वसन्त—श्रद्धा, समर्पण व बलिदान का पर्व
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
वसन्त—श्रद्धा, समर्पण व बलिदान का पर्व
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह विशिष्टता है कि उनमें सम्वेदना के भाव और संकल्प के स्वर, एक साथ विद्यमान होते हैं। वसन्त पंचमी, 1987 को दिए गए अपने एक ऐसे ही विशिष्ट उद्बोधन में वे प्रत्येक गायत्री परिजन की अन्तरात्मा को झकझोरते हुए उन्हें स्मरण दिलाती हैं कि वे परमपूज्य गुरुदेव व परमवन्दनीया माताजी की भुजाएँ बनने के लिए यहाँ आए हैं। वे कहती हैं कि वसन्त पंचमी का दिन पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्मदिवस के रूप में है और इसी दिन उन्होंने स्वयं को अपनी गुरुसत्ता को समर्पित किया था। इस दिन प्रत्येक गायत्री परिजन को स्वयं से यह पूछने की आवश्यकता है कि श्रद्धा, समर्पण व बलिदान की इस परम्परा में हम स्वयं को कितना कस पाए हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
पूज्य गुरुदेव का जन्मदिवस
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
हमारे आत्मीय परिजनो! आज वसन्त पर्व है। उल्लास का पर्व, प्रसन्नता का पर्व, प्रेरणा का पर्व और हमारे प्रेरणा स्त्रोत का जन्मदिन है। हमारे आराध्य देव का जन्मदिन है।
आपने यह क्या इतना बड़ा शब्द कह दिया-'आराध्य देव' बेटे! आपके लिए है कि नहीं है, यह बात अलग है; लेकिन मेरे लिए तो है ही और मेरे लिए ही हैं, तो आपके लिए भी होने चाहिए। उन्होंने सारी जिन्दगी अपने को तपा डाला और खपा डाला। जिस अपने गुरु की छाया को सब कुछ समझकर उन्होंने अपना समर्पण कर दिया, वह यही समर्पण का दिन है। उन्होंने उस दिन को अपना जन्मदिन मान लिया।
यों तो उनका जन्मदिन आश्विन बदी तेरस को होता है; लेकिन उस जन्मदिन को वे अपना जन्मदिन नहीं मानते। जो पन्द्रह वर्ष की उम्र थी, वह तो यों ही चली गई। जैसे अन्य व्यक्तियों का जीवनक्रम होता है, लगभग वैसा ही रहा, लेकिन पन्द्रह वर्ष के बाद उन्होंने जो अपने को तपाना शुरू किया, खुद को कसना शुरू किया और खुद को बनाना शुरू किया। अपने गुरु के प्रति जो उनकी भाव-सम्वेदना थी, उसको उन्होंने दिनों-दिन प्रगाढ़ किया। मुसीबतें आई होंगी; लेकिन कभी भी अपनी श्रद्धा को डगमगाया नहीं। उन्होंने जो वचन दिया, वह दिया और अभी भी उसी रास्ते पर हैं।
बेटे! आज उनका जन्मदिन है। हम उनके प्रति प्रार्थना तो क्या कर सकते हैं? क्योंकि सारा-का-सारा वरदान भी वही देते हैं, आशीर्वाद भी वही देते हैं; लेकिन हमारे मन में यह भावनाएँ जरूर आती हैं कि हे भगवान! लाखों वर्षों तक और करोड़ों वर्षों तक यह जन्मदिन ऐसा ही मनाया जाना चाहिए, जैसा कि हम आज मना रहे हैं।
अभी उन्होंने अखण्ड ज्योति में एकाध शब्द लिखा है। उसको मैं आज दोहराना नहीं चाहती हूँ। वह भी कभी होगा, तो देखा जाएगा। ज्योति तो प्रज्ज्वलित बनी ही रहेगी। ज्योति तो कभी बुझ ही नहीं सकती। शरीर? शरीर तो नाशवान है।
गुरुदेव व माताजी का आह्वान
यह तो एक दिन जाएगा ही, लेकिन बड़े, ऊँचे लक्ष्य के लिए जाएगा। उन्होंने अभी से ऐसा क्रम बनाया है, ताकि हम अपनी फुलवारी को हरा-भरा छोड़कर जाएँ। उन्होंने यह आह्वान किया है कि हमारे हाथ कौन-कौन बनते हैं। आप में से कौन हैं कि जो हमारे हाथ बनना चाहते हैं।
आज गुरुजी का जन्मदिन है और इस मिशन का जन्मदिन है। जो भी कार्य किया जाता है, वसन्त पर्व से ही शुरू किया जाता है। गायत्री तपोभूमि में अखण्ड ज्योति से लेकर और शान्तिकुञ्ज में जो भी शुरू किया है, वसन्त पंचमी से ही किया है और आज भी हम वसन्त पर्व को ही आपसे कुछ माँगने आए हैं।
जीवन में माँगा है? कभी नहीं माँगा और कभी माँगेंगे भी नहीं; लेकिन एक चीज माँगने के लिए तुम्हारी माँ उपस्थित हुई है कि कौन हमारे बच्चे हैं जो कि हमारे हाथ बनना चाहते हैं? गुरुजी का आह्वान है कि हम हजार हाथ का बनना चाहते हैं? हजार हाथ, जिसमें आप सभी बैठे हैं, सब उनके एक-एक हाथ हैं।
यदि आपका यह संकल्प हो और आपका समर्पण हो, जैसा कि गुरुजी का समर्पण रहा है, वैसा अगर आपका समर्पित जीवन है, तो हम आपको अपना हाथ मान लेते हैं और आज का यह शुभ पर्व आपके लिए भी प्रेरणादायक हो सकता है और आपका भी हम जन्मदिन आज मान लेते हैं। भले ही आप मन-ही-मन संकल्प करना, हाथ मत उठाना।
गुरुदेव-माताजी की भुजाएँ बनें
यह तो अन्दर की, अन्तरात्मा की पुकार होती है। यह बनावटीपन नहीं होता। यह अन्तरात्मा में आया कि नहीं आया। जिसने अपना सारा जीवन खपा दिया है, क्या हम भी उस रास्ते पर चल सकते हैं? क्या उनके पदचिह्नों पर भी चल सकते हैं? क्या कदम-से-कदम मिलाकर उनके साथ हम भी चल सकते हैं? क्या उनकी भुजाएँ हम भी बन सकते हैं?
बेटे! भुजाएँ बहुत काम आती हैं। खाना खाने के काम आती हैं। प्रणाम करने के काम आती हैं। तकिये के काम आती हैं। अगर चोट लगती है तो दोनों हाथ ऊपर को कर देते हैं। वे चोट को सह लेते हैं। कौन? हाथ सह लेते हैं? हाथ का आह्वान आपके लिए किया गया है।
यदि आप में सामर्थ्य हो और सम्भव हो, तो बेटे आप हमारे हाथ बनना। हमारी यही आकांक्षा है, यही पुकार है। हम आप लोगों से यही माँगने आए हैं कि आप हमारे हाथ बन जाइए। आप हाथ बन जाएँगे तो बस, आनन्द आ जाएगा। विश्वामित्र राजा दशरथ के यहाँ राम-लक्ष्मण को माँगने के लिए स्वयं गए थे और उनको लेकर के आए थे। उनकी माँ ने यदि रोका होता, पिता ने रोका होता, तो वे राजकुमार-के-राजकुमार ही रह गए होते और केवल राजकुमार ही कहलाए होते। राजा दशरथ के पुत्र ही कहलाए होते। भगवान राम नहीं कहलाए होते। यदि सुग्रीव भगवान राम से जुड़ा नहीं होता, तो सुग्रीव डरपोक कहलाया होता, जो भाई के डर के मारे छिपा-छिपा फिरता था। हनुमान यदि भगवान राम से जुड़े नहीं होते, तो हनुमान सुग्रीव के नौकर, मंत्री होते। आज हम जितना भगवान राम को मानते हैं, उतना ही हम हनुमान के लिए भी नमन करते हैं; क्योंकि हनुमान भगवान राम से जुड़ गए।
गिलहरी, जिसने यह कहा था कि अपने रामकाज के लिए मैं समुद्र को पाटूँगी। क्या वह पाट सकती थी? नहीं, लेकिन उसकी भावनाएँ थीं। नाचीज थी तो क्या? उसकी दिलेरी देखिए, उसकी हिम्मत देखिए, उसकी उदारता देखिए, उसका समर्पण देखिए।
उसने कहा कि भगवान रामकाज में सब लगे हुए हैं और हम बैठे रहें। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। हम तो समुद्र को पाटेंगे और कहते हैं कि भगवान राम ने गिलहरी को अपने हाथ पर लेकर के प्यार से सहलाया और उसके ऊपर काली धारियाँ पड़ गईं। पता नहीं, पड़ी की नहीं पड़ी, पर यह सिद्धान्त सही है।
जटायु ने सीता को रावण से बचाने के लिए अपने प्राण दे दिए, तो भगवान राम ने स्वयं आँसू बहाए और उस जटायु का उद्धार किया। विभीषण यदि राम से न जुड़ा होता, तो कौन होता? तो जैसा रावण राक्षस था, वह भी राक्षस होता; लेकिन जुड़ने पर भगवान राम ने स्वयं उसका राजतिलक किया। क्यों? उनसे जुड़ गए न? गुरुजी अपने गुरु से जुड़ने पर कितने महान बन गए, पर उससे पहले उन्होंने अपनी सारी-की-सारी आकांक्षाएँ और अपना सब कुछ उसी में मिला दिया। आप यह मत समझिए कि ऐसे ही वे बिना कुछ किए बन गए। ऐसे नहीं बने।
बेटे! उन्होंने अपने ऊपर इतनी कसाई की है—इतनी कसाई की है कि शायद ही कोई अपने लिए इतना कठोर बनेगा। शायद ही कोई अपने प्रति कसाई करने में सक्षम होगा कि अपने प्रति इतना कड़ा अनुशासन कि बस मैं आपसे क्या कहूँ? वे सबके प्रति बहुत उदार हैं। मैं आपसे कह नहीं सकती कि कितने उदार हैं, पर अपने प्रति बहुत कड़े हैं।
एक बात पर तो वे सबके प्रति कड़े हैं कि कोई परिजन हरामखोरी करे तो उनको बड़ा भारी गुस्सा आता है कि जैसे हम चलाना चाहते हैं, वैसे नहीं चल रहे हैं। क्यों नहीं चल रहे हैं? वे हमारे सामने नहीं बनेंगे, तो कब बनेंगे? इनको बनना चाहिए। बेटे! गुरुजी कई बार अपने भाषण में कड़क बात कह देते हैं। शायद आपने सुना भी होगा।
मिशन के लिए कुछ करिए
उनका मतलब यह नहीं कि वे आपसे नाराज हैं। कुछ और मतलब नहीं है। उनका उद्देश्य यही है कि हमारे परिजन ऊँचा उठें। कुछ अच्छा सोचें, कुछ अच्छा विचारें। कुछ अच्छा करेंगे और समाज के, राष्ट्र के काम आएँगे। उनका एक ही लक्ष्य है। हमने जो हाथ माँगे हैं, वे अपने लिए नहीं माँगे हैं कि आप हमारी सेवा कीजिए। हम अपने लिए नहीं माँगते। माँगेंगे तो उसका मतलब है—मिशन।
गुरुजी व्यक्ति नहीं हैं, माताजी व्यक्ति नहीं हैं। हम मिशन हैं। जो मिशन के लिए समर्पित है, वह बच्चा हमको प्राणों से भी ज्यादा प्रिय लगता है और जो मिशन से जुड़ा हुआ नहीं है और गुरुजी और माताजी की आरती उतारे, वह आरती उतार ले, उससे क्या होगा? उससे आपका कोई व्यक्तिगत लाभ तो हो सकता है और सम्भव है, हो भी जाए, लेकिन हमारी दृष्टि में वह लाभ, लाभ नहीं है, जो खुद के लिए ही है।
बेटे! जिसके लिए समाज कोई चीज नहीं है, राष्ट्र कोई चीज नहीं है, उसको हम कैसे मान लें कि यह हमारा अपना है। वह तो भीड़ है। जैसे मेले-ठेले में होता है. वैसे ही यह भी एक है। नहीं, आप मेला-ठेला में मत रहिए। आप में वह महानता है, महानता के बीज हैं। आप न समझ पाएँ, तो बात अलग है। उसको हम झकझोर रहे हैं, आपको समझा रहे हैं कि आपके अन्दर भी महानता के बीज हैं।
महानता के बीजों को फलने-फूलने दीजिए
आप समझ क्यों नहीं पा रहे हैं? उस बीज को जरा उगने तो दीजिए। उस पर फूल-फल आने तो दीजिए। आपने तो उसे अँगारे के नीचे दबा रखा है। ऐसे दबाया है कि वह उगने का नाम ही नहीं लेता। अँगारे पर जो परत जमी रहती है, तो आग की जो विशेषता है, वह दबकर रह जाती है और जब उस परत को हटा देते हैं, तो अँगारे का मूल स्वरूप सामने आ जाता है। आपका जो मूल बीज है, वह सोया हुआ है। वह धूल के नीचे दबा पड़ा है, मैल के नीचे दबा पड़ा है। उस कूड़े-करकट को साफ करो; ताकि आपको जो प्रकाश मिलता है, उससे अनेकों को प्रकाश मिलता चला जाएगा।
बेटे! आज का दिन, आज का पर्व आपको बता रहा है कि आप जो पैदा हुए हैं, आप जो यहाँ से जुड़े हैं, आप जो यहाँ आए हैं, यह आपके कोई पूर्व जन्म के संस्कार हैं। इस जन्म के हैं कि नहीं, मालूम नहीं, पर पूर्व जन्म के तो अवश्य ही होंगे, जो आप यहाँ आए हैं और जुड़े हैं। नहीं तो अन्य कितने ही व्यक्ति घूमते हैं। हमें क्या मतलब, हम कहाँ उनको सुधारते हैं? लेकिन आपके ऊपर हम इतनी मेहनत करते हैं कि बेटे हम जी-तोड़ मेहनत करते हैं।
कोई भी बच्चा हमारा बिलकुल बागी हो जाए, तब तो हम नहीं कहते, अन्यथा हर सम्भव हम कलेजे से लगाने की कोशिश करते हैं। हम यह कोशिश करते हैं कि यदि यह सुधरना चाहता है, तो कैसे भी हम सुधारकर रहेंगे। इसके अन्दर थोड़ा भी राम-रहीम है, तो फिर बारी हमारी है कि हम इसको ठीक कर लेंगे।
बेटे! आप जुड़े रहें तो, और नहीं जुड़े हैं तो ऊपर से बने रहो, पर भीतर से जो होंगे, सो ही होंगे, नहीं तो जैसे ऊपर हैं, वैसे ही बने रहें। अगर आप ऊपर से श्रद्धावान हैं, तो भीतर से भी श्रद्धा को जगाइए। जगाकर तो देखिए। अगर आपने श्रद्धा को जगाया होता, तो आपको हर जगह श्रद्धा-ही-श्रद्धा नजर आती। फिर आपको यहाँ बुराइयाँ देखने को नहीं मिलती। बुराइयाँ कहाँ हैं? दोष कहाँ हैं? वे हमारे चिन्तन में होते हैं। बाहर दोष नहीं होते।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
मुझसे बुरा कोई नहीं है, पर जब हम अपने अन्दर में झाँकें तब। अन्दर में नहीं झाँका है, तो हमको सब बुरे ही दिखेंगे और जब अच्छाई देखेंगे, तो पता चलेगा कि बेचारे कितनी-कितनी दूर से आए हैं। सोने का ठिकाना नहीं, खाने का ठिकाना नहीं, ठहरने का ठिकाना नहीं।
कैसे प्यारे बच्चे हैं? छाती से लगाने लायक बच्चे हैं, प्यार करने लायक हैं। दूर-दूर से आए हैं, तो क्या इनमें कुछ अच्छाई नहीं है? अच्छाई भी है। आप यदि जुड़ना चाहते हैं, तो जुड़ने की कसौटी एक ही है। भुजाओं की कसौटी एक ही है। हम एक से ही परखते हैं। कैसे? काम से। क्यों साहब! हमारे लिए क्या काम है? बेटे, अगर देखेंगे तो इतना काम है कि बस, आप थक जाएँगे, पर काम पूरा नहीं होगा। कौन-कौन-सा काम गिनाएँ?
अभी गुरुजी ने रिकार्ड ही किया है, टेप ही किया है। यज्ञ-आयोजनों के बारे में उन्होंने यह कहा है कि जितना पिछले साल हो चुका है, वह पर्याप्त नहीं है; क्योंकि वातावरण के परिशोधन के लिए हमें अगले साल, सन् 1988 का वर्ष जो अभी निकला है, उसमें सूखे से लेकर अन्यान्य जो खराबियाँ उत्पन्न हुई हैं, वे बहुत ज्यादा हुई हैं और आगे भी बहुत होने वाली हैं। उनके परिशोधन के लिए यज्ञ-आयोजन के बारे में कहा है और यह कहा है कि एक-एक हजार कुण्ड के यज्ञ होने चाहिए।
समय की पुकार को सुनें
बेटे ! यह कौन करेगा? संकल्प तो हमारा है। हम पूरा करेंगे? बिलकुल हम पूरा करेंगे और कौन करेगा? यह हाथ पूरा करेंगे, जो बैठे हैं। ये करेंगे और इनको करना चाहिए। नहीं साहब! हमने तो पहले ही कर लिया था, तो अब कैसे करें? बेटे, समय की पुकार है, करना ही पड़ेगा और आपको करना ही चाहिए। आपको समय नहीं दिखाई पड़ रहा है। आप उसको पूरा करिए। और क्या करेंगे? साहब! हमने तो सौ ग्राहक बना दिए अखण्ड ज्योति के, तो और बना। हाथ-पैर का क्या काम होता है?
हाथ कहलाने का ही नहीं होता, कुछ काम करने का भी होता है। दायाँ-बायाँ हाथ अगर कोई बनेगा, तो किस बात का बनेगा? और हम हाथ का क्या करेंगे? बेटे, हम हाथ से काम कराएँगे। इस माने में आप लोग अब हमारे दाएँ-बाएँ हाथ बनेंगे। बेटे, ये कन्धे अब थक चुके हैं। तो क्या बुड्ढे हो गए हैं? नहीं बेटे, मन से तो बुड्ढे नहीं हुए हैं। मन से तो जब तक जिएँगे, तब तक बुड्ढे होने का कोई सवाल ही नहीं है। यह तो हमने भगवान के सामने शपथ ली हुई है, गुरु के सामने शपथ ली हुई है कि मरते दम तक हार नहीं मानेंगे। जितना कसना चाहें, जितना काम लेना चाहें, उतना ही करेंगे।
बेटे! उम्र तो उम्र ही होती है और जाना तो है ही। ऐसी दशा में आपको कभी बुला भी पाएँगे कि नहीं बुला पाएँगे। आपको अपने पास बैठाल पाएँगे कि नहीं बैठाल पाएँगे। कभी आप देख भी पाएँगे कि नहीं देख पाएँगे। शक है कि हो सकता है कि आप एक फीसदी देख भी पाएँ, पर निन्यानवे फीसदी यह समझिए कि हम-आप जब शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, तो शायद यह शरीर भी न रहे, लेकिन शरीर ही तो नहीं रहेगा, पर हमारी जो प्रेरणा है, जिससे प्रेरणा को पाया, वह अखण्ड दीपक हमारा विद्यमान रहेगा। आप उससे वरदान पाइए। आप उससे प्रेरणा पाइए।
अखण्ड दीपक से प्राप्त करें प्रेरणाएँ
हम उसी में समाये होंगे। उसी में गायत्री माता हैं। उसी में गुरुजी हैं, उसी में माताजी हैं। आपको वहीं से प्रेरणा मिलेगी। आप सभी हमारे बच्चे हैं। हम चाहते हैं कि समय रहते ही आप सब सँभल जाएँ, तो ज्यादा अच्छा है। हम चाहते हैं कि आपके कन्धों पर वजन डालें और आप यह चाहते हैं कि हम गुरुजी के ऊपर वजन डालें। बेटे ! यह कैसे हो सकता है?
बेटे! अब तो आप समर्थ हो गए। अब तो आप दाढ़ी-मूँछ वाले हो गए, बड़े हो गए, तो जिम्मेदारी सँभालिए न हमारी। आप हमारे कन्धों को हलका कीजिए न। आप तो और वजन डालते जा रहे हैं मनोकामना, ये और वो, चलो वह भी भगवान से प्रार्थना करेंगे। हमेशा करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे, जब तक जिन्दा हैं, तब तक करेंगे और नहीं जिन्दा रहेंगे, तो हमने कहा न कि शान्तिकुञ्ज में अखण्ड दीपक के रूप में विद्यमान रहेंगे।
अभी तो नहीं कहा, पर घोषणा कर देंगे कि हम मरें भी, नहीं रहें, तो हमारी मिट्टी को यहीं इसी शान्तिकुञ्ज में ही गाड़ा जाना चाहिए। यहीं ठिकाने लगेगी। मेरी जबाँ पर यह सब न जाने कैसे आ गया? ऐसे ही आ गया होगा। सम्भव है जो भगवान को मंजूर है, वह पहले से ही हो जाता है। वह पहले से ही कहलवा देता है।
बेटे! आप समय रहते ही सँभल जाना। कहीं ऐसा न हो कि यह कहना पड़े कि अरे! हमारे बालक अनाथ रह गए। हम इन्हें अनाथ छोड़कर आए हैं। यह हमारे लिए बड़े शरम की बात है कि जिसका पिता इतना समर्थ, इतना गुणवान है, जिसके अन्दर सम्पदा भरी पड़ी है, गुणों का जखीरा भरा पड़ा है, जिसको इतनी सम्पदा मिली है और उसके बच्चे गरीब, असहाय रह जाएँ, तो दुःख होगा।
हमको भी, जहाँ भी हमारी आत्मा रहेगी, वह विचरण करेगी तो परेशान होगी और यह कहेगी कि हम अपने बच्चों का उद्धार नहीं कर पाए। हम अपने बच्चों को बता नहीं पाए कि बेटे, हम आपको कितना कुछ देकर के जा रहे हैं, तो हमसे ज्यादा दुर्भाग्यशाली कौन हो सकता है और आपसे ज्यादा दुर्भाग्यशाली कौन हो सकता है कि आपका इतना समर्थ, बलवान पिता होते हुए भी आप असहाय-के-असहाय रह जाएँगे। दीन-के-दीन ही रह जाएँगे। नहीं, दीन-के-दीन नहीं रहना चाहिए आपको। आपको तो दूसरों के वजन को ढोना चाहिए। जो असहाय हैं, जो दु:खी हैं, जो पीड़ित हैं, हमारा जो समाज पीड़ित है, उसके वजन को तो आपको ढोना ही चाहिए। आप मिशन के हैं और मिशन को आगे बढ़ाना चाहिए, यह आपका काम है।
बेटे! न मालूम आपमें से कौन-कौन हस्ती क्या-क्या हो सकता है, पर उसके लायक आपको बनना पड़ेगा? अपने को धोना पड़ेगा। अपनी धुलाई करनी पड़ेगी, कसाई करनी पड़ेगी, रँगाई करनी पड़ेगी। ऊपर से भी रंगो और भीतर से भी रँगो। जब दोनों तरफ से रँग जाएँगे, श्रद्धा से और निष्ठा से, तो फिर आप पक्के हो जाएँगे। अभी तो थोड़े-थोड़े से कच्चे हैं।
मन कभी क्या कहता है, तो कभी क्या कहता है? हाथ में माला लगी रहती है और दिमाग न जाने कहाँ घूमता रहता है? न जाने किधर को जाता है। इधर तो गुरुजी की बात को भी यों कहते हैं कि अरे गुरुजी की बात तो पत्थर की लकीर है। हम तो ऐसा ही करेंगे और जब कुछ करने की नौबत आती है, तो पीछे को पैर हटा लेते हैं।
दुनिया के वे तमाम लोभ, मोह सब आगे आ जाते हैं। उसी समय सारे-के-सारे राक्षस दिखाई पड़ते हैं। कोई दाँत निकाले खड़ा होता है, तो कोई पैरों की जंजीर बनकर खड़ा होता है। वह निकलने ही नहीं देता। बेटे! लोभ, मोह की इन जंजीरों को तोड़कर फेंको और आगे की पंक्ति में आप आ जाइए। आप से यह माँगा जा रहा है। पहले हमने कभी नहीं माँगा, अब माँगते हैं और यह कहते हैं कि अब आप हमारे वजन को हलका कीजिए। अब हमारे जाने के दिन हैं, तो अपने-अपने हिस्से का काम सँभालिए। इतनी बड़ी फुलवारी हम छोड़कर जा रहे हैं, कितना बड़ा बगीचा हम छोड़कर जा रहे हैं, इसे सँभालिए।
बेटे! आपको क्या करना पड़ेगा? आपको पकी-पकाई खानी है। आपको बनानी है क्या? नहीं, आपको बनाना नहीं है। न आटा मलना है और न रोटी बनानी है। तो फिर क्या करना है? पकी-पकाई खानी है। बनाया किसने है? माताजी ने। बेटे! आपके पिता जो दौलत छोड़े जा रहे हैं, वह तो छोड़े जा रहे हैं। आपको कमानी है? नहीं, आपको कमानी नहीं है।
गुरुदेव की विरासत को जन-जन तक फैलाएँ
आपको तो उसे सँभालकर रखना है और उसको फैलाना है। फैलाना है, तो आप आगे की पंक्ति में आ जाइए। ज्यादा मुझे कुछ नहीं कहना। बस, यही कहना है कि जैसे गुरुजी अपने गुरुजी से जुड़े हैं, आप भी उसी तरीके से जुड़ जाइए। मैंने तो जुड़ करके देख लिया है बेटे! मैं तो धन्य हो गई। अब आपका तो मुझे मालूम नहीं कि आप धन्य हुए कि नहीं हुए हैं, पर मैं तो जरूर हो गई।
सम्भव है, आज ऐसी स्थिति में मैं नहीं हैंडिल कर सकती थी, यदि मैं नहीं जुड़ी होती, पर बेटे! आप सही मानना मैं पैरों-से-पैर मिलाकर चली हूँ और कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चली हूँ। मैंने कभी यह चिन्ता की ही नहीं कि क्या कह रहे हैं? रात है तो रात है, दिन है तो दिन है। कोई सुझाव देना है, सुझाव दिया होगा। कभी दिमाग गरम हो गया होगा, तो हो गया होगा, ऐसा भी मैं नहीं कहती कि नहीं हो गया; लेकिन सिद्धान्त और विचारणा से ऐसे गुँथे रहे आपस में कि बस, क्या कहें आपसे? दूध और पानी कहें? दूध और पानी में कभी खटाई डालें, तो भी फट जाते हैं। हम तो दूध और पानी से भी ज्यादा हैं। एक और एक ग्यारह हैं। एक और एक दो नहीं हैं, ग्यारह हैं। आप जितना समझ लें, उतना ही पर्याप्त है। उन्होंने हमें बहुत दिया है, इसमें कोई शक नहीं, पर हमने भी दिया है।
बेटे! हमने यह दिया है कि हम बनने के लिए तैयार हैं। आप जैसा चाहते हैं, वैसा बनाइए। जो आपकी इच्छा है, वही हमारी इच्छा है। तेल और बत्ती के तरीके से हम जलेंगे। जरूर जलेंगे, यह हमारा प्रण है। आप तेल हैं, तो हम बत्ती हैं। तेल जलेगा, तो बत्ती भी जलेगी। तेल नष्ट होगा, तो बत्ती भी नष्ट होगी। दोनों जलेंगे। दोनों एक हैं, तो बेटे, हम आज इस स्थिति में आ गए। आप भी हमारे साथ-साथ जुड़िए।
हमारे अन्दर जो आग जलती है, जो हर समय धधकती रहती है, जिसमें सारे विश्व का चिन्तन, सारे राष्ट्र का चिन्तन चलता रहता है, उसमें भागीदार बनिए। क्या आप लोगों के लिए ही हमारा जीवन खतम हो जाएगा? क्या यह जीवन चौबीस लाख के लिए ही है? नहीं, इससे ऊँचा भी कुछ सोचना पड़ेगा; क्योंकि गुरुजी का चिन्तन चल रहा है। आप तो जुड़ जाइए। जुड़ जाएँगे, तो आनन्द आ जाएगा।
बेटे! आज मैं यही कहने आई थी कि आप जुड़ना, जुड़ना, जुड़ना। यदि आप सच्चे मन से जुड़ना चाहते हैं, तो उसकी कसौटी एक ही होगी—आपका कार्य देखना। आपकी श्रद्धा कैसी है? टिकाऊ है या उथली है। आप तो बड़े श्रद्धावान बन रहे हैं। बड़े जोर से आँसू निकल रहे हैं और फिर न जाने क्या हो गया? आज तो समर्पण करते हैं और कल-परसों न जाने हम क्या करते हैं? यह कौन-सी श्रद्धा है? यह कौन-सा अध्यात्म है? यह कोई अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म वह होता है, जिससे व्यक्ति को प्रेरणा मिलती है। उस प्रेरणा को पाकर के वह ऊँचा उठता हुआ चला जाता है। उसका चिन्तन प्रखर होता चला जाता है। आत्मबल से वह ऊँचा उठता हुआ चला जाता है, वही तो अध्यात्म है।
बेटे! अध्यात्म में अगर आप गुरुजी से जुड़ना चाहते हैं या जुड़ गए हैं अथवा आप में संकल्प है कि हम जुड़ेंगे, तो आप बनिए, जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही सारे संसार के लिए हम एक उदाहरण पेश करना चाहते हैं कि हमारे मिशन में आइए। हमारे मिशन को देखिए और हमारे बच्चों को देखिए कि हमारे बच्चे कैसे शानदार हैं? यह हमारा नमूना है। ऐसा न हो कि कोई आए और हमारे मुँह पर थूककर जाए कि अरे देखो कैसे बनाए? धत् तेरे की—ये तो बौने हैं, पिल्ले हैं। पिल्ला कोई कह करके न जाए, बल्कि वह कहे कि जैसे गुरुजी थे, वैसे ही देखो उनके अनुयायी हैं। क्या शानदार हैं। एक-से-एक बढ़िया हैं। क्या करें इनके हाथ चूमें कि इनके पाँव चूमें? क्या करें समझ नहीं आता? ऐसे शानदार बच्चे हैं। उन्होंने कैसे अच्छे बच्चे पैदा किए हैं। तब तो बेटे, हमारी भी शान है और आपकी भी शान है।
हमारी शान को गँवाना मत, हमारी शान को आप बरकरार रहने देना। जैसे भी आप हैं, हमारे लिए ठीक हैं। आपकी श्रद्धा है, तो हमारे लिए आप सब कुछ हैं। आप दो कदम चलिए। हम दो और कदम के लिए आपको धक्का लगाएँगे। बेटे! दो कदम से काम नहीं चलेगा। दो कदम और चल, फिर दो कदम चल, फिर दो कदम के लिए हम धक्का लगाएँगे, आगे चलाएँगे। चलाना हमारा काम है और श्रद्धा आपकी है। श्रद्धा और निष्ठा आपकी है और आगे-आगे धकेलना हमारा काम है। हम आपको धकेलेंगे। इसके लिए आप तैयार रहना। बस, इतनी ही बात मुझे आपसे कहनी थी।
आज की बात समाप्त