको पिक्चर दिखाई। खाना बनवाया। हलवा-पूरी आदि और सबको खाना भी खिला दिया और इस सबके बीच चंदा मामा को तो सब भूल ही गये। जब घर लौटे तो रास्ते में चंद्रमा को अर्घ्य देने की बात याद आई। जल भरकर जो लोटे आदि रखे थे, वह तो हम वहीं भूल आये थे। घर पहुँचकर जिस किसी ने पहले से जो कुछ तैयारी की हुई थी, उसी से सबने छत पर जाकर पूजा कर ली और चाँद को अर्घ्य दे दिया। पर गुरुजी-माताजी की पूजा करके सब अति प्रसन्न थे। उस दिन से गुरुजी-माताजी करवाचौथ की पूजा में भी बैठने लगे थे। उसके पहले तक केवल हरितालिका तीज पर ही बैठते थे। मिश्रा भाभी जी परात, लोटा आदि लातीं हम लोग दोनों के चरण धोते बाद में उस जल को चरणामृत मान कर पी जाते थे।

महेंद्र शर्मा जी बताते हैं कि गुरुजी के निर्देशानुसार सन् 73 में मैंने वानप्रस्थ लिया और नौकरी करने के साथ-साथ क्षेत्रों में टोलियों में भी जाता रहा। सन् 77 में मैं उनकी आज्ञानुसार सपरिवार पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गया। गुरुजी की सादगी, उनकी करुणा, मितव्ययिता, छोटी-छोटी बातों द्वारा शिक्षण देना, बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्होंने जीवन पर गहरी छाप छोड़ी। उनकी बहुत बड़ी विशेषता थी, स्वयं के प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार। यही शिक्षण उन्होंने हम लोंगों को भी दिया। वे कहते थे, ‘‘बेटा! लोक सेवी को ऐसा ही होना चहिये, अपने प्रति कठोर व अन्यों के प्रति उदार।’’


वे सादगी को बहुत महत्त्व देते थे।

अभी मैं नया-नया ही आया था। एक दिन गुरुजी ने मुझे मजदूर लाने के लिये भेजा। मैं बढ़िया से तैयार होकर, नया कुर्ता पहनकर गया। मुझे कोई मजदूर मिला नहीं। लौटकर गुरुजी से कहा, गुरुजी मजदूर तो मिला नहीं। गुरुजी ने मेरी ओर देखा और बोले, ‘‘250 रुपये का चश्मा लगायेगा। बढ़िया कुर्ता पहनेगा, राजेश खन्ना बनकर जाएगा तो क्या तुझे मजदूर मिलेगा?’’

एक दिन कुछ नेता लोग गुरुजी से मिलने आये। गुरुजी ने मुलाकात के बाद उनको भोजन कराया। चौके की बहनों से कहा, ‘‘बच्चियो! भोजन तुम लोग परोसोगे। महेन्द्र और शिव प्रसाद बरतन उठायेंगे।’’
जब वे लोग भोजन कर चुके तो हम दोनों ने बरतन उठाये। गुरुजी देख रहे थे। बोले, ‘‘अब इन्हें माँज कर भी रखो।’’
नेता जी आ रहे हैं सोचकर, हम लोग बढ़िया से प्रैस इत्यादि करके नये कुर्ते पहन कर गये थे। बरतन माँजे तो उन पर पानी के छींटे पड़ने स्वाभाविक थे।
जब बरतन मँज गये, तो गुरुजी ने बुलाया। कुर्ते पर छींटे पड़े देख कर बोले, ‘‘तुम लोग इस तरह फूहड़ तरीके से काम करते हो? कुर्ता खराब कर लिया।’’ फिर बोले, ‘‘अच्छा! तुम लोग बहुत बड़े आदमी हो..! बहुत बड़े बाप के बेटे हो..! टाटा, बिरला हो..! बढ़िया नया-नया कुर्ता पहन कर काम करोगे। ऐसे काम होता है?’’
‘‘खादी की दुकान पर जाओ और वहाँ से सस्ती वाली, खादी की आधी बाजू की बनियान (हाफ कुर्ता) ले कर आओ। उसे पहन कर काम किया करो। जब कभी टोली में जाओ, बाहर जाओ, तो अच्छा, बढ़िया कुर्ता पहनो। खादी की आधी बाजू की बनियान पहन कर काम करोगे तो कपड़े खराब नहीं होंगे।’’ इस प्रकार वे किफायत से रहना भी सिखाते थे।


गुरुजी की समय साधना

उनका जीवन बहुत पारदर्शी था। वे कुछ भी छिपाते नहीं थे। साथ ही, वे एक पल भी नष्ट नहीं करते थे। एक दिन सुबह-सुबह ही उन्होंने हम सबको बुलाया, और बोले, ‘‘बच्चो, आज मैंने कुछ लिखा नहीं। मुझे रात को बुखार आ गया था। प्रणव से गोली भी ले ली, पर कुछ हुआ नहीं, नींद भी नहीं आ रही थी। तो मैंने सोचा क्या करूँ? लेटे-लेटे मैंने दो-चार साल की भविष्य की योजना ही बना डाली। देखो, कागज पर नोट कर दी है। उस योजना को बताने और समझाने के लिए ही मैंने गोष्ठी बुलाई है।’’

एक दिन उन्होंने बताया, ‘‘मैं रात को 12 बजे उठा। आज मेरे पास लिखने को कुछ नहीं था, पर फिर भी अपनी कुर्सी पर बैठ गया। जब तक मुझे लिखना होता है, तब तक मैं बैठा। मेरी पलकें बता रही थीं कि कितनी भारी हैं, फिर भी मैं सोया नहीं। कारण, यह मन बड़ा शैतान है, सो जाता, तो कल फिर सोने को कहता, इसलिए मैं उठकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। बेटा, इसी प्रकार मन पर आरूढ़ रहना चाहिये।’’

एक बार फिर उन्होंने सुबह-सुबह ही गोष्ठी बुलाई और बोले, ‘‘रात को मुझे नींद नहीं आ रही थी, हल्का सा बुखार भी लग रहा था। लेटे-लेटे सोचता रहा, और मैंने प्रज्ञा पुराण के एक खण्ड का प्रारूप बना लिया। देखो, बढ़िया है न। योजना भी बना डाली है। इसे चार खण्डों में निकालेंगे। अच्छा! अब चार दिन सुबह-सुबह मेरे पास मत आना। तुम लोगों को चार दिन का काम आज ही बता देता हूँ।’’ उन्होंने सबको काम बताया, और बोले, ‘‘तुम लोग जाते-जाते बाहर से ताला लगा देना।’’
चार दिन में उन्होंने प्रज्ञा पुराण के सब श्लोक लिख डाले, और हम लोगों को यह कहकर सौंप दिया, अब इसमें कहानियाँ जोड़ देना। इस प्रकार प्रज्ञा पुराण तैयार हो गया।
हम लोग सोचते थे, कि गुरुजी को बुखार नहीं आना चाहिये। बुखार में भी बाबा कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और सालों की योजना बना डालते हैं। फिर हम लोगों को भिड़ा देते हैं।


