नारी की क्षमता का सदुपयोग हो

स्वस्थ, शिक्षित, सक्षम, सुयोग्य और कुशल नारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक; आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध हो सकती है। उसकी गतिविधियाँ यदि चौके-चूल्हे तक, बच्चे पैदा करने और घर की चौकीदारी भर करने तक ही सीमित न रहने दिया जाय—उसे विकसित होने दिया जाय, तो मानव जाति की सर्वतोमुखी प्रगति में भारी सहयोग मिल सकता है। जो भार आज अकेले पुरुष को उठाना पड़ रहा है उससे कन्धा मिलाने वाला दूसरा साथी भी मिल जाय तो प्रगति का चक्र दूनी गति से घूमने लगेगा।

यह कल्पना तो हमें अच्छी लगती है लेकिन उस स्थिति से हम बहुत दूर हैं। नारी की वर्तमान स्थिति दयनीय भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी। दयनीय इस अर्थ में है कि उसके मनुष्यता के अधिकार छिन गए हैं। पशुओं के लिए भी अनुचित लगने वाले बन्धनों में उसका शरीर और मन जकड़ा हुआ है। दुर्भाग्य इस अर्थ में कि इस अनीति को बदलने की जगह उसे स्वाभाविक माना जा रहा है। इस स्थिति को बदल डालने के लिए किसी भी वर्ग में कोई खास उत्सुकता या आतुरता नहीं दिखाई देती। लगता है जैसे सबने अफीम की गोली खा रखी हो, स्थूल दृष्टि से न सही पर विवेक की दृष्टि से हर वर्ग किसी न किसी नशे में डूबा हुआ है। इसीलिए इस अति महत्त्वपूर्ण पक्ष को किसी न किसी स्वार्थ की आड़ में उपेक्षित किया जा रहा है।

पुरुष वर्ग सोचता है कि अपने बड़प्पन के झूठे अहंकार को बनाए रखने का अच्छा रास्ता है। नारी के अविकसित होने से अपनी उचित-अनुचित मनमानी चलाने का अवसर वह क्यों खोये? नारी वर्ग इसलिए सन्तुष्ट है, कि उसे पिंजड़े में पाले पक्षी की तरह निश्चिन्त रहने का ठिकाना मिल जाता है। समाज इसलिए चुप है कि वैसे ही हर क्षेत्र में असन्तोष के विस्फोट हो रहे हैं, नारी समाज को उत्साहित करके एक और सिर दर्द क्यों मोल लिया जाय। राजनेता इसलिए सहन कर रह जाते हैं कि विकसित नारी अपने लिए नये कार्य और नये क्षेत्र माँगने लगेगी। कलाकारों को धन कमाने के लिए नारी के अश्लील भद्दे रूप उभारने की छूट चाहिए। लेखनी, चित्रकारी, मूर्तिकला, संगीत और अभिनय कला के सभी क्षेत्रों में नारी के शील की धज्जियाँ उड़ाने में ही अपनी सार्थकता समझी जा रही है। सस्ती प्रशंसा और थोड़े श्रम में अधिक कमाई उन्हें इसी रास्ते से मिलती दिखाई देती है। जाग्रत नारी अपनी ऐसी दुर्गति कभी सहन नहीं करेगी तो फिर इन कलाकारों को भी आजीविका के लिए श्रमिकों जैसा कठोर श्रम करना पड़ सकता है। यह उन्हें क्यों अच्छा लगने लगा? व्यापारी को विज्ञापनबाजी के लिए भी यही रास्ता पसन्द है। नारी के यौवनोन्मत्त रूप को हर वस्तु के साथ जोड़ने से ही उसे अपना अधिक लाभ होता दिखता है। पुस्तक-प्रकाशक फिल्म-निर्माता सभी उसकी हत्या करके ही लाभ कमाने पर तुले हुए हैं। इसी प्रकार की पशुता उभार कर उनकी जेब से मनमाने पैसे निकलवा पाते हैं। जागृत नारी के साथ ऐसी बेहूदा खिलवाड़ करना सम्भव न हो सकेगा। इसलिए यह अपना लाभ इसी में है कि नारी अविकसित ही बनी रहे। उसके प्रति हमदर्दी दिखाने के लिए झूठे आँसू बहाये जावे किन्तु ऐसा कुछ न होने दिया जाय जिसके आधार पर नारी समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सके।

धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में भी इस सन्दर्भ में विशेष आशा नहीं की जाती। उँगलियों पर गिनने लायक थोड़े व्यक्तियों को छोड़कर उनमें से लगभग सभी श्रेष्ठता-महानता के केवल स्वप्न ही देखा करते हैं। वे आदिशक्ति, ब्रह्मविद्या, सरस्वती, गायत्री, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूपों में नारी की पूजा तो करते हैं किन्तु उनकी अन्धश्रद्धा केवल आकाश में रहने वाली अदृश्य देवियों तक सीमित है। धरती के यथार्थ जीवन पर उनका विश्वास ही नहीं होता, इसलिए धरती पर रहने वाली देवियों के प्रति उनके मनों में न सम्वेदना जागती है न श्रद्धा। नारियों की पूजा करके धरती को स्वर्ग बनाने की भगवान मनु की उक्ति वे दोहराते भले हों परन्तु उनका व्यवहार तो उसके विपरीत ही होता है। नारी पर प्रतिबन्ध लगाना वे धर्म मानते मनु के आदर्शों को क्रियान्वित होने में रोड़ा ही अटकाते रहते हैं।

ऐसी स्थिति में जब कि हर क्षेत्र के साधन और क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों की ओर से निराशा होती है एक दिशा से आशा की चमक अभी भी दिखाई देती है वह है जन सामान्य की संयुक्त शक्ति। जन-साधारण के पास शक्ति और साधन सीमित होते हैं यह बात सही है किन्तु यह भी सही है कि बूँद-बूँद से सागर बनता है। जन-शक्ति जब किसी दिशा में एक साथ लग पड़ती है तो वह दुर्गा बन जाती है। इसी चण्डी से इस अनाचार की असुरता के विनाश की आशा की जा सकती है। नारी के प्रति बरते जाने वाले अनाचार की तुलना महिषासुर से की जा सकती है। यह असुर संसार की आधी जनसंख्या को दुर्भाग्य और संकट सहने के लिए मजबूर किये हुए है। लोक शक्ति की सिंहवाहिनी ही इस प्रचलन की समाप्ति-इस असुरता को समन करने में समर्थ है। अपने देश में और विश्व में अनेक बड़े-बड़े परिवर्तन हुए हैं और हो रहे हैं। उनका श्रेय कोई भी ले ले, नेता कोई भी कहला ले, किन्तु उसके पीछे प्रधान भूमिका इसी लोकशक्ति की होती है।

समाज के मूर्धन्य कहलाने वाले—अगुआओं, मुखियाओं ने यदि इस दिशा में उचित ध्यान दिया होता तो समस्या का समाधान अब तक हो भी चुका होता। सत्ताधारी, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, प्रतिभावान, धनवान आदि वर्ग के लोग नारी-उत्थान के लिए चाहकर भी कुछ न कर सकें, ऐसी स्थिति नहीं है। जिनमें जीवन है—साहस है ऐसी आत्माएँ साधन रहित होने पर भी बहुत कुछ कर लेती हैं। आदर्श के प्रति लगन हो तो वह किसी भी क्षेत्र में चमत्कार पैदा कर सकती हैं। युग ने उसी को आज पुकारा है। समय की माँग है कि आदर्श के लिए कुछ कर गुजरने की सजीवता उभरे। न्याय के पक्ष में—औचित्य को जीवित रखने की जागरूकता बढ़े। सजगता और क्रियाशीलता केवल तुच्छ स्वार्थों में उलझकर ही न रह जाय, अपने युग की पीड़ाओं और अनीतियों को मिटाने के लिए साहस भरा सहयोग दे।

इतिहास साक्षी है कि भारतीय परम्परा नारी को क्रीत मानने की—प्रतिबन्धित रखने की नहीं रही है। नारी का प्रधान कार्यक्षेत्र घर तथा पुरुष का कार्यक्षेत्र बाहर रहा है। यह सुविधा और व्यवस्था की बात है, कोई बन्धन नहीं। आवश्यकता के अनुसार पुरुष भी घरेलू काम कर सकते हैं और नारी भी आजीविका उपार्जन जैसे बाहर वाले कार्य कर सकती है। बहुत से पुरुष घरेलू नौकरों के रूप में भोजन बनाने, बर्तन साफ करने, बच्चों को खिलाने आदि का कार्य करते हैं। ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि यह काम तो केवल महिलाएँ ही कर सकती हैं, पुरुष नहीं। इसी प्रकार महिलाओं पर भी यह प्रतिबन्ध उचित नहीं है कि वे नौकरी-व्यवसाय जैसे कार्य न करें।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नारियों को प्रगतिशील बनने के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे कार्य करने ही चाहिए, किन्तु उन्हें हर दृष्टि से स्वावलम्बी बनने देने में कोई प्रतिबन्ध, कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। परम्परा के नाम पर उन्हें घर के पिंजड़े में बन्द कर देना, घर के बाहर पैर न रखने देना आदि प्रतिबन्धों को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। बीच के कुछ सौ वर्ष के अन्धकार युग को छोड़ भारतीय समाज में नारी कभी प्रतिबन्धित नहीं रही। वह पुरुष के साथ हर क्षेत्र में कन्धे से कन्धा मिलाकर, कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती रही है। जो काम नर कर सकता है, उसे नारी ने भी उसी उत्साह और कुशलता से पूरा कर दिखाया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति के गौरव भरे आकाश में प्रतिभाशाली नारियों के चरित्र तेजस्वी नक्षत्रों की तरह चमकते दिखाई देते हैं। मध्ययुग में हजार प्रतिबन्ध होने पर भी जब भी मौका मिला नारी की तेजस्विता की अनोखी चमक बीच-बीच में देखने को मिलती रही है। उसने अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ के बल पर अपने क्रिया-कलापों में नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। व्यक्तिगत प्रखरता में वह पिछड़कर नहीं रही, अग्रिम पंक्ति में ही खड़ी हुई हैं। जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें यह कहा जा सके कि अवसर मिलने पर भी नारी फिसड्डी सिद्ध हुई है। हाथ पैर जकड़ कर—मुँह और आँख पर पट्टी बाँधकर लोहे के पिंजड़े में बन्द कर देने पर तो किसी की भी दुर्गति हो सकती है। नारी का वर्तमान पिछड़ापन स्वाभाविक नहीं बलपूर्वक थोपा गया अभिशाप है। अन्यथा नारी की प्रतिभा कभी भी कुण्ठित होने जैसी नहीं है। मध्ययुग में भी उसकी प्रखरता समय-समय पर प्रकट होती ही रही है।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को कौन नहीं जानता। सन् १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में उन्होंने युद्ध संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही। अंग्रेजी सेना से अद्भुत पराक्रम के साथ लड़ी व वीर गति को प्राप्त हुई।

अंग्रेज सेनापति ने उनके सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट में लिखा "शी वाज दि बेस्ट एण्ड ब्रेवेस्ट एमंग्स्ट दैम"—अर्थात उस समय के योद्धाओं-सेनानायकों में वह सबसे अधिक योग्य और सबसे अधिक बहादुर थी।

गढ़ मण्डला की विधवा रानी दुर्गावती ने कई बार मुगल आक्रमणकारियों से अपने किले की रक्षा करने के लिए असाधारण साहसिकता भरे युद्ध कौशल का परिचय दिया।

वीरांगना ताराबाई, कर्मावती, कमला, कर्णवती जैसी अनेकों भारतीय महिलाओं की शौर्य गाथाओं से इतिहास के पृष्ठ सदैव जगमगाते रहे हैं।

दिल्ली के अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह ने अंग्रेजी शासन उखाड़ने के लिए आयोजित विद्रोह का सूत्र संचालन किया ऐसा इतिहासकारों ने लिखा है। पर वास्तविकता यह है कि सब कुछ स्वयं बादशाह ने नहीं वरन् उनकी पत्नी बेगम जीनत महल ने किया था। बहादुरशाह के साथ ही बेगम जीनत महल को भी देश निकाला दिया गया था।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं की आहुतियाँ इतनी अधिक हैं कि उनका विवरण इकट्ठा करने पर हमारा मस्तक गर्व से ऊँचा उठ जाता है। ईश्वर भक्ति और धर्म प्रचार में पिछली शताब्दियों की अगणित महिलाओं के उज्ज्वल व्यक्तित्व सामने हैं। समाज सेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रही हैं। शासकीय उत्तरदायित्वों को उन्होंने भली प्रकार निबाहा है, वे कुशल प्रकाशक सिद्ध होती रही हैं। शिक्षा एवं कला कौशल में उनने अपने को पीछे नहीं रहने दिया।

भारत के वर्तमान तिरंगे झण्डे की आदि जन्मदात्री एक भारतीय लड़की भीकाजी कामा है। वह जर्मनी के विश्व समाजवादी सम्मेलन में अब से ७० वर्ष पूर्व भारत के प्रतिनिधि की हैसियत से सम्मिलित हुई थी। तब उसने ही भारत का तिरंगा राष्ट्रीय ध्वज अपनी सूझ-बूझ से बनाया था। बाद में कुछ संशोधन करके यह रूप दे दिया गया।

सुभाषचन्द्र बोस के साथ लक्ष्मीदेवी ने आजाद हिन्द फौज को भारतीय महिलाओं की अन्तर्राष्ट्रीय सेना-बिग्रेड बनाई थी और उसने महत्त्वपूर्ण कार्य किये थे।

भारत कोकिला श्रीमती सरोजनी नायडू राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रिम मोर्चे पर लड़ी। उनकी साहित्यिक क्षमता भी अद्भुत थी। उत्तर प्रदेश की राज्यपाल भी रहीं। सामाजिक जीवन में उनकी अनेकानेक सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी।

पं० जवाहरलाल नेहरू की बहिन श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित भी विश्वविख्यात रही हैं। वे बहुत समय तक राष्ट्रसंघ की अध्यक्षा भी रह चुकी हैं।

लोकहित के सार्वजनिक कार्यों में अपना सारा जीवन होम देने वाली—आजीवन कुमारी रह कर देश-धर्म और समाज-संस्कृति को ऊँचा उठाने के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देने वाली महिलाओं के नाम गिनना और संख्या बताना कठिन है। ऐसे उदाहरण किसी भी क्षेत्र से बड़ी संख्या में मिल सकते हैं जिनमें उन्होंने अपनी सारी धन-सम्पदा परमार्थ कार्य के लिए समर्पित कर दी। पूजा-पाठ और दान-पुण्य के मामले में तो स्त्रियाँ सदा से ही भावुक रही हैं। उन्हीं के अनुदान धर्म संस्थानों का प्रधान रूप से पोषण करते रहे हैं। थोड़ा सा सहारा मिलते ही अब उनमें प्रगतिशीलता एवं विवेकशीलता भी जाग उठी है। वे अपनी सहज उदारता तथा सेवा भावना का लाभ युगनिर्माण आन्दोलन और महिला जागरण अभियान जैसे सच्चे धर्म कृत्यों में लगाने के लिए भी मुड़ रही हैं। इस दिशा में भी उनका उत्साह वैसा ही रहता है जैसा पहले साधारण धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए था।

केवल हमारे देश का ही नहीं सारी दुनियाँ का इतिहास नारी वर्ग द्वारा दिए गए गौरवमय अनुदानों की कहानी कह रहा है। संसार के पिछड़े हुए या प्रगतिशील किसी भी देश पर दृष्टि डाली जाय, नारी को जहाँ भी जो भी मौका मिला है वह अपनी विशेषताओं का परिचय देती रही है। उसके व्यक्तिगत जीवन में आदर्श प्रेम, कार्यों में पुरुषार्थ की प्रखरता और लोक सेवा के लिए उदारतापूर्वक समर्पण की चमक किसी न किसी रूप में देखने को मिल ही जाती है।

फ्रांस में जोन आफ आर्क का नाम उसी श्रद्धा से लिया जाता है जैसा कि हमारे देश में झाँसी की रानी का। जोन ने राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए संघर्ष सेना गठित की। उसके नेतृत्व में साधनहीन किसानों और साधारण नागरिकों ने सब प्रकार से प्रशिक्षित और सभी हथियारों से लैस शस्त्र सेना के नाकों चना चबवा दिए। क्रूर शासकों ने उसे चौराहे पर जिन्दा जला दिया। किन्तु उसके बलिदान ने जो आग जगा दी, वह स्वतन्त्रता लेकर ही शान्त हुई। उसे आज भी फ्राँस के नागरिक देवी की तरह पूजते हैं, और सारा संसार उससे प्रेरणाएँ प्राप्त करता है।

सम्राट जार के आतंक से सारे रूस का घर-घर काँप उठा था। उसकी आततायी प्रवृत्ति रोकने के प्रयास में एक युवक को अपराधी ठहराया गया और उसे फाँसी को सजा दी गई। उसकी वीर माता ने अपने दूसरे बेटे से कहा—"बेटे ! अब तुम्हारी बारी है। बलिदान की परम्परा बन्द नहीं होनी चाहिए। अपने पुत्र को इस तरह प्रेरणा देकर 'महान लेनिन' बनाने में एकमात्र उनकी माता मारिया को श्रेय दिया जाता है। शासन का सूत्र संचालन जब भी नारियों के हाथ आया है तब उन्होंने उसे भली प्रकार सम्भाल सकने में अपनी क्षमता का परिचय दिया है। इंग्लैण्ड साम्राज्ञी विक्टोरिया, इसराइल की गोल्डा मेयर, लंका की भंडार नायके और भारत की इन्दिरा गाँधी की सफलताओं को कौन नहीं जानता। संसार भर में नारियों के हाथ में समय-समय पर बागडोर पहुँचती रही है। इन क्षेत्र में भी उनकी समर्थता और कुशलता पुरुषों की तुलना में कमजोर सिद्ध नहीं हुई।

प्राणिमात्र के प्रति सम्वेदना, नारी का महत्त्वपूर्ण गुण है। उसका यह गुण उसके अन्दर से प्रचण्ड शक्ति पैदा कर देता है जिसके सहारे वह अभूतपूर्व काम कर दिखाती है।

स्काटलैण्ड की एक महिला एलिजाबेथ फ्राई ने बन्दियों की दुर्दशा देखी तो वे रो पड़ीं। उनका रोना असहायों जैसा न था। बन्दियों की दशा सुधारने के लिए उन्होंने प्रचण्ड आन्दोलन चलाया। उनकी आवाज सुनी गई और न केवल स्काटलैण्ड में वरन् सारे संसार के जेलखानों की व्यवस्था को फ्राई के आन्दोलन ने प्रभावित किया। संसार भर के कैदी इस महिला के सदैव ऋणी बने रहेंगे।

एमिली ग्रीन ने पुरुषों की तुलना में नारी का दर्जा नीचा न रहने देने की दृष्टि से न केवल अमेरिका में ही, बल्कि सारे योरोप में शक्तिशाली आन्दोलन चलाया था। वहीं की जैन एडम्स नामक एक समाज सेविका के सहयोग से सशक्त अन्तर्राष्ट्रीय महिला लीग बनी। उसके द्वारा संचालित अनेकों सेवा के केन्द्र अभी भी फल-फूल रहे हैं। बच्चों के सुधार का एक कानून 'जेन एडम्स कानून' है। कानून का यह नामकरण उस देवी की सेवा साधना के उपलक्ष में उस देश की सरकार ने किया।

अमेरिका में काले लोगों को दासता से मुक्त करने के लिए गोरे लोगों को विवश कराने का आन्दोलन करने वाली महिला—हैरियत स्टो का नाम सदा से लिया जाता रहेगा। वे एक सामान्य गृहिणी थीं। लेकिन उनकी लिखी पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ने पूरे अमेरिका में ऐसी आग जला दी थी, जो दास प्रथा का अन्त करके ही शान्त हुई।

जापान के गाँधी कहे जाने वाले 'कागावा' कालेज से निकलने के बाद पीड़ितों और पतितों की सेवा में लग गए। उस निर्धन सेवा साधक का सहयोग करने के लिए एक सुयोग्य लड़की आई। यह उन्हीं के साथ विवाह बन्धन में बँधकर अपने पति का साथ जीवन भर बड़ी निष्ठा के साथ बँटाती रही। उसका नाम था 'स्प्रिंग' अर्थात वसन्त ऋतु। वह देवी कागावा के कठिनाइयों से भरे जीवन में अपने स्नेह भरे सहयोग से सचमुच ही वसन्ती बहार बिखेरे रही।

रूस के कीव नगर में एक बढ़ई के घर जन्मी लड़की इसराइल देश की प्रधान मन्त्री बनी, और गोल्डा मेयर के नाम से विश्व विख्यात है। उसने अपनी प्रतिभा एवं चरित्रनिष्ठा से अपने देशवासियों में प्राण फूँक दिए। उस रेगिस्तान में बसे हुए छोटे से देश को अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया। राजनेता की तुलना में समाज सेविका अधिक रही है। अपने देश को कहाँ से कहाँ पहुँचा देने का श्रेय उनकी अनन्य सेवा साधना को ही दिया जाता है।

घायलों-बीमारों की सेवा करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था 'रेड क्राॅस' को जन्म देने वाली फ्लोरेंस नाइटेंगिल, संसार भर में फैले हुए थियोसॉफी आन्दोलन की सफल संचालिका मैडम ब्लैवैट्स्की, मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता मैडम क्यूरी जैसी महिलाओं की गौरवगाथा कभी भी भुलाई नहीं जा सकेगी।

योरोप की कितनी ही सुयोग्य महिलाएँ अपना सुख-साधन छोड़कर भारत के पिछड़े वर्ग की सेवा करने इस देश में आयीं और इसी देश की मिट्टी में समा गयीं। ऐमी देवियों में मानवतावादी महिला टेरीसा, सिस्टर निवेदिता, मिस स्लेड, ऐनी बेसेन्ट, मेरी कीड आदि का नाम अत्यन्त आदरपूर्वक लिया जाता है। उन्होंने संन्यासियों जैसा जीवन बिताया और जीवन भर सेवा साधना में लगी रहकर अनुकरणीय, आदर्श प्रस्तुत किया।

शिक्षा और साहित्य का क्षेत्र भी नारी से छूटा नहीं है। उसमें भी वह अपनी प्रतिभा दिखाती रही है। "स्वत: लिखी आत्म कथा" तथा "मेरा अन्तर्जगत" इन दो अमूल्य पुस्तकों की लेखिका कुमारी हेलन केलर अन्धी, बहरी और गूँगी भी थी, किन्तु अपने मन की लगन और लगातार श्रम द्वारा उन्होंने अनेक परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में पास कीं। वे अंग्रेजी, जर्मन, लैटिन तथा फ्रैंच भाषाओं की महान विद्वान हुईं। संसार के अनेक विश्व विद्यालयों ने उन्हें डाक्टर की उपाधि देकर सम्मानित किया था।

नार्वे की सिग्रिड अनमेट एक निर्धन परिवार में जन्मीं। उसने प्रेरणाप्रद साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया और तन्मयता के साथ उसी में जीवन भर लगी रहीं। नारी और बच्चों के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत ही खोजपूर्ण साहित्य लिखा है। नोबेल पुरस्कार इन्हें भी मिला था।

संसार भर में एक मनोवैज्ञानिक बाल शिक्षा प्रणाली 'माण्टेसरी' पद्धति के नाम से प्रख्यात है। उस आधार को बहुत उपयोगी माना गया है, और दुनियाँ के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पद्धति के लाखों बाल विद्यालय चल रहे हैं। इस विधि को जन्म देने वाली महिला माण्टेसरी इटली के एक गरीब परिवार में जन्मी थीं। किशोरावस्था से वे किसी भयंकर बीमारी से पीड़ित हुईं और मरने की स्थिति तक पहुँच गईं। रोग शय्या पर पड़े-पड़े ही उनने निश्चय किया कि यदि बच गई तो सारा जीवन लोकहित में लगा देंगी। अच्छी होते ही उन्होंने बाल विकास को अपना कार्य क्षेत्र चुना और मरते दम तक उसी सिलसिले में तरह-तरह के प्रयोग करने और विद्यालय चलाने में लगी रहीं। अन्त में उनकी बाल-शिक्षा पद्धति को संसार भर में मान्यता मिली।

नारी और नर दो वर्ग दो पक्ष नहीं हैं, एक ही चेतना के, एक ही सत्ता के, दो एक से पहलू हैं। दोनों को समान रूप से विकसित होने देना ही उचित है। न मालिकी में सम्मान है और न गुलामी में आराम। यह सहकारिता का युग है। इसमें सहयोग की उपयोगिता एक स्वर से स्वीकार कर ली गई है और यह समझ लिया गया है कि सहयोग स्वेच्छा से ही हो सकता है।

सन्त टी. एल. बास्वानी कहते थे—मनुष्य प्राणी के दो लिंग परक पक्षों में एक नारी को गिना गया है, यह उसकी मोटी परिभाषा हुई। वस्तुतः नारी इस सृष्टि का एक सूक्ष्म तत्त्व है जिसे आत्मा की भावभरी कोमलता और सौन्दर्य भरी कलाकारिता कह सकते हैं। नर उसका सुरक्षात्मक खोखला आवरण है। खेत की रक्षा के लिए कटीली बाड़ लगायी जाती है और शरीर की सुरक्षा के लिए वस्त्र धारण करते हैं। नर को प्रहरी और नारी को रत्नराशि कह सकते हैं। इस संसार में भावनात्मक दिव्य सम्वेदनाओं का जितना कुछ वैभव विद्यमान है, उसका प्रतीक प्रतिनिधि नारी शरीर में आवेष्ठित आत्माएँ करती हैं।

भौतिक उत्पादन और साधन अभिवर्धन में नर की अपनी भूमिका है। यों वह भावना क्षेत्र में भी कुछ न कुछ करता ही है, पर उसकी प्रधानता कठोर पुरुषार्थ में है। नारी की विशेषता उन भाव सम्वेदनाओं में है जिनके बिना मानवी आत्मा को जीवन्त बनाए रह सकना असम्भव है। ममता और करुणा उसके दो ऐसे अनुदान हैं जिसे पाकर मानवता जीवित रही, विकसित हुई और गौरवान्वित बनी है।

इस सृष्टि के कर्ता की सर्वोत्तम कलाकृति नारी है। उसे अन्य जीवधारियों की तरह जीवित रह सकने योग्य सामग्री से ही नहीं वरन् विशिष्ट भाव सम्वेदनाओं के साथ गढ़ा गया है। उसकी इसी विशेषता ने इस सृष्टि की भौतिक शोभा में दिव्य सौन्दर्य एवं असीम उल्लास भर दिया है।

धरित्री जीवनयापन के लिए आवश्यक साधन प्रदान करती है, इसलिए वह वन्दनीय हैं। प्रत्येक जीवधारी उसका कृतज्ञ है। किन्तु नारी तो समूचे जीवन का ही सृजन करती है। हम सब जो भी हैं, अपनी जननी के अजस्र अनुदान के प्रतिफल हैं। जननी जीवन को जन्म देती है, उसकी अमूर्त स्थिति को मूर्तिमान बनाने में उसकी समूची सत्ता अपने आप को विखण्डित करके हँसने-बोलने एवं सोचने-करने में समर्थ प्राणी की दृश्य सत्ता का सृजन करती है। जननी के सहयोग के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही इस जगत में सम्भव न होता। जगती से भी जननी बड़ी है।

समुन्नत देशों में जहाँ भी नारी को मनुष्योचित अधिकार मिले हैं, वहीं वह पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही है, किन्तु भारत में नारी समाज आज भी नितान्त पिछड़ी हुई स्थिति में पड़ी है। पिछड़ी नारी, नर के लिए भी किसी क्षेत्र में सहायक न हो सकेगी। भारत में वह प्रयोग दीर्घकाल तक हो चुका और वह सर्वथा हानिकारक सिद्ध हुआ, अब उस प्रचलन को बनाए रखने में कोई बुद्धिमानी नहीं है।

यूगोस्लेविया की महिलाएँ उस देश की पूरी कृषि अवस्था सँभालती हैं। पुरुष फौज, पुलिस, दफ्तर, कारखाने सँभालते हैं। कृषि, पशुपालन में उन्हें कोई श्रम या हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता। चीन, रुस आदि श्रम-निष्ठ देशों में जाकर देखा जाय तो पता चलेगा कि पारिवारिक एवं राष्ट्रीय सम्पदा, सुरक्षा और सुख-सुविधा बढ़ाने में वे कितना बड़ा योगदान दे रही हैं। रूस की शिक्षा व्यवस्था का अधिकांश उत्तरदायित्व महिलाएँ ही वहन करती हैं। शिक्षा संस्थाओं में पुरुषों की संख्या बहुत कम ही दिखाई पड़ेगी। अस्पतालों एवं स्वास्थ्य संस्थाओं का उत्तरदायित्व भी उन्हीं का है। डाक्टर, कम्पाउण्डर, नर्स आदि का कार्य करती हुई महिलाएँ ही देखी जाएँगी, पुरुष तो जहाँ-तहाँ ही दृष्टिगोचर होंगे।

जापान की महिलाएँ उद्योग धन्धों के विकास में पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करती हैं। घर-घर में कुटीर उद्योगों में संलग्न रहकर वे अपने समय का उपयोग घर-परिवार को और समूचे राष्ट्र को सम्पन्न बनाने में करती हैं। जर्मनी में कल-कारखानों को सँभालने में महिलाएँ पुरुष इन्जीनियरों, कारीगरों एवं व्यवस्थापकों से घटिया नहीं बढ़िया, सिद्ध होती हैं। इंग्लैण्ड, फ्राँस, कनाडा, अमेरिका में दुकानें चलाने में महिलाओं की प्रमुखता है, वे व्यापार कुशलता में पुरुषों से आगे हैं। शिशु पालन, गृह-व्यवस्था तो उनके लिए खेल मनोरंजन है। ये सब तो हँसते-हँसाते निपटाती हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों को सँभालने में गृह-व्यवस्था उनके लिए तनिक भी बाधक सिद्ध नहीं होती।

अपने देश में जिन प्रान्तों और जातियों में नारी पर जितना कम बन्धन है, वहाँ वह अपने परिवार के लिए उतनी ही अधिक सहायक सिद्ध हो रही है। केरल प्रान्त में नारी शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया है, विवाह के लिए भी जल्दबाजी नहीं की जाती। इसका फल यह है कि वहाँ का पारिवारिक और आर्थिक स्तर अन्य प्रान्तों की तुलना में कहीं अच्छा है। पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, दक्षिण भारत आदि क्षेत्रों में पर्दा प्रथा जितनी कम है, कृषि व्यवसाय आदि क्षेत्रों में नारी का जितना प्रवेश है, उतना ही स्वास्थ्य सम्पन्नता और व्यवस्था का स्तर वहाँ बढ़ रहा है। जिन जातियों और क्षेत्रों में स्त्रियों को जितने कठोर बन्धन में रखा जाता है, उतना ही उनका—उनके परिवार का स्तर गिरता हुआ चला जा रहा है। यदि अपने देश का भ्रमण करके देख लिया जाय तो पता चलेगा कि अभाव ग्रस्त स्थिति में भी, पिंजड़े से बाहर निकल सकने वाली श्रमजीवी अशिक्षित-स्त्रियाँ भी पर्दा नशीनों की तुलना में कितनी सुखी हैं।

प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को यह अनुभव करना चाहिए कि काल चक्र तेजी से आगे बढ़ रहा है। उसमें अनीति भरे प्रचलन देर तक सहन नहीं किये जा सकेंगे। कुछ समय पूर्व संसार के अनेक क्षेत्रों में असहाय लोग गुलामों की तरह पकड़े और बेचे जाते थे और उनसे मनचाहे काम लिये जाते थे। बेचारे गुलाम तो मालिकों से लड़कर मुक्ति न पा सके, परन्तु विश्व के जागृत विवेक ने उनका पक्ष लिया। फलस्वरूप मालिकों को वह अपना दुष्टता भरा लाभदायक धन्धा छोड़ना पड़ा। अमेरिका के समझदार वर्ग ही दास प्रथा के समर्थन और विरोध के लिए आपस में लड़ पड़े। उस भयंकर गृह-युद्ध का अन्त तभी हुआ जब गुलाम प्रथा का अन्त कानूनी रूप से हो गया।

राजतन्त्र दुनियाँ में से मिट गए या मिटने जा रहे हैं। उनमें कोई बहुत बड़ी खून खराबी नहीं हुई है। समय की प्रबलता ने उनकी कमर में लात मारकर उन्हें औंधे धकेल दिया। सरदार पटेल कहते थे कि इन कथित शासकों की तलवारों की अपेक्षा तो मेहतर की झाड़ू अधिक कारगर साबित हुई। पूँजीवाद बुरी तरह बर्फ के समान गलता चला जा रहा है, उसके स्थान पर समता के प्रचलन किस तेजी से अपनाये जा रहे हैं, इस परिवर्तन के चक्र को तेजी से घूमते हुए कोई भी आँखों वाला देख सकता है। इन परिवर्तनों में शोषकों और शोषितों के बीच मल्लयुद्ध नहीं हुआ, भीतरी विरोध ही उन्हें तोड़ डालने के लिए काफी रहे हैं। साम्यवाद के सैद्धान्तिक समर्थकों में निर्धन लोग ही आगे नहीं आये, उसके प्रतिपादकों, प्रचारकों और योद्धाओं में बड़ी संख्या उनकी थी, जो दरिद्र नहीं सम्पन्न थे। टालस्टाय, बिस्मार्क, क्रोर्पाटिकन, बर्नाड शा, बर्टेण्ड रसल, नेहरु आदि दरिद्र या शोषित वर्ग के नहीं थे, फिर भी उनने वकालत शोषितों की ही की।

यह आवश्यक नहीं कि नर के सामने नारी को विद्रोही बनकर ही खड़ा होना पड़े। यह कार्य उसकी वकालत पर उतारू विश्वात्मा ही कर देगी। उतनी लड़ाई तो उसके पक्ष में नवयुग का जागृत विवेक ही लड़ लेगा। विवेक का सूर्य उगेगा और अँधेरा अपना सा मुँह लेकर स्वयं भाग जाएगा। युग दृष्टाओं की भविष्यवाणी यह है कि नर नारी के बीच मोर्चा बन्दी नहीं होगी। सत्याग्रह, संघर्ष, फसाद, हड़ताल, अभियोग विद्रोह आदि का अवसर नहीं आयेगा। दोनों पक्षों की जागृत अन्तरात्माएँ अपनी-अपनी करवट बदलेगी और उस छोटे से परिवर्तन भर से आज की उल्टी परिस्थितियाँ कल स्वयं ही उलट कर सीधी हो जाएँगी। न तो नर इन प्रतिबन्धों में कोई लाभ देखेगा और न नारी उन्हें सहन करने को तैयार होगी। इस अस्वीकृति मात्र से वह बात बन जायगी जो आज की परिस्थितियों में बहुत अधिक आवश्यक हो गयी है।

नर-नारी के बीच भेद-भाव और उसके कारण हृदय हीनता की मनमानी अब देर तक चल नहीं सकेगी। अगले ही दिनों वे दोनों माता और पुत्र के सच्चे स्नेह दुलार के ढके हुए पुलकित हो रहे होंगे, भाई बहन की भाव भरी ममता आँख मिचौनी खेल रही होगी, पिता के कन्धे पर चढ़ी पुत्री अपने घोड़े को उल्लासपूर्वक हाँक रही होगी, और पति-पत्नी एक दूसरे के लिए अपना सच्चा समर्पण प्रस्तुत कर रहे होंगे। अपनी सुविधा छोड़कर दूसरे की असुविधा दूर करने में दोनों पक्षों के बीच होड़ ठनी होगी। कौन, किसके लिए, कितना त्याग कर सकता है, इस होड़ में दोनों आगे निकलने के लिए पसीना बहा रहे होंगे।

नारी को साथ लिए बिना नर प्रगति के रास्ते पर दूर तक चल नहीं सकेगा। एक पैर से लम्बी मंजिल चल सकना और ऊँचे पहाड़ पर चढ़ सकना कठिन है। इसके लिए दोनों पैर समान रूप से समर्थ होने चाहिए। उज्ज्वल भविष्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जो लड़ाई लड़नी पड़ेगी वह एक हाथ से नहीं लड़ी जा सकती। उसके लिए एक हाथ में ढाल और दूसरे में तलवार पकड़नी पड़ेगी। गाड़ी के दोनों पहियों का समान होना आवश्यक है।

गणित के विद्यार्थी जानते हैं कि १ का एक अंक ऊपर और एक अंक नीचे रख कर जोड़ किया जाय तो उनका योग दो होता है, पर यदि १ और १ के दो अंक बराबर रख दिये जाएँ तो वह संख्या २ न रह कर ११ बन जायेगी। नर और नारी में से एक ऊपर एक नीचे रहेगा तो वह असमानता अधिक से अधिक उन्हें केवल दो जीवित प्राणी भर बनाए रहेगी। पर जब वे समानता के आधार पर, स्वेच्छा से सहयोग करने के लिए सच्चे मन से आगे बढ़ेंगे तो उसका प्रतिफल ५ १/२ गुनी शक्ति के रूप में सामने आवेगा। हर बुद्धि रखने वाला प्राणी इतना तो जानता ही है कि दूसरे पक्ष द्वारा उसके साथ क्या व्यवहार हो रहा है। यदि वह मानवोचित नहीं है तो उसकी सहज प्रतिक्रिया सच्चे सहयोग में बाधा ही उत्पन्न करेगी। चालू दृष्टिकोण में, उस स्नेह सौजन्य की गन्ध नहीं है जो दो व्यक्तियों को परस्पर स्नेह सहयोग के सूत्र में बाँधती रही है, बाँध सकती है।

एनीबेसेन्ट कहती थी—कोई भी पक्षी एक पंख से नहीं उड़ सकता, उसी प्रकार कोई भी राष्ट्र स्त्री और पुरुष में से किसी एक वर्ग द्वारा समुन्नत नहीं हो सकता। राष्ट्र की स्त्रियाँ पत्नी रूप में पुरुष को साहस प्रदान करती हैं, माता के रूप में भावी सन्तति को इस प्रकार शिक्षित करती हैं, जिससे कि वे आत्म सम्मान, स्वतन्त्रता और श्रेष्ठ आचरण का अनुगमन कर सकें। ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति स्त्री स्वरूपा है। जब भी विपत्ति आती है, असत् के रक्षा के लिए शक्ति को पुकारते हैं। ईश्वर की दिव्य शक्ति का प्रतिनिधित्व नारी करती है। "माँ" उसका मधुरतम नाम है।

नारी परब्रह्म की मूर्तिमान सृजन सत्ता है। वह सृजनात्मक समस्त सम्भावनाएँ अपने साथ लेकर जन्मती है। विभिन्न अनुदान देकर सम्बद्ध व्यक्तियों को, समस्त समाज को, सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर करती है।

कहते हैं कल्पवृक्ष पर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार फल लगते हैं। नारी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है। वह पिता का वात्सल्य उभारती है, भाई को पवित्रता प्रदान करती है, पति को अपूर्णता से छुड़ाकर पूर्ण बनाती है और सन्तान का तो वह प्राण ही है। एक नगण्य से जीवाणु को मनुष्य के दिव्य कलेवर में परिणत कर देना उसी की सृजन शक्ति का चमत्कार है।

मनुष्य, जिसमें नर और नारी दोनों ही सम्मिलित हैं, जितनी कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं, उनकी आधी से अधिक सम्भावनाएँ बीज रूप में माता के अनुदान से प्राप्त होती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएँ ही भौतिक जीवन में स्वास्थ्य, विद्या, प्रतिमा, सम्पत्ति आदि के रूप में विकसित होती हैं। आन्तरिक दृष्टि श्रद्धा, आकांक्षाएँ ही व्यक्ति को लघु से महान एवं नर से नारायण के रूप में परिणित करती हैं। क्या बहिरंग और क्या अन्तरंग, दोनों ही क्षेत्रों के नारी में अजस्त्र अनुदान, समस्त मानव समाज पर अनवरत रूप से बरसते रहते हैं। नारी कामधेनु है। सत्य है, शिव है, सुन्दर है। उसके उभयपक्षीय अनुदान पाकर यह समस्त विश्व कृत-कृत्य होता है।

पति और पत्नी का, बहिन और भाई का, पिता और पुत्री का, माता और सन्तान का स्नेह-सहयोग जितना गहरा, जितना वास्तविक जितना आदर्श पौर जितना भाव भरा होगा उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही सुखद होगी। विकसित नारी के द्वारा जो पाया जा सकता है उसकी कल्पना करने मात्र से एक उज्ज्वल भविष्य का उत्साह भरा चित्र आँखों के आगे नाचने लगता है। भारत का अतीत गौरव नारी के सहयोग का ही प्रतिफल था। तब देव सन्तानें अपने महान कार्यों से संसार के कोने-कोने में सुख-शान्ति की स्थापना करती थीं। उनकी संगति पाकर विश्व के समस्त मनुष्य निरन्तर ऊँचा उठाने वाली प्रेरणा और सहायता प्राप्त करते थे। स्वर्गादपि गरीयसी भारत-माता कामधेनु की तरह इसी देश की जनता का ही नहीं, सारी मानव जाति का भी हित-साधन करती थी। नर के माध्यम से दिया हुआ यह परोक्ष अनुदान नारी का ही था। उसके गढ़े खिलौने अपने तेज और व्यवहार से मनुष्यता को धन्य बना सकने में समर्थ होते थे।

यह प्रयोग अपने देश में लाखों वर्षों तक अपनाया गया और सही पाया गया। नारी को दी गई कामधेनु गौ जैसी श्रद्धा असंख्य गुनी होकर वापिस लौटी और उसका अमृत भरा पय-पान करके समस्त मानवता धन्य होती रही।

आवश्यकता इस बात की है कि उन्हीं परिस्थितियों की उन्हीं मान्यताओं को, उन्हीं प्रचलनों को फिर से स्थापित किया जाय, जिनमें रहकर नर और नारी एक दूसरे को सहयोग-सद्भाव प्रदान करने और मिलजुलकर प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने में एक दूसरे की भरपूर सहायता करते रहें। नारी दिव्य क्षमता से भरी पड़ी और समाज की प्रगति के लिए उसकी बहुत आवश्यकता है। उनका लाभ समाज को मिल सके, ऐसी स्थिति जितनी जल्दी पैदा की जा सके उतना ही अच्छा है। हम सब का कल्याण इसी में है।