व्यक्तित्व का परिष्कार

आध्यात्मिक प्रयासों की सार्थकता व्यक्तित्व के परिशोधन से तय होती है। बिना व्यक्तित्व का परिशोधन किए, इनसान के व्यक्तित्व का कोई मूल्य नहीं होता। परमपूज्य गुरुदेव अपने इस विशिष्ट उद्बोधन में इसी शाश्वत सत्य की ओर इशारा करते हैं। वे कहते हैं कि जिस तरह से खदान से निकलने वाला लोहा बहुत मूल्य का नहीं होता, परंतु उसको भट्ठी में डाल देने के बाद उसका मूल्य बढ़ जाता है। उसी तरह से इनसान भी कुसंस्कारों का परिशोधन करके अपने व्यक्तित्व की गुणवत्ता को बढ़ा सकता है। परिशोधन की इस प्रक्रिया का नाम तप है। इसी के माध्यम से व्यक्तित्व का परिष्कार संभव हो पाता है। युगऋषि कहते हैं कि परिष्कार की इस प्रक्रिया का मूल आधार यह है कि हम नर-पशु की तरह से न जिएँ और अपने बहिरंग ही नहीं, बल्कि अंतरंग जीवन का भी परिष्कार करें। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........

व्यक्तित्व का परिशोधन

देवियो, भाइयो ! खदान से जब लोहा निकलता है, तो खालिस लोहा नहीं होता। उसमें मिट्टी मिली होती है। मिट्टी मिले लोहे को जमीन में से खोदते हैं। खोदने के बाद में फैक्टरी में भेजते हैं, तब उसे भट्ठियों के भीतर गलाया जाता है। गलने से मिट्टी अलग हो जाती है और लोहा अलग हो जाता है। इसके बाद में उस लोहे का धीरे-धीरे संस्कार करना शुरू करते हैं। पहले कास्ट आयरन होता है, जिसको 'ढलवाँ लोहा' कहते हैं। उसके बाद में और सफाई होती है और अच्छा लोहा बन जाता है, जो गर्डर बनाने, सरिया बनाने, छड़ें बनाने के काम आता है। इसे और अधिक साफ करते हैं, तो वह फौलाद बन जाता है, जो बंदूकों के रिंग ढालने के काम आता है और अधिक सफाई करते हैं, तो स्टेनलेस स्टील बन जाता है और इससे भी ज्यादा साफ करते हैं, तो लोहे की भस्म बन जाती है और ऐसा लोहा सबसे बढ़िया क्वालिटी का, किस्म का होता है। लोहा वही होता है, जो मिट्टी में मिला लोहा होता है, लेकिन संस्कारित होने पर उत्तम क्वालिटी का बन जाता है।

मित्रो! मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि आदमी का व्यक्तित्व मिट्टी में मिले लोहे के तरीके से है। उसमें या उसके भीतर बहुत से कुसंस्कार जमे पड़े हैं। ऐसे कुसंस्कार जमे पड़े हैं कि यदि उन कुसंस्कारों को ज्यों का-त्यों बनाकर रखा जाए, तो आदमी-को-आदमी कहलाने का श्रेय प्राप्त नहीं हो सकता। आदमी-को-आदमी कहलाने का श्रेय प्राप्त हो सके, इसके लिए जरूरी है कि उसके भीतर जो मलिनताएँ हैं, जो जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कारों से जम करके आ रही हैं, उन्हें साफ किया जाए। उनका शोधन किया जाए लोहे के तरीके से।

क्या है तप?

यह कैसे हो सकता है? इसका एक तरीका है, जिसका नाम है—तप। हमारे भीतर दो चीजें हैं। एक चीज जो हमारे भीतर है, वह है—चेतना और एक चीज है—हमारे भीतरी पदार्थ। पदार्थों से हमारा शरीर बना है। चेतना से हमारा प्राण बना है। पंचतत्त्व—ये जड़ हैं। इनसे हमारा जड़ शरीर बना है। शरीर किससे बना है? पंचतत्त्वों से बना है अर्थात जड़ पदार्थों से बना हुआ है। हमारे भीतर एक और भी सत्ता काम करती है, जिसको हम आत्मा कहते हैं। आत्मा किससे बनी है? आत्मा बेटे! श्वास से—प्राणों से बनी है। पाँच प्राणों से हमारा जीवन बना है। पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर बना है। दिव्य चेतना का समन्वय—उसी का नाम है व्यक्तित्व। मित्रो! हम देव चेतना का समन्वय न करें, तो व्यक्ति नहीं रह सकता। फिर क्या रह जाएगा? फिर न जाने क्या हो जाएगा? अगर हमारे भीतर से प्राण निकल जाए, तो क्या हो जाएगा? फिर बेटे! हम लाश हो जाएँगे। हमारा नाम क्या हो गया? लाश। फिर मनुष्य भी—मनुष्य नहीं रह जाता। अगर मनुष्य के भीतर से प्राण निकल गया, तो फिर वह मनुष्य कैसे हो सकता है? और हमारे भीतर से शरीर निकल जाए, तो क्या हो जाएगा? तो फिर हम हो जाएँगे—भूत।

भूत कैसा होता है? भूत ऐसा होता है, जैसे मनुष्य। फरक क्या होता है? फरक यह होता है कि उसके पास शरीर नहीं होता। शरीर न होने की वजह से इच्छाएँ भी होती हैं, कामनाएँ भी होती हैं, विचारणाएँ भी होती हैं। सब चीजें वही होती हैं, केवल शरीर नहीं होता। शरीर न होने की वजह से आदमी भूत हो जाता है और प्राण न होने की वजह से आदमी लाश हो जाता है। लाश भी बेकार है और भूत भी बेकार है। दोनों में जब हम ठीक से समन्वय—संतुलन बना देते हैं, तो एक व्यक्तित्व बनता है, एक मनुष्य बनता है और एक आदमी की सत्ता बनती है।

व्यक्तित्व का परिष्कार जरूरी

मित्रो! हमारे भीतर दो चीजें हैं और दोनों चीजों को परिष्कृत करने के लिए, दोनों चीजों को बेहतरीन बनाने की जरूरत है। अगर हम दोनों को बेहतरीन नहीं बनाएँगे, तो हमारा घटियापन बना रहेगा। अगर हमारे भीतर घटियापन बना रहा, तो व्यक्तिगत जीवन में हम दुःख पाएँगे और बहिरंग जीवन में आप दुःख पाएँगे। जो कोई भी हमारे संपर्क में आएगा, वह दुःखी होता चला जाएगा। अगर हमारी धर्मपत्नी, हमारे संपर्क में आएगी, तो गालियाँ देगी और दुःख पाएगी। अगर माताजी हमारे संपर्क में आएँगी, तो माताजी भी दुःख पाएँगी, गालियाँ देंगी। बेटा अगर हमारे संपर्क में आएगा, तो बेटा दुःख पाएगा और गालियाँ देगा; क्योंकि हमारा व्यक्तित्व घटिया है। घटिया चीजें जिस किसी को छुएँगी, तो घटियापन फैलाएंगी। टी0बी0 का मरीज, कैंसर का मरीज, छूत रोग का मरीज, कॉलेरा का मरीज जिस किसी को छुएगा, बीमारी फैलाएगा। छूने के साथ गंदगी भी रहती है। गंदा आदमी जहाँ-कहीं भी जाएगा, जिस किसी के पास रहेगा, वहाँ हैरानी पैदा करेगा। परेशानी पैदा करेगा, समस्याएँ पैदा करेगा, कठिनाइयाँ पैदा करेगा।

इसलिए मित्रो! मैं यह कह रहा था कि आदमी का घटियापन जब हमारे बहिरंग जीवन में दिखाई पड़ता है, तो दरिद्रता के रूप में दिखाई पड़ता है। दरिद्र आदमी कौन हो सकता है? दरिद्र आदमी वह हो सकता है, जिसका व्यक्तित्व घटिया हो, और घिनौना आदमी कौन होना चाहिए? जिसका व्यक्तित्व घटिया हो, वह आदमी। जिस आदमी के चेहरे पर खीज और नाराजगी दिखाई देती हो, ऐसे व्यक्ति को आप क्या कहेंगे? बेटे! मैं इसे घटिया आदमी कहूँगा; क्योंकि इसके चेहरे पर खीज, नाराजगी, झल्लाहट, नाखुशी, असंतोष छाया रहता है। बस, यही घटिया आदमी जहाँ कहीं भी जाता है, लोग कहते हैं कि भगाओ इसे। यह अभागा जब तक हमारे यहाँ रहेगा, तब तक हमारे प्राण खाएगा। हमको दुःख देगा, हमको कष्ट देगा। जो आदमी भीतर से जलता रहता है, घुलता रहता है। कष्ट और चिंता में डूबा रहता है, उसे घटिया आदमी कहेंगे। ये तीनों आदमी बहिरंग जीवन में घटिया हैं।

मित्रो! अभी मैं आपसे बहिरंग जीवन की बात कह रहा हूँ। अंतरंग जीवन अलग है। बहिरंग जीवन से क्या मतलब है? हमारे जीवन का एक स्वरूप वह है, जो दिखाई पड़ता है। वह बहिरंग जीवन है। हमारे जीवन का एक स्वरूप वह है, जो दिखाई नहीं पड़ता। आप उसे आँखों से नहीं देख सकते। यह हमारे भीतरवाला रूप है। इसे अंतरंग जीवन कहते हैं। बहिरंग जीवन में हमको चिंता छाई रहती है। आपको कुछ मालूम है? हमको तो नहीं मालूम। हमारी आँखों में दरद होता है और हमारी आँखें लाल रहती हैं। इसलिए आपको मालूम है कि आँखों में क्या खराबी है? हमारे दिमाग में चिंता छाई रहती है, आपको मालूम है? नहीं, कोई जानकारी नहीं है। हमारे भीतर ईर्ष्या और डाह की आग जलती रहती है। क्या आपने उसे देखा है? इसे आप नहीं देख सकते। हमारे भीतर महान बैठा है और हमारे जीवन में महान काम करता है। आप इसे नहीं जान सकते; क्योंकि ये चीजें आंतरिक हैं।

कुसंस्कारों का परिशोधन करें

मित्रो! अभी मैं आपको बहिरंग जीवन की बात बताऊँगा, फिर अंतरंग की ओर लेकर चलूँगा। बहिरंग जीवन में क्या करना पड़ता है? हमारे जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कारों को, आदतों को, जो कहाँ से चली आई हैं? अमीबा से चली आई हैं। अमीबा छोटे वाले कीड़े थे, तब से लेकर के संस्कारों की छाप हमारे ऊपर पड़ी हुई चली आई है। अभी कुछ विकास का क्रम चला तो है। हमने एक-एक करके अच्छी बातें सीखीं तो हैं, पर उन बुरी बातों को, सबको भुला सकने में समर्थ न हो सके। इसलिए अभी भी हमारे भीतर कुसंस्कार बहुत हैं। कुसंस्कारों की छाया हमारे भीतर बहुत है। कौन-कौन से कुसंस्कारों की छाया है? बेटे ! बहुत से कुसंस्कार हमारे ऊपर छाए हुए हैं, जिनको परिष्कृत करने की जरूरत है, जिनको तपाने की जरूरत है, गलाने की जरूरत है और नए ढालने की जरूरत है। जो हमारे व्यक्तित्व के साथ-साथ मिट्टी में मिले हुए हैं। मिट्टी खराब होती है? मिट्टी खराब नहीं होती, पर बेटे, लोहे के साथ में मिट्टी है और लोहे को बेहतरीन बनाना है, तो हमें मिट्टी को हटाना ही पड़ेगा। नहीं साहब! मिट्टी को तो नेचर ने मिलाकर रखा है। लेकिन वह लोहा किसी के काम नहीं आ सकता। वह लोहा औजार बनाने के काम नहीं आ सकता। कौन-सा? जो प्राकृतिक रूप से जमीन में से निकला था, वह हमारे किसी काम का नहीं है। उसको फौलाद के तरीके से परिष्कृत बनाना पड़ेगा।

मित्रो! परिष्कृत लोहे से ही तलवार बना सकते हैं, बंदूक की नली ढाल सकते हैं। नहीं साहब! कच्चे लोहे से ढाल लीजिए। नहीं, कच्चे लोहे से नहीं ढलेगी और ढाल भी ली, तो जब इसमें बारूद रखा जाएगा, तो धमाके की वजह से फटकर चूर-चूर हो जाएगी और चलाने वाले का भी सफाया करेगी। आस-पास खड़े लोगों को मारकर डाल देगी। हम तो निशाना लगा लेते हैं। अरे बाबा! निशाने की बात चल रही है या चलाने वाले की बात चल रही है। लक्ष्य को कैसे पूरा करेगी? यह तो अपने आप को ही सफाया कर देगी। इसलिए जीवन को परिष्कृत करना आवश्यक है। हमारे जीवन में कौन-कौन से कुसंस्कार हैं?

पहला कुसंस्कार—कामवासना

एक कुसंस्कार यह है कि जब हम कुत्ते थे, तो हमको कोई तमीज नहीं थी कि माँ किसे कहते हैं, बेटी किसे कहते हैं, बहन किसे कहते हैं? कोई रिश्तेदार नहीं मानते। बेटी है तो क्या, माँ है तो क्या? मादा-मादा सब एक सी हैं? नहीं साहब! फरक कीजिए। नहीं, हम जानवर हैं, हम क्या फरक कर सकते हैं? तब हमें कोई तमीज नहीं थी। वे कुसंस्कार अभी भी हमारे भीतर विद्यमान हैं।

मित्रो! समाज के बंधन तो ऐसे हैं, जो हमको हर चीज के लिए छूट नहीं दे सकते? समाज की मर्यादा, समाज के कानून ऐसे हैं, जो हमारे बाल नोंच सकते हैं? वे हमको मजबूर कर सकते हैं कि आपको कायदे में रहना चाहिए। इसलिए दबाव से तो हम डरते हैं, लेकिन हमारे भीतर का कुत्ता ज्यों-का-त्यों जिंदा है और हमारा कुत्ता मौके की तलाश करता रहता है कि कहीं हमको मौका मिले, तो हम जो पहले जीवन में मनमरजी से स्वच्छंद रहते थे, वैसे रहें।

बेटे ! इस कुसंस्कार को सफाया करने की जरूरत है। अगर न करें तो? तो बेटे! आप उसी पुराने जीवन में बने रहेंगे। आप नर-पशु बने रहेंगे। फिर आप क्या दे सकते हैं? यदि आप पिछड़ी जिंदगी जी सकते हैं, तो आप नर-पिशाच बन सकते हैं। नर-पिशाच कैसे होते हैं? नर-पिशाच ऐसे होते हैं, जिनको कि दूसरों के दुःख दरद से कोई वास्ता नहीं होता। खुद का अपना फायदा होता हो, तो हमको दूसरे के दरद से परेशान होने की जरूरत नहीं है।

नर-पशु की तरह न जिएँ

मित्रो! जब हम बिल्ली थे, तो हमको कोई कष्ट नहीं होता था। चूहे को पकड़ते थे, चूहा चिल्लाता था। कहता था कि मौसी जी! हमारे ऊपर दया कीजिए। हमारे भी बाल-बच्चे हैं और हमको भी जिंदा रहने दीजिए। आपको दिखाई नहीं पड़ता कि हमें कैसा कष्ट हो रहा है और आप हमारा माँस नोच रही हैं, आपको दया नहीं आती? बिल्ली ने कहा—हमको कोई दया नहीं आती और दया से हमारा कोई वास्ता नहीं है और बेटे, हमारा वह साँप अभी भी विद्यमान है, जो मेंढ़क निगलते समय, चूहा निगलते समय खुश होता था। अभी हमारा वह साँप जहाँ-का-तहाँ विद्यमान है। अजगर जहाँ-का-तहाँ विद्यमान है। मुरगी जब सामने आती है और कहती है कि ताऊ जी! आप हमें क्षमा कीजिए। आपके पास तो देखिए कैसी बढ़िया-बढ़िया चीजें हैं। आपके लिए गेहूँ मौजूद है, दूध, दही, फल मौजूद हैं। फिर आप हमारी जान लेने के लिए क्यों उतारू हैं? आपको मालूम नहीं है कि हमारे भीतर भी जान है। अगर आपके कोई बाल नोंचे, तो आपको कितना कष्ट होता है। आप हमारे पंख नोच रहे हैं। हमने कहा—हमारे भीतर दया नाम की कोई चीज नहीं है। हम चूँकि अपना जायका पसंद करते हैं, इसलिए आपको मारने में हमें कोई कष्ट नहीं होता, हमें कोई हैरानी नहीं होती।

मित्रो! बकरी ने भी यही कहा—स्वामी जी! आप तो बड़े दयालु हैं, सब पर दया करते हैं। हमारे ऊपर भी दया कर दीजिए। हमको भी जिंदा रहने दीजिए। नहीं, आपका माँस बहुत जायकेदार है, इसलिए हम खाएँगे। उसने कहा—स्वामी जी! आप तो दूसरी चीजें भी खा सकते हैं। नीबू का अचार खा सकते हैं। नहीं, हम नीबू का अचार नहीं खाएँगे; क्योंकि हमारे भीतर साँप बैठा हुआ है। अजगर की तरक्की दूसरों को कष्ट दिए बिना नहीं हो सकती। दूसरों को कष्ट नहीं देंगे, तो हमको चैन कैसे पड़ेगा? इसलिए आपको कष्ट देकर, आपको बिलखते देखकर, आपको तरसते देख करके हमको खुशी होती है। बेटे, हमारे भीतर का अजगर हमको चैन नहीं लेने देता। जब तक हम दूसरों को सता नहीं लेते, दूसरों को पीड़ा नहीं दे देते, दूसरों को किसी मुसीबत में धकेल नहीं देते, तब तक हमको राहत नहीं मिलती और तब तक हमारे अहंकार का फन ऊपर ही रहता है।

मित्रो! आप ऐसा क्यों करते हैं? आपके यहाँ तो खाने-पीने का साधन है। हाँ, हमारे घर में जमीन भी है, हमारे घर में पैसा भी है। हमारा बाप बहुत सारी दौलत छोड़कर के मरा है। हम हत्या न करेंगे, तो हमारा पिशाच कैसे तृप्त होगा। इसलिए हमको किसी की हत्या करनी पड़ेगी। किसकी हत्या करेंगे? हम डाका डालने जाएँगे। तो आप डाका डालने आए हैं? भाई साहब! पैसा ले जाइए। पैसा ले जाएँ, दान दे रहा है हमको? अंगुलिमाल कहता था कि हम कोई पंडित हैं, जो हमें दान दे रहा है। हम तो अपनी मेहनत की कमाई खाते हैं। तो मेहनत से क्या करेंगे? आपकी गरदन काटेंगे और आपका पेट चीरेंगे और आपके हाथ की उँगलियाँ काटेंगे। इतना करने के बाद हम आपका पैसा लेंगे। नहीं, आप पैसा ले जाइए, पर हमारी जान बख्श दीजिए। नहीं, हम आपका पैसा भी नहीं छोड़ना चाहते हैं और जान भी नहीं छोड़ेंगे। यह कौन है जो हमारे भीतर बैठा हुआ है? हमारे भीतर यह एक पिशाच बैठा हुआ है और एक पशु बैठा हुआ है। इन पशु और पिशाच में से पशु अनैतिक नहीं होता।

जड़ता को दूर करें

मित्रो! पशु के अंदर एक और बात पाई जाती है। उसका नाम है—जड़ता। जड़ता किसे कहते हैं? जड़ता उसे कहते हैं कि जानवर तब तक कुछ करने के लिए रजामंद नहीं होता, जब तक कोई मजबूरी उसके सामने न आ जाए। मसलन शेर जब भूखा होगा तो उठेगा और भूखा न हो तब? हमने शेरों के इलाके में देखा है, सब शेर चुपचाप पड़े रहते हैं। गधे उनके पास में घास चरते रहते हैं। भाई साहब! आइए, कुछ नाश्ता-पानी तैयार है, हमको खा लीजिए। हम तो बेकार घूम रहे हैं। आप तो शेर हैं, आप खा लीजिए मुझे। अरे! जा-जा, हम क्यों खाएँगे तुझे? अभी तो भूख भी नहीं है, हम क्यों उठेंगे? बस, टाँग चौड़ी करके शेर पड़ा रहता है। उठिए तो सही, सवेरा हो गया। चल, जब हमको भूख लगेगी तब उठेंगे। उससे पहले हिलने-डुलने को तैयार नहीं है। ये हैं—पशु। कौन से पशु? जिनको हम आलसी कहते हैं।

हमारे भीतर भी एक पशु बैठा है, जिसको हम आलस्य कहते हैं। एक पशु जो हमारे दिमाग पर हावी रहता है, उसको प्रमाद कहते हैं। पशु यहाँ से प्रारंभ होता है, जो निष्क्रिय है। जिसके अंदर क्रियाशीलता नहीं है, जिसके अंदर जड़ता है, जो मेहनत, मशक्कत करने से इनकार करता है। जब कोई भी पुरुषार्थ करने के लिए कहते हैं तो इनकार करता है। कहता है कि हमको आराम चाहिए। हमको मौज चाहिए। हमको मेहनत नहीं करनी चाहिए। यह हमारे भीतर पशु बैठा हुआ है और वह बुला-बुलाकर हमारे ऊपर दरिद्रता डाल देता है। कहता है कि हमको दरिद्र रहना चाहिए; क्योंकि हम परिश्रम नहीं करना चाहते।

मित्रो! हम शारीरिक परिष्कार से इनकार करते हैं और मानसिक परिश्रम से इनकार करते हैं। हमारा पशु कहता है, इसीलिए पशु जैसा नंगा-उघारा रहता है। कपड़े से महरूम रहता है। इधर-उधर मारा-मारा डोलता है। पानी में भीगता रहता है। इसी तरीके से हमारा पशु दरिद्रता के गर्त में धकेलता है और हमारा पशु हमसे वह काम कराता है, जिसमें नीति, नियम और मर्यादाओं का पालन शामिल नहीं है। नीति, नियम और मर्यादाओं का हम मखौल उड़ाते हैं और हम यह कहते हैं कि हमारा नाम है—हिप्पी। तो भाई साहब! आप क्या करेंगे? हिप्पी हैं तो हम यह करेंगे कि समाज की सारी-की-सारी मर्यादाओं को तोड़कर रखेंगे। इससे क्या फायदा होगा? फायदा हो या न हो, समाज की मर्यादा हमको बरदाश्त नहीं है। इसीलिए हम समाज की मर्यादा, कायदे-कानून को तोड़ना चाहते हैं। हिप्पी जो हमारे भीतर बैठा हुआ है, यह कौन है? यह जानवर है, जिसके ऊपर सिद्धांत लागू नहीं हो सकते। जो कायदे को नहीं मानता। जो मर्यादा और बंधनों से इनकार करता है। हमारे अंदर पशु बैठा है।

बहिरंग जीवन का परिष्कार

मित्रो! पिशाच का हवाला अभी मैं आपको दे चुका हूँ। जो दूसरों को कष्ट देने में पिघलता नहीं है, बल्कि प्रसन्न होता है। पिछली चीजों को हम पढ़ते हैं, तो बेटे, हमारी आँखों में आँसू आ जाते हैं। मिस्त्र के पिरामिड किस तरीके से बने? चाइना की दीवार किस तरीके से बनी? ये सारे-के-सारे किस्से आप सुनेंगे, तो आपकी आँखों में से खून टपक पड़ेगा। आदमी कितना दुष्ट हो सकता है? इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। मिस्र के पिरामिडों में मिस्र के जिन राजाओं के साथ एक-एक हजार औरतें और रखैलें रखी हुई थी और जिनके एक-एक, दो-दो हजार बच्चे थे, उन्होंने हुक्म दिया था कि हमारे मरने के बाद हमारी इन औरतों को हमारे साथ जिंदा दफन कर दिया जाए। मारकर नहीं, वरन जिंदा दफन कर दिया जाए और हमारे दो हजार बच्चों को भी हमारे साथ जिंदा दफन कर दिया जाए। हम मरेंगे तो ये हमारे बच्चे और औरतें हमारे साथ जाएँगी। जिंदा चीत्कार करती हुईं, हाहाकार करती हुईं औरतें कहती रहीं कि आप तो पति देवता थे। हमको आशीर्वाद देकर लाए थे। नहीं, हमको इससे कोई मतलब नहीं, हम तो आप सभी को अपने साथ ले जाना चाहते हैं? मरने के बाद में हमको जब अय्याशी की जरूरत पड़ेगी, विलासिता की जरूरत पड़ेगी, तब कैसे काम चलेगा? उन्होंने अपने नौकरों को, जो कि उनके खानदान में काम करते थे, दो-दो हजार नौकर थे। जब इतनी औरतें जा रही हैं, इतने बच्चे जा रहे हैं, तो उनके लिए नौकरों की जरूरत पड़ेगी। खाना कौन पकाएगा, काम कौन करेगा? कितने नौकर चाहिए? दस हजार नौकर चाहिए। दस हजार नौकरों के लिए गड्ढे तो इतने नहीं बन सके, पर दस हजार नौकरों को मार करके चक्की में पीस लिया गया और जो पिरामिड बने हुए हैं, वे उनकी हड्डियों और खून से बनाए गए हैं।

मित्रो! इनसान को मैं क्या कह सकता हूँ? इनसान पर पिशाच और राक्षस और न जाने क्या-क्या होता है? बहुतों के भीतर होता है, लेकिन यह मत सोचिए कि हमारे और आपके भीतर नहीं है। कभी-कभी हमारा पिशाच ऐसा निकल पड़ता है कि हम हैरान हो जाते हैं। कभी-कभी हमारा पिशाच जब गरम होता है, तब हमारा पिशाच ऐसा होता है कि हम अपनी हत्या कर डालते हैं और औरों की भी हत्या कर डालेंगे और कभी-कभी हमारा पशु जब गरम होता है, तो न जाने क्या-से-क्या कर डालता है। बेटे, क्या करना चाहिए? यह हमारी जलालत दूर होनी चाहिए और यह गलीजत दूर होनी चाहिए और इसको परिष्कृत होना चाहिए। हमको और आपको आदमी की जिंदगी में प्रवेश करना चाहिए। आदमी की शक्ल तो हमारे पास है, पर आदमी की जिंदगी से हम दूर हैं। एक चीज भगवान ने अभी भी नहीं दी है और उसका नाम है—प्रकृति। हमारी आकृति आदमी की तो है, पर प्रकृति अभी तक नहीं है। तो क्या करना पड़ेगा? बेटे, हमको अपने बहिरंग जीवन को परिष्कृत करना पड़ेगा।

मित्रो! बहिरंग जीवन को परिष्कृत करने के लिए क्या करना चाहिए? दुनिया में एक ही मेथड और एक ही सिद्धांत है, जो काम आया है और वही व्यक्ति के जीवन के परिष्कार में भी काम आ सकता है। क्या चीज हो सकती है? बेटे! वह है—तपाया जाना। तपाने से क्या बन जाता है? पदार्थ को तपाने से मजबूती भी आ जाती है और क्वालिटी भी अच्छी होती है। लोहे का उदाहरण मैंने पहले ही आपको दिया है। भट्ठी में तपाने के बाद में लोहा अच्छा बन सकता है। लोहे की हम भस्म बनाते हैं। ताँबा भस्म बनाते हैं, बंग भस्म बनाते हैं। आप यह क्या करते हैं? अरे बेटे! हम उसे जलाते हैं, तपाते हैं। आप पुराने जमाने के हकीमों से पूछिए। क्यों साहब! आप जो अच्छी चीजें बनाते हैं। वे कैसे बनाते हैं? अभ्रक भस्म कैसे बनाते हैं? गटापार्चा, जो छदाम भर का होता है, दो पैसे का होता है, उसको हम जलाते हैं और जलाने के बाद में अभ्रक भस्म बनाते हैं और क्या-क्या बनाते हैं? हम रसायन बनाते हैं। रसायनों में मकरध्वज प्रसिद्ध है। उसमें भी पारे को तपाते हैं। सारी चीजों को, जितनी भी आप मालूम कीजिए, बेहतरीन पौष्टिक भस्में और जो कीमती दवाइयाँ हैं, सबमें गरमी दी जाती है। तरह-तरह के अर्क उतारे जाते हैं। किसका अर्क है? सौंफ का अर्क है। कैसे बनाया? हमने सौंफ को पानी में डाला, आग पर चढ़ाया और जो भाप बनी, उसे दूसरे बरतन में उतार लिया। यह क्या किया? भाई साहब! यह आग का संस्कार है। आग के संस्कार से हर चीज की सफाई होती है।

[क्रमश:]

व्यक्तित्व का परिष्कार (गतांक से आगे)

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस उद्बोधन में इस शाश्वत सत्य की ओर इशारा करते हैं कि मनुष्य की आंतरिक उन्नति उसके व्यक्तित्व के परिशोधन पर निर्भर करती है। यदि व्यक्तित्व परिशोधित हो सके एवं भावनाएँ परिमार्जित हो सकें तो मानव जीवन की गौरव गरिमा अक्षुण्ण बनी रहती है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि परिशोधन करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को तपाना पड़ता है और अपने कुसंस्कारों को समूल नष्ट करना पड़ता है। जिस तरह अग्नि में से तपकर निकलने पर धातुएँ मूल्यवान हो जाती हैं, उसी तरह तप की अग्नि से तपने के बाद साधारण मनुष्य भी असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी बन जाते हैं। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सबसे पहले साधक को वासनाओं का परिशोधन करना पड़ता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

अग्नि संस्कार का प्रभाव

मित्रो! आग का संस्कार करने से हर चीज कीमती हो जाती है। आग के संस्कार से हर चीज मजबूत होती है। आप चाहे जिसका उदाहरण ले लीजिए। आग के सैकड़ों उदाहरण बता दूँ आपको। कच्ची ईंट दो कौड़ी की होती है। पानी बरसता है, तो गल जाती है। जब हम ईंट को तपा देते हैं और उस गरम की हुई ईंट को दीवार में लगा देते हैं, तो सौ वर्ष तक, हजार वर्ष तक जिंदा रहती है। मैं गरमी की प्रशंसा कर रहा हूँ। एक कटोरी भर पानी को जब हम गरम करते हैं, तो वह भाप बन जाता है और हमारा खाना पका देता है। एक कटोरी पानी क्या खाना पकाएगा?

अरे बेटे! एक कटोरी पानी को आप समझते भी हैं कि क्या कमाल करता है? हम तो ज्यादा पानी पी लेंगे। हाँ. मैं जानता हैं कि आप एक कटोरी पानी, एक गिलास पानी, एक लोटा पानी पी सकते हैं, पर एक कटोरी पानी गरम करने के बाद में पानी की क्या हालत होती है, आप जानते हैं? वह किसी को जला भी सकता है। स्टोव फट जाए तब, प्रेशरकुकर फट जाए तब क्या हो सकता है? लखनऊ में एक मिनिस्टर के यहाँ पूरी कोठी जल गई। कैसे हुआ? पानी गरम करने का गीजर, उसका बटन ऑन करके घूमने चले गए। बस, उसमें पानी गरम होता रहा, उबलता रहा। ज्यादा स्टीम के कारण गीजर फटा और बँगले का आधा हिस्सा साफ कर दिया।

हम देते हैं तप का प्रशिक्षण

मित्रो! रेलगाड़ी में जरा-सा पानी होता है। उस पानी की भाप की नली पिस्टन से जोड़ दी जाती है। पिस्टन घूमता है और रेलगाड़ी का इंजन धड़धड़ाता हुआ सैकड़ों मील की स्पीड से, हजारों टन माल से लदे डिब्बे कितनी तेज गति से दौड़ते हैं। गाड़ी कौन चलाता है? पानी। गरम पानी की ताकत बहुत है और गरम इनसान की ताकत बहुत है। गरम इनसान किसे कहते हैं? बेटे! हम गरम इनसान का प्रशिक्षण देते हैं। आपको भीतर से गरम करने की नसीहत देते हैं।

गरम करने की नसीहत से क्या मतलब है? गरम करने की नसीहत से हमारा मतलब है—तप करना। आपको हम तप करने का शिक्षण देते हैं। आध्यात्मिक जीवन को, व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए एक काम अनिवार्य है और वह आपको करना पड़ेगा। क्या करना पड़ेगा? तप करना पड़ेगा। तप क्या होता है? तप उसे कहते हैं—जिसमें कि आदमी कष्ट सहना सीखता है। मुसीबत उठाना सीखता है। भूखा रहना सीखता है। धूप में खड़ा रहना सीखता है। नंगे पाँव चलना सीखता है। इसे क्या कहते हैं? इसे तप कहते हैं।

मित्रो! आपने तपस्वी देखे हैं न? हाँ, तपस्वी देखे हैं। चारों ओर आग जला लेते हैं और बीच में बैठे रहते हैं। पानी में खड़े रहते हैं। तपस्वी कौन होते हैं? वे होते हैं, जो भूखे रहते हैं और जो पानी पी करके ही रह जाते हैं। जो एकादशी का उपवास करते हैं, जो नमक नहीं खाते, जो शक्कर नहीं खाते। वे कौन हैं? ये तपस्वी लोग हैं।

यह तपस्या का बहिर्मुखी क्रियाकलाप के बारे में बताया था कि योग का बहिरंग क्रियाकलाप वह है, जिसमें हम गेरूआ रंग के कपड़े पहनते हैं। माला पहनते हैं, कान में छल्ले पहनते हैं। योग का बहिरंग क्रियाकलाप वह है, जिसमें हम जटाएँ रखते हैं। जिसमें चिमटा और कमंडलु हाथ में धारण कर लेते हैं। यह सब योग के बहिरंग क्रियाकलाप हैं, ध्यान रखना। ये अंतरंग क्रियाकलाप नहीं हैं, आप इसे भूल मत जाना। ये बहिरंग क्रियाकलाप अगर आपने धारण कर लिए हों और अंतरंग योग एवं अंतरंग तप आपके पास न आया हो, तो उसको मैं क्या कह सकता हूँ? उसको मैं बहुरूपिया कहूँगा।

पुरानी आदतों को बदलने का नाम है तप

मित्रो! मैं आपको तप के बारे में बता रहा था कि तप किसे कहते हैं? तप बेटे, उसे कहते हैं जिसमें हमारे बहिरंग जीवन की पुरानी वाली आदतों को दबाव डालकर बदल देते हैं और कहते हैं कि हम आपको इस रूप में जिंदा नहीं रहने देंगे और हम आपको बदल देंगे। आपको हमारा कहना मानना चाहिए। हम आपके कुसंस्कारों को बरदाश्त नहीं कर सकते।

हमारे शरीर की गतिविधियाँ जिस तरीके से चलनी चाहिए, उसके अंदर शालीनता का समावेश होना चाहिए। हमारी अक्ल के हिसाब से बहिरंग जीवन को चलाना चाहिए, पर हम मानते नहीं। हमारे शरीर की बनावट ऐसी है कि जिन आदतों का अभ्यास पड़ जाता है, उन्हें छोड़ना मुश्किल पड़ जाता है। इसलिए क्या करना पड़ता है कि जो आदतें हमारे ऊपर हावी हैं, उन आदतों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए उसी के मुकाबले का प्रेशर हमको इकट्ठा करना पड़ता है और यह कहना पड़ता है कि अच्छा आप हमारे कहने को नहीं मानेंगे, बाज नहीं आएँगे।

आपकी जो पहली आदतें हैं, उन्हें ठीक करना नहीं चाहेंगे। हमारी लंबे समय की आदतें हैं, सो हम बदलने को तैयार नहीं हैं। तो आइए, हमारी-आपकी कुश्ती होगी और हम आपसे लड़ेंगे। अपने आपसे लड़ाई ठान लेना, अपने आप से जद्दोजहद करना, अपनी पुरानी वाली आदतों को तोड़-मरोड़कर रख देना, उन पर इतना ज्यादा प्रेशर, दबाव डालना कि वो ची बोल जाएँ। पुरानी आदतों को ची बुलाने के लिए मजबूर करने की प्रक्रिया का नाम है—तप।

मित्रो! हम आपको तप करना सिखाते हैं। अध्यात्म का एक हिस्सा है—तप। तप में हमारी शारीरिक क्रियाओं पर दबाव डाला जाता है। जैसा कि मैंने आपको उपवास के बारे में बताया है। हमारी स्वाभाविक भूख कहती है कि खुराक लाइए और हमें कहना पड़ेगा कि हम आपका कहना नहीं मानेंगे। आप कहते हैं कि हम भूखे हैं, ठीक है, आप ऐसे ही सोइए। हम आपको पानी पिला सकते हैं। एक दिन में आप मरेंगे नहीं। आपको हमारा कहना मानना चाहिए। हम आपको खाना नहीं खिला सकते। यह क्या कहलाता है? तप। हमारी जो पुरानी अभ्यस्त आदतें हैं, उन आदतों के विरुद्ध लोहा लेना, लड़ाई करना, उन्हें इनकार करना—इसका नाम तप कहलाता है।

तप में कठिनाइयाँ बरदाश्त करनी पड़ती है। कई प्रकार की कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती हैं। एक तो शरीर का जैसा अभ्यास है, उस अभ्यास को तोड़ना पड़ता है। जैसे किसी को पलंग पर सोना पड़ता है। उसके बिना नींद नहीं आती। जमीन पर सोयेंगे तो हड्डियाँ टूट जाएँगी, हाथ-पाँव दुःखेंगे, तो कोई बात नहीं। कुछ समय तो आएगी ही। पलंग पर आठ घंटे नींद आती है, तो जमीन पर चार घंटे नींद आती है, तो जमीन पर चार घंटे तो सोएँगे ही। चार घंटे सोकर बरदाश्त कीजिए। नहीं साहब। हम चार घंटे क्यों सोएँ? हम तो आराम से सोएँगे। नहीं, आराम से मत सोइए।

आपको अपने शरीर के ऊपर दबाव डालने के लिए तप कराने को हमारा मकसद यह है कि तितिक्षा कीजिए और बरदाश्त कीजिए। बरदाश्त करना आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। हमारे बहिरंग जीवन को विकसित, परिष्कृत करने के लिए तप करना आवश्यक है।

मित्रो! मुझे याद आ गया, शायद नादिरशाह का किस्सा है। नादिरशाह हिंदुस्तान में आया तो उसने उस राजा से, जिसने उसकी अगवानी की थी, उससे कहा कि पानी पीने की जरूरत है। पानी मँगाइए। उसने अच्छे गिलास में, सोने-चाँदी के गिलास में इत्र की खुशबू डालकर के उसके सामने पेश किया। उसने कहा कि आपकी इसी तरह की आदतें हैं।

राजा ने कहा—हाँ! हमको अय्याशी की आदतें हैं। उसने लात मार करके पानी को फेंक दिया और हुक्म दिया हमारी मिलेट्री का भिश्ती बुलाया जाए। भिश्ती आया तो उसने अपना लोहे का टोप उतार करके भिश्ती से कहा कि इसमें पानी डाल। बस, भिश्ती ने मसक खोल दी और टोप में पानी डालता गया और उसने टोप में मुँह लगाकर पेट भर पानी पिया और फिर टोप सिर पर लगा लिया। बोला "यह अय्यास सोने-चाँदी का गिलास लिए फिरता है।"

कठिनाइयों का जीवन है तप

मित्रो! शारीरिक दृष्टि से कठिनाइयों का जीवन, मानसिक दृष्टि से कठिनाइयों का जीवन जीना तप है। मानसिक दृष्टि से बहुत सारी चीजें ऐसी होती हैं, जो हमारी आदतों में शुमार हैं। उन आदतों को जो हमारी दिमागी अय्याशी में शुमार हैं और हमारी शारीरिक अय्याशी में शुमार हैं, उनके विरुद्ध जब हम लोहा लेने के लिए खड़े हो जाते हैं, तो उसका नाम तप है।

तपाने से क्या होता है? तपाने से हमारा शरीर, हमारी भौतिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। जितने भी चमत्कार हुए हैं, जो आप सांसारिक चमत्कार देखते हैं, वे सब तप हैं। जिस किसी सिद्धपुरुष के भीतर, किसी महात्मा के भीतर, तपस्वी के भीतर कोई ऐसी चीज आपको दिखाई पड़ी हो। कैसी? जो संसार के लोगों को प्रभावित करती है, उनकी सहायता करती है, भलाई करती है। ऐसी कोई शक्ति दिखाई पड़े, जिसको आप सिद्ध करते हैं।

असली सिद्धि अगर किसी के पास दिखाई पड़े, तो आप जानना कि वह तप से पैदा हुई है। अगर नकली सिद्धि है, तो वह जालसाजी से पैदा हुई है। जालसाजी से भी सिद्धि पैदा होती है? हाँ बेटे, जालसाजी की तो चल ही रही हैं सिद्धियाँ। अधिकांश सिद्धियाँ जालसाजों की हैं।

मित्रो! एक सज्जन हैं, नाम तो उनका मैं नहीं लेता। वे लोगों के सामने अपना चमत्कार दिखाने के काम करते रहते हैं। बालों में से लाल रंग की बालू निकाल देते हैं। यहाँ पी.सी. सरकार नाम का जादूगर है। उसने एक अखबार में एक चैलेंज छापा। अगर सिद्धियाँ इसी को कहते हैं कि आदमी सिर के बालों में से लाल रंग की बालू निकाल दे, तो मैं सात रंग की बालू निकाल सकता हूँ और मुझे सात गुना सिद्धपुरुष घोषित किया जाए।

सात रंग की बालू और उधर से लाल रंग की बालू, इधर से पीले रंग की बालू, हरे रंग की बालू, काले रंग की बालू— सभी रंगों की बालू का मैं ढेर लगा दूँगा। मुझे सबके सामने पेश किया जाए और अगर मैं बालू न निकाल सकूँ, तो मुझे फाँसी दे दी जाए। बालू निकालकर मैं चला जाऊँगा, मुझे संसार का सबसे बड़ा सिद्धपुरुष माना जाए, जैसे कि हिंदुस्तान में एक आदमी सिर में से लाल रंग की बालू निकालता रहता है।

जो भी हो, नकली सिद्धियाँ तो भगवान जाने कहाँ से आती हैं? चालाकी से भी आती होंगी, लेकिन मैं आपसे कहता हूँ कि अगर किसी के सांसारिक जीवन में, पदार्थिक जीवन में, भौतिक जीवन में कोई विशेषता मालूम नहीं पड़ती हो या किसी आदमी में सांसारिक सहायता करने की सामर्थ्य मालूम पड़ती हो। कोई आदमी किसी की सांसारिक सहायता करता रहता हो, किसी का दुःख दूर करता हो, किसी को संतान का आशीर्वाद देता हो, किसी का सांसारिक कष्ट दूर करता हो।

अगर ऐसा कोई करता हो, तो आप यह जानना कि इसने ऐसा करने की सामर्थ्य अपनी तपश्चर्या से प्राप्त की है। तप के बिना सिद्धियाँ नहीं आ सकती, जिसमें कि आदमी का भौतिक जीवन चमत्कारी हो और दूसरों की ऐसी सहायता करने में समर्थ हो। पदार्थपरक सहायता, भौतिक सहायता, धन की सहायता आदि सहायताएँ केवल तप से पैदा होती हैं।

व्यक्तित्व का परिष्कार है तप

मित्रो! तप से क्या हो जाता है? तप से बेटे, आदमी का व्यक्तित्व परिष्कृत हो जाता है। कैसे परिष्कृत होता है? आध्यात्मिक जीवन के लिए भी, भजन करने के लिए भी हमारा भौतिक जीवन तपस्वी होना चाहिए। कैसे? आप जब इंजेक्शन की सुई लगाते हैं, तो क्या करते हैं? सुई लगाने से पहले आपका पहला कर्त्तव्य यह हो जाता है कि इसको बॉयल करें, गरम करें—उबालें और स्पिरिट से साफ करें। न करें तब? न करें तब, बेटे सुई में टिटनेस के कीटाणु लगे हो सकते हैं और हमारे खून में जा करके हमें अच्छा करने के बजाय बीमार कर सकते हैं। अगर गरम की हुई सुई नहीं है, तो एक व्यक्ति की बीमारी दूसरे में जा सकती है। इसलिए हमको गौर करना चाहिए। अगर इंजेक्शन बॉयल नहीं किया है, तो काम बनेगा नहीं। अगर आपने अनाज उबाला नहीं है, रोटी अगर सेंकी नहीं है, तो कच्ची रोटी, कच्चा गेहूँ, कच्चा आटा खा लेंगे, तो खाने वाले को मुश्किल होगी। पेट में दरद होगा, कच्चा आटा हजम नहीं होगा। इसलिए आटे को पकाइए, दाल को पकाइए।

मित्रो! दीपक का प्रकाश चाहिए, तो दीपक के तेल-बाती को जलाइए। गरमी पाकर दीपक रोशनी देगा। मैं क्या कह रहा हूँ? बेटे, मैं तप की महत्ता और माहात्म्य बता रहा हूँ। आदमी को आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए तपस्वी होना चाहिए। तपस्वी जीवन की साधना को आप ध्यान में रखिए। तपस्वी जीवन-एक। एक और बात मैं आपको बताता हूँ, बस, यही दो काम हैं। आत्मिक उन्नति के लिए तीसरा कोई काम नहीं है। एक है—तप।

तपस्वी जीवन के लिए हमें और आपको क्या करना चाहिए? यह शिक्षण अभी आगे दूँगा। आज तो मैं सिद्धांत बताता हूँ। दूसरा काम क्या करना पड़ेगा? दूसरा काम करना पड़ेगा योग। योग क्या होता है? योग कहते हैं बेटे, दो चीजों को मिला देने को। दो और दो का योग क्या होता है? चार। इसका क्या मतलब हुआ? बेटे, दो में दो चीजें मिला दी तो चार हो गया। जोड़ का नाम है—योग। जोड़ शब्द जो है योग से बना है। तो किस चीज को हम किस चीज से जोड़ दें? भौतिक जीवन को हम तप से जोड़ें।

अपने पंचतत्त्वों को हम तप से जोड़ें, ताकि वे परिष्कृत हो जाएँ, श्रेष्ठ हो जाएँ, शक्तिशाली हो जाएँ; श्रेष्ठतम हो जाएँ, ठीक हो जाएँ। और हम अपने अंदर जीवन को अर्थात अपनी चेतना को किसके साथ जोड़ें? भगवान के साथ जोड़ें। अपनी जीवात्मा को जब हम भगवान के साथ में, परमात्मा के साथ में जोड़ देते हैं, तब क्या हो जाता है? उदाहरण के लिए मैं आपको समझाता हूँ। आपने पारस पत्थर का नाम सुना होगा। लोहे को पारस पत्थर के साथ छुआ देते हैं, तो क्या हो जाता है? उसका नाम सोना हो जाता है। इस तरह के बहुत उदाहरण हैं।

भगवान से जुड़ने का नाम योग

मित्रो! किसी बड़े आदमी के संपर्क में आने के बाद में छोटे-छोटे आदमी बड़े हो जाते हैं। अक्सर मैं लाल बहादुर शास्त्री का किस्सा सुनाया करता हूँ। मुझे बहुत प्यारा लगता है। लाल बहादुर शास्त्री को उनके नाना ढाई रुपया महीना पढ़ने के लिए दिया करते थे। वे प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे और उस जमाने में पंद्रह रुपया महीना वेतन मिलता था। तीन-चार बच्चे उनके भी थे। एक लड़की थी। वह विधवा हो गई और अपने बच्चे को लेकर अपने पिता के यहाँ रहने लगी। लड़का जब बड़ा हुआ। उसने प्राइमरी स्कूल पास कर लिया, तो उस बच्चे ने कहा—"नाना जी ! हमारा मन आगे भी पढ़ने का है।" उन्होंने कहा—"बेटे, हम क्या कर सकते हैं? तुम्हारे हिस्से में ढाई रुपया आता है, उससे तुम खाना-पीना-पढ़ना, जो चाहो कर सकते हो।" ढाई रुपया महीना लाल बहादुर शास्त्री ने स्वीकार कर लिया और बनारस से इलाहाबाद चले गए, पढ़ने लगे। उसी में से एक रुपया का आटा खरीद लेते।

जंगल से लकड़ी बीनकर लाते। आटे में नमक मिलाकर रोटी बनाकर ले आते। जंगल में रोटी बनाते। सुबह की खुराक खा लेते और शाम के लिए रूमाल में बाँधकर ले आते। शाम को सबेरे वाली रोटी काम दे जाती। ऐसी गरीबी में पैदा हुए लाल बहादुर शास्त्री का जवाहर लाल नेहरू से मिलना-जुलना हो गया। पं. जवाहर लाल नेहरू के साथ में वे कांग्रेस वालंटियर कोर में भरती हो गए।

मित्रो! जवाहर लाल नेहरू ने बहुत से वालंटियरों को देखा। सबसे अच्छा वालंटियर चरित्र की दृष्टि से, व्यवस्था-बुद्धि की दृष्टि से, अनुशासन की दृष्टि से; हर कसौटी पर उन्हें कसा गया। पं. नेहरू को वह लड़का पसंद आ गया। उन्होंने कहा—"लड़के तुम वालंटियर कोर में से हमारे साथ रहा करो।" शास्त्री जी ने कहा—"हाँ, साथ रहेंगे। आप जो हुक्म देंगे, वही करेंगे। आप हमारे कप्तान हैं।"

शास्त्री जी साथ रहने लगे और पंडित नेहरू जितना ज्यादा पढ़ते चले गए, लाल बहादुर को उतनी ही ज्यादा इज्जत देते गए। लाल बहादुर शास्त्री को उन्होंने ही एम.एल.ए. बनाया। फिर यू.पी. का मिनिस्टर बनाया और फिर सेंट्रल गवर्नमेंट का मिनिस्टर बनाया और जब पं. नेहरू मरने को हुए, तो लोगों ने पूछा कि आपके बाद में आपकी गद्दी किसको सुपुर्द की जाए, तो उन्होंने एक ही आदमी की तरफ इशारा किया। हमारी दृष्टि में, हमारे संपर्क में जितने आदमी आए हैं, उनमें से लाल बहादुर शास्त्री बेहतरीन आदमी हैं। पं. नेहरू के बाद में उन्हें बादशाह बना दिया गया।

मित्रो! मैं यह योग से जुड़ने की बात कह रहा था। लाल बहादुर शास्त्री पं. नेहरू से जुड़ गए। आप तो भगवान के साथ रस्सी में बाँधकर जोड़ने की कोशिश करते हैं। पूजा की कोठरी में भगवान जी को रख लेते हैं और कहते हैं कि आइए, हम और आप पास-पास बैठेंगे। गले में गायत्री माता का लॉकेट पहन लिया। यह बाँध ली गायत्री माता। कहाँ बाँध ली? अरे गले में। गले में क्यों बाँधते हैं? हाथ-पाँव में बाँध लें। अरे महाराज जी! गायत्री माता भाग जाएँगी, इसलिए मैंने गले में बाँध ली हैं। आप तो उनके शरीर को बाँधना चाहते हैं। उन्होंने अपने मन को बाँध लिया था, जोड़ लिया था।

जोड़ देने से क्या होता है? जोड़ देने से बेटे, नाला गंगा जी हो जाता है। गंदगी से भरा गंदा नाला जुड़ जाने के बाद में गंगाजल हो जाता है। लोग आचमन करते हैं, जल भर करके ले जाते हैं और शंकर जी पर चढ़ाते हैं और कहते हैं कि यह गंगाजल है। आदमी जब श्रेष्ठता के साथ जुड़ जाता है, नाला गंगा से जब जुड़ जाता है, तो क्या हो जाता है? श्रेष्ठ हो जाता है। मनुष्य जब भगवान से जुड़ जाता है, तो क्या हो जाता है? वह भगवान हो जाता है। आदमी अगर सही माने में भगवान से जुड़ा है, तो भगवान से कम कैसे हो सकता है? चलिए उससे घटिया बात भी अगर मान लें, तो लोहा पारस से छूकर पारस न भी हुआ, तो सोना तो जरूर हो जाता है।

मित्रो! आदमी के भगवान से जुड़ जाने के बाद में दोनों के बीच का आदान-प्रदान चालू हो जाता है। दोनों के बीच करेंट चालू हो जाता है। अगर इस माइक में करेंट हो और हम इसे पकड़ लें, तो करेंट हमारे भीतर आएगा कि नहीं आएगा? जरूर आ जाएगा। और आप सारे-के-सारे लोग हमको पकड़ लें, तो क्या हो जाएगा बताइए? आप सबमें करेंट फैल जाएगा कि नहीं फैल जाएगा। फिर हम सब मरेंगे। क्यों? क्योंकि करेंट एक से दूसरे में चला जाएगा।

क्या है भगवान?

भगवान को आप पकड़ लें तब? भगवान क्या है? भगवान एक करेंट है। तो क्या होगा? तो वह करेंट आपको भी पकड़ लेता है। फिर क्या होगा? भगवान की जो गरमी है, वह आपके भीतर आ जाएगी। अगर भगवान की विशेषता न आए तब? तब बेटे, शर्त है कि आप पकड़ क्या रहे हैं? लीजिए पकड़ लिया और चिल्लाए—भाई साहब! करेंट आ गया-करेंट आ गया। अरे आप तो ऐसे ही चिल्ला रहे थे, झूठ बोल रहे थे। मैं तो बहका रहा था।

क्यों बहका रहे थे? इसलिए कि आपको यह रोब गालिब हो जाए कि गुरुजी कितने ताकतवर हैं, देखो, बिजली को पकड़ लिया। वास्तव में क्या होता है कि जो करेंट बिजली का हमारे शरीर में और जिस्म में जाता दिखाई पड़ता है। अगर भगवान के साथ में मनुष्य जुड़ जाए, तब? तब भगवान की सारी विशेषताएँ इनसान के भीतर दिखाई पड़ेंगी। इनसान के भीतर भगवान के गुण, भगवान के कर्म, भगवान के स्वभाव, भगवान की इच्छाएँ दिखाई पड़ेंगी।

मित्रो! आदमी के भीतर यह सब दिखाई न पड़े तब? तब मैं यह कहता हूँ कि योग हुआ नहीं। न गंगाजल का योग नदी के साथ हुआ, न बिजली करेंट का, न पारस का लोहे से हुआ। अच्छा साहब! भगवान के साथ योग साधने के लिए भगवान के साथ क्या करना पड़ेगा? बेटे, मिलना पड़ेगा, घुलना पड़ेगा। जब दोनों आपस में मिल जाते हैं, घुल जाते हैं, तो दोनों की स्थिति और दोनों की हैसियत एक हो जाती है। हमारी आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी हो जाती है।

तो करना क्या पड़ेगा? मिला देना पड़ेगा। मिलाने के लिए क्या करना चाहिए? भगवान के साथ योग करने से पहले क्या करना चाहिए? इससे पहले योग करना मैं सिखाऊँगा। किसके साथ योग किया जाता है? यह बताने से पहले मुझे यह समझाना होगा कि भगवान आखिर है क्या चीज। चलिए अब मैं यही बात शुरू करता हूँ, अन्यथा आप भटकते रहेंगे और वहम में मारे-मारे फिरेंगे।

मित्रो! भगवान क्या चीज है? भगवान को मैं दो हिस्सों में बाँट देता हूँ। एक है—ब्रह्म। ब्रह्म किसे कहते हैं? ब्रह्म उसे कहते हैं जो सारे-के-सारे विश्व का नियंत्रण कर रहा है। सारे-के-सारे कानून बना दिए हैं और ऑटोमेटिक सिस्टम बना दिए हैं।

हमारे भीतर ऑटोमेटिक सिस्टम उस भगवान ने बना दिया है, ताकि इनसान बनाने, व्यवस्था करने के मामले में उसको बार-बार दखल न देना पड़े। हमारे भीतर ऑटोमेटिक सिस्टम है। जिस दिन हम कुछ ऐसी चीज खा लेते हैं, जैसे दूध में डालकर नीलाथोथा खा लें, मिट्टी खा लें तो तुरंत उलटी हो जाएगी। यह कौन उलटी कर रहा है? बेटे, इसके अंदर मशीन बैठी हुई है, जो ऑटोमेटिक सिस्टम से हमारा सारा काम चलाती है। हम जुलाब की गोली खाते हैं, फौरन हमको दस्त होने लगते हैं। आग छूते हैं और हम जल जाते हैं। बरफ खाते हैं और ठंढे हो जाते हैं। यह क्या चीज है? यह एक ऐसा सिस्टम, ऐसी व्यवस्था है, जिसके अंदर जड़ और चेतन सब जुड़े हैं।

यह कौन है? यह सारी-की-सारी सृष्टि की व्यवस्था बनाता है। उसका नाम ब्रह्म है। ब्रह्म एक कायदे का नाम है; एक कानून का नाम है; एक नियम का नाम है; एक मर्यादा का नाम है, जो सारी व्यवस्था को संचालित करता है। उसका स्वरूप बताइए। बेटे, हम उसका स्वरूप नहीं बता सकते। इतना बड़ा ब्रह्म है कि ईश्वर की कोई व्याख्या हम कर सकने में समर्थ नहीं हैं। नहीं, आप कर दीजिए। नहीं बेटे, हम नहीं कर सकते। कैसे? ईश्वर की तो हम तब व्याख्या करेंगे, जबकि उसकी छोटी-छोटी क्रियाओं की हम व्याख्या नहीं कर सकते।

[क्रमशः समापन अगले अंक में]

व्यक्तित्व का परिष्कार (समापन किस्त)

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में इस शाश्वत सत्य की ओर इशारा करते हैं कि मनुष्य की आंतरिक उन्नति वस्तुतः उसके व्यक्तित्व के परिशोधन पर निर्भर करती है। वे कहते हैं कि व्यक्तित्व का परिष्कार करने के लिए दो साधनात्मक पथ सदा से निर्धारित रहे हैं। पहले का नाम तप और दूसरे का नाम योग है। तप की अद्वितीय परिभाषा परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि तप का तात्पर्य पुरानी आदतों के रूपांतरण से है और ऐसा करने में साधक को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उनको सहर्ष स्वीकारने का नाम तितिक्षा है। जब साधक का व्यक्तित्व तप की ऊर्जा से अनुप्राणित हो जाता है, तब वह परमसत्ता से मिलन के योग्य बन जाता है और इस मिलन का नाम योग है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........

नहीं है संभव ब्रह्म का वर्णन

मित्रो! जैसे अपनी पृथ्वी के ऊपर जो पानी है, वह किससे बना है? हमारे यहाँ पानी दो गैसों से मिलकर बनता है—ऑक्सीजन और हाइड्रोजन। इन दो गैसों को जब भी हम मिला देते हैं, तो पानी बन जाता है। यह केमिस्ट्री हमारे यहाँ है और मंगल ग्रह के ऊपर है कि वहाँ अमोनिया पानी के रूप में बदल जाता है। अमोनिया क्या होता है? अमोनिया, बेटे! नौसादर को कहते हैं। जरा-सा नौसादार नाक में लगा दो, छींक आ जाती है। सारे मंगल ग्रह में नौसादर ही है? हाँ बेटे! अमोनिया में कुल्ला करते हैं, अमोनिया में नहाते हैं। तो महाराज जी! अमोनिया में नहानेवाला जिंदा रहता है कि मरता है, जिंदा रहता है।

यह कैसी फिजिक्स है, कैसी केमिस्ट्री है? बेटे! मैं फिजिक्स की क्या बताऊँ? यह फिजिक्स वहाँ काम करती है और यहाँ एटम काम करता है। अगर आप यहाँ से पृथ्वी के एटमों को काटते हुए चले जाएँ तो फिर ये एटम जर्रे जो हमारी जमीन पर पड़े हैं, वहाँ इस तरीके से पाएँगे, जैसे आग की ज्वाला है। आग की नीले रंग की ज्वालाएँ दौड़ती चली जा रही हैं। यह मेटल जा रहा है। मेटल तो परमाणु वे रूप में होता है। अरे! परमाणु के रूप में नहीं होता। यह गैस फॉर्म में है। गैस फॉर्म में जो मेटल है, नीले रंग की आग, हरे रंग की आग, पीले रंग की आग के रूप में, गुब्बारे के रूप में ऐसे ही दिखाई पड़ेगी। जमीन से आए पाँचवें-छठवें एटमॉसफियर पर चले जाइए, वहाँ ऐसी आग की लपटें दौड़ती हुई दिखाई पड़ेंगी। यह आग ठंढी होती है या गरम होती है? ठंढ-गरम कुछ नहीं, बस, आग होती है और ऐसे ही भागती फिरती है।

मित्रो! यह क्या वबाल है? वहाँ की फिजिक्स अलग है और पृथ्वी की फिजिक्स अलग है। आप तो भगवान के बात बताइए? कैसे बताऊँ भगवान की बातें, ब्रह्म की बातें ऋषियों ने सही कहा है कि इसका वर्णन हम नहीं कर सकते। हम बता नहीं सकते हैं और हमें कोई जानकारी नहीं है। उसकी विराटता, व्यापकता इतनी ज्यादा है कि आदर्म की अक्ल उसके सामने राई के बराबर है। नहीं साहब, लंबाई बता दीजिए। लंबाई बताने लगें, तो पागल हो जाओगे कैसे? एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी हजार मील यानि कि तीन लाख किलोमीटर प्रकाश भागता है। अब हिसाब लगा लीजिए। यह सेकेण्ड की बात बता रहा हूँ। फिर एक महीने में कितना दौड़ेगा? पता कर लीजिए। अरे महाराज जी! इसमें तो बहुत बिंदियाँ हो जाएँगी। हाँ बेटे! फिर भगवान की, ब्रह्म की नाप-जोख कैसे हो सकती है? संभव नहीं है।

हर इनसान में ईश्वर

मित्रो! अब एक और सूत्र सामने आता है; जिसका नाम है—परमात्मा। परमात्मा क्या होता है? आत्मा वह है, जो सामान्य मनुष्यों के भीतर एक जीवन के रूप में काम करती है और परमात्मा कहते हैं—सुपरसत्ता को, जिसको उस दिन मैं आप से सद्गुरु कह रहा था। वह कैसा है? वह हमारे लिए बनाया गया है और हमारे अंत:करण में निवास करता है। एक ईश्वर वह है, जो हमारे व्यक्तिगत जीवन में काम करता है और वही हमको फल देता है। वही हमसे नाराज होता है, वही हमको आशीर्वाद देता है।

वह किसका है? वह बेटे! हमारा ईश्वर है, जिसको हम पैदा करते हैं। जिसको हम बढ़ाते हैं, जिसको हम मजबूत करते हैं। जिसको हम चाहें तो गिरा भी सकते हैं और खतम भी कर सकते हैं। वह ईश्वर हमारा है? हाँ बेटे, हर आदमी एक अलग ईश्वर है। मसलन, मीरा का एक अलग ईश्वर था। उसने अपने ईश्वर को पाल-पोसकर बड़ा किया।

वह कैसा था? एक पत्थर का टुकड़ा था, जिसे किसी ने उसके हवाले कर दिया था, मीरा के हवाले कर दिया था। उसे मीरा ने पाल-पोस करके, दूध पिला करके, तेल मालिश करके ऐसा मजबूत बना दिया कि वह पत्थर भगवान बन करके मीरा के साथ नाचने लगा और राणा ने जब जहर का प्याला भेजा, तो उसका जहर पी लिया। गिरिधर गोपाल बहुत ताकतवर था। फिर उसका क्या हुआ?

मित्रो! गिरिधर गोपाल से क्या मतलब है आपका? गिरिधर गोपाल से आपका मतलब अगर पत्थर से था, तो वह पत्थर राजस्थान के मेड़ता में अभी भी ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखा हुआ है। पत्थर में चमत्कार है? नहीं बेटे! पत्थर में कोई चमत्कार नहीं है। फिर मीरा का गिरिधर गोपाल क्या था? मीरा ने अपनी श्रद्धा के हिसाब से, अपनी भावना के हिसाब से पत्थर के भीतर भगवान को आरोपित किया था। उसकी श्रद्धा की खुराक खा-खा करके गिरिधर गोपाल मोटा और मजबूत होकर मीरा के साथ चलता रहा। यह मीरा का व्यक्तिगत गोपाल था। परमात्मा हम इसी को कहते हैं। फिर मीरा के बाद गिरिधर गोपाल का क्या हुआ? मीरा के बाद में गिरिधर गोपाल मर गया।

अरे! राम-राम, यह क्या कह रहे हैं—आप भगवान के बारे में? सच कहता हूँ। उसने कहा कि हमारी मीरा मरेगी, तो हमको भी मरना चाहिए। आपने पतिव्रता स्त्रियों के बारे में सुना है। पतिव्रताएँ अपने मर्दों के साथ में मर जाती हैं, जल जाती हैं और वह जो गिरिधर गोपाल था, मीरा के साथ में जल गया। क्यों? क्योंकि मीरा ने उस गिरिधर गोपाल को पैदा किया था। यह उनका कौन था? भगवान था, स्वामी था, सेवक था, सच-सच बता दीजिए? यह था मीरा का बेटा। उसने अपनी श्रद्धा के आधार पर उसे पैदा किया था। पत्थर के टुकड़े में मीरा ने एक परमात्मा को पैदा किया। जैसे औलाद पैदा करते हैं, ऐसे ही आध्यात्मिक औलादें भी पैदा की जाती हैं।

मित्रो! रामकृष्ण परमहंस की देवी काली कितनी जबरदस्त थी। विवेकानंद जब नौकरी माँगने के लिए गए, तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा—जा, देवी के पास नौकरी माँग करके ला। विवेकानंद ने देवी को देखा, जो जमीन से लेकर आकाश तक फैली थी। आग के तरीके से जलती काली को उन्होंने देखा। उन्होंने कहा—"माँ! मैं नौकरी माँगने नहीं आया।" क्या माँगने आया? माँ मैं शक्ति माँगने आया, भक्ति माँगने आया, शांति माँगने आया। देवी खिल-खिलाकर हँसी और उसको आशीर्वाद देकर के चली गई।

कौन-सी देवी थी? रामकृष्ण परमहंस की देवी, जिसको रानी रासमणि ने देखा था कि परमहंस जो भोग खाते थे, देवी भी साथ-साथ खाती थी। देवी थी? हाँ बेटे! देवी थी। दक्षिणेश्वर के मंदिर में अभी भी वह देवी विद्यमान है। तो क्या अब भी देवी में चमत्कार है? हम जाएँ तो विवेकानंद के तरीके से देवी हमें भी दिखाई दे सकती हैं? हमको भी आशीर्वाद दे सकती हैं? नहीं बेटे! आपको कोई आशीर्वाद नहीं दे सकती। क्यों? क्योंकि वह जो देवी थी, जो रामकृष्ण परमहंस ने पैदा की थी, वह रामकृष्ण परमहंस के साथ-साथ पैदा हुई, रामकृष्ण परमहंस के साथ जीवित रही और रामकृष्ण परमहंस के साथ में सती हो गई।

भक्त की भक्ति से जन्मे भगवान

महाराज जी! आप तो कह रहे थे कि गिरिधर गोपाल मीरा के साथ में सती हो गए, सता हो गए। अब आप कहते हैं कि देवी जो थी, वह सती हो गई। हाँ बेटे! दोनों ही बातें हो सकती हैं। वह भक्त, जो भगवान को पैदा करता है और पैदा करने के बाद में जब तक उस भक्त की भक्ति जिंदा रहती है, तब तक भगवान जिंदा रहता है। यह कौन-सा भगवान है? बेटे ! मैं इसी के बारे में कह रहा था। परमात्मा इसी का नाम है और हमारे व्यक्तिगत जीवन में कोई लाभ-हानि देगा, तो यही परमात्मा देगा, जिसको हमने पैदा किया। हम किस तरीके से पैदा करते हैं?

मानवीय सिद्धांत और आदर्श, जो हमारे भीतर भगवान के रूप में काम करते हैं। भगवान किस रूप में काम करता है? आदर्शों के रूप में। सुप्रीम सत्ता हमारे भीतर किस तरह से काम करती है? आदर्शों के रूप में, आस्थाओं के रूप में, श्रद्धाओं के रूप में हमारे भीतर काम करती है।

आपके भीतर कितना भगवान है? हम मीटर लगाकर के आपको अभी बता सकते हैं। लाइए थर्मामीटर। थर्मामीटर से क्या बुखार देख रहे हैं? हाँ बेटे! मैं बुखार देख रहा था कि कितना टेम्प्रेचर आ गया? 99.5 सेण्टीग्रेट आ गया। तो क्या आप बता सकते हैं कि कितना मीटर है भगवान? इसके लिए आप क्या करेंगे?

आपके दिमाग और आपके अंत:करण में एक सलाई डालेंगे और तीन तरीके से आपकी परीक्षा करेंगे और देखेंगे कि आपके शरीर में सत्कर्मों की प्रेरणा के रूप में, कितनी मात्रा में गरमी है। यह क्या कह रहे हैं? बेटे! हकीम जी नब्ज देखते हैं। नब्ज में क्या देखते हैं? यह देखते हैं कि दिल में धड़कन कितनी है। धड़कन के अलावा टेम्प्रेचर कितना है। इसके लिए थर्मामीटर लगाते हैं। अच्छा, और क्या देखते हैं? बेटे! जीभ देखते हैं, आँखें देखते हैं। ऐसे ही हम आपको देखकर के बता सकते हैं कि आपके भीतर कितना भगवान है।

मित्रो! आपके भीतर अगर भगवान है, तो आपकी क्रियाओं के रूप में, कर्म के रूप में, सत्कर्मों के रूप में भगवान को दृष्टिगोचर होना चाहिए और आपके विचारों में सद्ज्ञान के रूप में भगवान दृष्टिगोचर होना चाहिए और आपके अंतःकरण में सद्भावना के रूप में भगवान दृष्टिगोचर होना चाहिए। नहीं साहब! हमारे भीतर तो इन चीजों में से कोई भी चीज नहीं है।

आपके अंदर सत्कर्म है? नहीं गुरुजी! हम तो सबेरे से उठते हैं और सिवाय बदमाशी, बेईमानी के दूसरा काम नहीं करते और आपके विचार? हमारे विचारों में तो इतना गंदापन, इतना कमीनापन, इतनी जलालत भरी पड़ी है कि अगर आप हमारे विचारों को देखें तो घिन आ जाएगी। हम तो सफेद कपड़ा पहने बैठे हैं, पर विचारों की दृष्टि से हम बड़े कमीने हैं, गंदे हैं और आस्थाओं की दृष्टि से?

आस्थाएँ, श्रद्धा-श्रेष्ठता के ऊपर हमारा विश्वास जगाती हैं। हम चोंगा पहने बैठे हैं। सत्य का बहाना बना देते हैं, रामायण की बात कह देते हैं, पर रामायण के भीतर जिस तत्त्वज्ञान का, जिन श्रद्धाओं का समन्वय है, जिस श्रद्धा को भरत जी ने अपने रोम-रोम में रमा लिया, जिस श्रद्धा को केवट ने अपने रोम-रोम में रमा लिया, जिस श्रद्धा को हनुमान ने अपने रोम-रोम में रमा लिया था। जिस श्रद्धा को गिलहरी ने, विभीषण ने, जटायु ने अपने जीवन में रमा लिया था। वह श्रद्धा तो आपके जीवन में छुई भी नहीं।

भगवान का ढकोसला

मित्रो! आपके जीवन में श्रद्धा तो नहीं है, तो मैं यह कह सकता हूँ कि आप में ये तीनों-के-तीनों कलेवर भगवान की तरह से खाली हैं। वे आपके पास नहीं हैं। फिर कौन-सी चीज है आपके पास? आपके पास भगवान का ढकोसला है। ढकोसला कैसे होता है? अरे! आपने ढकोसला ही नहीं देखा। ढकोसला देखेंगे, तो आप अचंभे में रह जाएँगे। भगवान का ढकोसला देखना हो तो आप जाइए और देखिए, कैसे-कैसे ढकोसले होते हैं? एक दिन भगवान जी शबरी से बात कर रहे थे। शबरी जी! हम बहुत भूखे हैं और हमको आप खाना खिला दीजिए? शबरी ने कहा—"हमारे पास तो बेर हैं। हम आपको बेर खिला सकते हैं।" लाइए बेर ही खिला दीजिए। कोई हमको खाना नहीं खिलाता।

शबरी बेर खिलाती तो जाती थी और यह पूछती जाती थी कि नाथ-द्वारे के मंदिर का क्या हुआ? जहाँ सोने की चक्कियों में केसर पीसी जाती है। पिस्ता और बादाम का हलवा बनता है। उसका क्या हुआ? और वृंदावन में जो छप्पनभोग लगते हैं, उनका क्या हुआ? और दक्षिण भारत के मंदिरों में जो भोग लगता है, उसका क्या हुआ? वे सब आपको नहीं मिले? नहीं, हमको नहीं मिले। तो कौन खा जाता है? वे सब पंडे-पुजारी खा जाते हैं। हम तो दरवाजे पर भिखारी के रूप में, दरिद्रों के रूप में, कोढ़ियों के रूप में, दीनों के रूप में खड़े रहते हैं और कहते हैं कि रोटी का टुकड़ा हमको दे दीजिए, तो पुजारी कहता है कि यहाँ से निकल।

मित्रो! यह भगवान तो मालदारों का है। भगवान पैसा वालों का है, अमीरों का है। भगवान पंडों का है। उसका गरीबों से कोई ताल्लुक नहीं है। इसलिए गरीबों के हिस्से में भगवान नहीं आ सकता। तो शबरी तू ही बता कि हम किस तरीके से रोटी खाएँ और हमको रोटी कौन देगा? ठीक है, आइए, हम आपको रोटी खिलाएँगे। शबरी भगवान को जूठे बेर खिला रही थी।

आप जिसके साथ जुड़े हुए हैं, उसका नाम क्या है? उसका नाम है—ढकोसला। भगवान के नाम के बराबर इतना बड़ा ढकोसला शायद ही कहीं दिखाई पड़ता हो। मित्रो! चारों ओर ढकोसला ही दिखाई पड़ता है। असली भगवान क्या हो सकता है? असली भगवान तो वही हो सकता है। जब वह हमारे भीतर प्रवेश करता है, तब क्या करते हैं? बेटे! जैसे बिजली के दो तारों को जब हम मिला देते हैं, तो उसके अंदर एक चीज उठती है। उसका नाम है—करेंट। करेंट किसे कहते हैं? बेटे! अगर करेंट को देखना चाहते हैं, तो मैं उसे स्पार्क के रूप में दिखा सकता हूँ। करेंट दिखाई तो नहीं पड़ता, लेकिन झटका दे सकता है। जैसे ही दोनों तारों को पास लाते हैं, तो चिनगारियाँ निकलनी शुरू हो जाती हैं।

चिंतन में लाएँ भगवान

मित्रो! जब आत्मा-परमात्मा के साथ छूना शुरू करता है, तो उसमें से स्पार्क शुरू हो जाता है। स्पार्क किसे कहते हैं? स्पार्क कहते हैं—आदर्शों को। आदमी के व्यक्तिगत जीवन में आदर्श, आदर्शों की हूक, आदर्शों की उमंग, आदर्शों की ललक इस कदर छूटती है कि आदमी अपने आप को बेकाबू महसूस करता है। सारे-के-सारे बंधन एक ओर और आदर्शों की हूक एक ओर। आदर्शों की ललक एक ओर। आदर्शों के प्रति निष्ठा एक ओर और आदर्शों के प्रति कठोरता एक ओर। ये सारी-की-सारी चीजें स्पार्क के रूप में चली आती हैं। तो आप भगवान को क्या कहते हैं? चलिए मैं भगवान को आदर्शों और उत्कृष्टताओं का समुच्चय कह सकता हूँ।

चिंतन में जब भगवान आता है, तो हमारे भीतर उत्कृष्टता ले आता है। व्यवहार में जब भगवान हमारे पास आता है, तो आदर्श कर्तृत्व के रूप में दिखाई पड़ता है। आँख से दिखाई पड़ता है? नहीं बेटे, आँख से नहीं दिखाई पड़ता। आँख से किसी ने नहीं देखा है। नहीं, हम तो आँख से भगवान के दर्शन करना चाहते हैं। तो चले जाइए बदरीनाथ। आँख से भगवान नहीं दिखता। आँख तो मिट्टी की, पत्थर की बनी है और यह केवल मिट्टी और पत्थर को ही दिखा सकती है। हमारा जो यह चेतन है, चेतन को दिखा सकता है। चेतन जड़ के द्वारा नहीं देखा जा सकता। आप हमारे प्राण को देखिए। किससे देखेंगे? माइक्रोस्कोप से। भगवान को आँखों से नहीं देखा जा सकता। आँख से किसी ने नहीं देखा।

मित्रो! भगवान को आँख से देखने की उम्मीदें करना गलत है। तो भगवान को कैसे देखा जा सकता है? बेटे! भावनाओं के द्वारा देखा जा सकता है और कोई चीज या तरीका नहीं है। कैसे देखा जा सकता है? बेटे! हम दोनों को जब मिला देते हैं, तो योग हो जाता है अर्थात जब हम अपने आप को भगवान के साथ मिला देते हैं, आदर्शों के साथ मिला देते हैं, तब हम योगी हो जाते हैं। योग का तात्पर्य है—अपनी विचारणा को आदर्शवादिता के साथ मिला दें और तप का अर्थ है—अपने बहिरंग जीवन को आदर्शवादिता के, सिद्धांतों के साथ में तपा देना और घुला देना।

यह तप और योग है। योग और तप में क्या अंतर है? योग और तप की हम व्यावहारिक जीवन में व्याख्या करने लगें, तो हम इसे सभ्यता और संस्कृति कह सकते हैं। अब आप सोशियोलॉजी पर—समाज विज्ञान पर आ जाइए, सिविकसेंस पर आ जाइए। तब आप क्या कहेंगे? चलिए मैं आपको व्यावहारिक भाषा बता सकता हूँ। यह तो कठिन शब्द है, इसलिए कई बार आप जंजाल में फँस जाते हैं। जंजाल में आप न फँसना चाहें, बोल-चाल की भाषा में समझना चाहें, तो मैं ऐसे समझा सकता हूँ।

सभ्यता और संस्कृति

कैसे? तप का अर्थ है—सभ्यता। सभ्यता का अर्थ है कि हमको समाज के प्रति और दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का किस तरीके से निर्वाह करना चाहिए। सिविकसेंस इसी में आता है। शिष्टाचार इसी में आता है। कानून का पालन इसी में आता है। लॉ एंड आर्डर इसी में आता है। डिसिप्लिन इसी में आता है। ये सारे-के-सारे फायदे इसी में आते हैं। जिसको हम तप कहते हैं।

मित्रो! यह क्या है? यह सभ्यता है। सभ्यता—जिसमें एक व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ और समाजनिष्ठ होना चाहिए। श्रेष्ठ और शालीन होना चाहिए। उत्कृष्ट और भला आदमी होना चाहिए। यह क्या है? यह बेटे! तप के हिस्से हैं। तप का परिणाम यहाँ होना चाहिए। तप का अभ्यास करने के लिए कई काम करने पड़ते हैं, जैसे कि शरीर की कलाइयाँ मजबूत करने के लिए कई बार अखाड़े में जाना पड़ता है। कई बार दंड पेलने पड़ते हैं। कई बार दंड-बैठक करनी पड़ती है। उसी तरीके से अपने आपको सभ्य बनाने के लिए हमको कई तरह की कसरत करनी पड़ती है।

कसरतें कौन-सी हैं? वही हैं, जिनको हम तपश्चर्या कहते हैं। जिनका मकसद है—अपने व्यावहारिक जीवन में शालीन जीवन जिएँ। सज्जनता का जीवन जिएँ, शराफत का जीवन जिएँ, अच्छाई का जीवन जिएँ। जिसका अभ्यास करने के लिए जो हमारे कुसंस्कार हैं, उनको निकालने के लिए, मारने के लिए, तोड़ने के लिए जो खास किस्म के व्यायाम कराए जाते हैं, उनको तप कहते हैं। व्यायाम में यह फायदा है कि व्यायाम के जरिए से हमारी कलाइयाँ, हमारी माँसपेशियाँ और हमारा नर्वस सिस्टम मजबूत हो जाता है और तप से क्या फायदा है? तप अपने आप में कोई महत्त्वपूर्ण चीज नहीं है।

मित्रो! तप उस चीज का नाम है, जो हमारे कुसंस्कारों को दबाने में और सुसंस्कारों को जगाने में, सुसंस्कारों को उभारने में काम आता है। जो हमारे बहिरंग जीवन को स्मार्ट बनाता है। इन सारी-की-सारी प्रक्रियाओं को साधने के लिए साधना करते हैं। साधना साधने को कहते हैं। अपने आप को साध लेने का नाम साधना है। अपने बहिरंग जीवन को साध लेने का नाम तपश्चर्या है, तितिक्षा है। इसको आप दूसरे शब्दों में कहना चाहें, तो सभ्यता कह सकते हैं।

योग किसे कहते हैं? इसको कहेंगे—संस्कृति। संस्कृति क्या होती है? संस्कृति कहते हैं—कल्चर को। कल्चर क्या होता है? कल्चर कहते हैं—हमारी विचारणाएँ, हमारी आस्थाएँ, हमारी मान्यताएँ, हमारी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ इस तरह की होती हैं, जिनको हम संस्कृति कहते हैं। संस्कृति हमारी चेतना का विषय है और सभ्यता हमारे शरीर का विषय है। हमारे व्यवहार का विषय है। सभ्यता और संस्कृति दोनों को मिला दें, तो आप यह मान सकते हैं कि योग से क्या मतलब होना चाहिए? तप से क्या मतलब होना चाहिए? योग और तप बड़े कठिन शब्द हैं। दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए, हमको जीवात्मा को संस्कारवान बनाने के लिए, कई तरह की कसरतें करनी पड़ती हैं।

मित्रो! वे कसरतें जो हमको संस्कारवान बनाने का अर्थात हमारी चेतना का स्तर ऊँचा उठाने का जो उद्देश्य है, उसको पूरा करती हैं, उन सबको हम योगाभ्यास कह सकते हैं। हम जो भी कसरत करेंगे, जो भी व्यायाम इस काम को पूरा करेंगे, उनको हम योगाभ्यास कह सकते हैं। वे हमारे बहिरंग जीवन को हमारे व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं। उन सब चीजों को हम तप कह सकते हैं।

तप और योग का उद्देश्य यही है। योग और तप हमारी साधना की दो दिशाएँ हैं। हमारे बहिरंग जीवन को समर्थ बनाने के लिए तप और हमारे अंतरंग जीवन को समर्थ बनाने के लिए योग है। योग की भी कुछ क्रियाएँ हैं। तप की भी कुछ क्रियाएँ हैं। इन क्रियाओं के साथ-साथ विचारणा जुड़ी हुई है। विचारणा अगर तप के साथ न जुड़ी हो, तो भी वह बेकार है। विचारणाएँ, आस्थाएँ, विश्वास और मान्यताएँ अगर आपकी योगाभ्यास क्रियाओं के साथ नहीं जुड़ी होंगी, तो भी बेकार हैं, निष्प्राण हैं, जानरहित हैं। निर्जीव, जीवनरहित हैं। केवल उनकी शक्ल है। योग की शक्ल है, तप की शक्ल है, लेकिन उनके अंदर प्राण नहीं है।

मित्रो! मैं चाहता था कि आपका योगाभ्यास प्राणवान बने, आपका तप प्राणवान बने। ऐसा प्राणवान बने, जैसे कि ऋषियों ने योग का महत्त्व बताया है, तप का महत्त्व बताया है। आप ठीक उसी क्रिया के आधार पर करते, तो वैसे ही लाभ उठाकर जाते और धन्य हो जाते और हमारा शिविर धन्य हो जाता। आपका आगमन धन्य हो जाता और आपको बुलाना धन्य हो जाता। मैं चाहता हूँ कि आगे से इस ब्रह्मवर्चस की उपासना, जो योग और तप दोनों के ऊपर टिकी हुई है, उसको आपको समझाऊँ। उसकी क्रिया और प्रक्रिया का स्वरूप समझने के लिए आप कल से तैयार रहिए। आज मैंने आध्यात्मिक जीवन के लिए योग और तप की बात बताई। सांसारिक जीवन के लिए श्रम की बात बताई। आलस्य और प्रमाद को छोड़कर के आप श्रम का जीवन जिएँ, व्यवस्थित जीवन जिएँ। कल मैंने भौतिक जीवन के लाभ बताए थे। आज मैं आपको आध्यात्मिक जीवन की भूमिका बता रहा हूँ। इसके लिए जो योगाभ्यास कराए जा रहे हैं, उनका स्वरूप भी आपको समझाऊँगा। उनके अंदर जो कमी-बेसी हो जाती हैं, जो भूलें और गलतियाँ हो जाती हैं, उनको भी समझाऊँगा। बस, आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