भगवान भाव के भूखे होते हैं

परमवंदनीया माताजी की अमृतवाणी-मातृवाणी
(आश्विन नवरात्रि ६-१०-१९८४ में दिया गया प्रवचन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

सज्जनो एवं देवियो!
जब बरसात आती है तब बादल छा जाते हैं और सर्वत्र वर्षा होती है। क्या बादल कभी पक्षपात करते हैं? नहीं करते हैं। वह तो सर्वत्र बरसते हैं। जहाँ कहीं भी पात्र मिलता है, वह वहीं पर जल भर देते हैं, जहाँ पात्रता की कमी होती है, वहाँ जल की कमी आती है। पात्रता जितनी अधिक हमारे जीवन में होगी, उतनी ही हमारे जीवन में समृद्धि आती है, यदि हमारे जीवन में श्रद्धा हो तो भगवान हमारे पास खिंचता चला आयेगा। भगवान निरन्तर हमारे पास ही रहते हैं। पिछले दिनों मैंने कहा था, यद्यपि ये शब्द थोड़े अलग हो जाएँगे। हमारे बच्चे प्रायः कहते हैं—अरे माताजी! गुरुजी के दर्शन नहीं हुए हैं। तो क्या आप हाड़-माँस की आँखों से दर्शन करने आये थे? तो माताजी किससे करें? मैं आपके सामने बैठी हूँ। आज मेरा यहाँ दूसरा दिन है। परन्तु मुझे अनुभव हो रहा है—मेरा देवता मेरे पास बैठा है। आपको क्यों नहीं दिखाई देता। आप अपनी मन की आँखों को खोलकर देखिये, तो आपको मालूम पड़ेगा कि गुरुजी आपके साथ हैं। आप उस दृष्टि और चिन्तन को लेकर चलिये जिसके लिए उन्होंने तप किया। बच्चों का दु:ख-दर्द हमारा अपना दुःख-दर्द है। कोई कहता है कि माताजी हमें गुरुजी के दर्शन होने चाहिए। क्यों बेटे! जैसा हमारे लिए तू है, वैसे ही और हैं। हमारे लिए सारा विश्व एक बराबर है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है?

भावनाओं का आदान-प्रदान

बेटे जो सामने होता है, उसका अधिकार अधिक होता है। आप कितने वर्षों से हमसे जुड़े हुए हैं। आपका अधिकार पहले होता है। माता-पिता की थाली में यदि भोजन परोसा जाता है और बच्चा सामने बैठा हो तो माँ-बाप खा नहीं सकते। उनका मुँह नहीं चलेगा। अरे, हमारा अतिथि—हमारा बच्चा हमारे सामने भूखा खड़ा है तो हम कैसे खा सकते हैं? ऐसे बिरले ही होंगे, जो बच्चों को छोड़कर खा लेंगे। आप हमारे परिजन हैं, हमारे बच्चे हैं, हमारे अतिथि हैं। आप हमारे यहाँ आये 'शान्तिकुञ्ज' में, तो आप खाली हाथ कैसे जा सकते हैं? पात्रता के अनुरूप आपको अवश्य मिलेगा। अपने आप की सफाई आप इसी दृष्टि से करेंगे। जो आप यहाँ कामना लेकर आये हैं, दुःख-दर्द, कठिनाई लेकर आये हैं, उसका क्या हुआ? मुझे यह कहना पड़ रहा है कि आपकी तो आँखों की सफाई हो गयी। हमने हमेशा कमाया है, परन्तु रात को खाली हाथ सोये हैं—कारण दिन भर लुटाया है। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि जो हम करने में समर्थ होंगे, वह आपके लिए जरूर किया जाएगा।

एक पेड़ पर कबूतर और कबूतरी बैठे हुए थे। एक भूखा बहेलिया उसी पेड़ के नीचे लेटा हुआ था। उसने कहा मैं तीन दिन का भूखा हूँ। यह सुनकर कबूतर और कबूतरी ने आपस में कहा कि यह बहेलिया हमारा अतिथि है। हमारे होते हुए यह भूखा नहीं रह सकता। बहेलिये ने सर्दी से बचने के लिए आग जला रखी थी। कबूतर ने बहेलिये से कहा—आप हमारे अतिथि हैं, हमारा फर्ज है कि हम आपकी भूख को शान्त करें। हम दोनों अग्नि में कूदकर अपने आपको भून लेंगे। आप हमें खाकर अपनी भूख को शान्त कर लेना। दोनों आग में कूद गये। बहेलिया की आँखों में आँसू आ गये। उसने कहा कि हम इन निर्दोष पक्षियों को मारते हैं। जब कबूतर और कबूतरी दोनों में मानवता बाकी है—तो हम मनुष्यों में क्यों नहीं हो सकती? उसने उसी समय अपने धनुष-बाण फेंक दिये। यदि तुम भगवान के भक्त हो तो भगवान ने जो क्रिया-कलाप तुमको सौंपे हैं, उन्हें पूरा करो। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि जो भी हमारी तप की पूँजी होगी, उसमें आप हिस्सेदार हैं।

मैंने आपको बादल का उदाहरण दिया। उसका अर्थ है—पात्रता । जब तक हमारी पात्रता विकसित नहीं होती तो भगवान की क्या चलती है, हमारे पास इनसान भी नहीं आयेगा। जब आपके जीवन में पात्रता आ जाएगी तो भगवान स्वयं आपके पास आ जाएँगे। जब वर्षा होती है तो कहते हैं केले में कपूर पैदा होता है और सीप में मोती पैदा होते हैं। काले साँप में मणि पैदा हो जाती है। बाँस में वंशलोचन पैदा हो जाता है। आप इस सिद्धान्त को समझ लीजिए। जब तक मुँह नहीं खुला होगा, तब तक कोई भी बूँद किसी वस्तु में प्रवेश नहीं कर सकती। इसलिए आप अपनी सिद्धियों को विकसित कीजिए। जब आप अपने अंदर पात्रता विकसित कर लेंगे, तो आप गायत्री माता की आराधना के योग्य हो जाएँगे। आप यहाँ अनुष्ठान करने के लिए आये हैं, तो किसके संरक्षण में आप अनुष्ठान कर रहे हैं। जिसके मार्गदर्शन में अनुष्ठान कर रहे हैं, उसकी उपयोगिता समझिये तो सफलता आपके कदम चूमेगी। जब तक आप सच्चाई के धरातल पर नहीं उतरेंगे, हवा में उड़ते रहेंगे, तब तक सफलता आपको नहीं मिलेगी।

क्या कहने उस दयालु माँ के, क्या कहने उस करुणा की सागर के, जिस पर वे दयालु हो गयीं—उसे उन्होंने निहाल कर दिया। इतना दिया कि सँभलता ही नहीं है। माँ को जब स्मरण किया जाता है तो वे दयालु हो जाती हैं। जब हमारी हाड़-माँस की माँ हमें सुख दे सकती हैं तो सरस्वती माँ की क्या कहूँ, वह दौड़ी आयेंगी। सारी धरा पर गायत्री माता की करुणा बरस रही है। करुणा का कहीं अन्त होता है, किन्तु उसके साथ स्वच्छता की, पात्रता की आवश्यकता है। क्षुद्रता की, पाप की गठरी हमारे सिर पर रखी है। जब चारों ओर गंदगी रखी है, तो उस समर्थ सत्ता को आप कहाँ बिठायेंगे? वो हमारी शक्ति, वो हमारी माँ कहाँ बैठेगी? मैं तो उस बेटे के यहाँ बैठूँगी। जो कहे हाँ माँ, आपके लिए हमारा दरवाजा खुला है। जो समर्पित हो और कहे कि आपकी आज्ञा हमें शिरोधार्य है। उसी के ऊपर गायत्री माता बैठेंगी।

हंस जैसे निर्मल, स्वच्छ, साफ प्राणी पर ही बैठकर गायत्री माता आयेंगी। आप कल्पना करते होंगे कि हम चौबीस हजार का अनुष्ठान करेंगे तो मनोकामना पूरी हो जाएगी। बेटे अनुष्ठान करने आये हैं, सौ नहीं तो पचास नम्बर जरूर मिलेंगे। मैं तो आपके दिल की बात बताने आयी हूँ। माताजी, मेरा बच्चा उद्दण्ड हो गया है। मेरी पत्नी की तबियत खराब हो गयी है। उसमें आपका इनकम टैक्स भी शामिल है। क्या इसीलिए आप गायत्री माता को पकड़ने के लिए आये हैं। ये जो माँ हैं, वे दुखियों को देखकर बड़ी जल्दी पिघल जाती हैं, पर वे चाबुक भी रखती हैं, कहती हैं—ऐसे नहीं मानेगा यह! अगरबत्ती और फूल दिखाकर मुझे अपने घर में बसाना चाहता है। भगवान कभी भी चापलूसों के काम नहीं आता, उसे चापलूसी पसंद भी नहीं है। भावनाओं में भगवान आता है। यदि आपके दिल में भावनाएँ हैं तो आपका उच्चारण यदि अशुद्ध भी होगा तो आप वाल्मीकि की तरह से 'मरा-मरा' उल्टा जपकर भी ऋषि बन सकते हैं। ऐसा होगा तभी, जब आपके दिल में भगवान निवास करेंगे। वाल्मीकि ने अपनी पत्नी से कहा—सारी जिन्दगी मैंने आपके लिए लगा दी, क्या मेरे पापकर्म में आप साथी होंगी? पत्नी ने कहा—हमें नहीं मालूम आपने क्या किया है। आप पाप कमाते हैं या पुण्य कमाते हैं। आप हमारी उदरपूर्ति के लिए हैं। हम आपके साथी नहीं हैं। पाप-पुण्य से, नैतिकता से कमाइये अथवा अनैतिकता से हमारे लिए लाइये। माँ से पूछा—माँ, क्या तू मेरा साथ देगी। माँ ने कहा—बेटा नहीं, मैं तेरी माँ हूँ। तेरा फर्ज और कर्तव्य है—कहीं से भी ला, हमें नहीं मालूम। बेटे से पूछा—मैंने तुम लोगों के लिए अनैतिक कार्य किये, हजारों लोगों की जानें ली हैं। क्या तुम इस पाप में मेरा साथ दोगे? बेटे ने कहा नहीं पिताजी। यह सुनकर वाल्मीकि की आँखों से अज्ञानता का पर्दा उठ गया। उन्होंने नारदजी के आगे सिर झुकाया और कहा—आपने मुझे सही दिशा दी। प्रायश्चित्त किया, तब वे ऋषि-संत बने। ये भक्त की पहचान है।

भगवान हमारे पास स्वर्ग देने के लिए नहीं आता, बल्कि आत्म-परिष्कार की प्रेरणा देने के लिए आता है । मैं जब गुजरात गयी तो क्या देखा—यज्ञशाला में गायत्री माता आयी हुई हैं, कैसे आयीं गायत्री माता? जो कोई स्त्री और पुरुष आता, उसकी पीठ को लाल कर दिया जाता। बेटे, ये जाहिलों का अध्यात्म है। ये इनसानियत का अध्यात्म नहीं है। जब इनसान में अध्यात्म जागेगा तो वह भगवान का स्वरूप हो जाएगा। वो वह कार्य करेगा जो भगवान ने किया है। भगवान ने इनसान को इतना अमूल्य जीवन दिया है। वह अपनी खुदगर्जी के लिए नहीं दिया है। आपके भले के लिए ही दिया है। ‘एक हाथ में माला, एक हाथ में भाला।’ ये हमारे आत्म-परिष्कार के लिए हैं। गायत्री माता जब देती है तो छप्पर फाड़ कर देती है। किसको देंगी? उसे देंगी जिसकी पीठ हंस के समान उज्ज्वल है। जब गायत्री माता सवार होंगी, तो आप चुप नहीं बैठ सकते। जब आपकी आत्मा का परिष्कार हो जाएगा, तो समझो कि आपके ऊपर गायत्री माता आ गयीं। भगवान हमेशा उदारता, करुणा और दया के रूप में आते हैं। आप वाल्मीकि की तरह हो जाइये। संत एकनाथ की तरह हो जाइये।

एक बार संत एकनाथ रामेश्वरम् जा रहे थे। उनके हाथ में गंगाजल था। मन में भावनाएँ थीं। हम भगवान पर गंगाजल चढ़ायेंगे। रास्ते में एक गधा पड़ा हुआ प्यास से तड़प रहा था। संत ने मन में विचार किया—इस गंगाजल से मैं गधे की प्यास बुझाऊँ या भगवान को नहलाऊँ। मन के अंदर की क्षुद्रता ने कहा—नहीं गधे का क्या है? यह तो एक नीच प्राणी है। भगवान को गंगाजल चढ़ाइये। अन्दर के देवता ने कहा—नहीं ऐसा नहीं हो सकता। हमारे सामने जो गधा प्यास से तड़प रहा है, वह भगवान का ही रूप है। सारे पात्र का गंगाजल लेकर गधे को पिला दिया। गधे ने पूछा—तुम अपने भगवान से मिलने रामेश्वरम् जा रहे थे, तो मुझे जल क्यों पिलाया? एकनाथ ने कहा—हाँ मैं भगवान से मिलने ही जा रहा था, पर तुम प्यासे थे सो गंगाजल तुम्हें पिला दिया। गधे ने कहा—एकनाथ, मैं ही रामेश्वरम् हूँ। आ मैं तुझे कलेजे से लगा लें। रामेश्वरम् ने एकनाथ को अपने कलेजे से लगा लिया।

भगवान हमारे पास विश्व-संवेदना के रूप में आयेगा। हमें अन्दर से प्रेरित करेगा कि हमको कुछ करना चाहिए, हमें अपनी आत्मा की मलीन चादर को हटाना चाहिए। जब तक आवरण नहीं हटेगा, तब तक भगवान नहीं आयेगा। जब अंगारे के ऊपर एक राख की सफेद पर्त छा जाती है, तो वह अंगारा कोई खास गर्मी नहीं पहुँचाएगा। जब आप अंगारे पर से उस राख को हटा देंगे तभी अग्नि का वास्तविक स्वरूप दिखाई देगा। आप अग्नि के पास बैठेंगे तो आपकी सर्दी दूर होगी। पकड़ेंगे तो आपके छाले पड़ जाएँगे। हमारी आत्मा से आवरण हट जाएगा। यही अध्यात्म है, यही आत्मा का मिलन है। यदि हम आवरण नहीं हटायेंगे तो हम नीच प्रकृति के बने रहेंगे। हमारा भगवान से मिलन नहीं होगा। मैंने आपको भगवत्प्राप्ति का तरीका बताया है, प्रोसीजर बताया है।

हम अपने जीवन में अनेक बुराइयाँ करते रहते हैं। हमारे चारित्रिक पक्ष की अनेक बुराइयाँ हैं। इसमें से हमें एक ही बात समझ में आयी है—समाज में व्याप्त कुरीतियों से लेकर बहिन-बेटियों की लाज तक। आज हमारे समाज में अनेक बुराइयाँ व्याप्त हैं। दहेज के नाम पर कन्याओं को जिन्दा जला दिया जाता है। धर्म के नाम पर मूक पशुओं की बलि चढ़ा दी जाती है। फिर भी आप कन्या को देवी कहते हैं। हमें किसी के पैसे की आवश्यकता नहीं है, यह कहना तभी सम्भव है जब आपके अन्दर इनसानियत आयेगी, यदि इनसानियत नहीं है तो आप कहेंगे कि दहेज का पैसा हमें कहीं से भी लाकर दे। जब तुम ध्रुव की तरह से अपने आपको इस योग्य बनाओगे उद्देश्य और लक्ष्य के लिए, भगवान की प्राप्ति के लिए तब आप अवश्य सफलता पा लेंगे। आप प्रह्लाद से शिक्षा लीजिए। संत तुलसीदास से प्रेरणा लीजिए।

संत तुलसीदास अपने समय में बहुत कामी थे, परन्तु राम की कृपा होने से वह संत हो गये। उन्होंने तुलसीकृत रामायण लिखी। ये कैसी शिक्षा है? यदि भगवान नहीं आया होता जीवन में तो तुलसीदास कैसे सक्षम होते, आप भक्तों का उद्धार करने में?

संत कबीर बिलकुल पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु जब गुरु की कृपा उनके ऊपर आई तो वह निहाल हो गये। वे हिन्दू और मुसलमान को नहीं मानते थे, वे बस इनसानियत को मानते थे। कबीर ने अपने गुरु से कहा—आप मुझे दीक्षा दीजिए। गुरु ने कहा—जा तुझे यह भी नहीं मालूम है कि तू हिन्दू है या मुसलमान। गुरु चले गये। कबीर दूसरे दिन सुबह गंगातट पर जाकर सीढ़ियों पर लेट गये। गुरु आये और उनका पैर कबीर को छाती पर पड़ गया। गुरु ने कहा—राम-राम ये क्या हो गया। कबीर ने कहा—बस मुझे सच्ची शक्ति मिल गयी। आप और हम जैसे लोग होते तो कहते कैसा जाहिल है जो हमारी छाती पर पैर रख दिया।

इसी प्रकार मीरा भी कम पढ़ी थी, परन्तु उसकी वाणी में गजब का चमत्कार था। जब उसके अन्दर भक्ति जाग्रत हुई तो कृष्ण भगवान मीरा के साथ नाचने और रास रचाने लगे। उसने भक्ति के बदले कृष्ण को मोल ले लिया था। ये भक्त की परिभाषा है। भक्तों में मीरा अग्रणी है। भक्ति के प्रभाव से जहर भी अमृत बन गया।

इसी प्रकार भक्त रैदास थे। वे जाति के चमार थे। उन्होंने भी भगवान की भक्ति की थी। वे जूता सिलते थे। वे जूता सिलने को भी भगवान की पूजा मानकर करते थे, पर आप लोग तो दवाओं में भी मिलावट करते हैं। काम को म्यूनिसपैलिटी का काम मानकर करते हैं। क्या हम भगवान को भी धोखा देंगे? अच्छा कार्य करने वाला व्यक्ति भगवान का स्वरूप बन जाता है। फिर उसे अच्छा कार्य करना ही पड़ता है।

बेटे, गुरुजी के हृदय में भगवान विराजमान हैं। उन्होंने भगवान को कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने भगवान को अपने अन्दर पाया। गायत्री माता उन्हें हर समय दुलारती रहती हैं। वे उनके रग-रग में बस रही हैं। क्या कारण है कि गुरुजी के ऊपर गायत्री माता मेहरबान हैं? बेटे, गुरुजी ने गायत्री माता के ऊपर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है। १५ वर्ष की आयु से लेकर के आज ७५ वर्ष की आयु तक आप कल्पना कर सकते हैं। आप देखेंगे तो रो पड़ेंगे। क्या आप यह समझते हैं कि गायत्री माता वैसे ही आ गयी हैं—गुरुजी के पास। नहीं बीज जब तक अपने को गलाने की चेष्टा नहीं करता, वह अंकुरित नहीं हो सकता। जब तक वह गलता नहीं है, वृक्ष नहीं बन सकता। उसका सर्वस्व चला जाएगा।

मैं आपको गुरुजी का उदाहरण दे रही हूँ। मैं एक नारी हूँ, पत्नी हूँ। मेरी रग-रग में वे समाये हुए हैं, सही सिद्धान्त यही है। अपने को भी बीज की तरह गलाना है। बेटे पहले झाड़-झंखाड़ साफ करो। यह पथरीली भूमि है। इसमें जो भी बीज आप बोयेंगे, वह नष्ट हो जाएगा। जब आप सफाई करके बीज डालेंगे, तब वह पूरी शक्ति से अंकुरित होगा। एक चमत्कार पैदा हो जाएगा, जब भूमि साफ होगी, तब अंत:करण की भूमि में जो मलीनता है, उसे साफ कीजिये। हमारे मनुष्य जीवन में अनेक भूलें होती रहती हैं। हम बार-बार इसीलिए कहते हैं कि आपको सफाई करनी पड़ेगी। आपको भूलों के प्रति सजग रहना पड़ेगा। पिछली बार भूल करके आये थे, इसलिए अपने मन को धोइये। आगे के लिए संकल्प कीजिए, प्रतिज्ञा कीजिए कि जो भूलें हमसे अब तक हुई हैं, आगे से नहीं होंगी।

एक बार भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया। कहने लगा कि हमें भगवान से मिलने के लिए कोई रास्ता बता दीजिए। बुद्ध ने कहा—चल तू मेरे साथ चल। उसके अन्दर जिज्ञासा थी जानने की। वह भगवान बुद्ध के साथ चल दिया। वहाँ जाकर बुद्ध ने एक परिवार से भिक्षा माँगी। उनके कमण्डलु में गोबर था। जिस किसी ने खीर दी वह भी उसी में डाल दी और भी किसी ने कुछ दिया वह सभी कमण्डलु में डाल दिया। उस व्यक्ति ने यह सब देखकर कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं? आप भगवान के बारे में क्या जानते हैं और आप हमें क्या बता सकते हैं? आप तो पागलों की भाँति कर रहे हैं। आपने गोबर के कमण्डलु में खीर डलवा दी। ये तो कुछ भी नहीं रहा। भगवान बुद्ध ने कहा—बेटे, यही सिद्धान्त है। भक्त के दिमाग में जो गोबर भरा पड़ा है, तो भगवान हमारे अंत:करण में आएगा कहाँ से। वह तो गोबर में ही समा जाएगा। भगवान तुम्हारे अन्त:करण में इतनी दूर से आये और तुम्हारे ऊपर कोई असर नहीं।

एक लड़का मेरे पास आया और कहने लगा—माताजी! मैं दस साल से उपासना कर रहा हूँ, परन्तु गायत्री माता ऐसी निष्ठुर हो गयीं कि एक दिन भी स्वप्न में भी नहीं आयीं। बेटे, गुरुजी की तो उपासना में सारी उम्र लग गयी और तू दस साल की बात करता है। क्या गायत्री माता की उपासना तू स्वप्न में उन्हें देखने के लिए करता है। बेटा, तू ऐसा कर गायत्री माता का चित्र ले जा और देख लिया करना। परन्तु स्वप्न में गायत्री माता के दीखने से तेरा क्या भला हो जाएगा? जब तक तू अपने विचारों को नहीं सँभालेगा, तब तक भगवान के भक्त नहीं हो सकते।

गुरुजी जब नहाने के लिए जा रहे थे तो अंजलि भर कर जौ ले गये थे। उसमें आ गई एक मछली। मछली को उन्होंने दुलारा और कहा—बड़ी प्यारी मछली है। उन्होंने मछली को कमण्डलु में डाल दिया। कमण्डलु में मछली बड़ी हो गयी। गुरुजी ने कहा—अब क्या किया जाए? मछली ने कहा—गुरुजी मैं सीमाबद्ध होकर नहीं रह सकती। गायत्री तपोभूमि बनाइये। चारों वेद लिखिए। गायत्री तपोभूमि बनायी गयी, वेदों के भाष्य किये गये। मछली ने फिर कहा—मुझे हिमालय पर भेजिये। हिमालय पर भेजी गयी, फिर मछली लौटकर यहीं आ गयी। फिर कौन उठायेगा? कच्छप भगवान मुझे अपनी पीठ पर उठायेंगे। वह मछली सारे विश्व में फैल गई। वह असीम शक्ति सारे विश्व में समाई जा रही है। मछली समुद्र में चली गयी। समुद्र सीमित नहीं है। भगवान का जो भक्त होगा वह सीमित नहीं होगा। जो सीमित रहेगा, उसको भक्ति सड़-गल जाएगी। हमने और आपने जो भगवान का स्वरूप समझा है वह एकांगी है। यदि तेरा उद्धार हो जाएगा तो सारे संसार में से एक और व्यक्ति घट जाएगा। अच्छा तुमने अपने समाज और विश्व के लिए क्या किया? संसार का क्या भला किया? भक्त का कल्याण उसके आत्मिक विकास के रूप में होगा। विकास के दो रूप हैं—(१) श्रद्धा का विकास (२) निष्ठा का विकास।

गुरु द्रोणाचार्य ने पूछा—एकलव्य, तूने धनुर्विद्या किससे सीखी। एकलव्य ने कहा—गुरुजी आपसे ही सीखी। आप ही मेरे गुरु हैं। गुरु द्रोणाचार्य ने कहा मैं तो नहीं आया तुझे सिखाने। मैं तो अर्जुन को विद्या सिखाने के लिए वचनबद्ध था। एकलव्य ने कहा—गुरुजी। आप मेरे अंत: करण में रहते हैं। आपने ही मुझे धनुष चलाना सिखाया है। उन्होंने कहा एकलव्य तू धन्य है और धन्य है तेरी भक्ति । मैं गुरु हूँ, परन्तु मैं तेरे आगे छोटा पड़ता हूँ। जब हमारी श्रद्धा और भावना दीक्षित हो जाती है, तो भगवान भी हमारे पास आते हैं। जब तक हम अपनी भक्ति में श्रद्धा नहीं उतारेंगे, तब तक भक्ति केवल हमारे लिए ही होगी, भगवान के लिए नहीं। हम और गुरुजी एक हैं। हमारी भावनाएँ एक हैं। हमारे सिद्धान्त एक हैं। बस हमारे शरीर अलग-अलग हैं। हम आपके मार्ग में भक्ति को उतारना चाहते हैं। भक्ति का सही मार्ग और स्वरूप यही है। अनुष्ठान करने के लिए आपको तन, मन और स्थान की सफाई करनी पड़ेगी। जब आप जप करेंगे तब आपको अपने अन्त:करण की सफाई करनी पड़ेगी। बच्चे के मन में कोई कपट और दुराव नहीं रहता। कोई छल नहीं रहता। भगवान का मन भी बच्चे के समान कोमल है। ईसामसीह से एक बार एक व्यक्ति ने पूछा—बताइये भगवान कहाँ हैं? उन्होंने एक बच्चे को गोद में उठा लिया और कहा यही भगवान हैं। बच्चे जैसी मन:स्थिति, ऐसी ही हमारी कल्पना एवं भावना हो, तभी भगवान मिलते हैं।

भक्ति में हम और हमारा भगवान—यही भावना रहनी चाहिए। पर लगता है यहाँ अनुष्ठानकाल में भी पत्नी और बच्चे आ गये। शान्तिकुञ्ज में आकर इस अवधि में तुम्हें अपने बच्चे और पत्नी को भूलना पड़ेगा। अपनी वृत्तियों का शोधन करना होगा। उन्हें अच्छी बनाइये। यहाँ पर कोई किसी की पत्नी नहीं है, कोई किसी के बच्चे नहीं हैं। मात्र भक्त और भगवान दो के बीच ही सम्बन्ध है, साधनाकाल में।

भक्ति अलग होती है। ऐसी भक्ति मत करिये कि हम मनसा देवी पर जाएँगे। देवी को स्वस्तिक लगाकर आयेंगे। भगवान का स्वरूप बहुत ऊँचा है। भगवान बहुत ऊँची जगह पर बैठता है। जब हमारे यहाँ कोई मेहमान आता है, तब पता नहीं हम उसके लिए क्या क्या करते हैं। हम उसका बहुत स्वागत-सत्कार करते हैं। जब हम एक मंत्री के आने पर दुनिया भर की सफाई करते हैं, अच्छा खाने-पीने का इन्तजाम करते हैं, तो भगवान के लिए क्यों नहीं कर सकते। क्या भगवान की हैसियत एक मंत्री जैसी भी नहीं है।

जब आप जप करें तो यह मानकर चलिए कि हम अपनी माता की गोदी में बैठे हैं। माता हमें अपनी छाती से लगा रही है। माँ हमें दुलार रही है। आप उस आनन्द की अनुभूति लीजिए। कुछ बच्चे कहते हैं कि जब हम जप करते हैं, तब गुरुजी को अपने सामने बैठा मानकर चलते हैं। ठीक है बेटे, किन्तु गुरुजी की शक्ति और प्रेरणा मुख्य है। शक्ल मुख्य नहीं है। हमारा शरीर क्षणभंगुर है, परन्तु गुरुजी के बनाये गये जो सिद्धान्त हैं, वह टलेंगे नहीं, वे ऐसे ही अचल रहेंगे। उनके साहित्य में आग है, हम उसका विस्तार करेंगे, जैसा विवेकानन्द ने किया था। समर्थ गुरु रामदास और रामकृष्ण अपने मिशन का विस्तार करने में समर्थ नहीं हुए। विवेकानन्द की भक्ति ने विस्तार किया। आपमें वह भक्ति तब आयेगी, जब आप अपनी पात्रता विकसित करेंगे।

आप गुरुजी से कुछ माँगने आये हैं, वह आपको मिलेगा भी—प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी। एक गाना है—

पास रहता हूँ मैं सदा से तेरे !
तू नहीं देख पाये तो मैं क्या करूँ।

गुरुजी की प्रेरणा है। वही तो हमारे लिए सब कुछ है। उनके लक्ष्य के लिए ही तो हम कटिबद्ध हैं—समर्पित हैं। कोरी कल्पनाओं से कुछ नहीं होता। भक्ति, शक्ति, साहस हमें दीजिए जिससे हमारा कल्याण हो। काँच नहीं हीरा माँगिये। हीरा का मूल्य अच्छा है, काँच का कोई मोल नहीं है। हनुमान जी ने कहा था—"रामकाज कीन्हे बिना, मोहिं कहाँ विश्राम।" भक्त को चैन कहाँ पड़ता है। फिर तो वह समुद्र लाँघेगा। लंका में आग लगायेगा। सीता माता की खोज करके आएगा। अंगद की तरह से लंका में पैर जमाएगा। जब तक उसके अन्दर भक्ति नहीं थी, तब तक वह वानर था । जब उसके अन्दर भक्ति आ गयी तो वही बन्दर हनुमान हो गये। राम के भक्त हो गये। जब तक इतिहास में रामायण का नाम रहेगा—राम का नाम रहेगा, तब तक हनुमान का नाम भी राम के साथ में लिया जाएगा।

शबरी रास्ता साफ करती थी। ऋषि उसकी सूरत भी देखना पसन्द नहीं करते थे। कहते थे अछूत है। परन्तु वह कहती थी कि मेरा कर्म तो अच्छा है। जब मार्ग से भगवान जाएँगे तो मेरे भगवान के पैर में काँटे चुभ जाएँगे, वह बराबर रास्ता साफ करती रही। भगवान शबरी के यहाँ आये। उन्होंने शबरी के जूठे बेर भी खाये। भगवान भावनाओं के भूखे होते हैं। वह किसी की अगरबत्ती के भूखे नहीं हैं। लक्ष्मण ने राम से कहा आप यह क्या कर रहे हैं? उस अछूत कन्या के हाथ से बेर खा रहे हैं। राम ने कहा—मैं तो भक्त की भावनाएँ खा रहा हूँ। उसकी भक्ति के आगे मैं छोटा हूँ। यही सही स्वरूप है अध्यात्म का, जो मैंने आपको बताया कि भक्ति सही रूप में किस तरीके से आती है। आपका गायत्री माता का अनुष्ठान निर्विघ्न रूप से सफल हो। आपका जीवन फले-फूले। जीवन में वह बहार आये जो सन्तों और ऋषियों के जीवन आयी।

॥ॐ शान्तिः॥