211. आदर्श निष्ठा—हमारे अतीत की गरिमा
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भारत किसी समय उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा हुआ था। उसकी अपनी सीमाओं में सुख शान्ति के भाण्डागार भरे पड़े थे। भौतिक साधनों की कमी न थी। शारीरिक बलिष्ठता और दीर्घजीवन का भरपूर आनन्द सबको उपलब्ध था। परिवार एक छोटे राष्ट्र के रूप में विकसित होते हुए विकासमान् पुष्प-पादपों से भरे हुए उद्यान की तरह शोभायमान थे। धन सम्पदा की कमी न थी। अन्न के भण्डार भरे पड़े थे और दूध, घी की नदियाँ बहती थी। सोना चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ घरेलू बर्तनों के रूप में प्रयुक्त होती थी। सामाजिक सुव्यवस्था पारस्परिक सघन सद्भाव, सहयोग की समुन्नत स्थिति में जा पहुँची थी। शालीनता और सज्जनता को हर व्यक्ति ने आवश्यक वस्त्रों की तरह धारण कर रखा था। राजा लोग गर्व करते थे कि उनके राज्य में कोई चोर, अपराधी, कुकर्मी नर-नारी नहीं हैं।

उन सतयुगी परिस्थितियों में यह देश अपनी प्रगति, समृद्धि और सुख-शान्ति को अपनी ही सीमा तक सीमित रखने वाला न था, उसने उसे दोनों हाथों से समस्त संसार में बिखेरा। समृद्धि का सदुपयोग है भी इसी में कि उसका लाभ अपने शरीर, परिवार तक सीमित न रहे और उसका लाभ प्रकाश दीप की तरह सुदूर क्षेत्रों को आलोकित करता रहे।

भारतवासी कुछ पाने, कमाने के लालच से नहीं वरन् अपने उपार्जन से समस्त संसार को लाभान्वित करने के लिए सुदूर देशों में गये और धरती के कोने-कोने को संस्कृति और समृद्धि का अजस्र अनुदान देकर ऊँचा उठाया। इन प्रयासों के प्रमाणों से इतिहास के पृष्ठ स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए परिस्थतियों में रहने वाले लोगों ने भारतवासियों से अपरिमित अनुदान पाये और सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में बढ़ चलने का पथ-प्रशस्त किया। यही रही है प्राचीन काल के भारत की विश्व सेवा साधना की पृष्ठभूमि, जिससे वह स्वयं गौरवान्वित हुआ और समस्त संसार को कृतकृत्य बनाया।

लोगों द्वारा आदर्शवादिता की बात करने और बड़े-बड़े तर्क देने के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था-तुम आदर्शों की बात करो और उसे व्यवहार में न उतारो तो तुमसे चोर डाकू और लुटेरे अच्छे हैं, क्योंकि उनके जीवन में कथनी और करनी का अन्तर तो नहीं रहता। इस उक्ति के सन्दर्भ में आज भी जाना जाय तो यह शत-प्रतिशत सही सिद्ध होगी। लोग आदर्शों तथा सिद्धान्तों का चिल्लाकर समर्थन करते हैं, पर अपने सामान्य जीवन में उन आदर्शों को कहीं छूते तक नहीं।

आदर्शवादिता की प्रवंचना करने वाले लोगों की कमी नहीं है। बल्कि कहा जाना चाहिए अधिक है। उदाहरण के लिए आज के समय में दहेज प्रथा का विरोध करने वालों को ही लिया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि इस प्रथा का अन्त किया जाना चाहिए, मानता और कहता भी है। पर कितने लोग हैं जो इस कथनी को करनी में भी निभाते हैं। जब अवसर आता है तो मजबूरी कहकर या दूसरे पक्ष का दबाव बताकर अपने बचाव का रास्ता खोजते हैं। कन्या के सम्बन्ध में तो मजबूरी किसी प्रकार समझ भी आती है, पर पुत्र के विवाह में क्या मजबूरी आ जाती है। उस समय लोग कह देते हैं कि उसकी माँ ने दबाव डाला था या घर के अन्य दूसरे सदस्य ने मजबूरी उत्पन्न कर दी थी।

जो भी हो यह है प्रवंचनापूर्ण और न केवल दहेज के सम्बन्ध में वरन् व्यक्तिगत दोष-दुर्गुणों से लेकर सामाजिक कुरीतियों तक के आगे घुटने टेक देने में यह दोहरी नीति आदर्श और व्यवहार के बीच में खाई उत्पन्न कर देती है। उस तरह जैसी कहने की बात कोई दूसरी होती है और करने की दूसरी। जबकि आदर्श होते ही जीवन में उतारने के लिए हैं। कहा जा सकता है उनकी प्रतिष्ठा ही जीवन जीने के एक ढंग की तरह होती है। उनमें ही जीवन की सार्थकता खोजी जाती है। और वे व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन को सुख शान्ति सम्पन्न बनाने के लिए ही स्थापित किये जाते हैं।

लेकिन हम उनकी प्रवंचना इसलिए करते हैं कि हम समझते हैं आदर्श जीवन को बोझिल और क्लान्त बनाते हैं। जीवन को खुशहाल बनाने के लिए हम आदर्शों को एक कोने में डाल कर उस पुण्य धाम में कूड़ा कबाड़ा इकट्ठा करते रहते हैं। सत्य, न्याय, त्याग, प्रेम, पवित्रता, उदारता, सहिष्णुता, करुणा, क्षमा जैसे आदर्शों से जीवन उदात्त और आनन्दपूर्ण बनता है। इन आदर्शों को अपनाने वाला व्यक्ति अपनी चेतना में आनन्द और शान्ति की ऐसी धारा प्रवाहित करता है, जिसमें नहाकर अन्य लोग भी प्रफुल्लित हो उठते हैं। इनके विपरीत असत्य, अन्याय, स्वार्थ, रुक्षता, मलीनता, कृपणता, आवेश, क्रूरता और प्रतिहिंसा की भावनायें न जागते जीने देती हैं और न सोते चैन लेने देती हैं।

आदर्शों के लिए हमारे मनीषियों ने एक अनूठा शब्द खोजा है-जीवन मूल्य अर्थात् जीवन ही जिसका मूल्य है। उनके महत्त्व की कल्पना या तुलना इससे कम में की ही नहीं जा सकती। मनुष्य को सबसे बढ़कर जीवन ही प्रिय है। चाहे करोड़ों रुपया हो, पर जीवन संकट में पड़ा हो तो उसे बचाने के लिए सारी सम्पत्ति भी खोने को आदमी तैयार हो जाता है। धन सम्पत्ति ही नहीं विद्या, अधिकार, ज्ञान, परिवार, पत्नी, बच्चे, समाज, सब कुछ जीवन की तुलना में गौण लगता है। और यह विस्मय विमुग्ध कर देने वाली बात है, कि जिस जीवन की तुलना में सब कुछ तुच्छ है वह जीवन आदर्शों के लिए बलि चढ़ा देना श्लाघनीय समझा गया है। यही है हमारी संस्कृति की धरोहर आदर्शों की पराकाष्ठा।

भारतीय संस्कृति के इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिन लोगों ने जीवन के लिए की जाने वाली कुर्बानियों को आदर्शों के लिए कर दिया, उन्हें भी भारतीय धर्म ने अवतार कह कर सम्मानित किया। भगवान राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए राजमहल में उपलब्ध होने वाली सुख-सुविधाओं का त्याग किया और जंगल में वनवासी बनकर रहे। लक्ष्मण ने अपने भाई के प्रति कर्तव्य पालन के लिए तमाम सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया। भ्रातृ-प्रेम का इतना अनूठा उदाहरण संसार में कहीं नहीं मिलेगा। राम का सारा जीवन तो आदर्शों के लिए त्याग और उत्सर्ग का है। दुराचारी रावण का अन्त करने के लिए एकाकी रहते हुए भी उन्होंने कितना बड़ा खतरा मोल ले लिया था।

राम को तो हम भगवान मानते हैं और समझते हैं कि उनका जन्म ही इन आदर्शों की प्रतिष्ठा के लिए हुआ था। भगवान होने के कारण उनके अनुकरण को हम अपनी सामर्थ्य से बाहर का भी समझें तो श्रवणकुमार जैसे छोटे से बालक का उदाहरण सामने है। जिसने अपने माता-पिता की आकाँक्षा पूरी करने के लिए उन्हें पूरे भारत में कन्धे पर रखकर घुमाया।

अपने मनोविकारों पर विजय प्राप्त करने के भी अनूठे उदाहरण भारतीय इतिहास में मिलते हैं। किसी लेखक ने कामोद्दीप्त वातावरण में शुक की अचलता का चित्र इस प्रकार खींचा है-वसन्त ऋतु अपना सारा उन्माद और वैभव वहाँ फैला देती है। कोकिल उत्कट प्रेम भावना से कुहू−कुहू करती हैै। फूलों से खुशबू निकल रही है। प्रसन्न हवा बह रही है। नये पल्लव और कोपलें फटी हुई हैं। मानो सारा वातावरण मादक हो रहा है और वहाँ अप्रतिम सुन्दरी रम्भा अनेकों विलासी हाव-भाव बनाती हुई खड़ी है। उसके वस्त्र हवा के झोंकों में उड़ रहे हैं, जैसे सारी सृष्टि आसमान तक सुन्दरता से ओत-प्रोत हो रही है। रम्भा शुक को आलिंगन भी करती है पर शुक का एक रोम भी खड़ा नहीं होता।

शिवाजी द्वारा लूट में लायी गयी स्त्री को यह कहकर सादर वापस भेज देना कि काश मेरी माँ भी इतनी सुन्दर होती तो मैं भी सुन्दर होता। छत्रसाल से प्रणय प्रस्ताव करने वाली युवती को यह जवाब मिलना कि पता नहीं मुझ सा सुन्दर पुत्र जन्म ले या न ले तो तुम मुझे ही अपना पुत्र क्यों नहीं मान लेती। ऐसे उदाहरण अब कहीं देखने को नहीं मिल सकते। सत्य के लिए अपना सारा जीवन होम देने वाले राजा हरिश्चन्द्र तब तक अमर रहेंगे जब तक लोगों को सत्य का नाम भी याद रहेगा। कहा जाता है कि वे केवल स्वप्न में ही अपना राजपाट दे बैठे थे और जागने पर भी उसका पालन अन्तिम क्षण तक किया। दान के बाद दक्षिणा माँगी तो हरिश्चन्द्र खजाने से देने लगे, पर याचक ने यह कहकर रोक दिया कि राजपाट और कोष को तो तुम मुझे दान कर चुके। अब वहाँ तुम्हारा क्या रहा। हरिश्चन्द्र को जैसे अपनी भूल का ज्ञान हुआ और उन्होंने श्मशान में नौकरी कर दक्षिणा चुकायी। परीक्षा ने वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा और पुत्र की मृत्यु का दारुण दृश्य अपनी आँखों के सामने देखकर उनका हृदय दहल उठा होगा। पर कर्तव्य यहाँ भी विस्मृत नहीं हुआ। जब तक उनकी पत्नी ने मुर्दा जलाने का कर चुका नहीं दिया, तब तक उन्होंने शव को यों ही पड़ा रहने दिया।

महारथी कर्ण और राजा बलि ने दान धर्म की पराकाष्ठा तक उसके आदर्श का स्पर्श किया। कर्ण जानते थे कि कवच कुण्डल देने से वे मर भी सकते हैं। पर इन्द्र जब याचक बनकर सामने खड़े हो और इन्द्र ही क्यों न हो, देने का व्रत लेकर ना कहना सीखे ही नहीं थे। कर्ण के पिता सूर्य ने जब इस षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ करते हुए कर्ण को सचेत किया तो उनका यही उत्तर था-मैं भी व्यावहारिकता का पालन कर रहा हूँ। आप जिसे व्यावहारिकता कह रहे हैं उसका अर्थ है थोड़ी चीज दे कर अधिक प्राप्त करना। यह नश्वर शरीर तो एक दिन नष्ट होगा ही। आज हो या कल, क्या फर्क पड़ता है और मैं इसके बदले अमर कीर्ति, आदर्श की पराकाष्ठा प्राप्त कर रहा हूँ तो क्या घाटे की बात है। वामन ने तीन पग जमीन माँगी थी और बलि द्वारा वह दिये जाने पर उन्होंने दो पग में सारा संसार भूलोक अन्तरिक्ष नाप लिया। अब तीसरा पैर कहाँ रखे तो बलि ने अपना सिर आगे कर दिया और वामन ने बलि के सिर पर पैर रखकर उन्हें पाताल में पहुँचा दिया।

नियम और अनुशासन की मर्यादा कायम करने के लिए राजा हंसध्वज ने अपने पुत्र को भी नहीं छोड़ा। जब स्वतन्त्रता की रक्षा का प्रश्न उठा तो उन्होंने राज्य के हर युवा व्यक्ति को समर में जाने की आज्ञा कर दी। सब लोग तो युद्ध में चले गये पर पता चला कि उनका पुत्र सुधन्वा अपनी पत्नी के साथ प्रणय लीला में मग्न है। राजपुत्र होने के साथ-साथ सुधन्वा नवविवाहित भी थे। हंसध्वज चाहते तो पुत्र को क्षमा कर सकते थे। पर कर्तव्य नियम सो नियम राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को जो दण्ड दिया जाता था वही उन्होंने अपने पुत्र को भी दिया। उस समय अनुशासन भंग करने वालों को गरम तेल में डाल देने का दण्ड था। सो सुधन्वा को भी यही दण्ड मिला।

शरणागत की रक्षा हमारे देश की अमूल्य धरोहर रही है। राजा शिवि को अपनी शरण आये पक्षी की रक्षा के लिए उसका शिकार कर रहे बाज को जाँघ का माँस काट कर देना पड़ा। मयूर ध्वज ने अपने पुत्र का माँस खिला कर अभ्यागत की इच्छा पूरी की। इस तरह के प्रसंगों में वैचित्र्य के साथ-साथ अस्वाभाविकता है। पर जिन लोगों ने मृत्यु के आर-पार देखा है उनके लिए कुछ भी विचित्र नहीं है, जो भी कुछ है सो व्यावहारिक है। जब जीवन क्षण भंगुर है और एक न एक दिन शरीर को मिटना है तो क्यों न आदर्शों के लिए ही मरें। नियतिगत मरण की अपेक्षा सोद्देश्य मृत्यु का नाम ही तो उत्सर्ग है। और जब बिना कुछ गँवाये उत्सर्ग का श्रेय मिल रहा हो तो क्यों न लिया जाय।

मृत्यु का रहस्य समझने वालों के लिए उत्सर्ग उसी प्रकार है, जिस प्रकार सामान्य आदमी लाख रुपये की आशा में एक रुपये का लॉटरी टिकट खरीद लेता है। लॉटरी में तो लखपति बनने की सम्भावना नहीं के बराबर है, पर आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाला अपने प्राप्तव्य के सम्बन्ध में शत प्रतिशत निश्चित रहता है। और निश्चिन्तता की सम्भावना धूमिल पड़ती भी नहीं। सिडनी जैसे लड़ते-लड़ते मर जाने वाले उन सैनिकों को आज कौन याद करता, जिन्होंने अपने सामने आया पानी दूसरे प्यासे के पास भिजवा दिया। और अन्तिम समय में उभर कर आयी करुणा ने ही उन्हें अमर बना दिया।

भारतीय इतिहास का एक-एक अध्याय उज्ज्वल आदर्शों से भरा पड़ा है। अशोक ने कहीं अपने शिला लेखों में लिखवाया है कि यदि रात्रि, दिन की एक चौथाई रहती तो अच्छा था ताकि मैं और अधिक लोगों का दुःख दर्द सुनता और दूर करता। राजा हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष अपना सारा कोष जन कल्याण के लिए खर्च कर दिया करते थे। प्रताप चाहते तो अकबर की केवल अधीनता स्वीकार कर निर्बाध राजमहलों में सुख भोग कर सकते थे, पर स्वतन्त्रता प्रेमी इस वीर ने जंगलों में रहकर कंद-मूल खाना बेहतर समझा अपेक्षा केवल मौखिक रूप से ही अकबर को अपना संरक्षक मान लेने के।

पर द्रव्येषु लोष्टवत् की आदर्श मर्यादा भी यहाँ जैसी अन्यत्र दुर्लभ है। तेज भूख लगने के कारण दादाजी कोण्ड देव ने एक बार किसी बगीचे से फल तोड़ लिया था, पर अपने व्रत की जब याद आयी तो पश्चाताप स्वरूप उन्होंने अपने हाथ ही कटवा डाले। इस युग में भी एक से एक त्यागी और आदर्श निष्ठ व्यक्ति हुए हैं। महात्मा गाँधी, स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, महर्षि देवेन्द्र ठाकुर, स्वामी श्रद्धानन्द, रविशंकर महाराज, रवीन्द्रनाथ टैगोर, निराला, प्रेमचन्द, माखन लाल चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, तिलक, गोखले, महामना मालवीय, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, श्री प्रकाश, लाला लाजपत राय, सम्पूर्णानन्द, सरोजिनी नायडू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, राज गोपालाचार्य, डॉ राधाकृष्णन, मौलाना आजाद, सरसैयद अहमद खाँ, मीराबेन, जवाहर लाल नेहरू आदि अगणित नाम हैं।

स्मरणीय और ध्यातव्य है कि आदर्शनिष्ठा हमारी साँस्कृतिक धरोहर है। हम भी उसी ऋषि परम्परा की संतान हैं तथा यह हमारे लिए नितांत अशोभनीय है कि आदर्शों के साथ प्रवंचना करें। आदर्शों की प्रवंचना अपने आपको छलने के सिवा और कुछ नहीं है। इस छलना से बचने के लिए आदर्शों का अनुसरण और व्यवहार में उतारने की दृढ़ता बरतकर ही हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित रख सकते हैं। अन्यथा अपना जीवन बर्बाद करने के साथ-साथ अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर के नष्ट होने का खतरा समुपस्थित है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

212. सांस्कृतिक गौरव की ऐतिहासिक झाँकी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्राचीन भारत का इतिहास इस देश में जन्मे नर रत्नों का इतिहास है। भारत भूमि ने अन्न, वृक्ष, खनिज जैसी प्राकृतिक सम्पदाएँ उत्पन्न करके भौतिक सम्पदाओं के ही भंडार नहीं भरे, वरन् देव-मानवों का भी प्रचुर मात्रा में उत्पादन किया। घर-घर में नर रत्नों की खान थी। किसकी चमक कितनी प्रखर है, इसकी प्रतिस्पर्धा रहती थी। महानता की कसौटी पर किसका कितना बढ़ा-चढ़ा मूल्यांकन होता है, इसी महत्त्वाकाँक्षा से हर किसी का मन उद्वेलित रहता था। शूरवीर उन दिनों तलवार चलाने वाले ही नहीं माने जाते थे, वरन् उन्हें योद्धा घोषित किया जाता था जिनने अपनी पशु प्रवृत्तियों को, तृष्णा-वासना को, संकीर्ण स्वार्थपरता को पैरों तले रौंद सच्ची विजय प्राप्त की। ऐसे आत्मजयी योद्धा ही अभिनंदन और अभिवादन के पात्र समझे जाते थे। हर वर्ग में, हर क्षेत्र में ऐसे आत्मजयी वीर योद्धा भरे पड़े थे, उनके गौरवशाली अस्तित्व भारत माता की कीर्ति ध्वजा दसों दिशाओं में उड़ाते थे। इस आधार पर सुविकसित भारत की गौरव गरिमा के सामने समस्त विश्व श्रद्धावनत मस्तक झुकाये खड़ा रहता था। उनकी विजय दुन्दुभि विश्व के कोने-कोने में गूँजती, प्रतिध्वनित होती सुनाई पड़ती थी। प्राचीन इतिहास के जितने पृष्ठ पलटे जाये, उनमें भारत की इसी विशिष्टता का उल्लेख स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ मिलता चला जाएगा।

उन दिनों अभिभावक यह प्रयत्न करते थे कि गर्भावस्था में पहुँचते ही बालक महामानवों की भूमिका में अवतरित हो। इसलिए उसकी शिक्षा उसी दिन से आरम्भ हो जाती थी जिस दिन कि उसने गर्भ में प्रवेश किया। मदालसा ने अपने कुछ बालकों को ब्रह्मज्ञानी बनाया, जब तक वे गर्भ में रहे, उसने अपना चिन्तन और चरित्र वैसा ही ढाला जैसी कि उसे संतान चाहिए थी। फलतः वे ब्रह्मवेत्ताओं के संस्कार लेकर जन्मे। एक बालक को उसने अपनी इच्छानुसार राज्य शासन कर सकने के योग्य भी ढाला और वह भी ठीक उसकी इच्छानुसार जन्मा।

कुन्ती को देव गुणों से सुसज्जित संतान की आवश्यकता थी। उसने देव तत्वों से अपना रोम-रोम ओत-प्रोत किया और जिस-जिस दैवी शक्ति से सुसज्जित बालकों की आकांक्षा की, ठीक उसी स्तर के उत्पन्न किये। सूर्य गुण सम्पन्न कर्ण, इन्द्र पुत्र अर्जुन, धर्मराज का बेटा युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीम, अश्विनी कुमारों से नकुल, सहदेव उत्पन्न माने जाते हैं। यह विद्या उन दिनों घर-घर में ज्ञात थी। सभी जानते थे कि अभिभावकों की आकांक्षा, निष्ठा और क्रिया जिस स्तर की होगी वैसे ही बालक जन्मेंगे, इसलिये बच्चों का शिक्षण अभिभावक आत्मनिर्माण के रूप में आरंभ करते थे।

अंजनी को जैसा बालक अभीष्ट था वैसी उसने गर्भावस्था में तैयारी की। राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम वाली क्षमता को लेकर ही हनुमान जन्मे। वे बजरंगी अनायास ही नहीं थे। माता की महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप ही यह निर्माण संभव हुआ था।

राम चाहते थे कि उनके बालक विशिष्ट महानता से ओत-प्रोत हो। राजमहल का वातावरण इसके लिए अनुकूल न था, तो उन्होंने सीता को ब्रह्मर्षि के आश्रम में भेजा, ताकि गर्भावस्था में माता को भ्रूण के उपयुक्त वातावरण में रहने का अवसर मिले। लव-कुश जन्मे तो वे ठीक वैसे ही थे जैसा कि उनके अभिभावकों ने चाहा।

शकुन्तला कण्व ऋषि के आश्रम में पली थी। उसके पेट में दुष्यंत का गर्भ आया तो उसने यही चाहा कि सन्तान अपने देश का मुख उज्ज्वल करे। फलतः सिंह शावकों से खेलने वाला भरत उसकी कोख से जन्मा और उस महा प्रतापी के पुरुषार्थ ने उसी के नाम पर इस पूरे देश का नामकरण भारत वर्ष के रूप में कर दिया।

नचिकेता के उदारचेता पिता वाजिश्रवा जब समस्त धन-धान्य लोक मंगल के लिए दान दे चुके तो उसने पूछा आप लोभ त्याग की परीक्षा में सफल हो चुके, फिर मोह-त्याग में क्यों असफल होते है, मुझे खिलौना बनाकर अपने पास क्यों रखना चाहते हैं, लोक मंगल के लिये मुझे भी दान क्यों नहीं दे देते? वाजिश्रवा ने पुत्र को अपने से बढ़कर आदर्शवादी देखा तो हर्षोल्लास से उनकी आँखें डबडबा आई। उन्होंने तत्काल महा तपस्वी यमाचार्य के हाथ में अपने पुत्र नचिकेता का हाथ सौंप दिया और वह ब्रह्मवेत्ता बनकर इस विश्व वसुधा का गौरव बढ़ाने में समर्थ हुआ।

आद्य शंकराचार्य की माता अपने इकलौते पुत्र को भौतिक प्रगति में सुख-समृद्धि युक्त देखना चाहती थी। पुत्र-वधू और पौत्र के साथ रहने के लिये लालायित थी। माता की मोह-ममता को उनके दस वर्षीय बालक ने चतुरतापूर्वक तोड़-मोड़ कर फेंक दिया। प्रसिद्ध है कि वे नदी में नहाने के समय मगर ने पकड़ा चिल्ला करके बोले कि मुझे शंकर जी को दान करो अन्यथा मगर खा जायेगा। माता ने अपना बालक शिवजी को दान कर दिया। वे मगर के मुँह में से छूटकर बाहर आ गये और परिव्राजक बनकर भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुए।

कुन्ती अज्ञातवास की अवधि में अपने बालकों को लेकर एक ब्राह्मण परिवार में छिपी हुई दिन काट रही थी। उस दिन आश्रयदाता ब्राह्मण के इकलौते पुत्र की बारी आ गई। पाँचों बच्चे मचल पड़े। हम में से एक राक्षस के सामने क्यों न चला जाय और ब्राह्मण बालक को क्यों न बचा लिया जाय? उनके प्रबल आग्रह ने कुन्ती को बात मानने के लिए बाध्य कर दिया। अब इस सौभाग्य का लाभ कौन उठाये इस पर सब बच्चे आपस में लड़ने लगे। अन्ततः गोली निकाल कर भाग्य का फैसला कराया गया। निर्णय भीम के पक्ष में हुआ। वह राक्षस के सामने हँसता उछलता चला गया और स्वयं शिकार बनने के स्थान पर उलटा उसे ही मार कर आया। बच्चे उन दिनों जानते थे कि मरना भी यदि उद्देश्य के लिये संभव हो सके तो वह हजार बार जीने की उपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है।

गृहस्थ जीवन में भी जन साधारण के बीच आदर्शों की घोर प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्द्विता ठनी रहती थी। कौन किससे आगे निकलता है यह चुनौती अपने-अपने क्षेत्र में हर कोई अपने साथियों को देता रहता था। राम और भरत में दोनों के सामने ऐसा ही धर्म संकट उत्पन्न था। दोनों ही चाहते थे कि त्याग और आदर्श के क्षेत्र में उनकी हेठी न होने पाये। राज्य हमें नहीं दूसरे को मिले इस प्रतिद्वन्द्विता में कोई हारा नहीं। फैसला यह हुआ कि राम की तरह ही भरत भी चौदह वर्ष तक तपस्वी जीवन जियेंगे। राज्य सिंहासन पर राम की खड़ाऊँ स्थापित की जायेंगी।

विश्वामित्र उन दिनों नवयुग का सूत्रपात कर रहे थे, उन्हें साधनों की आवश्यकता थी। उनके शिष्य हरिश्चन्द्र ने पूर्ण निस्पृहता का परिचय दिया अपनी सारी सम्पदा ऋषि के हवाले कर दी। कमी पड़ी तो अपने को, स्त्री बच्चों को बेच कर प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति का आदर्श प्रस्तुत किया। सुदामा के गुरुकुल की अभावग्रस्त स्थिति दूर करने के लिए कृष्ण को सौंप दिया था। राजा कर्ण को विपुल वेतन मिलता था, वे अपनी दैनिक आय में से निर्वाह की न्यूनतम राशि लेकर शेष उसी दिन सत्प्रयोजनों के लिए दान कर देते थे। मरते समय दाँतों में लगा सोना तक दान कर जाने वाले कर्ण की परम्परा उन दिनों सभी सुसम्पन्न व्यक्तियों में प्रचलित थी। कभी किसी के पास धन जमा हो भी गया तो विशिष्ट अवसर सामने आते ही उसने भामाशाह की तरह अपनी सारी सम्पदा प्रताप जैसे प्रयोजनों के लिए सौंपते हुए अपना भार हलका कर लिया।

राजा जनक व्यक्तिगत निर्वाह के लिए कृषि करते थे और स्वयं हल चलाते थे। राज्यकोष प्रजा की अमानत था और उसी के लिए खर्च होता था। ऐसा ही आचरण अन्य राजा भी करते थे। रानी अहिल्याबाई के राज्य कोष में से अधिकांश धर्म प्रयोजनों के लिए खर्च होता रहा। राजनैतिक विकृतियों का निवारण करने के लिए प्रस्तुत अश्वमेध योजनायें और सामाजिक अव्यवस्थाओं के निराकरण के लिए प्रस्तुत वाजपेय यज्ञ अभियानों में न केवल राजाओं के राज्य कोष खाली होते थे, वरन् सम्पन्न लोगों की सम्पन्नता भी झाड़ बुहार कर साफ कर दी जाती थी।

अभिभावकों के प्रति संतान के कर्तव्य के उदाहरण ढूँढे तो श्रवण कुमार द्वारा अन्धे माँ बाप को कंधे पर काँवर में बिठा कर तीर्थ यात्रा कराना, भीष्म पितामह का अपने पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन अविवाहित रहना, ययाति पुत्र का अपना यौवन वृद्ध पिता को देना, सत्यवान का तपस्वी पिता की सेवा व्यवस्था लकड़हारा बन कर करते रहना उन दिनों की सन्तान की कर्तव्य परायणता के सामान्य उदाहरण हैं।

पतिव्रत धर्म निर्वाह करने वाली सावित्री, दमयन्ती, सीता, गान्धारी सर्वत्र मिलेंगी। स्वयं कष्टमय जीवन करके पतियों को कर्तव्य पथ पर धकेलने वाली वीर नारियाँ घर-घर में मौजूद थी। उन्हें नीचे नहीं गिराती थी वरन् ऊँचा उठाती थी। पुत्रों को गुरुकुल के लिए, पतियों को धर्मयुद्ध के लिए भेजते हुए वे मोहग्रस्तता के आँसू नहीं बहाती थी वरन् गर्व गौरव के साथ आरती उतारते हुए विदा करती थी। हाड़ा की रानी की तरह उन्हें अपना सिर काट कर पति को मोहग्रस्तता से उबारने में आपत्ति नहीं होती थी। पन्ना दाई को अपना बच्चा प्यारा तो था पर सौंपे हुए कर्तव्य से बढ़कर नहीं। उसने स्वामी का बच्चा बचाने के लिए अपने लाड़ले की आहुति चढ़ाते हुए आघात तो सहा, पर मन हलका यह सोच कर कर लिया कि उसने नारी की गरिमा की एक उपयुक्त स्थापना करने में गौरवमयी परम्परा सही रूप में निबाही। चित्तौड़ की रानियों ने अपना शरीर नहीं, नारी का साहस जीवित रखना उचित समझा और वे जीवित जलने जैसे कष्ट को सहने के लिए प्रसन्नता पूर्वक तैयार हो गई।

भारत की समुन्नत परिस्थिति और परिष्कृत मनःस्थिति का श्रेय यहाँ के ऋषियों को दिया जाता है, यह उचित भी है। उज्ज्वल चरित्र, उत्कृष्ट चिन्तन और साहसिक पुरुषार्थ का त्रिविध समन्वय जिन व्यक्तित्वों में होगा वे स्वयं तो ऊँचे होंगे ही, अपने साथ-साथ लोक मानस को और समस्त वातावरण को भी ऊँचा उठायेंगे। ऋषियों की क्रिया-प्रक्रिया यही थी। वे सार्वजनिक क्षेत्र के हर पक्ष को देखते और सँभालते थे। द्रोणाचार्य, विश्वामित्र, परशुराम जैसे ऋषि धनुर्वेद में पारंगत थे। ये शास्त्र निर्माण और संचालन की शोध एवं शिक्षा के कार्य में संलग्न थे, ताकि असुरता से सफलतापूर्वक जूझा जा सके। चरक, सुश्रुत, वागभट्ट, अश्विनी कुमार, धन्वन्तरि जैसे ऋषि स्वास्थ्य संबंधित और चिकित्सा के रहस्यों को ढूँढने और उसे सर्व साधारण के लिए प्रस्तुत करने में संलग्न थे। नागार्जुन, हारीत, सुषेण जैसे ऋषि रसायन विद्या के विकास और विस्तार में जुटे हुए थे। विश्वकर्मा, शतोधन जैसे ऋषियों ने शिल्प एवं वास्तुकला के सम्बन्ध में जो खोजा उससे विश्व सौन्दर्य में असाधारण वृद्धि हुई। नारद, उपमन्यु, उद्दालक जैसे ऋषि स्वर शास्त्र के सामगान के पारंगत थे। उन्होंने गान वाद्य की कला के मर्मों से जन मानस को आन्दोलित किया और उसके रसास्वादन का विधि विधान समझाया।

उत्कच, विद्रुध, महानंद जैसे ऋषि कृषि और पशु पालन का विज्ञान विकसित करने में जुटे थे। व्यास परम्परा के ऋषियों ने शास्त्र रचना की मुहिम सँभाली। सूत परम्परा के ऋषि प्रवचन कर्ता थे। चाणक्य, याज्ञवल्क्य, कन्व, धौम्य जैसे ऋषियों द्वारा विश्व विद्यालय स्तर के शिक्षा संस्थान चलाये जाते थे। छोटे-बड़े गुरुकुल तो प्रायः सभी ऋषि चलाते थे। कपिल, कणाद, गौतम, पतंजलि जैसे दार्शनिकों द्वारा विश्वमानव की बौद्धिक क्षुधा बुझाने के लिए बहुमूल्य प्रतिपादन किये जाते रहे। वशिष्ठ, शुक्राचार्य, विदुर आदि ऋषि राजतंत्र का मार्गदर्शन करने में निरत थे। च्यवन, दधीचि आदि जैसे ऋषियों ने तप साधना करके मानवी अन्त:स्थल में छिपी रहस्यमय शक्तियों के उपयोग का पथ प्रशस्त किया था। लोक मंगल के अनेकानेक प्रयोजनों में यह ऋषि वर्ग के लोग निरन्तर संलग्न रहते थे।

व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को परमार्थ प्रयोजनों के लिए निछावर करते रहने में हर व्यक्ति ने यहाँ अपने को सौभाग्यशाली माना है। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ निकाल कर देवताओं को दे दी। शुनशेप नरमेध की प्रथम आहुति बनने के लिए आगे आया। मोरध्वज को पुत्र दान में संकोच नहीं हुआ। शिवि ने अपना माँस निकाल कर दिया। हरिश्चन्द्र ने अपनी सभी सम्पदा विश्वामित्र को सौंपी। संयमराय ने अपने स्वामी पृथ्वीराज का प्राण बचाने के लिए अपने अंग काट-काटकर गिद्धों को डाले थे और उस समय की स्वामी सेवक के बीच बनी रहने वाली वफादारी का उदारहण प्रस्तुत किया था। तब हर घर में भामाशाह थे। संचित पूँजी को परमार्थ के लिए सुरक्षित अमानत भर माना जाता था, समय आने पर देने में किसी को कोई संकोच नहीं होता था।

भारत की सर्वतोमुखी प्रगति और गौरव गरिमा के अन्तराल में वस्तुतः यही महानता का भावनात्मक इतिहास छिपा पड़ा है। इसी के फलस्वरूप यह देश भौतिक सम्पदाओं से सुसम्पन्न रहा। हर्षोल्लास के प्रचुर साधनों से भण्डार भरे रहे। शारीरिक बलिष्ठता और मानसिक प्रबुद्धता का स्तर बहुत ऊँचा रहा। मनुष्य, मनुष्य के बीच सघन आत्मीयता बिखरी पड़ी थी। मिल-जुलकर कमाने और खाने की प्रवृत्ति ने हर क्षेत्र में संतोषजनक प्रगति का पथ प्रशस्त किया था, संयमशीलता, सज्जनता, सादगी और शालीनता की विभूतियाँ हर व्यक्ति को उपलब्ध थी। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता में एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में निरत था। उन परिस्थितियों में सर्वत्र सुख-शान्ति का साम्राज्य था। यहाँ के निवासी देवता कहे जाते थे और यह देश स्वर्ग माना जाता था। इस वैभव को भारतवासियों ने अपनी भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं रखा वरन् विश्व के कोने-कोने में जाकर बिखेरा। इससे हमारे महान पूर्वज धन्य हुए और उनके महान कर्तव्य से समस्त भूमण्डल कृतकृत्य हुआ। यही है हमारे भूतकालीन इतिहास की एक झलक। इसी मार्ग का अनुगमन करने के लिए युग की आवश्यकता पुकार-पुकार कर हमारा आह्वान कर रही है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

213. सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भारतीय संस्कृति एक ऐसी विश्व-संस्कृति है जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की क्षमता से ओतप्रोत है। वह उच्चस्तरीय विचारणा जिससे व्यक्ति अपने आप में सन्तोष और उल्लास भरी अन्तः स्थिति पाकर सुख और शान्ति से भरा-पूरा जीवन जी सके, भारतीय तत्व ज्ञान में कूट-कूटकर भरी है। वह आदर्शवादी क्रिया पद्धति जो सामूहिक जीवन में आत्मीयता, उदारता, सेवा, स्नेह-भावना, सहिष्णुता और सहकारिता का वातावरण उत्पन्न करती है, भारतीय संस्कृति के शिक्षण की मूलधारा है। इस महान तत्व ज्ञान का अवगाहन भारतीय प्रजा चिरकाल तक करती रही और उसके फलितार्थ इस रूप में सामने आये कि यहाँ के नागरिकों को समस्त संसार में देव पुरुष कहा गया और जिस भूमि में ऐसे महामानव उत्पन्न होते हैं उसे स्वर्ग के नाम से सम्बोधित किया गया।

यहाँ के तैंतीस कोटि नागरिकों को विश्व में तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से पुकारा जाता था और जब भी भारत भूमि का स्मरण किया जाता था उसे स्वर्गादपि गरीयसी ही कहा जाता था। यहाँ के निवासी प्रेम, सदाचरण, सुव्यवस्था और समृद्धि का सन्देश और मार्गदर्शन लेकर विश्व के कोने-कोने में पहुँचे तथा शान्ति और प्रगति के साधन जुटाने का नेतृत्व करते रहे। इतिहासकार इस तथ्य को भुला न सकेंगे कि भारत ने न केवल अपने देश को समुन्नत बनाया, वरन् समस्त विश्व को शान्ति और प्रगति के लिए सहयोग एवं मार्गदर्शन प्रदान किया। इस देश के नागरिकों की यह भूमिका इसीलिए संभव हो सकी कि उन्होंने महान् भारतीय संस्कृति को हृदयंगम किया था। उसका महत्त्व समझा था और स्वीकार किया था कि यही दार्शनिक पथ प्रदर्शन मानव जीवन के लिए श्रेष्ठतम है। इस आस्था को क्रियान्वित करने की सुदृढ़ निष्ठा ही हमारी ऐतिहासिक महिमा तथा गरिमा का एक मात्र कारण है।

भारतीय संस्कृति किसी वर्ग, सम्प्रदाय या देश, जाति की संकीर्ण परिधियों में बँधी हुई साम्प्रदायिक मान्यता नहीं है, न किसी व्यक्ति विशेष या शास्त्र विशेष को आधार मानकर उसकी रचना की गई है। सार्वभौम मानवीय आदर्शों के अनुरूप उसका सृजन हुआ है और देश काल, पात्र के अवरोध से उसमें हेर-फेर करना पड़े ऐसी त्रुटि नहीं रखी गई है। उसे निःसंकोच सार्वभौम, सर्वकालीन और शाश्वत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में भारतीय संस्कृति को हम विश्व मानव के सदैव प्रयोग में आ सकने योग्य चिन्तन प्रक्रिया एवं कार्य-पद्धति भी कह सकते हैं। इस स्वरूप के कारण ही उसे भूतकाल में समस्त संसार ने देखा, सराहा और स्वीकार किया था। भविष्य में भी जब इस अनैतिक भगदड़ से दुखी होकर मानव जाति को किसी सन्तुलित दर्शन की आवश्यकता पड़ेगी तो उस आवश्यकता की पूर्ति केवल भारतीय संस्कृति ही कर सकेगी।

कृति जो संस्कार सम्पन्न हो-संस्कृति कहलाती है। इनका अर्थ भारतीय जीवन प्रणाली में प्रचलित षोडश संस्कारों मात्र से नहीं है। वह तो 16 अध्याय मात्र हैं, जो मनुष्य को थोड़ा-थोड़ा कर यह सोचने की प्रेरणा देते हैं कि उसका अन्तरङ्ग जीवन क्यों, कैसे और किसलिए आविर्भूत हुआ। एक बौद्धिक प्राणी होने के नाते वह अपने उस उद्देश्य को बाह्य जीवन में पूरा भी कर पा रहा है या नहीं? यदि नहीं तो उसे अब निश्चित ही आगे सोच समझ कर पग बढ़ाना चाहिये।

इस तरह 16 संस्कार जीवन के 16 मोड़ थे, जो प्रत्येक मुमुक्षु अर्थात् आत्म-कल्याण की इच्छा रखने वाले को पिछले जीवन में हुए आलस्य प्रमाद और पाप से सावधान करते हैं और आगे के लिये दिशा-निर्देशन भी। पर संस्कृति इन षोडश संस्कारों से भी बड़ी जीवन के प्रत्येक घड़ी, प्रत्येक कर्म में नीति बनकर समाई रहती है। प्रत्येक आचरण जो आत्मा को प्रिय लगता है, आत्म कल्याण की आवश्यकता को पूरी करता है। वहाँ तक संस्कृति का विस्तार है।

सभ्यता और संस्कृति दोनों शब्द साथ-साथ चलते हैं, पर दोनों के अर्थ में भारी भिन्नता है। इसी प्रकार धर्म और संस्कृति भी पर्याय से लगते हैं, किन्तु इनमें भी अन्तर है। सभ्यता किसी भी देश की हो सकती है और उसका सम्बन्ध, रहन-सहन, भाषा-वेश, पारिवारिक जीवन, शिक्षा-दीक्षा आदि बहिर्मुखी व्यावहारिक पहलुओं से है। और धर्म इससे ठीक विपरीत अर्थात् अंतर्मुखी विकास के जितने भी साधन और अभ्यास हैं, वह सब धर्म के अन्तर्गत आते हैं। यतोऽभ्युदय-निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः। जो निःश्रेयस और अभ्युदय की प्राप्ति कराये, वही धर्म है। धर्म के १० अंगों-धृति, क्षमा, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध में से कई ऐसे लगते हैं, जो बहिर्मुखी जीवन से सम्बन्धित जान पड़ते हैं किन्तु यह सब साधनायें हैं, जो मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के लिये तैयार करती हैं, भले ही उससे बहिर्मुखी जीवन में कुछ कठिनाइयाँ ही क्यों न आती हो।

सभ्यता और धर्म के समन्वय का नाम संस्कृति है। जिस तरह इड़ा और पिंगला के योग से सुषुम्ना का, गंगा और यमुना के योग से त्रिवेणी का आविर्भाव होता है, उसी प्रकार संस्कृति धार्मिक परिप्रेक्ष्य में तो अंतर्मुखी जीवन के विकास की प्रेरणा देती है और सभ्यता के रूप में बाह्य जीवन को भी शुद्ध और ऐसा बनाती है, जिसमें एक मनुष्य किसी भी दूसरे प्राणी के हित का अतिक्रमण न करता हुआ धार्मिक लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे।

संस्कृति का अर्थ है वह कृति, कार्य-पद्धति जो संस्कार सम्पन्न हो। ऊबड़-खाबड़ पेड़-पौधों को जिस प्रकार काट-छाँट कर उन्हें सुरम्य और सुशोभित बनाया जाता है, वही कार्य व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्तियों पर नियन्त्रण स्थापित करके संस्कृति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। किसान जैसे भूमि को खाद, पानी, जुताई आदि से उर्वर बनाता है और बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक उन पौधों को सींचने, संभालने, निहारने, रखाने की अनेक प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है, वही कार्य संस्कृति द्वारा मानवीय मनोभूमि को उर्वर एवं फलित बनाने के लिए किया जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये कल्चर शब्द आता है। उसका शब्दार्थ भी उसी ध्वनि को प्रकट करता है। अस्त-व्यस्तता के निराकरण और व्यवस्था के निर्माण के लिए जो प्रयत्न किये जाये, उन्हें कल्चर कहा जा सकता है। संस्कृति का भी यही प्रयोजन है।

संस्कृति के साथ भारतीय शब्द जोड़कर उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है ।। इसका अर्थ यह नहीं कि वह मात्र भारतीयों के लिए ही उपयोगी है। अन्वेषण का श्रेय देने के लिए कई बार नामकरण उसके कर्ताओं को दे दिया जाता है। कई ग्रह नक्षत्रों की अभी-अभी नई शोध हुई है। उनके नाम उन शोध कर्ताओं के नाम पर रखे गये हैं। पहाड़ों की जिन ऊँची चोटियों पर जो यात्री पहले पहुँचे, इनके नाम भी उन साहसियों के नाम पर रख दिये गये। धर्म सम्प्रदायों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही होता रहा है। उनके आचार्यों, संस्थापकों का नाम स्मरण बना रहे, इसलिए उनके नाम से भी वे सम्प्रदाय पुकारे जाते हैं। इसका अर्थ उन पदार्थों या मान्यताओं को उन्हीं की सम्पत्ति मान लेना नहीं है, जिनका कि नाम जोड़ दिया गया है। हिंदुस्तान में वर्जीनिया तम्बाकू पैदा नहीं होती। चूँकि उसका आरम्भिक उत्पादन वर्जीनिया में हुआ था इसलिए नामकरण उसी आधार पर हो गया। यह प्रतिबन्ध लगाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता कि उस तम्बाकू का उपयोग या उत्पादन मात्र वर्जीनिया के लिए ही सीमित रखा जाय। भारतीय संस्कृति का उद्भव विकास, प्रयोग, पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ इसलिये उसे उस नाम से पुकारा जाता है तो यह उचित ही है, पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसका प्रयोग इसी देश के निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिये।

यजुर्वेद ७। १४ में एक पद आता है-‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’ अर्थात् यह प्रथम संस्कृति है जो विश्वव्यापी है। सृष्टि के आरम्भ से सम्भव है ऐसी छुटपुट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो, जो वर्ग विशेष, काल विशेष या क्षेत्र विशेष के लिए ही उपयोगी रही हों। उन सब को पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई कि उसे विश्व संस्कृति कहा जा सके। हुआ भी यही, जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ तो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा और सर्वोच्च भी। फलस्वरूप वह विश्व व्यापी होती चली गई। इसी स्थिति का उपरोक्त मन्त्र भाग से संकेत है। इतिहास न भी माने तो भी तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही होगा कि विश्व संस्कृति माने जाने योग्य समस्त विशेषताएँ इस भारतीय संस्कृति में समग्र रूप से विद्यमान हैं।

‘विश्ववारा’ शब्द का अर्थ होता हैं-विश्ववंकणो तीति, विश्ववारा अर्थात् जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके, स्वीकार की जा सके वह ‘विश्ववारा’ दूसरे शब्दों में इसे ‘सार्वभौम’ भी कह सकते हैं ।। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में सोम आता है। सोम क्या है? अमृतम् वै सोमः (शतपथ) अर्थात् अमृत ही सोम है। अमृत क्या है-ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनन्द। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है जो ज्ञान और तप की विवेक युक्त सत्प्रयत्नों की ओर हमारी भावना और क्रियाशीलता को अग्रसर करती है। इस संस्कृति को जब जहाँ जितनी मात्रा में अपनाया गया है, वहाँ उतना ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव आस्वादन किया गया।

आवश्यकता इस बात की थी कि राजनैतिक गुलामी से मुक्त होकर हम सांस्कृतिक दासता से भी मुक्त होने का प्रयत्न करते, पर इस दिशा में कुछ किया ही नहीं जा सका, इसे अपना दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। विदेशी आक्रमण के दिनों में यह स्वाभाविक था कि शासक लोग अपने पराधीनता पाश को चिरस्थायी बनाये रहने के लिए राजनैतिक साम, दाम, दण्ड, भेद से भी अधिक प्रयत्न भावनात्मक दासता स्वीकार करने के लिए करते। ऐसा हुआ भी है। अपने तत्त्वदर्शन को भ्रष्ट, विकृत और अनुपयोगी बनाने के लिए मुसलमानी समय में पण्डितों और साधुओं द्वारा अनेक प्रकार की ऐसी भ्रान्तियाँ जोड़ी गई, जो व्यक्ति को दिशा भ्रम ही करा सकती थी। सोचा यह गया होगा कि अनाचार के विरुद्ध संगठित विद्रोह न उठ खड़ा हो। इसलिए भाग्यवाद, सन्तोष की महत्ता, ईश्वर, इच्छा पलायन वाद, मायावाद, कर्म संन्यास जैसे तथ्यों को मिला कर जनमानस को मूर्छित और कायर बना दिया जाय। इसी प्रकार अंग्रेजी शासन काल में भारतीयों को काले अँग्रेजी बनाने के लिए अँग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी संस्कृति को भी घुला दिया गया। ताकि भारतीय संस्कृति की महानता कहीं इस देशवासियों में फिर स्फुरणा पैदा न कर दे। और चंगुल में आई शिकार फिर पंजे से छूट कर न भाग जाए। लार्ड मैकाले का वह शिक्षा षड्यन्त्र सर्वविदित है जिसके अनुसार उन्होंने अँग्रेजी शिक्षा का विस्तार करने में यही दृष्टि प्रधान रखी थी। भारतीय प्रकारान्तर से अंग्रेजियत का वर्चस्व शिरोधार्य कर लें और अँग्रेजी शासन चले जाने पर भी यहाँ के निवासी अपने आदर्शों का उद्गम अँग्रेजी सभ्यता को ही मान कर उसके समर्थक तथा अनुयायी बने रहें। समय बीत गया अब हमें चेतना चाहिए था, पर उस जागृति की ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा जो समस्त जागृतियों का मूलभूत स्रोत है।

भारतीय संस्कृति की अपनी अनोखी विशेषताएँ हैं। सच तो यह है कि ‘संस्कृति ’ शब्द के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं को पूरा कर सकने में समस्त कसौटी पर कसे जाने पर खरी सिद्ध होने में एक भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। अन्य संस्कृतियाँ तो मात्र सभ्यता हैं। सभ्यता किसी देश, काल एवं परिस्थितियों को ध्यान में रख कर विनिर्मित की जाती हैं, और उनकी सीमा उतने ही दायरे में सीमित रहती है। हर परिस्थिति और देश काल के लिए समान रूप से उसका उपयोग नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सैद्धान्तिक कम और व्यवहारिक तथ्य अधिक होते हैं। व्यवहार तो ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही बदल जाता है, आयु का हेर-फेर भी व्यवहार बदलने को विवश कर देता है। ऐसी दशा में व्यवहार व्यवस्थाओं की प्रधानता के आधार पर बनी हुई सभ्यताएँ सार्वदेशिक अथवा सर्वकालीन हो ही कैसे सकती हैं? अँग्रेजी सभ्यता भारत के लिए उपयुक्त बैठ सकती है इसमें पूरा सन्देह है।

भारतीय संस्कृति महान ही नहीं वरन् वह बेजोड़ भी है। उसके आचरण व्यवहारों के विशुद्ध रूप को देखें, मध्यकालीन विकृतियों की घुसपैठ को उसमें से हटा दें, तो निस्सन्देह वह व्यवहार व्यवस्था भी उतनी उच्च कोटि की सिद्धि होगी कि वैयक्तिक व्यवहार और सामाजिक संगठन की परिष्कृत शैली सामने आ जाय। और हम उन जंजालों से बच जायें जो व्यष्टि और समष्टि को उद्विग्न उन्मत्त बनाकर विनाश की ओर धकेलते चली जा रहे हैं। संस्कृति की उत्कृष्टता का तो कहना ही क्या, उसे मानवीय ही नहीं दैवी संस्कृति कह सकते हैं। नर-पशु को नर-नारायण के रूप में विकसित कर सकने की सारी सम्भावनाएँ इस दार्शनिक ढाँचे के अन्तर्गत विद्यमान हैं, जिन्हें किसी समय भारतीय संस्कृति के नाम से पुकारा जाता था। और अब यदि वह शब्द किसी को अरुचिकर हो तो उसका नाम ‘विश्व-संस्कृति’ भी दिया जा सकता है।

धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, परलोक पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, कर्म, अकर्म, प्रारब्ध, पुरुषार्थ, नीति, सदाचरण, प्रथा, परम्परा, शास्त्र, दर्शन आदि मान्यताओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति मनुष्य को चरित्रवान, संयमी, कर्तव्य परायण, सज्जन, विवेकवान्, उदार और न्यायशील बनने की प्रेरणा करती है। सब में अपनी आत्मा को समाया देख कर सब के साथ अपनी पसन्द जैसा सौम्य, सज्जनता भरा व्यवहार करना सिखाती है और बताती हैं कि भौतिक सफलताएँ तथा उपलब्धियाँ न मिलने पर भी विचार एवं कर्म की उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई दिव्य अनुभूति मात्र का अवलम्बन करके अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी आनन्दित रहा जा सकता है। अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की प्राथमिकता-आलस्य और अवसाद का अन्त और प्रचण्ड पुरुषार्थ में निष्ठा, अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा, यही तो भारतीय संस्कृति के मूल आधार हैं जिन्हें शास्त्र और पुराणों के विभिन्न कथोपकथनों द्वारा पृष्ठ-भूमियों में प्रतिपादित किया गया है। यह मनुष्य को पूर्ण मनुष्य बनाने की एक नेतृत्व विज्ञान, मनोविज्ञान, नीति शास्त्र और समाज विज्ञान की एक परिष्कृत एवं समन्वित चिन्तन प्रक्रिया है, जिसे भारतीय संस्कृति के नाम से जाना पहचाना जाता है।

व्यक्ति और समाज की विश्वव्यापी समस्याओं का समाधान करने के लिए उस संस्कृति का आश्रय लिए बिना और कोई मार्ग नहीं, जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता रहा है। और दूसरे शब्दों में उसे विश्व संस्कृति भी कह सकते हैं।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

214. भारतीय तत्त्वज्ञान के वर्चस्व की गौरव गाथा
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जर्मनी के प्रख्यात विद्वान तथा भारतीय संस्कृति के आराधक मैक्समूलर ने सन् १९५८ की एक परिचर्चा में महारानी विक्टोरिया से कहा-‘‘यदि मुझसे पूछा जाय कि किस देश में मानव मस्तिष्क ने अपनी मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके सही अर्थों में सदुपयोग किया है, जीवन के गम्भीरतम प्रश्नों पर गहराई से विचार किया और समाधान ढूँढ निकाले, तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा, जिसकी ओर प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों के दर्शन का अध्ययन करने वालों का ध्यान भी आकृष्ट होना चाहिए।’’

‘‘यदि कोई पूछे कि किस साहित्य का आश्रय लेकर सेमैटिक, यूनानी और रोमन विचारधारा में बहते हुए योरोपीय अपने आध्यात्मिक जीवन को अधिकाधिक विकसित कर सकेंगे, जो इहलोक से ही सम्बद्ध न हो, अपितु शाश्वत एवं दिव्य हो तो फिर मैं भारतवर्ष की ओर इशारा करूँगा।’’

अपनी ज्ञान पिपासा को परितृप्त करने सदियों पूर्व आये प्रसिद्ध विद्वान लार्ड विलिंग्डन ने लिखा है कि-‘‘समस्त भारतीय चाहें वे प्रासादों में रहने वाले राजकुमार हो या झोपड़े में रहने वाले गरीब, संसार के वे सर्वोत्तम शील सम्पन्न लोग हैं, मानों यह उनका जातिगत धर्म है। उनकी वाणी एवं व्यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम उदाहरण दिखाई पड़ता है। वे दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते।’’

आठवीं शताब्दी में अलहजीज नामक मुस्लिम विद्वान भारत परिभ्रमण के लिए आया था। अपने साहित्य संग्रह में उसने लिखा है-‘‘भारत रहस्यमय विद्याओं एवं भौतिक विद्याओं का आविष्कारक है।’’

सैमुअल जानसन लिखते हैं-‘‘हिन्दू लोग धार्मिक, प्रसन्नचित्त, न्यायप्रिय, सत्यभाषी, दयालु, कृतज्ञ, ईश्वर भक्त तथा भावनाशील होते हैं। ये विशेषताएँ उन्हें साँस्कृतिक विरासत के रूप में मिली हैं।’’

पेरिस विश्व विद्यालय के प्रो. लुई टिनाऊ ने अपनी एक पुस्तक में उल्लेख किया है-‘‘संसार के देशों में भारतवर्ष के प्रति लोगों का प्रेम और आदर उसकी बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति के कारण रहा है। अपनी उन विशेषताओं को यदि भारतीय पुनः जागृत कर लें, तो आज भी विश्व का मार्गदर्शन कर सकने में सक्षम हो सकता है। जीने की तथा परस्पर मानवी सम्बन्धों की इतनी सुन्दर सर्वांगपूर्ण आचार संहिता विश्व के किसी भी धर्म अथवा संस्कृति में नहीं जो कि भारतीय संस्कृति में हैं।’’

इस संस्कृति के प्रति विदेशी मनीषियों, विद्वानों की श्रद्धा अकारण नहीं रही है। ज्ञान एवं विज्ञान की जो सुविकसित जानकारियाँ आज संसार में दिखाई पड़ रही हैं, उनमें बहुत कुछ योगदान भारत का रहा है। समय-समय पर यह देश विश्व वसुधा को अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान की धाराओं से अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते हैं। उल्लेख मिलता है कि दक्षिण पूर्वी एशिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा से पाँचवीं शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और पास के अन्य द्वीपों में जाकर बस गये, वहाँ के निवासियों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये। चौथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विशिष्टता के कारण संस्कृत उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के बोरोबदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मन्दिर में सन्निहित थी। राजतन्त्र इन धर्म संस्थानों के आधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज भी देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों, मन्दिरों के ध्वंसावशेष अनेकों स्थानों पर बिखरे पड़े हैं।

भारतीय तत्त्वज्ञान की स्पष्ट छाप पश्चिमी विचारकों पर भी दिखाई पड़ती है। गणितज्ञ पाइथागोरस उपनिषद् की दार्शनिक विचारधारा से विशेष प्रभावित था। कितने ही पश्चिमी विद्वानों ने तो भारतीय साहित्य में समाहित विचारों से प्रेरणाएँ लेकर अनेकों कृतियाँ रची, जो अपने समय में अनुपम कहलायी, गेटे ने सर विलियम जोन्स कृत शकुन्तला नाटक के अनुवाद से अपने ड्रामा फास्ट की भूमिका के लिए आधार प्राप्त किया। दार्शनिक फिकटे तथा हैंगल वेदान्त के अद्वैतवाद के आधार पर एकेश्वरवाद पर रचनाएँ प्रस्तुत कर सके। अमरीकी विचारक थोरो तथा एमरसन ने भारतीय दर्शन के प्रभाव का ही प्रचार प्रसार अपनी शैली में किया।

गणित विद्या का मूल आविष्कारक भारत ही है। शून्य का अंक शतोत्तर गणना तथा संख्याओं के लिखने की आधुनिक प्रणाली मूलतः भारत की ही देन है। इससे पहले अंकों को भिन्न-भिन्न चिन्हों द्वारा प्रदर्शित करने की रीति थी। इससे बड़ी संख्याओं के लिखने में बड़ी कठिनाई होती थी। उदाहरणार्थ फिनीशियन रीति से नौ को नौ लम्बी खड़ी लकीरों में लिखने की परम्परा थी। यजुर्वेद संहिता अध्याय १७ के मन्त्र २ में दस खरब तक की संख्या का उल्लेख एक पर ११ शून्य के रूप में किया गया है। जबकि यूनान की बड़ी से बड़ी संख्या का नाम मिरियड था तथा रोम की मिल्ली, यह दोनों की क्रमशः दस हजार तथा एक हजार की अधिकतम संख्या को दर्शाते थे। भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने वर्गमूल, बीज गणित, वर्ग समीकरण तथा घनमूल जैसी गणितीय विद्याओं का आविष्कार किया जो आज विश्व भर में प्रचलित हैं।

अरब निवासी अंकों को हिंदसा कहते थे, क्योंकि उन्होंने अंक विद्या भारत से अपनाई। इनसे पाश्चात्य विद्वानों ने सीखकर अरेजिक नोटेसन नाम रखा था। अनुमान है कि भारत की अंक प्रणाली का योरोप में प्रचार पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ तथा सत्रहवीं सदी तक समस्त योरोप में प्रयोग होने लगा। पाई की कल्पना तथा मान ३.१४१६ की खोज का श्रेय आर्यभट्ट को है। गवेषक मोहम्मद विनमूसा ने ९२५ ई. पाई का मान देते हुए यह लिखा कि यह मान हिन्दू ज्योतिर्विदों का दिया हुआ है। सदियों पूर्व भारतीय ज्योतिर्विदों ने यह कल्पना की कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के समय का सही आकलन करने वाली ज्योतिष विद्या इस देश की ही देन है। जर्मनी के कितने ही विश्वविद्यालयों में आज भी वेदों की दुर्लभ प्रतियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं तथा उनमें वर्णित कितनी ही गुह्यतम विद्याओं पर वहाँ के वैज्ञानिक अन्वेषणरत हैं।

वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से प्रेरित होकर बहुजन हिताय की दृष्टि से यहाँ के निवासी समय-समय पर देश की सीमाओं को लाँघते हुए अपने ज्ञान विज्ञान की सम्पत्ति को उन्मुक्त हाथों से बाँटने के लिए दूसरे देशों में भी पहुँचते रहे हैं। तब आज जैसे यातायात के सुविकसित साधन भी न थे। दुर्गम पहाड़ों, नदियों, रेगिस्तान, बीहड़ों की कष्टसाध्य यात्राएँ उनको पावन मनोरथ से डिगा नहीं पाती थी। बृहत्तर भारत की नींव उनके इन दुस्साहसी प्रयत्नों से ही पड़ी। कुमारजीव, कश्यप, मतंग, बुद्धयश तथा गुणवर्मन आदि बौद्ध भिक्षुओं ने प्राणों को हथेली पर रखकर पैदल चीन की यात्राएँ की। उनके भाषणों, उपदेशों से वहाँ के मनीषी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उस भूमि की चरण रज मस्तक पर लगाने चल पड़े। जिसने अमृततुल्य तत्त्वज्ञान को जन्म दिया। फाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि चीनी विद्वान भारत आये तथा वर्षों तक अपनी ज्ञान पिपासा शांत करते रहे। जो मिला उसे अपने देशवासियों में बाँटने वापिस लौटे। मंगोलिया, साइबेरिया, कोरिया आदि में भी भारतीय विद्वानों के पहुँचने तथा संस्कृति के प्रचार का उल्लेख मिलता है।

कलिंग युद्ध के बाद अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ। प्रायश्चित के लिए बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर धर्म प्रचार के लिए न केवल स्वयं कार्य करना आरम्भ किया, वरन् अपने पुत्र, पुत्री को भी वैसे ही अनुकरण के लिए प्रेरित किया। श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को प्रचारार्थ भेजा। गया से बोधिवृक्ष की एक शाखा लेकर उन्होंने लंका में आरोपित की। बौद्ध धर्म के धार्मिक चिन्ह, ग्रन्थों एवं प्रासादों के रूप में जो लंका में दिखाई पड़ते हैं, वे महेन्द्र संघमित्रा के प्रयासों के ही पुण्य प्रतिफल हैं। बर्मा का पुरातन नाम ब्रह्मदेश है। जिस पर भारतीय प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बौद्ध भिक्षु यहाँ भी पहुँचे।

कम्बोडिया, तीसरी से सातवीं शताब्दी तक हिन्दू गणराज्य रहा। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि इस देश का नाम भारत के ही एक ब्राह्मण ऋषि कौन्डिण्य के नाम पर पड़ा, जिनने यहाँ की एक नाग कन्या से विवाह किया और अपना राज्य स्थापित किया। उनके बाद जयवर्मन, यशोवर्मन, सूर्यवर्मन आदि राजा हुए। यहाँ के प्रख्यात मन्दिर हैं-अंगकोर के। जिनकी दीवारों के पत्थरों पर रामायण के दृश्य खुदे हुए हैं। लाओस के कुछ मन्दिरों में भी रामकथा के दृश्य देखे जा सकते हैं।

इण्डोनेशिया यों तो वर्तमान में मुस्लिम देश है, किन्तु भारतीय संस्कृति की अमिट छाप इस पर आज भी है। इण्डोनेशिया यूनानी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है-भारत द्वीप। जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि इसके द्वीप हैं। प्राचीनकाल में वे सभी भारत के अंग रहे थे। रक्त एवं संस्कृति दोनों ही दृष्टियों से वहाँ के निवासी भारतीयों से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जावा के लोगों में विश्वास है कि भारत के पाराशर तथा व्यास ऋषि वहाँ गये थे तथा बस्तियाँ बसाई थी। शैलेण्ड राजवंश द्वारा बरोबुदुर जैसे मन्दिर वहाँ बनवाये गये, जिसमें बुद्ध की ४३२ मूर्तियाँ हैं। उन मूर्तियों पर गुप्तकाल की भी स्पष्ट छाप है। मन्दिर का बौद्ध स्तूप कलाकृति एवं सौन्दर्य की दृष्टि से संसार भर में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। जावा के जोग जकार्ता की रामलीला एवं नाटक संसार भर में प्रसिद्ध हैं। वे मूलतः राम कथानक पर आधारित होते हैं। मन्दिर की प्रस्तर भित्तियों पर सम्पूर्ण रामकथा का चित्रण किया गया है। सुमात्रा में हिन्दू राज्य की स्थापना तथा भारतीय संस्कृति का विस्तार चौथी शताब्दी में हुआ। पलेमवंग नामक स्थान कभी सुमात्रा की राजधानी था, जहाँ भारतीय धर्म संस्कृति एवं अध्यात्म विषयों का शिक्षण होता था। पाली एवं संस्कृत भाषा यहाँ पढ़ाई जाती थी। इण्डोनेशिया के पाली द्वीप के विषय में चीनी कहते हैं कि चौथी शताब्दी में कौन्डिण्यवंशी भारतीय राजा ने हिन्दू राज्य की स्थापना की थी, जो दसवीं शताब्दी तक कायम रहा। बाद में वह हालैण्ड के आधीन आ गया।

बोर्नियो द्वीप सबसे बड़ा है। यहाँ हिन्दू राज्य की स्थापना पहली सदी में हो गई थी। शिव, अगस्त्य, गणेश, ब्रह्मा, स्कन्द आदि ऋषियों एवं देवताओं की मूर्तियाँ यहाँ प्राप्त हुई तथा कितने ही पुरातन हिन्दू मन्दिर आज भी मौजूद हैं जो यह बताते हैं कि यह द्वीप भारतीय संस्कृति का गढ़ रह चुका है।

इतिहासकारों का मत है कि थाईलैण्ड का पुराना नाम स्याम देश था। तीसरी शताब्दी में वह भारत का उपनिवेश बना तथा बारहवीं शताब्दी तक भारत के आधीन रहा। स्याम की सभ्यता भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनुप्राणित है। उसी लिपि का उद्गम पाली भाषा से हुआ है, जो भारत की देन है। उनके रीति रिवाजों में भारतीय जैसा साम्य दिखाई पड़ता है। दशहरा जैसे पर्व धूमधाम से मनाये जाते हैं। थाई जीवन में राम एवं रामायण के कथानक की प्रेरणाएँ गहराई तक जड़ें जमाये हुई हैं। अष्टमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वों पर भारत की तरह वहाँ भी छुट्टियाँ रहती है। थाई रामायण का नाम रामकियेन हैं, जिसका अर्थ होता है-रामकीर्ति। थाईलैण्ड में अयोध्या और लोषपुरी जैसी नगरियाँ है।

तिब्बती साहित्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है। वहाँ के राजा सांगचन गम्पो ने भारतीय लिपि के आधार पर तिब्बत की वर्णमाला का आविष्कार किया, नालन्दा के आचार्य शान्तरक्षित ने सन् ७४७ में तिब्बत पहुँचकर समये नामक पहला विहार बनवाया। तत्पश्चात् काश्मीर के भिक्षुक पद्मसम्भव के प्रयत्नों से वहाँ महायान की तान्त्रिक शाखा का प्रचार हुआ। लामावाद की उत्पत्ति उसी से हुई।

ऐसे अगणित प्रमाण संसार के विभिन्न देशों में बिखरे पड़े हैं जो यह बताते है कि भारत समय-समय पर अपने भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान सागर से इस वसुधा को अभिसिंचित करता रहा। उस स्वर्णिम इतिहास के साथ पतन पराभव के युग की भी एक कहानी है। अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को भूलने, उपेक्षा करने का ही दुष्परिणाम देशवासियों को हजारों वर्षों की यन्त्रणाभरी पराधीनता के रूप में भुगतना पड़ा है। उत्थान-पतन के इस चक्र के बावजूद भी भारत अपनी साँस्कृतिक विशेषताओं के बीज सुरक्षित रखे हुए हैं ।। उसके पास ऋषि प्रणीत पारस तुल्य अध्यात्म विद्या की विरासत है, जिसके सम्पर्क में आकर लोहे जैसे नगण्य व्यक्तित्व भी कुन्दन जैसे बहुमूल्य खरे बन सकते हैं। बीसवीं सदी के परमाणु युग में मानवी सभ्यता को स्वयं के आविष्कारों से भस्मीभूत हो जाने का संकट आ खड़ा हुआ है। इस संकट बेला में विश्व की निगाहें भारत की ओर लगी हुई हैं। इस देश की समता, शुचिता, सहिष्णुता तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की उदात्त भावना पर आधारित संस्कृति को सही रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रखर व्यक्तित्व उभरकर सामने आ सकें, तो आसन्न उस विश्व विभीषिका से मुक्ति मिल सकती है। तब सचमुच ही वह सपना साकार हो सकता है जो पाँच दशक पूर्व स्वामी विवेकानन्द ने देखा था और कहा था-एक दिन भारत अपनी आध्यात्मिक विशेषताओं के साथ उभरकर पुनः विश्व रंगमंच पर सामने आयेगा, विश्व का मुकुटमणि बनेगा तथा हर क्षेत्र में संसार का मार्गदर्शन करने में सक्षम होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

215. भारतीय संस्कृति-मानवी संस्कृति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अति प्राचीन काल में संस्कृति का सूर्य भारत में उगा तो पर उसका प्रकाश देश की सीमा में अवरुद्ध न रह कर समस्त संसार में फैला। ऋषि कल्प महामनीषियों के गम्भीर अनुसंधान का भागीरथ तप जिस महान संस्कृति की ज्ञान गंगा को धरती पर अवतरण करने में सफल हुआ, उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है। इसका अर्थ उसकी परिधि अथवा उपयोगिता भारत देश की सीमा क्षेत्र में सीमित कर देना नहीं है। वह असीम है, सार्वभौम एवं सर्वजनीन है। उसे मानव संस्कृति या विश्व संस्कृति ही कहना चाहिए। निर्माताओं का चिन्तन सुविस्तृत था। वे जो सोचते थे, वह देश, काल, वर्ग की सीमाओं से बहुत आगे की बात होती थी। विश्व मानव, विराट विश्व, ब्रह्म एवं वसुधैव कुटुम्बकम् से कम की बात उन्होंने कभी सोची ही नहीं। इससे कम भी कुछ हो सकता है यह उन्हें वह रुचा ही नहीं।

गंगा हिमालय से निकली अवश्य पर उसका कार्य क्षेत्र एवं अनुदान उस छोटे क्षेत्र में सीमाबद्ध होकर नहीं रहा। भारतीय संस्कृति के नाम से किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह भारतवासी या भारतवंशी लोगों की रुचि एवं आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाई गई है। उसमें उन्हीं तत्वों का समावेश है जो देश काल की सीमा से ऊँची है और शाश्वत एवं सनातन समझे जा सकते हैं। सनातन धर्म शब्द का तात्पर्य उन्हीं आस्थाओं से है जो मानवी प्रगति की अविच्छिन्न अंग रही हैं और जिन्हें अपनाये रहने पर सुख शान्ति की दिशा में क्रमशः आगे ही बढ़ते रहा जा सकता है।

नागपुरी सन्तरे, भुसावली केले, लखनऊ के खरबूजे, मथुरा के पेड़े, चुनार के बर्तन आदि अनेक नामकरण उनके उद्गम स्रोत का परिचय देने भर के लिए किये गये हैं। किसी को यह भ्रम नहीं करना चाहिए कि वे सन्तरे, केले, खरबूजे आदि उन्हीं स्थानों के निवासियों के उपयोग में आने के लिए हैं, अन्यत्र कहीं उनकी उपयोगिता नहीं। विज्ञान के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण इकाइयों और सिद्धान्तों के नाम उनके शोधकर्ताओं के नाम पर ही रखे गये हैं, पर उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता असंदिग्ध है। वर्जीनिया तम्बाकू अब संसार भर में उगाई और प्रयोग में लायी जाती है। अरबी घोड़ों की नस्ल संसार भर में पैदा होती और काम में लाई जाती है। भारतीय संस्कृति नाम उसके भारत में विकसित होने के कारण ही पड़ा है, वस्तुतः उसे मानवी संस्कृति नाम देना ही उचित है।

संस्कृति शब्द का अर्थ है परिष्कृति। कच्ची और अनगढ़ वस्तुओं को कुशलतापूर्वक सँभाल सुधार कर उसे आकर्षक एवं उपयोगी बनाया जाता है। इस सुधार प्रक्रिया को संस्कृति कहा जायेगा।

अनगढ़ वस्तुओं को सुन्दर एवं उपयोगी बनाना भौतिक संस्कृति है। मानवी चेतना पर चढ़े जन्म जन्मान्तरों के पशु संस्कारों के निराकरण का नाम मानवी संस्कृति है। माली अपने पेड़ पौधों को काट-छाँटकर इस स्तर का बनाता है जो उसके जंगली स्वरूप से बहुत कुछ भिन्न होते हैं। लुहार धातुओं को, मूर्तिकार पत्थर को, दर्जी कपड़ों को, शिक्षक छात्रों को, सरकस का शिक्षक भयंकर जानवरों को जो रूप, जो स्तर प्रदान करते हैं उसे सभ्यता कह सकते हैं ।। मनुष्य की आस्थाओं को अमुक मान्यताओं एवं प्रथाओं के आधार पर परिष्कृत बनाने की पद्धति को संस्कृति कहा जा सकता है। अनगढ़ आदिम नर पशु को नर नारायण बना देने का श्रेय मानवी संस्कृति को ही दिया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि अनादि काल से भारतीय संस्कृति विश्व मानव को देवत्व की दिशा में बढ़ाने की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती रही है। आइए भारतीय संस्कृति की कुछ मान्यताओं का पर्यवेक्षण करें और देखें कि कोई कुशल माली उद्यान के पेड़-पौधों को सम्भाल, सुधारकर उन्हें सुरम्य उद्यान के रूप में जिस तरह विकसित करता है, उसी तरह मनुष्य को देवत्व की दिशा में अग्रसर करने के लिए, अपूर्णता से पूर्णता तक पहुँचाने के लिए यह दिव्य संस्कृति उपयोगी है या नहीं? उसमें व्यक्ति को सुविकसित और समाज को समुन्नत बनाने की क्षमता विद्यमान है या नहीं? विश्व को अगले ही दिनों एक सार्वभौम सर्वजनीन संस्कृति की आवश्यकता पड़ेगी, वह प्रयोजन इससे सधेगा या नहीं? मानवीय विकास अब एकता की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। एक विश्व भाषा, एक विश्व धर्म, एक विश्व संस्कृति, एक विश्व राष्ट्र बनाये बिना काम चल नहीं सकेगा। बिखराव, विभाजन और विलगाव की हानियाँ क्रमशः अधिक अच्छी तरह समझी जा रही हैं। एकता की प्रतिक्रिया से जो सुखद सम्भावनाएँ प्रस्तुत हो सकती है, उसमें सन्देह की गुंजायश रह नहीं गई है। अस्तु द्रुतगति से घूमने वाले प्रगति चक्र के विलगाव को निरस्त करके सर्वतोमुखी एकता का लक्ष्य भी अपने साथ लेकर चलना होगा। इस सार्वभौम एकता की एक अति महत्त्वपूर्ण कड़ी संस्कृति है। विश्व विवेक को जब इसकी खोजबीन करनी पड़े तो बना बनाया, पका पकाया सब कुछ मिल जायेगा। तत्त्वदर्शी महामनीषियों ने एक ऐसी संस्कृति का अब से लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व निर्माण किया था जिसे बिना देश, काल, वर्ग, वर्ण का भेद किये मानवी आदर्शों की स्थापना के लिए समान रूप से अपनाया और सर्वतोमुखी लाभ उठाया जा सके।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है, विचार स्वातन्त्र्य। उसमें प्रत्येक विचार पद्धति को विकसित होने और पनपने देने की छूट है। आस्तिकवाद और नास्तिकवाद दोनों ही उसमें पनपे हैं। भक्तिवाद की विशाल परम्परा है, पर चार्वाक के नास्तिकवाद को भी बहिष्कृत नहीं किया है। वेदान्त में आत्मसत्ता को परमात्मा का प्रतीक माना गया है। सांख्यकार ईश्वर का अस्तित्व मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ईश्वर को स्वीकारा नहीं गया। इतने पर भी वे सब भारतीय संस्कृति के सम्मानित सदस्य हैं। चेतना के विभाजन की व्याख्या में काफी मतभेद है। त्रैत, द्वैत और अद्वैत की दार्शनिक मान्यताएँ ईश्वर, जीव, प्रकृति की व्याख्याएँ अलग ढंग से करती हैं। उनके मतभेद प्रत्यक्ष हैं। ईश्वर के स्वरूप कल्पना में इतनी छूट कि उसकी आकृति हर व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप विनिर्मित कर सकता है। किसी समय भारत में तैंतीस कोटि मनुष्यों की जनसंख्या थी। देवताओं की संख्या भी ठीक इतनी ही थी। इसका तात्पर्य हुआ, हर मनुष्य का एक इष्टदेव। प्रथाओं, पूजा पद्धतियों, व्रतों, मान्यताओं की अनेकता और विभिन्नता सर्वविदित है।

मोटी दृष्टि से इसे बिखराव माना जा सकता है पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। यहाँ विचार स्वातन्त्र्य की सर्वोपरि मान्यता है और सत्य की शोध के लिए हर प्रयोग की गुंजायश है। विचार विकास को अवरुद्ध नहीं किया गया है और दार्शनिक मान्यताओं को पत्थर की लकीर भी नहीं ठहराया गया है। जो जाना जा चुका, वह अन्तिम नहीं है। बात को कई तरह से सोचा-परखा जाना चाहिए। अभिव्यक्तियों और प्रयोगों पर तब तक प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जब तक कि वे नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन न करती हों।

भारतीय संस्कृति को बौद्धिक प्रजातन्त्र कह सकते हैं। प्रजातन्त्र में नागरिक को लेखन, भाषण, निर्वाह, धर्म के भौतिक अधिकारों की मान्यता दी गई है। विचार क्षेत्र को भी ठीक इसी तरह की मान्यता केवल भारतीय धर्म ने ही प्रदान की है। अन्य धर्म एक ही पैगम्बर और एक ही धर्म शास्त्र और एक ही विधान को मान्यता देते हैं अन्य प्रकार से सोचने वालों का दमन करते हैं। यह अधिनायकवाद हुआ। इससे विवेक और चिन्तन के विनाश की संभावनाएँ समाप्त होती हैं। भारत में वैज्ञानिक ढंग से विचार स्वातन्त्र्य की छूट दी है और कहा है कि नित्य की शोध, पूर्व मान्यताओं से विपरीत जाती है तो उसे पूर्वजों की अवहेलना नहीं चिन्तन की प्रगति माना जाना चाहिए। यहाँ जन-साधारण के विवेक पर विश्वास रखा गया है और स्वीकार किया गया है कि जन मानस की प्रबुद्ध चेतना स्वतः अपनी विवेक बुद्धि से काम लेगी और जो अनुपयुक्त है उसे अस्वीकार कर देगी। प्रजातन्त्र में भी यही है। चुनाव में कोई भी पार्टी कुछ भी कार्यक्रम लेकर खड़ी हो सकती है। जब विवेक अपनी समझ से जिन्हें उपयुक्त समझता है उन्हें चुनता है। ऐसी ही उदार स्वतन्त्रता भारतीय संस्कृति ने दर्शन और धर्म क्षेत्र में देकर बिखराव का खतरा तो उठाया है। पर मानव जाति की इस समस्त विश्व की प्रगति के लिए विचार स्वातन्त्र्य के आधार पर सत्य की शोध को चलने देने की आवश्यकता को सर्वप्रथम मान्यता देते हुए अनेकता की सहिष्णुता का परिचय दिया है।

एक उद्यान में कई तरह के पौधे और फूल उगते हैं। इस भिन्नता से बगीचे की शोभा ही बढ़ती है। यही बात विचार उद्यान के सन्दर्भ में स्वीकार की जा सकती है। इसमें अनेक प्रयोग परीक्षणों के लिए गुंजायश रहती है और सत्य को सीमाबद्ध कर देने से उत्पन्न अवरोध की हानि नहीं उठानी पड़ती। इस दृष्टिकोण के कारण नास्तिकवादी लोगों के लिए भी भारतीय संस्कृति के अंग बने रहने की छूट है, जबकि उनके लिए धर्मों के द्वार बन्द हैं।

भारतीय संस्कृति की दूसरी विशेषता है। कर्मफल की मान्यता। पुनर्जन्म के सिद्धान्त में जीवन को अवांछनीय माना गया है और मरण की उपमा वस्त्र परिवर्तन से दी गई है। कर्मफल की मान्यता नैतिकता और सामाजिकता की रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक है। मनुष्य की चतुरता अद्भुत है। वह सामाजिक विरोध और राजदण्ड से बचने के अनेक हथकण्डे अपनाकर कुकर्मरत रह सकता है। ऐसी दशा में किसी सर्वज्ञ सर्व-समर्थ सत्ता की कर्मफल व्यवस्था का अंकुश ही उसे सदाचरण की मर्यादा में बाँधे रह सकता है। परलोक की, स्वर्ग-नरक की, पुनर्जन्म की मान्यता यह समझाती है कि आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में कर्म का फल भोगना पड़ेगा। दुष्कर्म का लाभ उठाने वाले यह न सोचें कि उनकी चतुरता सदा काम देती रहेगी और वे पाप के आधार पर लाभान्वित होते रहेंगे। इसी प्रकार जिन्हें सत्कर्मों के सत्परिणाम नहीं मिल सके हैं उन्हें भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। अगले दिनों वे भी अदृश्य व्यवस्था के आधार पर मिल कर रहेंगे।

संचित प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म समयानुसार फल देते रहते हैं। इस मान्यता को अपनाने वाला न तो निर्भय होकर दुष्कर्मों पर उतारू हो सकता है और न सत्कर्मों की उपलब्धियों से निराश बन सकता है। अन्य धर्म जहाँ अमुक मत का अवलम्बन अथवा अमुक प्रथा प्रक्रिया अपना लेने मात्र से ईश्वर की प्रसन्नता और अनुग्रह की बात कहते हैं, वहाँ भारतीय धर्म में कर्मफल की मान्यता को प्रधानता दी गयी है और दुष्कर्मों का प्रायश्चित करके क्षति पूर्ति करने को कहा गया है।

भारत में जब उसकी महान संस्कृति को व्यावहारिक रूप से अपनाया जाता था तब यहाँ का प्रत्येक परिवार नर रत्नों की खदान था। महामानवों का मूल्य करोड़ों रुपयों के लागत से बनने वाले उद्योग प्रतिष्ठानों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। कोई देश धन-सम्पत्ति के आधार पर ही विकासवान नहीं मान लिया जाता, उसका असली बल तो राष्ट्रीय चरित्र और महामानवों का बाहुल्य ही होता है। प्राचीन भारत में भले ही आज जितनी साधन-सुविधा का, धन-सम्पदा का बाहुल्य न रहा हो, पर उसको साधु-ब्राह्मण का आदर्शवादी परमार्थ परायण जीवनक्रम अपनाये बिना चैन नहीं पड़ता।

योग अर्थात् परमात्मा की व्यापक सद्भाव सत्ता के प्रति आत्म-समर्पण, तप अर्थात आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने पर शारीरिक संयम मानसिक निग्रह एवं परिजनों के उपहास के जन्य कष्टों को सहने का साहस उत्पन्न करना। आत्मोत्कर्ष के लिए भारतीय संस्कृति में योग और तप के नाम पर अनेक विधि विधान और उपचार बताये हैं। उनका बहिरंग स्वरूप भिन्न होने पर भी समय-समय पर घर-घर में जन्मने वाले नर रत्नों से न केवल इस देश का गौरव बढ़ा था, वरन् उनके सत्प्रयत्नों से समस्त संसार ने असीम लाभ उठाया था।

महान ऋषि-मुनियों में विश्वामित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी पाराशर, याज्ञवल्क्य, कात्यायन गोमिल, पिप्पलाद, शुकदेव, शृंगी, कण्व, लोमश, धौमश, जरुत्कार, वैशम्पायन जैसे सहस्त्रों महामानवों ने अपने आदर्श-चरित्र और महान कर्तृत्व से विश्व मानव की कितनी सेवा साधना की, इसका स्मरण करने मात्र से हमारी छाती गर्व से फूल उठती है।

आद्य शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, नानक, गोविन्दसिंह, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थ, चैतन्य, सुर, तुलसी, मीरा, कबीर, दयानन्द, विवेकानन्द आदि की सन्त-परम्परा ने युग चेतना का किस प्रकार संचार किया था यह किसी से छिपा नहीं हैं। ध्रुव, प्रहलाद जैसे बालक तब घर-घर में पैदा होते थे। जनक जैसे राजा कृषि कार्य से अपना गुजारा करते थे और राज्यकोष की पाई-पाई प्रजाहित में खर्च करते थे। कर्ण, अशोक, हर्ष, मान्धाता, वाजिश्रवा, भामाशाह जैसे उदार दानी अपनी सम्पदा का सत्प्रयोजनों के लिए समय-समय पर सर्वमेध करते रहे हैं। धर्म हेतु प्राण होमने वाले बलिदानी वीरों में गोरा, बादल जोरावर, फतेहसिंह, अभिमन्यु जैसे बालक पराक्रम दिखाते थे। रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, कर्मावती जैसी नारियाँ तलवार लेकर अनीति से निपटने के लिए अद्भुत शौर्य दिखाती थी। परशुराम और चाणक्य जैसे ऋषियों ने अनीति से जूझने के लिए योजना बनाई थी।

भारतीय संस्कृति ऋषि संस्कृति है, देव संस्कृति है यह कहते हुए हमें गर्व होता है तो आवश्यकता इस बात की भी है कि हम अपनी वर्तमान मान्यताओं को विकृतियों के दलदल से निकालें और प्राचीन काल जैसी उच्च स्थिति में पहुँचाए। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो आज की स्थिति में भी अपनी महान संस्कृति, परम्पराओं को पुरातन युग की तरह नवयुग की पृष्ठभूमि बनाने एवं उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में प्रयुक्त किया जा सकता है। मानवी उत्कर्ष हेतु देव मानव फिर उसी रूप में पुनः अपनी भूमिका निभाने आगे आ सकते हैं, जैसा कि कभी सतयुग में रहा होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

216. संस्कृति के अग्रदूत चेतें, उत्तरदायित्व निभाने आगे आएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भारत में जन्मी देव संस्कृति विश्व सम्पदा है। सूरज पूरब से निकलता है तो भी सारे संसार को प्राण चेतना प्रदान करता है। सूर्य किरणों की तरह ही देव संस्कृति ने भी पुरातन काल में संसार भर के मनुष्यों को प्रगति, व्यवस्था, शालीनता का पाठ पढ़ाया है। मध्यकाल में छाये कुछ शताब्दियों के कुहासे के छट जाने के बाद अब फिर ऐसी स्थिति है कि वह विश्व के पुनर्निर्माण में अपना महान योगदान देने की भूमिका सम्पन्न कर सके।

गत सौ वर्षों में भौतिक दृष्टि से विश्व प्रगति की दिशा में आगे बढ़ा है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने सुविधा साधन बढ़ाए हैं। आर्थिक और बौद्धिक दृष्टि से हुई इस प्रगति के बावजूद हम पाते हैं कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से मनुष्य और अधिक दुर्बल-उद्विग्न, अधिक संकीर्ण एवं अभावग्रस्त हो गया है। परिवार संस्था में न अब पारस्परिक स्नेह है न सहकार। आपस के टकराव व आपाधापी की नीति के कारण अपराधी दुष्प्रवृत्तियों की ऐसी बाढ़ आई है, जिसने चिर-संचित सभ्यता को समूल नष्ट कर देने की चुनौती खड़ी कर दी है। कुल मिलाकर आज का व्यक्ति पूर्वजों की तुलना में चेतना की दृष्टि से दीन, दरिद्र और संवेदना शून्य हो चला है, भले ही बाहर से वह सम्पन्नता, शालीनता का मुखौटा बाँधे क्यों न फिरता हो।

दूरदर्शियों का कथन है कि प्रगति के साथ बढ़ती दुर्गति से व्यक्ति की जो दुर्गति हुई है, उसके परिणाम सारे संसार के लिये अभिशाप बनकर भविष्य को अन्धकारमय किये दे रहे हैं। लक्ष्य विहीन प्रगति की परिणति निश्चित ही भयावह होगी। चिंतन की विकृति की अदृश्य जगत में प्रतिक्रिया प्रकृति कोप एवं विक्षुब्ध वातावरण के रूप में देखी जा सकती है। ऐसा लगता है, मानों सामूहिक महाविनाश की सुनियोजित तैयारी चल रही है। परिस्थितियों को देखते हुए यह निष्कर्ष सत्य प्रतीत होता लगता है। समाधान एक ही है कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादी आस्थाओं की प्रतिष्ठापना करने वाली देव संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाय। शालीनता, सहकार, स्नेह-सद्भाव से भरा जीवन ही भारत की देव संस्कृति का पर्याय है, जिसकी उपेक्षा से मनुष्य के पतन का माहौल बना है।

मानवी गरिमा को सुरक्षित रखने वाली देव संस्कृति को प्रखर बनाया जाना ही आज का युग धर्म है। भारतीय संस्कृति के अनुयायी भले ही किसी भी देश में रहते हों, उनमें से प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि वह अपनी-अपनी सन्तति की ही नहीं सारे संसार की सुख शान्ति हेतु फिर से उन देव परम्पराओं को पुनर्जीवित करने में भाव-भरा योगदान दें, जिन्हें प्रचलित कर कभी भारतवासियों ने सतयुगी परिस्थितियाँ विनिर्मित की थी।

वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों द्वारा पिछले दिनों किये गये कार्यों से यह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है कि भावनाओं, आकांक्षाओं एवं गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश कर सकने में सर्वथा समर्थ देव संस्कृति के स्वरूप एवं उद्देश्य को सही रूप में संसार भर के सम्मुख प्रस्तुत करने में कुछ उठा न रखा जाय। इसके सहारे ही मानवता को विनाश की चुनौती से बचाया जा सकता है। समय की माँग है कि ध्वंस लीला आरम्भ होने के पूर्व ही संस्कृति के अग्रदूत चेतें, उज्ज्वल भविष्य के मार्ग में आए अवरोधों को दूर हटाएँ।

भारत भूमि से भूतकाल की तरह इन दिनों भी विश्वमानवता को भ्रान्तियों से उबरने का मार्ग दिखाने वाला अभियान तूफानी गति से चल पड़ा है। उसके सत्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। लेकिन युग परिवर्तन के ये प्रयास किसी छोटी सीमा में अवरुद्ध नहीं रखे जा सकते। इन्हें विश्वव्यापी बनाने का काम उनका है जो भारतीय संस्कृति की गरिमा से परिचित हैं और अन्य देशों में निवास करने के कारण उसे फैला सकने में समर्थ हैं। दीपक जहाँ जलता है, वही रोशनी देता है। हीटर जहाँ जलता है वहीं गर्मी फैलाता है। हर प्रवासी भारतीय का सामयिक एवं चिरस्थाई कर्तव्य यही है कि वह जहाँ भी रहे वहाँ अन्यान्य प्रकार की सृजन सेवाएँ करते हुए युग समस्याओं के समाधान हेतु सम्बद्ध क्षेत्र को परिचित प्रभावित करने में कुछ उठा न रखें। विश्व मानव की सेवा साधना का यह पुण्य सम्पादन हमारे पूर्वजों की परम्पराओं का पुनर्जीवन ही है। जिन्होंने धरती को स्वर्गादपि गरीयसी का मान दिलाया व स्वयं देव मानव कहलाए।

यह सब कैसे किया जाय? इसका एक ही उत्तर है कि प्रवासी भारतीय स्वयं देव संस्कृति का उत्तराधिकारी प्रतिनिधि अनुभव करें। सम्पर्क क्षेत्र को इस प्रकार की महिमा व परिणति समझाते रहें। शुभारम्भ वे निजी जीवन और परिवार से करें। जिनके अपने विश्वास प्रगाढ़ है, जो आदर्शों का स्वयं परिपालन करते हैं, उन्हीं के लिए यह संभव है कि वे दूसरों को आकर्षित-अनुप्राणित करे, अपनाने के लिए सहमत करें।

इस दृष्टि से आवश्यक है कि प्रवासी भारतीय जहाँ भी रहते हो, संघबद्ध होकर रहे। परस्पर मिलने-जुलने का क्रम बनाएँ और ऐसे उपाय सोचें, अपनाएँ जिनसे अपने समुदाय में देव संस्कृति की निष्ठा और परम्परा प्रगाढ़ बनी रहे, साथ ही उस स्थान पर भी प्रकाश फैलाना संभव हो सके, जहाँ अभी समुचित जानकारी के अभाव में अन्धकार जैसी स्थिति बनी हुई है।

युगान्तर चेतना का उद्भव प्रज्ञा अभियान के रूप में भारत भूमि से पुनः हो रहा है। ऐसा कुछ इस माध्यम से किया जा रहा है, जिस पर गर्व किया जा सके। अब बारी उस सभ्यता का देश-देशान्तरों में प्रतिनिधित्व करने वाले प्रवासी भारतीयों की है, जिन्हें हर क्षेत्र के मनुष्य समुदाय को देव संस्कृति का वह स्वरूप समझाना है जो संव्याप्त पतन, पराभव तथा भावी महाविनाश से समूची मनुष्य जाति को बचा सकती है।

सर्व प्रथम कार्य तो यह है कि विभिन्न जाति या सम्प्रदाय के व्यक्ति जो प्रवासी भारतीयों के रूप में विदेशों में बसे हैं एक परिवार की तरह रहने लगें। भारत बहुत बड़ा देश है। उसमें अनेकों भाषाएँ बोली जाती हैं और अनेकों सम्प्रदायों की भरमार हैं। इस विभिन्नता विचित्रता के बावजूद एकात्मता यहाँ की विशेषता है। देव संस्कृति के अनुयायी प्राचीन काल से इसी प्रकार की एकता बनाये रहे हैं। दर्शन की भिन्नता के कारण उन्होंने कभी व्यवहार भेद नहीं होने दिया। अब नवयुग की बेला में वर्ग भेद न पनपने देकर एक माता के पुत्रों जैसी एकात्मता उत्पन्न करनी चाहिए।

युग निर्माण योजना की लाल मशाल इसी संघ शक्ति का प्रतीक है। सभी को अब इसके नीचे एक जुट हो जाना चाहिए। इस हेतु आवश्यक है कि समय-समय पर इन देशों के सम्मेलन समारोह होते रहे। इससे एक दूसरे को परिचित होने का अवसर मिलता है और प्रेमभाव बढ़ता है। मिल जुलकर विचार करने पर ऐसा मार्ग मिलता है जिससे सामयिक कठिनाइयों से निपटना एवं प्रगतिशीलता के मार्ग पर चल सकना संभव हो सके। इन दिनों हमें युग निर्माण सम्मेलनों की हर क्षेत्र में व्यवस्था बनानी चाहिए ताकि समीपवर्ती लोग सफलता पूर्वक उनमें सम्मिलित होते रहें ।। पूरे देश या क्षेत्र का बड़ा समारोह तो यदा कदा कहीं-कहीं ही हो सकता है, क्योंकि उसके लिए बड़े साधन जुटाने पड़ते हैं जिनकी व्यवस्था बनाना प्रायः बड़ों के सहयोग, साधन सम्पन्न एवं प्रखर व्यक्तियों से ही संभव है।

प्रायः चौहत्तर देशों में प्रवासी भारतीय अच्छी संख्या में रहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सामूहिक गायत्री पुरश्चरण, प्रज्ञा पुराण कथा गायत्री यज्ञ, युग निर्माण सम्मेलन, संगीत कीर्तन जैसे कार्यक्रमों के साथ सम्मेलन समारोहों का भी क्रम चल पड़े। वे कभी-कभी देश भर में होते रह सकते हैं। अन्यथा क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्तर पर तो उन्हें लगातार किया ही जाना चाहिए। पारस्परिक स्नेह सौजन्य उत्पन्न करने वाली घनिष्ठता इस आधार पर और आगे बढ़ाई जा सकती है। साथ ही ऐसी योजनाएँ भी उसी अवसर पर बनती रह सकती है जिनका कार्यान्वयन स्थानीय परिस्थितियों में संभव हो।

दूसरा कार्यक्रम जो शुभारम्भ के रूप में किया जाना चाहिए वह यह है कि प्रज्ञा प्रकाशन विभाग हर देश में स्थापित किया जाय, जिससे देव संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों और प्रचलनों की महत्ता एवं उपयोगिता से सर्व-साधारण को अवगत कराते रह सकना संभव हो सके। समारोह प्रवचन तो यदा-कदा ही होते हैं जबकि बौद्धिक प्रशिक्षण की आवश्यकता निरन्तर बनी रहती है। यह कार्य तभी हो सकता है जबकि नियमित रूप से उस विषय का साहित्य उपलब्ध होता रहे। इनकी छाप अधिक समय तक बनी रहती है। सतत साहित्य साथ रहने से ही संस्कार प्रबल होते हैं। सशक्त लोक शिक्षण की गाड़ी उससे कम में नहीं चल सकती।

इस सन्दर्भ में कुछ राष्ट्रों विशेषतः यू. के. के परिजनों ने उत्साह वर्धक कदम उठाये हैं और दूसरों द्वारा अपनाए जाने योग्य उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। अच्छा तो यह हो कि हर देश में प्रवासी भारतीयों के द्वारा गायत्री परिवार सम्मेलन सम्पन्न हो। यह कार्य इंग्लैण्ड वालों ने सर्वप्रथम कर दिखाया अब अन्य देशों की बारी है। उन्हें भी इस कार्य को छुट-पुट ढंग से नहीं, योजनाबद्ध रूप से बड़े आकार में बड़े सरंजाम के साथ सम्पन्न करना चाहिए। हर सम्मेलन का उद्देश्य देव संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यक्रमों का सुनियोजित क्रियान्वयन होना चाहिये।

आशा की जानी चाहिए कि अब तक जिन ७४ देशों में युगान्तरीय चेतना का आलोक पहुँचा है उन सभी स्थानों पर ऐसे ही विशालकाय आयोजन होंगे और उनकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में छोटे-छोटे स्थानीय प्रज्ञा समारोहों का क्रम भी भली प्रकार चल पड़ेगा। यही प्रक्रिया भारत भूमि में अपनाई गयी है। इससे बड़ी संख्या में जन मानस प्रभावित हुआ है एवं नितान्त अछूते पड़े क्षेत्रों तक प्रज्ञा आलोक पहुँचा है। यही क्रम देश-देशान्तरों में क्रियान्वित किया जाना है।

साहित्य प्रकाशन के सम्बन्ध में भी इंग्लैण्ड द्वारा उठाया गया प्रथम कदम भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य है। पिछले दिनों वहाँ से एक स्मारिका प्रकाशित हुई। उसमें मिशन के महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला गया था। भारत वर्ष में इस प्रयास को बहुत सराहा गया और इसके आयोजन कर्ताओं की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा हुई। ऐसे ही वार्षिक प्रकाशन अपने-अपने देशों में अन्यान्य प्रवासी बन्धु भी कर सकते हैं। यह प्रयोग न तो खर्चीला है न समय साध्य। इसकी लागत विज्ञापनों से ही निकल आती है। अधिक दौड़ धूप करने पर अधिक व्यक्तियों से सम्पर्क कर पाना, कुछ बचत कर प्रज्ञा आयोजनों का खर्च जुटा सकना भी संभव है।

स्थाई प्रकाशन की बात हर देश में सोची जानी चाहिए। देव संस्कृति के आदर्शों से अनुप्राणित साहित्य को घर-घर पहुँचाने और युग संदेश से जन-जन को अवगत कराने के लिये प्रज्ञा साहित्य की बड़े परिमाण में आवश्यकता है। युग समस्याओं के समाधान की अनेकानेक दिशा धाराएँ हैं। उनसे सर्व साधारण को परिचित कराने के लिए आवश्यक है कि प्राणवान, सस्ता एवं सामयिक साहित्य प्रकाशन नियमित रूप से होता रहे। भारत में चालीस पैसा सीरीज की फोल्डर पुस्तिकाएँ हर वर्ष लाखों-करोड़ों की संख्या में प्रकाशित प्रचारित होती हैं। आवश्यकता है कि यही प्रकाशन क्रम हर देश में हर भाषा में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार चल पड़े।

भारत से छपा साहित्य भेजा जाय, इसकी तुलना में सरल तरीका यही है कि हर देश में प्रज्ञा प्रकाशन के लिए अपनी-अपनी व्यवस्था हो। छोटी फोटो ऑफसेट प्रेसों के माध्यम से न्यूनतम पूँजी से भी यह प्रकाशन क्रम चलता रह सकता है। प्रकाशन को खपाने के लिये स्थायी सदस्यों की शृंखला बने। सदस्यों के पास नियमित रूप से फोल्डर साहित्य पहुँचता और वितरित होता रहे। हर महीने एक सेट छपता रहे तो यह मासिक पत्रिका प्रकाशित करने की तुलना में कहीं अधिक सुगम और प्रभावी कार्यक्रम माना जा सकता है। इसकी पहल भी इंग्लैण्ड से होगी तो इसका अनुकरण चौहत्तर अन्य देशों में भी चल पड़ेगा, इसकी भाव-भरी आशा की गयी है और कार्यान्वयन पर पूरा विश्वास रखा गया है।

वाणी के माध्यम से प्रवचन समारोहों की योजना बनानी चाहिए और लेखनी के माध्यम से साहित्य प्रकाशन की व्यवस्था होनी चाहिए। इन दिनों वाणी और लेखनी की शक्ति ही विचार परिवर्तन की दृष्टि से समर्थ साधन माने गए हैं। युग परिवर्तन का अर्थ विचार परिवर्तन है। इसके लिये उपरोक्त दोनों साधनों का उपयोग किया जाना चाहिए।

समारोह प्रेस प्रकाशन के बाद तीसरा उपाय है साप्ताहिक सत्संग। इसके लिए अपना स्थान बनाया जा सकता है। किसी अन्य के स्थान का भी उस अवधि के लिए उपयोग हो सकता है। केन्द्रीय कार्यालय के लिए भी आखिर स्थान तो चाहिए ही और यदि स्थान हो तो उसमें गतिविधियाँ भी चलनी चाहिए। यह क्रम साप्ताहिक उपासना एवं कथा सत्संग के रूप में चलता रहे। धार्मिक शिक्षा की साप्ताहिक पाठशालाएँ भी चलती रह सकती हैं, जिसमें बच्चे, वृद्ध सभी समान रूप से शिक्षण प्राप्त किया करें।

यदि स्थान उपयुक्त मिल जाए एवं ऑफसेट प्रेस या साइक्लो स्टाइल मशीन की व्यवस्था बन जाए तो साहित्य की प्रतियाँ हाथों-हाथ पाठकों के पास सरलता पूर्वक पहुँचाई जाती रह सकती हैं।

उठाने के लिये तो अगले दिनों अनेकों कदम है पर शुभारम्भ तीन कार्यक्रमों से करना चाहिए। श्रीगणेश के रूप में इतने से भी काम चल जाएगा। एक समारोह की योजना दूसरा प्रकाशनों की व्यवस्था तीसरा साप्ताहिक पूजा तथा शिक्षा। जहाँ इतना बन पड़ेगा, वहाँ अगले अति महत्त्वपूर्ण कदम उठाने में भी कोई संदेह न रहेगा।

प्रवासी परिजन हमारी अपनी राष्ट्र भूमि के संदेश वाहक के रूप में विश्व भर में विद्यमान हैं। यदि वे संस्कृति रक्षा, प्रज्ञा प्रसार एवं उत्कृष्ट आदर्शवादिता से सारे विश्व समुदाय को अनुप्राणित करने का दायित्व अपने हाथों में ले लें, तो यह आशा की जा सकती है कि ऋषि का आप्त वचन ‘उदार चरितानं तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ निश्चित ही शीघ्र ही सार्थक होगा, चरितार्थ होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

217. धर्मचक्र प्रवर्तन की क्रान्तिकारी प्रक्रिया
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जिन दिनों भारतीय वर्चस्व अधःपतन के गर्त में औंधे मुँह गिरा पड़ा था और उसकी दुर्दशा से दूरवर्ती क्षेत्रों में विविध विधि नारकीय विकृतियाँ उत्पन्न हो रही थी, उन्हीं दिनों एक महान क्रांति का अवतरण हुआ। यह क्रान्ति भगवान बुद्ध के नेतृत्व में प्रकट हुई। स्थिति को बदला जाना आवश्यक था। ऐसी व्यापक आवश्यकताओं की पूर्ति सुगठित क्रान्तियाँ ही सम्पन्न करती हैं। उसका नेतृत्व श्रेय किसी को भी क्यों न मिले, पर वस्तुतः उस परिवर्तन अभियान में जन-भावना का उभार ही काम करता है। यह अलग बात है कि उसे उभारने वालों की अग्रिम पंक्ति में कौन था, नेतृत्व किसने किया और श्रेय किसे मिला?

यह आवश्यकता अनुभव हुई कि प्रतिगामी परिस्थितियों को बदला जाय। भारत के प्राचीन वर्चस्व और कर्तृत्व का पुनरुद्धार किया जाय। आँधी-तूफान जैसे परिवर्तन अभियान की आवश्यकता थी। यह भगवान बुद्ध के अन्तःकरण में सर्वप्रथम एक चिनगारी के रूप में फूटी और देखते-देखते सुविस्तृत दावानल के रूप में प्रखर एवं प्रचण्ड हो गई।

समय की पुकार ने एक सामान्य स्थिति और सामान्य स्तर के राजकुमार का अन्तःकरण छुआ। इस भाव-विभोर ने ठान ठानी कि वह वैयक्तिक सुख-सुविधाओं का परित्याग करेगा, अपने परिवार को भी कठिनाइयाँ सहने को बाध्य करेगा और उस कष्ट साध्य मार्ग पर चलेगा, जिस पर चलते हुए बीज गलता है और अपने अस्तित्व को दूसरों की सुख-सुविधा के लिए अभिनव वृक्ष के रूप में परिणित कर देता है। इसी भाव-भरे साहसिक संकल्प का नाम भगवान बुद्ध का अवतरण है। यों बाहर से बुद्ध चरित्र एक व्यक्ति विशेष का विशिष्ट कर्तृत्व दिखाई पड़ता है, पर वस्तुतः तात्त्विक दृष्टि से उसे एक विद्रोह ही कहना चाहिए जिसने तात्कालिक विकृतियों का उन्मूलन करने वाली ज्वाला के रूप में जन्म लिया था। समय-समय पर भगवान के अवतार भी इसी प्रयोजन के लिए होते रहते हैं। धर्म की स्थापना का दूसरा पक्ष अधर्म का उन्मूलन है। दोनों पक्षों के प्रति विद्रोह एवं संघर्ष खड़ा किया, साथ ही ऐसी भावनात्मक नव-निर्माण की आधार शिला भी रखी, जिस पर मानवी गरिमा का सुदृढ़ दुर्ग पुनः स्थापित किया जा सके। इस उभय पक्षीय अभियान का नाम ही बुद्ध भगवान का अवतरण है। भारतीय इतिहास में इस अवतरण को असामान्य और अति महत्त्वपूर्ण माना जाता रहेगा।

अन्धकार युग की विकृतियों के कारण उत्पन्न हुए असंतुलन का निराकरण करने के लिए अतीत की अगणित महाक्रान्तियों की तरह अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व एक क्रान्ति भगवान बुद्ध के नेतृत्व में हुई। उन्होंने तत्कालीन अनाचार को ध्यान पूर्वक देखा, उसके दुष्परिणामों को समझा और प्रवाह को बदलने के लिए अपनी सम्पूर्ण साहसिकता एवं सद्भावना प्रयुक्त करते हुए जुट गये। सदुद्देश्य के लिए जब कोई प्रामाणिक व्यक्ति आगे आता है, अपनी निःस्वार्थ परमार्थ निष्ठा एवं दूरदर्शिता पूर्ण रूपरेखा से जन-मानस को प्रभावित करता है, तो अगणित साथी अनुयायी कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने के लिए तैयार हो जाते हैं। भगवान बुद्ध चले तो अकेले पर उन्हें साथियों, अनुयायियों की कमी नहीं रही।

भगवान बुद्ध के अवतरण युग में सर्वत्र अवांछनीयता का बोलबाला था। धर्म का आडम्बर ओढ़ कर अधर्म का नग्न नर्तन चल रहा था। भारतीय धर्म अपना मानव धर्म जैसा शाश्वत स्वरूप खो चुका था। अन्धविश्वासों और रूढ़ियों को ही धर्म का पर्यायवाची माना जाने लगा था। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर विनिर्मित वर्ण व्यवस्था के स्थान पर जन्म जाति की ऊँच-नीच छुआछूत पनप गई थी। जातियों-उपजातियों के नाम पर देश के सहस्रों टुकड़े होकर बिखर रहे थे। जातियों के लिए अलग-अलग कानून और अधिकार, सुविधा और प्रतिबंध ऐसे बने थे, जिनमें न्याय और औचित्य की बेतरह अवज्ञा की गई थी। ब्राह्मण अत्यधिक सुविधा और सम्मान के पात्र थे। क्षत्रियों को हर तरह की मनमानी करने की छूट थी। शूद्रों और अछूतों के अधिकार लगभग पशुओं जितने ही सीमित रह गये थे। साधना के नाम पर स्वेच्छाचारी तान्त्रिक वाममार्ग का बोलबाला था। यज्ञ का पवित्र धर्म कृत्य निरीह पशुओं को भून खाने की भट्टी मात्र रह गया था। अविवेक और अनाचार की दिशा में बहते हुए इस प्रवाह ने नीति, न्याय एवं औचित्य का गला घोंट दिया था, ऐसे समय में भगवान बुद्ध जन्मे। चारों ओर छाये हुए इस सघन अन्धकार को देखा तो उनकी आत्मा छटपटाने लगी। उन्होंने अपनी आहुति देकर इस अन्धकार से लड़ने का निश्चय किया। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं और महत्त्वाकाँक्षाओं को तिलाञ्जलि देने के बाद ही मनुष्य किन्हीं महान आदर्शों को पूरा कर सकने में समर्थ होता है। बुद्ध ने उसी शाश्वत मार्ग को अपनाया, वे अपने राज-वैभव और पारिवारिक सुख को ठुकराकर युग की पुकार को पूरा करने के लिए घर छोड़कर निकल पड़े और निश्चय किया कि वे अपने लिए, अपने छोटे परिवार के लिए नहीं जियेंगे, वरन् लोक-मंगल के लिए ही उनका समग्र समर्पण होगा।

दूसरा कदम भगवान बुद्ध ने यह उठाया कि अपने को महान प्रयोजन की पूर्ति के लायक क्षमता सम्पन्न बनाने में जुटा दिया। उन्होंने तप किया, अपने उन दोष-दुर्गुणों को धोया जिनके रहते सार्वजनिक सेवा विषाक्त हो जाती है और हित साधन करने का उद्देश्य उल्टा अहितकर परिणाम प्रस्तुत करता है। ज्ञान की साधना परमार्थ परायण व्यक्ति के लिए आवश्यक है। आत्मनिरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चतुर्विधि तपश्चर्या से ही आत्मा को परमात्मा के स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। इस प्रकार आत्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा हुआ मनुष्य ही स्व पर कल्याण कर सकने में समर्थ होता है। बुद्ध इस महासत्य को जानते थे इसलिए वे गृह-त्याग के उपरान्त बोधि गया में बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर सत्य का प्रकाश पाने के लिए साधनारत हो गये। यहाँ उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ। वे राजकुमार गौतम से बदल कर भगवान बुद्ध बन गये।

तीसरा कदम बुद्ध का था धर्म चक्र प्रवर्तन। लोक मानस में छाई हुई काली-घटाओं को निरस्त करने के लिए सद्ज्ञान की ज्योति जलाना अनिवार्य होता है। वही उन्हें भी करना पड़ा। घर-घर जाकर जन-जन से सम्पर्क बनाना भिक्षावृत्ति अपनाकर ही हो सकता है, सो उन्होंने उसी वृत्ति को धारण किया, अपने को भिक्षु श्रेणी में जा बिठाया। ज्ञान प्रसार का कार्य एकाकी भी नहीं हो सकता था, इसलिए उन्होंने शिष्य, अनुयायी बनाये। जिन्हें परिपक्व पाया उन्हें सद्ज्ञान का आलोक सर्वत्र फैलाने के लिए परिव्राजक बनाया। यही धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान था। भावनात्मक जड़ता की मृत-मूर्छित स्थिति से उबर कर सजग और सक्रिय बनाने के लिए आत्मदानी व्यक्तियों को समग्र निष्ठा से जुटना पड़ता है। बुद्ध ने अपने शिष्य इसीलिए बनाये। इसी प्रयोजन को जीवन लक्ष्य की पूर्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बनाया। उनके प्रभाव और परामर्श के प्रकाश में सहस्रों नर-नारी आगे आये और एक स्थान पर रहकर नहीं, देश-देशान्तरों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने को कटिबद्ध हो गये। धर्म चक्र का अभियान अग्रगामी हुआ और वह धर्म विजय के रूप में सुविस्तृत बन गया। भूतकाल में प्रतापी राजा देश विजय के लिए निकलते थे, अपना आधिपत्य सुदूर क्षेत्रों में स्थापित करते थे। बुद्ध का अभियान इससे भिन्न था। उन्होंने देश विजय के स्थान पर धर्म विजय की योजना बनाई और उसे किसी देश, धर्म तक सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाने का कार्यक्रम निर्धारित किया।

वाराणसी से उत्तर दिशा में छः मील पर सारनाथ में उन्होंने धर्मचक्र प्रवर्तन आरंभ किया। तब उनके पास उपयुक्त शिष्यों की संख्या केवल पाँच थी। इतनी कम संख्या के बल पर इतना विशाल प्रयोजन कैसे पूरा हो सकता है, इसकी उन्होंने तनिक भी चिन्ता नहीं की वे जानते थे कि यदि आदर्श ऊँचा हो, संचालन दूरदर्शिता पूर्ण हो और कर्मरत मनुष्य भाव-भरे हो, तो सदुद्देश्य निश्चित रूप से आगे बढ़ते हैं और अन्ततः पूर्ण होकर रहते हैं। बुद्ध ने कौडिल्य, महानाम, भद्र और अश्वजित नाम के तत्कालीन पाँच शिष्यों को बुलाकर प्रव्रज्या की दीक्षा दी और कहा-भिक्षुओं। अब तुम जाओ और मनुष्यों तथा देवताओं की भलाई के लिए परिव्राजक बनो। तुम उच्च आदर्शों का प्रचार करो और पवित्र जीवन जीने की विद्या समझाओ।

बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग का उपदेश देता है। उसमें कट्टरता नहीं है। परिस्थितियों के अनुसार नियम उपनियमों में थोड़ी शिथिलता बरतने की गुंजायश है, ताकि हर स्थिति का मनुष्य उसमें प्रवेश कर सके और जितना संभव हो उतना लाभ उठाने एवं सहयोग देने के लिए अग्रसर हो सकें। चरित्र और आदर्शों को तो कड़ाई से पालने पर जोर दिया गया है, पर बाह्य व्यवहार एवं रहन-सहन में थोड़ी भिन्नता रहने पर आपत्ति नहीं की गई। अंगुत्तर निकाय में एक जगह वर्णन है-बज्जी पुत्रक नामक भिक्षु तथागत के सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला-श्रमणों के लिए जो २५० नियम निर्धारित है वे मुझसे नहीं सधते। इस पर भगवान बुद्ध ने कहा-तब तुम तीन नियमों को पालते हुए अपना धर्म निबाहो।

बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म से पृथक मानना सर्वथा भूल है। भगवान बुद्ध एक सुधारवादी थे। उन्होंने हिन्दू धर्म में प्रविष्ट हुई सामयिक विकृतियों का विरोध करके ऋषि प्रणीत भारतीय धर्म के मूलभूत आदर्शों की स्थापना मात्र की है। कोई नया धर्म नहीं चलाया। उनके समय में तांत्रिक वामाचार का बोलबाला था। देवताओं के नाम पर पशुबलि का घिनौना प्रचलन चल पड़ा था। अनाचार को धर्म का आवरण उढ़ाकर वर्ग भेद के विषवृक्ष उगाये जा रहे थे। ईश्वर भक्ति के नाम पर उपहासास्पद कर्मकाण्डों का आकाश-पाताल जितना महत्त्व बताया जा रहा था। मनुष्य दास-दासी के रूप में खरीदे, बेचे और दान दिये जाते थे। और भी न जाने क्या-क्या होता था। उन दिनों वैदिक धर्म ब्राह्मण धर्म मात्र बनकर रह गया था। पुरोहित वर्ग और उनके पिछलग्गू लोग ही देव कृपा और धर्म धारणा की आशा करते थे। शेष तो हेय उपेक्षित बना दिये गये थे। यह धार्मिक क्षेत्र में उत्पन्न हुई विकृतियाँ देश के समस्त वातावरण को विषाक्त बनाये हुए थी। उनका धुँआ पूरे मानसिक, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक स्तर को कलुषित बनाता चला जा रहा था। बुद्ध ने विष वृक्ष के पत्ते काटने के झंझट में न पड़कर जड़ पर प्रहार किया। भावनात्मक अपकर्ष को समस्त अवांछनीयताओं का उद्गम समझकर उन्होंने सुधार भी वहीं से आरम्भ किया। वे जानते थे कि भावनात्मक परिष्कार किये बिना विभिन्न क्षेत्रों में फैली अगणित विपन्नताओं का और किसी उपाय से समाधान सम्भव न हो सकेगा। अतः वे समस्त क्रान्तियों की जननी भाव-क्रान्ति में जुट गये।

बुद्ध का प्रतिपादन तीन सूत्रों में सार रूप से प्रस्तुत किया गया है-बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघम शरणं गच्छामि। हम बुद्धि के विवेक की शरण में जाते है, हम धर्म की नीति निष्ठा का वरण करते हैं, हम संघबद्ध होकर विकसित होने का व्रत लेते हैं। विवेक, न्याय और एकता यही है वे सूत्र जो बौद्ध धर्म के आधार लक्ष्य है। उन्हीं को सनातन वैदिक धर्म का सार भी कह सकते हैं। इस प्रकार वे प्राचीन आर्ष धर्म के पुनरुद्धार कर्ता ही कहे जा सकते हैं। उनका अलग से कोई सम्प्रदाय स्थापित करने का विचार स्वप्न में भी नहीं था। उन्होंने अपने प्रवचनों में स्थान-स्थान पर समय-समय पर आर्ष मान्यताओं के ही उद्धरण और प्रमाण प्रस्तुत किये हैं ।।

विज्ञजनों ने यह एक स्वर से स्वीकार किया है कि बौद्ध और हिन्दू धर्म एक है। भारतीय दर्शन में विचार स्वतंत्रता के लिए पूरी गुँजायश है। यही कारण है कि यहाँ छः दर्शनों का उद्भव हुआ और उनमें मतभेद स्पष्ट है। शैव और वैष्णव धर्म, श्रोत और स्मार्त, आचार आगम और निगम दर्शन पहले से ही प्रचलित थे। इसी प्रकार बौद्ध धर्म को अधिक से अधिक हिन्दू धर्म का सुधरा हुआ रूप भर माना जा सकता है। ईसाई धर्म में भी पुरातन पंथी और सुधारपंथी दो वर्ग हैं ।। मुसलमानों में भी शिया-सुन्नी का भेद है। इतने पर भी ईसाई धर्म या मुसलमान धर्म दो-दो नहीं माने जाते। ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म को एक ही हिन्दू धर्म की दो शाखाओं से अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता।

धर्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रायः स्वेच्छाचार बरतते हैं। वे अपने क्रिया-कलाप पर किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं करते। फलतः उस वर्ग में फैली हुई विशृंखला कोई कार्य नहीं करने देती। धर्म की एक विशेषता उसकी अनुशासन शीलता भी थी। व्यक्तिगत जीवन में श्रमणों को कठोरता पूर्वक व्रतशील रहना पड़ता था और सामूहिक जीवन में वे संघ द्वारा निर्धारित कार्य पद्धति को श्रद्धा भरे अनुशासन के साथ पालन करते थे। व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं से, पद-प्रतिष्ठा से दूर रह कर ही लक्ष्य पूर्ति की दिशा में बढ़ा जाता था कि जो अपने यश, वर्चस्व के लिए लालायित होगा वही धर्म चक्र में सब से बड़ा अवरोध गिना जायेगा। निजी यशस्विता साथियों को गिराकर और अपना अलग से कुछ विलक्षण खड़ा करके ही उपलब्ध हो सकती है। जो इसके लिए मरेगा वह धर्म विजय के लक्ष्य को क्षति पहुँचाये बिना न रहेगा। इन आदर्शों को श्रद्धा के साथ अंगीकार करने का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्म प्रचारक निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में आशातीत सफलता के साथ अग्रसर हो सके। भारतीय संस्कृति के विस्तार के लिए आज भी उसी परम्परा का अनुगमन करना होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

218. पर्व एवं त्यौहार देव संस्कृति की अनमोल धरोहर
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह विश्व प्रकृति जिससे मानव तथा अन्य समस्त प्राणियों और भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति हुई है, एक विशेष नियम से बंधी है। उस नियम के अनुसार ही मानव प्रकृति का भी विकास हुआ है। इस व्यापक नियम के नियन्त्रण में ही हम को दिखलाई पड़ने वाले इस जड़-चेतन संसार के सब कार्य चल रहे हैं। इन्हीं नियमों को, जिनके आधार पर यह विश्व संसार टिका हुआ है, जान लेना और उनके अनुकूल व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन की व्यवस्था करना यही भारतीय संस्कृति और सभ्यता का सार है। यहाँ के प्राचीन ऋषि मुनियों ने समाज और व्यक्तियों के लिए जो आचरण और कर्तव्य नियत किये हैं, उन सबमें इसी गहन तत्व को दृष्टिगोचर रखा गया है। वे जानते थे कि मनुष्य का समस्त जीवन इन्हीं नियमों की एक शृंखला के रूप में है, इसलिए उसका कोई भी कार्य इनके विपरीत नहीं होना चाहिए अन्यथा प्रकृति उसे अवश्य दण्ड देगी। इसलिए उन्होंने हमारे छोटे-बड़े सभी कर्तव्यों और प्रातःकाल से लेकर शयनकाल तक दैनिक कृत्यों को धर्म का रूप दे दिया, जिन पर आचरण करके ही हम सुख और शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।

जिस प्रकार हिन्दू शास्त्रों में हमारे व्यक्तिगत कृत्यों को धर्म का रूप दिया गया है, उसी प्रकार सामाजिक कार्यों को भी धर्म का अंग बना दिया गया है, जिससे लोग उनके पालन में ढिलाई न करे और उनसे यथोचित प्रेरणा प्राप्त करते रहें। त्यौहार, धार्मिक और सामाजिक उत्सव तथा व्रत आदि का विधान वैसे संसार की सभी जातियों और देशों में पाया जाता है। सभी मजहबों के संस्थापकों और आचार्यों ने कुछ ऐसे विशेष दिन नियत कर दिये हैं, जिन पर वे अपने विशेष मनोभावों को प्रकट करने के लिए कुछ विशेष कृत्य करते देखे जाते हैं। दूसरा कारण यह भी है कि अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार मनुष्य सदा एक ही रस में रहना पसन्द नहीं करता। अगर वह वर्ष के ३६५ दिन नित्य प्रति के कार्यों और नियमित व्यवसाय या नौकरी आदि में ही लगा रहे, तो उसके चित्त में अवश्य उद्विग्नता का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि उसको बीच-बीच में कभी ऐसा अवसर मिलता रहे, जिससे वह अपने जीवन में कुछ नवीनता तथा आमोद-प्रमोद का अनुभव कर सके और विश्राम भी पा सके।

अन्य समस्त जातियों के त्यौहारों की भाँति उपर्युक्त उद्देश्य हिन्दू जाति के त्यौहारों में भी पाये जाते हैं। पर हमारे यहाँ इतनी विशेषता और है कि त्यौहारों को केवल छुट्टी का अथवा धर्माचार्यों की जयन्ती आदि का दिन ही न समझकर उससे मनुष्यों की आध्यात्मिक उन्नति और सामाजिक विकास का भी उद्देश्य सिद्ध किया है। सच पूछा जाय तो हिन्दू जाति अपनी प्राचीन सभ्यता और आचार-विचार को इतनी शताब्दियों के परिवर्तन के बाद भी जो अभी तक कायम रख सकी है, इसका बहुत कुछ श्रेय इन त्यौहारों और उत्सवों को ही है। साधारण जनता धर्म के गम्भीर उपदेशों को नहीं समझ सकती और न आध्यात्मिक तत्वों पर अमल कर सकती है। उसको शिक्षा देने और सुमार्ग पर चलाने का एक मात्र मार्ग धार्मिक कथा कहानी श्रवण कराना और मनोरंजन के साथ धार्मिक कृत्यों के करने की विधि बतलाना ही है। यह उद्देश्य त्यौहारों और व्रतोत्सव आदि से ही सुगमतापूर्वक सिद्ध हो सकता है।

त्यौहारों की स्थापना मुख्यतः निम्नलिखित उद्देश्यों को लेकर की गई है-१. जनता में जागृति, सद्भावना, ऐक्य, संगठन की वृद्धि करना, लोगों को सुसंस्कृत, शिष्ट और सुयोग्य नागरिक बनाना, उनमें सच्ची सामाजिकता की भावना उत्पन्न करना।

२. किसी विशेष अवसर पर बड़े यज्ञ के लिए। यद्यपि शास्त्रों के मतानुसार यज्ञ शब्द का अर्थ परोपकार के कार्यों के लिए होता है तथापि वैदिक कालीन पर्वों और उत्सवों में यज्ञ का अर्थ बड़े हवन से ही लिया जाता है।

३. किसी विशेष ऋतु के परिवर्तन या फसल के तैयार होने पर सामाजिक समारोह के रूप में।

४. सर्वसाधारण के मनोरंजन और हृदयोल्लास के लिए।

५. किसी युग प्रवर्तक महापुरुष, अद्वितीय कर्मवीर, शूरवीर, प्रणवीर, दानवीर, महान विद्वान, आदर्श प्रतापी की अथवा किसी महान राष्ट्रीय घटना की स्मृति मनाने के निमित्त।

हमारे तत्त्ववेत्ता, पूज्यपाद ऋषि-महर्षियों के ऊपर बतलाये पाँचों उद्देश्यों के अनुकूल अनेक त्यौहार और पर्व के दिवस नियत कर दिये हैं और उन सब में लौकिक कार्यों के साथ ही धार्मिक तत्वों का ऐसा समावेश कर दिया है कि उनसे हमको अपने जीवन निर्माण में बड़ी सहायता मिलती है और समाज भी सुमार्ग पर अग्रसर हो सकता है। मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरणशील प्राणी है। दूसरों को कोई शुभ काम करता देखकर उसके मन में भी वैसा ही काम करने की इच्छा स्वतः उत्पन्न होती है। फिर यदि उस कार्य के करने वाले उसके कुटुम्बीजन अथवा पूर्वज हो तो उस कार्य में उसका अनुराग और भी बढ़ जाता है। यही कारण है कि प्राचीनकाल में जिनके कुलों में उत्तम कार्य और सत्कर्म होते चले आये थे, उनकी सन्तान भी प्रायः सन्मार्गगामी होती थी। इसके विरुद्ध जिनके पूर्व पुरुष बहुत समय से जघन्य आचार वाले अथवा निन्दनीय वृत्ति वाले रहे हों, उनकी सन्तान का सुधार बड़ी कठिनता से होता था, क्योंकि बालक अधिकाँश में अपने बड़ों से ही आचरण सीखते हैं और उसी ढाँचे में ढलते हैं, जिसमें उनके पूर्व पुरुष ढले होते हैं।

जो बात एक व्यक्ति के सम्बन्ध में कही गई है यही समाज के सम्बन्ध में भी सत्य है, क्योंकि समाज या जाति व्यक्तियों के समूह का ही नाम है। जिस समाज या जिस जाति में अधिक संख्या जैसे भले या बुरे, उन्नतिशील अथवा अवगतिशील लोगों की होगी, वैसी ही वह जाति बन जायेगी। इसलिए सभ्य जातियाँ अपने महान कार्य करने वाले पूर्व पुरुषों, महात्माओं, प्रतापवान व्यक्तियों की स्मृति को सुरक्षित बनाये रखने के लिए प्राणपण से यत्न करती हैं, जिससे आगामी पीढ़ियों को उनका आदर्श प्रेरणा देता रहे। इस स्मृति को स्थिर रखने और ताजा बनाये रखने के दो उपाय हैं-एक ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना और उनका पठन-पाठन, जिससे बालकों और युवकों के हृदयों में अपने प्रातः स्मरणीय पुरुषों के क्रिया कलाप और उच्च आदर्श स्थान बना लेते हैं। दूसरी विधि उन खास तिथियों को जब उन महापुरुषों के जीवन की कोई महान घटना घटी हो अथवा जिस दिन उनका जन्म हुआ हो, उत्सव अथवा त्यौहार मनाना है। इससे साधारण मनुष्यों को भी उन महापुरुषों के नाम लेने और उनके सम्बन्ध में कुछ चर्चा करने का अवसर प्राप्त होता है, जिससे वे सत् शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, अपने जीवन को किसी उच्च लक्ष्य की तरफ मोड़ सकते हैं। संसार की सभी सभ्य जातियों में इस प्रकार के स्मारक दिवस बड़े उत्साह और समारोह के साथ मनाये जाते हैं और किसी जाति की सभ्यता और उच्चता का अनुमान पूर्व पुरुषों के प्रति उसके सम्मान और वीरता की पूजा से लगाया जाता है।

जिस जाति के पास ऐसे कोई महापुरुष नहीं है वह बड़ी अभागी है और उन्नति के मार्ग पर उसका अग्रसर होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि जब उसके सामने कोई उच्च आदर्श ही नहीं तो किस प्रकार अवनति के गड्ढे से निकलकर उन्नति के शिखर की तरफ अग्रसर हो सकती है? इसलिए समाजशास्त्र वेत्ताओं ने यहाँ तक कह दिया है कि जिस जाति के पास दुर्भाग्य से उच्च आदर्श के लायक कोई महापुरुष न हो उसे किसी अन्य जाति के महापुरुषों को अपना लेना चाहिए, क्योंकि बिना आदर्श के उत्कर्ष की सम्भावना बिना जड़-मूल के पौधे के फलने-फूलने की आशा के समान हास्यास्पद है। कहा जाता है कि योरोप में फ्रांस देश इस विषय में अग्रगण्य है और पूर्व पुरुषों के जितने स्मारक तथा स्मृति दिवस वहाँ पाये, मनाये जाते हैं उतने और किसी देश में नहीं। जापान वाले तो अपना मुख्य धर्म ही पूर्वजों की पूजा करना मानते हैं और वहाँ जो ११ मुख्य त्यौहार प्रचलित है, उनमें से नौ पूर्व पुरुषों के स्मारक दिवस ही हैं।

सौभाग्य से हमारा भारतवर्ष भी इस विषय में किसी अन्य जाति से पीछे नहीं है। एक प्रकार से तो हम कह सकते हैं कि हिन्दुओं के बराबर त्यौहार और पर्व दिवस संसार की किसी भी जाति में प्रचलित नहीं है। यदि यहाँ के सब त्यौहारों, पर्वों तथा व्रतोत्सव आदि की गणना की जाय, तो उनकी संख्या इतनी अधिक है कि १ वर्ष के ३६५ दिनों में से एक भी दिन ऐसा नहीं मिल सकता, जो किसी न किसी दृष्टि से पवित्र पर्व और विशेष धार्मिक कृत्य से शून्य हो। इसी से कहावत प्रचलित हो गई है कि आठ वार और नौ त्यौहार।

वर्तमान काल में हिन्दू जाति में एक प्रकार की निर्जीवता आ गई है, वह ऋषि-मुनियों द्वारा निर्धारित जीवन प्रदायक प्रथाओं को भूलकर सारहीन रूढ़ियों के जाल में ग्रसित हो गई है। तदनुरूप ही हमारे त्यौहारों और पर्वों का रूप भी विकृत हो गया है। अब लोग उनके मूल स्वरूप को तो बहुत कुछ भूल गये हैं और उनके स्थान में उद्देश्यहीन बेढंगी रूढ़ियों को अपनाकर पुरानी लकीर पीटते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, कितने ही त्यौहारों पर लाभदायक कृत्यों के बजाय लोग ऐसे काम करने लग गये हैं, जो स्पष्टतः हानिप्रद हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोगों ने दिवाली को जुआ खेलने का ही त्यौहार बना डाला है और वे इस अवसर पर एक दिन नहीं, कई दिन तक भयंकर रूप से जुआ खेलते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अनेक बार बड़ी दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। इसी प्रकार होली पर जबर्दस्ती रंग और कीचड़ आदि फेंकने तथा गन्दी से गन्दी गाली बकने को ही त्यौहार का उद्देश्य समझ लिया जाता है। इसके कारण भी मार-पीट हो जाना और सिर फूटना साधारण बात हो गई है।

यों तो समाज में आज ऐसे भी सज्जन मौजूद है जो पण्डित और ज्ञानी होने का दावा करते हुए तरह-तरह की दलीलें देकर इन सब कुरीतियों का समर्थन करते हैं, पर हम त्यौहारों के नाम पर या प्राचीन रूढ़ियों के बहाने किसी ऐसी बात को स्वीकार नहीं कर सकते, जिनसे व्यक्तियों और समाज को हानि उठानी पड़े। अधिकांश मनुष्यों की प्रकृति प्रायः अधोगामिनी होती है और उसे जरा भी सहारा या बहाना मिल जाय तो फौरन दुर्व्यसनों की तरफ प्रेरित होती है। यही कारण है कि मनुष्यों को सदैव सन्मार्ग, पुण्य कार्यों का ही उपदेश दिया जाता है। हानिकारक कार्यों, दुर्व्यसनों अथवा गन्दे आमोद-प्रमोद के लिए किसी को उपदेश देने की जरूरत नहीं होती, इनके सिखाने वाले गुरु लोग तो सब जगह बिना कोशिश किये स्वयं ही मिल जाते हैं। इसलिए कोई त्यौहार किसी भी उद्देश्य की सिद्धि के लिए क्यों न स्थापित किया गया हो, अगर उसमें कुछ हानिकारक बातों का समावेश हो गया है, तो उनका त्याग अवश्य करना चाहिए। ये बातें व्यक्तिगत रूप से तो किसी प्रकार सहन करनी भी पड़ती है, पर इनको सामाजिक रूप दे देना महापाप समझना चाहिए, क्योंकि फिर तो उसका प्रभाव भले-बुरे सभी श्रेणियों के लोगों पर पड़ता है।

त्यौहार और धार्मिक उत्सव जाति के लिए नव जीवन प्रदान करने वाले और स्फूर्ति प्रदायक होते हैं, इसलिए उनका प्रचार करना और उनको उत्साह से मनाना तो सभी समाज हितैषियों का परम कर्तव्य है, पर साथ ही यह ध्यान रखना भी परमावश्यक है कि हम उनके वास्तविक उद्देश्य और स्वरूप को न भूलें। समय के प्रभाव से व्यक्ति और वस्तुओं की तरह संस्थाएँ और प्रथाएँ भी जीर्ण पड़ जाती हैं और उनमें अनेक प्रकार की कमजोरियाँ, दूषण प्रवेश कर जाते हैं। समझदार समाज नेताओं का कर्तव्य है कि इस तरफ ध्यान देते रहें और जिस प्रकार हम प्रतिवर्ष अपने गृहों, वस्तुओं की सफाई, मरम्मत आदि कराते रहते हैं, उसी प्रकार सामाजिक प्रथाओं में भी समयानुकूल संशोधन और परिवर्तन करते रहें। प्रत्येक सामाजिक प्रथा, त्यौहार या उत्सव आदि को अटल, अचल समझ लेना मूर्खता का लक्षण है। हमें इस सम्बन्ध में सबसे पहले यह सूत्र याद कर लेना चाहिए कि तमाम प्रथाएँ मनुष्यों के लिए बनाई गई हैं, न कि मनुष्य इन प्रथाओं के लिए। जो व्यक्ति ऐसा समझते हैं या कहते हैं कि ये तमाम त्यौहार और उनकी पद्धतियाँ सदा से ऐसी ही चली आई हैं और सदा ऐसी ही रहनी चाहिए, वे विचारशील कदापि नहीं हो सकते। यदि वे बुरा न माने तो उनको कूप मंडूक भी कहा जा सकता है। त्यौहार और सामाजिक उत्सव सदैव कुछ न कुछ बदलते रहते हैं और उनके मनाने की विधियाँ तो आज भी हर प्रदेश में कुछ न कुछ भिन्न हैं। हजार दो हजार वर्ष की बात तो छोड़ दीजिए, अब से पाँच सात सौ वर्ष पहले के साहित्य और ऐतिहासिक ग्रन्थों की भी भली प्रकार खोज करें ,, तो मालूम पड़ेगा कि उस समय मनाये जाने वाले अनेकों त्यौहार आज समाप्त हो गये हैं और कितने ही नये प्रचलित हो गये हैं।

त्यौहारों और सार्वजनिक उत्सवों की विवेचना के माध्यम से लक्ष्य यही रहता है कि अपने पूर्व पुरुषों के अनुकरणीय और उज्ज्वल सत्कार्यों की स्मृति को कायम रखते हुए हम उनको इस प्रकार मनावें, जिससे वे हमारे लिए ही नहीं मनुष्य मात्र के लिए कल्याणकारी सिद्ध हों। हमें सदैव उनसे कोई सत् शिक्षा, सत्प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह सत्परम्परा किसी कारण विशेष से सुसंस्कारिता सम्वर्धन हेतु जन-जन को धर्म चेतना को अनुप्राणित करने के लिए आरम्भ की गई थी। इस सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाये रखना हम सबका युगधर्म है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

219. अपने सांस्कृतिक गौरव को भूलें नहीं
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

संसार के कोने-कोने में संस्कृति, समृद्धि और व्यवस्था की स्थापना करने को हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य माना था। इसके लिए वे सबसे पहले आत्म निर्माण करते थे। अपने व्यक्तित्व को हर दृष्टि से उपरोक्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त बनाते थे। जैसा खिलौना ढालना हो उसके अनुरूप साँचा तैयार करना पड़ता है। गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से आदर्श सिद्ध होने वाले व्यक्ति ही अपने चरित्र एवं चिन्तन की छाप दूसरों पर छोड़ सकते हैं। निकृष्ट स्तर के लोग उत्कृष्टता का उपदेश करें तो उपहासास्पद विडम्बना ही बन जाती है। लोग उन उपदेशों का पालन करना तो दूर, उलटे उस उपदेशक की तरह उसके उपदेशों, प्रतिवादों को भी दिल्लगी की बात समझते हैं। यह तथ्य प्राचीन काल में भली प्रकार समझ लिया गया था। अस्तु यहाँ के नर-रत्न अपने आपको तप, साधना, संयम की अग्नि में तपाकर खरा सोना बनाते थे और विद्या, प्रतिभा एवं शालीनता के लिए घोर परिश्रम करते थे।

आत्म-समर्पण और लोक-मंगल यों दो कार्य दीखते हैं, पर वस्तुतः वे दोनों परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं ।। जो आत्म समर्पण करेगा उसकी सुविकसित महानता लोक कल्याण के लिए अग्रसर हुए बिना चैन से बैठ ही न सकेगी। और जो सच्चे मन से जन-कल्याण की परमार्थ सेवा-साधना करना चाहता हो उसे वह कार्य आत्मोत्कर्ष के लिए उग्र प्रयास करते हुए आरम्भ करना होगा। वस्तुतः आत्मोत्कर्ष और लोक कल्याण महान जीवन लक्ष्य रूपी रथ के दो पहिये हैं, जिनके सही होने पर ही अभीष्ट दिशा में गतिशीलता उत्पन्न होती है।

भारतीय जीवन का आदर्श और उसका क्रिया कलाप बार-बार कसौटियों पर कसने से यही दो लक्ष्य सामने आते हैं, जिनके लिए इस देश के महान नागरिक निरन्तर घोर प्रयत्न करते रहे। उनकी महत्त्वाकाँक्षाएँ इन्हीं दो लक्ष्यों के इर्द गिर्द घूमती थी। फलतः प्रगति भी आशातीत हुई। भारत स्वयं तो समुन्नत रहा ही है, उसने अन्यत्र भी अपनी विभूतियाँ बिखेरी और विश्वमानव की गौरव गरिमा में चाँद लगाये।

जब से संसार में लिखित न सही अलिखित इतिहास के सूत्र मिलते हैं तब से ऐसे ही प्रमाण सम्मुख आते हैं, जिनमें भारतीय नर रत्नों द्वारा व्यापक क्षेत्र में विविध विधि सेवा साधन के सत्कृत्य प्रस्तुत किये जाते रहे। उन दिनों वस्तुतः समस्त संसार ही भारत का अपना कार्यक्षेत्र था। रात्रि विश्राम के लिए या अण्डे देने के लिए जिस प्रकार पक्षी किसी पेड़ पर घोंसला बना लेते हैं और थकान दूर करके फिर उन्मुक्त आकाश में उड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार यहाँ नई पीढ़ियों के प्रजनन प्रशिक्षण के सुविधा साधन भर जुटाये जाते थे। थोड़े लोग निर्वाह साधने की व्यवस्था भी करते थे। इससे आगे जो जन-बल, बुद्धि-बल, धन-बल बच जाता था, उसे विश्व कल्याण के एक मात्र प्रयोजन के लिए ही नियोजित किया जाता था। हमारे देश में यही परम्परा थी। हर भावनाशील का चिन्तन और कर्तृत्व इसी दिशा में गतिशील था। परिणाम प्रत्यक्ष है। भारत के देवमानव अपने देश में सतयुगी स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनाये रहे, साथ ही विभूतियों के अवशेष सुदूर क्षेत्रों में बिखेर कर मानवता का अविस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित करते रहे।

इसके प्रमाण जिस भूखण्ड में ढूँढ़े जायें मिल जायेंगे। पौराणिक कथा प्रसंगों से इस तथ्य का प्रतिपादन भली प्रकार होता है। किसी भी देश की पौराणिक गाथाओं, लोक-कथाओं और किम्वदन्तियों का विश्लेषण किया जाय, तो निष्कर्ष एक ही निकलेगा कि भारतभूमि के निवासी देव-पुरुष उस क्षेत्र में पहुँचकर ऐसी स्थापनाएँ करते रहे, जिनसे दु:ख की दयनीयता का सुख-सौभाग्य में परिणत हो सकना संभव हुआ। दैवी सहायता के रूप में भारत से प्रकाश एवं सहयोग का आशातीत अनुदान प्राप्त हुआ।

जब से भग्नावशेष, वस्तु प्रमाण आदि के प्रमाण मिलने आरम्भ हुए हैं तब से उन भारतीय गौरव गाथाओं की, प्रचलित दन्त कथाओं की और भी अधिक पुष्टि होती गई हैं। उसके उपरान्त लिखित इतिहास का समय आता है। भाषा और लिपि का विकास विस्तार होने के उपरान्त संसार में लेखन कार्य आरम्भ हुआ और उसमें तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन किया गया। उसमें से असंख्य लेख प्रमाण नष्ट होते गये। उनमें से जहाँ-जहाँ जो प्रमाण मिले, उनमें सब की दिशा एक ही है कि सृजन का नेतृत्व करने वाले भूदेव उस भूमि को समुन्नत बनाने में अधिक परिश्रम करते रहे। उस क्षेत्र की विकृतियों के साथ प्राण-प्रण से जूझे। शिलालेख आदि के प्राचीनतम प्रमाण जहाँ चर्म पट्ट लेख, भोज पत्र लेख, भित्ति लेख आदि के प्राचीनतम प्रमाण जहाँ भी मिले हैं, वहीं से भारतीय गरिमा की प्रामाणिकता ही सिद्ध हुई है। वस्तुतः सभ्यता की जन्मदात्री यह भारत भूमि ही है और यहीं से उदय हुआ सर्वतोमुखी उत्कर्ष का सूर्य समस्त विश्व में अपनी प्रकाश की किरणें फैलाता चला गया। यह क्रम हजारों लाखों वर्षों तक चला गया। पीछे पतन और पराभव का युग आया। इस देश के निवासियों में स्वार्थ बुद्धि जागी, व्यक्तिवाद पनपा, निजी सुख-सुविधाओं के बढ़ाने की बात सूझी, विलास-लिप्सा में मन डोला, अहंकार की तृप्ति के लिए संग्रह और वर्चस्व प्रदर्शन की दुर्बुद्धि जागी। लोग सामूहिक स्वार्थ की उपेक्षा करके व्यक्तिगत वैभव एवं सुख-साधन बढ़ाने की ओर मुड़े। जहाँ अन्तःप्रवृत्तियाँ पतनोन्मुखी होगी वहाँ बहिरंग क्रियाकलाप में निकृष्टता और दुष्टता की मात्रा बढ़ेगी। कुकृत्य होंगे और गुत्थियाँ उलझेंगी। संकटों और विग्रहों की बाढ़ आयेगी। उत्कृष्ट चिन्तन की परम्पराओं वाला भारत जब संकीर्ण स्वार्थपरता के गर्त में गिरा, तो उसकी स्थिति पतितों जैसी दयनीय होती चली गई।

प्राचीन भारत की समस्त गौरव-गरिमा का केन्द्र बिन्दु एक ही था, कि उस समय का मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ांध में मरने वाली मनःस्थिति से घोर घृणा करता था। उसके सामने ऊँचा लक्ष्य रहता था और ऊँचा आदर्श। अपने निकृष्ट अहम् की पूर्ति तक सीमित रहने के लिए कोई घिनौना व्यक्ति ही तैयार होता था। पेट और प्रजनन भर के लिए जिसने मानव जीवन का बहुमूल्य अवसर गवाँ दिया उसे आत्म-प्रताड़ना की, विज्ञ भर्त्सना की इतनी करारी मार सहनी पड़ती थी, कि लिप्सा-लालसा में जो हाथ लगता था वह नगण्य ही रह जाता था। अस्तु किसी को भी अमीर या बड़ा आदमी बनने की हविस नहीं उठती थी। हर कोई उदार, महान, व्यापक बन कर जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आतुर रहता था। उसकी गतिविधियाँ, योजनाएँ, आकाँक्षाएँ, विचारणाएँ एक ही केन्द्र के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी कि वह अपनी आत्मीयता एवं ममता को अधिकाधिक व्यापक कैसे बनाये? सच्चा ईश्वरभक्त, सच्चा अध्यात्मवादी, सच्चा मनुष्य कैसे कहलाये? और उस जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए त्याग बलिदान की सेवा साधना में संलग्न होने के लिए कितना बढ़-चढ़कर दुस्साहस प्रस्तुत करे। अपने क्रियाकलापों को कितना आदर्श, कितना अनुकरणीय बनाये। पतन, पीड़ा और पिछड़ेपन से जूझते हुए कितने प्रखर शौर्य साहस का परिचय दे। अपनेपन का क्षेत्र कितना व्यापक और विस्तृत बनाये। जब अन्तःकरण में इसी स्तर के उफान उठेंगे तो स्वभावतः मनुष्य को उसी राह पर चलना पड़ेगा, जिससे मनुष्यता गौरवान्वित होती हो। स्पष्ट है जहाँ उत्कृष्टता होगी वहाँ सम्पन्नता की, प्रगति की कभी कमी नहीं रहेगी। ऐसे व्यक्तित्व जहाँ भी रहते हैं वहाँ सम्पत्तियों और विभूतियों का इतना बाहुल्य रहता है कि उस समस्त क्षेत्र में वैभव बिखरा पड़ा रहे और उसे समस्त भूमण्डल में बिखेर कर सुख-शान्ति का अजस्र अनुदान दिया जा सके।

यही है वह मार्ग जिस पर हमारे पूर्वज चले थे। यही थी वह दिशा जिस पर उनके चरण अनवरत गति से बढ़े थे। यही था वह लक्ष्य जिसकी पूर्ति को उन्होंने जीवन की सफलता माना था। इसी स्तर के क्रियाकलापों में उन्हें संतोष होता था। ऐसे ही कृत्यों में संलग्न रहने में वे अपने श्रम और समय को धन्य मानते थे। फलतः उनका समग्र व्यक्तित्व देवोपम बनता था। वे स्वयं स्वर्गीय शान्ति का हर घड़ी आनन्द लेते थे। उनके कुटुम्बी स्नेहासिक्त वातावरण में परिपूर्ण वैभव जितना उल्लास अनुभव करते थे। उनका समस्त प्रभाव क्षेत्र आदर्शवादिता की सुगन्ध से भरा रहता था। वे चन्दन वृक्ष जैसा आत्म विकास करते थे और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में उगे हुए झाड़-झंखाड़ को अपने सरीखे बनाने की मंगलमयी सफलता प्राप्त करते थे। यही था हमारे पूर्वजों का जीवन लक्ष्य, इसी के लिए समर्पित था उनका चिन्तन और कर्तृत्व। आन्तरिक महानता को बढ़ाकर उन्होंने अपने देश और धर्म को गौरवान्वित किया था और इसी उपलब्धि का यत्किंचित प्रसाद पाकर समग्र मानवता को, समस्त विश्व-वसुधा को समुन्नत एवं सुविकसित होने का अवसर दिया था।

हमें इन विश्व संकट के क्षणों में विशेष उत्तरदायित्वों का वहन करना है। अन्धकार के निवारण की जिम्मेदारी सूर्य के कन्धों पर है। यदि वह उससे इनकार करे तो फिर सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों का सर्वनाश ही समझना चाहिए।

अपनी प्राचीन गौरव-गरिमा को प्राप्त करना, पूर्वजों की कीर्ति को धवल बनाये रहना हमारा परम पवित्र कर्तव्य है। आज जिस पथ-भ्रष्टता को अपनाकर हम पतन के गर्त में गिर पड़े हैं, उससे निकलने का उत्कृष्ट प्रयास हमें करना चाहिए। प्रगति के पथ पर संसार के अनेक देश आगे निकल गये। हम पिछड़ी स्थिति में ही पड़े हैं। इस आत्म-ग्लानि की प्रताड़ना हमें अनुभव करनी चाहिए और कृमि-कीटकों की तरह पेट-प्रजनन के निमित्त किया जाने वाला निकृष्ट जीवन जीने से इन्कार कर देना चाहिए।

हम व्यक्तिगत रूप से अधिकाधिक प्रगति करें और सामाजिक रूप से अधिकाधिक समुन्नत होने का प्रयास करें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि उपलब्ध विभूतियों एवं सम्पदाओं का उपयोग संकीर्ण स्वार्थपरता के सीमा-बन्धनों में ही अवरुद्ध न कर दिया जाय। पिछड़ापन जहाँ कहीं भी दिखाई पड़े हम वहीं दौड़ जायें और प्रगति का प्रकाश इस प्रकार वितरित करें कि किसी भी कोने में पतन का अन्धकार छिपा न रहने पाये।

हम सदा से वसुधैव-कुटुम्बकम् के आदर्श को अपनाये रहे हैं। विश्व-मानव को अपना विस्तार क्षेत्र माना है। अपनेपन की सीमा निज के शरीर, परिवार तक अवरुद्ध नहीं करनी चाहिए, वरन् उन्हें इतना व्यापक बनाना चाहिए कि भारत भूमि का कोना-कोना उसके प्रकाश से आलोकित हो उठे। समस्त विश्व की उसको ऊष्मा प्राप्त करने का अवसर मिले।

भूतकाल में आत्मिक दृष्टि से उच्च स्तर पर पहुँचा हुआ भारत अपनी गौरव-गरिमा विनिर्मित करने में और समस्त विश्व को अजस्र अनुदानों से भर देने में समर्थ हुआ था। वही राजमार्ग फिर हमारा आह्वान करता है। संसार में धन, विज्ञान एवं बुद्धिबल भले ही बढ़ गया हो, तथाकथित प्रगतिशील लोग सुविधा-साधनों से भले ही पट गये हों, पर उनका आध्यात्मिक पिछड़ापन अभी भी उन्हें घोर अशान्ति में घिरी हुई उलझनों से जकड़े हुए हैं ।। निर्धनों, अशिक्षितों और अस्वस्थों से भी कहीं अधिक गई-गुजरी मनःस्थिति में इन उन्नतिशील देशों को रहना पड़ता है। उनके सिर चढ़ी हुई दुष्प्रवृत्तियाँ तो उन्हें भीतर ही भीतर खोखला किये दे रही हैं।

इस स्थिति में भारत अपनी प्राचीन गौरव-गरिमा को विकसित करके न केवल अपना पिछड़ापन दूर कर सकता है, वरन् समस्त संसार को इतना अधिक आत्मिक अनुदान दे सकता है, जिसकी तुलना में उनकी अब तक की समस्त भौतिक प्रगति को तुच्छ ठहराया जा सके।

सर्वग्रासी वर्तमान विश्व संकट के क्षणों में हमें अपनी गतिविधियों का निर्धारण फिर से करना चाहिए। अपनी चिन्तन दिशा को फिर से परिष्कृत करना चाहिए, ताकि अपना ही नहीं समस्त संसार का सर्वतोमुखी कल्याण कर सकने में समर्थ हो सकें।

भूतकाल में हमारे पूर्वज समस्त विश्व का मार्गदर्शन करने में किस प्रकार सफल हो सके? इसके लिए उन्होंने अपने में किस स्तर की क्षमता एवं आदर्शवादिता को विकसित किया? यही इस रचना का मूल उद्देश्य है। विश्व सेवा की दिशा में किये गये पूर्वजों के महान प्रयास हमारे लिए प्रेरक पथ-प्रदर्शक बन सकें, इसीलिए इतिहास के कुछ महत्त्वपूर्ण पृष्ठों को पढ़ना तथा अपनी सांस्कृतिक गरिमा को समझना आवश्यक है।

प्राचीन काल में यातायात आज की तरह सरल न था। तब रेल, मोटर आदि का नाम न था। न तो बढ़िया सड़कें थी और न नदियों पर सुदृढ़ पुलों की व्यवस्था थी। ऊबड़-खाबड़ सड़कें, जगह-जगह नदी-नालों के अवरोध, सुदूर क्षेत्र में फैले सघन वन, जल और वनस्पति से रहित मरुस्थल, सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि हिंस्र जन्तुओं के आक्रमण, डाकुओं का बाहुल्य, हिमाच्छादित गिरि, शृंग, ग्रीष्म में तपता भूतल, कीचड़ की दलदल की सड़ी जलवायु, भोजन, जल और निवास सम्बन्धी घोर असुविधा, भाषा भिन्नता के कारण दूर देश के लोगों से विचार विनिमय की कठिनाई, स्थानीय प्रथा-परम्परा से अपरिचित होने के कारण विग्रह की संभावना, अजनबी लोग, अपरिचित क्षेत्र जैसी असंख्य कठिनाइयों के कारण उन दिनों लम्बी यात्राएँ करना एक दुस्साहस था। उस ओर कदम बढ़ाने वाले हथेली पर जान रखकर ही उस प्रकार का निर्णय करते थे।

ऐसी साहसिक यात्राएँ कोई स्वार्थों को लेकर नहीं कर सकता। स्वार्थ तो तात्कालिक लाभ खोजता है। जिसमें कष्ट अधिक सुख कम हो, उसे कभी कोई स्वार्थ परायण व्यक्ति स्वीकार न करेगा। क्षुधार्त या आपत्तिग्रस्त तो जीवन रक्षा के लिए दूर देशों में भी जा सकता है, पर जिस देश में सुख-सुविधाओं का बाहुल्य हो वहाँ के लोग उस आनन्दी जीवन को छोड़कर प्राण संकट में डालने वाली यात्रा के लिए कटिबद्ध हो, तो समझना चाहिए कि उन्हें कोई अत्यन्त उच्चकोटि की अन्तःप्रेरणा ने ही आन्दोलित किया होगा। सचमुच ऐसा ही होता था। लोक मंगल के लिए अधिकाधिक तप-त्याग कर सकने योग्य साहसी, आत्मबल यही तो अध्यात्म साधना की एक मात्र उपलब्धि है। व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता एवं महानता जब प्रखर परिपक्व हो जाती है तो वे जन-कल्याण के लिए बढ़े-चढ़े दुस्साहसी पुरुषार्थ करने के लिए मचलते हैं। इसी छटपटाहट से भारतीय महामानवों का अन्तःकरण उल्लसित रहता था और वही तड़पन विश्व कल्याण के निमित्त घर छोड़कर सुदूर देशों के लिए महाप्रयाण के रूप में फलित होती थी। यही थी प्राचीन काल की साधनाएँ जिन्हें यहाँ के आस्था क्षेत्र में अत्यन्त गहरा और अत्यन्त सम्मानास्पद गौरव प्रदान किया गया था। संस्कृति के प्रचारक अपनी आँखों और दूसरों की आँखों में एक प्रकार से बलिदानी शहीद स्तर के माने जाते थे। उनका कर्तृत्व कितने लोगों का कितना उच्चस्तरीय हित साधन करेगा, इसका चित्र जब कभी किसी की आँखों के सामने प्रस्तुत होता था, वह उनके आगे सहज ही श्रद्धावनत खड़ा होता था। उन दिनों वे पृथ्वी पर विचरण करने वाले स्वर्ग लोक के देवता ही माने जाते थे। उनका दर्शन, सान्निध्य प्राप्त करके एवं उनको सहयोग देकर सामान्य नागरिक कृतकृत्य हुए बिना नहीं रहता था।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

220. उत्कृष्ट आदर्शवादिता की पक्षधर भारतीय संस्कृति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

श्रेष्ठ मान्यताओं पर आधारित देव संस्कृति के सारे सिद्धान्त अपने आप में इतने सही एवं युगानुकूल हैं कि आज भी उन्हें परीक्षित कर ऊँचा उठ सकना, देव मानव की स्थिति में जा खड़ा होना संभव है। इसका एक मात्र कारण यह है कि ऋषियों ने जो अध्यात्म सिद्धान्त निर्धारित किए, उन्हें अपनी बहुमूल्य मानवी काया रूपी प्रयोगशाला में सत्यापित भी किया। आत्मा-परमात्मा, कर्मफल, मरणोत्तर जीवन सम्बन्धी आप्त मान्यताओं का भारतीय दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों का इसीलिए युगों-युगों से सम्मान किया जाता रहा है। उनके आधार पर जीवन दर्शन बना है व भारत निवासी उन पर चलकर प्रगतिपथ पर आगे बढ़े हैं। जब भी इन मान्यताओं को झुठलाया, प्रतिकूलताओं ने हमें घेरा है एवं अंधकार भरे समय से गुजरना पड़ा है।

भारतीय संस्कृति में जीवात्मा को परमात्मा का पवित्र अंश माना गया है। उसके लिए शारीरिक कलुष एवं मानसिक कल्मषों के भव-बन्धनों से छूटकर उदात्त दृष्टिकोण अपनाना एवं जीवनमुक्ति प्राप्त करना चरम लक्ष्य ठहराया गया है। उत्कृष्ट चिंतन के आधार पर स्वर्गीय मनःस्थिति एवं परिस्थिति बनाने के लिए कथा अलंकारों का सुविस्तृत साहित्य रचा गया है। ब्रह्मविद्या का तत्त्वज्ञान आत्मवत् सर्वभूतेषु की, परद्रव्येषु लोष्ठवत् की, मातृवत् परदारेषु की मान्यताएँ हृदयंगम करने की प्रेरणा देता है। और इन्हें कहने, सुनने भर की बात समझा जाय तब तो बात दूसरी है, अन्यथा यदि निष्ठापूर्वक व्यवहारिक जीवन में यह आदर्श उतरने लगे तो सर्वत्र सतयुगी दृश्य उपस्थित हो सकते हैं।

परमात्मा को इष्टदेव माना गया है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। जीवन को क्षुद्रता की परिधि से निकाल कर ईश्वर के समान उदात्त और पवित्र होना चाहिए, इसी स्थिति को प्राप्त करना जीवन लक्ष्य बताया गया है। इसमें जीवात्मा को क्रमशः महान आत्मा, देवात्मा और परमात्मा बनने की दिशा में अग्रसर करने वाली उत्कृष्टता को अपनाने की प्रेरणा है। निराकार ईश्वर को अन्तःकरण की सद्भावनाओं में चिन्तन की पवित्रता और कर्मों की श्रेष्ठता में परिलक्षित होना बताया गया है। साकार ईश्वर यह विराट विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को, राम ने कौशल्या और काकभुशुण्डि को अपना यही विराट रूप दिखाया था। शिवलिंग और शालिग्राम की गोल-मटोल प्रतिमाएँ इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर का दृश्यमान रूप मानने और प्राणियों के साथ सद्व्यवहार करने एवं पदार्थों का सदुपयोग करने की प्रेरणा देती हैं। चित्र-विचित्र देवताओं की आकृति अलंकारिक रूप से अनेक सत्प्रवृत्तियों की ही प्रतीक प्रतिस्थापनाएँ हैं, षोडशोपचार, पंचोपचार के पूजा-विधानों में प्रकारान्तर से सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को विकसित करने की ही दिशा दी गई है। सब मिलाकर भारतीय संस्कृति की व्याख्या विवेचना करने वाली आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यताएँ जन साधारण को अधिक आदर्शवादी, अधिक पवित्र और अधिक लोकोपयोगी बनने की ओर ही अग्रसर करती है।

भारतीय संस्कृति में धर्म और सभ्यता को सर्वथा पृथक रखा गया है। धर्म के दस लक्षण भगवान मनु ने बताये हैं, योगशास्त्र में उन्हें यम-नियम कहा गया है। सभ्यता में प्रथा-परम्परा के प्रचलनों की गणना होती है। धर्म शाश्वत है। अर्थात् वैयक्तिक और सामाजिक सदाचार के आधारभूत सिद्धान्त सनातन हैं। प्रथा-परम्पराएँ सामयिक हैं। स्मृतिकार समयानुसार उनमें हेर-फेर करते रहे हैं यह परिवर्तन, प्रचलन आवश्यकतानुसार सदा ही होता रहेगा। धर्म और सभ्यता को अन्य धर्मानुयायी एक मानते हैं और उन्हें अपरिवर्तनीय कहते हैं जबकि भारत में वैसा नहीं है। अपने विशाल देश में अनेक प्रकार की प्रथा-परम्पराएँ हैं। इन विशेषताओं में विविधता का आनन्द ही लिया जा सकता है, साथ ही इन्हें आवश्यकतानुसार बदला भी जा सकता है। इस सुविधा से भारतीय संस्कृति ने अपने अंचल में संसार की समस्त सभ्यताओं को ढँक लेने और साथ-साथ खेलते, पनपते रहने की सुविधा देकर यह सिद्ध किया है कि उसमें विश्व संस्कृति के पद पर प्रतिस्थापित किये जा सकने की उदारता मौजूद है।

योगविद्या में व्यक्तित्व को अधिकाधिक पवित्र, उदात्त, संयमशील एवं मितव्ययी, सज्जन एवं शालीन बनाने की मनःशास्त्र सम्मत प्रक्रिया का निर्धारण किया गया है। ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्वाद, मौन आदि के कठोर प्रतिबन्ध अपने ऊपर लादने के प्रतिबन्ध तप कहलाते हैं। व्रत, उपवास, सर्दी-गर्मी का कष्ट सहन तितिक्षा कहलाता है। इसका उद्देश्य है लोक मंगल के लिए स्वयं कष्टकर स्थिति में रहने की बात स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करना और उसके अभ्यास में निरत रहना। हर धर्म प्रक्रिया में दान-पुण्य की बात इसलिए जोड़ी गई है कि मनुष्य अपनी उपलब्धियों का अंशदान जनहित में करने की आकाँक्षा को प्रदीप्त, परिपुष्ट करता रहे। सादा जीवन के साथ उच्च विचारों की संगति है। भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं को सीमित करके निर्वाह मात्र से संतोष करके ही मनुष्य लोकोपयोगी प्रयोजनों में संलग्न होकर महामानवों की भूमिका निभा सकता है।

योगाभ्यास में सर्वतोमुखी संयम का प्रावधान है। आत्मा को परमात्मा में घुला देने का उपक्रम है। जीवात्मा अर्थात शरीर, मन और परिवार की संकुचित परिधि में अपनत्व सीमित रखने वाले लोभ-मोह ग्रस्त प्राणी। परमात्मा अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता, विश्वमानव की कल्पना और सबमें अपना आत्मा देखने की उदार चेतना। आत्मा को परमात्मा स्तर का बना देने का अर्थ है ईश्वर प्राप्ति। सर्वत्र एक ही आत्मा का देखना अर्थात ईश्वर दर्शन। इस स्थिति में पहुँचने पर स्वतः अपने सुखों को बाँट देने और दूसरों के दुखों को बँटा लेने की आकाँक्षा हिलोरें लेने लगती है।

योग और तप के फलस्वरूप महामानवों की भूमिका में परिपक्व हुए मनुष्यों के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इतने महान होते हैं कि उनसे असंख्यों मनुष्य अनुकरणीय प्रेरणा प्राप्त करते और ऊँचे उठते हैं। इतिहास के पृष्ठ उनकी उत्कृष्टता की अनन्त काल तक भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। अपने साथ अपने समय और साथियों का गौरव बढ़ाने वाले इन देवात्माओं को ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न कहा जाय तो इसमें अत्युक्ति की कोई गुँजायश नहीं है।

उन दिनों कोई क्षेत्र ऐसा बचा न था जिसमें महामानवों का बाहुल्य दृष्टिगोचर न होता हो। आदर्शवादियों के नाम गिनाना असम्भव है। जब घर-घर में नर रत्नों और महामानवों का उत्पादन होता था, और उन चन्दन वृक्षों से सारा वातावरण ही महक रहा था तो गणना किस-किस की की जाय? वर्षा होती है तो सर्वत्र हरियाली उगी दीखती है। भारतीय संस्कृति की तुलना अमृत वर्षा से की जाती है, वह जहाँ भी गिरेगी वहीं नयनाभिराम जीवनदायिनी हरीतिमा उत्पन्न करती रहेगी।

आज आदर्शवादिता कहने सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा-प्रवचनों और स्वाध्याय, सत्संगों तक ही सीमित है। व्यवहार में उतारने की आवश्यकता नहीं समझी जाती और जीवन सिद्धान्त के रूप में उसे नहीं अपनाया जाता। फलतः इस विश्व संस्कृति का सृजनकर्ता भारत भी आज उन लाभों से वंचित हो रहा है जो प्राचीनकाल में उसे व्यवहार में उतारने वाले हमारे महान पूर्वजों द्वारा उठाये जाते रहे हैं। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है अस्तु दीपक तले अँधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आज तो हमारा मुँह बन्द कर दिया जाता है कि जब आपकी संस्कृति इतनी महान है तो उनके अनुयायी होते हुए भी आप इस दुर्दशाग्रस्त स्थिति में क्यों पड़े हैं?

हो यह रहा है कि संस्कृति की चर्चा मात्र पर्याप्त मान ली गई है, उसके आवरणों को तो ओढ़े रखा गया है पर आत्मा को बहिष्कृत कर दिया गया है। औषधि का महात्म्य बताने या उसकी शीशी पूजने से तो रोग दूर नहीं होता। लाभ उठाना हो तो उसका सेवन किया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यवहारिक जीवन में प्रवेश मिले, तत्त्वज्ञान को आस्थाओं में सम्मिलित किया जाय और उसे कार्यपद्धति में उतरने दिया जाय। यही तो उसका प्रयोजन है। यदि भारतवासी या किसी देश के निवासी इस सांस्कृतिक आदर्शवादिता को अपना सकें तो वे देखेंगे कि व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर करने की कितनी महान संभावनाएँ विद्यमान हैं। प्रयोग न करने पर लाभ न मिले तो इसका दोष औषधि पर कहाँ आता है?

भारतीय संस्कृति में समाज व्यवस्था को चार भागों में बाँटा गया है और व्यक्तिगत जीवन के चार विभाजन किये गये हैं। इस विभाजन मर्यादा को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं। हिन्दू धर्म का दूसरा नाम वर्णाश्रम धर्म भी है।

समाज की आवश्यकताओं में शिक्षा, सुरक्षा, सम्पत्ति और श्रमनिष्ठा प्रमुख है। इन्हीं आधारों पर सामूहिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था को ध्यान में रखकर हर व्यक्ति अपना व्यवसाय एवं कार्यक्रम निर्धारित करे। यह कार्य रुचि और योग्यता के आधार पर ही अपनाये जा सकते हैं। शिक्षा प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तियों को ब्राह्मण, सुरक्षा के लिए कटिबद्ध शासकीय कार्यकर्ता क्षत्रिय, कृषि, पशुपालन, शिल्प उद्योगों में निरत वैश्य और समाज को शारीरिक, मानसिक श्रम का सीधा लाभ देने वाले श्रमिक वर्ग को शूद्र कहा गया है। यह विशुद्ध कार्य विभाजन है और इसमें रुचि एवं योग्यता को आधार माना गया है। इसमें ऊँच-नीच की कोई बात नहीं है। वंश-परम्परा में व्यवसाय पद्धति जुड़ी रहने से उसमें जन्मजात प्रवीणता उत्पन्न होती है, इसलिए यह सुविधाजनक माना गया है कि वंश-परम्परा के साथ-साथ व्यवसाय परम्परा भी चलती रहे, पर यह कोई बंधन या प्रतिबंध नहीं है। गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर वर्ण व्यवस्था बनती है, अस्तु उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी होते रहते हैं। एक जाति या व्यक्ति अपनी कार्य पद्धति बदलकर दूसरी जाति का बन सकता है।

समाज व्यवस्था के लिए कार्य विभाजन की तरह जीवन अवधि के भी भारतीय संस्कृति चार विभाजन प्रस्तुत करती है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इनमें से दो व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए और दो सामाजिक विकास के लिए निर्धारित हैं। आधा जीवन शक्ति संवर्धन और भौतिक उत्पादन में लगाना चाहिए। शारीरिक और मानसिक क्षमता के विकास की पच्चीस वर्ष की आयु को ब्रह्मचर्य कहते हैं। पच्चीस से पचास वर्ष की आयु में भौतिक उत्पादन बढ़ाकर समृद्धि का अभिवर्धन करना चाहिए। आवश्यकतानुसार इसी आयु में विवाह किया जा सकता है और पीढ़ियों को सुसंस्कृत बनाने के साधन हो तो सीमित सन्तानोत्पादन की भी छूट है। गृहस्थ इसी अवधि का नाम है। यह व्यक्तिगत जीवन में संलग्न आयुष्य का पूर्वार्द्ध हुआ। जब लोग शतायु होते थे तब यह विभाजन २५+२५=५० का था।

जीवन का आधा भाग उत्तरार्द्ध विशुद्ध रूप से लोक मंगल में नियोजित रखे जाने की शास्त्र मर्यादा है। ढलती आयु में वानप्रस्थ धारण किया जाय और घर परिवार को आवश्यक मार्गदर्शन, सहयोग देते हुए अधिकांश समय समाज सेवा में लगाया जाना चाहिए। इसी मान्यता के आधार पर प्राचीनकाल में सुयोग्य, सुशिक्षित, अनुभवी एवं भावना सम्पन्न लोकसेवी बिना किसी वेतन पारिश्रमिक के मिलते थे और समाज कल्याण के असंख्यों क्रियाकलाप इस वर्ग द्वारा सुसंचालित किये जाते थे। समुन्नत समाज के लिए यह बहुत बड़ा आधार है कि उसे सुयोग्य और सस्ते समाज सेवी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हों। वानप्रस्थ परम्परा ने ही भारत की आन्तरिक महानता बढ़ाई थी और इसी कारण समस्त विश्व को यहाँ के महामानवों की सेवा सहायता उपलब्ध हो सकी थी।

शरीर अधिक थक जाने पर परिव्रज्या का, पर्यटन का कार्य कठिन पड़ता है और बादलों की तरह सुदूर क्षेत्रों में जाकर सेवा साधना के विभिन्न कार्यक्रमों को चलाया जा सकना संभव नहीं होता, तब एक स्थान पर कुटी आश्रम बनाकर साधना शिक्षा, स्वाध्याय आदि के लिए विद्यालय, चिकित्सालय, ग्रन्थ-रचना, योगसाधना, सत्संग, परामर्श जैसे कार्यों को हाथ में लिया जाता है, यह संन्यास हुआ। संक्षेप में परिव्राजक लोकसेवियों को वानप्रस्थ एवं ब्राह्मण कहा जाता है और आश्रमवासी साधुओं को संन्यासी आश्रम अधिष्ठाता सन्त महन्त की कार्यपद्धति अपनानी होती है।

कहना न होगा कि वानप्रस्थ और संन्यास की जीवन अवधि में देश के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व अपनी समूची सामर्थ्य को मानवी उत्कर्ष में नियोजित करते थे तो उसका परिणाम देव समाज के रूप में, स्वर्गीय परिस्थितियों के रूप में प्रस्तुत होना ही चाहिए। इन लोकसेवियों के निर्वाह के लिए कहीं से वेतन आदि का प्रबंध नहीं था। घर-घर में अतिथि सत्कार की धर्म-परम्परा प्रचलित थी। साधु ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र जैसे निर्वाह साधन प्रस्तुत करना प्रत्येक सद्गृहस्थ अपना परम पवित्र कर्तव्य मानता था और उसका अवसर मिलने पर अपने सौभाग्य को सराहता था। सम्पन्न लोग इन लोकसेवियों के लिए धर्मशाला एवं देवालयों में विश्राम स्थान बनाते थे। अन्न-क्षेत्र आदि की विशेष व्यवस्था करते थे। ब्रह्मभोज की, साधु ब्राह्मणों को समय-समय पर दान देने की परम्परा इसी दृष्टि से प्रचलित हुई ताकि उस आधार पर लोकसेवियों को निर्वाह के साधन और सुविधा सम्मान के साथ मिल सकें। यदि कहीं इस प्रकार की निर्धारित पूर्व व्यवस्था न होती तो वे बिना संकोच हर घर को अपना घर मानकर भोजन के समय रोटी भी माँग लेते थे। भिक्षा को इसी आधार पर ग्राह्य एवं देय माना गया है, अन्यथा समर्थ व्यक्ति के लिए सर्वथा विरुद्ध और अग्राह्य ही ठहराई जा सकती है।

आज साधु-ब्राह्मणों की जो दुर्गति है, भिक्षा व्यवस्था की जो स्थिति है, धर्मशाला और अन्न क्षेत्रों का जैसा दुरुपयोग होता है उसे देखकर हर धर्म प्रेमी को केवल दु:ख ही हो सकता है। ७ लाख गाँवों में यदि वर्तमान ५६ लाख साधु सेवा प्रयोजनों के लिए चले गये होते तो हर गाँव को आठ समाज सेवी मिलते और वहाँ की अनेकों सार्वजनिक सेवा सत्प्रवृत्तियाँ आकाश चूमती और सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करती दिखाई पड़ती।

भारतीय धर्म में प्रतीक पूजा के माध्यम से उपयोगी उपकारी पदार्थों, शक्तियों एवं व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और उनमें जो श्रेष्ठता सन्निहित है उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने एवं अपनाने का भाव है।

तीर्थयात्रा षोडश संस्कारों को मनाना, शिखा और सूत्र को मान्यता देते हुए आदर्शवादिता का पक्षधर स्वयं को घोषित करना व्रत स्नान तथा पीपल, तुलसी जैसे स्थावर पवित्र प्रतीकों की आराधना भी इसी प्रकार भारतीय संस्कृति की शाश्वत परम्पराएँ हैं, जो उद्देश्य विशेष को लेकर प्रचलित की गयी थी। इन सभी के साथ जो आदर्शवादिता, सुसंस्कारिता का शिक्षण, आरोपण जुड़ा हुआ है वही भारतीय संस्कृति को श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचाता हैं। दायित्व हमारा है कि हम इन मान्यताओं को विकृतियों के दलदल से उबारे एवं स्वयं अपनाकर अपना व संसार का भविष्य उज्ज्वल बनाएँ।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार