सन्त के अनुयायी हैं हम

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

सन्त के अनुयायी हैं हम

परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह मौलिकता है कि उनके शब्द हमारे अन्तःकरण को झकझोरते भी हैं और हृदय को सम्वेदित भी करते हैं। अपने ऐसे ही एक प्रस्तुत उद्बोधन में वे प्रत्येक गायत्री परिजन को स्मरण दिलाती हैं कि हम लोग पूज्य गुरुदेव जैसे सन्त के अनुयायी हैं और उनके निर्दिष्ट पथ पर बढ़ते समय न हमें परिवार की चिन्ता करने की आवश्यकता है और न सामाजिक विडम्बनाओं के आगे झुकने की जरूरत है। वे कहती हैं कि हमें प्रतिकूलताओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है, वरन पूरे साहस के साथ उनसे लोहा लेने की आवश्यकता है। वन्दनीया माताजी पूज्य गुरुदेव का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि उनसे प्रेरणा लेकर हमें देवताओं की तरह जीवन जीने की आवश्यकता है। हमें भाईचारे से रहने की जरूरत है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......

सन्त के अनुयायी हैं आप

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

बेटियो, आत्मीय प्रज्ञा परिजनो ! भगवान ने जो हमें यह बहुमूल्य जीवन दिया है, उसको सार्थक बनाने के लिए हमें सन्त का जीवन जीना है। आप एक सन्त के अनुयायी हैं। गुरुजी के शिष्य हैं, तो गुरुजी के पदचिह्नों पर आपको चलना ही चाहिए। नहीं, हम कैसे चलें ? माताजी ! मुझे तो जुकाम हो जाता है, हाँ, यह तो आप सही कह रहे हैं। जुकाम तो देखो, इतने हिस्से में होता है। नाक में हो रहा है कि पाँव में हो रहा है और सिर में हो रहा है।

बस, इतनी जगह में जुकाम हो रहा है। नहीं साहब ! अगर हम कुछ करते हैं, तो हमारी जो औरतें हैं, वे हमें कहीं जाने नहीं देतीं। साहब ! मेरा मर्द मुझे कहीं नहीं जाने देता। मर्द बड़ा शासन करने वाला है। नहीं, कोई शासन नहीं करेगा बेटियों पर।

आप गुरुजी-माताजी के बेटे हैं। पत्नी कौन है ? हमारी बेटी है। हमारी बेटी के ऊपर आप गुलामों जैसा शासन करेंगे ? हम गुलामों जैसा शासन नहीं करने देंगे, किसी को भी नहीं करने देंगे, वे गुलाम नहीं हैं, वे हमारी बेटी हैं। हमारी बेटी हैं वे, तो जो अधिकार तुम्हें दिया गया है, वह इन्हें भी दिया गया है।

इनको आगे बढ़ने दीजिए। इनकी पीठ थपथपाइए; ताकि वे आपके समतुल्य होती हुई चली जाएँ, उपकार करती हुई चली जाएँ। हमको बिलकुल मंजूर नहीं है, यहाँ जो लड़के और लड़की कहते रहते हैं कि हमारी परिस्थितियाँ नहीं हैं। इसी तरह से मीरा ने एक बार तुलसीदास जी को पत्र लिखा था।

उसमें यह कहा कि आप मेरा मार्गदर्शन करिए मैं किस तरीके से अपने गृहस्थ जीवन से लोहा ले सकूँ ? क्योंकि मुझे भगवान को स्मरण नहीं करने दिया जाता है।

तुलसीदास जी का जीवनदर्शन

तो उन्होंने एक कविता लिखकर मीरा के पास भेज दिया; क्योंकि वे तो कवि थे। उसका भावार्थ यह है कि देखो किसी के मन पर किसी का अधिकार नहीं होता। शरीर पर तो अधिकार हो सकता है, मन पर नहीं हो सकता।

हम भगवान को सदा स्मरण करें, तो क्या कोई रोकेगा ? अच्छे कार्य के लिए आगे बढ़ें तो क्या कोई रोकेगा अथवा रोक सकता है ? बिलकुल नहीं रोक सकता, यह तो कहने की बात है। उस कविता में उन्होंने कहा—

जाके प्रिय न राम-वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन बन्धु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भए मुद मंगलकारी ॥

उन्होंने सारा-का-सारा संसार; जीवनदर्शन एक कविता में उड़ेलकर रख दिया। मीरा घबराती है। तू घबरा नहीं। हिम्मत से काम ले। जो कदम आगे उठाया है, उसे पीछे न हटा, लोक-मंगल के लिए हमें यदि कुरबानी देनी हो, तो देंगे ही, उससे कौन डरता है ? देखा जाएगा ठीक है।

गुरुजी पर विश्वास रखें

घरवाले खुशामद करें कि तू मेरा भगवान है, देवता है। देवता, यह कहाँ होता है ? पर भगवान हमारे ऊपर ही चढ़ता आए, तो यह भी कोई बात हुई। पूरा सम्मान करेंगे, पर जब गलत चलेगा, तो उसे समझाएँगे, मिन्नतें भी करेंगे।

कहेंगे, यह रास्ता गलत है। आप इस रास्ते से नहीं चलिए और कैसे भी न माने तो, है तो भाई वह हमारा भगवान। पर एक साधक के तरीके से अपनी मौन साधना कीजिए, उसको कोई नहीं रोक सकता।

मैं आपसे निवेदन करूँगी कि मैंने चौपाई के माध्यम से समझाने की कोशिश की है कि गुरुजी ने यह कहा कि हर औरत को आज संकल्प लेना चाहिए कि जीवनपर्यंत तक जो ज्योति जलाई जा रही है, हमें घी का काम करना है, बाती का काम करना है; ताकि यह बुझे नहीं और प्रज्ज्वलित होती हुई चली जाए और हम इसको जलाते हुए चले जाएँ।

गुरुजी को विश्वास दिलाते हुए हम शपथ ले रहे हैं कि आपकी आज्ञानुसार हमारा हर कदम आगे बढ़ता हुआ चला जाएगा, बगैर किसी विरोध के; हमें किसी की परवाह है ही नहीं। हर सुधारक, हर सन्त के सामने कठिनाइयाँ तो आती ही रही हैं। यहाँ तक आती रही हैं कि उनको अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, जैसे गान्धी जी। गान्धी जी को गोली मार दी गई, सुकरात को जहर दिया गया, स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी गई, दयानन्द को जहर पिलाया गया।

प्रतिकूलताओं से घबराएँ नहीं

अरे, किन-किन का कहें कि किसको सामना नहीं करना पड़ा प्रतिकूलताओं का ? मरना तो एक दिन है ही। देखा जाएगा, यदि किसी के भाग्य में ऐसा ही है, तो ऐसा भी देखा जाएगा। शहीद की तरह से मरना चाहिए। कायरों की तरह से नहीं, गीदड़ों के तरीके से नहीं।

साहसियों के तरीके से, जिस तरीके से एक फौजी होता है, फौजी कमाण्डर आगे-आगे चलता है। देखा जाएगा ? गोलियाँ चल रही हैं, तो क्या हमारे हिस्से की होंगी तो लग जाएँगी और नहीं तो जिन्दा तो बच ही जाएँगे।

कौन परवाह करता है उस समय ? जो मान और इज्जत अपने राष्ट्र की बचानी है, तो हम उसके लिए कुरबानी देंगे। हमारे में जो त्याग के भाव होंगे, वे सारे राष्ट्र के लिए समर्पित होंगे। वे ही राष्ट्र को बचाएँगे।

आपको नहीं मालूम किस-किस तरीके से हमारे अन्दर जो विकृतियाँ हैं, वे हमें हैरान किए दे रही हैं। अभी बाहर की ही चैन नहीं लेने देतीं और हमारे ही घर में आग लगती चली जा रही है। इस आग पर पानी कौन डालेगा? यदि पड़ोस में आग लगेगी, तो प्रभावित आप भी होंगे। ऐसा कभी नहीं हो सकता, आग लग रही हो और प्रभावित न हों।

ज्ञानी, ज्ञान से विकृतियाँ काटें

तो साहब ! इसका उपाय क्या है ? एक-एक पानी की बालटी लेकर पहुँच जाएँ ? नहीं बेटे ! इस पानी की आवश्यकता नहीं है। एक और पानी है। कौन-सा है ? वह है प्यार, वह है स्रोत, वह है सिद्धान्त, वह है सद्ज्ञान; क्योंकि अज्ञानतावश जितनी भी विकृतियाँ पैदा होती हैं, उनको हटाने का कार्य ज्ञानी ही कर सकता है; क्योंकि अज्ञानी तो रोकर काटता है और ज्ञानी उसे ज्ञान से काटता है।

ज्ञान से जो जिंदगी कटती है, वह दूसरों को प्रभावित करती हुई चली जाती है। अन्यों का भी ज्ञान बढ़ाती हुई चली जाती है। तो आप ज्ञानियों की श्रेणी में आना। अज्ञानियों की श्रेणी में मत आना।

आपके, हमारे गुरुजी बड़े हिम्मतवाले थे। हमेशा कहा करते थे, अरे मौत का क्या डर है ? कोई डर नहीं है, मैं तो अपने आप बुला रहा हूँ; क्योंकि मुझे तो इस ब्रह्माण्ड में समा जाना है। अभी तो मैं सीमाबद्ध हूँ। शरीर की आवश्यकताएँ होती हैं। शरीर को देखना पड़ता है।

यह जीवात्मा है, तो कभी इस पर झुंझलाहट भी आती है कि क्या है, यह शरीर का बन्धन ? जब सूक्ष्म में मिल जाते हैं, तो कुछ नहीं होता। न कोई शरीर की आवश्यकता है. न किसी चोले की। केवल एक ही है सारे विश्व में छा जाना। आज जो परिस्थितियाँ विपन्न हो गई हैं कि शरीर त्याग का क्या मतलब है ? शायद उनने कोई ऐसा कदम उठाया हो; ताकि उन्हें अपनी जीवनलीला समाप्त करनी पड़े।

गुरुदेव का निर्णय

नहीं बेटे ! उनका यह तीन साल पहले से लिया गया निर्णय था। उनको आभास भी था। उन्होंने कई बार मुझसे कहा था। सूक्ष्मीकरण के दौरान कहा था कि देखो, मुझे पाँच साल केवल मार्गदर्शन के मिले हैं, वह पूरा होते ही मैं चला जाऊँगा।

उनने दो साल पहले कहा था कि अब जाने का समय आ गया। क्यों कहा करते हैं, यह मैंने उनसे कहा ? मुझे बहुत बुरा लगता है। मुझे बहुत असहनीय लगता है। मैं वेदना को सह नहीं सकूँगी, मेरे सामने मत कहिए।

उन्होंने कहा—मैं तुम्हें सुनने को मजबूर कर रहा हूँ। बात जो मैं कह रहा हूँ, वह सामने है। जो परिस्थितियाँ आएँगी, उनका तुम मुकाबला कर सको, इसलिए मुझे बार-बार कहना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि देखो इस मिशन पर जवानी आती जा रही है।

पहले यह बच्चा था, अब यह जवान होता हुआ चला जा रहा है, इतने बच्चे-इतने बच्चे हैं। मुझे और दस साल मिल जाते, तो हम दोनों न जाने क्या से क्या कर देते ? किन्तु यह सब हमारी सूक्ष्मसत्ता द्वारा ही होगा।

बेटे ! मात्र तीन साल पहले की बात बता रही हूँ आपको। मैंने उनसे कहा कि मेरा तो भारी शरीर है। घुटनों में भी थोड़ी-सी जकड़न रहती है, पर आपको तो कोई रोग नहीं है, फिर ऐसा क्यों कहते हैं ? मत कहिए। मुझे जाने दीजिए न। यह तीन साल पहले की बात बता रही हूँ, उनकी अपनी इच्छानुसार ही, जो कुछ हुआ, सब उनकी इच्छानुसार हुआ।

यह भी तय हुआ कि हमारे शरीर को शान्तिकुञ्ज से बाहर नहीं ले जाना चाहिए। यह हमारे दोनों का ही तय किया हुआ था। अब नहीं है उनका शरीर। इसलिए राज आपको बताए दे रही हूँ, जो कि प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा उन्होंने बनाई थी, उन्होंने कहा कि ये देखो, तुम मेरी धर्मपत्नी हो लेकिन दूसरे स्वरूप में तुममें माँ को देखता हूँ। जैसे माँ का स्वरूप होता है, वैसा ही मुझे दिखाई देता है और चाहता हूँ कि हमारा और तुम्हारा यह स्मारक बना दिया जाए। यह उनने कहा—बेटा ! बहुत पहले 1983 में कह दिया था।

प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा

उन्होंने लड़कों से कहा कि जब हमारा शरीर छूटे, तो तुम यहीं जो हमने प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा बनाई है, वहीं हम दोनों का दाह संस्कार करना। उनकी वही इच्छा थी, वही किया गया है। न जाने यह प्रसंग कैसे आ गया ? दिमाग में आ जाता है, तो वह निकल जाता है, इससे आपको कोई ताल्लुक है ? नहीं है।

इससे एक ही ताल्लुक है कि आप उनसे नसीहत लें। उनसे प्रेरणा लें कि सारे विश्व के लिए उनने अपने अन्दर कितनी तड़पन देखी और उन्होंने समाज सुधार के जो वह कदम उठाए, आप हम उन्हें बाँधते हुए चले जा रहे हैं। तोड़ना हमें नहीं आया। आज कितने ही व्यक्ति ईसाई धर्म में दीक्षित हो गए, कितने क्या बन गए?

मनुष्य बनेंगे नहीं तो क्या करेंगे ? मनुष्य प्यार का भूखा है। जहाँ उसको प्यार है, वहीं उसकी गोद में चला जाता है। आप प्यार पैदा करिए; ताकि हर इनसान देशभक्त, समाजसेवी बन सके। आग जो फैली हुई है, त्रुटियाँ हैं, जो कमियाँ हैं उनको सहज तरीके से निकाल करके, उसे प्यार से पीठ थपथपा करके ठीक करिए।

एक तो होता है डाँटना, उसका विरोध करना, उससे नफरत करना। नहीं, हमें नफरत नहीं करना है। श्रद्धानन्द का एक छोटा-सा उदाहरण सुनाकर थोड़ी देर में बन्द करने वाली हूँ। स्वामी श्रद्धानन्द, जिनका नाम पहले मुन्शीराम था। जैसा होता है आम लड़कों में, उनमें भी बुराइयाँ थीं। उनकी जो पत्नी थी, वह बड़ी श्रद्धालु थी, विवेकशील थी। विवेकशील व्यक्ति हर कठिनाइयों का सामना करता हुआ चला जाता है।

भाईचारे से रहें

मैं समर्पण की बात कह रही थी कि वे एक रोज शराब पीकर आए। आते ही पत्नी के ऊपर उलटी हो गई, तो उसने उन्हें नहलाया, धुलाया, सुलाया। उनने देखा कि अँगीठी में आग जल रही थी। आटा मढ़ा हुआ रखा था। उनने कहा क्या आज खाना नहीं बना ? कहा—नहीं, और दिन तो आप खा लेते थे, पर आज आपने नहीं खाया; क्योंकि आप नशे में थे। तुमने भोजन नहीं किया, तो मैंने भी नहीं किया।

उन्होंने कहा—जो हमारे अन्दर दुर्गुण हैं, इससे तुम्हारे अन्दर कोई नफरत हुई क्या ? तो उनने कहा—ऐसा कैसे हो सकता है? आप तो मेरे भगवान हैं। आप जानें—आपका काम जाने। मेरा जो कर्त्तव्य हैं, वह मैंने याद रक्खा।

तो बेटे ! स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन चरित्र में लिखा है कि मेरी पत्नी, मेरी गुरु है। उसने साहस और उदारता मेरे लिए नहीं बरती होती, धैर्य नहीं रखा होता, तो आज मैं न जाने क्या से क्या होता ? आर्य समाज का इतना काम किया। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक रहे, उन्होंने बहुत काम किया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की।

तो मैं आपसे यह नहीं कह रही थी कि वह तरीका है कि बुराई के प्रति क्रोध न जताकर उसकी पीठ थपथपाएँ और कहें यह भैया ठीक नहीं है। देखो यह गलत है। हम और आप एक ही तो हैं, एक ही खून, एक ही माँस सब एक ही है। फिर हम आपस में ऐसे कैसे कह सकते हैं ? भाईचारे से रहें, तो क्या हर्ज है ? भाईचारे से देवताओं की तरह रहना चाहिए, दैत्यों के तरीके से नहीं। देवता कैसे होते हैं ? एक और उदाहरण देकर शायद और स्पष्ट कर दूँ।

कौन हैं देवता ?

एक बार ब्रह्मा जी के पास देवता और दानव दोनों ही गए, दोनों बोले—पितामह ! आप यह बताइए, इनको प्यार क्यों करते हैं और आप हमको प्यार क्यों नहीं करते ? उन्होंने कहा—इस रहस्य को मैं फिर कभी बतलाऊँगा, इस समय नहीं। उन्होंने दावत दी और आमन्त्रण दिया, तो भोजन पहले दानवों को परोसा गया। जैसे ही उन्होंने ग्रास उठाया, कोहनियाँ सीधी होकर रह गईं सबकी। किसी का भोजन नहीं हुआ, मक्खियाँ भिनभिनाएँ, भोजन फैला।

उन्होंने कहा कि अब बारी देवताओं की है—देवताओं को बिठाया गया, उन्हें परोसा गया। उनके भी हाथ सीधे रह गए, उनने कहा देखा तो जाए कम-से-कम। उनका जब भोजन करने का नम्बर आया, तो सोचा अब क्या करना चाहिए? एक ने दूसरे के मुँह में दिया, दूसरे ने तीसरे के मुँह में दिया, इसी प्रकार तीसरे ने चौथे, चौथे ने पाँचवें के। इस तरीके से सभी ने तृप्त होकर के भोजन किया। क्या मजाल कि गन्दगी हो जाए ? क्या मजाल कि फैल जाए ? उसमें उन दानवों का स्वार्थ था। इन देवताओं का भाव निस्स्वार्थ था।

देवताओं ने सोचा—जब अपने मुँह की ओर हाथ नहीं जाता, तो क्यों न दूसरे के मुँह की ओर हाथ करें; ताकि सभी को मिल सके। हमें देवताओं की तरह जीवन जीना है, दूसरों के अन्दर भी देवत्व पैदा करना है, जो कि गुरुजी ने बीड़ा उठाया था।

धरती पर देवत्व का उदय करना, हर व्यक्ति में देवत्व का उदय करना, उसके अन्दर का देवता, चेहरे पर छलकता हुआ दिखाई पड़े, उसकी क्रिया में दिखाई पड़े, यही गुरुजी ने जीवन भर किया। केवल भावना ही नहीं, आप सब उसे यथार्थ में लाइए, अपनी उपासना को व्यावहारिक रूप दीजिए। व्यावहारिक रूप जब देंगे, तो आप इस तरीके से पवित्र और निर्मल हो जाएँगे, जैसे सन्त कबीर ने कहा है—

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पाछे-पाछे हरि फिरत, कहत कबीर-कबीर ॥

भगवान पीछे-पीछे कबीर-कबीर कहता हुआ फिरता है। किसके लिए ? कबीर के लिए। साधारण के लिए नहीं, उसको क्यों कहेगा ? क्योंकि उसका भगवान, उसका ईमान, उसके साथ है और सारे विश्व में चेतना को वह देखता है।

गुरुजी ने देखा भगवान

गुरुजी ने कण-कण में भगवान को देखा। सारे जर्रे-जर्रे में उनको भगवान दिखाई पड़ता था, हर मानव के रूप में। उन्होंने कहा—भगवान है तो, किन्तु यह गर्त में गिरा हुआ है। इसके ऊपर जो कल्मष और कषाय की परत चढ़ी हुई है, जिस तरीके से अंगार पर परत चढ़ जाती है राख की, कण्डे की आग, आपने देखी होगी, उस पर एक परत लग जाती है। दहकते हुए अँगारे पर उसकी जो गरमी होती है, वह ढक जाती है, तो वह किसी काम की नहीं होती। जब परत को हटा देते हैं, तो वह जलता हुआ अंगार रूप होता है।

उन्होंने कहा कि इसके अन्दर जो मलिनता है, जो क्षुद्रता है, इनको निकाल करके, इनको नवजीवन प्रेरणा देना है, अभी तो ये मुरदा की श्रेणी में हैं। ऐसा मत कहिए। तो मैं आलसी और प्रमादी कह दूँगी, आपको यदि मुरदा शब्द बुरा लगता है, पर उन्होंने कहा—मिट्टी की मूर्ति में फिर से नई जान डालनी है।

एक नई लहर पैदा करनी है और सारे विश्व को बदलने की प्रेरणा प्रवाहित करनी है। हमने यह बीड़ा उठाया है। हम विश्व को बदलने की हिम्मत रखते हैं, होगा कि नहीं, हमें नहीं मालूम ? पर हिम्मत तो रखते हैं और जब हम हिम्मत रखते हैं, तो बगैर किसी की परवाह किए कुछ-न-कुछ कर ही डालेंगे।

गंगा की तरह बनें

बेटे ! आपको बहुत कुछ उदाहरण दिए—मीरा का, तुलसीदास जी का, कबीर का दिया है, अन्य अनेकों का दिया। गंगा का दिया, अनवरत बहती चली जाती हैं, गंगास्नान करने जाते हैं। बहुत अच्छी बात है, अपना मैल उतारकर, छोड़कर आ रहे हैं। अरे गंगा जी जैसे बनो—निर्मल, पवित्र, शीतल। गंगा अनवरत बहती रहती है। हमारा जीवन क्या है ? यह सोचें। हम जनसेवा के लिए व्रत लें। जिस तरीके से माँ गंगा बहती चली जाती है, क्या हमारा जीवन ऐसा है ?

