ऋषि युग्म की झलक-झाँकी - भाग-3


4. हम पाँच शरीरों से काम कर रहे हैं


पूज्य गुरुदेव एक नहीं, अपितु अनेक शरीरों से काम करते थे। सन् 1984 में परम पूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण साधना की थी। उस साधना के कुछ विशिष्ट प्रयोजन थे, जिनका वर्णन भी उन्होंने उस वर्ष की अखण्ड ज्योति पत्रिकाओं में किया है। उसके विषय में अखण्ड ज्योति, जुलाई 1984 पृ. 2 पर वे लिखते हैं-‘‘हमारी सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया का प्रयोजन पाँच कोशों पर आधारित सामर्थ्यों को अनेक गुनी कर देना है। मनुष्य में पाँच कोश हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय। मोटे तौर से सभी कोशों के जागृत होने पर एक मनुष्य को पाँच गुनी सामर्थ्य सम्पन्न माना जाता है। पर दिव्य गणित के हिसाब से 5x5x5x5x5=3125 गुणा हो जाता है। चेतना के पाँच प्राण भी शरीर की परिधि में बँधे रहने तक पाँच विज्ञजनों जितना ही होते हैं, पर सूक्ष्मीकृत होने पर गणित की परिपाटी बदल जाती है और एक सूक्ष्म शरीर की प्रखर सत्ता 3125 गुनी हो जाती है। यह कार्य युग परिवर्तन प्रयोजन में भगवान् की सहायता करने के लिये मिला है। इस अवधि में हमें न बूढ़ा होना है, न मरना। अपनी 3125 गुनी शक्ति के अनुसार काम करना है।’’ ‘‘हमारे मार्गदर्शक की आयु 600 वर्ष से ऊपर है। उनका सूक्ष्म शरीर ही हमारी रूह में है। हर घड़ी पीछे और सिर पर उनकी छाया विद्यमान है। कोई कारण नहीं कि ठीक इसी प्रकार हम अपनी उपलब्ध सामर्थ्य का सत्पात्रों के लिये सत्प्रयोजनों में लगाने हेतु उपयोग न करते रहें।’’
यह रहस्योद्घाटन भले ही उन्होंने 1984 में किया, किन्तु अपने नैष्ठिक परिजनों के सम्मुख वे स्वयं को प्रारंभ से ही प्रकट करते रहे हैं।

एक शरीर तो हिमालय में तप करता रहता है

(श्री रामाधार विश्वकर्मा जी बिलासपुर, छ.ग. के सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे पूज्य गुरुदेव के प्रारंभिक शिष्यों में से एक रहे हैं। सन् 1953 में वे पूज्य गुरुदेव से जुड़े व सतत संपर्क में बने रहे।)

वे बताते हैं कि एक बार वे पूज्यवर के पास मथुरा गये थे। पूज्यवर अपने कक्ष में पत्र लेखन में तल्लीन थे। फिर उन्हें याद आया कि किसी के पास मिलने जाने का निश्चय हुआ है। उन्होंने आधे पत्र ही लिखे थे, आधे ऐसे ही छोड़ दिये। अपने कक्ष में ताला लगाकर मुझे साथ लेकर निश्चित कार्यक्रम हेतु चल दिये। जब हम लौटकर आये, तो उन्होंने स्वयं ही ताला खोला। मैंने देखा, कि पूज्यवर ने जो आधे पत्र छोड़ दिये थे, वे भी पूरे हो गये हैं। मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी! आपने तो आधे पत्र लिखे थे, फिर ये पूरे पत्र कैसे लिख गये?’’
गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा-‘‘बेटा! एक अकेले शरीर से इतना बड़ा काम कैसे हो पायेगा? मेरे पाँच शरीर हैं न। एक शरीर तो हिमालय में तप करता रहता है, अन्य शरीरों से युग निर्माण के बड़े कार्य हो रहे हैं। हमारा जो भी कार्य आपको दिखायी दे रहा है, यह केवल दो परसेण्ट ही है। तीसरे प्रतिशत का थोड़ा सा हिस्सा ही साधक स्तर के व्यक्ति जान पाये हैं। शेष 97 प्रतिशत कार्य तो हमने अदृश्य स्तर पर ही किया है, पूरी दुनिया से छिपाकर किया है।’’

गुरुजी का नाश्ता

एक बार तो मैंने उनके सूक्ष्म शरीर के दर्शन भी किये। वह पल तो मुझे भुलाये नहीं भूलते। कुछ क्षणों तक तो मैं धर्म संकट में फँस गया था, मुझे लग रहा था कि मेरी जान ही निकल जायेगी। यह शायद सन् 1965 या 1966 की घटना है। परम पूज्य गुरुदेव चौबीस कुण्डीय यज्ञों की शृंखला में श्री उमाशंकर चतुर्वेदी के घर रुके हुए थे। जब गुरुदेव बिलासपुर में होते, तब मैं पूरे समय उनके आसपास ही रहता, क्योंकि श्री चतुर्वेदी जी को अनेक कार्य देखने होते थे। उस दिन भी ब्रह्ममुहूर्त में ही मैं, श्री चतुर्वेदी जी के घर पहुँच गया। गुरुवर कमरे में (जहाँ उन्हें ठहराया गया था) जा चुके थे। मैं सीधे ऊपर उनके कमरे में ही चला गया।
थोड़ी देर आपस में हम दोनों की बातचीत हुई। गुरुदेव के साथ जो सज्जन आये थे, उन्हें गुरुजी ने व्यवस्था हेतु यज्ञशाला भेज दिया। यज्ञ प्रारंभ होने में अभी काफी देर थी। इसी समय गुरुजी ने जाने मन में क्या सोचा, मुझसे कहा-‘‘रामाधार! न मेरे शरीर को छूना, न किसी को पास आने देना, न तुम पास आना, दरवाजा हल्का लगा दो व तुम देखते रहना, कहीं मत जाना, यहाँ से हिलना मत। मैं नाश्ता करके आ रहा हूँ।’’
क्योंकि मैं साधना करता था, थोड़ा बहुत साहित्य भी पढ़ता था। अतः स्पर्श की बात तो मुझे ठीक लगी, पर ‘‘नाश्ता करके आ रहा हूँ!’’ यह बात कुछ समझ नहीं आई। फिर भी गुरुजी का आदेश है, उसका प्राण-पण से पालन करेंगे मानकर जमा रहा। दरवाजा हल्का सा लगा दिया ताकि अन्दर भी दिखाई देता रहे व ठीक दरवाजे से सटकर बैठ गया तथा अन्दर-बाहर देखने लगा। मैंने देखा कि गुरुदेव ने चटाई बिछाई, उस पर लेट गये व ध्यानस्थ हो गये। मैं देखता रहा। इतने में क्या देखता हूँ कि गुरुवर के शरीर से एक छाया प्रकाश, नीले रंग के छाया गुरु निकले और आकाश की तरफ धीरे-धीरे उड़ चले। साधना में कहीं भी आ-जा सकने की क्षमता के विषय में पढ़ने को तो बहुत मिला था, पर उसे, उस दिन मैं प्रत्यक्ष देख रहा था। सो अधिक अचंभा तो नहीं हुआ किन्तु इसे अपनी आँखों से देख सकने पर स्वयं को धन्य-धन्य मान रहा था।
मैं गुरुदेव के विषय में चिन्तन करते हुए उनकी आज्ञानुसार वहाँ बैठा रहा। समय कब बढ़ रहा था, पता ही न चला। एक घंटा बीत गया। इतने में श्री चतुर्वेदी जी आये, मैंने इशारे से मना किया वे लौट गये। थोड़ी देर में फिर आये, कहा-विश्वकर्मा जी, मिलने वाले लोग बढ़ रहे हैं, मैंने इशारे से फिर मना किया। वे फिर चले गये। इसी प्रकार जब कई बार हुआ तो अन्त में चतुर्वेदी जी ने कहा-‘‘भीड़ काफी बढ़ गई है, गुरुदेव को उठाना ही होगा। आप नहीं उठाते तो मैं उठाऊँगा।’’ मैं पसीने-पसीने हो गया। हे भगवान! क्या करूँ? गुरुदेव का आदेश है, कैसे नहीं मानूँ ?? पर दो घंटे से भी अधिक समय बीत चुका था। अब मेरा मन आशंकित होने लगा। कहीं कुछ अनहोनी न हो जाय। पर भीतर जा नहीं सकता, किसी को बता भी नहीं सकता, गुरुदेव का निर्देश था। मैं भीतर ही भीतर डर रहा था। फिर भी मैंने अपना कर्तव्य निभाया व चतुर्वेदी जी को रोका। कहा-‘‘कम से कम थोड़ी देर और इंतजार कर लीजिए, अन्यथा गुरु आज्ञा की अवहेलना का पाप सहना पड़ेगा।’’
इस तर्क से चतुर्वेदी जी हार मानकर नीचे चले गये, पर मेरा मन बहुत भारी हो रहा था। पब्लिक को कैसे समझायें? मेरे तो जैसे प्राण ही निकले जा रहे थे। अब मैं मन ही मन कभी भगवान से तो कभी गुरुजी से अनुनय-विनय करने लगा, ‘‘हे प्रभो! अब तो आ जाओ, मेरी लाज रख लो’’ आदि-आदि प्रार्थना से अपने इष्ट को मना रहा था। उन्हें देखता भी जा रहा था। इतने में पूज्यवर के शरीर में कुछ हलचल हुई, प्रकाश शरीर आया जिसे पुनः मैंने स्पष्ट देखा और गुरुदेव उठ कर बैठ गये। मेरी जान में जान आई। मन में कहा, गुरुदेव! आज तो आपने मेरी कठिन परीक्षा ले ली। कृपा कर बचा लिया, शायद अब मैं आपकी चौकीदारी न कर सकूँ। लीलाधारी को तो रहस्य एक बार दिखाना था सो दिखा दिया। गुरुदेव उठे, तो मैं बस इतना ही कह सका, ‘‘गुरुदेव आपका नाश्ता मुझे भारी पड़ रहा था।’’ गुरुदेव मुस्कुरा दिये व भीड़ को सँभालने यज्ञस्थल की ओर चल दिये।


मैं हर एक के कमरे में रहता हूँ


(श्री गजाधर भारद्वाज जी सन् 1957 में पूज्य गुरुदेव से जुड़े व सन् 1977 में पूज्य गुरुदेव के कहने पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज में समर्पित हो गये।)

सन् 1973 में चौबीसवें प्राण प्रत्यावर्तन शिविर में, मैं सम्मिलित हुआ था। मैं वशिष्ठ भवन 31 नम्बर कमरे में दर्पण साधना कर रहा था। अचानक मैंने देखा, गुरुजी मेरे पीछे खड़े हैं। मैं पीछे मुड़ा पर गुरुजी मुझे कहीं दिखाई नहीं दिये। फिर मैंने दर्पण में देखा तो गुरुजी फिर दरवाजे में खड़े दिखाई दिये। फिर पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था। मेरे कमरे का दरवाजा भी बंद था। जब प्रणाम करने गया तो गुरुजी से पूछा कि गुरुजी ऐसा क्यों हुआ। गुरुजी ने बताया, ‘‘बेटा! मैं इन दिनों हर एक के कमरे में रहता हूँ।’’


अभी-अभी यहाँ गुरुजी खड़े थे

20 मार्च से 20 अप्रैल के 29 दिन में गुरुजी के 58 भाषण हुए और मैंने, उपाध्याय जी, चौरसिया जी, महेन्द्र जी, कपिल जी, शिव प्रसाद जी आदि ने साथ-साथ वानप्रस्थ धारण किया। सन् 1977 में मैंने समयदान किया। फिर मैंने कार्यकर्ताओं से कहा कि अब मैं घर जाऊँगा और पैसे कमाऊँगा। मुझे अपने बच्चे पालने हैं। गुरुजी ने मुझे बुलाया और कहा, ‘‘अब तू अपना दिमाग मत लगा, यहाँ आ जा। बच्चों की देख−भाल मैं करूँगा। बच्चों को यहाँ भर्ती कर दे और तू भी भर्ती हो जा। बस तू चार बातों का ध्यान रखना। बच्चों को क्या करना है, कोई दबाव नहीं डालना। नौकरी करेंगे तो उन्नति करा दूँगा, व्यापार करेंगे तो फायदा करा दूँगा। हमारे पास रहेंगे तो बाबा-नाती का रिश्ता भी फायदेमन्द ही रहेगा।’’ उनके कहने पर मैं शान्तिकुञ्ज का ही हो गया। दशहरे में उन्होंने मुझे आँवलखेड़ा भेज दिया। वहाँ पर एक दिन जब अखण्ड जप चल रहा था तो जप करते समय मैंने मंदिर में बहुत ऊँचे लगभग 30-40 फीट ऊँचे गुरुजी को खड़े देखा। मैंने तीन-चार बार आँखें मलीं, पर मुझे वही दृश्य दिखाई दिया। वहीं पर मेरे साथ जानकी प्रसाद जोशी जी भी जप कर रहे थे। मैंने पूछा, ‘‘आपको कुछ अनुभव हुआ।’’ वे बोले, ‘‘हाँ, अभी-अभी मैंने यहाँ गुरुजी को खड़े देखा। वे बहुत ऊँचे, लंबे-चौड़े दिखाई दे रहे थे।’’

माताजी का सूर्यार्घ्य

सन् 1981-82 की बात है एक दिन मैंने माताजी को सूर्य भगवान् को अर्घ्य देते हुए देखा। मैंने देखा सूर्य की गहरी प्रकाश किरणों का एक समूह उनके चरणों में आ रहा है। फिर यह प्रकाश किरणें बिखर कर शान्तिकुञ्ज के परिसर द्वारा सोखी जा रही हैं। मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, आज मैंने माताजी का विलक्षण स्वरूप देखा। यह क्या है?’’ तो गुरुजी ने कहा, ‘‘माताजी के इसी दिव्य प्रकाश और शक्ति से शान्तिकुञ्ज और युग निर्माण योजना संचालित है।’’

तूने मेरे सूक्ष्म शरीर के दर्शन किये हैं

ऐसे ही एक दिन जब मैं गुरुजी के कमरे में गया तो गुरुजी ज़मीन पर बैठकर नक्शे में कुछ देख रहे थे। गुरुजी के पैरों के तलवे मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। मैंने देखा कि उनमें चक्र, कमल, शंख आदि चिह्नित हैं। वह इतने स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, जैसे कैलेण्डर में बने चरणों में दिखाई देते हैं। मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी, मैंने अभी-अभी आपके चरणों में चक्र कमल के दर्शन किये।’’ तो गुरुजी ने बताया कि बेटा, तूने मेरे सूक्ष्म शरीर के दर्शन किये हैं, पर इस बात की चर्चा बाहर मत करना।’’


गुरुदेव की लीला


(श्री कैलास प्रसाद लाम्बा जी, कोरबा छ.ग. के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। सन् 1959 में वे राठ, हमीरपुर, उ.प्र. में पूज्य गुरुदेव से जुड़े।)

श्री कैलास प्रसाद लाम्बा जी, कोरबा में ठेकेदारी का कार्य करते हैं। किसी भी ठेकेदार के लिये मार्च का महीना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि सरकारी काम का पैसा इसी समय प्राप्त होता है। अतः वे भी अपने वर्ष भर के बिलों के भुगतान की प्राप्ति हेतु प्रयासरत थे। प्रसंग सन् 1977 मार्च के मध्य का है। शान्तिकुञ्ज से वंदनीया माताजी का पत्र आया, ‘आपको पूज्यवर ने याद किया है, फौरन चले आयें।’
श्री लाम्बा जी कहते हैं कि मैं बड़े पशोपेश में पड़ गया। यदि हरिद्वार जाता हूँ, तो सारे बिल रह जायेंगे। यदि नहीं जाता हूँ, तो गुरुवर के आदेश की अवज्ञा होगी। दो रात मैं सो नहीं सका। क्या करूँ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। अन्त में तीसरे दिन निर्णय ले ही लिया कि चाहे जो हो, मुझे शान्तिकुञ्ज पहुँचना ही है। सभी बिल जैसे-तैसे बनाकर, पेश करके मैं हरिद्वार पहुँच गया।
उन दिनों शान्तिकुञ्ज में गुरुजी से मिलने की कोई बंदिश नहीं थी। परम वन्दनीया माताजी से मिलकर मैं ऊपर गुरुदेव से मिलने गया। एक सीढ़ी नीचे से ही देखा कि पूज्यवर अपने साधना कक्ष में तखत पर बैठे हैं। उन्होंने भी मुझे देख लिया व इशारे से मुझे वहीं बुला लिया। मैंने वहाँ पहुँच कर गुरुदेव को प्रणाम किया व धीरे-धीरे उनके पैरों को सहलाने लगा। किन्तु जैसे ही मैंने सिर उठाकर गुरुजी की ओर देखा, मैं आश्चर्य चकित रह गया, मैंने देखा, तखत पर पूज्यवर की जगह दादा गुरुजी बैठे हैं। कुछ सूझा नहीं, क्या करूँ? फिर मैंने गुरुदेव की साधना स्थली की ओर मुँह किया तो वहाँ गुरुदेव बैठे दिखाई दिये। फिर पलट कर तखत को देखा, तो पता चला, गुरुजी तखत पर बैठे हैं। अब तो मेरी स्थिति अजीबोगरीब हो गई। मैंने फिर साधना स्थली देखी, तो वहाँ दादा गुरुजी थे। तखत पर देखा, तो वहाँ भी दादा गुरुजी नजर आये। फिर, साधना स्थली पर गुरुजी दिखे। इस प्रकार तीन बार अलट-पलट कर देखा। मेरी स्थिति विचित्र हो रही थी। मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ा, मैंने गुरुदेव के चरणों में अपना सिर रख दिया और मन ही मन कहने लगा, ‘‘गुरुदेव! आपकी लीला न्यारी है। मैं अकिंचन कुछ भी नहीं समझ सकता।’’ तब गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रखा व कहने लगे, ‘‘तूने कुछ नहीं देखा है। उठ। जा! मैं तेरा सब काम ठीक कर दूँगा।’’ उस समय तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। लगा कि गुरुदेव तो ऐसा कहते ही हैं, पर सचमुच उन दिनों मैं आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा था। घर आने पर पता चला, मेरा ढाई लाख का बिल पास हो गया था और मैं आर्थिक तंगी के भँवर से उबर चुका था। ऐसे कृपालु थे पूज्यवर।

ऐसा था उनका विश्राम


(श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी पूज्य गुरुदेव के निकटतम शिष्यों में से हैं। सन् 1954 में वे पूज्य गुरुदेव से जुड़े व सतत संपर्क में बने रहे। सन् 1958 के यज्ञ में भी शामिल हुए। सन् 1967 में मथुरा में ही उन्होंने पूर्ण समर्पण कर दिया और महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सँभालीं। सन् 1973 में गुरुदेव ने उन्हें मथुरा का कार्यभार छोड़कर शान्तिकुञ्ज आने के लिये कह दिया और वे सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)

श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी बताते हैं कि विश्राम के क्षणों में भी उनकी चेतना सक्रिय रहती थी। हमें लगता था कि वे विश्राम कर रहे हैं परंतु उन क्षणों में वे सूक्ष्म स्तर से अन्य कार्यों में लगे रहते थे।
वे बताते हैं कि, ‘‘मेरे मथुरा छोड़ने (जून 1971) तक आप निश्चित रूप से इसी शरीर में रहेंगे।’’ यह आश्वासन, पूज्य गुरुदेव ने कुछ स्नेही अनुयायी परिजनों को स्पष्ट शब्दों में दिया था। विदाई वर्ष के कार्यक्रमों की शृंखला में वे लगातार कई-कई दिनों तक मथुरा से बाहर रहे। ऐसी ही एक अवधि में उक्त आश्वासन प्राप्त व्यक्तियों में से दो (जयपुर से श्रीमती चन्द्रमुखी देवी रस्तोगी के पतिदेव तथा भोपाल से श्रीरामचरण राय) की स्थिति गंभीर होने के पत्र एवं टेलीग्राम मथुरा पहुँच गए। दोनों ही गंभीर हृदय रोग से पीड़ित थे। तीन दिन बाद पूज्य गुरुदेव दौरे से लौटे। सबेरे के समय मथुरा पहुँचे। आवश्यक सूचनाओं के साथ उन्हें उक्त जानकारी भी दी गई। थोड़ा सोचकर वे चिंतित स्वर में बोल उठे-‘‘कहीं यह दौरा, दोनों के लिये ...घातक न हो...।’’ यह शब्द उन्होंने नहाते-धोते, भोजन करते कई बार कहे। फिर नियमानुसार भोजन के बाद विश्राम के लिए चले गए। कहते गए कि तुम लोग अपना काम कर लो और घंटे भर बाद मिलो।
घंटे भर बाद मिलते ही स्पष्ट शब्दों में बोले-‘‘अब टेलीग्राम भी भेज दो और पत्र भी लिख दो कि वे निश्चिन्त रहें, सब ठीक हो जायगा।’’ वैसा ही किया गया। बाद में पता लगा कि उसी दिन दोपहर से दोनों परिजनों की तबियत में काफी तेजी से सुधार आने लगा और वे स्वस्थ हो गये।

ऐसा ही एक प्रसंग यह भी है, सबेरे सात-साढ़े सात बजे के बीच पूज्य गुरुदेव अपने कक्ष में कार्यकर्ताओं को दिशा-निर्देश दे रहे थे। नीचे से सूचना मिली कि दिल्ली से ट्रंककाल आया है। एक भाई ने जाकर बात की। लौटकर बताया श्री शिवशंकर गुप्ता (तत्कालीन ट्रस्टी और कानूनी सलाहकार) कल दोपहर 11 बजे से बेहोश हैं। सबेरे तक होश नहीं आया।
पूज्य गुरुदेव ने सुना तो बोले-‘‘अच्छा, आज की बात यही बंद करते हैं।’’ यह कहकर नियमानुसार वन्दनीया माताजी के पास जाकर भोजन लिया और विश्राम के लिए लेट गए। बाद में पता लगा कि श्री शिवशंकर जी को सामान्य बेहोशी नहीं थी। केस ब्रेन हैमरेज का था। परिजनों को इसका अहसास भी नहीं था और एक सामान्य चिकित्सक को दिखा कर ही परिणाम की प्रतीक्षा करने लगे थे। दोपहर ११ बजे से शाम हुई, रात बीत गई, तब सबेरे पूज्य गुरुदेव को फोन से सूचना दी और एक भाई वहाँ से हरिद्वार के लिए रवाना भी हो गए।
फोन से सूचना पाकर पूज्य गुरुदेव जिस अवधि में विश्राम में रहे, उसी बीच श्री शिवशंकर जी की बेहोशी टूटी। उन्होंने आँखें खोली। बोले कुछ नहीं। तकलीफ पूछने पर सिर की तरफ इशारा भर किया। सहारा देने पर बैठ गए। चाय के लिए पूछा तो सिर हिलाकर सहमति दे दी। चाय के साथ एकाध टुकड़ा ब्रेड का लेकर लेटे और पुनः उसी बेहोशी में डूब गए।
बाद में उनके रोगोपचार का लम्बा क्रम चला। उन्हें कई चमत्कारी अनुभव भी हुए। डॉक्टरों को आश्चर्य में डालते हुए वे ठीक हो गए।

(लेकिन उक्त प्रसंगों से यह तो स्पष्ट होता है कि युग ऋषि का कथित विश्राम कैसा होता था। शरीर को शिथिल छोड़ कर वे चेतना स्तर पर कैसे विलक्षण प्रयोग किया करते थे।)

जब गुरुजी ने इलाहाबाद में पुस्तकें पढ़ीं

माधवपुर के श्री बहादुर सिंह बताते हैं कि इलाहाबाद वाले श्री रामलाल जी ने मुझे एक घटना सुनाई। पूज्य गुरुदेव मध्य प्रदेश के दौरे पर थे। उन्हें इलाहाबाद होते हुए जाना था। स्टेशन के लिये निकलते समय बोले, ‘‘ट्रेन तो देरी से है, इस बीच यूनीवर्सिटी पुस्तकालय हो लेते हैं।’’ पहले भी गुरुदेव पुस्तकों के लिये 2-3 बार इलाहाबाद पुस्तकालय आ चुके थे। यह सोचकर कि यदि देर हो जायेगी तो यूनीवर्सिटी से ही सीधे स्टेशन निकल जायेंगे, मैं, गुरुदेव का सामान आदि लेकर चलने लगा। गुरुजी बोले, ‘‘भई रामलाल! यहीं आकर जायेंगे। अभी आते हैं।’’ मैंने सामान रख दिया।
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में पहुँचकर पूज्यवर ऐसे डूब गये कि उन्हें दीन दुनिया का होश ही नहीं रहा। जैसे-जैसे ट्रेेन के आने का समय समीप आ रहा था, मेरा मन घबरा रहा था। मैंने दो-तीन बार कहा कि गुरुजी, सामान भी लेना है और स्टेशन भी पहुँचना है। थोड़ी देर बाद गुरुजी बोले, ‘‘समय हो गया होगा। यह भी तो एक यज्ञ है। इसे बीच में छोड़कर नहीं चल सकते।’’ गुरुदेव पुस्तकें पढ़ने में पूरी तरह मगन थे। एक पुस्तक में लगभग 10 मिनट लगते। वे पुस्तक पढ़ते व एक तरफ रख देते। वे हिन्दी, अंग्रेजी, प्राकृत, पाली, संस्कृत सभी भाषाओं की किताबें देख गये।
इसी बीच मेरे मित्र भटनागर जी गुरुदेव को लेकर स्टेशन जाने के लिए घर पहुँचे तो उन्हें पता चला कि गुरुजी और मैं दोनों साथ में ही हैं। उन्होंने अनुमान लगाया कि हम लोग स्टेशन ही गये होंगे। सो वे सीधे वहीं पहुँच गये। थोड़ी देर ढूँढ़ा पर यह सोचकर कि कहीं बैठ गये होंगे, और वे छूट जायेंगे, भटनागर जी ने टिकिट लिया व चलती गाड़ी में बैठ गये।
निर्धारित कार्यक्रम में पूरा भाग लिया, लौटे तो बहुत खुश। कहने लगे कि न जाने कैसे गुरुदेव ने ट्रेन में हमें ढूँढ लिया और अगले स्टेशन पर ही हमारे पास आकर बैठ गये पर आप नहीं मिले। उन्होंने बताया, कार्यक्रम बहुत बढ़िया रहा। हम सीधे स्टेशन से ही आ रहे हैं, पर स्टेशन पर उतरने के बाद गुरुदेव दिखे ही नहीं! इसलिए सीधा आपके पास ही आ रहा हूँ।
मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि वे क्या कह रहे हैं? गुरुदेव तो लाइब्रेरी से ट्रेन टाइम के निकल जाने के भी आधे घण्टे बाद मेरे साथ घर लौटे व चादर ओढ़कर सो गये। कार्यक्रम में तो वे गये ही नहीं थे। पिछले तीन-चार दिन से गुरुदेव तो हमारे घर पर ही थे। वे रोज इलाहाबाद विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने जाते रहे थे। मैंने पूछा भी कि अब कार्यक्रम का क्या होगा? तब वे हँसकर टाल गये थे और बोले, ‘‘कार्यक्रम की व्यवस्था भी हो जायेगी।’’
मैंने भटनागर जी से कहा, ‘‘गुरुदेव तुम्हें दिखते भी कैसे वे तो यहीं हैं। कार्यक्रम में तो वे गये ही नहीं थे।’’
भटनागर जी ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में कहा, ‘‘क्या कह रहे हैं आप? मैं झूठ बोल रहा हूँ क्या? मैं, गुरुजी के साथ था। मैं तो यह सोच रहा था कि आप कैसे हैं, जो गुरुजी को अकेले भेजकर खुद घर पर रह गये?’’
हम दोनों का वार्तालाप गुरुजी अन्दर लेटे-लेटे सुन रहे थे। उन्होंने हमें बुलाया और कहा, ‘‘क्या लड़कपन करते हो? दोनों की बात सच्ची है। मैं यहाँ भी था, वहाँ भी था। वहाँ रेल में भी भटनागर जी के साथ मैं ही था। यज्ञ में भी मैं ही था। तुम इस बात को गोपनीय ही रखना। यह मेरा स्वरूप मेरे महाप्रयाण के बाद ही लोगों को पता लगे, यह ध्यान रखना। समय आने पर ऐसी ढेरों बातें लोगों को पता चलेंगी, तब वे हमारे स्वरूप को पहचान पायेंगे।’’

देखता हूँ कैसे नहीं मानती?

कोरबा के श्री कैलाश प्रसाद लाम्बा जी कहते हैं कि जांजगीर तहसील छत्तीसगढ़ के कुलीपोटा ग्राम के श्री साध राम साहू अक्सर अपने जीवन की एक अविस्मरणीय घटना सुनाया करते थे। यह सन् 67-68 की घटना है। एक दिन गुरुदेव प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन करते-करते ही अचानक उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया व कहने लगे-नहीं मानती, नहीं मानती, देखता हूँ कैसे नहीं मानती? बंद करना पड़ेगा। आदि-आदि।
राजस्थान के कोटा जिले के बूँदी तहसील में इन्द्रगढ़ देवी का मंदिर है। उन दिनों वहाँ प्रति वर्ष एक हजार से भी अधिक बकरों की बलि दी जाती थी। संभवतः उसी परिप्रेक्ष्य में पूज्यवर ने वह कथन कहे थे, क्योंकि इसके तुरंत बाद वे शिविरार्थियों की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘गुरु गोविन्द सिंह के पंच प्यारे थे, जिन्होंने आदर्शों के लिये स्वयं को बलिदान कर दिया। गुरु आज्ञा पर अपना सिर कटाने को तैयार हो गये थे। क्या आज हमारे शिष्यों में भी ऐसे पंच प्यारे हैं? जो हमारी आज्ञा पर अपना सिर देने को तैयार हैं।’’ शिविरार्थी शिष्य जो लगभग 50-60 की संख्या में थे, उनमें से 27-28 व्यक्तियों ने हाथ उठाया। पुनः गुरुदेव ने पूछा, ‘‘देखो भई, ये बताओ कितनों को घर से परमीशन लेनी पड़ेगी? अभी यहीं से जाने के लिये कौन-कौन तैयार है?’’
कहाँ जाना है? क्या करना है? अभी यह बात स्पष्ट नहीं थी। बात, सिर कटाने की थी, सो घर से परमीशन की आवश्यकता नहीं लेने वाले केवल आठ ही हाथ ऊपर उठे बाकी सभी नीचे हो गये।
प्रवचन समाप्त हुआ। उन आठों को घीयामण्डी बुलाया गया। सारी बातें समझाई गईं। तुम्हें एक माह के लिये इन्द्रगढ़ जाना है। पशु बलि के विरुद्ध अभियान छेड़ना है। सुबह यज्ञ करना व दिन भर प्रचार-प्रसार।
माताजी ने सारी बातें सुनीं तो रो पड़ीं। कहने लगीं-‘‘बेटा, वहाँ रेगिस्तान की तपती रेत में तुम्हें नंगे पैरों चलना होगा। जब वहाँ रेत की आँधी चलती है, तब कुछ सूझता नहीं। खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं।’’ भारी मन लिये उन्होंने हमारे साथ पाँच-किलो सत्तू व एक किलो गुड़ बाँध दिया। कहा, ‘‘बेटा, जब भूख लगे खा लेना।’’
दिये हुए पते पर आठों बलिदानी गये। देखा पूरा खटीकों का गाँव था। गाँव से बाहर अपना तम्बू लगाया। जैसा समझाया गया था, वैसा कार्य सबने दूसरे दिन से प्रारंभ कर दिया। तीसरे दिन एक साधु मिला, केवल लंगोटी धारी। बातचीत हुई, सबने अपना उद्देश्य बताया। उसने कहा, आप लोग अच्छा काम कर रहे हो। आपके गुरु महान् हैं। मैं भी आपके साथ चलूँ तो नौ हो जायेंगे। सब मान गये। नौ की टोली प्रचार-प्रसार हेतु जुट गयी। दूसरे दिन यज्ञ के उपरान्त सबके चलने की बारी आई तो उस साधु ने कहा-मुझे घर पर ही रहने दें तो अच्छा हो।
हम सब चले गये। रात को वापस आये तो देखा आस-पास से फूस लाकर तम्बू में लगा दिया गया है। गरम पानी किया रखा है। भोजन भी तैयार हो चुका है। सबने इसे गुरु कृपा माना। इसके बाद साधु सबके पैर, गरम पानी से धोने लगा। हम सब मना करते, फिर भी वह खींच-खींच कर पैर धोता। रोज वही भोजन बना कर खिलाता। इस प्रकार वह साधु हमें वरदान बनकर मिला।
पूरे एक माह तक सबने पशु बलि निषेध का प्रचार किया। इसकी हानियाँ समझाईं। देवताओं के रुष्ट होने की बात कही। प्रतिदिन 20 किलोमीटर तक अलग-अलग क्षेत्रों में पैदल नापते थे। सबके पैरों में छाले पड़ जाते थे। फिर भी गुरु श्रद्धा के वशीभूत हो सभी ने एक माह के अन्दर जन-जागृति की हवा फैला दी।
अब वह गाँव जो खटीकों का था, उन्हें भी भय लगा कि क्या...? सचमुच पशुबलि बंद हो जायेगी? अतः पूरा गाँव इकट्ठा हुआ और तय किया कि आठ ऐसे बुढ्ढे जो मरने वाले हों, वे खड़े हो जाएँ व आठों की गर्दन उड़ा दें। फिर भले फाँसी पर लटक जाना पड़े। इस प्रकार दोनों तरफ के जागरण का असर प्रशासन के कानों तक भी पहुँचा। वह भी कैसे चुप रहता? पूरे जिले के प्रशासन की बैठक हुई। वातावरण ऐसा बन गया था कि कब क्या हो जाय? अतः पुलिस भी पूरी तरह चौकन्ना थी। किसी भी अप्रत्याशित घटना से निपटने के लिये वहाँ पुलिस छावनी बन गई थी।
नवरात्रि के अंतिम दिन हम आठों बलिदानियों ने सुबह चार बजे ही नहा-धोकर मंदिर को घेर लिया। ताकि कोई भी व्यक्ति हमारे जीवित रहते तक बलि न दे सके। उस समय वह साधु साथ नहीं था। सभी अंध श्रद्धालु अपने साथ बकरा लिये हुए मंदिर की ओर आ रहे थे। वहाँ भीड़ बढ़ती जा रही थी। इस सबसे मंदिर के अन्दर जाने में दिक्कत होने लगी। हम आठों ने भी स्पष्ट कर दिया कि बिना हमको मारे आप मंदिर के अन्दर नहीं जा सकते। हालात नाजुक बनते जा रहे थे। अचानक वे लंगोटीधारी साधु अपने कन्धों पर बकरा लादे हुए प्रकट हो गये। अपने साथी को इस प्रकार बकरा लाते देखकर हम सभी आश्चर्य में पड़ गये। सब, कुछ सोच पाते, इसके पहले ही उन्होंने बकरे को नीचे पटका और जोर की गर्जना करते हुए बोल पड़े। पशु में भी आत्मा का निवास है। यह बात किसी को समझ में नहीं आ रही है? हिम्मत है? तो इस बकरे को काटकर दिखाओ। उस साधु के सिंह नाद में वह गर्जना थी कि जो व्यक्ति थोड़ी देर पहले पशु बलि के पक्ष में खड़े थे, सभी भाग खड़े हुए। मौका देखकर पुलिस ने भी कमान संभाल ली और धारा 144 लागू हो गयी। सभी तितर-बितर हो गये। गर्दन उड़ाने वाले खटीक भी खिसक लिए।
हम आठों को लग रहा था कि आज तो हमारी गर्दन उड़ेगी ही क्योंकि, इसके लिये ही तो मथुरा से चले थे। किन्तु पलक झपकते ही वह साधु आया, ललकारा और भीड़ को तितर-बितर कर अंतर्ध्यान हो गया। फिर कहीं ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला। तभी कुछ लोगों ने कहा हमने तो उसे उसी समय नीचे देखा था। साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ दो-चार मिनटों में कैसे तय की जा सकती हैं? अतः सबने एक स्वर से उन्हें चमत्कारी बाबा ही माना, जो ऐन वक्त पर अपने शिष्यों की रक्षा हेतु प्रकट हुए थे। अन्यथा क्षण भर की भी देर होती तो सभी की गर्दन कट जाती। पूज्यवर भला ऐसा कैसे होने देते? साधु का भी कहीं अता-पता नहीं था। अतः आठों अपना डेरा उठाकर मथुरा आये। गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए समाचार पूछा, ‘‘कहो, क्या हाल चाल है?’’ सबने एक स्वर से कहा, ‘‘आप हमसे क्यों पूछते हैं गुरुदेव? आप स्वयं तो वहाँ मौजूद थे। आपकी क्षण भर की देरी हम सब की गर्दन उड़ा देती।’’ सुनकर, गुरुदेव मुस्कुरा दिये।
तब से वहाँ पशु बलि बिलकुल बंद है। ऐसे क्रांतिकारी और परीक्षक भी थे, पूज्य गुरुदेव।


मैं कहीं और भी रहता हूँ


(श्री संदीप कुमार, सन् 1980 में इन्होंने दीक्षा ली और सन् 1985 में स्थाई तौर पर शान्तिकुञ्ज आ गये।)


एक दिन मैंने गुरुदेव से प्रश्न किया, ‘‘गुरुदेव युग निर्माण कैसे होगा? अभी तो इसके कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं देते?’’ गुरुजी ने कहा-‘‘तुम लोग क्या समझते हो? क्या मैं केवल शान्तिकुञ्ज में ही निवास करता हूँ, या कहीं और भी रहता हूँ? मैं लगातार सजातियों को खींच रहा हूँ।’’
उस समय हमें लगा कि गुरुदेव का पाँच शरीरों से काम करने का कथन पूर्णतया सही है।


वहाँ क्या हो रहा है


इसी प्रकार जब गुरुदेव मध्यप्रदेश के दौरे पर थे, तब एक कार्यकर्ता ने जिद पकड़ ली कि गुरुदेव आप पाँच शरीरों से कैसे कार्य करते हैं-कुछ तो झलक हमें भी दिखाइये।
पहले तो गुरुदेव टालते रहे। जब देखा, ये मानने वाले नहीं हैं, तो उन्होंने बिलासपुर का एक टेलीफोन नम्बर दिया। कहा, ‘‘पूछो, वहाँ क्या हो रहा है?’’ जवाब मिला-‘‘गुरुदेव अभी-अभी प्रवचन से आए हैं व भोजन करने बैठे हैं।’’ कार्यकर्ता सुन कर हतप्रभ रह गया। गुरुदेव के पैर पकड़ पुनः शंका न करने का वचन दिया।
इसी से मिलता जुलता एक प्रसंग और भी है। श्री जयराम मोटलानी जी बताते हैं कि हम कुछ दिनों के लिये छ.ग., जिला काँकेर में आँवरी आश्रम के प्रवास पर थे। दूर-दूर से परिजन वहाँ आते रहते थे। एक दिन एक बूढ़े बाबाजी आये। उन्होंने बताया कि गुरुदेव जब उनके गाँव में आये थे तो कार्यक्रम के दौरान मंच पर से ही उन्होंने एक गाँव का नाम लिया और कहा कि इसी समय हम वहाँ पर भी कार्यक्रम करा रहे हैं। जिन्हें विश्वास न हो वे जाकर देख सकते हैं। वह गाँव हमारे गाँव से 12 कि.मी. दूर है। मैं वहाँ से उठा और साइकिल से तुरंत वहाँ पहुँचा। जाकर देखा गुरुदेव मंच से उतरे ही थे और लोगों के साथ बातचीत करते हुए भोजन के लिये रवाना हो रहे थे।
मैं उन्हीं पैरों तुरंत वापिस मुड़ गया। सोचा शायद दूसरे रास्ते से गाड़ी से आ गये हों। साइकिल से मुझे ज्यादा समय लगा। अपने गाँव में पहुँच कर देखा तो गुरुजी वहाँ भी थे। पूछने पर पता चला कि वे तो यहीं हैं। एक पल के लिये भी वह इधर-उधर नहीं गये।
प्रसंग सुनाते हुए बाबा जी की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी। बाबाजी बोले, ‘‘बेटा, वह सबको अपना स्वरूप दिखा रहे थे, फिर भी हम लोग समझ नहीं पाये कि यह साक्षात भगवान् हैं।’’ अश्रु उनके गालों को भिगोते हुए गले तक जा रहे थे। उनके हृदय की भावनाएँ शब्दों के साथ-साथ आँखों से भी बह रही थीं।


तू मुझे देख रहा है?


श्री शिवप्रसाद मिश्रा जी, शान्तिकुञ्ज


1970 की घटना है। टाटा नगर में 1008 कुण्डीय यज्ञ सम्पन्न होना था। गायत्री तपोभूमि से श्री रमेशचन्द्र शुक्ला जो पूज्य गुरुदेव के साथ चला करते थे, लोहरदगा (झारखण्ड) पधारे। मैं वहाँ बाक्साइट पत्थर का व्यापार करता था। उन्होंने मुझसे यज्ञ के लिए अनुदान और समयदान माँगा। मैंने जो कुछ बन पड़ा दिया और यज्ञ के एक माह पूर्व समयदान के लिए टाटानगर पहुँच गया। वहाँ यज्ञ को सफल बनाने हेतु कार्य में जुट गया। मेरी निष्ठा को देखकर उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को मुख्य यजमान बना दिया। इस यज्ञ के उपरान्त हमने पूज्य गुरुदेव से 9 कुण्डीय गायत्री यज्ञ के लिये निवेदन किया। उन्होंने कहा ‘‘अब समय नहीं है।’’ सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ। लोहरदगा पहुँचकर मैंने सोचा गुरुदेव के जन्मदिन वसंत पंचमी पर ही एक छोटा सा 9 कुण्डीय यज्ञ कर लिया जाए। संकल्प कर लिया। उसी दिन रात्रि को लगभग 3:00 बजे एक आवाज सुनी-शिव प्रसाद! शिव प्रसाद! आवाज गुरुदेव की सी लगी। आँख खोली तो देखा जमीन से कुछ ऊपर स्वयं गुरुदेव ही साक्षात खड़े हैं। मैंने कहा, ‘‘जी गुरुजी,’’ आवाज आई ‘‘तू मुझे देख रहा है? मेरी आवाज़ सुन रहा है? तूने वसंत पर्व पर यज्ञ करने का संकल्प लिया है, वसंत पर्व पर नहीं, 13-14 जनवरी को यज्ञ करना। हमने अन्य जगहों से 2 दिन की कटौती करके यह समय तुम्हें दिया है।’’ मैंने कहा, ‘‘जो आज्ञा गुरुदेव।’’ बस गुरुदेव चले गए। मैं प्रणाम भी न कर सका और किंकर्तव्य विमूढ़ की भाँति देखता ही रह गया। फिर सो गया। थोड़ी देर बाद ही स्वप्न में देखता हूँ कि पं. लीलापत जी का एक एक्सप्रेस डिलीवरी पत्र आया है। उसमें वही बातें लिखी हैं जो गुरुदेव ने कही थीं। मैंने यह स्वप्र पत्नी को बताया और कहा संभवतः आज ही वह पत्र भी आ जाए? आते ही मेरे पास माइंस पर भिजवा देना। प्रातः 8:00 बजे पोस्टमैन आया और एक्सप्रेस डिलीवरी पत्र दे गया। इस प्रकार गुरुदेव ने सूक्ष्म शरीर से स्वयं आकर कार्यक्रम का निर्देश दिया। जिसे हमने पूरी श्रद्धा व उत्साह के साथ संपन्न किया और कार्यक्रम भी आशातीत रूप से सफल रहा।


तेरे दोस्त का आपरेशन मैंने कर दिया है


(श्रीमती सावित्री गुप्ता, सन् 1968 में इन्होंने दीक्षा ली और सन् 1974 में स्थाई तौर पर शान्तिकुञ्ज आ गईं।)


शान्तिकुञ्ज में मुझे पत्र लेखन का काम मिला। उस समय कम ही लोग थे। प्रायः सभी पत्र हाथों से गुजरते थे, अतः पूर्व पत्रों का भी ध्यान रहता था।
बरेली जिले के एक गाँव से एक लड़के के पिता का पत्र मुझे आज भी स्मरण है। उन्होंने पूज्यवर से प्रार्थना की थी। ‘‘पूज्यवर! मेरे लड़के को कैन्सर है। डॉक्टर ने कहा है, भगवान का नाम लो, प्रार्थना करो। अब उपचार कुछ नहीं है। हे गुरुदेव! मुझ पर कृपा करें। मेरे बच्चे को ठीक कर दें।’’ आदि-आदि।
लड़के का दोस्त भी गायत्री परिवार का सदस्य था। उसने भी पत्र लिखकर अपने दोस्त की कुशलता के लिये गुरुदेव से निवेदन किया था। (उन दिनों न जाने कैसे, पत्र लिखते ही पूज्यवर तक संदेश पहुँच जाते थे, अनेकों ऐसे अनुभव पत्रों द्वारा ज्ञात होते हैं।)
जल्दी ही फिर दोनों के पत्र आये। दोनों ने अपने-अपने पत्र में अपना अनुभव लिखा था।
‘‘पत्र लिखने के दूसरे ही दिन गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से मेरे लड़के के पास पहुँचे और कहा, ‘‘बेटा! हम आ गये हैं, तू चिन्ता मत कर। मैं तेरा आपरेशन करता हूँ। तू एक हफ्ते में ठीक हो जायेगा।’’
इसके बाद गुरुदेव उसके दोस्त के पास गये और कहा, ‘‘बेटा, तेरे दोस्त का ऑपरेशन मैंने कर दिया है। अब वह बिलकुल ठीक हो जायेगा, चिन्ता की कोई बात नहीं।’’
जब दोनों दोस्तों ने अपना-अपना अनुभव एक-दूसरे को सुनाया तो वे दोनों आश्चर्य चकित हुए कि किस प्रकार दोनों के अनुभव एक समान हैं।
फिर उन्होंने इसकी वास्तविकता की जाँच करने की ठानी व डॉक्टर के पास गये और कहा, ‘‘डॉक्टर साहब, एक बार दुबारा चैक कर लीजिए।’’
डॉक्टर ने मना किया। कहा, अभी कुछ दिन पहले ही तो चैक किया है। बार-बार आवश्यकता नहीं है। बस आप तो जैसे-तैसे दिन काटिए।
फिर भी सबने जिद की कि एक बार फिर से चैक कर ही लें। तब अनमने मन से डॉक्टर ने चैक करना स्वीकार किया।
किन्तु जब चैक किया तो घाव सूखता हुआ नजर आया, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। इतना बड़ा घाव, सूख कैसे रहा है? उसने फिर से देखा व पूछा, ‘‘आप लोगों ने किस डॉक्टर को दिखाया है? कौन डॉक्टर मिल गया जिसने यह घाव सुखा दिया?’’ डाक्टर से हम केवल इतना ही कह पाये कि यह हमारे पूज्य गुरुदेव की अनुकम्पा है।’’

(इसी तरह डॉ. अमल कुमार दत्ता जी को लिखा एक पत्र यहाँ उद्धृत है जिसमें गुरुदेव स्वयं अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा संरक्षण की बात लिखते हैं। इस पत्र में संरक्षण के साथ-साथ अपने स्नेह का प्रकटीकरण और कर्तव्य पालन हेतु मार्गदर्शन, बहुत कुछ एक साथ कितने कम शब्दों में व्यक्त कर दिया गया है। इस पत्र में उनकी पत्र लेखन कला का भी दर्शन मिलता है।)


‘‘हमारे आत्मस्वरूप,
आपका पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई। यों पिछले सप्ताह हमारा सूक्ष्म शरीर इन्दौर ही रहा है। रोग अबकी बार अतीव-कष्ट लेकर आया था। हमें प्रतीत हो रहा था कि बेटी श्रीपर्णा इस कष्ट को सहन न कर सकेगी। इसलिये सुरक्षा के लिये हमारा सूक्ष्म शरीर आप लोगों के पास ही बना रहा। आप लोगों ने दौड़-धूप की उससे हमें संतोष है। कर्तव्य पालन इसी प्रकार करना चाहिये, किंतु इतने पर भी बेटी श्रीपर्णा की इस बार की जीवन रक्षा का श्रेय, माता की विशेष कृपा को ही है। अब अनिष्ट टल गया है। जो कमजोरी रही होगी वह भी जल्दी ही दूर हो जायेगी।
बीमारी के समय जिन-जिन स्वजनों ने सेवा एवं सहानुभूति का व्यवहार किया हो उन सबको हमारा धन्यवाद कहना। तुम्हारी धर्मपत्नी भी वह है, पर असल में तो हमारी प्रिय पुत्री ही है। तुमने या जिसने भी उसकी सेवा की है उन सबके हम हृदय से कृतज्ञ हैं।
जब तक सौ. श्रीपर्णा की तबियत पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती तब तक हमें चिंता बनी रहेगी, सो उसका समाचार हमें भेजते रहें। यों सूक्ष्म शक्ति से हम उसकी आवश्यक जानकारी रख ही रहे हैं और संपर्क भी बनाये हुये हैं।...’’
श्रीमती श्रीपर्णा दत्ता के नाम भी उन्होंने पत्र लिखा। जिसमें लिखा, ‘‘इस नये जीवन को तुम ऋषि पुत्री, ऋषि पत्नी और ऋषि माता की तरह व्यतीत करना।’’


काम पूरा होने पर शक्ति वापस हो जायेगी


श्री कैलास प्रसाद लाम्बा, कोरबा


घटना सन् 84 सूक्ष्मीकरण में जाने से 3-4 माह पूर्व की है। मैं हरिद्वार गया था। गुरुजी मुझसे अकेले में मिले व कहा, ‘‘बता बेटा, तेरा क्या-क्या चल रहा है?’’
मैंने कहा, ‘‘जप अधिक करता हूँ। अतः समय कम मिल पाता है। अपना काम भी करता हूँ व शाम को प्रचार में भी निकलता हूँ।’’
एक-दो सेकन्ड के बाद उन्होंने कहा, ‘‘बेटा ऐसा कर, तू जप कम कर, ध्यान अधिक कर। उगते सूर्य में गायत्री माता का ध्यान करो।’’ 2-3 तरीके से गायत्री उच्चारण की विधि उन्होंने स्वयं बतलाई। गले से उच्चारण करना, तालु से उच्चारण करना, व नाक से उच्चारण करने की विधि बतलाई।
नाक से आवाज को ऊपर उठाकर उच्चारण करने से मंत्र का कम्पन भृकुटि को ठोकर मारता है।
इसके साथ ही उन्होंने कहा, ‘‘बेटे, मुझे तुझसे जितना काम लेना है, उतनी शक्ति दूँगा तथा वह अनवरत मिलती रहेगी। किन्तु जब काम पूरा हो जायेगा तब शक्ति वापस हो जायेगी।
श्री लाम्बा जी कहते हैं, ‘‘उस अभ्यास को मैंने बहुत दिनों तक किया, सूक्ष्मीकरण तक वह शक्ति रही। साधना के क्षेत्र में पूज्यवर ने मुझे काफी ऊँचा उठाया। उन दिनों शरीर के किसी भी अंग को यहाँ तक सहस्रार तक को कंपित कर लेता था। जिसके लिये जो कह देता, वह पूरा होता। अतः घर वाले कहते किसी के प्रति मन में दुर्भावना मत रखना। अन्यथा उसका बुरा होगा। सूक्ष्मीकरण के बाद वह शक्ति चली गई। जैसा गुरुवर ने चाहा था ठीक वैसा ही हुआ। ’’


अश्वमेध यज्ञ, जयपुर के पर्चे पूज्य गुरुदेव ने बाँटे


(श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी, जयपुर, राजस्थान के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। सन् 1974 में वे पूज्य गुरुदेव से जुड़े और तब से आज तक सतत संपर्क में बने हुए हैं।)


अश्वमेध यज्ञों की शृंखला के अंतर्गत प्रथम अश्वमेध यज्ञ, जयपुर में हुआ था। प्रत्येक अश्वमेध यज्ञ के साथ परिजनों की अनेकों स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी जयपुर अश्वमेध यज्ञ के संयोजक थे। वे बताते हैं कि उन्होंने प्रत्येक गाँव के प्रत्येक घर तक पहुँचने का प्रयास किया और उसके लिये टोलियाँ गठित की गईं।
एक दिन प्रचार कार्य के लिये दो-तीन टोलियों को दूर-दराज के क्षेत्रों में, जहाँ सड़क यातायात नहीं है, भेजा गया। उन परिजनों ने लौटकर बताया कि जहाँ वे निमंत्रण देने गये थे, वहाँ के निवासियों ने बताया कि उन्हें तो निमंत्रण मिल चुका है। पत्रक पर पूज्य गुरुदेव की फोटो देखकर वे सब आश्चर्यचकित थे और बता रहे थे कि यही व्यक्ति तो हमें 2-3 दिन पूर्व ही यज्ञ का निमंत्रण और पॉम्प्लेट देकर गया है। कार्यकर्ताओं ने बताया कि ऐसा वहाँ पर बहुत से लोगों ने बताया और सब लोग पूरे विश्वास के साथ बता रहे थे, कि यही व्यक्ति था। जबकि उन गाँवों के लोग पूज्य गुरुदेव तो क्या गायत्री परिवार को भी नहीं जानते थे।
उन कार्यकर्ता भाइयों की बात सुनकर हमें पूज्यवर के उन शब्दों का ध्यान हो आया कि बेटा शरीर छोड़ने के बाद हम हजारों गुनी शक्ति से काम करेंगे। हम सबको यही आभास हुआ कि पूज्य गुरुदेव ने अश्वमेध यज्ञ में न केवल सूक्ष्म रूप से संरक्षण ही दिया बल्कि प्रचार कार्य में स्थूल शरीर धारण कर स्वयं पॉम्प्लेट भी वितरित किये।


हाँ-हाँ, यही व्यक्ति थे


यह लखनऊ अश्वमेध यज्ञ का प्रसंग है। खीरी लखीमपुर जिले के एक गाँव पलिया कलाँ के लोग जब अश्वमेध यज्ञ में आये, तो वे परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देखकर हैरान रह गये। यहाँ-वहाँ परिजनों से उनके बारे में पूछ-ताछ करने लगे। लोगों ने बताया कि यह हमारे गुरुदेव हैं। तब वे गुरुदेव से मिलने की इच्छा व्यक्त करने लगे। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि परम पूज्य गुरुदेव को शरीर छोड़े 3 वर्ष हो गये हैं, तो वे अत्यंत विस्मित रह गये। उन्होंने कहा कि ये कैसे हो सकता है? क्योंकि यही व्यक्ति तो हमारे गाँव में निमंत्रण देने आये थे, उन्होंने यही कपड़े पहन रखे थे। उनकी बात सुनकर गायत्री परिवार के परिजनों ने कहा, ‘‘यह कैसे हो सकता है? वह कोई और होंगे, आपको भ्रम हुआ होगा।’’ तब वे लोग एक-दूसरे की ओर इशारा करते हुए कहने लगे, ‘‘साहब, हमसे क्या पूछते हैं, इनसे पूछिये, ये भी तो मिले थे?’’ वे लगभग 15-20 व्यक्ति थे, सभी एक स्वर में कहने लगे, ‘‘हाँ-हाँ! यही व्यक्ति थे, बिल्कुल यही व्यक्ति थे। हम सबके पास आये थे और हमें निमंत्रण के साथ-साथ यज्ञ का पर्चा भी दिया। उन्हीं के बताने पर तो हम आये हैं।’’ और श्रद्धावनत हो वहीं से पूज्य गुरुदेव को प्रणाम करके जयकार करते हुए कहने लगे, हम धन्य हो गये, हम धन्य हो गये। आपके गुरुदेव हमारे गाँव पधारे, हमारा तो जीवन ही सफल हो गया। आज उस गाँव की शाखा बहुत सशक्त है।


छठा स्थान ग्वालियर


श्री रामनिवास गुप्ता, ग्वालियर


किसी अखण्ड ज्योति में मैंने पढ़ा था कि दिनांक 15-2 को पूज्य गुरुदेव देश के विभिन्न दूर-दूर के पाँच स्थानों पर एक ही समय पर उपस्थित होकर प्रवचन आदि कर रहे थे। जिससे इस बात की पुष्टि हुई कि पूज्य गुरुदेव एक बार में पाँच शरीरों से एक साथ कार्य करते थे। यह बात मुझे भी भली भाँति मालूम थी, परन्तु उस दिन से मेरी यह धारणा बदल गई और यह बनी कि पूज्य गुरुदेव मात्र पाँच शरीरों से ही नहीं बल्कि अनगिनत शरीरों से एक ही समय एक साथ विभिन्न स्थानों पर कार्य करते थे, क्योंकि उसी दिनांक 15-2 को पूज्य गुरुदेव ग्वालियर में भी थे। उक्त अखण्ड ज्योति के उस दिनाँक के पाँच स्थानों के अतिरिक्त छठवाँ स्थान ग्वालियर भी है। घटना इस प्रकार है कि पूज्य गुरुदेव दिनाँक 13-2 को ग्वालियर पधारे। सन्ध्या को कार्यकर्ताओं से मिलने के पश्चात् आँगरे की गोठ, लाला का बाजार लश्कर आँगरे साहब के निवास पर रात्रि को विश्राम किया। दूसरे दिन 14-2 को प्रातः गायत्री यज्ञ के पश्चात् वहीं पर स्थापित एक पंचमुखी गायत्री की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की। दोपहर को गोपाल तेल मिल, बिरला नगर ग्वालियर में भाई, श्री छोटेलाल जी गर्ग के निवास से जलयात्रा के साथ पूज्यवर की एक शोभायात्रा भी निकाली जो गायत्री मंदिर ग्वालियर पर समाप्त हुई। उस दिन रात्रि को तानसेन रोड स्थित भाई श्री डी०डी० भार्गव के निवास पर विश्राम किया। तीसरे दिन 15-2 को प्रातः गायत्री यज्ञ के पश्चात् गायत्री मंदिर ग्वालियर में स्थापित गायत्री माता की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। सायं वहीं पर प्रवचन के पश्चात् रात्रि की गाड़ी से मथुरा रवाना हुए थे।


वह बुजुर्ग कौन थे?


(श्री नारसिंह भाई परमार, बड़ौदा गुजरात। नारसिंह भाई सन् 1988 में पूज्य गुरुदेव से जुड़े।)


श्री नारसिंह भाई परमार जी ने बताया कि उनकी पत्नी और कुछ बहिनें बड़ौदा के पास किसी गाँव में कार्यक्रम करवाने गयी थीं। लौटने में रात हो गयी थी। अँधेरे सुनसान रास्ते में इनकी गाड़ी का अन्य गाड़ी से बड़ा जबर्दस्त एक्सीडेण्ट हो गया। गाड़ी की हालत ऐसी हो गयी थी, कि लगता था, कोई बच नहीं पाया होगा। गाड़ी में सवार सभी लोग गाड़ी में ही फँस गये, किसी भी प्रकार बाहर नहीं निकल पा रहे थे। अँधेरा इतना घना था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ पा रहा था। उसी समय अचानक न जाने कहाँ से, उस सुनसान रास्ते में एक बुजुर्ग मददगार बनकर आए, उनके हाथ में टॉर्च थी। उन्होंने एक बहुत छोटे, संकरे से रास्ते से सभी बहिनों को धीरे-धीरे बाहर निकाला। किसी भी बहिन को कोई खास चोट नहीं आयी थी। उस रास्ते पर बहुत कम गाड़ियों का आवागमन होता था, पर थोड़ी ही देर में एक गाड़ी आ गई। उन बुजुर्ग ने सभी बहनों को उस गाड़ी में बैठाया। जब सभी बहिनें उस गाड़ी में बैठ कर जाने लगीं तो उन बुजुर्ग बाबा जी को धन्यवाद देने के लिये उनकी ओर मुड़ीं, परंतु वह बुजुर्ग तो न जाने कहाँ गायब हो गये थे। किसी को भी वह दिखाई नहीं दिये। सब को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी वे कहाँ चले गये?
अगले दिन परिजन, अपनी गाड़ी को देखने आये। सभी देखकर हैरान थे कि इतने संकरे रास्ते से बहिनें बाहर कैसे निकलीं? गाड़ी की हालत देखकर सबको और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ कि इसमें सवार लोग बच कैसे गये? और किसी को भी कोई गंभीर चोट नहीं लगी थी। जबकि गाड़ी को देखकर लगता था कि इसमें सवार कोई भी आदमी जीवित नहीं बचा होगा। अब सब को गुरुदेव का आश्वासन याद आ रहा था कि बेटा, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। सभी को यही आभास हुआ कि गुरुसत्ता ने अपने कार्य के लिये गई अपनी बच्चियों की रक्षा की थी।


चोरों से घर को बचाया


नारसिंह भाई परमार जी बड़े ही भावुक होकर बताते हैं कि एक बार वे 9 दिवसीय सत्र के लिए शान्तिकुञ्ज, आये। पीछे से, कुछ चोरों ने उनके घर में ताला लगा देखा, तो चोरी करने की योजना बनाई। रात को जब वह चोरी करने पहुँचे, तो देखा कि दरवाजा खुला है और एक वृद्ध दम्पत्ति अन्दर बैठे हैं। दिन भर ताला लगा देखकर, रोज रात को वह चोरी करने के लिए आते। लेकिन रात को घर खुला पाकर लौट जाते। वह यह देखकर हैरान थे कि दिन भर तो ताला लगा रहता है और रात को ये वृद्ध कहाँ से आ जाते हैं? लेकिन वे लगातार आते रहे और 9-10 दिन के बाद एक रात जब उन्होंने पड़ोस वाले घर में ताला देखा तो उस घर में चोरी कर ली, और पकड़े भी गये। जब पुलिस, उन्हें पूछताछ के लिए लायी, तो चोरों ने बताया कि असल में, चोरी तो हमें साथ वाले घर में करनी थी, क्योंकि उनकी जानकारी के अनुसार वे लोग 10-12 दिन के लिये बाहर गये थे, पर रोज रात को उनका घर खुला मिलता और कोई बुजुर्ग दम्पत्ति आकर बैठ जाते थे। सो पड़ोस वाले घर में जब ताला मिला तो हमने वहीं चोरी कर ली। उनकी बात सुनकर पड़ोसी ने कहा कि यह कैसे हो सकता है? परमार जी तो 10-12 दिन के लिये हरिद्वार गए हुए थे। इस बीच उनके घर पर भी कोई नहीं था।
पुलिस चोरों को लेकर परमार जी के घर आयी। जैसे ही वे सब घर के भीतर आये, चोर उनके घर में लगे गुरुजी-माताजी के चित्र को देखकर बोले-‘‘यही तो हैं वे दोनों, जो रोज रात को यहाँ आकर बैठ जाते थे।’’ सब लोग उनकी बात सुनकर आश्चर्यचकित थे और हमारा पूरा परिवार गुरुवर के आगे नतमस्तक था। कितना ध्यान था उन्हें अपने बच्चों का, बच्चे उनके पास हैं तो वे पीछे से उनके घर की रखवाली भी कर रहे हैं।


जीवन की दिशा ही मोड़ दी


नाम न छापने का आग्रह करते हुए पंजाब की एक बहन ने अपनी आप-बीती कुछ इस प्रकार सुनाई, ‘‘उनके घर में बहुत कलह-क्लेश का वातावरण बना हुआ था। पति को अचानक ही व्यापार में बहुत बड़ा घाटा हुआ था। चारों ओर से असफलता मिल रही थी। इस वजह से उनका स्वभाव और भी अधिक उग्र हो गया था। सासू माँ भी दिन भर क्लेश किये रहती। एक दिन कुछ अधिक ही कही−सुनी हो गई। मेरी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया। निराशा के भाव मन पर हावी हो गये। मन में आया कि इस जीवन से मौत ही भली है। पास ही रेल पटरी थी। मैं घर से निकल पड़ी। रोती जा रही थी और रेल पटरी के बीचों-बीच चलती जा रही थी। अचानक एक वृद्ध ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पटरी से नीचे उतार लिया और रेलगाड़ी, धड़धड़ाती हुई निकल गई। उसके गुजर जाने के बाद मैंने उन वृद्ध से कहा, ‘‘बाबाजी, यह क्या किया आपने? मुझे मर जाने दिया होता, क्यों बचाया?’’ उन्होंने मुझे समझाया, ‘‘बेटी! जीवन बहुत कीमती है।’’ फिर मेरी सारी समस्या सुनी और मुझे समझा-बुझा कर एक रिक्शा वाले को बुलाकर रिक्शा में बिठा दिया और कहा, ‘‘जा बेटी! अपने घर जा। सब ठीक हो जायेगा।’’
रास्ते में मुझे ख्याल आया कि आज मेरी सहेली के घर में कोई पूजा है। उसने बुलाया था, क्यों न मैं उसके घर चली जाऊँ। मैंने रिक्शा उसके घर की ओर मोड़ लिया। जब मैं उसके घर पहुँची और पूजा में जो तस्वीर रखी थी उसे देखकर मैं हैरान रह गई। पूजा समाप्त हो जाने के बाद मैंने उससे पूछा कि यह जो व्यक्ति हैं, मैं अभी-अभी इनसे मिलकर आ रही हूँ। यह कौन हैं? कहाँ रहते हैं? मुझे कैसे मिलेंगे? उसने मुझे बताया कि यह हमारे गुरु, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी हैं। तुम इनसे मिलकर आ रही हो, यह कैसे हो सकता है? अभी कुछ दिन पहले ही तो इन्होंने अपना शरीर छोड़ा है। तुम जिससे मिलकर आ रही हो वह कोई और होगा। सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गई पर मेरे साथ जो घटित हुआ था, उसे भी मैं झुठला नहीं सकती थी।
उसके बाद मैं शान्तिकुञ्ज भी आई। मैंने दीक्षा ली, हमारी सारी समस्याएँ जल्दी ही सुलझ गईं, घर का वातावरण ही बदल गया। मैं और मेरे पति दोनों ही गुरुजी के ऋणी हैं। हम उनसे बस यही प्रार्थना करते हैं कि हमें अपनी शरण में लिये रहें।


माताजी ने सेवा की


न केवल गुरुजी बल्कि माताजी भी कम शक्ति सम्पन्न नहीं थीं। स्वयं गुरुदेव के शब्दों में, ‘‘माताजी भगवान के वरदान की तरह हमारे जीवन में आईं। उनके बगैर मिशन के उदय और विस्तार की कल्पना करना तक कठिन था।’’ लोगों ने अपनी स्थूल आँखों से उन्हें गुरुजी की सहधर्मिणी ही समझा परंतु जिनने उनके अनुदान पाये हैं, वे ही उस भगवत् सत्ता को जान पाये। माताजी के विषय में भी ऐसे अनेकों प्रसंग मिलते हैं जब उन्होंने सूक्ष्म शरीर से परिजनों की सहायता की।
पाथाखेड़ा, बैतूल के एक कार्यकर्ता की एक मासीय सत्र हेतु शान्तिकुञ्ज आने की तीव्र उत्कंठा थी। उन्होंने शान्तिकुञ्ज पत्र लिखा। अनुमति पत्र भी आ गया। लेकिन फिर ये असमंजस पैदा हुआ कि पत्नी की प्रसूति का समय इसी बीच आ सकता है, तो जाऊँ कि न जाऊँ? इससे पहले भी वह एक बार किसी कारणवश नहीं आ पाए थे। सो इस अवसर को वह चूकना नहीं चाहते थे। उनकी पत्नी शान्तिकुञ्ज के विषय में कुछ विशेष नहीं जानती थी। फिर भी पत्नी ने पति की तीव्र उत्कंठा देखी तो कहा, ‘‘आप चिन्ता न करें। यहाँ आस-पास के कोई भी परिजन आ जायेंगे, मदद करेंगे। आप भले जा सकते हैं।’’ शान्तिकुञ्ज जाने की उनकी उत्कंठा बड़ी प्रबल थी। सो पत्नी को उसी अवस्था में छोड़ वे चले गये। उनके जाने के कुछ समय बाद एक वृद्ध माताजी उनके घर में आयीं। बोलीं, ‘‘बेटी! मुझे तुम्हारे पति ने तुम्हारी देख−भाल करने के लिये कहा था। सो मैं आ गई हूँ। तुम बिलकुल चिन्ता न करना, मैं तुम्हारा पूरा ख्याल रखूँगी।’’
थोड़े ही दिन में संतान पैदा हुई। उन माताजी ने जच्चा और बच्चा दोनों की पूरी देख-भाल की। रात-दिन उनके पास रहीं।
जब एक माह होने को आया। उनके पति शान्तिकुञ्ज से वापस आने वाले थे, तो वह माताजी उन्हें बोलीं, ‘‘बेटी! अब तो तुम स्वस्थ हो चली हो और दो-तीन दिन में तुम्हारे पति भी आ ही जायेंगे। सो अब मैं अपने घर जाऊँगी। मुझे और भी ढेरों काम हैं।’’ उन्होंने माताजी को रोकना चाहा, पर वे रुकी नहीं। पति जब घर पहुँचे, तो पत्नी ने सब हाल बताया। जानकर वह कार्यकर्ता बड़े हैरान हुए कि उन्होंने तो किसी महिला को देख−भाल के लिये नहीं कहा था। पत्नी भी हैरान हुईं कि फिर वह महिला कौन थीं? और इतनी देख−भाल इतनी देख−भाल तो कोई अपने सगे रिश्तेदार भी नहीं करते।
फिर जब उन कार्यकर्ता ने देवस्थापना चित्र निकाला, और उसे पूजा में रखने के लिये कहा तो उस चित्र को देखकर उनकी पत्नी चौंक उठीं, और बड़ी हैरानी से बोलीं, ‘‘अरे! यही तो वह माताजी हैं। जिन्होंने मेरी इतनी सेवा की।’’
ऋषिसत्ता का आश्वासन, ‘‘बेटा तू मेरा काम कर, तेरा काम मैं करूँगा।’’ उनके जीवन में चरितार्थ हुआ था। दोनों पति-पत्नी कृतज्ञता से आँसू बहा रहे थे।


हृदय की बंद धड़कन पुनः चालू हुई


डॉ. बसंतकुमार पांडेय, रीवा


मई 94 में मुझे गंभीर हृदयघात हुआ। मेडिकल कालेज रीवा के गाँधी स्मारक अस्पताल के इन्टेसिव केरोनरी केयर यूनिट में एक महीने भर्ती रहा। मेडिकल विभागाध्यक्ष ने तुरंत तीसरी हार्ट सर्जरी के लिए अपोलो हाॅस्पिटल मद्रास जाने की सलाह दी। इसके पूर्व बाम्बे हाॅस्पिटल में दो बार ओपेन हार्ट बाई पास सर्जरी एवं एंजियोप्लास्टी हो चुकी थी।
अगस्त 94 में अपोलो हाॅस्पिटल मद्रास में हार्ट सर्जरी हुई। आपरेशन थियेटर से आई.सी.यू. में लाया गया। अचानक तबियत बहुत खराब हो गई। बी.पी. गिरने लगा और हृदय की गति कमजोर पड़ने लगी। नर्स, बड़े डॉक्टरों में भाग-दौड़ मच गई। एकदम सबकुछ समाप्त। हृदय की धड़कन बंद हो गई। पत्नी कांता दूर खड़ी हतप्रभ थीं। इतने में एक शुभ्रवस्त्रा छोटेकद की स्थूलकाय तेजस्वी महिला अचानक कमरे में आई। मुस्कराते हुए धीरे-धीरे बिस्तर के पास व्यस्त डाक्टर, नर्सों के बीच आकर खड़ी हो गईं और कहा, ‘‘क्या हो गया?’’ सिर पर हाथ फेरा। एक क्षण रुकीं, कहा, ‘‘ठीक हो जाएगा।’’ और धीरे-धीरे पंपिंग किया। धड़कन पुनः प्रारंभ हो गई। पत्नी, रोकने के बावजूद जबर्दस्ती कमरे में आकुल-व्याकुल होती हुई आईं और पूछा, ‘‘क्या हो गया इन्हें? कैसे हैं? और वह माताजी, जो अभी-अभी कमरे में आई थीं कहाँ गईं?’’
डॉक्टरों ने कहा, ‘‘हाँ एक शुभ्रवस्त्रा तेजस्वी महिला आई तो थी, कहाँ गई पता नहीं? शायद बाहर होंगी। लेकिन, आप भीतर कैसे आ गईं? बाहर जाइये, पाण्डेजी की तबियत अचानक खराब हो गई थी, अब ठीक है। कृपया आप बाहर जाइये, हमें अपना काम करने दीजिए।’’
कमरे के बाहर देखा, आई.सी.यू. के बाहर देखा, सभी जगह देखा, वह ज्योर्तिमय महिला कहीं दिखाई नहीं पड़ी। निश्चय ही वह वंदनीया माताजी ही थीं, जो अपने बेटे की हृदय की धड़कन को अपने पावन स्पर्श से पुनः चालू करने के बाद अन्तर्ध्यान हो गई थीं।
होश आने पर जब पत्नी ने यह सब पूरा विवरण बताया तो बरबस ही आँखों से अविरल अश्रुधारा बह उठी। धन्य हैं ऐसी ममतामयी, वात्सल्यमयी माताजी और परमपूज्य गुरुदेव। उनके बताये रास्ते पर चलना एवं दिये गये निर्देशों को पूरा करना ही अब हमारे जीवन का उद्देश्य है।


5. साक्षात् शिव स्वरूप

गुरुजी-माताजी अलौकिक शक्तियों से संपन्न थे। साधारणतः तो महापुरुष स्वयं को छिपाये रहते हैं परन्तु कभी-कभी संकेतों में वे स्वयं को प्रकट भी करते हैं। कभी-कभी कुछ ऐसी बात कह जाते हैं, कुछ ऐसा कार्य कर जाते हैं कि सुनने वाला, देखने वाला अचंभित हो जाता है। विचार करता रह जाता है। जिसके पास श्रद्धा है, विश्वास है, जो भक्त है वही उस कथन के मर्म को समझ पाता है। अन्यों के दिलो-दिमाग पर तो जैसे वे कोई पर्दा डाल देते हैं और समय बीत जाने पर वे उन घटनाओं को स्मरण कर बस इतना ही कह पाते हैं कि काश! हम उस समय समझ पाते। आज हम सब उन्हें साक्षात शिव, महाकाल, अवतारी चेतना आदि नाना प्रकार के संबोधनों से अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। कभी-कभी परिजनों के सामने उन्होंने स्वयं को प्रकट भी किया है। ऐसे ही कुछ प्रसंग, कुछ वाक्यांश यहाँ दिये जा रहे हैं।

कुएँ का पानी मीठा हो गया


(श्री हनुमान शरण रावत जी एवं श्रीमती मिथिला रावत, सन् 1969 से पूज्य गुरुदेव के संपर्क में रहे। सन् 1983 में गुरुदेव के कहने पर पूर्णरूपेण शान्तिकुञ्ज आ गये।)


हम एक कार्यक्रम हेतु दिगौड़ा (टीकमगढ़) गये। वहाँ के एक कार्यकर्ता भाई, श्री सोनकिया जी ने कहा, ‘‘बहन जी, आज हम आपको वहाँ ले चलते हैं जहाँ से गुरुजी कभी पैदल गये थे।’’ वे हमें उस रास्ते से ले गये और बोले, ‘‘इन गलियों में से गुरुजी कभी अपना सामान भी स्वयं लेकर चले थे।’’
‘‘गुरुजी, एक हाथ में लोहे का बक्सा और कंधे पर अपना बिस्तर लेकर चलते थे। उनकी इस सादगी से कोई जान ही नहीं पाया कि वे इतने बड़े महापुरुष हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरु जी, अपना सामान मुझे दे दीजिये’’, तो वे बोले, ‘‘नहीं-नहीं अपना ही सामान है।’’
हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ मंदिर बन रहा था। वहाँ पर एक कुआँ खोदा गया था, जिसका पानी खारा था। लोगों ने बताया कि कितनी मेहनत से कुआँ खोदा गया और इसका पानी खारा निकल गया। अब इसका क्या उपयोग? क्या करें?
गुरुजी ने सब बात सुनी और कहा, ‘‘अच्छा! खारा है बेटा! पानी खारा है! लाओ रस्सी, बाल्टी, देखें!’’ गुरुजी ने स्वयं कुएँ से पानी निकाला और उसे पिया। फिर बोले, ‘‘बेटा! ये तो मीठा है। कहाँ खारा है? देखो! कहाँ खारा है?’’ और, उन्होंने सबको थोड़ा-थोड़ा पानी पीने के लिये दिया। सबने पानी पिया और सब हैरान रह गये कि खारा पानी, मीठा कैसे हो गया? तब सबने गुरुजी की शक्ति को पहचाना और उनकी जय-जयकार करने लगे।

कोई बीमार है?


(पंडित लीलापत शर्मा जी, पूज्य गुरुदेव के प्रारंभिक शिष्यों में से थे। सन् 1953 में, डबरा म.प्र. में वे पूज्य गुरुदेव से जुड़े व सतत संपर्क में बने रहे। सन् 1967 में पूज्य गुरुदेव ने उन्हें मथुरा बुला लिया। सन् 1971 में पंडित जी को मथुरा का सब कार्यभार सौंपकर, पूज्य गुरुदेव-वंदनीया माताजी शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार आ गये। पंडित जी ने मिशन की बहुत बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ सँभालीं। गुरुदेव के साथ बहुत सी यात्राएँ भी कीं। उन सब संस्मरणों को उन्होंने ‘पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। परिजन उनके संस्मरणों को उस पुस्तक में पढ़ सकते हैं।)

जब मिशन अपनी शैशव अवस्था में था, उस समय पूज्य गुरुदेव ने कितना परिश्रम करके और कितना तप लुटाकर शाखाएँ खड़ी कीं उसके विषय में बताते हुए पंडित जी ने असम का एक संस्मरण सुनाया था।
गायत्री परिवार के कार्यकर्ता ने एक गाँव में यज्ञ रख दिया और पूज्यवर को बुलाया। कई बार वहाँ गया, यज्ञ के बारे में समझाया किन्तु पता नहीं क्यों? किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यहाँ तक कि पूज्य गुरुदेव भी उस गाँव में पहुँच गये, फिर भी यज्ञ में आने को कोई तैयार नहीं था और न ही वे लोग आये।
पूज्यवर ने सारी स्थिति भाँप ली। वहीं आसपास जो ग्रामीण टहल रहे थे, उन्हें बुलाकर पूछा, ‘‘इस गाँव में कोई वृद्ध बीमार है?’’
‘‘हाँ, ऐसे तो कई लोग हैं।’’ ग्रामीणों ने जवाब दिया। पूज्यवर ने कहा, ‘‘उन्हें मेरे पास ले आओ।’’
ग्रामीण दौड़े और अपने-अपने घरों से जो भी बीमार था, वृद्ध था, कुछ अन्य समस्या थी, सभी को ले आये। कुछ स्वयं आ गये, कुछ को सहारा देकर ले आये।
गुरुदेव तत्काल उनकी समस्याओं के निवारण हेतु जुट गये। बीमार को, ‘‘तुझे कुछ नहीं हुआ है।’’ कह दिया। वृद्ध को ‘‘स्वस्थ रहोगे’’ कहा। किसी की कोई समस्या थी उसे कह दिया, ‘‘समस्या ठीक हो जायेगी।’’
अब तो सुन-सुन कर पूरा गाँव दौड़ पड़ा। महात्मा जी के आने की खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई। सभी अपनी-अपनी समस्या बताने लगे और समाधान पाकर निहाल हो गये।
दूसरे दिन पूरा गाँव यज्ञ में शामिल था। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने यज्ञ में भाग न लिया हो।
इस तरह उन्होंने अपने तप की शक्ति से मिशन का प्रचार-प्रसार किया। पंडित जी कहते थे, ‘‘मैं तो मूक दर्शक की नाईं, अवाक् रहकर उन लीला-पति की लीला देखता रहा।’’ असली नाम तो उनका लीलापति होना चाहिए था।


आदिवासियों को भी अपना बना लिया


(श्री भास्कर सिन्हा जी, सन् 1963 में पूज्य गुरुदेव के संपर्क में आये और सन् 1976 में गुरुदेव के कहने पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)


हम सन् 1981 में पूज्यवर के साथ शक्तिपीठों की प्राण-प्रतिष्ठा के दौरे पर थे। मार्च का महीना था। होली में दस-पंद्रह दिन बचे थे। सभी ओर होली का माहौल था। हम सब कार्यक्रम हेतु जगदलपुर जा रहे थे। सड़क सुनसान थी। एक स्थान पर पुलिस ने रोका पूछताछ की व कहा, ‘‘आगे मत जाओ। आदिवासी लूट-पाट करते हैं।’’
पंडित लीलापत शर्मा जी भी साथ थे। उन्होंने गुरुदेव की ओर देखा। गुरुजी ने कहा-‘‘दूसरा रास्ता हो तो देखो।’’
एक दूसरा रास्ता था। कुछ दूर उस पर गये, पता चला वह काफी लम्बा है, अतः गुरुजी ने कहा, ‘‘पहले वाले से ही चलो।’’ दोपहर साढ़े बारह-एक बजे के आस-पास काफी दूरी पर भीड़ दिखाई दी। पत्ते लपेटे हुए, लगभग 100-150 आदिवासियों की भीड़ थी। (होली के समय लूट सामान्य बात थी।) सभी गंडासा, भाला, तलवार से लैस थे। गाड़ी आगे बढ़ायें कि पीछे चलें-असमंजस था। गुरुजी ने कहा, ‘‘गाड़ी चलने दो। कुछ दूर पहले गाड़ी खड़ी करना व तुम सब उतरना मत, केवल मैं ही उतरूँगा।’’ उस समय लगा कि गुरुजी कुछ सोच रहे हैं। गाड़ी उनके पास पहुँचने ही वाली थी कि गुरुजी हड़बड़ा कर बोले-‘‘रोक बेटा! जब तक मैं न कहूँ, तुम लोग उतरना मत।’’
गुरुदेव उतर कर बोनट के पास खड़े हो गये। राड वगैरह लिये हम बैठे रहे। पूज्यवर थोड़ी देर दीक्षा देने की मुद्रा में खड़े रहे। फिर आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ ऊपर उठाया। पता नहीं कहाँ से उनके बीच में से एक बूढ़ा व्यक्ति आगे आया। उसके हाथ में तीन मालाएँ थी। वह बूढ़ा दौड़ कर आया और पूज्यवर से तीन कदम दूरी पर दण्डवत् प्रणाम की मुद्रा में लेट गया। उसे देखकर उसका अनुसरण करते हुए वे सभी दौड़े और सब ने साष्टांग प्रणाम किया। स्थिति एकदम भिन्न हो गई, जैसे जादू हो गया हो। गुरुदेव ने उन्हें कार्यक्रम में आने के लिये निमंत्रित किया।
उस स्थिति से निपटने में हम लोगों को एक-डेढ़ घंटा लगा। पर जब हम कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे तो देखकर अचंभित रह गये। वे सभी जिन्होंने रास्ता रोका था, जगदलपुर प्रवचन पण्डाल में जाने किस रास्ते से व कैसे हमसे भी पहले पहुँच गये थे।
गुरुदेव ने अपनी ब्रज भाषा में कहा, ‘‘देखो! हम लोग सात बजे पहुँचे हैं और, वे भी इस समय तक आ गये।’’ फिर बोले, ‘‘उन सभी को मंच तक आने दिया जाये।’’ गुरुदेव ने अपने सामने मंच के पास, उन बूढ़े भील महाशय को बैठाया। सभी ने पूरा प्रवचन सुना। अन्त में पूज्यवर ने उन सभी का तिलक किया, तब वे सब प्रणाम करके घर वापस हुए।


गंगाजल पीकर गंगा को रोका


श्री केसरी कपिल जी, शान्तिकुञ्ज


बात अगस्त 1987 के आस-पास की है, पूज्य गुरुदेव ने मुझे बुलाकर कहा, ‘‘बेटे, मुझे गंगाजल पीने का मन है। माताजी से पात्र लेकर गंगा जल ले आ।’’ मेरे द्वारा लाया जल गुरुदेव लेंगे यह सोचकर खुशी से दौड़ा हुआ गया और केन में जल भरकर ले आया। गिलास में जल भरकर पूज्य गुरुदेव को देकर लौटने लगा। गुरुदेव ने जल पीते हुए कहा, ‘रुक जा।’ मैं कमरे के दरवाजे पर रुक गया। मुझे खड़ा देखकर गुरुदेव बोले, ‘‘तुम्हें नहीं रोक रहा हूँ, तुम जाओ।’’ मैं जल भरा केन वहीं छोड़ कर आ गया।
उसी वर्ष दिसम्बर में पूर्णिया जिले के तेल्दिया गाँव में प्राण प्रतिष्ठा के लिए मुझे भेजा गया। उन्हीं दिनों समाचार पत्रों में उत्तरी बिहार में भयावह बाढ़ के समाचार आ रहे थे। जिनके अनुसार आज़ादी के बाद बने उत्तरी बिहार की नदियों के अनेक तटबन्ध टूट गये थे। जान-माल की भारी क्षति हुई थी। गाँव के गाँव बह गए थे। प्लास्टिक की छत बनाकर लोग राजपथ पर, तटबन्धों के पास रह कर बचने का प्रयास कर रहे थे। पर इधर हर किसी की जुबान पर एक ही बात थी, ‘‘हमें तो गंगा मैया ने बचाया।’’ पूछने पर पता चला, जिन दिनों उत्तरी बिहार की सभी नदियों में बाढ़ थी, गंगा का जल स्तर नीचा था और सभी नदियों का जल उसमें समाकर समुद्र में जा रहा था। गंगा मर्यादा में ही बहती रही। लोगों की बात सुनकर मुझे उस दिन का प्रसंग याद आया जब गुरुदेव ने गंगा जी से जल मँगा कर पिया था और घूँट भर कर कहा था ‘‘रुक जा।’’ मैं बरबस ही यह सोचने के लिये मजबूर था कि क्या, गुरुदेव ने उस दिन माँ गंगा को रुकने का आदेश दिया था और बिहार को दोहरी त्रासदी से बचाया था?

मेरे गुरु मेरे घर आये, मैं भी तेरे घर आया


(श्री रघुवीर सिंह चौहान जी, सन् 1977 में पूज्य गुरुदेव से जुड़े और सतत संपर्क में बने रहे। उनका पैतृक घर ज्वालापुर, हरिद्वार में है, किन्तु गुरुदेव से जुड़ने के कुछ समय बाद ही चौहान जी, परिवार को ज्वालापुर में ही रखकर स्वयं स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये थे।)


हम लोग ज्वालापुर में रहते हैं। एक परिजन शान्तिकुञ्ज जाने के लिये लगभग छः माह से कह रहे थे, सो हम पत्नी सहित शान्तिकुञ्ज आये।
कक्षा सात में मैंने एक कथा सुनी थी कि कलियुग में जब भगवान् आयेंगे तो कोई पहचान नहीं पायेगा। वे स्वयं चिन्ह प्रकट करेंगे, ताकि भक्त पहचान ले। तब भक्त भगवान् को अपने घर लायेगा।
पहली बार जब गुरुजी से मिले तो उन्होंने कहा-‘‘तुम पृथ्वीराज चौहान की जाति के हो।’’ सुनकर हमें गर्व हुआ।
मैंने उनका मस्तक देखा तो चकित रह गया। आज्ञा चक्र में बहुत देर तक गहरा गढ्ढा जैसा दिखाई देता रहा। वहाँ से प्रकाश निकल रहा था। घर आने पर तीन दिनों तक नींद नहीं आई। गुरुजी के विषय में ही विचार करता रहा। पहले तो सोचा कोई तांत्रिक होंगे। फिर अचानक वह कथा याद आई। सो हम शीघ्र ही शान्तिकुञ्ज आये कि देखें यदि वे भगवान् हैं तो हमारे बुलाने पर घर आते हैं कि नहीं।
जैसे ही हम पूज्यवर के पास पहुँचे, हमारे कुछ बोलने से पहले ही वे खुद बोल पड़े, ‘‘बेटा, हम तुम्हारे यहाँ आने के लिये कई दिन से इन्तजार कर रहे हैं।’’
मैं सुन कर दंग रह गया। सोचा कि यह अवश्य ही अंतर्यामी हैं जो तुरंत मेरे मन की बात जान ली।
15 जनवरी सन् 77 को ठीक 12:00 बजे दोपहर में परम वंदनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव मेरे घर पधारे। उन्होंने कहा-‘‘बेटा किसी को बुलाना मत।’’ क्योंकि वे केवल भक्तों का ही सम्मान करने हेतु वचनबद्ध थे, सबकी मनोकामना हेतु नहीं।
अपने भगवान को अपने घर पाकर हम लोग निहाल हो गये। उस समय हमें वे स्पष्ट रूप से राम-सीता के स्वरूप में आभासित हुए।
एक साल बाद फिर उसी दिन 15 जनवरी सन् 1978 को वे दिन के 12:00 बजे ही आये। उस दिन भगवान श्रीकृष्ण और शिव शंकर के रूप में दिखे। माथे पर पूर्ण चन्द्रमा था। दोनों बार वे एक-सवा घंटे तक बैठे, बातचीत की, मेरे मन की सम्पूर्ण गाँठें खोलते रहे।
अनेक चर्चाओं के बीच उन्होंने दो महत्त्वपूर्ण बातें कहीं-
(1) बेटा, मेरे गुरु मेरे घर आये थे, देख! मैं भी तेरे घर आ गया।
(2) बेटा, मैंने तुझे तेरे और अपने दो जन्मों का बोध करा दिया है।
अन्त में उन्होंने हम दोनों से पूछा, ‘‘बेटे! तुम्हारी कोई इच्छा है?’’ हमने कहा ‘‘नहीं गुरुजी, कोई इच्छा नहीं है।’’
अब हम पूरी तरह गुरुजी को समर्पित हो गये। जिससे हमारी परीक्षा भी शुरू हुई। अब मुझे गुरुजी के काम के अलावा कुछ सुहाता ही नहीं था। मैंने खेती करना छोड़ दिया। खेत खाली पड़े रहे। बैल-गाड़ी बाँट दी व शान्तिकुञ्ज आ गया। पत्नी घर पर ही रही। बहुत गरीबी में एक साल काटा। घर-बाहर सभी मुझे पागल कहने लगे।
मेरे भाइयों में बटवारा हुआ। सबने अच्छे-अच्छे खेत छाँटकर रख लिये। मुझे सबसे रद्दी, खराब, उबड़-खाबड़ ज़मीन दी। मैं कुछ नहीं बोला। 15-20 साल यूँ ही गुज़र गये। चकबन्दी हुई। मेरी ज़मीन के तीन तरफ रोड बना। मेरी कुछ जमीन रोड में चली गई। जो जमीन कुछ समय पहले तक कौड़ियों के भाव भी नहीं थी, वह अचानक ही लाखों की हो गई। रिश्तेदार-दलाल सब आश्चर्य चकित थे यह क्या हुआ? मुझे उस जमीन के काफी पैसे मिले। मैंने गुरुजी की शक्तिमान कर सब स्वीकार किया।

साक्षात अन्नपूर्णा का भण्डार


एक दिन मैंने गुरुदेव से प्रश्न किया-‘‘गुरुदेव, मैं तो पढ़ा लिखा नहीं हूँ, फिर मुझे यहाँ क्यों बुलाया? यहाँ तो पढ़े-लिखों का काम अधिक है।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘बेटे, पढ़े-लिखे को अपने ज्ञान को भुला कर हमारे ज्ञान को आत्मसात् करना पड़ता है, जो कि कठिन है। किन्तु तुझे भुलाने का श्रम नहीं करना पड़ेगा, केवल हमारे ज्ञान को ही आत्मसात् करना होगा।’’
वे सर्वज्ञ शिव थे। प्रारंभ में मैं घर से रोज गुरुकुल कांगड़ी होते हुए पैदल आता था। माताजी बातों-बातों में जान लेती थीं व कहतीं-‘‘लल्लू इतने लम्बे रास्ते से क्यों आता है? छोटे रास्ते से आया कर।’’
एक दिन मैंने गुरुकुल कांगड़ी के पास दो रुपये का लाटरी टिकट खरीदा पर यह बात किसी से कही नहीं। किन्तु गुरुदेव ने दो-चार दिन बाद मुझसे कहा, ‘‘कहीं मुफ्त के पैसे से कोई रईस बना है क्या?’’मैं अवाक् रह गया। बिना कहे ही गुरुदेव ने जान लिया। मैं उनकी सर्वज्ञता पर नत मस्तक था। फिर मैंने वह टिकट फाड़कर फेंक दिया। 6
माताजी का चौका तो साक्षात् अन्नपूर्णा का भण्डार है। एक बार अवस्थी जी खाना खाने गये थे कि एक महिला आई और पूछा-‘‘पन्द्रह-सोलह व्यक्ति हैं, खाना खिलायेंगे क्या?’’ मैं ऊपर गया, देखा-दाल चावल तो पर्याप्त था। रोटी 15-20 ही थी। मैंने हाँ कर दी। जब सब आये, तब पता चला कि वे तो 50-60 व्यक्ति हैं। अब मैंने उसी महिला को रोटी का बर्तन दे दिया और कहा, ‘‘जहाँ तक रोटी जाय, सबको एक-एक रोटी परोस दो।’’
उसने रोटी परोसी। किसी अपने को उसने दो रोटी दे दी, अतः अन्त में एक रोटी कम पड़ी, अन्यथा सबको उतनी ही रोटी पूरी हो गई। ऐसी थी माताजी के चौके की शक्ति। मैं स्वयं देखकर आश्चर्यचकित था। मात्र 15-20 लोगों के लायक भोजन था, जिसमें 50-60 लोगों ने भरपेट भोजन कर लिया?

जो माँगोगे वही मिलेगा


सुश्री शक्ति श्रीवास्तव


दिनाँक, 14 जनवरी 1982 को पूज्य गुरुदेव हमारे यहाँ गायत्री शक्तिपीठ की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु पधारे। माँ गायत्री जी का पूजन करते समय उन्होंने कहा, ‘‘बेटा! प्राण-प्रतिष्ठा करने हेतु इस समय मैं सारे देश में घूम रहा हूँ, किन्तु जो मुहूर्त तेरे इस शक्तिपीठ को मिला, वह किसी को नहीं मिला।’’ फिर पुनः बोले, ‘‘बेटा! ये प्राणवान प्रतिमा है। जो माँगोगे, वही मिलेगा।’’
पूज्यवर के द्वारा प्रतिष्ठित अनेक शक्तिपीठों से अनेकों बार ऐसे संस्मरण प्रकाशित हुए हैं, जिनमें परिजनों ने अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण होने की बात कही है। पूज्यवर द्वारा की गई स्थापनाएँ इतनी प्रणवान हैं कि वहाँ पर जिन्होंने भी शुद्ध मन से श्रद्धा पूर्वक, जो भी याचना की है, पूर्ण होकर ही रही है।


गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना


श्रीमती विमला अग्रवाल, ब्रह्मवर्चस


सन् 1977 में मैं शान्तिकुञ्ज में तीन माह के समय दान के लिये आई हुई थी। प्रातः यज्ञ, प्रणाम, संगीत शिक्षण के बाद रोटी सेंकना दिनचर्या में शामिल था। उस दिन कार्तिक पूर्णिमा थी। गुरुजी प्रणाम के समापन व लेखन के पश्चात् चौके में आकर टहलने लगे। इसी समय भक्तिन अम्मा ने पूछा-‘‘गुरुजी, आज कार्तिक पुन्नी ए, गंगा नहाये जातेन, सब लइकामन घलो जाबोन कहत हैं।’’ (आज कार्तिक पूर्णिमा है, गंगा स्नान करने का मन है। सभी लड़कियाँ भी जाने के लिये कह रही हैं।)
गुरुजी ने कहा, ‘‘अच्छा-अच्छा! आज कार्तिक पूर्णिमा है? ठीक है, ठीक है। चले जाना। कार्तिकेयकों हमारा आशीर्वाद कहना। गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना।’’
मैं उनके शब्दों को सुन कर कुछ क्षणों तक सोचती रह गई, गुरुजी यह क्या कह रहे हैं? ‘‘कार्तिकेयकों हमारा आशीर्वाद कहना। गंगा को हमारा आशीर्वाद कहना।’’ माँ गंगा व कार्तिकेय को आशीर्वाद कौन दे सकता है? फिर अन्तरमन ने कहा, माँ गंगा व कार्तिकेय को आशीर्वाद देने की सामर्थ्य रखने वाले साक्षात् शिव के अतिरिक्त और कौन हो सकते हैं?


अंतर्यामी गुरुदेव


(श्री विश्वप्रकाश त्रिपाठी जी ने सन् 1981 में दीक्षा ली और वसंत पंचमी सन् 1988 में स्थाई तौर पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)


घटना उन दिनों की है जब पूज्यवर शक्तिपीठों की प्राण प्रतिष्ठा के क्रम में देशव्यापी दौरे पर थे। 8 जनवरी 1981 को डॉ. होता के बंगले में लखनऊ में गुरुदेव के प्रथम दर्शन हुए। मैं प्रणाम कर एक कोने में खड़ा हो गया। मन ने कहा, ‘‘ये विश्व के सबसे विद्वान व्यक्ति हैं। दीक्षा ले लो, तो सब मालूम हो जायेगा।’’
गुुरु दीक्षा से गुरुशक्ति प्राप्ति का संदेश मन में पूर्व से ही समाया था। थोड़ी देर बाद मैं बाहर आ गया। चूँकि गुरुदेव प्रातः ही मिलते थे। अतः हम सब बड़े सबेरे बिना चाय-नाश्ते के ही निकल पड़े थे। मेरे बड़े भाई डॉ. ओ.पी. शर्मा जी भी साथ थे, उन्हें भूख लग रही थी। अन्दर गुरुजी ने श्री कपिल जी से कहा, ‘‘जाओ, डॉ. ओ.पी. को भूख लग रही है, उसे फल निकाल कर दे दो।’’ श्री कपिल जी ने हमें फल लाकर दिये और बताया कि डॉक्टर साहब को भूख लग रही थी, अतः गुरुजी ने फल भेजे हैं। हम दोनों भाई आश्चर्य में पड़ गये। हमने तो किसी को कुछ कहा नहीं। उन्हें कैसे पता लगा कि हम भूखे हैं?
थोड़ी देर बाद गुरुदेव बाहर आए व बोले, ‘‘हम डॉ. ओमप्रकाश की गाड़ी में जायेंगे। ओपन गाड़ी में नहीं जायेंगे।’’ उन्हें अयोध्या जाना था। डॉ. ओमप्रकाश जी, मन ही मन सोच रहे थे कि पूज्यवर हमारी गाड़ी में चलते तो कितना अच्छा होता? किन्तु संकोचवश कह नहीं पा रहे थे। साथ ही, व्यवस्था में हस्तक्षेप भी नहीं करना चाहते थे। इतना सुनते ही उनका मन बाग-बाग हो गया और वे गुरुजी को अयोध्या तक पहुँचाकर आये।
एक दिन गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, श्रद्धा ही वह शक्ति है जिसके माध्यम से व्यक्ति भगवान् से जुड़ता है। अतः जो लोगों में श्रद्धा जगाता है, वह सबसे अच्छा है किन्तु जो इसे तोड़ता है, वह हमारा शत्रु है।’’ तभी हमने श्रद्धा का महत्त्व समझा।
गायत्री शक्तिपीठ अयोध्या की प्राण प्रतिष्ठा के समय पूज्यवर ने स्पष्ट किया, ‘‘बेटे, ऋषि विश्वामित्र जब अयोध्या आये थे, तब इसी जगह पर ठहरे थे। चूँकि विश्वामित्र ऋषि गायत्री मंत्र के प्रणेता हैं, अतः तभी रामजी ने संकल्प लिया था कि यहाँ गायत्री मंदिर बनेगा। आज वह संकल्प पूर्ण हुआ।’’ हम सब सुनकर हैरान थे। त्रेता की बातें गुरुदेव को कैसे मालूम?
8 जनवरी सन् 1981 के प्रथम मिलन के बाद मैं लगातार पूज्यवर के सम्पर्क में रहा। अखण्ड ज्योति पढ़ता व प्रचार-प्रसार करता रहा। शान्तिकुञ्ज कई बार आया व गुरुदेव से मिलता रहा। मन में प्रश्न उठते रहे कि जिस प्रकार मानव दिनों दिन संवेदना विहीन होता जा रहा है, मानवता की रक्षा कैसे होगी? गुरुदेव तो अन्तर्यामी थे। एक मुलाकात में उन्होंने कहा-‘‘युग को मैं बदल दूँगा। प्रज्ञावतार की विराट लीला सम्पूर्ण विश्व मानवता की रक्षा करेगी।’’ मेरा समाधान हो चुका था। वसंत पर्व सन् 84 को मैंने जीवन दान दिया किन्तु तब मुझे अनुमति नहीं मिली। मैं समयदान करता रहा और टोलियों में भी जाता रहा। फिर कुछ वर्ष बाद मैं पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गया।


तेरे शिव-पार्वती हम ही हैं


श्री महेंन्द्र शर्मा जी, शान्तिकुञ्ज


उन दिनों मैं शान्तिकुञ्ज में निर्माण विभाग में था, मजदूरों के साथ चौबीस बार गायत्री मंत्र बोलता था तथा उन्हें बताता था कि पूज्यवर साक्षात् शिव के अवतार हैं।
एक दिन कुछ मजदूरों ने कहा, ‘‘भाई साहब! हम लोग नीलकण्ठ जा रहे हैं, आप भी चलिए न। पिकनिक भी होगी। आप भी होंगे तो बहुत अच्छा लगेगा?’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘मुझे गुरुदेव ने मना किया है। कहा है, उत्तर दिशा में नहीं जाना।’’ वे सभी मन मार कर चले गये। कुछ वर्ष बाद मेरे मन में भी इच्छा हुई। माताजी के पास गया, वहाँ दस-बारह बहनें बैठी हुई थीं। मैं वापस जाने लगा। माताजी ने कहा, ‘‘लल्लू जाना नहीं। एक मिनट रुको, क्यों आये हो?’’
मैंने कहा, ‘‘माताजी, नीलकण्ठ जा रहा हूँ।’’ ‘‘क्या है वहाँ?’’ माताजी ने पूछ लिया। मैंने जवाब में कहा, ‘‘माताजी शंकर जी का सिद्धपीठ है।’’ माताजी गंभीर हो गईं व कहा, ‘‘ना बेटे! तू मत जा। तेरा अगर श्रद्धा-विश्वास है, तो तेरे शिव-पार्वती हम ही हैं।’’
मैं अचंभित होकर माताजी को एकटक निहारने लगा और मन में सोच लिया ‘‘अब कहीं नहीं जाना।’’
बाद में भी मन कहता रहा, यद्यपि हम जानते हैं कि वे शिव-पार्वती स्वरूप हैं। फिर भी क्यों बार-बार भूल जाते हैं? और वह करुणामयी माँ, हमें हमारी भूलों को सुधार कर पुनः-पुनः स्मरण करा देती हैं।


बस दो ही पुस्तकें पढ़ लो


यह सन् 74-75 की बात है, उन दिनों हम भिलाई में ही रहते थे। श्री गजाधार सोनी व मैं शान्तिकुञ्ज आए हुए थे। चर्चा के दौरान श्री सोनी जी ने कहा-‘‘गुरुजी का इतना साहित्य है। हम लोग कैसे पढ़ पायेंगे? गुरुजी केवल ऐसी बीस पुस्तकें बता दें जो हम पढ़ सकें।’’
तब गुरुजी से कभी भी, कोई भी मिल सकता था। मैंने कहा-‘‘चलो गुरुजी से ही पूछेंगे।’’ दोनों गुरुजी के पास पहुँचे। उन्होंने स्वयं ही कहा-‘‘कैसे आये बच्चो? कुछ पूछना है तो पूछो।’’
हम लोगों ने कहा, ‘‘गुरुजी, हम लोग प्लान्ट में काम करते हैं। आपका इतना सारा साहित्य तो हम पढ़ नहीं पायेंगे। अतः आप चुनी हुई बीस पुस्तकें बता दें। हम वही पढ़ लें।’’ हमारी बात सुनते ही ऐसा लगा जैसे वे भाव समाधि में खो गये। फिर कुछ क्षण बाद कहा, ‘‘बेटे, तुम लोग केवल दो ही पुस्तकें पढ़ लो। एक है-श्रीमद्भागवत् और एक रामचरितमानस’’ और उठकर वहीं कमरे में चक्कर लगाने लगे। लगा कि वे भाव समाधि से जागृत होकर कुछ बताना चाह रहे हों और दो चक्कर लगाने के बाद कहा, ‘‘इसमें हमारा सारा जीवन, हमारी सारी योजना लगी है।’’ हम लोग हतप्रभ से रह गए। तर्क कब ईश्वर को पहचान सकता है। कुछ समझ नहीं पाए। दो किताब पढ़ने की बात मानकर घर आ गये।
मैंने पत्नी को उनकी बात बताई। श्रद्घा से सृष्टा कैसे छुपते? पत्नी ने कहा, ‘‘आपने इस पर सोचा नहीं। वे स्वयं ईश्वर हैं। राम व कृष्ण स्वरूप। इसलिये ही तो भागवत् व मानस पढ़ने को कहा व यही हमारी योजना भी है।’’ मुझे लगा, यह ठीक तो कह रही है पर मैं कैसे नहीं समझ सका?


मैं धन्य हो गया


श्री रमेश मारू, बिलासपुर, छत्तीसगढ़


यह प्रसंग मुझे श्री रामाधार विश्वकर्मा जी ने सुनाया था। उनके पास संस्मरणों का भण्डार है। शान्तिकुञ्ज, गेट नं. 1, पोस्ट आफिस के पास में पहले एक कुआँ था और गुलाब के फूलों का बगीचा था। जिसके बीच घास हुआ करती थी। वहाँ पूज्य गुरुदेव एवं वन्दनीया माताजी प्रायः शाम के समय बैठा करते थे।
श्री रामाधार विश्वकर्मा जी शान्तिकुञ्ज आए हुए थे। एक दिन शाम को गुरुजी व माताजी उस बगीचे में बैठे हुए थे। संध्या हो गई थी, अतः श्री विश्वकर्मा जी कुँए से थोड़ी दूरी पर ध्यान में बैठ गये। वे उच्च कोटि के साधक थे। वहाँ बैठकर वे ध्यान करने लगे और ध्यान में खो गये। ध्यान में उन्होंने देखा कि उनके गुरु ही श्री रामकृष्ण-माँ शारदामणि, राधा-कृष्ण एवं सीता-राम हैं। यह दृश्य उन्हें कुछ देर तक पलट-पलट कर दिखाई देता रहा। मन में विचार आया-‘‘अरे! यह क्या हो रहा है? ऐसा क्यों दिख रहा है?’’ पुनः उन्हीं दृश्यों की फिर पुनरावृत्ति हुई। फिर तीसरी बार भी हुई। आँखें खोलीं तो देखा सामने गुरुजी व वन्दनीया माताजी बैठे हुए हैं। जाकर पूछा, ‘‘गुरुदेव! मैंने इस प्रकार ध्यान में देखा है, इसका रहस्य बतायें, कहीं कुछ भ्रम तो नहीं।’’
पूज्य गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले-‘‘बेटा, तूने जो देखा है, ठीक देखा है।’’ वे कहते हैं मैं तो धन्य हो गया। पूर्व में काकभुसुण्डि, कौशल्या व अर्जुन आदि को भी इन्हीं दृश्यों से युग स्रष्टा ने निहाल किया था। आज वे भी इसके पात्र बने थे।


गिरा-अरथ जल-बीचि सम..


डॉ. अमल कुमार दत्ता, शान्तिकुञ्ज


उन दिनों मैं सिविल सर्जन था। पूज्यवर कार्यक्रम हेतु दौरे पर थे, इस बीच में शान्तिकुञ्ज आया। माताजी अकेले ही बैठी थीं। मैंने श्रद्धा पूर्वक उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-‘‘माताजी! मेरा मन गुरुजी को प्रणाम करना चाहता है। मैं उन्हें प्रणाम करने को व्याकुल हो रहा हूँ।’’ सुनते ही माताजी बोलीं, ‘‘बेटा, तू गुरुजी को ही प्रणाम कर रहा है। वे तुम्हारा प्रणाम स्वीकार भी कर रहे हैं।’’
इसके साथ ही मुझे वहाँ गुरुवर की स्पष्ट अनुभूति हुई। मैंने तुरंत दायें-बायें देखा पर स्थूल में तो केवल माताजी ही बैठी थीं। उस समय मैंने तुलसी के इस दोहे की सार्थकता को स्वयं अनुभव किया और दोनों की छवि हृदय में लिये नीचे उतर आया।
‘‘गिरा-अरथ, जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।
बन्दौ सीता-राम पद, जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥’’


जब मैंने ऋषि सत्ता के दर्शन किये


श्रीमती श्रीपर्णा दत्ता, शान्तिकुञ्ज


जैसे रामावतार के समय भगवान राम ने माता कौशल्या एवं काकभुसुण्डि जी को अपना विश्वरूप दिखाया, कृष्णावतार में माता यशोदा व प्रिय सखा अर्जुन को दिखाया, उसी प्रकार इस युग में भी अपने भक्तों को उन्होंने इस सौभाग्य से वंचित नहीं रखा।
घटना सन् 1963 की है। घीयामण्डी मथुरा के मकान में गुरुदेव खटिया पर बैठे थे। सामने माताजी हम लोगों को खाना खिला रही थीं।
मैंने कहा, ‘‘गुरुजी! हमारे घर माँ शारदामणि और रामकृष्ण की दो बड़ी फोटो है। एक दिन मैंने दोनों चित्रों में आपका और माताजी का रूप बदलते देखा।’’
गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटी, तुमने ठीक देखा है। यह शरीर जो आज श्रीराम शर्मा आचार्य और माताजी का है, यही माँ शारदामणि और रामकृष्ण थे।’’ मैं उनके दर्शन कर श्रद्धावनत थी।


मुझसे काम नहीं चलेगा?


श्री राम सिंह राठौर, शान्तिकुञ्ज


मैंने शान्तिकुञ्ज में गुरुवर से भेंट के समय सामयिक सभी चर्चा की समाप्ति के पश्चात् कहा, ‘‘गुरुदेव! मुझे भगवान को देखने का मन है। क्या आप दिखा देंगे?’’
गुरुजी ने बड़े सहज भाव से कहा-‘‘क्यों बेटा! मुझसे काम नहीं चलेगा?’’ मैं उन्हें बस देखता रह गया। मन ने कहा, बार-बार अनुभव कराते हैं फिर भी जाने क्यों पूछ लिया।
पूज्यवर ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बेटा! तू चिन्ता मत कर। मैं हूँ न। तू मेरा काम कर, मैं तेरा काम करूँगा। बेटा! जब तू यहाँ से जायेगा न, तब मैं तुझे अपने इन कन्धों पर बिठा कर ले जाऊँगा।’’ और उन्होंने अपने कंधों पर अपने दोनों हाथ रख कर इशारा कर दिया। उनकी बात सुनकर मैं भाव विह्वल हो गया। मेरी आँखों से अश्रु झरने लगे। उन पलों की याद में आज भी मेरे नयन भीग जाते हैं। गौड़ जी भाई साहब ने भी एक बार उन्हें भगवान के दर्शन कराने की बात कही थी तब भी उन्होंने यही शब्द कहे थे।


इसी जन्म में परम पद दिला देंगे


(श्री शिव पूजन सिंह जी ने सन् 1969 में दीक्षा ली और 20 जून, सन् 1978 को स्थाई तौर पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)


सन् 1975-1976 से पूज्यवर कार्यकर्ताओं के आह्वान हेतु, शान्तिकुञ्ज में निवास के अनेक लाभ अखण्ड ज्योति के स्तंभ ‘अपनों से अपनी बात’ में प्रकाशित कर रहे थे। जिनमें से एक यह भी था कि गंगा के किनारे निवास व तपस्या का लाभ मिलेगा। मेरे मन में भी इच्छा जागी व इसी परिप्रेक्ष्य में मैं पूज्यवर से मिलने आया। गुरुजी के पास पहुँच कर चर्चा की।
पूज्यवर ने कहा, ‘‘बेटे, तुझे तो, बस, आ भर जाना है।’’
मैंने कहा, ‘‘गुरुजी! मैं तो गंगा किनारे तपस्या करना चाहता हूँ।’’उन्होंने कहा, ‘‘ना बेटे ना! तब तो तुझे सात जन्म लगेंगे। बेटे! हम तुझे इसी जन्म में परम पद दिला देंगे।’’ मैं उन्हें एकटक देखता रह गया। सोचा, परम पद देने वाला परमेश्वर के अलावा कौन हो सकता है? तपस्या ईश्वर प्राप्ति के लिये की जाती है, जब वे स्वयं मिल गये व कह रहे हैं, अर्थात् तपस्या से पहले ही वरदान मिल गया। तब वे जो कहते हैं उसे करने में क्या नुकसान है? यह सोचकर मन ही मन उनका ही कार्य निरन्तर करने का संकल्प ले लिया।


प्रज्ञावतार का अंश बनने की छूट देता हूँ


(श्री कालीचरण शर्मा जी ने सन् 1975 में दीक्षा ली और सन् 1985 में स्थाई तौर पर सपरिवार शान्तिकुञ्ज आ गये।)


ईश्वर जब मानव का रूप धारण करते हैं, तब उसका धर्म भी बखूबी पालन करते हैं। यद्यपि भगवान् सब कुछ तत्काल करने में समर्थ हैं फिर भी नर तन की मर्यादा के अनुरूप कष्ट, कठिनाइयों, विरोधों से गुजरते हुए क्रमिक विकास ही स्वीकार कर शिष्यों को शिक्षण देते हैं।
पूज्यवर ने कहा-‘‘ये लाल मशाल का चित्र देख रहे हो, इसके नीचे लाखों लोग खड़े हैं, इसमें मैं तुम्हारा भी फोटो देखना चाहता हूँ। ये जन श्रद्धा का हाथ है, पीछे भगवान का कार्य तेज गति से चल रहा है। ज्ञान का आलोक, प्रज्ञावतार नित्य क्षण पुष्ट हो रहा है। ’’
‘‘मैं तुम सब लोगों को प्रज्ञावतार का एक अंश बनने की छूट देता हूँ।’’ इस प्रकार उन्होंने ज्ञान रूप स्वयं के प्रज्ञावतार होने का परिचय दिया। साथ ही कर्मठ कार्यकर्ताओं को व सामान्य को यह संदेश दिया कि आप भी चाहें तो युगानुरूप प्रज्ञा अभियान में भाग लेकर, अपने सौभाग्य को जगाकर प्रभु के अभिन्न अंग ‘‘अंश’’ बन सकते हैं।
अन्त में किस चतुराई से अपने सभी क्रियाशील कार्यकर्ताओं को, देवों को भी दुर्लभ अपना अंश बनने का प्रसाद प्रदान कर दिया, जिसे उन्हीं की अनुकम्पा से ही उनके कार्यकर्ता समझ पायेंगे, अन्य नहीं।
प्रभु की ओर से ‘‘अंश’’ बनने की छूट सबको है, किन्तु बनेगा वही, जो उनकी योजना में भाग लेगा।
श्री कालीचरण शर्मा जी कहते हैं कि तब मैं भिलाई में इंजीनियर था। नौकरी से त्याग पत्र देकर आने के लिये विचार-विमर्श हेतु पूज्यवर के पास गया था। चर्चा हो रही थी उसी दौरान उन्होंने कहा, ‘‘बेटे, यह सवाल तो गुम्बज की तरह है। तू कहेगा कि न करूँ या करूँ तो जवाब आयेगा करूँ..., करूँ..., करूँ...। तू कहेगा करूँ, न करूँ तो जवाब आयेगा न करूँ..., न करूँ..., न करूँ...। बेटा, तू कर ही डाल। यहाँ आ जा।’’
चूँकि भविष्य में आय का स्रोत नहीं था। अतः मैं त्याग पत्र देने हेतु बार-बार सोच रहा था। किन्तु उनके इतने शीघ्र निर्णय की बात से मैं भौचक हो गया व अन्त में शान्तिकुञ्ज आने का निर्णय ले लिया। आज उनका कथन सत्य है अन्यथा पश्चाताप की ज्वाला में अवश्य जलना पड़ता।क्या कुम्भ में हिमालय की बड़ी हस्तियाँ भी आती हैं?


श्री शान्तिलाल आनंद, भोपाल


घटना सन् 86 की है, परम पूज्य गुरुदेव तब सूक्ष्मीकरण साधना से निकले ही थे। श्री शान्तिलाल जी बताते है कि कुम्भ का समय था। मैं अपने एक मित्र कार्यकर्ता के साथ 3-4 दिन के लिये शान्तिकुञ्ज आया था। गुरुदेव हम दोनों को प्रायः सुबह-शाम बुलवा लेते।
तब चौका ऊपर ही था। वहीं खाना बनता, छत पर ही बैठकर सब खाना खाते। गुरुजी का बुलावा न आ जाय इस भय से हम लोग पहले ही खाना खाकर निपट लेते थे।
एक दिन पूज्यवर के पास बैठे हुए मुझे एक प्रश्न सूझा, मैंने कहा-‘‘गुरुजी एक प्रश्न पूछूँ?’’ उन्होंने कहा-‘‘हाँ बेटा! जो भी पूछना है पूछो। बिल्कुल पूछो।’’
मैंने कहा ‘‘हमने सुना है गुरुजी, कुम्भ के मेले में हिमालय से ऋषि-मुनी व अन्य बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भी कुम्भ में स्नान करने आती हैं? क्या यह सच है?’’
‘‘हाँ बेटा! जरूर आयेंगी। ये सभी हस्तियाँ स्नान के लिये आयेंगी पर किसी को नजर नहीं आयेंगी। ये सूक्ष्म रूप से हवा में उड़ते हुए आती हैं और स्नान करके वापस चली जाती हैं।’’ मैंने पूछा, ‘‘ऐसे ही दादा गुरुजी भी आयेंगे।’’ गुरुदेव ने कहा, ‘‘हाँ,... यह जो तखत देख रहे हो न, स्नान के बाद इसमें, आकर हमारे पास दादा गुरुजी बैठेंगे। हमारा वार्तालाप होगा और वे वापस सूक्ष्म रूप से चले जायेंगे। किसी को नजर नहीं आयेंगे।’’
मेरी शंका का समाधान स्वयं गुरुदेव के श्रीमुख से हो चुका था। कुम्भ की महत्ता, पौराणिक सत्यता सुनकर मन में किसी प्रकार की कोई शंका नहीं रह गई थी।


युग देवता के शिष्य हो तुम


श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी, शान्तिकुञ्ज


देवराहा बाबा भारत के मान्य संत रहे हैं। बड़े-बड़े उद्योगपति एवं राजनेता उनका आशीर्वाद पाने के लिए लालायित रहते थे। जब कभी कोई गायत्री परिवार के परिजन उनके दर्शन करने पहुँचते थे, तो वे बड़ी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें खूब प्रसाद और आशीर्वाद देते थे। पू. गुरुदेव के बारे में पूछने पर वे बड़े भावभरे सम्मानयुक्त शब्द कहा करते थे। जैसे-
एक बार मैं और मेरा एक मित्र के. पी. श्रीवास्तव देवराहा बाबा जी से मिलने गये। हम लोग बाबाजी के मचान तक पहुँच कर उनके एक शिष्य से बोले कि स्वामी जी को कहें कि पंडित श्रीराम शर्मा जी के शिष्य आये हैं। आपको प्रणाम करना चाहते हैं।
संदेश मिलने पर स्वामी जी ने दर्शन दिये और बोले-‘‘अरे! पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के बच्चों को हमारा प्रणाम...। प्रणाम...। प्रणाम...। हमने मन ही मन सोचा स्वामी जी हमें प्रणाम क्यों कह रहे हैं?’’
तब तक स्वामी जी स्वयं ही बोले, ‘‘आचार्य जी के शिष्य हो तुम। महाकाल के शिष्य हो तुम। युग देवता के शिष्य हो तुम। सामान्य नहीं हो। हम प्रणाम कर रहे हैं, तो सोच कर ही कर रहे हैं। तुम्हारे गुरु श्रीराम नहीं स्वयं राम हैं।’’
हम लोगों को वहाँ तक जाते-जाते भूख लग आई थी। सो मन में ठान कर गये थे कि संतों के पास खूब फल आदि रहते हैं। कुछ तो खाने को मिलेगा ही। बाबा जी की बात सुनने के पश्चात् हमारा ध्यान भूख की ओर गया। तब तक बाबा जी बोले-‘‘इनको भूख लगी होगी। इनको खाने को दो।’’ आदेश पाकर उनका शिष्य संतरे ले आया और दो-दो संतरे हम लोगों को दिये। इस पर बाबा ने कहा, ‘‘दो-दो क्या देते हो? हाथ भर-भर कर दो।’’ हम लोग झोली भर-भर कर प्रसाद लेकर आये और पेट भर कर संतरे खाये।
कुछ दिन बाद हम पुनः उनसे मिलने गये, तब हमने उनसे कहा, ‘‘कुछ पूज्य गुरुदेव के बारे में बताइये।’’ तो वे बोले-‘‘तुम उनके पास से आये हो! तुम बताओ। मैं क्या बताऊँ?’’ हमने कहा-‘‘हमारी दृष्टि बहुत स्थूल है। आपकी दृष्टि सूक्ष्म है। आप उनके बारे में हमें समझाएँ।’’ तो वे बोले, ‘‘जिनका मैं अपने हृदय में निरंतर ध्यान करता हूँ, वे हैं तुम्हारे गुरु, आचार्य श्रीराम।’’
बाबा के उक्त कथन में कितनी गहराई है। यह कौन समझ पाता? संत सहज ही दूसरों को सम्मान देते रहने के अभ्यस्त होते हैं। इसी संत सुलभ-शिष्टाचार के अन्तर्गत लोग उनकी उक्त अभिव्यक्तियों को लेते रहे।
एक और तथ्य है, पूज्य गुरुदेव के शरीर छोड़ने के कुछ दिन बाद ही बाबा ने भी शरीर छोड़ दिया। इसे भी एक संयोग कहा जा सकता है, लेकिन निम्र संस्मरण से उनके कथन और परस्पर संबंधों की गहराई प्रकट हो जाती है।
श्रीराम चले गए अब मैं शरीर रखकर क्या करूँगा-बाबा के शरीर छोड़ने के बाद उनके एक अनन्य शिष्य आई. ए. एस. अधिकारी जब पहली बार शान्तिकुञ्ज पहुँचे तो चर्चा के दौरान उन्होंने पूज्य गुरुदेव द्वारा शरीर त्याग की तिथि पूछी। हमने बताया, पूज्य गुरुदेव ने 2 जून 90 को शरीर छोड़ा। सुनते ही उनके मुख से सहज ही निकल पड़ा, ‘‘देखो यही बात थी।’’ पूछने पर उन्होंने अपना संस्मरण सुनाया-
बाबा के देह त्यागने से कुछ दिन पहले वे बाबा से मिले थे, तो बातचीत के दौरान बाबा बोले, ‘‘अब शरीर रखने का मन नहीं है।’’ हमने पूछा, ‘‘क्यों महाराज?’’ तो अपने हाथ की खाल पकड़कर खींचते हुए कहा-‘‘अब ये चाम रखकर क्या करेंगे? आत्मा तो चली गई।’’ मैंने कहा, ‘‘महाराज, बात समझ में नहीं आई? आत्मा कैसे और कहाँ चली गई?’’ तो बाबा बोले-‘‘अरे! वे श्रीराम चले गए न... अब ये शरीर रखकर क्या करूँगा?’’ और कुछ ही दिनों बाद 19 जून 1990 को बाबा ने शरीर छोड़ दिया। वन्दनीय है यह दिव्य प्रेम और वन्दनीय हैं उसे धारण करने वाले महापुरुष।


फिर मुझे प्रायश्चित करना पड़ेगा


श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी अपनी आँखों देखे प्रसंग बताते हुए कहते हैं कि एक बार महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती जी (आर्य समाज के सुप्रसिद्ध संत) हरिद्वार आये हुए थे और व्यास आश्रम में ठहरे थे। गुरुजी ने मुझसे कहा, ‘‘जा शिवप्रसाद, देखकर आ तो महात्मा जी आश्रम में हैं कि नहीं।’’ मैं व्यास आश्रम गया। स्वामी जी मुझे देखते ही बोले, ‘‘आचार्य जी को बोल देना, आनंद स्वामी नहीं है.., यहाँ नहीं है। तू नहीं बोलेगा तो वो यहाँ आ जायेंगे.., मेरे पास। (वे उनके समय को बहुत महत्त्व देते थे और अक्सर स्वयं ही गुरुदेव से मिलने शान्तिकुञ्ज आ जाया करते थे।) फिर मुझे प्रायश्चित स्वरूप अनुष्ठान करना पड़ेगा।’’ इतने में हाथ में फलों का टोकरा लिये हुये गुरुजी स्वयं ही पहुँच गये। महात्मा आनंद स्वामी उनके चरण छूने के लिये आगे बढ़े। गुरुजी ने तुरंत अपने पाँव पीछे समेट लिये और उनके चरण स्पर्श करने के लिये आगे बढ़े। इस पर महात्मा जी सिद्धासन लगा कर बैठ गये और बोले, ‘‘देखो आचार्य जी, आप पाँव नहीं पड़ने दोगे तो लो, हम सिद्धासन लगा कर बैठ गये।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘बाबा, आप ऐसी जि़द क्यों करते हो? आपने तो हठ योग की साधना यहीं पर शुरू कर दी।’’ महात्मा जी बोले, ‘‘मैं तो हूँ ही हठ योगी।’’ हार कर गुरुजी ने पाँव सामने किये। उन्होंने तुरंत प्रणाम किया। गुरुदेव ने भी तुरंत बिना एक पल गँवाये महात्मा जी को प्रणाम किया। इस पर महात्मा जी बोले, ‘‘अब क्या? अब क्या? अब तो हम जीत ही गये।’’
इस प्रकार दोनों संतों में परस्पर प्रणाम के लिये अक्सर होड़ रहती थी। महात्मा जी शान्तिकुञ्ज आते, तब भी कौन पहले चरण स्पर्श कर ले। दोनों संत इसी प्रयास में रहते। कभी-कभी गुरुजी उनसे परिहास भी करते, ‘‘स्वामी जी, आप तो संन्यासी हैं। हम आपके शिष्यों को बता देंगे कि आप एक गृहस्थ को चरण स्पर्श करते हैं।’’ तब स्वामी जी मुस्कुराते हुए कहते, ‘‘आचार्य जी, आप कितना भी छिपायें पर हमने आपको पहचान लिया है।’’
ऐसे ही एक बार महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती जी हरिद्वार प्रवास के दौरान शान्तिकुञ्ज पधारे। शिविरार्थियों के बीच पूज्य गुरुदेव उन्हें स्वयं लेकर पहुँचे। दोनों साथ-साथ मंच पर विराजमान थे। स्वामी जी ने उद्बोधन के क्रम में अपनी उत्तराखण्ड यात्रा का प्रसंग सुनाया। ‘‘हम हिमालय यात्रा पर गये थे। प्रातः स्नान, ध्यान के बाद पर्वतों का हिमाच्छादित मनोहारी दृश्य देख रहे थे। गंगोत्री से ऊपर जाते समय देखा कि एक जगह हिमाच्छादित क्षेत्र के बीच एक चट्टान ऐसी है, जिस पर बर्फ नहीं जमी थी। मैंने गाइड से पूछा कि इसका क्या कारण है? गाइड ने पदार्थ विज्ञान के अनुसार कुछ तर्क देने का प्रयास किया, जो मेरे गले नहीं उतरा। मैंने कहा यह बचकानी बातें छोड़ो, कोई ठोस बात पता हो तो बताओ।
तब गाइड ने बताया कि ठोस बात क्या है, यह तो नहीं जानता; लेकिन इस क्षेत्र की मान्यता यह है कि इस स्थान पर कभी शिव जी ने तप किया था, इसलिए यहाँ कभी बर्फ नहीं जमती, चाहे जितना हिमपात होता रहे। सुनकर मैंने उस स्थान को ध्यान से देखकर कहा, ‘‘वहाँ चल सकते हो?’’ गाइड दुर्गम क्षेत्र कहकर कतराया। कुछ हमारे प्रभाव के कारण एवं कुछ धन के लालच से आग्रह करने पर वह तैयार हो गया। दो घंटे के कठिन परिश्रम के बाद किसी तरह हम वहाँ पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर मैं ú का ध्यान करने बैठा तो मुझे आचार्य श्री व माताजी दिखाई दिये। मुझे आश्चर्य हुआ, मैंने फिर ध्यान करने का प्रयास किया, तो मुझे फिर वहाँ आचार्य जी और माताजी की उपस्थिति का आभास हुआ।’’ फिर बोले, ‘‘मेरे बच्चो! मेरी कुड़ियो! तुम लोग समझ सकते हो कि आचार्य जी कौन हैं?’’


आमी जानी, के बाबा के माँ


एक बार गुरुजी-माताजी रिक्शा में बैठ कर कहीं जा रहे थे। मेरे मन में आया कि मैं भी देखूँ गुरुजी कहाँ जा रहे हैं? मैं साइकिल पर उनके पीछे-पीछे हो लिया। थोड़ा डर भी लग रहा था कि कहीं देख लिया तो, पर मैं चलता गया। देखा तो वे कनखल में माँ आनंदमयी के आश्रम में पहुँचे हैं। मैं थोड़ा दूर में रहकर देखता रहा। मैंने देखा माँ आनंदमयी उन्हें देखते ही प्रसन्नता से भर गईं और बोलीं, ‘‘आइये, आइये। माताजी-पिताजी, आइये।’’ गुरुजी बोले, ‘‘माँ तो आप हैं।’’ इस पर वे बंगाली भाषा में बोलीं, ‘‘आमी जानी, के बाबा के माँ।’’ मैंने केवल इतना ही देखा कि उन्होंने गुरुजी-माताजी के चरण पखारे और फिर गुरुजी-माताजी को भीतर ले गईं। अब भीतर तक तो मैं जा नहीं सकता था, इसलिये बाहर से ही लौट आया।



6. वे तंत्र के भी मर्मज्ञ थे


परम पूज्य गुरुदेव ने यूँ तो स्वयं को सबसे छिपाये रखा। किंतु आवश्यकता पड़ने पर अपने भक्तों के समक्ष उन्होंने स्वयं को प्रकट भी किया है। जब कभी किसी भक्त ने उन्हें कातर भाव से पुकारा तो वे उनके कृपा पात्र भी बने हैं। कहते हैं कि गायत्री साधना से ऊँची कोई साधना नहीं है। जिसने गायत्री को सिद्ध कर लिया है उसने सभी देवी-देवताओं को सिद्ध कर लिया। गायत्री के साधक के आगे भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र कुछ भी टिक नहीं सकते। पढ़ें ऐसे ही कुछ संस्मरण जब गुरुदेव ने तंत्र प्रयोगों से अपने बच्चों की रक्षा की और उन्हें आश्वस्त किया।


मारण प्रयोग निष्फल हुआ


किंगल, कुमारसेन (शिमला) के एक कार्यकर्ता श्री ओमप्रकाश शर्मा जी बताते हैं, ‘‘उन दिनों मैं बी.एस.एफ. में नौकरी करता था अतः अधिकतर घर से बाहर ही रहता था। एक बार रविवार को जब मैं अपने घर आया हुआ था, तो अपनी पत्नी को लेकर घूमने निकल गया। जब हम लौटे, तो अचानक पत्नी की तबियत बिगड़ गई। उनका शरीर अकड़ गया। वह सीढ़ियाँ ही चढ़ नहीं पा रही थीं। मैं सहारा देकर ऊपर चढ़ाने लगा, तब तक वह बेहोश हो गई। मैंने पत्नी को दोनों हाथों में लेकर ऊपर चढ़ाया और लिटा दिया। पास ही बैठकर सोचने लगा कि अचानक ये क्या हो गया? अब मैं क्या करूँ? मैं गायत्री मंत्र जपने लगा और गुरुजी को याद करने लगा। तभी मन में प्रेरणा हुई कि पीले चावल पूजा कक्ष से उठाकर गायत्री मंत्र पढ़कर पत्नी के ऊपर छिड़क दो। मैं तुरंत पूजा कक्ष से पीले चावल लाया और गायत्री मंत्र बोलते हुए पत्नी के ऊपर छिड़क दिया। ऐसा करते ही मुझे वहीं एक थाली तैरती हुई दिखाई दी। जो उड़ती हुई दरवाजे से बाहर निकली और सामने वाली पहाड़ी के पीछे चली गई। मुझे एहसास हुआ कि किसी ने पत्नी के ऊपर मारण प्रयोग किया था। मेरे मन में भय हुआ। गुरुजी से प्रार्थना की, ‘गुरुजी आज तो मैं यहाँ था, यही मेरे पीछे घटता, तो पत्नी को कौन बचाता?’ अचानक गुरुजी सूक्ष्म रूप में तैरते हुए कमरे में आये और कहा, ‘‘बेटा! मैं यहाँ बैठा तो हूँ। तू क्यों घबराता है?’’ कहते हुए अपने चित्र में समा गये। उस दिन से गुरुवर के प्रति मेरी श्रद्धा और भी प्रगाढ़ हो गई।’’


तांत्रिक से बचाया


सीतापुर उ. प्र. की एक कार्यकर्ता बहिन ने नाम न छापने का आग्रह करते हुए बताया कि विवाहोपरांत वह अपने ससुराल में बहुत पीड़ित रहने लगी। कोई तांत्रिक उनके जीवन में बाधाएँ उत्पन्न कर रहा था। मुझे विचित्र प्रकार की परेशानियाँ होने लगीं। जैसे मेरी साड़ी चीर-चीर हो जाना। सिर से बालों के गुच्छे निकल जाना और भी नये-नये ढंग से चित्र-विचित्र परेशानियाँ नित्य ही आती रहतीं। मुझे कोई रास्ता सूझ नहीं पड़ रहा था। मैं उपासना में गुरुजी के पास बैठकर रोती, प्रार्थना करती कि गुरुदेव मुझे बचा लो। मुझे मार्ग दिखाओ। हर पल मन ही मन उनसे प्रार्थना करती रहती। कुछ दिन बाद गुरुजी ने मेरी प्रार्थना सुन ली। एक दिन मुझे ऐसा लगा जैसे गुरुजी कह रहे हैं, ‘उठ! कापी-पेन पकड़ और लिख।’ मैं लिखने लगी और देखा कुछ मंत्र हैं। फिर गुरुजी ने उनका प्रयोग व आहुति आदि देने के लिये बताया। मुझे जैसी-जैसी प्रेरणा हुई थी, मैंने वैसा ही किया। मेरी परेशानियाँ घटने लगीं। अब अक्सर ऐसा होता कि वह तांत्रिक जब भी कोई प्रयोग करता, उपासना के समय मुझे लगता जैसे गुरुजी कह रहे हैं, ‘‘कापी-पेन पकड़ और लिख, आज उस तांत्रिक ने अमुक प्रयोग किया है। तुम इस प्रकार की आहुतियाँ देकर उसकी काट करो।’’ मैं वैसा ही करती और संकटों का निवारण होता जाता।
एक दिन मैंने गुरुजी से प्रार्थना की, ‘‘गुरुजी! मुझे छाती में बड़ा चुभने वाला शूल होता है। उसका क्या उपाय करूँ?’’ तब गुरुजी ने बताया कि घर की पीछे वाली दीवाल में अमुक जगह पर तांत्रिक ने एक कील ठोंकी है। उसे निकाल दो। मैंने जब वह कील निकाली, तो मेरी छाती का दर्द भी ठीक हो गया। इस प्रकार तांत्रिक अपने मंसूबों में सफल नहीं हो पाता था, उल्टे वही चोटें खाता रहता।
एक दिन तांत्रिक ने छल विद्या का प्रयोग किया। वह मेरे पति के वेश में साइकिल लेकर आया और कहीं चलने के लिए कहा। मैं उसे अपना पति समझकर साइकिल पर उसके पीछे बैठकर जाने लगी। रास्ते में गायत्री शक्ति पीठ पड़ा। मुझे गायत्री माता को प्रणाम कर लेने की इच्छा हुई। मैंने उसे साइकिल की रफ्तार धीरे करने के लिये कहा। जैसे ही मैंने साइकिल से उतरकर झुककर गायत्री माता को सड़क से ही प्रणाम किया और पीछे मुड़कर देखा तो मुझे तांत्रिक का असली रूप दिखायी दिया। वह जिसके साथ मैं साइकिल पर बैठकर आयी हूँ, वह मेरा पति नहीं, तांत्रिक है! देखकर, मैं घबरा गई और झट से गायत्री शक्तिपीठ की ओर दौड़ गई। तांत्रिक को इस बात का अहसास हो गया कि मुझे सब पता चल गया है तो वह, ‘‘तेरे गुरु बड़े सबल हैं।’’ चिल्लाते हुए भाग गया और फिर कभी मुझे परेशान नहीं किया।


जब सिद्ध तांत्रिक तड़प उठा


एक परिजन ने बताया कि वे हरिद्वार में ‘हरि की पौड़ी’ क्षेत्र में रोज बुक स्टॉल लगाने जाते थे। जहाँ वे बुक स्टॉल लगाते थे, वहीं एक साधू स्नान करने आता था। वह उन्हें कहता, ‘‘यहाँ से दूर चले जाओ, यहाँ ये सब मत लगाओ।’’ पर वे माने नहीं। वहीं बुक स्टॉल लगाते रहे। एक दिन उस साधू ने अंजलि में जल लेकर मंत्र पढ़कर उनके ऊपर दो बार छोड़ा। तीसरी बार मंत्र पढ़कर जब वह छोड़ने जा रहा था, तभी उसका पूरा शरीर गर्मी से जलने लगा। वह तड़प उठा, और वहाँ से भाग ही खड़ा हुआ।
अगले दिन जब वह परिजन गुरुजी को अपनी बात सुनाने जा रहे थे, तो उनके कुछ कहने से पहले ही गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा उनकी बात मान लेनी चाहिये थी, नहीं तो वह इतना सिद्ध तांत्रिक था कि वह तुम्हें जला सकता था।’’ तब उन्हें ज्ञात हुआ कि पूज्य गुरुजी ने ही उन्हें बचाया था।


उसे तुरंत लेकर आ


श्रीमती मुक्ति शर्मा, शान्तिकुञ्ज


मेरी ननद की शादी थी। उन दिनों हम शान्तिकुञ्ज में ही रहते थे। हम लोग शादी में आगरा गये। खूब धूमधाम से शादी सम्पन्न हो गई। जिस दिन ननद की विदाई हुई, उस दिन मैंने बस थोड़ी सी मिठाई ही खाई थी और कुछ मुझसे खाया ही नहीं गया। उसके बाद अचानक मेरी तबियत बहुत खराब हो गई। मेरे पेट में भयंकर दर्द होने लगा। मुझे तुरंत अस्पताल ले जाया गया। दर्द का कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैं बेहोश जैसी हालत में पड़ी थी, और दर्द से छटपटा रही थी कि मुझे ऐसा आभास हुआ, जैसे माताजी मेरे सिर पर हाथ फिरा रही हैं। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘किसी से तेरा कोई झगड़ा हुआ है क्या?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं माताजी, ऐसी तो कोई बात नहीं हैं।’’ तब माताजी बोली, ‘‘ठीक है बेटी, मैं देख लूँगी। तुझे कुछ नहीं होगा। तू अच्छी हो जायेगी।’’ उसके बाद मेरी तबियत में थोड़ा सुधार होने लगा। मुझे अस्पताल से वापिस घर ले आये।
हमें उसी दिन शान्तिकुञ्ज लौटना था। मेरी तबियत खराब होने के कारण शर्मा जी मुझे घर पर ही छोड़कर स्वयं रात की बस से शान्तिकुञ्ज चले गये। सुबह 6:00 बजे के लगभग वे शान्तिकुञ्ज पहुँचे। पहुँचते ही गुरुजी के पास गये। जैसे ही उन्होंने गुरुजी को प्रणाम किया, गुरुजी ने पूछा, ‘‘मुक्ति कहाँ है?’’ उन्होंने बताया कि उसकी तबियत थोड़ी बिगड़ गई थी, इसलिए घर पर ही छोड़ आया हूँ। सुनते ही गुरुजी बहुत नाराजगी भरे स्वर में बोले, ‘‘वहाँ किसके पास छोड़ आया? वहाँ कौन है? तुरंत जा और उसे लेकर आ। मर भी गई होगी तो भी तू उठा लाना, यहाँ हम उसे जिंदा कर लेंगे। भास्कर को गाड़ी निकालने को कह और तुरंत जा।’’
इनकी समझ में कुछ नहीं आया, इन्होंने कहा, ‘‘गुरुजी, अभी तो आया ही हूँ चाय तो पी लूँ।’’ गुरुजी बोले, ‘‘चाय भी तू रास्ते में ही पी लेना। तू मेरी लड़की को छोड़कर आया कैसे? उसे तुरंत लेकर आ।’’
उन्होंंने नीचे माताजी को प्रणाम किया और सब बात बताई। माताजी ने कहा, ‘‘गुरुजी ने अगर ऐसा कहा है, तो बेटा तुरंत जा और मुक्ति को लेकर आ।’’ और माताजी ने भास्कर जी को गाड़ी लेकर जाने के लिए कहा। ये उसी समय मुझे लेने के लिये निकल पड़े। शाम को आगरा पहुँचे, मुझे गाड़ी में बिठाया और उन्हीं पैरों लौट आये।
शान्तिकुञ्ज आ जाने के कुछ दिनों बाद मेरी तबियत अचानक फिर बहुत ज्यादा खराब हो गई। मुझे पेट में भयंकर दर्द होने लगा। मेरा पेट जैसे फूल गया था। मुझे किसी तरह भी चैन नहीं पड़ रहा था। गुरुजी के पास सूचना पहुँचाई गई। उस समय गुरुजी गोष्ठी ले रहे थे। उपाध्याय जी, मेरे पतिदेव आदि सभी लोग गुरुजी के पास ही बैठे थे कि शिव प्रसाद मिश्रा जी भाई साहब ने जाकर सूचना दी कि मुक्ति दीदी की तबियत बहुत खराब है। गुरुजी ने तुरंत गोष्ठी समाप्त की और मेरे पतिदेव से कहा, ‘‘महेन्द्र, तू जल्दी जा, मुक्ति को देख, मैं भी आता हूँ।’’
मुझे देखने के लिए डॉ. प्रणव, डॉ. दत्ता, डॉ. राजेन्द्र आदि सब लोग मेरे चारों ओर इकट्ठा हो गये। मुझे दवा दी गई, लेकिन किसी दवा से आराम नहीं हो रहा था। डॉक्टरों का कहना था कि इनकी किडनी फूल गई है। बर्स्ट होने की स्थिति में पहुँच गई है। किसी भी पल कुछ भी हो सकता है। इतने में गुरुजी आ गये। आते ही बोले, ‘‘मुक्ति, क्या हो गया? बता कहाँ दर्द हो रहा है?’’ मैंने गुरुजी को बताया। गुरुजी ने कहा, ‘‘ले, मेरा हाथ पकड़ और बता कहाँ-कहाँ दर्द हो रहा है?’’ उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा, मैंने जहाँ-जहाँ बताया वे वहाँ-वहाँ हाथ फिराते रहे। लगभग बीस-पच्चीस मिनट उन्होंने मेरे पेट पर हाथ फिराया। उसके बाद खड़े हो गये और बोले, ‘‘लड़को! आज तुम लोगों में से कोई भी सोयेगा नहीं। सब लोग बारी-बारी से यहीं ड्यूटी देना।’’
मुझे देखने के लिये बहनें भी सब पहुँच गई थीं। उन्हें देखकर गुरुजी बोले, ‘‘महिलाओं का यहाँ कोई काम नहीं है। यह नहीं संभाल पायेंगी। इनको सबको अपने-अपने घर भेज दो।’’ वह रात इतनी भारी थी कि आज भी मैं उसे भूली नहीं हूँ। मैं न सो पा रही थी, न बैठ पा रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मेरे प्राण खिंच रहे हों। सब लोग मुझे पकड़कर रातभर टहलाते रहे। उपाध्याय भाई साहब ग्लूकोज़ का घोल बनाकर गिलास हाथ में पकड़े-पकड़े घूम रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर बाद कहते, ‘‘ले बहना! एक चम्मच पी ले।’’ ऐसा करते-करते पूरी रात गुजर गई। लगभग 4 बजे के करीब डॉ. प्रणव भाई साहब आये और बोले कि रात तो गुजर गई। अब इन्हें नींद का इंजेक्शन दे देते हैं, तो इन्हें थोड़ी नींद आ जायेगी। मुझे नींद का इंजेक्शन देने से थोड़ी देर नींद आ गई। लगभग 8 बजे के करीब गुरुजी मुझे देखने आये। आते ही उन्होंने पूछा, ‘‘मुक्ति! अब कैसी है?’’ मुझे उस समय बस कमजोरी लग रही थी, बाकी सब ठीक था। मैंने मुस्कुराकर कहा कि ठीक हूँ गुरुजी। गुरुजी ने मज़ाक करते हुए कहा, ‘‘रात को तो तू मर रही थी। अच्छा! अब आराम कर, उठना नहीं। माताजी भी तुझे याद कर रही थीं। अभी थोड़ी देर में आयेंगी।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी माताजी को मत भेजिये। बस, आप आ गये हैं न, आप ही उन्हें मेरी कुशल-क्षेम बता दीजियेगा।’’
जब महेन्द्र शर्माजी माताजी को प्रणाम करने गये तो माताजी ने उनसे मेरी तबियत पूछी और बताया, ‘‘बेटा, आज रातभर हम लोग भी नहीं सोये। मैं जब सब काम निबटाकर गुरुजी के पास गई, तो देखा कि गुरुजी चिंता मग्न हैं। मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि मुक्ति के प्राण संकट में हैं। आज रात तुमको और मुझे दोनों को साधना करनी पड़ेगी। हमें उसकी रक्षा करनी है। बेटा! रातभर हम दोनों ने भी साधना की। अब संकट टल गया है।’’
गुरुजी ने प्रणव भाई साहब को बुलाया और कहा कि बी.एच.ई.एल. से डॉ. तनेजा को बुलाकर दिखा दो, और हाँ! काली मंदिर वाले स्वामी जी के पास भी चले जाना। डॉ. तनेजा को बुलाया गया।
उस समय शान्तिकुञ्ज में आठ डॉक्टर थे। रात को सबने मुझे देखा था और सबकी एक ही राय थी कि इनकी किडनी बर्स्ट होने वाली है। सुबह तक सब नार्मल हो गया था। जिसे देखकर सभी डॉक्टर हैरान थे। गुरुजी ने डॉ. तनेजा जी से पूछा, ‘‘कैसी है हमारी बेटी, सब ठीक है न?’’
डॉ. तनेजा ने कहा कि सब कुछ ठीक है और डॉ. प्रणव जी की ओर मुखातिब होकर बोले, ‘‘आप कैसे कह रहे हैं कि इनकी किडनी बर्स्ट होने वाली थी। किडनी तो नार्मल है।’’ प्रणव भाई साहब ने बताया, ‘‘केवल मैं ही नहीं, साहब! हम आठ डाक्टर थे, सबने देखा था। हाँ, गुरुजी जरूर आये थे। उन्होंने कुछ चमत्कार किया होगा।’’
उस दिन के बाद मेरी तबियत ठीक होने लगी। बाद में गुरुजी ने मुझे आगरा जाने के लिए बिल्कुल मना कर दिया। कहा कि तू आगरा नहीं जायेगी। तू यहीं रहेगी।
हमें तो कुछ समझ नहीं आया, क्या हुआ था? पर लम्बे अर्से बाद पता चला कि मुझे खाने में कुछ दिया गया था और मेरे ऊपर मारण प्रयोग किया गया था। बताने वाले ने यह भी बताया कि आप के गुरु बहुत समर्थ हैं अन्यथा प्रयोग इतना जबरदस्त था कि आपको कोई बचा नहीं सकता था।


7. भविष्य द्रष्टा हमारे गुरुदेव


कहते हैं-महापुरुषों के पास दिव्य दृष्टि होती है। वह क्या होती है, कैसी होती है? यह तो हम लोग नहीं जानते, किंतु यह जरूर जानते हैं कि पूज्य गुरुदेव सबके मन की बात जान लेते थे। वे अंतर्यामी थे। उनके पास जाकर कुछ कहना नहीं पड़ता था, वे स्वतः ही सब कह देते थे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने प्रवचनों में, गोष्ठियों में व साहित्य में भविष्य के विषय में भी जो कुछ कहा वह क्रमशः सत्य होता चला गया।


केशव टीला जरूर जाना


श्री सुदर्शन मित्तल, देहरादून


श्री जमना प्रसाद बड़ेरिया जी (चैतन्य जी के बड़े भाई) मथुरा में ही एकान्त वास करते हैं। सन् 1957 के आसपास जब वे लड़के ही थे, मथुरा आये व तपोभूमि पहुँचे। गुरुदेव उस समय गेट पर ही टहल रहे थे। उन्होंने पूछा-‘‘कहाँ से आये हैं?’’ चूँकि वे हकला कर बोले थे अतः उनको भी मजाक सूझी। उन्होंने भी उसी भाषा में हकला कर जवाब दिया, ‘‘आ-जी---है।’’
जब गुरुदेव ने कहा-‘‘मैं ही आचार्य जी हूँ।’’ तो वे बहुत शर्मिंदा हुए व एक दो दिन पूज्यवर से सामना नहीं कर सके। पुनः गुरुदेव से चर्चा हुई। उन्होंने पूछा-‘‘कैसे आये हो?’’ बताया-‘‘घूमने आया हूँ।’’ गुरुजी ने कहा-‘‘केशव टीला जरूर जाना।’’ वे घूमते-घूमते थक गये थे पर गुरुजी ने कहा है सो जाना था, गये। देखा, काफी दूरी व ऊँचाई पर एक कोठरीनुमा झोंपड़ी थी व पास में ही एक मस्जिद थी। देखने लायक कुछ भी नहीं दिखाई दिया। थके हारे आये और गुरुजी से पूछ ही लिया-‘‘ वहाँ तो देखने के लिये कुछ भी नहीं था पर आपने वहाँ क्यों भेजा?’’ गुरुजी ने उत्तर दिया-‘‘25 साल बाद वहाँ भव्य मंदिर बनेगा।’’ आज उसी स्थान पर भव्य ‘श्रीकृष्ण जन्म भूमि स्मारक’ बना हुआ है। जो मथुरा का एक आकर्षण है।


बल प्रयोग भी करना पड़ेगा


श्री श्याम प्रताप सिंह, ब्रह्मवर्चस


उन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर था। सभी अपने-अपने ढंग से शान्ति-प्रयासों में लगे थे। जैनमुनि सुशील कुमार भी पंजाब में शान्ति के प्रयास के लिए प्रस्थान से पूर्व पूज्य गुरुदेव से परामर्श एवं मार्गदर्शन लेने आये। वन्दनीया माताजी से मिले फिर पूज्य गुरुदेव से मिले। गुरुदेव बोले, ‘‘शान्तिप्रयास अवश्य करना चाहिए, आप भी करें। हम भी भगवान से प्रार्थना करेंगे। किन्तु एक बात समझ लें-पंजाब में अशान्ति पाकिस्तान के उकसावे पर है। इसमें मात्र बातों से काम नहीं बनेगा, बल प्रयोग भी करना पड़ेगा।’’ और वैसा ही हुआ, शान्तिवार्ताएँ धरी की धरी रह गईं। समस्या बल प्रयोग से ही सुलझी।


मँहगाई बढ़ जायेगी


श्रीमती सीता अग्रवाल, शान्तिकुञ्ज


सन् 82 की बात है एक दिन गुरुदेव ऊपर गोष्ठी ले रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘बेटे! मँहगाई इतनी बढ़ जायेगी कि तुम लोग सब्जी नहीं खा सकोगे। अतः अभी से चटनी-रोटी खाने की आदत डालो।’’ ‘‘अग्रवाल बेटा! ऐसा करना सहारनपुर से करौंदे का पौधा लाना। सबके घरों में लगा दो। सबको छोटा-छोटा बगीचा दे दो। तुलसी के पौधे में अदरक दबा दो। नमक मिर्च, अदरक, करौंदे की चटनी खाओ। कोई अस्वस्थ होगा, तो मेरी जिम्मेदारी है। सुबह चटनी रोटी खाना। शाम को दलिया-खिचड़ी खाना।’’


संस्कृति को जिन्दा रखो


‘‘यदि भारतीय संस्कृति जिन्दा नहीं रहेगी तो बेटे, कोई किसी की सेवा नहीं करेगा। जिस प्रकार बैल बूढ़ा होने पर कसाई के घर जाता है उसी प्रकार तुम लोग भी जाओगे। लोग कहेंगे बूढ़ा दिन भर घर में रहकर खाँसता है, खाता है और गोबर करता है। इसे कसाई घर भेजो। बुजुर्गों की सेवा की भावना समाप्त हो जायेगी। अतः संस्कृति को जिन्दा रखो, अन्यथा कसाई घर जाने के लिये तैयार रहो।’’
‘‘प्रकृति नाराज है, अतः देखना आने वाले समय में कहीं पानी-पानी होगा तो कहीं सूखा-सूखा। घास नहीं उपजेगी। दुनियाँ भूख के मारे तड़पेगी। प्रलय होगा। केवल 40 प्रतिशत लोग बचेंगे। अतः सदैव तन्दुरुस्त रहकर कार्य करने की कला सीखो।’’


ईंधन मँहगा होगा


‘‘बेटे! एक समय ऐसा आयेगा कि ईंधन काफी मँहगा होगा। कुकर में पकाने से कम ईंधन लगेगा व विटामिन्स भी बने रहेंगे। अतः सब कार्यकर्ताओं के पास कुकर होने चाहिए। उसी में पकाओ और खाओ।’’ सभी कार्यकर्ताओं ने कुकर खरीदा व उसमें खाना बनाना प्रारंभ किया।


पचास वर्ष के बाद किसी के पास पैसा नहीं रहेगा


श्री शिव प्रसाद मिश्र, शान्तिकुञ्ज


घटना सन् 1965 की है। तब 108 कुण्डीय व 51 कुण्डीय बाजपेय यज्ञों की शृंखला चल रही थी। गुरुदेव तर्कों के माध्यम से समाज में फैले अंधविश्वासों, मूढ़मान्यताओं व परम्पराओं का खंडन करते हुए उसके स्थान पर सद्विचारों, सत्कर्मों, सद्भावनाओं की महत्ता स्थापित कर रहे थे। भरी सभा में कुछ ऐसी घोषणा कर देते, जिससे विज्ञ-जन सोचने को मजबूर हो जाते।
ऐसा ही एक यज्ञीय कार्यक्रम ग्वालियर में था। वहाँ उस समय महारानी श्रीमती विजय राजे सिंधिया भी उपस्थित थीं। गुरुदेव ने सायंकालीन प्रवचन के दौरान जोरदार शब्दों में कहा-‘‘मैं, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, कह रहा हूँ कि आज से पच्चास वर्ष बाद किसी के पास पैसा नहीं रहेगा।’’
इस प्रकार उनने आने वाले समय की जानकारी खुलकर दे दी। आज उस बात को लगभग 44 वर्ष बीत चुके हैं। हम सभी स्पष्ट देख रहे हैं कि किस प्रकार पैसे का निरन्तर समाजीकरण होता चला जा रहा है।


अब की बेटा होगा


सावित्री जीजी, आ० वीरेश्वर उपाध्याय जी की बहन


सन् 64 में गुरुदेव भिलाई आये। मैं अपनी दोनों बेटियों को मिलाने ले गई। बड़ी 6 वर्ष की थी छोटी दो वर्ष की। परिचय के दौरान पूछा-‘‘दो बेटियाँ हैं?’’ थोड़ी देर चुप रहे फिर कहा, ‘‘अब की बेटा होगा।’’ इसके तीन वर्ष बाद पुत्र हुआ। वह जब छह माह का था तब रायपुर में वे पुनः आये। हम लोग बच्चे को अाशीर्वाद दिलाने ले गये। उन्होंने बहुत आशीर्वाद दिया व कहा, ‘‘जाकर नामकरण संस्कार सम्पन्न करा लें।’’
चूंकि बच्चा उस समय अस्वस्थ था अतः देर तक बैठ नहीं पायेंगे कहने पर उन्होंने स्वयं नामकरण संस्कार कर दिया और कहा, ‘‘इसका नाम ज्योति प्रकाश रखना यह चारों तरफ प्रकाश फैलायेगा। बहुत भाग्यवान है तुम सबका बहुत ध्यान रखेगा।’’ सचमुच आज वह पूरे परिवार का बराबर ध्यान रखता है।


स्टीकर छाप


श्री बसंत भाई जरीवाला, (जो गायत्री ज्ञान मंदिर कांदिवली के नाम से स्टीकर निर्माता हैं) ने बताया कि किस प्रकार गुरुदेव ने स्वयं इसे प्रारंभ कराया।
मुम्बई में मेरा 6 गजी 16 साड़ी वाला छपाई का प्रेस था। गुरुजी ने कहा, ‘‘इसे बंद कर, स्टीकर छाप। नफे में रहेगा।’’
‘‘मैंने पहले लगे बोर्ड को उतरवाकर गुरुदेव के कहे अनुसार-गायत्री ज्ञान मंदिर कांदिवली का बोर्ड लगाया। तब से स्टीकर छाप रहा हूँ। गुरुदेव दो बार, सन् 1966 व 1972 में स्वयं हमारे घर पधारे थे। दूसरी बार जब आए, तब उन्होंने स्वयं अपने हाथ से लिखा-‘‘25 वर्ष की सेवा के उपलक्ष्य में उज्ज्वल भविष्य हेतु आशीर्वाद।’’
इसे मैंने बड़े साइज में फ्रेम करा कर आज भी अपने कमरे में रखा है।


तेरा घाटा मैं पूरा करूँगा


श्री उमा शंकर चतुर्वेदी, बिलासपुर


बिलासपुर के एक कार्यकर्ता के घर बँटवारे की बात उठी। छोटा भाई बहुत कुछ लेने पर अड़ा हुआ था। बड़े ने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी क्या करूँ? छोटा भाई मान ही नहीं रहा। कहता है, सब लूँगा।’’
पूज्यवर ने एक क्षण सोचा फिर कहा, ‘‘बेटा घर व जर्म्सकिलर की दुकान छोड़कर, वह जो लेता है दे दे। तेरा घाटा मैं पूरा करूँगा।’’ गुरुजी की बात मानकर शिष्य ने पूज्यवर के कथनानुसार छोटे भाई को, जो उसने माँगा, दे दिया। कुछ दिनों बाद घर में निर्माण हेतु खुदाई हुई। जमीन में एक अलमारी निकली। उसमें उस समय साठ तोला सोना व कुछ किलो चाँदी निकली। इस प्रकार उन्होंने अपने प्रिय शिष्य का सारा घाटा पूर्ण कर दिया।


जलाराम बापा का भण्डारा बना दो


(श्री प्रेम जी भाई सन् 1983 में पहली बार शान्तिकुञ्ज आये। वंदनीया माताजी के बुलाने पर सन् 1985 में वे पूर्ण रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)


अप्रैल सन् 1985 में जब मैं शान्तिकुञ्ज आया, तो मुझे व श्री तोमर जी को भोजनालय में ड्यूटी दी गई। तब एक मासीय शिविर के भाई-बहिनों से प्रति व्यक्ति पचहत्तर रुपये मासिक लिया जाता था।
बाद में यह शुल्क मँहगाई बढ़ने के कारण सौ रुपये मासिक किया गया। ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र होती है। उसे जब कोई भी काम करना होता है, तब वह किसी न किसी को माध्यम बनाता है। स्वयं अपने मन से नहीं करते। उस समय एक घटना ऐसी हुई कि लगा जैसे उनकी ही प्रेरणा है।
एक दिन एक शिविरार्थी खूब नाराज हो गया। कहने लगा-‘‘केवल दो समय भोजन का सौ रुपये लेते हैं। यह बहुत ज्यादा है। चाय भी देनी चाहिए।’’
उसे हम लोगों ने समझाया, पर वह अपनी बात पर अड़ा रहा। बात माताजी-गुरुजी तक पहुँची। वे तो लीलाधारी थे। खूब जोर से हँसे, मानो मन चाहा मिल गया हो और कहा-‘‘आश्रम में जलाराम बापा का भण्डारा बना दो। किसी से खाने का कोई पैसा मत लो।’’ और उस दिन से वह जलाराम बापा का भण्डारा, आज तक चल रहा है।
कभी-कभी वे कहते थे, ‘‘आने वाले दिनों में इतनी भीड़ आयेगी कि तुम लोग सँभाल नहीं सकोगे।’’ उन्हें भविष्य दिखाई देता था। शायद इसीलिये उन्होंने कहा था कि आश्रम में जलाराम बापा का भण्डारा बना दो।
फिर हमें कैन्टीन में ड्यूटी दे दी गई। बड़े उत्साह से कैन्टीन में काम किया। उसी समय मेरे मन में सवालक्ष का अनुष्ठान करने की प्रेरणा हुई। दाढ़ी रखा व केवल एक लीटर दूध पर चालीस दिन रहा। पूर्णाहुति के दिन माताजी के पास गया। बताया, तो परम वन्दनीया माताजी ने गुरुजी के पास ऊपर भेज दिया।
पूज्यवर उस समय लेटे हुए थे। लेटे-लेटे ही बात की-‘‘क्या तकलीफ है बेटा!’’ ‘‘कुछ नहीं गुरुदेव’’ मैंने कहा। ‘‘बस, मेरा काम करते रहो। कोई दिक्कत नहीं आयेगी। कुछ चाहिए?’’ गुरुजी ने पूछा। ‘‘ज्ञान, भक्ति, वैराग्य।’’ मैंने शीघ्रता से कह दिया। उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर ‘‘तथास्तु’’ कहा। हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। मैंने प्रणाम किया। पास गया। उन्होंने पुनः मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रख दिया। मैं धन्य हो गया। आज भी उन पलों की याद से हृदय गद्गद् हो जाता है।


लोग इसे ही अधिक पसंद करेंगे


(श्री चन्द्र भूषण मिश्रजी सन् 1971 में अखण्ड ज्योति के पाठक बने। सन् 1978 मार्च में वे शान्तिकुञ्ज आये और फिर यहीं के हो गये।)


सन् 88 में पूज्यवर यज्ञीय कर्मकाण्ड का संशोधन कर रहे थे। उनका कथन था कि हमें बड़ी संख्या तक जन-जन में पहुँचना है, अतः कम समय में आकर्षक कर्मकाण्ड द्वारा यज्ञीय कृत्य सम्पन्न किए जायें। इस हेतु उन्होंने दीप यज्ञ का विधि-विधान बनाया व अपने बच्चों को समझाया। अधिकांश व्यक्तियों ने शंका की कि इतनी जल्दी में दीपक द्वारा यज्ञ सम्पन्न करने से जनता की श्रद्धा को ठेस पहुँचेगी। वह चलेगा नहीं। उसकी अवहेलना या उपहास न हो, यह शंका उन सबको खाये जा रही थी।
पूज्यवर ने उनकी समस्याएँ सुनीं व कहा-‘‘किसी भी कार्य का नयापन कुछ दिन अटपटा तो लगता है, किन्तु देखना, लोग इसे ही अधिक पसंद करेंगे क्योंकि आज अधिक समय किसी के पास नहीं है। दुनियाँ में मैं ही एक मात्र पंडित रहूँगा, जो भी चलाऊँगा, अवश्य चलेगा। मैं कह रहा हूँ और कोई पसंद न करे, ऐसा नहीं होगा। मैं जो कह रहा हूँ, वही दुनियाँ में चलेगा। जितना बड़ा पंडाल बिछा दोगे, उतनी जनता लाने की जिम्मेदारी मेरी होगी।’’
इसी प्रकार उसी समय संस्कारों की सूत्र पद्धति तैयार की गई, जिसे कोई भी व्यक्ति आसानी से बहुत कम समय में कहीं भी सम्पन्न करा ले। इसी के बाद सन् 89 में दीपयज्ञों की ऐसी शृंखला चली कि सारा राष्ट्र एकता के सूत्र में बँध गया। उनका कोई भी कार्य एक आन्दोलन के रूप में चलता है तथा दीपयज्ञ व संस्कार सूत्रों के आन्दोलन की भी आँधी सी चल पड़ी। उनका कथन पूर्णतया सत्य हुआ।


जो लिखेगा, वही संदर्भ बनेगा


श्री चन्द्रभूषण जी कहते थे कि जब प्रज्ञा पुराण व अन्य पुस्तकों के विषय में चर्चा हो रही थी, तब गुरुवर ने कहा-‘‘जो इसमें लिख दिया जायगा वही संदर्भ बन जायगा। अतः आपस में 3-4 लोग मिलकर निर्धारित कर लें।’’ वे मुझे चन्द्रशेखर कहते थे। उन्होंने कहा, ‘‘चन्द्रशेखर, मुझे तो पढ़े हुए बहुत समय हो गया, पर तू अभी-अभी पढ़कर आया है, तू लिख।’’ मैंने कभी कलम चलाई नहीं थी। कहा, ‘‘गुरुदेव कैसे होगा? मैंने तो कभी कलम नहीं चलाई।’’ वे बोले, ‘‘हो जाएगा और उस दिन से शक्ति प्रवाह ऐसा बरसा कि खूब कलम चलने लगी।’’
वे हँसते और प्रशंसा भी करते। मिशन के विस्तार की, ब्रह्म दीप यज्ञों की, अश्वमेध यज्ञों की योजना बनी। वे कहते, ‘‘पैसा आयेगा देखना, आसमान तोड़कर, जमीन फोड़कर आयेगा। आवश्यकता के समय कभी भी पैसे की कमी नहीं पड़ेगी।’’
(ज्ञातव्य है कि श्री चंद्रभूषण मिश्रा जी के विषय में गुरुदेव ने उनके शान्तिकुञ्ज आने के पूर्व ही कार्यकर्ताओं से कहा था कि मेरा एक बेटा आने वाला है जो संस्कृत का बड़ा विद्वान् है। उसका बायाँ हाथ कमजोर है, वो तुम लोगों को संस्कृत सिखायेगा। उन्हीं के द्वारा गुरुदेव ने अश्वमेध यज्ञों का कर्मकाण्ड तैयार करवाया। सबको विधिवत् मंत्रोच्चारण सिखलाया। यहाँ तक कि देवकन्याओं की कक्षाएँ भी वे ही लेते थे।)


मैं स्वयं सूर्य रूप हूँ


यह प्रसंग सन् 1982 का है। दिल्ली के एक प्रोफेसर को कैंसर हुआ। वे गुरुजी से जुड़े तो थे पर बुद्धिवादी होने के नाते गुरुजी की परीक्षा लेना चाहते थे। अतः पूज्यवर से मिलने के लिये वे शान्तिकुञ्ज तो आये किंतु नीचे ही प्रतीक्षालय में बैठे रहे जबकि उस समय उनसे मिलने हेतु कोई भी कभी भी जा सकता था।
थोड़ी देर में गुरुदेव ने स्वयं ही उन्हें बुलवा लिया व शिकायत भरे लहजे में कहा, ‘‘बेटा! तुझे कैंसर है और तूने बताया तक नहीं।’’
वे गुरुजी के चरणों में गिर पड़े और सुबकते हुए बोले, ‘‘गुरुजी, चाहता था कुछ दिन ठीक से जी लूँ।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘ अरे बेटा! कुछ नहीं है, तू बिल्कुल ठीक है। जा! तुझे कुछ नहीं होगा। बेटा! मैं स्वयं सूर्य स्वरूप हूँ, ब्राह्मण हूँ जो निरंतर सभी को देना ही जानता है।’’
श्रद्धेय डॉ. प्रणव भाई साहब बताते हैं कि मैं उस समय ऊपर ही था। डॉक्टर बुद्धि, मैंने भी उनका पता नोट किया कि देखें आखिर होता क्या है? सन् 1982 से 1991 तक वे बिल्कुल स्वस्थ रहे। कैंसर का कहीं अता-पता भी नहीं था।


सूर्य की ओर देखकर समाधान किया


राजनांदगाँव के श्री बुधराम साकुरे जी के ससुर तीर्थ यात्रा के लिए निकले थे। उनके घर एक समाचार मिला कि जिस नाव में बैठकर वे नदी पार कर रहे थे, वह नाव डूब गयी है। उनका कुछ अता-पता नहीं है। वे जीवित भी हैं कि नहीं, कुछ ज्ञात नहीं है। अब घर वाले बहुत परेशान थे कि उनका पता कैसे लगाया जाय? संयोग से उन दिनों पूज्यवर राजनांदगाँव व दुर्ग (छ.ग.) गये हुए थे। साकुरे जी ने घर वालों से कहा-‘‘आप सब परेशान न हों, हम अपने गुरुजी से उनके बारे में पूछेंगे। वे सब समाधान कर देंगे।’’
उन्होंने दुर्ग आकर गुरुजी का पता किया कि वे कहाँ हैं। किसी ने बताया कि वे स्टेशन पहुँच चुके हैं। वे रेलवे स्टेशन आकर पूज्यवर से मिले। आते ही चरण स्पर्श कर गुरुजी से कहने लगे-‘‘गुरुजी! घर में एक समस्या है। हमारे ससुर जी तीर्थ यात्रा को गये थे। ऐसा सुनते हैं कि उनकी नाव डूब गयी। घर वाले बहुत परेशान हैं।’’ पूज्यवर ने एक क्षण के लिए सूर्य की ओर निहारा। फिर बोले, ‘‘बेटा! बिल्कुल चिन्ता न करो। वे कल सुबह तक यहाँ आ जायेंगे।’’ उन्हें स्वयं को तो पूर्ण विश्वास था कि पूज्यवर का कोई कथन असत्य नहीं हो सकता पर अपने ससुराल पक्ष को कैसे समझाएँ जो अभी परिवार से जुड़े नहीं थे। उन्होंने कहा, ‘‘आप लोग सुबह तक धैर्य रखो।’’
सुबह होते ही स्टेशन से ससुर जी का फोन आ गया कि मैं यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं रिक्शा से घर आ रहा हूँ। घर पहुँच कर उन्होंने बताया कि नाव तो डूबी थी, पर बचाने वाले परमात्मा ने बचा लिया। जैसा कि कहा गया है, ‘जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय।’ साकुरे जी का विश्वास है कि पूज्य गुरुदेव ने ही हमारे ससुर जी को बचा लिया।
साकुरे जी बताते हैं कि वे स्वयं नशे में डूबे रहते थे। उनकी शराब किसी भी भाँति उनसे छूट नहीं रही थी। पूज्य गुरुजी ने ही उनका जीवन बदला। गुरुजी ने उन्हें जीवन की कीमत समझायी, और जीवन को यूँ ही आग लगाते रहने से बचा लिया। जीवन में कुछ विशिष्ट कार्य करवाकर जीवन को सफल एवं सार्थक बना दिया। शान्तिकुञ्ज से पूज्यवर ने उन्हें देश में विभिन्न कार्यक्रम सम्पन्न करवाने के लिए टोलियों में भी भेजा।


चिंता मत करना


अन्नपूर्णा साहू के पिताजी पोरथा, जिला-सक्ती के सक्रिय कार्यकर्ता थे, अक्सर शान्तिकुञ्ज आते-जाते रहते। एक दिन पूज्य गुरुदेव ने उनसे पूछा ‘‘बेटे, तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’ बोले, ‘‘गुरुजी, दो बच्चे हैं। एक लड़का, एक लड़की।’’ पूज्यवर वहीं से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देख रहे थे कि उनकी पत्नी के गर्भ में भी एक बच्ची है। बोले, ‘‘बेटा! तुम तीन-तीन बच्चों को कैसे पालोगे, इसकी चिंता मत करना।’’ फिर पूज्य गुरुदेव ने कहा कि बेटा कुछ गड़बड़ नहीं करना। (गर्भ से छेड़छाड़ नहीं करना) ‘‘बेटा, तू नहीं, उसे हम पालेंगे। वो हमारी बच्ची है।’’ जबकि उन्होंने सोचा हुआ था कि अब दो बच्चे ही पर्याप्त हैं। इस गर्भस्थ शिशु का एबार्शन करा देंगे। ऐसे अंतर्यामी थे गुरुदेव। सबके मनों को पढ़ लेते थे, और सब समाधान कर देते थे।


एक साल बाद उसी से शादी होगी


पं. लीलापत शर्मा जी सुनाया करते थे कि सन् 65 के पूर्व की बात है। मैं एक बार पूज्यवर से मिलने ग्वालियर से मथुरा आया था। चूँकि तब तक मैं गुरुवर के बहुत निकट आ चुका था, अतः गुरुदेव ने कहा, ‘‘एक शादी का निमंत्रण है, तुम चले जाओ।’’
मैंने सोचा, ‘‘गुरुदेव के प्रतिनिधि रूप में जाना है, तब तो पाँचों उँगली घी में हैं।’’ सहर्ष तैयार होकर आगरा चला गया। वहाँ पता चला लड़की गुरुजी की एकनिष्ठ साधिका है। किन्तु विवाह के समय अचानक अनहोनी घट गई। बारात आई। अचानक लड़के की तबीयत बहुत खराब हो गई, वह बेहोश हो गया। दरवाजे पर दोनों परिवारों में न जाने क्या कहा सुनी हुई। बारात दरवाजे से वापस चली गई।
मैं स्तब्ध था। गुरुजी का प्रतिनिधि जो ठहरा। मेरी बोलती बंद थी। कहाँ तो मैं घी में ऊँगली डालने की सोच रहा था, कहाँ मेरी फजीहत हो रही थी। लड़की ने मुझसे प्रश्न किया-‘‘बताइये, अब मैं क्या करूँ?’’
वहाँ तो इज्जत का सवाल था। अतः जैसे-तैसे उसे ढाढस दिया। कहा, ‘‘बेटी, भगवान की इच्छा स्वीकार करो। उन्होंने कुछ अच्छा ही सोचा होगा।’’
मथुरा आकर गुरुजी पर सारा गुस्सा उतारा। ‘‘क्या मुझे फजीहत कराने भेजा था?’’ बहुत झल्लाया।
गुरुजी शांत रहे। जब मेरा गुस्सा ठंडा हुआ। मैं अपनी पूरी बात कह चुका तो उन्होंने शांत स्वर में कहा। ‘‘एक साल के बाद उसकी वैधव्य दशा थी। अतः शादी रोक दी। उस लकड़ी से कहो, अपनी शादी का सामान उठा कर रख दे। एक साल बाद उसी से शादी होगी।’’
मैंने यह बात लड़की से कह दी। सचमुच लड़का कुछ महीनों बाद बहुत बीमार हुआ। मुश्किल से बचा। बाद में माता-पिता दूसरी जगह शादी तय कर रहे थे। किन्तु लड़के ने जिद की व कहा कि उस लड़की की तप-निष्ठा से ही मैंने नव जीवन पाया है, अतः उसी लड़की से शादी करूँगा। ठीक एक साल बाद उस लड़की का उसी लड़के के साथ विवाह हुआ। मैं गुरुदेव के भविष्य दर्शन पर नत मस्तक था।


प्रतिदिन डायरी लिखना


श्रीमती प्रमिला बैगड़, शान्तिकुञ्ज


कृष्ण के ग्वाल-बाल एवं राम के रीछ-बन्दरों को यह मालूम नहीं था कि हम जो कार्य कर रहे हैं, वह कभी इतिहास के पन्नों पर अमर होगा। इसी प्रकार हम सब भी नहीं जानते थे कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं, जो उनके साथ जुड़ कर कार्य कर रहे हैं। किन्तु वे तो सर्वज्ञ थे। भूलना मनुष्य का स्वभाव है, आदत है। अतः समय को याद रखने के लिये उन्होंने गोष्ठी बुलाई और कहा, ‘‘सभी कार्यकर्ता अपनी दैनिक दिनचर्या लिखें।’’ सुबह से शाम तक कहाँ, क्या काम किया, वह लिखें व हमारे पास जमा करें।
हम सब अपनी दिनचर्या एवं गुरुवर के साथ किये सभी कार्य लिखते व प्रणाम करने जाते तो अपनी डायरी गुरुजी को दे आते।
दूसरे दिन प्रणाम करने जाते तो उसे ले आते व दूसरी डायरी दे आते। गुरुदेव कहते-‘‘बच्चो! अपनी-अपनी डायरी लेते जाओ।’’
हम लोग डायरी लेकर बच्चों की तरह बहुत खुश होते, क्योंकि डायरी में ‘सही’ का निशान जो मिलता। हमें यह देख कर अतीव प्रसन्नता होती कि गुरुजी ने हमारी डायरी पढ़ी है।
इस प्रकार उन्होंने अनेकों घटनाओं को डायरी में अंकित करवा कर इतिहास रचने की पूर्व भूमिका बना दी।


मेरे मना करने के बाद भी चली गई


(श्री जे. पी. कौशिल जी सन् 1956 में पूज्य गुरुदेव से जुड़े थे और सन् 1991 में वे शान्तिकुञ्ज आ गये थे।)
शान्तिकुञ्ज में जब एक वर्षीय कन्या प्रशिक्षण सत्र आरंभ हुआ। तब मेरी बड़ी लड़की कल्पना भी सन् 78-79 के सत्र में शामिल हुई थी।
माघ पूर्णिमा के पहले दिन कल्पना जब किसी कार्यवश परम वंदनीया माताजी के कमरे में गई तो गुरुजी ने उसे देखते ही कहा, ‘‘बेटा, कल तू गंगा नहाने मत जाना।’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘क्यों गुरुजी?’’
गुरुजी ने जोर देते हुए कहा, ‘‘मैं कह रहा हूँ, तू कल गंगाजी नहीं जायेगी।’’ ‘‘ठीक है गुरुजी, आप कहते हैं तो नहीं जाऊँगी।’’ कल्पना ने कहा। गुरुदेव ने पुनः कहा, ‘‘हाँ, मैंने कह दिया, कल तू गंगाजी नहीं जायेगी।’’ इस प्रकार उन्होंने तीन बार उसे गंगा नहाने से मना किया।
दूसरे दिन उसकी सहेलियाँ जो एक साथ कमरे में रहती थीं, उसे गंगाजी चलने के लिये जिद करने लगीं। कल्पना ने कहा कि मुझे गुरुदेव ने गंगा नहाने से मना किया है, इसलिये मैं नहीं जाऊँगी।
सहेलियों ने पुनः जिद की कि अच्छा, नहाने के लिए ही तो मना किया है। साथ चलो बाहर बैठे रहना। नहाना मत।
कल्पना को बात जँच गई। होनी को कौन टाल सकता था। अतः वह गंगा जी चली गई।
गंगा जी पहुँच कर वह किनारे बैठ गई। उसकी सहेलियाँ नहा रही थीं। उनमें से कुछ को लगा ‘‘बेचारी अकेली बैठी है।’’
और 3-4 सहेलियाँ आकर उसे जबर्दस्ती खींच कर ले गईं। कुछ देर तो उसने भी स्नान किया। फिर अचानक ही वह बहने लगी।
उसे बहते देख, लड़कियों के होश उड़ गये और वह चिल्लाने लगीं। वहीं 4-5 आदमी बैठे थे। उन्होंने तुरंत कल्पना को डूबने से बचाया और पानी में से बाहर निकाला। अब सभी सहेलियाँ स्वयं में अपराध बोध महसूस करने लगीं। बोलीं, ‘‘गुरुदेव अन्तर्यामी हैं। उन्होंने पहले ही कह दिया था पर हम लोगों ने ही जबर्दस्ती की।’’
शान्तिकुञ्ज आकर जब सबने गुरुजी से बताया तो पूज्यवर ने कहा, ‘‘मेरे इतना मना करने के बाद भी नहीं मानी, चली गई।’’
कल्पना ने कहा-‘‘गुरुजी, मैं नहीं जा रही थी। मेरी सहेलियाँ जबरदस्ती मुझे ले गईं।’’ तब गुरुदेव ने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘‘बेटी, मैं तेरे बाप को क्या जवाब देता?’’


लाल बाबा के बताने पर आये हो!


डॉ. लक्ष्मण सिंह मनराल चौखुटिया, अल्मोड़ा


श्री पी.वी. बालास्वामी शिप कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया के ऑडिटर हैं। जो एक संत स्वभाव के घुमक्कड़ प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। वे 1985 में कैलाश मानसरोवर की यात्रा में हमारे एक साथी थे। तिब्बत में एक दिन मानसरोवर परिक्रमा में अपने बैग से दो सूखे पुष्प निकाले और भाव विभोर होकर कहने लगे, ‘‘एक संत की कृपा से मुझे कैलाश मानसरोवर यात्रा का सौभाग्य मिला है, और उनकी आज्ञानुसार इनको देवाधिदेव कैलाशपति के सामने इस पावन सरोवर में समर्पित कर रहा हूँ।’’
हमारे जिज्ञासा प्रकट करने पर उन्होंने पूरा वृतांत इस प्रकार सुनाया। ‘‘मैं गत वर्ष गोमुख यात्रा से लौट रहा था। मार्ग में भोजवासा में महंत श्री लाल बाबा के आश्रम में रात्रि विश्राम हुआ। लाल बाबा स्वयं में एक ऊर्जावान व्यक्ति हैं। इस बेहद ठण्डे, सुनसान प्रदेश में गोमुख आने जाने वाले यात्रियों को निःशुल्क आवास एवं भोजन व्यवस्था वर्षों से करते आ रहे हैं। मैंने उनसे पूछा आप इस इलाके से बीसियों वर्षों से परिचित हैं। मुझे किसी सच्चे संत का पता बताइये। मुझे उनके दर्शन करने हैं। लाल बाबा ने बताया आप सीधे हरिद्वार जायें, वहाँ शान्तिकुञ्ज में श्रीराम शर्मा आचार्य जी के दर्शन कर लें। बस आपकी सारी जिज्ञासाएँ शांत हो जायेंगी।
चौथे दिन मैं शान्तिकुञ्ज पहुँचा। वहाँ आचार्य जी के कक्ष में गया तो देखा एक सीधे-सादे साधारण भेष में विराजमान तेजस्वी व्यक्तित्व कुछ लिख रहे हैं। कुछ क्षण बाद उन्होंने मुझे देखा, बोले, ‘‘बैठो बेटा। हाँ! लाल बाबा के बताने पर आये हो’’ और वे सारी बातें उन्होंने दुहरा दीं जो मेरे और लाल बाबा के बीच हुई थीं। मैं ठगा सा उन्हें देखता रह गया। आया था परीक्षा लेने, लेकिन खुद फेल हो गया। मैं उन त्रिकालज्ञ के सामने नतमस्तक था। न कोई फोन, न अन्य संचार व्यवस्था थी। मेरे दोनों हाथ जुड़े थे। अन्दर दो फूल जो मैं उन्हीं की बगिया से तोड़ लाया था उनको चढ़ाने के लिये पर चढ़ा न पाया था। वे बोले, ‘‘फूल तोड़ने को तो लाल बाबा ने कहा नहीं होगा। अच्छा! सकुचाओ मत। अब इन पुष्पों को सँभाल कर रख लो। अगले वर्ष मानसरोवर में भगवान शंकर को समर्पित करना।’’ मैं फिर हैरान था। उन्होंने कैसे जाना कि मैं कैलाश मानसरोवर के लिए प्रयत्न करते-करते हार गया था। इस प्रकार उन त्रिकालदर्शी संत, ऋषि, गुरु जो आप कहें उनके दर्शन मात्र से मेरी यह कैलाश मानसरोवर की यात्रा सम्भव हो गई। उन्हें स्मरण कर, मैं यह पुष्प देवाधिदेव कैलाशपति को समर्पित कर रहा हूँ।’’ अपने गुरुदेव के बारे में विदेश में इतना सब जानकर आश्चर्य हुआ। मैं किस कदर भाव विभोर था, वर्णन नहीं किया जा सकता।


यह उन दिनों की बात है जब गुरुदेव मथुरा में ही थे। गायत्री तपाेभूमि में भीड़-भाड़ कम रहती थी, इसलिए साधना सत्रों में पहुँचे परिजन गुरुदेव से एकान्त में अपनी समस्या, उनका समाधान आदि विषयों पर बातें करते थे। जब मेरी बारी आयी गुरुदेव से अपनी बातें रखीं। वे बातों-बातों में कई भावी घटनाचक्रों को बताते चले गये जो आगे चलकर ज्यों के त्यों घटित हुए। अंत में गुरुदेव ने कहा, ‘‘मेरी कुमाऊँ के किसी एकान्त स्थान में कुछ दिन रहकर निवास करने की इच्छा है। उपयुक्त स्थान की तलाश कर मुझको बताना।’’ वापसी में मैंने बहुत स्थानों को खोजा। किसी स्थान के बारे में निवेदन करता कि गुरुदेव का संदेश मिल गया, ‘‘मुझे हिमालय जाना है। इसलिए इस समय कुमाऊँ आना संभव न हो सकेगा।’’ जीवन भर यह मलाल रहा कि गुरुदेव का पदार्पण यहाँ नहीं करा पाये।


पूज्यवर के हिमालय से लौटने के बहुत वर्षों बाद एक बार शान्तिकुञ्ज में मैंने गुरुजी से मथुरा में हुई कुमाऊँ चलने वाली बात प्रारम्भ की तो वे बोले, ‘‘बेटा, अब इस जीवन में स्थूल शरीर से वहाँ आना सम्भव नहीं है। लेकिन मेरे मूर्धन्य बेटे मेरा संदेश कुमाऊँ के चप्पे-चप्पे तक पहुँचाने में सक्षम होंगे। अब सूक्ष्म रूप से ही आऊँगा।’’
मैंने निवेदन किया कि गुरुदेव अपने कर कमलों से कोई निशानी दे दीजिये, जिसको उत्तराखण्ड ले जा सकूँ। गुरुदेव ने तुरन्त शान्तिकुञ्ज के उद्यान अधिकारी को बुलवाया, उनसे एक बेल जिसको उन्होंने ऋषिलता नाम दिया। उसमें एक पत्ते पर सात पत्तियाँ आती हैं। सदाबहार यह बेल कहीं पर भी बढ़कर लता-कुंज, झाड़ी, गेट या बाग, मंदिर, घर-आँगन में हो जायेगी, इसमें नीले-सफेद रंग का फूल साल भर आता है। इस बेल को साथ लाकर मैंने पूरे उत्तराखण्ड में फैलाने की कोशिश की। आज चन्द वर्षों में यह गुरुबेल आधे से अधिक स्थानों में फैल चुकी है। इसको देखते ही गुरुजी का महान व्यक्तित्व, फूलों की सी मुस्कान, सागर सी गम्भीरता और हिमालय सी दृढ़ता मन में परिलक्षित हो जाती है।

जारी रखें - अन्य संस्मरण