मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा

ऋषि युग्म की झलक-झाँकी भाग-1 से

मैं स्वयं सूर्य रूप हूँ

यह प्रसंग सन् 1982 का है। दिल्ली के एक प्रोफेसर को कैंसर हुआ। वे गुरुजी से जुड़े तो थे पर बुद्धिवादी होने के नाते गुरुजी की परीक्षा लेना चाहते थे। अतः पूज्यवर से मिलने के लिये वे शान्तिकुञ्ज तो आये किंतु नीचे ही प्रतीक्षालय में बैठे रहे जबकि उस समय उनसे मिलने हेतु कोई भी कभी भी जा सकता था।

थोड़ी देर में गुरुदेव ने स्वयं ही उन्हें बुलवा लिया व शिकायत भरे लहजे में कहा, ‘‘बेटा! तुझे कैंसर है और तूने बताया तक नहीं।’’

वे गुरुजी के चरणों में गिर पड़े और सुबकते हुए बोले, ‘‘गुरुजी, चाहता था कुछ दिन ठीक से जी लूँ।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘ अरे बेटा! कुछ नहीं है, तू बिलकुल ठीक है। जा! तुझे कुछ नहीं होगा। बेटा! मैं स्वयं सूर्य स्वरूप हूँ, ब्राह्मण हूँ जो निरंतर सभी को देना ही जानता है।’’

श्रद्धेय डॉ. प्रणव भाई साहब बताते हैं कि मैं उस समय ऊपर ही था। डॉक्टर बुद्धि, मैंने भी उनका पता नोट किया कि देखें आखिर होता क्या है? सन् 1982 से 1991 तक वे बिलकुल स्वस्थ रहे। कैंसर का कहीं अता-पता भी नहीं था।

सूर्य की ओर देखकर समाधान किया

राजनांदगाँव के श्री बुधराम साकुरे जी के ससुर तीर्थ यात्रा के लिए निकले थे। उनके घर एक समाचार मिला कि जिस नाव में बैठकर वे नदी पार कर रहे थे, वह नाव डूब गयी है। उनका कुछ अता-पता नहीं है। वे जीवित भी हैं कि नहीं, कुछ ज्ञात नहीं है। अब घर वाले बहुत परेशान थे कि उनका पता कैसे लगाया जाय? संयोग से उन दिनों पूज्यवर राजनांदगाँव व दुर्ग (छ.ग.) गये हुए थे। साकुरे जी ने घर वालों से कहा- ‘‘आप सब परेशान न हों, हम अपने गुरुजी से उनके बारे में पूछेंगे। वे सब समाधान कर देंगे।’’

उन्होंने दुर्ग आकर गुरुजी का पता किया कि वे कहाँ हैं। किसी ने बताया कि वे स्टेशन पहुँच चुके हैं। वे रेलवे स्टेशन आकर पूज्यवर से मिले। आते ही चरण स्पर्श कर गुरुजी से कहने लगे- ‘‘गुरुजी! घर में एक समस्या है। हमारे ससुर जी तीर्थ यात्रा को गये थे। ऐसा सुनते हैं कि उनकी नाव डूब गयी। घर वाले बहुत परेशान हैं।’’ पूज्यवर ने एक क्षण के लिए सूर्य की ओर निहारा। फिर बोले, ‘‘बेटा! बिल्कुल चिन्ता न करो। वे कल सुबह तक यहाँ आ जायेंगे।’’ उन्हें स्वयं को तो पूर्ण विश्वास था कि पूज्यवर का कोई कथन असत्य नहीं हो सकता पर अपने ससुराल पक्ष को कैसे समझाएँ जो अभी परिवार से जुड़े नहीं थे। उन्होंने कहा, ‘‘आप लोग सुबह तक धैर्य रखो।’’

सुबह होते ही स्टेशन से ससुर जी का फोन आ गया कि मैं यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं रिक्शा से घर आ रहा हूँ। घर पहुँच कर उन्होंने बताया कि नाव तो डूबी थी, पर बचाने वाले परमात्मा ने बचा लिया। जैसा कि कहा गया है, ‘जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय।’ साकुरे जी का विश्वास है कि पूज्य गुरुदेव ने ही हमारे ससुर जी को बचा लिया।

साकुरे जी बताते हैं कि वे स्वयं नशे में डूबे रहते थे। उनकी शराब किसी भी भाँति उनसे छूट नहीं रही थी। पूज्य गुरुजी ने ही उनका जीवन बदला। गुरुजी ने उन्हें जीवन की कीमत समझायी, और जीवन को यूँ ही आग लगाते रहने से बचा लिया। जीवन में कुछ विशिष्ट कार्य करवाकर जीवन को सफल एवं सार्थक बना दिया। शान्तिकुंज से पूज्यवर ने उन्हें देश में विभिन्न कार्यक्रम सम्पन्न करवाने के लिए टोलियों में भी भेजा।

हम सूर्य में व अखण्ड दीप में रहेंगे

1987 नवम्बर की बात है। मैं (डा. ओ.पी. शर्मा) टोली से लौटा था। जब गुरुदेव से मिलने गया, तो गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, मैं शुकदेव हूँ।’’ मैं चुप रहा और उनके वाक्य पर विचार करता रहा। रात में भी वही विचार चलता रहा। प्रातःकाल उपासना के समय प्रेरणा मिली कि गायत्री का सूर्योपस्थान पढ़ो। मैंने उसे पढ़ा। उसमें लिखा है, ‘‘ऋषि शुकदेव जी कहते हैं, हमारी सारी साधनाएँ पूरी हूई। अब हम सूर्य में व्याप्त होकर कार्य करेंगे।’’ अगले दिन मैंने गुरुदेव को संस्कृत का एक शोक सुनाया। ‘तस्मात् योग समास्थाय....’ जब मैंने यह शोक सुनाया तो गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा कहाँ पढ़ा है?’’ मैंने गुरुदेव को बता दिया कि ‘गायत्री का सूर्योपस्थान’ पुस्तक में पढ़ा है। तब गुरुजी कहने लगे, ‘‘बेटा, जैसे शुकदेव जी ने पैदा होने पर माँ का स्तनपान भी नहीं किया और तपस्या करने लगे वैसे ही बेटा हम भी तपस्या में लग गये हैं और उसी रूप में कार्य कर रहे हैं।’’

एक दिन पूज्यवर ने कहा, ‘‘शरीर छोड़ने के बाद क्षण भर के लिये हम निराकार हो जायेंगे, फिर उसी अखण्ड दीप की ज्वलंत लौ में समाहित हो जायेंगे, वही मेरी प्रतिमा होगी।’’

इसी बात को वर्ष 1988, जनवरी की अखण्ड ज्योति में पृष्ठ-28 पर उन्होंने लिखा भी, ‘‘बदन बदलने के समय में अब बहुत देर नहीं है।...परिजन हम लोगों का संयुक्त जीवन अखण्ड दीपक का प्रतीक मानकर उसे आत्म सत्ता की साकार प्रतिमा मानते रहें।... शरीर परिवर्तन की वेला आते ही यों तो हमें साकार से निराकार होना पड़ेगा, पर क्षण भर में उस स्थिति से अपने को उबार लेंगे और दृश्यमान प्रतीक के रूप में अखण्ड दीपक की ज्वलंत ज्योति में समा जायेंगे।’’ ‘‘शरीरों के निष्प्राण होने के बाद, जो चर्म चक्षुओं से हमें देखना चाहेंगे, वे इसी अखण्ड ज्योति की जलती लौ में हमें देख सकेंगे। भविष्य में दोनों की सत्ता एक में विलीन हो जायेगी और उसे तेल-बाती की पृथक सत्ताओं के एक ही लौ में समाविष्ट होने की तरह अद्वैत रूप में गंगा-यमुना के संगम रूप में देखा जा सकेगा।’’

आगे वे लिखते हैं, ‘‘अभी हम लोगों के शरीर शान्तिकुञ्ज में रहते हैं। पीछे वे इस परिकर के कण-कण में समाये हुए रहेंगे। इसकी अनुभूति निवासियों और आगंतुकों को समान रूप से होती रहेगी।’’

मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा

एक दिन हम (डा. ए.के. दत्ता) लोग उनके पास बैठे थे, तो वे बोले, ‘‘मैं शरीर छोड़ने पर कुछ ऐसा करूँगा जैसे कोई कुर्ता उतारता है, पर फिर मैं तीन स्थानों पर रहूँगा एक माताजी के पास, दूसरा सजल-श्रद्धा प्रखर-प्रज्ञा तीसरा अखंड दीपक।’’ हमारे साथ अमेरिका के एक परिजन भी बैठे थे। उन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, ये तीनों स्थान तो शान्तिकुञ्ज में हैं और हम लोग तो बहुत दूर हैं।’’ इस पर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा! मेरा चौथा स्थान उगता हुआ सूर्य होगा।’’

माताजी का सूर्यार्घ्य

सन् 1981-82 की बात है एक दिन मैंने (श्रीमती अपर्णा दत्ता) माताजी को सूर्य भगवान् को अर्घ्य देते हुए देखा। मैंने देखा सूर्य की गहरी प्रकाश किरणों का एक समूह उनके चरणों में आ रहा है। फिर यह प्रकाश किरणें बिखर कर शान्तिकुञ्ज के परिसर द्वारा सोखी जा रही हैं। मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, आज मैंने माताजी का विलक्षण स्वरूप देखा। यह क्या है?’’ तो गुरुजी ने कहा, ‘‘माताजी के इसी दिव्य प्रकाश और शक्ति से शान्तिकुञ्ज और युग निर्माण योजना संचालित है।’’