महिला जागरण अभियान की संगठन प्रक्रिया
महिला शाखा संगठन
महिला जागरण अभियान को अग्रगामी बनाने में प्रतिभावान नर और नारी समान रूप से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। दोनों के ही बढ़े-चढ़े अनुदान इसके लिए अभीष्ट हैं। पर प्रथम चरण पुरुष के ही बढ़ने चाहिए। पहल उसी के हाथ है। जिन्हें नारी जागरण की उपयोगिता पर विश्वास हो, उन्हें अपने विश्वासों के प्रति आस्थावान भी होना चाहिए। आस्था की परीक्षा सक्रियता की कसौटी पर ही हो सकती है अन्यथा शेख दिल्ली के सपने देखने वाले और मन की भड़ास निकालने के लिए बकझक करने वाले तो सर्वत्र भरे पड़े हैं। उनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
जिन पुरुषों में उत्साह जागे, उन्हें अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रस्तुत प्रयोजन की अधिकाधिक जानकारी देनी चाहिए और भाव-भरी चर्चा करनी चाहिए। विचारशील पुरुषों और भावनाशील नारियों में से अनेकों के साथ इस प्रचार अभियान में सम्पर्क बनेगा और जब-तब चर्चा करते रहने से उन्हें सहयोगी बनाया जा सकेगा। अध्यापिकाओं, समझदार छात्राओं तक इस विचारधारा की लहर पहुँचनी ही चाहिए और उनसे अनुरोध किया जाना चाहिए कि वे अपने सम्पर्क की विचारशील महिलाओं को आन्दोलन की जानकारी कराने में योगदान दें। अध्यापिकाएँ, छात्राओं तक और छात्राएँ अपने परिवार तक अभियान की प्रकाश किरणों को पहुँचाने का प्रयास करें तो अपना प्रचार क्षेत्र, प्रभाव क्षेत्र कहीं से कहीं पहुँच सकता है।
अभियान की बागडोर सँभालनी तो अन्ततः नारी को ही है। पर अभी उसकी स्थिति रुग्ण एवं दुर्बल जैसी है। अभी तो परिचर्या करने वाले और चिकित्सा करने वालों को ही उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ेगा। आन्दोलनों की आवश्यकता, उपयोगिता एवं रूपरेखा से जितने अधिक क्षेत्र को परिचित कराया जा सके, उसके लिए पूरा प्रयत्न किया जाय। इस प्रथम चरण में समर्थकों और सहयोगियों की संख्या बढ़ेगी और उन्हें प्रोत्साहन देकर रचनात्मक गतिविधियों का शुभारम्भ कराया जा सकेगा।
महिला शाखाओं की स्थापना इस दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। विद्वान लिख और बोल सकते हैं, धनी-मानी साधन जुटा सकते हैं, सेवाभावी दौड़-धूप कर सकते हैं, पर जन-जन तक प्रकाश किरणें पहुँचाने और सामूहिक उत्साह एवं प्रसन्नता का वातावरण बनना संगठित प्रयत्नों से ही सम्भव हो सकता है। जन-जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान प्रखर जनशक्ति के द्वारा ही बन पड़ेगा। अस्तु जहाँ भी वातावरण में थोड़ी अनुकूलता दिखाई पड़े, वहाँ शाखा-संगठन खड़ा करा ही देना चाहिए। इसके लिए अपने घर की एवं सम्पर्क क्षेत्र की समझदार महिलाओं को सबसे पहले आगे धकेला जाय। संकोच छुड़ाने, उत्साह भरने एवं हलचलों में भाग लेने के लिए मार्गदर्शन में पुरुषों की भूमिका रहेगी तभी उनसे कुछ करते-धरते बन पड़ेगा। अन्यथा यह अपरिचित प्रक्रिया उनके गले ही न उतरेगी।
इतना विस्तृत और इतना महत्त्वपूर्ण अभियान एकाकी प्रयत्नों से नहीं चल सकता। व्यापक प्रयोजन सदा जन सहयोग से ही सम्भव होते हैं—उनके लिए जन शक्ति जुटानी पड़ती है। जन-मानस का परिवर्तन-परिष्कार जिन गतिविधियों को अपनाने से सम्भव हो सकता है, वे जन-सहयोग के बिना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकती। नारी उत्कर्ष के सुदृढ़ आधार तभी बनेंगे जब उनकी सुविस्तृत पृष्ठभूमि बने और उसे जन समर्थन प्राप्त हो। इसके लिए संगठित प्रयत्न ही सफल हो सकते हैं। अस्तु जहाँ भी अपने मिशन की प्रकाश किरण पहुँचें—जहाँ भी इसका औचित्य अनुभव किया जाय और कुछ ठोस कदम उठाते जाने के लिए उत्साह हो, वहाँ महिला जागरण संगठन की शाखा स्थापित करने से श्रीगणेश किया जाय। यह शुभारम्भ जहाँ भी होगा, वहाँ पर अपेक्षा की जा सकेगी कि आरोपित कल्पवृक्ष निकट भविष्य में उत्साहवर्धक प्रतिफल उत्पन्न करने लगेगा।
प्रत्येक भावनाशील और विवेकशील पुरुष का काम है कि अपने प्रभाव क्षेत्र में नारी उत्कर्ष के लिए आवश्यक विचार विस्तार करने और उत्साह उत्पन्न करने के लिए तत्परतापूर्वक प्रयत्न करें। ऐसे विवेकशील व्यक्ति अपने घरों की उत्साही महिलाओं को आगे करके एक छोटा महिला संगठन स्थापित कर दें। हर प्रभावशाली व्यक्ति का कुछ व्यक्तियों से सम्पर्क और कुछ घरों में प्रभाव होता है। मिशन का परिचय उस क्षेत्र में दिया जाय—उपयोगिता समझाई जाय और पुनरुत्थान के लिए कुछ करने के लिए अनिवार्यता बतायी जाय। इसके लिए अनिवार्यता बतायी जाय। इसके लिए एक-दो सप्ताह भी दौड़-धूप कर ली जाय तो आरम्भ में उपेक्षा करने वाले लोग भी धीरे-धीरे सहमत होते जाएँगे और प्रयत्न चालू करने के कुछ ही दिन बाद संगठन खड़ा करने की स्थिति बन जायेगी। विचारशील नारियाँ स्वयं आगे बढ़ कर इस कार्य को हाथ में लें और पुरुषों का जितना सहयोग प्राप्त हो सकता है उसके लिए सचेष्ट रहें। यों यह भी काम है तो नारी का अपना ही।
महिला जागरण अभियान का संगठन सूत्र युगान्तर चेतना शान्तिकुञ्ज हरिद्वार से संचालित हो रहा है, उसकी शाखाएँ उन सभी स्थानों पर स्थापित होनी चाहिए, जहाँ अखण्ड-ज्योति का प्रकाश पहुँचता हैं, जहाँ युग निर्माण आन्दोलन के लिए उत्साह है। पहले अपने ही कार्यकर्ताओं को अपने घरों की महिलाओं को उस संगठन की सदस्या बनाकर पहल करनी चाहिए। सदस्यता के २५-२५ प्रतिज्ञा पत्रों और स्वीकृति के प्रमाण पत्रों की सदस्य पुस्तिकाएँ छपी हैं, उन्हें भरने पर प्रामाणिक सदस्या बन जाती हैं। संघ महिलाओं का है, उन्हीं के द्वारा उन्हीं से सम्बन्धित प्रवृत्तियों के संचालन के लिए है, इसलिए सदस्या तो वे ही बन सकती हैं, पर सहायकों के रूप में पुरुषों के लिए भी उस संघ में सम्मिलित रहने की सुविधा रखी गई है। वे सहायक सभ्य कहे जाएँगे। सहायक सभ्य, महिला जागरण कार्यक्रमों की सहायक भूमिका निभायेंगे। इसके लिए पृष्ठभूमि बनाने और साधन जुटाने में अधिक से अधिक प्रयत्न करेंगे पर रहेंगे पीछे ही।
सदस्यता की कोई मासिक फीस नहीं है। श्रम, समय और मनोयोग का अधिकाधिक अनुदान देने में परस्पर प्रतिस्पर्धा करना ही सदस्यता शुल्क है। यों आवश्यकता तो पैसे की भी पड़ेगी पर यह अपनी-अपनी श्रद्धा और स्थिति के अनुरूप सभी सदस्य और सभ्य प्रस्तुत करेंगे। वह स्वेच्छया सहयोग होगा। इसके लिए दैनिक अनुदान की परम्परा बहुत ही उपयोगी है, उससे यह स्मरण रहता है कि अन्य नित्य कर्मों की तरह इस पुनीत कार्य के लिए भी हमें कुछ न कुछ नित्य ही करना है। एक डिब्बे में अनाज की एक मुट्ठी या दस-पाँच पैसा डालने जैसे छोटे अनुदान को भी यदि दैनिक अनुदान में सम्मिलित रखा जाय तो श्रम, समय, मनोयोग को भाँति ही इस नितान्त आवश्यक संगठन को सजीव रखने के लिए आवश्यक धन की भी कमी न रहेगी।
आरम्भिक प्रयास में जितने भी सदस्य और सभ्य बन सकें उन्हीं से शाखा स्थापित कर लेनी चाहिए। सबसे उत्साही, लगनशील, प्रामाणिक तथा समय दे सकने वाली महिला को कार्यवाहक नियुक्त कर लेना चाहिए, उसका नियुक्त पत्र हरिद्वार से मँगा लेना चाहिए। आवश्यकता हो तो एक दूसरी महिला कोषाध्यक्ष भी चुनी जा सकती है। बाकी प्रधान, उपप्रधान, मन्त्री, उपमन्त्री आदि पदाधिकारी नहीं चुनने चाहिए। पद लोलुपता का विष जहाँ भी घुसता है वहाँ संगठनों का अन्त करके ही छाेड़ता है। उनमें चढ़ा ऊपरी तो इसी अहमन्यता के आधार पर खड़ी हो जाती है। इसलिए अभियान का स्वरूप सर्वथा परिवार पद्धति के अनुरूप रखा गया है। इसमें नेता बनने का कोई प्रयत्न नहीं करता।
सदस्य और सभ्य बनाने के आवेदन पत्र और प्रमाण पत्र की पुस्तिकाएँ शान्तिकुञ्ज से मँगाई जा सकती हैं। सदस्यों, सभ्यों की नामावली शान्तिकुञ्ज भेज देनी चाहिए। यहाँ से शाखा को मान्यता का तथा कार्यवाहक की स्वीकृति का प्रमाण पत्र भेज दिया जाता है। इस प्रकार शाखा अपने मूल केन्द्र के साथ सम्बद्ध हो जाती है। शाखा कार्यालय—कार्यवाहक के घर पर अथवा जहाँ भी उपयुक्त समझा जाय, वहाँ रखा जाय। टीन का साइनबोर्ड शान्तिकुञ्ज से मँगाया जा सकता है। हिसाब-किताब, सदस्य सूची, मीटिंग कार्यवाही, पत्र व्यवहार आदि के लिए रजिस्टरों की, वाउचरों की एवं पत्रों की फाइलों की व्यवस्था कर ली जाय।
इतना हो जाने से शाखा-संगठन का ढाँचा खड़ा हो जाता है। उसमें प्राण भरना साप्ताहिक सत्संगों के आधार पर सम्भव होता है। कागजी संस्थाएँ तो रोज बनती और रोज बिगड़ती हैं—संघशक्ति का विकास करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि संगठन के सभी सदस्य जल्दी-जल्दी मिलते रहें, घनिष्ठता विकसित करें। मिलजुलकर कदम बढ़ाने की योजना बनाएँ और एक दूसरे को प्रोत्साहन सहयोग देकर वैसा वातावरण बनाएँ जिसमें कुछ ठोस काम बन पड़ना सम्भव हो सके।
शाखा सदस्याएँ तो साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित होना एक प्रकार से अपना अनिवार्य कर्तव्य ही मानें। कोई अत्यन्त ही आवश्यक और अपरिहार्य कारण आ जाय तो ही अनुपस्थित हों। सदस्यों में से प्रत्येक का यह भी प्रयत्न होना चाहिए कि अपने घर, परिवार, पड़ोस, रिश्ते तथा परिचय क्षेत्र में से अधिक महिलाओं को साथ लेने के लिए छै दिनों में प्रयास करती रहें और जिस दिन सत्संग हो उस दिन प्रयत्न करके उन लोगों को साथ ले चलने की नये सिरे से दौड़-धूप करें। यदि यह प्रयास जारी रखा जा सका तो सत्संगों की उपस्थिति घटने नहीं पायगी वरन बढ़ती ही रहेगी।
साप्ताहिक सत्संग एक ही स्थान पर होते रहें या बदल-बदल कर, यह स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि संख्या कम रहती है तो उन्हें घरों पर चलाया जा सकता है। पर यदि उपस्थिति बढ़े तो किसी बड़े सार्वजनिक स्थान को चुनना पड़ेगा। रविवार को अथवा जो भी दिन उपयुक्त समझा जाय उस दिन सभी महिला सदस्य एकत्रित हुआ करें।
सत्संगों का कार्यक्रम तीन भागों में विभक्त है।
(१) आरम्भ में गायत्री मन्त्र का सामूहिक जप पाठ और हवन। २४ मन्त्रों का जप पाठ पर्याप्त है। संक्षिप्त हवन विधि से आधा घण्टे में वह कृत्य हो जाता है और लगभग एक रुपया खर्च पड़ता है। इसका प्रधान लाभ यह है कि उपस्थित होने वाली सभी महिलाएँ यज्ञ प्रक्रिया से परिचित हो जाती हैं और अपने घरों में तथा सामूहिक आयोजनों में उस धर्मकृत्य को भली प्रकार सम्पन्न कर सकती हैं। यह अभ्यास आगे चलकर अनेक सार्वजनिक प्रयोजनों में बड़ी उपयुक्त भूमिका बनाता है। जहाँ हवन का प्रबन्ध न हो सके, वहाँ अगरबत्ती और घी का दीपक जलाकर भी यज्ञ का संक्षिप्त स्वरूप सम्पन्न हो सकता है। गायत्री भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ भारतीय धर्म का पिता है। उनके पुनीत प्रतीकों को अपनाये रहने का यह प्रथम चरण है। सामूहिक गायत्री पाठ, और किसी न किसी रूप में यज्ञ का अभिवन्दन इसीलिए अपने कार्यक्रम का प्रधान अंग है। अन्य धर्मावलम्बी यदि चाहें तो इसी प्रकार के शुभारम्भ अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपना सकते हैं। वैसे गायत्री और यज्ञ को सार्वजनिक, सार्वभौम, और सर्वथा असाम्प्रदायिक ही माना जाना चाहिए।
(२) सहगान कीर्तन—प्रेरणाप्रद गीत सामूहिक रूप में गाये-दुहराए जाएँ। यदि वाद्य यन्त्रों की व्यवस्था रहे तो अति उत्तम है। अन्यथा मधुर स्वर में मिलजुलकर ऐसे भी गाये जा सकते हैं। इसके लिए प्रगतिशील और मार्गदर्शक गीत शान्तिकुञ्ज से छपे भी हैं।
(३) प्रवचन—महिला समस्या के अनेक प्रश्न और उनके समाधान इन प्रवचनों का एक मात्र विषय होगा। इस सन्दर्भ में दस-दस पैसे मूल्य की बीस प्रचार पत्रिकाओं का दो रुपये मूल्य का प्रचार सैट छापा है। इससे कोई विषय प्रवचन के लिए चुना जा सकता है। महिला जागृति पत्रिका के लेख भी भाषण के आधार हो सकते हैं। यदि अभ्यास न हो तो इनमें से जो अधिक उपयुक्त लगे पढ़कर सुनाया जा सकता है। पढ़ कर सुनाने की प्रक्रिया भी कुछ समय भाषण दे सकने की योग्यता से विकसित हो जाती है। यह अवसर बारी-बारी सभी शिक्षित महिलाओं को दिया जाय तो उनका संकोच छूटता है और अभ्यास बढ़ता है। एक को बोलना है पर थोड़ा-थोड़ा अभ्यास सबको करना है, यह समयानुसार विचार करते रहना चाहिए। एक तरीका यह है कि थोड़ा-थोड़ा कइयों से पढ़वाया जाय और उसकी व्याख्या कोई भाषण की क्षमता सम्पन्न महिला कर दिया करे।
संगठन में सजीवता साप्ताहिक सत्संगों और घर-घर में सम्पर्क गोष्ठियों के आयोजन से ही उत्पन्न हो सकती है। उसकी रूपरेखा बताई जा चुकी है। इन दोनों कामों को सुसंचालित रखने के लिए कुछ उत्साही महिलाओं को स्वयं ही दौड़-धूप करनी पड़ेगी। मात्र निवेदन कर देने या औपचारिक बुलावा भेजने से अच्छी परिस्थिति की आशा नहीं की जा सकती। इसके लिए बिना मानापमान का ख्याल किए बार-बार घरों में जाने और घसीट कर लाने का प्रयत्न जारी रहना चाहिए। यदि घमण्डी, संकोची और व्यस्त समझी जाने वाली महिलाओं से भी आग्रह जारी रखा जाय तो वे कभी न कभी आयोजनों में सम्मिलित होने लगेंगी और अपने घरों पर आयोजन बुला सकेंगी। रुष्ट या निराश तो सार्वजनिक कार्यकर्ताओं को कभी भी नहीं होना चाहिए।
नारी जागरण अभियान में प्रत्येक महिला का भाव-भरा योगदान हो सकता है, भले ही वह किसी भी स्थिति में क्यों न हो। विचारशील, उत्साही और प्रतिभावान महिलाओं से संगठन एवं रचनात्मक कार्यों के लिए घर से बाहर कदम बढ़ाने के लिए अनुरोध किया गया है और चाहा गया है कि वे दो से पाँच बजे तक के तीन घण्टे घर से बाहर ही लगाया करें। एकाकी सेवा-कार्य भी हो सकता, पर उसमें—दो आँखों का एक आँख पर, दो हाथों का एक हाथ पर, दो पैर का एक पैर पर वजन पड़ने की तरह अधिक साहस की जरूरत पड़ती है। दो की टोली बन पड़े तो समझना चाहिए कि बहुत बड़ा काम बन गया। घर के लोगों का इसके लिए समर्थन पाना आरम्भ में बहुत कठिन पड़ता है। मर्द दूसरे के घर, अपने घर की स्त्रियों को जाने देने में बेइज्जती समझते हैं और उनके काम न रहने पर भी जाने पर आना-कानी करते हैं। घर की स्त्रियाँ भी अपने से कुछ भिन्नता देख कर कुढ़ती हैं, मुँह फुलाती और तानाकशी करती हैं। इस गुत्थी को भी मनस्वी महिलाओं में यदि लगन हो तो देर-सवेर में हल कर लेती हैं और आरम्भ में दिखाई जाने वाली कठोरता को अपनी कुशलता से धीरे-धीरे नरम कर लेती हैं। ऐसी दो महिलाएँ जहाँ भी एक जुट हो जाएँगीं, वहीं निश्चित रूप से महिला जागरण की गतिविधियाँ सफलतापूर्वक सुविस्तृत होती चली जाएँगी। अधिक महिलाओं की मण्डली बन कर सम्पर्क कार्य के लिए निकल सकें, तब तो और भी आशाजनक परिणाम निकलेगा। एक के स्थान पर कई टोलियाँ बन सकें तो कार्य में और भी अधिक चमत्कार उत्पन्न हो सकता है।
यह सम्पर्क टोलियाँ पुरुष की भी चलनी चाहिए, महिलाओं की भी। पुरुष, पुरुषों से सम्पर्क बनाएँ। उन्हें परिचित, अपरिचित लोगों को मिशन की जानकारी प्रचार पुस्तिकाओं के तथा चर्चा के माध्यम से देनी चाहिए। जो रुचि लेते दिखाई पड़ें, उन्हें अपने घरों की महिलाओं को आयोजनों में भेजने के लिए रजामन्द करना चाहिए।
मिशन का प्रथम सोपान जानकारी देना, संगठन खड़ा करना, सत्संग तथा घरेलू आयोजनों की व्यवस्था। उनमें सम्मिलित होने के लिए अधिक उपस्थिति की प्रेरणा देना प्रमुख है। यह प्रयास घर बैठे नहीं हो सकता। उत्साही नर-नारियों को इसके लिए घर से बाहर निकलना होगा और संकोच, झिझक, मानापमान का विचार छोड़कर दृढ़ता, निर्भयता और आत्म-विश्वास के साथ जन-जन को इस मिशन का स्वरूप समझाना होगा।
महिला जागरण अभियान की सदस्यता यों मिशन के उद्देश्य-स्वरूप और कार्यक्रम से सहमत होने तथा निर्धारित प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर कर देने भर से आरम्भ हो जाती है पर उसके कर्मठ कार्यकर्ता वे बनते हैं जो मिशन के लिए नियमित अनुदान देने में अपनी तत्परता व्यक्त करते हैं। यह नियमित अनुदान समयदान और साधनदान दो भागों में विभक्त है। दोनों के मिलने से ही पूर्णता बनती है।
कर्मठ कार्यकर्ताओं के लिए यह प्रथम कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि उन्हें कम से कम एक घण्टा समय मिशन के प्रसार-विस्तार के लिए लगाते रहना चाहिए। यों स्वयं निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए उपयोगी साहित्य पढ़ना—अपने घर में दूसरों को पढ़ाना-सुनाना—रात्रि को प्रेरणाप्रद कहानियाँ कहना, परिवार में मिशन की प्रेरणाओं के उपयुक्त वातावरण बनाना, निर्धारित कार्यक्रमों की घर में स्थापना करना भी मिशन का ही काम है और इतना करने पर ही कोई और कह सकता है कि हम लक्ष्य की दिशा में आवश्यक प्रयत्न कर रहे हैं।
यहाँ एक घण्टा समयदान की शर्त इससे अगले कदम से आरम्भ होती है। व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में तो असंख्य नर-नारी इन प्रेरणाओं को न्यूनाधिक मात्रा में उतारेंगे ही। इसके बिना मिशन की प्रगति हुई नहीं मानी जायेगी। समयदान का तात्पर्य है—घर में, बाहर के सम्पर्क क्षेत्र में मिशन के प्रकाश पहुँचाने के लिए किया गया प्रयत्न। हर व्यक्ति का कुछ न कुछ परिचय सम्पर्क एवं प्रभाव क्षेत्र होता है। घर से बाहर भी बहुतों से जान-पहचान और घनिष्टता होती है। इस क्षेत्र के व्यक्तियों के नाम क्रमबद्ध रूप से डायरी में नोट करने चाहिए और इसी प्रयोजन से मिलने के लिए उनके घर जाने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। किसी को अपने यहाँ बुला लेने से भी कुछ काम तो हो ही सकता है। पर जब कुछ विशेष प्रयोजन लेकर कोई किसी के यहाँ जाता है तो उसका प्रभाव दूसरा ही पड़ता है।
घर में झोला पुस्तकालय रखा जाना चाहिए। शान्तिकुञ्ज से प्रकाशित छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का सैट इसी शुभ का श्रीगणेश करने के लिए है। उन्हें छोटे से झोले में लेकर घर से निकला जाय और जिनसे मिलने का कार्यक्रम है उन्हें मिशन की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझाते हुए एक पुस्तिका पढ़ लेने के लिए अनुरोध किया जाय। इसमें किसी के इन्कार करने की बात शायद ही कभी उपस्थित हो। जिन्हें अवकाश न हो या शिक्षा कम हो वहाँ एक ट्रैक्ट पढ़कर सुनाया जा सकता है।
मिशन के सदस्यों को चाहिए कि इस सम्पर्क एवं प्रसार कार्य को अपना धर्म कर्तव्य मानकर चलने और अपने समूचे प्रभाव क्षेत्र को नव जागरण की हलचलों से परिचित कराते रहने के प्रयास में सतत संलग्न बने रहें। हर दिन दो व्यक्तियों से सम्पर्क साधने की बात बन पड़े महीने में साठ व्यक्ति होते हैं। सम्भव न हो सके तो भी हर सदस्य को अपना सम्पर्क क्षेत्र न्यूनतम दस व्यक्तियों तक तो रखना चाहिए और उसे पुस्तिकाएँ तथा महिला जागृति पत्रिका पढ़ाते रहने का क्रम कुछ दिन चलते रहने के उपरान्त तब फिर नये दस ढूँढ़ने के लिए कदम बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार दस-दस व्यक्ति हर महीने करते रहने में भी साल में अपने प्रभाव क्षेत्र की संख्या सन्तोषजनक हो सकती है।
हर दिन समय न मिल सके तो कई दिन का समय मिलाकर भी खर्च किया जा सकता है। सप्ताह में सात घण्टे या महीने में ३० घण्टे भी सुविधानुसार लगाये जा सकते हैं। यों मन समझाने को तो सत्संगों या आयोजनों में जाना भी उन्हीं घण्टों में शामिल किया जा सकता है पर वस्तुतः वैसा है नहीं। यह एक घण्टा प्रसार प्रयोजन के लिए जन सम्पर्क साधने और मिशन की विचारधारा को अधिकाधिक व्यापक बनाने के लिए ही है। इसे इसी अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन में लगाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए।
सदस्यों में से प्रत्येक के घर एक छोटा महिला जागरण पुस्तकालय होना चाहिए और उसमें निरन्तर साहित्य की वृद्धि होती रहनी चाहिए। इस खर्च की पूर्ति के लिए कर्मठ कार्यकर्ताओं की दूसरी शर्त है—हर दिन दस पैसा ज्ञानघट में डाला जाय। देहातों में पैसे की टूट नहीं होती, वहाँ अनाज ही धन होता है। वहाँ एक मुट्ठी अनाज हर दिन किसी डिब्बे में डाला जाता रहे और उस मासिक-संग्रह को बेचकर पैसा बना लिया जाय। हर दिन खेरीज डालने से असुविधा हो तो दस-दस पैसा लिखी हुई कागज की पर्चियाँ डिब्बे में डाली जाती रह सकती हैं और साप्ताहिक या मासिक पर्चियाँ के बदले में पैसे जमा किए जा सकते हैं।
धर्मघट में रोज-रोज पैसा डालने के लिए इसलिए कहा जाता है कि उससे अपना परमार्थ का संस्कार बनता है। यह ध्यान बना रहता है कि हमें सत्कार्य के लिए नियमित अनुदान देना है। दूसरा एक तथ्य यह भी है कि दस पैसा रोज की रकम छोटी लगती है और एक साथ तीन रुपये निकलना बहुतों को कठिन लगता है। यदि अपनी सामर्थ्य एक साथ धन निकालने की है तो भी उसे नित्य का क्रम बनाकर अपना संस्कार पुष्ट करते रहना ही उचित है।
इस दस पैसे की राशि को आरम्भ के वर्षों में पूरे का पूरा शाखा को ही दे देना चाहिए, क्योंकि उसी के आधार पर उसकी अर्थ व्यवस्था चलेगी। शाखा इसके बदले में थोड़ा बहुत जो साहित्य देती रहे उससे जन सम्पर्क का प्रचार प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। ज्ञानघट के दस पैसों के अतिरिक्त यदि साहित्य खरीदने के लिए अलग से धन निकल सके तो और भी अच्छा है। यह इसलिये आवश्यक है कि प्रारम्भ में शाखा की व्यवस्था के लिए अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही प्रारम्भ में सहयोगियों की संख्या भी कम रहती है। इसलिये धर्मघट की सारी की सारी राशि व्यवस्था में लगायी जाय तथा साहित्य के लिए थोड़ा-थोड़ा अंश अलग से निकाला जाय, तो दोनों काम एक साथ चल पड़ेंगे।
यदि कहीं-कहीं संयोग से, सम्पन्न व्यक्ति महिला शाखा में प्रारम्भ से ही रुचि लेने लगे और धन का सहयोग करने लगे, तो भी सदस्याओं को अपने इस क्रम में जरा भी ढील नहीं लानी चाहिए। धन से साधन इकट्ठे होते हैं यह बात ठीक है किन्तु मात्र साधन काफी नहीं होते। उनके साथ जुड़ी हुई अपनत्व की भावना तथा कुछ कर गुजरने की ललक ही साधनों को प्राणवान बनाती है।
जहाँ अधिक उत्साह हो वहाँ समय का अधिक भाग और धन का अधिक अंश देने के लिए सहज ही अन्तःकरण में उमंग उठेगी। आठ घण्टा रोटी कमाने के लिए, सात घण्टा विश्राम के लिए और पाँच घण्टा फुटकर व्यक्तिगत कार्यों में खर्च कर लिया जाय तो इन बीस घंटों को निकाल देने के बाद भी चार घण्टे का समय लोक मंगल के परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सकता है। इसी प्रकार माह में एक दिन की कमाई इस पुण्य कार्य में लगाना किसी भी भावनाशील व्यक्ति के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि सामान्य सदस्य जल्दी ही कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रेणी में जा पहुँचेंगे और भावनाशील कर्मयोगी अपने समय, श्रम, मनोयोग, धन, प्रभाव आदि विभूतियों का अधिकतम भाग महिला जागरण अभियान जैसे युगान्तरकारी महान प्रयोजन के लिए समर्पित करते हुए अभिनव आदर्श प्रस्तुत करेंगे।
महिला शाखा संगठनों को फिलहाल छोटे रूप में ही शिक्षा तथा प्रचार के कार्य सौंपे गए हैं, किन्तु शीघ्र ही यह बड़ा रूप पकड़ लेंगे। व्यवस्थित शिक्षा संस्थान और जन सम्पर्क अभियान की दो धाराएँ अनेकों धाराओं में विभाजित होती हैं और उनका विकास-विस्तार बहुत लम्बा-चौड़ा क्षेत्र अपनी परिधि में समेटता है। व्यवस्थित शिक्षा में प्रौढ़ महिला शिक्षा, साक्षरता प्रसार, स्वल्प शिक्षितों को आगे की शिक्षा, गृह उद्योगों के माध्यम से अर्थ स्वावलम्बन, लोकरंजन और लोकमंगल के संयुक्त माध्यम, संगीत का ज्ञान, पुस्तकालय, वाचनालय जैसे अनेकों कार्य गिने जा सकते हैं। जन सम्पर्क में साप्ताहिक सत्संग, घर-घर में संस्कार प्रक्रिया, विचार गोष्ठियाँ, कथा-प्रवचन, पर्व आयोजन, वार्षिकोत्सव, प्रदर्शनी, प्रभात फेरियाँ, स्लाइड प्रोजेक्टर, प्रचार, प्रदर्शनी जैसे प्रचारात्मक कार्य आते हैं। योजनाबद्ध रूप में व्यापक क्षेत्र में दिनों-दिन इनका अधिकाधिक विस्तार दिया जाना है। जन-मानस को उलट देने के लिए आगे चलकर और भी अनेक रचनात्मक कार्य हाथ में लिए जाने हैं।
संगठन में थोड़ी सी मजबूती आते ही दहेज विरोधी आन्दोलन जैसे कई सुधारात्मक कार्य हाथ में लिए जाने हैं। हर जगह एक ऐसी उद्योगशाला खड़ी की जानी है, जिससे अर्थ उपार्जन की आवश्यकता अनुभव करने वाली महिलाओं को सहारा मिल सके। स्वास्थ्य सुधार एवं परिवारों का परिष्कृत नव निर्माण अपने आप में एक स्वतंत्र कार्य है। संगठन और साधनों के विकास के साथ-साथ इन नव आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाले छोटे-बड़े कदम एक के बाद एक उठाये जाते रहेंगे। आधी जनः संख्या के उत्कर्ष का कार्य बड़ा है, इसलिए स्वभावतः उसकी योजना भी बड़ी होनी चाहिए और उसमें जनशक्ति तथा साधन शक्ति भी बड़ी मात्रा में ही नियोजित की जानी चाहिए। आरम्भ छोटे क्षेत्र से श्रीगणेश करने से हो सकता है पर उसका विस्तार तो व्यापक क्षेत्र तक बढ़ता ही चला जाता है।
अभी एक शान्तिकुञ्ज ही सूत्र संचालन करता है, अगले दिनों उसके छोटे-बड़े देश के लिए इतने प्रचुर प्रचार साधन जुटाना तथा कार्यकर्ता तैयार करना एक केन्द्र के लिए सम्भव नहीं हो सकता। उसके लिए ऐसे हजारों संस्थान खड़े करने पड़ेंगे। मार्गदर्शन एक स्थान से होता रहे सो अलग बात है, पर गतिविधियाँ तो अपने-अपने क्षेत्र के लिए, अपने-अपने यहाँ से ही संचालित हो सकती हैं।
उपरोक्त आवश्यकताओं और सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए जगह यह अनुभव किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों को सुसंचालित करने के लिए संस्था की अपनी एक निजी इमारत होनी चाहिए। आरम्भ में माँगे का कमरा लिया जा सकता है। जितने समय अपनी शिक्षा, सत्संग आदि के कार्यक्रम चलें उतना समय उसका प्रयोग शाखा कर लें। पर इससे तो थोड़े समय तक छोटी आवश्यकता ही किसी प्रकार पूरी हो सकेगी। अपनी आवश्यकता के अनुरूप अपने ढंग का मकान ही काम दे सकता है। गतिविधियों में नियमितता लाने और उनका विस्तार करने के लिए अपनी इमारत कितनी अधिक आवश्यक है, इस पर जितना अधिक विचार किया जायगा, उतना ही इस नतीजे पर पहुँचना पड़ेगा कि इसके बिना आज भले ही गुजर हो जाय कल काम चलने वाला नहीं है। मिशन को यदि जीवित रहना और बढ़ना है तब तो यह आवश्यकता पड़ेगी ही, और वह पूरी भी करनी पड़ेगी।
यह काम बहुत कठिन भी है और बहुत सरल भी। कठिन इसलिए कि हजारों रुपया खर्च करा लेने वाले इस कार्य के लिए एक-एक, दो-दो रुपया माँगने से कितने लोगों का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा और उनमें से कौन सीधे मुँह बात करेगा और कौन अवज्ञा, उपेक्षा एवं रुखाई का प्रदर्शन करके खीज़ उत्पन्न करेगा। जमीन से लेकर साधन जुटाने तक के अनेकों झंझट कैसे उठाये जा सकेंगे? अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा, अपने अकेले हैं और कौन साथ देगा? आदि-आदि निषेधात्मक चिन्तन करते रहा जाय तो प्रतीत होगा कि काम बहुत ही कठिन है और उसकी पूर्ति अपने जैसे लोगों के बस की बात नहीं हैं। जहाँ इस तरह की विचार शृंखला चल रही है, वहाँ निश्चित रूप से यह निर्माण अति कठिन ही नहीं, एक प्रकार से असम्भव भी है।
वहाँ यह अति सरल है जहाँ अपनी निजी महत्त्वाकांक्षाओं में निजी आवश्यकताओं में इस युगान्तरीय चेतना का विकास-विस्तार भी सम्मिलित कर लिया जाय और उसके लिए उसी उत्साह के साथ सोचा जाय। लोग अपने लिए, बेटे-पोते के लिए इमारतें बनाते हैं और उसके लिए पैसा तथा साधन जुटाते हैं। जेब में नहीं होता तब भी आवश्यक कार्यों के लिए जिधर-तिधर से कुछ प्रबन्ध करते हैं और इच्छित प्रयोजन पूरा करके ही रहते हैं। इसी स्तर की लगन एवं तड़पन जहाँ दो-चार व्यक्तियों के भीतर पैदा हो जाय, समझना चाहिए, आधी मन्जिल पार कर ली गई है। यों कमर कस कर एक ही व्यक्ति खड़ा हो जाय और अपनी निष्ठा का प्रमाण अपने निज के बढ़े-चढ़े अनुदान के साथ प्रस्तुत करे तो समझना चाहिए कि दूसरों का सहज सहयोग अनायास ही खिंचता चला आवेगा।
लगनशील व्यक्ति इस निर्माण के लिए आगे बढ़ें, संगठित हों। जन सहयोग एकत्रित करने के लिए उत्साह जगाएँ और नियमित रूप से समय निकालें। इतना करने के साथ ही आगे चलने वाले लोग अपने अनुयायियों के लिए अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें। पर उपदेश कुशल व्यक्ति मात्र अपनी चतुरता से दूसरों को उतना प्रभावित नहीं कर सकता, जितना अपनी निष्ठा की गहराई सिद्ध करने वाला अनुदान प्रस्तुत करके। यदि मिशन को ही एक बेटा; पोता मान लिया जाय और उसके लिए मकान बना जाने की बात अपने भाव क्षेत्र में उतर जाय तो हमी लोगों में से कई अपने को इस स्थिति में पावेंगे कि इस प्रकार का निर्माण अपने और प्रिय जनों के प्रभाव क्षेत्र के सहयोग भर से पूरा कर सके।
कई व्यक्ति यश के लिए स्मारक बनाने की दृष्टि से पुण्य परमार्थ के लिए, स्वर्ग सुख के लिए कई तरह के कर्मकाण्ड, तीर्थयात्रा, ब्रह्मभोज, दान-पुण्य करते रहते हैं और मन्दिर-धर्मशाला आदि बनाने के लिए खुले हाथों पैसा खर्च करते रहते हैं। इनमें उदारता तो होती है पर विवेक दृष्टि नहीं। अन्ध परम्पराएँ, मूढ़-मान्यताएँ और यश-स्वर्ग की ओछी बुद्धि ही काम करती रहती है। यदि उन्हें लक्ष्य और सत्य समझाया जा सके कि सन्तप्त पीड़ा और पतन के निवारण में लगा हुआ समय एवं धन ही वास्तविक पुण्य-परमार्थ है। उन्हीं से पक्का यश, ईश्वरीय अनुग्रह और आत्मसन्तोष मिल सकता है। यह तथ्य यदि गम्भीरतापूर्वक तथाकथित सुसम्पन्न लोगों को समझाया जा सके तो उनमें से एक-दो मिलाकर भी इस पुण्य प्रयोजन को अति सरलतापूर्वक पूरा कर सकते हैं। जो व्यक्ति अपने हाथ-पैर की कमाई से गुजारा करने लगे हैं वे अपने अभिभावकों से अनुरोध कर सकते हैं कि वे हराम की कमाई खाना अनैतिक मानते हैं। अपने पसीने की कमाई ही उनके लिए पर्याप्त है। उत्तराधिकार की दौलत उन्हें नहीं चाहिए। उसे वे महिला मन्दिर जैसे पुनीत कार्य में लगाकर अपना लोक-परलोक सुधार लें।
यदि आवश्यकता और उपयोगिता समझाने और उदारता जगाने का कार्य कोई कर सके तो अर्थ सहयोग में कमी न रहेगी। एक-एक बूँद से भी घड़ा भर सकता है मुट्ठी-मुट्ठी संचय से पहाड़ खड़ा हो जाता है। मधु मक्खियाँ रत्ती-रत्ती संचय करके शहद से छत्ता भर लेती हैं। गरीब और पिछड़े लोगों से भी मुट्ठी फण्ड जैसे उपहासास्पद साधनों से कुछ आमदनी होती रह सकती है और उससे न केवल अभियान के सामयिक कार्य बन सकते हैं वरन् भवन निर्माण के लिए भी संचय होता रह सकता है।
महिला मन्दिर के निर्माण का नक्शा बनाने से पूर्व उसकी आवश्यकताएँ समझी जानी चाहिए। प्रौढ़ महिला विद्यालय तो उसमें चलना ही है, साथ ही शिक्षा, शिल्प और संगीत तीन प्रकार की जानकारियाँ भी दी जानी हैं। यों इनके लिए अलग-अलग कक्ष बन पाते तो अच्छा होता, पर जहाँ स्वल्प साधन हैं, वहाँ एक ही बड़ा हाल उलट-पुलट कर सबके सिखाने के काम आ सकता है। अस्तु प्रधान निर्माण एक बड़े हाल का होना चाहिए। दरवाजे, जंगले इस प्रकार रहने चाहिए, जिसमें होकर रोशनी और हवा का समुचित प्रवेश होता रहे। दीवारों की बची हुई जगह में अलमारियाँ लगा दी जाएँ, जिनमें पुस्तकालय तथा दूसरे आवश्यक उपकरण रखे जा सकें।
हाल के चारों ओर बरामदा हो ताकि पानी और धूप का हाल में प्रवेश न हो सके। बरामदों के चारों कोनों पर चार कमरे निकल सकते हैं। इनमें से एक को स्टोर, एक दफ्तर, एक को स्थायी कार्यकर्ता का निवास और एक को अतिथि विश्राम के लिए रखा सकता है। हॉल के सामने वाली दीवार में बीचो−बीच आलमारीनुमा मन्दिर बन सकता है जिसमें मातृ शक्ति की प्रतीक प्रतिमा के रूप में गायत्री माता का बड़ा चित्र अथवा लाल मशाल की बड़ी तस्वीर प्रतिष्ठापित की जा सकती है। हाल कितना भी बड़ा हो, किस सामग्री से बने इसका निर्णय करना स्थानीय आर्थिक सहयोग की सम्भावना को ध्यान में रख कर ही किया जा सकता है।
सस्ती या मुफ्त की जमीन पाने के लालच में आबादी से बहुत दूर इस प्रकार निर्माण नहीं करना चाहिए। आमतौर से आवागमन की सुविधा नगर के मध्य भाग में रहती है। सस्ती जमीन के लालच में दूरी पर बनाए गए निर्माण सदा असफल होते हैं। लोग वहाँ पहुँचना ही नहीं चाहते, इससे खाली पड़ी रहती है और लगा हुआ पैसा निरर्थक चला जाता है। यथा सम्भव मौके की ऐसी जमीन ढूँढ़नी चाहिए जो नगर के एक कोने पर न जा पड़े और जहाँ पहुँच सकने में समीपवर्ती कई मुहल्लों को सुविधा रहती हो।
इमारत के निर्माण में सामान कैसा लगाया जाय, इसका फैसला भी आर्थिक सम्भावनाओं को ध्यान में रख कर ही करना पड़ेगा। जहाँ स्थायी पक्की इमारत बनाना सम्भव न हो वहाँ बाँस-बल्ली का, टीन के पतरे या सीमेंट की चादरों के सहारे, कच्ची मिट्टी की दीवारें खड़ी करके मिट्टी की खपरैल छाकर भी काम चल सकता है।
महिला जागरण के सन्दर्भ में महिला संगठनों की मजबूत शृंखला खड़ी की जानी आवश्यक है। इसके लिए सदस्यों, सहायक सभ्यों की संख्या बढ़ाने से लेकर साधन एकत्रित करने एवं रचनात्मक प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ करने एवं संगठन का अपना भवन बनाने तक के अनेक चरण बड़ी तत्परता के साथ उठाये जाने चाहिए। महिला कार्यकर्त्रियाँ तथा महिला जागरण अभियान की प्रगति की आकांक्षा रखने वाले व्यक्तियों को अपनी बिखरी हुई शक्ति को समेट कर इस दिशा में केन्द्रित करने का प्रयास प्राणप्रण से करना चाहिए। युग की इस महान आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास पुरुषार्थ करने में किसी को भी पीछे नहीं रहना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि सबके संयुक्त प्रयासों से महिला संगठनों का विस्तार बहुत तीव्र गति से हो सकेगा।