91.    मंत्रों में निहित शक्ति एवं उसकी जागृति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

ईथर तत्त्व में शब्द प्रवाह के संचरण को रेडियो यन्त्र अनुभव करा सकता है, पर ईथर को उसके असली रूप में देखा जा सकना सम्भव नहीं। गर्मी, सर्दी, सुख, दुःख की अनुभूति होती है, उन्हें पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। मन्त्र में उच्चरित शब्दावली मन्त्र की मूल शक्ति नहीं वरन् उसको सजग करने का उपकरण है। किसी सोते को हाथ से झकझोर कर जगाया जा सकता है, पर यह हाथ ‘जागृति’ नहीं। अधिक से अधिक उसे जागृति का निमित्त होने का श्रेय ही मिल सकता है। मन्त्रोच्चार भी अन्तरङ्ग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतन शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का एक निमित्त कारण भर है।

किस मन्त्र से किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाय, इसका संकेत हर मन्त्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। वैदिक और तान्त्रिक सभी मन्त्रों का विनियोग होता है। आगम और निगम शास्त्रों में मन्त्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मन्त्र का ही किया जाता है, पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ लेना अथवा स्मरण कर लेना आवश्यक होता है। इससे मन्त्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ता रहता है।

मन्त्र विनियोग के पाँच अङ्ग हैं- (1) ऋषि (2) छन्द (3) देवता (4) बीज (5) तत्त्व। इन्हीं से मिलकर मन्त्र-शक्ति सर्वांगपूर्ण बनती है। ‘ऋषि’ तत्त्व का संकेत है-मार्गदर्शक गुरु, ऐसा व्यक्ति जिसने उस मन्त्र में पारंगतता प्राप्त की हो। सर्जरी, संगीत जैसे क्रिया-कलाप अनुभवी शिक्षक ही सिखा सकता है। पुस्तकीय ज्ञान से नौकायन नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए किसी मल्लाह का प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन चाहिए। चिकित्सा ग्रन्थ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता रहती है। विभिन्न मनोभूमियों के कारण साधना-पथिकों के मार्ग में भी कई प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं, उस स्थिति में सही निर्देशन और उलझनों का समाधान केवल वही कर सकता है जो उस विषय में पारंगत हो।

छन्द का अर्थ है-लय। वाक्य में प्रयुक्त होने वाली पिंगला प्रक्रिया के आधार पर भी छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं। मन्त्र रचना में काव्य प्रक्रिया अनिवार्य नहीं है। हो भी तो उसके जानने न जानने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यहाँ लय को ही छन्द समझा जाना चाहिए, किस स्वर में किस क्रम से, किस उतार-चढ़ाव के साथ मन्त्रोच्चारण किया जाय, यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही होते है, उँगलियाँ चलाने का क्रम भी हर वादन में चलता है, पर बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में हेर-फेर करके विभिन्न राग-रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मानसिक, वाचिक, उपांशु, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित ही नहीं मन्त्रोच्चार के और भी भेद-प्रभेद हैं जिनके आधार पर उसी मन्त्र द्वारा अनेक अकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

ध्वनि तरंगों के कम्पन इस लय पर ही निर्भर हैं। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है। मन्त्रों की एक यति सब के लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकांक्षा को ध्यान में रखकर यति का, लय का निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मन्त्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त छन्द की लय का निर्धारण कर लें।

विनियोग का तीसरा चरण है-देवता। देवता का अर्थ है, चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेकों रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं, पर हर एक की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्राडकाष्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे सम्बन्ध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का रेडियो प्रोग्राम सुने और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दे। निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक अस्तित्व भी लेकर चलती है। भूमि एक ही होने पर भी उसमें परतें अलग-अलग होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित रहती हैं। उसके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें देवता कहा जाता है।

साकार उपासना पक्ष देवताओं की अलंकारिक प्रतिमा भी बना लेता है और निराकार पक्ष प्रकाश किरणों के रूप में उसको पकड़ता है। सूर्य की सात रंग की किरणों में से हम जिसे चाहें उसे रंगीन शीशे के माध्यम से उपलब्ध कर सकते है। एक्सरे मशीन अल्ट्रा वायलेट उपकरण आकाश में से अपनी अभीष्ट किरणों को ही प्रयुक्त करते हैं। हंस दूध पीता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार किस मन्त्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाये, इसके लिए विधान निर्धारित है। स्थापन, पूजन, स्तवन आदि क्रियाएँ इसी प्रयोजन के लिए होती हैं। निराकारी साधक ध्यान द्वारा उस शक्ति को अपने अङ्ग-प्रत्यंगों में तथा समीपवर्ती वातावरण में ओतप्रोत होने की भावना करते हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का क्या तरीका ठीक रहेगा, यह निश्चय करके ही मन्त्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है। दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यन्त्र को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ या पैर से चलने वाले यन्त्रों के लिए न सही, उन्हें चलाने, हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए ऊर्जा की जरूरत रहती है। यह तापमान जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं। मन्त्रों की सफलता भी इसी ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर है। साधना विधान का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है। आयुर्वेद में भी नाड़ी-शोधन के लिए वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, नस्य यह पञ्चकर्म शरीर शोधन के लिए है। मन्त्र साधन में व्यक्तित्व के परिष्कार के अतिरिक्त पाँच आधार-ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्त्व हैं। जो इन सब साधनों को जुटा कर मन्त्र साधन कर सके, उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होकर ही रहती है।

मन्त्र योग-साधना का एक ऐसा शब्द और विज्ञान है कि उसका उच्चारण करते ही किसी चमत्कारी शक्ति का बोध होता है। ऐसी धारणा है कि प्राचीन काल के योगी, ऋषि और तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने मन्त्रबल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों पर विजय पाई थी। मन्त्र शक्ति के प्रभाव से वे इतने समर्थ बन गये थे कि इच्छानुसार किसी भी पदार्थ का हस्तान्तरण, पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे। शाप और वरदान मन्त्र का ही प्रभाव माना जाता है। एक क्षण में किसी का रोग अच्छा कर देना, एक पल में करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र की जानकारी और शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक-एक जोड़ की ही अलौकिक शक्ति थी। इसलिए भारतीय तत्त्वदर्शन में मन्त्र शक्ति पर जितनी शोधें हुई हैं, उतनी और किसी पर भी नहीं हुई। मन्त्रों के आविष्कार होने के कारण ही ऋषि मन्त्र-दृष्टा कहलाते थे। वेद और कुछ नहीं, एक प्रकार के मन्त्र विज्ञान हैं जिनमें विराट् ब्रह्माण्ड की उन अलौकिक सूक्ष्म और चेतन सत्ताओं और शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने के गूढ़ रहस्य दिये हुए हैं, जिनके सम्बन्ध में विज्ञान अभी ‘क ख ग’ भी नहीं जानता।

मन्त्र का सीधा सम्बन्ध उच्चारण या ध्वनि से है। इसलिए इसे ‘ध्वनि-विज्ञान’ भी कह सकते है। अब तक इस दिशा में जो वैज्ञानिक अनुसंधान हुए और निष्कर्ष निकले हैं वह यह बताते हैं कि सामान्य भारतीय मन्त्रशक्ति पर भले ही विश्वास न करे, पर वैज्ञानिक अब उसी दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। वह समय समीप ही है, जब ध्वनि विज्ञान की उन्नति ऋषियों जैसे ही कौतूहल वर्द्धक कार्य करने लगेगी। उदाहरण के लिए ‘ट्रान्स्डूसर’ यन्त्र से सूक्ष्म शब्द को व्यापक बनाया जा सकता है वह शब्द की कर्णातीत शक्ति का ही फल है।

मन्त्रों में चार शक्तियाँ मानी गई हैं-(1) प्रामाण्य शक्ति (2) फल प्रदान शक्ति (3) बहुलीकरण शक्ति (4) आयातयामता शक्ति। इसका विवेचन महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमांसा में किया है। उनके कथानुसार मन्त्रों की प्रामाण्य शक्ति वह है जिसके अनुसार शिक्षा, सम्बोधन, आदेश का समावेश रहता है। इसे शब्दार्थों से सम्बन्धित कह सकते हैं।

कुण्ड समिधा, पात्रपीठ, आज्य चरु, हवि, पीठ आदि को अभिमन्त्रित करके उनके सूक्ष्म प्राणों को प्रखर करने का विधान मन्त्रोच्चार, कर्मकाण्ड, न्यास, ऋत्विजों का मनोयोग ब्रह्मचर्य तप, आहार आदि विधि-विधान से मन्त्र की फलदायिनी शक्ति सजग होती है। सकाम कर्मों में मन्त्र की यही शक्ति विभिन्न क्रिया-कृत्यों के सहारे सजग होती है और अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती है।

तीसरी शक्ति है ‘बहुलीकरण’ अर्थात थोड़े को बहुत बनाना। यज्ञ में होमा हुआ जरा सा पदार्थ वायुभूत होकर समस्त विश्व में फैल जाता है। पानी के ऊपर जरा सा तेल डाल देने से पानी की सारी सतह पर फैल जाता है। तनिक सा विष सारे शरीर में फैल जाता है। उसी प्रकार साधक का शरीर मन्त्रोच्चार एवं साधन में काम आने वाले अंग जरा से होते हैं, पर उनके घर्षण से उत्पन्न शक्ति, दियासलाई से निकलने वाली चिनगारी की तरह नगण्य होते हुए भी दावानल बन जाने की सामर्थ्य से ओत-प्रोत रहती है। एक व्यक्ति की मन्त्र साधना अनेक व्यक्तियों को तथा पदार्थों को परमाणु जीवाणुओं को प्रभावित करती है, तो यह बहुलीकरण शक्ति ही काम कर रही होती है।

चौथी ‘आयातयामता शक्ति’ किसी विशेष क्षमता सम्पन्न व्युत्पन्नमति मेधावी सक्षम व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर, विशेष व्यक्ति की सहायता से विशेष उपकरणों के सहारे विशेष विधि-विधान के साथ मन्त्रोपासना करने पर विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। विश्वामित्र और परशुराम ने गायत्री मन्त्र की साधना, विशेष प्रयोजन के लिए, विशेष विधि-विधानों के साथ की थी और उससे उन्होंने अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त किये। दशरथ जी का पुत्रेष्ठि यज्ञ वशिष्ठजी पूरा न करा सके तब शृंगी ऋषि ने उसे सम्पन्न कराया, यह शृंगी ऋषि की आयातयामता शक्ति ही थी।

कौत्समुनि ने मन्त्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक का अर्थ यह है कि उसके अर्थ को नहीं ध्वनि प्रवाह को, शब्द गुन्थन को महत्त्व दिया जाना चाहिए। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं आदि बीज मन्त्रों के अर्थ से नहीं ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। नैषध चरित्र के 13 वें सर्ग में उसके लेखक ने इस रहस्य का और भी स्पष्ट उद्घाटन किया है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है, उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है।

शब्द शक्ति का स्फोट मन्त्र शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को हैं। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कम्पन भी चिरन्तन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द कम्पन घटकों का विस्फोट भी अणु विखण्डन की तरह ही हो सकता है। मन्त्र योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मन्त्रों की शब्द रचना का गठन तत्त्वदर्शी, मनीषी तथा दिव्यदृष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका उपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों एवं कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मन्त्राराधन वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।

शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती है जिन्हें कानों की श्रवणशक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। इसलिए तान्त्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्त्व रहता है। योगी वायु उपासक है। उसे प्राणशक्ति का सञ्चय वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मान्त्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मान्त्रिक योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।

मन्त्राराधना में शब्द शक्ति का विस्फोट होता है, विस्फोट में गुणन शक्ति है। मन्त्र में सर्वप्रथम देवस्थापना की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है। श्रद्धा, शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरम्भिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है। विचार का चुम्बकत्व सर्वविदित है। इष्टदेव की, मन्त्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास से उसमें सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह तथा तप साधना कष्टसाध्य तितीक्षा के द्वारा मन्त्र की गुह्य शक्ति के करतलगत हो जाने का भरोसा दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मनःक्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठाएँ मिलकर मन्त्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण चुम्बकत्व से परिपूर्ण कर देती है।

मन्त्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाववृत्त और दूसरे को ध्वनि वृत कह सकते है। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने-अपने अयन वृत पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है।

मन्त्र जप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मन्त्र के अन्तराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है, वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल लें। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनिवृत्त भी ऐसा ही प्रचण्ड होता है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अन्तरङ्ग वृत्तियों पर, शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियों पर इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को तोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



92.    शब्द-एक प्रचण्ड ऊर्जा, शक्ति का भाण्डागार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मुख को अग्नि चक्र कहा गया है। मोटे अर्थों में उसकी संगति जठराग्नि से मिलाई जा सकती है। मंदाग्नि तीव्राग्नि का वर्णन मुँह से लेकर आमाशय अन्त्रि-संस्थान तक विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई पाचन ग्रन्थियों की निष्क्रियता-सक्रियता का परिचय देने के रूप में ही किया जाता है। मुँह चबाता है और पचाने का प्राथमिक कार्य अपने गह्वर में पूरा करता है। आगे चलकर आहार की पाचन क्रिया अन्यान्य रूपों में विकसित होती जाती है। अग्नि चक्र की, मुख में अवस्थित ऊष्मा की स्थूल चर्चा ही पाचन प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है। वस्तुतः उस संस्थान को यज्ञाग्नि का दिव्य कुण्ड कह सकते हैं, जिससे पाचन का ही नहीं, वाकशक्ति का भी उद्भव होता है। वाणी की शक्ति का जीवन के उत्कर्ष-अपकर्ष में कितना अधिक योगदान है। इसकी जानकारी किसी गूंगे और ओजस्वी वक्ता की स्थिति की तुलना करके देखने से मिल सकती है। संभावना का आदान-प्रदान कितना प्रभावी है, इसका इसलिए पता नहीं चलता कि वह ढर्रा सहज अभ्यास से चलता रहता है और हम उससे कुछ विशेष निष्कर्ष नहीं निकाल पाते। यदि हम किसी मूक योनि के प्राणी रहे होते और बातचीत का आनन्द एवं लाभ लेने वाले मनुष्य की सुविधा का लेखा-जोखा लेते तो पता चलता कि यह कितनी बड़ी उपलब्धि है।

मुख का अग्नि चक्र स्थूल रूप से पाचन का, सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है। उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़कर है। पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है। दिव्य प्रवाह संचार की बात कोई-कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विधान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है।

शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता वरन् उनके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएँ, संवेदनाएँ, प्रेरणाएँ एवं शक्तियाँ भी जुड़ी होती हैं। यदि ऐसा न होता तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती। दूसरों को उठाने गिराने में उसका उपयोग न हो पाता। कटु शब्द सुनकर क्रोध का आवेश चढ़ आता है और न कहने योग्य कहने तथा न करने योग्य करने की स्थिति बन जाती है। चिन्ता का समाचार सुनकर भूख-प्यास और नींद चली जाती है। शोक संवाद सुनकर मनुष्य अर्ध मूर्च्छित जैसा हो जाता है। तर्क, तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते-देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं। द्रौपदी ने थोड़े से व्यंग-उपहास भरे अपमान जनक शब्द दुर्योधन से कह दिये थे। उनका घाव इतना गहरा उतरा कि अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश करने वाले महाभारत के रूप में उसकी भयानक प्रतिक्रिया सामने आई। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है। शब्द प्रवाह के साथ-साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रहकर जहाँ भी टकराते हैं, वहाँ चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। शब्द को पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पन्दन भी कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती। वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है।

जपयोग में शब्द शक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को छानकर काम में लाया जाता है। नींबू का रस निचोड़कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता है। दूध में से घी निकाल कर छाछ को महत्त्वहीन ठहरा दिया जाता है। जपयोग में ऐसा ही होता है। उसके द्वारा ऐसी चेतन शक्ति का उद्भव होता है, जो जपकर्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न करती है और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ट व्यक्तियों को, विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।

मन्त्रों का चयन ध्वनि-विज्ञान को आधार मानकर किया गया हैं। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मन्त्र की सामर्थ्य अद्भुत है। पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मन्त्र श्लोक हजारों है। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मन्त्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता? वस्तुतः मन्त्र दृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन ही महत्त्वपूर्ण रहा हैं। कितने ही बीज मन्त्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है नहीं। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐ, हुं, फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता हैं, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है। उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया हैं कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न करता है और उनका जपकर्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

मानसिक, वाचिक एवं उपांशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और त्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे-ऊँचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके।

मन्त्र जप की दुहरी प्रतिक्रिया होती है। एक भीतर दूसरी बाहर। आग जहाँ जलती है उस स्थान को गरम करती है, साथ ही वायु मण्डल में ऊष्मा बिखेरकर अपने प्रभाव क्षेत्र को भी गर्मी देती है। जप का ध्वनि प्रवाह समुद्र की गहराई में चलने वाली जलधाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र सन्निहित अनेकों चक्रों तथा उपत्यिकाओं-ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है। लगातार के एक नियमित क्रम से चलने वाली हलचलें ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं जिन्हें रहस्यमय ही कहा जा सकता है।

जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस प्रक्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्डर किसी छत के बीचों-बीच लटका दिया जाय और उस पर पाँच ग्राम भारी हलके से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जाय तो कुछ ही समय में वह सारा गार्डर काँपने लगेगा। यह लगातार एक गति से आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को जप ध्वनि का अनवरत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करके जागृति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थि भेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्ता को प्राप्त होता है। जगे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्मबल का नया संचार करते हैं। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इस नवीन उपलब्धि के लाभ भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होते हैं।

टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। उँगली से चाबियाँ दबाई जाती हैं और कागज पर तीलियाँ गिर कर अक्षर छापने लगती है। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुञ्जियाँ कह सकते हैं। मन्त्रोच्चार उँगली से उन्हें दबाना हुआ। यहाँ से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुँचता है और उन्हें झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना वह उपलब्धि है जो इन जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जपयोग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।

पुलों पर होकर गुजरती हुई सेना को पैर मिलाकर चलने पर उत्पन्न होता ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करने की मनाही कर दी जाती है। पुलों पर से गुजरते समय वे बिखरे हुए स्वच्छंदता पूर्ण कदम बढ़ाते हैं। कारण यह है कि लेफ्ट-राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है, उसकी अद्भुत शक्ति के प्रहार से मजबूत पुलों में दरार पड़ सकती है और भारी नुकसान हो सकता है। मन्त्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से उसी प्रकार का तालक्रम उत्पन्न होता है और उसके फलस्वरूप शरीर के अन्तःसंस्थानों में विशिष्ट हलचल उत्पन्न होती है। यह हलचलें उन अलौकिक शक्तियों की मूर्छना दूर करती है जो जागृत होने पर सामान्य मनुष्य को असामान्य चमत्कारों से सम्पन्न सिद्ध कर सकती हैं।

हाथों को लगातार थोड़ी देर तक घिसा जाय तो वे गरम हो जाते हैं। रगड़ से गर्मी और बिजली पैदा होती है, यह नियम विज्ञान की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले छात्र भी जानते हैं। जप में अनवरत उच्चार क्रम एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसाव के निशान बन जाते हैं। श्वाँस के आवागमन तथा रक्त की भाग-दौड़ से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है और उसी पर जीवन अवलम्बित रहता है। डायनेमो में पहिया घूमने से बिजली उत्पन्न होने की बात सभी जानते हैं। जप में जो घर्षण प्रक्रिया गतिशील होती है, वह दौड़ लगाने पर शरीर के उत्तेजित हो जाने की तरह सूक्ष्म शरीर में उत्तेजना पैदा कर रही है और उस गर्मी से मूर्च्छित पड़ा अन्तर्जगत् नये जागरण का अनुभव करता है। यह जागरण मात्र उत्तेजना नहीं होती उसके साथ-साथ दिव्य उपलब्धियों की सम्भावना भी जुड़ी रहती है।

ध्वनियाँ उतनी ही नहीं है जितनी कि कानों से सुनाई पड़ती है। कान तो एक निश्चित स्तर के ध्वनि कम्पनों को ही सुन पाते हैं। उनके पकड़ से ऊँचे और नीचे कम्पनों वाले भी असंख्य ध्यान प्रवाह होते है जिन्हें मनुष्य के कान तो सुन नहीं सकते पर उनके प्रभावों को उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष देखा, जाना जा सकता है। इन्हें सुपर सोनिक ध्वनि तरंगें कहते हैं।

मनुष्य की ग्रहण और धारण शक्ति सीमित है। वह अपनी दुबली सी क्षमता के लिए उपयुक्त शब्द प्रवाह को पकड़ सके, इसी स्तर की कानों की झिल्ली बनी हैं। किन्तु संसार तो शक्ति का अथाह समुद्र है और इसमें ज्वार-भाटे की तरह श्रवणातीत ध्वनियाँ गतिशील रहती हैं। अच्छा ही हुआ कि मनुष्य की ग्रहण शक्ति सीमित है और वह अपने लिए सीमित प्रवाह ही ले पाता है, अन्यथा यदि श्रवणातीत ध्वनियाँ भी उसे प्रभावित कर सकती तो जीवन धारण ही सम्भव न हो पाता।

शब्द की गति साधारण तथा बहुत धीमी है। वह मात्र कुछ सौ फुट प्रति सेकेण्ड चल पाती है। तोप चलने पर धुँआ पहले दीखता है और धड़ाके की आवाज पीछे सुनाई पड़ती है। जहाँ दृश्य और श्रव्य का समावेश है वहाँ हर जगह ऐसा ही होगा। दृश्य पहले दीखेगा और उस घटना के साथ जुड़ी हुई आवाज कान तक पीछे पहुँचेगी।

रेडियो प्रसारण में एक छोटी सी आवाज को विश्व व्यापी बना देने और उसे एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेण्ड की चाल से चलने योग्य बना देने में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों का ही चमत्कार होता है। रेडियो विज्ञानी जानते है कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स पर साउण्ड का सुपर कम्पोज रिकार्ड कर दिया जाता है और वे पलक मारते सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्तिशाली बन जाती है।

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों की शक्ति से ही अन्तरिक्ष में भेजे गये राकेटों की उड़ान को धरती पर से नियन्त्रित करने, उन्हें दिशा और संकेत देने, यान्त्रिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। वे लेसर स्तर की बनती है तो शक्ति का ठिकाना नहीं रहता। एक फुट मोटी लोहे की चादर में सूराख कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। पतली वे इतनी होती है कि आँख की पुतली के लाखवें हिस्से में खराबी होने पर मात्र उतने ही टुकड़े का निर्धारित गहराई तक ही सीमित रहने वाला सफल आपरेशन कर देती है। अब इन किरणों का उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी बहुत होने लगा है। कैन्सर, आन्त्रशोथ, यकृत की विकृति, गुर्दे की सूजन, हृदय की जकड़न जैसी बीमारियों की चिकित्सा में इनका सफल उपयोग हो रहा है।

‘सुपर सोनिक’ तरंगों का जप प्रक्रिया के द्वारा उत्पादन और समन्वय होता है। जप के समय उच्चारण किये गये शब्द, आत्मा निष्ठा, श्रद्धा एवं सङ्कल्प शक्ति का समन्वय होने से वही क्रिया सम्पन्न होती है, जो रेडियो स्टेशन पर बोले गये शब्द विशिष्ट विद्युत शक्ति के साथ मिलकर अत्यन्त शक्तिशाली हो उठते हैं और पलक मारते समस्त भूमण्डल में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते है। जप प्रक्रिया में एक विशेषता यह है कि उससे न केवल समस्त संसार का वातावरण प्रभावित होता है, वरन् साधक का व्यक्तित्व भी झनझनाने, जगमगाने लगता है। जबकि रेडियो स्टेशन से प्रसारण तो होता है, पर कोई स्थानीय विलक्षणता दिखाई नहीं पड़ती। लेसर, रेडियम किरणें फेंकने वाले यन्त्रों में कोई निजी प्रभाव नहीं देखा जाता। वे उन स्थानों को ही प्रभावित करते है जहाँ उनका आघात लगता है। जप-प्रक्रिया में साधक को और वातावरण को प्रभावित करने की वह दुहरी शक्ति है जो नव वैज्ञानिकों के सामान्य यन्त्र उपकरणों में नहीं पाई जाती।

औजारों से जो प्रयोजन सिद्ध होते हैं। उनमें मात्र उन यन्त्रों, मशीनों, पुर्जों, उपकरणों का ही महत्त्व नहीं होता, उन्हें चलाने वाली शक्ति की भी अनिवार्य आवश्यकता रहती है। मशीनें स्वसंचालित या कितनी भी कीमती क्यों न हो, बिजली की, भाप की, हाथ की या अन्य किसी प्रकार की शक्ति उन्हें चलाने के लिए चाहिए ही, इसका प्रबन्ध न हो सका तो बहुमूल्य मशीनों से सुसज्जित कारखाने में भी कुछ उत्पादन न हो सकेगा। जप आदि कर्मकाण्डों को औजार, उपकरण, मशीन आदि कहा जा सकता है। साधक का व्यक्तित्व उसका चरित्र, लक्ष्य, दृष्टिकोण एवं भावना स्तर मिलकर चेतनात्मक शक्ति के रूप में परिणत होता है और उसका बल पाकर शारीरिक हलचल मात्र दीखने वाले कर्मकाण्डों में दिव्य चेतना का संचार होता है। इसी समन्वय के आधार पर साधना से सिद्धि का स्तर पाने का अवसर मिलता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



93.    जप प्रक्रिया का वैज्ञानिक आधार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जप में शब्दों की पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारण का एक चक्रव्यूह-सर्किल बनता है। क्रमिक परिभ्रमण से शक्ति उत्पन्न होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस परिभ्रमण से आकर्षण शक्ति तथा भूलोक में सन्निहित अनेक स्तर की क्षमताएँ उत्पन्न होती हैं। यदि पृथ्वी का परिभ्रमण बन्द हो जाय तो उस पर घोर नीरवता, निर्जीवता एवं अशक्तता छा जायेगी। शक्ति उत्पादन के लिए परिभ्रमण कितना आवश्यक है, इसे डाइनेमो के प्रयोगकर्ता जानते हैं। घुमाव बन्द होते ही बिजली बनना बन्द हो जाती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर में विशिष्ट स्तर के विद्युत प्रवाह उत्पन्न करने के लिए विशिष्ट शब्दों का विशिष्ट गति एवं विधि से उच्चारण करना पड़ता है। मन्त्र जप का सामान्य विज्ञान यही है।

जप में एक शब्दावली को एक क्रम और एक गति से बिना विश्राम दिये गतिशील रखा जाता है। साधारण वार्तालाप में अनेकों शब्द अनेक अभिव्यक्तियाँ लिये हुए अनेक रस और भावों सहित उच्चारित होते हैं। अस्तु इनमें न तो एकरूपता होती है न एक गति। कभी विराम, कभी प्रवाह, कभी आवेश व्यक्त होते रहते हैं। पारस्परिक वार्तालाप में प्रतिपादन का एक केन्द्र या एक स्तर नहीं होता। अतएव उससे वार्ताजन्य प्रभाव भर उत्पन्न होता है, कोई विशिष्ट शक्तिधारा प्रवाहित नहीं होती। जप की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। इसमें सीमित शब्दावली ही प्रयुक्त होती है और वही लगातार बोली जाती रहती है। रेखागणित के विद्यार्थी जानते हैं कि एक रेखा यदि लगातार सीधी खींची जाती रहे तो वह अन्ततः उसी केन्द्र से आकर जुड़ जायेगी, जहाँ से आरम्भ हुई थी। प्रत्येक गतिशील पदार्थ गोल हो जाता है। पृथ्वी गोल है। ग्रह-नक्षत्र सभी गोल हैं। भौतिक जगत का छोटा घटक परमाणु और चेतन जगत का छोटा घटक जीवाणु दोनों ही गोल हैं। गोलाई पर चलते रहा जाय तो उसका अन्त आरम्भ वाले स्थान पर ही होगा। ग्रह-नक्षत्रों की भ्रमण कक्षाएँ इसी आधार पर सुनिश्चित रहती हैं। सीधी रेखा में हम पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल पड़ें तो लौटकर वहीं आ जायेंगे, जहाँ से चले थे। इस सिद्धान्त के अनुसार मन्त्र-जप की परिणति एक गतिशील शब्द-चक्र की स्थापना के रूप में होती है।

कहा जाता है कि वाल्मीकि ऋषि ने उलटा मन्त्र जपा था, अर्थात् राम-राम के स्थान पर मरा-मरा कहा था। वस्तुतः यह सुनने-समझने वालों का ही भ्रम रहा होगा। लगातार एक ही गतिक्रम से राम-राम कहते रहने पर उसकी गति गोल हो जायगी और उसे आसानी से मरा-मरा समझा जा सकेगा। इसी प्रकार मरा-मरा मन्त्र का संकल्प लेकर किया गया उच्चारण भी राम-राम प्रतीत होने लगेगा। असल में होता यह है कि एक शब्दावली को अनवरत गति से बोलने पर उसमें आदि अन्त का भेद नहीं रहता, पुरी शब्दावली एक गोलाई में घूमने लगती है और शब्द-चक्र बनाती है। मन्त्र जप के विधान का निर्देश करते हुए ‘तैलधारावत्’ सूत्र में कहा गया है कि जिस तरह तेल को एक गति से गिराने पर इसकी धारा बँध जाती है, उसी प्रकार मन्त्रोच्चारण का क्रम एक ही गति से चलना चाहिए। न उसके प्रवाह क्रम में अन्तर आवे और न उच्चारण स्तर में। रुक-रुककर, कभी धीमे, कभी तीव्र, कभी उच्च स्वर, कभी मन्द, ऐसा जप में नहीं हो सकता। वेदमन्त्रों के सस्वर उच्चार की बात दूसरी है। वे छन्द हैं, इसलिए पाठ करते समय उन्हें स्वरबद्ध अनुशासन का ध्यान रखते हुए गाया जाना अथवा पाठ करना उचित है। जप की व्यवस्था इससे सर्वथा भिन्न है। गायत्री, मृत्युञ्जय आदि वेद मंत्रों को भी जप करते समय स्वर रहित ही जपा जाता है, साथ ही धारा जैसी एक रस, एक सम गति बनाये रखी जाती है। इसमें कोई अन्तर तो नहीं पड़ता, इसकी जाँच-पड़ताल माला के आधार पर की गई गणना से होती है। गायत्री मन्त्र जप में साधारणतया एक घण्टे में 10-11 माला होती हैं। नित्य वही क्रम चला या नहीं, इसकी जाँच-पड़ताल घड़ी और माला के समन्वय से हो सकती है। प्रत्येक माला पूरी होने में समान समय लगना चाहिए, तभी मन्त्र शक्ति का वैज्ञानिक आधार बन गया, ऐसा समझा जा सकता है। भक्ति-विभोर होकर बिना गति का ध्यान रखे भी जप हो सकता है, पर वह भावनात्मक प्रक्रिया हुई। उसका परिणाम भावना की शुद्धता और गहराई पर निर्भर है। ऐसे जप को शब्द-शक्ति के आधार पर उत्पन्न होने वाले मन्त्र-जप से भिन्न स्तर का समझा जाना चाहिए। ब्लडप्रेशर नापने की मशीन रोगी की बाँह पर बाँधकर डाक्टर घड़ी पर निगाह लगाये रहते हैं, हवा का दबाव बढ़ाते रहते हैं, कान में स्टेथिस्कोप से धड़कन गिनते रहते हैं, तभी वे समझ पाते हैं कि रक्तचाप कितना है। घड़ी और माला-गणना पर ध्यान लगाये रहकर नये साधक को अपने जप की गति को एक रस-एक सम बनाना पड़ता है। उतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि शब्द गति का चक्र बन गया और उसके आधार पर मन्त्र विज्ञान के विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होंगे। विशेष पुरश्चरणों में जप विद्या के निष्णात साधक इसीलिए बिठाये जाते हैं कि उनकी सही जप-प्रक्रिया सही परिणाम उत्पन्न कर सके।

गति जब गोलाई में घूमने लगती है तो उससे उत्पन्न होने वाले चमत्कार हम अपने दैनिक जीवन में नित्य ही देखते रहते हैं। बच्चे छोटी फिरकनी अथवा लट्टू जमीन पर घुमाने का खेल-खेलते हैं। एक बार होशियारी से घुमा देने पर यह खिलौने देर तक अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं और गिरते नहीं, जबकि गति बन्द होते ही वे जमीन पर गिर जाते हैं। यह गति का चमत्कार ही है कि एक बार का धक्का देर तक काम देता है और उत्पन्न गति प्रवाह को देर तक चलते रहने की स्थिति उत्पन्न करता है। जप के द्वारा उत्पन्न गति भी साधना काल के बहुत पश्चात तक चलती रहती है और साधक की आत्मिक विशेषता को गतिशील एवं सुस्थिर बनाये रहती है।

मशीनों का बड़ा पहिया ‘फ्लाईह्वील’ एक बार घुमा देने पर मशीन के अन्य पुर्जों को न केवल गतिशील ही करता है, वरन् उनकी चाल को नियन्त्रित भी करता है। आरी का उपयोग हाथ से आगे पीछे की गति से करने पर भी लकड़ी कटती तो है, पर यदि गोलाई में घुमा दिया जाय तो वही आरी कई गुनी शक्तिशाली सिद्ध होगी और अधिक मात्रा में अधिक जल्दी कटाई कर सकेगी। आरा मशीनें यही करती हैं। वे मोटे-मोटे लट्ठे और कठोर जड़ें आसानी से चीर-चारकर रख देती हैं, जबकि आगे पीछे करने पर उसी आरी के लिए वही लकड़ी काटना काफी कठिन पड़ता। यह सब गोलाई में घूमने वाले गति प्रवाह का चमत्कार है।

तेजी के साथ गोलाई का घुमाव सैन्ट्रीफ्यूगल फोर्स उत्पन्न करता है। गोफन में कंकड़ रखकर घुमाने और उसे छोड़कर पक्षी भगाने का कार्य पकी फसल रखाने के लिए किसानों को बहुधा करना पड़ता है।

घुमाव की शक्ति के यह आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम साधारणतया देखने में आते रहते हैं। जप के माध्यम से गतिशील शब्द शक्ति का प्रतिफल भी वैसा ही होता है। झूले पर बैठे बच्चों को जिस तरह अधिक बड़े दायरे में तेजी से घूमने का और गिरने की आशंका होने पर भी न गिरने का आनन्द मिलता है, उसी प्रकार अन्तःचेतना की सीमा परिधि छोटी सीमा से बढ़कर कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र तक अपना विस्तार देखती है और दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों के कारण अधःपतन की जो आशंका रहती है, उसके बचाव की सहज संभावना बन जाती है। गोफन द्वारा फेंके गए कंकड़ की तरह साधक अभीष्ट लक्ष्य की ओर द्रुतगति से दौड़ता है और यदि फेंकने वाले के हाथ सधे हुए हैं तो वह ठीक निशाने पर भी जा लगता है। घुमाव की स्थिति में रहने पर तिरछा हो जाने पर भी लोटे का पानी नहीं फैलता। उसी प्रकार अपने भीतर भरे जीवन तत्व के, संसार के अवांछनीय आकर्षणों में गिर पड़ने का संकट घट जाता है। लोटा धीमे घुमाया गया हो तो बात दूसरी है, पर तेजी का घुमाव पानी को नहीं ही गिरने देता। जप के साथ जुड़ा विधान और भावना स्तर यदि सही हो तो आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से आए दिन जूझने और कदम-कदम पर असफल होने की कठिनाई दूर हो जाती है।

चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है-शिक्षण, जिसे अँग्रेजी में लर्निंग कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उन्हें तरह-तरह की जानकारियाँ दी जाती हैं। उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता, विद्यार्थी उन्हें बार-बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने-याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े रटने पड़ते हैं। संस्कृत को तो रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार-बार दुहराए जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।

एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरान्त यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दण्ड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिए नित्य का रियाज आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिए भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उँगलियाँ लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेगी।

शिक्षण की लर्निंग भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। जप द्वारा अनभ्यस्त ईश्वरीय चेतना को स्मृति पटल पर जमाने की आवश्यकता होती है ताकि उपयोगी प्रकाश की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना हो सके। कुएँ की जगत में लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। हमारी मनोभूमि भी इतनी ही कठोर है। एकबार कहने से बात समझ में तो आ जाती है, पर उसे स्वभाव की, अभ्यास की भूमिका तक उतारने के लिये बहुत समय तक दुहराने की आवश्यकता पड़ती है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान पड़ने की तरह ही हमारी कठोर मनोभूमि पर भगवत् संस्कारों का गहराई तक जम सकना संभव है।

शिक्षण की दूसरी परत है-‘रिटेन्शन’, अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है-‘री काल’, अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीनकर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है-‘रीकॉग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना; निष्ठा, आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन सम्बन्धों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तो वह इधर-उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उँगलियों से बँधे कठपुतली के सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे? कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यन्त्र अपना काम करना बन्द कर देते हैं।

ईश्वर और जीव का सम्बन्ध सनातन है, पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूँढ़ने और टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया रीकाल है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका रीकॉग्नीशन में पहुँचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्त्वज्ञान की भाषा में अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि, सोहमस्मि, चिदानन्दोहम्, शिवोहम् की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुँचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और की जा सकती है।

आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार-बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेत की जुताई कह सकते हैं। प्रहलाद की कथा है कि वे स्कूल में प्रवेश पाने के उपरान्त पट्टी पर केवल राम नाम ही लिखते थे। आगे की बात पढ़ने के लिए कहे जाने पर भी राम नाम ही लिखते रहे और कहते रहे-इस एक को ही पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है। युधिष्ठिर की कथा भी ऐसी ही है। अन्य छात्रों ने आगे के पाठ याद कर लिये, पर वे पहला पाठ ‘सत्यंवद’ ही रटते लिखते रहे। अध्यापक ने आगे के पाठ पढ़ने के लिए कहा तो उनका उत्तर वही था कि एक पाठ याद हो जाने पर दूसरा पढ़ना चाहिए। उनका तात्पर्य यह था कि सत्य के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता उत्पन्न हो जाने तक उसी क्षेत्र में अपने चिन्तन को जोते रहना चाहिए।

जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि गायत्री मन्त्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमंत्र कहा गया है। अन्तःचेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता उसे इसीलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है। 

जप का भौतिक महत्त्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझी समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेक दिव्य क्षमताएँ चक्रों, ग्रन्थियों भेद और उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं। उनमें ऐसी सामर्थ्य विद्यमान हैं जिन्हें जगाया जा सके तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषताएँ प्राप्त हो सकती हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती हैं, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



94.    आज्ञा चक्र जगाएँ, दिव्य दृष्टि पाए
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

संसार में अभी तक फोटो कैमरा नहीं बना जो टेकनीलर, विस्टा विजन और थ्री डी० के टेक्नोलोजी युक्त है। शत प्रतिशत साफ फोटो खींचता हो, जिसमें फोटो ग्राफर की आवश्यकता न हो और फिल्म प्लेट आदि लगाने का झंझट न हो। ऐसा कैमरा बनना तो दूर किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में इस तरह की सम्भावना की कल्पना भी अभी तक नहीं आई। यदि कोई सोचने भी लगे तो इन सारी सुविधाओं से सम्पन्न किसी विशालकाय यन्त्र की ही कल्पना की जा सकती है। इतने उपकरण होते हुए भी उसका साइज एक इंच जितना छोटा है। उसे तो सर्वथा अंश रूप ही कहना चाहिए।

यान्त्रिक जगत में ऐसा फोटो यन्त्र भले ही न बना हो, भले ही उसकी सम्भावना अशक्त मानी जाय, पर ऐसा कैमरा अपने पास मौजूद है और उसका उपयोग जन्म काल से ही हम लोग कर रहे हैं। यह जादू जैसा फोटो यह है-‘नेत्र’। हमारे नेत्र बहुत ही संवेदनशील और सक्रिय है। अपने पलक एक मिनट में प्रायः तीस सैकण्ड बन्द रहते हैं और लगभग उतनी ही देर खुले रहते हैं। यह क्रियाकलाप निरन्तर अनायास ही चलता रहता है। पर आश्चर्य यह है कि हमें इसका पता तक नहीं चलता। यों आँखें गर्भस्थ शिशु के पाँच महीने में ही बनकर तैयार हो जाती हैं और उनकी वृद्धि का क्रम छै वर्ष की आयु तक चलता रहता है। फिर भी उससे सम्बन्धित मस्तिष्कीय संस्थानों के विकास में 26 वर्ष लग जाते हैं। दृष्टि सम्बन्धी प्रखरता एवं परिपक्वता का क्रम पूरा होने में प्रायः 25 वर्ष लग जाते हैं। इससे पूर्व उसकी आकृति ठीक बन जाने पर भी मानसिक केन्द्र में कुछ न्यूनता ही बनी रहती है ।।

पलकों के निचले भाग में से एक प्रकार का अश्रु जल स्रवित होता रहता है, यह नेत्र गोलकों पर पड़ने वाली धूलि आदि साफ करता रहता है। वर्षा के दिनों में मोटर ड्राइवर सामने वाले शीशे पर जमने वाली बूँदों को जिस प्रकार विन्डशील्ड बाइपर साफ करता चलता है, उसी प्रकार पलकें झपकने की क्रिया और यह अश्रुजल स्राव आँखों की निरन्तर सफाई करते रहते हैं। इस अश्रुजल में जीवाणु नाशक तत्व भी घुले रहते हैं, जिनके कारण आँखों का शुद्धिकरण भी चलता रहता है।

आँखों की क्षमता प्रायः डेढ़ सौ प्रकार के रंग भेद पहचानने की है। उनकी बनावट अजीब है, स्लोलाइट की तरह पारदर्शक, चमड़े की तरह मजबूत, रबड़ की तरह खिंचनी, स्फटिक की तरह स्वच्छ और आजीवन काम देने वाली, कभी न घिसने टूटने वाली वस्तुओं से मिलकर आँखें बनी हैं। दूर दृष्टि और निकट दृष्टि की, प्रकाश के अनुरूप फैलने-सिकुड़ने की सभी विशेषताएँ इस नेत्र कैमरे में विद्यमान हैं। बुढ़ापे में कलर फिल्टर के तन्तु घिस जाने से नीले और काले रंग को पहचानने की क्षमता घटती जाती है। आँख के दृश्य कलेवर से लेकर मस्तिष्क के दृष्टि संस्थान तक की लम्बाई जरा सी है, पर उतने से ही गह्वर में प्रायः 13 करोड़ 70 लाख कोष होते हैं। प्रकाश की प्रतिक्रिया को यही तन्तु ग्रहण करते हैं।

आँखों के पीछे का गड्ढा जिसे फोबिया कहते हैं, बारीक चीजें देखने के काम आता है। यह नेत्र संस्थान दूषण रहित हो तो एक इंच के दस हजारवें भाग को भी ठीक तरह देखा और पहचाना जा सकता है।

आँखें देखती जरूर हैं, पर उसका निष्कर्ष और प्रभाव स्पष्ट करने वाला संस्थान मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित है। टेलीफोन पद्धति में क्रास टाक जैसी प्रक्रिया ही नेत्र संस्थान पर होती है और उसी से देखने की प्रक्रिया ठीक तरह काम कर पाती है। मस्तिष्कीय दृष्टि संस्थान में सन्निहित कोषों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। यह कोष बाह्य जगत के लाल, हरे और नीले रंगों से प्रभावित होते हैं। इन्हीं कारणों से रगों के उतार-चढ़ाव एवं सम्मिश्रण से बनने वाले अगणित रंग हमें परिलक्षित होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान का 85 प्रतिशत भाग इन्हीं नेत्र गोलकों द्वारा उपलब्ध एवं विकसित होता है।

आँखों की स्थूल शक्ति की भी अपनी महत्ता है। आँखें न रहने पर संसार में सर्वत्र जब घोर अन्धकार ही शेष रह जाता है, उस स्थिति की कल्पना करें तो प्रतीत होगा की ज्योति मानव जीवन की कितनी बड़ी आवश्यकता है। पर इससे बढ़कर है हमारी सूक्ष्म दृष्टि जो उस अदृश्य जगत् को दृश्यमान करती है, जो चर्म चक्षुओं की पकड़ से बाहर है।

यह नहीं समझना चाहिए कि प्रकाश के माध्यम से हमारी आँखें जो देख पाती हैं, उतना ही दृष्टि क्षेत्र है। वस्तुतः प्रकाश का सूक्ष्म स्वरूप ऐसा भी है, जो हमारी नेत्र सीमा से बाहर रहते हुए भी संसार में विद्यमान है और उसे भी देखा समझा जा सके तो हम समस्त विश्व को अपने दृष्टि क्षेत्र में ले सकते हैं। तब ‘दूरदर्शी’ शब्द मात्र समझदार लोगों के, आगे की बात सोचने वालों के लिए ही लागू न होगा वरन् सचमुच हम उस स्थिति में पहुँच जायेंगे कि दूर की, अति दूर की, समस्त संसार की घटनाओं को देख सकें। 

रेडार यन्त्र में यही होता है। वह प्रकाश किरणों से अधिक सूक्ष्म रेडियो किरणों के आधार पर दूरवर्ती वस्तुओं को, उनकी हलचलों को देख सकता है। टेलीविजन पर दूरवर्ती दृश्य हमारे सामने छाया रूप में प्रस्तुत होते हैं, उसी से मिलता जुलता पर दूसरे सिद्धान्त पर आधारित रेडार उपकरण है। दूरदर्शन में हमें टेलीविजन की तरह वह भी सहायता पहुँचाता है।

रेडार एक प्रकार की वैज्ञानिक आँख है जो प्रकाश तरंगों की अपेक्षा रेडियो तरंगों के माध्यम से देखने का प्रयोजन पूरा करती है। रेडार-शब्द ‘रेडियो ऐंगल डायरेक्शन एण्ड रेंज’ का संक्षिप्तीकरण है।

हमारी आँखें किसी वस्तु को तभी देख पाती हैं जब प्रकाश की किरणें उससे टकराकर परावर्तित होती हैं। अँधेरे में न देखने का कारण यही है कि प्रकाश के अभाव में उसकी किरणें वस्तुओं पर पड़ती ही नहीं तो फिर वे परावर्तित होकर आँखों तक लौटेंगी ही कैसे? आँखों में स्वयं तो इतनी शक्ति है नहीं कि वे किसी वस्तु को प्रकाशवान बना सकें।

रेडार को जादुई आँख कह सकते हैं, जिसमें देखने की ही नहीं, वस्तुओं को प्रकाशित करने की भी क्षमता है। रेडार के एन्टेना में एक ऐसा ट्रान्समीटर लगा होता है जो वस्तुओं को प्रकाशवान बनाता है। साथ ही एक ऐसा रिसीवर भी लगा होता है जो प्रकाशित वस्तु से टकराकर लौटने वाली किरणों को ग्रहण कर सके।

यहाँ यह जान लेना चाहिए कि रेडार द्वारा फेंका हुआ प्रकाश सूर्य या बिजली के प्रकाश जैसा चमकीला नहीं होता, न वह खुली आँखों से दिखाई पड़ता है। इसे वस्तुतः प्रकाश नहीं, रेडियो कम्पन कहना चाहिए। प्रकाश किरणों की तरह रेडियो किरणें भी होती हैं, पर वे चमकीली न होने के कारण आँखों को दिखाई नहीं पड़तीं। अन्य बातों में दोनों समान हैं।

रात में सामने से मोटर आ रही हो तो उसके प्रकाश से सामने वाले ड्राइवर की आँखें चौंधियाने का खतरा रहता है। तेज रोशनी की ओर कुछ देर देखा जाय तो भी आँखें चौंधिया जाती हैं और उनका दीखना बन्द हो जाता हैं। इसके लिए लगातार देखना रोकना पड़ता है। या तो पलक झपक कर या रोशनी को जलाते बुझाते रहकर यह व्यवस्था करनी पड़ती है कि लगातार देखने का सिलसिला न चले। ठीक यही बात रेडार में होती है। रेडियो तरंगें भेजने और ग्रहण करने के बीच थोड़ा सा व्यवधान रखना पड़ता है। यह सिलसिला चालू रखकर दूरवर्ती वस्तुओं को देख सकना रेडार के लिए सम्भव होता है।

रेडियो तरंगों की चाल भी लगभग उतनी ही हैं जितनी कि प्रकाश किरणों की होती है-एक सैकिण्ड में 3 लाख किलोमीटर। साधारण राडारों की शक्ति आमतौर से 500 किलोमीटर तक की होती है। इतनी दूरी तक रेडियो किरणों के जाने और वापिस लौटने में एक सैकिण्ड के दस लाखवें भाग जितना समय लगता है। यह अत्यधिक स्वल्प समय है। इस अवधि में भी विराम की व्यवस्था करना कठिन प्रतीत होता है। फिर भी वैज्ञानिकों ने इसके लिए उपकरण बना लिये हैं। रेजोनेन्ट ट्रान्सफार्मर इम्पीडेन्स, इन्वर्टर और स्पार्क गैपों का समन्वय करके एक विचित्र प्रकार का ड्यूप्लेकसर विनिर्मित किया गया है जो स्वल्प समय में भी प्रेषण ग्रहण के बीच व्यवधान रखे जाने की व्यवस्था पूरी करता रहता है।  

रेडियो किरणें जिस वस्तु से टकराकर जितनी देर में लौटती हैं, उस समय गणना के आधार पर यह जाना जाता है कि अभीष्ट वस्तु कितनी दूरी पर और उसकी आकृति किस प्रकार की है। यन्त्र में रहने वाली ‘ए-स्कोप’ प्रक्रिया वस्तु की दूरी का ठीक निर्धारण कर देती है। इन दिनों सुरागी पद्धति में और भी सुधार हुए हैं। सूक्ष्म तरंगों का प्रयोग करने वाले केलैस्ट्रीन एवं कैवटी मैग्रेट्रोन यन्त्र अब हर बात को और भी अच्छी तरह अंकित करने लगे हैं।

रेडियो तरंगें बादल, धुआँ, कुहरा, अँधेरा सामने होने पर रुकती नहीं और वे निर्दिष्ट दिशा में बिना किसी अवरोध के बढ़ती चली जाती हैं, जबकि प्रकाश किरणें ऐसी रुकावट आने पर अवरुद्ध और कुण्ठित हो जाती हैं। रेडार पद्धति में इसीलिए प्रकाश किरणों की अपेक्षा रेडियो तरंगों का उपयोग किया जाता है।
आकाश में उड़ने वाले जहाजों की दूरी, दिशा तथा शकल यह रेडार ठीक-ठीक बता देता है। आँधी तूफानों की परिधि तथा चाल का पता चल जाता है। आकाश के ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन करने में उससे बड़ी सहायता मिलती हैं।

हवाई जहाज आकाश में उड़ते हैं। अँधेरे और कुहरे में उन्हें रास्ते का पता कैसे लगे? उनमें लगे बैरीगेटर इसी पद्धति से नगर, नदी, पर्वत आदि को दिन की तरह देखते चलते हैं। पानी के जहाजों को भी यह पद्धति सामने के टापुओं, चट्टानों, जहाजों का विवरण बताती है। युद्ध के समय इनका बहुत उपयोग है।

रेडियो तरंगें अनेक प्रकार की होती हैं। पर उनमें से रेडार उन सुपर फ्रीक्वेन्सी वाली तरंगों का ही प्रयोग करता है जो अत्यधिक कम्पन वाली किन्तु अल्पावधि की होती हैं। यह एक सीमा तक ही जाती हैं। कितनी दूरी तक उन्हें प्रयुक्त करना है, इसकी सीमा इन्डीकेटर में पहले से ही व्यवस्थित कर देनी पड़ती है। यह यन्त्रों की शक्ति और देखने की आवश्यकता के अनुरूप सीमा बन्धन किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं कि रेडियो तरंगों की सीमा इतनी ही हैं। यह तो उनका एक सीमाबन्धित विशेष प्रयोग है। उनकी ऊर्जा अनन्त दूरी तक चलती हुई, सब व्यवधानों को पार करती हुई असीम तक चली जा सकती है।

दोनों भवों के मध्य भाग में जो बाल रहित खाली स्थान है, उसे भृकुटि कहते हैं। उसके नीचे अस्थि आवरण के उपरान्त एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि है। उसे आज्ञा चक्र कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका। पर आत्मविद्या के अन्वेषी इसके अति महत्त्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे तीसरा नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। दिव्य दृष्टि यहीं से निःसृत होती है।

भगवान शिव के चित्रों में प्रदर्शित यह एक तीसरा नेत्र इसी स्थान पर अंकित रहता है। कथा है कि इस तीसरे नेत्र को खोलने पर एक प्रचण्ड अग्नि ज्वाला निकली थी और उसी से कामदेव जल कर भस्म हो गया था। भगवती दुर्गा के चित्रों में भी यह तीसरा नेत्र इसी स्थान पर विद्यमान है। यह तीसरा नेत्र हर मनुष्य के शरीर में मौजूद है। प्रश्न केवल विकसित करने का है। सामान्यतया दो चर्मचक्षु ही काम करते हैं और उन्हीं से जीवन के साधारण काम-काज चलाये जाते रहते हैं।

यह तीसरा नेत्र-आज्ञाचक्र यदि विकसित किया जा सके तो उससे राडार, टेलीविजन और एक्सरे यन्त्रों के तीनों काम लिये जा सकते हैं। राडार, रेडियो किरणें फेंकता है और उनके वापिस लौटने से उस स्थान का विवरण प्राप्त करता है, जिस स्थान पर वे किरणें टकराई थीं। टेलीविजन से दूरगामी दृश्य दिखाई पड़ते हैं। संजय ने महाभारत का सारा दृश्य इसी पद्धति से देखा था और धृतराष्ट्र को पल-पल की विस्तृत खबरें देते रहने का कार्य दायित्व भली प्रकार निबाहा था। एक्सरे से आवरण से ढकी वस्तुएँ भी दीखती हैं। शरीर के भीतरी भागों के फोटो उसी से लिये जाते हैं और क्षयजन्य घाव, हड्डी टूटना, गोली छर्रा आदि का लगा होना उसी के द्वारा लिये हुए फोटो से जाना जाता है। किसी लकड़ी के बक्स में जेवर आदि रखे हों तो एक्सरे द्वारा उसके फोटो लेकर भीतर क्या है यह जाना जा सकता है। आज्ञा चक्र इन तीनों प्रयोजनों को भली प्रकार पूरा कर सकता है।

सुदूर क्षेत्रों के निवासी व्यक्तियों की परिस्थितियों तथा विभिन्न स्थानों में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण आज्ञाचक्र बता सकता है। उससे वहाँ के दृश्य देखे जा सकते हैं, जहाँ नेत्रों की पहुँच नहीं है। भूगर्भ में छिपे हुए रहस्य प्रकट हो सकते हैं और अन्तरिक्ष में जो सूक्ष्म क्रिया कलाप अभी पक रहा है, निकट भविष्य में प्रत्यक्ष होने वाला है, उसका पूर्व रूप समझा जा सकता है। यह सांसारिक अगम्य ज्ञान की उपलब्धि हुई। इससे ऊपर आत्मसत्ता का-आत्मचेतना का, दैवी संकेतों का अभ्यास है। इसे देख सकना इतना अद्भुत और आकर्षक है कि उस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति परा और अपरा प्रकृति के सारे रहस्यों से ही अवगत हो जाता है। तब यह स्थूल जगत के क्रिया कलापों के और बालक्रीड़ा में रचे हुए रेत बालू के घर मकानों जैसी स्थिति में पाता है। ईश्वरी सत्ता, आत्मा की स्थिति, जीवन का स्वरूप, जन्म जन्मान्तरों की शृंखला, कर्तव्य पथ, लोक व्यवहार का आधार आदि महत्त्वपूर्ण आधार ही उसे वास्तविक लगते हैं। ऐसा दिव्यदर्शी मनुष्य बाल बुद्धि से प्रेरित ओछी रीति को त्यागकर अपनी गतिविधियों में उन तत्वों का समावेश करता है जो महामानवों के लिए उचित और उपयुक्त हैं।

तीसरे नेत्र के खोलने से जो विवेक बुद्धि जागृति होती है, उससे काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मृग मारीच अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं और नष्ट करने के लिये शिवजी के तीसरे नेत्र की तरह हर विवेकवान की दिव्य दृष्टि खुल जाती है। परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित हो जाने के कारण उसके सोचने और करने का तरीका माया मोह ग्रस्त, अज्ञान अन्धकार में भटकने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न होता है।

दो नेत्र प्रकृति ने दिये हैं। तीसरा नेत्र खोलने और दिव्य दृष्टि प्राप्त करने को आज्ञाचक्र साधना करना दूरदर्शी विवेकवान का काम है। हमें इस परम पुरुषार्थ के लिए साहस जुटाना ही चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



95.    ईश्वर की सत्ता और उसकी अनुभूति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भौतिक जगत की कई शक्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा नहीं देखा जा सकता। विद्युत शक्ति स्वयं अदृश्य रहती है। आँखों से न दीखते हुए भी उसके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बल्ब में प्रकाश फैलाती, पंखे से हवा बिखेरती, हीटर में गर्मी देती तथा विशालकाय मशीनों, कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा देती, सतत वह अपनी सत्ता का परिचय देती है। चुम्बकीय शक्ति दिखाई नहीं पड़ती, पर प्रचण्ड आकर्षण शक्ति उसकी सत्ता का बोध कराती है। प्रकाश, ऊर्जा, गर्मी, विद्युत शक्ति के गुण हैं, उसकी प्रतिक्रियाएँ हैं, मूल स्वरूप नहीं। मूल स्वरूप तो अभी तक परमाणु की सत्ता की भाँति विवादास्पद बना हुआ है। गुणों का बोध ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। नेत्रों में ज्योति न होने पर न तो प्रकाश दिखाई पड़ सकता है और न ही पंखे का चलना दृष्टिगोचर हो सकता है। आँख के साथ शरीर की त्वचा भी अपनी सम्वेदन क्षमता गँवा बैठे, तो जिन्होंने कभी विद्युत शक्ति की सामर्थ्य नहीं देखी है उनके लिए बिजली की सत्ता का अस्तित्व संदिग्ध ही बना रहेगा। यही बात चुम्बक के साथ लागू होती है।

पृथ्वी का गुरुत्व बल प्रत्यक्ष कहाँ दीखता है? वस्तुओं के नीचे गिरने से यह अनुमान लगाया जाता है कि उसमें कोई ऐसी आकर्षण शक्ति है, जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। यही वह प्रमाण है जिसके आधार पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति की उपस्थिति को स्वीकारना पड़ता है। ऐसी कितनी ही शक्तियाँ हैं जो नेत्रों से नहीं दिखाई पड़ती, किन्तु उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। फूल में सुगन्ध होती है यह सर्वविदित है। गन्ध को नेत्र कहाँ देख पाते हैं। घ्राणेन्द्रियों द्वारा गन्ध की मात्र अनुभूति होती है। उनमें सौन्दर्य होता है जो हर किसी को मुग्ध करता है। सौन्दर्य की होने वाली अनुभूति को किस रूप में प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है? फूल की सुगन्ध एवं सौन्दर्य की अनुभूति, घ्राण शक्ति एवं नेत्र ज्योति से रहित व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्तियों के उसकी विशेषता से इन्कार करने पर भी तथ्य अपने स्थान पर यथावत बना रहता है।

खाद्य पदार्थों के गुण धर्म उनके भीतर सन्निहित होते हैं। उनके स्वाद को देखा नहीं, स्वादेन्द्रिय के ठीक रहने पर मात्र अनुभव किया जा सकता है। जिनकी जिह्वा जन्म से ही रोग ग्रस्त हो, स्वाद का अनुभव नहीं कर पाती हो, उनके लिए यह आश्चर्य, अविश्वास एवं कौतूहल का विषय बना रहेगा कि वस्तुओं में स्वाद भी होता है। जिह्वा से अनुभूति होते हुए स्वाद के मूल स्वरूप का दर्शन कर सकना सर्वथा असम्भव है। गन्ध का वास्तविक रूप कैसा होता है, यह दृष्टिगम्य नहीं अनुभूतिगम्य है।

विविध प्रकार की भौतिक शक्तियों का परिचय उनके गुण-धर्मों, विशेषताओं के आधार पर मिलता है और यह भी तभी सम्भव है जब ज्ञानेन्द्रियाँ उनकी विशेषताओं, सम्वेदनाओं को ग्रहण कर पाने में सक्षम हो। इतने पर भी उनके मूल स्वरूप का दर्शन कर पाना न तो अब तक सम्भव हुआ है और न ही निकट भविष्य में सम्भावना ही है, क्योंकि शक्ति का कोई स्वरूप नहीं होता। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई रूपी प्रत्यक्ष मापदण्ड की सीमा में वस्तुएँ आती हैं, शक्तियाँ नहीं। इस तथ्य को कोई भी विज्ञ, विचारशील, तार्किक अथवा वैज्ञानिक भी मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

ईश्वर यदि है तो प्रत्यक्ष क्यों नहीं दीखता? यह तर्क लोग करते रहे हैं। विकसित बुद्धि के व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व के विषय में यदि शंकालु हुए भी, तो उनकी वह शंका इतनी स्थूल नहीं होती कि पर्याप्त खोजबीन के बिना निष्कर्ष निकाल लिए जायें। विज्ञान की आधुनिकतम खोजों ने तो विकसित मस्तिष्क और अद्यतन जानकारी वाले लोगों को अद्वैत सत्ता के प्रति नये सिरे से आस्थावान बना डाला है। यह स्वाभाविक भी है।

वस्तुतः नास्तिकता एक प्रकार की मानसिक अक्षमता मात्र है, जो अपनी हीनता ढँकने के लिए मानसिक प्रखरता का अभिनय रचती है। ऊपरी तौर पर नास्तिक बड़ा तर्कयुक्त दीखता है, लगता है कि वह अपने पैने विचारों से सत्य को छानना और पहचानना चाहता है। परन्तु इस पैनेपन के पीछे प्रायः दुर्बलताजन्य पूर्वाग्रह छिपा रहता है।

पैनी बुद्धि से विचार करे तो ईश्वर के न दिखाई पड़ने से उसके अस्तित्व पर ही शंका करने का कोई भी कारण सही नहीं सिद्ध हो पाता। ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो पाना, व्यक्ति की सीमाएँ ही स्पष्ट करता है न कि ईश्वर का अनस्तित्व।

अनेक वस्तुएँ हमसे दूर होती हैं, वे हमें तब तक दिखाई नहीं पड़ती, जब तक हम उनके इतने पास न पहुँच जाएँ कि हमारी दृष्टि सामर्थ्य के क्षेत्र के भीतर हो जाये। दूरी के कारण वस्तुओं का न दिखाई पड़ना ही उनका न होना नहीं सूचित करते। वे हैं तो किन्तु हम उनसे दूर हैं, बस इतना ही पता चलता है। हमारे संवेदन और ज्ञान का स्रोत मस्तिष्क है। वह मस्तिष्क ईश्वरीय सत्ता से विलग, विपरीत और दूर-दूर ही भटकता रहे, सामान्य सांसारिक विषयों तथा प्रयासों में ही उलझा रहे, तो ईश्वरानुभूति किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।

ईश्वर से यह दूरी मनुष्य स्वयं बढ़ा लेता है। अपनी हलचलों का क्षेत्र वह ऐसी ही वस्तुओं एवं इच्छाओं को पाने, पूरा करने वाला बनाये रहता है, जो ईश्वरीय चेतना की अनुभूति से उसे दूर ठेले रहती है। यद्यपि वह परम सत्ता है हमारे अति निकट। तथापि यह अति समीपता भी ईश्वरानुभूति में सहायक नहीं, बाधक ही बन बैठती है। आँखों में देखने की शक्ति है, लेकिन आँखों में लगा सुरमा वे स्वयं तभी देख पाती हैं, जब दर्पण में प्रतिबिम्ब देखा जाय। ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति भी सामान्य व्यक्तियों को प्रायः तभी हो पाती हैं, जब वे कहीं उसका प्रतिबिम्ब देखते हैं। अन्तस्थ सत्ता का बहिर्मुखी मन को सामान्यतः अनुभव नहीं हो पाता। यद्यपि वह न केवल है, अपितु अत्यंत समीप है।

अति सामीप्य ही नहीं सादृश्य भी अनुभूति में बाधक बनता है। समुद्र में वर्षा का पानी, नद-नदियों का जल मिलता है, वहाँ उनका पृथक अस्तित्व नहीं दिखाई पड़ता। बाहर भिन्न गुण धर्मी वस्तुओं के बीच तो उनका अस्तित्व देखा जा सकता है, बादलों से, वायुमंडल से होकर आता पानी और पहाड़ों, मैदानों के बीच दौड़ते नदी-नद तो अलग ही दिखाई पड़ते हैं, पर समुद्र के भीतर उन्हें अलग से ढूँढ़, बता पाना सम्भव नहीं रह जाता। चेतना समुद्र की बूँदें समुद्र की अलग से अनुभूति सरलता से कैसे कर पाये? यह अति दुष्कर कार्य है। मनुष्य की अनुभूतियाँ इसी परम चेतना के प्रकाश की उपस्थिति में संभव होती है। वह चेतना अंश प्रकृति के विभिन्न रूपों को, उनकी हलचलों को समझने की क्षमता देता है। किन्तु चेतना के अनन्त समुद्र को देख समझ पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। गंगा के प्रवाह में एक बोतल दवा, मदिरा या एक लोटा दूध डाल देने के बाद फिर उसे अलग नहीं देखा पहचाना जा सकता। चेतन मन का परम चैतन्य सत्ता को देख पाना इसी प्रकार कठिन है। मन मस्तिष्क की संरचनात्मक भिन्नता के बावजूद चेतन तत्व उनका सामान्य गुण है। प्रकृति की बारीकियों को समझने के लिए भी असाधारण प्रयास पुरुषार्थ अपेक्षित होते है। किन्तु वहाँ मन मस्तिष्क चेतना के उपकरण के रूप में काम कर रहे होते हैं। स्वयं चेतना के स्वरूप को समझना स्वजाति सादृश्य के कारण अधिक कठिन होता है।

अनेक रोगों के कीटाणु या विविध शब्द तरंगें ध्वनि कम्पन आदि हमारे इर्द-गिर्द मौजूद रहते हैं। माइक्रोस्कोप से आसपास जो कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है साधारणतः हमें उसका भान ही नहीं होता। रेडियो सेट पर निश्चित स्टेशन पर सुनाई पड़ने अथवा टेलीविजन के पर्दे पर दिखाई पड़ने वाली शब्द तरंगें, ध्वनि तरंगें इसके पूर्व भी हमारे ही पास से होकर गुजर रही थी, किन्तु उनकी सूक्ष्मता एवं हमारी दृष्टि सामर्थ्य की सीमा के कारण उन्हें देख, जान पाना सम्भव नहीं था। विभिन्न ग्रह नक्षत्रों से क्वासर पल्सर जैसे विकिरण प्रतिपल हम पर बरसते रहते हैं, परन्तु हमें उनकी प्रतीति नहीं हो पाती। क्योंकि वे हमारी इन्द्रिय क्षमता के अनुपान में अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती हैं, तब परम चेतन तत्व ही लोगों की अनुभूति में अनायास कैसे आ जाये? उस हेतु पहले वैसी सामर्थ्य विकसित करनी होगी। नेत्रहीन को सामने का रूप नहीं दिखाई पड़ता, जबकि वहीं पास खड़ा कोई नेत्रयुक्त व्यक्ति उसे सरलता से देख सकता है। ईश्वरानुभूति के लिए भी भीतरी नेत्र चाहिए, शक्ति का विकास चाहिए। मन को वैसा ढालना पड़ता है, उसे ईश्वराभिमुख बनाना होता है और उसकी अन्तर्मुखी सामर्थ्य बढ़ानी होती है।

जब मन किसी विषय में तल्लीन होता है तो समीप की ही दूसरी हलचलें कई बार ध्यान में नहीं आती। कोई अध्येता अध्ययन में, वैज्ञानिक प्रयोगशाला में या दक्ष शिल्पी अपने कारखाने में जब मनोयोग से जुटा हो, तो पास से निकल जाने वाले लोगों की उन्हें कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती। इसका कारण मन की विषय-लीन हो जाने की क्षमता एवं प्रवृत्ति ही है। साँसारिक विषय कामनाओं, हलचलों और रंग रूपों में डूबे दिल दिमाग में जो तर्क तथा जो विश्वास रूढ़ हो जाते हैं, उससे भिन्न तर्क तथा अनुभूतियाँ समझ में ही नहीं आती। उस ओर ध्यान ही नहीं जा पाता। अतः ईश्वरानुभूति से सम्बन्धित बातों की ओर यदि कुछ लोगों का मन ही न जाए, तो इसी से उनकी निस्सारता या आधार हीनता नहीं सिद्ध होती।

दिन के समय तारे दिखाई नहीं पड़ते। यद्यपि वे होते उस समय भी आकाश में ही हैं। अपने सामान्य क्रम में ही वहाँ विद्यमान होने पर भी वे लोगों के लिए अप्रकट होते है। यह उन तारों का वास्तविक तिरोभाव न होकर भी मनुष्य के लिए तो उनका तिरोभाव ही है। दिन के मनुष्य के लिए तो उनका तिरोभाव ही है। दिन के प्रकाश की चकाचौंध को भेदकर ऊँचे आकाश की ओर दूर तक ताक सकने की क्षमता मनुष्य की आँखों में नहीं है। जागतिक चकाचौंध इससे कम नहीं, अधिक ही प्रखर होती हैं। उनमें डूबे लोग ईश्वरीय आलोक को देख समझ न पायें, इसमें आश्चर्य की कोई अधिक बात नहीं। जब इस आपाधापी में ही मन नहीं डूबने, उतराने दिया जाता वरन् साथ ही साधना, उपासना द्वारा अपनी आन्तरिक क्षमताएँ विकसित परिष्कृत कर ली जाती है तो ईश्वरीय सत्ता की प्रतिपल अनुभूति स्वाभाविक हो जाती है।

परमात्मा वस्तु अथवा व्यक्ति नहीं जो इन स्थूल नेत्रों से देखा जा सके। वह एक सर्वव्यापक शक्ति है जो जड़ चेतन सभी में समायी हुई है। उसी की प्रेरणा से सभी चेतन प्राणी गतिशील हैं। सृष्टि के प्रत्येक घटक में सुव्यवस्था, नियम एवं सुसंचालन का होना इस बात का प्रमाण है कि किसी सर्वसमर्थ अदृश्य हाथों में इसकी बागडोर है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो लघु परमाणु से लेकर विशाल ब्रह्माण्ड तक में उसी की सत्ता क्रीड़ा कल्लोल कर रही है। सामान्य कृतियों के लिए भी कितना अधिक श्रम, पुरुषार्थ एवं बुद्धि का नियोजन करना पड़ता है। छोटे बड़े यन्त्रों का निर्माण सुसंचालन अपने आप नहीं हो जाता। सर्वविदित है कि मनुष्य को कितना अधिक नियन्त्रण रखना पड़ता है, तब कहीं जाकर यन्त्र अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर पाता है। यह तो मनुष्य द्वारा विनिर्मित सामान्य कृतियों की बात हुई। विशाल सृष्टि अपने आप बनकर तैयार हो गई और स्वसंचालित है यह बात भी बुद्धि के पल्ले नहीं पड़ती।

हमारा अस्तित्व है, यह सबसे बड़ा प्रमाण है कि कोई आदि कारण सत्ता भी है। जीवन है तो जीवन का स्रोत भी है, यदि चेतना है तो चेतना का आदि स्थल भी है, शक्ति है तो शक्ति का उद्गम स्रोत का होना भी सुनिश्चित है। जो सबका कारण, जीवन शक्ति, ज्ञान आनन्द का आदि स्रोत है वही परमात्मा है। उसी को विभिन्न धर्मानुयायी अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। शैव लोग उसे शिव कहकर पूजते हैं। वेदान्ती उसी को ब्रह्म कहते हैं। बौद्ध, बुद्ध तथा जैन धर्मावलम्बी उसी को अरहन्त और मीमाँसक कर्म के रूप में देखते हैं। उपनिषदों के अनुयायी उसे शुद्ध-बुद्ध स्वभाव का मानते हैं तो कपिल के समर्थक आदि विद्वान सिद्ध के रूप में। पाशुपत मत के उसे निर्लिप्त स्वतन्त्र शक्ति के रूप में पूजते हैं तो वैष्णव लोग पुरुषोत्तम के स्वरूप में। याज्ञिक यज्ञ पुरुष के रूप में मानकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो सौगत लोग सर्वज्ञ के रूप में, न्यायिक मतावलम्बी सर्वगुण सम्पन्न ईश्वर के रूप में, चार्वाक के अनुयायी व्यवहार सिद्ध के रूप में तथा कलाकार विश्वकर्मा के रूप में उसी का पूजन-अर्चन करते हैं। वह परम सत्ता सृष्टि में सर्वत्र विद्यमान है। कोई उसे तप कहता है तो कोई ज्ञान, कोई प्रकृति तो कोई शक्ति। वह व्यापक दृष्टा जो जगत के सभी घटकों को प्रत्यक्ष कर रहा है, स्वरूप दे रहा है उसे ही अध्यात्म की भाषा में ईश्वर कहते हैं। वैज्ञानिक उसे ही एक अदृश्य, अविज्ञात शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं।

अपनी सत्ता को मानने और अपने ही आदि कारण को न मानने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। उत्तर दिया जा सकता है कि वह अनुभूति में नहीं आता। भौतिक शक्तियों के विषय में जाना जा चुका है कि वे तभी अनुभूति में आती हैं जब अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक हो। परमात्मा भी तभी अनुभूति के धरातल पर उतरता है जब कि उनको धारण करने वाला अन्तःकरण पवित्र एवं उदात्त भावनाओं से सुसम्पन्न हो। इसी माध्यम से उसे जाना जा सकता है। अस्तु भावनाओं का परिष्कार एवं अन्तःकरण का विस्तार ही उस परम सत्ता के साक्षात्कार का एक मात्र माध्यम है। जप, तप, साधना उपचार के अनेकानेक उपचार उसी प्रयोजन को पूरा करने के लिये किए जाते हैं।

जो इस दिशा में प्रवृत्त हुए, उन्होंने न केवल उसे जाना, वरन् उसके दिव्य आलिंगन को अनुभव किया। सन्त, महात्मा, ऋषि-महर्षियों के ज्वलंत इतिहास इसी बात के प्रमाण हैं। उनके जीवन की पवित्रता, सरसता, व्यक्तित्व की महानता, शक्ति एवं ज्ञान की विलक्षणता जन सामान्य को अभी भी प्रेरणा देती रहती है।

जिस प्रकार भौतिक ऊर्जा अदृश्य होते हुए भी पंखे की गति, बल्ब में प्रकाश, हीटर में ताप जैसे विविध रूपों में हलचल करती दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार वह परमसत्ता पवित्र हृदय से पुकारने पर भावनाओं के अनुरूप कभी स्नेहमयी मां बनकर तो कभी पिता अथवा सखा बनकर, कभी रक्षक के रूप में तो कभी विलक्षण शक्ति के रूप में प्रकट होकर अपनी सत्ता का आभास कराती एवं अनुदान बरसाती रहती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



96.    अन्तराल की वैभवपूर्ण सत्ता का जागरण-उन्नयन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रत्यक्ष शरीर दीखता है। साज-सँभाल एवं शृंगार भी उसी का सर्वाधिक किया जाता है। काया के पोषण एवं विकास पर ढेरों समय एवं साधन खर्च किये जाते हैं। बहुमूल्य आहार जुटाने जैसे बलवर्धक साधनों से लेकर आसन-व्यायाम आदि का उपक्रम अपनाया जाता है। स्वस्थ नीरोग रखने के लिए उपचार आदि की व्यवस्था बनाई जाती है। कितने ही व्यक्ति अपना सौन्दर्य निखारने के लिए कृत्रिम संसाधनों का प्रयोग करते देखे जाते हैं। स्वस्थ एवं सुन्दर दीखने के लिए हर व्यक्ति अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने-अपने स्तर पर प्रयास करता है। इस प्रयास में सफलता कितनों को मिलती है, यह बात अलग है, पर यह तो सुनिश्चित है कि अधिकांश व्यक्ति अपने शरीर के लिए प्रचुर समय, धन एवं शक्ति खर्च करते हैं।

शरीर के बाद आज के विज्ञजनों ने बुद्धि को महत्त्व दिया है। बुद्धि अर्थात ‘इन्टेलीजैन्स’ जो प्रतिभा निखारने योग्यता बढ़ाने में काम आती है। बुद्धि को पैना बनाने तथा बढ़ाने के लिए भी तरह-तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं। स्कूली शिक्षा से बौद्धिक क्षमताओं का ही विकास होता है। वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, प्रतिस्पर्धाएँ भी इसीलिए आयोजित की जाती हैं कि प्रतिभा निखरती चलें। इस प्रयास में सफलता भी मिली है। बुद्धि की दृष्टि से आज का मनुष्य पुरातन की तुलना में कहीं आगे है और इस दिशा में वह निरन्तर ही आगे बढ़ता चला जा रहा है।

मानवी व्यक्तित्व को इन दो स्थूल परतों, शरीर और बुद्धि को ही सर्वत्र महत्त्व मिलता रहा है। मन इन दोनों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म है। प्रत्यक्षतया उसकी भूमिका नहीं दीख पड़ने से अधिकांश व्यक्ति उसे महत्त्व भी नहीं देते। प्रायः वह उपेक्षित ही बना रहता है। यह एक सबसे बड़ी विडम्बना है कि व्यक्तित्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परत उपेक्षा की गर्त में पड़ी है। शरीर एवं बुद्धि न केवल मन के इशारे पर चलते हैं, वरन् उसकी भली-बुरी स्थिति से असामान्य रूप से प्रभावित भी होते हैं, इस तथ्य का समर्थन आधुनिक मनोविज्ञान भी निर्विवाद करने लगा है। व्यक्तित्व के इतने मूल्यवान घटक पर ध्यान न दिया जाय, उसकी साज-सम्भाल न की जाय, उसे स्वस्थ सन्तुलित रखने का प्रयास न किया जाय तो इससे बढ़कर आज के बुद्धिमान मनुष्य की भूल दूसरी और कोई नहीं हो सकती।

पोषण एवं सन्तुलन के अभाव में काया भी रुग्ण बन जाती है। अपनी सामर्थ्य गँवा बैठती है। वैचारिक खुराक न मिले तो बुद्धि की प्रखरता मारी जाती है। अधिक से अधिक वे जीवन संकट को किसी तरह खींचने जितना सहयोग ही दे पाते हैं। उपेक्षा की प्रताड़ना मन को सबसे अधिक मिली है। फलतः उसकी असीम सम्भावनाओं से भी मनुष्य जाति को वंचित रहना पड़ा है। निरुद्देश्य भटकती एवं मचलती हुई इच्छाओं, आकांक्षाओं का एक नगण्य स्वरूप ही मन की क्षमता के रूप में सामने आ सका है। मनोबल, संकल्प बल की प्रचण्ड सामर्थ्य तो यत्किंचित व्यक्तियों में ही दिखाई पड़ती है। अधिकांश व्यक्तियों से मन की प्रचण्ड सामर्थ्य को न तो उभारते ही बनता है और न ही लाभ उठाते। मन को सशक्त बनाना, उसमें सन्निहित क्षमताओं को सुविकसित करना तो दूर, उसे स्वस्थ एवं सन्तुलित रखना भी कठिन पड़ रहा है। फलतः रुग्णता की स्थिति में वह विकृत आकांक्षाओं, इच्छाओं को ही जन्म देता है। इच्छाएँ मानवी व्यक्तित्व की, स्वास्थ्य संतुलन एवं विकास की प्रेरणा श्रोत होती हैं। उनका स्तर निकृष्ट होने पर मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार में श्रेष्ठता की आशा भला कैसे की जा सकती है। रुग्ण मानस रुग्ण समाज को ही जन्म देगा। मन रोगी हो तो काया भी अपना स्वास्थ्य अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रख सकती।

वैज्ञानिक क्षेत्र में नये अनुसन्धानों ने प्रचलित कितने ही सिद्धान्तों का खण्डन किया है। कितनी ही नई प्रतिस्थापनाएँ हुई हैं तथा कितने ही सिद्धान्तों में उलट-फेर करने के लिए विवश होना पड़ा है। अब धीरे-धीरे स्थूल के ऊपर से विश्वास टूटता जा रहा है। पदार्थ ही नहीं कायिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी प्रचलित धारणाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने की सम्भावना नजर आने लगी है। मनोविज्ञान ने मन की रहस्यमय परतों का विश्लेषण करते हुए यह रहस्योद्घाटन किया है कि मनःसंस्थान में कितने ही शारीरिक रोगों की जड़ें विद्यमान हैं। मन का उपचार यदि ठीक ढंग से किया जा सके, तो उन रोगों से भी मुक्ति मिल सकती है, जिन्हेंं असाध्य एवं शारीरिक मूल का कभी ठीक न हो पाने वाला माना जाता है।

चिकित्सा जगत में ‘बिहेवियोरल मेडीसिन’ के विकास से उपचार की सर्वथा एक नई मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ है। इस उपचार प्रक्रिया में विशेषज्ञों ने मन और शरीर को एक कड़ी के दो छोर माना है। इसके आधारभूत प्रयोग में न्यूरोकेमिकल को विकसित करने का प्रयास किया जाता है। विहेवियोरल मेडिसिन के आविष्कारकों का मत है कि मन के भावनात्मक दबाव एवं तद्जन्य तनाव ही रोगोत्पादन के कारण बनते हैं।

‘विहेवियोरल मेडिसिन’ चिकित्सा पद्धति का विकास सन् १९७७ में येल विश्वविद्यालय (यू. एस. ए.) में हुआ। इसमें एन्थ्रोपोलॉजी, सोशियोलॉजी, एपिडेनिओलॉजी, साइकोलॉजी, साइकिएस्ट्री, मेडिसिन तथा प्रारम्भिक जीव विज्ञान जैसे अनेक विषयों का अध्ययन सम्मिलित था। संस्थान की व्यवस्था यहाँ पर सम्भालते हैं-मनःशास्त्री स्टीफेन एमवेस। इसकी शाखाएँ हृदय, फेफड़ा, रक्त संस्थान से सम्बन्धित मनो शारीरिक रोगों के उपचार के लिए खोली गई हैं। मनःचिकित्सक डेविड हैमवर्ग के नेतृत्व में विहेवियोरल मेडिसिन के प्रयोग परीक्षण के लिए एक एकेडमी की स्थापना भी हुई है। संस्थान से एक मासिक जर्नल ‘दी जर्नल ऑफ विहेवियोरल मेडिसिन’ नियमित रूप से प्रकाशित होती है, जिसमें इस उपचार पद्धति की जानकारियों का प्रकाशन होता है।

उपचार पद्धति साइकोसोमैटिक मेडिसिन पर अवलम्बित है। शोधकार्य में लगे विशेषज्ञों का यह दृढ़ विश्वास है कि मन और शरीर के क्रिया-कलाप पूर्णतः एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए है। इनके बीच थोड़ा भी असन्तुलन कैंसर, मल्टीपुल स्केलेरोसिस आर्थ्राइटिस, माइग्रेन हेडेक, डॉयबिटीज तथा हृदय रोगों का कारण बन सकता है। न्यूरो एण्ड्रोक्राइनालॉजी की नई खोजों के अनुसार सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम तथा एण्ड्रोक्राइन सिस्टम एक दूसरे से सम्बन्धित है। वे परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते है। शरीर के हार्मोन्स न्यूरोट्रान्समीटर के रूप में क्रियाशील होते है। इन्हें सक्रिय बनाने के लिए विहेवियोरल मेडिसिन की इस पद्धति में रोगोपचार हेतु रिलेक्सेशन, बायोफिडबैक आदि का निरापद प्रयोग आरम्भ किया गया है। इससे यह आशा बँधती है कि मनोशारीरिक रोगों का उपचार अब सम्भव हो सकेगा। चिकित्सा जगत की असाधारण प्रगति के बावजूद कैंसर जैसे रोग आज भी असाध्य बने हुए हैं। शरीर शास्त्रियों को वे सूत्र पकड़ में नहीं आ रहे हैं कि शरीर के किसी स्थान विशेष की कोशिकाएँ क्यों बागी हो जाती हैं? क्यों अपना सामान्य क्रम छोड़ बैठती हैं? उन्हें कैसे इस असामान्य व्यवहार से रोका जा सकता है? लम्बी माथापच्ची के बाद भी ये प्रश्न जैसे के तैसे बने हुए हैं तथा मानवी मस्तिष्क को चुनौती देते हैं। अब सोचा जा रहा है कि कैंसर की जड़े व्यक्तित्व की कहीं अधिक सूक्ष्म परतों में विद्यमान होनी चाहिए। जब निदान ही सम्भव नहीं हो पा रहा तो उपचार कैसे सम्भव होगा?

अमेरिका के रोचेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा किये गये अध्ययन से यह ज्ञान हुआ है कि किसी व्यक्ति का जीवन के प्रति अतिशय निराशाजनक चिन्तन कैंसर रोग को जन्म दे सकता है। फोर्टवर्थ टेक्सास के डॉ. कार्ल साइमन्टन, कैंसर के रोगियों का उपचार ‘रेडियेशन’ ‘केमोथेरेपी’ तथा ‘शल्य क्रिया’ की परम्परागत उपचार पद्धति से अलग हटकर रिलैक्सेशन (शिथिलीकरण) और  विजुअलाइजेशन (आत्म निरीक्षण) पद्धति से कर रहे हैं। इसमें रोगियों को नियमित रूप से दिन में तीन बार प्रातः उठते समय १५-१५ मिनट का ध्यान करने को कहा जाता है, इस साधना में रोगी ‘आटोसजेशन’ का अभ्यास करता है तथा यह भावना करता है कि उसका मन शान्त सन्तुलित और स्वस्थ हो रहा है। दूसरे चरण में उसे कैंसर ग्रस्त स्थान पर ध्यान करना पड़ता है, जिसमें वह प्रबल भावना का आरोपण करता है कि शरीर के श्वेत कण कैंसरग्रस्त स्थान पर एकत्रित हो रहे हैं तथा रुग्ण कोशिकाओं को शरीर के बाहर निकाल रहे हैं। रोगियों को सदा प्रसन्नचित्त रहने तथा आशावादी दृष्टिकोण अपनाये रखने का ही निर्देश दिया जाता है। डॉ साइमन्टन को अब तक डेढ़ सौ से अधिक कैंसर के रोगियों के उपचार में पूर्ण सफलता मिली है। स्वस्थ रोगियों में से अधिकाँश वे हैं, जो आशावादी विचारणा के थे।

जर्मनी के एक चिकित्सक डॉ. हैमर ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को अपने मत द्वारा चुनौती दी है तथा यह कहा है कि कैंसर रोग की उत्पत्ति का कारण मानव मन है। यह बीमारी विषैले वातावरण, जीवाणु, आनुवांशिक खामियों के कारण नहीं, मरीज के स्वयं के मानसिक संघर्षों के कारण पैदा होती है। डॉ. हैमर स्वयं भी कभी कैंसर के रोगी थे। उनके रोग के साथ एक मर्मस्पर्शी घटना जुड़ी हुई है। डॉ. हैमर के पुत्र डर्फ को १९७८ में इटली के एक व्यक्ति ने गोली मार दी थी। चार महीने तक उपचार चलता रहा, पर कोई फायदा न हुआ। डर्फ की मर्मान्तक पीड़ा को अपने ही नेत्रों से डॉ. हैमर नित्य देखते थे। अन्ततः उसकी मृत्यु हो गई। पुत्र को तिल-तिलकर मरते हुए देखने से उन्हें तीव्र मानसिक विक्षोभों से होकर गुजरना पड़ा। निरन्तर के मानसिक संघर्षों ने ही कैंसर को जन्म दिया, डॉ. हैमर का यह निश्चित विश्वास है।

अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने म्यूनिख, रोम, कील, कोलोन के विभिन्न अस्पतालों में ५०० रोगियों की जाँच पड़ताल की। जिससे उनकी धारणा और भी परिपुष्ट होती चली गई। अपने मत का उन्होंने जर्मनी के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन कराया। चिकित्सा जगत की प्रचलित मान्यताओं से मेल न खाने के कारण उनका चारों ओर विरोध हुआ। विशेषकर आधुनिक चिकित्सा पद्धति के प्रतिपादकों द्वारा डॉ. हैमर ने विरोध देखते हुए अपनी मान्यताओं को और अधिक मजबूत करने के लिए देश छोड़ना व बाहर जाकर प्रयोग करना अधिक उपयुक्त समझा। इन दिनों वे रोम में जाकर बस गये है तथा अपने शोध कार्य को आगे बढ़ाने का प्रयत्न कर रहे है।

वस्तुस्थिति को वैज्ञानिक कसौटियों पर कसा जाना अभी शेष है, किन्तु कैंसर जैसे गम्भीर रोगों को पैदा करने में मनःस्थिति कहाँ तक जिम्मेदार है, तथा किस तरह की भूमिका सम्पादित करती है? पर जो तथ्य प्रकाशन में आ रहे हैं उनसे यह सम्भावना प्रबल होती जा रही है कि गम्भीर असाध्य रोगों को जन्म देने में मन की अहम भूमिका हो सकती है। इंग्लैण्ड की एक महिला पैट्रिक का रोचक केस आज भी चिकित्साविदों के लिए एक रहस्य बना हुआ है। चिकित्सकों ने उसे वक्ष कैंसर घोषित किया था। यदि निदान आरम्भ हो गया होता तो उन्हें बचाए जाने की भी सम्भावना थी। कैंसर रोग की शुरुआत की स्थिति में निदान के लिए एवं सर्जरी के लिए जो यन्त्र आवश्यक थे, वे लन्दन के अतिरिक्त और कहीं नहीं थे। महिला के लिए उन्हें स्वयं के उपचार के लिए जुटा पाना प्रायः असम्भव था। चिकित्सकों ने घोषणा की थी-रोग की गम्भीरता के कारण ६ माह बाद वे मर जायेंगी। घोर निराशा की स्थिति में इस महिला ने सोचा-मेरा मरना तो सुनिश्चित है। क्यों नहीं जीवन के अवशेष दिनों का उपयोग ऐसे कार्य में किया जाय ताकि अन्य रोगियों को मेरी तरह घुट-घुटकर न मरना पड़े। रेडियो एवं टेलीविजन सेवाधिकारियों की सहानुभूति अर्जित करके उसने यह प्रसारण कराया-मैं एक वक्ष कैंसर से पीड़ित महिला हूँ। छः माह बाद मेरी मृत्यु सुनिश्चित है। कैंसर के रोगियों के प्रारम्भिक निदान के लिए कैटस्केन यन्त्र आवश्यक है। मेरी इच्छा एक ऐसे कम्प्युटराइज्ड एक्जियल टोमोग्राफी युक्त यूनिट की स्थापना है ताकि दूसरे रोगियों का इलाज हो सके। मेरी याचना एवं पीड़ा पर आप सब ध्यान दें तथा आर्थिक मदद करें।

इस प्रसारण का अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा। इतना अधिक चन्दा एकत्रित हुआ कि उसकी व्यवस्था बनाने के लिए पेट्रिक को एक पूरा स्टाफ रखना पड़ा। करोड़ों की लागत से बनने वाले दर्जनों ऐसे कैंसर उपचार केन्द्रों का निर्माण सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में हो गया। तब तक नौ माह का समय गुजर चुका था। अपने कैंसर रोग को इस व्यस्तता के कारण लगभग वह भूल चुकी थी। श्रेष्ठ प्रयोजन में मिली असाधारण सफलता की प्रसन्नता में उसे कुछ भी याद न रहा। एक दिन उसके एक अभिन्न मित्र ने याद दिलाया कि चिकित्सकों ने छः महीने बाद वक्ष कैंसर के कारण उसके मर जाने की घोषणा भविष्यवाणी की थी। एक झटका सा लगा और पेट्रिक ने अपने ही बनवाए हुए एक कैंसर निदान उपचार केन्द्र में विशेषज्ञों की एक टोली द्वारा पूरा परीक्षण कराया। चिकित्सकों को यह देखकर आश्चर्य का पारावार न रहा कि पैट्रिक के वक्ष में कैंसर का नामोनिशान नहीं है। लम्बे समय तक खोजबीन चलती रही पर यह रहस्योद्घाटन न हो सका कि बिना किसी उपचार के पैट्रिक असाध्य वक्ष कैंसर रोग से मुक्त कैसे हो गई। मनःशास्त्रियों ने अपना मत व्यक्त करते हुए संभावना व्यक्त की कि पैट्रिक की परमार्थ भावना, रचनात्मक दृष्टिकोण तथा प्रसन्नचित्त मनःस्थिति आदि के समन्वय से प्रचण्ड मनोबल का उद्भव हुआ, जो कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के कायाकल्प का कारण बना।

शरीर एवं बुद्धि की अपेक्षा मानसिक सामर्थ्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। रचना, सामर्थ्य एवं सद्भावना की दृष्टि से भी वह इन दोनों की तुलना में भारी ही बैठती है। आधुनिक मनोवेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि मन के सन्तुलन एवं विकास पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। सामर्थ्यों एवं सम्भावनाओं का यह महत्त्वपूर्ण स्रोत यदि उपेक्षित ही पड़ा रहा, तो स्वास्थ्य एवं आरोग्य को स्थाई रूप से सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। मात्र मन को ही समुचित दिशा दे देने से कायिक अवरोध तथा अस्त-व्यस्तताओं पर नियन्त्रण पाया जा सकना सम्भव है। अब विज्ञान की मुहर भी लग जाने से इस चिकित्सा-प्रक्रिया को और भी अधिक सशक्त स्वर से कहा व प्रतिपादित किया जा सकता है। आधुनिक चिकित्सा को मानने वाले विद्वानों को भी मानवी अन्तस् के उपेक्षित से पड़े कल्पवृक्ष मानव मन को अब मान्यता देकर इसकी सामर्थ्यों का सबको लाभ देना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



97.    आत्म-ज्ञान का तत्व-दर्शन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इसे एक विडम्बना ही कहना चाहिए कि मनुष्य बाह्य संसार एवं सम्बन्धित वस्तुओं के विषय में अधिकाधिक जानकारियाँ एकत्रित तो करता रहता है, पर स्वयं अपने विषय में अपरिचित बना रहता है। अपने स्वरूप का बोध न होने तथा सांसारिक आकर्षणों में भटकते रहने से अन्ततः भटकाव ही हाथ लगता है। जड़ प्रकृति की खोज साधन-सुविधाओं की उपलब्धि के लिए आवश्यक है, पर उससे भी अधिक जरूरी है उनके उपयोगकर्ता सत्ता का स्वरूप जानना।

मनुष्य क्या है? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़े संसार एवं प्राप्त विभूतियों का सही उपयोग क्या है? इन प्रश्नों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्म-विस्मृति छाई रहती है। अन्तःकरण के मूर्छित स्थिति में जा पहुँचने से जीवन-नीति का गम्भीर निर्धारण नहीं हो पाता। इन्द्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती है। जिस तरह मनुष्येतर जीव शरीरेन्द्रियों से अभिप्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के कर्म करते, पेट और प्रजनन की परिधि में चक्कर काटते रहते हैं, उसी प्रकार का जीवनक्रम मनुष्य का भी बन जाता है। लोक प्रचलित ढर्रे का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। कटी पतंग और पेड़ से टूटे पत्ते दिशा विहीन स्थिति में इधर-उधर उड़ते और छितराते रहते हैं। जीवन भी मात्र इसी प्रकार दिन काटने के लिए जिया जाता है। उच्चस्तरीय आदर्श सामने न रहने से न तो कोई महत्त्वपूर्ण प्रयास बन पड़ता है और न ही जीवन का वास्तविक आनन्द मिल पाता है। भौतिक सुखाकाँक्षा में भटकती जीवात्मा अशान्ति और असन्तोष की आग में जलती रहती है। रोने कलपने में ही हारी-थकी जिन्दगी कट जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्य को अपनी सत्ता का बोध न होने से जीवन लक्ष्य का निर्धारण भी नहीं होने पाता।

पदार्थ और प्राण का, जड़ और चेतन का समन्वय ही काया का अस्तित्व बनाये हुए है। वे दोनों पृथक होते हुए भी परस्पर इतने अधिक गुँथे हुए हैं कि एक के बिना दूसरे की गति नहीं। प्राण निकलते ही शरीर न केवल निश्चेष्ट हो जाता है वरन् स्वयमेव सड़ने लगता है और अपना अस्तित्व समाप्त कर लेने के लिए अन्त्येष्टि कर्म में अपनी रही बची विशेषता होम देता है। यह तो हुई प्राण के अभाव में शरीर की दुर्गति। दूसरा पक्ष भी ऐसा ही है। प्राण-सत्ता आकाश में वायुभूत होकर भले ही घुमड़ती रहे, पर दृश्य जगत में अपने अस्तित्व का परिचय देना या किसी प्रकार का अभीष्ट प्रयोजन पूरा कर सकना सम्भव नहीं होता। प्राण के बिना शरीर का और शरीर के बिना प्राण का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं रह जाता। इस तथ्य को देखते हुए दोनों के मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र को समझा जा सकता है।

स्थूल और सूक्ष्म का, जड़ और चेतन का यह समन्वय इसी ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से विद्यमान है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई तरंगें है। इन कम्पनों के अन्तराल में चेतना का अस्तित्व और अंकुश ढूँढ़ निकाला गया है। उसकी सूझ-बूझ भरी गतिविधियाँ इकोलॉजी विज्ञान के आधार पर सन्तुलन के रूप में पग-पग पर अपना कार्य करती हुई देखी जा सकती हैं। ऐसे और भी अगणित प्रमाण हैं, जिनमें पदार्थ जगत् के साथ एक अत्यन्त शक्तिशाली रहस्यमय एवं वरिष्ठ चेतना जगत गुँथा हुआ देखा जा सकता है। पदार्थ में जिस प्रकार ऊर्जा और गति का अस्तित्व है, उसी प्रकार प्राण में भावना एवं विचारणा को अनेक रूपों में अपने चित्र-विचित्र कृत्य करते हुए देखा जा सकता है।

पदार्थ का स्वरूप और व्यवहार समझने पर स्थूल-जगत् में मनुष्य अपने विभिन्न प्रयोजन पूरे करता रहता है। किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि जीवात्मा स्वयं सचेतन होते हुए भी, चेतना-जगत् में अपनी मूल सत्ता से अविच्छिन्न रूप से जुड़े होते हुए भी उस विधा से अपरिचित ही बना रहता है जो उसकी अपनी निजी सत्ता के उत्थान-पतन की जिम्मेदार है। शरीर पदार्थ है अस्तु उसकी सुविधा पदार्थ पर निर्भर समझी जा सकती है। अभीष्ट उपलब्धियों के लिए काय सत्ता को भौतिकी विद्या की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना उसका काम नहीं चलता, निर्वाह कठिन हो जाता है। ऐसी दशा में भौतिकी का महत्त्व समझा जाना और उसका उपयोग करना उचित ही है। किन्तु समझा यह भी जाना चाहिए कि जीवन की समस्त आवश्यकताएँ भौतिकी द्वारा पदार्थ को उपलब्ध कर लेने से ही तो पूरी नहीं हो जाती। चेतना का अपना भी कुछ स्वरूप, उद्देश्य, कार्यक्रम, बल-वैभव है। उस सम्बन्ध में अनाड़ी बने रहने पर मात्र शरीर यात्रा ही चलती रहेगी। चेतना की अपनी निजी सामर्थ्य एक प्रकार से सोई ही पड़ी रहेगी, उसका निर्वाह रत पक्ष ही जागृत रहेगा। जिसे समग्र चेतना का कठिनाई से शतांश ही कहा जा सकता है। शेष अंश प्रसुप्त, उपेक्षित या अनगढ़ स्थिति में पड़ा रहे तो उसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

अध्यात्म शास्त्र में पग-पग पर एक उद्बोधन, निर्देशन पूरा जोर देकर दिया जाता है कि अपने को जानो, उसे उठाओ। ‘आत्मानं विद्धि’, ‘आत्मावारे ज्ञातव्य’ जैसे सूत्र संकेतों का आत्म क्षेत्र के प्रवेशार्थी को ध्यान पूर्वक मनन-चिन्तन करना पड़ता है। आत्मज्ञान की महत्ता, प्रतिक्रिया एवं सिद्धि परिणित का इतना अधिक प्रतिपादन हुआ है कि उससे बढ़कर इस संसार में और कोई बड़ी उपलब्धि मानी ही नहीं गई। अन्तःज्ञान की उपयोगिता बाह्य ज्ञान की तुलना में कहीं अधिक है। सुख-साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोगकर्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना आवश्यक है अन्यथा भौतिक उपलब्धियों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे अगणित समस्याएँ उत्पन्न होंगी। मोटर अच्छी होना पर्याप्त नहीं है। ड्राइवर यदि अनाड़ी हुआ तो कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है। साधनों की कमी रहते हुए भी जीवन-लक्ष्य सामने हो तो अभावों में भी सदा प्रसन्न और सन्तुष्ट रहा जा सकता है, जबकि अन्तःविवेक के अभाव में साधनों की प्रचुरता से बन्दर के हाथ में तलवार पड़ जाने जैसी स्थिति उत्पन्न होगी, जिसने अपने मालिक की नाक पर बैठी मक्खी को उड़ाने के लिए गर्दन ही उड़ा दी थी।

मनुष्य के लिए खोज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न कौन सा हो सकता है? श्वेताश्वेतरोपनिषद् का ऋषि स्पष्ट करता है-
‘‘किं कारणं ब्रह्म कुतः स्मजाता जीवाम् केन क्वच सम्प्रतिष्ठाः।
अधिष्ठिताः  केन  सुखेतरेषु  वर्तामहेब्रह्म  विदो  व्यवस्थाम् ।।’’

अर्थात्-हे वेदज्ञ महर्षियों! इस जगत् का प्रधान कारण ‘ब्रह्म’ कौन है? हम सभी किससे उत्पन्न हुए हैं, किससे जी रहे हैं तथा किसमें प्रतिष्ठित हैं? साथ ही किसके अधीन रहकर हम लोग सुख और दुःख का अनुभव करते है।

इस प्रश्न के उत्तर की अर्थात् आत्मज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके, तो सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि हम कौन हैं? और क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता ऋषियों ने गम्भीर चिन्तन एवं अनुसंधान से जो निष्कर्ष निकाले थे, वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं तथा आत्मानुसन्धान में प्रवृत्त होने के इच्छुक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।

अणु की सत्ता की व्याख्या विवेचना करने वाले वैज्ञानिक उसे सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा सा अविच्छिन्न घटक मानते हैं। आत्मा क्या है? परमात्म सत्ता का एक छोटा सा अंश। अणु की अपनी स्वतन्त्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रिया कलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्व से विभिन्न नहीं है एक ही सूर्य की अनन्त किरण संसार में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकों लहरे उठती रहती हैं। ऐसा देखने पर प्रतीत होता है कि किरणों एवं लहरों की स्वतन्त्र सत्ता है जो परस्पर एक दूसरे से भिन्न है। पर सत्य की गहराई में जाने पर पता चलता है कि भिन्नता, कृत्रिम और एकता वास्तविक है। अलग-अलग बर्तनों में आकाश की कितनी ही स्वतन्त्र सत्तायें दिखायी पड़ती हैं, पर तथ्यतः उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं है। पानी में अनेकों बुलबुले और भँवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचलें मात्र हैं। जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता दीखती भर है, पर उसका अस्तित्व एवं स्वरूप विराट् चेतना का ही एक अंश है।

इस निष्कर्ष के आधार पर ही अध्यात्मवेत्ताओं ने उद्घोष किया कि हम विश्व चेतना के अंश मात्र हैं। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है। हम उसकी छोटी चिनगारी भर हैं। व्यष्टि और समष्टि की एकता शाश्वत है पृथकता कृत्रिम। सबमें अपने को और अपने में सबको समाया हुआ देखा, समझा और माना जाय, सबके हित में अपना हित सोचा जाय। परस्पर एक दूसरे के सुख दुःख को अपना ही सुख दुःख माना जाय। सबका उत्थान अपना उत्थान और सबका पतन अपना पतन, यह मानकर चलने से सीमित परिधि में सुखी रहने की क्षुद्रता घटती है तथा आत्म विस्तार की प्रेरणा उठती है। सीमा संकीर्णता से निकलने से व्यक्तिवाद पर अवलम्बित स्वार्थपरता घटती है। मनुष्य विराट् समाज का अपने को एक अभिन्न अंग मानने लगता है। सामूहिक हित सोचने और सामूहिक गतिविधियाँ अपनाने में ही उसे आनन्द आता है।

अपनापन हर किसी को प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस भी पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है वही परमप्रिय लगने लगते हैं। अपनेपन का दायरा जितना ही छोटा होगा आत्मिक दृष्टि से मनुष्य उतना ही पिछड़ा माना जायेगा। अपने शरीर और परिवार तक सीमित रहने वाला व्यक्ति आत्मविस्तार का आनन्द नहीं ले पाता। छोटा सा क्षेत्र ही अपना बनकर रह जाता है। यह क्षेत्र जितना विस्तृत होगा उतनी ही आत्मीयता की परिधि भी बढ़ती जायेगी। सभी अपने लगेंगे और अपना परिवार अत्यन्त सुविस्तृत बन जायेगा। किस व्यक्ति की कितनी आत्मिक प्रगति हुई इसका अनुमान इस आधार पर लगाया जा सकता है कि उसने किस सीमा तक आत्मविस्तार किया है।

आत्मा परमात्मा की, जीव ब्रह्म की, व्यष्टि समष्टि की एकता का दूसरा निष्कर्ष है कि अंशी के सभी गुण सूक्ष्म रूप से अंश में विद्यमान रहते हैं। अस्तु परमात्मा की समस्त विशेषताएँ एवं सम्भावनाएँ जीवात्मा में मौजूद हैं। साधना द्वारा उन्हें जगाया एवं विकसित किया जा सकता है। आत्मा के परमात्मा स्तर तक जा पहुँचने की पूरी सम्भावना है। चिनगारी में दावानल बनने की सभी विशेषताएँ मौजूद रहती हैं। विशाल वृक्ष का ढाँचा बीज के भीतर सन्निहित है। नन्हे से शुक्राणु में प्राणी की आकृति एवं प्रकृति का अधिकांश स्वरूप समाहित रहता है, जो नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता। छोटे से परमाणु में पूरे सौर-मण्डल का नक्शा होता है। इस तथ्य से यह बात स्पष्ट है कि जीव की मूलसत्ता ईश्वर के ही समतुल्य है। इस सम्भावना को साकार करना मनुष्य जीवन में सम्भव है। मनुष्य के रूप में शरीर धारण करने का सुअवसर भी इसीलिए मिला है कि वह अपने महान लक्ष्य को समझे तथा पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे। परमात्मा द्वारा दिये गये मनुष्य जीवन रूपी बहुमूल्य उपहार की सार्थकता पूर्णता की प्राप्ति आत्मज्ञान की उपलब्धि में ही सन्निहित है।

इस परम लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय आदर्श एवं पवित्रतम देव जीवन जिया जाय और अपनी शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक उपलब्धियों में से न्यूनतम अपने लिए तथा अधिकतम परमार्थ प्रयोजनों में उपयोग किया जाय, यही है ईश्वर प्रदत्त सुर दुर्लभ मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग। अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य को अतिरिक्त बुद्धि वैभव परमात्मा ने दिया है। ऐसा पक्षपात उसने क्यों किया? इसका उत्तर मनुष्य जीवन के लक्ष्य को समझने पर स्पष्ट हो जाता है। यदि मनुष्य प्राप्त अतिरिक्त अनुदान को व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने में प्रयुक्त करता है, तो उस उपहार का दुरुपयोग हुआ समझा जाना चाहिए।

मन और शरीररूपी रथ के दो पहिए, दो घोड़े हैं। अन्तःकरण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप यह दोनों स्वामिभक्त सेवक की भाँति गतिशील रहते हैं। शरीर जड़ है। उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा इच्छा नहीं है। इन्द्रियाँ भी पंचतत्वों से बनी हैं। मन भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं सोचता। अन्तःकरण से जैसी भी प्रेरणाएँ उभरती है वह उसी के अनुरूप विचारों का ताना-बाना बुनता है। अन्तःकरण के निर्देशों को पूरा करना मात्र उसका काम है। सज्जनों का चिन्तन और कर्तृत्व एक तरह का होता है और दुर्जनों का दूसरी तरह का। इन दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियों में शरीर और मन सर्वथा निर्दोष होते हैं। दोषी अन्तःकरण होता है, जिसमें जमे संस्कार भली बुरी प्रेरणाएँ उभारने का कारण बनते हैं।

आत्मज्ञान का अर्थ है अन्तरात्मा के गहन स्तर को स्पर्श करना। कुसंस्कारों का परिशोधन करना तथा यह आस्था एवं अनुभूति उत्पन्न करना कि हम सत्-चित् परमात्म सत्ता के अविच्छिन्न अंग है। पूर्णता हमारा लक्ष्य है। आत्मज्ञान की भूमिका में जगा हुआ जीवात्मा संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लाँघकर सबमें अपने को और अपने में सबको देखता है। इसलिए वह जो कुछ भी करता एवं सोचता है वह व्यापक लोकहित मानव मात्र के कल्याण को ध्यान में रखकर उसके हर क्रियाकलाप में आदर्शवादिता ही उभरती, छलकती दिखायी पड़ती है। ऐसे आत्मज्ञानी अभावों एवं संकटों में रहते हुए भी अन्तःकरण में सदा असीम आनन्द एवं संतोष की अनुभूति करते रहते हैं। यह एक ऐसी स्थिति है, जिसके विषय में बृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि कहता है-
‘‘आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् ।’’

अर्थात-‘‘वह एक ऐसी पूर्ण चेतन्य आनन्दमय सत्ता है जिसके ज्ञान से सब कुछ जान लिया जाता है। अर्थात् कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता।’’

‘‘य एवं वेदाहं ब्रह्मा स्मीति स इदं सर्व भवति।’’

अर्थात्-‘‘आत्मवेत्ता सर्वत्र हो जाता है क्योंकि दृष्टा का अनुभव ही विश्व का विस्तार है। निद्रा से टूटने पर स्वप्न की स्थिति मिट जाती है। आत्मज्ञान के प्रकाश में यह अनुभव होते है कि संसार की सत्ता आत्मा के बाहर नहीं है। भगवान बुद्ध आत्मज्ञानी होते ही दिव्य मानव बन गये। यह अन्तःजागरण का ही प्रतिफल था। जिसके कारण उन्हें सबमें आत्मसत्ता का प्रकाश दिखाई पड़ने लगा।’’

आत्मज्ञान की चरम उपलब्धि के लिए तत्त्वदर्शन को समझना जितना आवश्यक है उतना ही साधना का मार्गावलम्बन भी अनिवार्य है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



98.    योग प्रसुप्त की जागृति का उच्च स्तरीय विज्ञान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

रायल मेडिकल सोसायटी के सम्मुख सन् १८९६ में चिकित्सा विज्ञान के निष्णात डॉ. ग्लौस्टन ने कहा था ‘‘शारीरिक रोगों के उपजने बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्ट साध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। शारीरिक कारणों या परिस्थितियों का जितना सम्बन्ध रोगों के उतार-चढ़ाव से है, उससे कहीं अधिक मनोदशा प्रभावित करती है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की सम्भावना बहुत ही कम रह जायेगी। आक्रमण करने पर भी वे बहुत समय ठहर न सकेंगे। इसलिए चिकित्सा के औषधि उपचार पर जितना ध्यान दिया जाता है, उससे अधिक मनःचिकित्सा को सही बनाने का प्रयत्न होना चाहिए।’’

मन और स्वास्थ्य पुस्तक के लेखक हेक ट्यूक ने शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं-यो शरीर पर आहार-विहार का भी प्रभाव पड़ता है और अभाव तथा व्यतिरेक भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ते हैं, तो भी उस पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव प्रतिक्रिया नाड़ी मण्डल पर ३६ प्रतिशत, अन्तःस्रावी हारमोन ग्रन्थियों पर ५६ प्रतिशत, माँसपेशियों पर ८ प्रतिशत पायी गयी है। कई रोगियों के पर्यवेक्षण पर पाया गया कि उनके शरीर में कोई ऐसी गड़बड़ी नहीं है, जिससे उन्हें गम्भीर रोगों का शिकार बनना पड़े। तो भी वे हृदयरोग, कैन्सर, कोलाइटिस, हिस्टीरिया, रक्तचाप, अनिद्रा, अपच आदि के मरीज पाये गये। कठिनाई यह भी बनी रही कि किसी औषधि उपचार से उन्हें कोई राहत न मिली। जबकि उनका चिन्तन प्रवाह मोड़ देने पर बिना उपचार के ही बहुत कुछ ठीक हो गया।

श्री हेक ने अपने प्रतिवेदन का अन्तिम निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है-फेथ (विश्वास), होप (आशा), कान्फीडेन्स (श्रद्धा), विल (इच्छा) और सजेशन (स्वसंकेत) जैसे प्रयोगों को अब स्वास्थ्य सम्वर्धन में प्रयोग किया जाना चाहिए। रोग निवारण का यह सबसे सस्ता, सुनिश्चित और हानि रहित निर्धारण है।

योगशास्त्र के निर्धारणकर्ता पतंजलि गीता के प्रस्तोता व्यास और योग वशिष्ठ के उपदेष्टा वशिष्ठ का इस तथ्य पर पूर्णतया मतैक्य है कि मानसिक संयम से मनुष्य सुखी रहता और प्रगति पथ पर अग्रसर होता है। योग दर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियन्त्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रान्तियों में भटकने वाली मनःस्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया है और उनको दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श दिया है। गीताकार मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराते हैं और उसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श देते हैं। वशिष्ठ का कहना है कि जिसने मन जीत लिया उसे त्रैलोक्य विजेता कहना चाहिए। इन प्रतिपादनों में एक ही संकेत है कि मनोदशा की गरिमा शारीरिक स्वस्थता से भी बढ़कर मानी जाय और समझा जाय कि अनेकानेक समस्याओं के उद्भव एवं समाधान का आधार इसी क्षेत्र की सुव्यवस्था पर निर्भर है। इसलिए प्रयत्न पूर्वक मन की अनगढ़ कुसंस्कारिता का नियमन करना चाहिए।

आत्मानुशासन (साइकोफिजिकल डिसीप्लिन), आत्म सन्तुलन (इक्वानिमिटी ऑफ स्प्रिट) का अभ्यास ही योग साधना है। इससे नाड़ी मंडल और स्नायु संस्थान पर इच्छित नियमन की क्षमता उपलब्ध होती है फलतः मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य अपना स्वामी आप बन जाता है। जबकि अव्यवस्थित कल्पनाओं और अनुपयुक्त इच्छाओं में उलझा हुआ व्यक्ति अपने साथ ठिठोली करने और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने जैसी विडम्बनाएँ रचता रहता है। निरोग और दीर्घायु वे ही रह सकते हैं जो अपने के स्वामी आप हैं। इच्छाओं और आदतों के गुलाम को आत्म निरीक्षण करने तक की फुर्सत नहीं मिलती और न इतना साहस रहता है कि पतनोन्मुख प्रवाह को रोके और उसे श्रेय पथ की दिशा में मोड़ें। यह असमर्थता ही मनुष्य की वास्तविक दरिद्रता और दुर्बलता है। इसे हटाये बिना दुर्गति से बचने का और कोई उपाय नहीं। यही कारण है कि सुव्यवस्थित प्रगतिशील और प्रसन्नता भरा जीवन जीने के लिए आत्म नियमन सीखना होता है। शरीर निर्वाह के लिए सुविधा साधनों के सहारे काम चल जाता है किन्तु यदि इतना ही पर्याप्त न लगे और मानवोचित वरिष्ठता प्राप्त करने की आवश्यकता प्रतीत हो तो फिर उसके लिए मनोनिग्रह की व्यवस्था भी जुटानी पड़ेगी। उद्दण्डता और बलिष्ठता के सहारे अपहरण और संग्रह भर हो सकता है। आतंक में डराने और विवश करने भर की क्षमता है। स्नेह और सहयोग अर्जित करने के लिए मानसिक सद्गुणों की आवश्यकता है उन्हें अपने में उगाने और बढ़ाने के लिए मानसिक सुसंस्कारिता की अनिवार्य आवश्यकता है उसके लिए संचित कुसंस्कारिता से जूझना पड़ता है। इसी संघर्ष को धर्म युद्ध या साधना समर कहा गया है। अर्जुन को दिव्य सत्ता ने इसी के लिए दबाव देकर बाधित किया था।

धारणा (कन्सन्ट्रैशन), ध्यान (मेडीटेशन) और समाधि (कन्टमप्लेशन) के अभ्यासों में साधक को एक ही लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनाया जाता है कि वह मन की अस्त व्यस्तता पर नियमन करना सीखे। इसके उपरान्त ही सधे हुए मन को उत्कृष्टता की दिशा में चल सकने योग्य प्रशिक्षित पाया जा सकता है। शारीरिक और मानसिक अनुशासन (साइकोफिजिकल डिसीप्लिन) बन पड़ने पर व्यक्तित्व की प्रौढ़ता परिपक्वता मानी जाती है। और उसी को महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकने की क्षमता एवं सम्भावना आँकी जाती है। बालकों जैसी चंचलता और लक्ष्य हीनता की स्थिति में पड़े हुए लोग बन्दरों की तरह निरर्थक उचक-मचक तो बहुत सी करते रह सकते हैं, पर वे ऐसा कुछ कर नहीं पाते जिसे दिशाबद्ध क्रमबद्ध या महत्त्वपूर्ण कहा जा सके।

योग न तो रहस्यवाद है न पलायनवाद। उसमें काय कष्ट का वैसा विधान नहीं है जैसा कि कई अतिवादी अपना दुस्साहस दिखाकर भावुकजनों पर विशिष्टता का आतंक जमाते और उस आधार पर शोषण करते देखे गये हैं। योग कल्पना लोक में अवास्तविक विचरण भी नहीं है और न उसे जादू चमत्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। देवताओं को वशवर्ती बनाकर या भूत प्रेतों की सहायता लेकर मनोकामना पूरी करने, कराने जैसी ललक लिप्सा पूरी करने जैसा भी इस विद्या में कोई आधार नहीं है। योग एक विशुद्ध विज्ञान है। जिसका वास्तविक आधार है-आत्मानुशासन का अभ्यास और क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए सफल नियोजन। जो इतना कर सकते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में सिद्ध पुरुष कहा जा सकता है।

मानवी विशेषता में उसके चेतन स्तर को ही दैवी विभूति माना गया है। वह उसे प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं, उसका सुनियोजन और सदुपयोग तो चाहिए भी। यह न बन पड़े तो समझना चाहिए कि दुरुपयोग से अमृत के भी विष हो जाने जैसी कहावत इस क्षेत्र में भी लागू होगी और मानसिक क्षमता की विशेषता उलटी विपत्तियाँ खड़ी करेगी। जैसा कि सामान्य जनों को निर्वाह सुविधा उपलब्ध रहने पर नाना प्रकार के शोक सन्तापों से ग्रसित देखा भी जाता है। अन्य प्राणियों को पदार्थ विनिर्मित शरीर मिला है वे पदार्थ परम्परा के अधिष्ठानों, प्रकृति के निर्धारित अनुशासनों को समझते, पालते और सुखी रहते हैं। मनुष्य को न केवल शरीर वरन् उच्चस्तरीय मनःसंस्थान भी मिला है। इसलिए समझदारी बताती है कि उसे दुहरी और मानसिक विशिष्टता के लिए उसे आत्मिक अनुशासन अपनाना चाहिए। इस क्षेत्र में जो असन्तुलन बन पड़ा है, उसे सुधारने के लिए योगाभ्यास आवश्यक है। इस सुधार प्रयोजन के बिना यह सम्भव नहीं कि मानवी क्षमताओं का उपयुक्त प्रयोजनों के लिए उपयुक्त रीति-नीति अपनाते हुए उपयुक्त नियोजन सम्भव हो सके।

शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों से छुटकारा पाना ही नहीं अवांछनीय आदतों के कारण उत्पन्न होती रहने वाली विषम परिस्थिति से निपटने के लिए परिष्कृत मनोभूमि चाहिए। महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकना तो इसके बिना बनता ही नहीं, इसलिए मानसिक दक्षता की उपयोगिता समझने वाले हर व्यक्ति को योगाभ्यास की बात सोचनी और व्यवस्था बनानी चाहिए।

महामानवों में से प्रत्येक को अन्तःचेतना की उत्कृष्टता (हाई लेवल कान्सेन्स) को किसी न किसी प्रकार अर्जित करना ही पड़ा है। जो उस दिशा में बढ़ना चाहते हो उनके लिए सरल और सुनियोजित विधि व्यवस्था योगाभ्यास की सामने है। बलिष्ठता के लिए व्यायाम, विद्वता के लिए अध्ययन, उपार्जन के लिए पराक्रम की जिस प्रकार आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार मनस्वी बनने के लिए योग साधना का स्वरूप समझें तथा प्रयोग करने की दिशा में भी कदम बढ़ाने चाहिए।

सन् १९६३ में औषधि विज्ञान की खोज पर नोबुल पुरस्कार विजेता जान एकल्स ने कहा था-वे सिद्ध कर सकते हैं कि हर मनुष्य को एक जीव रसायन तथा रहस्यमयी ऊर्जा से बना एक ऐसा पदार्थ प्राप्त है, जिसे आत्मा कहा जा सकता है।

कैलेच विश्वविद्यालय के प्राध्यापक रोजर स्पेरी को सन् १९८१ में रासायनिक अध्ययन पर नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका आत्मा के सम्बन्ध में कहना है कि यह एक सुनिश्चित तथ्य है। रासायनिक पदार्थों के मस्तिष्कीय गुणों से सम्बन्ध होने पर एक ऐसी सत्ता बन जाती है, जो न केवल मनःक्षेत्र के दस अरब न्यूरोनों पर वरन् समूचे शरीर पर अपना शासन चलाती है। इसका कार्यक्षेत्र सीमित नहीं वरन् असीम एवं व्यापक है। भौतिक शास्त्र में १९६३ के नोबेल पुरस्कार विजेता यूजीन डिगमर ने आत्मा को ऐसी अचेतन सामर्थ्य कहा है जो चेतन का नियन्त्रण और सूत्र संचालन करती है।

कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय के भौतिकी विशेषज्ञ ब्रियान जोसेफन ने लिखा है-मानवी सत्ता एक ऐसा गठन है जो रसायनों और ऊर्जाओं के साथ गुँथा रहने पर भी उनके अधीन नहीं है, वरन् अपनी सत्ता को चेतना सम्पन्न होने के कारण अपने क्षेत्र पर पूरी तरह शासन करता है।
स्प्रिचुअल सोसाइटी के अध्यक्ष जान एकल्सि ने कहा हैं-हम आत्मा की प्रत्यक्षता का क्रमशः अधिकाधिक अनुभव करते जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब वह अदृश्य या अविज्ञान न रहकर सामने प्रस्तुत होगी। उसे हम उसी तरह अनुभव कर सकेंगे जैसे सम्बद्ध अन्य शक्तियों का स्पष्ट अनुभव करते हैं।

आत्मा रसायन है, ऊर्जा या ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाचेतना की एक अविच्छिन्न इकाई है। यदि इस विवाद में न पड़ा जाय तो भी यह मानना होगा कि वह जो भी है, वह असाधारण सामर्थ्य की पुँज है। उसकी रहस्यमय परतें ऐसी है जिन्हें जगाने, उभारने, सुधारने और सही रीति से प्रयुक्त कर सकने की क्षमता अर्जित कर सकने वाला कोई भी व्यक्ति अपनी विशिष्टता का परिचय दे सकता है। इस समर्थता को अर्जित करने के लिए योग साधना ही एक असंदिग्ध मार्ग है।

अमेरिकी हिल्टन होटल शृंखला के मालिक कोनराल्ड हिल्टन अपने समय के गिने चुने धन कुबेरों में से एक थे। अनवरत रूप से मिलती गई सफलताओं का कारण वे भीतर की आवाज को बताते थे। उनके साथी गणित और तथ्यों के आधार पर योजनाएँ बनाते थे और हिल्टन के आधार को अवैज्ञानिक बताते थे तो भी यह बात आश्चर्यजनक ही बनी रही कि भीतरी आवाज ने कभी धोखा नहीं खाया जबकि तथ्यानुयायी अनेक बार असफल रहे और घाटे की चपेट में आये। यह रास्ता उन्होंने अलास्का हिमाच्छादित प्रदेश में तेल की खुदाई का ठेका लेने वाले लिडलेन हेस से सीखा था। उन्होंने वह दुस्साहस भरा काम हाथ में लिया था और असाधारण धन तथा यश कमाया था। हेस अपने पुरुषार्थ को दाँव कहते थे और उस बाजी को जीतने में अन्तःप्रेरणा के मार्गदर्शन को श्रेय देते थे।

विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण सफलता पाने वाले लोगों की विशेषता का क्या कारण हो सकता है, यह जानने के लिए दो रहस्यवादी अनुसंधान कर्ताओं ने कदम बढ़ाया और उस स्तर के लोगों के साथ सम्पर्क साधा। ऐसे सफल लोगों में उद्योगपतियों को प्रथम महत्त्व का समझा जाता है। इसलिए उन्होंने उस वर्ग को प्रधानता देते हुए अन्य क्षेत्र के लोगों को भी द्वितीय, तृतीय श्रेणी का गिना और अनुसंधान का कार्यक्रम बनाया। इस अन्वेषण के निमित्त की गई पूछताछ से पता चला कि उनमें से, जिन्हें भीतर की आवाज पर विश्वास था और असमंजस की घड़ियों में उन्होंने उन्हीं का सहारा लेकर कदम बढ़ाया है।

यह क्षमता किन्हीं में जन्मजात रूप से उत्पन्न हुई या अनुमान से मिली भी हो सकती है, कोई उसे योग साधना द्वारा भी उत्पन्न कर सकते हैं। किन्हीं-किन्हीं में अनायास ही प्रकट होते देखा जाता है। यह प्रकटीकरण यह बताता है कि यह क्षमताएँ तो हर किसी में विद्यमान हैं, पर उनका दृश्य स्वरूप यदि संयोग वश देखा जा सकता है तो आशा करने का औचित्य है कि प्रयत्न पूर्वक उन्हें जागृत किया जा सके तो उन्हें भी वैसी ही मानसिक विशेषताओं की तरह प्रयुक्त किया जा सकेगा, जैसी कि कलाकौशल आदि के रूप में जगाया और काम में लाया जाता है। अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न मनुष्यों के कितने ही उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं।

चेतना क्षेत्र की इन्हीं विशेषताओं में अतीन्द्रिय क्षमताओं का क्षेत्र आता है। सामान्यतया मानवी क्रिया-प्रक्रिया की एक छोटी सीमा है। आँखें एक सीमित दूरी तक ही देख सकती हैं। बुद्धि उन्हीं का अनुमान लगा सकती है जो किन्हीं प्रमाणों या साधनों से जाना जा सके। इसके अभाव में उसे बहुत दूर की, कालान्तर की, देशान्तर की जानकारियाँ प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीं है, किन्तु ऐसा भी देखा गया है कि इन जानकारियों को प्राप्त किया जा सका तो मस्तिष्क तथा इन्द्रिय तन्त्र की पकड़ से सर्वथा बाहर हैं इसे अतिक्षमता कहते हैं। मानवी मस्तिष्क का एक अविज्ञात निष्क्रिय पक्ष, जिसे शरीर शास्त्री डार्क एरिया के नाम से पुकारते हैं। सामान्य ज्ञान व्यवहार में मानवी मस्तिष्क का बहुत थोड़ा प्रायः सात प्रतिशत अंश ही काम में आता है। ९३ प्रतिशत क्षेत्र यही प्रसुप्त क्षेत्र है। जिसके बारे में शरीर शास्त्री, मनःशास्त्री यह जानने में समर्थ न हो सके कि यहाँ क्या छिपा है और उसे किस प्रकार किन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
तत्त्वज्ञानी इस प्रसुप्त क्षेत्र को अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न कहते हैं। इसका कुछ भाग यदा कदा अपनी रहस्यमय परतों की थोड़ी झाँकी कराता है तो प्रतीत होता है कि हर किसी में वे विशेषताएँ विद्यमान हैं जो यदा कदा सिद्ध पुरुषों द्वारा प्रकट होती देखी जाती हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



99.    भाव चेतना को प्रभावित करे, ऐसी विधा की खोज हो
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को तर्क, प्रमाण, विचार, परामर्श आदि देकर प्रभावित कर सकता है इसकी जानकारी सभी को है। अध्यापक अपने छात्रों के मस्तिष्क को विकसित करते है। पहलवान अपने शागिर्दों को कुश्ती, कसरत सिखाकर बलवान बनाते हैं। वक्ता, लेखक विचारों से हलचल उत्पन्न करते और लोगों के सोचने के तरीके में परिवर्तन करते हैं। नर-नारी के बीच शारीरिक आकर्षण भी काम करता है और प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने रौब दाब, आतंक का भी उपयोग करते हैं।

उपरोक्त प्रभाव प्रक्रिया का स्तर उथला ही रहता है। अध्यापक गणित, इतिहास, भाषा, भूगोल आदि की जानकारी करा देने पर अपने कर्तव्य से छुट्टी पा लेते हैं। वे चिन्तन की शैली, आकांक्षा और दिशा नहीं बदल सकते। अखाड़े के पहलवान शागिर्दों की माँस-पेशियाँ मजबूत कर सकते हैं, उनमें मनोबल उत्पन्न नहीं कर सकते।

इसी प्रकार लेखक, वक्ता, नेता, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति अपनी तेजस्विता के सम्मोहन से तत्काल तो कुछ भी सोचने करने को आवेश उत्पन्न कर सकते है, पर वह क्षणिक होता है और उथला रहता है। वह नशा उतरते ही लोग अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं और वह कृत्रिम उत्साह अपनी क्षणिक चमक दिखाकर तिरोहित हो जाता है। कारण स्पष्ट है जो शिक्षण दिया गया था वह अन्तःकरण की गहराई तक प्रवेश न कर सका, केवल उथले बौद्धिक स्तर तक टकरा कर बिखर गया। उस टकराहट की प्रतिक्रिया जितनी देर रह सकती थी उतनी देर रही और इसके बाद व्यक्ति की वही संस्कारगत स्थिति आ गई।

मनुष्य का समग्र व्यक्तित्व विकसित एवं परिवर्तित करने से ही उसकी गरिमा और महत्ता बढ़ सकती है। महामानव ही इस विश्व की सच्ची सम्पत्ति होते हैं। कोई देश और समाज उन्हीं के कारण गौरवशाली बनते हैं और उन्हीं के अभाव में पतन के गर्त में गिरते चले जाते हैं। राष्ट्रीय सम्पदा का मूल्यांकन, धन के आधार पर नहीं मनस्वी, तेजस्वी और आत्मबल सम्पन्न प्रतिभा के आधार पर ही किया जाना चाहिए। वे यदि उद्भूत नहीं तो विपुल सम्पदा सम्पन्न होते हुए भी कोई समाज दरिद्र ही रहेगा। उसकी वह आर्थिक उन्नति भी ठोस प्रगति की दिशा में कुछ अधिक सहायता न कर सकेगी।

उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों का निर्माण कैसे हो? इसके लिए उस स्तर के साँचे चाहिए। टकसाल के साँचे जैसे होते हैं, वैसे ही सिक्के ढलते चले जाते हैं। बुद्ध के अनुगामी ढाई लाख व्यक्तियों ने संसार भर में सत्य, अहिंसा का संदेश पहुँचाया था। गाँधी के अनुचर स्वतंत्रता संग्राम में एक से एक बढ़े-चढ़े अनुदान लेकर आगे आये। यह प्रेरणाएँ बौद्धिक आधार पर नहीं, भावना स्तर पर दी जाती हैं। और इनको देने के लिए वैसा ही आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व चाहिये। आज आवश्यकता ऐसी ही हस्तियों की है, जो अपने आत्मबल से जन साधारण के भाव स्तर को विकसित और परिष्कृत कर सकें। विज्ञान इस संभावना को स्वीकार करता है कि अदृश्य शक्ति प्रवाह के द्वारा भी मानवीय चेतना को अभीष्ट दिशा में मोड़ा या ढाला जा सकता है।

मानव मस्तिष्क की अन्तस्त्वचिका के भीतर एक विशेष प्रकार की तंत्रिकाएँ पाई जाती हैं उनका समूह भावात्मक मस्तिष्क कहलाता है। भय, क्रोध, शोक, चिन्ता, अवसाद, हर्ष, संतोष, प्रेम, त्याग, संयम और कामोद्वेग जैसी प्रवृत्तियाँ इसी भाग से संबंधित हैं। इनका स्वरूप बहुत कुछ वंश परम्परा से उत्तराधिकार में मिला था, कुछ वातावरण एवं संगति में और कुछ व्यक्तिगत चिंतन की दिशा के आधार पर विकसित होता है। अविकसित और विकसित प्राणियों का यों मानसिक अन्तर कुछ तो बुद्धि के आधार पर भी होता है, पर मुख्य अन्तर यह भावात्मक ही है। भावनाओं के आवेश में ही मस्तिष्क उत्तेजित और मस्तिष्क सक्रिय होता है। इन दोनों की बिखरी हुई दिशाओं को एक केन्द्र पर एकत्रित करने और क्रियाशील बनाने का श्रेय इस भावात्मक मस्तिष्क केन्द्र को ही है।

येल विश्वविद्यालय के न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. जोसे डैलगेडो ने ऐसे विद्युत रेडियो उपकरणों का आविष्कार किया है, जिनके आधार पर बिना शल्य चिकित्सा के ही रेडियो किरणों द्वारा मस्तिष्क के किसी भाग से सम्पर्क बनाना और उसे प्रभावित कर सकना संभव हो सके। भावनात्मक मस्तिष्क की तंत्रिकाओं और कोशिकाओं को शरीर के आर-पार जा सकने वाली किरणों के द्वारा वहाँ के असंतुलन को मिलाया जा सकेगा। यह किरणें ‘क्ष’ किरणों से मिलती-जुलती हैं, जिन्हें शरीर के आर-पार जाने में मस्तिष्क की कठोर खोपड़ी में भी कोई बड़ी बाधा नहीं पहुँचती।

अब तक भावनाओं का समाधान भावनाओं से ही किया जाता रहा है। क्रोध को विनय से, घृणा को प्रेम से, असंतोष को उपलब्धियों से शमन किया जाता रहा है। इसके लिये सामने वाले व्यक्ति को अपनी वाणी, व्यवहार और क्रिया द्वारा असंतुलित व्यक्ति को वैसा विश्वास दिला कर उस उद्वेग का समाधान करना पड़ता था, जिसके अभाव में उसे असंतुलित होना पड़ा। इतनी लम्बी प्रक्रिया के बाद तब कहीं उत्तेजित व्यक्ति सामान्य स्थिति में आता था। उसके समाधान के लिए व्यक्ति विशेष को माध्यम बन कर अथवा वातावरण को बदल कर मनोविकार ग्रस्त मनुष्य की शान्ति संभव की जाती थी। उचित ही नहीं अनुचित समाधान भी प्रस्तुत करने पड़ते थे। पर अब उपरोक्त वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण यह कठिन प्रक्रिया सरल हो गई। रेडियो विद्युत धाराएँ आवेश ग्रस्त मस्तिष्कीय खण्ड का शमन कर दिया करेंगी और मनुष्य चिकित्सक के इशारे पर अपने भाव संस्थान में आवश्यक परिवर्तन कर लिया करेगा। इस सफलता के कारण न केवल भावनात्मक रुग्ण ग्रन्थियों को खोला जा सकेगा, वरन् उनमें उपयोगी ऐसे भाव बीज भी जमाये जा सकेंगे जो उसे किसी दिशा विशेष में चलने के लिये आवश्यक रुचि एवं स्फूर्ति पैदा कर सकें।

मानवीय मस्तिष्क पर इलेक्ट्रोनिक नियमन की इस प्रक्रिया पर विज्ञान के क्षेत्र में शोध कार्य बहुत तेजी से चल रहा है और प्रगति भी काफी हुई है। दो दशक पूर्व स्विटजरलैण्ड के विज्ञानी डॉ. डब्ल्यू. आर. हेस ने इस दिशा में प्रयास आरम्भ किया। उन्होंने जीवित प्राणी के मस्तिष्क में एक सुई घुसेड़ कर उसके माध्यम से विविध स्तरों की विद्युत तरंगें पहुँचाई थी और उनके प्रभाव का अध्ययन किया था। उन्होंने पाया कि चेतन और अचेतन मस्तिष्क के भागों में विभिन्न स्तर के जो चेतन केन्द्र बने हुए हैं, उनसे संबन्ध स्थापित किया जा सकता है और उन केन्द्रों को उत्तेजित करके उसी स्तर की विचारणा से प्राणी को ओत-प्रोत किया जा सकता है।

इसके बाद अमरीकी मस्तिष्क विद्या विशारद डॉ. जेम्स ओल्ड्स ने इस कार्य को और आगे बढ़ाया। उन्होंने मानवी मस्तिष्क को हाथ में लिया, जबकि पूर्ववत् स्विस विज्ञानी वैसे प्रयोग अन्य प्राणियों पर करते रहे। भूख, भय, इच्छा, कामुकता, क्रोध, पीड़ा, निराशा, उत्साह जैसे मस्तिष्क क्षेत्र तो पहले भी मालूम थे, पर उनके केन्द्रीय कण उन्होंने ढूँढ़े और इस खोज के बाद उन्होंने वह पद्धति खोजी, जिसके अनुसार उस केन्द्र तक बाह्य प्रभाव को पहुँचाया जा सकना संभव हो सके। इसमें सबसे बड़ी बाधा खोपड़ी को चारों ओर से जकड़ी हुई कपाल अस्थियों की थी। यह अस्थियाँ शिर की केवल सर्दी, गर्मी, चोट, आघात आदि से ही रक्षा नहीं करती, वरन् बाहरी विद्युत प्रभावों को भी भीतर जाने से रोकती है। विचारों की बिजली अति सूक्ष्म होने से भीतर प्रवेश कर सकती है। एक संकल्पशील व्यक्ति के विचार दूसरे व्यक्ति पर आरोपित करने का सफल प्रयोग तो जर्मनी के डॉ. शेक्सर पहले ही कर चुके थे। मैस्मरेजम हिप्रोटिज्म आविष्कारों ने उनमें इसी तथ्य को प्रत्यक्ष किया था। पर यह तो प्रश्न विचार तरंगों का नहीं, विद्युत तरंगों के प्रवेश का था, इसमें कपाल अस्थियाँ प्रधान रूप से अवरोध उत्पन्न कर रही थी। इसलिए उन्होंने चोर रास्ते से प्रवेश किया। रेडियो प्रभावित रसायनों को रक्त में मिला कर और उस प्रभावित रक्त में विद्युत तरंगें पहुँचाकर नया रास्ता खोज लिया गया और अमुक केन्द्र को उत्तेजित करने के लिए अमुक स्तर की विद्युत का प्रयोग करने की पद्धति का निर्धारण कर लिया गया।

यह प्रयत्न और भी अधिक तेज कर दिये गये हैं और वह सरलता खोजी जा रही है, जिसमें जिसे प्रभावित करना हो उसके सहयोग की आवश्यकता न रहें। अभी तो यह कार्य तभी हो सकता है जब व्यक्ति पर लोह-पट्टी बँधवाने और औषधालय सेवन के लिए सहायता हो। बाँधकर बलात्कार पूर्वक तो यह किया नहीं जा सकता। यदि व्यक्ति अपने ऊपर इस प्रकार का प्रभाव डलवाने के लिए सहमत न हो, तब तो सारी योजना ही निरस्त हो जायेगी। अस्तु शोध के चरण इस दिशा में चल रहे हैं कि मनुष्य को पता भी न चले और परोक्ष रूप से उसे बौद्धिक पराधीनता के पास से मजबूती से जकड़ा जा सके।

प्रकृति की शक्तियों को वशवर्ती करने में बहुत बड़ी मात्रा में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद अब चेतना की स्वतंत्रता को विज्ञान की मुट्ठी में कैद करने के लिये अन्वेषण गतिविधियाँ तीव्र कर दी गई हैं और विज्ञान क्षेत्र में समुन्नत देश गुपचुप इस दौड़ में परस्पर बाजी मारने के लिये खुले हुए हैं। अन्तरिक्ष पर नियन्त्रण करने से भी बढ़ कर यह आविष्कार होगा।

इस दिशा में संतोष जनक सफलता मिलती है तो फिर युद्ध का सब से बड़ा माध्यम यही होगा एक अणु बम, हाइड्रोजन बम जैसे अस्त्र को बेकार समझकर त्याग दिया जायेगा क्योंकि उससे शत्रु देश के विनाश के साथ-साथ विश्वव्यापी वातावरण में विकिरण उत्पन्न होने से मित्र देशों को भी खतरा उपस्थित होता है। फिर उसमें कई तरह के खतरे और झंझट भी हैं। खर्चीली तो वह प्रक्रिया है ही, उसकी सुरक्षा के लिए भी कम चिन्ता नहीं करनी पड़ती।

प्रगति जिस चरण में पहुँची है उसे देखते हुए मिशिगन विश्वविद्यालय अमेरिका के इस संदर्भ में संलग्न विज्ञानी डॉ. ओटो शिमल ने घोषणा की है कि अब हमारे हाथ में मानव मस्तिष्क को नियन्त्रित करने की शक्ति आ गई है, पर आशा की जानी चाहिये कि उसका प्रयोग केवल अच्छाई के लिए ही होगा किन्तु साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा कि इस नव उपार्जित शक्ति का प्रयोग निजी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति एवं राष्ट्रीय विस्तारवाद के लिए भी किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो यह आविष्कार संसार का सबसे अधिक विघातक अस्त्र सिद्ध होगा।

कुछ दिन अमरीका प्रतिरक्षा विभाग के एक गधे पर यह प्रयोग किया गया था और उसे उपकरणों से प्रभावित करके अकेला छोड़ा गया था। उसे जिधर चलने और जो करने के लिए निर्देश किया उसने वही सब कर दिखाया।

इस अन्वेषण के आधार पर कई उपयोगी चमत्कार अमरीका के मेयोक्लिनिक ने, कनाडा के मोन्ट्रियल न्यूरोलॉजिकल इन्स्टीट्यूट ने तथा नार्वे के गुस्टाड मेन्टल हास्पिटल ने दिखाये हैं। रोगी को खुशी-खुशी बिना डरे आपरेशन करा लेने के लिए इस आधार पर तैयार करने में आश्चर्यजनक सफलता पाई गई है। एक प्रयोग में तो एक १८ वर्ष से अन्धी चली आई महिला को उसका मस्तिष्कीय दृष्टि संस्थान उत्तेजित करके देख सकने की शक्ति ही प्रदान कर दी। यह इस अन्वेषण का उपयोगी पक्ष है। निस्संदेह इन आविष्कारों का उपयोग मानवी सुविधाओं की वृद्धि भी कर सकता है, पर खतरा तो उस दिशा से है जिस पर कि आज के विश्व राजनेता धृष्टता पूर्वक चलते हुए एक दूसरे से बाजी मारने में तुले हुए हैं और तथाकथित शत्रु पक्ष को सर्वथा अपंग बनाने की बात सोच रहे हैं।

अवांछनीय दृष्टिकोण लेकर किया हुआ इस आविष्कार का उपयोग किसी भी अधिनायक वादी के हाथ में चक्रवर्ती विजय सौंप सकता हैं। इस क्षेत्र में प्रगति सम्पन्न देश अपने विरोधी या असहयोगियों की जनता तथा सैन्य शक्ति में निराशा भीरुता एवं भयाक्रान्त मनःस्थिति व्यापक रूप से उत्पन्न कर सकता है और उस व्यामोह में फँसे हुए विशाल जन समाज को मुट्ठी भर लोग अपने काबू में रखने और इशारे पर चलने के लिये विवश कर सकते है। गुलामी के बंधनों में जकड़ने के अब तक के प्रयासों में यह सब से घृणित प्रयास होगा। जब आदमी सोचने की निजी क्षमता ही खो बैठा, तो फिर उसका अपनापन तो कुछ रहा ही नहीं, तब उसे जीवित होते हुए भी मृतकों की तरह कहीं भी खींचा घसीटा जाता रहेगा। ऐसे शक्ति सम्पन्न लोगों के चंगुल से तो मुक्त होने की भी फिर कोई आशा न रहेगी।

भौतिक विज्ञान मनुष्य के मस्तिष्क तक ही पहुँच सकता है। क्योंकि मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अंग होने से उसे भी भौतिक क्षेत्र में सम्मिलित रखा गया है। मन को छठी या ग्यारहवीं इन्द्रिय ही माना गया है। वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा मस्तिष्कों को प्रभावित करने की विधि लगभग खोज निकाली गई है और वह निकट भविष्य में सामने आ भी रही है। इसका भला-बुरा प्रभाव जल्द ही देखने के लिये मिल जायेगा।

पर भाव क्षेत्र फिर भी सूना ही पड़ा रहेगा। वह भौतिक विज्ञान की परिधि से बाहर है क्योंकि अन्तरात्मा विशुद्ध चेतना का अंश है, उसे प्रभावित, परिणत और परिष्कृत करने में केवल आत्मसत्ताएँ ही समर्थ हो सकती हैं।

आज आत्मसत्ता की दुर्बलता के कारण भौतिकवादी असुर सत्ता संसार की समस्त सम्पदाओं पर हावी होती जा रही है। मस्तिष्क की स्वतन्त्र चिन्तन शैली पर भी उसका दाँत है और आश्चर्य नहीं कि वह भी उसकी पकड़ में आ जाय। ऐसी विषम घड़ियों में इस बात की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है कि आत्म सत्ता का पक्ष इतना प्रबल हो कि उसके द्वारा संसार की भाव चेतना को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर किया जा सके। ऐसा हो सका तो भौतिक विज्ञान और उसकी समस्त उपलब्धियों को विश्व कल्याण में नियोजित किया जा सकेगा। यदि ऐसा न हो सका तो भौतिक विज्ञान के बढ़ते हुए चरण मनुष्य को एक मशीन मात्र बना कर छोड़ेंगे और कुछ सत्ता धारियों की कठपुतली बन कर समस्त मनुष्य समाज को सबसे बुरी पराधीनता मस्तिष्कीय गुलामी के निविड़ बंधनों में बाँधकर दयनीय स्थिति में जीना पड़ेगा, ऐसे विषम समय में आत्म विज्ञान पक्ष को अधिक समर्थ और अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार





100.    स्वप्न अन्तः के ज्वार भाटों की बहिरंग में झाँकी कराते हैं
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जो यथार्थ नहीं है, उसे सत्य की तरह प्रत्यक्ष देखने का नाम स्वप्न है। यों रात्रि में सोते समय मनःक्षेत्र के सम्मुख जो चित्र तैरते रहते हैं उन्हें स्वप्न कहते हैं। लोग जागने पर उनकी विसंगतियों का तारतम्य देख कर आश्चर्य करते हैं और असमंजस भी। आश्चर्य इस बात का जबकि उस प्रकार का घटनाक्रम घटित ही नहीं हुआ। अमुक पदार्थ, स्थान या व्यक्ति जब उपस्थित ही नहीं थे तो वे दीखते कैसे रहे। उनके साथ वार्तालाप एवं आदान-प्रदान कैसे चलता रहा? असमंजस इस बात का है कि अपना मस्तिष्क जो यथार्थ और असंगत के बीच भेद-भाव करना भली प्रकार जानता है। दिन भर यही तो करता रहता है, फिर रात्रि में ऐसा क्या हो जाता है कि असंगत के प्रति संदेह व्यक्त नहीं करता और उसे सत्य मानकर काम लेता रहता है। क्यों उसे मिथ्या नहीं बताता? क्यों उस मूर्खता को दुत्कार नहीं देता?

रात्रि स्वप्नों को ही आमतौर से चर्चा का विषय बनाया जाता है। सोकर उठने के उपरान्त उन्हें याद किया और दूसरों को बताया, सुनाया जाता है जो देखा था। इतने पर भी यह रहस्य ही बना रहता है कि अकारण अनियमित यह असंगत फिल्म क्यों चलती रही, और उस समय उसके मिथ्या भ्रान्ति होने का आभास क्यों नहीं हुआ?

स्वप्न रात्रि में ही नहीं देखे जाते। दिवस स्वप्न भी होते हैं और जब वे सिर पर चढ़ते हैं तो यथार्थ के समान ही संगत, सम्भव और सही दीखते हैं। कल्पनाएँ कई बार इतनी रसीली हो जाती हैं कि उनमें तन्मय व्यक्ति यह तक सोच नहीं पाता कि जो सोचा जा रहा है, सो अपनी वर्तमान परिस्थिति एवं योग्यता के अन्तर्गत है भी या नहीं। उसे बोने से लेकर पकने तक में कितना समय लगेगा, कितना श्रम पड़ेगा और कितना साधन एवं सहयोग जुटाना पड़ेगा। यह सभी तथ्य तर्क और बुद्धिमत्ता कहे जाते हैं, न जाने कहाँ चले जाते है और मनुष्य कल्पना मात्र को यथार्थता अनुभव करने लगता है। शेखचिल्ली की सर्वविदित कहानी में इसी स्थिति का आभास कराया गया है। यह दिवास्वप्न हुए।

दिवा स्वप्नों के और भी अनेक रूप हैं। परिस्थितियों से संगति न खाने वाली महत्त्वाकाँक्षाएँ, साधनों की जाँच पड़ताल न करके कुछ भी न कर गुजरने की योजनाएँ भी दिवास्वप्न हैं जिन्हें सोचते समय तो बड़ा रस आता है। किन्तु जब यथार्थता से पाला पड़ता है, तब प्रतीत होता है कि वैसा सम्भव था भी नहीं और बन भी नहीं पड़ा। प्रेम और द्वेष की स्थिति में सामने वाले की मनःस्थिति का, गतिविधियों का भी एक कल्पना चित्र बन जाता है। जिसमें दूसरे सघन मित्र या कट्टर दुश्मन प्रतीत होते हैं। यह अपनी ही गढ़ंत है इसका यथार्थता से सीधा सम्बन्ध नहीं। जो सोचा या माना जा रहा था वह बहुत बार सर्वथा असत्य सिद्ध होते हैं, पर यह निष्कर्ष तो बाद का रहा। जिस समय अपनी मान्यताएँ आवेश में होती है, तब तो कोई सामान्य मनःस्थिति का व्यक्ति भी देवता या राक्षस प्रतीत होता है। वस्तुतः यह वैसा होता नहीं।

देवी देवताओं के प्रति विश्वासी व्यक्ति भी कई बार अधखुली आँखों से उनके दर्शन झाँकी करते रहते हैं। कइयों पर भूत-पलीत का आवेश इस प्रकार आता है, जिनमें वस्तुतः सारा घटनाक्रम नितान्त सत्य प्रतीत होता है। यदि ऐसा न होता तो ऐसे लोगों को भूत इतना शारीरिक और मानसिक त्रास कैसे दे पाते। यह दिवा स्वप्नों की सृष्टि है। जो असंगत होते हुए भी अपने उभार काल में मनःक्षेत्र एक प्रकार से स्वसम्मोहित बनाकर रख देते हैं। तब इतना तर्क काम नहीं करता कि अपने स्वरचित ताने-बाने को यथार्थता की कसौटी पर परखें और भ्रान्ति का जो आवेश नशे की तरह चढ़ा हुआ है उसका आवरण उतार कर फेंके।

फिर यह स्वप्न या दिवा स्वप्न आते क्यों हैं? इनकी आवश्यकता ही क्या है? यह अनचाही विसंगतियाँ उपजती क्यों हैं? इनका उद्गम या सूत्र संचालन होता कहाँ से है? इस सम्बन्ध में अधिक जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक है। समाधान न होने पर नई कठिनाई खड़ी होती है कि मनुष्य उसका ऐसा कारण ढूँढ़ने के लिए चल पड़ता है, जिसे समाधान न कहकर और भी उल्टी दिशा में घसीटकर ले जाने वाला भटकाव कहना चाहिए। स्वप्नदर्शी को सामान्यतः कौतूहल असमंजस ही होता है। पर उससे प्रत्यक्ष हानि नहीं होती। किन्तु इस अनबूझ पहेली का भ्रान्त समाधान ढूँढ़ लेने पर समझदारी ही भटक जाती है और ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचना पड़ता है, जो वस्तुतः हानिकारक परिणाम प्रस्तुत कर सकें।

स्वप्नफल बताने वालों की कमी नहीं। वे उनका कुछ न कुछ औंधा-सीधा अर्थ बता देते हैं। किसी शुभ या अशुभ की सम्भावना, देवी देवताओं की प्रेरणा, मृतात्माओं की फेरी, आत्मा, काल या देश की परिधि से बाहर जाकर अतीत या भविष्य का दर्शन जैसे कारण आमतौर से स्वप्नफल के रूप में बताए जाते हैं। पर वस्तुतः वे वैसे होते नहीं। इन फलितार्थों पर विश्वास करने वाले कई बार आशंकाग्रस्त, भयाक्रान्त एवं निराश होते देखे गए हैं और अपनी सामान्य क्षमता से भी उस हड़बड़ी में हाथ धो बैठते हैं और बने काम बिगाड़ते हैं। कइयों को गड़ा खजाना, लाटरी का नम्बर या कोई विलक्षण भाग्योदय का आभास मिलता है। वे लोग भी बे पर की उड़ानें उड़ने लगते, मनमोदक खाते और सनकी स्तर के लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं। देवी देवताओं द्वारा स्वप्न में किसी की बलि माँगने और बदले में कोई बड़ा लाभ कराने का आश्वासन देने की बातें भी सुनी जाती रहती हैं। कई निरीह बालकों की हत्यायें इस प्रयोजन के लिए होती रहती हैं। फलतः वे स्वप्नदर्शी कठोर दण्ड पाते और भर्त्सना के भाजन बनते हैं। बलि दे दी पर मिला कुछ नहीं उल्टी विपत्ति टूट पड़ी।

यह है स्वप्नों का अवांछनीय समाधान ढूँढ़ने के दुष्परिणाम। किसी के द्वारा जादू टोना किए जाने, घात लगाने की सूचना पाकर इन रात्रि स्वप्नों या दिवा स्वप्नों के सहारे कितने ही अनर्थ के गर्त में गिरते हैं। कइयों को इसी आधार पर ऐसे जंजाल में फँसते देखा गया है, जिससे इन दृश्यों के पीछे ऐसी विपत्ति झाँकती दीखती है जो चलती गाड़ी को पटरी पर से उतार दे। इस विपत्ति से बचने और स्वप्नों के तारतम्य के पीछे काम करने वाली यथार्थता के सम्बन्ध में अधिक गहराई तक उतरने और उनके वास्तविक कारण को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।

स्वप्न वस्तुतः मानवी अचेतन का कुछ समय के लिए दबाव मुक्त होकर निर्द्वन्द्व बच्चों की तरह मनचाहा खेल खेलने जैसा स्वेच्छाचार है। हमारे मनःक्षेत्र की यों है तो कई परतें, पर उनमें से यहाँ चेतन और अचेतन के दो वर्गों को समझ लेने से काम चल जायेगा। चेतन वह मस्तिष्क है जो कल्पनाओं में निरत रहता है और बुद्धिपूर्वक उसमें से काट-छाँट करने के उपरान्त जो उचित है उसके निर्धारण करता रहता है। इसे चेतन या कामकाजी मन कहना चाहिए। दूसरा वर्ग वह है जो अभ्यासों और संस्कारों से परिचालित होता है। शरीर की स्वसंचालित कार्य पद्धति का निर्धारण करता है। आदतों, रुझानों और स्वभावों के स्तर बढ़ाता है और उन्हें स्थिर रखता है। व्यावहारिक कामकाज में इसका उपयोग इच्छित रूप से तो नहीं होता, पर उसकी भूमिका व्यक्तित्व स्तर देखते हुए जानी आँकी जा सकती है।

जाग्रत अवस्था में चेतन भाग सक्रिय रहता है। फलतः अचेतन को अपनी गतिविधियाँ शरीरचर्या जैसे कामों तक ही सीमित रखनी पड़ती हैं। चिन्तन होता तो उसमें भी है, पर चेतन की घुड़दौड़ में उसे अवसर ही नहीं मिलता। फलतः उस समय तो चुप बैठा रहता है, पर जैसे ही बुद्धिमत्ता की पकड़ ढीली पड़ती है, चेतना को अपनी उमंगों के अनुरूप एक नई स्वप्न सृष्टि रच लेने का अवसर मिल जाता है। यह विसंगत इसलिए होते हैं कि अचेतन मनःक्षेत्र में भूतकाल की अनेकानेक प्रिय-अप्रिय, सार्थक-निरर्थक स्मृतियाँ दबी पड़ी होती हैं। इनमें से जो भी हाथ पड़ जाती है उसी से स्वेच्छाचारी बालक की तरह खेलने लगता है। अचेतन की कुछ अपनी इच्छाएँ भी होती हैं। उन्हें असंख्य जन्मों की संग्रहीत संस्कार पूँजी भी कहा जा सकता है। उनमें से अधिकांश अतृप्त पड़ी रहती हैं। तृप्ति तो थोड़े ही प्रसंगों में मिल पाती है। परिस्थितियाँ हर इच्छा की पूर्ति के उपयुक्त कहाँ होती है। ऐसी दशा में अतृप्त मानस अपनी मर्जी के खेल-खिलौने बनाता बिगाड़ता रहता है। यही है संक्षेप में रात्रि स्वप्नों का आधार। दिवा स्वप्नों का आधार है तो भिन्न, फिर भी एक बड़ी समता विद्यमान रहती है।

गहरी और हलकी नींद का अन्तर करने और उसके कारण स्वप्नों में कमी-बेशी होने के सम्बन्ध में फ्रान्सीसी शरीर विज्ञानी ब्रैमर ने बहुत से प्रयोग किए और निष्कर्ष निकाले हैं। वे कहते है कि भीतरी अवयवों में कहीं पीड़ा, तनाव, सूजन या गतिरोध उत्पन्न होने से ऐसे स्वप्न आते हैं। मच्छर जैसे कारणों से भी नींद उचटती है और ऐसे कारण सामने आते हैं, जिनसे हैरानी तो बढ़ रही हो पर रास्ता न मिल रहा हो। मानसिक उद्वेग भी अशुभ स्वप्नों का एक बड़ा कारण होते हैं। चिन्ता, भय, शोक, आशंका, क्रोध, ईर्ष्या, प्रतिरोध जैसी विपन्नताओं से घिरी मनःस्थिति में युद्ध, आक्रमण, रक्तपात, षड्यन्त्र की झलक दिखाने वाले स्वप्न दीखते हैं। ब्रैमर का कथन है कि गहरी थकान मिटाने वाली नींद लेने के लिए शारीरिक पीड़ाओं और मानसिक उद्विग्नताओं से पीछा छुड़ाना आवश्यक है।

सिगमण्ड फ्रायड की प्रख्यात पुस्तक ‘दि इन्टर प्रिटेंशन आफ ड्रीम्स’ में इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि महत्त्वाकाँक्षाओं, चिन्ताओं और सम्वेदनाओं का भार वहन करने से जो लोग अपने को बचाये रहते हैं और हलकी फुलकी जिन्दगी जीते हैं उन्हीं के लिए गहरी निद्रा का आनन्द ले सकना सम्भव होता है। उन्हें स्वप्न भी प्रसन्नतादायक दिखाई पड़ते हैं। ऐसी स्थितियाँ अपने हाथ में नहीं, पर इतना तो किया ही जा सकता है कि उन्हें संसार चक्र का स्वाभाविक विधान समझा जाय और घटनाओं को अधिक महत्त्व न देते हुए सन्तुलन बनाये रखा जाय।

ब्राउन, पीने, मेक्स, ड्रगल, हेण्डफील्ड आदि स्वप्न विशेषज्ञ मनःशास्त्रियों के मन्तव्य इस सन्दर्भ में मिलते जुलते हैं। स्वप्नों में शरीर का, भीतरी स्थिति का संकेत और विवरण रहता है। यह सांकेतिक भाषा में कहा जाता है। उसे समझने के लिए बाल मनोविज्ञानियों की तरह अनुमान लगाने पड़ते हैं। छोटे बच्चे बोलना नहीं जानते पर अपनी स्थिति या मनःस्थिति या आवश्यकता का परिचय अंग संचालनों के माध्यम से देते हैं। इस भाषा को जानने वाले समझ लेते हैं कि वह क्या चाहता है। ठीक इसी प्रकार स्वप्नों के दृश्य तो अनगढ़ होते हैं, पर उनमें यह संकेत मिलता है कि शरीर के किसी अवयव में कोई विपन्नता तो नहीं है। इस आधार पर किसी रोग की स्थिति पनपने, सम्भावना उभरने का भी कुशल चिकित्सक अनुमान लगा सकते हैं।

पैथालाजी के आधार पर भीतरी अवयवों की स्थिति की जिस प्रकार जाँच पड़ताल की जाती है, उसी प्रकार स्वप्नों की सांकेतिक भाषा को समझने वाले यह भी समझ सकते हैं कि भीतर ही भीतर क्या खिचड़ी पक रही है और क्या संकट उभरने की आशंका है। इस सम्बन्ध में रूसी मनःशास्त्री कासानकिन ने लगातार बीस वर्ष तक हजारों सपनों का विश्लेषण शरीरगत पर्यवेक्षण की दृष्टि से किया है और अपने निष्कर्षों का विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया है कि रोगों की सामयिक परीक्षा एवं निकटवर्ती सम्भावना समझने में स्वप्नों की सांकेतिक भाषा बहुत सहायक हो सकती है। उनमें ऐसे कितने ही सपनों का विवरण प्रकाशित किया है, जिनमें इस प्रकार की अविज्ञात स्थिति को समझा गया और उपचार को सरल बनाया गया।

कैलीफोर्निया के डाक्टर मार्टिन और इविग ओले के प्रतिपादनों में कहा गया है, कि रोगों की जड़ें पाचन और रक्त सम्पदा में ही नहीं होती, वरन् उसका अधिकांश आधार मनःक्षेत्र में होता है। मानसिक विद्युत के प्रभाव से ही समस्त अवयव काम करते हैं। उसकी प्रखरता से अंगों की क्षमता सुव्यवस्थित रहती है और वे सही काम करके रोगों की जड़ें काटते रहते हैं, किन्तु इस विद्युत प्रवाह में शिथिलता या गड़बड़ी चल पड़े तो अवयवों की स्थिति पर उसका प्रभाव पड़ेगा और रुग्णता जहाँ-तहाँ से फूटने लगेगी। वे कहते हैं मनःस्थिति को समझना तथा उसका उपचार करना ही रोगों की आत्यन्तिक निवृत्ति का ठोस उपाय समझा जाना चाहिए। इस प्रतिपादन के आधार पर उन्होंने स्वप्नों को शारीरिक एवं मानसिक स्थिति की गहनता पर प्रकाश डालने वाला आधार कहा है।

डॉ. कासानकिन ने अपना उपचार ही स्वप्न विवरण के आधार पर आरम्भ किया और इसमें उन्हें आश्चर्य जनक सफलता भी मिली है।

इन निष्कर्षों से यह अनुमान लगता है कि स्वप्न शारीरिक स्थिति से प्रेरित होते हैं और अपने आप में ऐसी जानकारियाँ संजोए रहते हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सके कि स्वस्थता कितनी सुदृढ़ एवं कितनी दुर्बल है। उसमें कहाँ खराबी पड़ी है और रुग्णता का दौर कितनी गहराई में किस क्षेत्र में किस स्तर का चल रहा है?

इसी प्रकार मनःशास्त्री यह सोचते हैं कि मनुष्य जिस प्रकार के चिन्तन या क्रिया-कलाप में व्यस्त रहता है उसकी प्रतिछाया स्वप्न में भी अनबूझ पहेली बनकर दीखती है और अपनी स्थिति तथा आवश्यकता की जानकारी सांकेतिक भाषा में देती है। यदि इस भाषा को समझा जा सके तो किसी व्यक्ति की उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का विश्लेषण किया जा सकता है। यह पता लग सकता है कि वह किस प्रवाह में बह रहा है, इस आधार पर उसका भविष्य क्या बन सकता है और अशुभ की रोकथाम तथा शुभ की सम्भावना को फलित करने के लिए क्या किया जा सकता है?

इतने पर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि स्वप्नों में भूतकाल के संचय एवं वर्तमान के पर्यवेक्षण के अतिरिक्त उनमें और कोई तथ्य है ही नहीं। स्वप्न जितनी गहरी परतों से उभर कर ऊपर आते हैं उसी अनुपात से वे वस्तुस्थिति की जानकारी देने का माध्यम बनते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार