गायत्री माँ की आरती
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
सत मारग पर हमें चलाओ, जो है सुख दाता॥
आदि शक्ति तुम अलख-निरंजन जग पालन कर्त्री।
दुःख-शोक-भय-क्लेश-कलह-दारिद्रय-दैन्यहर्त्री॥
ब्रह्मरूपिणीं प्रणत पालिनी, जगत धातृ अम्बे।
भव-भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥
भय-हारिणि, भव-तारिणि, अनघे, अज आनन्द राशी।
अविकारी, अघहरी, अविचलित,अमले, अविनाशी॥
कामधेनु सत-चित- आनन्दा, जय गङ्गा-गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम, सावित्री-सीता॥
स्नङ्घष्ट्वद्घ।, यजु , साम, अथर्व प्रणयिनी,प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्रार सुषुम्ना, शोभा गुण-गरिमे॥
स्वाहा, स्वधा, शची, ब्रह्माणी, राधा, रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला, कल्याणी॥
जननी हम हैं दीन, हीन, दुःख, दारिद र्ढ्ढंङ्घ घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तऊ बालक ङ्खक्वेङ्ग तेरे॥
स्नेह-सनी करुणामयि माता! चरण शरण दीजै।
बिलख रहे हम शिशु सुत तेरे, दया दृष्टि कीजै॥
काम-क्रोध-मद-लोभ-दम्भ-दुर्भाव-द्वेष हरिये।
शुद्घ बुद्घि निष्पाप हृदय, मन को पवित्र करिये॥
तुम समर्थ सब भाँति तारिणी, तुष्टि-पुष्टि त्राता।
सत मारग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥
जयति जय गायत्री माता। जयति जय गायत्री माता॥
ॐ कर्पूरगौरं करुणावतारम् संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदावसन्तम् हृदयारविन्दे भवंभवानी सहितं नामामि॥
मंगलम् भगवान् विष्णुः मंगलम् गरुडध्वजः ...........॥
सर्वमङ्गलमांगल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके ..............॥
श्री गायत्री चालीसा
दोहा
हृीं, श्रीं, क्लीं, मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड।
शान्ति, क्रान्ति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड॥
जगतजननि, मंगलकरनि, गायत्री सुख धाम।
प्रणवों सावित्री, स्वधा, स्वाहा पूरन काम॥
भूर्भुव: स्व: युत जननी। गायत्री नित कलिमल दहनी॥
अक्षर चौबिस परम पुनीता। इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥
शाश्वत सतोगुणी सतरूपा। सत्य सनातन सुधा अनूपा॥
हंसारूढ़ सितम्बर धारी। स्वर्ण कान्ति शुचि गगन बिहारी॥
पुस्तक, पुष्प, कमण्डलु माला। शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥
ध्यान धरत पुलकित हिय होई। सुख उपजत दु:ख दुरमति खोई॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया। निराकार की अद्भुत माया॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई। तरै सकल संकट सों सोई॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥
तुम्हरी महिमा पार न पावैं। जो शारद शत मुख गुण गावैं॥
चार वेद की मातु पुनीता। तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥
महांमत्र जितने जग माहीं। कोऊ गायत्री सम नाहीं॥
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै। आलस पाप अविद्या नासै॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी। कालरात्रि वरदा कल्याणी॥
ब्रह्मा विष्णु रूद्र सुर जेते। तुम सों पावें सुरता तेते॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। जननिहि पुत्र प्राण ते प्यारे॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी। जय जय जय त्रिपदा भयहारी॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। तुम सम अधिक न जग में आना॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेशा॥
जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाइल्। माता तुम सब ठौर समाईं॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक, पोषक, नाशक, त्राता॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी। तुम सन तरे पातकी भारी॥
जापर कृपा तुम्हारी होई। तापर कृपा करे सब कोई।
मंद बुद्धि ते बुद्धि बल पावें। रोगी रोग रहित ह्वै जावैं।।
दारिद्र मिटै, कटै सब पीरा। नाशै दु:ख हरे भव भीरा।।
गृह क्लेश चित चिन्ता भारी। नाशै गायत्री भय हारी।।
सन्तति हीन सुसन्तति पावैं। सुख सम्पति युत मोद मनावैं।।
भूत पिशाच सबै भय खावैं। यम के दूत निकट नहिं आवैं॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई। अछत सुहाग सदा सुखदाई॥
घर वर सुखप्रद लहैं कुमारी। विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥
जयति जयति जगदम्ब भवानी। तुम सम और दयालु न दानी॥
जो सद्गुरु सों दीक्षा पावें। सो साधन को सफल बनावें॥
सुमिरन करें सुरुचि बड़भागी। लहैं मनोरथ गृही विरागी॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। सब समर्थ गायत्री माता॥
ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, योगी। आरत, अर्थी, चिन्तित, भोगी॥
जो जो शरण तुम्हारी आवैं। सो सो मन वांछित फल पावैं॥
बल, बुधि, विद्या, शील, स्वभाऊ। धन, वैभव, यश, तेज, उछाऊ॥
सकल बढ़े उपजें सुख नाना। जो यह पाठ करै धरि ध्याना॥
दोहा-
यह चालीसा भक्ति युत, पाठ करै जो कोय।
तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥
॥ यज्ञ महिमा॥
यज्ञ रूप प्रभो हमारे, भाव उज्ज्वल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिए॥
वेद की बोलें ऋचाएँ, सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्र सारे, शोक सागर से तरें॥
अश्वमेधादिक रचाएँ, यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर, लाभ दें संसार को॥
नित्य श्रद्धा-भक्ति से, यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें॥
कामना मिट जाए मन से, पाप अत्याचार की।
भावनाएँ शुद्ध होवें, यज्ञ से नर-नारि की॥
लाभकारी हो हवन, हर जीवधारी के लिए।
वायु-जल सर्वत्र हों, शुभ गन्ध को धारण किए॥
स्वार्थ भाव मिटे हमारा, प्रेम पथ विस्तार हो।
‘इदं न मम’ का सार्थक, प्रत्येक में व्यवहार हो॥
हाथ जोड़ झुकाये मस्तक, वन्दना हम कर रहे।
नाथ करुणारूप करुणा, आपकी सब पर रहे॥
यज्ञ रूप प्रभो हमारे, भाव उज्ज्वल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिए॥
॥ गुरुवन्दना॥
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु, एक तुम्हीं आधार।
जब तक मिलो न तुम जीवन में।
शान्ति कहाँ मिल सकती मन में॥
खोज फिरा संसार सद्गुरु॥ एक तुम्हीं०॥
कैसा भी हो तैरन हारा।
मिले न जब तक शरण सहारा॥
हो न सका उस पार सद्गुरु॥ एक तुम्हीं०॥
हे प्रभु ! तुम्हीं विविध रूपों में।
हमें बचाते भव कूपों से॥
ऐसे परम उदार सद्गुरु॥ एक तुम्हीं०॥
हम आये हैं द्वार तुम्हारे।
अब उद्धार करो दुःखहारे॥
सनु लो दास पुकार सद्गुरु॥ एक तुम्हीं०॥
छा जाता जग में अँधियारा।
तब पाने प्रकाश की धारा।
आते तेरे द्वार सद्गुरु॥ एक तुम्हीं०॥
॥गायत्री स्तवनम्॥
इस स्तवन (आ०हृ०स्तो०) में गायत्री महामन्त्र के अधिष्ठाता सविता देवता की प्रार्थना है। इसे अग्रि का अभिवन्दन, अभिनन्दन भी कह सकते हैं। सभी लोग हाथ जोड़कर स्तवन की मूल भावना को हृदयङ्गम करें। हर टेक में कहा गया है- ‘वह वरण करने योग्य सविता देवता हमें पवित्र करें।’ दिव्यता-पवित्रता के सञ्चार की पुलकन का अनुभव करते चलें।
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १॥
शुभ ज्योति के पुञ्ज, अनादि, अनुपम। ब्रह्माण्ड व्यापी आलोक कर्त्ता।
दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ १॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ २॥
ऋषि देवताओं से नित्य पूजित। हे भर्ग! भव बन्धन मुक्ति कर्त्ता।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा। पावन बना दो हे देव सविता॥ २॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्।
समस्त-तेजोमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित। पावन गुणों के विस्तार कर्त्ता।
समस्त प्रतिभा के आदि-कारण। पावन बना दो हे देव सविता॥ ३॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित। तुम दोष-पापादि संहार कर्त्ता।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ ४॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ५॥
हे व्याधि-नाशक, हे पुष्टि दाता। ऋग्, साम, यजु वेद सञ्चार कर्त्ता।
हे भूर्भुवः स्वः में स्व प्रकाशित। पावन बना दो हे देव सविता॥ ५॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी। जिसके सदा से हैं गान कर्त्ता।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत्। पावन बना दो हे देव सविता॥ ६॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्काल-कालादिमनादिरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ७॥
हे विश्व मानव से आदि पूजित। नश्वर जगत् में शुभ ज्योति कर्त्ता।
हे काल के काल-अनादि ईश्वर। पावन बना दो हे देव सविता॥ ७॥
यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित। हे भक्त पालक, हे पाप हर्त्ता।
हे काल-कल्पादि के आदि स्वामी। पावन बना दो हे देव सविता॥ ८॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम्।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ९॥
हे विश्व मण्डल के आदि कारण। उत्पत्ति-पालन-संहार कर्त्ता।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब। पावन बना दो हे देव सविता॥ ९॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम्।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १०॥
हे सर्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता। विशुद्ध आत्मा, कल्याण कर्त्ता।
शुभ योग पथ पर हमको चलाओ। पावन बना दो हे देव सविता॥ १०॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसङ्घाः।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदि पूजित। वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्त्ता।
सद्भावना हम सबमें जगा दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ ११॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम्।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक। सद्ज्ञान के आदि संचारकर्त्ता।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभी का। पावन बना दो हे देव सविता॥ १२॥