201. असन्तुलन को मिटाने वाली अवतार प्रक्रिया का आविर्भाव सन्निकट
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
हम सब इन दिनों ऐसे संकटों भरी बेला में जी रहे हैं जिसकी भयानकता मात्र दूरदृष्टि से ही देखी जा सकती है। चर्म चक्षुओं की समीपता से तो पेट प्रजनन में उत्पन्न व्यवधान ही संकट प्रतीत होते हैं। उन्हें मृत्यु, बुढ़ापा तो क्या, बहुत खा मरने पर पेट फूलने तक का निकटवर्ती भविष्य तक दिखाई नहीं पड़ता।
पृथ्वी गोल है, घूमती है और सूर्य परिक्रमा में सनसनाती भ्रमण करती है इस सुनिश्चित तथ्य को किसी मूढ़मति के गले उतारना कठिन है। कर्मफल के अवश्यम्भावी होने पर लोग विश्वास नहीं करते। असंयम आलस्य और अपव्यय के दुष्परिणाम तत्काल सामने नहीं रहते इसलिए उनकी भी उपेक्षा होती है। नशेबाजी को तत्काल मजा दिखता है, धन यश स्वास्थ्य और परिवार की बर्बादी पर वे कहाँ सोचते हैं, ऐसी ही अदूरदर्शी मूढ़मति का इन दिनों सर्वत्र साम्राज्य है। दूर तक दृष्टि पसार कर बनाने वाली परिस्थितियों का मूल्यांकन कर सकना उन लोगों के लिए भी सम्भव नहीं हो रहा है जो परिणति सोचने और समय रहते कुछ बचाव करने तक की आवश्यकता नहीं समझते।
निस्सन्देह बहुमत उन्हीं का है जिन्हें सामने भर की स्थिति समझ सकने का दृष्टि दोष सवार है। नेत्र ज्योति घट जाने पर अति समीप का ही कुछ दीखता है। दूरी पर रखी चीजें तक सूझती नहीं। बकरे कटते समय तक चारा खाते और साथी से टकराते रहते हैं। धूमधाम और देन दहेज के विवाह करने वालों को दूरगामी दुष्परिणामों का भान कहाँ होता है? मानवी दुर्भाग्यों में यह विडम्बना सबसे निकृष्ट और दुःखद है कि उसे इर्द-गिर्द नजर पसार कर घटित होने वाले घटनाक्रमों को देखने और उनकी परिणति का अनुमान लगाने तक की फुरसत नहीं मिलती या आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। सबके साथ जुड़े हुए अपने भविष्य की सूत्र शृंखला का पता तक नहीं चलता। जो हो रहा है उसके भले बुरे परिणामों से कल परसों हमें तथा हमारे बच्चों को भी प्रभावित होना पड़ेगा, यह सोचे बिना स्वार्थ तक तो नहीं सधता फिर परमार्थ की बात तो बहुत दूर की रह जाती है।
बुद्धिमान समय को पहचानते हैं और विषम परिस्थितियाँ सामने होने पर अभ्यस्त ढर्रे को बदलने में आना कानी नहीं करते। अग्निकाण्ड, अन्धड़, आक्रमण, उपद्रव, दुर्भिक्ष, बाढ़, दुर्घटना जैसी परिस्थितियों में जागरूकों को यह निर्णय करने में देर नहीं लगती कि विषम परिस्थिति का सामना करने में विलम्ब नहीं लगना चाहिए भले ही इससे काम काज में हर्ज क्यों न होता हो। जो ऐसे अवसरों पर उपेक्षा बरतते है वे आत्म प्रताड़ना और लोक भर्त्सना सहने के अतिरिक्त समर्थ होते हुए भी निष्ठुरता अपनाने के कारण समझदारी की नजर में गिरते असहयोग भुगतते और भविष्य को धूमिल करते हैं।
आज का अनास्था असुर पौराणिक काल के महादैत्यों से कहीं अधिक भयंकर और दुर्दान्त है उसके सामने हिरण्यकश्यपु, वृत्तासुर, भस्मासुर, महिषासुर, रावण, कुम्भकरण, कंस, जरासन्ध आदि सभी छोटे पड़ते हैं। वे शरीरधारी थे और क्षेत्र विशेष में निवास करते थे। उनके कुकृत्य भी थोड़े से थे इसलिए निरस्त करने वाली शक्तियों को बड़ा ताना बाना नहीं बुनना पड़ा। वे सीधे भिड़ गये और अवतारी पराक्रम ने मल्ल युद्ध में उन्हें पछाड़ कर रख दिया। पाप आज के अनास्था असुर क सम्बन्ध मे वह रणनीति काम नहीं आती। कारण कि अनास्था अदृश्य है, वह जन जन के मन-मन को आवृत्त आच्छादित किये हुए है। उसकी आकृति और प्रकृति सनक जैसी है जो उपचारों के लिए सिर दर्द रहती है और जिस पर चढ़ बैठती है उसे यह पता नहीं चलने देती कि मुझे किसी संकट ने अपने जाल जंजाल में जकड़ रखा है। ऐसी दशा में उससे पिण्ड छुड़ाना कितना कठिन पड़ता है इसे वे लोग ही समझ सकते है जिन्हें ऐसे असमंजस से निपटने की आफत उठानी पड़ी है।
लोक मानस में दुष्प्रवृत्तियाँ भर जाने की भयावह प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी है। आग में हाथ देने वाला बिना जले कैसे रहे? विषपान करने वाले का प्राण कैसे बचे? घड़े भर मदिरा पी जाने पर सन्तुलन कैसे निभे? मनःस्थिति में विकृतियाँ भरी नहीं कि परिस्थितियाँ संकटापन्न हुई। नियत की क्रिया प्रतिक्रिया व्यवस्था से बच निकलने की कोई पगडण्डी नहीं। पैरों में आये दिन काँटे चुभते देखे जा सकते हैं। राह में रोड़े बिखेरने वालों को पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ रही हैं। बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाले मुँह सुजाए फिरते हैं। अनास्था अपनाने की परिणति हाथों हाथ सामने आ रही है। असंयम ने मनुष्य को दुर्बल और रुग्ण बनाकर रख दिया है। दुर्गतिग्रस्त मस्तिष्क की हरकतें दुर्गति का ऐसा चक्रव्यूह रच रही हैं जिसमें बाहर निकलने का मार्ग दिखता ही नहीं। अपव्यय और आलस्य को अपना लेने के बाद अर्थ संकट से उबरने की सम्भावना दीखती नहीं। मर्यादाओं की खुली अवज्ञा करने पर पारिवारिक वातावरण में विषाक्तता भरती जाती है और उसमें रहने के लिए विवशता में सराय या जेलखाने से अच्छा अनुभव होता ही नहीं। अब परिवारों के घोंसले धरती के स्वर्ग बनकर कहाँ रह रहे हैं। आँगनों में मात्र स्वार्थों कर शतरंज बिछी रहती है और एक दूसरे को मात देने की चाल ढूँढी जाती है। समाज की स्थिति ऐसी है जिसमें जंगल का कानून ही सर्वमान्य है। जिसकी लाठी तिसकी भैंस का मत्स्य न्याय अब मनुष्यों ने भी प्रकृति व्यवस्था कह कर अपनाना आरम्भ कर दिया है। ऐसी दशा में नीति न्याय की बात कौन सुने? सद्भाव अब आत्मिक उपादान नहीं रहा उसे शिष्टाचार की विडम्बना के रूप में ही स्वीकारा गया है। फलतः एक दूसरे की जेब काटने की घात में घूमते रहते हैं। मनुष्यों के रूप में भेड़ियों, शृंगालों के झुण्ड ही अपनी-अपनी वाणी बोलते और चित्र विचित्र क्रियाएँ करते रहते हैं। प्रस्तुत हलचलों में से यह ढूँढ निकालना कठिन है कि इससे पीछे आदर्शों के लिए भी कहीं कोई स्थान रहा है या नहीं? जो हो रहा है उसे व्यर्थ ही नहीं अनर्थ भी कहा जा सकता है। सार्थक तो आदर्श भरा पुरुषार्थ ही हो सकता था। अब उसे अवैध सन्तान की तरह अपने अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं।
भ्रष्ट विचारणा की परिणति दुष्ट गतिविधियों में हुई है। फलतः समस्याओं, विपत्तियों, विग्रहों और विभीषिकाओं के घटाटोप समूचे विश्वाकाश में उमड़ने-घुमड़ने लगे हैं, दुर्बलता, रुग्णता, दरिद्रता, वितृष्णा, उद्विग्नता आशंका से आतंकित मनुष्य जी किस प्रकार लेता है यही आश्चर्य है। इतने विषाक्त वातावरण में भी मनुष्य की आत्मा का दम घुट नहीं गया, इसे एक अपने ढंग का अनोखा आश्चर्य कहना चाहिए। अपना युग वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत किये गये आश्चर्यों और श्रीमन्तों द्वारा उत्पन्न किये गये अजूबों का समय है। इसे एक अनबूझ पहेली ही कहना चाहिए कि वैज्ञानिक बौद्धिक और आर्थिक प्रगति के तूफानी बवण्डरों की ऊँचाई जहाँ आकाश चूमने लगी है उसे मनुष्य की अपराधी प्रवृत्तियों ने और उसकी नारकीय परिणतियों ने भी बेहतर निचोड़ कर रख दिया है। इसे प्रगति कहा जाय या अवगति कुछ ठीक से कहते नहीं बनता।
मूर्धन्यों के कन्धों पर अपनी समर्थता से जन जीवन की सुविधा सुरक्षा और प्रगति की परिस्थितियाँ बनाने का उत्तरदायित्व था, पर उनने उल्टे पैरों उलटी दिशा से भूत पलीत की तरह चलना आरम्भ कर दिया है। शासनाध्यक्षों का ध्यान महायुद्ध की, महाविनाश की सामग्री जुटाने और एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ में संलग्न है। धर्माध्यक्षों ने अपने को देवताओं का एजेन्ट घोषित करके चित्र विचित्र भ्रान्तियों में भावुकों को भरमाने और चेली चेलों की जेब काटते रहने से बढ़कर और कोई धन्धा सूझता नहीं। वे इतने सस्ते और इतने लाभदायक धन्धे से निरत होने के लिए किसी शर्त पर तैयार नहीं। वैज्ञानिकों, साहित्यकारों की कभी तूती बोलती थी और वे जन मानस की उत्कृष्टता बनाये रहने की जिम्मेदारी संभालते थे पर वैसा कुछ रह नहीं गया है। इन सभी बुद्धिजीवियों ने श्रीमन्तों की स्वेच्छा से गुलामी स्वीकार कर ली है। अब श्रीमन्त ही साहित्यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी, मनीषी की मनचाही भूमिका अपनी थैली के बल पर निभा लेते हैं। उन बेचारों का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व रह नहीं गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर वे मालिकों के लिए इनके इशारे पर करते हैं। जब सभी को सुविधा प्रिया है तो वे ही क्यों आदर्शवादिता के झंझट में पड़कर गरीबी अपनायें और कष्ट उठायें।
श्रीमन्त तो सच्चे अर्थों में लक्ष्मी के पति होने के कारण नगद नारायण बन गये हैं। उन्हें वे ही व्यवसाय प्रिय है जिनमें उनकी जेब गरम हो। इसके लिए नशे उगाने, चकले चलाने, बूचड़खाने बनाने, कामुकता भड़काने जैसे साधनों में पूँजी लगाना श्रेयस्कर जँचा है। लोगों के तेवर बदलते देखे तो अपने को धर्मात्मा विज्ञापित करने के लिए देवालय बनाने की कौड़ी खोज लाती है।
इन परिस्थितियों की परिणति क्या हो रही और क्या होने जा रही है। इसका अनुमान लगाने वालों को भयाक्रान्त रोमांचित होना पड़ता है। अपराधों की बाढ़, बीमारियों का प्रकोप, अर्ध विक्षिप्त स्थिति का मस्तिष्क आये दिन के उपद्रव विग्रह, तूफानी बवण्डरों की तरह उफनते और सब कुछ निगल जाने की धमकी देते हैं। अणुयुद्ध से महाविनाश, परीक्षण विकिरण में अपंगता, जनसंख्या विस्फोट ईंधन की समाप्ति वायु प्रदूषण, खाद्य प्रदूषण जैसे संकट आज क्या कर रहे हैं और कल क्या करेंगे। इसकी चर्चा अब चौराहों पर होती हैं। उसे भविष्य वक्ता का कथन नहीं यथार्थता का प्रत्यक्ष दर्शन कहा जा सकता है। प्रस्तुत विकृतियों से विक्षुब्ध प्रकृति ने प्रताड़ना करने और बदला लेने का निश्चय किया है वह उन्मत्त हथिनी की तरह इस समूची हरियाली को कुचल डालने के लिए चिंघाड़ने लगी है। ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने, दम घुटने, हिम युग आने दावानल में सब कुछ जल जाने, महाप्रलय का दृश्य उपस्थित होने जैसी आशंकाएँ सामने हैं। इससे जो बच रहेंगे और उन्हें लाखों वर्ष पूर्व वाले आदिमकाल के नर वानर के रूप में रहने के लिए बाधित होना पड़ेगा और अनाथ जीवन जीना पड़ेगा।
प्रकृति का ऐसा उद्धत प्रकोप पिछले दिनों चिरकाल से ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ जैसा इन दिनों हो रहा है। ऋतुएँ अपना समय धर्म छोड़ रही है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि क ऐसे ज्वार भाटे कभी आये हो ऐसा इतिहासकारों की जानकारी में नहीं। भूकम्प और ज्वालामुखी जिस तेजी से जितनी अधिक संख्या में आ रहे और जैसी विषाक्त धूलि उड़ा रहें हैं उसे भी अभूत पूर्व ही कहना चाहिए। मेक्सिको के भूकम्प ने जैसे तेजाबी धुएँ का बादल उड़ाया है। वैसा इससे पूर्व कभी देखने सुनने में नहीं आया। सूर्य कलंक और ज्वालाएँ, चुम्बकीय आँधियाँ, खग्रास ग्रहणों की शृंखला, आगत धूमकेतु ग्रहों का एक राशि पर एकत्रीकरण अन्तरिक्ष विशारदों की दृष्टि से भूलोक वासियों के लिए किसी अनिष्ट की आशंका व्यक्त करते हैं।
इतिहास बताता है कि जब बिगाड़ बेकाबू हुआ है तो उस मदोन्मत्त हाथी को काबू में लाने के लिए चाबुक मार महावतों की मण्डली ही उसे झुकाने और लिटाने में समर्थ हुई है। अन्य किसी उपाय ने काम दिया ही नहीं। यह चर्चा अदृश्य युग प्रवाह के सन्दर्भ में की जा रही है। पौराणिक भाषा में इसे भगवान के अवतार कहते हैं। यह पेण्डुलम जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया है। रात्रि के बाद दिन भाटे के बाद ज्वार, मरण के बाद जन्म में भी यही ध्वनि प्रतिध्वनि की प्रक्रिया काम करती। इतिहास में अनेक ऐसे अवतारों की चर्चा है जिनने अपने अपने समय के युग संकटों को अपने अपने ढंग के उपचारों से विग्रहों को हटाया और सन्तुलन बनाया है। दार्शनिक कहते है कि यह धरित्री नियन्ता की सर्वोत्तम कलाकृति है। उस पर जब जब विनाशकारी घटाटोप छाये हैं तब तब नियन्ता ने सन्तुलन बनाने के लिए दौड़ आने का वचन निबाहा है। इस बार भी ठीक वैसी ही परिस्थिति है जिसमें मानवी बुद्धिमत्ता और चेष्टा कुछ काम आ नहीं रही है। सुलझाने वाले और भी अधिक उलझने की शिकायत करते और हार मानने जैसा भाव दर्शाते हैं। ऐसे समय में उस अदृश्य की ओर निहारा जा सकता है। जिसकी इच्छा से यह सृष्टि बनी और जिसकी प्रेरणा योजना के अनुरूप यह बढ़ी विकसित हुई है। उसके एक संकेत से ही कुछ का कुछ हो सकता है। वह तमिस्रा के व्यापक साम्राज्य को निरस्त करने के लिए एक छोटा सा सूरज उगाकर देखते देखते सभी परिस्थिति ही उलट सकता है। घोर निद्रा में पड़े हुए सभी प्राणी देखते देखते उठ खड़े होने और कार्यरत होते दीख पड़ते है। निशाचरों की स्वेच्छाचारिता किसी माँद कोंतर में जा छिपती है। बीज को वृक्ष और शुक्राणु को हाथी बान देने वाला सृजेता जब चाहता है जलते धरातल पर जल जंगल एक कर देता है। ठूँठों पर बसन्त बहार ला देना उसके बायें हाथ का खेल है।
निराकार की सन्तुलन सम्वर्धन योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए उसकी प्रतिनिधित्व सदा से साकार भूदेव करते रहे हैं। इन्हीं को सन्त सुधारक और शहीद के नाम से जाना और खुली आँखों से देखा जाता है। ऋषियों और महामानवों की पुण्य परम्परा के पीछे भगवान का सूत्र संचालन देखा जा सकता है, अन्यथा लोभ मोह के पतनोन्मुख प्रवाह को चीरकर मछली की तरह उलटा चलने और प्रचलन से भिन्न स्तर की रीति नीति अपनाने की उमंग किसे उठे? क्यों उठे? सरल सुविधा को छोड़कर झंझट में पड़ने और कष्ट सहने के लिए कोई क्यों दुस्साहस अपनाये।
युग परिवर्तन की प्रक्रिया सदा अदृश्य में उफनने वाले आँधी तूफान की तरह आती है। उसके सहभागी तिनके पत्ते तक गगनचुम्बी उड़ाने उड़ते हैं। इन दिनों युग युगान्तरीय चेतना का अदृश्य प्रवाह दृश्यमान प्रज्ञा अभियान के रूप में किसी सुनियोजित योजना के अन्तर्गत काम करता देखा जा सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
202. गंध शक्ति की प्रभाव सामर्थ्य
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मस्तिष्क को ऊर्जा तन्त्र माना गया है। हृदय उसके लिए ईंधन जुटाता है। मस्तिष्कीय संरचना कैसी ही विलक्षण क्यों न हो, इसे आवश्यक जानकारियाँ प्राप्त करने और ज्ञान सम्पदा बढ़ाने के लिए ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहना पड़ता है। आम धारणा यह है कि कान और आँख की भूमिका अन्य इन्द्रियों की तुलना में अधिक है।
जिनके कान ठीक काम नहीं करते वे बहरे लोग बोलना भी नहीं सीख पाते। क्योंकि शब्दोच्चार सुनने और उनका अनुकरण करने से ही बोलने का अभ्यास आरम्भ होता है। जो सुनेंगे ही नहीं उनका मस्तिष्क शब्द ध्वनि और उसके साथ जुड़े हुए तात्पर्य को समझने में समर्थ न होगा। इसलिए बोलने का आधार न बन सकेगा और बहरे को गूँगा ही रहना पड़ेगा।
आँख से दृश्य देखते हैं। वस्तुओं का स्वरूप समझ में आता है साथ ही उसके गुण एवं प्रयोग की जानकारी भी मिलती है। पढ़ने लिखने में कान की तरह आँख का भी योगदान रहता है। ज्ञानवृद्धि में शिक्षा का महत्त्व माना जाता है। पुस्तकें पढ़ने में आँख और अध्यापक का मार्गदर्शन समझने में कान सहायता करते हैं। पहचानने, वर्गीकरण करने में आँखों की सहायता लेनी पड़ती है। स्मृतियों को संजोये रख सकना बहुत करके दृश्यों पर आधारित है।
इतना सब होते हुए भी नाक की अपनी विशेषता है। उसकी क्षमता सूक्ष्म है। तो भी इतनी अधिक है कि वह अचेतन तक को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है। गंध की ज्ञानवृद्धि में कितनी बड़ी भूमिका है, इस प्रश्न के उत्तर में हमें अचेतन की महत्ता और क्षमता को समझना होगा। ज्ञान भंडार मात्र आँख और कान से ही नहीं भरता, उसमें गंध का भी योगदान रहता है। क्रमिक मानवी प्रगति में आँख और कान का महत्त्व बढ़ गया है। प्रत्यक्ष के साथ व्यवहार अब अधिक चल पड़ा है। इसलिए प्रत्यक्ष ही सब कुछ प्रतीत होने लगा है इससे बौद्धिक परिधि के मनःक्षेत्र को विकसित करने में सहायता मिली है। फिर भी अचेतन को जिन परोक्ष जानकारियों की आवश्यकता होती है, उनकी पूर्ति के लिए इन दो प्रमुख समझी जाने वाली इन्द्रियों से काम नहीं चलता है। अचेतन पर सर्वाधिक प्रभाव गन्ध का पड़ता हैं। इस दृष्टि से नासिका की महत्ता अधिक सिद्ध होती है। नासिका को भगवान ने व्यर्थ नहीं बनाया, वह आँख और कानों के बीच इसलिए अवस्थित है कि अचेतन को आवश्यक जानकारियाँ एवं उत्तेजना प्रदान करने का काम करती रहे। गंध की महत्ता दर्शन या श्रवण से कम नहीं अधिक ही ठहरती है। क्योंकि जीवन को समर्थ और प्रखर बनाने में मस्तिष्क के सचेतन भाग से अचेतन का महत्त्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। इस क्षेत्र को प्रभावित करने में गंध का असामान्य योगदान होता है।
प्राणियों के विकास क्रम पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि प्रागैतिहासिक काल के जीवधारी निर्वाह व्यवस्था जुटाने, कठिनाइयों से निपटने और सहयोग बढ़ाने में घ्राण शक्ति का ही सबसे अधिक उपयोग करते रहे हैं। आँख और कान का विकास तो बहुत बाद में हुआ है। प्रारम्भ में वे गौण ही रहे। आगे चलकर उनने प्रमुखता प्राप्त कर ली यह दूसरी बात है।
पशु पक्षियों की जीवनचर्या में अभी भी घ्राणशक्ति का ही प्रमुख योगदान रहता है। हिंस्र पशु अपना शिकार ढूँढते और जिन पर आक्रमण की आशंका है वे उसी आधार पर खतरा समझने में समर्थ होते हैं। सिंह, व्याघ्र आदि को इसी आधार पर यह पता चलता है कि इन्हें क्या शिकार, किस दिशा में कितनी दूरी पर क्या करता हुआ मिलेगा। विभिन्न पशुओं के शरीर से निकलने वाली गन्धों की तुलना में उनकी घ्राण शक्ति अपने काम के पशुओं की गन्ध अधिक अच्छी तरह पहचानती है। इसलिए आक्रमण करने और शिकार पकड़ने में जिस पूर्व जानकारी की आवश्यकता है। उसे उनकी नासिका जुटाती रहती है।
हिरन, खरगोश, सुअर आदि का घ्राण हिंस्र वर्ग के पेट मे जान पड़ता है। उन्हें आत्म रक्षा का अवसर मिलता रहे, इस सतर्कता में उनकी भी घ्राण शक्ति ही काम करती है। इस आधार पर वे जान लेते हैं कि आक्रामक कहाँ और किस स्थिति में है। संकट से बचने के लिए वे दौड़ने, छिपने, दिशा बदलने की सुरक्षात्मक कार्यवाही करने लगते हैं। इसी आधार पर उन्हें यह भी पता चलता है कि आक्रामक भूखा है या नहीं। भूखे होने पर ही वे आक्रमण करते हैं। भूखे के शरीर से अन्य प्रकार की गन्ध आती है। यही कारण है कि जब खतरा देखते हैं तभी चौकन्ने होते हैं, अन्यथा भरे पेट के सिंह के आसपास भी शिकार हो सकने वाले प्राणी निर्द्वन्द्व होकर विचरण करते रहते हैं।
कुत्ते, बिल्ली और भेड़िये अपने शरीर में एक विशेष प्रकार की गन्ध निकालते हैं। उसका प्रभाव जितने क्षेत्र में रहता है। उतने में उस बिरादरी के अन्य प्राणी प्रवेश नहीं करते। करते हैं तो यह समझकर करते हैं कि लड़कर ही उस क्षेत्र में पैर जमाये जा सकते हैं। जिसका आधिपत्य है वह आक्रमण करेगा। इस क्षेत्रीय बटवारे के आधार पर उन वर्गों वाले अपने लिए अन्य सुरक्षित क्षेत्र ढूँढते हैं अथवा आक्रमण के लिए तैयार होकर हड़पने या मर मिटने के लिए तैयार होते हैं। आक्रामक पशुओं के अपने क्षेत्र इसी आधार पर बनते और घटते बढ़ते रहते हैं। इस प्रयोजन में नासिका की समर्थता ही उनका मार्गदर्शन करती है। शिकार के अन्य क्षेत्र में घुस जाने पर प्रायः आक्रामक वापिस लौट पड़ते हैं। दूसरे के अधिकार क्षेत्र में शिकार पकड़ने पर उन्हें क्षेत्र के अधिकारी को रुष्ट करने का खतरा उठाना पड़ेगा।
कुत्ते इस सम्बन्ध में और भी आगे हैं। उनकी घ्राण शक्ति अन्य पशुओं की तुलना में अधिक होती है। मनुष्य से तो सैकड़ों गुनी अधिक है। इसलिए प्राचीन काल से शिकारी लोग कुत्तों के झुण्ड साथ लेकर चलते थे। अभी भी उनका प्रयोग अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस द्वारा किया जाता है।
पक्षियों के झुण्ड बनाकर रहने, अपने परिवार वालों को पहचानने में आँखों से नहीं नासिका से सहायता मिलती है। उनमें से नेता कौन है, किसका अनुकरण करना है यह निर्णय वे प्रमुख की जानी पहचानी गन्ध से ही करते हैं। चिड़ियों के परिवार और दम्पत्ति जीवन में जिस पहचान की आवश्यकता पड़ती है, उसे वे घ्राण शक्ति के सहारे ही पूरा करते हैं। मधु मक्खियों में, तितलियों और चींटियों की अति जटिल जीवनचर्या इसी आधार पर चलती है। तितलियों को नर-मादा पुष्पों के बीच निषेचन की दलाली करनी पड़ती है। वे नर वर्ग का पराग अपने पैरों और पंखों में लपेट कर मादा वर्ग तक पहुँचाती है। उन्हें इन दोनों वर्गों का अन्तर गन्ध भिन्नता के आधार पर ही करना पड़ता है। मधु मक्खियाँ इसी आधार पर ताड़ लेती है कि उन्हें किस दिशा में खिले हुए किन पुष्पों से मधु संचय में सुविधा रहेगी। चींटियाँ मिठास का पता लगने और वहाँ तक टेढ़े-मेढ़े रास्ते पार करके भी जा पहुँचने में अपनी नासिका से ही सहायता लेती हैं।
मछलियाँ अपने तैरते अण्डे बच्चों की स्थिति इसी आधार पर समझती और उनकी सहायता करती रहती हैं। इसी प्रकार अन्य जल जन्तु भी बहते प्रवाह एवं गहरे जलाशयों में रहते हुए भी अपना परिवार संभालते, शिकार पकड़ते और आक्रामकों से जान बचाते रहते हैं। वंशवृद्धि के लिए उपयुक्त समय, स्थान और साथी ढूँढ निकालने का सुयोग बिठाने में भी उन्हें शरीरों से निकलने वाली गन्ध के सहारे ही काम चलाना पड़ता है।
पशु-पक्षियों से लेकर कृमि कीटकों तक में यथा समय मादा वर्ग के शरीरों से एक विशेष प्रकार की तेज गन्ध निकलती है। वह जितने क्षेत्र में फैलती है, उसमें रहने वाले नर वर्ग को उत्तेजित एवं आकर्षित करती है। निमन्त्रण पाते ही वे दौड़ पड़ते है और वंश वृद्धि के कार्य में जुट पड़ते हैं। गन्ध समाप्त होते ही आकर्षण भी समाप्त हो जाता है और वे अपना-अपना रास्ता पकड़ते हैं।
मौसम बदलने और कोई प्राकृतिक प्रकोप उभरने का पूर्वाभास कितने ही प्राणियों को होता है। वे संकट आने से पूर्व ही अपना स्थान बदलते और सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। इसे उनकी अतीन्द्रिय क्षमता द्वारा जाना जा सकता है। यह क्या है और कहाँ से उत्पन्न होती है इसका रहस्य खोजने वालों का निष्कर्ष यह है कि यह उस गन्ध का चमत्कार है जो घटनाक्रम बदलने के साथ-साथ अपना स्वरूप एवं स्तर बदलती रहती है। जिनकी घ्राण शक्ति पैनी है वे उसे पहचान लेते हैं और संकट से बचने का प्रयत्न करते हैं।
कृमि कीटकों के यौनाचार का संयोग बिठाने में मादा वर्ग के शरीर से निकलने वाली जिस गन्ध की प्रधान भूमिका रहती है, उसे फैरोमोन रसायन कहा जाता है। इसे अब वैज्ञानिक विधि से उन शरीरों से पृथक भी किया जाने लगा है, उसे कृत्रिम तरीकों से भी बनाया जाने लगा है। इस गन्ध को जहाँ बिखेरा जाता है वहाँ उस वर्ग का नर समुदाय दूर-दूर से आकर इकट्ठा होने लगता है। इस आधार पर उन्हें पकड़ने या मारने का उद्देश्य पूरा किया जाता है। नर वर्ग भी अपनी परिपक्वता की छाप छोड़ता है और समूह की अनेकों मादाएँ उसके हरम में सम्मिलित होती है। कोई नया नर उभरता है तो उस परिपक्वता के दबाव में अपना मन भर लेता है। या तो बिना दम्पत्ति सहयोग के ही काम चला लेता है या फिर अन्यत्र जाने या प्रमुख को खदेड़ने की बात सोचता है। नव युवकों को क्या करना चाहिए इसके लिए उसे प्रमुख की गन्ध प्रखरता को देखते हुए ही अनुमान लगाना पड़ता है। ऐसा भी देखा गया है कि किसी की प्रखरता के सामने उस समुदाय का मन ही ठंडा पड़ जाता है। रानी मधुमक्खी की प्रजनन शक्ति इतनी प्रखर होती है उस छत्ते की अन्य मादाओं से प्रजनन की आकांक्षाएँ ही नहीं उभरती वे अपना चुपचाप श्रम करती और दिन काटती रहती है। नरों का दबाव भी अपने झुण्ड के अन्य नरों को निस्पृह बना कर रख देता है।
मनुष्य की घ्राण शक्ति आँख और कान की प्रखरता मिलने के कारण दब गयी है। काम न मिलने, उपयोग न होने पर ही वस्तु निकम्मी हो जाती है। अपनी नाक का भी यही हाल है वह सास लेने भर का काम करती है। सर्दी जुकाम होने पर ही उसके अस्तित्व का पता चलता है। इतने पर भी वह अचेतन की अनेकानेक परोक्ष जानकारियाँ अभी भी देती रहती है। यदि वस्तुतः वह अपनी क्षमता गँवा बैठे तो मनुष्य बुद्धिमान दीखते हुए भी अचेतन क्षेत्र की समस्वरता गँवा बैठेगा और बुद्धू या सनकी बनने लगेगा।
प्राण विद्युत की इन दिनों बहुत चर्चा है। शरीर में पाई जाने वाली बिजली के ऊपर गहरे अनुसंधान चल रहे हैं। इस सम्पर्क में नये तथ्य यह सामने आये हैं कि यह प्राण विद्युत ताप शब्द या प्रकाश तरंगों के रूप में पहचानी तो जाती है। पर वस्तुतः होती गन्ध की प्रतिक्रिया भर ही है। ऋषि आश्रमों में सिंह-गाय के एक घाट पानी पीने में वातावरण की जिस विशिष्टता पर दृष्टिपात किया गया है, अब उसे गन्ध विशेष के रूप में निरूपित किया जा रहा है। व्यक्ति विशेष के शरीर से जो गन्ध निकलती है उस आधार पर व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का पता चलता है। यहाँ तक कि शारीरिक एवं मानसिक रोगों तक का स्वरूप समझा जा सकता है। चिकित्सा क्षेत्र में अब तक मल, मूत्र, रक्त आदि की परीक्षा ही निदान के लिए प्रयुक्त होती थी, अब इसमें रोगी के शरीर से निकलने वाली गन्ध को भी जाँच पड़ताल का एक माध्यम माना जाने लगा है। हर रोग के रोगी में एक विशेष प्रकार की गन्ध पाई जाती है जिसे घ्राण शक्ति विकसित कर लेने वाला कोई भी चिकित्सक सहज ही पहचान सकता है और रोग के स्वरूप को समझने की गुत्थी सुलझा सकता है।
इसी प्रकार गन्ध चिकित्सा की एक उपचार पद्धति विनिर्मित की जा रही है। येल विश्व विद्यालय के शोधकर्ता डॉ जुडिथ रोडन ने सिद्ध किया है कि भोजन में स्वाद ही नहीं उसकी गन्ध भी खाने वालों के शरीर में उतार चढ़ाव उत्पन्न करती है। कपड़ों में घर आँगन में रहने वाली गन्ध का भी मनुष्य के स्वास्थ्य एवं संतुलन पर प्रभाव पड़ते देखा गया है। परीक्षण में प्रसंगों का उल्लेख करते हुए रोडन ने लिखा है एक व्यक्ति का चाकलेट की गन्ध मात्र से स्वास्थ्य सुधरा और वजन बढ़ा। चर्बी घटाने एवं शर्कराजन्य रोगों पर नियन्त्रण पाने में गन्ध सम्पर्क से उत्साहवर्धक परिणाम देखने को मिला है।
जार्ज टाउन यूनीवर्सिटी मेडिकल सेन्टर के अध्यक्ष जीव विज्ञानी राबर्ट हेन सिन ने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया है कि श्रमजीवियों की थकान घटाने या बढ़ाने में कारखाने, कार्यालयों में पाई जाने वाली गन्ध का भी हाथ रहता है। अस्तु श्रमिकों का तनाव घटाने के लिए कार्यालयों में उपयुक्त स्तर की गन्ध का छिड़काव होना चाहिए।
सुगन्ध उत्पादन में अरबों खरबों की राशि खर्च होती है। इनका उपयोग आमतौर से भोजन, वस्त्र, घर को नासिका प्रिय बनाने के लिए किया जाता है। अब इस संदर्भ में एक नया अध्याय जुड़ा है कि शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य सुधार के लिए किन प्राकृतिक या कृत्रिम गन्धों का उपयोग किया जाय, यहाँ यह समझना भी उपयुक्त होगा कि मनुष्य के स्वभाव, आचरण एवं दृष्टिकोण को भी विशेष गन्ध प्रभावित करती है। पूजा उपचार में इसी हेतु विभिन्न गन्धों का प्रबन्ध किया जाता है। अगरबत्ती, धूपबत्ती, कपूर, चन्दन, दीपक, हवन आदि को इसलिए भी अध्यात्म कृत्यों में सम्मिलित रखा गया है कि उनके सहारे चेतन, अचेतन और सुपर चेतन को उपयुक्त दिशा में विकसित होने का अवसर मिलता है।
दुर्गन्ध के साथ जुड़ी रहने वाली अहितकर संभावनाओं से सभी परिचित हैं। सड़न से उठने वाली कुरुचिपूर्ण गन्ध यह बताती है कि यहाँ रहने में खैर नहीं। इसे हटाया जाय या स्वयं भागा जाय। अन्यथा रुग्णता का संकट सिर चढ़ेगा। कार्य क्षमता घटेगी और मानसिक सन्तुलन बिगड़ेगा।
इत्र, फुलेल आदि का इन दिनों बहुत प्रचलन है। यह कृत्रिम और उत्तेजक होने से उल्टी प्रक्रिया भी उत्पन्न कर सकते हैं। सात्विक एवं उपयोगी गन्ध वह है जो वृक्ष वनस्पतियों और खिले फूलों से निकलती है। इसे भी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं में सम्मिलित रखा जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्र में रहना चाहिए जहाँ ऐसा सुव्यवस्थित वातावरण हो अथवा अपने घरों में पुष्पोद्यान लगाने का प्रबन्ध करना चाहिए। इस व्यवस्था को भी सुविधा एवं सुसज्जा की तरह एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता समझा जाना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
शरीर उपयोग के लिए विविध साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए सम्पत्ति का उपार्जन और सुविधाओं का सम्वर्धन करने में प्रायः सभी लोग स्वभावतः निरत रहते हैं। व्यक्ति इसके लिए स्वयं प्रयत्न करता है। उचित से लेकर अनुचित प्रकार के अगणित उपाय अपनाता है। मूर्धन्य प्रतिभाएँ भी साधन सुविधाओं को बढ़ाने के लिए सामर्थ्य भर प्रयत्न करती हैं। अर्थशास्त्री, विज्ञानी, बुद्धिजीवी, सत्ताधारी आदि सभी वर्ग के व्यक्ति अपनी प्रतिभाएँ इसी क्षेत्र में नियोजित किये रहते हैं। इस सम्मिलित प्रयत्न का लाभ भी मिला है। आदि काल की तुलना में मनुष्य की वर्तमान स्थिति की सुसम्पन्नता में जो आकाश पाताल जैसी प्रगति हुई है वह इसी सम्पत्ति साधना का प्रतिफल है।
भौतिक प्रगति की उपयोगिता रहते वह भी एकांगी है। उपयोगकर्ता व्यक्ति की अन्तःचेतना का समुचित परिष्कार न होने से साधन सामग्री का ठीक तरह उपयोग नहीं हो पाता। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन सकता है और आत्मरक्षा के लिए बनाये गये शस्त्र उलटे आत्मघाती सिद्ध होते हैं। बुद्धि का अभाव उतना हानिकारक नहीं जितना उसका दुरुपयोग। निर्धनता का अभिशाप उतना भयंकर नहीं है जितना कि सम्पत्ति के दुरुपयोग से अनाचार। शरीर से दुर्बल या रुग्ण व्यक्ति उतना दयनीय, निन्दनीय नहीं है जितना दुष्टता पर उतारू दैत्य दानव। अपंगों को सहन किया जा सकता है किन्तु उद्दण्डों के कारण जो विक्षोभ उत्पन्न होते हैं उससे तो शान्ति और स्थिरता ही चली जाती है।
शरीर ही सब कुछ माना जाय तो बात दूसरी है अन्यथा जीवन में आत्मा की भी कोई साझीदारी मानी जाय तो यह आवश्यक हो जाता है कि चेतना की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ध्यान दिया जाय और प्रयास किया जाय। काया सुख चाहती है और आत्मा को शान्ति चाहिए। शान्ति का ही दूसरा नाम सन्तोष है। अभीष्ट साधन सामग्री और अनुकूल परिस्थितियों के आधार पर सुख मिलता है और उत्कृष्ट चिन्तन तथा आदर्श कर्तृत्व अपनाने पर शान्ति की अनुभूति होती है। सुख और शान्ति दोनों के समन्वय की आवश्यकता है। दोनों के लिए समान प्रयास होने चाहिए। दोनों को समान महत्त्व देने में ही दूरदर्शिता है।
एकांकी प्रगति अपर्याप्त हैं। सदाचारी, ज्ञानी तपस्वी को भी पेट भरने और तन ढकने को साधन चाहिए। निर्वाह के अभाव में शरीर ही लड़खड़ाने लगेगा और अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा। अस्तु चेतना के परिष्कार का प्रयास करने वालों को भी निर्वाह के साधन जुटाने पड़ते हैं। ठीक इसी प्रकार सम्पत्ति उपार्जन में संलग्न तत्परता का एक भाग आत्मिक प्रगति के लिए लगना चाहिए। स्मरण रखा जाय कि जीवन के सुचारु रूप से चलने में सुविधा साधनों की तरह ही उत्कृष्टता की गतिविधियों को अपनाया जाना भी आवश्यक है। दोनों पहियों से ही गाड़ी ठीक तरह चलती है। भौतिक और आत्मिक प्रगति का समान स्वरूप में ध्यान रखने और संतुलित कार्यक्रम बनाने में ही दूरदर्शिता है।
चेतना के परिष्कार की दो धाराएँ है एक सुसंस्कृत अन्तरंग और सद्व्यवहार सम्पन्न बहिरंग। अन्तरंग की श्रेष्ठता को संस्कृति कहते है और बहिरंग की सज्जनता को सभ्यता। संस्कृति और सभ्यता के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर परिष्कृत होता है। परिष्कृत व्यक्तित्व की शालीनता उसे निरन्तर आत्मसंतोष प्रदान करती है। सम्पर्क क्षेत्र में उस पर सम्मान और सहयोग की वर्षा होती है। भीतर से सन्तुष्ट और बाहर से सम्मानित व्यक्ति अपने आप में गर्व अनुभव करता है। आन्तरिक दृष्टि से बलिष्ठ परिपुष्ट होता है। आत्मबल का धनी कहलाता है। ऐसा व्यक्ति जिस दिशा में चलता है, जिस भी क्षेत्र में प्रवेश करता है उसमें सफलता ही सफलता मिलती जाती है। ऐतिहासिक महामानवों में से प्रत्येक की सफलता का यही रहस्य है। परिस्थितियों ने तो कदाचित ही किसी को बहुत बड़ी सफलता दिलाई है। पर स्थायी और वास्तविक प्रगति तो उच्चस्तरीय मनःस्थिति से ही बन पड़ती है। अनैतिक एवं आकस्मिक रीति से किसी को समृद्धि सफलता मिली हो तो भी इतना निश्चित है कि वह न तो उससे समुचित लाभ उठा सकेगा और न धारण क्षमता के अभाव में उसे देर तक सुरक्षित रख सकेगा। पात्रता के अभाव में उपलब्धियों के संचय मात्र से किसी की समस्याएँ हल नहीं होती, वरन् उलझनें और भी बढ़ जाती हैं। अभाव की तुलना में दुरुपयोग की प्रतिक्रिया और भी अधिक भयावह होती है।
स्वार्थ साधन एवं हित साधन को महत्त्व तो कितने ही लोग देते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि वास्तविक स्वार्थ हित किस में है। इसी निर्णय निर्धारण में सबसे बड़ी चूक होती है। समझा यह जाता है कि सम्पन्नता बढ़ने मात्र से सुख शान्ति की समस्या हल हो जायेगी, किन्तु तब यह नितान्त भ्रम ही सिद्ध होता है जब अन्तरंग में दोष दुर्गुण भरे पड़े हो, ओछा दृष्टिकोण अपनाया गया हो और आचरण पर से मर्यादाओं का अंकुश उठ गया हो।
सन्तुलित जीवन अपनाने की अपनी आकांक्षा और चेष्टा बन सके तो समझना चाहिए कि समग्र प्रगति का सुव्यवस्थित आधार बन गया। जीवन व्यवसाय को दो साझीदारों की सम्मिलित दुकान समझा जाय। यों पूँजी, समय और मेहनत चेतना भाग की ही अधिक है, फिर भी काम इतने से भी चल सकता है कि शरीर और आत्मा दोनों को ही समान स्तर का भागीदार मान लिया जाय। दोनों के स्वार्थ साधन को ध्यान में रखकर योजना बनाने, नीति निर्धारित करने और गतिविधियाँ अपनाने का बुद्धिमत्ता पूर्ण मार्ग अपनाया जाय। शरीर की निर्वाह आवश्यकताएँ पूरी होती रहें, परिवार की पाठशाला में आत्मनिर्माण की शिक्षा और उस उद्यान के प्रत्येक पौधे की सुसंस्कारिता बढ़ती रहे। यह दोनों ही अपने शारीरिक कर्तव्य है। परिवार से हमें अपने तरह की सुविधाएँ मिलती हैं। उचित है कि उनके प्रति उचित कर्तव्य पालन किया जाय। परिवार संस्था के किसी घटक के साथ न तो अन्याय हो और न कोई अनावश्यक सुविधा प्राप्त करके अनुचित लाभ उठाने पावे। किसी को प्रसन्न करने के लिए उसे अनुचित लाभ देने की नीति जिन घरों में अपनाई जाती है वे कुटुम्ब आन्तरिक विक्षोभ से जलने लगते हैं और अन्ततः बिखरते, विद्रोह करते और बिगड़ते ही देखे जाते हैं। आवश्यकताएँ न्यूनाधिक हो सकती है और उनकी व्यवस्था न्यायोचित दृष्टि से की जा सकती है। हर बात में समानता नहीं चल सकती। औचित्य का ध्यान रखते हुए अन्तर भी करना पड़ सकता है, पर न्याय और कर्तव्यों को ध्यान में रखा जाय और वस्तुस्थिति सब को बताते रह कर भ्रान्तियों का निराकरण करते रहा जाय, तो उतने मात्र से पारिवारिक कर्तव्य न ठीक तरह पूरे हो सकते हैं। परिवार की सुविधा बढ़ाते रहने से काम नहीं चलेगा, उसके प्रत्येक सदस्य को सुसंस्कारी बनाने वाले व्यवहार में लगाये रहना चाहिये।
शरीर को विलासी और आलसी न बनने दिया जाय। जीवन धारण के लिए अपने देश के औसत नागरिक की स्थिति को ध्यान में रखते हुए निर्वाह की सीमा निर्धारित की जाय, तो इतने भर से शरीर यात्रा ठीक तरह बन सकती है। इसके आगे का मूल प्रश्न है साधन। उसे मानव जन्म का सुर दुर्लभ अनुदान, उपहार के रूप में नहीं सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए अमानत के रूप में मिला है। ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि उस मूल प्रयोजन की पूर्ति हो रही है या नहीं। इस संदर्भ में प्रायः मूर्छना ही छाई रहती है। आमतौर से उधर ध्यान ही नहीं जाता। जिस बात की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती उसकी व्यवस्था कैसे बनेगी? वह भूल है जिसके कारण यह अमूल्य अवसर हाथ से निकलता चला जाता है। गलती का आभास तब होता है तब जीवन सम्पदा बाल विनोद से ही नष्ट हो जाती है। मरण की घड़ी सामने आ खड़ी होती है तब ध्यान आता है कि जो किया जाना चाहिए था वह हो नहीं सका और जिसे करने की कोई खास आवश्यकता नहीं थी उन विडम्बनाओं में सारा समय चला गया।
कुटिल दृष्टिकोण अपनाने से ही ईर्ष्या द्वेष का, छल प्रपंच का, असन्तोष विक्षोभ का वातावरण बनता है और घात-प्रतिघात की उलझने खड़ी होती हैं। सम्पन्नता का बड़प्पन पाने के लिए लालायित व्यक्ति ही निरन्तर उद्विग्न और विक्षुब्ध रहते पाये जाते हैं। ललक और लिप्सा ही मनुष्य को अशान्त बनाये रहती है यदि उचित आवश्यकताएँ ही सन्तोष का केन्द्र रह सकें तो किसी को भी भारयुक्त जीवन नहीं जीना पड़ेगा। सामान्य श्रम और सामान्य मनोयोग से ही निर्वाह क्रम सरलता पूर्वक चलता रह सकेगा।
जो इतना कर सकेगा उसी के लिए आत्मिक प्रगति की दिशा में कुछ ठोस कदम बढ़ा सकना सम्भव हो सकेगा। अन्यथा उल्टी तिरछी पूजा पत्री कर लेने की आत्म प्रवंचना से ही मन बहलाना पड़ेगा। एक भारी भ्रम लोगों पर यह भी छाया हुआ है कि आत्म कल्याण के लिए थोड़ा बहुत भजन पूजन कर लेना ही पर्याप्त है। आत्म कल्याण और ईश्वर अनुग्रह का महान उद्देश्य इतनी सी टण्ट घण्ट कर लेने पर से पूरा हो जाता है। उपासना आध्यात्मिक जीवन का प्रवेश द्वार है। द्वार खुले बिना भवन में प्रवेश नहीं होता इसलिए ताला कुंजी ढूँढने की, साँकल उतारने की, दरवाजा खोलने की आवश्यकता होती है। उपासना यही है। दफ्तर, कारखाना या घर में प्रवेश करने के उपरान्त वहाँ के साधनों के सहारे विभिन्न प्रकार के पुरुषार्थ करने होते हैं। भवन प्रवेश का द्वार खुलने का लाभ इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरूप मिलता है। उपासना एक प्रेरणा एवं प्रकाश ज्योति है जिसके सहारे अन्तस् का अन्धकार दूर होता है और लक्ष्य की दिशा में चलने का उत्साह एवं साहस उत्पन्न होता है।
गुण, कर्म, स्वभाव में संचित कुसंस्कारों का निराकरण और सुसंस्कारों का संस्थापन, यही है जीवन साधना का उद्देश्य। इसके लिए थोड़े समय तक कुछ विशिष्ट क्रिया कृत्य कर लेने भर से बात नहीं बनती। दिन भर के क्रिया कलापों और उनके साथ जुड़े हुए विचार प्रवाह को कड़ाई के साथ निखारना पड़ता है। उत्कृष्टता की कसौटी पर कसने और चिन्तन की जाँच पड़ताल करते रहने की आवश्यकता रहती है। इसके अतिरिक्त एक काम और भी करना पड़ता है कि समय, श्रम, प्रभाव, चिन्तन एवं धन के रूप में मिली पाँच विभूतियों में से एक अंश नियमित रूप से ईश्वर के लिए लौटाना पड़ता है। यदि न लौटाया जाय, सारा ही शरीर को उसके स्वामियों को सौंप दिया जाय तो यह अनुचित ही होगा। साझीदार के साथ अन्याय और विश्वासघात भी। आध्यात्मिक ईमानदारी की स्पष्ट परख अंशदान के रूप में ही होती है। सब कुछ शरीर ही हड़प ले, आत्मा को उपलब्धियों का एक अंश भी न मिले तो इसे आत्म द्रोह ही कहा जायेगा। पूजा पाठ करने मात्र से इस पाप से छुटकारा नहीं मिलता।
प्राचीन काल में आधा जीवन शरीर के लिए, संसार के लिए विभाजित था और आधा परमार्थ प्रयोजनों के लिए सुरक्षित रखा जाता था। पूर्वार्द्ध में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आता है। उत्तरार्द्ध में वानप्रस्थ और संन्यास। पूर्वार्द्ध स्वार्थ के लिए है उत्तरार्द्ध परमार्थ के लिए। ब्रह्मचर्य से शरीर और मस्तिष्क को बलिष्ठ परिपुष्ट बनाया जाता है। गृहस्थ में उस क्षमता का उपयोग भौतिक उपार्जन के लिए किया जाता है। परिवार परिपोषण का उत्तरदायित्व इन्हीं दिनों आता है। नये बच्चे पैदा करना नहीं, प्रस्तुत परिवार को हर दृष्टि से सुयोग्य बनाना वस्तुतः यही गृहस्थ धर्म है, जिसे बिना विवाह किये या बिना बच्चे पैदा किये भी भली प्रकार पाला जा सकता है। सच तो यह है कि घर के वयोवृद्धों, समवयस्कों और छोटों की सुव्यवस्था के लिए जितने साधनों की कमी रहती है, उसकी पूर्ति वही कर सकता है जो नया परिवार बढ़ाने के लिए आतुर नहीं है। सीमित उपार्जन क्षमता को यदि बड़े-बूढ़ों से लेकर भाई भतीजों तक खपाया जा सके तो सच्चे अर्थों में गृहस्थ धर्म का पालन तभी बन पड़ता है। सम्पत्ति का उपार्जन अपने लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए करना अभीष्ट है यह प्रौढ़ावस्था में ही ठीक प्रकार हो सकता है।
आधी आयु भौतिक प्रयोजनों के लिए लगा लेने के उपरान्त तीसरा भाग वानप्रस्थ के लिए सुरक्षित रखा गया है। इस अवधि तक बच्चे वयस्क हो जाने चाहिए। यदि कुछ छोटे रह गये हैं तो उनका उत्तरदायित्व बड़े बच्चों को सौंपा जाना चाहिए। सत्ता के हस्तान्तरण में कुछ समय लगता है। इसलिए इस अवधि में थोड़ा पारिवारिक मार्ग दर्शन और थोड़ा परमार्थ प्रयोजन साधा जाता है। वानप्रस्थ अवधि के पारमार्थिक कार्य तीन हिस्सों में बँटे हुए हैं। (१) उपासना तपश्चर्या (२) ब्रह्मविद्या की तप साधना (३) परमार्थ परायणता। इन तीनों में ढलती आयु का अधिकांश समय लगाया जाना वानप्रस्थ है। इससे स्थानीय क्षेत्रीय सेवा साधना ही सम्भव होती है। उत्तरार्द्ध का चौथा भाग संन्यास है इसमें पारिवारिक उत्तरदायित्वों से पूरी तरह निवृत्त होकर परिव्राजक जीवन जिया जाता है।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए शारीरिक जीवन की अवधि का अनुमान लगाया जाय और उसे चार भागों में विभक्त करके उपरोक्त चार आश्रमों के लिए उसका निर्धारण किया जाय, चार के स्थान पर दो भी किये जा सकते हैं। आधी आयु शरीर परिवार के लिए आधी आत्म कल्याण और लोक मंगल के लिए। भारतीय संस्कृति की महान गरिमा इसी विभाजन पर अवस्थित रही है। सामान्य मनुष्यों को देवोपम उत्कृष्टता प्राप्त करने का अवसर इसी आधार पर मिला है। अपने देश धर्म, समाज और संस्कृति का गौरव बढ़ाते रहने और समस्त विश्व में सुख शान्ति बनाये रहने की वरिष्ठता का गौरव अपने देश के नागरिकों को इसी मर्यादा का पालन करते रहने के कारण उपलब्ध होता है। आत्म कल्याण और विश्व कल्याण का उद्देश्य पूरा कर सकने वाली महान जीवन साधना के लिए शरीर और आत्मा के बीच इस विभाजन सीमा का निर्धारण अतीव आवश्यक है।
यह विभाजन आयुष्य के आधार पर हुआ। दूसरा विभाजन सामान्य स्थिति के दैनिक जीवन का है। चौबीस घण्टे में से ८ घण्टे उपार्जन के लिए, ७ घण्टा सोने के लिए, ५ घण्टा अन्य आवश्यक कामों के लिए। इस प्रकार यदि २० घण्टे शरीर और परिवार के लिए व्यवस्थित रीति से लगाये जा सकें तो गृहस्थ जीवन का क्रम बहुत ही सुविधा और व्यवस्था पूर्वक चलता रह सकता है। शेष चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए लगाये रहने में किसी भी भावनाशील व्यक्ति को तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
साधना विज्ञान के क्रमिक सोपानों पर चढ़ते-चढ़ते जब थोड़ा और ऊपर बढ़ते हैं तो कुण्डलिनी योग का उच्चस्तरीय साधना क्रम के अन्तर्गत नाम लिया जाता है। इस साधना विशेष के विषय में जन-मानस में बड़े व्यापक स्तर पर भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। यह अपरिमित ऊर्जा केन्द्र जो मानवी काय-कलेवर के अन्तराल में सूक्ष्म रूप में अवस्थित होता है, कितना शक्तिशाली हैं व विभिन्न साधना प्रक्रियाओं के माध्यम से इस योग साधना को संपादित कर कितनी कुछ सिद्धियाँ-विभूतियाँ हस्तगत की जा सकती हैं, इस पक्ष पर विस्तृत विवेचन करने से पूर्व इस ध्यान योग की एक प्राथमिक जानकारी ले लेना समीचीन होगा।
योग के 84 प्रकार बताये गये हैं परन्तु महत्त्वपूर्ण उच्चस्तरीय क्रम में गिने जाने योग्य तो मात्र बारह हैं। राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ऋजुयोग, नादयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, स्वरयोग, मन्त्रयोग तथा तंत्रयोग। इन्हें प्रकारान्तर से कुण्डलिनी जागरण साधना का ही माध्यम माना जाता है। इस प्रकार महत्त्वपूर्ण साधनाओं का निचोड़ एक ही पद्धति में समाविष्ट है और यही उसकी विशेषता है।
तन्त्र और योग इन दोनों रूपों में साधना के वट वृक्ष की दो प्रधान शाखाएँ हैं। एक वाम मार्ग आगम या भौतिक सिद्धियों का क्षेत्र कहलाता है तो दूसरा दक्षिण मार्ग, निगम या आत्मिक ऋद्धियों की विधा है। तन्त्र पक्ष को मानने वाले कहते हैं शरीर और मन में अजस्र शक्ति का भाण्डागार छिपा पड़ा है। हठयोग प्रधान तीव्र स्तर के साधना कर्मकाण्डों से इस शक्ति स्रोत को कुरेदा, उभारा और विकसित किया जाता है। इससे साधक की भौतिक सामर्थ्य तो बढ़ती ही है आत्मिक उत्थान का पथ भी प्रशस्त होता चलता है। इस मार्ग के श्रेयार्थी कर्मकाण्डों के माध्यम से ही शरीर और मन को साधने की चर्चा करते हैं।
दूसरा पक्ष सौम्य हैं। दक्षिण मार्ग या निगम पथ को मानने वाले भौतिक प्रगति को कम तथा आत्मिक प्रगति को प्रमुख मानते हैं। हठयोग के स्थान पर वे ध्यानयोग को प्रमुखता देते हैं तथा इसी शक्ति केन्द्र को विकसित कर अनन्त आनन्द तथा विभूतियों की प्राप्ति इससे होती बताते हैं। इन दोनों ही मार्गों का समन्वय सन्तुलन जिस एक साधना पद्धति में है उसका नाम है कुण्डलिनी योग। जहाँ ब्रह्मविद्या के पथ पर चलकर लक्ष्य की ओर बढ़ने वालों के प्रसुप्त के जागरण का लक्ष्य इससे सधता है, वहीं तन्त्र विज्ञानियों द्वारा इच्छित भौतिक प्रगति की सम्भावनाएँ भी इससे पूरी होती हैं। दोनों पक्षों के समन्वय से बनी यह उच्चस्तरीय योग साधना अपने आप में पूर्ण व समग्र है। सर्वप्रथम साधनों को इस योग साधना पर तन्त्र की मोहर लगने के कारण फैली भ्रान्तियों को मिटाकर इसकी प्राथमिक जानकारी ले लेना अभीष्ट होगा।
योग साधना के तत्त्ववेत्ता बताते हैं कि शरीर अपने आप में अद्भुत अपरिमित शक्ति का भण्डार है। नित्य ही यह ब्राह्मी अनुदान के माध्यम से शक्ति अवशोषित करता तथा उपार्जन योग्य प्राणशक्ति को पचा व संग्रहीत कर शेष वातावरण में छोड़ देता है। उसकी शक्ति जिन प्रयोजनों में अनावश्यक अपव्यय होती रहती है, उसे यदि बचा लिया जाय और उसे सही दिशा में नियोजित कर दिया जाय तो साधना का प्रयोजन पूरा हो जाता है व प्रस्तुत शक्तियों को उभारना सम्भव बन पड़ता है। शक्ति ग्रहण का माध्यम तो प्राणाकर्षण प्रक्रिया है जो स्थूल रूप से श्वास प्रक्रिया के माध्यम से, पाचन प्रक्रिया के माध्यम से तथा सूक्ष्म रूप से विचार तरंगों व सूक्ष्म प्राण प्रवाह के रूप में सतत सम्पादित होती रहती है। शक्ति अपव्यय की जानकारी होना बहुत अनिवार्य है। मनीषी तीन मार्ग बताते हैं जहाँ से सर्वाधिक शक्ति-क्षरण होता है। प्रथम तो जीविका उपार्जन के अनेकानेक प्रयोजन जिनमें परिवार का संचालन, सुव्यवस्था, श्रम, नित्य कर्म जन सम्पर्क आता है। दूसरा मार्ग जहाँ से शक्ति का सर्वाधिक अपव्यय होता है, मानवी मन है जो पढ़ता है, सोचता है, अनेकानेक आवेगों को जन्म देता है। इन्द्रिय भोग से जो शक्ति क्षरण होती है उसका प्रेरणा स्रोत भी मन है। शोक-भय, तनाव, अहंता-तृष्णा जैसे आवेग मस्तिष्क की ही देन हैं जो बहुसंख्यक व्यक्तियों के शक्ति भण्डार को खाली कर देते हैं। तीसरा अन्तिम अपव्यय छिद्र है-शरीर का स्वचालित (आटोनॉमिक) स्नायु संस्थान। अनचाहे बिना हमारे नियन्त्रण के जो गतिविधियाँ शरीर में चलती हैं, रक्त, संचार से लेकर रस स्रावों तथा आहार पाचन से लेकर विसर्जन प्रक्रिया तक के मूल में अचेतन मस्तिष्क की गतिविधियों का ही प्राधान्य होता है। ये प्रेरणाएँ इतनी तीव्र होती हैं कि इन पर नियन्त्रण अनसधे मन व साधारण काया वाले मनुष्य से सम्भव नहीं। चाहते हुए भी शरीर व मन पर नियमन बन नहीं पाता व संग्रहीत शक्ति समाप्त होती चली जाती।
शरीर, मस्तिष्क व नाड़ी संस्थान ये तीन जीवनी शक्ति उत्सर्जन के केन्द्र है। अलग-अलग जीवधारियों में विशिष्ट अनुपात में इन तीनों से सतत अधोगामी प्रवाह रहता है। मात्र मनुष्य को ही यह विशेषता प्राप्त है कि इन तीनों पर आंशिक नियन्त्रण स्थापित कर इस संग्रहीत ऊर्जा को विशिष्ट प्रयोजनों में लगा सकता है। पानी रोककर बाँध बना लेना ही काफी नहीं है। उसे ऊँचाई से नीचे गिराकर शक्तिशाली टर्बाइन्स उस प्रवाह से चलाये जाते हैं तो अक्षय विद्युत भण्डार उसी साधारण से जल से उफन पड़ता है। शक्तियों के प्रवाह को रोक लेने भर से काम नहीं चलता उन्हें सुनियोजित करना होता है ताकि अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सके। योग साधना द्वारा यही प्रक्रिया सम्पादित की जाती है। जहाँ तन्त्र मार्ग कहता है कि अचेतन मन नाड़ी संस्थान पर नियन्त्रण कर महासर्पिणी कुण्डलिनी को जगाया जाय, वहीं दक्षिण मार्ग की मान्यता है कि अचेतन मन पर नियन्त्रण तो स्थूल शक्तियों का नियमन पंच भौतिक क्रिया-कलापों का सम्पादन भर है। इससे तो मात्र सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं। इससे जन्म लेने वाले चमत्कार कौतूहल भर दिखाते हैं, आत्मिक प्रगति की दिशा में सहायक नहीं होते।
दक्षिण मार्ग व वाम मार्ग का सन्तुलन बिठाते हुए कुण्डलिनी योग प्रतिपादन करता है कि मौन, ब्रह्मचर्य, उपवास, विश्राम आदि से जहाँ शरीर शक्ति के व्यय को बचा सकते हैं, प्रत्याहार धारणा-ध्यान, समाधि आदि के द्वारा मन के कारण होने वाले शक्ति क्षरण को रोका जा सकता है। उसी प्रकार अचेतन नाड़ी संस्थान को सुनियोजित कर इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना के प्रवाहों का नियमन कर कुण्डलिनी जागरण का प्रबल पुरुषार्थ सम्पादित किया जा सकता है। यही शक्ति का वास्तविक सुनियोजन है। जहाँ वाम मार्ग शरीर, मन की गतिविधियों को महत्त्व नहीं देता वहाँ कुण्डलिनी योग संयम जन्य सामर्थ्य को प्रसुप्त की जागृति में अचेतन को मोड़ देकर, अधोगामी प्रवाह को मोड़ देकर अधोगामी प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाने की सम्भावनाओं का उद्घाटन करता है।
कुण्डलिनी योग की एनाटॉमी का जब जिक्र करते हैं तो यह तथ्य हृदयंगम किया जाना जरूरी है कि अध्यात्म शास्त्र में जहाँ भी शरीर विज्ञान का वर्णन आया है, वह विशुद्ध रूप से सूक्ष्म संरचना की विवेचना है। स्थूल काया में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है-उन्हें एक प्रकार का सिम्बाॅल भर माना जा सकता है। शरीर विच्छेदन कर यदि षट्चक्रों को ढूँढने लगे तो यह प्रयास निराशाप्रद तथा हास्यास्पद होगा। सूक्ष्म विद्युत्प्रवाहों को, भँवर चक्रवातों को इन चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। स्थूल अंगों से तो मात्र उन सूक्ष्म शक्तियों की निकटता का आभास मात्र मिलता है।
मानवी काय सत्ता में दो ध्रुव प्रदेश हैं जैसे पृथ्वी पर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुव है। उत्तरी शक्ति केन्द्र मस्तिष्क के बीचों-बीच स्थित ब्रह्मरन्ध्र है तो दक्षिणी शक्ति केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में स्थित मूलाधार। आध्यात्मिक संरचना की दृष्टि से इन दो ऊर्जा केन्द्रों का ही सर्वाधिक महत्त्व है। त्वचा, आँखें, वाणी, उँगलियाँ व जननेन्द्रियों का बाह्य स्वरूप वे अवयव विशेष हैं, जहाँ से शक्ति धाराएँ बाहर की ओर निस्सृत होती हैं व आसपास के वातावरण को प्रभावित करती हैं।
पृथ्वी पर जो प्राण रूपी जीवन है उसका मूल स्रोत हैं ब्रह्माण्ड में संव्याप्त चेतना प्रवाह। पृथ्वी भी साँस लेती, अवशोषित करती व छोड़ती है। उत्तरी ध्रुव से जो भी आवश्यक है, ग्रहण कर लिया जाता है तथा अवशिष्ट दक्षिणी ध्रुव से होकर अन्तरिक्ष में वापस फेंक दिया जाता है। इसी कारण हिमाच्छादित इन ध्रुव प्रदेशों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से तो इनकी महत्ता सर्वविदित है ही। यदि यहाँ थोड़ा सा भी हेर-फेर होने लगे तो उसका प्रभाव मौसम की प्रतिकूलता के रूप में सारे पृथ्वी के वायु मण्डल पर होता है। ठीक इसी प्रकार मानवी काया के दोनों ध्रुव चेतना क्षेत्र में अपनी भूमिका सम्पादित करते हैं। इन दोनों ध्रुवों को मिलाने पर सुषुम्ना रूपी जो प्रवाह मेरुदण्ड क्षेत्र में बनता है वह सारा स्वरूप मिलकर कुण्डलिनी शक्ति का सूक्ष्म ढाँचा बनाता है। कहा जाता है कि यह शक्ति प्रवाह सर्पिणी की तरह है जिसकी पूँछ नीचे है व फन ऊपर। मल-मूत्र छिद्रों के मध्य अवस्थित क्षेत्र जिसे कूर्म या मूलाधार कहते हैं-एक विलक्षण प्रकार की आत्मा तड़ित का निवास स्थान है। यह महासर्पिणी की पूँछ वाला क्षेत्र हुआ। दूसरा सिरा मस्तिष्क के मध्य स्थित ब्रह्मरन्ध्र है जहाँ की बनावट इस प्रकार की है मानो एक विद्युत का फव्वारा छूट रहा हो अथवा एक केन्द्र के चारों ओर आरी के छोटे छोटे दाँते हो। इसे सहस्त्र कमल कहते हैं। इसे महासर्पिणी का फण वाला क्षेत्र कह सकते हैं। इन दोनों के बीच में जो सर्प की काया विद्यमान है वह सुषुम्ना प्रवाह है जो स्पाइनल कार्ड के अन्दर सूक्ष्म रूप में विद्यमान है तथा जिसके दोनों ओर इड़ा व पिंगला रूपी सतत प्रवाह गतिमान हैं।
जब किसी फुलझड़ी को जलाया जाता हैं तो चिनगारियाँ उड़ने लगती हैं। इसी प्रकार दोनों ध्रुव केन्द्रों के मिलन से, मूलाधार-सहस्रार के मिलन से संयोग से एक दिव्यधारा प्रवाहित होती है जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। समस्त सिद्धियों की बीज स्थली यह प्रवाह स्फुरित, जागृत व गतिमान होने पर साधक को अति समर्थ बनाता चला जाता है। इस विद्युत की तुलना में सारे संसार के बिजली घर, जो जड़ विद्युत उत्पन्न करते हैं, कहीं सानी नहीं रखते। शरीर का यह कुण्डलिनी विद्युत भण्डार जड़ और चेतन, भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार की शक्तियों का अलौकिक समन्वित स्वरूप है।
मूलाधार केन्द्र शरीर के दक्षिणी ध्रुव प्रदेश को अग्नि स्वरूप माना गया है। कुण्डलिनी महाशक्ति का परिचय देते हुए कहा गया है कि वह अग्नि कुण्ड में सुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी हुई है। दूसरी ओर उत्तरी ध्रुव सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहते हैं। वहाँ से सतत सोमरस प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता है। इस अमृत स्राव का प्रवाह अधोमुखी है। यह कुण्डलिनी मूल तक जाता है। कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है-प्रसुप्त पड़ी, विष उगल रही, वासना की जलन में तड़प रही सर्पिणी को अमृत रस का पान कराना, उसके प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाना। इस अलंकारिक चित्रण के पीछे दर्शन यही है कि निरन्तर शक्ति अपव्यय के माध्यम से हम जिस प्रवाह को पतनोन्मुख बनाये रखते हैं, उसे योग साधना रूपी पुरुषार्थ से हम ऊपर भी उठा सकते हैं।
कुण्डलिनी के दो छोरों में मूलाधार के साथ ‘कन्द’ शब्द की चर्चा शास्त्रों में होती रहती है। स्थूल शरीर में इसका प्रतिनिधि है, सुषुम्ना का निचला सिरा कॉडा ईक्वाइना। कॉडा अर्थात् घोड़ा। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर अन्तिम कोशिका तक जाता है व वहाँ समाप्त होकर धागों फाइबर फिलामेण्ट्स का स्वरूप ले लेता है। इन नाड़ी तन्तुओं से ही वह विद्युत प्रवाह निकलता है जो मूलाधार स्थित चक्र संस्थान बनाता है। यही घोड़े की पूँछ के आकार का अवयव सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का प्रतिनिधि कहा जाता है। एनॉटामी विज्ञान की दृष्टि से यह मल-मूत्र छिद्रों का मध्य भाग है। मूलाधार का अर्थ जड़ सहायक मूलभूत शक्ति आधार। चूँकि यह सूक्ष्म है इस कारण अदृश्य है। यहीं प्राण का उद्गम केन्द्र है। इसके शरीर रचना विज्ञान के विस्तार में जाने का तो अभी अवसर है भी नहीं। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्रोस्टेट ग्लैण्ड, लम्बर-सेक्रल फ्लेक्सस (नाड़ी गुच्छक) जननेन्द्रिय अंग, सुषुम्ना का निचला हिस्सा (कॉडा इक्वाइना) तथा वहाँ स्थित ऑटोनामिक गेन्गलियान मिलकर जो जटिल रचना बनाते हैं वह अपने आप में एक जनरेटर है। यहीं से खुला छोड़ने पर जीवनी शक्ति का अपव्यय तथा निरोध करने पर शक्ति संचय, स्फुरण तथा जागरण की प्रक्रिया होती है जो विभिन्न ध्यान योग की साधनाओं के सम्पुट से ऊर्ध्वगमन में परिणत होती है।
जीवन शक्ति, उमंगें, क्रिया शक्ति, उत्साह आदि का केन्द्र स्थल यही मूलाधार का कन्द कुण्ड है। यहाँ से जाज्वल्यमान ज्योति ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपूरित, नाभिचक्र, हृदय कमल के अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, भ्रूचक्र, आज्ञा चक्र में विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होती-सहस्रार चक्र में पहुँचती है। यहाँ पर रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम (चेतना के लिये उत्तरदायी संस्थान) को उत्तेजित कर वह प्रसुप्त पड़े केन्द्रों को जगाती है तथा सिद्धियों व ऋद्धियों का द्वार खोलती है। योग कुण्डल्युपनिषद्, शारदा तिलक, ज्ञानार्णव तन्त्र, कुलार्णव तन्त्र, षटचक्र निरूपणम् ,, तन्त्रसार, शिव संहिता जैसे कुण्डलिनी शक्ति के माहात्म्य व जागरण जन्य परिणतियों के वर्णन से भरे पड़े हैं।
कुण्डलिनी जागरण की साधना काम-बीज के प्रतीक मूलाधार और ज्ञान-बीज के प्रतीक सहस्रार के मिलन संयोग की दिव्य प्रक्रिया है। इस साधना में भौतिक व आत्मिक शक्तियों के स्वाभाविक पारस्परिक शिथिल सम्बन्धों को सघन बनाया जाता है। दोनों के मध्य आदान-प्रदान की गति तीव्र बनायी जाती है। मेरुदण्ड रूपी महामार्ग के माध्यम से महा प्रयाण की, ऊर्ध्वगमन की देवयान प्रक्रिया इसी साधना द्वारा सम्पादित की जाती है।
आत्मोत्कर्ष की साधना के अनेकानेक प्रसंगों में विज्ञान सम्मत प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण की है। शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान तथा सूक्ष्म अध्यात्म विद्या के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का इसमें अद्भुत समावेश है। उच्चस्तरीय साधना-पथ पर चलने वाले हर साधक को इसकी समुचित जानकारी होना चाहिये।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
रोगों में औषधि उपचार का क्रम सभ्यता के विकासकाल से चला और समय की गति के साथ आगे ही बढ़ता चला आया है। इन दिनों अन्न, वस्त्र के उपरान्त मानवी आवश्यकताओं में शिक्षा से भी अधिक महत्त्व चिकित्सा का बना हुआ है। झाड़-फूँक से लेकर रेडियम चिकित्सा तक की अनेकानेक पद्धतियाँ इन दिनों प्रचलित हैं और अपनी-अपनी मनःस्थिति एवं परिस्थिति के अनुरूप उनका उपयोग करते हैं। औषधि उपचार का मध्यवर्ती स्थान है। जड़ी बूटियाँ, रसायनें सूखे या गीले रूप में शरीर के अन्दर पहुँचाई जाती हैं। प्रायः मुख द्वारा औषधि सेवन किया जाता है। पर विकसित पद्धति के अनुसार सुई की सहायता से रक्त में प्रवेश करा दिया जाता है। शरीर में घुसे हुए विजातीय द्रव्य को हटाने, विषाणुओं को निरस्त करने एवं अवयवों की सक्रियता बढ़ाने की अपेक्षा इन औषधियों से की जाती है।
इस उपचार पद्धति में एक दोष यह है कि मुख द्वारा पेट में पहुँचाई गई औषधियाँ हजम होकर रस में सम्मिलित हो सकें तो ही वे अपना समुचित प्रभाव उत्पन्न कर पाती हैं अन्यथा वे मल मार्ग से होकर बाहर निकल जाती हैं, अपना प्रभाव नाम के लिए ही दिखा पाती हैं। होता यह है कि पेट की प्रकृति मात्र शरीर के आवश्यक पदार्थों को ही पचाने के लिए तैयार होती हैं। इस कसौटी से बाहर का कोई पदार्थ यदि भीतर जा पहुँचता है तो उसको पचाने के लिए पेट तैयार नहीं होता, वरन् उसे बाहर निकाल फेंकने में जुट जाता है। औषधियों में से अधिकांश ऐसी होती हैं जो मानवी आहार का अंग नहीं होती। ऐसी चीजों को पचाने के लिए जिन रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता होती हैं वे पेट में होती नहीं, ऐसी दशा में उन औषधियों के नाम पर सेवन किये गये पदार्थों में से बहुत स्वल्प मात्रा में ही पचते और प्रभाव दिखाते हैं। अन्यथा उसका अधिकांश भाग मल-मूत्र द्वारा शरीर की मूल प्रकृति द्वारा बहिष्कृत ही कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ विटामिन-बी की गोलियाँ खाने पर पेशाब पीला हो जाता है। बिना पचे इस पदार्थ को प्रकृति द्वारा तत्काल निकाल बाहर किया जाना ही इस पीलेपन का कारण है। जो अंश पचता होगा वह फेंके हुए भाग की तुलना में नगण्य ही समझा जा सकता है। यह बात अन्य औषधियों के सम्बन्ध में भी हैं।
इसके आगे की बात इञ्जेक्शन मार्ग से पहुँचाई गई औषधियों के सम्बन्ध में हैं। पेट द्वारा पचाकर रक्त में सम्मिलित पदार्थ प्रायः इस स्थिति में पहुँच जाते हैं कि उन्हें शरीर में रहकर अपना प्रभाव दिखाने का अवसर मिल सके। इसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए पाचन पद्धति की सहायता से बचा जाता है और सीधे रक्त में अभीष्ट औषधि का प्रवेश करने का चातुर्य बरता जाता है। पर यहाँ भी सोची गई सफलता का रास्ता बन्द मिलता है। रक्त में रहने वाले श्वेत कीटाणु इस चार दरवाजे से घुसे हुए औषधि पदार्थ को भी विजातीय स्तर का ही पाते हैं। और उसे अस्वीकार करके निकाल बाहर करने का प्रबल प्रयास करते हैं। अनावश्यक पदार्थों को बाहर निकालने की एक सुव्यवस्थित पद्धति शरीर संरचना के साथ जुड़ी हुई हैं। इसके पास कचरे को निकाल बाहर फेंकने के अनेक साधन हैं। त्वचा से लेकर मल-मूत्र छिद्रों तक के असंख्य द्वार इसलिए बने हैं कि उनके माध्यम से सफाई का कार्य होता रहे। रक्त में प्रविष्ट औषधियों को इस पद्धति का सामना करना पड़ता है और वे अधिक समय तक भीतर नहीं ठहर पातीं।
देखा गया है बाहर से बढ़ाये हुए रक्त को शरीर की मूल प्रकृति कठिनाई से ही थोड़ी मात्रा में स्वीकार कर पाती है। स्व उपार्जित रक्त की तुलना में बाहर से चढ़ाया हुआ रक्त न तो पूरे समय ठहर पाता है। और न अपना प्रभाव दिखा पाता है। कठिनाई से ही अभीष्ट प्रयोजन थोड़ी मात्रा में उससे सधता है। प्रतिकूल वर्ग का रक्त तो भयानक प्रतिक्रिया उत्पन्न करके प्राण-संकट तक खड़ा कर देता है। पर यदि वह अनुकूल वर्ग का है तो भी वह परिजन स्तर का नहीं, मेहमान ही बना रहता है। और उसे डेरा लगा कर बैठने का अवसर नहीं मिलता।
इस स्थिति को देखने से इसी नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि मुख द्वारा पाचन तन्त्र के माध्यम से अथवा सुई की सहायता से जो औषधियाँ शरीर में प्रविष्ट कराई जाती हैं स्वाभाविक खाद्य पदार्थ न होने के कारण विजातीय वर्ग की ही तरह मूल प्रकृति के अनुरूप न होने के कारण अस्वीकृत बहिष्कृत ही की जाती रहती हैं और उनका समुचित प्रभाव नहीं होता। और कष्टसाध्य प्रयत्नों का बहुत स्वल्प भाग ही उपचार की अभीष्ट आवश्यकता को पूरा कर पाता है। उनके निष्कासन का जो अतिरिक्त भार पड़ता है, उसे देखते हुए लाभ कम और हानि अधिक का निष्कर्ष निकलता है। कुल मिलाकर रोगी को आधार चिकित्सा पद्धति से अन्ततः घाटा ही रहता है। भले ही उनसे आपत्तिकालीन कठिनाई के निराकरण में थोड़ी सामयिक सहायता मिल जाय।
दूध को तेज आग पर चढ़ा देने से वह उफनता है और देखते-देखते उबालने का बर्तन खाली होते हुए भी पूरे का पूरा भर जाता है, यहाँ तक कि उससे बाहर निकलकर फैलने भी लगता है। देखने वाले को यह लगता है कि तेज आग ने दूध का परिमाण कई गुना बढ़ा दिया। पर वस्तुतः वैसा होता नहीं। उबाल के बाद दूध की मात्रा घट जाती है। और उसकी स्वाभाविकता में भी भारी कमी आ जाती है। थके हुए घोड़े को भी चाबुक मार-मारकर कुछ समय दौड़ाया जा सकता है। इससे यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि चाबुक में ऐसा कोई शक्ति का भण्डार भरा पड़ा है, जिसने घोड़े में असाधारण सामर्थ्य भर दी। होता यह है कि चाबुक की पिटाई से उत्तेजित घोड़ा थोड़ी देर ही दौड़ पाता है। सामर्थ्य चुक जाने पर बुरी तरह गिर पड़ता है।
औषधियों में दूसरी विशेषता उनकी मारक सामर्थ्य है। एण्टीबायोटिक्स औषधियों का एक ही काम है-आक्रमण। विषाणुओं को मारने के लिए ही चिकित्सकों द्वारा यह उपाय अपनाया जाता है। वे सोचते हैं कि इस औषधि में अमुक वर्ग के विषाणुओं को मारने की क्षमता है। अतः वे बड़े उत्साह के साथ इन रोग कीटाणुओं के विरुद्ध उनका प्रयोग करते हैं इस निर्णय में एक भयंकर भूल यह होती है कि मारक रसायनों को कोई विचारशील प्राणी मान लिया जाता है, जो मित्र और शत्रु का अन्तर करता है। शत्रुओं को मारते समय मित्रों को बचाने का ध्यान रख सकता है। वस्तुतः वैसा है नहीं। मारक औषधियाँ अपना काम करती हैं, परन्तु वे मित्र-शत्रु का अन्तर नहीं कर सकती। विषाणुओं को मारने से उनकी क्षमता का उपयोग जीवन रक्षक जीवाणुओं के ऊपर भी होता है। और वे भी उनकी संख्या के ही अनुपात में मरते हैं।
इन कठिनाइयों को देखते हुए भी विवशता में औषधि उपचार की पद्धति काम में लानी पड़ती है, क्योंकि मोटे तौर पर अन्य कोई उपाय सूझता नहीं। प्राचीनकाल में तत्त्वदर्शी ऋषियों ने एक उच्चस्तरीय चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया था उसे यज्ञोपचार पद्धति कहा जाता था। इसके माध्यम से बलवर्द्धन और विषाणु मारण के दोनों ही उद्देश्य भली-भाँति पूरे होते थे और उन सभी हानियों से बचा जा सकता था जो औषधियों के कारण पैदा होती थी।
सर्वविदित है कि संसार का कोई पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता। जीव की तरह पदार्थ का मूल तत्व भी अमर है। उसका रूपान्तर भर होता रहता है। पूर्णतया समाप्ति उसी तरह संभव नहीं जैसे कि आत्मा का अस्तित्व सर्वथा समाप्त नहीं हो जाता। परिस्थितिवश पदार्थ ठोस, द्रव्य एवं वायु के रूप में बदलता रहता है। पानी सामान्यतया प्रवाही होता है। ठंड लगने से बर्फ के रूप में ठोस हो जाता है। गर्मी के कारण वह भाप बनकर आकाश में परिभ्रमण करने लगता है। परिस्थितिवश और उलट-पुलट आये दिन होते रहने पर भी जल तत्व के मूल कणों के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आता। वह अपनी वास्तविकता को बराबर कायम रखता है। यह स्थिति अन्य सब पदार्थों के सम्बन्ध में भी समझी जा सकती है। अग्नि में अग्नि संस्कार होने से हव्य द्रव्य नष्ट नहीं होता वरन् वायुभूत होकर समीपवर्ती वातावरण में बिखर जाता है। लाल मिर्च को आग पर जलाने से उसका प्रभाव वायु द्वारा आसपास फैल जाता है और वहाँ बैठे हुए लोगों को छींक एवं खासी आने लगती है। सुगन्ध, दुर्गन्ध का भी गर्मी के प्रभाव से दूर-दूर तक विस्तार होता है। यज्ञ में होमे हुए पदार्थ जलते तो हैं, पर मूलतः वे नष्ट नहीं होते, वरन् वायुभूत होकर अधिक सूक्ष्म, अधिक गतिशील एवं अधिक प्रभावी बन जाते हैं। वायु विश्लेषणकर्ता समीपवर्ती वातावरण की यदि जाँच पड़ताल करें तो प्रतीत होगा कि हवन किया हुआ पदार्थ गैस बनकर उसी क्षेत्र में परिभ्रमण कर रहा है। गर्मी वहाँ अधिक होती है जहाँ आग जलती है। इसके उपरान्त उस उत्पादित गर्मी का प्रभाव क्रमशः आगे बढ़ता और हलका पड़ता चला जाता है। ठीक इसी प्रकार हवन में प्रयुक्त हव्य पदार्थों का वाष्पीय अस्तित्व यज्ञशाला में तथा उसके इर्द-गिर्द के क्षेत्र में अधिक रहता है और इसके उपरान्त वह अनन्त अन्तरिक्ष में विस्तृत होता चला जाता है। स्वभावतः उत्पादन केन्द्र में ऊर्जा अधिक रहती है, बाद में वह क्रमशः धीमी पड़ती चली जाती है। यही कारण है कि यज्ञ स्थल में बैठे हुए लोग उस यज्ञवाष्प से अधिक प्रभावित होते हैं, जो हविष्य के यजन द्वारा उत्पन्न होती है।
साँस के द्वारा जो वायु ग्रहण की जाती है वह मात्र मिलने जुलने वाला अदृश्य प्रवाह ही नहीं होता, वरन् उसमें बहुमूल्य पदार्थ भरे होते हैं। और वे इतने उपयोगी होते हैं कि आहार के दृश्य स्वरूप की तुलना में उन्हें कम नहीं, अधिक मूल्यवान ही माना जायेगा। सभी जानते है कि वायु में रहने वाला आक्सीजन मनुष्य का प्रधान आहार है। उसमें कमी हो जाने से स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो जाता है। पहाड़ों की ऊँची चढ़ाई पर हवा हलकी पड़ती जाती हैं, फलतः साँस लेने में कठिनाई उत्पन्न होती है। पर्वतारोही आक्सीजन के थैलों को पीठ पर लाद कर चलते हैं और उसी के सहारे पूरी साँस लेते हुए अपना पर्वतारोहण जारी रखते हैं। वायु की विशिष्टता से वे लोग परिचित होते हैं, जो सबेरे की हवा में वायु सेवन के लिए निकलते हैं, एवं स्वास्थ्य सुधारने के लिए अच्छी आब-हवा वाले स्थानों में जाकर रहते हैं। सीलन, सड़न, दुर्गन्ध की हवा से स्वास्थ्य को कितनी क्षति पहुँचती है और अच्छे वायुमण्डल वाले स्थानों के निवासी कितने स्वस्थ और दीर्घजीवी होते हैं, इस प्रकट रहस्य से सभी परिचित हैं। यज्ञीय, यज्ञ प्रक्रिया से एक प्रकार का विशिष्ट वायुमण्डल बनता है। उसमें यजन किये गये पदार्थ प्रचुर परिमाण में परिभ्रमण करते रहते हैं। वे साँस द्वारा उपस्थित लोगों के शरीर में प्रवेश करते हैं और अपने प्रभाव से उन्हें प्रभावित करते हैं।
शरीर में आहार पहुँचाने और कचरा निकालने के जितने भी माध्यम हैं उनमें श्वसन क्रिया का महत्त्व सर्वोपरि है। अन्न-जल मुख द्वारा लिया जाता है और उनका कचरा मल-मूत्र मार्ग एवं अन्यान्य छिद्रों से होकर बाहर निकलता रहता है। श्वाँस प्रक्रिया द्वारा उच्चस्तरीय आहार शरीर में पहुँचता है। आक्सीजन का नाम तो सभी ने सुना है और उसकी उपयोगिता से भी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त भी वायु में अनेकानेक पदार्थ घुले रहते हैं और वे साँस द्वारा शरीर में पहुँचकर जीवाणुओं को अपनी उपलब्धियों से लाभान्वित करते हैं। रक्त की तरह ही साँस की पहुँच प्रत्येक जीवकोश तक होती है। काया के कोने-कोने में वह पहुँचती हैं, अपने अनुदान बाँटती है और वापसी में जहाँ भी कचरा मिलता है, उसे अपनी पीठ पर लादकर बाहर निकालती रहती हैं।
श्वाँस तन्त्र के सहारे बलवर्धक और रोग निवारक औषधियों को अविलम्ब काया के कण-कण तक पहुँचाने का कार्य जितनी अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं। अस्तु यज्ञ चिकित्सा को शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों के उपचार में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। साधारणतया औषधि चिकित्सा विधान में शरीरगत रोगों का ही उपचार है। मस्तिष्क तक उसकी पकड़ एवं पहुँच स्वल्प परिमाण में ही संभव हो पाती है। जुकाम, सिरदर्द जैसे रोगों के ही छुटपुट उपचार दवा−दारू से सम्भव हो पाते हैं। वहम, सनक, उद्वेग, आवेश, असमंजस, अविश्वास, भ्रम, भय जैसे कितने ही अचिन्त्य चिन्तन बहुधा मनुष्यों की मनोभूमि में जड़ जमाकर बैठ जाते हैं और विक्षुब्ध बनाये रहते हैं। इस क्षति को शारीरिक पीड़ाओं से कम कष्टकारक एवं हानिकारक नहीं माना जा सकता।
इन मनोरोगों की चिकित्सा का कोई ठोस आधार नहीं मिल सका है। अनिद्रा, पीड़ा, मूर्छा जैसे संकटों में मस्तिष्क को अर्द्धनिद्रित कर देने वाली दवाएँ तो बाजार में मिलती हैं, पर ऐसे उपाय, उपचार चिकित्सा विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में उभरकर नहीं आये हैं, जिनमें मनोविकारों के निराकरण की आशा बँध सके। इस असफलता को एक अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण दरिद्रता कह सकते हैं। निराशा के इन क्षेत्रों में आशा का प्रकाश मात्र यज्ञ चिकित्सा में ही सन्निहित दृष्टिगोचर होता है।
साँस को नासिका मार्ग से फेफड़े के केन्द्र संस्थान तक पहुँचाने की सड़क मस्तिष्क के विशाल क्षेत्र में होकर ही गुजरती हैं। इस प्रथम प्रयास में स्वभावतः अधिक सामर्थ्य रहती हैं। साँस में भरे हुए तत्वों का सर्वप्रथम सर्वाधिक प्रभाव मस्तिष्क पर ही होता है। ठण्ड लगने पर जुकाम, सिरदर्द होने के कारण यही है कि ठण्डी हवा मस्तिष्क को सर्वप्रथम प्रभावित करती है। धूलि में छींक आने, दुर्गन्ध में सिरदर्द होने लगने, क्लोरोफार्म सूँघने से बेहोश हो जाने जैसे उदाहरण यही बताते हैं कि साँस का पहला चरण मस्तिष्क को ही प्रभावित करता है। स्पष्ट है कि यदि श्वाँस मार्ग से मस्तिष्क संस्थान को प्रभावित करने का काम लिया जाय तो उससे न केवल उन्माद, अपस्मार, सिरदर्द जैसे प्रत्यक्ष रोगों का ही उपचार हो सकता है, वरन् मन्द बुद्धि, स्मरण शक्ति की कमी जैसी असमर्थताओं और मनोविकारों की विक्षुब्धताओं के निराकरण का मार्ग खुल सकता है।
यज्ञ चिकित्सा में वे सभी आधार मौजूद हैं जिनसे शारीरिक व्याधियों एवं बीमारियों, मानसिक आधियों एवं विकृतियों का उपचार सम्भव हो सके। प्राचीनकाल में यज्ञ को भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का आधार माना जाता था। उसे संकट मोचन का अमोघ अस्त्र कहा जाता था। अनेकानेक लोगों की सुविस्तृत महात्म्य शृंखला यज्ञ प्रक्रिया के साथ जुड़ी हुई है, जिनमें से दो प्रत्यक्ष लाभ ऐसे हैं जिनका जन साधारण से सम्बन्ध हैं। शारीरिक अस्वस्थता एवं मानसिक अस्त-व्यस्तता से निवृत्ति की दो समस्याएँ ऐसी हैं, यदि इन्हें सम्भाला-सुधारा जाता है तो समझना चाहिए कि मानव जाति की आधी कठिनाई का हल निकल आया।
यज्ञ देखने में छोटा सा धार्मिक कर्मकाण्ड प्रतीत होता है, पर उसके सत्परिणाम को देखा जाय तो प्रतीत होगा कि जितना उसके लिए श्रम, धन एवं मनोयोग लगाया जाता है उसकी तुलना में स्वास्थ्य संरक्षण जैसे प्रत्यक्ष लाभ कम नहीं है। परोक्ष लाभ तो इतने है कि उनका विवरण समझना-समझाना तक कठिन पड़ेगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
बुद्धिमान उसे कहा जाता है जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है। कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, मकान आदि की टूट-फूट होती रहती है। उसकी मरम्मत की जाती है। जो टूटा उसे फेंक दिया जाय, ऐसा कैसे हो सकता है? सब कुछ नया ही नया हो यह कैसे सम्भव है? इसी प्रकार जो रूठ जाय उससे खुद भी रूठ बैठे तो घर परिवार का चलाना कठिन है। कभी पत्नी से अनबन हो जाती है, कभी बच्चों से, कभी भाई से मनचाल हो जाती है तो कभी पड़ोसी से मन मुटाव बन जाता है। इस स्थिति को ऐसे ही रहने दिया जाय अथवा ऐंठ को और कड़ी करते रहा जाय तो काम नहीं चलेगा। उलझन बढ़ती ही जायगी, जिनके साथ रहना है उनसे मीठे सम्बन्ध बनाये रहने में ही लाभ है।
मन हमारा सबसे निकट का सम्बन्धी है। पत्नी, बच्चे, भाई, पड़ोसी तो दूर वह शरीर से भी अधिक समीप रहने वाला स्वजन है। शरीर से तो सोते समय सम्बन्ध ढीले हो जाते हैं, मरने पर साथ छूट जाता है पर मन तो जन्म-जन्मान्तरों का साथी है और जब तक अपना अस्तित्व रहेगा तब तक उसका साथ भी छूटने वाला नहीं है। मन मुख्य और शरीर गौण है। मन की मर्जी पर आत्महत्या आदि से शरीर छोड़ा जा सकता है। शरीर की मर्जी से मन नहीं छूट सकता। मन की समझदारी से शरीर की अस्त-व्यस्तता दूर हो सकती है। शरीर परिपुष्ट होने से मनोविकार दूर नहीं किये जा सकते। शरीर की सामर्थ्य तुच्छ है मन की महान। मन का शासन शरीर पर ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर है। उत्थान-पतन का वही सूत्रधार है। निन्दा और प्रशंसा उसी की गतिविधियों की होती है। किसी को सन्त, ऋषि, देवदूत और महापुरुष बना देना यह मन की सज्जनता का ही चमत्कार है।
ऐसे उपयोगी और सामर्थ्यवान साथी को रूठने नहीं देना चाहिए। रूठ जाय तो मनाना चाहिए। हमारी आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है। अन्य काम छोड़कर भी इस ओर ध्यान देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके मन को मना लेना चाहिए।
मन आँख से दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए उसका रूठना भी नहीं दीखता, पर विवेक की आँख से देखें तो वह रूठा हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा। रूठने वाले की पहचान है साथ न देना, कहना न मानना, सहयोग न करना, नुकसान करना। बच्चा रूठ जाता है तो ऐसे ही उपद्रव करता है। घर का सामान तोड़ता-फोड़ता है और अपने हाथ पैर पीटता है। घर को नुकसान पहुँचाता है और स्वयं कष्ट पाता है। रूठी हुई पत्नी भोजन करना, बोलना बन्द कर देती है। मन को पुष्ट करने में उपयुक्त स्वाध्याय सत्संग की खुराक लेनी उसने बन्द कर दी है। आत्मा के पास बैठकर कभी विचार नहीं करता कि घर का बनाव-बिगाड़ किसमें है। कुमार्गगामी होकर रूठे बच्चे की तरह सबलता के साधन सद्गुणों को तोड़ता-फोड़ता रहता है और स्वयं निन्दा, तिरस्कार, अभाव, दारिद्रय, शोक संताप का भागी बनकर कष्ट पाता है। रूठा हुआ नौकर या तो काम करता ही नहीं, करता है तो ऐसे ढंग से कि मालिक को और नुकसान पड़े। मन ने आत्मोन्नति के सारे प्रयास अवरुद्ध कर रखे हैं, कुछ करता है तो ऐसा विलक्षण जिससे इस लोक और परलोक में भविष्य अन्धकारमय ही बनता चला जाय। यह रूठने के प्रत्यक्ष चिन्ह हैं।
यह असहयोग अवरोध देर तक नहीं चलने देना चाहिए। वह अपना भाई है उसके साथ राम-भरत जैसे मधुर सम्बन्ध बनाने चाहिए, रावण-विभीषण की तरह, सुन्द-उपसुन्द की तरह परस्पर द्रोही विद्रोही बनकर रहने में क्या आनन्द?
मन ने यदि साथ दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती जैसी आज है। उसने काया को स्वस्थ और समर्थ रखने के लिए संयम बरता होता। आहार-विहार की नियमितता बरती होती तो काया गुलाब के फूल की तरह खिली हुई और गेंद की तरह उछलने वाली रही होती। बीमारी और कमजोरी की इस घर में घुसने की हिम्मत ही न पड़ती। मन रूठा बैठा रहा, शरीर को देखा सम्भाला ही नहीं, रुग्णता ने घेरा डाल लिया, शरीर टूटा, आत्मा को अशान्ति रही और मन स्वयं ही उस रुग्ण काया में रहकर टूटे मकान में रहने वाले किरायेदार की तरह उद्विग्न बना रहा।
मन यदि रूठा हुआ न होता तो उसने अपने आपको सँभाल लिया होता। अपने को गुण, कर्म, स्वभाव से सुसज्जित सुसंस्कृत रखा होता, पर वह तो कोप भवन में बैठा था। कपड़े फाड़े, बाल बिखेरे, बिना नहाये-धोये ऐसा ही गन्दा पड़ा रहा। अपना वेष बिगाड़ा, सम्मान खोया और बाप का काम बिगाड़ा। आत्मा को सहयोग देना तो सुसंस्कृत स्थिति में ही हो सकता था। मलीनता और कुत्सा का कलेवर ओढ़ लेने पर तो वह भारभूत ही रह सकता था, सो वह रह भी रहा है।
जीवन क्षेत्र को सँभालने का उत्तरदायित्व यदि उसने सँभाला होता तो आज इस उद्यान की शोभा देखते ही बनती। शिक्षा से यदि उसने प्यार किया होता और एक दो घण्टे रोज भी पढ़ने के लिए उत्सुकता प्रकट की होती तो अन्धाधुन्ध अपव्यय होने वाले समय में से थोड़ा सा शिक्षा के लिए भी लग सकता था और पिछले जो दिन ऐसे ही बर्बाद हो गये, अब तक अपनी स्थिति उच्चकोटि के विद्वान जैसी हो गई होती। पर उसने विद्या में रस लिया कब? रूठा जो बैठा रहा।
देवत्व के सारे उपकरण अपने भीतर विद्यमान थे। एक उँगली के सहारे यह सारा साज झंकृत हो सकता था। अपने भीतर बैठा सन्त, ऋषि, देव प्रतीक्षा करता रहा, जरा सा सहारा मिले तो ऊपर उभरकर आये। पर मन को फुरसत ही नहीं मिली। वह रूठा रहा, भटकता रहा और अंगूठा दिखाता रहा, समय की निधि चुकती चली गई। अवसर हाथ से निकलता रहा। जीवन सन्ध्या निकट आ गई तो भी हाय रे मन, तेरा सहयोग न मिल सका।
मन से अपनी दयनीय दुर्दशा का वर्णन करना चाहिए। परमात्मा का राजकुमार सकल साधनों से सम्पन्न इस प्रकार दीन हीन, निन्दित, तिरस्कृत, असफल, असहाय बना फिरे यह कितने दुःख की बात है। यह दुर्दशा केवल एक ही कारण से हुई है कि गाड़ी के दो पहियों में सहयोग नहीं रहा। आत्मा का गौरवशाली वर्चस्व की उपलब्धियों के लिए यह जीवन मिला है यदि मन साथ दे तो महामानव की गरिमामयी स्थिति में प्रकाश और उल्लास भरा जीवन अब भी जिया जा सकता है। जो गया सो बहुत था पर जो बचा है सो भी कम नहीं। यदि उतने में भी परस्पर सहयोग रह सके तो अभी भी उतना अवसर है कि अभिशाप को वरदान में बदला जा सके।
मन कुचाल छोड़ इन्द्रिय लिप्साओं में भटकना छोड़। वासना आग की तरह है, भोग उपभोग से यह शान्त होने वाली नहीं है। इन्हें तृप्त करने के जितने ही साधन जुटायेगा उतनी ही क्षमता, आयु, प्रतिभा घटती है। क्षणिक चटोरेपन के पीछे समर्थता की सम्पत्ति को गँवाने और दिन-दिन दुर्बल होते जाने से क्या लाभ? बता मन तू कोयलों के ऊपर मुहरें निछावर करने में क्या बुद्धिमत्ता अनुभव कर रहा है?
आत्मा रोती बिलखती रही, उसके सन्तोष, उत्थान, कल्याण के लिए एक कदम नहीं बढ़ाया गया, एक प्रयत्न नहीं किया गया। अन्तरामा की सहचरी सत्प्रवृत्तियाँ कुम्हलाई, मुरझायी और सूख गयी उन्हें सींचने के लिए एक लोटा पानी नहीं डाला जा सका। सद्भाव के बालक अपने पोषण की पुकार करते रहे उनकी आवश्यकताएँ जुटाने से मुँह मोड़े रहा गया, पर दुर्बुद्धि, दुष्प्रवृत्ति और दुर्भावनाओं के पोषण के लिए तरह-तरह के साज सरंजाम जुटाये जाते रहे। परिवार का पोषण विकास करना पर्याप्त था। पर उन्हें विलासी और धन कुबेर बनाकर छोड़ जाने के मोह से सारी ममता उन्हीं पर उड़ेल दी गई। उन्हें ही अपना समझा गया। जो कुछ किया जाय उन्हीं के लिए, जो कुछ सोचा जाय उन्हीं के लिए, सम्पन्न बनाया जाय तो उन्हीं को, समृद्ध बने तो वे ही। उस छोटे से दायरे में अपनी सारी ममता समेट कर मन तू ठगा गया। इस मोह ग्रस्तता ने लोक भी बिगाड़ा और परलोक भी। बता मन तू इसी चाल पर कब तक चलता रहेगा? विश्व परिवार की ओर से कब तक आँखें बन्द कराये रहेगा?
मन तू शरीर का मित्र बना और आत्मा का शत्रु। शरीर को ठाठ-बाट जुटाने में, बड़प्पन दिलाने में, सत्ताधारी बनाने में लगा रहा, उसी के ताने-बाने बुनता रहा। पर इससे मात्र अहंकार बढ़ा। शरीर पर चिन्ता का भार बढ़ा और इस गधे पर इतना बोझ लादा कि कमर ही टूट गई। बाहर वाले बड़प्पन देखकर चौंधियाते जरूर हैं, पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला पड़ा है। मन तू खुद भी मरा और अपने मित्र शरीर को भी मारा। यदि तू आत्मा का मित्र बन गया होता और जितना श्रम शरीर के लिए किया है उतना आत्मा के लिए करता तो आनन्द आ जाता। आत्मा ऊँची उठकर परमात्मा बन जाती और तू यशस्वी होता, धन्य हो जाता। पर हाय रे कुचाली तू तो रूठा बैठा रहा, उलटा ही चलता रहा, घर को खोखला किया और अपनों को चौपट कर दिया। जिन विरानों को अपना सब कुछ समझ रहा था, उनकी करतूतें तो देख, अहसान मानना तो दूर अधिक शोषण के लिए उतावले और कृतघ्नता से बावले बने फिर रहे हैं। तेरे सारे प्रयास एक तरह से निरर्थक और निष्फल ही चले गये।
जीवन लक्ष्य की बात सोचने के लिए तुझे फुरसत ही नहीं मिली। कर्तव्य का ध्यान कभी आया ही नहीं, ईश्वर के दरबार में जाकर लेखा-जोखा देना पड़ेगा यह कभी सूझा ही नहीं, स्वार्थपरता की संकीर्ण परिधि में कीचड़ के कीड़े की तरह कुलबुलाता, बिलखता रह गया अभागे। अपने को ज्वलन्त दीपक की तरह प्रकाशवान बनाकर सबको प्रकाश देता और स्वयं प्रकाश पुञ्ज कहलाता, यह मार्ग तुझे क्यों नहीं सूझा? विश्व भगवान की सेवा साधना के लिए भीतर से हुलस क्यों नहीं उठा, पत्थर के टुकड़ों पर सिर पटककर ईश्वर भक्ति की विडम्बना तो रचता रहा, पर प्रेम के अमृत की एक बूँद भी सच्ची भक्ति के रूप में कभी नहीं उपजी। आस्तिकता का कलेवर ओढ़े फिरने वाले नास्तिक, बता तेरी इस बाल क्रीड़ा से ईश्वरीय अनुग्रह का एक भी कण कैसे मिल सकेगा?
भूलें बहुत हो चुकी। बहुत क्या, यो कहना चाहिए कि अब तक का सारा जीवन भूल-भुलैयों में भटकते हुए ही बीत गया। जब वस्तुस्थिति पर विचार आता है, हानि का लेखा-जोखा सामने आता है तो छाती फटती है। जितना समय, श्रम और प्रयत्न मृग तृष्णा में भटकते बीता, यदि वह सही दिशा में, राजमार्ग पर चलने में लगा होता तो अब तक कितनी मंजिल पार हो गई होती। कितने ऊँचे पहुँचे होते, कितने आगे बढ़े होते। पर कोल्हू के बैल की तरह, बालू में से तेल निकालने की तरह हाथ कुछ नहीं आया। खीज़, क्षीणता, जलन और पछतावे के सिवाय इस भूल भरे मार्ग पर और मिलना ही क्या था? सब कुछ गवाँ बैठने पर भी तृष्णा और वासना के शूल अभी भी वैसा ही दर्द करते रहते हैं और चैन नहीं मिलने देते।
मन हमारे शासक और सेवा दोनों के काम कर सकता है। यदि हम उसे ढीला छोड़ दें, स्वच्छन्द विचरने दें, उसके कहने पर चलें और अपना आत्म समर्पण उसे कर दे तो मन शासक है। इसके विपरीत यदि हम उसे कसे रहें, नियन्त्रण में रखें, अभीष्ट मार्ग पर चलायें, आदेश दें और उसे उपकरण या वाहन की तरह इस्तेमाल करें तो वह सेवक है। शासक की दृष्टि से वह बुरा शासक है। अपना भी नाश करता है और अपने प्रदेश, शरीर, प्रजा कायिक उपकरणों का भी सत्यानाश करके रख देता है। ऐसे चंचल मर्कट को शासक नियुक्त करने की जो भी भूल करेगा, पछतायेगा। पर वह सेवक के स्थान पर बहुत ही उपयुक्त, योग्य, सामर्थ्यवान, कुशल सब कुछ है। इस बढ़िया, सस्ता, अहर्निश साथ रहने वाला, वफादार नौकर इस दुनिया में और कोई मिल ही नहीं सकता। हो ही नहीं सकता।
शिक्षा, विनोद, व्यायाम, मैत्री, खर्च, सम्भाषण, परामर्श, चिन्तन आदि सामान्य दैनिक कार्यों में वह औचित्य और मनुष्यत्व को बनाये रखता है। फलस्वरूप यही रोज-मर्रा के काम एक प्रकार से योग साधना बन जाते हैं। इसका प्रभाव मानसिक स्थिति पर पड़ता है। यह विहार क्रम जिसे सात्विक मिला है उसका मन न कुमार्गगामी होगा, न उच्छृंखल। वह उद्धत आचरण नहीं करता। जानता है मेरा अस्तित्व सेवा करना है। मुझे सेवक के रूप में बनाया गया है, मेरा कर्तव्य आत्मा की सहायता करना है। मुझे कोई ऐसा काम न करना चाहिए, जिससे जीवात्मा के जीवन लक्ष्य में बाधा, व्यवधान उत्पन्न हो ऐसा समझदार मन मर्यादा तोड़कर सेवक से शासक बनने का प्रयत्न स्वतः ही नहीं करता और उसके उच्छृंखल बनने की आशंका नहीं रहती है।
मन पर देख-रेख न रखी जाय, उसे दुनिया की भेड़चाल में चलने दिया जाय तो वह भी अन्य चोर नौकरों की तरह भोले मालिकों की हजामत बनाने का ढर्रा अपना लेगा। यदि मालिक सावधान हो और यह जानता हो कि इस दुमुँहे सर्प को कैसे बरता जाय तो वह खतरे से बच जायेगा। सरकस के शेर की तरह सधा हुआ मन मालिक का हित साधन और दर्शकों का मनोरंजन करता है, पर यदि वह उजड्ड और अनियन्त्रित हो तो मालिकों से लेकर दर्शकों तक सभी के लिए संकट सिद्ध होगा। मन रूपी दुधारी तलवार से जहाँ शत्रु को समाप्त किया जा सकता है वहाँ उलटा प्रयोग होने पर अपना भी सर्वनाश हो सकता है।
मन को साध लिया जाय तो वह पारद से रसायन बनने की तरह उपयोगी भी अत्यधिक है। उसका कुसंस्कारी रूप तो विषैले पारे की तरह है, जो जिस शरीर में भी जायेगा उसे तोड़-फोड़कर बाहर निकलेगा। मन को निग्रह के लिए जहाँ उसे सत्परामर्श देना, समझाना-बुझाना, मनन, चिन्तन के आधार पर परिष्कृत करना, स्वाध्याय, सत्संग से सन्मार्गगामी बनाया जाना चाहिए, वहाँ यह भी आवश्यक है कि उसके लिए आहार-विहार की ऐसी व्यवस्था बनाई जाय जिससे वह स्वयं उच्छृंखलता छोड़कर शालीनता को स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाय।
मन तेरे हाथ जोड़ते हैं, तेरे पैर छूते हैं, तेरे चरणों पर लोटते हैं, तू जीता हम हारे। पर अब कृपा कर, रूठना छोड़ दे। कुचाल मत चल, सही रास्ते पर आ जा। आत्मा का बन, उसी के साथ रह, उसी की सहायता कर, उसी के काम आ। आखिर तू आत्मा का ही तो पुत्र है। माता के साथ दुष्टता, माया के साथ रास-विलास। बच्चे इस रास्ते से पीछे लौट। बाप अब तो कृपा कर। तेरी शरण में आये, शरणागत को अब और आगे मत सता। तू रूठना छोड़ दे, मान जाय तो जीवन सन्ध्या की इन घड़ियों में भी अन्धकार को प्रकाश में बदला जा सकता है। देवता, अब तू प्रसन्न हो, वरदान दे तभी नाव पार उतरेगी अन्यथा अब डूबे-तब डूबे।
ऐसा चिन्तन, मनन हमें नित्य ही एकान्त में करना चाहिए। मन के साथ वार्तालाप करने का नाम ही मनन-चिन्तन है। उसी को स्वाध्याय सत्संग की उच्च भूमिका भी कहते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
औषधियों को वाष्पीभूत बनाकर उन्हें अधिक सूक्ष्म एवं प्रभावशाली बनाने की प्रक्रिया आयुर्वेद के विज्ञानी चिरकाल से अपनाते रहे हैं। उसके द्वारा अपेक्षाकृत सफलता भी मिलती रही है। पाचनतन्त्र के माध्यम से अथवा रक्त प्रवाह में सम्मिलित करके औषधि उपचार की पुरातन परिपाटी में जब वाष्पीकरण की नई पद्धति का समावेश हुआ तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम निकले।
यज्ञोपचार इसी स्तर की स्वास्थ्य संरक्षक प्रक्रिया है, जिससे आत्मिक प्रगति के उच्चस्तरीय सत्परिणामों के अतिरिक्त प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ रोग निवारण का भी मिलता है। इसमें कुछ विशेष नहीं करना पड़ता। रोग के अनुरूप औषधियों का हवन करने और उस उत्पादित ऊर्जा के निकट रोगी को बिठाने से काम चल जाता है। यज्ञ में न्यूनतम वस्त्र धारण करके बैठने का विधान है। आमतौर से कटिबन्ध के रूप में धोती और वक्षस्थल ढका रहने के लिए दुपट्टा धारण करना ही पर्याप्त समझा जाता है। भारी मोटे कसे हुए वस्त्र पहनकर यज्ञ कर्म में बैठने का निषेध है। कारण कि यज्ञीय ऊर्जा द्वारा शरीर के अवयवों को अधिक लाभान्वित होने का अवसर तभी मिल सकता है, जब वे खुले रहें। वस्त्र धारण करना ही पड़े तो वह इतना झीना एवं हलका रहे कि उपयोगी उपचार का लाभ लेने में त्वचा छिद्रों को किसी व्यवधान का सामना न करना पड़े।
यज्ञ चिकित्सा में भी रोग निदान की वैसी ही आवश्यकता पड़ती है जैसी कि अन्य पद्धतियों में चिकित्सक को रोगों के कारण जानने के लिए निदान करना पड़ता है। शरीर में कुछ उपयोगी वस्तुएँ कम पड़ जाने एवं कुछ अनुपयोगी वस्तुएँ बढ़ जाने से रोग उत्पन्न होते हैं। इस कमी को पूरा करने एवं विष संचय को बहिष्कृत करने के लिए सभी चिकित्सक अपने-अपने ढंग से उपाय करते हैं। यही यज्ञ चिकित्सा में भी करना पड़ता है। देखना होता है कि शरीर की रोग निरोधक शक्ति को बढ़ाने के लिए समर्थता देने वाली क्या पुष्टाई आवश्यक है और उसे कितनी मात्रा में किन पदार्थों के द्वारा शरीर में पहुँचाया जाय। देखना यह भी होता है कि किस अवयव में किस स्तर का, कितना विष द्रव्य जमा हो गया है, उसे बाहर निकालने के लिए किस प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न की जाय और उसे उपयुक्त स्थान तक पहुँचाने के लिए किस उपाय का अवलम्बन किया जाय।
हवन सामग्री किस रोगी के लिए किस स्तर की प्रयुक्त की जाय, इसमें भिन्नता रखनी पड़ती है। सामान्य यज्ञ सबके लिए सामान्य रूप से उपयोगी है। माता के दूध की तरह, बालक की तरह उसे हर याजक समान रूप से उपयोग कर सकता है। उससे किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं है। हर स्तर की दुर्बलता एवं रुग्णता में उससे लाभ ही होता है। यह सामान्य सर्वजनीन, हर परिस्थिति के अनुकूल उपचार हुआ। यहाँ तक यज्ञ विधान के साथ जुड़ा हुआ सामान्य स्वास्थ्य संरक्षण विज्ञान ही काम करता है। इससे आगे का कदम सामयिक एवं विशिष्ट है। उसे रोगी की स्थिति को देखते हुए उठाना पड़ता है। हर रोगी को उसकी स्थिति के अनुरूप दवा दी जाती है, उसी प्रकार रोग विशेष को ध्यान में रखते हुए, रोगी की स्थिति का गहन पर्यवेक्षण करते हुए यह निर्णय करना होता है कि किस स्तर की ऊर्जा उत्पन्न की जाय और उसके उत्पादन के लिए किन पदार्थों का यजन किया जाय?
इस दृष्टि से हर विशिष्ट रोगी के लिए विशिष्ट हविष्य का निर्धारण करना होता है। इसमें दोनों ही स्तर की हवन सामग्रियों का सन्तुलन बिठाया जाता है। बलवर्धक और रोग निवारक दोनों ही तत्वों को ध्यान में रखना होता है। कुनैन का सेवन कराते समय रोगी को दूध आदि की मात्रा बढ़ा देने के लिए कहा जाता है, ताकि उसके कारण उत्पन्न होने वाली गर्मी को शान्त रखने का उद्देश्य पूरा हो सके। दुर्बल रोगियों को फलों का रस, सुपाच्य पोषण से युक्त आहार का प्रबन्ध किया जाता है। दुर्बलता बढ़ने न देना, सशक्तता बनाये रखना भी एक महत्त्वपूर्ण काम है। विजातीय द्रव्य के निवारण में मारक तत्वों का उपयोग करने की तरह ही इस पोषण की भी आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ चिकित्सा के अनुसार रोगी की इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा कर सकने योग्य सामग्री का निर्धारण करना होता है। इसके लिए पदार्थों की रासायनिक संरचना का ज्ञान आवश्यक है। उसके दूसरे तत्वों के साथ सम्मिश्रण के प्रभाव का भी ज्ञान होना चाहिए।
हविष्य चार भागों में विभक्त है (१) औषधियों का सम्मिश्रण (२) घृत (३) समिधाएँ (४) पूर्णाहुति में होमे जाने वाले विशिष्ट पदार्थ। इन चारों के पृथक-पृथक गुण एवं प्रभाव हैं। आमतौर से गौ घृत प्रयुक्त होता है। पर अन्य पशुओं के घृतों में भी अपनी विशेषता है और रोगी की स्थिति को देखते हुए, घृतों में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थों की स्थिति का तालमेल बिठाते हुए यह निर्धारण करना होता है कि अमुक रोग में किस पशु का घृत लिया जाय।
हविष्य में रोग विशेष के लिए प्रयुक्त होने वाली औषधियों का आधार प्रायः वही रहता है जो रासायनिक विश्लेषण के आधार पर चिकित्सा विज्ञानी चिरकाल से करते आये हैं। इस निर्धारण में नये संशोधनों का भी ध्यान रखना पड़ता है। जिस प्रकार संविधान, कानून आदि में सामयिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए परिवर्तन किये जाते हैं, प्रथा परम्पराओं में हेर-फेर होते हैं, उसी प्रकार प्रयोग के आधार पर किन्हीं औषधियों के प्रभाव के सम्बन्ध में भी यह उखाड़-पछाड़ होती रहती है कि पूर्व निर्धारणों में हेर-फेर तो नहीं करना है।
समिधाएँ भी प्रकारान्तर में हविष्य ही हैं। लकड़ी का जलना भी औषधि यजन की तरह ही प्रभावोत्पादक होता है। लकड़ी में भी न्यूनाधिक मात्रा में उपयोगी-अनुपयोगी पदार्थ रहते हैं। हविष्य में मात्र वनस्पतियों की पत्तियाँ, फूल, फल ही नहीं होते, वरन् वृक्षों की लकड़ियाँ भी कूट-पीसकर मिलाई जाती हैं। चंदन, देवदार, अगर तगर आदि की लकड़ियों का चूरा भी हवन सामग्री में मिलता है। इनका प्रभाव भी अन्य औषधियों के समतुल्य ही होता है। अस्तु समिधाओं में कुछ नियत वृक्षों का काष्ठ उपयोग करने का ही विधान है।
पूर्णाहुति में सामान्य हवन सामग्री का नहीं, वरन् किन्हीं विशिष्ट वस्तुओं का प्रयोग करना पड़ता है। पूर्णाहुति तीन भागों में विभक्त है-(१) स्विष्टकृत होम जिसमें मिष्ठान्न होमा जाता है। (२) पूर्णाहुति जिसमें फल होमना होता है। (३) वसोर्धारा-जिसमें घृत की धारा छोड़ी जाती है। इन तीनों कृत्यों को मिलाकर पूर्णाहुति कही जाती है। इस विधान को प्रधानतया पोषक प्रयोग के रूप में लिया जाता है। निरोधक सामग्री तो हविष्य के रूप में इससे पूर्व ही यजन हो चुकी होती है। मिष्ठान्न क्या लिया जाय? उसे बनाने में क्या पदार्थ लिए जाएँ? यह भी यज्ञीय विधान का एक अंग है। शक्कर, चीनी, मिश्री, मिठाई आदि का उपयोग सामान्य बात है। असामान्य रूप से विशिष्ट प्रकार के चरु बनाये जाते हैं। खीर, हलुआ, लड्डू आदि का हवन स्विष्टकृत होम की आहुति में होता है। इन्हें किन पदार्थों के सम्मिश्रण से बनाया जाय, इस निर्धारण में यह ध्यान रखना होता है कि रोगी के शरीर में किन पोषक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता हैं। पूर्णाहुति में आमतौर से नारियल, सुपाड़ी आदि सुगमतापूर्वक मिल सकने वाले पदार्थ ही बहु प्रचलित हैं, पर बात इतने तक ही सीमित नहीं हो सकती, उसमें सूखे मेवे या पके फल भी प्रयुक्त हो सकते हैं। समिधाओं के निर्धारण की ही तरह पूर्णाहुति में फलों के चयन में भी सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है। वसोर्धारा में घृत की धार छोड़ी जाती है अर्थात् उसकी मात्रा बढ़ाई जाती है, इसका एक कारण यह है कि हवन कुण्ड में जहाँ-तहाँ शेष रहा कच्चा हविष्य तुरन्त ज्वलनशील हो सके, दूसरा कारण चिकनाई की वह मात्रा शरीर को मिल सके जो सामयिक परिस्थिति के अनुरूप आवश्यक हो रही है। शर्करा सहित अन्न वर्ग को स्विष्टकृत में, फल वर्ग को पूर्णाहुति में, घृत वर्ग को वसोर्धारा में प्रयुक्त करके आहार की सन्तुलित मात्रा का इस प्रकार निर्धारण किया जाता है कि यजनकर्ता को समुचित पोषण प्राप्त हो सके। वसोर्धारा घृत में कपूर, केशर आदि मिलाने की भी आवश्यकता रहती है। इससे घृत मात्र चिकनाई न रहकर एक विशिष्ट औषधि बन जाता है।
यज्ञावशिष्ट को कई रूपों में प्रयुक्त किया जाता है। स्विष्टकृत होम से बचे हुए चरु को यजमान प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। दशरथ की रानियों ने जिस चरु का सेवन करके सन्तान लाभ किया था वह यज्ञावशिष्ट ही था। पूर्णाहुति में प्रयुक्त होने वाले फलों में से कुछ यजमान को आशीर्वाद के प्रतीक रूप में देते हैं और उसे घर जाकर खा लेने के लिए कहते हैं। आहुतियों में से बचा हुआ इदं न मम् की वापसी के साथ टपका हुआ तथा वसोर्धारा से बचा हुआ घृत मुख, शिर आदि पर लगाने-सूँघने के लिए प्रयुक्त होता है। यह सभी यज्ञावशिष्ट हैं और स्थूल रूप से ग्रहण किये जाने पर भी प्रायः वैसे ही फलप्रद होता है, जैसे कि हविष्य की आहुतियों द्वारा हवन करके उत्पादित ऊर्जा द्वारा उपलब्ध होते हैं।
धार्मिक यज्ञों में यज्ञशाला बनाने और आच्छादन करने का विधान है। इस थोड़े से सीमा बन्धन से यज्ञीय ऊर्जा पर उस घेरे में कुछ समय ठहरने का प्रतिबन्ध लगता है। इससे उस क्षेत्र में बैठे हुए याजक दूरवर्ती लोगों की तुलना में अधिक लाभ उठा लेते हैं। खुले आकाश के नीचे हवन न करने की जो प्रथा चली आती है, उसके मूल में यही तथ्य है कि याजक थोड़े से अवरोध के कारण ऊर्जा से अधिक देर तक अधिक मात्रा में लाभ उठाते रह सकें। यज्ञशाला के ऊपर आच्छादन रखने की परम्परा भी इसी कारण है कि ऊष्मा का स्वभाव एवं स्वरूप ऊपर उठने का है। वह अग्निकुण्ड से निकलकर तीर की तरह छूटती है और सीधी आकाश में उड़ती चली जाती है। आच्छादन रहने से उसके ऊर्ध्वगमन पर प्रतिबन्ध लगता है और यज्ञशाला के वातावरण में उसका प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक समय तक अधिक मात्रा में बना रहता है। पूर्ण प्रतिबन्ध लगाकर बन्द कमरे में भी हवन किया जा सकता है, पर वह यज्ञ की उस मूल भावना के अनुकूल न होगा जिसमें विश्व कल्याण के लिए त्याग, बलिदान करने के उद्देश्य को प्रधानता दी गई है। यदि अपने हवन का अकेले ही लाभ उठाया गया, तो फिर वह अग्नि उपचार रह जायेगा। उसे यज्ञ के लोकोपयोगी पुनीत कर्म में न गिना जा सकेगा।
यज्ञ का यह पदार्थ परक विवेचन हुआ। उससे आगे की बात अति सूक्ष्म-कारण स्तर की है। मनुष्यों की तरह पदार्थों के भी तीन स्तर होते हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। मानवी अस्तित्व में स्थूल शरीर वह है जो रक्त माँस से बना है, खाता, सोता-चलता फिरता और काम करता दीखता है। सूक्ष्म शरीर वह है जो सोचता विचारता और शरीर पर शासन करता है। कारण शरीर वह है जिसमें आस्थाएँ, मान्यताएँ एवं आकांक्षाएँ जड़ जमाये रहती हैं। सभी जानते हैं कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः एक-दूसरे से अधिक श्रेष्ठ और समर्थ है। स्थूल से सूक्ष्म की और सूक्ष्म से कारण की सामर्थ्य अनेक गुनी मानी जाती है। पदार्थों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसका स्थूल स्वरूप वह है जो दिखाई देता है, स्पर्श किया जा सकता है। सूक्ष्म वह जिसका पता रासायनिक विश्लेषण द्वारा प्रयोगशाला में जाना जाता है। गाय की अपेक्षा भैंस के दूध में मक्खन और स्वाद दोनों अधिक होते हैं, पर महत्त्व गौ के दूध से बने पंचगव्य को ही दिया जाता है। तुलसी, आँवले और पीपल के पौधों की अपेक्षा दूसरे पौधे अधिक फलप्रद, आर्थिक एवं स्वाद की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं, पर उनमें प्राप्त सूक्ष्म संस्कारों के आधार पर उन्हें जो देवोपम श्रद्धा दी जाती है वह अन्य पौधों, वृक्षों को नहीं।
यज्ञ प्रक्रिया में प्रायः हर पदार्थ की कारण शक्ति को उभारा जाता है तभी वह यजनकर्ता के मन और अन्तःकरण में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। यदि इसी प्रकार के प्रयत्न न किये जायें तो फिर यह अग्निहोत्र अपना प्रभाव वाष्पीकरण स्तर का ही दिखा सकेगा, आग जलाने से भी कई तरह के लाभ उठाये जा सकते हैं, प्रायः वैसा ही कुछ यज्ञ धूम्र भी कर सकता है। हवा की विषाक्तता दूर करने, दुर्गन्ध हटाने, सुगन्ध फैलाने जैसे सामान्य प्रयोजन उससे पूरे हो सकते हैं। पसीना निकलने, विषाणु मारने जैसे प्रयोग भी सफल हो सकते हैं और उनका तदनुरूप आरोग्य लाभ भी मिल सकता है, पर है यह सामान्य बात ही। यज्ञ की विशिष्टता उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति पर निर्भर है। अमुक कष्ट का, अमुक शाकल्य का निषेध इसी आधार पर किया गया है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है।
कारण शक्ति का उत्पादन अभिवर्धन करने के लिए मन्त्र विज्ञान का सहारा लिया जाता है। उद्गाता, अध्वर्यु इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि निर्धारित विधि-विधान के लिए जिन मन्त्रों का जिस स्वर से उच्चारण एवं विनियोग करने की पद्धति प्रचलित है, उसका उपयोग सही रीति से होना चाहिए। निर्दिष्ट अनुशासन के परिपालन में व्यतिरेक नहीं होना चाहिए। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। उसकी शक्ति सामान्य जीवन में ज्ञान संवर्धन एवं वैचारिक आदान-प्रदान के लिए होती है, किन्तु उच्चस्तरीय भूमिका में शब्द का शक्ति के रूप में परिवर्तन हो जाता है। मन्त्र शास्त्र का समूचा आधार इसी पृष्ठभूमि पर खड़ा हुआ है कि शब्द गुच्छकों का चयन, गुंथन एवं विनियोग ऐसी विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाय कि उसकी चेतना को विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाने का चमत्कारी लाभ मिल सके।
यज्ञ में नियत विधि-व्यवस्था के अनुरूप मन्त्रोच्चार का प्रयोग किया जाता है। उसमें सम्बद्ध मनुष्यों को लाभ मिलता है, वातावरण में उपयोगी उत्तेजना उत्पन्न होती है और प्रयोग में आने वाले पदार्थों की कारण शक्ति को इतना उभारना सम्भव हो जाता है कि वह अपनी प्रसुप्त क्षमता का परिचय दे सके। मन्त्रपूत पदार्थों को आशीर्वाद रूप में देने पर वे औषधियों से भी बढ़कर काम करते हैं। इससे प्रकट है कि यजन से पूर्व हविष्य की कारण शक्ति को उभारने में इस स्तर तक सफलता मिल जाती है कि वह वस्तु की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी विशिष्ट शक्ति की दृष्टि से असामान्य सिद्ध हो सके। हविष्य यदि ऐसे ही आग में फेंक दिया जाय तो उससे गन्ध उत्पन्न करने जैसे हलके लाभ ही मिल सकेंगे। वैसा कुछ सम्भव न हो सकेगा जैसा कि यज्ञ आयोजनों से अपेक्षा की जाती हैं।
यज्ञ पात्रों से लेकर प्रयोग में आने वाले जल तक को मन्त्र माध्यम से पवित्र बनाया जाता है। इसके उपरान्त ही उनका उपयोग होता है। समिधाएँ प्राप्त करने, धोने, सुखाने और प्रयोग से पूर्व अभिमंत्रित करने का विधान है। ठीक इसी प्रकार कुण्डों को प्राणवान बनाने के लिए वेदी पूजन, यज्ञशाला पूजन आदि किया जाता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
कुण्डलिनी विज्ञान में मूलाधार को योनि और सहस्रार को लिंग कहा गया है। यह सूक्ष्म तत्त्वों की गहन चर्चा है। इस वर्णन में काम क्रीड़ा एवं शृंगारिकता का काव्यमय वर्णन तो किया गया है, पर क्रिया प्रसंग में वैसा कुछ नहीं है। तन्त्र ग्रंथों में उलट भाषियों की तरह मद्य, माँस, मीन, मुद्रा और पाँचवाँ मैथुन भी साधना प्रयोजनों में सम्मिलित किया है। यह दो मूल सत्ताओं के संभोग का संकेत है। शारीरिक रति कर्म से इसका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। यों यह सूक्ष्म अध्यात्म सिद्धान्त रति कर्म पर भी प्रयुक्त होते, दाम्पत्य स्थिति पर भी लागू होते हैं। दोनों के मध्य समता की, आदान-प्रदान की स्थिति जितनी ही संतुलित होगी उतना ही युग्म को अधिक सुखी, सन्तुष्ट समुन्नत पाया जायेगा।
मूलाधार में कुण्डलिनी शक्ति शिवलिंग के साथ लिपटी हुई प्रसुप्त सर्पिणी की तरह पड़ी रहती है। समुन्नत स्थिति में इसी मूल स्थिति का विकास हो जाता है। मूलाधार मल मूत्र स्थानों के निष्कृष्ट स्थान से ऊँचा उठकर मस्तिष्क के सर्वोच्च स्थान पर जा विराजता है। छोटा सा शिवलिंग मस्तिष्क में कैलाश पर्वत बन जाता है। छोटे से कुण्ड को मान सरोवर रूप धारण करने का अवसर मिलता है। प्रसुप्त सर्पिणी जागृत होकर शिव कंठ से जा लिपटती है और शेषनाग के पराक्रमी रूप में दृष्टिगोचर होती है। मुँह बन्द कली खिलती है और खिले हुए शतदल कमल के सहस्रार के रूप में उसका विकास होता है। मूलाधार में तनिक सा स्थान था, पर ब्रह्मरंध्र का विस्तार तो उससे सौ गुना अधिक है।
सहस्रार को स्वर्ग लोक का कल्पवृक्ष, प्रलय काल में बचा रहने वाला अक्षय वट, गीता का ऊर्ध्व मूल अधःशाखा वाला अश्वत्थ, भगवान बुद्ध को महान बनाने वाला बोधि वृक्ष कहा जा सकता है। यह समस्त उपमाएँ ब्रह्मरंध्र में निवास करने वाले ब्रह्म बीज की ही हैं। वह अविकसित स्थिति में मन-बुद्धि के छोटे मोटे प्रयोजन पूरे करता है, पर जब जागृत स्थिति में जा पहुँचता है तो सूर्य के समान दिव्य सत्ता सम्पन्न बनता है। उसके प्रभाव से व्यक्ति और उसका सम्पर्क क्षेत्र दिव्य आलोक से भरा पूरा बन जाता है।
ऊपर उठना पदार्थ और प्राणियों का धर्म है। ऊर्जा का, ऊष्मा का स्वभाव ऊपर उठना और आगे बढ़ना है। प्रगति का द्वार बन्द रहे तो कुण्डलिनी शक्ति कामुकता के छिद्रों से रास्ता बनाती और पतनोन्मुख रहती है। किन्तु यदि ऊर्ध्वगमन का मार्ग मिल सके तो उसका प्रभाव परिणाम प्रयत्नकर्ता को परम तेजस्वी बनने और अन्धकार से प्रकाश उत्पन्न कर सकने की क्षमता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
कुण्डलिनी की प्रचण्ड क्षमता स्थूल शरीर में ओजस्, सूक्ष्म शरीर में तेजस और कारण शरीर में वर्चस् के रूप में प्रकट एवं परिलक्षित होती है। समग्र तेजस्विता को इन तीन भागों में दृष्टिगोचर होते देखा जा सकता है। इस अंतःक्षमता का एक भोंडा सा उभार और कार्य काम वासना के रूप में देखा जा सकता है। कामुकता अपने सहयोगी के प्रति कितना आकर्षण आत्म भाव उत्पन्न करती है। संभोग कर्म में सरलता अनुभव होती है। संतानोत्पादन जैसी आश्चर्यजनक उपलब्धि सामने आती है। यह एक छोटी सी इन्द्रिय पर इसकी अंतःक्षमता का आवेश छा जाने पर उसका प्रभाव कितना अद्भुत होता है यह आँख पसारकर हर दिशा में देखा जा सकता है। मनुष्य का चित्त, श्रम, समय एवं उपार्जन का अधिकांश भाग इसी उभार को तृप्त करने का ताना-बाना बुनने में बीतता है। उपभोग की प्रतिक्रिया संतानोत्पादन के उत्तरदायित्व निभाने के रूप में कितनी मँहगी और भारी पड़ती है यह प्रकट तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यदि इसी सामर्थ्य को ऊर्ध्वगामी बनाया जा सके तो उसका प्रभाव देवोपम परिस्थितियाँ सामने लाकर खड़ी कर सकता है।
प्रायः जननेन्द्रियों को काम वासना एवं रति प्रवृत्ति के लिए उत्तरदायी माना जाता है। पर वैज्ञानिक गहन अन्वेषण से यह तथ्य सामने आता है कि नर-नारी के प्रजनन केन्द्रों का सूत्र संचालन मेरुदण्ड के सुषुम्ना केन्द्र से होता है। यह केन्द्र नाभि की सीध में है। हैनरी आस्ले कृत ‘नोट्स आन फिजयालोजी’ ग्रन्थ में इस सन्दर्भ में विस्तृत प्रकाश डाला गया है। उसमें उल्लेख है कि-नर नारियों के प्रजनन अंगों के संकोच एवं उत्तेजना का नियन्त्रण मेरुदंड के ‘लम्बर रीजन’ (निचले क्षेत्र) में स्थित केन्द्रों से होता है। इस दृष्टि से कामोत्तेजना के प्रकटीकरण का उपकरण मात्र जननेन्द्रिय रह जाती है। उसका उद्गम तथा उद्भव केन्द्र सुषुम्ना संस्थान में होने से वह कुण्डलिनी की ही एक लहर सिद्ध होती है। यह प्रवाह जननेन्द्रिय की ओर उच्च केन्द्रों को मोड़ देने की प्रक्रिया ही इस महाशक्ति की साधना के रूप में प्रयुक्त होती है।
कामेच्छा एक आध्यात्मिक भूख है। वह मिटाई नहीं जा सकती। निरोध करने पर वह और भी उग्र होती है। बहते हुए पानी को रोकने से वह धक्का मारने की नई सामर्थ्य उत्पन्न करता है। आकाश में उड़ती हुई बन्दूक की गोली स्वयमेव शान्त होने की स्थिति तक पहुँचने से पहले जहाँ भी रोकी जायेगी वही आघात लगावेगी और छेद कर देगी। काम शक्ति को बलपूर्वक रोकने से कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं इस तथ्य पर फ्रायड से लेकर आधुनिक मनोविज्ञानियों तक ने अपने-अपने ढंग से प्रकाश डाला है और उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने का परामर्श दिया है। एक ओर से मन हटकर दूसरी ओर चला जाय, एक का महत्त्व गिरा कर दूसरे की गरिमा पर विश्वास कर लिया जाय, तो आकांक्षा एवं अभिरुचि का प्रवाह मोड़ने में विशेष कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। ब्रह्मचर्य का वैज्ञानिक स्वरूप यही है। अतृप्ति-जन्य अशान्ति से बचने, क्षमता का सदुपयोग करके सत्परिणामों का लाभ लेने का एक ही उपाय है कि कामेच्छा प्रवृत्ति को सृजनात्मक दिशा में मोड़ा जाय।
कलात्मक प्रयोजनों में संलग्न होने से उसके भौतिक लाभ मिल सकते है। अध्यात्म क्षेत्र में उसे भाव संवेदना के लिए भक्ति भावना के रूप में तथा प्रबल पुरुषार्थ की तरह तपोमयी योग साधना में लगाया जा सकता है। दोनों का समन्वय कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में समन्वित पद्धति के रूप में किया जा सकता है। सहस्रार चक्र भक्ति भावना का और मूलाधार चक्र प्राण संधान का केन्द्र है। दोनों को प्रसुप्त कर साहसिक संवेदना उभारना कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया अपनाने से सहज सम्भव हो सकता है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह जीवन के चार परम प्रयोजन हैं। ‘काम’ अर्थ सामान्यतया रति कर्म समझा जाता है, पर परम प्रयोजनों में उसका अर्थ विनोद, उल्लास, आनन्द माना जाता है। यह रसानुभूति दो पूरक तत्त्वों के मिलन द्वारा उपलब्ध होती है। ऋण और धन विद्युत प्रवाह मिलने से गति उत्पन्न होती है। रयि और प्राण तत्त्व के मिलन से सृष्टि के प्राणि उत्पादनों की सृष्टि होती है। प्रकृति-पुरुष की तरह नर और नारी को भी परस्पर पूरक माना गया है। मानवी सत्ता में भी दो पूरक सत्ताएँ काम करती हैं इन्हें नर और नारी का प्रतिनिधि मानते है। नारी सत्ता मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी है और नर तत्त्व सहस्रार स्थित परब्रह्म है। इन्हीं को शक्ति और शिव भी कहते हैं। इनका मिलन ही कुण्डलिनी जागरण का लक्ष्य है। इस संयोग से उत्पन्न दिव्य धारा को भौतिक क्षेत्र में ऋद्धि-सिद्धि और आत्मिक क्षेत्र में स्वर्ग मुक्ति कहते हैं। आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्माण का लक्ष्य भी यही है।
अथर्व वेद में भगवान से काम रूप में जीवन में अवतरित होने की प्रार्थना की गई है।
यास्ते शिवास्तवः काम भद्रायाभिः सत्यं भवति यद्वृणीषे ताभिष्ट्वमस्मां अभि संविशस्वान्यत्रपापी रपवेशया धियः।
हे परमेश्वर तेरा काम रूप भी श्रेष्ठ और कल्याण कारक है उसका चयन असत्य नहीं है। आप काम रूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें।
कुण्डलिनी महाशक्ति की प्रकृति का निरूपण करते हुए शास्त्रकारों ने उसके लिये ‘काम बीज’ एवं ‘काम कला’ दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों का अर्थ कामुकता, काम-क्रीड़ा या काम शास्त्र जैसा तुच्छ अर्थ यहाँ नहीं लिया गया है। इस शक्ति की प्रकृति उत्साह एवं उल्लास उत्पन्न करना है। यह शरीर और मन की उभय-पक्षीय अग्रगामी स्फुरणाएँ हैं। यह एक मूल प्रकृति हुई। दूसरी पूरक प्रकृति। मूलाधार को काम बीज कहा गया है और सहस्रार को ज्ञान बीज। दोनों के समन्वय से विवेक युक्त क्रिया बनती है। इसी पर जीवन का सर्वतोमुखी विकास निर्भर है। कुण्डलिनी साधना से इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था बनाई जाती है।
प्रत्येक शरीर में नर और मादा दोनों ही तत्त्व विद्यमान हैं। शरीर शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक प्राणी में उभयपक्षीय सत्ताएँ मौजूद हैं। इनमें से जो उभरी रहती है उसी के अनुसार शरीर की लिंग प्रकृति बनती है। संकल्प पूर्वक इस प्रकृति को बदला भी जा सकता है। छोटे प्राणियों में उभयलिंगी क्षमता रहती है। वह एक ही शरीर से समयानुसार दोनों प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है।
मनुष्यों में ऐसे कितने ही पाये जाते हैं जिनकी आकृति जिस वर्ग की है, प्रकृति उससे भिन्न वर्ग की होती है। नर को नारी की और नारी को नर की भूमिका निबाहते हुए बहुत बार देखा जाता है। इसके अतिरिक्त लिंग परिवर्तन की घटनाएँ भी होती रहती है। शल्य क्रिया के विकास के साथ-साथ अब इस प्रकार के उलट-पुलट होने के समाचार संसार के कोने-कोने से मिलते रहते हैं। अमुक नर नारी बन गया और अमुक नारी ने नर के रूप में अपना गृहस्थ नये ढंग से चलाना आरम्भ कर दिया।
दोनों में एक तत्त्व प्रधान रहने से ढर्रा तो चलता रहता है, पर एकांगीपन बना रहता है। नारी जैसे कोमलता, सहृदयता, कलाकारिता, भावात्मक तत्त्व का नर में जितना अभाव होगा उतना ही वह कठोर, नीरस, निष्ठुर रहेगा और अपनी बलिष्ठता, मनस्विता के पक्ष के सहारे क्रूर, कर्कश बनकर अपने और दूसरों के लिए अशान्ति ही उत्पन्न करता रहेगा। नारी में पौरुष का अभाव रहा तो वह आत्म हीनता की ग्रंथियों से ग्रसित अनावश्यक संकोच में डूबी, कठपुतली या गुड़िया बनकर रह जायेगी। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्षों में सन्तुलित मात्रा में रयि और प्राण के तत्त्व बने रहें। कोई पूर्ण एकांगी बनकर न रह जाय। जिस प्रकार बाह्य जीवन में नर-नारी सहयोग की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार अन्तःक्षेत्र में भी दोनों तत्त्वों का समुचित विकास होना चाहिए। तभी एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकेगा और कुण्डलिनी जागरण से उभयपक्षीय विकास की पृष्ठभूमि बनती है।
मूलाधार चक्र में काम शक्ति को स्फूर्ति, उमंग एवं सरसता का स्थान माना गया है। इसलिए उसे काम संस्थान कहते हैं। जहाँ तहाँ उसे योनि संज्ञा भी दी गई है। नामकरण जननेन्द्रिय के आकार के आधार पर नहीं, उस केन्द्र में सन्निहित ‘रयि’ शक्ति को ध्यान में रखकर किया गया है।
आधाराख्ये गुदास्थाने पंकज च चतुर्दलम्।
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवंदिता।।
गोरक्ष पद्धति
गुदा के समीप मूलाधार कमल के मध्य ‘योनि’ है। उसे कामाख्या पीठ कहते है। सिद्ध योगी इसकी उपासना करते हैं।
अपाने मूल कन्दाख्यं काम रूप च तज्जगुः।
तदेव वहिन कुण्डस्यात तत्त्व कुण्डलिनी तथा।।
योग राजोपनिषद्
मूलाधार चक्र में कन्द है। उसे काम रूप, काम बीज, अग्नि कुण्ड कहते हैं। यही कुण्डलिनी का स्थान है।
यत्तद्गुह्यमिति प्रोक्तं देवयोनिस्तु सोच्यते।
अस्यां यों जायते वह्नि स कल्याण प्रदुच्यते।।
--कात्यायन स्मृति
गुह्य स्थान में देव योनि है। उससे जो अग्नि उत्पन्न होती है उसे परम कल्याणकारिणी समझना चाहिए।
आधार प्रथम चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।
योनिस्थानं द्वयोमध्ये काम रूपं निगद्यते।।
गोरक्ष पद्धति
पहला चक्र मूलाधार है दूसरा स्वाधिष्ठान। दोनों के मध्य योनि स्थान है। उसे काम रूप भी कहते है।
ब्रह्मा का प्रत्यक्ष रूप प्रकृति और अप्रत्यक्ष भाग पुरुष है। दोनों के मिलने से ही द्वैत का अद्वैत में विलय होता है। शरीरगत दो चेतन धाराएँ रयि और प्राण कहलाती है। इनके मिलन संयोग से सामान्य प्राणियों को उस विषयानन्द की प्राप्ति होती है, जिसे प्रत्यक्ष जगत की सर्वोपरि सुखद अनुभूति कहा जाता है। ऋण और धन विद्युत घटकों के मिलन से चिनगारियाँ निकलती और शक्ति धारा बहती है। पूरक घटकों की दूरी समाप्त होने पर सरसता और सशक्तता की अनुभूति प्रायः होती रहती है। चेतना के उच्चस्तरीय घटक मूलाधार और सहस्रार के रूप में विलग पड़े रहे, तभी तक अन्धकार की, नीरस गतिहीनता की स्थिति रहेगी। मिलन का प्रतिफल सम्पदाओं और विभूतियों के, ऋद्धि और सिद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है। इन उपलब्धियों की अनुभूति में आत्मा-परमात्मा का मिलन होता है और उसकी सम्वेदना ब्रह्मानन्द के रूप में होती है, इस आनन्द को विषयानन्द से असंख्य गुने उच्चस्तर का माना गया है।
शिव पार्वती विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपस्थित हुआ था। एक का नाम गणेश दूसरे का कार्तिकेय। गणेश को ‘प्रज्ञा’ का देवता माना गया है और स्कन्द को शक्ति का। दुर्दान्त दस्यु असुरों को निरस्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था। उनके इस पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया। गणेश ने माँस पिण्ड मनुष्य को सद्ज्ञान अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकुटमणि बनाया। दोनों ब्रह्मकुमार शिव-शक्ति के समन्वय के प्रतिफल हैं। शक्ति कुण्डलिनी, शिव सहस्रार दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। यह पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होने पर अंतरंग ऋतम्भरा प्रज्ञा से और बहिरंग प्रखरता से भर जाता है। प्रगति के पथ पर इन्हीं दो चरणों के सहारे जीवन यात्रा पूरी होती है और चरम लक्ष्य की पूर्ति सम्भव बनती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
209. आस्था की ज्योति बुझने न पाये
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म अध्यात्म का परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने और धार्मिक जीवन जीने से परलोक में सद्गति प्राप्त होती है और आत्मा को शान्ति मिलती है। इतना ही नहीं वरन् व्यावहारिक जीवन में भी उसकी बड़ी उपयोगिता है, व्यक्ति को सुखी और समाज को समुन्नत बनाने में अध्यात्म दर्शन की कम उपयोगिता नहीं है।
कर्मफल संयम, सदाचार, परोपकार, उदारता, कर्तव्यपालन जैसे अनेक विश्वासों का सौरमण्डल धर्मरूपी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमता है। अध्यात्म सर्वथा एकाकी नहीं है। आस्तिकता का मतलब मात्र ईश्वर की पूजा पत्री कर देना ही नहीं वरन् यह भी है कि ईश्वर की इच्छा और विधि व्यवस्था को समझें और तदनुकूल अपने जीवन की रीति-नीति ढालने के लिए प्रयत्न करें। स्वर्ग, नरक और परलोक की मान्यता मानवी अन्तःकरण को देर सबेर से कर्मफल मिलने का विश्वास दिलाती है। इससे आस्थावान व्यक्ति पुण्य का श्रेय या पाप का दण्ड तत्काल न मिलने पर भी उस ओर से निश्चिन्त नहीं हो जाता वरन् यह विश्वास रखे रहता है कि आज नहीं तो कल, यहाँ नहीं तो वहाँ भले बुरे कर्मों का फल मिलकर ही रहेगा। इस आस्था को बनाये रहना मनुष्य के चिन्तन और कर्तृत्व में अवांछनीयता न बढ़ने देने के लिए एक अति आदर्शवादी कर्तव्य पालन के लिए घाटा उठाने तक के लिए प्रोत्साहित करती है। यही वे प्रवृत्तियाँ हैं जिन पर व्यक्ति का स्तर और समाज का गठन सुव्यवस्थित और समुन्नत रखा जा सकता है।
उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति यदि आस्थाएँ लड़खड़ाने लगे तो हर व्यक्ति स्वार्थ परायण होने की दिशा में अधिकाधिक तेजी के साथ बढ़ेगा। फलतः पारस्परिक स्नेह सद्भाव की, सहयोग और उदारता की उन सभी प्रवृत्तियों का अन्त हो जायेगा जिनमें मनुष्य को कुछ त्याग करना पड़ता है और कष्ट उठाना पड़ता है।
समाज का ऋण हमारे ऊपर है, उसे चुकाने के लिए हमें समाज सेवा के अनुदान प्रस्तुत करने चाहिए। माता-पिता तथा गुरुजनों की सहायता से हम पले, बड़े हुए तथा स्वावलम्बी बने हैं, इस पितृ ऋण को चुकाने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए। पति-पत्नी में से किसी के अरुचिकर हो जाने पर भी उसकी पिछली सद्भावना के लिए ऋणी रहने तथा निबाहने को तत्पर रहना चाहिए। सब में अपनी जैसी आत्मा समझकर न्याय और ईमानदारी पर दृढ़ रहना चाहिए। ये शिक्षायें धर्म ही दे सकता है। स्वार्थ नियन्त्रण और परमार्थ उत्साह की प्रेरणा अध्यात्म आदर्शों को अपनाने से ही मिल सकती है।
यदि इन आधारों को अस्त-व्यस्त कर दिया जाय तो मनुष्य जाति को ऐसी क्षति उठानी पड़ेगी जिसकी कभी भी पूर्ति न हो सके। आस्थाएँ बड़ी कठिनाई से बनती और जमती हैं। उन्हें उखाड़ देना सरल है। पेड़ को छायादार होने में लम्बी साधना करनी पड़ती है, पर यदि उखाड़ना हो तो कुछ घण्टे की काट−छाँट ही पर्याप्त है। धार्मिकता को कल्याणकारी वृक्ष बोने, उगाने और बढ़ाने में लाखों वर्ष लगे हैं। अनास्था का प्रतिपादन करके उसे उखाड़ देना कुछ बहुत कठिन नहीं हैं। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे दोबारा लगाया जाना सम्भव न होगा। विश्वासी को अविश्वासी बनाने के उपरान्त फिर दुबारा उसी स्थान पर लौटाकर ले आना कठिन है।
तर्क एक अन्धा तीर है। उसे किसी भी दिशा में छोड़ा जा सकता है। कई वकील लोग अपने मुवक्किल के पक्ष में धुँआधार दलील देते और बहस करते हैं। उनकी तर्कशैली प्रखर होती है। वस्तुस्थिति जानने पर वे जोर नहीं देते। वादी या प्रतिवादी जो भी सामने आ जाए तो उसी के पक्ष में तर्क, दलील या प्रमाण उपस्थित करते है। मस्तिष्क ऐसा ही बेपेंदी का लोटा है। वह रुचि के पीछे चलता है। जो भी बात पसन्द हो उसी के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है। दलील भी दी जा सकती है और प्रमाण उदाहरण भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। धर्म एवं अध्यात्म के विरुद्ध बहुत कुछ कह सकना कुछ बहुत कठिन नहीं है। तेज दिमाग के लिए यह बायें हाथ का खेल है।
देखना यह है कि क्या अनास्था उत्पन्न करने से व्यक्ति या समाज को कुछ लाभ मिलेगा? इस दिशा में जितना अधिक चिन्तन किया जाए उतना ही स्पष्ट होता जायेगा कि उसमें इसकी तुलना में हानि अधिक है।
आस्तिकता मात्र पूजा−पाठ तक सीमित नहीं है उसके शाखा पल्लव सदाचार, कर्तव्यपालन और उदार व्यवहार तक फैले हुए हैं। जड़ के उखाड़ने से वह सभी उखड़ जायेंगे। क्योंकि भौतिकवादी दर्शन में स्वार्थ साधन ही मुख्य है। माँसाहार के पक्ष में यही दलील है कि स्वादिष्ट भोजन के अपने लाभ के लिए दूसरे को प्राण देने का भय सहना पड़ता है तो उसकी हम चिन्ता क्यों करें? स्वार्थ प्रधान हो गया तो दूसरों की सुविधा-असुविधा अथवा न्याय-अन्याय की बात क्यों सोची जायेगी?
अनास्था का जितना विस्तार हो रहा है उसी अनुपात से आदर्शवादिता का सारा ढाँचा लड़खड़ाने लगा है। जब ईश्वर नहीं, धर्म नहीं, परलोक नहीं, कर्मफल नहीं, आत्मा नहीं तो फिर कर्तव्यपालन भी नहीं, स्वार्थों पर नियंत्रण भी नहीं, आदर्शों के झमेले में पड़कर स्वयं असुविधा उठाने की भी आवश्यकता नहीं। यह ‘नहीं’ व्यक्ति की पशुता को बढ़ायेगी और समाज के मूलभूत आधार उदार व्यवहार का अन्त करेगी। जैसे-जैसे अनास्था परिव्याप्त और प्रबल होती जायेगी वैसे-वैसे उच्छृंखल आचरण, सिद्धान्त हीन जीवन और अपराधी प्रवृत्तियों के उद्भव को आँधी, तूफान की तरह बढ़ता हुआ देखा जा सकेगा। ऐसा समाज किसके लिए? कितना? किस प्रकार सुविधाजनक होगा उसकी बहुत कुछ झाँकी इन दिनों की परिस्थितियों में भी जहाँ-तहाँ की जा सकता है।
इग्लैंड के प्रख्यात पत्र ‘स्पेक्टेटर’ में कुछ समय पूर्व एक लेख उस देश की दयनीय दशा की विवेचना के संदर्भ में छपा था। संतान की ओर से उपेक्षित इन असमर्थ व्यक्तियों को उस संतान का रत्ती भर भी सहयोग नहीं मिलता, जिनके लालन-पालन और स्वावलम्बन में उन्होंने भावनापूर्वक उदार सेवा की थी। लेखक ने इन दुखियों की मनोदशा का चित्रण करते हुए लिखा है-इस देश के अधिकांश वृद्धजन अपनी असमर्थ स्थिति में सन्तान की रत्ती भर भी सेवा सहानुभूति नहीं पाते तो वह करुण विलाप करते हैं कि हे भगवान किसी तरह मौत आ जाय तो चैन मिले। पर उनकी पुकार कोई भी नहीं सुनता। दुखियारे वृद्धों का यह वर्ग द्रुतगति से बढ़ता ही जाता है।
कोरोनर (लन्दन) के डॉक्टर मिलन को पिछले दिनों ७०० दुर्घटना ग्रस्त मृत शवों का विश्लेषण करना पड़ा। उनमें एक तिहाई आत्महत्या के कारण मरे थे। इन आत्महत्या वालों में अधिकांश ऐसे बूढ़े लोग थे, जिन्हें बिना किसी सहायता के जीवनयापन भारी पड़ रहा था और उनने इस तरह घिस-घिसकर मरने की अपेक्षा नींद की अधिक गोलियाँ खाकर मरना अधिक अच्छा समझा। इन आत्महत्या करने वालों में दो चार को छोड़कर सभी सन्तान वाले थे। किन्तु वयस्क होने के बाद सन्तान ने उनकी ओर मुँह मोड़ कर भी नहीं देखा था।
बूढ़े अभिभावकों की ही यह दुर्गति हो रही हो सो बात नहीं। पाश्चात्य जगत में बच्चों की भी एक विपत्ति में गणना होने लगी है। माँ-बाप उन्हें अभिशाप मानते हैं और बच्चे सहमे-सिसके किसी तरह अनाथालय की तरह अपनी अल्पवयस्कता की अवधि पूरी करते हैं। पति-पत्नी मिलन जब विशुद्ध रूप से कामुक प्रयोजन के लिए ही रहे तो उसी की प्रधानता रहनी चाहिए। बच्चे जब पेट में से आते हैं या जन्म लेते हैं तो अपनी माँ को पिताजी की इच्छा पूर्ति में उतनी उपयुक्त नहीं रहने देते। यह पिता के लिए भी क्रोध की बात है और माता के लिए भी। प्रजनन निरोध कृत्य वहाँ का अति लोकप्रिय प्रचलन, फिर भी कभी-कभी बच्चों की विपत्ति सिर पर आ टपकती है। उन जन्मे हुए बच्चों से कब किस प्रकार पीछा छूटे यह चिन्ता अभिभावकों को रहती है।
सौन्दर्य को हानि न पहुँचे इसलिए बच्चों को माता का नहीं बोतल का दूध पीना पड़ता है। अधिकांश बच्चे पालन गृहों में पलते हैं। पैसा दे दिया जंजाल से छुट्टी। घूमने-फिरने हँसने खेलने की सुविधा। जैसे ही बच्चा कमाऊ हुआ कि माता पिता से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। पशु-पक्षियों में भी तो यही प्रथा है। उड़ने चरने लायक न हो तभी तक माता-पिता उनकी सहायता करते हैं। बाप तो उस स्थिति में भी ध्यान नहीं देता। प्रकृति ने बच्चों की जीवन रक्षा के लिए यदि माता के हृदय में स्वाभाविक ममता उत्पन्न न की होती, तो अनास्थावान् माताएँ भी बच्चों की साज सँभाल करने में रुचि न लेती और माता की निगाह बदलने पर बाप तो उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखता।
अनास्थावान् मनोभूमि वाले माता-पिता के दृष्टिकोण का बच्चों के प्रति बेरुखा हो जाना स्वाभाविक है। और ऐसी दशा में यदि वे बुढ़ापे में अभिभावकों की कोई सहायता नहीं करते और उन्हें कुत्ते की मौत मरने के लिए छोड़ देते हैं, तो उन्हें कुछ बहुत दोष भी नहीं दिया जा सकता। आखिर वे भी तो बूढ़े होंगे और उन्हें अपने बच्चों से भी तो कोई आशा नहीं है। वे स्वयं भी तो इस तरह का नीरस बुढ़ापा बिताने की बात ही सोचते हैं। ऐसी दशा में मौत के दिन गिनने वाले बूढ़े माता पिता की वे उपेक्षा अवज्ञा करते हैं तो उन्हें दोष भी कैसे दिया जाय।
अभिभावकों और बच्चों के बीच आदर्शहीनता ने दीवार खड़ी कर दी है। उससे भी बड़ी विडम्बना पति-पत्नी के बीच खड़ी है। वेश्या जिस तरह शरीर सौन्दर्य से लेकर वाक् जाल के रस्सों से भड़ुए को बाँधे रहने की चाल चलती रहती है, वही नीति औसत पत्नी को अपने पति के साथ बरतनी पड़ती है। इस तथ्य से वह परिचित है। कामुकता की तृप्ति ही विवाह का उद्देश्य है। जब तक वह प्रयोजन खूबसूरती से सधेगा तभी तक विवाह चलेगा। आर्थिक सुविधा का दूसरा पहलू भी विवाह के साथ जुड़ गया है। इन स्वार्थों की शतरंज ही दाम्पत्य जीवन है। जो बाजी हार जाता है उसे भागना पड़ता है। एक घर में रहते हुए भी, एक बिस्तर पर सोते हुए भी दोनों एक दूसरे को आस्तीन का साँप समझते रहते हैं और बारीकी से यह पता लगाते रहते हैं कि साथी के द्वारा उसके शरीर में डंक चुभोए जाने में कितनी देर है। प्रेम पत्र और लम्बे चौड़े वायदे तथा हाव-भावों का आकर्षण वहाँ एक टेकनिक मात्र रह गये हैं। उस विडम्बना की निस्सारता समझते हुए भी बन्धन में बँधने से पूर्व जो दौर उनका चलता था विवाह के बाद भी चलाते रहना पड़ता है। ताकि साथी को भ्रम में रखा जा सके। साथ ही दूसरा घोंसला बनाने, दूसरी चिड़िया फँसाने का भी अपना-अपना ताना-बाना बुनते रहते हैं।
इन दाम्पत्य जीवनों का जो ढाँचा खड़ा रहता है और जिस प्रकार अन्त होता है, उससे निराशा और दुःख ही हाथ लगता है। बाहर आदमी कैसी तड़क-भड़क बनाये फिरे, पर पारिवारिक जीवन में भी विश्वास, निष्ठा आत्मीयता का अभाव रहने पर मनुष्य अपने आपको सर्वथा एकाकी और असहाय अनुभव करता रहता है। न कोई उसका, न वह किसी का, वास्तविकता सामने रहती है। छल और दिखावे का ताना-बाना यदि स्त्री बच्चों के साथ भी बुनते रहना पड़े तो मन कितना भारी, कितना उदास और कितना क्षुब्ध और कितना उखड़ा-उखड़ा रह सकता है, इसकी कल्पना करने में भी कष्ट होता है। फिर जिन लोगों को सारा जीवन इसी वातावरण से भरे पारिवारिक जीवन में बिताना पड़ता है, उनकी क्या गति होगी उसे अनास्थावान् भौतिकवादी पश्चिम के देशों में जाकर प्रत्यक्ष ही देखना चाहिए।
बाहरी ठाठ-बाट, शौक-मौज के मन बहलाव से क्या बनता है, आन्तरिक निराशा हर घड़ी खाती रहती है। नशे पीकर गम गलत करते रहते हैं और आन्तरिक उद्वेगों की आग में मरघट की चिता बनकर जलते रहते हैं।
इंग्लैण्ड के डाक्टरी पत्र ब्रिटिश मेडिकल जनरल में उस देश में बढ़ते हुए पागलपन का विस्तृत विवरण छपा है। उसमें लिखा है-इस देश में पागलों, अर्धविक्षिप्तों और सनकियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अस्पताल में जितने रोगी भरती होते हैं, उनमें से प्रायः आधे मानसिक रोगों से पीड़ित होते हैं। गत पाँच वर्षों में यह प्रायः दस गुनी हो गई है।
नींद की गोलियाँ खाये बिना किन्हीं बिरले को ही सोना नसीब होता है। मानसिक तनाव से उत्पन्न अनिद्रा वहाँ का एक सभ्य रोग है। शराब पिये बिना चैन नहीं। आखिर भीतरी उद्वेग को दबाने के लिए नशे के अतिरिक्त और किसका सहारा लिया जाय?
ईश्वर से, धर्म से, बच्चों पर से, स्त्री से, अभिभावकों से, समाज से, अपने आप पर से विश्वास खोकर अनास्थावान् व्यक्ति सब कुछ खोया-खोया ही अनुभव करता है। जब आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं, मरणोत्तर जीवन की आशा नहीं और शरीर के साथ ही अपने अस्तित्व का अन्त होने वाला है तो भी थके हारे, बूढ़े, घिसे व्यक्ति की आँखों में आशा की चमक कहाँ से आ सकती है? जवानी में भी मनुष्य जो कुछ देखता है सब कुछ निरर्थक, निरुद्देश्य, नीरस पाता है। ऐसी दशा में वह निरर्थकतावादी बन जाए तो आश्चर्य ही क्या है? हिप्पीवाद इसी नीरस निरर्थक जीवन की निरंकुश अभिव्यक्ति है। अभी इसका आरम्भ है। अनास्था जितनी ही प्रखर होगी यह क्रम उतना ही उग्र होता चला जायेगा। इसका अन्त कहाँ होगा, यह सोचते हुए भी सिर चकराता है। हो सकता है इसी आग में झुलसकर सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व भी समाप्त हो जाय।
धर्म विरोधी विचारधारा के प्रचारक और प्रख्यात दार्शनिक लार्ड वेवरिज ने मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपने मित्र इटली के प्रोफेसर वलडी को एक मार्मिक पत्र लिखा। उसमें उनने कहा-धर्मध्वजियों के अनाचार से क्षुब्ध होकर मैंने धर्म विरोधी प्रतिपादन किया था, पर उस आवेश में यह ध्यान न रहा कि अनास्था फैल जाने पर लोग साधारण मानवीय कर्तव्य की भी उपेक्षा करने पर उतारू हो जायेंगे। मेरा प्रयत्न वास्तविकता प्रकट करने का था, इस अंश में वह प्रतिपादन अभी भी सही है कि धर्म को जिस रूप में इन दिनों समझा जा रहा है वह भ्रान्त है। फिर भी मूल धर्म प्रवृत्ति का उन्मूलन उचित नहीं। उसके कारण उत्पन्न नैतिक उच्छृंखलता व्यक्ति और समाज के लिए घातक ही सिद्ध होती है। अनास्थावान् व्यक्ति की गतिविधियों को देखकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि वे धर्म व्यवसायियों एवं धर्म भीरुओं की अपेक्षा कम नहीं अधिक बुरे सिद्ध हो रहे हैं।
युग की यह परम आवश्यकता है कि धर्म श्रद्धा को हर स्थिति में जीवन्त रखा जाय। मानवी आस्थाओं के सुदृढ़ बने रहने का उससे ही सम्बल मिलेगा। साथ ही उस बात पर भी ध्यान रखना होगा कि धर्म के नाम पर अंधश्रद्धा को किसी भी हालत में प्रश्रय न मिले। इसके लिए विवेक दृष्टि का खुला रहना आवश्यक है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
210. महान संकल्पों की महान परिणति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
बीज खाद पानी का सहयोग पाकर वृक्ष बनता है और संकल्प को कर्म की सहायता से सफलता के लक्ष्य तक पहुँचने का गौरव प्राप्त होता है। इच्छाएँ सभी की उठती हैं। मन सभी चलाते हैं। ऊँची उड़ाने उड़ने और रंग-बिरंगे सपने देखने वालों की कमी नहीं। उपलब्धियों और विभूतियों के लिए ललचाते रहने वाले लोगों की ही बहुलता है। इनमें अधिकांश को मनोरथों की पूर्ति न होने के कारण खिन्न और निराश ही देखा जाता है। कल्पनायें स्वप्न हैं। मनोरंजन भर उनसे हो सकता है। भविष्य में सुखद स्थिति आने की रंगीनी जुड़ जाने से कल्पनायें ललचाने वाली तो बन जाती हैं, पर उनकी पूर्ति नहीं हो सकती। मनोरथ पूरा होने का भी एक विज्ञान है। एक निर्धारित राजमार्ग है, उस पर न चला जाय, अनिश्चित मनःस्थिति में बहकते और अनिर्णीत दिशाधारा में भटकते रहा जाय तो मंजिल तक पहुँचना कैसे सम्भव हो सकता है?
महत्त्वपूर्ण सफलता पाने के लिए वही रीति-नीति अपनानी पड़ती है जिसे बुद्धिमान किसान अपनाते और धन धान्य से कोठे भरते हैं। कृषि कर्म में बीजारोपण मुख्य है। कितने दिनों में, क्या फसल उपजेगी, इसकी एक रूपरेखा उसी दिन बन जाती है जिस दिन बीज बोया जाता है। जो बीज बोया गया है। उसके उगने से लेकर पकने तक की एक सुनिश्चित रूपरेखा होती है। उसके लिए कब, क्या, किस परिमाण में साधन जुटाने और श्रम लगाने की आवश्यकता पड़ेगी, इसका एक व्यवस्थित चित्र सामने होता है, उसकी पूर्ति के लिए क्रमबद्ध प्रयत्न होते रहते हैं। प्रगति की दिशा में बढ़ने तथा सफलता तक पहुँचने का पथ प्रशस्त होता रहता है। प्रत्येक छोटे बड़े काम में यही रीति-नीति अपनानी पड़ती है। महान कार्यों में तो इस उपक्रम को और भी अधिक दृढ़तापूर्वक अपनाना पड़ता है। बीजारोपण की उपमा संकल्प से दी जा सकती है। संकल्प का तात्पर्य कल्पना की रंगीन उड़ानों से ऊँचा उठकर किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सुनिश्चित निर्धारण करना है। इसके उपरान्त उसे पूरा करने के लिए जो लम्बी मंजिल पार करनी है, जो साधन जुटाने हैं उनका स्वरूप सामने आता है। सामने स्पष्ट रूपरेखा होने और साधनों एवं परिस्थितियों को देखते हुए उसे किस गति से, कितने समय में पूरा करना है यह सामने आता है। आवश्यकता की स्पष्टता प्रेरणा देती है कि सफलता का मूल्य चुकाने के लिए अभीष्ट तत्परता बरती जाय। इन्हें जुटाने के लिए तत्परता बरती जाती है तो सफलता निकट खींचती चली आती है। लक्ष्य की दूरी घटने और मनोरथ को पा लेने का यही सनातन मार्ग है। इससे कम में अनायास अप्रत्याशित रूप से उपलब्धियाँ किसी के घर में छप्पर फाड़कर बरस पड़ी हो, ऐसा तो कदाचित ही कभी-कभी अपवाद रूप में देखने को मिलता है।
हम सब नवयुग के उपासक हैं, सतयुग के उपासक हैं। सतयुग के अवतरण की प्रतीक्षा करते हैं। वर्तमान विपन्नता हमें अरुचिकर और असह्य है। अवांछनीयताएँ व्यक्ति और समाज पर बेतरह लद गई हैं। उनने सन्तुलन बिगाड़ कर रख दिया है। सुख शान्ति अभीष्ट है, पर सामने शोक-सन्ताप ही आ खड़े होते हैं। सोचते ऊपर उठने की है पर दुर्भाग्य की विडम्बना उलटे दलदल की कीचड़ में धकेलती, दबोचती चली जाती है। स्थिति निराशाजनक है प्रगति की अपेक्षा करते हैं, पर हाथ में दुर्गति ही लगती है। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। अन्धकार से प्रकाश की ओर चलने और पतन को उत्थान में परिवर्तित करने की आकाँक्षा जन-जन की है। यही है समय की पुकार। इसे पूरा करने के लिए जागृत आत्माओं को ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना होगा। वही हो भी रहा हैं। युग निर्माण परिवार के परिजन इन दिनों युग परिवर्तन की मुहिम संभाले हुए हैं। लम्बी मंजिल इन थोड़े ही दिनों में मिल-जुलकर पार कर ली गई है। जो शेष है उसकी सफलता का सुनिश्चित आश्वासन नियति ने दिया है। यह विश्वास दिन-दिन सुदृढ़ होता जाता है कि शान्ति का युग आकर रहेगा। मानवी गतिविधियों में शालीनता का समावेश होगा। अपनी इसी धरती पर सुख शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी। हर किसी के लिए हँसते-हँसाते स्नेह और सन्तोष से भरा पूरा जीवन बिता सकने का अवसर रहेगा। साधनों की न पहले कमी थी न अब है और न भविष्य में रहने वाली है। कमी सज्जनता की पड़ रही है। उसे पूरा करने के लिए जागृत आत्माओं की प्राणवान आदर्शवादियों की सक्रियता नियोजित होगी, तो कोई कारण नहीं कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए नियोजित हो रहे प्रयास सफलता के लक्ष्य तक न पहुँचें।
युग निर्माण योजना के प्रयत्नों ने स्वल्प काल में ही सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए प्रयासों को आशातीत सफलता के स्तर तक पहुँचाने का कीर्तिमान स्थापित किया है। जो हो चुका है उसका परिचय जिन्हें भी हैं, वे विश्वास करते हैं कि सृजन शिल्पियों के प्रस्तुत प्रयत्न कल नहीं तो परसों अपनी धरती पर सुख-शान्ति की परिस्थितियों का अवतरण करके रहेंगे। निराशा का कुहासा घटते हुए और आशा भरा प्रकाश मुस्कराते हुए हम सब अपनी इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देख रहे हैं। जो गहराई से नहीं देख सकते और लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते, उनके लिए यह कोई दैवी वरदान या सिद्ध चमत्कार हो सकता है, पर जिन्होंने प्रगति का विधान पढ़ा है और सफलताओं की पृष्ठभूमि समझी है, उनके लिए इसमें कुछ भी अद्भुत, अनुपम, अप्रत्याशित दिखाई नहीं पड़ता। संकल्प यदि प्राणवान हों और उन्हें सघन कर्मनिष्ठा का परिपोषण मिलता रहे तो उनके फलित होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है।
शास्त्र कहते हैं ब्रह्मा ने संकल्प किया कि अकेलापन उसे अखरता है वह अपने को अनेक बनाकर अपने आपके साथ क्रीड़ा कल्लोल किया करेगा। एकोऽहं बहुस्याम की श्रुति इसी रूप से इस नियति की उत्पत्ति का वर्णन करती है। जीव विज्ञानी अपने समस्त अन्वेषण के आधार पर चेतना विकास का एक ही आधार बताते हैं कि प्राणी के भीतर आकांक्षा उत्पन्न हुई और अनुकूल कलपुर्जे उनके शरीर तथा मन में उगते चले आये। आकाँक्षा में असाधारण चुम्बकत्व होता है। उनकी आकर्षण शक्ति अपने क्षेत्र में ग्रह तारकों को परस्पर बाँधे रहने वाली चुम्बकीय शृंखला से कम सामर्थ्यवान नहीं है। प्राणियों में जब-जब जितने परिमाण में आकाँक्षाएँ जितनी अधिक आकुलता के साथ उत्पन्न हुई हैं तब-तब उतनी ही मात्रा में अनुकूल क्षमता भीतर से विकसित हुई है, पुरुषार्थ जागा है और उसी अनुपात से बाह्य जगत से साधन सामग्री क्रमशः खींचती घसीटती चली आई है। प्राणि जगत की प्रगति का यह संक्षिप्त तथ्य इतिहास है। विकास के गर्भ में उफनते इसी आधार को हम हर क्षेत्र की प्रगति में समाया सँजोया देखते हैं।
जीव शास्त्रियों के अन्वेषण इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस धरती पर जब जीवन आरम्भ हुआ तब वह एक कोषीय अमीबा जैसी अदृश्य प्राणियों की स्थिति में था। उनमें से जिसमें प्रगति की जितनी आकाँक्षा भड़की, उसी अनुपात से उनकी शारीरिक बनावट और मानसिक क्षमता विकसित होने लगी और वे अपनी मूल स्थिति की अपेक्षा तेजी से अधिक साधन सम्पन्न बनने लगे। अपने पुरुषार्थ से उन्होंने सुविधा सामग्री खोजी और अनुकूल परिस्थितियों का सृजन किया। जिन प्राणियों में यह आकाँक्षा, संकल्प क्षमता जितनी तीव्र थी, उन्हें उसी अनुपात से आगे बढ़ने और साधन संपन्न बनने का अवसर मिलता चला गया। जिनमें उत्साह और साहस जितना कम था उनकी प्रगति उतनी ही मन्द बनी रही। साधनों की न सृष्टि के आदि में कमी थी न अब हैं। प्रगति पथ न तब कठिन था और न अब सरल है। प्रश्न पुरुषार्थ का था। नियति ने आरम्भ से ही प्राणियों को सुविधा प्रदान करने में उदार नीति अपनाई है और वह अन्त तक अपने उस उदार उपक्रम को अपनाये रहेगी। जीवाणु चेतना का प्रतिनिधि होने के कारण जन्मजात रूप से अधिपति और अधिकारी है। प्रकृति का परमाणु सदा से उसका इच्छानुवर्ती अनुचर रहा है और सदा तक अपनी निष्ठावान् स्वामि भक्ति का परिचय देता रहेगा। जीवन की सत्ता इस सृष्टि में सर्वोपरि है, उसकी माँग यदि गहरी हो तो उसकी पूर्ति में प्रकृति बाधक नहीं बनती, नियति रोड़े नहीं अटकाती। मात्र साहस की जाँच-पड़ताल करने के लिए अड़चनों के चौकीदार कुछ-कुछ पूछताछ और रोक-टोक करते रहते हैं। परिस्थितियों ने कभी किसी मनस्वी के मार्ग में इतनी कठिनाई उत्पन्न नहीं की, जिसके कारण उसे अपना संकल्प बदलने और साहस छोड़ने को विवश होना पड़े।
यह जीव जगत की प्रगति का विकासवादी शोधकर्ताओं द्वारा किया गया पर्यवेक्षण और निकाला हुआ निष्कर्ष है। प्रगति का कारण परिस्थितियों को समझा भले ही जाता हो, पर तथ्य तक पहुँचने वाले जानते हैं कि चमत्कार उत्पन्न करने की परिपूर्ण क्षमता मनःस्थिति में ही भरी पड़ी है। जड़ जगत की मूल सत्ता एनर्जी है। उसकी विद्युत शक्ति अपने विभिन्न रूपों में काम करती और भौतिक जगत की हलचलों को गति देती है। जीव जगत में यही कार्य संकल्प शक्ति है। प्राणियों का भूतकाल तत्त्वतः उनकी तत्कालीन मनःस्थिति का ही लेखा-जोखा है। आज भी जो जिस स्थिति में रह रहा है, वह अपने ही संकल्पों का दण्ड पुरस्कार भोगता है। भविष्य में जिसका जो बनेगा उसमें उनकी मान्यता साधनों और परिस्थितियों को श्रेय या दोष देती रह सकती है। वस्तुतः जो कुछ होने जा रहा है उसमें मनुष्यों की भली-बुरी आकाँक्षाएँ ही विकास या विनाश के आधार खड़े करेंगी। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस सत्य के पीछे एक ही तथ्य काम करता है कि वह संकल्प शक्ति की प्रचण्ड ऊर्जा से सुसम्पन्न है। वह ऊर्जा इतनी प्रखर है कि सामान्य दीखने वाला व्यक्ति उसके सहारे महामानवों की ऐतिहासिक भूमिका निभाने में सहज ही समर्थ बन जाता है। नैपोलियन के शब्दों में इस प्राणवान् शक्ति के सामने सचमुच ही असंभव नाम का शब्द उसके अपने शब्दकोश में है नहीं।
इसका एक निकटतम और हस्ताकमलावत् प्रत्यक्ष प्रमाण अपना युग निर्माण अभियान है। उसका शुभारम्भ कैसे हुआ, इसका आदिम इतिहास बहुत कम लोगों को मालूम है। एक व्यक्ति के अन्तःकरण में युग परिवर्तन की, नव-निर्माण की स्फुरणा अवतरित हुई। अवतरित इस अर्थ में कि उसके साथ प्रचण्ड उत्साह साहस और निश्चय की समन्वित शक्ति भी जुड़ी हुई थी। यह स्फुरणा देर तक अपनी अवतरण भूमि पर निश्चेष्ट नहीं बैठी रही, वरन् उसने अग्रगमन की, गतिशील होने की ऐसी हलचल उत्पन्न कर दी जिसे दूसरे शब्दों में आकुलता कह सकते हैं। यह आकुलता न तो अन्धी थी और न अनिश्चित। उसने अपना एक स्वरूप और कार्यक्रम बनाया। दिशाधारा का निश्चय किया। उसी की परिपक्वता युग निर्माण योजना है। इस क्रान्तिकारी तूफान का प्रथम दर्शन अपने सर्वविदित बहुचर्चित युग निर्माण सत्संकल्प में हुआ। सर्वप्रथम यही है अपने मिशन अभियान का अरुणोदय-प्रभात दर्शन। इसके बाद का सारा घटनाक्रम लगभग वैसा ही है जैसा कि सूर्य का अग्नि पिण्ड क्रमशः ऊँचा चढ़ता, प्रखर होता और ऊर्जा बिखेरता चला आता है। अभियान के तीस वर्षों के इतिहास को एक शब्द में सत्संकल्प का विकास-विस्तार कह सकते हैं। विचारपूर्ण दृढ़ निश्चय जब कर्मनिष्ठा के साथ जुड़ते हैं तो उनकी अग्रगामी गतिशीलता आँधी तूफान जैसी होती है।
संकल्प का दूसरा चरण गायत्री यज्ञ की क्रिया-प्रक्रिया के साथ प्रारम्भ होता है। हवन अग्निहोत्र तो पहले भी होते थे। उस सांस्कृतिक क्रियाकृत्य का प्रचलन चिरकाल से चला आया है। पर युग निर्माण मिशन ने उसमें एक ऐसे अद्भुत तथ्य का समावेश किया जिससे गायत्री यज्ञ और युग निर्माण अभियान को एक दूसरे का पूरक बनने की स्थिति उत्पन्न हो गई। मिशन के द्वारा नियोजित गायत्री यज्ञ की अपनी मौलिक विशेषता है, इसलिए उन्हें पण्डिताई अग्निहोत्रों के समतुल्य होते हुए भी तथ्यतः सर्वथा भिन्न भी समझा जा सकता है। अपनी यज्ञ योजना के पीछे कितने ही प्राणवान संकल्प जुड़े हुए हैं, उन्हें कार्यान्वित होने का जहाँ जितना अवसर मिल जाता है, वहाँ उन्हें उसी परिमाण में सार्थक हुआ मान लिया जाता है। अपने गायत्री यज्ञों में देव-दक्षिणा को सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है। देव-दक्षिणा का अर्थ है अपने स्वभाव अभ्यास में जड़ जमाये बैठी हुई अवांछनीयताओं में से न्यूनतम एक का परित्याग। यह परित्याग सर्वप्रथम संकल्प के रूप में ही दृश्यमान होता है। श्रोतागण अपने दुर्गुणों में से एक को यज्ञाग्नि में होमने का संकल्प देवताओं की उपस्थिति में लेते रहे हैं। इसी प्रवाह का प्रतिफल यह हुआ है कि दुष्कृत्यों के प्रति अवमानना की प्रक्रिया विकसित हुई है। कषाय-कल्मषों के दुष्परिणाम पर अधिक ध्यान गया है। और परिशोधन के प्रयास द्रुतगामी होते चले गये हैं। व्यक्ति की मनःस्थिति और समाज की परिस्थिति के परिशोधन का प्रयास कितने बड़े परिणाम में सफल हुआ है, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण लाखों, करोड़ों व्यक्तियों के जीवन क्रम में आश्चर्यजनक परिवर्तन के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। युग निर्माण योजना की इस महती सफलता के पीछे गायत्री यज्ञों के अवसर पर देव-दक्षिणा देने की, दूषित दुर्गुणों को त्यागने की पुण्य प्रक्रिया ने अवांछनीयताओं को साहस भरी चुनौती दी है और आश्चर्य जनक परिवर्तन प्रस्तुत किये हैं। मनुष्य में देवता उत्पन्न करने का उद्घोष दूसरे शब्दों में दानव को निरस्त करना भी कहा जा सकता है, इस दिशा में मिशन को आशातीत सफलता मिली है। अपने गायत्री यज्ञ इस अर्थ में पूरी तरह सफल हुए हैं कि उनके माध्यम से असंख्यों को अपने अवांछनीय दिशा क्रम से उलटने का अवसर सहज ही मिल गया। भाव भरे धर्मानुष्ठानों के आधार पर उत्पन्न यज्ञीय वातावरण में मनुष्यों को देव बनने के लिए दानव से पिण्ड छुड़ाने की आवश्यकता समझाई गई और अन्तरात्मा की प्रसुप्त श्रद्धा जगाई गई, तो उसने यह सहज स्वीकार कर लिया कि कषाय कल्मषों के दुष्ट-दुर्गुणों से पीछा छुड़ाना ही श्रेयस्कर है। अशुभ का परित्याग ही शुभ की, शिव की प्राप्ति है। यज्ञीय वातावरण में देव-दक्षिणा के रूप में नशा, माँस, जुआ, चोरी, दहेज, मृत्युभोज, छुआछूत, आलस्य-प्रमाद जैसी आदतों को छोड़ा गया, तो उस रिक्त की पूर्ति सद्गुणों में होती गई।
श्रेय गायत्री यज्ञों को, युग निर्माण अभियान को, आयोजनकर्ताओं या अन्य किसी को दिया जा सकता है, पर तथ्यतः सारा चमत्कार संकल्पशक्ति का है। वह रहती तो हर मनुष्य में है, पर नियोजित, निरर्थक या अनर्थ मूलक प्रयोजनों में रहती है। उसे बदला जा सके तो दिशा उलटती है और शोक सन्ताप की दुःखद परिस्थितियाँ उलट कर सुख सौभाग्य की झाँकी कराने लगती हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार