221. सृजन साधनों के लिए ज्ञान घटों की स्थापना
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शारीरिक श्रम और मानसिक उत्साह की महत्ता को प्रमुख माना गया है तो भी साधनों के अभाव में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य बन नहीं पड़ता। हथियार न हो तो बहादुर सैनिक भी मोर्चा फतह नहीं कर सकता। ईंट चूना न हो तो कुशल कारीगर भी इमारत खड़ी न कर सकेगा। ईंधन, बर्तन न हो तो प्रवीण हलवाई भी किसी का पेट नहीं भर सकता। आत्मा तक को शरीर साधना के सहारे ही गतिविधियों वाली जीवनचर्या सधती है। इसके अभाव में उसे भी अदृश्य लोक में विचरण करना पड़ता है, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह ही आजीविका उपार्जन की व्यवस्था बनानी पड़ती है।
हर कार्य के लिए अपने ढंग के साधन चाहिए। युग निर्माण भी एक व्यापक और भारी-भरकम काम है। इस धरातल पर रहने वाले ५०० करोड़ मनुष्यों के उल्टे चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उलट कर सीधा करना है। स्वभावों, रुझानों में इतना परिवर्तन जिसे प्रायः उल्टा कहा जा सके सामान्य काम नहीं है। इसके लिए अगणित प्रतिभाओं की ही नहीं, असीम साधनों की भी आवश्यकता पड़ेगी। नहर, पुल, सड़क, भवन बनाने के लिए कितने साधनों की आवश्यकता पड़ती और उन्हें जुटाने के लिए कितनी दौड़-धूप करनी पड़ती है उसे भुक्तभोगी ही जानते हैं ।। किसी पिछड़े देश को समुन्नत बनाने के लिए कितनी सुविस्तृत योजनाएँ बनानी पड़ती हैं और उसके लिए किस-किस प्रकार पर्वत जितने साधन जुटाने पड़ते हैं, इसे उनके सूत्र संचालकों एवं कर्णधारों से ही पूछ कर जाना जा सकता है। इन सबकी तुलना में युग परिवर्तन का कार्य कितना भारी बैठता है और उसके लिए कितने साधनों का प्रबन्ध करना होगा, इसकी कल्पना ऐसे यथार्थवादी ही कर सकते हैं, जिनके सम्मुख कार्य की विशालता अपनी आवश्यकताएँ लेकर खड़ी रहती है। कल्पना लोक में उड़ने वालों के लिए तो हर कार्य जादू-तिलस्म जैसा दीखता है। उन्हें आकाश से स्वर्ण मुद्रा बरसने और रातों-रात विश्वकर्मा द्वारा नये संसार का नया स्वरूप बना कर खड़ा कर देने जैसा दिवा स्वप्न देखने में भी देर नहीं लगती है।
मिशन को पिछले दिनों प्रचार प्रक्रिया का प्रथम चरण हाथ में लेना पड़ा है। वाणी और लेखनी से बन पड़ने वाले प्रयासों से वातावरण को गरम किया गया है और वस्तुस्थिति समझने-समझाने तथा समाधान सोचने-ढूँढ़ने के लिए जागरूकता उत्पन्न होने जैसा वातावरण बना है। दूध गरम हुआ है और मलाई तैरने का नया अध्याय जुड़ा है। अब सहानुभूति दर्शाने और समर्थन करने वालों ने सहयोग देने का साहस दिखाना आरम्भ किया है। समयदानियों की आवश्यकता पूरी हो गई यह तो नहीं कहा जा सकता, पर प्रतीत होता है कि युग शिल्पी शब्द को सार्थक करने वाले लोग समयदान की आवश्यकता समझेंगे और निजी लिप्सा, तृष्णा पर अंकुश लगाकर नवसृजन के बहुमुखी क्रियाकलापों में संलग्न होने के लिए शूरवीरों जैसी परम्परा विनिर्मित करेंगे।
समयदान के लिए भावनाशीलों में से प्रत्येक को झकझोरा और पुचकारा ही नहीं, धिक्कारा और फुसलाया भी गया है। ‘‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’’ से लेकर ‘‘कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन’’ जैसी कटु भर्त्सना इसी वर्ग पर इन दिनों फिर बरसी है। प्रज्ञावादांश्च भाषसे वाले व्यंग प्रहार करते हुए जिस-तिस बहानों की आड़ लेकर जान छुड़ाने वालों पर करारे हंटर बरसे हैं। महाकाल की भर्त्सना और चुनौती ने काम किया है और इन दिनों घोर स्वार्थपरता के युग में भी युग प्रयोजनों के लिए लोगों ने एकाकी बढ़ने के कदम बढ़ाये हैं। परिवारों और मित्र सम्बन्धियों द्वारा होने वाले विरोध की भी उनने परवाह नहीं की है। लगता है जैसे-जैसे दिनमान की गर्मी बढ़ेगी, उद्यान की कलियाँ खिले हुए पुष्प बन कर शोभा और सुगंध वितरण करेंगी। तालाब में कमल ही कमल खिले दृष्टिगोचर होंगे। समयदानियों की कमी न रहेगी। लोगों ने एक वर्ष के प्रज्ञा प्रवास के लिए जिस उत्साह से समयदान दिया है उसे देखते हुए लगता है कि अगले दिनों साधु-ब्राह्मण परम्परा का पुनर्जीवन होगा। वानप्रस्थ और परिव्राजकों के बादल घटाटोप बन कर उभरेंगे और प्यासी धरती पर दूर-दूर तक छाये हुए तपन भरे दुर्भिक्ष का जल जंगल एक करते हुए अगले ही दिनों परिस्थितियों का काया कल्प करेंगे।
प्रज्ञा प्रचार की गर्मी से समयदानियों को मलाई तैरती दिखने भर से ही किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि ब्रह्मभोज के लिए जिन पकवानों की आवश्यकता है उनकी व्यवस्था बन गई। उत्साहकारी उपलब्धियाँ देखकर भी यह ध्यान में रहना चाहिए, अभी भी अन्यान्य साधनों का जुटाया जाना शेष है। समयदान कितना ही भले हो, मणि मुक्तकों की तरह मूल्यवान क्यों न हो, मात्र उन्हीं से हार नहीं बनता उसके साथ स्वर्ण समावेश भी तो चाहिए। प्रबुद्ध दार्शनिकों तक की गाड़ी जब कागज, कलम, स्याही के अभाव में रुक जाती है तो युग सृजन जैसे विशाल कार्य के लिए विपुल साधनों की आवश्यकता क्यों न पड़ेगी।
प्रथम सोपान अभी पूरा होने जा रहा है। इतने भर में ढेरों साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ रही है। जुटाने से जो सफलता मिलती है वह बढ़ती हुई आवश्यकता की तुलना में कम ही पड़ती जाती है। शान्तिकुञ्ज की इमारत और ब्रह्मवर्चस के उपकरण देखकर उत्साह तो मिलता है, पर सामने पड़े अधूरे कामों को देखते हुए लगता है अभी हाथ में लिए कार्यों को पूरा करने के लिए इनमें कई गुणी अभिवृद्धि होनी चाहिए। साधनों के अभाव में अत्यन्त आवश्यक योजनाओं में भी कटौती करनी पड़ती है। बढ़ते हुए कदम पीछे लौटाने पड़ते हैं।
ठीक यही बात प्रज्ञा पीठों, प्रज्ञा संस्थानों और शाखा संगठनों के सम्बन्ध में भी है। उनके ऊपर निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक प्रयत्न न करने का लांछन आये दिन लगता रहता है। सभी प्रज्ञापीठों को न्यूनतम पूरे समय के दो कार्यकर्ता नियुक्त करने चाहिए। एक भवन में चलने वाली गतिविधियों का सूत्र संचालन करे और दूसरा जन सम्पर्क की योजनाओं में निरत रहे। भवन की परिधि में बाल विकास विद्यालय चलाने का प्रावधान है जिसमें शिक्षा, स्वाध्याय, हरीतिमा एवं स्वच्छता के चतुर्विध कार्यक्रम भी प्रकारान्तर से आ जुटते हैं। पूजा आरती के अतिरिक्त आगन्तुकों को चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से युग समस्याओं का स्वरूप और समाधान समझाते रहने के लिए कहा गया है। रात्रि को प्रज्ञा पुराण कथा कहने का भी प्रावधान है। यह सभी कार्य मिलकर इतने हो जाते हैं कि एक सुयोग्य और परिश्रमी व्यक्ति को भी अन्यान्य साथी सहायकों की आवश्यकता पड़ेगी। इतना बन पड़ने पर ही कोई प्रज्ञापीठ अपनी स्थिति में प्राण चेतना रहने का दावा कर सकती है।
जन सम्पर्क के लिए एक और प्रज्ञा संस्थान की निरन्तर हलचलों को गतिशील रखने के लिए एक। इस प्रकार न्यूनतम दो कार्यकर्ता किसी समर्थ प्रज्ञापीठ को अपने यहाँ नियुक्त करने होंगे। अब ऐसे संत महात्मा कहीं नहीं रहे, जो घर छोड़कर सेवा साधना के लिए समर्पित जीवन जिये। गुलछर्रे उड़ाने और मटरगस्ती करने के लिए तो साधु वेश बनाकर अनगढ़ व्यक्ति कहीं भी मिल सकते हैं पर उनसे काम क्या चलेगा। ढूँढ़ने समीपवर्ती क्षेत्र में से पड़ेंगे। जो वजनदार दीखे उन्हें शान्तिकुञ्ज एक महीने की ट्रेनिंग के लिए भेजकर उत्तरदायित्व निभा सकने योग्य कुशल बनाने होंगे। इनके निर्वाह के लिए साधन चाहिए। पैसों का प्रबन्ध किये बिना दो-दो कार्यकर्ता मिलेंगे नहीं और इसके बिना निष्क्रियता हटाने का सुयोग्य बनेगा नहीं।
इसके अतिरिक्त अनेक काम ऐसे हैं जिनके लिए आये दिन पैसे की आवश्यकता पड़ेगी। पिछला साहित्य पढ़ लेने पर हर दिन नई रसोई परोसने के लिए उस क्षेत्र के लोगों को नया प्रज्ञा साहित्य खरीदने की आवश्यकता बनी रहेगी। स्लाइड प्रोजेक्टर और टेप रिकार्डर दोनों ही उपकरण ऐसे हैं जो हर महीने नये स्लाइड एवं नये टेपों की माँग करेंगे। इनके लिए भी पैसा चाहिए। दो नवरात्रि आयोजन, बसन्त पंचमी, गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा जैसे पर्व मनाने में भी कुछ तो खर्च होगा ही। वार्षिकोत्सव के अवसर पर बड़ा सम्मेलन करने पर उसके साधन जुटाने जीप वाली प्रचार मंडली का मार्ग व्यय देने जैसी आवश्यकता रहेगी। प्रज्ञा संस्थानों को बाल संस्कार शाला चलाने के लिए कहा गया है। उसके साथ-साथ व्यायामशाला चलाने, हरीतिमा बढ़ाने, बीज भंडार, पौधशाला रखने, श्रमदान, स्वच्छता के लिए झाड़ू, टोकरे आदि खरीदने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ेगी। इमारत की मरम्मत पुताई, सफाई, पूजा, आरती, बिजली, बत्ती, बुहारी, पानी आदि के लिए भी कुछ न कुछ खर्च होता।
सभी प्रज्ञा संस्थानों को भवन निर्माण की तरह ही ज्ञानरथ बनाने, साहित्य स्टोर रखने, लाउडस्पीकर, टेप रिकार्डर तथा स्लाइड प्रोजेक्टर खरीदने के लिए कहा गया है। संगीत उपकरण एवं जन्म दिवसोत्सवों के लिए चलती फिरती यज्ञशाला भी चाहिए। यह सभी साधन पहले दिन ही पूँजी की माँग करते हैं और फिर बाद में भी चालू खर्च के लिए पैसा चाहते हैं। इतना स्थायी प्रबन्ध न बन पड़े तो इन दिनों की मनःस्थिति को देखते हुए यह आशा पूरी होती नहीं दीखती कि कार्यकर्तागण ही इतना समय एवं धन नियमित रूप से खर्च करते रहेंगे। ऐसी दशा में संस्था को चलाने के लिए कुछ न कुछ स्थायी प्रबन्ध करना पड़ेगा, तेल के अभाव में दीपक देर तक जल नहीं सकेगा।
खर्च गिना देने के उपरान्त अब आजीविका के स्रोतों पर भी ध्यान मोड़ने की आवश्यकता हैं। संतुलन बिठाये बिना कहीं भी कोई कहने लायक प्रगति न हो सकेगी और निष्क्रियता के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराते रहने की विडम्बना बनी रहेगी। इससे कोई मन हलका भले ही कर ले पर प्रगति का द्वार उससे कहाँ खुलता है?
साधन जुटाने के लिए निम्नलिखित आजीविका स्रोतों की ओर ध्यान देना चाहिए और जहाँ जिस उपाय के जिस सीमा तक सफल होने की संभावना है, वहाँ उसके निमित्त लगन और तत्परता के साथ चेष्टा करनी चाहिए।
१. ज्ञान रथ चलाने वाला इतना व्यवहार कुशल और मुस्तैद हो कि खाते-पीते शिक्षित परिवारों के साथ विशेष रूप से नियमित पढ़ाने का प्रयत्न करे और अन्ततः इस स्थिति तक उन्हें प्रभावित करें कि घरेलू पुस्तकालय बनाने के लिए कुछ नियमित राशि खर्चने लगें। इस नियमित बिक्री से कमीशन राशि प्राप्ति होगी।
२. आरम्भ में मुफ्त पढ़ाने और वापिस लेने का क्रम ठीक है। किन्तु पीछे चस्का लगने पर इसके बदले पुस्तकालय शुल्क जैसी कुछ मासिक राशि वसूल करने का क्रम चलाया जाय। रास्ता चलते लोगों से भी साहित्य बेचने का प्रयत्न करते रहा जाय ताकि प्रचार के साथ-साथ प्रज्ञा साहित्य के कमीशन वाला लाभांश मिलता रहे।
३. जन्म दिवसोत्सव मनाने की योजना पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाय। बच्चों के संस्कार भी मनाने के लिए मिशन के कार्यकर्ता पहुँचे। जिसके यहाँ भी आयोजन हो उसके यहाँ ज्ञानघट एवं धर्मघट स्थापित कराने की दक्षिणा का अनुरोध किया जाय। धर्मघट में एक मुट्ठी अनाज महिलाएँ डालती हैं। ज्ञान घट की राशि अब दस पैसे से बढ़ाकर बीस पैसा कर दी गई है। पर जिनकी आर्थिक स्थिति अधिक दुर्बल है उनसे दस पैसा डालते रहने के लिए ज्ञानघट, धर्मघट की स्थापना के लिए अनुरोध किया जाय।
४. मिशन के प्रति अधिक निष्ठावानों से महीने में एक दिन की आजीविका देते रहने का अनुरोध किया जाय। या फिर वे स्वेच्छा से जितना मासिक अनुदान दे सके उतना प्रबन्ध किया जाय।
५. हर वर्ष एक स्मारिका प्रकाशित करने का प्रबन्ध किया जाय। उसमें व्यापारियों से विज्ञापन लेकर कुछ बना लेने का प्रयत्न किया जाय।
६. वार्षिक प्रज्ञा आयोजन के अवसर पर गायत्री यज्ञ, सहभोज, युग निर्माण सम्मेलन, आतिथ्य, प्रचार मंडली आदि के खर्च की आवश्यकता बताते हुए सार्वजनिक चंदा किया जाय। उस अवसर पर अधिक दौड़-धूप कर लेने से कुछ बचत भी हो सकती है और वह पीछे काम आ सकती है।
७. प्रज्ञापीठ में पैसों की चढ़ोत्तरी की राशि बढ़ सके ऐसे दर्शक बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय।
८. विशेष अवसरों पर कुछ अतिरिक्त राशि उपलब्ध करने की बात बने तो उसका भी ध्यान रखा जाय।
इसके अतिरिक्त भी अन्य उपाय हो सकते हैं जिनसे प्रज्ञापीठ की आमदनी बढ़े और आवश्यक खर्चों की पूर्ति होती रहे। यदि इमारत सड़क के किनारे है तो उसमें दुकान भी निकाली जा सकती है और ऐसे लोगों को किराये पर दी जा सकती है जो कोई अवांछनीय वस्तु न बेचें।
स्मरण रहे जनता के धन की एक-एक पाई का ठीक हिसाब रखना, उसे हर मीटिंगों में सुनाते रहना आवश्यक है। गड़बड़ी की राई-रत्ती गुंजायश भी न रहने दी जाय। इस संदर्भ में संदेह के जो भी छिद्र हो उन्हें कड़ाई से बन्द कर दिया जाय। सर्व साधारण को यह विश्वास बना रहे कि हिसाब-किताब के सम्बन्ध में यहाँ पूरी सफाई है और पोल-पट्टी न पनपने देने पर सभी की कड़ी नजर है। इससे कम में न तो जनता का विश्वास मिल सकता है और न स्थायी सहयोग। इसलिए हिसाब-किताब के प्रकटीकरण और राशि को प्रामाणिक हाथों में सुरक्षित रखने की इतनी कड़ी व्यवस्था बनाई जाय कि जनता की दृष्टि में संगठन की, कार्यकर्ताओं की प्रामाणिकता अक्षुण्ण बनी रहे। किसी को भी हिसाब देने में या पूछे जाने में हेठी अनुभव नहीं करनी चाहिए। हिसाब में ईमानदारी और स्पष्टता रहने पर ही जन सहयोग के द्वार खुलते हैं और तथ्य पर पूरा ध्यान देने से ही अर्थ सन्तुलन बना रहने जैसा जन सहयोग उपलब्ध होते रहना एवं बढ़ते रहना सम्भव है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
222. जड़ी-बूटी विज्ञान का नये सिरे से अनुसंधान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अन्न, शाक और फल आहार के प्रमुख अंग हैं। आहार से ही रक्त माँस बनता है। उसी के सहारे पुरुषार्थ करना और जीवित रहना बन पड़ता है। अस्तु आहार की अनिवार्यता और महत्ता निर्विवाद है।
इसी शृंखला में एक कड़ी जड़ी-बूटियों की और जुड़ती है। परमेश्वर की अनेकानेक महती अनुकम्पाओं में से एक यह भी है कि रोगों के निवारण और सामर्थ्य के अभिवर्धन हेतु बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ भी जहाँ-तहाँ उगती हैं, उनके आधार पर मनुष्य अपनी आरोग्य सम्बन्धी समस्याओं का समाधान सहज ही कर सकता है। खनिज सम्पदा का जीवन क्रम में कितना महत्त्व है यह सभी जानते हैं। धातुएँ, रसायन, कोयला, तेल आदि अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ भूगर्भ से मिलती है। वे न हों तो कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा उसे सभी जानते हैं। ठीक यही बात जड़ी-बूटियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। सामान्य वनस्पतियाँ घास-चारे के रूप में पशुओं का और अन्न, शाक के रूप में मनुष्यों का जीवन चलाती हैं। इसलिए उन्हें जीवनाधार कहा गया है। इससे एक कदम आगे बढ़कर जड़ी-बूटियों की बात सामने आती है। खदानों में साधारणतया पत्थर कोयले ही निकलते है, पर कहीं-कहीं उन्हीं में बहुमूल्य हीरा, पन्ना जैसे रत्न भी निकल आते हैं। यही बात वनस्पतियों के सुविस्तृत क्षेत्र में जड़ी-बूटियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। वे अनेकानेक शारीरिक मानसिक रोगों के निवारण में पूरी तरह समर्थ हैं। इतना ही नहीं उनके सहारे शारीरिक बलिष्ठता मानसिक प्रखरता भी उपलब्ध की जा सकती है। दीर्घायुष्य का लाभ मिल सकता है। उनके सहारे आत्मिक प्रगति का सुयोग भी बनता है।
महर्षि चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट जैसे दिव्यदर्शी ऋषियों ने अथक परिश्रम करके समस्त धरातल को खोजा और यह ढूँढ़ निकाला था कि किन वनौषधियों के क्या विशेष गुण हैं और उनसे मनुष्य का किस प्रकार क्या हित साधन हो सकता है। अपने अनुसंधान, निष्कर्ष एवं अनुभव का सार उन्होंने आयुर्वेद ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक लिखा है। यह ऐसा विज्ञान है कि यदि उसे समझा और अपनाया जा सके तो स्वस्थता अक्षुण्ण बनाये रहने का मार्ग अति सरल हो सकता है। उनके सहारे रोगों से छुटकारा पाया और बलिष्ठ रह कर दीर्घायुष्य का लाभ उठाया जा सकता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों एलोपैथी द्वारा प्रतिपादित मारक औषधियों का प्रचलन चल पड़ा है। रोगों का कारण विषाणुओं को माना और उन्हें मारने के लिए एण्टीबायोटिक्स का वार संधाना जाता है। इसका तात्कालिक लाभ तो यह होता है कि विषाणुओं के मारने से रोग का प्रकोप थम जाता है। इसके बदले भारी हानि यह होती है कि आरोग्य रक्षक रक्त कणों की सेना का भी उतना ही संहार होता है। शत्रु के साथ मित्र भी मरते हैं। आरोग्य रक्षा जिन स्वास्थ्य रक्षक जीवाणुओं पर निर्भर है वे यदि मारक औषधियों द्वारा धराशायी बना दिये जायें तो फिर एक नया संकट यह खड़ा होता है कि रोग निरोध की क्षमता ही समाप्त हो जाती है। किसी भी बीमारी को आक्रमण करने की खुली छूट मिल जाती है। यहाँ तक कि सर्दी गर्मी तक सहन नहीं होती और आये दिन लू लगने, जुकाम होने जैसी शिकायतें रहने लगती हैं। रक्षक जीवाणुओं का भी विनाश करने के मूल्य पर यदि एक बार एक रोग को मार भी लिया गया तो वह तनिक सा लाभ बहुत मंहगा पड़ता है। रक्षक जीव कोषों का विनाश करके तत्काल जादुई लाभ दिखाने वाली चिकित्सा अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होती है। इतने पर भी अदूरदर्शिता का समर्थन तत्काल लाभ को ही मिलता है। मारक औषधियों का प्रचलन दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है। फलतः एक रोग दूर होने से पहले ही नए अनेक रोगों का उद्भव आरम्भ हो जाता है। जीवनी शक्ति घटने पर दुर्बलता पीछे पड़ जाती है और उसकी सहेली रुग्णता भी वेष बदल कर इर्द-गिर्द मंडराती रहती है।
