बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका-3

षष्ठ अध्याय

मनोरंजक तथा मैदानी खेल

प्रथम भाग - मनोरंजक खेल


बालक स्वभावतः चंचल होते हैं। एक ही स्थान पर अधिक समय तक उन्हें बैठना थोड़ा कठिन लगता है। संस्कार वर्ग की समय-सारणी में थोड़ा सा समय मनोरंजन का भी होता है। मनोरंजन के उत्तम विकल्प बालकों के लिए उपलब्ध कराना, यह भी हमारा कर्तव्य बनता है। मनोरंजन के आकर्षण से भी अधिक बालक वर्ग में आते हैं और अच्छी बातें सीख लेते हैं। इस पुस्तिका में मनोरंजन के ऐसे खेल समाविष्ट किये गये हैं, जिनका मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सिखाने में भी उपयोग हो।
सायंकाल के सत्र में मैदान पर खेलने हेतु अधिकतम बालक एक साथ खेल सकें तथा अत्यल्प साहित्य की आवश्यकता हो, इसी प्रकार के खेल चुने गये हैं। मैदानी खेल से संघ भावना का विकास, हार-जीत को सहने की शक्ति, तथा उत्तम आरोग्य हेतु सर्वांगीण विकास, ये सभी बातें अनायास ही बालकों में आरोपित हो जाती हैं।

१. भारत माता
किसी भी एक बालक को सामने बुलाकर उसे कमर पर हाथ रखकर खड़ा होने को कहें। बालक की आकृति लगभग भारत के मानचित्र जैसी बन जाती है। यह ‘‘भारत माता है’’ ऐसा कह कर भिन्न-भिन्न शहर कहाँ पर हैं? यह अन्य बालकों से पूछें। सिर पर जम्मू-काश्मीर, छाती पर ‘‘दिल्ली’’ बायें हाथ के मध्य पर ‘‘गुवाहटी’’ मुम्बई कमर के दाहिनी ओर, चेन्नई बाँये घुटने के पास, इस प्रकार अनेक शहरों के बारे में पूछा जा सकता है। शहरों के नामों की चिठ्ठीयाँ बनाकर उन्हें यथास्थान कपड़े पर लगाया भी जा सकता है। समूह में छोटे बालकों की संख्या अधिक होने पर नगरों के स्थान पर राज्यों को लिया जा सकता है। भारत का मानचित्र ठीक प्रकार समझने के लिए यह खेल उपयुक्त है।

२. शब्द संग्रह बढ़ाओ
‘‘राजधानी रायगढ़’’ इस शब्द को फलक पर लिखें। और इन शब्दों के अक्षरों से अधिक से अधिक शब्द बनाने को कहें। शब्द बनाते समय अक्षर किन्हीं भी मात्राओं सहित हो सकता है। परन्तु फलक पर लिखे शब्दों के अतिरिक्त अन्य किसी शब्द का उपयोग करना मना होगा। प्रारंभ में बालकों को मिलकर शब्द बनाने को कहें। उदा.-राजा, राधा, रानी, राम, राग आदि, जीरा, जीजी, जगत्, धारा, धागा, धान्य, गया, गाय, नीरा, नीला, नीज, नारायण इस प्रकार अनेक शब्द बालक मिलकर बना सकेंगे। वर्ग में थोड़ी देर खेल खेलने के उपरान्त दूसरे दिन उन्हें घर से और अधिक से अधिक शब्द बनाकर लाने को कहें। अधिक से अधिक शब्द बनाने वाले बालक की सबके सम्मुख प्रशंसा करना न भूलें। इसी प्रकार ‘‘गीता परिवार’’ इस शब्द से भी कई शब्द बन सकते हैं। इस खेल में बनने वाले शब्दों की संख्या १०००-१५०० बन सकती है, ऐसा अनुभव है।

३. पैर उठा नहीं सकते
किसी एक बालक को सम्मुख बुलाएँ। एक हाथ व एक पैर दीवार से पूर्णतया चिपका रहे, इस प्रकार उसे खड़ा करें। दीवार की सहायता लिये बिना दूसरा पैर ऊपर उठाने को कहें। शरीर का गुरुत्व-केन्द्र दीवार के समान्तर हो जाने से कितना भी प्रयास किया जाय, दूसरा पैर उठाना सम्भव नहीं होता। अन्य बालक भी इस का आनन्द लें।

४. गोंद लगाये बिना बालक कुर्सी पर चिपक गया
किसी भी एक बालक को बुलाकर कुर्सी पर बैठने को कहें। कुर्सी पर बैठने पर उसके पैर भूमि पर लगे रहें, इसका ध्यान रखा जाय। इस हेतु लम्बे बालक का चयन करना होगा। अब उसे सीना आगे झुकाये बिना उठने को कहें। इस प्रकार उठना असम्भव होगा। गोंद लगाये बिना बालक कुर्सी पर चिपक गया, यह देखकर सभी बालकों को आनन्द आयेगा।

५. प्राणी को पहचानो
इस खेल के लिये गाय, भैंस, ऊँट, घोड़ा, कुत्ता, गधा, सिंह, साँप इत्यादि नाम की स्पष्ट और बड़ी पट्टियाँ तैयार करें। एक बालक को बुलाकर उसे दिखाई न दे, इस प्रकार से एक पट्टी उसकी पीठ पर आलपिन से लगाकर सबको दिखाएँ। अपनी पीठ पर क्या लिखा है, यह उसे पहचानना है। इस हेतु उसे हाँ या ना अथवा प्रश्न में ही उत्तर निहित हो, ऐसे प्रश्न समक्ष बैठे बालकों से पूछने हैं। उदा.- मैं पालतू हूँ क्या? मैं पेड़ पर रहता हूँ या भूमि पर? जंगल में रहता हूँ या गाँव में? मुझे सींग हैं या नहीं? मैं दूध देती हूँ क्या? मैं शाकाहारी हूँ या माँसाहारी? इत्यादि।
सामान्यतः १५ से २० प्रश्नों में उत्तर मिल जाना चाहिये। उत्तर न बता पाने पर उसे छोटा सा दण्ड (उठक-बैठक)दिया जाय। प्रारम्भ में खेल समझाकर स्वयं भी एक प्राणी पहचान कर दिखाएँ।

६. अफवाएँ कैसे फैलती हैं?
आओ देखें अफवाएँ कैसे फैलती हैं। सबको एक घेरे में फासला देते हुए खड़ा कर दो। सीटी बजते ही घेरे में खड़े किसी एक खिलाड़ी को यह संदेश दे दीजिए कि ‘‘झण्डू का भाई मण्डू कुएँ में गिर गया, जल्दी स्ट्रेचर लाओ।’’ वह अपने से दायीं ओर के साथी को वह संदेश कान में सुनाएगा। इस प्रकार पूरे सदस्यों के पास से होता हुआ यह संदेश अन्तिम बच्चे तक आएगा। वह प्रशिक्षक के पास आकर जोर से संदेश को सुनाएगा। संदेश निश्चित रूप से बिगड़ा हुआ होगा। इस खेल का यह भी उद्देश्य है कि हमें किसी की सुनी-सुनाई बात पर तुरंत यकीन नहीं कर लेना चाहिए।
नोट-१. आवाज इतनी धीमी हो कि तीसरे को संदेश सुनाई न दे।
२. जिस समय संदेश दिया जा रहा हो, तीसरा खिलाड़ी अपना मुँह दूसरी ओर फेर लेगा।
३. संदेश को ध्यान से व धीरे-धीरे सुनाना है।
४. यदि कोई संदेश समझे नहीं तो फिर से एक बार सुनाने की अनुमति दे दें।
५. इसी प्रकार अन्य चटपटे से संदेश तैयार किए जा सकते हैं।
६. जब भी खेल को खिलाया जाये, नया संदेश तैयार करें।

७. सम्बधित कहावतें बताओ
यहाँ उदाहरण के रूप में कुछ मुहावरे आदि दिये गये हैं। बालकों से इसी तरह और मुहावरे/कहावतें बताने को कहें। दो समूह बना देने पर अंत्याक्षरी जैसा खेल भी खेल सकते हैं।
हाथः- अपना हाथ जगन्नाथ।
हाथ कंगन को आरसी क्या।
पेटः- पेट नरम, पैर गरम, सिर ठण्डा, वैद्य आए तो मारो डण्डा।
पहले पेट-पूजा फिर काम दूजा।
कानः- दीवारों के भी कान होते हैं।
जीभः- जीभ तारक भी है, मारक भी।
रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग पताल। आपहुँ तो भीतर गई, जूती खात कपाल।
बगलः- मुँह में राम बगल में छुरी।
मनः— मन चंगा तो कठौती में गंगा।
दाँतः- खाने के दाँत अलग, दिखाने के अलग।
दाँत हैं तो चने नहीं, चने हैं तो दाँत नहीं।
पैरः- नाचने वाले के पैर थिरकते हैं। पाँव तले जमीन खिसकना।
होंठः- अपने ही दाँत, अपने ही होंठ।
नेत्रः- आँखें हैं तो जहान है।
पीठः- पीठ पर मारो, पेट पर मत मारो।
चमड़ीः- चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय।

८. उलटी संख्या
बालकों को दो भागों में बाँटा जाता है। पहले भाग के किसी बालक को १५०या १०० से उलटे क्रम में १५०, १४९..या १००,९९,९८..संख्या कहने को कहा जाता है। कहते समय रुकने पर या गलत कहने पर उसे रोका जाता है। अधिक से अधिक संख्या कहने वाला बालक विजयी होता है।

९. काका-काकी क्या करते हैं
पाँच-पाँच बच्चों के गण बनाइये। एक दूसरे का स्वर ठीक से सुन सकें, इस प्रकार उन्हें बैठाइये। प्रत्येक गण को अपनी बारी आने पर एक वाक्य बोलना है। वाक्य बोलते हुए बालकों को निम्नांकित नियमों का पालन करना आवश्यक है।
१. वाक्य का कर्ता काका या काकी ही होना चाहिए।
२. वाक्य के बीच का शब्द ‘‘ड़ी’’ अक्षर से अन्त होने वाला हो।
३. वाक्य अर्थपूर्ण होना चाहिए।
४. बीच का शब्द प्रत्येक बार नया होना आवश्यक है।
जैसे- काका की गाड़ी आयी, काकी ने साड़ी पहनी, काका की पगड़ी गिरी इत्यादि।
वाक्य याद करने को आधे मिनट का समय दिया जाय। वाक्य याद न आने पर वह गण निरस्त किया जाएगा। बचे हुए गणों में अन्त तक खेल चलता रहेगा। पपड़ी, नाड़ी, ताड़ी, साड़ी, सिड़ी, चुड़ी, खाड़ी, जाड़ी इत्यादि शब्दों का उपयोग करते हुए बच्चे झटपट वाक्य बनाते हैं। खेल में तो मनोरंजन होता ही है। साथ-साथ शब्द-शक्ति, कल्पना-शक्ति, स्मरण-शक्ति का विकास भी होता है।

१०. प्राणियों की कहावतें
इस खेल में पाँच से छः बालकों के तीन-चार समूह बनाइये। एक बुद्धिमान बालक हर एक समूह में हो, इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा सारे होशियार बालक एक ही गण में आने पर खेल का आनन्द कम हो जाता है।
इस खेल में अपनी बारी आने पर हर एक गण को प्राणियों से सम्बन्धित एक-एक कहावत कहनी है। जैसे कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी, ऊँट के मुँह में जीरा, कुत्ता भौंके हाथी अपनी चाल चले, भैंस के आगे बीन बजाना, धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, आ बैल मुझे मार, छुछुन्दर के सिर में चमेली का तेल इत्यादि। सभी बच्चों को स्पर्धा समझाने हेतु उदाहरण के तौर पर एक दो कहावतें कहिए और स्पर्धा आरम्भ कर दीजिए। जो गण आधे मिनट के समय में कहावत बोलने में असफल होगा, उस पर एक अंक चढ़ेगा।

११. ‘र’ की अंत्याक्षरी
यह खेल बालकों में शब्द-संग्रह, स्मरण-शक्ति, कल्पना-शक्ति के विकास हेतु उपयुक्त है। सुनार, लुहार, चमार, कुम्हार, मार, पार, ज्वार, जैसे ‘‘र’’ से अन्त होने वाले शब्द बनाकर, उनमें क्रिया पद जोड़ कर अर्थपूर्ण वाक्य मंडल में बैठे बालकों को एक-एक करके बोलने को कहिए। जो बालक वाक्य बोलने में असफल हो, उसे खेल से अलग करके एक ओर बिठाइये।
सुनार गहने बनाता है, सितार सुन्दर बज रहा है, रविवार को छुट्टी है; इत्यादि वाक्य उदाहरण के तौर पर बताइए। गँवार, चार नर, टमाटर, हार इत्यादि शब्दों से बालक झटपट वाक्य बनाते हैं। डॉक्टर, कार, सर इत्यादि अंग्रेजी रूढ़ शब्दों को स्वीकार कर सकते हैं। अन्तिम बचे पाँच-छः बच्चों में रोचक खेल होता है।

१२. काका जी के काम
यह खेल स्मरण-शक्ति विकास के लिये अत्यंत उपयुक्त है। सर्वप्रथम बालकों को निम्रांकित घटना सुनाइए। खेल का स्वरूप बाद में बताना है। घटना इस प्रकार है-
काकाजी कचहरी की ओर चलने को हुए। आज वेतन मिलने वाला था। वे घर से बाहर निकल ही रहे थे कि पत्नी ने कहा ‘‘अजी सुनते हो! आज लौटते हुए सेब, चीकू, खीरा और टमाटर ले आना।’’ ‘लेता आऊँगा’ काका जी ने कहा ‘‘पिताजी! मेरे लिए क्रिकेट का सामान याने बैैैैैैैैैट, बॉल और स्टम्प लाना मत भूलियेगा’’ महेश बोला। ‘‘हाँ-हाँ, जरूर ले आऊँगा’’ काकाजी बोले।
‘‘साथ में मेरे लिए बेल्ट, सफेद मोजे और लाल रिबन लाना मत भूलना’’ बेटी बोली ‘‘नहीं भूलूँगा’’ काकाजी ने उत्तर दिया। ‘‘अरे! मेरा चश्मा सुधारने के लिये भेजा है और रामायण बाइंडिंग के लिये दी हुयी है, वह वस्तु याद से ले आना, बेटा!’’ पिताजी ने कहा ‘‘और पूजा के लिए हार और प्रसाद लाना मत भूलना’’ माँ ने फरमाया। माँ बाबूजी आपकी वस्तु जरूर ले आऊँगा-काकाजी ने कहा। ‘‘अरे! सभी की वस्तुओं की सूची बन गयी, पर अपने कपड़ों के बारे में भी सोचा है कभी? घिसकर कितने पुराने हो गये हैं, आते समय शर्ट और पैंण्ट के लिये कपड़ा जरूर ले आना।’’ पत्नी ने हिदायत दी ‘‘अच्छी याद करायी’’ काकाजी ने तत्काल कहा।
‘‘ओ काकाजी! कृपया इस फटी नोट को बाजार से बदल कर लाना’’ पड़ोसन ने आकर कहा। ‘‘ला देता हूँ’’ काकाजी बुदबुदाये।
काकाजी ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और कचहरी की ओर चल पड़े। शाम को लौटते हुए ध्यान से सारी वस्तुएँ ले आये।
अब बालकों से कापी पेन निकालकर काकाजी के कामों की सूची बनाने के लिये कहिये। जिसकी सूची सबसे लम्बी और जल्दी बनेगी, उसे शाबासी देना मत भूलिये। कुल मिलाकर अठारह काम हैं।

१३. उलटा पुलटा
इस खेल में कहावत के शब्दों को उलट-पुलट कर प्रशिक्षक कहता है और बालक सही क्रम से कहावतें कहते हैं जैसेः-
१. फिर चार चाँदनी दिन की रात अंधेरी (चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात)
२. पहाड़ नीचे है अब के आया ऊँट (अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे)
३. छम् पड़े घम् छड़ी छम् विद्या आये घम् (छड़ी पड़े छम् छम् विद्या आये घम् घम्)
४. नाम नयन आँख सुख अन्धे के (आँख के अन्धे नाम नयन सुख)
५. गंगू भोज कहाँ तेली राजा कहाँ ( कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली)
६. रोओ दीदे अपने अन्धे के खोओ आगे (अन्धे के आगे रोओ, अपने दीदे खोओ)
७. टेढ़ा आये आँगन नाच ना (नाच ना आये आँगन टेढ़ा)
८. अदरक बंदर जाने स्वाद का क्या (बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद)
९. चढ़ा और नीम करेला (करेला और नीम चढ़ा)
१०. होगा कर भला भला (कर भला होगा भला)
उपर्युक्त प्रकार से और भी कहावतें बन सकती हैं।
बालकों से भी कहावतें उलट- पुलट कर पूछने को कहा जा सकता है।

१४. आओ थोड़ा हँसें
इस खेल में बालकों को कागज के दो लम्बे-लम्बे टुकड़े दीजिए। पहले टुकड़े में कर्ता और दूसरे में वाक्य का शेष भाग लिखने को कहिए जैसेः-
पहला टुकड़ा (कर्ता) दूसरा टुकड़ा (शेष वाक्य)
१. लड़के खेल रहे हैं।
२. साँप रेंगता है।
३. चाँद चमक रहा है।
४. हवा बहती है।
५. कुत्ता भौंकता है।
६. सितार बज रहा है।
७. बरफ पिघल रही है।
८. मेंढक फुदकता है।
९. लड़की भाग रही है।
१०. माँ गा रही है।
११. बच्चा रो रहा है।
कर्ता के स्थान पर व्यक्ति का नाम न हो; जैसे (राम-शामू, उषा, प्रभा) दोनों पर्चियाँ मोड़कर अलग-अलग स्थान पर एकत्रित कीजिए। हर बच्चे को एक-एक कर बुलाइये और पहली (कर्ता) और दूसरी (शेष वाक्य) एक-एक पर्ची उठाकर पढ़ने के लिए कहिए। अब प्रत्येक वाक्य का कर्ता बदला होगा। पढ़ते हुए बड़ा मजा आएगा, जैसे लड़का रेंग रहा है, सितार भौंक रहा है, बरफ फुदक रही है, इत्यादि निरर्थक वाक्य तैयार होंगे और हँसी का वातावरण बनेगा। ऐसा भी हो सकता है कि किसी का पूर्ण वाक्य सही जुड़ जाय। ऐसा होने पर तालियाँ बजाकर अभिनन्दन कीजिये।

१५. पुर का महापुर
यह भी सूची बनाने की एक प्रतियोगिता है। अपने देश का मानचित्र बालक ध्यान से देखे। शहरों के नाम याद रखने की दृष्टि से यह प्रतियोगिता अत्यन्त उपयुक्त है। स्पर्धा में बालकों को ‘पुर’ से अन्त होने वाले शहरों की (जैसे कानपुर, रायपुर, नागपुर गोरखपुर आदि) सूची बनानी है। आरंभ में दस मिनट का समय देकर वर्ग में यह सूची बनाने को कहिए। बाद में सूची का विस्तार एक सप्ताह का समय देकर घर पर करने को कहिए। शहर के नाम के आगे जिला एवं राज्य लिखना जरूरी है। सिंगापुर जैसे विदेशी नाम भी चल सकते हैं। इस तरह ७००-८०० शहरों की सूची संगमनेर के बालकों ने बनायी थी।

१६. चित्र भारत माता का
इस खेल के लिए ड्राईंग पेपर एवं स्केच पेन आवश्यक है। प्रथमतः पाँच-पाँच बालकों के गण बनाइए एवं प्रत्येक गण को दो ड्राईंग पेपर तथा ४ स्केच पेन दीजिए। आपसी चिंतन से बालकों को भारत की आज की स्थिति एवं उनके सपनों का भारत, ऐसे दो चित्र बनाने हैं। जिसमें आज भारत देश में क्या समस्याएँ हैं, इसका पहला चित्र बनेगा (जैसे भ्रष्टाचार, जनसंख्या वृद्धि, रोग, प्रदूषण, व्यसनाधीनता, अस्वच्छता, दूरदर्शनग्रस्त युवा पीढ़ी आदि) दूसरे चित्र में उनका इसी विषय में क्या सपना है, इसका वे चित्रांकन करेंगे। २० से ३० मिनट समय देकर पहले चर्चा करें, फिर चित्र बनाने को कहिए। चित्र पूर्ण होने पर प्रत्येक गण उनके बनाये हुए चित्र की जानकारी अन्य बालकों को देंगे।


परिवार निर्माण के स्वर्णिम सूत्र
आजकल हमारे परिवार सुख, स्वभाव, संगठन- इन तीनों दृष्टियों से कष्ट, क्लेश, कठिनाइयों और कटुताओं से ग्रस्त हैं। निम्रलिखित १८ सूत्र परिवार निर्माण के लिये अत्यंत महत्तवपूर्ण हैं। बालक की प्रथम पाठशाला परिवार ही है। अतः बालकों में सुसंस्कारिता संवर्धन हेतु इन सूत्रों को अवश्य अपनाया जाना चाहिये।
१. सुघड़ दिनचर्या २. सुव्यवस्था ३. सुसंस्कृत वेषभूषा
४. सात्विक आहार ५. स्वच्छता ६. शिष्ट आचार
७. मितव्ययिता ८. सुमधुर वाणी ९. शारीरिक श्रम १०. स्वस्थ मनोरंजन ११. स्वाध्याय १२. शिक्षा (विद्या)
१३. समय का सदुपयोग १४. आदर्शवादिता लादें नहीं ढालें १५. सेवा और सहानुभूति १६. संस्कार-स्रोत-आस्तिकता
१७. भेद-भाव न रखना १८. पारिवारिक गोष्ठी

‘परिवार को सुसंस्कृत बनायें’ पुस्तक से


षष्ठ अध्याय

मनोरंजक तथा मैदानी खेल

द्वितीय भाग - मैदानी खेल


१. कुहनी से छूना-यह खेल यथा सम्भव छोटे बच्चों के लिये है। इसमें छूने जा रहे बालक को अपना बायाँ कान बायें हाथ से पकड़कर भागने वाले साथियों को बायीं कुहनी से छूना है।
२. सिर से छूना- पीछा करने वाला बालक अपने दोनों हाथ पीछे (पीठ पर) बाँधे रखकर अपने शेष साथियों को सिर से छूता है। जो साथी छूआ जाएगा वह बाहर होगा।
३. मैं शिवाजी-इस खेल में दो बच्चे चुने जाते हैं, एक ‘‘अ’’ और दूसरा ‘‘ब’’ ‘अ’ ‘ब’ को छूने दौड़ता है, जब कि शेष खिलाड़ियों में से कोई एक इन दोनों के बीच में से ‘‘मैं शिवाजी’ कहते हुए दौड़ेगा। इस पर तत्काल ‘‘अ’’ इस बीच में से निकले साथी को छूने का प्रयास करेगा। यदि ‘‘मैं शिवाजी’’ कहकर दौड़ने वाले बालक को ‘‘अ’’ छू लेता है तो ‘‘मैं शिवाजी’’ कहने वाले बालक को ‘‘अ’’ के पीछे दौड़ना है।
४. भस्मासुर-प्रत्येक बालक को अपना बायाँ हाथ सिर पर रखना है। सीटी बजने पर, प्रत्येक बालक को दूसरे का सिर पर रखा हाथ हटाकर अपना हाथ वहाँ रखने का प्रयास करना है। ऐसा होने न पाये, इसलिये प्रत्येक को भागते रहकर बचना है। जिसके सिर पर दूसरे साथी का हाथ रखा गया, वह बाहर हो जाएगा।
५. भैया! तू कहाँ है?-एक गोला बनाकर, उसमें दो बालकों को उनकी आँखें रूमाल से बाँधकर कर खड़ा करेंगे। इन दो में से एक (छूनेवाला) बालक पूछेगा ‘‘भैया तू कहाँ है?’’ दूसरा बालक अपना स्थान छोड़कर कहीं से कहेगा ‘‘भैया, मैं यहाँ हूँ।’’ अन्य सभी बालक भी उसे बहकाने के लिये ऐसा ही करेंगे। पहला बालक इसी प्रकार प्रश्न पूछता जायेगा और उत्तर आने की दिशा से दूसरे साथी को ढंूढ़ने का प्रयास करेगा। दूसरा साथी यदि छूआ जाता है तो वह ‘‘बाहर हो जायेगा।’’
६. ताण्डव नृत्य-एक बड़ा गोला भूमि पर बनाएँ। इस गोले के अन्दर सारे बालक खड़े होंगे। दोनों हाथों को पीछे से आपस में पकड़े रखना है। शिक्षक की सीटी बजते ही बालक पैरों के पंजों पर उछलने लगेंगे। प्रत्येक बालक को उछलते हुए दूसरे के पैर पर अपना पैर रखने का प्रयास करना है। जिसके पैर पर दूसरे का पैर पड़ेगा वह ‘‘बाहर’’ जायेगा।
७. वीरो! ऐसा करो-इस खेल में शिक्षकों द्वारा बालकों को गोले में खड़ा कर, भिन्न-भिन्न प्रकार के आदेश (जैसे-बैठ जाओ, खड़े हो जाओ, दोनों कान पकड़ो, नाक पकड़ो, एक हाथ ऊपर, एक पाँव ऊपर, नाचो इत्यादि) देता है। बालकों को उन्हीं आदेशों का पालन करना है। जिनमें ‘‘वीरो’’ शब्द आदेश के पूर्व हो (जैसे वीरो! कान पकड़ो) जो बालक बिना ‘‘वीरो’’ शब्द के आदेशानुसार करेगा वह ‘‘बाहर’’ हो जायेगा। जो बालक अन्त तक रहेगा वह विजयी होगा। पुस्तिका के प्रारंभ में लिखी हुयी आज्ञाएँ इस खेल के माध्यम से सिखाना सरल होगा।
८. संकेत-शिक्षक बालकों को तीन संकेत देता है, बालकों को संकेत के अनुसार क्रिया करनी है।
१. मनुष्य-दोनों हाथों से प्रणाम करने की स्थिति लेना।
२. बन्दूक-बन्दूक चलाने जैसी हाथों की स्थिति लेना।
३. गधा-दोनों हाथों से कान पकड़ना।
शिक्षक गोले के बीच में खड़े होकर, परिधि पर खड़े बालकों को शीघ्रता से एक के पश्चात् एक संकेत (आज्ञा) देता है और स्वयं भी तदनुसार अपनी स्थिति ठीक या जानबूझकर गलत बनाता है। जो बालक गलत स्थिति लेते हैं, वे ‘‘बाहर’’ हो जाते हैं।
९. नेता ढूँढ़ो-सारे बालक गोलाक ार बैठते हैं। किसी एक बालक को दूर जाने को कहकर शिक्षक किसी अन्य बैठे बालक को ‘‘नेता’’ नियुक्त करता है। तत्पश्चात दूर भेजे गये बालक को फिर से गोल में बुलाया जाता है और उसे ‘‘नेता’’ ढूँढ़ने को कहा जाता है। उसके गोल में आने के पश्चात् नियुक्त नेता कुशलतापूर्वक, आये बालक को न दिखायी दे, इस प्रकार विविध हावभाव, हलचल (जैसे ताली बजाना, कान पकड़ना, सिर पर थपथपाना इत्यादि) करता है। शेष बैठे बालक उसका अनुकरण करते हैं। इस समय वे नेता को सीधा नहीं देखते। नेता बीच-बीच में कुशलता से अपनी क्रियाएँ इस प्रकार बदलता है कि बाहर से आये बालक को वे ध्यान में न आये। नेता ढूँढ़ने को आया हुआ बालक गोल में घूमता, चक्कर लगाता है। ढूँढ़ने आया बालक यदि गलत बालक को नेता कहता है, तो उसे पाँच बैठकें लगानी पड़ती हैं। तीन बार प्रयास करने पर भी यदि बालक नेता ढँॅूढ़ने में असफल रहे, तो उसे एक गीत गाना पड़ता है।
१०. चिड़िया ‘भुर्रर्’-शिक्षक बालकों को गोलाकार में खड़ा कर स्वयं गोल के केन्द्र में खड़ा होता है। तब वह एक के बाद एक पशु पक्षियों के नाम बोलता जाता है। (उदा. घोड़ा, साँप, कुत्ता, चिड़िया, मोर...) किसी पक्षी का नाम बोलते ही बालक दोनों हाथ ऊँचे कर जोर से ‘‘भुर्रर्’’ कहते हैं। परन्तु पक्षी के अतिरिक्त किसी पशु का नाम सुनने पर यदि कोई बालक ‘‘भुर्रर्’’ कहता है या हाथ ऊपर उठाता है तो वह ‘‘बाहर’’ हो जाता है। अन्त तक रहने वाला बालक विजेता होता है।
११. तीर-नीर-बड़ा गोला बनाकर उस पर बालक खड़े रहते हैं। गोले के अन्दर नीर (अर्थात पानी) और बाहर तीर (अर्थात भूमि) होगा। शिक्षक शीघ्रता से ‘तीर-नीर’ किसी भी क्रम में कहता जाता है। तीर कहने पर गोल के बाहर और नीर कहने पर गोले के अन्दर उछलकर जाना है। गलत करने वाला बालक बाहर हो जाता है। बालकों को सारे कार्य उछलकर करने हैं। जो अन्त तक रहेगा, वह विजयी होगा।
१२. दृश्य बनाओ-दस ग्यारह बालकों का समूह बनाकर उनमें से ही एक को गण प्रमुख नियुक्त करें। किसी भी एक दृश्य अथवा स्थान की घोषणा प्रशिक्षक द्वारा किये जाने पर बालकों को उस दृश्य की रचना करनी है। उदाहरण के तौर पर मन्दिर कहते ही बालक मन्दिर का दृश्य बनायेंगे। जैसे- दो ऊँचे बालक एक दूसरे का हाथ पकड़कर मन्दिर का मुख्य द्वार बनायेंगे। उसके पीछे आशीर्वाद की मुद्रा में एक बालक भगवान बनकर बैठेगा। कोई पुजारी बनकर प्रसाद बाँटेगा तो कोई हाथ उठाकर घण्टा बजायेगा। कुछ भक्त फूलमाला पहनायेंगे कुछ आरती का अभिनय करेंगे। इसी अभिनय के दौरान सीटी बजने पर बालक जिस मुद्रा में हैं, वैसे ही स्तब्ध बिना हिले-डुले खड़े हो जायेंगे। प्रशिक्षक सभी गणों का दृश्य देखकर विजेता गण की घोषणा करेगा। इस खेल में बालकों की कल्पनाशक्ति विकसित होती है। व्यायाम शाला, संस्कार वर्ग, बाजार, स्वतंत्रता संग्राम, चिकित्सालय, विद्यालय, बस स्थानक, कार्यालय, कारखाना, यात्रा, विवाह, दीपावली इत्यादि अनेक प्रसंगों को लेकर दृश्य बनाये जा सकते हैं।
१३. समूह बनाइये-इस खेल में विद्यार्थियों के सामान्यतः पाँच या छः समूह बनें, इस प्रकार से पर्चियाँ बनाई जायें। कुल पर्चियों के छः भाग कीजिए जैसे-देवता, स्वतंत्रता सेनानी, प्राणी, पक्षी, संत, राजा इत्यादि समूह बनाइये।
१. देवता-शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, इंद्र, राम, कृष्ण, हनुमान, गणपति आदि।
२. स्वतंत्रता सेनानी-गांधी, नेहरू, राजगुरु,आजाद, भगतसिंह, सरदार पटेल आदि।
३. पशु-बाघ, सिंह, लोमड़ी, सियार, बन्दर, हिरण, कंगारु, खरगोश, बैल आदि।
४. पक्षी-कौवा, बगला, मैना, तोता, मोर, चिड़िया, चील, गरूड़, बतख, मुर्गी आदि।
५. सन्त-तुलसी, सूरदास, कबीर, नानक, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, मीराबाई आदि।
६. राजा-शिवाजी, राणाप्रताप, छत्रसाल, चन्द्रगुप्त, अशोक, अकबर, औरंगजेब, शिवीराजा, राजा दशरथ, संभाजी आदि।
उपर्युक्त नाम डालकर पर्चियाँ तैयार कीजिये। प्रत्येक गण में समान संख्या में पर्चियाँ रखिए। पर्चियाँ बाँटने से पहले खेल की रूपरेखा समझाइये। खेल खेलते समय कोई भी मुंह से बोलेगा नहीं। केवल अभिनय करते हुए घूमेगा। जैसे देवता आशीर्वाद की मुद्रा में घुमता दिखाई देगा। स्वतंत्रता सेनानी- ‘‘भारत माता की जय’’ ऐसे हाथ उठाकर नारा लगाने का मूक अभिनय करेगा। पक्षी उड़ने का, प्राणी चार पैर से चलने का, सींग का, अभिनय करते हुए ही घूमेंगे। बच्चे इससे अपने समूह के बालकों को एकत्रित करेंगे। सारी पर्चियाँ इकट्ठा कर शिक्षक के पास देकर जो समूह सबसे पहले पंक्ति में खड़ा होगा वह विजयी घोषित होगा। समूह में कितनी पर्चियाँ है यह पहले ही बता दिया जाता है। खेल समाप्त होने पर प्रत्येक बालक आगे आकर वह कौन था यह बताएँ तो खेल और भी आनन्ददायी होगा।
१४. चित्र पूरा बनाओ -इस खेल के लिये पहले १०-१० बालकों की पंक्ति बनाइये। पंक्ति के अंत में एक ड्रॉईंग पेपर और एक स्केच पेन रख दीजिए। खेल शुरू होते ही पंक्ति का पहला बच्चा पीछे जाकर चित्र बनाना प्रारम्भ करेगा। उस समय पाँच तक गिनती बोलनी है। जैसे ही गिनती बन्द होगी चित्र बनाना भी बन्द होगा। फिर दूसरा लड़का चित्र बनाने उठेगा तब तक पहला अपने स्थान पर आकर बैठ जायेगा। दूसरे के समय छः तक गिनती होगी। फिर तीसरे के समय सात तक इस तरह अन्तिम बालक तक १५ तक गिनती जायेगी। १५ तक गिनती में चित्र पूरा होना चाहिए। बच्चों को न बताते हुए सारे चित्र एकत्रित कीजिए। पंक्ति के पहले बच्चे को बुलाकर पूछिये कि उसने किस चित्र का प्रारंभ किया था? उसके बताने पर चित्र सभी बच्चों को दिखाइए। प्रायः चित्र कुछ और ही बन जाता है। जैसे मन्दिर का चित्र पहाड़ बन जाता है। हाथी, वृक्ष का रूप ले लेता है, गलत चित्र बना देखकर बच्चे खूब हंसते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि पहले बच्चे की कल्पना के अनुसार ही चित्र सही बनता है। ऐसे चित्र के लिए तालियाँ बजाकर अभिनन्दन कीजिए। इस खेल में यह सावधानी बरतनी होगी कि पहला बच्चा अपने मन का चित्र किसी से न कहे।
१५. आगे कदम स्पर्धा-इस खेल के लिये पाँच-छः बालकों की अलग-अलग पंक्तियाँ बनाइये। हर बालक को एक दूसरे की कमर पकड़कर शृंखला तैयार करनी है। एक-दो-तीन बोलते ही सबको सीमा रेखा तक जाकर फिर पीछे लौट आना है। दौड़ते हुए यदि शृंखला टूट गई तो वह समूह पराजित हो जायेगा। जो समूह सबसे पहले लौटेगा वह विजयी घोषित होगा। मैदान यदि छोटा हो तो तीन-चार फेरियाँ करवाइये।
१६. गुब्बारा प्रतियोगिता-आठ या दस बालकों की अलग-अलग पंक्तियाँ बनाइये। कम से कम दो पंक्तियाँ हों। आखिर के लड़के के हाथ में एक फूला हुआ गुब्बारा दीजिए। अन्तिम लड़का अपने हाथ का गुब्बारा आगे खड़े लड़के के पैरों के बीच से उसे देगा। इसी प्रकार हर लड़के को दोनों पैरों के बीच से गुब्बारा सबसे पहले बालक तक पहुँचाना है। पहले बालक के पास गुब्बारा आते ही उसे दौड़कर सीमा रेखा को छूकर पंक्ति के अन्त में खड़े होना है। फिर वही क्रिया, पैरों के बीच से गुब्बारा देना शुरू करनी है। पंक्ति के प्रत्येक बालक को सीमा रेखा छूकर इसी क्रम में पीछे आना है। जिस समूह के बालक सबसे पहले यह दौड़ पूर्ण करेंगे वे विजयी घोषित होंगे। इस बीच गुब्बारा फट जायेगा तो वह समूह पराजित समझा जायेगा।
१७. गुब्बारा दौड़-दस-पंद्रह बालकों के दो समूह बनाइये। इसमें एक समूह के पास दस गुब्बारे दीजिए। अब इस समूह को इन गुब्बारों को उड़ाते हुए सीमा रेखा तक ले जाना है। दूसरे समूह को, एक भी गुब्बारा सीमा रेखा तक न जा पाये, इसलिये गुब्बारे फोड़ना है। दोनों समूहों को गुब्बारे उड़ाने का अवसर दीजिए। जो समूह अधिक गुब्बारे सीमा रेखा तक ले जाने में सफल होगा वह विजयी होगा।
१८. टपाल स्टेशन-सभी बालकों को एकत्रित करके गोला बनाएँ। हर बालक को एक-एक गँंव का नाम लेने के लिए कहें। (उदा.-दिल्ली, मद्रास, कलकत्ता, कानपुर इत्यादि, ध्यान में रखने हेतु प्रशिक्षक यदि सभी नाम लिखकर रखता है तो कोई आपत्ति नहीं है।) जिस बालक की बारी है, उसे बीच में बुलाकर उसके हाथ में कागज, रूमाल या कोई भी अन्य वस्तु देकर यह वस्तु पत्र है, ऐसा कहिए। इस बालक को किसी भी गाँव का नाम कहकर वहाँ पत्र पहुँचाने को कहिए। यदि बालक ने उक्त गाँव वाले बालक के पास पत्र पहुँचाया तो उसके लिए तालियाँ बजाएँ एवम् जिस बालक के पास पत्र पहुँचा है उसे अगले गाँव का नाम देकर पत्र पहुँचाने को कहें। यदि पत्र गलत बालक के पास पहुँचा होगा तो उसे दो बार और अवसर दिया जाये और यदि फिर भी गलती हुई हो तो वह बालक खेल से बाहर हो जायेगा। गाँव का नाम कहने से पूर्व सभी यदि नीचे की पंक्ति एक साथ गाते हैं तो खेल में और भी आनन्द आयेगा।
बालक- डाकिया भाई, डाकिया भाई पत्र हमारा लो, हमारे मामा के गाँव बिना भूले दो।
शिक्षक-मामा हमारे रहते हैं.................गाँव।
१९. शब्द ढूँढ़ो-सभी बालक गोलाकार बैठें। एक बालक दूर भेजा जाएगा। गोले में बालकों के द्वारा एक शब्द निश्चित किया जायेगा। दूर गया हुआ बालक लौटकर मण्डल के केन्द्र पर खड़ा रहेगा। संकेत मिलने पर (बजने पर) वह शब्द सभी को जारे से और तेजी से बोलना होगा। केन्द्र पर खड़े हुए बालक को वह शब्द कौन सा है यह बताना है। यदि उसे तीन प्रयत्नों में असफलता मिली तो उसे कुछ सामान्य दण्ड दें और दूसरे बालक से खेल प्रारंभ करें।
२०. रूमाल ले भागना-सारे बालक गोलाकार बैठें। गोले के केन्द्र में एक रूमाल इस प्रकार रखा जाय कि उसका बीच का भाग ऊपर उठा हुआ हो। सभी बालक पैर के पंजों पर (उकड़ूँ) बैठेंगे और दाहिने हाथ से बायाँ टखना और बायें हाथ से दाहिना टखना पकड़ेंगे। सीटी बजते ही (या आदेश होते ही) सभी बालक ऊपर बतायी स्थिति में उछलते, कूदते, हुए रूमाल मुँह से उठाने के लिये आगे बढ़ेंगे। रूमाल मुँह से उठाने वाला उसी स्थिति में गोले के बाहर आने लगे तब अन्य बालक इस रूमाल लेजाने वाले बालक को, अपनी उकडूँ स्थिति न छोड़ते हुए, धक्के मारकर गिराने का प्रयास करें। यदि यह बालक गिर जाता है तो वह बाहर हो जाता है। अन्य बालक भी जिनकी अपनी स्थिति टूट जाती है, अर्थात् हाथ छूट जाते हैं या एड़ियाँ टिक जाती हैं, वे भी बाहर हो जाते हैं। बचे हुए बालक पुनः खेल प्रारंभ करते हैं। स्थिति बनाये रखकर मुँह से रूमाल उठाकर गोले के बाहर आनेवाला बालक विजयी होता है।
२१. घोड़ा-सवारी-बालकों को दो समान संख्या के दलों में बाँटें। एक दल के एक बालक से किसी लकड़ी के खम्भे को (या किसी बालक की कमर को) हाथों से पकड़कर खड़े होने को कहा जाता है। दल के अन्य बालक एक दूसरे के पीछे, अगले साथी की कमर को बांहों से पक्का पकड़ते हैं। इस प्रकार एक शृंखला सी बन जाती है। इन बालकों को यह सावधानी रखनी चाहिए कि प्रत्येक को अपना सिर नीचे रखना है। अब दूसरे दल के बालक कुछ दूरी से, एक के बाद एक दौड़कर आते हैं। आगे झुककर खड़े बालकों की पीठ पर उछलकर सवार हो जाते हैं। सवार हुए बालकों के पैर भूमि से नहीं लगने चाहिए, अन्यथा उनका दल बाहर हो जायेगा। घोड़ी बने हुए दल का सबसे पहला (पिछला) बालक अन्य की तुलना में हट्टा-कट्टा होना उचित होगा। जिस दल के अधिक बालक बिना गिरे सवार हो सकेंगे वह दल विजयी होगा। दुर्बल बालकों को इस खेल में न रखें।
२२. आओ, खेलें खेल- घेरे में एक जगह खाली छोड़ दो। दो बच्चों को घेरे के बाहर इस प्रकार खड़ा करो कि इनके मुँह विपरीत दिशा में हों। सीटी बजते ही दोनों खिलाड़ी जिस दिशा में उनका मुँह होगा, उधर दौड़ेंगे और जो स्थान खाली है, जहाँ पर वे खड़े थे, उसे पूरा करेंगे। वे आपस में जहाँ मिलें एक फुट के फासले पर खड़े होंगे। बायाँ हाथ मिलाएँगे तथा मुस्कुराएँगे। उसके बाद वे दौड़कर खाली स्थान को पूरा करेंगे। उनमें से एक बाहर बचेगा, जो फिर से दौड़ेगा किसी की पीठ पर हाथ लगायेगा। फिर मिलने पर, बायाँ हाथ मिलाएँगे और मुस्कराने की क्रियाओं को दुहराएँगे। इस प्रकार खेल चलता रहेगा। सभी का नम्बर जब तक न आ जाये तब तक यह क्रम चलेगा।
नोटः-१. दुबारा किसी को छूने की भूल न की जाय।
२. कभी-कभी ऐसा हिस्सा बच जाता है जहाँ से बारी नहीं आती। उधर के ही दोनों खिलाड़ियों को भी चुना जा सकता है और खेल खेला जा सकता है।
२३. काश्मीर किसका है- यह खेल बड़े और हट्टे-कट्टे बालकों के लिये है। एक गोला बनाकर सभी बालकों को उस पर खड़ा किया जाता है। किसी एक बालक को केन्द्र में खड़ा करके उसके चारों ओर लगभग १ मीटर त्रिज्या का गोल बनाया जाता है। अब यह बालक ऊँचे स्वर में पूछता है ‘‘काश्मीर किसका है?’’ शेष बालक उसी प्रकार ऊँचे स्वर में एक साथ कहते हैं ‘‘हमारा है’’ इस प्रकार तीन बार प्रश्न उत्तर होने पर सारे बालक दौड़कर बीच में खड़े बालक की ओर जाकर, उसे गोले से बाहर धकेलते हुए स्वयं गोले में खड़े होने का प्रयास करते हैं। सीटी बजते ही यह संघर्ष रूकता है और उस समय बीच में बने गोले में खड़े बालक को विजयी घोषित किया जाता है। अब यह विजयी बालक बीच के गोले में खड़ा होता है और सारा खेल उसी प्रकार पुनः खेला जाता है। धक्का मुक्की में कपड़ों को खींचना या फाड़ना नहीं है, यह पहले ही समझा दें ।
२४. कुक्कुट युद्ध-सभी बालकों को समान संख्या में बाँटकर दो गण बनाएँ। बालकों को क्रमांक दें। क्रमांक पुकारते ही दोनों गणों के एक-एक बालक को कुक्कुट की स्थिति लेने को बताया जाता है। स्थिति इस प्रकार ली जाती है-बायीं टाँग मोड़कर पीछे की ओर बायें हाथ से पकड़ी जाती है और दाहिने हाथ से पीछे से बायाँ हाथ पकड़ते हैं। यह कुक्कुट स्थिति है। अब इस स्थिति में बायीं टाँग से फुदकते हुए, दोनों बालक एक दूसरे को कन्धे से धक्के मारकर खदेड़ने का प्रयास करते हैं। जो बालक गिर जाता है, या जिसका पैर या हाथ छूट जाता है। वह बाहर हो जाता है।
२५. झूल झूल झण्डा झूल-इस खेल में बालकों को गोले में (गोलाकार) दौड़ने को कहा जाता है। शिक्षक कुछ नारे (घोषणा) लगाते हैं जैसेः-
१. झूल झूल-झण्डा झूल। २. संगठन में शक्ति है।
३. शक्ति को-बढ़ाना है। ४. जय भवानी- जय शिवाजी।
(नारों का पहला भाग शिक्षक कहेगा, और दूसरा भाग ऊँचे स्वर में बालक पूरा करेंगे।) नारे लगाते समय बालक भागते रहेंगे। तत्पश्चात शिक्षक एकाएक १,२,३,४ में से किसी एक अंक (जैसे दो)कहेगा। यह सुनते ही बालक उस अंक के अनुसार आपस में गुट बनायेंगे। उदा. ‘दो’ कहने पर बालक दो-दो के गुट बनायेंगे जिस बालक या बालकों को किसी गुट में स्थान नहीं मिलता, वे ‘बाहर’ हो जाते हैं।
२६. साँप-केंचुली-बराबर संख्या में बालकों को २ या ३ गणों में बाँटते हैं। सभी गण सामने मुँह करके इस प्रकार खड़े होते हैं कि प्रत्येक गण का बालक आगे झुककर अपना दाहिना हाथ दोनों पैरों के बीच से पीछे की ओर निकालता है, जिसे पीछे वाला बालक अपने बायें हाथ से पकड़ता है। इस प्रकार सभी बालक करते हैं।
गण का सबसे अगला बालक केवल दाहिना हाथ और सबसे पीछे वाला बालक केवल बायाँ हाथ काम में लाते हैं। इस प्रकार सभी गण सिद्ध होने पर सीटी बजते ही, प्रत्येक गण का सबसे पीछेवाला बालक नीचे भूमि पर पैरों को मिलाये रखकर और बिना हाथ छोड़े लेटता है और अन्य बालक पीछे हटते हुए, अपनी बारी आने पर भूमि पर लेटते हैं। पकड़े हुए हाथ छूटने न पायें, इसका ध्यान रखा जाता है। जो गण बिना हाथ छोड़े, (अर्थात् बिना शृंखला तोड़े)भूमि पर पहले लेटता है, वह विजयी होता है। खेल में, फिर से उठकर प्रारम्भिक स्थिति में आने को भी गणों को कहा जा सकता है।
२७. नौका युद्ध-बालकों को दो समान संख्या के गणों में बाँटकर उन्हें विपरीत दिशा में मुँह करके खड़ा किया जाता है। तत्पश्चात् प्रत्येक गण के बालक आपस में, एक दूसरे के हाथ में हाथ (बाँहों में बाँहें) डालकर और हाथों को अपनीे छाती के आगे पक्का पकड़ेंगे। इस प्रकार प्रत्येक गण की एक पक्की शृंखला रूपी नौका बन जायेगी। सीटी बजते ही प्रत्येक गण की नाव दूसरे गण की नाव को, नारे लगाते हुए, पीठ से धक्के मारकर तोड़ने का प्रयास करेगी। जिस गण की श्रृंखला (नाव) टूट जायेगी, वह गण पराजित हो जायेगा।
२८. अग्निकुण्ड-सभी बालक हाथ पकड़कर बीच में बने गोले के चारों ओर खड़े होंगे। बीच में बना गोला अग्निकुण्ड होगा। सीटी बजते ही सारे बालक बिना हाथ छोड़े एक-दूसरे को अग्निकुण्ड में धकेलने का प्रयास करेंगे। जिन बालकों के दोनों पैर अग्निकुण्ड में चले जायेंगे, वे बाहर हो जायेंगे। इसी प्रकार जिन दो बालकों के हाथ छूट जायेंगे, वे भी बाहर हो जायेंगे।
२९. भेड़िया-बकरी-सभी बालक, दो को छोड़कर हाथ पकड़ कर एक पक्का गोला बनाएँगे। एक बालक गोले के अन्दर और दूसरा बालक बाहर होगा। अन्दर वाला बालक बकरी और बाहर वाला बालक भेड़िया होगा। भेड़िया बकरी को खाने के लिये गोले में घुसने का प्रयास करेगा। गोले पर खड़े बालक बकरी को अन्दर आने या बाहर जाने में कोई बाधा नहीं डालेंगे। परन्तु भेड़िये को अन्दर जाने या बाहर निकलने में कड़ी बाधा डालेंगे। भेड़िये द्वारा बकरी पकड़े जाने पर, ये दोनों बालक आपस में अपना रूप बदलेंगे और खेल शुरू रहेगा। भेड़िया-बकरी की एक जोड़ी के स्थान पर दो जोड़ियाँ बनाकर भी खेल खेला जा सकता है।
३०.घुटने पर रूमाल बांधना-दो बालक आमने सामने खड़े किये जाते हैं। दोनों बालकों के हाथ में एक रूमाल होगा और प्रत्येक बालक दूसरे के घुटने पर रूमाल बांधने का प्रयास करेगा, जबकि दूसरा उसे बाँधने नहीं देगा। दोनों के प्रयास में जो दूसरे के घुटने में रूमाल बाँधने में सफल होगा वह विजयी होगा। रूमाल बाँधने में एक गाँठ तो कम से कम होनी ही चाहिए।
३१. भूत की गली-बालकों को दो गणों में बाँटकर, प्रत्येक गण को दूसरे गण के सम्मुख आमने-सामने मुख करके दो पंक्तियों में लगभग १ मीटर की दूरी पर खड़ा किया जाता है। इस प्रकार ये दो पंक्तियाँ भूत की गली बनाती हैं। अब एक-एक करके बालक निर्धारित दूरी से और दिशा से दौड़ता हुआ आता है और इन दो पंक्तियों के बालक उसकी पीठ पर मुक्के या थप्पड़ लगाते हैं। मुक्के या थप्पड़ केवल पीठ पर ही लगाये जायें इस बात की सावधानी रखनी है। इसी प्रकार उसके मार्ग में कोई और रूकावट नहीं लानी है और न बालकों को अपना स्थान छोड़ना है। सभी बालक एक के बाद एक इस प्रकार दौड़ते हुए आ कर गली पर करते हैं। गली पार होने पर फिर से वे अपने स्थान पर गली में खड़े हो जायेंगे।
३२. स्थान दोगे?- सारे बालक गोलाकार में खड़े होंगे। एक बालक ‘‘क्ष’’ गोले में बालकों के आगे से जाते हुए ‘‘स्थान दोगे?’’ कहेगा। बालक ‘‘क्षमस्व’’ कहेंगे। इस प्रकार जब यह बालक ‘‘क्ष’’ पूछता हुआ घूम रहा हो तब गोले में कोई भी दो बालक संकेत कर के आपस में स्थान बदलने का प्रयास करेंगे। संकेत घूम रहे बालक के ध्यान में न आएँ यह देखा जाय। स्थान बदलते समय यदि ‘‘क्ष’’ ने उनमें से एक स्थान ले लिया, तो स्थान खोने वाला बालक ‘‘क्ष’’ जैसे ही, ‘‘स्थान दोगे?’’ कहकर घूमता जायेगा। इस प्रकार खेल चलता रहेगा।
३३. डाक आई- एक गोल घेरा खींचें और सब को उसमें बिठा दें। गेंद घेरे में बैठे किसी एक खिलाड़ी को दे दें। लम्बी सीटी बजते ही गेंद दायीं ओर से एक से दूसरे के पास होती हुई आगे बढ़ेगी। प्रशिक्षक कभी भी सीटी बजाये तो जिसके हाथ में गेंद होगी वह खड़ा होकर कुछ सुनाएगा। यदि कोई बालक हिचक महसूस करे तो उसे निम्रलिखित करने को या सुनाने को कहा जा सकता है। जैसे- हँस कर दिखना, गाना गाओ, चुटकुला सुनाओ, पहाड़ा सुनाओ, बकरी की बोली बोलो, रेल चलने की आवाज करो, कई तरह की छींकें निकालो, लंगड़ी टाँग से सब की परिक्रमा करो, हकलाकर अपना नाम बोलो, किसी की नकल उतारो आदि। यह खेल इसी प्रकार चाहे जितनी देर चलाएँ।
नोटः-१. सीटी के स्थान पर चम्मच थाली से आवाज की जा सकती है। गाना भी गा सकते हैं।
३४. पक्षी और पेड़-एक खिलाड़ी घेरे में खड़े हुए खिलाड़ियों में से किसी एक खिलाड़ी से पूछेगा ‘‘तुम्हारा क्या नाम है? तुम कहाँ रहते हो/रहती हो?’’ इसके उत्तर में वह अपने नाम व रहने के स्थान का पहला अक्षर बतायेगा। ‘प्रश्न पूछने वाला खिलाड़ी’ उसका उत्तर देगा। यदि वह सही उत्तर न दे पाया तो लंगड़ी चाल से सारे घेरे का चक्कर लगाकर घेरे पर खड़े किसी खिलाड़ी की कमर पर हाथ लगायेगा। अब वह खिलाड़ी घेरे के बीच में जाकर खड़ा होगा। वह किसी दूसरे खिलाड़ी से वही प्रश्न पूछेगा। जैसे-तुम्हारा क्या नाम है? तुम कहाँ रहते हो? उसके उत्तर में वह खिलाड़ी उत्तर देगा/ देगी। मेरा नाम ‘को’ है मैं ‘आ’ पर रहती हूँ। यदि प्रश्न पूछने वाला खिलाड़ी इसका उत्तर ‘‘कोयल आम के पेड़ पर रहती है।’’ दे देता है तो वह और किसी से प्रश्न करेगा।
नोटः- तोता, गौरेया, चिड़िया, कौआ, चील, बाज, मोर, मैना, कबूतर, कठफोड़वा आदि के रहने के स्थानों का पता करें व उनके सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जायें।


योग-व्यायाम आवश्यकता एवं उपयोगिता

वर्तमान समय में मनुष्य का स्वास्थ्य गिरता जा रहा है। हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रोगों से पीड़ित है उसकी अधिकांश कमाई दवाओं पर ही खर्च होती है। शरीर को कष्ट उठाना पड़ता है, लेकिन रोगों से छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। कहावत भी है-
‘‘प्रथम सुख- नीरोगी काया’’
‘‘दवा दबायें रोग को, करें नहीं निर्मूल ।
चतुर चिकित्सक ठग रहे, क्यों करते हो भूल॥’’
स्वस्थ रहने के लिए आहार-विहार का संयम और नियमित दिनचर्या का क्रम जितना आवश्यक है, उतना ही यह भी आवश्यक है कि शरीर के सभी अंग सक्रिय और जीवन्त रहें। इसलिए स्वास्थ्य विज्ञान में व्यायाम, भोजन, शयन और नियम-संयम का महत्त्व एक मत से स्वीकार किया गया है। चलती रहने वाली मशीन में कितनी ही सतर्कता बरती जाय तो भी उसमें कुछ मैला कूड़ा आ ही जाता है, यही स्थिति शरीर की है। उसकी जीवन प्रक्रिया में भी शरीर के विभिन्न अंगों में विकार अनायास ही उत्पन्न होते रहते हैं। जैसे- किसी मकान में गर्द-बुहार। घर को साफ-सुथरा बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उसे रोज साफ करते रहना। उतना ही आवश्यक यह भी है कि शरीर मंदिर की भी सफाई की जाती रहे और यह सफाई योग व्यायाम द्वारा होती है। शारीरिक दृष्टि से चुस्त-दुरुस्त (फिजिकली फिट) बालक ही अपनी पढ़ाईएवं सामाजिक कार्यों का निर्वाह ठीक से कर सकते हैं।
योग व्यायाम प्रारंभ करने के पहले शरीर की मांसपेशियों की जकड़न दूर करके, उन्हें गर्म कर लेने वाले व्यायाम (वार्म अप एक्सरसाइज) करा लेना अच्छा रहता है। उसके कुछ क्रम नीचे दिये जा रहे हैं।
अंग मर्दन (रबिंग)ः— योग व्यायाम करने से पूर्व रात्रि की शिथिलता एवं जकड़न तथा सुस्ती को दूर करने हेतु पहले गतियोग तथा रबिंग के माध्यम से मांस-पेशियों को सक्रिय करते हैं।
गतियोग क्रमांक- (१) अपने स्थान पर ही धीरे-धीरे दौड़ लगाना।
(२) अपने पंजों पर ही उछलना।
(३) अपने पैरों को कूद कर दोनों हाथों को कंधों की सीध में फैलाना तथा दो पर नीचे हाथों का लाना तथा सावधान होना।
(४) उछलकर पैर खोलना तथा दोनों हाथों को कंधों की ओर ऊपर ले जाकर ताली बजाना, दो पर नीचे लाना तथा सावधान हो जाना।
(५) नं. १ पर उछलकर पैर खोलना तथा हाथों को कंधों की सीध में ले जाना, दो पर नीचे लाना, तीन पर हाथों को ऊपर ले जाना तथा चार पर हाथ नीचे करना।
नोटः- यह गतियोग १६ क्रमांकों में किया जाए अंत में गतियोग के बाद हाथों को रगड़कर माथा, सिर, गर्दन, गला तथा चेहरे की मालिश की जाये। बाद में हाथों तथा पैरों को भी हाथों से रगड़ा जाए। दोनों हाथों को रगड़कर आँखों का सेंक तथा चेहरे की मालिश करना चाहिये।
पवन मुक्तासनः- शरीर के विभिन्न अंगों काः- योग व्यायाम का मुख्य उद्देश्य शरीरगत वात, पित्त, कफ को संतुलित करना तथा अंदर भरी हुई दूषित वायु से शरीर को मुक्त करना व प्रत्येक अंग-अवयव को सक्रिय बनाना है।
करने की विधिः- जमीन या तख्त पर कम्बल या दरी बिछाकर दोनों पैर सामने फैलाकर बैठें। एड़ी व अंगूठे मिले रहे। दोनों हाथ पीछे रखकर शरीर को सीधा रखकर टिकाये रहें।
क्रमांक (१) पैरों की अंगुलियों का व्यायामः-
विधिः- दोनों पैरों की अंगुलियों को नीचे की ओर दबायें। कुछ क्षण इसी अवस्था में रखकर ढीला कर दें। पुनः यही क्रिया करें। यथा स्थिति ४ से ६ बार करें।
क्रमांक (२) पंजों का व्यायामः—
विधिः— पैर के दोनों तलुओं को जमीन से लगाने का प्रयास करें, एड़ी व घुटना जमीन से न उठे। पूरा झुककर पुनः विपरीत दिशा (पेट की ओर) लायें।
इस प्रकार पैरों को ३-४ बार आगे-पीछे और फिर दाएँ-बाएँ झुकाएँ। क्रमांक (३) एड़ी व अंगूठे का व्यायामः—
विधिः- एड़ी व अंगूठे मिली हुई स्थिति में दायें से बायें व बायें से दायें दोनों पंजों को तीन से पाँच बार गोल घुमायें।
क्रमांक (४) दोनों एड़ियों का व्यायामः—
विधिः- दोनों एड़ियों के बीच छः से आठ इंच का फासला करें। दोनों पंजों को विपरीत दिशा में गोल घुमायें। यह क्रिया भी दायें से बायें व बायें से दायें तीन से पाँच बार घुमायें।
क्रमांक (५) घुटनों का व्यायामः—
विधिः— दाहिने पैर को सीधे इतना उठायें कि एड़ी बायें पैर के अगूंठे की ऊँचाई तक पहुँचे। एक क्षण यहीं रोके। पुनः पैर घुटने से मोड़कर एड़ी नितम्ब से लगायें। यहाँ भी एक क्षण रोकें। पुनः पैर को सीधा करें तथा पूर्व स्थिति में एक क्षण रोक कर एड़ी जमीन पर रखें। दूसरे पैर से भी यही क्रिया करें। दोनों अवस्थाओं में दूसरा पैर सीधा रखें। यह क्रिया भी तीन से पाँच बार करें।
क्रमांक (६) कमर का व्यायामः—
विधिः- त्रिकोणासन की भाँति दोनों पैरों के बीच फासला करके दोनों हाथों को कंधे की सीध में फैलायें। आगे झुकते हुए दाहिने हाथ से बायें पैर के अगूंठे तथा बायें हाथ से दायें पैर के अगूंठे को छुएँ, दूसरा हाथ विपरीत दिशा में सीधा रखें।
क्रमांक (७) हाथ की अंगुलियों का व्यायामः—
विधिः- वज्रासन या सुखासन में बैठें। दोनों हाथ को कंधे की सीध में आगे फैलाकर अंगुलियों को ताकत से फैलायें, मुट्ठी बंद करें। यह क्रिया ४-६ बार करें।
क्रमांक (८) कलाई का व्यायामः—
विधिः- अँगूठा अंदर करके दोनों हाथ की मुट्ठी बंद करें तथा दायें से बायें व बायें से दायें गोल घुमायें। पुनः अंगुलियाँ सीधी करके हथेली को नीचे-ऊपर व दायें-बायें समकोण पर मोड़ें। हाथ पूर्ववत् सीधे रहेंगे।
क्रमांक (९) कोहनी का व्यायामः—
विधिः- दोनों हाथ इस प्रकार सामने फैलायें कि हथेली ऊपर को रहे। अब कोहनी से हाथों को अपनी ओर मोड़कर अंगुलियों के अग्रभाग को कंधों पर रखें। पुनः दोनों हाथ सीधा करें व मोड़ें। यह क्रिया भी ४-६ बार करें, इसके बाद दोनों हाथ दायें-बायें, सीधे फैलायें और पूर्ववत् कोहनी से मोड़कर अंगुलियाँ कंधे से लगायें। पुनः दोनों हाथों को ऊपर उठायें। हथेली आमने-सामने रहे और पूर्ववत् अंगुलियाँ कंधों से मिलायें।
क्रमांक (१०) कंधों का व्यायामः—
विधिः- वज्रासन या सुखासन में ही बैठे हुए दोनों हाथों को दाहिनी व बायीं ओर से कोहनी से मोड़कर अंगुलियों को दोनों कंधों पर रखें। कमर सीधी, गर्दन सामान्य व दृष्टि सामने रहे। अब दाहिनी कोहनी को जितना ले जा सकते हैं आगे की ओर ले जायें। बायीं कोहनी उतनी ही विपरीत दिशा अर्थात् पीछे जायेगी। दृष्टि सामने व अंगुलियाँ कंधों पर ही रहेंगी। पुनः बायीं कोहनी आगे व दाहिनी कोहनी पीछे ले जायें। यह क्रिया ४-५ बार करें।
पुनः हाथों को सामान्य स्थिति में लाकर कोहनियों को आगे से पीछे व पीछे से आगे चक्राकार गोल घुमायें। गर्दन सीधी व दृष्टि सामने ही रहे, तत्पश्चात् दोनों हाथों को साइकिल के पायडल की तरह (जब दाईं कोहनी बाहर जाये तब बायीं पीछे, जब बायीं पीछे तब दायीं आगे) चक्राकार गोल घुमायें। यह क्रिया भी ४-५ बार करें। इतनी ही बार इसके विपरीत करें।
क्रमांक (११) छाती का व्यायामः—
विधिः- गहरी श्वास लें एवं छोड़ें। इस क्रिया को 3-5 बार तक करें। 5 मिनट प्राणायाम भी कर सकते हैं।
क्रमांक (१२) गर्दन का व्यायामः—
विधिः- पूर्व स्थिति में बैठे हुए सिर को नीचे झुकायें कि ठोड़ी कंठ कूप से लगे, पुनः विपरीत अर्थात् पीछे ले जायें। ४-५ बार यह क्रिया करें। पुनः गर्दन दायें व बायें घुमाएँ, पश्चात् दायें-बायें व बायें से दायें चक्राकार गोल घुमायें। इन सभी क्रियाओं में आँख बंद रखें। समाप्ति पर कुछ क्षण विश्राम करके पलकों का सेंक करते हुए आँखें खोलें।
क्रमांक (१३) जबड़े का व्यायामः—
विधिः- मुँह को जितना फैला सकते हैं, फैलाएँ। कुछ क्षण रुक कर बंद कर लें, ऐसा २-४ बार करें। पुनः जबड़े को दायें-बायें एवं दायें से बायें गोल घुमाएँ।
क्रमांक (१४) दाँतों का व्यायामः—
विधिः-प्रथम आगे के दाँतों व पश्चात् पीछे के दाँतों (दाढ़ों) को दबाएँ व ठीक करें। यह क्रिया ४-६ बार करें। नकली दाँत लगे हों तो न करें।
क्रमांक (१५) नेत्रों का व्यायामः—
विधिः- इसको तीन प्रकार से करते हैं। प्रथम दृष्टि सामने किसी बिन्दु या वस्तु पर टिकाएँ। यथासंभव पलक न झपकते हुए एकटक देखें व आँखें बंद कर लें। २-४ बार करें। द्वितीय गर्दन सीधी रखते हुए अपने दायें व बायें जितना देख सकते हैं देखें। तृतीय पुतलियों को दायें से बायें व बायें से दायें चक्राकार गोल घुमाएँ। गर्दन सीधी रखें। पश्चात् नेत्र बंद करके कुछ क्षण विश्राम दें व पलकों को सेंक करें। जिनकी नकली आँख लगी हो तो न करें।
क्रमांक (१६) जीभ का व्यायामः—
विधिः- वज्रासन या सुखासन में बैठकर जीभ को अधिकतम बाहर निकाल दें। कुछ क्षण रुककर सामान्य हों तथा पुनः करें।
क्रमांक (१७) गालों का व्यायामः—
विधिः- गालों को जितना फुला सकते हैं, फुलाएँ।
क्रमांक (१८) कानों का व्यायामः—
विधिः- कानों को चार भागों-नीचे, ऊपर, अगले व पिछले को एक-एक हाथ से पकड़कर क्रमशः नीचे को नीचे, ऊपर को ऊपर, पीछे को पीछे तथा आगे को आगे खींचे। ताकत न बहुत अधिक लगाएँ न कम। भीतर तक खिंचाव अनुभव हो यह प्रयास करें। बाद में दोनों हथेलियों से दोनों सम्पूर्ण कानों की मालिश करें।
क्रमांक (१९) ललाट का व्यायामः—
विधिः- दोनों हाथों की अंगुलियों को मस्तक के मध्य रखकर कानों की ओर सहलाना। अंगूठे से कनपटी व अंगुलियों से तालू को दबाना। अंगूठों से कान के ऊपर के भाग को आगे से पीछे मालिश करना। गर्दन की मालिश करना।
क्रमांक (२०) पेट का व्यायाम (उपनौली)ः—
विधिः- सीधे खड़े होकर दोनों पैरों में लगभग ८-१० इंच का फासला करें। नासिका के दोनों छिद्रों से श्वास अंदर भरें व नीचे झुकते हुए मुँह से पूरी श्वांस बाहर निकाल दें तथा बाहर ही रोक दें (बाह्य कुंभक), अब दोनों पैरों को घुटनों से आगे झुकाकर हथेलियों को घुटनों पर टिकाकर कुर्सी आसन की भाँति स्थिर हो जाएँ। इस अवस्था में पेट को अंदर खीचे व छोड़ें। सुविधा से जितनी बार पूर्व की भांति नीचे झुकते हुए मुँह से निकालें तथा घुटने झुकाकर पेट को खीचें व छोड़ें। यथा स्थिति ४-६ बार करें।


प्रज्ञायोग

प्रज्ञायोग व्यायाम की इस पद्धति में आसनों, उप-आसनों, मुद्राओं तथा शरीर संचालन की लोम-विलोम क्रियाओं का सुन्दर समन्वय है। इसमें सभी प्रमुख अंगों का व्यायाम संतुलित रूप से होता है। फलतः अंगों की जकड़न, दुर्बलता दूर होकर उनमें लोच और शक्ति का संचार होता है। निर्धारित क्रम व्यवस्था (टेबिल) विभिन्न परिस्थितियों में रहने वाले नर-नारियों के लिए भी बहुत उपयोगी है। व्यायाम शृंखला की हर मुद्रा के साथ गायत्री मंत्र के अक्षरों-व्याहृतियों को जोड़ देने से शरीर के व्यायाम के साथ मन की एकाग्रता और भावनात्मक पवित्रता का भी अभ्यास साथ ही साथ होता रहता है।

क्र. १) ॐ भूः -(ताड़ासन) विधिः- धीरे-धीरे श्वास खींचना प्रारंभ करें। दाहिने हाथ को दाहिनी तरफ, बायें को बायीं तरफ ले जाते हुए दोनों पैर के पंजों के बल खड़े होते हुए शरीर को ऊपर की ओर खींचे। दृष्टि आकाश की ओर रखें। यह चारों क्रियाएँ एक साथ होनी चाहिए। यह समूचा व्यायाम ताड़ासन (चित्र नं-१) की तरह सम्पन्न होगा। सहज रूप से जितनी देर में यह क्रिया संभव हो, कर लेने के बाद अगली क्रिया (नं-२) की जाए।
लाभः- हृदय की दुर्बलता, रक्तदोष और कोष्ठबद्धता दूर होती हैं। यह मेरुदण्ड के सही विकास में सहायता करता है और जिन बिन्दुओं से स्नायु निकलते हैं, उनके अवरोधों को दूर करता है।

क्र. २) ॐ भुवः-(पाद हस्तासन) विधिः- श्वास छोड़ते हुए सामने की ओर (कमर से ऊपर का भाग, गर्दन, हाथ साथ-साथ) झुकना। हाथों को ‘हस्तपादासन’ चित्र नं. २ की तरह सामने की ओर ले जाते हुए दोनों हाथों से दोनों पैरों के समीप भूमि स्पर्श करें , सिर को पैर के घुटनों से स्पर्श करें। इसे सामान्य रूप से जितना कर सकें उतना ही करें। क्रमशः अभ्यास से सही स्थिति बनने लगती है।
लाभः- इससे वायु दोष दूर होते हैं। इड़ा, पिंगला, सुषुम्रा को बल मिलता है। पेट व आमाशय के दोषों को रोकता तथा नष्ट करता है। आमाशय प्रदेश की अतिरिक्त चर्बी भी कम करता है। कब्ज को हटाता है। रीढ़ को लचीला बनाता एवं रक्त संचार में तेजी लाता है।

क्र. ३) ॐ स्वः (वज्रासन) विधिः- हस्तपादासन की स्थिति में सीधे जुड़े हुए पैरों को घुटनों से मोड़ें, दोनों पंजे पीछे की ओर ले जाकर उन पर वज्रासन (चित्र नं-३) की तरह बैठ जायें। दोनों हाथ दोनों घुटनों पर, कमर से मेरुदण्ड तक शरीर सीधा, श्वास सामान्य। यह एक प्रकार से व्यायाम से पूर्व की आरामदेह या विश्राम की अवस्था है।
लाभः- भोजन पचाने में सहायक, वायु दोष, कब्ज, पेट का भारीपन दूर करता है। यह आमाशय और गर्भाशय की मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करता है, अतः हार्निया से बचाव करता है। गर्भाशय, आमाशय आदि में रक्त व स्नायविक प्रभाव को बदल देता है।

क्र. ४) तत् (उष्ट्रासन) विधिः- घुटनों पर रखे दोनों हाथ पीछे की तरफ ले जायें। हाथ के पंजे पैरों की एड़ियों पर रखें। अब धीरे-धीरे श्वास खींचते हुए ‘उष्ट्रासन’ (चित्र नं-४) की तरह सीने को फुलाते हुए आगे की ओर खींचे। दृष्टि आकाश की ओर हो। इससे पेट, पेडू, गर्दन, भुजाओं सबका व्यायाम एक साथ हो जाता है।
लाभः- हृदय बलवान्, मेरुदण्ड तथा इड़ा, पिंगला, सुषुम्रा को बल मिलता है। पाचन, मल निष्कासन और प्रजनन-प्रणालियों के लिए लाभप्रद है। यह पीठ के दर्द व अर्द्ध-वृत्ताकार (झुकी हुई पीठ) को ठीक करता है।

क्र. ५) सवितुः (योग मुद्रा) विधि- अब श्वास छोड़ते हुए पहले की तरह पंजों पर बैठने की स्थिति में आयें, साथ ही दोनों हाथ पीछे पीठ की ओर ले जायें व दोनों हाथ की अंगुलियाँ आपस में फैलाकर धीरे-धीरे दोनों हाथ ऊपर की ओर खींचे और मस्तक भूमि से स्पर्श कराने का प्रयास ‘योगमुद्रा’ (चित्र नं.५) की तरह करें।
लाभः- वायुदोष दूर करता है। पाचन संस्थान को तीव्र तथा जठराग्रि को तेज करता है। कोष्ठबद्धता को दूर करता है। यह आसन मणिपूरक चक्र को जाग्रत् करता है।

क्र. ६) वरेण्यं (अर्द्ध ताड़ासन)- विधि- अब धीरे-धीरे सिर ऊपर उठायें तथा श्वास खींचते हुए दोनों हाथ बगल से आगे लाते हुए सीधे ऊपर ले जायें। बैठक में कोई परिवर्तन नहीं। दृष्टि ऊपर करें और हाथों के पंजे देखने का प्रयत्न करें। चित्र नं-६ यह ‘अर्धताड़ासन’ की स्थिति है।
लाभः- हृदय की दुर्बलता जो दूर कर रक्तदोष हटाता है और कोष्ठबद्धता दूर होती है। जो लाभ ताड़ासन से होते हैं, वे ही लाभ इस आसन से होते हैं।

क्र. ७) भर्गो (शशांकासन) विधिः- श्वास छोड़ते हुए कमर से ऊपर के भाग आगे (कमर, रीढ़, हाथ एक साथ) झुकाकर मस्तक धरती से लगायें। दोनों हाथ जितने आगे ले जा सकें, ले जाकर धरती से सटा दें। ‘शशांकासन’ (चित्र नं-७) की तरह करना है।
लाभः- उदर के रोग दूर होते हैं। यह कूल्हों और गुदा स्थान के मध्य स्थित मांसपेशियों को सामान्य रखता है साइटिका के स्नायुओं को शिथिल करता है और एड्रिनल ग्रंथि के कार्य को नियमित करता है। कब्ज को दूर करता है।
क्र. ८) देवस्य (भुजंगासन) विधिः- हाथ और पैर के पंजे उसी स्थान पर रखते हुए, श्वास खींचते हुए, कमर उठाते हुए धड़ आगे की ओर ले जायें। घुटने जंघाएँ भूमि से छूने दें। सीधे हाथ पर कमर से पीछे की ओर मोड़ते हुए सीना उठायें, गर्दन को ऊपर की ओर तानें। चित्र नं-८ की तरह ‘भुजंगासन’ जैसी मुद्रा बनायें।
लाभः- हृदय और मेरुदण्ड को बल देता है, वायु दोष को दूर करता है। यह भूख को उत्तेजित करता है तथा कोष्ठबद्धता और कब्ज का नाश करता है। यह जिगर और गुर्दे के लिए लाभदायक है।

क्र. ९) धीमहि (तिर्यक् भुजंगासन बायें)-चित्र नं-८ की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं, केवल गर्दन पूरी तरह बायीं ओर मोड़ते हुए दाएँ पैर की एड़ी देखें।
लाभ-भुजंगासन जैसे लाभ अभ्यासकर्त्ता को प्राप्त होते हैं।

क्र. १०) धियो (तिर्यक भुजंगासन दाएँ) विधि- शरीर की स्थिति पहले जैसे रखते हुए गर्दन दाहिनी ओर मोड़ते हुए बायें पैर की एड़ी देखें।
लाभ- भुजंगासन जैसे लाभ अभ्यासकर्त्ता को मिलते हैं।

क्र. ११) यो नः (शशांकासन) विधि- श्वास छोड़ते हुए कमर से ऊपर के भाग आगे (कमर, रीढ़, हाथ एक साथ) झुकाकर मस्तक धरती से लगायें। दोनों हाथ जितने आगे ले जा सकें, ले जाकर धरती से सटा दें। भुजंगासन की स्थिति में ही पीछे जाकर एड़ियों पर बैठते हैं। लाभ- शशांकासन के अनुसार ही (क्रमांक-७) के लाभ प्राप्त होते हैं।

क्र. १२) प्रचोदयात् (अर्द्ध ताड़ासन) विधि- यह मुद्रा, मुद्रा क्रमांक ६ की तरह ‘अर्द्ध ताड़ासन’ की होगी।
लाभ- अर्द्ध ताड़ासन जैसे लाभ।

क्र. १३) भूः (उत्कटासन) विधि- इस मुद्रा में पंजों के बल ६ उत्कट आसन (चित्र नं-१३) की तरह बैठते हैं। सीना निकला हुआ, हाथ सीधे भूमि छूते हुए। श्वास की गति सामान्य रखें।
लाभ- पिण्डली मजबूत बनती हैं। शरीर संतुलित होता है।

क्र. १४) भुवः (पाद हस्तासन) विधि- घुटनों से सिर लगाते हुए एवं श्वास छोड़ते हुए कूल्हों को ऊपर उठाते हुए (चित्र नं-१४) की तरह पादहस्तासन की स्थिति में आयें।
लाभ-मुद्रा क्र. दो की तरह वायु दोष दूर होते हैं।

क्र. १५) स्वः (पूर्व ताड़ासन) विधि- धीरे-धीरे श्वास खींचते हुए दोनों हाथों को सिर के साथ ऊपर उठाते हुए दोनों हाथों को ऊपर ले जायें। दोनों पैर के पंजों के बल खड़े होते हुए शरीर को ऊपर की ओर खींचें। दृष्टि आकाश की ओर रखें। यह चारों क्रियाएँ एक साथ होनी चाहिए। यह समूचा व्यायाम ६ पूर्व ताड़ासन (चित्र नं-१५) की तरह सम्पन्न होगा। सहज रूप से जितनी देर में यह क्रिया संभव हो, कर लेने के बाद अगली क्रिया के लिए अगला नं० बोला जाए।
लाभः-क्र. १ की तरह हृदय दुर्बलता को दूर कर रक्तदोष ठीक करता है।

क्र. १६) ॐ - बल की भावना करते हुए सावधान- विधि-ॐ का गुंजन करते हुए हाथों की मुट्ठियाँ कसते हुए बल की भावना के साथ कुहनियाँ मोड़ते हुए मुट्ठियाँ कंधे के पास से निकालते हुए हाथ नीचे लाना सावधान की स्थिति में। यह क्रिया श्वास छोड़ते हुए सम्पन्न करें। अंत में शवासन करें।
लाभः- समग्र स्वास्थ्य लाभ की कामना शरीर में स्फूर्ति तथा चैतन्यता आती है, मन प्रसन्न होता है।
इस प्रज्ञा योग व्यायाम को कम से कम दो बार करायें। प्रथम बार गिनती में तथा द्वितीय बार गायत्री मंत्र के साथ आध्यात्मिक विकास हेतु करायें।
सामूहिक अभ्यास में एक साथ एक गति से ड्रिल के अनुशासन का पूरी तरह पालन करते हुए व्यायाम कराया जाए। जो उस अनुशासन में फिट न बैठते हों, उनको व्यक्तिगत रूप से अभ्यास करायें। यह व्यायाम प्रज्ञापीठों, शक्तिपीठों, विद्यालयों में, गली-मुहल्लों में बच्चों को, वयस्क पुरुषों और महिलाओं को भी कराया जाय। नियत समय पर नियत स्थान पर एकत्रित होकर करें व करायें। एक ही शिक्षक समय अदल-बदल कर विभिन्न स्थानों पर करा सकते हैं ।
व्यायाम के साथ स्वास्थ्य रक्षा के, स्वच्छता के सूत्र क्रमशः समझाने का क्रम चलाया जा सकता है। व्यक्तिगत और सामूहिक स्वास्थ्य संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ायी जा सकती है।
विशेष- (१) ये आसन प्रायः बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सभी कर सकते हैं; परन्तु अधिक कमजोर व जीर्ण रोगी न करें।
(२) शरीर के जिस अंग में कोई चोट, टूट-फूट या बड़ा आपरेशन हुआ हो, दर्द रहता हो तो उस अंग का व्यायाम न करें।
(३) कोई अंग बनावटी (नकली) लगा हो, तो वह व्यायाम न करें।
(४) पेट का व्यायाम कोलाइटिस, अल्सर के रोगी अथवा जिनका आपरेशन दो वर्ष पूर्व तक हुआ हो अथवा किसी प्रकार का पेट में दर्द रहता हो, वे न करें अथवा शिक्षक के परामर्श से करें। गर्भवती बहिनें बिलकुल न करें।
(५) प्रत्येक व्यायाम के बाद कुछ क्षण के लिए उस अंग को विश्राम दें, तब अगली क्रिया करें।
नोट- उच्चस्तरीय योग साधना हेतु किसी भी शिविर में आकर प्रशिक्षण ले सकते हैं। शांतिकुंज में स्वीकृति लेकर ही आयें।

योग व्यायाम से पूर्व की सावधानियाँ
१- शरीर और वस्त्र स्वच्छ रखें।
२- योग-व्यायाम शुद्ध हवा में करें, मकान के अंदर करें तो देख लें कि स्थान साफ-सुथरा हो।
३- आसन करते समय किसी का अनावश्यक रूप से उपस्थित होना ठीक नहीं। ध्यान दूसरी ओर खींचने वाली आदि चर्चा वहाँ पर नहीं होना चाहिए और आसन करने वाले का प्रसन्नचित्त रहना बहुत जरूरी है। प्रातः संध्या स्नान करने के बाद योग-व्यायाम करना चाहिए।
४- योगाभ्यास करने वाले को यथासमय प्रातः चार बजे बिस्तर से उठने और रात को दस बजे तक सो जाने की आदत डालनी चाहिए।
५- भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक और आयु के हिसाब से नियत समय पर करना चाहिए। स्वाद के लोभ से अधिक भोजन हानिकारक है।
६- भोजन सादा होना चाहिए, उसमें मिर्च-मसाला न डालें तो अच्छा है। यदि डालने ही हों तो कम से कम डालें। शाक, सब्जी उबली हुई गुणकारी होती है। आटा चोकर सहित और चावल हाथ का कुटा लाभप्रद है।
७- योग-व्यायाम करते समय कसे हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिए, ढीले कपड़े ही लाभप्रद रहते हैं।
८- योग करने के बाद आधा घंटा विश्राम करके दूध या फल खाये जा सकते हैं। चाय, काफी आदि नशीली चीजें हानिकारक होती हैं।
९- प्रातः या सायं शौच करने के बाद ही योग का अभ्यास करना चाहिए।
१०- अनिद्रा निवारण के लिए रात को सोने से पहले गोमुखासन करना चाहिए।
११- आसनों के चुनाव में आगे झुकने वाले आसनों के साथ पीछे झुकने वाले आसन आवश्यक हैं। जिन्हें पेचिश का रोग हो, उन्हें मेरुदण्ड को पीछे झुककर करने वाले आसन नहीं करने चाहिए। जिनकी आँखें दुःख रही हों या लाल हों, उन्हें शीर्षासन नहीं करना चाहिए।
१२- योगाभ्यासरत व्यक्ति को ब्रह्मचर्य (संयम) का पालन दृढ़ता के साथ करना चाहिए। योगाभ्यास के तुरन्त बाद ही भारी कार्य नहीं करना चाहिए। योगाभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए।


प्राणायाम—

प्राणायाम ऋषियों की महान् देन में से प्राणायाम मनुष्य की प्राणशक्ति को बढ़ाने, अभिवर्द्धन करने हेतु एक विद्या है। प्राण शक्ति के अभिवर्द्धन से सामान्य व्यक्ति भी असाधारण कार्य कर सकता है। संतों-महापुरुषों में प्राण की अधिकता ही उन्हें महान् बनाती है। विश्व ब्रह्माण्ड में प्राण का अनन्त सरोवर लहरा रहा है। सामान्य रूप से श्वास-प्रश्वास के साथ काया में उतने ही प्राण का संचार होता है जिससे शरीर में प्राण टिका रह सके। उसकी वृद्धि होती रहे इसके लिए प्राणयाम करना चाहिए। यहाँ प्राणायाम की कुछ सरल विधियाँ दी जा रही हैं। बालकों को दनका अभ्यास कराएँ।
१) अंतरंग व्यायाम परक प्राणायाम - इसमें ३ चरण होते हैं। (१) पूरक (श्वांस खींचना), (२) कुम्भक (श्वांस अंदर रोकना) और (३) रेचक (श्वांस बाहर निकालना)। इस तरह के प्राणायामों में उक्त तीनों क्रियाओं में लगने वाले समय का अनुपात १ः२ः१ (अर्थात् - जितने समय में श्वांस खींचा जाए उससे दो गुने समय तक अंदर रोका जाये और श्वांस छोड़ने में श्वांस खींचने जितना समय लगाया जाये। ) अथवा १ः४ः२ (अर्थात् - जितने समय में श्वांस खींचा जाए उससे चार गुने समय तक श्वांस अंदर रोका जाये और श्वांस खींचने के समय से दो गुना समय, श्वांस छोड़ने में लगाया जाये।) इन प्राणायामों में १ः२ः१ मात्रा से ही अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिये। जब इसका अभ्यास ठीक तरह से हो जाये तब १ः४ः२ की मात्रा अपनाना उचित है।
२) तालयुक्त श्वांस- किसी भी आसन पर सीधे बैठकर तालयुक्त श्वांस का अभ्यास किया जाए। श्वांस खींचने और छोड़ने में समान समय लगाएँ। श्वांस को जितनी देर बाहर रोक सकें, उतनी ही देर अंदर रोकें। इस प्रकार श्वांस लयबद्ध होने लगती है। यह अभ्यास हो जाने पर श्वांस के साथ प्राण प्रवाह को शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित होने का ध्यान करें। भावना करें कि शरीर के प्राण प्रवाह के तमाम विकारों और दुर्बलताओं को यह शुद्ध प्राण प्रवाह दूर कर रहा है। इस क्रिया के अभ्यास से पीड़ित अंगों की पीड़ा भी कम की जा सकती है। तालयुक्त श्वांस की क्रिया का अभ्यास सतत किया जा सकता है।
३) प्राणाकर्षण प्राणायाम- सुखासन में, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए सहज स्थिति में बैठें। दोनों हाथ गोद में या घुटनों पर रखें, आँखें बन्द करें। ध्यान करें कि विश्व ब्रह्माण्ड में प्राण का अनन्त सागर हिलोरें ले रहा है। वह हमारे आवाहन पर हमारे चारों ओर घनीभूत हो रहा है।
धीरे-धीरे गहरी श्वांस खींचें। भावना करें कि दिव्य प्राण-प्रवाह श्वांस के साथ अन्दर प्रवेश कर रहा है तथा सारे शरीर में कोने-कोने तक पहुँच रहा है।
श्वांस रोकते हुए ध्यान करें कि दिव्य प्राण शरीर के कण-कण में सोखा जा रहा है और मलिन प्राण छोड़ा जा रहा है। श्वांस निकालते हुए भावना करें कि वायु के साथ मलिनताएँ बाहर निकल कर दूर चली जा रही हैं। श्वांस बाहर रोकते हुए ध्यान करें कि खींचा हुआ प्राण अन्दर स्थिर हो रहा है। बाहर श्रेष्ठ प्राण पुनः हिलोरें ले रहा है। श्वांस खींचने और निकालने में एक सा समय लगायें। अन्दर रोकने और बाहर रोकने में खींचने या छोड़ने से आधा समय ही लगायें। इस प्राणायाम से थोड़े प्रयास से ही दिव्य प्राण के बड़े अनुदान प्राप्त होते हैं।
४) नाड़ी शोधन प्राणायाम- नाड़ी शोधन प्राणायाम के लिये प्राणायाम की मुद्रा में बैठें। बायीं नासिका से श्वांस खींचें और उसी से छोड़ें। पूरक, रेचक, कुम्भक क्रमशः २ः१ः२ः१ के निर्धारित क्रम से ३ बार श्वांस खींचना ३ बार निकालना। फिर यही क्रम दाहिने स्वर से अपनायें। फिर दोनों नासिका छिद्रों से गहरा श्वांस खींचें और मुंह से धीरे-धीरे उपयुक्त समय लगाते हुए रेचक करना चाहिये। यह एक प्राणायाम माना जाता है। इस प्रकार तीन बार क्रिया दोहराएँ। इसमें इड़ा, पिंगला, सुषुम्रा नाड़ी में प्राण का प्रवाह संतुलित किया जाता है।
इस प्रयोग में क्रमशः इड़ा, पिंगला और सुषुम्रा नाड़ियों में प्राणप्रवाह के साथ नाड़ी तंत्र के शोधन की भावना की जाती है। हर श्वांस के साथ दिव्य प्राण संचार तथा प्रश्वांस के साथ विकारों के बाहर फेंके जाने की धारणा की जाती है।
५) मानसिक शक्ति बढ़ाने के लिये प्राणायाम- दाहिने पैर की ऐड़ी, बाएँ पैर की जाँघ पर और बाएँ पैर की एड़ी गुदा पर रखें। ठोढ़ी को कंठ कूप से चिपकाएँ और नेत्र बंद करें। गहरा और लंबा श्वांस खींचें। थोड़ी देर भीतर रोक कर बाहर निकाल दें। इस क्रिया को कुछ देर तक दोहराएँ।
६) चित्त की ऐकाग्रता के लिये प्राणायाम- शवासन (शिथिलासन) में लेट जाओ। शरीर को बिल्कुल ढीला कर दो। कानों में रुई लगाकर नेत्र बंद कर लो, जिससे बाहर के शब्द सुनाई न पड़ें। दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर रखो। साधारण रीति से गहरे साँस लेते और छोड़ते रहो, बीच में थोड़ा कुंभक भी करते रहो।
फिर नेत्रों की पुतलियों को ऊपर चढ़ाकर दोंनों भवों के मध्य-त्रिकुटी में दिव्य तेज कर ध्यान करो। कुछ निद्रा सी आये तो आने दो, उसे तोड़ो मत। इस अवस्था में ‘अनहद’ शब्द सुनाई पड़ते हैं और ज्योति स्वरूप परमात्मा के दर्शन होने से चित्त की एकाग्रता दिनों-दिन बढ़ती जाती है।
७) थकान मिटाने के लिये प्राणायाम- साधारण रीति से पूरक करें और वैसा ही थोड़ा कुंभक करें। रेचक मुँह से करें। मुँह को सिकोड़ कर इस प्रकार हवा बाहर फेंकें जैसे सीटी बजाते हैं। पूरी वायु एक बार में ही बाहर न निकालें, वरन् रुक-रुककर तीन बार में बाहर निकालें।
प्राणायाम से पुष्ट नाड़ी एवं चक्र तंत्र, जप-ध्यान आदि प्रयोगों से उत्पादित ऊर्जा के धारण और नियोजन में भली प्रकार सक्षम हो जाता है। आरोग्य शक्ति, संकल्प शक्ति, पूर्वाभास, विचार संचार (टेलीपैथी) जैसी क्षमताएँ अनायास हस्तगत होने लगती हैं। उच्चस्तरीय प्राणायाम कभी शांतिकुंज के शिविर में आकर सीख सकते हैं।


ऊषापान—जल प्रयोग (वॉटर थेरेपी)

भारत में ऊषापन के नाम से यह उपचार विद्वानों से लेकर ग्रामीणों तक में प्रचलित रहा है। पश्चिम के सम्मोहन और अपनी संस्कृति के प्रति उपेक्षा-अवज्ञा की मानसिकता के कारण यह प्रचलन और इसका ठीक-ठाक स्वरूप भुला दिया गया था। भारत में प्राकृतिक जीवनचर्या की समर्थक कुछ संस्थानों तथा जापान की एक संस्था ‘सिकनेस ऐसोसिएशन’ ने विभिन्न शोधात्मक अध्ययनों के आधार पर इस उपचार प्रणाली को पुनः स्थापित और प्रचारित किया है। हजारों की संख्या में प्रयोगकर्त्ताओं ने इसका लाभ उठाया है।
लाभ-स्वस्थ, शरीर वालों के लिए यह नियमित प्रयोग आरोग्यवर्धक रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला तथा स्फूर्तिदायक सिद्ध होता है। इसके नियमित प्रयोग से तमाम रोगों से छुटकारा मिलता है। जैसेः-
१. सिरदर्द, रक्तचाप, एनीमिया, संधिवात, मोटापा, अर्थ्राइटिस, स्नायु रोग, साइटिका, दिल की धड़कन, बेहोशी। कफ, खाँसी, दमा, ब्राँकाइटिस, टी.बी.।
२. मेनीन्जायटिस, लिवर संबंधी रोग,गुर्दे की बीमारी, पेशाब की बीमारियाँ।
३. आँखों की कई प्रकार की तकलीफें।
४. स्त्रियों की अनियमित माहवारी, प्रदर (ल्यूकोरिया), गर्भाशय का कैंसर।
५. हाइपर एसीडिटी,गेस्ट्राइटिस, पेचिश, कब्जि़यत, डायबिटीज़ (शर्करायुक्त पेशाब)
६. नाक और गले संबंधी बीमारियाँ। अनुभवों और परीक्षणों से रोग ठीक होने की अवधि निम्रानुसार सिद्ध हुई है- रक्तचाप- १माह में, मधुमेह -१ माह में, कब्ज एवं गैस की तकलीफ -१० दिन में, टी.बी. -३ माह में।
विधि- सबेरे ऊषाकाल में जागकर यह प्रयोग करना विशेष लाभकारी है। इसीलिए इसे ऊषापान कहा जाता है। रात में देर से सोने के कारण जो लोग सबेरे जल्दी न उठ पायें, वे जब जागें तभी इसका प्रयोग करें।
- सबेरे उठते ही आवश्यकता होने पर लघुशंका (पेशाब) से निवृत्त होकर, मंजन-ब्रश आदि करने से पहले ऊषापान करें। एकाध सादा पानी का कुल्ला किया जा सकता है। वयस्क व्यक्ति, जिनका शरीर भार ६० कि.ग्रा. के लगभग तक है, वे १ किलो (१लीटर) तथा अधिक भार वाले सवा किलो (सवा लीटर) पानी क्रमशः एक साथ पियें।
- पानी उकड़ूँ बैठकर पीना अधिक अच्छा रहता है। यदि रात में ताँबे के बर्तन में रखा गया पानी हो, तो उसकी लाभ अधिक होता है। सामान्यतः किसी भी स्वच्छ बर्तन में रखा पानी पिया जा सकता है। ऊषापान के लगभग ४५ मिनट बाद तक कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए।
ज्ञातव्य- १. जिनको सर्दी लगती हो, शरीर ठंडा रहता हो, अग्नि मंद हो, कमजोरी हो वे कड़ी सर्दियों में सामान्य स्थिति में भी गर्म पानी या हल्का गर्म पानी पीयें।
२. जिनके शरीर में गर्मी हो, जलन रहती हो, वे रात्रि का रखा सादा पानी पीयें।
३. एक साथ न पी पायें तो ५-१० मिनट रुक कर दो बार में पी लें। प्रारंभ में एक साथ निर्धारित मात्रा तक जल न पी सकें तो धीरे-धीरे (सप्ताह भर में) अभ्यास में लायें।
४. पहले १०-१५ दिन पेशाब बहुत ज्यादा व जोर से लगेगी, बाद में ठीक हो जायेगी।
५. जो लोग वात रोग एवं संधिवात के रोगों से ग्रस्त हों, उन्हें लगभग १ सप्ताह तक यह प्रयोग दिन में तीन बार (सबेरे जागते ही, दोपहर भोजन विश्राम के बाद एवं शाम को) करना चाहिए। बाद में केवल सबेरे का क्रम प्रारम्भ रखें।
६. पानी पीकर पेट पर हाथ फेरते हुए १०-१५ मिनट जहाँ सुविधा हो वहाँ टहलें या कटिमर्दनासन करें। यह क्रिया कब्ज के मरीजों के लिए विशेष उपयोगी है।
कटिमर्दनासन विधि- चित्त लेटकर, पैरों को मोड़कर नितम्ब से लगा लें व तलवे जमीन से लगा लें। एड़ी घुटने (दोनों पैर के ) सटे हों। दोनों हाथ कंधे की सीध में फैलाकर १८० डिग्री में कर लें। हाथ की मुट्ठी बंद करके धीरे-धीरे पैरों को बायें मोड़ें व गर्दन दाहिने मोड़ें। फिर पैरों को दाहिने ले जायें और गर्दन बायें ले जायें। ऐसा ३० बार से शुरू करें तथा ८४ बार तक ले जायें।
पथ्य- ऊषापान करने वाले, रोगों की प्रकृति के अनुसार आहार पर ध्यान दें।
वात प्रधान रोगों में- पत्तीदार साग बंद कर दें।
पित्त प्रधान रोगों में- तला-भुना पदार्थ, मिर्च, चाय-काफी, गरम मसाले, अचार, खटाई आदि बंद कर दें।
कफ प्रधान रोगों में - मैदा, चावल, उड़द, आलू, अरबी, भिण्डी व केला न लें।
१. भूख से कम खायें व चबा-चबा कर खायें। भोजन के तुरंत पहले पानी न पीयें।
२. भोजन के बीच ४-५ घूँट पानी पीना लाभदायक होता है।
आयुर्वेद का मान्य नियम है कि अपच (आहार के सार तत्त्व से शरीर के आवश्यक रस- रक्तादि बनने तक की प्रक्रिया में गड़बड़ी) की स्थिति में जल प्रयोग औषधि रूप है। निरोग स्थिति में बल-स्फूर्तिदायक है। खाद्य सामाग्री में स्वाभाविक जल की उपस्थिति अमृत तुल्य होती है तथा भोजन के तत्काल बाद पानी पीना पाचन तंत्र को गड़बड़ा देता है।
वैज्ञानिक दृष्टिः- यह प्रयोग रोगी, स्वस्थ सभी के लिए अपनाने योग्य है। शरीर विज्ञान की दृष्टि से इसके लाभों के पीछे निम्रानुसार सूत्र कार्य करते हैं।
-रात में नींद के समय लगभग ६ घण्टे तक हर व्यक्ति के शरीर में कम से कम हलचल होती है, लेकिन इस बीच पेट द्वारा भोजन पचाकर उसका रस सारे शरीर में पहुँचाने का क्रम बराबर चलता रहता है। इस प्रक्रिया के साथ शरीर में नये कोष बनने तथा पुराने कोषों को मल के रूप में विसर्जित करने का चयापचय (मेटाबॉलिज्म) का क्रम चलता रहता है। रात में शरीर की हलचल तथा शरीर में पानी के प्रवाह की कमी से जगह-जगह शरीर में पर्याप्त मात्रा में एक साथ पानी पहुँचने से, शरीर के अन्तरंग अवयवों की धुलाई (फ्लशिंग) जैसी प्रक्रिया चल पड़ती है। अतः सहज प्रवाह में शरीर के विजातीय पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का काम सहजता से हो जाता है। यदि ये विजातीय पदार्थ या विष शरीर से बाहर नहीं निकल पाते हैं, तो तमाम रोगों का कारण बन जाते हैं। शरीर में पथरी या गाँठों के रूप में भी इन्हीं पदार्थों का जमाव होता है। ऊषापान से ऐसी विसंगतियों का निवारण भी होता है तथा उन्हें पनपने का अवसर भी नहीं मिलता।
ऊषापान बासी मुँह करने का नियम है। मुख में सोते समय कुछ शारीरिक विषों (माउथ पॉयजंस) की पर्त जम जाती है। एक साथ काफी मात्रा में पानी पीने से उनका बहुत हल्का घोल शरीर में पहुँचता है, जो ‘वैक्सीन’ का काम करता है। उसके प्रभाव से शरीर में उन विषों को निष्प्रभावी बनाने वाले एण्टीबॉयटीज़ तैयार होने लगते हैं। इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। निश्चित रूप से यह प्रयोग स्वस्थ-रोगी, अमीर-गरीब और हर उम्र के नर-नारी द्वारा अपनाया जाने योग्य है। इसे स्वयं भी प्रयोग करें व देसरों को भी बतायें।


प्रकृति का अमृत— गेहूँ के ज्वारे (Green Blood)

अमेरिका की एक महिला डॉ. एन बीगमोर ने गेहूँ की शक्ति के सम्बन्ध में अनुसंधान तथा अनेकानेक प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि गेहूँ के ज्वारे के रस के प्रयोग से कठिन से कठिन रोग अच्छे किये जा सकते हैं। वे कहती हैं कि संसार में ऐसा कोई रोग नहीं है, जो इस रस के सेवन से अच्छा न हो सके। कैंसर के बड़े-बड़े भयंकर रोगी तक उन्होंने अच्छे किये हैं।
गेहूँ के ज्वारे के रस से भगन्दर, बवासीर, मधुमेह, गठिया, पीलियाज्वर, दमा, खाँसी, थैल्सीमिया, ल्यूकेमिया (रक्त का कैंसर), हृदय रोग, टायफाइड, पथरी, पेट के कीड़े, दाँत व मसूड़ों के रोग, खून की कमी, त्वचा रोग, अनिद्रा, हाथ-पैरों में कम्पन आदि सभी रोग ठीक होते हैं।
इस रस को बनाने की विधिः-
उत्तम किस्म के गेहूँ के दानों को दस-बारह गमलों में एक-एक दिन के अन्तर से बोयें और छाया में रखें। यदाकदा थोड़ा-थोड़ा पानी देते रहें। आठ-दस दिन में पहले गमले के पौधे ७-८ इंच तक बड़े हो जायेंगे। तब ४०-५० पौधों को जड़ सहित उखाड़ लें। जड़ को काट दें, बचे हुए डंठल तथा पत्तियों को धोकर सिल पर अथवा मिक्सी में थोड़े से पानी के साथ पीस लें। अब उसे छानकर ताजे रस को तत्काल पी लें। इस प्रकार नियम से एक-एक गमले के पौधों के रस का इस्तेमाल करें। गेहूँ के पौधे ७-८ इंच से ज्यादा बड़े न होने पाएँ। जैसे-जैसे गमले खाली होते जाएँ, उनमें गेहूँ बोते रहें। इस प्रकार गेहूँ के ज्वारे घर में बारहों मास उगाये जा सकते हैं।
लाभः- इस रस में ७०% तरल क्लोरोफिल, पोटैशियम, कैरोटीन, प्रोटीन, ९० से ज्यादा खनिज, लौह तत्व, कैल्शियम, एन्जाइम, अमीनोएसिड तथा बहुत से विटामिन ए, बी, बी१२, सी इत्यादि मौजूद होते हैं। कहते हैं कि यह रस मनुष्य के रक्त से ४०% मेल खाता है। इसीलिये इसे ‘ग्रीन ब्लड’ भी कहते हैं। यह रक्त में लाल रक्त कोशिकाओं को बढ़ाता है। पाचन क्रिया तेज करता है। खून साफ करता है। Toxin (जैव तत्व विष) को निष्प्रभावी करता है। स्वस्थ एवं रोगी दोनों के लिये अमृत समान है।
सेवन विधिः- इसे स्वस्थ, रोगी, बालक, युवा एवं वृद्ध सभी ले सकते हैं। प्रारंभ में दो बड़े चम्मच, फिर आधा कप, उसके बाद एक कप तक मात्रा बढ़ाई जा सकती है। यदि सेवन के उपरांत उल्टी, उबकाई या पेट भारी महसूस हो, सिर दर्द हो अथवा दस्त लग जाएँ या अन्य कोई परेशानी हो, तो घबराएँ नहीं। यह आपके शरीर की अशुद्धियों के बाहर निकलने के लक्षण हैं। ताजे रस का ही सेवन करना चाहिये। सुबह खाली पेट लेना फायदेमंद है। घंटे-दो घंटे तक रखने से उसकी शक्ति घट जाती है। इससे अधिक रखने पर तो यह बिल्कुल शक्तिहीन हो जाता है। ज्वारों को बारीक काटकर सलाद की तरह चबा-चबाकर खाना भी लाभदायक है। परंतु इसमें और कुछ नहीं मिलाना चाहिये। थोड़ा-थोड़ा करके दिन में दो-तीन बार भी ले सकते हैं। अधिक जानकारी के लिये देखें डॉ. गाला की पुस्तक ‘पृथ्वी की संजीवनीः गेहूँ के ज्वारे’ व कल्याण का ‘आरोग्य अंक’।


अष्टम् अध्याय

व्यक्तित्व विकास के महत्त्वपूर्ण तथ्य

१. शिष्टाचार
एक व्यक्ति दूसरे के साथ जो सभ्यतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे शिष्टाचार कहते हैं। यह व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि अपने रहन-सहन तथा वचनों से दूसरों को कष्ट तथा असुविधा न हो। शिष्टाचार दिखावटी नहीं होना चाहिए, वह सच्चा होना चाहिए। शिष्टाचार सदाचार का ही एक अंग है। प्रत्येक देश एवं समाज के शिष्टाचार के नियम कुछ पृथक-पृथक होते हैं। बचपन में ही इन नियमों को जान लेना चाहिए और इनके पालन का स्वभाव बना लेना चाहिए।

क. बड़ों का अभिवादन
१. बड़ों को कभी ‘तुम’ मत कहो, उन्हें ‘आप’ कहो और अपने लिए मैं का प्रयोग मत करो ‘हम’ कहो।
२. जो गुरुजन घर में है, उन्हें सबेरे उठते ही प्रणाम करो। अपने से बड़े लोग जब मिलें/जब उनसे भेंट हो उन्हें प्रणाम करना चाहिए।
३. जहाँ दीपक जलाने पर या मन्दिर में आरती होने पर सायंकाल प्रणाम करने की प्रथा हो वहाँ उस समय भी प्रणाम करना चाहिए।
४. जब किसी नये व्यक्ति से परिचय करया जाय, तब उन्हें प्रणाम करना चाहिए। सौंफ-इलायची या पुरस्कार अगर कोई दे तब उस समय भी उसे प्रणाम करना चाहिए।
५. गुरुजनों को पत्र व्यवहार में भी प्रणाम लिखना चाहिए।
६. प्रणाम करते समय हाथ में कोई वस्तु हो तो उसे बगल में दबाकर या एक ओर रखकर दोनों हाथों से प्रणाम करना चाहिए।
७. चिल्लाकर या पीछे से प्रणाम नहीं करना चाहिए। सामने जाकर शान्ति से प्रणाम करना चाहिए।
८. प्रणाम की उत्तम रीति दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना है। जिस समाज में प्रणाम के समय जो कहने की प्रथा हो, उसी शब्द का व्यवहार करना चाहिए। महात्माओं तथा साधुओं के चरण छूने की प्राचीन प्रथा है।
९. जब कोई भोजन कर रहा हो, स्नान कर रहा हो, बाल बनवा रहा हो, शौच जाकर हाथ न धोये हों तो उस समय उसे प्रणाम नहीं करना चाहिए। उसके इन कार्यों से निवृत्त होने पर ही प्रणाम करना चाहिए।

ख. बड़ों का अनुगमन
१. अपने से बड़ा कोई पुकारे तो ‘क्या’, ‘ऐं’, ‘हाँ’ नहीं कहना चाहिए। ‘जी हाँ’ ‘जी’ अथवा ‘आज्ञा’ कहकर प्रत्युत्ता देना चाहिए।
२. लोगों को बुलाने, पत्र लिखने या चर्चा करने में उनके नाम के आगे ‘श्री’ और अन्त में ‘जी’ अवश्य लगाओ। इसके अतिरिक्त पंडित, सेठ, बाबू, लाला आदि यदि उपाधि हो तो उसे भी लगाओ।
३. अपने से बड़ों की ओर पैर फैलाकर या पीठ करके मत बैठो। उनकी ओर पैर करके मत सोओ।
४. मार्ग में जब गुरुजनों के साथ चलना हो तो उनके आगे या बराबर मत चलो उनके पीछे चलो। उनके पास कुछ सामान हो तो आग्रह करके उसे स्वयं ले लो। कहीं दरवाजे में से जाना हो तो पहले बड़ों को जाने दो। द्वार बंद है तो आगे बढ़कर खोल दो और आवश्यकता हो तो भीतर प्रकाश कर दो। यदि द्वार पर पर्दा हो तो उसे तब तक उठाये रहो, जब तक वे अंदर न चले जायें।
५. सवारी पर बैठते समय बड़ों को पहले बैठने देना चाहिए। कहीं भी बड़ों के आने पर बैठे हो तो खड़े हो जाओ और उनके बैठ जाने पर ही बैठो। उनसे ऊँचे आसान पर नहीं बैठना चाहिए। बराबर भी मत बैठो। नीचे बैठने को जगह हो तो नीचे बैठो। स्वयं सवारी पर हो या ऊँचे चबूतरे आदि स्थान पर और बड़ों से बात करना हो तो नीचे उतर कर बात करो। वे खड़े हों तो उनसे बैठे-बैठे नहीं बल्कि खड़े होकर बात करो। चारपाई आदि पर बड़ों को तथा अतिथियों को सिरहाने की ओर बैठाना चाहिए। मोटर, घोड़ा-गाड़ी आदि सवारियों में बराबर बैठना ही हो तो बड़ों की बांयीं ओर बैठना चाहिए।
६. जब कोई आदरणीय व्यक्ति अपने यहाँ आएँ तो कुछ दूर आगे बढ़कर उनका स्वागत करें और जब वे जाने लगें तब सवारी या द्वार तक उन्हें पहुँचाना चाहिए।

ग. छोटों के प्रति
१. बच्चों को, नौकरों को अथवा किसी को भी ‘तू’ मत कहो। ‘तुम’ या ‘आप’ कहो।
२. जब कोई आपको प्रणाम करे तब उसके प्रणाम का उत्तर प्रणाम करके या जैसे उचित हो अवश्य दो।
३. बच्चों को चूमो मत। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। भारत की स्नेह प्रकट करने की पुरानी रीति है मस्तक सूँघ लेना और यही उत्तम रीति है।
४. नौकर को भी भोजन तथा विश्राम के लिए उचित समय दो। बीमारी आदि में उसकी सुविधा का ध्यान रखो। यदि भोजन-स्नान आदि में लगा हो तो पुकारो मत। किसीको भी कभी नीच मत समझो।
५. आपके द्वारा आपसे जो छोटे हैं, उन्हें असुविधा न हो यह ध्यान रखना चाहिए। छोटों के आग्रह करने पर भी उनसे अपनी सेवा का काम कम से कम लेना चाहिए।

घ. महिलाओं के प्रति
१. अपने से बड़ी स्त्रियों को माता, बराबर वाली को बहिन तथा छोटी को कन्या समझो।
२. बिना जान पहचान के स्त्री से कभी बात करनी ही पड़े तो दृष्टि नीचे करके बात करनी चाहिए। स्त्रियों को घूरना, उनसे हँसी करना उनके प्रति इशारे करना या उनको छूना असभ्यता है, पाप भी है।,
३. घर के जिस भाग में स्त्रियाँ रहती हैं, वहाँ बिना सूचना दिये नहीं जाना चाहिए। जहाँ स्त्रियाँ स्नान करती हों, वहाँ नहीं जाना चाहिए। जिस कमरे में कोई स्त्री अकेली हो, सोयी हो, कपड़े पहन रही हो, अपरिचित हो, भोजन कर रही हो, वहाँ भी नहीं जाना चाहिए।
४. गाड़ी, नाव आदि में स्त्रियों को बैठाकर तब बैठना चाहिए। कहीं सवारी में या अन्यत्र जगह की कमी हो और कोई स्त्री वहाँ आये तो उठकर बैठने के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।
५. छिपकर, अश्लील-चित्र, पोस्टर आदि देखना बहुत बुरा है। स्त्रियों के सामने अपर्याप्त वस्त्रों में स्नान नहीं करना चाहिए और न उनसे स्त्री पुरुष के गुप्त रोगों की चर्चा करनी चाहिए।
६. यही बातें स्त्रियों के लिए भी हैं। विशेषतः उन्हें खिड़कियों या दरवाजों में खड़े होकर झाँकना नहीं चाहिए। और न गहने पहनकर या इस प्रकार सजधज कर निकलना चाहिए कि लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो।

ङ सर्वसाधारण के प्रति
१. यदि किसी के अंग ठीक नहीं - कोई काना, अंधा लंगड़ा या कुरूप है अथवा किसी में तुतलाने आदि का कोई स्वभाव है तो उसे चिढ़ाओ मत। उसकी नकल मत करो। कोई स्वयं गिर पड़े या उसकी कोई वस्तु गिर जाये, किसी से कोई भूल हो जाये, तो हँसकर उसे दुखी मत करो। यदि कोई दूसरे प्रान्त का तुम्हारे रहन-सहन में, बोलने के ढंग में भूल करता है। तो उसकी हँसी मत उड़ाओ।
२. कोई रास्ता पूछे तो उसे समझाकर बताओ और संभव हो तो कुछ दूर तक जाकर मार्ग दिखा आओ। कोई चिट्ठी या तार पढ़वाये तो रुक कर पढ़ दो। किसी का भार उससे न उठता हो तो उसके बिना कहे ही उठवा दो। कोई गिर पड़े तो उसे सहायता देकर उठा दो। जिसकी जैसी भी सहायता कर सकते हो, अवश्य करो। किसी की उपेक्षा मत करो।
३. अंधों को अंधा कहने के बदले सूरदास कहना चाहिए। इसी प्रकार किसी में कोई अंग दोष हो तो उसे चिढ़ाना नहीं चाहिए। उसे इस प्रकार बुलाना या पुकारना चाहिए कि उसको बुरा न लगे।
४. किसी भी देश या जाति के झण्डे, राष्ट्रीय गान, धर्म ग्रन्थ अथवा सामान्य महापुरुषों को अपमान कभी मत करो। उनके प्रति आदर प्रकट करो। किसी धर्म पर आक्षेप मत करो।
५. सोये हुए व्यक्ति केा जगाना हो तो बहुत धीरे से जगाना चाहिए।
६. किसी से झगड़ा मत करो। कोई किसी बात पर हठ करे व उसकी बातें आपको ठीक न भी लगें, तब भी उसका खण्डन करने का हठ मत करो।
७. मित्रों, पड़ोसियों, परिचतों को भाई, चाचा आदि उचित संबोधनों से पुकारो।
८. दो व्यक्ति झगड़ रहे हों तो उनके झगड़े को बढ़ाने का प्रयास मत करो। दो व्यक्ति परस्पर बातें कर रहे हों तो वहाँ मत आओ और न ही छिपकर उनकी बात सुनने का प्रयास करो। दो आदमी आपस में बैठकर या खड़े होकर बात कर रहे हों तो उनके बीच में मत जाओ।
९. आपने हमें पहचाना। ऐसे प्रश्न करके दूसरों की परीक्ष मत करो। आवश्यकता न हो तो किसीका नाम, गाँव, परिचय मत पूछो और कोई कहीं जा रहा हो तो ‘‘कहाँ जाते हो? भी मत पूछो।’’
१०. किसी का पत्र मत पढ़ो और न किसी की कोई गुप्त बात जानने का प्रयास करो।
११. किसी की निन्दा या चुगली मत करो। दूसरों का कोई दोष तुम्हें ज्ञात हो भी जाये तो उसे किसी से मत कहो। किसी ने आपसे दूसरे की निन्दा की हो तो निन्दक का नाम मत बतलाओ।
१२. बिना आवश्यकता के किसी की जाति, आमदनी, वेतन आदि मत पूछो।
१३. कोई अपना परिचित बीमार हो जाय तो उसके पास कई बार जाना चाहिए। वहाँ उतनी ही देर ठहरना चाहिए जिसमें उसे या उसके आस पास के लोगों को कष्ट न हो। उसके रोग की गंभीरता की चर्चा वहाँ नहीं करनी चाहिए और न बिना पूछे औषधि बताने लगना चाहिए।
१४. अपने यहाँ कोई मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो बहुत चिल्लाकर शोक नहीं प्रकट करना चाहिए। किसी परिचित या पड़ोसी के यहाँ मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो वहाँ अवश्य जाना व आश्वासन देना चाहिए।
१५. किसी के घर जाओ तो उसकी वस्तुओं को मत छुओ। वहाँ प्रतीक्षा करनी पड़े तो धैर्य रखो। कोई आपके पास आकर कुछ अधिक देर भी बैठै तो ऐसा भाव मत प्रकट करो कि आप उब गये हैं।
१७. किसी से मिलो तो उसका कम से कम समय लो। केवल आवश्यक बातें ही करो। वहाँ से आना हो तो उसे नम्रतापूर्वक सूचित कर दो। वह अनुरोध करे तो यदि बहुत असुविधा न हो तभी कुछ देर वहाँ रुको।

च. अपने प्रति
१. अपने नाम के साथ स्वयं पण्डित, बाबू आदि मत लगाओ।
२. कोई आपको पत्र लिखे तो उसका उत्तर आवश्यक दो। कोई कुछ पूछे तो नम्रतापूर्वक उसे उत्तर दो।
३. कोई कुछ दे तो बायें हाथ से मत लो, दाहिने हाथ से लो और दूसरे को कुछ देना हो तो भी दाहिने हाथ से दो।
४. दूसरों की सेवा करो, पर दूसरों की अनावश्यक सेवा मत लो। किसी का भी उपकार मत लो।
५. किसी की वस्तु तुम्हारे देखते, जानते, गिरे या खो जाये तो उसे दे दो। तुम्हारी गिरी हुई वस्तु कोई उठाकर दे तो उसे धन्यवाद दो। आपको कोई धन्यवाद दे तो नम्रता प्रकट करो।
६. किसी को आपका पैर या धक्का लग जाये तो उससे क्षमा माँगो। कोई आपसे क्षमा माँगे तो विनम्रता पूर्वक उत्तर देना चाहिए, अकड़ना नहीं चाहिए। क्षमा माँगने की कोई बात नहीं अथवा आपसे कोई भूल नहीं हुई कहकर उसे क्षमा करना / उसका सम्मान करना चाहिए।
७. अपने रोग, कष्ट, विपत्ति तथा अपने गुण, अपनी वीरता, सफलता की चर्चा अकारण ही दूसरों से मत करो।
८. झूठ मत बोलो, शपथ मत खाओ और न प्रतीक्षा कराने का स्वभाव बनाओ।
९. किसी को गाली मत दो। क्रोध न करो व मुख से अपशब्द मत निकालो।
१०. यदि किसी के यहाँ अतिथि बनो तो उस घर के लोगों को आपके लिये कोई विशेष प्रबन्ध न करना पड़े ऐसा ध्यान रखो। उनके यहाँ जो भोजनादि मिले, उसकी प्रशंसा करके खाओ। वहाँ जो स्थान आपके रहने को नियत हो वहीं रहो। भोजन के समय उनको आपकी प्रतीक्षा न करनी पड़े। आपके उठने-बैठने आदि से वहाँ के लोगों को असुविधा न हो। आनको जो फल, कार्ड, लिफाफे आदि आवश्यक हों, वह स्वयं खरीद लाओ।
११. किसी से कोई वस्तु लो तो उसे सुरक्षित रखो और काम करके तुरंत लौटा दो। जिस दिन कोई वस्तु लौटाने को कहा गया हो तो उससे पहले ही उसे लौटा देना उत्तम होता है।
१२. किसी के घर जाते या आते समय द्वार बंद करना मत भूलो। किसी की कोई वस्तु उठाओ तो उसे फिर से यथास्थान रख देना चाहिए।

छ. मार्ग में
१. रास्ते में या सार्वजनिक स्थलों पर न तो थूकें, न लघुशंकादि करें और न वहाँ फलों के छिलके या कागज आदि डालें। लघु शंकादि करने के नियत स्थानों पर ही करें। इसी प्रकार फलों के छिलके, रद्दी कागज आदि भी एक किनारे या उनके लिये बनाये स्थलों पर डालें।
२. मार्ग में कांटे, कांच के टुकड़े या कंकड़ पड़े हो तो उन्हें हटा दें।
३. सीधे शान्त चलें। पैर घसीटते सीटी बजाते, गाते, हँसी मजाक करते चलना असभ्यता है। छड़ी या छत्ता घुमाते हुए भी नहीं चलना चाहिए।
४. रेल में चढ़ते समय, नौकादि से चढ़ते-उतरते समय, टिकट लेते समय, धक्का मत दो। क्रम से खड़े हो और शांति से काम करो। रेल से उतरने वालों को उतर लेने दो। तब चढ़ो। डिब्बे में बैठे हो तो दूसरों को चढ़ने से रोको मत। अपने बैठने से अधिक स्थान मत घेरो।
५. रेल के डिब्बे में या धर्मशाला में वहाँ की किसी वस्तु या स्थान को गंदा मत करो। वहाँ के नियमों का पूरा पालन करो।
६. रेल के डिब्बों में जल मत गिराओ। थूको मत, नाक मत छिनको, फलों के छिलके न गिराओ, कचरा आदि सबको डिब्बे में बने कूड़ापात्र में ही डालो।
७. रेल में या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर धू्रमपान न करो।
८. बाजार में खड़े-खड़े या मार्ग चलते कुछ खाने लगना बहुत बुरा स्वभाव है।
९. जहाँ जाने या रोकने के लिए तार लगे हों, दीवार बनी हो, काँटे डाले गये हों उधर से मत जाओ।
१०. एक दूसरे के कंधे पर हाथकर रखकर मार्ग में मत चलो।
११. जिस ओर से चलना उचित हो किनारे से चलो। मार्ग में खड़े होकर बातें मत करो। बात करना हो तो एक किनारे हो जाओ।
१२. रास्ता चलते इधर-उधर मत देखो। झूमते या अकड़ते मत चलो। अकारण मत दौड़ो। सवारी पर हो तो दूसरी सवारी से होड़ मत करो।

ज. तीर्थ स्थल सभा स्थल में
१. कहीं जल में कुल्ला मत करो और न थूको। अलग पानी लेकर जलाशय से कुछ दूर शौच के हाथ धोओ तथा कुल्ला करो और मल मूत्र पर्याप्त दूरी पर त्यागो।
२. तीर्थ स्थान के स्थान पर साबुन मत लगाओ। वहाँ किसी प्रकार की गंदगी मत करो। नदी के किनारे टट्टी-पेशाब मत करो।
३. देव मंदिर में देवता के सामने पैर फैलाकर या पैर पर पैर चढ़ाकर मत बैठो और न ही वहाँ सोओ। वहाँ शोरगुल भी मत करो।
४. सभा में या कथा में परस्पर बात चीत मत करो। वहाँ कोई पुस्तक या अखबार भी मत पढ़ो। जो कुछ हो रहा हो उसे शान्ति से सुनो।
५. किसी दूसरे के सामने या सार्वजनिक स्थल पर खांसना, छींकना या जम्हाई आदि लेना पड़ जाये तो मुख के आगे कोई वस्त्र रख लो। बार-बार छींक या खाँसी आती हो या अपानवायु छोड़ना हो तो वहाँ से उठकर अलग चले जाना चाहिए।
६. कोई दूसरा अपानवायु छोड़े खांसे या छींके तो शान्त रहो। हँसो मत और न घृणा प्रकट करो।
७. यदि तुम पीछे पहुँचे हो तो भीड़ में घुसकर आगे बैठने का प्रयत्न मत करो। पीछे बैठो। यदि तुम आगे या बीच में बैठे हो तो सभा समाप्त होने तक बैठे रहो। बीच में मत उठो। बहुत अधिक आवश्यकता होने पर इस प्रकार धीरे से उठो कि किसी को बाधा न पड़े।
८. सभा स्थल में या कथा में नींद आने लगे तो वहाँ झोंके मत लो। धीरे से उठकर पीछे चले जाओ और खड़े रहो।
९. सभा स्थल में, कथा में बीच में बोलो मत कुछ पूछना, कहना हो तो लिखकर प्रबन्धकों को दे दो। क्रोध या उत्साह आने पर भी शान्त रहो।
१०. किसी सभा स्थल में किसी की कहीं टोपी, रूमाल आदि रखी हो तो उसे हटाकर वहाँ मत बैठो।
११. सभा स्थल के प्रबंधकों के आदेश एवं वहाँ के नियमों का पालन करो।
१२. किसी से मिलने या किसी सार्वजनिक स्थान पर प्याज, लहसुन अथवा कोई ऐसी वस्तु खाकर मत जाओ जिससे तुम्हारे मुख से गंध आवे। ऐसा कोई पदार्थ खाया हो तो इलायची, सौंफ आदि खाकर जाना चाहिए।
१३. सभा में जूते बीच में न खोलकर एक ओर किनारे पर खोलो। नये जूते हों तो एक-एक जूता अलग-अलग छिपाकर रख दो।

झ. विशेष सावधानी
१. चुंगी, टैक्स, किराया आदि तुरंत दे दो। इनको चुराने का प्रयत्न कभी मत करो।
२. किसी कुली, मजदूर, ताँगे वाले से किराये के लिए झगड़ो मत। पहले तय करके काम कराओ। इसी प्रकार शाक, फल आदि बेचने वालों से बहुत झिकझिक मत करो।
३. किसी से कुछ उधार लो तो ठीक समय पर उसे स्वयं दे दो। मकान का किराया आदि भी समय पर देना चाहिए।
४. यदि कोई कहीं लौंग, इलायची आदि भेंट करे तो उसमें से एक दो ही उठाना चाहिए।
५. वस्तुओं को धरने उठाने में बहुत आवाज न हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए। द्वार भी धीरे से खोलना बंद करना चाहिए। दरवाजा खोलो तब उसकी अटकनें लगाना व बंद करो तब चिटकनी लगाना मत भूलो। सब वस्तुएँ ध्यान से साथ अपने-अपने ठिकाने पर ही रखो, जिससे जरूरत होने पर ढूंढना न पड़े।
६. कोई पुस्तक या समाचार पत्र पढ़ना हो तो पीछे से या बगल से झुककर मत पढ़ो। वह पढ़ चुके तब नम्रता से माँग लो।
७. कोई तुम्हारा समाचार पत्र पढ़ना चाहे तो उसे पहले पढ़ लेने दो।
८. जहाँ कई व्यक्ति पढ़ने में लगे हों, वहाँ बातें मत करो, जोर से मत पढ़ो और न कोई खटपट का शब्द करो।
९. जहाँ तक बने किसी से माँगकर कोई चीज मत लाओ, जरूरत हो तभी लाओ व उसे सुरक्षित रखो और अपना काम हो जाने पर तुरंत लौटा दो। बर्तन आदि हो तो भली भाँति मंाजकर तथा कपड़ा, चादर आदि हो तो धुलवाकर वापस करो।
१०. किसी भी कार्य को हाथ में लो तो उसे पूर्णता तक अवश्य पहुँचाओ, बीच में/अधूरा मत छोड़ो।

ञ. बात करने की कला
अपनी बात को ठीक से बोल पाना भी एक कला है। बातचीत में जरूरी नहीं है कि बहुत ज्यादा बोला जाय। साधारण बात भी नपे-तुले शब्दों में की जाए तो उसका गहरा असर होता है।
अपनी बात को नम्रता पूर्वक, किन्तु स्पष्ट व निर्भयता वे बोलने का अभ्यास करें। जहाँ बोलने की आवश्यकता हो वहाँ अनावश्यक चुप्पी न साधें। स्वयं को हीन न समझें। धीरे-धीरे, गम्भीरता पूर्वक, मुस्कराते हुए, स्पष्ट आवाज में, सद्भावना के साथ बात करें। मौन का अर्थ केवल चुप रहना नहीं वरन उत्तम बातें करना भी है। बातचीत की कला के कुछ बिन्दु नीचे दिये गये हैं इन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास करें।
१. बेझिझक एवं निर्भय होकर अपनी बात को स्पष्ट रूप से बोलें।
२. भाषा में मधुरता, शालीनता व आपसी सद्भावना बनी रहे।
३. दूसरों की बात को भी ध्यान से व पूरी तरह से सुनें, सोचें-विचारें और फिर उत्तर दें। धैर्यपूर्वक किसी को सुनना एक बहुत बड़ा सद्गुण है। बातचीत में अधिक सुनने व कम बोलने के इस सद्गुण का विकास करें। सामने देख कर बात करें। बात करते समय संकोच न रखें, न ही डरें।
४. बोलते समय सामने वाले की रूचि का भी ध्यान रखें। सोच-समझ कर, संतुलित रूप से अपनी बात रखें। बात करते हुए अपने हावभाव व शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए बात करें।
५. बातचीत में हार्दिक सद्भाव व आत्मीयता का भाव बना रहे। हँसी-मज़ाक में भी शालीनता बनाए रखें।
६. उपयुक्त अवसर देखकर ही बोलें। कम बोलें। धीरे बोलें। अपनी बात को संक्षिप्त और अर्थपूर्ण शब्दों में बताएँ। वाक्यों और शब्दों का सही उच्चारण करें।
७. किसी बात की जानकारी न होने पर धैयपूर्वक, प्रश्न पूछकर अपना ज्ञान बढ़ाएँ।
८. सामने वाला बात में रस न ले रहा हो तो बात का विषय बदल देना अच्छा है।
९. पीठ पीछे किसी की निन्दा मत करो और न सुनो। किसी पर व्यंग मत करो।
१०. केवल कथनी द्वारा ही नहीं वरन करनी द्वारा भी अपनी बात को सिद्ध करें।
११. उचित मार्गदर्शन के लिए स्वयं को उस स्थिति में रखकर सोचें। इससे सही निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे। किसी की गलत बात को सुनकर उसे तुरंत ही अपमानित न कर, उस समय मौन रहें। किसी उचित समय पर उसे अलग से नम्रतापूर्वक समझाएँ।
१२. दो लोग बात कर रहे हों तो बीच में न बोलें। बिन मांगी सलाह न दें। समूह में बात हो रही हो तो स्वीकृति लेकर अपनी बात संक्षिप्त में कहना शालीनता है।
१३.प्रिय मित्र, भ्राता श्री, आदरणीया बहनजी, प्यारे भाई, पूज्य दादाजी, श्रद्धेय पिताश्री, वन्दनीया माता जी आदि संबोधनों से अपनी बात को प्रारंभ करें।
१४. मीटिंग के बीच से आवश्यक कार्य से बाहर जाना हो तो नम्रता पूर्वक इजाजत लेकर जाएँ। बहस में भी शांत स्वर में बोलो। चिल्लाने मत लगो। दूर बैठे व्यक्ति के पास जाकर बात करो, चिल्लाओ मत।
१५. बात करते समय किसी के पास एकदम सटो मत और न उसके मुख के पास मुख ले जाओ। दो व्यक्ति बात करते हों तो बीच में मत बोलो।
१६. किसी की ओर अंगुली उठाकर मत दिखाओ। किसी का नाम पूछना हो तो आपका शुभ नाम क्या है। इस प्रकार पूछो किसी का परिचय पूछना हो तो, आपका परिचय? कहकर पूछो। किसी को यह मत कहो कि आप भूल करते हैं। कहो कि आपकी बात मैं ठीक नहीं समझ सका।
१७. जहाँ कई व्यक्ति हो वहाँ काना फूसी मत करो। किसी सांकेतिक या ऐसी भाषा में भी मत बोलो जो आपके बोलचाल की सामान्य भाषा नहीं है और जिसे वे लोग नहीं समझते। रोगी के पास तो एकदम काना फूँसी मत करो, चाहे आपकी बात का रोगी से कोई संबंध हो या न हो।
१८. जो है सो आदि आवृत्ति वाक्य का स्वभाव मत डालो । बिना पूछे राय मत दो।
१९. बहुत से शब्दों का सीधा प्रयोग भद्दा माना जाता है। मूत्र त्याग के लिए लघुशंका, मल त्याग के लिए दीर्घशंका, मृत्यु के लिए परलोकगमन आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।


ब्रिटेन के प्रसिद्ध साहित्यकार ‘जार्ज बर्नार्ड शा’ शाकाहारी थे। एक बार वे एक ऐसे भोज में शामिल हुए जिसमें सलाद के अलावा कुछ भी शाकाहारी नहीं था। वे केवल सलाद ही खाने लगे। यह देखकर उनके पास बैठे सज्जन बोले ‘मिस्टर शा, इतनी स्वादिष्ट चीजों के होते हुए भी आप यह क्या खा रहे हैं?’
जार्ज बर्नार्ड शा ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया, ‘मेरा पेट कब्रिस्तान नहीं है महोदय! इसमें केवल साग-सब्जियों के लिये जगह है, मुर्दों के लिये नहीं।’


२. पढ़ाई में ढिलाई के कुछ कारणों एवं उनके निवारण पर चिन्तन

१. विषय कठिन लगनाः- अधिक परिश्रम करें। अपने प्रयत्नों को आवश्यकता अनुसार बढ़ायें। थोड़ा विश्राम लेकर फिर आगे बढ़ें। बीच में थोड़ा मनोविनोद कर लें।
२. प्रारंभिक शिक्षा अपूर्ण अथवा दोषयुक्त होना, नींव कच्ची होनाः- प्रारम्भिक शिक्षा कमजोर होने पर पढ़ा हुआ समझ में नहीं आना, उस विषय में अरूचि के कारण याद नहीं रहना आदि स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में उन्नति के लिए आवश्यक है कि पहले की कक्षाओं की उस विषय की पुस्तकों को भली प्रकार से दोहराया जाए। भाषा में शब्द भण्डार व व्याकरण का ज्ञान बढ़ाया जाए। गणित व विज्ञान के सिद्धान्त समझे जाएँ गणित हेतु पहाड़ों (ञ्जड्डड्ढद्यद्गह्य) को ३० की संख्या तक कण्ठस्थ किया जाए। दुबारा मजबूत किया जाए, अध्ययन का विषय कुछ भी हो, समय -समय पर दोहरा लेने से निपुणता में वृद्धि हो जाती है तथा शिक्षण काल की एक गम्भीर कठिनाई दूर करने में मदद मिलती है।
३. पढ़ाई की गलत रीति का अवलम्बनः- शुरू की कक्षाओं में या प्रारम्भिक पढ़ाई में गलत तरीके अपनाने पर वे विकास की सीमा बाँध देते हैं। ऐसे में पढ़ने की विधियों में परिवर्तन करें। जैसे किसी विषय में यदि केवल महत्तवपूर्ण अंश पढ़ने का अभ्यास हो तो ऐसे में विषय का ज्ञान अधूरा रह जाता है। अतः संपूर्ण विषय पढ़ें। नोट बनाना प्रारम्भ करें। नोट लेने की अपनी विधि में परिवर्तन करें। आप जो भी परिवर्तन या विकल्प सोच सकते हों, उन्हें बारी-बारी आजमा कर देखें।
समझ-बूझकर योजना बनाएँ व प्रयोग की तैयारी करें। फिर पढ़ाई में बिना किसी तैयारी के कूद पड़ने का प्रयोग करें, बड़ी तत्परता से पढ़ें... फिर उपेक्षा से पढ़ें... रात में देर तक पढ़ाई करें...सबेरे जल्दी पढ़ें, हर अवस्था में परिणामों को देखें तथा अपने लिए सर्वोत्तम विधि को खोज लें।
४. रूचि का कम होनाः— पढ़ाई मन लगाकर न करना, सीखने की इच्छा-शक्ति दुर्बल हो जाना, प्रयास कमजोर पड़ जाना तरक्की की गति पहले जैसी न रहना आदि। इसके लिए चाहे वास्तविक शौक न भी हो तो भी कार्य में मन लगाएँ। यह बनावटी रूचि यथासमय वास्तविक रूचि में बदल जाती है। अपने उत्साह की अग्नि को तेजी से जलता रखें, अपनी पढ़ाई में आनन्द लेने का अभ्यास करें। इस पढ़ाई के (स्वयं के लिए) महत्व की कल्पना करें।
५. साधारणता को स्वीकार कर लेनाः— जो पढ़ाई हो रही है सो ठीक है...पास तो हो ही जाएँगे आदि ऐसे में आगे उन्नति करने के लिए आत्म-प्रतियोगिता एक बड़ी प्रभावकारी प्रेरणा है। आत्म-प्रतियोगिता अर्थात अपने ही पिछले दिन या पिछले सप्ताह में की पढ़ाई से उन्नति करना। प्रगति का ग्राफ बनाएँ। किसी आदर्श विद्यार्थी से भी ईर्ष्या रहित प्रतियोगिता कर सकते हैं। वैसे दूसरों के साथ प्रतियोगिता करने के बजाए आत्म-प्रतियोगिता अच्छी है, क्योंकि इससे कमजोर व बुद्धिमान दोनों को स्फूर्ति मिलती है।
६. थकानः- मानसिक व शारीरिक थकान के कारण भी पढ़ाई में शिथिलता आती है। वास्तव में शरीर के अंग प्रायः १०० वर्ष या उससे अधिक समय सक्षमता-पूर्वक बिना रूके निरंतर कार्य करते हैं। बिना थके व बिना रूके। जैसे हृदय, गुर्दे, फेफड़े आदि। ऐसे ही मस्तिष्क भी निरंतर कार्य कर सकता है। वास्तव में थकान का विचार ही थकान लाता है, इस बात पर चिन्तन एवं प्रयोग करें।
७. थकान का कारणः- मानिसक थकान का मुख्य कारण है- जी ऊबना। इससे कार्यक्षमता, पढ़ाई की गति कम हो जाती है, ऐसे में विषय बदल कर पढ़े, खुली हवा में थोड़ी कसरत कर थकावट की भावना को दूर करें। रूचिकर विषय को प्रबल उत्साह या शौक से पढ़ना शुरू करने पर थकान एक जादू समान उड़ जाएगी।
८. अगर मन को रूचिपूर्वक पढ़ाई में लगाए रखा जाए। पढ़ते समय शरीर को किसी प्रकार का परिश्रम या असुविधा न हो तो न थकावट होगी, ना ही पढ़ने की क्षमता में कोई कमी आयेगी।
९. उचित मात्रा में प्रकाश हो, प्रकाश की दिशा बांये कंधे के ऊपर से हो, कमरा हवादार हो, शांत हो, कुर्सी-टेबल ठीक ऊँचाई व आकार के हों। पढ़ते समय शरीर के अंग ढीले रहें, उन पर कम से कम खिंचाव पड़े। इससे थकान को दूर रखने में मदद मिलेगी।
१०. उत्तम रीति से संचालित शिक्षा जिसमें सीखने का संकल्प किसी प्रबल प्रेरणा से हो तो वह थकावट दूर रखने में बहुत प्रभावशाली होती है। प्रबल विचारों में थकान पर विजय पाने की बड़ी शक्ति भरी रहती है। जैसे देश का गौरव बढ़ाने की भावना, माँ-बाप का नाम रोशन करने की भावना।
११. मेरिट सूची में आने की महत्वाकांक्षा, पढ़ाई में उत्कृष्टता पाने की अभिलाषा, किसी को प्रसन्न करने की इच्छा, कर्त्तव्य पालन का संकल्प, लोक सेवा की कामना मानिसक व शारीरिक दक्षता बढ़ाने वाले हैं। एक प्रबल विचार, चाहे वह कुछ भी हो, मनुष्य को असाधारण काम करने के लिए प्रेरित करता है। किसी उच्च आदर्श या भावना से प्रेरित होकर मनुष्य दुःख और कष्ट भूल जाता है और कठिनाइयों का सामना करते हुए प्रयत्नशील रहता है, जब तक कि वह अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेता। जैसे जन्मभूमि की आजादी, सत्य के मार्ग पर चलने का संकल्प।
१२. थकान व शिथिलता के बावजूद यदि दृढ़तापूर्वक प्रयत्न जारी रखा जाए तो शक्ति भी पुनः लौट आती है। अरूचि और थकावट की अवहेलना कर काम में डटे रहा जाए तो हम मानसिक शक्ति के महान् स्रोतों को पा सकते हैं। आशातीत, उच्चतम और चमत्कारपूर्ण ढंग से कार्यों को पूर्ण कर सकते हैं।
१३. क्रोध या आवेश में व्यक्ति असाधारण शक्ति का प्रदर्शन करता है। एक गाय ममतावश बछड़े की रक्षा के लिए शेर से भी भिड़ जाती है। माता अपनी संतान को खतरे में देख शेरनी के समान हो जाती है। किन्हीं संतो, विचारकों की प्रेरणा से व्यक्ति बड़े विलक्षण काम कर डालते हैं। अतः सच्चाई तो यह है कि हममें से अधिकांश लोग अपनी दक्षता की चरम सीमा तक कभी नहीं पहुँचते। अलबेलेपन में, निचले स्तर पर ही, अज्ञात जीवन जीकर, इस संसार से विदा हो जाते हैं।
१४. सभी के भीतर गुप्त शक्तियों के भण्डार दबे रहते हैं। इन खजानों को पाने का रहस्य है, कि ठहराव काल में भी शक्तियों की पुनरावृत्ति अपने कार्य को रोके नहीं, जब तक की शक्ति की दूसरी पर्त ना खुल जाए। ऐसे समय में शवासन द्वारा शरीर को तथा ध्यान द्वारा मन को थोड़ी देर विश्राम देना अत्यंत उपयोगी है। लगातर कठिन परिश्रम से ही यह योग्यता प्राप्त होती है कि आप अपनी गुप्त शक्तियों का कठिन कार्य के समय इच्छानुसार आह्वान कर सकें।

अ. पढ़ाई में अच्छे अंक कैसे लाएँ?
इसके लिए एक कार्यशाला सम्पन्न की गई। कार्यशाला में विद्यार्थियों के कुल बारह ग्रुप बनाये गये थे। जिनमें निम्र विषयों पर विचार निष्कर्ष निकाले गयेः—
१.पढ़ाई में अच्छे अंक पाने के लिए आप क्या-क्या करेंगे?
२. अगर आपको कुछ दिनों के लिए आपकी कक्षा में लीडर का रोल करने के लिए कहा जाय तो आप क्या-क्या करेंगे?
३. एक आदर्श विद्यार्थी एवं आदर्श नागरिक के रूप में आपके क्या कर्त्तव्य है?
४. घर में अपनी माँ एवं पिता जी की आप क्या-क्या मदद कर सकते हैं?
५. आपके आदर्श महापुरुष कौन-कौन हैं एवं उनकी किन विशेषताओं /प्रेरणओं से आप प्रभावित हुए?
६. व्यवहार कला (्रह्म्ह्ल शद्घ क्चद्गद्धड्ड1द्बशह्वह्म्) नीचे ‘‘पढ़ाई में अच्छे अंक पाने के लिए’’ विषय पर जो विचार-विमर्श हुआ उनके निष्कर्ष दिये जा रहे हैं।

ब. नियमित पढ़ाई के दिनों में
१. स्कूल में प्रतिदिन नियमपूर्वक उपस्थिति देंगे। प्रयास करेंगे कि कभी अनुपस्थित न हों।
२. दृढ़ संकल्प करेंगे कि परीक्षा में इतने प्रतिशत अंक लाने ही हैं, फिर उस अनुसार तैयारी में जुट जायेंगे।
३. अपनी पढ़ाई को योजनाबद्ध तथा व्यवस्थित बना कर करेंगे। समय का एक दिनचर्या चार्ट बनायेंगे उसका दृढ़ता पूर्वक पालन करेंगे।
४. स्मरणशक्ति बढ़ाने के विभिन्न तरीकों को सीखकर उनका अपनी पढ़ाई में प्रयोग करेंगे। पूरा मन लगाकर पढ़ाई का अभ्यास करेंगे।
५. पढ़ाई शुरु करने से पहले मन ही मन ईश्वर का स्मरण करेंगे (तमसो मा ज्योतिर्गमय..)
६. क्लास में शिक्षक जो पढ़ाते हैं उसे ध्यान पूर्वक सुनेंगे तथा नोट्स बनायेंगे। शिक्षक जो पढ़ाने वाले होंगे उसे पहले से घर पर पढ़ लेंगे।
७. किसी प्रश्न का हल न आने पर अथवा कोई बात समझ में न आने पर अपने शिक्षक, माता-पिता अथवा योग्य मित्रों की मदद लेंगे।
८. हम पढ़ाई में रुचि पैदा करेंगे। समझते-हुए पढ़ेंगे। रटेंगे नहीं लेकिन मूल बातों को स्पष्ट करेंगे। अवसर आने पर उसका अपने जीवन में प्रयोग भी करते रहेंगे।
९. पूरे साल नियमित पढ़ाई करेंगे ताकि परीक्षा के पहले ज्यादा पढ़ाई करने का तनाव न रहे। केवल दोहराने व अभ्यास की जरूरत रहे।
१०. टी.वी., रेडियो, टेपरिकार्डर आदि देखते-सुनते, लेटे-लेटे या आराम कुर्सी पर बैठ कर पढ़ाई नहीं करेंगे। आलस्य में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे।
११. जब मित्रों से मिलना हो तब उनके साथ पढ़ाई के विषय में चर्चा करेंगे।
१२. हम अपने लिखने की गति बढ़ायेंगे ताकि प्रश्न पत्र समय से पूरा कर सकें। समय कम होने पर चित्रों को मुक्तहस्त से बनायेंगे। इसका पहले से अभ्यास करेंगे।
१३. अपनी हस्तलिपि को गति में लिखते हुए भी सुंदर बनाने का अभ्यास करेंगे ताकि पेपर्स अधूरे न छूट जायें।
१४. पढ़ने-लिखने में एकाग्रता बढ़ाने के लिए प्रतिदिन ध्यान, प्राणायाम व योग साधना का अभ्यास करेंगे।
१५. शरीर को खान-पान की शुद्धि तथा व्यायाम आदि द्वारा स्वस्थ रखेंगे ताकि बीमारी आदि से शारीरिक, मानसिक व पढ़ाई का नुक्सान न उठाना पड़े।

स. परीक्षा के दिनों में
१. सकारात्मक चिंतन करेंगे कि हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही रहेंगे।
२. हर विषय के लिए संक्षिप्त नोट्स की एक छोटी पॉकेट डायरी बनायेंगे। उनमें महत्वपूर्ण बिन्दु लिखेंगे। जब-जब भी समय मिलेगा उसे देखकर मन ही मन विस्तार से पढ़ाई का मनन करेंगे।
३. पिछली बार जिस भी विषय में अंक कम आये होंगे, उस पर अधिक मेहनत करेंगे।
४. पहले के पेपर्स को परीक्षा हाल की तरह अभ्यास के रूप में हल करेंगे।
५. अगर कोई पेपर अच्छा न गया हो तो उस पर अनावश्यक चिंता करने के बजाए अगले पेपर्स की और अच्छी तरह तैयारी करने के लिए संकल्प पूर्वक जुट जायेंगे।
६. प्रवेश पत्र पर लिखें निर्देशों को पहले से ही अच्छी तरह पढ़ लेंगे।

द. परीक्षा हॉल में
१. परीक्षा हॉल में हमारे केवल दो साथी हैं (१) हमारी वर्ष भर की नियमित पढ़ाई (२) हमारा आत्म विश्वास। यह दोनों साथ होने पर भय की कोई बात नहीं।
२. परीक्षा देने जाते समय आत्म विश्वास पूर्वक सोचेंगे कि मैंन पढ़ा है उसी में से पेपर आने वाला है।
३. पेपर लिखने के पहले हम दो क्षण ईश्वर का स्मरण करेंगे फिर बिना घबराये पेपर को हल करना प्रारम्भ करेंगे।
५. प्रश्नों को ध्यान पूर्वक पढ़कर जो पूछा गया है उसी का जवाब देंगे। अनावश्यक नहीं।
६. प्रश्न पत्र डरते हुए हल नहीं करेंगे बल्कि आत्म विश्वास के साथ करेंगे। अपने आत्म बल व इच्छा शक्ति को बढ़ायेंगे।
७. जो प्रश्न अच्छी तरह से आते होंगे उन्हें पहले हल करेंगे, शेष उनके बाद। आवश्यकता अनुसार इनके लिए जगह खाली छोड़कर आगे के सहज प्रश्न पहले हल करेंगे।
८. परीक्षा हॉल में इधर उधर देखकर, अन्य अनावश्यक कार्यों में समय व्यर्थ न गंवायेंगे। अनुचित तरीकों से सफलता प्राप्त करने के बजाय अपने परिश्रम व आत्मबल द्वारा प्राप्त कम अंकों पर ही संतोष करेंगे। आगे और अधिक मेहनत कर उसकी भरपाई का प्रयास करेंगे।
९. परीक्षा देने के बाद पेपर के बारे में अनावश्यक बातचीत से आत्मविश्वास कम होता है। अतः सीधे घर जाकर अगले पेपर की तैयारी में मन लगायेंगे।

३. विद्यार्थी जीवन की समस्यायें व उनका निवारण
आप क्या करेंगे...?
१. परीक्षा में नंबर कम आने पर?
उत्तर- आगे से पूरी मेहनत से पढ़ाई करने का संकल्प लेंगे। किसी अन्य को दोष न देंगे। अपने में रही कमियों पर सोचेंगे- उन्हें दूर करने का प्रयास करेंगे। अपने में परिवर्तन करने के संकल्प को दृढ़ किन्तु नम्र शब्दों में माँ-पिताजी के सामने व्यक्त करेंगे।
२. कक्षा में कुछ बच्चों का झगड़ा होने पर?
उत्तर- उन्हें अलग करेंगे। झगड़ा प्यार से सुलझाने का प्रयास करेंगे। शिक्षक को सूचित करेंगे।
३. किसी के द्वार बिना कारण अपशब्द कहने पर?
उत्तर- एक हल्की सी मुस्कान के साथ उसकी उपेक्षा करेंगे। उसका क्रोध शांत होने पर उसे अकेले में प्यार से समझायेंगे .. अगर स्वयं में कोई कमी होगी तो उसे दूर करेंगे। मौन रहेंगे।
४. परीक्षा भवन में किसी बच्चे को नकल करते देखने पर?
उत्तर - उस पर दया आयेगी। भविष्य के लिए हम अपनी पढ़ाई को और भी सुव्यवस्थित एवं नियमित करेंगे ताकि स्वयं के लिए ऐसी स्थिति न आये। परीक्षा भवन से बाहर आने पर श्रम एवं नैतिकता के महत्व पर उसे शुभकामना के दो शब्द कहेंगे।
५. आपकी पुस्तक आपका मित्र फटी हालत में लौटता है?
उत्तर - पुस्तक को वापस लेते हुए गंभीर व मौन रहेंगे। उचित समय पर उसे शिष्टाचार के दो शब्द प्यार से व नम्रतापूर्वक बतायेंग। भविष्य में उसे कुछ देने से पहले सावधान करेंगे।
६. किसी गलती पर घर या स्कूल में डाँट पड़ने पर?
उत्तर- गलती के लिए तुरंत नम्रतापूर्वक क्षमा मांगेंगे। भविष्य में गलती न करने का उन्हें अपना संकल्प बतायेंगे। मन ही मन अपनी गलती पर पश्चात् करेंगे।
७. होमवर्क समय पर पूरा न होने पर कक्षा में?
उत्तर- वास्तविक कारण बताकर शिक्षक से क्षमा माँगेंगे। अगले दिन पूरा कर लाने का संकल्प बतायेंगे। खेलकूद-टी.वी. या नींद में कमी करके भी होमवर्क समय पर पूरा कर लेंगे।
८. स्कूल में आपका बैग या कुछ सामान चोरी हो जाने पर?
उत्तर- कक्षा में अच्छी तरह चैक कर लेंगे। मित्रों को पूछेंगे। शिक्षक को सूचित करेंगे। नोटिस बोर्ड पर सूचित करेंगे। खोया-पाया काउण्टर पर तलाश करेंगे।
९. कक्षा में कुछ बच्चों द्वारा सबके साथ अक्सर दुर्व्यवहार करते रहने पर?
उत्तर- संभव हुआ तो उन्हें समझायेंगे । गंभीर परिणामों की चेतावनी देंगे। शिक्षक को सूचित करेंगे। माता-पिता को सूचित करेंगे।
१०. परीक्षा के दिन घर में मेहमान आ जाने पर?
उत्तर- हम उनका खुशी से स्वागत करेंगे। फिर उन्हें बड़ों के भरोसे छोड़ अपनी परीक्षा की तैयारी करेंगे। संभव हुआ तो पढ़ाई के लिए अपने मित्र के पास चले जायेंगे।
११. माँ के द्वारा दूसरों के समाने डाँटने पर?
उत्तर- गंभीर व मौन रहते हुए अपने आवश्यक कार्य में लग जायेंगे। माँ से अकेले में अपनी नाराजगी व्यक्त करेंगे। नम्र किन्तु दृढ़ शब्दों में आगे से ऐसा न करने का निवेदन करेंगे।
१२. अपने मित्र के साथ झगड़ा हो जाने पर?
उत्तर - स्थिति शांत हो जाने के बाद उचित समय पर मित्र से बात करने के लिए कुछ समय माँगेंगे। गलतफहमी को दूर करने की कोशिश करेंगे। स्वयं की गलती को दूरे करेंगे। कुछ सहन करते हुए टकराव का रास्ता अपनाने के बजाय मित्रता को निभाने का प्रया करेंगे।
१३. टी.वी. देखते समय चैनल के बारे में छोटों/बड़ों के साथ आपका मतभेद होने पर?
उत्तर- बड़ों का सम्मान रखते हुए/छोटों से स्नेह करते हुए हम त्याग करेंगे। विचार करेंगे कि टी.वी. भूत ने हमारे समय, पढ़ाई, स्वास्थ्य, धन आदि का कितना नुकसान किया है। चरित्र एवं मन को कितना दूषित किया है। इसके कारण हम एक कमरे में बैठे हुए भी एक दूसरे के दिलों से कितने दूर हो गये हैं अतः इसको तो दूर से सलाम करने में ही भलाई है।
१४. आपके मित्र के मैरिट में प्रथम स्थान लाने पर?
उत्तर- उसे दिल से बधाई देंगे। स्वयं पर उसका मित्र होने का गर्व अनुभव करेंगे। उससे प्रेरणा लेकर स्वयं भी ऊँचा उठने का प्रयास करेंगे।
१५. जब कभी आपको ऐसा लगे कि आपको अंक कम दिये गये हैं या शिक्षक ने किसी बात पर आपके साथ पक्षपात किया है?
उत्तर- हम शिक्षक का आदर्श स्वरूप ही सामने रखेंगे। उनके हर निर्णय में अपना कल्याण समझेंगे। अच्छे अंक लाने के लिए और मेहनत करेंगे। आदर्श विद्यार्थी बनने में स्वयं में कोई कसर नहीं रखेंगे। शिकायतें तो वे करते हैं जो मेहनत से जी चुराते हैं।
१६. आप अपने पढ़ने के स्थान अथवा पढ़ाई का कमरा व आसपास का स्थान कैसा रखना चाहेंगे?
उत्तर- साफ-सुथरा, व्यवस्थित। कोई भी वस्तु या पुस्तक अस्त-व्यस्त न पड़ी होकर अपने स्थान पर हो। पुस्तकों पर कव्हर चढ़ें हों। पन्ने निकले हुए या फटे-टूटे-मुड़े हुए न हों। कमरे की सफाई व व्यवस्था आदि हम स्वयं करेंगे।
१७. स्वयं के बीमार होन पर?
उत्तर- बीमारी होने के कारण पर चिंतन करें। कारणों को दूर करेंगे। उपवास व आराम द्वारा जल्दी स्वस्थ होने का प्रयास करेंगे। यथासम्भव दूसरों पर बोझ नहीं बनेंगे। अनावश्यक व्यक्तिगत सेवायें दूसरों से नहीं लेंगे। दवाओं से बचेंगे। पवित्र चिंतन एवं जीवन में परिवर्तन द्वारा स्वस्थ रहने की प्राकृतिक कला सीखेंगे।
१८. माँ-पिताजी से कोई वस्तु बार-बार माँगने पर भी न मिलने पर?
उत्तर- वस्तु की उपयोगिता पर फिर विचार करेंगे। घर की आर्थिक स्थिति को समझेंगे। आपनी माँग पर ज्यादा ज़ोर नहीं देंगे। विचार करेंगे कि बच्चों के लिए माता-पिता के समान कल्याणकारी संसार में और कोई नहीं हो सकता। अधिकार के साथ-साथ अपने कर्त्तव्यों का भी ध्यान रखेंगे।
१९. आपकी पसंद का भोजन न बनने पर?
उत्तर- भोजन को प्रभु द्वारा दिया हुआ प्रसाद मानकर उसे स्वीकार करेंगे। प्रसन्न मन से प्रभु की याद में भोजन ग्रहण करेंगे। कुढ़ते हुए, झल्लाते हुए, शिकायत करते हुए, क्रोध करते हुए भोजन नहीं करेंगे बल्कि प्रभु को मन ही मन धन्यवाद देते हुए भोजन करेंगे। रामजी ने माँ शबरी के बेर, कृष्ण जी ने मित्र सुदामा के पोहे और विदुर जी के घर केले के छिलके, मीरा ने अपने गिरधर की याद में ज़हर का प्याला कितने प्रेम व भावना से ग्रहण किये थे। मैं घर में स्नेह-प्यार से बने भोजन को नहीं ठुकराऊँगा/ गी। ऐसी भावना कर शांति से भोजन करेंगे।
२०. आप किसी मित्र की मदद करते रहे हों, लेकिन समय पर वह आपकी मदद न करे?
उत्तर- इससे हमें किसी के भरोसे न रहने का सबक मिलेगा। हम किसी की मदद उससे वापसी प्राप्ति की आशा में नहीं करेंगे। कर्म करेंगे लेकिन उसके फल की प्राप्ति में आसक्त नहीं होंगे। उस मित्र से व्यवहार व मित्रता पहले की ही तरह निभाते रहने का प्रयत्न करेंगे।
२१. सड़क पर कोई गाड़ी आप पर कीचड़ उछालती हुई गुजर जाये?
उत्तर- गीता के महावाक्यों को याद करेंगे। जो हुआ, अच्छा हुआ, जो हो रहा है- अच्छा हो रहा है। हम उसे दिल से क्षमा कर देंगे। हर घटना में कल्याण मानते हुए अगले क्षणों का सदुपयोग करेंगे।
२२. आप अपने जन्मदिन पर कैसा उपहार पसंद करेंगे?
उत्तर- भारतीय संस्कृति उपभोग की नहीं उपयोग की स्वीकृति देती है। वस्तुओं का संग्रह करना उचित नहीं। संग्रह द्वारा घर को कबाड़ीखाना बना देना कहाँ तक ठीक है? अतः हम अपने जन्मदिन पर बड़ों का आशीर्वाद, मित्रों की शुभकामनाएँ तथा छोटों द्वारा दुआएँ चाहेंगे कि हम परिवार, समाज व देश की उन्नति में सहयोगी बनते हुए सच्चा सुख-शांति व संतोष का जीवन जी सकें।

४. दुर्व्यसनों से हानि ही हानि
संसार के सारे धर्मों तथा धर्म प्रवक्ताओं ने हर प्रकार की नशेबाजी को अधर्म बतलाया है और उसकी निन्दा की है। वेद में नशेबाजी को महापातक बताया गया है। बौद्ध धर्म में गिनाये गये चार महापापों में से नशेबाजी भी एक है। कुरान के पारा सात, सूरत मायदारूक एक में कहा गया है- ऐ ईमान वालो, शराब तथा दूसरी नशीली चीजें हराम हैं। इन शैतानी चीजों से कतई बचे रहो। बाइबल का कथन है कि अंत में नशेबाजों की शैतान की तरह दुर्गति होगी।
विज्ञान का भी मत है कि सभी प्रकार के नशीले पदार्थ धीमे विष हैं अतः इनसे हर संभव दूर रहना चाहिये। दुर्व्यसनों से होने वाली हानियाँः-
१. व्यसनी व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है, दया की भावना घटती और क्रूरता बढ़ती है। उन्हें अधीरता, कायरता, निराशा, दुश्चिंतन और दीनता की प्रवृत्तियाँ घेरे रहती हैं।
२. धूम्रपान करने वालों की पाचन क्रिया प्रायः बिगड़ जाती है और वे कब्ज एवं अपच की बिमारी के शिकार हो जाते हैं।
३. तम्बाकू के समान इन्द्रिय दौर्बल्य तथा स्मरण शक्ति की हानि, चित्त की चंचलता और मस्तिष्क के रोग पैदा करने वाली दूसरी वस्तु नहीं है।
४. तम्बाकू बुद्धि को कुण्ठित करता और उसे मंद बनाता है।
५. दुर्व्यसन अपराधी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं।
६. धूम्रपान करने और तम्बाकू खाने से दाँतों तथा पेट आदि के अनेक रोग पैदा होते हैं। जो अंततः कैंसर जैसे रोगों में परिणत होते हैं।
७. तम्बाकू खाने, पीने से मुँह, गले, आवाज की नलियों, साँस की बड़ी और छोटी नलियों की श्लेष्मिक झिल्लियों में उत्तेजना आती है, अतः वहाँ कैंसर हो जाता है।
८. नोबल पुरस्कार विजेता डॉ पौलिंग का कहना है कि मनुष्य जितना समय धूम्रपान में लगाता है। उस समय से तिगुना समय उसके जीवन का कम हो जाता है।
९. प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक डॉ. एच. एस. ने एक पत्रिका में लिखा है कि धूम्रपान करने से आँखें कमजोर हो जाती हैं। डॉ. अलकार- तम्बाकू खाने, पीने अथवा सूँघने से आँखों की ज्योति कम हो जाती है।
१०. प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. फूट कहते हैं- जिसे नपुंसक बनना हो वह तम्बाकू का इस्तेमाल करें।
११. डॉ. सीली- तम्बाकू के धुएँ को फेफड़ों में भरने से वे सड़ जाते हैं और फेफड़ों की तपेदिक हो जाती है।
१२. डॉ. एलिन्स का मत है- तम्बाकू आदमी को बहरा व अंधा बना देता है। आदमी की जिव्हा इतनी खराब हो जाती है कि उसे किसी चीज के खाने में स्वाद नहीं आता और उसकी नाक किसी वस्तु की गन्ध का अनुभव नहीं करती।