1.    जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गँवाया जाय --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जीवन यदि शरीर मात्र ही हो और प्रसव के समय उसका आदि और चिता के साथ अन्त माना जाय, तो फिर कृमि-कीटकों की तरह पेट प्रजनन की उधेड़ बुन में लगे रहना भी पर्याप्त हो सकता है। मनःसंस्थान अधिक विकसित होने के कारण इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित रूप में, लोभ-मोह में भी चरितार्थ होते रहने दिया जा सकता है। उद्धत अहंकारिता का त्रिदोष इसमें और मिल सके तो फिर प्रेत-पिशाचों जैसी स्थिति में भी रहा जा सकता है। वे खाते कम और खुतराते अधिक हैं। उपभोग उतना नहीं कर पाते जितना विनाश करते हैं। उनकी प्रसन्नता ध्वंस, पतन और दुर्गति के दृश्य देखने पर अवलम्बित रहती है। जलते और जलाते, कुढ़ते और कुढ़ाते दिन बिताते हैं। इन्हीं वर्ग समुदायों में से किसी में रहना जिन्हें भाया, सुहाया हो उनसे कोई क्या कहे? किन्तु जिन्हें कुछ आगे की बात सोचनी आती है, उनसे तो कहने सुनने जैसी ढेरों बातें हैं। उनमें से कुछ तो ऐसी हैं जिन्हें हीरे मोतियों से तोला जा सकता है।

किसी को यदि यह आभास हो कि हम मात्र शरीर नहीं है। आत्मा नाम की किसी वस्तु का भी अस्तित्व है और उसका थोड़ा बहुत सम्बन्ध आत्मा से भी है, तो ढेरों ऐसे प्रश्न उभर कर आते हैं जिनका स्वरूप और समाधान ढ़ूँढे बिना गति नहीं। कुछ ऐसे ज्वलन्त प्रश्न हैं जिनकी उपेक्षा वही कर सकता है, जिसे लोक-परलोक से, आत्मा-परमात्मा से, उत्थान-पतन से, कर्म-अकर्म से कुछ लेना-देना न हो। जिनकी दृष्टि लोभ और मोह से एक कदम भी आगे को नहीं जाती। जिसे तत्काल की सुख-सुविधा, आत्मश्लाघा, सस्ती वाहवाही के अतिरिक्त और कुछ सुहाता न हो। जिसे न भूत का स्मरण हो और न भविष्य के भले बुरे होने का अनुमान। ऐसे परमहंस, जड़ भरत या अतिशय चतुर व्यक्ति ही इस स्थिति में रहते पाये गये हैं। जिन्हें तत्काल से आगे-पीछे की कोई बात सोचने की न फुरसत मिले न आवश्यकता लगे।

यदि गहरी न छानी हो और अपना अस्तित्व शरीर से भिन्न भी प्रतीत होता हो, तो फिर सोचना होगा कि सृष्टा ने जो सुविधाएँ किसी भी जीवधारी को नहीं दी है वे मात्र मनुष्य को ही क्यों प्रदान कर दी? जबकि उसे समदर्शी न्यायकारी और परमपिता कहा जाता है। इन तीनों विशेषताओं का तब खण्डन हो जाता है, जब अन्य प्राणियों को वंचित रखकर कुछ असाधारण सुविधाएँ मनुष्य को ही देने की बात सामने आती हैं। सबको समान या किसी को नहीं, इसी में प्राणियों का पिता कहलाने वाले परमात्मा की न्यायप्रियता एवं समदर्शिता सिद्ध होती है। न्यूनाधिक वितरण करने पर तो उस पर पक्षपात का लांछन लगता है। ऐसा हो नहीं सकता। परमात्मा ही जब ऐसी अनीति बरतेगा तो उसकी सृष्टि में न्याय नीति का अस्तित्व किस प्रकार बना रह सकेगा?

निश्चित ही मनुष्य को जो मिला है, वह उसकी पात्रता देखते हुए किसी विशेष प्रयोजन के लिए धरोहर रूप में दिया गया है। खड़े होकर चलने वाले पैर, दस उँगलियों और अनेक मोड़ों वाले हाथ, बोलने वाली जीभ, सूझबूझ वाला मस्तिष्क, दूरदर्शी विवेक अन्य किसी प्राणी के हिस्से में नहीं आया। परिवार बसाने, समाज बनाने, आजीविका कमाने, वाहनों का उपयोग करने, प्रकृति की रहस्यमयी परत कुरेदने, शिक्षा, चिकित्सा, कला व्यवसाय, सुरक्षा जैसे साधन जुटाने में अन्य कौन प्राणी मनुष्य की समता कर सकता है। यह सभी विभूतियाँ ऐसी हैं जिनका महत्त्व उपभोक्ता को तो प्रतीत नहीं होता, पर जब वे छिन जाती है तो स्मरण आता है कि जो सौभाग्य अपने को हस्तगत हुआ था उसे प्राणि जगत के साथ तुलना करने पर अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता था। उसका सदुपयोग न कर सकने पर जो पश्चाताप होता है, उसकी व्यथा और शृंखला इतनी लम्बी होती है कि जन्म जन्मान्तरों तक उस भूल की पीड़ा व्यथित करती रहे।

सृष्टा ने मनुष्य स्तर तक पहुँचाने पर जीवधारियों की क्रमिक प्रगति और पात्रता को देखते हुए सोचा, कि क्यों न इसे सृष्टि की सुव्यवस्था में सहयोगी बनाकर अपना थोड़ा सा भार हल्का किया जाय? इसी दृष्टि से उसे युवराज का पद प्रदान किया गया और तदनुरूप समर्थता से सम्पन्न किया गया कि सृष्टि की सुन्दरता, सुव्यवस्था प्रगति एवं सुसंस्कारिता को बढ़ाने में वह विशेष योगदान भी कर सकेगा। इसी आशा अभिलाषा के अनुरूप मनुष्य का सृजन हुआ है। और उसके निर्माण से सृष्टा का समूचा कौशल दाव पर लगा है। उसे अपनी अनुकृति के स्तर का ही बनाया गया है। जो विभूतियाँ उसमें थी उन सभी को बीज रूप में उसने काया के अनेकानेक कोश भण्डार में इस प्रकार भर दिया है कि वह जब चाहे तब उन्हें फलित, प्रस्फुटित करके उच्च स्तरीय बना सके। संक्षेप में यही है मनुष्य की सत्ता और महत्ता का सार संक्षेप।

उपलब्ध वैभव का उपयोग एक ही है कि सृष्टा के प्रत्यक्ष कलेवर इस विराट विश्व में सौन्दर्य संवर्धन, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में अपनी क्षमता नियोजित किये रहे और सृष्टा का श्रम सार्थक करे, उसका मनोरथ अगले उपहारों के रूप में महामानव, ऋषि, मनीषी, देवता, सिद्ध पुरुष एवं भगवान अवतार बनने जैसी पदोन्नतियों का लाभ मिलता है। जो प्रमाद बरतते, विश्वासघात करते और उपलब्धियों को संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए प्रयुक्त करते हैं, उन्हें सुविधा छिनने और प्रताड़ना सहने का दुहरा दण्ड भुगतना पड़ता है। नरक-स्वर्ग की बात सभी जानते हैं। कुकर्मियों का चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करना सर्वविदित है। यह इसी प्रमाद का प्रतिफल है। जिसमें मनुष्य जीवन को लूट का माल समझा गया और उसे विलास व्यामोह की निजी लिप्साओं के लिए प्रयुक्त किया गया। बैंक का खजांची यदि हस्तगत हुई राशि का अपने निज के लिए उपयोग कर ले, सरकारी शस्त्र भंडार का स्टोर कीपर उन आयुधों को दस्युओं या शत्रुओं के हाथों थमा दे, मिनिस्टर अपने अधिकारों का प्रयोग सम्बन्धियों को लाभ देने के लिए करने लगे तो निश्चय ही उसे अपराधियों के कटघरे में खड़ा किया जायेगा। मनुष्य भी यदि जीवन सम्पदा को वासना, तृष्णा, अहंता जैसे क्षुद्र प्रयोजनों में खर्च करता है, तो समझना चाहिए कि आज जिसे अधिकार माना जा रहा है कल उसी को अपराध गिना जायेगा। और ठीक वैसा ही दण्ड मिलेगा जैसा कि प्रमादी, विश्वासघाती सेनाध्यक्ष को कोर्ट मार्शल द्वारा मिलता है।

अच्छा हो समय रहते भूल सुधरे और वह उपक्रम बने जो जिम्मेदारों और ईमानदारों को शोभा देता है। यदि ऐसा कुछ विचार विश्वास मन में उभरे तो फिर अपनाने योग्य विधा एक ही है कि शरीर वहन के लिए निर्वाह भर की व्यवस्था बनाने के उपरान्त शेष समूची क्षमता को उन प्रयोजनों में खपा दिया जाय, जिनसे विश्व व्यवस्था का सन्तुलन बनता है और सार्वभौम प्रगति का, सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सुयोग बनता है। मनुष्य इस भूमिका को निभा सकने की स्थिति में असंदिग्ध रूप से समर्थ है। उसकी निजी आवश्यकताएँ इतनी कम है और उसकी पूत के साधन इतने अधिक है कि उस सन्तुलन को बिठाने में किसी को भी राई रत्ती भर कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। अन्यान्य प्राणियों के पेट बहुत बड़े हैं, जबकि मनुष्य का छै इंच चौड़ाई का इतना छोटा पेट है जो मुट्ठी भर अनाज से भर सके। अन्य प्राणी केवल जो सामने है उसी को पाते और मुख के द्वारा खाते है। जबकि मनुष्य अगणित सुविधा साधन अपने कौशल और पराक्रम से चुटकी बजाते उपार्जित कर सकता है। ऐसी दशा में किसी को भी अभाव ग्रस्त होने जैसी शिकायत करने की गुंजाइश नहीं है। मनुष्य जीवन असीम सुविधाओं से भरा-पूरा है। उसकी दुनियाँ इतनी साधन सम्पन्न है कि अभाव जन्य कठिनाइयाँ अनुभव करने की किसी को कभी आवश्यकता ही न पड़े। दूषित अव्यवस्था ही है जिसमें ग्रसित होकर उसे अभावों का रोना रोते हुए समय गुजारना पड़ता हैं।

शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभव करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं। किसी श्मशान में थोड़ी देर बैठकर वहाँ के दृश्य का अवलोकन करते हुए यह पाठ भली प्रकार पढ़ा जा सकता है। आत्मा के पृथक होते ही हृष्ट-पुष्ट शरीर की भी कैसी दुर्गति होती है, इसे देखते हुए समझा जा सकता है कि शरीर ही आत्मा नहीं है, जीवधारी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी है, जो मरण के उपरान्त भी बना रहता है। यही है वास्तविक ‘स्व’ इसी का हित साधन करने को स्वार्थ कहा जाता है। जब आत्मा को संकीर्णता की कीचड़ से बाहर निकाल कर उसे व्यापक क्षेत्र में विचरण कर सकने की स्थिति में लाया जाता है, तो उसे सबमें अपना ही आत्मा दिखता है। तब सर्वजनीन हित साधन परमार्थ बन जाता है। जिससे न स्वार्थ सधता है न परमार्थ, उसे अनर्थ ही कहना चाहिए। लगता है लोग अनर्थ को ही अपनाते और उसी के नियोजन में अपने चातुर्य को संलग्न रखे रहते हैं। अन्ततः यह तथाकथित बुद्धिमत्ता मूर्खता से भी मँहगी पड़ती है।

करना क्या चाहिए? यदि इस प्रश्न का उत्तर गम्भीरता और दूरदर्शिता के सहारे उपलब्ध करना हो तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि शरीर को जीवित रखने भर के साधन जुटा देने के उपरान्त जो सामर्थ्य शेष रहती है, उसे आत्मा का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ में लगा देने का साहस करना चाहिए। मात्र औचित्य अपनाने की इस समझदारी को साहस इस अर्थ में कहा जा रहा है, कि जन समुदाय के अधिकांश सदस्य अनर्थरत ही देखे जाते हैं उन्हें लोभ मोह की आग भड़काने और उसे बुझाने के लिए ईंधन जुटाने में ही निरन्तर कार्यरत देखा जाता है।

सुना है कि तेल या ईंधन डालने से आग भड़कती है, पर मनुष्य है जो तृष्णा को भड़काता और उसकी पूत के लिए, रावण जितना वैभव जुटाने के लिए अहर्निश श्रम करता है। अपना ही नहीं पड़ोसियों का सामान समेट कर भी उसी दावानल में झोंकता रहता है। यही है असफल और उद्विग्न जीवन का स्वरूप, जिसे अपनाने के लिए अधिकांश लोग उन्मादियों की तरह दौड़-धूप करते रहते हैं। यही है प्रवाह जिसमें जन समुदाय को तिनके पत्तों की तरह बहते देखा जाता है। इस भगदड़ भेड़चाल से भिन्न दिशा में कोई अपना मार्ग निर्धारित करता है तो उसे साहस ही कहना चाहिए। दिग्भ्रान्तों के झुण्ड को चुनौती देकर सही रास्ते का सुझाव देने वाला मूर्ख कहलाता और उपहासास्पद बनता है। तथाकथित जन समुदाय का विशेषतया कुटुम्बियों, हितैषियों का उपहास, तिरष्कार सहने की क्षमता सँजोना निस्संदेह साहस भरा कदम है। इसी से कहा जा रहा है कि आदर्शवाद को, सत्य और तथ्य को अपनाना भी इस अवांछनीयता के माहौल में साहस ही नहीं दुस्साहस भरा कदम है।

औचित्य कहा जाय या साहस। जीवन की सार्थकता का रास्ता एक ही है कि अमीरी और लिप्सा पर अंकुश लगाकर औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाया जाय। उतना जुट जाने पर पूरा-पूरा संतोष किया जाय। इसके उपरान्त जो भी बचा रहता है उस समूचे को ऐसे उपक्रम में नियोजित किया जाय, जिससे मानवी गरिमा का अभिवर्धन होता हो। आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण का उभय पक्षीय प्रयोजन सधता है। इस निर्धारण में भी यह देखना होता है कि सामयिक आवश्यकता पर ध्यान रखते हुए जो सर्वप्रथम सँभालने सुधारने योग्य है उसी को हाथ में लिया जाय। पड़ोस में आग लगने पर भोजन पकाने जैसा आवश्यक काम भी पीछे कभी के लिए छोड़ना पड़ता है। कितने ही काम सामने हो तो उसमें बुद्धिमानी का कदम यह होता है कि प्राथमिकता देने और पीछे धकेलने की एक सुव्यवस्थित शृंखला बनाई जाय। इसका निर्धारण ही सुव्यवस्था कहा जाता है। इस क्रम को बिगाड़ देने पर पूरा परिश्रम करने पर भी बात बनती नहीं और समस्याएँ सुलझने के स्थान पर और भी अधिक उलझ जाती है। इन दिनों प्रत्येक विज्ञजन के लिए करने योग्य सामयिक कार्य एक ही है, कि लोक मानस के परिष्कार का महत्त्व समझा जाय और आस्था संकट का निवारण करने के लिए प्राण प्रण से जुट पड़ा जाय। इस एक ही व्यवधान के समाधान पर समय की समस्त गुत्थियों का सुलझ सकना निर्भर है।

यह सब अनायास ही संभव नहीं हो सकता। इस श्रेय पथ पर चल सकना मात्र उन्हीं के लिए संभव है, जो अपनी आकांक्षा उत्कंठा को तृष्णा से हटाये और उसे उतनी ही भावना पूर्वक श्रेय साधना के लिए लगायें। यह आन्तरिक परिवर्तन ही बाह्य क्षेत्र में वह सुविधा उत्पन्न कर सकता है, जिसके सहारे शरीर निर्वाह की तरह ही आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण का महान प्रयोजन बिना किसी के, नितान्त सरलतापूर्वक सधता रहे। परमार्थ परायणों में से एक भी भूखा, नंगा नहीं रहा। उनके पारिवारिक उत्तरदायित्वों में से एक भी रुका नहीं पड़ा रहा। तरीके अनेकानेक हैं। अपना सोचा हुआ तरीका ही एक मात्र मार्ग नहीं है। नये सिरे से नये उपाय सोचने पर ऐसे समाधान हर किसी को उपलब्ध हो सकते हैं जिनमें से साँप मरे न लाठी टूटे। निर्वाह किसी के लिए समस्या नहीं। कठिनाई एक ही है-अनन्त वैभव की लिप्सा और कुटुम्बियों को सुविधा सम्पदा से लाद देने की लालसा। यदि परिवार के समस्त सदस्यों को श्रमजीवी, स्वावलम्बी बनाने की बात सोची जाय, औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार किया जाय तो इतने भर से जीवन को सार्थक बनाने वाली राह मिल सकती है। प्रश्न एक ही है कि शरीर के लिए जिया जाय या आत्मा के लिए। दोनों में से एक को प्रधान एक को गौण मानना पड़ेगा। यदि आत्मा की वरिष्ठता स्वीकार की जा सके तो उन प्रयोजनों को पूरा करना पड़ेगा, जिनके लिए सृष्टा ने यह सुर दुर्लभ अवसर उच्चस्तरीय उपयोग के निमित्त प्रदान किया है।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

2.    खाने तक में नासमझी की भरमार --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

समझदारी का सदुपयोग यह है कि उसके सहारे सीधा रास्ता तलाश किया जाय और ऊँचा उठने, आगे बढ़ने में उपलब्ध शक्तियों को नियोजित किया जाय। इसके विपरीत यदि समझदारी कुचक्र रचने लगे, विनाश पर उतरे, उलटे रास्ते चले तो उससे हानि ही हानि है। इससे तो वे नासमझ अच्छे जो कछुए की तरह धीमी चाल चलते, लक्ष्य का ध्यान रखते और उछलने वाले खरगोश से आगे निकलकर बाजी जीतते हैं।

मनुष्य की तुलना में इस दृष्टि से वे पशु अधिक समझदार है जिन्होंने प्रकृति मर्यादाओं को अपनाये रखा हैं और मनुष्य के नागपाश तथा प्रकृति प्रकोप का सामना करते हुए भी अपना अस्तित्व बनाये रखा है। जो इन साधन रहित परिस्थितियों में भी मात्र अपनी काया, प्रकृति प्रेरणा और कठोर श्रम करने पर सम्भव हो सकने वाली निर्वाह व्यवस्था भर से काम चलाते और सुख-चैन की जिन्दगी जीते है। एक मनुष्य है जो विपुल वैभव का अधिष्ठाता होते हुए भी आये दिन ऐसे त्रास सहता हैं, जैसे पुराणों मे यमदूतों द्वारा नरक क्षेत्र मे पहुँचने पर दिये जाने का उल्लेख है। होना यह चाहिए था कि स्रष्टा के इस सुरम्य उद्यान में मनुष्य शरीरधारी देवोपम स्तर का निर्वाह करता और अपने प्रभाव क्षेत्र को स्वर्ग में अवस्थित नन्दन वन जैसे सुरम्य बनाकर रखता। पर दुर्भाग्य को देखा जाय, ठीक उलटी स्थिति में उसे दिन गुजारने पड़ रहे हैं।

सबसे निकटवर्ती, सबसे वफादार, सबसे उपयोगी अपना शरीर है। उसी पर सवारी गाँठ कर जीवन की लम्बी मंजिल पूरी की जाती है। इसी वैभव के सहारे इच्छा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने का सुयोग मिलता है। जब तक वह सही है तब तक ही शान्तिपूर्वक रहना, विभिन्न प्रकार के रसास्वादन करना तथा प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकना सम्भव होता है। वह गड़बड़ाये तो करते धरते कुछ नहीं बनता। दिन गुजरना तक कठिन पड़ता है। उलटे त्रास सहना पड़ता है। रोते-कलपते समय कटता है और साथी-सम्बन्धियों पर सेवा-सहायता करने से लेकर धन व्यय करने तक का भार लदता है।

इतना जानते हुए भी यदि कोई जान बूझकर अपने पैरों कुल्हाड़ी मारे, काँटों पर चले, गड्ढे में गिरे और बर्र के छत्ते में हाथ डाले तो कोई क्या करे? समझदारी का अभाव समझ में आता है। उसके लिए भाग्य-भगवान को दोष देकर भी जी हलका किया जा सकता है। किन्तु तब क्या किया जाय, जब समझदारी उलटे रास्ते चले? पैर ऊपर करके, हाथों के बल, धरती से सिर रगड़ते हुए चलने में विशिष्टता के अहंकार का प्रदर्शन करे।

मनुष्य की गतिविधियों को देखकर ऐसी ही स्थिति का अवलोकन करना पड़ता है। जब अपने परमप्रिय सेवक-सम्बन्धी के लिए नासमझी भरी अनीति अपनाते हुए देखा जाता है तब आश्चर्य होता है और असमंजस पड़ता है कि मनुष्य की समझदारी को सराहा जाय या उसकी उलटे पैरों चलने लौटने की विडम्बना को मूर्खतापूर्ण कहकर कोसा जाय।

शरीर के साथ जो व्यवहार किया जाता है उसे उलट-पुलट कर देखा जाय तो एक शब्द में विचित्र ही कहा जा सकता है। शरीर के साथ शत्रुता निबाही जाय, उसे तोड़-फोड़कर बर्बाद किया जाय ऐसा भी किसी का मन नहीं दीखता, यदि ऐसी बात रही होती तो उसे वस्त्र-आभूषणों से, श्रृंगार प्रसाधनों से क्यों सजाया जाता? केश-विन्यास बनाने जैसे अनेकों कामों मेंं कितना समय लगता है? सजधज में कितना धन व्यय होता है? वाहनों, सेवकों द्वारा उसके लिए कितनी सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। विनोद के कितने ही साधन जुटाये जाते हैं? पौष्टिक आहार लेने का भी ध्यान रहता है। इन सब बातों को देखते हुए यह कैसे कहा जाय कि अपनी काया के प्रति किसी का मन शत्रुता निबाहने का है और उसे बर्बाद कर देने का इरादा बन गया है।

दूसरी ओर दृष्टि डालने से जो दृश्य सामने आता है, उसे देखते हुए यह मानने को भी जी नहीं करता है कि शरीर को मित्र माना गया है और उसकी सुरक्षा, स्थिरता तथा प्रगति का वैसा ध्यान रखा गया है जैसा कि किसी समझदार को रखना चाहिए था। एक-एक करके पर्यवेक्षण करना हो तो सर्वप्रथम दृष्टि आहार पर जानी चाहिए, क्योंकि इसी ईंधन के सहारे यह भट्टी गरम रहती है और इसी पर पकने वाली खिचड़ी के सहारे जीवन की गाड़ी चलती है। रस-रक्त का तेल-पानी ही है जिसके बलबूते यह मोटर दौड़ती है। इस सन्दर्भ में असावधानी बरती जाय, उलटी नीति अपनाई जाय तो स्पष्ट है कि उस आधार को विषाक्त होना पड़ेगा, जिसे आरोग्य की आधारशिला कह सकते हैं। अनुपयुक्त आहार करते रहने पर भी कोई किस प्रकार अपने स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रख सकेगा? इस तथ्य को समझने में कोई बड़ी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। फिर भी स्पष्ट है कि आहार के सम्बन्ध में वह ढर्रा अपनाया गया है, जिसके रहते निरोग रह सकने की बात सोची भी नहीं जा सकती। आश्चर्य यह है कि दुष्परिणाम भुगतने में इतनी देरी क्यों होती रहती है। प्रकृति को कठोर अनुशासन की अधिष्ठात्री कहा जाता है फिर भी वह मनुष्य के साथ धीमी और थोड़ी प्रताड़ना देने की उदारता क्यों कर दिखा पाती है।

अभ्यस्त आहार का निरीक्षण पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होता है कि उसे निर्जीव और विषाक्त बनाने में कोई कमी नहीं रहने दी गई है। स्वादिष्ट के ध्रुवकेन्द्र समझे जाने वाले नमक पर दृष्टि डाली जाय तो प्रतीत होता है कि यह मनुष्य के आहार में सम्मिलित होने योग्य स्थिति में किसी भी प्रकार नहीं है। रासायनिक विश्लेषण करने पर वह सोडियम क्लोराइड नामक विष है। जिसकी पोषण में सहायता दे सकने जैसी स्थिति तनिक भी नहीं है। जो नमक शरीर में घुलते और पोषण प्रदान करते हैं वे अन्न, शाक, फल आदि खाद्य पदार्थों में प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। वे ही पचते और खपते भी हैं। इस प्रकार शरीर की लवण आवश्यकता की पूत के लिए उसका समुचित अनुपात उन खाद्य पदार्थों में सँजोया हैं जो खाने के काम आते हैं। उनका अन्यान्य रासायनिक पदार्थों के साथ ऐसा समन्वय भी रहता है, जिससे उनके पचने में सुविधा रहे। आवश्यक नहीं कि उन उपयोगी लवणों का स्वाद खारा ही रहे। फ्रूट साल्ट खारे कहाँ होते हैं?

