आदर्श के निर्वाह में नर, नारी से पीछे न रहे

नागरिकों में सामाजिकता के आदर्शों के प्रतिनिष्ठा किसी भी समाज को श्रेष्ठ और सबल बनाती है, इसमें दो राय नहीं हो सकतीं । अपने साथी सहयोगियों के प्रति श्रेष्ठ मान्यता तथा उनके प्रति सहयोग और समर्पण की प्रबल भावना सामाजिक विकास के श्रेष्ठतम आधार हैं । भारतीय मनीषी भारतीय नर-नारियों में यह आदर्श भाव बनाये रखने का प्रयास सदैव करते रहे । यहाँ पुरुष नारी को देवी मानकर सर्वोच्च सम्मान देता रहा है । अपनी हर उपलब्धि में उसका पूरा-पूरा अधिकार मानता रहा है । नारी भी पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पित जीवन जीती रही । कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य के प्रति बिना किसी प्रतिदान की कामना किये सतत जागरूक रही ।

यह स्थिति जब तक रही यह देश देवभूमि कहलाता रहा । पर फिर परिस्थितियाँ बदलीं । पुरुष वर्ग अहं में भर कर आदर्श को छोड़ बैठा और नारी का आदर्श उसकी आत्म-हीनता में लुप्त प्रायः हो गया । इसकी प्रतिक्रिया जो हुई वह सबके सामने है । भारत उच्चतम सिद्धान्तों और भावनाओं से सम्पन्न होते हुए भी दीनतम-हीनतम स्थिति में जा पड़ा ।

अब आवश्यकता इस बात की है कि यह दिशा बदली जाय । उच्च आदर्शों की जन-जीवन में पुनर्स्थापना ही हमें उबार सकती है । स्थिति का सर्वेक्षण करने से विदित होता है कि नारी वर्ग इस गई-गिरी स्थिति में भी अपने आदर्शों के बहुत निकट है । उसे उन आदर्शों को हीनता ग्रस्त, मनोभूमि से हटकर गौरवमय संकल्प के साथ अपनाते देरी नहीं लगेगी । किन्तु पुरुष वर्ग का अभ्यास उन आदर्शों से बहुत दूर चला गया है । उन्हें उसके लिए विशेष विचार, विशेष प्रयास करना होगा । वह नारी की विशेषताओं का शोषक नहीं पोषक बन कर रहे तभी समाज का—उसका अपना हित हो सकता है । अपनी भूलों की परम्परा तोड़कर सही दिशा में कदम बढ़ाने के लिए उसे अविलम्ब प्रयास करना चाहिए । आदर्श के निर्वाह में पिछड़ेपन का कलंक दूर कर ही देना चाहिये ।

नारी को क्या करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, किन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और किस तरह सोचना चाहिए इस संदर्भ में धर्म शास्त्रियों और समाज सेवियों द्वारा निरन्तर एक-से-एक बढ़े-चढ़े उपदेश दिये जाते रहे हैं । पतिव्रत धर्म की अथक महत्ता बताई गई है । साथी का उच्चस्तरीय सहयोग करने की प्रवृत्ति को जगाया जाना श्रेयस्कर ही है । अस्तु पतिव्रत धर्म का उपदेश यदि अतिवादिता सहित दिया गया हो, उसके लिए असंभव, अत्युक्तिपूर्ण और कभी-कभी अवांछनीय भी कथानक गढ़ लिए गये हों तो सदुद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें उपयोगी ही कहा जायगा । पतिव्रत धर्म का महत्त्व क्यों कहा गया, इसकी किसी को भी शिकायत नहीं होनी चाहिए । बात विचारणीय इतनी भर है कि क्या उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न किये बिना, आवश्यक सामर्थ्य उत्पन्न किये बिना, इतना गुरुतर भार वहन करना मनुष्य जैसे दुर्बल प्राणी के लिए संभव भी हो सकता है या नहीं ?

