वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता

परमपूज्य गुरुदेव अपने महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में सभी श्रोताओं और साधकों को यह स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में दो तरह की माताओं का आगमन होता है। एक माँ तो वो होती है, जो हमारे शरीर के पोषण की व्यवस्था बनाती है। हमें शारीरिक सुरक्षा, भावनात्मक विकास, आत्मीयता, अपनत्व एवं सामाजिक संरक्षण इसी माँ के माध्यम से प्राप्त होता है। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि इसके अतिरिक्त हमारी एक माँ वो भी है, जो हमें आत्मिक दृष्टि से पोषण प्रदान करती है। वर्षों पहले उसी के माध्यम से प्राप्त ज्ञान, शिक्षाओं एवं सद्गुणों के सूत्रों ने भारत को जगद्गुरु के पद पर आसीन किया था। उन्हीं ने भारत में वैश्विक परिवार एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव विकसित किया था। उनका नाम गायत्री माता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

मातृ देवो भव

देवियो, भाइयो! माता को संसार का प्रत्यक्ष देवता माना गया है और उसको पहला नंबर दिया गया है। कहा गया है—"मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।" देवताओं में सबसे पहला देवता माता को माना गया है। क्यों? क्योंकि माता के असीम उपकार हैं। माता जितना उपकार कर सकती है, सारी दुनिया के सारे संबंधी मिलाकर उतना उपकार नहीं कर पाते हैं। माता बच्चे को नौ महीने अपने पेट में रखती है। कौन रखेगा पेट में? छाती का लाल रंग का खून दूध में बदलकर के पिलाती है। कौन पिला देगा अपना खून?

माता चौबीस घंटे की नौकरानी है, जो बच्चे की टट्टी धोने से लेकर सफाई करने तक और पेशाब धोने से लेकर छाती से लगाने एवं सोने तक चौबीसों घंटे नौकरी करती है। कौन करेगा ऐसी नौकरी? इतना दुलार और इतना प्यार कर सकती है हमारी माँ। इसीलिए माता को देवता बताया गया है। माता को इस संसार का सबसे पहला देवता बताया गया है।

मित्रो! हम भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान से रिश्ता बनाते हैं तो पहला रिश्ता माता का बताते हैं । दूसरा पिता का बताते हैं। क्यों बताते हैं? माता का उपकार, माता की सेवाएँ और कोई नहीं कर सकता। छोटी-सी पानी की बूँद को एक हट्टा-कट्टा मनुष्य बना देने की, विचारों की दृष्टि से, भावनाओं की दृष्टि से समर्थ बना देने की जो क्षमता माता में है, वह और किसी में है ही नहीं। इसके लिए माता का गुण गाते हैं, माता का उपकार मानते हैं। माता को हम प्रणाम करते हैं। भौतिक जीवन में माता को महत्त्व देते हैं। माता की बात हम बहुत कुछ समझते हैं और माता की महिमा गाते-गाते थकते भी नहीं हैं। हम चाहे उपकार मानें या न मानें, किंतु इससे उसके उपकार में कोई अंतर नहीं आता।

आत्मा का परिपोषण करती है गायत्री माता

मित्रो! हमारी एक और माता है, जिसके बारे में आपकी जानकारी कम है, लेकिन वह माता हमारे शरीर को जन्म देने वाली माता से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। हमारा शरीर कीमती है, लेकिन एक और भी चीज कीमती है। उसका नाम है—आत्मा।

आत्मा और भी ज्यादा कीमती है और हमारी आत्मा का परिपोषण करने वाली, आत्मा को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने वाली, आत्मा को समुन्नत बनाने वाली एक और शक्ति है, जिसके बारे में हम और आप कम जानते हैं, लेकिन इतना होते हुए भी इसकी गरिमा और महिमा में कोई कमी नहीं आती। वह कौन है ?

वह एक माता है, जिसको ऋषियों की भाषा में गायत्री माता कहा गया है। दार्शनिकों की भाषा में ऋतंभरा प्रज्ञा कहा गया है। समाजशास्त्रियों, नीतिशास्त्रियों की दृष्टि में इसको दूरदर्शिता कहा गया है, आदर्शवादिता कहा गया है, उत्कृष्टता कहा गया है, शालीनता कहा गया है। उसके बहुत सारे नाम हैं, जिसको मैं गायत्री माता कहता हूँ।

मित्रो! वह एक ऐसी माता है, जो हमारी आत्मा को दूध पिलाती है। आत्मा को दूध पिलाने से दुनिया में न जाने क्या-से-क्या हो जाता है और क्या-से-क्या हो सकता है। शरीर को दूध पिलाने से, घी खिलाने से, प्रोटीन खिलाने से आदमी पहलवान हो जाते हैं, बलवान हो जाते हैं और न जाने क्या-से-क्या हो जाते हैं, लेकिन आत्मा को यदि किसी के लिए दूध मिलना संभव बन सके तो आत्मा बहुत पहलवान हो जाती है। ऐसी पहलवान, ऐसी मजबूत, ऐसी सुसंस्कृत, ऐसी समुन्नत हो जाती है कि आदमी फिर आदमी नहीं रह जाता-आदमी फिर देवता बन जाता है।

इनसान कैसे बनता है देवता?

देवता? हाँ बेटे, देवता बन जाता है। आदमी का वजन, आदमी की तौल, आदमी का मूल्य बढ़ जाता है। लोग आदमी की बाहर की चीजों को मूल्यांकन, नाप-तौल तो करते हैं, पर यह नाप-तौल करना गलत है। आदमी की सेहत की दृष्टि से लोग समझते हैं कि यह चंदगीराम पहलवान है और बड़ा मजबूत है। किसी की संपत्ति के साथ लोग अंदाज लगाते हैं कि ये बड़े आदमी हैं, संपन्न आदमी हैं। किसी की अक्ल के हिसाब से अंदाज लगाते हैं कि इनकी अक्ल बड़ी पैनी है और ये इंजीनियर हैं, ये वैज्ञानिक हैं, अमुक हैं, तमुक हैं। लोग इन पहलुओं को देख करके आदमी के वजन का और मूल्य का अनुमान लगाते रहते हैं, पर यह मूल्यांकन गलत है।

मित्रो! असल में आदमी का मूल्य और आदमी का वजन उसके भीतर रहता है। बाहर की चीजों से कोई ताल्लुक नहीं रखता है। जिनको हम जानते हैं और जिनको हम नहीं जानते हैं, असल में आदमी का वजन वह है। आदमी की तौल वह है। गाँधी जी 100 पौंड के थे और लंबाई में 5 फुट 2 इंच के थे, लेकिन उनका भीतर वाला हिस्सा, जिसको अंतरात्मा कहते हैं, इतना भारी, इतना वजनदार, इतना मूल्यवान था कि हम क्या कह सकते हैं। एक दिन हंटर लेकर ब्रिटेन के शेर को चैलेंज देते हुए—'क्विट इंडिया' हिंदुस्तान छोड़िए, का उद्घोष करते हुए सीना तानकर खड़े हो गए। जिस तरीके से सरकस का रिंगमास्टर हंटर ले करके खड़ा हो जाता है और शेर से लेकर हाथी तक काँपने लगते हैं और उसके इशारे पर चलते रहते हैं। ब्रिटेन का शेर बिस्तर बाँधकर चला गया। यह कौन-सी ताकत थी? यह वह ताकत थी, जिसका मैं अभी आपसे जिक्र कर रहा हूँ। वह है—आदमी के भीतर वाला हिस्सा। आप चाहें तो उसको अंत:करण कह सकते हैं, अंतरात्मा कह सकते हैं। जो भी चाहे कह सकते हैं।

अंतःकरण की ताकत

मित्रो! आदमी के भीतर वाली एक सत्ता है, जिसके बारे में आदमी कम जानते हैं। कम जानते हुए भी उसका वजन और उसकी बकत का मूल्य अपने आप में महान था और महान ही बना रहेगा। भीतर वाला हिस्सा क्या है? बाहर वाली जिंदगी क्या है ? एक पेड़ है, दरख्त है। उसके ऊपर फल आते हैं, पत्ते आते हैं, फूल आते हैं, कलियाँ आती हैं, लेकिन असल में जो पेड़ का बाहरी कलेवर दिखाई पड़ता है, वह उसकी जड़ों से प्राप्त होता है।

जड़ें जितनी गहरी हैं, जड़ें जितनी मजबूत हैं, जड़ें जितनी लंबी हैं, उसी हिसाब से दरख्त लंबा होता चला जाएगा। बरगद का पेड़ बहुत बड़ा मालूम पड़ता है, लेकिन आप जड़ों की जमीन में खुदाई करें, तो मालूम पड़ेगा कि जितना बड़ा पेड़ ऊपर था, उतना ही बड़ा नीचे भी है। आदमी भीतर से बढ़ता है। आदमी भीतर से समुन्नत होता है।

मित्रो ! नेपोलियन से लेकर के जॉर्ज वाशिंगटन तक, हिंदुस्तान में भगवान बुद्ध से लेकर के स्वामी विवेकानन्द तक हर आदमी के भीतर वाला हिस्सा मजबूत था। भीतर वाला हिस्सा ताकतवर था। भीतर वाला हिस्सा बढ़ा-चढ़ा था। यही कारण था कि वे अपने बहिरंग जीवन में भी फलते-फूलते चले गए, सफल होते चले गए, समुन्नत होते चले गए। जिनका भीतर वाला हिस्सा कमजोर होता है, वे हवा के एक झोंके से गिर पड़ते हैं और तहस-नहस हो जाते हैं। जिनके पास सेहत है, मान लीजिए किसी भी वजह से भगवान न करे बीमार हो जाएँ, लकवा हो जाए, तो आप देखते हैं न कि क्या हालत हो जाती है। जो घरवाले कल तक उसकी प्रशंसा करते थे, दोस्त प्रशंसा करते थे, आज कहते हैं कि यह आदमी मर जाए तो अच्छा है। आदमी की अक्ल बहुत अच्छी है, लेकिन अगर कोई एक बोल्ट ढीला पड़ जाए, तो आदमी पागल कह दिया जाता है।

मित्रो! व्यापार आपके पास है, पैसा आपके पास है, लेकिन एक मुकदमा लग जाए, झगड़ा लग जाए, कोई और मुसीबत आ जाए तो सारा पैसा गायब हो जाता है। आपने जागीरदारों को, राजाओं को देखा नहीं। राजा आपको दिखाई नहीं पड़ते, जागीरदार आपको दिखाई नहीं पड़ते, सेठ आपको दिखाई नहीं पड़ते। पता नहीं हवा के एक झोंके से कहाँ चले गए।

ये सब बाहर के लिफाफे हैं। ये सब कमजोर हैं। भीतर वाला हिस्सा मजबूत है। उसी से आदमी की बकत बढ़ती है, इज्जत बढ़ती है, मूल्य बढ़ता है। उसी से आदमी की सामर्थ्य आँकी जाती है। उसी से आदमी की शक्ति का मूल्यांकन होता है। यह भीतर वाला हिस्सा है। मैं आपको भीतर वाले हिस्से की बाबत इसलिए कह रहा था कि उसको दूध पिलाने वाली शक्ति, उसको मजबूत बनाने वाली शक्ति, उसको परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाने वाली एक शक्ति है, जिसको हमारे बुजुर्ग जानते थे और हम भूल गए।

मित्रो! हमारे पूर्वज क्या जानते थे? वे जानते थे कि एक हमारी माँ है, जिसको हम देवमाता कहते हैं, वेदमाता कहते हैं, विश्वमाता कहते हैं। तीन माताएँ कहते हैं, जिनका दूध पीकर के किसी जमाने में हर इनसान देवता था। हिंदुस्तान में तैंतीस करोड़ के करीब नागरिक रहते थे। हिंदुस्तान उन दिनों बहुत बड़ा था। इंडोनेशिया से शुरू होता था और अरब देशों और अफगानिस्तान तक चला जाता था। राजा हर्षवर्धन अफगानिस्तान के थे और अरब देशों तक उनका राज्य था और कहाँ-कहाँ था? इंडोनेशिया तक आप चले जाइए। बर्मा से लेकर के जावा तक चले जाइए।

पुरानी स्थिति देखते चले जाइए। पुरानी इमारतें देखते चले जाइए। आपको ऐसा मालूम पड़ेगा कि हिंदुस्तान में घूम रहे हैं। आपको पुरानी हर चीज यह बताएगी कि यह हिंदुस्तान है। तब हिंदुस्तान बहुत बड़ा था। किसी जमाने में विशाल भारत देवभूमि और विशाल भारत के नागरिक देवता कहलाते थे। सारी दुनिया तो बड़ी लंबी-चौड़ी है, भारत तक सीमित नहीं है, लेकिन वहाँ के आदमी यहाँ के मनुष्यों को देवमानव कहते थे। देवमानव क्यों कहते थे? वे किसके बने हुए था? वे हाड़-माँस के बने हुए थे। वे क्या खाते थे? यही दाल-रोटी खाते थे। कपड़ा क्या पहनते थे? यही सूत के, ऊन के कपड़े पहनते थे। फिर देवमानव कैसे हुए?

मित्रो! देवमानव इसीलिए हुए कि उनका भीतर वाला हिस्सा, जिसको हम अंत:करण कहते हैं, बहुत मजबूत और बलवान था। यह कैसे हो गया? इसलिए हो गया कि उन्होंने माँ का दूध पिया था। जिनको माँ का दूध नहीं मिलता है, वे कमजोर होते हैं। आपको मालूम नहीं है कि यूरोप और अमेरिका में बहुत-सी महिलाएँ ऐसी हैं, जो अपने बच्चों को पालना नहीं चाहतीं और अनाथालय के सुपुर्द कर देती हैं।

अनाथालय में वहाँ की सोशल वेलफेयर स्टेट है, जो प्रत्येक बच्चे की जिम्मेदारी उठाती है। प्रत्येक बच्चे को खाना भी मिलता है। कपड़ा भी मिलता है। पढ़ाई भी मिलती है। हर चीज का इंतजाम मिलता है, पर एक चीज नहीं मिलती। क्या चीज नहीं मिलती? माँ का दुलार और माँ का दूध नहीं मिलता। आदमी के जो रसायन बच्चे के शरीर में हैं, वही माँ के शरीर में हैं। उससे बेहतर दूध और किसी का नहीं हो सकता। उससे बढ़िया दुलार दुनिया में कोई नहीं कर सकता। इतना गहरा दुलार न कोई नर्स कर सकती है, न दाई कर सकती है, न बीबी कर सकती है। इतना गहरा दुलार और इतना उपयोगी दुलार जितना कि माँ करती है, कोई इतना दुलार नहीं कर सकता।

क्या विशेषताएँ होती हैं देवताओं में

मित्रो! प्राचीनकाल के हमारे पूर्वपुरुष माता का दूध पीते थे और दूध पीकर के उनका न केवल शरीर, बल्कि अंतःकरण भी इतना बलवान होता था कि वे देवमानव कहलाते थे। किसलिए देवमानव कहलाते थे? देवमानव इसलिए कहलाते थे कि उनकी विशेषताएँ देवताओं जैसी थीं। क्या विशेषताएँ होती हैं देवताओं में? देवताओं में एक विशेषता यह होती है कि वे बुड्ढे नहीं होते, जवान रहते हैं।

इसका नाम है—अजर-अमर होना, सुना है आपने? अजर माने जिनको बुढ़ापा न आता हो। देवता बुड्ढे नहीं होते थे। मरते थे? हाँ मरते तो थे, पर बुड्ढे नहीं होते थे; क्योंकि वे जिस माँ का दूध पीते थे, वह हमारी माँ ऐसी थी कि जिसका दूध पीकर के कोई बुड्ढा नहीं होता था। आज भी कोई बात, लड़ाई-झगड़ा हो जाता है और चैलेंज करते हैं तो कहते हैं कि यदि माँ का दूध पिया हो, तो यह काम करके दिखा दे। माँ के दूध में विशेषता है। वह अमृत है और उस अमृत को हमारे पूर्वपुरुषों ने पिया था और पीने के बाद में देवमानव हो गए थे। जवानी उनके मरते दम तक बनी रहती थी। नहीं साहब! गलत बात है। जवानी मरते दम तक नहीं बनी रह सकती। आप शक न करें।

मित्रो! मरना हर आदमी के लिए आवश्यक है। मरेगा तो हर आदमी; क्योंकि नेचर अपना काम करेगी, लेकिन बुढ़ापा आदमी का बुलाया हुआ है। शरीर के बाल सफेद हो जाने से कोई बुड्ढा नहीं होता। बुड्ढा उसे कहते हैं जिसने अपना साहस गँवा दिया, जिसने अपनी हिम्मत गँवा दी; जिसने अपने भविष्य की आशा और उमंगें गँवा दी, वे सब आदमी बुड्ढे हैं। हमारे पुराने बुजुर्ग बुड्ढे नहीं होते थे।

बुड्ढे न केवल उन्हें कहते हैं जो निराश हैं, बल्कि बुड्ढे उन्हें कहते हैं, जो हँस नहीं सकते और हँसा नहीं सकते। जो मनहूस के तरीके से हर समय चिंता में डूबे रहते हैं। जिनके मस्तिष्क में हर समय टेंशन, खीझ और नाखुशी छाई रहती है। मनहूस के तरीके से चेहरा फुलाए रहते हैं, उनको हम क्या कह सकते हैं। देवमाता थी हमारी, जो आदमी को हँसना सिखाती थी और हँसाना सिखाती थी। ऐसे थे हमारे बुजुर्ग।

देना जानते हैं देवता

मित्रो! देवताओं के अंदर एक और विशेषता होती है। क्या विशेषता होती है ? देवता देना जानते हैं। और जो देवता नहीं हैं, वे हर जगह से सिर्फ एक ही फिराक में रहते हैं कि हम कहाँ से लें। किसके यहाँ हमको जाना चाहिए। माँ से हमको क्या लेना चाहिए। बाप की जागीर में से हमको कितना हिस्सा मिलना चाहिए। सास से हमको क्या मिलना चाहिए। ससुर से हमको क्या मिलना चाहिए। औरत से हमको क्या मिलना चाहिए। दोस्तों से हमको क्या मिलना चाहिए।

हर आदमी से मिलने-ही-मिलने की ख्वाहिशें करते रहते हैं। देने की नहीं सोचते, मैं क्या कहूँ। बात आप पर लागू हो जाएगी, तो आप नाराज भी हो सकते हैं। इसलिए मैं बात ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहता। मैं यह कहना चाहता हूँ कि देवता उन्हें कहते हैं, जो देना जानते हैं। जिन्होंने देना सीखा है। पैसा जिसके पास न हो तो क्या देगा? अरे बाबा! क्या आपसे मैं पैसे की बात कह रहा हूँ? मैं तो श्रम की बात कह रहा हूँ। समय की बात कह रहा हूँ। मुहब्बत की बात कह रहा हूँ। प्रोत्साहन की बात कह रहा हूँ और न जाने क्या-क्या बात कह रहा हूँ ।

मित्रो! अगर आपके पास पैसा नहीं है, तो आपको शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है, निराश होने की कोई जरूरत नहीं है। गाँधी जी के पास कोई पैसा नहीं था। बुद्ध के पास कोई पैसा नहीं था। ऋषियों के पास कोई पैसा नहीं था, लेकिन पैसा न होते हुए भी उन्होंने समस्त विश्व के लिए इतना ज्यादा जो अनुदान दिए हैं, जिसका एहसान हम कभी भी भूल नहीं सकते हैं। आप भी ऐसा कर सकते हैं। हमारी वह माँ देवमाता थी, जिसको मैं गायत्री माता कहता हूँ। जिसके लिए आपने शक्तिपीठ बनाई हैं, जिसका मैं उद्घाटन करने के लिए आया हूँ। जिस माता के चरणों पर मैंने अपनी लंबी जिंदगी को समर्पित कर दिया और आप लोगों से यह प्रार्थना करने आया हूँ कि आप लोगों के लिए भी यदि संभव हो सके तो उसका दूध पीने की कोशिश करें, ताकि आप देवमानव बन सकें।

देवमाता, वेदमाता, विश्वमाता

मित्रो! गायत्री को देवमाता कहते हैं, वेदमाता कहते हैं और विश्वमाता कहते हैं। विश्वमाता की बाबत पीछे बताऊँगा कि इस दुनिया को किस तरीके से विश्व परिवार के रूप में परिणति करने वाली फिलॉसफी है यह, जिसमें हर आदमी को मालूम पड़ता है कि हम एक बड़े विशाल संसार के मेंबर हैं और हम एक बड़ी फेमिली के एक रिश्तेदार हैं।

आज हर आदमी अपने आप में अलग बैठा हुआ है। अलग-थलग हो गया है। आज हर आदमी इक्कड़ है। आप कभी जंगल में गए नहीं हैं। वहाँ जानवर इक्कड़ होते हैं। इक्कड़ कैसे होते हैं ? जो झुंड से अलग हो जाते हैं। मसलन कई बार सूअर इक्कड़ पाए जाते हैं और अलग ही रहते हैं। वे झुंड में नहीं रहते। हाथी भी कई बार इक्कड़ पाए जाते हैं। वे झुंड में नहीं रहते, अकेले ही रहते हैं। कई बार हिरन भी इक्कड़ पाए जाते हैं, झुंड में नहीं रहते, अकेले रहते हैं।

जो अकेले रहते हैं, वे बड़े खौफनाक होते हैं। शिकारी उनको देखकर ही चौकन्ने हो जाते हैं। इक्कड़ हिरन को देखकर काँप जाते हैं। वे अपनी गोली को ठीक करते हैं और कहते हैं कि इक्कड़ हिरन से अब हमको मुकाबला करना पड़ेगा। जो सूअर इक्कड़ होते हैं, बाकी जानवर घास खाते हैं और छाया में बैठे रहते हैं, पर इक्कड़ सूअर आता है और अपने पैने वाले दाँत उनके पेट में घुसेड़ देता है और मारकर पटक देता है। इक्कड़ बहुत खतरनाक होता है।

मित्रो! इक्कड़ किसे कहते हैं? इक्कड़ उसको कहते हैं, जिसको स्वयं की अपनी खुदगर्जी, मैं; मुझे पैसे वाला बनना चाहिए; मुझे मालदार बनना चाहिए; मेरे बेटे को बादशाह होना चाहिए; मुझे इज्जत मिलनी चाहिए और समाज को? समाज को जहन्नुम में जाना चाहिए। पड़ोसी को? पड़ोसी को जहन्नुम में जाना चाहिए। यह कौन आदमी है? यह इक्कड़ आदमी है। इक्कड़ आदमी समाज के लिए बड़े नुकसानदायक होते हैं। इक्कड़ बड़े खौफनाक होते हैं । इक्कड़ बड़े खतरनाक होते हैं। वे अपने लिए भी होते हैं और सारे समाज के लिए होते हैं।

हमारी गायत्री माता कभी विश्वमाता थी। ऐसी शानदार विश्वमाता थी, जो हमको विश्व परिवार की भावना, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना सिखाती थी। जिसका परिणाम आपने देखा। हिंदुस्तान में जिन लोगों के पास भी विद्या थी, वे अपनी विद्या को लेकर न जाने कहाँ-से-कहाँ चले गए। चार सौ मील लंबे रेगिस्तान को पार करके चाइना चले गए; मंचूरिया चले गए; मंगोलिया चले गए। उन स्थानों पर चले गए, जहाँ कि आज भी जाना मुश्किल पड़ता है। हिंदुस्तान की सीमा को पार करके टूटी-फूटी नावों में सवारी करके अमेरिका जा पहुँचे ।

अमेरिका में आप कैलीफोर्निया का इलाका देखिए। बहुत सारे इलाके देखिए। वहाँ भारतीय सभ्यता और संस्कृति, जिसके बारे में अब पता लगा है। पहले कहते थे कि कोलंबस ने तलाश किया, जहाँ रेड इंडियन्स रहते थे। अब मालूम पड़ा कि वहाँ मय सभ्यता थी। मय नाम का एक दानव था, वह वहाँ चला गया और बस गया। आप सूर्य के मंदिर देख लीजिए। हिंदुस्तानी कलेंडरों के जैसे बेहतरीन नुस्खे वहाँ पाए गए हैं। हिंदुस्तान में भी वही पाए गए। लोग न जाने कहाँ-से-कहाँ चले जाते थे।

मित्रो! वे कौन थे? वे लोग 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को लेकर के गए कि हमारे पास जो भगवान ने दिया है, उसे हम बाँटें। जहाँ कहीं भी गरीब रहते हैं, पिछड़े रहते हैं, हारे हुए रहते हैं, थके हुए रहते हैं, उनको हमको बाँटना चाहिए। ऐसी थी हमारी गायत्री माता, जो विश्वमाता कहलाती थी और विश्वमाता हर नागरिक को यह कहती थी कि हम एक ही माँ के बच्चे हैं। हम सहोदर हैं।

आप बड़े हैं, तो अकेले खाने का हक नहीं है। आप कमा तो सकते हैं, पर छोटे भाई-बहनों का क्यों ख्याल नहीं करते। छोटे भाई-बहनों को पढ़ाएँगे नहीं? बहन का ब्याह नहीं करेंगे? आप बड़े हैं तो इसका मतलब यह हो गया कि आपको औरों का भी ध्यान रखना चाहिए। विश्वमाता अपने बड़े बेटों से कहती थी कि जो भी अक्लमंद हैं, जो भी समझदार हैं, जो भी बुद्धिमान हैं, वे अपने से गए-गुजरे लोगों को, पिछड़े लोगों को, हारे हुए लोगों को, थके हुए लोगों को, हैरान हुए लोगों को उठाने में मदद करें। यह थी विश्वमाता, जो हमारी फिलॉसफी हमको सिखाती थी। वह देवमाता थी, वेदमाता थी।

[क्रमशः अगले अंक में समापन]

वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता (उत्तरार्द्ध)

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस विशिष्ट साधनात्मक उद्बोधन में सभी साधकों को माँ गायत्री की विलक्षण विशेषताओं से परिचित कराते हैं। वे कहते हैं कि हम मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं, वैसे ही हमारे जीवन में दो माताओं का आगमन होता है। एक माँ तो हमारी वो हैं, जो हमें शरीर प्रदान करती हैं और शरीर को पोषण प्रदान करती हैं। दूसरी माँ वो हैं, जिनके माध्यम से आत्मा को प्राणरूपी पोषण प्राप्त होता है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि यदि शरीर पुष्ट होता है तो व्यक्ति बलवान बनता है, परंतु आत्मा के पुष्ट होने पर मनुष्य देवता बनता है। मनुष्य में देवत्व का उदय सुनिश्चित करने वाली माँ, गायत्री माँ हैं और गायत्री मंत्र ही सार्वभौम, सर्वजनीन मंत्र है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री माता

मित्रो! मेरे कहने का उद्देश्य यह था कि हमारी वह माँ, जिसका हमने दूध पीना छोड़ दिया। दूध हमको नहीं मिल सका। दूध से हम अलग हो गए। हमारी माँ हमसे अलग कर दी गई और हम अपनी माँ से अलग हो गए। माँ से अलग होने के बाद में कितना नुकसान उठाया? हमने बहुत नुकसान उठाया। पिछले दिनों में न जाने कौन आया, जिसने हम माँ-बेटे को अलग कर दिया। माँ अलग इधर रह गई। खूँटे से बाँध दी गई और बच्चा रँभाता रहा, पुकार करता रहा और उसके गले में भी रस्सी बाँध दी गई। दोनों को अलग-अलग रस्सी से बाँध दिया गया और एक समय ऐसा भी आ गया जब माँ के थन सूख गए और बच्चे को बिना दूध के रहना पड़ा। ऐसा एक वक्त आ गया। कैसे हुआ? हमारे पड़ोसियों ने हमसे कहा—"गायत्री माता, जिसको आप कामधेनु भी कह सकते हैं, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जननी है। जिसको आप बीजाक्षर कह सकते हैं। यह वह बीज है, जिससे दरख्त पैदा होता है। भारतीय धर्म-संस्कृति जिस बीज से पैदा होती है, उसका नाम गायत्री मंत्र है।"

साथियो! उसकी बाबत हमारे मित्रों ने कहा—इसको तीन बार नहीं जप सकते, उपासना नहीं कर सकते। एक कौम जप सकता है ? इसका मतलब है कि तीन-चौथाई आदमी उससे ताल्लुक नहीं रख सकते। उस पर एक चौथाई आदमियों का ही अधिकार है। सूरज पर सबका अधिकार है। हवा पर सबका अधिकार है। बादलों पर सबका अधिकार है। जमीन पर सबका अधिकार है। जब भगवान की बनाई चीजों पर सबका अधिकार है, तो फिर गायत्री पर क्यों नहीं?

फिर माँ को अलग करने वाले लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि गायत्री सिर्फ ब्राह्मणों की है। फिर एक और आया। उसने एक और बात कह दी कि गायत्री की सिर्फ मर्द उपासना कर सकते हैं, औरतें नहीं कर सकतीं। एक उन चार में से फिर आधा हिस्सा और कट गया। एक बटे आठ की माँ बता दी गईं और अब आठ बच्चों में से सात बच्चे माँ का दूध नहीं पी सकते। केवल एक बच्चा पी सकता है—मर्द ब्राह्मण। औरत ब्राह्मण? औरत ब्राह्मण नहीं पी सकती।

गायत्री के विषय में मूढ़मान्यताएँ

मित्रो! फिर एक और ने कह दिया कि कलियुग में गायत्री को शाप लग गया है। फिर एक और ने कह दिया कि ब्रह्मा जी ने शाप दे दिया और वसिष्ठ जी ने शाप दे दिया। क्यों? ब्रह्मा जी ने तो हजार वर्ष तप करके गायत्री के चार चरणों की चार व्याख्याएँ की थीं और चारों वेद बनाए थे। उन्होंने क्यों शाप दे दिया? गायत्री से लड़ाई हो गई थी? नहीं साहब! लड़ाई-भिड़ाई तो नहीं हो गई थी, पर हमारा ख्याल है कि ब्रह्मा जी ने जरूर शाप दे दिया होगा।

दूसरे ने कहा कि विश्वामित्र जी ने शाप दे दिया है। विश्वामित्र कौन हैं? विश्वामित्र वे हैं, जिन्होंने गायत्री के ऊपर पी-एच०डी० की है, डी०लिट की है। वे एक ऋषि हैं। प्रत्येक वेद मंत्र का एक ऋषि होता है। गायत्री मंत्र का एक ऋषि है, जिसका नाम विश्वामित्र है। विश्वामित्र ने शाप दे दिया है—लोगों ने मान लिया कि शायद ऐसा ही हुआ होगा। माँ को अलग कर दिया और बच्चों को अलग कर दिया गया। किसी और ने एक और बात कही कि इसको कान में कह सकते हैं। खुले में जोर से नहीं कह सकते।

मित्रो! मैं आपसे यह पूछता हूँ कि कान में क्या बातें कही जाती हैं। कान में चोरी की बातें कही जाती हैं, चालाकी की बातें कही जाती हैं। खुराफात की बातें कही जाती हैं, बेईमानी की बातें कही जाती हैं। बदमाशी की बातें कही जाती हैं। हम अच्छी बातें कह रहे हैं तो खुलेआम कहें। अगर हमको आपसे कोई खुराफात की बात कहनी होगी, चोरी, चालाकी की बात कहनी होगी, तो इशारे से बुलाएँगे और कान में कहेंगे और यह भी कह देंगे कि किसी से कहना मत । गायत्री की बाबत भी ऐसे ही बताया गया। हम क्या कह सकते हैं।

मित्रो! अंधकार युग में माँ और बच्चे को अलग कर दिया गया। गायत्री, जो हमारी भारतीय संस्कृति की जननी थी, उसके बारे में हम आपको क्या बताएँ? गायत्री हिंदू धर्म का मूल है। मुसलिम धर्म का एक सूत्र है, उसका नाम है कलमा और हिंदू का एक सूत्र है, जिसका नाम है—गायत्री। गायत्री के चार चरणों की व्याख्याएँ वेदों में हुई हैं। वेदों में ही नहीं, पुराणों में भी हुई हैं। लोगों को समझने में दिक्कत पड़ी।

उन्होंने कहा—साहब! हमको बात समझाइए, कुछ समझ नहीं आता है। यह फिलॉसफी समझ में नहीं आती है। यह ज्ञान समझ में नहीं आता। तब ऋषियों ने कहा कि हम आपको सरल तरीके से समझा देते हैं। उन्होंने गायत्री के 24 अक्षरों को 24 भगवान बताया, 24 अवतार बताया और हर अवतार के ऊपर एक पुराण लिखा। हर अवतार के कथानक बनाए, हर अवतार की व्याख्या की, हर अवतार के क्रियाकलाप के साथ में एक फिलॉसफी बनाई। जीवन की एक दृष्टि बनाई, गतिविधि बनाई। समस्याओं के समाधान बनाए और एक-एक भगवान के 24 अवतारों को बनाया। मित्रो! 24 अवतार ही क्यों, 25 क्यों नहीं बनाए? 26 क्यों नहीं? 28 क्यों नहीं? 54 क्यों नहीं, 9 क्यों नहीं? तो क्या 24 ही हो सकते हैं ? गायत्री मंत्र के 24 अक्षर हैं। इसीलिए एक अक्षर को एक भगवान बताया गया। महर्षि दत्तात्रेय, जिनको भगवान दत्तात्रेय कह सकते हैं, उनको ज्ञान की बड़ी प्यास थी। इतनी कि उनकी ज्ञान-पिपासा का समाधान ही नहीं होता था। आत्मज्ञान नहीं प्राप्त होता था। वे ब्रह्मा जी के पास गए और ब्रह्मा जी से पूछा कि हमको ज्ञान का कोई तरीका बताइए।

उन्होंने कहा—आपको 24 गुरु बनाने पड़ेंगे और 24 गुरु आपको जो ज्ञान देंगे, वही समग्र ज्ञान हो जाएगा। भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए हैं। आप उनकी 24 गुरुओं की कथा पढ़िए। 24 गुरुओं से दीक्षा लेने के बाद में दत्तात्रेय जी ज्ञान में पारंगत हो गए और वे भगवान हो गए। जीवनमुक्त हो गए। जो कुछ भी होना था, सो हो गए। क्यों साहब! 24 गुरु ही क्यों? 28 क्यों नहीं, 11 क्यों नहीं, 29 क्यों नहीं, 56 क्यों नहीं? 24 ही क्यों? 24 इसलिए कि गायत्री के 24 अक्षर जो हैं, यही गुरु हैं, जिनमें से प्रत्येक अक्षर के अंदर एक समग्र चीज बनी है।

गायत्री के भीतर है सारा ज्ञान

मित्रो! एक बीज के अंदर एक दरख्त का सारे-का-सारा ढाँचा भरा पड़ा है। दरख्त कैसा होगा, पत्ते कैसे होंगे, फूल कैसे होंगे, फल कैसे होंगे, ये सारी-की-सारी चीजें बीज रूप में छोटे से बीज में छिपी हुई हैं। इसी तरह शुक्राणु के अंदर बाप की नाक कैसी है, बाबा की आँखें कैसी थीं, दादी को दमे की शिकायत थी, वह कैसी है सारे-के-सारे खानदान की हिस्ट्री छोटे से शुक्राणु में कैद रहती है और छोटा-सा गायत्री मंत्र, जिसकी हम उपासना करते हैं और आपसे उपासना करने के लिए प्रार्थना करने आए हैं।

आप ग्वालियर वालों ने शक्तिपीठ की स्थापना की, हम जिसका उद्घाटन करने के लिए आए हैं। बीज के अंदर जो विशेषताएँ दबी पड़ी हैं, जो दैवी संपदा कहला सकती है। जो हमारे भारतवर्ष की थाती है। जो ऋषियों की अमानत है और भारत की गरिमा की आधारशिला है। यह छोटा-सा गायत्री मंत्र, छोटे से 24 अक्षरों का गुच्छक—यह बड़ा शानदार है। ऋषियों ने यह समझा कि हमारे बेटों को, हमारी औलाद को इसको छाती से चिपका करके रखना चाहिए। इसे गँवा देंगे तो मारे जाएँगे। इसे गँवा देंगे तो कुछ रहेगा नहीं।

मित्रो! मैंने सुना है कि किन्हीं खास साँपों के अंदर मणि होती है और जब तक मणि होती है, तब तक रात को चमकते हैं। वे बड़े जहरीले होते हैं और बड़े फुरतीले होते हैं। जब कोई मणि को निकाल लेता है तो बिलकुल बेकार हो जाते हैं। बैठे रहते हैं और मौत के मुँह में चले जाते हैं। देखा तो नहीं, पर मैंने सुना है। अगर यह बात सही है तो आप यह भी कह सकते हैं। अपनी सभ्यता और संस्कृति ऐसी थी कि जिसके नागरिकों को न जाने क्या-से-क्या पदवी मिली थी। जिसके नागरिक महामानव कहलाते थे। महापुरुष कहलाते थे, ऋषि कहलाते थे, देवात्मा कहलाते थे और अवतारी कहलाते थे। उस सभ्यता को न जाने कौन ले गया।

इस 24 अक्षर वाली गायत्री के अंदर एक फिलॉसफी है। अगर आप उस फिलॉसफी को समझ सकें तो एक मानवीय फिलॉसफी, देवताओं की फिलॉसफी और सारे विश्व को समुन्नत बनाने की, स्वर्ग का अवतरण कराने वाली फिलॉसफी आप कह सकते हैं, जो प्राचीनकाल में काम में लाई गई थी और अब इसको काम में लाया जाएगा। ऐसा है यह गायत्री का विज्ञान। यह हिंदुओं की है? अरे! हिंदुओं की ही नहीं, यह तो सारे विश्व की है।

मित्रो! एक बार जामिया मिलिया का उद्घाटन करने के लिए महात्मा गाँधी जी दिल्ली गए। सारे मौलवी और दूसरे मुसलमान बैठे हुए थे। आधा घंटे बोलने के लिए उनका समय नियत था। गाँधी जी ने गायत्री मंत्र की व्याख्या की। जब भाषण खतम हो गया तो मुसलमान नाराज होने लगे। हकीम अजमल खाँ भी वहाँ थे। वे भी जामिया मिलिया में काम करते थे। उन्होंने कहा कि आपने मुसलमानों के सामने गायत्री मंत्र क्यों कहा? आप कुछ और भी कह सकते थे।

उन्होंने कहा—"आप गायत्री मंत्र को हिंदुओं का क्यों कहते हैं? यह तो सारे विश्व का है। सार्वभौम है, सर्वजनीन है। यह मानवीय सभ्यता से संबंध रखता है। संस्कृत भाषा में लिखी गई यह ऋचा आप हिंदुओं की बताते हैं। अंगरेजी में लिखी गई कोई बात— इसका अर्थ है कि वह अँगरेजों की बपौती हो गई। कोई बात ग्रीक में, रोमन में लिखी गई है, फ्रेंच में लिखी गई है या किसी और भाषा में लिखी गई है तो क्या वह उसी देश की बपौती हो गई। क्या कहना चाहते हैं ?" सारे मुसलमानों ने माना।

मित्रो! वह लेख अपनी अखण्ड ज्योति में भी छपा। जामिया मिलिया में दिया गया उनका भाषण, जिसमें उन्होंने गायत्री मंत्र को विश्वमानव की धरोहर बताया है। क्यों साहब! ऐसे कैसे कहा? गायत्री मंत्र देखने-सुनने में बहुत छोटी चीज मालूम पड़ती है। आप जो उसका हिस्सा जानते हैं, वह उसकी प्रैक्टिस की बाबत जानते हैं।

आप उसकी थ्योरी की बाबत नहीं जानते हैं। जिसको हम ब्रह्मविद्या कहते हैं, जिसको हम पराविद्या कहते हैं, उसको बहुत कम लोग समझते हैं। आमतौर से लोग केवल पूजा-पाठ में इसे काम में लाते हैं। भजन में काम में लाते हैं, जप में काम में लाते हैं। माला घुमाने के लिए जो अक्षर काम आते हैं, उन्हीं को मंत्र कहते हैं। वे भी अपने आप में शानदार हैं। वस्तुतः मनुष्य की हर समस्या का समाधान करने वाली क्षमता और प्रेरणा गायत्री मंत्र में है। ऋषियों ने अपनी संतान के लिए आवश्यक समझा कि इस धरोहर को हम कंपल्सरी बना दें। इसीलिए उन्होंने दो नियम बनाए हैं।

गायत्री मंत्र का अनुशासन

मित्रो! हिंदू धर्म के दो नियम हैं। मिलेट्री मैन की दो पोशाकें हैं। एक तो उसके नंबर होने चाहिए। म.प्र. पुलिस नंबर होना चाहिए और उसकी कमर में पेटी रहनी चाहिए। अगर आप भारतीय हैं, तो भारतीय संस्कृति के अनुयायी के दो निशान होने चाहिए। एक आपके सिर पर चोटी-शिखा होनी चाहिए और दूसरा आपके कंधे पर जनेऊ रहना चाहिए। चोटी और जनेऊ क्या है ? कुछ भी नहीं है।

गायत्री मंत्र के रूप में मस्तिष्क के ऊपर एक अनुशासन, एक अंकुश लगाया गया है। हमारी बुद्धि को, हमारी अक्ल को निरंकुश नहीं होना चाहिए। इसके ऊपर अंकुश रहना चाहिए। हाथी अगर निरंकुश रहें तो कितना नुकसान पहुँचाते हैं, आपको मालूम नहीं है। अफ्रीका में मुझे बहुत दिन रहना पड़ा है। अफ्रीका में हाथी बहुत पाए जाते हैं और इस कदर घूमते रहते हैं कि सौ-सौ के जत्थे, दो-दो सौ के जत्थे में रहते हैं, लेकिन उनमें एक खराबी यह है कि वे अंकुश में नहीं रहेंगे। उलझ जाएँगे, लेकिन काबू में नहीं रहेंगे। कितना ही मारिए, चाबुक चलाइए, टुकड़े कर डालिए, पर वो किसी के काबू में नहीं आ सकते। इस तरीके से बागी हाथी होते हैं।

मित्रो! उसका परिणाम यह होता है कि अफ्रीका का कोई फायदा नहीं होता। असम में हाथियों से बहुत फायदा है। उन पर वजन ढोते हैं। असम के किसान, असम के मामूली से व्यापारी आठ-आठ हाथी रखते पाए गए हैं। एक-एक हाथी 50-50 टका रोज कमाकर देता है। वे अपनी खुराक के अलावा और ढेरों पैसे कमा लेते हैं, लेकिन अफ्रीका हाथियों की वजह से तबाह हो रहा है। वे जिधर जाते हैं, नुकसान करते हैं। मैं हाथियों की बाबत नहीं कह रहा, मैं अक्ल की बाबत कह रहा हूँ।

बुद्धि पर अंकुश है जरूरी

आदमी की अक्ल के ऊपर अंकुश नहीं लगाया जाए, तो यह खूनी हाथी के तरीके से, पागल हाथी के तरीके से हानिकारक है। आदमी की अक्ल हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बँटवारा करा देती है, आदमी की अकल ऐसी तबाही ला सकती है। भगवान करे जिन लोगों के पास अक्ल है, वे सब बेअकल हो जाएँ। आदमी की अक्ल के बराबर खौफनाक दुनिया में कुछ हो ही नहीं सकता, लेकिन अगर इस पर अंकुश लगा दिया जाए तो ऐसे हाथी के बराबर हो सकती है, जो सवारी के काम आता है, लड़ाई के काम आता है। तमाशा दिखाने सरकस के काम आता है। वजन ढोने और गणेश के समान अक्लमंद हो सकता है।

मित्रो! आदमी की अक्ल बहुत शानदार हो सकती है। इसलिए अक्ल के ऊपर अंकुश लगाने के लिए एक प्रतीक स्थापित किया गया है, एक झंडा फहरा दिया गया है। हमारे सिर के ऊपर जो चोटी स्थापित की गई है, वह गायत्री मंत्र है। "चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते......."। हर आदमी को सिर के ऊपर हाथ फिराना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे अंदर अक्ल तो है, पर अक्ल के ऊपर अंकुश भी रहना चाहिए, नियंत्रण में रहना चाहिए। चोटी इसका नाम है। अंकुश क्या हो सकता है ? गायत्री मंत्र और क्या? गायत्री मंत्र के अंदर जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, दिशाएँ, धाराएँ भरी पड़ी हैं, सामर्थ्य भरी पड़ी हैं, वे सबकी सब ऐसी हैं, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आदमी की अक्ल पर अंकुश करने में समर्थ हैं।

मित्रो! एक और है गायत्री का प्रतीक, जो हर आदमी के लिए आवश्यक, अनिवार्य और कंपल्सरी बना दिया गया है। वह क्या है ? वह है—जनेऊ। जनेऊ क्या चीज है ? जनेऊ एक रस्सा है। किस बात का रस्सा है। आदमी को नीति का अनुशासन, मर्यादाओं का अनुशासन, मानवीय कर्तव्यों का अनुशासन, सामाजिक नीति और नियमों का अनुशासन आदमी को पालन करना चाहिए। इस आदमी के अंदर के जानवर को एक रस्से से बाँध दिया गया है, लपेट दिया गया है और खूँटे से बाँधने की कोशिश की गई है और यह कहा गया है कि उच्छृंखल नहीं हो सकते। मनमानी आप नहीं बरत सकते। मनमानी मत कीजिए। मर्यादाओं का ध्यान रखिए। सामाजिक जिम्मेदारियों का ध्यान रखिए। मनमाने विचारों पर रोक थाम कीजिए। मनमाने कामों पर, मनमानी हरकतों के ऊपर अंकुश रखिए।

यह क्या है ? यह गायत्री मंत्र है। गायत्री मंत्र वह है, जो शिक्षा से पहले, अक्ल से पहले हर आदमी को सिखाया जाता था। हिंदुओं का गुरुमंत्र है। गुरुमंत्र एक है। बहुत से मंत्र नहीं हो सकते। एक ही मंत्र है। बच्चों का स्कूल में दाखिला होते समय प्राचीनकाल में, ऋषि समय में सबसे पहले जो पढ़ाया जाता था, गायत्री मंत्र पढ़ाया जाता था। इसीलिए इसको गुरु मंत्र कहा गया है। बच्चों को जनेऊ दिया जाता था और गायत्री मंत्र दिया जाता था।

संध्यावंदन का महत्त्व

मित्रो! हिंदुओं की दो बार पूजा होती है—संध्यावंदन। मुसलमानों में पाँच बार नमाज पढ़ी जाती है। हिंदू को प्रात:काल और सायंकाल—दो वक्त पूजा करनी चाहिए। दो बार की संध्या में गायत्री मंत्र का उच्चारण करिए। अगर आप प्राचीन विधि से संध्या करते हैं, नई विधि अपनी मनमानी से बना ली है तो कौन रोकेगा। फिर आपके ऊपर कानून तो है नहीं कि आप पर कोई बंदिश लगाई जाए कि आपको ऐसे उपासना नहीं करनी चाहिए, लेकिन आप ऋषियों की बंदिश को अगर मानते हों तो आपको प्रात:काल और संध्याकाल भगवान का भजन करना हो तो उसके लिए गायत्री आवश्यक है, अनिवार्य है।

बेटे! ऐसे नियम और बंधन हमारे ऊपर लगा दिए गए। क्यों लगा दिए गए? ऋषियों ने समझा कि इससे ज्यादा फायदे की चीज, इससे ज्यादा लाभदायक चीज और कुछ नहीं है। वह है—गायत्री मंत्र, जिसका हम प्रचार करते हैं और जिसके बारे में हम ख्याल करते हैं कि यह आदमी की समस्याओं को दूर कर सकता है।

आदमी के सामने हजारों समस्याएँ हैं, लाखों समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ कहाँ से आती हैं। भगवान के बेटे के सामने समस्याएँ क्यों? साधारणतः आदमी बीमार पड़ जाता है क्यों? जंगलों में घूमने वाले जानवर क्यों बीमार नहीं पड़ते? आदमी और आदमी की बंदगी में रहने वाले जानवर क्यों बीमार होते हैं?

उसका एक कारण है कि हमको वह गायत्री मंत्र, जिसको हम ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं, जो शास्त्र के बारे में जब एप्लाइड होती है, तो वह संयम बन जाती है। आज या आज से हजार वर्ष बाद जब कभी भी आपको सेहत ठीक करनी पड़ेगी, बीमारियों से छुट्टी पानी पड़ेगी तो फिर एक ही रास्ता है और वह रास्ता है—आपको अपने आहार-विहार में संयम बरतना पड़ेगा। अपनी जीभ पर काबू पाना पड़ेगा।

मित्रो! यह मैं गायत्री मंत्र की बाबत कह रहा हूँ। अगर आपको ताकत की जरूरत हो, लंबी उम्र की जरूरत हो, तो भी मैं यह आपसे कहता हूँ कि आपको गायत्री मंत्र की उपासना करनी पड़ेगी और उसकी शिक्षा को धारण करना पड़ेगा। आप क्या कहना चाहते हैं ? मैं यह कहना चाहता हूँ कि आदमी भीतर की दृष्टि से मजबूत तभी बनेगा, आज या आज से हजार वर्ष बाद उसको ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ेगा और सेहतवान बनना पड़ेगा। आप क्या बात कह रहे हैं?

मैं गायत्री मंत्र की बात कह रहा हूँ। गायत्री मंत्र को तो आप हर बार पूजा की बात कहते रहते हैं। पूजा अपनी जगह है, लेकिन गायत्री का वह अंश जो सर्वसाधारण के लिए, सर्वजनीन, सार्वभौम वाला हिस्सा है, वह वो वाला हिस्सा है जिससे हम मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय—हर समस्या का समाधान कर सकते हैं।

मित्रो! हमारे दिमाग की सड़न—यही बहुत सारी समस्याएँ पैदा करती है, नहीं तो भगवान के इस बेटे के सामने समस्याएँ क्यों होनी चाहिए। भगवान के बेटे को हैरान क्यों होना चाहिए। भगवान के जैसा शानदार जिसका बाप और शानदार जिसका बेटा, वह ऐसे परेशान और हताश खड़ा है। यह वह है, जिसको अपनी माँ के, कामधेनु के दूध से अलग कर दिया गया। आपको गायत्री मंत्र की वह फिलॉसफी फिर से समझनी चाहिए और समझने के बाद में अपनी परंपरा के अनुरूप देवमानव बनने की कोशिश करनी चाहिए और अपनी समस्याओं को हल करने के अलावा औरों की भी समस्याएँ हल करने की कोशिश करनी चाहिए। गायत्री मंत्र ऐसा प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है, जो आपके बाहर के जीवन की आवश्यकताओं को तो पूरा करता ही है, आपके अंतरंग जीवन को भी शानदार बनाता है।

मित्रो! मैं एक बात आपसे पछता हैं कि आपके भीतर भी कुछ है क्या? आपके भीतर बहुत शानदार चीज है। सही बात यह है कि जो कुछ बाहर दिखाई पड़ता है, वह तो उसकी छाया मात्र है, छिलका मात्र है। धान का छिलका बाहर दिखाई पड़ता है, चावल भीतर होता है और हमारे बहिरंग का छिलका आपको दिखाई पड़ता है। चावल तो इसके भीतर है। नारियल का छिलका बाहर दिखाई पड़ता है। उसकी गिरी उसके भीतर पाई जाती है।

आदमी में भी गिरी उसके भीतर है और छिलका उसके बाहर है। भीतर वाली गिरी को, भीतर वाले गोले को, भीतर वाली चीजों को ऊँचा उठाने के लिए और मजबूत बनाने के लिए और ठीक बनाने के लिए गायत्री की प्रैक्टिस अपने आप में बड़े काम की चीज है। भीतर वाले हिस्से को हम कैसे अच्छा बना सकते हैं। भीतर वाली दबी हुई दौलत को हम किस तरीके से पा सकते हैं। भीतर वाली अतींद्रिय क्षमताओं को, जो हमारी इंद्रियों की क्षमताओं से हजार गुनी बड़ी हैं, उन्हें हम कैसे पा सकते हैं, यह बहुत शानदार कहानियाँ हैं। अगर आप भीतर वाले को जगा पाएँ, भीतर वाले को मजबूत बना पाएँ, तब आप देखेंगे कि आपका बाहर वाला हिस्सा कितना मजबूत बन जाता है और कितना शानदार बन जाता है।

मित्रो! गायत्री की प्रैक्टिस वह है, अभ्यास वह है; जिससे हम अपने भीतर वाले हिस्से को जो सोया हुआ पड़ा है, जिसकी बाबत में वैज्ञानिकों का यह कहना है कि आदमी को दिमाग की सात फीसदी जानकारी है, 93 फीसदी जानकारी नहीं है। अतींद्रिय क्षमताओं से लेकर के कितनी दौलत कितना जखीरा दबा पड़ा है इसमें। अगर आप वह प्रैक्टिस, जो हमारे भीतर के अंतरंग हिस्से को जगाने के लिए काम आती है, वह अगर काम में लाई जा सके, तो आदमी शारीरिक दृष्टि से, पैसे की दृष्टि से, अक्ल की दृष्टि से कितना मजबूत हो सकता है, उन्नतिशील हो सकता है।

उससे कहीं ज्यादा भीतर वाले हिस्से को मजबूत बना करके आदमी समर्थ हो सकता है, समुन्नत हो सकता है। मैं आपके सामने गायत्री की उपासना, गायत्री की फिलॉसफी, गायत्री की थ्योरी और गायत्री की प्रैक्टिस—दोनों की बाबत कहने के लिए आया और यह कहने के लिए आया कि अगर इस रास्ते पर आप चल सकें तो आपको इससे बढ़िया मुनाफे का काम, इससे बढ़िया धंधा, इससे बढ़िया तिजारत और कोई दुनिया में नहीं हो सकती।

मित्रो! गायत्री मंत्र की बाबत जो बताया जा रहा है, वह सही है या गलत है। हम कैसे माने? मैं आपके सामने एक ऐसे गवाह को पेश कर सकता हूँ, जिसकी बाबत आप इनक्वायरी बिठा दें। एक कमेटी बिठाएँ और यह तलाश करें कि गायत्री की बाबत लोगों के जो ख्याल हैं, जो अफवाहें हैं अथवा आदमी कभी-कभी स्वयं ही जिक्र कर देता है। यह बातें कहाँ तक सही हैं। अगर आपको यह बातें सही मालूम पड़ें तो आप यह अंदाज लगा सकते हैं कि इस आदमी ने एक ही धंधा किया है। दूसरा धंधा हमने जाना ही नहीं। वो धंधा यह है कि अपने अंतरंग को विकसित करने के लिए हमने गायत्री का इस्तेमाल किया है। आप भी इसे इस्तेमाल कर सकते हैं और अपने जीवन को धन्य बना सकते हैं।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