मनुष्य है जिसे खारी नमक के बिना एक ग्रास गले उतारना कठिन पड़ता है। दाल, शाक, चटनी, अचार कुछ क्यों न हो, हरेक में चटकीला नमक रहना चाहिए। इसके बिना जायका ही क्या? यह बुरी आदत जान-बूझकर डाली गई है। संसार के अनेक क्षेत्र इन दिनों भी ऐसे हैं जहाँ खारी नमक का उपयोग प्रायः नहीं ही होता है। देखा-देखी प्रचलन हुआ है तो उसकी मात्रा नगण्य जितनी रखी गई है। इसका प्रतिफल प्रत्यक्ष है। उन-उन क्षेत्रों में सभ्य जगत की प्राणप्रिय बीमारियाँ अभी भी पहुँच नहीं पाई हैं।

अन्य मसालों के सम्बन्ध में भी यही बात हैं। जीरा, धनिया, हल्दी जैसे मसालों को तो किसी प्रकार सहन भी किया जा सकता है किन्तु मिर्च, लौंग, हींग, तेजपात जैसे गरम मशालें तो ऐसे हैं, जिन्हें एक प्रकार का तेजाब ही कहना चाहिए। वे जलाने-गलाने के अतिरिक्त दूसरा कोई काम कर ही नहीं पाते। हंटर मार-मार कर दौड़ाने जैसी उत्तेजना देकर पेट के साथ अत्याचार ही करते रहते हैं। अधिक खाये को जल्दी पचाने की बात आमतौर से मसालों का लाभ बताते हुए कही जाती हैं। पर वस्तुतः वे निर्दय चाबुकमार की गतिविधियाँ ही अपनाते हैं और नशे की तरह आदत में सम्मिलित हो जाने के बाद यह विवशता उत्पन्न करते हैं कि उनके बिना गाड़ी धकेगी ही नहीं।

मिर्च मसालों के आवेश में मनुष्य अधिक खा जाता है। जो अभक्ष्य थे उन्हें भी निगल जाता है। अवांछनीय तत्वों को शरीर में प्रवेश देने पर कोई अपनी चतुरता की डींग क्यों न हाँके, पाक विद्या के निष्णात अपने कौशल की शेखी कितनी ही क्यों न बघारें, वास्तविकता यह है कि उस चतुरता के सहारे आरोग्य के सर्वनाश का ही द्वार खुलता है। लाड़-चाव में प्रियजनों को स्वादिष्ट व्यंजन बना-बनाकर खिलाना और अधिक खाने का आकर्षण या दबाव प्रस्तुत करना वस्तुतः ऐसी शत्रुता है, जिसे लोक व्यवहार में मित्रता, शुभेच्छा का प्रदर्शन समझा जाने लगा है।

न जाने यह समझदारी कहाँ से मनुष्य पर चढ़ दौड़ी कि अधिक खाने से अधिक बल मिलता है, जबकि बात तथ्य के सर्वथा विपरीत है। पेट की बनावट ही ऐसी है कि यदि वह आधा भरा हो तो ही पाचन का ठीक प्रबन्ध कर सकता है। हाँडी खाली रहे तो ही उफनने-उबलने की गुंजायश रहने पर ठीक प्रकार पकेगी। मथानी में दही बिलोने के कारण जो हलचल होती है उसके लिए जगह छोड़नी पड़ती है। यदि हांडी खचाखच भरी हो तो पकने की प्रक्रिया कैसे पूरी हो? मथानी को गरदन तक भर दिया गया हो तो बिलोने पर जो उथल-पुथल होती है उसके लिए स्थान कैसे मिले?

पेट के खाली रहने पर ही पाचन की गुंजायश रहती है। सीमित रस-स्राव होने पर सीमित मात्रा का आहार ही पचता है। गले तक बोरा भर लेने पर यह आशा छोड़ ही देनी चाहिए कि वह ठीक प्रकार पचेगा और उपयुक्त पोषण प्रदान कर सकेगा। मिर्च-मसाले इस व्यवस्था को बुरी तरह बिगाड़ देते हैं। उनसे दुहरी हानि है। एक यह कि वे अपनी उत्तेजक विषाक्तता के कारण पाचन तंत्र की तोड़-फोड़ करते हैं। दूसरी यह कि उस लालच में अधिक मात्रा में खाते जाने पर भी हाथ रुकता नहीं। फलतः पेट को अकारण अत्यधिक श्रम करने पर भी पोषण के नाम पर खाली हाथ रहना पड़ता है। अपच उत्पन्न होने पर बीमारियों का आक्रमण दौड़ पड़ता हैं सो अलग। इस प्रकार स्वादिष्ट के नाम पर नमक और मसालों का उपयोग होता हैं। उनसे लाभ जैसा तो कुछ मिलता नहीं। शरीर पर विपत्ति लदती है।

मिर्च-मसालों जैसी स्थिति ही चिकनाई-मिठाई की है। तेल-घी को अलग से निकालकर खाने से वे तत्व अलग हो जाते हैं जो चिकनाई को पचाने में काम आते हैं। तिल, मूँगफली, सोयाबीन आदि को चबा लिया या पीस कर उपयोग किया जाय तो वे उचित मात्रा में होने पर पोषण का प्रयोजन पूरा करेंगे। तेल निकालने पर उसे पचाने वाले तत्व खली में निकल जाते हैं और वह चिकनाई अत्यधिक गरिष्ठ हो जाती है। घी खाने की अपेक्षा दूध दही लेना गनीमत है। वैसे जितनी चिकनाई की शरीर को आवश्यकता है उतनी सन्तुलित आहार में सहज ही मिल जाती है। अन्न, दाल आदि में भी चिकनाई होती है। अलग से उसे लेना आवश्यक नहीं है, पर यदि लेने का मन ही हो तो उसे उन बीजों के रूप में ही लेना चाहिए जिनमें तेल ही नहीं उसको पचाने वाले तत्वों का भी उपयुक्त अनुपात रहता है।

शक्कर के सम्बन्ध में भी यही बात है। अन्न मुँह में पिसता है तो जीभ से निकलने वाले रस ही उसे ग्लूकोज के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। पेट में पहुँचते-पहुँचते वह उपयुक्त मात्रा में शक्कर से भरा-पूरा होता है। फिर सामान्य खाद्य पदार्थों में भी शक्कर का समुचित अनुपात रहता है। उसे अलग से खाने की कोई आवश्यकता नहीं। मीठे फलों में उसका अनुपात पर्याप्त होता है। प्रायः सभी फल मीठे होते हैं। खजूर, अंजीर, दाख आदि में तो उसकी मात्रा बहुत अधिक होती है। शहद की भी प्रशंसा है। यों चीकू से लेकर चुकन्दर तक में उसकी पर्याप्त मात्रा रहती है। मन चले तो गन्ना भी चूसा जा सकता है। शक्कर प्राप्त करने की इतनी ही मर्यादा है। चरम सीमा तक पहुँचना हो तो बिना पाउडर के शोधा गया गुड़ या राब तक आगे बढ़ा जा सकता है। सफेद चीनी तो सफेद विष कही गई है। कैल्सियम निकल जाने पर तो वह दाँत, मसूड़े, अस्थि पंजर आदि सभी को गलाती है। मधुमेह, रक्तचाप, यकृत रोग, पेट के कीड़े जैसे रोग उत्पन्न करने में तो उसकी ही करामात काम करती है। यदि सफेद चीनी का उपयोग आहार से हटा दिया जाय तो विष भक्षण, चटोरापन, अपव्यय एवं अधिक खाने जैसे अनेक अभिशापों से सहज छुटकारा मिल सकता है।

मनुष्य की शरीर संरचना पूर्ण शाकाहारी जैसी है। वह वानर प्रजाति है। इस वर्ग समुदाय के लिए माँसाहार का तनिक भी तुक नहीं। दाँत, आँत जैसे अवयवों की बनावट ऐसी है नहीं, जो माँस पचा सके। तल भूनकर के लोग बाँस और आक के पत्ते जैसी वस्तुओं के व्यंजन बना लेते हैं। इसका तात्पर्य यह तो नहीं हुआ कि वे मनुष्य के आहार सूची में सम्मिलित होनी चाहिए। माँस मनुष्य के लिए न तो सुपाच्य है और न उपयुक्त। वह मात्र हिंस्र प्राणियों के लिए ही उपयोगी है। मनुष्य में सहज स्वभाव पाई जाने वाली दया भावना भी इसकी आज्ञा नहीं देती कि वह शरीर और मन पर बुरा प्रभाव डालने वाले माँसाहार पर उतरे, जबकि शाकाहारी पदार्थों का बाहुल्य प्रकृति ने उसके लिए पहले से ही सँजोकर रख दिया है।

आहार क्षेत्र में घुसी हुई अवांछनीयताओं में से कुछ पर ऊपर की पंक्तियों में प्रकाश डाला गया है। भूनने-तलने की समूची प्रक्रिया ही ऐसी है जिसे हर दृष्टि से अबुद्धिमत्ता पूर्ण ही कहा जायेगा। व्यंजनों का प्रचलन अपने समय का सबसे बड़ा अभिशाप है। थाली में अनेकों कटोरियों का सजाया जाना, अनेक स्वादों की भरमार होना, ऐसी नासमझी है जिसके कारण चटोरेपन की दाद खुजाने जैसी राहत भले ही मिलती हो, पर परिणामतः उससे हानि ही हानि है। हित साधन जैसी बुद्धिमत्ता की उसमें कही झाँकी तक नहीं होती।

गलत रास्ते पर चलने की जानकारी मिलते ही यात्री वापिस लौट पड़ते हैं, जो भूल का परिमार्जन सही रास्ता अपनाकर करते हैं। उपरोक्त अभ्यस्त कुटेवों को यदि आहार प्रक्रिया में से हटाया जा सके तो यह भूल सुधार का एक उत्साहवर्धक प्रयोग होगा। उसका सत्परिणाम हाथों-हाथ स्वास्थ्य में आशाजनक परिवर्तन के रूप में दृष्टिगोचर होगा।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

3.    व्यवहार में औचित्य का समावेश करें --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जिनके साथ इच्छा या अनिच्छा से हमें रहना पड़ता है, उनके साथ निर्वाह की रीति-नीति पहले ही निर्धारित कर लेनी चाहिए। सोचना होगा कि उनमें से स्तर की दृष्टि से कुछ श्रेष्ठ, कुछ मध्यम होंगे, साथ ही कुछ अनगढ़, असंस्कृत और उद्धत भी रहेंगे। इच्छित प्रकृति के लोग ही मिलते रहें, अन्य प्रकार वालों के साथ वास्ता ही न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। सदा सूर्य ही निकला रहे, रात्रि कभी हो नहीं, सदा सर्दी का मौसम रहे, कभी गर्मी फटकने ही न पाये ऐसी अपेक्षा रखना और उस मर्जी के पूरी न होने पर खीजना अनुपयुक्त है। यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है। उसमें अन्यान्य के निर्वाह की भी गुंजायश रखी गई है। इस संयुक्त समुदाय के लिए बनाये बड़े रसोईघर में सदा वही सब नहीं पकता जो हम चाहते हैं। इस मुसाफिरखाने में सभी को बैठने की छूट है। अपनी मर्जी तो अपने निजी घर में ही निभ सकती है। समझा जाना चाहिए कि इस सराय में सभी के लिए रैन बसेरे के लिए गुंजायश है। अपनी मर्जी को ही सब कुछ रखने और जैसा चाहा गया है वैसा ही सरंजाम जुटने की बात सोचना, ऐसी गलती है जिसे सुधारे बिना दूसरा रास्ता है नहीं। श्रेष्ठजनों से प्रेरणा लें, उनसे घनिष्ठता साधें और आदान-प्रदान का द्वार खोलें। जो सामान्य हैं, उनके साथ तालमेल बिठाने और बिना टकराये समय गुजारने भर की बात सोचनी चाहिए। वे जहाँ तक सहन कर सकें उतना उन्हें सत्परामर्श से लाभान्वित भी करें और वैसी सज्जनता बरतें जैसी कि सामान्य जनों के साथ बरती जानी चाहिए। हर किसी के साथ घनिष्ठता बढ़ाने, अनावश्यक उदारता बरतने और आशा लगाने की भावुकता अन्ततः महँगी ही पड़ती है। इसलिए सम्पर्क क्षेत्र में इस प्रकार का वर्गीकरण और नीति निर्धारण आवश्यक हो जाता है। ऐसा भी होता रहता है कि व्यक्तियों के स्तर बदलें। मध्यम ऊँचे उठें और श्रेष्ठों जैसा स्तर विकसित करें। अपवाद ऐसे भी होते हैं जिनमें ऊँचे लोग भी नीचे की ओर खिसकने लगते हैं। अतएव वर्गीकरण सामयिक होते हैं। जहाँ स्तर में हेर-फेर हो रहा हो, वहाँ अपने निर्धारण में भी तदनुरूप परिवर्तन करना भी उचित है।

कठिनाई वहाँ आती है जहाँ अनगढ़ों से वास्ता पड़ता है। वे मात्र अनजान ही नहीं होते, अहंकार और दुराग्रह भी दृढ़तापूर्वक अपनाये होते हैं। समझाने से समझते नहीं, अनुरोध को मानते नहीं। निजी विवेक के सहारे किसी निर्णय तक पहुँचने की सूझबूझ होती नहीं। ऐसों से पाला पड़े तो क्या नीति अपनाई जाय, यह निर्णय करना टेढ़ी खीर है। आमतौर से ऐसे प्रसंगों पर कलह उत्पन्न होता है और विग्रह तू-तू मैं-मैं से बढ़कर हाथापाई और मार-काट तक जा पहुँचता है। इसी प्रसंग में कई बार गहरा मनोमालिन्य और विद्वेष जड़ पकड़ लेता है। फलतः दोनों ही पक्ष घाटे में रहते हैं। आक्रमण और प्रतिरोध का कुचक्र ऐसा है कि उसका कभी अन्त ही नहीं होता। बारूद और माचिस दोनों को ही साथ-साथ जलाना होगा। वादी और प्रतिवादी में से एक भी नफे में नहीं रहता। प्रताड़ना से सुधार की नीति शासन तन्त्र को ही शोभा देती है। सामान्य सम्पर्क में उसके बिना ही काम चलाया जाना चाहिए।

आक्रमण प्रत्याक्रमण से लेकर हत्याएँ और आत्महत्याएँ प्रायः ऐसे ही रोष-विद्वेष के वातावरण में होती है, जहाँ तर्क काम नहीं करते और सौजन्य भरे उपाय काम नहीं आते। असमंजस इस बात का है कि सुधार परिवर्तन का सुयोग बनता नहीं दीखता और विग्रह में उभयपक्ष का अहित होता है। प्रतिशोध प्रत्याक्रमण का सिलसिला अहंकार की पृष्ठभूमि पर पनपता है। उसमें कारण और औचित्य समझने और अवरोध को हटाने की दूरदर्शिता बनती नहीं। आक्रोश में मात्र नीचा दिखाने और बदला लेने की बात सूझती है। इस अर्ध विक्षिप्तता के उभरने पर उससे निपटना और भी अधिक कठिन पड़ता है। उस झंझट को खड़ा कर लेने और समाधान में असफल रहने पर कई बार यह सोचना पड़ता है कि अच्छा होता कीचड़ में ईंट डालकर छींटे न पड़ने देने वाली उपेक्षा अपनाकर काम चलाते। खैर उसमें भी नहीं, क्योंकि चुप रहने को भी कायरता माना जाता है और उद्दण्डता का हौसला बढ़ता है।

इन परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाली दुहरी हानि में से एक को आसानी से बचाया जा सकता है। जो आधी बच जाती है उससे निपटने में आधी मेहनत से भी काम चल जाता है। दुर्जनता से उलझने में सर्वप्रथम अपना मानसिक सन्तुलन बिगड़ता है। इसमें इतनी शक्ति नष्ट हो जाती है जो कदाचित झगड़े-झंझट खड़े होने पर भी न होती। संतुलन गँवा बैठने पर मनुष्य अपंग विक्षिप्त जैसी स्थिति में जा पहुँचता है। आक्रोश में कितना खून जलता है, उसकी जानकारी मनोविज्ञान के ज्ञाता विस्तारपूर्वक बता सकते हैं। एक घण्टे का क्रोध एक दिन के बुखार जितनी हानि पहुँचाता है। उससे विग्रहों द्वारा खड़े किये गये झंझट की तुलना में भी अधिक हानि पहुँचती है। इस स्व-उपार्जित उत्तेजना से बचने की समझदारी दूरदर्शी को अपनानी चाहिए।

अनगढ़ दुराग्रहियों के प्रति वैसा भाव रखा जाय जैसा रोगियों के प्रति रखा जाता है। मनोविकारग्रस्त या चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति वस्तुतः एक प्रकार के रोगी ही हैं। उनके प्रति दृष्टिकोण ठीक उसी प्रकार का अपनाना चाहिए। बीमारियों या पागलों का इलाज तो कुशल चिकित्सक करते हैं पर उनके प्रति विद्वेष नहीं रखते। आवश्यकता पड़ने पर पागलों के हाथ-पैर भी बाँध देते हैं और सड़े फोड़ों में गहरा नश्तर भी लगाते हैं। उपदंश प्रायः वेश्यागमन से होता है। जिगर खराब करने में मद्यपान प्रधान कारण देखा गया है। कैन्सर की धूम्रपान से संगति बैठती है। डाकू भी किसी मुठभेड़ में घायल होते हैं। सेंध लगाते समय हाथ पैर तुड़वा लेने वाले चोरों की भी अस्पताल में भर्ती होती है। डाक्टर को इतनी फुरसत कहाँ जो इन कुकर्मियों का लेखा-जोखा रखे और घृणा-तिरस्कार के झंझट में पड़कर अपना सन्तुलन बिगाड़े। उसे उतना ही ध्यान रहता है कि व्याधिमुक्त करने के उत्तरदायित्व का निर्वाह किया जाय। क्षमा करने या दण्ड देने की बात वह शासन तन्त्र के जिम्मे छोड़ देता है।

अनगढ़ों के प्रति विज्ञजनों को चिकित्सक जैसा व्यवहार करना चाहिए। न तो उतना क्षमाशील बना जाय जिसमें पानी में बहने वाले बिच्छू को बार-बार निकालने और डंक-त्रास सहने जैसा अतिवाद अपनाया गया हो। साँप को दूध पिलाने पर हानि ही हानि है। दुष्टता की छूट मिलने पर वह चौगुनी उद्दण्डता बरतने पर उतारू होती है। इसलिए उपचार से विमुख नहीं होना चाहिए। न्यायाधीश यदि क्षमा करने की नीति अपनाये तो दुष्ट-दुरात्माओं से किसी सज्जन को जीवित बचा सकना कठिन है।

कर्तव्य के नाते सत्परामर्श तो हर किसी को हर स्थिति में देना चाहिए, किन्तु यह नहीं सोचना चाहिए कि कहना मान ही लिया जायेगा। हो सकता है कि श्रेष्ठ जनों की श्रेष्ठता हमसे ऊँचे स्तर की हो और अपने परामर्श व्यावहारिकता और सुविधा को ध्यान में रखकर दिये गये हों, जबकि आदर्शवादिता की कसौटी लाभ-हानि से कहीं ऊँची उठी होती है और उसमें उच्चस्तरीय निर्धारण एवं अनुकरणीय परम्परा का परिपोषण ही प्रधान होता है। इसके लिए आवश्यकतानुसार अपना विनम्र परामर्श इन्हें इस आशा से दिया जा सकता है कि कदाचित् इसका कोई भाग उन्हें अनुकूल पड़े। सूझबूझ की दृष्टि से कई बार बालक भी कोई ऐसी बात कह सकते हैं जो बड़ों के ध्यान में न आई हो, इसलिए परामर्श देने में और कुछ न सही, अपना मन तो हलका होता ही है।