इसी क्रम में मुझे एक प्रसंग और स्मरण आता है, जिसे चर्चा के दौरान भोपाल के श्री शान्तिलाल आनंद ने सुनाया था।
शायद सन् 1988 की बात होगी। एक दिन शांतिलाल जी और गौड़ जी नीचे गायत्री नगर में टहल रहे थे। इतने में ही श्री संजय सिंह जो पूर्व में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री रह चुके थे व उस समय भी मंत्री थे, वहाँ पधारे।
दोनों ने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने गुरुजी से शाम को छह बजे मिलने का समय ले रखा था और उस समय छह बजकर पैंतालीस मिनट हो रहे थे। किन्तु यह बात श्री गौड़ जी को मालूम नहीं थी।
वे बड़ी आवभगत के साथ उन्हें शान्तिकुञ्ज प्रतीक्षालय तक ले गये। शान्तिलाल जी भी साथ थे। उन दोनों को नीचे रुकने के लिये कहकर गौड़ जी स्वयं ऊपर गये और गुरुजी से संजय सिंह जी के आने की बात बताई।
गुरुजी सुनते ही गौड़ जी से नाराजगी भरे शब्दों में बोले-‘‘इन्हें समय का महत्त्व नहीं है, लौटा दो। मैंने छह बजे का समय दिया था, सात बज रहे हैं। अब मैं नहीं मिलूँगा। कहो कल समय पर मिलें।’’
गौड़ जी को तो मानो काठ मार गया हो। क्या करें? कुछ सूझ नहीं रहा था। मंत्री जी से कैसे कहें, कि गुरुजी नहीं मिलेंगे, पर कहना तो पड़ेगा ही। सो विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा-‘‘साहब, उन्होंने आपको शायद छह बजे का समय दिया था। वे उस समय तक आपका इन्तजार कर रहे थे। अब वे दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्य में लग चुके हैं। उन्होंने कल पुनः बुलाया है, समय का ध्यान रखेंगे।’’
‘‘महापुरुषों का समय बहुत मूल्यवान है।’’ कहकर, बेचारे मंत्री जी ने अपनी गलती सरल भाव से स्वीकार की व दूसरे दिन ठीक समय पर आकर गुरुदेव से मुलाकात की।

सन् 1989 में एक दिन हम कुछ लोगों डॉ. प्रणव भाई साहब, उपाध्याय जी, सोनी जी, कपिल जी आदि को बुलाया और बोले, ‘‘मैंने बहुत कुछ लिख दिया। सोचता हूँ, आने वाली पीढ़ियों के लिये गीता जैसा मार्गदर्शन दे देता हूँ। इसलिये देखो, मैंने ये किताब लिखी है, पढ़कर देखो कैसी है?’’ उस पुस्तक का नाम था, ‘सतयुग की वापसी’ हम सबको पुस्तक बड़े गजब की लगी। फिर कुछ दिनों में ही उन्होंने ‘इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य, परिवर्तन के महान क्षण, आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना, युग की माँग प्रतिभा परिष्कार, इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण आदि’ पुस्तकें लिखीं और हम लोगों से कहा कि तुम लोगों ने भले ही मेरा सारा साहित्य पढ़ लिया हो, पर इनको जरूर पढ़ना और आने वाले लोगों को इन्हें जरूर पढ़ाना। हमने पूछा गुरुजी, ‘‘इस सेट का नाम क्या होगा?’’ गुरुजी बोले, ‘‘ये ‘क्रांतिधर्मी साहित्य’ होगा।’’ हम लोगों ने लगभग छः माह तक बाकायदा कक्षाएँ चलाकर, इस साहित्य को पढ़ा और पढ़ाया, पर जितनी बार भी पढ़ते, उतनी बार कुछ नया ही मिलता।

एक बार गुरुजी को बहुमूत्र की शिकायत हो गयी, वे मीटिंग करते-करते उठकर चल देते थे। जब तक हम सोचते, जिज्ञासा करते, तब तक वे लौट आते, और स्वयं ही बता देते, कि आज-कल मुझे बार-बार पेशाब लग जाती है। इस उम्र में हो जाता है, शायद कुछ समस्या होगी, ठीक हो जायेगी। इस प्रकार वे अपने दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातें भी छिपाते नहीं थे।
एक बार उन्होंने गोष्ठी में बताया, ‘‘नालंदा और तक्षशिला दो विश्वविद्यालय थे। इनसे भी बड़ा विश्वविद्यालय बनायेंगे।’’ इसलिए उन्होंने प्रतीक स्वरूप दो हॉलों का नाम तक्षशिला और नालंदा रखा, और वहाँ पर प्रशिक्षण भी प्रारंभ करवा दिये।


मितव्ययिता उनके जीवन में कूट-कूटकर भरी थी।

अपने लिये तो गुरुजी-माताजी दोनों ही एक पैसा अतिरिक्त खर्च नहीं कर सकते थे। औसत भारतीय नागरिक के स्तर का जीवन जीना उनका संकल्प था। वही अनुशासन उन्होंने हमारे लिये भी बनाया।
एक बार श्री गजाधर सोनी जी भाई साहब ने देखा कि गुरुजी का जूता फट रहा है। उनके मन में आया कि वे गुरुजी के लिये जूता खरीद लायें। उन्होंने गुरुजी से पूछा और जूता खरीद लाये। गुरुजी बहुत महँगा जूता नहीं पहनते थे पर गजाधर जी के मन में आया कि वे थोड़ा अच्छा वाला जूता खरीदेंगे। उन दिनों आज के जैसे महँगाई नहीं थी। गुरुजी जिस ब्रांड का जूता पहनते थे वह 11 रुपये का था। गजाधर जी को लगा थोड़ा अच्छा वाला खरीद लेता हूँ। उन्होंने दो जोड़ी खरीदी। मन में सोचा कि एक गुरुजी के चरणों से स्पर्श करा कर अपनी पूजा में स्थापित करूँगा। वे जूता खरीद कर गुरुजी के पास पहुँचे। जैसे ही गुरुजी ने उसे पहना तुरंत बोले, ‘‘यह तो वैसा नहीं है जैसा मैं पहनता हूँ। यह जरूर महँगा होगा। कितने का लाये हो?’’ सोनी जी ने कहा, ‘‘गुरुजी आप तो बस पहन लीजिये।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘नहीं तू बता, तू कितने का लाया है?’’ सोनी जी ने बताया, ‘‘गुरुजी 21 रुपये का है।’’ सुनकर गुरुजी बोले, ‘‘मैं जो पहनता हूँ, वह 11 रुपये में आ जाता है। इतने में तो दो जोड़ी जूते आ जाते और कितने दिन निकल जाते। इसे ले जाओ और पहाड़िया जी से कहना, कि वे इन्हें लौटा कर वही जूता खरीद लायेंगे, जो मैं पहनता हूँ।’’

गुरुजी के बाथरूम का दरवाजा बहुत पुराना हो गया था। बाहर से तो ठीक दिखता था परंतु अंदर से सड़ गया था। वह कभी भी टूट सकता था। उपाध्याय जी व प्रणव जी भी उसे बदलने के पक्ष में थे। परंतु समस्या यह थी कि गुरुजी से कहे कौन? वह तो तैयार नहीं होंगे।
योजना बनाई गई कि गुरुजी को बरामदे में ले जाकर बातचीत में व्यस्त कर लेंगे। इतनी देर में बढ़ई दरवाजे का नाप ले लेगा। उन दिनों बाबूराम बढ़ई यहाँ काम करता था। उसे समझा दिया गया और योजना अनुसार उसने नाप भी ले लिया। उसे कहा भी गया था कि तुम गुरुजी के सामने मत आना किंतु वह गुरुजी को प्रणाम करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। सो नाप लेने के बाद उसने बरामदे में आकर गुरुजी को प्रणाम किया। उसके प्रणाम करते ही गुरुजी ने उससे पूछा, ‘‘तुम किस काम से आये?’’ उसने कहा, ‘‘बस गुरुजी, आपको प्रणाम करने आया था।’’ गुरुजी को उसके जवाब से संतुष्टि नहीं हुई। बोले, ‘‘नहीं, तुम जरूर किसी काम से आये होगे। यह, तुम्हें लाया होगा। बताओ किस काम से आये थे?’’ उसने डरते-डरते कहा, ‘‘गुरुजी, बस थोड़ा बाथरूम के दरवाजे का नाप लेना था।’’ गुरुजी तुरंत समझ गये और कहा, ‘‘किसने कहा बदलने को? हमने तो कहा नहीं।’’ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘क्यों, उसे क्या हुआ है?’’ मैंने बताया, ‘‘गुरुजी, वह अंदर से सड़ गया है। बदलना आवश्यक है।’’ गुरुजी ने दरवाजे को खोला, बंद किया। फिर बोले, ‘‘इसे केवल मैं ही तो इस्तेमाल करता हूँ। यह ठीक है। अभी काफी दिन तक चलेगा। तुमको मालूम है दरवाजा 1000 रुपये का आता है। हमारा दरवाजा ठीक है। हमारा दरवाजा नहीं बदलेगा।’’ और मैं उनकी डाँट सुनकर चुप-चाप नीचे आ गया। उनकी दृष्टि में यह अपव्यय था। जब तक किसी वस्तु से काम चल रहा है तब तक उसको काम में लाया जाना चाहिये। वे अपने प्रति थोड़ा भी अतिरिक्त खर्च सहन नहीं करते थे।


ऐसे ही माताजी के पलंग का एक पाया हिल गया था। बार-बार कील आदि ठोंक कर उसे ठीक करते। वह बार-बार बाहर निकल जाता। उसे बदलना जरूरी था। माताजी, जब सोने के लिये ऊपर जातीं तो उस पाये के पास गुरुजी ने कुछ ईंटें रखवा दी थीं। उन्हें पहले पाये के पास लगा दिया जाता, फिर माताजी उस पलंग पर लेटतीं। पलंग भी काफी पुराना हो गया था। गुरुजी से पलंग बदलने के लिये पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। बोले, ‘‘1200 रुपये में पलंग आता है। इसे ही ठीक कर दो काम चलता रहेगा।’’
हम भाईयों ने योजना बनाई कि हम लोग माताजी के लिये पलंग बनायेंगे। माताजी के लिये नया पलंग बनाया गया। अब उसे कमरे में पहुँचाना था। योजना अनुसार डॉ. प्रणव जी गुरुजी को ब्रह्मवर्चस ले गये। पीछे से हम लोगों ने पलंग बदल दिया।
रात को जब माताजी लेटने लगीं, तो ईंट रखने कोई नहीं गया। गुरुजी ने लड़कियों से कहा, ‘‘सुनो-सुनो! यहाँ कहीं चार ईंटें रखी होंगी, लाओ।’’ ईंटें तो हम उठा लाये थे, सो मिलती कहाँ? गुरुजी बोले, ‘‘वो महेंद्र कहीं रख गया होगा, उसे बुलाओ।’’ मैं गया। मैंने माताजी से कहा, ‘‘आप बैठो।’’ माताजी बैठ गईं। मैंने कहा, ‘‘पलंग हिल तो नहीं रहा। आज ईंट की जरूरत नहीं है।’’ गुरुजी बोले, ‘‘क्यों नहीं है? ईंट लगाओ।’’ माताजी बोलीं, ‘‘जब हिल नहीं रहा है, तो रहने दो।’’ गुरुजी अपने पलंग से उठे और बोले, ‘‘हिल नहीं रहा है!’’ उसे हिलाया-डुलाया, फिर बिस्तर उठा कर देखा और बोले, ‘‘बदल तो नहीं दिया?’’ अब तो सच बताना ही था। मैंने कहा, ‘‘जी साहब, बदल दिया।’’ गुरुजी थोड़ा नाराज हुए और बोले, ‘‘1200 रुपये में पलंग आता है। तुम्हें मालूम है? एक-एक पैसा जनता देती है। वह कितनी कठिनाई से कमाती है, फिर हमें भेजती है।’’
मैंने कहा गुरुजी, ‘‘हम लोग माताजी के लिये कुछ नहीं कर सकते क्या? वह हमारी भी तो माताजी हैं।’’ गुरुजी बोले, ‘‘जरूर करो, पर अपनी कमाई में से करना। मैं जनता की कमाई में से अपने लिये एक भी पैसा खर्च नहीं कर सकता। और देखो, तुम लोग भी कभी जनता की कमाई में से अपने लिये एक भी पैसा खर्च मत करना।’’

मुक्ति दीदी बताती हैं कि गुरुजी की कुर्सी की गद्दी बहुत पुरानी हो गई थी। थोड़ी फटने जैसी भी हो गई थी। हम लोग उसके लिये कपड़ा खरीद लाये। जब गुरुजी प्रवचन करने गये तो उसका नाप ले लिया और फिर अगले दिन उसी समय पर उसे चढ़ा भी दिया। गुरुजी ने लौट कर गद्दी पर नया कवर देखा तो पूरी खोजबीन की, किसने बनाया? कहाँ से आया? किसी ने बता दिया कि मुक्ति दीदी को देखा था। शायद उन्हीं का काम होगा। अगले दिन उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘गद्दी तू ठीक कर गई क्या?’’ मैंने कहा, ‘‘जी पिताजी। पुरानी हो रही थी, थोड़ी फट भी रही थी। आपके पास लोग-बाग मिलने आते रहते हैं, तो ठीक नहीं लग रही थी।’’
गुरुजी थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, ‘‘अच्छा बेटा! ठीक है। यह तो ठीक लग रही है।’’ पर गुरुजी सहज में पैसा खर्च नहीं करने देते थे। वे मितव्ययिता को बहुत महत्त्व देते थे। माताजी भी सहज में पैसा खर्च करने नहीं देती थीं। एक बार मैं माताजी के लिये एक साड़ी खरीद लाई। माताजी ने जब देखी तो बोलीं, ‘‘छोरी! मेरे पास तो पर्याप्त साड़ी रखी हैं और तू तो महँगी साड़ी ले आई। ऐसा कर, इसे वापस कर दे।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं माताजी, ज्यादा महँगी नहीं है।’’ माताजी बोलीं, ‘‘तेरे पास बिल होगा, दिखा। मैं किसी को भेज दूँगी, वो वापस कर आयेगा।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी मेरे पास बिल नहीं है और यह वापस भी नहीं हो सकती। मैंने आपके लिये खरीदी है। आपको इसे पहनना ही है।’’ मैंने माताजी के साथ जिद की तो माताजी बोलीं, ‘‘अच्छा, तू जिद करती है, तो रख लेती हूँ पर देख! पैसा तेरा है, तो भी वो हमारा ही है। आगे से खर्च करना तो देख कर करना।’’

गुरुजी गोष्ठियों में कभी-कभी कहते थे, ‘‘बेटा! फटा हुआ सिल कर पहन लेना, पर किसी से कभी माँगना नहीं।’’ डॉ. रामप्रकाश पाण्डे जी को एक दिन एक आदमी ब्लेड की डिब्बी दे गया। उन्होंने वह ब्लेड माताजी को दे दिये। इसपर गुरुजी बहुत प्रसन्न हुए। वह बहुत बार उस प्रसंग की चर्चा करते और कहते, ‘‘बेटा, कोई आदमी कोई चीज दे जाये तो माताजी के पास दे देना। उसे अपने लिये इस्तेमाल मत करना। नहीं तो तुम पर उस का भार चढ़ जायेगा।’’

अपने निजी खर्च के संबंध में वे कितने अनुशासित थे, इस विषय में एक दिन श्रीकृष्ण अग्रवाल जी ने बताया। ‘‘यह उन दिनों की बात है जब आश्रमवासियों की आवश्यकता हेतु त्रिपदा-15 में, कुछ आवश्यक सामान रखने हेतु छोटी सी दुकान बनाई गई थी और मुझे इस काम के लिये नियुक्त कर दिया गया था।
दीपावली का दिन था। दुकान में पटाखे भी आये हुए थे। तब चीनू (श्री चिन्मय पंण्ड्या का घरेलू नाम) बहुत छोटा था। गुरुजी उसे गोदी में लिये हुए दुकान पर आये और बोले-‘‘बेटा! चीनू के लायक पटाखे निकाल दो।’’ ‘‘जो चाहिए, ले लीजिए गुरुजी।’’ मैंने कुछ पटाखे सामने रखते हुए कहा।
गुरुजी ने कुछ पटाखे बच्चे के हिसाब से छाँटे और कहा-‘‘इसे बाँध दो और कितना पैसा हुआ, बताओ?’’
मैं हैरान होकर, गुरुजी की ओर देखने लगा। सोचा, दुकान तो गुरुजी की ही है। फिर भी इतने थोड़े से पटाखों के पैसे पूछ रहे हैं। मैंने झट से कहा-‘‘गुरुजी, दुकान आप ही की है, इसके पैसे नहीं लगेंगे।’’
यह सुनकर गुरुजी नाराजगी भरे स्वर में, पर समझाते हुए बोले-‘‘देख बेटा! फिर ऐसी बात मत कहना। दुकान मिशन की है। मैं पैसे दिए बिना नहीं लूँगा। तू चाहे तो इन्हें रख ले।’’
अब तो मेरी बोलती बंद हो गई। बच्चे के पटाखे, कैसे रख लेता? मैंने तुरंत हिसाब जोड़ कर पैसे बताये, ‘‘दो रुपये, नौ आने।’’ पैसे देकर ही गुरुजी पटाखे लेकर गये।

गुरुजी-माताजी ने अपने बच्चों से भी संयमशीलता की साधना कराई। इस विषय में एक प्रसंग मैंने वाङ्मय-खण्ड 1 में पढ़ा था। पढ़कर मेरा मन भर आया। प्रसंग इस प्रकार है-‘‘शैल जीजी तब लगभग 6-7 साल की थीं। एक दिन स्कूल से लौटते समय उन्हें रास्ते में एक रुपया पड़ा मिला। उन्होंने उसे उठा लिया। सामने खिलौने की दुकान थी। उनका बालमन खिलौनों के लिये मचल गया। मन ने कहा पड़े हुए सिक्के को उठा लेना कोई चोरी तो है नहीं। सो उन्होंने खिलौने की दुकान से गुब्बारे, खिलौने आदि खरीदे और बड़ी प्रसन्न मुद्रा में घर पहुँचीं।
घर पहुँचते ही माताजी की पहली नजर उनके नन्हें-नन्हें हाथों में थमे खिलौनों और गुब्बारों पर पड़ी। माताजी के पूछने पर उन्होंने सब बता दिया। माताजी ने प्यार से उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटी, इन सब चीजों को दुकान पर वापिस कर आओ और पैसे को किसी मंदिर में डाल दो।’’ ‘‘आखिर क्यों?’’ 6-7 साल की नन्हीं बच्ची के मन ने प्रश्न किया। मैंने तो कोई चोरी नहीं की, पैसे तो पड़े मिले थे।’’ ‘‘पड़े मिले तो क्या हुआ, बिना मेहनत का पैसा भी चोरी का ही है।’’ माताजी ने समझाया और खिलौने लौटा दिये गये। पैसा पास के मंदिर में चढ़ा दिया गया।’’ कुछ समय पहले खेलने के लिये मचल रहा मन आदर्श के आगे झुक गया।

श्री चैतन्य जी व उस समय के अन्य परिजन डॉ दत्ता, लीलापत शर्मा जी आदि बताते हैं कि जब पूज्य गुरुदेव के बड़े बेटे, श्री ओमप्रकाश शर्मा जी, गुड़गाँव में अपना मकान बना रहे थे। उन्हें कुछ पैसों की आवश्यकता थी। यह बात मथुरा में तपोभूमि के कार्यकर्ताओं को पता चली। उधार में पैसे की व्यवस्था कर देना कोई बड़ी बात नहीं थी। किन्तु पूज्यवर से कहे कौन? किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
उनकी परेशानी देखकर, एक कार्यकर्ता से रहा नहीं गया, सो एक दिन उसने हिम्मत बटोर कर गुरुजी से कह ही दिया, ‘‘गुरुदेव, ओमप्रकाश भाई साहब को पैसे की आवश्यकता है। उधार में कुछ पैसे की व्यवस्था कर देते तो अच्छा होता।’’
सुनकर, गुरुजी नाराज हो कर बोले, ‘‘आप लोगों ने मुझे समझ क्या रक्खा है? मिशन का पैसा, बेटे को मकान बनाने के लिये दे दूँ? क्या मुझे चोर समझ रक्खा है? बेईमान-उचक्का समझ रक्खा है?’’
अब तो कहने वाले भाई की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। फिर भी सफाई के तौर पर धीरे से बोले, ‘‘गुरुजी, हमने तो उधार की बात कही थी।’’ परन्तु वे कहाँ सुनने वाले थे। इस पर और भी नाराज हुए और बोले, ‘‘घर उसे बनवाना है, तो उधार की व्यवस्था भी स्वयं करे। हम मिशन के पैसे को अपने बेटों के लिये छू भी नहीं सकते।’’

इसी प्रकार जब डॉ. प्रणव जी का एैक्सीडेंट हुआ था। उस समय भी गुरुजी ने मिशन के पैसे को उनके इलाज के लिये उधार रूप में भी ग्रहण नहीं किया। जब सतीश भाई साहब मथुरा से पैसे लेकर आये तब उन्हें दिल्ली ले जाया गया। श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी उन्हें दिल्ली लेकर गये थे।

श्री सतीश भाई साहब (गुरुदेव के सुपुत्र) की शादी के समय का एक प्रसंग जिसकी वीरेश्वर भाई साहब अक्सर चर्चा करते हैं, वह भी बताती हूँ-
सतीश भाई साहब की शादी का उत्सव प्रारंभ हो चुका था। सब मेहमान घीयामंडी, मथुरा पहुँच चुके थे। फिर भी पूज्यवर के सभी कार्यक्रम पहले की तरह ही नियमित रुप से चल रहे थे। कहीं कोई सजावट या परिवर्तन नहीं था।
शिविरार्थी तो पूज्यवर के आदर्श पर निढाल थे, किन्तु रिश्तेदारों को सजावट के कुछ भी चिह्न दिखाई न देने से खल रहा था। पर गुरुदेव से कहे कौन? गुरुजी से कहने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही थी? सभी आपस में काना-फूसी कर रहे थे।
आखिर में श्री सत्यप्रकाश जी, सतीश भाई साहब कीमौसी के लड़के, जिन्हें घर में सब ‘‘सत्तो’’ कहकर पुकारते थे। उन्होंने जाकर गुरुजी से अपनी ब्रज भाषा में कह ही दिया। ‘‘क्या मौसा जी? कुछ अच्छो ना लागत है। लड़को को ब्याह है, कुछ झालर-वालर तो होना ही चाहिए।’’
गुरुदेव ने उनकी बात सुनी व कहा-‘‘अच्छा देखता हूँ।’’
मैं वहीं खड़ा था। मुझे इशारे से बुलाया व कहा-‘‘देख वीरेश्वर! सत्तो क्या कह रहा है? जा एकाध झालर लगवा दे।’’
मैंने सत्यप्रकाश जी से चर्चा की व दुकान में आर्डर दे आया। उनके स्तर के अनुरूप कम से कम पचास रुपये का झालर तो लगना ही चाहिए, ऐसा सोचकर, आर्डर दे आया।
दूसरे दिन प्रातः पूज्यवर ने पूछा, ‘‘वीरेश्वर, झालर के लिये कहा क्या?’’ ‘‘हाँ, गुरुजी।’’
‘‘कितने का?’’
‘‘जी, पचास रुपये का’’
सुनकर गुरुजी बोले, ‘‘जा, जा! मनाकर दे। मुझे नहीं लगाना पचास रुपये का झालर।’’ मैं चौंक कर गुरुदेव का मुँह ताकने लगा सोचा, कल आर्डर दिया, आज कैसे मना करूँ? क्या सचमुच मना करना पड़ेगा? अभी सोच ही रहा था कि इतने में उन्होंने फिर कहा-‘‘जा, जल्दी मना कर दे, नहीं तो वह लगा जायगा।’’
अब तो कोई चारा नहीं था। साइकिल उठाकर मना करने हेतु चल पड़ा। दुकानदार नौकर को झालर देकर रवाना ही कर रहा था। नौकर वहीं कुछ आवश्यक सामान निकाल रहा था।
मैंने जाते ही कहा-‘‘आचार्य जी ने कल का आर्डर कैन्सिल कर दिया है, अतः न भिजवायें।’’ दुकानदार ने पहले तो एक टक देखा, फिर नौकर से कहा-‘‘बस रहने दो, वहाँ का आर्डर कैन्सिल है।’’
‘‘आज तो बच गये।’’ सोचते हुए व इससे पहले कि दुकानदार कुछ भला-बुरा कहे, मैं दुकान से खिसक लिया।
उन्हें फिजूलखर्ची तो बिल्कुल भी पसंद नहीं थी। उन्हें पुत्र के विवाह पर जरा सी रोशनी करना भी अनावश्यक सजावट लगता था।
ऐसे निस्पृह महापुरुष ही अपने लिये कठोरता अपनाकर किसी बृहद् मिशन का निर्माण करने में सक्षम हो पाते हैं।


गुरुजी-माताजी चाहते थे कि हम कार्यकर्ताओं के जीवन में भी सादगी दिखाई देनी चाहिये।
एक बार सर्दियों में, मैं अपने घर, आगरा गई हुई थी। कड़ाके की ठण्ड थी। लौटते समय रास्ते में ठण्ड न लगे इसलिये मैंने कोट पहन लिया। कोट जरा कीमती था। रात में 8:30-9:00 बजे के लगभग मैं शान्तिकुञ्ज पहुँची। पहुँचते ही गुरुजी के पास प्रणाम करने के लिये गई। जैसे ही गुरुजी को प्रणाम किया उन्होंने बड़े ध्यान से देखा और बोले, ‘‘अच्छा! कोट पहन कर आई है। कोट कहाँ से माँग लाई?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मेरा ही कोट है। किसी से, कहाँ से माँगती?’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा, माँगना नहीं किसी से। अब पहन आई है तो कोई बात नहीं, पर बेटा, यहाँ हम सबको ब्राह्मण जीवन जीने की बात कहते हैं। सादगी से रहने की बात कहते हैं। तू इसका ध्यान रखना।’’ उस दिन के बाद से मैं गुरुजी के सामने वह कोट पहन कर नहीं गई।

एक बार करवाचौथ के त्यौहार के दिन मैंने और शैलो जीजी ने बढ़िया से गहने आदि पहने और गुरुजी-माताजी को प्रणाम करने व उनका पूजन करने गए। पिताजी (गुरुजी) ने हमें बड़े गौर से देखा। फिर माताजी से बोले, ‘‘माताजी, ये तो हमारी बेटियाँ नहीं लगतीं।’’
उनकी दृष्टि में कुछ ऐसे भाव थे कि हम लोग उनसे नज़र नहीं मिला पाये, पर हम उनका भाव समझ गये थे। हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा, जैसे-तैसे फटाफट पूजा की और दौड़ कर नीचे आ गये। दोनों ने परस्पर कोई चर्चा नहीं की, अपने-अपने कमरे में गये और सब गहने आदि उतार कर रख दिये। फिर कभी दुबारा हम लोगों ने उस दिन जैसे गहने नहीं पहने। गुरुजी को बहनों का जरूरत से ज़्यादा सजना-धजना पसंद नहीं था। वे कहते थे, ‘‘बेटा, सादगी में ही असली सौंदर्य है।’’

ब्राह्मणोचित जीवन (सादगी भरा जीवन) जीने की प्रेरणा देते हुए वे अक्सर समझाते, ‘‘बेटा, ये हमारी ओढ़ी हुई गरीबी है। लोकसेवी को कम से कम सुविधा साधन बटोरने चाहिये।’’

वे छोटी-छोटी बातों द्वारा ही महत्त्वपूर्ण शिक्षण दे दिया करते थे। एक दिन गुरुजी के पास एक सज्जन आये। एक बालक उनके लिये पानी लेकर आया। गुरुजी ने उन सज्जन के जाने के बाद उस बालक को व अन्य जो लोग बैठे थे सबको समझाया, ‘‘जब भी किसी को पानी दो, तो गिलास को ढँकना चाहिये और नीचे भी एक तश्तरी रखनी चाहिये। यदि एक हाथ से गिलास पकड़ा है, तो दूसरा हाथ नीचे लगाओ। थोड़ा झुक कर और देानों हाथ से पानी देना चाहिये। गिलास के नीचे तश्तरी रखना विनम्रता का प्रतीक है, और गिलास को ढँकना निरहंकारिता का।’’

प्रारंभ के दिनों में बिजली नहीं थी। हम लोग भी लालटेन जला कर काम करते थे। एक दिन गुरुजी ने समझाया, ‘‘लालटेन की बत्ती ठीक कर लेनी चाहिये। बत्ती को ऊपर से छोटी कैंची से काट लेना चाहिये। इससे रोशनी तेज हो जाती है और तेल भी कम खर्च होता है।’’


करुणा के सागर--सामर्थ्य के पुंज

दूसरों के कष्ट से उन्हें ऐसी पीड़ा अनुभव होती थी जैसे वे स्वयं ही कष्ट भोग रहे हों। हमने उन्हें दूसरों के कष्ट में रोते भी देखा। तब एक पल को तो हम स्तब्ध रह गये, इतनी करुणा! वे श्रीरामकृष्ण परमहंस की ही भांति शिष्यों के कष्टों को अपने ऊपर ले लेते थे और उन्हें कष्ट से मुक्ति दिलाते थे।
तुलसीपुर, के गोयल जी बड़े ही समर्पित कार्यकर्ता एवं शान्तिकुञ्ज के ट्रस्टी रहे हैं। उनकी बेटी, विजय गोयल का बहुत जबरदस्त ऐक्सीडेंट हुआ था। हालत बहुत गंभीर थी। पूरा जबड़ा इस तरह से टूट गया था कि चेहरा पहचानना भी मुश्किल हो रहा था। गोयल जी ने तुरंत शान्तिकुञ्ज गुरुजी के पास टैलीग्राम किया। बेटी की हालत गंभीर होती गई। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो गोयल जी तुरंत रात में 8:00 बजे ही पत्नी सहित शान्तिकुञ्ज के लिये चल दिये। सुबह जब वे गुरुजी से मिलने पहुंचे तब गुरुजी हम कुछ कार्यकर्ताओं से बातचीत कर रहे थे और टैलीग्राम देखकर बोले कि गोयल जी की बेटी में अब कुछ रहा नहीं है।
इतने में दोनों पति-पत्नी गुरुजी के पास पहुंचे और बिलख-बिलख कर रोने लगे, ‘‘गुरुजी, कैसे भी हो, हमारी बेटी को बचा लीजिये।’’ दोनों की हालत देख कर गुुरुजी के नयन भी भर आये। उनकी आँखों से अश्रु बहने लगे। फिर बोले, ‘‘अच्छा बेटा! मैं प्रार्थना करूँगा, तू लौट जा।’’ अगले दिन जब हम प्रणाम करने पहुँचे तो देखा गुरुजी का चेहरा बिलकुल नीला दिखाई दे रहा है, जैसे बहुत गहरी कोई चोट आई हो। मैंने पूछा, तो बोले, ‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं, तुझे ऐसे ही दिख रहा है, कोई भ्रम हो रहा है।’’ अगले दिन उनका चेहरा सामान्य हो गया। उधर गोयल जी की बेटी की हालत में आश्चर्यजनक सुधार हो गया था। गुरुजी ने अपने शिष्य का कष्ट स्वयं पर लेकर उसे संरक्षण दिया था।

एक और घटना है। उन दिनों हम पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज नहीं आये थे। भिलाई में ही रहते थे। हमारे साथ भिलाई की एक कार्यकर्ता कामिनी बहन हमारे साथ आई थीं। उनके विवाह को कई वर्ष हो गए थे, पर संतान नहीं थी। इस कारण परिवार के लोग उन्हें परेशान करते थे। यहां तक कि पति भी अब दूसरा विवाह कर लेने की बात कहने लगे थे। मिशन का काम करने पर भी पति उन्हें ताने देते और कहते कि हम तुम्हें छोड़ देंगे। तब तुम आराम से अपने गुरू का काम करना।
गुरुजी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई और फूट-फूट कर रोने लगीं। उनकी व्यथा सुनकर गुरुजी की आँखों से भी अश्रुधारा बहने लगी। जितना वह रो रही थीं, उतना ही गुरुजी भी रो रहे थे। हम सब देखकर हतप्रभ थे। गुरुजी की हालत देखकर हम कामिनी बहन से धीरज रखने को कहकर उन्हें शांत हो जाने के लिये कहने लगे। फिर थोड़ी देर में गुरुजी बोले, ‘‘जा बेटी, अब तुझे कोई तंग नहीं करेगा। तू बस मेरा काम करती रहना।’’
जल्दी ही हम लोग स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये। कामिनी बहन को शान्तिकुञ्ज से लौटने के नौ माह बाद ही एक सुंदर बालक की प्राप्ति हुई। कुछ वर्षों बाद वे बालक को गुरुजी का आशीर्वाद दिलाने के लिये शान्तिकुञ्ज लेकर आईं। जब हमने बालक के विषय में पूछा तो अश्रुपूरित नेत्रों से कहने लगीं, ‘‘आप भूल गए, जब मैं रोते हुए गुरुजी के पास आई थी? उन्होंने ही मेरी झोली खुशियों से भर दी है।’’


श्री केसरी कपिल जी एवं श्रीमती देवकुमारी श्रीवास्तव

(श्री केसरी कपिलजी 1969 में टाटानगर में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद लगातार संपर्क में रहे, क्षेत्र से ही समयदान करते रहे, गुरुदेव के साथ भी टोलियों में जाने का सौभाग्य मिला। जून 1977 में पूज्य गुरुदेव के बुलाने पर सपरिवार स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)


काल को भी मुट्ठी में रखने वाले महाकाल हमारे गुरुदेव

सन् 1969 में पूज्य गुरुदेव हमारे यहाँ टाटानगर आये थे। उनका कार्यक्रम था। उसी कार्यक्रम में 10 अप्रैल को हमने गुरुदीक्षा ली। उन दिनों गुरुदेव पुष्पाँजलि अपने हाथ में लिया करते थे। जब दीक्षा की पुष्पाँजलि देने गुरुदेव के पास गई तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, परिवार और सामान न बढ़ाना।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव, कल ही तो आपने पुंसवन संस्कार कराया है’’ तो बोले, ‘‘बेटा यह संतान तुम्हारा भविष्य बदलने आ रही है। तुम्हारी यह संतान बहुत सौभाग्यशाली होगी, पर आगे परिवार और सामान मत बढ़ाना।’’ मैं सोचने लगी परिवार की बात तो समझ में आई, पर सामान की बात समझ में नहीं आई। बात आई गई हो गई।
कहते हैं कि समर्थ गुरु शिष्य को कुछ देने से पहले कठिन परीक्षा लेता है सो हमारी भी परीक्षा शुरू हुई। 26 अप्रैल को मेरा छोटा पुत्र शशि शेखर जो उस समय तीन वर्ष का था, स$ख्त बीमार हो गया। एक माह होने को आया पर उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था, बल्कि स्थिति और भी नाज़ुक होती जा रही थी। पूरी पारिवारिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। विचित्र स्थिति थी। बालक हर समय बेहोश रहता था। डाक्टर, हमारे पतिदेव के आगमन की प्रतीक्षा करते रहते थे। क्योंकि वे बालक के सिर पर हाथ रखकर जब गायत्री मंत्र बोलते तो वह आँखें खोल देता। जिसे देखकर डाक्टर दवा लिखते थे।
25 मई को उसकी स्थिति ज़्यादा खराब हो गई। जब उसका कष्ट असह्य हो गया तो पतिदेव (श्री कपिल जी) ने मेरे आग्रह पर गुरुदेव को पत्र लिखा कि बालक का कष्ट देखा नहीं जाता। यदि बचा सकें तो ठीक, नहीं तो उसे दुनिया से उठा भी लें तो दुःख नहीं। उसे कष्ट से तो मुक्ति मिले।
गुरुदेव तक पत्र पहुँचने में कम से कम 5 दिन तो लगते ही थे। पर आश्चर्य! 29 मई को ही गुरुदेव का जवाबी पत्र पहुँच गया। पत्र 25 मई को लिखा गया था। ऐसा लगा जैसे यहाँ हम पत्र लिख रहे थे और वहाँ वह जवाब लिख रहे थे। लिखा था-‘‘तुमने भले न बताया हो पर तुम्हारे बालक की अस्वस्थता की जानकारी हमें है। घबराना नहीं, बालक शीघ्र घर जाएगा और पूर्ण रूप से स्वस्थ होगा।’’ पत्र मिलने के चौथे दिन ही 2 जून को बालक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई और उसके स्वास्थ्य में क्रमशः सुधार भी होता गया।

जून 1969 में मथुरा में नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठान सत्र पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में चल रहे थे। मेरे पतिदेव को भी जाना था। मेरे प्रसव का समय नज़दीक था। तीनों बच्चे भी छोटे ही थे। पतिदेव की अनुपस्थिति में सब व्यवस्था कैसे होगी? मुझे यह चिंता सताये जा रही थी। एक रात हम दोनों ने स्वप्न में देखा कि एक श्वेताम्बर महिला हमारे आँगन का चक्कर काटकर मेरे कमरे में आकर कहने लगी, तू क्यों चिंता करती है? मैं तो तेरे पास आ गई हूँ। तुम्हारी देखभाल मैं करूँगी। उसी दिन शाम को मेरी ननद हमारे घर आ गई और मेरे पतिदेव मेरी जिम्मेदारी उन्हें सौंपकर मथुरा के लिये तैयार हो गये। पतिदेव से, जाते समय मैंने निवेदन किया कि आपकी उपस्थिति में ही प्रसव होता तो मैं निश्चिंत रहती। कृपया पूज्य गुरुदेव को मेरा यह संदेश दे दीजियेगा।
श्री कपिल जी ने तपोभूमि मथुरा में पहुँच कर जब गुरुजी से सब बात बताई तो गुरुजी ने कहा कि घर की चिंता अब तुम्हारी नहीं। वहाँ की देख-रेख हम कर लेंगे। तुम यहाँ अनुष्ठान करो और यदि तुम्हारी पत्नी की इच्छा है कि प्रसव तुम्हारी उपस्थिति में ही हो तो मैं उसका प्रसव काल एक महीने आगे बढ़ा देता हूँ।
इधर हमारे आश्चर्य और प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। 12 दिन मेरे पतिदेव हमसे दूर रहे किन्तु प्रत्येक दिन गुरुदेव और वंदनीया माताजी मुझे हर पल अपनी उपस्थिति का आभास कराते रहे। कभी-कभी तो गुरुजी का कुर्ता स्पष्ट दिखाई देता। गुरुजी के पूरे दर्शन तो नहीं हुए पर उनका बराबर अहसास होता रहा। माताजी तो घर में घूमते हुए व बच्चों के बिस्तर पर लेटी हुई अक्सर ही दिखाई देतीं। उन्हें बच्चों के बिस्तर पर देखकर मुझे लगता कि बच्चे बिस्तर गंदा कर देते हैं, कभी-कभी गीला भी कर देते हैं। फिर भी माताजी उस पर आनंद से लेट जाती हैं।
इस प्रकार कैसे इनके शिविर के दिन पूरे हो गये पता ही नहीं चला। यह मथुरा से लौट आये। हमारी छोटी बेटी करुणा का जन्म भी दसवें महीने में इनके लौटने पर ही हुआ और सच में यहीं से मेरे भाग्य का बदलाव भी प्रारंभ हो गया।


इन्हें, मैंने तेरी अमानत मानकर रखा था।

गुरुदेव साधना हेतु हिमालय जाने वाले थे। 16 से 20 जून 1971 की तिथियों में मथुरा में विदाई समारोह होने वाला था। टाटानगर के गायत्री परिजन उन दिनों गीत गाते थे--
कुछ चंद महीनों का, समय बाकी बचा है, गुरुदेव चले जायेंगे, यह शोर मचा है।
अखण्ड ज्योति पत्रिका में अपनों से अपनी बात शीर्षक के अंतर्गत गुरुदेव इसी आशय के लेख भी लिख रहे थे। पूज्य गुरुदेव के अंतिम दर्शन करने की इच्छा हर किसी को झकझोर रही थी। कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। सन् 1971 के विदाई समारोह में हम भी सपरिवार आये थे। हम दोनों यज्ञनगर एवं यज्ञशाला की जवाबदारी सँभाल रहे थे। इस समारोह में गुरुदेव के प्रवचन, यज्ञ के बाद ही होते थे। तीसरे दिन के प्रवचन में गुरुदेव का बड़ा मार्मिक उद्बोधन था। उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में परिजनों को अपना समय, श्रम, साधन लगाकर मिशन को सम्भालने और बढ़ाने का भावभरा आवाहन किया। शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसका हृदय विगलित न हुआ हो। बहुत लोगों ने अपने आभूषण उतार कर दान किये। मुझे आभूषण पहनना बहुत प्रिय था। 7-8 तोले के आभूषण मैंने उस समय भी पहन रखे थे। मुझे भी उत्साह आया और हम दोनों ने परामर्शपूर्वक सब आभूषण एक रुमाल में बाँधकर गुरुजी व माताजी के चरणों में रखकर प्रणाम कर लिया।
20 जून को गुरुजी-माताजी अखण्ड दीपक लेकर शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार आ गये। सब जानते हैं कि वे मथुरा से कुछ भी साथ नहीं लाये थे। उसके बाद सन् 76 तक मैं अनेकों बार शान्तिकुञ्ज आई। सन् 77 के जून माह में गुरुपूर्णिमा पर्व पर, शिविर में भाग लेने के लिये मैं बच्चों सहित आई थी। गुरुदेव ने हम दोनों को दोपहर में मिलने के लिये बुलाया और बोले, ‘‘अब यहाँ ही रहना।’’ इन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, 6 महीने तो देता ही हूँ, 2 माह और बढ़ा दूँगा।’’ गुरुजी बोले, ‘‘मुझे 365 दिन चाहिये।’’ हमने कहा, ‘‘गुरुदेव, बच्चे छोटे हैं, उनकी पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी है। बड़ा परिवार है। छोटा बेटा बीमार रहता है।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘बेटा, तू मेरे पास आ जाएगी तो मैं सब देख लूँगा।’’ हम लोग यहीं रुक गये।
11 जुलाई को माताजी ने दोपहर में बुलाया और एक छोटी सी पोटली मुझे दी। मैंने खोल कर देखा 6 साल पहले समर्पित किये मेरे आभूषण थे। मैंने कहा, ‘‘माताजी यह तो मैंने दान कर दिये थे। इन्हें मैं नहीं लूँगी।’’ माताजी ने कहा, ‘‘बेटा, मैं जानती थी कि भविष्य में तुझे मेरे पास आना है। इसलिये मैंने इन्हें तेरी अमानत मानकर रखा था।’’ फिर बोलीं, ‘‘तेरी गृहस्थी कच्ची है। अभी ये तेरे काम की है, इसे रख ले। बच्चों के समय काम आयेंगे।’’ मेरे लाख मना करने पर भी माताजी ने वह आभूषण मुझे थमा दिये। मैंने उन्हें सँभाल कर तो रख लिया पर, कभी पहना नहीं। जब बच्चों का विवाह हुआ तब वही माताजी से प्राप्त आशीर्वाद की पोटली मेरे काम आई। मेरे दोनों बेटों और दोनों बेटियों का विवाह मैंने उन्हीं आभूषणों से किया। पर मेरे लिये आज भी यह रहस्य और आश्चर्य ही बना है कि माताजी ने हजारों की भीड़ और हजारों आभूषणों में से भी मेरे आभूषण कैसे पहचाने और कहाँ सँभाल कर रखे थे? जितने आभूषण दिये थे उतने ही थे, न एक कम न ज़्यादा। सच में हमारे पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी त्रिकालदर्शी और सर्वज्ञ थे।
श्री कपिल जी भाई साहब बताते हैं, ‘‘मुझे गुरुदेव के साथ क्षेत्रों में जाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके साथ बिताई ढेरों स्मृतियाँ हैं। पंडित लीलापत शर्मा जी भी अक्सर साथ में रहते थे। उन्होंने इस पर ‘पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण’ नामक पुस्तक भी लिखी है। बहुत से प्रसंग उसमें छप चुके हैं, और भी ढेरों प्रसंग हैं।’’

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