तथाकथित आधुनिक सभ्यता के अनेकानेक अभिशापों में से एक यह भी है कि हमारा ध्यान जड़ी-बूटियों की उपयोगिता पर से हट गया और उसके स्थान पर एण्टीबायोटिक्स का, अल्कोहल सम्मिश्रणों का, तीखे इञ्जेक्शनों का प्रचलन चला। नशेबाजी को फैशन में सम्मिलित करके हमने कुछ पाया नहीं खोया ही है। ठीक इसी प्रकार जड़ी-बूटियों की उपेक्षा करके हमने स्वास्थ्य सुधारा नहीं वरन् उस क्षेत्र में संकट ही खड़ा किया है। यह वह अवलम्बन है जिसे किसी समय हमारे पूर्वजों ने अपनाया था। वे निरोग, समर्थ और दीर्घजीवी रहते थे। इसी एक आधार पर रक्षक जीव कोषों को बिना किसी प्रकार की हानि पहुँचाये रोगों को निरस्त किया जा सकता है। जड़ी-बूटियों की मुख्य विशेषता यह है कि वे जीवनी शक्ति बढ़ाती हैं उस बढ़ी हुई समर्थता के सामने विषाणु टिकते नहीं और सहज ही खदेड़ दिए जाते हैं। इस आधार पर बढ़ाई गई जीवनी शक्ति भविष्य के लिए भी आरोग्य रक्षा की किले बन्दी सुदृढ़ करती है। फलतः चिकित्सा के साथ-साथ समर्थता अभिवर्धन का उपाय उपचार भी बन पड़ता है। जड़ी-बूटियाँ जीवनी शक्ति बढ़ाती हैं। यदि उन्हें शास्त्रीय अनुसंधानों, प्रतिपादनों के आधार पर अपनाया जाय तो माँ के दूध की तरह वह हित साधन ही करती हैं, अनिष्ट की संभावना उनमें है नहीं। यों कोई जानबूझकर विष निगले तो बात दूसरी है।
जड़ी-बूटियों में से कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण होती हैं जिन्हें संजीवनी कहा जा सके। लक्ष्मण जी की मेघनाथ के शक्ति बाण से अर्द्धमृत जैसी स्थिति हो गई थी। स्थिति की गम्भीरता देखकर रामचन्द्र जी विलाप करने लगे थे। सुषेण वैद्य को बुलाया गया। उनने हिमालय से एक दिव्य बूटी मँगाने को कहा। हनुमान लाये और उपचार से लक्ष्मण पुनः स्वस्थ हो गये। ऐसे ही अन्य प्रसंग भी हैं। वयोवृद्ध च्यवन ऋषि जर्जर शरीर थे। दुर्भाग्य से उनकी आँखें भी चली गई। उपचार के लिए अश्विनी कुमार वैद्य आये, उनने जड़ी-बूटी उपचार किया फलतः उनकी नेत्र ज्योति ही नहीं, जवानी भी लौट आयी। योग का सही नुस्खा तो उपलब्ध नहीं, पर किंवदन्ती के आधार पर उसी घटना का बखान करते हुए च्यवनप्राशावलेह अभी भी बाजार में बिकता है।
राजा दशरथ के सन्तान न थी। शृंगी ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञ के साथ दिव्य चरु बनाया था। रानियाँ उस खीर को खाकर गर्भवती हुई थी। चरु दिव्य औषधियों के संयोग से बना था।
कल्प चिकित्सा के नाम से आयुर्वेद में एक विशिष्ट उपचार पद्धति का वर्णन है। राजा ययाति जैसे वयोवृद्धों को उसी आधार पर तरुण बनाया गया था। ऋषियों के आश्चर्यजनक लम्बे जीवन का वर्णन मिलता है। इनमें उनकी सेवा साधना तो प्रधान थी ही, दिव्य जड़ी-बूटियों का उपयोग भी सम्मिलित था।
सर्प और न्योले की लड़ाई के सम्बन्ध में कहा जाता है कि सर्प दंश से आहत होने पर न्योला एक विशेष जड़ी को खाने दौड़ता है और उससे नई शक्ति पाकर साँप पर नया आक्रमण करता है। न्योले की जीत का कारण सर्प की तुलना में उसकी समर्थता नहीं वरन् औषधिभिज्ञता ही चमत्कार दिखाती है।
इन दिनों जड़ी-बूटी का महत्त्व, उपयोग ही नहीं ज्ञान तक आँख से ओझल होता चला जा रहा है। एक जैसी शक्ल वाली वनस्पतियों को किसी के नाम पर किसी को उखाड़ा, बेचा और खरीदा जाता है। पंसारियों की दुकानों पर वे वर्षों पुरानी रखी रहती है। और पहचान सही न होने से एक के स्थान पर दूसरी थमा दी जाती है। वनस्पतियाँ एक वर्ष में गुणहीन हो जाती हैं। होना यह चाहिए कि अवधि समाप्त होने पर गुणहीन हुई वनौषधियों को नष्ट कर दिया जाय। अंग्रेजी दवाओं में यह ईमानदारी अभी भी पाई जाती है कि अवधि समाप्त होने पर उन्हें फेंक दिया जाता है पर जड़ी-बूटियाँ तो बीस तीस वर्ष तक भी यथावत बिकती रहती हैं। गुणहीन होने पर उन्हें फेंक देने की अभी तक कहीं भी व्यवस्था नहीं हो सकी। यही कारण है कि उनका लाभ वैसा नहीं मिलता जैसा कि मिलना चाहिए था।
आवश्यकता यह समझी गई कि जड़ी-बूटी विज्ञान को पुनर्जीवित किया जाय। आयुर्वेद पाँचवाँ वेद है। इसे अथर्ववेद की व्याख्या विवेचना कहा जाता है। वेदों के उद्धार का प्रयास सर्वप्रथम यहीं से आरम्भ होना चाहिए, आयुर्वेद में मात्र जड़ी-बूटियों का उपयोग उपचार है। रस-भस्मों का प्रचलन तो बाद का भी है और बाहर से आया हुआ भी।
देव संस्कृति की पुरातन परम्पराओं को नवजीवन प्रदान करने के संदर्भ में शान्तिकुञ्ज द्वारा महत्त्वपूर्ण सभी जड़ी-बूटियों का शोध कार्य नए सिरे से प्रारम्भ किया गया है। इसके लिए आश्रम की भूमि में दुर्लभ वनौषधियाँ दूर-दूर से विशेषतया हिमालय क्षेत्र से खोज-खोज कर लाई लगाई गई हैं। इन सभी का रासायनिक विश्लेषण करने के लिए एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला बनाई गई है। जिससे हर जड़ी-बूटी के असली-नकली होने का, उसमें रहने वाले पदार्थों का वर्गीकरण, विश्लेषण हो सके। इस आधार पर यह सम्भव होगा कि वैज्ञानिक क्षेत्रों को भी जड़ी-बूटियों की गुण, गरिमा और प्रभाव क्षमता से परिचित, प्रभावित किया जा सके।
अगले दिनों विचार यह है कि मिशन द्वारा विनिर्मित २४०० प्रज्ञापीठों में ऐसे ही जड़ी-बूटी उद्यान लगाये जायें और हर क्षेत्र में चिकित्सा एवं जीवनशक्ति अभिवर्धन के साधन सुलभ कराये जायें।
जड़ी-बूटियों में से ऐसी भी अनेक हैं जो मानसिक विशिष्टताएँ बढ़ाने के काम आती हैं और आत्मिक प्रगति में सहायता करती हैं। जो ऐसी है उनका बूटी कल्प शान्तिकुञ्ज के साधना सत्रों में आने वालों को कराया जाता है। इससे स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को प्रखर, परिष्कृत करने में सफलता भी बहुत मिलती हैं।
किस रोग में किसे, किस जड़ी-बूटी का किस प्रकार प्रयोग करना चाहिए इसका परामर्श शान्तिकुञ्ज के कुशल चिकित्सक देते रहते हैं। उनका निःशुल्क मार्ग दर्शन हर किसी को सदा उपलब्ध रहता है। कई शारीरिक-मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति भी इन शुद्ध और सशक्त वनौषधियों को शान्तिकुञ्ज से ले जाते हैं, और उनका चमत्कारी सत्परिणाम देखकर अन्यों को भी इनका लाभ लेने के लिए परामर्श देते हैं। कइयों ने तो अपने-अपने क्षेत्र में इनका उत्पादन योजनाबद्ध रूप से आरम्भ भी किया है। यह स्वास्थ्य संरक्षण, अभिवर्धन की दृष्टि से उज्ज्वल भविष्य का शुभ लक्षण है।
शान्तिकुञ्ज की जड़ी-बूटी प्रयोगशाला ने एकौषधि विज्ञान की पुरातन मान्यता को नए सिरे से बल दिया है। एक समय में एक ही वनस्पति सेवन की जाय। एक साथ कइयों को न मिलाया जाय। कइयों के परस्पर मिला देने से उनमें से प्रत्येक का निजी गुण सीमित हो जाता है। सम्मिश्रण से कुछ का कुछ बन जाता है। यह सोचना सही नहीं है कि एक साथ कइयों के मिलाने से उन सब के गुण यथावत बने रहेंगे। सच तो यह है कि सम्मिश्रण के सभी घटक अपनी निजी विशेषता गँवा बैठते हैं और एक नई अप्रत्याशित प्रतिक्रिया खड़ी करते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पुरातन आयुर्वेद जन्मदाताओं की तरह शान्तिकुञ्ज ने भी इस बात पर जोर दिया है कि एक समय में एक ही वनौषधि का उपयोग किया जाय। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने प्रयोजन के लिए पूर्णतया समर्थ हैं।
एक समय में एक अन्न या एक शाक खाने का सिद्धांत भी इसी प्रकार सही है। कल्प साधना सत्रों के साधकों को यही कराया जाता है वे चावल, दलिया आदि एक वस्तु लेते हैं। मात्र मूँग की दाल का उपयोग करने भर की छूट रहती है। साधकों को बूटी कल्प कराया जाता है। उसमें भी एक ही वनौषधि का निर्धारित अवधि तक प्रयोग होता रहता है। इन प्रयोगों के सभी ने उत्साहवर्धक परिणाम देखे हैं।
यज्ञोपचार में जड़ी-बूटियों की हवन सामग्री का ही उपयोग होता है। शान्तिकुञ्ज में यज्ञ विज्ञान की नई शोध चल रही है। उस उपचार की उपयोगिता पर वैज्ञानिक आधार पर नया अनुसंधान अन्वेषण किया गया है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक परिष्कार के लिए जिन वनौषधियों को उपयोगी पाया गया है, उनका अग्निहोत्र के माध्यम से लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। ठोस और द्रव की अपेक्षा वायुभूत पदार्थ अधिक सशक्त व्यापक होता है वह रक्त माँस तक सीमित न रह कर जीवकोषों, ज्ञान तन्तुओं, जैव रसायनों, हारमोनों की गहराई तक चला जाता है। इस आधार पर अग्निहोत्र की क्षमता अधिकाधिक स्पष्ट होती चली जा रही है।
इस सन्दर्भ में नया प्रयोग यह हुआ है कि हव्य पदार्थों की धूप बनाकर उसे कमरे में जलाया और लाभ उठाया जाय। यह प्रयोग भी अग्निहोत्र का ही एक छोटा स्वरूप सिद्ध हुआ है। उससे न केवल स्वास्थ्य रक्षा में सहायता मिली है वरन् मानसिक विकास एवं आत्म परिष्कार में भी यह प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है। धूप का देव पूजन में प्रयोग होता रहा है। यह अकारण नहीं है। इस प्रक्रिया को अधिक व्यापक एवं लोकोपयोगी बनाया जा रहा है। अग्निहोत्र प्रयोग के लिए जड़ी-बूटियों के उपयोग की पद्धति को पूर्वकाल की भाँति अब फिर से प्रयोग में लाया जा रहा है। यह भी शान्तिकुञ्ज का जड़ी-बूटी परक विशिष्ट अनुसंधान है।
इन प्रयोगों के आधार पर आशा की गई है कि आयुर्वेद को पुनः विश्वव्यापी मान्यता मिलेगी। विज्ञान की परीक्षण कसौटी पर वह खरा उतरेगा। चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि ऋषियों के महान प्रयास पर छाये हुए कुहासे को हटाने वाला नया प्रभात उदय होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
223. हर प्रज्ञा संस्थान में बाल संस्कार कक्षाएँ चल पड़े
--पं. श्रीराम शर्मा
आचार्य
हर प्रज्ञापीठ या प्रज्ञा संस्थान को अपनी इमारत में ऐसी सेवा भावी हलचलें जारी रखनी चाहिए जिनके सहारे सर्व साधारण को उसकी उपयोगिता प्रतीत होती रहे। सहानुभूति और सहायता उपलब्ध होती रहे। मात्र पूजा-आरती होती रहे और दिनभर सन्नाटा छाया रहे तो आज की परिस्थितियों में ऐसे धर्म संस्थानों को जन उपेक्षा का ही नहीं आक्रोश का भी भाजन बनना पड़ेगा। अस्तु उपयुक्त यही है कि इस इमारत में सेवाभावी सत्प्रवृत्तियों की हलचल बनी रहे।
यों करने को तो विचार क्रान्ति अभियान के अन्तर्गत प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों की एक सुविस्तृत शृंखला है। पर उसे पूरी तरह कार्यान्वित करने के लिए प्रज्ञावान, दूरदर्शी, परिश्रमी, लगनशील सेवाभावियों द्वारा सूत्र संचालन की आवश्यकता है। यह व्यवस्था हर जगह बन पड़ना कठिन है, इसलिए उचित समझा गया कि ऐसा कार्यक्रम बनाया जाय जो सर्व सुलभ हो। कहीं भी बिना अड़चन के चल सकता हो। इसके लिए बाल विकास कक्षाएँ चलाने के लिए सभी प्रज्ञापीठों को कहा गया है। छठी कक्षा से मैट्रिक तक के स्कूली छात्रों को उनकी सुविधा के समय दो-दो घण्टे की ट्यूटोरियल कक्षाएँ चलाई जायें। इसके लिये हर कोई सहानुभूति व्यक्त करेगा और भरपूर समर्थन तथा सहयोग देगा।
इन दिनों स्कूली पढ़ाई जैसी कुछ है उसे सभी जानते हैं। घर-घर ट्यूशन का प्रबन्ध कराये बिना कदाचित ही कोई भाग्यवान लड़के अच्छे नम्बरों से पास होते हैं। डिवीजन खराब हो जाने पर पढ़ाई एक प्रकार से निरर्थक चली जाती है। ट्यूशन की मँहगी फीस चुकाना हर किसी के बलबूते की बात नहीं। ऐसी दशा में यदि ट्यूटोरियल कक्षाएँ कहीं भी चल पड़े तो उसे हर अभिभावक और विद्यार्थी डूबते को तिनके जैसा सहारा अनुभव करेगा। स्कूली टाइम चार पाँच घण्टे का होता है। उससे निपट कर बच्चे इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। अभिभावकों को संभालने की फुरसत नहीं होती। कुछ नये बच्चों की आदतें बिगाड़ने, पढ़ाई छूटने और भविष्य अन्धकारमय बनाने की घटनायें हर कोई अपने चारों ओर घटित होती हुई देख सकता है। इस दुर्भाग्य से बचने का एक ही उपाय है कि स्कूल से बचे हुए समय का सदुपयोग हो और बच्चे कुसंग में पड़कर बुरी आदतें सीखने से बचें। पढ़ाई पर ध्यान देकर अच्छा डिवीजन लाने में सफल हो। साथ ही उपयुक्त वातावरण में व्यक्तित्व के विकास में सहायक सत्प्रवृत्तियों का भी अभ्यास करते रहें। इसे स्वर्ण सुयोग ही कहा जा सकता है। इस प्रबन्ध की प्रज्ञापीठ में व्यवस्था बनने जा रही है। इस समाचार को सुनते ही हर कोई प्रसन्न होगा और इस दूरदर्शी सूझबूझ तथा ठोस सेवा साधना की भरपूर प्रशंसा करेगा। उसके सफल होने में भी किसी संदेह की गुंजाइश न रहेगी।
कल्पना शक्ति की कमी और व्यावहारिक कठिनाइयों की जानकारी न रहने से कई जगह पूरे समय के स्कूल प्रज्ञापीठों की इमारतों में चलाने की बात सोची जाती है। वे इसे सरल मानते हैं पर है यह असम्भव स्तर का, अत्यधिक कठिन। सरकारी मान्यता के बिना इस प्रकार के स्कूलों का न तो कोई महत्त्व है और न कोई अभिभावक उनमें पढ़ाने के लिए अपने बच्चे भेजेगा। सरकारी मान्यता के लिए आवश्यक हैं कि स्कूल की अपनी निजी कमेटी और निजी इमारत हो। अध्यापक उपयुक्त योग्यता के तथा ट्रेण्ड हों। उन्हें पूरा वेतन बैंक चेक द्वारा दिया जाय। इससे कम में सरकारी मान्यता या सहायता नहीं मिलती। प्रज्ञापीठों में सरकारी निर्धारण के अनुरूप न तो कक्षाओं के लिए स्थान होता है और न उनकी कानूनी स्थिति ऐसी होती है कि ट्रस्ट की सम्पत्ति को स्कूल समिति के लिए हस्तान्तरित कर सकें। बिना फीस के बच्चे पढ़ाने ठहरे तो ट्रेण्ड अध्यापकों का पूरा वेतन किस प्रकार चूके। इतना सब संभव नहीं इसलिए जल्दबाजी में जिन्होंने भी पूरे समय के स्कूल चलाने का कदम बढ़ाया है उन्हें व्यावहारिक कठिनाई समझ में आते ही उसे वापिस लौटाना पड़ा है।
बहुत छोटी शिशु कक्षाओं के लिए सरकारी बन्धन तो नहीं होते पर हर अभिभावक इन दिनों बच्चों को किन्हीं सुव्यवस्थित बाल मन्दिर में भेजना चाहता है। इसके लिए भी समुचित साधनों और सुयोग्य अध्यापकों की आवश्यकता पड़ती है। यह प्रबन्ध तगड़ी फीस लेकर ही किया जा सकता है। उतना सब न बन पड़े तो फिर छोटे बच्चों को पिंजड़े में बन्द करने और अनगढ़ अध्यापकों की देख−रेख में सौंपने की भी बात बनती नहीं है। अत्युत्साही लोगों ने जहाँ भी ऐसी योजना बनाई है, असफल रही है। इन तथ्यों को देखते हुए आरम्भ से ही सभी प्रज्ञापीठों को सचेत किया गया है कि वे ऐसे अदूरदर्शी कदम न उठायें जो उपहासास्पद बने और पीछे वापिस लौटना पड़े।
हर दृष्टि से उपयुक्त बाल विकास कक्षाएँ ही बैठती हैं। पाँचवीं कक्षा से छोटे छात्रों की साज संभाल अति कठिन है। फिर उन पर मिशन के अनुरूप छाप डालने जैसा प्रबन्ध किन्हीं गुरुकुल स्तर के योजना बद्ध साधन सम्पन्न विद्यालयों में ही संभव हो सकता है। ऐसे ही घेरा बटोरी करके छोटे बालकों की अविकसित मनःस्थिति में आदर्शवादी संस्कार छोड़ सकना ऋषियों का ही काम है। अतएव पाँचवीं कक्षा तक के छोटे बालकों के लिए कोई अन्य बात सोचनी चाहिए। प्रज्ञापीठों में ट्यूटोरियल कक्षाएँ छठी कक्षा से लेकर मैट्रिक हायर सेकण्डरी तक का स्थानीय प्रचलन के अनुरूप प्रबन्ध करना चाहिए।
इस प्रबन्ध के तीन पक्ष हैं-एक अभिभावक, दूसरे छात्र, तीसरे अध्यापक। छात्रों और अभिभावकों को इस नई स्थापना की उपयोगिता, व्यवस्था परिणति की रूपरेखा यदि सही रूप से समझाई जा सके तो दोनों ही प्रसन्नता पूर्वक इसके लिए सहमति और भर्ती के लिए आतुरता प्रकट करेंगे।
तीसरा वर्ग अध्यापकों का रह जाता है। इसके लिए सर्वोत्तम तो यही है कि निवृत्त स्तर के, फुरसत में रहने वाले सुशिक्षितों के पास टोली बनाकर पहुँचा जाय और उन्हें विद्या ऋण चुकाने के लिए प्रज्ञापीठ की कक्षाओं में अवैतनिक रूप से पढ़ाने का आग्रह किया जाय। उदारता और सद्भावना अभी पूरी तरह मरी नहीं हैं। माहौल कितना ही संकीर्ण-स्वार्थपरता से भरा हुआ क्यों न हो। प्रयत्न करने पर सीपी के ढेर से कुछ मोती भी अवश्य मिल जायेंगे और अवैतनिक इस पुण्य परमार्थ में समय देते रहने में अपने अवकाश को कृत-कृत्य कर सकेंगे। कितनी महिलाएँ भी उच्च शिक्षित होती हैं किन्तु घरों में मात्र चौका-चूल्हा ही संभालती हैं। रिटायर स्तर के अध्यापक तो भी कुछ इधर-उधर कर लेते हैं, पर महिला अध्यापिकाओं के लिए तो जहाँ-तहाँ भटकते फिरना भी संभव नहीं होता। कुटुम्बियों की चख-चख में ही दिन गुजारती रहती हैं। उनके साथ सम्पर्क बनाये जाय और आवश्यकता समझाते हुए समय दान के लिए कहा जाय तो कोई कारण नहीं कि कुछ घण्टे सेवा कार्य करने के लिए कहीं भी उदारता न उभरे। कई बार चक्कर काटने और कई बार अनुरोध करने और दबाव डालने की आवश्यकता पड़ सकती है, पर ऐसा नहीं हो सकता कि सर्वथा असफलता ही मिले।
जहाँ अध्यापक जुटाने की किसी प्रकार दाल न गले, वहाँ अनुभवियों को थोड़ा वेतन देकर भी रखा जा सकता है और उसकी पूर्ति के लिए छात्रों के यहाँ ज्ञानघट रखकर फीस से मिलता-जुलता कुछ आदर्शवादी प्रबन्ध किया जा सकता है।
चूँकि छठी से लेकर ग्यारहवीं तक के कई कक्षाओं के विद्यार्थी होंगे। स्कूली पाठ्यक्रमों को दुहराने, अभ्यास करने के लिए प्रशिक्षण भी अलग-अलग चलने चाहिए। इसके लिए छात्रों की संख्या थोड़ी रहने पर भी कई अध्यापकों की अलग-अलग कक्षाओं के लिए अलग-अलग स्थानों की आवश्यकता पड़ेगी। देखना यह है कि प्रज्ञापीठ की इमारत में इतना स्थान है या नहीं। यदि नहीं तो फिर किसी समीपवर्ती पेड़, शेड, शामियाना जैसे आच्छादन का प्रबन्ध कराना चाहिए। अन्यथा फिर यह करना पड़ेगा कि जितना स्थान हो उतनी ही कक्षाएँ आरम्भ की जायें और पीछे नये स्थान का प्रबन्ध बन पड़ने पर अधिक कक्षाओं का प्रचलन किया जाय।
अगले दिनों शिक्षा प्रसार की कितनी ही नई शृंखलाएँ आरम्भ करनी होगी। पुरुषों के लिए रात्रि की और महिलाओं के लिए तीसरे पहर की प्रौढ़ पाठशालाएँ चलानी होंगी। यह छात्रों की ट्यूटोरियल कक्षाओं से अतिरिक्त प्रयास है। देश में ७० प्रतिशत अशिक्षितों को साक्षर बनाने का कार्य सरकार न कर सकेगी। उसे जन स्तर पर ही सम्पन्न करना होगा। विद्या ऋण चुकाने के लिए शिक्षितों से समयदान वसूल करने के लिए नया उत्साह उत्पन्न करने और नए दबाव डालने की आवश्यकता पड़ेगी। यह कार्य प्रतिभावानों की टोलियाँ सम्पर्क साधने के लिए निकल पड़े तो निश्चय ही अवैतनिक अध्यापकों, अध्यापिकाओं की आवश्यकता बहुत हद तक पूरी कर सकती हैं।
स्थान की आवश्यकता पूरा करने के लिए ऐसे मन्दिर तलाश करने पड़ेंगे, जिसमें कक्षाएँ चलाने जितना स्थान खाली मिल सके। यों लोग देवता के रहने लायक छोटी कोठरी भी बनाकर सस्ते में भक्ति भावना चरितार्थ करने की भावुकता पूरी कर लेते हैं। उनमें पूजा के समय पुजारी के खड़े हो सकने जितना ही स्थान होता है। ऐसों से तो अपना क्या काम बनेगा, पर जिनके पास खाली स्थान है और कक्षाएँ चलाने के लिए वह मिल सकता है, उसके लिए प्रयत्न अवश्य ही किया जाय। इससे मन्दिरों की खोई प्रतिष्ठा फिर वापस लौटेगी और निर्माताओं के खर्च की सार्थकता समझी जायेगी तथा सराहना भी होगी।
आवश्यक उपकरणों की दृष्टि से बिछावन, ब्लैक बोर्ड, अध्यापकों की तैयारी के लिए पाठ्य पुस्तकें, रात्रि की भी कक्षाएँ चलती है तो रोशनी की आवश्यकता पड़ेगी। संचालक समिति में इतनी सूझबूझ होनी चाहिए कि अध्यापकों के समय, छात्रों की सुविधा तथा स्थान की व्यवस्था बनाने में तालमेल बिठाते रह सकें। प्रबन्ध समिति ढीली-पोली होगी तो संतुलन बिगड़ेगा और अराजकता जैसा वातावरण बनेगा। कब, कहाँ, क्या कमी पड़ती है और झल्लाने के स्थान पर उसकी पूर्ति के लिए किस प्रकार क्या नई व्यवस्था बनती है। जिनमें इतनी सूझबूझ और तत्परता होगी वे इन बाल विकास की सुव्यवस्था बना सकेंगे। साथ ही यह भी ध्यान रखे रहेंगे कि पूजा-उपासना के निमित्त आने वालों का रास्ता न रुके, उनकी भाव-श्रद्धा में व्यतिरेक न पड़े।
प्रस्ताव मात्र ट्यूटोरियल स्कूल भर का नहीं है, वरन् छात्रों का व्यक्तित्व विकसित करने, उनके चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार में सुसंस्कारिता का अनुपात बढ़ाने का भी है। इसलिए पाठ्यक्रम के साथ-साथ उन सभी बातों को भी छात्रों के गले उतारने का प्रयत्न करना चाहिए। जिनसे गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि हो। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी का अनुपात निरन्तर बना रहे।
इन बाल विकास विद्यालयों के साथ मिशन की अति महत्त्वपूर्ण चार सत्प्रवृत्तियों का समावेश है। १. शिक्षा विस्तार २. स्वास्थ्य संवर्धन ३. हरीतिमा संवर्धन ४. सामूहिक श्रमदान से स्वच्छता अभियान। यह चारों ही ऐसे हैं, जिनका शुभारम्भ हो सकता है और क्रमशः बढ़ते-बढ़ते उनका व्यापक विस्तार हो सकता है। इन विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों को खेलकूद, ड्रिल, आसन-प्राणायाम, फर्स्ट एड, स्काउटिंग, रोगी परिचर्या, आहार विज्ञान जैसे स्वास्थ्य संवर्धन कार्यों की शिक्षा भी मिलेगी। व्यायामशाला भी इन पाठशालाओं के साथ-साथ समानान्तर चलेगी। प्रज्ञापीठों के प्रांगण में तुलसी, शाक-भाजी तथा फुलवारी की पौध उगा करेगी जिसे ले जाकर बच्चे अपने घरों में उगाया करेंगे। उनके घरों में शाकवाटिका लगे, पुष्पवाटिका खिले, उसके लिए छात्रों को समुचित प्रशिक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाया करेगा। कुपोषण निवारण, निर्माण रुझान, कुटीर उद्योग एवं सुरुचि संवर्धन की दृष्टि से घरों में आँगनवाड़ी, छतबाड़ी, छप्परवाड़ी उगाने का बहुत महत्त्व है। बढ़ते वायु प्रदूषण का निवारण भी इस आधार से हो सकता है। आँगनों में वनस्पति भगवान के देवालयों के रूप में थाँवले बनें और दैनिक पूजा आरती, परिक्रमा, अर्घ्यदान का क्रम चले तो इतने भर से परिवार में धार्मिकता, आध्यात्मिकता एवं आस्तिकता का वातावरण बनेगा और इस छोटे शुभारम्भ का दूरगामी सत्परिणाम होगा।
बच्चों के अभिभावकों से सम्पर्क बना कर उन्हें युग परिवर्तन के लिए सहमत किया जा सकता है। इस आधार पर गाँव में सामूहिक श्रमदान से स्वच्छता अभियान चलाने के लिए झाड़ू, टोकरा लेकर गली-मुहल्लों में निकला जा सकता है। अपने देहातों में इन दिनों स्वच्छता की ओर से आँखें बन्द रखी जाती है और इस कारण बढ़ती गन्दगी से स्वास्थ्य को भारी क्षति पहुँचती है और पिछड़ेपन की निशानी दुर्गन्ध, सड़न की कुरुचि बढ़ती है। घरों की नालियों का पानी गलियों में फैलता और सड़ता है। कुओं के इर्द-गिर्द कीचड़ के लिए यदि सफाई कर्मचारी नियुक्त नहीं किये जा सकते, तो मिल-जुलकर श्रमदान से वह कार्य हो सकता है। आखिर अपने मुँह की मक्खी भी तो अपने आप ही मारनी होगी। जापान में मनुष्य के मल-मूत्र को सुनहरा खाद कहा जाता है और उसके सदुपयोग से खाद बनाकर कृषि उत्पादन बढ़ाया जाता है। पर अपने देश में वह गाँव के इर्द-गिर्द ही बिखरा पड़ा रहता है। इस हेतु सस्ते शौचालय-मूत्रालय बनाये जा सकते हैं और उस आधार पर गन्दगी हटाने, खाद बढ़ाने का दुहरा लाभ मिल सकता है। तालाब गहरे करने और रास्तों की मरम्मत करने का काम भी ऐसा ही है जो इसी कार्यक्रम में सम्मिलित रखा जा सकता है।
यह सभी कार्य ऐसे हैं, जिन्हें प्रज्ञापीठों में चलने वाली बाल संस्कार कक्षाओं के साथ गूँथा रखा जा सकता है और एक साथ उन कई सत्प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन हो सकता है, जिनका प्रज्ञा अभियान के कार्यक्रमों में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है और जिन्हें अगले दिनों अनिवार्य रूप से हाथ में लिया और आगे बढ़ाया जाना है। शिक्षा संवर्धन सर्वोपरि है। उसका शुभारम्भ इस आधार पर करते हुए उभरे हुए उत्साह के आधार पर प्रौढ़ शिक्षा पुस्तकालय एवं बड़ों को अधिक सुयोग्य बनाने वाले अवकाश काल में चलने वाले विद्यालयों का विस्तार हो सकता है। गाँधी जी ने नमक सत्याग्रह से श्रीगणेश करके स्वतन्त्रता संग्राम को करो या मरो स्तर तक पहुँचाया और अन्ततः देश को स्वतन्त्र कराने के उपरान्त दम लिया था। प्रस्तुत बाल संस्कार पाठशाला का श्रीगणेश भी ऐसा ही छोटा किन्तु दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले हो, जिसे नवसृजन का अविच्छिन्न अंग कार्यक्रम समझा जा सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
224. भाषाओं एवं धर्मों का प्रशिक्षण-विद्यालय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पारस्परिक आदान-प्रदान और विचार विनिमय के द्वारा ही मानवी प्रगति संभव हुई हैं और सहकार की गाड़ी चल रही है। इस प्रयोजन में भाषा का प्रयोग होता है। मौखिक वार्तालाप में भी और पत्रिकाओं तथा साहित्य आदि द्वारा भी। इन सभी का संयुक्त स्वरूप भाषा होता है। वाणी और लेखनी के माध्यम से यह अभिव्यक्तियाँ प्रकट होती और एक से अनेकों तक पहुँचती रहती हैं। भाषा न हो तो मनुष्य को भी अन्य प्राणियों की तरह गूँगा-बहरा रहना पड़े। फलतः पिछड़ेपन से किसी भी प्रकार छुटकारा न मिले। जब तक भाषा का आविर्भाव नहीं था तब तक मनुष्य को भी नर-वानर वर्ग में रहना पड़ा।
भाषा एक सीमा है जिसमें मनुष्यों के बीच परस्पर विचार विनिमय चलता है। इस सीमा से बाहर होते ही फिर गूँगे-बहरे जैसी स्थिति बन जाती है। एक व्यक्ति बंगला बोले, दूसरा तेलगू तो वे अपने-अपने ढंग के शब्दोच्चार करते रहने पर भी उनका अर्थ न समझ पाने के कारण विज्ञ, विद्वान होते हुए भी गूँगे-बहरे की स्थिति में रहेंगे और इशारों से जितना काम चल सकेगा उतना चलायेंगे।
यह भाषा सम्बन्धी कठिनाई ज्ञान संवर्धन की दृष्टि से भारी अवरोध उत्पन्न करती है। जो जिस या जिन भाषाओं को जानता है उसी परिधि में रहने वालों के साथ सम्बन्ध रखने, विचार विनिमय करने में समर्थ रहता है। साथ ही उसी भाषा में लिखे या छपे साहित्य का लाभ उठा पाता है। देशों के सीमा विभाजन से भी बड़ी कठिनाई यह है कि भाषा विभाजन के कारण लोग अपने छोटे-छोटे भाषाई क्षेत्रों में कैद रहे और बाहर निकलते ही गूँगे-बहरे बन चले। अन्य देशों में जाने के लिए वीसा मिल जाता है किन्तु भाषाई सीमा बन्धन से बाहर निकल सकने की तो कहीं कोई गुंजाइश है ही नहीं।
जब दुनिया एक थी, सर्वत्र निर्बाध आवागमन की छूट रही होगी। कोई कहीं भी आ-जा सकता होगा, कहीं वास या निर्वाह कर सकता होगा, तब संसार कितना सुखी रहा होगा। इस प्रकार जब संसार भर में एक संस्कृत भाषा बोली और समझी जाती रही होगी, तब भी लोग कितनी राहत, कितनी आत्मीयता अनुभव करते रहे होंगे।
आज विज्ञान ने प्रेस, अख़बार, तार, रेडियो आदि की कितनी ज्ञानवर्धक सुविधाएँ उत्पन्न कर दी हैं किन्तु भाषाई सीमा बंधन के कारण वे सब भी निरर्थक हैं। दो भाषा भिन्नता वाले मूर्धन्य विद्वान भी परस्पर मिलने पर एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान नहीं कर सकते। वक्तृत्व कला जानने पर भी, नितान्त महत्त्व की आवश्यकता पड़ने पर भी वे इशारे भर करने के अतिरिक्त और कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं होते। एक भाषा में छपा ग्रंथ कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, अन्य भाषा वाले के लिए रद्दी के बराबर है। किसी भाषा में प्रकाशित हुआ ज्ञान अपने ही क्षेत्र तक सीमित रहेगा। पड़ोस वाले भी इस विभेद के कारण तब तक कुछ लाभ न उठा सकेंगे, जब तक वह अनुवादित होकर उस भाषा में प्रकाशित न हो। इसमें सैकड़ों वर्ष भी लग सकते हैं। ऐसी दशा में पास पड़ोस में रहने वालों को भी उन प्रतिपादनों का परिचय प्राप्त करने से वंचित ही बने रहना पड़ेगा।
भाषाएँ घटने लगें तो मनुष्य के ज्ञान और सम्पर्क क्षेत्र का उसी अनुपात में विस्तार होने लगेगा। एक विश्वभाषा बन सके तो विश्व परिवार बनने की सुखद संभावनाओं के कार्यान्वयन में फिर कोई बड़ा अवरोध न रहेगा। इन दिनों सीमा बंधन और विलगाव का प्रचलन सर्वत्र अनेकानेक संकट एवं विग्रह खड़े कर रहा है। विभेद की सभी दीवारें गिरनी चाहिए। विश्वराष्ट्र, विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति और विश्वव्यवस्था में एकता एकरूपता होने की बात सोचनी चाहिए और उस दिशा में जितना कुछ कदम बढ़ सकना संभव हो, उतना प्रयास वर्तमान परिस्थितियों में भी करना चाहिए।
अपने देश में संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ १५ हैं। इसके अतिरिक्त उपभाषाएँ, क्षेत्रीय बोलियाँ इतनी अधिक हैं कि उनके कारण पारस्परिक विचार विनिमय और आदान-प्रदान में भारी अड़चन उत्पन्न होती है। इस भाषायी विलगाव ने एक प्रकार की साम्प्रदायिकता का रूप धारण कर लिया है। विलगाव जन्य कलह ने विषवृक्ष के रूप में पनपना आरम्भ कर दिया है। विवाह शादियाँ अपने-अपने भाषाई क्षेत्रों में होती है। फलतः हमारी विशालता, सामाजिकता, राष्ट्रीयता सिकुड़-सिकुड़ कर छोटे-छोटे क्षेत्रों में सीमाबद्ध होती चली जा रही है। विभेदों को एकता के सूत्र में बाँधना हो तो हमें भाषायी एकता की दिशा में सोचना चाहिए और जो बन पड़े उसे अविलम्ब करने के लिए प्रयत्नरत होना चाहिए।
राष्ट्रभाषा हिन्दी घोषित कर दी गई है, पर उस निर्धारण की मान्यता तभी मिलेगी जब सभी भारतीय उसे सीखें, समझें और अपनायें। इसके लिए सभी भाषायी क्षेत्रों के विज्ञजनों को चाहिए कि वे आरम्भिक बाल शिक्षा मातृभाषा में सम्पन्न करने के उपरान्त ऊँची शिक्षा भी राष्ट्रभाषा में ही उपलब्ध करने की तैयारी करें। मातृभाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा को भी रुझान, उत्साह और सम्मान के साथ चलते रहना आवश्यक है।
इस सन्दर्भ में हिन्दी भाषियों की भी एक विशेष जिम्मेदारी है कि वे अपनी ओर से कदम बढ़ायें और देश की प्रचलित भाषाओं में से जितना अधिक सम्भव हो सके उतना सीखें। विशेषतया अपने प्रान्त में तथा लगे हुए प्रान्त में बोली जाने वाली भाषाओं को सीखने का तो प्रयत्न करें ही। इससे उनका सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत होगा और आदान-प्रदान एवं आत्मभाव का दायरा बढ़ेगा। अन्य भाषा-भाषियों से जिस प्रकार हिन्दी सीखने के लिए कहा जाता है, उसी प्रकार यह अनुरोध एवं प्रयत्न भी चलना चाहिए कि हिन्दी भाषी भी देश की अधिकाधिक भाषा सीखने का प्रयत्न करें। दोनों ओर से प्रयत्न चलने पर दूरी कम करने में अधिक सहायता मिलेगी।
भाषायी क्षेत्र में प्रवेश करने की तैयारी उन्हें तो करनी ही चाहिए जो नवसृजन का, नैतिक सांस्कृतिक पुनरुत्थान का स्वप्न साकार करने में प्रयत्नरत हैं। प्रज्ञा अभियान का शुभारंभ हिन्दी भाषी क्षेत्रों से हिन्दू धर्मावलम्बियों से हुआ है। कारण कि आन्दोलन के संचालकों का निजी ज्ञान हिन्दी प्रधान है और उनका सम्पर्क प्रधानतया हिन्दू धर्मावलम्बियों के साथ रहा है। सुविधा एवं लाचारी की दृष्टि से श्री गणेश छोटे रूप में या छोटे क्षेत्र में बन पड़ा इसमें हर्ज नहीं, पर अब उसका विस्तार तो होना ही चाहिए। अन्यथा कूप-मण्डूक की तरह अपनी गतिविधियाँ उतने ही क्षेत्र में सीमित होकर रह जायेंगी। जबकि आवश्यकता व्यापक क्षेत्र में प्रवेश करने की है। युग चेतना का आलोक वितरण यों विश्व के समस्त भाषायी क्षेत्रों में होना चाहिए, पर आरम्भ में उसका विस्तार अपने देश में बोली जाने वाली भाषाओं में तो चलना ही चाहिए।
ईसाई मिशनों ने समस्त संसार की प्रायः ६०० भाषाओं में बाइबिल तथा बड़े ग्रन्थों तथा छोटी पुस्तिकाओं के प्रचार साहित्य का प्रकाशन किया है। यही कारण है कि उस धर्म का परिचय तथा प्रभाव संसार के कोने-कोने में पहुँचा है और एक सहस्राब्दी के भीतर संसार भर में भेजे जाते हैं। जिन्हें जिस देश में जाना होता है वहाँ की भाषा पहले सीखनी पड़ती है।
आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म का प्रसार समस्त एशिया में हुआ था। इससे बाहर भी योरोप अफ्रीका में वह आलोक पहुँचा था। इसके लिए नालन्दा विश्व विद्यालय में भारतीय भाषाएँ तथा संस्कृतियाँ पढ़ाई जाती थी। इस योग्यता को अर्जित करने के उपरान्त परिव्राजक प्रचारकों को उन-उन भाषाई क्षेत्रों में भेजा जाता था। देश से बाहर की भाषाओं को पढ़ाने का प्रबन्ध तक्षशिला विश्व विद्यालय में था। वहाँ एशिया, योरोप, अफ्रीका की भाषाएँ तथा संस्कृतियाँ पढ़ाई जाती थी। इस अध्ययन के उपरान्त ही प्रचारक उन देशों में जाते थे।
इस प्रकार का प्रबन्ध किये बिना किसी मिशन को देश-देशान्तरों में व्यापक नहीं बनाया जा सकता है। प्रज्ञा अभियान को देश व्यापी, विश्वव्यापी बनाना है उसे भी देश की सभी प्रमुख भाषाओं का ज्ञान कराने की प्रशिक्षण व्यवस्था बनानी होगी। अन्य देशों में यह प्रकाश पहुँचाना है तो उन देशों की भाषाएँ भी पढ़ानी पड़ेंगी। अन्यथा वहाँ के निवासियों से सम्पर्क साधना, आदान-प्रदान का उपक्रम बनाना सम्भव ही न हो सकेगा।
इस दिशा में कदम बढ़ाया गया है। शान्तिकुञ्ज में भाषायी विद्यालय की नींव रखी गई है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों से लगी हुई भाषाएँ सबसे पहले ली गई हैं। बंगला, उड़िया, गुजराती, मराठी और पंजाबी यह पाँच भाषाएँ हिन्दी भाषी क्षेत्रों से मिलती हैं। इनके अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध किया गया है। यह पहला चरण पूरा होते ही दक्षिण भारत की चार भाषाएँ तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ को भी इस प्रशिक्षण में सम्मिलित किया जायेगा। इसके उपरान्त असमिया आदि भाषाओं का नम्बर आता है। उर्दू की लिपि भर भिन्न है। भाषा तो उसकी भी हिन्दी ही है।
इन भाषाओं में प्रज्ञा साहित्य तथा युग संगीत अनुवादित करके प्रकाशित करने की बड़ी योजना है जो आँशिक रूप से कई भारतीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी में आरम्भ भी हो गई है। साधन जुटते ही इस प्रयास को तेजी से आगे बढ़ाया जायेगा।
स्पष्ट है कि प्रज्ञा अभियान की विचार क्रान्ति योजना को हिन्दू धर्म से आरम्भ तो किया गया है, पर इसी एक वर्ग तक उसे सीमित नहीं रखा जा सकता। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की योजना विश्वव्यापी है। उसे संसार भर के सभी देशों और धर्मों तक पहुँचाया जाना है।
सब धर्मों को एक मंच पर एकत्रित करने और न्यूनतम कार्यक्रम बनाकर साथ-साथ कदम उठाने की योजना का अनेकों ने प्रयोग परीक्षण किया है, वह सफल न हो सकी। अन्य धर्मों को मिटाकर एकमात्र अपना ही धर्म रखने की महत्त्वाकांक्षा भी बुरी तरह असफल हो गई। दमन और प्रलोभन भी वह कार्य न कर सके इसका इतिहास साक्षी है। अपना प्रयास यह है कि नवयुग अवतरण के समर्थक अपने-अपने समुदाय में काम करें। अभ्यस्त धर्म के कथा पुराणों, शास्त्रों एवं प्रतिपादनों से वे तत्व ढूँढ़े जो एकता, समता और शुचिता की ओर लोक मानस को धकेलते हों। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के गुण, कर्म, स्वभाव उभारते हों। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता और आत्मीयता की अभिवृद्धि करते हों। ऐसे प्रतिपादनों से हर धर्म सम्प्रदाय भरा पड़ा है। ध्यान उन्हीं पर देना है, खोजना उन्हीं को है, प्रचार-प्रसार उन्हीं का करना है यह कार्य सभी धर्म-सम्प्रदाय के सृजन शिल्पी अपने प्रभाव संपर्क वाले क्षेत्र में अपने शास्त्र पुराणों और परम्परा प्रचलनों के साथ संगति बिठाते हुए भली प्रकार करते रह सकते हैं।
इस हेतु प्रज्ञा पुराण का एक खण्ड भी प्रकाशित होने जा रहा है। साहित्य भी इस प्रयोजन के लिए छापा जा रहा है ताकि उस आधार पर विभिन्न धर्मावलम्बी विचारशील अपने लोगों के बीच इस स्तर का धर्म प्रचार आरम्भ कर सकें, जिसके सहारे एकता-आत्मीयता को लक्ष्य मानकर सभी अपनी-अपनी पगडंडियों का आश्रय लेते हुए चल पड़े। उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ मनुष्य मात्र को एक परिवार के सदस्य बनकर रहने का सुनिश्चित निर्धारण करना है, एक-दूसरे के दुःख, दर्द में साथी सहयोगी बनकर रहना है। हिलमिल कर रहना और मिल-बाँट कर खाना है। प्रज्ञायुग में विश्व परिवार के सिद्धान्त को अपनाया जाना है। विश्वराष्ट्र, विश्वभाषा, विश्वधर्म एवं विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत सभी को विश्व नागरिक बनकर रहना है।
प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत अभी-अभी दो स्थापनाएँ की गई हैं। एक भाषा विद्यालय, दूसरा धर्म विद्यालय। भाषा विद्यालय में अंग्रेजी सहित अन्य भारतीय भाषाओं का प्रशिक्षण आरम्भ कर दिया गया है। ताकि इस प्रशिक्षण को प्राप्त कर देश के किसी भाग में मिशन के प्रचारक पहुँच सकें और नव चेतना का संचार कर सकें।
धर्म विद्यालय में भारत में प्रचलित प्रायः सभी धर्मों में से ऐसे तत्व खोजे और पढ़ाए जाते रहेंगे जिनमें उनके अनुयायी अपनी मान्यताओं को अपनाए रहकर भी मानवी सद्भावना और एकता की दिशा में सोचने एवं बढ़ने लगें। इस स्तर का साहित्य प्रकाशित करने की योजना भी इन्हीं दिनों हाथ में ली जा रही है। इस विद्यालय में किसी भी धर्म के प्रशिक्षार्थी प्रवेश पा सकेंगे। अपने धर्म के सद्भाव के संवर्धक तत्वों को अधिक अच्छी तरह समझा सकेंगे और अपने लोगों के बीच अपने ढंग से प्रचार कार्य करते हुए उन्हें एकात्मता के पथ पर अग्रसर कर सकेंगे।
भाषा विद्यालय एवं धर्म विद्यालय का कार्यक्रम शान्तिकुञ्ज में चल पड़ा है। शिक्षण क्रम आरम्भ हो गया है। अब क्रमशः उसका विस्तार होता चला जायेगा। इस प्रयास में रुचि लेने वाले परामर्श लेते और सम्पर्क साधते रहें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
225. घरेलू शाक वाटिका-शोभा, स्वास्थ्य, सृजन एवं बचत
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
निरोग काया जिन गिने चुने नियमों पर निर्भर है, उनके विषय में बहुसंख्य व्यक्तियों को अपरिचित ही देखा जाता है। स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी यह अज्ञान आहार के विषय में अधिक है। यही कारण है कि हमारे राष्ट्र में कुपोषण सम्बन्धी रोग अधिक होते हैं। इससे अगणित बच्चे व बड़े अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो दूसरी ओर जीवनी शक्ति के गड़बड़ा जाने के कारण रोगों का बाहुल्य भी पाया जाता है।
बहुत कम यह जानते हैं कि आहार की पूर्ति कुछ ऐसे साधनों से भी हो सकती है जो सर्वसुलभ हैं अथवा न्यूनतम श्रम से जिन्हें उपजाया जा सकता है। शाक-सब्जियाँ हमारे दैनन्दिन प्रयोग में आती हैं ।। वे लागत की दृष्टि से अन्न की तुलना में सस्ती भी हैं एवं उपलब्ध स्थान पर घर, आँगन, छत पर थोड़े से साधनों से ही उगाई जा सकती हैं। पोषक तत्वों की इनमें बहुलता होती हैं एवं विविधता के कारण वे रुचिकर भी होते हैं। भारत जैसे विकासशील मूलतः शाकाहारी कृषि प्रधान राष्ट्र के लिए जहाँ हरीतिमा को देवोपम मानकर उनकी अभ्यर्थना की जाती है, इनका महत्त्व और भी आँका जाना चाहिए। अन्य देशों में कुपोषण, विलास के साधनों के बढ़ते चले जाने से आहार की अनियमितता, विकृति एवं अधिक मात्रा के कारण है, तो हमारे देश में आहार के प्रमुख घटकों की अनुपलब्धि के कारण।
खाद्यान्न-दालें कभी भी सब्जी का विकल्प नहीं बन सकते। इनका उत्पादन एवं आयात भी एक सीमा तक हो सकता है। फिर उनसे सभी प्रमुख घटकों की पूर्ति कहाँ हो पाती हैं जो जीवनी शक्ति वर्धन हेतु उत्तरदायी माने जाते हैं। संतुलित पोषक आहार तो हरी सब्जियाँ एवं अन्न के परस्पर संतुलन से बनता है। हरी सब्जियों की उपलब्धि यदि प्रचुर मात्रा में हो तो वे अन्न का विकल्प भी बन सकती हैं। कम से कम अन्न के उपभोग की मात्रा इससे घट सकती है। इस प्रयोजन हेतु एक ही मार्ग है, घर-घर में शाक वाटिका प्रचलन। प्रज्ञा अभियान ने अपनी दस सूत्री रचनात्मक योजना में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है एवं पौधशाला नर्सरी, बीज भण्डार राष्ट्र में स्थान-स्थान पर स्थापित किये जाने का एक आन्दोलन चलाया है।
पोषण समुचित रूप से होता रहे, संतुलित आहार का व्यक्ति स्वयं चयन कर सके, इसके लिए अनिवार्य है कि जनमानस में संव्याप्त वे भ्रान्तियाँ मिटें जिनके कारण ग्राह्य आहार भी तल-भून कर पोषक तत्व रहित कर दिया जाता है। हरी वनस्पतियाँ कच्चे सलाद के रूप में अथवा उबालकर साधारण से मसालों के सम्मिश्रण से अपने गुण भी नहीं खोती। स्वाभाविक रूप में शरीर में पहुँचकर बलवर्द्धन ही करती है। बासी गली काफी दिनों की रखी शीतगृह में सहेजी गयी सब्जियाँ बाहर से भले ही ताजी नजर आएँ, वीर्य व प्रभाव की दृष्टि से हीन होती हैं। उनसे वह उद्देश्य पूरा नहीं होता जो सुपोषण के सिद्धान्तों में निहित है। अच्छा यही है कि सब्जियाँ अपने घर, आँगन, छत, छप्पर जो भी स्थान उपलब्ध हो, वहाँ लगा ली जाय। यहाँ उनकी समुचित देख−भाल होती रह सकती है, थोड़े से परिश्रम से वर्ष भर घर के सदस्यों के लिये जितनी मात्रा में पैदा हो सकती हैं तथा ‘बागवानी-एक श्रेष्ठ व्यायाम’ की उक्ति भी सार्थक होती रह सकती है। कन्द लकड़ी के बक्सों में, क्षुप छोटी पॉलीथीन की थैलियों में तथा बेलें घर की बाड़ या छप्पर छत पर चढ़ाकर पैदा किए जा सकते हैं। न्यूनतम स्थान हो तो भी काफी कुछ बागवानी उसमें हो सकती हैं।
अपवाद वश कहीं स्थान उपलब्ध न हो तो वहाँ सहकारी स्तर पर चार-पाँच परिवार मिलकर साझे की जमीन में शाकवाटिका लगा सकते हैं। सम्मिलित श्रम में जो आनन्द है वह अकेले में नहीं। पारस्परिक सहकार तो इससे बढ़ता ही है, उत्पादन भी इस स्तर का हो सकता है कि न केवल उनकी पूर्ति होती रहे-खाद, निराई-गुड़ाई के उपकरण हेतु अर्थ उपलब्धि भी होती रहे।
महात्मा गाँधी ने खादी एवं स्वदेशी वस्त्र आन्दोलन द्वारा एक जिहाद छेड़ा था, जिसका मूल उद्देश्य था-राष्ट्र को स्वावलम्बी बनाना। न्यूनतम कार्यक्रम बीज रूप में विकसित होकर कितना बड़ा स्वरूप उसका बन गया यह सभी जानते हैं। आज की विश्वव्यापी खाद्य समस्या के परिप्रेक्ष्य में हमें इस न्यूनतम कार्यक्रम साग भाजी उगाओ-स्वास्थ्य बनाओ, अन्न बचाओ-जीविका कमाओ को आन्दोलन का स्वरूप देना होगा। इसकी फलश्रुतियाँ अपरिमित हैं, राष्ट्रीय विकास एवं स्वावलम्बन की गरिमा जैसे पक्ष तो साथ जुड़े ही हैं।
शुभारम्भ हेतु एक या डेढ़ रुपये के बीज, थोड़ी सी जमीन एवं सर्व सुलभ घरेलू खाद के प्रयोग से इस आन्दोलन को गति दी जा सकती है। पानी की सिंचाई के बड़े साधनों की भी आवश्यकता नहीं। इतने छोटे स्थान के लिये तो बाल्टी या फुहारें से अल्प समय में ही सिंचाई की जा सकती है। इस प्रकार सब्जी की खेती का लाभ एक या डेढ़ माह के अन्दर ही मिलने लगता है।
उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए प्राकृतिक खाद ही सर्वोत्तम है। पत्तियाँ, पशुओं का गोबर-पेशाब जमीन में दबा देने से सड़कर खाद रूप में बदल जाता है। भूमि के स्वाभाविक रूप में ही यह घुल-मिल जाता है, इस प्रकार प्राप्त फसल निश्चित ही गुणवत्ता प्रधान होती है। सौ वर्ग फुट भूमि के लिए पाँच टोकरी खाद पर्याप्त रहती है। बीजों के लिए यदि एक केन्द्रीय भण्डार हो तो सर्वोत्तम है, यदि ऐसा न हो सके तो बीज स्वयं ही तैयार करना चाहिए। स्वस्थ, रोग रहित पौधों से प्राप्त बीज सर्वश्रेष्ठ गुण वाले होते हैं। बीजों को नमी लगने से वे खराब हो जाते हैं। इसी कारण उन्हें नमी मुक्त काँच की शीशियों में बन्द कर बेकेलाइट ढक्कन से बन्द कर देना चाहिए। विक्रेता के यहाँ से खरीदना पड़े तो दीखने में साफ, पूरे आकार के, घुन से मुक्त बीज ही लेना चाहिए।
बुवाई पौध द्वारा भी हो सकती है एवं बीज को सीधे भूमि में बोकर भी। अंकुरित बीज एक साथ पॉलीथीन की थैलियों में पौध के रूप में तैयार किए जाते हैं। ऐसी पौध एक साथ एक स्थान पर तैयार कर वितरित की जा सके तो उत्तम है। प्रज्ञा अभियान द्वारा शान्तिकुञ्ज में ऐसी ही व्यवस्था की गयी है। यदि बीज ही लगाने पड़े तो लकड़ी का बक्सा, गमले, क्यारी में रखी मिट्टी की अच्छी तरह गुड़ाई करके उसमें पहले खाद मिला लेनी चाहिए। आँगन में उपलब्ध जमीन को क्यारियों में विभाजित कर मिट्टी समतल कर बीज छोड़ देना चाहिए। बीजों के ऊपर एक बारीक तह खाद की देकर फुहारें से पानी धीमे-धीमे देना चाहिए। बीजों के बीच में क्षुप के बढ़ने पर फैलने योग्य स्थान अवश्य रखना चाहिए। यह सावधानी जरूरी है कि वर्षा अथवा सिंचाई से एकत्रित पानी के निकास की समुचित व्यवस्था हो।
उपकरण जो किसी भी घरेलू शाक वाटिका के लिए अनिवार्य माने जाते हैं, वे हैं-फावड़ा, खुरपी, कुदाली, जमीन को समतल करने के लिये करहा, कैंची, चाकू, हजारा एवं बाल्टी टोकनी जैसी रोजमर्रा के प्रयोग की वस्तुएँ।
जनवरी माह में लगायी जा सकने योग्य सब्जियाँ हैं-गाजर, मूली, शलजम, गाँठगोभी एवं चुकन्दर पहले पखवाड़े में तथा ककड़ी, लौकी, मिर्च, तोरई, खीरा, परवल, बैंगन दूसरे पखवाड़े में। फरवरी में पहले पखवाड़े में वे सब सब्जियाँ लगाई जा सकती हैं, जिनका उल्लेख जनवरी के दूसरे पखवाड़े के लिये किया गया। फरवरी के दूसरे पखवाड़े एवं मार्च के पूरे माह में करेला, टिन्डा, भिण्डी, काशीफल, बैंगन, पोदीना जैसी सब्जियाँ लगाई जा सकती हैं। अप्रैल के पहले पखवाड़े में भिण्डी, खीरा, ककड़ी, पालक, ग्वारफली, लौकी तथा दूसरे पखवाड़े में चौलाई के साथ पहले वर्णित सभी सब्जियाँ लगाई जा सकती हैं। मई के पूरे माह में मूली, खीरा, भिण्डी, पालक, चौलाई लगाई जा सकती हैं। जून में भिण्डी, करेला, सेम व अरबी के अलावा टमाटर, काशीफल, फूलगोभी पूरे माह भर लगाए जा सकते हैं।
जुलाई का प्रथम पखवाड़ा भिण्डी, फूलगोभी, सेम, मूली, ग्वारफली तथा द्वितीय पखवाड़ा शलजम, गाँठगोभी, मिर्च, टमाटर के लिए उपयुक्त हैं। वर्षा लगभग हर स्थान पर इस माह में आरम्भ हो जाती है अतः इनके रख-रखाव, वृद्धि हेतु कुछ अधिक नहीं करना पड़ता। अगस्त माह में फूलगोभी, गाँठगोभी, भिण्डी, बैंगन, सेम, टमाटर, सलाद, मिर्च आसानी से पैदा किये जा सकते हैं। जबकि सितम्बर माह कन्द यथा आलू, प्याज, लहसुन एवं टमाटर, मिर्च, सलाद के लिये सही माना जाता है। इसी माह के दूसरे पखवाड़े में परवल, मटर, टिन्डा भी लगाए जा सकते हैं। अक्टूबर में उपरोक्त सब्जियों के अतिरिक्त शलजम, गाजर, चुकन्दर, शिमला मिर्च, शकरकन्द भी लगायी जा सकती है। नवम्बर का माह शीत के आगमन का समय है। इसमें गाजर, मूली के अतिरिक्त सलाद, मटर, सेम मुख्य सब्जियाँ हैं जिनकी बुवाई की जाती है। दिसम्बर में सेम, लौकी, तोरई, पोदीना, करेला प्रथम पखवाड़े में तथा तोरई, शकरकन्द, चुकन्दर, सलाद, टमाटर दूसरे पखवाड़े में लगाये जाने वाली सब्जियाँ है। यह एक मोटा सिद्धान्त हुआ। बुवाई का समय एक सप्ताह इधर-उधर भी हो सकता है। लेकिन बीज व पौध लगाते समय इन समय विशेषों का ध्यान रखना जरूरी है। इन सभी में बीजों के बीच में से ७ इंच का तथा कतारों के बीच १२ से १५ इंच का अन्तर रखना ठीक है।
काशीफल, लौकी, परवल, तोरई फलवाली तथा सेम ऐसी फली वाली तरकारियाँ है जिन्हें बेल के रूप मे छप्पर पर छाया-चढ़ाया जा सकता है। बरामदे में, पोर्च में, खम्भों के सहारे भी ये चढ़ जाती हैं। मटर, ग्वार, मिर्च, टमाटर, भिण्डी, बैंगन, करेला, टिन्डा, खीरा ऐसी तरकारियाँ है जिन्हें सीमित स्थान पर लकड़ी के बक्सों में पॉलीथीन के बैगों में रखकर छत पर अथवा आँगन में लगाया जा सकता है। यो तो मूली, गाजर, शलजम, चुकन्दर, सलाद, अदरक, लहसुन भी लगाए जा सकते हैं, पर इन्हें आलू, अरबी, गाँठगोभी व पत्तागोभी की तरह क्यारियों में लगाया जाना ही उपयुक्त माना जाता है। जो भी सब्जी अधिक तादाद में लगानी हो, स्थान उपलब्ध हो तथा कन्द प्रधान सब्जियों को प्रधानता देनी हो तो क्यारियाँ बनाकर बीच में उपयुक्त जगह छोड़ते चलना ही ठीक रहता है।
कुछ बीज कड़े होते हैं और जमने में अधिक समय लेते हैं। अतः इन्हें पहले पानी में भिगो लेना चाहिए। बीजों को कुछ देर बाद निकाल कर सतह से चौथाई या आधा इंच नीचे रखकर ऊपर से मिट्टी भुरभुरा दें। हल्का सा पुआल बिछाकर आवश्यकतानुसार थोड़ा पानी छिड़क दें। पौधे जैसे-जैसे अंकुरित होने लगे पुआल को धीरे-धीरे हटा लेना चाहिए। पानी फुहारें से देना ही ठीक है। छोटे-छोटे गमलों में इन पौधों को ६-७ इंच लम्बे होने व जड़ें मोटी हो जाने पर स्थानान्तरित किया जा सकता है। लगाते ही पानी दे दिया जाय।
आँगन में पर्याप्त स्थान छोटे खेत की आकृति में उपलब्ध हो तो शाक-भाजी की फसल एक बार ही खेतों में बोकर उगाई जाती है। जुताई-बुवाई खाद देने का ढंग ठीक वैसा ही है जैसा कि बड़े खेतों में किया जाता है। निराई-गुड़ाई समय-समय पर होती रहे इसका ध्यान रखना जरूरी है। जो सब्जियाँ रबी की होती है उनमें पानी की आवश्यकता पड़ सकती है। खरीफ की फसलों को सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है।
विभिन्न प्रकार की शाक सब्जियों में दैनन्दिन प्रयोग के लिये वर्ष भर कोई न कोई ऐसी तरकारी उपलब्ध हो सकती है, जिससे पोषक आहार की पूर्ति भली प्रकार होती रहे। स्टार्च, विटामिन्स की प्रधानता की दृष्टि से आलू, शलजम, चुकन्दर, गाजर, काशीफल भली प्रकार अपनी भूमिका निभा सकते हैं। पाचन संस्थान की दृष्टि से मूली, सलाद, पालक, चौलाई, बथुआ बड़े उपयुक्त ठहरते हैं। शकरकन्दी भारत वर्ष की मुख्य वनस्पति है, जो अन्न की कमी पूरी करती है। इसे ऋषि अन्न माना जाता है। इसके आटे से पकवान बनते हैं व गरीब जन समुदाय इसे भून कर बड़े चाव से खाता है।
अदरक, धनिया, प्याज, लहसुन, मिर्च, चटनी की जरूरत पूरी करते हैं। आहार को संतुलित बनाने के लिये इससे अधिक स्वादिष्ट, सस्ता, सुपाच्य सम्मिश्रण और हो भी क्या सकता है? अदरक क्षुधा वर्धक होने के साथ पाचक रसों को उत्तेजित करने वाली उपयुक्त औषधि भी है। सुण्ठी इसी को सुखाकर बनाई जाती है जो मसालों व वातरोगों में काम आती है।
टमाटर हर मौसम में पैदा होने वाला समग्र आहार है जो विटामिन्स से भरपूर है एवं सर्वसुलभ है। वैज्ञानिक इसके गुण गाते हुए नहीं थकते। पुष्टिवर्द्धक होने के साथ ही यह सुस्वाद, सुपाच्य एवं एक औषधि भी है। उसके अलावा, मटर, पत्तागोभी, सेम, करौंदा, चने की भाजी, मेथी, सोयाबीन सभी गुणों की दृष्टि से भरी पूरी है।
इन सभी की महत्ता को समझा जा सके तो कोई कारण नहीं कि पोषण की समस्या से जूझा न जा सके। बागवानी को नियमित व्यायाम रूप में अपनाया जाता रहे एवं रखरखाव के तरीकों की मामूली सी जानकारी में रुचि लेकर हरीतिमा संवर्धन के इस साग-वाटिका आन्दोलन को चलाया जा सके तो अन्न का विकल्प साग बनाया जा सकता है, रोगों में नष्ट होने वाली धन राशि बचायी जा सकती है, कई घण्टों के मानव श्रम की हानि को रोका जा सकता है। शाक वाटिका से न केवल शोभा बढ़ती है, सृजन प्रक्रिया को बल मिलता है वरन् बचत भी होती है एवं ब्याज में स्वास्थ्य अलग से अनुदान रूप में मिलता है ।।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
226. हिमालय की ऋषि परम्परा का अभिनव संस्करण शान्तिकुञ्ज
--पं. श्रीराम शर्मा
आचार्य
संसार की सुव्यवस्था बनाये रहने और प्रगति प्रेरणा देते रहने का काम ऋषिकल्प आत्माओं का है। वे समय-समय पर सामयिक समस्याओं का समाधान करते और कराते हैं। मनुष्यों की दुर्बल चेतना प्रायः भटकाव की ओर चल पड़ती है। अपने स्वरूप, उद्देश्य और कर्तव्य को भुलाकर वह करने लगती है, जो उसके लिए हर दृष्टि से अयोग्य है। इस अवांछनीयता का संशोधन और परिष्कार कर सकने की सामर्थ्य अर्जित करने के लिए ऋषि वर्ग के लोग अपनी पवित्रता और प्रखरता बनाये रखने, लोक प्रवाह को मोड़ने तथा व्यक्तित्वों को निखारने, उभारने में सफल होते थे। बढ़ती हुई आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए अभिनव अनुष्ठान करते रहते थे।
इन प्रयासों में संलग्न रहने के लिए उन्हें हिमालय का वातावरण सर्वोत्तम लगा। अधोगामी प्रवृत्तियाँ प्रायः पृथ्वी की नीची सतह पर रहती हैं। इसलिए उस क्षेत्र की गणना अधोलोक में की जाती है। ऊँचे स्थान न केवल ऊँचाई की दृष्टि से श्रेष्ठ वातावरण वाले होते हैं, वरन् उसमें आदर्शवादी उत्कृष्टता भी रहती है। हिमालय का हृदय कहे जाने वाले उत्तराखण्ड के साथ वातावरण की सात्विकता का विशेष महत्त्व है। नागपुरी संतरे, भुसावली केले, मलीहाबादी आमों एवं लखनऊ के अमरूदों की अपनी विशेषता उस स्थान विशेष के कारण है। मलयागिरि चन्दन और किसी स्थान पर इतनी सुगन्धि वाला एवं विशिष्ट उत्पन्न नहीं किया जा सकता। उत्तराखण्ड की अपनी विशेषता उस दिव्य वातावरण के कारण है, जो हमेशा से दैवी प्रेरणा का उद्गम केन्द्र रहा है। ब्रह्म कमल, देवकन्द, संजीवनी बूटी और अन्य दिव्य औषधियाँ और कहीं पायी नहीं जाती। इसका कारण इस क्षेत्र का विशेष वातावरण है। अवतारों, ऋषियों की कार्यस्थली होने तथा सूक्ष्म जगत के सतत आत्मिक विभूतियों से स्पन्दित होते रहने के कारण इस क्षेत्र का अपना महत्त्व है।
हिमालय के साथ भूतकालीन इतिहास भी जुड़ा हुआ है। चिर अतीत में देवताओं का निवास यहीं था और ऐतिहासिक स्वर्ग इसी क्षेत्र में है। ऋषि परम्परा में तप साधना से लेकर लोक कल्याण की अनेकानेक योजना बनाने तक का कार्य यहीं होता था। ऋषियों के आश्रम और प्रयोगशालाएँ इसी क्षेत्र में थी। अलग होते हुए भी वे इतनी दूरी पर थी कि एक दूसरे से परामर्श करने में आवागमन सम्बन्धी अत्यधिक कठिनाई अनुभव न करें।
उत्तराखण्ड को हिमालय का हृदय माना जाता है। इस क्षेत्र को देवात्मा भी कहते हैं। सर्व साधारण को इस क्षेत्र के सम्पर्क में आकर अद्भुत प्रेरणाओं का लाभ उठाने के लिए कई तीर्थ देवालय भी यहाँ बने हैं, पर मुख्यतया इन्हीं के इर्द-गिर्द गुफाओं, सघन वनों की झोपड़ियों में ऋषियों के स्थान भी थे, जहाँ वे वैज्ञानिक आविष्कारों की तरह अपने क्रियाकलाप निर्विघ्न रूप से चलाते रहते थे। इस प्रकार ऋषि परम्परा न केवल भारत भूमि का वरन् समस्त संसार का श्रेय साधन करती थी। निराकार भगवान के साकार प्रतिनिधि की, सन्देश वाहक की भूमिका प्रायः इन्हीं द्वारा सम्पन्न होती थी। जन कल्याण के सामयिक निर्धारण यहीं होते थे। और उन्हें परिव्राजक पुरोहितों द्वारा विश्वव्यापी बनाने की योजना भी इसी क्षेत्र में बनती थी।
समय की विडम्बना ने ऋषि परम्परा को एक प्रकार से अस्त-व्यस्त कर दिया। साधु बाबा जहाँ-तहाँ गाँजा फूँकने और भ्रम जंजालों में सर्व साधारण को फँसाकर इनका शोषण करते देखे जाते हैं। ऋषि परम्परा की अस्त-व्यस्तता का ही दुष्परिणाम है कि भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी नहीं रही और उसकी गरिमा मणिविहीन सर्प की तरह निस्तेज हो रही है। मध्यकाल का दुष्प्रवृत्तियों से भरा हुआ अन्धकार युग इसीलिए आया कि सूर्य, चन्द्र जैसी चमकने वाली ऋषि परम्परा पर ग्रहण लग गया और हमारी गतिविधियाँ उस स्तर की न रहीं, जिन्हें देखकर विश्व वसुधा को, भारत को जगद्गुरु मानना पड़ता और यहाँ के निवासी तैंतीस कोटि देवता माने जाते।
महर्षि व्यास ने धर्म शास्त्रों की, पुराणों की रचना बद्रीनाथ से आगे वसोर्धारा स्थान पर की थी। शरीर और मन की दिव्य शक्तियों को उभारने की योग साधना पातञ्जलि ने रुद्रप्रयाग स्थान पर की थी। याज्ञवल्क्य ने यज्ञ विधान का आविष्कार त्रियुगी नारायण क्षेत्र में किया था। विश्वामित्र ने आद्य शक्ति गायत्री का साक्षात्कार सप्तसरोवर स्थान में किया था। भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतारने की साधना गंगोत्री में भागीरथ शिला पर बैठकर की थी। चरक ने वनौषधियों का अन्वेषण करके आयुर्वेद का आविष्कार केदारनाथ में किया था। जमदग्नि उत्तरकाशी में ब्रह्म विद्या का आरण्यक चलाते थे। नारद ने शब्द ब्रह्म नाद का प्रत्यक्षीकरण गुप्तकाशी में किया था और दिव्य संगीत के माध्यम से विश्व के कोने-कोने में भक्ति भाव जगाया था। वे निरन्तर प्रव्रज्यारत रहे थे। जब अज्ञान और अनीति से वातावरण विषाक्त हो गया, तो सशक्त मूर्धन्यों का ब्रेन वाशिंग सिर उतार लेने जैसा पराक्रम परशुराम ने यमुनोत्री में तप साधना करके और शिवजी से अमोघ कुठार प्राप्त करके सम्पन्न किया था। वशिष्ठ जी ने प्रजाधर्म और राजधर्म का स्वरूप निर्धारित करके दोनों का संतुलन बिठाया था। उनका कार्यक्षेत्र देवप्रयाग के समीपवर्ती आश्रम में रहा। उन्हीं के पास ढलती आयु में चारों भाइयों समेत राम वानप्रस्थ शिक्षा प्राप्त करने गये थे। आद्य शंकराचार्य ने अपनी तपश्चर्या और साहित्य साधना ज्योतिर्मठ में की थी। पिप्पलाद ने अन्न से मन का निर्माण करने का रहस्य लक्ष्मण झूला के निकट रहकर प्राप्त किये थे। सूत−शौनक की पुराण गाथा का उद्गम ऋषिकेश माना जाता है। भरत की तपोभूमि भी वहीं है। हर की पौड़ी हरिद्वार में राजा हर्षवर्धन ने अपना सर्वस्व दान करके तक्षशिला विश्वविद्यालय का निर्माण एवं संचालन का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाया था। महर्षि कणाद ने आत्मिक कायाकल्प की विद्या सप्त सरोवर पर वहाँ आविष्कृत की थी, जहाँ आजकल ब्रह्मवर्चस है।
बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन की, आर्य भट्ट के ज्योतिर्विज्ञान के आविष्कार की, नागार्जुन की रासायनिक प्रयोगशाला हिमालय क्षेत्र में ही थी। च्यवन की अद्भुत तपश्चर्या का क्षेत्र यही है। इसके अतिरिक्त अति पुरातन काल के तथा उसके पश्चात् वर्तमान काल के सभी उच्चस्तरीय ऋषि मुनि हिमालय क्षेत्र में रहकर दिव्य प्रेरणाएँ प्राप्त करते और प्रचण्ड आत्मबल अर्जित करते रहे हैं।
पाँच सखियों समेत गंगा इसी क्षेत्र में प्रवाहित होती है। अनेकानेक दिव्य औषधियाँ इसी क्षेत्र में उत्पन्न होती हैं और अपने प्रभाव से वातावरण में दिव्यता भरती है। देवताओं का निवास पुराणों में सुमेरु पर्वत कहा गया है। वह शिखर इसी क्षेत्र में है। नन्दन वन, शिवलिंग पर्वत के समीप ही मानसरोवर का अवस्थित होना कैलाश पर्वत की स्थिति इसी क्षेत्र में होने का संकेत करता है। सती और पार्वती दोनों की तपश्चर्या यहीं हुई थी। त्रियुगी नारायण में दोनों का ही समय-समय पर विवाह हुआ था। दक्ष अपने समय के मूर्धन्य वैज्ञानिक थे। वे कनखल में रहते थे। चाणक्य ने कुछ समय तक हिमालय में रहकर तपश्चर्या की थी। शिवजी का इसी क्षेत्र में स्थाई निवास है। कृष्ण रुक्मिणी समेत बद्रीनारायण में श्रेष्ठ सन्तान के लिए साधना करते रहे। सीता को आश्रय देने वाले और लव कुश को महान योद्धा बनाने वाले वाल्मीकि इसी क्षेत्र में रहे हैं। शकुन्तला और चक्रवर्ती भरत का पालन प्रशिक्षण इसी उत्तराखण्ड में हुआ था।
अभी भी हिमालय के उत्तराखण्ड में गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ ये चार धाम हैं ।। पाँच प्रयाग, पाँच काशियाँ, पाँच सरोवर, पाँच गंगाएँ इसी क्षेत्र में अवस्थित हैं। देवता और ऋषि स्थूल या सूक्ष्म शरीर से अभी भी यहाँ विद्यमान हैं। इन कारणों को देखते हुए उत्तराखण्ड क्षेत्र हिमालय का हृदय और आध्यात्मिक शक्ति प्रवाह का ध्रुव केन्द्र माना जाता है। थियोसोफिकल सोसायटी ने इन दिनों विश्व संचालक शक्तियों की पार्लियामेण्ट इसी को कहा है। पाण्डव सशरीर स्वर्गारोहण की योजना बनाकर इसी क्षेत्र में चले आये थे। इसके अतिरिक्त समय-समय पर अन्य तपस्वी इसी क्षेत्र का आश्रय लेते रहे हैं और इस क्षेत्र में बिखरे पड़े मणि मुक्तकों के दिव्य अनुदानों से झोली भरकर कृत-कृत्य होते रहे हैं।
पुरातन काल जैसी ऋषि विभूतियाँ इन दिनों देवात्मा हिमालय की गोदी में आश्रय पा नहीं रही हैं, तो भी पुरातन पूँजी इस क्षेत्र को अभी भी सामर्थ्यवान बनाये हुए हैं। देवात्मा हिमालय अभी भी एक अतीव शक्ति सम्पन्न एवं प्रत्यक्ष देवता है।
भारत में विभिन्न स्थानों पर अनेकानेक देवताओं के देवालय हैं। आवश्यकता समझी गई कि देवात्मा हिमालय की आत्मा का आह्वान करके प्राण प्रतिष्ठा सहित हिमालय का एक दिव्य देवालय बनाया जाय। इस आवश्यकता की पूर्ति शान्तिकुञ्ज में अवस्थित हिमालय में की गई है। यह सप्त ऋषियों की वह पुरातन तपोभूमि है, जिसके लिए गंगा ने उनका तप निर्विघ्न चलते देने के लिए अपने आगमन के समय पर सात धारायें बाँट दी थी। अभी कुछ समय पूर्व सरकार ने भूमि प्राप्त करने के लिए बाँध बना दिया है। इसके कुछ दशक पूर्व ब्रह्मवर्चस और शान्तिकुञ्ज के दोनों ही स्थानों पर गंगा की धारायें प्रवाहित होती थी। देवात्मा हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र का देवालय बनाना इसी क्षेत्र में उपयुक्त समझा गया। यह शान्तिकुञ्ज के एक विशाल कक्ष में अवस्थित है। उसमें विद्यमान तीर्थों की झाँकी भी उसी में होती है। भाव श्रद्धा वाले दर्शक इस छोटी प्रतिमा में ही समूचे उत्तराखण्ड क्षेत्र का दर्शन भली प्रकार कर सकते हैं।
शरीर के साथ प्राण भी होने चाहिए। दर्शन के साथ गतिविधियाँ भी जुड़ी रहनी चाहिए। शान्तिकुञ्ज के प्रयास और कार्यक्रम यही हैं। इस आश्रम में क्या होता है और क्या होने जा रहा है, इस पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात किया जाय तो प्रतीत होगा कि न केवल हिमालय का दृश्यमान शरीर ही यहाँ है, वरन् वे सारी गतिविधियाँ भी चलती हैं, जो पुरातन काल में हिमालयवासी ऋषियों ने अपनायी थी और जिनका लाभ प्राप्त करके समस्त संसार, समस्त जन समुदाय कृत-कृत्य हुआ था।
महाप्रज्ञा गायत्री के दृष्टा विश्वामित्र का यहाँ मन्दिर है। हर आश्रमवासी को अनिवार्यतः गायत्री उपासना करनी पड़ती है। बाहर से सैकड़ों साधक निरन्तर आते और गायत्री अनुष्ठान समेत समग्र स्वास्थ्य संवर्धन की साधना करते हैं।
याज्ञवल्क्य के यज्ञ विज्ञान का यहाँ नौ कुण्डीय यज्ञशाला में निरन्तर यज्ञ होता है और उसमें सभी साधक भाग लेते हैं। आगन्तुकों को यज्ञ के माध्यम से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक व्याधियों के निवारण की विधि बताई और कराई जाती है।
चरक की वनौषधि शोध को यहाँ आगे बढ़ाया गया है। शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस में दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ लगायी गई हैं और एक साधन सम्पन्न प्रयोगशाला द्वारा उनमें से प्रत्येक का परीक्षण होता रहता है, ताकि उनकी प्रामाणिकता पर कोई अँगुली न उठा सके।
पातञ्जलि और कणाद की योगाभ्यास साधना का यहाँ अभिनव संस्करण देखा जा सकता है। हर साधक का शारीरिक, मानसिक और अन्तःकरण परीक्षण कीमती मशीनों और एम. डी., एम. एस. स्तर के सुयोग्य डाक्टरों द्वारा होता है। साधना तथा उपचार इसी आधार पर चलते हैं। दस-दस दिन के समग्र स्वास्थ्य संवर्धन सत्र इसी प्रयोजन के लिए चलते हैं और उनके द्वारा निरन्तर बड़ी संख्या में आगन्तुक लाभान्वित होते हैं।
व्यास परम्परा के अनुरूप शान्तिकुञ्ज में युग साहित्य का सृजन, मुद्रण एवं प्रकाशन क्रम निरन्तर चलता है। आर्ष ग्रन्थों का, वेद, उपनिषद्, दर्शन आदि का अनुवाद प्रकाशन पहले हो चुका है। अब जीवन और समाज के हर पक्ष पर प्रकाश डालने वाला साहित्य विनिर्मित किया जा रहा है और उनका अनुवाद हर भाषा में हो रहा है। जमदग्नि परम्परा में जन साधारण को संस्कारवान बनाने का प्रचलन था। शान्तिकुञ्ज में षोडश संस्कार कराने की व्यवस्था है। यहाँ उपनयन होते हैं, पितरों का श्राद्ध-तर्पण भी होता है, बिना खर्च के विवाह भी बड़ी संख्या में हर साल होते हैं। जन्म-दिन और विवाह-दिन मनाने भी प्रज्ञा परिजन बड़ी संख्या में यहाँ आते रहते हैं।
परशुराम के अनुरूप विचार क्रान्ति अभियान को व्यापक बनाया जा रहा है। कुरीतियों, दुष्प्रवृत्तियों, अवांछनीयताओं, मूढ़मान्यताओं, अनीतियों को जड़-मूल से उखाड़ने के लिए लोक मानस को झकझोरा जा रहा है और जो उचित है, उसी को अपनाने के लिए सहमत किया जा रहा है। यह ब्रेन वाशिंग बड़ा ही प्रभावशाली और सफल सिद्ध हो रहा है।
नारद परम्परा में संगीत और प्रवचन परामर्श का युग शिल्पी विद्यालय चलता है और प्रशिक्षित परिव्राजक जीप टोलियों द्वारा देश भर में हर वर्ष हजारों प्रज्ञा आयोजन सम्पन्न करते हैं।
उद्दालक परम्परा में बालकों का गुरुकुल और अनुसूया परम्परा में महिलाओं का प्रशिक्षण क्रमबद्ध रूप से चलता है और छात्राओं की पुरातन परम्परा को जीवन्त रखा जाता है। छात्रा, महिलाएँ और बालिकाएँ ही मिल-जुलकर यहाँ के अन्न क्षेत्र का संचालन करती हैं।
बुद्ध परम्परा के अनुरूप यहाँ के कार्यकर्ता विदेशों में भी धर्म परम्परा को प्रतिष्ठित एवं अग्रगामी बनाने का प्रयत्न करते हैं। उनने भारत से बाहर चौहत्तर देशों में मिशन की विचारधारा में लाखों लोगों को दीक्षित एवं समर्थक बनाया है।
पुरातन काल की समुद्र मंथन योजना के अनुरूप अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का भारी शोध प्रयास चला है। यह समस्त संसार में पहला और अनोखा प्रयास है। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान इसी निमित्त बना है, जिसमें लाखों रुपये के शोध उपकरण एवं बहुमूल्य यन्त्र हैं। इनके द्वारा जो निष्कर्ष निकलते जा रहे हैं, उन्हें समुद्र मंथन द्वारा निकली रत्न राशि के समतुल्य होने का अनुमान लगाया जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। यज्ञ विज्ञान की विभिन्न साधनाओं की परिणति की शोध इस प्रयास के अन्तर्गत अतीव गम्भीरता पूर्वक हो रही है।
शंकराचार्य परम्परा के अन्तर्गत देश के कोने-कोने पर चार धाम स्थापित किए गये थे। समर्थ गुरु रामदास के प्रयास से महाराष्ट्र के तत्वावधान में देश के कोने-कोने में चौबीस सौ शक्तिपीठ तथा बारह हजार स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण हुआ है, यह स्थापना भी अभूतपूर्व है।
सूत शौनिक परम्परा के अनुसार प्रज्ञा पुराण का नया निर्माण हुआ है। इसके अभी तीन खण्ड छपे हैं, हर वर्ष एक नया खण्ड प्रकाशित करने की योजना है। इसकी कथाएँ इतनी लोकप्रिय हुई हैं, जिनने अन्य सभी कथाओं को पीछे छोड़ दिया है।
भूतकाल में कितने ही आरण्यक और विश्वविद्यालय धर्म प्रचारकों को प्रशिक्षित करने के लिए बने थे, अब वह कार्य अपनी सीमित सामर्थ्य के कारण अकेला हरिद्वार का शान्तिकुञ्ज कर रहा है। उसमें चौबीस हजार से अधिक प्रज्ञा पुत्र धर्म प्रचार का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में युगान्तरीय चेतना का अलख जगाते, आलोक वितरण करते हुए छोटे-बड़े आयोजन निरन्तर करते रहते हैं।
ऋषि कणाद अपनी आश्रम व्यवस्था खेतों में छूटे हुए अन्न से करते थे। शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ की यह व्यवस्था महिलाओं द्वारा एक मुट्ठी अन्न एवं पुरुषों द्वारा दस पैसा नित्य देने के आधार पर एकत्रित हुए राशि से ही चलती है।
देवात्मा हिमालय के उत्तराखण्ड क्षेत्र की प्रतीक प्रतिमा रूप में विनिर्मित यह आश्रम अद्भुत एवं अनुपम है। हिमालय के अंचल में पले ऋषियों ने जिन-जिन सत्प्रवृत्तियों को सुविस्तृत किया था और जो आत्मबल एकत्रित किया था, उसका छोटा नमूना इस आश्रम में पहुँचकर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वशिष्ठ-अरुन्धती की तरह यहाँ एक ऋषि युग्म का प्रयास इस योजना का सूत्र संचालन करता है। अब तक की प्रगति को देखने-सुनने वाले आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
227. गायत्री तीर्थ के समग्र स्वास्थ्य संवर्द्धन सत्र
--पं. श्रीराम शर्मा
आचार्य
मनुष्य की आकाँक्षा अनुकूल परिस्थितियों तथा सुविधाजनक समृद्धियों के लिए रहती है। इसके लिए प्रबल पुरुषार्थ, दूरदर्शी चिन्तन एवं अटूट संकल्प की आवश्यकता होती है। यह तीनों ही स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से बन पड़ते हैं। उन्हीं के द्वारा कठिनाइयों का निराकरण और वैभव विभूतियों की उपलब्धियों का अर्जन संभव होता है। इन क्रिया कलापों को स्वस्थ शरीर ही कर पाते हैं। यदि वे रुग्णता से ग्रसित हों तो कुछ कर सकना तो दूर पीड़ा सहते, धन खर्च करते, दूसरों का सहारा ताकते, भारभूत होकर जीते और ज्यों-त्यों करके जिन्दगी के दिन पूरा करते हैं। इसलिए पहला सुख निरोगी काया माना गया है। आरोग्य को ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का मूल माना गया है। मनुष्य की वही पहली और प्रमुख आवश्यकता है।
आरोग्य का अर्थ केवल स्थूल शरीर का रोग मुक्त होना ही नहीं है। सूक्ष्म शरीर की चिन्तन, चेतना एवं कारण शरीर की भाव मान्यता भी सीधी और सही होनी चाहिए। तीनों शरीर मिल कर ही एक समग्र व्यक्तित्व बनता है और तीनों के नीरोग होने पर ही समग्र स्वास्थ्य बन पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में ही मनुष्य कुछ महत्त्वपूर्ण पौरुष कर सकने एवं कहने लायक सफलतायें प्राप्त कर सकने की स्थिति में होता है। इसलिए किसी महान लक्ष्य का निर्धारण करते हुए यह भी देखना पड़ता है कि अपने तीनों शरीर नीरोग हैं या नहीं। इनमें से एक भी रुग्ण हो तो समझना चाहिए कि अपनी क्षमता अधूरी एवं क्षतिग्रस्त है। उस स्थिति में ऐसा कुछ बन न पड़ेगा, जिसे कहने लायक माना और कहा जा सके।
स्थूल शरीर में ज्वर, खाँसी जैसी व्यथाएँ सूक्ष्म शरीर-मस्तिष्क में उद्विग्नता, सही चिन्तन की अक्षमता विभिन्न मनोविकारों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। कारण शरीर के रुग्ण होने पर भावना, मान्यता, आकाँक्षा, विचारणा भ्रान्त स्तर की हो जाती है। इन तीनों क्षेत्रों में एक भी गड़बड़ाने लगे तो व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। उस स्थिति में मनुष्य अपने लिए और दूसरों के लिए भारभूत कष्टदायक होकर रहने लगता है। विभूतियों का अर्जन तो संभव ही नहीं रहता। अस्तु विज्ञजन सर्वप्रथम इस बात का प्रयत्न करते हैं कि वे समग्र स्वास्थ्य सम्पादित करें। तीनों में से किसी में भी आधि-व्याधि घुस गयी हो तो उसके निष्कासन के लिए प्रबल प्रयत्न करें। किन्तु बहुत से आलसी, प्रमादी ऐसे भी होते हैं कि जहाँ-तहाँ से टूटी हुई गाड़ी पर ही सवारी करते हैं। ऐसे लोग लाभ कम और हानि अधिक उठाते हैं।
हमें यह जानना चाहिए कि तीनों शरीर आपस में गुँथे हुए हैं। उनमें से एक भी गड़बड़ाने लगे तो शेष की भी स्थिति डगमगाने लगती है। जड़, तना और पल्लव मिलकर वृक्ष बनता है। इनमें से एक क्षेत्र भी अस्त-व्यस्त हो तो पेड़ की शोभा और उपयोगिता घट जायेगी। दृश्यमान स्थूल शरीर पल्लवों की तरह है जिस पर फल फूल आते हैं और शोभा सुषमा दीख पड़ती है। सूक्ष्म शरीर, मन मस्तिष्क, चिन्तन तना है, जिस पर पेड़ का सब बोझ लदा होता है। कारण शरीर जड़ को समझा जाना चाहिए जो जमीन में ढकी रहती है और इससे खाद पानी पेड़ के हर अंग अवयव तक सरसता, सुन्दरता पहुँचाती है और प्रगति की समस्त आवश्यकताएँ पूरी करती है। इन तीनों में से एक का भी कम महत्त्व नहीं है। वरन् यों कहना चाहिए कि तीनों ही एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर हैं। रुग्णता किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करे तो उसे बेकार बर्बाद करेगी ही, शेष दो को लुंज-पुंज कर देगी।
आमतौर से दृश्यमान स्थूल शरीर की दुर्बलता को, रुग्णता को ही बीमारी गिना जाता है और उसका हकीम डाक्टरों से इलाज कराया जाता है। किन्तु देखा यह गया है कि जो एक बार बीमारी की चपेट में आ गया वह सहज ही अच्छा नहीं होता। एक रोग घटता है, तो दूसरा नया उपज पड़ता है। एलोपैथी, होमियोपैथी, आयुर्वेद, तिब्बती, यूनानी किसी का द्वार खटखटाते रहा जाय, वे आँख-मिचौनी का खेल ही खेलती रहती हैं। चोट लगने जैसे स्थानीय या आकस्मिक रोग ही काट-छाँट करने पर अच्छे हो जाते हैं। पर जिनकी जड़े भीतर हैं, वे एक जगह से दबते हैं, तो दूसरे स्थान पर उभर कर आते हैं, क्योंकि उनकी जड़े सूक्ष्म शरीर में होती है।
वैज्ञानिक अनुसंधानों ने अब यह तथ्य उजागर कर दिये हैं कि मनोविकार ही शारीरिक रोगों के निमित्त कारण है। आवेश, उद्वेग, आक्रोश, चिन्ता, भय, निराशा, आशंका जैसी मानसिक विकृतियाँ तथा पाप, अनाचार, अपराध जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ पलती हैं तो मनःक्षेत्र में हैं, पर उनका प्रभाव शरीर के भीतरी अवयवों पर पड़ता है और वे तब तक रोगी बने रहते हैं, जब तक कि मनोविकारों से पीछा नहीं छूटता। मनःक्षेत्र की रुग्णता के मोटे कारण प्रतिकूल परिस्थितियाँ तथा सोचने का सही तरीका न अपनाया जाना होता है। किन्तु और भी अधिक बारीकी से देखने पर मानवी गरिमा के प्रतिकूल कारण शरीर में जब भ्रष्ट मान्यताएँ और दुष्ट आकाँक्षाएँ जड़ जमा लेती हैं, तो अपराध, अनाचारों के प्रति ललक उठती रहती है। कुकर्मों में रस आने लगता है। बुद्धि को निकृष्टता का चस्का पड़ जाता है और वह उसी प्रकार के ताने-बाने बुनने लगती है। यह कारण शरीर की रुग्णता हुई। इसके रहते मन स्वस्थ नहीं रह सकता, उसमें मनोविकार उबलते रहते हैं, अपने प्रभाव से काया को दुर्बल एवं रुग्ण बना देते हैं।
शरीरगत रोगों के लिए दवा दारू का प्रयोग होता है। आहार-विहार की पथ्य परिचर्या का प्रयोग किया जाता है। हकीम डाक्टरों की जानकारी इन एक तिहाई भाग की खींचतान करने तक ही सीमित है। वे नहीं जानते कि मन को नीरोग करने के लिए मानसिक परिष्कार कैसे किया जाय। इससे भी अधिक गहराई भावना क्षेत्र की है। अशुभ आकाँक्षाओं, आदतों को कैसे उलटा जाय। उस क्षेत्र में भरी पाप विषाक्तता का निष्कासन कैसे हो? जब तक यह प्रयत्न नहीं किया जाय तब तक संचित कुसंस्कार बलिष्ठ ही बने रहते हैं। पत्तियाँ तोड़ लेने पर जड़ें मजबूत हो तो ही टहनियाँ नई पत्तियाँ उगा पाती हैं। उसी प्रकार यदि कुसंस्कारी अन्तःकरण उलटा न जाय तो, मानसिक रुग्णता से पीछा नहीं छूटने देता। इसके बिना शरीर का सर्वथा रोगमुक्त होना कठिन है।
सभी जानते हैं कि चेतना का शरीर पर आधिपत्य है। प्राण पलायन कर चलें तो अच्छा खासा युवा और सुन्दर शरीर सड़ने लगता है और फिर वह स्वयं उठकर अपनी अन्त्येष्टि करने तक की स्थिति में नहीं रहता। यह कार्य भी दूसरों को ही करना पड़ता है। हितैषी सम्बन्धी तक उसे घर में देर तक नहीं रहने देते और छूने तक में कतराते हैं। इससे स्पष्ट है कि चेतना, मन और अन्तःकरण का समन्वय ही प्रधान है। उन्हीं के आदेश शरीर पालन करता है। कोई महत्त्वपूर्ण काम बन पड़ते हैं तो वे शरीर द्वारा किये गये दीखने पर भी वस्तुतः विचारणा और भावना क्षेत्र द्वारा किये हुए ही होते हैं। मनोबल, संकल्प और संस्कार इन भीतरी क्षेत्रों की ही चमत्कारी क्षमताएँ हैं।
इन सब तथ्यों को देखते हुए तीनों शरीरों का समग्र स्वास्थ्य संपादन ही वह वैभव है, जिसे असंख्य सफलताओं का स्रोत कहा जा सकता है। प्रयास इसी का होना चाहिए। समग्रता ही अभीष्ट है। एक अवयव पर ध्यान केन्द्रित करना और शेष दो को छोड़ देना ऐसा ही है जैसा अन्न, जल और हवा में से एक को सब कुछ मानना शेष दो को छोड़ देना। कागज, स्याही और कलम में से एक भी कम हो, तो लेखन कहाँ होता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की समन्वित चिकित्सा न की जाय तो समग्र स्वास्थ्य का आनन्द न मिल सकेगा और इसके बिना समर्थ पुरुषार्थ द्वारा मिलने वाली सफलताओं से वंचित ही रहना पड़ेगा।
आद्य शंकराचार्य को १६ वर्ष की आयु में भगन्दर फोड़ा हुआ था। वह १६ वर्ष तक वैसे ही चलता रहा और ३२ वर्ष की आयु में उसी कारण उनकी मृत्यु हो गई। इतनी लम्बी बीमारी में वे जितना काम करते रहे उतना ३२० वर्ष में भी दूसरे नहीं कर सके। ईसा मसीह मात्र ३३ वर्ष जीवित रहे। विवेकानन्द ने कुल ३९ वर्ष की आयु पाई। उनके सूक्ष्म और कारण शरीर बलिष्ठ थे, इसलिए इतने कम समय में शारीरिक असुविधाएँ सहते हुए भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करने में समर्थ हुए। हममें से किसी का शरीर दुर्बल या रुग्ण रहे तो भी भीतरी बलिष्ठता के रहते असाधारण क्षमता का धनी रहा जा सकता है। सन्त विनोबा को जीवन के उत्तरार्द्ध में पेट में अल्सर की शिकायत २० वर्षों तक रही, तो भी उनकी भूदान पदयात्रा निरन्तर चलती रही।
शरीर की संरचना ऐसी है कि यदि आहार-विहार का अन्य पशुओं जितना भी संयम अनुशासन रखा जा सके, तो बीमार पड़ने की नौबत न आये। वस्तुतः होता यह है कि अन्तरात्मा सौम्य, सात्विक प्रवृत्तियाँ अपनाने की प्रेरणा देता है और मनुष्य कुमार्ग अपनाता है। इस प्रकार भीतर दो व्यक्तित्व बन जाते हैं और वे दोनों साँडों की तरह परस्पर टकराते रहते हैं। उस मल्ल युद्ध में शरीर रूपी खेत तहस-नहस हो जाता है और अनेक रोग घेर लेते हैं। यह भीतरी कुश्ती बन्द न होने तक बीमारियों का सिलसिला चलता रहता है और दवा-दारू का प्रयोग कुछ काम नहीं आता।
पुरातन काल में ऋषि प्रणीत चिकित्सा प्रणाली में तीनों शरीरों का इलाज एक साथ किया जाता था। फलतः रोगी रोग मुक्त ही नहीं होता था, वरन् समग्र व्यक्तित्व निखार लेता था। पवित्रता और प्रतिभा अर्जित करता था, चिन्तन को प्रज्ञा से सम्पन्न करने और दूरदर्शी विवेकवानों की तरह सोचना आरम्भ करता था। जिससे मन की उद्विग्नता समाप्त होकर स्थितप्रज्ञों जैसी शान्ति, संतोष की मनःस्थिति रहने लगती थी। संचित कुकर्मों का गुरुजनों के सम्मुख प्रकटीकरण करता था और परिशोधन के लिए बताये हुए प्रायश्चित की प्रक्रिया सम्पन्न करता था। मनोनिग्रह के लिए इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम की चतुर्विध तपश्चर्याएँ अपनाता था। इसके अतिरिक्त प्राणायाम, न्यास, बन्ध त्राटक मुद्रा जैसे साधनों को अपनाता था। अन्तःकरण की साधना के लिए समर्पण साधना के अनुसार परब्रह्म के साथ आत्मा को एकत्व की अद्वैत साधना साधनी होती है। व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप समग्र स्वास्थ्य संवर्धन के लिए और भी कितनी ही हलकी भारी साधनाएँ हैं, जिन्हें व्यक्ति के स्तर को देखते हुए बताया एवं कराया जाता है।
शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ में पिछले दिनों दस-दस दिन के कल्प साधना सत्र चलते रहे हैं। उनमें सम्मिलित होकर कितनों ने ही असाधारण लाभ उठाये हैं। अब उसी में अर्जित अनुभवों के आधार पर कुछ और नया उपयोगी हेर-फेर किया गया है और सत्रों का नाम समग्र स्वास्थ्य संवर्धन सत्र रख दिया गया है।
इनमें सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें सम्मिलित होने वालों की शारीरिक, मानसिक और अन्तःकरण परक स्थिति का परीक्षण किया जाता है। स्तर समझा और प्रयोजन पूछा जाता है। इनके उपरान्त तीनों स्तर की साधनाएँ बताई जाती है कि तीनों शरीरों में से जिस-जिस में जो खामी हो उसे भली प्रकार समझने के उपरान्त तदनुरूप उपचार क्रम बताया समझाया जाय।
इन्हीं दिनों निरीक्षण पर्यवेक्षण के लिए अभी-अभी लाखों रुपया मूल्य के यन्त्र उपकरण देश-देशान्तरों से मँगाए गये हैं ।। पर्यवेक्षण के लिए एम. डी., एम. एस., आयुर्वेदाचार्य बी. ए. एम. एस. स्तर के उच्च शिक्षित शरीर विज्ञानियों की टीम काम करती है। पिछले दिनों शरीर पर्यवेक्षण के ही उपकरण यहाँ थे। अब मानसिक और अन्तःकरण की गहरी भूमिकाओं का पर्यवेक्षण, विश्लेषण करने के समस्त उपकरण भी मँगा लिए गये हैं। पहले ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में ही निरीक्षण परीक्षण के साधन थे, नये उपकरण आने से शान्तिकुञ्ज के दस बड़े कमरों में भी प्रयोगशाला बढ़ा दी गयी है। पिछली बार साधना प्रधान सत्र थे, अबकी बार समग्र स्वास्थ्य संवर्धन का ऐसा प्रबन्ध एवं उद्देश्य रखा गया है जैसा कि सेनीटोरियमों का होता है। इस बार लक्ष्य सीमित तथा विधि विस्तार बड़ा है।
गायत्री साधना प्रज्ञा संवर्धन के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। वह हर साधक को उसके स्तर के अनुरूप बताई एवं कराई जायेगी। जिनसे बड़ा अनुष्ठान न बन पड़ेगा, वे छोटा कर सकेंगे। मानसिक चिकित्सा की दृष्टि से प्राणायामों, बन्ध, मुद्रा, आदि में से कोई साधना करनी होती है। कारण शरीर के लिए प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के कितने ही भेद प्रभेदों में से जो जिसके लिए आवश्यक है, वह बताया जाता है। इन्हीं दिनों यज्ञ अनुसंधानों में से जो प्रक्रिया जिस प्रयोजन के लिए ठीक पाई गई है। उस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कराया जायेगा। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आहार भेद को, जड़ी-बूटी उपचार को, अनेकानेक आसनों में से कुछ को प्रयुक्त किया जायेगा।
शान्तिकुञ्ज के समग्र स्वास्थ्य संवर्धन सत्र तो दस-दस दिन के ही चलेंगे, पर यहाँ से चले जाने के उपरान्त घर जाकर बहुत समय तक जिन नियमोपनियमों का परिपालन आवश्यक समझा जायेगा। उसे भी सम्मिलित होने वाले शिविरार्थियों को भली प्रकार समझा दिया जायेगा।
संजीवनी विद्या सुख शान्ति से भरी पूरी जिन्दगी जीने की कला प्रज्ञा अभियान का मूलभूत लक्ष्य है। उसे छोड़ा नहीं जा सकता। स्वास्थ्य सुधर जाय और जीवन क्रम में उत्कृष्टता का समावेश न हो, तो भी बात अधूरी ही रह जाती है। दस-दस दिन तक स्वाध्याय, सत्संग, परामर्श एवं विचार विनिमय का जो स्वरूप है वह इसी प्रयोजन के लिए है कि इन सत्रों में सम्मिलित होने वाले अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुरूप ऐसी रीति-नीति सीखें, ऐसी दिशा धारा अपनायें जो हर दृष्टि से श्रेयस्कर हो।
शान्तिकुञ्ज में साधन और स्थान सीमित होने के कारण अभी उन्हीं के लिए व्यवस्था बन पड़ी है, जो अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना के नियमित ग्राहक हैं, मिशन से किसी प्रकार जुड़े हुए हैं, वे मिशन की, प्रशिक्षण की आधी जानकारी तो इस आधार पर ही प्राप्त कर चुके होते हैं। उनको सर्वथा अनजान की तरह नहीं बताना पड़ता।
सत्र हर महीने की तारीख १ से १०, ११ से २०, २१ से ३० तक चलते हैं। जिन्हें जब, जिस सत्र में सम्मिलित होना हो वे उसके लिए आवेदन पत्र भेजें और स्वीकृति मिलने पर ही आने की तैयारी करें। आवेदन पत्र सादे कागज पर लिखा जा सकता है, उसमें निम्न बातों का उल्लेख रहना चाहिए --१. किस तारीख से किस तारीख वाले सत्र में आना है। २. यदि वह भर चुका हो तो उसके स्थान पर अन्य किस सत्र में स्वीकृति दी जाय। ३. पूरा नाम, ४. पूरा पता, ५. आयु, ६. शिक्षा, ७. व्यवसाय, ८. जन्म जाति, ९ः पत्रिकाओं के कब से नियमित सदस्य हैं, १०. यहाँ के अनुशासनों को भली प्रकार परिपालन करने का आश्वासन।
कोई महिला अकेली न आवे। उनके साथ कोई संरक्षक होना चाहिए। ऐसी बीमारियों वाले लोग न आवें जिनके कारण दूसरे शिविरार्थियों को असुविधा हो, छूत लगने का भय हो, या इन्हें कैंसर, क्षय, दमा, गठिया, हृदय रोग, खासी, कोढ़, छाजन जैसे असाध्य रोग हो। यह अस्पताल नहीं है, अतः रोगियों को यहाँ प्रवेश नहीं मिलता। उन्हें आवेदन पत्र नहीं भेजना चाहिए।
तीर्थ यात्रा पर्यटन के उद्देश्य से आने वालों को साथ लेकर न चलें। अनपढ़ स्त्रियाँ, छोटे बच्चे, वयोवृद्ध सत्र में आकर हैरानी उत्पन्न करते हैं, उन्हें नियम अनुशासन पालन करने का अभ्यास नहीं होता। घूमने-फिरने का दबाव डालते हैं, जबकि यहाँ के व्यस्त कार्यक्रम में से शिविरार्थियों को कोई समय खाली नहीं होता। ऐसे लोगों को साथ ले आने पर व्यर्थ का झंझट खड़ा होता है। कपड़े, बिस्तर साथ लाएँ। आश्रम के भोजनालय में दोनों समय भोजन की चार रुपये की लागत मूल्य पर व्यवस्था है। जेवर, कीमती वस्तुएँ साथ लेकर न चलें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
228. युग साहित्य का लेखन और प्रसार-प्रकाशन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
समय की माँग है कि मध्यकालीन मध्य युग के सामन्तवादी विचारों में आमूलचूल परिवर्तन किया जाय। पुरातन काल में हर किसी की सतयुगी मान्यताएँ थी, अभिनव प्रज्ञा युग में लोगों का चिन्तन और चरित्र मानवी गरिमा के अनुरूप होगा। मध्यकालीन अन्धकार युग ही ऐसा था जिसमें मनुष्य ने पशुता और पैशाचिकता अपनाई। देश को लम्बी अवधि तक विदेशी पराधीनता के पाश में बँधना पड़ा। आक्रमणकारियों और लुटेरों का त्रास सहना पड़ा। इसमें सहायक देश का सामन्तवादी वर्ग और चिन्तन की प्रमुख भूमिका रही।
राजनैतिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने पर भी अनेकानेक विकृत विचारणाओं और परम्पराओं से हम जकड़े हुए हैं। इन्हें हटाये बिना अपनी महान परम्पराओं के अनुरूप प्रगति न कर सकेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि उस कूड़े करकट को बुहार कर बाहर करें। जो हमें अन्धकार में ही भटकाता रहता है। आगे बढ़ने में हजार बाधाएँ उपस्थित करता है।
क्रियाओं से परिस्थितियाँ बनती है और क्रियाओं का सूत्रपात विचारणाओं और मान्यताओं से होता है। अतएव उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया हमें लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन से करनी चाहिए। यही विचार क्रान्ति अभियान का ज्ञानयज्ञ है। इसे हम आज की महती सर्वोपरि आवश्यकता समझें और उसकी पूर्ति के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्राण पण से प्रयत्न करें।
विचार परिवर्तन के दो ही प्रमुख माध्यम हैं, एक लेखनी दूसरा वाणी। इन पंक्तियों में लेखनी की अर्थात् साहित्य की चर्चा की जा रही है। साहित्य की शक्ति असाधारण है। अभी-अभी कल परसों की बात है कार्लमार्क्स की लेखनी ने जो सृजा उसका प्रभाव इतना अधिक हुआ कि संसार की आधी-आबादी कम्युनिस्ट शासन के अन्तर्गत है। जो उससे बाहर हैं, उनसे आधे उस विचारधारा के समर्थक है। इसका अर्थ यह हुआ कि मानव जाति के तीन चौथाई सदस्य कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव से प्रभावित है। यह सब एक आदमी द्वारा किए गये साहित्य प्रभाव का प्रतिफल है। इससे पूर्व राजतंत्र को निरस्त करके प्रजातंत्र का दर्शन और स्वरूप रूसो ने विनिर्मित किया था। यह इतना प्रेरक, प्रभावशाली और आकर्षक था कि संसार भर में उसकी हवा फैली। फलतः किसी न किसी प्रकार का प्रजातंत्र सारी दुनिया में छाया हुआ है। राजतंत्र अब नाम मात्र के लिए रह गया है और वह भी अधिक देर तक टिकने वाला नहीं है। इस महान परिवर्तन को रूसो की लेखनी का चमत्कार ही कह सकते हैं। लोग भूलें नहीं है कि जर्मनी में नाजीवाद फैला था। उसी ने जर्मनी को दो महायुद्धों की शुरुआत करने के लिए तैयार किया। वह देश समूचे विश्व पर आधिपत्य जमाने के लिए आतुर हो उठा था। यह दार्शनिक नीत्से की विचारधारा थी। जिसने अतिमानव सिद्धान्त सृजा और उसने सर्वप्रथम जर्मनी को बाद में इटली आदि को भी अपनी लपेट में ले लिया। भुलाने की बात भी नहीं है कि दास प्रथा मिटाने और संसार भर में उस गर्हित प्रचलन को उठाने के लिए अमेरिका की एक लेखिका स्टो के साहित्य ने जन साधारण का हृदय मथ डाला और उस महान क्रान्ति के लिए व्यापक वातावरण बनाकर खड़ा कर दिया। ईसाई धर्म में आज संसार की एक तिहाई जनता दीक्षित है। यह क्रिश्चियन मिशन अपने धर्म की जानकारी संसार की ६०० भाषाओं में प्रकाशित करने का प्रतिफल है। यह कार्य कुछ ही शताब्दियों में पूरा हो गया और भी बहुत से सुधार परिवर्तन संसार में साहित्य के माध्यम से हुए हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि युग परिवर्तन की विचार क्रान्ति की योजना को व्यापक बनाने के लिए उस विचार प्रक्रिया को जन-जन तक पहुँचाने के लिए तदनुरूप साहित्य का सृजन किया जाय।
अभी भी मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ, भ्रान्तियाँ, अवांछनीयताएँ जन समुदाय में इतनी अधिक फैली हुई है कि शिक्षा प्रसार और बुद्धिवाद की बढ़ोत्तरी का उपयोगी प्रभाव नहीं पड़ा है। चरित्र और चिन्तन की दिशा ऊँची उठाने के स्थान पर नीचे गिरी है।
प्रगति का अर्थ मात्र चमक-दमक और विलास, सुविधा के साधनों की अभिवृद्धि नहीं है, वरन् यह है कि मनुष्य आहार-विहार में प्रकृति मर्यादाओं का पालन करें। चिन्तन और आहार मानवीय गरिमा के अनुरूप हो। सादा जीवन उच्च विचार की रीति-नीति सर्वत्र अपनाई जाय। लोग न्यायोपार्जित कमाई पर सन्तोष करें और उसका खर्च इस प्रकार करें कि औसत नागरिक के अनुरूप बजट बने और जो बचे उसे पिछड़ों को उठाने एवं बढ़ाने में लगाया जाय।
यह सब आज कहाँ हो रहा है। उलटे मद्य-माँस की बढ़ोत्तरी, अपराधों की वृद्धि होती चली जा रही है। इन सब अवांछनीयताओं से विरत करने वाला प्राणवान साहित्य आज चाहिए। चिन्तन की उत्कृष्टता और चरित्र में आदर्शवादिता का समावेश कर सकने वाली पुस्तकें जन-जन तक पहुँचनी चाहिए। छुआछूत, पर्दा प्रथा, दहेज, भिक्षा व्यवसाय, जैसी कुरीतियों को जड़ से उखाड़ने वाली विचारधारा साहित्य के माध्यम से व्यापक बनानी चाहिए। संक्षेप में अवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन करने वाले साहित्य की ऐसी प्रचुरता होनी चाहिए, जो प्रचलित अनौचित्य के हर पक्ष में लोहा ले सकने और उसके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना कर सके। इस संदर्भ में छोटा श्रीगणेश युग निर्माण योजना के माध्यम से आरम्भ हुआ है। उसकी प्रकाश किरणें जहाँ भी पहुँची है वहाँ हलचल मचे बिना नहीं रही है। २४ लाख के लगभग युग सृजेता मैदान में इसी प्रकाश के कारण खड़े हुए हैं। स्वल्प साधना होने से छोटी सीमा में ही काम हो सकता है और उसका प्रभाव भी थोड़े लोगों तक ही पहुँच सकता है। इसी कारण प्रज्ञा अभियान की युगान्तरकारी योजना का सीमित साहित्य जो कर सकता था, उसकी तुलना में हजारों गुना सत्परिणाम उसने प्रस्तुत किया है। आवश्यकता इस प्रक्रिया को बड़े रूप से चलाने और व्यापक बनाने की है। इसके बिना अनेकों सम्प्रदायों, देशों और भाषाओं में विभाजित ५०० करोड़ जन समुदाय तक युगान्तरीय चेतना को शालीनता का पक्षधर बनाने के लिए आवश्यक है कि वर्तमान कुप्रचलनों से होने वाली हानियों को गले उतारा जाय और सत्प्रवृत्तियों का व्यवहार उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में कितना आवश्यक हैं, यह प्रभावशाली ढंग से जन मानस में उतारा जाय। यह कार्य युग साहित्य के सृजन और प्रसार की विशालकाय योजना बने बिना संभव नहीं हो सकता। छोटे प्रयास का कितना शानदार प्रतिफल हुआ है, उसे प्रज्ञा मिशन की गतिविधियाँ देखते हुए समझा जा सकता है और यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि उसे बड़े परिमाण में सुनियोजित तैयारी के साथ किया जाय, तो उसका प्रतिफल कितना शानदार होगा। यह प्रयास यदि ठीक प्रकार बन पड़ा तो नवयुग का, सतयुग का सूर्योदय कल्पना मात्र न रहेगा। वह प्रत्यक्ष होकर रहेगा।
योजना यह है कि बड़ी पूँजी से एक बड़ा साहित्य तन्त्र खड़ा किया जाय। उससे आज की वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याओं का स्वरूप, कारण, प्रतिफल एवं समाधान विस्तारपूर्वक समझाया गया हो। इस कार्य को तीन भागों में विभाजित करना होगा। लेखन, प्रकाशन, प्रसार इन तीनों ही कार्यों के लिए पूँजी की व्यवस्था की जाय। भारत की सरकारी मान्यता प्राप्त भाषाएँ १४ हैं। क्षेत्रीय भाषाएँ इसके अतिरिक्त हैं। इन सभी में हाथ डाला जाय। अब तक मात्र हिन्दी में ही प्रधान रूप से लेखन प्रकाशन हुआ है। इस प्रकार प्रायः आधे भारत तक इस प्रकाश को पहुँचाना संभव हो सका है। शेष आधे भारत के लिए उनकी परिचित भाषा में कुछ भी छप नहीं सका है। छपा है, तो वह अत्यन्त स्वल्प संख्या में कुछ ही भाषाओं में छपा है। यह सभी को अपर्याप्त है। कम से कम अपने देश की सभी भाषाओं में तो यह प्रकाशन प्रयास चलना ही चाहिए। इसके पश्चात् संसार की ६०० भाषाओं में से जितनी में यह कार्य संभव हो सके, किया जाय। हर देश, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा क्षेत्रों की अपनी-अपनी विशेष समस्याएँ है, उन पर वहीं के लिए जो आवश्यक हो उसे लिखा और प्रकाशित किया जाय। अभी तो भारत की उलझनों का समाधान करने का काम इतना बड़ा है कि उसे कर गुजरना ही एक दुस्साहस कहा जा सकता है।
लोग विभिन्न प्रकार के उद्योग मिलकर खड़ा करते हैं, उनमें करोड़ों की पूँजी लगी होती है। कुछ कारोबार व्यक्ति विशेष के, कुछ दान से चलने वाली संस्थाओं के, कुछ लिमिटेड कम्पनियों के होते हैं। इस प्रकार वे लोग अपने ढंग से पूँजी जुटा लेते हैं और समूचा व्यवस्था तन्त्र खड़ा कर लेते हैं। हमें ईसाई मिशन जैसा, गीता प्रेस गोरखपुर जैसा जन सहयोग से चलने वाला तन्त्र खड़ा करना चाहिए। जिसमें ब्याज और सहयोगियों के लिए मुनाफा न निकालना पड़े। यह भार प्रकाशन पर और लद जाने में वह महँगा पड़ेगा। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार का साहित्य लागत मात्र पर अथवा न्यूनतम मुनाफे पर प्रकाशित किया जाय। उसके विक्रेताओं को कमीशन जितना देना पड़े उतना ही कागज छपाई को जोड़कर मूल्य रखा जाय। ईसाई मिशन में हर महीने करोड़ों रुपये का साहित्य प्रकाशित होता है। वह कई बार तो लागत से भी कम होता है। गीता प्रेस की छोटी गीता वस्तुतः लागत से कम मूल्य में बिकती है। उतना संभव न हो सके, तो जमा खर्च बराबर करने की बात ही सोची जानी चाहिए। मूल्य बढ़ा देने पर छापने, बेचने वाले का मुनाफा भले ही बढ़े उसका व्यापक प्रसार न हो सकेगा, जिन विषयों में अभी लोगों की अभिरुचि ही उत्पन्न नहीं हुई है।
जिसकी उपयोगिता ही अनुभव नहीं होती ऐसी वस्तुओं को गले बाँधने के लिए वैसे ही प्रयास करने पड़ते हैं, जैसे अब से ७० वर्ष पूर्व चाय कम्पनियों ने घर-घर प्रचारक भेजे थे। वे एक पैसे में एक कुल्हड़ चाय भी पिलाते थे और एक पैकेट घर बनाने के लिए मुफ्त देते थे। उस प्रचार का ही प्रतिफल है कि चाय विक्रेताओं की दुकान पर लाइन लगी रहती है। हर घर में सर्वप्रथम चाय बनाने की आवश्यकता पड़ती है। ईसाई प्रचारकों का भी ठीक यही तरीका है, वे अपना साहित्य लागत मूल्य पर देते हैं। पढ़ाने भर के लिए मुफ्त में घरों पर पहुँचाते और वापिस लाते हैं। यह तरीका युग परिवर्तन साहित्य के लिए उपयोगी हो सकता है। अन्यथा मुनाफे के लिए जिन्होंने पैसा लगाया है, वे उद्देश्य को एक कोने में रख कर जो अधिक से अधिक मुनाफा दे, उसे छापने पर दबाव डालेंगे, फिर मिशन न रहकर उसका विषय बदल जायेगा और बाजारू धन्धे की वस्तुएँ बनने लगेंगी।
देश में कितने ही ट्रस्ट ऐसे हैं जिनमें करोड़ों अरबों की पूँजी लगी है और प्रायः मन्दिर धर्मशाला बनाने और सदावर्त बाँटने जैसे हाथों-हाथ ख्याति कीर्ति देने वाले कार्य करते हैं। ऐसे संस्थान देश में हजारों हैं उन्हीं की पंक्ति में एक और तन्त्र विचारशील दूरदर्शियों द्वारा खड़ा किया जा सकता है। गीता प्रेस का उदाहरण हम सबके सामने है। धर्म के नाम पर यदि वैसा मिल सकता है तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण में समर्थ विचार प्रक्रिया का महत्त्व समझने वाले कहीं कोई भी न मिले। जिनकी संतानें नहीं है अथवा बच्चे कमाते खाते हैं। वे अपने धन का श्रेष्ठतम सदुपयोग इस प्रकार का तन्त्र खड़ा कर सकने में कर सकते हैं।
यहाँ यह भी स्मरणीय है कि अलग-अलग डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाने, डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाने की जो यश लालसा खींचतान करती है, उसके रहते काम न बनेगा। ऐसा तन्त्र तो विशालकाय एक ही होना चाहिए और उसमें अनेकों का सहयोग उसी प्रकार एक मत होना चाहिए जैसे अनेकों नाले मिलकर एक नदी और अनेकों नदियाँ मिलकर एक समुद्र बनता है। क्रिश्चियन मिशन ऐसे ही विचारशील सहयोग के बल पर बना है। यह दुर्भाग्य अपने ही देश का है कि व्यक्तिवादी, अलगाव और यश, लोभ ने अलग-अलग असंख्यों मन्दिर खड़े कर दिये हैं और पीछे उनमें झाडू लगाने तक का कोई प्रबन्ध नहीं हो पाता।
युग साहित्य प्रकाशन के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र, समयोचित प्रथा, प्रचलन, बच्चे, महिला, व्यवसाय, चिकित्सा, नागरिकता, शासन, धर्म, अध्यात्म, सहकार, शिष्टाचार, परिवार, मनोरंजन, समाज जैसे अनेकों विषय ऐसे हैं जिनमें असाधारण विकृतियाँ भर गई हैं। उन्हें स्वच्छ करने और नये सिरे से नये निराकरण, उपयोगी सुझाव प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। प्रतिगामिता के स्थान पर प्रगतिशीलता अपनाई जानी चाहिए और उसी आधार पर अभिनव साहित्य सृजा जाना चाहिए। उसके प्रकाशन का प्रसार विक्रय की सुनियोजित व्यवस्था बननी चाहिए। इसके लिए पूँजी ही नहीं दूरदर्शी संचालक तन्त्र की भी उतनी ही आवश्यकता है।
खरीदना सर्वत्र संभव न हो सकेगा, इसलिए विचार क्रान्ति को ध्यान में रखते हुए ऐसे पुस्तकालयों की भी नितान्त आवश्यकता है, जो घर-घर साहित्य पहुँचाने और वापस लाने का भी उत्तरदायित्व संभाल सकें। इतना छोटा काम प्रज्ञा परिवार का कोई भी छोटा बड़ा सदस्य निजी प्रयत्न से अथवा मिल-जुलकर पारस्परिक सहयोग से सहज सम्पन्न कर सकता है।
समय की इस महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए करोड़ों की पूँजी और अनुभव व्यवस्था बुद्धि की आवश्यकता है, जो इस तन्त्र को दूरदर्शिता पूर्वक सम्पन्न कर सके और लेखन, प्रकाशन, प्रेस एवं प्रसार की सर्वतोमुखी योजना सम्पन्न कर सके। जब तक वह व्यवस्था नहीं बनती, शान्तिकुञ्ज की छोटी बचत पूँजी को इस प्रयोजन के निमित्त लगाया जा रहा है। लेखन कार्य मिशन के सूत्र संचालक ने स्वयं संभाला है। वे सूक्ष्मीकरण साधना में संलग्न रहते हुए भी इन दिनों १० पृष्ठ लिखने के उपरान्त पानी पीने का व्रत निभा रहे हैं। उनकी लेखनी आगे सतत चलती रहेगी अन्य प्रकाशकों के पास अच्छे साहित्य का अभाव होता है। अपने साथ यह समस्या नहीं है। कठिनाई बस यही है कि मथुरा एवं शान्तिकुञ्ज के विशाल प्रकाशन केन्द्र होते हुए भी जिस मात्रा में एवं जितनी भाषाओं में अनूदित करके साहित्य को छापा जाना है, वह नहीं बन पा रहा है। सूत्र संचालक स्वयं आशान्वित हैं कि ऐसा तन्त्र विकसित होगा एवं युग साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने में सफल होगा। उन्होंने प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण का संकल्प लिया एवं उसे अल्पावधि में पूरा कर दिखाया। प्रज्ञा पुराणों का सृजन भी ऐसा ही भागीरथी संकल्प था। अब मिशनरी स्तर पर प्रचार साहित्य एवं विचार क्रान्ति हेतु अनिवार्य साहित्य जब छापना है तो वह संकल्प भी निश्चित ही पूरा होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
229. दृश्य सत्संग की प्राणवान तैयारी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
प्राचीन काल में साहित्य सृजन दवात कलम पर निर्भर करता था। विद्वान लिखते थे और प्रतिलिपियाँ करने पर लेखकों का एक बड़ा समुदाय लगा रहता था। उन्हें साधन सम्पन्न खरीदते थे और विद्या प्रेमी उन्हें पुस्तकालयों से माँग कर पढ़ते थे। अब विज्ञान ने प्रेस के आविष्कार से उस कार्य में भारी सुविधा उत्पन्न कर दी है। कुछ ही समय में हजारों लाखों प्रतियाँ छप जाती हैं और उनकी लागत भी पूर्व काल की तुलना में नगण्य जितनी आती है। ज्ञान प्रसार के इस माध्यम ने अपने समय में भारी सुविधा उत्पन्न की है।
लेखनी के उपरान्त ज्ञान प्रसार का दूसरा माध्यम है-वाणी। प्रवचनकर्ता, गायक कहीं कोई विरले ही होते थे और वे प्रेमियों द्वारा व्यवस्था किये जाने पर कथा कीर्तन करने के लिए पहुँचते थे। ऐसा भी होता था कि सन्तों की भजन मंडलियाँ तीर्थ यात्रा स्तर की योजना बना कर प्रचार भ्रमण पर निकलती थी और जहाँ सम्भव होता, वहाँ पहुँचकर अपना अभिमत प्रकट करती और जन समुदाय को ज्ञान दान से लाभान्वित करती थी। प्राचीन काल से सत्संग की यही पद्धति कार्यान्वित होती रही हैं।
इसके उपरान्त विज्ञान ने लाउडस्पीकरों का आविष्कार किया और सभा-सम्मेलनों का नया तरीका निकाला। इससे पूर्व वाणी के बल पर प्रायः एक सौ व्यक्तियों तक का ही उद्बोधन बन पड़ता था। लाउडस्पीकर से एक समय में हजारों, लाखों की संख्या में उपस्थित जनता को प्रवचन कर्ताओं का अभिमत सुनने का सुयोग मिलने लगा। इस प्रकार प्रचार प्रक्रिया और तीव्र हो गयी। प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत पिछले दिनों गायत्री यज्ञों और साथ में युग निर्माण सम्मेलनों के आयोजन बड़ी संख्या में सफलतापूर्वक सम्पन्न होते रहे हैं। उनमें सम्मिलित होने वाले देव दक्षिणा के रूप में सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के संकल्प लेते रहे हैं। गायत्री की व्याख्या सद्ज्ञान के रूप में और यज्ञ की विवेचना सत्कर्म के रूप में होती रही है। सभा-सम्मेलनों और धर्मानुष्ठान आयोजनों के माध्यम से युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने में इससे बहुत सहायता मिलती रही है।
इस कार्य पद्धति में प्रज्ञा आयोजनों की एक नई शृंखला जुड़ी है। प्रज्ञापीठों और स्वाध्याय मण्डल, प्रज्ञा संस्थानों के वार्षिकोत्सव नियमित रूप से होते हैं। इनमें संगीत गायक, प्रवचनकर्ता, फोल्डिंग स्टेज, फोल्डिंग यज्ञशाला, लाउडस्पीकर आदि उपकरणों समेत जीप गाड़ियाँ भेजने की व्यवस्था बन पड़ी। इस आधार पर विनिर्मित संगठनों के वार्षिकोत्सव, गायत्री यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलन समेत और भी सरलतापूर्वक बड़ी संख्या में होने लगे। वाणी के माध्यम से सत्संग का यह उपक्रम और भी अधिक लोकप्रिय हुआ। सस्ता भी पड़ा और सरल भी रहा। ये कार्यक्रम अभी भी बड़ी सफलतापूर्वक गतिशील हो रहे हैं। युग परिवर्तन के निमित्त वाणी के माध्यम का यह प्रयोग तभी बन पड़ा, जब लाउडस्पीकरों का प्रयोग और जीप वाहनों का उचित सुयोग बन पड़ा। इन दिनों २४ प्रचार मंडलियाँ देश के कोने-कोने में युगान्तरीय चेतना का अलख जगाने के लिए गाँव-गाँव पहुँच रही है और रात-दिन लाखों को युग संदेश से अवगत करके समय के साथ चलने के लिए अनुप्राणित एवं सहमत कर ही हैं। शीघ्र ही इनकी संख्या बढ़कर सौ हो जाएगी एवं तदनुसार कार्यक्षेत्र भी बढ़ जायेगा।
अब एक सर्वथा नया कदम टेप रिकार्डर एवं वीडियो फिल्मों का अपने ही सीमित साधनों से आरम्भ कर दिया गया है। स्लाइड प्रोजेक्टर का सस्ता एवं रोचक माध्यम कुछ समय पहले से ही चल रहा था, पर उसके लिए यह आवश्यक था कि जहाँ उसे दिखाया जाय वहाँ बिजली का प्रबन्ध होने के अतिरिक्त स्लाइड की व्याख्या करने वाला कुशल वक्ता भी होना चाहिए। टेप रिकार्डरों में पिछले दिनों मात्र संगीत ही टेप था। बहुत दिनों पहले कभी किसी ने हमारे प्रवचनों को टेप कर लिया होगा। वे भी कहीं-कहीं सुनने को मिल जाते हैं। अब उपरोक्त दोनों ही माध्यम पिछले दो साधनों के अतिरिक्त नया आकर्षण एवं नया प्रभाव लेकर सामने आये हैं।
अब वीडियो द्वारा हमारे एवं देश के प्रमुख विचारशीलों के बोलती बात करते आज के स्वरूप तथा नवयुग के संदर्भ में प्रवचन तैयार कराये गये हैं, साथ ही पुरातन युग के ऋषि मुनियों द्वारा भारत भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी तथा यहाँ के तैंतीस कोटि नागरिकों को देवोपम बनाने की कार्य पद्धति का भी सर्वांगीण प्रदर्शन है। इन्हीं पदचिह्नों पर चलते हुए हमें प्रज्ञा युग की आधारशिला रखनी है। प्रज्ञा परिजनों को अपनी क्षमता एवं स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप क्या करना और क्या कराना है। यह सब रंगीन बोलती और गाती हुई वीडियो फिल्मों द्वारा देखने-सुनने को मिल सकेगा। इन वीडियो कैसेटों को अपने टी.वी. पर वीडियो कैसेट प्लेयर द्वारा भी दिखाया जा सकेगा। माँग के अनुसार कैसेट तैयार किये जा रहे हैं।
सिनेमा घरों में जिस प्रकार बोलती चलती फिल्में दिखाई जाती हैं, उसी आधार पर छोटे साइज की मशीनें ऐसी बनाई गयी हैं, जिन्हें चार-पाँच सौ व्यक्ति तक देख-सुन सकें। इसमें कितने ही महत्त्वपूर्ण दृश्य पुरातन काल के ऐतिहासिक स्थानों तथा तीर्थों के है। साथ ही युग चेतना का स्वरूप समझाने वाले विज्ञजनों के प्रवचन भी है।
सरलता एवं प्रेरणा की दृष्टि से टेप रिकार्डर पर प्रज्ञा पुराण के पाँच दिवसीय कथा आयोजन सम्पन्न करने वाले टेपों एवं प्रज्ञा गीतों की सीरीज पहले ही बन चुकी थी। वह जहाँ भी पहुँची है, बड़ी आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद मानी गयी है। अब प्रवचनों की सीरीजें विभिन्न वर्ग समुदायों के लिए बनाई जा रही हैं। बच्चों के लिए कहानियाँ, वृद्धों के लिए धार्मिक कथाएँ, युवकों-प्रौढ़ों के लिए ऐतिहासिक आदर्शवादियों की जीवन गाथाएँ इसी सीरीज में हैं। इसके अतिरिक्त जीवन के प्रत्येक पक्ष पर नवयुग के अनुरूप मार्गदर्शन करने वाली टेप सीरीज भी बनी है। विद्यार्थी, अध्यापक, अभिभावक, बालक, व्यवसायी, किसान, पुरोहित, साधु-सन्त आदि वर्गों के लिए पृथक-पृथक सैट हैं, जिन्हें उन-उन वर्गों को एकत्रित करके सुनाया जा सकता है। इस प्रकार हर वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति में प्रगति की दिशा में आगे बढ़ चलने, ऊँचे उठ सकने का मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। हिलमिल कर रहने और हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने के सर्वोपयोगी टेप भी अभी तैयार किये गये हैं। इनके द्वारा अपने घर बैठे उच्च कोटि के विद्वानों के अपने मतलब के प्रवचन सुनने का आनन्द मिल सकता है। इतना ही नहीं परिजन अपने सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को किसी प्राणवान सत्संग गोष्ठी का लाभ अब घर बैठे दिला सकते हैं।
टेपों में एक अच्छाई यह है कि सुनने-सुनाने का प्रयोजन पूरा होने के उपरान्त पुरानी आवाज मिटा कर उन्हीं पर नये प्रवचन जिनकी इच्छा हो नये सिरे से टेप करा सकते हैं। इसे मिटाने और नये करने का पारिश्रमिक तीन रुपये है अथवा डाक से भी यह कार्य हो सकता है। भेजने और वापिस मँगाने का डाक खर्च बहुत लग जाता है, इसलिए यह कार्य हाथों-हाथ कराना ही उपयोगी पड़ता है।
यह टेप ग्रामोफोन रिकार्डों का काम करते हैं। एम्प्लीफायर द्वारा इनकी आवाज बढ़ाई जा सकती है और सभा-सम्मेलनों में मिलने वाला आनन्द घर बैठे स्वयं भी लिया जा सकता है तथा पड़ोसियों को भी उपलब्ध कराया जा सकता है। युग संगीत के अनेकों टेप इसी प्रयोजन से अलग से रिकार्ड कराये गये हैं।
गायत्री यज्ञ कराने या उसे कराने की विधि समझने के लिए अलग से टेप कराये गये हैं। टेप रिकार्डर मशीन, लाउडस्पीकर तथा कुछेक टेप एक बार खरीद लेने पर कोई भी व्यक्ति ऐसा वक्ता, गायक जेब में रख सकता है जो चौबीसों घण्टे अपना काम करता रहे और बदले में एक पैसा भी दक्षिणा का न माँगे। टेप रिकार्डर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बिजली का प्रबन्ध न होने पर वह बैटरी से भी चलता रह सकता है।
एक नयी योजना और आरम्भ करने का इन दिनों मन है। आठ मिलीमीटर सिनेमा फिल्मों के निर्माण का। इनके प्रोजेक्टर अब सब कहीं सरलता से मिल जाते हैं। ८ मिलीमीटर फिल्म प्रोजेक्टर, वीडियो प्लेयर एवं उसके कैसेट्स यह सब भी ऐसी सामग्री हैं, जो हर प्रज्ञापीठ थोड़ी पूँजी लगा कर अपने-अपने क्षेत्र में प्रचार अभियान का सूत्र संचालन भली प्रकार कर सकती है। सुविधा हो तो इसी कार्य के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति करके अपनी पहुँच के इलाके में युग चेतना का अलख जगाया जा सकता है। ऑडियो टेप दोनों ओर मिला कर एक घण्टे के भी हैं और डेढ़ घण्टे के भी। वीडियो टेप एक ही ओर रिकार्ड होते हैं एवं फिलहाल तीन घण्टे वाले कैसेट ही उपलब्ध हैं। बाजार भाव घटते-बढ़ते रहते हैं और क्वालिटी के अनुसार भी मूल्य में अन्तर पड़ता है, इनके बारे में जानकारी शान्तिकुञ्ज से यथा समय प्राप्त की जा सकती है।
घटिया व्यक्तित्व के वक्ता का माइक के प्रत्यक्ष सामने होने पर भी उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि ऊँचे स्वर के लिए उपरोक्त यंत्रों के माध्यम से अपने विचार व्यक्ति कर रहे हों, तो उन्हें सुनकर श्रोता प्रभावित होता है।
उपरोक्त निर्माणों की व्यवस्था अभी शान्तिकुञ्ज के छोटे स्टूडियो के अन्तर्गत ही कर ली गयी है। उसका स्वरूप एवं विस्तार भी छोटा है। अगले दिनों इसके बड़े विस्तार की आवश्यकता है। यह छोटा प्रचार तंत्र हर शाखा अपने यहाँ खड़ा कर लें और उसमें साप्ताहिक या दैनिक जैसी भी सुविधा हो आयोजन किये जाते रहें। ऐसी अभिरुचि के लोग देखने-सुनने के लिए बुलाये जाते रह सकते हैं। इस प्रकार वाणी द्वारा प्रचार करने का एक अत्यन्त सरल, सस्ता, सुविधाजनक एवं प्रेरणाप्रद मार्ग खुल सकता है।
यदि बड़ी पूँजी उपरोक्त कार्यों में लगाने को उपलब्ध हो तो इनके अतिरिक्त और भी कितनी ही विशेषताओं वाली मदें निर्मित की जा सकती हैं। सरकस जैसे मनोरंजन भी देखकर कइयों को जी बहलाने का अवसर मिलता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रक्रिया के अनुरूप अलग-अलग फिल्मों का निर्माण हो सकता है। देवताओं, ऋषियों, महामानवों की भावभरी गतिविधियों को देखने का कितनों को ही अवसर मिल सकता है। गाँधी जी ने बचपन में राजा हरिश्चन्द्र का नाटक देखा, वे उस आदर्शवादिता पर इतने मुग्ध हुए कि उसी दिन प्रतिज्ञा कर डाली कि मैं हरिश्चन्द्र जैसा सत्यवादी बनूँगा। वह व्रत उन्होंने आजीवन निबाहा। ऐसी ही प्रेरणादायक घटनाओं से भारत का इतिहास भरा पूरा है। उन्हें देखने-दिखाने का बिना पैसा खर्च किये अवसर मिलता रहे, तो आशा की जा सकती है कि अपने समय के लोगों में से कितने ही अपने जीवनक्रम में अनुकरणीय परिवर्तन कर सकते हैं। जिन मद्य, माँस जैसी बुराइयों के कारण, दहेज जैसी कुरीतियों के कारण अनेकों को अनेक प्रकार की यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, यदि उन्हें घटनाओं के रूप में देखने को मिले तो आशा की जा सकती है कि भावनाशीलों में से अनेकों उनका परित्याग किये बिना न रहेंगे।
सिनेमा का कितना प्रभाव और प्रचलन है, उसे सभी जानते हैं। कुल मिलाकर अखबारों के जितने ग्राहक हैं, उसकी तुलना में सिनेमा दर्शकों की संख्या कहीं अधिक है। कथन की अपेक्षा दृश्य सदा अधिक प्रभावशाली होते हैं। फिल्मों ने कामुकता की, फैशन परस्ती की, अपराधों की जो लहर पैदा की है, नई पीढ़ी पर जो प्रभाव डाला है, उससे कोई अपरिचित नहीं है।
फिर यदि आदर्शवादिता की, जीवनोपयोगी जानकारियों की लहर पैदा करने के लिए बिना टिकट वाले छोटे सिनेमाओं का प्रचलन किया जाय तो उसका प्रभाव आश्चर्यजनक हो सकता है। शान्तिकुञ्ज का स्टूडियो यदि लगातार फिल्में बनाता रहे और उनको इस संगठन के सदस्य अपनी थोड़ी सी फीस के बदले प्राप्त कर सकें, शाखा संगठनों का बीस पैसा नित्य वाला फण्ड उस खर्च का निपटारा करता रहे, जो घाटा पड़े उसे केन्द्र सहता रहे, तो इस योजना के अनुसार प्रायः उतने ही दर्शक नियमित रूप से मिलते रह सकते हैं, जितने कि बड़े सिनेमाओं में मंहगी टिकट खरीद कर देखने वाले पहुँचते हैं। सिनेमाओं में दिखाई जाने वाली अश्लीलता एवं हेय घटनाओं ने यदि लोगों के दिमाग खराब किये हैं, तो कोई कारण नहीं कि उपरोक्त योजना के अनुसार उतने ही लोगों को सुधार की दिशा में अग्रसर न किया जा सके।
सरकारी प्रचार गाड़ियों में १६ एवं ८ मिलीमीटर के फिल्म दिखाये जाते हैं, वह प्रबन्ध हो सके और हर गाँव में सदस्यों को दिखाने वाला सिनेमाघर बन सके, तो प्रचार की एक नई धारा प्रवाहित होगी। ८ मिलीमीटर का पर्दा कुछ छोटा होता है और अपेक्षाकृत कुछ कम आदमी उसे देख सकते हैं। ८ मिलीमीटर के बारह हजार रुपये के आते हैं। यदि प्रचार की दृष्टि रखनी है, मुफ्त दिखाना है और अधिक लोगों को उससे लाभान्वित करना है तो फिर छोटे देहातों के लिए ८ मिलीमीटर ही उपयुक्त पड़ेगा। वह बिजली के स्थान पर १२ वोल्ट की बैटरी से भी चल सकता है।
यही बात टेप रिकार्डरों के बारे में है, यदि वे अपने लिए स्वयं बनवाये जाय और बिना मुनाफे के सदस्यों को दिये जाय, तो बाजार की कीमत से आधी कीमत में सदस्यों को मिल सकेंगे। इसी प्रकार फिल्म बनाने वाले पात्र तथा व्यवस्थापक स्थाई नौकरी पर रखे जायें तो स्वयं सेवक भावना वाले भोजन, वस्त्र जितने जेब खर्च पर भी आसानी से मिल सकते हैं। प्रज्ञा मिशन बहुत बड़ा है उसमें से लोकहित कार्यों के लिए हर स्तर के हर योग्यता के कार्यकर्ता मिलते रहे हैं। फिर कोई कारण नहीं कि इस योजना के लिए उपयुक्त कार्यकर्ता न मिल सकें और उन्हें प्रशिक्षित न किया जा सके। कठिनाई एक ही है प्रारम्भिक पूँजी की। प्रकाशन के लिए जिस प्रकार एक करोड़ से काम चल सकता है। स्वाध्याय उद्देश्य की पूर्ति में इतने से काम चल सकता है तो वाणी का सत्संग प्रयोजन पूरा करने के लिए भी इतनी ही पूँजी काम चलाऊ हो सकती है। अन्धविश्वासी यदि अपने समुदाय में रहे होते तो कोई भी बाबा इतना पैसा मन्दिर, भण्डारा आदि के नाम पर सहज ही जुटाने और खर्च करा डालने में सफल हो सकता था। पर कठिनाई एक ही है कि विचारशीलता जहाँ आती है, वहाँ श्रद्धा समाप्त हो जाती है। जिनके पास नहीं है, वे तो भी ऐसे कामों में अपनी हैसियत से अधिक खर्च कर सकते हैं। पर जो जितना बड़ा विचारशील बनता है, वह उतना ही बड़ा बकवादी किन्तु उदारता की दृष्टि से शून्य होता जाता है। उसके पास पैसा होते हुए भी देने के नाम पर अनुदारता ही प्रदर्शित करता है। यही कारण है कि लेखनी और वाणी से सम्बन्धित दोनों योजनाओं के लिए एक-एक करोड़ जैसी राशि के लिए मिशन को मन मसोस कर बैठना पड़ता है।
जो हो अपने स्वल्प साधनों से दोनों ही योजनायें पहले की अपेक्षा नये कार्यक्रम और नये उत्साह के साथ आरम्भ की गई हैं। अपने पास जो स्वल्प साधन थे, वे झोंक दिए गए हैं और आशा की गई है कि भावनाशील लोग कहीं न कहीं निकलेंगे और इन स्वाध्याय तथा सत्संग की सृजनात्मक योजनाओं को कार्यान्वित करने में हाथ बँटायेंगे।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
230. प्रतिभाएँ समय की माँग पूरी करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सामान्य क्षमताओं की उपलब्धि इतनी ही सीमित होती है कि अपना और परिवार का गुजारा उसके सहारे हो सके। करोड़ों व्यक्ति इतना ही कठिनाई से कर पाते हैं। न उनमें विशेष उत्साह, साहस होता है न इतना पुरुषार्थ कि लोक कल्याण की बात सोच सकें और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय अभिवन्दनीय पदचिह्न छोड़ सकें। ऐसी स्फुरणा एवं अन्तःप्रेरणा बिरलों में ही उठती है। जिसमें उठती है वे विशेष प्रतिभा सम्पन्न एवं क्षमतावान् भी होते हैं।
बुद्ध, शंकराचार्य, समर्थ रामदास, चाणक्य, दयानन्द, विवेकानन्द जैसे महामानव शरीर की दृष्टि से सामान्य ही थे। उनकी पारिवारिक या आर्थिक कोई अनुपम विशेषता न थी। पर संचित प्रतिभा ने समय पर उछाल खाया और ऐसे काम कर सके, जिनके लिए संसार उन्हें चिरकाल तक स्मरण रखेगा। उनके पदचिह्नों पर और भी अनेकानेक चले हैं।
प्रतिभावान सार्वजनिक हित के लिए ही उत्पन्न होते हैं। पेट भरने का काम तो अन्धे, गूँगे, बहरे भी कर लेते हैं। मध्यकाल में ऐसा प्रचलन था कि उस क्षेत्र में जन्मी असाधारण सुन्दरी को अपनी गीत, वाद्य, नृत्य जैसी कला के माध्यम से सार्वजनिक मनोरंजन करना पड़ता था। वह किसी व्यक्ति विशेष की पत्नी नहीं बनती थी। नगरवधू कहलाती थी। नगरवधू का अर्थ वैश्या नहीं सार्वजनिक मनोरंजन के लिए समर्पित व्रतधारी महिला होती है। आम्रपाली नगरवधू थी। वह असाधारण सुन्दरी थी। प्रतिभाशाली और मनोरम थी। पीछे वह बुद्ध धर्म में दीक्षित होकर सार्वजनिक धर्मधारणा के क्षेत्र में उतर पड़ी। विशिष्ट प्रतिभाएँ सार्वजनिक सेवा क्षेत्र में उतरें तभी उनकी विशिष्टता सार्थक होती है।
इन पंक्तियों में दो प्रतिभाओं का उद्बोधन किया जा रहा है। एक कलाकार दूसरे वैज्ञानिक। यह दोनों ही ऐसे हैं, जो यदि चाहें तो अपनी ईश्वर प्रदत्त विभूति का असंख्यों की हित साधना में प्रयोग कर सकते हैं।
गायन, वादन, नर्तक स्तर के कलाकार अपनी विशिष्टता से जन साधारण का सहज ही मन मोहते हैं। यदि उस सम्मोहन को आदर्शों की ओर मोड़ा जा सके, तो उसका जादुई प्रभाव होता है। एक नाटक मंडली गुजरात में हरिश्चन्द्र का नाटक खेल रही थी। फूहड़ रही होती तो प्रभावित होना तो दूर देखने के लिए भी कोई अपना समय खराब न करता। उस नाटक के दर्शकों में एक बालक गाँधी भी था। वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि वहीं व्रत ले बैठा कि मैं भी हरिश्चन्द्र की तरह व्रतशील रहूँगा। वह प्रतिज्ञा निभी और बालक अन्ततः विश्व वन्द्य महात्मा गाँधी होकर रहा।
सिनेमा ने इन दिनों कामुकता और उच्छृंखलता को कितना भड़काया है, इसे सभी जानते हैं। वह भी एक प्रकार के नाटक ही है। सो भी घटिया, क्योंकि प्रत्यक्ष किसी का व्यक्तित्व देखने पर धूप-छाँव की शक्लें देखने में जमीन-आसमान जितना अन्तर होता है। जब सिनेमा नहीं था तब नाटक अभिनय ही सर्वत्र मनोरंजन की महती आवश्यकता पूरी करते थे। अभी भी वे रासलीला, रामलीला, नौटंकी, स्वांग आदि के रूप में जहाँ-तहाँ भौंड़े रूप में देखे जा सकते हैं, उन्हें देखने भी भारी संख्या में जनता आती है। भारत देहात में बसा और अशिक्षितों का देश है। बड़े सिनेमा उस क्षेत्र में नहीं चल सकते और न सफल हो सकते हैं। वहाँ के लिए अभी भी छोटे-बड़े नाटकों की गुंजायश है।
इस माध्यम से प्रचलित कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लिया जा सकता है। देश के सामने प्रस्तुत अनेकानेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया जा सकता है। मनोरंजन का आकर्षण तो उनमें प्रत्यक्ष ही है। किया यह जाना चाहिए कि हर क्षेत्र में छोटी-बड़ी नाटक कम्पनियाँ गठित की जाय। लोग खुशी विनोद के समय जब बैंड बाजों में इतना पैसा खर्च कर देते हैं, तो कोई कारण नहीं कि विवाह शादियों में एकाकी और पर्व त्यौहारों पर मिल-जुल कर उसकी अर्थ व्यवस्था पूरी न कर सकें।
सिनेमा का प्रचलन कितना ही क्यों न बन गया हो, नाटक की विशेषता अपने स्थान पर कायम रहेगी और उसका यदि बुद्धिमत्तापूर्वक सुसंचालन किया जा सके, तो काम करने वाले कलाकार के लिए निर्वाह की समस्या उत्पन्न न होगी। जिनके कण्ठ मधुर हैं, जिनमें इस प्रयोजन की स्फूर्ति एवं प्रतिभा है, उन्हें अन्य कामों में जीविका उपार्जित करने की अपेक्षा ईश्वर प्रदत्त इस विभूति का उपयोग जनमानस को उत्तेजित करके उसे आदर्शों की दिशा में मोड़ने-मरोड़ने के लिए करना चाहिए।
कौन, कहाँ, किस प्रकार क्या करे, इन प्रश्नों का उत्तर शान्तिकुञ्ज आकर प्राप्त किया जा सकता है। मिशन ने इन दिशाओं में भी कदम बढ़ाये हैं। वीडियो, छोटे साइज के सिनेमा, टेप आदि की कई योजना हाथ में ली है। साथ ही कुछ नाटक मंडलियाँ भी गठित करने का विचार है। जिनमें ऐसी कलात्मक प्रतिभा हो, वे हरिद्वार आकर प्रशिक्षण भी प्राप्त कर सकते हैं। योग्यता भी निखार सकते हैं तथा निर्वाह साधन भी प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हें संगीत का कुछ अभ्यास है, जो मीठे गले वाले और गायक भी हैं, जिनमें नृत्य की उमंग तथा थिरकन है वे नाटक मण्डली के अंग बन सकते हैं। कुछ दिन शान्तिकुञ्ज में अभ्यास करके पीछे अपनी निजी मण्डली बना सकते हैं। अब इस क्षेत्र में भी कितने ही नये प्रयोग हुए और नये स्वरूप गढ़े गये हैं, उनकी जानकारी घर बैठे तो नहीं मिल सकती। प्रशिक्षण एवं परामर्श, अनुभव एवं अभ्यास हर काम के लिए चाहिए। यह क्षेत्र तो विशेष रूप से ऐसा है, जिसमें प्रशिक्षण के लिए समय, श्रम, मनोयोग को विशेष रूप से लगाना होता है।
जो अपना स्वतन्त्र कार्यक्रम चलाने की स्थिति में हैं, वे अपनी सूझबूझ से भी काम आरम्भ कर सकते हैं। जिनका पूर्व अनुभव कम है किन्तु प्रतिभा की कमी नहीं वे हरिद्वार आकर आवश्यक प्रशिक्षण, परामर्श प्राप्त कर सकते हैं।
आवश्यक नहीं कि गर्दी और सज्जा वाली नाटक मंडलियाँ ही गठित की जाय। छोटे रूप में उन्हें मात्र भजन मंडलियों के रूप में भी गठित किया जा सकता है। इसके लिए गाँव-गाँव संगीत विद्यालय चलाया जाय तो उन शिक्षार्थियों में से ही ऐसे कई लोग निकल सकते हैं, जो सामान्य समय में अपना घर का काम करें और जब आवश्यकता पड़े, तो संगीत मण्डली के कार्यक्रम में सम्मिलित हो जाया करें। कठिन तो शास्त्रीय संगीत पड़ता है। सुगम संगीत तो दो तीन महीने के अभ्यास से आ जाता है। सामान्य गाना और बजाना सीखने, सिखाने के लिए इतनी अवधि पर्याप्त होनी चाहिए। ढपली, मंजीरा, घुँघरू, चिमटा, करताल से काम चल सकता है। मण्डली में एक आदमी हारमोनियम भी जानता हो तो और भी अच्छा। सप्ताह में एक या दो दिन पढ़ना-पढ़ाना और बाकी दिन अभ्यास करना इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त होने चाहिए। इस प्रकार एक शिक्षक ही कई बारी-बारी से संगीत पाठशालाएँ चला सकता है।
जो इस योजना को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उठावे वे उपरोक्त बाजे भी अपनी देख-रेख में विक्रय के लिए तैयार रखें ताकि सीखते समय या मण्डली में बाहर कहीं जाते समय बाजे किसी से माँगने की जरूरत न पड़े।
दूसरी माँग उनकी है जिनके दिमाग वैज्ञानिक, मेकेनिक स्तर के हैं। वे कुछ ऐसे आविष्कार कर दिखाये जो देहाती समुदाय की कठिनाई को हलकी कर सकें। यहाँ बहुत बड़े आविष्कारों या आविष्कारकों की चर्चा नहीं की जा रही वरन् देहातों में कृषि में काम आने वाले छोटे सस्ते उपकरणों की बात हो रही है। यों कइयों के दिमाग इस दिशा में काम करते हैं, कुछ बनाते भी हैं, पर उनके प्रसार का कोई सुयोग नहीं बन पाता। सरकारी महकमें भी कुछ उलट-पुलट करते रहते हैं। किन्तु वह सब चिह्न पूजा जैसा ही होता रहता है। यदि काम की कोई चीज बनी होती और प्रसार का समुचित प्रबन्ध हुआ होता तो कोई कारण नहीं कि उनसे जन साधारण की सुविधा में वृद्धि न हुई होती और उस प्रयास को सफलता का श्रेय न मिला होता।
कुट्टी काटने की मशीन सफल हुई है और वह गाँव-गाँव अधिकांश किसानों के घर पहुँच चुकी है। इसी प्रकार बाल बेयरिंग की हलकी चलने वाली चक्की, धान कूटने का मूसल, दूध दुहने की मशीन, नीचे से ऊपर पानी फेंकने वाले पम्प, बैलगाड़ियों को हलकी बनाने का नमूना, जहाँ बिजली नहीं है, वहाँ के लिए पंखा, कम ईंधन खर्च करने वाला चूल्हा, बिना बहुत बिगाड़ हुए सीधी राह चलने वाला चरखा, साग काटने की मशीन, रोटी या पूड़ी बेलने वाली मशीन, सूप और चलनी का काम हलका करने वाली मशीन, कपड़ा धोने की मशीन आदि-आदि।
यों अभी भी इस दिशा में कइयों के दिमाग चले हैं, पर उनने जो कुछ बनाया है वह सभी ऐसा है जो मात्र बिजली से ही चल सके। कठिनाई यह है कि एक तो बिजली हर गाँव तक पहुँची नहीं है, जहाँ पहुँची है वहाँ हर समय उसके मिलने का भरोसा नहीं। फिर अनपढ़ लोगों के लिए उनके प्रयोग में भूल हो जाने पर जान जोखिम जैसे खतरे की कम आशंका नहीं है। बहुत दिन पहले अहमदाबाद की एक औद्योगिक प्रदर्शनी में हाथ से धकेल कर चलाये जाने वाले ट्रैक्टर देखे गये थे और टीन सीट के बने हुए ऐसे मकान थे जो एक जगह से खोल कर दूसरी जगह आसानी से ले जाये जा सकते थे। सस्ते वाले पाखाने भी थे। दाम भी बहुत अधिक नहीं था। भारत जैसे देश में ऐसी ही मशीनों के आविष्कार जन साधारण की सुविधा के हेतु बन सकते हैं। इस ओर सरकारी महकमें में भी कुछ चिह्न पूजा करते रहते हैं। पर उनके निर्धारणों का न तो प्रसार हुआ और न वे ऐसे थे जो वस्तुतः काम आ सके। उदाहरण के लिए सूर्य चूल्हा है। वह बरसात के दिनों में बेकार, सर्दी के दिनों में भी वह लगभग बेकार, मात्र गर्मी के दो तीन महीने काम आ सकता है। ऐसी वस्तु बनाकर ढिंढोरा तो पीटा जा सकता है पर वह लोकप्रिय न होने से उपयोगिता के अभाव में चल नहीं सकता। होना यह चाहिए कि देहात की आवश्यकता को देखते हुए सरलता पूर्वक चल सकने वाले उपकरण हो। अम्बर चरखा आये दिन खराब पड़ा रहता है, इसलिए इन झंझटों से बचने के लिए जहाँ आवश्यकता है वहाँ पुराने ढंग के चरखे से काम ले लेते हैं और नयों के सम्बन्ध में निरर्थक होने की कानाफूसी करते हैं।
सुनने में तो यह भी आया था कि भाप से चलने वाली मोटर बनी है। मोटर न सही ऐसी बिना बैलों की धकेल गाड़ी भी बन सके, तो उससे देहाती काया कल्प ही हो चले और शहर से गाँव को, गाँव से शहर को माल लादने के लिए ऊँट, बैल या घोड़े की मंहगी सवारी का खर्च पड़ने की कठिनाई सरल हो जाय। ऐसी दशा में गाँव वाले शाक-भाजी की खेती करके अपेक्षाकृत अधिक फसल उगाने और अधिक कमाने में समर्थ हो सकते हैं।
भारत में ऐसे आविष्कारकर्ता, मिस्त्री, कारीगरों की और उन्हें देहात में ही ढाल सकने वाले कारखानों की जरूरत है। संसार के वैज्ञानिक एक से एक बढ़िया आविष्कार करते हैं, उनसे सारा संसार लाभ उठाता है। पर हम इतना भी नहीं कर सकते कि देहात के घरों में काम आने वाली छोटी-छोटी चीजें भी बना सकें और उनके टिकाऊ होने की गारण्टी दे सकें। यदि ऐसा बन पड़े तो साधारण लागत के कारखाने कोई भी खुशहाल व्यक्ति अपनी मामूली पूँजी में खड़े कर सकता है। इससे ७० प्रतिशत देहाती जनता यह अनुभव कर सकती है कि यहाँ अपनी आवश्यकता समझने वाले और अपने काम की चीजें बना सकने वाले वैज्ञानिक भी हैं। भले ही वे एम. ई., एम. टेक. न होकर साधारण मिस्त्री कारीगर ही क्यों न हो।
ऐसी प्रतिभा जिनमें हो उन्हें अपना दिमाग देहाती आवश्यकताएँ सोचने और उन्हें सरल बनाने लायक यंत्र उपकरण बनाने में अपनी प्रतिभा नियोजित करनी चाहिए। जिनके पास पूँजी है, उन्हें इस तरह के कारखाने लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। इन वस्तुओं की हाट बाजारों में प्रदर्शनियाँ लगाई जाय तो उनकी बिक्री सहज ही बड़ी संख्या में हो सकती है।
संसार में दिमाग वालों ने जाने क्या से क्या बना डाला, पर हम इतना भी न कर सके कि बैल के कन्धे को खराब करने वाले पुराने ढर्रे का जुआ तक बदल सके। इसका अर्थ एक ही है कि हमें अपने देश की आवश्यकताओं का या तो ज्ञान नहीं है। यदि है तो दिमाग ऐसे ठस्स हैं, जो विलायती कामों की नकल करना भर जानते हैं। निजी सूझबूझ कुछ काम करती ही नहीं।
विज्ञापन के लिए देहातों में नई एवं उपयोगी वस्तुएँ विज्ञापित प्रचलित करने के लिए देहाती मेले लगाने की योजना सर्वोत्तम है। वहाँ अखबारों में विज्ञापन छपाने का असर नहीं हो सकता। उस क्षेत्र में विचार फैलाने या वस्तुओं का विज्ञापन करने के लिए प्रदर्शनीनुमा मेले लगाने से पूरे क्षेत्र में वस्तुओं का विज्ञापन हो जाता है। मेले लगाने की योजना एक समिति के अन्तर्गत चले। दुकानदारों को, तमाशे वालों को उसमें आमंत्रित किया जाय। उनसे मेला खर्च का चन्दा वसूल किया जाय। यदि इसमें लोग आनाकानी करें, तो कुछ पूँजी लगाकर बच्चों को झुलाने के चरखे, जादू के खेल, मिठाई, चाट-पकौड़ी, पान-सुपाड़ी आदि की दुकानों की व्यवस्था करके अपने आदमी नौकरी या ठेके पर बिठा दिये जाय। इससे भी मेले का खर्च निकल आवेगा।
दीवाली से होली तक का मौसम मेलों के लिए अनुकूल पड़ता है। कुछ आगे या कुछ पीछे की योजना भी बन सकती है। छाया के लिए टेन्ट, रोशनी का सामान तथा दुकानों में खेलों की साधन सामग्री इसके लिए आवश्यक पड़ेगी। मेला तीन चार दिन का रखा जाय। पहले से व्यवस्था बनाने और उखाड़ कर ले जाने के लिए कुल मिलाकर दस दिन में एक मेले का कार्यक्रम पूरा हो जायेगा, एवं महीने में तीन या पाँच एवं छः महीने की अवधि में १५ से १८ तक। एक वर्ष की इस योजना के लिए एक ट्रक रखा जाय। पुराना ट्रक मरम्मत करा लिया जाय और आवश्यक सामान जुटा लिया जाय तो अपनी निज की पूँजी एक लाख हो तो भी किसी प्रकार काम चलाया जा सकता है। रात को अपना नाटक, दिन में अपने वैज्ञानिक उपकरणों का विज्ञापन चलता रहे। यह मेले अपना खर्च भी निकालते रहेंगे और इतना विज्ञापन कर देंगे जिससे अपनी योजना व्यापक एवं सफल होने में कठिनाई न पड़े।
कलामंच को विकसित करके उसमें काम कर सकने वालों को विनिर्मित करने के लिए गाँव-गाँव संगीत विद्यालयों की स्थापना आवश्यक है। इसी प्रकार बहुत बड़े वैज्ञानिकों से आशा छोड़कर मध्यवर्ती कारीगरों को कहा जाना चाहिए कि वे देहाती सुविधा के उपकरणों के निर्माण में अपनी प्रतिभा का उपयोग करें। इन सबका प्रचार प्रसार देहाती मेलों के माध्यम से ठीक प्रकार बन सकेगा, इसलिए उनके प्रचलन की योजना भी बननी ही चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार