181. घरों में सुसंस्कारिता कैसे पनपे, फले फूले?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

परिवार में सुसंस्कारिता का प्रशिक्षण कराना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। किन्तु इस सन्दर्भ में प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं उपदेश का अवसर कम ही आने देना चाहिए। सुसंस्कार सम्वर्धन के लिए परोक्ष शिक्षण का प्रयत्न चलना चाहिए और घर का वातावरण ऐसा बनाना चाहिए जिसमें शालीनता झलके। धर्म का धार्मिकता माना जाने लगा है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। धर्म कर्तव्य पालन को कहते है। धार्मिकता, शालीनता के प्रति अन्तःकरण क्षेत्र की गहराई में उच्चस्तरीय आस्थाएँ जमाने और उन्हें परिपक्व करने की प्रक्रिया भर है। इसी के लिए अनेकानेक प्रथा परम्पराओं एवं कर्मकाण्डों का निर्धारण तत्व ज्ञानियों द्वारा किया गया है। यह पुण्य परम्पराएँ जहाँ भी सही रूप में चलती होगी वहाँ के निवासी अनायास ही उपयोगी प्रेरणाएँ प्राप्त करेंगे और चिन्तन तथा चरित्र में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ाते चलेंगे। परोक्ष शिक्षण की पद्धति व्यक्ति निर्माण जैसे प्रयोजनों में बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है। मुख से उपदेश देने की अपेक्षा वातावरण द्वारा उपयोगी तत्वों को ग्रहण करने का अवसर मिलता रहे तो वे उपलब्धियाँ अन्तराल की गहराई तक उतर जाती है और चिरस्थायी बनती है। घर का वातावरण इसी प्रकार का बनाना चाहिए जिसे धार्मिक कहा जा सके। सुसंस्कारिता ऐसी ही परिस्थितियों में पनपती और फूलती फलती है। दूरदर्शिता इसी में है कि घर के वातावरण में धार्मिकता का ऐसा वातावरण बनाया जाय कि आत्मवादी आस्थाएँ सहज गति से पनपती रहें। परिजनों के उज्ज्वल भविष्य में यह प्रयास असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। परामर्श, उपदेश एवं प्रशिक्षण की तीनों ही आवश्यकताएँ वैसे वातावरण में पूरी होती रहती है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए पाँच उपचार हर सद्गृहस्थ के यहाँ चलते रहने चाहिए।

परिवारों का धार्मिक वातावरण बनाने में सहायता करने वाले पाँच प्रचलन मुख्य हैं- (१) नमन वन्दन (२) यज्ञीय आचरण (३) सहगान, स्वाध्याय, (४) अंशदान (५) कथा श्रवण। इन पाँचों को सरलतापूर्वक हर घर में सम्पन्न किया जा सकता है। और इसका श्रेयस्कर प्रभाव अविलम्ब देखा जा सकता है।

(१) नमन वन्दन-आस्तिकता ईश्वर विश्वास मनुष्य पर एक ऐसा अंकुश है जिसमें उसे दुष्कर्मों का प्रतिफल देर सबेर से मिलने का भय बना रहना है। साथ ही यह भी निश्चय रहता है कि नियामक सत्ता आज नहीं तो कल परसों सत्कर्मों का परिणाम प्रदान करेगी। भले बुरे कर्मों का तत्काल फल न मिलते देखकर लोगों का मन कर्मफल के बारे में अनिश्चित हो जाता है फलतः न तो दुष्कर्मों से डरते है और न सत्कर्मों के सम्बन्ध में उत्साहित होते है। ईश्वर के अस्तित्व और उसके कर्मफल विधान की निश्चिन्तता पर विश्वास दिलाना आस्तिकता का प्रथम उद्देश्य है। सच्ची आस्तिकता की चरित्र निष्ठा डगमगाने नहीं पाती।

उपासना का लक्ष्य है-ईश्वर की महानता के समीप पहुँचना, घनिष्ठ बनना। अर्थात् अपने चिन्तन और चरित्र में ईश्वरीय विशेषताओं को भरते बढ़ाते चले जाना। ईश्वर विराट है। उसकी उपस्थिति प्राणिमात्र में कण-का में अनुभव करते हुए चेतना के प्रति सद्भाव रखना सद्व्यवहार करना साथ ही पदार्थ सम्पदा को ईश्वर को ईश्वर की अमानत मानकर उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना यह ही है वे प्रतिक्रियाएँ जो उपासक के अन्तःक्षेत्र में स्वाभाविक रूप से उभरनी चाहिए। आस्तिकता के दो प्रतिफल हैं, चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा।

आस्तिकता के नाम पर प्रचलित भ्रान्तियों का निराकरण और तथ्य से अवगत कराने का प्रयत्न नये सिरे से करना होगा और पुरातन ईश्वर विश्वास को जन जन के मन मन में जगाना होगा। उपासना का क्रिया कृत्य करने के लिए हर व्यक्ति को प्रेरित किया जाना चाहिए। भले ही वह न्यूनतम ही क्यों न हो। इस संदर्भ में नमन वन्दन सबसे छोटा और सील कार्यक्रम ही। गायत्री युग शक्ति है उसी का प्रज्ञावतरण सामयिक समस्याओं का समाधान और उज्ज्वल भविष्य का सूत्र संचालन करेगा। गायत्री की ऋतम्भरा प्रज्ञा सार्वभौम और सर्वजनीन है। सद् विचारणा और सद्भावना की अधिष्ठात्री गायत्री माता की अभ्यर्थना ही युग साधना है। इसके लिए देव परिवारों को अपने घर के सभी परिजनों को अभ्यस्त करना चाहिए। जो अधिक समय गायत्री उपासना कर सके वे वैसा करें अन्यथा इतना तो किया ही जाना चाहिए कि नित्य कर्म के उपरान्त घर का हर सदस्य प्रतिष्ठापित गायत्री माता के चित्र के सम्मुख हाथ जोड़कर आँख बन्द करके मानसिक जप और आत्म संस्थान में प्रकाश के अवतरण का ध्यान करें। इसके बाद ही भोजन एवं अन्य कर्म किये जाये।

नमन वन्दन का दूसरा स्वरूप यह है कि घर के छोटे लोग अपने से बड़ों का अभिवादन करे। जिन्हें चरण स्पर्श में संकोच न पड़ता हो वे वैसा करें अन्यथा हाथ जोड़कर नमस्कार करना तो अनिवार्य ही हो। भूल जाने पर बड़े भी छोटों को अभिवादन करें। इसमें बड़ों के सम्मान करने एवं वरिष्ठों का अनुशासन मानने का भाव है।
(२) यज्ञीय आचरण-यज्ञ अर्थात् पवित्र परमार्थ। जीवन यज्ञ अर्थात पवित्र जीवन। परमार्थ परायणता का लक्ष्य। अग्निहोत्र में अपने प्रिय पदार्थों के लोक-कल्याण के लिए वायु मण्डल में बिखेरने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। परमार्थ प्रवृत्ति का प्रतीक मानकर समय, श्रम एवं सद्भाव समर्पण ही प्रकारान्तर से यज्ञीय कर्मकाण्ड का सार तत्व है। इस देव प्रवृत्ति को जन जन में जगाया जाना चाहिए और उसका प्रतीक पूजन अपने परिवारों से आरम्भ करना चाहिए। बलिवैश्व परम्परा को दैनिक धर्म कृत्य माना है। उसका प्रचलन इन दिनों लुप्त प्रायः हो गया है। हमारे परिवार से उसका पुनर्जीवन आरम्भ होना चाहिए।

चौके में जब भोजन तैयार हो जाय तो खाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हें में से अग्नि बाहर निकालकर प्रज्ज्वलित की जाय और रोटी की छोटे छोटे टुकड़े जो जितने आकार के घी और शक्कर मिलाकर गायत्री मन्त्र उच्चारण करते हुए पाँच बार में हवन कर दिये जाय। बाद में जल अंजलि की परिक्रमा उस अग्नि के चारों ओर परिक्रमा रूप में घुमा दिया जाय। इस अग्नि को पवित्र माना जाय। बुझने पर भस्म को सुरक्षित रख लिया जाय और सुविधानुसार किसी पवित्र जलाशय में विसर्जित कर दिया जाय। यही है बलिवैश्व अग्निहोत्र की सरल प्रक्रिया जिसे महिलाएँ बड़ी आसानी से बिना किसी अड़चन के अपने घरों में नियमित रूप से करती रह सकती हैं। इसमें खर्च कुछ नहीं किसी प्रकार का झंझट भी नहीं। इस पुनीत प्रक्रिया में भाव भरा आदर्श यह सन्निहित है कि यज्ञीय परम्परा का परिपोषण करने में इस परिवार की सुनिश्चित आस्था है।

भगवान को भोग लगाकर तब प्रसाद ग्रहण की परम्परा भारतीय संस्कृति का अंग है। कमाना अपना पुरुषार्थ है, पर खाने से पूर्व विराट ब्रह्म की विशाल विश्व की आवश्यकता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। उपार्जन का समर्पण भगवान की सत्प्रवृत्तियों को। बचा हुआ निर्वाह अपने लिये। यही है ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का सार निष्कर्ष।
गायत्री को भारतीय संस्कृति की माता और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। दोनों की अभ्यर्थना अपने परिवारों में नियमित रूप से होनी चाहिए। नमन वन्दन के माध्यम से गायत्री उपासना का न्यूनतम क्रियाकलाप सम्पन्न होता है और बलिवैश्व की पाँच आहुतियों द्वारा यज्ञदेव की अभ्यर्थना की जाती है। भगवान पहले पीछे का तात्पर्य है आदर्श पहले समाज पहले। उसके उपरान्त निर्वाह एवं उपभोग।

बलिवैश्व का नन्हा सा क्रिया कृत्य भोजन बनाने वाली एक महिला एक मिनट समय में पाँच रत्ती सामग्री हवन करके पूरा कर देती है, पर उस भावना से परिचित हर किसी को होना चाहिए। समय समय पर बलिवैश्व की, यज्ञ दर्शन की व्याख्या विवेचना होनी चाहिए और अपनी परम्परा में उस दर्शन की प्रमुखता रहने की स्मृति रहने की प्रेरणा मिलती रहनी चाहिए।
बलिवैश्व की पाँच आहुतियाँ पारिवारिक पंचशीलों के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। पंचशील में सुव्यवस्था, नियमितता, सहकारिता, प्रगतिशीलता, शालीनता हैं। इनकी विवेचना अन्यत्र की जा रही है। भोजन को पेट में अवस्थित वैश्वानर भगवान तक पहुँचाने से पूर्व हर सदस्य पाँच बार गायत्री मन्त्र का मौन रूप से या उच्चारण पूर्वक पाठ कर लिया करे। यह भी मानसिक अग्निहोत्र एवं बलिवैश्व का ही प्रतीक है।

(३) सामूहिक प्रार्थना आरती सहगान-सामूहिक प्रार्थना का क्रम हर घर में चलना चाहिए। एकाकीपन का स्थान हर क्षेत्र में सामूहिकता को लेना चाहिए। मिल जुलकर किये गये कार्य हर दृष्टि से अधिक प्रभावी और अधिक सफल होते हैं। यह दृष्टि उपासना के सन्दर्भ में भी रखी जाय। एकाकी उपासना के अतिरिक्त सामूहिक प्रार्थना में भाग लेना भी आवश्यक समझा जाय।
प्रातःकाल जल्दी उठने की आदत पड़ सके तो सामूहिक प्रार्थना आरती एवं सहगान में से तीनों का या एक दो की जो व्यवस्था बन सके वह बनानी चाहिए। यह कार्य सूर्योदय से पूर्व ही हो जाने का है। यही बात सायंकाल के सम्बन्ध में भी है। तीनों में से एक एक दो या तीनों की करने में जहाँ जैसी सुविधा हो वहाँ वैसा करना चाहिए। सूर्य अस्त होने के उपरान्त सोने तक के समय में से जो जहाँ अनुकूल पड़े निर्धारित रखा जा सकता है। आरती की विधि सब को मालूम हैं, उसमें अधिक आवाज करने वाले शंख, घड़ियाल, झाँझ आदि या कम आवाज करने वाले घण्टी, मंजीरा आदि का उपयोग हो सकता है।

(४) स्वाध्याय का ज्ञानयज्ञ-काया को भोजन मस्तिष्क को स्वास्थ्य और अन्तःकरण को उपासना का अवसर देने से सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीर का परिपोषण होता है। तीनों को ही खुराक मिलती रहे इनमें से एक भी भूखा न रहने पाये ऐसा प्रबन्ध हर घर में रहना चाहिए। स्वाध्याय को ज्ञान यज्ञ कहा गया है। प्राचीन काल में उच्चस्तरीय सत्संग भी सर्व सुलभ था, पर अब न वैसे लोग रह गये है और न समय सम्बन्धी सुविधा है। फिर प्रेस विस्तार ने साहित्य के माध्यम से वह प्रयोजन और भी सरल कर दिया है। अपने घरों में युग साहित्य को स्वाध्याय का आधार माना जाय और उसके लिए नियमित समय निकाला जाय उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखा जाय। इसके लिए घर में एक छोटा पुस्तकालय चले और उसका लाभ हर सदस्य उठाये। पढ़े लिखे परिजन अपनी सुविधा के समय न्यूनतम आधा घण्टा स्वाध्याय के लिए किसी न किसी प्रकार समय अनिवार्य रूप से निकालें। इसे भोजन की तरह ही आवश्यक समझें और भजन के समतुल्य मानते हुए उसे जीवन चर्चा में प्रमुखता दें। जो बिना पढ़े है उन्हें युग साहित्य को पढ़े लिखे सदस्य पढ़कर सुनाया करें। भाषा की जटिलता एवं उच्च विचारों को न समझ पाने की कठिनाई को सरल भाषा में व्याख्या करके समझाया जा सकता है।

युग निर्माण मिशन के हर कर्मठ कार्यकर्ता को परिवार निर्माण के लिए घरेलू ज्ञान मन्दिर स्थापित करने के लिए ज्ञानघट की स्थापना करने का अनुरोध आरम्भ से ही किया जात रहा है। मिशन के प्रति आस्था परिपक्व होने का प्रमाण घर में ज्ञान मन्दिर की घरेलू ज्ञान मन्दिर की स्थापना को मान गया है। पूजा कक्ष की जितनी उपयोगिता है उतनी इस ज्ञान मंच की भी है। सद्ज्ञान को अपनाने की प्रेरणा ही ज्ञानयज्ञ अभियान का प्रथम चरण है।

ज्ञान घटों की स्थापना और उस राशि से घरेलू पुस्तकालयों की स्थापना को मिशन की सक्रिय सदस्यता का अनिवार्य शुल्क माना गया है। उपयोगिता न समझ पाने के कारण इस सन्दर्भ में जहाँ भी अब तक उपेक्षा बरती गई हो वहाँ अब इस प्रौढ़ता की अवधि आने पर अन्त होना ही चाहिए। हमारे हर घर में ज्ञानघट निश्चित रूप से रखे जाय। उस पैसे से हर महीने युग साहित्य खरीदा जाय।
(५) सत्संग कथा श्रवण-सत्संग की महिमा शास्त्रकारों ने विस्तार पूर्वक गाई है। कथा श्रवण का पुण्य सर्वविदित है। धर्म क्षेत्र में इनकी चर्चा भी होती रहती है, पर इनका उपयुक्त अवसर कभी कभी ही आता है। सो भी उसमें ऐसी सड़ी गली वस्तुएँ मिलती है जिन्हें गले उतारने वाले उलटा भ्रम में फँसता और अस्त व्यस्त बनता है। इन परिस्थितियों में निमित्त सत्संग और सुनियोजित कथा, श्रवण का समावेश इसी एक प्रक्रिया में सम्भव हो सकता है कि रात्रि की कथा कहने और कथा सुनने की परम्परा आरम्भ की जाय।

बच्चों को कहानियाँ सुनने का शौक होता है। इसमें मनोरंजन और उच्चस्तरीय प्रशिक्षण के दोनों तत्व है। प्राचीन काल में वृद्धाएँ घर के बालकों को कथा, कहानियाँ नियमित रूप से सुनाती थी उसके माध्यम से कोमल मनों पर सुसंस्कारिता की स्थायी छाप पड़ती थी। देखने में नानी की कहानी बाल और वृद्धों का मनोरंजन भर हैं, पर वास्तविकता यह है कि यदि इस कथा, श्रवण को उद्देश्यपूर्ण बनाया और सुनियोजित किया जा सके तो उसका सत्परिणाम हर दृष्टि से श्रेयस्कर हो सकता है।

पंचतन्त्र नामक कथा ग्रन्थ का निर्माण उद्दण्ड राजकुमारों को विनोद और शिक्षण का समन्वय करके सत्शिक्षण गले उतारने के लिए किया गया था वह पूर्णतया सफल हुआ। उसी प्रक्रिया को घरों में कथा प्रचलन कि माध्यम से हर घर में पुनर्जीवित किया जा सकता है। व्यक्ति सम्पर्क से चलने वाले सत्संग की यह अति सरल किन्तु चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया है।
घर की कोई सुयोग्य महिला इस उत्तरदायित्व को उठाये। समय नियत रहे। एक दो कथा कहानियाँ नियमित रूप से कहने की शैली में मनोरंजन और विषय में प्रभावोत्पादक तत्व होंगे तो न केवल वरन् बड़ी आयु के भी सब लोग उसे चाव पूर्वक सुनेंगे। मासिक युग निर्माण योजना में दस वर्ष तक प्रेरक जीवन गाथाएँ छपती रही है, उन अंकों को इधर उधर से संग्रह किया जाय और उनमें छपे प्रसंगों को कथा रूप में कहा जा सकता है। युग साहित्य में सस्ते जीवन चरित्र भी इसी उद्देश्य के लिए छापे गये थे। प्रायः एक घण्टे में एक पुस्तिका भली प्रकार सुनाई जा सकती है। इस तरह कथा साहित्य की आरम्भिक आवश्यकता इस प्रकार पूरी हो सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

182. समाज की समग्र प्रगति का आधार नारी उत्थान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जिन मनीषियों ने मानव समाज की रचना और नृतत्व विज्ञान पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया है उन्होंने नर-नारी की स्थिति एवं महत्ता समान बतलायी है, दोनों को एक बराबर महत्त्व दिया है। क्योंकि दोनों में से एक के बिना समाज का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता और न जीवन सुविधा पूर्वक व्यतीत हो सकता है। पर वास्तविक स्थिति में यह विचार कार्य रूप में परिणत होता दिखाई नहीं देता, वरन् समाज की गति इसके विपरीत ही दिखाई पड़ती है। दुर्भाग्य से हमारे देश की हालत यह है कि नारी को पुरुष की अपेक्षा सब प्रकार से हीन और उसके आश्रित मान लिया गया है। यद्यपि मनु जैसे प्राचीन विचारक और स्मृतिकार स्त्रियों को बहुत पूजनीय बतला गये हैं और उनका सदैव आदर सम्मान करते रहने की आज्ञा दे गये हैं, पर आज उन बातों पर किसी को अमल करते नहीं देखा जाता। नर और नारी दोनों अपनी वास्तविक स्थिति और कर्तव्यों को भुला बैठे हैं और इसलिए दुःख तथा कठिनाइयों में फँसकर अवनति के पाश में जकड़े हुए हैं।

भारत के प्राचीन अध्यात्म विज्ञान के अनुसार आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने के लिए ही नर नारी का आविर्भाव हुआ है, और दोनों में कुछ ऐसे पृथक-पृथक गुणों का विकास किया गया है कि जिनके सम्मिलन से सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की जा सकती है। शास्त्रों के मतानुसार पुरुष में जिन शक्तियों का विकास हुआ है, उनमें ज्ञान, बल, तेज की प्रधानता है और नारी को जो शक्तियाँ प्रदान की गई हैं उनमें श्रद्धा, भक्ति, सेवा की प्रमुखता है। ये दोनों ही प्रकार के गुण मानव समाज की प्रगति और उन्नति के लिये अनिवार्य है। यही कारण है कि जब तक स्त्री और पुरुष अपने-अपने कर्तव्यों का यथोचित रीति से पालन करते रहते हैं, जब तक समाज में सुख, सन्तोष, शक्ति, प्रगति के दृश्य दिखाई देते रहते हैं और सब प्रकार की अमंगल जनक परिस्थितियाँ टलती रहती हैं। पर इसके विपरीत जहाँ वे अपने स्वाभाविक कर्तव्यों को भूल जाते हैं और एक दूसरे के अधिकारों का अन्याय पूर्वक अपहरण करने की चेष्टा करते हैं, वहाँ तरह-तरह की कठिनाइयाँ, आपत्तियाँ और क्लेश ही उत्पन्न होते हैं और समाज अवनति की ओर अग्रसर होने लगता है।

जिस प्रकार नर और नारी में पारस्परिक प्रतियोगिता एक दूसरे के अधिकारों तथा कर्तव्यों पर हस्तक्षेप अप्राकृतिक और समाज हित के लिए घातक है, उसी प्रकार नारी को नर की अपेक्षा हीन अथवा घटिया समझने की प्रवृत्ति भी असत्य और सर्वथा त्याज्य है। यह ठीक है कि बहुत समय से संसार के एक बड़े भाग में पुरुष का कार्यक्षेत्र घर के बाहर रहा है और स्त्री को घर के भीतर ही रहकर अपने कर्तव्य का पालन करना पड़ा है। इसके परिणाम स्वरूप पुरुष में शारीरिक, शक्ति साहस, पुरुषार्थ, सूझबूझ, बुद्धिमत्ता का विशेष रूप से विकास हो गया है। इसके विपरीत नारी का मुख्य कार्य सन्तानोत्पादन तथा शिशु पालन रहा है, जिसमें उसे एक प्रकार की साधना और तपस्या का जीवन बिताना पड़ा है। सन्तान के लिये माता को कितना त्याग करना पड़ता है और अनेक बार बलिदान तक कर देना पड़ता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। नारी का केवल यही एक गुण इतने महत्त्व का है, जिसके कारण पुरुष को उसके सामने सदैव नतमस्तक रहना चाहिए और कभी उसके हीनत्व की भावना को मन में उठाना भी न चाहिए। यदि नारी आज शारीरिक शक्ति, विद्या, बुद्धि में कुछ पिछड़ी हुई दिखाई देती है तो इसका कारण यही है कि उसने अपनी समस्त शक्ति और साधनों को पुरुष के उच्च निर्माण में लगा दिया है। इस स्थिति में उसमें हीनात्मा की कल्पना करना विवेक शून्यता के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।

साथ ही यह भी प्रत्यक्ष है कि जहाँ कहीं अवसर मिला है, आवश्यकता पड़ी है, अनेक नारियों ने बड़े से बड़े कार्यों को पूर्ण योग्यता से कर दिखाया है। उस समय उनकी शक्ति, प्रतिभा और योग्यता का लोहा पुरुषों को भी मानना पड़ा है। विदेशों की बात तो छोड़ दीजिए, यहाँ किसी समय नारियों के राज्य भी कायम थे और वे पुरुषों को अपने नियन्त्रण में उसी प्रकार रखती थी और अब तक भी रखती हैं जिस प्रकार हमारे यहाँ स्त्रियों को रखा जाता है। हमारे देश में भी समय-समय पर ऐसी नारियाँ होती आई हैं, जिन्होंने आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से भी अधिक शौर्य, वीरता, बुद्धिमत्ता, आध्यात्मिकता का परिचय दिया है और इस प्रकार यह सिद्ध कर दिया है कि वास्तव में नारी किसी दृष्टि से हीन नहीं है, वरन् उसने समाज के कल्याण, हित, सुव्यवस्था के लिए वर्तमान स्थिति को स्वीकार किया है। इसके लिए समाज को उनका सदैव कृतज्ञ होना चाहिए, उनके दर्जे को किसी प्रकार नीचा समझने की बात तो घोर मूर्खता और अज्ञान की परिचायक ही है।

फिर भी संयोग और परिस्थितियों के कारण वर्तमान समय में हमारे देश में नारियों की जो स्थिति है, वह न तो उनके लिये शोभनीय और सुखद है और न समाज के लिए सम्मानजनक और कल्याणकारी है। आज अधिकांश पुरुषों की यही धारणा बन गई है कि नारी का स्थान केवल घर के भीतर है और उसका काम पुरुष की कामुकता की भूख को शान्त करना, सन्तान पालन, भोजन बनाना तथा घर की सेवा के अन्य कामों को करना है। वे यह भी समझते हैं कि चूँकि पुरुष धन कमाकर लाता है, इसलिये स्त्री उसकी आश्रित है और उसे उसकी प्रत्येक आज्ञा को बिना ननुनच किये मानना चाहिए। कितने ही लोग तो स्त्री का धर्म ही यह बतलाते हैं कि सब प्रकार के सुख-दुःख, मान अपमान व कष्टों को सहकर भी वह पति व परिवार की सेवा में पूर्णतया संलग्न रहे। ऐसे पुरुषों की भी कमी नहीं है, जो स्त्रियों को बहुत दबाकर, कठोर नियंत्रण में रखने के पक्षपाती हैं। जिससे उनमें अधिकारों का अथवा आत्म सम्मान का भाव पैदा न हो जाय और वे उनके अन्यायों का विरोध न करने लगें।

इस प्रकार की विचारधारा का परिणाम यह हुआ है कि इस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ अत्यन्त दुर्दशा को प्राप्त हो गई है। उनको सैकड़ों वर्षों से पर्दे के भीतर कैदी की तरह रखा जाता है, उनको पढ़ना लिखाना बुरा समझा जाता है, जिससे उनका साँसारिक ज्ञान बहुत कम रह जाता है और अवसर पड़ने पर वे अपने आवश्यक कामों को ठीक ढंग से पूरा करने में असमर्थ रहती है। यदि पति की असामयिक मृत्यु हो जाय तो ऐसी स्त्रियाँ उनके चलते हुए कारोबार, व्यापार, जायदाद आदि की स्वयं व्यवस्था नहीं कर सकती। उनको विवश होकर किसी पास के या दूर के पुरुष सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ता है, जो प्रायः उनको लूटकर अपना घर भरने का ही प्रयत्न करते हैं। इतना ही नहीं, समयोचित ज्ञान के अभाव और मानसिक संकीर्णता के कारण वे अपने परिवार तथा घर की उचित व्यवस्था भी नहीं कर पाती। प्रायः पारस्परिक झगड़ों, वस्त्राभूषणों में अन्य लोगों की प्रतियोगिता, दिखावटी रीति रस्मों में अंधाधुन्ध खर्च करके वे घर की आर्थिक स्थिति को निर्बल बना देती है। अज्ञान और अविद्या के कारण ही वे सब प्रकार के अन्ध-विश्वासों में अधिक फँसती है तथा पण्डित, पुजारी, स्याने, ओझा आदि के चक्कर में पड़कर हर तरह से ठगी जाती हैं। इस प्रकार वे स्वयं तो दुखी पीड़ित होती ही है साथ ही सब घर की हानि और कष्टों में भी वृद्धि करती है, पर जिस अज्ञान तथा अंधकार की दशा में उसको रख गया है, उसमें इसके सिवा उनसे अन्य प्रकार की आशा भी कैसे की जा सकती है।

सर्वांगीण प्रगति से ही हमारा शरीर समुन्नत हो सकता है। यदि शरीर के विभिन्न अंग एक साथ उन्नति न करें या कोई अंग बिल्कुल अछूता ही रहे तो शरीर कुरूप बन जावेगा, उसकी कीमत गिर जावेगी और संतोषजनक परिणाम सम्भव नहीं होगा। जैसे पैरों में एक पैर मोटा और एक पैर पतला हो जावे तो क्या वह आदमी अपने जीवन में उन्नति कर पावेगा, कदापि नहीं। उसी प्रकार धन का भी है, धन से भौतिक वस्तुओं का खरीदना सम्भव है, लेकिन व्यक्तित्व नहीं खरीदा जा सकता। परिवार में आर्थिक उपार्जन कर लिया जाता है और सम्भव भी है लेकिन उसके साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो वह धन मात्र कलंक की जड़ बन जावेगा और परिवार को गर्त में गिरा देगा।

धन की उपयोगिता है। यह हमारे जीवन में आवश्यक भी है। धनोपार्जन किये बिना हम उन्नति नहीं कर सकते। लेकिन धन केवल जीने के लिये है न कि संचय के लिये। यदि धन इसके बावजूद भी कुछ बचा रहता है तो उसके सदुपयोग की बात सोचनी चाहिए। कहा गया है कि सौ हाथों से धनोपार्जन कर और हजार हाथों से दान कर। धन कमाना सरल है, लेकिन उसका सदुपयोग करना अति दुस्तर काम है। अमीर लोगों के पास धन है, लेकिन कष्टमय जीवन व्यतीत करते हैं, उनके वारिस उन्हें सुख शान्ति से नहीं रहने देते। कारण स्पष्ट है कि उन्होंने धन कमाना ही सीखा है, उसका सदुपयोग करना नहीं सीखा। उनको तथा हर अमीर परिवार के मुख्य सदस्य को चाहिए कि धनोपार्जन के साथ-साथ पारिवारिक उन्नति पर भी खर्च करें। मात्र कॉलेज पढ़ाकर उनका कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता, भले ही उनके बाल-बच्चे पढ़कर नौकरी प्राप्त कर लें। लेकिन सच्चे नागरिक कॉलेज की पढ़ाई से नहीं बन सकते। व्यक्ति निर्माण के लिये नारी उत्थान की आवश्यकता है, तभी परिवार निर्माण व समाज निर्माण सम्भव है। परिवार के सदस्य मूर्ख है तो धन की उपयोगिता न जानकर दुरुपयोग कर रोग, अपकीर्ति, कलह एवं पापाचारों को ही प्रोत्साहन देंगे और दण्ड पाने के उत्तराधिकारी रहेंगे।

हम देखते हैं कि नारी के बिना परिवार उसी प्रकार का है जिस प्रकार पंच तत्व से विनिर्मित यह शरीर प्राण के बिना हो जाता है। अर्थात् नारी परिवार के लिए प्राण के समान है। लेकिन हमने आज उसे मात्र दासी की श्रेणी में रखा है, भोग्या मानकर उसकी उपयोगिता को सीमित कर दिया है, अछूत मानकर उसे समाज में स्थान नहीं दिया है। हमने नारी के प्रति क्या क्या अत्याचार नहीं किये है? नारी को अबला की श्रेणी में रखकर उसका अपमान किया है। हम अपने शरीर का आधा अंग बेकार कर चुके हैं और मूर्ख के समान सुख की कल्पना करते हैं। यदि हमें अपना हित करना है, परिवार एवं समाज तथा विश्व का कल्याण करने की कल्पना करनी है, तो नारी को अपने समान स्तर पर पाकर ही कर सकते हैं। नारी उत्थान करके ही हम विश्व के कल्याण की बात सोच सकते हैं।

प्राचीन काल में नारियों को कितना अधिक गौरव प्राप्त था, नारी वर्ग ने अपना योगदान समाज कल्याण के लिए पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर दिया है। उन्होंने स्वयं ही वेद मन्त्रों का प्रतिपादन किया है। लेकिन आज हम स्त्रियों को वेद मन्त्रों से दूर रखने की चेष्टा करते हैं यह कितनी विडम्बना है? हमें भगवान के नियम का उल्लंघन नहीं करना है और नारी वर्ग को समान अधिकार प्रदान कर साथ-साथ चलने को बाध्य करना है। पहिले हमारे देश में नर रत्न पैदा हुआ करते थे। अभिमन्यु जिन्होंने अपने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह तोड़ने की विधि का ज्ञान कर लिया था। आज हम यह भी मानते हैं कि माता के ही कारण उसके पेट का नन्हा सा बालक जीवित रहता है, अपना पोषक तत्व माँ के शरीर से ही प्राप्त करता है और हम बच्चे की माँ के रहन-सहन एवं खान-पान पर विशेष ध्यान देते हैं।
आज हमें राम, कृष्ण, अभिमन्यु, हनुमान आदि की आवश्यकता है तो हमें कौशल्या, देवकी, सुभद्रा और अञ्जनी जैसी माताओं की भी तलाश करनी होगी और वह तभी सम्भव है जब हम नारी वर्ग को विकसित करें। आज की नारी श्रवणकुमार, भरत, लक्ष्मण जैसे पुत्र पैदा करने में असमर्थ है और इसका एकमात्र कारण है नारी वर्ग को विकसित न होने देना। जब नारी ही समुन्नत नहीं है तो सुसन्तान की प्राप्ति मात्र ख्वाब ही होगा, जो कभी पूरा होने वाला नहीं है।

नारी उत्थान को प्रथम स्थान देना अति आवश्यक है, क्योंकि नारी के विकास से सभी समस्याएँ स्वयं ही हल हो जायेंगी। भिक्षुक समस्या को ही ले लीजिए। भिक्षुकों की पैदाइश जन्मजात नहीं होती। माँ यदि अशिक्षित है संस्कार रहित है तो उसका बच्चा भी कुसंस्कारी ही होगा और माँ को भी गर्त में गिरा डालने की भावना रख सकता है। हमें रूढ़िवादी प्रथाओं को मिटाना होगा, यदि हम सच्चे मायने में माता, बहिन, पत्नी को सुख देने की चाह रखते हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि हमारे मरने के बाद पत्नी, बेटी जो कभी घर से बाहर नहीं निकली उनकी क्या दशा होगी? सम्पत्ति दो दिन की मेहमान है, कल चली जायेगी। पुरुषार्थी का ही संसार में रहना योग्य है। अस्तु नारी वर्ग को पर्दा प्रथा से दूर रखना चाहिए। प्राणिमात्र के लिए सारा विश्व एक परिवार के समान है, अतः पर्दा करने की तनिक भी जरूरत नहीं है। नारी वर्ग को इतनी तो कोशिश करनी ही चाहिए कि समयानुकूल नारी अपने पैरों पर खड़ी हो सके और दूसरों के सामने हाथ न फैलाना पड़े।

दहेज प्रथा भी नारी वर्ग के लिये एक अत्याचार है। नारी अशिक्षित है, आत्म-निर्भर नहीं है तो शादी करने वाला वर पक्ष दहेज माँगता है, यह कितनी शर्म की बात है? हमें चाहिए कि नारी उत्थान के कदम बढ़ायें। प्रत्येक मनुष्य अपने घर के नारी वर्ग को सुशिक्षा प्रदान करे, तभी दहेज प्रथा को जड़ से नष्ट किया जा सकता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि नारी उत्थान का महत्त्व अथाह समुद्र के समान गहरा है। उसके विषय में जो भी कहेंगे थोड़ा ही है। लेकिन मुख्य बात यह है कि हमें आज ही से नारी जागरण का कार्य शुरू कर देना चाहिए तभी विश्व कल्याण कर सकना सम्भव हो सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

183.

184. सृजन की देवी को कलंकित न करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

किसी प्राणी या पदार्थ की उपयोगिता कितनी है उसी आधार पर उसका मान होता है। मूल्यांकन की यही कसौटी है। उपयोगिता विदित न होने पर बहुमूल्य पदार्थ भी उपेक्षित स्थिति में पड़े रहते हैं। अनजान के लिए बहुमूल्य रत्न राशि भी पाषाण खण्डों की तरह उपेक्षित रहती है। इसी प्रकार उपयोगिता गँवा बैठने पर भी एक समय की सम्मानास्पद स्थिति दूसरे समय में अवमानना के स्तर तक जा पहुँचती है। दुधारू और जराजीर्ण गाय के बीच जो अन्तर किया जाता है उसे देखते हुए यह अनुमान लगाने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि संसार में मान और महत्त्व दिये जाने का मापदण्ड क्या है?

नारी की वर्तमान दुर्गति के भी यही दो कारण है। उसे ससुराल की कृपा पर जीवित रहने एवं उनके अनुग्रह पर गुजर करने वाला एक ऐसा निरीह प्राणी समझा जाता है, जिसे यह लाभ प्राप्त करने के लिए अपने पालन कर्ताओं का हर उचित अनुचित आदेश शिरोधार्य करना ही चाहिए। इसमें आनाकानी करने पर प्रताड़नाओं का दण्ड ही भुगतना पड़ता है। इतना ही नहीं यदि पालनकर्ता उसे कभी नापसन्द कर बैठे तो उसे आश्रय लाभ से भी वंचित होना पड़ेगा।

विचारणीय है कि क्या नारी वस्तुतः इतनी निरुपयोगी है जिसे अपनी माँसलता को बेचकर ही पालन कर्ताओं का अनुग्रह प्राप्त हो सके? स्थिति वस्तुतः वैसी है या नहीं यह दूसरी बात है। पर जब तलक लोक मान्यता यही बनी रहेगी, तब तक उसका सही मूल्यांकन न हो सकेगा और जिसका कुछ मूल्य ही नहीं समझा गया उसे मान देना या ऊँचा उठाने की आवश्यकता भी कौन अनुभव करेगा?

पाकशाला का उत्तरदायित्व नारी संभालती है। कच्चे खाद्य पदार्थ को परोसी गई रसोई की स्थिति तक पहुँचाने में नारी का श्रम ही नियोजित होता है। देखा यह जाना चाहिए कि बाजार में कच्चे खाद्य पदार्थ तथा पके भोजन के मूल्य में कितना अन्तर है। पकी रसोई की थाली बाजार में इन दिनों दो रुपये से कम नहीं मिलती जबकि उसमें कच्ची खाद्य सामग्री एक रुपये से अधिक की नहीं होती। एक रुपया इसमें श्रम और व्यवस्था का जुड़ा हुआ है। यही बात चाय आदि के सम्बन्ध में है। चाय इन दिनों चालीस पैसे की मिलती है जबकि उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थ का मूल्य बीस पैसे से अधिक नहीं होता। बीस पैसा श्रम व्यवस्था का मूल्य है। हर सदस्य कम से कम दो बार भोजन करता और दो बार चाय पीता है तो उसमें दो रुपया चालीस पैसा श्रम लगा। घर में छः आदमी हो तो यह श्रम प्रायः पन्द्रह रुपया प्रति दिन का जा पहुँचता है। यदि यह छः व्यक्ति होटल में चाय भोजन करें तो उन्हें पन्द्रह रुपया खाद्य सामग्री और पन्द्रह रुपया प्रतिदिन पारिश्रमिक देना होगा। नारी घर में होटल चलाने लगे तो उसे बाजार भाव से पन्द्रह रुपया पारिश्रमिक प्रतिदिन मिलना चाहिए। उसके इस श्रम का आर्थिक मूल्यांकन यदि किया जा सके तो प्रतीत होगा कि नारी को जो भरण पोषण दिया जाता है वह अनुग्रह नहीं वरन उसके पारिश्रमिक का अत्यन्त स्वल्प मूल्य है। होटल में नियत समय पर ही भोजन मिलता है वह हर समय खुला नहीं रहता फिर अपनी मर्जी की वस्तुएँ बनाकर देने के लिये भी वह बाधित नहीं। चाहे जिस समय चाहे जो वस्तु बनाकर देने के लिए चौबीस घण्टे ड्यूटी देने वाला कुशल और ईमानदार रसोइया यदि नौकर रखना हो तो तलाश करना पड़ेगा कि उसका वेतन कितना हो सकता है। इस निर्धारण के समय उसे यह शर्त भी बतानी होगी कि साप्ताहिक, त्यौहारों की संचित छुट्टियाँ उसे नहीं मिलनी है। साथ ही यह भी जताना होगा कि पेन्शन, फण्ड, बोनस आदि की कोई सुविधा उसे नहीं माँगनी चाहिए। इन शर्तों को स्वीकार करने वाले रसोइये की माँग क्या है? यह पूछताछ करने पर नारी की उपयोगिता के एक अत्यन्त तुच्छ अनुदान का मूल्यांकन करना चाहिए जो पाकशाला से सम्बन्धित उसकी श्रम साधना से सम्बन्धित है।

जब छोटी बातों पर ही उतर कर आर्थिक दृष्टि से नारी का मूल्यांकन किया जा रहा है तो उन अन्य कार्यों की भी लिस्ट बनानी होगी जिन्हें नारी को साथ-साथ करना पड़ता है। यह कार्य रसोई से भिन्न है। ऐसे कार्यों में घर की चौकीदारी और धोबी के दो कार्य ऐसे है जिनका आर्थिक लेखा-जोखा अलग से रखा जाना चाहिए। साबुन कितने का लगा और धुलाई कितने दाम की हुई? यह हिसाब लगाते समय धुलाई के पैसे में से साबुन के पैसे काट दिये जाय तो प्रायः आधा पारिश्रमिक बैठता है। यदि स्त्री को दस कपड़े भी नित्य धोने होते हो तो उसकी मजूरी दो रुपये के करीब जा पहुँचेगी। बिना नागा घर की चौकीदारी का उत्तरदायित्व संभालने वाला ऐसा नौकर मुश्किल से ही मिलेगा जो दाव लगने पर स्वयं ही चोरी न करने लगे। इस चौकीदारी की कितनी उपयोगिता है इस बात को उनसे पूछा जा सकता है, जो घर का ताला बन्द करके दफ्तर या सिनेमा जाते हैं। लौटते है तो ताला टूटा मिलता है और सामान गायब। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई तो पता चला कि हजारों रुपये की वस्तुएँ चोरी चली गई। घर में नारी होती तो यह विपत्ति क्यों आती? निरन्तर चोरी की आशंका से जो परेशानी रहती है और जल्दी लौटने की मजबूरी रहती है, उसे देखते हुए चौकीदार की नियुक्ति ही उपयोगी प्रतीत होगी। ऐसे चौकीदार तलाश करने पर मिल जाये तो उसके लिए भी कोई तीन चार रुपया दैनिक से कम पर रजामंद न होगा। रसोइया चौकीदार धोबी की तीन ड्यूटी देने वाला अठारह घण्टे बिना नागा श्रम करने वाले मजूर का पारिश्रमिक कितना होता है उसका हिसाब लगाया जाय, तो प्रतीत होगा कि स्त्री नौकरी या व्यापार करके बाहर से कमा कर तो नहीं लाती पर घर में रहकर भी जो करती है उसका पारिश्रमिक भी इतना है जो औसत कमाऊ पुरुष द्वारा किये गये उपार्जन के समतुल्य ही जा बैठता है।

उपरोक्त तीन ड्यूटी ऐसी हैं जो बाजारू नौकरी के समकक्ष है। इनकी चर्चा इसलिए की गई है कि आर्थिक दृष्टि से नारी को महत्त्वहीन न कहा जा सके और उसका बाजारू मूल्य भी कम न ठहराया जा सके। असली कीमत तो इससे आगे की है। जिसका पैसे से मूल्यांकन कर सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता। वफादारी के कारण, निश्चिन्तता और आत्मीयता के कारण जो प्रफुल्लता मिलती है उसे भाव विज्ञान के कोई पारखी ही बता सकते हैं कि इनकी क्या कीमत होनी चाहिए।

दाम्पत्य जीवन में क्रीड़ा विनोद से लेकर गहन आत्मीयता के जो अनुदान भरे रहते हैं उन्हें पहाड़ बराबर सोना देकर भी बाहरी लोगों से नहीं खरीदा जा सकता है। यौन लिप्सा की पूर्ति पैसे से हो सकती है किन्तु पत्नी का आत्म समर्पण अन्यत्र कहीं प्राप्त कर सकना संभव नहीं हो सकता। इस अनुदान की दृष्टि से उसे मूर्तिमान कामधेनु ही कहा जा सकता है जिसके अन्तराल से परिवार के हर सदस्य को उसकी आवश्यकता के अनुरूप सरसता की वर्षा अनवरत रूप में उपलब्ध होती रहती है। भले ही इस अनुदान का बाजारू मूल्य ठहराया जा सकना सम्भव न हो सके पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि भावनात्मक अनुदान न केवल पति वरन् समूचे परिवार को नारी के द्वारा ही मिलते हैं। पुरुष की अर्थ उपार्जन क्षमता एवं व्यवहार कुशलता का अपना महत्त्व हो सकता है, पर ध्यान यह भी रखना होगा कि जीवन की मार्मिक आवश्यकताएँ मात्र साधनों से पूरी नहीं होती। चेतना को वे अनुदान चाहिए जिन्हें आत्मीयता के साथ जुड़ी हुई सेवा भावना, वफादारी, मैत्री, क्रीड़ा आदि के रूप में अनेकानेक भाव संवेदनाएँ उपलब्ध कराने वाली उच्च स्तरीय सरसता कह सकते हैं। यह बाह्य मूल्य नहीं अमूल्य है। इसे नारी के अतिरिक्त कदाचित और कोई दे ही नहीं सकता। बाजार से श्रम खरीदा जा सकता है भाव नहीं। भाव-संवेदना कितनी मूल्यवान होती है इसे प्राण चेतना ही अनुभव कर सकती है।

शरीर के उपरान्त जीवात्मा का दूसरा कलेवर है उसका घर-परिवार, शरीर स्वस्थ सुन्दर हो तो उसमें रहने वाली आत्मा प्रसन्न रहती है। रुग्णता की व्यथा और कुरूपता की लज्जा सभी को अनुभव होती है। आत्मा काया के कलेवर में निवास करता, चैन पाता, रसास्वादन करता एवं विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति कर सकने वाले साधन उपलब्ध करता है। इसके बाद दूसरा स्थान घर-परिवार का है। आमतौर से घर से बाहर चौदह घण्टे व्यतीत होते हैं और आधे से कम समय उपार्जन व्यवस्था आदि प्रयोजनों के लिए बाहर रहना पड़ता है। काया के बाद सबसे अधिक प्रभाव परिवार की स्थिति का ही पड़ता है। काया कष्ट के बाद परिवार विग्रह ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुःख है। कुसंस्कारी परिवार में आये दिन खड़े रहने वाले विग्रहों से वातावरण नरक जैसा बना रहता है। इससे व्यथा वेदना का दुहरा संकट झेलना पड़ता है। मन और शरीर को आधि-व्याधि का जितना दुःख सहना पड़ता है प्रायः वैसी ही व्यथा परिवार की कुसंस्कारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। इस क्षेत्र पर सुसंस्कारी नारी ही शासन कर सकती है। परिवार की सज्जा, स्वच्छता, सुव्यवस्था से लेकर पारस्परिक स्नेह सौजन्य को बनाये रहना या बिगाड़ देना नारी के बायें हाथ का खेल है।

बालकों का स्तर बनाने में नारी का जितना हाथ है उतना नर का नहीं। गर्भ से लेकर पाँच वर्ष तक के बालकों का अधिकांश समय माता के साथ लिपटे रहते ही व्यतीत होता है। इसके बाद किशोरावस्था तक पहुँचने की अवधि आने पर्यन्त बालकों को माता आदि के संरक्षण में ही निर्भर रहना पड़ता है। इस अवधि में वे अपने व्यक्तित्व के गहन स्तर का अधिकांश निर्माण सम्पन्न कर चुके होते हैं। इसके बाद का ज्ञान और अनुभव तो मनुष्य के व्यवहार कौशल भर में काम आता है। व्यक्तित्व का स्तर बनाने में माता का, परिवार की नारियों का ही हाथ रहता है। इस दशा में दस वर्ष तक की आयु में ही अधिकांश कार्य निपट चुकता है। तदुपरान्त तो बाहरी साज-सज्जा ही बनती रहती है। स्कूली शिक्षा दूसरे क्रिया कौशल, जन सम्पर्क के आधार पर कुल मिलाकर जो सीखा जाता है वह लोक व्यवहार के काम ही आता है। सभी जानते हैं कि लोक व्यवहार और क्रिया कौशल से वैभव भले ही कमाया जा सके। व्यक्तित्व की बहुमूल्य सम्पदा तो गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित रहती है और वह कार्य प्रायः बचपन में ही पूरा हो लेता है।

कहना न होगा कि बच्चों के सम्बन्ध में रखी जाने वाली महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी करने में नर तो मात्र साधन जुटा सकते हैं उनके अन्तराल में रहने वाले स्तर का स्पर्श तो मात्र वे ही भाग्यवान कर सकते हैं जो माता की तरह ही बच्चों को सन्तोष जनक मात्रा में समय एवं मनोयोग दे पाते हैं। अन्यथा यह कार्य नारी ही सम्पन्न करती है। इस महान प्रयोजन में जिसका समय, श्रम एवं मनोयोग लगता है उसे महत्त्वहीन किस कारण समझा जाना चाहिए। बच्चों पर बड़ी आशा सँजोई जाय और उनकी निर्मात्री को नौकरानी से भी गया गुजरा माना जाय। यह विसंगति जहाँ रहेगी वहाँ अन्ततः यही परिणाम सामने आयेगा कि बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को उनके सहयोग से मिलने वाले प्रयोजनों की जो आशा की गई थी, वह एक प्रकार से निरर्थक ही चली गई।

जीवन क्रम के साथ अनेक रहस्य जुड़े रहते हैं। जिन्हें अन्यों के सम्मुख प्रकट करना सम्भव नहीं होता। अर्थ व्यवस्था पर तो पर्दा ही डाले रहने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। ऐसा विश्वस्त मित्र कदाचित ही कोई हो सकता है जिसके सामने इस गुह्य का प्रकटीकरण संभव हो सके। बिना प्रकटीकरण के परामर्श, सुरक्षा और भावी नीति का निर्धारण अकेले ही कर लेना बन नहीं पड़ता।

विपत्ति के ऐसे अवसर भी समय-समय पर आते हैं जब मनुष्य अपने को कातर, असहाय, विक्षुब्ध असन्तुलित एवं आवेश ग्रस्त स्थिति में फँसा हुआ अनुभव करता है। अप्रत्याशित विपत्तियाँ मानसिक सन्तुलन गड़बड़ा देती है और किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में फँसा हुआ व्यक्ति अपने लिए अथवा दूसरों के लिए अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है। इस स्थिति से उबारने में उपदेश काम नहीं करते इस आग को स्नेह सिक्त सरसता से भरी पूरी सान्त्वना ही शान्त कर सकती है। निराशा को आशा में, विषाद को मुस्कान में बदलने की क्षमता और किसी में नहीं, आत्मीयता और सच्ची सहकारिता से युक्त घनिष्ठता में ही है। ऐसी घनिष्ठता प्रकृति ने नारी को ही दी है। वह शरीरगत कठोरता की दृष्टि से भले ही हलकी पड़ती हो आत्मगत सौजन्य उसी में सृष्टा ने कूट-कूटकर भरी है। नारी के अंचल की छाया से बढ़कर शान्ति और शीतलता की अनुभूति कदाचित ही कही हो सके।

सृष्टा की कलाकारिता और सौन्दर्य सज्जा का अद्भुत सम्मिश्रण नारी की काया में ही हुआ है। उसकी चरण रज से लेकर भृकुटि भंगिमा तक से ऐसी दिव्य लहरे उठती हैं, जिनमें उच्च स्तरीय अनुदानों के भण्डार झाँकते देखे जा सकते हैं। उसकी पवित्र कोमलता में पारिजात पुष्पों का सार तत्व भरा है। श्रद्धा करुणा, ममता, क्षमा, तुष्टि, तृप्ति, शान्ति की सप्त मातृकाएँ यों प्रथक-प्रथक देवियाँ गिनी जाती हैं। उन सातों का समन्वय देखना हो तो भाव नेत्रों के खुलते ही प्रत्येक नारी में इनका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण दृष्टिगोचर हो सकता है।

नर भी अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। साहसिकता और चतुरता उसकी विशिष्टता है, पर यह तो कोई अन्य प्राणियों में भी पाई जाती है। नारी वह है जिसमें मानवता के तत्वों की कमी नहीं और देवत्व की वे विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें वर्षा जैसा अनुकूल वातावरण मिलते ही दूब की सूखी जड़ों के समतुल्य हरी भरी हो उठने की पूरी-पूरी सम्भावना है। नर वृक्ष है और नारी उसकी पतली किन्तु सुविस्तृत भूमि में फैली हुई जड़।

तथ्यों से अवगत न होने के कारण ही सर्वत्र नारी की अवमानना हो रही है। उसे उपेक्षित रखकर तिरष्कृत किया जा रहा है। रत्न राशि का महत्त्व न समझने पर पर्वतीय क्षेत्रों के वनवासी घाटे में ही रहते हैं। जन मानस को तथ्यों से अवगत कराना आवश्यक हो तो उसे सर्वप्रथम यह सिखाया जाना चाहिए कि नारी की गरिमा समझी जाय और उसे सुविकसित समुन्नत बनाने के लिए हर संभव उपाय किया जाय।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

185. नारी का पिछड़ापनः एक त्रासदी भरी विडम्बना
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

नारी के पिछड़ेपन का सारा लाभ नर ने उठाया है। इसी तथ्य का दूसरा पक्ष यह है कि सबसे अधिक हानि भी उसी को उठानी पड़ी है।