पति और पत्नी को मित्रता के समस्त आदर्शों का पालन करना चाहिए । जिस पक्ष से भूल होती हो उसे तत्काल सुधारना चाहिए । आज की स्थिति में पत्नी जिस योग्य रह गई है उसके अनुरूप वह भोजन बनाने, चौकीदारी करने और काम-तृप्ति का उपकरण रहने के तीनों ही उत्तरदायित्व मरते-खपते अधिक से अधिक सीमा तक पूरे कर रही है । उसकी वफादारी में कमी होने के प्रसंग भी कभी अपवाद रूप में ही देखे सुने जाते हैं । साथी के प्रति कर्तव्य निष्ठा को न्यायनिष्ठ जाँच में ९९ प्रतिशत पुरुष ही दोषी पाये जायेंगे ।

पत्नीव्रत की सबसे पहली और सबसे मार्मिक पुकार यह है कि पत्नी के मानवोचित अधिकार उसे वापिस लौटा दिये जायें । उसे सच्चा मित्र समझा जाय । अपनी ही समान स्थिति तक शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ऊँचा उठा लेने का प्रबल प्रयत्न किया जाय । उन मूढ़ताओं, रूढ़ियों, कुरीतियों और अन्ध-परम्पराओं को पैरों तले कुचल दिया जाय जिनने भारतीय नारी का सर्वस्व हरण करके उन्हें नरक की आग में झुलसने के लिए झोंक दिया है ।

उन सभी उपायों पर विचार किया जाना चाहिए जिनसे नारी का खोया हुआ स्वास्थ्य पुनः प्राप्त हो सके । इसके लिए उन्हें पर्दे के कैदखाने से छुटकारा देना सबसे अधिक आवश्यक है । शील सदाचार के लिए आँखों में लज्जा होना पर्याप्त है । घूँघट की किसी भी दृष्टि से कोई उपयोगिता नहीं ।

इससे तो घरेलू बात व्यवहार में पूछने-बताने की सामान्य प्रक्रिया में भी भारी बाधा पड़ती है । इस पर्दे से हानि ही हानि है, अनौचित्य ही अनौचित्य है, फिर उसे क्यों पकड़े-जकड़े रहा जाय ?

नारी के बिगड़े हुए स्वास्थ्य की ओर प्रत्येक ईमानदार पति को तत्काल ध्यान देना चाहिए । उसके आहार-विहार में, विश्राम-दिनचर्या में ऐसे हेर-फेर करने चाहिए जिससे अवांछनीय दवाबों में पिसने से उसे राहत मिल सके । काम-क्रीड़ा मादक हो सकती है पर उसका अमर्यादित होना साथी को चौपट करके रख देने की बराबर है । विशेषतया तब जब वह दुर्बलता और रुग्णता से जल रही हो । बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाना तो आज की परिस्थितियों में परले सिरे की मूर्खता है । पत्नी का शरीर यदि उतना भार उठाने की स्थिति में नहीं है तब तो उसे स्पष्ट शब्दों में दुष्टता ही कहना चाहिए । पत्नी को यदि स्वजन और सुहृद माना गया तो उसके साथ मूर्खों और दुष्टों जैसी क्रूर खिलवाड़ नहीं ही करनी चाहिए । इन दवाबों के कुचक्र में पिसने से बचाना, उसे राहत की साँस लेने देना वह प्रथम कार्य है जिसका आज के प्रत्येक ईमानदार पति को पत्नीव्रत के आरम्भिक कर्तव्य के रूप में पालन करना ही चाहिए ।

उपरोक्त पंक्तियों में पति और पत्नी शब्द का उल्लेख पतिव्रत धर्म और पत्नीव्रत धर्म की व्याख्या की दृष्टि से किया गया है । वस्तुतः समूचा नर वर्ग इस परिधि में आता है कि वह नारी के प्रति अपने पवित्र कर्तव्यों के निर्वाह में उसे मानवोचित स्थिति तक ऊँचा उठाने के लिये सच्चे मन से पूरा-पूरा प्रयत्न करे ।

इसके लिए सबसे पहला प्रयास यह होना चाहिये कि अपने घरों से इसका शुभारम्भ करें । अपना दृष्टिकोण और व्यवहार बदलें । नारी को भी नर के स्तर का एक पूर्ण मनुष्य मानें, व्यवहार, अधिकार तथा सम्मान की दृष्ठि से जो भूलें अब तक बन पड़ी हों, उनका सुधार तो किया ही जाय; उनकी क्षति पूर्ति भी की जाय ।

घर में प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक सदस्य का सम्मान करे । प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे के साथ शिष्टाचार बरते, अपशब्द कहना, अपमान करना अपनी ही निकृष्टता की घोषणा है । छोटों से भी सम्मान सूचक वार्तालाप करना चाहिये और उनके साथ शिष्ठता बरत कर उन्हें भी वैसा ही करने की व्यावहारिक शिक्षा देनी चाहिये । यह सावधानी तो बालकों के साथ तक बरती जानी चाहिये । बड़ों के साथ तो इसमें तनिक भी कमी नहीं आनी चाहिये । नव वधुएँ भी स्नेह-दुलार की अधिकारिणी हैं और उनकी आत्मा को भी सम्मान-सद्व्यवहार की उतनी ही अपेक्षा है जितनी कि एक मनुष्य को दूसरे से होनी चाहिये ।

नारी पुनरुत्थान अभियान की आवश्यकता जिन घरों में भी समझी जाय, स्त्री शिक्षा का प्रबन्ध तत्काल होना चाहिये । अशिक्षितों को शिक्षित बनाया जाय और शिक्षितों को आगे बढ़ाने के साधन जुटाये जाँय । इसकी उपयोगिता प्रत्येक पुरुष को और प्रत्येक नारी को समझनी चाहिये और समझाई जानी चाहिये । जो लड़के-लड़कियाँ कुछ अधिक पढ़ चुके हैं । उन्हें घरेलू पाठशाला का शुभारम्भ करना चाहिये । बड़ी उम्र की महिलाओं में पढ़ने के प्रति रुचि नहीं होती । रुचि न होने से मस्तिष्क भी सहायता नहीं देता । यदि शिक्षा को मानवी विकास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सीढ़ी के रूप में समझाया जा सके तो निश्चित रूप से वे उस लाभ को प्राप्त करने में उत्साह प्रकट करेंगी । पुरुष उसके लिए वातावरण बनायें । घर में जिसे भी थोड़ा अवकाश हो जो भी पढ़ा सकने की योग्यता रखता हो; उन्हें घरेलू पाठशाला का उत्तर दायित्व सौंपना चाहिये । छोटे बच्चे उसी में सम्मिलित रह कर अपनी स्कूली पढ़ाई का अभ्यास करें और नारियाँ अपनी शिक्षा का आरम्भ करें, अथवा जो पढ़ा है, उसको आगे बढ़ायें ।

शिक्षा का दूसरा अंग है 'विद्या' । जीवन की समस्याओं और सामाजिक परिस्थिति का स्वरूप तथा समाधान प्रस्तुत करने वाले साहित्य का अध्ययन इतना आवश्यक है जिसे मानसिक विकास की दृष्टि से उतना ही आवश्यक माना जा सकता है, जितना कि शरीर के लिए भोजन । ऐसी पुस्तकें पत्रिकाएँ पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने को परिवार की महती आवश्यकता माना जाना चाहिए, और उन्हें घर के अनिवार्य कामों में से एक मानना चाहिये । इसके लिए घरेलू लायब्रेरी न बन सके तो मिल-जुलकर पुस्तकालय बनाया जाय और उनसे यह प्रयोजन पूरा किया जाय ।

दिनचर्या व्यवस्थित रहे, मिल-जुलकर घर के काम निपटा लिए जाँय तो निस्सन्देह हर घर की स्त्रियों को प्रगति के लिए अवकाश मिल सकता है । इस अवकाश का उपयोग शिक्षा और स्वाध्याय के लिए जितना अच्छी तरह जितनी अधिक मात्रा में सम्भव हो सके, उसके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिये ।

रात्रि को कहानियाँ कहने की प्रथा प्रचलित की जानी चाहिये । परियों भूतों की, छल या प्रेम प्रसंगों की कहानियाँ अक्सर कही जाती हैं, जिनका प्रभाव सुनने वालों पर बुरा पड़ता है । हमारे घरों में कहानियाँ कहने का प्रचलन उद्देश्य पूर्ण है, इसके लिए प्रेरक प्रसङ्गों की चुनी हुई कहानियाँ ही कही जानी चाहिए । इस प्रयोजन के लिए युग निर्माण योजना मथुरा से कितनी ही कथा पुस्तकें छपी हैं । युग निर्माण पत्रिका में भी प्रेरणाप्रद जीवन चरित्र छपते रहते हैं, ऐसे ही प्रसङ्गों को कहानियों का आधार बनाया जाय । हर दिन दो-तीन कहानियाँ भी कह ली जाय तो एक वर्ष में हजार-आठ सौ के लगभग कथाएँ कही-सुनी जा सकती हैं । उनमें सन्निहित तथ्य सारे परिवार के अन्तःकरण में गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं, जिनका प्रतिफल परिवार में परिष्कृत वातावरण विकसित होने के रूप में निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हो पकता है । घर में जो भी व्यक्ति कहानियाँ कहने में रुचि एवं दक्षता रखते हों वे इस कार्य को अपने जिम्मे ले सकते हैं । पुस्तकों में से पढ़कर सुनाते रहने से भी यह कार्य अच्छी तरह पूरा हो सकता है, संसार भर में प्रगतिशील स्त्रियाँ क्या कर चुकीं ? क्या कर रही हैं ? यह तथ्य यदि उन्हें सुनाये जाते रहें तो सहज ही अभिनव प्रेरणा उत्पन्न होगी और प्रगति की दिशा में कुछ कदम उठाने के लिए अदम्य उत्साह उमड़ता दिखाई देगा ।

साप्ताहिक रूप में या जब भी सुविधा हो परिवार गोष्ठी चलनी चाहिये । जिसमें घर के सभी सदस्य उपस्थित हों । मर्द ही नहीं स्त्रियाँ और बच्चे भी । इसमें परिवार की आर्थिक स्थिति की मोटी जानकारी सभी को कराई जाय । बजट सब मिल-जुलकर बनायें । खर्च उसी आधार पर हो । सदस्यों के उचित कार्यों की सराहना और अनुचित कार्यों की भर्त्सना की जाय । आज की अपेक्षा कल अधिक अच्छी स्थिति में परिवार रह सके, इसके लिए सभी से सुझाव माँगे जाँय । उसमें जो उपयोगी एवं व्यावहारिक हों उन्हें अपनाने का क्रम बनाया जाय । घर के हर सदस्य को यह अनुभव होना चाहिये कि अमुक व्यक्ति ही कर्ता-धर्ता हर्ता नहीं है; वरन् परिवार निर्माण में वह भी समान रूप से साझीदार है और उसकी सलाह एवं भावना का भी मूल्य है । स्त्रियों को ऐसा अवसर देकर उन्हें अधिक उत्तरदायी अधिक दूरदर्शी एवं अधिक सुयोग्य बनाया जा सकता है । कहानियाँ कहने का अभ्यास करा कर स्त्रियों की भाषण शक्ति विकसित की जा सकती है । जो आगे चल कर परिवार निर्माण और समाज निर्माण की भूमिका निवाहने के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है ।

स्वावलम्बन, मनोरञ्जन और धार्मिक वातावरण के विविध कार्यक्रम और भी हैं, जिन्हें परिवार में प्रश्रय मिलना चाहिये । सिलाई आदि कुछ उद्योग स्त्रियों को आने चाहिये, जिसके सहारे वे कुछ आजीविका उपार्जन भी कर सकें । कुटीर उद्योगों में रुचि उत्पन्न की जानी चाहिये । मनोरञ्जन की दृष्टि से गायन, वादय, शाकवाटिका, सुसज्जा, खेल-कूद, व्यायाम, टहलना आदि की दृष्टि से क्या कुछ सम्भव है, यह सोचा जाना चाहिये और जो सम्भव हो, सो करना चाहिये । भगवान का चित्र घर में स्थापित रहे । अपना दैनिक कार्य आरम्भ करने से पहले, परिवार का प्रत्येक सदस्य उसे नमन करे । गायत्री माता की चित्र स्थापना अतीव उपयोगी है । उसके समक्ष मस्तक झुका कर नमन करना, मन ही मन दस, गायत्री मंत्र का जप करना, महिलाओं के लिए ही नहीं घर के हर सदस्य के लिए आवश्यक होना चाहिये । इससे धार्मिक वातावरण बनता है और ईश्वर विश्वास रहने से हर किसी की सद्भावनायें और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने की मनःस्थिति बनती है । नर और नारी के बीच भी आस्तिकता का वातावरण बहुत उपयोगी सिद्ध होता है ।

नारी पुनरुत्थान की दृष्टि से उपरोक्त प्रचलन का बहुत महत्त्व है । प्रत्येक पुरुष का कर्तव्य है कि इन आधारों को मूर्तिमान करने के लिए प्रयत्नशील बने और महिला जागरण का यह छोटा किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शुभारम्भ अपने घर से तत्काल आरम्भ करे ।