संस्कृति की सीता को लौटाकर लाने का ठीक यही समय

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

संस्कृति की सीता का हुआ अपहरण

मित्रो! संस्कृति की सीता का रावण ने अपहरण कर लिया था, तब भगवान रामचंद्र जी राक्षसों समेत रावण को मारकर सीता को वापस लाने में सफल हुए थे। इतिहास की वह पुनरावृत्ति फिर से होनी है। मध्यकाल में हमारी संस्कृति की सीता को वनवास हो गया। सांप्रदायिकता इस कदर फैली, मत-मतांतर इस कदर फैले, बाबाजियों ने अपने-अपने नाम के इतने मजहब इस कदर खड़े कर लिए कि हिंदू समाज का एक रूप ही नहीं रहा। संस्कृति के साथ में अनाचार शामिल हो गया। बुद्ध के जमाने में ऐसा भयंकर समय था कि हमारी संस्कृति उपहास का कारण बन गई थी। घिनौने उद्देश्यों को संस्कृति के साथ में शामिल कर दिया गया था। पाँच काम बड़े घिनौने माने जाते हैं और इन पाँचों कामों को भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया था और संस्कृति को कलंकित कर दिया गया था। ये पाँचों हैं—"मद्यं मांसं तथा मत्स्यो मुद्रा मैथुनमेव च। पञ्चतत्त्वमिदं देवि! निर्वाण मुक्ति हेतवे॥" ये पाँचों घिनौने काम संस्कृति के साथ शामिल हो गए।

और मित्रो! यज्ञ का रूप कैसा घिनौना हो गया था? आपको मालूम नहीं है, तब मनुष्यों को मारकर होम दिया जाता था और घोड़ों और गौओं तक को होम दिया जाता था। यह क्या था? यह वनवासकाल था। और अब क्या हो गया? अब बेटे! संस्कृति की सीता रावण के मुँह में चली गई, जहाँ बेचारी की जान निकल जाने की जोखिम है और जहाँ से वापस आने का ढंग दिखाई नहीं पड़ता। सीता राक्षसों के मुँह में से कैसे निकलेगी? चारों ओर समुद्र घिरा हुआ है। उस समुद्र को कौन पार करेगा? रावण कितना जबरदस्त है? राक्षस कितने जबरदस्त हैं? इनसे लोहा कौन लेगा? संस्कृति की सीता को वापस लाने का काम कठिन मालूम पड़ता है। अब वह कहाँ चली गई? वह तो मध्यकालीन युग था। उसमें आस्तिकता फिर भी थी। उस समय किसी कदर आस्तिकता का नाम-निशान तो था। राम-रहीम का जिक्र तो आता था। यज्ञ की कोई बात तो कहता था। धर्म का कोई नाम तो भी लेता था।

नास्तिकों का आज का युग

लेकिन मित्रो! आज हम लंका के जमाने में रह रहे हैं, जहाँ कि धर्म को अफीम की गोली कहा जा रहा है। पढ़े-लिखे लोगों में जाइए और उनसे जानिए कि धर्म क्या है? तो वे यही कहेंगे कि धर्म माने अफीम की गोली, जिसको खाकर के आदमी मदहोश हो जाता है। कर्तव्यों को भूल जाता है। समझदार लोगों में, बुद्धिजीवी वर्ग में संस्कृति के लिए यही शब्द इस्तेमाल होता है—अफीम की गोली और भगवान के बारे में दार्शनिक नीत्से का एक वचन मुझे बार-बार याद आ जाता है और खटकता भी रहता है। नीत्से यों कहते थे कि खुदा मर गया और मरे हुए खुदा को हमने इतने नीचे दफन कर दिया है कि अब उसके दोबारा जिंदा होने की कोई उम्मीद नहीं है। वह अब दोबारा नहीं जी सकेगा। खुदा को अब हमने मार दिया। नास्तिक नीत्से कहता था कि खुदा नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है। जो कुछ खुदा के नाम पर दुनिया में पाया जाता है, वह केवल वहम है और हम इस वहम को दुनिया से मिटाकर छोड़ेंगे।

साथियो! नीत्से तो अब नहीं रहा, लेकिन उसका काम—फिलॉसफी का काम साइंस ने अपने कंधे पर उठा लिया। साइंस ने कहा कि परमात्मा की अब कोई आवश्यकता नहीं है और धर्म की कोई जरूरत नहीं है। डार्विन ने कहा कि अगर आप धर्म के मामले में दखल देंगे तो आदमी को मानसिक बीमारियाँ हो जाएँगी। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने कहा कि ये बहन है, ये बेटी है और इसके साथ-साथ में ब्रह्मचर्य है और यह आपका पतिव्रत धर्म है—अगर इस तरह की बेकार की बातें फैला देंगे तो आदमी के दिमाग में कॉम्पलेक्स पैदा हो जाएँगे और आदमी को मानसिक बीमारी हो जाएगी। आदमी को उच्छृंखल रहने दीजिए, स्वेच्छाचार करने दीजिए। जैसे कि जानवरों में स्वेच्छाचार होता है, वैसे ही आदमी को भी स्वेच्छाचार का मौका मिलना चाहिए। ये कौन कहता था? डार्विन से लेकर फ्रॉयड तक ने यही बातें कहीं।

इनसानी जीवन तबाह हो जाएगा

मित्रो! अभी मैं आपसे विज्ञान की बातें कह रहा था, नास्तिकतावादी दर्शन की बात कह रहा था, लंका की बात कह रहा था। आपको तो मालूम नहीं है। आप तो हमारे संपर्क में रहे हैं, उनके संपर्क में थोड़े ही रहे हैं! आप कम्युनिस्टों के संपर्क में नहीं रहे हैं। आप बुद्धिजीवियों के संपर्क में नहीं रहे हैं। आप कॉलेज में पढ़े नहीं हैं। कॉलेज में पढ़े होते तो जिस बात का हवाला मैं अभी दे रहा था, इसको बढ़ा-चढ़ाकर आप कहते और आपका मखौल उड़ाया जाता। आज बेटे! हमारी संस्कृति लंका में जा रही है। अब उसको वापस लाने के लिए क्या करना पड़ेगा? अगर संस्कृति वापस न आ सकी तो दुनिया तहस-नहस हो जाएगी, दुनिया मिट जाएगी। दुनिया जिंदा न रह सकेगी। परलोक खराब हो जाएगा, स्वर्ग नहीं मिलेगा। मुक्ति नहीं मिलेगी। बेटे! इन बेकार की बातों को जाने दीजिए। स्वर्ग की, मुक्ति की, परलोक की, चमत्कार की बातें मैं नहीं कहता, मैं तो इनसानी जीवन की बात कहता हूँ। इस संसार की बात कहता हूँ। अगर हमारी संस्कृति और धर्म, जिसको हम आस्तिकता कहते हैं, जिंदा नहीं रही तो दुनिया तबाह हो जाएगी। हमारे गृहस्थ जीवन का सफाया हो जाएगा। पारिवारिक जीवन ऐसे खतम हो जाएगा, जैसे कि जानवरों में खतम हो गया है। कुत्ते का कोई कुटुंब होता है? कोई कुटुंब नहीं होता। कुत्ते की कोई औरत होती है? कोई नहीं होती। कुत्ते का कोई बाप होता है? कोई नहीं होता। कुत्ता क्या होता है? कुत्ता अकेला होता है।

मित्रो! इसी तरीके से इनसान को क्या करना पड़ेगा? कुत्ते के तरीके से अकेले रहना पड़ेगा। और औरत क्या होती है? अरे साहब! धर्मपत्नी को कहते हैं, जिसके साथ शादी होती है। शादी किसे कहते हैं? मौसम को शादी कहते हैं। एक साल एक बीबी से शादी की, अगले साल उसे भगा दिया। दूसरे साल दूसरी शादी कर ली। तब आप कितने साल तक जवान रहेंगे? हम पचास साल तक जवान रहेंगे और कोशिश करेंगे कि पचास औरतें आ जाएँ। हर साल एक नई आ जाए और दूसरी चली जाए। बेटे! यूरोप में यही हो रहा है। अब स्त्रियाँ भी इसी तरह करेंगी। जो बातें मर्दों पर लागू होती हैं, वही बातें औरतों पर भी लागू होती हैं। कोई दांपत्य जीवन नहीं है। यह महीने भर पीछे बदल सकता है, दो महीने पीछे बदल सकता है। आज शादी-ब्याह हुआ है, कल तक यह चलेगा कि नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। आज सारे यूरोप में यही हो रहा है।

पारिवारिक जीवन नीरस—तहस-नहस

आज गृहस्थ जीवन में क्या हो रहा है? माँ-बाप किसे कहते हैं? माँ-बाप उसे कहते हैं, जब तक कि लड़का नाबालिग रहता है और जब तक वह जिसके सहारे रहता है, उसका नाम होता है—माँ-बाप! जब वह बड़ा हो जाता है तब? तब माँ-बाप का बेटे से कोई ताल्लुक नहीं है और बेटे का माँ-बाप से कोई ताल्लुक नहीं है। जानवरों में जब तक बच्चा छोटा होता है, उसकी माँ उसका ध्यान रखती है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो सींग मार देती है। नहीं साहब! बड़े बच्चे से भी मोहब्बत होनी चाहिए। क्यों? बड़े बच्चे से क्यों होनी चाहिए? छोटे बच्चे को तो नेचर चाहती है कि उसका कोई गार्जियन होना चाहिए। नेचर के दबाव से क्या चिड़िया, क्या मेंढ़क, क्या औरत, क्या मर्द—सब दबाव मानते हैं और जैसे ही बच्चा बड़ा हुआ, मोहब्बत खतम हो जाती है और बच्चे भाग जाते हैं और माँ-बाप भी भाग जाते हैं। आज यही हो रहा है।

मित्रो! आप संस्कृति को खतम कर रहे हैं या करना चाहते हैं। संस्कृति खतम होगी तो हमारा पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाएगा। अगर हमारा बुद्धिवाद जिंदा रहेगा और हमारा अर्थशास्त्र जिंदा रहेगा तो फिर क्या होगा? अर्थशास्त्र के हिसाब से हमने, आपने, हरेक ने स्वीकार कर लिया है कि बुड्ढे बैल को कसाई के यहाँ जाना चाहिए; क्योंकि बुड्ढे बैल को रोटी नहीं खिलाई जा सकती। दुनिया के निन्यानवे फीसदी जानवर कसाई के यहाँ चले जाते हैं। दूध देने वाले हों, चाहे हल में चलने वाले हों, दोनों का अंत क्या होगा? भाई साहब! दोनों का अंत कसाई के यहाँ होगा। नहीं साहब! खूटे पर बाँधकर खिला दीजिए। नहीं, खूटे पर बाँधकर खिलाने से हमारी जगह घिरेगी और चारा खराब होगा। फिर नए जानवर हम कहाँ से पालेंगे? इनको हम भूसा कहाँ से खिलाएँगे? इनकी एक ही रेमिडी है कि इन बुड्ढे जानवरों को, चाहे वे गाय हों, चाहे वे बैल हों, दोनों को ही कसाई के यहाँ जाना चाहिए। आजकल बिलकुल यही हो रहा है। बूढ़े होने पर निन्यानवे फीसदी जानवर कसाई के यहाँ जाते हैं। एक प्रतिशत अपनी मौत मरते हों, तो बात अलग है।

संस्कृति की अवज्ञा के दुष्परिणाम

मित्रो! अगले दिनों में क्या होगा? अगले दिनों में बुद्धिवाद आएगा। और क्या आएगा? अर्थशास्त्र आएगा। अर्थशास्त्र क्या कहेगा? अर्थशास्त्र यह कहेगा कि बुड्ढे बाप को कसाईखाने भेजना चाहिए। कसाईखाने? हाँ बेटे! इसके लिए कसाईखाने से अच्छी और कोई जगह नहीं हो सकती। यह जगह घेरता है, रोटी खाता है, घर में खाँसता रहता है, थूकता है, बेकार परेशान करता है। बुड्ढा हो गया है, अक्ल खराब हो गई है। घर वालों की नाक में दम करता है। इसलिए क्या करना चाहिए? इसको सीधे कसाईखाने भेजना चाहिए। चाइना में यह प्रयोग हो रहा है। बुड्ढे आदमियों को ले जाते हैं कि चलिए हम आपको बूढ़ेखाने में रखेंगे। वहाँ बहुत आराम है। आप इस गाड़ी में बैठिए, फिर हम आपको ले जाते हैं। वहाँ ले जाते हैं और कहते हैं कि आप यहाँ भरती हो जाइए। देखिए, कैसा अच्छा इंतजाम है। अच्छा, आइए, बैठिए। दस-पाँच दिन वहाँ रखा, फिर दूसरी जगह ले गए। एक इंजेक्शन लगा दिया। वह बुड्ढा कहाँ गया? उसका ट्रांसफर कर दिया गया है और अब वह दूसरे कैंप में चला गया है। बच्चों ने पूछा—हमारा बुड्ढा कहाँ है? बुड्ढा जहन्नुम में चला गया।

अब क्या होना है? यही होना है। आप में से कोई बुड्ढा तो नहीं है? अच्छा अभी नहीं है तो थोड़े दिनों बाद हो जाएँगे। यह क्या हो गया? जब संस्कृति की सीता चली गई और वापस नहीं आई तो हरेक को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। किसके लिए? बेटा नीलाम करेगा कि यह बुड्ढा बिकाऊ है। कोई कसाई हो तो ले जाए। अगर कोई नहीं लेगा तो गवर्नमेंट खरीद लेगी और इसका राष्ट्रीयकरण करेगी। फिर बुड्ढे कहाँ जाएँगे? फाँसीघर में। तैयार हो जाइए, भइया आते हैं। अब यही होगा। तो क्या आप संस्कृति को खतम कर रहे हैं? संस्कृति रावण के मुँह में चली जाएगी, तो क्या होगा? बिलकुल यही होगा, जो अभी बताया है। बेटे! अर्थशास्त्र हमको यही सिखाता है। इकोनॉमिक्स हमें यही सिखाती है कि जो बेकार चीजें हैं, वाहियात चीजें हैं, उनको नीलाम कर दीजिए, उनको हटा दीजिए या जला दीजिए। बेकार की चीज का हम क्या करेंगे! बुड्ढे आदमी का क्या होगा! उसकी हमें जरूरत नहीं है। माँ का क्या होगा? कसाईखाने जाएगी। बाप भी कसाईखाने जाएगा। बेटे! अगले दिनों यही होगा, अगर हम संस्कृति को खतम करते हैं, तब।

