दो ही संपत्ति, दो ही विभूति: योग एवं तप

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

पूजा-पाठ का मर्म

देवियो, भाइयो! पूजा-पाठ का विकसित रूप है—योग और तप। छोटे बच्चों को हम कई तरह से खिलाते हैं, गुड्डा-गुड़ियों से खिलाते हैं, ताकि जब वे बड़े हो जाएँ तो उन्हें खाना पकाने की विधि आ जाए। ब्याह-शादी करने की विधि आ जाए। बच्चियाँ गुड़ियों से खेलती हैं। क्या खेलती हैं? मिठाई बनाएँगे, दावत खिलाएँगे, गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह करेंगे। क्या सचमुच गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह हो रहा है? कहीं नहीं हो रहा है। बच्चियाँ सीख रही हैं। जरा सा चूल्हा ले आई हैं। मिठाई बना रही हैं। मम्मी! मैं कचौड़ी बनाकर लाई हूँ। हाँ, ला कचौड़ी। हमारी माँ ने कहा कि यह बहुत बढ़िया कचौड़ी है। क्या फायदा हुआ इससे? इससे एक ही फायदा हुआ कि बच्चों की वृत्तियाँ सृजनात्मक कामों में—सृजनात्मक दिशा में लग गईं। अगर अभी से इनके ध्यान में यह बात आ गई कि इनको खाना बनाना पड़ेगा, बच्चों का ब्याह करना पड़ेगा तो यह एक बहुत बड़ी बात है। हम भी आपको, छोटे बच्चों को पूजा-पाठ कराते हैं। पूजा-पाठ का क्या मतलब है? पूजा-पाठ का मतलब केवल यह है कि हमारा ध्यान भगवान की तरफ चला जाए। हमको भगवान के साथ जुड़ना है। भगवान को कुछ समर्पित करना है।

कर्मकाण्ड के मायने

पूजा में हम क्या करते हैं? कुछ देते हैं, समर्पित करते हैं। क्या देते हैं? चावल, धूपबत्ती, फूल आदि जरा सी चीज देते हैं। कुछ न कुछ देते हैं, दिए बिना कुछ काम नहीं चलता। पूजा में दिए बिना गुजारा नहीं, इसके बिना किसी तरह पूजा नहीं हो सकती। धूपबत्ती जलाइए, दीपक जलाइए, चावल दीजिए, अक्षत दीजिए, कुछ न कुछ दीजिए। अभी हम आपको गुड़िया-गुड्डों का खेल खिलाते हैं, लेकिन जब आप बड़े हो जाएँगे, तब हम आपको पूजा-पाठ का खेल नहीं खिला सकते। तब हम आपको असलियत बताएँगे। खाना पकाने में कितना समय लगता है, घी कितना खरच होता है, परिश्रम कितना लगता है, कितनी समझदारी से काम लेना पड़ता है, यह सब हम आपको सिखाएँगे। बेटी! अब तू बड़ी हो गई है। अब गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं हो सकता। अब समझदारी से काम लेना पड़ेगा और कंधे पर जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। बेटे! आध्यात्मिकता की जिम्मेदारी वो है, जिसको हम योग और तप कहते हैं। योग किसे कहते हैं? बेटे! योग क्रियाओं का नाम नहीं है। इसे मैं तुझे समझाऊँगा, बार-बार समझाऊँगा और हजार बार समझाऊँगा। ये जो कर्मकाण्ड हैं, ये अपने आप में कोई मायने नहीं रखते। कौन से कर्मकाण्ड? माला घुमाना और प्राणायाम करना, यह याद करना, यह ध्यान रखना—'ये सब कुछ मतलब नहीं' रखते; क्योंकि ये जरा-जरा से खेल-खिलवाड़ हैं। इनको कोई छोटा बच्चा भी कर सकता है। इन खेल-खिलवाड़ों को कोई भी कर सकता है। इनका उतना ही फायदा होना चाहिए, जितना कि जरा से खेल का जरा सा फायदा होता है।

भगवान भावना रूप है

मित्रो! फायदे की कीमत मुनासिब होनी चाहिए। जितना बड़ा खेल होगा, उतना बड़ा फायदा होगा। उतनी ही मुनासिब उसकी कीमत चुकानी पडेगी। हीरा पाँच हजार रुपये का आता है। इससे कम में हीरा नहीं आ सकता। नहीं साहब! हमको बारह आने में दिलवा दीजिए। बेटे! इतने में हम काँच का हीरा दिलवा सकते हैं। पूजा और पाठ काँच के हीरे हैं, क्योंकि इनमें कम मशक्कत करनी पड़ती है, पैसा कम लगाना पड़ता है, कम मेहनत करनी पड़ती है, कम अक्ल खरच करनी पड़ती है। इसलिए अगर छोटी-छोटी चीजों में फायदा होता होगा, तो भी उतना ही होगा, जितनी कि कीमत है। भगवान दुकानदार है। वह हर चीज की कीमत वसूल करता है। कीमत वसूल किए बिना वह कोई चीज किसी भी तरीके से देने को तैयार नहीं है। योग किसे कहते हैं? योग उसे कहते हैं, जो पूजा-पाठ का विकसित रूप है, जिसमें हम अमुक क्रिया नहीं करते, वरन अपने आप को भगवान में मिला देते हैं, भगवान के साथ जोड़ देते हैं। यह जितनी भी आध्यात्मिकता की प्रक्रिया है, वह शरीर से ताल्लुक रखने वाली और पैसे से ताल्लुक रखने वाली नहीं है। यह हमारी जीवात्मा से ताल्लुक रखने वाली है; क्योंकि हमारी अंतरात्मा चेतनापरक है, भावनापरक है। भगवान भी भावनापरक है, चेतनापरक है। चेतना को चेतना से मिलाने के लिए चेतनापरक क्रियाएँ चाहिए, क्रियाकांड नहीं, वस्तुओं से नहीं। हनुमान जी को सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाएँगे। ठीक है, बेटे! हनुमान जी अगर भूखे होंगे तो सवा रुपये के प्रसाद से उनकी भूख दूर हो जाएगी।

मूलत: भावना का खेल है योग

मित्रो! सांसारिक चीजें सांसारिक उद्देश्य पूरा कर सकती हैं। भगवान सांसारिक नहीं है, जड़ नहीं है। भगवान चेतन है, इसलिए चेतन के साथ जब हम अपनी जीवात्मा को मिलाते हैं तो उसकी प्रक्रिया जो होनी चाहिए, गतिविधियाँ होनी चाहिए, रीति-नीति होनी चाहिए, वह सब चेतन होनी चाहिए, भावनात्मक होनी चाहिए। योग क्या होता है? मूलतः भावनात्मक होता है। भावनात्मक योग को पूरा करने के लिए हम आपको खेल-खिलौने भी कई बार खिलाते हैं। शीर्षासन भी कराते हैं। इससे क्या फायदा हो जाएगा? आपका अब तक का जो रहन-सहन रहा है, अब तक का जो जीवन रहा है, सोचने का तरीका रहा है, उसको ऊपर-नीचे कर दीजिए। ठीक उलटा कर दीजिए। पाँव ऊपर कर दीजिए और सिर नीचे। यह क्या हुआ? यह पीपल का पेड़ हो गया, जिसकी बाबत गीताकार ने कहा है—ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं--- ॥ गीता-१५/१ अर्थात यह पीपल का पेड़ ऐसा है, जिसकी टाँगें ऊपर को हैं, जड़ें ऊपर को हैं, पत्ते नीचे को हैं। महाराज जी! ऐसा पीपल का पेड़ तो हमने कहीं नहीं देखा। बेटे! ऐसा पीपल का पेड़ होता है—व्यक्ति। कौन सा व्यक्ति? जिसको हम योगी कहते हैं। वह दिन में सोया करता है और रात में जागा करता है। महाराज जी! तब तो बड़ी मुश्किल आती होगी? हाँ बेटे! मुश्किल आती है। यह रास्ता शूरवीरों का है, बहादुरों का है, योद्धाओं का है। यह रास्ता कायरों का नहीं है, कमीने आदमियों का नहीं है। घटिया आदमियों का रास्ता अध्यात्म नहीं है।

अध्यात्म जिंदगी का शीर्षासन

मित्रो! अध्यात्म बड़े बहादुरों का, शूरवीरों का, कलेजे वालों का रास्ता है। इसको ऊँचा करना पड़ता है। लोगों की रस्म और रिवाज, लोगों के विचार और चिंतन बड़े घटिया हैं, बड़े कमीने हैं। सिवाय पेट पालने के, सिवाय सामान इकट्ठा करने के और अपने शरीर की खुदगरजी पूरी करने के अलावा न इनके पास कोई दिशा है और न कोई लक्ष्य है, न कोई उद्देश्य है। इनके पास कुछ भी नहीं है। आगे बढ़ने, ऊँचा उठने के लिए शीर्षासन करना पड़ता है, उलटा खड़ा होना पड़ता है। टाँगें ऊपर को करनी पड़ती हैं और सिर नीचे को करना पड़ता है। अर्थात लोग जिस तरीके से विचार करते हैं, लोगों का जो सोचने का तरीका है, लोगों के काम करने की जो शैली है, योगी की वह नहीं हो सकती। उसकी शैली अलग तरह की होती है। तो महाराज जी! आप शीर्षासन इसीलिए कराते हैं? हाँ बेटे! इसीलिए कराते हैं। तो क्या इससे कोई फायदा नहीं है? शरीर का फायदा होता होगा। जिस तरह से मुगदर भाजने के, पहलवानी करने के बहुत से फायदे होते हैं, उसी तरह शीर्षासन के भी होते होंगे, लेकिन योगाभ्यास का जहाँ तक ताल्लुक है, वहाँ केवल संकेत हैं, दिशाएँ हैं। जितने भी क्रिया-कृत्य हम करते हैं, वे सब दिशाएँ हैं, मार्गदर्शन हैं, संकेत हैं।

युञ्जते इति योगः

साथियो! योग किसे कहते हैं? योग क्रिया नहीं है, योग एक भावना है, एक वृत्ति है। जितना भी अध्यात्म है, सब भावना से जुड़ा हुआ है। योग उसे कहते हैं, जिसमें हम अपने आप को भगवान के साथ में मिला देते हैं, जोड़ देते हैं। जोड़ देने का क्या मतलब है? एक में एक मिला दिया—यह हो गया जोड़। जब हम अपने आप को किसी के साथ में मिला दें तो यह योग हो जाएगा। जोड़ देने का मतलब है—एक में एक मिला देना। जब हम अपने को भगवान के साथ जोड़ देते हैं, मिला देते हैं तो योग हो जाता है। भगवान के साथ में हमको अपने आप को मिलाना पड़ता है और हमको मिलाना चाहिए। बूँद समुद्र में शामिल होती है, समुद्र बूँद में शामिल नहीं हो सकता। नाले की गंगा में शामिल होने की गुंजाइश है, किंतु गंगा नाले में शामिल नहीं हो सकती। अगर गंगा नाले में शामिल होगी तो बेटे! नाले को मुसीबत पैदा कर देगी। नाला फट जाएगा और चारों तरफ पानी फैल जाएगा। नाला जहाँ से बहता है, वह भी डूब जाएगा, मकान डूब जाएँगे और सत्यानाश हो जाएगा। महाराज जी! अगर भगवान मनुष्य में शामिल हो जाएँ तो? नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। नहीं साहब! भगवान तो मनुष्य की मनोकामना पूरी करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते, क्योंकि जितनी मनोकामना थी, उतनी जिंदगी के साथ में पूरी कर दी है। मनुष्य की अक्ल और मनुष्य के हाथ-पाँव इतने अच्छे और मजबूत बना दिए हैं कि वह अपनी स्वाभाविक कामनाओं को अच्छी तरह से पूरी कर सकता है। इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। हमारे हाथ छह फीट लंबे हैं और हमारा पेट छह इंच का है। हम अपने छह फीट के हाथों से छह इंच के पेट को बखूबी पूरा भर सकते हैं। हम कपड़े से तन ढक सकते हैं और रहने का इंतजाम कर सकते हैं। हम अपनी जिंदगी की जरूरतों को अपने हाथों से पूरा कर सकते हैं।

सारा दुःख अज्ञान का

मित्रो! जो आपकी मनोकामनाएँ थीं और जो आपकी मुनासिब चीजें थीं, उनके लिए जन्म के समय ही पूरा इंतजाम करके भेजा गया है, ताकि आपको जिंदगी में कोई दिक्कत पैदा न होने पाए। जब आप पैदा हुए थे तो माँ की छाती में दूध के दो गरमागरम कटोरे मिलाकर रखे गए थे। इनसान को यकीन दिलाया गया था कि आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। हमने आपके लिए धाय का इंतजाम किया हुआ है। देखिए, आप चलने-फिरने लायक नहीं हैं, दूसरे जानवरों के बच्चे अपने आप चलने-फिरने लगते हैं। लोमड़ी का बच्चा पैदा होने के दूसरे दिन चलने लगता है। गाय का बच्चा दूसरे दिन उछलने लगता है, लेकिन आप में ये तमीज़ नहीं है। कई वर्ष तक आप करवट नहीं बदल सकते, खाना नहीं पका सकते और न स्वयं खा सकते, लेकिन आपके लिए हमने गाय का दूध चौबीसों घंटे के लिए पैदा कर दिया है, धाय पैदा कर दी है। आपके लिए सब इंतजाम कर दिया है। आप हमारे बड़े प्यारे बच्चे हैं, भगवान ने यह यकीन दिलाया कि इन सबके लिए आपको हैरान होने की जरूरत नहीं है कि हमारा गुजारा कैसे हो सकता है और हमारी कामनाएँ कैसे पूरी हो सकती हैं। आपकी जो मुनासिब कामनाएँ हैं, उन्हें आप आसानी से पूरा कर सकते हैं। नहीं साहब! भगवान जी को हमारी मनोकामनाएँ पूरी करनी चाहिए। नहीं बेटे! भगवान जी को आपकी मनोकामना पूरी करने की कोई जरूरत नहीं। अच्छा, आपकी मनोकामनाएँ क्या हैं और क्यों हैं? इसलिए न कि संतान नहीं होती है। तो क्या हर्ज है? मान लिया दुःख है। बेटे! कोई दुःख नहीं है, केवल अज्ञान का दुःख है।

सुरसा की तरह है हवस

मित्रो! सारे का सारा दुःख अज्ञान का है, जिसका कोई इलाज नहीं और किसी के पास इलाज नहीं है। अज्ञान का इलाज भगवान के पास भी नहीं है। किसी के पास नहीं है। आदमी की ख्वाहिशें और हवस इतनी ज्यादा हैं कि सारे के सारे देवी-देवता, संत और महात्मा इकट्ठे होकर के एक आदमी की हवस पूरी करना चाहें तो भी पूरी नहीं हो सकती। सिकंदर की हवस पूरी न हो सकी, रावण की हवस पूरी न हो सकी। आज तक किसी की भी हवस पूरी नहीं हुई है। इस हवस को पूरी करने का एक ही तरीका है कि अपने आप को समेट लें तो हवस खतम हो सकती है। रामायण में सुरसा की कहानी इसी तरह की आती है। सुरसा मुँह फाड़ करके हनुमान जी को खाने के लिए दौड़ी। बड़ा सा मुँह फाड़ लिया और हनुमान जी को पकड़ कर चबाने लगी। हनुमान जी ने अपना शरीर बढ़ा दिया। फिर सुरसा ने अपना मुँह बढ़ाया। तब हनुमान जी ने अपना शरीर बढ़ा दिया। सुरसा का मुँह बढ़ता ही चला गया। हनुमान जी ने देखा कि भाई! यह तो बहुत तंग करेगी। हनुमान जी ने एक बहुत अच्छा तरीका निकाला—मसक समान रूप कपि धरी। मच्छर के समान रूप बनाकर मुँह में से निकल कर भाग गए। ले खा, कैसे खाएगी? कैसे पकड़ेगी? मित्रो ! मनुष्य की तृष्णाओं का कोई अंत नहीं हो सकता। उनको कोई पूरा नहीं कर सकता और मैं समझता हूँ कि पूरा करने की जरूरत भी नहीं है कि आदमी की हवस पूरी की जाए। महाराज जी! हमारी मनोकामना पूरी कर दीजिए। नहीं बेटे! हम तो नहीं कर सकते। बेटे! अगर हमने तेरी एक मनोकामना पूरी कर दी तो जिस तरीके से मिट्टी का तेल डालने से आग भड़कती है, उसी तरीके से तेरी मनोकामना दूनी, चौगुनी, सौगुनी भड़केगी। फिर तू हमारे प्राण खाएगा। इस साल अगर हम यह पूरी कर देंगे तो अगले साल और आ जाएगा। अगले वर्ष और लहू पीएगा। हमारे पुण्य और तप का अनावश्यक लाभ उठाने का तेरी दाढ़ में खून सा लग जाएगा। हम तेरे ऊपर दो बूँद टपका देंगे, फिर तू छह बूँद माँगेगा, फिर इक्यासी बूँद माँगेगा। अभी चवन्नी की माला पहनाकर गया है, अगले वर्ष बारह आने वाली माला लाएगा और ज्यादा वरदान माँगेगा।

भगवान मनोकामना का नाश करते हैं

मित्रो! योग में कहीं भी गुंजाइश नहीं है कि भगवान को मनुष्यों की मनोकामना पूरी करनी चाहिए, वरन उसमें यह है कि मनुष्य को भगवान की कामना पूरी करनी चाहिए। इसी का नाम योग है। जब हम अपनी वृत्तियों को भगवान के साथ मिला देते हैं तो क्या करना होता है? हमको भगवान की मरजी के मुताबिक चलना होता है। जब आप भगवान की मरजी के मुताबिक चलने लगते हैं तो उसी दिन आपको सुख तो नहीं, संतोष मिल सकता है। किसी आदमी की बाबत सुख के बारे में हम कोई गारंटी नहीं कर सकते। वास्तव में इस दुनिया में सुख है ही नहीं तो फिर आपको सुख कहाँ से मिलेगा? मैंने एक दिन आपको बताया था कि इंतजार करने में जो खुजली सी मचती है, बस, उसी का नाम सुख है। जिस समय वे चीजें मिल जाती हैं, उस समय जिम्मेदारी लेकर आदमी के कंधे पर आ जाती हैं और आदमी के प्राण निकाल लेती हैं। पैसा जब तक आपके पास नहीं है, उस वक्त तक पैसा आपको बहुत अच्छा लगता है, लेकिन जब आपको पैसा मिलेगा, तब आपको मुसीबत आ जाएगी और आपके प्राण निकलने लगेंगे। डाकुओं की अलग से चिट्ठी आ जाएगी और आपका साला मुकदमेबाजी अलग से करेगा। बहनोई अलग माँगेगा, जमाई अलग माँगेगा और इन्कमटैक्स वाला अलग माँगेगा। माँगने वाले इतने सारे आदमी आ जाएँगे कि आपके प्राण ले जाएँगे और खून पी जाएँगे और आपको दुनिया में जिंदा रहना मुश्किल कर देंगे। साथियो! आप क्या समझते हैं कि पैसा मिल जाएगा तो हम सुखी रह सकते हैं। हम जानते हैं कि पैसे वाले कितने सुखी हैं और जिनके पास पैसा नहीं है, वे कितने ज्यादा सुखी हैं। हिमालय पहाड़ की तराइयों में हम घूमे हैं। हमने वहाँ देखा है कि जिनके पास पैसे नहीं हैं, वे कितने सुखी हैं। इनके घर में किवाड़ नहीं हैं और दरवाजे में साँकल नहीं लगती है। हमने पूछा-अरे भाई! साँकल क्यों नहीं लगाते हो? ताला भी नहीं लगाते? हाँ साहब! साँकल नहीं लगाते, वरन रस्सी लेकर खूटी से बाँध देते हैं और यों ही दरवाजा खुला छोड़ जाते हैं। रस्सी से इसलिए बाँध देते हैं कि कुत्ता घुस जाएगा, बकरी घुस जाएगी और सामान खराब कर देगी। आप भी किवाड़ खोलकर सो सकते हैं? आप ऐसे नहीं सो सकते। आपके घरों पर तो छापे मारे जाने वाले हैं। सी०बी०आई० वाला छापा मारेगा, होशियार-होशियार हो जाइए। हाँ, महाराज जी! चक्कर तो है। कहो बेटे! तेरे यहाँ तो कुछ नहीं है? महाराज जी! हमारे यहाँ ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ा वबाल तो है। बेटे! जब तक पैसे बढ़ेंगे, तेरे ऊपर मुसीबतें भी बढ़ेगी। कोई चीज, जो तेरे पास बढ़ती चली जाएगी, जितना तू वरदान माँगता चला जाएगा, आशीर्वाद माँगता चला जाएगा, जितनी तेरी मनोकामना पूरी होती चली जाएगी, उसी हिसाब से, उसी परसेंटेज से तेरी दिक्कतें और परेशानियाँ बढ़ती चली जाएँगी। याद रखना, भगवान मनोकामना पूरी नहीं करते, वरन मनोकामना को समाप्त करते हैं और आदमी के अंदर नई वृत्ति पैदा करते हैं कि वह अपने आप को भगवान को सौंप दे।

सब कुछ उसे सौंप दीजिए

मित्रो! मैंने एक दिन आपसे कहा भी था कि भगवान चौराहे पर बिकाऊ खड़ा है। आप भगवान को खरीद सकते हैं। भगवान को अपना नौकर बना सकते हैं और अपनी मरजी के मुताबिक नचा सकते हैं। आप अपनी सहायता करने के लिए भगवान को मजबूर कर सकते हैं और अपने पीछे-पीछे छाया के तरीके से चलने के लिए विवश कर सकते हैं। मीरा के तरीके से आप भगवान जी को अपने साथ नाचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। आप गोपियों के तरीके से भगवान को अपने आँगन में नाचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। सूरदास के तरीके से अपनी लाठी लेकर आगे चलने के लिए मजबूर कर सकते हैं, लेकिन आपको इसकी कीमत चुकानी चाहिए। यह कीमत एक ही हो सकती है और उसका नाम है—योग। योग किसे कहते हैं? अपने आप को भगवान को सौंप देना। सौंप देने से मतलब है—अपनी इच्छाओं को, अपनी कामनाओं को और अपनी तृष्णाओं को—सारी की सारी चीजों को जब हम भगवान में समाप्त कर देते हैं और यह कहते हैं कि आपकी इच्छाएँ अब हमारी इच्छाएँ हैं। आपकी मरजी अब हमारी मरजी है। आपका हुकुम अब हमारा हुकुम है। अब हम आपके साथ चलेंगे, आप हुकुम दीजिए। बेटे! योग इसी को कहते हैं। इससे कम में भी योग नहीं हुआ और ज्यादा में भी नहीं हुआ। आध्यात्मिकता की शिक्षाएँ यही हैं कि हर आदमी को योगी बनना चाहिए।

हम हैं जिंदा किताब

योगी बनने के तरीके क्या हो सकते हैं? बेटे! योगी बनने के लिए वही तरीके हो सकते हैं, जिनका हर नमूना पेश करने के लिए हमको अपनी जिंदगी दान करनी पड़ी और हमको जन्म लेना पड़ा। हमको आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए इसका स्वरूप क्या होना चाहिए, यह समझाने के लिए जन्म लेना पड़ा है, अन्यथा हमको जन्म नहीं लेना पड़ता। लोग यह भूल गए थे कि अध्यात्म क्या हो सकता है और भगवान की सिद्धियाँ कैसे हो सकती हैं? हमने अपनी जिंदगी में लोगों को समझाया भी है, सिखाया भी है, पुस्तकें भी लिखी हैं, लेकिन सबसे बड़ी पुस्तक हमारी जिंदगी है। हमने इतनी लंबी जिंदगी जी और उस लंबी जिंदगी में यह बात बताई कि देखिए आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के तरीके ये हैं। उसके फायदे ये हैं। नहीं साहब! किताबों में लिखा है। नहीं बेटे! किताब की बात सच नहीं होती। यकीन करने की जरूरत नहीं है। इस समय इतनी ज्यादा किताबें और इतनी वाहियात किताबें हैं। दूसरे व्यक्ति के खिलाफ लिखी किताबें हैं, जो आदमी के भ्रम को और बढ़ाती हैं और आदमी के दिमाग को खराब करती हैं। हम जिंदा किताब हैं और हम आपको बताते हैं कि एक योगी के तरीके से हमने अपनी हस्ती को भगवान में मिला दिया है। हमारे पास जो भी चीजें थीं, वह सब हमने अपने भगवान को अर्थात अपने गुरु के सुपुर्द कर दिया और यह कहा कि हमारे पास कोई चीज बची हुई नहीं है। हम योगी हैं, इसलिए हम आपके साथ में अपनी शक्ति को शामिल करते हैं। उसको आप इस्तेमाल कीजिए। एक-एक चीज जो भी हमारे पास थी, हम बीज के तरीके से बोते और गलते हुए चले गए, सब कुछ उनके सुपुर्द करते चले गए। जो भी अक्ल हमारे पास थी, हमने कहा कि यह अक्ल हम आपके सुपुर्द करते हैं। आप इस अक्ल का चाहे जहाँ इस्तेमाल कर लीजिए।

अक्ल का इस्तेमाल किया होता तो

बेटे! हमने अपनी अक्ल का स्वयं के लिए इस्तेमाल किया होता तो कहीं न कहीं हम अपना गुजारा कर सकते थे। हम दो पैसा कमाने लायक थे और अपना अच्छा खासा गुजारा कर सकते थे। अपने बाल-बच्चों के लिए, घर वालों के लिए दौलत इकट्ठी कर सकते थे। अभी की बाकी बची हुई जिंदगी में भी अगर हम चाहें कि पैसा कमाएँगे तो अपनी आध्यात्मिक और भौतिक शक्ति से ढेरों पैसा कमा सकते हैं। सवेरे हम तीन घंटे काम करते हैं। हम कलम लेकर बैठ जाएँ तो यह देखते हैं कि बाजारू कीमत के हिसाब से इसकी कितनी कीमत होती है। हम तीन घंटे लिखते हैं तो पचास रुपये का हमारा लेबर हो जाता है। तीन घंटे की मार्केट वैल्यू पचास रुपये है। सवेरे तीन घंटे हम लेखन का कार्य करते हैं। दूसरे भी काम कर सकते हैं। जैसे कि हमारे गायत्री तपोभूमि में एक बंगाली रहता था। बाद में यहाँ से गुजरात में बड़ौदा के पास एक गाँव में रहने लगा। वहाँ चौबीस लाख का अनुष्ठान करने लगा। वहाँ एक आदमी आया। उससे उसने कहा कि मैं जबान से कह दूँगा तो तुम्हें फायदा हो जाएगा। अच्छा! फायदा हो जाएगा? तो ऐसा करो, एक नमूना बता दो कि हमारे धंधे में कितना फायदा हो जाएगा? उसने कहा कि सट्टे में इतना फायदा हो जाएगा। उन्होंने कहा—ब्रह्मचारी जी! हम और आप एक ऐसी फर्म खोल दें कि जिसमें जो कुछ फायदा होगा, उसमें आधा हमारा और आधा आपका। पैसा हम लगा देते हैं और बात आप बता दिया कीजिए। इससे हमारा भी फायदा हो जाएगा और आपका भी फायदा हो जाएगा। बात मान ली तो दोनों में एग्रीमेंट हो गया।

सब कुछ भगवान को बेच दिया है

ब्रह्मचारी जो था, थोडे दिन पीछे कोई बात बता देता और उसकी बात सही हो जाती, फायदा हो जाता। फायदा होते-होते ब्रह्मचारी जी को खूब पैसे मिलने लगे। पहले वह सौ रुपये भेजता था, पीछे ढाई सौ भेजने लगा, फिर पाँच सौ भेजने लगा। ब्रह्मचारी भाँग पीने लगा और मोटा हो गया। जो कुछ वह पूछता, ब्रह्मचारी बताता रहा। एक बार जाने क्या बता दिया कि सब कुछ उलटा-पुलटा हो गया। जो कुछ उसने कमाया था, सब चला गया। अब तो उसने ब्रह्मचारी से कहा कि मेरा घाटा ठीक करा, नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा। तूने मेरा इतना घाटा करा दिया, चल, गुरुजी के पास चलता हूँ। बस, वह मेरे पास आ गया। महाराज जी ! ऐसे-ऐसे किस्सा है। दोनों का मुकदमा सुना। दोनों खूब रोए। अच्छा! ठीक करा दूँगा, लेकिन आइंदा तूने फिर से यह धंधा किया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। दोनों का मामला तय करा दिया। मित्रो! अगर मैं यही काम करने लगूँ, धंधा करने लगूँ तो बहुत कमा सकता हूँ। कैसे कमा सकता हूँ? एक-एक आदमी से कहूँ कि मैं बच्चा पैदा करा दूँगा, निकाल पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये। पच्चीस हजार का बेटा बेचना शुरू करूँ और महीने भर में पाँच बेटे बेच दिया करूँ, तो सवा लाख की आमदनी हो जाएगी। बेटे ! मैं बहुत कमा सकता हूँ, लेकिन मैंने अपनी अक्ल को बेच दिया है। सब कुछ बिका हुआ है। अपने लिए हम इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। हम योगी हैं। क्रिया की दृष्टि से नहीं, नाक में से प्राणायाम करने की दृष्टि से नहीं, नाक में से रस्सी निकालने की दृष्टि से नहीं, वरन भावना से योगी हैं। हम जुड़े हुए हैं। किसी के साथ मेरा ब्याह हुआ है, किसी के साथ मेरी शादी हुई है। उसकी मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। मेरी अक्ल उस आदमी के सुपुर्द है, जिसे मैं गुरु कहता हूँ, भगवान कहता हूँ।

हम सही मायने में योगी हैं

मित्रो! हमारा धन भी वहीं जमा है। लाखों रुपये की अपने बाप-दादों की संपत्ति और अपनी कमाई, सब कुछ हमने गायत्री तपोभूमि में जमा करा दिया। पैसे की दृष्टि से हमारे पास कुछ नहीं है, एक पाई भी नहीं है। हम बिलकुल खाली हैं। क्यों? हमने सब कुछ अपने गुरु को सौंप दिया है। हम योगी हैं, योगी। योगी का मतलब है—मिला देने वाला, देने वाला। पाने वाला नहीं—देने वाला। भगवान से पाना क्या? बेटे! हमारी अक्ल, हमारी काया, हमारा धन और हमारी बुद्धि, सब कुछ भगवान के सुपुर्द है। यह क्या है? यह योगी का तरीका है। योगी माँगते नहीं हैं। योग में माँगने की गुंजाइश नहीं है, देने की गुंजाइश है। अत: क्या करना पड़ेगा? आपको भगवान को खरीदने के लिए अपने आप को सौंपना पड़ेगा। तब भगवान हमारी मनोकामना पूरी करें, ऐसा आप नहीं कह सकते। भगवान को आप समझते नहीं। भगवान विशिष्ट शक्ति का नाम है। आप अपनी मनोकामना को पूरी कराने के लिए देवता को जलील करना चाहते हैं। ऐसा करने की जरूरत नहीं है। कष्ट उठाकर देखिए, तभी बात बन सकती है। नहीं साहब! हमारी मनोकामना पूरी कर दीजिए, हम आपको मिठाई देंगे, फूलमाला देंगे और आपको चावल खिला देंगे, धूपबत्ती खिला देंगे। बड़ा पागल, बड़ा छोटा आदमी है, जो इन चीजों को देकर देवताओं से क्या-क्या माँगता है। आदमी कितना जाहिल है कि वह सेवा-सहायता करने से पहले यह तय कर लेना चाहता है कि कहीं ये नकली देवता तो नहीं हैं? जिसका हम हुकुम मानें, आखिर वो है क्या? आदमी यह तलाश करना चाहता है।

(क्रमश:)

[परमपूज्य गुरुदेव द्वारा शांतिकुंज परिसर में १५.११.१९७५ को दिए गए इस उद्बोधन की प्रथम कड़ी में बताया गया था कि भगवान भावनारूप हैं। उन्हें कर्मकांडों में न बाँधें। अध्यात्म एक प्रकार से जिंदगी का शीर्षासन है। शूरवीरों का क्षेत्र है यह। योग और तप के महत्त्व को परिजन पाठक समझें एवं तत्त्व से उनका मर्म ग्रहण करें। योग का अर्थ है अपने आप को भगवान को सौंप देना तथा तप है स्वेच्छा से सादगी व ब्राह्मणत्व को जीवन में उतारना। पूज्यवर ने अपना उदाहरण प्रस्तुत कि या है कि कैसे उनने योगी का जीवन जिया। वे कहते हैं कि योग में माँगने की गुंजाइश नहीं है। हमें भावना से योगी बनना चाहिए। अब आगे पढ़ें—]

खुदा का इम्तिहान

मित्रो! मुझे इसलाम धर्म की एक कथा याद आ गई। हजरत इब्राहिम पुराने जमाने में एक बड़े पैगंबर हुए हैं। मुहम्मद साहब नए थे। हजरत इब्राहिम जो थे, वे खुदा से कहने लगे खुदा मैं तुझसे प्यार करता हूँ, लेकिन तू मुझसे प्यार नहीं करता। इब्राहिम गलत कहते हो, मैं खुदाबंद करीम आपसे प्यार करता हूँ, सच्चे मन से कहता हूँ कि मैं आपका भक्त हूँ। एक से ही भक्ति हो सकती है, दो से नहीं। संसार से भक्ति करेगा तो मुझसे नहीं हो सकती और मुझसे करेगा तो संसार से नहीं हो सकती। दोनों से भक्ति नहीं हो सकती। संसार से भक्ति करेगा तो मुझे पकड़कर संसार में डुबोना चाहेगा और मुझसे भक्ति करेगा तो संसार को पकड़कर मुझमें डुबोना चाहेगा। तू मेरा भक्त है? नहीं है, तू बेकार की बातें करता है। नहीं, मैं आपका भक्त हूँ। तो फिर ला, तेरी सबसे प्यारी चीज कौन सी है, मेरे सुपुर्द कर। प्यार से प्यारा क्या है? मेरा बेटा है और कोई प्यारा नहीं है। पैसे तो थे नहीं। पुराने जमाने में पैसे कहाँ होते थे! इसलाम धर्म की कथा है कि तलवार लेकर इब्राहिम अपने बेटे को काटने के लिए तैयार हो गए कि मैं खुदा पर इसको कुरबान कर दूँगा। जब वे काटने के लिए तैयार हो गए तो खुदाबंद करीम ने उनके हाथ पकड़ लिए। उन्होंने कहा—बस! बात खतम हो गई।

'मैं' की कुरबानी

मनुष्य को मार डालने से क्या बन सकता है! मार डालने की बात नहीं थी। बात यह थी कि जिनको तू प्यार करता है, जिनको चाहता है, क्या उस चाहत को हमारे सुपुर्द कर सकता है? बस! ठीक है, तू आज से हमारा भक्त हो गया। इब्राहिम पैगंबर हो गए। हमारी भी यही बात है। हम भी यही बात कहते हैं कि भगवान कुरबानी माँगते हैं। किसकी कुरबानी माँगते हैं? उसी की तो कुरबानी माँगते हैं, जैसे कि मुसलमानों में होती है और किसी की कुरबानी नहीं होती है। एक ही जानवर की कुरबानी होती है। कौन सा जानवर? वही जो बराबर चिल्लाता रहता है—मैं-मैं-मैं.........! मैं-मैं कौन चिल्लाता है? मेरापन, स्वार्थ। मैं-मैं के साथ में सारी वासनाएँ जुड़ी हुई हैं, तृष्णाएँ जुड़ी हुई हैं, अनीति जुड़ी हुई है, अन्याय जुड़ा हुआ है, अशांति जुड़ी हुई है। जितनी भी चीजें हैं, सब 'मैं' के साथ जुड़ी हुई हैं। इस 'मैं' को काटकर फेंक दीजिए और अब 'तू' कहिए— मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागत है मोर।।

योग का सही तरीका

जब आप यह कहने लगेंगे तो आपकी जिंदगी में मजा आ जाएगा। जिस सुख-शांति की आप तलाश करना चाहते हैं, वह एक सेकंड में आपके चरणों में आकर खड़ी हो जाएगी। यह क्या है? यह योगी का तरीका है। हमने इसी योगी के तरीके को अख्तियार किया है, उसके परिणामस्वरूप वह पाया है, जो योगी को मिलना चाहिए। इसलिए हम लोगों को बताते रहते हैं कि देखिए, योग करने के तरीके, जो लोगों को बता दिए गए हैं, समझा दिए गए हैं, वे गलत हैं। आप अपनी गलतफहमी निकाल डालें तो मैं समझता हूँ, आप ज्यादा अच्छे रहेंगे। योग के नाम पर, पूजा-पाठ के नाम पर, भगवान जी की प्रार्थना के नाम पर आप जो यह करते रहते हैं कि हमको यह दे जाएँ, हमको वह दे जाएँ—भक्ति में, योग में यह लेने वाली बात कहाँ है! भगवान को दिया जाता है कि लिया जाता है? नहीं साहब! भगवान जी के पास जाऊँगा और लेकर आऊँगा। क्या लेकर आएगा? साड़ी लेकर आऊँगा, धोती लेकर आऊँगा, मुकुट लेकर आऊँगा, वंशी लेकर आऊँगा। नहीं बेटे! यह क्या मजाक करता है ! भगवान के यहाँ जाता है तो मिठाई लेकर जा, फूल लेकर जा, अक्षत लेकर जा, चावल लेकर जा। भगवान जी के यहाँ देने के लिए जाते हैं कि लेने के लिए जाते हैं? नहीं साहब! लाऊँगा। नहीं बेटे! लाने के लिए हम भगवान जी के पास नहीं जाते। लाने के लिए अपनी कलाइयों के पास जा, लाने के लिए अपनी अक्ल के पास जा, लाने के लिए अपने उद्योग के पास जा, अपने पुरुषार्थ के पास जा। इसका नाम योग है।

पूजा-पाठ का जंजाल

मित्रो ! मैंने आपसे कहा था कि यदि आपको वास्तविक उन्नति करनी हो और वास्तविक उपासना से आपका कोई रिश्ता रहा हो तो आप इसकी वास्तविकता को समझें, लेकिन लगता है कि वास्तविकता से आपको कोई लगाव नहीं है। अगर आप बहलावे में-बहकावे में रहना चाहते हैं तो आपकी मरजी है। फिर मैं आपको दूसरी सलाह दूँगा और कहूँगा कि आपके लिए पूजा पाठ के जाल में फँसना बेकार है, आप इससे दूर रहिए। इससे कम से कम आपको निराशा तो नहीं होगी, मायूसी तो नहीं होगी। गालियाँ तो नहीं देंगे आप। एक घंटे भजन करेंगे और दो घंटे गालियाँ देंगे। नौ दिन तक अनुष्ठान करेंगे और अठारह दिन तक गालियाँ देंगे। इससे क्या फायदा हुआ? मत आप अनुष्ठान कीजिए, मत आप गालियाँ दीजिए। इससे कम से कम जमा-खरच तो बराबर रहेगा। नहीं साहब! हम तो भगवान जी का अनुष्ठान करेंगे। बेटे! तू ऐसे अनुष्ठान करना बंद कर दे। इससे क्या फायदा होगा? इससे भगवान जी को फायदा होगा, उनको गालियाँ नहीं पड़ेंगी। नौ दिन तक सत्र किया और अठारह दिन तक गालियाँ पड़ी तो बता, इससे क्या फायदा हुआ? गुरुजी को चवन्नी की माला पहनाई और ढाई रुपये का बॉलपेन ले गया, क्या फायदा हुआ? बेटे! तू अपनी माला अपने पास रख और हमारा फाउन्टेनपेन हमारे पास रहने दे। मत तू हमको गालियाँ दे और न ही हमारी प्रशंसा कर। नहीं साहब! मैं तो प्रशंसा करूँगा और गालियाँ दूँगा। नहीं बेटे! प्रशंसा करना और गालियाँ देना बेकार है।

सबसे बड़े गुरु आप!

इसलिए मित्रो! पहले वाली वह क्रिया, जिसका मैं आपको निवेदन कर रहा था कि भगवान के नजदीक आपको जाना हो, आध्यात्मिक शक्तियों के नजदीक जाना हो, उनका वह प्रभाव ग्रहण करना हो, जिसके मुकाबले में सांसारिक प्रभाव किसी काम के नहीं हैं। बेटे! हमने लोगों को बताया है कि हम सामर्थ्यवान हैं और शक्तिवान हैं। कभी-कभी शक्तियों के तमाशे भी दिखा देते हैं। कभी-कभी फुलझड़ियाँ चलाकर दिखा देते हैं। कभी गायत्री तपोभूमि बना दिया, कभी यह बना दिया। यह क्या है? हम कभी-कभी चमत्कार दिखा देते हैं और फुलझड़ी चला देते हैं। कभी हजारकुंडीय यज्ञ किया और पचास लाख रुपये खरच कर दिया, फुलझड़ी जला दी। महाराज जी! और दिखाइए। बेटे! अभी नहीं दिखाते, वे सभी हमारी जेब में रखे हुए हैं, जब मरजी आएगी, तब दिखाएँगे, तेरे कहने से नहीं दिखाएँगे। नहीं साहब! चमत्कार दिखाइए। नहीं दिखाते, हम कोई तेरे नौकर हैं या तेरे गुलाम हैं? क्यों तू कौन है? हमें चमत्कार दिखाना होगा, तो अपनी मरजी से दिखाएँगे, हमारा भगवान कहेगा तो दिखाएँगे। नहीं महाराज जी! हमें भी चमत्कार दिखा दीजिए, हम आपके चेले हो जाएँगे। बेटे! आपका धन्यवाद! हमें आपको चेला बनाने की बिलकुल जरूरत नहीं है। आप जिसको गुरु बनाना चाहते हैं, उसी को निहाल कीजिए। हम तो अपने आप पर निहाल हैं। हमें आपसे कुछ लेना नहीं है और कोई चेला बनाना नहीं है। हम तो अपने आप के चेले हैं और हमारा कोई चेला नहीं है। आप सब हमारे गुरु हैं, चेला तो हम हैं। गुरु किसे कहते हैं? अरे साहब! वह तो बहुत बड़ा गुरु है। बस, आप सब गुरु हैं। चेला तो एक हम हैं, दूसरे शंकर जी हैं और तीसरे भगवान जी हैं। ये सब आपके चेले हैं। सबसे बड़े गुरु आप हैं।

चेले का कमाल

किस तरह से आप बड़े हैं? सावन के महीने में शंकर जी के ऊपर जल चढ़ा रहे हैं। क्यों चढ़ा रहे हैं? अरे महाराज जी! जरा खेल तो देखिए। मेरा चमत्कार तो देखिए। दिखा, क्या चमत्कार दिखाएगा? सावन के महीने में तीन पैर की लकड़ी लाया। और क्या लाया? मिट्टी के तीन घड़े लाया और उसमें सुराख कर दिया और शंकर जी के सिर पर लगा दिया। टप-टप करके शंकर जी के ऊपर पानी टपक रहा है। बेटे! यह क्या हो रहा है? अरे महाराज जी! देखिए तो सही, चेला किसे कहते हैं? हाँ बेटे! दिखा, क्या दिखाएगा? बस, सावन भर शंकर भगवान के ऊपर पानी टपकता रहा और पानी टपकने के बाद उनको जुकाम हो गया। जुकाम के बाद में बुखार आ गया। अरे बेटे! देख तू चौबीस घंटे नहलाता है। सावन का महीना है, पानी बरस रहा है और तू हमारी जान लेने आ गया। अरे स्वामी जी! देखिए तो सही, चेले का कमाल देखिए। अच्छा, चल बेटा, अब कुछ दवा-दारू का इंतजाम कर। किसी डॉक्टर को बुला ला। स्वामी जी! आपके लिए डॉक्टर? डॉक्टर तो बड़े वाहियात होते हैं, फीस माँगते हैं और पैसा माँगते हैं। अच्छा, तो किसी हकीम को लिवा ला। अरे साहब! हकीम के पास जो जड़ी-बूटियाँ हैं, वे पुरानी हो गई हैं, बेकार हो गई हैं। तो फिर जुकाम के लिए क्या करेगा? जुकाम के लिए, बुखार के लिए हम दवाई लाएँगे। क्या लाएगा? वो लाएँगे-आक के फूल और धतूरे के फल। धतूरे के फल खाइए और आक के फूल खाइए, आप अच्छे हो जाएँगे। बेटे! धतूरे का फल तो दिक्कत करेगा। हम भूखे भी हैं। महीने भर से तूने खिलाया तो कुछ भी नहीं है, ऊपर से पानी टपकाता रहा। कुछ खाने के लिए फल तो ले आ, केला ले आ, जामुन ले आ, पपीता ले आ। आजकल ये सभी फल आ रहे हैं। स्वामी जी ! यह सब आपको नहीं खिलाऊँगा। आपको तो ऐसा फल खिलाऊँगा, जो किसी के भी नसीब में नहीं होता।

धूर्तता का खेल

बेटा! कौन सा फल खिलाएगा? धतूरे का फल खिलाऊँगा। अहा............! यह चेला धतूरे का फल खिलाएगा! शंकर भगवान ने धतूरे के फल खाए और आक के फूल खाए और बेहोश हो गए। शंकर जी के चेले ने देखा कि वे बेहोश हो गए हैं, उसे मजा आ गया। उसने देखा कि जेब में क्या रखा हुआ है? जेब में एक डायरी रखी हुई थी। डायरी में लॉटरी के नंबर लिखे हुए थे। गुजरात गवर्नमेंट की लॉटरी नंबर ३६९८९, यू०पी० गवर्नमेंट की लॉटरी नंबर ३५१९००। डायरी को उसने चुरा लिया और सब लॉटरी के नंबर ले गया। यह भी लॉटरी लगाई, वह भी लॉटरी लगाई। शंकर भगवान को जब होश आया, तब उन्होंने कहा—कहाँ गया चेला, हकीम को भी नहीं लाया, दवाई भी नहीं लाया और हमारी डायरी भी ले गया। चेला तो ऐसा ही होता है। हमारे और आप जैसे यह बड़ा वाहियात चेला है। बेटे! आपको गुरुजी की जरूरत नहीं और हमें आपकी जरूरत नहीं। न हम आपको चेला बनाना चाहते हैं और न हम आपके गुरु बनना चाहते हैं। गुरु हम बनेंगे नहीं और चेला बनाने की हमारी इच्छा नहीं। गुरु कौन होता है? जो हजामत बनाता है। आप क्या चाहते हैं? हमको यह आशीर्वाद दे दीजिए। अच्छा साहब! आशीर्वाद दे देंगे। क्या आशीर्वाद दें? यह आशीर्वाद दीजिए कि हमारे संतान हो जाए। बेटे ! हमको तीन साल का अपना पुण्य आपको देना पड़ेगा, तप देना पड़ेगा। हाँ, महाराज जी! आप तो बड़े दयालु हैं, दे दीजिए।

हाँ बेटे! हम देंगे। अच्छा, बता कि तीन साल का हमारा तप कितने दाम का हुआ? अरे महाराज जी! आपका क्या है, आप तो ऐसे ही फालतू बैठे रहते हैं। नहीं बेटे! हम फालतू नहीं हैं। हम कम से कम दो हजार रुपये महीने की नौकरी कर सकते हैं। तू ले जा हमें कहीं, गुरुजी बिकाऊ हैं और उन्हें नौकरी पर रख लीजिए। एक साल बाद कितना हुआ? चौबीस हजार रुपये हुआ। तीन साल का कितना हो गया? बहत्तर हजार रुपये हो गया। संतान पैदा करने के लिए हमें बहत्तर हजार रुपये दे दीजिए। नहीं महाराज जी! हम नहीं दे सकते। तो फिर तू क्या देगा? अरे महाराज जी! हम क्या देंगे, आपको फूलमाला पहना तो दी। मित्रो! यह कोई गुरु-चेले के धंधे हैं? यह भी कोई भगवान की भक्ति है! यह तो केवल मखौल है। दिल्लगीबाजी है और मक्कारी है। आप जिसको भक्ति कहते हैं, भजन कहते हैं, मैं उसको खालिस मक्कारी कह सकता हूँ। इससे बात नहीं बनेगी। सिद्धांत सिद्धांत रहेगा, आदर्श आदर्श रहेगा। अगर उसमें से लाभ उठाना है तो उसी ढंग से उठाया जाना चाहिए और उसी ढंग से उठाया जा सकता है, जो उसके तरीके हैं। इसके लिए आपको प्रापर चैनल से चलना पड़ेगा। इसमें कोई शार्टकट नहीं है।

नहीं साहब! चमत्कार दिखा दीजिए, जादू दिखा दीजिए। बेटे! दुनिया में कोई चमत्कार नहीं है, कोई जादू नहीं है। हर चीज की मुनासिब कीमत है। कीमत चुका और ले जा। यहाँ खालिस दुकानदारी है। भगवान कौन है, दुकानदार है। भगवान कौन सी जाति का है, मालूम है आपको? ये कौन हैं? ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, कायस्थ कौन हैं? आपको मालूम नहीं, हमको मालूम है। आपको कैसे मालूम पड़ा? हमको तो कबीर ने बताया और उनकी बात पर हमको विश्वास हो गया। तभी से मैं जान गया कि भगवान की जाति कौन सी है। कबीर ने बड़ी मुश्किल से पता लगाया था। सभी लोग कहते थे कि हमारी बिरादरी के भगवान हैं, लेकिन कबीर ने पता लगा लिया। कबीर ने एक दोहा लिखा है, उसमें भगवान की जाति की बात मालूम पड़ती है कि भगवान कौन सी जाति के हैं। उन्होंने कहा कि भगवान की जाति यह है— साईं मेरा बानिया, सहज करे व्यापार।
बिन तखरी बिन पालड़े, तौले सब संसार।।

साईं मेरा बनिया है। वह सहज व्यापार करता है, दुकानदारी करता है। उसका क्या धंधा है? उसकी बिरादरी कौन सी है? वह जाति का बनिया है। अरे भगवान जी! आप अपना पेशा लिखाइए, खानापूरी कीजिए। अरे भाई! मेरा तो सहज व्यापार है। तो फिर कैसे करते हो बाबा! तुम्हारे पास तो कुछ है नहीं। "बिन तखरी बिन पालड़े, तौले सब संसार।" संसार के तराजू पर सब तौल-तौलकर सारा काम बनता हुआ चला जा रहा है। भगवान कौन सा बनिया है? देख बेटे! भगवान-पोरवाल, पालीवाल, खंडेलवाल, अग्रवाल, जायसवाल, इन्हीं में से है। है तो बनिया और व्यापार कैसे करता है? बेटे! व्यापार बिना कमीशन के हो नहीं सकता। व्यापारी से पूछ कितना परसेंट लेते हो? बारह, पंद्रह, बीस, साठ परसेंट? अपना कमीशन काटे बिना तो बनिया काम ही नहीं कर सकता। चालाक बनिया होगा तो डाँड़ी मारेगा। सौ ग्राम चीज का अस्सी ग्राम ही हाथ लगेगा। देखने में आपको एक सौ पच्चीस ग्राम मालूम पड़ेगा, परंतु आपके हाथ अस्सी ग्राम ही लगेगा। चालाक होगा तो कहेगा—जल्दी कीजिए-जल्दी कीजिए और ग्राहक खड़े हैं। अगर बनिया चालाक नहीं है, ईमानदार है तो कम से कम कमीशन लेगा। कहो भाई! कितना पुण्य है तुम्हारा? सौ मन पुण्य है। ९९ मन वरदान ले जाइए। क्यों साहब! ९९ मन क्यों देते हैं? अरे बाबा! हमारे बाल-बच्चे भी तो हैं। दुकान का किराया भी तो देते हैं। फिर हम भी किसलिए बैठे हैं? हमने जो दिया है, सो लेकर जाइए। यह क्या है? यह जेबकटों का धंधा है। यह लॉटरी का धंधा है। देगा राई के बराबर और माँगेगा पहाड़ के बराबर। बेटे! ऐसा नहीं हो सकता।

मित्रो! योग का अर्थ केवल एक है और वह यह कि हम अपने आप को उस समर्थ सत्ता के सुपुर्द कर दें। उसके इशारों पर, उसके संकेतों पर हम चलें। अपने जीवन की रीति-नीति को अपनी मरजी के मुताबिक नहीं, वरन भगवान की मरजी के मुताबिक बना लें। फिर हम भक्तों में शामिल हो जाते हैं। फिर हमको हक है कि हम भगवान को कहें कि आपको हमारी मरजी पूरी करनी चाहिए। बेटे! हमारे भगवान ने हमको हिंदुस्तान से बाहर भेजा। हमने कहा कि आप जिन लोगों के पास हमको भेजते हैं, वे हिंदी के मायने समझते नहीं हैं। आप हमें अन्यान्य भाषा-भाषियों के पास भेजते हैं तो हम दुभाषिए के पास भेजते हैं, तो हम दुभाषिए कहाँ से लाएँगे? हमें भेजने की आवश्यकता क्या है? किसी और को भेज दीजिए, जो उन लोगों की भाषा को समझ सकता हो। उन्होंने हमें किराए की जबान दे दी और कहा कि तुम जहाँ भी जाना चाहो, जिस देश में भी जाना चाहो, वहाँ के लोगों से बात कर सकते हो। बेटे! ऐसे ही हुआ। न जाने कौन-कौन से मुल्क में मैं गया, मुझे यह जरूरत नहीं पड़ी कि मैं हिंदी में बोलूँ या अंगरेजी में बोलूँ। वहाँ की मातृभाषा में बोलता रहा। मेरे पास इस का रिकार्ड रखा है। बेटे! उनकी जबान मेरी जबान है, उनकी अक्ल मेरी अक्ल है। मैंने अपनी अक्ल को उनके सुपुर्द कर दिया है। आप तो करना नहीं चाहते, माँगना चाहते हैं। यह कैसे हो सकता है! ऐसा नहीं हो सकता।

बीज बोना ही है असली योग

मित्रो! योग का अर्थ यह है कि पूजा-उपासना के समय जो भी आपके पास है, समर्पित कीजिए। अगर आपको कुछ बनना है तो अपने कलेजे को चौड़ा कीजिए, हिम्मत को बड़ी कीजिए और जो कुछ भी आपके पास है, मैं नहीं जानता कि आपके पास क्या है? अक्ल आपके पास है तो यही काफी है। पसीना आपके पास है तो यही काफी है। श्रम और समय आपके पास है तो यह भी काफी है। आपके पास पैसा है तो यह भी काफी है। जो भी चीज आपके पास है, वह पहले भगवान के सुपुर्द कीजिए, फिर माँगिए। बीज के तरीके से गलने की तैयारी कीजिए, फिर देखिए, जमीन आपकी सहायता करती है कि नहीं करती। जमीन आपको बढ़ाएगी और इतना ज्यादा बढ़ाएगी, जितना आपका दान था, उसकी अपेक्षा लाख गुना और करोड़ गुना आपको बढ़ा देगी। बीज की औकात कितनी होती है? राई के बराबर होती है और वह जमीन में गल जाता है। गलने के बाद में फिर देखना जमीन की दयालुता, फिर देखना जमीन की हिम्मत और साहस कि वह एक बीज की वनिस्बत कितने गुना—लाख गुना और करोड़ गुना बढ़ा देती है और आपने जितना बीज खरच किया था, हर साल उससे कई गुना अधिक बीज आपके पेड़ पर लगा देती है। भगवान के यहाँ अनुदान का कोई ठिकाना नहीं है, पर पहला काम हमारा दान देना होना चाहिए। दान के बदले में हमको अनुदान मिला है। और कोई दूसरा तरीका नहीं है। हाँ, किसी और को मालूम हो तो उससे मालूम करना। हमको तो मालूम नहीं है। मित्रो! इसी को योग कहते हैं। यह पहला वाला कदम है।

तप योगी के लिए अनिवार्य

दूसरा वाला कदम एक और है, जिसको कहना चाहिए 'तप'। तप किसे कहते हैं? तप कहते हैं गरम करने को। हमको अपने आप को गरम करना पड़ता है। सुविधा का जीवन, सुख का जीवन, चैन का जीवन, प्रसन्नता का जीवन, हँसी-खुशी का जीवन, मौज-मजे का जीवन—यह हमारे भाग्य में बदा हुआ नहीं है। तपस्वी के भाग्य में यह सब बदा हुआ नहीं है। सिद्धांतवादी के भाग्य में बदा हुआ नहीं है। आदर्शवादी के भाग्य में बदा हुआ नहीं है। यह किनके भाग्य में बदा हुआ है? यह बेटे! वेश्याओं के भाग्य में बदा हुआ है। अय्याशों के भाग्य में बदा है। सेठों के भाग्य में बदा हुआ है। वे एयरकंडीशंड कमरों में रहें और अपनी मौज करें और मजा करें। यह योगी के भाग्य में बदा नहीं है। अगर आप योगी बनना चाहते हों, भगवान के भक्त बनना चाहते हों तो अपनी जिंदगी में से यह ख्वाब निकाल दीजिए, हटा दीजिए कि हमें मौज की जिंदगी काटनी है, मजे की जिंदगी काटनी है। बेटे! इसमें मौज-मजे की जिंदगी नहीं काटी जा सकती। सिद्धांतवादियों का इतिहास आदि से लेकर अंत तक यही है कि उन्होंने मुसीबतों की जिंदगी जी है और कष्टों की जिंदगी जी है। कष्टों को उन्होंने जान-बूझकर आमंत्रित किया है, जान-बूझकर बुलाया है। कष्ट नहीं आए तो उन्होंने बुलाया है। क्यों? क्या मतलब है? मतलब यह है कि हमारे लिए तप कई तरीके से आवश्यक है और कई जरूरतों को पूरा करता है। पहली बात—इस जरूरत को पूरा करता है कि हमारे शरीर और अक्ल में, बुद्धि में जो महत्त्वपूर्ण हिस्से सोए पड़े रहते हैं, उनको जगाने के लिए गरम करना पड़ता है। गरम किए बिना दूध में से घी नहीं निकलता। गरम किए बिना कोई व्यक्ति मजबूत नहीं बनता। गरम किए बिना हर आदमी कमजोर रहता है। इसलिए आदमी को बलवान बनने के लिए, मजबूत बनने के लिए, शक्तिवान बनने के लिए और सामर्थ्यवान बनने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। मुसीबतों को जान-बूझकर आमंत्रित करना पड़ता है। अपने दिल और दिमाग को इस बात के लिए तैयार करना पड़ता है कि हम मुसीबतों के साथ में, कठिनाइयों के साथ में जद्दोजहद करेंगे। हम मुसीबतों के साथ खिलवाड़ करेंगे।

महामानव इससे कम में नहीं

मित्रो! तपस्वी कभी आरामतलब नहीं हो सकता। अगर तपस्वी आरामतलब होगा तो उसकी शक्तियाँ सोई पड़ी रहेंगी, जल जाएँगी, गल जाएँगी, नष्ट हो जाएँगी। फिर वह आदमी मुरदे के तरीके से जिएगा। जो चाकू पत्थर के ऊपर घिसा ही नहीं गया है, वह चाकू तेज नहीं हो सकता; उसके अंदर धार पैदा नहीं हो सकती; उसके अंदर चमक नहीं आ सकती। बिना मेहनत का चाकू पड़ा तो रह सकता है, पर वह काले रंग का हो जाएगा। उसको जंग खा जाएगी और जंग खाकर वह नष्ट हो जाएगा, बरबाद हो जाएगा, जिसने इनकार कर दिया कि हमको पत्थर पर घिसे जाना नामंजूर है। आप भी अगर पत्थर पर घिसे जाने से इनकार करते हैं तो यह कैसे हो सकता है। आप दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिए, आप किसी भी महामानव की जिंदगी ऐसी नहीं पाएँगे कि जिसने मुसीबतों के साथ खिलवाड़ न किया हो और जान-बूझ करके मुसीबतों को न बुलाया हो। भगवान राम के पिता अपने बच्चों को अच्छे तरीके से रखते थे। अच्छे स्कूल में पढ़ने को भेजते थे। बच्चे भी खूब मौज उड़ाते थे। जब विश्वामित्र ने देखा कि यह इन बच्चों का सत्यानाश करेगा, मारेगा इन बच्चों को। विश्वामित्र आए और उन्होंने कहा कि इनको जंगल में जाना पड़ेगा और हमारे आश्रम में रहना पड़ेगा। इनको ठंढक में रहना पड़ेगा और गरमी में रहना पड़ेगा, मुसीबत में रहना पड़ेगा। नहीं महाराज जी! ये मेरे बुढ़ापे के सहारे हैं। तो क्या करेगा इन बच्चों का? मारेगा? क्या बनाना चाहता है इन्हें? नहीं साहब! मैं तो गला दूँगा और खराब कर दूँगा। इन्हें खराब मत कर, वरन हमारे सुपुर्द कर। हम इनको शानदार बनाएँगे, तेजस्वी बनाएँगे और सामर्थ्यवान बनाएँगे।

भगवान कष्ट देकर मजबूत बनाता है

बेटे! विश्वामित्र उन बच्चों को ले गए उनके बाप से लड़ाई-झगड़ा करके और उन्होंने उनको मुसीबतों में झोंक दिया। ऋषियों के आश्रम में कहीं पलंग थे? कहीं नहीं थे। फोम के गद्दे थे? कहीं नहीं थे। बच्चे जमीन पर पड़े रहते थे। बेचारे राजकुमारों को भी जमीन पर पड़े रहना पड़ा, रूखी-सूखी रोटियाँ खानी पड़ी, नंगे पाँव चलना पड़ा, गायें चरानी पड़ी। जब राक्षस लड़ने के लिए आ गए तो उन्होंने कहा—जाओ रे लड़को, लड़ो। अरे साहब! हम मारे जाएँगे। मारे जाओगे तो मारे जाओगे, और क्या होगा, चलो लड़ो। कौन-कौन से राक्षस थे? एक का नाम था ताड़का, एक का नाम था मारीच और एक का नाम था सुबाहु। उनके हाथ में तीर-कमान थमा दिया। अरे साहब! हम घायल हो जाएँगे। घायल हो जाओगे तो हम पट्टी बाँध देंगे। हमारे यहाँ दवाई रखी हुई है। हम मारे जाएँगे। कोई बात नहीं, दोबारा जनम मिल जाएगा, इसमें दिक्कत की क्या बात है! उन्होंने अपनी बहादुरी, अपना शौर्य और अपना साहस उन बच्चों को दिया। बच्चे जो थे, क्या हो गए ! तपाए जाने से तपस्वियों के बच्चे भगवान हो गए। अगर उनको तपाया नहीं गया होता, मुसीबतों में धकेला नहीं गया होता, रामचंद्र जी को वनवास में भेजा नहीं गया होता तो उन्होंने उसी तरह की जिंदगी बसर की होती, जैसे कि अय्याश लोग, जैसे कि हम और आप करते रहते हैं। आप भगवान से यही चाहते हैं न कि हमको अय्यासी का मौका मिले, मौज मनाने का मौका मिले। यह सुविधा मिले, वह सुविधा मिले। बेटे! भगवान के यहाँ सुविधा कहाँ है! भगवान के यहाँ तो असुविधा है। भगवान देते हैं तो असुविधाएँ देते हैं। क्यों देते हैं? इसलिए देते हैं कि इससे आदमी मजबूत बनता है। अगर आप सिद्धांतवादी बनना चाहते हैं, आत्मिक शांति पाना चाहते हैं तो आपको मुसीबतों और असुविधाओं का सामना करना चाहिए।

(क्रमश:)

[परमपूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के क्रम को अखण्ड ज्योति में अनवरत १९९१ से प्रकाशित किया जा रहा है। इसी क्रम में इस शीर्षक से अमृतवाणी में पूर्व की दो कड़ियों में कहा जा चुका है कि पूजा-पाठ का विकसित रूप ही योग एवं तप है। भगवान चेतना का पुंज है, वह सांसारिक नहीं है। योग क्रिया नहीं, एक वृत्ति है, एक भावना है। सारे अध्यात्म का समुच्चय भावना से जुड़ा है। योग में कहीं भी गुंजाइश नहीं है कि आपकी हर मनोकामना पूरी कर दी जाए। अपने आपे को समर्पित कर देना ही योग है। इसी तरह तप के संबंध में भ्रांतियाँ हैं। तप का अर्थ है—गरम करना—सुविधा का जीवन छोड़कर आदर्शों का जीवन स्वीकार करना। गरम किए बिना कोई मजबूत नहीं बनता। विश्वामित्र का उदाहरण पूज्यवर ने दिया था कि उनने तप हेतु ही राम, लक्ष्मण को वन ले जाकर उन्हें समर्थ-सशक्त बनाने के लिए दशरथ से उन्हें माँगा था। इसी प्रसंग को इस अंक में आगे बढ़ाते हैं— ]

पकी ईंट चाहिए

मित्रो! मुसीबतों और असुविधाओं का सामना करने की कई वजह हैं। पहली वजह तो यह है कि हमारी भीतर की क्षमताएँ मजबूती की तरफ नहीं बढ़ सकतीं और हम मजबूत आदमी नहीं बन सकते। मुसीबतों से जद्दोजहद किए बिना ऐसा नहीं हो सकता। ईंट जब तक कच्ची रहती है, तब तक उसकी जिंदगी कम होती है। जब बरसात होती है तो वह गल जाती है, बह जाती है, लेकिन उसी ईंट को जब गरम करके पका लेते हैं, मजबूत बना लेते हैं तो वही ईंट मकान में बँधी रहती है। बरसात में खराब नहीं होती। वह सौ वर्ष जीती है, हजार वर्ष जीती है। कच्ची ईंट की जिंदगी दो वर्ष की होती है, चार वर्ष की होती है। वह क्यों खराब हो जाती है? क्योंकि कच्ची ईंट ने गरम होने से, तपने से इनकार कर दिया और पकी ईंट ने कहा कि हम तपेंगे और हम मुसीबत उठाएँगे। आप तपेंगी तो टिकाऊ रहेंगी और मंदिर में लगाई जाएँगी और किले में लगाई जाएँगी। नहीं साहब! हम नहीं पकेंगी। नहीं पकेंगी तो आप वहाँ रहेंगी, कहाँ रहेंगी? झोंपड़े में रहेंगी और आपकी जिंदगी खतम हो जाएगी और फिर आपको कूट-पीसकर नया बनाएँगे।

तपाने से बनती है भस्म

बेटे! तपाने से क्या हो सकता है? चलिए हकीम जी से पूछिए। क्यों साहब ! यह क्या बना रहे हैं? सीप की भस्म बना रहे हैं। प्रवाल की भस्म बना रहे हैं, वंग की भस्म बना रहे हैं। आप लोहे को क्यों जला रहे हैं? ताँबे को क्यों जला रहे हैं? अरे साहब! देखना, जलाने के बाद इसमें कैसे मजा आएगा। इसकी भस्म बनेगी, उससे पौष्टिकता आएगी। अच्छा तो आप इससे रसायन बना देंगे, हाँ बेटे! जलाने के बाद रसायन बन जाती है? पारे को हम जला देते हैं और उसका रसायन बना देते हैं। हकीम जी का यही धंधा है, जलाना-जलाना.........। अरे साहब! आप यह कौन-सा धंधा लेकर बैठे हैं? अभ्रक जला रहे हैं? देखना जब यह शीशी में बंद हो जाएगा तो लोगों के लिए क्या काम करेगा। हाँ बेटे! हकीम जी की बात को हम समझते हैं। और किसकी बात को समझते हैं? लोहे की। देखना, पहले कच्चा लोहा मिट्टी मिला हुआ निकलता है। इसको पहले गरम करना पड़ता है और मिट्टी को अलग किया जाता है। गरम करने के बाद लोहा क्या बन जाता है? फौलाद बन जाता है, स्टील बन जाता है। जितनी गरमी हम इसे देते जाते हैं, उसी हिसाब से लोहा मजबूत बनता जाता है और हथियारों के काम आता है। बालटी बनाने के काम आता है। गरम करने से क्या होता है? पानी को आप गरम कर लीजिए और गरम करने के बाद में स्टीम बना दीजिए, फिर देखिए, वह रेलगाड़ी को कैसे खींचती हुई चली जाती है। कच्चे आम को, केले को गरमी में दबा देते हैं, पाल लगा देते हैं। दो-तीन दिन बाद आप खाइए, जो आम पहले खट्टा था, वही आम अब कितना मीठा हो गया। गरमी के कारण आम पीला और मीठा हो गया।

गरम करना जरूरी योग हेतु

मित्रो! किसान एक, पहलवान दो, विद्यार्थी तीन, इन सबको जाकर आप देखिए ना, ये क्या कर रहे हैं? बेटे! ये तप कर रहे हैं। विद्यार्थी क्या करता है? तप करता है। पहलवान क्या करता है? तप करता है। किसान क्या करता है? तप करता है। बेटे ! ये सारे के सारे लोग तप करने वाले हैं। और जीवात्मा को परमात्मा में मिलाने का तरीका क्या हो सकता है? योग का तरीका क्या हो सकता है? वह तरीका एक ही हो सकता है—तप। वेल्डिंग किस तरीके से की जाती है, आपमें से कोई इसका जानकार तो जरूर होगा। जो देहाती लोहार होते हैं, वे लोहे के दो टुकड़ों को गरम कर लेते हैं और उनको पास-पास रखकर हथौड़ा मारते हैं। हथौड़ा मारने से दोनों टुकड़े आपस में चिपक जाते हैं। इस जमाने की वेल्डिंग करने वाले दो टुकड़े लेते हैं और उसमें गैस वेल्डिंग, इलेक्ट्रिक वेल्डिंग के द्वारा गरम करके जोड़ देते हैं। यह क्या कर रहे हैं? बेटे! गरम कर रहे हैं। गुरुजी! गरम मत कीजिए, ठंढे में ही मिला दीजिए। नहीं बेटे! ठंढे में नहीं मिल सकता। लोहा से लोहा नहीं चिपक सकता। बेटे! भगवान लोहे का एक पीस है और हम भी एक लोहे के पीस हैं। दोनों पीसों को गरम किए बिना, तपाए बिना और कोई ऐसा तरीका नहीं है, जिसमें हम अपने को भगवान में मिला दें। आप भी ठंढे और भगवान भी ठंढे। आप अपने घर रहिए और वे अपने घर रहेंगे। क्यों साहब! यदि ठंढे लोहे को गरम लोहे से मिला दें, तो वह कब तक मिल जाएगा? कल ढाई बजे तक दोनों मिल जाएँगे। ढाई बजे आए और देखकर बोले अरे महाराज जी! यह तो ठंढा रखा हुआ है। आपस में मिला नहीं है।

एक ही शिक्षण तपोमय जीवन

मित्रो! गरम करने में जो तप है, उस तप से हथियार में तीखापन आता है। औजारों पर जो धार रखी जाती है, उसको टेंपर कहते हैं। जो बसूले होते हैं, तलवार होती है, चाकू होते हैं, इनकी धार मजबूत बनी रहे, नोक जल्दी न घिसने पाए, भोंथरी न होने पाए और तीखी बनी रहे, इसको कहते हैं टेंपर। टेंपर किस तरह रखा जाता है? इसी तरह गरम करके रखा जाता है। ज्यादा गरमी दी, बस, वह टेंपर हो जाता है। लोहा मजबूत हो जाता है और धार निकल पड़ती है। हमें भी अपने आप को गरम करके, तपा करके टेंपर करना पड़ता है। बिजली के बल्ब में प्रकाश कहाँ से पैदा होता है? यह जलने से पैदा होता है। गरमी से बल्ब जलते रहते हैं और गरमी से दीपक जलते रहते हैं। रोशनी किससे होती है? जलने से होती है। जलने का अर्थ क्या हो गया? 'तपाना' हो गया। बेटे! ये सारी की सारी चीजें इस बात को सिखाती और समझाती हैं कि हमारा जीवन कष्टमय जीवन होना चाहिए। प्रत्येक आध्यात्मिक व्यक्ति को यह मानकर चलना चाहिए कि हमको अपना जीवन मुसीबतों के साथ खिलवाड़ करने वाला बनाना चाहिए; ताकि भीतर दबी हुई शक्तियों को हम इससे गरम कर सकें और बाहर निकाल सकें।

शक्तियों का बिखराव रोकिए

साथियो! अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को गरम करने के लिए दो तरीके ऐसे हैं, जो आपको अख्तियार करने चाहिए और जिन्हें हमने भी अख्तियार किया है। पहला तरीका है—अपने आप को नियंत्रण करना, रोकना, मारना, पीसना, गरम करना और तपाना। पहले वाली गरमी, जो अपने भीतर पैदा करनी चाहिए, वह कैसे पैदा होती है? रोकने से पैदा होती है, घिसने से पैदा होती है, रगड़ से पैदा होती है। हम अपनी शक्तियों के बिखराव को यदि रोक दें तो हम शक्तिशाली बन सकते हैं। हम तपस्वी कहला सकते हैं। भगवान बन सकते हैं और मनुष्य भी हो सकते हैं, तेजस्वी हो सकते हैं और दूसरी चीज हो सकते हैं। पहले तप का छोटा वाला हिस्सा इंद्रियनिग्रह से शुरू होता है। इंद्रियाँ कौन सी हैं? बेटे! इंद्रियाँ दस हैं, लेकिन इनमें सबसे खराब और सबसे बागी इंद्रियाँ दो हैं। इनमें से एक का नाम है—जीभ और दूसरी का नाम है—कामेंद्रिय। इन दोनों के ऊपर जब हम नियंत्रण लगाते हैं, निग्रह लगाते हैं, इनकी शक्ति को जब हम रोकते हैं, बाँध बनाने के तरीके से हम पानी को जमा कर लेते हैं और उसमें से बिजली पैदा कर देते हैं। इन दोनों इंद्रियों को रोककर हम शक्ति पैदा कर सकते हैं। जीभ के निग्रह का क्या अर्थ है? जीभ दो कामों में काम आती है—एक बोलने के काम आती है और एक खाने के काम आती है। खाने के संबंध में आपको और हमको, हर आदमी को राम का नाम लेने से पहले, मंत्र जपने से पहले, स्तोत्र का पाठ करने से पहले अपनी जीभ की सफाई करनी चाहिए। जीभ की अगर सफाई नहीं की गई है तो आप भगवान जी को उसी जीभ से मंत्र बोलकर कैसे खिलाएँगे? हाँ साहब! ये लीजिए, गुरुजी! भोजन कर लीजिए। क्या लाया है? गुरुजी! देखिए, आपके लिए क्या लाया हूँ—रोटी लाया हूँ, पूरी लाया हूँ, कचौड़ी लाया हूँ। अच्छा ला, लेकिन बेटे! यह क्या तरीका है, कल की खाई हुई जूठी थाली में ले आया। महाराज जी! जूठी थाली से क्या हुआ, आप तो खा लीजिए। नहीं बेटे! जूठी थाली में हम कैसे खा लेंगे! गंदी चीजों में हम नहीं खाएँगे।

जीभ जली हुई तो नहीं

मित्रो! हमारी जीभ गंदी है, जली हुई है, धोखेबाज है, विश्वासघाती है। हम दिन और रात अभक्ष्य खाते रहते हैं। अभक्ष्य खाने से अपनी जीभ को बचाइए, ताकि इसके द्वारा उच्चारण किया हुआ मंत्र अपना चमत्कार दिखा सके और अपना फल दिखा सके। बेटे! जीभ तो आपकी जल गई है। कैसे जल गई है? बेटे! सबसे पहले जीभ जलती है कुधान्य खाने से और अभक्ष्य खाने से। कुधान्य क्या होता है? कुधान्य के बारे में लोग यह कहते हैं कि इसका छुआ हुआ, उसका छुआ हुआ, लेकिन मैं इस छुआछूत को नहीं मानता खान-पान के संबंध में; क्योंकि मेरे दिमाग में जाति, बिरादरी के नाम पर किसी आदमी के छोटे और बड़े होने का नक्शा नहीं है और बिरादरी के नाम पर मैं न किसी को छोटा मानता हूँ और न बड़ा, परंतु छुआछूत के बारे में और खान-पान के बारे में मेरे कुछ अलग किस्म के ख्याल हैं। पहले मैं अपनी खुराक में, रोटी में यह बचाव रखता हूँ कि कहीं वह पाप की कमाई की तो नहीं है? हम अभक्ष्य उसे कहते हैं, जो पाप की कमाई से कमाया हुआ है। हराम का कमाया हुआ है। धोखेबाजी से कमाया हुआ है। गलती से कमाया हुआ है। वह सारे का सारा पैसा और सारे का सारा अन्न हमारे लिए अभक्ष्य कहलाएगा, कुधान्य कहलाएगा। अगर आप उस कुधान्य को खाएँगे, अभक्ष्य को खाएँगे तो बेटे! आपका मंत्र, आपका जंत्र, आपका पूजा-पाठ, आपकी रामायण और आपका गीतापाठ, उपासना आदि जीभ के द्वारा जो कुछ भी काम करने चलेंगे, सब बेकार चला जाएगा; क्योंकि आपकी जीभ जली हुई है, अतः अभक्ष्य का बचाव करना मंत्र जप करने से पहले जरूरी है।

खाने-पीने का संस्कार

मित्रो! दूसरा हमारा जीभ का नियंत्रण यह है कि हमको जिन लोगों ने भोजन पकाकर खिलाया है, उनकी बाबत ध्यान रखना चाहिए। खान-पान के बारे में यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि हमें जहाँ-तहाँ नहीं खाना चाहिए। जहाँ-तहाँ खाना गलत है। आप होटल में चले जाते हैं। रेल में खा रहे हैं। अरे साहब! बैरा आ रहा है। नाम लिखाइए, कौन-कौन सी थाली लेंगे—वेजीटेरियन या नानवेजीटेरियन? नानवेजीटेरियन। अच्छा साहब! दोपहर को साढ़े बारह बजे आती है। हाँ, ले आना। बस, वह ले आया एक के ऊपर एक थाली रखकर के। लीजिए साहब! ये लीजिए। अरे बाबा! यह तू क्या रख गया, इसमें तो हड्डियाँ चमकती हैं। तो क्या आफत आ गई आपको, हड्डियाँ तो आपमें भी हैं। अरे! हमने वेजीटेरियन बताई थी। अच्छा तो यह लीजिए। वेजीटेरियन और नानवेजीटेरियन में क्या फर्क होता है? लीजिए, यह खा लीजिए। बेटे! उसी चम्मच से वह मुरगे का माँस बना रहा है और उसी से सब्जी। इससे क्या फायदा है? लीजिए साहब! चाय पी लीजिए। ऐसी चाय पीने से तेरी क्या आफत आ गई। तू समझता नहीं है। इसी कप से अभी वो पीकर गया है, कसाई पीकर गया है, उसी में डाकू पीकर गया है। बस, एक बालटी रखी हुई है, उसी में डुबा दो। कप में चाय बची हुई थी, उसी बालटी में उसे भी डुबा दिया। अरे साहब! धोकर फेंक दूँगा। उसी बालटी में वह सब डुबाता जा रहा है।

जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन

मित्रो! यह क्या है? यह कि अन्न के साथ संस्कार जुड़े हुए हैं। पहली वाली चीज, जो हमें ध्यान में रखनी है, वह है—अन्न। अन्न के ऊपर इन सब बातों का प्रभाव पड़ता है कि वह किन लोगों के हाथ का बनाया हुआ है, किन लोगों के हाथ का पकाया हुआ है? यह किस वातावरण में बनाया गया है? इन सब बातों का अगर ध्यान नहीं रखेंगे तो आप जैसा अन्न खाएँगे, वैसा ही मन बनेगा। आपका जैसा अन्न है, उसी हिसाब से आपका मन बनता हुआ चला जाएगा। हाँ साहब! मेरा मन नहीं ठहरता। हाँ बेटे! तेरा मन नहीं ठहरता होगा, मैं समझता हूँ; क्योंकि तेरे अन्न में सात्त्विकता का समावेश नहीं है। क्योंकि तेरे अन्न में सारी की सारी तामसिकता भरी पड़ी है। इसमें क्या-क्या मिला है? मसाले और प्याज और माँस, जिसको पीड़ा देकर उसकी जान निकाली गई है। बेचारा तड़पता हुआ, गाली देता हुआ और शाप देता हुआ गया है। मुरगा है तो क्या, बकरी है तो क्या, मछली है तो क्या—तू खा रहा है। हाँ, बेटा! खा ले, परंतु यह बात ध्यान रख कि उस बेचारे निरीह जीव का शाप तेरे मस्तिष्क को चैन नहीं लेने देगा। नहीं महाराज जी! हमारा ध्यान नहीं लगता। हाँ बेटे! तेरा ध्यान नहीं लग सकता और तेरे ध्यान लगने की कोई उम्मीद भी नहीं है, क्योंकि जो तेरा भोजन है, वह भक्ष्य नहीं, अभक्ष्य है। अभक्ष्य खाने वाले को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि हमारा मन भजन में लगेगा और हमारी जीभ के द्वारा उच्चारित किया हुआ मंत्र फायदा दे सकेगा। आपका मंत्र कभी फायदा नहीं दे सकता। वह बेकार चला जाएगा।

स्वाद से बचाव से शुरू होता है तप

इसीलिए मित्रो! मैने आपसे यह कहा है कि आपको सबसे पहले जो तप आरंभ करना चाहिए, वह अन्न के बारे में शुरू करना चाहिए। गुरुजी ! आपने कौन सा मंत्र जप किया? बेटे! हमने वही मंत्र जप किया, जो हम आपको बताते हैं—गायत्री मंत्र, और हमने कोई जप नहीं किया। नहीं साहब! आपने कोई अलग से किया होगा? नहीं बेटे! कोई अलग से नहीं किया। तो यह आपको कैसे फल दे रहा है? बेटे! यह जो फल दे रहा है, उसकी बात समझ। चौबीस साल तक हमने जौ की रोटी और छाछ खाई है। दूसरी चीज हमने नहीं खाई है। चौबीस साल हमारे इस तरीके से व्यतीत हुए कि जौ की रोटी, जिसमें घी भी नहीं था, नमक भी नहीं था, शाक भाजी भी नहीं थी। दाल भी नहीं खाई, घी भी नहीं खाया, तरकारी भी नहीं खाई, मेवा भी नहीं खाई, कुछ नहीं खाया। दो चीजों के ऊपर हमने चौबीस साल काट डाले। हमारे अन्न से बना रस, रस से बना रक्त, रक्त से बना माँस, माँस से बना मज्जा और उससे बना हमारा मस्तिष्क। हमारा जो अन्न था, उसने ऐसा मस्तिष्क बनाया, जिसमें कि शांति के साथ हमने जप कर लिया, भजन कर लिया। न हमारा विक्षेप उत्पन्न हुआ, न द्वेष उत्पन्न हुआ। शांति के साथ हमारे चौबीस साल व्यतीत हो गए। कणाद ऋषि, पिप्पलाद ऋषि पीपल के फल खाकर के गुजारा किया करते थे। कणाद ऋषि जमीन पर गिरे अनाज के दाने बीनकर गुजारा किया करते थे। अगर आप इस तरह धान्य-कुधान्य के बारे में ध्यान रखें तो हम यह कह सकते हैं कि आपने तप की पहली वाली प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। स्वाद से अगर अपने आप का बचाव कर सकते हो और सात्त्विक वस्तुओं पर निर्भर रह सकते हो, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपका मन भगवान में लगेगा।

अध्यात्म कायदे-कानून पर टिका है

नहीं महाराज जी! कोई विधि बता दीजिए। नहीं बेटे! यह विधि पर नहीं, अध्यात्म पर टिका हुआ है। विधाओं के ऊपर टिका हुआ है। विधा माने कर्म, कायदे, कानून और विधि माने पानी रखें या न रखें। लकड़ी की माला लूँ कि चंदन की माला लूँ। यह क्या है? यह विधि है। सूर्य को जल पूर्व दिशा में चढ़ा दूँ कि पश्चिम दिशा में चढ़ा दूँ। बेटे! चाहे जैसे चढ़ा दे, सूरज न तो पूर्व में रहता है और न पश्चिम में रहता है। जमीन घूमती रहती है। पूर्व-पश्चिम कहीं नहीं है। धरती पूर्व घूम जाती है, तो पूर्व हो जाती है और पश्चिम घूम जाती है, तो पश्चिम हो जाती है। महाराज जी! तो फिर सूरज को जल कहाँ चढ़ा दूँ। जहाँ तेरी मरजी हो वहाँ चढ़ा दे। महाराज जी! सोमवार को उपवास किया करूँ या मंगल को? वह तेरी मरजी है। सोमवार को करले तो अच्छा है, मंगलवार को करले तो अच्छा है। हर व्यक्ति यही पूछता रहता है कि विधियाँ बता दीजिए। विधियाँ सरल होती हैं न! समझता है कि उसी में जादू है। बेटे! इसमें जादू नहीं है। जादू है उसके आधार में, विधा में। विधा माने कायदा, विधा माने कानून। जप की कौन सी विधि है। कौन सा बीजमंत्र है? बेटे! मुझसे यह मत पूछ, वरन यह पूछ कि जप करने वाले को किस तरह का जीवन जीना पड़ता है? किस तरह का जीवन जीना चाहिए।

दुराचार को रोकिए

मित्रो! हमारी दूसरी वाली इंद्रिय काबू में रहनी चाहिए, जिससे हमारे भीतर तप की शक्ति उत्पन्न होती है। दूसरी इंद्रिय हमारी कौन सी है? वह है काम-वासना वाली इंद्रिय। काम-वासना वाली इंद्रिय के ऊपर अगर नियंत्रण रखना हमारे लिए संभव हो सके तो हम शारीरिक दृष्टि से मजबूत हो सकते हैं, बलवान हो सकते हैं। स्वामी दयानंद कहीं से आ रहे थे। उनके सामने दो साँड़ लड़ रहे थे। उन्होंने देखा कि दोनों के पैने सींग हैं, जो एकदूसरे के पेट में भोंक देंगे और ये अभागे मरेंगे। स्वामी जी ने दोनों बैलों के सींग पकड़े और उन्हें फेंक दिया। एक साँड़ इधर गिरा और एक उधर गिरा। उन्होंने कहा—"बेवकूफो! तुम्हारी दौलत कौन बटोर रहा है—तुम भी घास खाओ, तुम भी घास खाओ। आइंदा लड़ोगे तो एक लात दूँगा और तुम्हारे प्राण निकाल लूँगा। भागो यहाँ से।" एक साँड़ इधर भाग गया, एक साँड़ उधर भाग गया। यह संभव है? हाँ बेटे! यह संभव है। स्वामी दयानंद से लेकर शंकराचार्य तक और हनुमान जी से लेकर भीष्म पितामह तक असंख्य आदमी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपनी सारी शक्ति को नियंत्रित कर लिया था। नियंत्रण करने के बाद में उनका तेज चमकता हुआ चला गया। बेटे! अगर हम ब्रह्मचर्य की बात सोचें तो हमारा तेज चमकता हुआ चला जा सकता है। शारीरिक ब्रह्मचर्य का भी महत्त्व है। मैं शारीरिक ब्रह्मचर्य को भी मानता हूँ, लेकिन असली ब्रह्मचर्य शारीरिक नहीं होता, असली ब्रह्मचर्य मानसिक होता है। हम जो असली काम-सेवन करते हैं, वह कामेंद्रिय से नहीं करते। चौबीस घंटे हम कामेंद्रिय से सेवन नहीं कर सकते, लेकिन जो हमारी आँखें हैं, वह वास्तव में सूक्ष्म हैं। हम जो वासनात्मक विषय-भोग करते हैं, वह आँखों से करते हैं और हमारी शक्ति का जितना अपव्यय आँखों के द्वारा होता है, उतना किसी के द्वारा नहीं होता। हम किसी लड़की को देखते हैं तो वेश्या की आँख से देखते हैं। बेटे! यह मानसिक दुराचार हो गया, मानसिक व्यभिचार हो गया। इससे तेरा मेगनेट और शक्ति नष्ट होती हुई चली जाती है, खरच होती हुई चली जाती है।

माँ के रूप में उपासना

साथियो! करना क्या होगा? हमने आपको गायत्री मंत्र सिखाया था और उसके साथ-साथ नई बात सिखाई थी। उस पर आपने आज तक ध्यान ही नहीं दिया। उस पर गौर ही नहीं किया। हमने क्या बताया था? हमने यह बताया था कि आप गायत्री की माता के रूप में पूजा किया कीजिए। माता कैसी है? गायत्री माता का फोटो कैसा है? जरा बताना तो सही। बच्ची का है? नहीं। बुढ़िया का है? नहीं। बाल सफेद हो गए हैं? नहीं। तो कैसा है? महाराज जी! जवान औरत का है। किसका? गायत्री माता का। हाँ बेटे! जिस गायत्री माता की हमने स्थापना की हुई है, वह अठारह-बीस साल की स्त्री की है। हमने आपसे क्या कहा है? हमने आपसे यह कहा था कि उसको माँ कहिए। इस तरीके से आप उन्हें माँ कहिए, जिस तरीके से शिवाजी के सामने एक बहुत खूबसूरत महिला लाई गई। उन्होंने कहा कि मुसलमान बादशाह भी तो हिंदू औरतों को ले गए थे। आप इतनी खूबसूरत लड़की रख लीजिए। शिवाजी ने बहुत देर तक देखा और मुस्कराते रहे फिर बोले—इसको जहाँ से लाए हो, वहीं पहुँचा दो। लोगों ने पूछा कि आपने इतनी देर तक बार-बार किसलिए देखा? शिवाजी ने कहा कि हमने इनको इसलिए देर तक देखा कि काश! इतनी खूबसूरत अगर हमारी माँ होती तो हम भी इतने खूबसूरत होते।

बेटे! यह क्या हो गया? यह गायत्री उपासना है, जिसके आधार पर हम जवान औरतों को, दूसरी स्त्रियों को यह समझकर चलते हैं कि यह हमारी माँ है और हमारी बेटी है, हमारी बहन है और हमारी पूज्य है। जिस दिन आप यह मानकर चलेंगे तो आपकी आँखों में शिवाजी जैसा तेजस् पैदा हो जाएगा। समर्थ गुरु रामदास शिवाजी को एक देवी के पास ले गए थे और अक्षय तलवार दिलाई थी। उन्होंने कहा कि यह तलवार इतनी जबरदस्त है कि तू जहाँ कहीं भी जाएगा, वहीं तुझे फतह मिलती हुई चली जाएगी, विजय मिलती हुई चली जाएगी। शिवाजी जहाँ कहीं भी गए, फतह होती चली गई, विजय होती हुई चली गई। किसकी? शिवाजी की। बेटे! देवी की दी हुई तलवार थी। तो महाराज जी! देवी की यह तलवार हमको भी मिल सकती है? देवी की तलवार? क्या देवी के यहाँ लोहे की फैक्टरी खुली होती है? देवी क्या लोहे का चाकू बनाती है, बंदूकें बनाती है? तलवार बनाती है? देवियाँ क्या यही काम करती हैं? तो महाराज जी! फिर शिवाजी को तलवार कैसे मिली थी? बेटे! यह अलंकार है, जिसका अर्थ है कि वह अक्षयशक्ति, जो हम दिन-रात अपनी आँखों से खरच करते रहते हैं, दुराचार के द्वारा। अगर हम अपनी आँखों को शुद्ध बना लें, पवित्र बना लें, हम इन आँखों को फोड़ दें और नई आँखें विकसित कर लें, उदय कर लें तो हमारी आँखों में गांधारी की आँखों के तरीके से तेजस उत्पन्न हो सकता है। अगर हमारी ये आँखें किसी तरीके से फूट जाएँ, सूरदास के तरीके से बंद हो जाएँ, गांधारी के तरीके से हम आँखों पर पट्टी बाँध लें तो हमारी आँखों में वह तेज आ सकता है। गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी। जब उसका जवान लड़का आया और बोला—माँ! पट्टी खोलकर हमारी ओर देख, ताकि हम युद्ध में विजयी हो जाएँ। हमारा शरीर लोहे का हो जाए। गांधारी ने आँख की पट्टी खोल दी और उसे देखा, लड़का लोहे का हो गया। बेचारा लँगोट पहने हुए था, अत: लँगोट वाला हिस्सा पक्का नहीं हुआ, बाकी सारा शरीर पक्का हो गया।

तब जागेगा ब्रह्मवर्चस्

मित्रो! आपकी आँखों में भी वैसा तेजस् पैदा हो सकता है कि आप जिसको देख लें, वही लोहे का हो जाएगा। आपकी आँखों में वैसी चमक पैदा होनी संभव है, जैसी कि शिवाजी की आँखों में थी। बेटे! वह तलवार भी यही तलवार थी, जो हमारी और आपकी आँखों में रहती है, लेकिन उनके भीतर क्या चीज थी, जो तलवार का काम करती थी? तलवार काम करती है? बेटे! तलवार क्या काम करेगी। काम तो हाथ करता है, कलाई करती है। हाथ भी काम नहीं करता, हिम्मत काम करती है और हिम्मत जिस बात से जुड़ी है, उसे हम आत्मबल कहते हैं। आत्मबल से थामी हुई तलवार हिम्मत पैदा करती है। हिम्मत कलाइयों में बल लाती है और कलाइयों से तलवार चलती रहती है और विजयी होती जाती है। शिवाजी को देवी ने तलवार दी थी, जिसका वर्णन इस तरीके से कर रहा हूँ। गांधारी ने जो पट्टी बाँधी थी, वह स्त्रियों के ऊपर भी उतनी ही लागू होती है, जितनी कि मर्दों के ऊपर लागू होती है। मर्द स्त्रियों को गंदी आँखों से देखते हैं तो वही बात हो जाती है और स्त्रियाँ गंदी आँखों से मर्दों को देखती हैं तो उनके ऊपर भी वही बात लागू होती है। गांधारी की बात हो तो क्या, शिवाजी की बात हो तो क्या, दोनों के लिए बात एक ही है। सिद्धांत एक ही है। अर्जुन जब देवताओं के यहाँ सहायता करने के लिए गया तो देवताओं ने इसके बदले सबसे सुंदरी अप्सरा उर्वशी को उसके पास भेज दिया। पुराने जमाने का जैसा रिवाज था—कोई काम-वासना का प्रस्ताव करते थे तो उस तरीके से नहीं करते थे, गंदे ढंग से नहीं करते थे। उसने कहा—अर्जुन! हमको देवताओं ने आपके पास भेजा है और हम आपके द्वारा आप जैसी संतान चाहते हैं।

माँ के रूप में हर नारी

अर्जुन ने उर्वशी को देखा और कहा—देवी! जिस तरीके से आप मुझ जैसी संतान चाहती हैं और जो तरीका आप बताना चाहती हैं, वह तरीका गलत है। आप जैसा चाहती हैं, उस तरीके से अगर मेरे जैसा बेटा न हुआ और कन्या हो गई तब? और अगर काना हो गया, अंधा हो गया, तब? तब फिर आपका मनोरथ कैसे पूर्ण होगा? मैं तो बत्तीस साल का हूँ। बत्तीस साल का जब वह हो जाएगा, तब आपको इतनी बड़ी संतान मिलेगी। बत्तीस साल से पहले मेरी जैसी संतान कहाँ से मिलेगी? इतना बड़ा बेटा नहीं मिलेगा, छोटा मिलेगा। फिर मेरे जैसा तो नहीं मिला ना? मिलेगा तो बत्तीस साल का हो जाएगा, तब। बत्तीस साल तक आप जीवित रह सकेंगी कि नहीं रह सकेंगी, आपकी मनोकामना पूरी हुई कि नहीं हुई, कौन जानता है? लेकिन मैं आपकी मनोकामना सेकंडों में पूरी कर देता हूँ। आज से आप मेरी कुंती के बराबर माँ हुईं और मैं आपका बेटा। आपके चरणों की धूल मेरे मस्तक पर और आपका प्यार भरा हुआ हाथ हमारे सिर के ऊपर। आज से हम दोनों माँ-बेटे हो जाते हैं और आपकी मनोकामना भी पूरी हो जाती है।

(क्रमश:)

[१५ नवंबर, १९७५ को शांतिकुंज प्रांगण में दिए गए इस प्रवचन को पूर्व की तीन किस्तों में पाठक पढ़ चुके हैं। वे बताते हैं कि योग एवं तप के वास्तविक मर्म को समझा जाना चाहिए। योग क्रिया नहीं, एक भावना है। तप का अर्थ है—सुख-सुविधा छोड़कर आदर्शों का जीवन स्वीकार करना। योग का अर्थ है—अपने आपे को समर्पित कर देना। तप का अर्थ है—आत्मपरिष्कार के लिए तितिक्षा करना, कष्ट सहना। तपाने से ईंट मंदिर की नींव में लगती है। तपाने से भष्म खाने योग्य बनती है। हमें अपना जीवन मुसीबतों से खिलवाड़ करने वाला बनाना चाहिए। शक्तियों का बिखराव हम रोकें एवं उन्हें सृजन में नियोजित करें। स्वाद की लिप्सा से बचें, इंद्रियों का संयम करें और अध्यात्म को कायदे-कानून पर टिका मानें, यह नहीं कि जो मन में आया, कर लिया। ब्रह्मवर्चस् जाग जाए तो योग व तप सिद्ध हो गया, सारी मनोकामनाएँ पूरी हो गईं। अब इस अंतिम किस्त में शेष प्रतिपादन पढ़ें— ]