पालतू पशुओं के जीवित रहने का सारा लाभ उनके मालिकों को मिलता है। वे तो बेचारे किसी प्रकार जीवित भर रह लेते हैं। बैल, घोड़े, गधे अपने मालिकों के लिए श्रम करते हैं। गाय, भैंस, बकरी को उन्हीं के लिए दूध देना पड़ता है। वे जो बच्चे जनती हैं, उन पर अधिकार उनका नहीं पालने वाले मालिकों का होता है। भेड़ों की ऊन का लाभ गड़रिये को मिलता है। कुत्ते मालिक की रखवाली करते हैं। इस प्रकार उनकी जीवन सम्पदा से पूरी तरह पालने वाले ही लाभान्वित होते हैं। चूँकि यह लाभ पाने के लिए उन्हें जीवित रखना आवश्यक है, इसलिए चारे भूसे का, निवास आच्छादन का प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा। यह उदारता वश या न्याय बुद्धि से नहीं वरन् इस विवशता के कारण करना पड़ता है कि इतना भी न करने पर वे जीवित न रहेंगे और लाभ देने वाले स्रोत बन्द हो जायेंगे इतना प्रबन्ध तो मुर्गी, मछली पालने वाले भी करते हैं।

नारी के जीवित रहने का लाभ उसे कितना मिला और उसके मालिकों ने कितना लाभ उठाया, इस पर निष्पक्ष और न्याय दृष्टि से विचार करने पर असंदिग्ध रूप से यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसकी स्थिति कुल मिलाकर पालतू पशुओं से अधिक अच्छी नहीं है। यह तुलना यदि अखरती हो तो सामन्तवादी युग से चल रही दास-दासी प्रथा के समतुल्य इस स्थिति को कहा जा सकता है। दास-दासी हाट बाजारों में खरीदे बेचे जाते थे। मालिकों का उनके शरीर पर पूरा अधिकार होता था। दासों को उचित-अनुचित की समीक्षा करने का अधिकार न था, उनके लिए आज्ञा पालन ही एक मात्र विकल्प था। इस दास धर्म का पालन किये बिना उनके लिए और कोई मार्ग न था। जीवित न रहना हो तो ही वे अवज्ञा कर सकते थे, अन्यथा प्राण मोह के रहते मालिकों की आज्ञा पालने में ही उनकी गति थी। उनके श्रम का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए अथवा उनकी इच्छा एवं आवश्यकता को भी महत्त्व मिलना चाहिए। ऐसा सोच सकना उन दिनों न दास-दासियों के लिए सम्भव था और न उनके मालिक ही वैसी आवश्यकता अनुभव करते थे।

कहने सुनने में बात बड़ी अटपटी और कडुई लग सकती है कि आज भी औसतन नारी की स्थिति पालतू पशुओं अथवा दास-दासी स्तर से कुछ अधिक अच्छी नहीं है। उसे अपने पालने वालों के लिए श्रम करना पड़ता है, उनकी इच्छानुरूप ढलना पड़ता है, हर घड़ी ध्यान रखना पड़ता है कि पालने वाले कहीं नाराज न हो जाये। इसमें कितना उचित, कितना अनुचित है, उसे सोचने की कहीं गुंजायश नहीं दीखती।

नर को रोटी, कपड़े के मूल्य पर रसोईदारिन, चौकीदारिन, धोबिन आदि की आवश्यकता पूरी करने वाली चौबीस घण्टे की नौकरानी मिलती है। क्रीड़ा विनोद का लाभ भी बिना मूल्य मिलता है। अहंकार प्रदर्शित करने के लिए अन्यत्र कही अवसर न मिले तो न सही, पर नारी तो उसके लिए ऐसा उपयुक्त माध्यम है ही, जिससे प्रतिरोध की भी सम्भावना नहीं है। पितृ गृह से भी वह विवाह के दिन से लेकर मरने तक कुछ न कुछ लाती जमा करती ही रहती है। यह सारे लाभ नर के पक्ष में जाते हैं, नारी तो गृह प्रवेश से लेकर दम तोड़ने तक अपना शरीर व स्वास्थ्य जलाती ही रहती है। मन घुटते-घुटते टूटता और बैठता ही चला जाता है। शिक्षा जो बचपन में मिली थी, वह विस्मृति के गर्त में चली जाती है। पिंजड़े की कैद में अनुभव बढ़ाने के अवसर ही कहाँ है? काम का दबाव ही अहर्निश छाया रहता है, फिर मनोरंजन की इच्छा उठे भी तो उसका क्या महत्त्व? अवसर न मिलने से वह उमंग भी असमय में ही मर जाती है। नीरसता स्वभाव का अंग बन जाती है। न उत्साह, न उमंग, ढर्रे का मशीनी जीवन किसी प्रकार लाश की तरह ढोना और उतने में ही सन्तोष करना यही है उसका भाग्य विधान, जिस पर इच्छा अथवा अनिच्छा से गुजर करनी पड़ती है।

उपरोक्त कथन में अत्युक्ति नहीं है। औसत भारतीय नारी को इसी में गुजारा करना पड़ता है। इसे उसकी विशेषता कहकर सराहा भी जा सकता है और विवशता कहकर आँसू भी बहाया जा सकता है। यह स्थिति स्वाभाविक नहीं है। प्रकृति ने नर और नारी को हर दृष्टि से समान बनाया है। गाड़ी के दो पहियों की तरह दोनों की उपयोगिता भी एक जैसी है। क्षमता में न कोई किसी से आगे है और न पीछे। शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो नथुने, दो होठ होते हैं। दोनों में से न कोई वरिष्ठ होता है और न कनिष्ठ। परस्पर सहयोग से वे एक दूसरे के पूरक रहते हैं और मिल जुलकर अपनी उपयोगिता सिद्ध करते है। नर नारी की स्वाभाविक स्थिति यही है। इसी में औचित्य, न्याय और ईश्वरी व्यवस्था का परिपालन है।

नर और नारी के बीच सम्बन्धों का यह वह पक्ष है, जिसमें नर को लाभान्वित होते देखा जा सकता है। अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखा जाय, इस पर गम्भीरता पूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि अनीति के इस कुचक्र में नारी को जितनी क्षति उठानी पड़ी है, नर की हानि उससे कम नहीं वरन् अधिक ही हुई है। तात्कालिक लाभ के लोभ से उसने जो पाया है, उसकी तुलना में खोया अधिक है। हर रोज सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने वाले लालची मालिक ने जो घाटा उठाया था, उससे भी अधिक नारी को शोषण का शिकार बनाने के प्रलोभन में नर को उठाना पड़ा है। इस दुरभिसन्धि में उसने पाया कम और खोया अधिक है।

अशक्त पक्ष समर्थ पक्ष के लिए भार बनकर रहता है। एक पैर लँगड़ा हो तो उसके बदले का दबाव दूसरे पर पड़ता है। एक हाथ को लकवा मार जाये तो दूसरे हाथ को ही उसके बदले का भी काम करना पड़ेगा। एक पहिया टूट जाय तो दूसरे पहिये पर ही उसका वजन आवेगा। इस दबाव से स्वस्थ अंग भी जल्दी जरा जीर्ण होता है और अपनी सामर्थ्य गँवा बैठता है। नारी यदि शिक्षित, सुयोग्य, समर्थ हो तो अपने बुद्धि, बल, कौशल, अनुभव से पूरे परिवार को लाभान्वित कर सकती है। कठिन समय में कुछ उपार्जन भी कर सकती है और घर की आर्थिक स्थिति सुधारने में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकती है। अविकसित नारी तो अपंग की तरह है। उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने में, किसी जटिल समस्या के सुलझाने में कोई योगदान नहीं हो सकता। उल्टे कठिन समय में रोने-धोने, घबराने, हैरान होने और परेशान करने की बात ही उससे बन पड़ती है। वयस्क होते हुए भी बालकों जैसी मनःस्थिति में रहने वाली नारी न स्वयं जीवन का लाभ ले पाती है और न उससे परिवार का कोई विशेष हित साधन हो पाता है। जबकि उसके सुविकसित होने पर उसके परिवार की प्रगति में चार चाँद लग सकते थे।

नर को प्रायः १२-१४ घण्टे घर में रहना पड़ता है। विश्राम, नित्यकर्म आदि सब कार्य वही सम्पन्न होते हैं। यदि घर का वातावरण स्नेहपूर्ण शालीन सुव्यवस्थित, उत्साह वर्धक, आनन्दयुक्त रहे तो फिर उसे छोटे दायरे में रह कर स्वर्ग जैसे सुख सन्तोष की अनुभूति हो सकती है। यदि वहाँ द्वेष, मनोमालिन्य, कटुता, अव्यवस्था, फूहड़पन की कुरूपता छाई होगी तो उसकी प्रतिक्रिया उद्विग्नता ही उत्पन्न करेगी। सुविधा साधन रहते हुए उस घर के निवासी खिन्न, उद्विग्न और उदास दिखाई पड़ेंगे। इस अवसाद का परिणाम हर किसी की प्रगति पर पड़ता है। कहना न होगा कि परिवार का वातावरण बनाने में नारी की ही सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसी से उसे गृहलक्ष्मी कहा जाता है।

बच्चे प्रधानतया माता के संस्कारों से ही सम्पन्न होते हैं। नौ मास से माता के गर्भ में रहते हैं और उसी के रक्त माँस से उनका शरीर बनता बढ़ता है। साथ ही वे माता के स्वभाव संस्कार को भी साथ लेकर जन्मते हैं। जन्म के बाद माता के दूध पर पलते हैं, उसी के साथ सोते, खेलते हैं। इसका प्रभाव निश्चित रूप से संतान पर पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चा अपने बाल्यकाल का अधिकांश भाग पाँच वर्ष की आयु तक पूरा कर लेता है। यह अवधि उसे अधिकतर माता के सम्पर्क में ही गुजारनी पड़ती है। उसे पाठशाला में जिस स्तर के अनुदान मिलते हैं, बच्चे का भाग्य और भविष्य उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। बच्चों को हम प्यार करते हों, उनका भविष्य उज्ज्वल देखना चाहते हों, उन्हें समुन्नत देखने की लालसा रखते हों तो उसकी आधारशिला जननी समुन्नत स्तर की हो सकती है। नारी को पिछड़ेपन में ग्रसित रखना, बच्चों का स्तर बिगाड़ने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना है। जिनके हाथों उत्तराधिकार सौंपने की बात सोची जाती है, यदि उनका व्यक्तित्व ऊँचा उठाने के लिए उनकी माता पर ध्यान न दिया गया तो फिर निश्चित रूप से वे घटिया ही बने रहेंगे। शरीर से पुष्ट और बुद्धि से सुशिक्षित बना देने पर भी उनका स्तर हेय और गया गुजरा ही बना रहेगा। वे कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने के योग्य न बन सकेंगे।

औसत व्यक्ति गुजारे भर के लिए ही कमा पाता है। उसे रोज कुआँ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है। मरने के बाद अपने परिवार के स्थिर गुजारे जैसी सम्पत्ति कोई बिरला ही जमा कर पाता है। दुर्भाग्यवश यदि कमाने वाले की मृत्यु हो जाय और अपने पीछे कई बच्चे छोड़ मरे तो पीछे उस परिवार की कितनी दुर्गति होती है, इसे देखने से छाती फटती। सगे सम्बन्धी कहलाने वाले बचे खुचे साधनों को हड़पने का कुचक्र रचते हैं। बिना कमाने वालों का खर्च अपने ऊपर आया देखकर उनसे पीछा छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। पग-पग पर तिरस्कृत तो होना ही पड़ता है। इस स्थिति से तभी बचा जा सकता था, जब जननी को सर्वप्रथम स्वावलम्बी बन सकने के योग्य बनाया गया होता। जो ऐसी आशंका करते हैं कि स्वावलम्बन में नारी पंख कटे कबूतर की तरह उनके पूर्ण आश्रित रहने से आनाकानी करेगी, वे उस पर तरह-तरह के बन्धन लगाते हैं और पूर्णतया पराश्रित बना देते हैं। ऐसे लोगों की संकीर्णता का दण्ड विपत्ति के समय सभी आश्रितों को भुगतना पड़ता हैं। मरने की ही बात नहीं, कोई भयंकर रोग हो जाने के कारण उत्पन्न असमर्थता अथवा आकस्मिक विपत्ति भी ऐसी स्थिति पैदा कर सकती है, जिसमें अर्थ उपार्जन में नारी की समर्थता काम आ सके। अपंग बना कर रखने में शान समझने वाले लोग यदि ऐसी विपत्तियों की कल्पना कर सके तो वे पायेंगे कि प्रतिबन्धित एवं पिछड़ी स्थिति में डाले रखने की नीति कितनी अनुपयुक्त है।

देश, धर्म, समाज, संस्कृति एवं विश्व मानवता के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य हैं। उनके पूरा करने में प्रथम चरण यह होना चाहिए कि आधी जनता को पिछड़ी स्थिति में डाले रहने वाले प्रतिबन्धों का समर्थन न करें। पददलित वर्ग को समर्थ बनने में सहायता करें। ऐसा करने से जो हार्दिक शक्ति जगेगी उसका लाभ समस्त समाज को मिलेगा। विकसित नारी देश की अर्थ व्यवस्था में, समाज संतुलन में, शिक्षा-शालीनता में, प्रगति-समृद्धि में, कला संस्कृति में उत्साह वर्धक योगदान दे सकती है। उसे पिछड़ी रख कर हम मानवी सुख-शान्ति और प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही करते हैं।

प्रायश्चित के लिए अनिवार्य रूप से परमार्थ करना पड़ता है। सहस्रों वर्षों से नर द्वारा नारी का जो शोषण क्रम चला है, उन संचित पापों को निवृत्ति के लिए वर्तमान पीढ़ी को उसी प्रकार तप करना चाहिए जैसा कि भागीरथ ने अपने पूर्वजों के पाप निवारण करने के लिए किया था।

प्रबुद्ध नर की ही भाँति प्रबुद्ध नारी के कंधों पर भी यही उत्तरदायित्व है। अनीति करने वाले की तरह अनीति सहने वाले को भी दोषी ठहराया गया है। रिश्वत लेने की तरह रिश्वत देना भी अपराध है। अन्याय इसलिए बढ़ता है कि उसके विरोध में सिर उठाने वाला साहस मूक बधिर बना बैठा रहता है। असहयोग, विरोध, संघर्ष के छोटे-बड़े कदमों में से जिससे जो बन पड़े उसका उपयोग करना चाहिए। सहन करने में तो अत्याचारी का साहस बढ़ता है और उसे निश्चिन्त होकर और भी बढ़ी-चढ़ी अनीति करने का साहस मिलता है। संसार में अनीति इसलिए नहीं बढ़ी कि दुरात्माओं की शक्ति अत्यधिक थी। पर उसका विस्तार इसलिए हुआ है कि उत्पीड़ितों में विरोध करने का साहस नहीं रहा। हम पालतू बकरी बन गये, पर हिरनों पर यह प्रयोग सम्भव न हो सका। दोनों की जाति और स्थिति में थोड़ा सा ही अन्तर है। कुत्ते और शृंगाल एक ही वंश के है। बिल्ली और वन बिलाव में नाम मात्र का अन्तर है। एक ने मनुष्य की दासता स्वीकार कर ली। दूसरे ने नहीं की। समर्थ होने के कारण प्राण तो लिए जा सकते हैं, पर वशवर्ती नहीं बनाया जा सकता है। अस्तु दुष्टों की तरह दुर्बल भी दोषी माने गये हैं। यह बात दूसरी है कि किसी का पाप भारी और किसी का हलका माना जाय।

वर्तमान स्थिति में अशिक्षा, व्यस्तता, आत्महीनता और प्रतिबंध के भार से जकड़ी नारी के लिए इस दशा में थोड़ा सा समर्थन सहयोग दे सकना ही संभव होगा। वह अग्रिम मोर्चा संभाल सकने की स्थिति में कम से कम आज तो है नहीं। इस कार्य में नर को ही आगे रहना होगा। प्रत्यक्षतः अपने घरों की, सम्पर्क की नारी ही आगे रखनी होगी। अभियान के सभी कार्यों की पृष्ठभूमि बनाने से लेकर साधन खड़े करने तक के सारे सरंजाम उसे ही जुटाने पड़ेंगे। मोर्चे पर लड़ते तो सैनिक हैं, पर उनके लिए अस्त्र-शस्त्र, भोजन, वस्त्र, संचार, वाहन, उपकरण, दवा-दारु, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन आदि के सारे साधन सरकारी सुरक्षा विभाग जुटाता है। नर को पीछे रह कर अभियान का सूत्र संचालन करना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र को नारियों को अग्रिम मोर्चा संभालने का प्रत्यक्ष काम करने के लिए कार्य क्षेत्र में उतरना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

186. नव जागरण नारी जागृति के बिना सम्भव नहीं
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

देश में विश्व में नर रत्नों का उत्पादन बढ़े, यही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है और इसकी पूर्ति सुसंस्कृत नारी के अतिरिक्त और कोई कर ही नहीं सकता। बौद्धिक ज्ञान की अभिवृद्धि स्कूलों में हो सकती है। शिल्प उद्योग की शिक्षा उद्योगशालाओं में, विज्ञान की प्रयोगशालाओं में, कलाकौशल की तदुद्देशीय संस्थानों में मिल सकती है, पर व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का कार्य परिवार की प्रयोगशाला के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं हो सकता।

बच्चे आसमान से नहीं उतरते। वे माता के शरीर का ही एक भाग होते हैं। उनमें विद्यमान चेतना का सिंचन-परिपोषण भी माता के द्वारा ही होता है। गर्भस्थ शिशु में प्रसुप्त चेतना को जागृत और विकसित करने का काम माता का अचेतन ही करता रहता है। प्रसव के उपरान्त शिशु का आहार माता के वक्षस्थल से ही मिलता है। दूध भी रक्त जैसा ही एक रसायन है, जो माता के शरीर ही नहीं, मन की भी संयुक्त प्रक्रिया अपने साथ जोड़े रहता है। बच्चा इसी को पीता है और न केवल भूख बुझाता, शरीर बढ़ाता है, वरन् चिंतन एवं दृष्टिकोण का भी इसी अनुदान के आधार पर विकास करता है। अमीरों को छोड़कर सामान्यतया सभी के बच्चे रातों में माता के साथ सोते और दिन में उसी के इर्द-गिर्द मँडराते रहते हैं। मानवी विद्युत के विज्ञान को जो लोग समझते हैं, उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई न होगी कि प्रबल विद्युत सम्पन्न व्यक्ति अपने से दुर्बल साथियों को अनायास ही प्रभावित करता और छाप छोड़ता रहता है। पर्यवेक्षण से इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मनुष्य पर सूक्ष्म स्तर का प्रभाव अन्य सबकी अपेक्षा माता का ही अधिक पड़ता है।

नवयुग की नई फसल के लिए नये धान रोपने पड़ेंगे और उसके लिए नई भूमि तैयार करनी होगी। सभी जानते हैं कि ऊसर, बंजर, रेतीली, खार वाली, खाद पानी रहित, कंकड़-पत्थरों से भरी हुई ऊबड़-खाबड़ जमीन में अच्छी फसल उगाना अन्य ऊपरी उपचारों से भी सम्भव नहीं होता। अच्छी फसल पाने के लिए अच्छी भूमि की आवश्यकता समझी जा सकती है, तो फिर यह मानने में किसी को कोई कठिनाई न होनी चाहिए कि अगली प्रखर पीढ़ी के निर्माण की भूमिका सुविकसित जननी के अतिरिक्त और किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकती।

पीढ़ी से मतलब सौ पचास वर्ष नहीं, दस बीस वर्ष का निकटवर्ती भविष्य ही हो सकता है। जो बालक अभी दस वर्ष के हैं, वे दस-पन्द्रह वर्ष बाद पच्चीस तीस के होंगे और समाज को प्रभावित करने वाली भूमिकाएँ निभाने में अपनी प्रतिभा का प्रयोग कर रहे होंगे। जो बच्चा पेट में है या प्रवेश करने वाला है, वह भी बीस वर्ष का होते-होते परिपक्वता के निकट पहुँचने और समाज को प्रभावित करने की स्थिति में होगा। पेट के, गोदी के या पढ़ने खेलने वाले छोटे बालकों का समुदाय दस से लेकर बीस वर्ष के भीतर इस स्थिति में होगा कि उस समय का समाज उन्हीं के द्वारा गठित, संचालित एवं प्रभावित हो सके। मानवी भविष्य निर्धारण एवं व्यापक परिवर्तनों की दृष्टि से यह अवधि कोई बड़ी नहीं है। सुदृढ़ पेड़ों को छायादार और फलदार बनते-बनते भी इतना समय तो लग ही जाता है।

युग परिवर्तन हथेली पर सरसों जमाने की तरह जादुई ढंग से नहीं हो सकता। बड़े काम बड़ी व्यवस्था, धैर्य, प्रयत्न, सूझबूझ एवं तैयारी के साथ सम्पन्न होते हैं। भविष्य को सुखद बनाने के लिए जिस प्रकार भौतिक सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के प्रयत्न चल रहे हैं, उससे भी अधिक उत्साह के साथ उत्कृष्ट व्यक्तित्वों के निर्माण का प्रयत्न योजनाबद्ध रूप से सँजोया जाना चाहिए। पत्ते सींचकर मुरझाये वृक्ष को तत्काल हरा-भरा कर देने की उतावली जिन्हें हो, जो तुर्त−फुर्त सब कुछ देखना चाहते हों उनकी बात दूसरी है। अन्यथा इस भवन निर्माण का प्रारम्भ भूमि पूजन के शुभारंभ सहित किया जाना चाहिए। यहाँ भूमि पूजन से तात्पर्य है-नारी उत्कर्ष। जागृत नारी ही उन विभूतियों एवं विशेषताओं से सम्पन्न हो सकती है, जिसके सहारे नई पीढ़ी की उत्कृष्टता के साथ जुड़ा हुआ उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न साकार बन सकना सम्भव हो सके।

पीढ़ियाँ जनने और सुयोग्य बनाने से भी पूर्व पारिवारिक वातावरण का नव निर्माण आवश्यक है। बच्चों को प्रभावित करने के लिए तो यह नितान्त आवश्यक है ही। आज की स्थिति में सुखद परिवर्तन लाने की दृष्टि से भी यह ऐसा कदम है, जो अविलम्ब उठाया जाना चाहिए। नारी को तो चौबीसों घण्टे घर की चहार दीवारी के भीतर रहना पड़ता है। बच्चे भी अधिकतर उसी में अपना समय गुजारते हैं। बड़े भी आजीविका उपार्जन अथवा अन्य कार्यों के लिए दस बारह घण्टे से अधिक बाहर नहीं रहते, उन्हें भी अधिक समय नहाने, खाने, सोने, पारिवारिक कार्यों को देखने संभालने के लिए घर में ही रहना पड़ता है। इस प्रकार वास्तविक जीवन का अधिकतर भाग घर परिवार के कार्य क्षेत्र में ही गुजरता है।

पारिवारिक सुख के लिए अर्थ साधनों की आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता, पर ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि इस प्रयोजन के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सद्भावना एवं सुव्यवस्था की है। यह दोनों तत्व विद्यमान रहेंगे तो अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में भी हँसते-हँसाते दिन गुजारे जा सकते हैं। स्नेह, सौजन्य, सहकार, सद्व्यवहार ही वह पूँजी है, जिसके सहारे एक साथ रहने वाले मनुष्य पारस्परिक आदान-प्रदान से छोटे से परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन कर सकते हैं। स्वर्ग में हर्षोल्लास की परिस्थितियाँ मिलने की कल्पना की जाती है। उसका व्यावहारिक और प्रत्यक्ष रूप देखना हो तो किसी सद्गृहस्थ के घर परिवार में प्रवेश करके देखा जा सकता है। ऐसे स्नेहासिक्त वातावरण में रहने के लिए हर किसी का मन ललचायेगा भले ही वहाँ साधनों की न्यूनता का ही सामना क्यों न करना पड़े। ऐसे ही परिवारों में सुसंस्कारी बालक विकसित होते हैं और उन्हीं का परिष्कृत व्यक्तित्व बड़े होने पर उन महामानवों की श्रेणी में ला बिठाता है। जिन्दगी को चैन से गुजारने के लिए भी ऐसी ही पारिवारिक परिस्थितियाँ होनी चाहिए।

प्रश्न यहाँ भी यही उत्पन्न होता है कि ऐसा वातावरण किस प्रकार उत्पन्न हो, उसका सृजन कौन करें? इस ताले की कुंजी सुगृहिणी के हाथ में है। नर सुयोग्य और सुसम्पन्न होने पर इस सन्दर्भ में हाथ बँटा सकता है, साधन जुटा सकता है, पर आगे बढ़कर कोई बड़ी भूमिका निभा सकना उसके लिए संभव नहीं हो सकता। क्योंकि उसकी भूमिका परिवार व्यवस्था में बहुत ही स्वल्प होती है। नहाने, खाने, सोने जैसे ढर्रे के नित्य कर्मों को करने में ही उसका अधिकाँश समय बीत जाता है। निपटने के बाद तुरन्त आजीविका उपार्जन अथवा दूसरे आवश्यक कार्यों के लिए उसे बाहर भागने की जल्दी पड़ती है। ऐसी दशा में वह झल्लाने-समझाने की रस्म पूरी कर देने के अतिरिक्त कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा ही नहीं पाता। यह कार्य तो सुयोग्य गृहिणी ही कर सकती है। गृह लक्ष्मी जो नाम दिया गया है, वह अलंकार या भावुकता नहीं उसके पीछे तथ्य है। लक्ष्मीजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व ने अपने लोक को स्वर्ग बनाया, इस पौराणिक प्रतिपादन का प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो, तो किसी गृहलक्ष्मी के घर में जाकर वहाँ बरसने वाले स्नेह, सौजन्य और सज्जनोचित क्रियाकलापों के माध्यम से सहज ही देखा जा सकता है।

हमारे घरों में ऐसा वातावरण बने तो उस प्रयोजन की बहुत कुछ पूर्ति मात्र भावनात्मक आधार पर ही हो सकती हैं, जिसके लिए प्रचुर सम्पदा का संग्रह आवश्यक समझा जा सकता है। उत्कृष्ट व्यक्तित्वों के लिए नई पीढ़ी कार्यक्षेत्र में उतरे, इसकी प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं है। आज जैसी भी कुछ परिस्थितियाँ हैं उन्हीं में परिवारों के उद्यान इस स्तर के बनाये जा सकते हैं, जिनमें लगे वृक्ष आज की अपेक्षा कल ही अधिक छाया, हरियाली और फल-फूलों की सम्पदा प्रदान करने लगें। परिवारों का वातावरण सुसंस्कारी बनाया जा सके तो उसमें रहने, पलने वाले व्यक्ति कुछ ही समय में दूसरे ढाँचे में ढले हुए प्रतीत होंगे और परिवर्तन की प्रक्रिया कल से ही आरम्भ हो जायेगी।

आन्दोलनों के चकाचौंध में हमें वे ही कार्य महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं, जिनके लिए धुँआधार शोर मचता है और कर्णभेदी नगाड़े बजते हैं। लोग यह भूल जाते हैं कि महत्त्व उपद्रवों, धमाकों एवं बवण्डरों का नहीं, वरन् उन सृजनात्मक प्रवृत्तियों का है, जो मनुष्य की अन्तःचेतना को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। परिवारों का वातावरण यदि परिष्कृत किया जा सके तो उनमें पलने और परिपक्व होने वाले व्यक्ति कल से ही प्रसन्नचित्त, सत्प्रयोजनों में निरत होते और सन्तुष्ट उल्लसित दिखाई पड़ सकते हैं। ऐसे लोगों की न केवल क्रियाशक्ति, विवेकशक्ति ही बढ़ेगी, वरन् ये सृजनात्मक प्रयोजनों में बढ़-चढ़कर अनुदान भी प्रस्तुत कर रहे होंगे।

व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी परिवार हैं। लोग व्यक्ति की समीक्षा करते हैं और समाज की आलोचना करते हैं। इन्हीं दो को सुधारने के लिए तरह-तरह के प्रयत्न होते और आन्दोलन चलते हैं, पर यह भुला दिया जाता है कि व्यक्ति के निर्माण का अधिकांश उत्तरदायित्व परिवार पर है और समाज की भी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। परिवारों के समूह का नाम ही समाज है। परिवार वह मध्य बिन्दु, न्यूक्लियस है जिसकी धुरी पर सारा शक्ति सन्तुलन टिका हुआ है। यदि परिवार का महत्त्व स्वीकारा जाय तो फिर यह मानने में कोई कठिनाई न रहेगी कि उसका स्तर एवं वातावरण बनाने में सुसंस्कृत नारी ही प्रधान भूमिका प्रस्तुत कर सकती है। अन्य लोग तो उसके सहायक, समर्थक भर हो सकते हैं। नारी उत्कर्ष अभियान प्रकारान्तर से परिवारों को स्वर्ग समतुल्य बनाने का ऐसा सृजनात्मक काम है, जिसके सत्परिणामों को सोचने भर से आँखें चमकने लगती हैं।

पददलित नारी से किसने क्या पाया? वह अपने पालने वालों के लिए गले का पत्थर बनकर रह गई। कैदी भी जेल में कुछ करते हैं, पर जेलर से लेखा-जोखा माँगने पर वे स्पष्टतः स्वीकार करेंगे कि यह घाटे का व्यवसाय है। कैदी जो कमाते हैं, उससे कई गुना खर्च उनके ऊपर बैठता है। प्रतिबंधित नारी भी अपने संरक्षकों के लिए किस प्रकार उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो सकती है?

यदि नारी को उसके मौलिक मानवी अधिकार वापिस लौटा दिये जाय तो उसमें नर नहीं, अनाचार ही हारेगा। इस विजय में नारी की नहीं न्याय की ही जीत होगी। जो लोग न्याय, औचित्य, समानता मनुष्यता, धर्म, कर्तव्य आदि का समर्थन, प्रतिपादन करते हैं और अवांछनीयता को निरस्त करना चाहते हैं, उन्हें यह कार्य अपने घर से ही आरम्भ करना चाहिए। हमारे परिवारों में प्रत्येक नारी को यह अनुभव होना चाहिए कि वे कैदी की तरह विवशता पूर्वक नहीं, इस घर में सृजन शिल्पी बनकर रह रही हैं। उसके ऊपर कर्तव्य तो लदे हैं, पर कुछ अधिकार भी हैं। कम से कम अपनी स्वास्थ्य रक्षा, शिक्षा एवं स्वावलम्बन के लिए मानवोचित सुविधाएँ प्राप्त कर सकने की छूट उसे मिल गई है। ऐसा किया जा सके तो घर से बाहर भी हमारी आवाज में वह बल होगा, जिससे न्याय का समर्थन उचित ठहराया जा सके।

विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के सम्वर्धन में कितना बड़ा योगदान दे सकती है? इसे उन देशों में जाकर आँखों से देखा या समाचारों से जाना जा सकता है, जहाँ नारी को मनुष्य मान लिया गया है और उसके अधिकार उसे सौंप दिये गये हैं। उपयोगी श्रम करके वहाँ वह राष्ट्रीय प्रगति में योगदान दे रही है, परिवार की आर्थिक समृद्धि बढ़ा रही है। सुयोग्य बनकर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रही है और परिवार को छोटा सा उद्यान बनाने और उसे सुरभित पुष्प पल्लवों से भरा-पूरा बनाने में सफल हो रही है। नर के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करने वाली नारी किसी पर भार नहीं बनती, वरन् साथियों को सहारा देकर प्रसन्न होती और प्रसन्न रखती देखी जा सकती हैं। हम विकसित देशों के प्रशंसक हैं। भाषा, पोशाक आदि को अपनाने में गर्व अनुभव करते हैं, फिर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उनके व्यवहार में आने वाले सामाजिक न्याय की नीति को भी अपनायें और कम से कम अपने घरों में नारी की स्थिति सुविधाजनक एवं सम्मानास्पद बनाने में भी पीछे न रहें।

नारी देवत्व की मूर्त्तिमान प्रतिमा है। यों दोष तो सब में रहते हैं सर्वथा निर्दोष तो एक परमात्मा है। अपने घरों की नारियों में भी दोष हो सकते हैं, पर तात्त्विक दृष्टि से नारी की अपनी विशेषता है उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति। बेटी, बहिन, धर्मपत्नी और माता के रूप में वह परिवार के लिए जिस प्रकार उदात्त आदर्शों से भरा-पूरा जीवनयापन करती है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ प्रधान नर अपनी जगह ठीक है, पर आत्मिक सम्पदा की दृष्टि से वह नारी से पीछे ही रहेगा। नारी को प्रजनन उत्तरदायित्व उठाने के कारण शारीरिक दृष्टि से थोड़ा दुर्बल भले ही रहना पड़ा हो, पर आत्मिक विभूतियों की बहुलता को देखते हुए वही ईश्वरीय दिव्य अनुकम्पा की अधिक अधिकारिणी बनी है। अगले दिनों द्रुतगति से बढ़ता आ रहा नवयुग निश्चित रूप से आध्यात्म मान्यताओं से भरा-पूरा होगा। मनुष्यों का चिन्तन दृष्टिकोण उसी स्तर का होगा। व्यवस्थाएँ और परम्पराएँ उसी ढाँचे में ढलेंगी। जन साधारण की गतिविधियाँ उसी दिशा में उन्मुख होगी। शासनतन्त्र, धर्मतन्त्र, समाजतन्त्र और अर्थतन्त्र का सारा कलेवर उसी स्तर का पुनर्निर्मित होगा। ऐसी स्थिति में नारी को हर क्षेत्र में विशेष भूमिकाएँ निबाहनी पड़ेगी। विशेष उत्तरदायित्व सँभालने पड़ेंगे कारण कि आध्यात्म की विभूतियाँ जन्मजात रूप से उसी को अधिक परिमाण में उपलब्ध हुई हैं।

नारी उत्कर्ष की आवश्यकता का प्रतिपादन करने और औचित्य सिद्ध करने के अनेक आधार हैं। उनमें से किसी को भी अपनाकर विचार किया जाय तो आवश्यक प्रतीत होगा कि समय की माँग को देखा जाय, उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखा जाय तो नारी जागरण अपने समय का सबसे बड़ा काम प्रतीत होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

187. इस हृदयद्रावक स्थिति को कब तक सहन करेंगे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

नारी की आज जो स्थिति है उसे किसी भी प्रकार न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के कुछ जन्म सिद्ध अधिकार है। प्रत्येक मानव प्राणी को अपनी मर्जी का नैतिक जीवन जी सकने की स्वतन्त्रता रही है और चाहिए। मैत्री के आधार पर कोई किसी के लिए कुछ भी त्याग कर सकता है, पर कैदी के अतिरिक्त अन्य किसी को बलात् बन्धन में बाँधने का, उसको बलात् उपयोग करने का अधिकार नहीं है। पर नारी इस मूलभूत मानवी अधिकार से भी वंचित है। कन्या का उसके अभिभावक कहीं भी किसी के साथ भी ब्याह कर सकते हैं या बेच सकते हैं। पति उसे बलपूर्वक अपने अधिकार में रख सकता है और अनिच्छा होते हुए भी जो चाहे सो अपनी मर्जी के अनुसार करा सकता है। उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है, पशुओं जैसा व्यवहार कर सकता है, पशुओं जैसी मारपीट कर सकता है, लुक-छिपकर जान भी ले सकता है, यह स्थिति मनुष्य के मूल अधिकारों के विपरीत है। स्वेच्छया जीवन जीने पर इतने कड़े प्रतिबन्धों का होना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं है। पर्दा प्रथा के अनुसार जिस स्थिति में नारी को रहना पड़ता है, उसे मानवोचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु शताब्दियों से चल रही अवांछनीय परम्पराओं ने इन्हीं विडम्बनाओं को मर्यादा के रूप में मान्यता दे दी है। अब लोग इन बातों को अन्यान्य तक नहीं मानते, वरन् उचित आवश्यक तक कहते हैं और उन्हीं तर्कों का, धर्म प्रचलनों का सहारा लेकर उन प्रतिबन्धों का समर्थन करते हैं।

इस स्थिति में चिरकाल से रहती चली आ रही नारी धीरे-धीरे अपनी मानवी उपलब्धियों से वंचित होती चली गई और आज की दुःखद स्थिति में आ पहुँची। घर के छोटे से पिंजड़े में आजीवन कैद रहने के कारण उसका स्वास्थ्य चौपट हो गया। खुली हवा, खुली धूप, हाथ पाँव हिलाने की स्थिति न मिलने पर स्वास्थ्य का सर्वनाश होता ही है। छोटी आयु में विवाह हो जाने पर किशोरावस्था और नव यौवन के दिनों होने वाले शारीरिक विकास की जड़ें ही कट जाती हैं। शरीर शास्त्र का स्पष्ट निष्कर्ष है कि बीस वर्ष से कम आयु में कामोपभोग और पच्चीस वर्ष से कम आयु में सन्तानोत्पादन नारी के स्वास्थ्य को मटियामेट करके रख देता है। उसे छोटी बड़ी अनेकों बीमारियाँ आरम्भ से ही घेर लेती हैं और मरते दम तक साथ रहती हैं। पेड़ू का दर्द, कमर का दर्द, पेट दुखना, मासिकधर्म की अनियमितता, श्वेत प्रदर, पेशाब जलन जैसे रोग स्पष्टतः शक्ति से अधिक मात्रा में जननेन्द्रिय का दुरुपयोग किये जाने के ही दुष्परिणाम हैं। छोटी आयु से ही कच्चे अंग अवयवों पर जब दाम्पत्य हलचलों का अमर्यादित भार पड़ेगा तो उससे स्वास्थ्य की जड़ें खोखली होनी ही है। स्त्रियों में से अधिकांश को अपच, सिर दर्द, अनिद्रा, हाथ पैरों में भड़कन, आँखों में जलन, मुँह में छाले, थकान, सुस्ती, बेचैनी, उदासी जैसी शिकायतें बनी रहती हैं। इसका कारण उनकी जीवनीशक्ति का क्षीण हो जाना ही होता है। जिन लड़कियों का शरीर ही सुविकसित नहीं हो पाया उनके ऊपर समय से पहले बच्चे पैदा करने का भार पड़ेगा तो वह शक्ति, जो अपना शरीर पुष्ट कर सकती है, सहज ही समाप्त हो जायेगी। बच्चे का शरीर आखिर माता का शरीर काटकर ही तो बनता है, उसका रक्त, माँस, हड्डी आदि जो कुछ है वह स्पष्टतः माता के पास जो शरीर सम्पत्ति थी, उसी का एक टुकड़ा अलग से टूट कर खड़ा हो गया है, जो दूध बच्चा पीता है, वह माता के रस रक्त के अतिरिक्त और क्या है? उसे बच्चा पीता रहेगा तो माता के शरीर में उसकी कमी पड़ेगी ही। जो रक्त माँस लड़कियों के अपने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आवश्यक था, वहीं यदि सन्तान में निकलता चला जाय तो स्पष्ट है कि इस कारण उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और गई गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा। दुर्बल के पास न रूप बचता है, न यौवन, न सौन्दर्य, न उत्साह, न स्फूर्ति, न ताजगी, न मुस्कान। लड़कियों को छोटी आयु से ही दाम्पत्य जीवन के दबाव में जिस प्रकार पिसना पड़ता है, वह उनकी अकाल मृत्यु का बहुत बड़ा कारण है। प्रसव पीड़ा से लाखों महिलाएँ हर साल बेमौत मरती हैं, इसका कारण उनके प्रजनन अंगों की दुर्बल स्थिति होते हुए भी असह्य दबाव पड़ना ही एक मात्र कारण है। प्रसव काल में जितना रक्त जाता है, जितना कष्ट होता है, उसे परिपुष्ट माता का स्वास्थ्य ही सहन कर सकता है। कमजोर शरीर वाली लड़कियों के लिए तो यह बेमौत मारे जाने जैसा अभिशाप है। स्वास्थ्य की दृष्टि से अविवाहिताएँ तथा विधवाएँ सुहागिनों की तुलना में कहीं अच्छी पाई जाती हैं, इसका कारण यही है कि उन्हें दाम्पत्य कर्म का बोझ नहीं सहना पड़ा।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि विवाह नहीं करना चाहिए, दाम्पत्य जीवन अनावश्यक है और बच्चे उत्पन्न नहीं करने चाहिए। यह सब बातें सहज स्वाभाविक रीति से होनी चाहिए। स्त्री का स्वास्थ्य जितना सहन कर सके, उस पर उतना ही दबाव पड़ना चाहिए। किन्तु इस क्षेत्र में नारी सर्वथा असहाय है वह इस सन्दर्भ में मुँह नहीं खोल सकती। पति की इच्छा पूर्ति के लिए उसे विवश रहना पड़ता है। सन्तानोत्पादन के लिए शरीर में गुंजायश न होने पर भी उसे वह भार बलात् उठाना पड़ता है। अपना स्वास्थ्य नष्ट होने दुर्बलता, रुग्णता और अधिक बढ़ने, अस्वस्थ सन्तानें जनने, गर्भपात आदि होते रहने, असह्य प्रसव पीड़ा न सह सकने, अकाल मृत्यु को गले न बाँधने जैसे विचार उसके मन में उठते रह सकते हैं, पर वह कह कुछ नहीं सकती, पराधीन की स्वेच्छा क्या? उसकी अपनी मर्जी कहाँ? बन्दी को मालिकों की मर्जी पर ही चलना पड़ता है। उसे अपने स्वास्थ्य की बात सोचने का अधिकार ही किसने दिया है?

सोने उठने का कोई समय नहीं। मर्द रात को १२ बजे आयें तो उसी समय चूल्हा फूँकना चाहिए। सब लोग खा जायें उसके पीछे खाना चाहिए, सबसे पीछे सोना और सबसे जल्दी उठना चाहिए। विश्राम के लिए समय की माँग न करनी चाहिए। रुग्ण रहते हुए दिन रात पिसना चाहिए। यही आज की नारी का धर्म कर्तव्य बताया गया है। इससे कम में कोई अच्छी बहू नहीं कहला सकती। यह सब धकापेल चलता रहे, चले, पर प्रकृति किसी को बख्शती नहीं। उसे अपने नियमों से काम, दुरात्मा हो या पुण्यात्मा बिजली के खुले तार जो भी छुएगा, वहीं मरेगा। स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन निरन्तर करते रहने पर प्रकृति दण्ड देगी ही। दुर्बलता, रुग्णता, अकालमृत्यु के चक्र में उसे पिसना ही पड़ेगा। नारी ने यह व्यतिक्रम स्वेच्छा से किया या उसे विवशता में करना पड़ा, यह सोचने की प्रकृति को फुरसत नहीं है। नारी नर की तुलना में शारीरिक दृष्टि से कितनी दीन, दुर्बल बनकर रह रही है, यह सहज स्वाभाविक स्थिति नहीं है। सभ्य देशों की महिलाएँ हर क्षेत्र में, स्वास्थ्य में भी पुरुष के समतुल्य हैं। यह अभागा भारत ही है, जिसने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया। फलस्वरूप जो परिस्थिति उत्पन्न हुई, उसने नारी के स्वास्थ्य को खा लिया। इसे भाग्य का, भगवान का दोष कहकर मन समझाया जा सकता है, पर वस्तुतः यह हमारे ही अनाचार, अत्याचार का दुष्परिणाम है, जिसे रोते कराहते नारी तो भुगतती है, पर इस स्थिति में नर भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता है, इसमें उसे भी कुछ लाभ उठाने का अवसर नहीं हैं। शोषित तो मिटता ही है, शोषक को भी विधि का विधान सुख की साँस नहीं लेने देता। नारी को अस्वस्थ बनाकर उसके मालिक, पालनहारे भी इस स्थिति में क्या सुख सन्तोष अनुभव कर रहे हैं? रोते कराहते स्वर, आखिर उन्हें भी कुछ तो कष्ट देंगे ही। सहानुभूति समाप्त हो गई हो तो भी खीज़ और झुँझलाहट तो सताती ही रहेगी, उनसे तो पीछा नहीं ही छूटेगा।

शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य से भी नारी को वंचित रहना पड़ रहा है। जिसकी अपनी कोई इच्छा, महत्त्वाकाँक्षा, मर्जी, पसंदगी न हो, जिसे जन्म से मरण तक बिना उचित-अनुचित का अन्तर किये केवल आज्ञा पालन ही करना है, उसके लिए अपना भविष्य निर्माण करने की बात सोचना ही निरर्थक है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के विकास में स्वतन्त्र चिन्तन का, महत्त्वाकाँक्षाओं का, कुछ कर सकने का, परिस्थिति का प्रधान योगदान होता है। वह न मिले तो खाद पानी न मिलने वाले पौधे की तरह ज्वलंत सम्भावनाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा कितनी ही क्यों न हो, पालने वालों की मर्जी के बिना उसका उपयोग कर सकने का नारी के लिए कोई अवसर नहीं। इच्छा तो आखिर हर किसी की कुछ न कुछ होती ही है। उन्हें फलवती करने का जब अधिकार ही नहीं तो आकाँक्षाओं की चिता और राख मनःक्षेत्र में घुटन की दुर्गन्ध ही भरे रहेगी।

पग-पग पर प्रतिबन्ध, क्षण-क्षण में तिरस्कार जिसके भाग्य में लिखा हो वह दुर्भाग्य के आँसू ही बहाता रह सकता है। नारी निष्प्राण मशीन रही होती तो अच्छा था। पर जानदार प्राणी होने के कारण उसका अपना निज का मन भी है और निज की कुछ इच्छाएँ भी। स्वभावतः वे फैलने-फूटने का, फूलने-फलने का अवसर चाहती है, पर इसके लिए अधिकार रहित नारी के लिए गुंजायश कहाँ? चौबीसों घण्टे उसे मन को मारना पड़ता है और उस दुष्ट को देखो जो मरता तो है नहीं उल्टे विद्रोही बनकर नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। इन्हें तरह-तरह के मनोरोगों के, मनोविकारों के रूप में देखा जा सकता है। मृगी हिस्टीरिया से ग्रसित रोगियों में तीन चौथाई नारी और और एक चौथाई मर्द होते हैं। तरह-तरह की सनकें, चिड़चिड़ापन, लड़ झगड़, अनुदारता, दुराव, असन्तोष, आशंका, दोषारोपण जैसी मानसिक विकृतियाँ उन्हें घेरे रहती हैं। सनकी, जिद्दी, अव्यवस्थित, नासमझ, बेवकूफ, स्वार्थी आदि न जाने कितने दोष उन पर लगाये जाते रहते हैं। जो किसी कदर ठीक भी होते हैं। निराशा, चिन्ता, भय-भीरुता, आशंका, अविश्वास से ग्रसित उनमें से बहुतों को देखा जाता है। सन्तोषजनक मुस्कान किसी के चेहरे पर हर घड़ी खेलती हुई देखी जायेगी। यह आदत जिनमें बचपन से भी थी, बस गृहस्थ की चक्की में पिसने के कुछ ही दिनों बाद समाप्त हो जाती है। असन्तोष और क्षोभ से उद्विग्न और खिन्न मुख मुद्रा में ही प्रायः उन्हें देखा जाता है। मन कैसा छलिया है। उसे जहाँ उद्विग्न करता है वह खिलौने देकर पुचकारता भी है। शृंगार, सजधज, फैशन की भौंड़ी तरकीब बताकर कहता है, कुछ न सही तो इस खिलौने से ही मन बहलाओ, अपना जी हल्का करो। प्रायः विकृत मन वाली महिलाएँ ही शृंगार अपनाकर अपना खोया सम्मान इस बनावट के सहारे किसी हद तक प्राप्त कर लेने की बात सोचती हैं और उस तरह के आडम्बर बनाती हैं। इसमें उन्हें मिलता कुछ नहीं। पैसा और समय तो गँवाती ही हैं मूर्ख हास्यास्पद और छिछोरी भी बनती हैं। प्रशंसा पाने चली थी, पर उपहास लेकर लौटती हैं। व्यंग रूप में ही कोई मसखरा उनके मुँह पर उस सजधज की शायद प्रशंसा भी कर देता होगा। यह विडम्बनाएँ वे स्वेच्छा से नहीं छलिया मन के विचित्र बहकावे में फँसकर रचती हैं। असन्तोष को सन्तोष में परिणत करने का कुछ भी औंधा-सीधा मार्ग वे खोजती हैं। इन्हीं में से एक शृंगारिक सजधज भी है। अन्यथा शालीन नारी का व्यक्तित्व तो स्वच्छ, सभ्य और सज्जनोचित सरलता के, सादगी के साथ ही जुड़ा रहता है। विवेक और उद्धत शृंगार का प्रत्यक्ष वैर है, जहाँ एक रहेगा वहाँ से दूसरे को पलायन करना ही पड़ेगा।

स्मरण शक्ति की कमी, आवेश ग्रस्तता, जिद्दीपन, शंकालु, अनुदारता, अदूरदर्शिता, मन्दबुद्धि आदि मानसिक त्रुटियाँ स्त्रियों में बहुधा अधिक होने की बात कही जाती हैं। यदि यह सच है तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह उनकी आन्तरिक घुटन की प्रतिक्रिया हैं। अन्यथा मानसिक बनावट और प्रखरता में वे नर से पीछे नहीं, आगे ही रहती हैं। स्कूल कालेजों के परीक्षाफल इसके प्रमाण में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लड़के अधिक और लड़कियाँ कम फेल होती हैं। अच्छे डिवीजन लड़कियों के हिस्से में आते हैं। वे छुरे, चाकू, हाकी लेकर नकल के बल पर पास होने की उद्दण्डता भी नहीं बरतती अपनी सहज प्रतिभा और स्वाभाविक श्रमशीलता के आधार पर अच्छे नम्बरों से पास होती रहती हैं। अन्य क्षेत्रों में भी नारी को जब भी जितना भी अवसर मिला है, सदा उसने अपनी बौद्धिक प्रखरता का ही परिचय दिया है। वे न शरीर की दृष्टि से दुर्बल हैं और न मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं, परिस्थितियों ने ही उन्हें दुर्दशाग्रस्त बना दिया हैं। आज तो वे दुर्बल और रुग्ण ही नहीं, मन्दबुद्धि और मानसिक रोगों की व्यथा भी बेतरह सहन कर रही हैं।

इस शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता ग्रसित स्थिति से नारी को उबारा जाना चाहिए। अन्यथा वह अपने लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकना तो दूर पिछड़ेपन के कारण भारभूत ही बनी रहेंगी। रुग्ण व्यक्ति अपनी बेकारी, पीड़ा, परिचर्या, चिकित्सा आदि के कारण स्वयं दुखी रहता है और अपने सम्बन्धियों को दुखी करता है। नारी की शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता हर दृष्टि से हर क्षेत्र के लिए दुःखद परिणाम ही प्रस्तुत कर रही हैं।

राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहने वाला देश आर्थिक दृष्टि से ही शोषित नहीं होता, वरन् सांस्कृतिक, मानसिक, चारित्रिक और बौद्धिक दृष्टि से भी अपंग हो जाता है। ठीक इसी प्रकार सामाजिक दृष्टि से पराधीन बनाई गई नारी भी अपनी प्रखरता और उपयोगिता खो बैठी है। तथ्य को समझा जाना चाहिए और विष वृक्ष के पत्ते तोड़ने की अपेक्षा उसकी जड़ काटी जानी चाहिए। नारी को हर क्षेत्र में विकास का अवसर मिलना चाहिए और उसके पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाना चाहिए। अपहरणकर्ता के रूप में पुरुष का दोष अधिक है, इसलिए प्रायश्चित, परिमार्जन, प्रतिकार की दृष्टि से उसी को आगे आना चाहिए।

दोष परिस्थितियों के जिम्मे मढ़कर सन्तोष किया जा सकता हैं। यह निष्ठुरों को ही शोभा देता हैं। पर जिनके भीतर सजीव संवेदनाओं के अंश विद्यमान हैं, उनका नैतिक कर्तव्य होता है कि वस्तुस्थिति की गम्भीरता समझें ही नहीं, यह विचार भी करें कि अब तक हुई भूलों का प्रायश्चित क्या हो सकता है कहना न होगा। उसकी सर्वोत्तम प्रक्रिया यही हो सकती है कि नारी को पिछड़ी स्थिति से निकालने, उन्हें उठाने के लिए हर सम्भव उपाय किया जाय। पिछड़ी नारी अपने स्वयं के लिए ही नहीं, व्यक्ति एवं समाज की प्रगति में भी बाधक है। जिसके सहयोग से परिवार एवं समाज रूपी गाड़ी चलनी है वहीं कूप मण्डूप में पड़ी रही तो प्रगति की आशा भला कैसे की जा सकती है। !
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

188. कच्चा खाएँ, स्वास्थ्य बनाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कहा जाता है कि महर्षि चरक अपनी संरचना और शिक्षा का समुचित विस्तार कर चुके तो उन्हें यह जानने की सूझी कि उनके प्रतिपादन का रहस्य कितनों ने समझा इसका पता लगाया जाय।
उपरोक्त प्रयोजन के लिए महर्षि ने एक कपोत का रूप बनाया और उस क्षेत्र में पहुँचे, जहाँ चिकित्सकों की भरमार थी।

पक्षी रूपधारी चरक ने अपनी भाषा में चिकित्सकों से एक मार्मिक प्रश्न पूछा-‘कोऽरुक’ अर्थात् कौन रोगी होता है? यह पूछने से उनका मन्तव्य यह था कि जो मूल कारण को जानता होगा वही उसकी रोकथाम के उपाय सोचेगा। चिकित्सा उपचार भी उसी का सफल होगा। अन्यथा औषधि मात्र से अस्वस्थता का स्थायी निराकरण कहाँ सम्भव है?

कपोत चरक ने बारी-बारी सभी चिकित्सकों के सम्मुख वही प्रश्न दुहराया ‘कोऽरुक’ अर्थात् कौन रोगी होता है? निरोग कैसे होता है?

प्रश्न के उत्तर में सभी ने अपनी मान्यता व्यक्त की। रोग मुक्त होने के निमित्त सभी उपचार बताते चले गये। किसी ने भी यह न बताया कि रोगी पड़ने का अवसर ही न आवे, अन्यथा जो रुग्ण हो गया है। उसे सहज ही उससे छुटकारा पाने का अवसर मिल जाय।

उत्तर सभी के शास्त्र सम्मत थे, पर उनमें सार सिद्धान्त का समावेश न रहने से उन्हें सन्तोष न हुआ। और वे खिन्न मन से उदास होकर एक कोने में जा बैठे। सोचने लगे या तो मुझे पक्षी समझ कर उपेक्षित किया गया है। अथवा इन लोगों का अनुभव गम्भीर नहीं है।

उधर से महर्षि वाग्भट्ट निकले। उनसे भी कपोत ने वही प्रश्न पूछा। उनने कपोत रूपी चरक को पहचान लिया और नत मस्तक होकर उन्हीं की भाषा में प्रत्युत्तर देते हुए तीन प्रतिपादन प्रस्तुत किये।

‘‘मित भुक’’ अर्थात् भूख से कम खाना।
‘‘हित भुक’’ अर्थात् सात्विक खाना।
‘‘ऋत भुक’’ अर्थात् न्यायोपार्जित खाना।
जो इन तीनों बातों का ध्यान रखेंगे, उन्हें बीमार पड़ने का अवसर ही न आवेगा। ऐसी दशा में बिना चिकित्सा के ही स्वास्थ्य ठीक बना रहेगा।

इन दिनों स्वास्थ्य का आहार के सन्दर्भ में अमुक रसायनों के बाहुल्य को सन्तुलित आहार कहा जाता है और अमुक की कमी रहने पर कुपोषण की शिकायत होने की बात कही जाती है। इन दिनों कुपोषण दूर करने के लिए खाद्य सन्तुलन पर बहुत महत्त्व दिया जा रहा है और यह सोचा जा रहा है कि किस प्रकार आहार का रासायनिक स्तर बढ़ाया जाय। यह प्रयत्न सामान्यतया ही है। रासायनिक उत्कृष्टता की बात को महत्त्व मिलना ही चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि पकाने की प्रक्रिया एवं खाने की पद्धति में तो कहीं कोई त्रुटि नहीं रह रही है। इस सन्दर्भ में बरती गई लापरवाही ऐसी है जिसके कारण बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ भी तथाकथित कुपोषण वाले आहार से भी गये बीते बन जाते हैं।

कुपोषण वाले पदार्थों के कारण शारीरिक विकास में जो कमी रह जाती है तथा मानसिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है, उसकी जानकारी सर्वविदित है। अब इस क्षेत्र में चल रहें अनुसंधानों ने एक नया मोड़ लिया है कि जिनको पर्याप्त मात्रा में पुष्टाई मिलती है वे कुपोषण ग्रस्तों से भी गई गुजरी स्थिति में क्यों पड़े रहते हैं? उन्हें वे लाभ क्यों नहीं मिलते जो खाद्य रसायनों का गुणगान करते हुए आमतौर से बताये जाते हैं।
इस असमंजस का समाधान ढूँढ़ने के लिए स्वास्थ्य विज्ञान में संलग्न कितने ही शोध संस्थान अपने-अपने ढंग से काम कर रहे हैं। इन्डियन कौंसिल ऑफ रिसर्च, इन्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइन्स, नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन, पोस्ट ग्रेजुएट इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडीकल एजूकेशन एण्ड रिसर्च जैसी भारत की शोध संस्थाएँ न केवल देश की आर्थिक परिस्थितियों में अधिक उपयोगी खाद्यान्नों की शिफारिशें कर रही है वरन् यह भी सोच रही है कि उपयोगी स्तर का आहार ग्रहण करने पर भी असंख्यों को क्यों उसका लाभ नहीं मिलता है? यह समस्या उन सभी लोगों की है जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और बौद्धिक दृष्टि से सुशिक्षित होते हुए शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और रुग्ण बने रहते हैं। इससे प्रतीत होता है कि आहार का सन्तुलित होना ही पर्याप्त नहीं, वरन् उसके पकाये और खाये जाने का तरीका भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। इस सन्दर्भ में बरती गई असावधानी भी आहार का स्तर मूल्यवान होते हुए भी उसके प्रभाव परिणाम से वंचित रहना पड़ता है।

तेज आग पर देर तक पकाने से सभी खाद्य पदार्थ अपनी मौलिक विशेषताओं का अधिकांश भाग गँवा बैठते हैं। चिकनाई में तलने-भूनने से रही बची उपयोगिता भी नष्ट हो जाती है। मसाले की भरमार से वह आहार न रहकर नशा रहित मादक द्रव्य बन जाता है और उत्तेजना ही नहीं विषाक्तता भी उत्पन्न करता है।

खाने के सम्बन्ध में बरती जाने वाली भूलें और भी दुर्भाग्यपूर्ण हैं। कम चबाए जल्दी-जल्दी में निगलते जाना आहार को मुख में सम्मिलित होने वाले पाचक रसों से वंचित रखना है। जायकेदार चीजें स्वभावतः अधिक मात्रा में उदरस्थ होती रहती है। एक बार का किया हुआ आहार पचने से पहले ही उस पर नई खेप की बात लद जाती है। यही है अपच का प्रधान कारण। पेट में बिना पचा आहार सड़ता है। सड़न से उत्पन्न विषैली गैसें शरीर के विभिन्न अवयवों में पहुँच कर वहाँ चित्र-विचित्र बीमारियों का सृजन करती हैं। इन गलतियों के रहते पौष्टिक भोजन भी कुपोषण के कारण अखाद्य ठहराये जाने वाले आहार से भी गया बीता बन जाता है।

आवश्यक नहीं कि गरीब लोगों को कीमती खाद्य सामग्री खरीदने के लिए दबाया और उनकी परिस्थिति का उपहास उड़ाया जाय। अच्छा यह है कि हरे शाक भाजी बिना पकाये या कम पकाये खाने की आदत डाली जाय और उनमें पाये जाने वाले बहुमूल्य क्षार एवं खनिजों को पोषण में सम्मिलित होने का अवसर दिया जाय। सूखे अन्नों को अंकुरित करके तथा धीमी आग पर उबाल कर खाने का तरीका भी ऐसा है, जिससे मोटे अनाज मेवे जैसा गुण देने लगते हैं।

प्राकृतिक खाद्य पदार्थों में अंकुरित आहार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। अंकुरित होते समय बीजों में पायी जाने वाली प्रोटीन, विटामिन, एन्जाइम एवं मिनरल (खनिज लवण) की वृद्धि असाधारण रूप से होती है। अंकुरण के समय अन्न की जीवनी शक्ति विकासोन्मुख एवं अधिक सक्रिय होती है। उस स्थिति में एन्जाइम की मात्रा बीजों में अत्यधिक बढ़ जाती है जो शरीरगत चयापचय क्रिया को अधिक अच्छी तरह सम्पन्न कर रक्त संचार व पाचन तन्त्र को विशेष शक्ति प्रदान करते हैं।

तेज आग पर उबाल देने या भून देने से बीजों की अंकुरण क्षमता नष्ट प्राय हो जाती है और जीवनी शक्ति भी बहुत मात्रा में कम हो जाती है। अंकुरित आहार कम मात्रा में ग्रहण किये जाने पर भी पोषण की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अंकुरित करने के लिए कोई भी अनाज या बीज प्रयोग किया जा सकता है। उनमें परिवर्तन भी करते रहना चाहिए। सामान्यतया अंकुरण के लिए गेहूँ, चना, मूँग, मूँगफली, मटर, सोयाबीन आदि प्रयुक्त किये जाते हैं।
अंकुरित किए गये अन्न एवं बीजों में प्रोटीन की प्रचुरता हो जाती है। साथ ही जटिल एवं गरिष्ठ प्रोटीन का रूपान्तरण सरल प्रोटीन अमीनो एसिड्स में हो जाता है। बीजों के अंकुरण के पश्चात् श्लेष्मा कारक एवं गैस उत्पन्न करने का दोष बहुत ही न्यून रह जाता है। अंकुरण की तीन चार दिन बाद गेहूँ में विटामिन सी की मात्रा तो ३०० प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसी प्रकार विटामिन बी काम्प्लैक्स की मात्रा भी अंकुरण की प्रक्रिया में कई गुना बढ़ जाती है।

अंकुरण की सरल विधि से सस्ता व सहज ही पौष्टिक भोजन हर किसी को उपलब्ध हो सकता है। इससे प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, विटामिन एवं पोषक तत्व मिल जाते हैं, कुपोषण की समस्या का सहज समाधान इससे हो सकता है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अंकुरित आहार सस्ता, सन्तुलित व पूर्ण आहार है।

आहार के निर्धारण में अब एक और तत्व सामने आया है जिसे खाद्य की जीवनी शक्ति एवं प्राण ऊर्जा कहा गया है। यह रासायनिक संरचना से भिन्न है। अब तक प्रोटीन, स्टार्च, लवण, खनिज आदि रसायनों का सन्तुलन ही खाद्य का स्तर गिना जाता रहा है, अब उन पदार्थों में पायी जाने वाली प्राण चेतना का अन्वेषण वर्गीकरण भी चल पड़ा है और उस सूक्ष्म प्रभाव के आधार पर उपयोगिता एवं समर्थता का प्रतिपादन होने लगा है। भारतीय अध्यात्म विज्ञान के सूक्ष्मदर्शी सदा से पदार्थों की सात्विक, राजस, तामस प्रकृति की चर्चा करते रहते हैं। यह सब क्या है? उसकी व्याख्या पिछले दिनों तो नहीं हो सकी थी पर अब इस खोज से यह पता लगता है कि पाये जाने वाले रसायनों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण पदार्थों की प्राण ऊर्जा होती है।

प्राण शक्ति या सूक्ष्म शक्ति जिसे विज्ञान की भाषा में बायोप्लाज्मा कहते है, सृष्टि के प्रत्येक कण-कण में विद्यमान है, परन्तु चेतन तत्वों विशेषतः जीव-जन्तु, मनुष्य एवं पेड़ों में अधिक सक्रिय रहती है। सन् १९६८ में रूस के कुछ प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के एक संगठन ने अपने अनुसंधान कार्य का प्रकाशन कराया जिसमें उन्होंने लिखा था कि समस्त चेतना प्राणियों, पौधों, मनुष्यों एवं जानवरों में एक स्थूल शरीर होता है, और एक सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर में ही प्राणशक्ति रहती है।
अमेरिका के येल यूनीवर्शिटी के डॉ. वर्र एवं नार्थाप ने दो वृक्षों के बीच एक सेन्सिटिव वोल्टमीटर जोड़कर निःसृत होने वाली सूक्ष्म प्राणशक्ति का मापन व अंकन का सफल प्रयोग किया। इस शोध कार्य में उन्हें कई वर्ष तक अथक परिश्रम करना पड़ा।

पौधों में प्राणशक्ति के निरन्तर प्रवाह के सम्बन्ध में क्रिस्टोफर बर्ड एवं पीटर टॉम्किन्स ने अपनी ‘दी सीक्रेट लाइफ ऑफ प्लान्ट’ पुस्तक में लिखा है कि पौधे भी अन्य जीवों एवं मनुष्य की तरह प्राणशक्ति के स्तर से प्रभावित होते हैं। पौधों की प्राणशक्ति मनुष्यों और जीव-जन्तुओं को प्रभावित करती है। जैव रसायन विशेषज्ञ डॉ. एनल फ्रीड फेफर ने पशु, मनुष्य व पौधों की सूक्ष्म प्राणिक शक्ति का परीक्षण किया। उन्होंने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया है कि प्राकृतिक भोजन पदार्थों में प्राणशक्ति का स्पन्दन अधिक सशक्त होता है। शारीरिक आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक भोजन में पाये जाने वाले विटामिन, खनिज लवण उपयुक्त व पर्याप्त है। कृत्रिम खाद्य पदार्थों में प्राणशक्ति की मात्रा न्यून होने से उनका जैविक महत्त्व बहुत कम होता है।

प्रकृति मनुष्य के लिए खाद्य सामग्री सूर्य की अग्नि में पकाकर समग्र रूप में प्रस्तुत किया करती है। टहनी में से आम तभी टपकता है जब वह पककर खाने योग्य हो जाता है। यही बातें प्रायः सभी फलों पर लागू होती है। अन्न के दाने भी पककर तैयार हो जाने पर ही पौधे से अलग होते हैं। प्रकृति प्रदत्त उपहारों को उसी रूप में ग्रहण करना स्वास्थ्यप्रद होता है। इनमें शरीर के पोषण के लिए आवश्यक सभी तत्व विद्यमान रहते हैं। खाद्य पदार्थों को गरम करने, उबालने अथवा भूनने से वे अप्राकृतिक हो जाते हैं। उसी तरह स्वाद बढ़ाने की दृष्टि से अलग से नमक, मिर्च-मसाले, गुड़, शक्कर आदि वस्तुएँ मिलाकर जायके के लोभ में उन्हें अखाद्य बना दिया जाता है।

मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीव अपना भोजन पकाकर नहीं खाता। फल, फूल, घास, अनाज आदि उन्हें जिस रूप में प्रकृति ने प्रदान किया होता है उसी रूप में वे उसे ग्रहण किया करते हैं। जंगली पशु जेब्रा, जिराफ़, हिरण, जंगली भैंसें, नील गाय तथा पक्षी तोता, मैना आदि हमेशा फल-फूल अन्न पत्तियाँ आदि खाते हैं। यही कारण है कि वे कभी बीमार पड़ते भी नहीं देखे जाते हैं, परन्तु मनुष्य अपने खाद्य को अप्राकृतिक बनाकर खाने के फलस्वरूप किसी न किसी बीमारी से ग्रसित होता रहता है। प्रकृति के अंचल में स्वस्थ रहने वाले जीव भी मनुष्य के सम्पर्क में आकर बीमार पड़ जाते हैं।

स्वास्थ्य की दृष्टि से देखने पर कच्चे खाद्य पदार्थों में अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्व विद्यमान होते हैं। प्रमाण स्वरूप देखा जा सकता है कि उबले अथवा भूने गए दाने अंकुरित नहीं होते। उनकी उत्पादन शक्ति नष्ट हो जाती है। परन्तु कच्चे दाने अंकुरित होकर पौधे के रूप में विकसित होते हैं। हड्डियों की मजबूती के लिए आवश्यक स्टार्च अधिक मात्रा में कच्चे खाद्य पदार्थों से ही मिलते हैं। दाँतों का व्यायाम और पान रस की प्राप्ति भी कच्चे पदार्थों से होती है। मुँह में अधिक अच्छी तरह चबाने के कारण पर्याप्त लार निकल कर इनमें मिल जाती है।

कच्चे भोजन का स्वरूप क्या हो यह उस फल, सब्जी या अनाज के प्रकार पर निर्भर करता है। दानेदार अन्न को अंकुरित कर खाना लाभप्रद होता है। इससे उनमें पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। गेहूँ, चना, मटर, मूँग आदि को अंकुरित करने के लिए १२ से २४ घण्टे तक भिगो लें। बाद में पानी अलग कर मोटे कपड़े में पोटली बाँधकर २४ घण्टे तक लटका दें। अंकुरित होने पर चबाकर खाये तो बहुत लाभ होगा। दाँतों के व्यायाम के साथ ही पोषक रस भी अधिक मिल जाता है।

फलों अथवा सब्जियों को सलाद के रूप में लेना चाहिए। गाजर, मूली, ककड़ी, खीरा, लौकी, टिन्डा, पालक, धनिया, पुदीना आदि को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर मिला लें। इनमें पोषक तत्व सुरक्षित रूप में मिल जाता है। अतएव सलाद ही ग्रहण करें। किसी भी स्थिति में कच्चा भोजन हमारे लिए बहुत लाभप्रद है। यदि कारणवश उबाल भूनकर खाना ही पड़े तब भी कच्चे भोजन को कुछ न कुछ अंशों में अवश्य लिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भोजन को सन्तुलित आहार की श्रेणी में तभी गिना जा सकता है, जब उसमें बचे आहार का भी समावेश समुचित मात्रा में किया गया हो।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

189.

190. असुरता का मान—मर्दन संघशक्ति के बल पर
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य जाति के सामने अगणित समस्याएँ उत्पन्न करने वाला, विविध विधि कष्ट क्लेश देने वाला एक ही असुर है-अज्ञान। रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु आदि असुरों ने थोड़े से आदमी मारे खाये थे, पर अज्ञान के असुर ने समूची मानव जाति को अपनी दाढ़ों से चबा डाला और उदरस्थ कर लिया है। सर्व सुविधा सम्पन्न इस धरती के निवासियों को स्वर्गीय सुख शान्ति का उपभोग करना चाहिए था। पर हो बिलकुल उलटा रहा है। हर व्यक्ति नरक की आग में जल रहा है। हर व्यक्ति खौलते कढ़ाव में तलने और अंगारों पर चलने से अधिक त्रासदायक क्षणों में मौत के दिन पूरे कर रहा है। जिन्दगी जिस सुर दुर्लभ ईश्वरीय वरदान की तरह हर्षोल्लास के साथ जियी जानी चाहिए थी, वह नारकीय यन्त्रणाएँ सहते हुए व्यतीत करनी पड़ रही है। उसकी लाश ढोना बहुत भारी पड़ रहा है।

यह स्थिति एक आदमी की नहीं लगभग सभी की है। समझा यह जाता रहा है कि पैसा कम पड़ने से यह कष्ट सहने पड़ रहे हैं। यदि मनचाही मात्रा में पैसा होता तो सुखी जीवन जिया जा सकता था। यह मान्यता बहुत थोड़े अंश में ही सही है। यह ठीक है कि अधिक पैसे से शरीर को सुख सुविधा देने वाले अधिक साधन खरीदे जा सकते हैं, पर इससे क्या, प्रश्न तो उस मनःस्थिति का है जिसके आधार पर पैसे का उपयोग किया जाना था। उस क्षेत्र में विकृतियों का पूरा साम्राज्य है। फलस्वरूप जो धन से खरीदा जाता है उसमें उपयोगी कम और हानिकारक अधिक होता है।

इस संदर्भ में हम पैसे वालों की स्थिति का गहरा अन्वेषण विश्लेषण कर सकते हैं। गरीबों की बात कुछ समय के लिए पीछे करके पहले उन अमीरों की स्थिति देखें जिन्हें आवश्यकता से अधिक पैसा मिला है। वे उसका करते क्या हैं? अपने और अपने परिवार के लिए स्वादिष्ट भोजनों की भरमार करके सबका पेट खराब करते हैं। श्रम से बचने और आराम तलबी का ठाठ-बाट जुटाने में शरीर की श्रम शक्ति गँवा देते हैं। गरीबों से अमीरों के स्वास्थ्य अधिक दुर्बल पाये जावेंगे वे अपेक्षाकृत अधिक रोगी रहते हैं और जल्दी मौत के मुँह में प्रवेश करते हैं।

यहाँ न तो धन की निन्दा की जा रही है और न दरिद्र की प्रशंसा। धन भी विद्या बल, शरीर बल आदि की तरह एक शक्ति है उसका सदुपयोग आता है तो अपना, अपने परिवार का और समाज का भारी हित साधन किया जा सकता है। पर दृष्टिकोण में छाया हुआ अज्ञान उस धन के सदुपयोग की दिशा में सोचने ही नहीं देता। जितनी इच्छाएँ, जितनी चेष्टाएँ होती है वे सभी दूषित रहती है। फलस्वरूप उपार्जित धन अपना, परिवार का समाज का विविध प्रकार से सत्यानाश ही करता चला जाता है। धन से जो लाभ एवं सन्तोष मिलना चाहिए था उससे धनी वर्ग प्रायः वंचित ही रहता है। यहाँ हजार बार समझना चाहिए दोष धन का नहीं दूषित दृष्टिकोण का है जिसे दूसरे शब्दों में अज्ञान कहा जा सकता है।

विद्या बल की महत्ता और भी अधिक है। ऊँची शिक्षा की, बुद्धि कौशल की कौन निन्दा करेगा। शक्तियों में से किसी की भी निन्दा नहीं की जा सकती, वे सभी प्रशंसनीय और उपयोगी हैं। शर्त एक ही है कि उनके उपयोग में विवेक से काम लिया जाय। बिजली, भाप, गैस, पेट्रोल, अणु ऊर्जा आदि शक्तियाँ कितनी उपयोगी हैं, यह सभी जानते हैं, पर यदि इनमें से किसी का भी दुरुपयोग किया जाय तो वे भयंकर दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। साहित्यकार कैसे साहित्य लिख रहे हैं, कलाकार किन प्रवृत्तियों को उभार रहे हैं इसे अत्यन्त निराशा पूर्वक देखा जा सकता है। दुनिया में एक से एक बुद्धिमान भरे पड़े हैं जिनमें से थोड़ी भी प्रतिभाएँ यदि जन मानस को दिशा देने में लग गई होती तो दुनिया की स्थिति वैसी न होती, जैसी आज है।

शरीर बल से उपयोगी श्रम हो सकता था। कारखाने उपयोगी सृजन कर सकते हैं। पर हम देखते हैं शारीरिक क्षमता, आतंक और अनाचार उत्पन्न करने में लगी हुई है। अपराधों और अनाचारों में वे ही लोग अधिक लगे हैं जिनके स्वास्थ्य अच्छे है। भगवान ने जिन्हें रूप दिया है वे उससे कला कोमलता का सृजन करने की अपेक्षा पतन और दुराचार को प्रोत्साहन दे रहे हैं। कल कारखाने नशेबाजी से लेकर विलासिता के अनेकानेक साधन बनाने में लगे हुए हैं। मनुष्य द्वारा मनुष्य को मारे काटे जाने के लिए जितनी युद्ध सामग्री बन रही है, यदि उसे बदल कर सृजनात्मक उपकरण बनाये गये होते तो उतनी धन शक्ति का, जन शक्ति का, क्रिया कौशल का न जाने संसार की सुख शान्ति में कितना बड़ा योगदान मिला होता।

संसार में साधन कम नहीं हैं। अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, कनाडा आदि देशों में इतनी फालतू और बेकार जमीन पड़ी है कि उस पर भारत और चीन जैसे घने देशों की आबादी को बसा कर सबके लिए प्रचुर सुख साधन जुटाये जा सकते हैं, जितना धन, जितना साधन संसार में है उसे मिल बाँटकर खाया जाय तो हर मनुष्य बीमारी, बेकारी, अशिक्षा जन्य कठिनाइयों से मुक्ति पा सकता है और निर्वाह की पर्याप्त सुविधा पाकर सुख शान्ति का जीवन जी सकता है। जो विज्ञानी मस्तिष्क अणु आयुध और विघातक गैसें और भी न जाने क्या क्या बना रहे हैं वे समुद्र के खारे पानी को मीठा बनाने जैसे कार्यों में जुट जायें तो इस धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ हँसते खेलती दिखाई पड़े और हम सब नन्दन वन में रह रहे हों।

एक-दूसरे को गिराने में, शोषण और दोहन में हमारी जो दुरभिसन्धियाँ निरन्तर क्रियान्वित रहती है यदि वे उलट जायें और परस्पर स्नेह सहयोग प्रदान करने, ऊँचा उठाने में लग जाएँ तो उससे सभी को राहत मिले। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध के स्थान पर स्नेह, सौजन्य बिखर पड़े और दुनियाँ कितनी सुन्दर, सुहावनी बन जाय, हर व्यक्ति के इर्द गिर्द हर्षोल्लास का वातावरण बिखरा दिखाई पड़ने लगे।

स्वर्ग जैसी समस्त सम्भावनाओं के रहते हुए भी अपनी दुनिया नारकीय यातनाओं में जल भून रही है इसके ऊपर कारण तो पेड़ पर लगे अनेक पत्तों की तरह अलग-अलग दिखाई पड़ सकते हैं, पर विचारक देख सकते हैं कि यह विष वृक्ष जिन गहरी जड़ों के कारण फल फूल रहा है, वह हर क्षेत्र में छाया हुआ अज्ञान, अनाचार ही है। आदमी का सोचने का तरीका यदि बदला जा सका होता तो उसका परिणाम उससे सर्वथा विपरीत होता जो आज हमारे सामने है। हर उलझी समस्या का, हर विपत्ति और दुर्गति का एक ही कारण है भ्रष्ट चिन्तन और तज्जनित दुष्ट कर्तृत्व। इसका मूर्छाच्छेदन किये बिना अन्यान्य उपायों से सुधार की, प्रगति की बाल क्रीड़ा ही होती रहेगी पर बनेगा कुछ नहीं।

पेड़ मुरझा रहा है तो पत्ते छिड़कने से नहीं सींचने से काम चलेगा। चेचक की हर फुन्सी पर अलग अलग पट्टी नहीं बँध सकती, रक्त शोधक दवा से ही उसकी जड़ कटेगी। मनुष्य और समाज के सामने आज अगणित समस्याएँ है, पर वे उत्पन्न एक ही कारण से हुई हैं और उनका निवारण भी एक ही केन्द्र से सम्बद्ध है। ताले के हर पुर्जे की तोड़ फोड़ जरूरी नहीं। ताली घुमाने से वे सभी घूम जायेंगे और ताला खुल जायेगा। शरीरगत रुग्णता, मनोगत उद्विग्नता, आर्थिक क्षेत्र की तंगी, अपराधों का घातक, क्लेश, विग्रह, अशिक्षा, बेकारी, पिछड़ापन, पीड़ा आदि जो कुछ जहाँ कहीं भी अशुभ दिखाई पड़े समझना चाहिए यह सारा दावानल अवांछनीय चिन्तन की चिनगारी का उत्पन्न किया परिणाम है।

अपनी निज की, अपने परिवार की, देश, समाज की, विश्व मानव की प्रगति मात्र की कुछ ठोस सेवा करने की इच्छा हो, तो व्यापक रूप से मनःक्षेत्र में भरी हुई उस गन्दगी को साफ करना चाहिए जिसकी सड़ाँध से विभिन्न जातियों के विषाणु उत्पन्न होते हैं और एक से एक भयंकर महामारियों का सृजन करते हैं।

प्राचीन काल के रावण, कंस, महिषासुर, वृत्तासुर आदि की सत्ता स्थानीय थी इसलिए उन्हें आसानी से मारा जा सका। इस युग का रावण सर्वव्यापक है। हर व्यक्ति की इच्छा, बुद्धि और क्रिया उसी के चंगुल में पूरी तरह जकड़ गई है। इससे लोहा अपेक्षाकृत कठिन है, फिर भी हिम्मत तो नहीं ही हारी जायेगी। हाथ पर हाथ धरे तो नहीं ही बैठेंगे। समुद्र से अण्डे वापस लेने के लिए टिटहरी जब अथक प्रयास कर सकती थी और अन्ततोगत्वा सफल हो सकती थी, तो हमीं क्यों अपने को उससे कम साहसी और कम पुरुषार्थी सिद्ध करेंगे।

युग परिवर्तन की, जन मानस के भावनात्मक नव निर्माण की घड़ी निकट आ पहुँची। अरुणोदय का, ऊषा का आलोक प्राची के समीप न सही दूर दिखाई पड़ने लगा है। हम इस ब्रह्म मुहूर्त में आलस्य प्रमाद के गर्त में पड़े न रहेंगे, कमर बाँधकर आगे बढ़ेंगे और कर्तव्यों की पुकार को शिरोधार्य करते हुए शूरवीरों जैसा दुस्साहस जुटायेंगे। इसमें त्याग बलिदान का परिचय देना होगा। इसके बिना इतना बड़ा यज्ञ सफल नहीं हो सकता।

युग निर्माण परिवार के परिजनों ने प्राथमिक परीक्षाएँ कितनी ही पास कर ली हैं। प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक शतसूत्री योजना के आमंत्रण को प्रायः सभी ने स्वीकार किया है और न्यूनाधिक योगदान सभी का रहा है। यदि ऐसा न होता तो उज्ज्वल भविष्य की जो किरणें हर किसी को आश्वस्त कर रही हैं, उनका आलोक किस प्रकार दृष्टिगोचर होता? पर अब खोजने के लिए पंचवटी से लेकर रामेश्वर की यात्रा पूरी हो चुकी। रास्ता नापने का, ठहरने और भोजन का प्रबन्ध जुटाने का छोटा काम पूरा हो गया। रीछ, वानर अब उस तट पर आ पहुँचे जहाँ से सेतुबन्ध बाँधा जाना है। जहाँ से सोने की बनी, दुर्दान्त असुरों की शस्त्र सज्जा से सजी लंका पर आक्रमण किया जाना है। संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए और कोई उपाय भी तो नहीं है। रावण को कुछ भी कर गुजरने, असंख्य सीताओं के अपहरण की छूट देकर ही हम अपनी सुख सुविधाएँ बचा सकते है अन्यथा ‘हतो वा प्राप्यसि स्वर्ग जीत्वावा भोक्ष्य से मुहीम’ के दोनों हाथों में लड्डू देखते हुए करो या मरों की नीति अपनानी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प अब रह नहीं गया है।

रावण और कंस के समय में अनेक साधन सम्पन्न राजा, योद्धा, धनी, विद्वान और कुशल, समर्थ व्यक्तियों का अभाव न था। वे चाहते तो मिल-जुलकर असुरों के विरुद्ध मुहिम खड़ी कर सकते थे। मुगल काल में अनेकों शस्त्र सज्जित सामन्त मौजूद थे, वे चाहते तो आक्रान्ताओं को मिल-जुलकर खदेड़ सकते थे। गाँधीजी के जमाने में ६०० से अधिक रजवाड़े थे, उनके पास सैनिक भी थे और शस्त्र भी, पर वे सभी साहस गँवा चुके थे। त्याग बलिदान की माँग पूरी करने की तेजस्विता उनमें रह नहीं गई थी। फलतः रावण से लड़ने के लिए रीछ-वानरों को, मुगलों से लड़ने के लिए प्रताप, शिवाजी छापामारों को, अंग्रेजों से लड़ने के लिए गाँधी के निहत्थे सत्याग्रहियों के उपहासास्पद और नगण्य समझे जाने वाले जत्थों को आगे आना पड़ा था। आज भी वही स्थिति है। सुयोग्य और समर्थ व्यक्तियों की कोई कमी नहीं। वे चाहें तो अज्ञान के असुर से जूझने के लिए अपने उन साधनों को दे सकते हैं, जो उनके क्षुद्र स्वार्थों में लगे हुए हैं। पर ऐसा सम्भव नहीं। साधन सम्पन्न होने से क्या हुआ? सामर्थ्यवान होने से क्या बना? उनके हृदय बहुत ही छोटे और कृपण हैं। संग्रह और उपभोग से आगे की बात सोचना उनकी कृपण चेतना के लिए सम्भव नहीं है। आदर्श प्रस्तुत करने के लिए जिस दुस्साहस की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटाना इनके लिए कदाचित ही सम्भव हो सके। मनुष्य का लक्ष्य और सफलता का रहस्य जिन्होंने माला घुमाने और कर्मकाण्डों की टन्ट घण्ट तक सीमाबद्ध कर लिया हो, वे सब कुछ पा लेने की बात सोचते हैं। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जो महँगी कीमत चुकानी पड़ती है, उसे वे क्यों कर जुटा पायेंगे, समर्थ और साधन सम्पन्न होने से क्या हुआ, उनकी आन्तरिक कृपणता इतनी गहरी है कि उस साहस की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती जो महामानवों की पंक्ति में बैठने वाले, मानवी गौरव को प्रतिष्ठा देने वाले आदर्शवादी लोगों को देनी पड़ती है।

इस सेतुबन्ध को हम रीछ-वानर ही मिलकर बाँधेंगे। इस गोवर्धन को उठाने में हम ग्वाल-बाल ही अपनी लाठी लगावेंगे। समुद्र को पाटने के लिए गिलहरी अपने बालों में रेत भर ले जाती थी और उसे पानी में छिड़कती थी, टिटहरी ने अण्डे वापस लेने के लिए समुद्र में चोंच-चोंच मिट्टी डालने का उपक्रम किया था। निस्सन्देह यह प्रयास बुद्धिमान समझे जाने वाले लोगों के लिए मूर्खतापूर्ण थे, पर जब बुद्धिमानी अपने स्थान पर जीवित है तो इस बेचारी आदर्शवादी मूर्खता को भी तो जिन्दा रहना ही चाहिए। हमें गर्व और गौरव के साथ इस दुस्साहस भरी मूर्खता का परिचय देना चाहिए, जिसमें हमें अपने पास जो कुछ है उसे युग देवता के चरणों पर समर्पित करना है। अज्ञान का असुर इससे कम में मरेगा नहीं। वृत्तासुर वध का एक ही उपाय था-दधीचि की अस्थियों का वज्र। उन महामुनि ने इस सन्दर्भ में कृपणता नहीं बरती। यो कष्ट तो सुई चुभने का भी होता है। अस्थिदान में भी उन्हें पीड़ा हुई ही होगी पर आदर्शों की स्थापना के लिए इससे कम में कभी काम चला भी नहीं है। रीछ-वानर अपनी जान बचाते तो लंका विजय सम्भव न थी। धर्मयुद्ध में पाप मरता तो है पर मरता तब है जब धर्मवीरों के त्याग बलिदान की पूरी परख कर लेता है। आज भी इतिहास की उसी पुनरावृत्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।

यह हमारी वास्तविकता की परीक्षा बेला है। अज्ञान असुर के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता पड़ेगी। जन शक्ति, बुद्धिशक्ति, धन शक्ति जितनी भी जुटाई जा सके उतनी कम है। बाहर के लोग आपाधापी की दलदल में आकण्ठ मग्न हैं। इस युग पुकार को भावनाशीलों को ही पूरा करना होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार