अनुक्रमणिका
१. नारी के सौन्दर्य का सच्चा स्वरूप
२. नारियाँ गुण सौन्दर्य बढ़ाएँ, आभूषण नहीं
३. शृंगारिकता के विकास से हानि पूरे समाज की
४. विज्ञापनों की अश्लीलता : मातृ सत्ता का अपमान
५. गन्दी तस्वीरें
६. अश्लील पुस्तकें
नारी के सौन्दर्य का सच्चा स्वरूप
मनुष्य का वास्तविक सौन्दर्य उसके सुन्दर दृष्टिकोण में निहित है। बाहरी आँखें स्थूल दर्शन में सक्षम हैं जो सौन्दर्य का मूल्यांकन बाह्य रूप के आधार पर करती हैं। इसे शाश्वत सौन्दर्य नहीं कहा जा सकता। सौन्दर्य आत्मा का विषय है। आत्मा की सुषमा अक्षुण्ण चिरनूतन तथा प्रेम-परक होती है। प्रेम पारस की प्रतीक है जो असुन्दर को सुन्दर और कुरूप को रूपवान बना देता है। नारी के सौन्दर्य में विश्व की सुन्दरता समाहित है | नारी कोमलता, वात्सल्य, सेवा, सहिष्णुता एवं समर्पण रूपी दिव्य सौन्दर्य की प्रतिकृति है। सृजन नारी का दूसरा नाम है। श्रद्धा एवं शील में उसकी अलौकिक सुषमा छिपी होती है। अनन्त वत्सला नारी कवीन्द्र-रवीन्द्र की दृष्टि में सृष्टि की सर्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, ममत्व, प्रेम की अमृत धाराएँ नारी के हृदय से निकल कर इस संसार को अमृत दान कर रही हैं। कवि रस्किन नारी के आन्तरिक सौष्ठव से परिचित है। वह कहता है—"माता का हृदय एक स्नेहपूर्ण निर्झर है जो सृष्टि के आदि से अनवरत झरता हुआ मानवता का सिंचन कर रहा है।" अभागा मनुष्य नारी के अनुदानों को विस्मृत कर उसे कामिनी और रमणी के रूप में देखना चाहता है। दया आती है उसकी इस कुरूप और विकृत दृष्टि पर।
दाम्पत्य जीवन में प्रवेशातुर युवक पीढ़ी अपनी आँखों के भ्रम की शिकार हो गई है। उसने समाज के सामने अपने दोषयुक्त चश्मे से एक विकट संकट उपस्थित कर दिया है, वह है, कट की रट। नासमझ यह नहीं जानते कि देहवष्टि और उसका रूप लावण्य स्थायी नहीं। दरअसल यह उसकी असली सुन्दरता नहीं है। असली सुन्दरता कभी नष्ट नहीं होती, जो इन चर्मचक्षुओं से परिलक्षित नहीं होती। दाम्पत्य जीवन का साफल्य पति-पत्नी के इसी आन्तरिक सौष्ठव के अंकन पर अवलम्बित है। जब नर अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करता है, तभी उसकी दिव्य दृष्टि का उन्मीलन होता है। फिर उसे नारी में ही नहीं समस्त संसार में सुन्दरता ही सुन्दरता दृष्टिगोचर होती है।
सिनेमा के वातावरण में पली, सिने तारिकाओं के संस्कारों से प्रभावित नई पीढ़ी जब नारी के दैहिक सौन्दर्य को ही देखना चाहती है तो नारी कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधनों का सहारा लेने पर विवश हो जाती है। इन मानसिक विकृतियों के परिणामस्वरूप समाज का नैतिक एवं सांस्कृतिक पतन होने लगता है। इसके ही दूरगामी परिणाम राष्ट्रीय चरित्र को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। ऐसे अवसर पर तथाकथित सौन्दर्योपासकों से विलयम कालरीन पूछता है— "क्या तुम स्त्री की सुन्दरता का मूल्यांकन उसके गुलाबी अधर, मृग जैसी आँखें, सेवों की तरह कपोलों को देखकर करते हो, अथवा उसके आन्तरिक सौन्दर्य से, जो देश, जाति धर्म की मर्यादा की रक्षा हेतु अपने जीवन का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर हो।
यह प्रश्न ही नहीं, एक सूत्र है, एक मंत्र है। आज की इस भौतिकवादी वासनाजन्य मन की मलिनता का, दिग्भ्रान्त धाराएँ उसको अभीष्ट दिशा की ओर मोड़ने का—एक गीत है जिसे समवेत रूप में गाएँ तो एक ऐसी तन्मयता को पैदा करे, जिससे आत्मा में निनादित हो रहे स्वर स्पष्ट सुनाई देने लगें। लोगों ! बाहर नहीं अन्दर की ओर झाँको। जहाँ सुन्दरता तुम्हारी बाट जोह रही है। तुम्हारा जीवन धन्य हो जाए। काश तुम इस सुषमा को देख सको। इसी आत्म सौन्दर्य में परमात्मा और प्रकृति का सौन्दर्य विद्यमान है। देखो, तुम्हें सारी वसुधा सुन्दर दिखाई पड़ेगी, देखो तुम्हें प्रत्येक जीवन में परमात्मा के दर्शन होंगे। देखो तुम्हें नारी मात्र में पवित्रता, अनुपम सौन्दर्य और कभी न नष्ट होने वाला रूप दिखाई देगा। मगर झाँकना अन्दर की ओर ही पड़ेगा। यही वह दर्पण है जिसमें तुम्हारा अपना स्वर गूँजता हुआ सुनाई देगा। तभी देखोगे कि सुन्दरता तुम्हारी, और तुम सुन्दरता के हो गए हो।
नारी को केवल खेलने-रिझाने की सामग्री समझकर पुरुष ने उसे मातृ शक्ति जननी के गौरवमय पद से 'कामिनी और रमणी' के स्थान पर ला पटका। इसे पुरुष बुद्धि का कुचक्र कहें या यह कहें कि लम्बे समय से वर्जनाओं और हीनता के संस्कारों से जकड़ी नारी के स्वभाव में ही रिझाने के विषाणु जन्म ले चुके हैं। जिनमें आज के युग की प्रगतिशील कही जाने वाली और पुरुष के कदम से कदम मिलाकर चल सकने के लिए संघर्षरत, प्रयत्नशील नारी भी आकर्षक बनने के सुनहरे जाल में उलझ रहीं हैं। यदि थोड़े विवेक से सोचा जाए तो यह प्रश्न उठता है कि क्या नारी की यही नियति है, किन्तु उत्तर नकारात्मक ही मिलता है।
प्रगतिशील आधुनिक चेतना और युवापुरुष नवचिन्तन के प्रतिनिधि होने के दावेदार पत्र-पत्रिकाओं में जो महिलाओं के लिए सामग्री प्रस्तुत की जाती है उसमें ले-देकर या तो पाक विद्या, गृह सज्जा की बातें होती हैं या फिर सुन्दर कैसे बनें, आकर्षक कैसे बनें, सौन्दर्य को कैसे निखारें, सौन्दर्य प्रसाधन का प्रयोग कैसे करें, कैसे वस्त्र चुनें कि आप आकर्षक दीखें आदि। यही सब अपनी त्वचा को लुनाई और शरीर के आकर्षण को बढ़ाने वाली बातें रहती हैं।
दुःखद आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इन स्तम्भों में यह सामग्री प्रस्तुत करने वाली भी महिलाएँ ही होती हैं। समझ में नहीं आता कि इसे प्रगतिशीलता कहें या अगतिशीलता। घर की चहारदीवारों में रहकर उसकी साज-सज्जा करना और सुस्वादु व्यंजन बनाना अब तक महिलाओं का काम रहा ही है। सुन्दर, आकर्षक सजी-सँवरी नारी अब तक पुरुष को बाँधती-मोहती और सुरक्षा पाती रही है किन्तु अब भी वह यही सब करती रहे तो प्रगति फिर किसे कहा जाएगा? कहने का अर्थ यह नहीं है कि गृह सज्जा और पाक विज्ञान अनावश्यक हैं। उनकी भी उपयोगिता है पर वही तो नारी का क्षेत्र नहीं और न आकर्षक बनना ही।
इसे नारी की कमजोरी कहें या भूल या बेखबरी, किन्तु यह सही है कि नारी की इस सौन्दर्य और आकर्षण की ललक को लेकर लोगों ने उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है कि अमेरिका जैसे देश की महिलाओं को आकर्षक बनने की भूल के विरुद्ध जिहाद छेड़ना पड़ा है, आन्दोलन करना पड़ा है। जी हाँ, अमेरिका की एक प्रसिद्ध संस्था ने इस सच्चाई को समझा है कि नारी को मात्र आकर्षण की सामग्री बनाकर विज्ञापनों व अश्लील चित्रों के माध्यम से उसके शील, उसकी गरिमा को किस कदर सरेआम बेजार किया जा रहा है। अधिकांश पत्रिकाएँ स्त्री के यौन आकर्षण के उभार को दिखाने वाले चित्रों से भरी रहती हैं। विज्ञापनों में उसी को मोहक नाजी अन्दाज में दिखाया जाता है। यह समय नारी समाज का शोषण, असत्य प्रस्तुतीकरण नहीं तो और क्या है? किन्तु लगता है अधिकांश नारियाँ इसके विरुद्ध आवाज बुलन्द करने का साहस नहीं करना चाहती।
क्या रूप के अतिरिक्त नारी के पास और कोई विभूति नहीं? जरा-मरण के अदृश्य धागों से बँधी यह अस्थायी मृग मरीचिका ही नारी की विभूति नहीं हो सकती। बिना शील के रूप दो कौड़ी का भी नहीं रहता। शील के अभाव में कुल वधू, नगर वधू बन जाती है। गृहणी वारांगना बन जाती है क्योंकि उसका रूप शीलच्युत हो चुका है। वह किसी एक व्यक्ति के साथ आत्मिक और 'सहधर्म' सम्बन्ध स्थापित करने की अपेक्षा सभी के सामने अपने रूप की हाट लगाती है। उसे वेश्या कहा जाता है क्योंकि वह अपना शील त्यागकर प्रदर्शन की सामग्री बन जाती है।
आज आकर्षक दीखने के फेर में शरीर के उभारों को जो नारी की शील सम्पदा हैं, तंगतर वस्त्रों से बाँधकर प्रदर्शित करने का जो फैशन चल पड़ा है। अधिकाधिक अंगों को खुले रखने का जो फैशन चल रहा है क्या वह शील च्युत होना नहीं है। समझ में नहीं आता कि इस शील च्युत आंगिक प्रदर्शन को क्या कहा जाए?
स्वच्छता और सुरुचि सम्पन्नता की बात तो समझ में आती है। शरीर को स्वच्छ रखने त्वचा और शरीर के सभी अंगों को नियमित स्नान-व्यायाम, स्वच्छ-स्वस्थ, सबल-सतेज रखना तो आवश्यक है किन्तु उस पर सौन्दर्य प्रसाधनों का लेप कर रोम छिद्रों को बन्द करना अवैज्ञानिक और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही हैं। नहाया इसलिए जाता है कि रोमकूप खुल जाएँ, पसीना आसानी से बाहर निकले, स्वच्छ हवा से शरीर का सम्पर्क रहे फिर उस पर कोई लेप या चूर्ण लेपना स्नान को व्यर्थ करना है।
लोग फूहड़ न कहें, स्वयं को भी अपने वेष विन्यास से मानसिक व बौद्धिक परिपक्वता, हीनता का बोध न हो इसके लिए ढंग की जलवायु और स्वास्थ्य के अनुसार साफ कपड़े पहनना तो ठीक है किन्तु शरीर को सजाने और आकर्षक बनाने के लिए ऐसे वस्त्र पहनना जिससे कि लोगों का ध्यान आकर्षित हो यह कहाँ की समझदारी है?
कुछ लोग कह सकते हैं कि इससे व्यक्तित्व निखरता है? व्यक्तित्व का अर्थ कि जो कुछ आप हैं उसकी झलक आपके सम्पर्क में आने वाले को मिल जाए। उसका शरीर प्रदर्शन से कोई सम्बन्ध नहीं है। जो कुछ हमारे भीतर है उसका आभास सम्पर्क में आने वाले को होना चाहिए। इसके लिए आपका व्यवहार, बोलचाल, भाषा नम्रता, शिष्टाचार, शालीनता, सौम्यता आदि पर्याप्त है। कोई व्यक्ति अशिक्षित है तो वह कैसे ही अच्छे वस्त्र क्यों न पहन ले उसके सामने जब कुछ पढ़ने का अवसर आएगा उसकी कलई खुल जाएगी, उसके वस्त्र उसकी कमियों को ढक नहीं पाएँगे।
नारी को आकर्षक बनाने के फेर में पड़ने की भूल करने की बजाय अपने गरिमामय रूप को सामने रखना चाहिए। कोई भी देखे तो उसके मन में श्रद्धा, आदर और अच्छे भाव उत्पन्न हों। इससे समाज में मानसिक विकार उपजने की कम ही गुंजायश होगी। वस्तुतः नारी प्रदर्शन पसन्द कभी रही नहीं। प्रायः उसे सजने-सँवरने की प्रेरणा, उपकरण पुरुषों द्वारा ही दिए जाते हैं। पति-पत्नी के बीच यह शृंगार और आकर्षण का कुछ उपयोग भी हो सकता है किन्तु घर-बाहर तो उसकी गलत प्रतिक्रिया होती है। यों तो दाम्पत्य सम्बन्धों में भी पति-पत्नी के बीच शारीरिक परिचय—शारीरिक सम्पर्क की अपेक्षा मानसिक व आत्मिक परिचय ही शुभ होता है किन्तु समाज में शरीर प्रदर्शन सर्वथा घातक ही सिद्ध होता है।
आज की प्रगतिशील नारी को पुरुष की समानता पानी है। यही नहीं उससे भी ऊँचा उठना है। इसके लिए उसका ध्यान आकर्षण व सुन्दर बनने जैसी व्यर्थ की बातों पर टिकने की अपेक्षा नारी जाति के समय विकास पर और उसके वास्तविक परिचय पर टिकना चाहिए। जब वह पुरुष के बराबर हो तो फिर अपने आपको अलंकृत करके किस अभाव की पूर्ति करना चाहती है। उसके व्यक्तित्व गुणों में उसके वास्तविक स्वरूप को निखरना चाहिए। पुरुषों की कठोरता को अपनी कोमलता से सींचने वाली नारी समय पड़ने पर शक्ति स्वरूपा भी बन जाती है। आज उसके उसी रूप की आवश्यकता है। उसे बहला-फुसलाकर उसके अंगीय उभारों को प्रदर्शन व विज्ञापन का आधार बनाकर उसके शील की नीलामी बहुत हो चुकी। उसे तो उसका बदला लेना है। हर तरफ उसे बस 'कामिनी' के रूप में ही चित्रित किया जा रहा है जैसे यही उसकी सार्थकता है।
नारी जो कुछ है उसका वही स्वरूप सामने लाने की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। शारीरिक बल का युग लद चुका अब तो मानसिक बल का वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है। इस बल में नारी पुरुष से किसी भी प्रकार कम नहीं है। समय के साथ उसे भी आगे आना है और उन जाल-जंजालों को तोड़ फेंकना है जो पुरुष ने उसके लिए बिछाए हैं। यह आकर्षक बनने का नवीनतम जाल बड़ा भयंकर है। इस जाल में वह स्वेच्छा से फँसती जा रही है।
शरीर को सुन्दर व आकर्षक दिखाने के फेर में हम अपने गुणों का विकास करने की ओर से उदासीन हो जाते हैं। कई सफल व्यक्ति जो दिखने में अनाकर्षक थे वे अपने इस स्वरूप को स्वीकार कर गुणों के, व्यक्तित्व के विकास में लग गए जिससे वे उन लोगों से आगे निकल गए जो अपने आपको सुन्दर मानते थे और उसी में अपने को पूर्ण मान रहे थे। कोई महिला काली है तो वह मेकअप के द्वारा गोरी नहीं बन सकती, किन्तु यदि वह अपने उन गुणों को विकसित करने में जुट जाती है जो उसे लोकप्रिय बना सकते हैं तो वह सुन्दर महिलाओं से बाजी मार जाती है।
नारी की अपनी एक गरिमा है। वह पुरुष की जननी है। 'जननी' अपने सौन्दर्य के बल पर नहीं मातृत्व के बल पर उसकी श्रद्धा भाजन बनती है | झुर्रियों भरे पोपले मुँह और झुकी हुई कमर वाले जरा-जर्जर शरीर वाली माँ से बेटे को कितना प्रेम होता है कि वह उसके पास आते ही दुनियाँ भर की खुशियाँ पा लेता है। नारी भी माँ है। वह उस शीतल वृक्ष की तरह है जहाँ हर कोई पथिक सुख, शीतलता पाता है। उसकी क्लान्ति मिट जाती है। अखण्ड, रुक्ष और उत्तम पौरुष नारी की स्नेह छाया में आकर तृप्ति, सुख, सन्तोष पाता है। उसका यह स्वरूप कतई दीपशिखा सा नहीं हो सकता। वह तो शीतल समन्वित गरिमामय स्वरूप होता है जिसमें उसकी दया, ममता, करुणा, स्नेह, सहनशीलता, धैर्य आदि का सम्पूर्ण विकास दृष्टिगत होता है। दुनियाँ उसे किसी भी रूप में देखना चाहे वह अपने उसी कल्याणकारी स्वरूप को सामने रखेगी तभी उसका और सबका हित हो सकेगा।
आज जो छेड़-छाड़, शीलहरण आदि की घटनाएँ बढ़ रही हैं उसके पीछे नारी का आकर्षक दीखने, फैशन परस्ती की ओर भागने की भूल भी बहुत बड़ा कारण है। जहाँ यह प्रवृत्ति जितनी अधिक पनपी है वहाँ ये अपराध भी बढ़े हैं। अमेरिका में फैशन परस्ती व विज्ञापनबाजी अधिक है तो वहाँ पर शीलहरण के अपराध भी सबसे अधिक होते हैं | नारी को अगले दिनों समाज में समानता का अधिकार पाना है किन्तु यह प्रदर्शन उसकी असुरक्षा निरन्तर बढ़ाता जा रहा है। पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने के लिए पहली आवश्यकता अनाकर्षक बनना है। पुरुष पुरुष के प्रति आकृष्ट नहीं होता क्योंकि वहाँ उसे कोई वैचित्र्य दिखाई नहीं देता, किन्तु नारी में उसे वैचित्र्य, आकर्षण इसलिए नजर आता है कि आज तक उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाता आया है, उसके आकर्षक और सुन्दर बने रहने में ही वह अपना लोभ देखता आया है, किन्तु अब इस दीवार को तोड़ देना श्रेयस्कर है।
आज नारी को अपने कर्मक्षेत्र को विस्तृत करना है। गृह सज्जा पाक विज्ञान और सौन्दर्य आकर्षण मात्र ही उसकी रुचियाँ नहीं हैं। सुस्वाद व्यंजनों का यह पाक विज्ञान भी निरर्थक है। सादे और पौष्टिक भोजन का प्रचलन हमारे देश में भी होना ही चाहिए। सुन्दर व आकर्षक दीखने की इस पारम्परिक वृत्ति को अब छोड़ना ही होगा। नारी का अपना गरिमामय स्वरूप ही सामने लाना होगा। इस चक्रव्यूह को भेदने के लिए नारी जाति को कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। तो अपने आपसे और फिर अपना भ्रामक स्वरूप दिखाने वालों से इसका शुभारम्भ शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा है। पढ़ी-लिखी और प्रगतिशील कही जाने वाली महिलाओं को इसका सूत्र संचालन करना ही चाहिए और नारी को अपने गरिमामय पद पर पुनर्प्रतिष्ठित करने का प्रयास करना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली हो। जो भी उसके निकट सम्पर्क में आए वह उससे प्रभावित, आकर्षित हुए बिना न रहे। इसके लिए अपनी क्षमताएँ, योग्यताएँ, व्यवहार, सद्गुण और सद्विचार ही वे अलंकरण हो सकते हैं जो उसके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाएँ, शारीरिक सौन्दर्य नहीं। किन्तु आजकल आधुनिकता के नाम पर लोग विशेष कर महिलाएँ यह समझने लगी हैं कि व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए शारीरिक सौन्दर्य होता है।
शारीरिक सुन्दरता सबको नहीं मिलती, व्यक्तित्व को प्रभावशाली दीखने में शारीरिक सौन्दर्य आवश्यक होता तो ईश्वर सभी को वह प्रदान करता। उसने सभी को शरीर के आवश्यक अंग आँख, कान, नाक, हाथ, पैर दिए हैं। शारीरिक सौन्दर्य भी उतना ही आवश्यक होता तो वह सबको देता। सौ में से मुश्किल से एक दो व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो लूले, लंगड़े या अन्धे हों किन्तु गौर वर्ण और चेहरे की सुन्दरता वाले सौ में से मुश्किल से दस पन्द्रह व्यक्ति मिलेंगे। इससे स्पष्ट है कि त्वचा का रंग और चेहरे का सौन्दर्य व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए बहुत आवश्यक नहीं है।
जो महिलाएँ आधुनिकता के नाम पर इस भ्रम जाल में फँस कर सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग कर स्वयं को आकर्षक बनाने का प्रयास करती हैं। विवेक दृष्टि से देखा जाए तो उसे इस युग का एक अन्ध विश्वास ही कहा जाएगा।
व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए मात्र चेहरे की सुन्दरता व त्वचा का रंग ही पर्याप्त नहीं है। कोई स्त्री काली है तो वह अपने चेहरे पर सौन्दर्य प्रसाधन लेप कर गोरी नहीं बन जाती किन्तु वह अपने गुणों के अभिवर्धन और व्यवहार को सुन्दर बनाने का प्रयास करे तो निश्चित रूप से अपने व्यक्तित्व को कहीं अधिक प्रभावशाली बनाकर सुन्दर स्त्रियों से बाजी मार सकती है। सुन्दर विचार और भव्य भाव व्यक्ति को लोकप्रिय और प्रभावशाली बनाते हैं। आन्तरिक सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति प्रफुल्लित चेहरे द्वारा स्पष्ट झलकती रहे तो व्यक्ति की प्रभा छिटके बिना नहीं रहती।
महिलाएँ इसी अन्ध विश्वास के कारण कि सौन्दर्य प्रसाधनों के लेप से वे सुन्दर दीखने लगेंगी, चेहरे पर तरह-तरह के लेप करके और भी हास्यास्पद बन जाती हैं और यह बनावटी रूप टिकता भी कितनी देर है। जरा सा हाथ लगे तो पाउडर पुछ जाए, जरा सा पसीना आ जाए तो चेहरे पर चित्रकारी दीखने लगे।
शरीर का सौन्दर्य तो अस्थायी है। बीमारी या बुढ़ापे में पड़ी हुई झुर्रियाँ पाउडर की पर्तों में कहाँ तक छिप सकेंगी। इससे अच्छा यही होगा कि विभिन्न लेपों द्वारा चेहरे के स्वाभाविक सौन्दर्य को नष्ट न किया जाए।
वस्तुतः सौन्दर्य है क्या? सौन्दर्य की न कोई परिभाषा है न मापदण्ड। एक ही वस्तु कुछ व्यक्तियों के लिए सौन्दर्य की निशानी हो सकती है और कुछ के लिए वही कुरूप हो सकती है। चीन में छोटे पैरों को शुभ माना जाता है जबकि हमारे देश में छोटे पाँव का होना अशुभ का सूचक माना जाता है। भारतीय लोग लम्बी श्याम अलकावलि पसन्द करते हैं तो पाश्चात्य देशों में भूरे, गर्दन तक कटे "बाव्ड" बाल सुन्दर मानते हैं। अफ्रीका में काला रंग, जापान में चपटी नाक को कुरूप नहीं माना जाता जबकि हमारे देश में ये दोनों ही वस्तुएँ कुरूपता की निशानी मानी जाती हैं।
जब शारीरिक सौन्दर्य एक भ्रमजाल ही है तो फिर अपने आप को सुन्दर बनाने के लिए रोज-रोज ना मालूम कितने सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग किया जाना अन्ध विश्वास नहीं तो और क्या है? उनके उपयोग से व्यक्तित्व में निखार आएगा किन्तु वास्तव में यदि व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया जाए तो शारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने की जरूरत ही न पड़े।
आजकल 'पर्सनाल्टी' और 'व्यक्तित्व' से लोग पुरुषों के लिए प्रायः हृष्ट-पुष्ट और रौबदार व्यक्तित्व और स्त्रियों के लिए सुन्दरता व शारीरिक गठन का ही अर्थ लगाया जाने लगा है। शरीर को प्रमुखता देने के कारण मेकअप का अन्ध विश्वास भी पनपा है। कहीं बाहर जाना हो तो घण्टों दर्पण के सामने बैठकर चेहरे की लीपा-लेपनी करने, रंग-रोगन, पाउडर आदि लेपने में कोई कोई महिलाएँ तो घण्टों लगा देती हैं। वस्त्रों के चुनाव से लेकर 'आईब्रो' की कमान तानने, वेश के साथ लिपिस्टिक, बिन्दी और तेल मालिश, रंग चुनने और त्वचा की टाइप की जानकारी देने वाले पत्र-पत्रिकाओं के स्तम्भ और कास्मेटिक बनाने वाली बड़ी-बड़ी फर्मों के आकर्षक विज्ञापन और भी सहायक होते हैं।
इस मेकअप महाविज्ञान से आखिर लाभ क्या? जितना समय इस लिपाई-पुताई में लगता है, आज के मँहगाई के जमाने में जहाँ खाने को तेल भी नसीब नहीं होता हो चेहरे पर लेपने के लिए फाउन्डेशन, क्रीम, लोशन, पाउडर स्नो आदि पर कितना धन व्यय होता है, घण्टों आइने के सामने बैठकर मेकअप में कितना श्रम फालतू जाता है, साथ ही साथ स्वास्थ्य का नाश भी कम नहीं होता। ये सब उपलब्धियाँ हानि की मदों में ही जाती है। लाभ के नाम पर कुछ भी नहीं होता।
अंग्रेजी कहावत है “टाइम इज मनी" (समय धन है) पर हमारे यहाँ कहा जाता है समय अमूल्य है। इस अमूल्य समय को यदि मेकअप में न बिगाड़ कर व्यक्तित्व निर्माण में लगाया जाए तो यह असम्भव नहीं कि व्यक्तित्व न बने। इसी समय को कोई महिला ज्ञानार्जन कर अपनी क्षमताओं और योग्यता वृद्धि में लगाए तो उसका महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व बन सकता है जिससे वे स्वयं तो लाभान्वित होंगी ही, परिवार, समाज तथा देश को भी कम लाभ नहीं होगा।
यदि कोई बी. ए. है तो इन घण्टों में तैयारी करके वह एम. ए. कर सकती है। कोई चाहे तो अशिक्षित महिलाओं को पढ़ा सकती है, स्वयं कोई कुटीर उद्योग सीखकर अपने आस-पास के गाँवों में वैसे ही उद्योग चला सकती है। सिलाई, कताई, कशीदाकारी आदि अनेक ऐसे व्यवसाय हैं जिन्हें सिखाकर महिलाओं को आत्म निर्भर बनाया जा सकता है। आवश्यकता है उनके स्वयं के वास्तविक प्रयास की।
सौन्दर्य प्रसाधनों के उपभोग से अमूल्य समय ही नष्ट होता है। ऐसी बात नहीं है। समय के साथ धन, श्रम व स्वास्थ्य हानि ये चार हानियाँ होती हैं। समय के साथ श्रम अभिन्न रूप से जुड़ा है, इतना सब करने के लिए उन्हें श्रम तो करना ही पड़ता है, मेकअप स्वयंमेव ही नहीं हो जाता। फिर उन्हें खरीदकर भी लाना होता है, वे चलकर नहीं आ जाते।
समय और श्रम लगा देने के बावजूद भी सौन्दर्य प्रसाधन प्राप्त नहीं होते जब तक कि उनके लिए धन न खर्च किया जाए। यह कहाँ की अक्लमन्दी है कि इस मँहगाई के युग में बच्चों को पौष्टिक खाना दूध, घी आदि नहीं मिल पाता और इन मेकअप के साधनों की खरीद में धन व्यय किया जाए जो पहले बताया ही जा चुका है।
अपना अमूल्य समय, श्रम और धन नष्ट करने के बदले मिलती है स्वास्थ्य हानि। चेहरे पर विभिन्न प्रकार के रंग-रोगन लगाने से त्वचा के रोम छिद्र बन्द हो जाते हैं और चर्म रोगों की उत्पत्ति होने लगती है।
समय, श्रम और अर्थ की कीमत पहचानने वाले अब्राहम लिंकन ने अपनी सम्पूर्ण निष्ठा व लगन से व्यक्तित्व के वास्तविक विकास का प्रयास किया तो वे एक सामान्य व्यक्ति से विश्व विख्यात हो गए। सिंक्लेयर ल्यूडस जो एक कुरूप लड़का था। वह अमेरिका में प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हुआ। जीजाबाई तथा राणाप्रताप की माताजी भी कोई रूपवती नहीं थीं किन्तु वे अपना अमूल्य समय और श्रम छत्रपति शिवाजी तथा मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप के निर्माण में लगाकर इतिहास प्रसिद्ध हो गई।
जहाँ तक शारीरिक सौन्दर्य का प्रश्न है वह भी स्वास्थ्य पर निर्भर करता है न कि सौन्दर्य प्रसाधनों पर | जो सुडौल है वह सुन्दर दीखेगा ही और एक बीमार व्यक्ति चाहे कितना ही गोरा हो उसके चेहरे पर मुर्दानी ही छायी रहेगी। अतः स्वास्थ्य सुधार की बात तो समझ में आती है, यथोचित आहार, संयम, व्यायाम द्वारा शरीर को सुन्दर सुपुष्ट बनाने की बात भी समझ में आती है पर ऊपर से रंग-रोगन पोतने की कतई नहीं।
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि स्नान करने तथा तौलिए द्वारा रगड़कर त्वचा की सफाई करने से रोम छिद्र खुल जाते हैं ताकि शरीर की गन्दगी का पसीने के रूप में बाहर निकलना सहज हो जाए। स्वास्थ्य के लिए शुद्ध वायु और ताजी धूप इन्हीं रोम छिद्रों द्वाग शरीर में प्रवेश होती है। इन प्राकृतिक सम्पदाओं का उपयोग शरीर स्वयंमेव ही सरलतापूर्वक करता रहता है किन्तु इन्हीं महत्त्वपूर्ण रोम कूपों को प्रसाधन लेपन से बन्द कर देना कहाँ की बुद्धिमानी होगी। जो अवैज्ञानिक और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
पहले हमारे देश में कोई-कोई धनी व राजघराने की महिलाएँ त्वचा के रंग के निखार के लिए उबटनों का प्रयोग करती थीं। वे उबटन आजकल के सौन्दर्य प्रसाधनों की तरह चेहरे और त्वचा पर पुनः नहीं रहने दिए जाते थे। उनका उपयोग त्वचा का मैल छुड़ाने के लिए होता था। उबटन के बाद स्नान करना अति आवश्यक होता था ताकि रोमछिद्र भली प्रकार साफ हो जाएँ। आजकल विवाह शादियों के अवसर पर लगाया जाने वाला हल्दी का उबटन उसी प्रकार का है।
सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करने वाली महिलाएँ शायद इस ओर से अनभिज्ञ ही हैं कि इतने उपयोग से उन्हें कितनी स्वास्थ्य हानि, धन हानि उठानी पड़ती है। आजकल प्रत्येक वस्तु में मिलावट होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। किसी वस्तु का खालिस मिल जाना प्रायः असम्भव सा हो गया है। फिर यह कैसे मान लिया जाए कि सौन्दर्य प्रसाधन में मिलावट नहीं ही होती होगी।
आज के इस यांत्रिक युग में हर व्यापारी तथा हर कम्पनी यही चाहती है कि उन्हें कम से कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा मिले। नित नए आकर्षक पैकेटों में उनके विज्ञापनों से पत्र पत्रिकाओं के पन्ने भरे रहते हैं। दीखने में वे सुन्दर लगते हैं परन्तु उनमें ऐसे-ऐसे घटिया किस्म के पदार्थ मिला देते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं।
सुगन्धित हेयर ऑयल की आजकल हजारों किस्म बन चुकी हैं और जिनका उपयोग अधिकतर लोग कर रहे हैं। उसका परिणाम भी छिपा नहीं रहा। पहले ७०-८० वर्ष की आयु के लोगों के ही सफेद बाल देखे जा सकते थे किन्तु आजकल तो ८-१० वर्ष की आयु के लोगों के ही सफेद बाल मिल जाएँगे। युवा वर्ग में २५ प्रतिशत सफेद बाल मिल जाएँगे। ३०-३५ की उम्र होते-होते तो करीब-करीब सभी के बाल सफेद होना प्रारम्भ हो जाता है। सुगन्धित तेल अधिकांश व्हाइट ऑयल पर बनते हैं। व्हाइट ऑयल होता है—गन्ध उड़ा मिट्टी का तेल।
इसके अतिरिक्त बालों के झड़ने, सिर में रूसी, सिर दर्द, आँखों की जलन इत्यादि शिकायतें बढ़ती रहती हैं। सुगन्धित तेल तथा शैम्पू के प्रयोग से अँगुलियों में एक्जिमा हो जाता है। सिर धोते समय वह आँखों में गए बिना नहीं रहता और आँखों की जलन बढ़ जाती है जिससे आँखों को बहुत हानि होती है | खिजाब के प्रयोग से खोपड़ी की चमड़ी, कानों के आस-पास की जगह तथा गरदन के पीछे फोड़े-फुंसी हो जाते हैं।
नहाने के बढ़िया-बढ़िया आकर्षक साबुनों में बूढ़े, बीमार तथा मृत जानवरों की चर्बी मिलायी जाती है जिसके कारण खुजली आदि कई चर्म रोग पनपने लगते हैं। त्वचा की स्वाभाविक चमक नष्ट हो जाती है, चमड़ी खुश्क हो जाती है। साबुन में मिलायी जाने वाली हैक्पाक्लोरोफिन नामक कीटाणुनाशक औषधि के अधिक मात्रा में उपयोग होने से पिछले दिनों फ्राँस में अनेकों शिशुओं की मृत्यु हो गई। अमेरिका में तो शृंगार प्रसाधनों में इसका उपयोग बिल्कुल बन्द कर दिया गया है।
सौन्दर्य प्रसाधनों की सामग्री क्रीम व तेलों में लिनोलियम व मोम मिला देते हैं जिसके कारण त्वचा के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। चेहरे पर लगाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पाउडरों में मैग्नीशियम कार्बोनेट, कैल्शियम, जिंकस्लीकेट, टिलैनियम आक्साइड आदि हानिकारक पदार्थ मिला दिए जाते हैं।
चेहरे को रंगत का शेड देने के लिए जिन रंगों का उपयोग किया जाता है वे स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त ही हानिप्रद होते हैं। इन्हीं सौन्दर्य प्रसाधनों के उपयोग का परिणाम है कि मेकअप करने वाली महिलाओं के चेहरों का वास्तविक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। उन्हें नहाने के तुरन्त बाद ही मेकअप करना होता है नहीं तो उनके चेहरे भद्दे लगते हैं।
ईश्वरदत्त सुन्दर आँखों को कृत्रिम सौन्दर्य देने के लिए उन्हें आवश्यकता से अधिक बड़ी, सुन्दर, तीखी और आकर्षक बनाने के लिए आई शैडों व आई लैंसों का उपयोग होता है। भौंहों को काली गहरी बनाने के लिए वास्तविक भौंहों व बरौनियों को काटकर सावधानी से रंगीन पेंसिलों, बनावटी बरौनियों का प्रयोग करती हैं। जिन्हें निर्दयतापूर्वक आँखों के निकट रगड़ती हैं। इनमें मिले रंगों से आँखों की विभिन्न बीमारियाँ, रौह, कंजक्टिवाइटस आदि होने का भय रहता है।
होठों के स्वाभाविक रंग को अधिक सुर्ख बनाने के लिए जिन लिपिस्टिकों का उपयोग किया जाता है उनमें आवश्यकता से अधिक सीसा और गोंद मिला दिया जाता है। जिनके कारण होठों की जलन, सूजन व फटने की शिकायतें पैदा हो जाती हैं |
नाखूनों की पालिश में सिंथेटिक रबर व स्प्रिट मिलायी जाती है। परिणामतः नाखूनों में जलन, दर्द बन जाने का भय रहता है, अँगुलियों में घाव हो जाते हैं।
सौन्दर्य प्रसाधनों के उपयोग के समय, श्रम, धन और स्वास्थ्य की कितनी हानियाँ उठानी पड़ती हैं फिर भी महिलाएँ इनका अँधाधुन्ध प्रयोग बढ़ाती ही रहें तो उसे अन्धविश्वास नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
जबकि पाश्चात्य देश की नारियाँ इन प्रसाधनों से बेजार हो चली हैं और वे अब 'फेयर सेक्स' नहीं कहलाना चाहती हैं। जिनके प्रयोग से कोई लाभ नहीं देखा तो वे उसे छोड़ रही हैं। फिर भारतीय महिलाओं का ठोकर खाने से पूर्व ही सँभल जाना श्रेष्ठ होगा।
इन सौन्दर्य प्रसाधनों के बढ़ने एवं लोकप्रिय होने का अर्थ है अपने आपको स्वास्थ्य नियमों की अनभिज्ञता, शिष्ट तथा शालीन परम्परा का अज्ञान ही दर्शाता है। जिन व्यक्तियों में विशेषकर महिलाओं में यदि थोड़ा सा विवेक है तो वे इन सौन्दर्य प्रसाधनों का बहिष्कार ही करेंगी।
भारतीय जीवन में नारी आदर्श की शानदार परम्परा रही है। पुरुषों की अपेक्षा सद्गुणशीलता और सच्चरित्रता में स्त्रियाँ अग्रणी रही हैं। यही कारण है कि उन्हें 'देवी' नाम से सम्बोधित करने की परम्परा डाली गई थी जो अब तक उसी तरह से चली आ रही है। भारतवर्ष में धर्म, संस्कृति और नैतिकता की सर्वोपरिता का अधिकांश श्रेय हमारी माताओं, बहिनों तथा बेटियों को प्राप्त है। समाज निर्माण में उनका सहयोग पुरुषों से कम न था। भौतिक विकास में वे पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती थीं। स्त्री-पुरुषों की पारस्परिक अभिन्नता के कारण ही यह देश समृद्धि की चरम सीमा तक पहुँचा हुआ था। नारियाँ सदैव से ही पुरुषों के लिए प्रेरणा और प्रकाश रही हैं। यही कारण है कि शक्ति की उपासना का प्रतीक भी नारी को ही माना गया है।
हमारी जीवन पद्धति में बुराइयाँ बढ़ने लगीं तो नारी जीवन भी उनसे अछूता न रह सका और अन्ततः पुरुषों की दासी, भोग-विलास की सामग्री और न जाने कैसी हेय वस्तु सी बनकर रह गयीं। अशिक्षा, पर्दा, अन्धविश्वास, आलस्य, विलासिता, फैशनपरस्ती आदि अनेकों बुराइयाँ उसमें बढ़ीं। इसमें सबसे बड़ी बुराई रही उनकी आभूषण प्रियता। जिसने न केवल हमारे आर्थिक सन्तुलन को बिगाड़ा वरन् उससे अनेकों सामाजिक बुराइयों का प्रचलन हुआ। स्त्रियों की कार्यक्षमता घटी और मानसिक कमजोरियाँ बढ़ने लगी। यह बहुत बड़े दुःख की बात है कि हमारी बहू-बेटियाँ अब गुणों से दूर होती जा रही हैं और नित्य नए शृंगार आभूषणों की माँग कर राष्ट्रीय ढाँचे को असन्तुलित बनाने में लगी हैं।
भारतीय सम्पत्ति का इतना बड़ा भाग जेवरों के रूप में बँधा पड़ा है कि यदि उसे खोल दिया जाए तो राष्ट्र की आर्थिक समस्या का हल सुविधापूर्वक हो जाए। दुःख की बात है कि यह क्रम अब भी उसी तरह चल रहा है। अशिक्षितों की बात दूसरी थी पर अब तो पढ़े-लिखे और विचारवान व्यक्ति भी सिद्धान्त रूप में भले ही विरोध करते हों किन्तु व्यवहार में सब इस गन्दी प्रथा को अपनाए हुए हैं और हमारी आय का आधा भाग केवल स्त्रियों के गहने बनने में चला जाता है। यह बात नारी और राष्ट्रों दोनों के लिए नितान्त दुर्भाग्यपूर्ण है।
धन के अभाव में लोग कोई उद्यम-उद्योग नहीं कर पाते, बालकों को शिक्षित नहीं बना पाते, पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं कर पाते। पर यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो हमारे पास ऐसा कोई अभाव है नहीं। हमने जानबूझ कर ही यह समस्या खड़ी की है। हिन्दुस्तान में शायद ही ऐसा कोई अभागा घर हो जिसमें इतना जेवर न हो जिससे सामान्यतः एक परिवार के उदर पोषण करने योग्य आर्थिक धन्धा न चलाया जा सके, पर स्त्रियों के असहयोग के कारण यह आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती। वे बुरी तरह इन मिट्टी के ढेलों को छाती से चिपकाए हुए अपने बच्चों को, पतियों को आर्थिक विषमता की चक्की में पिसता हुआ देखती रहती हैं किन्तु इस हानिकारक कुप्रथा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं।
आभूषणों से सौन्दर्य बढ़ता हो, सम्मान मिलता हो ऐसी कोई बात तो समझ में आती नहीं। उलटे शरीर के अंग दुखते हैं। चोरों का भय बना रहता है। आपस में ईर्ष्या, द्वेष और पारिवारिक कलह ही बढ़ता है। परिवार के पालन करने लायक आय से, बच्चों का पेट काटकर इस मूढ़ता में फँसा दिया जाना बुद्धि संगत बात नहीं। यह हमारी बेटियों के अविवेक का ही लक्षण है।
आभूषण से स्त्रियाँ नहीं सजतीं, यदि ऐसा रहा होता और इसमें कुछ लाभ रहे होते तो हमारे पूर्व पुरुषों में भी इस प्रथा का प्रचलन रहा होता। साधारण मंगल आभूषणों के अतिरिक्त भारी सोने, चाँदी के जेवरों का प्रचलन हमारी अपनी संस्कृति में नहीं वरन् यवनों ने यह विकृति भारतीय जीवन में पैदा की है। वैदिक साहित्य में इस तरह के गहनों का कहीं चलन नहीं है। स्त्रियाँ सरल और स्वाभाविक शृंगार फूल और पत्तों से कर लेती थीं। उनमें वासना को बढ़ाने वाला कोई दोष नहीं होता था और न उससे सामाजिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था में किसी तरह की गड़बड़ी पैदा होती थी। स्त्रियाँ अपने गुणों से सजती हैं। मन की निर्मलता और स्वभाव की पवित्रता से ही सच्चा शृंगार होता है।
सच पूछा जाए तो नारी का सतीत्व ही वह आभूषण है जिसके द्वारा वे अपने पतियों को अपना आज्ञानुवर्ती बनाए रख सकती हैं। इससे वे समाज की भावी पीढ़ी, अपने बालकों का निर्माण अधिक पवित्रता, एकाग्रता एवं निपुणता के साथ कर सकती हैं। इस तरह वे अपने व्यक्तिगत कर्तव्यों का यथाविधि पालन करती रह सकती हैं।
पुरुष वर्ग यदि आभूषणों की चिन्ता से मुक्त किया जा सके तो उसकी कार्यक्षमता बढ़ सकती है और रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठ सकता है। लज्जा और विनय भारत की देवियों के आभूषण कहे गए हैं। यह उनके गुण विकास की दृष्टि से ही कहा जाता है। कोई भी गुणशील स्त्री अपनी गृहस्थी को अधिक संयत और सुखी रख सकती है। वेद नियन्ता का आदेश है— अधीर चक्षुरपतिघ्नी-स्योना शरमा-सुशेवा-सुयमा गृहेभ्यः। वीर सूर्देवकार्मासं त्वयैधिषीमहि सुमनस्य माना ॥ —अथर्व १४/२/१७
"हे वधू ! तू प्रियदर्शिनी होकर शुद्ध अन्तःकरण से परिवारीजनों का हित कर। इससे घर में सुख और सम्पत्ति की वृद्धि होगी।"
हमारी सन्तानें ज्ञानवान, धैर्यवान, धनवान और शक्ति सम्पन्न बनें इसके लिए स्त्रियों का जीवन विलासिता की सामग्री से नहीं, गुण और कष्ट सहिष्णुता से ओत-प्रोत होना चाहिए। स्त्रियाँ शिक्षित हों, विचारवान हों तभी उनसे राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रमों में सहयोग की आशा की जा सकती है। इसके लिए सर्वप्रमुख आवश्यकता तो यही है कि वे ऐसी संकीर्ण विचार धाराओं से उन्मुक्त हों और कर्तव्य पालन की ओर उनका ध्यान अधिक से अधिक रहे। कर्तव्य में वह सारे उत्तरदायित्व आ जाते हैं जिनका पारिवारिक सुव्यवस्था से सम्बन्ध है | पर आभूषणों से अधिक लगाव होना यह एक ऐसी समस्या है, जिसमें शेष सभी क्षेत्रों पर कुप्रभाव पड़ता है। अर्थ व्यवस्था में ही नहीं, मनुष्य का नैतिक जीवन भी इस कुरीति के कारण विकृत हुए बिना नहीं रहता। समाज और राष्ट्र की व्यवस्था में गड़बड़ी ही उत्पन्न होती है।
नारी जाति स्नेह और सौजन्य की देवी है, वह पुरुष की निर्मात्री है। किसी भी राष्ट्र का उदय नारी जाति के उत्थान से ही होता है, इसलिए अब इस कुरीति का उन्मूलन कर उन्हें निर्माण क्षेत्र में आगे बढ़ाने की बड़ी तीव्र आवश्यकता अनुभव की जा रही है। पर इसमें कोई बाह्य हस्तक्षेप कारगर नहीं हो सकता। इस कुरीति को कोई दूसरा नहीं दूर कर सकता। जेवर और गहनों के प्रति अरुचि उनमें समझ उत्पन्न करने से ही हो सकती है। विचारवान स्त्रियों को स्वयं ही इस दिशा में कुछ करने के लिए प्रोत्साहन मिलना चाहिए। जिनकी समझ में आभूषणों की निरर्थकता की बात आ जाए तो उन्हें इस शिक्षा का प्रसार तेजी से करना चाहिए।
यह युग हमारे विकास का युग है। राजनैतिक स्वाधीनता मिले हुए हमें काफी दिन हो गए पर परम्परागत कुरीतियाँ अभी ज्यों की त्यों हैं। इन्हें दूर करने से ही अपनी सर्वांगीण उन्नति का द्वार खुल सकता है। यह शिक्षित नारियों के लिए आह्वान है कि वे भारतवर्ष के आर्थिक तथा नैतिक स्तर के विकास में अपना सहयोग दें। इस पुण्य कार्य के लिए सुवर्ण या रजत के आभूषणों की आवश्यकता नहीं, वरन् उन्हें गुणों से अलंकृत होना होगा। गुण ही नारी का सच्चा आभूषण हैं। शीलवान् किसी भी अलंकार से बढ़कर है। अब उन्हें ऐसे ही गहने ग्रहण करने चाहिए। शृंगारिकता को बढ़ाने वाले गहने छोड़कर पवित्रता की अभिवृद्धि में समर्थ आभूषणों को अपनाने की आवश्यकता है, क्योंकी नारी शृंगारिता नहीं, पवित्रता है।
नारियाँ गुण सौन्दर्य बढ़ाएँ, आभूषण नहीं
सुन्दर दीखने की आकांक्षा, गहराई से दूसरों का प्रेम प्राप्त करने, औरों का प्रिय बनने की लालसा से जन्मती है। इसके लिए अपने व्यक्तित्वों गुणों से सम्पन्न और चरित्र को नैतिक आदतों से सँवारने का मार्ग ही सही मार्ग है। फैशन और शृंगार के द्वारा अपने आपको सजाने की मनोवृत्ति तो चिन्तन के उथलेपन और दृष्टिकोण के छिछोरेपन की ही परिचायक है। यह स्थिति उस बिन्दु पर जाकर और भी भयंकर भीषण हो जाती है जब हम नारी के लिए सुन्दरता की भिन्न-भिन्न कसौटियाँ निर्धारित कर लेते हैं और उन कसौटियों को ही सुन्दरता का प्रतीक मानकर उसके शरीर में आकर्षण की खोज करते हैं। स्पष्ट है उस स्तर की मान्यताएँ नारी को विलासिनी, भोग्या और रमणी समझने की हीन मनोवृत्ति से उत्पन्न होती हैं। इसी कारण अब तक हम अपनी आकांक्षा और वासना के अनुरूप सुन्दर नारी की कल्पना करते हैं |
मनोरंजन के लिए अतिथि कक्ष में बिछाए गए खिलौना और तराशी हुई मूर्तियों की तरह नारी को भी काटने, छाँटने और मनोरंजन का साधन बनाने के लिए उस पर कई तरह के अत्याचार किए गए हैं। सदियों से व्यवहार में लाई गई इन मान्यताओं के कारण स्वयं स्त्रियों के स्वभाव में भी आकर्षक दीखने की आकांक्षा सम्मिलित हो गई और वे उत्साहपूर्वक निर्धारित पात्रता के अनुरूप स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए प्रस्तुत रहने लगीं। भले ही इसके लिए उन्हें कितना ही कष्ट क्यों न सहना पड़ता हो।
सद्गुणों से सम्पन्न गृहिणी, वात्सल्य भाव से पूरित हृदय की स्वामिनी और सेवा परायण पत्नी की सभी विशेषताएँ पीछे छूट गयीं और सुन्दरता-आकर्षक शरीर ही उन सब विशेषताओं की तुलना में वजनदार हो गया। कल्पनाएँ सभी की एक सी तो नहीं होती, आकर्षण भी सभी का एक ही नहीं रहता इसलिए सुन्दर शरीर के भी भिन्न-भिन्न मापदण्ड बने और उन मापदण्डों पर खरा उतारने के लिए शरीर को अलग-अलग ढंग से काटा-तराशा जाने लगा। इसमें स्त्रियों को कितनी पीड़ा होती है। मानवीय सम्वेदनाएँ यहाँ मौन हो गईं और प्रधानता सौन्दर्य के काल्पनिक, मापदण्डों पर खरा सिद्ध होने को ही दी जाने लगी। उदाहरण के लिए चीन में किसी जमाने में लड़कियों को बचपन से ही पाँवों में लोहे की जूतियाँ पहना दी जाती थीं। परन्तु पाँवों में लोहे के जूते कसे रहने के कारण उनके पाँवों में अपार पीड़ा होती थी और उनका एक कदम भी चलना कठिन हो जाता था। इसका एक ही कारण रहा कि चीन में जिस स्त्री के पाँव जितने छोटे होते थे उसे उतना ही सुन्दर माना जाता था।
वर्मा की एक पहाड़ी जाति पड़ांग में आज भी लम्बी गरदन को सुन्दर माना जाता है। जिसकी गरदन जितनी लम्बी वह उतना ही सुन्दर। इसके लिए गले में एक के ऊपर अनेक पीतल के कड़े पहना दिए जाते हैं। ज्यों-ज्यों लड़की आयु के साथ-साथ बड़ी होती जाती है त्यों-त्यों उसके गले में कड़ों की संख्या भी बढ़ा दी जाती है ताकि इसकी गरदन और लम्बी हो जाए। कोई स्त्री तो इस प्रकार पूर्ण यौवन प्राप्त करने तक लगभग ३०-३० कड़े पहन लेती है।
मलेशिया के उत्तर में फैले कई छोटे-छोटे द्वीपों के समूह को साइक्रोनेशिया कहा जाता है। वहाँ की आदिम जातियों में लम्बे कान सुन्दरता के प्रतीक समझे जाते हैं। सुन्दर दिखाई देने के लिए वहाँ के लोग कानों में छेद करवा कर उनमें वजनदार बालियाँ पहन लेते हैं। इससे उनके कानों का नीचे वाला हिस्सा लटक कर गरदन तक आ जाता है। कई स्त्रियाँ तो एक किलो वजन की बालियाँ पहनती हैं।
इसी प्रकार अफ्रीका की आदिम जातियों में लम्बे और मोटे होंठ सुन्दरता के प्रतीक समझे जाते हैं। वहाँ लड़कियाँ चार-पाँच वर्ष की होते ही अपने दोनों होठों को कील से छिदवा लेती हैं। फिर उनमें लकड़ी के गोल टुकड़े फँसा दिए जाते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे लकड़ी के गोल टुकड़ों का आकार भी बढ़ाया जाता रहता है। इस प्रकार उनके होंठ इतने लम्बे हो जाते हैं कि वे तरल पदार्थों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खा सकतीं। किन्हीं-किन्हीं क्षेत्रों में तो बच्चों के होठों से भारी-भारी चीजें लटका दी जाती हैं ताकि होंठ खिंचकर बड़े होते रहें। कई बेचारे बच्चों की तो जान भी उसमें चली जाती है।
छोटे पैर, लम्बी गरदन, लम्बे होंठ और लम्बे कान को सुन्दर मानने के अलावा कई स्थानों पर चौड़ा और चपटा सिर सुन्दर माना जाता है। मलेशिया के निवासियों की मान्यता है कि जिस स्त्री का सिर जितना चौड़ा और जितना चपटा होगा वह उतनी ही सुन्दर और भाग्यशाली है। इसलिए माँ- बाप जन्म होते ही लड़की को सुन्दर और भाग्यवान बनाने का प्रयत्न करने लगते हैं। लड़की का जन्म होते ही उसका सिर पानी में भीगे कपड़े से तब तक बार-बार दबाते रहते हैं जब कि चपटा होकर गरदन के बराबर नहीं हो जाता। इसके बाद लड़की के सिर में लोहे का एक पहिया फँसा दिया जाता है। पंद्रह वर्ष की आयु तक उसे अपने सिर में यह पहिया फँसाए रखना पड़ता है। तब तक बेचारी लड़की असह्य वेदना भोगती रहती है। उसे निकाला भी नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी मलेशियाई युवक ऐसी लड़की से शादी करना पसन्द नहीं करता जिसका सिर चपटा और चौड़ा न हो। मलेशिया के पश्चिम में बसे पोलेनेशिया में तो सिर को चौड़ा और चपटा करने के लिए बच्चे के सिर को आगे-पीछे दोनों ओर लकड़ी या पत्थर के टुकड़े लगाकर धीरे-धीरे दबाया जाता है। यह उपचार इस ढंग से किया जाता है कि बच्चे को प्राण संकट में भी न हो और उसका सिर भी चौड़ा हो जाए।
हमारे यहाँ और अन्य देशों में सुन्दर, स्वच्छ पंक्तिबद्ध दाँत सुन्दर माने जाते हैं, पर आस्ट्रेलिया की आदिम जाति के लोग दाँतों को कुरूपता की निशानी समझते हैं। वहाँ की स्त्रियों के दाँत महज इसलिए तोड़ दिए जाते हैं कि वे सुन्दर लगें। अब वहाँ कोई डेण्टिस्ट या दाँतों का डाक्टर तो होता नहीं जिनसे दाँत उखड़वाए जा सकें। हों भी तो परम्परा का तकाजा उनसे दाँत उखड़वाने की अनुमति नहीं देता। अतः दन्तहीन पोपला मुख प्राप्त करने के लिए बड़ा कष्टकर उपाय किया जाता है। लड़कियाँ शैशव और किशोरावस्था पार कर जैसे ही जवानी में कदम रखती हैं वैसे ही उनके दाँत की ठोक-पीट शुरू कर दी जाती है। पहले छड़ी से मार-मार कर दाँतों की जड़ें ढीली की जाती हैं और फिर पत्थर के टुकड़े ठोक-ठोक कर उन्हें उखाड़ दिया जाता है।
इस क्षेत्र में तो फिर भी कुछ युवतियाँ दाँत उखाड़ने में होने वाले कष्ट को न सह पाने के कारण इस परम्परा का पालन नहीं करती परन्तु इण्डोनेशिया के सैलोबीज द्वीप में इसके बिना युवतियों का कोई उपाय ही नहीं। कारण कि वहाँ की जातियों में यह धारणा प्रचलित है कि जो स्त्री अपने दाँत नहीं तोड़ेगी वह अपने पति को खा जाने के लिए दाँत रखती है। वहाँ के युवक भी किसी ऐसी युवती के लिए मिले विवाह प्रस्ताव पर विचार ही नहीं करते जिसने अपने दाँत न तोड़ लिए हों, वहाँ की सरकार ने इस प्रथा को रोकने के लिए कानून भी बनाया है, पर कानून से तो अपने यहाँ भी बाल विवाह निषिद्ध हैं इससे क्या बाल विवाह रुक गए?
फिलीपीन्स में तो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही दाँतों का प्राकृतिक रूप में होना कुरूप होना समझा जाता है। वहाँ के लोग रेती से घिस-घिस कर अपने दाँतों को नुकीला बना लेते हैं। वहाँ की इगरोट जाति में यह रिवाज इसी प्रकार प्रचलित है जैसे कि हमारे यहाँ की कई जातियों में गोदना गुदवाने का रिवाज। यही नहीं इगरोट जाति के लोग अपने दाँतों को नुकीला करने के साथ-साथ एक विशेष विधि से उन्हें काला भी कर लेते हैं। उनका विश्वास है कि दाँत यदि काले हों तो सुन्दरता में चार चाँद लग जाते हैं।
पूर्वी अफ्रीका में रहने वाली उकम्बा जाति की स्त्रियाँ तो अपने आगे के दाँत घिस कर सिर मुड़ा लेती हैं। यद्यपि कई देशों में लम्बे और घने केशों का होना सुन्दर समझा जाता है उन देशों के लोग जब उकम्बा जाति में प्रचलित परम्परा के बारे में सुनते होंगे तो वहाँ के निवासियों को बुद्धू समझते होंगे। वास्तव में गलत कौन है, कहना कठिन है।
भारत की नई आदिवासी और पिछड़ी जातियों में गोदना गुदवाने तथा शरीर पर तरह-तरह की चित्रकारी कराने की परम्परा है। इसके पीछे यह विश्वास किया जाता है कि गुदवाने या चित्र काढ़ने में सुन्दरता का आकर्षण और बढ़ जाता है। पता नहीं यह सच है अथवा झूठ परन्तु गुदवाते समय सुई की नुकीली धार जब शरीर के अंगों को खरोंचती हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि उससे कितनी पीड़ा होती है। अफ्रीका की कुछ जातियाँ तो मात्र सुई से ही अपने शरीर पर तरह तरह की आकृतियाँ काढ़ती हैं बल्कि शरीर को जगह-जगह से जला कर घाव कर लेती हैं | उन घावों के निशान शरीर की सुन्दरता का प्रमाण माने जाते हैं।
कुछ जातियों में विषैले पौधों का रस शरीर पर लगा कर घाव बना लिए जाते हैं। उनका विष जब शरीर पर अपना प्रभाव डालने लगता है तो बड़े-बड़े फफोले पड़ जाते हैं और ये फफोले शरीर पर अपनी स्थाई छाप छोड़ देते हैं। शरीर पर जब विष असर करने लगता तो उससे होने वाली पीड़ा के कारण स्त्रियाँ देर तक बुरी तरह छटपटाती रहती हैं।
इसी प्रकार सौन्दर्य वृद्धि के लिए गहनों का भी प्रयोग किया जाता है। ग्रामीण स्त्रियाँ अपने हाथ-पैरों में सेरों चाँदी लादे रहती हैं और उनके अनभ्यस्त हाथ-पाँव आरम्भ में महीनों तक दर्द से पके फोड़े की तरह चटखते रहते हैं। अपने देश में तो सोने, चाँदी के गहने पहने जाते हैं, पर एक देश है काँगो जहाँ की स्त्रियाँ अपने शरीर की चमड़ी को काट कर शरीर में ही आभूषण काढ़ती हैं। हाथ-पैरों में जगह-जगह चाकू से घाव कर दिए जाते हैं, घावों को उत्तेजक पदार्थों से महीनों तक हरा रखा जाता है। इस प्रकार काफी समय बाद कटा हुआ भाग शरीर पर उभर आता है और जीवन भर के लिए आभूषण बन जाता है।
सुन्दर दिखाई देने के लिए विदेशी जातियों में नारी की इस होने वाली निर्मम पीड़ा को हम तटस्थ भाव से नहीं देख सकते क्योंकि जितनी यंत्रणा उन देशों में स्त्रियों को झेलनी पड़ती है, हमारे देश की स्त्रियों पर भी उसकी तुलना में सौन्दर्य के लिए कम अत्याचार नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए गहने के ही प्रचलन को लें। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्त्रियों को बचपन से ही चाँदी के कड़े और हाथ में बाजूबन्द पहना दिए जाते हैं जिनके निशान उनके हाथ-पाँवों में पड़ जाते हैं। उन गाँव की किशोरियों को पाँवों में वजनदार चाँदी की बेड़ियाँ पहनने से कितना कष्ट होता है और चलने-फिरने में कितनी परेशानी होती है कहा नहीं जा सकता, कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है। नाक-कान छिदवाने का रिवाज तो शहरों में भी है। छोटी उमर में ही सुई से लड़कियों के कान, नाक छेद दिए जाते हैं और उनमें लौंग तथा तार डाल दिए जाते हैं। एक काँटा लगने पर भी असह्य वेदना होती है तो नाक और कान की चमड़ी से सुई को आर पार करने पर कितनी पीड़ा होती होगी और कभी खेल-खेल में किसी ने उन हिस्सों में पिरोए तार खींच दिए तो जीवन भर की मुसीबत। कई मर्तबा इनके घाव महीनों तक नहीं भरते।
और भी कई प्रकार के रीति रिवाज हैं, जिनका सम्बन्ध केवल स्त्री को सुन्दर और सुलक्षण बनाने में ही है। प्रकृति ने मनुष्य को सुन्दर शरीर दिया है उसे तोड़-फोड़ कर नहीं, स्वच्छ, स्वस्थ रख कर ही सुन्दर बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि इस विवेक को नहीं अपनाया जाता तो यही मानना पड़ेगा कि हम आधुनिक सभ्यता को प्रगतिशील समझने का भ्रम ही पाले हुए हैं। आधुनिक सभ्यता में तो शरीर को रंगने-पोतने के और भी भौंड़े रिवाज चल पड़े हैं। उनका भी कोई औचित्य समझ में नहीं आता। इन परम्पराओं और शृंगार मेकअप की रीतियों को विवेकशीलता के सन्दर्भ में देखा जाए तो यही कहना पड़ेगा कि नारी को हमने अब भी मानवी नहीं माना है। वरन उसे सजी-सँवरी और रंगी-पुती गुड़िया बनाकर उसे मनोरंजक खिलौना बनाने में ही हमारी रुचि व प्रवृत्ति रही है।
गाँधी जी कहा करते थे कि—"यदि मुझे स्त्री का जन्म मिलता तो मैं पुरुषों की इस झूठी धारणा के खिलाफ बगावत कर देता कि स्त्री उसका खिलौना है और उसे सुन्दर कपड़ों और बहुमूल्य गहनों से सजाया जाना उसका अधिकार है। मन से मैं स्त्री बनना चाहता हूँ ताकि स्त्रियों को यह बता सकूँ कि गहने तुम्हारे लिए काँटे का आटा है, जो पुरुष सदा से तुम्हें पकड़ने के लिए डालता आया है। चतुर मछली को इस काँटे से सदा दूर ही रहना चाहिए।"
सती, सीता, अनुसुइया, गार्गी आदि प्राचीन विदुषी महिलाओं के जितने भी चित्र देखने को मिलते हैं वे कहीं भी आभूषण पहने नहीं मिलती। सौन्दर्य सम्वर्धन की दृष्टि से यदि प्राचीनकाल में कुछ प्रयुक्त होता था तो वह पुष्प और लोंघादि पुष्पों का चूर्ण ही होता था जिसमें सुरुचि तो स्थिर रहती थी पर न तो कुछ अपव्यय होता था और न ही प्रदर्शन की मिथ्या भावना।
तारकेश्वरी सिन्हा तब वित्त मंत्री थीं। एक बार एक सभा में बोलते हुए उन्होंने बताया कि "भारतवर्ष में सोने के दाम अन्य देशों से दुगुने से भी अधिक मँहगे हैं। अनुमान है कि भारतीय स्त्रियों ने जितना सोना जेवर में फँसा रखा है उसका मूल्य ४००० करोड़ अर्थात् १० अरब रुपए के बराबर है। आज उसका मूल्य २० अरब होगा। तब से अब सोने के भाव दुगुने हो गए हैं यदि इस राशि का चौथाई हिस्सा भी स्त्रियाँ राष्ट्र को उधार दे दें तो उससे सेना के आधुनिक किस्म के युद्ध आयुधों के कारखाने खड़े किए जा सकते हैं। इतना ही नहीं २० वर्ष के बाद उन्होंने जितने मूल्य का सोना उधार दिया हो उससे दुगुना पैसा वापस भी ले सकती हैं।"
इस कथन से पता चलता है कि जेवरों में फँसी सपत्ति किस तरह राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था को पंगु बनाए हुए हैं। पुरुषों का उस ओर ध्यान न जाता हो तो न जाए पर स्त्रियों को इस राष्ट्रद्रोह और सामाजिक पातक से बचना चाहिए।
स्वच्छता भरी सादगी नारी का सर्वोपरि शृंगार है। औरंगजेब की पुत्री शाहजादी जेबुन्निसा का जीवन इन आडम्बरों से नितान्त मुक्त था। एक बार किसी ने उनसे पूछा—आप राजकुमारी हैं, आभूषण धारण क्यों नहीं करती?" उन्होंने कहा—"जेवो जीनत बस हमीरस्थ नामेमन जेवुन्निसा अर्थात् मैं चाहती हूँ कि मैं नारी जाति का आदर्श बनूँ। यही मेरा सर्वोपरि अपेक्षित आभूषण है।" यह आकांक्षा सदैव से भारतीय नारी की आवाज और आकांक्षा रही है। इसी से उसने संसार में यश कमाया और अपने बच्चों को यशस्वी बनाया है।
जेवर एक ओर शरीर पर भार पैदा करते हैं। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। दूसरी ओर चोर-उचक्कों को भी यही जन्म देते हैं। आए दिन चोरियाँ, डकैतियाँ, कत्ल, हत्याएँ होती रहती हैं, साथ ही टाँके-बट्टे में भी वह छीजता रहता है। यदि यह पैसा बैंक में जमा रहे तो कभी भी काम आ सकता है तथा दिनों-दिन बढ़ता भी है। इसमें तो सब प्रकार से घाटा ही घाटा, हानि ही हानि रहती है। एक समय था जब बैंकों का प्रचलन नहीं हुआ था। तब आभूषण स्त्री का शृंगार और पुरुष का आधार माने जाते थे। सोचा यह जाता था कि कभी किसी प्रकार का आड़ा वक्त आया तो वह कुटुम्ब को आजीविका पुनर्जीवित करने का आधार सिद्ध होगे। तब लोगों में आज की अपराध वृत्तियाँ नहीं थीं। देश सम्पन्न था। सम्भव है उस समय के विचारकों ने तब गहनों की प्रथा को उपयुक्त समझ कर इनका प्रचलन किया हो। पर अब सुरक्षा का खतरा भी है तथा अब सम्पत्ति की सुरक्षा हेतु बैंक जैसे प्रबन्ध भी हैं, तब फिर स्त्रियाँ शरीर पर व्यर्थ बोझ क्यों डालें? व्यर्थ में गहने क्यों पहनें? यह हमारी सामाजिक सुव्यवस्था, राष्ट्रीय विकास तथा नैतिकता के लिए अब परमावश्यक हो गया है कि स्त्रियाँ इस अवांछनीय परम्परा को रोकें और सम्पत्ति के सर्वनाश से देश को बचाएँ। जब तक जेवरों का प्रचलन बन्द नहीं होता तब तक नारी अपने को प्रगतिशील नहीं कहला सकती, यदि पुरुष उसे बड़प्पन का प्रतीक मानते हैं तो क्यों नहीं कुछ दिन तक वही जेवरों से अपने को सजाया करें ताकि वे स्त्रियों की दृष्टि में रबड़ के मुँह जैसे सुन्दर लगें। यदि जेवर ही सुन्दरता का चिह्न हैं तो फिर स्त्रियाँ ही गुड़ियों की तरह क्यों सजें, पुरुषों को भी उस तरह का सुन्दर बनने का अवसर क्यों न मिले?
शृंगारिकता के विकास से हानि पूरे समाज की
कोई भी स्थिति या अवस्था प्रत्यक्ष लाभदायक तथा उपयोगी सिद्ध होती हो और वह आसानी से बिना कुछ अधिक श्रम किए लाई जा सके, फिर भी उस ओर ध्यान न दिया जाता हो यह सबसे बड़ी मूर्खता होगी। उदाहरण के लिए घर में बने हुए शान्त और अच्छे वातावरण को केवल इस हठ के कारण नष्ट-भ्रष्ट किया जाए कि इससे घर वालों पर अपना रौब जमेगा तो यह अमृत में विष घोलने जैसी कुचेष्टा होगी। केवल रौब जमाने के लिए ठीक तरह से काम कर रहे घर के सदस्यों को तंग करना और वहाँ की शान्ति नष्ट करना—उद्दण्डता ही नहीं, व्यक्ति की विक्षिप्तता का भी परिचायक होगा। सब लोग इस तरह के विक्षिप्त न हों, पर नारी की जो स्थिति है, उसकी दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण दुर्दशा है, उसके कारणों पर विचार किया जाए तो तमाम पुरुषों पर इस तरह की कलंक-कालिमा पुती हुई है।
नारी की स्थिति दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं। दयनीय तो इसलिए कि उसे मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। पशुओं की तरह उसके गले में जंजीर, पाँवों में बेड़ियाँ और चारदीवारी में कैद रहने के प्रतिबन्ध हैं और दुर्भाग्य इसलिए कि सब तरह से उस पर लगे प्रतिबन्धों का अनौचित्य सिद्ध होने के बाद भी उन्हें स्वाभाविक ही समझा जाता रहा। सब जानते हैं कि नारी योग्यता, प्रतिभा, क्षमता और सामर्थ्य में पुरुष से किसी भी तरह उन्नीस नहीं है, फिर भी उसे घर तक ही सीमित रहने, बच्चे पैदा करने और घर की रखवाली करने भर के लिए उपयोगी समझा जाता है। इतिहास घटनाओं और विचारों में भी उसकी क्षमताओं का परिचय मिलने के बावजूद भी उसे न जाने क्यों विकसित नहीं होने दिया जाता। प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि नारी उसकी सहयोगी बनने के स्थान पर उसके लिए एक मनचाहा और दबाऊ बोझ ही सिद्ध होती है। पूछा जाना चाहिए कि सहयोगी को बोझ बना लेने के लिए जिम्मेदार कौन है? प्रायः लोग रटा-रटाया उत्तर देते हैं कि यह हमेशा से चला आ रहा है।
पहली बात तो यह है कि इस तरह के उत्तर में अपनी कमजोरियों को ही ढोया जाता है। अन्यथा प्राचीनकाल से यह स्थिति और परम्परा कदापि नहीं चली आ रही है। मान भी लें कि परम्परागत रूप में नारी का दर्शन इसी रूप में होता तो भी क्या हम प्राचीनकाल की सभी बातों को इसी कारण चलते रहने दे रहे हैं कि वे पुरानी हैं। आश्रम, धर्म, संस्कार, यज्ञ, कर्मकाण्ड, दान, समाज-व्यवस्था आदि के प्राचीन रूप अब लुप्त होते जा रहे हैं और लोग इसी में प्रगति का गौरव मानते हैं। प्राचीन होने की बात यहाँ तो आड़े नहीं आती, फिर नारी के सम्बन्ध में ही उसकी दुहाई क्यों दी जाने लगती है।
विवेक की दृष्टि से विचारपूर्वक देखा जाए तो असलियत कुछ और ही सामने आती है और सिद्ध होता है कि इस अति महत्त्वपूर्ण विषय को प्रत्येक वर्ग किसी न किसी स्वार्थ के कारण उपेक्षित किए हए है। उनमें सबसे बड़ा अहंकार ! यह तो सभी मानते हैं कि विचारशीलता जहाँ भी उत्पन्न होगी और विकास के चरण जहाँ भी बढ़ेंगे वहीं उचित को मानने और अनुचित को इन्कार करने की बात भी उत्पन्न होगी। नारी चूँकि अविकसित है इसलिए वह पुरुष की हर उचित-अनुचित बात को मान लेती है और इससे पुरुष का अहं तुष्ट होता चलता है। नारी यदि विकसित हो तो पुरुष अहंकार उसकी हर बात ज्यों की त्यों स्वीकार न करने के रूप में आहत हो सकता है और इस छोटी सी बात के लिए पुरुष वर्ग नारी को अविकसित ही देखना अधिक पसन्द करता है।
दीखने में यह बात भले ही छोटी सी लगती हो, पर अहंकार की भावना इतनी प्रबल और दुष्ट है कि वह बड़ी से बड़ी हानि की भी परवाह नहीं करती। रावण और कंस जैसे दैत्यों से लेकर चंगेजखाँ, मुहम्मद गोरी और हिटलर तक इतिहास के कलंकित व्यक्तियों ने केवल अहंकार के वशीभूत होकर बड़े-बड़े अत्याचार किए और उत्पात मचाए। इनका अहंकार विवेक को पूरी तरह समाप्त कर चुका था, पर सामान्य जन तो अहंकार की अपेक्षा लाभ और उपयोगिता के पक्ष को महत्त्व देते हैं। यदि विचारपूर्वक सोचें तो निश्चय ही उन्हें अपनी राजनीति में परिवर्तन करना पड़ेगा।
व्यक्तियों से ही वर्ग और समाज बनता है। पर समूह की दृष्टि से देखा जाए तो वहाँ अहंकार के अतिरिक्त स्वार्थ भी कारण रूप में विद्यमान मिलेगा। उदाहरण के लिए कलाकार इस स्वार्थ के कारण स्थिति को यथावत बनाए रखना चाहता है कि उसे नारी को अश्लील और भद्दे रूप में उभार कर व्यावसायिक लाभ कमाने की छूट मिले। लेखक, चित्रकार, मूर्ति-शिल्पकार, गायक और अभिनेता आदि सभी इस वर्ग में आ जाते हैं, जो नारी के शरीर को खिलौना बनाकर पेश करने में अपना लाभ देखते हैं और दोनों हाथों से धन बटोरने की सम्भावना भी। व्यापारियों को तो अपनी वस्तुओं के प्रचार का सस्ता उपाय मिल जाता है और अर्धनग्न देह के चित्रों सहित प्रचारित की जाने वाली वस्तुएँ लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं। समाज इसलिए चुप रहता है कि लोगों में असन्तोष की भावनाएँ वैसे भी बढ़ रही हैं, नारियों में जागृति आई तो वे भी अपनी स्थिति से असन्तुष्ट हो उठेंगी। यहाँ तक कि स्वयं नारियाँ भी इसी स्थिति में अपना भला देखती हैं। वे समझती हैं पिंजड़े में बन्द ही सही, पर निश्चिन्त तो रहती हैं। सारी जिम्मेदारियाँ, सारे उत्तरदायित्व और सभी बाहरी कार्य पुरुष निबटा लेता है। स्वयं की श्मशान शान्ति को क्यों भंग किया जाए और क्यों मुक्ति व जागरण की गुहार मचाई जाए।
जो भी हो, समाज का हर वर्ग चाहे पुरुष हो, चाहे स्त्री; चाहे व्यापारी हो, नौकर-पेशा, चाहे लेखक हो, चाहे चित्रकार इस विडम्बना को यथावत् चलने देने में ही अपना स्वार्थ अनुभव करते हैं। अपने अहं को तुष्ट करने की यह स्थिति बदली जानी चाहिए तथा नारी की क्षमता और शक्ति का उपयोग समाज को आगे बढ़ाने में करना चाहिए।
कहा जाता है कि नारी का प्रधान कार्यक्षेत्र घर और पुरुष का बाहर है। पर यह कोई "लक्ष्मण रेखा" नहीं है, न ही इसमें नारी को बन्धनों से जकड़ने की गुंजाइश। सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से ही वह कार्यक्षेत्र का विभाजन किया गया है। आवश्यकता पड़ने पर पुरुष भी घर का काम कर सकते हैं और स्त्रियाँ भी आजीविका उपार्जन में लग सकती हैं। लेकिन दोनों ही वर्गों के लिए एक-दूसरे के काम में हाथ बँटाना अशोभनीय और लज्जाजनक सा समझा जाता है। घरेलू नौकर के रूप में भोजन बनाने, बर्तन साफ करने तथा बच्चों को खिलाने वाले पुरुषों की बात जाने भी दें तो भी सामान्य व्यक्ति पत्नी की हारी-बीमारी में घर का काम करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। बात यह नहीं है कि काम बुरा है, पर पुरुष के मन में नारी के प्रति हीन दृष्टिकोण जमा हुआ है, इसलिए उसके काम भी छोटे दिखाई देते हैं और इसी कारण कई असुविधाएँ होने के बावजूद भी पुरुष घरेलू काम करने से कतराते दिखाई देते हैं।
इसी प्रकार आवश्यकता या किन्हीं कारणों से महिलाएँ जब घर से बाहर कदम निकालती और पुरुष के कार्यक्षेत्र में पदार्पण करती हैं तो भी उन्हें उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। लोग कहने लगते हैं—आज के जमाने में महिलाएँ पुरुषों की प्रतिद्वन्द्वी बन गई हैं और इन्हें पीछे खींचना चाहती हैं। जिन महिलाओं में वस्तुतः इस तरह की मनोवृत्ति हो—उसकी बात अलग हो पर विवशता या आवश्यकता की दृष्टि से जो स्त्रियाँ स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न कर रही हों, उन्हें निरुत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। न ही यह सोचना चाहिए कि यह कार्य केवल पुरुषों की जायदाद है और स्त्रियों में नाम मात्र की भी प्रतिभा-योग्यता नहीं है। वे स्वावलम्बी हो ही नहीं सकतीं। दासयुग की इस बड़ी मान्यता ने समाज को बड़ी हानि पहुँचाई है। जब नारी को अयोग्य, निर्बल, आश्रित और असमर्थ मान लिया गया हो अथवा बना दिया गया हो तो अवरोध न केवल नारी के आगे बढ़ने में उत्पन्न होगा वरन् उसका असर समूचे समाज पर पड़ेगा। बोझ, भार से लगाकर पंगुता का अभिशाप केवल नारी को ही नहीं, पूरे समाज को, जिसमें पुरुष वर्ग भी आ जाता है—उसे ही भोगना पड़ेगा। यह छोटा सा उदाहरण लिया जाए। बाजार से घरेलू उपयोग का, रोजमर्रा का सामान साग-सब्जियाँ मसाले आदि स्त्रियाँ खरीदकर ला सकती हैं, पर परम्परागत रूप से पर्दा रखने वाले परिवारों में यह काम पुरुषों को ही करना पड़ता है। एक तो अधिक कोई काम न होने से महिलाएँ खाली रहती हैं, उनका भी समय नष्ट होता है | दूसरे पुरुष को उपार्जन के अतिरिक्त बाहर से आवश्यक सामान लाने में भी अपना समय खपाना पड़ता है | बर्बादी दोनों के ही समय की होती है और कारण इतना मात्र कि स्त्रियाँ घर से बाहर नहीं निकल सकती, चूँकि इसी में वहाँ कुलीनता सुरक्षित समझी जाती है।
इसी प्रकार सुशिक्षित और योग्य महिलाएँ चाहें तो अपने बच्चों को स्वयं पढ़ा सकती हैं। उनकी ठीक प्रकार से देख-रेख कर सकती हैं। पर कन्या शिक्षा को अनावश्यक समझने के कारण अधिकांश घरों में स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी नहीं रहतीं। घर का काम-काज और बच्चों की देखभाल तो वे कर लेती हैं, पर निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि उनके इन कार्यों में अभीष्ट दक्षता परिलक्षित होती होगी या बच्चों के पालन पोषण के साथ साथ उनके निर्माण की आवश्यकता भी पूरी हो जाती होगी।
स्त्रियों में योग्यता का अभाव इन विडम्बनाओं का कारण नहीं है। स्त्रियाँ योग्य हैं और पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर वे समाज निर्माण तथा राष्ट्र निर्माण के कार्य में भाग ले सकती हैं। तथ्यों पर दृष्टिपात किया जाए तो इतिहास में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं ने ही अधिक उल्लेखनीय कार्य किया। स्वतंत्र रूप से तो वे अपनी प्रतिभा तथा क्षमता का उपयोग करती ही रही हैं, युग की दिशा को मोड़ने वाले महापुरुषों के निर्माण का श्रेय भी उनकी माताओं को दिया जाता है और उन महामानवों की अपेक्षा उनकी माताओं को ही अधिक प्रशंसा योग्य पाया जाता है।
सामाजिक दृष्टि से भी देखें तो मालूम पड़ेगा कि जिन देशों में स्त्रियों को मनुष्योचित अधिकार मिले हुए हैं, वे वहाँ पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में लगी हुई हैं और उनमें भी कुछ क्षेत्र स्वयं महिलाओं ने सँभाल कर पुरुषों को राष्ट्र के अन्य मोर्चों पर निश्चिन्ततापूर्वक काम करने जैसी परिस्थितियाँ बना दी हैं। यूगोस्लावाकिया की महिलाएँ उस देश की कृषि व्यवस्था सँभालती हैं और पुरुष कारखाने, दफ्तर, फौज का काम देखते हैं, उन्हें खेती या पशु पालन जैसे काम देखने की जरा भी जरूरत नहीं पड़ती। इसी प्रकार, रूस, चीन, आदि देशों में महिलाएँ राष्ट्रीय सम्पदा बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। रूस में शिक्षा व्यवस्था अधिकांशतः महिलाओं द्वारा ही संचालित की जाती है। स्कूलों, अस्पतालों एवं स्वास्थ्य संस्थानों में पुरुषों की संख्या बहुत कम रहती है। जापान की महिलाएँ घरेलू उद्योग धन्धों का विकास करने में पुरुषों से एक कदम भी पीछे नहीं हैं। वे जापानी अर्थ-व्यवस्था की इस रीढ़ को मजबूत बनाने में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संलग्न हैं। जर्मनी में भी कल कारखानों को सँभालने के लिए महिलाएँ पुरुषों, इंजीनियरों, व्यवस्थापकों और कारीगरों के समान ही योग्य सिद्ध हो रही हैं। कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में दुकानें चलाने और उत्पादन की विक्रय व्यवस्था के लिए महिलाएँ पुरुषों से कम योग्य सिद्ध नहीं हुई हैं।
दूर क्यों ! अपने ही देश के उन प्रान्तों तथा क्षेत्रों में जहाँ महिलाओं पर अपेक्षाकृत कम प्रतिबन्ध हैं, महिलाओं की योग्यता का लाभ पूरे परिवार को ही नहीं, समाज को भी सम्पन्नता, समृद्धि और विकास के रूप में मिले हैं। कहने का अर्थ यह है कि अहंकार या स्वार्थपरता के कारण नारी के विकास में रुकावटें डालना अनुपयुक्त है, अनुचित है। यह बात पूरे समाज को नोट कर लेनी चाहिए कि नारी को साथ लिए बिना नर रंच मात्र भी आगे नहीं बढ़ सकता, न समाज ही प्रगति कर सकता है।
जो समाज नारी को मानवी के रूप में अन्तःकरण में नहीं पहचानता, जो नारी के लिए व्यक्तित्व व आन्तरिक सौन्दर्य आवश्यक नहीं मानता जो पुरुषों के लिए माना जाता है, उस समाज की नारी ही पिछड़ी रहती है, ऐसा नहीं है। नारी को शृंगारिकता का प्रतीक बना डालने वाली मानसिकता जिन पुरुषों में होगी उसके व्यक्तित्व में स्वयं भी सच्ची सुन्दरता, शालीनता और पवित्रता का कितना अंश हो सकता है। यह केवल विचार भर की बात नहीं है वरन् आए दिन की सामान्य सामाजिकतानुभूति है कि ऐसे पुरुष शृंगारिकता के प्रति सम्मोहित रहकर स्वयं की भी शील, सम्पत्ति, संयम, सज्जनता बड़ी सीमा तक गँवाते रहते हैं।
अतः इस तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि यदि जीवन में प्रगति एवं विकास के लिए शृंगारित उत्तेजना या शारीरिक आकर्षण में क्षमता को बढ़ाना ही पर्याप्त माना जाता है, तभी नारी को शृंगार प्रसाधन बना डालने की प्रवृत्ति ठीक हो सकती है। यह सर्वविदित है कि वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। प्रगति के लिए व्यक्तित्व की वास्तविक क्षमताएँ, योग्यताएँ बढ़ानी होती हैं और कोई भी उपाय नहीं है। इस स्थिति में सम्पूर्ण समाज की सामूहिक प्रगति के लिए नारी की भी योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए उसे शृंगारिकता भर का प्रशिक्षण देने से लाभ नहीं, हानि ही हैं।
केवल पुरुषों के सुयोग्य बन जाने से कोई भी काम नहीं चल सकता। उसका अपना पारिवारिक जीवन तक सुरम्य एवं सुरुचिपूर्ण नहीं रह सकता। तब सामाजिक जीवन की सुचारुता की सम्भावना कैसे की जा सकती है? पुरुष अपनी योग्यता से जो कुछ सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ पैदा करेगा उसे घर की गँवार नारी बिगाड़ देगी। किसी गाड़ी की समगति के लिए जिस प्रकार उनके दोनों पहियों का समान होना आवश्यक है। उसी प्रकार क्या पारिवारिक और क्या सामाजिक, दोनों जीवनों के लिए नारी-पुरुष का समान रूप से सुयोग्य होना आवश्यक है।
किसी भी समाज, देश अथवा राष्ट्र की उन्नति तभी सम्भव है जब उसमें शिक्षा, उद्योग, परिश्रम, पुरुषार्थ जैसे गुणों का विकास हो। इन गुणों के अभाव में कोई भी देश अथवा समाज उन्नति नहीं कर सकता। यदि इन गुणों को केवल पुरुष वर्ग में ही विकसित करके नारी को अज्ञानावस्था में ही छोड़ दिया जाएगा तो केवल पुरुष का गुणी होना किसी राष्ट्र अथवा समाज की उन्नति का हेतु नहीं बन सकता। पुरुष प्रगतिशील हो और नारी प्रतिगामिनी, पुरुष बुद्धिमान हो और नारी मूर्खा, तो भला किसी समाज, राष्ट्र अथवा परिवार का काम सुचारु रूप से किस प्रकार चल सकता है और जिन समाजों में ऐसा होता है वे समस्त संसार में पिछड़े हुए ही रह जाते हैं। जिन परिवारों में पुरुष बुद्धिमान, विचारशील और विद्वान रहे हैं और नारी अशिक्षित और गँवार रही हैं, उन परिवारों की सुख-शान्ति कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकती। स्त्री-पुरुष के सम्मिलित प्रयास से बने परिवार एवं समाज की उन्नति एवं सुख-शान्ति तभी सुरक्षित रह सकती है, जब उसके दोनों घटक समान रूप से कर्तव्यनिष्ठ हों। ऐसे कलहपूर्ण परिवारों की समाज में आज भी कमी नहीं है जिनके पुरुष वर्ग बड़े ही विद्वान एवं कर्तव्य परायण हैं | टालस्टाय, गोर्की, अब्राहम लिंकन, सुकरात आदि न जाने संसार के कितने विद्वान महापुरुषों के पारिवारिक जीवन केवल अशिक्षित एवं कर्तव्य ज्ञान से शून्य नारियों के कारण ही नरक बने रहे।
बड़े-बड़े सम्पन्न और उन्नत परिवार केवल घर की मूर्ख नारियों के कारण बर्बाद हुए हैं और होते रहते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में नारी का एक महत्त्वपूर्ण एवं अडिग, अक्षय तथा अनिवार्य स्थान है। उसे जीवन से हटाकर संसार का काम चलाया ही नहीं जा सकता। ऐसी दशा में जब अशिक्षित, मूर्ख एवं कर्तव्यहीन नारियों की बहुतायत होगी तो उनको ही उनके आवश्यक स्थान पर लाना पड़ेगा। ऐसी दशा में कलह का जो सुनिश्चित परिणाम होता है, वह होगा ही। इसके विपरीत जब योग्य नारियाँ समाज में अपना स्थान ग्रहण करेगीं तब क्लेश-कलह का प्रश्न ही नहीं उठता।
समाज में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान है | सन्तान रचना से लेकर पुरुष का आश्रय स्थान और घर की सुख-शान्ति बहुत कुछ नारी पर ही निर्भर करती है और पारिवारिक सुख-शान्ति पर ही पुरुष का विकास निर्भर करता है। इसलिए इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण स्थान की पूर्ति सुयोग्य नारी द्वारा ही होनी आवश्यक है।
सम्पन्नता की परिस्थिति में जब अयोग्य नारी जीवन को कण्टकाकीर्ण बना देती है तब विपत्ति और विपन्नता के समय वह पुरुष का क्या हाथ बँटा सकती है? उस समय तो वह और भी एक भारी विपत्ति बन जाती है।
मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों के समय यही तो हुआ। उस समय नारियाँ अन्त:पुर की शोभा बनी हुई घर में बन्द रहा करती थीं। वे समय की गतिविधि से एकदम अपरिचित यहाँ तक कि द्वार पर आई हुई विपत्ति के समय भी उससे अनभिज्ञ रहा करती थीं। आपत्ति के समय होना तो यही चाहिए कि बढ़कर उससे मोर्चा लिया जाए। साहस बुद्धिमत्तापूर्वक उसका मुकाबला किया जाए, किन्तु होता यह था कि किसी आक्रमण अथवा विपत्ति का अवसर आने पर वे आत्मघात करके अपनी इज्जत बचाती थीं।
इसके विपरीत यदि शिक्षा एवं सामाजिकता के साथ नारी का ठीक-ठीक विकास किया जाता रहा होता तो वह भी हर आपत्ति की सम्भावना से परिचित रहती, उससे बचने और उसका प्रतिकार करने के योग्य होती। तब पुरुष को शत्रु से लड़ने और नारी की रक्षा करने का दोहरा दायित्व न निभाना पड़ता। उसकी शक्ति दो भागों में बँट कर केवल शत्रु से लोहा लेने में ही लगती और तब ऐसी दशा में दुश्मन की दाल इतनी आसानी से नहीं गल पाती। बुद्धिमती एवं वीर नारियाँ न केवल अपनी ही रक्षा में समर्थ रहतीं, बल्कि पुरुष का भी साहस बढ़ाती और हाथ बँटातीं। मध्ययुग के राजपूत काल में एक से एक वीर योद्धा और बलिदानी हुए हैं, जिनके तलवार के जौहर और साहस के कार्य आज तक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं। इसका एक मात्र कारण यही था कि उस समय माताएँ अपने पुत्रों को पालने में ही वीरता एवं बलिदान का पाठ पढ़ाया करती थीं। यही कारण था कि माता के पाए संस्कारों के बल पर एक-एक राजपूत योद्धा सैकड़ों शत्रुओं से जूझ जाया करता था। किन्तु उस समय माताओं का यह पाठ परम्परा की तरह ही था। सन्तान को मरने-जूझने की शिक्षा देने की एक प्रथा सी बनी हुई थी। माताएँ केवल यही एक मंत्र जानती थीं। इस परम्परागत पाठ के स्थान पर यदि वे ठीक-ठीक शिक्षित, सावधान और समय व समाज की गतिविधि परख सकने योग्य रही होतीं तो वे अपनी सन्तान को देश-काल के अनुसार वीरता और उत्कृष्टता दोनों गुणों की शिक्षा दे सकतीं। जहाँ वे शत्रु से जूझने का मंत्र सन्तानों के संस्कारों में फूँकतीं, वहाँ आपस में संगठित रहने, सहिष्णु बनने और मिलजुलकर काम करने, सुरा-सुन्दरी से बचे रहने, क्रूर और नृशंस न बनने का भी पाठ पढ़ातीं किन्तु ऐसा न हो सका। माताओं के पास विद्या की कमी होने से उनमें प्रत्युत्पन्न बुद्धि की सदैव कमी रही। इस प्रथा के अनुसार वे सन्तान को वीर तो अवश्य बना सकीं, किन्तु मानवीय उत्कृष्टता, महापुरुषों जैसी प्रतिभा उत्पन्न न कर सकीं। देश, काल तथा समाज व राष्ट्र की परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं का ज्ञान तो तभी हो सकता था, जब उमका ठीक-ठीक मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता और यह तभी सम्भव था जब उनको शिक्षा एवं सामाजिकता के अधिकार देकर इस योग्य बनाया गया होता।
आज का संसार पहले से भी भयानक हो गया है। हर समाज एवं राष्ट्र अपनी सुरक्षा एवं स्वतंत्रता के लिए जी-जान से जुटा हुआ है। ऐसी दशा में यदि भारतीय समाज ने अपने नारी वर्ग को समयानुकूल विकसित एवं जागरूक न किया तो किसी समय राष्ट्रीय आपत्तिकाल में उनसे सहायता, सहयोग मिलना तो दूर उनकी चेतना शून्यता एक दूसरी विपत्ति बन जाएगी। यदि राष्ट्रीय उत्थान कार्य में योग्य बनाकर नारी को भी संलग्न किया जाए तो राष्ट्र की प्रगति तो दोहरी हो ही जाएगी साथ ही वर्तमान एवं भविष्य दोनों सुरक्षित एवं निरापद बन जाएँगे।
किन्तु यदि उसे शृंगार-सज्जा और मन बहलाव का साधन बनने का ही प्रशिक्षण दिया जाता रहा, तो पूरे समाज का पतन सुनिश्चित है। प्रगति चाहने वाले समाज में नारी सौन्दर्य के प्रति सच्ची दृष्टि का विकास आवश्यक है। उसकी शृंगारिकता नहीं, पवित्रता उभारने को महत्त्व दिया जाना चाहिए। विज्ञापनों तथा प्रचार माध्यमों द्वारा भी नारी में पवित्रता की ही भावनाओं का उत्कर्ष करने की आवश्यकता है। वर्तमान का अश्लीलता विस्तार का क्रम रोका जाना चाहिए। तभी समाज में गतिशीलता आएगी।
विज्ञापनों की अश्लीलता : मातृ सत्ता का अपमान
अधर में लटके हुए नक्षत्रों में चुम्बकीय गुरुत्वाकर्षण काम कहीं कर रहा होता तो सृष्टि न जाने कब परस्पर टकराकर नष्ट-भ्रष्ट हो गई होती। ठीक वैसा ही चुम्बकत्व नारी के सौन्दर्य में होता है, जो मनुष्य की कोमल भावनाओं को क्रियाशील रखता है। सामाजिक जीवन में जो कुछ भी व्यवस्था स्थिर है, वह उसी सम्वेदना का परिणाम है। इस सौन्दर्य में ही मानवीय सत्ता को कर्तव्य बोध कराया, उसे करुणा प्रदान की, उपकार करना सिखाया और उसे वह गौरव प्रदान किया जो सृष्टि के किसी अन्य प्राणी को प्राप्त नहीं।
अपने इस रूप में सौन्दर्य उपासना की वस्तु है, उपेक्षा और अवज्ञा की नहीं। वह जीवन का ईश्वरीय तत्त्व है। उसके प्रति पवित्र दृष्टि की निष्कलुष आचरण की अपेक्षा रहती है, अनादर और अपमान की नहीं। भगवान की मूर्ति सुसज्जित उपासना गृह में पूजित और प्रतिष्ठित रखी जाती है। उसे दर-दर, गली-गली मारा-मारा फिरने दिया जाए तो अनिष्ट क्या होगा? अपनी श्रद्धा और कोमलता का ही सर्वनाश होगा। उसका प्रतिफल प्रभाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को कलुषित, कलंकित और कुरूप बनाएगा |
आज के सामाजिक जीवन में जो अवांछनीयताएँ, चरित्र हीनता, सन्देह दृष्टि और सद्व्यवहार का अभाव मनुष्य जाति को बुरी तरह से पीड़ित किए हुए है। उसका एक बड़ा कारण सौन्दर्य बोध नारी के प्रति उपरोक्त उपेक्षा और कुदृष्टि का ही परिणाम है। जिस नारी को भारतीय संस्कृति ने शक्ति, सरस्वती और लक्ष्मी के सम्मानित, सुपूजित रूप में प्रतिष्ठित किया, जिसे माँ और गृहलक्ष्मी कहकर सम्बोधित किया आज उसे ही नंगा कर चौराहों पर खड़ा किया जा रहा है। इससे बढ़कर लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है? जिसने नहला-धुलाकर अपने संवेदनशील संस्कारों से अभिसिंचित कर अपने रस, रक्त और प्राणों से पोषण प्रदान कर मनुष्य को मनुष्य कहलाने योग्य बनाया उसी माँ को पुरुष निर्वसन करे, यह उसके लिए धिक्कार की बात है।
सौन्दर्य को स्तरहीन आकर्षण का आधार बनाकर आज नारी को जिस तरह विज्ञापनों में घसीट लिया गया है, उसे देखकर मानवीय कुत्सा तक सकुचा रही है। जो अवयव सृष्टि के आधार हैं, जो प्रकृति ने मानवीय सत्ता के पोषण के लिए विनिर्मित किए हैं, जिन्हें मातृ सत्ता ढँककर रखती आई है, उन्हें आवरण विहीन करने से मनुष्य के हाथ विषैले सर्प ही नजर आ सकते हैं। यह घिनौना कृत्य भी वे ही कर रहे हैं, जो अपने आपको सरस्वती पुत्र और कलाकार कहते हैं। धन के लालच में लज्जा को विज्ञापित करने की इस कला से तो अच्छा था, मनुष्य कलाहीन बना रहता। किसान की तरह मोटा-झोटा खा पीकर साधारण जिन्दगी सन्तोषपूर्वक बिता लेने की सरलता और सादगी सराहनीय है, पर प्रगति और कलाकारिता के नाम पर देव तत्त्व को पतित करने की प्रवृत्ति तो जितनी धिक्कारी जाए कम है।
आधुनिकता के नाम पर क्या नारी और क्या उसका सौन्दर्य ही विज्ञापनों की वस्तु रह गया है जो सिनेमा के विज्ञापनों से लेकर कैलेण्डर, साबुन, दन्त मंजन और बीड़ी-माचिसों तक में नारी को ही चित्रित किया जाता है। लाटरी के विज्ञापनों से लेकर शराब की बोतलों तक में उसी की छवि प्रदर्शित की जाती है। बाजार की हर वस्तु की बिक्री का ठेका मानो नारी के सौन्दर्य ने ही ले लिया है अथवा नारी का सौन्दर्य इतना हेय है कि उसे सार्वजनिक शौचालयों तक में चिपकाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं। सार्वभौम छवि न लगाकर किसी विज्ञापन में व्यक्ति विशेष की सहधर्मिणी का चित्र लगा दिया जाता और तब उससे पूछा जाता कि तुम्हें कैसा लगता है तो सम्भवतः वह व्यक्ति लज्जा से सिर ऊपर न उठा पाता, किन्तु यह मनुष्य कितना अविवेकी है कि इतना भी नहीं सोचता कि छवि किस स्त्री की है। मुख्य बात दर्शन और दृष्टिकोण में दूषण की है। यदि सार्वजनिक जीवन में यह दृष्टि दोष आता है तो उससे अपनी धर्मपत्नी, बहिन, बेटी कोई भी अपवित्र हुए बिना न रहेगी। पर लगता है मनुष्य इस दूरदर्शिता के पीछे लट्ठ लेकर पिल पड़ा है। तभी तो वह अपनी आँखों से नारी की यह गन्दी विज्ञापनबाजी देखता रहता है किन्तु उसमें असहयोग और विद्रोह की भावना तक नहीं भड़कती। यदि हम संघर्ष नहीं कर सकते, विज्ञापनों में नारी को चित्रित करने, उसकी भाव-भंगिमाएँ दर्शान से निर्माताओं को रोक नहीं सकते, लड़ नहीं सकते तो इस कुकृत्य के प्रति सार्वजनिक आक्रोश व्यक्त करने के लिए उनकी होली तो जला ही सकते हैं। इतना भी नहीं कर सकते तो जिन वस्तुओं में नारी को विज्ञापन में घसीटा गया हो, उनका बहिष्कार तो कर ही सकते हैं। यह भी संघर्ष ही है और किसी हद तक अधिक प्रभावकारी भी। यदि उन वस्तुओं का उपभोग लोग इस नैतिक चेतना के फलस्वरूप बन्द कर दें कि नारी जाति का नग्न प्रदर्शन सहन नहीं किया जाएगा तो ऐसे धन के लोभी स्वयं ही इस कुत्सित आचरण का परित्याग कर दें। ऐसे लोगों की संख्या बहुत थोड़ी है। जो साबुनों, पेयों, कैलेण्डरों, पुस्तकों तथा अन्यान्य वस्तुओं के विज्ञापनों में नारी का प्रदर्शन करते हैं, पर वही समाज पर इस तरह छाए हुए हैं मानो उपभोक्ता वर्ग अल्पसंख्यक हों और वे बहुसंख्यक। बात केवल सहयोग की है। असहयोग से ब्रिटिश शासन जैसी सत्ता को बोरिया-बिस्तर बाँधना पड़ सकता है तो यदि गन्दे विज्ञापनों वाली वस्तुओं का क्रय-विक्रय बन्द करने का लोग संकल्प लेने लगें तो इन तथाकथित प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों की कुछ ही समय में आँख खोली जा सकती है।
अपनी सामाजिक समस्याओं में अनैतिक आचरण का विस्तार एक ऐसी बुराई है जिससे हमारी सृजनात्मक शक्तियाँ ही नष्ट होती जा रही हैं। सामाजिक जीवन से बढ़ते-बढ़ते अविश्वास का विष अब घर-घर भरता जा रहा है। उसका अन्त क्या होगा उसकी इस देश के परिप्रेक्ष्य में कल्पना भी लज्जाजनक है, पर यह होकर रहेगा। यदि समय रहते हम सावधान नहीं होते तथा मातृ सत्ता के प्रति कलुषित दृष्टिकोण के निवारण के प्रयास नहीं करते।
अकेली स्त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। इस सामाजिक बुराई ने व्यापक रूप धारण कर लिया है और अब फिल्म, चित्रकला आदि में फैलता जा रहा है। आवश्यकता समय रहते आग के बबूलों को जहाँ के तहाँ रोक देने की है अन्यथा उस लपट से सारा समाज ही जल कर खाक हो सकता है। प्रथम जर्मन युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ने वाले योद्धाओं में रोनाल्ड निक्सन का नाम अग्रगण्य है। वे वायु सेना में एक उच्च अधिकारी थे। युद्ध में भीषण नर संहार, मारकाट, आगजनी और श्मशान के दृश्य तो जगह-जगह बनते ही हैं और उन सबके बीच रहना पड़ता है। अपनी उन्मादपूर्ण मनोदशा के कारण सैनिक और सेनाधिकारियों पर उस समय तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता पर जब वह उन्माद उतर जाता है तो युद्ध की वीभत्सना स्मृतियों में कौंध-कौंध कर व्यक्ति को विचलित किए डालती है और बहुत रातों तक वह चैन से नहीं सो पाता। अब तक लड़े गए युद्धों में विश्व युद्ध सबसे अधिक संहार लीला का केन्द्र रहा है और रोनाल्ड की चैन और शान्ति खो गई। बिस्तर पर लेटते ही वे दृश्य घूमकर आने लगे और उनको दहलाने लगे। दो-चार दिन तो वैसे ही बीत गए पर जब अधिक समय होने लगा और मनोदशा सुधरने की अपेक्षा बिगड़ने लगी तो रोनाल्ड पर एक और चिन्ता सवार हुई।
क्या करें, क्या न करें? इसी मानसिक उद्विग्न स्थिति में वे एक बार कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गए। वहाँ उन्हें भगवान बुद्ध की शान्ति, सौम्य करुणा और प्रेम से आपूरित मुद्रा में प्रतिमा दिखाई दी। मूर्ति की ओर वे आकृष्ट हुए और एकटक उसे ही देखने लगे। देखते-देखते उन्हें ऐसा लगा मानो उस मूर्ति से शक्ति और करुणा की धाराएँ निकल-निकल कर मन तथा हृदय को शीतलता प्रदान कर रही हों। उस मूर्ति को देखते-देखते उनके हृदय की अशान्ति छिन्न-भिन्न होने लगी।
मूर्ति का कहें या आकृति का यह तो एक प्रभाव है। इसी प्रभाव के सम्बन्ध में बताते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक डेल कारनेगी ने लिखा है—"जब-जब सांसारिक चिंताएँ तथा कठिनाइयाँ मुझे घेर लेती हैं और मैं परेशान हो उठता हूँ तब-तब मैं महामानव लिंकन के शान्त चित्त पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देता हूँ। लिंकन की इस मुद्रा के चित्र को देखते-देखते मुझे नया उत्साह, नई प्रेरणाएँ और नया साहस मिलने लगता है और मैं सन्तुलित होकर पुनः कर्तव्य पथ पर अग्रसर हो उठता हूँ।"
चित्रों का प्रभाव मनुष्य मन पर अनिवार्य रूप से पड़ता है और वह असाधारण भी होता है। ध्यान से देखने पर प्रभाव और भी गहन होता है। अच्छे और प्रेरणादायक चित्र ध्यानपूर्वक देखने से अपना इतना प्रभाव उत्पन्न करते हैं तो निम्नकोटि के चित्र अपना प्रभाव छोड़ने से क्यों चूकते होंगे? पत्र-पत्रिकाओं और सार्वजनिक स्थानों में विज्ञापन चित्र लगाए जाते हैं। अधिकांश चित्रों में विज्ञापित वस्तु के साथ लड़कियों-युवतियों के चित्र भी विचित्र मुद्रा में छपे या बने होते हैं। अशोभनीय और अश्लील रूप में चित्रित स्त्री आकृतियों का क्या प्रभाव देखने वालों पर पड़ता होगा कुछ कहना मुश्किल है और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस विषय में माता-पिता अपने बच्चों के सामने अधिक चर्चा करना भी पसन्द नहीं करते जब ऐसे चित्रों को अपने बच्चों के साथ देखते होंगे और बच्चे उस चित्र के सम्बन्ध में अपने माता-पिता से पूछते होंगे तो माता-पिता कैसे उत्तर देते होंगे?
युवक, युवतियों और वृद्ध व्यक्तियों पर अशोभनीय चित्रों का उतना बुरा प्रभाव नहीं होता जितना कि बच्चों पर किसी भी वस्तु का प्रभाव तुरन्त पड़ता है। कारण कि वे सुकुमार होने के साथ जिज्ञासु और असावधान भी होते हैं। यह बात नहीं है कि युवकों और वृद्धों में बच्चों की सी जिज्ञासा और उत्सुकता न होने के कारण वे कोई प्रभाव नहीं ग्रहण करते। वस्तुतः मनुष्य का मन सहज अधोगामी होता है पर बच्चों के मन-मस्तिष्क के साथ वे विशेष परिस्थितियाँ भी जुड़ी होती हैं। फलस्वरूप उनके संस्कार, चरित्र, दिशाएँ विशेष रूप से प्रभावित होती हैं। सरेआम सार्वजनिक स्थानों के साथ-साथ जब ऐसे विज्ञापन कैलेण्डर और रंगीन चित्रों के रूप में घरों में भी प्रवेश कर जाते हैं फिर तो चौबीस घण्टे पड़ने वाली उनकी छाया और प्रेरणा घर के सदस्यों के चारित्रिक संस्कारों पर अपना प्रभाव न छोड़ें, यह कैसे हो सकता है?
ऐसे विज्ञापित चित्रों को विषय शक्ति की निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा बताते हुए सन्त विनोबा ने कहा है—मैंने शहरों की दीवारों पर ऐसे भद्दे, घृणित और वीभत्स चित्र देखे हैं जिन्हें स्मरण आते ही आँखों में आँसू आ जाते हैं। माता-पिता इन चित्रों को कैसे सहन करते हैं? ये पोस्टर रास्ते में होते हैं और हर एक की आँखों पर आक्रमण करते हैं। शहरों में नागरिकों, बहनों को शर्मिंदा होना पड़ता होगा, निगाहें नीचे कर लेनी होती होंगी। आम रास्ते पर चलने वाले नागरिकों की आँखों पर हमला करने का किसी को क्या हक है?" विनोबाजी का यह प्रश्न अपने आप में एक सच्चाई है। अधिकांश लोग न तो इस प्रश्न की आवश्यकता अनुभव करते हैं और न ही इस सन्दर्भ में सोचना आवश्यक समझते हैं।
चित्रों की उपयोगिता और महत्त्व के सम्बन्ध में यह भी स्मरणीय है कि छोटे बच्चों को अक्षर ज्ञान कराने के लिए चित्रों वाली पुस्तकों का उपयोग कराया जाता है। उन्हें पढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। महापुरुषों के जीवन कृतित्व का ज्ञान कराने के लिए उल्लेखनीय घटनाओं को चित्रांकित भी किया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि अक्षरों और शब्दों की अपेक्षा चित्र मनुष्य के चित्त तक अधिक सरलता से पहुँचते हैं | मनोरंजन में भी साहित्य और कथानक की अपेक्षा सिनेमा और नाटक पसन्द करने वालों की संख्या अधिक है। विज्ञापनों और अशोभनीय चित्रों के माध्यम से जो बातें जनता में जितनी अधिक व्यापक रूप से पहुँचती हैं, उससे कहीं कम ही साहित्य द्वारा पहुँचती हैं। अर्थात् एक ओर उपयोगी साहित्य रखा जाए तथा दूसरी ओर चित्र तो साहित्य की अपेक्षा चित्र ही ज्यादा प्रभावोत्पादक होंगे। और जब विज्ञापन चित्रों द्वारा वस्तुओं को लोकप्रिय बनाने की व्यवस्था जुटाई जाती है और यदि अशोभनीय चित्रों का प्रयोग किया गया है तो सुधारवाद और चरित्र निर्माण परक साहित्यिक प्रयासों की प्रभाव क्षमता बड़ी सीमा तक अवरुद्ध हो जाती है।
अशोभनीय और अश्लील चित्र किन्हें कहा जाए? इन्दौर में एक बार जागरूक महिलाओं ने अश्लील पोस्टरों का प्रतिरोध किया तो पूछा गया कि अशोभनीय पोस्टर किन्हें कहा जाए? तो उत्तर था—जिन पोस्टरों को माता-पिता अपने बच्चों के साथ नहीं देख सकते।
यह व्याख्या एक सीमा तक ठीक है पर विकारों को भड़काने वाले प्रत्येक चित्र को इसी कोटि में रखना होगा। अश्लील पोस्टरों के सम्बन्ध में विज्ञापन चित्रों के माध्यम से मिलने वाली कुत्सित प्रेरणाओं और होने वाली हानियों के सम्बन्ध में बताते हुए सन्त विनोबा ने कहा है—भारत में स्त्रियों को महिला कहा जाता है। इतना उन्नत शब्द संसार की किसी भी भाषा में नहीं मिलता। परन्तु स्त्री का इतना गौरव होते हुए भी आज लोग स्त्री की तरफ कामिनी भाव से देखते हैं। अशोभनीय चित्रों-विज्ञापनों में स्त्रियों की भद्दी मुद्राओं का उपयोग गन्दे सिनेमा आदि प्रचार के साधनों द्वारा स्वार्थी तत्त्व मातृशक्ति पर खुलेआम प्रहार करता है और हम सब उसे सहन करते हैं। मैं नहीं मानता कि इससे प्रगति की कोई राह खुलेगी। वस्तुतः जब शील ऊँचा उठता है तो देश आगे बढ़ता है, अतः हमें शील और मातृत्व पर होने वाले इस आक्रमण को रोकने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए।
अश्लील पोस्टर और गन्दे चित्र जहाँ भी दिखाई दें उन्हें हटाना और घर में ऐसे चित्रों को कोई स्थान न देना मातृशक्ति की पुनर्प्रतिष्ठा की दिशा में एक प्रशंसनीय और प्रभावशाली प्रयास हो सकता है। ऐसे चित्रों की जब उपेक्षा की जाने लगेगी तो उन्हें प्रसारित करने वाले लोग भी स्वतः ही निरुत्साहित हो जाएँगे। अश्लील चित्रों और पोस्टरों को स्वयं के अस्तित्व पर, परिवार पर और समाज पर लगी कालिख मानकर उसे साफ करने के लिए हर उचित प्रयास किया ही जाना चाहिए।
मनुष्यता को शारीरिक, नैतिक सब दृष्टियों से पतित बनाकर अपमानित और लांछित कराने का जितना बड़ा कारण अश्लीलता है उतना शायद ही कोई दूसरा होगा। यह प्रकट में बड़ा मनमोहक दीखता है और कुछ लोग इस पर सभ्यता का रोगन चढ़ाकर इसे निर्दोष प्रकट करने की चेष्टा भी करते हैं, पर यह भी अपना घातक प्रभाव डालता रहता है और एक दिन अकस्मात मनुष्य को घोर कलंकित कर देता है। यह समाज में चरित्र हीनता, कामुकता, विलासिता, व्यभिचार जैसे दुर्गुणों की वृद्धि करता है और मानसिक बल तथा आत्मिक पवित्रता को नष्ट करके मनुष्य को वासनाओं का एक तुच्छ कीड़ा बना देता है। इससे उच्च भावों का लोप होने लगता है और किसी भी तरह इन्द्रियजन्य विषयों की पूर्ति होना ही सबसे बड़ी चीज प्रतीत होने लगती है। ऐसे व्यक्ति चाहे प्रकट में सभ्य, शिष्ट और मधुर भाषी जान पड़ें, पर उनका हृदय बड़ा अस्वच्छ और स्वार्थी होता है और उनकी मीठी तथा चिकनी चुपड़ी बातों का उद्देश्य अन्य लोगों को अपने फंदे में फँसाना ही होता है। यह अश्लीलता का दुर्गुण जिन-जिन बातों में फैलता है और बढ़ता जाता है उसमें आजकल सबसे प्रधान सिनेमा है। उसके साथ गन्दे चित्र और गन्दी पुस्तकें भी इस दुष्प्रवृत्ति को प्रेरणा देने में सहायक बन जाती हैं। कुछ ओछे और अशिष्ट व्यक्तियों को अश्लील गालियाँ देने की आदत भी पड़ जाती है, जिसे सुनकर आप लोगों को लज्जा का अनुभव होता है। गाने-नाचने का शौक, विलासिता की चर्चा सुनते रहने से भी चित्त में विकार पैदा होते हैं और अश्लीलता के भावों को प्रोत्साहन मिलता है।
सिनेमा एक ऐसा प्रभावशाली साधन है कि यदि उसका सदुपयोग लोक शिक्षण के लिए किया जाए तो स्त्री-पुरुष की मनोवृत्तियों को सद्गुणी और सदाचार की तरफ मोड़ने का कार्य बड़ी सफलतापूर्वक किया जा सकता है। रूस ने शिक्षा प्रचार का कार्यक्रम शीघ्र पूरा करने के लिए सिनेमा का ही सहारा लिया था और कुछ ही वर्षों में अपने देश से निरक्षरता का चिह्न मिटा दिया था। इसी प्रकार देश पर कोई संकट आने पर सिनेमा द्वारा लोगों में सेवा, सहयोग और देशभक्ति के भावों को उत्तेजित करने में बहुत कुछ सहायता और साधन प्राप्त किए जा सकते हैं। पर हमारे देश में इस प्रकार के लाभों के स्थान पर इसका दुरुपयोग ही देखने में आ रहा है। यहाँ सिनेमा उद्योग कुछ धन लोलुप और चरित्र, नीति, धर्म आदि की तरफ उपेक्षा भाव रखने वाले व्यक्तियों के हाथ में आ गया है। उन्होंने लोगों की हीन वृत्तियों को भड़का कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को ही मुख्य उद्देश्य बना लिया है। इससे लोगों का बड़ा ही तेजी से पतन होता है और विशेष रूप से लड़कों और युवकों में तरह-तरह के दोष घर करते चले जा रहे हैं। सिनेमा भारत की तरुण पीढ़ी में किसी हद तक अश्लीलता की वृद्धि कर रहा है। इस सम्बन्ध में एक अभियोग का फैसला करते हुए मद्रास के चीफ प्रेसीडेन्सी मेजिस्ट्रेट ने लिखा था—
"सिनेमा वर्तमान युग का एक अभिशाप है। उसने माननीय कुलों की हजारों कुमारियों को नाचने वाली वेश्या और लड़कों को भाड़ बना दिया है और उन्हें लाज, शर्म तथा सम्मान के गुणों से रहित कर दिया है। इन दिनों सिनेमा में शिक्षा और नीति की जो कुछ चर्चा की जाती है वह इसके दोषों को ढकने के लिए है। उनका लक्ष्य तो केवल धन कमाना है।"
कुछ खेल धार्मिक कथानकों पर बनाए जाते हैं और कुछ का उद्देश्य नैतिक आदर्शों की स्थापना करना बतलाया जाता है, पर वे भी अभिनय को 'आकर्षक' बनाने के लिए बिगाड़ दिए जाते हैं। सिनेमा संचालक जानते हैं कि जब तक सुन्दर अभिनेत्रियों के हाव-भाव और उत्तेजक गाने नहीं होंगे तब तक साधारण दर्शक फिल्म देखने को न टूटेंगे। यदि कोई एकाध खेल को शिक्षाप्रद बनाने की चेष्टा भी करता है तो उसे अन्य शृंगार और विलास की भावनाओं से गर्म फिल्मों की अपेक्षा कम सफलता मिलती है और तब वह भी किसी बहाने पतनकारी प्रणाली में ही चलने लगता है। इसका विवेचन करते हुए एक लेखक ने ठीक ही लिखा है—
"प्रत्येक चित्र में ऐन्द्रियिक तत्त्वों को गुदगुदाने वाली, उद्दाम वासना को प्रदीप्त करने वाली सामग्री भरपूर रहती है, जिसका स्पष्ट प्रभाव दर्शकों के मन पर पड़ता है। 'मनोरंजन' कहना स्वतः को धोखा देना है। यह असंयमित वासना ही समस्त दुखों और क्रोध के मूल में काम करती है। इसका परिणाम यह होता है कि कलाकारों का अत्यन्त परिश्रम से तैयार किया हुआ चित्र अधिकांश दर्शकों के लिए वासनामय सिद्ध होता है। जनता इतनी तो समझदार, दूरदर्शी होती नहीं कि चित्र का सार भाव ग्रहण करे और निरर्थकों को छोड़ दे। उसे तो जहाँ उत्तेजक और भड़कीले चित्र दिखाई दिए उन पर लट्टू हो जाती है। अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगों का यही हाल है। कथाकार का सार परिणाम दर्शकों की वासना उद्दीप्त करने का एक खिलवाड़ मात्र बन जाता है।
सिनेमा ने केवल टिकट खरीदकर सिनेमा हॉल के भीतर जाने वाले दर्शकों का ही पतन नहीं किया वरन् समस्त देश के वातावरण को गन्दा और विषाक्त बना दिया है। आज प्रत्येक शहर की मुख्य सड़कों पर अभिनेत्रियों और अभिनेताओं के अश्लीलतापूर्ण भाव-भंगिमा वाले बड़े-बड़े पोस्टर चिपके दिखाई देते हैं। वे भी लोगों में दूषित मनोविकार उत्पन्न करने के साधन बनते हैं। गली-गली में बड़े लड़के ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे भी सिनेमा के गन्दे गाने बड़ी लय और अदा से गाते फिरते हैं। स्त्रियों ने प्राचीन गृहस्थी की बातों से सम्बन्धित गीतों को छोड़ सिनेमा की तर्ज पर बने निकृष्ट गीतों को अपना लिया है। विवाह-शादियों और साधारण उत्सवों में सिनेमा के प्रसिद्ध शृंगार रस पूर्ण गानों को धड़ल्ले के साथ प्रचार और प्रसार किया जाता है। इस प्रकार सर्वसाधारण में अश्लीलता की वृद्धि होती है और नैतिक भावों का पतन हो रहा है। इससे इस समय समस्त देश सिनेमा के दूषित संगीत से गूँज रहा है और लोकहितैषी मनीषी इस भयंकर बाढ़ को देखकर ठगे से खड़े हैं। परिस्थिति को देखकर भूदानयज्ञ के संचालक विनोबा भावे ने कुछ वर्ष पूर्व कहा था— "मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि करीब २० लाख लोग हर शाम सिनेमा देखते हैं। मुझे पता नहीं यह अन्दाज किस प्रकार लगाया गया है लेकिन अगर यह सही है तो स्पष्ट है कि हिन्दुस्तान के तरुणों की मनोवृत्ति पर उसका देश व्यापी परिणाम होता है। मैंने हिसाब लगाया है कि मैं एक साल से घूम रहा हूँ, रोजाना व्याख्यान देता था। इसके अलावा चर्चाएँ भी होती थीं। तो भी शायद ही बीस लाख लोगों के कानों में मेरा सन्देश पहुँच पाया हो। अगर जितना प्रचार मेरे इतने परिश्रम से एक साल में हुआ, उतना तो हर रोज शाम को इस प्रकार होता रहता है, तो वह कोई मामूली बात नहीं है। इस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है।
चर्चा में मैंने सुना है कि सिनेमा नियंत्रण के विरुद्ध यह विचार प्रकट किया जाता है कि 'उससे हमारे विचार स्वातंत्र्य पर आक्रमण होता है। यह सोचने का ढंग बिल्कुल गलत है। विचार प्रकाशन के स्वातंत्र्य पर आक्रमण भी तब माना जा सकता है जब एक विचार या पन्थ वाले दूसरे विचार या पन्थ वाले के मन्तव्यों को दबाएँ। लेकिन सर्वसामान्य शील सम्वर्धन और तरुणों के पुरुषार्थ के हित में सोचा जाए तो इसकी स्वातंत्र्य में बाधा पहुँचाने वाला मानना गलत होगा। यदि कोई आदमी खुलेआम हिंसा, व्यभिचार, शराबखोरी का प्रचार करना चाहे तो क्या हम उस पर डाले हुए नियंत्रण को विचार प्रकाशन के स्वातंत्र्य पर आक्रमण मानेंगे। अगर हम ऐसे नियंत्रणों को न मानेंगे तो हमारी आजादी, बरबादी या पर्यायवाची शब्द बन जाएगी।
सिनेमा द्वारा होने वाले धन नाश के सम्बन्ध में मद्रास के भूतपूर्व मुख्य मंत्री का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है—
"सिनेमा निर्माता गरीबों की कठिनाई का शोषण कर रहे हैं। वे मनुष्यों की कमजोरियों को जानते हैं और गन्दे चित्र निर्माण कर लोगों की नीच प्रवृत्तियों को उत्तेजित कर उन्हें दुर्भाग्य की ओर प्रेरित करते हैं। सिनेमा में चित्र लोगों के दिमागों को लड़ा देते हैं जिससे वे इस प्रकार बात सोचने लगते हैं, जो उनको हर तरह से नीचे गिराती है।"
गन्दी तस्वीरों का प्रचलन भी अश्लीलता की वृद्धि में एक साधन का काम करता है। किसी जमाने में फ्राँस से आने वाली नंगी तस्वीरें किसी शौकीन को मिल जाती थीं या कोई कहीं से आसनों के चित्र ले आता था तो यह एक बहुत बड़ी बात समझी जाती थी। अब सभी देश के कुछ प्रकाशकों ने इस धन्धे को अपनाकर इन गन्दी तस्वीरों को गली-गली पहुँचा दिया है। ये चित्र अत्यन्त निर्लज्जतापूर्ण होते हैं और उनमें अश्लीलता की हद कर दी जाती है। कानून के अनुसार इन तस्वीरों को छापना और बेचना दण्डनीय अपराध है और पुलिस समय-समय पर ऐसे प्रकाशकों की तलाशी लेकर उनको पकड़ती भी रहती है। पर इस काम में इतना मुनाफा मिलता है कि वे लोग फिर भी इस काम को नहीं छोड़ते और नई-नई गुप्त योजनाएँ बनाकर इनका प्रचार करते ही रहते हैं। कामी प्रकृति के लोग इन चित्रों को देखकर अपनी वासनाओं को भड़काया करते हैं और अन्त बुरा परिणाम उठाते हैं।
सिनेमा ने इस प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ाया है। सिनेमा गृहों के बाहर खेल का परिचय देने वाले जो बहुत से फोटोग्राफ काँच के भीतर लगाकर प्रदर्शित किए जाते हैं, वे भी प्रायः कामोत्तेजक और हीन प्रवृत्तियों के उत्तेजक होते हैं। बहुत से लोग घण्टों तक उन्हें बड़े ध्यान से देखा करते हैं। यह नियम है जिस चीज को हम बार-बार और आग्रह के साथ देखेंगे उसके गुण, कर्मों का प्रभाव हम पर अवश्य पड़ेगा। सिनेमा की चर्चा के साथ-साथ इन लोगों को इन बातों की याद ताजा होती रहती है और वे कभी पापमय वातावरण से निकल नहीं पाते। अब यह मनोवृत्ति भी यहाँ तक बढ़ गई है कि पैसे के लालची लोगों ने इसी विषय के स्वतंत्र अखबार निकालने आरम्भ कर दिए हैं जिनमें सिनेमा के नट और नटियों के खूब बने ठने और भावपूर्ण चित्रों के अलावा उनके जीवन की प्रत्येक बात इतने विस्तार और प्रभावशाली ढंग से प्रकाशित की जाती है, मानो वे कोई देवी-देवता हों और उनका गुणगान करना तथा उसे पढ़ना धर्म-पुराणों के समान ही पुण्यदायक हो।
इन दो साधनों के अलावा गन्दे उपन्यासों, कविता-पुस्तकों और यौन विज्ञान पर प्रकाशित होने वाली कितनी अनाधिकारपूर्ण पुस्तकों से भी अश्लीलता के प्रसार में सहायता मिलती है। कुछ दिन पूर्व बनारस आदि शहरों में कई लेखकों ने कामुकता और शृंगार विषयक सैकड़ों उपन्यास लिख मारे थे जिनसे लोगों में कुरुचि का बहुत अधिक प्रसार होता था। कितने ही कहानियों के मासिक पत्र भी बिक्री के लोभ में अश्लील भावों को प्रोत्साहन देने वाली रचनाएँ प्रकाशित करते हैं। बाजारू पाठक पसन्द भी ऐसी ही सस्ती और गन्दे प्रेम के गीत सुनाने वाली चीजों को ही करते हैं। ऐसी रचनाओं से पाठकों के विचार दूषित होते हैं और उनका मन ऐसी ही निकृष्ट चर्चा में लगने लगता है। पुस्तकों में नारी के रूप और विभिन्न अंग-प्रत्यंगों का वर्णन ऐसे आकर्षक ढंग से किया जाता है कि कच्चे विचारों के लोग उन पर मुग्ध हो जाते हैं और मन में अपने को नायक समझ कर उसी तरह की कल्पनाएँ करने लगते हैं। इनमें से बहुत से ऐसे मूर्ख होते हैं जो कल्पना और वास्तविकता के अन्तर को नहीं समझते और जो कुछ उन भ्रष्ट उपन्यासों में पढ़ते हैं उसे यथार्थ समझकर अपने मन को उसी रंग में रंगते चले जाते हैं, जिससे उनका घोर मानसिक पतन हो जाता है।
अश्लीलता की इस वृद्धि ने हमारे नारी समाज का बड़ा अपमान किया है और पुरुष उसे देवी और माता के पवित्र पद से घसीट कर कामुकता के भाव दिखलाने वाली नर्तकी या वेश्या बना देने की भावना करने लगा है। यह ऐसा जघन्य पाप है जिससे व्यक्ति के साथ समाज का अधोपतन भी अवश्यम्भावी है। जो लोग इस प्रवृत्ति को जन्म देते हैं वे चाहे सिनेमा निर्माता हों, चाहे शृंगारी कवि हों या गन्दे उपन्यासों के लेखक हों, एक अक्षम्य अपराध करते हैं क्योंकि इनके प्रभाव से लोगों में अश्लीलता की उत्पत्ति होकर उनका चरित्र भ्रष्ट होता है, जो कि राष्ट्रोन्नति की दृष्टि से एक बड़ा शोचनीय तथ्य है। शृंगारिकता नहीं पवित्रता को ही आज चारों ओर बढ़ाने की आवश्यकता है। कमी उसी की है और फिर वही प्रसन्नता, प्रगति और सत्प्रेरणा का एक मात्र मार्ग है। इससे भी बड़ी बात यह है कि नारी का सच्चा स्वरूप भी वही है। नारी शृंगारिकता नहीं पवित्रता का ही नाम है।
मुद्रक : युग निर्माण प्रेस, मथुरा