हम अनेक रूपों में बहते हुए इस तरीके से जनमानस को उठाएँ कि उसके लिए हमारी हजार भुजाएँ हो जाएँ। हजार भुजा काम करें, हमारे अन्दर जिस दिन यह साहस पैदा हो जाएगा, तो फिर दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जो हमें रोक सकता हो। क्यों रोकेगा ? कल मैंने उदाहरण दिया। क्या है साहब ! आज मंगल है, बड़ी अच्छी बात है, मंगल है, तो मेरा उपवास है, आज हनुमान जी का व्रत है। यह बताइए इस दिन आप क्या-क्या संकल्प लेते हैं ? आगे आने वाले समय में क्या करते हैं ? हनुमान जी ने सीता माता को लाने का शक्ति भर प्रयास किया था। जब भगवान राम से जुड़ गए, तो इतना पराक्रम आ गया। ऐसा जोश आ गया। जामवन्त ने हनुमान जी की शक्ति को ललकारा। कहा—बुजदिल कहीं के, तेरे अन्दर तो इतनी शक्ति है। तो शक्ति का पारावार न रहा और समुद्र में छलाँग लगाई, सुरसा के मुँह से निकले, कभी छोटे, कभी बड़े।

सुरसा माने परिस्थितियाँ | यह समझाने का ढंग है। यह उपाय था, अभिव्यक्त करने का। आपने हनुमान जी की जिन्दगी नहीं देखी। आजीवन ब्रह्मचारी रहे और माँ सीता के लिए, नवजीवन देने के लिए, भारतीय संस्कृति को वापस लाने के लिए हमने जरूरत पूरी की है, तभी हम सही माने में हनुमान जी हैं, नहीं, तो हम हैं लकीर-के-फकीर। लकीर पीट ली सिन्दूर से निहाल कर आए, ऐसा नहीं हो सकता कि उन हनुमानों के तरीके से, अंगदों के तरीके से, विवेकानन्द के तरीके से, उन सिस्टर निवेदिता के तरीके से आप आगे बढ़ें।

हम चाहेंगे कि वे तो एक निवेदिता, एक विवेकानन्द हुए थे और आप में से कितने विवेकानन्द, कितनी सिस्टर निवेदिता बैठी हैं, जो कुछ भी हम कर लें, वह थोड़ा है। हम चाहेंगे कि हमारे विवेकानन्द जन-जन के लिए इस तरीके से खड़े हो जाएँ, जैसे विवेकानन्द अमेरिका में गए और वहाँ उनको शून्य पर बोलने को कहा था। उन्होंने कहा जाओ-जाओ गुरु की शक्ति है मेरे अन्दर। देखो चमत्कार होता है कि नहीं। शून्यवाद पर बोले। थोड़ा समय दिया था बोलने के लिए, पर घण्टों वे बोलते चले गए।

यह मानकर चलिए कि गुरुजी आपके साथ हैं। आपकी परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों, आपका शरीर गवाही क्यों न दे, चाहे आप अयोग्य ही क्यों न हों, पर हमारे लिए बहुत योग्य हैं; क्योंकि हम योग्य बनाने का दावा जो कर रहे हैं। हम जो वायदा कर रहे हैं, उसे पूरा करेंगे। आप कैसी भी गीली मिट्टी के क्यों न हों, उस मिट्टी को हमें सौंपकर तो देखिए कि माँ यह लो। हम वास्तव में करके दिखाएँगे कि किस तरीके से मानव में देवत्व का उदय होता है। आपको देवता बना करके पृथ्वी पर छोड़ेंगे। आप सारे विश्व में फैल जाएँ; ताकि सारे संसार में देवत्व का उदय हो सके, यही मेरी प्रार्थना है। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करूँगी।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