हमारी वसीयत और विरासत

अनुक्रमणिका

१. इस जीवन यात्रा के गम्भीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता

२. जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

३. समर्थगुरु की प्राप्ति—एक अनुपम सुयोग

४. मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश

५. दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह

६. गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा

७. ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार

८. भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

९. अनगढ़ मन हारा, हम जीते

१०. प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

११. विचार क्रान्ति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण

१२. मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग

१३. महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई

१४. उपासना का सही स्वरूप

१५. जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

१६. आराधना जिसे निरन्तर अपनाए रहा गया

१७. तीसरी हिमालय यात्रा—ऋषि परम्परा का बीजारोपण

१८. शान्तिकुञ्ज में गायत्री तीर्थ की स्थापना

१९. बोओ और काटो का मंत्र जो हमने जीवन भर अपनाया

२०. ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म

२१. हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ

२२. चौथा और अंतिम निर्देशन

२३. तपश्चर्या आत्मशक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य

२४. स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण

२५. इन दिनों हम यह करने में जुट रहे हैं

२६. मनीषी के रूप में हमारी प्रत्यक्ष भूमिका

२७. ‘‘विनाश नहीं सृजन’’—हमारा भविष्य कथन

२८. जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

२९. तीन संकल्पों की महान् पूर्णाहुति

३०. आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन

 

इस जीवन यात्रा के गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता

जिन्हें भले या बुरे क्षेत्रों में विशिष्ट व्यक्ति समझा जाता है, उनकी जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए घटनाक्रमों को भी जानने की इच्छा होती है। कौतूहल के अतिरिक्त इसमें एक भाव ऐसा भी होता है, जिसके सहारे कोई अपने काम आने वाली बात मिली सके। जो हो कथा-साहित्य से जीवनचर्याओं का सघन सम्बन्ध है। वे रोचक भी लगती हैं और अनुभव प्रदान करने की दृष्टि से उपयोगी भी होती हैं।

हमारे सम्बन्ध में प्रायः आए दिन लोग ऐसी पूछताछ करते रहते हैं, पर उसे आमतौर से टालते ही रहा गया है। जो प्रत्यक्ष क्रियाकलाप हैं, वे सबके सामने हैं। लोग तो जादू-चमत्कार जानना चाहते हैं। हमारे सिद्ध पुरुष होने—अनेकानेक व्यक्तियों को सहज ही हमारे सामीप्य अनुदानों से लाभान्वित होने से उन रहस्यों को जानने की उनकी उत्सुकता है। वस्तुतः जीवित रहते तो वे सभी किंवदन्तियाँ ही बनी रहेंगी, क्योंकि हमने प्रतिबन्ध लगा रखा है कि ऐसी बातें रहस्य के पर्दे में ही रहें। यदि उस दृष्टि से कोई हमारी जीवनचर्या पढ़ना चाहता हो, तो उसे पहले हमारी जीवनचर्या के तत्त्वदर्शन को समझना चाहिए। कुछ अलौकिक विलक्षण खोजने वालों को भी हमारे जीवन क्रम को पढ़ने से सम्भवतः नई दिशा मिलेगी।

प्रस्तुत जीवन वृत्तान्त में कौतूहल व अतिवाद न होते हुए भी वैसा सारगर्भित बहुत कुछ है, जिससे अध्यात्म विज्ञान के वास्तविक स्वरूप और उसके सुनिश्चित प्रतिफल को समझने में सहायता मिलती है। उसका सही रूप विदित न होने के कारण लोग-बाग इतनी भ्रान्तियों में फँसते हैं कि भटकाव जन्य निराशा से वे श्रद्धा ही खो बैठते हैं और इसे पाखण्ड मानने लगते हैं। इन दिनों ऐसे प्रच्छन्न नास्तिकों की संख्या अत्यधिक है। जिनने कभी उत्साहपूर्वक पूजा-पत्री की थी, अब ज्यों-त्यों करके चिह्न पूजा करते हैं, तो भी लकीर पीटने की तरह अभ्यास के वशीभूत हो करते हैं। आनन्द और उत्साह सब कुछ गुम हो गया। ऐसा असफलता के हाथ लगने के कारण हुआ। उपासना की परिणतियाँ-फलश्रुतियाँ पढ़ी-सुनी गईं थीं, उसमें से कोई कसौटी पर खरी नहीं उतरी, तो विश्वास टिकता भी कैसे?

हमारी जीवन गाथा सब जिज्ञासुओं के लिए एक प्रकाश स्तम्भ का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है। छद्म जैसा कुछ उसमें है नहीं, असफलता का लाँछन भी उन पर नहीं लगता। ऐसी दशा में जो गम्भीरता से समझने का प्रयत्न करेगा कि सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग हो सकता था, शार्टकट के फेर में भ्रम-जंजाल न अपनाए गए होते, तो निराशा, खीज़ और थकान हाथ न लगती। तब या तो मँहगा समझकर हाथ ही न डाला जाता, यदि पाना ही था, तो उसका मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता। ऐसा अवसर उन्हें मिला नहीं, इसी को दुर्भाग्य कह सकते हैं। यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता, उसके साथ-साथ आदि से अन्त तक गुँथे हुए अध्यात्म तत्त्व-दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही प्रच्छन्न भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है।

एक और वर्ग है—विवेक दृष्टि वाले यथार्थवादियों का। वे ऋषि परम्परा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे आत्मबल के धनी थे। उन विभूतियों से उनने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था। भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि वास्तविक स्वरूप और विधान क्या है? कहने को तो हर कुंजड़ी अपने बेरों को मीठा बताती है, पर कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन कितने पानी में है?

सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना चाहिए। इस आधार पर जिन्हें ऋषि परम्परा के अध्यात्म का स्वरूप समझना हो, उन्हें निजी अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अन्त तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत साठ वर्षों में प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी खुली पुस्तक की तरह सामने हैं। इन पर गम्भीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से जो प्रभावित हैं, उसका पुनर्जीवन देखना चाहते हैं, प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण, सन्तोषप्रद और समाधान कारक लगता है।

प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किए जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवन क्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू चमत्कारों की भी उसमें गुंजायश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है, पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म सनातन के परम्परागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता-असफलता का कारण क्या है? क्रियाकाण्ड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की—पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना यही एक कारण है जिसके चलते उपासना क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने-बदनाम होने का लाँछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे उस पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्म-तेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।

जीवनचर्या के घटना परक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अन्तर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे से बीज की खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधना क्रम में प्राण फूँकता है, अन्यथा मात्र क्रियाकृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।

तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता। वाल्मीकि ने जीवन बदला तो उल्टा नाम जपते ही मूर्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।

आज कुछ ऐसी विडम्बना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और कुछ क्रिया-कृत्य करने, स्तवन, उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरम्भ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्व साधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही हमारी जीवनचर्या को पढ़ा जाए।

जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लम्बी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था—‘‘साधना से सिद्धि’’ का अन्वेषण-पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा सम्भव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातन काल से चली आ रही ‘‘साधना से सिद्धि’’ की प्रक्रिया का सिद्धान्त सही है या गलत? इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए। यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पन्द्रह वर्ष की आयु तक निरन्तर विचार क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘‘गायत्री दीक्षा’’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघु कौमुदी-सिद्धान्त के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत् की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत् का आद्योपान्त वृत्तान्त याद हो गया।

इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासन प्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पन्द्रह वर्ष समाप्त हुए।

संध्या वन्दन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मन्त्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।

भगवान् की अनुकम्पा ही कह सकते हैं कि जो अनायास ही हमारे ऊपर पन्द्रह वर्ष की उम्र में बरसी और वैसा ही सुयोग बनता चला गया, जो हमारे लिए विधि द्वारा पूर्व से ही नियोजित था। हमारे बचपन में सोचे गए संकल्प को प्रयास के रूप में परिणत होने का सुयोग मिल गया।

पन्द्रह वर्ष की आयु थी, प्रातः की उपासना चल रही थी। वसन्त पर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्म मुहूर्त में कोठरी में ही सामने प्रकाश-पुंज के दर्शन हुए। आँखें मलकर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा, कोई भूत-प्रेत या देव-दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था।

प्रकाश के मध्य में से एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा। सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी, पर वह प्रकाश-पुंज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य।

उस छवि ने बोलना आरम्भ किया व कहा—‘‘हम तुम्हारे साथ तीन जन्मों से जुड़े हैं। मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। अब तुम्हारा बचपन छूटते ही आवश्यक मार्गदर्शन करने आए हैं। सम्भवतः तुम्हें पूर्व जन्मों की स्मृति नहीं है, इसी से भय और आश्चर्य हो रहा है। पिछले जन्मों का विवरण देखो और अपना सन्देह निवारण करो।’’ उनकी अनुकम्पा हुई और योगनिद्रा जैसी झपकी आने लगी। बैठा रहा, पर स्थिति ऐसी हो गई मानों मैं निद्राग्रस्त हूँ। तन्द्रा सी आने लगी। योग निद्रा कैसी होती है, इसका अनुभव मैंने जीवन में पहली बार किया। ऐसी स्थिति को ही जाग्रत समाधि भी कहते हैं। इस स्थिति में डुबकी लगाते ही एक-एक करके मुझे अपने पिछले तीन जन्मों का दृश्य क्रमशः ऐसा दृष्टिगोचर होने लगा मानो वह कोई स्वप्न न होकर प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही हो। तीन जन्मों की तीन फिल्में आँखों के सामने से गुजर गईं।

पहला जीवन—सन्त कबीर का, सपत्नीक काशी निवास। धर्मों के नाम पर चल रही विडम्बना का आजीवन उच्छेदन। सरल अध्यात्म का प्रतिपादन।

दूसरा जन्म—समर्थ रामदास के रूप में दक्षिण भारत में विच्छृंखलित राष्ट्र को शिवाजी के माध्यम से संगठित करना। स्वतन्त्रता हेतु वातावरण बनाना एवं स्थान-स्थान पर व्यायामशालाओं एवं सत्संग भवनों का निर्माण।

तीसरा जन्म—रामकृष्ण परमहंस, सपत्नीक कलकत्ता निवास। इस बार पुनः गृहस्थ में रहकर विवेकानन्द जैसे अनेकों महापुरुष गढ़ना व उनके माध्यम से संस्कृति के नव-जागरण का कार्य सम्पन्न कराना।

आज याद आता है कि जिस सिद्ध पुरुष—अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधार कर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन ही मन तत्काल अनेक प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे। सद्गुरुओं की तलाश में आमतौर से जिज्ञासु गण मारे-मारे फिरते हैं। जिस-तिस से पूछते हैं। कोई कामना होती है, तो उसकी पूर्ति के वरदान माँगते हैं, पर अपने साथ जो घटित हो रहा था, वह उसके सर्वथा विपरीत था। महामना मालवीय जी से गायत्री मन्त्र की दीक्षा पिताजी ने आठ वर्ष की आयु में ही दिलवा दी थी। उसी को प्राण दीक्षा बताया गया था। गुरु वरण होने की बात भी वहीं समाप्त हो गई थी और किसी गुरु के प्राप्त होने की कभी कल्पना भी नहीं उठी। फिर अनायास ही वह लाभ कैसे मिला, जिसके सम्बन्ध में अनेक किंवदंतियाँ सुनकर हमें भी आश्चर्यचकित होना पड़ा है।

शिष्य गुरुओं की खोज में रहते हैं। मनुहार करते हैं। कभी उनकी अनुकम्पा भेंट-दर्शन हो जाए, तो अपने को धन्य मानते हैं। उनसे कुछ प्राप्त करने की आकाँक्षा रखते हैं। फिर क्या कारण है कि मुझे अनायास ही ऐसे सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ? यह कोई छद्म तो नहीं है? अदृश्य में प्रकटीकरण की बात भूत-प्रेत से सम्बन्धित सुनी जाती है और उनसे भेंट होना किसी अशुभ अनिष्ट का निमित्त कारण माना जाता है। दर्शन होने के उपरान्त मन में यही संकल्प उठने लगे। सन्देह उठा, किसी विपत्ति में फँसने जैसा कोई अशुभ तो पीछे नहीं पड़ा।

मेरे इस असमंजस को उन्होंने जाना। रुष्ट नहीं हुए। वरन वस्तु स्थिति को जानने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचने और बाद में कदम उठाने की बात उन्हें पसन्द आई। यह बात उनकी प्रसन्न मुख-मुद्रा को देखने से स्पष्ट झलकती थी। कारण पूछने में समय नष्ट करने के स्थान पर उन्हें यह अच्छा लगा कि अपना परिचय, आने का कारण और मुझे पूर्व जन्म की स्मृति दिलाकर विशेष प्रयोजन निमित्त चुनने का हेतु स्वतः ही समझा दें। कोई घर आता है, तो उसका परिचय और आगमन का निमित्त कारण पूछने का लोक व्यवहार भी है। फिर कोई वजनदार आगंतुक जिसके घर आते हैं, उसका भी वजन तोलते हैं। अकारण हल्के और ओछे आदमी के यहाँ जा पहुँचना उनका महत्त्व भी घटाता है और किसी तर्क बुद्धि वाले के मन में ऐसा कुछ घटित होने के पीछे कोई कारण न होने की बात पर सन्देह होता है और आश्चर्य भी।

पूजा की कोठरी में प्रकाश-पुंज उस मानव ने कहा—‘‘तुम्हारा सोचना सही है। देवात्माएँ जिनके साथ सम्बन्ध जोड़ती हैं, उन्हें परखती हैं। अपनी शक्ति और समय खर्च करने से पूर्व कुछ जाँच-पड़ताल भी करती हैं। जो भी चाहे उसके आगे प्रकट होने लगें और उसका इच्छित प्रयोजन पूरा करने लगें, ऐसा नहीं होता। पात्र-कुपात्र का अन्तर किए बिना चाहे जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ना किसी बुद्धिमान और सामर्थ्यवान के लिए कभी कहीं सम्भव नहीं होता। कई लोग ऐसा सोचते तो हैं कि किसी सम्पन्न महामानव के साथ सम्बन्ध जोड़ने में लाभ है, पर यह भूल जाते हैं कि दूसरा पक्ष अपनी सामर्थ्य किसी निरर्थक व्यक्ति के निमित्त क्यों गँवाएँगे?’’

‘‘हम सूक्ष्म दृष्टि से ऐसे सत्पात्र की तलाश करते रहे, जिसे सामयिक लोक-कल्याण का निमित्त कारण बनाने के लिए प्रत्यक्ष कारण बताएँ। हमारा यह सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर से स्थूल कार्य नहीं बन पड़ते। इसके लिए किसी स्थूल शरीर धारी को ही माध्यम और शस्त्र की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। यह विषम समय है। इसमें मनुष्य का अहित होने की अधिक सम्भावनाएँ हैं। उन्हीं का समाधान करने के निमित्त तुम्हें माध्यम बनाना है। जो कमी है, उसे दूर करना है। अपना मार्गदर्शन और सहयोग देना है। इसी निमित्त तुम्हारे पास आना हुआ है। अब तक तुम अपने सामान्य जीवन से ही परिचित थे। अपने को साधारण व्यक्ति ही देखते थे। असमंजस का एक कारण यह भी है। तुम्हारी पात्रता का वर्णन करें, तो भी कदाचित तुम्हारा सन्देह निवारण न हो। कोई किसी बात पर अनायास ही विश्वास करे, ऐसा समय भी कहाँ है? इसीलिए तुम्हें पिछले तीन जन्मों की जानकारी दी गई।’’

तीनों ही जन्मों का विस्तृत विवरण जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक का दर्शाने के बाद उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे इन सभी में हमारे साथ रहे और सहायक बने।

वे बोले—‘‘यह तुम्हारा चौथा जन्म है। तुम्हारे इस जन्म में भी सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह कराएँगे, जो समय की दृष्टि से आवश्यक है। सूक्ष्म शरीरधारी प्रत्यक्ष जन-सम्पर्क नहीं कर सकते और घटनाक्रम स्थूल शरीरधारियों द्वारा ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए योगियों को उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है।’’

तुम्हारा विवाह हो गया सो ठीक हुआ। यह समय ऐसा है, जिसमें एकाकी रहने से लाभ कम और जोखिम अधिक है। प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, गणेश, इन्द्र आदि सभी सपत्नीक थे। सातों ऋषियों की पत्नियाँ थीं, कारण कि गुरुकुल आरण्यक स्तर के आश्रम चलाने में माता की भी आवश्यकता पड़ती है और पिता की भी। भोजन, निवास, वस्त्र, दुलार आदि के लिए भी माता चाहिए और अनुशासन, अध्यापन, अनुदान पिता की ओर से ही मिलता है। गुरु ही पिता है और गुरु की पत्नी ही माता है, उसी ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए यह उचित भी है, आवश्यक भी। आजकल भजन के नाम पर जिस प्रकार आलसी लोग सन्त का बाना पहनते और भ्रम जंजाल फैलाते हैं, तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आ सकता है, पर पुनः तुम्हें पूर्व जन्म में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहेगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह न सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः इससे आज, परिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युगपरिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’’

वह पावन दिन वसन्त पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त था। नित्य की तरह संध्या वन्दन का नियम निर्वाह चल रहा था। प्रकाश पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य दर्शन—उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। मैंने अपना पिछला जन्म आदि से अन्त तक देखा। इसके बाद दूसरा भी। तदुपरान्त तीसरा भी। तीनों ही जन्म दिव्य थे। साधना में निरत रहे थे एवं तीनों ही में समाज के नवनिर्माण की महती भूमिका निभानी पड़ी थी। उन सामने उपस्थित देवात्मा के मार्गदर्शन तीनों ही जन्मों में मिलते रहे। इसलिए उस समय तक जो अपरिचित जैसा कुछ लगता था, वह दूर हो गया। एक नया भाव जगा उस प्रकाश पुंज से घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकम्पा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया था। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया लगने लगा और जो प्रकाश पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानों यही हमारी आत्मा है। इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं। कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो उसे प्राण-प्रण से पालन करना। इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश पुंज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक वरन भगवान् के समतुल्य माना। उस सम्बन्ध निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष से अधिक होने को आते हैं। बिना कोई तर्क बुद्धि लड़ाए, बिना कुछ नननुच किए, उनके इशारे पर एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। सम्भव है या नहीं अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं, इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।

उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा मात्र लोक-हित के लिए—सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा सम्बन्धी होता है, न उदासीन-विरोधी। किसी को ख्याति, सम्पदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म—विश्व मानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं, अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का, समर्थ रामदास-शिवाजी का, चाणक्य-चन्द्रगुप्त का, गाँधी-बिनोवा का, बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्मरण हो आया। जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो, सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रिया-कलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है। गन्ध बाबा—चाहे जिसे सुगन्धित फूल सुँघा देते थे। बाघ बाबा—अपनी कुटी में बाघ को बुलाकर बिठा लेते थे। समाधि बाबा—कई दिन तक जमीन में गड़े रहते थे। सिद्ध बाबा—आगन्तुकों की मनोकामना पूरी करते थे। ऐसी-ऐसी जनश्रुतियाँ भी दिमाग में घूम गईं और समझ में आया कि यदि इन घटनाओं के पीछे मेस्मेरिज्म स्तर की जादूगरी थी, तो ‘‘महान्’’ कैसे हो सकते हैं? ठण्डे प्रदेश में गुफा में रहना जैसी घटनाएँ भी कौतूहल वर्धक ही हैं। जो काम साधारण आदमी न कर सके, उसे कोई एक करामात की तरह कर दिखाए तो इसमें कहने भर की सिद्धाई है। मौन रहना, हाथ पर रखकर भोजन करना, एक हाथ ऊपर रखना, झूले पर पड़े-पड़े समय गुजारना जैसे असाधारण करतब दिखाने वाले बाजीगर सिद्ध हो सकते हैं, पर यदि कोई वास्तविक सिद्ध या शिष्य होगा, तो उसे पुरातन काल के, लोक मंगल के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले ऋषियों के राजमार्ग पर चलना पड़ा होगा। आधुनिक काल में भी विवेकानन्द, दयानन्द, कबीर, चैतन्य, समर्थ की तरह उसी मार्ग पर चलना पड़ा होगा। भगवान् अपना नाम जपने मात्र से प्रसन्न नहीं होते, न उन्हें पूजा-प्रसाद आदि की आवश्यकता है। जो उनके इस विश्व उद्यान को सुरम्य, सुविकसित करने में लगते हैं, उन्हीं का नाम-जप सार्थक है। यह विचार मेरे मन में उसी वसन्त पर्व के दिन, दिन-भर उठते रहे, क्योंकि उनने स्पष्ट कहा था कि ‘‘पात्रता में जो कमी है, उसे पूरा करने के साथ-साथ लोकमंगल का कार्य भी साथ-साथ करना है। एक के बाद दूसरा नहीं, दोनों साथ-साथ।’’ चौबीस वर्ष का उपासना क्रम समझाया। गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला बताई। इसके साथ पालन करने योग्य नियम बताए, साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम में एक सच्चे स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।

उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।

उस दिन हमने सच्चे मन से उन्हें समर्पण किया। वाणी ने नहीं, आत्मा ने कहा—‘‘जो कुछ पास में है, आपके निमित्त ही अर्पण। भगवान् को हमने देखा नहीं, पर वह जो कल्याण कर सकता था, आप वही कर रहे हैं। इसलिए आप हमारे भगवान् हैं। जो आज सारे जीवन का ढाँचा आपने बताया है, उसमें राई-रत्ती प्रमाद न होगा।’’

उस दिन उनने भावी जीवन सम्बन्धी थोड़ी सी बातें विस्तार से समझाईं।

१—गायत्री महाशक्ति के चौबीस वर्ष में चौबीस महापुरश्चरण,
२—अखण्ड घृत दीप की स्थापना,
३—चौबीस वर्ष में एवं उसके बाद समय-समय पर क्रमबद्ध मार्गदर्शन के लिए चार बार हिमालय अपने स्थान पर बुलाना, प्रायः छः माह से एक वर्ष तक अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ठहराना।

इस संदर्भ में और भी विस्तृत विवरण जो उनको बताना था, सो बता दिया। विज्ञ पाठकों को इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, जितना ऊपर उल्लेख है। उनके बताए निर्देशानुसार सारे काम जीवन भर निभते चले गए एवं वे उपलब्धियाँ हस्तगत होती रहीं, जिन्होंने आज हमें वर्तमान स्थिति में ला बिठाया है।

समर्थ गुरु की प्राप्ति—एक अनुपम सुयोग

रामकृष्ण, विवेकानन्द को ढूँढ़ते हुए उनके घर गए थे। शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने खोजा था। चाणक्य चन्द्रगुप्त को पकड़ कर लाए थे। गोखले गाँधी पर सवार हुए थे। हमारे सम्बन्ध में भी यही बात है। मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीर से पन्द्रह वर्ष की आयु में घर आए थे और आस्था जगाकर उन्होंने दिशा विशेष पर लगाया था।

सोचता हूँ कि जब असंख्यों सद्गुरु की तलाश में फिरते और धूर्तों से सिर मुड़ाने के उपरान्त खाली हाथ वापस लौटते हैं, तब अपनी ही विशेषता थी, जिसके कारण एक दिव्य शक्ति को बिना बुलाए स्वेच्छापूर्वक घर आना और अनुग्रह बरसाना पड़ा। इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि जन्म-जन्मान्तरों से पात्रता के अर्जन का प्रयास। यह प्रायः जल्दी नहीं हो पाता। व्रतशील होकर लम्बे समय तक कुसंस्कारों के विरुद्ध लड़ना होता है।

संकल्प, धैर्य और श्रद्धा का त्रिविध सुयोग अपनाए रहने पर ही मनोभूमि ऐसी बनती है कि अध्यात्म के दिव्य अवतरण को धारण कर सके। यह पात्रता ही शिष्यत्व है, जिसकी पूर्ति कहीं से भी हो जाती है। समय पात्रता विकसित करने में लगता है, गुरु मिलने में नहीं। एकलव्य के मिट्टी के द्रोणाचार्य असली की तुलना में कहीं अधिक कारगर सिद्ध होने लगे थे। कबीर को अछूत होने के कारण जब रामानन्द ने दीक्षा देने से इंकार कर दिया, तो उनने एक युक्ति निकाली। काशी घाट की जिन सीढ़ियों पर रामानन्द नित्य स्नान के लिए जाया करते थे, उन पर भोर होने से पूर्व ही कबीर जा लेटे। रामानन्द अँधेरे में निकले, तो उनका पैर लड़के के सीने पर पड़ा। चौंके, राम-नाम कहते हुए पीछे हट गए। कबीर ने इसी को दीक्षा संस्कार मान लिया और राम-नाम को मन्त्र तथा रामानन्द को गुरु कहने लगे। यह श्रद्धा का विषय है। जब पत्थर की प्रतिमा देवता बन सकती है, तो श्रद्धा के बल पर किसी उपयुक्त व्यक्तित्व को गुरु क्यों नहीं बनाया जा सकता? आवश्यक नहीं कि इसके लिए विधिवत् संस्कार कराया ही जाए, कान फुकवाए ही जाएँ।

अध्यात्म प्रयोजनों के लिए गुरु स्तर के सहायक की इसलिए आवश्यकता पड़ती है कि उसे पिता और अध्यापक का दुहरा उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। पिता बच्चे को अपनी कमाई का एक अंश देकर पढ़ने की सारी साधन-सामग्री जुटाता है। अध्यापक उनके ज्ञान अनुभव को बढ़ाता है। दोनों के सहयोग से ही बच्चे का निर्वाह और शिक्षण चलता है। भौतिक निर्वाह की आवश्यकता तो पिता भी पूरा कर देता है, पर आत्मिक क्षेत्र में प्रगति के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, उसमें मनःस्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने तथा सौंपे हुए कार्य को कर सकने के लिए आवश्यक सामर्थ्य गुरु अपने संचित तप भण्डार में से निकालकर हस्तान्तरित करता है। इसके बिना अनाथ बालक की तरह शिष्य एकाकी पुरुषार्थ के बलबूते उतना नहीं कर सकता, जितना कि करना चाहिए। इसी कारण—‘‘गुरु बिन होइ न ज्ञान’’ की उक्ति अध्यात्म क्षेत्र में विशेष रूप से प्रयुक्त होती है।

दूसरे लोग गुरु तलाश करते फिरते भी हैं, पर सुयोग्य तक जा पहुँचने पर भी निराश होते हैं। स्वाभाविक है, इतना घोर परिश्रम और कष्ट सह कर की गई कमाई ऐसे ही कुपात्र को विलास संग्रह, अहंकार और अपव्यय के लिए हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। देने वाले में इतनी बुद्धि भी होती है कि लेने वाले की प्रामाणिकता किस स्तर की है, जो दिया जा रहा है, उसका उपयोग किस कार्य में होगा, यह भी जाँचे। जो लोग इस कसौटी पर खोटे उतरते हैं, उनकी दाल नहीं गलती। इन्हें वे ही लोग मूँड़ते हैं, जिनके पास देने को कुछ नहीं है। मात्र शिकार फँसाकर शिष्य से जिस-तिस बहाने दान-दक्षिणा माँगते रहते हैं। प्रसन्नता की बात है कि इस विडम्बना भरे प्रचलित कुचक्र में हमें नहीं फँसना पड़ा। हिमालय की एक सत्ता अनायास ही घर बैठे मार्गदर्शन के लिए आ गई और हमारा जीवन धन्य हो गया।

हमें इतने समर्थ गुरु अनायास ही कैसे मिले? इस प्रश्न का एक ही समाधान निकलता है कि उसके लिए लम्बे समय से जन्म-जन्मान्तरों में पात्रता अर्जन की धैर्य पूर्वक तैयारी की गई। उतावली नहीं बरती गई। बातों में फँसाकर किसी गुरु की जेब काट लेने जैसी उस्तादी नहीं बरती गई, वरन यह प्रतीक्षा की गई कि अपने नाले को किसी पवित्र सरिता में मिलाकर अपनी हस्ती का उसी में समापन किया जाए। किसी भौतिक प्रयोजन के लिए इस सुयोग की ताक-झाँक नहीं की गई, वरन यही सोचा जाता रहा कि जीवन की श्रद्धांजलि किसी देवता के चरणों में समर्पित करके धन्य बना जाए।

दयानन्द ने गुरु विरजानन्द की इच्छानुसार अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। विवेकानन्द अपनी सभी इच्छाएँ समाप्त करके गुरु को सन्तोष देने वाले कष्टसाध्य कार्य में प्रवृत्त हुए थे। इसी में सच्ची गुरु भक्ति और गुरु दक्षिणा है। हनुमान ने राम को अपना समर्पण करके प्रत्यक्षतः तो सब कुछ खोया ही था, पर परोक्षतः वे सन्त तुल्य ही बन गए थे और वह कार्य करने लगे थे, जो राम के ही बलबूते के थे। समुद्र छलाँगना, पर्वत उखाड़ना, लंका जलाना बेचारे हनुमान नहीं कर सकते थे। वे तो अपने स्वामी सुग्रीव को बालि के अत्याचार तक से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो सके थे। समर्पण ही था जिसने एकात्मता उत्पन्न कर दी। गन्दे नाले में थोड़ा गंगा जल गिर पड़े, तो वह भी गन्दगी बन जाएगा, किन्तु यदि बहती हुई गंगा में थोड़ी गन्दगी जा मिले, तो फिर उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो बचेगा मात्र गंगाजल ही होगा। जो स्वयं समर्थ नहीं हैं, वे भी समर्थों के प्रति समर्पित होकर उन्हीं के समतुल्य बन गए हैं। ईंधन जब आग से लिपट जाता है, तो फिर उसकी हेय स्थिति नहीं रहती, वरन अग्नि के समान प्रखरता आ जाती है, वह तद्रूप हो जाता है।

श्रद्धा का केन्द्र भगवान् है और प्राप्त भी उसी को करना पड़ता है, पर उस अदृश्य के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए किसी दृश्य प्रतीक का सहारा लेना आवश्यक होता है। इस कार्य को देव प्रतिमाओं के सहारे भी सम्पन्न किया जा सकता है और देहधारी गुरु यदि इस स्तर का है, तो उस आवश्यकता की पूर्ति करा सकता है।

हमारे यह मनोरथ अनायास ही पूरे हो गए। अनायास इसलिए कि उसके लिए पिछले जन्मों से पात्रता उत्पन्न करने की पृथक साधना आरम्भ कर दी गई थी। कुण्डलिनी जागरण, ईश्वर दर्शन, स्वर्ग-मुक्ति तो बहुत पीछे की वस्तु है। सबसे प्रथम दैवी अनुदानों को पा सकने की क्षमता अर्जित करनी पड़ती है। अन्यथा जो वजन न उठ सके, जो भोजन न पच सके वह उल्टे और भी बड़ी विपत्ति खड़ी करता है।

प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ और उसके सच्चे-झूठे होने की परीक्षा भी तत्काल ही चल पड़ी। दो बातें विशेष रूप से कही गयीं—‘‘संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना। दूसरा यह है कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने के लिए तपश्चर्या में जुट जाना। चौबीस वर्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण के साथ जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह करने का अनुशासन रखना। सामर्थ्य विकसित होते ही वह सब कुछ मिलेगा जो अध्यात्म मार्ग के साधकों को मिलता है, किंतु मिलेगा विशुद्ध परमार्थ के लिए। तुच्छ स्वार्थों की सिद्धि में उन दैवी अनुदानों को प्रयुक्त न किया जा सकेगा।’’ वसंत पर्व का यह दिन, गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। याचकों की कमी नहीं, पर सत्पात्रों पर सब कुछ लुटा देने वाले सहृदयों की भी कमी नहीं। कृष्ण ने सुदामा पर सब कुछ जो लुटा दिया था। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।

पिछले तीन जन्मों की एक झाँकी—तीन जन्मों का सम्बन्ध, इस जन्म का समर्पण

पिछले जिन तीन जन्मों का दृश्य गुरुदेव ने हमें दिखाया उनमें से प्रथम थे सन्त कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, तीसरे रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है— कबीर ई. (सन् १३९८ से १५१८), समर्थ रामदास (सन् १६०८ से १६८२), श्री रामकृष्ण परमहंस (सन् १८३६ से १८८६)। यह तीनों ही भारत की सन्त-सुधारक परम्परा के उज्ज्वल नक्षत्र रहे हैं। उनके शरीरों द्वारा ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए जिससे देश, धर्म, समाज और संस्कृति का महान कल्याण हुआ।

भगवान के भक्त तीनों ही थे। इसके बिना आत्म बल की समर्थता और कषाय-कल्मषों का निराकरण कठिन है। किन्तु साथ ही भगवान के विश्व उद्यान को सींचने और समुन्नत-सुविकसित करने की प्रक्रिया भी साथ-साथ ही चलनी चाहिए तो इन तीनों के जीवनों में यह परम्पराएँ भली प्रकार समाहित रहीं।

कबीर को एक मुसलमान जुलाहे ने तालाब किनारे पड़ा हुआ पाया था। उन्हें कोई ब्राह्मण कन्या अवैध सन्तान होने के कारण इस प्रकार छोड़ गई थी। जुलाहे ने उन्हें पाल लिया। वे सन्त तो आजीवन रहे पर गुजारे के लिए रोटी अपने पैतृक व्यवसाय से कमाते रहे।

अपने बारे में उनने लिखा है—

काशी का मैं बासी ब्राह्मण, नाम मेरा परबीना।
एक बार हर नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीन्हा॥
भई मेरा कौन बुनेगा ताना॥

कबीर ने तत्कालीन हिन्दू समाज की कुरीतियाँ और मत-मतान्तरों की विग्रह-विडम्बनाओं को दूर करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किए। उन पर इस्लाम विरोधी होने का इल्जाम लगाया गया और हाथ-पैरों में लोहे की जंजीर बाँधकर नदी में डलवा दिया गया, पर ईश्वर कृपा से जंजीर टूट गई और वे जीवित बच गये। कुल-वंश को लेकर उन्हें समाज का विग्रह विरोध सहना पड़ा, पर वे एकाकी अपने प्रतिपादन पर अड़े रहे। उन दिनों काशी में मृत्यु से स्वर्ग मिलने और मगहर में मरने पर नरक जाने की मान्यता प्रचलित थी। वे इसका खण्डन करने के लिए अन्तिम दिनों मगहर ही चले गये और वहीं शरीर छोड़ा। कबीर विवाहित थे। उनकी पत्नी का नाम लोई था, वह आजीवन उनके हर कार्य में उनके साथ रहीं। जीवन का एक भी दिन उनने ऐसा न जाने दिया, जिसमें भ्रान्तियों के निवारण और सत्परम्पराओं के प्रतिपादन में प्राण-पण से प्रयत्न न किया हो। विरोधियों में से कोई उन्हें तनिक भी न झुका सका।

मरते समय उनकी लाश को हिन्दू जलाना चाहते थे, मुसलमान दफनाना। इसी बात को लेकर विग्रह खड़ा हो गया। चमत्कार यह हुआ कि कफ़न के नीचे से लाश गायब हो गई। उसके स्थान पर फूल पड़े मिले। इनमें से आधों को मुसलमानों ने दफनाया और आधों को हिन्दुओं ने जलाया। दोनों ही सम्प्रदाय वालों ने उनकी स्मृति में भव्य भवन बनाये। कबीर पन्थ को मानने वाले लाखों व्यक्ति हिन्दुस्तान में हैं।

दूसरे समर्थ रामदास महाराष्ट्र के उच्चस्तरीय सन्त थे। उन्होंने शिवाजी को स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया। भवानी से अक्षय पराक्रम वाली तलवार दिलवाई। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर ७०० महावीर मन्दिर बनवाये। जिनमें हनुमान जी की प्रतिमा तो थी ही साथ ही व्यायामशाला और सत्संग प्रक्रिया भी नियमित रूप से चलती थी। इन देवालयों के माध्यम से शिवाजी को सैनिक, शस्त्र और धन मिलता था। ताकि स्वतन्त्रता संग्राम सफलता पूर्वक चलता रहे। शिवाजी ने राज्य की स्थापना की। उसकी गद्दी पर गुरु के खड़ाऊँ स्थापित किए और स्वयं प्रबन्धक मात्र रहे। शिवाजी द्वारा छेड़ा गया आन्दोलन बढ़ता ही गया और अन्त में गाँधी जी के नेतृत्व में भारत स्वतन्त्र होकर रहा।

तीसरे रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास एक देहात में जन्मे थे। वे कलकत्ता दक्षिणेश्वर मन्दिर में पूजा करते थे। हजारों जिज्ञासु नित्य उनके पास आकर ज्ञान पिपासा तृप्त करते थे और उनके आशीर्वाद अनुदानों से लाभ उठाते थे। उनकी धर्मपत्नी शारदामणि थी।

उन्होंने नरेन्द्र के रूप में सुपात्र पाया और संन्यास देकर विवेकानन्द नाम दिया और देश-देशान्तरों में भारतीय संस्कृति की गरिमा समझाने भेजा। देश में शिक्षित वर्ग ईसाई एवं नास्तिक बनता चला जा रहा था। विवेकानन्द के प्रवचनों से लाखों के मस्तिष्क सुधरे। उनने संसार भर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापनाएँ कीं, जो पीड़ा निवारण की सेवा करता है। विवेकानन्द स्मारक कन्या कुमारी पर, जहाँ उन्हें नव जागृति का सन्देश गुरु से मिला था, बना है एवं देखने ही योग्य है।

यह एक आत्मा के विभिन्न शरीरों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य आत्माओं में प्रेरणाएँ भरकर उस दैवी सत्ता ने समय-समय पर उनसे बड़े-बड़े काम कराए। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के एवं बाबा जलाराम गुजरात के उन्हीं के संरक्षण में ऊँची स्थिति तक पहुँचे और देश को ऊँचा उठाने में, भगवद् भक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप में जन-जन तक पहुँचाने में उस अन्धकार युग में अभिनव सूर्योदय का काम किया।

यह तीन प्रधान जन्म थे जिनकी हमें जानकारी दी गयी। इनके बीच-बीच मध्यकालों में हमें और भी महत्त्वपूर्ण जन्म लेने पड़े हैं, पर वे इतने प्रख्यात नहीं हैं, जितने उपरोक्त तीन। हमें समग्र जीवन की रूपरेखा इन्हीं में दिखायी गयी और बताया गया कि गुरुदेव इन जन्मों में हमें किस प्रकार अपनी सहायता पहुँचाते-ऊँचा उठाते और सफल बनाते रहे हैं।

अधिक जानने की अपनी इच्छा भी नहीं हुई जब समझ लिया गया कि इतनी महान आत्मा स्वयं पहुँच-पहुँचकर सत्पात्र आत्माओं को ढूँढ़ती और उनके द्वारा बड़े काम कराती रही हैं, तो हमारे लिए इस जन्म में भी यही उचित है कि एक का पल्ला पकड़ें, एक नाव में बैठें और अपनी निष्ठा डगमगाने न दें। इन तीन महान जन्मों के माध्यम से जो समय बचा, उसे हमें कहाँ-कहाँ किस रूप में, कैसे खर्च करना पड़ा, यह पूछने का अर्थ उन पर अविश्वास व्यक्त करना था। अनेक गवाहियाँ माँगना था। हमारे सन्तोष के लिए यह तीन जन्म ही पर्याप्त थे।

महान् कार्यों का बोझ-उत्तरदायित्व सम्भालने वाले को समय-समय पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनेक प्रकार के असाधारण पराक्रम दिखाने पड़ते हैं। यह हमारे साथ भी घटित होता रहा है। दौड़-दौड़कर गुरुदेव सहायता के लिए पहुँचते रहे हैं। हमारी नन्हीं सी सामर्थ्य में अपनी महती सामर्थ्य मिलाते रहे हैं, संकटों से बचाते रहे हैं, लड़खड़ाते पैरों को सम्भालते रहे हैं। इन तीन जन्मों की घटनाओं से ही पूरी तरह विश्वास हो गया। इसलिए उसी दिन निश्चय कर लिया कि अपना जीवन अब इन्हीं के चरणों पर समर्पित रहेगा। इन्हीं के संकेतों पर चलेगा।

इस जन्म में उन्होंने हमें धर्मपत्नी समेत पाया और कहा—‘‘इस विषम समय में आध्यात्मिक जीवन धर्मपत्नी समेत अधिक अच्छी तरह बिताया जा सकता है। विशेषतया जब तुम्हें आगे चलकर आश्रम बनाकर शिक्षा व्यवस्था बनानी हो। ऋषि व्यवस्था में माता द्वारा भोजन, निवास, स्नेह-दुलार आदि का प्रबन्ध और पिता द्वारा अनुशासन, अध्यापन, मार्गदर्शन का कार्य चलने में सुविधा रहती है।’’

मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन-क्रम सम्बन्धी निर्देश

हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्ध पुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्ध पुरुषों की सुपात्र साधकों के तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिन्तन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं वहाँ गोदी में उठाकर कन्धे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए २४ वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न कराया है। धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कन्धे से कन्धा, कदम से कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।

अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।

हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कारण थे। एक यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में, प्राणियों एवं सुविधाओं के अभाव में आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंस्र पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं, तीसरे वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देव मानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाईं, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारण जनों के लिए कर सकना सम्भव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।

उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से सम्पन्न किया है। यह समय ऐसा है जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है। साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है, यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखण्ड कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों सम्पन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आँशिक रूप से सफल हुए हैं, कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है। इसके लिए जो मोर्चे बन्दी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कन्धों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपना कर विजयश्री को वरण करते रहे हैं, इस अनुभव से कुछ न कुछ सफलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालय यात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया—‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूल शरीर से हिमालय के किस भाग में, कितने समय तक, किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’

सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं, शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है, साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है। पत्तियों और कन्दों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जन्तुओं के बीच रहते हुए अपने प्राणों को बचाना पड़ता है।

जब तक स्थूल शरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्म शरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूल शरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सर्दी-गर्मी से बचाव, क्षुधा, पिपासा का निवारण, निद्रा और थकान का दबाव यह सब झंझट उस स्थिति में नहीं रहते हैं। पैरों से चलकर मनुष्य थोड़ी दूर जा पाता है, किन्तु सूक्ष्म शरीर के लिए एक दिन में सैकड़ों योजनों की यात्रा सम्भव है। एक साथ, एक मुख से सहस्रों व्यक्तियों के अन्तःकरणों तक अपना सन्देश पहुँचाया जा सकता है। दूसरों की इतनी सहायता सूक्ष्म शरीर धारी कर सकते हैं, जो स्थूल शरीर रहते सम्भव नहीं। इसलिए सिद्ध पुरुष सूक्ष्म शरीर द्वारा काम करते हैं। उनकी साधनाएँ भी स्थूल शरीर वालों की अपेक्षा भिन्न हैं।

स्थूल शरीरधारियों की एक छोटी सीमा है। उनकी बहुत सारी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताएँ जुटाने में दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि के व्यवधानों से निपटने में खर्च हो जाती है, किन्तु लाभ यह है कि प्रत्यक्ष दृश्यमान कार्य स्थूल शरीर से ही हो पाते हैं। इस स्तर के व्यक्तियों के साथ घुलना-मिलना, आदान-प्रदान इसी के सहारे सम्भव है। इसलिए जन-साधारण के साथ सम्पर्क साधे रहने के लिए प्रत्यक्ष शरीर से ही काम लेना पड़ता है। फिर वह जरा-जीर्ण हो जाने पर अशक्त हो जाता है और त्यागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा आरम्भ किए गए काम अधूरे रह जाते हैं। इसलिए जिन्हें लम्बे समय तक ठहरना है और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के अन्तराल में प्रेरणाएँ एवं क्षमताएँ देकर बड़े काम कराते रहना है, उन्हें सूक्ष्म शरीर में ही प्रवेश करना पड़ता है।

‘‘जब तक तुम्हारे स्थूल शरीर की उपयोगिता रहेगी, तभी तक वह काम करेगा। इसके उपरान्त इसे छोड़कर सूक्ष्म शरीर में चला जाना होगा। तब साधनाएँ भिन्न होंगी, क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी होंगी। विशिष्ट व्यक्तियों से सम्पर्क रहेगा। बड़े काम इसी प्रकार हो सकेंगे।’’

गुरुदेव ने कहा—‘‘उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय क्षेत्र से कराना होगा। गोमुख से पहले सन्त महापुरुष स्थूल शरीर समेत निवास करते हैं। इस क्षेत्र में भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ हैं। इनके बीच निर्वाह करने का अभ्यास करने के लिए, एक-एक साल वहाँ निवास करने का क्रम बना देने की योजनाएँ बनाई हैं। इसके अतिरिक्त हिमालय का हृदय जिसे ‘‘अध्यात्म का ध्रुव केंद्र’’ कहते हैं, उसमें चार-चार दिन ठहरना होगा, हम साथ रहेंगे। स्थूल शरीर जैसी स्थिति सूक्ष्म शरीर की बनाते रहेंगे। वहाँ कौन रहता है, किस स्थिति में रहता है, तुम्हें कैसे रहना होगा, यह भी तुम्हें विदित हो जाएगा। दोनों शरीरों का, दोनों क्षेत्रों का अनुभव क्रमशः बढ़ते रहने में तुम इस स्थिति में पहुँच जाओगे, जिसमें ऋषि अपने निर्धारित संकल्पों की पूर्ति में संलग्न रहते हैं। संक्षेप में यही है तुम्हें चार बार हिमालय बुलाने का उद्देश्य। इसके लिए जो अभ्यास करना पड़ेगा, जो परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ेगी, यह उद्देश्य भी इस बुलावे का है। तुम्हारी यहाँ पुरश्चरण साधना में इस विशिष्ट प्रयोग से कोई विघ्न न पड़ेगा।

सूक्ष्म शरीरधारी उसी क्षेत्र में इन दिनों निवास करते हैं। पिछले हिम युग के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं हैं। जहाँ धरती का स्वर्ग था, वहाँ का वातावरण अब देवताओं के उपयुक्त नहीं रहा, इसलिए वे अन्तरिक्ष में रहते हैं।

पूर्वकाल में ऋषिगण गोमुख से ऋषिकेश तक अपनी-अपनी रुचि और सुविधाओं के अनुसार रहते थे। वह क्षेत्र अब पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और व्यवसाइयों से भर गया है। इसलिए उसे उन्हीं लोगों के लिए छोड़ दिया गया है। अनेक देव मन्दिर बन गए हैं, ताकि यात्रियों का कौतूहल, पुरातन काल का इतिहास और निवासियों का निर्वाह चलता रहे।’’

हमें बताया गया कि थियोसोफी की संस्थापिका व्लैवेट्स्की सिद्ध पुरुष थीं। ऐसी मान्यता है कि वे स्थूल शरीर में रहते हुए भी सूक्ष्म शरीरधारियों के सम्पर्क में थीं। उनने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में ‘‘अदृश्य सिद्ध पुरुषों की पार्लियामेंट’’ है। इसी प्रकार उस क्षेत्र के दिव्य निवासियों को ‘‘अदृश्य सहायक’’ भी कहा गया है। गुरुदेव ने कहा कि ‘‘वह सब सत्य है, तुम अपने दिव्य चक्षुओं से यह सब उसी हिमालय क्षेत्र में देखोगे, जहाँ हमारा निवास है।’’ तिब्बत क्षेत्र उन दिनों हिमालय की परिधि में आता था। अब वह परिधि घट गई है, तो भी व्लैवेट्स्की का कथन सत्य है। स्थूल शरीरधारी उसे देख नहीं पाते, पर हमें अपने मार्गदर्शक गुरुदेव की सहायता से उसे देख सकने का आश्वासन मिल गया।

गुरुदेव ने कहा—‘‘हमारे बुलावे की प्रतीक्षा करते रहना। जब परीक्षा की स्थिति के लिए उपयुक्तता एवं आवश्यकता समझी जाएगी, तभी बुलाया जाएगा। अपनी ओर से उसकी इच्छा या प्रतीक्षा मत करना। अपनी ओर से जिज्ञासावश उधर प्रयाण भी मत करना। वह सब निरर्थक रहेगा। तुम्हारे समर्पण के उपरान्त यह जिम्मेदारी हमारी हो जाती है।’’ इतना कहकर वे अन्तर्ध्यान हो गए।

दिये गए कार्यक्रमों का प्राण-प्रण से निर्वाह

इस प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गए थे। सभी नियमोपनियमों के साथ २४ वर्ष का २४ गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न किया जाना था। अखण्ड घृत दीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ-साथ लोकमंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य सृजन करना दूसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता सम्पादन की साधना थी। साथ ही जन-सम्पर्क का भी कार्य करना था, ताकि भावी कार्यक्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्त्वपूर्ण दायित्व था स्वतंत्रता संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाए तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी थे, किंतु साधना एवं स्वाध्याय की प्रगति में इनमें से कोई बाधक नहीं बने, जबकि इस बीच हमें दो बार हिमालय भी जाना पड़ा। अपितु सभी साथ-साथ सहज ही ऐसे सम्पन्न होते चले गए कि हमें स्वयं इनके क्रियान्वयन पर अब आश्चर्य होता है। इसका श्रेय उस दैवी मार्गदर्शक सत्ता को जाता है, जिसने हमारे जीवन की बागडोर प्रारम्भ से ही अपने हाथों में ले ली थी एवं सतत संरक्षण का आश्वासन दिया।

ऋषि दृष्टिकोण की दीक्षा जिस दिन मिली, उसी दिन यह भी कह दिया गया कि यह परिवार सम्बद्ध तो है, पर विजातीय द्रव्य की तरह है, बचने योग्य। इसके तर्क, प्रमाणों की ओर से कान बन्द किए रहना ही उचित रहेगा। इसलिए सुननी तो सबकी चाहिए, पर करनी मन की ही चाहिए। उसके परामर्श को, आग्रह को वजन या महत्त्व दिया गया और उन्हें स्वीकारने का मन बनाया गया, तो फिर लक्ष्य तक पहुँचना कठिन नहीं है। श्रेय और प्रेय की दोनों दिशाएँ एक-दूसरे के प्रतिकूल जाती हैं। दोनों में से एक ही अपनाई जा सकती है। संसार प्रसन्न होगा, तो आत्मा रूठेगी। आत्मा को सन्तुष्ट किया जाएगा, तो संसार की—निकटस्थों की नाराजगी सहन करनी पड़ेगी। आमतौर से यही होता रहेगा। कदाचित् ही कभी कहीं ऐसे सौभाग्य बने हैं, जब सम्बन्धियों ने आदर्शवादिता अपनाने का अनुमोदन दिया हो। आत्मा को तो अनेक बार संसार के सामने झुकना पड़ा है। ऊँचे निश्चय बदलने पड़े हैं और पुराने ढर्रे पर आना पड़ा है।

यह कठिनाई अपने सामने पहले दिन से ही आई। वसन्त पर्व को जिस दिन नया जन्म मिला, उसी दिन नया कार्यक्रम भी। पुरश्चरणों की शृंखला के साथ-साथ आहार-विहार के तपस्वी स्तर के अनुबन्ध भी। तहलका मचा, जिसने सुना अपने-अपने ढंग से समझाने लगा। मीठे और कड़वे शब्दों की वर्षा होने लगी। मन्तव्य एक ही था कि जिस तरह सामान्यजन जीवनयापन करते हैं, कमाते-खाते हैं, वही राह उचित है। ऐसे कदम न उठाए जाएँ जिनसे इन दोनों में व्यवधान पड़ता हो। यद्यपि पैतृक सम्पदा इतनी थी कि उसके सहारे तीन पीढ़ी तक घर बैठकर गुजारा हो सकता था, पर उस तर्क को कोई सुनने तक के लिए तैयार न हुआ। नया कमाओ, नया खाओ, जो पुराना है, उसे भविष्य के लिए, कुटुम्बियों के लिए जमा रखो। सब लोग अपने-अपने शब्दों में एक ही बात कहते थे। अपना मुँह एक और सामने वाले के सौ। किस-किस को कहाँ तक जवाब दिया जाए? अन्त में हारकर गाँधीजी के तीन गुरुओं में से एक को अपना गुरु बना ही लिया। मौन रहने से राहत मिली। ‘‘भगवान् की प्रेरणा,’’ कह देने से थोड़ा काम चल पाता, क्योंकि उसे काटने के लिए उन सबके पास बहुत पैने तर्क नहीं थे। नास्तिकवाद तक उतर आने या अन्तःप्रेरणा का खण्डन करने लायक तर्क उनमें किसी ने नहीं सीखे, समझे थे। इसलिए बात ठण्डी पड़ गई। मैंने अपना संकल्पित व्रत इस प्रकार चालू कर दिया मानों किसी को जवाब देना ही नहीं था। किसी का परामर्श लेना ही नहीं था। अब सोचता हूँ कि उतनी दृढ़ता न अपनाई गई होती, तो नाव दो-चार झकझोरे खाने के उपरान्त ही डूब जाती। जिस साधना बल के सहारे आज अपना और दूसरों का कुछ भला बन पड़ा, उसका सुयोग ही नहीं आता। ईश्वर के साथ वह नाता जुड़ता ही नहीं, जो पवित्रता और प्रखरता से कम में जड़ें जमाने की स्थिति में होता ही नहीं।

इसके बाद दूसरी परीक्षा बचपन में ही तब सामने आई, जब काँग्रेस का असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन का बिगुल बजाया। देश-भक्तों का आह्वान किया और जेल जाने और गोली खाने के लिए घर से निकल पड़ने के लिए कहा।

मैंने अन्तरात्मा की पुकार सुनी और समझा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। इसे किसी भी कारण चुकाया नहीं जाना चाहिए। मुझे सत्याग्रहियों की सेना में भर्ती होना ही चाहिए। अपनी मर्जी से उस क्षेत्र के भर्ती केन्द्र में नाम लिखा दिया। साधन-सम्पन्न घर छोड़कर नमक सत्याग्रह के लिए निर्धारित मोर्चे पर जाना था। उन दिनों गोली चलने की चर्चा बहुत जोरों पर थी। लम्बी सजाएँ—काला पानी होने की भी। ऐसी अफवाहें सरकारी पक्ष के, किराए के प्रचारक जोरों से फैला रहे थे, ताकि कोई सत्याग्रही बने नहीं। घर वाले उसकी पूरी-पूरी रोकथाम करें। मेरे सम्बन्ध में भी यही हुआ। समाचार विदित होने पर मित्र, पड़ोसी, कुटुम्बी, सम्बन्धी एक भी न बचा जो इस विपत्ति से बचाने के लिए जोर लगाने के लिए न आया हो। उनकी दृष्टि से यह आत्म-हत्या जैसा प्रयास था।

बात बढ़ते-बढ़ते जवाबी आक्रमण की आई। किसी ने अनशन की धमकी दी, तो किसी ने आत्म-हत्या की। हमारी माता जी अभिभावक थीं। उन्हें यह पट्टी पढ़ाई गई कि लाखों की पैतृक सम्पत्ति से वे मेरा नाम खारिज कराकर अन्य भाइयों के नाम कर देंगी। भाइयों ने कहा कि घर से कोई रिश्ता न रहेगा और उसमें प्रवेश भी न मिलेगा। इसके अतिरिक्त भी और कई प्रकार की धमकियाँ दीं। उठाकर ले जाया जाएगा और डाकुओं के नियंत्रण में रहने के लिए बाधित कर दिया जाएगा।

इन मीठी-कड़वी धमकियों को मैं शान्तिपूर्वक सुनता रहा। अन्तरात्मा के सामने एक ही प्रश्न रहा कि समय की पुकार बड़ी है या परिवार का दबाव। अन्तरात्मा की प्रेरणा बड़ी है या मन को इधर-उधर डुलाने वाले असमंजस की स्थिति। अन्तिम निर्णय किससे कराता? आत्मा और परमात्मा दो को ही साक्षी बनाकर और उनके निर्णय को ही अन्तिम मानने का फैसला किया।

इस सन्दर्भ में प्रह्लाद का फिल्म चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अन्त न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरम्भ के उपरान्त महामानवों की, वीर बलिदानियों की, सन्त-सुधारक और शहीदों की अगणित कथा-गाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवार वालों ने, मित्र-सम्बन्धियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक, लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।

निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबन्धों को तोड़ता, लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।

छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी। दस्त भी हो रहे थे। घावों में कीड़े पड़ गए थे। बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबन्ध किया, उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी, परिचर्या के लिए भी, भोजन व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना, उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से ६५ वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घर वालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घर वाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा नहीं छोड़ी। यह पन्द्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान् कहती रही। उन दिनों १३ वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?

स्वतन्त्रता संग्राम की कई बार जेलयात्रा, २४ महापुरश्चरणों का व्रत धारण, इसके साथ ही मेहतरानी की सेवा-साधना यह तीन परीक्षाएँ, मुझे छोटी उम्र में ही पास करनी पड़ीं। आन्तरिक दुर्बलताएँ और सम्बद्ध परिजनों के दुहरे मोर्चे पर एक साथ लड़ा। उस आत्म-विजय का ही परिणाम है कि आत्मबल संग्रह से अधिक लाभ से लाभान्वित होने का अवसर मिला। उन घटनाक्रमों से हमारा आपा बलिष्ठ होता चला गया एवं वे सभी कार्यक्रम हमारे द्वारा बखूबी निभते चले गए, जिनका हमें संकल्प दिलाया गया था।

महापुरश्चरणों की शृंखला नियमित रूप से चलती रही। जिस दिन गुरुदेव के आदेश से उस साधना का शुभारम्भ किया था, उसी दिन घृत दीप की अखण्ड ज्योति भी स्थापित की। उसकी जिम्मेदारी हमारी धर्मपत्नी ने सँभाली, जिन्हें हम भी माता जी के नाम से पुकारते हैं। छोटे बच्चे की तरह उस पर हर घड़ी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता पड़ती थी। अन्यथा वह बच्चे की तरह मचल सकता था, बुझ सकता था। वह अखण्ड दीपक इतने लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के अब तक नियमित जलता रहा है। इसके प्रकाश में बैठकर जब भी साधना करते हैं, तो मनःक्षेत्र में अनायास ही दिव्य भावनाएँ उठती रहती हैं। कभी किसी उलझन को सुलझाना अपनी सामान्य बुद्धि के लिए सम्भव नहीं होता, तो इस अखण्ड ज्योति की प्रकाश किरण अनायास ही उस उलझन को सुलझा देती है।

नित्य ६६ माला का जप, गायत्री माता के चित्र प्रतीक का धूप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, जल से पूजन। जप के साथ-साथ प्रातःकाल के उदीयमान सविता का ध्यान। अन्त में सूर्यार्घ्यदान। इतनी छोटी सी विधि-व्यवस्था अपनाई गई। उसके साथ बीज-मन्त्र का सम्पुट आदि का कोई तान्त्रिक विधि-विधान जोड़ा नहीं गया, किंतु श्रद्धा अटूट रही। सामने विद्यमान गायत्री माता के चित्र के प्रति असीम श्रद्धा उमड़ती रही। लगता रहा कि वे साक्षात सामने बैठी हैं। कभी-कभी उनके आँचल में मुँह छिपाकर प्रेमाश्रु बहाने के लिए मन उमड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि मन न लगा हो। कहीं अन्यत्र भागा हो। तन्मयता निरन्तर प्रगाढ़ स्तर की बनी रही। समय पूरा हो जाता, तो अलग अलार्म बजता। अन्यथा उठने को जी ही नहीं करता। उपासना क्रम में कभी एक दिन भी विघ्न न आया।

यही बात अध्ययन के सम्बन्ध में रही। उसके लिए अतिरिक्त समय न निकालना पड़ा। काँग्रेस कार्यों के लिए प्रायः काफी-काफी दूर चलना पड़ा। जब परामर्श या कार्यक्रम का समय आता, तब पढ़ना बन्द हो जाता, जहाँ चलना आरम्भ हुआ, वहीं पढ़ना भी आरम्भ हो गया। पुस्तक साइज के चालीस पन्ने प्रति घण्टे पढ़ने की स्पीड रही। कम से कम दो घण्टे नित्य पढ़ने के लिए मिल जाते। कभी-कभी ज्यादा भी। इस प्रकार दो घण्टे में ८० पृष्ठ। महीने में २४०० पृष्ठ। साल भर में २९००० पृष्ठ। साठ वर्ष की कुल अवधि में साढ़े सत्रह लाख पृष्ठ हमने मात्र अपनी अभिरुचि के पढ़े हैं। लगभग तीन हजार पृष्ठ नित्य विहंगम रूप से पढ़ लेने की बात भी हमारे लिए स्नान-भोजन की तरह आसान व सहज रही है। यह क्रम प्रायः ६० वर्ष से अधिक समय से चलता आ रहा है और इतने दिन में अनगिनत पृष्ठ उन पुस्तकों के पढ़ डाले जो हमारे लिए आवश्यक विषयों से सम्बन्धित थे। महापुरश्चरणों की समाप्ति के बाद समय अधिक मिलने लगा। तब हमने भारत के विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर ग्रन्थों-पाण्डुलिपियों का अध्ययन किया। वह हमारे लिए अमूल्य निधि बन गई।

मनोरंजन के लिए एक पन्ना भी नहीं पढ़ा है। अपने विषय में मानो प्रवीणता की उपाधि प्राप्त करनी हो—ऐसी तन्मयता से पढ़ा है। इसलिए पढ़े हुए विषय मस्तिष्क में एकीभूत हो गए। जब भी कोई लेख लिखते थे, या पूर्व वार्तालाप में किसी गम्भीर विषय पर चर्चा करते थे, तो पढ़े हुए विषय अनायास ही स्मरण हो आते थे। लोग पीठ पीछे कहते हैं—‘‘यह तो चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया है।’’ अखण्ड ज्योति पत्रिका के लेख पढ़ने वाले उसमें इतने संदर्भ पाते हैं कि लोग आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं और सोचते हैं कि एक लेख के लिए न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके लिखा गया है। यही बात युग निर्माण योजना, युग शक्ति पत्रिका के बारे में है, पर सच बात इतनी ही है कि हमने जो भी पढ़ा है, उपयोगी पढ़ा है और पूरा मन लगाकर पढ़ा है। इसलिए समय पर सारे संदर्भ अनायास ही स्मृति पटल पर उठ आते हैं। यह वस्तुतः हमारी तन्मयता से की गई साधना का चमत्कार है।

जन्मभूमि के गाँव में प्राथमिक पाठशाला थी। सरकारी स्कूल की दृष्टि से इतना ही पढ़ा है। संस्कृत हमारी वंश परम्परा में घुसी हुई है। पिताजी संस्कृत के असाधारण प्रकाण्ड विद्वान थे। भाई भी। सबकी रुचि भी उसी ओर थी। फिर हमारा पैतृक व्यवसाय पुराणों की कथा कहना तथा पौरोहित्य रहा है, सो उस कारण उसका भी समुचित ज्ञान हो गया। आचार्य तक के विद्यार्थियों को हमने पढ़ाया है, जबकि हमारी स्वयं की डिग्रीधारी योग्यता नहीं थी।

इसके बाद अन्य भाषाओं के पढ़ने की कहानी मनोरंजक है। जेल में लोहे के तसले पर कंकड़ की पेंसिल से अँग्रेजी लिखना प्रारम्भ किया। एक दैनिक अंक ‘‘लीडर’’ अख़बार का जेल में हाथ लग गया था। उसी से पढ़ना शुरू किया। साथियों से पूछताछ कर लेते, इस प्रकार एक वर्ष बाद जब जेल से छूटे तो अँग्रेजी की अच्छी-खासी योग्यता उपलब्ध हो गई। आपसी चर्चा से हर बार की जेलयात्रा में अँग्रेजी का शब्दकोश हमारा बढ़ता ही चला गया एवं क्रमशः व्याकरण भी सीख ली। बदले में हमने उन्हें संस्कृत एवं मुहावरों वाली हिंदुस्तानी भाषा सिखा दी। अन्य भाषाओं की पत्रिकाएँ तथा शब्दकोश अपने आधार रहे हैं और ऐसे ही रास्ता चलते अन्यान्य भाषाएँ पढ़ ली हैं। गायत्री को बुद्धि की देवी कहा जाता है। दूसरों को वैसा लाभ मिला या नहीं, पर हमारे लिए यह चमत्कारी लाभ प्रत्यक्ष है। अखण्ड-ज्योति की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ने हिन्दी प्राध्यापकों तक का मार्गदर्शन किया है। यह हम जब देखते हैं, तो उस महाप्रज्ञा को ही इसका श्रेय देते हैं। अति व्यस्तता रहने पर भी विज्ञ की-ज्ञान की विभूति इतनी मात्रा में हस्तगत हो गई, जिसमें हमें परिपूर्ण सन्तोष होता है और दूसरों को आश्चर्य।

गुरुदेव का आदेश पालन करने के लिए हमने काँग्रेस के सत्याग्रह आन्दोलन में भाग तो लिया, पर प्रारम्भ में असमंजस ही बना रहा कि जब चौबीस वर्ष का एक संकल्प दिया गया था, तो ५ और १९ वर्ष के दो टुकड़ों में क्यों विभाजित किया। फिर आंदोलन में तो हजारों स्वयं सेवक संलग्न थे, तो एक की कमी-बेशी से उसमें क्या बनता-बिगड़ता था?

हमारे असमंजस को साक्षात्कार के समय ही गुरुदेव ने ताड़ लिया था। जब बारी आई तो उनकी परावाणी से मार्गदर्शन मिला कि ‘‘युग धर्म की अपनी महत्ता है। उसे समय की पुकार समझकर अन्य आवश्यक कार्यों को भी छोड़कर उसी प्रकार दौड़ पड़ना चाहिए जैसे अग्निकाण्ड होने पर पानी लेकर दौड़ना पड़ता है और अन्य सभी आवश्यक काम छोड़ने पड़ते हैं।’’ आगे सन्देश मिला कि ‘‘अगले दिनों तुम्हें जन सम्पर्क के अनेक काम करने हैं, उनके लिए विविध प्रकार के व्यक्तियों से सम्पर्क साधने और निपटने का दूसरा कोई अवसर नहीं आने वाला है। यह उस उद्देश्य की पूर्ति का एक चरण है, जिसमें भविष्य में बहुत सा श्रम व समय लगना है। आरम्भिक दिनों में, जो पाठ पढ़े थे, पूर्वजन्मों में जिनका अभ्यास किया था, उनके रिहर्सल का अवसर भी मिल जाएगा। यह सभी कार्य निजी लाभ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। समय की माँग तो इसी से पूरी होती है।’’

व्यावहारिक जीवन में तुम्हें चार पाठ पढ़ाए जाने हैं। १—समझदारी, २—ईमानदारी, ३—जिम्मेदारी, ४—बहादुरी। इनके सहारे ही व्यक्तित्व में खरापन आता है और प्रतिभा-पराक्रम विकसित होता है। हथियार भोथरे तो नहीं पड़ गए, कहीं पुराने पाठ विस्मृत तो नहीं हो गए, इसकी जाँच-पड़ताल नए सिरे से हो जाएगी। इस दृष्टि से एवं भावी क्रिया पद्धति के सूत्रों को समझने के लिए तुम्हारा स्वतंत्रता संग्राम अनुष्ठान भी जरूरी है।

देश के लिए हमने क्या किया? कितने कष्ट सहे, सौंपे गए कार्यों को कितनी खूबी से निभाया इसकी चर्चा यहाँ करना सर्वथा अप्रासंगिक होगा। उसे जानने की आवश्यकता प्रतीत होती हो तो परिजन-पाठक उत्तरप्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित ‘‘आगरा सम्भाग के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी’’ पुस्तक पढ़ें। उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों के साथ हमारा उल्लेख हुआ है। ‘‘श्रीराम मत्त’’ हमारा उन दिनों का प्रचलित नाम है। यहाँ तो केवल यह ध्यान में रखना है कि हमारे हित में मार्ग दर्शक ने किस हित का ख्याल मन में रखकर यह आदेश दिया।

इन दस वर्षों में जेलों में तथा जेल से बाहर अनेक प्रकृति के लोगों से मिलना हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के समय में जन-जागृति चरम सीमा पर थी। शूरवीर, साहस के धनी, संकल्प बल वाले अनेकों ऐसे व्यक्ति सम्पर्क में आए, जिनसे हमने कुछ सीखा। जनसमुदाय को लाभान्वित करने और नैतिक क्रान्ति जैसे बड़े कार्य के लिए अपना प्रशंसक, समर्थक, सहयोगी बनाने हेतु किन रीति-नीतियों को अपनाना चाहिए, यह मात्र दो वर्षों में ही सीखने को मिल गया। इसके लिए वैसी पूरी जिंदगी गुजार देने पर यह सुयोग उपलब्ध नहीं होता। विचित्र प्रकार की विचित्र प्रकृतियों का अध्ययन करने का इतना अवसर मिला, जितना देश के अधिकाँश भाग का परिभ्रमण करने पर मिल पाता। हमारे मन में घर-गृहस्थी अपने-पराए का मोह छूट गया और उन विपन्न परिस्थितियों में भी इतनी प्रसन्नतापूर्वक जीवन जिया कि अपने आपे की मजबूती पर विश्वास होता चला गया। सबसे बड़ी बात यह कि हमारा स्वभाव स्वयं सेवक की तरह ढलता चला गया, जो अभी भी हमें इस चरमावस्था में पहुँचने पर भी विनम्र बनाए हुए है। हमारे असमंजस का समाधान उन दिनों गुजरे स्वतंत्रता संग्राम के प्रसंगों से हो गया कि क्यों हमसे अनुष्ठान दो भागों में कराया गया।

कांग्रेस की स्थापना की एक शताब्दी होने को चली है। पर वह कांग्रेस, जिसमें हमने काम किया, वह अलग थी। उसमें काम करने के हमारे अपने विलक्षण अनुभव रहे हैं। अनेक मूर्धन्य प्रतिभाओं से सम्पर्क साधने के अवसर अनायास ही आते रहे हैं। सदा विनम्र और अनुशासनरत स्वयं सेवक की अपनी हैसियत रखी। इसलिए मूर्धन्य नेताओं की सेवा में किसी विनम्र स्वयं सेवक की जरूरत पड़ती, तो हमें ही पेल दिया जाता रहा। आयु भी इसी योग्य थी। इसी संपर्क में हमने बड़ी से बड़ी विशेषताएँ सीखीं। अवसर मिला तो उनके साथ भी रहने का सुयोग मिला, साबरमती आश्रम में गाँधी जी के साथ और पवनार आश्रम में विनोबा के साथ रहने का लाभ मिला है। दूसरे उनके समीप जाते हुए दर्शन मात्र करते हैं या रहकर लौट आते हैं, जब कि हमने इन सम्पर्कों में बहुत कुछ पढ़ा और जाना है। इन सबकी स्मृतियों का उल्लेख करना तो यहाँ अप्रासंगिक होगा, पर कुछ घटनाएँ ऐसी हैं, जो हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं।

सन् १९३३ की बात है। कलकत्ता में इंडियन नेशनल काँग्रेस का अधिवेशन था। उन दिनों काँग्रेस गैर कानूनी थी, जो भी जाते, पकड़े जाते, उसमें गोली काण्ड भी हुआ। जिन्हें महत्त्वपूर्ण समझा गया, उन्हें बर्दवान स्टेशन पर पकड़ लिया गया और ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में बनी गोरों के लिए बनाई गई एक विशेष जेल (आसनसोल) में भेज दिया गया। इसमें हम भी आगरा जिले के अपने तीन साथियों के साथ पकड़े गए। यहाँ हमारे साथ में मदनमोहन मालवीय जी के अलावा गाँधीजी के सुपुत्र देवीदास गाँधी, श्री जवाहरलाल नेहरू की माता स्वरूप रानी नेहरू, रफी अहमद किदवई, चन्द्रभान गुप्ता, कन्हैयालाल खादी वाला, जगन प्रसाद रावत आदि मूर्धन्य लोग थे। वहाँ जब तक हम लोग रहे, सायंकाल महामना मालवीय जी का नित्य भाषण होता था। मालवीय जी व माता स्वरूपरानी सबके साथ सगे बच्चों की तरह व्यवहार करते थे। एक दिन उनने अपने व्याख्यान में इस बात पर बहुत जोर दिया कि हमें आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए हर मर्द से एक पैसा और हर स्त्री से एक मुट्ठी अनाज माँग कर लाना चाहिए, ताकि सभी यह समझें कि काँग्रेस हमारी है। हमारे पैसों से बनी है। सबको इसमें अपनापन लगेगा एवं एक मुट्ठी फण्ड ही इसका मूल आर्थिक आधार बन जाएगा। वह बात औरों के लिए महत्त्वपूर्ण न थी, पर हमने उसे गाँठ बाँध लिया। ऋषियों का आधार यही ‘‘भिक्षा’’ थी। उसी के सहारे वे बड़े-बड़े गुरुकुल और आरण्यक चलाते थे। हमें भविष्य में बहुत बड़े काम करने के लिए गुरुदेव ने संकेत दिए थे। उनके लिए पैसा कहाँ से आएगा, इसकी चिंता मन में बनी रहती थी। इस बार जेल से सूत्र हाथ लग गया। जेल से छूटने पर जब बड़े काम पूरे करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर आया, तब उसी फार्मूले का उपयोग किया। ‘‘दस पैसा प्रतिदिन या एक मुट्ठी अनाज’’ अंशदान के रूप में यही तरीका अपनाया और अब तक लाखों नहीं, करोड़ों रुपया खर्च कर या करा चुके हैं।

काँग्रेस अपनी गायत्री गंगोत्री की तरह जीवनधारा रही। जब स्वराज्य मिल गया, तो हमने उन्हीं कामों की ओर ध्यान दिया जिनसे स्वराज्य की समग्रता सम्पन्न हो सके। राजनेताओं को देश की राजनैतिक-आर्थिक स्थिति सँभालनी चाहिए, पर नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति, और सामाजिक क्रान्ति उससे भी अधिक आवश्यक है, जिसे हमारे जैसे लोग ही सम्पन्न कर सकते हैं। यह धर्म-तन्त्र का उत्तरदायित्व है।

अपने इस नए कार्यक्रम के लिए अपने सभी गुरुजनों से आदेश लिया और काँग्रेस का एक ही कार्यक्रम अपने जिम्मे रखा ‘‘खादी धारण।’’ इसके अतिरिक्त उसके सक्रिय कार्यक्रमों से उसी दिन पीछे हट गए, जिस दिन स्वराज्य मिला। इसके पीछे बापू का आशीर्वाद था, दैवी सत्ता का हमें मिला निर्देश था। प्रायः २० वर्ष लगातार काम करते रहने पर जब मित्रों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते निर्वाह राशि लेने का फार्म भेजा, तो हमने हँसकर स्पष्ट मना कर दिया। हमें राजनीति में श्रीराम मत्त या मत्तजी के नाम से जाना जाता है। जो लोग जानते हैं, उस समय के मूर्धन्य जो जीवित हैं उन्हें विदित है कि आचार्य जी (मत्त जी) काँग्रेस के आधार स्तंभ रहे हैं और कठिन से कठिन कामों में अग्रिम पंक्ति में खड़े रहे हैं, किन्तु जब श्रेय लेने का प्रश्न आया, उन्होंने स्पष्टतः स्वयं को पर्दे के पीछे रखा।

तीनों काम यथावत पूरी तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किए और साथ ही गुरुदेव जब-जब हिमालय बुलाते रहे, तब-तब जाते रहे। बीच में दो आमंत्रणों में उनने छः-छः महीने ही रोका। कहा ‘‘काँग्रेस का कार्य स्वतंत्रता प्राप्ति की दृष्टि से इन दिनों आवश्यक है, सो इधर तुम्हारा रुकना छः-छः महीने ही पर्याप्त होगा।’’ उन छः महीनों में हमसे क्या कराया गया एवं क्या कहा गया, यह सर्वसाधारण के लिए जानना जरूरी नहीं है। दृश्य जीवन के ही अगणित प्रसंग ऐसे हैं, जिन्हें हम अलौकिक एवं दैवी शक्ति की कृपा का प्रसाद मानते हैं, उसे याद करते हुए कृतकृत्य होते रहते हैं।

गुरुदेव का प्रथम बुलावा—पग-पग पर परीक्षा

गुरुदेव द्वारा हिमालय बुलावे की बात मत्स्यावतार जैसी बढ़ती चली गई। पुराण की कथा है कि ब्रह्माजी के कमण्डल में कहीं से एक मछली का बच्चा आ गया। हथेली में आचमन के लिए कमण्डल लिया तो वह देखते-देखते हथेली भर लम्बी हो गई। ब्रह्माजी ने उसे घड़े में डाल दिया, क्षण भर में वह उससे भी दूनी हो गई, तो ब्रह्माजी ने उसे पास के तालाब में डाल दिया, उसमें भी वह समाई नहीं तब उसे समुद्र तक पहुँचाया गया। देखते-देखते उसने पूरे समुद्र को आच्छादित कर लिया। तब ब्रह्माजी को बोध हुआ। उस छोटी सी मछली में अवतार होने की बात जानी, स्तुति की और आदेश माँगा, बात पूरी होने पर मत्स्यावतार अन्तर्ध्यान हो गए और जिस कार्य के लिए वे प्रकट हुए थे वह कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया।

हमारे साथ भी घटना क्रम ठीक इसी प्रकार चले हैं। आध्यात्मिक जीवन वहाँ से आरम्भ हुआ था, जहाँ से गुरुदेव ने परोक्ष रूप से महामना जी से गुरु दीक्षा दिलवाई थी। यज्ञोपवीत पहनाया था और गायत्री मन्त्र की नियमित उपासना करने का विधि-विधान बताया था। छोटी उम्र थी, पर उसे पत्थर की लकीर की तरह माना और विधिवत् निबाहा। कोई दिन ऐसा नहीं बीता जिसमें नागा हुआ हो। साधना नहीं, तो भोजन नहीं। इस सिद्धान्त को अपनाया। वह आज तक ठीक चला है और विश्वास है कि जीवन के अन्तिम दिन तक यह निश्चित रूप से निभेगा।

इसके बाद गुरुदेव का प्रकाश रूप से साक्षात्कार हुआ। उनने आत्मा को ब्राह्मण बनाने के निमित्त २४ वर्ष की गायत्री पुरश्चरण साधना बताई। वह भी ठीक समय पर पूरी हुई। इस बीच में बैटरी चार्ज कराने के लिए, परीक्षा देने के लिए बार-बार हिमालय आने का आदेश मिला। साथ ही हर यात्रा में एक-एक वर्ष या उससे कम दुर्गम हिमालय में ही रहने के निर्देश भी। वह क्रम भी ठीक प्रकार चला और परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर नया उत्तरदायित्व भी कन्धे पर लदा। इतना ही नहीं उसका निर्वाह करने के लिए अनुदान भी मिला, ताकि दुबला बच्चा लड़खड़ा न जाए। जहाँ गड़बड़ाने की स्थिति आई, वहीं मार्गदर्शक ने गोदी में उठा लिया।

पूरा एक वर्ष होने भी न पाया था कि बेतार का तार हमारे अन्तराल में हिमालय का निमन्त्रण ले आया। चल पड़ने का बुलावा आ गया। उत्सुकता तो रहती थी, पर जल्दी नहीं थी। जो नहीं देखा है, उसे देखने की उत्कंठा एवं जो अनुभव हस्तगत नहीं हुआ है, उसे उपलब्ध करने की आकांक्षा ही थी। साथ ही ऐसे मौसम में जिसमें दूसरे लोग उधर जाते नहीं, ठण्ड, आहार, सुनसान, हिंस्र जंतुओं का सामना पड़ने जैसे कई भय भी मन में उपज उठते, पर अंततः विजय प्रगति की हुई। साहस जीता। संचित कुसंस्कारों में से एक अनजाना डर भी था। यह भी था कि सुरक्षित रहा जाए और सुविधापूर्वक जिया जाए जबकि घर की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं। दोनों के बीच कौरव-पाण्डवों की लड़ाई जैसा महाभारत चला, पर यह सब २४ घण्टे से अधिक न टिका। ठीक दूसरे दिन हम यात्रा के लिए चल दिए। परिवार को प्रयोजन की सूचना दे दी। विपरीत सलाह देने वाले भी चुप रहे। वे जानते थे कि इसके निश्चय बदलते नहीं।

कड़ी परीक्षा देना और बढ़िया वाला पुरस्कार पाना, यही सिलसिला हमारे जीवन में चलता रहा है। पुरस्कार के साथ अगला बड़ा कदम बढ़ाने का प्रोत्साहन भी। हमारे मत्स्यावतार का यही क्रम चलता आया है।

प्रथम बार हिमालय जाना हुआ, तो वह प्रथम सत्संग था। हिमालय दूर से तो पहले भी देखा था, पर वहाँ रहने पर किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसकी पूर्व जानकारी कुछ भी नहीं थी। वह अनुभव प्रथम बार ही हुआ। सन्देश आने पर चलने की तैयारी की। मात्र देवप्रयाग से उत्तरकाशी तक उन दिनों सड़क और मोटर की व्यवस्था थी। इसके बाद तो पूरा रास्ता पैदल का ही था। ऋषिकेश से देव प्रयाग भी पैदल यात्रा करनी होती थी। सामान कितना लेकर चलना चाहिए जो कन्धे और पीठ पर लादा जा सके, इसका अनुभव न था। सो कुछ ज्यादा ही ले लिया। लादकर चलना पड़ा, तो प्रतीत हुआ कि यह भारी है। उतना हमारे जैसा पैदल यात्री लेकर न चल सकेगा। सो सामर्थ्य से बाहर की वस्तुएँ रास्ते में अन्य यात्रियों को बाँटते हुए केवल उतना रहने दिया, जो अपने से चल सकता था एवं उपयोगी भी था।

इस यात्रा से गुरुदेव एक ही परीक्षा चाहते थे कि विपरीत परिस्थितियों से जूझने लायक मनःस्थिति पकी या नहीं। सो यात्रा अपेक्षाकृत कठिन ही होती गई। दूसरा कोई होता, तो घबरा गया होता, वापस लौट पड़ता या हैरानी में बीमार पड़ गया होता, पर गुरुदेव यह जीवन सूत्र व्यवहार में सिखाना चाहते थे कि मनःस्थिति मजबूत हो, तो परिस्थितियों का सामना किया जा सकता है, उन्हें अनुकूल बनाया या सहा जा सकता है। महत्त्वपूर्ण सफलताओं के लिए आदमी को इतना ही मजबूत होना पड़ता है।

ऐसा बताया जाता है कि जब धरती का स्वर्ग या हृदय कहा जाने वाला भाग देवताओं का निवास था, तब ऋषि गोमुख से नीचे और ऋषिकेश से ऊपर रहते थे, पर हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गईं। देवताओं ने कारण शरीर धारण कर लिए और अंतरिक्ष में विचरण करने लगे। पुरातन काल के ऋषि गोमुख से ऊपर चले गए। नीचे वाला हिमालय अब सैलानियों के लिए रह गया है। वहाँ कहीं-कहीं साधु-बाबाजी की कुटियाँ तो मिलती हैं, पर जिन्हें ऋषि कहा जा सके, ऐसों का मिलना कठिन है।

हमने यह भी सुन रखा था कि हिमालय की यात्रा में मार्ग में आने वाली गुफाओं में सिद्धयोगी रहते हैं। वैसा कुछ नहीं मिला। पाया कि निर्वाह एवं आजीविका की दृष्टि से वह कठिनाइयों से भरा क्षेत्र है। इसलिए वहाँ मनमौजी लोग आते-जाते तो हैं, पर ठहरते नहीं। जो साधु-सन्त मिले, उनसे भेंट वार्ता होने पर विदित हुआ कि वे भी कौतूहलवश या किसी से कुछ मिल जाने की आशा में ही आते थे। न उनका तत्त्वज्ञान बढ़ा-चढ़ा था, न तपस्वियों जैसी दिनचर्या थी। थोड़ी देर पास बैठने पर वे अपनी आवश्यकता व्यक्त करते थे। ऐसे लोग दूसरों को क्या देंगे, यह सोचकर सिद्ध पुरुषों की तलाश में अन्यों द्वारा जब-तब की गई यात्राएँ मजे की यात्राएँ भर रहीं, यही मानकर अपने कदम आगे बढ़ाते गए। यात्रियों को आध्यात्मिक सन्तोष-समाधान तनिक भी नहीं होता होगा, यही सोचकर मन दुःखी रहा।

उनसे तो हमें चट्टियों पर दुकान लगाए हुए पहाड़ी दुकानदार अच्छे लगे। वे भोले और भले थे। आटा, दाल, चावल आदि खरीदने पर वे पकाने के बर्तन बिना किराया लिए, बिना गिने ऐसे ही उठा देते थे, माँगने-जाँचने का कोई धन्धा उनका नहीं था। अक्सर चाय बेचते थे। बीड़ी, माचिस, चना, गुड़, सत्तू, आलू जैसी चीजें यात्रियों को उनसे मिल जातीं थीं। यात्री श्रद्धालु तो होते थे, पर गरीब स्तर के थे। उनके काम की चीजें ही दुकानों पर बिकती थीं। कम्बल उसी क्षेत्र के बने हुए किराए पर रात काटने के लिए मिल जाते थे।

शीत ऋतु और पैदल चलना यह दोनों ही परीक्षाएँ कठिन थीं। फिर उस क्षेत्र में रहने वाले साधु-संन्यासी उन दिनों गरम इलाकों में गुजारे की व्यवस्था करने नीचे उतर आते हैं। जहाँ ठण्ड अधिक है, वहाँ के ग्रामवासी भी पशु चराने नीचे के इलाकों में चले जाते हैं। गाँवों में—झोपड़ियों में सन्नाटा रहता है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में हमें उत्तरकाशी से नन्दन वन तक की यात्रा पैदल पूरी करनी थी। हर दृष्टि से यात्रा बहुत कठिन थी।

स्थान नितान्त एकाकी। ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं, वन्य पशुओं का निर्भीक विचरण, यह सभी बातें काफी कष्टकर थीं। हवा उन दिनों काफी ठण्डी चलती थी। सूर्य ऊँचे पहाड़ों की छाया में छिपा रहने के कारण दस बजे के करीब दीखता है और दो बजे के करीब शिखरों के नीचे चला जाता है। शिखरों पर तो धूप दीखती है, पर जमीन पर मध्यम स्तर का अँधेरा। रास्ते में कभी ही कोई भूला-भटका आदमी मिलता। जिन्हें कोई अति आवश्यक काम होता, किसी की मृत्यु हो जाती, तो ही आने-जाने की आवश्यकता पड़ती। हर दृष्टि से वह क्षेत्र अपने लिए सुनसान था। सहचर के नाम पर थे, छाती में धड़कने वाला दिल या सोच-विचार उठाने वाले सिर में अवस्थित मन। ऐसी दशा में लम्बी यात्रा सम्भव है या असम्भव, यह परीक्षा ली जा रही थी। हृदय ने निश्चय किया कि जितनी साँस चलनी है, उतने दिन अवश्य चलेगी। तब तक कोई मारने वाला नहीं। मस्तिष्क कहता, वृक्ष-वनस्पतियों में भी तो जीवन है। उन पर पक्षी रहते हैं। पानी में जलचर मौजूद हैं। जंगल में वन्य पशु फिरते हैं। सभी नंगे बदन, सभी एकाकी। जब इतने सारे प्राणी इस क्षेत्र में निवास करते हैं, तो तुम्हारे लिए सब कुछ सुनसान कैसे? अपने को छोटा मत बनाओ। जब ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की बात मानते हो, तब इतने सारे प्राणियों के रहते, तुम अकेले कैसे? मनुष्यों को ही क्यों प्राणी मानते हो? यह जीव-जन्तु क्या तुम्हारे अपने नहीं? फिर सूनापन कैसा?

हमारी यात्रा चलती रही। साथ-साथ चिन्तन भी चलता रहा। एकाकी रहने में मन पर दबाव पड़ता है क्योंकि वह सदा समूह में रहने का अभ्यासी है। एकाकीपन से उसे डर लगता है। अँधेरा भी डर का एक बड़ा कारण है। मनुष्य दिन भर प्रकाश में रहता है। रात्रि को बत्तियों का प्रकाश जला लेता है। जब नींद आती है, तब बिल्कुल अँधेरा होता है। उसमें भी डर उतना कारण नहीं, जितना कि सुनसान अँधेरे में होता है।

एकाकीपन में विशेषतया मनुष्य के मस्तिष्क को डर लगता है। योगी को इस डर से निवृत्ति पानी चाहिए। ‘‘अभय’’ को अध्यात्म का अति महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। वह छूटे, तो फिर उसे गृहस्थ की तरह सरंजाम जुटाकर सुरक्षा का प्रबंध करते हुए रहना पड़ता है। मन की कच्चाई बनी रहती है।

दूसरा संकट हिमालय क्षेत्र के एकाकीपन में यह है कि उस क्षेत्र में वन्य जीवों, विशेषतया हिंस्र पशुओं का डर लगता है। कोलाहल रहित क्षेत्र में ही वे विचरण करते हैं। रात्रि ही उनका भोजन तलाशने का समय है। दिन में प्रतिरोध का सामना करने का डर उन्हें भी रहता है।

रात्रि में, एकाकी, अँधेरे में हिंस्र पशुओं का मुकाबला होना एक संकट है। संकट क्या सीधी मौत से मुठभेड़ है। कोलाहल और भीड़ न होने हिंस्र पशु दिन में भी पानी पीने या शिकार तलाशने निकल पड़ते हैं। इन सभी परिस्थितियों का सामना हमें अपनी यात्रा में बराबर करना पड़ा।

यात्रा में जहाँ भी रात्रि बितानी पड़ी, वहाँ काले साँप रेंगते और मोटे अजगर फुफकारते बराबर मिलते रहे। छोटी जाति का सिंह उस क्षेत्र में अधिक होता है। उसमें फुर्ती बबर शेर की तुलना में अधिक होती है। आकार के हिसाब से ताकत उसमें कम होती है। इसलिए छोटे जानवरों पर हाथ डालता है। शाकाहारियों में आक्रमणकारी पहाड़ी रीछ होता है। शिवालिक की पहाड़ियों एवं हिमालय के निचले इलाके में इर्द-गिर्द जंगली हाथी भी रहते हैं। उन सभी की प्रकृति यह होती है कि आँखों से आँखें न मिलें, उन्हें छेड़े जाने का भय न हो, तो अपने रास्ते ही चले जाते हैं। अन्यथा तनिक भी भय या क्रोध का भाव मन में आने पर वे आक्रमण कर बैठते हैं।

अजगर, सर्प, बड़ी छिपकली (गोह), रीछ, तेंदुए, चीते, हाथी इनसे आए दिन यात्रियों को कई-कई बार पाला पड़ता है। समूह को देखकर वे रास्ता बचाकर निकल जाते हैं, पर जब कोई मनुष्य या पशु अकेला सामने से आता है, तो वे बचते नहीं। सीधे रास्ते चलते जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य को ही उनके लिए रास्ता छोड़ना पड़ता है। अन्यथा मुठभेड़ होने पर आक्रमण एक प्रकार से निश्चित ही समझना चाहिए।

ऐसा आमना-सामना-मुकाबला दिन और रात में मिलाकर दस से बीस बार हो जाता था। अकेला आदमी देखकर वे निर्भय होकर चलते थे और रास्ता नहीं छोड़ते थे। उनके लिए हमें ही रास्ता छोड़ना पड़ता था। यह घटनाक्रम लिखने और पढ़ने में तो सरल है, पर व्यवहार में ऐसा वास्ता पड़ना अति कठिन है। कारण कि वे साक्षात् मृत्यु के रूप में सामने आते थे, कभी-कभी साथ चलते या पीछे-पीछे चलते थे। शरीर को मौत सबसे डरावनी लगती है। हिंस्र पशु अथवा जिनकी आक्रमणकारी प्रकृति होती है, ऐसे जंगली नर-नील गाय भी आक्रमणकारी होते हैं। भले ही वे आक्रमण न करें, पर डर इतना लगता है कि साक्षात मौत की घड़ी ही आ गई। जब-तब कोई वास्ता पड़े, तो एक बात भी है, पर प्रायः हर घंटे में एक बार मौत से भेंट होना और हर बार प्राण जाने का डर लगना, अत्यधिक कठिन परिस्थितियों का सामना करने की बात थी। दिल धड़कना आरम्भ होता। जब तक वह धड़कन बन्द न हो पाती, तब तक दूसरी नई मुसीबत सामने आ जाती और फिर नए सिरे से दिल धड़कने लगता। वे लोग एकाकी नहीं होते थे। कई-कई के झुण्ड सामने आ जाते। यदि हमला करते तो एक-एक बोटी नोंच ले जाते एवं कुछ ही क्षणों में अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाता।

किन्तु यहाँ भी विवेक समेटना पड़ा, साहस सँजोना पड़ा। मौत बड़ी होती है, पर जीवन से बड़ी नहीं। अभय और मैत्री भीतर हो तो हिंसकों की हिंसा भी ठण्डी पड़ जाती है और अपना स्वभाव बदल जाती है। पूरी यात्रा में प्रायः तीन-चार सौ की संख्या में ऐसे डरावने मुकाबले हुए, पर गड़बड़ाने वाले साहस को हर बार सँभालना पड़ा। मैत्री और निश्चिन्तता की मुद्रा बनानी पड़ी। मृत्यु के सम्बन्ध में सोचना पड़ा कि उसका भी एक समय होता है। यदि यहीं-इसी प्रकार जीवन की इतिश्री होनी है, तो फिर उसका डरते हुए क्यों? हँसते हुए ही सामना क्यों न किया जाए? यह विचार उठे तो नहीं, बल पूर्वक उठाने पड़े। पूरा रास्ता डरावना था। एकाकीपन, अँधेरे और मृत्यु के दूत मिल-जुलकर डराने का प्रयत्न करते रहे और वापस लौट चलने की सलाह देते रहे, पर संकल्प शक्ति साथ देती रही और यात्रा आगे बढ़ती रही।

परीक्षा का एक प्रश्न-पत्र यह था कि सुनसान का—अकेलेपन का डर लगता है क्या? कुछ ही दिनों में दिल मजबूत हो गया और उस क्षेत्र में रहने वाले प्राणी अपने लगने लगे। डर न जाने कहाँ चला गया। सूनापन सुहाने लगा, मन ने कहा—प्रथम पत्र में उत्तीर्ण होने का सिलसिला चल पड़ा। आगे बढ़ने पर असमंजस होता है, वह भी अब न रहेगा।

दूसरा प्रश्न पत्र था, शीत ऋतु का। सोचा कि जब मुँह, नाक, आँखें, सिर, कान, हाथ खुले रहते हैं, अभ्यास से इन्हें शीत नहीं लगता, तो तुम्हें भी क्यों लगना चाहिए। उत्तरी ध्रुव, नार्वे, फिनलैंड में हमेशा शून्य से नीचे तापमान रहता है। वहाँ एस्किमो तथा दूसरी जाति के लोग रहते हैं, तो इधर तो दस-बारह हजार फुट की ही ऊँचाई है। यहाँ ठण्ड से बचने के उपाय ढूँढ़े जा सकते हैं। वे उधर के निवासी से मालूम भी हो गए। पहाड़ ऊपर ठण्डे रहते हैं, पर उनमें जो गुफाएँ पाई जाती हैं, वे अपेक्षाकृत गरम होती हैं। कुछ खास किस्म की झाड़ियाँ ऐसी होती हैं, जो हरी होने पर भी जल जाती हैं। लाँगड़ा, मार्चा आदि शाकों की पत्तियाँ जंगलों में उगी होती हैं, वे कच्ची खाई जा सकती हैं। भोजपत्र के तने पर उठी हुई गाँठों को उबाल लिया जाए, तो ऐसी चाय बन जाती है कि जिनसे ठण्ड दूर हो सके। पेट में घुटने और सिर लगाकर उँकडू बैठ जाने पर भी ठण्डक कम लगती है। मानने पर ठण्ड अधिक लगती है। बच्चे थोड़े से कपड़ों में कहीं भी भागे-भागे फिरते है। उन्हें कोई हैरानी नहीं होती। ठण्ड मानने भर की होती है। उसमें अनभ्यस्त बूढ़े बीमारों की तो नहीं कहते, अन्यथा जवान आदमी ठण्डक से नहीं मर सकता है। बात यह भी समझ में आ गई और इन सब उपायों को अपना लेने पर ठण्डक भी सहन होने लगी। फिर एक और बात है कि ठण्डक-ठण्डक रटने की अपेक्षा मन में कोई और उत्साह भरा चिन्तन बिठा लिया जाए, तो भी काम चल जाता है। इतनी महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं से उस क्षेत्र की समस्याओं का सामना करने के हल निकल आए।

बात वन्य पशुओं की—हिंस्र जन्तुओं की रह गई। वे प्रायः रात को ही निकलते हैं, उनकी आँखें चमकती हैं। फिर मनुष्य से सभी डरते हैं, शेर भी। यदि स्वयं उनसे न डरा जाएँ, उन्हें छेड़ा न जाए, तो मनुष्य पर आक्रमण नहीं करते, उनके मित्र ही बनकर रहते हैं।

प्रारम्भ में हमें इस प्रकार का डर लगता था। फिर सरकस के सिखाने वालों की बात याद आई। वे उन्हें कितने करतब सिखा लेते है। तंज़ानिया की एक यूरोपियन महिला का वृतान्त पढ़ा था ‘‘बॉर्न फ्री’’ जिसका पति वन विभाग का कर्मचारी था। उसकी स्त्री ने पति द्वारा माँ-बाप से बिछुड़े दो शेर के बच्चे पाल रखे थे, और वे जवान हो जाने पर भी गोद में सोते रहते थे। अपने मन में वजनदार निर्भयता या प्रेम भावना हो तो घने जंगलों में आनन्द से रहा जा सकता है। वनवासी भील लोग अक्सर उसी क्षेत्र में रहते हैं। उन्हें न डर लगता है और न जोखिम दीखता है। ऐसे उदाहरणों को स्मृति में रखते-रखते निर्भयता आ गई और विचारा कि एक दिन वह आएगा, जब हम वन में कुटी बनाकर रहेंगे और गाय-शेर एक घाट पर पानी पिया करेंगे।

मन कमजोर भी है और मना लिए जाने पर समर्थ भी। हमने उस क्षेत्र में पहुँचकर यात्रा जारी रखी और मन में से भय को निकाल दिया। अनुकूल परिस्थिति की अपेक्षा करने के स्थान पर मनःस्थिति को मजबूत बनाने की बात सोची। इस दिशा में मन को ढालते चले गए और प्रतिकूलताएँ जो आरम्भ में बड़ी डरावनी लगती थीं, अब बिलकुल सरल और स्वाभाविक सी लगने लगीं।

मन की कुटाई-पिटाई और ढलाई करते-करते वह बीस दिन की यात्रा में काबू में आ गया। वह क्षेत्र ऐसा लगने लगा मानो हम यहीं पैदा हुए हैं और यहीं मरना है।

गंगोत्री तक राहगीरों के लिए बना हुआ भयंकर रास्ता है। गोमुख तक के लिए उन दिनों एक पगडण्डी थी। इसके बाद कठिनाई थी। तपोवन काफी ऊँचाई पर है। रास्ता भी नहीं है। अन्तःप्रेरणा या भाग्य भरोसे चलना पड़ता है। तपोवन पठार चौरस है। फिर पहाड़ियों की ऊँची शृंखला है। इसके बाद नन्दन वन आता है। हमें यहीं बुलाया गया था। समय पर पहुँच गए। देखा तो गुरुदेव खड़े थे। प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। हमारा भी और उनका भी। वे पहली बार हमारे घर गए थे, इस बार हम उनके यहाँ आए। यह सिलसिला जीवन भर चलता रहे, तो ही इस बँधे सूत्र की सार्थकता है।

तीन परीक्षाएँ इस बार होनी थीं, बिना साथी के काम चलाना, ऋतुओं के प्रकोप की तितिक्षा सहना, हिंस्र पशुओं के साथ रहते हुए विचलित न होना। तीनों में ही अपने को उत्तीर्ण समझा और परीक्षक ने वैसा ही माना।

बात-चीत का सिलसिला तो थोड़े ही समय में पूरा हो गया। ‘‘अध्यात्म शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रचण्ड मनोबल सम्पादित करना, प्रतिकूलताओं को दबोचकर अनुकूलता में ढाल देना, सिंह व्याघ्र तो क्या—मौत से भी न डरना, ऋषि कल्प आत्माओं के लिए तो यह स्थिति नितान्त आवश्यक है। तुम्हें ऐसी ही परिस्थितियों के बीच अपने जीवन का बहुत सा भाग गुजारना है।’’

उस समय की बात समाप्त हो गई। जिस गुफा में उनका निवास था, वहाँ तक ले गए। इशारे में बताए हुए स्थान पर सोने का उपक्रम किया, तो वैसा ही किया। इतनी गहरी नींद आई कि नियत क्रम की अपेक्षा दूना तीन गुना समय लग गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। रास्ते की सारी थकान इस प्रकार दूर हो गई, मानो कहीं चलना ही नहीं पड़ा था।

वहीं बहते निर्झर में स्नान किया। सन्ध्या वन्दन भी। जीवन में पहली बार ब्रह्म कमल और देवकमल देखा। ब्रह्मकमल ऐसा जिसकी सुगन्ध थोड़ी देर में ही नींद कहें या योग निद्रा ला देती है। देवकन्द वह जो जमीन में शकरकन्द की तरह निकलता है, सिंघाड़े जैसे स्वाद का। पका होने पर लगभग पाँच सेर का, जिससे एक सप्ताह तक क्षुधा निवारण का क्रम चल सकता है। गुरुदेव के यही दो प्रथम प्रत्यक्ष उपहार थे। एक शारीरिक थकान मिटाने के लिए और दूसरा मन में उमंग भरने के लिए।

इसके बाद तपोवन पर दृष्टि दौड़ाई। पूरे पठार पर मखमली फूलदार गलीचा सा बिछा हुआ था। तब तक भारी बर्फ नहीं पड़ी थी। जब पड़ती है, तब यह फूल सभी पककर जमीन पर फैल जाते हैं, अगले वर्ष उगने के लिए।

ऋषि तन्त्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार

नन्दन वन में पहला दिन वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने, उसी में परम सत्ता की झाँकी देखने में निकल गया। पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढला और रात्रि आ पहुँची। परोक्ष रूप से निर्देश मिला, समीपस्थ एक निर्धारित गुफा में जाकर सोने की व्यवस्था बनाने का। लग रहा था कि प्रयोजन सोने का नहीं, सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का है, ताकि स्थूल शरीर पर शीत का प्रकोप न हो सके। सम्भावना थी कि पुनः रात्रि को गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऐसा हुआ भी।

उस रात्रि को गुफा में गुरुदेव सहसा आ पहुँचे। पूर्णिमा थी। चन्द्रमा का सुनहरा प्रकाश समूचे हिमालय पर फैल रहा था। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर बर्फ के टुकड़े तथा बिन्दु बरस रहे थे, वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानों सोना बरस रहा है। मार्गदर्शक के आ जाने से गर्मी का एक घेरा चारों ओर बन गया। अन्यथा रात्रि के समय इस विकट ठण्ड और हवा के झोंकों में साधारणतया निकलना सम्भव न होता। दुस्साहस करने पर इस वातावरण में शरीर जकड़ या ऐंठ सकता था।

किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही यह अहैतुकी कृपा हुई, यह मैंने पहले ही समझ लिया, इसलिए इस काल में जाने का कारण पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। पीछे-पीछे चल दिया। पैर जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे थे। आज यह जाना कि सिद्धि में ऊपर हवा में उड़ने की—अन्तरिक्ष में चलने की क्यों आवश्यकता पड़ती है। उन बर्फीले ऊबड़-खाबड़ हिम खण्डों पर चलना उससे कहीं अधिक कठिन था, जितना कि पानी की सतह पर चलना। आज उन सिद्धियों की अच्छी परिस्थितियों में आवश्यकता भले ही न पड़े, पर उन दिनों हिमालय जैसे विकट क्षेत्रों में आवागमन की कठिनाई को समझने वालों के लिए आवश्यकता निश्चय ही पड़ती होगी।

मैं गुफा में से निकलकर शीत से काँपते हुए स्वर्णिम हिमालय पर अधर ही अधर गुरुदेव के पीछे-पीछे उनकी पूँछ की तरह सटा हुआ चल रहा था। आज की यात्रा का उद्देश्य पुरातन ऋषियों की तपस्थलियों का दिग्दर्शन करना था। स्थूल शरीर सभी ने त्याग दिए थे, पर सूक्ष्म शरीर उनमें से अधिकांश के बने हुए थे। उन्हें भेदकर किन्हीं-किन्हीं के कारण शरीर भी झलक रहे थे। नतमस्तक और करबद्ध नमन की मुद्रा अनायास ही बन गई। आज मुझे हिमालय पर सूक्ष्म और कारण शरीरों से निवास करने वाले ऋषियों का दर्शन और परिचय कराया जाना था। मेरे लिए आज की रात्रि जीवन भर के सौभाग्यशाली क्षणों में सबसे अधिक महत्त्व की वेला थी।

उत्तराखण्ड क्षेत्र की कुछ गुफाएँ तो जब तब आते समय यात्रा के दौरान देखीं थीं, पर देखी वही थीं, जो यातायात की दृष्टि से सुलभ थीं। आज जाना कि जितना देखा है, उससे अनदेखा कहीं अधिक है। इनमें जो छोटी थीं, वे तो वन्य पशुओं के काम आती थीं, पर जो बड़ीं थीं, साफ-सुथरी और व्यवस्थित थीं, वे ऋषियों के सूक्ष्म शरीरों के निमित्त थीं। पूर्व अभ्यास के कारण वे अभी भी उनमें यदा-कदा निवास करते हैं।

वे सभी उस दिन ध्यान मुद्रा में थे। गुरुदेव ने बताया कि वे प्रायः सदा इसी स्थिति में रहते हैं। अकारण ध्यान तोड़ते नहीं। मुझे एक-एक का नाम बताया और सूक्ष्म शरीर का दर्शन कराया गया। यही है सम्पदा, विशिष्टता और विभूति सम्पदा इस क्षेत्र की।

गुरुदेव के साथ मेरे आगमन की बात उन सभी को पूर्व से ही विदित थी। सो हम दोनों जहाँ भी जिस-जिस समय पहुँचे, उनके नेत्र खुल गए। चेहरों पर हल्की मुस्कान झलकी और सिर उतना ही झुका, मानों वे अभिवादन का प्रत्युत्तर दे रहे हों। वार्तालाप किसी से कुछ नहीं हुआ। सूक्ष्म शरीर को कुछ कहना होता है, तो वे बैखरी, मध्यमा से नहीं परा और पश्यन्ति वाणी से, कर्ण छिद्रों के माध्यम से नहीं, अन्तःकरण में उठी प्रेरणा के रूप में कहते हैं, पर आज दर्शन मात्र प्रयोजन था। कुछ कहना-सुनना नहीं था। उनकी बिरादरी में एक नया विद्यार्थी भर्ती होने आया, सो उसे जान लेने और जब जैसी सहायता करने की आवश्यकता समझें, तब वैसी उपलब्ध करा देने का सूत्र जोड़ना ही उद्देश्य था। सम्भवतः यह उन्हें पहले ही बताया जा चुका होगा कि उनके अधूरे कामों को समय की अनुकूलता के अनुसार पूरा करने के लिए यह स्थूल शरीर धारी बालक अपने ढंग से क्या-क्या कुछ करने वाला है एवं अगले दिनों इसकी भूमिका क्या होगी?

सूक्ष्म शरीर से अन्तःप्रेरणाएँ उमगाने और शक्तिधारा प्रदान करने का काम हो सकता है, पर जनसाधारण को प्रत्यक्ष परामर्श देना और घटनाक्रमों को घटित करना स्थूल शरीरों का ही काम है। इसलिए दिव्य शक्तियाँ किन्हीं स्थूल शरीर धारियों को ही अपने प्रयोजनों के लिए वाहन बनाती हैं। अभी तक मैं एक ही मार्गदर्शक का वाहन था, पर अब वे हिमालयवासी अन्य दिव्य आत्माएँ भी अपने वाहन से काम ले सकती थीं और तद्नुसार प्रेरणा, योजना एवं क्षमता प्रदान करती रह सकती थीं। गुरुदेव इसी भाव वाणी में मेरा परिचय उन सबसे करा रहे थे। वे सभी बिना लोकाचार, शिष्टाचार निबाहे, बिना समय-क्षेप किए एक संकेत में उस अनुरोध की स्वीकृति दे रहे थे। आज रात्रि की दिव्य यात्रा इसी रूप में चलती रही। प्रभात होने से पूर्व ही वे मेरी स्थूल काया को निर्धारित गुफा में छोड़कर अपने स्थान को वापस चले गए।

आज ऋषि लोक का पहली बार दर्शन हुआ। हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों-देवालय, सरोवरों, सरिताओं का दर्शन तो यात्रा काल में पहले से भी होता रहा। उस प्रदेश को ऋषि निवास का देवात्मा भी मानते रहे हैं, पर इससे पहले यह विदित न था कि किस ऋषि का किस भूमि से लगाव है? यह आज पहली बार देखा और अन्तिम बार भी। वापस छोड़ते समय मार्गदर्शक ने कह दिया कि इनके साथ अपनी ओर से सम्पर्क साधने का प्रयत्न मत करना। उनके कार्य में बाधा मत डालना। यदि किसी को कुछ निर्देशन करना होगा, तो वे स्वयं ही करेंगे। हमारे साथ भी तो तुम्हारा यही अनुबन्ध है कि अपनी ओर से द्वार नहीं खटखटाओगे। जब हमें जिस प्रयोजन के लिए जरूरत पड़ा करेगी, स्वयं ही पहुँचा करेंगे और उसी पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटा दिया करेंगे। यही बात आगे से तुम उन ऋषियों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हो, जिनके कि दर्शन प्रयोजनवश तुम्हें आज कराए गए हैं। इस दर्शन को कौतूहल भर मत मानना, वरन समझना कि हमारा अकेला ही निर्देश तुम्हारे लिए सीमित नहीं रहा। यह महाभाग भी उसी प्रकार अपने सभी प्रयोजन पूरा कराते रहेंगे, जो स्थूल शरीर के अभाव में स्वयं नहीं कर सकते। जनसम्पर्क प्रायः तुम्हारे जैसे सत्पात्रों-वाहनों के माध्यम से कराने की ही परम्परा रही है। आगे से तुम इनके निर्देशनों को भी हमारे आदेश की तरह ही शिरोधार्य करना और जो कहा जाए सो करने के लिए जुट पड़ना। मैं स्वीकृति सूचक संकेत के अतिरिक्त और कहता ही क्या? वे अन्तर्ध्यान हो गए।

भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण

नन्दन वन के प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्व रात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समक्ष घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी, भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नन्दन-वन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा जैसे स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस भरे थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था कि मानों एक गलीचा बिछा हो।

सहसा गुरुदेव का स्थूल शरीर रूप में आगमन हुआ। उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्व रात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूल शरीर बना लिया था जैसा कि प्रथम बार प्रकाश पुंज के रूप में पूजा घर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था।

वार्तालाप को आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा—‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अब की बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ ली और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। हम इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे और घटनाक्रम तथा उनके साथ उठती प्रतिक्रिया को देखते रहे हैं तो और भी अधिक निश्चिन्तता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती, तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समक्ष प्रकट न होते और मन की व्यथा न कहते’’। उनके कथन का प्रयोजन यही था कि काम छूटा हुआ है, उसे पूरा किया जाए। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किए, अन्यथा दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन खोलते ही कहाँ हैं?

तुम्हारा समर्पण यदि सच्चा है, तो शेष जीवन की कार्य पद्धति बनाए देते हैं। इसे परिपूर्ण निष्ठा के साथ पूरी करना। प्रथम कार्यक्रम तो यही है कि २४ लक्ष्य गायत्री महामंत्र के २४ महापुरश्चरण चौबीस वर्ष में पूरे करो। इससे मजबूती में जो कमी रही होगी, सो पूरी जो जाएगी। बड़े और भारी काम करने के लिए बड़ी समर्थता चाहिए। इसी के निमित्त यह प्रथम कार्यक्रम सौंपा गया है। इसी के साथ-साथ दो कार्य और भी चलते रहेंगे। एक यह कि अपना अध्ययन जारी रखो। तुम्हें कलम उठानी है। आर्ष ग्रन्थों के अनुवाद-प्रकाशन की व्यवस्था करके उसे सर्व-साधारण तक पहुँचाना है। इससे देव संस्कृति की लुप्तप्राय कड़ियाँ जुड़ेंगी और भविष्य में विश्व संस्कृति का ढाँचा खड़ा करने में सहायता मिलेगी। इसके साथ ही जब तक स्थूल शरीर विद्यमान है, तब तक मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने वाला सर्वसुलभ साहित्य विश्व वसुधा की सभी सम्भव भाषाओं में लिखा जाना है। यह कार्य तुम्हारी प्रथम साधना की शक्ति से सम्बद्ध है। इसमें समय आने पर तुम्हारी सहायता के लिए सुपात्र मनीषी आ जुटेंगे, जो तुम्हारा छोड़ा काम पूरा करेंगे।

तीसरा कार्य स्वतन्त्रता संग्राम में एक सिपाही की तरह प्रत्यक्ष एवं पृष्ठभूमि में रहकर लड़ते रहने का है। यह सन् १९४७ तक चलेगा। तब तक तुम्हारा पुरश्चरण भी बहुत कुछ पूरा हो लेगा। यह प्रथम चरण है। इसकी सिद्धियाँ जन साधारण के सम्मुख प्रकट होंगी। इस समय के लक्षण ऐसे नहीं है, जिनसे यह प्रतीत हो कि अंग्रेज भारत को स्वतन्त्रता देकर सहज ही चले जाएँगे किन्तु यह सफलता तुम्हारा अनुष्ठान पूरा होने के पूर्व ही मिलकर रहेगी। तब तक तुम्हारा ज्ञान इतना हो जाएगा जितना कि युग परिवर्तन और नव-निर्माण के लिए किसी तत्त्ववेत्ता के पास होना चाहिए।

पुरश्चरणों की समग्र सम्पन्नता तब होती है, जब उसका पूर्णाहुति यज्ञ भी किया जाए। चौबीस लाख पुरश्चरण का गायत्री महायज्ञ इतना बड़ा होना चाहिए कि जिससे २४ लाख मन्त्रों की आहुतियाँ हो सकें एवं तुम्हारा संगठन इस माध्यम से खड़ा हो जाए। यह भी तुम्हें ही करना है। इसमें लाखों रुपए की राशि और लाखों की सहायक जनसंख्या चाहिए। तुम यह मत सोचना कि हम अकेले हैं, पास में धन नहीं है। हम तुम्हारे साथ हैं। साथ ही तुम्हारी उपासना का प्रतिफल भी, इसलिए सन्देह करने की गुंजायश नहीं है। समय आने पर सब हो जाएगा। साथ ही सर्वसाधारण को यह भी विदित हो जाएगा कि सच्चे साधक की सच्ची साधना का कितना चमत्कारी प्रतिफल होता है। यह तुम्हारे कार्यक्रम का प्रथम चरण है, अपना कर्तव्य पालन करते रहना। यह मत सोचना कि हमारी शक्ति नगण्य है। तुम्हारी कम सही, पर जब हम दो मिल जाते हैं, तब एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं और फिर यह तो दैवी सत्ता द्वारा संचालित कार्यक्रम है। इसमें सन्देह कैसा? समय आने पर सारी विधि व्यवस्था सामने आती जाएगी। अभी योजना बनाने और चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन जारी रखो। पुरश्चरण भी करते रहो। स्वतन्त्रता सैनिक का काम करो। अधिक आगे की बात सोचने में व्यर्थ ही मन में उद्विग्नता बढ़ेगी। अभी अपनी मातृभूमि में रहो और वहीं से प्रथम चरण के यह तीनों काम करो।

आगे की बात संकेत रूप में कहे देते हैं। साहित्य प्रकाशन द्वारा स्वाध्याय का और विशाल धर्म संगठन द्वारा सत्संग का—यह दो कार्य मथुरा रहकर करने पड़ेंगे। पुरश्चरण की पूर्णाहुति भी वहीं होगी। प्रेस प्रकाशन भी वहीं से चलेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्रक्रिया सुनियोजित ढंग से वहीं से चलेगी। वह प्रयास एक ऐतिहासिक आन्दोलन होगा जैसा कि अब तक कहीं भी नहीं हुआ।

तीसरा चरण इन सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों की इच्छा पूरी करने का है। ऋषि परम्परा का बीजारोपण तुम्हें करना है। इसका विश्वव्यापी विस्तार अपने ढंग से होता रहेगा। यह कार्य सप्त ऋषियों की तपोभूमि सप्त सरोवर हरिद्वार में रहते हुए करना पड़ेगा। तीनों कार्य तीनों जगह उपयुक्त ढंग से चलते रहेंगे।

अभी संकेत किया है। आगे चलकर समयानुसार इन कार्यों की विस्तृत रूपरेखा हम यहाँ बुलाकर बताते रहेंगे। तीन बार बुलाने के तीन प्रयोजन होंगे।

चौथी बार तुम्हें भी चौथी भूमिका में जाना है और हमारे प्रयोजन का बोझ इस सदी के अन्तिम दशकों में अपने कन्धों पर लेना है। तब सारे विश्व में उलझी हुई विषम समस्यओं के अत्यन्त कठिन और अत्यन्त व्यापक कार्य अपने कन्धे पर लेने होंगे। पूर्व घोषणा करने से कुछ लाभ नहीं, समयानुसार जो आवश्यक होगा, सो विदित भी होता चलेगा और सम्पन्न भी।

इस बार की हमारी हिमालय यात्रा मन में वह असमंजस बना हुआ था कि हिमालय की गुफाओं में सिद्ध पुरुष रहने और उनके दर्शन मात्र से विभूतियाँ मिलने की जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। हमें इनका कोई आधार नहीं मिला। वह बात ऐसे ही किंवदन्ती मालूम पड़ती है। था तो मन का भीतरी असमंजस, पर गुरुदेव ने उसे बिना कहे ही समझ लिया और कन्धे पर हाथ रखकर पूछा—‘‘तुझे क्या जरूरत पड़ गई सिद्ध पुरुषों की? ऋषियों के सूक्ष्म शरीरों के दर्शन एवं हमसे मन नहीं भरा?’’

अपने मन में अविश्वास जैसी बात, कोई दूसरा खोजने जैसी बात स्वप्न में भी नहीं उठी थी। मात्र बाल कौतूहल मन में था। गुरुदेव ने इसे अविश्वास मान लिया होगा तो श्रद्धा क्षेत्र में हमारी कुपात्रता मानेंगे। यह विचार मन में आते ही स्तब्ध रह गया।

मन को पढ़ लेने वाले देवात्मा ने हँसते हुए कहा। वे हैं तो सही, पर दो बातें नई हो गई हैं। एक तो सड़कों की, वाहनों की सुविधा होने से यात्री अधिक आने लगे हैं। इससे उनकी साधना में विघ्न पड़ता है। दूसरे यह कि अन्यत्र जाने पर शरीर निर्वाह में असुविधा होती है। इसलिए उन्होंने स्थूल शरीरों का परित्याग कर दिया है और सूक्ष्म शरीर धारण करके रहते हैं। जो किसी को दृष्टिगोचर भी न हो और उनके लिए निर्वाह साधनों की आवश्यकता भी न पड़े। इस कारण उन सभी ने शरीर ही नहीं, स्थान भी बदल लिए हैं। स्थान ही नहीं, साधना के साथ जुड़े कार्यक्रम भी बदल लिए हैं। जब सब कुछ परिवर्तन हो गया तो दृष्टिगोचर कैसे हों? फिर सत्पात्र साधकों का अभाव हो जाने के कारण वे कुपात्रों को दर्शन देने या उन पर की हुई अनुकम्पा में अपनी शक्ति गँवाना भी नहीं चाहते, ऐसी दशा में अन्य लोग जो तलाश करते हैं, वह मिलना सम्भव नहीं। किसी के लिए भी सम्भव नहीं। तुम्हें अगली बार पुनः हिमालय के सिद्ध पुरुषों की दर्शन झाँकी करा देंगे।

परमब्रह्म के अंशधर देवात्मा सूक्ष्म शरीर में किस प्रकार रहते हैं। इसका प्रथम परिचय हमने अपने मार्गदर्शक के रूप में घर पर ही प्राप्त कर लिया था। उनके हाथों में विधिवत् मेरी नाव सुपुर्द हो गई थी। फिर भी बालबुद्धि अपना काम कर रही थी। हिमालय में अनेक सिद्ध पुरुषों के निवास की जो बात सुन रखी थी, उस कौतूहल को देखने का जो मन था वह ऋषियों के दर्शन एवं मार्गदर्शक की सांत्वना से पूरा हो गया था। इस लालसा को पहले अपने अन्दर ही मन के किसी कोने में छिपाए फिरते थे। आज उसके पूरे होने व आगे भी दर्शन होते रहने का आश्वासन मिल गया था। सन्तोष तो पहले भी कम न था, पर अब वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता के रूप में और भी अधिक बढ़ गया।

गुरुदेव ने आगे कहा—‘‘हम जब भी बुलाएँ तब समझना कि हमने ६ माह या एक वर्ष के लिए बुलाया है। तुम्हारा शरीर इस लायक बन गया है कि इधर की परिस्थितियों में निर्वाह कर सको। इस नए अभ्यास को परिपक्व करने के लिए इस निर्धारित अवधि में एक-एक करके तीन बार और इधर हिमालय में ही रहना चाहिए। तुम्हारे स्थूल शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता समझेंगे, हम प्रबन्ध कर दिया करेंगे। फिर इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि स्थूल से सूक्ष्म में और सूक्ष्म से कारण शरीर में प्रवेश करने के लिए जो तितीक्षा करनी पड़ती है, सो होती चलेगी। शरीर को क्षुधा, पिपासा, शीत, ग्रीष्म, निद्रा, थकान व्यथित करती हैं। इन छः को घर पर रहकर जीतना कठिन है, क्योंकि सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध रहने से यह प्रयोजन आसानी से पूरे होते हैं और तप-तितीक्षाओं के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार मन पर छाए रहने वाले छः कषाय-कल्मष भी किसी न किसी घटनाक्रम के साथ घटित होते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छः रिपुओं से जूझने के लिए आरण्यकों में रहकर इनसे निपटने का अभ्यास करना पड़ता है। तुम्हें घर रहकर यह अवसर भी न मिल सकेगा। इसलिए अभ्यास के लिए जन संकुल संस्थान से अलग रहने से उस आन्तरिक मल्ल युद्ध में भी सरलता होती है। हिमालय में रहकर तुम शारीरिक तितीक्षा और मानसिक तपस्या करना। इस प्रकार तीन बार, तीन वर्ष यहाँ आते रहने और शेष वर्षों में जन सम्पर्क में रहने से परीक्षा भी होती चलेगी कि जो अभ्यास हिमालय में रहकर किया था, वह परिपक्व हुआ या नहीं?’’

यह कार्यक्रम देवात्मा गुरुदेव ने ही बनाया था, पर था मेरा इच्छित। इसे मनोकामना की पूर्ति कहना चाहिए। स्वाध्याय, सत्संग और मनन-चिन्तन से यह तथ्य भली प्रकार हृदयंगम हो गया था कि दसों इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष और ग्यारहवीं अदृश्य मन इन सबका निग्रह कर लेने पर बिखराव से छुटकारा मिल जाता है और आत्मसंयम का पराक्रम बन पड़ने पर मनुष्य की दुर्बलताएँ समाप्त हो जाती हैं और विभूतियाँ जग पड़ती हैं। सशरीर सिद्ध पुरुष होने का यही राजमार्ग है। इन्द्रिय निग्रह, अर्थ निग्रह, समय निग्रह और विचार निग्रह यह चार संयम हैं। इन्हें सुधारने वाले महामानव बन जाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, मोह इन चारों से मन को उबार लेने पर लौकिक सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं।

मैं तपश्चर्या करना चाहता था, पर करता कैसे? समर्पित को स्वेच्छा आचरण की सुविधा कहाँ? जो मैं चाहता था, वह गुरुदेव के मुख से आदेश रूप में कहे जाने पर मैं फूला न समाया और उस क्रिया-कृत्य के लिए समय निर्धारित होने की प्रतीक्षा करने लगा।

गुरुदेव बोले—‘‘अब वार्ता समाप्त हुई। तुम अब गंगोत्री चले जाओ। वहाँ तुम्हारे निवास-आहार आदि की व्यवस्था हमने कर दी है। भागीरथ शिला, गौरी कुण्ड पर बैठकर अपना साधना क्रम आरम्भ कर दो। एक साल पूरा हो जाए, तब अपने घर लौट जाना। हम तुम्हारी देख−भाल नियमित रूप से करते रहेंगे।’’

गुरुदेव अदृश्य हो गए। हमें उनका दूत गोमुख तक पहुँचा गया। इसके बाद उनके बताए हुए स्थान पर एक वर्ष के शेष दिन पूरे किए।

समय पूरा होने पर वापस लौट पड़े। अब की बार इधर से लौटते हुए उन कठिनाइयों में से एक भी सामने नहीं आईं, जो जाते समय पग-पग पर हैरान कर रहीं थी। वे परीक्षाएँ थीं, सो पूरी हो जाने पर लौटते समय कठिनाइयों का सामना करना भी क्यों पड़ता?

हम एक वर्ष बाद घर वापस लौट आए। वजन १८ पौंड बढ़ गया। चेहरा लाल और गोल हो गया था। शरीरगत शक्ति काफी बढ़ी हुई थी। हर समय प्रसन्नता छाई रहती थी। लौटने पर लोगों ने गंगाजी का प्रसाद माँगा। सभी को गंगोत्री की रेती में से एक-एक चुटकी दे दी व गोमुख के जल का प्रसाद दे दिया। यही वहाँ से साथ लेकर भी लौटे थे। दीख सकने वाला प्रत्यक्ष प्रसाद यही एक ही था, जो दिया जा सकता था। वस्तुतः यह हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। यद्यपि इसके बाद भी हिमालय जाने का क्रम बराबर बना रहा एवं गंतव्य भी वही है, फिर भी गुरुदेव के साथ विश्व व्यवस्था का संचालन करने वाली परोक्ष ऋषि सत्ता का प्रथम दर्शन अन्तःस्थल पर अमिट छाप छोड़ गया। हमें अपने लक्ष्य, भावी जीवन क्रम, जीवन यात्रा में सहयोगी बनने वाली जागृत प्राणवान आत्माओं का आभास भी इसी यात्रा में हुआ। हिमालय की हमारी पहली यात्रा अनेक ऐसे अनुभवों की कथा-गाथा है, जो अन्य अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है।

अनगढ़ मन हारा, हम जीते

अपनी पहली यात्रा में ही सिद्ध पुरुषों-सन्तों के विषय में वस्तु स्थिति का पता चल गया। हम स्वयं जिस भ्रम में थे, वह दूर हो गया और दूसरे जो लोग हमारी ही तरह सोचते रहे होंगे उनके भ्रम का निराकरण करते रहे, अपने साक्षात्कार प्रसंग को याद रखते हुए दुहराया कि अपनी पात्रता पहले ही अर्जित न कर ली हो तो उनसे भेंट हो जाना अशक्य है, क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में होते हैं और उचित अधिकारी के सामने ही प्रकट होते हैं। यह जानकारियाँ हमें पहले न थीं।

हमारी हिमालय यात्रा का विवरण पूर्व में ‘‘सुनसान के सहचर’’ पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। यह विवरण तो लम्बा है, पर सारांश थोड़ा ही है। अभावों और आशंकाओं के बीच प्रतिकूलताओं को किस तरह मनोबल के सहारे पार किया जा सकता है, इसका आभास उनमें मिल सकेगा। मन साथ दे तो सर्वसाधारण को संकट दीखने वाले प्रसंग किस प्रकार हँसी-मजाक जैसे बन जाते हैं, कुछ इसी प्रकार के विवरण उन छपे प्रसंगों में पाठकों को मिल सकते हैं। अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले को मन इतना मजबूत तो बनाना ही पड़ता है।

पुस्तक बड़ी है, विवरण भी सुविस्तृत है, पर उसमें बातें थोड़ी सी हैं, साहित्यिक विवेचना ज्यादा है। हिमालय और गंगा तट क्यों साधना के लिए अधिक उपयुक्त हैं, इसका कारण हमने उसमें दिया है। एकान्त में सूनेपन का जो भय लगता है, उसमें चिन्तन की दुर्बलता ही कारण है। मन मजबूत हो तो साथियों की तलाश क्यों करनी पड़े? उनके न मिलने पर एकाकीपन का डर क्यों लगे? जंगली पशु-पक्षी अकेले रहते हैं। उनके लिए तो हिंस्र पशु-पक्षी भी आक्रमण करने को बैठे रहते हैं। फिर मनुष्य से तो सभी डरते हैं। साथ ही उसमें इतनी सूझ-बूझ भी होती है कि आत्मरक्षा कर सके। चिन्तन भय की ओर मुड़े तो इस संसार में सब कुछ डरावना है। यदि साहस साथ दे तो हाथ, पैर, आँख, मुख और मन-बुद्धि इतनों का निरन्तर साथ रहने पर डरने का क्या कारण हो सकता है? वन्य पशुओं में कुछ ही हिंसक होते हैं। फिर मनुष्य निर्भय रहे, उनके प्रति अन्तः से प्रेम भावना रखे तो खतरे का अवसर आने की कम ही सम्भावना रहती है। राजा हरिश्चन्द्र श्मशान की जलती चिताओं के बीच रहने की मेहतर की नौकरी करते थे। केन्या के मसाई शेरों के बीच झोपड़े बनाकर रहते हैं। वनवासी, आदिवासी सर्पों और व्याघ्रों के बीच रहते हैं। फिर कोई कारण नहीं कि सूझ-बूझ वाला आदमी वहाँ न रह सके, जहाँ खतरा समझा जा सकता है।

आत्मा, परमात्मा के घर से एकाकी आता है। खाना, सोना, चलना भी अकेले ही होता है। भगवान के घर भी अकेले ही जाना पड़ता है। फिर अन्य अवसरों पर भी आपको परिष्कृत और भावुक मन के सहारे उल्लास अनुभव कराता रहे तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है? अध्यात्म के प्रतिफल रूप में मन में इतना परिवर्तन तो दृष्टिगोचर होना ही चाहिए। शरीर को जैसे अभ्यास में ढालने का प्रयास किया जाता है, वह वैसा ही ढल जाता है। उत्तरी ध्रुव के एस्किमो केवल मछलियों के सहारे जिन्दगी गुजार देते हैं। दुर्गम हिमालय एवं आल्प्स पर्वत के ऊँचे क्षेत्रों में रहने वाले अभावों के बावजूद स्वस्थ-लम्बी जिन्दगी जीते हैं। पशु भी घास के सहारे गुजारा कर लेते हैं। मनुष्य भी यदि उपयोगी पत्तियाँ चुनकर अपना आहार निर्धारित कर ले, तो अभ्यास न पड़ने पर ही थोड़ी गड़बड़ रहती है। बाद में गाड़ी ढर्रे पर चलने लगती है। ऐसे-ऐसे अनेकों अनुभव हमें उस प्रथम हिमालय यात्रा में हुए और जो मन सर्वसाधारण को कहीं से कहीं खींचे-खींचे फिरता है, वह काबू में आ गया और कुकल्पनाएँ करने के स्थान पर आनन्द एवं उल्लास भरी अनुभूतियाँ अनायास ही देने लगा। संक्षेप में यही है हमारी ‘‘सुनसान के सहचर’’ पुस्तक का सार-संक्षेप। ऋतुओं की प्रतिकूलता से निपटने के लिए भगवान ने उपयुक्त माध्यम रखे हैं। जब इर्द-गिर्द बर्फ पड़ती है, तब भी गुफाओं के भीतर समुचित गरमी रहती है। गोमुख क्षेत्र की कुछ हरी झाड़ियाँ जलाने से जलने लगती हैं। रात्रि को प्रकाश दिखाने के लिए ऐसी ही एक वनौषधि झिलमिल जगमगाती रहती है। तपोवन और नन्दन वन में एक शकरकन्द जैसा अत्यधिक मधुर स्वाद वाला ‘‘देवकन्द’’ जमीन में पकता है। ऊपर तो यह घास जैसा दिखाई देता है, पर भीतर से उसे उखाड़ने पर आकार में इतना बड़ा निकलता है कि कच्चा या भूनकर एक सप्ताह तक गुजारा चल सकता है। भोज पत्र के तने की मोटी-गाँठें होती हैं। उन्हें कूटकर चाय की तरह क्वाथ बना लिया जाए तो बिना नमक के भी वह क्वाथ बड़ा स्वादिष्ट लगने लगता है। भोज पत्र का छिलका ऐसा होता है कि उसे बिछाने, ओढ़ने और पहनने के काम में आच्छादन रूप में लिया जा सकता है। यह बातें यहाँ इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि भगवान ने हर वस्तु की असह्यता से निपटने के लिए सारी व्यवस्था रखी है। परेशान तो मनुष्य अपने मन की दुर्बलता से अथवा अभ्यस्त वस्तुओं की निर्भरता से होता है। यदि मनुष्य आत्म-निर्भर रहे तो तीन चौथाई समस्याएँ हल हो जाती हैं। एक चौथाई के लिए अन्य विकल्प ढूँढ़े जा सकते हैं और उनके सहारे समय काटने के अभ्यास किए जा सकते हैं। मनुष्य हर स्थिति में अपने को फिट कर सकता है। उसे तब हैरानी होती है, जब वह यह चाहता है कि अन्य सब लोग उसकी मरजी के अनुरूप बन जाएँ, परिस्थितियाँ अपने अनुकूल ढल जाएँ। यदि अपने को बदल लें, तो हर स्थिति से गुजरा और उल्लासयुक्त बना रहा जा सकता है।

यह बातें पढ़ी और सुनीं तो पहले भी थीं, पर अनुभव में इस वर्ष के अन्तर्गत ही आईं, जो प्रथम हिमालय यात्रा में व्यवहार में लानी पड़ीं। यह अभ्यास एक अच्छी-खासी तपश्चर्या थी, जिसने अपने ऊपर नियन्त्रण करने का भली प्रकार अभ्यास करा दिया, जब हमें विपरीत परिस्थितियों में भी गुजारा करने से परेशानी का अनुभव नहीं होता था। हर प्रतिकूलता को अनुकूलता की तरह अभ्यास में उतारते देर नहीं लगती।

एकाकी जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह का कोई अवसर नहीं था। इसलिए उनसे निपटने का कोई झंझट सामने नहीं आया। परीक्षा के रूप में जो भय और प्रलोभन सामने आए, उन्हें हँसी में उड़ा दिया गया। यहाँ स्वाभिमान भी काम न कर पाया। सोचा ‘‘हम आत्मा हैं। प्रकाश पुंज और समर्थ। गिराने वाले भय और प्रलोभन हमें न तो गिरा सकते हैं, न उल्टा घसीट सकते हैं।’’ मन का निश्चय सुदृढ़ देखकर पतन और पराभव के जो भी अवसर आए, वे परास्त होकर वापस लौट गए। एक वर्ष के उस हिमालय निवास में जो ऐसे अवसर आए, उनका उल्लेख करना यहाँ इसलिए उपयुक्त नहीं समझा कि अभी हम जीवित हैं और अपनी चरित्र निष्ठा की ऊँचाई का वर्णन करने में कोई आत्म-श्लाघा की गन्ध सूँघ सकता है। यहाँ तो हमें मात्र इतना ही कहना है कि अध्यात्म पथ के पथिक को आए दिन भय और प्रलोभनों का दबाव सहना पड़ता है। इनसे जूझने के लिए हर पथिक को कमर कसकर तैयार रहना चाहिए। जो इतनी तैयारी न करेगा उसे उसी तरह पछताना पड़ेगा, जिस प्रकार सरकस के संचालक और रिंग मास्टर का पद बिना तैयारी किए कोई ऐसे सम्भाल ले और पीछे हाथ पैर तोड़ लेने अथवा जान जोखिम में डालने का उपहास कराए।

उपासना, साधना और आराधना में ‘‘साधना’’ ही प्रमुख है। उपासना का कर्मकाण्ड कोई नौकरी की तरह भी कर सकता है। आराधना—पुण्य परमार्थ को कहते हैं। जिसने अपने को साध लिया है, उसके लिए और कोई काम करने के लिए बचता ही नहीं। उत्कृष्टता सम्पन्न मन अपने लिए सबसे लाभदायक व्यवसाय—पुण्य-परमार्थ ही देखता है। इसी में उसकी अभिरुचि और प्रवीणता बन जाती है। हिमालय के प्रथम वर्ष में हमें आत्म-संयम की—मनोनिग्रह की साधना करनी पड़ी। जो कुछ चमत्कार हाथ लगे हैं, उसी के प्रतिफल हैं। उपासना तो समय काटने का एक व्यवसाय बन गया है।

घर चार घण्टे नींद लिया करते थे। यहाँ उसे बढ़ाकर छः घण्टे कर दिया। कारण कि घर पर तो अनेक स्तर के अनेक काम रहते हैं, पर यहाँ तो दिन का प्रकाश हुए बिना मानसिक जप के अतिरिक्त और कुछ कर सकना ही सम्भव न था। पहाड़ों की ऊँचाई में प्रकाश देर से आता है और अन्धेरा जल्दी हो जाता है। इसलिए बारह घण्टे के अँधेरे में छः घण्टे सोने के लिए, छः घण्टे उपासना के लिए पर्याप्त होने चाहिए। स्नान का बन्धन वहाँ नहीं रहा। मध्याह्न को ही नहाना और कपड़े सुखाना सम्भव होता था। इसलिए परिस्थिति के अनुरूप दिनचर्या बनानी पड़ी। दिनचर्या के अनुरूप परिस्थितियाँ तो बन नहीं सकती थीं।

‘‘प्रथम हिमालय यात्रा कैसी सम्पन्न हुई?’’ इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि परिस्थितियों के अनुरूप मन को ढाल लेने का अभ्यास भली प्रकार कर लिया। इसे यों भी कह सकते हैं कि आधी मञ्जिल पार कर ली। इस प्रकार प्रथम वर्ष में दबाव तो अत्यधिक सहने पड़े, तो भी कच्चा लोहा तेज आग की भट्टी में ऐसा लोहा बन गया, जो आगे चलकर किसी भी काम आ सकने के योग्य बन गया।

पिछला जीवन बिलकुल ही दूसरे ढर्रे में ढला था। सुविधाओं और साधनों के सहारे गाड़ी लुढ़क रही थी। सब कुछ सीधा और सरल लग रहा था, पर हिमालय पहुँचते ही सब कुछ उलट गया। वहाँ की परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनमें निभ सकना केवल उन्हीं के लिए सम्भव था, जो छिड़ी लड़ाई के दिनों में कुछ ही समय की ट्रेनिंग लेकर सीधे मोर्चे पर चले जाते हैं और उस प्रकार के साहस का परिचय देते हैं जिसका इससे पूर्व कभी पाला नहीं पड़ा था।

प्रथम हिमालय यात्रा का प्रत्यक्ष प्रतिफल एक ही रहा कि अनगढ़ मन हार गया और हम जीत गए। प्रत्येक नई असुविधा को देखकर उसने नए बछड़े की तरह हल में चलने से कम आना-कानी नहीं की, किन्तु उसे कहीं भी समर्थन न मिला। असुविधाओं को उसने अनख तो माना और लौट चलने की इच्छा प्रकट की, किन्तु पाला ऐसे किसान से पड़ा था जो मरने-मारने पर उतारू था। आखिर मन को झक मारनी पड़ी और हल में चलने का अपना भाग्य अंगीकार करना पड़ा। यदि जी कच्चा पड़ा होता तो स्थिति वह नहीं बन पड़ती, जो अब बन गई है। पूरे एक वर्ष नई-नई प्रतिकूलताएँ अनुभव होती रहीं, बार-बार ऐसे विकल्प उठते रहे जिसका अर्थ होता था कि इतनी कड़ी परीक्षा में पड़ने पर हमारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा। भविष्य की साँसारिक प्रगति का द्वार बन्द हो जाएगा। इसलिए समूची स्थिति पर पुनर्विचार करना चाहिए।

एक बार तो मन में ऐसा ही तमोगुणी विचार भी आया, जिसे छिपाना उचित नहीं होगा। वह यह कि जैसा बीसियों ढोंगियों ने हिमालय का नाम लेकर अपनी धर्म-ध्वजा फहरा दी है, वैसा ही कुछ करके सिद्ध पुरुष बन जाना चाहिए और उस घोषणा के आधार पर जन्म भर गुलछर्रे उड़ाने चाहिए। ऐसे बीसियों आदमियों की चरित्र गाथा और ऐशो-आराम भरी विडम्बना का हमें आद्योपान्त परिचय है। जैसे ही यह विचार उठा, वैसे ही उसे जूते के नीचे दबा दिया। समझ में आ गया कि मन की परीक्षा ली जा रही है। सोचा कि जब अपनी सामान्य प्रतिभा के बलबूते ऐशो-आराम के आडम्बर खड़े किए जा सकते हैं, तो हिमालय को, सिद्ध पुरुषों को, सिद्धियों को, भगवान को, तपश्चर्या को बदनाम करके आडम्बर रचने से क्या फायदा?

उस प्रथम वर्ष में मार्गदर्शक ऋषि सत्ता के साक्षात्कार ने हमें आमूल-चूल बदल दिया। अनगढ़ मन के साथ नए परिष्कृत मन का मल्ल-युद्ध होता रहा और यह कहा जा सकता है कि परिणाम स्वरूप हम पूरी विजयश्री लेकर वापस लौटे।

जारी रखें