अध्यात्म का सच्चा स्वरूप
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
परमवंदनीया माताजी के उद्बोधनों में वही विशिष्टता दिखाई पड़ती है, जो परमपूज्य गुरुदेव के व्याख्यानों का आधार हुआ करती थी। भारतीय गुह्य विज्ञान के गूढ़तम रहस्यों का अत्यंत ही सरल व सहज भाषा में प्रतिपादन वंदनीया माताजी के उद्बोधनों की भी विशिष्टता है। ऐसे ही अपने एक उद्बोधन में वंदनीया माताजी अध्यात्म का मूल व सत्य स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि अध्यात्म का आधार लोक-उत्थान व स्वयं के परिष्कार से निर्धारित हो पाता है। संत एकनाथ से लेकर पौराणिक आख्यानों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए वंदनीया माताजी इस बात की व्याख्या करती हैं कि भक्त की भक्ति का आधार क्या होना चाहिए। ये वो आधार हैं, जिन्हें आत्मसात् करने के बाद मनुष्य का सर्वांगीण रूपांतरण सुनिश्चित हो जाता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.....
भक्त की परीक्षा
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
बेटियो! हमारे प्रज्ञा परिजनो! उपासना, जप, ध्यान—ये तीनों ही अपने आत्मशोधन के लिए होते हैं। जितना यह किया जाता है, उतना ही आत्मविकास होता है। बौद्धिक विकास होता है। लौकिक और पारलौकिक संपदाएँ इसी में हैं। इसी से ये मिलती हैं। साधना, उपासना, आराधना—इन तीनों के द्वारा ही हमें बहुत कुछ मिलता है।
कथा आती है कि संत एकनाथ रामेश्वरम् की यात्रा करने जा रहे थे और अपने घड़े में गंगाजल भरकर ले जा रहे थे। रास्ते में भगवान ने सोचा कि कम-से-कम मैं इसकी नीयत की परीक्षा तो ले लूँ कि यह भक्त है अथवा बनावटी है। अंतरंग और बहिरंग दोनों में एक-सा है अथवा इसका दिखावटीपन है। इसकी भक्ति की परीक्षा लेनी चाहिए तो वे गधे का वेष धारण करके रास्ते में पड़ गए।
एकनाथ वहाँ से गुजरने लगे। उनके साथ में, उनके शिष्य भी जा रहे थे। जब उन्होंने देखा कि गधा तड़फड़ा रहा है और गरमी के दिन हैं, जिससे प्यास के कारण तड़फड़ा रहा है, तो संत एकनाथ ने अपने घड़े में जो गंगाजल था, उन्होंने सारे-का-सारा गंगाजल गधे के मुँह में डाल दिया। तब उस गधे को शीतलता मिली, शांति मिली और वह उठकर खड़ा हो गया तो उनके साथ वाले जो थे, उन्होंने कहा—"संत! तुम तो यह गंगाजल रामेश्वरम् पर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे, यह क्या किया?" उन्होंने कहा—"इस समय मेरे लिए यही ठीक है और यही रामेश्वरम् है। मैं वहाँ जल चढ़ाने जरूर जा रहा था, लेकिन यह जो मेरे सामने है, इस समय मेरे लिए यही रामेश्वरम् है। यह उससे कम नहीं है।
"इसी से मुझे जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, तो होगा या नहीं होगा, तो मैं भगवान से क्षमा-याचना कर लूँगा कि भगवान मुझसे अपराध हो गया। जल तो लाया था आपके लिए, पर यह मुझे उपयुक्त मालूम पड़ा और जिस समय उसकी उपयोगिता वहाँ थी, तो मैंने वहाँ खरच कर दिया। जैसा कुछ होगा, आगे देखा जाएगा।" यह देख भगवान की आँखों में पानी आ गया और वह जो गधे के रूप में थे, उठकर खड़े हो गए और उन्होंने कहा कि संत तेरे लिए मैं रामेश्वरम् से चलकर यहाँ आ गया। मैं ही रामेश्वरम् हूँ। उन्होंने अपना असली रूप धारण किया और एकनाथ को छाती से लगा लिया। कलेजे से लगा लिया और कहा—"जा तेरा तप सार्थक है।" संत अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीता है। वह अपने लिए नहीं जीता है।
लोक-मंगल हेतु उपासना
बेटे! उपासना जो होती है, वह अपने लिए तो होती ही होती है; परंतु अपने से ज्यादा दूसरों के लिए होती है और लोक-मंगल के लिए होती है। कुंती ने अपने पाँचों पांडुपुत्रों को देवमानव बनाया। देवमानव बनाने के लिए उन्होंने संस्कार दिए। युधिष्ठिर को सत्य का संस्कार दिया। युधिष्ठिर सत्यवादी थे। युधिष्ठिर को जब स्वर्ग के लिए ले जाया जा रहा था, तब उनसे कहा गया कि चलिए, अब आपका समय पूरा हो गया है, तो उन्होंने कहा कि मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगा। मुझे तो नरक चाहिए। जब उन्हें स्वर्ग ले जाया गया, तो उन्होंने कहा कि आप मुझे कहाँ ले आए? उन्होंने कहा कि हम आपको स्वर्ग में ले आए: क्योंकि आप युधिष्ठिर हैं। आप हमेशा सत्यवादी रहे हैं।
उन्होंने कहा—बाकी के मेरे परिजन कहाँ गए? बाकी के आपके परिजन नरक में गए हैं। उन्होंने कहा—तो मुझको भी वहीं भेजिए, जहाँ मेरे परिजन हैं। जहाँ मेरे घरवाले हैं, जहाँ मेरे कुटुंबवाले हैं, अर्थात वहाँ जिस समाज में हम हैं, हमें वहीं नरक में रहने दिया जाना चाहिए। हमें स्वर्ग नहीं चाहिए। उन्होंने कहा—नहीं, आपने तो स्वर्ग का काम किया है, आपको तो स्वर्ग में रहना चाहिए। उन्होंने कहा—नहीं! यह स्वर्ग हमें गवारा नहीं है। हम नरक में ही रहेंगे।
बेटे, यह किसकी देन थी? यह कुंती की देन थी, जो उन्होंने समाज को श्रेष्ठ नागरिक दिए और जिन्होंने उनके अंदर वह बीज बोया, जो आगे चलकर अध्यात्म का रास्ता उन्होंने अपनाया और अपनाया ही नहीं, बल्कि हिमालय पर चले गए। पाँचों पांडवों ने वहीं तप किया और अपने शरीर को वहीं हिमालय पर त्याग दिया। इसी तरीके से संत रैदास का किस्सा आता है।
रैदास भगवान के अनन्य भक्तों में हुए हैं। भगवान के भक्तों में वे चर्मकार थे तो जरूर, लेकिन जिस काम को वे करते थे, उसमें उनके भगवान की उपस्थिति होती थी। जो भी काम हाथ में लिया, वह भगवान से कम तो था ही नहीं। कहावत है—"मन चंगा तो कठौती में गंगा।" सचमुच उनकी कठौती में गंगा रहती थी। उन्होंने गंगा का आह्वान किया और कहा कि मैं गंगा के लिए कहाँ जाऊँगा? गंगा स्वयं ही मेरे पास आएगी। मैं गंगा का आराधक हूँ। गंगा मेरी माँ है। माँ स्वयं ही मुझे गोद में खिलाने आएगी। माँ के पास मैं जाऊँगा, नहीं, माँ मेरे पास स्वयं ही आएगी और रहेगी। उनको अपनी भक्ति में इतना अटूट विश्वास था।
बेटे! हमारी भक्ति कब परिपूर्ण होती है? हमें अपने आराध्य के प्रति, अपने इष्ट के प्रति उतना ही विश्वास, उतनी ही श्रद्धा, उतना ही समर्पण चाहिए, जितना कि रैदास के जीवन में था।
असली भक्त कौन?
एक दफे शिव और पार्वती गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो शंकर जी ने कहा—पार्वती! आज क्या है? आज सोमवती अमावस्या है। सोमवती अमावस्या को सब गंगा नहाने जा रहे हैं। हाँ, सब गंगा नहाने जा रहे हैं? अजी साहब! क्या मजाक कर रहे हैं? सब गंगा नहाने जाएँगे, तो कैसे काम चलेगा? ये सब स्वर्ग जाएँगे? उन्होंने कहा—हाँ। पार्वती! कहते तो ऐसा ही हैं कि ये सब स्वर्ग जाएँगे। ये सब कैसे स्वर्ग जाएँगे? उन्होंने कहा—शंकर जी! आप मुझसे मजाक कर रहे हैं। ये सब स्वर्ग जाएँगे, तो इतने सब कहाँ समाएँगे? उन्होंने कहा—तुम्हें विश्वास नहीं है। उन्होंने कहा—हाँ साहब! मुझे तो विश्वास नहीं है। लाखों व्यक्ति स्नान करने जाएँगे। मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है कि ये जो भीड़ जा रही है, वह ऐसी है, जैसे कि मेले पर भीड़ होती है। सोमवती का मेला है या मनोरंजन है। मनोरंजन करने के लिए ये सारी-की-सारी भीड़ मुझे मालूम पड़ रही है और इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो स्वर्ग में जाएगा और उसको मुक्ति मिलेगी और वैकुंठ मिलेगा।
पार्वती ने कहा—साहब, इसमें मेरा दिमाग काम नहीं करता है। अच्छा, तुम्हारा दिमाग काम नहीं कर रहा है, तो चलो मैं दिखाता हूँ कि ये सब स्वर्ग जाएँगे। अब कौन जाएँगे, कितने जाएँगे? यह फैसला वहीं भीड़ में होगा। पार्वती ने अपना जो रूप बनाया था, वह था सुंदरी का, स्वस्थ जवान सोलह वर्ष की युवती का, सुंदर आभूषण पहने हुए, श्रृंगार किए हुए और शंकर जी ने अपना रूप बनाया कोढ़ी का। पार्वती जी उनको अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले जा रही थीं। थक गईं, तो बीच में बैठ गईं।
कितने ही व्यक्ति वहाँ से निकलते गए और न मालूम क्या-क्या शब्द उनसे बोलते गए। उन्होंने कहा कि इस कोढ़ी के साथ रहने से तेरी तो काया भी लजाती है। तू इतनी सुंदर युवती है और तू इस कोढ़ी के साथ क्या रहेगी? तू हमारे साथ चल। हमारे यहाँ गाड़ियाँ हैं। हमारे यहाँ खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था है, कोठी है और न जाने क्या-क्या लोभ लालच दिखाते हुए चले गए।
पार्वती जी ने नतमस्तक होकर सिर नीचा कर लिया और दुःखी होने लगी कि हे भगवान! क्या ये ही भक्त हैं? भक्त ऐसे हो सकते हैं? ये ही वैकुंठ में जाएँगे क्या? भोलेनाथ! आपने तो मेरी भी दुर्गति करा दी। यह आपने क्या किया? उन्होंने कहा कि पार्वती अभी देखती चलो। यह पृथ्वी अभी ऐसी विहीन नहीं हो गई है कि इसमें सब ऐसे ही होते हों।
शंकर जी ने कहा—"यह तो मैंने तुम्हें दिखाया है।" पार्वती ने कहा—"महाराज! वह समय कब आएगा? अभी तो मैं शरम के मारे मरी जाती हूँ। जहाँ लोग मुझसे पार्वती माँ कहते हैं और आपसे पिता कहते हैं। लेकिन जो मुझे इस रूप में देख रहे हैं, उससे मुझे बड़ी लज्जा आ रही है, शरम आ रही है।" अब शाम का समय हो गया था, दिन छिपने जा रहा था। वहाँ से एक राहगीर गुजर रहा था।
उसने कहा—"माँ! आप कहाँ जाना चाहती हैं? आप धन्य हैं माँ, आप जैसी देवी को प्रणाम है।" उन्होंने कहा—"भैया। मैं अपने पति को स्नान कराने के लिए लाई हूँ। मेरा पति कोढ़ी है। अब मैं थक गई हूँ। मुझसे चला नहीं जा रहा है। आज सोमवती अमावस्या है और मैं अपने पति को नहलाने के लिए लाई हूँ।" उसने कहा—"माँ! थोड़ी सी सेवा करने का समय हमें दो। हम आपके पति को नहलाकर लाएँगे।" उन्होंने कहा—"तुम लाओगे?" हाँ, माँ! तुम्हारा जितना फर्ज और कर्तव्य अपने पति के लिए है और आप भी मेरी माँ हैं, तो ये भी मेरे पितातुल्य हैं। पीठ पर शंकर जी को लादकर वह राहगीर आगे-आगे चलता गया और पीछे-पीछे पार्वती चलती गईं।
अध्यात्म का सही स्वरूप
शंकर जी ने इशारे से कहा—"पार्वती! यही वास्तविक भक्त है और इसके अंदर वास्तविक भक्ति है। यही वह व्यक्ति है, जो असली गंगा नहाने के लिए जा रहा है। इतनी भीड़ में से एक ही यह व्यक्ति आया है। यदि स्वर्ग किसी को मिलता है तो इसी को मिलेगा। इसी को सद्गति मिलेगी। इसी को शांति मिलेगी। जो कुछ मिलना है, इसी को मिलेगा। बाकी तो भीड़ थी, जो तुमने देखी थी।" साधना का सही स्वरूप, अध्यात्म का सही स्वरूप यही है।
जो अपने स्वार्थ के लिए जप करते हैं, अपनी मनोकामना के लिए तप करते हैं, तो वह कितने दिन चलेगा। मान लीजिए हमको परायी संपत्ति मिल भी जाए, तो वह संपत्ति कितने दिन की होगी? मैं समझती हूँ कि वह थोड़े दिन में चली जाएगी। जो अपनी उपार्जित संपत्ति होती है, वह टिकाऊ होती है। उसमें हमारी लगन होती है, हमारी भावना होती है, हमारी मेहनत होती है और हम उस संपत्ति को बढ़ाते भी हैं; किंतु जो मुफ्त में हाथ आई हुई है, उसे खा पीकर बराबर कर देते हैं। वह किसी की दी हुई है, हमारे पास है नहीं, अत: वह जल्दी ही चुक जाती है, अथवा उसका दुरुपयोग करने लगते हैं। उसकी वास्तविकता को समझते नहीं हैं।
बेटे! हमें अपने भौतिक सुख के लिए बीबी चाहिए, हमको बच्चे चाहिए। हमको पैसा चाहिए। इसी के लिए जो जप और ध्यान किया जाता है। वह सार्थक नहीं होता। वह व्यक्तिगत होता है न? अत: जो व्यक्तिगत हो गया, उसमें वह सुख कहाँ है, वह शांति कहाँ है? उसमें वह उपलब्धि कहाँ है? आध्यात्मिक उपलब्धि उससे नहीं हो सकती।
शंकर और पार्वती रास्ते में जा रहे थे। उसी रास्ते में एक ब्राह्मण, एक ब्राह्मणी और एक उनका बच्चा जा रहा था। मन में वे बड़े दुःखी हो रहे थे और कह रहे थे कि भगवान हमने इतने दिन आपकी उपासना की और हमको कुछ प्राप्त नहीं हुआ। यह कैसी विडंबना है। इतने दिन हमने भगवान शंकर जी की सेवा की; लेकिन हमको कुछ उपलब्धि नहीं हुई। हमको कुछ नहीं मिला। हम निर्धन के-निर्धन रह गए और हमारे हाथ कुछ नहीं लगा।
शंकर जी ने कहा—देखो जो अध्यात्म का स्वरूप है, इसको कैसे बिगाड़ा जा रहा है। भगवान का जो भक्त है, वह अपने लिए कभी नहीं माँगता है; वरन वह राष्ट्र के लिए माँगता है। अपने लिए वह ऐसी चीज माँगता है, जिससे कि उसका आत्मोद्धार हो सके। जिससे उसे शक्ति मिले और भक्ति मिले। शंकर जी उपस्थित हुए। पार्वती जी बोलीं—नहीं महाराज जी। इनको तो कुछ देना ही चाहिए। जो अपने दरवाजे पर आया है, उसको आप क्या खाली हाथ जाने देंगे?
उन्होंने कहा-पार्वती! ये उन भक्तों में से नहीं हैं। इनको चाहे कितना दिया जाए, ये खाली-के-खाली रहेंगे। नहीं साहब! आप तो ऐसे ही कह रहे हैं। इनको तो आप दे ही दीजिए। इन्हें तो आप मेरे कहने से दे दीजिए, फिर चाहे आप मत देना, पर इतनी विनती तो आप मेरी मान लीजिए। उन्होंने कहा—अच्छी बात है, तुम्हारी बात मान लेते हैं और उनके सामने उपस्थित हुए।
उन्होंने कहा भाई, आप लोग क्यों रो रहे हो? वे बोले—भगवान हम तो कुछ माँगना चाहते हैं। बोलो न, माँगो! तुम एक वरदान माँगो तो बुढ़िया सबसे पहले आ गई और बोली—शंकर जी! अठारह साल की बना दो और खूबसूरत महिला बना दो। उन्होंने कहा—जा दिया वर। वर दे दिया तो वह एक खूबसूरत महिला बन गई। बुड्ढा जो था, वह उसे देखकर कुड़कुड़ाया और जल-भुनकर खाक हो गया। तिलमिला गया। वह गुस्से से आवेश में आ गया। उसने कहा—अरे दुष्ट, चांडाल तूने यह क्या किया तो शंकर जी बोले—अरे भाई! तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम भी वरदान माँगो।
उसने कहा—महाराज जी! मैं तो यह माँगता हूँ कि इसको आप सुअरिया बना दो। यह जो मेरी पत्नी है और जो 16-18 वर्ष की बनी है, इसको सुअरिया बना दो। मुझे शरम आती है कि मैं तो बुड्ढा हूँ और यह मेरे सामने 16-17 साल की रहेगी, तो इसे देखकर बाकी दूसरे लोगों की क्या मनोभूमि बनेगी?
शंकर जी ने कहा—अच्छा, लो और उन्होंने उसे सुअरिया बना दिया। अंततोगत्वा जो बच्चा था, वह रोने लगा कि अरे मेरी मम्मी को क्या हो गया? अरे, मेरी मम्मी तो सुअरिया बन गई। हाय भगवान! यह क्या हो गया? तो भगवान बोले—अरे बेटा! तू भी वरदान माँग ले। तू क्यों परेशान हो रहा है? तू क्यों दुःखी होता है? तेरा भी एक वरदान ड्यू है, तू माँग।
बच्चे ने कहा कि भगवान मेरी तो जैसी माँ थी, वैसी ही बना दो। तो उन्होंने हाथ में जल लेकर के उसके ऊपर छिड़क दिया और वह जैसी बुढ़िया थी, वैसी ही बन गई। उन्होंने कहा—अब तुम जाओ। उनने कहा—अरे! हम कैसे जाएँ? हमें तो कुछ नहीं मिला। शंकर जी ने कहा—तुम्हारे एक-एक वरदान हमारे पास थे, सो तुमने ले लिए। अब तुम अपने घर वापस जाओ। फिर उन्होंने कहा—पार्वती ! तुमने देखा न, पात्र को दिया जाता है और यदि कुपात्र को दिया जाए, तो दिया हुआ वरदान इसी तरीके से निरर्थक चला जाता है, जिस तरीके से इसका गया है। सुपात्र को हम थोड़ा देंगे, तो भी वह उसको बोएगा, उसको काटेगा, उसे सँभालेगा। वह कामना नहीं रखेगा। वह देगा, दूसरों को देगा न कि वह लेगा।
कुपात्र के लिए वरदान का मोल नहीं
बेटे! कुपात्र लेकर भी, वरदान पाकर भी उसका दुरुपयोग करेगा। दुरुपयोग कैसा करेगा? जैसा कि भस्मासुर ने किया था। उसने तप किया। तप से शंकर जी प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा—वरदान माँगो। वरदान माँगा, तो उसने कहा कि आप ऐसा वरदान दीजिए कि जिसके सिर पर हाथ रख दूँ, वही भस्म हो जाए। उन्होंने कहा—हाँ! बिलकुल ऐसा ही होगा। शंकर जी ने वरदान दे तो दिया, पर अब तो वह शंकर जी के ही पीछे पड़ गया। शंकर जी के ही ऊपर आफत आ गई। शंकर जी की जो पत्नी पार्वती जी थीं, उनकी खूबसूरती पर उसका दिमाग डाँवाडोल हो गया।
पार्वती बहुत परेशान हुईं। महाराज! आपने किस राक्षस को ऐसा वरदान दे दिया, तो उन्होंने कहा—अब क्या करना चाहिए? उन्होंने विष्णु की आराधना की और विष्णु भगवान आए। उन्होंने कहा कि इसका हल अभी निकालता हूँ, आप क्यों परेशान होते हैं? विष्णु भगवान ने मोहिनी का रूप धारण किया, मतलब पार्वती का रूप धारण करके राक्षस के सामने उपस्थित हुए।
उन्होंने कहा कि क्या चाहता है? उसने कहा कि तेरे साथ शादी करना चाहता हैं। शादी करना चाहता है? हाँ। शादी तो हम जरूर कर लेंगे, परंतु एक काम कर, जरा नाच दिखा दे। मुझे नाच बहुत पसंद है। भस्मासुर के सामने विष्णु भगवान, जो महिला का रूप धारण किए थे, खड़े थे। उन्होंने कहा कि जरा सिर पर हाथ रखकर नाच। बस, वह अपने सिर पर हाथ रखकर नाचने लगा। उसने कहा—बम् भस्म-बम् भस्म। इतना कहना हुआ और वह भस्म हो गया।
बेटे! कुपात्र को दिए हुए वरदान का यही परिणाम होता है; क्योंकि उसने जहाँ तप के द्वारा, भक्ति के द्वारा जो पाया, उससे उसके अंदर वह लालच, वह लोभ, वह अहंकार और वह दुष्ट प्रवृत्तियाँ आ गईं, जो भक्त के अंदर नहीं आनी चाहिए थीं और वही उसको ले डूबीं। जो भक्त होता है, उसकी कामना क्या होती है?
भक्त कहता है—"न त्वहं कामये राज्यं न सौख्यं नापुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां प्राणिनां आर्त्तिनाशनम्॥" न तो राज्य चाहिए, न धन चाहिए, न वैभव चाहिए। भगवान हमको तो वह शक्ति दीजिए, जिससे हम अपना उद्धार कर सकें और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो सकें। जो मानव जाति के रूप में, पीड़ा और पतन के रूप में हमको पुकार रहा है। राष्ट्र हमको पुकार रहा है। हे भगवान! देना है तो हमको वह सामर्थ्य दीजिए और वह शक्ति दीजिए, जिसके आधार पर हम आगे चलें और हम समाज को सँभाल सकें।
महाभारत में एक कथा आती है। द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था और द्रौपदी विलाप कर रही थी और कह रही थी कि जो पाँचों पांडव हैं, वे शक्तिविहीन हो रहे हैं। भगवान मेरी लाज लुटी जा रही है, आकर के मेरी लाज बचाइए। भगवान दौड़े-दौड़े आए कि मेरे भक्त के ऊपर विपत्ति का समय आ गया है। उन्होंने कहा—द्रौपदी मैं आया तो हूँ, पर मैं तेरी क्या सेवा कर सकता हूँ। तेरे पुण्य का कोई अंश जमा है क्या?
उसने कहा भगवान। मैं नहीं जानती। कल्पना में भी मैंने तो जिंदगी में भी कोई ऐसा पुण्य नहीं किया, जो मैं आपको बता सकूँ। आप ही अब समझ लीजिए कि मेरा पुण्य हो कहाँ सकता है कि नहीं हो सकता, लेकिन मैं आपकी भक्त जरूर हूँ। उन्होंने कहा कि भक्त तो हो; लेकिन तुमने कोई पुण्य-परमार्थ किया है कि नहीं किया है। किया है तो तेरा ड्यू है और नहीं किया है तो तेरे लिए कुछ नहीं कर सकता हूँ।
तो उसने कहा कि महाराज! मैंने कुछ नहीं किया, पर एक घटना मुझे ध्यान में आती है कि गंगा जी में एक संत नहाने गए थे और संत की लँगोटी उस गंगा में बह गई थी। संत नग्नावस्था में थे, तो मैंने कहा—पितामह ! आपकी मैं कोई सेवा कर सकती हूँ क्या? उन्होंने कहा—बेटी! क्या सेवा कर सकती है। मेरी लँगोटी थी, वह तो बह गई, अब मुझे पानी में ही खड़ा रहना पड़ेगा और मुझे यहीं शरीर समाप्त करना पड़ेगा। तो मैंने कहा—नहीं पितामह ! आपकी बेटी हूँ। आधी साड़ी फाड़ करके उस ब्राह्मण को, उस संत को मैंने दे दी और घर वापस आ गई।
द्रौपदी ने कहा—भगवान! चाहे आप इसको पुण्य समझते हों, हो सकता है उस आधी साड़ी की क्या वैल्यू हो? उन्होंने कहा—बस, हो गया। उन्होंने देखा कि क्या रजिस्टर में इसका कुछ जमा है। उन्होंने पाया कि इसका पुण्य जमा है। उन्होंने कहा कि हे देवि! सवाल यह नहीं है कि पुण्य कितना किया। सवाल है नीयत का। उन्होंने द्रौपदी की नीयत देखी। द्रौपदी की महाभारत में कथा आती है।
जिन लोगों ने महाभारत को सुना है और पढ़ा है कि द्रौपदी का कितना चीर वापस दिया गया साड़ी के रूप में। यह भक्त की पहचान है। भक्त के अंदर यह विशालता होती है। बुद्धि और मुक्ति क्या चाहिए, उसको मुक्ति चाहिए? नहीं मुक्ति नहीं, बुद्धि चाहिए। बुद्धि की विशालता चाहिए भक्त को। भक्त को माँ जैसी विशालता चाहिए। भक्त जब माँ जैसा निर्मल हो जाता है, स्वच्छ हो जाता है और पवित्र हो जाता है, तो वह भक्त दूसरों के लिए कुछ करने के लिए मजबूर हो जाता है और अपनी कठिनाइयों को ध्यान नहीं रखता।
बेटे! भक्त दूसरों की सुविधाओं के लिए, दूसरों को विपत्ति से उबारने के लिए वह अपने को संकट में डालता है। अपने लिए संयमी बनता है और दूसरों के लिए उदार बनता है। दूसरों की सेवा करता है और सहायता करता है। यह है मूल। पूजा-उपासना-जप-ध्यान जो भी है, इसी में है और इसी से हमको सब कुछ प्राप्त हो सकता है।
अंतर्मन की मलिनता को धोने के लिए जप आवश्यक है, ध्यान आवश्यक है। जब तक हम भगवान के समीप नहीं बैठेंगे, तब तक हम उतने निर्मल नहीं बन सकेंगे। भगवान की शक्ति तभी हमारे अंदर आएगी, जब हम भगवान के निकट बैठेंगे, चाहे वह आधा घंटा ही क्यों न हो। गाँधी जी ने आधे घंटे की उपासना की थी, प्रतिदिन आधा घंटा भगवान का भजन किया था, लेकिन वो आधा घंटा चौबीस घंटे से भी ज्यादा होता था; क्योंकि उनका सारा-का-सारा समय लोक-मंगल के लिए होता था, राष्ट्रोत्थान के लिए होता था। अपनी निर्मलता को प्राप्त करने के लिए, अपनी संकीर्णता को छोड़ने के लिए और भगवान के समीप बैठने के लिए और भगवान को अपने में मिलाने के लिए और अपने को भगवान में मिलाने के लिए आधा घंटा पर्याप्त होता है। वह वे समझते थे। आज हम अपनी बात यहीं समाप्त करते हैं।
॥ ॐ शान्तिः ॥