यह है आत्मबल की ताकत

मित्रो! अर्जुन ने महाभारत में विजय किससे प्राप्त की थी? गांडीव से प्राप्त की थी। गांडीव किसका बना हुआ था? गांडीव लोहे का बना हुआ था, स्टील का बना हुआ था। नहीं बेटे! ये सब बाँस से बनते हैं। दुनिया भर में जितनी भी कमानियाँ बनी हैं, वे सब बाँस की बनी हैं। बाँस के अलावा न लोहे की बनती हैं, न सोने की बनती हैं और न चाँदी की बनती हैं। अर्जुन के पास भी जो गांडीव था, वह भी बाँस का बना हुआ था। उसी बाँस के गांडीव ने महाभारत युद्ध को किस तरीके से उलट कर रख दिया। यह ताकत कहाँ से आई? यह बेटे! कलाइयों की ताकत है, हिम्मत की ताकत है और यह हमारे आत्मबल की ताकत है। यह जो ताकत है, इसको हम 'तप' कहते हैं। यह तप गांधी जी के पास था। गांधी जी के बारे में चर्चिल ने एक बार वाइसराय को एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा था कि गांधी जी से मुलाकात कभी मत करना। वे मैजीशियन हैं। उनके पास जो कोई भी जाता है, उन्हीं के चंगुल में फँस जाता है। उनका ऐसा जादू है कि जो कोई एक बार उनके पास जाता है, बस, उस चंगुल से कभी निकलता ही नहीं। इसलिए आप उनसे कभी मिलना मत। कभी-कभी कोई चिट्ठी-पत्री कर लेना, किसी बीच के आदमी को, मैनेजर को भेज देना। यह पत्र चर्चिल ने अपने आप लिखा था। क्यों? क्योंकि गांधी जी की आँखों में जादू था और यह जादू कहाँ से आया था? आप भी उस जादू को पैदा कर सकते हैं, अगर आप अपनी शक्तियों को नष्ट करने से बचालें, तब।

शुरुआत करें इंद्रियनिग्रह से

मित्रो! हम और आप अकारण ही चौबीसों घंटे अपनी शक्तियों को नष्ट करते रहते हैं। चलिए, हम मान लेते हैं कि अगर आपको वो चीजें मिल भी जाती, वह काम हो भी जाता, जिसके लिए आप अपनी शक्ति खरच कर रहे हैं, तो मैं कहता, लेकिन ऐसी कोई बात भी नहीं है। बेकार की बातों में शक्ति जाया कर रहे हैं। सिनेमा में जाते हैं, देख रहे हैं कि वे लड़कियाँ छाया की तरह इधर-उधर आ-जा रही हैं, गा रही हैं, सीटी बजा रही हैं। क्या है बेटे! छाया है, धुआँ है। क्या आफत आ गई? नहीं महाराज जी! हमको सपने में दीख गई। मित्रो! यह क्या है? मानसिक दुराचार है। मानसिक दुराचार को अगर आप रोक सकें, जो शारीरिक दुराचार की अपेक्षा ज्यादा हानिकारक है तो आपकी शक्तियाँ सुरक्षित रह सकती हैं।

साथियो! तप करने के बारे में जो मैंने आपसे निवेदन किया था, उसकी शुरुआत आप यहाँ से कर सकते हैं। यह शुरुआत आप इंद्रियनिग्रह से कर सकते हैं। इंद्रिय निग्रह शुरुआत है, आखिरी नहीं। इंद्रियनिग्रह के द्वारा अगर हम अपनी शक्ति को रोक लें और रोकने के बाद में हम उसे ऊपर चढ़ा लें तो शक्तिवान बन सकते हैं। बेटे! नल खुला होता है और नीचे वाली मंजिल पर सारा पानी फैलता रहता है। ऊपर वाला बाबू चिल्लाता रहता है कि अरे साहब! नल बंद कीजिए। देखिए, हम बिना पानी के बैठे हुए हैं। आप कब से नल चला रहे हैं और हमारी मुसीबत को नहीं समझते। अच्छा साहब! बंद किए देते हैं। नल बंद कर दिया, ऊपर वाले नल में पानी आ गया। अगर आप ऊपर वाले नल में पानी चलवाना चाहते हैं तो नीचे वाला नल बंद कीजिए। अगर आप नीचे वाला नल बंद नहीं करेंगे और सारा का सारा पानी नीचे निचोड़ देंगे तो फिर आपको ऊपर जाने के लिए बचेगा क्या? फिर आप ध्यान किसमें लगाएँगे? आप ध्यान में प्रकाश कैसे पैदा करेंगे? आप बताइए मुझे, आपके अंदर घी पहुँचता नहीं है, तेल पहुँचता नहीं है, शक्ति पहुँचती नहीं है। दिमाग खाली पड़ा हुआ है, खोखला पड़ा हुआ है, याददाश्त आपकी खराब हो गई है, स्मरणशक्ति आपकी काम नहीं करती, बुद्धि आपकी काम नहीं करती, अक्ल आपकी काम नहीं करती। और आप क्या चाहते हैं? भगवान में ध्यान लगा दीजिए। बेटे! कैसे लगा दें भगवान जी में ध्यान! पहले ध्यान के लायक मसाला तो ला। इसमें से सारा का सारा मसाला तो तू चौपट किए डाल रहा है, सत्यानाश किए डाल रहा है।

तप से करें प्रायश्चित

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको तप करना पड़ेगा। तप की शुरुआत यह है कि अपनी शक्तियों को, शारीरिक शक्तियों की जो तबाही करते हैं, बरबादी करते हैं, उसको हम रोकें। तभी तो हम उस रुकी हुई शक्ति को, जगाई हुई शक्ति को, गरम की हुई शक्तियों को अच्छे उद्देश्यों में लगा सकते हैं और हम मनस्वी हो सकते हैं, तपस्वी हो सकते हैं, ओजस्वी हो सकते हैं और जो चाहें, वह हो सकते हैं। तप इसलिए भी आवश्यक है कि इसके द्वारा हमको और भी कई काम करने पड़ते हैं। हमको तप के द्वारा प्रायश्चित करना पड़ता है। हमने जो गलतियाँ की हैं, समाज में हमने जितने गड्ढे किए हैं, उन गड्ढों को आपको पूरा करना चाहिए और गड्ढे को बराबर कर देना चाहिए। इसके अतिरिक्त पाप से छुट्टी पाने का कोई और तरीका नहीं है। नहीं साहब! पाप से छुट्टी कर दीजिए, क्षमा कर दीजिए। हम गंगा जी नहा लेंगे। नहीं बेटे! गंगा जी में नहाने से पाप दूर कैसे हो सकते हैं? गंगा जी में नहाने से तेरा पाप दूर हो सकता है, तो जरा देख। किसी के यहाँ चोरी कर ले और फिर मजिस्ट्रेट से कह कि देखिए साहब! हमने चोरी तो की है और हमारे घर माल भी रखा हुआ है। अब हम गंगा जी नहाने जा रहे हैं, आप छुट्टी कर दीजिए। आप चोरी के मुकदमे से बरी हो जाएँ तो समझ लेना कि आप भगवान के यहाँ से भी रिहा हो सकते हैं। जब मजिस्ट्रेट यहाँ आपको रिहा नहीं कर सकता तो पापों से बिना प्रायश्चित के, भगवान कैसे रिहा कर देंगे! आप किसी के भी द्वारा क्षमा नहीं हो सकते। नहीं गुरुजी! आप हमारा पाप क्षमा कर दीजिए। नहीं बेटे! हम नहीं कर सकते। पापों का प्रायश्चित करना पड़ता है और करना ही चाहिए।

क्षतिपूर्ति करनी होगी

आपने समाज में जितने गड्ढे किए हैं, उनको आप पूरा कीजिए। आपने समाज में नुकसान पहुँचाया, वह एक आदमी को नहीं पहुँचाया, वरन सारे समाज को नुकसान पहुँचाया है। अगर आपने किसी एक लड़की से छेड़छाड़ की है तो वह एक से नहीं की है, वरन सारे समाज से छेड़छाड़ की है; क्योंकि उससे एक परंपरा बनती है। एक की बीमारी दूसरे को लगती है, दूसरे की तीसरे को लगती है और तीसरे से चौथे को पहुँचती है। यह छूत की बीमारी के तरीके से; जहर की बेल के तरीके से फैलती चली जाती है। आपने सारे समाज के नियमों को तोड़ा है, मर्यादाओं को तोड़ा है। आपने केवल एक स्त्री को तंग नहीं किया है, वरन सारे समाज को तंग किया है। आपने पैसा चुराया है तो केवल एक आदमी का पैसा नहीं चुराया है, वरन आपने चोरी की परंपरा फैला दी है। अब दूसरा आदमी चोरी करेगा, आपका बेटा चोरी करना सीखेगा और लोग चोरी करना सीखेंगे। यह परंपरा को फैलाने के बराबर है। इसलिए समाज में अच्छी परंपराएँ पैदा करने के लिए हमको तप करना पड़ेगा, कष्ट सहना पड़ेगा।

गड्ढा भरना जरूरी

कष्ट सहने के लिए कितने तरीके हो सकते हैं। हमको समाजसेवा के रूप में और दूसरे कामों के रूप में कष्ट सहना चाहिए, ताकि हमारे पापों का प्रायश्चित हो सके। हमने गड्ढा खोदा है। उस गड्ढे को भरने के लिए आप मशक्कत कीजिए और गड्ढे को बंद कीजिए, भरिए। आपने समाज में बुरी परंपराएँ कायम की हैं। अतः अच्छी परंपराएँ कायम करने के लिए, दुनिया में शांति लाने के लिए, उन्नति लाने के लिए, श्रेष्ठ आचार-व्यवहार लाने के लिए मशक्कत कीजिए, पैसा दीजिए, श्रम कीजिए। अगर आप ऐसा कर सकते हैं तो आपका प्रायश्चित हो सकता है और पापों से आपकी छुट्टी हो सकती है। न तो इससे कम में और न इससे ज्यादा में छुट्टी हो सकती है। नहीं साहब! एकादशी के उपवास से पाप दूर हो जाएँगे। नहीं बेटे! पाप दूर नहीं हो सकते, जैसा आपने नुकसान किया है, उसको पूरा कीजिए। उससे कम में कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता।

आपके ऊपर चढ़ा है कर्ज

मित्रो! आपको क्या करना पड़ेगा? प्रायश्चित की दृष्टि से भी आपको मुसीबत उठानी पड़ेगी। यह इसलिए उठानी पड़ेगी कि समाज का ऋण आपके ऊपर चढ़ा हुआ है। जिस समाज में आप पैदा हुए हैं, उसमें आपने अकेले से उन्नति नहीं की है। आपको असंख्य लोगों का सहयोग मिला है, जो आपको बोलना आ गया। आज से दो लाख वर्ष पहले आप पैदा हुए होते तो आपको बोलना भी नहीं आता। दो लाख वर्षों में लाखों मनुष्यों ने, करोड़ों मनुष्यों ने बड़े श्रम के साथ में, बड़ी मशक्कत के साथ में यह शब्दों का विज्ञान, अक्षरों का विज्ञान, भाषा का विज्ञान विकसित किया था और आज आप इस लायक बने हैं कि समाज में बोल सकते हैं और बातचीत कर सकते हैं। यह लिपि क्या है? क्या समझते हैं कि आपने इसे स्कूल में पढ़ लिया है? नहीं, यह लाखों वर्षों में करोड़ों मनुष्यों की मशक्कत का फल है। आपको पुरानी लिपि देखनी हो तो आप इंग्लैंड में जाकर रॉयल म्यूजियम में देखिए। वहाँ दुनिया की सबसे पहली किताब रखी हुई है। उस पर मिट्टी के खप्परों के ऊपर लिपि बनाई हुई है। तब मिट्टी के लंबे-लंबे चौकोर खपरे बना दिए जाते थे और उनके ऊपर लकीरें खींच दी जाती थीं। बैल ऐसा बना दिया जाता था—सींग वाला। तीन बैल हो गए, दो बकरे हो गए। लकीरें खींच दीं। बस, यही पुराने जमाने की लिपि है। आज की जो हमारी लिपि है, उसमें शब्द भी शामिल है, भाषा भी शामिल है, ग्रामर भी शामिल है और न जाने क्या-क्या शामिल है। बेटे! इस भाषा का विकास लाखों-करोड़ों वर्षों के बाद हुआ है और हम सब उनके कर्जदार हैं, जिनकी वजह से हमको बोलना आ गया, जिनकी वजह से हमको लिखना आ गया। ग्रामर क्या हमने बनाई है? नहीं, हमने नहीं बनाई है।

भगवान आपको पुकार रहा है

टेरामाइसिन खा लिया, बुखार अच्छा हो गया। टेरामाइसिन आपने बनाई है कि आपके बाप ने बनाई है? नहीं महाराज जी! हमारे बाप ने नहीं बनाई। फिर किसने बनाई है? लाखों आदमियों ने, जिसके ऊपर कितना परीक्षण हुआ और कितनों ने संशोधन किया। कितनों ने उसमें हेर-फेर किया। कितनी हस्तियों ने उसको बनाया। इन सबका अर्थ यह है कि हमें उन सबका एहसान मानना पड़ेगा। कपड़े आपने बनाए हैं? नहीं महाराज जी! हमने नहीं बनाए हैं। बेटे! ये मिलों ने बनाए हैं, फैक्टरियों ने बनाए हैं, मजदूरों ने बनाए हैं, मशीनों ने बनाए हैं और इंजीनियरों ने बनाए हैं। सारे समाज का ऋण हमारे ऊपर है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमको तप करना चाहिए अर्थात हमको किफायत बरतनी चाहिए। यह पैसे का तप कहलाता है। आप पैसा कमाते हैं, ठीक है, परंतु आप उतना खाइए, उतना खरच कीजिए कि आप कम से कम में गुजारा कर सकें। बाकी पैसा निकालिए, दूसरों को दीजिए। नहीं साहब! हम ऐयाशी करेंगे, बदमाशी करेंगे, महल बनाएँगे और बेटों को छोड़ जाएँगे। अरे दुष्ट! केवल बेटों के लिए छोड़ेगा और किसी को नहीं देगा? दुनिया में कितने लोग दुखी हैं, पीड़ा और पतन में डूबे हुए हैं। इस पीड़ा और पतन के नाम पर भगवान दोनों हाथ पसारता है और कहता है कि दुनिया में पीड़ा फैली हुई है। उसके लिए आप हमको दीजिए। भगवान आपको पुकारता है, हाथ पसारता है।

दुनिया में भौतिक पतन के रूप में, शारीरिक पीड़ाओं के रूप में, शरीर से लाचार और बुद्धि से लाचार के रूप में जहाँ कहीं भी पीड़ा और पतन दिखाई देता है, उन सबके रूप में भगवान दोनों हाथ पसारता है। वह कहता है कि हमने आपको दिया है, आप हमको दीजिए। नहीं साहब! हम नहीं देंगे। हम तो लोहे के आदमी हैं, पत्थर के आदमी हैं और संगदिल आदमी हैं और चट्टान के आदमी हैं। हमारे पास न दया है और न धर्म है। हम न किसी के लिए उदार बन सकते हैं और न किसी की सेवा कर सकते हैं। हम केवल खाना जानते हैं और अपने खाने से भी गुजारा नहीं हो सकता, हम अपनी सात पीढ़ी को भी खिलाना चाहते हैं। हम केवल खिलाना ही नहीं चाहते, जमा करना भी चाहते हैं, बेटे को हरामखोर बनाना चाहते हैं और सारी की सारी दौलत अपने घर में जमा करना चाहते हैं। दुष्ट कहीं के!

हर क्रिया में आध्यात्मिकता

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको नए तरीके से विचार करना पड़ेगा। तपस्वी जीवन के लिए आप कमाएँ, ठीक है, हमें इससे कोई शिकायत नहीं। आपको जरूर कमाना चाहिए। कमाएँगे नहीं तो उत्पादन कैसे होगा? दुनिया में चीजें रहेंगी कैसे? लेकिन आपको खरच के बारे में हजार बार सोचना चाहिए और लाख बार सोचना चाहिए। आप जो कमाते हैं, आखिर उसको खरच कहाँ करते हैं? आप यह जवाब दीजिए। साहब! खरच तो हम अपने लिए करते हैं, ऐयाशी के लिए करते हैं, बदमाशी के लिए करते हैं, जमाखोरी के लिए करते हैं और औलाद के लिए करते हैं। बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। अगर आप तपस्वी हैं और आप आध्यात्मिक व्यक्ति हैं तो आपका भजन करने से काम चलने वाला नहीं है। रामायण का पाठ करने से काम चलने वाला नहीं है। आपके जीवन की प्रत्येक क्रिया में से आध्यात्मिकता की भावना टपकनी चाहिए। आपको इंद्रियनिग्रही होना चाहिए। धन के बारे में आपकी नीति वही होनी चाहिए, जैसे कि एक अमेरिकी व्यक्ति की थी। उसके बारे में मशहूर था कि वह बड़ा कंजूस आदमी है। उसने विवाह भी नहीं किया। अरे साहब! औरत आ जाएगी तो पैसा खरच करना पड़ेगा। तो बच्चा गोद ले लीजिए। अरे साहब! बच्चा ले लूँगा तो वह सारा पैसा खरच कर डालेगा। पढ़ाई के लिए पैसा देना पड़ेगा, इसके लिए देना पड़ेगा, उसके लिए देना पड़ेगा। बड़ा कंजूस था वह। उसके पास करोड़ों रुपये की संपत्ति थी। न उसने विवाह किया, न बाल-बच्चे पैदा किए। फटे-पुराने कपड़े पहनता था, पर था वह करोड़पति।

जीवन समाज के लिए

कुछ लोग उसके पास गए। किसी नए विषय के लिए विश्वविद्यालय में भवन बन रहा था। लोगों ने कहा कि जब सबसे चंदा माँग रहे हैं तो चलो, इसके लिए इससे भी चंदा माँगते हैं। चलो, उसके पास भी जाएँगे। लोगों ने कहा कि वह थोड़े ही देगा! जो व्यक्ति खा नहीं सकता, कपड़ा भी नहीं पहन सकता, विवाह-शादी नहीं कर सकता, भला वह चंदा कैसे दे सकता है! देगा कि नहीं देगा, चलिए, देखा जाए। उसके पास वे गए। उसके घर में दो बत्तियाँ जल रही थीं। एक ऊपर जल रही थी और एक मेज पर जल रही थी। जैसे ही उन लोगों ने 'नमस्कार' किया, झट से उसने मेज की बत्ती बुझा दी। ऊपर वाली जलती रही। लोग समझ गए कि कैसा कंजूस और मक्खीचूस आदमी है। उसने कहा कि कहिए, कहाँ से आना हुआ? उन्होंने बताया कि यहाँ के विश्वविद्यालय में साइंस की एक ऐसी क्लास बनने वाली है। यह सुनते ही उसका चेहरा खिल उठा। उसने कहा कि मजा आ गया! यही तो मैं चाहता था कि हमारे देश में साइंस की ऐसी प्रगति हो। यह ख्वाब मैं न जाने कब से देख रहा था। वह मेरा ख्वाब अब पूरा होने वाला है। मुझे बड़ी खुशी है, बड़ी प्रसन्नता है। आपस में उन लोगों ने कहा कि माँगो पैसे। उनने कहा कि तो फिर कुछ मदद कीजिए। बताइए, आपकी क्या मदद करूँ? बहुत डरते-डरते कहा कि आप पाँच सौ डॉलर दे दें तो ठीक है। पाँच सौ डॉलर? अच्छा अभी देता हूँ। उसने चेक बुक निकाली और पचास हजार डॉलर का चेक बनाकर उनके हाथ में दे दिया। एक ने दूसरे को दिया, दूसरे ने तीसरे को दिया। सबने गौर से देखा। उसने पूछा—क्यों इसमें कुछ गलती हो गई है क्या? हाँ, यह तो पचास हजार का चेक है और हमने तो पाँच सौ डॉलर माँगे थे। हाँ, मैंने आपको पचास हजार डॉलर की पहली बार की किस्त दी है। इसलिए कि मैं देखूँ तो सही कि जो आप बनाना चाहते हैं, ठीक से बना पा रहे हैं कि नहीं। अगर ठीक बना रहे हैं तो जैसा कि आप बता रहे हैं तो अभी मैने यह पहली किस्त का चेक दिया है, अगला पचास हजार वाला चेक दूँगा, फिर तीसरा दूँगा, चौथा दूँगा और अंत में जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब विश्वविद्यालय के लिए दे दूँगा; क्योंकि इसके लिए ही मैंने फटे हुए कपड़े पहनकर जिंदगी जी। ब्याह-शादी भी नहीं किया।

सादा जीवन—उच्च विचार

मित्रो! आदमी को उदार होना चाहिए। धन के बारे में उदार होना चाहिए। अगर आप कमा सकते हैं तो कमाएँ, हम मना नहीं करते, लेकिन खरच करने के बारे में मैं हजार बार कहूँगा और लाख बार कहूँगा कि अगर आप आध्यात्मिक जीवन की दिशा में चलना चाहते हैं, आप रामायण का पाठ करना चाहते हैं, गीता का पाठ करना चाहते हैं तो इजहार आपकी जबान से नहीं होना चाहिए। आपको यह बताना चाहिए कि हम खरच किस तरीके से कर सकते हैं और कहाँ कर सकते हैं। आप मुसीबत उठाइए, कष्ट सहिए, गरीबी में रहिए, सादा जीवन-उच्च विचार अपनाइए। ऊँचे विचार करने वाले हर एक को सादा जीवन जीना पड़ा है; किफायतशारी का जीवन जीना पड़ा है; कंजूसी का जीवन जीना पड़ा है; कष्टमय जीवन जीना पड़ा है; मितव्ययी जीवन जीना पड़ा है। इससे कम में कोई रास्ता नहीं है। मैंने आपको तीन वजहों से मुसीबतें उठाने के लिए बताया है। एक और भी वजह है, जिस वजह से आपको मुसीबत उठाने के लिए तैयारी करनी चाहिए। यह बात तप में शुमार हो सकती है। सेवा करने के काम में आपको अपनी शक्तियों को दूसरों को देना होगा। इससे क्या आप गरीब हो जाएँगे? कल मैं आपसे ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बाबत कह रहा था। ईश्वरचंद्र विद्यासागर गरीब रह गए थे। उन्होंने अपना पैसा विद्यार्थियों के लिए खरच कर दिया था। गरीब आपको रहना चाहिए और आपको गरीब रहना पड़ेगा।

उदार ही बड़ा तपस्वी

मित्रो! अगर आप गरीब नहीं रह सकते तो सुदामा जी के तरीके से भगवान आपके पैर धोने के लिए तैयार नहीं होंगे। आप चाहते हैं कि आप अमीर हो जाएँगे। भगवान को माला चढ़ाएँगे, फूल चढ़ाएँगे, चंदन चढ़ाएँगे और भगवान का प्यार पा लेंगे। भगवान का प्यार पाने के लिए ऐसा नहीं हो सकता। आप गरीब सुदामा के तरीके से चलिए, फिर देखिए आपके पैर धोए जाएँगे। गरीबी से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो कमाते नहीं हैं, बैठे रहते हैं, जो हरामखोरी करते हैं। उनसे मेरा मतलब कतई नहीं है। आपको सौ हाथ से कमाना चाहिए और हजार हाथ से खरच करना चाहिए। अगर आप ऐसे उदार व्यक्ति हैं तो मैं आपको तपस्वी कहूँगा। आप जंगल में नहीं जाते हैं तो क्या, धूप में नहीं खड़े होते हैं तो क्या, मैं आपको तपस्वी कह सकता हूँ। तपस्वी का जीवन जीने के लिए आपके ऊपर एक और बात लागू होती है। आपको मुसीबतें झेलने के लिए जान-बूझकर इसलिए भी तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जब आप शराफत की जिंदगी जिएँगे, भलमनसाहत की जिंदगी जिएँगे तो यह जमाना इस तरह का है कि जो आपके बारे में यह ख्याल करेगा कि इनके ऊपर 'टान्ट' कसकर के देखते हैं। आप ईमानदारी से रहते हैं, रिश्वत नहीं लेते हैं तो आपके बॉस और आपके साथी आपकी बाबत यह ख्याल करेंगे कि यह हमको कोई अडंगा अटका सकता है। हमारे काम में कोई रुकावट डाल सकता है। शिकायत कर सकता है। इसलिए इसका ट्रांसफर कर दो। आपके ऊपर इलजाम लगाए जा सकते हैं। आपका कैरेक्टर-रोल खराब हो सकता है। आपका प्रमोशन रोका जा सकता है और जरूर रोका जाएगा। अगर आप शराफत से जिंदगी जिएँगे, तब आपको जरूर मुसीबत में धकेला जाएगा।

व्यावहारिकता का जीवन

बेटे! इस जमाने में, जिसमें हर एक आदमी बेईमान हो गया है, हर एक आदमी चालाक हो गया है, ऐसे जमाने में शराफत की जिंदगी नहीं जी जा सकती। बेईमानों और चालाकों से लोहा लेने के लिए, जद्दोजहद करने के लिए अगर आप अपने पाँव पर खड़ा होना चाहते हैं, तो तैयार हो जाइए। इसके लिए आपको मुसीबतें उठानी पड़ेंगी तो उठाएँगे। ट्रांसफर के लिए तैयार रहिए। अपना बिस्तर बाँधकर रखिए। थोड़ा-सा सामान रखिए और ज्यादा बच्चे मत पैदा कीजिए। ट्रांसफर होगा तो ठीक है। मियाँ-बीबी दो हैं और एक बच्चा है। उसे लेकर चल दिए। ट्रांसफर करा देंगे। हाँ साहब! ट्रांसफर कर दीजिए। बच्चे को हम पढ़ा लेंगे। सादगी का जीवन जिएँ और इन सब बातों के लिए तैयार रहें। ईमानदारी की कीमत चुकाने के लिए, अगली परीक्षा में पड़ने के लिए, कठिनाइयाँ सहने के लिए अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो सिद्धांतवादी कहाना छोड़ दीजिए। फिर जैसा दुनिया में चल रहा है, चलने दीजिए। फिर हम क्या कह सकते हैं ! आप भी रिश्वत ले लिया कीजिए और फिर उसी बॉस को दे दिया कीजिए। वह कहेगा कि क्या मामला है? तुम्हारे हिस्से में अस्सी रुपये आए थे, सो वह क्यों नहीं लिया? अरे साहब! हमारा तो गुजारा हो जाता है. आपको तंगी पड़ती है, आप ही ले लीजिए। अस्सी रुपये का घी आपके लिए ला दिया है। यदि आपका गुजारा हो जाता है तो इसे किसी और को दे दीजिए।

कठिनाइयों से लड़ना भी तप

मित्रो! अगर आप खुलकर खड़े होंगे तो आप पर मुसीबतें आएँगी। मुसीबतों के लिए आप तैयार हो जाइए। यह क्या हो गया? बेटे! यह हो गया आपका तप। एक तप और भी है कि जहाँ हमको गुंडागर्दी के खिलाफ लोहा लेना पड़ता है, वहाँ हमको चोट पड़े बिना नहीं रह सकती। जटायु रावण से लड़ने के लिए खड़ा हो गया था। उसने कहा कि यह लड़की किसकी है? हिंदू की है या मुसलमान की है या रामचंद्र की है या किसकी है, लेकिन यह दुष्ट अनीतिपूर्वक ले जा रहा है। हम तो इससे लड़ेंगे। तू तो पक्षी है। पक्षी हैं तो क्या हुआ, अब हम अनाचार से लड़ेंगे जरूर। जटायु लड़ने लगा। रावण ने उसको तलवार मारी। पंख कट गए। जमीन पर गिरा। रामचंद्र जी आए। उन्होंने जटायु को उठाकर छाती से लगाया और अपनी आँखों से आँसू टपकाकर के उसको धोया और पोंछा। अपने बालों से उसकी मिट्टी को साफ किया और कहा कि आपको हम मुक्ति दे सकते हैं और आपको स्वर्ग भेज सकते हैं। जटायु ने कहा "नहीं भगवन् ! बस, जो कुछ भी जिंदगी का फायदा था, लाभ था, वह मैंने पा लिया।"

संत—एक ईमान : एक दृष्टि

साथियो! भगवान प्रसन्न होते हैं तो आदमी को तीन वरदान देते हैं। चौथा वरदान भगवान कोई नहीं देते। पहला वरदान यह है कि जब भगवान प्रसन्न होते हैं तो आदमी को संत बनाते हैं। बेटे! चरित्रवान व्यक्ति, निष्ठा वाला व्यक्ति, आदर्शों पर खड़ा रहने वाला व्यक्ति, सिद्धांतों पर डटा रहने वाला व्यक्ति, उसका नाम है—संत। पैंट पहनता है तो मुझे क्या शिकायत हो सकती है ! आप कोट पहनते हैं तो मुझे क्या शिकायत हो सकती है! आप लाल-पीले कपड़े पहनते हैं तो मैं क्या कह सकता हूँ! आप तिलक लगाते हैं तो मुझे क्या एतराज है! मुझे इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है कि आपका लिबास और पोशाक कैसी है? मैं तो आपके ईमान की बाबत कह रहा था। संत एक ईमान है। संत एक चरित्र है। संत एक दृष्टि है। संत एक परंपरा है। संत एक सिद्धांत है। संत एक वृत्ति है। दूसरी वाली विशेषता जब आदमी के अंदर आती है और जब उसको भगवान पसंद होते हैं तो वे उसे सुधारक बनाते हैं। सुधारक माने साबुन। साबुन इस तरह का, जो स्वयं तो गालियाँ खाता रहा, तिरस्कृत होता रहा, अपमानित होता रहा। जहाँ गया, हर जगह लोगों ने मजाक उड़ाया, मखौल उड़ाया, गालियाँ दीं। सारी की सारी जिंदगी बेटे! ऐसा ही होता रहा। कितने आदमियों को गालियाँ खानी पड़ी। कितने आदमियों को मरना पड़ा। कितने आदमियों को जलील होना पड़ा। इस समाज ने हर सुधारक को परेशान किया है। सुकरात को उन्होंने जहर पिलाया। दयानंद को उन्होंने जहर पिलाया, ईसामसीह को उन्होंने फाँसी पर टाँग दिया। लूथर और दूसरे आदमियों की कैसी-कैसी मिट्टी पलीद हुई है। बेटे! दुनिया में सुधारकों की बहुत मिट्टी पलीद हुई है। राजनीति में सुधार लाने वालों को फाँसी पर चढ़ना पड़ा। उसमें भगत सिंह भी शामिल हैं और दूसरे लोग भी शामिल हैं। सुधार करने वालों को यह दुनिया चैन से बैठने देगी? नहीं बैठने देगी।

शहादत : भगवान की अनंत कृपा का परिणाम

तीसरा वाला वरदान भगवान किसी को प्रदान करते हैं तो उसको शहीद का वरदान प्रदान करते हैं। वह व्यक्ति सिद्धांतों के लिए, उद्देश्यों के लिए, आदर्शों के लिए शहीद हो जाता है। शहीद किसे कहते हैं? अपने पास जो कुछ भी चीजें हैं, उन्हें वह जलाता हुआ चला जाता है, खाली होता हुआ चला जाता है। गोली का शिकार हो जाना सुगम है, फाँसी के तख्ते पर चढ़ जाना सुगम है, लेकिन तिल-तिलकर अपनी सारी शक्तियों को और अपनी सामर्थों को खरच कर डालना—सिद्धांतों के लिए, समाज के लिए और आदर्शों के लिए, मुश्किल है। इसलिए शहीद केवल वे ही व्यक्ति नहीं होते हैं, जो केवल फाँसी के तखलों पर चढ़ाए गए, गोली से उड़ाए गए, वरन वे लोग भी होते हैं, जिन्होंने अपनी सारी जिंदगी को श्रेष्ठ कार्यों के लिए खरच कर डाला। जटायु ने कहा—"बस भगवन् ! हो गया मेरा काम। मुझे जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान 'शहीद' होना मिल गया।" मित्रो! तपस्वी जीवन यही है। आध्यात्मिकता की विशेषता यही है। आध्यात्मिकता की संपत्ति यही है। विभूतिवान जीवन यही है। शक्तिवान जीवन यही है। जो भगवान को अपनी ओर खींच लाते हैं, भगवान को वे अपनी मुट्ठी में रखते हैं। योगी की यही ताकत है। आप सच्चे मन से योगी बनिए, तपस्वी बनिए, फिर देखिए हमारी तरह आपको भी जिंदगी में मजा आ जाएगा।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