मध्यम श्रेणी के लोग अपने मतलब से मतलब रखते हैं। मतलब की कोई बात होती है तो ही उसे सुनते हैं, अन्यथा इस कान से उस कान निकाल देते हैं। ऐसे लोगों से कुछ बात कहते समय उनके मतलब का प्रसंग उठाकर ही कुछ आकर्षण उत्पन्न किया जा सकता है। बात वज्रमूर्ख पर अड़ती है। जो जानते भी नहीं और मानते भी नहीं, उन्हीं के लिए इस शब्द का उपयोग किया जाता है। अनगढ़ व्यक्तित्व के साथ में अहंकारी दुराग्रह मिल जाने पर एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा होने की उक्ति लागू होती है। ऐसे लोग भय से ही कुछ नरम पड़ते हैं। दाल गलती नहीं दीखती है तो उस कड़ाई के सामने वे ऐंठ दिखाना बन्द कर देते हैं। बन्दर भगाने पर काटने दौड़ता है, पर जब कोई घूँसा तानकर खड़ा हो जाता है और सामना करने के लिए आगे बढ़ता है तो उसका तीसमारखाँपन भागते हुए देखा जाता है।

ऐसे लोग एकाकी देखकर ही शेर बनते हैं, पर जब उन्हें प्रतीत होता है कि सामने वालों का भी झुण्ड है तो उस शक्ति प्रदर्शन से भी ऐसे लोगों की नानी मरती है। अस्तु, जिनके लिए भी सम्भव हो अपनी स्थिति अकेलेपन की न रखें। ऐसे समूह के साथ जुड़े रहें जो बगलें बजाने जैसे कौतूहल ही न रचता रहे, वरन् जिसमें पराक्रम दिखा सकने जैसा भी दम−खम हो। व्यायामशाला एवं स्वयंसेवक स्तर के संगठन अपने मूल प्रयोजन के साथ-साथ एक काम यह भी करते हैं कि अपने अस्तित्व से लुटेरों के हौसले पस्त करते रहते हैं। स्पष्ट है कि अपराधी स्तर के लोग समूह को नहीं छेड़ते। भेड़िये और बाघ तक पैने सींग वाली गायों के झुण्ड से दूर रहते हैं। बन्दरों के समूह को कौन छेड़ता है? बर्र के छत्ते में कौन हाथ डालता है? संगठित रहने के अनेक लाभों में से एक लाभ यह भी है कि उससे उद्दण्डों को आक्रमण करने से पहले हजार बार विचार करना पड़ता है। अकेलापन, भोलापन, पलायन, गिड़गिड़ाना, क्षमा और अहिंसा की दुहाई देना जैसी बातें ऐसी हैं जिन्हें जहाँ भी गुण्डे देखते हैं, वहीं चढ़ दौड़ते हैं। उनका निशाना ऐसे ही लोगों पर सही बैठता है। जो सिर हिलाते और सींग पैनाते हैं, आमतौर से उन्हें सस्ता शिकार बनने का दुर्दिन नहीं देखना पड़ता।

मनीषियों ने क्रोध की निन्दा की है, किन्तु मन्यु को सराहा है। बाहर से देखने में दोनों ही तीखेपन के प्रतीक हैं, फिर भी उनमें एक मौलिक अन्तर यह है कि क्रोधी अपना सन्तुलन बिगाड़ लेता है, विवेक खो बैठता है। वह इस योग्य नहीं रहता कि संकट का सामना करने के लिए किसी साहसिकता और दूरदर्शी सूझबूझ का परिचय देना चाहिए। क्रोध दुहरी मुसीबत है। एक आक्रमण द्वारा पहुँचायी जाने वाली हानि और दूसरी अपने आपको सन्निपातग्रस्त अर्धविक्षिप्त की स्थिति में डाल देने की न्यौत बुलाई गई मुसीबत। क्रोधी घाटे में रहता है। विपत्ति को दूनी बढ़ा लेता है। मन्यु उस स्थिति का नाम है जिसमें आवेशग्रस्त न होकर अवांछनीयता से निपटने का कडुआ-मीठा उपाय सोचा और किया जाता है। व्यक्तिगत हानि या अपमान पर क्रोध आता है जबकि दुष्टता द्वारा शालीनता को दी गई चुनौती के विरुद्ध उभरने वाले आक्रोश को मन्यु कहते हैं। आवश्यक नहीं कि यह अपने ऊपर आक्रमण होने पर ही उत्पन्न हो। कहीं भी अनाचार का अट्टहास देखकर मन्यु उभर सकता है और उसे निरस्त करने के लिए योजनाबद्ध निर्धारण कर सकता है। ऐसे शौर्य साहस में व्यक्तिगत शत्रुता नहीं वरन् दुष्टताजन्य उच्छृंखलता की कमर तोड़ देने जैसा भाव रहता है। भगवान राम ने असुरों द्वारा सताये गये ऋषियों का अस्थि समूह देखकर मन्यु व्यक्त किया था और ‘निशिचरहीन करौ मही’, ‘भुज उठाय प्रण कीन’ का संकल्प उद्घोष किया था।

अनीति से कौन, कब, कितना, किस प्रकार लड़ सकता है, इसकी रणनीति परिस्थिति के अनुरूप बननी चाहिए, किन्तु न्यूनतम इतना तो करना ही चाहिए कि अनाचार का समर्थन किसी भी स्थिति में न किया जाय, किसी भी कीमत पर उसे सहयोग न दिया जाय। न कभी दुरात्माओं की प्रशंसा करें और न उनके साथ घनिष्ठता बनाये रखकर परोक्ष रूप से अनीति का समर्थन करें। ऐसे लोगों के साथ असहयोग न्यूनतम प्रतिरोध है। इससे कम में तो किसी भी प्रकार बात बनती नहीं। अपनी असहमति और नाराजगी तो किसी न किसी रूप में प्रकट होती ही रहनी चाहिए। इतने से भी दुष्टता सहते रहने या उदासी उपेक्षा दिखाने से तो उस तथाकथित भलमनसाहत का गलत अर्थ लगता है और शांति हो जाने की आशा में सफल होने की अपेक्षा अशान्ति के और नये आधार उभरते हैं।

बड़े संघर्ष जैसी स्थिति न बन पड़ रही हो तो कम से कम विरोध तो जारी रहना ही चाहिए। चर्चा का जब विषय आये तो अपनी असहमति ही व्यक्त नहीं करनी चाहिए वरन् असहयोग भी करना चाहिए। कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, अन्धविश्वासों के अवसर जब भी आयें तो अपना विरोधी अभिमत खुली जुबान से प्रकट करना चाहिए। कौन बुरा मानता है, कौन भला, इसी पर विचार करते रहा जाय और चुप रहकर झंझट से बचने का तरीका अपनाया जाय तो यह आदर्शवादिता का पक्ष कमजोर करना हुआ। चुप रहना भी प्रकारान्तर से यथास्थिति बनाये रहने की सहमति है। इससे भी न्याय दुर्बल पड़ता है और अन्याय को बल मिलता है। दुर्योधन की सभा में जब द्रौपदी नंगी की जा रही थी तो भीष्म द्रोण जैसे महारथी चुप बैठे रहे और उस अनीति की ओर से आँखें मूूूँदे रहे। फलतः उद्दण्डता को परोक्ष समर्थन मिला और अन्ततः महाभारत जैसा महाविनाश उत्पन्न हुआ। समय रहते यदि रोकथाम की आवाज उठी होती तो उस समय की थोड़ी कटुता महाअनर्थ करने को रोक सकती थी।

दहेज जैसे अपव्यय, कुप्रचलनों में खुला विरोध करने और अपने कुटुम्बी-सम्बन्धियों द्वारा किये जाने पर भी उसमें सम्मिलित न होने की जो सलाह दी जाती रही है, उसका कारण यही है कि अनीति को पुनर्विचार का अवसर मिले। अवांछनीयता के विरुद्ध असहयोग और अवरोध तो जारी रहना ही चाहिए, उससे उसमें सुधार होने की बहुत कुछ सम्भावना रहती है।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

4.    आत्मरक्षा मनोरोगों से भी करनी चाहिए --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीर का तापमान सीमित और स्थिर रहे तो ही वह अपना दैनिक सामान्य क्रम ठीक तरह चलाते रह सकने की स्थिति में रहता है। उसमें घट-बढ़ हो तो मुसीबत खड़ी होती है। बढ़े हुए तापमान को ज्वर माना जाता है और बेचैनी उत्पन्न करता है। घट जाने पर शीत रोग में भी प्राण संकट उत्पन्न होता है। यही बात रक्तचाप के सम्बन्ध में भी है। हाई ब्लड प्रेशर के मरीज उद्विग्न रहते, अनिद्रा, चक्कर आदि की शिकायत करते हैं। लो ब्लड प्रेशर में शिथिलता आ घेरती है और ऐसी स्थिति बनती है मानों उठने चलने तक की सामर्थ्य नहीं रही। शरीर स्वस्थ तभी माना जायेगा जब तापमान, रक्तचाप आदि की स्थिति सामान्य रहे। असामान्य होने पर वह दैनिक काम-काज करने योग्य नहीं रहता और रोगियों जैसी चिन्ताजनक व्यथा सहन करता है।

यही बात मस्तिष्क के सम्बन्ध में भी है। उस पर सिरदर्द, आधासीसी, अनिद्रा, विस्मृति, उन्माद, अपस्मार जैसे रोग तो यदा कदा ही चढ़ते हैं, जिनकी हानि उपरोक्त रोगों से किसी भी प्रकार कम नहीं है। सिर रोगों का कारण, निदान, उपचार जानने के लिए चिकित्सकों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है, किन्तु तनाव वर्ग की आधि-व्याधियाँ ऐसी हैं जिनका कारण, निदान और उपचार थोड़ी गहराई तक उतरने पर हर व्यक्ति स्वयं ही जान सकता है। जान ही नहीं, यदि चाहे तो उनका उपचार भी बिना किसी की सहायता के स्वयमेव भी कर सकता है।

शिरोरोग शरीर को क्षति पहुँचाते और उसकी क्रियाशक्ति को कुंठित बनाते हैं। किन्तु मनोरोगों की हानि उससे कहीं अधिक हैं। मन मस्तिष्क ही चिन्तन, निर्धारण की अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं। यदि वह ठीक तरह न बन पड़े तो मनुष्य न केवल अपंग निरर्थक जैसी बन जाता है, वरन् उन्मादियों की तरह विग्रह भी खड़े करता है। स्वयं हैरान होता और दूसरों को हैरानी में डालता है। निर्वाह कठिन हो जाता है। साथियों से पटरी नहीं बैठती है। गलत निर्णय होते रहने पर अनुकूलता भी प्रतिकूलता बनती जाती है। मित्रों का घटना और शत्रुओं का बढ़ना आरम्भ हो जाता है। फलतः ऐसा व्यक्ति उपेक्षा और तिरस्कार सहता है। कहना न होगा कि ऐसे व्यक्ति के पल्ले असफलताओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता है। क्षमताओं के सुनियोजन से ही प्रगति और सम्पन्नता हाथ लगती है। जब वे अवांछनीय कृत्यों में नष्ट-भ्रष्ट होने लगेंगी तो फिर सामान्य या महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक भी करते धरते न बन सकेगा। ऐसे व्यक्ति या तो जिस-तिस पर बरसते हैं, अपने ऊपर खीजते हैं या और किसी से बस न चलने पर भाग्य, भगवान, देवता या किसी के द्वारा जादू कर दिये जाने, वैर निबाहने जैसे बहाने गढ़कर किसी कदर मन हलका करते हैं। इन विडम्बनाओं के अपनाने पर भी कुछ काम नहीं बनता, स्थिति यथावत बनी रहती है।

मनोरोगों में एक वर्ग अवसादजन्यों का और दूसरा आवेश स्तर वालों का है। उदासी, निराशा, भय, चिन्ता, आशंका, अविश्वास जैसों की गणना अवसाद वर्ग में आती है। वे मनुष्य को ठंडा कर देते हैं और लो ब्लड प्रेशर की तरह उस स्थिति में नहीं रहने देते कि कुछ करते-धरते बन सके। इन व्याधियों से आक्रान्त व्यक्ति पक्षाघात पीड़ित अपंगों की तरह दीन हीन बने गई गुजरी स्थिति में पड़े रहते हैं। उन पर अभागे होने का लांछन लगता है, जो अनुकूलता रहते हुए भी सही चिन्तन और सही प्रयास बन पड़ने के कारण ज्यों-त्यों करके दिन काटते हैं। इतने पर भी उन्हें उपद्रवियों की तुलना में भारभूत होते हुए भी किसी प्रकार सहन कर लिया जाता है। लो ब्लड प्रेशर का मरीज खुद तो अशक्त वयोवृद्ध की तरह चारपाई पकड़े रहता है, पर दूसरों से अपना भार उठवाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार का त्रास नहीं देते।

उपद्रवी मनोरोगों में क्रोध, आवेश, सनक, आक्रमण, अपराध जैसे कुकृत्यों की गणना होती है। वस्तुतः यह सभी विकृत अहंकार के बाल-बच्चे हैं। निज की अहमन्यता और दूसरे का असम्मान करने का दुस्साहस ही उस स्तर की विक्षिप्तता को जन्म देते हैं। सामान्य शिष्टाचार और सज्जनोचित सौजन्य की मर्यादा है कि अपनी नम्रता, विनम्रशीलता बनाये रखी जाय और सम्पर्क में आने वालों को सम्मान दिया जाय। जो इतना कर पाते हैं उनकी गणना सभ्य नागरिकों के लिए आवश्यक शिष्टाचार के जानकार में की जाती है, भले मानसों की पंक्ति में बिठाया जाता है। किन्तु जो ठीक इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे दूसरों का जितना तिरस्कार करते हैं उससे कही अधिक मात्रा में स्तर गिरा लेने के रूप में निज की हानि कर चुके होते हैं। ऐसे ही नागरिक मर्यादाओं से अपरिचित या अनभ्यस्त लोग क्रोधी कहे जाते हैं। वे अपनी ही मान्यता या मर्जी को सब कुछ मानते हैं। दूसरे की सुनते ही नहीं। यह नहीं सोचते कि अपना निर्धारण सही भी है या नहीं। सही हो तो भी यह आवश्यक नहीं कि दूसरे उसे उसी रूप में मानने या कर सकने की स्थिति में भी है या नहीं। जो अपनी ही अपनी चलाते हैं, दूसरों की स्थिति समझने और विचार विनिमय से मतभेद दूर करने की आवश्यकता नहीं समझते, ऐसे ही लोग बात-बात पर आग बबूला होते और क्रोध में लाल-पीले होते देखे गये हैं।

क्रोध का उद्देश्य सामने वाले को अपने रोष, विरोध या पराक्रम का परिचय देकर डराना होता है और यह भाव रहता है कि दबाव देकर उसे वह करने के लिए विवश किया जाय जो चाहा गया है। किन्तु देखा गया है कि यह उद्देश्य कदाचित ही कभी पूरा होता है। क्रोध की अभिव्यक्ति में जिस पर अपना रौद्र रूप प्रकट किया जाता है या जिन असंस्कृत शब्दों का उपयोग किया जाता है, उससे सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुँचती है। इससे एक नई समस्या खड़ी होती है। सामने वाला क्षुब्ध होता है और प्रतिशोध लेने, नीचा दिखाने की बात सोचता है। विग्रहों में से अधिकांश की जड़ वहीं पाई जाती है। मतभेद दूर करने या अनुरोध को स्वीकारने के लिए यदि सौम्य तरीका अपनाया गया होता तो विग्रह की नौबत न आती और प्रयोजन पूरा न सही, आधा अधूरा तो सध ही जाता। क्रोध उन सभी सम्भावनाओं को परास्त कर देता है।

क्रोध एक प्रकार का सन्निपात ज्वर है जिससे आक्रान्त व्यक्ति न केवल बेचैन दीखता, हाथ पैर पीटता और अपनी दयनीय स्थिति का परिचय देता है वरन् गलत सोचता और दूसरों से अपशब्द कहता तथा दुर्व्यवहार करता भी पाया जाता है। सन्निपात ग्रस्त को रुग्णता के चंगुल में फँसा हुआ, विवश, निर्दोष भी मान लिया जाता है और दया सहानुभूति का पात्र समझ कर उसका व्यवहार भुला दिया जाता है। किन्तु क्रोध के बारे मे ऐसी बात नहीं है। उसे दरिद्र, दुष्ट, अहंकारी माना जाता है और बदले में प्रतिशोध उभरता है। क्रोधी को न केवल प्रतिशोध का प्रहार सहना पड़ता है वरन् उत्तेजना के उबाल में ढेरों रक्त जलाना पड़ता है और मनःसंस्थान की कार्यकर्त्री मशीन को तोड़-मरोड़ कर रख देने जैसा दुहरा संकट सहना पड़ता है।

क्रोध किस कारण किया गया इसे कोई नहीं देखता। आक्रोश का उन्माद एक प्रकार का आक्रमण है जिसके कारण पक्ष सही होने पर, कारण का औचित्य रहने पर भी आवेशग्रस्त को अपराधी की पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है। न्याय पाने का अवसर चला जाता है। स्वभाव और व्यक्तित्व अनगढ़ होने की मान्यता यदि बनने लगे तो समझना चाहिए कि प्रामाणिकता चली गई। ऐसे लोग न दूसरे की सहानुभूति पाते हैं और न सहयोग का लाभ ले पाते हैं। शरीर जलता रहता है सो अलग, मन उबलता रहता है सो अलग।

प्रतिकूलता को सहन न कर सकना, मतभेद को स्वीकार न करना, जो चाहा गया है वही होना जैसा स्वभाव बना लेने पर आवेश आने लगता है। अधीर, जल्दबाज, समय की प्रतीक्षा न कर सकने वाले को अगली बार के प्रयास में तालमेल बैठाने जैसी सम्भावनाओं को गँवा बैठने पर आवेश चढ़ दौड़ता है। दूसरों की तनिक भी अवज्ञा, उपेक्षा सहन न कर सकने वाले भी उत्तेजित रहते देखे गये हैं। उनमें सामने वाले की स्थिति का सही निर्णय कर सकने तक की क्षमता नहीं रहती। जब बात पूरी तरह सुनी समझी ही नहीं गई तो उसमें भ्रम रहना स्वाभाविक है। आवेश भ्रमवश आया है या वस्तुस्थिति समझकर, हर हालत में उसकी परिणति हानिकारक ही होती है।

कुछ उत्तेजनाएँ ऐसी होती है जिनमें सामने वाले की गलती तो नहीं, अपनी अभिलाषा और उतावली ही प्रधान होती है। इसके कारण भी मस्तिष्क का सन्तुलन बिगड़ता है और सही निर्णय न कर पाने की स्थिति बनती है। ऐसी मनःस्थिति को सनक कहा जाता है। सनक वह, जिसमें औचित्य-अनौचित्य का, सम्भव-असम्भव का, लाभ-हानि का कुछ भी भान न रहे और अवांछनीय चिन्तन को चरितार्थ करने जैसी उद्दण्डता उभरे। सनकों की संख्या अधिक है। इनमें दो ऐसी हैं जो बहुतों पर चढ़ दौड़ती हैं और उन्हें बेतरह हैरान करती हैं। इनमें से एक है कामुकता, दूसरी है लोभ-लिप्सा। दोनों की प्रकृति तो भिन्न है फिर भी प्रतिक्रिया और परिणाम में समान हैं। वे मनुष्य के विवेक का बुरी तरह अपहरण करती हैं।

दाम्पत्य जीवन की एक मर्यादा है। नर-नारी एक सूत्र में बँधे हैं और प्रणय की सुविधा पाने के बदले उसके साथ जुड़ी हुई भारी भरकम जिम्मेदारियाँ उठाते हैं। कामुकता की स्वच्छन्दता रहने पर समाज का ढाँचा ही चरमरा जायेगा। इस आधार पर जो घनिष्ठता उत्पन्न होती है उसका निर्वाह मखौल बनकर रह जायेगा। इसी प्रकार कामुक आचरण से उत्पन्न होने वाले बालकों का भविष्य अन्धकार के गर्त में गिरेगा तथा गृहस्थ जीवन में भी निश्चिन्तता न रहेगी। विश्वास की चरम सीमा जिस दाम्पत्य जीवन में भी रहनी चाहिए, उसके न रहने पर परिवार संस्था का स्वरूप ही समाप्त हो जायेगा। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए समाज शास्त्रियों और नीति शास्त्रियों के संयुक्त प्रयास से कामुकता को दाम्पत्य जीवन तक सीमित किया गया है। यह औचित्य पूर्ण अनुशासन है जिसे इच्छा या अनिच्छा से निभाया ही जाना चाहिए।

कामुक चिन्तन इस सुव्यवस्थित निर्धारण पर सीधा आक्रमण करता है और पशुओं जैसी स्थिति में लौटना चाहता है जिसमें यौनाचार को शरीर कृत्य विनोद भर माना जाता है। ऐसी छूट पाने से पूर्व परिवार संस्था और समाज गठन को समाप्त करके आदिम युग में लौटना पड़ेगा। इस पर भी समाधान नहीं। बलिष्ठ कुत्ते कमजोरों को खदेड़ कर यौनाचार का लाभ लेते हैं। आदिम युग में भी स्वेच्छाचार नहीं चलता था। सभ्य युग में मर्यादा पालन का अनुबन्ध है तो आदिम युग में इस प्रयोजन के लिए ठनने वाले मल्ल में स्वयंवर का विजेता होने का। दोनों ही दृष्टि से मनचाही स्वच्छन्दता को छूट नहीं है। मनुष्य न भौंरे हो सकते और न नारियाँ तितली। एक फूल से उड़कर दूसरे पर जा बैठने की छूट उन्हें तब तक नहीं मिल सकती, जब तक कि मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनकर रहना अंगीकार है।

कामुक चिन्तन असंख्यों पर हावी रहता है। विपरीत लिंग वालों के रूप में यौवन का स्मरण आता रहता है और रमण के लिए मन चलता है। कल्पनाएँ उठती हैं और एक परीलोक बनकर खड़ी हो जाती है। मन मोदक खाने में मनोयोग ऐसे जंजाल में जकड़ जाता है जिसके कारण किन्हीं महत्त्वपूर्ण प्रसंगों पर ध्यान ही नहीं जमता। इस कुचक्र में कितने ही प्रतिभावान छात्र अनुत्तीर्ण होते और भविष्य गँवाते देखे गये हैं। कितने ही कुटेवों के शिकार होते और ओजस्-तेजस् गँवाकर छूँछ बनते हैं। कई उस स्वप्नलोक के साथ इतने अधिक लिपट जाते हैं कि अश्लीलता का उद्धत प्रदर्शन करके अनजानों तक से छेड़खानी करने जैसी कुचेष्टा करते देखे गये हैं। परिणाम स्पष्ट है। बहुत बार तो हाथ मलते और खीजते रहने से भी काम चल जाता है, पर बहुत बार बदले में ऐसा मजा चखने को भी मिलता है, जिसका स्मरण जन्म भर बना रहे और छठी का दूध याद आये। व्यभिचार की सीमा तक जा पहुँचने पर भी इस कामुक चिन्तन की परिणति और भी अधिक भयावह होती है। उससे दोनों ही क्षेत्रों के गृहस्थ जीवन बेतुके, अप्रामाणिक, नीरस स्तर के बनते देखे गये हैं। सन्तान पर तो इसका प्रभाव निश्चित रूप से अत्यधिक पड़ता है। वे व्यभिचारी अभिभावकों को क्षमा नहीं करते। इसके कई आर्थिक, सामाजिक एवं भावनात्मक कारण भी हैं।

कामुक चिन्तन में मानसिक शक्ति का इतना अधिक क्षरण होता है जितना कदाचित ही अन्य किसी प्रयोजन में होता हो। शरीर का ओजस् वीर्यपात से नष्ट होता है, किन्तु उससे भी कहीं अधिक महत्त्व की मानसिक क्षमता को आनन्दमय उत्तेजना से अस्त-व्यस्त कर डालने में कामुक चिन्तन का आक्रमण और भी अधिक विनाशकारी है। इस स्तर की कुकल्पनाओं में से कदाचित ही कोई एक प्रतिशत साकार कर पाता है, किन्तु इस कारण पूरी-पूरी हानि उठा लेता है। नीति मर्यादा को तोड़-फोड़ कर रख देने वाली इस विडम्बना से मनुष्य परोक्षतः मानवी गरिमा का अनुशीलन भी गँवा बैठता है। बाहर से भले ही वह निर्दोष दीखता रहे पर यह हानि ऐसी है, जिसके कारण उत्कृष्टता के अन्यान्य क्षेत्र भी मनुष्य के हाथ से चले जाते हैं और वह क्रमशः अन्यान्य अनुबन्ध उल्लंघन की मनोभूमि भी अपनाने लगता है। शारीरिक ब्रह्मचर्य तो प्रतीक मात्र है। जिस ब्रह्मचर्य की अध्यात्म क्षेत्र में अतिशय प्रशंसा की गई और माहात्म्य-गाथा गाई गई है, उसे मानसिक स्तर की कामुक प्रसंग में बरती जाने वाली पवित्रता ही समझनी चाहिए।

मानसिक आवेशों में लोभ लिप्सा का अतिवाद भी ऐसा है जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति बेईमानी, विश्वासघात से लेकर आक्रामक कुकृत्यों तक में लीन होता और अपराधी जीवन व्यतीत करता है। ऐसे आवेशग्रस्त अनीति उपार्जन को दुर्व्यसनों और उद्धत प्रदर्शनों में ही खर्च करते और बदले में अनेकों संकट ओढ़ते देखे गये हैं।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षट्-रिपुओं को उत्तेजक मनोविकार ही समझा जाना चाहिए। उन्हें ऐसे मनोरोग भी कह सकते हैं जो सन्तुलन और सौजन्य का सर्वनाश करके रख दें। इनसे बचना और बचाना ही उचित है।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

5.    मनःसंस्थान को विकृत उद्धत न बनने दें --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मोटर की ठीक प्रकार साज-संभाल न रखी जाय तो मजबूत और कीमती होने पर भी कुछ ही दिन में उसका कचूमर निकल जाता है। अच्छे-खासे शरीरों की भी दुर्गति इसी कारण होती देखी गयी है। यही बात हर उपकरण, प्राणी, पदार्थ आदि पर लागू होती देखी गयी है। वे सभी अपने सदुपयोग और रख रखाव पर पूरा ध्यान रखे जाने की माँग करते हैं। उपेक्षा या अतिक्रमण के शिकार होने पर वे अपनी क्षमता गँवा बैठते हैं और अन्ततः कष्ट दायक बनते हैं।

मस्तिष्क मानवी सत्ता का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है। समूचे शरीर पर उसी का शासन है। पेट, हृदय, गुर्दे आदि तो श्रमजीवी मात्र हैं। उनका सूत्र संचालन एवं नियमन तो मस्तिष्क द्वारा ही होता है। यह निर्वाह की बात हुई। उत्थान-पतन में भी उसी के निर्धारणों को श्रेय दिया जाता है। राज्याधिकारी को मुकुट पहनाया जाता है। प्रतिष्ठा सिर की होती है। नियति ने जीवधारी को मस्तिष्क रूपी मुकुट प्रदान किया है। यह उसकी मर्जी है कि यथास्थान रखे अथवा पैरों तले कुचले। पैरों तले कुचलने से तात्पर्य है-उसकी क्षमता को अविकसित स्थिति में पड़े रहने देना अथवा दुष्प्रयोजनों में प्रयुक्त करना। ‘भाग्य विधान ललाट पर लिखा होता है’ की उक्ति से यही तात्पर्य निकलता है कि विचार क्षेत्र के ऊपर ही यह अवलम्बित है कि व्यक्ति पिछड़ा, अभागा, उपेक्षित, तिरस्कृत होकर जिये, भर्त्सना और प्रताड़ना का पात्र बने अथवा अनुकरणीय, अभिवन्दनीय, श्रेय, समुन्नत एवं गौरवान्वित सुसम्पन्न होकर जिये।

इस महत्त्वपूर्ण अवयव को प्रदान करते समय सृष्टा ने उसकी भी जिम्मेदारी मनुष्य को सौंप दी है और यह अधिकार दिया है कि जो जब चाहे जिस तरह उपयोग करे। उसके पीछे एक अनुबन्ध भी है कि उसका भला-बुरा प्रयोग करने पर तदनुरूप प्रतिफल वहन करने के लिए भी बाधित होना पड़ेगा।

शरीर के साथ अनाचार करने वाले ही आमतौर से दुर्बल, रुग्ण रहते हैं। स्वयं कष्ट सहते और साथियों को त्रास देते हैं। ठीक यही बात मस्तिष्क पर भी लागू होती है। विचारणा की भी एक विधा और मर्यादा है। पटरी पर चलने वाली रेल की तरह ही उसकी भी दिशाधारा होनी चाहिए। नदियाँ जब किनारों का अतिक्रमण करके उफनने लगती हैं तो बाढ़ के रूप में अपनी विकरालता का परिचय देती हैं। रेल भी पटरी छोड़कर बेहिसाब किधर को ही चल पड़े तो उससे होने वाले दुष्परिणाम की कल्पना कोई भी कर सकता है।

विचारों की शक्ति असीम है। इस संसार पर अदृश्य शासन करने वाले-दैत्य दानवों की पौराणिक मान्यता को यदि प्रत्यक्ष देखना हो तो एक शब्द में उस समूचे परिवार को विचार प्रवाह कह सकते हैं। यही क्षेत्र है जिसका स्तर मनुष्य के उत्थान-पतन का आधारभूत कारण माना जाता है। आम आदमी का मस्तिष्क सम्बद्ध वातावरण के अनुरूप ढलता पाया गया है। किन्तु यह पत्थर की लकीर नहीं है, कोई चाहे तो उसका परिपूर्ण परिशोधन और उपयुक्त नव निर्धारण कर सकने में भी समर्थ हो सकता है। आदिवासी वन प्रदेशों में रहते हैं, पर उन पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि वे नगरों में प्रवेश नहीं कर सकते या वहाँ जाकर कोई काम धन्धा नहीं कर सकते। गाड़िया लुहार जहाँ-तहाँ भटकते और लोहा पीटकर गुजारा करने के अभ्यस्त हैं। पीढ़ियों से इसी तरह रहते हैं। फिर भी इसे उनका स्वेच्छा निर्धारण ही कहा जायेगा। वे चाहें तो अन्य नागरिकों की तरह अपने निवास निर्वाह में बिना किसी कठिनाई के स्थायित्व भी ला सकते हैं। विचारणा के सम्बन्ध में भी यही बात है। यों वह बनती और पकती तो वातावरण के चाक और आवे में ही है। फिर भी मनुष्य मिट्टी नहीं है, वह घोंसले के पक्षी की तरह किसी भी दिशा में कभी भी उड़ सकता है और अपने दायरे-कार्यक्षेत्र में असाधारण परिवर्तन कर सकने के लिए स्वतंत्र है। हमें अपना वर्तमान सुधारने की जब उमंग उठे तो सर्व प्रथम इस मनःक्षेत्र का ही निरीक्षण-परीक्षण करना चाहिए और उसकी दिशाधारा में, स्तर एवं अभ्यास में तदनुरूप परिवर्तन करना चाहिए।

जंक्शन पर गाड़ियाँ एक लाइन में खड़ी होती हैं। इनमें से किसे, किस दिशा में दौड़ना है, कहाँ पहुँचना है, इसका निर्धारण प्वाइंटमैन लीवर गिराकर करता है। वह दो पटरियों को इस प्रकार मिला देता है कि गाड़ी की दिशा बन सके और फिर उस पर दौड़ते हुए वह अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सके। एक ही लाइन में खड़ी दो गाड़ियाँ साथ-साथ छूटती हैं, पर उनकी दिशा अलग होने के कारण एक बम्बई पहुँचती है तो दूसरी कलकत्ता। दोनों के बीच भारी दूरी है। यह क्योंकर बन गयी? इसका उत्तर लीवर गिराकर पटरियाँ जोड़ने वाला प्वाइंटमैन हर किसी को आसानी से समझा सकता है कि एक समय के उस छोटे से निर्धारण ने कैसा कमाल कर दिया। यह उदाहरण विचारणा को दिशाधारा मिलने के सम्बन्ध में पूरी तरह लागू होता है।

मनुष्य जिस भी स्तर की विचारणा अपनाना चाहे, उसे वैसे चयन की परिपूर्ण स्वतन्त्रता है। तर्क और तथ्य तदनुरूप ढेरों इकट्ठे किए जा सकते हैं। मित्र सम्बन्धी साथ नहीं देंगे, परिस्थितियाँ प्रतिकूल बनेंगी, घाटा पड़ेगा और भविष्य अन्धकार से घिरा रहेगा, इस स्तर की निराशाजनक कल्पना के पक्ष में अनेकों तर्क सोचे जा सकते हैं। संगति बिठाने वाले ढेरों ऐसे उदाहरण भी मिल सकते हैं जिनमें कल्पित निराशा का समर्थन करने वाले घटनाक्रम घटित हुए हों। निराशा को अंगीकार करने वाला अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए अनेकानेक कारण ढूँढ़ सकता है। साथ ही जोर देकर कह भी सकता है कि उसने जो सोचा है गलत नहीं है।

रुख बदलते ही दूसरे प्रकार के तर्कों और उदाहरणों का पर्वत खड़ा हो जायेगा। आशा और उत्साह की उमंगें उठें, उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास जमे तो फिर उस स्तर के तर्कों की कमी न रहेगी। हेय परिस्थितियों में जन्मे और पले व्यक्तियों में से कितनों ने असाधारण प्रगति की और आशाजनक सफलता प्राप्त की है, इसके उदाहरणों से न केवल इतिहास के पृष्ठ भरे पड़ें हैं वरन् वैसे उदाहरणों से अपना समय एवं सम्पर्क क्षेत्र भी सूना नहीं मिलेगा। वैसा अपने लिए क्यों नहीं हो सकता? जो काम एक कर सका उसे दूसरा क्यों नहीं कर सकता? इस प्रकार के विधेयक विचारों का सिलसिला यदि मनःक्षेत्र में चल पड़े, तो न केवल वैसा विश्वास बँधेगा वरन् प्रयत्न भी चल पड़ेगा और यह असम्भव न रहेगा कि उत्कर्ष की जो साध संजोयी थी वह समयानुसार पूरी होकर न रहे।

कहा जाता है कि शरीर बल, सूझ-बूझ, साधन और सहयोग से कठिनाइयों का हल निकलता है और प्रगति का द्वार खुलता है। यह कथन जितना सही है उससे भी अधिक सही यह है कि मनोबल बाजी जीतता है। वही सबसे बड़ा बल है। शरीर से दुर्बल और साधनों की दृष्टि से अभावग्रस्त होते हुए भी कितने ही व्यक्ति महत्त्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त कर सकने में समर्थ हुए हैं। इसमें उनके मनोबल ने ही प्रमुख भूमिका निभाई है। मनोबल को बढ़ाने और अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक है कि सदा आशा भरे सपने देखे जायें। रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर वर्तमान परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने का, ऊँचा उठने का ढाँचा खड़ा किया जा सकता है और उस उत्साह भरे पराक्रम के सहारे सफलता के स्तर तक पहुँचा जा सकता है।

कल क्या होने जा रहा है यह किसी को भी विदित नहीं है। न वैसा कुछ नियति निर्धारण है। मनुष्य स्वयं ही किसी रास्ते का चयन करते हैं, अपने ही पैरों चलते हैं और अपनाये गये मनोरथ के अनुरूप किसी लक्ष्य तक पहुँचते हैं। कौन किस स्तर का चयन करे? किसके पैर किस राह पर चलें, यह उसका अपना फैसला है। दूसरे तो हर बुरे-भले काम में साथ देते और रोक-टोक करते देखे गये हैं। उनमें से किन्हें महत्त्व दिया जाय, किन्हें न दिया जाय, यह फैसला अपना ही होता है।

यह सोचना व्यर्थ है कि परिस्थितियों या सम्बन्धियों ने उन्हें दबाया और ऐसा करने को विवश किया जैसा कि मन नहीं था। यह बात मात्र दुर्बल मनोबल वालों पर ही लागू होती है। मनस्वी जानते हैं कि कोई किसी को बाधित नहीं कर सकता। मनुष्य की संरचना इतनी दुर्बल नहीं है कि उस पर दूसरों के फैसले लद सकें और अपरिहार्य बन सकें। एक समय की भूल दूसरे समय सुधर भी सकती है। आज की सहमति को कल की असहमति में भी बदला जा सकता है। परिवर्तन काल की उथल-पुथल में कुछ अड़चन असुविधा तो होती है, पर नया रास्ता बन जाने की भी संगति मुड़-तुड़ कर बैठ ही जाती है।

दोष जिस-तिस को देने और गुण इस-उस के गाने से सिर्फ मन हलका होता है। मूलतः चयन अपने ही रुझान का होता है। साथी और समर्थक तो बुरे से बुरे मार्ग पर चलने वालों को भी मिल जाते हैं और श्रेय पथ पर चलने वाले ही कहाँ हर किसी का समर्थन प्राप्त करते हैं। उन्हें भी ढेरों लोग मूर्ख बनाते और रास्ते में रोड़े अटकाते हैं। अस्तु, दूसरों को महत्त्व देना हो तो उतना ही देना चाहिए कि उनका अस्तित्व तो है, पर इतना नहीं कि किसी को उनके पीछे चलने के लिए विवश ही होना पड़े। आखिर स्वतन्त्र चिन्तन भी तो कोई वस्तु है। मस्तिष्क तो अपना है। उस पर अपना अधिकार नहीं। संकल्प बल से विचारों को दिशा नहीं दी जा सकती है और जो चल रहा है उसमें परिवर्तन-प्रत्यावर्तन की सम्भावना नहीं है, ऐसा मानकर नहीं चलना चाहिए।

विचारणा में जिस स्तर का अभ्यास पड़ गया है, एक बार उसके खरे-खोटे होने पर नये सिरे से पर्यवेक्षण करना चाहिए और जिन अनुपयुक्त अभ्यासों का कूड़ा-कचरा भरा पाया जाय, उसे साहसपूर्वक बुहार फेंकना चाहिए। लौट-लौट कर आने की कठिनाई तो घर में चमगादड़ों का घोंसला हटाने पर भी आती है। भगा देने पर भी वे लौटकर आती हैं। फिर भी वे इतनी प्रबल नहीं हैं कि गृहस्वामियों के निश्चय को पलट सकें। उन्हें झक मारकर अपना घोंसला अन्यत्र बनाना पड़ता है। कुविचारों की जड़ तभी तक जमी रहती है जब उन्हें उखाड़ने-उजाड़ने का कोई अन्तिम निर्णय नहीं होता। असमंजस का लाभ सदा विपक्षी को मिलता है। संशोधन के निश्चय और परिवर्तन के संकल्प में ही दुर्बलता हो, किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँचना न बन पड़ रहा हो तो बात दूसरी है।

कुविचारों में निषेधात्मक विचारों का एक बहुत बड़ा परिकर है। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो व्यक्तित्व को दबोचे रहते हैं और दलदल में से उबरने ही नहीं देते। कुछ ऐसे हैं जो व्यवहार को विकृत, उद्धत बनाकर साथियों से पटरी नहीं बैठने देते। कुछ ऐसे हैं जो दिशाधारा को प्रभावित करते हैं और कँटीली झाड़ियों में भटकाते हैं। इन सभी की अपनी-अपनी मण्डली और बिरादरी है। वे एक-एक के साथ एक जुड़े रहते हैं। रेलगाड़ी में जुड़े डिब्बे की तरह, जंजीर की कड़ियों की तरह, चींटी, दीमकों और टिड्डियों की तरह उन्हें झुण्ड बनाकर साथ-साथ चलते देखा जा सकता हैं। किन्तु साथ ही यह बात भी है कि रानी मक्खी के उड़ जाने के उपरान्त छत्ते की अन्य मधुमक्खियाँ भी इच्छा या अनिच्छा से अपनी अधिष्ठात्री के साथ चली जाती हैं, इसी प्रकार विचारों के परिकर भी जड़ जमाते और सिर पर पैर रखकर उलटे पावों पलायन करते भी देखे जाते हैं।

निज के व्यक्तित्व को गर्हित करने वालों में निराशा, उदासी, आलस्य, प्रमाद, भय, चिन्ता, कायरता, लिप्सा स्तर की दुष्प्रवृत्तियों की गणना होती है। दूसरों से सम्बन्ध बिगाड़ने में क्रोध, आवेश, अहंकार, अविश्वास, लालच, अनुदारता जैसी आदतों को प्रमुख माना जाता है। भविष्य को बिगाड़ने में चटोरेपन, प्रदर्शन, बड़प्पन, दर्प, अविवेक, अनौचित्य जैसी उद्दण्डताओं का परिकर आता है। मर्यादाओं की अवज्ञा करने और अनाचार पर उतारू होने वाले लोग प्रायः वे होते हैं जिन पर विलास, लालच, संग्रह, अहंता के उद्धत प्रदर्शन का भूत सवार है। अनास्था या नास्तिकता इसी मनःस्थिति को कहते हैं। ईश्वर सद्भावना, सद्विचारणा एवं सत्प्रवृत्ति के समुच्चय को कहते हैं। उसी के सम्मिलित स्वरूप की एक ऐसे व्यक्ति विशेष के रूप में अवधारणा की गयी है कि जो न्यायनिष्ठ है और अपनी वरिष्ठता का उपयोग अनुशासन बनाये रहने के लिए करता है। न उसका कोई प्रिय है और न अप्रिय, न किसी से लगाव, न पक्षपात, न विद्वेष। कर्म और उसका प्रतिफल ही ईश्वरीय नियति है। मानवोचित गौरव गरिमा का निर्वाह ही उसकी वास्तविक अर्चना है। इससे विमुख व्यक्तियों को नास्तिक कहा जा सकता है। शास्त्रों में जिन नास्तिकों की भर्त्सना की गयी है, वे उस समुदाय में नहीं आते जो पूजा-अर्चा से आनाकानी करते हैं। वरन् वे हैं जो उत्कृष्टता के प्रति अनास्था व्यक्त करते हैं।

आस्था-अनास्था की परख किसी के चिन्तन का स्तर एवं प्रवाह की कसौटी पर ही हो सकती है। भगवान को मस्तिष्क में विराजमान माना गया है। शेषशायी विष्णु का क्षीर सागर वही है। कैलास वासी शिव का निवास इसी मानसरोवर के मध्य में है। कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्माजी का ब्रह्मलोक यही है। तिलक चन्दन इसी पर लगाते हैं। आशीर्वाद वरदान के लिए उसी का स्पर्श किया जाता है। विधाता को जो भाग्य में लिखना होता है उसी पटल पर लिखते हैं। विचार तंत्र की गरिमा जितनी अधिक गाई जाय उतनी ही कम है। इसे ब्रह्माण्ड की, विराट ब्रह्म की अनुकृति कहा गया है। जिसने मनःसंस्थान का परिशोधन परिष्कार कर लिया, समझना चाहिए कि उसने तपश्चर्या और योगाभ्यास की आत्मा से सम्पर्क साध लिया। वह सिद्ध पुरुष बनेगा, स्वर्ग में रहेगा और जीवनमुक्तों की श्रेणी में सम्मिलित होकर हर दृष्टि से कृत-कृत्य बनेगा।

स्मरण रहे, शरीर के समस्त अंग-अवयवों का जितना महत्त्व है, उसके संयुक्त स्वरूप की तुलना में अकेले मस्तिष्क की महत्ता कहीं अधिक है। मस्तिष्क को सही और स्वस्थ रखने का तात्पर्य है उसकी विचार प्रक्रिया को सही दिशा प्रदान करना। पागलों और अविकसित मस्तिष्क वालों की जिन्दगी निरर्थक होती है और वे ज्यों-त्यों करके दिन काटते हैं। उलटी विचारणा अपनाने वाले, भ्रान्तियों और विकृतियों में ग्रसित होकर अनुपयुक्त सोचते रहने वाले उससे भी अधिक घाटे में रहते हैं। अनजान की तुलना में वे अधिक दुःख पाते और दुःख देते हैं जो उलटा सोचते और उलटे रास्ते चलते हैं।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

6.    सूर्य और पवन के सान्निध्य से आरोग्य रक्षा --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सौर ऊर्जा को जगत् की आत्मा और प्राणियों की जीवन धारा कहा गया है। उसके सन्तुलित संयोग से ही पृथ्वी का यह सुरम्य वातावरण बना है। वनस्पतियों के उत्पादन और प्राणियों के निर्वाह में प्रत्यक्ष कारण कुछ भी क्यों न हो, परोक्ष कारण सौर ऊर्जा का ही माना जायेगा। उससे बरसने वाली गर्मी, रोशनी की उपयोगिता-आवश्यकता से तो सभी अवगत हैं, पर इस रहस्य से बहुत कम परिचित हैं कि सविता की किरणों से जीवन भी बरसता है और साथ ही आरोग्य पर आक्रमण करने वाली गन्दगी जैसी अगणित अवांछनीयताओं से त्राण मिलता है। इसलिए सूर्य सान्निध्य में रहने और उसके द्वारा बरसने वाली जीवन धारा से अधिकाधिक लाभान्वित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

वनस्पतियों में हरीतिमा का सौन्दर्य और पोषण का बाहुल्य मात्र धरती का ही अनुदान नहीं हैं, उसके साथ सविता देवता का वरदान और भी अधिक मात्रा में जुड़ा हुआ है। फल, शाक और अन्न मनुष्य के प्रमुख खाद्य पदार्थों में हैं। उनमें सर्वाधिक पोषण ऊपरी छिलकों में पाया जाता है। विटामिन डी. जैसा अत्यधिक उपयोगी तत्व समूचे फल की तुलना में उसके छिलके में ही प्रधान रूप से पाया जाता है। इसे हटा देने के उपरान्त जो गूदा शेष रहता है, उसे एक प्रकार से सिर काट लेने के बाद बचा हुआ धड़ ही समझना चाहिए। होता यही है। स्वादिष्टता के क्षेत्र में अपनी प्रवीणता बताने वाले लोग आमतौर से प्रत्येक खाद्य पदार्थ से छिलका अलग करने का प्रयत्न करते हैं। वह कुरूप जो लगता है फिर कसैला भी तो होता है। तनिक कड़ा रहने के कारण उसे चबाने में मेहनत करनी पड़े तो वह बड़े आदमियों और नाजुक मिज़ाज वालों को बर्दाश्त कैसे हो?

दालें छिलका उतारकर पकाई जाती हैं। कोमल फलों तक के छिलके उतारे जाते हैं। केला, आम, नारियल जैसों की बात दूसरी है, पर जब सेब, अमरूद तक को छीलने की आवश्यकता पड़े तो समझना चाहिए कि चोंचलेबाज़ी की हद हो गई। अनाज की भूसी उतार कर उसे मैदा, सूजी के रूप में सफेद सुन्दर बनाया जाता है। आज का यही प्रचलन है। इसे ऐसा ही समझना चाहिए जैसा कि गूदा फेंक कर गुठली चबाने लगना। मोती की ऊपरी चमक उतर जाने पर वह दो कौड़ी का हो जाता है। छिलके उतार देने के बाद खाद्य पदार्थों की प्रायः वैसी दुर्गति होती है।

जिनके लिए चटोरापन ही आराध्य है, जिन्हें आहार का रंग, रूप, गन्ध और स्वाद ही सब कुछ है उनसे कुछ कहना व्यर्थ है। उनके लिए अभक्ष्य को भक्ष्य और भक्ष्य को अभक्ष्य सिद्ध करने में भी अपनी चतुरता और कलाकारिता की भी तुष्टि होती दीख सकती है। ऐसी भ्रान्तियों-विकृतियों से ही अधिकांश लोगों पर बुद्धि भ्रम सवार है। नशे के आवेश में सुनने-समझने जैसी स्थिति ही नहीं रहती। उनसे कोई क्या कहे? जब जानने-मानने का मूड नहीं, तो फिर व्यर्थ की सिरफोड़ी से मतलब भी क्या निकलता है? चर्चा समझदारी की है, प्रगति की बात सोचने के साथ-साथ यह भी देखना होता है कि कहीं भूल तो नहीं हो रही है? किसी छेद में से पानी तो नहीं रिस रहा है। ऐसे लोग भूल सुधारने के लिए तत्पर रहते हैं। जो होता रहा है वह ठीक है, ऐसा दुराग्रह हठवादियों को ही होता है और ऐसे अड़ियल अन्ततः घाटे में ही रहते हैं।

खाद्य पदार्थों के छिलके उतारने की बात प्रकारान्तर से सूर्य देवता का तिरस्कार करना है। उनके द्वारा बरसाये जाने वाले जीवन तत्व को लात मारकर घर से बाहर खदेड़ना है। यदि वैसा न किया गया हो तो संभव है कूड़ा चबाने और कुछ कसैलापन रहने जैसी कमी दीखती, किन्तु बदले में जो लाभ मिलता उसे बहुमूल्य टॉनिक खरीदते रहने से कम न आँका जाता। गेहूँ के छिलके में विटामिन बी. का बाहुल्य रहता है। वह विटामिन बी. जिसकी सिफारिश डाक्टर लोग हर कमजोर के लिए करते हैं और जिनके पैकेट खरीदने में ढेरों पैसे खर्च होते हैं। विटामिन डी. की बात पहले ही कही जा चुकी है। इनके अतिरिक्त और भी अनेक पोषक तत्व हैं। जिन्हें आहार के छिलके वाले भाग में ही पाया जाता है। गेहूँ की भूसी और दालों की चूनी दुधारू जानवरों को खिलाकर उनकी दूध की मात्रा और पुष्टाई बढ़ाई जाती हैं, किन्तु यह नहीं सोचा जाता है कि इस बहुमूल्य अंश का उपयोग अपने लिए भी किया जाय तो क्या बुरा है।

बात खाद्य पदार्थों के छिलके तक ही सीमित नहीं है। मनुष्य शरीर पर भी एक छिलका चढ़ा है जिसे त्वचा कहते हैं। सूर्य सम्पर्क से बचाकर रखा जाय तो उसकी भी वही दुर्गति होगी, जो बन्द कमरे में उगने पर अंकुरों की होती है। वे बहुत समय नहीं जीते। रोशनी और गर्मी के अभाव में कुम्हलाते और दम तोड़ते देखे जा सकते हैं। त्वचा और सूर्य प्रकाश के बीच भारी व्यवधान उत्पन्न करने वाले कपड़ों की यदि भरमार रहे, अवयवों को कसे-जकड़े रहा जाय तो किसी अच्छे परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।

इसलिए मनुष्य को अन्य प्राणियों की तरह अपनी त्वचा को सूर्य सम्पर्क का लाभ उठाने देना चाहिए। चमड़ी अपने आप में एक अच्छा खासा परिधान है। उसे जान-बूझकर दुर्बल न बनाया जाय, तो अपनी मौलिक क्षमता के सहारे ऋतु प्रभाव का सामना कर सकती है और सर्दी-गर्मी से अनायास ही सुरक्षा सधती रह सकती है। हाथ प्रायः हर मौसम में खुले रहते हैं। चेहरे के सम्बन्ध में भी यही बात है। नाक पर कोई टोपा कहाँ लगाता है? चेहरे पर, होठों पर जाकिट कसे हुए किसे देखा जाता है? यह अवयव खुले ही रहते हैं। उन पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यही बात समस्त शरीर पर भी लागू होती है। कपड़े न पहने जायें या कम पहने जायें तो स्वतः वैसा अभ्यास हो जायेगा जिसके कारण सर्दी-गर्मी के कारण किसी प्रकार की हानि होने का अवसर न मिले। वनवासी आदिवासी ऐसी ही स्थिति में रहते हैं। उन्हें ऋतु प्रभाव से पीड़ित होने जैसी शिकायत करते कहीं नहीं सुना गया।

इसके विपरीत कपड़े लादे रहने वालों की शिकायत बनी रहती है कि ठंड लग गई या लू का आक्रमण हुआ। एअर कंडीशन कमरों में रहने वालों को इस संकट से ग्रसित पाया गया है कि बाहर निकलने पर उन्हें जुकाम होता है, निमोनिया होता है, लू सताती है। इसमें ऋतु प्रभाव कारण नहीं है। यदि वैसी बात होती तो हर किसी पर वह मुसीबत उतरती। जब वह प्रकोप अधिकतर एअर कंडीशन कमरों में रहने वाले पर ही उतरे तो समझना चाहिए कि चमड़ी की सहन शक्ति कुण्ठित कर देने वाली आवरण सज्जा का ही यह प्रतिफल है। लँगोट कसे रहने वाले मर्दों और तंग चोलियाँ या पेटियों से जकड़ी रहने वाली औरतों के बेढंग के कसे अवयव विशेष रूप से दुर्बल और पीले देखे जाते हैं। सूर्य को शत्रु मानने और उसके प्रभाव सम्पर्क से लाभ उठाने से कतराने वाले लोग सुरक्षा दीवार खड़ी नहीं करते वरन् एक महत्त्वपूर्ण अनुदान से वंचित होकर घाटे में ही रहते हैं।

सूर्य की तरह ही पवन देवता के भी अनुदान मनुष्य की जीवन सम्पदा का भण्डार भरते हैं। सभी जानते हैं कि साँस द्वारा ग्रहण की जाने वाली प्राण वायु पर जीवन निर्भर रहता है। अन्न जल के बिना तो कुछ समय निकल भी सकता है, पर साँस न मिलने पर तो दम घुटते और प्राण निकलते देर नहीं लगती। आक्सीजन प्राणी का सबसे बड़ा और सबसे बहुमूल्य आहार है। उसे पवन ही प्रदान करता है। काया के कण-कण में रोम-रोम में उसकी पहुँच होती है। तब स्वास्थ्य अक्षुण्ण रहता है और उत्पन्न होती रहने वाली गन्दगी में बुहारी लगती है। इस उपक्रम के रुक जाने पर इतना बड़ा संकट उत्पन्न होता हैं, जिसे जीवन की इति श्री ही कहा जा सके।

शरीर न केवल नाक से साँस लेता है वरन् त्वचा में विद्यमान असंख्य रोमकूपों द्वारा भी वह प्रक्रिया चलती रहती है। त्वचा पर मोम, कोलतार शीरा आदि पोत दिया जाय तो भी दम घुट जायेगा। भारी और कसे कपड़े लाद लेने से भी न्यूनाधिक मात्रा में यही कठिनाई उत्पन्न होती है। ठंडक से बचने का लाभ सोचकर या साज-सज्जा का ठाठ-बाट अपनाकर जो लोग अधिक कपड़े पहनते हैं, वे सूर्य और पवन दोनों ही देवताओं की अहैतुकी अनुकम्पा का प्रत्यक्ष तिरस्कार करते हैं। इस अवज्ञा में मात्र हानि ही है, लाभ जैसा तो कहीं कुछ है ही नहीं।

मकान भी एक प्रकार का शरीर है। उसमें सूर्य और पवन की प्रवेश व्यवस्था रहनी चाहिए। चोर के डर से खिड़कियाँ न छोड़ना, निकलने भर का एक दरवाजा रखना माल गोदाम के लिए तो उपयुक्त हो सकता है, पर मनुष्य के निवास करने योग्य वे नहीं माने जा सकते। ‘जहाँ धूप नहीं पहुँचती, वहाँ बीमारी डेरा डालती है’ यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। सीलन, सड़न, बदबू वाले मकानों में रहना गन्दगी में रहने वाले विषाणुओं को छाती के नीचे पालकर रखने जैसा है। इससे पेड़ के नीचे खुली हवा-धूप में रहना हजार गुना अच्छा। चोरों के डर से यदि सँकरी गलियों में और नीचे की मंजिल वाली कोठरियों में रहना पड़ता हो तो अच्छा है कि उस माल असबाब को, धन दौलत को बेच दिया जाय और इस प्रकार का जीवन क्रम स्वीकार किया जाय जैसा कि गाड़िया-लुहार अपनी बैल गाड़ियाँ लेकर जहाँ-तहाँ घूमते रहते हैं, कड़ी मेहनत से लोहा पीटकर आजीविका कमाते हैं।

देखना यह है कि स्वास्थ्य का महत्त्व समझा गया या नहीं। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा के रहने का सिद्धान्त गले उतरा या नहीं। ‘पहला सुख निरोगी काया’ वाली उक्ति की गरिमा स्वीकारी गई या नहीं। यदि हाँ तो फिर एक ही उपाय है कि पिछले दिनों लम्बे समय से जो भूलें अपनाई जाती रही हैं, उन्हें साहसपूर्वक सुधारा जाय और प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने, उसकी अवज्ञा करते हुए मनमानी ठानने के दुराग्रह को छोड़ दिया जाय। प्रकृति अनुसरण की कसौटी पर कसने के उपरान्त प्रतीत होगा कि अपनी इन दिनों की आदतें और परम्पराएँ बुरी तरह अवांछनीयताओं से भर गई हैं। इनका कायाकल्प जैसा सुधार परिवर्तन होना चाहिए। इसके लिए प्रवाह को चीरकर उलटी दिशा में चल सकने वाली मछली जैसा साहस एकत्रित करना चाहिए।

इस प्रयोजन में सूर्य और पवन का अधिकाधिक सान्निध्य उपलब्ध किया जाय। वे दोनों अश्विनी कुमारों की तरह उच्चस्तरीय चिकित्सक हैं। च्यवन ऋषि के बुढ़ापे को जवानी में बदल देने वाले अश्विनी कुमारों के अनुग्रह से जो चमत्कारी लाभ उन दिनों देखने को मिला था, उसकी पुनरावृत्ति सूर्य और पवन को अधिकाधिक समीपता में रहने की योजना बनाकर अपने समय में अपने ढंग का लाभ हम सब भी उठा सकते हैं।

पहनने के कपड़े तो कम रखे ही जाय, वे हलके, कम और हवादार भी होने चाहिए। पसीने के सम्पर्क में आते रहने के कारण जहाँ उन्हें धोते रहना आवश्यक है, वहाँ यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि उन्हें धूप में न केवल गीलापन दूर होने तक सुखाया जाय, वरन् देर तक गरम होते रहने का अवसर दिया जाय, ताकि उनमें पनपने वाले विषाणुओं से छुटकारा मिल सके। भारी बिस्तर-तकिये जो नहीं धोये जा सकते, उन्हें भी धूप में उलट-पुलट कर गरम करना चाहिए। चारपाइयों में खटमल आदि पलते रहते हैं। उन्हें भी धूप में सुखाते रहने और खौलता गर्म पानी डालते रहने की आवश्यकता है। कोठों में रखे अनाज, कनस्तरों में बन्द आटा, दाल आदि को भी जल्दी-जल्दी धूप लगाते रहना चाहिए, क्योंकि उसमें सीलन के कारण छोटे कीड़े उत्पन्न होने और स्वास्थ्य संकट बनाने जैसी विपन्नता खड़ी न हो।

भारतीय धर्म में सूर्योपस्थान, सूर्यार्घ्यदान, स्तवन, आदित्य हृदय आदि का महत्त्व है। गायत्री मन्त्र में सविता की आराधना है। उसका आध्यात्मिक भावनात्मक महत्त्व तो है ही, साथ ही यह संकेत निर्देश भी सन्निहित है कि सूर्य सम्पर्क में अधिकाधिक समय तक रहा जाय और खाद्य पदार्थों से लेकर त्वचा, वस्त्र, उपकरण, साधन आदि को भी उस सान्निध्य का भरपूर लाभ ले सकने का अवसर दिया जाय।

हनुमान जी पवन सुत थे। भीम भी वायु देवता के पुत्र थे। ऋषि उसी अमृतोपम प्राण सम्पदा को अधिक मात्रा में अर्जित करने के लिए हिमालय के वन्य प्रदेशों में निवास करते और प्राणायाम जैसे योगाभ्यासों में निरत रहते थे। हम खुली हवा में रहने और गहरी साँस लेने का अभ्यास तो कर ही सकते हैं। उतना न बन पड़े तो भी प्रातः दो-तीन मील तेज चाल से चलते हुए गहरी साँस लेते-छोड़ते हुए खुली हवा वाले क्षेत्र में टहलने के लिए जाते रहने का नियम तो बना ही लेना चाहिए। यह सुविधा घर के अन्य सदस्यों को भी, स्त्री-बच्चों को मिलती रहे, इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए बड़े नगरों के गली-कूचों में रहने की अपेक्षा छोटे देहातों में एक मंजिली खपरैल वाले ऐसे घर बनाकर रहना चाहिए, जिसमें धूप और हवा का निर्बाध प्रवेश होता रहे। नगर में काम करने जाना पड़े तो भी नित्य दूर की यात्रा करने का परिश्रम उपयोगी व्यवसाय समझकर किया जा सकता है। ऐसे मकानों को अधिक संख्या में बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला बनाया जा सकता है, जबकि घनी आबादी में घिच-पिच निवास की ही विवशता रहती है।

छोटे देहातों में भी इन दिनों सँकरी गलियों में बसावट बसी है। घर की नालियाँ गली में बहती और कीचड़ बनाये रहती हैं। अच्छा हो नये सिरे से गाँव बसाए जायें। वैसी बड़ी व्यवस्था न बन पड़े तो भी विज्ञजनों को अन्यान्य जोखिमें उठाते हुए भी अपने निवास के लिए खुली धूप हवा वाला स्थान बनाना चाहिए, भले ही वह सस्ते साधनों का कम टिकाऊ और बार-बार मरम्मत वाला ही क्यों न हों।

सूर्य और पवन सर्वोत्तम चिकित्सक हैं। उनमें रुग्णता निवारण और आरोग्य-सम्वर्धन वाली रीति-नीति ही अपनानी चाहिए।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

7.    अचिन्त्य चिन्तन से मनोबल न गँवाएँ --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

पिछली भूलों का परिमार्जन, वर्तमान का परिष्कृत निर्धारण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो इसके लिए विचार संस्थान पर दृष्टि जमानी चाहिए। इस मान्यता को सुस्थिर करना चाहिए कि समस्त समस्याओं का उद्गम भी यही है और समाधान भी इसी क्षेत्र में सन्निहित है। यह सोचना सही नहीं है कि धन-वैभव के बाहुल्य से मनुष्य सुखी एवं समुन्नत बनता है। इसलिए सब छोड़कर उसी का अधिकाधिक अर्जन जैसे भी संभव हो करना चाहिए। इस भ्रान्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जा सके, उतना ही उत्तम है।

शरीर की बलिष्ठता और चेहरे की सुन्दरता का अपना महत्त्व है। धन की भी उपयोगिता है और उसके सहारे शरीर यात्रा के साधन जुटाने में सुविधा रहती है। इतने पर भी यह तथ्य भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि व्यक्तित्व का स्तर और स्वरूप चिन्तन क्षेत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। व्यक्तित्व का स्तर ही वस्तुतः किसी के उत्थान-पतन का आधारभूत कारण होता है। उसी के अनुरूप भूतकाल बीता है, वर्तमान बना है और भविष्य का निर्धारण होने जा रहा है। उसकी उपेक्षा करने पर भारी घाटे में रहना पड़ता है। स्वास्थ्य का, शिक्षा का, प्रतिभा का, सम्पदा का, पद-अधिकार का कितना ही महत्त्व क्यों न हो, पर उनका लाभ मात्र सुविधा संवर्धन तक सीमित है। यह सम्पदा अपने लिए तथा दूसरों के लिए मात्र निर्वाह सामग्री ही जुटा सकती है, पर इतने भर से बात बनती नहीं। आखिर शरीर ही तो व्यक्तित्व नहीं है? आखिर सुविधाएँ मिल भर जाने से ही तो सब कुछ सध नहीं जाता? कुछ इससे आगे भी है। यदि न होता तो साधन सम्पन्न ही सब कुछ बन गये होते। तब महामानवों की कहीं कोई पूछ न होती, न आदर्शों का स्वरूप कहीं दृष्टिगोचर होता और न मानवी गरिमा का प्रतिनिधित्व करने वाले महामानवों की कहीं आवश्यकता-उपयोगिता समझी जाती।

समझा जाना चाहिए कि व्यक्ति या व्यक्तित्व का सार तत्व उसके मनःसंस्थान में केन्द्रीभूत है। अन्तःकरण, अन्तरात्मा आदि नामों से इसी क्षेत्र का वर्णन-विवेचन किया जाता है। शास्त्रकारों ने ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षये’’ ‘‘आत्मैव आत्मनः बन्धु आत्मैव रिपुरात्मनः’’ ‘‘उद्धरेदात्मनात्मानम् नात्मानमवसादयेत्’’ आदि अभिवचनों में एक ही अंगुलि निर्देश किया है कि मन के महत्त्व को समझा जाय और उसके निग्रह के, परिशोधन-परिष्कार के निमित्त संकल्पपूर्वक साधनारत रहा जाय। मन को जानने की उपमा विश्व विज्ञान से दी गई है। जो अपने ऊपर शासन कर सकता है, वह सबके ऊपर शासन करेगा इस कथन में बहुत कुछ तथ्य है।

मन का, आत्मा का, जो निरूपण किया जाता है, उसे एक शब्द में विचारणा का स्तर ही कहना चाहिए। मान्यताएँ, भावनाएँ, आस्थाएँ इसी क्षेत्र की गहरी परतें हैं। कल्पना, विवेचना, धारणा इसी क्षेत्र में काम करती हैं। सम्मान, आदत, स्वभाव की खिचड़ी इसी चूल्हे पर पकती है। लगने को यह भी लगता है कि विचार बिन बुलाये आते हैं और अनचाहे ही चढ़ दौड़ते हैं, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। हम कोई दिशा-धारा निर्धारित करते हैं और उस सरिता में तदनुरूप लहरें उठने लगती हैं।

भीतरी हेरफेर का, बाह्य क्रिया कलापों और परिस्थितियों में परिवर्तन होना सुनिश्चित है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति के बदल जाने की बात को सभी विज्ञजन एक स्वर से स्वीकार करते हैं। अस्तु, परिस्थितियों को बदलने के निमित्त मनःस्थिति को बदलना प्राथमिक उपचार की तरह माना गया है। विचारों में मूढ़ता भरी रहने पर, भ्रान्तियों और विकृतियों के अम्बार लगे रहते पर यह सम्भव नहीं कि किसी को गई गुजरी स्थिति में पड़े रहने से छुटकारा मिल सके। जिसका भाग्य बदलता है, उसके विचार बदलते हैं। विचार बदलने का मतलब है अवांछनीयताओं की खोज-कुरेद और जो भी अनुपयुक्त है, उसे बुहार फेंकने का साहस भरा निश्चय।

यहाँ एक तथ्य और भी स्मरण रखने योग्य है कि मात्र कुविचारों का समापन ही सब कुछ नहीं है। एक कदम उठाने, दूसरा बढ़ाने के उपक्रम के साथ ही यात्रा आरम्भ होती है। छोड़ने पर खाली होने वाले स्थान को रिक्त नहीं रखा जा सकता, उस स्थान पर नई स्थापना भी तो होनी चाहिए। अनौचित्य के अनुकूलन के साथ ही औचित्य का संस्थापन भी आवश्यक है। ऑपरेशन से मवाद निकालने के उपरान्त घाव भरने के लिए तत्काल मरहम पट्टी भी तो करनी पड़ती है। कुविचारों की विकृत आदतों का निराकरण तब हो सकता है, जब उस स्थान पर सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया जाय, अन्यथा घोंसला खाली पड़ा रहने पर चमगादड़ न सही अबाबील रहने लगेगा।

दुष्प्रवृत्तियाँ, अवांछनीय आदतें, कुविचारणाएँ बहुत समय तक अभ्यास में सन्निहित रहने पर स्वाभाविक प्रतीत होने लगती हैं, निर्दोष लगती हैं और कभी-कभी तो उचित एवं आवश्यक दीखने लगती हैं। उनके प्रति पक्षपात बनता है और मोह जुड़ता देखा गया है। ऐसी दशा में उन्हें ढूँढ़ निकालना और यह समझ सकना तक कठिन पड़ता है कि उनसे कुछ हानियाँ भी हैं या नहीं। इसका निश्चय श्रेष्ठ, सज्जनों और दुष्ट, दुर्जनों की सद्गति एवं दुर्गति का पर्यवेक्षण करते हुए किया जा सकता है। जो दुष्प्रवृत्तियों को अपनाते रहे, हेय जनों जैसी मनःस्थिति में संतुष्ट रहे, अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहे, उन्हें ठोकरें खाते और ठोकरें मारते हुए ही दिन काटने पड़े हैं, पर जिनने प्रगति की बात सोची और वरिष्ठता के लिए आकाँक्षा जगाई, उन्हें साथ ही वह निर्णय भी करना पड़ा है कि व्यक्तित्व का स्तर उठाने वाली विचार प्रक्रिया को अपनाने, स्वभाव का अंग बनाने में कोई कोर कसर न रहने दी जायेगी।

इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम उन आदतों से जूझना चाहिए जो एक प्रकार से अपंग स्थिति में डाले रखने के लिए उत्तरदायी हैं। पक्षाघात पीड़ितों, अपंगों, अशक्तों की तरह हीनता के विचार भी ऐसे हैं, जिनके रहते किसी का भी पिछड़ेपन से पिण्ड छूटना असम्भव है। लो ब्लड प्रेशर के मरीज ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे लंघन करने वाले ने चारपाई पकड़ ली हो और करवट बदलना तक कठिन हो रहा हो। आलसियों की, अकर्मण्यों की गणना ऐसे ही लोगों में होती है। वे समर्थ होते हुए भी असमर्थ बनते हैं, निरोग होते हुए भी रोगियों की चारपाई में जा लेटते हैं। आरामतलबी, काहिली, कामचोरी, हरामखोरी ऐसी ही मानसिक व्यथा हैं, जिसके कारण बहुत कुछ कर सकने में समर्थ व्यक्ति भी अपंग-असमर्थों की तरह दिन गुजारता है। ढेरों समय खाली होने पर भी महिलाओं की तरह उसे जैसे-तैसे काटता है, जबकि उन क्षणों का किन्हीं उपयोगी कामों में नियोजन करने के उपरान्त कुछ ही समय में अतिरिक्त योग्यता का धनी बना जा सकता था, सक्षमों, सुयोग्यों, प्रतिभावानों और सुसम्पन्नों की पंक्ति में खड़ा हुआ जा सकता था।

आलस्य शरीर को स्वेच्छापूर्वक अपंग बनाकर रख देने की प्रक्रिया है। इसी प्रकार प्रमाद मन को जकड़ देने वाली रीति-नीति है। प्रमादी सोचने का कष्ट सहन करना नहीं चाहता है, जो चल रहा है, उसी से समझौता कर लेता है। नया कुछ सोच न सकने पर, नया साहस न जुटा सकने पर, प्रगति की सुखद कल्पनाएँ करते रहना शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना है। आलसी उन कामों को नहीं करते जो बिना कठिनाई के तत्काल किये जा सकते थे। इसी प्रकार प्रमादी उतार-चढ़ावों के सम्बन्ध में कुछ भी सोचने का कष्ट नहीं उठाते, मात्र जिस-तिस पर दोषारोपण करते हुए दुर्भाग्य का रोना रोते हुए मन हल्का करते रहते हैं, जबकि दोष उनका अपना होता है। परिस्थितियों को बदलने, सुधारने के लिए जिस सूझबूझ, धैर्य, संतुलन, साहस एवं प्रयास की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटा न पाने का प्रतिफल यह होता है कि अनीति जड़ जमा लेती है। पिछड़ापन ऐसा सहचर बनकर बैठ जाता है जिसे हटाने या बदलने जैसी कोई बात बनती ही नहीं। अस्त-व्यस्त विचारों को यदि वर्तमान को सुधारने वाले उपाय ढूँढ़ने में लगाया जा सके और वर्तमान परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए अगला कदम क्या हो सकता है, यदि इस पर व्यवहारिक दृष्टि से चिन्तन किया जा सके तो प्रगतिपथ पर बढ़ चलने का कोई मार्ग अवश्य मिलेगा। पर जिसने पत्थर जैसी जड़ता अपना ली है, उसे रचनात्मक प्रयासों में लग पड़ने के लिए न आलस्य छूट देता है, न विचारों की असंगत उड़ानों से निरत करके कुछ व्यवहारिक उपाय सोचने की सुविधा प्रमाद की खुमारी रहते बन पड़ती है। वस्तुतः प्रगतिशीलता के यही दो अवरोध चट्टान की तरह अड़ते हैं। इन्हें हटाये बिना कोई गति नहीं, कोई प्रगति नहीं।

मनुष्य को हीन बनाने वाले मनोविकारों में उदासी और निराशा प्रमुख हैं। पेट भरने के बाद नदी की बालू में लोटपोट करने वाले मगर और उदरपूर्ति के उपरान्त कीचड़ में मस्त होकर पड़े रहने वाले वाराह को फिर दीन-दुनिया की कोई सुध नहीं रहती। जब बासी पच जाता है और झोले में खालीपन प्रतीत होता है, तभी वे उठने और कुछ करने की बात सोचते हैं। ‘‘पंछी करे ना चाकरी, अजगर करे न काम’’ का उदाहरण बनकर जो समस्त कामनाओं से रहित परमहंसों की तरह दिन गुजारते हैं और ‘‘राम भरोसे जा रहे, पर्वत पै हरियाय’’ के भाग्य भरोसे जो समय काटते हैं, उन्हें ‘‘ना काहू सो दोस्ती, ना काहू सो बैर’’  वाली स्थिति रहती है। वे न कल की सोचते हैं न परसों की। उन उदासीनता सम्प्रदाय का दर्शन अपनाने वालों के लिए प्रगति और अवगति से कुछ लेना-देना नहीं होता, मुट्ठी बाँध कर आते और हाथ पसार कर चले जाते हैं, न शुभ की आकांक्षा, न अशुभ की उपेक्षा, ऐसी उदासीनता पिछड़े और गये गुजरे स्तर का प्रतीक है।

निराशा इससे बुरी है। वह सोचती भी है और चाहती भी, किन्तु साथ ही अपनी असमर्थता, भाग्य की मार, परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साथी की बेरुखी जैसी निषेधात्मक संभावनाओं पर ध्यान केन्द्रित करती है और कदम उठाने से पहले ही असफल रहने का दृश्य देखती और हार मान लेती है। ऐसे लोग उदास रहने वालों की अपेक्षा अधिक दीन-हीन स्थिति में होते हैं और सन्तोष भी हाथ से गँवा बैठते हैं।

अशुभ की आशंका जिन्हें डराती रहती है, वे चिन्तातुर पाये जाते हैं। कुछ चाहते तो हैं, किन्तु सूझ-बूझ और पुरुषार्थ के अभाव को परिस्थितिजन्य गतिरोध मान बैठते हैं। अपने को ऐसे चक्रव्यूह में फँसा पाते हैं जिसमें से बच निकलने का रास्ता अवरुद्ध पाते हैं। इस स्तर के व्यक्ति चिन्तातुर देखे जाते हैं, घबराहट में सिर धुनते हैं, हड़बड़ी में कुछ का कुछ कहते, कुछ करते और सोचते हैं, वह सब बेतुका होता है। अपनी परेशानी साथियों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं मानो आकाश टूटकर उन्हीं पर गिरा हो। यों इस कथन में उनका प्रयोजन सहायता न सही, सहानुभूति पाने का तो होता ही है, पर वे यह भूल जाते हैं कि हारते का सभी साथ छोड़ देते हैं। मित्र भी कन्नी काटने लगते हैं। इस दुनियाँ में सफल, साहसी और समर्थ को ही साथियों का भी सहारा मिलता है। डूबते को देखकर लोग दूर रहते हैं, ताकि चपेट में आकर कहीं उन्हें भी न डूबना पड़े। उदार, परोपकारी तो जहाँ-तहाँ उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही पाये जाते हैं। ऐसी दशा में चिन्तातुर, निराश, भयभीत, संत्रस्त कायर, दुर्बल होने की दुहाई देने के नाम पर यदि सहानुभूति मिलेगी, वह भी उथली एवं व्यंग-तिरस्कार से भरी हुई होगी। सहायता तो कहीं से कदाचित ही मिल सके। यह भी हो सकता है जिनसे सामान्य स्थिति में थोड़ी बहुत सहायता की आशा थी, उससे भी हाथ धोना पड़े।

अपने आपको कमजोर करने और गिराने का यह अवसाद उपक्रम जिसने भी अपनाया है, वे घाटे में रहे हैं। मनोबल को गिराना भी धीमी आत्महत्या है, जो रोग निवारण, अर्थ उपार्जन, सौभाग्य संवर्धन, संकट निवारण जैसे अगणित महत्त्वपूर्ण कार्यों में अजस्र सहयोग प्रदान करता है। गिराने, थकाने और खोखला बनाने वाले उपरोक्त मनोविकारों में चिन्तन का निषेधात्मक प्रवाह ही आधारभूत कारण होता है। जैसे सोचा होता है, उसमें वास्तविकता का नगण्य सा ही अंश रहता है। कुकल्पनाओं का घटाटोप ही ‘शंका डायन मनसामते’ की उक्ति चरितार्थ करता है। कुकल्पनाओं के अँधेरे में झाड़ी की आकृति भूत जैसी बन जाती है। साहस और विवेक की मात्रा घट जाने पर ऐसे अनगढ़ विचार उठने लगते हैं, जिनसे विपत्ति का आक्रमण और उसके कारण विनाश का भयावह दिवास्वप्न आँखों के सामने तैरने लगता है।

जब कल्पना जगत में बेपर की उड़ाने ही उड़नी हैं तो फिर उन्हें विधेयात्मक स्तर की क्यों न गढ़ा जाय? असफलता के स्थान पर सफलता का स्वप्न देखने में क्या हर्ज है? संकट के न आने और उसके स्थान पर सुखद सम्भावनाओं के आगमन की बात सोचने में भी कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। यथार्थता तो समय पर ही सामने आती है। आशंका तो कल्पना पर आधारित हो सकती है, सो भी मनगढ़न्त। जब गढ़ना ही रहा तो भूत क्यों गढ़ा जाय? देवता की संरचना करने में भी तो उतनी ही शक्ति लगेगी। डर वास्तविक नहीं होते। जितने संकट अनगढ़ मस्तिष्क द्वारा सोचे जाते हैं, देखा गया है, उनमें से आधे चौथाई भी सामने नहीं आते। काली घटाएँ सदा बरसने वाली ही नहीं होतीं।

अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ धूप-छाँव की तरह आती-जाती रहती हैं। उनमें से एक भी चिरस्थायी नहीं होती। सामने आने वाली परिस्थितियों का समाधान ढूँढ़ने के लिए और भी अधिक सूझ-बूझ की, साहस एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें जुटाने के लिए मनोबल तगड़ा रहना चाहिए, अन्यथा निराशा, चिन्ता, भय जैसी कुकल्पनाएँ घिर जाने पर तो हाथ-पैर फूल जाते हैं, कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता है, फलतः अपने ही बुने जाल में मकड़ी की तरह फँसकर अकारण कष्ट सहना पड़ता है।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

8.   क्षमताओं का सदुपयोग-प्रगति का राजमार्ग --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कौशल, मनोयोग और श्रम का अमुक गति से अमुक समय तक उपयोग करने की विद्या ही समयानुसार सम्पदा बनकर सामने आती है। इस तथ्य को समझ लेने पर इस तथ्य का रहस्योद्घाटन होता है कि समय का सुनियोजन ही धन है। भ्रष्ट प्रचलनों ने जो अपवाद खड़े किये हैं वे मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें तो बुहार फेंकने में ही गति है। यह प्रक्रिया आज नहीं तो कल सम्पन्न करनी ही है। अर्थ क्षेत्र की विकृतियाँ तो मानवी गरिमा, सम्भावना और सौजन्य की सभ्यता को ही जड़-मूल से उखाड़ देंगी। इसलिए जहाँ उस परिमार्जन की तैयारी करनी चाहिए, वहाँ उसके सम्बन्ध में कम से कम अपने चिन्तन और निर्धारण में समय रहते सुधार परिवर्तन कर ही लेना चाहिए।

धन की आवश्यक ललक पर अंकुश लग सके और उसके उपार्जन में अपना तथा कुटुम्बियों का अधिक श्रम, मनोयोग लग सके तो समझना चाहिए कि अर्थ समस्या का समाधान हुआ और एक ऐसा बड़ा व्यवधान हटा जो किसी उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए समय, श्रम और मनोयोग लग सकने जैसी स्थिति ही नहीं बनने देता। समझा जाना चाहिए कि समय ईश्वर प्रदत्त ऐसा अनुदान है जिसे श्रम के साथ संयुक्त कर देने के उपरान्त अपनी क्षमता प्रकट करना है। वह क्षमता ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति सामर्थ्य है। उसके बदले किसी भी दिशा में चला जा सकता है और किसी भी लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। मनुष्य को सर्व समर्थ कहा गया है। वह सच्चे अर्थों में अपना भाग्य विधाता और भविष्य निर्धारक है, पर यह तथ्य साकार तभी होता है, जब समय के साथ श्रम और मनोयोग का समन्वय करके अभीष्ट प्रयोजन में संकल्पपूर्वक नियोजित किया जाय।

कौन कितना जिया? इसका लेखा-जोखा वर्ष, महीने या दिनों को गिनकर नहीं करना चाहिए वरन् देखा यह जाना चाहिए कि जीने वाले ने उस अवधि को किन प्रयोजनों में कितनी तत्परतापूर्वक नियोजित किया। हो सकता है कि कम समय जीने वाला भी शंकराचार्य और विवेकानन्द की तरह अपने अविस्मरणीय पदचिह्न छोड़े और सराहनीय कृतियों के पर्वत खड़े करे। साथ ही यह भी हो सकता है कि कोई शतायु होकर मरे किन्तु निरर्थक दिन बिताये और असंतोष उगाये।

बहुमूल्य मानव जीवन का एक-एक क्षण अनमोल है। हर साँस को हीरे मोतियों से तोला जा सकता है। जिसने इस तथ्य को जाना, समझना चाहिए उसने जो सबसे अधिक महत्त्व का था उसे जान लिया। बुद्धिमत्ता की प्रशंसा तब है जब समय के सदुपयोग का उच्चस्तरीय निर्धारण बन सके। जिसकी भी प्रज्ञा ने इस प्रकार का अनुग्रह अनुदान प्रदान किया है, उसे सच्चे अर्थों में भाग्यवान कहना चाहिए। अन्यथा लोग ऐसे ही नर वानरों की तरह जीते और ज्यों-त्यों करके दिन गुजारते हैं।

ईश्वर प्रदत्त समय सम्पदा को कौड़ी मोल गँवा देने वाले तीन भूल करते हैं-एक यह कि आलस्य-प्रमाद, विलास-विनोद में समय काटते हैं। दूसरे ललक लिप्सा की पूर्ति के लिए धन बटोरने में लगे रहते हैं। आम आदमी का अधिकांश समय नियोजन प्रायः इन्हीं दो कामों के लिए होता है। तीसरे स्तर के कुछ उद्धत प्रकृति के ऐसे भी होते हैं जो विनाश विध्वंस में लगे रहते हैं अथवा दर्प दिखाने, ठाठ बनाने के लिए, प्रशंसा सुनने के लिए ऐसे कृत्य करते हैं जिसमें प्रवंचना और विडम्बना के अतिरिक्त और कोई सार तत्व नहीं होता।

इन प्रयोजनों की परिणति पर ध्यान दिया जाय और महामानवों द्वारा अपनाई गई गतिविधियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो प्रतीत होगा कि दोनों के मध्य जमीन-आसमान जितना अन्तर है। दोनों की उपलब्धियों में इतना अन्तर है जिन्हें काँच और हीरे जैसा कहा जा सके। आलसी, प्रमादी, अनगढ़, पिछड़ी परिस्थितियों में पड़े रहते हैं। तृष्णातुर उद्यमी तो होते हैं, पर उनकी योग्यता उस अनावश्यक संचय और अवांछनीय उपभोग में लग जाती है जिसकी निरर्थकता को सहज समझा जा सकता था और देखा जा सकता था कि ललक में जिस सुखोपभोग की आशा की गई थी, उसकी छाया ही दिवास्वप्न की तरह लुभाती रही। पल्ले खीज़ और थकान के अतिरिक्त और कुछ लगा नहीं। बड़प्पन और दर्प की विडम्बना और भी अधिक उपहासास्पद है। इस नक्कारखाने में तूती की क्या बिसात? एक से एक प्रतापी, कठपुतली जैसा नाच दिखाकर बाजीगर के झोली में घुस गये। यहाँ कौन किसका बड़प्पन मानता है? अपनी चिन्ता, समस्याओं से फुरसत नहीं फिर कौन किसका दर्प देखे और किसलिए, किस-किस समय किसी को सराहें? अपनी ओर ध्यान खींचने और चकाचौंध उत्पन्न करने की लिप्सा को बचकानी बालक्रीड़ा के अतिरिक्त और कुछ कहते नहीं बनता। यही हैं वे ललक लिप्साएँ जिसमें जिन्दगी का बहुमूल्य अवसर ऐसे ही गुम जाता है। विदाई के दिनों जब ईश्वर प्रदत्त अनुदान को किस निमित्त उपयोग किया गया, यह सोचने का अवसर मिलता तो प्रतीत होता कि भूल ही भूल में उस वैभव को गँवा दिया गया, जिसके सही सदुपयोग की बात यदि सूझ पड़ी होती तो सार्थकता का स्वरूप ही दूसरा होता।

दूरदर्शी विवेकशीलता, महाप्रज्ञा यदि किसी बड़भागी पर अनुग्रह करे तो उसका स्वरूप एक ही होना चाहिए कि वह जीवन सम्पदा की गरिमा समझें और उसके सदुपयोग की बात सोचे। इस चिन्तन से एक ही निष्कर्ष उभरकर ऊपर आता है कि समय को प्रत्यक्ष सौभाग्य माना जाय और इसके उपयोग का जो सर्वश्रेष्ठ निर्धारण सम्भव हो उसे कर गुजरने का साहस अपनाया जाय।

महामानवों के पराक्रम का उपयोग दो प्रयोजनों के निमित्त होता रहा है। एक में उनने अपनी क्षमता एवं वरिष्ठता का अभिवर्धन किया है और दूसरे में उनने विश्व वसुधा के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को संकल्प पूर्वक निभाया है। इन्हीं दो कार्यों को आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण के नाम से जाना जाता है। कोई चाहे तो उसे आत्मा और परमात्मा को प्रसन्नता उपलब्ध कराने वाली साधना भी कह सकता है। इनमें से एक स्वार्थ है और दूसरा परमार्थ। इनके समन्वय से ही मनुष्य जन्म सार्थक और कृत-कृत्य होता है।

आत्म-कल्याण का तात्पर्य है-व्यक्तित्व का निखार परिष्कार। इसके लिए आन्तरिक संघर्ष करना पड़ता है और गुण, कर्म, स्वभाव की वरिष्ठता सम्पादित करने वाले निर्धारणों का जीवनचर्या में समावेश करना पड़ता है। संचित कुसंस्कारों का एक पहाड़ हर किसी के सामने है। प्रचलन, वातावरण, स्वजन और आदतों का एक ऐसा जाल-जंजाल है जिसके रहते न कुछ उच्चस्तरीय सोचते बनता है और न करते धरते। इससे बाहर निकल सकना परम पुरुषार्थ है। जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का स्वरूप सही अर्थों में समझ सकना आत्मबोध है। इस स्थिति तक पहुँचने के लिए वर्तमान चिन्तन प्रवाह को एक प्रकार से उलटना ही पड़ता है। इसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन जैसे उच्चस्तरीय पुरुषार्थों में मन को बलपूर्वक नियोजित करना पड़ता है। साधना-उपासना भी इसी एक प्रयोजन के लिए की जाती है। यह अध्यात्म क्षेत्र का मानसिक पराक्रम हुआ जिसके लिए समय भी लगाना पड़ता है और श्रम भी करना पड़ता है।

चिन्तन और आचरण के समन्वय से ही व्यक्तित्व बनता है। स्वभाव संस्कार इसी प्रक्रिया को अपनाने से विनिर्मित होते हैं। इसके लिए अपनी कार्य पद्धति इस प्रकार की निर्धारित करनी होती है जिसमें आदर्शवादी गतिविधियों में संलग्न रहना पड़े, साथ ही निर्वाह का उपक्रम भी बनता रहे। क्षमता संवर्धन भी इसी प्रक्रिया का एक अंग है। शारीरिक और मानसिक योग्यताएँ जितनी बढ़ती हैं उसी अनुपात से कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ते हैं। इस दृष्टि से आत्म-निर्माण के लिए परिस्थितियों के अनुरूप ऐसी विधि व्यवस्था बनानी पड़ती है जिसमें उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के लिए उपयुक्त अवसर नियमित रूप से मिलता रहे।

ईश्वर ने जिस आकांक्षा से इतनी बड़ी धरोहर सौंपी है उसका निर्वाह भी परमार्थ प्रयोजनों के सहारे ही सधता है। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में दान-पुण्य ही काम आते हैं। इन्हीं की परिणति सुयोग सौभाग्यों के रूप में सामने आती है। इसी प्रकार सीमित ‘स्व’ को असीम ब्रह्म के साथ जोड़ने की परम सिद्धि विराट् के साधन से ही सम्भव होती है। वसुधैव कुटुम्बकम् और आत्मवत् सर्वभूतेषु की दो कसौटियों पर खरा सिद्ध होने के लिए मनुष्य को परमार्थ परायण बनना पड़ता है। गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अनुपात बढ़ाते चलने के लिए सेवा धर्म अपनाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जो जीवन क्रम में आत्मोत्कर्ष की तरह लोक मंगल का समुचित समावेश करने के लिए बाधित करते हैं।

उपरोक्त दोनों ही उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए मात्र सोचते या पढ़ते सुनते रहने से ही काम नहीं चलता। भजन भाव से भी उसकी आंशिक पूर्ति ही होती है। समग्रता तब मिलती है जब उन्हें दिनचर्या में सम्मिलित किया जाय और विधि व्यवस्था ऐसी बनाई जाय जिसमें निर्वाह प्रयोजनों के साथ-साथ इन महान निर्धारणों का भी सुयोग बनता रहे। स्पष्ट है कि इसके लिए समय और श्रम लगाना पड़ेगा। व्यक्ति और समाज की, आत्मा और परमात्मा की मध्यवर्ती कड़ी परिवार है। यह जब छोटा रहता है तो उसे कुटुम्ब कहते हैं और जब बढ़ता है तब विश्व परिवार के रूप में सुविस्तृत बनकर सामने आता है। परिवार ही वह प्रयोगशाला, पाठशाला एवं कर्मशाला है जिसमें पौरुष को प्रकट करने और अभ्यासों को परिपक्व करने का अवसर मिलता है। अस्तु उत्कृष्टता की साधना के साथ श्रम और मनोयोग का समन्वय सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगा रहे। इसके लिए निजी जीवनचर्या में एक समन्वित कार्य पद्धति का निर्धारण करना पड़ता हैं।

इस प्रक्रिया को कौन किस प्रकार सम्पन्न करे, यह व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति एवं परिस्थिति के साथ तालमेल बिठाकर ही एक सुनियोजित कार्यक्रम बन सकता है। जीवन साधना का तात्पर्य ही यह है कि दिशाधारा रीति-नीति में उत्कृष्टता का समावेश करना और ऐसी दिनचर्या बनाना जिसमें उपरोक्त तथ्यों का समुचित समन्वय हो सके। इसमें व्यक्तिगत दुर्बलताओं और अस्त-व्यस्तता को हटाने और उनके स्थान पर प्रगतिशील विधि-व्यवस्था अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। आजीविका के औचित्य एवं स्तर को नये सिरे से निर्धारित करना होता है। परिवार में जो परम्परा चल रही है उसके ढर्रे में आवश्यक परिवर्तन करने होते हैं, साथ ही लोक साधना के लिए नये सिरे से अधिक समय लगाने की गुंजायश निकालनी होती है। यह सभी काम ऐसे हैं जो उथली कल्पना करते रहने से नहीं बन पड़ते वरन् अवांछनीयताओं के उन्मूलन और सत्परम्पराओं के प्रचलन-परिपोषण के लिए ऐसा ताना-बाना बुनना पड़ता है मानो कोई बड़ा उद्योग व्यवसाय खड़ा करने के लिए योजना बनाने, पूँजी जुटाने, शिल्पियों को कार्यरत करने तथा उत्पादन को खपाने का सरंजाम खड़ा किया जा रहा हो। राष्ट्रीय बचत की पंचवर्षीय योजनाओं का ढाँचा खड़ा करने में जैसे कौशल की आवश्यकता पड़ती है, प्रायः वैसी ही सूझबूझ प्रगतिशील जीवन के अभिनव निर्धारण के लिए आवश्यक होती है। इससे कम में बात बनती ही नहीं। यहाँ जादू चमत्कार जैसा कुछ है नहीं। जिसे जो कुछ उपलब्ध हुआ है वह उसके नियोजन, निर्धारण और पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है। इसका समन्वय ही दैवी वरदान के नाम से जाना जाता है।

जीवनचर्या में परिवर्तन कायाकल्प है। दृष्टिकोण और प्रयास में घुसी हुई अवांछनीयता को हटाकर इसके स्थान पर उत्कृष्टता को प्रतिष्ठापित किया जा सके तो समझना चाहिए कि महानता का श्रेय साधन हस्तगत हो गया। पर यह हो कैसे? इसका उत्तर एक ही है कि उच्चस्तरीय निर्धारणों को कार्यान्वित करने के लिए समय सम्पदा का नियोजन किया जाय। उसके साथ श्रम और मनोयोग को भी संयुक्त रखा जाय। इसके बिना समुन्नत जीवन क्रम का श्रेय साधन सम्पन्न कर सकने का और कोई मार्ग है नहीं।

अभीष्ट प्रयोजन के लिए समय निकालें कैसे? मनोयोग जुड़े कैसे? श्रम संलग्नता बने कैसे? इन समस्याओं का समाधान एक ही है कि जिन ललक लिप्साओं में इतने दिनों अपनी क्षमताएँ संलग्न रही हैं, उन्हें वहाँ से विरत किया जाय। वैराग्य इसी का नाम है। जिस त्याग संन्यास की चर्चा अध्यात्म क्षेत्र में होती रहती है उसका तात्पर्य कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों को छोड़ बैठना नहीं वरन् यह है कि अवांछनीय ललक लिप्साओं से अपने समय श्रम को बचाने छुड़ाने का प्रयास किया जाय ताकि उस बचत को सत्प्रयोजनों में लगाकर प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकना बन पड़े।

उत्थान और पतन के दो सर्वविदित राजमार्ग हैं। तृष्णा ग्रसित होकर वैभव, विलास और अहंता की परितृप्ति के प्रयास में संलग्न रहा जा सकता है। इसमें न समय बचने वाला है, न श्रम, न मनोयोग। इस भट्टी को जितना प्रज्वलित किया जायेगा, उतनी ही ऊँची लपटें उठेंगी और उतना ही अधिक ईंधन माँगेंगी। इस स्तर की लालसा यदि आतुरता स्तर तक जा पहुँचे तो फिर उनका समाधान दो ही उपायों से सूझता है, जिसमें एक है आत्महत्या और दूसरा ब्रह्महत्या। आत्महत्या का तात्पर्य है अपने स्तर और व्यक्तित्व को गिराकर हेय परिस्थितियों में प्रवेश करना और उनके साथ जुड़ी हुई नरक यंत्रणाओं को निरन्तर सहन करना। दूसरा मार्ग इससे भिन्न है, उसमें लिप्साओं पर नियंत्रण रखना होता है, ताकि सीमित समय, श्रम में उसकी पूर्ति हो सके और बची हुई क्षमता उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लग सके।

क्षमता से तात्पर्य है-ईश्वर प्रदत्त समय सम्पदा का उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए नियोजन। इसी आधार पर क्षमता बढ़ती है और महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति में समर्थ होती है। दुष्प्रयोजनों में समय और श्रम लगा रहे तो उसे क्षमता की सार्थकता नहीं, दुर्गति एवं विकृति ही कहा जायेगा।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

9.    आहार पौष्टिक ही नहीं, सात्विक भी हो --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मानवी सत्ता जिस प्रकार संवेदनशील है, उसी प्रकार उसके आहार में भी सम्पर्क क्षेत्र का प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता है। इसी बात को यों भी कह सकते है कि मनुष्य का पाचन तन्त्र विलक्षण है, वह न केवल आहार से शारीरिक पोषण प्राप्त करता है, वरन् उसमें सन्निहित सूक्ष्म शक्ति एवं संवेदना भी ग्रहण करता है। जबकि अन्य प्राणी शरीर प्रधान होने के कारण माँस, रक्त मात्र ही प्राप्त करते हैं।

यों चेतना के सम्पर्क से प्रभावित तो सभी पदार्थ होते हैं, पर यह विशेषता मानवी आहार में विशेष रूप से पाई जाती है, वह उगाने, पकाने, परोसने वाले व्यक्तियों से प्रभावित होती है। स्थानों में संव्याप्त भिन्न-भिन्न प्रकार के वातावरण उस पर अपनी छाप छोड़ते हैं। फलतः वह जिसके पेट में जाता है, उसके न केवल शरीर में वरन् मनःसंस्थान में भी भली-बुरी विशेषताएँ उत्पन्न करता है, जो अपने भीतर अर्जित कर रखी थी।

एक पुरानी लोकोक्ति है-जैसा खाये अन्न वैसा बने मन। तात्पर्य यह है कि आहार के साथ जुड़ी हुई विशेषताएँ न केवल शरीर को वरन् मन को भी प्रभावित करती है। चिन्तन के प्रवाह में हेर-फेर करती है। दृष्टिकोण को, स्वभाव को, रुझान को मोड़ने मरोड़ने में अपने स्तर का समावेश करती है। आहार में पाये जाने वाले पोषक पदार्थों की तालिका से परिचित यह जानते है कि इसका खाने वाले के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पहलवानों के लिए चिकनाई अधिक उपयोगी पड़ती है और मरीज के लिए सुपाच्य दाल, दलिया, शाकाहार, फलाहार। बालकों को एक स्तर का आहार दिया जाता है, तो प्रौढ़ों को दूसरी तरह का, वृद्धों को तीसरी तरह का। यह निर्धारण शरीरों की स्थिति एवं आवश्यकता का तालमेल बिठाते हुए किया जाता है। पशुओं को कड़ी मेहनत की थकान उतारने के लिए एक तरह का चारा, दाना दिया जाता है, तो दूध उतरने के लिए दूसरी तरह का। बकरी और हाथी के लिए भी उनके अनुरूप खाद्य जुटाना पड़ता है। उसमें भिन्नता इस आधार पर रहती है कि उनकी पाचन प्रकृति कैसी है और पेट कितनी मात्रा में भरता है। यही बात मनुष्यों के सम्बन्ध में भी है, उनकी शारीरिक माँग और पाचन की स्थिति देखते हुए निर्णय करना पड़ता है कि कौन क्या खाये? कितना खाये?

यहाँ विचारणीय विषय यह है कि मनुष्य के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तन्त्र मनःसंस्थान को प्रभावित करने में आहार की क्या विशेष भूमिका होती है। इस सम्बन्ध में कुछ गहराई में उतरने की आवश्यकता है। मोटी बुद्धि तो इतना ही सोच सकती है कि शरीर के अन्यान्य अवयवों की भाँति मस्तिष्क भी एक अंग है। जिस रस रक्त से समूचे शरीर को पोषण मिलता है, उसी स्तर का, उसी अनुपात का प्रभाव मस्तिष्क पर भी पड़ना चाहिए। इस जानकारी में कोई विवाद जैसी बात नहीं है, तो भी दृष्टव्य यह है कि क्या चिन्तन क्षेत्र की कल्पना, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, नीतिमत्ता, मान्यता, आकांक्षा एवं प्रकृति जैसी विशेषताओं को भी आहार का स्तर कुछ प्रभावित करता है क्या? स्तर से तात्पर्य है मानवी गरिमा से सम्बन्धित उत्थान और पतन। निकृष्टता एवं उत्कृष्टता को उत्तेजन देने वाली प्रवृत्ति प्रवाह।

अनुभव बताता है कि आहार में न केवल रस रक्त का निर्माण करने की क्षमता है, वरन् वह चिन्तन के स्तर को भी प्रभावित करता है। यहाँ चर्चा बुद्धिमत्ता बढ़ाने वाली ब्राह्मी, शतावरी, वच, शंखपुष्पी, गोरखमुंडी जैसी औषधियों का प्रयोग, उपयोग करके मानसिक क्षमता को उत्तेजन देने वाले उपचार की नहीं हो रही है, वरन् यह विचारा जा रहा है कि आहार की क्या विशेषताएँ मनुष्य की भाव संवेदनाओं से सम्बन्धित उत्कृष्टता, निकृष्टता को उभारती है। इन विशेषताओं का पर्यवेक्षण करने के लिए खाद्य वस्तुओं के रासायनिक संगठन का उतना महत्त्व नहीं है, जितना कि उनके साथ जुड़े हुए अदृश्य वातावरण एवं प्रभाव का। यह प्रभाव उन व्यक्तियों से सम्बन्धित है, जिसने उसे कमाया, उगाया, पकाया, परोसा है।

व्यक्तियों की अपनी-अपनी विशेषताएँ है। उनके गुण, कर्म, स्वभाव एक दूसरे से भिन्न होते हैं। नर नारायण, नर देव, नर पशु, नर पिशाच के चार वर्गीकरण पुरातन है। उनमें और भी कितनी शाखाएँ हो सकती है। यह विभाजन वर्ग, लिंग, वैभव, शिक्षा, व्यवसाय, कौशल आदि से सम्बन्धित नहीं वरन् आदर्शवादिता विषयक उत्कृष्टता और निकृष्टता के अनुपात के आधार पर है। कितने ही पशु प्रवृत्ति के पिछड़े, मूढ़मति, अदूरदर्शी एवं अभ्यस्त आदतों से बेतरह जकड़े होते हैं। इन्हें हेय या हीन ही कह सकते हैं। इन्हीं में कुछ उद्दण्ड, आततायी, निष्ठुर प्रकृति के होते है और सदा अनीति ही सोचते तथा कुकृत्य ही करते है। सज्जनोचित चिन्तन और व्यवहार तो उनसे यदा-कदा ही बन पड़ता है। इन नर वानरों और नर पामरों, नर पशुओं और नर पिशाचों से सर्वथा विपरीत एक दूसरा वर्ग वह है, जिनमें से एक को सज्जन दूसरे को उदात्त कह सकते है। सज्जन मानवी गरिमा का ध्यान रखते, मर्यादाएँ पालते और सभ्य सुसंस्कारियों जैसा जीवन जीते हैं। वस्तुतः इन्हें ही सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इससे भी ऊँचा स्तर उनका है, जो अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार होते हैं। स्वयं ब्राह्मणोचित, अपरिग्रही रीति-नीति अपना कर क्षमताओं को बड़ी मात्रा में बचा लेते हैं और उन्हें पुण्य परमार्थ के लिए नियोजित करके असंख्यों का उद्धार करते रहते हैं। इन्हें सामान्य भाषा में सन्त और अध्यात्म भाव में ऋषि, देवता, तपस्वी, मनीषी आदि कहते है। इस वर्गीकरण से यह पता चलता है कि भाव संवेदनाओं एवं स्वभाव, आचरण के आधार पर किस प्रकार अनेकानेक विभाग विभाजन मनुष्यों के हो सकते है।

यह चर्चा इसलिए हो रही है कि आहार पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्बन्ध में यह जाना जा सके कि किस स्तर के व्यक्तियों के प्रभाव क्षेत्र में विनिर्मित हुआ आहार किन प्रभाव, विशेषताओं से सम्पन्न हो सकता है और उसका उपयोग करने वाले पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? शारीरिक पोषण में जो प्रभाव खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले रसायनों का होता है, ठीक वैसा ही उदरस्थ करने वाले के मनःसंस्थान पर भावनात्मक प्रभाव उन विशेषताओं का पड़ता है, जो आहार के उत्पादन से लेकर परोसने की मध्यवर्ती लम्बी प्रक्रिया के साथ किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इन्हीं व्यक्तित्वों की भली-बुरी विशेषताएँ उस आहार के साथ अदृश्य रूप से जुड़ी रहती है और खाने वाले को उसी दिशा में मोड़ती, घसीटती है।

आहार किस क्षेत्र में किस प्रकृति के लोगों द्वारा बोया, उगाया गया। उसे काटने, साफ करने, पीसने, पकाने में किन-किन के साथ उस उत्पादन का सम्पर्क सधा। देख-भाल तो इस गहराई तक भी की जानी चाहिए, पर इतनी लम्बी कोई न कर सके तो कम से कम इतना तो देखा ही जाना चाहिए कि पकाने वाले, परोसने वाले किस प्रकृति के है। जो खाया जा रहा है वह रासायनिक दृष्टि से सुपाच्य एवं जीवन तत्वों सहित है या नहीं। इसके लिए आहार की अपनी प्रकृति भी होती है। गीता में इसका सात्विक, राजसिक और तामसिक के रूप में विविध वर्गीकरण हुआ है। सात्विक से तात्पर्य अमृताशन स्तर के आहार से है। उबले हुए चावल-दाल, दलिया, खिचड़ी जैसे आहार को अमृताशन कहते है। शाक-भाजी भी साथ में ही उबाले जा सकते है। हलका सा नमक, अदरक, नीबू जैसे सम्मिश्रण भी स्वाद की दृष्टि से किये जा सकते है। ऐसा कुछ भी न मिलाया जाय, तो अस्वाद व्रत भी निभता है और सात्विकता का अनुपात और भी अधिक बढ़ जाता है। दूध-दलिया, दूध चावल भी अमृताशन वर्ग में आते हैं।

राजसी, तामसी स्तर के वे है, जिनमें तलने, भूनने का आश्रय लिया जाता है। चिकनाई, मिठाई तथा मसालों की भरमार की गई हो। इन दिनों दावतों में प्रायः ऐसी ही वस्तुएँ परोसी जाती है। कई-कई दिन पूर्व के बनाये बिस्कुट जैसे पदार्थ इसी श्रेणी में आते हैं। उत्तेजक, मादक पेय भी तमोगुणी कहे जा सकते हैं। होटलों में जहाँ एक ही रसोई घर में शाकाहारी, माँसाहारी वस्तुएँ पकती है, जूते पहने, बिना नहाये, मैले कुचैले हाथों से पकाते-परोसते है। एक के प्रयोग के बाद दूसरे के सामने भी वे ही बर्तन बिना अच्छी तरह धोये-माँजे रख दिये जाते हैं। ऐसी दशा में उनमें किया हुआ भोजन उन कुसंस्कारों से जुड़ जाता है, जो पहले वालों ने उस पात्र के साथ छोड़े थे।

पिछले दिनों रोटी, बेटी की पवित्रता का प्रचलन था। अब उसमें शिथिलता आने लगी है। जाति, बिरादरी और ऊँच-नीच की दृष्टि से तो इस प्रकार के प्रतिबन्धों की आवश्यकता नहीं है, किन्तु आहार में सात्विकता, सुसंस्कारिता बनी रहे, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे कुकर्मी, कुसंस्कारी एवं दुष्ट स्वभाव के न हो। छूत के रोग एक दूसरे तक पहुँचते हैं, इसी प्रकार के सम्पर्क से कुसंस्कार भी आक्रमण करते हैं। खान-पान के सम्बन्ध में इन बातों का विशेष ध्यान उन लोगों को रखना चाहिए, जो अपनी चित्त वृत्तियों को उच्चस्तरीय रखना चाहते है और चिन्तन में अवांछनीयता को घुसने न देने के लिए विशेष रूप से इच्छुक है।

पिप्पलाद ऋषि ने मात्र पीपल के फल खाकर निर्वाह किया था। औदुम्वर ऋषि गूलर मात्र लेकर जीवनचर्या चलाते थे। कणाद जंगली घासों से उपलब्ध होने वाले साँवा, मकरा, कोदों, साठी जैसे अनायास ही उत्पन्न होने वाले बीज कणों को समेट कर पेट भरते थे। कन्दमूल फल पर ऋषियों की उदर पूॢत होती थी। यह सब अब वन प्रदेशों में अनायास उत्पन्न नहीं होता, प्रयत्न पूर्वक स्वयं उगाना पड़ता है। अच्छा तो यही है कि अपने एक छोटे खेत में परिवार के लायक अन्न और शाक स्वयं उगायें। इससे परिवार भर को श्रमरत रहने का अवसर मिलेगा। आलस्य से बचने और सृजन चिन्तन का अभ्यास बढ़ेगा। जिनके पास खेत नहीं है, वे भी आँगनवाड़ी, छत बाड़ी, छप्परवाड़ी की व्यवस्था बना कर मौसम के अनुरूप शाक−भाजी उगाने का प्रयत्न करें। छोटे परिवार की शाक व्यवस्था इतने से भी चल सकती है। बड़ा परिवार हो तो भी चटनी के लायक धनिया, पोदीना, अदरक, पालक, सलाद जैसी वस्तुएँ आसानी से बोई उगाई जा सकती हैं।

इन दिनों रासायनिक खादें और कीट नाशक दवाओं की भरमार है। कोल्ड स्टोरों में महीनों तक रखे रहने पर भी आहार की ताजगी चली जाती है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रबन्ध करें कि आहार उत्पादन की दिशा में स्वावलम्बी होने के लिए प्रयत्नशील रहा जाय। महत्त्व समझने, ध्यान जाने और प्रयत्न करने पर मनुष्य अनेक गुत्थियों के समाधान ढूँढ़ निकालता है। तब कोई कारण नहीं है कि परमप्रिय काया आरोग्य जैसी सम्पदा एवं स्वजन स्नेहियों से भरे परिवार की महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए, खाद्य पदार्थों की शुद्धता के लिए कुछ न कुछ तो किया ही जा सकता है।

अपना खेत न हो तो पड़ोसियों से उसे किराये पर लिया जा सकता है। कुछ अधिक जमीन मिल सके तो आहार उत्पादन में ही गौ पालन को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए। कृषि उपज का अन्न भाग मनुष्य के लिए और चारा पशुओं के लिए एक साथ उत्पन्न होता है। कृषि और पशु पालन का संयोग सुयोग भी है।

इन दिनों बाजार में खरीदने पर दूध के नाम पर जो मिलता है, उसकी जानकारी सभी को है। मिलावट ही नहीं गन्दगी भी उसमें भरी रहती है। स्वच्छता जब अपने स्वभाव में ही नहीं है, फिर जिसका उपयोग दूसरों को करना है, उसे शुद्धता पूर्वक दुहने, स्वच्छ बरतन में रखने और देर तक रखे रहने पर उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाने की बात कौन सोचे? दूध की आवश्यकता यदि सचमुच ही अनुभव होती है, तो परिस्थितियों को देखते हुए एक कदम और आगे की बात सोचनी चाहिए और गौ पालन की अपनी व्यवस्था आप करनी चाहिए।

गाय से गोबर, गोबर से भूमि को खाद, खाद से उपज, उपज से मनुष्य और पशुओं का निर्वाह यह एक ऐसा चक्र है, जिसे गतिशील रखने में भूमि, पशु और मनुष्य तीनों की ही भलाई है। इस गति चक्र को बनाये रहा जाय, तो सरल, सौम्य, सात्विक और सुखी, समृद्ध जीवनचर्या का उपक्रम ठीक प्रकार बना रह सकता है। इसमें स्वास्थ्य की सुरक्षा भी है। सुखी, सन्तुलित, सन्तुष्ट और स्वस्थ, समृद्ध जीवनचर्या भी इस प्रक्रिया में समाहित है। अन्न, शाक की तरह दूध का भी स्वास्थ्य सुरक्षा में योगदान है। कभी दूध बाहर से भी शुद्ध मिल सकता था, पर आज तो समय के प्रभाव से वह सब भी दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसी दशा में तद्विषयक स्वावलम्बन और भी अधिक आवश्यक हो गया है।

आरोग्य से न केवल आहार का, वरन् श्रम का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। शारीरिक श्रम की उपेक्षा करने पर कलपुर्जे शिथिल ही नहीं पड़ जाते, वरन् जंग खाये औजार की तरह बेकार भी हो जाते हैं, श्रम को आहार के साथ जोड़ कर एक समग्र स्वास्थ्य शृंखला को पुनर्जीवित किया जा सकता है। आटा, दलिया हाथ की चक्की से पीसा जाय, धान कूटे जाय, दूध दुहने और मथने का अभ्यास रखा जाय, कुएँ से पानी खींचने और कपड़े धोने जैसे घरेलू कामकाजों को अपनाये रहने पर महिलाओं को उपयोगी श्रम करने का अवसर मिलता रह सकता है। बच्चे तक फूल-पौधों से, बछड़ों-बैलों के साथ खेलते रह सकते हैं। पक्षियों के साथ आँख मिचौनी चलती रह सकती है। कैसे सुखद, स्वाभाविक और सन्तोष, उल्लास से भरा-पूरा हो सकता है यह जीवनक्रम। इस पुरातन परम्परा को यदि नये उत्साह और नई सूझबूझ के साथ अपनाया जा सके, तो समझना चाहिए कि स्वस्थता और प्रसन्नता के दिन फिर वापस लौट आवे।

इस सन्दर्भ में सीखना कुछ नहीं है। जो भुला दिया गया है, उसे फिर से स्मरण करना है और जो प्रगतिशीलता के अहंकार में उद्धत स्वेच्छाचार अपना लिया गया है, उसे भुला देना है। यह भूलने और स्मरण करने की विधा ही उस स्वर्णिम युग को वापस ला सकती है, जिसे हम सब उच्छ्वास भरते हुए सतयुग के नाम से स्मरण करते रहते है।

आरोग्य मात्र शरीर तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रभाव मानसिक स्वस्थता तक चला जाता है। स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक गिरेगा तो दूसरा भी स्थित न रह सकेगा। इसलिए जब भी सोचना हो, दोनों की सम्मिश्रित स्वस्थता की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए आहार और विहार दोनों पर समान रूप से ध्यान देना चाहिए और ऐसा जीवनक्रम अपनाना चाहिए, जिससे इनमें से एक भी टूटने, डगमगाने न पाये। इस सन्दर्भ सर्वप्रथम आहार की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा और यह देखना होगा कि वह पौष्टिक ही नहीं सात्विक स्तर का भी है क्या?

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

10.   सादा जीवन उच्च विचार अन्योन्याश्रित --पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

निर्वाह की दृष्टि से जीवन क्रम हलका-फुलका होना चाहिए। लिप्सा लालसाओं से लदी जिन्दगी बहुत भारी पड़ती है। महत्त्वाकांक्षी लोग न चैन से बैठते है न दूसरों को बैठने देते हैं। बड़प्पन का नशा विज्ञात नशों में सबसे बुरा है। कुबेर और इन्द्र बनने की ललक में रावण और हिरण्यकश्यपु जैसा वैभव बटोरने की रट लगाते-लगाते कितने चंगेज खाँ और सिकन्दर इस दुनिया से हाथ मलते उठ गये, फिर अपने जैसे मक्खी मच्छरों की क्या स्थिति, जिनके पास न कौशल है, न पराक्रम, न साधन। वितृष्णा इतना ही कर सकती है कि इस चन्द दिन तक जीने के लिए मिले हुए सुयोग का अपहरण कर ले। मृगतृष्णा में भटकने वाले दिवास्वप्न देखते और निराशा, खीज़, थकान भर पल्ले पड़ने से मूर्खता पर सिर धुनते हैं।

यदि विलास और वैभव ही सब कुछ रहे और अहंता के प्रदर्शन बिना चैन न पड़े तो एक बात और भी गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि इस प्रयास में उन सभी सम्भावनाओं को समाप्त करना होगा जो हर घड़ी प्रसन्नता बनाये रहती हैं। जिसके कारण चेहरे पर मुस्कान और अन्तराल में संतोष भरे उल्लास को छलकते देखा जाता है। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण और सुविकसित बनाये रहने के लिए बहुत कुछ सोचना और बहुत कुछ करना होता है। इस हेतु जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें पूरी तरह वह व्यामोह अजगर की तरह निगल जाता है, जिसमें दर्प के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं।

साथियों को नीचा दिखाकर अपनी गरिमा सिद्ध करने वाले ठाट-बाट तो बना लेते हैं, पर जिस लोक सम्मान की आशा से वह सब किया गया था, उसे मिलने की कोई आशा की किरण दीखती नहीं। उलटी ईर्ष्या भड़कती है। भूखों की मण्डली में बैठकर जब एक कोई रबड़ी चाटता है तो सौभाग्यशाली कहलाने का श्रेय कहाँ बटोर पाता है। उलटा आक्रोश बरसता है और निष्ठुरता का लांछन लगता है। लगे हाथों कहने वाले यह भी कहते है कि यह अनीति उपार्जन है, अन्यथा ईमानदार होने पर तो यह हमारे जैसा ही रहता।

जन मनोविज्ञान को समझने वाले जानते है कि साथियों की तुलना में बहुत अधिक विलास वैभव एकत्रित करना, गरिमा अर्जित नहीं कर पाता, वरन् आक्रोश उत्पन्न करता है जिसकी चपेट में न जाने कितने आक्रमण सहने और कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए दूरदर्शिता सदा यही कहती रही है कि सम्पन्नता अॢजत करने के अनेक खतरे हैं, जबकि सादगी अपनाने पर महानता उभरती है और जन-जन का स्नेह सहयोग घसीट लाती है।

सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त ऐसा है जिसमें जीवन की सार्थकता, सफलता और जुड़ी हुई अति प्रसन्नता के समस्त सूत्रों का समावेश है। हलका-फुलका जीवन अर्थात् सादगी, मितव्ययता और बिना विलास वैभव का सीधा सादा निर्वाह। इसके लिए औसत भारतीय स्तर को मापदण्ड मानकर चलना होता है अन्यथा यह पता ही न चलेगा कि जिस वैभव का उपभोग चल रहा है वह आवश्यक है या अनावश्यक, उचित है या अनुचित। जिसकी अपनी तृष्णा आकाश चूमती हो उसके लिए यह अनुमान लगा सकना कठिन है कि औसत मनुष्य को किस स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ता है। वे सदा धन कुबेरों के सपने देखते है और तस्करों, लोलुपों और निष्ठुरों के द्वारा अपनाये जाने जैसे विलास वैभव को स्वाभाविक मानते हैं। इस राह पर चलते तो अनेकों हैं, जो चल नहीं पाते वे भी ललक वैसी ही सँजोये रहते हैं। परिणति स्पष्ट हैं, साधनों के रहते हुए भी उनका इच्छित रसास्वादन तो कदाचित ही कोई कर पाते हों। मधुमक्खियों के वैभव को कौन सहन करता है। छत्ता तोड़ने के लिए बहेलिये ही नहीं, गिद्ध और बन्दर तक घात लगाये रहते हैं। यह अपहरण चापलूसी के औजार से किया गया या गला मरोड़ने वाले नागपाश से, यह बात दूसरी है।

बढ़ा हुआ वैभव रुदन के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकता। उससे दुर्व्यसन और अहंकार समान रूप में बढ़ते हैं। यह दोनों ही ऐसे हैं जो शहतीर में लगे घुन की तरह उसे गुप-चुप खोखला करते और धराशायी करने तक अपने प्रयास में निरत रहते हैं। अधिक जोड़ने की, अधिक भोगने की ललक में मनुष्य कुकृत्य तो करते ही हैं, उसका खर्च भी सीधे रास्ते नहीं होता। या तो मनुष्य स्वयं उसे दुर्व्यसनों में उड़ाता है या फिर ईर्ष्यालुओं के आक्रमण का शिकार बनता है। पारा किसी को पचता नहीं।

अनावश्यक वैभव की भी ठीक ऐसी ही दुर्गति होती है। यह स्वयं तो हजार छेद बनाकर अपनी बिरादरी वालों से मिलने दौड़ता ही है, साथ ही जहाँ से भागता है वहाँ भी अनेकानेक रिसते घाव छोड़ जाता है, जो जन्म-जन्मान्तरों तक रिसते और कसकते हैं। इसलिए आदर्शों की बात सोचने वालों को सर्वप्रथम वैभव विसर्जन की तैयारी करने का परामर्श दिया जाता हैं। अन्यथा लिप्सा बनी रहने पर परमार्थ के नाम पर चित्र-विचित्र विडम्बनाएँ रचते रहने के अतिरिक्त और कुछ बन नहीं पड़ेगा। महानता और सम्पन्नता में एक प्रकार से शत्रुता है, जहाँ एक के पैर जमेंगे वहाँ दूसरे को पलायन करना पड़ेगा। तथ्य की यथार्थता एवं गम्भीरता को समझने वाले वाजिश्रवा जैसे सर्वमेध यज्ञ रचाते और अपने शरीर के कपड़े तक उतारकर परमार्थ प्रयोजन के लिए दान करते रहे हैं। ऋषि परम्परा यही है। बुद्ध गाँधी को ही नहीं, प्रत्येक साधु और ब्राह्मण परम्परा अपनाने वालों को अपना प्रयास यही से आरम्भ करना पड़ा है। विसर्जन समर्पण बन पड़े तो ही यह आशा बँधती है कि महान के साथ एकत्व अद्वैत की स्थिति बन सके। जिस त्याग वैराग्य की शास्त्रकारों ने श्रेय मार्ग पर चलने वालों के निमित्त पग-पग पर आवश्यकता बताई है, उसमें यही रहस्य है कि जब तक तृष्णा से पिण्ड न छूटेगा तब तक श्रेष्ठता में न मन लगेगा और न तन जुटेगा। लगन कहीं लगी रहे तो फिर लकीर पीटने भर की विडम्बना ही शेष रह जाती है। उस झुनझुने से अपने आपको बहलाया फुसलाया भर जा सकता है।

परस्पर घोर मतभेद रखने वाले अध्यात्मवाद और साम्यवाद को इस केन्द्र पर सर्वथा एक मत देखा जा सकता है कि व्यक्ति को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाने के लिए बाध्य किया जाय। अध्यात्म क्षेत्र में इसके लिए पुण्य परमार्थ का, त्याग वैराग्य का, स्वर्ग मुक्ति का दार्शनिक चक्रव्यूह रचा है। साम्यवाद ने झटके की नीति अपनाई है और आदमी की भलमनसाहत को अस्वीकार करते हुए गरदन दबोचकर जो पास पल्ले है उसे समाज की सम्पदा मानने के लिए बाधित किया है। तरीके अपने-अपने हैं। नींद की गोली खाकर मरा जाय या तलवार से गरदन कटे, मात्र तरीकों में ही भिन्नता है। आदर्शवाद की किसी भी धारा को यह स्वीकार नहीं कि मनुष्य विलासी, संग्रही, अपव्ययी बने, उद्धत विडम्बना रचे और मुफ्तखोरों के लिए उत्तराधिकार छोड़ मरे। हर दृष्टि से यह अनैतिक है।

कौशल, पराक्रम, श्रम समय और वैभव यह सभी विभूतियाँ ईश्वर प्रदत्त हैं। इसी को समाज प्रदत्त भी कहा जा सकता है। अन्यथा एकाकी स्थिति में तो वन-मनुष्य जैसी आदिम स्थिति में भी रहा जा सकता है। जिसने दिया है उसे कृतज्ञता पूर्वक लौटा देने में ही भलमनसाहत है। इसे अपनाने में जो दुराचरण के प्रवाह प्रचलन को चीरकर अपनी शालीनता का परिचय दे पाता है वह सराहा जाता है। यह औचित्य का निर्वाह भर है। तो भी चोरों की नगरी में एक ईमानदार को भी देवता माना जाता है। आलसियों के गाँव में एक पुरुषार्थी भी मुक्त कंठ से सराहा जाता है। औसत नागरिक जैसा निर्वाह ऐसा ही औचित्य है, जिसे अपनाने के लिए नीतिमत्ता, विवेकशीलता और सद्भावना का प्रत्येक प्रतिपादन विवश करता है।

यहाँ चर्चा धन वैभव की ही नहीं हो रही है। उसमें कौशल और पराक्रम को भी सम्मिलित रखा जाता है। विद्या, बुद्धि, कला, कौशल, प्रतिभा, बलिष्ठता आदि की दृष्टि से कितनों को ही विशिष्टता प्राप्त है। समय प्रत्यक्ष धन है। पसीने के बदले ही सम्पदा कमाई जाती है या कमाई जानी चाहिए। लॉटरी से लेकर जुए, सट्टे का, जमीन में गड़ा, उत्तराधिकार से मिला या उजड्डपन से बटोरा वैभव औचित्य की मर्यादाओं से हटकर होने के कारण अग्राह्य एवं अवांछनीय है। वस्तुतः धन मनुष्य के श्रम, समय और कौशल का ही प्रतिफल होना चाहिए। इसलिए विभिन्न स्तर की विशेषताएँ विभूतियाँ भी वैभव में ही सम्मिलित होती हैं और वह अनुशासन उन पर भी लागू होता है। उसके अनुसार न्यूनतम अपने लिए और अधिकतम सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के निमित्त लगना चाहिए। मानवी गरिमा इससे कम में सधती ही नहीं। मनुष्य की मान मर्यादा इससे कम में बनती ही नहीं। इससे कम निर्धारण में वह सुयोग बनता ही नहीं।

जिस प्रकार सम्पन्नता उपार्जन के लिए अपना सब कुछ न सही बहुत कुछ नियोजित करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार महानता अर्जित करने के लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का बहुत बड़ा भाग नियोजित करना पड़ता है। यदि उन विभूतियों पर पहले से ही लोभ लिप्सा ने आधिपत्य जमा रखा हो तो फिर महानता अर्जित करने के लिए, खरीदने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे पास में होंगे ही नहीं। तब फिर मनोरथ कैसे पूरे हो सकेंगे। मात्र कामना कल्पना करने से, पूजा पाठ करने भर से कोई भी श्रेष्ठता का वरण नहीं कर सका है। ईश्वर भक्त भी महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने में समर्थ नहीं हुए हैं। उत्कृष्टता तो मूल्य देकर खरीदी जा सकती है। इस खरीद के दिए जो चाहिए उसे सम्पन्नता की ललक पर अंकुश लगाकर ही बढ़ाया जा सकता है।

चुनाव दो में से एक का करना है। निकृष्ट विचार रखकर घिनौना जीवन जिया जाय, संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते-तिलमिलाते कीड़ों जैसा शिश्नोदर परायण बना जाय या फिर उत्कृष्ट स्तर की विचारणा अपनाकर सादगी का सौम्य सात्विक निस्पृह रहकर महानता को वरण किया जाय। दोनों में मौलिक अन्तर एक ही है। निकृष्टता आरम्भ में आकर्षक लगती है किन्तु परिणाम की दृष्टि से विघातक, विष जैसी कष्ट दायक सिद्ध होती है। इसके विपरीत उत्कृष्टता का मार्ग है जिसका आरम्भ बीज की तरह गलने जैसा होता है किन्तु कुछ समय उपरान्त, अंकुरित होने, लहलहाने एवं फूलने-फलने के अवसर निश्चित रूप में उपलब्ध होने लगते हैं। अदूरदर्शी तात्कालिक आकर्षण के लिए आतुर होते है और आटे के लोभ में गला फँसाकर बेमौत मरने वाली मछली का उदाहरण बनते हैं। दूसरे वे है जो किसान माली, विद्यार्थी या व्यवसायी की तरह अपनी श्रम साधना सत्प्रयोजन के लिए लगाते और अन्ततः बहुमूल्य फसल से अपने कोठे भरते हैं।

सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर किसी के लिए श्रेयस्कर है। उसमें आवश्यकताओं और सुविधाओं पर इतना अंकुश लगाना पड़ता है, जिसमें शरीर को मात्र औसत नागरिक जितनी व्यवस्था जुट सके। वैयक्तिक आकाँक्षाओं को इतना ही स्वल्प एवं सीमित रहना चाहिए ताकि संसार में जितने साधन हैं उन्हें मिल बाँटकर खाया जा सके। हर किसी के हिस्से में गुजारे जितना आ सके। ऊँची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करना पड़ता है। अमीर बनने में, विलास वैभव जुटाने में जिस सम्पदा की आवश्यकता पड़ती है उसका संचय बिना दूसरों का रक्त पीये अपनी कोठी तिजोरी की शोभा बढ़ाने के लिए जमा हो ही नहीं सकती।

जो अधिक उपार्जन करने योग्य हैं उनके ऊपर एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व यह आता है कि सादगी से गुजारा करने के उपरान्त जो बचता है उसे सत्प्रयोजनों के लिए हाथों हाथ लौटा दें। वरिष्ठता के बदले श्रेय मिलने का सौभाग्य ही पर्याप्त है। उपार्जन अभिवर्धन की, कौशल व्यवस्था और सूझबूझ की विशेषता का प्रतिफल इतना ही हो सकता है कि उन्हें सराहा, सम्मानित किया और श्रेय दिया जाय। इसके बदले उन्हें अधिक सम्पदा सुविधाओं जैसे लाभों की न तो माँग ही करनी चाहिए और न वैसा कुछ उन पर लादकर गरिमा का अपहरण ही होना चाहिए।

घर के बड़े या कमाऊ लोग मात्र अधिक श्रेय पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। व्यक्तिगत उपभोग के लिए अधिक सम्पत्ति उड़ाते रहने की छूट नहीं माँगते। वे जानते हैं कि संयुक्त परिवार में सभी का समान हक है। कमाऊ हीरे मोतियों से लदें और बिना कमाऊ चीथड़े लपेटकर घूमें, तो यह संयुक्त परिवार कहाँ रहा? यह समूचा समाज एक परिवार है। उसके वरिष्ठों को कनिष्ठों का अधिक ध्यान रखना चाहिए।

अभिभावक स्वयं दूध न पीकर भी बच्चों के लिए उसे किसी प्रकार जुटाते हैं। मरीज के लिए फलों का प्रबन्ध किया जाता है, जबकि समर्थ दाल और नमक के सहारे भी रोटी गले उतारते रहते है। यदि समर्थ का विशेष अधिकार माना जाय तो फिर असमर्थों का ईश्वर ही रक्षक है। उस आपा धापी के रहते मनुष्य समाज की सभ्यता, संस्कृति, नीति, उदारता जैसे आदर्शों की चर्चा करने का हक न रह जायेगा। जिसकी लाठी तिसकी भैंस का जंगली कानून यदि मनुष्यों में भी चल पड़ा और सुयोग्यों ने अधिक सुविधा साधन हड़पना आरम्भ कर दिया तो समझना चाहिए कि मनुष्य ने अपनी नैतिक वरिष्ठता गँवा दी और प्रेत पिशाच जैसी रीति-नीति अपना ली।

सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धान्त मानवी नैतिकता की सही व्याख्या करता है। जिसके ऊँचे विचार हों, जो भावना के क्षेत्र में उत्कृष्टता संजोये हो, उसे अपने ऊपर यह अनुबन्ध कठोरता पूर्वक लागू करना चाहिए कि जीवन चर्या सादगी एवं मितव्ययता से पूर्ण हो। मितव्ययता का अर्थ कृपणता बरतना और कुपात्रों के लिए सम्पदा जमा करते जाना नहीं वरन् यह है कि औसत नागरिक का स्तर शिरोधार्य करते हुए पूरी सामर्थ्य के साथ श्रम किया जाय और जो निर्वाह से अधिक हो उसे हाथों-हाथ सत्प्रयोजनों के लिए लगा दिया जाय।

*** —पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार