समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान-3

चीन-भारतीय संस्कृति के चरणों में

सम्राट अशोक की राज्य सहायता पाकर बौद्ध प्रचारक एशिया, योरोप और अफ्रीका के तीनों महाद्वीपों में पहुँचे और उन्होंने उन क्षेत्रों में धर्म स्थापना आशाजनक सफलता के साथ संपन्न की। कुशान राजा कनिष्क की सहायता से भी धर्म विजय अभियान द्रुतगति से आगे बढ़ा। उसी संदर्भ में चीन में बौद्ध धर्म के प्रसार, विस्तार की शृंखला और आगे बढ़ती है।

यों इससे पूर्व भी भारतीय धर्म चीन में मौजूद था। राजकीय, धार्मिक और व्यावसायिक आदान-प्रदान हजारों वर्ष से प्रचलित थे। मनस्वी लोग विश्वमंगल की आकांक्षा लेकर समस्त संसार में पहुँचते थे। उसी कार्यक्षेत्र में चीन का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान था। थलयात्रा की व्यवस्था रहने से और उस देशवासियों में सहज धर्मबुद्धि रहने से भारतीयों के लिए यह सुलभ भी था कि वे चीन पहुँचें और उस विशाल भूखंड को समुन्नत बनाने में समुचित योगदान दें। भारत की सीमाओं से लगा होने के कारण थल-मार्ग की सुविधा उन दिनों विद्यमान थी और दूरवर्ती एवं कष्टसाध्य होने पर भी आवागमन अपने क्रम से चलता रहता था।

इतिहासवेत्ता सर डब्ल्यू जोन्स के अनुसार ईसा से पूर्व की शताब्दियों में चीन में हिंदू धर्म संव्याप्त था। चीनी इतिहासवेत्ता ओकाकुश के अनुसार अकेले लोपांग प्रांत में दस हजार हिंदू प्रचारक रहते थे। उनके अनुयायियों की संख्या लाखों में थी। चीनी धर्म पुस्तक 'चोकिंग' में कश्मीर से हिंदुओं के उस देश में पहुँचने और सुव्यवस्थित समाज व्यवस्था बनाने का उल्लेख है। चीनी यात्री वेनत्सांग आसाम से एक ऐसा नकशा साथ ले गया था, जिसमें तत्कालीन कामरूप शासक भास्कर वर्मन के राज्य विस्तार का अंकन है। इसमें नेफा ही नहीं चीन की मूल भूमि का भी बहुत बड़ा भाग उसी राज्य में सम्मिलित दिखाया गया है। प्राचीन चीन में वर्णव्यवस्था, प्रकृति पूजा, श्राद्ध प्रथा, संयुक्त परिवार, योगासन, मंत्र आदि की परंपराएँ हिंदू धर्म की ही देन हैं। ताओ धर्म को हिंदू धर्म की ही एक शाखा कहा जा सके उसमें इतना साम्य है।

मध्य एशिया और चीन के लिए भारत से आवागमन के पाँच भागों का उल्लेख मिलता है—

(१) पूर्व तुर्किस्तान का मार्ग—यह चीन और भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र में होकर गुजरता था। इसके दो भाग थे। एक 'यूमान-आन' से और दूसरा 'यांग की आन' से। 'टुएन-हुएन' नगर उस मार्ग का चौराहा तथा महत्त्वपूर्ण स्थान था। ईसा की दूसरी सदी में बौद्ध प्रचारकों ने इस मार्ग को सुव्यवस्थित बनाया था। तीसरी सदी में यह इस योग्य हो गया था कि सामान्य यात्री इस पर आ-जा सकते थे। जो दूसरा मार्ग 'टुएन-हुए' से तुरफान कारा शहर, कूचा आदि होता हुआ पेशावर पहुँचता था, उसी से चीनी यात्री हवेनत्सांग आया था।

(२) दूसरा मार्ग—'टुएन हुएन' से पश्चिम की ओर चलकर यारकंद और पामीर को पार करते हुए बलख और पार्थिया तक जाता था। सन् ३९९ में चीनी यात्री फाहियान अपने साथियों सहित उसी मार्ग से भारत आया था। अशोक का निर्वासित राजकुमार इसी मार्ग से खोतान गया था। कश्मीरी विद्वान इसी मार्ग से मध्य एशिया जाते थे।

(३) आसाम मार्ग—आसाम से उत्तरी बर्मा होकर यह मार्ग जाता था। सन् ६४२ में चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने इसी मार्ग से आसाम में प्रवेश करके तत्कालीन शासक, भास्कर वर्मन से भेंट की थी। भारतीय भिक्षु काश्यप मातंग और धर्मरक्ष इसी मार्ग से चीन गए थे। यह मार्ग अधिक दुर्गम था, इसलिए सातवीं सदी के बाद इसे छोड़कर यात्रियों ने समुद्र मार्ग को सरल पाया और अपनाया।

(४) तिब्बती मार्ग—भारतीय बौद्धों ने तिब्बत के यातायात के लिए अवरुद्ध घेरे को तोड़कर यह मार्ग बनाया और इस देश के साथ भारतीय संबंध संभव हो सका। उन दिनों तिब्बत को 'भोट' अर्थात 'दुर्गम क्षेत्र' कहते थे। सातवीं सदी में यह मार्ग खुल जाने से वह अड़चन दूर हुई और नालंदा विश्व विद्यालय के उपाध्याय, पद्म संभव, श्रीघोष जिनमित्र, दानशील, गोधिमित्र, दीपंकर आदि वहाँ पहुँचकर धर्मचक्र-प्रवर्तन का प्रयोजन पूरा कर सके। चीन और भारत के बीच तिब्बत होकर यह एक नया मार्ग खुला। सन् ६२७ में चीनी पर्यटक 'यानचाउ' इसी मार्ग से भारत आया था।

(५) समुद्री मार्ग—ईसा की प्रथम शताब्दी में भारतीय जलपोत समुद्र मार्ग से दक्षिण पूर्व एशिया जाने लगे थे और मध्य एशिया का सरल मार्ग तलाश करने में सफल हो चुके थे। अशोक के शिलालेखों से स्पष्ट है कि कष्टसाध्य थलमार्ग की अपेक्षा बौद्ध प्रचारकों को जलमार्ग अधिक सुविधाजनक लगा था। ये जहाज चीन के बंदरगाह 'टोन किन' और 'कैण्टन' तक पहुँचते थे, पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान लंका, जावा होते हुए समुद्री मार्ग से ही अपने देश को वापस गया था। इसके बाद कश्मीर के राजकुमार गुण वर्मन और उज्जैन के बौद्ध भिक्षु परमार्थ भी इसी रास्ते जावा पहुँचे थे। इस मार्ग ने प्रसार, विस्तार एवं यातायात की सुविधाएँ अन्य मार्गों की अपेक्षा अधिक सुगम बना दीं।

भारत से विदेशों में जाकर जिन विद्वानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार-विस्तार में अपने को खपा दिया उनकी संख्या हजारों है, पर इतिहास में जिनका नाम विशेष कर्तृत्व के साथ जुड़ा है, उनमें आचार्य दीपंकर, श्रीज्ञासन, कुमारजीव, परमार्थ, बोधि धर्म, बोधिरुचिका विशेष उल्लेखनीय है। इन लोगों ने अपनी शिष्य मंडली इसी प्रयोजन के लिए प्रशिक्षित की थी। जिस देश में उन्हें जाना था जिन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति, स्थिति, यात्रा संभावना आदि के संबंध में सुविस्तृत ज्ञान कराने का विशेष प्रबंध किया गया था। विक्रमशिला बिहार में अध्ययन करने के उपरांत उन्होंने तिब्बत, सुवर्णद्वीप (आधुनिक सुमात्रा) ताम्रलिप्ति (आधुनिक तामलुक) की मुहिम सँभाली। वे १०८ शिक्षा केंद्रों का संचालन करते थे। वे नालंदा, उदंतपुरी, वज्रासन और विक्रमशिला महाविहारों का अनुकरण करते हुए स्थान-स्थान पर धर्मधारणा तथा प्रचार-प्रक्रिया का प्रशिक्षण करने में निरत थे। तिब्बत उनका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से रहा।

कुमारजीव कश्मीरी पंडित थे। उनका काल ३४४ से ४१३ ई० तक का माना जाता है। चीन उनका विशेष कार्यक्षेत्र था, यों इन्होंने मध्य एशिया के खोतान, काशगर, यारकंद तथा तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों को भी बौद्ध प्रकाश से आलोकित किया था। उन्होंने अपने जीवन काल में तीन हजार से अधिक सुयोग्य धर्मप्रचारक और साहित्य सृजेता तैयार किए थे। उन्होंने वहाँ की भाषाएँ सीखीं और वहाँ के निवासियों को लेखनी तथा वाणी से धर्मनिष्ठ बनाने के लिए अनवरत श्रम किया। बौद्ध धर्म के विस्तार में ऐसे ही नैष्ठिक धर्मप्रचारकों का त्याग-बलिदान काम आया है।

उज्जैन विश्वविद्यालय के छात्र परमार्थ, जिनका दूसरा नाम गुणरत था, चीन चले गए और उस देश की भाषा को संस्कृत तथा पाली में लिखे बौद्ध साहित्य से समृद्ध करने में अनवरत रूप से आजीवन लगे रहे। वे सन् ५४८ में नानकिंग (चीन) पहुँचे। इक्कीस वर्ष कार्यरत रहकर वे सन् ५६९ में उसी देश की भूमि में अपनी मिट्टी को मिला गए। इस अवधि में उन्होंने जितना अनुवाद कार्य किया वह २७५ बड़ी जिलदों में संग्रहीत है।

इसी प्रकार बोधिधर्म का कार्य है। उन्हें धर्मबोधि भी कहते हैं। वे सन् ५२६ में चीन पहुँचे और दस वर्ष कार्य करके सन् ५३६ में उसी भूमि में समा गए। उन्होंने साधनात्मक शिक्षा का बहुत प्रसार किया। चीन के अनेक सम्राटों तथा विभूतिवानों को उन्होंने असाधारण रूप से प्रभावित किया था और उनके द्वारा धर्म प्रचार के अनेकों महत्त्वपूर्ण साधन जुटाए जाने का पथ प्रशस्त किया था।

इसी शृंखला में दक्षिण भारत से चीन पहुँचने वाले विद्वान बोधिरुचि को भी रखा जा सकता है। वे युवावस्था में ही चीन चले गए थे और शताधिक आयुष्य भोगकर सन् ७२७ में वहीं स्वर्गवासी हो गए। उन्होंने लेखनी, वाणी तथा प्रचार प्रक्रिया से जो कार्य किया उसने चीन को बुद्ध दर्शन के चरणों में श्रद्धावनत बनाने में चिरस्मरणीय भूमिका प्रस्तुत की।

भारतीय बौद्ध भिक्षुओं का प्रवाह चीन की ओर अनवरत रूप से बहता ही रहा। उसमें कमी-बेशी के ज्वार-भाटे भले ही आते रहे हों पर क्रम की निरंतरता अनवरत रूप से चलती रही। ईसा की पाँचवी शताब्दी में संघदेव, बुद्ध भद्र, बुद्धजीव, गुणभद्र, धर्ममित्र, काल यशस, संघवर्मा, धर्मरक्ष आदि के नाम इतिहास के पृष्ठों पर अविस्मरणीय रूप से अंकित हैं। इनके अतिरिक्त उन सहस्रों धर्म-प्रचारकों के नाम अविज्ञात हैं, जिन्होंने धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए अपनी मातृभूमि और स्वजन-संबंधियों का मोह छोड़कर दुर्गम यात्राएँ की और चीन में बसकर धर्म प्रचार करते हुए वहीं मर-खप गए।

गुण वर्मन के पूर्वज कश्मीर के राज परिवार में से थे। पर उसके पिता संघानंद बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर एकांत साधना में संलग्न थे। उन्हीं दिनों गुण वर्मन का जन्म हुआ। किशोरावस्था में उसने बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन किया और २० वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करके धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। पहले वे लंका पहुँचे और उसके बाद जावा पहुँचे। उनके धर्मोपदेशों से प्रभावित होकर जावा नरेश बौद्ध बन गए और उन्होंने अपनी समस्त प्रजा को भी उसका अनुयायी बना दिया। राजाज्ञा प्रसारित हुई—"सभी प्रजाजन गुण वर्मन का आदर करें, हिंसा न करें, धर्मात्मा बनें और भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर चलें।"

सन् ४३१ में गुण वर्मन चीन पहुँचे। राजा 'संगविन ति' उनसे स्वयं मिलने आया, उनका राजकीय स्वागत किया और दीक्षा ग्रहण की। उनके लिए जेतवन विहार बनवाया। गुण वर्मन असाधारण विद्वान, तपस्वी और प्रतिभासंपन्न थे। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया, पर उनका मुख्य कार्य घूम-घूमकर धर्म प्रचार करना ही रहा। भारत में घर-घर कही-सुनी जाने वाली "सत्यनारायण कथा" की तरह उन्होंने उपदेश के लिए "सद्धर्म पुण्डरीक" कथा प्रचलित की, जिससे धर्म प्रचार का कार्य क्रमबद्ध रूप से चलने लगा। कितने ही धर्मोपदेशक उस कथा-प्रवचन को लेकर जनता में घर-घर अलख जगाने की लिए कटिबद्ध हो गए।

गुण वर्मन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। चीन में महिला भिक्षुणियों का उद्भव और संगठन। नारी जागरण के पिछड़े क्षेत्र में उनके इस प्रयास से भारी जागृति उत्पन्न हुई। उस देश में ५०० वर्ष से बौद्ध धर्म प्रचलित था, पर उसमें महिलाएँ केवल दर्शक या अनुगामिनी मात्र थीं। वे संगठित रूप से इस महान मिशन के लिए कुछ कर सकें ऐसा कोई प्रयत्न तब तक नहीं किया गया था। गुण वर्मन ने उस अभाव की पूर्ति की। उन्होंने महिला संघ की स्थापना करके उन्हें भी भिक्षुणी बनकर धर्म प्रचार कार्य में निरत होने का अवसर दिया।

गुण वर्मन के उपरांत गुणभद्र, धर्म जालंयश, धर्मरुचि, रत्नमति, बोधिरुचि, गौतम, प्रज्ञा रुचि नामक प्रतिभाशाली एवं उद्भट विद्वान धर्मप्रचारक भारत से चीन पहुँचे। उनका ज्ञान और व्यक्तित्व भी कम प्रखर न था। चीनी जनता को इन लोगों ने हर दृष्टि से प्रभावित किया और इस प्रकार धर्मविजय अभियान की सफलता का पथ अधिकाधिक प्रशस्त होता चला गया।

पेशावर के एक क्षत्रिय सद्गृहस्थ वज्रसार ने अपने प्रतिभाशाली पुत्र को बौद्ध प्रचारक बनाने का संकल्प किया। इस प्रयोजन के लिए उसे विद्वान धर्माचार्य "जिन यश" के संरक्षण में रखा गया, जहाँ उसने अगाध विद्या, प्रतिभा और प्रेरणा प्राप्त की। २० वर्ष की आयु में उसने परिव्रज्या ग्रहण कर ली और धर्म प्रचार के लिए सुदूर देश के लिए रवाना हो गया। उसने चीन को अपना लक्ष्य बनाया और विद्वानों के साथ इस लंबी यात्रा पर चल पड़ा। मार्ग इतना कठिन था कि पाँच रास्ते में ही मर गए और केवल चार ही चीन पहुँच सके। इतने पर भी उन्होंने तनिक भी निराशा नहीं आने दी और वहाँ पहुँचते ही अपने प्रयोजन में जुट गए। इस मंडली की प्रचार शैली बड़ी आकर्षक थी। राजा और प्रजा का उसे भरपूर सहयोग मिला। सन् ५९२ के लगभग चीन में जिनगुप्त के उत्साहवर्द्धक क्रिया-कलापों का वर्णन चीनी इतिहासकारों ने बड़े प्रभावशाली शब्दों में किया है।

चीन में बौद्ध धर्म की जड़ें जमाने वाले विद्वानों में महापंडित कुमारजीव का नाम इतिहासकार अति श्रद्धापूर्वक लेते रहेंगे। कुमारजीव के पिता काश्मीर के राजा के मंत्री थे। वे भिक्षु होकर मध्य एशिया के कूचा नगर में चले गए। वहाँ के राजा ने उन्हें राजगुरु बनाया और साथ ही अपनी पुत्री जीव का विवाह उनसे कर दिया। उनसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम कुमारजीव रखा गया। यह लड़का असाधारण रूप से प्रतिभासंपन्न था। आचार्य बुद्धदत्त के तत्त्वावधान में शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वह चीन चला गया, जहाँ उसका राजकीय स्वागत हुआ और सहयोग मिला। उसने १२ वर्ष बौद्ध साहित्य का अनुवाद चीनी भाषा में करने में लगाए और लगभग १०० ग्रंथों का अनुवाद कर दिया। उसकी भाषा शैली समकालीन चीनी विद्वानों से कहीं अधिक परिष्कृत मानी जाती है। कुमारजीव ने अनुवाद में सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप ऐसे परिवर्तन किए जिन्हें एक दृष्टि से मौलिक और क्रांतिकारी भी कहा जा सकता है।

कुमारजीव के साथ अनुवाद करने में संलग्न शिष्यों में धर्मरक्ष, संघभट्ट, संघदेव, धर्मप्रिय, बुद्धभट्ट, बुद्धजीव आदि कितने ही ऐसे विद्वान थे, जो कुमारजीव के मरने का उपरांत भी ग्रंथ-लेखन कार्य में अविरल श्रद्धा से लगे रहे। कुमारजीव के चीनी शिष्यों में सेगजुई, ताओ युग, तानपिन, सेंगचिन, ताओ हैंग, हु जुई येन, हुई कुआन आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। यह प्राणपण से ऐसे प्रयास करते रहे जिससे उनके गुरु के आरंभ किए हुए प्रयत्न में तनिक भी शिथिलता नहीं आने पावे वरन दिन-दिन अभिवृद्धि ही होती रहे।

आठवीं सदी के आरंभ में एक प्रतिभाशाली विद्वान अमोघवज्र चीन पहुँचा। उसने कुमारजीव, बोधिरुचि एवं जिन गुप्त की परंपरा में एक नई कड़ी जोड़ दी। राजा ने उन्हें श्रद्धापूर्वक "त्रिपिटिक भदंत" और "राज्य कणधार" की उपाधियाँ प्रदान की। सन् ७७७ में उनका अवसान हुआ। इस अवधि में उन्होंने अनुवाद कार्य और प्रचार प्रशिक्षण इतना अधिक कर लिया जिसे देखकर आश्चर्य होता था। बनारस से पहुँचे गौतम प्रज्ञारुचि की लगन और प्रतिभा भी असाधारण थी। उन्होंने तीन वर्ष की छोटी अवधि में न केवल चीनी भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया वरन १८ ग्रंथों का अनुवाद भी कर डाला। हराम के रोटी तोड़ने और प्रमाद में समय गँवाने वाले, निरुद्देश्य घूमने वाले आज के साधु बाबाओं की उस समय के लगनशील धर्मप्रचारकों से तुलना की जाए तो जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड़ता है।

इन धर्मप्रचारकों का प्रभाव चीनी प्रजा तक ही सीमित नहीं रहा वरन राजाओं पर भी पड़ा। उन्होंने इस धर्म चर्चा को रुचिपूर्वक सुना, भिक्षुओं के संपर्क में आए, उनके तपस्वी जीवन को निकट से परखा और पाया कि इतनी उत्कृष्ट निष्ठा अकारण नहीं हो सकती। यदि उस धर्म प्रेरणा में कोई सार न होता तो यह लोग इतना कष्टसाध्य, निस्पृह जीवन क्यों बिताते और क्यों इतनी दुर्गम यात्राएँ करके धर्म संदेश सुनाने के लिए दूरवर्ती देश-देशांतरों में भ्रमण करते? तपस्वी भिक्षुओं के प्रखर व्यक्तित्व से अनेकों राजाओं, विद्वानों और प्रतिभाशाली लोगों ने प्रभावित होकर धर्म दीक्षा ली। फलतः उस देश में धर्म चक्र-प्रवर्तन का क्रिया-कलाप द्रुतगति से अग्रगामी होता चला गया।

चीन के इतिहास ग्रंथ "को-दैन-फिंग-ची" से पता चलता है कि सन ६५ में चीनी राजा "मिंग्ती" ने बद्ध धर्म के प्रति बड़ी आकर्षक चर्चा सुनी। अस्तु, पूरा विवरण ज्ञात करने के लिए उसने १८ विद्वानों का एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा। वह ११ वर्ष अध्ययन के बाद लौटा तो अपने साथ बुद्ध भगवान की एक प्रतिमा अनेक ग्रंथ तथा काश्यप मातंग और धर्मरक्ष नामक दो भिक्षुओं को भी साथ ले गया। प्रतिमा का राजकीय सम्मान किया गया। प्रजा को बुद्ध के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का राजकीय आदेश दिया गया। यही इतिहास चीन के अन्य १३ ग्रंथों में भी है। यही चर्चा तिब्बत में "तत्था शेल्ख्यी मीलन" ग्रंथ में भी अंकित है।

मातंग काश्यप अधिक दिन जीवित न रह सके और चीन में बुद्ध के संदेशों की जानकारी कराने का उत्तरदायित्व धर्मरक्ष पर आया। उसने चीनी भाषा में बुद्ध ग्रंथों के अनुवाद कार्य को प्रधानता दी। पाँच महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का स्वयं अनुवाद किया और भारत के विद्वान भिक्षुओं के जत्थे बुलाए जो श्रमण, सुविनय, स्थविर, चिलुकाक्ष, भिक्षु आर्यकाल आदि के नेतृत्व में चीन पहुँचे। उसके बाद महाबल, धर्मपाल, विघ्न, तुहमान, कल्याण, गोरक्ष आदि विद्वान समय-समय पर वहाँ जाते रहे। उन्होंने लगभग ३५० ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में कर डाला। साथ ही अध्ययन और प्रचार कार्य भी जारी रखा। इन लोगों ने राजा और प्रजा दोनों को समान रूप से प्रभावित किया और बुद्ध धर्म की जड़ें गहराई तक जमाने में कुछ उठा न रखा। तीसरी शताब्दी तक भारतीय बुद्ध हजारों की संख्या में चीन पहुँच चुके थे। उस समय चीन 'बी', 'बू', 'शू' के नामों से तीन भागों में विभक्त था। 'बी' की राजधानी 'लायंग' थी, 'बू' की 'नानकिंग'। इन पर चिन वंशी राजाओं का अधिकार था। वे बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थे। फलतः उत्तरी चीन में बौद्ध धर्म का अच्छा विस्तार हुआ। जनता का अधिकांश भाग उसी का अनुयायी बन गया। उन्हीं दिनों अनेक बौद्ध विहार भी बनाए गए। यह क्रम सन् ४०० तक चला।

पाँचवीं शताब्दी के आरंभ में तातार और शुंगवंश का अधिकार हो गया। इन्होंने बुद्ध धर्म को चीन से उखाड़ने के लिए बर्बर प्रयत्न किए, पर उससे कुछ बना नहीं। तातार शासक "संग-वनति" ने अपने पूर्वजों की बर्बरता का प्रायश्चित किया। वह स्वयं ५० राज्याधिकारियों सहित बौद्ध बना और प्रत्येक बड़े शहर में बौद्ध विहार बनवाये। ३५ फीट ऊँची एक प्रतिमा बनवाकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। एशिया के अनेक बौद्ध देशों ने अपने प्रतिनिधि मंडल "संग-वन-ति" के इस धर्मोत्साह की प्रशंसा करने के लिए चीन भेजे। भारतीय धर्मप्रचारकों की बड़ी-बडी मंडलियाँ उत्साह पूर्वक चीन जाने लगीं। छठी शताब्दी में तीन हजार प्रकांड धर्मप्रचारक चीन में घर-घर जाकर धर्मविजय का अलख जगा रहे थे। एक बौद्ध भिक्षु "बोधिधर्म" ने तो ९ वर्ष तक ऐसी घोर तपश्चर्या की कि उससे चमत्कृत होकर जनता ने और भी अधिक श्रद्धा के साथ धर्म-दीक्षा लेना आरंभ कर दिया।

सन् ५३९ में राजा बू तीने एक विद्वान मंडल बौद्ध ग्रंथ लाने के लिए मगध भेजा। जब मंडल वापस लौटा तो भारतीय तत्त्ववेत्ता परमार्थ को भी अपने साथ लेता गया। उसने योग शिक्षा, धर्म प्रचार एवं ग्रंथ अनुवाद के तीनों ही क्रिया-कलाप बड़े उत्साह से आगे बढ़ाए।

उत्तरी चीन में सन् ४७७ से ५३४ तक के साठ वर्षों में बौद्ध धर्म की क्या स्थिति थी, इसका विवरण "बौद्ध धर्म और ताओ धर्म संबंधी अभिलेख" पुस्तक में दिया है। उसी से विदित होता है कि "हिज आन वेन ती" के शासन काल में बौद्ध मठों की संख्या ६५७८ थी। “हिज आन बूही" के काल में वह १४२२९ हो गई और अंततः सन् ५३४ में उनकी संख्या ३१७६७ थी। भिक्षुओं की संख्या इस अवधि में ७९३५८ से बढ़ते-बढ़ते २० लाख तक जा पहुँची थी।

चौथी शताब्दी में भी बौद्ध भिक्षुणियाँ क्रियाशील हो चली थीं। भिक्षु बुद्धदान से दीक्षा लेकर "चिंग चिएन" और "आन लिंग शाड" नामक दो महिलाएँ धर्म-संदेश के क्षेत्र में उतरीं। उन्होंने सन् ३१६ में एक भिक्षुणी मठ "हिआंग" "कुओ" में बनवाया। "पूर्वी त्सिन" वंश का शासन चीन पर ३१७ से ४२० तक रहा। इसके सभी शासक बौद्ध थे। उन्होंने धर्म चक्र-प्रवर्तन में पूरा-पूरा साथ दिया। उन दिनों नानकिंग न केवल शासन सत्ता की वरन धर्म केंद्र की भी राजधानी बना हुआ था। इसी वातावरण में चीन का महान बौद्ध भिक्षु ताओ आन सन् ३१२ में जन्मा और ३८५ तक अपने ७३ वर्षीय जीवन में धर्म चक्र-प्रवर्तन के लिए ऐतिहासिक कार्य करता रहा। "शिह शुओ" की पुस्तक में विस्तार पूर्वक वर्णन है कि किन विशेषताओं और कुशलताओं के कारण उसने राजा प्रजा के मन पर बौद्ध धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा की प्रतिष्ठापना की थी। उसने देश भर के सुदूर क्षेत्रों में भ्रमण किया, कितने ही मठों में रहा, साहित्य निर्माण किया और धर्मसंस्थानों की स्थापना की। उसने जितने शिष्य बनाए सबमें कर्मठता कूट-कूटकर भरी थी।

पाँचवीं सदी के अंत और छठी के प्रारंभ में चीन बौद्ध धर्म से इतना सुसंपन्न हो गया कि उसके द्वारा पड़ोसी देशों में धर्म विस्तार का कार्य भली प्रकार संपन्न किया जाने लगा। ‘लियांग काल का वृत्तांत', 'दक्षिण चीन का वृत्तांत' ग्रंथों से प्रकट है कि कोरिया का अनुरोध स्वाकीर करके चीन सम्राट ने अपने बौद्ध ग्रंथ उस देश को भेजे थे। ब्रह्मदेश के चित्रकार और मूर्तिकार चीनी अनुभूतियाँ सीखने और समझने चीन गए थे। चीनी राजा 'फूना' हिंदू राजाओं से घनिष्ठता बनाए हुए था। उसने कोचीन और कंबोज से भी घने संबंध बनाए थे। भारतीय राजा जयवर्मा ने चीनी सम्राट को बहुमूल्य उपहार भेजे थे। राजा रुद्र वर्मा का दूत भी सम्राट 'वूती' की सेवा में कुछ धार्मिक उपहार लेकर गया था। उस राजा ने भारत से मंद्रसेन और सुभूति नामक विद्वानों को सादर आग्रह के साथ बुलाकर अपने देश में बसाया था। सुई वंश के शासन काल छठी शताब्दी में उत्तरी चीन में बौद्ध धर्म का विस्तार प्रौढ़ावस्था में जा पहुँचा था। उस समय तक १९५० विशालकाय बौद्ध ग्रंथ चीनी भाषा में अनूदित हो चुके थे। इस कार्य में विशेष योगदान के लिए उज्जैन से नालन्द यशस और विनीत रुचि नामक विद्वान वहाँ पहुँचे थे। उनके साथ ही गांधार से ज्ञानगुप्त भी चल पड़ा था। इस त्रिमूर्ति ने न केवल साहित्यसृजन का वरन भ्रमण करके प्रवचनों द्वारा धर्मचक्र-प्रवर्तन का कार्य समान उत्साह के साथ संपन्न किया। इसमें चीनी बौद्धों का पूरा-पूरा सहयोग था। यही कारण था कि सम्राट "काओत्सू" के शासन काल सन् ५९४ में संकलित ग्रंथों की सूची "सुई चुंग चिंग मुली" के अनुसार २२५७ तक पहुँच गई थी। उनकी ५०९४ बड़ी-बड़ी जिल्दें थीं, एक-एक ग्रंथ कई-कई जिल्दों में पूरा हुआ था।

सातवीं शताब्दी में भारतीय धर्म प्रचारकों के जत्थे भी बहुत गए थे। प्रभाकरमित्र, अतिगुप्त, नांदी, बुद्धपाल, दिवाकर, देवप्रज्ञा, शुभाकर, शिक्षानंद, बोधरूचि का उल्लेख चीनी ग्रंथों में विशेष रूप से मिलता है।

"लियू हू का जीवन वृत्त' ग्रंथ में लिखा है कि "डानयांग" जिले में "त्सी यंग" नामक दस्यु ने उस क्षेत्र में भारी उत्पात मचा रखा था। असंख्यों को उसने मारा और लूटा था। पीछे वह बौद्ध हो गया और भूतकाल के पापों का प्रायश्चित करने के लिए धर्म चक्र-प्रवर्तन में सहयोग देने लगा। उसने बहुत से मठ और स्तूप बनवाए। मंदिरों में मूर्ति स्थापना करवाई। एक विशाल समारोह किया जिसमें दस हजार व्यक्ति धर्मोपदेश सुनने के लिए एकत्रित हुए। उसके प्रभाव से सहस्रों ने मद्य-मांस त्यागा और बुद्ध धर्म में प्रवेश किया।

परीक्षित बौद्ध ग्रंथों की सूची और 'वाई राजवंश में बौद्ध धर्म तथा ताओवाद के अभिलेख' ग्रंथों से प्रकट होता है कि चीन में बौद्ध धर्म ईसा से २०० वर्ष पूर्व ही पहुँच गया। तीसरी सदी में लिखे गए 'वाइलिया ओ' नामक ग्रंथ के लेखक यू हुआन का कथन है कि राजकुमार यू एहची ने पवित्र बुद्ध सूत्रों को गंभीर अध्ययन किया था।

'सत्य पर एक निबंध' नामक चीनी पुस्तक से प्रकट होता है कि तांगवंश के शासक बौद्ध धर्म के प्रति विशेष रूप से अनुरक्त रहे। सातवीं शताब्दी के सम्राट 'काओत्स' का शासन काल तो बौद्ध धर्म की दृष्टि से स्वर्ण काल कहा जा सकता है। उसने सात प्रख्यात मठों का निर्माण कराया। 'राजमहलों संबंधी अभिलेख' ग्रंथ से प्रकट है कि राजा पर भारतीय भिक्षु प्रभाकर मित्र का असाधारण प्रभाव पड़ा। राजमहलों में भिक्षुओं का बेरोकटोक प्रवेश था। इनकी संतानें भी धर्म चक्र-प्रवर्तन में वैसा ही योगदान देती रहीं। चीन की प्राचीन परंपराओं को तोड़कर एक महिला सिंहासनारूढ़ हुई। सम्राज्ञी वूचाओ ने सन् ६८२ से ७०४ तक २२ वर्ष राज्य किया। उसके शासन काल में बौद्ध धर्म के विस्तार में बहुत योगदान मिला। 'फूता शिह के समाधिलेख' ग्रंथ में पाओ चिह और पहुंग नामक दो ऐसे भिक्षुओं का वर्णन है जिन्हें चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त थीं। उन्होंने अपनी अलौकिकता के आधार पर धर्म प्रचार में अपने ढंग से सफलता प्राप्त की। 'चरम चेतना के अभिलेख' पुस्तक में ऐसे ही एक अन्य चमत्कारी संत का वर्णन है।

चेन वंश के कई राजा कहने को तो शासनाध्यक्ष थे, पर वस्तुतः वे बौद्ध संतों जैसा जीवन जीते थे। सम्राट वू तो राजकीय मठ में प्रवेश करके संन्यास भी ले चुके थे। मंत्रियों ने उन्हें बड़ी कठिनाई से मनाकर फिर से राज्य सँभालने के लिए राजी किया था। राजा 'हाउचूं' के राज्य का त्यागकर संन्यास लेने की घटना प्रसिद्ध है।

बौद्ध भिक्षु ही नहीं चीनी सम्राट भी धर्म पानी-प्रवर्तन में भाग लेते थे। राज्याश्रय देकर विहारों की अर्थ व्यवस्था तो वे करते ही थे, उसके अतिरिक्त कितनों ने ही धर्म प्रचारकों के कंधे से कंधा मिलाकर स्वयं भी कार्य किया था। सन् ४८९ में राजकुमार 'त्जी लिआंग' अपने पिता के राज्य का प्रधानमंत्री भी था। उसने ७२ खंडों में बौद्ध ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ कीं और स्वयं बहुत से निबंध लिखे, जो एक सौ खंडों के सोलह ग्रंथों में संग्रहीत है। उसने कितने ही प्रवचन किए थे और भिक्षु सम्मेलन बुलाए थे। 'सार्वभौमिक धर्मोपदेशक मठ' के आयोजन में ५०० धर्म प्रचारकों ने राजकुमार के प्रोत्साहन पर एक दूरगामी योजना बनाई थी। उसने राज्य के बौद्ध कानूनों का प्रचलन किया और अनेक सुयोग्य भिक्षुओं को राज्याधिकारी नियुक्त किया।

भारतीय राजाओं और चीनी राजाओं में भी धर्म प्रचार के आधार को लेकर सहयोगी आदान-प्रदान होता रहा है। अराकान के भारतीय राजा पुष्प वर्मा ने सुंग सम्राट को बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान देने के उपलक्ष्य में भूरि-भूरि प्रशंसा युक्त पत्र लिखे और राजदूतों के माध्यम से उन्हें भेजा था। ऐसे दो पत्र चीनी संग्रहालय में सुरक्षित हैं। एक अन्य भारतीय राजा जीवभद्र ने भी उसी सम्राट को ऐसा ही पत्र भेजा था। उस पत्र में लिखा है—"हमारे और आपके देशों के बीच आवागमन में पूरे तीन वर्ष लगते हैं, तो भी हम लोग भावनात्मक दृष्टि से अति निकट हैं। लंका के राजा ने भी चीन-सम्राट को बौद्ध प्रेरणा के संबंध में पत्र लिखा था।"

किसी समय भारत में भव्य मंदिर बनाने का असाधारण उत्साह था। प्रख्यात संत और राजा लोग अपनी विशिष्टता का प्रमाण एवं स्मृति का आधार विशाल मंदिरों के निर्माण को मानते थे। उन्हें अधिकाधिक कलात्मक बनाने के लिए प्रचुर धन और बुद्धि-कौशल लगाते थे। वही परंपरा चीन में भी बुद्ध धर्म के प्रवेश के साथ-साथ चली गई। वहाँ शासकों और संतों ने भगवान बुद्ध के भव्य मंदिर, विहार, चैत्य एवं स्तूप बनाए। शताब्दियों और सहस्राब्दियाँ बीत जाने के कारण उनमें से कितने ही कालप्रवाह में जराजीर्ण होकर नष्ट हो गए। कितने ही विद्वेषी आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिये गए और कितने ही उपेक्षा के गर्त में समा गए। इनके ध्वंशावशेष समस्त चीन में बिखरे पड़े हैं। सर्वेक्षण करने से प्रतीत होता है कि उस निर्माण कार्य पर पूरी तरह भारतीय स्थापत्य कला की छाप थी।

लो यांग का 'श्वेत अश्व मठ' कौशल राज्य के सुप्रसिद्ध 'अनाथ पिण्डाराम' की शैली पर बना है। 'नानकिंग के बौद्ध मंदिरों का विवरण' ग्रंथ में इस मठ के संदर्भ में जो उल्लेख है, उससे स्पष्ट है कि उस निर्माण में न केवल भारतीय मस्तिष्क लगा है वरन यहाँ के कलाकारों का श्रम भी उस कार्य को संपन्न करने में जुटा रहा है। सन् ५१६ ई० में वाई वंश की एक रानी ने 'शाश्वत शांति मठ' बनवाया। 'लो यांग स्थित मंदिरों के उल्लेख' ग्रंथ में उसका जो वर्णन छपा है, उससे विदित होता है कि वह नौ मंजिला था, उसकी ऊँचाई ६०० फीट थी। दस हजार वर्ग फुट से अधिक का उसका घेरा था। सारी इमारत लकड़ी की बनी थी। इसकी स्थापत्य कला भारतीय थी। इससे पहले चीन में उससे बड़ा मंदिर और कोई नहीं बना था।

चीकिआंग प्रांत की झील का आकर्षण मात्र जलनिधि का नहीं है। उसके साथ जुड़े हुए 'लुए फोंग' और 'पाओ सु' नाम के पैगोडा (बौद्ध मंदिर) उसकी शोभा में चार चाँद लगाते थे। पीकिंग की सबसे पुरानी इमारत 'स्वर्गीय शांति-मठ' है। यह छठी शताब्दी में बना था। अभी भी 'पाई हाई' के 'चुंग टु आंग' द्वीप की पहाड़ी पर बना श्वेत पैगोडा अपनी कलाकृति से दर्शकों के आश्चर्यान्वित करता है। यह सब भारतीय स्थापत्य कला के जीवंत नमूने हैं।

मूर्तिकला और गुहा उत्खनन का प्रचलन भी चीन में बौद्ध धर्म के पीछे-पीछे ही भारत से पहुँचा है। वाई वंश के बौद्ध राजा 'बेन चेन' ने इन दोनों कार्यों की ओर विशेष ध्यान ही नहीं दिया वरन उसने अपने भाई सहित मूर्ति निर्माण में स्वयं श्रम किया। अभी भी लो यांग नगर के निकट 'ई-चुएंह' और 'लुंग मेन' की तीन-चार गुफा मूर्तियाँ विद्यमान हैं। युनकांग पर्वत पर लगभग एक हजार भव्य मूर्तियाँ मिली हैं। 'वाई वंश की पुस्तक' नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि तान माओ नामक एक बौद्ध भिक्षु ने वेचाड में पाँच विशाल गुफाएँ बनवाई थीं, और चट्टानें खोदकर ७० और ६० फीट ऊँची दो विशाल प्रतिमाओं का निर्माण संपन्न किया गया था। ई० चुएंह, लुंग मेन और तुंगहु आंग की गुफाओं से लगभग एक हजार प्रतिमाएँ मिली हैं, इसलिए उसका नाम ही 'सहस्र बौद्ध गुफा' पड़ गया। ये प्रतिमाएँ मध्य एशिया के तुरफान, कूचा और खोतान के बुद्ध विहारों से मिलती-जुलती हैं। इन गुफाओं का निर्माण ईसा की पाँचवीं से सातवीं शताब्दी तक होता रहा है।

चीन में स्तूपों की भी कमी नहीं। सुई वंश के सम्राट 'बे ती' ने सन् ६०१ में तीस भिक्षुओं को विभिन्न स्थानों पर स्तूप बनाने की राजाज्ञा प्रदान की थी। लंबा समय बीत जाने पर भी तत्कालीन भित्ति चित्रों में भी भारतीय चित्रकला की गहरी छाप देखी जा सकती है। उस युग के प्रख्यात चित्रकार कुओ-तान-वाई और कुआ-हा-तो वस्तुतः कोई भिक्षु थे। उन्होंने अपनी तूलिका से भगवान बुद्ध की ही विभिन्न मुद्राओं, आकृतियों और घटनाओं का अंकन करने वाले चित्र ही आजीवन बनाए। ईसा की आठवीं सदी में 'बू-ताओ-तूजे' नामक प्रसिद्ध चित्रकार हुआ है। उसने मंदिरों के भित्तिचित्र बनाए। उन्हें भारतीय चित्रकला का चीनी संस्करण ही कहा जा सकता है।

अठारहवीं सदी के आरंभ में सम्राट चिएन लुंग ने समीपवर्ती देशों में बौद्ध धर्म पहुँचाने के लिए विशेष प्रयत्न किया। उसने 'कांजुर' ग्रंथ के २७० खंडों का मंगोल भाषा में अनुवाद कराया। सन् १७४० में वह पूर्ण हो गया तो सम्राट ने उसे प्रकाशित कराके मंगोलिया के विद्या केंद्रों में बिना मूल्य पहुँचाया। इसके बाद तिब्बती और मंगोल भाषा में अन्य अनेक ग्रंथ अनूदित और प्रकाशित हुए। इनसे उन देशों में बुद्ध-दर्शन के प्रति अगाध श्रद्धा और गहरी दार्शनिक जानकारी उत्पन्न हुई।

फालिन कृत 'पि ओ न-चेंग अभिलेख' में दक्षिणी चीन के राजवंशों के समय निर्मित बौद्ध विहारों, मंदिरों एवं भिक्षु-भिक्षुणियों का विवरण मिलता है जो इस प्रकार है—

राजवंश       विहार       भिक्षु
पूर्वी त्सिंग     १७५६     २४०००
लिड सुंग      १९१३       ३६०००
ची            २०१५       ३२५००
लि आंग       २८४६       ८२७००

चीन के उत्तर में मंगोलिया प्रदेश के निवासियों में बौद्ध धर्म आरंभ से ही बहुत लोकप्रिय रहा। मंगोल शासकों ने भी उसमें सहायता की। चंगेज खां के पुत्र कुवेलाई खां और उत्तराधिकारी ओगोतेई खां ने बौद्ध विहारों की यथासंभव सहायता भी की। बौद्ध प्रचारकों के परिश्रम से उस क्षेत्र में धर्मविजय अभियान अधिकाधिक सफल होता गया। १३वीं सदी के अंत में कराई गई शासकीय जाँच-पड़ताल में ऐसा उल्लेख मिलता है कि मंगोलिया समेत समस्त चीन में ४२३१८ मंदिर हैं और उनमें २१३१४८ भिक्षु निवास करते थे। इन दिनों मंगोलों का चीन के अधिकांश भाग पर आधिपत्य हो गया था। उनका शासन १२८० से १३६७ तक रहा। इस अवधि में बौद्ध धर्म फला-फूला ही।

चीन में प्राचीन धर्म ताओ और कनफ्यूशियस का प्रचार था। वे सदा बौद्ध धर्म का विरोध करते रहे और उसे विदेशी धर्म बतलाकर तथा अन्य आक्षेप करके जनता में अश्रद्धा उत्पन्न करते रहे। फिर भी उसका प्रचार विस्तार रुका नहीं। छह सौ वर्षों में उसने अपनी जड़ें जमा ली और चीन में बौद्ध धर्म विदेशी न रहकर उसका अपना हो गया और सबसे अधिक संख्या उसी की अनुयायी बन गई। राजाओं में से कुछ विरोधी भी रहे, पर अधिकांश का समर्थन और झुकाव ही बना रहा। सातवीं शताब्दी में चीन में अपने भिक्षु ही इतने पर्याप्त हो गए कि उन्हें भारत से उतने विद्वान बुलाने की आवश्यकता नहीं रही जितनी पहले थी। अस्तु, भारतीय प्रचारकों का झुकाव चीन से मुड़कर तिब्बत की ओर बदल गया। उन्होंने चीन की ही भाँति तिब्बत को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने के लिए प्रयास आरंभ कर दिया।

ऐसा नहीं समझना चाहिए कि बौद्ध धर्म को चीन में सहज-सुलभ प्रवेश मिलता चला गया। निस्संदेह उस महान धर्म के उत्कृष्ट सिद्धांतों और प्रचारकों के उज्ज्वल व्यक्तित्वों तथा ज्ञानभंडार ने उस देश के लोक मानस को जीतने में समुचित सफलता पाई। फिर भी पुरातनवाद और सुधारवाद के बीच सदा-सर्वदा की भाँति वहाँ भी समय-समय पर डटकर संघर्ष होता रहा। प्रतिपक्षियों ने समयानुसार तीखे आक्रमण किए थे, तदनुसार प्रचारकों को निंदा, अपमान से लेकर निर्मम अत्याचारों का शिकार होकर धैर्यपूर्वक प्राण गँवाने तक का साहस दिखाना पड़ा था। ऐसी अग्नि परीक्षा में धर्म चक्र अभियान को बार-बार गुजरना पड़ा। उसके पैर तभी जमे जब वह प्रचारकों की धर्मश्रद्धा को अटूट और अखूट सिद्ध कर सकने में सफल हो सका।

चीन में दो धर्म पहले से प्रचलित थे—(१) ताओ संप्रदाय (२) कनफ्यूशियस संप्रदाय। एक विदेशी धर्म का इतनी तेजी से छा जाना पुराने संप्रदायों को स्वभावतः क्षुब्ध करेगा। वैसा ही हुआ भी। यह विरोध दो रूपों में फूटा। उत्तरी चीन में वह मार-काट, दमन और अत्याचार के शक्ति-प्रयोग तक उतर आया। 'बाई-वु-ही' द्वारा सन् ४४६ से ४४८ में तथा 'चाऊ-बी-ती' द्वारा ५७४ से ५७७ में भिक्षुओं के साथ नृशंसता बरती गई। किंतु दक्षिणी चीन में यह विरोध प्रचार तक ही सीमित रहा। इन विरोधियों में तीन प्रमुख थे—(१) कुहुआन (२) फा-चेन (३) हुन-ची। इन लोगों ने अपने साथियों सहित उग्र प्रचार किया कि बौद्ध धर्म को चीन से निकाल बाहर किया जाए। उस अभियान में कई छोटे राजा भी शामिल हो गए।

'फु-ई' नामक कनफ्यूशियस मतानुयायी ने बौद्ध धर्म का घोर विरोध किया और तत्कालीन शासकों को विरोधी बनाने का घनघोर प्रयत्न किया। उसने 'ली-यु-आन' और 'ली-शिह-मिन' शासकों को फुसलाने में सफलता भी प्राप्त कर ली। तदनुसार भिक्षुओं को पंजीकृत प्रतिबंधित किया गया। राजधानी में तीन और अन्य नगरों में एक-एक मठ चालू रखकर सबको बंद करने का आदेश दिया गया। बात यहाँ तक बढ़ी कि सन् ८१९ में भगवान बुद्ध की उँगुली-अवशेष का जो भव्य प्रदर्शन होने जा रहा था, वह स्थगित कर दिया गया। फुई को एक और साथी मिल गया—हान यु। उसने भी राजा और प्रजा को बौद्ध विरोधी बनाने में कुछ उठा न रखा।

ताओवादी तांग वंशी सम्राट युत्सुंग ने दो बड़े नगरों में चार-चार और शेष हर जिले में एक-एक विहार छोड़कर सबको नष्ट करने का आदेश निकाला और बड़े मंदिरों में बीस तथा छोटे विहारों में ५ भिक्षु छोड़कर सबको अपने घर लौट जाने का आदेश दिया। गिराए गए मठों के मलवे से सरकारी दफ्तर बने। संपत्ति जब्त कर ली और धातुओं की मूर्तियों को गलाकर औजार बनाए गए। 'तांग वंश की पुस्तक' बताती है कि इन आदेशों के कारण चालीस हजार मंदिर गिराए गए और ढाई लाख भिक्षु-भिक्षुणियों को फिर से गृहस्थ बनना पड़ा। 'पंच राजवंशों का इतिहास' पढ़ने से प्रतीत होता है कि सन् ९०७ में 'चू-वेन' के शासनारूढ़ होने की अवधि में पचास वर्ष के दमन ने बौद्ध संस्थाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय और दुर्बल बना दी थी।

सत्रहवीं शताब्दी में सम्राट शुन-चिह ने नए बौद्ध मंदिरों के निर्माण और नए भिक्षु-भिक्षुणियों के बनने पर कठोर प्रतिबंध लगाए। न केवल बौद्ध वरन ताओ धर्मानुयायियों पर भी ऐसे ही प्रतिबंध लगाए गए। संन्यासियों को अपने-अपने घर कृषि-उद्योग करने के लिए वापस जाना पड़ा। भिक्षुणियों को घरेलू काम-काज करने के लिए या तो नौकरानियाँ बना दिया गया या वे घर वापस चली गईं। चालीस वर्ष से कम आयु के किसी व्यक्ति को भिक्षु बनने की सुविधा न रही। बिना परीक्षा दिए और प्रमाण पत्र लिए भिक्षु बनने वालों को ८० कोड़े लगाने का कठोर दंड निर्धारित किया गया।

विरोधियों के कुचक्र चलते रहे। सुकरात, ईसा और गांधी की तरह सैंतालीस वर्षीय भिक्षु 'हुआन-का-ओ' को सन् ४४४ में मौत के घाट उतार दिया गया। ताओवादियों ने 'युआन-वाई काल' के सम्राटों को तरह-तरह के भ्रमों में फँसाकर बौद्ध धर्म विरोधी बना दिया था और भिक्षुओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए थे। 'वाई राजवंश की पुस्तक' से प्रकट होता है कि सन् ४४५ में राज्य मंत्री साई हाओ' ने अनेक बौद्ध मठों को गिराया और भिक्षुओं का वध कराया था। 'हिसाओ' सम्राट ने प्रत्येक जिले में २०० से ३०० ही भिक्षु बनने का प्रतिबंध लगा दिया था।

'युआन वंश का इतिहास' पुस्तक बताती है कि 'चांग-आन' नगर में ताओवादियों ने बुद्ध स्तूपों और बोधिसत्व की अवलोकितेश्वर की मूर्तियों को नष्ट किया था। उन्होंने ४८२ बौद्ध मठों पर बलपूर्वक कब्जा कर लिया था। पीछे एक न्याय सभा ने इस बलपूर्वक कब्जे को अमान्य ठहराकर विहारों को वापस कराया।

चीन में हजारों की संख्या में अभी भी बौद्ध विहार मौजूद हैं। कहीं-कहीं मंदिर और कहीं चैत्य हैं। वे प्रायः पर्वतों और छोटे देहातों में हैं। बड़े शहरों में ये धर्म स्थान कहीं-कहीं ही दीखते हैं। बुद्ध प्रतिमाओं में से कितनी ही स्वर्ण विनिर्मित पाई जाती हैं। इन मंदिरों और विहारों में भिक्षुओं की निर्वाह व्यवस्था रहती है। उनमें से कुछ स्थानीय व्यवस्था सँभालते हैं और कुछ परिव्राजक रहकर धर्म प्रचार का कार्य करते हैं। काले रंग के लंबे चोगों को पहने, सिर मुड़ाये भिक्षुओं को अलग से ही पहचाना जा सकता है। उनमें से कितने ही उत्तरीय वस्त्र चीवर ही धारण करते हैं। प्रायः तथागत के जन्मदिन पर लोग भिक्षु दीक्षा ग्रहण करते हैं। उन्हें २५० पालन योग्य नियमों का स्मरण कराया जाता है। चीनी भिक्षु प्रायः मठों में ही निर्वाह करते हैं, उनमें भिक्षा माँगने का प्रचलन नहीं है। विहारों में धर्मशिक्षा की व्यवस्था रहती है।

चीन में पर्वतों के गुहा-मंदिर बहुत अधिक हैं। एकांत साधन और विद्वेषियों से सुरक्षा का ध्यान रखते हुए इन्हें चट्टानें काटकर बनाया गया है।

इन दिनों अच्छी हालत में विद्यमान गुहा-मंदिर तथा बुद्ध विहार भी कितने ही विद्यमान हैं। सिआन नगर के समीप सन् ६४८ का बना हंस चैत्य लगभग वैसा ही है जैसा मगध का हंस चैत्य। उसके बीच में १५ मंजिला स्तूप है। प्राचीन काल में विद्वान 'ईच-चिंग' की अध्यक्षता में यहाँ बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद का कार्य चलता था। चाँग-आन नगर की सिनचंग सड़क पर सन् ५८२ में बना 'चिंगलुंग सु' विहार है। इसमें स्थापित संगमरमर की बुद्ध प्रतिमा कला की दृष्टि से बहुत ही आकर्षक है। शांसि प्रांत के किंगमंग नगर का विहार यद्यपि टूटी-फूटी हालत में है तो भी उसके मुख्य भवन के दोनों स्तंभ तथा प्रतिमाएँ दर्शनीय स्थिति में हैं।

उत्तरी चीन में तांग-हो नदी के सहारे चली गई पर्वत शृंखला 'सहस्र बुद्धि' कहलाती है। इनकी चट्टानों पर जहाँ-तहाँ बुद्ध प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। इसी क्षेत्र में अनेक गुहा-मंदिर भी हैं। इनमें जो मूर्तियाँ अवशेष एवं लेख मिले हैं, उनसे पता चलता है कि उनमें से अधिकांश का निर्माण सातवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुआ था। 'चिनान-फु' नगर से कोई दस मील दक्षिण में 'लुंग-तुंग' विहार है, यह पहाड़ियों से घिरा है। इसमें दो गुफाएँ हैं, जिनमें भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं के अतिरिक्त धर्मप्रचारक महाकाश्यप, मंजुश्री, आनंद और सामंत भद्र की मूर्तियाँ भी हैं। ये मूर्तियाँ सन् १३१८ की बनी हैं। 'ता-युंग ता' नगर से दस मील पश्चिम में 'पुन्न-कंग' पर्वत श्रेणियों में ऐसी चट्टान काट कर बनाई गई बहुत सी गुफाएँ हैं। इनकी भव्यता पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिए आकर्षण का विषय हैं। उनका निर्माण काल सन् ४५० से ४६० के बीच माना जाता है। इनमें स्थापित बुद्ध प्रतिमाएँ कलापूर्ण हैं। दीवारों पर खुदे हुए शिलालेखों से उनके बनाने का प्रयोजन स्पष्ट होता है। उस समय की स्थिति पर प्रकाश डालने वाले अन्य प्रमाण-सामग्री भी पुरातत्व विभाग को इनमें मिली हैं। लोपंग नगर के दक्षिण में २२ 'लुंग-मेन' गुफाओं में से अधिकांश काले पत्थर की चट्टानों की हैं। इनमें उपलब्ध प्रतिमाएँ भारतीय कला की हूबहू नकल है। इन्हें ४९३ ई० में बनी माना जाता है। होनान प्रांत को कुंग नगर के समीप पहाड़ियों में उपलब्ध ५ गुहा मंदिरों के 'शि० खु० सु०' कहा जाता है। इनमें उसकी समय की स्थिति पर प्रकाश डालने वाले शिला लेख मिले हैं।

चीन के तुगहूवांग में ४७६ गुफाएँ विद्यमान हैं जो इस बात की साक्षी देती हैं कि उनमें रहकर बौद्ध भिक्षु कठोर तप करके धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए आत्मबल संपादित करते थे। सोलह सौ वर्ष पुराने शंघाई नगर के निकट 'चिन आन सन' मंदिर में महाकाल की प्रतिमा के सम्मुख अभी भी मंगल पाठ होता देखा जा सकता है। हंसारूढ़ ब्रह्मा, वृषभारूढ शिव और हाथी पर सवार महाकाल की प्रतिमाएँ हैं। पेकिंग में भी एक महाकाल मंदिर है, जिसका 'महाकाल माओ' नामकरण वर्तमान तानाशाह शासक के नाम पर किया गया है।

चीन में बौद्ध धर्म के विस्तार पर प्रकाश डालने वाले साहित्य में से कुछ पठनीय पुस्तकें निम्नलिखित हैं—

(१) एडकिन कृत—'चाइनीज बुद्धिज्म'
(२) चांड सी क्यांग कृत—'चीन में बुद्ध धर्म का प्रवेश'
(३) राहुल सांकृत्यायन कृत—'चीन में बुद्ध धर्म'
(४) पी०सी० बागची कृत—'इण्डिया एण्ड चाइना'
(५) 'बुद्धिस्ट मानुमेण्ट्स इन चाइना'।

भारतीय विद्वान स्वयं ही मरते-खपते रहे हों सो बात नहीं। उनकी पैनी दृष्टि धर्मप्रचारक उत्पन्न करने पर भी रही। उन्होंने प्रतिभाशील व्यक्तियों को खोजा, उभारा तथा प्रशिक्षित किया और लगभग अपने ही स्तर तक उनको पहुँचाया। ऐसे प्रशिक्षित शिष्यों में धर्मप्रचारकों में से जिन्होंने चीन एवं मध्य एशिया में महत्त्वपूर्ण कार्य किए उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं—चीन का 'चुआनच्यांग', जापान का 'कुकई', 'शिनरन', 'डोजेन', 'निचिरेन।

चीन में उन दिनों धर्म धारणा और ज्ञान-पिपासा चरम सीमा पर थी। यों भारत के बौद्ध भिक्षु उस आकांक्षा का समाधान करने के लिए बराबर चीन पहुँचते रहे, पर उतने से ही काम नहीं चला। चीनी बौद्ध भिक्षु भी उसी उत्साह के साथ भारत आए और यहाँ रहकर कुछ पढ़ने, सीखने, खोजने और लाने के विचार से उनने भी लंबी यात्राएँ की और कष्ट सहे। चीन से भारत आने वाले ऐसे प्रबल उत्साही भिक्षुओं में 'फा-हि-यान' की गणना प्रमुखता के साथ की जाएगी। फा-हि-यान ने अद्भुत धैर्य और उत्कृष्ट प्रयास का नया कीर्तिमान स्थापित किया। हिंस्र-जंतुओं से भरे निविड़ वनों, शुष्क मरु प्रदेशों और हिमाच्छादित पर्वत शिखरों को लाँघता हुआ और मौत से जूझता हुआ वह भारत पहुँचा। उसने भारतभूमि का कोना-कोना छाना और दुर्लभ बौद्ध ग्रंथ प्राप्त किए। तीर्थ दर्शन किए, विद्वानों के चरणों में रहकर बहुत कुछ सीखा, साधन किए और पंद्रह वर्ष की श्रम-साधना के उपरांत जावा होते हुए समुद्र मार्ग से सन् ४१२ में चीन वापस पहुँचा। इस यात्रा में वह अकेला नहीं था। उसके साथ 'चिह येन' 'पाओ युन' 'फायोंग' आदि भिक्षु भी रहे और मिल-जुलकर वे अपना महान प्रयोजन पूरा करने में लगे रहे।

चीनी बौद्ध भिक्षु 'ह्वानत्सांग' सन् ५९६ में जन्मा और ६८ वर्ष की आयु भोगकर सन् ६६४ में स्वर्गवासी हो गया। तेरह वर्ष की आयु में उसने भिक्षु दीक्षा ली थी। धर्म श्रद्धा से विभोर होकर सन् ६२९ में ही वह भारत यात्रा के लिए एकाकी ही निकल पड़ा। दुर्गम पर्वतों, रेगिस्तानों और हिम शृगों के साथ जीवन-मृत्यु की लड़ाई लड़ता हुआ, वह सन् ६३३ में भारत पहुँचा। यहाँ उसने दस वर्ष बिताए। बहुत देखा, सीखा और खोजा। संस्कृत भाषा में प्रवीणता प्राप्त की और अपने साथ ६५७ बौद्ध ग्रंथ लेकर चीन लौटा। 'चांग आना' में उसके प्रवेश पर भारी हर्ष और स्वागत-समारोह मनाया गया। उसने अपने जीवन-काल में ७५ ग्रंथों का अनुवाद संपन्न किया, जिन्हें संस्कृत से चीनी भाषा के अनुवादों में शुद्धता की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट माना जाता है।

फाहियान जो उपलब्धियाँ और स्मृतियाँ साथ लेकर गया उसने अन्य अनेक चीनी बौद्धों को भारत आने के लिए उत्साहित किया और एक के बाद एक जत्थे दल-बल सहित भारत आने लगे। तथागत के जीवनक्रम से संबंधित तीर्थों का दर्शन करना भी इनके लिए कम आकर्षक न था। चिहमेंग, फायोंग, चूचांग आदि के नेतृत्व में चीन से भारत आए जत्थों के क्रिया-कलाप भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इन लोगों ने भी फाहियान का अनुसरण किया और बहुमूल्य धर्म-संपदा संग्रह करके वापस लौटे। इन यात्रियों ने अपने जो विवरण, संस्मरण लिखे हैं, उनसे भारत की तत्कालीन स्थिति पर प्रकाश पड़ता है और प्रतीत होता है कि यहाँ के प्रबुद्ध वर्ग की भावनाएँ किस प्रकार धर्मचक्र प्रवर्तन, लिए बहुत कुछ कर गुजरने के लिए हिलोरें ले रही थीं।

ह्वानत्सांग की तरह ही एक दूसरा दुस्साहसी बौद्ध भिक्षु ईत्सिंग हुआ है। वह ६३४ में जन्मा १४ वर्ष की आयु में भिक्षु बना। अध्ययन और साधन में निरत रहने के उपरांत वह ३७ वर्ष की आयु में धर्मभूमि भारत का दर्शन करने और भारतमाता का पयपान करने की आकुलता लेकर अकेला ही चल पड़ा। उसने समुद्र में यात्रा की। बीस दिन में सुमात्रा पहुँचा। फिर मलाया होकर बंगाल की खाड़ी में अवस्थित तामलुक बंदरगाह पर सन् ६७३ में उतरा। इस बीच उसे नावें बदलने और यात्रा की सुविधाएँ पाने के लिए कई-कई जगह ठहरना पड़ा और अगले सहयोगियों की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

नालंदा विश्व विद्यालय में उसने अध्ययन किया, पाली और संस्कृत सीखी। तीर्थयात्रा की, साधनारत रहा और अंततः ४०० संस्कृत ग्रंथ लेकर वह चीन लौटा। जहाँ-तहाँ रुकते-ठहरते अंततः वह ६९५ में चीन पहुँचा। "परम सुख मठ' और 'उज्ज्वल-मठ' में रहकर उसने अपने शिष्यों सहित अनुवाद कार्य किया। ईत्सिंग के अनुवादित संपादित ५६ ग्रंथ मिले हैं, जो २३० खंडों में विभक्त हैं। 'त्रिपिटिक सूची' उसका सबसे बड़ा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। ७९ वर्ष की आयु में सन् ७१३ में उसका देहावसान हुआ।

उन्नीसवीं सदी के बौद्ध प्रचारकों में 'पवित्र लोक संप्रदाय' के संस्थापक शेन आन का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त 'दा-चि-एह-चूं' 'तजे फुस्सु'—'लुएन ही'—'चाओ शेग लिआंग'—'हू बेन वाई' 'चंग हुएन च्वान' 'यांग चेन हुई' 'त्साओ चिन' 'चुन-च्वान पुस्ता' 'लिउ काई सेंग' आदि के नाम भी कम उल्लेख योग्य नहीं है। इन लोगों ने बिखरे हुए बौद्ध साहित्य का संकलन एवं प्रकाशन करने के अतिरिक्त उस विचारधारा को जन साधारण तक पहुँचाने के लिए अनवरत प्रयास किया।

चीनी भाषा में महान बौद्ध 'त्रिपिटिकों' का संग्रह ४६० बड़े-बड़े बंडलों में बँधने योग्य छपा है। इसके ३३२० खण्ड हैं। युआन लाई, युआन हुएन आदि अत्यंत प्रतिभाशाली विद्वान हुए हैं। उनके क्रिया-कलाप ऐसे हैं, जो भिक्षु चरितावली में सदा मूर्धन्य गिने जाते रहेंगे। वू-पी के प्रयत्न से एक हजार बौद्ध भिक्षुओं को दार्शनिक एवं धार्मिक प्रशिक्षण के लिए सुनियोजित प्रक्रिया का संचालन किया गया। 'सई युंग चि आओ' और 'तिन वाई तिन' ने प्राचीन धर्मग्रंथों पर नए दृष्टिकोण से निबंध लिखे। साधना के प्रति उपेक्षा को दूर करने के लिए 'हु हियेन' ने निरंतर दौरे किए और जहाँ-तहाँ अनेक साधना केंद्र स्थापित किए, जापान, स्याम, लंका तथा भारत तक की उसने दौड़ लगाई। शंघाई का 'अवंतसक' विश्व विद्यालय उसी का स्थापित किया हुआ था। उसका दूसरा नाम 'युए न हि' भी था। ६० वर्ष की आयु में सन् ९१७ में उसने शरीर त्यागा।

मुसलमानों के आक्रमण ने चीन में जमे हुए बौद्ध धर्म की जड़ें हिला दीं। तलवार ही उनके प्रचार-प्रसार का प्रधान माध्यम था। आक्रांताओं ने विहारों, विद्यालयों, मंदिर, पुस्तकालयों को जलाकर राख कर दिया और धर्मप्रचारकों को गाजर-मूली की तरह काटकर रख दिया। ऐसी बर्बरता के सामने अहिंसावादी बौद्ध सभ्यता न टिक सकी और उसके पैर लड़खड़ाने लगे।

मंगोलों को हटाकर मिंग वंशी सत्ता हथियाने में सफल हुए। उन्होंने १३६८ से १६४४ तक राज्य किया। इस वंश में 'थाई शु' राजा ने बौद्ध धर्म के विस्तार में विशेष सहायता दी। इसके बाद मंचू लोग शक्ति में आए। उसके 'शन चिह' और 'चिनलंग' शासकों ने भी समुचित सहयोग दिया। इसी वंश की राजमाता का शासन सन् १९०८ में चल रहा था। गद्दी पर उनका तीन वर्षीय बालक बैठा था। इन्ही दिनों चीन में प्रजातंत्री क्रांति हुई और राजतंत्र समाप्त हो गया। आंदोलनकारियों ने ५ अप्रैल १९११ में बिगुल बजाया और दस महीने की स्वल्प अवधि में उस आंदोलन ने सफलता प्राप्त कर ली।

१० अक्टूबर १९११ के दिन क्रांतिकारियों ने हांकाऊ और बूचांग में चिंगवंश के शासन को उखाड़ फेंका और उसके स्थान पर प्रजातंत्र की स्थापना हुई। डॉ० सनयातसेन प्रथम राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने बौद्ध धर्म के बिखराव और टकराव को रोकने के लिए भिक्षु 'चिन-आन' के नेतृत्व में 'अखिल चीनी बौद्ध संघ' की स्थापना की। उसकी नियमावली बनी और उसे सरकारी मान्यता मिली। गृह-विभाग ने बौद्ध-मठों के संरक्षण के लिए एक विशेष राजाज्ञा प्रसारित की। बौद्धों ने स्वयं भी अपने को लोकोपयोगी बनाने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। कई प्रसार-संगठन बनाए गए। प्रेस और प्रकाशन का प्रबंध हुआ। प्रचार, प्रवचनों, पूजा एवं धर्म विवेचना से आगे बढ़कर व्यक्ति और समाज की सामान्य समस्याओं का समाधान कर सकने योग्य बनने की नीति निर्धारित की गई।

प्रजातंत्र की स्थापना के उपरांत बौद्ध धर्म को लोकोपयोगी बनने की दिशा में प्रकांड विद्वान 'ताई हुरे' के नेतृत्व में विशेष प्रयास किए गए। ताई हुरे को उनके चरित्र और प्रयास के कारण उस देश में बौद्ध-पोप कहा जाने लगा था। अपने सहयोगी ओ-उयांग-चिंग-बू-पा-चिन चांग-ताई-पेन-वांग-यि-तिंग आदि के सहयोग से एक से एक ऐसी महत्त्वपूर्ण कार्य किए जिनसे नई रोशनी वालों को भी धर्म की उपयोगिता स्वीकार करनी पड़ी। सन् १९२५ में महा उपवन मठ में बुद्ध-परिषद द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें भारत, श्याम, जापान, जर्मनी, अमेरिका, फिनलैंड, लंका, वर्मा आदि अनेक देशों के बौद्ध प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे।

बुद्ध परिषद ने भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य किये जैसे—

(१) सन् १९२२ में चीनी बौद्धों का एक विशाल सम्मेलन आयोजन और उसमें देशव्यापी धर्म प्रचार की सुनियोजित कार्यपद्धति का निर्धारण।
(२) विश्व धर्म प्रचार के लिए एक विद्वान मंडली की योजना
(३) चीनी-तिब्बती कालेज की स्थापना
(४) बौद्ध सद्भाव सम्मेलन की स्थापना
(५) सुधार संघर्ष के लिए यंग मेन्स बुद्धिस्ट एसोसियेशन का युवकों में व्यापक क्रिया-कलाप संचालन
(६) बौद्ध साहित्य के प्रामाणिक प्रकाशन करने के लिए आभ्यंतर विद्या-परिषद की स्थापना
(७) छात्रोपयोगी बौद्ध धर्म की पाठ्य पुस्तकों का निर्माण और प्रसार
(८) चीन में बौद्ध इतिहास की खोज और प्रमाणों का संग्रहालय
(९) विशाल अध्ययन केंद्र एवं बौद्ध विश्वविद्यालय का संचालन आदि।

चीन की बुद्ध परिषद भारत के साथ अपने संपर्क घने बनाने का प्रयत्न कर रही थी, उधर भारत की चीनी-भारतीय सांस्कृतिक परिषद इसी प्रयास में थी। दोनों देशों में घनिष्ठता स्थापन करने के प्रयत्न चल रहे थे। यह उचित भी था क्योंकि हिंदू और बौद्ध संस्कृतियाँ धार्मिक दृष्टि से सहोदर भाई हैं। यह एकता उपयुक्त वातावरण में सहज ही घनीभूत हो सकती है।

चीन के छात्र भारत में और भारत के चीन में पढ़ें। यह सिलसिला १९४५ में चला। रवींद्र की 'विश्वभारती' के अतिरिक्त कलकत्ता, प्रयाग, बनारस और दिल्ली विश्वविद्यालयों ने चीनी भाषा तथा संस्कृति का अध्ययन कराने वाले विशेष विभाग खोले। कितने ही मूर्धन्य व्यक्तियों की यात्राएँ एक देश को दूसरे के समीप लाने के लिए हुई। चीनियों ने सारनाथ का चीनी मंदिर, बोधि गया का महाबोधि मठ, जेतवन का प्रकाश मठ, नालंदा का प्रज्ञा मठ, कासिया का महासुख मठ इसी शताब्दी में बनाए। इन मठों की व्यवस्था चलाने के लिए 'भारतीय-चीनी बौद्ध परिषद' की स्थापना हुई। पं० नेहरू, सर राधाकृष्णन, कवींद्र रवींद्रनाथ चीन गए और चीन के राष्ट्रपति च्यांग काई शेक तथा दूसरे मूर्धन्य व्यक्ति भारत आए। घनिष्ठता बढ़ने की संभावनाएँ दिन-दिन उज्ज्वल होती जा रही थीं, पर कम्यूनिस्टों ने उस सारे स्वप्न को ही उलटकर रख दिया।

सन् १९४९ में चीन में कम्यूनिस्टों का कब्जा हुआ। उनकी कपट नीति ने सारी धारा ही उलट दी। 'हिंदी चीनी भाई-भाई' नारे का गुंजन हलका भी न होने पाया था, पंचशील, पालन के करार की स्याही सूखने भी न पाई थी कि उन्होंने तिब्बत के स्वतंत्र राष्ट्र को पैरों तले रौंद डाला और अक्साईचिन नेफा आदि पर नृशंस आक्रमण किया। पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रखकर भारत के लिए पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करने की नीति अपनाई।

चीन में बौद्ध धर्म का उन्मूलन उन्होंने संस्कृति के नाम पर कर दिया। अब वहाँ के लौह आवरण को भेद कर कोई कुछ नहीं कर सकता कि वह महान संस्कृति जो दोनों देशों को हजारों वर्षों तक सहोदर भाईयों की तरह एकता के सूत्र में बाँधे रही, किसी प्रकार जीवित रही होगी या नहीं?

रूस तक भारतीय संस्कृति का विकास-विस्तार

मध्य एशिया होता हुआ बौद्ध धर्म ईसा की प्रथम शताब्दी में ही रूस पहुँच गया था। उसका प्रथम प्रवेश खोरेज्मा में हुआ। वहाँ से वह कैस्पियन सागर, अरब सागर तथा प्रशांत महासागर के सुविस्तृत भूखंड में फैला। सातवीं शताब्दी में समरकंद में एक विशाल बौद्ध विहार का पुनरुद्धार हुआ। कूचा और खोतान उन दिनों बौद्ध धर्म के प्रधान केंद्र थे। ऐसी दुर्लभ पांडुलिपियाँ संग्रहीत थीं जो भारत में भी नहीं मिल पाती थीं।

रूसी पुरातत्व विभाग की ढूँढ़-खोज में ऐसे अनेक स्मारकों, मंदिरों, विद्यालयों, भित्तिचित्रों, शिलालेखों, ग्रंथों, मूर्तियों तथा भग्नावशेषों का संग्रह किया गया है, जो उस देश में प्राचीन काल की बौद्ध संस्कृति के प्रसार का प्रमाण देते हैं, तीज नगर के पास पत्थर की बुद्ध प्रतिमाएँ मिली हैं और उसी स्थान पर एक बौद्ध-मंदिर के काँसे और मिट्टी सहित अवशेष भी उपलब्ध हुए हैं।

किरगीजियो क्षेत्र में चू नदी की उपत्यका में भी बहत से बौद्ध अवशेष मिले हैं। दझूल नगर के पास तो एक पूरा विहार ही मिला है, जिनमें भिक्षुओं के निवासगृह, चैत्य, मंदिर आदि की व्यवस्था मौजूद थी। मूर्तियाँ, चित्र, भवन, मंदिर की वास्तु शैली देखते हुए एक निष्कर्ष निकलता है कि वहाँ भारतीय बौद्ध प्रचारक ही नहीं, कुशल कारीगर भी बड़ी संख्या में पहुँचे थे।

तुर्कमानिया के 'बैराम अबी' स्थान की खुदाई में जो प्राचीन बौद्ध मंदिर मिला है, उसमें एक ऐसा पात्र भी है जिसमें छोटी-छोटी मूर्तियाँ तथा पाँचवीं सदी के ईरानी सिक्के भी रखे हैं। इसी के साथ भोजपत्र पर लिखे हुए पाँचवी शताब्दी के बौद्ध धर्म के ग्रंथ भी मिले हैं। सेमिरेच्ये (अकवेशी), कास्नोरेचेन्स्क, कुवा (फरगाना) आरजिना लेपे (ताजिकिस्तान) में उपलब्ध अवशेषों से स्पष्ट है कि उन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में मौजूद था। मंगोलिया में उसकी जड़ें जमी हुई थीं। कई मांगोल सरदार बौद्ध धर्म में दीक्षित हो चुके थे। 'मांगेल-ओइरात' बौद्ध थे। सन् १६२० में होशुत राजकुमार 'वैवागस दातार' बौद्ध धर्म के पीत-संप्रदाय का अनुयायी था। यह मंगोल वोल्गा के किनारे-किनारे आगे बढ़े और उन्होंने रूस के काफी बड़े क्षेत्र में बौद्ध धर्म फैलाया। उन्हीं दिनों साइबेरिया के बेकाल प्रदेशों में बौद्ध धर्म पनपा। १५० तिब्बती बौद्ध भिक्षु वहाँ पहुँचे और उन्होंने खानाबदोश वुर्यात जनजाति को दीक्षित किया।'उलान बतौर' के गंवन विहार में भारतीय धर्मप्रचारक भी पहुँचे थे। उनमें से एक और भिक्षापात्र तो अभी तक सुरक्षित रखा हुआ है। वुतिया का प्रथम बौद्ध विहार 'सेलिंगन' क्षेत्र में 'त्स्सोड़ गोल दजान' नामक स्थान में विनिर्मित हुआ था।

रूस के सेमीरेक (सप्तनद) क्षेत्र में छठवीं से लेकर बारहवीं सदी के मध्यवर्ती ऐसे अनेक अवशेष मिले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि वहाँ प्राचीन काल में बौद्ध धर्म का आधिपत्य था। पुरातत्व विभाग ने जो अवशेष प्राप्त किए हैं उनमें स्पष्ट है कि 'चू' उपत्यिका के निकट 'आस्सिक अता' में बौद्ध धर्म माना जाता था और बारहवीं सदी में वहाँ विशालकाय बौद्ध विहार बने थे। सारिंग नदी की उपत्यिका में छठी सदी के बने भित्तिचित्र पाए गए हैं, जिनमें वहाँ उन दिनों बौद्ध धर्म का प्रचलन सिद्ध होता है। बलाशागून में बुद्ध प्रतिमाएँ मिली हैं। तलस में भी छठी सदी के ऐसे ही अवशेष मिले हैं। पुरातत्व विज्ञानी बर्नश्ताम ने उसी क्षेत्र में अनेक धातु प्रतिमाएँ तथा संग्राह्य अवशेष ऐसे प्राप्त किए हैं, जिन्हें देखने से उस क्षेत्र में प्रतिष्ठित बौद्ध आस्था का भली-भाँति परिचय मिलता है।

रूसी भाषा में संस्कृत के शब्दों की भरमार है। ईसा की दसवीं शताब्दी तक रूसी लोग देवताओं की पूजा करते थे जो भारत में पूजित होते थे। लिथुवानिया और लाताविया की भाषाएँ योरोप की भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत के अधिक समीप हैं। 'वाल्हस एण्ड आर्यन्स' ग्रंथ में इस क्षेत्र के निवासियों को प्राचीन काल में आर्यवंश का ही सिद्ध किया है।

रूस का उजेविकिस्तान प्रदेश यों इन दिनों मुसलमानी प्रभाव में है, पर प्राचीनकाल में वह भारतीय संस्कृति का केंद्र रहा है। मध्ययुग की इमारतों के अवशेष जहाँ भी उपलब्ध हैं, उन पर भारतीय स्थापत्य कला और संस्कृति की गहरी छाप है। आम नदी के किनारे बसे तर्मेज नगर की खुदाई में बौद्ध प्रतिमाएँ और चैत्यों के अवशेष मिले हैं। इस प्रदेश का प्रमुख नगर 'बुखारा' इतिहासकारों के अनुसार 'विहार' शब्द का ही तुर्की उच्चारण है। ताशकंद के स्त्री-पुरुषों की पोशाक भारतीय पहनावे से मिलती-जुलती है।

तुर्कमानिया प्रदेश के अनेक स्थानों पर भारतीय संस्कृति के अवशेष बिखरे पड़े हैं। अश्काबाद से ४०० किलोमीटर आगे विशालकाय 'मेर्व' की खुदाई में ऐसे अनेकों अवशेष मिले हैं। यहाँ सात मीटर ऊँची एक बुद्ध प्रतिमा मिली है। ब्राह्मी लिपि में ताड़पत्र पर लिखा एक बौद्ध ग्रंथ भी उसी काल का मिला है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि और तुर्की, फारसी, अरबी तथा संस्कृत के विद्वान रहीम, जिनका पूरा नाम 'अब्दुर्रहीम खानखाना' था, वे तुर्कमानिया के ही निवासी थे। भारतीयता के प्रति उनका अनुराग अपने जन्मकाल से ही वहाँ के वातावरण द्वारा उपलब्ध था।

इस्लाम के मध्यकालीन दबाव और वर्तमान नास्तिकवादी प्रवाह के बावजूद वुर्यातिया प्रांत भी अपनी बौद्ध निष्ठा को बहुत हद तक यथावत बनाए हुए है। बेकाल झील के दक्षिण पूर्व में बरफीली चोटियों से ढका हुआ विपुल प्राकृतिक संपदाओं वाला यह प्रदेश है। इसका क्षेत्रफल ३१५००० वर्ग किलोमीटर है क्षेत्रफल की दृष्टि से इसे जापान के बराबर ही कह सकते हैं।

रूस के समाचार पत्रों में इस खोज की विस्तृत चर्चा छपी थी कि काकेशस क्षेत्र में कालासागर के तट पर माइस सेनेटोरियम के निकट खुदाई में जो मूर्तियाँ मिली हैं, वे इस बात को प्रमाणित करती हैं कि किसी समय उस क्षेत्र में भारतीय सभ्यता फैली हुई थी। इसी क्षेत्र में 'आदवरोइस' नामक कबीला निवास करता है, उसकी नसल का विश्लेषण करने पर प्रतीत हुआ है कि वे भारतीय मूल के लोग हैं। पीढ़ियों से रूस में बसे होने के कारण वे अब रूसी ही हैं। फिर भी उनका सांस्कृतिक रुझान भारतीयों जैसा है। उनमें प्रचलित लोक कथाओं में से ३० कथाएँ भारतीय पुराणों की हैं। आभूषण वे भारतीयों जैसे पहनते हैं। वे रूस में रहते हुए भी अपने आप को भारतीय मूल का मानते हैं।

मास्को, लेनिनग्राड, रोस्तोव, ताशकंद, कीव के विश्वविद्यालयों में औद्योगिक एवं वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करते हुए भारतीय छात्र बड़ी संख्या में रूस में रहते हैं। अमीर देशों की तरह वहाँ किसी के लिए भी विलासिता के अवसर नहीं हैं। वहाँ प्रत्येक देशी-विदेशी नागरिक से कठोर श्रम की अपेक्षा की जाती है।

रूस में १४ भारतीय भाषाओं में रेडियो-प्रसारण होता है और यहाँ की प्रायः प्रत्येक भाषा में साम्यवादी विचारधारा की पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था है। इस कार्य में सैकड़ों भारतीय लगे हुए हैं और रूस वासियों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।

रूस के अजरवइजान नगर में एक सूर्य मंदिर है जिसमें संस्कृत शिलालेख है। वह इस बात का साक्षी है कि कभी उस देश में हिंदू धर्म का विस्तार रहा है।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम भाग में हरियाणा, पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत के व्यापारी समुद्र मार्ग से रूस गए और वहाँ जाकर कितने ही बस भी गए। अभी भी वहाँ बाकू में उनका एक कारवां-सराय है और एक मंदिर भी है। रूस में प्रवासी भारतीयों का कोई संगठित समुदाय नहीं है। इन दिनों रूस में भारतीयों की संख्या शैक्षणिक संस्थाओं में अध्ययन कर रहे छात्रों के रूप में ही अधिक है। हिंदी, बंगाली, तमिल, तेलुगू, गुजराती, मराठी, उड़िया आदि भाषाओं के विद्वान भारत से वहाँ बुलाए गए हैं और वे रूसवासियों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।

रूस के विद्वानों में से ए० जी० रोस्तोव, एन० ए० दोब्रोल्यूवोव, आई० सी० मितायेव, वी० वी० स्तासोवों, एस० शशकोव, ऐसे नाम हैं जिन्होंने रूस निवासियों को भारतीय गौरव-गरिमा की अधिकाधिक जानकारी कराने में भरसक प्रयत्न किए हैं। लियो टालस्टाय से गांधीजी ने जो प्रेरणा ग्रहण की उससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कितनी मदद मिली इसे हर कोई जानता है।

सन् १७८५ में एक प्रतिभावान संगीतज्ञ 'लेवेदिराव' भारत आए और वे बारह वर्ष तक इस देश की तीर्थयात्रा करते हुए भारतीय संगीत का शिक्षण प्राप्त करते रहे। इसके बाद एक रूसी दार्शनिक 'रैफाइल देनिवेगोव' भी भारत आए और वे १७ वर्षों तक यहाँ तीर्थयात्रा करते और धर्म शिक्षा प्राप्त करते रहे। सन् १७७४ में फिलिप येफ्रेमोव भारत की सुविस्तृत तीर्थयात्रा करने आए और उन्होंने कई वर्ष बाद लौटकर भारत की जानकारी के संबंध में एक बड़ी पुस्तक प्रकाशित की जिसे उस देश में बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ा गया। भारतीय तत्त्वदर्शन में विशेष रुचि रखने वाले विद्वान जी० एस० लेवेदयेव इस देश में कितने ही वर्ष रहे और उन्होंने भारतीय ब्राह्मणों की जीवन प्रणाली पर निष्पक्ष विचार और उनके पवित्र रीति-रिवाज तथा लोक व्यवहार नामक पुस्तक लिखी।।

इस बात के कितने ही प्रमाण मिले हैं कि ईसा की प्रथम शताब्दी में भारतवासी रूस को जाते थे और रूसी लोग भारत आते थे। इस आवागमन का प्रयोजन संस्कृतियों का आदान-प्रदान, अध्ययन तथा प्रशिक्षण, चिकित्सा एवं व्यवसाय रहता था।

अनेक योरोपीय यात्रियों ने अकबर के दरबार में रूसियों के होने का जिक्र किया है। इटली के घुमक्कड़, 'डिओवानी वातेरो' ने भारतीय व्यापारियों को यारोस्लाव, मास्को और त्येक में अपना व्यवसाय चलाते देखा था। अस्त्राखान कसबे में भारतीयों की बस्ती और सराय थी जो २०० वर्षों तक फलती-फूलती रही। इन प्रवासियों में से अधिकांश पंजाब और राजस्थान के निवासी थे।

रूसी भाषा का विकास संस्कृत के आधार पर हुआ है। इस तथ्य को रूस की महिला इतिहासवेत्ता बोलकोवा ने स्वीकार किया है। वहाँ के भाषाविज्ञानी वी० मकारैको का कथन है कि रूसी भाषा अँगरेजी की अपेक्षा हिंदी, संस्कृत और बंगला के अधिक निकट है।

(१) पिकिलिंग्स की "लिथुआनियन भाषाओं का संस्कृत से निकट संबंध" (२) ए० एफ० मिकुस्त की "स्लाव और संस्कृत भाषा की आत्मीयता" (३) एम० पी० मिकुत्सकी की "संस्कृत धातुओं और शब्दों की स्लाविक भाषा से तुलना" (४) रूसी विज्ञान अकादमी द्वारा प्रकाशित "संस्कृत और रूसी भाषा की समानता"। इन ग्रंथों में विस्तारपूर्वक यह सिद्ध किया गया है कि रूसी भाषा का विकास संस्कृत भाषा के प्रकाश में ही हुआ है।

रूसी भाषा में भारत के अनेक प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद हुआ है। गीता, उपनिषद्, पंचतत्र, हितोपदेश विशेष रूप से लोकप्रिय हुए थे। वारान्निकोव द्वारा अनुदित 'रामचरितमानस' की तो वहाँ लाखों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गईं। रवींद्रनाथ टैगोर की कृतियाँ तो रूस की प्रायः सभी भाषाओं में अनूदित, प्रकाशित हुई हैं। हिंदी की शिक्षा का उस देश के विश्वविद्यालयों में समुचित प्रबंध है।

रूसी भाषा में बौद्ध साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन उत्साह-पूर्वक हुआ है। इस कार्य को वहाँ का 'ओल्डनवर्ग विवलिओथकी बुद्धिका' संस्थान संपन्न कर रहा है। अनुवादकों में मसिली मसिलियेफ, इमान मिनायेफ, फिओदोरश्चेर वास्त आदि विद्वानों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

बोएथलिंक द्वारा संपादित "संस्कृत गोर्तेबुख—पीटर्सवर्ग डिक्शनरी" नामक संस्कृत कोश सात बड़ी जिल्दों में छपा है। देवनागरी लिपि में छपा यह रूस का सर्वप्रथम ग्रंथ है। उसके संपादन में २० वर्ष लगे हैं। अब तो महाभारत, गीता, रामायण, उपनिषद् आदि अनेक प्राचीन ग्रंथों का अनुवाद रूसी भाषा में हो चुका है।

रूसी इतिहासकार जी० मिल्लेर तथा गवेषणा विशेषज्ञ वास्सिलियेव ने कठिन परिश्रम करके उस देश में बिखरे हुए बौद्ध साहित्य तथा अवशेषों को एक क्रमबद्ध श्रृंखला में पिरोया है। संग्रहीत सामग्री से उस देश में किसी समय के बौद्ध धर्म विस्तार पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इमानमीनायेव, सेगेई ओल्डेनवर्ग, फ्योदोर इप्योलितो, श्चरकोई, यूरी रोयरिक, जार्जीसग्यान्त्सेव, बोरिस सेमिचेन, वोरिस पंक्रातोय, कुजूनेत्सोव, एदुअई तेम्कीव, सांझे, दिलिकोव, ओवत्याविना, वोल्कोवा, ग्रिगोरी, वोनगरि, लेविन, येलेना सेमेका, अलिक्सेई कोचेतोव प्रभृति विद्वानों ने इन दिनों अथक परिश्रम करके रूसी जनता को बौद्ध धर्म से परिचित कराने वाले अनेक ग्रंथ एवं शोध-प्रबंध प्रस्तुत किए हैं। उससे एक अंधकार पर से परदा उठा है और रूसी जनता ने यह जाना है कि बौद्ध धर्म न तो दकियानूसी है न प्रतिगामी।

लेनिन ग्राड की प्राच्य विद्या एकादमी के पांडुलिपि विभाग ने उस देश में बिखरे हुए बौद्ध साहित्य की लगभग ३० हजार पांडुलिपियाँ संग्रहीत की हैं। "नाडका प्रकाशन गृह" ने रूसी भाषा में अभी-अभी धम्मपद, बौद्ध धर्म, जातक मरला, तिब्बती धर्म साहित्य, अशोकावदान माला, कुणाल-कथा जैसे बौद्ध धर्म पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ छापे हैं। इससे स्पष्ट है कि रूसी जनता इस नास्तिकवादी जनून के रहते हुए भी बौद्ध धर्म से कम प्रभावित नहीं हैं।

रूस में भारतीय संस्कृति के संबंध में कम दिलचस्पी नहीं है। लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में प्राच्य विद्या के अध्ययन की अच्छी व्यवस्था है। संस्कृत, पाली और प्राकृतिक भाषाओं के उद्भट विद्वान आई० पी० मिनियेव ने इसका श्रीगणेश किया था। एस० ओल्डनबर्ग और शेर्वात्सकी ने भारतीय तत्त्वज्ञान पर शोध एवं तद्विषयक अध्ययन पर महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। शेर्वात्सकी संस्कृत में धारा प्रवाह भाषण कर सकते थे। उन्होंने लंबी यात्राएँ करके उस देश में बिखरा पड़ा बौद्ध साहित्य एकत्रित किया था। एल बजेई वारान्निकोव के संपादकत्व में "हिंदी-रूसी कोष" विनिर्मित हुआ है। उन्हीं ने रूसी भाषा में रामचरितमानस का पद्यानुवाद भी किया। उनकी समाधि पर तुलसीदास का यह दोहा अंकित है—

भलो भलाई पै लहहिं, लहै निचाई नीच।
सुधा सराहिय अमरता, गरल सराहिय मीच॥

रूस भारत से बहुत दूर नहीं है। प्राचीन काल में यहाँ के प्रचारक अपने अटूट उत्साह का सहारा लेकर वहाँ भी पहुँचते थे और भारतीय संस्कृति के दिव्य लाभों से उस क्षेत्र को भी प्रभावित—प्रकाशित करते थे। मुंबई से रूस की राजधानी मास्को ५६०० मील है। नौ सौ मील प्रति घंटे की चाल से चलने वाले मध्यवर्ती वायुयान से साढ़े छह घंटा में इस दूरी को पार कर लेते हैं। श्री मिखाईल गोर्बाच्योव के राष्ट्रपति बनने के बाद अब साम्यवादी अधिनायकवाद यहाँ समाप्त हो रहा है।

सूर्यवंशी जापान की बौद्ध—निष्ठा

जापान शब्द चीनी भाषा के 'जिम्पोज' शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है—'सूर्य का देश'। जापान चिर अतीतकाल से सूर्य उपासक रहा है। उस देश के निवासी अपने को सूर्य की संतान कहते हैं। जापान सम्राट मेईजी की वे कविताएँ सुप्रसिद्ध हैं, जिसमें उन्होंने जापान की आत्मा का सूर्य की ज्योति के रूप में चित्रण किया है।

जापान की धार्मिक परंपरा यह है कि प्रात:काल उठकर पूर्व की दिशा में मुँह करके खड़े हो—सूर्य के दर्शन करें—नमन करें और इस दर्शन सौभाग्य के उपलक्ष्य में ताली बजाएँ। वे सूर्य को अपना उपास्य और आदर्श मानते हैं। हर जापानी उस प्रेरक गीत को गुनगुनाता रहता है जिसके बोल हैं—

"हम सूर्य की संतान हैं, हम देश के गौरव हैं"

संसार भर में सबसे पुरानी लकड़ी की इमारत जापान के नारा नगर का 'होर्युजी' मंदिर है। यह सातवीं सदी के आरंभ का बना है। समीप ही बनी स्रक सावा झील के किनारे का 'फुकूजी' का पाँच मंजिला मंदिर है, इसकी ऊँचाई १६५ फुट है। निकटवर्ती क्षेत्र एक प्रकार का विस्तृत उद्यान है, जहाँ तरह-तरह के हिरन हजारों की संख्या में निर्भय विचरण करते हैं। झील में लोग मछलियाँ खरीदकर उन्हें प्रवाहित करते हुए दया धर्म का पालन करते हैं।

'को फुइजी' प्राचीन काल का समृद्ध बौद्ध विहार है जहाँ होसो संप्रदाय के बौद्ध धर्माचार्य रहते थे। जापानी सम्राटों ने उस स्थान को अपनी श्रद्धा का प्रमुख केंद्र माना। उन्होंने इस क्षेत्र में कितने ही धर्मस्थान बनाए जो कभी १७५ तक पहुँच गए थे। उनमें से कुछ तो टूट-फूट गए किंतु 'दायनजी', 'गंगोजी', 'हायुजी', 'तोदाइज', 'याकुशी' ये पाँच मंदिर अभी भी समुन्नत मस्तक किए खड़े हैं। 'को फुइजी' मंदिर सन् ७६८ में बना था। इसमें पत्थर की बनी सुंदर १८०० लालटेन दर्शकों का विशेष आकर्षण हैं। अब इन लालटेनों की संख्या और भी बढ़ाकर तीन हजार कर दी है। पर्वों के अवसर पर इन सबमें दीपदान की दिवाली जैसी मनोरम शोभा देखते ही बनती है।

तोदाइजी बुद्ध मंदिर में आठवीं सदी की बनी विशालकाय बुद्ध प्रतिमा है। इसकी ऊँचाई ५३ फुट ६ इंच है। चेहरे की लंबाई १६ फुट, चौड़ाई ९ फुट, आँखें ४ फुट, नाक १.५ फुट, हथेलियाँ ५.५ फुट, उँगलियाँ ४ फुट, कान ८ फुट के हैं। घुँघराले बालों के गुच्छे ९६६ हैं। इस प्रतिमा का भार ५०० मीट्रिक टन है। संसार भर के मूर्ति इतिहास में यह मूर्ति अपने ढंग की अनोखी है।

जापान की नारा-नगरी में मथुरा-वृन्दावन जैसी राग-रंग की धूम-धाम रहती है। वहाँ के मंदिरों में आकर्षक नृत्य के साथ अनेकों धर्मोत्सव होते रहते हैं। जापानी स्वभावतः प्रकृति सौंदर्य के पूजक हैं। उनके निजी घरों में भी छोटे-बड़े उद्यान बने होते हैं। तिक्को का तोशूगू मंदिर पहाड़ काटकर इस प्रकार बनाया गया है, जिससे न केवल धर्म-भावना की वरन प्रकृति पूजा की आकांक्षा भी पूरी हो सके।

जापान के ओसाका नगर का बौद्ध मंदिर देखने ही योग्य है। वह छठी शताब्दी का बना हुआ है। स्वच्छता और शांत वातावरण देखकर यह विचार उठता है कि क्यों न भारतीय मंदिरों का वातावरण भी ऐसा ही सौम्य बनाया जाए।

जापानी पुरातत्त्ववेत्ता तकाकसू ने जापानी संस्कृति का इतिहास लिखते हुए स्वीकार किया है कि उसका विकास भारतीय संस्कृति की छाया में हुआ है। जापान में बुद्धिसेन भारद्वाज धर्म प्रचारक ने सारा जीवन उसी देश में धर्म-शिक्षा देते हुए व्यतीत किया। पहले वे अपने कुछ साथियों सहित ओसाका पहुँचे थे, पीछे उन्होंने सारे जापान में यात्राएँ की और जापानी जनता को हिंदू धर्मानुयायी बनाया। इस महान धर्म प्रचारक का स्मारक अभी भी नारा नगर में बना हुआ है। जापान में सूर्यदेव की पूजा होती है। दिवाली भारत की तरह ही मनाई जाती है। ऐतिहासिक अवशेषों के अनुसार सूर्यवंशी राजाओं ने वहाँ पहुँचकर शासन सूत्र संभाला था और राज्य व्यवस्था का सूत्रपात किया था। पीछे बौद्ध प्रचारक वहाँ पहुँचे और जापान में बौद्ध धर्म खूब फला-फूला।

जापान के धर्म, दर्शन एवं चिंतन पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है। प्रथा परंपराओं में अंतर रहते हुए भी भावनात्मक दर्शन वही है, जो भारत की आत्मा कहा जाता है। जापान के देवालयों में भारतीय देवी-देवताओं की सम्मानपूर्वक स्थापना की गई है। यों जापानी भाषा के अनुसार उनके नाम बदल गए हैं, पर उनकी आकृति-प्रकृति के अनुसार वे भारतीय देवताओं के साथ पूरी तरह संगति रखते हैं। सूर्य, ब्रह्मा, महेश, गणेश, कार्तिकेय, अग्नि, कुबेर, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, राम, कृष्ण, दस अवतारों की प्रतिमाएँ ऐसी लगती हैं मानो वे किसी हिंदी धर्मानुयायी ने ही स्थापित की हों। 'यम' को इसी नाम से मृत्यु का देवता माना जाता है। मंदिरों में हवनकुंड बने हैं, जिनमें सुगंधित द्रव्य, समिधा, अगरबत्ती आदि जलती हैं। मंदिरों में प्रवेश करने से पहले हाथ-मुँह-पैर धोने का नियम है। कुछ दिन पहले वहाँ लंबी चोटी हर कोई रखता था, अब तो वह पहलवानों और विचारकों के सिर पर ही दिखाई देती है।

जापान में पुरानी जाति है—एनु। उसकी मुखाकृति आर्य नसल की है। कहते हैं कि वे भारत में उस देश से गए धर्म प्रचारकों की संतानें हैं। मंदिरों में बुद्ध के वचन देवनागरी लिपि में लिखे होते हैं। जापानी भाषा तो नहीं पर देवनागरी लिपि भली प्रकार जानते हैं। मंदिरों में अंकित बुद्ध प्रवचनों को पढ़ने में उन्हें कठिनाई नहीं होती। जापानी चीनी लिपियाँ बनावट में एक जैसी लगती हैं, पर उनके बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर है। जापानी अक्षर हिंदी की तरह ही ध्वनिपरक होते हैं। उसकी वर्णमाला का क्रम नागरी जैसा ही ही, जबकि चीनी में किन्हीं आकृतियों के आधार पर भाव व्यंजना का होना माना जाता है। जापान में बोधिसेन भरद्वाज सन् ७३५ में पहुँचे थे और उन्होंने जापानी वर्णमाला को व्यवस्थित किया था। जापान सम्राट शोप्ट ने इस बौद्ध भिक्षु का भारी स्वागत-सम्मान किया था। बोधिसेन भरद्वाज के नाम से जापान का हर शिक्षित व्यक्ति परिचित है।

एक दूसरे धर्मप्रचारक 'धर्म बोधि' की गाथाएँ भी जापान भर में सुविदित हैं। उन्होंने सन् ६४५ में असाध्य रोग-ग्रसित सम्राट कोटुकू को अपने तपबल से जीवनदान दिया था। सम्राट ने उनके लिए अवलोकितेश्वर मंदिर बनवाया और राजमहल में बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद के लिए एक विशेष विभाग स्थापित किया। उनके योग साधन एवं धर्म प्रचार से सहस्रों जापानी प्रभावित हुए और अनुयायी बने।

आरंभ में भारत से ही बौद्ध प्रचारक संसार के अन्यान्य देशों में धर्म प्रचार के लिए गए थे। पर पीछे यह स्थिति न रही। जहाँ जड़ जम गई वहाँ के निवासी ही भिक्षु बन गए और प्रव्रज्या लेकर समीप के क्षेत्रों में स्वयं ही धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। सन ३७२ में एक चीनी बौद्ध "सुन दो" सीन नान-पू से चलकर कोरिया के 'कोगुरुयू' प्रदेश में पहुँचा और वहाँ उसने अकेले ही धर्म विजय का झंडा गाड़ दिया। उन दिनों कोरिया तीन राज्यों में बँटा हुआ था—(१) कोगुरुयू (२) पकाचि (३) सिल्ला। सुन दो का प्रचार कार्य इतना कुशलतापूर्ण था कि उस क्षेत्र की प्रजा असाधारण रूप से प्रभावित हुई और कोगुरुयू की राजधानी पिंग-यांग में दो, सुसम्पन्न बौद्ध विहार बन गए। इनमें ऐसे विद्यालय भी थे, जो नए प्रचारक तैयार करें तथा सामान्य जनता की धर्म जिज्ञासा का समाधान करें। पीछे इस पूरे राज्य का राष्ट्र धर्म ही बौद्ध धर्म हो गया।

जापान में सात देवताओं की पूजा का प्रचलन है। घर-घर में उनकी मूर्तियाँ मिलेंगी। इन देवताओं को महाकाल, कुबेर, सरस्वती, गणेश, यम, हरीति और लक्ष्मी कहा जा सकता है, यद्यपि उनके जापानी नाम भिन्न हैं। टोकियो में 'मिमेगुरी' का मंदिर है। इसी प्रकार कुबेर मंदिर को 'तमोनाज' और सरस्वती मंदिर का नामकरण 'चोमेइजि' किया गया है। यम-मंदिर में स्थापित 'एकमा' का भी उस देश में पूजन होता है। मार्च और सितंबर में जापानी अपने दिवंगत पूर्वजों (हाकापारि) का श्राद्ध तर्पण करते हैं। उस दिन वहाँ उपवास रखा जाता है।

टोक्यो के पास 'गोहयानु' एकान मंदिर में प्राचीन धर्माचार्यों की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। 'दारू मासान' देवता वहाँ मनोकामना पूर्ण करने वाला माना जाता है। वस्तुतः यह देवता और कोई नहीं बौद्ध धर्मप्रचारक 'बोधि धर्म' ही है। इस तथ्य को अब विज्ञ जापानी स्वीकार कर रहे हैं।

जापान में मंत्र लिखने के लिए सिद्धम लिपि प्रचलित है। इसे कश्मीर से वहाँ गए आचार्य प्रज्ञ ने देवनागरी वर्णमाला के आधार पर विनिर्मित किया था।

'कोयासान' में १२० मंदिर हैं। यहाँ सम्राट 'शिराका का' द्वारा प्रज्ज्वलित अखण्ड ज्योति अभी भी जलती है। इस नगर में 'शिंगोन' तंत्र संप्रदाय प्रचलित है, जिसके पूजा तथा उपासना के मंत्र संस्कृत भाषा में बोले जाते हैं। जापानी मंदिरों में अग्निहोत्र होता है। उसे होम न कहकर 'जुमा' कहा जाता है। आहुतियाँ देते समय 'ॐ पद्मोद्रवाय स्वाहा' आदि मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।

जापानी सम्राट 'शो तो कु' ने बौद्ध-धर्म को सर्वतोमुखी प्रगति का आधार माना और उसके सहारे अपने देश में अनेक सुधार किए तथा प्रगति के उत्साहवर्द्धक प्रचलन आरंभ किए। कोरिया उन दिनों बहुत समुन्नत था। समझा जाता था कि उसकी प्रगति का प्रधान आधार बौद्ध धर्म की शिक्षा और संस्कृति है। जापान ने भी उसका अनुकरण किया और समुन्नत लाभ भी पाया। 'शो तो कु' ने बौद्ध धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित किया। अन्य देशों से आने वाले भिक्षुओं के निवास-निर्वाह का उचित प्रबंध किया। ओसाका में एक विशाल बौद्ध विहार बनवाया। इसमें एक अच्छा विद्यालय भी था। इसके बाद चीनी प्रचारक भी वहाँ पहुँचने लगे। राजा ने अपने जीवनकाल में सैकड़ों बौद्ध संस्थान बनवाए, जिनमें 'होर यूजि' के विहार की विशालता और भव्यता सबसे अधिक थी। 'शो तो क' ने अशोक जैसा धार्मिक जीवन बनाया। उसने प्रवचन करने का स्वयं एक नया आदर्श प्रस्तुत किया।

सम्राट 'शो. यु.'ने सन् ७१० में नारा को जापान की नई राजधानी बनाया उसके मध्य में 'तो दाइ जी' नामक विशाल मंदिर बनवाया, जिसमें स्वर्ण मंडित बुद्ध प्रतिमा स्थापित की गई थी। उसी के आसपास कई चैत्य तथा विहार बनवाये गए। आठवीं सदी में कोरियाई विद्वान योगी जापान पहुँचा। ७३६ में बुद्धसेन नामक भारतीय विद्वान अपने साथ एक अच्छी संगीत मंडली लेकर वहाँ पहुँचा। इससे बहुत समय पूर्व 'हो दो' नामक एक भारतीय भिक्षु जापान पहुँचा था। चीन से 'गन जिन' नामक एक विद्वान पहुँचा। इन लोगों ने मिल-जुलकर जापान में धर्मभावना की जड़ें जमाई। जापानी नव दीक्षित भिक्षुओं का भी उत्साह कम नहीं था। इनमें 'गियन ताई तो' और 'शा टो' के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने पिछड़े हुए देहातों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और उन्हीं के बीच अपने को खपा दिया।

जापान में बौद्ध धर्म आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बहुत ही लोकप्रिय हो चुका था। उन दिनों जनता में इसके लिए अपार श्रद्धा थी। संसार की सबसे बड़ी समझे जाने वाली बुद्ध प्रतिमा इन्हीं दिनों सन् ७४९ में बनी। इसमें ६६६ पौंड सोना, १६८२७ पौंड टिन, १९५४ पौंड पारा और १८६१९ पौंड ताँबा एवं सीसा लगा है। इसी मंदिर का 'तो-दाईजी' नामक घंटा चालीस टन भारी और तेरह फुट ऊँचा है। नारा राजधानी के इर्द-गिर्द 'चुगुजि' 'याकुशिचि' आदि जो मंदिर विहार बने हैं, उन पर स्पष्टतः भारतीय वास्तुकला का प्रभाव है। उन दिनों बौद्ध धर्म के विस्तार के साथ-साथ जापान की सर्वतोमुखी प्रगति हुई और लोगों ने समझा कि समुन्नत संस्कृति को अपनाकर कोई देश या समाज किस प्रकार हर क्षेत्र में प्रगति के पथ पर अग्रगामी हो सकता है।

आत्मनिग्रह और अनुशासन में ढील पड़ने से उस समय के भिक्षुओं में जो विकृतियाँ आई उससे राजा और प्रजा में असंतोष बढ़ने लगा और खुले आम आलोचनाएँ होने लगीं। इस स्थिति को सुधारने के लिए जापानी संत 'साई चो' और 'कोकेई' ने घोर प्रयत्न किया। इन सुधार प्रयासों को 'धनग्यो ताई शी' और 'कोवो ताई शी' ने और अधिक आगे बढ़ाया। उन्होंने मात्र धार्मिक पूजा-पाठ तक बौद्ध शक्ति को सीमित न रहने देकर धर्म को सामाजिक शैक्षणिक एवं राष्ट्रीय प्रगति में नियोजित किया। तत्कालीन शासकों ने भी इसमें सहयोग दिया।

इसके बाद जापान के भिक्षु संप्रदाय और राज परिवार गृह कलह में व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं में ग्रसित होकर फँसते चले गए। इससे देश में दुर्बलता आई। फिर भी वह इतना समर्थ बना रहा कि जिन मंगोल आक्रमणकारियों ने एशिया और योरोप का बहुत बड़ा भाग अपने पैरों तले रौंद डाला था, उन्हें जापान के मोर्चे पर हर बार करारी हार खानी पड़ी। बारहवीं और तेरहवीं सदी में 'होने न,' 'शिनरन', 'निचिरेन्' और 'दोर्जन' आदि प्रभावशाली संत विद्वानों ने जनता की धर्मश्रद्धा को लोकमंगल के प्रयोजनों में नियोजित किया और धर्म को समाज की सर्वतोमुखी प्रगति का सहयोगी बनाने का अभिनव एवं सफल प्रयोग किया। जनता में इस सुधार-परिवर्तन का उत्साहवर्द्धक स्वागत हुआ। पीछे उनके न रहने पर अनुयायियों ने उनके नाम पर वैसे ही संप्रदाय खड़े कर दिए जैसे कि आजकल अनेक संतों के नाम पर अलग-अलग पंथ चल रहे हैं। इस अंधानुकरण ने उन सुधारवादी संतों का मूल उद्देश्य ही विकृत कर दिया। इन विकृतियों ने अराजकता का वातावरण उत्पन्न किया और उससे धर्म, समाज एवं राष्ट्र की जड़ें खोखली होती चली गईं। एकता और निष्ठा के अभाव में पंद्रहवीं सदी में जापान में बौद्ध धर्म सड़ा-गला खोखला बनकर रह गया। सर्वत्र विद्वेष और विघटन का बोलबाला दिखाई पड़ने लगा।

इस अस्त-व्यस्तता में ईसाई धर्म ने जापान में घुस-पैठ का अवसर पाया और उसने अपनी विशेषता के कारण नहीं, अपितु संव्याप्त क्षोभ, असंतोष से लाभ उठाकर अपनी जड़ें जमाईं। १५ अगस्त १५४९ को सर्वप्रथम एक ईसाई धर्मप्रचारक फ्रांसिस जेवियर, इस देश के कागोशिमा नगर में पहुँचा। उसने राजा और प्रजा को चमत्कृत करने में अद्भुत सफलता पाई। सम्राट 'तायोतोग्मे हिदयोशि' ने उसे समर्थन दिया, फलतः योरोप से धर्मप्रचारकों तथा व्यापारियों के जत्थे वहाँ आने और रहने लगे। दूसरी ओर सामंतों में बँटा हुआ देश एक प्रकार से गृह युद्ध की स्थिति में घिरने लगा और भारत की तरह जापान में भी विदेशी शक्तियों के पैर जम गए। सोलहवीं सदी में योरोपियनों के लिए सम्राट हिदोयोशी ने भी द्वार खोले और ईसाई धर्म वहाँ तेजी से बढ़ने लगा। सन् १८६८ में राजा मोइजी ने अपनी प्रसिद्ध 'मैग्ना चार्टी' घोषणा की और पाश्चात्य विचारधारा के प्रवेश का द्वार विशेष रूप से खोला। तब ईसाई संस्कृति को सर्वतोमुखी उन्नति का आधार बनाया जाने लगा और लोगों ने उत्साहपूर्वक उसे अपनाया, पर यह उभार बहुत दिन तक न रहा। बौद्धों ने अपने को सुधारा और जापान में बढ़ती हुई ईसाईयत के खतरे को समझा और तीव्र आंदोलन किया। जनता को वस्तुस्थिति समझाई। फलतः सन् १८७० में जापान ने पुनः बौद्ध धर्म को राष्ट्रधर्म स्वीकार कर लिया।

अमेरिका और जापान के बीच समुद्र में फैले हवाई द्वीप समूह में जापान से ही बौद्ध धर्म पहुँचा है। जिस प्रकार चीन और कोरिया के भिक्षुओं ने जापान में धर्म-प्रकाश फैलाया वैसे ही जापानी भिक्षु हवाई द्वीप समूह में पहुँचे और वहाँ की जनता को बौद्ध बनाया।

जापान में इन दिनों बौद्ध धर्म के कई संप्रदाय हैं। उनकी आचार संहिता में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। प्राचीनकाल जैसी धर्मश्रद्धा अब वहाँ नहीं है, तो भी विहारों और मंदिरों में निवास करने वाले भिक्षु अभी भी अपने ढंग से उपासना एवं धर्म शिक्षा के प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं। अभी भी वहाँ 'नामु अमिता बुत्सु' (नमः अमित बुद्धाय) का प्रेरणाप्रद घोष सुनने में आता है।

जापान में बौद्ध धर्म के प्रसार-विस्तार के साथ-साथ उसकी अपनी चार विशेषताएँ भी रही हैं, जो विचारणीय ही नहीं अनुकरणीय भी हैं—

(१) जापानी बौद्धों ने कट्टरता नहीं दिखाई वरन प्रचलित धर्मो के साथ उसका तालमेल इस सुंदरता के साथ बैठा दिया कि पुरातन पंथियों को नवीन धर्म में प्रवेश करने में विशेष अड़चन न हो। उन्होंने शिंतो, ताओ तथा कनफ्यूशियस धर्मों के देवी-देवताओं को बौद्ध धर्म में सम्मिलित कर लिया। उनकी प्रतिमाएँ भी अपने मंदिरों में रख ली और उन्हें भगवान बुद्ध के ही विभिन्न समय का अवतार बताया। नये बुद्ध अवतार को सबसे अधिक प्रमुखता इसलिए दी कि वह इसी युग के लिए विशेष रूप से अवतरित हुआ था।

(२) जापानी बौद्धों ने चीनियों की तरह असंख्य बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद नहीं कराया। उन्होंने चुने हुए ग्रंथ ही अपनाए और ग्रंथों की संख्या स्वल्प रखते हुए प्रचार-विस्तार पर अधिक ध्यान दिया, जिससे जनता बिना जंजाल भरी उलझनों में फँसे उस धर्म का स्वरूप सुगमतापूर्वक समझने और निर्देशों को अपनाने में समर्थ हो सकी।

(३) यों जापान में भी बौद्ध धर्म के कई संप्रदाय हैं—कुश, सानरोन, जोजित्सु, केगौन, होस्सो, रित्सु, तेन्दाई, शिंगोल, युजु, नेनयुत्सु, रयोनिन, जो दो शिन, शिन राज आदि। इनके दर्शन और आचार एकदूसरे से कुछ-कुछ भिन्न हैं, पर उस भिन्नता के कारण न तो उनके बीच मनोमालिन्य है और न द्वेष-दुर्भाव और न असहयोग। भारत में जैसे एक पंथ दूसरे पंथ को फूटी आँखों नहीं सुहाता और विरोध आक्षेप के शास्त्रार्थ के दौर चलते रहते हैं, वैसा दृश्य जापान में बिलकुल देखने को नहीं मिलता। यह संप्रदाय वस्तुतः पंथ न बनकर संस्थाएँ बन गए हैं। अपने क्षेत्र और वर्ग में काम करते हैं, पर अन्य सही दलों के प्रति घृणा, द्वेष का वातावरण नहीं बनाते। यही कारण है कि पंथों का अस्तित्व टकराव का कारण नहीं बना है और पारस्परिक सहयोग से बौद्ध मिशन के विस्तार में सहायता ही मिली है। विभिन्न अभिरुचि के लोग अपने-अपने प्रिय पंथ को अपनाते हैं, पर साथ ही एकता की आवश्यकता भी सच्चे मन से अनुभव करते हैं।

(४) जापानी बौद्धों की चौथी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने प्रयासों को पूजा-पाठ तक सीमित नहीं किया वरन धर्म-श्रद्धा को लोकोपयोगी प्रयोजनों में निरत करके उसे व्यक्ति और समाज की उन्नति के विभिन्न क्रिया-कलापों में लगाया। फलतः उस धर्म को भार नहीं एक उपयोगी प्रयास माना जाता रहा और प्रबुद्ध वर्ग का समर्थन तथा राजकीय अनुदान उसे मिलता रहा। जापानी बौद्धों की यह विशेषता निस्संदेह दूरदर्शितापूर्ण और सराहनीय ही कही जा सकती है।

जापान के धर्मों में बौद्ध और ईसाई प्रमुख हैं। शिन्तो धर्म उस देश का पुराना है, पर उसका कोई दर्शन नहीं है। पितृपूजा के इर्द-गिर्द ही उसकी धुरी घूमती है। यों वहाँ हर वर्ग का एक कुल देवता भी है, जिनके छोटे-बड़े मंदिर वहाँ देखने को मिलते हैं और पूजा-उपचार चलते हैं। वहाँ धार्मिक कट्टरता जरा भी नहीं है। इस आधार पर कोई कलह-विग्रह भी नहीं होते। एक ही परिवार में कई सदस्य विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते हुए आपस में सद्भाव पूर्वक रहते हैं। भारत में जिस प्रकार परिवार का एक सदस्य किसी देवता या मंत्र की आराधना करे और दूसरा सदस्य दूसरे की तो उनमें कोई विग्रह न होगा। इसे श्रद्धा का विषय मानकर भिन्नता को सहज-सौजन्य के साथ सहन कर लिया जाएगा। ठीक इसी प्रकार जापान में धर्म को व्यक्तिगत अभिरुचि का विषय माना जाता है और इस संदर्भ में कोई किसी से झगड़ता-उलझता नहीं है।

जापान और अमेरिका के बीच प्रशांत महासागर में हवाई द्वीप समूह बसा है। यह जापान (टोक्यो) से ३००० मील और अमेरिका के लास एंजिल्स से कोई तेईस सौ मील की दूरी पर है। इस प्रकार यह एक प्रकार से जापान और अमेरिका के बीच में पड़ता है। इस पूरे द्वीप समूह का क्षेत्रफल ६४०० वर्ग मील और आबादी आठ लाख के करीब है। औसत आमदनी विश्व में सर्वोच्च है। इसमें बड़ा शहर एकमात्र 'होनोलुलू' है। यह छोटा सा देश अमेरिका के समान ही समृद्ध है। यहाँ ३६ जातियाँ बसी हैं। उनमें वैवाहिक सम्मिश्रण होता जाता है और पुरानी नस्लें समाप्त होकर नई नसल सामने आ रही हैं। यहाँ के निवासियों का स्वास्थ्य और सौंदर्य देखते ही बनता है।

भारतीयों के हाथ में भी यहाँ कितने ही काम है। मै० बाटूमल के यहाँ २६ स्टोर हैं, जिनमें सैकड़ों भारतीय काम करते हैं। 'बाटूमल ट्रस्ट' वहाँ के छात्रों को विविधविध सहायता देता है।

ओसाका में प्रायः चार सौ भारतीय परिवार रहते हैं। इनमें गुजरातियों की संख्या अधिक है। वे व्यवसाय करते हैं। मोती तथा दूसरी चीजों के निर्यात में उनका अच्छा हाथ है। जापान के अधिकांश भारतीय ओसाका में ही रहते हैं। यों वे अन्यत्र भी थोड़ी बहुत संख्या में बसे हुए हैं।

कोरिया और मंगोलिया में आलोक

जापान और चीन की सीमा से लगा हुआ कोरिया अब दो भागों में विभक्त है। उत्तर कोरिया में साम्यवादी शासन है और दक्षिण कोरिया में राष्ट्रवादी। उससे पूर्व समूचा कोरिया एक था और वहाँ बौद्ध धर्म का एकछत्र प्रभाव था। अब तो वहाँ नास्तिक, ईसाई एवं मुसलमान भी बहुत हैं।

कोरिया में भी चीन-जापान की तरह भारतीय धर्मप्रचारक पहुँचे थे और उन्होंने धर्मविजय अभियान के प्रकाश से उस क्षेत्र को भी आलोकित किया था। पीछे उत्साही चीनी बौद्ध भिक्षु भी अपने इस समीपवर्ती क्षेत्र में जाते रहे और वहाँ धर्म चक्र-प्रवर्तन का उत्तरदायित्व सँभालते रहे।

कोरिया के वज्रगिरि विहारों के भिक्षु संस्कृत मिश्रित कोरियाई भाषा बोलते हैं। इस देश में आचार्य मल्लानंद सन् ३८४ में पहुँचे और उनके प्रयत्न से 'संगमोन्सा' तथा 'इबुल्लांसा' बौद्ध विहारों की स्थापना हुई। इसके बाद अन्यान्य प्रचारक वहाँ जाते रहे। कोरिया का 'हेचो' नामक एक बुद्ध भक्त भारत की तीर्थयात्रा करने सातवीं सदी में आया। उसने अपना यात्रा वृत्तांत भी लिखा था। संस्कृत भाषा के कोरियाई विद्वान 'बुन चडक' ने 'विज्ञप्ति मात्रता' ग्रंथ पर सुंदर भाष्य लिखा। सिल्ला वंशी कोरियाई सम्राट भी बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे और ध्यान योग की साधनाओं के अभ्यासी बने। प्राचीन कोरियाई साहित्य तथा भवन निर्माण कला पर भारतीयता की गहरी छाप है। 'सुकगोलाम' गुफाएँ भारतीय गुफाओं की शैली पर ही बनी हैं। मंदिरों में बजने वाले वाद्य यंत्र वही हैं, जो भारत में प्रयुक्त होते हैं। सम्राट ताइजो की नीति थी कि देश में अधिक मंदिर बनाए जाएँ, ताकि धर्मनिष्ठा की वृद्धि हो।

कोरिया का सबसे बड़ा बौद्ध ग्रंथ 'महा धर्म' है, जो संस्कृत से कोरियाई भाषा में अनुवादित हुआ है और लकड़ी के ठप्पे वाले प्रेस में छपा है। उसकी विशालता को देखते हुए उसे संसार का अद्भुत विस्तार वाला ग्रंथ कहा जा सकता है। उस देश की लिपि 'हाँगेडल' चीनी-जापानी पड़ोसी भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। इसका निर्माण संस्कृत वर्णमाला और उसकी ध्यान पद्धति का सहारा लेकर किया गया है।

सन् ३८४ में एक दूसरा चीनी भिक्षु कोरिया के 'पाकचि' क्षेत्र में पहुँचा। उसका नाम था—'मसनद'। इसकी प्रचार शैली भी 'सुन दो' जैसी ही थी। उसके प्रभाव से 'पाकचि' का राज्य धर्म भी बौद्ध बन गया और प्रजा ने उसी धर्म को अंगीकार कर लिया। पाकचि के बौद्ध प्रचारक सिल्ला पहुँचे और चौथी शताब्दी के प्रथम चरण में वहाँ का राजधर्म भी बौद्ध बन गया। इस प्रकार से कुछ ही वर्षों के प्रयत्न से कोरिया के सुविस्तृत देश के तीनों भागों में बौद्ध धर्म का झंडा फहराने लगा। पाकचि के शासकों ने धर्म विजय में विशेष उत्साह दिखाया। सन् ४५२ में कोरिया नरेश सिमाई ने एक प्रतिनिधि मंडल जापान के राजा 'किम्मई' के पास भेजा और उस देश में बौद्ध धर्म के विस्तार की सुविधाएँ देने का अनुरोध किया। यहीं से जापान में भी बौद्ध धर्म के प्रसार का सिलसिला आरंभ हो गया। उन दिनों कोरिया आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत समृद्ध था। उसका व्यापार भारत, तिब्बत, ईरान, चीन, जापान आदि तक फैला हुआ था। व्यावसायिक आदान-प्रदान के साथ-साथ कोरिया से बौद्ध धर्म भी अन्यान्य देशों को निर्यात होता रहा।

सन् ५०२ में जापानी सेनाओं ने कोरिया को अपने अधीन कर लिया और कई शताब्दियों तक उस पर अधिकार रखा। राजनीतिक दृष्टि से जापान, विजयी और कोरिया पराजित रहा, पर धार्मिक दृष्टि से कोरियाई बौद्ध धर्म जापानी प्रजा पर हावी होता चला गया। धार्मिक दृष्टि से वह पराजय भी विजय के रूप में परिणत हुई। कोरिया और जापान का संपर्क बढ़ा। इसमें धर्म और संस्कृति का भी आदान-प्रदान हुआ। जापान में उन दिनों बहुदेववादी शिन्तो धर्म प्रचलित था। उसके सिद्धांत और प्रतिपादन ऐसे ही बेसिर-पैर के थे। बौद्ध धर्म का दर्शन उसकी तुलना में बहुत ही समाधानकारक था। अस्तु, प्रबुद्ध लोगों को उसे अपनाने में कठिनाई नहीं हुई और जापान में उसका विस्तार तेजी से होने लगा। सन् ५२२ में एक चीनी भिक्षु 'शिवातात्सु' कोरिया होते हुए जापान पहुँचा और उसने वहाँ की जनता को बौद्ध संदेशों से अवगत कराके श्रद्धा भरा वातावरण बनाया।

कोरिया के 'कुदारा' राज्य के शासक 'सिमाई' ने सन् ५५२ में जापान नरेश 'किमाई' की सेवा में बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा, धर्म-ग्रंथ तथा लंबा पत्र एक बौद्ध भिक्षु के साथ भेजा, जिसमें बुद्ध की महत्ता बताते हुए उसे स्वीकार करने का अनुरोध किया गया था। राजा ने इन वस्तुओं को स्वीकार किया और आंशिक रूप से उन शिक्षाओं पर चलना आरंभ कर दिया। इसके बाद यह प्रयत्न और भी उत्साह के साथ जारी रहा और कोरिया से जापान के लिए बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ लगातार आते-जाते रहे। सन् ५७७ में कोरिया की उत्साही और विद्वान भिक्षुणियाँ जापान पहुँची और उन्होंने वहाँ समर्थ महिला संघ स्थापित कर दिया। जापानी नव दीक्षित महिलाएँ कोरिया के विहारों में धर्मशिक्षा प्राप्त करके वापस लौटीं तो उनका महिलावर्ग में बहुत स्वागत हुआ और घर-घर में बौद्ध धर्म की जड़ें जमीं। रानी 'सुई को' का शासन काल ५९३ से ६२८ तक रहा। उसने बौद्ध धर्म अंगीकार किया, फलतः प्रजाजनों में भी उसके लिए आकर्षण एवं उत्साह बढ़ता चला गया।

ईसा से ४०० वर्ष पूर्व कोरिया के तीन भाग थे—उत्तरी रियासत को 'बागोरियो' कहा जाता था। मध्यवर्ती रियासत को 'पिय बछे' कहते थे और दक्षिणी रियासत 'सिल्ला' कहलाती थी। वास्तव में सिल्ला वाले ही अधिक साधन संपन्न और प्रभावी थे। उन्होंने ही दोनों रियासतों को मिटाकर कोरिया का एकीकरण किया।

ईसा से ३७२ वर्ष पूर्व चीनी बौद्ध भिक्षुओं की एक मंडली 'सु-दो' के नेतृत्व में कोरिया पहुँची और वहाँ अपने बौद्ध धर्म की जड़ जमाई। इस प्रकार कार्य की सहायता करने के लिए भारतीय बौद्ध विद्वान 'मरंता' वहाँ पहुँचा और धर्मविजय अभियान को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया। यह कार्य शांतिपूर्वक किंतु अत्यंत उत्साह के साथ चलता रहा और लगभग सारा कोरिया सात सौ वर्षों के भीतर बौद्ध धर्मावलंबी हो गया। तब ५८ में उसे विधिवत् राज्यधर्म घोषित कर दिया गया। इस अवधि में बौद्ध मंदिरों और विहारों के निर्माण की धूम मच गई। हजारों की संख्या में भिक्षुओं का निर्वाह एवं प्रशिक्षण का प्रबंध इन धर्म संस्थानों में चलता था और वे प्रशिक्षित बौद्ध विद्वान न केवल कोरिया के वरन समीपवर्ती अन्य देशों में भी धर्मप्रचार के लिए जाते थे। जापान में बौद्ध धर्म के निर्यात का श्रेय यदि कोरियाई भिक्षुओं को दिया जाए तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

धर्माचार्य बोनियों को कोरिया में अत्यंत सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। उन्होंने बौद्ध साहित्य को कोरियाई भाषा में अनुवाद करने में अधिक परिश्रम किया और धर्म संस्थानों के निर्माण, संचालन से लेकर प्रचार अभियान की बागडोर बहुत ही दूरदर्शिता के साथ सँभाली। उनकी प्रतिभा से एक राजकुमारी अत्यंत प्रभावित हुई और यह घनिष्ठता इस हद तक बढ़ी कि दोनों को विवाह सूत्र में आबद्ध होना पड़ा। इनके संयोग से जो पुत्र हुआ उसने चीनी और कोरियाई बौद्ध संस्थानों के बीच घनिष्ठ सहयोग विनिर्मित करने के लिए अद्भुत भूमिका निभाई। उसने कोरियाई लिपि में भी महत्त्वपूर्ण सुधार किए। बारहवीं सदी के अंत तक कोरिया में बौद्ध धर्म खूब फला-फूला। भिक्षु विवाहित होकर भी रह सकते हैं, इस सुविधाजनक परंपरा ने उस देश में नये प्रतिभाशाली धर्म प्रचारकों को बहुत बढ़ाया।

तेरहवीं सदी के आरंभ में मंगोलों ने कोरिया पर चढ़ाई कर दी और उसे बुरी तरह रौंद डाला। उस उत्पीड़न से बौद्ध धर्म को भी बहुत हानि उठानी पड़ी। राजा और दरबारियों को सारी कोरिया भूमि छोड़कर कंगना टापू में छिपकर अपनी जान बचानी पड़ी। इन्हीं दुर्दिनों में धार्मिक लोगों के सहयोग से एक अद्भुत योजना यह बनी कि लकड़ी के ठप्पों पर बौद्ध धर्म के सारे ग्रंथों को खोद लिया जाए और उनसे ग्रंथ छापे जाएँ। त्रिपिटिक जैसे विशालकाय ग्रंथ का कोरियाई भाषा में मुद्रण इसी पद्धति से संभव हुआ। अन्य कितने ही धर्म ग्रंथ भी इसी प्रकार छपे। उनकी संख्या ८०२५८ है। उनके मुद्रण में सोलह वर्ष लगे और सभी प्रकाशन अभी भी 'हाहन्सा' विहार में सुरक्षित हैं, जिसे देखने के लिए बौद्ध जिज्ञासु वहाँ पहुँचते हैं और उस दुस्साहस पर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह संग्रहालय संसार के बौद्ध धर्म में अपने ढंग का अनूठा है।

मंगोल आधिपत्य से छुटकारा अच्छी तरह मिल भी न पाया था कि जापानियों ने कोरिया पर कब्जा कर लिया। इन राजनीतिक उथल-पुथलों के बीच भी कोरिया, मंगोलिया, चीन, जापान के बीच धार्मिक आदान-प्रदान का सिलसिला चलता रहा और पारस्परिक सहयोग से बौद्ध धर्म की भावनाएँ लोकमानस में प्रतिष्ठित करने का क्रम अनवरत रूप से बढ़ता ही रहा।

मंगोलिया में बौद्ध धर्म—

मंगोलिया में छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म पहुँचा। नरेंद्र यशस वहाँ सर्वप्रथम पहुँचे। इसके बाद दूसरे आचार्यों की पहुँच होती रही। सन् १९४० की खोज से उस देश में ७५० बौद्ध विहारों के प्रमाण मिले हैं। ताड़ पत्र, भोज पत्र आदि पर लिखे सहस्रों संस्कृत तथा पाली ग्रंथ वहाँ पाए गए। भारतीय देवताओं की तथा बुद्ध भगवान की सहस्रों प्रतिमाएँ उस क्षेत्र में उपलब्ध हुई हैं। रूस के पुरातत्त्ववेत्ता और संस्कृत विद्वान 'श्चर्वातकी' मंगोलिया को आठवीं सदी का भारत कहा करते थे। उस देश के छोटे देहातों में भी राम चरित्र, कृष्ण चरित्र, विक्रमादित्य, राजा भोज आदि की कथागाथाएँ रुचिपूर्वक कही और सुनी जाती हैं। उस देश में साम्यवाद को पहुँचे प्राय: आधी शताब्दी होने को आती है, इतने पर भी वहाँ के नागरिकों में धर्मश्रद्धा पहले की भाँति ही अक्षुण्ण बनी हुई है।

मंगोलिया के राष्ट्रपति का नाम—शंभु, राष्ट्र ध्वज का नाम—स्वायंभू, प्रधान नदी का नाम 'दारु गंगा' है। इसके अतिरिक्त वहाँ के लोगों के नाम देखने पर प्रतीत होता है कि वे भारतीय परंपरा के अनुरूप रखे गए हैं। साम्यवादी क्रांति की सफलता की घोषणा जिस 'सुखेवात्र' शंख को बजाकर की गई थी वह शंख अभी भी यहाँ के संग्रहालय में सुरक्षित है। रूस की तरह यहाँ पर भी अब साम्यवाद क्रमशः समाप्त होता जा रहा है।

साइबेरिया के घोर शीत प्रदेश में

साइबेरिया के घोर शीत प्रदेश में भारतीय धर्मप्रचारक किन-किन कठिनाइयों के साथ पहुँचे होंगे, वहाँ के कष्टसाध्य जीवन-क्रम को अपनाकर, किस निष्ठा के साथ धर्म प्रचार करते रहे होंगे, यह कल्पना करके आज आश्चर्य लगता है। पर उन दिनों जो भावनात्मक उत्साह एवं स्तर था उसे देखते हुए उसमें कुछ अचंभा भी नहीं करना चाहिए। मनुष्य निष्ठाओं का पुतला है। भली या बुरी जिस भी दिशा में उसके कदम बढ़ चलें उसी में समस्त कठिनाइयों को रौंदता हुआ आश्चर्यजनक और आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है।

साइबेरिया को वहाँ के निवासी 'शिविर देश' कहते हैं। शिविर का अर्थ है—तंबू। वहाँ के निवासियों को अपने रहने के लिए परिस्थितिवश तंबुओं में ही निर्वाह करना पड़ता है।

इर्कुत्स के समीप हिमाच्छादित बैकाल झील और आंगिस्की नदी भारत के कैलाश तथा मानसरोवर जैसा दृश्य आँखों के सामने प्रस्तुत करती है। ठंढ बेहद पड़ती है। 'उलान्वातर का गांडङ' विहार साइबेरिया का प्रसिद्ध बौद्ध विहार है। भवनों पर बने स्वर्ण मंदिर शिखर जैसे प्रतीत होते हैं। धर्मचक्र के प्रेरक प्रतीक वहाँ सुसज्जित रूप से स्थापित हैं। पूजा-भवन का नाम है 'तुषितः महायान द्वीप' यह वाक्य भारतीय लिपि में लिखा हुआ है। स्थापित बुद्ध प्रतिमा देखते ही बनती है। तथागत के जीवन वृत्तांत से संबंधित रंगीन भित्ति चित्र बने हैं। स्थानीय भाषा में बौद्ध साहित्य अनूदित हुआ है और वह इस विहार में उपलब्ध है। सत्रहवीं शताब्दी में भारत से एक अश्वमांगुलि नामक भिक्षु वहाँ पहुँचे थे, उनका दंड अभी इस विहार में सुरक्षित है। तांत्रिक प्रचलन के समय इस मंदिर में महाकाल की एक भयंकर प्रतिमा भी स्थापित की गई। कितने ही देवताओं की मूर्तियाँ भी वहीं मौजूद हैं। इस विहार के लामा संस्कृत भी जानते हैं। भारतीय ज्योतिष का भी यहाँ प्रचलन है। विवाह संस्कार में भारत की तरह हवन, ग्रंथि बंधन, प्रदक्षिणा, मंत्रोच्चार, अक्षत फेंकना, आशीर्वाद आदि विधानों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारे प्रचलन वहाँ भारत से ही गए हैं।

चाणक्य नीति, अमर कोष, मेघदूत, सुभाषित रत्न निधि जैसी अनेक पुस्तकें उस देश की भाषा में अनूदित हुई हैं। किसी समय उस देश में ७१० विहार तथा २००० मंदिर थे, पर अब तो उनमें से अधिकांश खंडहरों के रूप में बिखरे पड़े हैं।

उलान्वातर का राजकीय पुस्तकालय प्राचीन बौद्ध साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। उसमें तिब्बती तथा मंगोली भाषा की प्रायः एक लाख पुस्तकें संग्रहीत हैं। आधुनिक पुस्तकों की संख्या भी ५० हजार के लगभग है। इनमें संस्कृत भाषा के ग्रंथ भी हैं।

यहाँ एक दूसरा विहार है—दोइजिनत्सामिन। इसमें भगवान बौद्ध के अतिरिक्त अन्य देवताओं की भी मूर्तियाँ हैं। भारत से उस देश में गए १८ आचार्यों के चित्र भी इस विहार में स्थापित हैं।

'एदनिब्जू' के समीपवर्ती क्षेत्र में ६८ धर्मप्रचारकों की समाधियाँ हैं। इस नगर मे १०८ स्तूप बने हैं। माला से जपे जाने वाले मनकों के आधार पर ही संभवतः यह स्तूप बनाए गए हैं। अब तो जीर्ण-शीर्ण हो चले हैं। तीन विशाल बौद्ध विहारों के भग्नावशेष भी वहाँ मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि किसी समय वहाँ बौद्ध धर्म का कैसा वर्चस्व रहा होगा? 'जीवित' विहार में विधिवत पूजा-उपासना होती है। इसमें कितनी ही स्वर्ण मंडित मूर्तियाँ स्थापित हैं। इनमें शाक्य मुनि, कश्यप और मैत्रेय की प्रतिमाएँ प्रधान हैं।

उपरोक्त मंदिर में अभी भी विधिवत पूजा विधान चलता है। बोधि वृक्ष का वंशज एक वटवृक्ष अभी भी यहाँ अपने धर्म संस्थापक की स्मृति का प्रतीक बनकर श्रद्धा पूजित होता है।

साइबेरिया में आंगिस्की नदी के समीप एक विशालकाय बौद्ध विहार था, जिसमें देवालय और विद्यालय दोनों ही थे। यह विश्वविद्यालय स्तर का था। उनमें दर्शन, तंत्र, आयुर्वेद और ज्योतिष के अध्ययन की उच्चस्तरीय व्यवस्था थी। इस विद्यालय का नाम था—'आंगिस्की दत्सान।' इसके पुस्तकालय में पाणिनि व्याकरण, मेघदूत काव्य, अष्टांग हृदय, निघण्टु, मंत्र समुच्चय आदि संस्कृत के सहस्रों ग्रंथ हैं। यहाँ लकड़ी के ठप्पे बनाकर पुस्तकें छापने वाली पुरानी पद्धति का एक प्रेस भी था, जिसमें कितने ही उपयोगी ग्रंथ छापे गए। इस क्षेत्र में आयुर्वेद पद्धति का बहुत सम्मान था। यहाँ के एक आयुर्वेदज्ञ पदम येफ ने रूस के तत्कालीन मूर्धन्य व्यक्तियों की सफल चिकित्सा भी की थी।

पूर्वी साइबेरिया के बुर्यात प्रदेश का चीता क्षेत्र अभी भी बौद्ध धर्मावलंबी है। आगिन्स्फ जिले के इर्कत्स्क क्षेत्र में सबसे अधिक बौद्ध रहते हैं। 'तुवा' और 'कास्मिक' क्षेत्रों में भी बौद्ध धर्म फैला हुआ है। यहाँ मंगोलिया और तिब्बत की वास्तुकला के मंदिर बने हैं। 'रोदनया इवोल्गा' बस्ती का विहार देखने ही योग्य है। यह वुर्यातिया की राजधानी 'उलान उदे' से लगभग चालीस मील दूर है। यहाँ के प्रमुख पुरोहित को 'बंदिदो खंबोलिया' कहते हैं। मंदिरों के साथ-साथ इस बस्ती में स्तूप भी हैं। सामान्य सूत्र पाठ तथा प्रार्थना का क्रम यहाँ रोज ही चलता है। नववर्ष का समारोह विशेष उत्साह से मनाया जाता है और कई दिन तक चलता है। तीस भिक्षुओं के निवास के लायक स्थान इस मठ में बना है। बौद्ध सोसाइटी का केंद्रीय कार्यालय भी इसी में है। आगुंतकों के लिए विश्रामगृह का कक्ष भी है। संग्रहालय तथा पुस्तकालय में प्राचीनकाल की हस्तलिखित पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। तिब्बती विपिटिक के दो वर्ग हैं—एक कंजूर' दूसरा 'तंजूर'। यहाँ के पुस्तकालय में कंजूर वर्ग के १०८ और तंजूर वर्ग के २१५ ग्रंथ सुरक्षित हैं। कुछ दुर्लभ ग्रंथ लकड़ी के ठप्पों की छपाई में छपे हुए भी हैं। आचार्य चोडखप के द्वारा संचालित 'पीत टोपी बौद्ध संप्रदाय' के २१ ग्रंथ भी इस पुस्तकालय में हैं। संसार में अन्यत्र छपा बौद्ध साहित्य भी इस छोटे से पुस्तकालय में बड़ी सुरुचि के साथ संग्रहीत एवं सुसज्जित किया गया है।

मंदिर में भगवान बुद्ध की जीवन घटनाओं से संबंधित कितने ही चित्र तथा प्रतिमाएँ सुसज्जित हैं। इस क्षेत्र में छह पर्व मनाए जाते हैं। पाँच भगवान के जीवन की विशिष्ट घटनाओं से संबंधित हैं और एक बौद्ध सुधारक 'चोडखप' की स्मृति में प्रचलित है। सबसे बड़ा त्योहार है—'जगानसर खुरल' अर्थात नवीन वर्ष का श्वेत चंद्र पर्व। यह बसंत ऋतु के आरंभ में होता है।

'इवोल्गा' बौद्ध विहार के अतिरिक्त इस क्षेत्र में एक और भी दर्शनीय बौद्ध विहार है—चीता क्षेत्र में अगिन्सफ जिले के 'दजान'। यह इस क्षेत्र में रहने वालों के आठ कबीलों के दान से बना है। तिब्बती शैली का यह सुंदर दुमंजिला भवन है। पहली मंजिल में विशाल प्रार्थना कक्ष चित्रों और मूर्तियों का संग्रहालय एवं एक पवित्र दर्पण 'सुदुर्गन' अवस्थित है। दूसरी मंजिल में दुर्लभ ग्रंथों का संग्रहालय पुस्तकालय है। इस विहार के प्रांगण से लगा 'बोधि वृक्ष' सभी दर्शकों एवं भक्तजनों का श्रद्धाभाजन है। इसे भारतीय बौद्ध शताब्दियों पूर्व वहाँ ले गए थे। वुर्यातिया क्षेत्र के बौद्ध स्मारकों में एक विस्मृत विहार 'गुसिनूजेस्की' में मिला है जिसका पुनरुद्धार अब बड़े उत्साह के साथ किया जा रहा है।

साइबेरिया के प्राचीन मंदिर में स्थित मूर्तियाँ हिंदू देवताओं की हैं। वहाँ का बड़ा मंदिर 'महाकाल' देवता का है जिसका स्तवन संस्कृत श्लोकों में होता था।

मंगोलिया में मांगलिक अवसरों पर कलश की स्थापना, स्वस्तिक बनाना, शंख, चक्र और पद्म का चित्रण, घृत दीप एवं धूपबत्ती का जलाना अभी भी प्रचलित है। इन प्रथाओं को वहाँ पर भूतकाल में हिंदू धर्म की प्रतिष्ठापना का अवशेष ही माना जाता है। देव प्रतिमाएँ जहाँ भी मौजूद हैं उनमें हिंदू देवताओं की ही मूल मान्यता झाँकती देखी जा सकती है।

रामायण प्रेमी—इंडोनेशिया

लगभग छह हजार छोटे-बड़े द्वीपों का देश है—इंडोनेशिया। आबादी १२ करोड़ है और क्षेत्रफल ५७५४५० वर्ग मील है। छोटे द्वीपों में से अधिकतर ऐसे हैं, जिनमें लोग साधारण सी नाव के सहारे आसानी से आते-जाते रहते हैं।

इस द्वीप समूह की पुरातत्व उपलब्धियों और अर्वाचीन परंपराओं को देखने से स्पष्ट है कि वहाँ भारतीय संस्कृति की गहरी छाप है। वहाँ के इतिहास पर दृष्टि डालने से ही यह तथ्य सामने आता है कि किसी जमाने में यह देश भारतीय उपनिवेश रहा है। वहाँ भारतीय पहुँचे हैं, उन्होंने अपना वंश विस्तार किया है और इस भूमि को खोजा, बसाया तथा विकसित किया है। पीछे भारत से संबंध छूट जाने के कारण वहाँ पहुँचे अरबों के प्रभाव और दबाव में आकर वहाँ के निवासियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। फिर भी संस्कृति में भारतीयता का गहरा पुट बना ही रहा, जो अब तक विद्यमान है। ईसा से लगभग ३०० वर्ष पूर्व पाटलिपुत्र का कोई राजकुमार वहाँ पहुँचा और इन द्वीप समूहों में से कितने ही द्वीपों को उसने नये सिरे और नये ढंग से बसाया था। तब से भारतीयों का उस क्षेत्र में आना-जाना बना ही रहा। पीछे भगवान बुद्ध के शिष्यों ने वहाँ पहुँचकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया, किंतु इससे पहले शताब्दियों तक हिंदू धर्म का ही प्रसार-विस्तार होता रहा और उस द्वीप समूह के प्रायः सभी निवासी हिंदू धर्मावलंबी बने रहे।

इंडोनेशिया के अनेक नगरों के नाम अभी भी भारतीय नगरों के समान हैं, जैसे अयोध्या, हस्तिनापुर, तक्षशिला, गान्धार, विष्णुलोक, लवपुरी नगर प्रथम आदि।

इंडोनेशिया में भारतीय संस्कृति की स्थापना और उसके विकास-विस्तार का महत्त्वपूर्ण विवरण श्री केम्पर के "अर्ली इंडोनेशिया आर्ट", डॉ० कुमार स्वामी के 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया एण्ड एण्डोनेशिया यूनिटी' स्टुटैरहिम के "रामा लीजेण्डेन एण्ड रामा रिलफिस इन इण्डोनेशियेन" ग्रंथों में प्रामाणिक सामग्री सहित प्रस्तुत किया गया है। इन्हें पढ़ने पर यह स्वीकार करने में कोई अड़चन नहीं रह जाती कि इण्डोनेशिया द्वीप समूह में किसी समय भारतीय संस्कृति का ही बोलबाला था।

इंडोनेशिया नाम ग्रीक भाषा का है, जो 'इण्डो' और 'नेसी' शब्दों को जोड़कर बनाया गया है। इण्डो का अर्थ है—'भारत' और नेसी का अर्थ है 'द्वीप"। 'इंडोनेशिया' अर्थात भारत का द्वीप। यहाँ चिरकाल तक भारतीय सभ्यता की जड़ जिस गहराई तक जमी रही है उसे देखते हुए यह नामकरण सर्वथा उचित ही कहा जा सकता है। इन द्वीप समूहों का इतिहास पिछले दिनों तक 'ईस्ट इण्डीज' कहा जाता रहा है। ईस्ट इण्डीज अर्थात 'पूर्वी भारत'। जिस प्रकार अब उत्तर भारत और दक्षिण भारत एक होते हुए भी उसकी भौगोलिक जानकारी के लिए उत्तर-दक्षिण का प्रयोग करते हैं, उसी तरह किसी समय विशाल भारत का पूर्वी छोर इंडोनेशिया तक फैला हुआ था। उसके मध्य में आने वाले देश तो भारत के अंग थे ही।

इस्लाम ने हिंदी, चीन और हिंदोनेशिया पर तूफानी वेग से आक्रमण किया। सन् १४०० के लगभग इस क्षेत्र के लोग मुसलमान बनने को बाध्य हो गए। इससे पूर्व उस क्षेत्र में हिंदू धर्म का ही प्रचलन शताब्दियों से चला आता था। उपासना की दृष्टि से शिव की प्रथम और विष्णु की द्वितीय मान्यता वहाँ पर थी। उपलब्ध मूर्तियों, अवशेषों तथा शिलालेखों से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि उस देश में शिव-मंदिरों की स्थापना बड़े उत्साह के साथ हुई थी। साथ ही विष्णु मंदिर भी बनाए गए थे। शिव और विष्णु की सम्मिलित मूर्तियाँ भी मिली हैं।

यों सारा कम्बोडिया इस्लामी सभ्यता के प्रसार के साथ-साथ मंदिरों के खंडहरों से भरता चला गया, पर अभी भी जो बचे हैं, उनको कम महत्त्वपूर्ण और गौरवास्पद नहीं कहा जा सकता।

इंडोनेशिया के प्रथम शिक्षा मंत्री यासीन ने उस देश का विस्तृत इतिहास "ताता नगरा मजहित सप्त पर्व" नाम से लिखा है और उसमें रामायण को उस देश की सांस्कृतिक गरिमा के रूप में स्वीकार किया है।

महाभारत पर आधारित देवरुचि, अर्जुन-विवाह, काकविन, द्रौपदी स्वयंवर, अभिमन्यु-वध आदि कितने ही कथानक भी यहाँ की नाट्य परंपराओं में सम्मिलित हैं। ११वीं शताब्दी में महाभारत लिखा गया, जिसका नाम है—"महायुद्ध"।

जोग्या कार्ता का प्राचीन शिवालय १४० फुट ऊँचा है। इसमें १६ बड़े और २४० छोटे मंदिर सम्मिलित हैं, भूचाल से ध्वंश होने पर भी जो कुछ बचा है, वह भी अत्यधिक हृदयग्राही है। रामायण अभिनयों में ज्योग्या के सुल्तान की पुत्रियाँ सीता और विजिटा का अभिनय करती थीं।

७ सितंबर १९७१ में इंडोनेशिया ने विश्व का सर्वप्रथम अंतर्राष्ट्रीय रामायण महोत्सव आयोजित किया और राष्ट्रसंघ को उसमें सहयोग देने के लिए राजी कर लिया। यह उत्सव १५ दिन चला और उसमें फिजी, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया, वर्मा, लंका, भारत, नेपाल आदि देशों ने अपनी-अपनी प्रतिनिधि मंडलियाँ भेजकर उत्साहपूर्वक भाग लिया। रामलीला की कितनी शैलियाँ प्रचलित हैं और उनकी अपनी-अपनी कितनी विशेषताएँ हैं, इसे देखकर आगंतुक मंत्रमुग्ध रह गए। इस विश्व मेले में ३०० कलाकारों और २० हजार दर्शकों ने भाग लिया।

सन् १९६९ में ईरान को ४० कलाकारों की एक 'संस्कृति मंडली' भेजी गई और उसने "रामायण अभिनय" को नाट्य द्वारा ऐसी सुंदरतापूर्वक संपन्न किया कि ईरानी जनता मंत्रमुग्ध रह गई। इस मंडली ने वापसी में दिल्ली में भी अपनी रामलीला दिखाई, जिसकी जनता ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।

यों भारत में भी रामलीला का प्रचलन है। दशहरा के अवसर पर रावण वध, भरत-मिलाप आदि के दृश्यों सहित छोटे-बड़े समारोह उत्तर भारत में प्रायः हर नगर में होते हैं, पर इंडोनेशिया में रामलीला क्रमशः अधिकाधिक कलात्मक होती गई है और उसके साथ जुड़े हुए नृत्य अभिनय इतने ऊँचे कला-स्तर पर जा पहुँचे हैं कि उस क्षेत्र की सुरुचि को सराहे बिना नहीं रहा जा सकता। चर्म पुतलियों द्वारा संपन्न होने वाले नाटक भारत की कठपुतली कला को बहुत पीछे छोड़ देते हैं। बिहार के सेराइ केला क्षेत्र में छाऊँ नृत्य को देखकर इस क्षेत्र की नृत्य शैली को थोड़ा आभास भर मिल सकता है।

विष्णु वाहन गरुड़ इंडोनेशिया निवासियों के श्रद्धापात्र हैं। उनके नाम से "गरुड़ एयरवेज कंपनी' चलती है। विदेशों की यात्रा का सरंजाम प्रायः उसी को जुटाना पड़ता है। "गरुड़ पर सवारी कीजिए" "गरुड़ गति से प्रवास कीजिए" जैसे विज्ञापन इस वायुयान कंपनी की तरफ से बाँटे-चिपकाए जाते हैं। गरुड़ नाम को प्रधानता इसीलिए इन विज्ञापनों में दी जाती है कि जनता में सहज गरुड़-श्रद्धा की चर्चा करके, यात्रा के लिए अधिक उत्साह उत्पन्न किया जाए।

पंडान कसबे की दुकानों के नाम अर्जुन, नकुल, लक्ष्मण आदि पर हैं। एक एक्सप्रेस गाड़ी का नाम है—भीम। चमड़े की बनी पुतलियाँ यहाँ की बड़ी दुकानों पर हर जगह मिलती हैं। उसी प्रकार हनुमान, रावण, जटायु आदि के मुखौटे भी जहाँ-तहाँ बिकते देखे जाते हैं।

न्यूयार्क में एक इंडोनेशियाई मुसलमान ने एक शानदार होटल खोला है। उसका नाम रखा है "रामायण होटल"। धर्म से मुसलमान होते हुए भी इंडोनेशियाईवासियों की संस्कृति में 'रामायण' के लिए श्रद्धा का गहरा पुट है। उनके नाम अभी भी रत्न देवी, लक्ष्मी, सीता, द्रौपदी, मेघवती तथा कार्तिकेय, सुकर्ण, सुव्रत, सुजय आदि पाए जाते हैं।

इस होटल के उद्घाटन में राष्ट्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष श्री आदम मलिक सपत्नीक उपस्थित थे। श्री मलिक इससे पहले इंडोनेशिया सरकार के मंत्री रह चुके हैं।

इस्लामी विस्तारवाद भारत को रौंदता हुआ १४वीं सदी में इस क्षेत्र में भी जा पहुँचा और अपनी गहरी जड़ें जमाई। इस क्षेत्र की जनता में ९० प्रतिशत मुसलमान हैं। शेष दस प्रतिशत में हिंदू तथा अन्य धर्मानुयायी तथा अन्य धर्मावलंबी शामिल हैं। पुर्तगाल, डच, फ्रांसीसी और अंगरेजों की घुसपैठ भी पंद्रहवीं सदी के आरंभ में हो गई थी, जो पिछली शताब्दी तक चलती रही।

इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्ण ने एक समय पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र में लिखा था—"इंडोनेशिया और भारत की जनता रक्त और संस्कृति के पवित्र एवं सुदृढ़ धागों से परस्पर मजबूती के साथ बँधी है।"

स्वतंत्रता प्राप्त करने का बाद इंडोनेशिया और भारत के संबंध बहुत ही अच्छे थे। पीछे चीनियों ने उन्हें विषाक्त बना दिया। क्रमशः अब उनमें सुधार हो रहा है और आशा की जाती है कि धर्म की भिन्नता रहने पर भी इंडोनेशिया और भारत की सांस्कृतिक एकता दोनों को पुनः घनिष्ठता के संबंध सूत्र में बाँधे बिना न रहेगी।

हिंद-चीन (वियतनाम) क्षेत्र को भारत के अनुदान

भारतीय पुराण-साहित्य में सात पातालों की चर्चा मिलती है। प्राच्य विद्या विशारदों ने इसकी संगति दक्षिण-पूर्व एशिया के सात देशों से मिलाई है, जहाँ समुद्र पार करके जाना पड़ता है। इन शोधकर्ताओं के अनुसार—(१) अतल-सुमात्रा (२) चितल बोर्निया (३) सुतल जावा (४) रसातल-सेलीविज (५) महातल-आस्ट्रेलिया (६) तलातल-न्यूगिनी (७) पाताल-न्यूजीलैंड है। कहीं-कहीं नौ द्वीपों की भी चर्चा मिलती है। बर्मा और मलय को शामिल कर लेने से यह संख्या ९ हो जाती है। सिंगापुर का सिंहलद्वीप के नाम से वर्णन हुआ है। वर्मा को नाग द्वीप कहते हैं। सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी की सुंदरता और उसे पाने की चेष्टा में अनेकों राजकुमारों की दौड़धूप की किंवदंतियाँ अभी भी बहुचर्चित लोक-कथाओं में सम्मिलित हैं।

'कौडिन्य' का नाम सुदूर पूर्व के शासकों का एक प्रतीक ही बन गया है। भारत से उगने वाले अधिक प्रतापी राजाओं को उस क्षेत्र में कौडिन्य नाम से संबोधित किया जाने लगा। इतिहास बतलाता है कि समय-समय पर कई कौडिन्यों ने उस क्षेत्र की शासन सत्ता के सूत्र अपने हाथ में सँभाले हैं। प्रथम कौडिन्य ईसा की प्रथम शताब्दी में पहुँचा था। चौथी शताब्दी में दूसरे कौडिन्य का विवरण उपलब्ध होता है, जिसने वहाँ पूर्व परंपराओं का प्रचलन रद्द करके नये स्तर पर भारतीय आचार पद्धति की स्थापना की। इसके तीन सौ वर्ष बाद एक तीसरा कौडिन्य भारत से पहुँचा। उसने शासन-व्यवस्था को और भी अधिक परिष्कृत किया। पाँचवीं सदी के शासक जय वर्मा को भी 'कौडिन्य' शब्द के साथ संबोधित किया जाता है।

तानकिन,अनाम, कोचीन-चाइना, लाओस, कंबोडिया—यह चाइना प्रायद्वीप के प्रधान प्रदेश हैं। इस प्रायद्वीप की आबादी प्रायः ४ करोड़ है। भारतमाता और हिंदचीन की धरती को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार पर बड़ी और छोटी बहिन कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी।

अब हिंदचीन का नाम प्रयोग पुराना पड़ गया है। उसके स्थान पर नया नाम प्रचलित हुआ है—'वियतनाम'। कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्टों के संघर्ष ने इन दिनों इस देश में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी है और उत्तरी-दक्षिणी बनाकर भारत-पाकिस्तान के जैसा विभक्त करके रख दिया है। उत्तरी साम्यवादियों को रूस-चीन का समर्थन प्राप्त है और दक्षिणी गैर साम्यवादियों को अमेरिका का।

पहली ईसवीं में भारतीयों का शासन कंबोडिया, दक्षिण लाओस, स्याम, मलाया द्वीप समूह में स्थिर हो चुका था। इस क्षेत्र में कौडिन्य ब्राह्मण ने पदार्पण किया। उसने स्थानीय नाग कन्या सोमा से विवाह किया और उसके वंशजों का नाम सोमवंशी हुआ। इन लोगों ने इस सुविस्तृत क्षेत्र की शासन-व्यवस्था सँभाली। दक्षिण भारत के उस क्षेत्र में भारतीय लोग बराबर जाते और बसते रहे। भारत के पल्लववंशी राजा अपने नाम के आगे वर्मा उपाधि लिखा करते थे। अस्तु, वही परंपरा सुदूर पूर्व के शासकों में भी चली। उस क्षेत्र के प्राचीन राजाओं में से अधिकांश वर्मा उपाधि अपने नाम के साथ लगाते रहे थे। भारत के गोपुरों की शैली पर कंबोडिया के "अंकोरवाट" और "वेयन" मंदिरों की निर्माण हुआ। उस क्षेत्र में नटराज की मूर्तियों का बाहुल्य यह बताता है कि दक्षिणी भारत के शैवों का वहाँ किसी समय वर्चस्व रहा है।

सुदूर पूर्व में भारत का प्रभाव-विस्तार किस क्रम और किस आधार पर विकसित हुआ इसकी अच्छी जानकारी इन पुस्तकों से भी मिलती है—

(१) बी० सी० छावरा कृत—"एक्सपेंशन ऑफ इण्डोचाइना कल्चर"
(२) "ए हिस्ट्री ऑफ साउथ ईस्ट एशिया"
(३) वेल्स कृत—"दी मेकिंग ऑफ इण्डिया"
(४) के० ए० एन० शास्त्री कृत—"इण्डियन इन्फ्लुएंस इन फार ईस्ट"
(५) जिंपर कृत—"दी आर्ट ऑफ इण्डियन एशिया"
(६) स्टुटेरहम कृत—"इण्डियन इन्फ्लुएंस इन ओल्ड बालीनीज आर्ट"
(७) मजूमदार कृत—" हिंदू कोलोनीज इन फार ईस्ट"
(८) बैजनाथ पुरी का "दक्षिण पूर्व एशिया का सांस्कृतिक इतिहास"
(९) घोषाल की "प्रोग्रेस ऑफ ग्रेटर इण्डियन रिसर्च" आदि ग्रंथ उपयोगी जानकारी प्रस्तुत करते हैं।

पामतियो की "खामेर वास्तुकला का इतिहास" तथा वोवासलिये की खमेर मूर्तियाँ और उनका विकास पुस्तकें भी स्वर्ण द्वीप की भूतकालीन सभ्यता, संस्कृति पर अच्छा प्रभाव डालती हैं और बताती हैं कि उस क्षेत्र पर भारत का कितना अधिक प्रभाव रहा। रघुनाथ सिंह की "दक्षिण-पूर्व एशिया" और मजूमदार की "स्वर्णद्वीप" पुस्तकें भी इस संदर्भ में अच्छी जानकारी प्रस्तुत करती हैं।

हिंद-चीन क्षेत्र पर प्रकाश डालने वाले फिनों के तीन निबंध बहुत ही सारगर्भित हैं—

(१) हिंद-चीन में भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव
(२) हिंद-चीन में लोकेश्वर एशियाटिक अध्ययन
(३) हिंद-चीन में बौद्ध मत। 'सुदूर पूर्व पत्रिका' भाग १२ और सन् १९२६ की "भारतीय इतिहास पत्रिका" में इस प्रकार के और भी कई विवरण उपलब्ध हैं।

बाकोफर का "फूनान पर भारतीय कला का प्रभाव" निबंध "बृहत्तर भारत" पत्रिका के भाग दो में छपा है। उसी के भाग १० में विश्वनाथ का "हिंद-चीन के सामाजिक जीवन में द्रविण प्रभाव" लेख छपा है। मद्रास की "प्राच्य सभा पत्रिका" के भाग-२ में "फूनान और कंबुज में भारतीय संस्कृति" पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार 'मार्डन रिव्यू' (१९३०) में श्रीचटर्जी का "कंबुज में तंत्र वाद" लेख के अंतर्गत पठनीय तथ्य प्रस्तुत किए गए थे।

तुर्की टोपी पहने हुए सैगोन के बाजार में इधर-उधर आने-जाने वालों में से बहुत से मुसलमान "मलाबारी" कहलाते हैं। इनके पूर्वज भारत के मालाबार प्रदेश से वहाँ पहुँचे थे। बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने पर भी उन्होंने अपने पूर्वजों की मातृभूमि को विस्मृत नहीं किया और "मलाबारी" कहलाने पर उंपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। यहाँ रिक्शे अधिक हैं, जिन्हें फ्रान्सीसी भाषा के शब्द 'पुश-पुश' से जाना जाता है। तांगे कम हैं, उनको 'मलबार' कहते हैं। इससे प्रतीत होता है कि किसी समय मलाबारी यहाँ अधिक संपन्न रहे होंगे। इसी आधार पर उस वाहन का नाम 'मलाबारी' पड़ गया। इसका निर्माण और प्रचलन भी आरंभ में इन्हीं लोगों ने किया होगा।

सैगोन में तागिल चेटिटयर संख्या में तो बहुत नहीं हैं, पर हैं श्रीमंत। वे सुब्रह्मण्य भगवान को पूजते हैं। हिंदू मंदिर यहाँ टुटपूँजिये नहीं, वरन निर्माताओं के वैभव की साक्षी देते हैं। सैगोन पूर्वी एशिया का पेरिस है, उसका सौंदर्य और वैभव देखते ही बनता है। अनामी और कंबोजी नागरिकों के चेहरे भारतीयों से मिलते हैं। उनकी नसल आर्य है। वे हिंदुओं की संतानें हैं।

फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के पतन के साथ पूर्वी एशिया में वियतनाम के अतिरिक्त कंबोडिया और लाओस भी स्वतंत्र हुआ। फ्रांस ने इस सारे क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाया था और उसे 'इण्डोचाइना' हिंदचीन का नाम दिया था। पर जब फ्रांसीसी वहाँ से सन् १९५४ में उखड़े तो उन्होंने चलते-चलते उस क्षेत्र में गृह-युद्ध की आग लगा दी। फलस्वरूप उस क्षेत्र की एकता नष्ट हो गई और वहाँ के देश कई टुकड़ों में बँट गए। यों छोटे-छोटे राजा तो फ्रांस के शासन काल में थे, पर वे सभी सत्ता रहित थे। फ्रांसीसियों के हटते ही वे उभर पड़े और अलग-अलग स्वतंत्र राष्ट्र हो गए। अब वियतनाम दो हिस्सों में बँट गया है। लाओस का भी बहुत बड़ा भाग कम्युनिस्ट हथियाए बैठे हैं। लाओस और वियतनाम के बीच में कंबोडिया पड़ता है, उसकी राजनीतिक स्थिति कुछ ठीक है। वहाँ का मनोनीत प्रधान मंत्री है—राजकुमार सिंहनुक और राज-प्रमुख है उसकी वृद्धा माता। इस प्रकार राजसत्ता का सर्वेसर्वा सिंहनुक ही है। यहाँ की हरी-भरी उपजाऊ भूमि में चावल, गन्ना, पटसन खूब होता है और वह निर्यात भी किया जाता है।

भारतीय धर्मानुयायी—कम्बोडिया

इतिहासकार केंटलई और ली. टाओ युआन के कथनानुसार ईसा की तीसरी शताब्दी में कम्बोडिया में हिंदूराज स्थापित हो चुका था। वहाँ उपलब्ध लेखों से विदित होता है कि प्राचीनकाल में वहाँ एक असभ्य जाति रहती थी, जिसकी रानी का नाम 'ल्यू ए' अथवा सोमा था। भारत से पहुँचे कौडिन्य नामक ब्राह्मण से उसने विवाह कर लिया। यह इंद्रप्रस्थ के राजा अमृत्यवेश का पुत्र था। सोमा और कौडिन्य से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वही आगे चलकर कम्बोडिया का शासक बना। उसने छोटे-छोटे कई राज्य स्थापित किए। इंद्र वर्मन, श्रेष्ठ वर्मन, जय वर्मन, रुद्र वर्मन, गुण वर्मन, भव वर्मन आदि शासक इसी वंश के थे। पीछे इसी वंश में वीर वर्मन, ईशान वर्मन, महेंद्र वर्मन, शंभु वर्मन, यशो वर्मन, राजेंद्र वर्मन, उदयादित्य वर्मन आदि शासकों की लंबी परंपरा चल पड़ी। इन लोगों ने कोई छह राज्य बनाए जिनके नाम कपिलवस्तु, श्रावस्ती आदि रखे। भारतीयों के जत्थे इसके बाद लगातार पहुँचते रहे और पाँचवी, छठी शताब्दी में हिंदू धर्म के साथ बौद्ध धर्म भी जड़ें जमाने लगा। गुण वर्मन द्वारा अंकित कराए शिलालेखों से स्पष्ट है कि उसके शासनकाल में शिव, विष्णु एवं बुद्ध की उपासना प्रचलित थी। वेदपाठी विद्वान ब्राह्मण वहाँ मौजूद थे। हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के मानने वाले प्रीतिपूर्वक साथ रहते थे, चीनी इतिहास ग्रंथ "तांग वंश का इतिहास" और "सुईवंश का इतिहास" यह बताते हैं कि छठी और सातवीं शताब्दी में कौडिन्यवंशी शासकों द्वारा कम्बोडिया में सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था चलाई जा रही थी और चीनी व्यापारी भी वहाँ घुस पैठ करने में दत्तचित्त थे।

कंबोडिया प्राचीन काल में कंबुज कहा जाता था और अब उसे अनाम कहते हैं। अब उसके निवासी किसी भी वंश या धर्म के हों, प्राचीनकाल में निश्चित रूप से भारतीय धर्मावलंबी और भारतवंशी थे। यहाँ की मेंकांग नदी का नामकरण भी कोंग शब्दों को मिलाकर किया गया है। जिसका अर्थ वहाँ की भाषा में 'गंगा माता' होता है। सचमुच वहाँ उस सरिता को मात्र जल-प्रवाह नहीं माना जाता वरन भारतीयों द्वारा गंगा के प्रति जो श्रद्धा भाव है, उसी के अनुसार मेंकांग को भी उस देश में सम्मानास्पद माना जाता है।

यों प्राचीनकाल में इस देश का भारत और चीन से स्थल संपर्क भी था, पर जल यात्रा अधिक सरल और निरापद होने से प्रायः उसी का प्रयोग किया जाता था। भारतीय सभ्यता वहाँ समुद्र मार्ग से ही पहुँची।

कंबोडिया में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार 'कंबु' स्वयंभू मनु नामक महापुरुष ने उस देश को बसाया, उसकी संतानें, कंबु कहलाई। भारत में जिस प्रकार मनु की संतान का मानव कहलाना प्रचलित है, उसी प्रकार उस देश के निवासी भी अपने को कंबु स्वयंभू मनु की संतान मानते हैं। अन्य कंबोज गाथाओं के अनुसार भारत से कंबु ऋषि वहाँ पहुँचे। उस देश की राजकुमारी मीरा से उन्होंने विवाह किया और उन्हीं के नाम पर देश का नाम कंबुज पड़ा।

वर्तमान राजधानी "नाम पेन्ह" का इतिहास यह बताया जाता है कि पेन नामक एक महिला को नदी में बुद्ध भगवान की मूर्ति मिली। वह उसने निकाली और एक झोंपड़ी में रखकर उन्हीं के समक्ष साधना करने लगी। लोग उसके दर्शन करने पहुँचने लगे और धीरे-धीरे वहाँ एक बस्ती बस गई, जिसका नाम पड़ा 'पनीम पेन'। पनीम का अर्थ होता है—पहाड़ी। तपस्विनी पेन वाली पहाड़ी को ध्यान में रखते हुए उस बस्ती का जो नाम पड़ा वही पीछे बदलकर 'नीमपेनया नाम पेन्ह' हो गया। इसके समीपवर्ती क्षेत्र में कितने ही भव्य बौद्ध अवशेष उपलब्ध हैं। उस तपस्विनी के उपरांत वह क्षेत्र बौद्ध धर्म का क्षेत्र बनता चला गया। चौदहवीं सदी का यह आरंभ अठारहवीं सदी तक फलता-फूलता चला गया।

अब वहाँ तिब्बती, वर्मी और 'मों रूपेट' नसल के लोगों का बाहुल्य है, पर पुरातत्ववेत्ताओं को खुदाई में जो अवशेष मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि उनमें "प्रोटो इंडोनेशिया नसल" के लोग ही थे। मध्य और पूर्व भारत में मुंड और खस जातियाँ इसी नसल की हैं। श्रीवागची ने अपनी पुस्तक "पूर्व आर्य और पूर्व द्रविण" ग्रंथ में इतिहासकार लेवी, प्रिजुलस्की तथा जूब्लैक के लेखों का संकलन किया है। इन लेखों से यही सिद्ध होता है कि कम्बोडिया के प्राचीन निवासी भारतीय नसल के थे। पुरातत्ववेत्ता क्रोम तो इससे एक कदम और भी आगे बढ़ गए हैं। उन्होंने तो कहा है कि जावा निवासी पहले भारत में बसे, वहाँ उन्होंने अपनी जड़ें जमाईं और पीछे मजबूत होकर कम्बोडिया आदि पहुँचे।

कंबोडिया की प्राचीन भाषा भारत में उन दिनों प्रचलित मुंड और खस लोगों की भाषा से बहुत कुछ मिलती है। बौद्ध जातक कथाओं में इस देश का उल्लेख 'कर्पूर द्वीप'—नारिकेल द्वीप के नाम से किया गया है। यहाँ नारियल, कपूर और मसालों का अधिक उत्पादन है। 'टालेमी' के "हिंद-चीन तथा इण्डोनेशिया के हिंदू राष्ट्र" ग्रंथ में उस समय भारतीयों द्वारा बनाए गए ऐसे विशाल जलपोतों का वर्णन है, जिन पर सवार ७०० व्यक्ति आसानी से लंबी समुद्री यात्राएँ करते थे। इन्हीं पर सवार होकर धर्मप्रचारक, व्यापारी तथा राजवंशी लोग वहाँ पहुँचे थे। इस क्षेत्र में प्राचीन प्रचलन जिस प्रकार की वर्ण व्यवस्था तथा धर्म व्यवस्था का था उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि वहाँ पहले धर्मप्रचारकों का ही पदार्पण हुआ होगा। इन लोगों ने न केवल कम्बोडिया में वरन हिन्द-चीन, इंडोनेशिया, ब्रह्मा, मलाया आदि में भी भारतीय संस्कृति की पताका फहराई थी। ब्रह्मा से लेकर हिंद-चीन तक के सारे क्षेत्र में हिंदू सभ्यता का प्रचलन था। फ्रांसीसी शोधकर्ता 'पिलियो' ने लिखा है कि "इस क्षेत्र में उपलब्ध प्राचीन शिलालेखों की लिपि हिन्दू-सभ्यता की देन है। इतिहासकार पेरीपियस ईसा की प्रथम शताब्दी में हए थे। उन्होंने अपने समय में भारतीय जहाजों के मलाया, हिंद-चीन आदि के लिए जाने का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारतीयों द्वारा अपनी सभ्यता का प्रवेश इस क्षेत्र में हो चुका था।"

जय वर्मन चतुर्थ का शासन काल शक ८३४ से ९२१ माना जाता है और जय वर्मन (पंचम) का शक ८९० से ९६८ तक। इन लोगों ने जय वर्मन (प्रथम) की परंपराओं का अनुकरण करके अपने नाम को सार्थक बनाने में कुछ कसर न रखी। भारत में कई विक्रमादित्य हुए हैं और उन्होंने भी प्रथम विक्रमादित्य की परंपराओं का अनुकरण करने का जय वर्मनों की तरह ही प्रयास किया था। जय वर्मन (छठा) शक संवत् १००४ से १०१८ तक और जय वर्मन (सप्तम) ११०४ से ११८२ तक शासनारूढ़ रहे थे।

कम्बोडिया के शासकों में सबसे अधिक सफल, कुशल और लोकप्रिय जय वर्मन माना जाता है। उस प्रिय नाम का अनुकरण उसके अगले वंशज भी करते रहे। अस्तु, जय वर्मन द्वितीय और तृतीय भी हुए हैं। जय वर्मन द्वितीय ने आक्रमणकारियों के चंगुल में फँसे अपने देश के एक बड़े भाग को बंधन मुक्त कराया, उसे समृद्ध सुसंगठित किया तथा अच्छी शासन व्यवस्था दी। इसका शासन काल शक संवत् ७२४ से ८०२ तक रहा है। इसने भारत से हिरण्यदास नामक एक विद्वान ब्राह्मण को बुलाया जिसके वंशज कई पीढ़ियों तक राज-पुरोहित रहे। जय वर्मन तृतीय का शासन काल ८५४ ई० से ८७७ ई० तक माना जाता है। यह विष्णु भक्त था। वर्मन वंश की रानियाँ भी राजकीय तथा धर्म प्रयोजनों में उत्साहपूर्वक भाग लेती रही थीं।

सन् ८७७ से लेकर सन् १००० तक वर्मन वंश के कोई ७ राजा सिंहासनारूढ़ हुए। इस अवधि में कंबोडिया की राजकीय तथा धार्मिक प्रगति उत्साहवर्द्धक गति से आगे बढ़ी। उन्होंने अपने देश की सीमा का विस्तार दक्षिण चीन तक पहुँचा दिया। साथ ही धार्मिक प्रसार-प्रयासों को भी भरपूर बढ़ावा दिया। इंद्र वर्मन ने कई भव्य मंदिर बनवाए और इंद्रतड़ाग खुदवाया। यशोवर्मन ने महाकाव्य पर एक टीका स्वयं लिखी। शिवपुरी में एक महाविद्यालय खुलवाया। कितने ही आश्रम बनवाए। हर्ष वर्मन का बनाया हुआ मंदिर 'नाम वॉक' की पहाड़ी के समीप है। इस अवधि में त्रिभुवनेश्वर स्वामी-शिवसोम आदि विद्वानों द्वारा धर्म विस्तार के लिए किए गये अथक प्रयास भी उल्लेखनीय हैं। उन दिनों शैव और बौद्ध धर्म की अच्छी प्रगति होती रही थी और उन्हें कंबोडिया निवासी अपनी रुचि के अनुकूल अपनाते रहे हैं।

यशोवर्मन ९१० ई० में स्वर्गवासी हुए। उनके उपरांत राजेंद्र वर्मन और जय वर्मन (पंचम) का नाम आता है। सन् १००२ में सूर्य वर्मन (प्रथम) का शासन था। सन् १०४९ में उसका पुत्र उदयादित्य वर्मन सिंहासनारूढ़ हुआ। सूर्य वर्मन (द्वितीय) १११२ में गद्दी पर बैठे। कम्बोडिया का अंतिम हिंदू राजा जयवर्मन (सप्तम) था। तेरहवीं सदी में स्याम के राजा उस पर भारी आक्रमण करने लगे थे। सोलहवीं शताब्दी में इन आक्रमणकारियों का आधिपत्य भी हो गया। तब से अब तक स्यामी राजाओं के बौद्ध धर्मानुयायी वंशज उस देश पर राज्य कर रहे हैं।

कंबोडिया में पहले वैष्णव धर्म पहुँचा था पीछे बौद्ध धर्म गया। वहाँ दोनों का अच्छा समन्वय दिखाई देता है। भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। साहित्य में रामायण, महाभारत आदि भारतीय पुराणों की कथाओं का बाहुल्य है। पूजा उपासना, कर्मकांड एवं प्रथा परंपराएँ भारत से मिलती-जुलती हैं। स्वर और व्यंजनों का क्रम भी वैसा ही है। मंदिरों तथा ऐतिहासिक स्थानों में उपलब्ध मूर्तियों, भित्ति चित्रों, शिलालेखों से भारत में प्रचलित परंपराओं का भली प्रकार दिग्दर्शन होता है और लगता है कि यह देश सांस्कृतिक दृष्टि से अभी भी भारत का अविच्छिन्न अंग है।

कंबोडिया में चौदहवीं सदी का बना ईश्वरपुर में एक मंदिर है जिसमें रावण द्वारा कैलाश पर्वत हाथों पर उठाए जाने की प्रतिमा है। हेम शृंगार नगर के मंदिरों में हनुमान के कंधे पर बैठे हुए राम तथा सीता की अग्नि परीक्षा के भव्य चित्र हैं।

शिव, विष्णु, कार्तिकेय, गणेश, शालिग्राम, सूर्य, दुर्गा, भवानी, भगवती चतुर्भुजा, सरस्वती, गंगा, इंद्राणी आदि की प्रतिमाएँ स्तुतियाँ, स्थापना एवं उनके लिए बने देवालयों के भी अनेकों प्रमाण उपलब्ध हैं। कई जगह तो इन देवी-देवताओं की तथा उस प्रदेश के स्थानीय देवताओं की मूर्तियाँ अभी भी स्थापित और पूजित हैं। पीछे राजा लोग अपने को तथा अपने पूर्वजों को भी देवता सिद्ध करने के लिए अपनी मूर्तियाँ भी बनवाने लग गए थे और उनका भी पूजन स्तवन होने लग गया था। कुल देवियों और कुल देवताओं का प्रचलन इसी प्रकार बढ़ गया। राजवंश के ख्यातिनामा लोग प्रजाजनों द्वारा पूजे जाने लगे।

प्राचीन कंबोडिया में समय-समय पर संपन्न हुए विशालकाय यज्ञानुष्ठानों का भी वर्णन मिलता है। सम्राट ईशान वर्मन, हर्ष वर्मन और राजेंद्र वर्मन अपने-अपने समय के यज्ञों के होता यजमान बने थे। सूर्य वर्मन ने लक्ष होम तथा कोटि होम किए थे और पुरोहितों को विपुल दक्षिणा दी थी। मध्य देश नामक एक महिला द्वारा भी एक विशाल यज्ञ कराया गया था। उन दिनों ऋषियों तथा तपस्वियों की कमी नहीं थी। इस क्षेत्र में नर और नारी समान रूप से प्रवेश करते थे। मिन्नामल महीधर नामक पुरुष तपस्वियों तथा उमा, इंद्रा नामक साधिकाओं का शिलालेखों में चमत्कारी वर्णन मिलता है।

बौद्ध धर्म कम्बोडिया में हिंदू धर्म का एक अंग बनकर ही रहा। उसकी ब्राह्मण धर्म से न तो पृथकता थी और न प्रतिस्पर्द्धा। वरन प्रचलित अनेक पंथ-संप्रदायों की तरह बौद्ध धर्म भी हिंदू समाज का अविच्छिन्न अंग बन कर रहा और एक ही उद्यान में उगे अनेक वृक्षों की तरह वह भी समान रूप से पोषण पाता रहा और फलता-फूलता रहा।

उस काल में वहाँ वेद-शास्त्र के ज्ञाता एवं यज्ञादि कर्मकाण्डों में निष्णात विद्वान ब्राह्मणों की अच्छी संख्या थी। संस्कृत भाषा का प्रचलन था। प्राचीन पुस्तकों तथा शिलालेखों में संस्कृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। हस्तलिखित पुस्तकों में प्रायः भारत में प्रचलित धार्मिक पुस्तकों के ही अंश हैं। साहित्य, कला, चिकित्सा, तंत्र आदि पर जो ग्रंथ मिले हैं उन्हें एक प्रकार से भारतीय साहित्य की ही अनुकृति कह सकते हैं। ब्राह्मी लिपि का भारतीय वर्णमाला के अनुकूल प्रयोग होता था।

यशोवर्मन के शासन काल में १०० महाविद्यालयों में उच्च कोटि की शिक्षा व्यवस्था का उल्लेख है। इनके साथ मंदिर और पुस्तकालय भी रहते थे। अन्य शासकों के शासन काल में विद्यालय तो थे पर उनकी संख्या का विवरण नहीं मिलता। उच्च कक्षाओं को पढ़ाने वाले उपाध्याय और छोटी कक्षाओं को पढ़ाने वाले अध्यापक कहे जाते थे। प्राध्यापकों में सोमशिव, शंकर स्वामी, विनय पंडित, जयमाला, जयेंद्र, फलप्रिय, योगेश्वर, अगस्त्य, सर्वज्ञ मुनि, जय महा प्रधान, केशव आदि का गौरवास्पद उल्लेख है। अध्यापिकाओं में जनपदा, राजदेवी, तिलका, इंद्रादेवी, जयराज देवी आदि के नाम आते हैं। इनमें से कुछ तो राज परिवारों से संबंधित थीं।

फ्रांसीसी इतिहासकार कोड बार्थ तथा बरगन के कंबुज तथा चंपा के संस्कृत लेख-संकलन में कंबोडिया के प्राचीन इतिहास पर अच्छा प्रभाव डाला गया है। इन विद्वानों ने उपलब्ध अवशेषों तथा लेख उद्धरणों का हवाला देते हुए जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे यही सिद्ध करते हैं कि कम्बोडिया प्राचीनकाल में एक प्रकार से छोटे भारत की स्थिति में था। वहाँ भारतीय धर्म और संस्कृति का ही पूरी तरह आधिपत्य था।

विद्वान फिनो ने "सुदूर पूर्व पत्रिका" के भाग २५, २८, २९ में "अंगकोरवाट से प्राप्त लेख" शीर्षक जो विवरण प्रस्तुत किए हैं, वे यही बताते हैं कि संसार के इस अद्भुत ध्वंसावशेष के निर्माण की प्रेरणा, कथा तथा साधन-सामग्री का भारत से ही आयात किया गया। पुरातत्ववेत्ता 'पामांतिये' के 'चंपा तथा कंबुज के लेख' प्रकाशन में जो भी निष्कर्ष हैं उनसे अनाम तथा कम्बोडिया में भारतीयता की जड़ें गहराई तक जमी हुई सिद्ध होती हैं। आमोनिये द्वारा लिखित "प्राचीन कंबुज का इतिहास" और विगो के "हिंद-चीन और हिंदनेशिया के हिंदू राष्ट्र" ग्रंथों से भी इस तथ्य का समर्थन होता है कि इस क्षेत्र की शासन व्यवस्था तथा सांस्कृतिक उन्नति में भारतीयों का असाधारण योगदान रहा है।

नौवीं, दसवीं शताब्दी में कंबोडिया का स्वर्णिम युग था। उस वैभवशाली युग में प्रत्येक शासक ने अपनी ओर से इस क्षेत्र में निर्माण कार्य जारी रखा और क्रमशः 'अंगकोरवाट' अधिकाधिक विकसित होता चला गया।

समय के परिवर्तन में इस वैभव को अपनी काली चादर में छिपा लिया और मुद्दतों तक यह विशाल भवन उपेक्षित एवं अविज्ञात पड़े रहे और खंडहर बनते गए। सन् १८६१ में एक फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता ने इन अवशेषों को ध्यानपूर्वक देखा और इस अद्भुत उपलब्धि पर हर्ष-विभोर होकर नाचने लगा।

प्राचीन अंगकोर के ध्वंसावशेष १५ मील से अधिक भूमि परिधि को घेरे पड़े हैं। इस क्षेत्र को 'अंगकोरवाट' कहते हैं। यहाँ के अपूर्व भवनों को देखकर मनुष्य की आश्चर्यजनक निर्माण शक्ति पर अवाक रह जाना पड़ता है। इसे संसार भर में उपलब्ध ध्वंसावशेषों में सबसे अधिक विशाल और बहुमूल्य कहा जा सकता है। पुराने समय में जबकि यांत्रिक साधनों का अभाव था किस प्रकार इतनी कलात्मक, इतनी विशाल, इतनी बहुमूल्य इमारतें बन सकी होंगी। इस रहस्य पर आज के इंजीनियरों को आश्चर्य होता है। इसका महा प्रांगण पेरिस के प्रसिद्ध "पैलेस दला कांकोई" से चार गुना बड़ा है।

भव्य भवनों की पत्थर से बनी लंबी दीवारें ऐसी लगती हैं मानो वे एक ही पत्थर को काटकर बनाई गई हों, जोड़ तो हैं पर ये इतने हलके हैं कि बिना विशेष जाँच-पड़ताल किए वे नजर ही नहीं आते। पत्थरों की नक्काशी देखते ही बनती है। प्रधान मंदिर के चार विशाल स्तंभ इतने ऊँचे हैं कि उन्हें देखने के लिए गरदन को ऊपर तक तानना पड़ता है।

'प्यरे लोती' नामक जलयान के कप्तान ने अपने संस्मरणों में लिखा है—अंगकोर को देखकर बुद्धि हतप्रभ हो जाती है। जब ऊपर चढ़ते हैं तो लगता है कि स्वर्ग की ओर बढ़ रहे हैं। चारों ओर नजर दौड़ाते हैं तो लगता है कि मंदिर जमीन से ऊपर उठता चलता है। ऊँचाई के असीम दर्शन से बुद्धि ठगी सी रह जाती है।

कंबोडिया की राजधानी 'नाम पेन्ह' है। यह बड़ा सुंदर नगर है। कंबोजी जनता धार्मिक प्रकृति की है, इसमें बौद्ध भिक्षुओं की संख्या बहुत है। भारत में हिंदू साधुओं की तरह उस देश में भी बौद्ध भिक्षु झुंड के झुंड विचरण करते पाए जाते हैं।

'नाम पेन्ह' को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक पुरानी बस्ती जिसमें भारतीय ढंग की बसावट, बौद्ध, पेगोडा, हिंदू मंदिर तथा राज प्रसादों की भरमार है। दूसरी नई बस्ती—यह फ्रांसीसी ढंग पर बसी है। इसमें प्रवेश करने पर ऐसा लगता है, मानो योरोप के किसी आधुनिक बसे नगर में घूम रहे हों।

पुरानी बस्ती का वैभव भी देखते ही बनता है। राजप्रसादों में बने गुंबज और उन पर रखे कलश बहुत दूर से दिखाई पड़ते हैं। महलों की दीवारों पर भारतीय पौराणिक गाथाओं के चित्र खुदे हैं। एक भवन का ३५ फुट चौड़ा १२५ फुट लंबा फर्श ही चाँदी का बना है। चाँदी की तह आधा इंच मोटी है। इसमें ठोस स्वर्ण की बनी करोड़ों रुपये मूल्य की बुद्ध प्रतिमा है, जिसे राज-परिवार के लोग पूजते हैं।

नाम पेन्ह से ८० मील दूर "अंगकोरवाट" है। इसे राजा सूर्य वर्मन ने बनवाया था। इसके अवशेष मीलों तक बिखरे पड़े हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की विशालकाय मूर्तियाँ कला-कुशल हाथों की बनाई हुई हैं। शिल्पकला और वास्तुकला की दृष्टि से यह संसार भर के ध्वंसावशेषों में अद्वितीय है। इनके सामने रोम, मिश्र और यूनान के विशालकाय खंडहर भी तुच्छ प्रतीत होते हैं। इस क्षेत्र में संस्कृत भाषा के अनेक शिलालेख बिखरे पड़े हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार होने पर उन्हीं में स्थापित की गई बुद्ध प्रतिमाएँ भी विद्यमान हैं।

चीनी इतिहासकारों के अनुसार अब से कोई सवा हजार वर्ष पहले केरल के राजा सूर्य देव ने ऐतिहासिक 'अंगकोरवाट' के मंदिरों को बनवाया था। शासकों की तीन पीढ़ियों ने उसे ७० वर्ष में बनाकर पूरा किया था।

यह २१ वर्गमील में फैला हआ है। इसे देखने को संसार भर के पर्यटक पहुँचते हैं। कंबोडिया की अर्थ व्यवस्था को सुधारने में इन पर्यटकों का बड़ा हाथ रहता है। संसार की कई हवाई जहाज कंपनियों ने यात्रियों के ठहरने के सैकड़ों कमरे वाले होटल बनवाए हैं। "एयर फ्रांस" द्वारा बनवाया होटल लगभग ५०० कमरों का है। योरोप के कई बड़े देशों की सीधी विमान सेवा अंगकोरवाट के लिए पहुँचती है। चीन ने सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए एक हवाई अड्डा अपनी ओर से बनाकर कंबोडिया सरकार को भेंट किया है।

एक बार भारत के राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद वहाँ गए और "अंगकोरवाट" को देखकर मुग्ध हो गए। इस मंदिर में एक कमरा जादू जैसी विशेषता का है। उसमें घुसकर कोई अपने हृदय पर हाथ मारे तो प्रतिध्वनि “ओम" जैसी गूँजेगी। शरीर के अन्य किसी भाग पर हथेली मारो तो वैसा गुंजन नहीं होता। एक बार पं० जवाहरलाल नेहरू वहाँ पहुँचे थे और इस विलक्षणता को देखकर चकित रह गए थे।

ऐसी ही और भी कितनी ही विशेषताएँ इस अवशेष में हैं। चूने का उपयोग कम ही हुआ है। पत्थर रखकर उसे इतनी मजबूती से बनाया गया है कि इतना लंबा समय बीत जाने पर भी उसमें हिलने-डुलने की कमजोरी नही आई है। खुदाई अभी भी चालू है। हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ जितनी कलापूर्ण इसमें बन पड़ी हैं, उसकी तुलना में भारत में बने कम मंदिर ही ठहरते हैं।

मंदिरों, स्मारकों, दुर्गों, भवनों की शिल्प कला में पूरी तरह भारतीयता का समावेश है। वे ऐसे लगते हैं मानो भारत में बने हों अथवा भारतीयों ने वहाँ पहुँचकर बनाए हों। भारत में बनी इस प्रकार की इमारतों और कंबोडिया के इन भवनों में तुलना की जाए तो प्रतीत होता है कि किसी न किसी की हूबहू नकल करने का प्रयत्न किया है। समय ने बहुत कुछ पलट दिया है। अब वहाँ की जनता पर पहले जैसी हिंदू धर्म की छाप नहीं है। मुसलमान और ईसाई धर्मों ने भी अपनी गहरी जड़ें जमा ली हैं। फिर भी जो कुछ बचा है उससे यह स्पष्ट है कि वहाँ बौद्ध और हिंदू संस्कृति का लोप नहीं हुआ है। अभी भी जो बचा है उसे सींचा, सँभाला जा सके तो यह मुरझाया वृक्ष पुनः पूर्वकाल की तरह हरा-भरा हो सकता है।

'तेप प्रानम' में मिले लेख से प्रतीत होता है कि यशोवर्मन के बनाए “सौगाताश्रय वीया विहार" में वैष्णव और शैव धर्म की भाँति ही बौद्ध धर्म भी पढ़ाया जाता था। सूर्य वर्मन के शासनकाल में हिंदू धर्म की भाँति बौद्ध धर्म को भी राज्याश्रय मिला था। यही नीति अन्य शासक एवं विद्यालय भी अपनाते रहे थे।

कम्बोडिया की वर्ण व्यवस्था, नवीन जातियों का उद्गम, विवाह प्रथा, वेशभूषा, खान-पान, वस्त्र-आभूषण, पात्र, स्त्रियों की स्थिति, मृतक संस्कार आदि पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ ब्राह्मण-धर्म प्रचार के लिए और क्षत्रिय-शासन व्यवस्था के लिए पहुँचे थे। उन्होंने विवाह उसी देश की स्त्रियों से किए और अपने वंश चलाए। चीनी इतिहासकार पीलियो के अनुसार एक हजार के करीब विद्वान ब्राह्मणों का आधिपत्य था, इनमें शिव कैवल्य, हिरण्यदास, अगस्त्य, दिवाकर, हृषिकेश, वामशिव, शिवाचार्य, त्रिभुवनराज, लौज युधिष्ठर, जयेंद्र पंडित, योगीश्वर, पृथ्वींद्र पंडित, गुण पंडित, कवींद्र, विशालाक्ष आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। क्षत्री वहाँ पहुँचकर विशुद्ध क्षत्री नहीं रह गए थे, उनके विवाह शादी ब्राह्मणों के साथ होते थे। अस्तु, उन्हें ब्रह्मक्षत्र कहा जाता था। कितने ही राजाओं ने अपनी कन्याएँ पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ विवाही थीं। इसी प्रकार कई ब्राह्मण कन्याएँ भी राज-परिवारों में सम्मिलित होकर क्षत्रिय संतान की माता बनी थीं। पहले वहाँ चार ही वर्ण थे, पीछे उनके वंश सम्मिश्रण से तीन जातियाँ और बन गई। इस प्रकार वहाँ सात जातियों का—सप्त वर्णों का प्रचार हो गया। इसका वर्णन इलियट की पुस्तक "भारत का उसके इतिहासकारों द्वारा इतिहास" पुस्तक में विस्तार-पूर्वक दिया गया है।

श्री चटर्जी की "कंबुज में भारतीय संस्कृति का प्रभाव" पुस्तक में इस समय वहाँ पुरुषों में धोती, कमर में फेंटा और कंधे पर दुपट्टा डालने का प्रचलन बताया गया है। उस काल के उपलब्ध चित्रों में तत्कालीन शासकों और नागरिकों को इसी वेशभूषा का अभ्यस्त दिखाया गया है। महिलाएँ लहँगा पहनती थीं। पिलियों की "चे औ टाकुअन" की कथा में स्त्रियों के आभूषणों में हार, कर्णफूल, छल्ले, कंगन, बाजूबंद, करधनी, नूपुर आदि का उल्लेख है। वे विशेष अवसरों पर मेंहदी रचाती थीं। पुरुष गले में हार और कानों में कुंडल पहनते थे। स्त्रियों में जूड़ा बाँधने और माथे पर चंदन लगाने का रिवाज था। यह वेश भूषा विशुद्ध रूप से भारतीय परंपरा के अनुकूल है। चीनी इतिहास की पुस्तक 'तांग वंश का इतिहास' में तत्कालीन खाद्य पदार्थों, गीत-वाद्य, नृत्य आदि का जैसा वर्णन है उससे स्पष्ट है कि उस समय वहाँ की प्रथा में पूरी तरह भारतीयता का समावेश था।

मुरदों को जलाने अथवा नदी प्रवाह करने, श्राद्ध-तर्पण करके मृतात्माओं को संतुष्ट करने जैसे मरणोत्तर विधि विधान का वर्णन है। मृतक के शोक में उनके वंशज सिर के बाल मुँड़ाते थे। विवाह अग्नि की साक्षी में उसकी परिक्रमा करते हुए संपन्न होते थे। बच्चों के कान छेदने और सिर के बाल मुड़ाने के समय उत्सव होते थे।

इन दिनों कंबोडिया का राज धर्म बौद्ध है। जनता प्रायः बौद्ध धर्मावलंबी ही है, पर पूजाग्रहों में वहाँ धनुषधारी राम और हनुमानजी की प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं। सरकारी मुद्रा पर हनुमानजी छपे हैं। सेना के ध्वज पर भी हनुमानजी विराजे हैं। राजधानी 'नाम पेन्ह' के आधुनिकतम खेल स्टेडियम पर हनुमानजी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। हनुमानजी वहाँ के मानस देवता हैं। कम्बोडिया में बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म का ऐसा सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है मानो वे दोनों एक शरीर में जुड़े दो हाथ हैं।

वर्मा और थाईलैंड की तरह ही कंबोडिया की वर्णमाला भी देव नागरी के अनुसार बनी है। अक्षरों की आकृति में थोड़ा अंतर है। वहाँ की भाषा में संस्कृत शब्दों की प्रधानता है। यहाँ के विश्वविद्यालय में संस्कृत और पाली भाषा पढ़ाने की विशेष व्यवस्था है। सांस्कृतिक दृष्टि से कम्बोडिया पूर्व एशिया के सभी देशों की तुलना में भारत के अधिक निकट है। यह सारा क्षेत्र अमेरिका और चीन के शक्ति संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। कंबोडिया इस खतरे से भयभीत है और तटस्थता की नीति अपनाकर किसी प्रकार अपनी जान बचा रहा है।

नाम पेन्ह तथा आस-पास के नगरों में भारतीय भी बहुत हैं, उनमें से अधिकांश सिख धर्मानुयायी हैं। कितने ही गुरुद्वारे बने हैं और गुरु ग्रंथ साहब का पाठ होता है।

राजतिलक के अवसर पर थाईलैंड की तरह कम्बोडिया के राजा को भी धोती, कुर्ता पहनना पड़ता है। विशेष अवसरों पर भी वे इसी पोशाक को पहनते हैं।

कंबोज की राजभाषा १४वीं सदी तक संस्कृत रही है, यह वहाँ पर उपलब्ध शिलालेखों से स्पष्ट है। वहाँ अभी भी बच्चों का मुंडन संस्कार बड़ी धूम-धाम से होता है और कटे हुए बालों को ताम्रपत्र में बंद करके मेंकांग नदी में बहाया जाता है, जो वहाँ गंगा की तरह ही पवित्र मानी जाती है। कंबोडिया के शासकों का राज्याभिषेक वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ शैव ब्राह्मणों द्वारा संपन्न होता है। उस समय राज्याधिकारी के एक ओर शिव की मूर्ति रखी जाती है और दूसरी ओर विष्णु की। ज्योतिषी हर शुभ कार्य का मुहूर्त निकालते हैं। सामान्यतया गुरुवार सर्व शुभ माना जाता है। दीक्षा संस्कार वहाँ भी होते हैं। माँगलिक अवसरों पर महिलाएँ रोली और अक्षत से मस्तकों पर तिलक लगाती हैं।

कम्बोडिया की वर्तमान जनसंख्या मात्र सत्तर लाख है। वहाँ बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्राप्त है। वहाँ के प्रायः सभी नागरिक बौद्ध धर्मावलंबी हैं। नाम पेन्ह विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म के अध्ययन का विशेष प्रबंध है।

कंबोडिया के सर्वेसर्वा राजकुमार सिंहनुक ने एक बार दुखी होकर भारी मन से कहा था—"भारत हमारी माता है और चीन हमारा पिता। दुर्भाग्य से हमारी माता ने हमारी परवाह करना छोड़ दिया और हम आश्रय-विहीन होते जा रहे हैं।"

सुवर्णद्वीप-समूह—जिसे भारतीयों ने बसाया-बढ़ाया

वर्तमान भारत की सीमा तक प्राचीन भारत सीमित न था। तब उसका विस्तार सुदूर पूर्व में फैले हुए द्वीप-समूहों तक था। बर्मा, स्याम आदि देशों तक थल मार्ग से आवागमन था, अस्तु यह क्षेत्र तो सहज ही भारत का अंग था। इसके लिए पृथक नामकरण की आवश्यकता न थी। वे देश एक प्रकार से बृहत्तर भारत के प्रांत ही थे।

सुदूर पूर्व के समुद्र में फैले हुए देशों को उन दिनों अलग नाम दिया गया था। उस क्षेत्र को "सुवर्ण द्वीप" कहते थे। उसकी परिधि में छोटे-बड़े सैकड़ों द्वीप आते हैं। इन दिनों इस क्षेत्र को (१) मलेशिया (२) जावा (३) सुमात्रा (४) वाली (५) बोर्नियो (६) सिंगापुर आदि नामों से संबोधित किया जाता है। इनकी अपनी-अपनी सीमाएँ भी राजनैतिक उथल-पुथलों ने बना दी हैं। प्राचीनकाल में इस पूरे क्षेत्र का एक ही नाम था "सुवर्ण द्वीप"। इस क्षेत्र में भारतीयों ने चिरकाल पूर्व प्रवेश किया था और उसे बसाने, समुन्नत बनाने में अनवरत श्रम किया। उन दिनों नौकायन ही एक मात्र साधन इन लंबी यात्राओं के लिए उपलब्ध था। कितने कष्ट सह कर हमारे पूर्वज वहाँ पहुँचते होंगे और उन वीरान क्षेत्रों को बसाने, विकसित करने में अपने आपको कितना गलाते-घुलाते होंगे, उसके सही स्वरूप की यदि कल्पना की जा सके तो उनकी परमार्थ परायण महानता में किसी प्रकार का संदेह न रह जाएगा।

इतिहास के पृष्ठों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारत के महत्त्वाकांक्षी व्यापारी, राजनेता, धर्म-प्रचारक अपनी पहुँच की सीमा तक विदेशों में आते-जाते रहे हैं और अन्यान्य देशों की भौतिक एवं आत्मिक प्रगति में भौतिक योगदान देते रहे हैं।

दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को प्राचीन काल में स्वर्ण द्वीप कहा जाता था। संभव है वहाँ की स्वर्णिम आभा-शोभा को, प्रकृति संपदा को देखकर यह नाम दिया गया हो। जहाँ-तहाँ सुनहरी बालू का पाया जाना भी एक कारण हो सकता है। प्राचीन किंवदंतियों में वहाँ सोने की खानों के होने का भी वर्णन है। कारण जो भी रहा हो, भारत में इस क्षेत्र का नाम स्वर्ण-द्वीप प्रचलित था। जावा आदि देश इसी नामकरण के अंतर्गत आते थे।

वाल्मीकि रामायण कांड २ अध्याय ११ में यवद्वीप (जावा) का उल्लेख है। 'महाजनक जातक', 'साहित्य सागर', 'बृहत्त कथा श्लोक सार' आदि ग्रंथों में व्यापारियों द्वारा उस क्षेत्र की यात्राएँ किए जाने का उल्लेख है। अन्य कई संस्कृत ग्रंथों में इस भू-भाग का स्वर्णभूमि, स्वर्ण द्वीप, स्वर्ण कूट, स्वर्ण कुंड, हेमकूट आदि नामों से उल्लेख है। 'कौटिल्य अर्थशास्त्र' और 'मिलिंद' ग्रंथों से भी पता चलता है कि न केवल वहाँ भारतीयों का ही आना-जाना था वरन वे वहाँ बस भी गए थे।

इतिहासकार स्मिट ने अपने ग्रंथ 'ए हिस्ट्री ऑफ साउथ ईस्ट एशिया' में सिद्ध किया है कि हिंद, चीन और हिंद एशिया के आदि निवासी भारतीय मूल के थे। उनकी आकृति और परंपरा भारत में पाई जाने वाली 'सुमेर' 'चम' 'मुंडा' और 'खस' जातियों से मिलती-जुलती थी। भाषा विशेषज्ञों का कथन है कि इस समूचे क्षेत्र में फैली हुई भाषाओं की शब्दावली का आदि स्रोत भारतीय भाषा ही रही हैं। शब्दों में विश्लेषण करने से अधिकांश शब्द भारत से ही उधार गए हैं। 'हिंदू जावानीज' ग्रंथों के अनुसार भी जावा में आदि निवासी भारतीय मूल के ही थे। उन्हीं के आमंत्रण और सहयोग का आश्रय पाकर पीछे भारत से अनेक जत्थे वहाँ जाते और बसते रहे। कैलेम, वेल्स, स्टाइन के अनुसार मलाया की सभ्यता का विकास भारतीय सभ्यता के प्रकाश, सहयोग एवं समन्वय के आधार पर ही होता है। स्ट्रटर हाउस के अनुसार वर्मा के पेगू और प्रोम प्रांतों को उड़ीसावासियों ने जाकर आबाद किया था। जावा के पुरातन शिलालेख दक्षिण भारत की पल्लव लिपि में लिखे हुए मिले हैं। हिंद चीन के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है, विद्वान सिडी ने अपने ग्रंथ 'ईस्ट वाक डी लैंड कनिष्क' ग्रंथ में सुदूर पूर्व की पुरातन स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए यही निष्कर्ष निकाला है कि यह समूचा क्षेत्र भारतीयों द्वारा विकसित किया गया था।

पुराणों तथा जातक ग्रंथों में स्वर्णद्वीप का वर्णन मिलता है। सुदूर पूर्व में फैले हुए द्वीप समूह के लिए यह स्वर्णद्वीप अथवा स्वर्णभूमि शब्द प्रयुक्त हुआ है। इन द्वीपों का तात्कालिक नाम अंगद्वीप, यवद्वीप, मलयद्वीप, शंखद्वीप, कुशद्वीप, वराहद्वीप, नागद्वीप आदि था। इनका वर्णन जिस रूप में हुआ है इससे मलाया, जावा, सुमात्रा, कटाह, अंडमान, निकोवार, संखेद्वीप आदि के साथ उनकी संगति पूरी तरह बैठ जाती है। वायु पुराण, हरिवंश पुराण, जातक ग्रंथ, वाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में इस क्षेत्र का जिस प्रकार वर्णन है उससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत ही इनके विकास का श्रेयाधिकारी है।

विश्व के इतिहास वेत्ता पायमोनियस, पेरीप्लस, प्लिनी, डिओनिसस, पेरीगेटिस, सोलिनस, माटिआनस, कैपेला, सेविल, इसीडोर, थियोडल्फ, निसेफोरस आदि ने सुवर्ण द्वीप का जिस प्रकार वर्णन किया है उससे यह तथ्य सामने आता है कि वहाँ सर्व प्रथम भारतीय सभ्यता का प्रकाश पहुँचा और उसने उसे क्रमशः अधिक ऊँची स्थिति में पहुँचाने में योगदान दिया। अरबी और चीनी लेखकों द्वारा प्रस्तुत किए गए विवरण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

भारतीय राजनेताओं के उस क्षेत्र में जाने, बसने और सुशासन की स्थापना में योग देने के उल्लेख इतिहास के पृष्ठों पर मौजूद हैं। चंपा देश में राजकुमार विदेह का पहुँचना, काशी देश के राजकुमार का अराकान में जाना, इंद्रप्रस्थ के राजकुमार का कंबोडिया में पैर जमाना, श्रीपाद वर्मन का जावा में सुशासन आरंभ करना जैसे अनेक प्रमाण ऐसे हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि भारत में बड़े राजकुमार को गद्दी मिलती थी और छोटे राजकुमारों की महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती थी। अस्तु, वे समीपवर्ती विदेशों में अपनी कुशलता का परिचय देने के लिए नए क्षेत्रों का निर्माण करते थे। इतिहासकार इत्सिंग ने सातवीं सदी के अपने विवरण में इस बात की विस्तृत चर्चा की है कि पाँचवीं, छठी और सातवीं शताब्दी में भारतीय राजकुमार दलबल सहित जलपोतों द्वारा इस स्वर्णद्वीप क्षेत्र में पहुँचते रहे और छोटे-बड़े शासन स्थापित करते रहे।

पुरातत्वीय खोजों से यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो चुका है कि दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश निवासियों की संस्कृति, पाषाण युग की संस्कृति थी, जब वे भारतीय संस्कृति के प्रभाव में आए। यह तथ्य इंडोनेशिया के जावा एवं सुमात्रा द्वीपों पर तथा इंडोचाइना के अनाम, कंबोडिया और मलय प्रायद्वीप पर लागू होता है। सदर सेलेबीस में बुद्ध की एक कांस्य प्रतिमा, जो अमरावती कला की है, प्राप्त हुई है। यह पाषाण युग की आदिम संस्कृति से कुछ ऊपर स्तर की संस्कृति की है।

हिंदू उपनिवेशकर्ता जब पहली बार सुवर्ण भूमि में आकर बसे, तब उनका यहाँ के आदिम निवासियों से घनिष्ठ संबंध कायम हुआ, जिसके फलस्वरूप यहाँ की आदिम संस्कृति अपने से उच्चस्तर की भारतीय संस्कृति में घुल-मिल गई।

बोर्नियो, जावा एवं मलय प्रायद्वीप में प्राप्त संस्कृत शिलालेखों से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय भाषा, साहित्य, धर्म तथा राजनैतिक एवं सामाजिक संस्थाओं एवं मान्यताओं ने इन सुदूर देशों पर अपना प्रभुत्व कायम किया था। बोर्नियो के राजा मूल वर्मन के कुटेई शिलालेखों से स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि उस समय का राज दरबार तथा समाज हिंदू संस्कृति के रंग से सराबोर था। पश्चिम जावा में प्राप्त शिलालेखों से भी यह स्पष्ट होता है कि वहाँ का समाज और राज दरबार हिंदू संस्कृति से पूरी तरह प्रभावित किया गया था। यहाँ हमें हिंदू देवताओं के, जैसे विष्णु इंद्र, ऐरावत के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस देश में भारतीय महीने, खगोल विद्या तथा दूरी नापने की भारतीय पद्धति प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त इन नए हिंदू उपनिवेशों में भूगोल संबंधी भारतीय नामों जैसे 'चंद्रभागा' 'गोमती' आदि का प्रयोग वहाँ की नदियों के नामों के लिए मिलता है।

बोर्नियो तथा मलय द्वीपों में विभिन्न देवताओं की जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, वे शिलालेखों के प्रमाणों की पुष्टि करती हैं। बोर्नियो में विष्णु, ब्रह्मा, शिव, गणेश, नंदी, स्कंद और महाकाल की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं और मलय प्रायःद्वीप में दुर्गा, गणेश और नंदी की मूर्तियाँ मिली हैं।

जावा में स्थित टुक-मस के ध्वंसावशेष से यह प्रमाणित होता है कि पौराणिक धर्म उस क्षेत्र में जोरों के साथ प्रचलित था। यहाँ की विष्णु एवं शिव की मूर्तियाँ अपनी संपूर्ण विभूतियों के साथ चित्रित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ के शिलालेखों में गंगा की पावनता का उल्लेख मिलता है।

इन मूर्तियों और शिलालेखों से यह प्रमाणित होता है कि सुवर्ण द्वीप के इन देशों में ब्राह्मण धर्म के अतिरिक्त बौद्ध धर्म भी प्रचलित था। समग्र रूप से देखने पर शिलालेखों से यह विदित हो जाता है कि यहाँ पर संस्कृत भाषा और साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ के अधिकांश विवरण उत्कृष्ट एवं त्रुटिहीन संस्कृत भाषा में लिखे हैं। भारतीय लिपियाँ सर्वत्र प्रयुक्त होती थीं। मूर्तियों की बनावट में भारतीय कला की छाप पूर्ण रूप से मिलती है। चीनी विवरणों से पुरातत्त्वीय प्रमाणों की पुष्टि एवं पूर्ति होती है। सबसे पहले हमें चीनी यात्री 'फाहियान' का लेख मिलता है जिसके अनुसार यव द्वीप में ब्राह्मण धर्म जोरों से प्रचलित था और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव बहुत ही कम था। फाहियान के साथ जहाज द्वारा चीन जाने वाले २०० व्यापारी ब्राह्मण धर्म के मानने वाले थे। परंतु शीघ्र ही बौद्ध धर्म ने जावा पर अपना प्रभाव डाला, जो कि सन् ५१९ ई० में संकलित चीनी विवरण से प्रकट होता है। उसके अनुसार काश्मीर के बौद्ध भिक्षु राजकुमार गुणवर्मन ने जावा पहुँच कर वहाँ की राजमाता को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। उसके बाद जावा के राजा ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात शनैःशनै बौद्ध-धर्म पूरे जावा में फैल गया।

गुणवर्मन का नाम और उसकी ख्याति चारों दिशाओं में फैल गई। ४२४ ई० में चीनी भिक्षुओं ने गुण वर्मन को चीन में आमंत्रित करने के लिए सम्राट से अनुरोध किया। फलस्वरूप सम्राट ने गुणवर्मन और जावा के राजा के पास अपना दूत भेजा। गुण वर्मन हिंदू व्यापारी जहाज 'नंदिन' में बैठकर सन् ४३१ में नानकिंग पहुँचे। गुण वर्मन के वृत्तांत से यह पता चलता है कि बौद्ध धर्म का जावा में किस प्रकार प्रवेश हुआ और वहाँ ५वीं शताब्दी में उसकी जड़ किस प्रकार जमी। दूसरे चीनी यात्री ईत्सिंग के लेखानुसार ७ वीं शताब्दी के अंत तक बौद्ध धर्म का विस्तार सुवर्णद्वीप के अन्य क्षेत्रों हो गया था। चीन से भारत जाते हुए ईत्सिंग श्रीविजय में ६ मास रुका था और उसने वहाँ शब्द विद्या (संस्कृत व्याकरण) की शिक्षा ग्रहण की थी। भारत से चीन लौटते समय भी वह श्री विजय में ठहरा था। यहाँ रहकर उसने बृहद बौद्ध ग्रंथों का जिन्हें वह भारत से लाया था अनुवाद और प्रतिलिपि की थी। इत्सिंग के कथनानुसार दक्षिणी सागर के देशों के बहुत से राजा और सरदारगण बौद्ध धर्म में विश्वास करते थे और उसके प्रशंसक थे। उस समय श्रीविजय में बौद्ध भिक्षुओं की संख्या १००० से अधिक थी।

इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि ७ वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म और बौद्ध साहित्य के भक्त एवं उपासक सुवर्णद्वीप में थे। इस क्षेत्र में भारतीय ज्ञान, विद्या एवं संस्कृति के विभिन्न केंद्र कायम थे, जो कि विदेशियों को आकर्षित करते थे। इस दिशा में श्रीविजय का महत्त्व बहुत अधिक था। यह बौद्ध धर्म का एक बड़ा केंद्र तो था ही, साथ ही यह सुवर्णद्वीप में महायान शाखा का सबसे पहला प्रमुख केंद्र था, जिसका व्यापक प्रसार बाद में संपूर्ण सुवर्णद्वीप में हुआ। बहुत से प्रसिद्ध भारतीय बौद्ध भिक्षुगण इस क्षेत्र में पहुँचे और नई दिशाओं में बौद्ध धर्म के प्रचार में योगदान दिया। ७वीं शताब्दी में ही नालंदा के आचार्य 'धर्मपाल' जो कि काँची (दक्षिण भारत) के रहने वाले थे, सुवर्णद्वीप पहुँचे। ८वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में दक्षिण भारतीय बौद्ध भिक्षु 'वज्रबोधि' सीलोन से चीन जाते समय श्रीविजय में पाँच महीने तक रुके। वे और उनके शिष्य 'अमोघवज्र' जो उनके साथ थे, तंत्र विद्या के आचार्य थे। उन्होंने चीन में इस विद्या का प्रवेश कराया।

चीनी विवरणों तथा गुणवर्मन, धर्मपाल और वज्रबोधि के वृत्तांतों से यह स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है कि भारत और सुवर्णद्वीप के बीच नियमित आवागमन स्थापित था। 'लंग-ग सु' से संबंधित वृत्तांत से मालूम होता है कि भारत और सुवर्णद्वीप के बीच सामाजिक संबंध भी कायम था।

भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता से सुवर्णद्वीप का केवल धर्म ही प्रभावित नहीं था वरन वहाँ के राजनीतिक, सामाजिक विचार तथा प्रशासकीय तंत्र भी स्पष्ट रूप से प्रभावित थे। इस संदर्भ में 'टानटान' राज्य के उल्लेख से पता चलता है कि उसने चीन में अपने राजदूतों को ५३०, ५३५ और ६६६ ई० में भेजा था। यहाँ के राजा का कौटुंबिक नाम था 'कच सचिय' (क्षत्रिय) और उसका निजी नाम "शिलिंगदि' (श्रिंग) था। उसके आठों मंत्रियों में से बड़े मंत्री ब्राह्मणों में से चुने जाते थे। युद्ध में वे हमेशा शंख फूँकते थे और ढोल बजाते थे। चीनियों के उल्लेख के अनुसार स्वर्णद्वीप में प्रचलित 'क-ल' प्रथा भी भारतीय मूल की है। उनके मृतकों को जलाया जाता था और भस्म को सोने के पात्र में भरकर समुद्र में डुबो दिया जाता था।

सुदूर पूर्व के देशों में भारतीय उपनिवेशवादियों ने अपने मूल देश भारत के सांस्कृतिक विचारों का प्रसार किया। आज भी इन देशों में भारतीय धर्म कथा, भवन निर्माण कला के स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं। इन देशों में भारतीय धर्म के विकास क्रम का अध्ययन एक बहुत ही रोचक विषय है।

भारत के दक्षिण पूर्व और सुदूर पूर्व के उपनिवेशों (बर्मा और स्याम को छोड़कर) में ब्राह्मण धर्म के जिस स्वरूप का प्रसार अधिकतर हुआ था, वह था 'सनातन ब्राह्मण धर्म' जिसने हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति के विकास क्रम को प्रभावित किया।

भारत में बौद्ध और सनातन ब्राह्मण धर्म के विकास और ह्रास का जो काम चल रहा था उसकी प्रतिध्वनि सुवर्ण भूमि के भारतीय उपनिवेशों के धार्मिक इतिहास में भी होती थी, जो कि वहाँ बड़ी संख्या में प्राप्त शिलालेखों, धार्मिक ग्रंथों तथा देवी-देवताओं की मूर्तियों की सहायता से सिद्ध होती है।

सुवर्ण भूमि में ब्राह्मण धर्म के शैव और वैष्णव संप्रदायों में शैवमत वैष्णव मत से कहीं अधिक प्रभावशाली था और उसने धार्मिक विकास क्रम की संपूर्ण प्रक्रिया को बहुत अधिक प्रभावित किया था। शैव मतानुयायियों की तुलना में वैष्णव मतानुयायियों तथा बौद्धों का प्रभाव कम था, परंतु उनके बीच किसी प्रकार के धार्मिक संघर्ष का कोई चिन्ह प्राप्त नहीं होता वरन उनके बीच परस्पर सद्भावना और समन्वय के प्रयास के ही पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध होते हैं।

सुवर्ण द्वीप में हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति का प्रसार

हिंदू समाज का बुनियादी आधार वह वर्ण व्यवस्था प्रणाली है जो कि जावा, मदुरा और सुमात्रा में प्रचलित थी। इसकी जानकारी प्रारंभिक विवरणों में 'चतुवर्ण' शब्द तथा यहाँ के साहित्य एवं शिला-लेखों में ब्राह्मण', 'क्षत्री', 'वैश्य', 'शूद्र' शब्दों के बार-बार के उल्लेख से स्पष्ट है। इन द्वीपों में यह वर्ण व्यवस्था अपने मूल शुद्ध स्वरूप में कायम थी, जैसा कि मनु संहिता में इसका विवरण है एवं जिस रूप में यह प्राचीनकाल में प्रचलित थी।

बाली और लोमबोक में प्राचीन वर्ण व्यवस्था का जो स्वरूप आज भी प्रचलित है, वह इस प्रकार का है—'इन द्वीपों के लोग चार वर्गों में विभाजित हैं। इनमें से पहले तीन वर्गों के लोग 'द्विजाति' तथा 'शूद्र' एक जाति' हैं।

ब्राह्मण लोग शिव उपासक अथवा युद्ध उपासक के रूप में दो वर्गों में विभाजित हैं। बाली में राजकीय वंश के लोग वैश्य वर्ण के होते हैं, न कि क्षत्रिय वर्ण के। बाली में शूद्रों को 'कौलस' कहा जाता है, पर इन्हें अछूत या अपवित्र नहीं माना जाता।

यहाँ के राजा भारतीय राज दरबारों की शान-शौकत तथा चमक-दमक का अनुसरण करते थे। जावा में पान खाने की आदत भी भारत की तरह थी। यहाँ के पुतली नाचों के विषय दो महान भारतीय ग्रंथ—रामायण तथा महाभारत से लिए जाते हैं। इन द्वीपों में प्रचलित कविता, नाटक, संगीत तथा नृत्य को अंत:प्रेरणा नि:संदेह भारत से प्राप्त हुई है।

हिंद जावानी कला, भवन एवं मंदिर निर्माण—दोनों ही दृष्टि से अनुपम है। मंदिरों में जो धार्मिक चित्रण किया गया है, उनमें जो कलापूर्ण मूर्तियाँ पाई जाती हैं, वे विशेष रूप से मंदिर कला के सुंदर नमूने हैं। स्मारकों में से कुछ सुंदर नमूनों का परिचय इस प्रकार है।

जावा में धार्मिक इमारतों को 'चंदी' नाम से पुकारा जाता है। इनमें से कुछ को छोड़कर सब मंदिर हैं। इन मंदिरों का नक्शा मोटे रूप में करीब-करीब एक-सा ही होता है। मंदिरों की कला-पूर्ण सजावट, अलंकरण तथा नक्काशी आदि सब भारत से ली गई हैं।

जावा के मंदिरों की विशेषता यह है कि इनमें खंभे बिलकुल नहीं हैं और इनके मेहराब भारत की तरह क्षितिज के समानांतर हैं। मध्य जावा में जहाँ ८वीं शताब्दी ई० के बीच मंदिरों का निर्माण हुआ, उनमें ब्राह्मण और बौद्ध दोनों धर्मों के मंदिर हैं। 'डींग पठार पर, जो कि ६५०० फीट ऊँचा है और चारों तरफ पर्वतों से घिरा है, बहुत से मंदिर हैं, जो महाभारत के वीरों और वीरांगनाओं के नाम पर बने हुए हैं। सामान्यतः यह माना जाता है कि ये मंदिर जावा में सब से प्राचीन हैं और संभवतः ८वीं शताब्दी ई० के हैं। डींग कला को देखने से गुप्तकाल के भारतीय मंदिरों का स्मरण हो आता है।'

डींग पठार पर प्राप्त मूर्तियाँ ब्राह्मण धर्म के देवी-देवताओं की हैं। यहाँ शिव, दुर्गा, गणेश, ब्रह्मा और विष्णु की मूर्तियाँ हैं। इस तरह ये मंदिर ब्राह्मण धर्म के थे, जिनमें शैव मत की प्रमुखता थी। इस तथ्य की पुष्टि उपलब्ध अवशेषों से होती है।

'प्रमबनन' घाटी में प्रसिद्ध बौद्ध मंदिरों का समूह मौजूद है, जो कि मध्य जावा की कला का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करता है। यह क्षेत्र आधुनिक 'जोगमकेर्त्ता' और 'सूरकेर्त्ता' जिलों की सीमा पर स्थित है। इस क्षेत्र में प्रसिद्ध मंदिर 'चंदी कलसन' और 'चंदीसर्रा' और चंदीसेम हैं। चंदीसेम बरबुदर को छोड़कर सबसे बड़ा बौद्ध मंदिर है। मुख्य मंदिर जो कि आँगन के बीच में है, ४० मंदिरों से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहाँ कुल मिलाकर २५० मंदिर हैं, जिनमें से मुख्य मंदिर भी शामिल हैं। ये मंदिर संभवतः ९वीं शताब्दी के बने हैं।

केड मैदान में कुछ बहुत ही सुंदर कलापूर्ण सुंदर प्राचीन स्मारक हैं, जो ९वीं शताब्दी के हैं। ब्राह्मण एवं बौद्ध सुंदर मंदिरों के खंडहर यहाँ बड़ी संख्या में हैं। 'चंदी मैंदुर' एवं 'चंदी पवन' जो कि बहुत कुछ सुरक्षित रूप में कायम हैं 'हिंद-जावानी' कला का बहुत सुंदर नमूना प्रस्तुत करते हैं। परंतु इन सबों का महत्त्व विश्व विख्यात बौद्ध मंदिर 'बरबुदर' के सामने धूमिल हो गया है, क्योंकि वह संपूर्ण दुनियाँ में एक बड़ा आश्चर्य माना जाता है। इसकी समता का मंदिर शायद कंबोडिया का 'अंगकोर बाट' के अतिरिक्त दूसरा दुनियाँ में नहीं है। 'बरबुदर' मंदिर का निर्माण ७५० और ८५० ई० के बीच में माना जाता है, जो कि शैलेंद्र राजाओं के संरक्षण में निर्मित हुआ था।

'बरबुदर' का मंदिर एक पहाड़ी की चोटी पर बना है। यह हिंद-जावानी कला का सर्वोच्च स्मारक है। इस विशाल मंदिर की दीवारों पर उभरी आकृतियों की नक्काशी द्वारा गौतम बुद्ध, जातक, अवदानों एवं सुधन कुमार की कथाएँ चित्रित की गई हैं। 'बरबुदुर' में बुद्ध की तथा 'मैंदुर' में बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ हिंद-जावानी कला की सर्वोपरि कृतियाँ हैं।

जावा के ब्राह्मण-धर्म के मंदिरों में से कोई भी 'बरबुदुर' की तुलना में किंचित नहीं ठहर सकता, फिर भी 'प्रमबनन' घाटी में स्थित 'लरजोंगरंग' समूह के मंदिर उसके बाद सर्वश्रेष्ठ माने जा सकते हैं। इसमें ८ मुख्य मंदिर हैं, पर कुल मंदिरों की संख्या १५६ है। पश्चिम कतार में स्थित ३ मुख्य मंदिरों के बीच का मंदिर सबसे बड़ा और सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें शिव की मूर्ति है। इसके उत्तर में विष्णु तथा दक्षिण में ब्रह्मा की मूर्तियाँ हैं। बीच का शिव मंदिर सबसे अधिक सुंदर है। इसकी दीवालों पर रामायण की कथा प्रारंभ से लेकर लंका यात्रा तक चित्रित है। 'लर जोगरंग' मंदिरों की कला की सबसे बड़ी विशेषता एवं सुंदरता उनकी उभरी आकृति की नक्काशी है, जो कि 'बरबुदुर' के बौद्ध मंदिर की कला से किसी भी रूप में कम नहीं है।

'चंदी मैंदुर' की बुद्ध तथा अवलोकितेश्वर की मूर्तियाँ बहुत ही सुंदर ढंग से गढ़ी गई हैं, जो कि मध्य जावा की प्राचीन कला की शैली के अनुरूप हैं। 'चंदी बनेन' की मूर्तियाँ यद्यपि ब्राह्मण धर्म की हैं, फिर भी वे बरबुदर की कला से मिलती हैं, न कि 'लरजोगरंग' से।

पूर्वी जावा में 'चंदी किदल' का स्मारक है, जो कि राजा अनुशपति का समाधि मंदिर है। सिंधसारी के उत्तर-पश्चिम में 'सिंधसारी' का मीनार मंदिर है। इस काल का बहुत महत्त्वपूर्ण स्मारक 'चंदी जगो' है। यह राजा 'विष्णु वर्धन' का शासन मंदिर है, जिसमें इसे बौद्ध देवता के रूप में चित्रित किया गया है। यह सन् १२६८ ई० के कुछ पहले या बाद का मंदिर है।

पूर्वी जावा का सबसे बड़ा और सबसे अधिक प्रसिद्ध स्मारक 'पनतरन' (प्राचीन नाम पलह) के मंदिर समूह हैं। संभवतः यह १४वीं शताब्दी और मध्यकाल का मंदिर समूह है। इनकी दीवालों पर भी रामायण और कृष्णायन की उभरी आकृति की नक्काशी चित्रित है। पूर्वी जावा में स्थित 'पनतरन' एवं मध्य जावा के लर जोगरंग' के मंदिरों में जो उभरी आकृति की नक्काशी द्वारा रामायण को चित्रित किया गया है उनकी तुलना करने से बड़ा अंतर जान पड़ता है। मध्य जावा की मंदिर कला से पूर्वी जावा की कला निश्चित रूप से घटिया है।

पूर्व जावा की सभी मूर्तियों में 'सिंघसारी' की प्रज्ञा पारमिता की मूर्ति सबसे अधिक सुंदर है जो पूर्वी जावानी मंदिर कला का उत्कृष्ट नमूना है। देवताओं की साधारण मूर्तियों के अतिरिक्त उनकी ऐसी भी विशिष्ट मूर्तियाँ बनाई गई हैं कि जीवित व्यक्तियों के चित्रों के समान ही दिखाई देती हैं।

स्वर्णद्वीप की निर्माण-कला भारतीय निर्माण-कला के अनुरूप ही धर्म की पूरक मानी जा सकती है। वहाँ पर जितने भी स्मारक अभी तक प्राप्त हुए हैं, वे सब धार्मिक स्वरूप के हैं प्राचीन काल में मलय प्रायद्वीप तथा पूर्वी द्वीप समूह में जो बहुत मंदिर बने थे, वे सब अब प्रायः खंडहर हो चुके हैं।

जावा, सुमात्रा, बाली और बोर्निया इन बड़े द्वीपों के अतिरिक्त इंडोनेशिया द्वीप समूह के दो और छोटे किंतु महत्त्वपूर्ण द्वीप हैंसेलेबीज और फिलीपाइन। इनमें भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्मारक मौजूद हैं। फिलीपाइन का सुंदर शिव-मंदिर और सेलेबीज की बुद्ध प्रतिमा तो देखते ही बनती है। सेलेबीज की कर्म नदी तट पर बसे सिकेंदेंग स्थान के समीप एक विशाल बुद्ध प्रतिमा मिली है, जो वहाँ के म्यूजियम में रखी गई। यह पीतल की बनी संसार भर की बुद्ध प्रतिमाओं में सर्वश्रेष्ठ और भव्य है। परिधान वस्त्र की सलवटें इतनी स्पष्ट है कि तत्कालीन धातु कला की उन्नति पर आश्चर्य होता है। कला विशेषज्ञ इसे लंका में विनिर्मित मानते हैं। ऐसी ही अन्य उपलब्धियाँ उस देश में भारतीय धर्म की पहुँच का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।

सातवीं शताब्दी के आरंभ में एक बहुत ही प्रतिभाशाली भारतीय वंश का उद्भव हुआ। उसका नाम था—शैलेंद्र। इस वंश ने अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ सुदूर पूर्व के द्वीप समूहों की ओर मोड़ी और उस क्षेत्र में बिखरी हुई अस्त-व्यस्त शासन-व्यवस्था को एक छत्र चक्रवर्ती तंत्र के नीचे लाने का निश्चय किया। कहना न होगा कि यह वंश प्रतापी, शूरवीर, सशक्त और हर दृष्टि से क्रिया कुशल था। ये लोग सशक्त जल सेना लेकर कलिंग से रवाना हुए। उन्होंने देखते ही देखते बर्मा जीत लिया। इसके बाद आँधी-तूफान की तरह मलाया प्रायःद्वीप—सुमात्रा जावा आदि जीतते चले गए। इन देशों में से अधिकांश में हिंदू राजाओं का राज था और कहीं-कहीं पर स्थानीय लोगों का शासन था। पर शैलेद्रों को एकछत्र शासन अभीष्ट था। इसलिए उन्होंने इस क्षेत्र में एक शासन की स्थापना की और समस्त विजित क्षेत्र का नाम कलिंग रखा, सारे क्षेत्र में एक लिपि, एक भाषा चलाई, इसमें संस्कृत शब्दों के साथ-साथ स्थानीय शब्दों का भी समावेश था। इस पूर्व क्षेत्र की नागरी का संक्षिप्त नाम 'पूर्व नागरी' रखा। एक संस्कृति—एक भाषा—एक शासन का यह प्रयास शैलेंदों ने जिस उत्साह से चलाया, उसे देखते हुए उन दिनों यह प्रतीत होने लगा था कि यह सारा क्षेत्र भारत प्रदत्त एकता के एक सूत्र में बँधने ही वाला है। शैलेंद्र बौद्ध धर्मानुयायी थे, पर उन्होंने उसे हिंदू धर्म का ही एक अंग मात्र माना और उसका सुधरा हुआ रूप समझा। उन्होंने तत्कालीन हिंदू धर्म प्रधान जनता में कोई मतिभ्रम पैदा नहीं किया। बौद्ध और हिंदू अभिन्न रूप से एक ही हैं, यही सिद्ध किया।

शैलेंद्रों की समृद्धि, शक्ति और कुशलता की अरब इतिहासकारों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सुलेमान, इब्न रो तेह, अब जैद हसन, मसूरी, अलबरूनी आदि ने अपने संस्मरणों में जो कुछ लिखा है, यदि वह सही हो तो यही मानना पड़ेगा कि शैलेंद्र वंशीय नैपोलियन और सिकंदर जैसी शक्ति बनकर उभरे थे। उन्हें बड़े परिमाण में सफलता भी मिली। उन्होंने न केवल शासनतंत्र सुधारा वरन सुदूर क्षेत्र को भारत के साथ व्यापक एवं समृद्धि के सूत्रों में भी बाँधा।

दुर्भाग्य से भारत में उन दिनों विशेष रूप से पाई जाने वाली फूट महा व्याधिने वहाँ भी आ घेरा। सुदूर पूर्व में चोल, चालुक्य, पांड्रय वंशीय हिंदू राजा राज करते थे। उनने शैलेंद्रों को सहयोग देने की अपेक्षा विग्रह की नीति अपनाई। फलस्वरूप एक प्रकार से गृहयुद्ध आरंभ हो गया और छोटे-बड़े युद्ध जहाँ-तहाँ उभरने लगे और वे लगभग एक सौ वर्षों तक चले।

फलतः दोनों ही पक्ष निर्बल होते चले गए। जहाँ पुरातन राजतंत्रों को भारी क्षति पहुँची वहाँ शैलेंद्र भी शक्ति हीन होते चले गए। चीनी इतिहास 'मिंग कालीन वर्णन' से पता चलता है कि उस क्षेत्र पर चीनी सरदारों की ललचाई हुई नजर पड़ी और उन्होंने जावा आदि कितने ही क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। जिन शैलेंद्रों ने 'बरबुदूर' और 'कलस्सन' जैसे प्रख्यात मंदिरों का निर्माण किया था, जो सात सौ वर्ष तक उस क्षेत्र का नेतृत्व करते रहे, उनका पंद्रहवीं सदी आते-आते पूरी तरह अंत हो गया। छुटपुट और कमजोर सरदारियाँ ही जहाँ-तहाँ राज कर रही थीं। अव्यवस्था और असुरक्षा का जगह-जगह बोलबाला था।

शैलेंद्रों के अवसान के उपरांत उस क्षेत्र में एक नया राज्य उभरा 'मलक्का'। उस पर परमेश्वर नाम का राजा राज्य करता था। उसके लड़के ने मुसलमान युवती से विवाह करके इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम बदल कर 'सिंकदर शाह' रख लिया। कहते हैं कि मुसलमान पत्नी करने के अपराध में हिंदू समाज ने उसे बहिष्कृत कर दिया। इससे मुसलमान बन जाने के अतिरिक्त उसे और कोई चारा न रहा। प्रतिशोध की भावना से उसने कट्टर पंथी हिंदू राजाओं पर कड़े आक्रमण किए और सुमात्रा, पहंग, इंद्रगिरि आदि को जीत कर मलक्का नामक इस्लामी राज्य बनाया। इसमें स्याम का भी कुछ भाग जीतकर मिला लिया गया था। सन् १५११ तक इस वंश ने राज्य किया। सिंकदर शाह के बाद उनके वंशज मुजफ्फरशाह, मंसूर शाह, अलाउद्दीन, सुल्तान अहमद ने राज्य किया। इस अवधि में इन लोगों ने इस्लाम धर्म को उस क्षेत्र में फैलाने का भरपूर प्रयत्न किया और उसमें आशातीत सफलता भी पाई। अरब देशों के व्यापारी उस क्षेत्र में आरंभ से, बहुत दिन पहले से ही बसने लगे थे। उन्होंने धर्म प्रचार और धर्म परिवर्तन में मलक्का नरेशों को पूरा सहयोग दिया। फलत: शासन तंत्र इस्लाम धर्मानुयायियों के हाथ चला गया और जनता को भी उसी राह पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ा। गुजरात और ईरान से मुसलमान व्यापारी उस क्षेत्र में भारी संख्या में पहुँचे और मलक्का सुल्तान के अनुग्रह से धन कमाने तथा धर्म विस्तार के लिए हर संभव उपाय करने में लगे रहे। उस बीच हिंदू शासकों की, हिंदू सभ्यता की दयनीय दुर्दशा होती चली गई। विशालकाय धर्म केंद्र धूलधूसरित होते और खंडहर बनते चले गए। पंद्रहवीं सदी में प्रवेश हुआ इस्लाम धर्म इस क्षेत्र में ३०० वर्षों की अवधि में परिपुष्ट हो गया और अठारहवीं सदी में सुदूर पूर्व के समस्त क्षेत्र में उसका वर्चस्व छा गया।

सन् १५११ में पुर्तगालियों ने मलक्का पर आक्रमण किया। इसके बाद डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज भी उस क्षेत्र में प्रवेश करते चले गए। इन लोगों का आर्थिक एवं राजनीतिक वर्चस्व उस क्षेत्र पर बढ़ने लगा जिसका अंत द्वितीय महायुद्ध के बाद ही हुआ। अब सुदूर पूर्व के प्रायः सभी देश स्वतंत्र हैं। उनमें इस्लाम धर्मानुयायियों की संख्या अधिक है। इसके बाद बौद्धों का नंबर आता है। हिंदू धर्म तो नाम मात्र को ही शेष है। स्वर्णद्वीप समूह तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र के कुछ विशिष्ट देशों तथा क्षेत्रों पर अगले पृष्ठों में थोड़ा अधिक प्रकाश डाला जा रहा है जिससे पाठकों को अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत जानकारी प्राप्त हो सके।

भारतीय धर्मानुयायी जावा

स्वर्णद्वीप समूह की स्थिति का सिंहावलोकन पिछले पृष्ठों पर प्रस्तुत किया गया है। स्वभावतः उस क्षेत्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की उत्सुकता हमें होगी। अस्तु, उस क्षेत्र में बिखरे देशों के संबंध में कुछ और भी विशेष विवरण नीचे प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

'इंटरनेशनल ज्योग्राफी' ग्रंथ के लेखक एच० एल० मिल ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि जावा निवासी रक्त की दृष्टि से भारतीयों के वंशज हैं। उनकी धार्मिक मान्यताएँ, ब्राह्मण धर्म से प्रभावित हैं, जावा की भाषा पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव है।

इतिहासकार टालेमी के अनुसार दूसरी शताब्दी में भारत और जावा के अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे। उस क्षेत्र में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार प्रथम शताब्दी में सौराष्ट्र का अजिशक योद्धा जावा पहुँचा था और उसने वहीं सुविस्तृत शासन तंत्र की स्थापना की थी। पीछे कलिंग और गुर्जर देश के निवासी वहाँ पहुँचते रहे। जावा की वर्तमान राजधानी 'बटाविया' है। उसके समीपवर्ती क्षेत्र में 'चिरु अतन', 'जंब', 'कवोन', 'कोपि', 'तग' आदि स्थानों में जो शिलालेख मिले हैं, उनमें कितने ही हिंदू प्रचलनों की चर्चा के साथ-साथ राजा 'पूर्ण वर्मा' के २२ वर्षीय शासन के क्रियाकलापों का भी वर्णन है।

जावा की लंबाई ६१२ मील है और चौड़ाई ५१ से लेकर १३१ मील तक है। इन दिनों जो छोटे द्वीप जावा में गिने जाते हैं उन सब को सम्मिलित करने पर उसका क्षेत्रफल ५१००० वर्गमील हो जाता है। इसमें ४ हजार से लेकर १२ हजार फीट तक की ऊँचाई वाले पहाड़ भी हैं। उनमें कई ज्वालामुखी भी पाए जाते हैं। कृषि के लिए यहाँ की भूमि बहुत ही उत्तम और उपजाऊ है।,

जावा में प्रचलित एक परंपरा के अनुसार वहाँ पर हिंदू राज्य सन् ५६ ई० में स्थापित हुआ था। टालेमी ने दूसरी शताब्दी में इसका उल्लेख 'जावादिआन' नाम से किया है, जिससे यह मालूम होता है कि इस द्वीप का भारतीय नाम दूसरी शताब्दी से भी बहुत पहले का है, पर किसी हालत में दूसरी शताब्दी ई० के शुरू में जावा एक हिंदू उपनिवेश के रूप में कायम हो चुका था, क्योंकि सन् १३२ में वहाँ के राजा देव वर्मन ने अपना एक राजदूत चीन भेजा था। पश्चिमी जावा में हिंदू राज्य की स्थापना के संबंध में अधिक जानकारी हमें 'पूर्ण वर्मन' के चार शिलालेखों से प्राप्त होती है। उसके पूर्व उसके पिता 'राजाधिराज' एवं पितामह 'राजर्षि' राज्य करते थे। उक्त शिलालेख ५वीं शताब्दी के माने जा सकते हैं। मध्य जावा में भी एक हिंदू राज्य कायम था, जिसे चीनी लोग 'होलिंग' (कलिंग) कहते थे। इस क्षेत्र में भारतीय प्रांत कलिंग (वर्तमान उत्कल) के निवासियों का प्रभुत्व था। जावा में एक दूसरा हिंदू राज्य भी कायम था जिसका चीनी नाम हो-लो-तान' था। इस राज्य ने एक दूत को सन् ४३० से ४५२ के बीच चीन को भेजा था।

जावा में भारतीय साहित्य प्राचीन काल में प्रचलित था। इस साहित्य के फलस्वरूप हिंद-जावानी साहित्य का उदय हुआ, जो कि उस द्वीप में हिंद-उपनिवेशीकरण की एक प्रमुख विशिष्टता थी। भारत के बाहर किसी भी देश में भारतीय साहित्य का अध्ययन इस रूप में नहीं किया गया, जैसा कि इस देश में। इसके फलस्वरूप इतना अधिक लाभ इसके अध्ययनकर्ताओं को हुआ और उसके बहुत अधिक परिणाम निकले।

जावा में हिंदू उपनिवेशों के प्रथम काल में पूर्णवर्मन के शिलालेख से स्पष्ट है कि इस काल में संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान यहाँ के लोगों को था। द्वितीय काल में उक्त ज्ञान का पहले से कहीं अधिक गहन और व्यापक रूप में प्रसार हुआ। यह न केवल शिलालेखों से प्रमाणित होता है वरन उस काल में विनिर्मित स्मारकों से भी सिद्ध होता है।

ये स्मारक दोनों ब्राह्मणों और बौद्ध धर्मों के हैं। इन स्मारक-मंदिरों में जिन मूर्तियों की नक्काशी की गई हैं, वे अधिकांश में इन भारतीय ग्रंथों के वर्णनों से ही संबंधित हैं। इस काल में हिंदू-जावानी साहित्य के तीन ग्रंथों की रचना हुई।

हिंदू उपनिवेशीकरण के तृतीय काल खंड सन् १००० से १५०० के भीतर हिंद-जावानी साहित्य ने पूर्वी जावा में कदिर या डह, सिंहश्री और मजहपित के राजाओं की संरक्षता में उल्लेखनीय प्रगति और उन्नति की। मजहपित में मुस्लिम शासन कायम होने के बाद जावा के लोग बड़ी संख्या में बाली चले गए और वहाँ उन्होंने साहित्यिक कार्य जारी रखा।

प्राचीन जावानी-साहित्य में कविता रचना एवं संस्कृत पद्य रचना के नियमों का पालन किया गया है और इन कविताओं का मुख्य विषय भारतीय सहित्य से लिया गया है। इसमें संस्कृत शब्दों और श्लोकों का बहुत उपयोग किया गया है। इस काल का सबसे प्राचीन 'संस्कृत ग्रंथ—अमर माला' का पुरानी जावानी भाषा में लिखा संस्करण है।

इसी काल का प्राचीन जावानी भाषा में लिखा 'रामायण' ग्रंथ है। यह हिंद-जावानी साहित्य की सबसे सुंदर एवं प्रसिद्ध रचना है। यह संस्कृत में लिखी रामायण का अनुवाद नहीं, वरन स्वतंत्र रचना है। इसका प्रतिपाद्य विषय संस्कृत की मूल रामायण से बिलकुल मिलता है, पर इसमें अग्नि परीक्षा के बाद सीता और राम का मिलन बताया गया है।

जावा का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रसिद्ध भारतीय ग्रंथ महाभारत का गद्य अनुवाद है, जिसकी रचना राजा धर्मवंश के समय में हुई। सन् ९९६ में 'विराट पर्व' का अनुवाद किया गया। महाभारत का अनुवाद जावानी भाषा में होने से यह उस देश में लोकप्रिय हो गया। इस महान ग्रंथ ने अन्य कई साहित्यिक रचनाओं को विषय सामग्री प्रदान की। ऐसी रचनाओं में प्रथम है 'अर्जुन विवाह' जिसकी रचना 'मधुकन्व' ने राजा 'औरलंग' की संरक्षता में की थी। इसका विषय महाभारत से लिया गया है जिसमें 'निमात कवच' के विरुद्ध युद्ध में अर्जुन देवताओं की मदद करता है।

किदिरकाल के शुरू की दो पद्य रचनाएँ 'कृष्णायन' और 'सुमन सानक' हैं। 'कृष्णायन' में रुक्मिणि हरण की कथा है, जबकि 'सुमन सानक' में अज की रानी इंदुमति की मृत्यु संबंधी कथा है।

राजा-जयभय के राज्यकाल (सन् ११३५-११५७) में प्राचीन जावानी साहित्य की बहुत उन्नति हुई। इस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे प्रसिद्ध एवं बड़ा ग्रंथ 'भारत युद्ध' है जो कि मूल संस्कृत 'महाभारत' के उद्योग पर्व, भीष्म एवं द्रोण पर्व, कर्ण पर्व एवं शल्य पर्व पर आधारित स्वतंत्र रचना है। इसके मूल रचियता 'मपूसेदाह' थे, पर इनके अपूर्ण कार्य की पूर्ति 'मपूपनुलुह' ने की थी। 'मपूपनुलुह' ने एक दूसरे पद्य का ग्रंथ 'हरिवंश' की भी रचना इसी राज्यकाल में की थी। इस ग्रंथ का विषय 'कृष्ण-जरासंध युद्ध' है।

राजा कामेश्वर द्वितीय (११८५ ई०) के संरक्षण में अत्यंत प्रसिद्ध ग्रंथ 'स्मर दहन' की रचना की गई। इस ग्रंथ का विषय कालिदास के कुमार संभव पर आधारित है। राजा कामेश्वर द्वितीय के राज्यकाल में ही दूसरे प्रसिद्ध ग्रंथ 'भोम काव्य' की रचना हुई। इसमें प्रतिपाद्य विषय राजा पृथ्वी के पुत्र 'भोम द्वारा इंद्र तथा अन्य देवताओं को परास्त करना है।'

'प्रपंच' द्वारा सन् १३६५ में मजपहित के समद्ध राज्यकाल में एक अनुपम पद्य ग्रंथ 'नागर क्रिरागम' की रचना की गई। अभी तक जिन पद्य ग्रंथों का उल्लेख किया गया है उनका प्रतिपाद्य विषय अधिकतर भारतीय महान ग्रंथ 'रामायण' 'महाभारत' और पुराणों से लिया गया था।

इनके अतिरिक्त एक अन्य जावानी ग्रंथ 'नीति-शास्त्र-कविन' है जिसे अब बाली में 'नीतिसार' कहा जाता है। इसके बहुत से जावानी श्लोक भारतीय मूल ग्रंथ में मिलते हैं। इसके नीति वचन संस्कृत के नीतिसार, पंचतंत्र, चाणक्य शतक के विषयों से मिलते हैं। अन्य ग्रंथों में 'सूर्य सेवन' 'गारुडेय मंत्र' इत्यादि हैं, जो कि धार्मिक तथा सैद्धांतिक हैं। एक अन्य ग्रंथ 'कोर आश्रम' है, जिसमें महाभारत के प्रतिपाद्य विषय में काफी परिवर्तन किया गया है। इसी कोटि का दूसरा ग्रंथ 'सार समुच्चय' है जो कि महाभारत के अनुशासन धर्म के नीति उपदेशों का प्राचीन जावानी भाषा में अनुवाद है। इसमें महाभारत तथा अन्य भारतीय ग्रंथ जैसे पंचतंत्र इत्यादि के संस्कृत पद्यों को उद्धृत किया गया है। लोक कथाओं पर 'तंत्री' नाम का ग्रंथ है, जो कि 'हितोपदेश' एवं 'पंच तंत्र' पर आधारित है, यद्यपि उसमें कई नई कहानियाँ भी हैं। इस वर्ग की रचनाएँ न केवल जावानी भाषा में वरन बाली, स्यामी, लाओसियन भाषाओं में भी हैं। 'किदुंग' वर्ग की रचनाएँ रामायण महाभारत तथा पुराणों की कथाओं पर आधारित है। 'संग सत्यवन' प्रसिद्ध सावित्री प्रसंग पर जावानी भाषा का पद्य ग्रंथ है।

भारत के दो धर्मों—ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म का प्रचार स्वर्णद्वीप में हुआ था और हिंदू उपनिवेशीकरण के प्रारंभिक काल में ही इन दोनों धर्मों ने अपनी जड़ें वहाँ की भूमि में जमा ली थीं। जैसे-जैसे शताब्दियाँ बीतती गईं, भारतीय धर्मों ने अपने पूर्ण प्रभाव की विजय-पताका स्वर्णभूमि में फैला दी। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि वे भारतीय उपनिवेश श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास एवं धार्मिक क्रियाओं की दृष्टि से अपनी मातृभूमि भारत की प्रायः पूर्ण प्रतिलिपि थे।

आठवीं शताब्दी के आरंभिक काल में ब्राह्मण धर्म का पौराणिक स्वरूप जावा में दृढ़ता के साथ जम चुका था। इसके अनुसार त्रिदेव—ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव, उनकी दिव्य शक्तियों तथा उनसे संबंधित अनेक देवी-देवताओं की पूजा का विधान है, जो कि जावा के साहित्य, शिलालेखों तथा मंदिर-स्मारकों के अध्ययन से स्पष्ट रूप में प्रकट हैं। गणेश की मूर्ति जावा में बहुत प्रचलित थी, जो कि शिव-पार्वती के पुत्र हैं। युद्ध देवता—कार्तिकेय भी, जो शिव-पार्वती के पुत्र हैं, जावा में प्रसिद्ध थे। शिव की पूजा लिंग के रूप में भी की जाती थी। कुछ राजाओं के राज्यकाल में विष्णु की पूजा को बहुत ऊँची प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त था। उनकी शक्ति 'श्री या लक्ष्मी' को चार भुजावाली, कमल, अन्न वाली एवं माला हाथों में लिए हुए दर्शाया गया था। विष्णु के बहुत से अवतारों, विशेषकर कृष्ण, राम, मत्स्य, वाराह एवं नृसिंह को मूर्तियों के रूप में दर्शाया गया था। ब्रह्मा की मूर्तियाँ अपेक्षाकृत कम संख्या में थी। ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की एक साथ सम्मिलित त्रिमूर्ति जावा में प्राप्त है। जावा में 'मतारा गुरु' की मूर्ति बहुत लोकप्रिय है। इसको "शिव महायोगिन' का ही प्रतिरूप माना जाता है। जावा में अगस्त्य की पूजा का भी बहुत प्रचलन था, जोकि शिलालेखों से ज्ञात होता है।

इन प्रमुख देवों तथा देवियों के अतिरिक्त अन्य छोटे देवों की मूर्तियाँ भी जावा में उपलब्ध हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हिंदुओं के प्रायः सभी देवताओं की मूर्तियाँ जावा में मिलती हैं। इस संबंध में 'क्राफर्ड' का निम्नलिखित विवरण जो एक शताब्दी पूर्व लिखा गया था, किसी प्रकार अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं कहा जा सकता—"पीतल तथा पाषाण की इतने विभिन्न प्रकार की असली हिंदू मूर्तियाँ जावा में उपलब्ध हैं कि मेरा ख्याल है कि हिंदू पौराणिक ग्रंथों के उन सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ जावा में मौजूद हैं, जिनकी मूर्तियाँ बनना उपयुक्त है।"

जावा में भारतीय ग्रंथों पर आधारित धार्मिक साहित्य प्रचुर रूप में उपलब्ध है। उससे प्रकट होता है कि किस तरह पौराणिक हिंदू-धर्म के अध्यात्म ज्ञान, पौराणिक कथाओं, धार्मिक मान्यताओं एवं दर्शन ने जावा में अपना पूर्ण प्रभाव जमा लिया था।

सातवीं शताब्दी के अंतिम काल में बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा संपूर्ण स्वर्णद्वीप में प्रचलित थी। परंतु आठवीं शताब्दी में जावा एवं सुमात्रा में शैलेंद्र राजवंश के समय हीनयान के स्थान पर महायान शाखा का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी काल में 'बर बुदुर' व अन्य भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। जावा और सुमात्रा में महायान शाखा जनता का बहुत ही लोकप्रिय धर्म बन गई थी। स्वर्ण द्वीप में उन दिनों बौद्ध धर्म का एक सुदृढ़ केंद्र स्थापित हो गया था।

बौद्धधर्म के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ने स्वर्णद्वीप को प्रतिष्ठा तथा महत्त्व का दर्जा प्रदान किया था और उसे भारत तथा अन्य बौद्ध देशों से निकट संबंध में जोड़ा था। बंगाल के बौद्ध प्रचारकों का जावा के बौद्धों पर गहरा प्रभाव था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बंगाल के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान 'अतिश दीपंकर' (११वीं शताब्दी ई०) और कांची के बौद्ध विद्वान 'धर्मपाल' (७वीं शताब्दी ई०) जो कि नालंदा में आचार्य थे, बौद्ध साहित्य के अध्ययन के लिए स्वर्णद्वीप गए थे। जावा में बौद्ध साहित्य के अध्ययन के सबूत में न केवल महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों की प्राप्ति है वरन 'बर बुदुर' और दूसरे धार्मिक स्मारकों की मंदिर निर्माण प्रणाली भी है, जिससे यह प्रकट होता है कि बौद्ध धर्म के सभी अंगों का विशेष ज्ञान वहाँ के बौद्धों को था। भारत में महायान बौद्ध धर्म को बाद में जो स्वरूप प्राप्त हुआ, वह जावा में भी प्रचलित हो गया था।

शिव और बुद्ध का निकटतम पारस्परिक संबंध जावानी धर्म की विशिष्टता थी। 'कुंजर कर्ण' तथा 'सूतसोम' ग्रंथों में दोनों देवों को एक ही देव के रूप में चित्रित किया गया है। आधुनिक बाली धर्म में यह विश्वास किया जाता है कि बुद्ध शिव के अनुज हैं। दोनों धर्मों के सिद्धांतों में घनिष्ठ संबंध कायम है। इस प्रकार जावा में 'शिव-बुद्धवाद' प्रचलित था। इसके अतिरिक्त शिव-विष्णु तथा बुद्ध तीनों का भी एक अखंड रूप माना जाता था। इसी प्रकार उनकी शक्तियों को भी एक ही शक्ति की अभिव्यक्ति माना जाता था।

ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि जावा में ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत का कलिंग नामक व्यक्ति दल-बल सहित स्वर्ग द्वीप में पहुँचा था। उसने व्यापार के साथ स्थानीय लोगों में घनिष्ठता बढ़ा कर धर्म का विस्तार किया था।

इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता वस्तुतः यज्ञ-कर्ता शब्द का अपभ्रंश है। जिन दिनों यहाँ भारतीय संस्कृति का प्राधान्य था, तब वहाँ यज्ञानुष्ठानों की भी धूम रही होगी। तदनुसार उस नगरी का नाम यज्ञ कर्ता-जकार्ता पड़ा होगा। इसी प्रकार अन्य प्रमुख नगरों का भी नामकरण हुआ है। जोग जकार्ता, प्रम्वनम्, चंडी कलाशन आदि नाम ऐसे ही हैं जिनमें भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का संकेत है।

ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म वहाँ पहुँचा। हीनयान और महायान शाखाओं का यहाँ प्रसार हुआ, पर हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म टकराए नहीं, उनने मिलजुलकर अपना कार्य जारी रखा।

जावा में जो शिलालेख मिले हैं, वे चौथी शताब्दी के हैं और उनमें वहाँ के पूर्ण वर्मा नरेश के राज्य का वर्णन है। चीन के प्राचीन अभिलेखों से स्पष्ट है कि सन् ५०२ में सुमात्रा पर गौतम नाम के राजा का शासन था। फाहियान के लेखानुसार सन् ४२० में काश्मीर के राजकुमार गुणवर्मन उस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार करने पहुँचे थे। उन्होंने जावा में बौद्ध धर्म का महाविद्यालय स्थापित किया था।

दो चीनी विद्वान इस क्षेत्र में विद्याध्ययन के लिए आए थे। उनने अपने विवरणों में इस क्षेत्र में प्रस्तुत सुंदर शिक्षा व्यवस्था का वर्णन किया है। सन् ६६४ में द्विनिंग जावा के जुआन भद्र विद्यालय में पढ़ने आया था और इत्सिंग ने सन् ६७१ में सुमात्रा के 'पालेग बंग नगर' के महाविद्यालय में संस्कृत भाषा पढ़ने के लिए प्रवेश किया था।

जावा में रामलीला अभिनय में भाग लेना बहुत ही गौरवास्पद माना जाता है। जोग जकार्ता के सुल्तान ने यह अधिकार अपने हाथ में रखा कि रामायण नृत्य-नाटकों में उसका ज्येष्ठ पुत्र सदा राम की भूमिका का अभिनय करे।

जेम्स फर्गुसन के अनुसार जावा में हिंदू लोगों का शासन ईसा की प्रथम शताब्दी में ही जम गया था। स्टुआर्ट एलफिंस्टन ने लिखा है कि सुदूर पूर्व के द्वीपों में भारतीय लोगों के शक्तिशाली जत्थे आए और उन्होंने उस क्षेत्र में कितनी ही उत्साहपूर्वक हलचलें आरंभ की। जावा के इतिहासकारों ने देश के उन उत्थानकर्ताओं का नाम 'किल्लंग' लिखा है, जिसे 'कलिंग' शब्द का अपभ्रंश ही कहना चाहिए। भारत के कलिंग देश के निवासी वहाँ ईसा से एक शताब्दी पूर्व पहुँचे थे। उन्होंने अपनी विजय के उपलक्ष्य में एक नया संवतसर चलाया था जो कि ईस्वी सन से ७५ वर्ष पुराना है। जे० एफ० स्कंडल को जावा के 'वेजी' स्थान में जो शिलालेख मिले थे उनमें कलिंग राज्य का स्पष्ट उल्लेख है।

यों जावा की अपनी भाषा जावानी भाषा है, पर प्राचीन धर्म ग्रंथ एवं शिलालेख जिस 'पवित्र भाषा' में लिखे मिलते हैं, वह संस्कृत की एक शाखा ही कही जा सकती है। रामायण और महाभारत की कथाओं से वहाँ का प्राचीन साहित्य भरा पड़ा है। उस देश के निवासियों का विश्वास है कि महाभारत जावा की भूमि पर ही हुआ था। उस देश में देवालयों के जो खंडहर पाए गए हैं, उनमें से कुछ के नाम चंदी (चंडी) शिव, चंदी विष्णु, चंदी बद्ध, चंदी अर्जुन, चंदी भीम, चंदी घटोत्कच, चंदी सरस्वती, चंदी सूर्य हैं। जावा की भाषा में चंदी (चंडी) का अर्थ मंदिर होता है। वहाँ के पर्वतों के नाम सुमेरु, अर्जुन, रावण और नदियों के नाम सरयू, वृंदा, प्रयाग भगवंता आदि यही बताते हैं कि ये भारतीय नामकरण हैं।

सन् १४७८ में जावा का राजा ब्रह्म विज्ञान था, मुसलमानों ने उसे मार डाला और उस देश पर कब्जा कर लिया। वे भी अधिक दिन पैर जमाए न रह सके। सन् १५५४ में पुर्तगालियों ने मुसलमानों को मार भगाया और स्वयं उसे हथिया लिया। इसके बाद डच लोगों का दाँव लगा और वे जावा के शासक बन बैठे।

विद्वान एलाइस की 'ए मोनोग्राफी ऑन दी एलीफेंट गाड' में जावा में उपलब्ध गणेश प्रतिमाओं पर प्रकाश डालते हुए, उस देश के प्राचीन निवासियों को हिंदू धर्मानुयायी ही बताया है। इसके अतिरिक्त (१) दि रामायण एज स्क्लप्चर्ड इन टिलीफस इन जावानीज टैम्पलस (२) दी लाइफ ऑफ बुद्धा ऑन दी स्तूप ऑफ बोरो बुदुर (३) बोरोबुदुर आरकियोलॉजिकल डिस्क्रिप्शन ग्रंथों में जावा क्षेत्र में फैले हिंदू धर्म के प्राचीन कालीन विस्तार पर अच्छा प्रभाव डाला गया है। श्री हिमांशुभूषण के "इंडियन इंफ्लुऐंस ऑन दि लिटरेचर ऑफ जावा एंड वालीज" में भी इसी प्रकार की बहुमूल्य जानकारियाँ उपलब्ध हैं।

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