नारी उत्थान में समाज का उत्तरदायित्व

 

अनुक्रमणिका

१.     सुसंस्कृत समाज की पृष्ठभूमि सुयोग्य नारी
२.     नारी उत्थान के लिए आवश्यक विचारक्रान्ति
३.     नारी को सुविकसित होने दिया जाय
४.     नारी को पिछड़ी रखकर हम पाते कम और खोते अधिक हैं !
५.     नारी को उठाए बिना समाज भी नहीं उठेगा
६.     नारी समस्या का समाधान आवश्यक
७.     नारी चेतना को दिग्भ्रान्त न किया जाए
८.     नारी को अज्ञान-गर्त से उबारा जाए
९.     नारी का पिछड़ापन दूर किया जाए
१०.     भारतीय नारी को भी आगे बढ़ने दें!
११.     विश्व-कल्याण का मार्ग है—नारी उत्थान!
१२.     नारी को बढ़ाओ वह तुम्हें बढ़ायेगी
१३.     इस हृदय-द्रावक स्थिति को कब तक सहन किया जाय?
१४.     और बहुत कुछ करना बाकी है !
१५.     युग की पुकार सुनें—स्वयं आगे बढ़ें
१६.     विशिष्ट समस्या का विशिष्ट समाधान

 

सुसंस्कृत समाज की पृष्ठभूमि सुयोग्य नारी

सड़क पर चल रहे दो वाहन टकराते हैं, उनकी क्षति होती है और जान-माल संकट में पड़ जाते हैं। साधारण सी वर्षा होती है, मामूली आँधी आती है, भूकम्प का एक छोटा सा झटका आता है और बड़ी-बड़ी सुदृढ़ इमारतें धराशायी हो जाती हैं। नाव नदी की गहराई तक नहीं पहुँच पाती, कोई छोटी सी भँवर, हल्का सा तूफान आता है और वह जल के गहन अन्तराल में समा जाती है। व्यावहारिक जीवन में नित्य ऐसी घटनाएँ घटा करती हैं जिनमें आश्चर्यजनक दिखने जैसी अनहोनियाँ होती रहती हैं और उनके कारण समझ में नहीं आते।

आज सामाजिक जीवन में सर्वत्र अव्यवस्था, अस्त-व्यस्तता, अनाचार और अन्धकार व्याप्त है। हर कोई इन परिस्थितियों से दुःखी और संत्रस्त दिखाई देता है किन्तु क्या किसी ने समस्याओं के मूल में, गहराई में जाकर छानबीन करने और परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास किया है। जिस तरह कोई भी अच्छे से अच्छा वाहन अपने आप में निर्जीव होता है, गगनभेदी इमारत में स्वयं का कोई चिन्तन या विवेक नहीं होता, नाव स्वतः सागर पार नहीं कर सकती; उसी तरह समाज का भी अपना कोई अस्तित्व नहीं। गाड़ी को सकुशल, सुरक्षित गन्तव्य तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उसके चालक की, ड्राइवर की होती है, इमारतों को सँभालने का भार उसकी गहरी नींव में भली-भाँति लगाए गए पत्थरों पर होता है, नाव की सुरक्षा उसकी सुदृढ़ पतवार में होती है, उसी तरह समाज की सुव्यवस्था और सुसंस्कृत रचना के आधार वह परिवार और गृहणियाँ होती हैं जिनसे मिलकर समाज बनते हैं। गृहस्थ जीवन की विशृंखलता ही सामाजिक अव्यवस्था के रूप में परिलक्षित होती है, पारिवारिक जीवन की कच्चाई और कमजोरियाँ ही सामाजिक जीवन की दुर्बलता के रूप में उभरती और उन्हें क्लेश-कलह के अन्धकार में डुबोकर रख देती हैं।

पारिवारिक जीवन जिन दो पहियों की गाड़ी पर चलता है, उनमें एक नर है, दूसरा नारी। कोई भी एक पक्ष सबल और दूसरा निर्बल होकर उस भार को देर तक सँभाल नहीं सकता। पर आज हो यही रहा है कि अकेले पुरुष की सामर्थ्य पर गृहस्थ जीवन की सुख-समुन्नति की बात सोची जा रही है। गाड़ी का एक पहिया टूटा हुआ है तो भी उसे ढकेला जा रहा है। यही कारण है कि सर्वत्र अशान्ति और अव्यवस्था की दुर्घटनाएँ घट रही हैं। नारी केवल पुरुष की ही अर्धांगिनी नहीं, समाज का भी अर्धांग है। पारिवारिक जीवन के सुख-दुःख में सहयोग देकर वह प्रकारान्तर से सामाजिक जीवन को ही पोषण प्रदान करती है। इस दृष्टि से सामाजिक सुव्यवस्था के लिए केवल पुरुष का ही शिक्षित, सभ्य, स्वस्थ और चेतना सम्पन्न होना ही काफी नहीं है अपितु जब तक यह लाभ नारी वर्ग को नहीं मिलते, जब तक स्त्रियाँ अशिक्षित, अविकसित, अयोग्य, अस्वस्थ आर्थिक और मानसिक दृष्टि से अपंग बनी रहती हैं, तब तक समाज समुन्नत नहीं कहा जा सकता। दोनों के समान रूप से सुशिक्षित, सुसंस्कृत और आत्म शक्ति सम्पन्न होने से ही सामाजिक जीवन की स्वस्थ शान्तिदायी परिस्थितियाँ अक्षुण्ण रह सकती हैं।

पुरुष प्रगतिशील हो और नारी पिछड़ी, प्रगतिगामिनी। पुरुष सुशिक्षित हो और स्त्री अनपढ़ मूर्ख हो यह उपलब्धियाँ सुख-शान्ति प्रदान करना तो दूर उल्टे विष का काम करने लगेंगी। पुरुष अपनी बुद्धिमत्ता से सुख-शान्ति के जो सरंजाम जुटाएगा, गवार स्त्रियाँ उन्हें बिगाड़कर रख देंगी। गृहस्थ जीवन में कलह, कटुता और वैमनस्य छा जाएगा। घर से ऊबा हुआ मनुष्य सामाजिक जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न करेगा और चारों तरफ अपराध और अवांछनीयता बढ़ाकर रख देगा।

मनुष्य जीवन का निर्माण विचार और भावनाओं की पृष्ठभूमि पर रखा हुआ है। बाह्य प्रगति के लिए विचार आवश्यक हो सकते हैं पर मनुष्य को आत्मिक शान्ति और प्रसन्नता भावनाओं से ही मिलती है। कितनी ही धन-सम्पत्ति मिल जाए, साधनाें के अम्बार लग जायें पर कोई प्यार करने वाला न हो, स्नेह-ममता और दुलार देने वाला न हो, सन्तोष, सम्वेदना और संरक्षण देने वाला न हो तो भौतिक जीवन के सारे के सारे सुख-साधन भी प्रसन्नता नहीं दे सकते। समुन्नत राष्ट्रों में आज जो अशान्ति है, वह इसी तथ्य को न समझ पाने के कारण है। सुख-सुविधाओं के अम्बार लगे होने पर भी वहाँ का हर व्यक्ति मानसिक दृष्टि से बीमार और विकारग्रस्त है। उसका एकमात्र कारण भावनाओं का अभिसिंचन न मिलना है। इस अपेक्षा को एकमात्र नारी ही पूर्ण कर सकती है। पर जो नारी स्वयं अपूर्ण, अविकसित हो वह भला अपने इस महान् दायित्व का निर्वाह कैसे कर पायेगी। बुद्धिमान मनुष्य आगे बढ़ने की कोशिश करेगा, मूर्खा नारी उसे पकड़कर पीछे घसीटेगी, पुरुष हारा-थका घर आयेगा और यह आशा रखेगा कि वहाँ उसे वह स्नेह-ममता भरा वातावरण मिलेगा जो उसकी सारी थकावट को मिटा देगा, पर घर में उसे मिलेगा कलहपूर्ण वातावरण। उस स्थिति में पुरुष पागल नहीं होगा तो क्या दार्शनिक बनेगा? आज की सामाजिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही हैं। यह कुल्हाड़ी किसी देवी-देवता या भगवान ने नहीं, पुरुष ने स्वयं नारी को अर्द्धदग्ध रखकर अपने पैरों में मारी है।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि महापुरुष आसमान से नहीं टपके। उनका निर्माण सुयोग्य नारियों ने किया है। टालस्टाय, गोर्की, अब्राहम लिंकन, सुकरात और नेपोलियन जैसे सन्त, समाज सेवक, सुधारक, शासक और विद्वान व्यक्तियों का निर्माण माताओं ने ही किया है। अपने पुत्रों-पतियों को और समाज को महानता के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करने वाली भगवती-पार्वती, सावित्री, मदालसा, गार्गी, कौशिल्या, यशोदा, विदुला, विश्वावारा, अपाला, घोषा, अहिल्या, दुर्गा, लक्ष्मीबाई, विगत स्वाधीनता संग्राम की जननेत्रियाँ कस्तूरबा, भीकाजी कामा, सरोजिनी, कमला, विजयलक्ष्मी, इन्दिरा आदि विदुषी महिलाओं के जीवन पर दृष्टिपात करें तो यही एक तथ्य उभर कर आता है कि महानता नारी की कोख से उभरती और जन्म लेती है, किन्तु यह सब अनायास ही नहीं हो जाता। सामाजिक जीवन में नारी को प्रतिष्ठा, शिक्षा, आर्थिक स्वावलम्बन और आत्म विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तो ही वह परिस्थितियाँ उभर सकती हैं, सामाजिक सुख-शान्ति और समुन्नति के लिए जिनकी अपेक्षा की जाती है।

मध्य युग में स्त्री को घर की चारदीवारी में बन्द रखा गया। उसे मात्र अन्त:पुर की शोभा समझा गया और आभूषणों एवं सौन्दर्य प्रसाधनों की हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़ दिया गया। फलस्वरूप वह बाह्य परिवर्तनों और परिस्थितियों से अनभिज्ञ होती चली गई, उसमें सामाजिक बुराइयों से लड़ने की तो दूर, उन्हें समझने भी की शक्ति नहीं रही। उन्हें अन्याय और अवांछनीयता से छिपने के लिए मुँह पर पर्दा डालने की बात तो बताई गई पर यह सब नहीं किया गया, जिससे वह भी पुरुष के कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर दुष्टता से लड़ पड़ती। घर में छिपाकर रखने से, जौहर और आत्मघात करने से भी इज्जत बच सकी क्या? यदि उसे भी दुर्बुद्धि और मदान्धता से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता तो उस स्थिति में उसकी सन्तान तो वीर होती ही वह भी उन संकीर्णताओं से, अन्धविश्वास से, असुरक्षा से बच जाती जिसके कारण आज सामाजिक अधःपतन का साधन बनी हुई है। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसेड़ने से सुरक्षा तो नहीं हो सकी, नारी जीवन अपने आप में ही घुटकर रह गया। आज उसकी अशिक्षा, आर्थिक परावलम्बन, बौद्धिक संकीर्णता और सामाजिक प्रगति में सहयोग न दे पाना उसी के अभिशाप हैं। उनसे मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक नारी को आगे बढ़ने के लिए उसके वैयक्तिक गुणों के विकास के साधन नहीं जुटाए जाते। सामाजिक प्रगति की अपेक्षा और युग की पुकार आज यही हो सकती है कि स्त्रियों को शिक्षा की प्रचुर सुविधाएँ मिलें। आर्थिक और आजीविका की दृष्टि से वह परावलम्बी न हों। उसके स्वास्थ्य की उपेक्षा न की जाये, उनके शील के साथ खिलवाड़ कर उन्हें आत्महीन न बनाया जाये, वरन् उसमें उस साहस, शक्ति का आविर्भाव होने दिया जाये जिससे वह सच्चे अर्थों में निर्मात्री और अधिष्ठात्री सिद्ध हो सके; अपने को, अपनी सन्तति को, पति और पारिवारिक जीवन को भावनात्मक उत्कृष्टता प्रदान कर सकें।

नारी उत्थान के लिए आवश्यक विचारक्रान्ति

प्राचीन काल का अर्थात् वैदिक युग की सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है, तो यह बात सामने आती है कि उस समय समाज में नारियों की जो स्थिति रही वह बहुत ही गौरवपूर्ण थी, उसे परिवार तथा समाज में पुरुष के समान ही महत्त्व प्राप्त था। यही नहीं वे राजनीति और धर्मनीति में भी खुलकर भाग लेती थीं तथा युद्धों तक में पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर लड़ती थीं। धर्मनीति के क्षेत्र में विदुषी महिलाओं के महर्षियों और आचार्यों से विवाद तथा शास्त्रार्थ के तो अनेक उदाहरण हैं।

फिर किस दुर्भाग्य की घड़ी में नारी का पतन होने लगा कि आज नारी समाज अपंग, विकलांग बन कर रह गया है? इसके बहुत से राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक कारण हैं। जिनकी वजह से स्त्रियों का अवमूल्यन होने लगा और अठाहरवीं शताब्दी के अन्त तक सती दाह, कन्या वध, बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा के साथ अमानवीय व्यवहार और दासी प्रथा जैसी अनेक कुरीतियाँ चल पड़ी। इन कुरीतियों ने भारतीय नारी को नितान्त महत्त्वहीन प्राणी बनाकर छोड़ दिया। यहाँ तक कि नारी का 'मानवी' रूप भी अमान्य लगने लगा। ऐसा इसलिए कि इन प्रतिबन्धों के कारण नारी की शक्तियाँ और क्षमताएँ इस प्रकार जंग खाई लगने लगी कि समाज में उसे अबला बन जाना पड़ा; जिसे न कोई स्वतन्त्रता प्राप्त थी और न कोई स्वयं की निर्भरता।

समाज के विचारशील वर्ग की दृष्टि इस ओर उन्नीसवीं सदी में जाने लगी थी। राजा राममोहनराय और स्वामी दयानन्द, ईश्वरचन्द विद्यासागर सरीखे समाज सुधारक महापुरुषों के प्रयासों से उसी काल में नारी-उत्कर्ष के लिए काम शुरू हुआ। अंग्रेजी जमाने में भी शासक वर्ग ने इस ओर ध्यान दिया तथा सती प्रथा और कन्या वध जैसी अपराधी प्रथाओं पर प्रतिबन्ध लगे। आज हमारे देश में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर जो अधिकार तथा दर्जा प्राप्त है, उसके बीजांकुर राजा राममोहनराय तथा स्वामी दयानन्द तथा ईश्वरचन्द विद्यासागर के समय में ही रोपे गए थे।

कानूनन भारतीय नारी को समानाधिकार प्राप्त होते हुए भी भारतीय नारी की जो सामाजिक स्थिति है वह किसी से छुपी हुई नहीं है। यद्यपि अब लड़कियाँ पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हैं, लगभग सभी नौकरी-पेशा पदों पर स्त्रियाँ भी कार्यरत हैं। संविधान ने भारतीय नारी को पुरुष के समान शिक्षा प्राप्त करने माता-पिता की सम्पत्ति में बराबर का हकदार होने, अपनी पसन्द का जीवन साथी चुनने, पति की मृत्यु के बाद दुबारा शादी करने के अधिकार प्रदान किए हैं फिर भी भारतीय नारी की सामाजिक स्थिति में सन्तोषजनक सुधार नहीं हो पाया है और आज भी बहुसंख्यक स्त्रियाँ पुरुष की तुलना में हीन और दूसरे दर्जे का जीवन व्यतीत कर रही हैं। जो लोग स्त्रियों को संविधान द्वारा ही समानाधिकार दिलाने की बात करते हैं, उन्हें क्या इसी से सन्तुष्ट हो जाना चाहिए।

भारत में नारियों की समानता के लिए संविधान की ओर से कोई रुकावट नहीं है। बल्कि यहाँ स्त्रियों को अमेरिका-इंग्लैंड जैसे आधुनिक उन्नत देशों के समान ही अवसर प्राप्त हैं। परन्तु यहाँ की सामाजिक स्थिति वहाँ से कहीं अधिक गई-गुजरी है। उदाहरण के लिए दहेज प्रथा को ही लिया जाए। कन्या को बोझ रूप बनाने में इसी कुप्रथा का सबसे बड़ा हाथ है। इस प्रथा के खिलाफ हमारे यहाँ सन् १९६१ में ही कानून बन गया था, जिसके अनुसार दहेज लेना व देना गैर कानूनी घोषित किया गया; लेकिन क्या दहेज प्रथा बन्द हुई? नहीं, हमारे यहाँ के लगभग सभी धर्मों, क्षेत्रों और जातियों के प्रत्येक वर्ग में दहेज प्रथा जोर-शोर से जारी है। सरकार ने इसे रोकने के लिए कड़े कदम उठाए तो लोगों ने दूसरे ढंग से दहेज लेना-देना शुरू कर दिया। कुछ लोग उपहार के तौर पर दहेज वसूल करने लगे तो कुछ ने शादी से पहले ही दान-दहेज का माल मत्ता खिसकाना आरम्भ कर दिया।

दहेज प्रथा को छोड़कर कन्या शिक्षा की बात ली जाए, देश भर में लड़कियों के लिए अलग स्कूल खोले गए, उन्हें भी छात्रों के समान शिक्षा की सुविधा बिना किसी भेद-भाव के दी जाने लगी और शिक्षा के लिए प्रोत्साहन भी; फिर भी औसत भारतीय गृहिणी निरक्षर है। कहा जा सकता है कि ये प्रयास तो पिछले कुछ वर्षों से ही चलने लगे हैं। अब जबकि प्रत्येक बालक के लिए प्राथमिक शालाओं में पढ़ना अनिवार्य है और वहाँ की पढ़ाई निःशुल्क भी है तब भी उन स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों की संख्या लड़कियों से अधिक है क्योंकि सामान्य अभिभावक अपनी लड़कियों को पढ़ा-लिखाकर उनके लिए वर प्राप्त करने की कीमत बढ़ाना नहीं चाहते।

नौकरी या विभिन्न शासकीय पदों पर स्त्रियों को लिंग भेद की मान्यता के कारण न तो नियुक्ति से वंचित किया जा सकता है और न ही उनसे किसी तरह का भेद-भाव बरता जा सकता है। कानूनन स्त्री और पुरुष को योग्यतानुसार नियुक्ति या पदोन्नति के मामले में समान अवसर दिए जाने चाहिए; पर इस सम्बन्ध में जो भी विश्लेषण हुए हैं और विश्लेषण के अनुसार जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे सिद्ध होता है कि न केवल स्त्रियों के साथ भेदभाव बरता जाता है वरन् विभिन्न तरीकों से उनका शोषण भी किया जाता है।

सिद्धान्त और व्यवहार, संविधान और समाज व्यवस्था में इस भारी अन्तर का कारण यह है कि विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न स्तर पर प्रगति करने के बावजूद भी लोगों का दृष्टिकोण जहाँ का तहाँ है, जो अब से सौ साल या उससे भी पहले था। समाज में अभी भी पुरुषों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर रखा है और वे सच्चे मन से नारी को आगे बढ़ते देखना सहन नहीं करते। लोग जो अपनी आधुनिकता का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं, नारी मुक्ति के लिए बढ़-चढ़कर नारे लगाते हैं, लेकिन सवाल जब घर का आता है तो वे भी बगलें झाँकने लगते हैं। कन्या और पुत्र में कोई भेद न रखने वालों के मुँह पर उस समय मुर्दनी छा जाती है जब वे सुनते हैं कि घर में लड़की जन्मी है, दहेज प्रथा को अभिशाप बताने वाले अपने पुत्र के विवाह में यह तर्क देकर उसके निर्वाह का आजीवन खर्च वसूल करते देखे जाते हैं कि माँ-बाप की सम्पत्ति में बेटी भी तो हकदार है। लेकिन जब अपनी ही बेटी का विवाह हो रहा हो तो तमाम उच्चादर्शों के प्रति निष्ठा न जाने कहाँ से जाग उठती है।

स्त्रियों में स्वयं हीनता की भावना है। वे बचपन में पिता और बाद में पति के उतनी ही आश्रिता और मुखापेक्षी रहती हैं, जितनी कि घर में खूटे से बँधी हुई गाय। बेचारी न बोलने की आजादी महसूस कर पाती है और न अपनी राय जाहिर करने का साहस जुटा पाती है। वैचारिक और सैद्धान्तिक प्रतिपादन को लेकर लोग तमाम अन्धविश्वासों, अविवेकपूर्ण रीति-रिवाजों, रूढ़ियों और सामाजिक कुरीतियों को धुँआधार कोसने की स्पर्धा बरतते हैं; पर जागरूक स्त्रियाँ जहाँ पुरुष को अपनी प्रतिस्पर्धा में देखती हैं वहीं पुरुष स्त्री को अपना दुश्मन समझता है।

इस स्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता से नारी उत्कर्ष का प्रयोजन हल नहीं होने का। आवश्यकता इस बात की है कि पुरुष और स्त्री दोनों ही समतावादी दृष्टिकोण विकसित करें तथा एक दूसरे के प्रति सहयोगी भाव अपनाएँ। नारी और पुरुष वैसे भी एक दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने वाली इकाई नहीं हैं, वरन् उनके अस्तित्व का विकास और सुरक्षा एक दूसरे से सघन सहयोग करने पर ही निर्भर है। इसके लिए आवश्यक है एक जबर्दस्त वैचारिक क्रान्ति की जो स्त्री-पुरुषों में सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी धारणाओं में 'आमूलचूल' परिवर्तन ला सके। जनमानस को बदलने के लिए कानून और राजदण्ड तो अपने आप में एक आवश्यकता हैं ही पर वही सम्पूर्ण रूप से समर्थ नहीं है। कोई भी परिवर्तन की प्रक्रिया सफलतापूर्वक तब तक सम्पन्न नहीं हो सकती जब तक कि जनमानस उसे स्वीकार करने और अपनाने के लिए तैयार न हो। वैचारिक क्रान्ति इसी आवश्यक शर्त को पूरी करने के लिए अनिवार्य है।

नारी को सुविकसित होने दिया जाय

जब-जब जिन समाजों में नारी का समुचित स्थान रहा है, उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास की व्यवस्था रक्खी गई है, तब-तब वे समाज, संसार में समुन्नत होकर आगे बढ़े हैं और जब-जब इसके प्रतिकूल आचरण किया गया है, तब-तब समाजों का पतन हुआ है।

नारी जन्मदात्री है। समाज का प्रत्येक भावी सदस्य उसकी गोद में पलकर संसार में खड़ा होता है। उसके स्तन का अमृत पीकर पुष्ट होता है। उसकी हँसी से हँसना और उसकी वाणी से बोलना सीखता है। उसकी कृपा से ही जीकर और उसके ही अच्छे-बुरे संस्कार लेकर अपने जीवन क्षेत्र में उतरता है। तात्पर्य यह है कि जैसी माँ होगी, सन्तान अधिकांशत: उसी प्रकार की होगी।

भारत के अतीतकालीन गौरव में नारियों का बहुत कुछ अंशदान रहा है। उस समय सन्तान की अच्छाई-बुराई का सम्बन्ध माँ की मर्यादा के साथ जुड़ा था। वह अपनी मान-मर्यादा की प्रतिष्ठा के लिए सन्तान को बड़े उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से पालती थीं। देश, काल और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सन्तान देना अपना परम पावन कर्तव्य समझती थी। यही कारण है कि जब-जब युगानुसार सन्त, महात्मा, त्यागी, दानी, योद्धा, वीर और बलिदानियों की आवश्यकता पड़ी, उसने अपनी गोद में पाल-पाल कर दिए।

किन्तु वह अपने इस दायित्व को निभा तब ही सकी है, जब उसको स्वयं का विकास करने का अवसर दिया गया है। जिस माँ का स्वयं अपना विकास न हुआ हो, वह भला विकासशील सन्तान दे भी कैसे सकती है? जिसको देश-काल की आवश्यकता और समाज की स्थिति और संसार की गतिविधि का ज्ञान ही न हो, वह उसके अनुरूप अपनी सन्तान को किस प्रकार बना सकती है? अपने इस दायित्व को ठीक प्रकार से निभा सकने के लिए आवश्यक है कि नारी को सारे शैक्षणिक एवं सामाजिक अधिकार समुचित रूप से दिए जाएँ।

प्राचीनकाल में नारी को यह अधिकार मिले हुए थे। उनके लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी, समाज में आने-जाने और उनकी गतिविधियों में भाग लेने की पूरी स्वतंत्रता थी। वे पुरुषों के साथ वेद पढ़ती-पढ़ाती थीं, यज्ञ की होता, ऋत्विज तथा यज्वा के रूप में बैठती थीं और धर्म कर्मों में हाथ बँटाती हुई तत्त्वदर्शन किया करती थीं। यही कारण था कि वे गुण, कर्म, स्वभाव में पुरुषों के समान ही उन्नत हुआ करती थीं और तभी समान एवं समकक्ष स्त्री-पुरुष की सम्मिलित सन्तान भी उन्हीं की तरह गुणवती होती थीं। जब तक समाज में इस प्रकार की मंगल परम्परा चलती रही, भारत का वह समय देवयुग के समान सुख-शान्ति और सम्पन्नतापूर्ण बना रहा, किन्तु ज्यों ही इस पुण्य परम्परा में व्यवधान आया, नारी को उसके समुचित एवं आवश्यक अधिकारों से वंचित किया गया, भारतीय समाज का पतन होना प्रारम्भ हो गया और ज्यों-ज्यों नारी को दयनीय बनाया जाता रहा, समाज अधोगति को प्राप्त होता गया और अन्त में एक ऐसा अन्धकार-युग आया कि भारत का सारा गौरव और उसकी सारी सांस्कृतिक गरिमा मिट्टी में मिल गई।

हमारे समाज में आज एक लम्बे युग से नारी की उपेक्षा होती चली आ रही है। जिसके फलस्वरूप धर्मभार्या के रूप में उसके सारे गुण और समाज-निर्मात्री के रूप में सारी योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं। उसे पैर की जूती बनाकर रखा जाने लगा, जिससे वास्तव में जूती से अधिक उसकी कोई उपयोगिता रह भी नहीं गई है। ऐसी निम्नकोटि में पहुँचाई गई नारी से यदि आज का स्वार्थी एवं अनुदार पुरुष यह आशा करे कि वह गृहलक्ष्मी बनकर उसके घर को सुख-शान्तिपूर्ण स्वर्ग का एक कोना बना दे, उनकी सन्तानों की सुयोग्य, सुशील और सानुकूल नागरिक के रूप में रचना कर दे तो वह दिन के सपने देखता है, आकाश-कुसुम की कामना करता है।

यदि मनुष्य सच्ची सुख-शान्ति चाहता है और चाहता है कि उसकी नारी अन्नपूर्णा बनकर उसकी कमाई में प्रकाण्डता भरे, उसके मन को माधुर्य और प्राणों को प्रसन्नता दे, उसके परिश्रांत जीवन में सुमन बन कर हँसे और संसार-समर में शक्ति बनकर साहस दे, तो उसे पैरों से उठाकर अर्द्धांग में सम्मान देना ही होगा। अन्यथा टूटे पहिये की गाड़ी के समान उनकी जिन्दगी धचके खाते ही घिसटेगी। घर-बार उसे बेकार का बोझ बनकर त्रस्त करता रहेगा। अयोग्य एवं अनाचारी बच्चों की भीड़ दुश्मन की तरह उसके पीछे पड़ी रहेगी।

इस प्रकार देश, समाज, घर-गृहस्थी तथा वैयक्तिक विकास तथा सुख-शान्ति के लिए नारी की इतनी आवश्यकता जानकर भी जो उसे अधिकारहीन करके पैर की जूती बनाये रखने की सोचता है वह देश, समाज का ही नहीं, अपनी आत्मा का ही हितैषी नहीं कहा जा सकता।

अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिए उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिए उसके प्रतिबन्ध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिए उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा। समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है, जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता, सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है तो वह दम्भी और मिथ्याचारी है।

नारी केवल सन्तान सम्पादिका ही नहीं, पालिका तथा संचालक भी है। संसार का प्रत्येक प्राणी माँ के गर्भ से जन्म लेता है, उसकी गोद में पलता और उसका ही स्वभाव-संस्कार लेकर बढ़ता है। समाज का प्रत्येक सदस्य माँ के दिए मूल संस्कारों को विकसित करता हुआ व्यवहार किया करता है और माँ अपने वही संस्कार तो सन्तान को दे सकती है जो उसके पास होंगे। शुभ संस्कारों वाली माँ शुभ और अशुभ संस्कारों वाली माँ अशुभ संस्कार ही तो दे सकेगी। यह बात उसके वश की नहीं कि स्वयं असंस्कृत होकर अपनी सन्तानों को सुसंस्कृत बना सके।

पुरुष उद्योगी तथा उच्छृंखल इकाई है। परिवार बसाकर रहना उसका सहज स्वभाव नहीं है। यह नारी की ही कोमल कुशलता है जो उसे पारिवारिक बनाकर प्रसन्नता की परिधि में परिभ्रमण करने के लिए लालायित बनाए रखती है। नारी ही पुरुष की उद्योग उपलब्धियों को व्यवस्था एवं उपयोगिता प्रदान करती है। पुरुष नारी के कारण ही पुत्रवान है, पारिवारिक है और प्रसन्नचेता है। पत्नी के रूप में नारी का महत्त्व असीम है, अनुपम है।

पारिवारिकता ही नहीं, सामाजिकता में भी नारी का महत्त्व महान है। समाज केवल पुरुष वर्ग से ही नहीं बना वह स्त्री-पुरुष दोनों से ही बनता है। आज समाज से यदि नारी अपने आप को दूर कर ले अथवा अपने को निकाल ले तो क्या समाज का रथ केवल पुरुष रूपी एक पहिए पर एक दिन भी चल सकता है? नारी समाज की आधी जनसंख्या है। समाज के बहुत से ऐसे काम हैं जो नारी द्वारा ही किए जाते हैं। सदस्य, जिनसे मिलकर समाज बनता है—नारी है, जननी है और वही उनका लालन-पालन करती है। नारी समाज की आधी शक्ति है। 'एकोहं बहुस्यामि' के सिद्धान्त पर समाज की जनसंख्या का सृजन नारी ही करती है। नारी ही अपनी योग्यता, दक्षता एवं कुशलता के अनुसार समाज को अच्छे-बुरे सदस्य और राष्ट्र को नागरिक देती है। अपने गुण एवं स्वभाव के अनुसार अपनी सन्तानों को ढाल-ढाल कर देश व राष्ट्र को देना नारी का काम है। देश के निवासी, शूरवीर, त्यागी, बलिदानी अथवा कायर, कुटिल और आचरणहीन बनते हैं यह जननी की ही गौरव-गरिमा पर निर्भर है। सारांश यह है कि जिस प्रकार की राष्ट्र की जननी नारी होगी, राष्ट्र भी उसी प्रकार का बनेगा। सामाजिकता अथवा राष्ट्रीयता के रूप में नारी का यह महत्त्व सर्वमान्य ही मानना पड़ेगा।

धार्मिक क्षेत्र में भी नारी का महत्त्व अप्रतिम है। विद्या, वैभव और वीरता की अधिष्ठात्री देवियाँ शारदा, श्री और शक्ति नारी की प्रतीक है। सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्फुरण शक्ति, माया भी नारी मानी गई है। इसके अतिरिक्त यज्ञादि जितने भी धार्मिक अनुष्ठान पुरुष द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं वे नारी को साथ लेकर पूर्ण किए जाते हैं। यह बात सही है कि आज यद्यपि उनमें रूढ़िता, अन्धविश्वास तथा अज्ञान का दोष अवश्य आ गया है तथापि नारियाँ पुरुषों की अपेक्षा धर्म को अधिक दृढ़ता के साथ पकड़े हुए हैं। यही नहीं अनेक बार अन्धकार युगों में जबकि आक्रान्त अथवा सक्रान्त समय में पुरुष वर्ग धर्म तथा आस्तिकता से विचलित होने लगे हैं। नारियों ने धर्म भावना की रक्षा की है और घरों में चोरी-छिपे, सही-गलत, उल्टे-सीधे धार्मिक कृत्य, व्रत-उपवास और पूजा के रूप में करती रही हैं। समय-समय पर धर्म रक्षार्थ उन्होंने अपने प्राण तक दिए हैं। आज के इस विकृतकाल में भी नारियाँ धर्म धारण में पुरुषों से आगे ही हैं। पुरुष के नास्तिक हो जाने अथवा धर्म के प्रति अविश्वास हो जाने पर भी नारियाँ बहुधा घरों में आस्तिकता तथा श्रद्धा-विश्वास का वातावरण बनाए रखती हैं। आज भी कुप्रगतिशीलता की लहर से अप्रभावित रहकर करोड़ों नारियाँ एक प्रकार से बहुत अंशों तक भारतीय धर्म तथा सभ्यता एवं संस्कृति की संरक्षिका बनी हुई हैं। धार्मिक क्षेत्र में यह कुछ कम महत्त्व की बात नहीं है।

आज हमारे समाज में अशिक्षा का अभिशाप नारी वर्ग को सर्प की तरह डसे हुए है। शिक्षा के अभाव में भारतीय नारी असभ्य, अदक्ष, अयोग्य एवं अप्रगतिशील बनी हुई हैं, चेतना होते हुए भी जड़ की तरह जीवन बिता रही हैं। समाज एवं राष्ट्र के लिए उसकी सारी उपादेयता नष्ट होती जा रही है। आज वह आत्मबोध से वंचित आजीवन बन्दिनी की तरह घर में बन्द रहती हुई चूल्हे-चौके और पौर तक सीमित पुरुषों की संकीर्णता का दण्ड भोगती हुई मिटती चली जा रही है। उसे समाज एवं राष्ट्र की गतिविधियों में हाथ बँटाना तो दूर उसके ज्ञान का भी अवसर नहीं मिलता।

गृहिणी होते हुए भी अशिक्षा के कारण नारी ठीक मायनों में गृहणी सिद्ध नहीं हो पा रही है। बच्चों के लालन-पालन से लेकर घर की सँभाल तक किसी काम में भी कुशल न होने से उस सुख-सुविधा को जन्म नहीं दे पाती, घर में जिसकी अपेक्षा की जाती है। घर को साज-सँभार कर रखना तो दूर उसकी अदक्षता उसे और भी अस्त-व्यस्त बनाए रहती है। शिक्षा के अभाव में कोमलवृत्ति नारी कर्कशा एवं कलहनी होती चली जा रही है। हर समय कोप करना, बात-बात पर बच्चों को मारना-पीटना, अकारण में कारण निकालना, लड़ना-झगड़ना और खटपाट ले लेना, उनके स्वभाव का अंग बन गया है। वह परालम्बिनी और परमुखापेक्षिणी बनी हुई विकास से वंचित, शिक्षा से रहित, गूढ़-मूढ़ और मूक जीवन बिताती हुई अनागरिक पशु की भाँति परिवार को ढोये जा रही है। पुरुष उसे स्वतंत्रता दे और समाज सुविधाएँ, फिर देखो आज की यह फूहड़ नारी कुशल शिल्पी की भाँति सन्तान, घर और समाज को रच देती है या नहीं।

नारी को पिछड़ी रखकर हम पाते कम और खोते अधिक हैं !

नारी के पिछड़ेपन का सारा लाभ नर ने उठाया है। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष यह है कि सबसे अधिक हानि भी उसी को उठानी पड़ी है।

पालतू पशुओं के जीवित रहने का सारा लाभ उनके मालिकों को मिलता है। वे तो बेचारे किसी प्रकार जीवित भर रह लेते हैं। बैल, घोड़े, गधे अपने मालिकों के लिए श्रम करते हैं। गाय, भैंस, बकरी को उन्हीं के लिए दूध देना पड़ता है। वे जो बच्चे जनती हैं, उन पर अधिकार उनका नहीं, पालने वाले मालिकों का होता है। भेड़ों की ऊन का लाभ गड़रिये को मिलता है। कुत्ते मालिक की रखवाली करते हैं। इस प्रकार उनकी जीवन सम्पदा से पूरी तरह पालने वाले ही लाभान्वित होते हैं। चूँकि यह लाभ पाने के लिए उन्हें जीवित रखना आवश्यक है, इसलिए चारे-भूसे का, निवास आच्छादन का प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा। यह उदारता वश या न्याय बुद्धि से नहीं, वरन् इस विवशता के कारण करना पड़ता है कि इतना भी न करने पर वे जीवित न रहेंगे और लाभ देने वाले स्रोत बन्द हो जायेंगे। इतना प्रबन्ध तो मुर्गी-मछली पालने वाले भी करते हैं।

नारी के जीवित रहने का लाभ उसे कितना मिला और उसके मालिकों ने कितना लाभ उठाया, इस पर निष्पक्ष और न्याय-दृष्टि से विचार करने पर असंदिग्ध रूप से यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसकी स्थिति कुल मिलाकर पालतू-पशुओं से अधिक अच्छी नहीं है। यह तुलना यदि अखरती हो तो सामन्तवादी युग से चल रही दास-दासी प्रथा के समतुल्य इस स्थिति को कहा जा सकता है। दास-दासी हाट-बाजारों में खरीदे-बेचे जाते थे। मालिकों का उनके शरीर पर पूरा अधिकार होता था। दासों को उचित-अनुचित की समीक्षा करने का अधिकार न था, उनके लिए आज्ञा पालन ही एकमात्र विकल्प था। इस दास-धर्म का पालन किए बिना उनके लिए और कोई मार्ग न था। जीवित न रहना हो तो ही वे अवज्ञा कर सकते थे, अन्यथा प्राण-मोह के रहते मालिकों की आज्ञा पालने में ही उनकी गति थी। उनके श्रम का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए अथवा उनकी इच्छा एवं आवश्यकता को भी महत्त्व मिलना चाहिए। ऐसा सोच सकना उन दिनों न दास-दासियों के लिए सम्भव था और न उनके मालिक ही वैसी आवश्यकता अनुभव करते थे।

कहने-सुनने में बात बड़ी अटपटी और कड़ुई लग सकती है कि आज भी औसत नारी की स्थिति पालतू पशुओं अथवा दास-दासी स्तर से कुछ अधिक अच्छी नहीं है। उसे अपने पालने वालों के लिए श्रम करना पड़ता है, उनकी इच्छानुरूप ढलना पड़ता है, हर घड़ी ध्यान रखना पड़ता है कि पालने वाले कहीं नाराज न हो जायें। इसमें कितना उचित, कितना अनुचित है, उसे सोचने की कहीं गुंजायश नहीं दीखती।

नर को रोटी-कपड़े के मूल्य पर रसोईदारिन, चौकीदारिन, धोबिन आदि की आवश्यकता पूरी करने वाली चौबीस घण्टे की नौकरानी मिलती है। क्रीड़ा-विनोद का लाभ भी बिना मूल्य मिलता है। अहंकार प्रदर्शित करने के लिए अन्यत्र कहीं अवसर न मिले तो न सही, पर नारी तो उसके लिए ऐसा उपयुक्त माध्यम है ही, जिससे प्रतिरोध की भी सम्भावना नहीं है। पितृ-गृह से भी वह विवाह के दिन से लेकर मरने तक कुछ न कुछ लाती ही रहती है। यह सारे लाभ नर के पक्ष में जाते हैं, नारी तो गृह-प्रवेश से लेकर दम तोड़ने तक अपना शरीर व स्वास्थ्य जलाती ही रहती है। मन घुटते-घुटते टूटता बैठता ही चला जाता है। शिक्षा जो बचपन में मिली थी, वह विस्मृति के गर्त में चली जाती है। पिंजड़े की कैद में अनुभव बढ़ाने के अवसर ही कहाँ हैं? काम का दबाव ही अहर्निश छाया रहता है, फिर मनोरंजन की इच्छा उठे तो उसका क्या महत्त्व? अवसर न मिलने से वह उमंग भी असमय में ही मर जाती है। नीरसता स्वभाव का अंग बन जाती है। न उत्साह, न उमंग, ढर्रे का मशीनी जीवन किसी प्रकार लाश की तरह ढोना और उतने में ही सन्तोष करना—यही है उसका भाग्य-विधान, जिस पर इच्छा अथवा अनिच्छा से उसे गुजर करनी पड़ती है।

उपरोक्त कथन में अत्युक्ति नहीं है। औसत भारतीय नारी को इसी में गुजारा करना पड़ता है। इसे उसकी विशेषता कहकर सराहा भी जा सकता है और विवशता कहकर आँसू भी बहाया जा सकता है। यह स्थिति स्वाभाविक नहीं है। प्रकृति ने नर और नारी को हर दृष्टि से समान बनाया है। गाड़ी के दो पहियों की तरह दोनों की उपयोगिता भी एक जैसी है। क्षमता में न कोई किसी से आगे है और न पीछे। शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो नथुने, दो होठ होते हैं। दोनों में से न कोई वरिष्ठ होता है और न कनिष्ठ। परस्पर सहयोग से वे एक दूसरे के पूरक रहते हैं और मिल-जुलकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हैं। नर-नारी की स्वाभाविक स्थिति यही है। इसी में औचित्य, न्याय और ईश्वरीय व्यवस्था का परिपालन है। नारी को नर की सम्पत्ति मानकर रहना पड़े, उसी के लाभ के लिए जीवित रहना पड़े, तो इसमें अनीति ही अनीति है। भले ही उसने प्रथा-परम्परा का रूप धारण कर लिया हो।

नर और नारी के बीच सम्बन्धों का यह वह पक्ष है, जिसमें नर को लाभान्वित होते देखा जा सकता है। अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखा जाय। इस पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि अनीति के इस कुचक्र में नारी को जितनी क्षति उठानी पड़ी है, नर की हानि उससे कम नहीं, वरन अधिक ही हुई है। तात्कालिक लाभ के लोभ से उसने जो पाया है, उसकी तुलना में खोया अधिक है। हर रोज सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने वाले लालची मालिक ने जो घाटा उठाया था, उससे अधिक हानि नारी को शोषण का शिकार बनाने के प्रलोभन में नर को उठानी पड़ी है। इस दुरभिसन्धि में उसने पाया कम और खोया अधिक है।

अशक्त पक्ष समर्थ पक्ष के लिए भार बनकर रहता है। एक पैर लँगड़ा हो तो उसके बदले का दबाव दूसरे पर पड़ता है। एक हाथ को लकवा मार जाय तो दूसरे हाथ को ही उसके बदले का भी काम करना पड़ेगा। एक पहिया टूट जाय तो दूसरे पहिए पर ही उसका वजन आवेगा। इस दबाव से स्वस्थ अंग भी जल्दी जरा-जीर्ण होता है और अपनी सामर्थ्य गँवा बैठता है। नारी यदि शिक्षित, सुयोग्य, समर्थ हो तो अपने बुद्धि, बल, कौशल, अनुभव से पूरे परिवार को लाभान्वित कर सकती है। कठिन समय में कुछ उपार्जन भी कर सकती है और घर की आर्थिक स्थिति सुधारने में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकती है। अविकसित नारी तो अपंग की तरह है। उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में, किसी जटिल समस्या के सुलझाने में कोई योगदान नहीं हो सकता। उल्टे कठिन समय में रोने-धोने, घबराने, हैरान होने और परेशान करने की बात ही उससे बन पड़ती है। वयस्क होते हुए भी बालकों जैसी मन:स्थिति में रहने वाली नारी न स्वयं जीवन का लाभ ले पाती है और न उससे परिवार का कोई विशेष हित-साधन हो पाता है। जबकि उसके सुविकसित होने पर उसके परिवार की प्रगति में चार चाँद लग सकते थे।

नर को प्राय: १२-१४ घण्टे घर में रहना पड़ता है। विश्राम, नित्यकर्म आदि सब कार्य वहीं सम्पन्न होते हैं। यदि घर का वातावरण स्नेहपूर्ण, शालीन, सुव्यवस्थित, उत्साहवर्द्धक, आनन्दयुक्त रहे तो फिर उसे छोटे दायरे में रहकर स्वर्ग जैसे सुख-सन्तोष की अनुभूति हो सकती है। यदि वहाँ द्वेष, मनोमालिन्य, कटुता, अव्यवस्था, फूहड़पन की कुरूपता छाई होगी तो उसकी प्रतिक्रिया उद्विग्नता ही उत्पन्न करेगी। सुविधा-साधन रहते हुए उस घर के निवासी खिन्न, उद्विग्न और उदास दिखाई पड़ेंगे। इस अवसाद का परिणाम हर किसी की प्रगति पर पड़ता है। कहना न होगा कि परिवार का वातावरण बनाने में नारी की ही सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसी से उसे गृह लक्ष्मी कहा जाता है। एक घर में गृह-लक्ष्मी स्तर की नारी हो और दूसरे में अनपढ़ स्त्री, तो उन दोनों के वातावरण में रहने वाले अन्तर से यह सहज ही जाना जा सकता है कि व्यक्तित्वों का ऊँचा और घटिया होना—कितना महत्त्व रखता है।

बच्चे प्रधानतया माता के संस्कारों से ही सम्पन्न होते हैं। नौ मास वे माता के गर्भ में रहते हैं और उसी के रक्त-माँस से उनका शरीर बनता-बढ़ता है। साथ ही वे माता के स्वभाव-संस्कार को भी साथ लेकर जन्मते हैं। जन्म के बाद माता के दूध पर पलते हैं, उसके साथ सोते-खेलते हैं। इसका प्रभाव निश्चित रूप से सन्तान पर पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा अपने बाल्यकाल का अधिकांश भाग पाँच वर्ष की आयु तक पूरा कर लेता है। यह अवधि उसे अधिकतर माता के सम्पर्क से ही गुजारनी पड़ती है। उसे इस पाठशाला में जिस स्तर के अनुदान मिलते हैं, बच्चे का भाग्य और भविष्य उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। बच्चों को हम प्यार करते हों, उनका भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हों, उन्हें समुन्नत देखने की लालसा रखते हों तो उसकी आधारशिला जननी का समुन्नत स्तर ही हो सकता है। नारी को पिछड़ेपन में ग्रसित रखना, बच्चों का स्तर बिगाड़ने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना है। जिनके हाथों उत्तराधिकार सौंपने की बात सोची जाती है, यदि उनका व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए उनकी माता पर ध्यान न दिया गया तो फिर निश्चित क्रम से वे घटिया ही बने रहेंगे। शरीर से पुष्ट और बुद्धि से सुशिक्षित बना देने पर भी उनका स्तर हेय और गया-गुजरा ही बना रहेगा। वे कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने के योग्य न बन सकेंगे।

औसत व्यक्ति गुजारे भर के लिए ही कमा पाता है। उसे रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है। अपने परिवार के स्थिर गुजारे जैसी सम्पत्ति कोई विरला ही जमा कर पाता है। दुर्भाग्यवश यदि कमाने वाले की मृत्यु हो जाय और अपने पीछे कई बच्चे छोड़ मरे तो पीछे उस परिवार की कितनी दुर्गति होती है इसे देखने से छाती फटती है। सगे-सम्बन्धी कहलाने वाले बचे-खुचे साधनों को हड़पने का कुचक्र रचते हैं। उन बिना कमाने वालों का खर्च अपने ऊपर आया देखकर उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। पग-पग पर तिरस्कृत तो होना ही पड़ता है। इस स्थिति से तभी बचा जा सकता था जब जननी को सर्वप्रथम स्वावलम्बी बन सकने के योग्य बनाया गया होता। जो ऐसी आशंका करते हैं कि स्वावलम्बन में समर्थ नारी पंख कटे कबूतर की तरह उनके पूर्ण आश्रित रहने से आनाकानी करेगी तो वे उस पर तरह-तरह के बन्धन लगाते हैं और पूर्णतया पराश्रित बना देते हैं। ऐसे लोगों की संकीर्णता का दण्ड विपत्ति के समय सभी आश्रितों को भुगतना पड़ता है। मरने की ही बात नहीं, कोई भयंकर रोग हो जाने के कारण उत्पन्न असमर्थता अथवा आकस्मिक विपत्ति भी ऐसी स्थिति पैदा कर सकती है, जिसमें अर्थ उपार्जन में नारी की समर्थता काम आ सके। अपंग बना कर रखने में शान समझने वाले लोग यदि ऐसी विपत्तियों की कल्पना कर सकें तो वे पाएँगे कि प्रतिबन्धित एवं पिछड़ी स्थिति में डाल रखने की नीति कितनी अनुपयुक्त है।

देश, धर्म, समाज, संस्कृति एवं विश्व मानवता के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य हैं। उनके पूरा करने में प्रथम चरण यह होना चाहिए कि आधी जनता को पिछड़ी स्थिति में डाले रहने वाले प्रतिबन्धों का समर्थन न करें। पददलित वर्ग को समर्थ बनने में सहायता करें। ऐसा करने से जो शक्ति जगेगी उसका लाभ समस्त समाज को मिलेगा। विकसित नारी देश की अर्थ-व्यवस्था में, समाज सन्तुलन में, शिक्षा शालीनता में, प्रगति समृद्धि में, कला-संस्कृति में उत्साहवर्द्धक योगदान दे सकती है। उसे पिछड़ी रखकर हम मानवी सुख-शान्ति और प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही करते हैं। विश्व का एक घटक दुर्बल एवं विकृत रहेगा तो उसका प्रभाव प्रकारान्तर से समस्त संसार पर पड़ेगा। फिर आधी जनसंख्या को यदि अपंग-असमर्थ मौलिक मानवी अधिकारों से वंचित रखा जायगा तो उसकी प्रतिक्रिया व्यापक रूप से अहितकर ही होगी। नारी के सम्बन्ध में संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाकर हम न केवल अपना, अपने परिवार का वरन् समस्त संसार का अहित ही करते हैं।

हमें हजार बार विचार करना होगा कि नारी के प्रति बरती जाने वाली अपनी नीति कहाँ तक उचित और कहाँ तक अनुचित है? उससे हम क्या पाते और क्या खोते हैं? यदि ऐसी विवेचना की जा सके तो प्रतीत होगा कि जो पाया है इससे खोया अधिक है। ऐसे अहितकर, अनीतियुक्त दृष्टिकोण एवं व्यवहार का परित्याग करने में ही कल्याण है।

नारी को उठाए बिना समाज भी नहीं उठेगा

भारत जिन दिनों पराधीन था उन दिनों की दुर्दशा का कारण लिखते हुए भावुक कवि मैथिलीशरण गुप्त कह उठे थे—

भागें न क्यों, हमसे भला फिर, दूर सारी सिद्धियाँ।
पाती स्त्रियाँ आदर जहाँ, रहतीं वहीं सब सिद्धियाँ ॥

इन पंक्तियों को कवि मन की कल्पना की उड़ान नहीं कहा जा सकता। परिवार और राष्ट्र के समग्र विकास में नारी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज का आधा भाग जब समाज के विकास में कोई योगदान नहीं दे पाता, शेष आधा भाग भी अपनी आधी शक्ति को उस निष्क्रिय भाग के भारवहन में लगा देता है तो समाज के लिए क्या बच पाता है। जब पूरी शक्ति स्वयं और परिवार की उन्नति में लगती है तो उसके और ही परिणाम होते हैं तथा उसका तीन चौथाई भाग निष्क्रिय हो जाता है तो परिणाम में अभाव आ जाना स्पष्ट ही है।

नारियों की शक्ति को कुंठित करने के कारण हैं वे प्रतिबन्ध, जो उस पर परिवार और समाज में लगे रहते हैं। उन प्रतिबन्धों के कारण नारी का कार्य क्षेत्र और योग्यता के उपयोग की सम्भावनाएँ सीमित हो जाती हैं। प्राचीनकाल में जब हमारा समाज सभी क्षेत्रों में उन्नति की चरम सीमा पर था तब स्त्रियों की प्रतिभा अभिव्यक्ति के क्षेत्र भी खुले पड़े थे। वे हर क्षेत्र में निर्बाध प्रवेश कर अपनी योग्यता का प्रदर्शन करती थीं। उदाहरण के लिए आजकल स्त्रियों का खेलना-कूदना एक शर्म की बात समझा जाता है। लड़की बाल्यावस्था को पार कर किशोरावस्था में जैसे ही प्रवेश करती है उसके लिए यह न करो, वह न करो—की विधि निषेधपरक आज्ञाएँ जारी हो जाती हैं।

पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। प्राचीनकाल में धनाड्य व सम्पन्न परिवारों की युवतियाँ भी खेलकूद में बड़ी रुचि रखती थीं। महाकवि कालिदास रचित 'कुमार सम्भव' में पार्वती द्वारा गेंद खेलने का उल्लेख मिलता है। 'मेघदूत' में उल्लेख मिलता है—अल्कापुरी की कन्याएँ सुवर्ग सिकता में गुप्त मणि से खेलती थी। वे नृत्यकला सीखती थीं और अस्त्र-शस्त्र चलाना भी जानती थीं। महाभारत में भी शान्ता और कुन्ती द्वारा खेलने का विवरण आता है। रामायण में युवतियाँ उद्यानों में जाकर खेलती थीं।

प्राचीनकाल में ही नहीं मध्यकाल में भी जबकि स्त्रियों पर प्रतिबन्ध लगना आरम्भ हुआ, राजघरानों और साधारण क्षत्रिय परिवारों की कन्याओं द्वारा सैनिक अभ्यास का उल्लेख आता है। 'पोजिशन ऑफ बुमेन इन इंडिया' के लेखक ने लिखा है कि चालुक्य वंश में स्त्रियों को प्रशासकीय क्षेत्रों में बराबर स्थान दिया जाता था। राजा यदि पुरुष होता था तो भी राजकार्यों में स्त्रियाँ समान रूप से योगदान देती थीं। एक और पश्चिमी लेखक ने लिखा है कि यदि हिन्दू शासन में नैपुण्य, मितव्यियता, अनुशासन, प्रचुर उपज और जनता में कहीं खुशहाली थी तो ऐसे चार राज्यों में से तीन राज्यों में स्त्रियों का प्रशासन और राजव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान था।

नारी को प्रगति और विकास के यदि अवसर मिलें तो वह अपनी योग्यता और शासन क्षमता द्वारा समाज को न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती हैं। पश्चिमी देशों की इतनी प्रगति और चहुँमुखी विकास का यह कारण नहीं है कि वहाँ प्राकृतिक सम्पदा और साधन प्रचुर मात्रा में हैं बल्कि मूल कारण तो यह है कि वहाँ की नारी हमारे यहाँ के समान पुरुषों के अधीन और उनकी दासी नहीं है। वहाँ की स्त्रियाँ विकास और प्रगति के क्षेत्र में अपनी योग्यता और प्रतिभा का पूर्ण उपयोग करती हैं।

हमारे देश में जिन कारणों से नारी को आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिलता उनमें एक है उसका गिरा हुआ दर्जा। नारी को हमेशा दूसरे दर्जे का सदस्य समझा जाता है। इसीलिए जन्म के साथ ही उसकी उपेक्षा होने लगती है। माता-पिता पुत्री से प्रेम नहीं करते हों यह बात नहीं है। वरन् समाज में जैसी परिस्थितियाँ हैं, उन्हें देखते हुए पुत्री की उपेक्षा जैसे आवश्यक सी हो जाती है। हमारे समाज के रीति-रिवाज ऐसे साँचे में ढले हैं कि उसमें पुत्री का जन्म अभिशाप ही सिद्ध होता है। पैदा होते ही माँ-बाप को उसके विवाह का भूत सताने लगता है। लोग समझते हैं कि लड़का यदि कुँवारा भी रह जाय तो हर्ज नहीं है पर लड़की के लिए वैसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लड़की की शादी ऐसा बोझिल उत्तरदायित्व बना रहता है कि माता-पिता इस कार्य को सम्पन्न कर गंगा नहाने से हल्केपन की अनुभूति करते हैं। वस्तुत: लड़की के लिए उपयुक्त वर तलाश करने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यदि कभी धोखे से अनुपयुक्त वर के साथ शादी हो जाती है तो सारी जिन्दगी का क्लेश खड़ा हो जाता है। वैसे भी लड़की का विवाह इतना मँहगा होता है कि उसे करने में परिवार की आर्थिक रीढ़ ही टूट जाती है।

इतने मँहगे व्यवसाय को सम्पन्न करने की तैयारियों में लगने वाली मेहनत को देखकर उसे पढ़ाना-लिखाना और भी मँहगा साबित होता है। जाहिर है कि पढ़ी-लिखी लड़की के लिए उससे अधिक पढ़ा-लिखा वर खोजना पड़ेगा और वर जितना अधिक शिक्षित होगा उतना ही ज्यादा उसे दामाद बनाने में खर्च करना पड़ेगा। अर्थात उसके दान-दहेज में भी उतना ही ज्यादा धन देना पड़ेगा। इसलिए लोग लड़की को अच्छी शिक्षा-दीक्षा देने के स्थान पर उसे घरेलू काम-काजों में दक्ष कर देना ही पर्याप्त समझते हैं। उसे योग्य और प्रतिभा सम्पन्न नारी बनाने की अपेक्षा दक्ष गृहिणी बनाने की ओर ही लोगों का अधिक झुकाव रहता है।

लड़कों को लड़की से अधिक महत्त्व इसलिए दिया जाता है कि एक तो वह भावनात्मक रूप से माँ-बाप के साथ जुड़ा रहता है। हालाँकि अब यह एक भ्रम ही है फिर भी लोग समझते हैं कि लड़का बुढ़ापे का सहारा होगा और लड़की को कितना ही पढ़ा-लिखा कर योग्य बना दिया जाय वह पराए घर चली जायगी और अपनी सारी योग्यता एवं अर्जित गुणों का लाभ ससुराल वालों को देगी। उस पर समय और धन व्यय करना गड्ढे में डालने जैसा समझा जाता है, जिसका कोई मूल्य नहीं समझा जाता।

पुत्र और पुत्री में भेद करने का कुल इतना कारण है कि पुत्री पराया धन समझी जाती है और पुत्र बुढ़ापे की लाठी माना जाता है, इस कारण कन्या और पुत्र में भेद करने वालों को फटकारते हुए महाकवि कालिदास ने 'कुमार सम्भव' में लिखा है—''केवल मूर्ख ही कन्या और पुत्र में भेद करते हैं। समझदार व्यक्ति तो दोनों का समान आदर करते हैं तथा कन्या व पुत्र का बराबर स्नेह से लालन-पालन करते हैं।" दूरदृष्टि रखने वाले लोग जानते हैं कि हम अपनी बेटी को न पढ़ाकर क्षुद्र लाभ भले ही प्राप्त कर लें पर उससे समाज को हानि ही होती है और समाज की हानि कहीं न कहीं हमें भी हानि पहुँचाती है। जैसे अनपढ़ और अशिक्षित लड़की ब्याही गयी तो वह अपनी सन्तानों का पालन और उनकी शिक्षा-दीक्षा इतनी कुशलता से नहीं कर पाती जितना कि पढ़ी-लिखी होने पर कर सकती है। उनकी सन्तान यदि असाधारण प्रतिभाशाली न रही तो शिक्षित अभिभावकों के बच्चों की अपेक्षा पिछड़ी ही रहेगी। ऐसी अनेक माताओं की अयोग्यता का दुष्परिणाम पूरे समाज पर होगा और पिछड़े समाज में प्रगति तथा विकास की सम्भावना कहाँ रह जायेगी।

पुत्र को पढ़ा-लिखा कर उससे बुढ़ापे में सहारे की आशा रखना भी मृगतृष्णा है। आजकल के समय में ऐसी परिस्थितियाँ हैं भी नहीं कि कोई पुत्र अपना निर्वाह चलाते हुए माता-पिता के भरण-पोषण की भावना भी रखे। इस सम्बन्ध में अधिकांश अभिभावकों के बड़े कटु अनुभव हैं और कदाचित कोई पुत्र वृद्धावस्था में अपने माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व निभाता भी हो तो उससे अभिभावक अपने आत्म-गौरव को बनाए नहीं रख पाते। उस पर अनिवार्य रूप से आँच भी आती है।

वृद्धावस्था में पुत्र के आश्रय की चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं है। कहा इतना ही जा रहा है कि पुत्री यदि माता-पिता के लिए असहायक रहती है तो पुत्र से भी उस प्रयोजन की पूर्ति नहीं होती। फिर इस आधार पर भेदभाव बरतना अनुचित ही है। जन्म के साथ-साथ ही यदि पुत्री चिन्ता का कारण बनती है तो इसके लिए वह दोषी नहीं है। दोषी हो तो उसे अविकसित रख कर, प्रगति के अवसरों की उपेक्षा कर उसे दण्डित भी किया जाय! पर वह तो सर्वथा निर्दोष है। दोषी हैं वे सामाजिक कुरीतियाँ जिनने लड़की के अस्तित्व को ही माता-पिता के लिए भारी बना दिया। उन कुरीतियों को नष्ट कर वास्तविक कारणों को दूर किया जाना चाहिए।

दोषों को दूर न कर निर्दोष बेटी की उपेक्षा उसके प्रति अन्याय ही है, जिसका किसी भी आधार पर समर्थन नहीं किया जा सकता। उन स्थितियों के प्रति अनाक्रोश रखते हुए लड़की के व्यक्तित्व को पंगु कर देने से भी कौन सा फायदा होता है। विवाह की चिन्ता करने, उसके लिए उपयुक्त वर की देखभाल करने तथा दान-दहेज का सरंजाम जुटाने से लेकर शादी के बाद भी उसके सुख-दुख का ख्याल रखने तक का ध्यान तो फिर भी रखना पड़ता है। वह भी उस स्थिति से ज्यादा ही जो कि उसके शिक्षित और योग्य होने पर रखना पड़ता है। कदाचित लड़की की पढ़ाई-लिखाई की उपेक्षा कर उसे अविकसित ही रहने देकर कोई फायदा हुआ होता या इस तरह के बोझ हल्के हो जाते तो भी सन्तोष किया जा सकता था।

बचपन से शुरू हुई उपेक्षा के बाद गृहिणी के रूप में होने वाली अवमानना भी स्त्रियों की हीनता का एक कारण है। बचपन में उसे माँ-बाप से प्रेम भी मिलता है, पालन-पोषण होता है पर वह हमेशा अपने को भाई से नीचा समझती रहती है और विवाह हो जाने के बाद उसे पति के सामने बौना बनना पड़ता है। पति प्राय: पत्नी के प्रति आवश्यक सद्भावनाओं से शून्य होकर उसे वासना पूर्ति का साधन, बच्चे पैदा करने की मशीन और घर गृहस्थी सम्हालने वाली दासी ही समझता रहता है। इस स्थिति को अपने लिए भले ही कोई स्वीकार न करे पर पूछा जाय कि आप अपने कामकाजी जीवन के सम्बन्ध में पत्नी से परामर्श लेते हैं? उसकी राय को कितना महत्त्व देते हैं? उसके सुख-दुख और सुविधा-असुविधा का कितना ख्याल रखते हैं? तो मिलने वाले उत्तर, बरते गए दृष्टिकोण को और अच्छी तरह स्पष्ट करेंगे।

अधिकांश लोगों की मान्यता है कि पत्नी को क्या चाहिए भरपेट भोजन, अच्छे कपड़े और सुन्दर मकान बस, इसके अतिरिक्त उसे अन्य बातों की न आशा करनी चाहिए और न अपेक्षा। तो सोचकर हैरानी होती है कि ये लोग किस आधार पर पत्नी को गृहलक्ष्मी मानते हैं। प्रत्येक मनुष्य की भावनाएँ होती हैं। हृदय होता है, मानसिक और बौद्धिक क्षुधा होती है तो उसकी पूर्ति होनी चाहिए। पर कुछ बाहरी जरूरतों को पूरा कर ही उसके प्रति अपने दायित्वों को पूरा हुआ मान लेना कहाँ की मानवता है।

मनुष्य परिस्थितियों और अवसरों से भी ज्यादा अपने संगी-साथियों के व्यवहार से निराश होता है अथवा प्रोत्साहित। स्त्रियाँ भी इस नियम की अपवाद नहीं हैं और वे भी सामाजिक स्थिति, मर्यादाओं, कुरीतियों तथा दुःस्थितियों की उतनी शिकार नहीं हैं जितनी कि अपने निकटवर्ती जनों की। ऐसी दशा में बचपन के समय पिता को, विवाहित अवस्था में पति को उसके साथ सौहार्द्रपूर्ण और उत्साहवर्द्धक व्यवहार करना चाहिए। इसके अभाव में लाख सुविधाएँ मिलने पर भी नारी आगे नहीं बढ़ सकेगी और न ही उसकी क्षमता का विकास होगा। यह भी स्पष्ट है कि जब तक नारियों को प्रगति के अवसर नहीं मिलेंगे तब तक समाज भी जहाँ का तहाँ गयी-गुजरी हालत में ही पड़ा रहेगा। नारी मनुष्य की माँ है और जब माँ ही रुग्ण दीन-हीन होगी तो उसकी सन्तानें स्वस्थ और समर्थ कहाँ से हो सकेंगी। अतः निकटवर्ती जनों को अपना कर्तव्य समझकर नारी को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए, उसकी सहायता करना चाहिए।

नारी समस्या का समाधान आवश्यक

यूरोप के जिन देशों ने भी आर्थिक, वैज्ञानिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रगति की है, उसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा ने उन देशों और अन्य देशों के साथ पक्षपात किया है तथा उन्हें अधिक सुविधाएँ दी हैं। यह तो स्पष्ट ही है कि व्यक्ति हो या समाज जो भी अपनी क्षमताओं के लिए अधिक प्रयत्न करेगा और अधिक समय देगा उसे अभीष्ट सफलता मिलेगी। वहाँ के लोग इस दिशा में अधिक ध्यान दे पाते हैं सो इसलिए कि उनके पारिवारिक दायित्व इतने अधिक बोझिल नहीं होते कि उनको निभाना ही कठिन पड़ जाए।

परिवार संस्था की दो इकाई हैं—स्त्री और पुरुष। उसे मजबूत तथा सम्पन्न बनाने के लिए आवश्यक है कि पति और पत्नी दोनों ही मेहनत करें। यह नहीं हो कि एक दूसरे के कन्धे पर सवार होकर दूसरे साथी का बोझ बढ़ायें। पश्चिम में परिवार संस्था टूटती जा रही हैं, पर उसके कारण और हैं। जहाँ तक समाज के विकसित होने का प्रश्न है यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि स्त्री और पुरुष दोनों ही इसके लिए प्रयत्न करें। पश्चिम की प्रगति का यही रहस्य है कि वहाँ की स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सहयोग करती हैं और हर क्षेत्र में प्रगति के लिए प्रयत्नशील रहती हैं।

अपने देश में नारी को वैधानिक दृष्टि से तो पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं, पर अभी वैसी स्थिति नहीं है कि वह उन अधिकारों का उपयोग कर सकें और उनसे लाभ उठा सकें। वह राजनैतिक क्षेत्र में निर्बाध प्रवेश प्राप्त कर सकती हैं, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके मार्ग में कोई रुकावट नहीं है। महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय पदों पर महिलाएँ नियुक्त की जाती हैं। परन्तु इन अवसरों से लाभ उठाने वाली महिलाओं की संख्या सीमित ही है। अधिकांशतः महिलाएँ तो वही परम्परागत जीवन जी रही हैं। दूसरे देशों में जागरूक महिलाओं ने पुरुषों के समान अधिक संघर्ष कर और आन्दोलन चलाकर अधिकार प्राप्त किए हैं। जबकि अपने देश में ये अधिकार स्वतः ही प्राप्त हो गए हैं। फिर भी उनसे लाभ उठाने की स्थिति अभी नहीं बन पाई है।

इसका कारण है अभी भी सामन्तयुग का वही दृष्टिकोण अपनी जड़ें जमाए हुए है जिसके अनुसार नारी को पुरुष की आश्रिता और संरक्षिका ही समझा जाता था। एक समय ऐसा भी था जब नारी को समाज में कम महत्त्व का व्यक्ति समझा जाता था। यहाँ तक कि एक वर्ग तो उसमें आत्मा के अस्तित्व को भी नहीं मानता था।

अब स्थिति बदली है। फिर भी परोक्ष दुर्व्यवहार में अभी भी अन्तर नहीं आया है। ऐसे व्यवहार आये दिन दृष्टिगोचर होते रहते हैं और वे स्वभाव के अंग भी बन गए हैं। अधिक प्रजनन के कारण अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट कर बैठी हजारों-लाखों स्त्रियाँ बार-बार गर्भ धारण करने और अशक्त-असमर्थ रहने पर भी सन्तान का पालन-पोषण करने का गम्भीर उत्तरदायित्व उठाते रहने से अनेक युवतियाँ २०-२२ वर्ष की उम्र में ही अधेड़ वृद्धा सी लगने लगती हैं।

यह एक तथ्य है कि नारी की समर्पण भावना का अनुचित लाभ उठाकर पुरुष आरम्भ से अब तक स्वयं को उसका स्वामी और अधिकारी समझता आ रहा है। आदमी रुपये-पैसों का मालिक हो सकता है, जमीन जायदाद का मालिक हो सकता है, धन-सम्पदा का मालिक हो सकता है, पर किसी दूसरे मनुष्य पर तो अपनी मालकियत नहीं रख सकता। हाँ, दूसरा व्यक्ति उसके प्रेम का गुलाम जरूर बन सकता है, पर ऐसी स्थिति में कोई भी दूसरे के प्रति मालिकी का भाव नहीं रखता। पति स्वयं को पत्नी का मालिक समझता है और उस पर उसी तरह अपना शासन चलाता है—यही इस बात का प्रतीक है कि स्त्री पर अब भी जमीन-जायदाद की तरह मालकियत का अधिकार समझा जाता है। इस विकृत दृष्टिकोण के कारण पुरुष स्त्री के साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसे कोई गड़रिया अपनी भेड़-बकरियों के साथ। महात्मा गाँधी ने पुरुष की इस बर्बरता के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हुए एक स्थान पर कहा है—"औरतों का अधिकांश समय पुरुषों की सेवा में तथा महज उनके मनोरंजन और वासना पूर्ति का साधन बनने में ही व्यतीत हो जाता है। यह दासता नहीं तो और क्या है। मैं तो इसे पुरुष की बर्बरता की क्रूर निशानी कहूँगा।"

अभी पिछले दिनों तक स्त्रियों की चोरी तक की जाती रही है। पिछड़े क्षेत्रों में आज भी वह प्रचलित है। असामाजिक तत्त्व भोली-भाली स्त्रियों को बहला-फुसला कर उनका अपहरण कर लेते हैं और उन्हें दूसरी जगह ले जाकर बेच देते हैं। एक बार इस विडम्बना की शिकार हुई स्त्री के लिए फिर समाज के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं।

नारी के प्रति यह वासनात्मक दृष्टिकोण ही पुरुष को वैसी परिस्थितियाँ पैदा करने के लिए मजबूर करता है, जिससे वह अपनी गई-गुजरी हालत से ऊपर न उठ सके। खेद का विषय है कि इसी कारण अभी तक लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता उतनी नहीं समझी जाती है जितनी कि समझी जानी चाहिए और न स्त्रियाँ समझदार होने पर स्वयं सुसंस्कृत बनने का प्रयास करती हैं। दोष उनका नहीं है, कारण उत्पन्न की गयी वे परिस्थितियाँ हैं जिनमें स्त्रियाँ अपने स्वरूप को ही पहचान नहीं पाती। सर्वतोमुखी प्रगति के लिए प्रोत्साहन मिलने के स्थान पर तथाकथित शुभचिन्तकों एवं सम्बन्धियों द्वारा उन्हें निरुत्साहित ही किया जाता है। विपन्न परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए कोई स्त्री जीविका उपार्जन के लिए घर से बाहर कदम भी उठाती है तो उसके चरित्र पर तरह-तरह से आक्षेप किए जाते हैं। इन संकुचित धारणाओं के कारण परम्परागत वातावरण में पली स्त्रियाँ आगे बढ़ने का साहस तक नहीं कर पाती हैं।

नारी के प्रति पुरुष वर्ग की मान्यताएँ गिरी हुई हैं। नारी दुर्दशा का कारण वही है और इस कारण वह आजीवन पुरुष के कन्धों पर एक अस्वाभाविक बोझ बन कर रहती है। आश्रय रहित स्त्रियों की समस्याओं का अध्ययन करना हो तो उन स्त्रियों का जीवन सामने है जिनके पति की असमय में मृत्यु हो गई है और चल रहे रोजगार, व्यापार, व्यवसाय तथा जमीन-जायदाद को जान-बूझकर दूसरों के भरोसे छोड़ना पड़ जाता है। उन्हें विवश होकर किसी पास के या दूर के पुरुष सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ता है। जो प्रायः उसे लूट कर अपना घर भरने लगता है। बेचारी विवश नारी जानते-बूझते भी यह सब देखने और सहन करने के लिए मजबूर रहती है। इसके अतिरिक्त सधवा महिलाओं को भी अपने परिवार की व्यवस्था के लिए पति पर निर्भर रहना पड़ता है।

समाज के उत्थान और देश को शक्ति सम्पन्न बनाने के लिए यह आवश्यक है कि नारी का सहयोग भी प्राप्त किया जाय और उसे इस योग्य बनाया जाय कि वह निर्माण यज्ञ में अपनी भी समुचित भूमिका निभा सके। इसके लिए हमें अपने उस दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा, जो हम सदियों से विरासत में प्राप्त करते आ रहे हैं। वह यह है कि नारी पुरुष की पिछलग्गू और आश्रित मात्र है। उसका न कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है तथा न ही अलग से कोई अस्तित्व। वह एक मानव इकाई नहीं बल्कि पुरुष के मन बहलाव और विविध-विधि सेवा प्रयोजन पूरे करने का साधन भर है।

इस धारणा के फलस्वरूप यदि स्त्रियाँ ऐसी ही पिछड़ी और अविकसित स्थिति में पड़ी रहीं तो संसार के उन्नत देशों की तुलना में हमारे सदैव पिछड़े रहने का भयंकर दुष्परिणाम सामने है। स्मरणीय है प्रकृति ने स्त्री को पुरुष का पूरक और सहायक बनाया है। उसे इसी रूप में महत्त्व दिया जाना चाहिए। अन्यथा वर्तमान दृष्टिकोण के रहते वह भार स्वरूप, बाधा उपस्थित करने वाली और प्रगति को अवरुद्ध करने वाली ही सिद्ध होगी। समाज और राष्ट्र की प्रगति में बाधा डालने वाले इस दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए व्यापक प्रयास चलें तो ही बात बनेगी। नारी की समस्या किसी एक देश की समस्या नहीं, संसार के सभी देशों की महिलाओं की अपनी-अपनी अलग ढंग की समस्याएँ हैं। उन सबका तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद समझा जा सकता है कि हमारे देश की महिलाओं के पिछड़ेपन की समस्या और भी अधिक कष्टकारक है। उसे सुलझाने को विवेकशील वर्ग ने चुनौती फेंकी है। समाधान आवश्यक है और वह होना ही चाहिए।

नारी चेतना को दिग्भ्रान्त न किया जाए

नारी समाज को समय की प्रगति के सामाजिक क्रूर बन्धनों से धीरे-धीरे छुटकारा मिलता जा रहा है। बहुत पिछड़े, अशिक्षित, अहंकारी और संकीर्ण अनुदार लोगों में ही अब घूँघट-पर्दा प्रथा की कठोरता शेष रह गई है। बाकी समझदार लोग अब अपनी बच्चियों को भी शिक्षा दे रहे हैं और उन्हें घर से बाहर काम करने के लिए जाने देने के प्रतिबन्ध भी उठा रहे हैं। महिलाओं का उत्साह और रुझान भी इसी दिशा में है। औचित्य और न्याय का तकाजा भी यही है। प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिपादन भी इसी दिशा में है। स्वतंत्रता और समानता का, सम्मान एवं औचित्य का जो व्यापक समर्थन हो रहा है उससे भी नारी के ऊपर लदे हुए पिछले सामन्ती बन्धनों को निरस्त करने में सहायता मिली है। इन अनेक कारणों के मिल जाने से नारी की स्वतंत्रता का एक नया युग आरम्भ हुआ है। अन्धे मानव समाज को सामाजिक पराधीनता के अवांछनीय बन्धनों से इस प्रकार मुक्ति पाते देखकर सर्वत्र प्रसन्नता और सन्तोष की ही अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

पर दुर्भाग्य की करामात तो देखिए वह पिछली खिड़की से छद्मवेश बनाकर फिर घुसपैठ करने में लग गया है और वह नारी पराधीनता के लिए नए किस्म के जाल बन्धन बुनकर फिर ले आया है। पहले लोहे की जंजीरों से कैदी बाँधे जाते थे, अब सोने की जंजीरों या रेशमी रस्सों से उन्हें बाँधा जाने लगे तो इसे कोई प्रगति भले ही कहता रहे वस्तुतः यह बन्धन उतने ही दुःखद रहेंगे, जितने कि लोहे वाले समय में थे।

नारी को नर के समान ही अपने व्यक्तित्व के विकास और लोक निर्माण में अपनी प्रतिभा का समर्थ योगदान कर सकने का योगदान मिले, तभी उनकी स्वाधीनता सच्ची और सार्थक कही जा सकती है। यदि उपलब्ध नारी स्वातंत्र्य को यही दिशा मिली होती तो सचमुच मानव जाति का यह एक बहुत बड़ा सौभाग्य होता और उससे उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ देखकर सन्तोष व्यक्त किया जा सकता था, पर हुआ ठीक इससे उल्टा है।

पत्रकार, कलाकार, साहित्यकार, चित्रकार, कवि, अभिनेता, गायक, वादक सब मिलकर पुरुष की पशु-प्रवृत्ति को भड़काने और उसे तृप्त करने का वातावरण बनाने में लग गए हैं। उन्होंने अमीरों और विलासियों की, कामुकों और कुत्सितों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष की तरह फूल और फल देना आरम्भ कर दिया है। उनका सारा बुद्धि कौशल और क्रिया-कलाप इस दिशा में लग गया है कि नारी को रमणी और कामिनी के रूप में उसी तरह बने रहने दिया जाय जैसी कि वह सामन्ती जमाने में थी। तब वह बलात् बन्धित की जाती थी। अब वैसी परिस्थिति नहीं रहीं तो उसी कार्य को इस चतुरता से सम्पन्न किया जाता है कि नारी उसी गर्हित स्थान पर स्वेच्छापूर्वक खड़ी रहे जहाँ उसका शोषण पूर्ववत निर्बाध गति से चलता रहे।

नारी का चित्रण साहित्य, चित्र, गीत, काव्य, मंच आदि पर जहाँ भी आज हो रहा है वहाँ उसे रमणी और कामिनी ही चित्रित किया जाता है। माता, भगिनी और पुत्री के रूप में उसे उभारने वाली रचनाएँ, कृतियाँ, अभिव्यक्तियाँ ढूँढ़ने पर भी कहीं न मिलेंगी। जब फूहड़ चित्रण में निम्नवर्ग की निकृष्टता और सम्पन्न वर्ग की कुत्सा भड़काने के निमित्त बनकर इन तथाकथित कलाकारों को प्रचुर धन कमाने और बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर मिलता है तो वे उसे छोड़ें भी क्यों?

जहाँ नारी फैशन परस्त, भड़कीली और निर्लज्ज होती दिखाई पड़े वहाँ वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसे दोष नहीं दिया जा सकता। यह उसकी विवशता है। यह उसके भोलेपन का शोषण है। जब हर मासिक पत्रिका में सजी-धजी नटनियों की कुत्सित भाव-भंगिमा में तस्वीरें छपती हैं और वैसे ही चित्र कलेंडर हर दीवार पर टँगे मिलते हैं, तो उसे देखकर एक भोली नारी यही मान्यता बना सकती है कि उसके अस्तित्व की सार्थकता इसी ढाँचे में ढल जाने में हो सकती है। सिनेमा आज का एकमात्र मनोरंजन रह गया है, उसमें नारी जिस प्रकार पोशाक पहनती है, जिस तरह का वेष-विन्यास बनाती है, जैसे हाव-भाव दिखाती है, जैसा जीवन-क्रम बनाती है, उसी का अनुकरण करने में ही तो वह सिनेमादर्शक जैसे स्तर के इस सारे समाज में अच्छी लग सकती है। ऐसे संस्कार वाली, सिनेमा देखने वाली, उस संदर्भ के लेख चित्र पढ़ने वाली लड़की भला और किस निष्कर्ष पर पहुँचेगी।

बढ़ती हुई साज-सज्जा, शृंगारिकता, भड़कीली पोशाक, नख-शिख की लीपा पोती, केश-विन्यास में बरती जाने वाली विलक्षणता इस बात का प्रमाण है कि नारी को उसके लिए अर्द्ध सहमत कर लिया गया; जहाँ निश्चर लोग उसे ले जाना चाहते हैं। शरीर और वस्त्रों की स्वच्छता और शालीनता के परिधान बिल्कुल दूसरी बात है और भड़कीलापन नितान्त प्रतिकूल। पर दोनों को मिला देने वाले तर्क थोथी वाचालता ही कहे जायेंगे।

सज-धज की प्रतिक्रिया क्या होती है। इस संदर्भ में एक छोटा-सा किन्तु बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्मरण यह है कि एक बार लाहौर की एक लड़की ने महात्मा गाँधी को पत्र लिखा कि जब वह कॉलेज जाती है तब शोख लड़के उसे छेड़ते हैं, क्या करूँ। गाँधी ने उत्तर दिया—"तुम अपने सिर के बाल मुड़ा डालो, फिर कोई लड़का तुम्हारी ओर नजर उठा कर भी न देखेगा।" बात आई गई हो गई पर तथ्य जहाँ का तहाँ खड़ा है। यदि नारी की शालीनता को अक्षुण्ण रहना है और उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास सम्भव किया जाना है तो शृंगारिकता के वातावरण से उसे निकालना ही पड़ेगा।

अमेरिका की श्रीमती बेट्टी प्राइडन के नेतृत्व में जो 'नारी मुक्ति आन्दोलन' चल रहा है। उसमें यह विषाक्त वातावरण उत्पन्न करके नारी को फिर सामन्ती बन्धनों में जकड़ने के षड़यंत्र का पर्दाफाश किया जा रहा है। नारी को समझाया जा रहा है कि वह इस जाल में फँसने से इन्कार करने का साहस एकत्रित करे और लोगों को यह बताए कि वह न तो कठपुतली है और न गुड़िया, न वह कामिनी है, न रमणी। उसका अस्तित्व नर पशुओं की कुत्साएँ तृप्त करने के लिए नहीं है और न वह उपभोग्या है और बताना होगा कि वह भी मनुष्य है और मनुष्य की तरह रहने और जीने की अधिकारिणी है। उसकी मनस्विता और प्रतिभा का उपयोग स्वास्थ्य, ज्ञान, कौशल के अभिवर्द्धन में होना चाहिए ताकि वह भी एक सुयोग्य विश्व नागरिक की भूमिका प्रस्तुत कर सकने में समर्थ बन सके।

नारी मुक्ति आन्दोलन ने जहाँ विश्व नारी को एक आदर्शवादी दृष्टिकोण दिया है वहाँ उसने उन मान्यताओं को व्यावहारिक रूप देने के लिए यह कार्यक्रम भी घोषित किया है कि इन आदर्शों को स्वीकार करने वाली प्रत्येक नारी केवल सज्जनोचित सीधी-सीधी पोशाक पहने। भड़कीली, उद्धत लोगों की नजर अपनी ओर खींचने वाली कोई चित्र-विचित्र पोशाक न पहने और न बालों को उद्धत ढंग से सजाए। होठ, नाखून और कपोलों को रंग तथा मसालों से पोतना, लम्बे नाखून रखना, इठलाते हुए चलना, उच्छृंखल ढंग से बातचीत करना इस आन्दोलन से सहमत नारियों के लिए निषिद्ध है। इस सादगी और शालीनता को इन्होंने नारी के गौरव और स्वातंत्र्य को अक्षुण्ण रखने का महत्त्वपूर्ण प्रमाण माना है।

नारी मुक्ति आन्दोलन से सहमत नारियाँ अब ऐसी सर्वमान्य पोशाक का सृजन कर रही हैं जो नर और नारी के लिए समान रूप से उपयोगी हो। उनमें अन्तर भी हो तो बहुत थोड़ा। चीन ने भी अपने देश में नर और नारियों के लिए लगभग एक सी पोशाक निर्धारित की है। उनमें नाममात्र का अन्तर है। यह नारी के सम्मानास्पद आदर्श की उचित व्यवस्था है। उपरोक्त आन्दोलन ने न केवल श्रृंगार प्रसाधनों का परित्याग किया है वरन् उनकी होली भी जगह-जगह जलाई है और उन उपकरणों को नारी के लिए अपमानजनक बताया है। नर और नारी की समान पोशाक का जहाँ प्रचलन हुआ है वहाँ निस्संदेह कामुकता की दृष्टि और प्रवृत्ति को भारी आघात लगा है और उसका मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक प्रभाव यह हुआ है कि वे लोग विशुद्ध मनुष्यों की तरह बिना लिंगभेद की बात सोचे, सीधे-सीधे ढंग से रहने लगे हैं। जिस प्रकार पुरुष-पुरुष या नारी-नारी मिलकर अश्लील बातें नहीं सोचते वरन् उपयोगी वार्तालाप करते हैं, उसी प्रकार का रहन-सहन अपनाने से असमानता का स्तर और यौन आकर्षण स्वतः घट गया है। इस जंजाल से छुटकारा पाकर नारी को पुरुषों की तरह ही अपने व्यक्तित्व तथा भविष्य के निर्माण की चिन्ता करने, उसके लिए प्रयत्न करने और समाज की प्रगति में योगदान देने के लिए सोचने तथा कुछ करने का अवसर मिलने लगा है। नारी स्वातंत्र्य का यही रचनात्मक लाभ है, जो मिलना ही चाहिए। शृंगार सज्जा से लेकर यौन आकर्षण की केन्द्र बनने से यदि वह इन्कार न करे तो फिर यह स्वतंत्रता भी पूर्ववर्ती परतंत्रता की ही तरह पतन और प्रवंचना भरे दुष्परिणाम प्रस्तुत करती रहेगी।

आरम्भ कहीं से भी हुआ हो यह आन्दोलन विश्वव्यापी होना चाहिए और भारत में भी इस दिशा में कदम उठाये जाने चाहिए। समस्या विश्वव्यापी है। नारी के साथ पूर्वकाल से दुष्टता बरती जाती है, अब उसे छलना के रूप में बदला जा रहा है। एक हाथ से जंजीर ढीली होने और दूसरे हाथ से नई रस्सी कस देने से स्थिति कहाँ बदली? परिवर्तन ऐसा लाया जाना चाहिए जिससे नारी द्वारा भी नर की ही तरह एक सुयोग्य और सुसंस्कारी मानव की भूमिका का सम्पादन किया जा सके, उसके लिए बौद्धिक और भावनात्मक वातावरण तैयार किया ही जाना चाहिए। इसका आरम्भ यदि नारी द्वारा आकर्षक शृंगारिकता से इन्कार करने के रूप में किया जा सके तो उसे प्रशंसनीय ही कहा जायगा। अपने देश में यह आन्दोलन जेवरों के बहिष्कार के रूप में आरम्भ होना चाहिए क्योंकि हाथ, पैर, गले और कमर में बँधी हुई यह धातुओं की जंजीर नारी की पराधीन स्थिति का ही समर्थन करती है।

भारत की परिस्थितियाँ, अशिक्षा तथा रूढ़िवादी कट्टरता को देखते हुए समान पोशाक की बात तो यहाँ अभी मुश्किल से ही चलेगी पर इतना तो हो सकता है कि भड़कीलेपन का अन्त कर दिया जाय। अनावश्यक ध्यान बटाने वाली रंग-बिरंगी चित्र-विचित्र पोषाकें न पहनी जाएँ और विलायती ढंग का पहनावा छिछोरपन और शालीनता पर आँच लाने वाला घृणास्पद समझा जाने लगे, ऐसा वातावरण ही बनाया जाना चाहिए। अध्यापिका इस दिशा में बहुत काम कर सकती हैं। उन्हें गुरु एवं माता का गौरव ध्यान में रखकर स्वयं तो उच्छृंखल वेषभूषा से परहेज करना ही चाहिए साथ ही लड़कियों को भी चुस्त पोषाक से लेकर चित्र-विचित्र फैशन बनाने और बालों का तमाशा खड़ा करने से रोकना चाहिए। उत्सवों और शादियों में जो फूहड़ सज-धज होती है, उसके स्थान पर भी सादगी का प्रचलन होना चाहिए। ऐसे अनेक सुधार हैं, जो तुच्छ दीखते हुए भी नारी स्वातंत्र्य को सार्थकता सम्बन्धी प्रकाश दे सकते हैं। सुलझे विचारों के लोग अपने लड़कों-लड़कियों की एक सी पोषाक रख सकते हैं, जिससे वे लड़की लड़के नहीं, मात्र बालक ही प्रतीत हों। बालों का भी ऐसा सीधा-साधा ढंग रह सकता है जो सहज स्वच्छता की दृष्टि से उपयोगी हो और जिसकी साज-सम्भाल आसानी से रखी जा सके। व्यर्थ की श्रृंगारिकता को बढ़ावा न दें।

यह तो प्रतीकात्मक प्रक्रियाएँ हुई। मूल बात यह है कि नारी को अश्लील आकर्षणों का केन्द्र नहीं बनाया जाना चाहिए। साहित्य, संगीत, कला के नाम पर उसे रमणी बनने के लिए आकर्षित न किया जाए वरन पुरुष के सहस्तर वाले मित्र एवं सहचर के रूप में, उत्तरदायी विश्व नागरिक के सपने, अपने गौरवशाली स्थान को सम्भाल रह सकने योग्य साहस एवं चरित्र प्रदान किया जाए। पुरुष वर्ग का कर्तव्य है कि वह नारी को बहकाने, फुसलाने और गिराने का प्रयत्न छोड़े और उसे भावनात्मक, बौद्धिक एवं व्यावहारिक सहयोग इस प्रकार का प्रदान करे जिससे उसकी प्रतिभा को विकसित होने और नव निर्माण की भूमिका सम्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकने का अवसर मिल सके। साथ ही नारी में वह चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए कि वह अपने विरुद्ध खड़े किए गए षड़यंत्र में फँसने से इन्कार कर सके। उसके मानवीय स्वाभिमान का तकाजा है कि वह किसी को आकर्षित करने के लिए शृंगार करने को तिलांजलि देकर अपनी प्रतिभा की प्रखरता बढ़ाती हुई समाज का नैतिक मार्गदर्शन और नेतृत्व कर सकने में समर्थ हो सके। इस स्तर का वातावरण एवं उत्साह उत्पन्न करने के लिए हमें विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिए ताकि नारी स्वातंत्र्य का विश्व को समुचित लाभ मिल सके।

नारी को अज्ञान-गर्त से उबारा जाए

नारी समाज तथा राष्ट्र का लोच है। वह नर के जीवन का रस है। इसके विपरीत नारी के जीवन का रस नर है। यह अन्योन्याश्रयता एक नूतन सुमधुर रस की निष्पत्ति करती है। नारी के बिना घर, समाज, राष्ट्र सूना-सूना सा लगता है। संस्कृति की आधारशिला संरक्षिका, पोषिका नारी है। नर के निराशा के क्षणों में नारी ने ही प्रेरणा, साहस, शौर्य का मार्ग प्रशस्त करके नर को विजयी बनाया है।

नारी ने चूल्हे, चक्की से लेकर तलवार तक के कार्य सम्पादित कर समाज में अपना विशेष स्थान बना रखा है। नारी ने इतिहास के पृष्ठों को भी मोड़ दिया है। वह पत्नी सी सरस, माँ-सी वात्सल्य प्रतिमा, झाँसी की रानी सी वीर योद्धा तथा आधुनिक युग में अनेक क्षेत्रों में नर के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर कार्य करने वाली सहयोगिनी है। पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में जिसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। उसके प्रति नर के हृदय में बड़े ही अनूठे तथा हीन भाव रहे हैं, इसमें संदेह नहीं है।

नारी के प्रति नर सदैव निरंकुश शासक बन कर रहना चाहता है। उसे वह अपनी दासी, नौकरानी, घर की चारदीवारी की कैदी, एक पालतू पशु-सा समझता रहा है। यद्यपि अति प्राचीन युग में नारी को नर के साथ-साथ रहने के पूर्ण अधिकार थे। वह नर की पूरक बन कर रही है। राम और सीता के उदाहरण से यह बात सिद्ध होती है।

कालान्तर में नारी के समानता के अधिकार छीन लिए गए। उसे केवल परदे की आड़ में घुटन भरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर कर दिया। यह देन मध्यकाल की रही है। यवनकाल में इस आक्रामक जाति से नारी की रक्षा के निमित्त नर ने उस पर बहुत से बन्धन लगा दिए। धीरे-धीरे वह अकर्मण्य, निकम्मी बनती चली गई। वह केवल नर की काम पिपासा शान्त करने वाली पत्नी, सन्तान पैदा करने वाली मशीन, घर का काम करने वाली नौकरानी, सास, ननद की शिकार बनकर रह गई।

देश की जनसंख्या का आधा भाग महिला हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या १० करोड़ बच्चों के साथ घर के भीतर बन्द रहे, फिर देश की उन्नति की कामना की जावे यह मृगतृष्णा ही है। सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक तीनों क्षेत्रों में पिछड़ी हुई रहने से देश की बहुत बड़ी शक्ति बेकार नष्ट होती रही। यही नहीं इस नारी के प्रति अत्याचार और अनाचार के अनेक आक्रमण भी होते रहे। जिन्हें वह मूक-पशु सी सहन करती रही है।

कन्याएँ बहुत कम आयु में ही चाहें जिस व्यक्ति के साथ विवाह के सूत्र में बाँध दी जाती हैं। जिनके भविष्य का जीवन सुधर गया तो ठीक अन्यथा जीवन में आँसू ही आँसू। इनकी पढ़ाई-लिखाई का नाम लेना तो बहुत बड़ा अपराध समझा जाता है।

पर्दा प्रथा ने तो नारी को घर की कैद में दम ही घोंट दिया। पार्टी आदि तो दूर की बात रही अपने पति से मिलना भी सास की अनुमति से होता था। इस प्रथा ने नारी को अस्वस्थ बनाकर घर की दुनियाँ तक से दूर जा पटका।

सास-ननद के अधिकार में बहू बनी रहे तो ठीक अन्यथा वे ही पति के कान भरके बहू को तिरस्कार भरी जिन्दगी में ढकेल दिया करती थीं। इस पर यदि वह दो-तीन वर्षों तक नि:सन्तान बनी रही तो समझिए वह चारों तरफ से तिरस्कृत होती और बदले में एक सौत और पाती। जिससे उसका जीवन जीते जी मृत्यु के समान हो जाता। इस दुर्व्यवहार से तंग आकर बहू कभी-कभी आत्महत्या की शरण ले लेती है। इस प्रकार नारी के जीवन का नाटक दुखान्त समाप्त हो जाता। यह दुर्दशा नारी की देश के प्रत्येक परिवार में किसी न किसी अंश में होती रही है। इस उत्पीड़न भरी जिन्दगी ने नारी को जर्जर बना दिया। मानों उसे इस संसार में जीने का अधिकार तक न हो।

इसके अतिरिक्त आजकल मनपसन्द शादी, प्रेम विवाह, कोर्ट विवाह आदि ने नारी को वर चयन में स्वतंत्र बना दिया है। यहाँ तक कि अन्तरप्रान्तीय तथा अन्तरजातीय विवाहों ने नारी जाति को बहुत बड़ी स्वतंत्रता प्रदान की है। विधवा पुनर्विवाह करके अपना भावी जीवन सुखमय बना सकती है। उन्हें सरकारी सहायता तक इसमें मिलती हैं। महिलाएँ अपने निजी व्यवसाय तक चला रही हैं। पति की आर्थिक सीमा में बहुत बड़ा योग दे रही हैं।

नारी प्रगति के नाम पर कुछ हुआ तो जरूर है पर उसे दिशा न मिलने के कारण उच्छृंखलता की ही वृद्धि हुई है। शिक्षा तो बढ़ी पर उसके साथ-साथ फैशनपरस्ती, श्रम से अरुचि एवं शालीनता की अवज्ञा जैसे दोष-दुर्गुण जुड़ गए हैं। फलतः वह लाभ न मिल सका जो शिक्षा की वृद्धि के साथ मिलना चाहिए था। शिक्षित नारी को अपने कर्म की प्रगति के लिए कुछ तप-त्याग करना चाहिए था किन्तु दिशा न मिलने के कारण वैसा दर्द उनके मन में पैदा न हो सका। शिक्षित नारी अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा बढ़ाने तक में ही सीमित हो गई है।

आधुनिक नारी में पश्चिमी भूत सवार है। वह इतनी आधुनिकतम बनती जा रही है जिससे आए दिन परिवारों में पति-पत्नी के जीवन में कटुता बढ़ती जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसे सहयोगिनी की अपेक्षा एक उच्छृंखल नारी बना दिया है। वह प्रत्येक कार्य में आगे बढ़ी है। किन्तु अपने पत्नीत्व तथा मातृत्व को भूलती जा रही है। इसका परिणाम परिवार में कलह, तलाक आदि होते देखे जा रहे हैं। इसमें बच्चों पर तो अनुचित प्रभाव पड़ता है। साथ-साथ उनके भावी जीवन के विकास में बहुत बड़ी रुकावट उत्पन्न हो जाती है।

शिक्षित युवा विवाह के पूर्व युवती के माँ-बाप से बहुत बड़ी माँगें रखते हैं। जिन्हें पूरा करने में माँ-बाप की आर्थिक सीमा लड़खड़ा जाती है। यदि जैसे-तैसे विवाह कर भी दिया गया तो माँ-बाप विवाह के उपरान्त अपने मन को आर्थिक परेशानी के कारण तोड़ लेता है। वह अपने आप को बोझिल समझने लगता है। जवाहरलाल जी की यह उक्ति स्वीकार्य है कि किसी देश की प्रगति का मापदण्ड है कि उसका महिला समाज कितनी प्रगति कर चुका है? परन्तु भारत में नारी का पश्चिमीकरण, विवाह में माँगों की प्रथा, नारी का आर्थिक स्वावलम्बन आदि ने नई समस्याएँ पैदा कर दी हैं। यही नहीं नारी के भूषण हैं—पत्नीत्व, मातृत्व, लज्जा जो नष्ट होते जा रहे हैं। इसमें नारी की ही सबसे अधिक हानि है। इसलिए अब युवा पीढ़ी बहुत ही समझदार पढ़ी-लिखी, स्वविवेकी बनती जा रही है। उसे नर-नारी दोनों पक्षों से एक साथ सोच-विचार कर निर्णय लेना चाहिए कि नर-नारी के बिना परिवार, समाज तथा राष्ट्र का पहिया चलना सम्भव नहीं है। ऐसी दशा में भौतिक सम्बन्धों के अतिरिक्त भी नर-नारी के सम्बन्ध हैं, वे हैं आत्मा के सम्बन्ध। यह सम्बन्ध स्थापित होने पर फिर उपरोक्त उठती हुई समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगीं। वे आन्तरिक दृढ़ता का विकास करते हुए देश की आध्यात्मिक परम्परा को आत्मसात करें। जिससे इनके विचारों तथा भावनाओं का परिष्कार होगा।

भावनाओं तथा विचारों का परिष्कार ही नर नारी के महत्त्व को बहुगुणित कर देगा। नारी का महत्त्व बढ़ने से सम्पूर्ण राष्ट्र की उन्नति में सहयोग प्राप्त होगा। इस आध्यात्मिक दर्पण में नारी अपना आत्म निरीक्षण करते हुए अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक तथा राष्ट्रीय परिवेश को परिस्कृत करने में सहयोग प्रदान करेगी, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।

नारी का पिछड़ापन दूर किया जाए

नारी वर्ग को जिस स्थिति में चिरकाल से रहना पड़ा है, उसका प्रभाव न केवल उसकी सामाजिक स्थिति पर पड़ा है, वरन् शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक स्थिति को भी बेतरह गिरा देने का कारण बना है। सुशिक्षित कही जाने वाली महिलाएँ भी उपलब्ध ज्ञान का कोई महत्त्वपूर्ण उपयोग नहीं कर पाती। घरों की चहार-दीवारी में कैद रहने की परिस्थिति ने उस ज्ञान का लाभ समाज को मिलने के मार्ग में भारी व्यवधान उत्पन्न कर दिया है। आजीविका उपार्जन भी उसके सहारे बहुत कम को ही मिल पाता है।

सामान्य नारी की स्थिति उपेक्षित, तिरस्कृत एवं प्रतिबन्धों से जकड़ी हुई है। घूँघट, पर्दे में लिपटी हुई, छोटे से घर (पिंजड़े) में जकड़ी हुई, रसोईदारिन, चौकीदारिन और भोग्य-पदार्थों के स्तर का निर्वाह करती हुई नारी अपनी जीवन-सम्पदा का ऐसा कुछ उपयोग नहीं कर पाती जिस पर सन्तोष व्यक्त किया जा सके। पोषण के अभाव, काम के दबाव एवं उपेक्षा भरी नीरसता के दबाव में उसका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य लड़खड़ाता चला जाता है। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त स्थिति में कोई कब तक निरोग रह सकता है? गर्भधारण से लेकर शिशु-पालन तक के कष्ट-साध्य कार्य में कितनी जीवनी-शक्ति नष्ट होती है, उसका अनुभव वही कर सकता है, जिसे यह दुःसह उत्तरदायित्व स्वयं अपने कन्धों पर वहन करना पड़ता है।

इतने पर भी यदि उसे परिवार का समुचित सम्मान और सहयोग मिला होता तो सम्भवतः वह मनुष्य जाति के वरिष्ठ पक्ष की भूमिका निभा सकती थी। पर अनवरत श्रम-संलग्न रहने पर भी न शारीरिक सुविधा, न आर्थिक लाभ और न मन में उत्साह, न सन्तोष बनाए रहने वाला श्रेय-सम्मान। ऐसी दशा में कोल्हू के बैल की तरह एक नीरस-चक्र की धुरी पर घूमती रहने वाली नारी को अपनी स्थिति से निराशा और व्यथा अनुभव होती हो और खीज उठती हो तो आश्चर्य ही क्या है? कहना न होगा कि यह स्थिति पिछड़ेपन की ही सूचक है, भले ही उसके परिवार के लोग कितनी ही सम्पन्नता का दम भरते हों। क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित, क्या धनी, क्या निर्धन सभी की स्थिति न्यूनाधिक मात्रा में एक जैसी ही, लगभग मिलती-जुलती सी ही है।

पिछड़ापन एक अभिशाप है। उससे ग्रसित मनुष्य अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत नहीं कर पाता। आत्महीनता उस पर छाई रहती है। संकोच भार से दबते-दबते वह अपनी अभिव्यक्तियों तक को प्रकट नहीं कर पाता और भीतर ही भीतर घुटता रहता है। समय-कुसमय के लिए जो स्वतंत्र रूप से कुछ उपार्जन कर लेने में समर्थ नहीं हैं। स्वावलम्बन के योग्य जिसकी क्षमता का विकास नहीं हुआ है, उसे परावलम्बन के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। प्रतिभा उनकी विकसित होती है, जो भाग्य निर्माण की, स्वावलम्बन की स्थिति अनुभव करते हैं। नारी जिस वातावरण में अवरुद्ध है, उसमें उसे इस प्रकार के स्वप्न भी नहीं आते। अपने को असहाय अनुभव करने वाली मनः स्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति अधिक से अधिक इतना कर सकता है कि मजूरी करके पेट भर ले। जीवन का आनन्द देने वाली प्रतिभा का विकास करने वाली, सन्तोष और गौरव अनुभव कराने वाली गतिविधियाँ अपनाना तो उसके लिए सम्भव ही नहीं हो पाता। नारी घर की शोभा या आवश्यकता मात्र बनकर रह जाती है। घर मुख्य होता है उसे सँजोने-सजाने वाली परिचायिका भर का योगदान पिछड़ी नारी दे पाती है। यह कैसी दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना है कि 'सृजन की देवी' कहलाने वाली नारी मात्र एक गए-गुजरे श्रमजीवी की भूमिका भर निभा सके और इससे आगे की कोई बड़ी बात उससे न बन पड़े।

नारी का पिछड़ापन आधे मानव-समाज की अपंगता का प्रश्न है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है। रोटी, कपड़ा और मकान का प्रबन्ध हो जाना ही सब कुछ नहीं है। मनुष्य जीवन की गरिमा गुजारे का प्रबन्ध बन पड़ने मात्र से सन्तुष्ट नहीं हो सकती, उसे और भी कुछ चाहिए।

सामाजिक न्याय मिलने पर नारी को क्या मिलेगा? इस प्रश्न के उत्तर में स्वाभिमान और स्वावलम्बन की स्थिति प्राप्त करने का अधिकार ही कहा जा सकता है। श्रम की दृष्टि में सम्भवतः तब नारी को अपनी प्रतिभा जागृत करने के लिए और भी अधिक परिश्रम करने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ेगी। स्वावलम्बन की क्षमता प्राप्त करने के उत्साह में मनुष्य को अपने में विशेषताओं का सम्पादन करना पड़ता है और जब वे उपलब्ध होती हैं तो उनका उपयोग किए बिना भी नहीं रहा जाता। ऐसी दशा में आज की परावलम्बी नारी जो अपना भार दूसरों के कन्धों पर डालकर उत्तरदायित्व विहीन जिन्दगी जी लेती है, तब उसके लिए उस स्थिति में रहना सम्भव न होगा। अब वह दबाव से व्यस्त रहती है, मालिक लोग उससे रोटी-कपड़े का पूरा मूल्य वसूल करने के लिए भरपूर श्रम कराते हैं। स्वावलम्बन की स्थिति में कैदी का श्रम तो न करना पड़ेगा, पर स्थिति वह आ जाएगी, जिसमें किसान को अपने मजदूरों से कहीं अधिक समय और श्रम अपने उत्तरदायित्व निबाहते हुए करना पड़ता है। मोटी दृष्टि से इसे नारी पर अधिक बोझ पड़ना और घाटे में रहना कहा जा सकता है, पर निश्चित रूप से वह अधिक सक्षम, सुयोग्य और उत्पादक बनेगी। साथ ही इसका लाभ परिवार को तथा देश को भी मिलेगा।

सम्मानास्पद स्थिति प्राप्त करने से हर किसी का हौसला बढ़ता है। आत्म-गौरव अनुभव होने से आत्म-निर्भरता बढ़ती है। हताश और आत्महीनताग्रस्त मनुष्य जिन्दगी की लाश भर ढोता है। उन्नति की कल्पना तो कर सकता है, ऊँची उड़ानें उड़ते रहना और विविधि-विधि मनोरथ करते रहना भी उसके लिए सम्भव हो सकता है। पर अभीष्ट प्रगति के लिए जिस मनोबल की आवश्यकता है, वह उसके बूते जुट ही नहीं पाता। ऐसी दशा में वह सोचता तो बहुत है पर कुछ कर नहीं पाता। प्रबल पुरुषार्थ के अभाव में सफलताएँ कब किसको मिल सकी हैं? साहस भरा पुरुषार्थ करने योग्य मन:स्थिति बनने के लिए प्रोत्साहन की आवश्यकता है। प्रोत्साहन दूसरों के द्वारा चापलूसी करने और बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा के पुल बाँधने को नहीं कहते, वरन् वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति को अपने क्रिया-कृत्यों की सफलता का बोध होता है, सम्मान मिलता है और श्रेय पा सकने का गर्व-गौरव अनुभव होता है। आत्म-सम्मान का तात्पर्य इसी स्थिति से है। आज नारी को दासी स्तर की मान लिए जाने के कारण यह समझा जाता है कि जो वह करती है, उसके लिए तो बनी ही है। उसे श्रेय-सम्मान मिलने की क्या आवश्यकता है। पशुओं से लाभ उठाया जाता है, पर उन्हें श्रेय-सम्मान देने की आवश्यकता नहीं समझी जाती, फिर स्त्री के लिए ही किसी प्रकार की कृतज्ञता प्रकट करना अथवा श्रेय-सम्मान देना क्यों आवश्यक समझा जाए?

नारी का पिछड़ापन दूर करने के लिए उस पर लगे असमानता सूचक प्रतिबन्ध हटाए जाएँ। उसे मानव जाति का समान घटक माना जाए। जो भी नियम, आचार, कर्तव्य, अधिकार बनें वे दोनों पक्षों पर समान रूप से लागू किए जाएँ। जो भी सुविधाएँ या छूटें मिलें, दोनों को उससे लाभान्वित होने दिया जाए। न्याय दोनों को समान रूप से मिले। शरीर के प्रजनन अवयवों में थोड़ा अन्तर होना इतनी बड़ी बात नहीं हैं, जिसके बदले एक पक्ष के मौलिक अधिकारों का ही अपहरण कर लिया जाए। हमें ऐसे समाज की संरचना करनी चाहिए, दृष्टिकोण इतना परिष्कृत करना चाहिए, जिसमें नर और नारी को बिना किसी भेदभाव के मानवी मौलिक अधिकारों का लाभ मिले। न कोई पक्ष विशेषाधिकार सम्पन्न हो और न किसी को शोषित, प्रताड़ित, प्रतिबन्धित होने की शिकायत करनी पड़े। सामाजिक न्याय प्रत्येक मानव-प्राणी को मिल सके। परिष्कृत दृष्टिकोण के सन्मुख यही समय की चुनौती है। प्रबुद्ध वर्ग को इसकी स्थापना के लिए अपने प्रभाव को नियोजित करना चाहिए।

नारी का पिछड़ापन दूर करने के लिए उसे शिक्षित बनने की विशेष सुविधा मिलनी चाहिए। आहत, रुग्ण एवं दुर्बल अंग पर विशेष ध्यान दिया जाता है और उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अतिरिक्त साधन जुटाए जाते हैं। चिरकाल से लदे हुए पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। इसके लिए लड़कियों के लिए स्कूली-सुविधा मिलनी चाहिए और वयस्क महिलाओं के लिए प्रौढ़-शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए। इस सन्दर्भ में यह ध्यान रखा जाए कि पुरुषवर्ग को मिलने वाली शिक्षा सुविधा की तुलना में नारी घाटे में न रहे। उसे अपेक्षाकृत अधिक लाभ उसी प्रकार मिलना चाहिए, जिस प्रकार बीमारी से उठे दुर्बल व्यक्ति को घर के अन्य लोगों की तुलना में कुछ अधिक पौष्टिक आहार दिया जाता है। क्षति पूर्ति की दृष्टि से इस प्रकार की विशेष सुविधा का मिलना विवेकपूर्ण भी है और न्यायोचित भी।

आर्थिक स्वावलम्बन की क्षमता का होना नर और नारी दोनों के लिए आवश्यक है। आज की अर्थ व्यवस्था में दोनों पक्षों में उपार्जन योग्यता का होना आवश्यक है। कोई समय था जब एक कमाता था और पूरा घर खाता था, अब वैसी स्थिति नहीं रही। निर्वाह इतना मँहगा हो गया है कि गाड़ी के दोनों पहियों पर ही यह अर्थ संकट आगे चल सकता है। यदि वैसी आवश्यकता न भी पड़े, तो भी समय-कुसमय के लिए इस दिशा में निश्चिन्तता का बना रहना आवश्यक है। किसी भी परिवार पर आकस्मिक विपत्ति की तरह अर्थ संकट आ सकता है। दुर्भाग्य और दुर्घटना किस पर कब, किस रूप में बरस पड़े, इसका कोई ठिकाना नहीं। ऐसे क्षणों में आर्थिक स्वावलम्बन की समर्थता का संचित रहना अत्यधिक आवश्यक है। पाण्डव वनवास में थे, तो द्रौपदी समेत उन छहों ने अपनी-अपनी पूर्व संचित उपार्जन-योग्यताओं के सहारे निर्वाह के लिए आश्रय-स्थल प्राप्त कर लिए थे। यदि वे लोग वैसा कुछ न जानते रहे होते तो अज्ञात-वास की अवधि कितनी जटिल और कठिन होती, इसकी आज तो कल्पना कर सकना भी कठिन है। गृह-उद्योगों के रूप में नारी का अर्थ स्वावलम्बन सरल है। इससे न केवल पैसा मिलता है, वरन् सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ जागृत होती हैं और शारीरिक, मानसिक कुशलता की बढ़ोत्तरी होते चलने में प्रगति के नए-नए द्वारा खुलते हैं।

नारी का पिछड़ापन दूर करने के लिए उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ बन्द की जानी चाहिए। दाम्पत्य प्रेम की सघनता में कामुकता का अति न्यून स्थान है। इस दिशा में अत्युत्साह बरतने से नर का भी स्वास्थ्य नष्ट होता है, पर नारी का तो सर्वनाश हो ही जाता है। अति प्रजनन और अति उपभोग का दुष्परिणाम नारी के स्वास्थ्य की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। नारी के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उसे इस प्रकार की विवशता के लिए बाधित करने वाली निष्ठुरता का भी अन्त होना चाहिए। दाम्पत्य प्रेम को उदात्त आत्मीयता का खाद-पानी मिलना चाहिए। यौनाचार का अत्युत्साह तो इस कल्प तरु को नष्ट करने में विष सिंचन की तरह विघातक ही सिद्ध होता है।

नारी का पिछड़ापन दूर करने के लिए उस पर पड़ने वाले अवांछनीय दबावों का अन्त होना चाहिए और प्रगति के वे साधन जुटाए जाने चाहिए, जिनके सहारे वह शिक्षा-स्वावलम्बन, स्वास्थ्य की दृष्टि से विकसित और आत्म-गौरव एवं आत्म-विश्वास की दृष्टि से परिष्कृत अपने आप को अनुभव कर सके। इस दिशा में किए गए प्रयास न केवल नारी को हेय-स्थिति से ऊँची उठा सकेंगे, वरन उसकी सुखद प्रतिक्रिया रूप में सम्पूर्ण मानव-जाति को लाभ मिलेगा। परिवार-संस्था का सुसंचालन, भावी पीढ़ियों में प्रखरता का समावेश, आधे लोगों के परावलम्बन भार से दबे हुए पुरुषवर्ग को राहत, नई प्रतिभाओं का सृजन क्षेत्र में अवतरण, हर क्षेत्र में सम्पत्ति का अभिवर्द्धन, सामाजिक न्याय का पुनर्जीवन जैसे अनेकानेक लाभ हैं, जिन्हें नारी का पिछड़ापन दूर करके ही प्राप्त किया जा सकता है।

भारतीय नारी को भी आगे बढ़ने दें!

अन्य देशों की नारियाँ साहित्य, कला, समाज सेवा, व्यापार और बौद्धिक कार्यों में बड़ी तीव्रता से आगे बढ़ रही हैं। पर भारतीय नारी के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। संविधान ने उसे समानता के अधिकार दे रखे हैं, उसे आगे बढ़ने में कोई कानूनी बाधा भी नहीं है। अमेरिका तथा इंग्लैंड आदि पाश्चात्य देशों में जिन संवैधानिक सुविधाओं और अधिकारों को देने के लिए अब विचार किया जा रहा है, वे अधिकार भारतीय नारी को आरम्भ से ही प्राप्त हैं। फिर भी भारतीय नारी की प्रगति यात्रा उन देशों की तुलना में रुकी हुई है।

संवैधानिक रूप से समान अधिकार मिले होने के उपरान्त भी हमारे समाज का ढाँचा ऐसा है कि उसमें रहते भारतीय नारी की प्रगति यात्रा अवरुद्ध हो जाती है। हमारे समाज में स्त्रियों का सामाजिक क्षेत्र में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता। घर से बाहर रहकर काम करने वाली स्त्री भले ही कितना अच्छा काम करे पर उस पर चरित्र भ्रष्टता का आरोप तो लग ही जाता है। भारतीय स्त्री अपने शील के प्रति इतनी सजग रहती है कि वह सभी हानियों को, असुविधाओं को और कठिनाइयों को सह सकती है पर अपने चरित्र पर आक्षेप किसी भी दशा में सहन नहीं कर सकती और वह प्रगति के क्षेत्र में आगे बढ़ने का साहस नहीं करती।

शील और चरित्र की रक्षा का गुण प्रशंसनीय है। पर वह कायरतापूर्ण नहीं होना चाहिए। 'साँच को आँच क्या' वाली बात मन में रखकर नारी को प्रगति पथ पर अविराम बढ़ते रहना चाहिए। भारतीय नारी यह साहस नहीं कर पाती इसका कारण है उसकी वह मानसिकता जो पुरुष ने उस पर बन्धन प्रतिबन्धों का जाल फैलाकर बना रखी है। पुरुष कहने के लिए पत्नी को अपना जीवन साथी भले ही कहता हो, पर वह उस पर अपना आधिपत्य रखते हुए शासन करते रहना चाहता है। महात्मा गाँधी ने पुरुष की इस प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए लिखा है—"औरतों का अधिकांश समय पुरुषों की सेवा में महज उनके मनोरंजन और वासनापूर्ति में व्यतीत हो जाता है। मेरी समझ में यह एक दासता है। पुरुष की बर्बरता की क्रूर निशानी है। आज वक्त आ गया है कि इस बर्बरता के अज्ञान रूपी अन्धकार से छूट कर वे ज्ञान और प्रकाश की ओर आएँ।"

बर्बरता के अज्ञानान्धकार से तात्पर्य पुरुष की वे धारणाएँ हैं जिनके अनुसार वह समझता है कि स्त्री को यदि खुला और स्वतंत्र छोड़ दिया जाए तो वह पथभ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि उसमें सामाजिक क्षेत्रों में काम करने की योग्यता ही नहीं है।

नारी को पुरुष की तुलना में अक्षम और अयोग्य समझने की धारणा आज हर क्षेत्र में गलत सिद्ध हो रही है। रूमानिया जैसे छोटे देश में नारियों ने अपनी योग्यता के बल पर समाज के उत्कर्ष में कितनी उच्च भूमिका अदा की है इसका एक सर्वेक्षण अंश द्रष्टव्य है—'वहाँ का जनवादी विधान महिलाओं को पुरुषों की बराबरी का अधिकार देता है। राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में वहाँ की महिलाओं ने विभिन्न नौकरियों में महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त किए हैं। सभी क्षेत्रों में उनका महत्त्वपूर्ण सहयोग मिल रहा है। वहाँ के राजनैतिक क्षेत्र में लगभग १०० महिलाएँ उच्च पदों पर काम कर रही हैं। प्रदेश की छोटी सभाओं में ३९ हजार ७९५ महिलाएँ राजनैतिक कार्यकर्ती हैं। ४५ हजार से अधिक महिलाएँ उद्योग संस्थानों और समाजवादी कृषि यूनिटों में काम करती हैं। मजदूरी करके अपनी जीविका स्वयं कमाने वाली महिलाओं की संख्या का २९ प्रतिशत है। उद्योग-धन्धों में पुरुषों की तरह ३ लाख ८० हजार महिलाएँ काम करती हैं। साठ लाख से अधिक महिलाएँ व्यापारिक कार्यों में विशेष योग्यता प्राप्त हैं। महिलाओं में भी पुरुष की तरह बुद्धि, समझ, योग्यता और सूझबूझ होती है अत: रूमानिया की सत्तावन हजार महिलाएँ उच्च प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। समस्त महिलाओं में ४.१ प्रतिशत इंजीनियर और तकनीशियन हैं तथा ११.७ प्रतिशत दफ्तरों में काम करने वाली हैं।

"स्त्रियों के लिए शिक्षा का क्षेत्र भी काफी अनुकूल पड़ता है। ९० हजार स्त्रियाँ पढ़ाने का काम करती हैं। जिनमें से ३ हजार ४०० उच्च शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन कार्य करती हैं। ६५ प्रतिशत स्त्रियाँ स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं में काम करती हैं और १० हजार डॉक्टरनियाँ, नर्स या मिडवाइफ हैं। विज्ञान, कला और संस्कृति के क्षेत्र में बड़ी जागृति है।"

स्मरणीय है कि जिस समय का यह सर्वेक्षण है, उस समय रूमानिया की जनसंख्या ३ लाख ५० हजार थी। द्वितीय महायुद्ध के पहले रूमानिया एकदम पिछड़ा और अविकसित देश था। पर जब वहाँ की सरकार ने देश के नवीन आर्थिक कायाकल्प का संकल्प लिया तो महिलाओं को भी राष्ट्र-निर्माण के क्षेत्र में कन्धे से कन्धा मिलाकर निकलने का आह्वान किया गया और १९६९ तक रूमानिया ने इतनी अधिक प्रगति कर ली कि उससे प्रेरणा प्राप्त कर सभी स्थानों पर आर्थिक वर्ष मनाया गया।

रूमानिया ही नहीं, जिस देश ने भी प्रगति की है, उसकी प्रगति यात्रा में महिलाओं ने आगे बढ़कर हाथ बँटाया है तब कहीं जाकर वह देश उन्नति के शिखर पर पहुँचा है। सच तो यह है कि राष्ट्र-निर्माण के लिए पुरुष भी तभी कुछ कर सकता है जबकि स्त्रियाँ भी उसके साथ सहयोगी बनकर काम करें। भारतीय संदर्भ में तो स्थिति यह है कि यहाँ स्त्रियाँ पुरुषों पर ही निर्भर रहती हैं। पुरुष को अपने निर्वाह के लिए व्यस्त तो रहना पड़ता ही है, स्त्रियों का बोझ भी ढोना पड़ता है। प्रख्यात विचारक बट्रेण्ड रसेल का यह कथन भारत के सम्बन्ध में सत्य है कि—"स्त्रियाँ मित्रों की तरह पुरुष का हाथ पकड़ती हैं और पुरुष पर बोझ की तरह लद जाती हैं।"

हमारे समाज में स्थिति कुछ इस प्रकार है कि स्त्रियाँ पुरुषों की ओर हाथ बढ़ाती हैं तथा पुरुष उसे अपने ऊपर बोझ बनाकर लाद लेता है। विवाह का अर्थ ही जीवन-साथी प्राप्त करना है और पुरुष अहं के मद में उन्मुक्त होकर जीवन-साथी को अपना बोझ बना लेता है। इसके लिए स्त्रियाँ दोषी नहीं हैं। दोषी तो पुरुष है जो पिता बनकर अपनी लड़की को गृह-कार्यों के लिए ही तैयार करता है और पति बनकर उसे घर की चहारदीवारी में ही बन्द रहने के लिए मजबूर करता है। फलस्वरूप स्त्रियाँ समाज को आगे बढ़ाने में तो कोई सहयोग नहीं कर पाती उल्टे पुरुष के लिए भी प्रगति-पथ में बाधा बन जाती हैं।

जहाँ-जहाँ भी अन्य देशों में स्त्रियों के प्रवेश की छूट दी गई है, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर सर्वतोमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। अपने देश में वह स्थिति अभी तक नहीं आ पायी है, यह दुःखपूर्ण है। अपवाद स्वरूप यहाँ की स्त्रियाँ राजनैतिक, शासकीय, प्रशासनिक, शैक्षणिक तथा औद्योगिक क्षेत्रों में काम कर रही हैं तथा मजदूरी और कृषि के क्षेत्र में हाथ बँटा रही हैं पर वह आना स्वाभाविक हो जाता है। घर के बाहर कदम उठाने वाली और रोजगार तथा नौकरी-धन्धे में लगने वाली स्त्रियाँ अधिकांशत: तो आर्थिक विवशताओं के कारण इस क्षेत्र में आती हैं। ऐसी महिलाओं की संख्या नगण्य है जो अपनी प्रतिभा तथा योग्यता का लाभ समाज को देने की भावना से सेवा-कार्यों में लगती हों। उसका कारण यह है कि समाज का बहुसंख्यक वर्ग अभी भी संकीर्ण दृष्टि से सोचता है और उसकी प्रवृत्ति ऐसे कार्यों में ज्यादा रहती है जिससे वह नारी को लजा सके।

सैद्धान्तिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि पुरुष और महिला समाज शरीर की दो बलिष्ठ भुजाएँ हैं, पर जैसे कई कार्यों को लोग बाँए हाथ से सम्पन्न करना अशुभ तथा अस्वाभाविक समझते हैं उसी तरह समाज शरीर को वे बाँए हाथ को उपयोग में लाना अशुभ मानते हैं। यह स्थिति जितनी शीघ्र हो सके तोड़ी जानी चाहिए और नारी को समाज के विकास में आगे आने देना चाहिए।

विश्व-कल्याण का मार्ग है—नारी उत्थान!

परमात्मा की सृष्टि में सारा विश्व एक ही केन्द्रीय शक्ति से गतिमान है। जिस प्रकार माला में फूल एक ही धागे से पिरोए जाते हैं, उसी प्रकार सारा विश्व उसी शक्तिरूपी धागे में पिरोया गया है। यहाँ माला के फूल की भाँति सभी समान हैं। ईश्वर की दृष्टि में हम सब समान हैं। जिस प्रकार कि पिता अपने लड़कों को समान मानता है, उसी प्रकार हम सब एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। पिता की दृष्टि में लड़की-लड़का समान हैं, उसी तरह हम सब नर-नारी भी समान हैं।

सर्वांगीण प्रगति से ही हमारा शरीर समुन्नत हो सकता है। यदि शरीर के विभिन्न अंग एक साथ उन्नति न करें या कोई अंग बिल्कुल अछूता ही रहे तो शरीर कुरूप बन जावेगा, उसकी कीमत गिर जावेगी और सन्तोषजनक परिणाम सम्भव नहीं होगा। जैसे पैरों में एक पैर मोटा और एक पैर पतला हो जावे तो क्या वह आदमी अपने जीवन में उन्नति कर पावेगा, कदापि नहीं। उसी प्रकार धन का भी है, धन से भौतिक वस्तुओं का खरीदना सम्भव है, लेकिन व्यक्तित्व नहीं खरीदा जा सकता। परिवार में आर्थिक-उपार्जन कर लिया जाता है और सम्भव भी है, लेकिन उसके साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो वह धन मात्र कलंक की जड़ बन जावेगा और परिवार को गर्त में गिरा देगा।

धन की उपयोगिता है। वह हमारे जीवन में आवश्यक भी है। धनोपार्जन किए बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। लेकिन धन केवल जीने के लिए है; न कि संचय के लिए। यदि धन इसके बावजूद भी कुछ बचा रहता है तो उसके सदुपयोग की बात सोचनी चाहिए। कहा गया है कि सौ हाथों से धनोपार्जन कर और हजार हाथों से दान कर। धन कमाना सरल है, लेकिन उसका सदुपयोग करना अति दुस्तर काम है। अमीर लोगों के पास धन है, लेकिन कष्टमय जीवन व्यतीत करते हैं, उनके वारिस उन्हें सुख-शान्ति से नहीं रहने देते। कारण स्पष्ट है कि उन्होंने धन कमाना ही सीखा है, उसका सदुपयोग करना नहीं सीखा। उनको तथा हर अमीर-परिवार के मुख्य सदस्य को चाहिए कि धनोपार्जन के साथ-साथ पारिवार की उन्नति पर भी खर्च करें। मात्र कॉलेज पढ़ाकर उनका कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता, भले ही उनके बाल-बच्चे पढ़कर नौकरी प्राप्त कर लें। लेकिन सच्चे नागरिक कॉलेज की पढ़ाई से नहीं बन सकते। व्यक्ति-निर्माण के लिए नारी-उत्थान की आवश्यकता है, तभी परिवार-निर्माण व समाज-निर्माण सम्भव है। परिवार के सदस्य मूर्ख हैं तो धन की उपयोगिता न जानकर दुरुपयोग कर रोग, अपकीर्ति, कलह एवं पापाचारों को ही प्रोत्साहन देंगे और दण्ड पाने के उत्तराधिकारी होंगे।

धन की उपयोगिता को हम समझें। धन कमाकर उसे परिवार की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा देते हैं। हमने कभी भी ध्यान दिया कि धन का उपयोग परिवार के सदस्यों के नैतिक-स्तर को बढ़ाने में, बौद्धिक-विकास करने में, आत्मिक शक्ति का अभिवर्द्धन करने में लगावें। इन्हीं गुणों का अभिवर्द्धन हो तो हमारी सच्ची धन की सदुपयोगिता कही जा सकती है एवं परिवार के प्रति यही सच्ची सेवा एवं सहानुभूति कही जा सकती है।

हम देखते हैं कि नारी के बिना परिवार उसी प्रकार का है, जिस प्रकार पंच-तत्त्व से विनिर्मित यह शरीर प्राण के बिना हो जाता है। अर्थात नारी परिवार के लिए प्राण के समान है। लेकिन हमने आज उसे मात्र दासी की श्रेणी में रखा है, भोग्या मानकर उसकी उपयोगिता को सीमित कर दिया है, अछूत मानकर उसे समाज में स्थान नहीं दिया है। हमने नारी के प्रति क्या-क्या अत्याचार नहीं किया है? नारी को अबला की श्रेणी में रखकर उसका अपमान किया है। हम अपने शरीर का आधा अंग बेकार कर चुके हैं और मूर्ख के समान सुख की कल्पना करते हैं। यदि हमें अपना हित करना है, परिवार समाज तथा विश्व का कल्याण करने की कल्पना करते हैं तो नारी को अपने समान स्तर पर पाकर ही कर सकते हैं। नारी-उत्थान करके ही हम विश्व के कल्याण की बात सोच सकते हैं। यही सोचना हमारी सच्ची कल्पना है, नहीं तो कल्पना मात्र हो जावेगी।

प्राचीन-काल में नारियों को कितना अधिक गौरव प्राप्त था, नारी-वर्ग ने अपना योगदान समाज-कल्याण के लिए पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर दिया है। उन्होंने स्वयं ही वेद-मंत्रों का प्रतिपादन किया है। लेकिन आज हम स्त्रियों को वेद-मंत्रों से दूर रखने की चेष्टा करते हैं, यह कितनी विडम्बना है? हमें भगवान के नियम का उल्लंघन नहीं करना है और नारी वर्ग को समान अधिकार प्रदान कर साथ-साथ चलने को बाध्य करना है। पहले हमारे देश में नर-रत्न पैदा हुआ करते थे। अभिमन्यु, जिन्होंने अपने गर्भावस्था में 'चक्र-व्यूह' तोड़ने की विधि का ज्ञान कर लिया था। आज हम यह भी मानते हैं कि माता के ही कारण उसके पेट का नन्हा सा बालक जीवित रहता है, अपना पोषक-तत्त्व माँ के शरीर से ही प्राप्त करता है और हम बच्चे की माँ के रहन-सहन एवं खान-पान पर विशेष ध्यान देते हैं।

बच्चे का निर्माण माता ही कर सकती है। जिस तरह अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है, उसी प्रकार माँ का प्रभाव बच्चे के ऊपर पड़ता है। नारी यदि सुविकसित है तो बच्चा योग्य होता चला जायेगा। गर्भ से लेकर आत्म निर्भर होने की समयावधि तक बच्चा माँ की प्रतिभा से प्रभावित होकर अपना संस्कार बनाते हुए देश-रत्न एवं विश्व-रत्न की श्रेणी में पहुँच सकता है। माता जितनी सुसंस्कृत होगी, बच्चा भी उससे ओत-प्रोत हुए बिना नहीं रह सकता। कोई भी सच्चा एवं समुन्नत व्यक्तित्व का मनुष्य कभी भी अपने बच्चे को गलत दिशा में नहीं जाने देगा। उसी प्रकार नारी भी अपने ज्ञान के अनुसार सुयोग्य बनाने की कोशिश करेगी। नारी जहाँ कहीं भी अशिक्षित एवं संस्कार रहित होगी, वहाँ निरंतर क्रोध, कलह, असन्तोष, अवज्ञा तथा अपकीर्ति का साम्राज्य होगा और वह घर मरघट के समान हो जायगा जहाँ भूत ही भूतों का साम्राज्य दिखाई पड़ता है।

आज हमें राम, कृष्ण, अभिमन्यु, हनुमान आदि की आवश्यकता है तो हमें कौशल्या, देवकी, सुभद्रा और अंजनी जैसी माताओं की भी तलाश करनी होगी और वह तभी सम्भव है जब हम नारीवर्ग को विकसित करें। आज की नारी श्रवणकुमार, भरत, लक्ष्मण जैसे पुत्र पैदा करने में असमर्थ हैं और इसका एकमात्र कारण है नारीवर्ग को विकसित न होने देना। जब नारी ही समुन्नत नहीं है तो सुसन्तान की प्राप्ति मात्र ख्वाब ही होगा, जो कभी पूरा होने वाला नहीं है।

नारी-उत्थान को प्रथम स्थान देना अति आवश्यक है, क्योंकि नारी के विकास से सभी समस्याएँ स्वयं ही हल हो जायेंगी। भिक्षुक समस्या को ही ले लीजिए। भिक्षुकों की पैदाइश जन्मजात नहीं होती। माँ यदि अशिक्षित है, संस्कार रहित है तो उसका बच्चा भी कुसंस्कारी ही होगा और माँ को भी गर्त में गिरा डालने की भावना रख सकता है। हमें रूढ़िवादी प्रथाओं को मिटाना होगा, यदि हम सच्चे मायने में माता, बहन, पत्नी को सुख देने की चाह रखते हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि हमारे मरने के बाद पत्नी-बेटी, जो कभी घर से बाहर नहीं निकलीं, उनकी क्या दशा होगी? सम्पत्ति दो दिन की मेहमान है, कल चली जायगी। पुरुषार्थी का ही संसार में रहना योग्य है। अस्तु, नारीवर्ग को पर्दा-प्रथा से दूर रखना चाहिए। प्राणीमात्र के लिए सारा विश्व एक परिवार के समान है, अत: पर्दा करने की तनिक भी जरूरत नहीं है। नारीवर्ग को इतनी तो कोशिश करनी ही चाहिए कि समयानुकूल प्रत्येक नारी अपने पैरों पर खड़ी हो सके और दूसरों के सामने हाथ न फैलाना पड़े।

दहेज-प्रथा भी नारीवर्ग के लिए एक अत्याचार है। नारी अशिक्षित है, आत्म-निर्भर नहीं है तो शादी करने वाला वर-पक्ष दहेज माँगता है, यह कितनी शर्म की बात है? हमें चाहिए कि नारी-उत्थान के कदम बढ़ायें। प्रत्येक मनुष्य अपने घर के नारीवर्ग को सुशिक्षा प्रदान करे, तभी दहेज-प्रथा को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि नारी-उत्थान का महत्त्व अथाह समुद्र के समान गहरा है। उसके विषय में जो भी कहेंगे थोड़ा ही है। लेकिन मुख्य बात यह है कि हमें आज ही से नारी-जागरण का कार्य शुरू कर देना चाहिए, तभी विश्व-कल्याण कर सकना सम्भव हो सकता है।

नारी को बढ़ाओ वह तुम्हें बढ़ायेगी

साधन सुविधा तथा अवसर प्राप्त होने पर नारी अपनी मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक और शारीरिक क्षमताओं को विकसित कर पुरुषों का, मनुष्य समाज का हर तरह अभिनन्दन कर सकती है। आदिकाल से नारियाँ केवल घर-गृहस्थी को ही देखती नहीं आ रही हैं वे विद्या, अध्यात्म, समाज, राजनीति, धर्म, कानून, त्याग, शूरता सभी क्षेत्रों में पुरुषों की संगिनी ही नहीं रहीं वरन् सहायक-प्रेरक भी रही हैं। वे अपनी इच्छानुसार कोई भी कार्य चुन सकती थीं। विवाह करना या न करना भी उनकी पसन्द पर निर्भर था। लड़कों की तरह ही लड़कियाँ भी शिक्षा प्राप्त करती थी। इतना ही नहीं आवश्यकता पड़ने पर वे देश रक्षा और समाज संचालन के कार्यों में नेतृत्व भी करती थीं।

अभी भी जिन देशों में नारियों को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त हैं, वहाँ की नारियाँ जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ी-चढ़ी हैं। वे पुरुषों के समान ही प्रत्येक क्षेत्र में कन्धे से कन्धा मिलाकर देश की प्रगति-उन्नति में सहयोग दे रही हैं। नारी के इस सहयोग के परिणामस्वरूप ही उन देशों में न केवल पारिवारिक, सामाजिक, सुव्यवस्थाएँ सुदृढ़ हैं अपितु वे राष्ट्र सब प्रकार से सुखी-समुन्नत भी हैं। जहाँ समाज स्तर पर नारी को यह सुविधा प्राप्त नहीं है तथा केवल परिवार स्तर पर ही सुविधा प्रदान की गई है उस परिवार की स्थिति भी सबल और सशक्त बनी पायी जाती है। वे परिवार हर दृष्टि से अग्रगामी बने पाये जाते हैं। उनकी आन्तरिक और बाह्य स्थिति सब प्रकार से सुदृढ़ है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि नारी का सहयोग नर जीवन में उन्नति, प्रगति, विकास के लिए द्वार खोलता है, यह अनिवार्य है। वह समाज उन्नति नहीं कर सकता जहाँ स्त्री को सामाजिक अधिकारों से वंचित कर उसे लुञ्ज-पुञ्ज एवं पद-दलित बनाकर रखा जाता है। प्राचीन इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि जिस भी समय में नारियाँ उन्नतिशील, प्रगतिशील, स्वतंत्र, समान सत्तामयी और कर्तव्य परायण रही हैं उस समय उस देश में उल्लेखनीय कार्य सम्पन्न हुए हैं। वहाँ की नारी को बन्धित और अधिकारों से वंचित रखे जाने पर देश, समाज का पतन हुआ है। नारियाँ सब प्रकार की योग्यताओं से वंचित रहकर न तो अपना ही उत्थान कर सकीं और न ही समाज राष्ट्र के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकीं। सामाजिक अधिकारों और प्रगति के अवसरों से वंचित रहने के दुष्परिणाम समाज-राष्ट्र की हानि के रूप में ही सामने आये।

बन्धनों की बेड़ियों में जकड़ी नारी पराश्रित और पुरुष की कठपुतली बनकर रह गई। वह न तो अपना जीवन-निर्वाह करने योग्य रह गई और न ही अपने परिवार समाज का विकास-परिष्कार करने के योग्य ही। फलस्वरूप उसके मन में आत्महीनता की भावना उत्पन्न हुई। वह स्वयं को कमजोर, असमर्थ मानने लगी। उसी दशा में बनी रहना उसके स्वभाव का अंग बन गया। इस आत्महीनता की भावना के कारण जीवन के अन्य आवश्यक, प्रगतिशील व्यवहारों तथा अनुभवों की भी वह जानकारी प्राप्त न कर सकी।

नारी के इस तरह के बन्धन से सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय प्रगति में जो बाधाएँ आई हैं उनसे न केवल नारी के जीवन वरन् मानवमात्र, समाज एवं देश पर भी प्रभाव पड़े बिना न रहा। देश की आधी जनशक्ति घरों में बन्द रहने से राष्ट्र प्रगति के लिए कोई सहयोग न मिल सकने से, अन्य प्रगति के चरण रुके रहे। इस शक्ति का उपयोग महत्त्वपूर्ण कार्यों में न हो सका। केवल चूल्हा-चक्की और सन्तानोत्पादन के दो ही काम उसके जिम्मे रह गए। इस कार्य के बाद बचे समय में वह घर की चहार दीवार में ही घुटती रही। सामाजिक प्रगति, आत्मिक विकास के अन्य कार्यों में वह इस अवकाश का सदुपयोग न कर सकी। इतनी बड़ी जन-शक्ति के लिए जीवन-निर्वाह व्यय, उसकी देखभाल, सुरक्षा और सारी जिम्मेदारी भी पुरुष पर आ गई। जो सहयोगी बन सकती थी वही बन्धन के परिणामस्वरूप भार बन गयी।

नारी के विकसित मनोभूमि तथा प्रगतिशील विचारों के आधार पर ही परिवार की उन्नति तथा सुख-शान्ति निर्भर करती है। उसके विकास-प्रगति के समुचित साधन एवं सुविधाएँ उपलब्ध न हो सकें तो उसकी मौलिक प्रतिभा भी कुण्ठित और संकुचित रह जाती है। इसके अविकसित रह जाने के कारण नारी सुलभ कार्यों को भी कुशलतापूर्वक सम्पादित नहीं कर पाती है। अनुभव ज्ञान के अभाव में पारिवारिक व्यवस्था उससे नहीं बन पड़ती। परिवार की उन्नति के लिए कुछ कार्य नहीं कर पाती। बजट, उत्पादन, उपार्जन, स्वास्थ्य, शिक्षण-परामर्श आदि कार्यों को वह कुशलता के साथ नहीं कर पाती है। भारतीय परिवारों के उजड़ने तथा पतित होने का एक कारण यह भी है कि उसकी आधारशिला नारी ही कमजोर एवं नाजुक हो गई है। बिना ठोस-सुदृढ़ आधार के महल का ढह जाना क्योंकर आश्चर्य होगा?

मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक पतन के कारण ही जीवन व्यवहार में जमीन-आसमान का अन्तर आ जाता है। इस पतन की प्रवृत्ति का शिकार नारी भी हुई। वह अपने उस सृजनात्मक स्वरूप को विस्मृत कर रह गई। यदि उसका यह पक्ष जागृत रहता तो वह पारिवारिक स्थिति को सुदृढ़, आर्थिक स्थिति को सन्तुलित तथा सामाजिक स्थिति को सुविकसित और प्रगतिशील रख सकती थी।

नारी ने अपनी इस सृजनात्मक सक्रियता से समाज को जो योगदान दिया, उसका साकार प्रमाण था सुसंस्कृत, आदर्श, प्रज्ञावान व्यक्तित्व। ऐसे नर रत्नों को पाकर ही समाज गर्वोन्नत बनता है और संस्कृति को पोषण मिलता है। आज की परिस्थिति सामाजिक परिवेश में उतनी सुविधाजनक एवं सर्व-प्रचलित नहीं है, जितनी प्राचीन वैदिक काल में थी। हत भाग्य नारी स्वयं के विकास के लिए, अपने भाग्योदय के लिए प्रयास करने में समर्थ नहीं है तब वह कुशल माता कैसे बन सकती है? यह आश्चर्य नहीं। नर के द्वारा इस अधिकार से वंचित रखने की अदूरदर्शिता के दुष्परिणाम स्वरूप सारे समाज को हानि सहन करनी पड़ी। अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारने की यह मूर्खता स्वयं पुरुष के लिए भी घातक ही हुई। नारी के साथ यह अत्याचार नहीं किया गया होता तो देश के लिए कितने सुयोग्य-सुसंस्कृत नागरिक मिल पाते, राष्ट्र का कितना गौरव बढ़ जाता, यह प्राचीन गौरवशाली इतिहास पर दृष्टिपात करके ही जाना जा सकता है कि नारी का इन परिस्थितियों को निर्माण करने में कितना सहयोग-योगदान मिल सकता है।

इसके दुष्परिणाम न केवल पतन-पराभव के रूप में सामने आए वरन् समाज में नई-नई समस्याएँ सामने आईं। नारी अपने विकसित रूप में स्वयं की सभी जिम्मेदारी स्वयं ही निर्वाह करती थी। वह इस अवस्था में इन्हें भी नहीं कर पा रही है। इसका प्रतिफल उसे पतन के रूप में भुगतना पड़ा किन्तु नर के मत्थे भी कुछ कम न मढ़ा। उसके जीवन-चिन्ता, उसके पालन-पोषण, उसकी सुरक्षा आदि अनेक कर्तव्य नर के ही पल्ले पड़े। वह शक्तिस्वरूपा नारी आज घर में सम्पत्ति के रूप में पड़ी है। जो स्वयं दूसरों की सुरक्षा करती थी, उसकी रक्षा की व्यवस्था दूसरों द्वारा किया जाना कितनी शर्मनाक बात है।

लड़कियों के प्रति जन्म से ही उपेक्षा की भावना रखना, उनके पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, साधन-सुविधा, लड़कों की अपेक्षा पक्षपातपूर्ण मान्यता के आधार पर प्रदान करना, उनकी प्रतिभा को विकसित न होने देने के ही प्रयास हैं। फिर भी अनेक शिक्षा संस्थाओं और शिक्षालयों के परीक्षाफल यह प्रमाणित कर रहे हैं कि उनकी प्रतिभा स्वाभाविक अधिक है। जब से नारी को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है, वे जीवन के हर क्षेत्र में कार्यकुशलता दक्षता प्रस्तुत कर रही हैं। शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा, प्रशासन, सत्ता, धर्म-कानून, अध्यात्म, शूरता आदि में नारी आज काफी प्रगति कर चुकी है। अभी तक तो नारी स्वतंत्रता सर्वव्यापक नहीं बन पाई है। अभी भी काफी क्षेत्र यों ही उपेक्षित पड़े हैं। सभी क्षेत्रों में नारी समाज विकास के चरण बढ़ा सका तो कहना न होगा कि अपना देश-समाज प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकेगा। वरन् उससे आगे भी कई गुनी उपलब्धियाँ अर्जित कर सकेगा।

इस हृदय-द्रावक स्थिति को कब तक सहन किया जाय?

नारी की आज जो स्थिति है, उसे किसी भी प्रकार न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के कुछ जन्मसिद्ध अधिकार हैं। प्रत्येक मानव प्राणी को अपनी मर्जी का नैतिक-जीवन जी सकने की स्वतंत्रता रही है और होनी भी चाहिए। मैत्री के आधार पर कोई किसी के लिए कुछ भी त्याग कर सकता है, पर कैदी के अतिरिक्त अन्य किसी को बलात बन्धन में बाँधने का, उसको बलात् उपयोग करने का अधिकार नहीं है। पर नारी इस मूलभूत मानवी अधिकार से भी वंचित है। कन्या का उसके अभिभावक कहीं भी किसी के साथ भी ब्याह कर सकते हैं या बेच सकते हैं। पति उसे बलपूर्वक अपने अधिकार में रख सकता है और अनिच्छा होते हुए भी जो चाहे सो अपनी मर्जी के अनुसार करा सकता है। उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है, पशुओं जैसी मारपीट कर सकता है, लुक छिपकर जान भी ले सकता है, यह स्थिति मनुष्य के मूल अधिकारों के विपरीत है। स्वेच्छा जीवन जीने पर इतने कड़े प्रतिबन्धों का होना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं है। पर्दा-प्रथा के अनुसार जिस स्थिति में नारी को रहना पड़ता है, उसे मानवोचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु शताब्दियों से चल रही अवांछनीय परम्पराओं ने इन्हीं विडम्बनाओं को 'मर्यादा' के रूप में मान्यता दे दी है। अब लोग इन बातों को अन्याय तक नहीं मानते, वरन् उचित-आवश्यक तक कहते हैं और उन्हीं तर्कों का, धर्म प्रचलनों का सहारा लेकर उन प्रतिबन्धों का समर्थन करते हैं।

इस स्थिति में चिरकाल से रहती चली आ रही नारी धीरे-धीरे अपनी मानवी उपलब्धियों से वंचित होती चली गई और आज की दुःखद स्थिति में आ पहुँची। घर के छोटे से पिंजड़े में आजीवन कैद रहने के कारण उसका स्वास्थ्य चौपट हो गया। खुली हवा, खुली धूप, हाथ-पाँव हिलाने की स्थिति न मिलने पर स्वास्थ्य का सर्वनाश होता ही है। छोटी आयु में विवाह हो जाने पर किशोरावस्था और नव-यौवन के दिनों होने वाले शारीरिक विकास की जड़ें ही कट जाती हैं। शरीर-शास्त्र का स्पष्ट निष्कर्ष है कि बीस वर्ष से कम आयु में कामोपभोग और पच्चीस वर्ष से कम आयु में सन्तानोत्पादन नारी के स्वास्थ्य को मटियामेट करके रख देता है। उसे छोटी-बड़ी अनेक बीमारियाँ आरम्भ से ही घेर लेती हैं और मरते दम तक साथ रहती है। पेडू का दर्द, कमर का दर्द, पेट दुखना, मासिक धर्म की अनियमितता, श्वेत प्रदर, पेशाब में जलन जैसे रोग स्पष्टतः शक्ति से अधिक मात्रा में जननेन्द्रिय का दुरुपयोग किये जाने के ही दुष्परिणाम हैं। छोटी आयु से ही कच्चे अंग अवयवों पर जब दाम्पत्य हलचलों का अमर्यादित भार पड़ेगा तो उससे स्वास्थ्य की जड़ें खोखली होनी ही हैं। स्त्रियों में से अधिकांश को अपच, सिरदर्द, अनिद्रा, हाथ-पैरों में भड़कन, आँखों में जलन, मुँह में छाले, थकान, सुस्ती, बेचैनी, उदासी जैसी शिकायतें बनी रहती हैं। इसका कारण उनकी जीवनी शक्ति का क्षीण हो जाना ही होता है। जिन लड़कियों का अपना शरीर ही सुविकसित नहीं हो पाया, उनके ऊपर समय से पहले बच्चे पैदा करने का भार पड़ेगा तो वह शक्ति, जो अपना शरीर पुष्ट कर सकती है सहज ही समाप्त हो जायगी। बच्चे का शरीर आखिर माता का शरीर काटकर ही तो बनता है। उसका रक्त, माँस, हड्डी आदि जो कुछ है वह स्पष्टत: माता के पास जो शरीर-सम्पत्ति थी, उसी का एक टुकड़ा अलग से टूट कर खड़ा हो गया है, जो दूध बच्चा पीता है, वह माता के रस-रक्त के अतिरिक्त और क्या है? उसे बच्चा पीता रहेगा तो माता के शरीर में उसकी कमी पड़ेगी ही। जो रक्त-माँस लड़कियों के अपने स्वास्थ्य-संवर्द्धन के लिए आवश्यक था, वही यदि सन्तान में निकलता चला जाय तो स्पष्ट है कि इस कारण उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और गई-गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा। दुर्बल के पास न रूप बचता है, न यौवन, न सौंदर्य, न उत्साह, न स्फूर्ति, न ताजगी, न मुस्कान। लड़कियों को छोटी आयु से ही दाम्पत्य जीवन के दबाव में जिस प्रकार पिसना पड़ता है, वह उनकी अकाल-मृत्यु का बहुत बड़ा कारण है। प्रसव-पीड़ा से लाखों महिलाएँ हर साल बेमौत मरती हैं, इसका कारण उनके प्रजनन अंगों की दुर्बल स्थिति होते हुए भी असह्य दबाव पड़ना ही एकमात्र कारण है। प्रसव-काल में जितना रक्त जाता है, जितना कष्ट होता है, उसे परिपुष्ट माता का स्वास्थ्य ही सहन कर सकता है। कमजोर शरीर वाली लड़कियों के लिए तो यह बेमौत मारे जाने जैसा अभिशाप है। स्वास्थ्य की दृष्टि से अविवाहिताएँ तथा विधवाएँ सुहागिनों की तुलना में कहीं अच्छी पाई जाती हैं,इसका कारण यही है कि उन्हें दाम्पत्य कर्म का बोझ नहीं सहना पड़ा।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि विवाह नहीं करना चाहिए, दाम्पत्य जीवन अनावश्यक है और बच्चे उत्पन्न नहीं करने चाहिए। यह सब बातें सहज स्वाभाविक रीति से होनी चाहिए। स्त्री का स्वास्थ्य जितना सहन कर सके, उस पर उतना ही दबाव पड़ना चाहिए। किन्तु इस क्षेत्र में नारी सर्वथा असहाय है, वह इस सन्दर्भ में मुँह नहीं खोल सकती। पति की इच्छा पूर्ति के लिए उसे विवश रहना पड़ता है। सन्तानोत्पादन के लिए शरीर में गुंजायश न होने पर भी उसे वह भार बलात् उठाना पड़ता है। अपना स्वास्थ्य नष्ट होने, दुर्बलता, रुग्णता और अधिक बढ़ने, अस्वस्थ सन्तानें बनने, गर्भपात आदि होते रहने, असह्य प्रसव-पीड़ा न सह सकने, अकाल मृत्यु को गले न बाँधने जैसे विचार उसके मन में उठते रह सकते हैं, पर वह कह कुछ नहीं सकती, कर कुछ नहीं सकती। पराधीन की स्वेच्छा क्या? उसकी अपनी मर्जी कहाँ? बन्दी को मालिकों की मर्जी पर ही चलना पड़ता है। उसे अपने स्वास्थ्य की बात सोचने का अधिकार ही किसने दिया है?

सोने-उठने का कोई समय नहीं। मर्द रात को १२ बजे आवे तो उसी समय चूल्हा फूँकना चाहिए। सब लोग खा जायँ, उसके पीछे खाना चाहिए। सबसे पीछे सोना और सबसे जल्दी उठना चाहिए। विश्राम के लिए समय की माँग न करनी चाहिए। रुग्ण रहते हुए दिन-रात पिसना चाहिए। यही आज की नारी का धर्म-कर्तव्य बताया गया है। इससे कम में कोई 'अच्छी बहू' नहीं कहला सकती। यह सब धकापेल चलता रहे, चले पर प्रकृति किसी को बख्शती नहीं। उसे अपने नियमों से काम। दुरात्मा हो या पुण्यात्मा बिजली के खुले तार तो जो छुएगा, वही मरेगा। स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन निरन्तर करते रहने पर प्रकृति दण्ड देगी ही। दुर्बलता, रुग्णता, अकाल-मृत्यु के चक्र में उसे पिसना ही पड़ेगा। नारी ने यह व्यतिक्रम स्वेच्छा से किया या उसे विवशतावश करना पड़ा—यह सोचने की प्रकृति को फुरसत नहीं है। नारी नर की तुलना में शारीरिक दृष्टि से कितनी दीन, दुर्बल बनकर रह रही है, यह सहज स्वाभाविक स्थिति नहीं है। सभ्य देशों की महिलाएँ हर क्षेत्र में स्वास्थ्य में भी पुरुष के समतुल्य हैं। यह अभागा भारत ही है जिसने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया। फलस्वरूप जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, उसने नारी के स्वास्थ्य को खा लिया। इसे भाग्य का, भगवान का दोष कहकर मन समझाया जा सकता है, पर वस्तुत: यह हमारे ही अनाचार-अत्याचार का दुष्परिणाम है, जिसे रोते-कराहते नारी तो भुगतती है; पर इस स्थिति में नर भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता, इसमें उसे भी कुछ लाभ उठाने का अवसर नहीं है। शोषित तो मिटता ही है, शोषक को भी विधि का विधान सुख की साँस नहीं लेने देता। नारी को अस्वस्थ बनाकर उसके मालिक पालने हारे भी इस स्थिति में क्या सुख-सन्तोष अनुभव कर रहे हैं? रोते-कराहते स्वर, आखिर उन्हें भी कुछ तो कष्ट देंगे ही। सहानुभूति समाप्त हो गई हो तो भी खोज और झूँझल तो सताती ही रहेगी, उनसे तो पीछा नहीं ही छूटेगा।

शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य से भी नारी को वंचित रहना पड़ रहा है। जिसकी अपनी कोई इच्छा, महत्वाकांक्षा, मर्जी, पसन्दगी न हो, जिसे जन्म से मरण तक बिना उचित-अनुचित का अन्तर किए केवल आज्ञा पालन ही करना है, उसके लिए अपना भविष्य-निर्माण करने की बात सोचना ही निरर्थक है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के विकास में स्वतंत्र चिन्तन का, महत्वाकांक्षाओं का, कुछ कर सकने का, परिस्थिति का प्रधान योगदान होता है। वह न मिले तो खाद, पानी न मिलने वाले पौधे की तरह ज्वलन्त सम्भावनाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। ईश्वर-प्रदत्त प्रतिभा कितनी ही क्यों न हो, पालने वालों की मर्जी के बिना उसका उपयोग कर सकने का नारी के लिए कोई अवसर नहीं। इच्छा तो आखिर हर किसी की कुछ न कुछ होती ही है। उन्हें फलवती करने का जब अधिकार ही नहीं तो आकांक्षाओं की चिन्ता और राख मनःक्षेत्र में घुटन की दुर्गंध ही भरे रहेगी।

पग-पग पर प्रतिबन्ध, क्षण-क्षण में तिरस्कार जिसके भाग्य में लिखा हो, वह दुर्भाग्य के आँसू ही बहाता रह सकता है। नारी निष्प्राण मशीन रही होती तो अच्छा था, पर जानदार प्राणी होने के कारण उसका अपना निज का मन भी है और निज की कुछ इच्छाएँ भी। स्वभावत: वे फैलने, फूटने का फूलने-फलने का अवसर चाहती हैं, पर इसके लिए अधिकार रहित नारी के लिए गुंजायश कहाँ? चौबीसों घण्टे उसे मन को मारना पड़ता है और उस दुष्ट को देखो, जो मरता तो है नहीं, उल्टे विद्रोही बनकर नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। इन्हें तरह-तरह के मनोरोगों के, मनोविकारों के रूप में देखा जा सकता है। मृगी-हिस्टीरिया से ग्रसित रोगियों में तीन-चौथाई नारी और एक चौथाई मर्द होते हैं। तरह-तरह की सनकें, चिड़चिड़ापन, लड़-झगड़, अनुदारता, दुराव, असन्तोष, आशंका, दोषारोपण जैसी मानसिक विकृतियाँ उन्हें घेरे रहती हैं। सनकी, जिद्दी, अव्यवस्थित, नासमझ, बेबकूफ, स्वार्थी आदि न जाने कितने दोष उन पर लगाए जाते रहते हैं। जो किसी कदर ठीक भी होते हैं। निराशा, चिन्ता, भय-भीरुता, आशंका, अविश्वास से ग्रसित उनमें से बहुतों को देखा जाता है। सन्तोषजनक मुस्कान किसी के चेहरे पर शायद ही खेलती हुई देखी जाय। यह आदत जिनमें बचपन से थी भी, बस गृहस्थ की चक्की में पिसने के कुछ ही दिन बाद समाप्त हो जाती है। असन्तोष और क्षोभ से उद्विग्न और खिन्न मुख-मुद्रा में ही प्रायः उन्हें देखा जाता है। मन कैसा छलिया है। उसे जहाँ उद्विग्न करता है, वह खिलौने देकर पुचकारता भी है। शृंगार, सजधज, फैशन की भोंडी तरकीब बताकर कहता है, कुछ न सही तो इस खिलौने से ही मन बहलाओ, अपना जी हल्का करो। प्रायः विकृत मन वाली महिलाएँ ही शृंगार प्रसाधन अपनाकर अपना खोया सम्मान इस बनावट के सहारे किसी हद तक प्राप्त कर लेने की बात सोचती हैं और उस तरह के आडम्बर बनाती हैं। इसमें उन्हें मिलता कुछ नहीं। पैसा और समय तो गँवाती ही हैं मूर्ख, हास्यास्पद और छछोरी भी बनती हैं। प्रशंसा पाने चली थीं, पर उपहास लेकर लौटती हैं। व्यंग्य रूप में ही कोई मसखरा उनके मुँह पर उस सजधज की शायद प्रशंसा भी कर देता होगा। यह विडम्बनाएँ वे स्वेच्छा से नहीं, छलिया मन के विचित्र बहकावे में फँसकर रचती हैं। असन्तोष को सन्तोष में परिणत करने का कुछ भी औंधा-सीधा मार्ग वे खोजती हैं। इन्हीं में से एक शृंगारिक-सजधज भी है। अन्यथा शालीन नारी का व्यक्तित्व तो स्वच्छ, सभ्य और सज्जनोचित सरलता और सादगी के साथ ही जुड़ा रहता है। विवेक और उद्धत शृंगार का प्रत्यक्ष बैर है। जहाँ एक रहेगा, वहाँ से दूसरे को पलायन करना ही पड़ेगा।

स्मरण-शक्ति की कमी, आवेशग्रस्तता, जिद्दीपन, शंकालु, अनुदारता, दूरदर्शिता, मन्द-बुद्धि आदि मानसिक त्रुटियाँ स्त्रियों में बहुधा अधिक होने की बात कही जाती है। यदि यह सच है तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह उनकी आन्तरिक घुटन की प्रतिक्रिया है, अन्यथा मानसिक बनावट और प्रखरता में वे नर से पीछे नहीं, आगे ही रहती हैं। स्कूल-कालेजों के परीक्षा-फल इसके प्रमाण में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। लड़के अधिक और लड़कियाँ कम फेल होती हैं। अच्छे डिवीजन लड़कियों के हिस्से में आते हैं। वे छुरे, चाकू, हाकी लेकर नकल के बल पर पास होने की उद्दण्डता भी नहीं बरततीं, अपनी सहज प्रतिभा और स्वाभाविक श्रमशीलता के आधार पर अच्छे नम्बरों से पास होती रहती हैं। अन्य क्षेत्रों में भी नारी को जब भी जितना भी अवसर मिला है, सदा उसने अपनी बौद्धिक प्रखरता का ही परिचय दिया है। न वे शरीर की दृष्टि से दुर्बल हैं और न मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं, परिस्थितियों ने ही उन्हें दुर्दशाग्रस्त बना दिया है। आज तो वे दुर्बल और रुग्ण ही नहीं, मन्द-बुद्धि और मानसिक रोगों की व्यथा भी बेतरह सहन कर रही हैं।

इस शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता ग्रसित स्थिति से नारी को उबारा जाना चाहिए। अन्यथा वह अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकना तो दूर पिछड़ेपन के कारण भारभूत ही बनी रहेंगी। रुग्ण व्यक्ति अपनी बेकारी, पीड़ा, परिचर्या, चिकित्सा आदि के कारण स्वयं दुःखी रहता है और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करता है। नारी की शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता हर दृष्टि से, हर क्षेत्र के लिए दुःखद परिणाम ही प्रस्तुत कर रही है।

राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहने वाला देश आर्थिक दृष्टि से ही शोषित नहीं होता, वरन् सांस्कृतिक, मानसिक, चारित्रिक और बौद्धिक दृष्टि से भी अपंग हो जाता है। ठीक इसी प्रकार सामाजिक दृष्टि से पराधीन बनाई गई नारी भी अपनी प्रखरता और उपयोगिता खो बैठी है। तथ्य को समझा जाना चाहिए और विष-वृक्ष के पत्ते तोड़ने की अपेक्षा उसकी जड़ काटी जानी चाहिए। नारी को हर क्षेत्र में विकास का अवसर मिलना चाहिए और उसके पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हर समय प्रयत्न करना चाहिए। अपहरणकर्ता के रूप में पुरुष का दोष अधिक है, इसलिए प्रायश्चित, परिवर्तन, प्रतिकार की दृष्टि से उसी को आगे आना चाहिए। आघात पहुँचाने वाले को उसका हर्जाना भी देना चाहिए और क्षति पूर्ति के लिए प्रबल प्रयास करके कलंक-कालिमा को धो डालने के लिए तत्पर होना चाहिए।

और बहुत कुछ करना बाकी है !

हमारे देश में नारी की स्थिति में सुधार-युग का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी से आरम्भ हुआ माना जा सकता है। उस समय राजा राममोहन राय ने सती-प्रथा के उन्मूलन का कार्यक्रम छेड़कर सर्वप्रथम नारी-उत्थान का उद्घोष किया। इसके बाद तो स्वामी विवेकानन्द से लेकर महात्मा गाँधी और भी अनेक महापुरुषों ने इस दिशा में प्रयास किए। फलत: बालिका वध, सतीप्रथा और बहु-विवाह जैसी अनेक कुरीतियाँ तो समाप्त हुईं साथ ही बाल-विवाह, विधवा-विवाह का विरोध, पर्दा-प्रथा व कन्या-शिक्षा की उपेक्षा आदि रूढ़ियों पर भी एक सीमा तक ही सही असर हुआ। लेकिन अभी भी बहुत कुछ करने को बाकी है। उपरोक्त सामाजिक कुरीतियों से अभिशप्त नारी का एक रूप यह सामने आता है कि वह अबला है, उसे कोई स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है, वह हर प्रकार से पराश्रिता है और है एक बोझ। उन कुरीतियों की जड़ें कमजोर हो जाने के बावजूद भी आज की भारतीय नारी उन अभिशापों से मुक्त नहीं हो सकी है।

प्राचीनकाल की भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अब तक जितना भी अध्ययन और विश्लेषण हुआ है, उसके आधार पर निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि अतीत में भारतीय नारी का स्वरूप और स्थान गौरवमय रहा है। उसे परिवार व समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था, पुरुषों के समान अधिकार उसे भी प्राप्त थे। शिक्षा-क्षेत्र से लेकर युद्ध के मैदान तक वह पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती और संघर्ष करती थी। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक कारणों से उसकी अवनति हुई।

नारी की अवनति के साथ ही भारतीय-समाज की पतन-गाथा शुरू हुई और उन्नीसवीं शताब्दी में उसकी स्थिति में सुधार लाने के प्रयासों के साथ ही भारतीय समाज ने उत्कर्ष की सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू किया। यह अनायास ही नहीं है। जब तक परिवार या समाज का आधा भाग दूसरे आधे भाग पर बोझ बनकर रहेगा, न परिवार का कल्याण हो सकता है और न समाज का उत्थान। क्योंकि आधे भाग की भी वह शक्ति जो प्रगति में लग सकती है उस बोझ को ढोने में ही खर्च होती रहेगी।

सौभाग्य समझना चाहिए कि पुनर्जागरण के युग में प्रवेश करते ही भारत में भी उस स्तर के प्रयासों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी और उस दिशा में कुछ किया भी गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब हमारे भाग्य का निर्माण अपने ही हाथों में आया तो भारत के विचारशील नेताओं ने नारी को सभी क्षेत्रों में समान अधिकार देने की बात को भी ध्यान में रखा। वह पुरुषों के समान ही सब प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अधिकृत की गई तो उसे अपनी प्रतिभा और योग्यता का उपयोग किसी भी क्षेत्र में करने का अवसर भी मिला। कानूनन स्त्रियों को पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने, मत देने, माता-पिता की सम्पत्ति में समान रूप से भागीदार होने, परिपक्व आयु में अपने अनुकूल जीवन-साथी चुनने, जीवन-साथी की मृत्यु पर दुबारा विवाह करने, विवाहित-जीवन में साथी से ठीक प्रकार न बनने पर सम्बन्ध-विच्छेद करने और तलाक के बाद दूसरी शादी करने के अधिकार पुरुषों के समान ही प्राप्त हैं। महिलाओं को हीन बनाने तथा उनका शोषण करने वाली स्थितियाँ समाप्त करने के लिए सम्बन्धित कुरीतियों को खत्म करने वाले कानून भी बने। उदाहरण के तौर पर बाल-विवाह और दहेज-निरोधक कानून तथा लड़कियों और स्त्रियों का अनैतिक व्यापार रोकने वाले कानून गिनाए जा सकते हैं। जिन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सरकार ने अपनी ओर से कोई कमी न छोड़ी।

न केवल सरकार ने वरन् अनेक समाजसेवी संस्थाओं ने भी स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए सक्रिय कदम उठाए हैं और इनके परिणामस्वरूप महिलाओं की स्थिति में काफी कुछ परिवर्तन भी आए हैं। पहले की अपेक्षा अब अधिक लड़कियों स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रही हैं। लगभग सभी विभागों में महिलाएँ नौकरी पेशा पदों पर काम भी करती हैं। विचारशील और सुसंस्कृत स्त्रियाँ पिछड़ी महिलाओं को आगे लाने, ऊँचा उठाने के लिए मिशनरी भावना में अधिक कार्यरत हैं।

इन प्रयासों और परिवर्तनों के बावजूद भी महिलाओं की वर्तमान स्थिति क्या है? यह स्पष्ट करना कठिन है। एक कारण तो यह है कि हमारे देश में क्षेत्रीय, धार्मिक एवं शहरी तथा ग्रामीण विभिन्नताएँ इतनी हैं कि कोई सर्वोपयोगी कसौटी तय कर पाना मुश्किल है। रीति-रिवाज, परम्पराएँ और रूढ़ियाँ भी इतनी भिन्न-भिन्न हैं कि एक स्थान पर उनकी जानकारी एकत्रित कर पाना मुश्किल ही होगा। फिर भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति जानने के लिए सरकार की ओर से सन् १९७१ में एक राष्ट्रीय समिति बनाई गई। जिसने सारे देश में घूम-घूम कर छानबीन की और तथ्य इकट्ठे किए। इस समिति ने सन् १९७५ में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। इस रिपोर्ट के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय महिला-वर्ष में हुई चर्चाओं और गवेषणाओं का निष्कर्ष यह है कि भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पहले की अपेक्षा बहुत सुधरी है और उनका स्तर ऊँचा उठा है, पर अधिकांशतः स्त्रियों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। वे अभी भी पिछड़े वर्ग की हैं और बड़ी दयनीय दुर्दशा तथा कठोर वातावरण में अपना जीवन गुजार रही हैं। उन्हें कानून और संविधान ने जो अधिकार दिए हैं तथा जितनी महिलाएँ उन अधिकारों का लाभ उठा रही हैं अथवा उठा सकती हैं, इन दोनों में बड़ा भारी अन्तर है।

कहा जा सकता है कि इन अधिकारों का उपयोग न करने की स्थिति में वे ही महिलाएँ होंगी, जो कि अशिक्षित हैं या पिछड़े परिवारों की हैं। यह तो है ही, पर जो लाभ उठा सकती हैं, अर्थात शिक्षित और सुसंस्कृत हैं, वे भी अपने आपको असमर्थ पाती हैं। उदाहरण के लिए सन् १९६१ में दहेज के खिलाफ कानून बना था, तदनुसार दहेज को लेना और देना दोनों ही गैर-कानूनी कर दिया गया। १९७५-७६ में कई प्रान्तीय सरकारों ने इसे दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया। लेकिन ढंग बदल कर सभी धर्मों, क्षेत्रों व जातियों में यह प्रथा अब भी प्रचलित है। कई स्थानों पर लोग अब विवाह से पहले ही दहेज वसूल करने की कोशिश में पाए जाते हैं। दहेज का नाम, ढाँचा और तरीके भर बदल दिए गए हैं, पर कुप्रथा तो वैसी की वैसी ही जारी है।

इसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क है। लड़के और लड़कियों का स्पष्टीकरण यहाँ कोई आवश्यक नहीं है, क्योंकि सबके लिए एक ही कानून है। पर लड़कों की अपेक्षा स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या कम है। कारण कि लड़की को पढ़ाने की कोई उपयोगिता ही नहीं दिखाई देती। लोग अपने लड़कों को ऊँची से ऊँची शिक्षा दिलाने का उत्साह रखते हैं और इसके लिए भरसक प्रयत्न भी करते हैं, पर लड़की को अधिक से अधिक साधारण-प्राथमिक शिक्षा दिलाकर चूल्हे-चौके में लगा देने की बात सोची जाती है।

कानूनी-व्यवस्थाओं और समाज-सुधार के प्रयासों के बावजूद भी महिलाओं की स्थिति में सन्तोषजनक सुधार अब तक नहीं हो सके—यह विचारणीय है। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि कानून जन सहयोग के अभाव में कोई भी प्रभाव उत्पन्न करने में असमर्थ रहता है। तमाम प्रयत्नों के बावजूद अपेक्षित सफलता न मिलने का प्रधान कारण यह है कि महिलाओं के प्रति लोगों के विचार एवं धारणाएँ आज भी लगभग वैसी ही हैं, जैसी कि मध्ययुग में थीं। नारी के शोषण की स्थिति तब निर्मित हुई थी, जबकि उसे पुरुषों से नीचा और पुरुष को नारी से बहुत अधिक श्रेष्ठ समझा जाने लगा था। जन-मानस में घुसी इन धारणाओं में अभी भी कोई विशेष अन्तर नहीं आया है। इनका एक छोटा-सा उदाहरण घर में पुत्र जन्म के अवसर पर असीम उल्लास और कन्या के जन्म अवसर पर बुझी हुई खुशी व्यक्त करने के रूप में देखा जाता है।

स्त्रियों के रहन-सहन और उनका विकास-स्तर भले ही पहले की अपेक्षा ऊँचा हो गया हो, पर पुरुष उसे समझता अपनी सेविका और दासी ही है। अशिक्षित ग्रामीणों द्वारा तो स्त्री को आज भी पैर की जूती कहा जाता है। जब तक महिलाओं के प्रति यह दृष्टिकोण नहीं बदला जाता, तब तक उनकी स्थिति में सुधार की आशा स्वप्न जैसी ही समझनी चाहिए। जनता में महिलाओं के प्रति समानता मूलक दृष्टिकोण लाने के लिए कुछ ठोस प्रयत्न करने होंगे और उन तमाम रूढ़ियों, रीति-रिवाजों, मान्यताओं तथा कुरीतियों को मिटाना पड़ेगा, जो स्त्री को पुरुष की अपेक्षा हीन और तुच्छ बनाती है।

स्त्री के प्रति हीनता की मान्यता पैदा करने वाली मुख्य बात तो यह है कि उसे आज भी वासनापूर्ति का साधन समझा जाता है और केवल वंश वृद्धि के लिए अपनाया जाता है। व्यावसायिक मनोवृत्ति के लोगों द्वारा अपनी वस्तुओं के विज्ञापन अथवा प्रचार को भड़कीला बनाने के लिए नारी-देह का घिनौना उपयोग इस परम्परागत मान्यता को बरकरार रखने के लिए पूर्णत: जिम्मेदार है। विचारशील व्यक्तियों द्वारा इस तरह की हरकतों का विरोध करने के बावजूद भी यह प्रवृत्ति दिनों दिन बढ़ती जा रही है। पत्रिकाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए उनमें अनावश्यक रूप से लड़कियों के चित्र छापे जाते हैं और वे भी इस ढंग से जिन्हें देखकर पुरुष के भीतर बैठा काम जाग्रत हो और वह पत्रिका खरीदने को तैयार हो जाय। विज्ञापनों और सिनेमा में तो यह व्यापार और भी वीभत्स रूप में प्रचलित है। तरस आता है, उन लड़कियों पर जो थोड़े से पैसों के लोभ में आकर इस व्यापार में सहायक बनती हैं। सर्वप्रथम ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगानी चाहिए और समाज सेविकाओं तथा विचारशील महिलाओं को भी इसके विरोध में आवाज उठानी चाहिए।

इस व्यावसायिक प्रवृत्ति के अतिरिक्त नारी का जो चित्र सर्वसामान्य के सामने उभारा जाता है, वह प्रायः दो तरह का है। या तो उसे अबला के रूप में चित्रित किया जाता है, जो पुरुष की मोहताज है और अपनी जरा-जरा सी बातों के लिए उसी पर निर्भर है। यदि उसे पढ़ी-लिखी, आधुनिका या काम-काजी स्त्री के रूप में दिखाया जाता है तो उसके स्वभाव में अक्खड़पन, स्वार्थ, चरित्रहीनता जैसे दोषों को भी बहुलतापूर्वक उभारा जाता है। इन दो प्रकार के चित्रण में पहले चित्रण का प्रभाव तो परम्परागत मान्यताओं का पोषण करता है और दूसरे प्रकार का स्त्रियों को नए क्षेत्र में आगे न बढ़ने देने के लिए भड़काता है। अंकुश इस तरह की प्रवृत्तियों पर भी लगाया जाना चाहिए, जो आदर्श-नारी के स्वभाव को उभर कर नहीं आने देती।

इन निषेधात्मक प्रयासों के साथ-साथ महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए कुछ विधेयात्मक कदम भी उठाए जाँय। हम लोगों में यह मान्यता बुरी तरह घर कर गई है कि लड़की पराया धन है। देखा जाय तो आज के वातावरण में लड़का भी अपना नहीं हो सकता। मँहगाई, मान्यताएँ और सामाजिक ढाँचा कुछ इस प्रकार का बन चला है कि लड़के को बुढ़ापे का सहारा समझना भी दुराशा ही सिद्ध होता है। आने वाले २०-२५ वर्षों में जबकि आज की सन्तान वयस्क होगी, तब तो समय और न जाने क्या करवट लेगा? अत: लड़के को बुढ़ापे की लाठी मानकर लड़की को दुत्कारना भी अनुचित है। अच्छा तो यही है कि वृद्धावस्था के लिए आत्मनिर्भरता की जड़ें मजबूत बना दी जायें।

इस कारण से कन्या और पुत्र में भेदभाव करना भी अनुचित होगा। यह भी नहीं सोचना चाहिए कि लड़की अपने पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा का खर्च करवाकर ब्याह में हमारी दौलत छिनाकर पराई हो जायगी। यदि सोचा ही जाय तो पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और ब्याह-शादी में लड़के के लिए भी समान रूप से खर्च करना पड़ता है। इसलिए अकेली लड़की ही कहाँ दोषी हुई?

परिवारों में बच्चों का पालन-पोषण करते समय समानता का बरताव करना चाहिए। घर में जब से बच्चा आए, चाहे वह लड़का हो या लड़की, उसे माता-पिता का एक समान स्वागत, स्नेह और ध्यान मिले।

लोक मान्यता में परिष्कार के लिए उपलब्ध प्रचार उपकरणों का सहयोग भी लिया जा सकता है। स्वयं की सूझबूझ और विचारशीलता अपनाने वाले व्यक्ति बहुत थोड़े होते हैं। अधिकांश तो दूसरों का ही अनुकरण करते हैं। अतः जो विचारशील हैं, उन्हें अपने माध्यम से आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।

जन-मानस में घुसी बैठी विकृत धारणाओं और पूर्वाग्रहों को दूर कर दिया जाय तो भारत की आधी जनशक्ति भी सक्रिय हो उठेगी। परिणामस्वरूप देश चार गुनी तीव्र गति से प्रगति कर सकेगा। तात्कालिक दृष्टि से तो परिवार को भी इसका लाभ निश्चित ही मिलेगा।

युग की पुकार सुनें—स्वयं आगे बढ़ें

महिला जागरण के सम्बन्ध में बहुत सी योजनाएँ बनी हैं और बहुत से कार्यक्रम चालू किए गए हैं। उन सबको पूरा करने में समाज के बहुत से अंगों को अपने-अपने हिस्से की भूमिका निभानी होगी। लेकिन उन सबमें सबसे प्रधान भूमिका स्वयं नारी की ही होगी। नारी के खोए हुए गौरव को और छीने हुए अधिकारों को वापस किसी भी ढंग से, किसी के भी द्वारा लाया जाए, लेकिन उन्हें धारण तो नारी ही करेगी। अपने महान गौरव के अनुकूल तथा अधिकारों के सदुपयोग के योग्य क्षमता नारी को अपने अन्दर विकसित करनी ही होगी। इसके लिए नारी समाज को सबसे अधिक प्रयास करना होगा।

इस दिशा में प्रयास करने से नारी को उसकी झिझक ही रोकती है। झिझक भी दो प्रकार की है। एक तो इतने दिनों तक जिस ढर्रे में नारी चली है, वह कितना ही दुखदायी हो, नारी की आदत में शामिल हो गया है। उसे लगता है कि शायद वह ढर्रे से हटकर चल न सकेगी। यह झिझक अपनी स्थिति को देखकर उसमें उठती है। दूसरी झिझक समाज को देखकर पैदा होती है। लगता है जो विकृतियाँ समाज में इतने दिनों से घर बनाए हुए हैं, वे कैसे दूर होंगीं? नारी के अधिकारों को कौन स्वीकार करेगा? उसे समानता का स्तर देना किसे अच्छा लगेगा?

यह दोनों ही प्रकार की झिझक बिल्कुल भ्रान्तिपूर्ण है। हर नारी को और उसका हित चाहने वालों को इन्हें अपने मन से निकाल फेंकना चाहिए। नारी चेतना रूप है। तीव्र से तीव्र परिवर्तन भी उसके लिए स्वाभाविक हैं। उसके लिए यह रोजमर्रा का क्रम है। बेटी आज अपना घर छोड़ती है और कल बहू बनकर एकदम नए वातावरण में, पहले से बिल्कुल भिन्न जीवन क्रम अपना लेती है। दोनों जीवनों में जमीन-आसमान जैसा अन्तर होता है, पर वह उसे स्वाभाविक रूप से निभा लेती है। कर्तव्य की माँग के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता नारी को जन्म से ही प्राप्त है। नारी जागरण से सम्बन्धित कोई भी परिवर्तन उसके लिए कठिन या अस्वाभाविक नहीं है।

इसी प्रकार समाज में फैले हुए नारी के प्रति दृष्टिकोण और व्यवहार को देखकर भी शंका नहीं की जानी चाहिए। यह युग परिवर्तन का समय है, नए युग के चिह्न अब साफ दिखाई देने लगे हैं। पुराने समय की सड़ी-गली मान्यताएँ और अनैतिक परम्पराएँ अब टिक नहीं सकतीं, इसके प्रमाण सभी तरफ मिल रहे हैं। राजनैतिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, धार्मिक क्षेत्र सभी में पिछले ही दिनों ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिन्हें असाधारण ही कहा जा सकता है। जनता को अपना दास तथा धरती को अपनी जागीर समझने का राजाओं का पैदायसी हक समाप्त हो चुका है। राजा भगवान का रूप है और चाहे जैसी मनमानी कर सकता है, यह मान्यता अपनी जड़ छोड़ चुकी है। उसके स्थान पर जनतंत्र स्थापित हो गया है। सामाजिक क्षेत्र में जिसके पास अधिक धन संचित है वह भाग्यशाली होता है, यह मान्यता पहले कभी रही होगी? अब तो उसे अनैतिकता का चिह्न माना जाता है। समान वितरण की परिपाटी जोर पकड़ती चली जा रही है। उत्पादन के लिए समान श्रम और उपयोग के लिए बराबरी का हक सबको दिया जाने की स्थिति बनती जा रही है। धार्मिक जगत में वंश-वेष के नाम पर पूजा और श्रद्धा पाने वालों की उपेक्षा होने लगी है, उसके स्थान पर ज्ञान और कर्म की कसौटियों को मान्यता मिल रही है। भारत में जन्म के कारण ही अछूत कहे जाने वाली लगभग एक तिहाई आबादी ने यह अनीति मानने से इन्कार कर दिया है और हर समझदार का समर्थन तथा सहयोग भी उन्हें प्राप्त है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का गुलाम बनाकर, उससे पशुओं की तरह व्यवहार करना दुनियाँ के किसी भी भाग में अब सहन नहीं किया जाता। पीड़ित वर्ग तथा समाज का विचारशील वर्ग इस दिशा में एक जुट हो गया है। उसके संयुक्त धक्के से वह पाशविक प्रथा चरमराकर टूट चुकी है।

यह सब परिवर्तन इस बात के प्रमाण हैं कि जमाना तेजी से बदल रहा है, समय की गति को कोई रोक नहीं सकता। विश्व की आधी जनसंख्या महिला समाज की समस्या का समाधान भी समय की माँग है, उसे पूरा होना ही है। पुरुष समाज का झूठा अहंकार इसमें रुकावट नहीं डाल सकता। इसी प्रकार स्वयं नारी समाज भी आलस्य या आदत के कारण प्रगति की उपेक्षा नहीं कर सकता। जो भी समय के प्रवाह के साथ चलने में ढील दिखायेगा, उसे ही जोरदार झटका खाना पड़ेगा।

नवयुग के अनुरूप सबसे पहले नारी समाज को अपनी मान्यताओं में हेर-फेर करना पड़ेगा। हर एक नारी को यह अनुभव करना होगा कि उसका जन्म कुछ व्यक्तियों की उचित-अनुचित इच्छापूर्ति करते रहने और बदले में पेट भर लेने भर के लिए नहीं, बल्कि किसी विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है। नारी जीवन का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है—परिवार संस्था का ठीक से संचालन और उसे उन्नत स्तर का बनाना। व्यक्ति निर्माण के लिए धर्म, अध्यात्म और कला क्षेत्र के लोग प्रयास करते हैं। समाज निर्माण के लिए राज्य के अधिकारी, धनवान वर्ग, विद्वान और वैज्ञानिक अपने-अपने ढंग से काम करने में जुटे रहते हैं। व्यक्ति और समाज निर्माण दोनों के बीच की कड़ी है—परिवार। परिवार संस्था ही वह खदान है जिसके आदर्श होने पर एक से एक बड़े नर रत्न निकलते हैं। समाज और कुछ नहीं, वह परिवार की इकाइयों का सुगठित रूप ही है।

इन तथ्यों के साथ इस सचाई से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि परिवार के निर्माण और विकास में नर की अपेक्षा नारी की भूमिका हजारों गुनी अधिक प्रभावशाली होती है। यों नारी का प्रवेश और प्रभाव हर क्षेत्र में है, उसके कार्य क्षेत्र को किसी छोटी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता, तो भी इतना माने बिना काम नहीं चलता कि परिवार संस्था को ठीक प्रकार चलाना नारी के सहयोग बिना नर के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यहाँ नारी का तात्पर्य न तो पत्नी से हैं और न नर का मतलब पति से। परिवार में नारी की कितनी ही भूमिकाएँ हैं और वे सभी एक से एक बढ़कर हैं। दादी, ताई, चाची, माता, बुआ, बहिन, पुत्री, भाभी, ननद आदि कई रिश्तों में वह सारे परिवार को प्रभावित करती है। कुमारी, विधवा, परित्यक्ता होते हुए भी नारी किसी न किसी घर-परिवार में रहती ही है, और जहाँ भी उसका निवास होता है, वहाँ वह उस स्थान के वातावरण को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। पत्नी के रूप में भी वह पति के सहयोग से कुटुम्ब का निर्माण और विकास करती है। पर बिना पति के भी एक एकाकी भूमिका निभाती हुई अपने विकसित व्यक्तित्व का लाभ परिवार संस्था की उन्नति में भली प्रकार देती रह सकती है। दूसरी ओर नर के लिए अकेले में वैसा निर्वाह सम्भव नहीं होता। निस्संदेह नारी—परिवार संस्था की रचना, पोषण और सुधार में समर्थ है। उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सम्मिलित देवशक्ति कहा जा सकता है।

परिवार निर्माण के इतने बड़े उत्तरदायित्व को पूरा करने में समर्थ सिद्ध होने के लिए उसे अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का विकास करने के लिए पूरी-पूरी रुचि लेनी चाहिए। खान-पान, रहन-सहन सम्बन्धी नियमों का पालन करने में अधिक से अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। प्रकृति के कठोर नियम किसी के साथ भी दिलाई नहीं बरतते। जो भी उनकी उपेक्षा या अवज्ञा करता है, वही मार खाता है। अपने ऊपर भी कमजोरी और रोगों के तमाचे न पड़ें, इसलिए पहले से ही सतर्क रहना चाहिए। सभी जानते हैं कि जीभ का चटोरापन, वासनात्मक असंयम, अनियमितता तथा अस्त-व्यस्त दिनचर्या और दिमागी तनाव जैसे कारण ही स्वास्थ्य की बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। आलस्य, प्रमाद और अस्वच्छता से बचा जा सके तो सब कुछ उत्साहवर्द्धक बना रहेगा। स्वास्थ्य रक्षा के नियमों की जानकारी सभी को रहती है या थोड़ी सी पूछताछ करने से ही मिल सकती है। नारी वर्ग उसके बारे में उपेक्षा भर न बरते। यदि आहार-विहार, श्रम-विश्राम आदि में सतर्कता और सुव्यवस्था बरती जाय तो गरीबी में भी स्वास्थ्य ठीक रखा जा सकता है। आमतौर से पुरुषों द्वारा खाने-सोने में अनियमितता बरतने के कारण स्त्रियों का अधिकतर समय ऐसे ही बर्बाद चला जाता है। वे न तो ठीक से विश्राम कर पाती हैं और न शिक्षा, मनोरंजन आदि के लिए ही समय निकाल पाती हैं। प्रयत्न करना चाहिए कि परिवार के हर सदस्य की दिनचर्या नपी-तुली हो और किसी के कारण किसी को बेकार की परेशानी न सहनी पड़े। इतना बन पड़े तो स्त्रियों को अपना स्वास्थ्य-संरक्षण कर सकना भी सम्भव हो जायगा और मानसिक विकास के लिए काफी समय मिल सकना भी सम्भव हो जायेगा।

मानसिक विकास के लिए शिक्षा की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। महिलाओं को और उनके हितैषियों को चाहिए कि वे वस्त्र, आभूषण, सौंदर्य-शृंगार, सम्मान, विनोद आदि में सबसे अधिक महत्त्व शिक्षा को दें। विद्या से बढ़कर और कोई सम्पत्ति नहीं। अशिक्षितों की तुलना पशुओं और अन्धों से की जाती है। यह बहुत हद तक सही भी है। बिना पढ़े लोगों का ज्ञान घर-गृहस्थी और पास-पड़ोस से मिलने वाली जानकारियों तक ही सीमित रहता है। शिक्षित को साहित्य के सहारे दुनिया भर के विद्वानों द्वारा दिए गए अति महत्त्वपूर्ण ज्ञान का लाभ मिलता है। उस ज्ञान की सम्पत्ति के आधार पर मनुष्य कितना ऊँचा उठ सकता है, इसकी असीम सम्भावना को केवल शब्दों से नहीं समझाया जा सकता। अशिक्षित व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं पा सके हैं। इसलिए जिन्हें अपना भविष्य अच्छा बनाने की इच्छा हो, उन्हें सुशिक्षित बनने के लिए पूरा प्रयास करना ही चाहिए।

निरक्षर महिलाएँ साक्षर बनने का प्रयत्न करें और साक्षर अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ाने के लिए उपयोगी साहित्य का नियमपूर्वक अध्ययन करें। एकमात्र स्कूली परीक्षाएँ पास कर लेने से ही शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। व्यक्ति एवं समाज की जीवन से सम्बन्धित अनेकानेक समस्याओं का स्वरूप और सही समाधान जानना जरूरी है। इसके बिना अनुभवी युग-दृष्टाओं के विचारों को समझना आवश्यक है। बेतुके उपन्यास या ऐसे ही दूसरे बेहूदे साहित्य को पढ़ने से ज्ञान-सम्वर्द्धन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए ऐसी पुस्तकें चाहिए जो महिला जीवन से सम्बन्धित हर पक्ष की आदर्शवादी किन्तु व्यावहारिक शिक्षा दे सकने में समर्थ हों। जो ऊँची स्कूली शिक्षा पा चुके हैं वे भी जीवन के लिए उपयोगी ज्ञान की दृष्टि से प्रायः पिछड़े हुए ही रहते हैं। इस अभाव की पूर्ति के लिए मिल-जुलकर साधन जुटाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आवश्यक है कि हर जगह ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना हों जिनमें महिला-समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाला उपयोगी साहित्य पर्याप्त मात्रा में हो। जिससे उस क्षेत्र की शिक्षित महिलाओं की ज्ञान की भूख शान्त करने का साधन बनता रहे। इसके लिए आरम्भ में पैसा लगाना पड़ेगा, स्थान तथा आलमारियों की आवश्यकता पड़ेगी। पुस्तकें देने और वापस लेने का जिम्मेदार किसी को बनना पड़ेगा। हर महीना अच्छा साहित्य मँगाने के लिए कुछ बजट रखना पड़ेगा और उसकी पूर्ति के लिए मासिक सहयोग या दूसरी तरह से धन इकट्ठा करने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। अच्छा तो यह है कि घरों पर पुस्तकें पहुँचाने और वापस लाने के लिए भी व्यवस्था रहे। कोई अवैतनिक स्वयंसेविका या वैतनिक कर्मचारी इसके लिए नियुक्त रहे। उतना न हो तो भी साप्ताहिक सत्संग के दिन पुस्तकें लेने और वापस करने का सिलसिला चलता रह सकता है।

जो महिलाएँ पढ़ी नहीं हैं उनके घरवालों में से कोई भी शिक्षित व्यक्ति उपयोगी पुस्तकें पढ़कर सुनाने का कार्य अपने जिम्मे ले सकता है। मुहल्ले-मुहल्ले में सामूहिक रूप से भी यह पढ़ने और सुनाने का क्रम प्रेरक कथा प्रसंगों के रूप में चल सकता है। महिलाओं के पास दोपहर बाद समय खाली बच जाता है, उसे इस कार्य में लगाया जा सकता है। पास-पड़ोस की महिलाओं को इकट्ठा करके शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों को ही ज्ञान सम्वर्द्धन का लाभ दिया जा सकता है। अपनी सुविधा के समय पढ़ने का जिन्हें मौका मिल सके, वे वैसा करें लेकिन सबके साथ बैठकर सुनने-सुनाने का सामूहिक क्रम तो एक श्रेष्ठ परम्परा के रूप में हर जगह चलना ही चाहिए।

स्वास्थ्य और शिक्षा वृद्धि के दो प्रयासों के अतिरिक्त तीसरा प्रयास घर की सुव्यवस्था तथा परिवार को सुसंस्कृत बनाने का किया जाना चाहिए। आमतौर से घरों में सफाई और सुसज्जा की बड़ी कमी रहती है। अस्त-व्यस्तता की कुरूपता यह बताती रहती है कि यहाँ आलस्य और प्रमाद का राज्य है। यह दरिद्रता की निशानी है। हममें से प्रत्येक का घर देव-मन्दिर की तरह स्वच्छ और व्यवस्थित रहना चाहिए। गन्दगी कहीं भी दीख न पड़े। कचरा कूड़ेदान के अलावा और कहीं न रहने पाये। बुहारी, साबुन, पानी, सुई का प्रयोग बराबर होता रहे। पाखाने, पेशाबघर, स्नानघर, रसोईघर इतने साफ-सुधरे रहें कि वहाँ दुर्गंध का, मक्खी भिनकने का नाम भी न हो। जुएँ, खटमल, मक्खी, मच्छर, मकड़ी, छिपकली, चूहे, छछून्दर यदि घर में भरे रहते हैं, तो समझना चाहिए कि यहाँ गृहिणी का स्तर गया-गुजरा है।

यह संकेत बिल्कुल ही सामान्य है। प्रत्येक सुगृहिणी यह जानती है कि इस प्रकार की सुव्यवस्था रखने में बार-बार दौड़-धूप तो जरूर करनी पड़ती है, पर उससे घर के वातावरण में सुसंस्कारिता का समावेश होता है। अपना जी प्रसन्न होता है और आने-जाने वालों के मुँह से प्रशंसा ही निकलती है। अपना आलस्य और प्रमाद हटते ही ऐसी सुव्यवस्था बड़ी आसानी से बन जाती है और उससे प्रभावित घर का हर व्यक्ति उसे बनाए रखने में योगदान देना सीखता है। कहने-सुनने में यह एक बहुत ही छोटी सी बात है, पर यदि यह सतर्कता बरती जाने लगे तो परिवार का हर व्यक्ति व्यवस्था बुद्धि का अभ्यस्त बन जाता है। यह छोटी सी आदत समय-समय पर सामने आने वाले कार्यों को सही ढंग से निपटाने में सहायता करती है। फलतः मनुष्य सफलता प्राप्त करते हुए उन्नति के उच्च शिखर तक जा पहुँचता है।

परिवार के लोगों में स्नेह, सहयोग, सद्भाव बना रहे तो इससे स्वर्गीय वातावरण का सृजन होता है। सभी सदस्य एक दूसरे के सम्मान का, सुविधा का ध्यान रखें, सहयोग, आत्मीयता और उदारता भरी सद्भावना बरतें, स्नेह-दुलार में, श्रम, नम्रता में कमी न रखें, तो कोई कारण नहीं कि अभावग्रस्त स्थिति में भी स्वर्गीय सुख-शान्ति से भरा हर्षोल्लास वहाँ न छाया रहे। यह स्थिति अपने आप ही नहीं बन जाती, इसे बनाने के लिए परिवार के हर सदस्य में प्रेरणा भरनी पड़ती है। इसके लिए गृहिणी को अपनी वाणी में अमृत घोलना चाहिए। छोटों के प्रति असीम दुलार, स्नेह, ममता और बड़ों के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने वाला विनम्र वार्तालाप तथा व्यवहार किया जाय। जीभ में अमृत भी रहता है और जहर भी। कड़ुए असम्मानसूचक वचन बोलकर किसी को भी शत्रु बनाया जा सकता है, किन्तु यदि मिठास को स्वभाव का अंग बना लिया गया हो, तो उस मधुर व्यवहार से प्रभावित करके पराए को भी अपना बनाया जा सकेगा। मधुर व्यवहार का वशीकरण मंत्र जिसे भी आता है वह दूसरों का हृदय जीत लेता है और हर किसी के मन में अपने लिए जगह बना लेता है। पराए घर में ससुराल में पितृ गृह से एकाकी जाकर भी कोई नारी उस पूरे परिवार को अपनी मुट्ठी में कर सकती है। शर्त एक ही है कि उसे नम्रता, मधुरता, सेवा, उदारता जैसे दिव्य गुणों का अभ्यास हो।

गृहलक्ष्मी वे हैं जो अपने स्वभाव से मधुरता और सद्भाव से अशान्त लोगों को भी धैर्य बँधाती, दिशा देती और हँसने-मुस्कराने के लिए विवश कर देती है। इसका प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है। चन्दन का वृक्ष अपने साथ उगे दूसरे पौधों को भी सुगन्धित बना देता है। सुगृहिणी ओछे और असंस्कृत लोगों के बीच रहकर भी उन्हें अपने प्रभाव से प्रभावित करती है और स्नेह-सौजन्य के, सहयोग-सद्भाव के ऐसे बीज बोती है, जो आगे चलकर उस घर को हर क्षेत्र में प्रगतिशील बना देने वाले कल्पवृक्ष का रूप धारण करते हैं। ऐसे परिवार अपने सद्गुणों के कारण भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ते, ऊँचे उठते ही दिखाई पड़ते हैं।

नारी देवी है। उसे अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास करने में आत्म-निर्भर होकर बिना दूसरों के सहयोग की अपेक्षा किए स्वयं ही आगे बढ़ना चाहिए। इस तरह के प्रयासों के बाद में दूसरों की सहायता भी मिलेगी ही।

विशिष्ट समस्या का विशिष्ट समाधान

विश्व के समस्त लोकतांत्रिक देशों की तरह भारतवर्ष में भी सभी नागरिकों को सामाजिक सुव्यवस्था, आर्थिक प्रगति, राजनैतिक स्वतंत्रता, विचार अभिव्यक्ति, न्याय, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा समता के अधिकार प्रदान किए गए हैं। नागरिकों में अकेले पुरुष ही नहीं आते स्त्रियाँ भी आती हैं, इसलिए आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से स्त्रियों के लिए कुछ असामान्य बातों के अतिरिक्त कोई अलग से नियम-कानून बनाने की अन्य देशों को आवश्यकता नहीं पड़ी।

किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओं के सम्मुख प्रारम्भ से ही हरिजन कल्याण की तरह ही महिलाओं के उत्थान की भी समस्या थी। विचारक यह अनुभव करते थे कि पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में अभी कड़ी भेद रेखा, सामाजिक असमानता की दीवार खड़ी हुई है। स्त्री, पुरुष की अपेक्षा कोसों पिछड़ी चल रही है। जब तक इस असमानता को अतिरिक्त अधिकार और सुविधाएँ प्रदान कर पाटा नहीं जाता, स्त्री को पुरुषों के समकक्ष नहीं लाया जाता, तब तक उनके लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों का कोई उपयोग ही नहीं रहेगा। जब तक वे निम्नतर परिस्थितियों से उबरती नहीं, तब तक अपनी सामाजिक उन्नति भी सम्भव नहीं। इसलिए उनके लिए अलग से विकास की सुविधाएँ प्रदान की गई तथा कानूनी व्यवस्था रखी गई। २२ सितम्बर १९४१ को उनकी शिक्षा और सामाजिक दशा सुधारने के लिए एक समिति का गठन भी किया गया और उसे यह अधिकार दिए गए कि वह महिलाओं की वर्तमान स्थिति की सर्वांगीण समीक्षा करे तथा उसे अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करने की परिस्थितियों का अध्ययन कर सुझाव दे कि उन्हें किस तरह शिक्षित व स्वावलम्बी बनाया जा सकता है। इस समिति को नारी की स्वास्थ्य समस्याओं, सामाजिक कुरीतियों जैसे दहेज, बालविवाह आदि की भी विशद् व्याख्या करने को भी कहा गया। उक्त समिति ने उनकी पारिवारिक स्थिति, शिक्षा, स्वावलम्बन, पर्दा, प्रथाओं, परम्पराओं, विवाह के नियमों, राजनीति में योगदान की परिस्थितियों का अध्ययन विस्तार से किया और कुछ मार्ग निर्देशक सिद्धान्त भी तय किए। व्यापक जन सम्पर्क द्वारा उनकी समस्याएँ परखी गईं, विचार गोष्ठियों द्वारा महिला मंगल के लिए उपयोगी विचारों का आदान-प्रदान सम्भव हुआ। विद्वानों तथा विशेषज्ञों से परामर्श संग्रहीत किए गए। भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, आर्थिक विकास संस्थान, प्रौद्योनिकी संस्थान, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान आदि की सहायताएँ ली गई जिसके फलस्वरूप नारी जीवन की समस्याओं, आवश्यकताओं आदि का स्पष्ट चित्र बनाना सम्भव हो सका।

किन्तु इन समस्याओं के समाधान का अध्ययन अत्यन्त जटिल रूप में सामने आया। समिति ने स्वीकार किया कि सामाजिक व्यवहार तथा प्रवृत्तियों का अध्ययन कर लेना एक बात है; पर जिन तत्त्वों, आदर्शों, सिद्धान्तों, मर्यादाओं पर भारतीय समाज की रचना हुई है, वह इतने यथार्थ हैं कि छोड़े भी नहीं जा सकते, पर उनका स्वरूप इतना विकृत होकर सामाजिक संस्कार के रूप में इतना व्यापक हो गया है कि उनमें सुधार लाये बिना काम भी नहीं चल सकता। यह कार्य सरकार चलाए तो समाज का प्रतिगामी पक्ष चलने नहीं देगा। प्रतिक्रियावादी पक्ष चलाये तो प्रगतिशीलता आ नहीं पायेगी। इस तरह दोनों ही तरह के प्रयास कठिन हो जायेंगे और उनका कोई ठोस परिणाम न मिल सकेगा।

फिर प्रश्न केवल अपने समाज का ही नहीं है। लगभग विश्व के सभी समाज अपनी-अपनी तरह से इस समस्या से पीड़ित और परेशान है। अतएव समस्त नारी जीवन के लिए एक समान आचार संहिता की आवश्यकता पड़ती है; जिनमें उसकी नैसर्गिक प्रकृति उसकी सम्वेदनशीलता, उसका मनोविज्ञान, उसकी रचना के अनुरूप संरक्षण, प्रतिष्ठा और दायित्व यह सभी विचारणीय तत्त्व आ जाते हैं। इसके लिए गहन चिन्तन की आवश्यकता तो है ही, अनवरत संघर्ष की न बुझने वाली जीवन-ज्योति की आवश्यकता अनुभव की गई और माना गया कि उसके अतिरिक्त समस्या का अन्यत्र समाधान सम्भव नहीं।

महामना बापू की भी मान्यता थी कि नारी जीवन की समस्याओं का हल एकमात्र धार्मिक समस्याओं के हल से ही सम्भव है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक शासकीय और सामाजिक प्रयत्नों की दाल गल पाएगी, यह सन्देहास्पद ही रहेगी। आज की परिस्थितियाँ स्वयं स्पष्ट कर रही हैं, नारी को उन्मुक्त वातावरण में शैक्षणिक सांस्कृतिक-आर्थिक प्रगति के लिए जितना अग्रसर किया जाता है, उतनी ही नित्य नई समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। नारी की अपनी विशिष्ट भावनापरक रचना है। उसे न समझने की जहाँ भी भूल की जायेगी, सतही प्रयत्न, समस्याओं को और भी जटिल बनाएँगे। आज के अविवाहित मातृत्व, पुरुषों से संघर्ष, अपहरण और बलात्कार, विवाहों में माता-पिता की परेशानियाँ तथा तलाक के बढ़ते आँकड़े उसी की ओर संकेत करते और यह बताते हैं कि रोग की जड़ें तह में है, सतह में नहीं। जब तक उतने गहरे पैठ कर प्राचीन मान्यताओं के अध्ययन उनके नवीनीकरण नारी मनोविज्ञान के विश्लेषण और सामंजस्य को भी इन कार्यक्रमों में जोड़ा नहीं जाता तब तक कोई भी प्रयास शायद ही सफल हो, शायद ही नारी जीवन को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में प्रगतिशील बना सकें। प्रयत्नों की असफलता कहें या अपेक्षित प्रगति का न होना, बात एक ही है। जब तक इस देश के संस्कारगत स्वरूप और नारी की भूमिका को ध्यान में नहीं रखा जाता, तब तक भारतीय नारी सच्चे अर्थों में विकास कर सकेगी, यह सोचना भी कठिन ही रहेगा।

युगान्तर चेतना के महिला जागरण अभियान को विद्वान, प्रेक्षकों और विचारकों ने स्पष्टतः परिस्थिति और युग के सटीक-अनुरूप माना है। महिला जागरण अभियान ने अपनी ढाई वर्ष की नवजात अवस्था में ही उल्लेखनीय प्रगति की, सामाजिक अन्धविश्वास, जरा-जीर्ण परम्पराओं को झकझोरा तथा महिला जागरण का सन्देश लाखों लोगों तक पहुँचा दिया। यह मिशन के सही दृष्टिकोण का परिचायक है। हजारों-लाखों महिलाओं ने आध्यात्मिक, धार्मिक, बौद्धिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में मार्गदर्शन और प्रकाश ग्रहण किया, अपने जीवन बदले हैं, इससे हमारे चिन्तन और विनियोजन की सार्थकता सिद्ध हो गई है।

किन्तु यह किसी एक व्यक्ति का नहीं, जन आन्दोलन है। अपना देश विशाल देश है। समाज की प्रत्येक शिरा में मैला रक्त बह रहा है, बुराइयों की जड़ें इंच-इंच में जमी पड़ी हैं। उन्हें उखाड़ने के लिए हजारों, लाखों हाथों का प्रयत्न, विभूतियों का योगदान तथा प्रतिभाओं का समय चाहिए जो इस अभियान के प्रति उतनी श्रद्धा भावना से काम करें मानो वह अपनी जन्मदात्री जननी को ही बन्धनों से मुक्त करने के समान हो।

काम निःसंदेह कठिन है। उन्हें आध्यात्मिक, धार्मिक वातावरण प्रदान करने में प्रतिक्रियावादियों का विद्रोह, उन्हें पारिवारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाने में दकियानूसों की आलोचनाएँ अपने ही लोगों का विरोध, उसकी अपनी व्यक्तिगत आत्महीनताएँ, इन सबके परिमार्जन के लिए गम्भीर प्रयत्न आवश्यक है। सो उसके लिए हर भावनाशील परिजन को सजग और सक्रिय होना चाहिए। यह वर्तमान का नहीं, पीढ़ियों का प्रश्न है। समस्याएँ सतह से तह में उतर गई हैं। उतनी ही गहरी पैठ करनी पड़ेगी, उससे कम में इस गम्भीर चुनौती का समाधान सम्भव नहीं होगा।