ऐसे होंगे बेटे हमारे

मित्रो! अगर संस्कृति खतम होती है तो अर्थशास्त्र, बुद्धिवाद, समाजशास्त्र, समाजशास्त्री मान सकते हैं कि ये सारे के सारे भौतिक चिंतन लोगों के सामने मुसीबतें पैदा करेंगे। गृहस्थ जीवन को, दांपत्य जीवन को खतम करेंगे। बच्चों का भविष्य खतम करेंगे। बच्चों का लगाव माँ-बाप के प्रति नहीं होगा। माँ-बाप का लगाव बच्चों के प्रति भी नहीं होगा। बुड्ढा अस्पताल में बीमार पड़ा है। छपे हुए कार्ड आते हैं, जैसे ब्याह-शादी के कार्ड आते हैं, उन पर लिखा रहता है कि 'डियर फादर! आप बीमार हैं। नीचे छपा हुआ है—सो एंड सो..... आपकी बीमारी का समाचार जानकर हमको बहत दु:ख हुआ। भगवान आपको जल्दी अच्छा करे। बस 'योर्स' और नीचे साइन कर दिया और पंद्रह पैसे का टिकट चिपका दिया। कार्ड पर अस्पताल का, वार्ड का नंबर डाल दिया। बुड्ढा सारे मरीजों को कार्ड दिखाता है कि देखिए, हमारे बेटे की चिट्ठी आई है। देखिए, हमारे बेटे की बहुत सिम्पैथी है। हमारे लिए वह बहुत शुभकामना करता है। और आपका बेटा? हमारे बेटे की भी चिट्ठी आ गई है। पच्चीस पैसे वाला कार्ड उसने भेजा है। और देखिए साहब! हमारे बेटे ने चालीस पैसे वाला कार्ड भेजा है। अच्छा, तो आपके बेटे की मोहब्बत ज्यादा है और आपके बेटे की कम है। सेवा करने नहीं आया। किस बात की सेवा करने आएगा? आपने बहुत सेवा की है, वह भी सेवा करेगा?

डरावनी अकेली होगी जिंदगी

मित्रो! संस्कृति की सीता चली गई तो यही हो जाएगा। और क्या हो जाएगा? संस्कृति चली गई और आदमी को मालदार बना गई, खुशहाल बना दिया। हाँ साहब! हमें भी मालदार बना दीजिए। हाँ, हम भी आपको बहुत मालदार बना देंगे, आप निश्चिंत रहिए। कितना मालदार बनाएँगे? बेटे! हम आपको बहुत मालदार बनाने वाले हैं। हम आपको इतना मालदार बनाएँगे, जितने कि अमेरिकन नागरिक हैं। अमेरिकन नागरिक कितने मालदार हैं? औसत नागरिक की आमदनी दो हजार रुपया मासिक है। औसत से क्या मतलब है? औसत आमदनी से यह मतलब है कि आप, आपकी बीबी और आपके दो बच्चे, कुल चार आदमी हैं तो आपकी औसत आमदनी आठ हजार होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक आदमी के हिस्से में दो-दो हजार आ सकें। आठ हजार आपको कमाना चाहिए, ताकि चारों के हिस्से में औसत दो हजार आ सकें। ठीक है, अमेरिका मालदार देश है। वहाँ क्या हो रहा है? बेटे! सारे का सारा अमेरिका, जिसमें से अस्सी फीसदी नागरिकों की बात मैं कहता हूँ, टेंशन में बेतरह दुखी हैं। टेंशन क्या होता है? तनाव को कहते हैं। तनाव किसे कहते हैं? तनाव उसे कहते हैं कि जब आदमी यह देखता है कि मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं और मैं किसी का नहीं हूँ। अपने को जब आदमी अकेला देखता है तो उसे इतना भय लगता है। जिंदगी इतनी नीरस और डरावनी हो जाती है। आपको अकेलापन अनुभव हो तो आपकी जिंदगी इतनी नीरस हो जाएगी। फिर आप कोई परमहंस हों तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन सामान्य आदमी हैं, एकाकी हैं, अकेले हैं, अपस्वार्थी हैं तो आपकी जिंदगी नरक हो जाएगी।

फिर क्या हो जाएगा? फिर आपके दिमाग पर इतना टेंशन रहेगा कि जिसकी वजह से आपकी नींद हराम हो जाएगी। अमेरिका के अधिकांश नागरिक रात को नींद की गोली खाकर के सोते हैं। काम करने के घंटे तो किसी प्रकार से निकाल लेते हैं। आठ घंटे ऑफिस में काम करना पड़ता है, सो वे उतना समय काट लेते हैं। फिर क्या करें? सारी जगह मरघट-सी जिंदगी दिखाई पड़ती है और सारी दुनिया मरघट-सी दिखाई पड़ती है। इस मरघट में अब हम कहाँ जाएँ? इधर जाएँ तो इधर भी आग, उधर जाएँ तो उधर भी आग। हर तरफ से जिंदगी नीरस दिखाई पड़ती है। उस नीरस जिंदगी में फिर कहाँ जाते हैं? बेटे! कहीं शराबखानों में चले जाते हैं; कहीं क्लबों में चले जाते हैं; कहीं कैबरे हाउस में चले जाते हैं। ये कैबरे हाउस क्या होते हैं? पहले औरतें वैसे नाचा करती थीं। अब उस साधारण नाच से आदमी का मनोरंजन नहीं होता, इसलिए उसे कैबरे डांस कहते हैं, जिसमें डांसर एक-एक कपड़ा उतारना शुरू करती है। ऊपर से एक कपड़ा उतार दिया, दूसरा कपड़ा उतार दिया, तीसरा कपड़ा उतार दिया, फिर चौथा कपड़ा भी उतार दिया और बिलकुल मादरजाद नंगी हो जाती है। हाँ साहब! यह नाच कुछ पसंद आया? कपड़े पहनने वाली से अब मन नहीं भरता। कपड़े पहनने वाले नाच अब घटिया जान पड़ते हैं और बेकार मालूम पड़ते हैं। अब आदमी को जरूरत इस बात की है कि औरत बिलकुल सारे के सारे कपड़े उतार दे। एक भी कपड़ा बदन पर न हो और तब नाच दिखाए। तभी मन में जरा सी फुरफुरी आती है। मन को अच्छा लगता है। सारे दिन बियर, सारे दिन शराब, अभी तो नशा कम मालूम पड़ता है, और लाइए, एक गिलास और लाइए। क्यों? बिना बियर के नहीं रह सकते? नहीं, बिना बियर के दुनिया हमें खा जाएगी।

भूत-प्रेतों की दानवीय संस्कृति होगी हावी

मित्रो! ये सारे के सारे लोग कौन हैं? ये कौन हैं? भूत। ये कौन हैं? प्रेत। ये कौन हैं? डाकू। ये कौन हैं? हत्यारे। सब नीरस, सारी की सारी दुनिया नीरस—न मोहब्बत, न कहीं प्यार, न कहीं सहकारिता, न कोई भलमनसाहत। कहीं कोई किसी का नहीं है। आदमी मशीन के तरीके से भागता हुआ चला जा रहा है। अगले दिनों क्या हो जाएगा? यही हो जाएगा। अमेरिका का बिलकुल यही हाल है; क्योंकि वहाँ तो आधुनिक संस्कृति है। आपकी संस्कृति देव संस्कृति है। आप देव संस्कृति का परित्याग करते चले जा रहे हैं तो दानवीय संस्कृति आपको यही करेगी। वह आपको पैसा जरूर देगी और सुख-सुविधा के साधन देगी, लेकिन लंका में ये सुख-सुविधा के साधन क्या कम थे! आप विश्वास रखिए, आपको भी ये सब मिल जाएँगे। विज्ञान जितनी तेजी से बढ़ रहा है और आर्थिक उन्नति के जो साधन चल रहे हैं। बिजली इस कदर पैदा हो रही है कि इससे आपको सुख-सुविधा के वे सभी साधन मिल जाएँगे, जो आप चाहते हैं। जो लंका में थे, वे आपको सब मिल जाएँगे, पर इससे क्या होगा? आप हैरान होंगे।

हम आपस में लड़-मर न जाएँ

और मित्रो क्या होगा? वे परिस्थितियाँ आ जाएँगी; जो यादवों के समय आ गईं थीं। यादवों ने यादवों को खा लिया। यादवों को बाहर वालों ने नहीं मारा था। यादवों में गृहयुद्ध हुआ था और वे आपस में लड़कर मर गए थे। खानदान वाले खानदान वालों से ही लड़ मरे थे। तो क्या होने वाला है? बेटे! हम और आप आपस में लड़ेंगे और एकदूसरे को मारकर खा जाएँगे। आदमी एकदूसरे को दाँतों से चीर डालेगा। ऐसा संभव है? हाँ बेटे! अभी थोड़ी कमी है। अभी हम दाँतों से नहीं चीरते हैं। अभी हम आपको अक्ल से चीरते हैं। हम कोशिश करते हैं कि अक्ल से आपको इस तरीके से चीरें कि आपका सारा का सारा खून निकाल लें और आपको कोई बाहरी जख्म भी न होने पाए। अभी हममें इतनी भलमनसाहत और शराफत है। अभी हम आपका खून निकालना चाहते हैं, पर जख्म दिखाना नहीं चाहते; क्योंकि उससे हमारी निंदा होगी, बदनामी होगी, लोगों को मालूम पड़ जाएगा। अभी मालूम नहीं पड़ने देना चाहते हैं कि हम आपका खून निकालना चाहते हैं, ताकि आप इतने कमजोर हो जाएँ कि आपको मारने का हमारा मकसद पूरा हो जाए। हम आपका माँस खाना और खून पीना चाहते थे, वह मकसद हमारा पूरा हो गया है और आप जिंदा भी बने रहे।

साथियो! अभी कुछ भलमनसाहत जिंदा है, लेकिन अगर संस्कृति की सीता चली गई तो कल क्या होने वाला है, कह नहीं सकते। तब फिर आदमी को कोई एतराज नहीं होगा। अभी एक कुत्ते के मुहल्ले से दूसरा कुत्ता निकलता है। बिना वजह के उसने कुछ माँगा नहीं है, कुछ उधार नहीं चाहिए, कुछ कर्ज नहीं चाहिए। उसका किसी से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं है। कोई मुकदमेबाजी नहीं है, लेकिन उस गली से निकलते ही एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को चीर डालता है। आप भी चीरेंगे। क्यों नहीं चीरेंगे? क्या हम किसी कुत्ते से कम हैं ! जब कुत्ता कुत्ते को चीर सकता है, तब फिर आदमी आदमी को क्यों नहीं चीरेगा! आदमी-आदमी को चीरना चाहिए। अगले दिन ऐसे आएँगे। गुरुजी! आप क्या बात कर रहे हैं? बेटे! मैं यह बात कह रहा हूँ कि संस्कृति, जो इनसान को इनसान बनाए हुए है। परलोक की बात मैं नहीं कहता, मुक्ति का जिक्र आपसे नहीं करता। स्वर्ग की बात आपसे नहीं कहता। मैं तो आपसे इनसानी जीवन की बात कह रहा हूँ। परलोक की बात जहन्नुम में जाने दीजिए। परलोक कुछ होता है, मुझे नहीं मालूम कि होता है कि नहीं। मैं तो केवल इस जन्म की बात कहता हूँ। भगवान होता है कि नहीं, मैं इस झगड़े में नहीं पड़ता। मैं तो आपसे दैहिक और दैनिक जीवन की बात कहता हूँ। फिलॉसफी के जंजाल में मैं नहीं फँसता, मैं तो आपको दैनिक और रोजमर्रा के जीवन की बात कहता हूँ।

वापस लाएँ प्यार-मुहब्बत

मित्रो! संस्कृति हमारे दैनिक जीवन में मुहब्बत भरती थी, प्यार भरती थी और सहकारिता भरती थी। जंगल में रहने वाले आदमी और गरीबी में गुजारा करने वाले आदमी अपने-अपने छोटे-छोटे घरौंदों में रहकर खुशहाल रहते थे। स्वर्ग का आनंद लूटा करते थे। मालूम पड़ता है कि वह संस्कृति धीरे-धीरे मौत के मुँह में जा रही है। नष्ट होती चली जा रही है। अब क्या करना चाहिए? बेटे! हमको और आपको उसे वापस लाने की कोशिश करनी चाहिए; क्योंकि उसमें हमारा, हमारी संतानों का, हमारे समाज का और हमारी सारी मानवता का भविष्य टिका हुआ है। इस संस्कृति को वापस लाया जाए। कहाँ से वापस लाया जाए? लंका से वापस लाया जाए। हम और आप कोशिश करेंगे तो इसे लंका से वापस लाया जा सकता है। नहीं साहब! रावण बहुत जबरदस्त था। हाँ बेटे! रावण की जबरदस्ती को हम मानते हैं और रास्ते की खाई बहुत बड़ी है, समुद्र जैसी खाई है और इसे पाटना बहुत कठिन काम है। कुंभकर्ण से लड़ाई लड़ना भी बहुत कठिन मालूम पड़ता है; लेकिन कठिन काम भी तो बेटे इनसानों ने ही किए हैं। कठिन काम भी इनसान ही कर सकते हैं। हम आखिर इनसान ही तो हैं। आइए, अब संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए चलें।

मित्रो! संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए अब हम क्या कर सकते हैं? हमारी और आपकी जैसी भी हैसियत होगी, कोशिश करेंगे। अच्छे कामों के लिए जब आदमी कमर बाँधकर खड़े हो जाते हैं तो भगवान की सहायता उन्हें हमेशा मिली है और हमेशा सहायता मिलेगी। पहले भी मिलती रही है और अभी भी मिलेगी। कब मिली थी? अच्छे उद्देश्य के लिए ज़ब आदमी जान हथेली पर रखकर निकलता है तो भगवान भाग करके सहायता करने के लिए आता है। क्यों साहब! यह बात सही है? हाँ बेटे! यदि उददेश्य ऊँचा हो, तब सही है, अन्यथा उद्देश्य घटिया हो, तब मैं नहीं कह सकता। उद्देश्य ऊँचा हो तो भगवान आपको सहायता देगा। इतिहास पढ़ डालिए। महामानवों के लिए भगवान ने जितनी ज्यादा सहायता दी है, आप पढ़ डालिए। शुरू से पन्ना पढ़िए। किसी भी क्षेत्र के महामानव और महापुरुष का इतिहास पढ़िए, फिर देखिए कि ऊँचे उद्देश्य के लिए, ईमानदारी से कष्ट उठाने के लिए जो आदमी तैयार हो गए, उनको सहायता मिली कि नहीं मिली? आप चाहे जिस क्षेत्र में देख लीजिए, लाखों की तादाद में लोगों को भगवान की सहायता, आदर्श सहायता, दैवी सहायता मिलती चली गई।

ऊँचे उद्देश्य के लिए

मित्रो! मैं सीता जी की बात कह रहा था। आप देखिए कि उन्हें किस तरह से सहायता मिलती चली गई। क्यों साहब! पानी के ऊपर तैरते हुए पत्थर कहीं होते हैं? कहीं नहीं होते। पानी में डालते ही पत्थर डूब जाता है। पत्थरों के माध्यम से भगवान ने सहायता की थी। ऐसे पुल बनाए गए थे, जिनमें कि खंभे नहीं लगाए गए थे। इनके लिए कोई प्लानिंग नहीं की गई थी। समुद्र के ऊपर पत्थर फेंकते ही वे तैरने लगे और पुल बना दिया गया। अचंभे की बात है न! लोगों की समझ में नहीं आती। बेटे! यह समझ में आएगी भी नहीं। मैं ऐसे लाखों उदाहरण बता सकता हूँ, जिनमें कि पत्थर ऊँचे उद्देश्यों के लिए तैरे हैं। जो ऊँचा उद्देश्य लेकर के चले हैं और जान हथेली पर लेकर चले हैं और ईमानदारी से चले हैं, उनके पत्थर तैरे थे और फिर तैरेंगे। नहीं साहब! पत्थर नहीं तैरेगा। हाँ बेटे! पत्थर नहीं तैरेगा। यह अलंकार है। इसका मतलब यह है कि साधन कम हों, सामर्थ्य कम हो, तो भी सफलता मिलेगी। पत्थर तैरने से हमारा मतलब यही है। पानी पर पत्थर तैरता है कि नहीं तैरता, इससे कोई मतलब नहीं है।

महाराज जी! और क्या हो सकता है? और बेटे! समुद्र को छलाँगा जा सकता है। आदमी की छलाँगने की ताकत दस फीट हो सकती है, बारह फीट हो सकती है, पंद्रह फीट हो सकती है। बंदर के छलाँगने की ताकत, लंगूर के छलांगने की ताकत मान लें कि ज्यादा से ज्यादा पच्चीस फीट हो सकती है। तीस फीट हो सकती है, चालीस फीट हो सकती है और ज्यादा से ज्यादा पचास फीट हो सकती है। नहीं साहब! बंदर इतनी लंबी छलाँग नहीं मार सकता। तो बेटे! बंदरों ने समुद्र छलाँगा था? अच्छा, आदमी कितना वजन उठा सकता है? बीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! चालीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! हमने एक पल्लेदार को अपनी पीठ पर एक क्विटल की बोरी लादते हुए देखा था। चलिए हम आपकी बात मान लेते हैं कि आदमी एक क्विटल वजन उठा सकता है। तो क्या वह पहाड़ भी उठा लेगा? नहीं साहब! पहाड़ तो नहीं उठा सकता। पहाड़ नहीं उठा सकता, तो देख हनुमान जी ने ऊँचे उद्देश्य के लिए पहाड़ उठाया था कि नहीं। ऊँचे उद्देश्य के लिए जब आदमी कमर कसकर खड़े हो गए हैं, तो उन्होंने बड़े से बड़ा काम करके दिखाया है। हनुमान जी ने सीता जी को वापस लाकर दिखाया था।

हो सकती है पुनरावृत्ति

क्या इतिहास की पुनरावृत्ति फिर होना संभव है? हाँ, इतिहास की पुनरावृत्ति होना संभव है और हम करके दिखाएँगे। मित्रो! संस्कृति की सीता को, जिसके बारे में पहले यह मालूम पड़ता था कि उसको वनवास हो गया और वह रावण के घर में कैद हो गई। अब वहाँ से उसके लौटने की कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन रामचंद्र जी रीछ-वानरों के साथ मिलकर उन्हें वापस लाने में समर्थ हुए थे। मित्रो! हम भी संस्कृति की सीता को लौटाकर ले आएँगे। क्यों? क्योंकि उससे सारी मनुष्य जाति का भविष्य और भाग्य जुड़ा हुआ है। उससे विश्वशान्ति जुड़ी हुई है। उससे हमारी पीढ़ियों का और औलादों का भविष्य जुड़ा हुआ है। जिस सुंदर दुनिया को भगवान ने बड़ी शान से बनाया है, वह उसकी इच्छा पर टिकी हुई है और उसी से हमारे इनसानी जीवन की सार्थकता टिकी हुई है। इनसान के जीवन के लिए सार्थकता की दृष्टि से जो काम सुपुर्द किए गए हैं, उन्हें भी हम कर सकते हैं। इन सब बातों की वजह से संस्कृति की सीता को वापस लाने का आज हमारा काम है और आप सबको इसी योजना में सम्मिलित होने के लिए बुलाया है। बस, हमारा यही एक मकसद है, दूसरा कोई नहीं है। आइए, आप और हम मिलकर संस्कृति की सीता को वापस लाने की कोशिश करें।

(क्रमश:)

[विगत जून माह में गुरुसत्ता के प्रवचन पर 'आधारित इस लेखमाला की प्रथम किस्त में आपने पढ़ा कि इतिहास की पुनरावृत्ति पुनः होनी है। मध्यकाल में हमारी संस्कृति को वनवास हो गया था। उसे कलंकित कर दिया गया था। नास्तिकता ही संव्याप्त हो गई। नीत्से के साथ विज्ञान की स्वेच्छाचारिता की हिमायत के नमूने दिए गए। पूज्यवर कहते हैं कि अगर संस्कृति वापस न आ सकी तो दुनिया तहस-नहस हो जाएगी। हम आज संस्कृति को दूषित कर अपसंस्कृति ला रहे हैं, जो विनाश का कारण बन रही है। वृद्धों का तिरस्कार हो रहा है। आज की पीढ़ी अपने माता-पिता को स्वीकार नहीं करती। उन्हें कसाईखाने भेज दे तो अतिरंजित नहीं मानना चाहिए। निश्चित ही पैसा आया है। लोग मालदार बने हैं, पर जिंदगी तबाह हो गई है। नशेबाजी बढ़ी है। मोहब्बत, प्यार, भलमनसाहत गायब होती जा रही है। यह दानवी संस्कृति है। आज ऊँचे उद्देश्यों के लिए मर मिटने वाले हनुमानों की जरूरत है, जो सीता को वापस ला सकें। हम संस्कृति की सीता को वापस लाएँ। अब आगे पढ़ें— ]

गिद्ध गिलहरी बन सकते हैं?

साथियो! मैं जानता हूँ कि आपके पास ताकत बहुत कम है और आप कह सकते हैं कि हमारे पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि हम इतना बड़ा काम कर सकें। आपको मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि गिलहरी, जिसके पास कोई ताकत नहीं थी और जिसके पास पंजे भी नहीं थे, वह अपने बालों में धूल भरकर डालती थी। आप गिलहरी से तो कमजोर नहीं हैं। नहीं साहब! गिलहरी से तो कमजोर नहीं हैं। तो भाईसाहब! आप भी कुछ कर सकते हैं। और गिद्ध? गिद्ध तो बूढ़ा था। उसे आँख से दिखाई भी नहीं पड़ता था कि लड़ाई में पड़े। लेकिन बुड्ढा, जिसको आँखों से भी नहीं दिखाई पड़ता था और वह आदमी भी नहीं था, पक्षी था। आप तो पक्षी नहीं हैं? नहीं साहब! आदमी हैं। आप बातचीत तो कर सकते हैं? हाँ साहब! कर सकते हैं। आपके दो हाथ और दो पैर हैं, पर उस गिद्ध के तो दो ही थे। बेटे ! जब बूढ़ा गिद्ध युद्ध के लिए खड़ा हो सकता है तो आप क्यों नहीं! जब ग्वाल-बाल पहाड़ उठाने के लिए, अपनी सहायता देने के लिए अपनी लाठी और डंडे ले करके खड़े हो सकते थे। क्रेन उनके पास नहीं थी और न कोई ऐसी दूसरी चीज थी, जिससे कि पहाड़ उठाया जा सके। कोई संबल भी नहीं थे, कोई कुछ नहीं था। वही जानवर हाँकने की लाठियाँ थीं, उन्हें ले करके खड़े हो गए थे।

तो क्या पहाड़ उठ गया था? हाँ, उठ गया था। क्यों? क्योंकि ऊँचे उद्देश्य के लिए भावभरे प्राणवान व्यक्ति प्राणभरी साँस लेकर जब खड़े हो जाते हैं तो उनको भगवान की सहायता मिलती है। हमको मिलेगी? नहीं, आपको नहीं मिलेगी। क्यों? क्योंकि आप हैं चोर, आप हैं चालाक। चोर और चालाकों के लिए भगवान की सहायता सुरक्षित नहीं है। हमको मकान बनवा दीजिए, हमको पैसा दे दीजिए, हमारी औरत को जेवर बनवा दीजिए। चल, धूर्त कहीं का—भगवान की सहायता इन्हीं कामों के लिए रह गई है! नहीं साहब! देवी को सहायता करनी चाहिए थी। कौन है तू? देवी का जवाई है? चांडाल कहीं का—देवी को हमारी सहायता करनी चाहिए थी! किस बात की देवी सहायता करे? नहीं साहब! हमारी मनोकामना पूरी करे। क्यों पूरी करनी चाहिए? हमने तीन माला जप किया है। ले जा अपनी माला। माला लिए फिरता है। देवी को माला पहना देंगे, नारियल खिला देंगे। देवी को धूपबत्ती दिखा देंगे, खाना खिला देंगे और मनोकामना पूरी करा लेंगे। महाराज जी! अब तो आप देवी की निंदा कर रहे हैं। नहीं बेटे! देवी की निंदा नहीं कर रहा हूँ, वरन तेरे ईमान की निंदा कर रहा हूँ। तू जिस ईमान को ले करके चला है, जिस उद्देश्य को ले करके चला है, मैं उस उद्देश्य की निंदा कर रहा हूँ। उसकी ओर से देवी को नफरत है और देवी तेरी ओर मुँह उठा करके भी नहीं देखेगी।

लक्ष्य-उद्देश्य ऊँचे हैं कि नहीं?

मित्रो! देवी किसकी सहायता करती है? देवी जप करने वाले की सहायता नहीं करती, पाठ करने वाले की सहायता नहीं करती। देवी उनकी सहायता करती है, जिनके उद्देश्य ऊँचे हैं, जिनके लक्ष्य ऊँचे हैं, जिनके सामने कोई मकसद है, जिनके सामने कोई उद्देश्य है। उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जब आदमी उठ खड़े होते हैं, तब देवताओं की भरपूर सहायता मिलती है। देवताओं को आपने देखा नहीं है। बीसियों जगह विवरण आता है, जहाँ देवता फूल बरसाने आए। क्यों साहब! देवताओं का केवल यही काम है—फूल बरसाना? यह क्या बात है? क्या वे कौम के माली हैं? इनके यहाँ फूलों की खेती होती है? जहाँ कहीं भी शादी होती है, अच्छा काम होता है, वे फूल लेकर के जाते हैं और बिखेर देते हैं और पीछे से पैसे माँगते हैं। लाइए साढ़े आठ रुपये, हमने आपके यहाँ फूल बरसा दिए। देवताओं को और कोई काम नहीं है? जहाँ जाते हैं, वहीं फूल बरसाते रहते हैं। रामायण में आप पढ़ लीजिए, बीसियों जगह फूल बरसे हैं। रामचंद्र जी जब पैदा हुए, तब बरसे। रामचंद्र जी का विवाह हुआ, तब बरसे। देवताओं ने विमान पर चढ़ करके फूल बरसाए। हम जहाँ भी पढ़ते हैं, और दूसरी बात दिखाई नहीं पड़ती। क्यों साहब! देवता फूल बरसाते हैं? हाँ बेटे! लेकिन फूल बरसाने से मतलब है सहयोग करना, सहकार करना, प्रशंसा करना, समर्थन करना और सहायता देना।

देवता हमेशा ऐसों पर फूल बरसाएँगे

मित्रो! देवता हमेशा फूल बरसाते हैं और हमेशा बरसाएँगे, लेकिन उनके ऊपर बरसाएँगे, जो कोई ऊँचा उद्देश्य ले करके चलेंगे; जो कोई ऊँचा मकसद लेकर के चलेंगे। जो कोई ऐसा काम ले करके चले हैं, जिससे कि विश्वहित जुड़ा हुआ हो, जिससे किन्हीं सिद्धांतों का परिपालन होता हो, किन्हीं आदर्शों का परिपालन होता हो, उनके लिए देवता की सहायता सुरक्षित है, लेकिन उनके लिए सुरक्षित नहीं है, जो कर्महीन, कर्म से भागने वाले परिश्रम से जी चुराने वाले हराम में देवताओं की कृपा माँगने वाले हैं। देवताओं के दरवाजे इनके लिए बंद हैं। देवता उनकी सहायता करेंगे? नहीं करेंगे। किनकी? जो देवता को अनैतिक बनाता है, जो देवता को अंधेरगर्दी का माध्यम बनाता है। नीति और मर्यादा को तोड़ देने वाला बनाता है। आपने तो सारी मर्यादाएँ तोड़ डाली, नीतियाँ तोड़ डालीं, अब क्या देवता को भी अपने जैसा बनाएँगे? आप देवता जैसे नहीं बन सकते, तो कम से कम इतनी कृपा कीजिए कि देवता को अपने जैसा मत बनाइए। देवता को अपने जैसा घिनौना मत बनाइए, जो अकर्मण्य लोगों की, स्वार्थी लोगों की, चालाक लोगों की, बेईमान लोगों की, बदमाश लोगों की सहायता करे। यह तो मत कीजिए। देवता की इज्जत की रखवाली तो कीजिए। देवता को तो बेइज्जत मत कीजिए। देवता को तो चरित्रवान रहने दीजिए। देवता को तो विवेकशील रहने दीजिए। नहीं साहब! हम जैसे मरे हैं, वैसे ही उन्हें भी मारेंगे। कहावत है—'कोढ़ी मरे, सँगाती चाहे।' हमें तो कोढ़ हो गया है। अब क्या करेंगे? जो कोई हमारी चपेट में आएगा, उसको भी कोढ़ी बनाएँगे। किसको कोढ़ी बनाएँगे? अब तो और कोई चपेट में नहीं आता। आदमी तो हमसे दूर भागता है। अब तो एक ही आदमी बेवकूफ रह गया है और उसका नाम है—देवता! उसी को कोढ़ी बना देंगे; अर्थात अनैतिक कामों के लिए, हरामखोरी के कामों के लिए हम देवता से यह कहेंगे कि हमारी सहायता कीजिए। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता।

अवतारों के साथ आते हैं देवता

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको और आपको यदि देवता के प्रति वास्तव में प्यार है तो हमें देवता के मार्ग पर चलना पड़ेगा। देवता के मार्ग पर चलना किसे कहते हैं? इसके लिए ही मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए रामचंद्र जी ने अवतार लिया था। जब दुनिया से पाप का हरण करने के लिए उन्होंने अवतार लिया था तो देवताओं ने कहा था कि भगवान जी! आप चलते हैं? हाँ साहब! अब आप अवतार लेंगे? हाँ साहब! अवतार लेंगे तो आप अकेले काम नहीं कर सकेंगे? अकेला काम क्यों नहीं कर सकता? 'अकेला चना भाड़ को नहीं फोड़ सकता' आप अकेले पुल नहीं बना पाएँगे; आप अकेले पहाड़ नहीं उखाड़ पाएँगे; आप अकेले इतने राक्षसों से नहीं लड़ पाएँगे। इसलिए सहायकों की जरूरत है। बेशक उनके साथ सहायक आए थे। कौन-कौन आए थे? देवताओं ने कहा कि आपके साथ-साथ मनुष्यों के रूप में, मनुष्यों के वेश में हम जाएँगे, जन्म लेंगे। मनुष्य तो बड़ा चालाक है। उसका सारे का सारा दायरा ऐसे बदमाशों से भरा पड़ा है कि जब हम कुछ अच्छा काम करने लगेंगे तो हमारी अक्ल खराब करने के लिए हजार आदमी आ जाएँगे। हमारी औरत आ जाएगी; हमारा बाप आ जाएगा; हमारा भाई आ जाएगा; हमारे मोहल्ले वाले आ जाएँगे; हमारे रिश्तेदार आ जाएँगे; हमारा साला आ जाएगा—सब आ जाएँगे और कहेंगे कि अच्छा काम मत कीजिए; त्याग-बलिदान की बात मत सोचिए; माल मारने की बात सोचिए; डाका डालने की बात सोचिए। हर आदमी की एक ही सलाह रहेगी, दूसरी सलाह मिलेगी नहीं, जिससे कि शायद हमारा ईमान खराब हो जाए। इसलिए हम आपके साथ चलेंगे।

देवताओं ने क्या किया? सारे के सारे देवता रीछ और वानरों के रूप में जन्म लेकर धरती पर आ गए। उन्होंने वह काम किया था, जो देवताओं को करना चाहिए। किन-किन ने किया था? रीछों ने किया था, वानरों ने किया था। देवता भी बार-बार अवतार लेते रहे हैं। वे दुनिया में किस काम के लिए अवतार लेते रहे हैं? देवता दुनिया में किस काम के लिए आते रहे हैं? वे केवल एक काम के लिए आते हैं—श्रेष्ठ कामों के लिए सहायता करने के लिए। देवता श्रीकृष्ण भगवान के जमाने में भी आए थे। कौन-कौन आए थे? पांडव कौन थे? पांडव मनुष्य थे? नहीं, मनुष्य नहीं थे कुंती से पूछो कि कौन थे? भगवान श्रीकृष्ण जब आए थे तो उन्हें देवताओं की सहकारिता की जरूरत पड़ी थी, तो देवताओं ने जन्म लिया था। पाँच पांडव कौन थे? देख, उनमें से एक सूर्य का बेटा था, एक इंद्र का बेटा था, एक पवन का बेटा था, दो अश्विनी कुमार के बेटे थे। सब देवताओं के बेटे थे। तो क्या किया उन्होंने? माल मारा? मकान बनाए? जायदाद बनाई? औरतों के लिए सोने के जेवर बनाए? क्यों साहब! जो देवता जितना बड़ा मालदार, वह उतना ही बड़ा भाग्यवान होता है? भगवान जिसको जितनी दौलत दे, वह उतना ही भाग्यवान होता है। नहीं बेटे! आध्यात्मिक दृष्टि से वह भाग्यवान नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि से भाग्यवान वह होता है, जिसने जितना त्याग करके दिखाया है, जिसने जितना साहस करके दिखाया है।

देवत्व आता है तो आचरण से शिक्षण देता है

मित्रो! पांडवों का जीवन आरंभ से लेकर अंतिम समय तक कठिनाइयों का जीवन है; मुसीबतों का जीवन है; कष्टों का जीवन है। श्रेष्ठ कामों के लिए जो आदमी कष्ट उठा सकते हैं, त्याग कर सकते हैं और मुसीबतें सह सकते हैं, देवता उन्हीं का नाम है। नहीं साहब! देवता जिस पर प्रसन्न होते हैं, उसका घर सोने का बना देते हैं। उसके बेटे को इन्कम-टैक्स ऑफिसर बना देते हैं। बकै मत! देवत्व जिसके भीतर आता है, वह दूसरों का अपने चरित्र के माध्यम से शिक्षण करता है। क्या हम अपने सिद्धांतों के प्रति पक्के और सच्चे हैं? हम कैसे माने कि आप सच्चे हैं और पक्के हैं। नहीं साहब! हम सच्चे और ईमानदार हैं। हमें नहीं मालूम कि आपकी परीक्षा होनी चाहिए कि नहीं, लेकिन परीक्षा के बिना हम कैसे जानेंगे कि आप सच्चे हैं कि अच्छे हैं। हर आदमी को अपने सच्चे होने की और अच्छे होने की परीक्षा देनी पड़ती है। यह परीक्षा कैसे हो सकती है? बेटे! कठिनाइयों से होती है, और कैसे होती है? नहीं साहब! आप इम्तिहान ले लीजिए। आप सवाल पूछ लीजिए, हम लिखकर दे देंगे। बेटे! इसमें सवाल नहीं पूछा जाता, वरन चरित्र के माध्यम से पता लगाना पड़ता है कि व्यक्ति जबान से जिन सिद्धांतों को बक-बक करता है और जब मुसीबत का वक्त आता है, कठिनाई का वक्त आता है, तो उनका पालन कर सकता है कि नहीं कर सकता।

साथियो! इसकी एक ही परीक्षा है, दूसरी कोई नहीं है कि आप कठिनाइयों में सही साबित होते हैं कि नहीं? यह बताइए। लोभ का दबाव आने पर आप सही साबित होते हैं कि नहीं? मोह का दबाव आने पर आप सही साबित होते हैं कि नहीं? सिद्धांतों के प्रति, जिनकी आप हर वक्त दुहाई देते रहते हैं, उनका रक्षण करने के लिए लोभ का दबाव, मोह का दबाव आप मानते हैं कि नहीं? इनसान के बाहर वाले हिस्से पर पड़ने वाले दबाव तो कई हो सकते हैं, लेकिन भीतर वाले हिस्से पर बस दो ही दबाव दुनिया में काम करते हैं—एक लोभ का, दूसरा मोह का, जो हमको सिद्धांतों की तरफ नहीं बढ़ने देते। लोभ और मोह से, चैन और आराम से, खुशहाली और ऐयाशी से अपने आप का बचाव करके जो आदमी सिद्धांतों के लिए अग्निपरीक्षा में चढ़ सकते हैं, वही आदमी देवता कहला सकते हैं। श्रीकृष्ण भगवान के साथ भी देवता आए थे। और कौन-कौन के साथ में आए थे? बेटे! सबके साथ में देवता आए थे। भगवान के साथ-साथ में देवता हमेशा आते रहे हैं।

देवता आपके अंदर भी है।

साथियो! हमको और आपको जो काम करना है, मैंने आपको उसकी याद दिलाई कि पुराने जमाने के इतिहास से आप संगति मिलाते हुए अपना मुँह शीशे में देख सकते हैं। आपके भीतर भी एक ऐसा ही देवता झाँकता हुआ मिलेगा, जैसा कि मैंने आपसे कहा है। शायद आपके भीतर से कोई हनुमान झाँकता हुआ दिखाई दे। दुनिया को आप देखते हैं कि नहीं, कभी अपने आप को भी देखना, तब आप अपने भीतर की बुराइयों को भी देखेंगे, पर मैं चाहूँगा कि आप अपने भीतर में देवता की झाँकी करें। आप अपने भीतर एक ऐसे व्यक्तित्व की झाँकी करें, जो पाप के पंक में फँसा हुआ-सा नहीं है, पर उसे मौका मिले तो वह हनुमान जैसी भूमिका भी निभा सकता है और नल-नील जैसी भूमिका भी निभा सकता है और इतिहास में बहुत बड़ा काम कर सकता है। आप अपनी भूमिका निभा पाएँ, इसलिए आपको आत्मबोध कराने के लिए, आपकी परिस्थिति से अवगत कराने के लिए, आपके लिए जो उचित काम है, कर्त्तव्य है, उसका उद्बोधन कराने के लिए यहाँ आपको बुलाया गया है।

यह वक्त बार-बार नहीं आएगा

बेटे! यह युग बदलने का वक्त है। युग संध्या का वक्त है। यह बार-बार नहीं आएगा। एक ही बार आया है और यह चला जाएगा। दोबारा नहीं आ सकता। गाँधी जी का उनासी आदमियों का जत्था जिस समय नमक बनाने के लिए गया था, मैं भी उन दिनों वहीं था। साबरमती के आश्रम में गाँधी जी के पास में रहता था। क्योंकि मेरी उम्र अठारह साल से कम थी, इसलिए नाबालिग होने की वजह से उन्होंने इनकार कर दिया था कि आप वहाँ नहीं जा सकते। आपकी उम्र छोटी है, इसलिए हम नमक सत्याग्रहियों में आपको लेकर नहीं चलेंगे। हमको नहीं लिया गया, लेकिन उनासी आदमी, जो नमक बनाने के लिए गए थे, उन सत्याग्रहियों की फिल्म जब देहरादून आई तो हमने वह फिल्म देखी। यू० पी० सरकार की फिल्म हम मँगाते रहते हैं। हमारे पास फिल्म प्रोजेक्टर था। यहाँ बच्चों को, लड़कियों को दिखाते रहते थे। हमने गाँधी जी की वह फिल्म देखी, जिसमें वे नमक बनाने के लिए गए थे। उनासी आदमियों में से एक-एक कर सामने आते चले गए। हरिभाऊ उपाध्याय आते चले गए, महादेव भाई देसाई आते चले गए। गाँधी जी लाठी लेकर डाँडी यात्रा में चल रहे हैं। वहाँ बरगद के पेड़ के नीचे ठहर रहे हैं। बाकी सत्याग्रहियों का जत्था एक के बाद एक चल रहा है। हम नहीं जा सके। हमारे मन में आया कि अगर मैं भी अठारह वर्ष की उम्र का रहा होता और भगवान ने अगर मौका दे दिया होता और मैं भी गया होता तो हमारी भी फिल्म सारे भारतवर्ष में दिखाई जाती और राजेश खन्ना की तरह से हमको भी लोग समझते, पर क्या करें—समय था, जो निकल गया। तो क्या वह मौका दोबारा आएगा? बेटे! अब तो हम सत्तर साल के हैं। अब अगर गाँधी जी होते तो हम कहते कि अब आप हमको लेकर चलिए और हमारी भी फिल्म खिंचवा दीजिए। बेटे! अब नहीं खिंच सकती, क्योंकि वह मौका चला गया।

आपके बिना भी युग बदल जाएगा

मित्रो! यह कौन सा मौका है? युग बदल रहा है और आपके लिए युग बदलने की भूमिका दिखाने का मौका है। आप दोबारा मौका देंगे? बेटे! यह दोबारा नहीं मिल सकता। यह मौका, जिसमें आपको याद दिलाने के लिए बुलाया गया है, आप चाहें तो इस मौके का लाभ उठा लीजिए, अन्यथा एक बात मैं कहे देता हूँ कि आपके बिना कोई काम रुकने वाला नहीं है। सीता वापस आ जाएगी? हाँ, सीता वापस आ जाएगी। युग बदल जाएगा? जरूर बदल जाएगा। हमारे बिना भी बदल जाएगा? मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपके बिना भी बिलकुल बदल जाएगा। फिर क्या हर्ज होगा? आपका ज्यादा हर्ज होगा। आप पछताते रहेंगे। जिस तरीके से कांग्रेस के आंदोलन में जिन-जिन लोगों को तीन महीने की सजा हुई थी, उनको ढाई-ढाई सौ रुपये की पेंशन मिल रही है। जिनको तीन महीने की सजा हुई थी, आजकल वे मिनिस्टर हो गए हैं। स्वतंत्रतासेनानी कैसा होता है? बेटे! स्वतंत्रतासेनानी बड़ा जबरदस्त होता है। कैसे? ऐसे, जो तीन महीने जेल रह आया, वह स्वतंत्रतासेनानी हो जाता है। गुरुजी ! तीन महीने जेल जाने पर कोई आदमी ज्यादा दुखी तो नहीं होता? बेटे! हम तो पौने चार बरस रहे हैं। हमारा तो कुछ खराब नहीं हुआ। हम बहुत अच्छी तरह रहे हैं। साहब! हमको भी तीन महीने के लिए जेल भिजवा दीजिए! तो फिर तू क्या करेगा? मैं भी स्वतंत्रतासेनानी का परिचयपत्र दिखाऊँगा और फिर मिनिस्टर भी हो सकता हूँ और एम० एल०ए० का चुनाव भी लड़ सकता हूँ। यह तो ठीक है। तो आप भिजवा दीजिए। हाँ बेटे! भिजवा दूँगा। अब जेल जाएँगे तो किस काम का!

अच्छा बेटे! एक काम कर, अपने यहाँ जुए का एक अड्डा बना ले और सारे मोहल्ले वालों को बुलाकर जुआ खेल। फिर मैं क्या करूँगा? पुलिस वाले के पास जाऊँगा और चुपचाप कह दूँगा कि भाईसाहब! मेरे साथ चलिए। अभी मैं जुआरियों को गिरफ्तार कराता हूँ। खट से पुलिस आ जाएगी और पैसे समेत तुझे और तेरे साथियों को पकड़ ले जाएगी। फिर क्या होगा? फिर तुझे तीन महीने की जेल हो जाएगी और तेरे जितने संबंधी हैं, उन सबको जेल हो जाएगी। तेरे साथ-साथ में उन सबको फाइन लग जाएगा। वे भी सब जेल चले जाएँगे। फिर क्या हो जाएगा? वे सब मिनिस्टर हो जाएँगे। तू मिनिस्टर हो जाना, तेरे बहनोई, साला, पड़ोसी, नौकर-चाकर, जो भी जुए में पकड़े जाएँगे, वे सब जेल चले जाएँगे और सब मिनिस्टर हो जाएँगे और सबको ढाई-ढाई सौ रुपये महीने की पेंशन मिलेगी। गुरुजी! आप तो मजाक करते हैं। बेटे! बिलकुल मजाक कर रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है! तो फिर आप सच-सच बताइए कि कोई और रास्ता है? हम तीन महीने के लिए जेल जाने के लिए तैयार हैं। हम चाहे तो छुट्टी ले लेंगे, अपनी खेती का हर्ज कर देंगे, खेती के लिए नौकर रख लेंगे, पर आप हमको जेल भिजवा दीजिए और ढाई सौ रुपये महीने की पेंशन दिला दीजिए। बेटे! अब हम नहीं दिला सकते। अब वह मौका चला गया। जब मौका था, तब तेरे पास दिल नहीं था और जब यह समय आ गया है, तब औरों को देखकर के कहता है कि हमको भी पेंशन दिला दीजिए। जब समय था तो नल-नील भी इतिहासप्रसिद्ध हो गए थे; गीध भी हो गए थे; गिलहरी भी हो गई थी; जामवंत भी हो गए थे। अब वह समय चला गया। अब क्या रखा है!

यह युग-परिवर्तन की वेला है

मित्रो! यही समय है, जिसके लिए मैं आपको याद दिलाता था और इसीलिए इस शिविर में आपको बुलाया है। अगर आप समय को परख सकते हों, समय को देख सकते हों, समय को जान सकते हों, तो आप यह देख लें कि यह युग-परिवर्तन का समय है। इससे अच्छा, बेहतरीन समय शायद आपके जीवन में दोबारा नहीं आएगा और मैं तो केवल आपके जीवन की बात नहीं कहता हूँ, हजारों वर्षों तक ऐसा समय नहीं आएगा, जैसे कि हम और आप जिस समय में बैठे हुए हैं। इस समय में क्या करना चाहिए? बेटे! आपको एक ही काम करना चाहिए कि संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए मेहनत करनी चाहिए और मशक्कत करनी चाहिए। अच्छा आप कार्यक्रम बताइए! बेटे! आपके सामने जो कार्यक्रम पेश किया है, आज की परिस्थिति में इससे अच्छा दूसरा नहीं हो सकता। आज की क्या परिस्थिति है? आज की परिस्थिति एक ही है कि आज के युग का जो रावण है, वह क्या है? इस युग की पूतना क्या है? इस युग की ताड़का क्या है? इस युग की सूर्पणखा क्या है? इस युग की सुरसा क्या है? इस युग की एक ही सुरसा है, जिसका नाम है बेअक्ली। आदमी के अंदर बेअक्ली इस कदर हावी हुई है कि जब से दुनिया बनाई गई, तब से आज का दिन है, मैं सोचता हूँ कि बेअक्ली का दौर इतना ज्यादा कभी नहीं हुआ, जितना कि आज है।

आज आदमी कितना शिक्षित होता हुआ चला जाता है, पर बेअक्ली की हद है। कहाँ तक पढ़ा है? पढ़ने वाले के ऊपर लानत ! जाने कहाँ तक पढ़ते जाते हैं। बी० ए० पास है, एम० ए० पास है। अच्छा तो यह कमाता तो जरूर होगा? मैं जानता हूँ कि बी० ए० पास को ढाई सौ रुपये मिलते होंगे, तो एम० ए० पास को चार सौ रुपये मिलते होंगे। इतना तो इनको मिलता ही होगा, लेकिन बेअक्ली के मामले में ये वो आदमी हैं, जिनको मैं 'बेहूदा' शब्द कहूँ, तो भी कम है। आदमी जीवन की समस्याओं के बारे में इतना ज्यादा गैरजिम्मेदार है कि जिसके दुःखों का ठिकाना नहीं है। जहाँ भी वह रहता है, क्लेश पैदा करता रहता है। दफ्तर में रहता है तो क्लेश पैदा करता है। जहाँ कहीं भी जाता है, क्लेश पैदा करता है—अपने लिए भी और औरों के लिए भी। यह बेअक्ल आदमी है, जिसको जिंदगी का मजा, जिंदगी का सौंदर्य, जिंदगी का सुख लेना आता ही नहीं। जिंदगी का सुख और सौंदर्य कैसे हो सकता है, इसके बारे में हमें क्या विचार करना चाहिए, हमको मालूम ही नहीं है।

घर-घर जाकर बेअक्ली दूर करनी होगी

मित्रो ! क्या करना पड़ेगा? आज के जमाने में सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि हमको जन-जन के पास जाकर के उनकी बेअक्ली को दूर करना पड़ेगा। जहाँ-जहाँ तक वह फैली हुई है, उसको दूर करने के लिए हमको वह काम करना पड़ेगा, जो परिव्राजक अभियान के अंतर्गत हमारे प्राचीनकाल के ऋषि किया करते थे, मध्यकालीन तीर्थयात्री किया करते थे। अंतिम समय में भगवान बुद्ध के शिष्यों, परिव्राजकों ने किया था। आपको यही करना पड़ेगा। घर-घर में जाना पड़ेगा। घर-घर को जगाना पड़ेगा। घर-घर में जो अवांछनीयता की और अनैतिकता की बीमारियाँ फैली पड़ी हैं, घर-घर में दवा बाँटनी पड़ेगी। आपको घर-घर में डी० डी० टी० छिड़कनी पड़ेगी। घर-घर में इसके छिड़काव की जरूरत है; क्योंकि मलेरिया बहुत जोर से फैल गया है। मलेरिया के मच्छर बेहिसाब से आ रहे हैं। घर-घर जाइए। नहीं साहब! मच्छरों को यहीं बुलाकर लाइए और जो घर की सीलन है, सबके यहाँ खबर भेजिए कि लिफाफे में बंद कर डाकखाने के माध्यम से हमारे पास मच्छरों को भेज दें। मलेरिया के मच्छर जैसे ही हमारे पास आएँगे, हम सबको पकड़ लेंगे। भाईसाहब! मलेरिया के मच्छर आपके यहाँ नहीं आ सकते, आप चाहें तो वहाँ पर जा सकते हैं। मलेरिया आपके यहाँ नहीं आएगा, आप चाहें तो वहाँ जा सकते हैं। आप डी० डी० टी० लेकर घरों में जा सकते हैं। घर आपकी डी० डी० टी० के पास नहीं आएँगे।

जनजागरण हेतु बड़ी सेना की तैयारी

इसलिए मित्रो! आज का सबसे बड़ा काम वह है, जो हम आपके सुपुर्द करते हैं। क्या सुपुर्द करते हैं? जनजागरण का काम करना पड़ेगा। जनसाधारण को जगाना पड़ेगा। फिर आदमी का वह शिक्षण करना पड़ेगा, जिससे उसकी विचारणा और उसके चिंतन को नए सिरे से दिशा दी जा सके, नए सिरे से उसमें हेर-फेर पैदा किया जा सके। अगले दिनों हमको यही करना पड़ेगा। अगले दिनों आपकी वानप्रस्थ योजना, जो बड़ी समर्थ योजना है, बड़ी सशक्त योजना है, बड़ी सांगोपांग योजना है, को चलाएँगे। आप इतनी बड़ी योजना चलाएँगे? हाँ बेटे ! इतनी बड़ी योजना चलाएँगे। अब तक हम अकेले काम करते थे। तब हमारे पास क्या था—बस, दो-चार-दस आदमी गायत्री तपोभूमि पर रहते थे। पाँच-पचास आदमी और थे, जिन्हें जहाँ-तहाँ भेजते थे। अब क्या करेंगे? अब बेटे! हम क्रमबद्ध रूप से परिव्राजक योजना को चलाएँगे। पहले शिविर में आपके जितने आदमी थे? दोनों शिविरों को मिलाकर तीन सौ के करीब हो जाते हैं, ये सब के सब तो नहीं जाएँगे, लेकिन आप यकीन रखिए, यहाँ शिविर में जो आते हैं, उतने ही आदमी नहीं हैं। हम अपने सारे के सारे गायत्री परिवार के लोगों को जगाएँगे और बुलाएँगे। समयदानियों से ले करके वरिष्ठ वानप्रस्थों तक की कितनी बड़ी सेना बना लेंगे।

हम एक लाख पादरी बनाएँगे

मित्रो! हम कोशिश करेंगे कि उसी स्तर की, उसी संख्या में सेना बना दें, जितनी कि भगवान बुद्ध बनाने में समर्थ हुए थे। एक लाख के करीब उन्होंने शिष्य बनाए थे और ईसाई मिशन के पास भी एक लाख के करीब पादरी हैं। आप भी इतनी हिम्मत करते हैं? बेटे! कोशिश करेंगे। इतने आदमी यहाँ शांतिकुंज में तो नहीं रह सकते, लेकिन हमारा ऐसा ख्याल है कि हम गाँव-गाँव में और देश-देश में और घर-घर में शांतिकुंज बनाएँगे और जाग्रत केंद्र बनाएँगे। वहाँ से फिर ईसाई मिशन के तरीके से हम नए वानप्रस्थ पैदा कर सकते हैं। बेटे! हमारे ख्वाब बड़े महत्त्वाकांक्षी हैं। आगे क्या होगा? भगवान जाने, लेकिन हमारे ख्वाब जरूर ऐसे हैं। नहीं साहब! आज की बात बताइए। आज की बात तो यह है कि छोटे से कार्यक्रम के लिए हम आपको भेजते हैं। बड़ा काम तो हम बाद में सुपुर्द करेंगे। कैसे सुपुर्द करेंगे? बेटे! हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को जब देखेगा तो तू कहेगा कि गुरुजी तो पागल हैं और सनकते रहते हैं। जब हम विदेशों में गए तो हर जगह हमसे एक ही बात कही गई कि साहब! प्राचीनकाल में संत और ऋषि थे। अब संत और ऋषि रहे कहाँ! उन्होंने कहा कि यदि रहे होते तो आप उन्हें क्यों नहीं भेजते? हमारे देश में भारत का धर्म और संस्कृति खतम होती चली जा रही है। हमें ब्याह कराने तक की विधि मालूम नहीं है। हमको हिंदुस्तानी तक बोलना नहीं आता। अब अगर आप हमारे यहाँ कोई आदमी भेज दें, तो कम से कम हमारे बच्चों को, हमारी महिलाओं को वे ज्ञान कराते रहेंगे। हमारे यहाँ भी कुछ काम चलता रहेगा, संस्कार होते रहेंगे। हम तो संस्कार भी नहीं कराते और कोर्ट में जा करके, अदालत में जा करके रजिस्ट्रेशन करा लेते हैं। हमको हवन-विधि भी नहीं आती। आप कुछ लोगों को यहाँ भेज दें, तो कुछ काम बने। बेटे ! हम भेजने की कोशिश करेंगे।

जेबकट हमें विदेश नहीं भेजना

मित्रो! विदेशों में जितने आदमी जाते हैं, वे व्याख्यान झाड़ने के लिए जाते हैं। वे समझते हैं कि हमें स्टेज पर बोलना आ गया तो जाने क्या आ गया! वे व्याख्यान देते हैं और इस तरह की वाणियाँ बोलते हैं और फिर कहते हैं कि हम आश्रम बनाएँगे, मंदिर बनाएँगे। आश्रम की, मंदिर की सब योजनाएँ लेकर जाते हैं और वहाँ से पाँच पच्चीस हजार रुपये इकट्ठे कर लेते हैं। आने-जाने का खरच अलग से वसूल कर लेते हैं। पंद्रह हजार हवाई जहाज का किराया खरच कराया। पच्चीस हजार उसका ले लिया। महीने भर के अंदर चालीस हजार का बेचारों को चाकू मारकर चले आए। इस तरह लोग विदेश जाते हैं और दस दिन वहाँ, बीस दिन वहाँ लेक्चर झाड़ करके और यहाँ-वहाँ घूमघाम करके महीने भर की छुट्टी काट करके आ जाते हैं। साहब! मुझे भेज दीजिए। मैं ऐसा लेक्चर झाड़ना जानता हूँ कि बस मजमा बाँध दूँगा। बेटे! अगर तेरे लेक्चर को हम टेप करा करके भेज दें तो? नहीं महाराज जी! टेप कराकर मत भेजिए। मुझे ही भेज दीजिए। चल बदमाश कहीं का! इस तरीके से सारे के सारे जेबकट आदमी लेक्चर झाड़ने के लिए यहाँ से वहाँ मारे-मारे डोलते हैं।

(क्रमश:)

[अभी तक आपने पढ़ा कि 'यदि हमारे लक्ष्य, उद्देश्य ऊँचे हैं तो छोटे-छोटे व्यक्ति भी अपनी शक्ति जुटाकर बड़े से बड़ा कार्य कर सकते हैं। कार्य है विश्वभर के वातावरण का परिष्कार, सांस्कृतिक गौरव की वापसी। यही है युग निर्माण अभियान। हमेशा देवतागण भगवान के साथ युग-परिवर्तन हेतु आते हैं। ऐसा अब पुनः हुआ है। देवत्व जब भी आता है तो आचरण से—शिक्षण की प्रेरणा देता है। देवता आप सभी के अंदर है। अपने देवता को पहचानें और आत्मबोध जाग्रत करें। यह वक्त बार-बार नहीं आएगा।ऐसा न सोचें कि हम काम न करें तो कुछ बिगड़ेगा तो नहीं। आपके बिना भी युग बदल जाएगा। यह युग-परिवर्तन की वेला है। इसमें आपको घर-घर जाकर बेअकली दूर करनी होगी। हम एक लाख संस्कृति के पुजारी—अपने धर्म के पादरी बना सकें तो संस्कृति का वैभव पुनः लौटेगा—सतयुग आकर रहेगा।' अब अंतिम समापन किस्त पढ़ें— ]

कांगो का संत

मित्रो! एक बार मैं कांगो गया। कांगो वह देश है, जिसमें आदमियों की ऊँचाई और लंबाई कोई ऐसी होती है—तीन और चार फीट के बीच। प्रायः अधिकांश आदमी नंगे रहते हैं। औरतें पत्तों से अपना तन ढक लेती हैं। खेती-बाड़ी? तीन फीट का आदमी खेती-बाड़ी क्या करेगा! वे छोटे-छोटे भाले और छोटी-छोटी लाठियाँ लिए फिरते हैं। इन्हीं से बेचारे मेंढ़क मार लेते हैं; चूहे, चिड़िया, इन्हीं को जाल में फँसा लेते हैं और भून-भानकर खाते रहते हैं। घूमते-फिरते रहते हैं। इन गरीबों के पास न पैसा है, न दान-दक्षिणा का साधन है। उनके बीच में स्विट्जरलैंड के एक पादरी चालीस साल से काम कर रहे थे। वे वहीं डेरा डाले हुए पड़े थे। उन्होंने उन लोगों से कहा कि ईसा एक भूली हुई भेड़ को, जो भटक गई थी, कंधे पर रखकर लाए थे। तो ये भूले हुए, पिछड़े हुए लोग हैं, जिनकी हम सेवा करने आए हैं। अब हम यहीं रहेंगे। वे वहीं रहने लगे। उन लोगों के पास न डाकखाने का इंतजाम था, न सड़कें थीं, न सिनेमा, न कोई आनंद, न आने-जाने का साधन, न कोई सवारी—कोई कुछ नहीं था। जंगल में रहते थे। पानी के जहाज कभी आते थे तो वही कुछ सामान छोड़ कर चले जाते थे। विदेशों से जब कोई पानी के जहाज आते थे तो हजामत बनाने के ब्लेड, चाय के पैकेट आदि ईसाई मिशन उन्हें भेज देता था। वहीं से सिला हुआ कपड़ा आ गया। इस तरह जो कुछ आ गया, उसी से गुजारा कर लिया। इस तरह चालीस साल से वे वहाँ निवास कर रहे थे।

साधु परिव्राजक

ये कौन थे? इनका नाम था पादरी; इनका नाम था साधु; इनका नाम था परिव्राजक। मेरे मन में आया कि इनके चरणों को धोकर के पानी ले चलूँ और इन बाबाजीओं के ऊपर छिड़क दूँ। कौन से बाबाजी? ये साठ लाख भिखमंगे। सात लाख गाँव और साठ लाख बाबाजी। सात अट्ठे छप्पन और सात नामे तिरसठ। हर गाँव पीछे साढ़े आठ बाबाजी आते थे। साढ़े आठ बाबाजी एक गाँव में रहें तो शिक्षा की समस्या, साक्षरता की समस्या, सामाजिक कुरीतियों की समस्या, गंदगी की समस्या, पिछड़ेपन आदि की जितनी भी समस्याएँ थीं, साढे आठ आदमियों ने ठीक कर दी होती, लेकिन हम क्या कर सकते हैं! शुरू से आखिर तक ढोंग! देवताओं की लगाम पकड़ करके, देवताओं की आड़ का बहाना लेकर के सब बाबाजी उस देवता की पूजा, हनुमान जी की पूजा, संतोषी माता की पूजा की आड़ में, धर्म की आड़ में जो मन में आए, वह करते हुए पाए जाते हैं।

क्या करना पड़ेगा? बेटे! फिर आपको वहाँ से वापस चलना पड़ेगा, जहाँ कि हमारी संत-परंपरा के अनुरूप हम घर-घर जाएँ और जन-जागरण का शंख बजाएँ और कायाकल्प करने में समर्थ हो जाएँ। यह हमारा लंबा वाला प्लान है। लंबे वाले प्लान के लिए क्या करना पड़ेगा? जलता हुआ दीपक जहाँ भी जाएगा, वहाँ प्रकाश पैदा करेगा। जिसके पास व्यक्तित्व है, ऐसा व्यक्तित्व संपन्न व्यक्ति जहाँ भी जाएगा, दूसरे व्यक्तियों को ठीक कर सकता है। व्यक्तित्व वाला व्यक्तित्व को ठीक कर सकता है। वाणी वाला वाणी को ठीक कर देगा। हाँ साहब! बोलना सिखाइए? हम आपको बोलना सिखाएँगे। कैसे सिखाएँगे? एक बार एक घर में चोर घुस गया। घर वाले चिल्ला रहे थे कि घर में चोर आ गए। गाँव वाले, मुहल्ले वाले दौड़कर आ गए। कहाँ गया चोर? चोर ने देखा कि यह तो बड़ी संख्या आ गई। अब क्या करना चाहिए? घर वाले चिल्ला रहे थे कि चोर को पकड़ो। चोर भी चिल्लाने लगा कि चोर को पकड़ो। देखो, वह गया, इधर गया। भीड़ भागती रही और चोर भी उन्हीं के बीच भागता रहा और चिल्लाता रहा।

चरित्र से होगा लोक-शिक्षण

इसका क्या मतलब है? बेटे! जब घर का मालिक कहे कि चोर को पकड़ो, तब आप भी कहिए कि चोर को पकड़ो। चोर कौन है? मालूम नहीं कौन है? अनैतिकता को भगाओ, पाप को भगाओ, परंतु भगाएगा कौन? दुनिया ने पाप को भगाया, पर वही चोर वाली बात सामने है। क्या करना पड़ेगा? हममें से जो भी आदमी इस मार्ग पर आएगा, अपना चरित्र लेकर के आएगा। लोक-शिक्षण कैसे हो सकता है? चरित्र से। वाणी हो, चाहे न हो, आप गूंगे हों, तो कोई हर्ज की बात नहीं। पांडिचेरी के अरविंद घोष गूंगे हो गए थे। उन्होंने जीभ से बोलना बंद कर दिया था। महर्षि रमण गूंगे हो गए थे। उन्होंने भी बोलना बंद कर दिया था? बिना बोले भी आप हवा को ठीक कर सकते हैं। आपको बहुत बोलना आता है, पर आप हैं क्या? हमको यह बताइए। असल में प्रभाव आपके व्यक्तित्व का पड़ेगा। जिस काम के लिए हम आपको भेजना चाहते हैं, वह आपका व्यक्तित्व और चरित्र करेगा, और कोई चीज नहीं कर सकती। वेश्याएँ अपने जीवन में हजारों आदमियों को भड़ुआ बना देती हैं। शराबी अपने जीवन में सैकड़ों शराबी पैदा कर लेते हैं; जुआरी अपने जीवन में नौ सौ नए जुआरी पैदा कर लेते हैं; क्योंकि उनका चरित्र, उनका बोलना, उनका वचन और कर्म दोनों मिले हुए हैं और आप अपनी जिंदगी में एक संत पैदा न कर सके; एक भला आदमी पैदा न कर सके। एक सज्जन पैदा न कर सके; एक राम भक्त पैदा न कर सके। क्यों? इसलिए कि आपके चरित्र और आपकी वाणी में तालमेल नहीं है। आपका चरित्र अलग है और वाणी अलग है। तो कैसे असर पड़ेगा? नहीं साहब! असर पड़ेगा। नहीं बेटे! तेरा असर नहीं पड़ेगा।

अंकुश का नाम है तप

अगले दिनों क्या करना पड़ेगा? अगले दिनों परिव्राजक योजना का शुभारंभ कर रहे हैं, जिसके लिए पहली बार आप आए हैं, जिसका आप श्रीगणेश कर रहे हैं। आपको श्रीगणेश करने वालों में शामिल किया, सौभाग्य दिया गया। अगर यह योजना चलेगी तो क्या होगा? भावी योजना के बारे में मैं आपको बता रहा हूँ कि इसमें हम यह प्रयत्न करेंगे कि आदमी को तपस्वी बनाएँ। तपस्वी से क्या मतलब है? आदमी को धूप में खड़ा करेंगे? धूप में नहीं खड़ा करेंगे। उसे अपनी हवस और अपनी कामनाओं पर अंकुश लगाना सिखाएँगे। तप इसी का नाम है। यही धूप में खड़ा होना है। आदमी अपने आप, अपनी शैतानी और अपनी कमजोरियों से लोहा ले। भीतर वाला कहता है कि हम तो यह करेंगे और बाहर वाला कहता है कि हम नहीं करने देंगे। इस तरह जो जद्दोजहद होती है और इस जद्दोजहद में जो लड़ाई लड़नी पड़ती है, उसी का नाम तप है। आपका व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए, आपकी जो बुरी आदतें पड़ी हुई हैं, उन बुरी आदतों को तोड़ने के लिए, बुरी आदतों का दमन करने के लिए, आपके ऊपर जो अंकुश लगाने पड़ते हैं, उनकी रोक-थाम करनी पड़ती है, उसी का नाम तप है।

नहीं साहब! तप करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। बेटे! तप करने से भगवान को क्या मिलता है? इससे भगवान प्रसन्न नहीं हो जाता। केवल होता यह है कि तप करने से हमारी गंदी आदतें छूटती हैं। बस, जितनी गंदी आदतें छूटती जाएँगी, उतना ही भगवान प्रसन्न हो जाएगा। नहीं साहब! खाना नहीं खाएँगे, तो भगवान प्रसन्न हो जाएगा। क्यों अगर तू खाना नहीं खाएगा तो भगवान को क्या मिलेगा? इसलिए क्या है बेटे! जिस भावी तपस्वी जीवन की योजना को हम कार्यान्वित करने जा रहे हैं, वह हमारे रजत जयंती वर्ष की सबसे शानदार योजना है। हम अपने इसी कुटुंब में से हजारों की तादाद में परिव्राजक निकालेंगे। उनकी क्या विशेषता होगी? पहली विशेषता होगी उनका तपस्वी जीवन, जिसकी झाँकी हम कल करा चुके हैं। जिसके बारे में हमने कल केवल लोकाचार और मर्यादा वाला हिस्सा बताया था। दृष्टिकोण वाला हिस्सा, अंतरंग वाला हिस्सा नहीं बताया था। आपको अपने भीतर वाले की किस तरीके से तोड़-फोड़ करनी पड़ेगी, यह स्थायी विषय की बात है और यह तब की बात है, जब आप हमारे पास रहेंगे। तब हम आपके भीतर वाले हिस्से को हथौड़े से तोड़कर फिर नया ढालेंगे।

ज्ञान बनाम व्याख्यान

मित्रो! अभी तो हमने मर्यादा बताई थी, शिष्टाचार बताया था, लोकाचार बताया था, पंचशील बताए थे। वह केवल मर्यादा थी, कानून थे, व्यवस्था थी। यह केवल कानून-व्यवस्था के अंतर्गत पाँच बातें बताई थीं। वह चरित्र संशोधन नहीं था। चरित्र संशोधन के लिए, यम-नियमों के लिए हम आपको दावत देंगे और कहेंगे कि आप आइए, हमारे साथ रहिए, हमारे वातावरण में रहिए। फिर क्या करेंगे? बेटे! हम आपको ज्ञान देंगे। कैसा ज्ञान देंगे? ऐसा, जिससे कि आप लोगों को सलाह दे सकने में समर्थ हो सकें। अभी आप लोगों को सलाह नहीं दे सकते। व्याख्यान तो कर सकते हैं, पर सलाह नहीं दे सकते। अभी जब आप सलाह देंगे तो गंदी सलाह देंगे, गलत सलाह देंगे। अभी आपका भीतर वाला हिस्सा जब किसी को सलाह देगा तो कैसी सलाह देगा? जैसे आप हैं। आप बढ़िया सलाह नहीं दे सकते, क्योंकि सलाह के समय में आप स्टेज की बात भूल जाएँगे। स्टेज पर खड़े होकर बात कहना अलग है और सलाह की बात अलग है। हमको सलाह देने वाले चाहिए, सलाहकार चाहिए। हमको वक्ता नहीं चाहिए, सलाहकार चाहिए। हमें सलाह देने वालों की जरूरत पड़ेगी, वक्ताओं की जरूरत नहीं पड़ेगी।

अभी आप गंदी छाप छोड़कर आएँगे

इसलिए क्या करना चाहिए? सलाह देने लायक आपकी अक्ल कैसे विकसित की जा सकती है? कौन सी परिस्थितियों में क्या सलाह दी जा सकती है और किस तरह से दी जा सकती है? यह सारा का सारा शिक्षण ब्रह्मविद्या कहलाता है। हम आपको अगले दिनों ब्रह्मविद्या भी सिखाएँगे और ब्रह्मविद्या सिखाने के साथ-साथ तपस्वी जीवन जीने तथा बाहर समाज के कार्य करने के लिए भेजेंगे। नहीं साहब! पहले भेज दीजिए। नहीं बेटे! पहले भेजने से तो मुसीबत आ जाएगी। पहले आप जाएँगे तो जो चीज आपके पास है, वही बिखेरते हुए जाएँगे। क्या चीज बिखेरते जाएँगे? बेटे! एक गंदी कहावत है—एक थी छछूँदर। उसने सिर पर चमेली का तेल लगा लिया। चमेली का तेल इसलिए लगाया था कि सुगंध फैलाकर आऊँगी। सेंट लगाकर वह इसलिए गई थी कि सारे घर को, कमरों को सुगंधित बनाकर आऊँगी, पर वह क्या करती गई? उसने छु-छू की आवाज करना शुरू कर दिया और सारे का सारा कमरा गंदा कर दिया। फिर क्या हुआ? लोगों ने कहना शुरू कर दिया—"अजब तेरी कुदरत, अजब तेरा खेल। छछूंदर के सिर पर चमेली का तेल।" छछूंदर कौन? हम और आप जहाँ कहीं भी जाएँगे, छछूदरपन फैलाएँगे और उसके ऊपर गंदी छाप छोड़कर आएँगे। अपने रहने के बाद जब वहाँ से चलेंगे तो वह परंपरा छोड़कर आएँगे, वह किस्सा छोड़कर आएँगे, वह कहानी छोड़कर आएँगे, वह स्मृतियाँ छोड़कर आएँगे, जिससे आदमी याद करता रहे कि किसी और को बुलाना हो तो बुला लेना, पर शांतिकुंज के वानप्रस्थियों को मत बुला लेना।

हर आदमी परिव्राजक

इसलिए मित्रो! इस समय हम नया प्रयोग आरंभ करते हैं; क्योंकि इस समय हमको बहुत जल्दी पड़ी हुई है। क्या जल्दी पड़ी हुई है? जिस तरीके से जब युद्ध होता है, तो जवान आदमी मारे जाते हैं और स्कूलों से अठारह वर्ष से अधिक उम्र के सब बच्चे भरती कर लिए जाते हैं। उनको पंद्रह-पंद्रह दिन में निशाना लगाना सिखाकर मिलिट्री में भेज दिया जाता है कि जाइए दुश्मन का मुकाबला कीजिए। मोर्चे पर ऐसे ही भेज देते हैं। बेटे! फिलहाल हम भी यही कर रहे हैं। आपका शिक्षण नहीं हुआ, आपको तपाया नहीं गया, आपको मजबूत नहीं बनाया गया, इसलिए आपको काम भी उसी स्तर का सौंपते हैं। नहीं साहब! कठिन काम सौंप दीजिए? नहीं बेटे! कठिन काम आप नहीं कर पाएँगे। कठिन काम करने के लिए कुमार जीव के तरीके से वहाँ भेज दें। कहाँ? चाइना, तो आप रोकर के भागेंगे। नहीं साहब! हमें नेता बना करके भेज दीजिए। नहीं बेटे! हम नेता बनाकर किसी को नहीं भेजते हैं। हम परिव्राजक भेजते हैं और भविष्य में हमारे प्रत्येक कार्यकर्ता को परिव्राजक होना पड़ेगा। हरेक को हम परिव्राजक बनाएँगे। मिलिट्री में जो व्यक्ति काम करते हैं, वे सभी 'मिलिट्रीमेन' होते हैं। उसमें जो इंजीनियर होता है, वह भी मिलिट्रीमेन होता है। हर आदमी को बंदूक चलानी पड़ती है। हर आदमी को मिलिट्री के कपड़े पहनने पड़ते हैं। हर आदमी को लेफ्ट-राइट करना पड़ता है। आपमें से हर आदमी आज से परिव्राजक है।

नहीं साहब! हम तो वक्ता हैं। आप वक्ता नहीं हैं। आप पहले परिव्राजक हैं। जरूरत पड़ी तो हम आपको वक्ता भी बना सकते हैं, लेकिन अगर जरूरत नहीं पड़ी तो आपको वही परिव्राजक की भूमिका निभानी पड़ेगी। बेटे! अगले दिनों के लिए हमारे लंबे-चौड़े ख्वाब हैं। इस समय वर्तमान के काम बताइए? वर्तमान में तो छोटा सा काम है। अभी फिलहाल हम आपको पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए छोटी सी ट्रेनिंग दे करके भेजते हैं, ताकि देखें कि आप कुछ करने की स्थिति में हैं कि नहीं? नहीं साहब! ज्यादा समय के लिए भेज दीजिए। ज्यादा समय के लिए नहीं भेजेंगे। ज्यादा समय के लिए भेजेंगे तो तेरी पोल खुल जाएगी। पंद्रह दिन तक तो अपनी भलमनसाहत को छिपाए भी रहेगा, लेकिन ज्यादा दिन रह गया तो नंगा हो जाएगा और लोग तेरे बाल उखाड़ लेंगे। इसलिए पंद्रह दिन के लिए—पंद्रह दिन के लिए जाएगा, तो किसी को यह पता नहीं चलेगा कि तू अच्छा है या बुरा है। फिर तुझे भी अभ्यास हो जाएगा कि जनता कितनी सावधान हो गई है, जागरूक हो गई है। अभी तो तू जानता है कि जनता बुद्ध होती है। स्टेज पर जाकर बैठ जाएगा और अपने सारे पैमानों को छिपा लेगा।

लोकसेवी को कैसा होना चाहिए?

इसलिए क्या करना पड़ेगा? यही व्यावहारिक शिक्षण करने के लिए आपको पंद्रह दिनों के लिए हम भेज रहे हैं, ताकि आप यह जान सकें कि आपको जनसंपर्क कैसे करना चाहिए? बातचीत कैसी करनी चाहिए? लोगों के सामने कैसे विचार व्यक्त करना चाहिए? लोगों के ऊपर अपने चरित्र की छाप कैसे डालनी चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से बोलना चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से अपना आहार-विहार बनाना चाहिए? लोकसेवी को किस तरीके से अपनी मर्यादा का पालन करना चाहिए? लोकसेवी की दिनचर्या किस तरह की होनी चाहिए? अगर हम आपको बाहर न भेजें, तो यहाँ कैसे सिखा सकते हैं? यहाँ लोकसेवी थोड़े ही रहते हैं ! यहाँ तो हमीं लोग रहते हैं, तो हमें क्या सिखाएँगे। बाहर वालों को सिखाने और सीखने के लिए आपको व्यावहारिक क्षेत्र में ही जाना पड़ेगा। पानी में तैरे बिना तैरना नहीं सीखा जा सकता। पानी में घुसे बिना तैरना नहीं आ सकता। जनता में जाए बिना आप लोक-शिक्षण की प्रक्रिया को नहीं सीख सकते। इसलिए आपको पंद्रह दिन के लिए भेजते हैं।

वातावरण निर्माण हेतु महापुरश्चरण

गुरुजी! आप किस काम के लिए भेजते हैं? बेटे! इस समय एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। एक कार्य हमारा यह है कि इस वर्ष को, जिसको हमने रजत जयंती वर्ष कहा है। इसमें हमने एक महापुरश्चरण आरंभ किया है। महापुरश्चरण किस काम के लिए? महापुरश्चरण करने का उद्देश्य इस वातावरण को, एन्वायरनमेंट को परिष्कृत करना है। हवा, वातावरण अनुकूल न हो तो हमारे प्रयास सफल नहीं हो पाते। अगर वर्षा के समय ठंढक न हो, तो खेतों में जो बीज हम बोते हैं, वह सफल नहीं हो पाता। गरमी में गेहूँ बो दें तो यह सफल नहीं होगा। बरसात में अनाज बोएँ तो सफल हो जाएगा। क्या बात है? बेटे! मौसम अनुकूल होगा तो बात बन जाएगी। हवा अनुकूल होती है तो नावें पीछे से आगे की ओर धकेलती जाती हैं। अगर हवा सामने की होती है तो साइकिल को चलाते हैं तो पैर भी दुखते हैं और घंटे भर में चार मील भर की चाल पकड़ती है। अगर पीछे वाली हवा हो, तब जरा सा पैर मार दिया और साइकिल भागती हुई चली जाती है, पता भी नहीं चलता और खट पहुँच जाते हैं। मैं क्या बात कह रहा हूँ? वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए जो काम हम करने वाले हैं, उसके लिए हम और आप प्रयत्न तो करेंगे ही, परिश्रम तो करेंगे ही, मेहनत तो करेंगे ही, लेकिन मानवीय प्रयत्न और मानवीय प्रयास की सीमा और मर्यादा है। इसके लिए आवश्यक है कि वातावरण होना चाहिए।

मित्रो! वातावरण की शक्ति को यहाँ तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन वातावरण की शक्ति के बारे में आपको जो अंक दिया है, उसमें हमने लिख दिया है। वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए आध्यात्मिक प्रयासों का क्या महत्त्व हो सकता है, इसे अगले किसी व्याख्यान में बताऊँगा। अभी तो वातावरण को कैसे अनुकूल किया जाता है और जरूरत क्यों पड़ती है, इसे बताऊँगा। वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए हमारे प्रयत्न भौतिक प्रयत्नों से कम नहीं, ज्यादा मूल्यवान हैं। इन दिनों हम वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। कैसा प्रयत्न कर रहे हैं? देख बेटे! पांडिचेरी के अरविंद घोष विलायत गए। विलायत से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा कि हम हिंदुस्तान को आजादी दिलाएँगे। पहले वे बड़ौदा वाले दीवान के यहाँ नौकरी करते रहे। राजाओं से संपर्क बनाया और उनको संगठित करने की कोशिश की कि इनको अँगरेजों के खिलाफ खड़ा करें और हिंदुस्तान को आजादी दिलाएँ। इसमें सफलता न मिली तो कहाँ चले गए? वहाँ से वे कलकत्ता चले गए और वहाँ उन्होंने एक नेशनल कॉलेज खोला, ताकि नवयुवकों को शिक्षण दे सकें। शिक्षण दे करके उन्हें देश का कार्यकर्ता बनाएँ। नवयुवकों ने शिक्षा ग्रहण की और जब तक पढ़ते रहे, तब तक हाँ-हाँ करते रहे। बिना फीस जमा किए पढ़ भी लिए लेकिन जब पढ़-लिखकर तैयार हुए तो सब भाग गए। किसी ने कहा कि हमको नौकरी करनी है तो किसी ने कहा कि हमको शादी करनी है। सब भाग गए, एक भी नहीं रहा।

श्री अरविंद का तप—जन्मा एक चक्रवात

अरविंद घोष को इससे बड़ी निराशा हुई कि इतना परिश्रम भी किया। इतना पैसा भी खरच किया। इतनी उम्मीदें भी लगाई और वे किसी काम भी नहीं आए। अंततः उन्होंने फिर से क्रांतिकारी पार्टी बनाई। बम चलाने का सिस्टम बनाया। उनके बड़े भाई को फाँसी हो गई। उस जमाने के एक बहुत बड़े वकील ने अपनी वकालत के जरिए किसी तरीके से उन्हें फाँसी के तख्ते से बचा लिया था। बचाने के बाद अरविंद घोष पांडिचेरी चले गए। पांडिचेरी में क्या करने लगे? वातावरण को अनुकूल बनाने के लिए उन्होंने तप प्रारंभ कर दिया। तप करने से क्या हुआ? तप करने से बेटे! उन्होंने हिंदुस्तान के सारे वातावरण को इतना गरम कर दिया कि उस गरमी में से ढेरों के ढेरों साइक्लोन पैदा होने लगे। साइक्लोन किसे कहते हैं? चक्रवात को। चक्रवात किसे कहते हैं? बेटे! गरमी के दिनों में गाँवों में धूल का अंधड़ आता है और गोल-गोल घूमता हुआ ऊपर को चला जाता है। अँगरेजी में इसी को साइक्लोन कहते हैं। संस्कृत में चक्रवात कहते हैं। आप लोग क्या कहते हैं, मालूम नहीं है। हमारे यहाँ गाँवों में इसे भूत कहते हैं। इन भूतों में बड़ी ताकत होती है और वे छप्पर उखाड़कर फेंक देते हैं। पेड़ों को उखाड़ देते हैं। ऐसे ही इन्होंने वातावरण को इतना गरम कर दिया और इतने भूत पैदा कर दिए कि उन्होंने छप्पर फाड़ डाले, और न जाने क्या से क्या कर दिया। हिंदुस्तान की तवारीख (इतिहास) है कि जिन दिनों गाँधी जी पैदा हुए थे, उन दिनों इतने महापुरुष इस भारतभूमि में पैदा हुए कि जिनका मुकाबला नहीं हो सकता।

तब बना था वातावरण

मित्रो! दुनिया में नेता तो बहुत हुए हैं, पर महापुरुष नहीं हुए। उस जमाने में नेता नहीं थे, महापुरुष थे। मालवीय जी राजनीतिक नेता नहीं थे, महापुरुष थे। गाँधी जी नेता नहीं थे, महापुरुष थे। और भी दूसरे बड़े आदमी, जैसे लोकमान्य तिलक नेता नहीं थे, महापुरुष थे। ऐसे-ऐसे कितने ही महापुरुष हुए थे, जिन्होंने हिंदुस्तान का कायाकल्प कर दिया। भारतभूमि के जनमानस को ऊँचा उठाने वाले, अँगरेजों से लड़ने वाले इतने नेता बनकर तैयार हो गए। इसके लिए क्या करना पड़ा? उन्होंने एक काम किया था, तप किया था और तप से वातावरण को गरम किया था। जब तक देश का वातावरण गरम रहा, तब तक महापुरुष पैदा होते रहे और बड़ा काम होता रहा। बेटे! अब तो अच्छी परिस्थितियाँ हैं, उस जमाने में तो कितनी रुकावटें थीं। अब तो कोई रुकावट भी नहीं है, लेकिन अब तप का गरम-सा वातावरण ठंढा हो गया है। इसकी वजह से वे सब लोग, विशेषकर उस जमाने के लोग जो बढ़-चढ़कर त्याग-बलिदान करते थे, इनमें से कितने ही जिंदा भी हैं, उनके बारे में आप रोज अखबारों में पढ़ते हैं। भारत का नेतृत्व तब भी कांग्रेस करती थी, अब भी कर रही है। कांग्रेस वही है। खंडों में हो गई, तो क्या? जनता पार्टी में चली गई तो क्या? और प्रजापार्टी में चली गई तो क्या? सोशलिस्ट में चली गई तो क्या? इंदिरा कांग्रेस में चली गई तो क्या? और पुरानी कांग्रेस में चली गई तो क्या? वही लोग हैं। वही सब छाए हुए हैं। फिर वही सब लोग ठंढे हो गए। यह क्या हो गया? पुराने इतिहास और नए इतिहास में क्या फरक पड़ गया?

हम बनाएँगे नया वातावरण

मित्रो! जो हवा थी, वातावरण था, वह ठंढा हो गया और दूसरी तरह की हवा आ गई। हम उसी हवा को गरम करने का प्रयत्न कर रहे हैं और आप लोगों को भी उसी काम को करने के लिए लगा रहे हैं। युग निर्माण योजना के बहिरंग कार्यक्रम भी हमारे पास हैं, लेकिन बहिरंग कार्यक्रम का समय अभी नहीं है। अभी वातावरण को गरम करना आवश्यक है। वातावरण को गरम करने के लिए इस वर्ष हम एक महापुरश्चरण आरंभ कर रहे हैं, जिसे खंडों में बाँट दिया गया है। एक पुरश्चरण हमने किया था चौबीस साल का। हमारा वह पुरश्चरण पूरा हो गया, जिसकी पूर्णाहुति के लिए हमने एक हजार कुंड का यज्ञ किया था। वह हमारा व्यक्तिगत प्रयत्न था। अब क्या कर रहे हैं? अब सारे के सारे विश्व के वातावरण को गरम करने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं और यह प्रयास कर रहे हैं कि इसमें आपको भी काम करने का मौका मिले। सावधानी यह रखनी है कि आप लोगों की नीयत और ईमान सही हो। आप लोग जिस क्षेत्र में काम करने के लिए जाएँ, उसमें पीठ पीछे मालूम पड़ना चाहिए कि हवा गरम हो रही है और आपको सहयोग मिलता जा रहा है। ऐसा वातावरण बनाने के लिए, जनमानस को पलटने के लिए हम एक गायत्री महापुरश्चरण आरंभ कर रहे हैं।

यज्ञ का विज्ञान सिद्ध करेंगे

यह महापुरश्चरण कैसा है? आप सबने अखबारों में पढ़ा होगा। तो क्या पच्चीसकुंडीय यज्ञों के माध्यम से पुरश्चरण होगा? यज्ञ नहीं बेटे! पुरश्चरण। यज्ञ और पुरश्चरण में क्या फरक पड़ता है? बेटे! अब तक जो हमारे यज्ञ थे, वे प्रशिक्षण और प्रचार, दो उद्देश्यों के लिए होते थे। लोगों को भारतीय संस्कृति के माता-पिता की जानकारी कराने के लिए प्रशिक्षण और प्रचार के अब तक के यज्ञ होते रहे हैं। अब क्या है? अब सामर्थ्य वाले यज्ञ होंगे। अब आगे क्या करेंगे? अब हमारे पास दो उद्देश्य हैं। एक तो यज्ञ की वैज्ञानिकता को सिद्ध करना है, जिसमें आप सिद्धि और चमत्कार ढूँढ़ते हैं। जिस सिद्धि और चमत्कार के लिए आप यज्ञ करते हैं, वह काफी नहीं हो सकता। उसके लिए विशेष चीजों की जरूरत होगी। समिधाएँ अलग चाहिए। समिधाएँ ही नहीं, वरन व्यक्तियों ने किस पेड़ पर से कब, किस तरीके से उन्हें तोड़ा और उनके अंदर कैसे संस्कार भर दिए। हवन के लिए जड़ी-बूटियाँ आप बाजार में से नहीं ला सकते। जिस तरह से आप यज्ञ के लिए किसी मंत्र से अभिमंत्रित करके जल लाते हैं, उसी तरह जड़ी बूटियाँ भी अभिमंत्रित करके लानी पड़ती हैं। सामग्री भी मंत्रित करके लानी पड़ेगी और जो आदमी हवन करने वाले होंगे, उनको भी संस्कारित करना पड़ेगा। उनको क्या करना पड़ेगा? इतने दिनों तक आपने उपवास किया है कि नहीं किया है, ब्रह्मचर्य रखते हैं कि नहीं। बेटे! वे सामर्थ्य वाले यज्ञ हैं, बरसात कराने वाले यज्ञ हैं, संतान देने वाले यज्ञ हैं, शांति देने वाले यज्ञ हैं। वे अलग होंगे। इसके लिए हम अलग प्रयत्न कर रहे हैं।

धार्मिक मर्यादाएँ : वैज्ञानिक मान्यताएँ

मित्रो! इसके लिए हमारा अलग शोध-संस्थान खड़ा हो रहा है। अभी तक हम क्या करते रहे? प्रचार के लिए, प्रशिक्षण के लिए यज्ञ करते रहे। दुकान पर से समिधाएँ ले आइए, टाल पर से ले आइए और दुकानदार से पूछना कि आम की है? अच्छा महाराज जी! आम की समिधा मिल जाएगी। बेटे! जिसकी दे, उसी की ले आना और चीर-फाड़कर हवन कर देना। तो फिर वह जो सामर्थ्य की बात थी, वह आएगी? नहीं बेटे! इससे नहीं आएगी। अब आप क्या कर रहे हैं? अब हम पुरश्चरण कर रहे हैं। इसे इस वर्ष से हमने प्रारंभ कर दिया है। पुरश्चरण में जप, जप के साथ हवन अनिवार्य है। हवन के बिना जप पूरा नहीं होता। इस यज्ञ की अपनी मर्यादाएँ हैं, अनुशासन हैं। पिछले यज्ञों में अब तक ऐसा नहीं था। उसमें क्या था? चलिए भाई साहब! यज्ञ में बैठ जाइए। नहीं साहब! हमारे काम में देर हो जाएगी। नहीं साहब! देखिए, एक पारी बीस मिनट में खतम हो जाती है। इतने में क्या देर हो जाएगी! हवन से कुछ फायदा होता होगा, तो जरूर मिलेगा। बैठिए तो सही, २० मिनट ही सही। हाथ धोइए और हवन में बैठ जाइए। अच्छा साहब! सिगरेट के हाथ तो धो लूँ। हाँ, धो लीजिए। सिगरेट के हाथ से हवन मत कीजिए। मोजा पहनकर हवन में बैठ गए। क्यों साहब! यह मोजा कितने दिनों का धुला हुआ है? यह तो छह महीने से धुला नहीं है। छह महीने से इसे पहने हुए हैं। धोती भी धुली हुई नहीं है। अत: धुली हुई धोती पहनिए, नहीं तो हवन में नहीं बैठने देंगे। नहीं साहब! इसमें क्या फरक पड़ता है? नहीं बेटे! अब हम इस तरह के यज्ञ नहीं करने देंगे।

पुरश्चरण यज्ञ है यह

मित्रो! इस साल के जो यज्ञ हैं, उनके साथ अब बहुत सी मर्यादाएँ लगा देंगे। अभी तो हमने इसमें केवल यह मर्यादा लगाई है कि जो जप करेगा, उसे ही हवन करने देंगे। गायत्री महापुरश्चरण के ये जो हवन हैं, इनकी विशेषता यह है कि इनमें हवन होने तक के लिए नियमित रूप से जप करने का जो संकल्प करेंगे, केवल वही शामिल हो सकेंगे, और कोई शामिल नहीं हो सकेगा। इसके लिए नियमित उपासना अनिवार्य है। यह इसकी रीढ़ है। हवन मुख्य नहीं है, सामग्री मुख्य नहीं है। यह पैसाप्रधान यज्ञ नहीं है। ये जनसहयोग के और श्रद्धा संकलन के यज्ञ हैं। यदि आप श्रद्धा का संकलन कर सकते हैं तो यज्ञ कर सकते हैं। जिन्होंने श्रद्धा का संकलन नहीं किया, उपासक नहीं बनाए तो आपका यज्ञ नहीं हो सकेगा। फिर आप यज्ञ को आगे बढ़ा लें। इसलिए यज्ञ का सारा नियंत्रण हमने अपने हाथ में लिया है। यह जीवंत यज्ञ है। यह हमारा पुरश्चरण यज्ञ है। हमारे गुरुदेव ने हमको पुरश्चरण का संकल्प दिया था और अब हम आपके हाथ में पुरश्चरण का संकल्प देते हैं और आपको दो-दो की टोलियों में वहाँ भेजते हैं, जहाँ आयोजन हो रहे हैं। आप वहाँ क्या करेंगे, वह हम कल बताएँगे।

लाभ क्या होंगे?

मित्रो! यह जो पुरश्चरण हो रहा है, उससे क्या फायदा होगा? पुरश्चरण से कई फायदे होंगे। एक फायदा तो अभी हमने आपको बताया है कि इससे वातावरण का संशोधन होगा। एक फायदा यह होगा कि हमारा गायत्री परिवार जो छोटा सा था, अब हमारा मन है कि इस वर्ष हम लंबी छलाँग लगाएंगे। इस वर्ष २४ लाख नए कार्यकर्ता बनाने का हमारा प्लान है। एक बार वे पकड़ में आ गए, तो भूत के तरीके से हम उनका पिंड छोड़ने वाले नहीं हैं। एक बार वह गायत्री परिवार का हो जाए, तो फिर या तो वह नहीं या फिर गायत्री नहीं है। दोनों में से एक रह सकता है। हमारी बड़ी महत्त्वाकांक्षा है कि अब गायत्री माता को वेदमाता नहीं, विश्वमाता होना चाहिए। पहले गायत्री वेदमाता थी, जब चारों वेद बने थे। फिर देवमाता हो गई। इस भारतभूमि का प्रत्येक नागरिक जनेऊ पहनने के समय पर गायत्री मंत्र लेता था। उसके बाद उसके चरित्र में ऐसा सुंदर निखार आता था कि प्रत्येक आदमी देवता कहलाता था। इस भारत के निवासी तैंतीस कोटि देवता कहलाते थे। तब गायत्री देवमाता थी। अब क्या होने जा रहा है? अब बेटे! प्रज्ञावतार होने जा रहा है। प्रज्ञावतार क्या है? कभी बताऊँगा, पर आज मैं कहता हूँ कि अब गायत्री माता विश्वमाता होने वाली है। भविष्यवाणी तो मैं नहीं करता, परंतु मेरा अपना विश्वास है कि इसके लिए २२ साल काफी होने चाहिए। यह सन् १९७८ है। २२ वर्ष बाद सन् २००० आने वाला है, सन् २००० तक हम यह छलाँग मारेंगे और इसको विश्वमाता बनाने में सफल होंगे। गायत्री माता विश्वमाता बनेगी। फिर बीस-बाईस वर्ष और लगेंगे स्थूलजगत में सतयुगी परिवर्तन आने हेतु। अतः अभी इंतजार तो करना ही होगा। बीज २००० तक डल जाएँगे।

गायत्री व यज्ञ सबके

मित्रो! नया युग, जो आने वाला है; नया संसार, जो आने वाला है; नया समाज, जो आने वाला है; नया मनुष्य, जो आने वाला है और उसके भीतर जो देवत्व का उदय होने वाला है और धरती पर स्वर्ग का अवतरण होने वाला है। इसके लिए सारे विश्व में गायत्री का आलोक, सविता का आलोक फैलने वाला है। हिंदुस्तान में? केवल हिंदुस्तान में नहीं, वरन सारे विश्व में; ब्राह्मण में ही नहीं, वरन पूरे मानव समाज में, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं, ईसाई भी शामिल हैं, सबमें गायत्री का प्रकाश फैलने वाला है। तो आप सबको गायत्री पढ़ाएँगे? हाँ बेटे! सबको पढ़ाएँगे। सूरज सबका है, चंद्रमा सबका है, गंगा सबकी है, हवा सबकी है, इसी तरह गायत्री भी सबकी है। गायत्री का जाति-बिरादरी से कोई ताल्लुक नहीं है। वह वेदमाता है, देवमाता है और विश्वमाता है। अगले दिनों इसको विश्वमाता तक पहुँचाने में हमारे जो पुरश्चरण हैं और इनमें जो सामर्थ्य है, उससे हम जनमानस को जाग्रत करेंगे। निष्ठावानों की संख्या बढ़ाएँगे। वातावरण को गरम करेंगे। गायत्री यज्ञों के माध्यम से हम लोक शिक्षण करेंगे। गायत्री के माध्यम से हम लोगों को नई विचारणाएँ देंगे। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों की हम व्याख्या करेंगे और मनुष्य जीवन से संबंधित, पारिवारिक जीवन, शारीरिक जीवन, मानसिक जीवन, भौतिक जीवन, हर तरह का जीवन-शिक्षण करेंगे। गायत्री में विचारणाओं का शिक्षण करने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। और क्या करेंगे? अगले दिनों यज्ञ का शिक्षण करेंगे। लोक-शिक्षण के दो आधार हैं—पहला है विचारों का परिष्कार और दूसरा है कर्म में शालीनता। व्यक्ति के जीवन में शालीनता, सज्जनता और शराफत, सामाजिक जीवन में श्रेष्ठ परंपराएँ अर्थात जीवन को श्रेष्ठ बनाना और समाज को परिष्कृत करना। विचार ऊँचे करना और अच्छे करना, यही प्रमुख लोक शिक्षण है, जिसे हम गायत्री और यज्ञ के माध्यम से करेंगे। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