101. एक वर्ष की प्रज्ञा प्रव्रज्या का विशेष आमंत्रण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह युग परिवर्तन की बेला है। विनाश विभीषिकाओं से भरी पूरी तमिस्रा विदा होने जा रही है और निराशा, आशंका का वातावरण बदलने वाला है। अरुणोदय अपने आगमन का परिचय दे रहा है। ऐसे आकस्मिक परिवर्तन मनुष्य की स्वतः सामर्थ्य से नहीं सृष्टा की इच्छा और व्यवस्था के अन्तर्गत ही सम्पन्न होते हैं। मनुष्य के हाथ में सौंपी सृष्टि व्यवस्था जब लड़खड़ाने लगती हैं, तब बागडोर नियन्ता अपने हाथ में लेते और असन्तुलन को सन्तुलन में बदलते हैं। इन दिनों भी वहीं प्रक्रिया दुहराई जा रही है। ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य...’’ वाला वचन इस बार भी प्राचीन अन्य अवतरणों की तरह निभने जा रहा है।

इस परिवर्तन से तमिस्रा के प्रकाश में परिणत होने से समूची विश्व व्यवस्था लाभान्वित होती है। विनाश का विकास में परिवर्तन होने से सभी को सन्तोष की साँस लेने का अवसर मिलता है। आशा की उदीयमान किरणों को देखकर किसकी आँखों में उल्लास नहीं चमकता। पर सबसे बड़ा लाभ उन्हें होता है जो इस अदृश्य प्रवाह में दृश्य भूमिका निभाने में अपने शौर्य साहस का परिचय देते हैं और सहयोगी बड़भागियों की तरह अग्रिम पंक्ति में खड़े होते हैं।

भगवान के अवतरण सदा अदृश्य चेतना प्रवाहों के रूप में होते हैं। जागृत आत्माएँ उससे अनुप्राणित होकर सृष्टा की इच्छा से अपनी इच्छा मिलाती हैं। फलतः वे ऐसा श्रेय उपलब्ध करते हैं जैसा कि निजी सामर्थ्य के बलबूते वे कर नहीं सकते थे। तूफान के साथी बनकर पत्ते और धूलिकण तक आकाश चूमते देखे जाते हैं। नदी प्रवाह में सम्मिलित होकर तिनके तक मजेदार लम्बी यात्रा करते और समुद्र तक जा पहुँचते हैं।

सूर्योदय की प्रथम किरणें ऊँचे पर्वत शिखरों पर चमकती हैं। इसी प्रकार जागृत आत्माएँ युग चेतना को आगे बढ़कर अपनाती और अनुकरण के लिए असंख्यों को प्रोत्साहित करती हैं। मुर्गा बाँग देता है तो असंख्यों करवट बदलते, आँखें मलते हैं, अँगड़ाते हुए उठ खड़े होते हैं। विषम परिस्थितियों में युग प्रहरी भी एकाकी खड़े होते हैं। निद्रितों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करते हैं और संकटों को अकेले ही चुनौती देते रहते हैं। ऐसों को आत्मसन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह के त्रिविध लाभ अनायास ही उपलब्ध होते हैं।

हनुमान यदि अपने बलबूते पहाड़ उठाने, समुद्र लाँघने, लंका उजाड़ने में समर्थ रहे होते, तो बालि के डर से छिपे हुए सुग्रीव के यहाँ नौकरी क्यों करते? बालि से स्वयं ही क्यों न निपट लेते? अर्जुन यदि अपने पराक्रम से महाभारत जीत सके होते, तो द्रौपदी का भरी सभा में अपमान क्यों देखते? अज्ञातवास के दिनों जिस-तिस की नौकरी करके क्यों समय गुजारते? शत्रुओं से वे तब क्यों न निपट लेते? यह भगवान की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाने का ही प्रतिफल है, कि उपरोक्त दोनों भक्तजनों को अपने-अपने समय का हीरो बनने जैसा श्रेय मिला। असहाय पाण्डवों की इतनी बड़ी सेना खड़ी हुई थी जो उस महायुद्ध को जीत सकी। भगवान तक ने उनके घोड़े चलाये। हनुमान के साथ रीछ वानरों की विशाल सेना उस मोर्चे पर आ खड़ी हुई, जिसमें मात्र मरण ही दीखता था। इसे दैवी प्रवाह में सहायक बनने का चमत्कार ही कहा जा सकता है।

बुद्ध, गाँधी के समय में उनके साथियों ने जितना त्याग किया उसकी तुलना में कही अधिक श्रेय पाया। ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। समय को पहचानने की, उससे लाभ उठाने की दूरदर्शिता जिन्हें उपलब्ध होती है, वे लोभ मोह के प्रलोभनों से बचते और कृपणताग्रस्त स्वजनों के प्रतिगामी आग्रहों की उपेक्षा करते हुए प्रवाह चीरकर उलटी बह सकने वाली मछली की तरह आत्मा की पुकार का अनुसरण करते हैं। उस उदात्त साहसिकता का प्रतिफल भी उन्हें कम नहीं मिलता।

अग्नि काण्ड, महामारी, बाढ़, दुर्भिक्ष, दुर्घटना जैसे आपत्तिकालीन अवसरों पर उदारचेता निजी लाभ हानि की बात नहीं सोचते, वरन् समय की माँग पूरी करने के लिए सहायता को दौड़ते है। वैसे अवसरों पर भी जो लाभ हानि का जोड़ बाकी करते हैं, किसी कोने में छिपे रहते हैं उन्हें वह चतुरता भारी पड़ती है। लोक-भर्त्सना और आत्म प्रताड़ना के पश्चात्ताप में उन्हें सर्वदा जलते रहना पड़ता है। यह समय भी ऐसा ही है जिसमें मानवीय अस्तित्व जीवन मरण के संकट में फँसा है। इन क्षणों में भी जिन्हें पेट प्रजनन की ही पड़ी रहे, समझना चाहिए कि उन दुर्भाग्यग्रस्तों को समय को समझने और उससे लाभ उठाने की समझ ने साथ ही नहीं दिया और वे उस सुयोग से वंचित रह गए, जिससे निश्चय ही कृतकृत्य बना जा सकता था।

निर्वाह और परिवार की समस्याएँ उतनी जटिल नहीं हैं कि जिन्हें इस तरह न सही उस तरह न सुलझाया जा सके। पक्षाघात एवं मरण संकट आ खड़ा हो तो भी सृष्टा की व्यवस्था इस प्रकार नहीं तो उस प्रकार सन्तुलन बिठा देती है। भावना हो तो बुद्ध, शंकर, समर्थ, विवेकानन्द, गाँधी, विनोबा जैसी भूमिकाएँ हर व्यक्ति निभा सकता है। कृपणता और संकीर्णता की खुमारी चढ़ी हो तो इन्द्र और कुबेर भी अपने को व्यस्त, चिन्तित कहते हुए परमार्थ प्रयोजनों के लिए असमर्थ बताने वाले सैकड़ों बहाने गिनाने लगेंगे।

इन दिनों जागृत आत्माओं के समयदान की माँग से आकाश गूँजता है। जो उसे सुन सकें वे कान खोलें और सुनें। जो सामने खड़ी युग चुनौती को देख सकते हैं वे आँख खोलें और देखें। जिनमें दूरदर्शिता हो वे युगधर्म को समझें और वे अपने आप ही कर्तव्य का निर्धारण करें। जिनकी भावनाएँ उठें वे एक ही बात सोचें कि युग सृजन के लिए समय दान की बढ़ी चढ़ी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने का साहस किस प्रकार प्रकट किया जा सकता है। प्रतिभावानों, भावनाशीलों और ऐसे प्रामाणिक व्यक्तियों की इन दिनों अत्यधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है जो स्वयं पार हो सकें और अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को पार लगा सकें।

युग परिवर्तन जैसे महान कार्यों में कोई एकाकी व्यक्ति अपने बलबूते ही अपनी योजना बनाकर कुछ कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता। डेढ़ चावल की खिचड़ी, ढाई ईंट की मस्जिद बनाने और अपनी ढपली अपना राग अलापने वाले अहमन्यता प्रदर्शित करने और आत्मश्लाघा का बचकानापन ही प्रदर्शित कर सकते हैं। रीछ वानर, ग्वाल बाल, सत्याग्रही, बौद्ध परिव्राजक सभी संघबद्ध होकर लड़े थे। देवताओं की संयुक्त शक्ति से असुर निकंदिनी दुर्गा का अवतरण हुआ था। स्मरण रहे इन दिनों किसी भी समझदार को नेता बनने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए। उसमें उपहास के अतिरिक्त और कुछ पल्ले न पड़ेगा। जो अभीष्ट है वह संयुक्त प्रयासों से ही सम्भव है। अकेला चना कही भी भाड़ नहीं फोड़ सका है। इन दिनों तो यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। संयुक्त शक्ति के रूप में सैन्य संगठन का अंग बनकर रहना और सृष्टा की युगान्तरीय योजना का अंग बनकर काम करने में ही उत्साह की सार्थकता है। जागृत आत्माओं का प्रज्ञा अभियान का अंग बनकर काम करना ही एकमात्र मार्ग है, जिसके कुछ कहने लायक परिणाम निकल सकते हैं। तिनके मिलने से रस्सा और धागे मिलने से कपड़ा बनने की बात जो जानते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि नेतागिरी की ललक में किसी को भी बिखराव उत्पन्न नहीं करना चाहिए। महाप्राणों के लिए चल रही सृष्टा की चतुरंगिणी के अंश बनकर रहने और साथियों के साथ कदम मिलाकर चलना ही श्रेयस्कर है।

स्थानीय प्रज्ञा संस्थानों के सुसंचालन में जो सीमित समय दे सकते हैं उन्हें स्वाध्याय मण्डलों के संस्थापन, संचालन में भावभरा योगदान देना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र में नव जागरण की गतिविधियों को व्यापक बनाने में कुछ उठा न रखना चाहिए। समयदान, अंशदान के रूप में हर प्रज्ञा परिजन का कहने लायक अनुदान होना चाहिए।

इसके अतिरिक्त इन दिनों उनकी आवश्यकता है जो अधिक समय दे सकें, अधिक समय घर से बाहर रह सकें। आवश्यकता उनकी पड़ रही है जो बादलों की तरह परिभ्रमण पर निकलें और प्यासी धरती को मखमली चादर उढ़ाने के लिए मूसलाधार बरसें। सूर्य और चन्द्रमा की तरह धरातल के हर कोने में गर्मी, रोशनी बखेर सकने में सफल हो। पवन यदि दौड़े नहीं तो प्राणी उसे तलाश करने कहाँ कहाँ भटकें। दुर्घटनाग्रस्त असमर्थों के पास स्वयं ही सहायकों को पहुँचना पड़ता है। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों को अपनी योजना इसी आधार पर बनानी और प्रव्रज्या के साथ जोड़नी चाहिए।

इस वर्ष समस्त प्रज्ञा संस्थानों को अपने वार्षिकोत्सव प्रज्ञा आयोजनों के रूप में सम्पन्न करने के लिए कहा गया है। उनमें केन्द्र से प्रचारक प्रतिनिधियों की, गायकों की, वक्ताओं की टोलियाँ भेजी जायेंगी। उस उत्तरदायित्व को वहन कर सकने वाली प्रतिभाएँ इन दिनों तलाशी जा रही हैं। ताकि उन्हें प्रशिक्षण के उपरान्त कार्यक्षेत्र में भेजा जा सके। इसी प्रकार विनिर्मित प्रज्ञा संस्थानों में भी कुछ महीने या सर्वदा रहकर स्थानीय कार्यकर्ताओं के सहयोग से सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सर्वत्र माहौल बनाया जाना है। शान्तिकुञ्ज में बढ़ती हुई प्रवृत्तियों के लिए उपयुक्त प्रबन्धक, प्रशिक्षक एवं शोधकर्ता चाहिए। जिनकी स्वयं सेवक मनोभूमि हो, ऐसे कार्यकर्ताओं की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे-ऐसे अनेक कामों के लिए ऐसे समयदानियों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ रही है, जो घर से बाहर रहकर काम कर सकें। अच्छा होता यदि जीवनदानी ब्रह्मचारी शंकराचार्य, समर्थ रामदास, विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर की तरह अपने को युगधर्म के निर्वाह में समर्पित करते। पर ऐसा न बन पड़ने पर इतने से भी काम चल सकता है कि एक वर्ष का प्रव्रज्या व्रत लिया जाय और उतने समय बाद वापिस लौट जाया जाय। बहुतों का थोड़ा-थोड़ा समय मिलने से भी काम चलेगा। इस वर्ष के प्रायः दस हजार आयोजनों और २४०० प्रज्ञापीठों की सुव्यवस्था के लिए एक वर्ष की प्रव्रज्या से ही समय की माँग पूरी हो सकेगी।

तीर्थयात्रा का पुण्यफल भारतीय धर्म में असाधारण बताया गया है। इसके अनेक कारण हैं। धर्म प्रचार की गाँव-गाँव पदयात्रा में उपेक्षित क्षेत्रों को आदर्शवादी सृजनात्मक प्रेरणाएँ मिलने से, उस प्रयास में संलग्न लोगों को उच्चकोटि का पुण्यफल मिलता है। पर साथ ही उसमें स्वार्थ साधन भी कम नहीं हैं। परिभ्रमण से विभिन्न स्थानों की जलवायु एवं आहार का लाभ मिलने से एक ही स्थान पर रहने के कारण जो कमी रह जाती है उसकी पूर्ति होती रहती है। अधिकाधिक लोगों के साथ सम्पर्क साधने से मनुष्यों को विभिन्नताओं और विपन्नताओं को समझने का अवसर मिलता है, फलतः व्यवहार कुशलता और बुद्धिमत्ता का वह पक्ष उभरता है जो एक ही सीमित क्षेत्र में कैद रहने के कारण दबा पड़ा रहता है। पदयात्रा को अनेक रोगों की विशेषतया मानसिक रोगों की रामबाण दवा माना गया है।

गोखले ने गाँधी को समूचे देश की यात्रा करने और जनसाधारण की स्थिति समझने के लिए प्रेरित किया था। तभी वे वास्तविक भारत की सही स्थिति देख समझ सकने में समर्थ हो सके और वह सोच सके जो यथार्थता पर आधारित एवं व्यवहारिक है। विवेकानन्द की सही योजनायें तब कार्यान्वित हुई जब उनने देश के देहाती क्षेत्रों का लम्बा दौरा पूरा कर लिया। ऋषि मनीषियों की शिक्षा तथा साधना में एक अति महत्त्वपूर्ण तथ्य लम्बी प्रव्रज्या का भी जुड़ा रहता था, जो चार धामों के लक्ष्य के रूप में प्रयोग होती थी। वे धर्म प्रचार की पदयात्रा के अतिरिक्त तीर्थयात्रा के आधार पर अपनी व्यवहार बुद्धि का भी विकास करते थे। यह प्रक्रिया उन सभी प्रतिभावानों के लिए आवश्यक है जो अपनी व्यवहार कुशलता बढ़ाने तथा सार्वजनिक सेवा क्षेत्रों में प्रवेश करने के इच्छुक हैं।

हर परिवार से एक व्यक्ति निःस्वार्थ समाज सेवा के लिए मिलने की धर्म परम्परा भारतीय संस्कृति का अविच्छिन्न अंग है। यह मात्र निवृत्त वानप्रस्थों पर ही लागू नहीं होती थी वरन् किशोर, युवक एवं प्रौढ़ भी इस सेवायज्ञ में अपनी आहुतियाँ देते थे। परिवार के अन्य सदस्य उनके निर्वाह एवं उत्तरदायित्व को पूरा करते रहने की जिम्मेदारी अपने शिर पर उठाते हैं। इस प्रथा का प्रचलन पिछले दिनों कई बार उभरा है।

गुरू गोविन्दसिंह ने अपने प्रभाव क्षेत्र के हर परिवार से एक धर्मसेवी माँगा था और जो मिले थे उन्हें सिख बनाया था। राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र से हर परिवार का एक सदस्य मिलिटरी में भर्ती होना अपनी शान मानता रहा है। समर्थ गुरु रामदास ने भी उस परम्परा को निखारा था और अपने प्रभाव क्षेत्र से अगणित सैनिक शिवाजी की सेना में भर्ती कराये थे। सत्याग्रह आन्दोलन के दिनों में स्वर्गीय महावीर त्यागी जिन गाँवों में जाते वहाँ याचना करते कि इस गाँव से भी दो राम-लक्ष्मण लंका विजय और धर्म राज्य सृजन के निमित्त मिलने चाहिए। यह याचना बहुत हद तक सफल रही थी और गाँव की संयुक्त श्रद्धा ने न्यूनतम दो-दो सत्याग्रही स्वयं सेवक प्रदान किये थे।

थाईलैण्ड में अब तक यह प्रथा रही है कि हर व्यक्ति को एक वर्ष का संन्यास लेकर बौद्ध विहारों में रहना पड़ता था। उस देश का राजा तक इस परम्परा का निर्वाह करता रहा है। इस आधार पर देश को अगणित महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अवैतनिक रूप में सार्वजनिक सेवा के लिए मिलते थे। इस प्रकार साधना और सेवा के समन्वय से वह संन्यास सच्चे अर्थों में सार्थक होता था। जब तक यह प्रथा अक्षुण्ण रही तब तक वह देश हर दृष्टि से समर्थ, सम्पन्न संस्कृत एवं समुन्नत बना रहा।

चीन आदि कई देशों में अफसरों की लम्बी यात्राएँ करने और देश की स्थिति का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का नियम है। मिलिटरी के जवानों को भी इस आधार पर अनुभव अभ्यास अर्जित करने के लिए देहातों में भेजा जाता है।

इन दिनों जन जागरण की महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए सृजन शिल्पियों की निजी प्रतिभा को समुचित रूप से निखारने के लिए यह निश्चित किया है कि उदीयमान लोक सेवकों को सजीव पाठ्यक्रम पूरा करने तक ही सीमित न रखा जाय वरन् उन्हें अपने कार्यक्षेत्र, व्यवधान एवं समाधान को सही रूप से समझने के लिए प्रचार यात्रा पर भेजा जाय और सच्चे अर्थों में प्रतिभावान बनाया जाय।

इन सभी पुण्य प्रयोजनों की पूर्ति उनसे बन पड़ेगी जो स्थायी न सही एक वर्ष की प्रज्ञा प्रव्रज्या का व्रत लेकर शान्तिकुञ्ज के निर्देशन पर अपनी गतिविधियाँ नियोजित करने का व्रत ग्रहण करेंगे।

इस अवधि में जो अपना निर्वाह व्यय घर से न चला सकेंगे उनके लिए ब्राह्मणोचित व्यवस्था कर देने का मिशन की ओर से प्रावधान रखा गया है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


102. तीर्थ परम्परा का अभिनव पुनर्जीवन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

तीर्थ परम्पराओं को भारतीय धर्म संस्कृति का मेरुदण्ड और जीवन प्राण कह सकते हैं। उसकी गरिमा का धर्मजीवी और आप्त जनों ने भरपूर बखान किया है। उदार चेताओं ने तीर्थों के निर्माण में अपने कोष भण्डार खाली कर दिये। उस निमित्त समय लगाने के लिए जन साधारण ने विशेषतया विज्ञजनों ने, दूरदर्शी मनीषियों ने पूरा जोर लगाया है। यही कारण है कि देश में अनेक प्राणवान तीर्थ बने और उनकी सुनियोजित गतिविधियों के कारण इस भूमि से असंख्यों नररत्न निकले। उस टकसाल में ढले हुए सिक्कों ने समस्त भूमण्डल में प्रगति, समृद्धि और संस्कृति का स्तर ऊँचा उठाया। इस अनगढ़ धरती को स्वर्गादपि गरीयसी बनाने में उन भूसुरों का असाधारण योगदान रहा है, जिनकी गलाई ढलाई आमतौर से तीर्थों की प्रचण्ड ऊर्जा व्यवस्था में ही सम्पन्न होती थी।

आज तीर्थों की दुर्दशा पर आक्रोश व्यक्त करने और उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता न केवल लाँछन को निरस्त करने की दृष्टि से आवश्यक है, वरन् इसलिए भी अनिवार्य है कि उस महान परम्परा के पुरातन स्वरूप को नव जीवन प्रदान करके समय की माँग को पूरा किया जा सके।

पुरातन तीर्थ परम्परा के तीन आधार थे। (१) धर्म प्रचार की पदयात्रा (२) आत्मशोधन परिष्कार की साधना (३) लोक नायकों की संरचना। इन तीनों ही प्रयोजनों में से प्रत्येक इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे मानवी गरिमा को जीवन्त रख सकने वाला धर्म संस्थान कहा जा सके। इस आधार पर व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण की तीनों ही आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। उपरोक्त तीनों प्रयोजनों को त्रिवेणी संगम का नाम दिया है। उसका महात्म्य काया कल्प जैसा देखा जा सकता है।

तीर्थ यात्रा के लिए देश के चार कोनों पर चार धाम बने। हर क्षेत्र में उनकी स्थापना हुई। मनीषियों की मंडलियाँ पिछड़े क्षेत्रों को प्रगतिशील बनाने, प्रगतिशीलों को देवोपम स्तर तक उठाने के लिए धर्म प्रचार की पदयात्रा पर निकलती थी। इन परिव्राजकों के लिए आवश्यक प्रावधान जुटाने के साधन प्राप्त करते और आगे बढ़ते चलते थे। वानप्रस्थों की यह प्रव्रज्या बादलों द्वारा जल बरसाने की तरह हर क्षेत्र में सद्भाव भरती थी और सर्वतोमुखी प्रगति के आधार खड़े करती थी।

तीर्थों का चयन ऐसे स्थानों पर हुआ जहाँ ऐतिहासिक प्रेरणाओं का, प्राकृतिक शोभा सुषमा का सुयोग था। जिनमें कुछ समय के लिए श्रेयार्थी गृहस्थ जन भी निवास करते और सेनेटोरियम स्तर का शारीरिक मानसिक लाभ उठाते थे। पापों के प्रायश्चित का निराकरण तीर्थों में ही होता था। इस प्रयोजन के लिए क्या किया जाना चाहिए, जिससे खोदी गई खाई पटे, इसका समुचित निर्धारण तीर्थ संचालकों के परामर्श से सम्पन्न होता था। संचित कुसंस्कारों से परित्राण दिलाने वाली तपश्चर्याएँ भावनाशील लोग यहाँ के उपयुक्त वातावरण में सम्पन्न करते थे। आत्मशोधन के लिए तप और परिष्कार के लिए योगाभ्यास का विधान है। यह दोनों ही प्रक्रियाएँ उपयुक्त मार्गदर्शन एवं अनुदान चाहती हैं। यह दोनों ही लाभ तीर्थ संचालकों द्वारा तीर्थ सेवन के लिए आने वाले लोगों को निश्चित रूप से मिलते थे। स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन मनन, तप साधन के त्रिविध उपक्रम पूरे करते हुए जो लोग तीर्थ सेवन की साधना सम्पन्न करते थे, वे तपे सोने की तरह प्रखर होकर लौटते थे। भावी जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन, निर्धारण आमतौर से धर्म प्रेमी इसी सुयोग में सम्पन्न करते थे। इस प्रकार तीर्थ सेवन के लिए मिला हुआ सौभाग्य हर किसी की मनःस्थिति बदलता था। मनःस्थिति बदलने पर परिस्थिति बदलने के लक्ष्य से तो सभी अवगत हैं। यही कारण था कि तीर्थ सेवन को मनुष्य जीवन का उच्चस्तरीय सौभाग्य माना जाता था। उसके लिए सभी लालायित रहते थे। जिन्हें सुविधा थी वे बार-बार वहाँ पहुँचते और लम्बे समय तक निवास करते थे।

तीर्थों में संस्कार कराने का विशेष पुण्य माना गया है। बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ आदि संस्कारों हेतु लोग तीर्थों में जाते थे। विवाह यदि तीर्थ में हो तो उसके सफल रहने पर विश्वास किया जाता था। अन्यथा विवाह के उपरान्त प्रजनन से पूर्व ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करने तो सभी युग्म तीर्थों में पहुँचते थे। जन्मदिन, विवाह दिन जैसे हर्षोत्सव मानने के लिए तीर्थों में पहुँचना हर दृष्टि से सुखद समझा जाता था। मृतकों के अस्थि विसर्जन और श्राद्ध तर्पण के लिए तीर्थ स्थान की दौड़ लगाई जाती थी। इस बहाने से बार-बार वहाँ पहुँचने और हर बार नया प्रकाश, नया अनुदान लेकर वापिस लौटने का लाभ हस्तगत होता रहता था।

तीर्थ निर्धारण में तीसरा प्रयोजन था-वानप्रस्थ परिव्राजक, लोक नायक धर्म पुरोहितों का सृजन, शिक्षण। इनके लिए साधन और शिक्षा की उभय पक्षीय व्यवस्था उनमें रहती थी। जिन्हें भावना क्षेत्र की सत्प्रवृत्तियों को अनुप्राणित करने का पुण्य फल विदित था, वे इसके लिए किसी समर्थ तीर्थ में पहुँचते और अपना व्यक्तित्व नये साँचे में ढालते थे।

आद्य शंकराचार्य के चारों धाम इसी प्रयोजन में प्राण पण से निरत रहे। बुद्ध ने राष्ट्र को जागृत जीवन्त रखने वाले प्रव्रज्या पुरोहितों को ढालने के लिए नालन्दा विश्व विद्यालय को समर्थ बनाया। विदेशों की भाषा तथा स्थिति समझकर तदनुरूप योग्यता, क्षमता सम्पन्न करने के निमित्त तक्षशिला विश्वविद्यालय बनाया था। वैसे छोटे रूप में इस प्रकार की व्यवस्था सभी तीर्थों, विहारों, संघारामों में उन दिनों रहा करती थी। यह परिव्राजक पुरोहित ही थे जिनकी भागीरथी साधना ने इस देश को जगद्गुरु, चक्रवर्ती, स्वर्ण सुमेरु, देव निवास आदि नामों से प्रख्यात किया और उसका गौरव बढ़ाया। उन्हें ढालने के आवश्यक साधन, प्रबन्ध और वातावरण से भरे पूरे तीर्थ ही एकमात्र केन्द्र थे। उन्हें नर रत्नों की खदान के रूप में जाना जाता था।

धर्मतन्त्र की समर्थता राजतन्त्र के समतुल्य है। राजतन्त्र, सुरक्षा व्यवस्था एवं सम्पदा सम्बन्धी भौतिक प्रगति का क्षेत्र सँभालता है। धर्मतन्त्र को चिन्तन और व्यवहार में उत्कृष्टता बनाये रखने, बढ़ाने की जिम्मेदारी सँभालनी पड़ती है। शासन से लोग डरते हैं किन्तु धर्म पर भावभरी श्रद्धा उँड़ेलते हैं। व्यक्ति और समाज का स्तर सही बनाये रखने में शासन से कम नहीं, वरन् कुछ अधिक ही भूमिका धर्म की रहती है। यह तन्त्र सब प्रकार प्रखर, समर्थ एवं व्यवस्थित रहे इसका सूत्र संचालन पुरातन काल में प्रायः तीर्थों से ही होता था। अस्तु उनकी गरिमा उपयोगिता ही किसी के अन्तःकरण को प्रभावित करती थी। विचारशील लोग तीर्थ परम्परा को अधिकाधिक पवित्र एवं प्रखर बनाये रखने के लिए अपना सहयोग, अनुदान प्रस्तुत करने में पीछे नहीं रहते थे, वरन् कुछ अधिक कर सकने में सौभाग्य अनुभव करते थे।

मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण में जिस देव संस्कृति ने कभी धर्मतन्त्र को राजतन्त्र से भी अधिक सशक्त एवं वरिष्ठ रखा, उसे आज हम गँवा और लुटा चुके हैं। इन दिनों उसके ध्वंसावशेष ही गई गुजरी स्थिति में दृष्टिगोचर होते हैं। अवाबीलों, उलूकों और चमगादड़ों के घोंसलों से उस क्षेत्र में दुर्गन्ध भर उड़ती दीखती है। द्रुतगामी वाहनों पर लोग धक्के खाते, धक्के मारते, भगदड़ मचाते भर दीखते हैं। प्रतिमाओं की झाँकी करते जलाशयों में डुबकी मारते और जहाँ-तहाँ जेब कटाते हुए फिरने वाली भीड़ के अतिरिक्त ऐसा कही कुछ दीखता नहीं, जिसे व्यक्तित्वों के परिष्कार और समाज के उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण कहा जा सके। फलतः लौटने वाले खीज़, निराशा, थकान और अश्रद्धा ही साथ लेकर वापिस लौटते हैं। यह दुर्गति अतीव कष्ट कारक है। कोसने की अपेक्षा इसे बदलना ही अभीष्ट है। बदलने का सही उपाय एक ही है कि अवांछनीयता से तुलना कर सकने के लिए दूसरा सही पक्ष प्रस्तुत किया जाय। ताकि जन साधारण की विवेक बुद्धि दो में से एक को चुन सके और जो उचित है उसके परिपोषण का नया आधार विकसित कर सके।

इस सन्दर्भ में शान्तिकुञ्ज हरिद्वार का गायत्री तीर्थ के रूप में अभिनव विकास दृष्टव्य है। एक बार उसकी गतिविधियों का गंभीरता पूर्वक पर्यवेक्षण करने पर यह पता चलता है कि पुरातन काल की तीर्थ परम्परा कितनी उपयोगी रही होगी।

तीर्थ परम्परा के साथ जुड़ी हुई तीनों की धाराओं का पुनर्निर्माण करने के लिए सामर्थ्य भर प्रयास किया गया है। साधनों के अभाव में अनेक कमियाँ रहने पर भी यह समझा जा सकता है कि चिर पुरातन को नित नवीन के साथ मिलाने के लिए ईमानदारी के साथ प्रयास किया गया है।

गायत्री परिवार के हजारों परिजन ग्रीष्म और शरद ऋतु में साइकिल टोलियाँ बनाकर पन्द्रह दिन के प्रवास चक्रों में निकलते हैं। पीले वस्त्र, पीले झोले, पीले झण्डे की साज सज्जा बताती है कि यह धर्म प्रचारकों की मंडलियाँ हैं। झोलों में प्रज्ञापुराण की कथा पोथी, कीर्तन, युग गायन के लिए ढपली, दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने के लिए उपकरणों से झोले भरे रहते हैं। जहाँ भी दीवार खाली देखें आदर्श वाक्य लिखना, जहाँ भी जन समुदाय इकट्ठा देखें वही मिल जुलकर ढपली पर युग संगीत अलापना, युग चेतना बिखेरना, राहगीरों से प्रगति प्रेरणा का वार्तालाप करना दिन भर की कार्य पद्धति रहती है। रात्रि को जहाँ विराम हो वहाँ प्रज्ञा आयोजन खड़ा करना स्वयं ही गलियों में आयोजन के स्थान, उपदेश तथा समय का एलान करना ऐसे प्रयास है, जिससे बिना पूर्व सूचना के भी तत्काल गाँव भर के लोग इकट्ठे हो जाते हैं। प्रज्ञा पुराण की कथा और साथ में युग कीर्तन से दो घण्टे का सत्संग इतना शानदार और प्रेरणाप्रद होता है कि लोग उसे चिरकाल तक स्मरण करते और सराहते रहते हैं। प्रायः पन्द्रह दिन का यह प्रवास चक्र होता है। उतने भर में उस क्षेत्र में अभिनव जागृति उत्पन्न होती है, प्रज्ञापीठों के साथ उस परिधि की जनता का भावभरा सम्पर्क साधन हो जाता है और आदान-प्रदान चल पड़ता है।

ऐसा भी होता है कि शान्तिकुञ्ज को लक्ष्य बनाकर सामूहिक टोलियाँ एक मार्ग से हरिद्वार पहुँचे और दूसरे से वापिस लौटें। इस प्रवास में भी कार्यक्रम वही रहता है। इनका प्रभाव देखते हुए यह पता चलता है कि यदि इस प्रक्रिया को और भी सुनियोजित ढंग से चलाया जा सके, तो परिणाम कितने दूरगामी हो सकते हैं।

गायत्री तीर्थ में देश के सभी प्रमुख तीर्थों के फोटो देवालय बनाये गये हैं। उत्तराखण्ड हिमालय की एक विशाल कक्ष में भव्य झाँकी है। इन सभी में रुद्राभिषेक भी चलता रहता है। इस कक्ष को देखकर पुरातन काल की तीर्थ परम्परा और उसके साथ जुड़ी हुई प्रक्रिया का स्वरूप समझने और श्रद्धावनत होकर उस निर्माण के प्रति गद्-गद् होने का अवसर मिलता है।

गंगा की गोद, हिमालय की छाया, प्राणवान मार्गदर्शन के सुयोग में गायत्री तीर्थ का वातावरण साधना के लिए हर दृष्टि से अत्यधिक अनुकूल है। नित्य २४ लक्ष गायत्री जप, नौ कुण्डीय यज्ञशाला में दो घण्टे अनवरत गायत्री यज्ञ, अखण्ड अग्नि ,, अखण्ड घृत दीप जैसे उपचारों से यह क्षेत्र आध्यात्म ऊर्जा से दिन-दिन अधिक प्राणवान होता चला जा रहा है।

आत्मशोधन और आत्म परिष्कार के कल्प साधना सत्र एक-एक महीने के चलते हैं। जिन्हें अवकाश का अभाव हो उनके लिए दस दिवसीय संक्षिप्त साधना सत्रों की भी व्यवस्था है। सभी उबले अन्न शाक का आहार लेते हैं। प्रातःकाल प्रज्ञा पेय मिलती है। साथ ही हर साधक की शारीरिक, मानसिक स्थिति का वैज्ञानिक पर्यवेक्षण मूर्धन्य डाक्टरों द्वारा किये जाने पर यह निर्धारण होता है कि किसे क्या साधना करनी चाहिए और क्या दिव्यौषधि कल्प दिया जाना चाहिए। तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, शतावरी, अश्वगंधा, आँवला आदि का निर्धारित मात्रा में सेवन कराया जाता है इससे चिकित्सा उपचार की आवश्यकता पूरी होती है।

साधना काल में तृतीय नेत्र उन्मीलन के लिए आज्ञा चक्र साधना, नाद योग के सहारे दिव्य ध्वनियों का श्रवण, आत्म बोध का लय योग अभ्यास सभी साधक करते हैं। गायत्री पुरश्चरण और तदनुरूप अग्निहोत्र हर कल्प साधक के लिए अनिवार्य है। सूर्य वेधन प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, प्राणाकर्षण प्राणायाम में से एक। खेचरी मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, शक्तिचालनी मुद्रा में से एक, उड्डयान बंध, जालंधर बंध, मूलबन्ध में से एक। यह भी दस दिन एक महीने वाले साधकों से उनकी स्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कराये जाते हैं।

डेढ़ घंटे का सत्संग, एक घंटे का स्वाध्याय भी दिनचर्या का अंग है। किये हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित, प्रस्तुत समस्याओं का समाधान एवं भावी जीवन क्रम का निर्धारण क्या किस प्रकार हो, इसका परामर्श साधक तीर्थ संचालकों से करते रहते हैं।

यह तीर्थ सेवन के साधना सत्रों की प्रक्रिया हुई। साथ ही ऐसा प्रबंध भी किया गया है कि युग शिल्पी की सेवा साधना में संलग्न होने वाले प्रज्ञा पुत्र, भाषण कला, काम चलाऊ सुगम संगीत, जड़ी बूटी चिकित्सा एवं धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण के अन्यान्य पौरोहित्य कृत्य इसी अवधि में सिखा दिये जाते हैं। काया कल्प साधना और युग शिल्पी सत्र एक-एक महीने के अलग-अलग हैं। पर जिनको उत्सुकता होती है उन्हें दोनों को एक साथ भी करा दिया जाता है।

साधना सत्रों के अतिरिक्त कुछ लोग बच्चों के षोडश संस्कार कराने, जन्मदिन एवं विवाह दिन मनाने के लिए भी आते रहते हैं। बिना खर्च के विवाह संस्कार भी होने लगे हैं। दिवंगत आत्माओं के श्राद्ध तर्पण की व्यवस्था भी की गई है। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज को ऐसे गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है, जिसे इस महान परम्परा के साथ जुड़े हुए कितने ही उद्देश्य नई परिस्थितियों में नये ढंग से सरलता पूर्वक सम्पन्न होते रहें।

यह एक अभिनव प्रयोग है, जिसका अनुकरण अगले दिनों चल पड़ने की आशा है। या तो पुरातन तीर्थ अपने को सुधारेंगे अथवा उनका स्थान लेने के लिए अन्य निर्माण वैसे ही खड़े होंगे जैसे कि शान्तिकुञ्ज ने अपना विकास विस्तार गायत्री तीर्थ के रूप में किया है। इस पुनर्जीवन को देव संस्कृति के अभ्युदय और मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य की संभावना के रूप में सर्वत्र सराहा जायेगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


103. प्रज्ञा अभियान का अदृश्य सूत्र संचालन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रज्ञा अभियान की निर्धारणाओं और सफलताओं का लेखा जोखा लेने वालों को कार्य-कारण की संगति बिठाने में सफलता नहीं मिल सकती। मानवी प्रयत्नों की एक सीमा है। उसे पार करते हुए अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर सकना नियन्ता की विधि व्यवस्था के सहारे ही संभव हो सकता है। वर्षा काल जैसी सजलता, हरीतिका, सर्दी जैसी ठिठुरन, वसन्त जैसी मुस्कान, गर्मी जैसी तपन कोई मनुष्य उत्पन्न नहीं कर सकता, भले ही वह कितना ही समर्थ क्यों न हो। आँधी जितना व्यापक बुहारी लगाती है उतना कर सकना किसी के बस की बात नहीं। हवा पीछे की चलती है तो वाहनों से लेकर यात्रियों तक की गति बढ़ा देती या सरलता अनुभव होती है। ऐसी अनुकूलताएँ पूर्णतया सृष्टा की इच्छा व्यवस्था पर निर्भर रहती हैं। तूफान के साथ उड़ने को सहमत होने वाले तिनके, पत्ते तथा धूलि कण आकाश चूमते और अपंग होते हुए भी द्रुतगामी दौड़ लगाते हैं इसे कौन नहीं जानता।

इतिहास में ऐसे घटनाक्रमों का उल्लेख है जिनकी संगति कायिक और बौद्धिक क्षमता के साथ नहीं बैठती। हनुमान का पर्वत उखाड़ना, समुद्र लाँघना और लंका उजाड़ना उनकी निजी सामर्थ्य से सम्भव हो सकता था यह किस प्रकार माना जाय? यदि वे इतने ही समर्थ थे तो अपने स्वामी सुग्रीव को बालि के त्रास से क्यों न छुड़ा सके? अर्जुन यदि सचमुच ही महाबली थे तो द्रौपदी का भरी सभा में अपमान क्यों होने देते? अज्ञातवास के दिनों जिस-जिस की नौकरी करके छिपते छिपाते दिन क्यों गुजारते रहे? इन शंकाओं का कोई बुद्धि संगत समाधान मिलता नहीं।

टिटहरी द्वारा समुद्र पाटने का प्रयत्न अगस्त ऋषि की सहायता से सम्भव होना व्यवहार बुद्धि की पहुँच से बाहर है। एक परशुराम धरती पर फैले हुए अवांछनीय तत्वों का इक्कीस बार सफाया करें, और कोई उनके मार्ग में आड़े न आये इसका क्या तुक? ग्वाल बालों की सहायता से गोवर्धन उठाना और रीछ वानरों के कौशल से समुद्र का पुल बाँधना भी कुछ ऐसा ही बेतुका है।

यदि पौराणिक गाथाओं की उपेक्षा की जाय, तो भी ऐतिहासिक घटनाक्रम ठीक इसी स्तर के आश्चर्य की अगणित साक्षियाँ प्रस्तुत कर सकने में समर्थ है। बुद्ध की निजी क्षमता और उनके धर्मचक्र प्रवर्तन की व्यापक सफलता का तारतम्य मिलाया जाय, तो वणिक बुद्धि का कोई गणित फार्मूला काम देता नहीं दीखता। गाँधीजी का सफल स्वतन्त्रता संग्राम किस प्रकार घोर निराशा और प्रतिकूलता को परास्त कर सका, इसकी कार्य कारण संगति किसी कम्प्यूटर के सहारे बैठती नहीं है। समर्थ रामदास, गुरु गोविन्दसिंह, विवेकानन्द, दयानन्द, विनोबा आदि की सफलताओं को उनका निजी पुरुषार्थ भर माना जाय तो विवेचना न्यायसंगत नहीं होगी। उनके पीछे अदृश्य की अनुकूलता का समर्थ अनुदान भी काम करता पाया जाएगा, अन्यथा इनसे भी बड़ी योजनाएँ समर्थ साधनों के सहारे बनाने वालों में से असंख्यों को असफलताएँ देखकर यही सोचना पड़ता है कि उनका निजी पराक्रम उस लकड़ी की नाव जैसा सिद्ध हुआ, जो तूफान में फँसकर, चट्टान से टकरा कर अपना अस्तित्व गँवा बैठी और मल्लाह के डाँड सतह पर तैरते भर रह गये।

प्रज्ञा अभियान के आरम्भ से लेकर अब तक के इतिहास से जिनका निकटवर्ती सम्बन्ध रहा है, उनकी सामान्य बुद्धि आश्चर्य चकित हुए बिना नहीं रह सकती। आज उसकी स्थिति और प्रगति इस स्तर की है कि संसार के महान परिवर्तन प्रस्तुत करने वाले अविस्मरणीय आन्दोलनों में उसकी गणना हो सके। स्थानीय और थोड़ी सी समस्याओं को लेकर ही अब तक राजनैतिक, सामाजिक आन्दोलन होते और सृजन संघर्ष के उपक्रम भी चलते रहे हैं, पर ऐसा किसी भी मंच से कदम उठाना तो दूर, सोचा तक नहीं गया कि ५०० करोड़ मनुष्यों के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के लिए कारगर प्रयास कब और किस प्रकार किया जाय? प्रज्ञा अभियान ही है जिसने इस सन्दर्भ में गम्भीरता पूर्वक सोचा, कदम उठाया और वह कर दिखाया, जिस पर सहज बुद्धि को सहज विश्वास ही नहीं हो सकता।

प्रज्ञा अभियान की युग निर्माण योजना सामान्य योग्यता के व्यक्ति द्वारा साधनों का सर्वथा अभाव रहने और मानवी सहयोग की दृष्टि से मात्र उपहास ही हाथ लगने जैसी परिस्थितियों में ही चलाई गई है। उसे अवरोधों, प्रतिकूलताओं ने पग-पग पर चुनौती दी है। इतने पर भी यह प्रयास गगनचुम्बी स्तर तक पहुँचा। इसका रहस्य ढूँढ़ना हो तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि अदृश्य सत्ता की इच्छा, प्रेरणा और व्यवस्था ही इस रूप में प्रकट हो रही है, जिसे युग परिवर्तन का दृश्यमान सरंजाम कहा जा सके।

एक व्यक्ति सोचता है कि धर्मतन्त्र की शक्ति राजतन्त्र से अधिक है। भौतिक क्षेत्र की व्यवस्था और प्रगति का उत्तरदायित्व राजतन्त्र के कन्धों पर आता है, जबकि चिन्तन, चरित्र, व्यवहार और प्रचलन को सही रखने की जिम्मेदारी उठा सकने में मात्र धर्मतन्त्र ही समर्थ है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की निर्मात्री है। मनःस्थिति को पवित्र और प्रखर बनाये रहने में धर्मतन्त्र की भूमिका ही कारगर हो सकती है। इसलिए दुर्दशाग्रस्त धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित किया जाय। इसके लिए देश भर के प्रगतिशील धर्म प्रेमियों को संगठित किया जाय और उनकी संयुक्त शक्ति को लोकमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन में यथा तथ्य रूप में लगाया जाय। यह चिन्तन तो एकाकी भी हो सकता था। पर इसका कार्यान्वित होना ऐसा ही असंभव समझा गया जैसा विश्वामित्र की युग परिवर्तन चेष्टा और परशुराम की विचार परिवर्तन प्रक्रिया को तत्कालीन लोगों ने उपहासास्पद बताया था। उन दिनों योजनायें रंग लाई। धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का विचार भी कार्यरूप में परिणत हुआ और आज संसार चकित है कि किस प्रकार यह सृजन सरंजाम साधन रहित परिस्थितियों में भी जुटाकर सफलता की ओर तूफानी गति से आगे बढ़ा।

सन् ५८ का सहस्रकुण्डीय गायत्री महायज्ञ जिनने मथुरा में देखा है, वे उसे दैवी चमत्कार कहते हैं। नगण्य से निमन्त्रण पर देश भर के प्रगतिशील धर्मप्रेमियों का चार लाख की संख्या में एकत्रित होना सभी का धर्म चेतना के जीर्णोद्धार के निमित्त कटिबद्ध होना, हाथों-हाथ युग निर्माण योजना का स्वरूप बनना और देखते-देखते उसका कार्यान्वित होकर देश के कोने-कोने में युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरित करना सचमुच ही ऐसा चमत्कार है, जिसे जादुई कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। मत्स्यावतार की कथा में एक नन्हीं सी मछली ने देखते-देखते समुद्र को ढक लेने जितना आकार बढ़ाया था। ऐसा किसी मानवी प्रयत्न से नहीं हो सकता। परिस्थितियों के साथ प्रगति का गणित हतप्रभ होकर किसी कोने में जा बैठता हैं।

इन दिनों प्रज्ञा परिवार के प्रायः चौबीस लाख परिजन हैं। सभी एक तरह सोचते और एक दिशा में छोटे-बड़े कदम उठाते हैं। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का आवेश सभी पर छाया है। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की उमंगें पग-पग पर कार्यान्वित होती हुई देखी जा सकती हैं। एक घंटा समय और दस पैसा नित्य के अंशदान के बूँद-बूँद से गागर भरती है और श्रमशक्ति, भाव शक्ति एवं साधन शक्ति के अभाव में कोई काम रुकता नहीं। इतना बड़ा आन्दोलन जिसमें पूरे समय के प्रायः एक लाख व्यक्तियों जितना श्रम समय नियमित रूप से लगता हो, अनुपम है। इसे बुद्ध और गाँधी के महान आन्दोलनों के साथ जोड़ा जा सकता है। वे बड़े थे उनके बड़े सहयोगी थे। पर यहाँ तो रीछ-वानर ही समुद्र का पुल बाँधते और ग्वाल बाल ही गोवर्धन उठाते दीखते हैं।

धर्मतन्त्र पर लगे प्रतिगामिता के लांछन को हटाने और उसकी प्रचंड प्रगतिशीलता सिद्ध करने के लिए आवश्यक समझा गया कि आर्ष ग्रन्थों को जन-जन तक पहुँचाया और धर्मधारणा का स्वरूप अवगत कराया जाय। देखते-देखते चारों वेद, १०८ उपनिषद्, छहों दर्शन, २० गीताएँ, २४ स्मृतियाँ, आरण्यक, ब्राह्मण एवं १८ पुराण अनुवादित प्रकाशित और प्रचारित होने लगे। जो कार्य अनेकों ऋषियों ने सहस्रों वर्षों में सम्पन्न किया था, लगभग उतना ही श्रम एक व्यक्ति के प्रयास से इतनी स्वल्प अवधि और बिना पूँजी की व्यवस्था के किस प्रकार सम्पन्न हो गया। मानवी क्षमता की सीमा को समझने वालों के लिए यह रहस्य अभी भी अनबूझ पहेली बना हुआ है।

पुराण लिखने में व्यासजी बोलते और गणेशजी लिखते थे। दो के प्रयास से वह कार्य सम्पन्न हुआ था। यहाँ तो एक ही व्यक्ति सब कुछ करता दीखता है। विचार क्रान्ति प्रयोजन के लिए विभिन्न भाषाओं वाली सात पत्रिकाएँ ३ लाख के लगभग छपती हैं। और मात्र पाठकों के निश्चित अनुबन्ध के अन्तर्गत १५ लाख द्वारा पढ़ी जाती हैं। इतनी बड़ी संख्या में अपने देश की पत्रिकाओं में कदाचित ही किसी के पाठक हों। करोड़ों की पूँजी वाले पत्र व्यवसायियों को पीछे छोड़कर आठ सौ रुपये की लागत से आरम्भ हुआ हैण्ड प्रेस इतनी बड़ी भूमिका किस प्रकार निभा सका, इसकी कार्य कारक संगति कैसे बैठें।

शान्तिकुञ्ज हरिद्वार और गायत्री तपोभूमि मथुरा की इमारतें जिनने देखी हैं, जो देश के कोने-कोने में विनिर्मित २४०० गायत्री शक्तिपीठें देखकर आये हैं, वे जानते हैं कि इनके निर्माण में १०० करोड़ से कम खर्च नहीं हुआ है। तीर्थ और देवालय तो पुरातन काल में भी बने थे और वे सभी राजाओं और सेठों ने बनाये हैं। जन स्तर पर इतने बड़े निर्माण चन्द दिनों में संकेत मात्र से बनकर खड़े हो गये हो, ऐसा उदाहरण अनादि काल से लेकर अद्यावधि कोई कहीं भी नहीं मिलेगा। अपने क्षेत्रों में वे सभी प्रज्ञा संस्थान जैनरेटरों की, ट्यूबवैलों की, नर्सरियों की, प्रकाश स्तम्भों की भूमिका निभा रहे हैं। सभी के साथ समयदानी, कार्यकर्ताओं की उत्साहवर्धक संख्या कार्यरत है। सभी का निर्वाह चल रहा है। सभी अपनी-अपनी सीमा परिधि में नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में आशातीत ढंग से सफल हो रहे हैं।

ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान द्वारा नवयुग की महती माँग पूरा करने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाया गया है। श्रद्धा पर आधारित पुरातन अध्यात्म तत्त्वदर्शन की नई पीढ़ी की मनःस्थिति को देखते हुए तर्कज्ञान, तर्क और तथ्यों द्वारा प्रकाशित करने का प्रयास अभूतपूर्व है। अदृश्य जगत, परोक्ष विद्या, अतीन्द्रिय क्षमता का प्रत्यक्ष प्रतिपादन बन पड़ने से नास्तिकता को आस्तिकता में बदलने वाले जनमानस को नई दिशा देने वाले दूरगामी परिणाम होंगे। इस कल्पना, निर्धारण और व्यवस्था के सम्बन्ध में विज्ञजन कहते हैं कि प्रचलित भौतिकवाद पर अध्यात्मवाद को प्रतिष्ठित करने वाला यह युगान्तरीय प्रयास है। भले ही वह महान आविष्कारों की तरह इन दिनों किसी छोटे कलेवर में ही विकसित क्यों न हो रहा हो।

सामूहिक साधनाओं के माध्यम से विषाक्त वायुमण्डल वातावरण को बदलने के लिए प्रज्ञा पुरश्चरण की प्रक्रिया इन दिनों चल रही है। उसमें २४ लाख व्यक्ति भागीदार हैं और प्रतिदिन २४ करोड़ गायत्री जप सम्पन्न करते हैं। हरीतिमा संवर्धन का जन आन्दोलन भी साथ-साथ चल रहा है। सामूहिक धर्मानुष्ठानों के इतिहास में इसे अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है।

एक लाख युगशिल्पी अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में शिक्षा विस्तार, प्रौढ़ पाठशाला, चल पुस्तकालय, महिला जागरण, स्वास्थ्य संवर्धन, व्यायामशाला, स्वच्छता अभियान, सामूहिक श्रमदान, हरीतिमा संवर्धन जैसे रचनात्मक कार्यों में प्राणपण से संलग्न हैं। नशा निवारण, दहेज उन्मूलन, पर्दा प्रथा जैसी महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों को व्यापक बनाने में जन-जन का भावभरा सहयोग अर्जित करने में सफल हो रहे हैं। प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जितनी प्रगति हो रही है, उसे देखते हुए मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का संकल्प अब दिवा स्वप्न नहीं रह गया। उसकी पूर्ति पर सहज विश्वास व्यक्त किया जाने लगा है।

उपरोक्त तथ्य वे हैं जो सर्वसाधारण को भली-भाँति विदित हैं। विगत सत्प्रयासों का प्रतिफल थाली में परोसा और चखा जा रहा है। हाँडी में जो पक रहा है और अगले ही दिनों दृश्यमान होकर पिछली उपलब्धियों से अनेक गुने बढ़े-चढ़े चमत्कार प्रस्तुत करने जा रहा है, उनका अनुमान वे लोग लगाते हैं जो सूत्र संचालकों के निकट सम्पर्क में हैं।

चर्म चक्षुओं से अदृश्य जगत का तूफानी प्रवाह दृष्टिगोचर नहीं होता। वे इसका निमित्त कारण किन्हीं शरीरधारी व्यक्तियों को देखते हैं। गुरुजी माताजी की ओर इशारा करते और उनकी तप साधना को श्रेय देते हैं। अनेकों को जो व्यक्तिगत लाभ मिले हैं और वातावरण बदलने वाले जो प्रयास चले हैं, उनके पीछे इसी युग्म की भावभरी चर्चा करते हैं। पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। यह सदा समझा जाता रहा है कि कठपुतली के खेल में लकड़ी के खिलौने उचकते मटकते भर हैं, उनके पीछे किसी बाजीगर की सधी हुई अदृश्य उँगलियाँ काम कर रही हैं। नियन्ता की युग परिवर्तन आकांक्षा ही योजना का एकमात्र कारण है। श्रेय किसे कितना मिला यह उसकी और अग्रगमन की साहसिकता पर निर्भर है। गुरुदेव अपने स्थान बदलते रहते हैं ताकि लोगों को अनुभव हो सके कि उनके बिना भी कहीं कुछ रुकता नहीं, वरण अपने क्रम से बढ़ता ही चला जाता है। जो सोचते हैं कि गुरुजी के रहने पर प्रज्ञा अभियान लड़खड़ाने लगेगा उन्हें अपनी आशंका का इस आधार पर समाधान करना चाहिए कि यह किसी व्यक्ति विशेष के पराक्रम, निर्धारण, कौशल का परिणाम नहीं है। जो हुआ है वह नियन्ता के निर्धारण के अनुसार हुआ है। अगले दिनों उससे भी अनेक गुने समर्थ एवं व्यापक कदम उठेंगे। ५०० करोड़ मनुष्यों का भाग्य भविष्य बदलने के लिए उससे कहीं अधिक होना है, जो किया जा चुका या किया जा रहा है। इसका सरंजाम कौन जुटायेगा? इसका समाधान एक ही आधार पर होता है कि तूफान अपना रास्ता आप बनाता है। उसका साथ तिनके-पत्ते तक देते हैं। मार्ग में अड़ने वाले विशालकाय वृक्ष उखड़ते और रेतीले टीले हवा में उड़ते और सत्ता समाप्त करते हैं। शीत, ग्रीष्म और वर्षा का बदलता मौसम जब परिस्थितियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन करता है, तो कोई कारण नहीं कि अदृश्य जगत में चल रहा नियन्ता का प्रेरणा प्रवाह उसके लिये उपयुक्त आधार खड़ा न कर सके। प्रज्ञा अभियान की अद्यावधि सफलताओं को इसी दृष्टि से देखा और भावी सम्भावनाओं का अनुमान इसी आधार पर लगाया जाना चाहिये।

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-गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


104. शान्तिकुञ्ज के कल्प साधना सत्र
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनःस्थिति ही भली-बुरी परिस्थितियों के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होती है। जो जैसा सोचता है, वह वैसा बनता है। जो जैसा है उसे ठीक वैसे ही सहयोगी और अवसर मिलने लगते हैं। इसलिए जिन्हें प्रतिकूलताओं को परिवर्तित करना हो, उन्हें वह कार्य अपने दृष्टिकोण, रुझान, स्वभाव, कार्यक्रम बदलने से आरम्भ करना चाहिए। मुरझाये पेड़ को हरा-भरा बनाने के लिए उसकी जड़ सींचनी चाहिए। अन्तराल में व्यक्तित्व की जड़ है, उसे सँभाला, सुधारा जा सके तो समझना चाहिए कि समस्याओं और विपत्तियों का चिरस्थायी समाधान हस्तगत हो गया।

शान्तिकुञ्ज में चलने वाले कल्प साधना सत्रों की कार्य पद्धति, तप-साधना एवं विधि व्यवस्था ऐसी है, जिसमें एक महीने तक कसे रहने के उपरान्त व्यक्ति के दृष्टिकोण, स्वभाव में आशातीत परिवर्तन होता है। काया कल्प प्रायः बुढ़ापे का जवानी में बदल जाने को कहते हैं। प्रकृति क्रम विपरीत होने के कारण वय चक्र उलटा तो नहीं जा सकता किन्तु उच्चस्तरीय आत्मिक दबाव पड़ने पर मनुष्य की मनःस्थिति में उत्कृष्टता के पक्षधर परिवर्तन हो सकते हैं। मनःस्थिति बदलने पर परिस्थिति बदल जाने की बात सर्व विदित है।

अभ्यस्त अवांछनीय ढर्रा बदला जाना सरल सुगम नहीं है। विचार बदले जा सकते हैं पर स्वभाव दृष्टिकोण में आदर्शवादी उफान लाने के लिए अधिक तापमान और प्रभावी वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। उसे जुटाने का इन एक मास के कल्प साधना सत्रों में दूरदर्शी प्रयास किया गया है। अनुभव ने, प्रयोग परीक्षणों ने इसे अनेक कसौटियों पर सही सिद्ध किया है।

शान्तिकुञ्ज का स्थान चयन पुरातन काल के दिव्य वातावरण की वरिष्ठता का ध्यान रखते हुए किया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपोभूमि होने के अतिरिक्त विगत ११ वर्षों से यहाँ अखण्ड अग्नि, अखण्ड दीप, नित्य चौबीस लाख गायत्री जप, नित्य चौबीस हजार आहुतियों का अग्निहोत्र इस भूमि पर होता है। प्रायः एक हजार ब्रह्म कर्म परायण, वानप्रस्थ परिव्राजक प्रज्ञापुत्रों का ब्रह्मभोज होता है। ध्यान धारणा, योग, तप की शिक्षा साधना जारी रहती है। फलतः वातावरण पर ऐसा आवेश छाया रहता है, जिसके कारण साधक यहाँ एक महीना रहकर भी उतना लाभ उठा लेते हैं जितना कि घर के अनगढ़ वातावरण में एक वर्ष में भी संभव नहीं।

कल्प साधकों में से प्रत्येक के अन्तरंग, बहिरंग का पर्यवेक्षण होता है और तदनुरूप हर किसी को उसकी स्थिति के अनुरूप साधनायें बताने, कराने की विधि निर्धारित होती है। शरीर की जाँच पड़ताल पैथालॉजी क्रम से मानसिक धरातल की मनो विश्लेषण के आधार पर होती है। इसके लिए बहुमूल्य यन्त्र उपकरणों से मूर्धन्य शरीर शास्त्रियों के तत्वावधान में आवश्यक निरीक्षण परीक्षण का प्रबन्ध किया गया है। अन्तराल की गहरी जाँच पड़ताल आश्रम के सूत्र संचालक स्वयं करते हैं। भूतकाल की वे घटनायें सुनते हैं जिनसे उत्पन्न हुई कुण्ठाओं ने कुसंस्कारी जीवन यापन करने और अनेक विपत्तियों, विपन्नताओं से घिर जाने के लिए बाधित किया है। उनका परिशोधन प्रायश्चित विधि से ही संभव है। इसे बताने, कराने का उत्तरदायित्व कल्प व्यवस्था के सूत्र संचालक स्वयं सम्भालते हैं।

शरीर शोधन के लिए आहार कल्प और बूटी कल्प की विधि अपनाई जाती है। आहार कल्प में उबले अन्न अमृताशन का विधान है। दाल, चावल, दलिया जैसे आहार को अमृताशन कहते हैं। शान्तिकुञ्ज में इसे भाव यन्त्रों से निर्धारित पात्रों में, गंगाजल मिश्रित करके पकाया और अभिमन्त्रित करके साधकों को दिया जाता है। देखा गया है कि इस औषधि आहार से कितनों की रुग्ण दुर्बल शारीरिक स्थिति में चमत्कारी सुधार परिवर्तन होता है। यह दस बजे और चार बजे दो बार उपलब्ध होता है।

जड़ी बूटी कल्प के दो विधान हैं। एक प्रातः ५ बजे प्रज्ञा पेय औषधियों से बनी अधिक गुणकारी और अधिक स्वादिष्ट चाय। दूसरा हर व्यक्ति की उसकी शारीरिक मानसिक स्थिति के अनुसार एक विशेष बूटी का निर्धारण किया जाता है। उसका कल्क बनाकर एक छोटी कटोरी में प्रज्ञा पेय के अतिरिक्त दिया जाता है। दोनों को मिलाने पर एक अच्छा खासा चिकित्सा उपचार बन जाता है। यह स्थूल शरीर के काय संशोधन का विधान है।

सूक्ष्म शरीर के शोधन के लिए इस अवधि में गायत्री के तीन लघु अनुष्ठान करने होते हैं। सविता के ध्यान धारणा का अभ्यास इसी के साथ जुड़ा रहता है। स्वाध्याय का आधा घण्टा तथा सत्संग के डेढ़ घण्टे की नियमित विधि व्यवस्था मनःसंस्थान में आवश्यक सुधार परिष्कार उत्पन्न करने के लिए है।

कारण शरीर अन्तःकरण की साधनायें तीन योगों और तीन मुद्रा बन्धों के रूप में हर किसी को सम्पन्न करनी होती हैं। १. आज्ञाचक्र की दिव्य दृष्टि जगाने वाला त्राटक साधन-बिन्दु योग, २. दिव्य श्रवण की अतीन्द्रिय क्षमता उभारने वाला नादयोग, ३. दर्पण के माध्यम से आत्मबोध का अभ्यास-लय योग। ये तीन योग साधन ऐसे हैं जो अनिवार्य रूप से हर कल्प साधक को ब्रह्ममुहूर्त में करने होते हैं।

कारण शरीर के परिशोधन में तीन प्राणायाम, तीन बन्ध और तीन मुद्राओं का भी तीन योगों की तरह समन्वय है। जिन तीन प्राणायामों को प्रमुखता दी गई है वे हैं-१. प्राणाकर्षण प्राणायाम, २. नाड़ी शोधन प्राणायाम, ३. सूर्य बेधन प्राणायाम इसी प्रकार तीन बन्ध हैं-१. उड्डयान बन्ध, २. जालंधर बन्ध, ३. मूल बन्ध। तीन मुद्रायें हैं-१. खेचरी मुद्रा, २. शाम्भवी मुद्रा, ३. शक्तिचालनी मुद्रा। ये नौ साधनायें नौ सिद्धियों की निमित्त कारण मानी गई हैं। कल्प साधना की अवधि में हर साधक को इनमें से एक प्राणायाम, एक बन्ध और एक ही मुद्रा बताई कराई जाती है। किसे क्या करना है इसका निर्धारण उसके स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर का बहुमुखी परीक्षण पर्यवेक्षण आरम्भिक तीन दिनों में ही करने के उपरान्त निर्धारित कर दिया जाता है और फिर वही उपक्रम पूरे एक माह चलता रहता है।

प्रातः ३ः३० बजे उठना, नित्य कर्म से निवृत्त होकर ५ बजे प्रज्ञा पेय बूटी कल्क लेना। तदुपरान्त जप ध्यान आदि की साधनाओं में लग जाना, साथ ही अग्निहोत्र में भी सम्मिलित होना। साढ़े आठ से दस तक प्रज्ञा प्रवचन सत्संग। दस बजे भोजन। बारह तक विश्राम। यह है साधना का पूर्वार्द्ध जिसे विशुद्ध तपश्चर्या एवं योग साधना कहा जा सकता है।

मध्यान्ह १२ बजे के उपरान्त रात्रि को सोते समय का समय बीच-बीच में थोड़े-थोड़े अवकाश के उपरान्त लोक सेवा साधना के प्रशिक्षण में लगता है। कुछ दिन पहले युग शिल्पी सत्र पृथक थे। अब उनकी उपयोगिता आवश्यकता देखते हुए कल्प साधना सत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्मिलित कर दिया गया है।

वैसे साधना और योग का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक को प्राण दूसरे को शरीर कहना चाहिए। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की समग्रता बनती ही नहीं। प्राचीनकाल की साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक परम्परा की तरह आत्म साधना और लोक मंगल की साधना को अविच्छिन्न रखा गया है। इस निर्धारण की उपेक्षा करके इन दिनों लोग पूजा पाठ को ही सब कुछ मान बैठे हैं। फलतः कर्मयोग के अभाव में भक्ति योग पक्षाघात पीड़ित की तरह अपंग बना रहता है। प्रतिपादित प्रतिफल ऐसे लोगों के हाथ कभी लगता ही नहीं। कल्प साधना में दोनों का समग्र समन्वय किया गया है।

लोक सेवा में मानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की प्रमुखता है। चेतना क्षेत्र का परिष्कार ही व्यक्ति को सुखी, समुन्नत, समृद्ध, सफल एवं सुसंस्कृत बनाता है। इसलिए समय की आवश्यकता देखते हुए इन दिनों तो इसी पक्ष पर विशेष रूप से जोर दिया गया है। प्रज्ञा अभियान को इन दिनों आपत्तिकालीन युग धर्म की तरह प्रत्येक जाग्रत आत्मा के लिए आवश्यक अपरिहार्य माना गया है। कल्प साधकों को प्रज्ञापुत्र युग शिल्पी की भूमिका भी न्यूनाधिक मात्रा में निभानी ही होगी। इसलिए उस प्रयोजन के लिए नितान्त आवश्यक प्रसंगों में से प्रायः प्रत्येक को इसी सत्र अवधि में सिखाने, अभ्यास कराने की विधि अपनाई गई है।

युग शिल्पी प्रशिक्षण के प्रमुख पाठ्यक्रम यह हैं-१. लोक सेवा के उपयुक्त अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार का ऐसा निर्धारण जिससे व्यक्तित्व निखरे, दूसरों में श्रद्धा उपजे और प्रभाव पड़े। २. धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण-वह विद्या जिसका आश्रय लेकर जन साधारण के चिन्तन और चरित्र में आदर्शवादिता का उच्च स्तरीय समन्वय सम्भव हो सके। धर्मतन्त्र दुर्गति से उबारकर उसे राजतन्त्र के समतुल्य ही सशक्त बनाने के लिए भागीरथी प्रयत्नों का स्वरूप और कार्यक्रम और प्रयास। ३. भाव उमंगों के सहारे जन मानस को लहराने वाले सुगम संगीत का अभ्यास। ढपली, मंजीरा, घुँघरू, खड़ताल, चिमटा इकतारा जैसे एकाकी बजाये जा सकने वाले वाद्य यन्त्रों की स्ट्रीट सिंगर स्तर का काम चलाऊ अभ्यास। ४. भाषण और संभाषण की कुशलता। स्लाइड प्रोजेक्टर द्वारा चित्र प्रदर्शनी, प्रज्ञा पुराण गीता गायत्री की टिप्पणियाँ साथ-साथ और जोड़ते चलने से यह अभ्यास अति सरलता पूर्वक सम्पन्न होता है। विचारों की अभिव्यक्ति के लिए प्रखर शैली का अभ्यास। ५. इन दिनों जिन्हें महान और व्यापक बनाया जाना है, उनमें प्रज्ञा पुरश्चरण को व्यापक बनाने की पद्धति को प्रमुखता दी जा रही है। तुलसी आरोपण से वायुमंडल और सामूहिक अनुभव से वातावरण शोधन की इस प्रक्रिया को कैसे आगे बढ़ाया जाय और सफल बनाया जाय इसकी रूपरेखा। ६. स्वाध्याय मंडलों का गठन बिना इमारत के, किन्तु हर दृष्टि से सशक्त प्रज्ञा संस्थानों के रूप में किया जा रहा है। इस प्रक्रिया के बीजारोपण से लेकर कल्प वृक्ष, बोधि वृक्ष के रूप में विकसित करने की, उतार चढ़ावों से जूझने की विधि व्यवस्था। ७. सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों में से कुछ को तत्काल हाथ में लिया जाना है जैसे-अ. शिक्षा सम्वर्धन-स्कूली छात्रों को बिना मूल्य ट्यूशन पढ़ाने और उनमें सुसंस्कारिता आरोपण के लिए बाल संस्कार पाठशालाओं का व्यापक प्रावधान, नर नारियों को प्रौढ़ शिक्षा। ब. व्यायामशाला, खेलकूद, फर्स्टएड, स्वास्थ्य संवर्धन की अभीष्ट जानकारी। स. हरीतिमा सम्वर्धन वृक्षारोपण, जड़ी बूटी उत्पादन, घरेलू शाक वाटिकाएँ। तुलसी आरोपण तथा उसकी वनस्पति मन्दिरों के रूप में परिणति। इस आधार पर हर घर में आस्तिकता का वातावरण। द. दहेज और धूमधाम के विवाहों के विरुद्ध प्रचण्ड असहयोग आन्दोलन, खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं, यह तथ्य हृदयंगम कराने का सशक्त प्रयास। यह चार कार्य तत्काल हल के लिए हैं।

कल्प साधना सत्रों में मध्यान्होपरान्त इन सात प्रसंगों में व्यस्त शिक्षण और अभ्यास कराया जाता रहेगा। इस प्रक्रिया में आरम्भ में मनोरंजन, परिभ्रमण आदि की गुंजायश नहीं रहती। इसलिए इन उद्देश्यों के लिए साथ चल पड़ने वाले बच्चों, बूढ़ों को साथ लेकर चलने की सख्त मनाही है। इन जंजाल को जो भी गले बाँधकर चलेंगे वे निर्धारित साधना क्रम का लाभ एवं आनन्द पूरी तरह गँवा देंगे।

उपरोक्त प्रशिक्षण एक बजे से प्रारम्भ हो जाता है। चार बजे नित्य कर्म, भोजन तथा गंगातट पर टहलने जाने के लिए, गंगाजल भरकर लाने की छूट मिलती है। रात्रि को सात से नौ बजे तक फिर कक्षाएँ चलती हैं। संगीत, प्रवचन, प्रज्ञा पुराण आदि का निर्धारण रहता है। रात्रि नौ से साढ़े तीन तक ६ः३० घण्टे और मध्यान्ह १ः३० घण्टा इस प्रकार कुल मिलाकर आठ घण्टे के विश्राम में ही काम चलाना पड़ता है। आलसी, प्रमादी, चटोरे, मनमौजी लोग इस व्यस्तता से घबराकर भागने न लगें, इसलिए उनमें से जो अधकचरे होते है, उन्हें एक महीने की अपेक्षा दस दिनों में ही संक्षिप्त कल्प प्रशिक्षण प्राप्त करके विदा हो जाने का परामर्श दिया जाता है।

कल्प साधना सत्र की सामान्य अवधि एक महीना है। फिर भी कुछ लोग व्यस्तता के कारण इतना समय ठहरने की स्थिति में नहीं होते। इनके लिए दस दिन के संक्षिप्त कल्प साधना प्रशिक्षण में सम्मिलित रहने की व्यवस्था की गई है। इस थोड़ी अवधि में पूर्ण अभ्यास तो नहीं हो सकता, पर आवश्यक जानकारी सभी प्रसंगों की हो जाती है। उपलब्ध मार्गदर्शन, प्रशिक्षण का अभ्यास ऐसे लोग अपने घरों पर कर सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा की नीति अपनाकर अति व्यस्त लोगों को निराश न रखने की दृष्टि से इन दस दिवसीय संक्षिप्त कल्प साधना सत्रों का भी अतिरिक्त प्रबन्ध किया गया है और वह साथ-साथ चलता रहता है।

एक महीने के सत्र हर महीने में पहली तारीख से २९ तक चलते हैं। दस दिवसीय सत्र भी १ से १०, ११ से २०, २१ से ३० के चलते हैं। सत्र आरम्भ होने से एक दिन पूर्व शान्तिकुञ्ज पहुँचने के लिए कहा गया है। इन सत्रों में साधना के उपयुक्त शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ लोग ही सम्मिलित किये जाते हैं। इसी बहाने इलाज कराने के लिए अड्डा जमाने की चतुरता करने वालों को तत्काल वापिस लौटा दिया जाता है। स्मरण रहे शान्तिकुञ्ज अस्पताल नहीं, विशुद्ध तपश्चर्या, योग साधना और व्यस्त प्रशिक्षण के निमित्त बनाया गया संस्थान है। उसमें दुर्बलों, रुग्णों और अर्ध विक्षिप्तों की ठूँस-ठाँस करने से सारा आधार ही गड़बड़ा जाता है। अस्तु बच्चों-बूढ़ों को समेट लाने की तरह इलाज कराने आने वालों को भी न आने की बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए।

सत्रों में स्थान सुरक्षित कराने के उपरान्त ही आया जाता है। चाहे जब आ धमकने और सम्मिलित होने का आग्रह करने की भी मनाही है। १. अपना नाम पता, २. महीने या दस दिन के सत्र का स्पष्टीकरण तथा कब से कब तक का समय, ३. आयु, ४. शिक्षा, ५. व्यवसाय, ६. जन्म-जाति, ७. प्रज्ञा साहित्य के परिचित होने का विवरण, ८. शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य सही होने का आश्वासन, ९. कठोर अनुशासन की अवज्ञा न करने का वचन लिख भेजना। यह सभी विवरण हाथ से लिखकर भेजने को ही आवेदन पत्र मान लिया जाता है। मार्ग व्यय तथा भोजन की व्यवस्था बनाकर ही चलना चाहिए। सभी लोग धोती कुर्ता पहनते हैं। पाजामा नहीं चलता। महीने वाले सत्रों के साधकों के कुर्ता धोती पीले रंग के दिये जाते हैं।

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-गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


105. वातावरण का परिशोधन प्रज्ञा पुरश्चरण से
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जिस प्रकार मनुष्य में शरीर और प्राण के दो तत्त्व हैं, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ का दृश्यमान स्वरूप और अदृश्य गुण होते हैं। जड़ के भीतर चेतन भी काम करता है। पदार्थ दीखता है उसका प्राण अदृश्य रहता है। स्थूल जगत के भीतर भी सूक्ष्म अदृश्य जगत है जो प्रायः आकाश में भरा रहता है। यह दृश्य की तुलना में अदृश्य असंख्य गुना शक्तिशाली होता है।

वायुमण्डल की शुद्धता, अशुद्धता का प्रभाव प्राणियों के शरीरों, वनस्पतियों और मौसमों पर पड़ता है। वातावरण चेतनात्मक होता है। उससे चेतन प्राणियों के चिन्तन और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है। गुण, कर्म, स्वभाव को यों मनुष्य अपने प्रयत्नों से परिवार एवं सम्पर्क प्रभाव से बनाता बिगाड़ता है। पर इस तथ्य को भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उसमें अदृश्य वातावरण की भी अति महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

ठण्डक, गर्मी और वर्षा ऋतुओं के अदृश्य प्रभाव से प्राणियों की शारीरिक हलचलों, गतिविधियों में भारी परिवर्तन होता है। वसन्त में न केवल शरीर में वरन् मन में भी उमंग उठती हैं। परिस्थितियाँ तो ऋतु प्रभाव से बहुत कुछ प्रभावित होती हैं। इसे स्थूल प्रकृति का अदृश्य अनुदान कह सकते हैं। यही है वायु मण्डलीय प्रभाव क्षेत्र।

वातावरण चेतनात्मक है। उसका प्राण प्रवाह के स्तर से सम्बन्ध है। सतयुग में ऐसा अदृश्य प्राण प्रवाह चलता था, जिससे व्यक्तियों की भावना, मान्यता और आकांक्षा प्रभावित होती थी। गुण-कर्म में उत्कृष्टता भरी रहती थी। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का परिपूर्ण समावेश रहता था। यों इस दिशा में मानवी प्रयत्न भी चलते थे, पर उन्हें सफल बनाने में अदृश्य वातावरण की भूमिका, अनुकूलता का भी भारी योगदान रहता था। हवा पीछे की है तो स्वभावतः यात्रियों और वाहनों की गति बढ़ती और सरल रहती है। यह बात परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी है। मनःस्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ इतने बड़े करवट लेती हैं कि उसे भाग्यविधि, ईश्वर इच्छा जैसे नाम देने पड़ते हैं, इसलिए अदृश्य जगत से सम्बन्धित वायुमण्डल की तरह ही उसका दूसरा पक्ष वातावरण भी ऐसा महत्त्वपूर्ण नहीं होता।

इन दिनों अदृश्य जगत के दोनों ही पक्ष अपने-अपने ढंग की विषाक्तता से भरते जा रहे हैं। धुँआ, कोलाहल, विकिरण की अवांछनीय अभिवृद्धि से शरीरों, हाथों, पदार्थों के लिए अनेकानेक प्रकार के भँवर खड़े हो रहे हैं और खण्ड प्रलय जैसी विभीषिका सामने खड़ी है। भय और आतंक से संसार भर में असुरक्षा, अनिश्चितता की आशंका संव्याप्त है। दूसरा वातावरण पक्ष और भी बुरी स्थिति में है। लोकमानस में संकीर्ण स्वार्थपरता, विलासिता, निष्ठुरता, प्रवंचना, उच्छृंखलता जैसे आसुरी तत्त्व अनायास ही भरते जा रहे हैं। कुछ समय पूर्व लोग परिस्थितिवश अपराध करते थे, अब परिस्थिति नहीं मनःस्थिति कारण बन गई है। सम्पन्नों में डकैती, बेईमानी, भरे पूरे गृहस्थों में व्यभिचारी प्रवृत्ति देखकर आश्चर्य होता है। धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों के नेता, प्रवक्ता उससे सर्वथा प्रतिकूल आचरण करते देखे जाते हैं जैसा कि वे जनसाधारण को उपदेश करते हैं। विद्वानों में, बुद्धिवादियों के निजी जीवन में अनपढ़, अशिक्षितों जैसे तो नहीं पर दूसरी तरह के इतने अन्धविश्वास और दुर्व्यसन पाये जाते हैं कि कई बार तो उनके विद्वान होने तक में सन्देह उठता है। व्यक्तित्व की दृष्टि से पिछड़े कहे जाने वाले लोगों की अपेक्षा प्रगतिशीलों में पाई जाने वाली निकृष्टता अधिक भारी, कष्टकारक और विनाशकारी होती है।

ऐसा क्यों होता है? इसका प्रत्यक्ष कारण तो शिक्षा, व्यवस्था, परम्परा, शासन, साहित्य, कला आदि में घुसी अनुपयुक्तता को भी कहा जा सकता है और उसके लिए राजनेताओं, मनीषियों को दोष दिया जा सकता है। गम्भीर पर्यवेक्षण करने पर यह खोट प्रचलन प्रवाह तक सीमित नहीं रहता, उसकी जड़ अदृश्य वातावरण में विषाक्तता उत्पन्न होती है और विषाक्त वातावरण से लोकमानस में असुरता निकृष्टता बढ़ती भरती चली जाती है। यह एक कुचक्र है जो एक बार चल पड़ने पर टूटने का नाम नहीं लेता। अन्तरिक्ष में ग्रह-उपग्रह जब एक बार एक कक्षा पर घूमने लगें तो फिर वे समयानुसार मरने पर ही विराम लेते हैं। मुर्गी से अण्डा-अण्डे से मुर्गी। बीज से वृक्ष-वृक्ष से बीज। नर से नारी-नारी से नर। समुद्र से वर्षा-वर्षा से समुद्र की तरह एक गति चक्र है जो अपनी धुरी पर घूमने लगता है। अदृश्य वातावरण से लोकमानस और लोकमानस से अदृश्य वातावरण का भी अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।

इस कुचक्र को तोड़ने के लिए परमात्मा की तरह आत्मा को भी अपना उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। सृजन सन्तुलन लड़खड़ाने पर सृजेता अवतार लेते और अनियन्त्रित स्थिति को नियन्त्रण में लेने के लिए प्राणवान प्रवाह उत्पन्न करते हैं। यह अवतार प्रकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया का परिचय हुआ। इस सुधार प्रयोजन का दूसरा पथ मनुष्य कृत है, जिसे जागृत आत्माएँ ऐसी विषम बेला में आपत्ति धर्म की तरह अपनाती और सृष्टा के प्रयोजन में हाथ बँटाती हैं, उन्हें अध्यात्म उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। विशालकाय सामूहिक धर्मानुष्ठान प्रायः इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं।

इस सन्दर्भ में इतिहास की कुछ घटनाएँ दृष्टव्य हैं। लंका विजय में असुर तो मरे पर अदृश्य वातावरण में विषाक्तता भरी रहने से लक्ष्य का सामयिक समाधान हुआ, अदृश्य का संशोधन भी होना चाहिए। इसके लिए भगवान राम ने दस अश्वमेधों का नियोजन किया। उस उपक्रम की साक्षी काशी का दशाश्वमेध घाट अब भी देता है। कुरुक्षेत्र में महाभारत संग्राम के उपरान्त कंस, दुर्योधन, जरासन्ध से तो पीछा छूटा पर अदृश्य में विषाक्तता भरे रहने से स्थायी समाधान नहीं दीख पड़ा। इसके लिए अध्यात्म उपचार का आश्रय लिया गया और विशाल रूप में राजसूय यज्ञ की भी ऐसी ही अध्यात्म परक योजना बनाई गई जैसी कि महाभारत की मारकाट के निमित्त बनी थी। इस प्रसंग में जो कमी रही थी उसकी पूर्ति परीक्षित पुत्र जन्मेजय ने नाग यज्ञ के रूप में सम्पन्न की थी।

सामूहिक धर्मानुष्ठानों से अदृश्य वातावरण की संशुद्धि के और भी अगणित प्रमाण उदाहरण इतिहास-पुराणों में भरे पड़े हैं। अनेक ऋषियों के रक्त संचय से घड़ा भरा गया था। उससे सीता जन्मी और तमिस्रा की स्थिति बदली। देवता असुरों से जब भी हारे तब अपनी विशृंखलता की समस्या लेकर संयुक्त रूप से प्रजापति के पास गये। एक स्वर में बोले। ऐसी ही पुकार सुनी भी जाती है। प्रजापति ने उन्हीं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति एकत्रित करके दुर्गा को सृजा और उसने देखते-देखते संकट को निरस्त कर दिया। इन कथाओं में प्रकारान्तर से इस सिद्धांत का प्रतिपादन है कि देव मानवों को संयुक्त रूप से अध्यात्म पुरुषार्थ करके, अदृश्य वातावरण की प्रतिकूलता का शमन करके, समाधान करके अनुकूलता उत्पन्न करनी चाहिए।

इन दिनों वायुमण्डल की विषाक्तता का परिशोधन करने के लिए सर्व साधारण से बन पड़ने वाले, अध्यात्म क्षेत्र में सम्पन्न हो सकने वाले दो उपाय आत्मदर्शियों ने सुझाये हैं। एक हरीतिमा संवर्धन के लिए तुलसी का आरोपण। उसमें दुहरा लाभ है। वातावरण संशोधन के अतिरिक्त उस आधार पर हर घर में आस्तिकता का वातावरण बनता है। वनस्पति भगवती की देव प्रतिष्ठा हर आँगन में होने और पूजा-अर्चा का भाव परिष्कार सन्तुलन रहने से उसका न केवल वायुमण्डल पर, वरन् वातावरण पर भी उत्साहवर्धक प्रभाव पड़ता है। दूसरा उपाय अग्निहोत्र सुझाया गया है। उसमें भी वायुमण्डल के अतिरिक्त वातावरण के परिशोधन की दुहरी क्षमता है। अग्निहोत्र खर्चीली और कर्मकाण्ड प्रक्रिया होने से सर्वसाधारण द्वारा अपनाये जाने में कठिनाई प्रतीत होती है। इसलिए स्थिति को देखते हुए उसका नवीनीकरण कर दिया गया है।

अध्यात्म उपचारों में यज्ञ मूर्धन्य है। उसके दो पक्ष हैं। एक मन्त्रोच्चार दूसरा हव्य पदार्थों का यजन। दोनों के मिलने से ही समग्र अग्निहोत्र बनता है। प्रज्ञा अभियान द्वारा इसी वर्ष से आरम्भ किये गये प्रज्ञा पुरश्चरण में इन दोनों ही पक्षों का समान समावेश है। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे इस युग अनुष्ठान को सम्पन्न करने में उत्साहपूर्वक भाग लें और अपने क्षेत्र से उसमें भागीदार बनाने के लिए नये लोगों को ढूँढ़ें। उन्हें अवगत और सहमत करने की प्रक्रिया चलायें ताकि वस्तुस्थिति के समझने के उपरान्त नये भागीदार मिलने में कोई अवरोध न रहे।

प्रज्ञा पुरश्चरण का स्वरूप एवं कार्यक्रम इस प्रकार हैः-

(१) सूर्योदय के समय जो, जहाँ, जैसी भी स्थिति में है, अपना सामान्य काम-काज रोककर आँखें बन्द करके, हाथ जोड़कर पाँच मिनट गायत्री का मानसिक जप करें। सविता, सूर्य का ध्यान करें। समय पूरा होने पर उस उपचार की परिणति को अदृश्य आकाश में वातावरण शोधन के लिए उछाल देने का मानसिक संकल्प करें।

(२) महीने में एक बार एक स्थान पर सभी प्रज्ञा पुरश्चरणरत भागीदार एकत्रित हो और प्रज्ञा यज्ञ का आयोजन सम्पन्न करें। यह गाँव या मुहल्ले का हो सकता है। एक दिन पूर्णिमा का अथवा महीने का अन्तिम अवकाश दिन को रखा जा सकता है।

प्रज्ञा यज्ञ का स्वरूप यह है-पाँच घृत दीपक प्रज्ज्वलित किये जाय। पाँच-पाँच अगरबत्तियों के पाँच गुच्छक जलाये जायें। उन्हें एक चौकी पर गायत्री चित्र के साथ प्रतिष्ठित किया जाय। उपस्थित लोगों के मस्तक पर चन्दन लगाकर उन्हें याज्ञिक बनाया जाय। यह सभी मिल-जुलकर चौबीस बार गायत्री मन्त्रोच्चार करें। यह कृत्य प्रायः पन्द्रह मिनट में सम्पन्न हो जाता है।

इसके उपरान्त ज्ञान यज्ञ आरम्भ होता है। पन्द्रह मिनट युग संगीत। एक घण्टा प्रज्ञा प्रवचन। प्रज्ञा प्रवचन में मात्र इस वर्ष की प्रज्ञा अभियान पत्रिका के कुछ लेख एक घण्टे तक सुनाये जाये। इस अवधि में प्रायः १२-१५ पृष्ठ सुनाये जा सकते हैं। इसका चयन स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार कर लिया जाय। पूर्ण अभ्यास करके अपने लोगों में से कोई या कई उन्हें इस प्रकार सुनाये, जिसमें भावनात्मक अभिव्यक्ति भी जुड़ी रहे और उपस्थित लोग अभीष्ट प्रेरणा ग्रहण कर सकें। सवा घण्टे का यह ज्ञान यज्ञ पन्द्रह मिनट के अग्निहोत्र के साथ जुड़कर पूरे डेढ़ घण्टे का हो जाता है। यह मासिक अग्निहोत्र दैनिक पाँच मिनट की जप-साधना की समन्वित प्रक्रिया कही जा सकती है। दोनों के मिलने से ही प्रज्ञा पुरश्चरण की क्रम व्यवस्था समान बनती है।

प्रज्ञा परिजनों की संख्या २४ लाख है। पाँच मिनट में १०० गायत्री मन्त्र जपे जा सकते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन २४ करोड़ जप हो जाता है। पूर्ण लक्ष्य १२५ करोड़ जप प्रतिदिन का है। हर विचारशील परिजन को प्रज्ञा पुरश्चरण में भागीदार बनायें तो यह लक्ष्य देखते-देखते पूरा हो सकता है।

इन दिनों स्वाध्याय मण्डल ही प्रमुख संगठन इकाइयाँ बने हुए हैं। उन्हें जहाँ प्रज्ञा अभियान को अपने छोटे कार्य क्षेत्र में कार्यान्वित करने का काम सौंपा गया है वहाँ उन्हें ही अपने-अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रज्ञा पुरश्चरण का लेखा-जोखा रखने और प्रक्रिया को पाँच गुनी अधिक बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। वे शान्तिकुञ्ज हर महीने यह सूचना भेजते रहेंगे कि कितने सदस्यों द्वारा कितना पुरश्चरण सम्पन्न हो रहा है। यदि कुछ लोग कारणवश छोड़ बैठें तो उनकी पूर्ति अन्यान्यों से करनी चाहिये अन्यथा संकल्प संख्या पूरी न होने की अनिश्चितता उत्पन्न होगी। उस गड़बड़ी का संतुलन सही करते रहने की जिम्मेदारी केन्द्र की भी है और संस्थानों की भी। इस शुभारम्भ का सुसंचालन भी ठीक प्रकार चलना चाहिए।

सामूहिकता में असाधारण शक्ति है। निर्जीव वस्तुएँ एक और एक दो ही होती है, किन्तु प्राणवानों की एकात्मकता से एक और एक मिलकर ग्यारह बनने जैसा नया सिद्धान्त खड़ा होता है। प्रस्तुत पुरश्चरण में सवा करोड़ व्यक्तियों की श्रद्धा-भावना का समन्वय बहुत बड़ा तथ्य है। हर व्यक्ति का सौ जप होने से भी एक समय, एक उद्देश्य, एक विधान तथा एक लक्ष्य का समन्वय होने से चमत्कारी परिणति उत्पन्न होने की बात सुनिश्चित है। जप संख्या तो हर व्यक्ति से कई-कई घण्टे जप कराने से कम मनुष्यों द्वारा भी पूरी हो सकती है। पर अधिक लोगों का अधिक श्रद्धा और सर्वथा निस्वार्थ भाव से अवैतनिक रूप से किया गया जप साधन कहीं अधिक उत्कृष्ट एवं प्रभावी सिद्ध हो सकेगा।

तिनके मिलकर रस्सा, धागे मिलकर कपड़ा, ईंटें मिलकर इमारत, बूँदें मिलकर समुद्र, सीकें मिलाने से बुहारी बनने की समन्वित शक्ति से जो परिचित है, उन्हें इतना और जानना चाहिए कि एक मार्ग पर लय-ताल के साथ चलने वाले सैनिकों की पगध्वनि से लोहे के पुल धराशायी हो सकते है। ठीक इसी प्रकार प्रस्तुत प्रज्ञा पुरश्चरण के साथ जुड़ी हुई एकात्म प्रक्रिया वातावरण के परिशोधन-परिष्कार में वैसी ही अद्भुत परिणति उत्पन्न कर सकती है जैसी कि दिव्यदर्शियों ने समझी और समझाई है।

यह तथ्य हर किसी को विदित होना चाहिए कि निजी समस्याओं के लिए निजी परिस्थितियों का अनुकूल होना ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् इर्द-गिर्द की परिस्थितियों को सुधारने बदलने की बात भी सोचनी पड़ती है। चारों ओर गन्दगी भरी रहे तो स्वास्थ्य के नियम पालने वाला भी बीमार पड़े बिना न रहेगा। गुण्डों से भरे मुहल्ले में किसी सज्जन को भी शान्ति से रह सकने का सुयोग नहीं मिल सकता है। चारों ओर आग लगे तो अपना घर भी कहाँ बचेगा? इसलिए दूरदर्शिता इसी में है कि न केवल अपना शरीर परिवार सँभाला जाय, वरन् संव्याप्त वातावरण के सम्बन्ध में भी गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय। अस्तु सामूहिक धर्मानुष्ठान की महत्ता इसी सन्दर्भ में अनुभव की जानी चाहिए और उत्साहपूर्वक उसे अपनायी जानी चाहिये।

भाव समन्वय और सामूहिक धर्मानुष्ठान की इस पुनीत प्रक्रिया के सहारे उस महान प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है, जिसके सहारे वायुमण्डल और वातावरण की विषाक्तता हट सके। साथ ही उज्ज्वल भविष्य के, प्रज्ञा युग के अवतरण का सुयोग बन सके।

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-गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


106. वायु प्रदूषण का सरल उपचार तुलसी आरोपण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इन दिनों बढ़ती हुई जनसंख्या एवं यान्त्रिक गतिविधियों से वायु प्रदूषण का अनुपात असाधारण रूप से बढ़ा है। कारखानों तथा द्रुतगामी वाहनों में जो कोयला, तेल जलता है, उसका विषैला धुँआ इस वायुमण्डल में निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह वायु प्राणिमात्र के लिए अन्न, जल से भी अधिक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार जल या पानी के सहारे जीवित रहते हैं, उसी तरह हम सब हवा के समुद्र से प्राण सम्पदा प्राप्त करते हैं। जल विषाक्त होने पर मछलियों का दम घुट जाता है। वायु में घुलता और बढ़ता प्रदूषण पशु पक्षियों समेत मनुष्यों को भी घुटन का अभिशाप सहन करने के लिए विवश करेगा।

वायु प्रदूषण के साथ विषैली साँस से आरोग्य नष्ट होने, रुग्णता का दौर उभरने, महामारियाँ फैलने के अतिरिक्त एक संकट तापमान बढ़ने का भी है। संतुलित तापमान से मौसम का नियन्त्रित क्रम यथावत बना रहता है, किन्तु यदि गर्मी की मात्रा बढ़े तो उसकी भयानक प्रतिक्रिया मौसम गड़बड़ाने के रूप से प्रकट होती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ते हैं। जमी बर्फ पिघलती है और समुद्र की सतह ऊँची उठने लगती है। फलतः अग्नियुग, हिमयुग जैसे प्रकृति प्रकोप उभरते हैं, जिनके कारण भूमि परिभ्रमण प्रक्रिया लड़खड़ाती है। भूकम्प आते हैं और थल की जगह जल और जल की जगह थल आ धमकने जैसे व्यतिक्रम खड़े होते हैं। भूतकाल में जब भी ऐसे प्रकृति विपर्यय उभरे हैं प्रलय जैसी स्थित बनी है। इन दिनों बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण उन भूतकालीन विभीषिकाओं का नया दौर आने की आशंका है।

युद्धोन्माद में प्रयुक्त होने वाली बारूद विषाक्त सामान्य धुएँ की तुलना में हजारों गुनी अधिक भयंकर होती हैं, फिर पिछले दिनों अणु विस्फोटों का नया सिलसिला चला है। जापान में फेंके गये दो छोटे-छोटे एटम बमों ने उन दिनों तत्काल कितनी हानि पहुँचाई तथा बाद में उस विकिरण से प्रभावित कितने व्यक्ति अपंग, असमर्थ हो गये, विकलांग बच्चे उत्पन्न हुए इसका लेखा-जोखा ध्यानपूर्वक पढ़ने से कलेजा दहलने लगता है। जापान पर गिराये गये बमों की तुलना में हजारों गुना विकिरण उन परीक्षण विस्फोटों के कारण उत्पन्न हुआ है, जो जल, थल और आकाश में अनेक देशों द्वारा निरन्तर किये जाते रहे हैं।

विज्ञजनों ने पर्यवेक्षण करके बताया है कि अब तक हो चुके अणु विस्फोटों के कारण उत्पन्न हुई विकृतियाँ ही ऐसी हैं, जो सैकड़ों वर्षों तक कष्टकारक रहेंगी और पीढ़ियों तक त्रास देंगी। यदि यह सिलसिला आगे भी जारी रहा तो उसका प्रभाव एक प्रकार से महाप्रलय जैसा सर्वनाशी होगा। वायुमण्डल की विकृतियाँ धरती और जल पर उतरती हैं और उनमें भी ऐसे तत्व फैलते हैं जो अन्न, जल को भी साँस की तरह विषाक्त करके जीवन संकट उत्पन्न करे।

बिगाड़ने वाले जब इतनी निर्भीकतापूर्वक विनाश पर उतारू हैं तो देवत्व के पक्षधर लोगों के लिए यह उचित नहीं कि हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें। यदि बिगाड़ने वाले हाथों को रोक सकने की सामर्थ्य न हो तो कम से कम सफाई की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। यह सरलतम और सफलतम उपचार है। इतना तो नगरपालिकाओं के मेहतर तक करते रहते हैं। हम उतना भी कुछ न करें और दूसरों के साथ जुड़े हुए अपने भाग्य भविष्य को, पीढ़ियों के निर्वाह को अन्धकारमय बनाने में रोकथाम न कर सकें। यों होना यह भी चाहिए कि महाविनाश पर उतारू लोगों पर जनमत का दबाव डालें और इस सृष्टि का सर्वनाश करने वाले आततायियों और आतंकवादियों को मनमानी न करने दें। जाग्रत लोकमत दोनों ही काम कर सकता है। रोकथाम तत्काल बन पड़ती न देखें तो भी परिशोधन प्रयोगों को हाथ में लेने का उत्साह तो प्रकट करे ही।

इस संदर्भ में सरलतम उपाय उपचार दो हैं एक अग्निहोत्र प्रक्रिया, दूसरा हरीतिमा संवर्धन। अग्निहोत्र के सम्बन्ध में मतभेद और विवाद भी हो सकते हैं किन्तु हरीतिमा संवर्धन में तो आस्तिक नास्तिक का, धर्म सम्प्रदाय का, विज्ञान बुद्धिवाद का भी विरोध अवरोध नहीं हैं, उसे तो सर्व सम्मत उपचार की तरह सर्वत्र सरलतापूर्वक अपनाया जा सकता है।

वृक्ष, वनस्पतियों का यह गुण सर्वविदित है कि वे वायु में से अनुपयुक्त तत्वों को सोखते और प्राण वायु को निसृत करते रहते हैं। आरोग्य सम्पादन के उपायों में एक यह भी है कि हरे-भरे क्षेत्र उद्यान में रहकर प्राणप्रद वायु सेवन की व्यवस्था बनाई जाय। प्रगतिशील देशों में शोभा और स्वास्थ्य का समन्वित लाभ लेने के लिए घरों के साथ हरीतिमा भी जोड़कर रखी जाती है। कई तो उस बागवानी को घरेलू विनोद मनोरंजन की तरह परिवार के सदस्यों द्वारा ही सम्पन्न करते हैं। माली का उपयोग तो मात्र मार्गदर्शन और सहयोग भर के लिए लेते हैं। यह एक सृजनात्मक पद्धति है। शिशु पालन, पशु पालन की तरह हरीतिमा संवर्धन के माध्यम से भी निर्माण और संवर्धन की सत्प्रवृत्ति उगती, बढ़ती और परिष्कृत होती है। स्वभाव, अभ्यास में इस प्रकार का समावेश होना बड़ी बात है। देखने में यह छोटी बात दिखती हुए भी वस्तुतः बड़ी बात है। मनुष्यों में जो महामानव बने हैं उनमें सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ ही विशेष रूप से विकसित हुई हैं। हरीतिमा संवर्धन के प्रचार का यह अतिमहत्त्वपूर्ण दूरगामी लाभ है। वनस्पतियों के सान्निध्य में प्राणवायु की प्रचुर मात्रा में उपलब्ध-देखने में भले ही सामान्य हो वस्तुतः वह है-असामान्य।

चर्चा इन दिनों वायुमण्डल में बढ़ती विषाक्तता और उस कारण प्राणियों तथा वनस्पतियों के लिए उत्पन्न संकट की हो रही है। उसके लिए हरीतिमा संवर्धन द्वारा रोकथाम करने के उपाय उपचार पर विचार किया जा रहा था। इस सम्बन्ध में मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि वृक्षारोपण एवं वनस्पति सम्वर्धन को उत्साह भरे आन्दोलन का रूप दिया जाय। और उसमें जन-जन को किसी न किसी प्रकार सम्मिलित किया जाय।

जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ ईंधन और इमारती कामों के लिए लकड़ी की आवश्यकता बढ़ रही है। पेड़ कट रहे हैं पर नये लगते नहीं। ऐसी दशा में मौसम का संतुलन बिगड़ता है। अनावृष्टि से दुर्भिक्ष का माहौल बनता है। भूमिक्षरण और रेगिस्तान बढ़ने का संकट खड़ा होता है।

जिनके पास अपनी जमीन है वे उसका एक भाग वृक्ष उगाने, पुष्प खिलाने और शाक उत्पन्न करने के लिए सुरक्षित रखें। मात्र अन्न और नकदी देने वाली फसलें ही पर्याप्त नहीं होगी। जिनके पास अपनी जमीन न हो वे सरकारी या दूसरों की जमीन में मालिकों का स्वामित्व स्वीकार करते हुए उन्हीं के लिए अपने परिश्रम से पेड़ लगायें, सींचे। पूर्वजों की तथा अपनी स्मृति में किये जाने वाले पुण्य परमार्थ में वृक्ष लगाना या पैसा देकर दूसरों से लगवाने का कार्य बहुत ही श्रेष्ठ और सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला है।

घरों में शाक वाटिका लगाने का आन्दोलन इसी अभियान का एक अंग है। वनस्पति से भी छोटे रूप में वृक्षों जैसे लाभ मिलते हैं। जिनके पास भूमि नहीं है वो भी आँगनवाड़ी, छप्पर बाड़ी, छत बाड़ी के रूप में शाक उगा सकते हैं। साथ ही उससे मुफ्त में ताजे शाक मिलने जैसे आर्थिक लाभ उठाते रह सकते हैं। इन दिनों हरे, पौष्टिक आहार के न मिलने से कुपोषण जन्य अनेकानेक रोग बढ़ते जा रहे हैं। इनका निराकरण घी मलाई से, टानिकों से नहीं वरन् शाक, फल, अंकुरित अन्न जैसे जीवित आहार से ही सम्भव हो सकता है। घरेलू शाक वाटिका के माध्यम से गरीब लोग भी यह सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। बड़े परिवारों के लिए छोटे घर में भी हरी चटनी की दैनिक व्यवस्था बनाये रहने के लिए पोदीना, धनिया, अदरक, मिर्च, पालक, अनार आदि लगाने से काम चल सकता है। खिलते हुए पुष्प हँसते हुए बालकों की तरह होते हैं। उनकी छटा तथा महक उदास, निराशों में भी उत्साह उभारती है। सज्जा पूजा में उनका उपयोग असंदिग्ध ही है।

तुलसी आरोपण को हरीतिमा संवर्धन के प्रयासों का मुकुटमणि कहा जा सकता है। तुलसी में वायु प्रदूषण का परिशोधन करने की अद्भुत क्षमता है। उसके सम्पर्क से बहने वाली हवा में आरोग्यवर्धक अनेकों विशेषताएँ भरी रहती हैं। यहाँ तक कि मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू ही नहीं साँप, बिच्छू तक को दूर करती है। औषधियों में तुलसी को अनुपम एवं मूर्धन्य माना गया है। इस अकेली में प्रायः सभी छोटे बड़े रोगों का उपचार करने की क्षमता है। तुलसी, काली मिर्च, गंगाजल के योग से गायत्री मन्त्र जपते हुए छोटी गोलियाँ बनाकर रख लेने और उन्हें अनुपान भेद विभिन्न रोगों में घरेलू चिकित्सा की तरह काम में लाया जा सकता है।

वृक्ष वनस्पतियों के उगाने, पोषने, बढ़ाने की कला को अधिकाधिक विकसित किया जाना चाहिए। इसके द्वारा सम्बद्ध लोगों में सृजनात्मक कुशलता बढ़ती है। कलाकारिता, सौन्दर्य, बुद्धि सुरुचि निखरती है। शिशु पालन जैसा आनन्द आता है। पौधों की मैत्री से हाथों हाथ सुगन्धित सुरभित प्राण वायु के रूप में जीवनी शक्ति का उपहार मिलता हैं। घरों में उगाई शाक भाजी और बाजार से खरीदी हुई में उतना ही अन्तर है, जितना घर के दूध एवं आहार में। बाजार से उन्हें उतनी शुद्ध एवं जीवन्त स्थिति में खरीदा ही नहीं जा सकता। पैसे की बचत, शारीरिक मानसिक व्यायाम, पोषण आहार जैसे सामान्य एवं महत्त्वपूर्ण लाभों की भी एक शृंखला इस प्रक्रिया के साथ जुड़ती है। तुलसी आरोपण में औषधियों के लिए प्रयुक्त होने वाली जड़ी बूटियों को उगाने बढ़ाने का भी एक अभिनव शुभारंभ संकेत हैं।

गाँधीजी ने नमक सत्याग्रह जैसे छोटे से कार्यक्रम को लेकर सत्याग्रह आन्दोलन का श्रीगणेश किया था। कालान्तर में वही चिनगारी बढ़कर दावानल के रूप में विकसित हुई और ‘‘करो या मरो’’ का विप्लव खड़ा करते हुए अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने में समर्थ हुई।

हरीतिमा संवर्धन की योजना उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी कि मनुष्यों के निर्वाह की घरेलू शाक वाटिका। इसे तुलसी आरोपण के शुभारम्भ के रूप में इसलिए चलाया गया है कि उसे सुगम उपचार के रूप में सर्वसाधारण द्वारा अपनाया जा सके। वस्तुतः यह हरीतिमा का महत्त्व समझाने और वृक्ष, वनस्पतियों, अन्न शाकों, जड़ी बूटियों के उत्पादन का ऐसा आन्दोलन है, जिसे अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण माना और उसे जीवनचर्या में प्रमुख स्थान मिलने की स्थिति तक पहुँचाना चाहिए। धरती को हरी-भरी रहना चाहिए। और उस प्रकृति अनुदान का भरपूर लाभ समूची मनुष्य जाति को, प्राणि समुदाय को मिलना चाहिए।

इन दिनों बढ़ते प्रदूषण से बचने के लिए कारगर उपचार के इस संदर्भ में वनस्पति सम्वर्धन का उपचार यदि काम में लाना हो तो इसके लिए तुलसी आरोपण को प्रमुखता देनी होगी। उसके पौधे हर आँगन में लगाये जाने चाहिए और इस आधार पर आस्तिकता, धर्मधारणा के सम्वर्धन का भी दुहरा लाभ उठाया जाना चाहिए। धातु या पत्थर से ही प्रतिमा नहीं बनती, वरन् अक्षय वट, बोधिवृक्ष, देव, अश्वत्थ की तरह पेड़ों और पौधों को भी भगवान की प्रतिमा मानकर उनको श्रद्धा सम्वर्धन का निमित्त कारण बनाया जा सकता है।

तुलसी का बिरवा आँगन में एक सुसज्जित थाँवले के रूप में लगाया जाय और उसे खुले आकाश में सूर्य भगवान की, खुले पवन की, वरुण की, बादल की छत्रछाया में पलने वाला देवता माना जाय। वनस्पति मन्दिर सच्चे अर्थों में एक पुनीत देवता हैं। धातु या पाषाण की प्रतिमा की तुलना में तुलसी का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं है। इस स्थापना का अर्थ है, घर में भगवान के मन्दिर का निर्माण कर लेना। इसमें कोई पूजा भी नहीं करनी पड़ती है। मात्र श्रमदान से ही सारा काम चल जाता है। थाँवले को जल्दी जल्दी पोतते रँगते रहा जाय तो उसका सुहावना रूप श्रद्धा सम्वर्धन की भूमिका भी सम्पन्न करता रहेगा।

प्रातः सायं जब भी अवकाश हो सूर्यार्घ्य, अगरबत्ती, मानसिक गायत्री जप, सविता का ध्यान, नमन वन्दन, परिक्रमा जैसे उपचार से इस वनस्पति मन्दिर की पूजा आरती सरलतापूर्वक की जा सकती है। घर का कोई भी सदस्य इसे करता रह सकता है। इस पूजा उपचार में घर के सभी श्रद्धालु लोग किसी न किसी रूप में भागीदार बन सकते हैं। नमन वन्दन तो निकलते बरतते भी हो सकता है। इस आधार पर घर परिवार में आस्तिकता, धार्मिकता का वातावरण बनता है। इस छोटी व्यवस्था में घर परिवार में पनपने वाली श्रद्धा अन्ततः दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करती है।

इन दिनों वायु प्रदूषण की तरह ही चेतनात्मक वातावरण भी कम विषाक्त नहीं हो रहा है। वातावरण के परिशोधन में जिस धर्म श्रद्धा का पुनर्जीवन आवश्यक है। उसकी पूर्ति तुलसी देवालय के माध्यम बन पड़ती है। इस प्रकार तुलसी आरोपण में न केवल वायु मण्डल के संशोधन की, वरन् आस्था संकट से घिरे हुए वातावरण में श्रद्धा संवर्धन की आवश्यकता भी बहुत हद तक पूरी होती है। एक प्रकार से दुहरा लाभ प्रदान करने वाले हरीतिमा संवर्धन अभियान का शुभारम्भ तुलसी आरोपण के साथ करने की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए बीज इकट्ठे करने, पौध उगाने, लगाने का प्रचार करने के लिए हम सभी को प्रयत्न करना चाहिए। उत्साह उभारा जाय और तत्काल सहायता देने के लिए प्रयत्न किया जा सके, तो प्रज्ञा परिवार संकट की इस महती आवश्यकता को पूरी करने में भली प्रकार सफल हो सकता है।

तुलसी को प्रतीक मानकर हरीतिमा संवर्धन के कार्य का श्रीगणेश एक व्यापक और विस्तृत प्रक्रिया है। वनस्पति हमारे लिए जीवन प्राण है वह धरती से आहार, बादलों से जल, आकाश से प्राण वायु खींचकर जीवन सम्पदा के रूप में प्रदान करती है। इसलिए उसे पशुपालन, गोपालन की तरह ही महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। तुलसी के साथ दिव्य औषधि की विशेषताएँ तथा अध्यात्म परायण श्रद्धा भावनायें भी जुड़ती हैं और इसके लाभ तीन से बढ़कर पाँच हो जाते हैं। श्रद्धा आरोपण के लिए देव प्रतिमाओं की पूजा परम्परा प्रचलित है। प्रतिमाओं को धातु पाषाण की अपेक्षा वनस्पति के तुलसी के रूप में पूजा जाना उपयोगिता के साथ भी जुड़ता है। उसमें कृतज्ञता की एक नई भाव गरिमा का समावेश होने से लाभ का अनुपात दुहरा बनता है।

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-गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


107. सभी प्रज्ञा संस्थान वार्षिक प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

गायत्री सत्रों के साथ युग निर्माण सम्मेलनों के कार्यक्रम अपने मिशन द्वारा भी सम्पन्न किये जाते रहे हैं। इन्हें लोक शिक्षण की सत्संग प्रक्रिया के अन्तर्गत ही गिना जा सकता है। छोटे रूप में जन्म दिवसोत्सव, घरेलू संस्कार उपक्रम, ग्राम मुहल्ले के पर्व आयोजन इसी सत्संग प्रयोजन की पूर्ति करते है। साप्ताहिक ज्ञान गोष्ठियों, नव रात्रियों के नौ दिवसीय साधना सत्रों को भी इसी हेतु इतना महत्त्व दिया गया है। सामूहिक लोक शिक्षण के लिए उत्साह उत्पादन इन सभी का विशिष्ट प्रयोजन है।

इस वर्ष से सभी छोटे-बड़े शक्तिपीठों और प्रज्ञा संस्थानों के लिए यह उत्तरदायित्व अनिवार्य कर दिया गया है, कि वे वर्ष में एक बार अपना वार्षिकोत्सव प्रज्ञा आयोजन के रूप में सम्पन्न करें। उसके अनेक लाभ हैं। उस क्षेत्र के विचारशील जन समुदाय को बदलती परिस्थितियों से अवगत करते रहना और उद्गम केन्द्र की अधिक प्रगति के आधार पर नये संदेशों से परिचित करना तो प्रमुख उद्देश्य है ही। इसके अतिरिक्त युग शिल्पी कार्यकर्ताओं की शिथिलता दूर करना और युग सन्धि के बढ़ते चरणों के साथ जुड़े हुए नये कर्तव्यों के ठीक तरह परिपालन के लिए उपयुक्त ऊर्जा प्रदान करना भी एक काम है, जो इन आयोजनों के माध्यम से सम्पन्न होगा।

सभी प्रज्ञा आयोजनों में शान्तिकुञ्ज से प्रचार प्रतिनिधि मंडलियाँ भेजी जाया करेंगी। गत वर्ष की अपेक्षा उनके प्रचार उपक्रमों, उपकरणों में अन्तर होगा। अब चित्र प्रदर्शनी हर वर्ष नई बना करेगी। प्रज्ञा पुराण का एक नया खण्ड हर साल प्रकाशित हुआ करेगा। गायक मंडली गत वर्ष वाले नहीं नव निर्मित गीत नई ध्वनियों पर गाया करेगी। प्रवचन भी बदलती परिस्थितियों के अनुरूप सर्वथा नए हुआ करेंगे। युग सन्धि का तूफानी गति चक्र इतनी तेजी से बदल रहा है, कि पिछला वर्ष एक वर्ष बाद सर्वथा नया हो जाता है और उसकी आवश्यकता बढ़ कर कहीं से कहीं जा पहुँचती है। शिशु विकास में कितनी तेजी होती है इसे सभी जानते हैं। पिछले वर्ष के कपड़े खिलौने बेकार हो जाते हैं। बच्चों की आदतें और आवश्यकताएँ भी बदली जाती हैं। स्कूल में पहुँचने पर वह हर वर्ष नई कक्षा में पहुँचता और नया पाठ्यक्रम खरीदता है। फीस भी बढ़ जाती है। ठीक इसी प्रकार युग सन्धि के यह वर्ष नये संदेश लेकर आते हैं और नये तकाजे करते हैं। अतएव आवश्यक समझा गया कि प्रज्ञा पीठों, स्वाध्याय संस्थानों और कर्मठ कार्यकर्ताओं तक के साथ परिस्थितियों के अनुरूप विचार विनिमय किया जाय, ऐसे सम्पर्क से ही आदान-प्रदान का द्वार खुलता है। पत्र व्यवहार एवं साहित्य काम का माध्यम है तो सही, पर इतने बड़े प्रयोजन के लिए ओछा पड़ता है। इतने ही पर निर्भर रहने से काम चलेगा नहीं। सान्निध्य हर हालत में आवश्यक है। भले ही हर क्षेत्र का समुदाय शान्तिकुञ्ज में एकत्रित हो पर शान्तिकुञ्ज के प्रतिनिधि युग चेतना का सामयिक आलोक वितरण करने के लिए ही नहीं, हर संगठन की परिस्थिति और उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की, जन समुदाय की मनःस्थिति का मूल्यांकन करने और तदनुरूप नए निर्धारण करने के निमित्त भी पहुँचा करें।

अन्यान्य सभी संगठनों की तरह अपने मिशन का कोई खास ढाँचा नहीं है। वह सच्चे अर्थों में एक परिवार है। उसके जड़ तने के साथ टहनियों, पत्तियों की जितनी घनिष्ठता रहेगी उतना ही वृक्ष हरा भरा दीखेगा। हृदय और अवयवों के बीच रक्त शिराएँ दुर्बल पड़ने से सम्बन्ध सूत्र शिथिल पड़ेगा, तो इससे हृदय भी घाटे में रहेगा और अवयवों को दुर्बलता रुग्णता का शिकार बनना पड़ेगा। मिशन की शक्ति ऊपर से नीचे को उतरती और वितरित होती है। सूरज, चन्द्रमा, बादल, पवन, अन्तरिक्ष भी अपनी सम्पदा धरातल पर बरसाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रज्ञा अवतरण की अदृश्य शक्तियाँ हिमालय से एक-एक सीढ़ी उतर कर नीचे आती हैं और अपनी प्रेरणा से ही नहीं, प्राण ऊर्जा से भी प्रज्ञा पुत्रों को अनुप्राणित करती हैं। यह तारतम्य जितना घनिष्ठ होगा उतना ही प्रवाह क्रम ठीक रहेगा।

बिजली घर से ट्रांसफार्मर में शक्ति प्रेरित होती है, वहाँ से फिर घरों कारखानों में मीटरों के माध्यम से बिजली दौड़ती और रोशनी, पंखा, हीटर, कूलर से लेकर बड़े यन्त्र चलाने जैसे सभी काम पूरे करती है। बिजली घर और घरेलू उपकरणों का सम्बन्ध टूट जाय तो उसमें सारी व्यवस्था गड़बड़ा जायेगी। टेलीफोन का एक्सचेंज काम न करे, बैंकों का केन्द्रीय तन्त्र न हो, मिलेट्री का निर्धारण तन्त्र न हो तो समझना चाहिए कि मनमानी चल पड़ने पर बिखराव ही नहीं टकराव भी खड़ा होगा। सरकारी आडिट पार्टियाँ सम्बद्ध दफ्तरों की जाँच पड़ताल करने जाती हैं। यह दौरा व्यवस्था पर्यवेक्षण की दृष्टि से ही नहीं वस्तुतः समीकरण एवं वितरण की दृष्टि से भी आवश्यक है।

प्रज्ञा संस्थानों के वार्षिकोत्सवों, प्रज्ञा आयोजनों के सम्बन्ध में भी यही बात यों कही जा सकती है। उनमें स्थानीय क्षेत्रीय वक्ताओं के भाषण होंगे, इसके लिए नवरात्रि, बसन्त, गायत्री जयन्ती आदि के उत्सव पर्याप्त हैं। प्रज्ञा आयोजनों का निर्धारण मात्र एक ही उद्देश्य से किया गया है कि उस क्षेत्र के प्रबुद्ध जन समुदाय और कार्यकर्ता वर्ग को हर वर्ष उतरने वाली अभिनव चेतना से अवगत अनुप्राणित होते रहने का अवसर नियमित रूप से मिलता रहे।

इस वर्ष दस हजार प्रज्ञा आयोजन सम्भव होने की योजना बनी है। तद्नुसार केन्द्रीय प्रतिनिधियों की प्रचार मंडलियाँ गठित की गई हैं। आगामी क्षेत्रों में तो टोलियों का दैनिक सामान तथा प्रचार उपकरण लेकर पहुँचने के लिए वाहनों की व्यवस्था अनिवार्य समझी गई है। तद्नुसार जीप गाड़ियों और मोटर साइकिलों का प्रबन्ध किया गया है। ताकि छोटे बड़े सभी प्रज्ञा संस्थानों तक अच्छे बुरे रास्ते पार करते हुए प्रचारक प्रतिनिधियों का साज सज्जा सहित पहुँच सकना संभव हो सके। इसके लिए प्रतिनिधि की भर्ती तथा शिक्षा की विशेष व्यवस्था इन दिनों चल पड़ी है। संगीत प्रशिक्षण का विशेष माध्यम है। सृजन परिश्रम शैली विकसित की जा रही है, ताकि शिक्षित अशिक्षित सभी को भाव संवेदनाओं के साथ-साथ युग चेतना हृदयंगम करने का अवसर मिल सके।

प्रचार वर्ष १ अक्टूबर से आरम्भ होकर ३० जून तक नौ महीने का चलता है। वर्षा के तीन महीने शान्तिकुञ्ज में विशेष रूप से कार्यकर्ता प्रशिक्षण के लिए निर्धारित हैं। वर्षा के जुलाई अगस्त सितम्बर महीनों में ही देशव्यापी संस्थानों में होने वाले प्रज्ञा आयोजनों की तिथियाँ निर्धारित हो जाती है। यह मंडलियाँ प्रवास चक्र के अनुरूप निश्चित होती है। किसी को मर्जी की तिथियाँ दे सकना संभव नहीं। जो तिथियाँ निश्चित हो जाती है, उनके अनुसार सभी आयोजनकर्ता अपने-अपने ढंग से तैयारी करने में जुट जाया करेंगे।

प्रज्ञा आयोजनों में अच्छी उपस्थिति हो, इसके लिए सामूहिक प्रचार अधिक उपयुक्त होता है। सूर्योदय से पूर्व गीत गाती, नारे लगाती पुरुषों की प्रभात फेरी निकले, गायत्री यज्ञ होना ही है इसलिए महिलाओं को जल कलश यात्रा भी जहाँ संभव हो निकालनी चाहिए। इनके साथ-साथ आयोजन के स्थान एवं कार्यक्रम की सूचना का एलान भी लाउडस्पीकर से किया जाय, यह कार्य जीप टोली पहुँचने से पूर्व ही कर लिया जाये तो सर्व साधारण को आयोजन के सम्बन्ध में सुनिश्चित जानकारी एवं उत्साह वर्धक प्रेरणा मिलने से लोग अधिक संख्या में सम्मिलित हो सकेंगे।

दो दिन गायत्री यज्ञ होना है। उसमें भजन करने के लिए मनमाने ढंग से लोग बैठने दिये जायें। इस आयोजन के अवसर पर कुछ नये स्वाध्याय मंडलों की स्थापना का सरंजाम जुटा रखना चाहिए। प्रज्ञा पुरश्चरण के लिए २४ साधक जुटाने और उनकी भागीदारी ठीक प्रकार बनाये रखने वाले प्रज्ञा पुत्रों को इन यज्ञों में आहुति देने के लिए पीत वस्त्र धारण करके बिठाना चाहिए। उनका विशेष जल अभिषेक भी कराया जाय और उनके विशिष्ट उत्साह को इस अवसर पर सराहा भी जाय।

इन सभी आयोजनों की रूपरेखा समान होगी। पिछले कार्यक्रम को पूरा करके प्रचारकों की जीप प्रायः मध्यान्ह तक नये स्थान पर पहुँच जाया करेगी। थोड़ी देर के भोजन विश्राम के बाद प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श का क्रम चल पड़ेगा। साथ ही चित्र प्रदर्शनी लगाकर उसे दिखाना आरम्भ कर दिया जायेगा। रात्रि को संगीत तथा प्रवचनों की सार्वजनिक सभा होगी। यह पहले दिन का कार्यक्रम हुआ।

दूसरे दिन प्रातःकाल प्रज्ञा पुराण की कथा होगी। पाँच कुण्डीय या नौ कुण्डीय संक्षिप्त गायत्री यज्ञ भी सम्पन्न होगा। साथ ही चित्र प्रदर्शनी भी आगन्तुक देखते रहेंगे। तीसरे प्रहर कार्यकर्ता गोष्ठी तथा चित्र प्रदर्शनी। रात्रि को फिर संगीत प्रवचन सार्वजनिक सभा। तीसरे दिन भी ठीक यही कार्यक्रम रहेगा। चौथे दिन जीप गाड़ी सूर्योदय से पूर्व ही अगले कार्यक्रम पर चली जायेगी और स्थानीय लोग उस यज्ञ आयोजन की पूर्णाहुति कर लिया करेंगे।

इर्द-गिर्द के कार्यकर्ता स्वभावतः इस अवसर पर सम्मिलित होंगे। उनके भोजन निर्वाह का भी प्रबन्ध रहना चाहिए। अधिक लोगों की भीड़ में तो अमृताशन जैसी व्यवस्था ही संभव है। पर थोड़े लोगों के लिए दाल रोटी का प्रबन्ध सहज ही होता है। पूड़ी पकवान बनाने पर सर्वत्र रोक है। वह मंहगा भी पड़ता है, झंझट भरा भी और जातिवाद-ऊँच नीच की कुप्रथा का परपोषक भी है अतएव उसे प्रज्ञा आयोजन से बहिष्कृत ही किया गया है।

व्यवस्था के लिए आयोजनकर्ताओं को ही समस्त तैयारी करनी होती है। सभी के सुविधा पूर्वक पहुँच सकने योग्य सड़क के किनारे खुले स्थान का आयोजन के लिए चयन प्रथम कार्य है उसके लिए बिछावन, पंडाल, मंच, सज्जा, रोशनी, सफाई, लाउडस्पीकर यज्ञ शाला आदि का उपयुक्त प्रबन्ध करना आवश्यक है। नयनाभिराम सज्जा के बिना आगन्तुकों का उत्साह उभारने में अड़चन पड़ती है। पंडाल आदर्श वाक्यों और पोस्टरों बैनर्स से सजा रहे तो वहाँ आने वालों की दृष्टि जाते ही प्रेरणा मिलेगी, आदर्श वाक्यों से बोलती दीवारें बनाने का विधान प्रज्ञा आयोजनों के अवसर पर विशेष रूप से सम्पन्न किया जाना चाहिए। पंडाल को बड़े वाक्यों से सजाया जाय और गाँव की दीवारें उनसे पूरी तरह रंग दी जायें।

प्रज्ञा आयोजनों में बाजारू भीड़ जमा कर लेने भर से काम नहीं चलेगा। उसमें मध्यम वर्ग के विचारशील लोगों को बुलाने के लिए विशेष प्रबन्ध किया जाय। इसके लिए निमन्त्रण पत्र, विवरण पत्र तथा मिशन का स्वरूप बताने वाले तीन पत्रक लेकर उपयुक्त व्यक्तियों के घरों पर जाना चाहिए। ऐसे लोगों की लिस्ट बनाई जाय और टोली बनाकर प्रत्येक घर पर जाया जाय। इन दिनों इसी आग्रह के आधार पर समझदार लोग एकत्रित होते हैं। अन्यथा प्रवचनों की निरर्थकता से ऊबे हुए लोग उनकी पूरी तरह उपेक्षा करते है। लाउडस्पीकर से एलान कराना, पर्चे बाँटना जैसे उपाय अब उतने कारगर नहीं होते। इससे अच्छा तो यह है कि गली सड़कों पर कपड़े के बोर्ड लगाकर आयोजन की सूचना राह चलतों को पहुँचाई जाय।

१. निमन्त्रण पत्र २. आयोजन का उद्देश्य ३. मिशन का स्वरूप। समय दान के लिए रंगीन परिपत्र शान्तिकुञ्ज से छपे मँगाये जा सकते है। बड़ी संख्या में छपाने हो तो आयोजन की तारीख और स्थान भी छापा जा सकता है अन्यथा वह सूचना हाथ से लिखकर या छपे परिपत्र सस्ते भाव में मँगा कर काम चलाया जा सकता है। स्थानीय प्रेसों की तुलना में शान्तिकुञ्ज से मँगाने पर यही सस्ते पड़ते हैं। पर उन्हें हाथों हाथ मँगाया जाय, अन्यथा पार्सल के बढ़े हुए पोस्टेज के आधार पर वे और भी महँगे पड़ जायेंगे। ऐसी दशा में नमूने मँगा कर स्थानीय प्रेस में छपा लेना ही ठीक पड़ेगा।

इस अवसर पर धन संग्रह का विशेष प्रबन्ध करना चाहिए। स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान की रसीद वही छपा लेना चाहिए। जो पैसा लिया जाय उसका ठीक हिसाब रखा जाय। आयोजन व्यय में से जो बचत हो उससे इसी वर्ष कितने ही प्रचार उपकरण खरीदे जाने चाहिए-१. स्लाइड प्रोजेक्टर, २. टेप रिकार्डर, ३. लाउडस्पीकर ,, ४. नवनिर्मित चित्र प्रदर्शनी, ५. संगीत उपकरण, ६. छोटा यज्ञ मंडप। यह प्रचार साधन ऐसे है, जिन्हें सभी प्रज्ञा संस्थानों के पास होना चाहिए। यह सभी वस्तुएँ मिलकर प्रायः चार हजार की बैठती हैं। इतनी राशि आयोजन के अवसर पर थोड़ा अधिक प्रयास करने से सहज ही बच सकती है। अगले वर्षों में भी कुछ ऐसी ही बचत होती रहे, तो उस आधार पर मिशन के विस्तार के अनेकानेक स्थानीय कार्यक्रमों का शुभारम्भ तथा अभिवर्धन होता रह सकता है।

जिन्हें ऐसे आयोजनों का पूर्वाभ्यास नहीं है, वे समीपवर्ती क्षेत्रों से अनुभवी लोगों को बुला लें और उनके परामर्श, सहयोग का लाभ उठावें। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान अपने स्थान तथा क्षेत्र में छोटे-बड़े आयोजनों की व्यवस्था अपने बलबूते पर करता रह सके। जन जागरण के लिए, लोक मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए इन आयोजनों की आवश्यकता सर्वत्र समझी जानी चाहिए और उसकी उत्साह वर्धक पूर्ति बिना समय गँवाते की जानी चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


108. छोटे स्वाध्याय मंडलों की बड़ी तथा महती भूमिका
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भव्य इमारत वाले प्रज्ञापीठों की ही तरह बिना इमारत वाले स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान भी समान भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। साधना अधिक और संगठन कम होने पर सामान्यतः कार्यक्षेत्र बढ़ जाता है और उपक्रम का अनुपात भी अधिक रहता है। इतने पर भी उद्देश्य और उत्तरदायित्व की दृष्टि से दोनों के मध्य राई रत्ती का अन्तर नहीं है। कम साधना और संगठन छोटा होने पर सामान्यतः कार्यक्षेत्र भी छोटा रहेगा किन्तु अर्थ महत्त्व या उत्तरदायित्व कम होता नहीं है।

स्वाध्याय मण्डल नये आशा केन्द्रों के रूप में उभरे हैं। जहाँ जीवन है वहाँ आशा भी बँधेगी। लगता है अगले दिनों यह विनिर्मित स्वाध्याय मण्डल ही युगान्तरीय चेतना के अग्रदूत बनेंगे और लघुकाय दीपकों से गौरवान्वित होने वाली दीपावली को अपने सफल प्रयत्नों से सम्पन्न करेंगे। प्रज्ञापीठ तो २४०० पर ही रुक गये। पर स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थानों की संख्या २४ हजार तक जा पहुँचने में अब किसी प्रकार का संदेह रह नहीं गया है। दो तिहाई मंजिल पूरी हो जाने पर एक तिहाई की पूर्ति पर भी जल्दी विश्वास होता है।

सर्व सुलभ होने से इस स्थापना के व्यापक होने की पूरी गुंजायश है। असंख्य लोगों के थोड़े-थोड़े सहयोग से ही युग परिवर्तन जैसे प्रवाह पनपते और सफल होते हैं। सही आधार बन जाने पर अति कठिन दीखने वाली मंजिलें भी सहज हो जाती हैं। इस प्रकार से इस अभियान को महत्त्वपूर्ण भी कहा जा सकता है। इन संस्थानों का नामकरण उनकी प्रधान प्रक्रिया स्वाध्याय को ध्यान में रखते हुए किया गया है। वस्तुतः वे स्वाध्याय तक सीमित नहीं है। आयुर्वेद में द्राक्षासव, अमृतारिष्ट, लवंगादि वटी, सितोपलादि चूर्ण आदि नाम उन औषधियों में पड़ने वाले द्रव्यों की महत्ता का स्मरण दिलाने के लिए दिये गये हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उनमें मात्र वह एक ही वस्तु है। स्वाध्याय मण्डलों के संबंध में भी यही बात है। उनके साथ वे सभी कार्यक्रम जुड़े हुए हैं, जो बड़े प्रज्ञापीठों को सौंपे गये हैं। हर किसी को स्मरण रखना चाहिए कि स्वाध्याय मण्डलों के नाम के साथ प्रज्ञा संस्थान भी जोड़ दिया गया है। यह इस बात का चिन्ह है कि इन बिना इमारत वाले संस्थानों को ही परिस्थितियों के अनुरूप वे सभी उत्तरदायित्व निभाने होंगे जो न केवल प्रज्ञापीठों के लिए, वरन् वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों के लिए आवश्यक ठहराये गये हैं।

वेद सर्वप्रथम ग्रन्थों के रूप में प्रकट हुए। उन्हें ऋषियों द्वारा हृदयंगम किया गया। इसके उपरान्त ही उन्हें पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने का प्रचार क्रम आगे बढ़ा। युगान्तरीय चेतना का अवतरण भी सर्वप्रथम प्रज्ञा साहित्य के रूप में ही होता है। इसके उपरान्त ही वे प्रज्ञापुत्रों को प्रेरणा प्रदान करते हैं। जन-जन को आन्दोलित करने की प्रक्रिया इसके उपरान्त ही चलती है। अस्तु आवश्यक हो जाता है कि महान परिवर्तन के कृत्य को समझने-समझाने के लिए प्रज्ञा साहित्य के स्वाध्याय को प्रमुखता एवं प्राथमिकता दी जाय। इसके बिना गाड़ी एक कदम बढ़ती ही नहीं।

इस प्रयोजन के लिए अब तक का प्रकाशित साहित्य ही अनुपम है। पर अब इस साल तो सूत्र संचालक ने हर दिन एक फोल्डर पुस्तिका लिखने के उपरान्त ही पानी पीने का व्रत लिया है। यह प्रस्तुतीकरण और भी अधिक सशक्त प्राणवान एवं सामयिक है। इसे अगले दिनों अन्यान्य भाषाओं में भी प्रकाशित करने की योजना बन रही है। पर प्रकाशन से भी बड़ी बात यह है कि जो उपलब्ध है उसे जन-जन को पढ़ाया, सुनाया जाय। जो खरीद नहीं सकते या अरुचि के कारण खरीदना नहीं चाहते, उन्हें घर बैठे, नित्य नियमित रूप में, बिना मूल्य पढ़ाने और वापिस लेते रहने का उपाय ही कारगर हो सकता है। बिना पढ़ों का उसे सुनते रहने में काम चल सकता है। स्वाध्याय मण्डलों का यही प्रारम्भिक कार्य है। इसके लिए झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, ज्ञान रथ चलाये जाने की प्रक्रिया पर अत्यधिक जोर दिया जाने लगा है। इस हलचल के चलने, न चलने, चलाने, न चलाने को प्रज्ञा संस्थानों एवं प्रज्ञापुत्रों के जीवित मृतक होने का प्रमाण माना जा रहा है।

माँगे के या किराये के एक छोटे कमरे को भी स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान का कार्यालय माना जा सकता है। वह संचालक मण्डल के किसी सदस्य के घर एक अल्मारी में भी प्रतिष्ठित रह सकता है। मुख्य बात है गतिविधियों के संचालन की। निर्धारित गतिविधियों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। (१) स्वाध्याय (२) सत्संग (३) सृजन। लेखन और वाणी के साथ-साथ करने कराने का उपक्रम जुड़े तभी उनका गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ता है। अस्तु तीनों को अन्न, जल, वायु की तरह आकाश, पाताल और धरातल की तरह स्थूल, सूक्ष्म और कारण की तरह अविच्छिन्न एवं पूरक माना गया है। सभी प्रज्ञा संस्थानों को इन्हें अपनाकर अपनी प्राण प्रखरता का परिचय देना चाहिए।

स्वाध्याय प्रक्रिया झोला पुस्तकालयों, ज्ञानरथों के माध्यम से व्यापक बनाई जाती है। अपने पहुँच के विज्ञ जनों की सूची बनाकर उन तक प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने, वापिस लाने की योजना को व्यापक बनाने का प्रयत्न किया जाता है। व्यक्तिगत सम्पर्क, परामर्श, अनुरोध, प्रोत्साहन का खाद-पानी मिलने पर यह स्वाध्याय समयानुसार अपने चमत्कारी परिणाम का प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध करता है।

स्वाध्याय प्रक्रिया का ही एक पक्ष दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखकर उन्हें बोलती हुई बनाया जाना है। रास्ता चलते लोगों की दृष्टि उन पर बार-बार पड़ती है, तो अचेतन ढलने की एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया कार्य करने लगती है। घरों में आदर्श वाक्य लगाने का भी समूचे परिवार पर आगन्तुक, अतिथियों पर असाधारण प्रभाव पड़ता है और उनका सम्मान उन प्रेरणाओं के ढाँचे में अनायास ही ढलने लगता है। प्रज्ञा परिजन दीवारों पर वाक्य लिखने लिखाने की योजना बनाते हैं। जहाँ भी प्रभाव काम देता है, आदर्श वाक्यों के पोस्टर लगवाने के लिए प्रयत्नरत रहते हैं।

सत्संग प्रक्रिया में हर किसी के लिए अपनी ओर से अपने विचार व्यक्त करना तो कठिन है। पर स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर आदि उपकरणों का सहारा लेकर किसी भी गली मुहल्ले के लोगों को एकत्रित किया जा सकता है। प्रकाश चित्रों की व्याख्या करते हुए टेपों में भरे सत्संग एवं प्रवचन सुनाते हुए सहज एवं आकर्षक सत्संग का सुयोग भली प्रकार बिठाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञा पुराण की कथा को कम समय अथवा अधिक समय तक चलने वाली व्याख्या बनाकर लोक मानस के परिष्कार का क्रम चलता रह सकता है। घरों में प्रज्ञा पुराण की नियमित कथा, कहानियों के माध्यम से परिवार निर्माण का प्रयोजन सहज ही पूरा होता रह सकता है।

सत्संग के अन्तर्गत ही जन्म दिवसोत्सव जैसे आयोजन आते हैं। यह है तो व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया, पर उपस्थित लोगों को इस अवसर पर परिवार निर्माण तथा समाज निर्माण के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ समझाया जा सकता है। घरों में षोडश संस्कार, मुहल्ले, गाँवों में पर्व त्यौहारों के सामूहिक आयोजन इसी सत्संग प्रयोजन की आवश्यकता पूर्ण करते हैं। आश्विन और चैत्र में नवरात्रियों में तो नौ दिन की सामूहिक साधनायें चलती हैं और साथ में रात्रि का ज्ञान यज्ञ भी जुड़ा रहता है, तो उससे स्थानीय स्तर पर प्रायः वैसा ही उपक्रम बन पड़ता है जैसा कि शान्तिकुञ्ज में चलने वाले कल्प साधना सत्रों का होता है। वर्ष में दो बार यह आयोजन उत्साह भरे वातावरण में सम्पन्न किये जाते रहे, तो उससे सजीवता सक्रियता निश्चित रूप से उभरी रहेगी।

स्वाध्याय मण्डल, प्रज्ञा संस्थानों के लिए तीसरा कार्यक्रम सृजन वर्ग का है। उसके अन्तर्गत रचनात्मक प्रयासों का समावेश है। स्वाध्याय और सत्संग के साथ-साथ इस तीसरे निर्माण को भी सभी प्रज्ञा परिवार, प्रज्ञा परिजन मिल-जुलकर सम्पन्न करें।

इस संदर्भ में तात्कालिक उत्तरदायित्व प्रज्ञा पुरश्चरण को प्रखर एवं व्यापक बनाने का है। वायुमण्डल के संशोधन में तुलसी आरोपण एक कारगर शुभारम्भ है। उससे संव्याप्त प्रदूषणों से बचा एवं बचाया जा सकता है। हरीतिमा संवर्धन की प्रखरता तो उसके साथ प्रत्यक्ष ही जुड़ी हुई है। वृक्षारोपण, पुष्पोद्यान, घरेलू शाक वाटिका जैसे कितने ही वायु शोधक एवं आरोग्य वर्धक प्रयोगों को इससे बल मिलता है। घर में वनस्पति भगवान के देवालय की भूमिका तुलसी का थाँवला निभाता है। साथ ही उस माध्यम से समूचे परिवार में सरल पूजा क्रम चल पड़ने से आस्तिकता का वातावरण बनता है। अगरबत्ती, दीपक, अर्घ्यजल, खड़े-खड़े जप, ध्यान, परिक्रमा, नमन, वन्दन जैसे सरल उपचारों से हर घर को देव मंदिर बनने का अवसर मिलने से वहाँ आस्तिकता जड़ जमाये रहेगी और उसके दूरगामी परिणाम होंगे।

वायुमण्डल की विषाक्तता जिस प्रकार शहरों को, वनस्पतियों को, पदार्थों को नुकसान पहुँचाती है, उसी चेतनात्मक अदृश्य वातावरण में भ्रष्टता दुष्टता का प्रवाह भर जाने से सामान्य जनों के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में निकृष्टताओं का विष घुलता है। फलतः लोक मानस में दुष्प्रवृत्तियाँ बन पड़ने से विग्रह खड़े करने और परिस्थितियों में ऐसी प्रतिकूलता भरती है जिनसे अगणित समस्याएँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ उपजती तथा सर्वनाश का संकट खड़ा करती हैं। इसके निराकरण में मात्र भौतिक साम, दाम, दण्ड, भेद से ही काम नहीं चलता, अध्यात्म उपचार भी अपनाने होते हैं। इसके लिए इन दिनों प्रज्ञा पुरश्चरण का धर्मानुष्ठान नियोजित किया गया है। उसे हर दृष्टि से सफल और व्यापक बनाने की जिम्मेदारी भी स्वाध्याय मण्डलों को ही सौंपी गई है।

प्रज्ञा पुरश्चरण का स्वरूप सर्व सुलभ है। प्रातःकाल सुर्योदय के समय जो जहाँ जिस भी स्थिति में हो, काम छोड़कर पाँच मिनट मौन मानसिक गायत्री जप हाथ जोड़कर करें। आँखें बन्द करके प्रातःकालीन सूर्योदय का ध्यान करता रहे। पाँच मिनट करने पर उस उपक्रम का पुण्य अनन्त अन्तरिक्ष में बिखर जाने की भावना करे। प्रज्ञा पुरश्चरण का दैनिक कृत्य इतना भी है।

पुरश्चरण प्रक्रिया में जप या हवन भी करना होता है। महीने में एक दिन सभी भागीदार एकत्रित हो। पन्द्रह मिनट प्रज्ञा यज्ञ, पन्द्रह मिनट संगीत, एक घण्टा प्रवचन का क्रम रखें। इस प्रकार डेढ़ घण्टे में ही यह मासिक प्रज्ञा यज्ञ सम्पन्न हो जाता है। अग्निहोत्र की सरलतम विधि पाँच घृत दीप, पाँच-पाँच अगरबत्तियों के पाँच गुच्छक, चौबीस बार सामूहिक गायत्री मन्त्रोच्चार तक संक्षिप्त कर दी गई है। इसे कहीं भी बिना किसी झंझट और व्यय के आसानी के साथ सम्पन्न किया जा सकता है।

स्वाध्याय मण्डल अपने प्रभाव क्षेत्र में प्रज्ञा पुरश्चरण के अधिकाधिक भागीदार बनायेंगे और इस बात का लेखा जोखा रखेंगे कि उनके क्षेत्र में निर्धारित विधि व्यवस्था ठीक-ठीक क्रम से सम्पन्न हो रही है। इसकी सूचना शान्तिकुञ्ज भेजते रहेंगे।

इसके अतिरिक्त शिक्षा और स्वास्थ्य सुधार के लिए सभी प्रज्ञा संस्थानों के स्कूली छात्रों को बिना फीस की ट्यूशन पढ़ाने वाली बाल संस्कार पाठशालाएँ स्थापित करनी चाहिए। इन छात्रों को खेलकूद, व्यायाम, आसन, प्राणायाम, ड्रिल, फर्स्ट एड परिचर्या आदि के प्रशिक्षण में भी संलग्न रखना चाहिए। छोटे रूप में इतना रचनात्मक कार्य कहीं भी आरम्भ किया जा सकता है। इसके लिए अध्यापन की व्यवस्था शिक्षितों के श्रमदान से हो सकती है। खेलकूद के लिए फुटबाल, बालीवाल स्तर के उपकरणों का प्रबन्ध कर दिया जाय, तो उतने भर से उसमें भाग लेने के लिए छोटे बड़ों का समुदाय एकत्रित होने लग सकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवा साधना इन दिनों अपने देश की प्राथमिक आवश्यकता है। बाद में तो उसी शृंखला में सहकारी गृह उद्योगों को तथा श्रमदान के आधार पर बन पड़ने वाले अन्यान्य लोक मंगल प्रयोजनों को भी संचालित किया जा सकता है।

सृजन का एक पक्ष सेवा और दूसरा सुधार है। सुधार के लिए यों तो अनेकों कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताओं, अनाचारों से जूझना, जात-पाँत, ऊँच-नीच, पर्दा प्रथा, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय जैसे अनेक कलंक और अभिशापों से पिण्ड छुड़ाना है। पर तात्कालिक और अत्यधिक कष्ट कारक कुप्रथा दहेज और धूमधाम वाली शादियों के प्रचलन को अविलम्ब रोकना है। खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इस तथ्य को जन-जन के गले उतारा जाय। रोकने के लिए निंदा एवं भर्त्सना का वातावरण बनाया जाय। न्यूनतम इतना तो होना ही चाहिए कि मंडल के सदस्य अपने बच्चों के विवाह बिना दहेज और धूमधाम से करने का प्रण करें। साथ ही ऐसे किसी भी विवाह में सम्मिलित न हों, जिसमें दहेज तथा धूमधाम की अवांछनीयता अपनाई गई हो। भले ही वे विवाह अपने कुटुम्बियों, संबंधियों के यहाँ ही क्यों न हों।

उपरोक्त सृजन प्रयोजनों को भी स्वाध्याय और सत्संग उपक्रम की तरह सभी प्रज्ञा संस्थानों को कार्यान्वित करना है। इसके लिए पाँच संचालकों की मण्डली पाँच-पाँच तक प्रकाश पहुँचाकर तीस विचारशीलों का परिवार तो गठित करे ही, पर साथ ही यह भी ध्यान रखे कि उसे इतने भर में सीमित नहीं करना है, जिनका अधिक व्यापक बनाया जा सकना संभव हो उसके लिए निरन्तर प्रयत्नरत रहना है।

स्मरण रहे हर प्रज्ञा संस्थान का एक वार्षिकोत्सव प्रज्ञा आयोजन भी समारोह पूर्वक हर साल सम्पन्न करना है। जन जागरण और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने में इन आयोजनों से असाधारण लाभ मिलता है। इसलिए स्थापना के दिन से वार्षिक प्रज्ञा आयोजन की बात ध्यान में रखकर ही स्वाध्याय मण्डल और अपने बहुमुखी उत्तरदायित्व का परिपालन करते रह सकते हैं।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


109. स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भव्य भवन थोड़े से या झोंपड़े बहुत से, इन दोनों में से एक का चयन जन कल्याण की दृष्टि से करना है, तो बहुलता वाली बात को प्रधानता देनी पड़ेगी। राम के पीछे वानर, कृष्ण के पीछे ग्वाल-बाल, शिव के भूत-पलीत वाले चयन का उद्देश्य समझने पर तथ्य स्पष्ट होता है कि बहुजन सुखाय बहुजन हिताय की नीति ही वरिष्ठ है। विद्वानों को निष्णात बनाने में भी हर्ज नहीं, पर निरक्षरों को साक्षर बनाना ही लोक हित की दृष्टि से प्रमुखता पाने योग्य ठहरता है।

विशालकाय गायत्री शक्तिपीठों और बड़े प्रज्ञा पीठों को अब क्षेत्रीय गतिविधियों का मध्य केन्द्र बना कर चला जायेगा। वे अपने-अपने मंडलों के केन्द्रीय कार्यालय रहेंगे। हर गाँव मुहल्ले में सृजन और सुधार व्यवस्था के लिए बिना इमारत के स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करेंगे। विशालकाय समारोहों की व्यवस्था दूर-दूर से जन समुदाय एकत्रित करके उत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से आवश्यक है, पर जब जन-जन से सम्पर्क साधने और घर-घर का द्वार खटखटाने की आवश्यकता पड़े तो निजी परिवार जैसे छोटे विचार परिवार ही काम देते हैं। इस प्रयोजन की पूर्ति स्वाध्याय मंडल ही कर सकते हैं।

एक अध्यापक प्रायः तीस छात्रों तक को पढ़ाने में समर्थ हो पाता है। स्वाध्याय मंडली को एक अध्यापक माना गया है और संस्थापक को चार अन्य भागीदारों की सहायता से एक छोटे विचार परिवार का गठन करके युगान्तरीय चेतना से उस समुदाय को अवगत अनुप्राणित करने के लिए कहा गया है। यही है स्वाध्याय मंडलों का संगठन।

प्रज्ञा परिजनों में से जिनमें भी प्रतिभा, कर्मठता, साहसिकता हो उसे इसी स्वाध्याय संगठनों में तत्काल नियोजित करना चाहिए। इसमें उनकी सृजन शक्ति को प्रकट प्रखर होने का अवसर मिलेगा। बड़े संगठनों में आये दिन खींचतान और दोषारोपण के झंझट चलते हैं। निजी सम्पर्क और निजी प्रयत्न से एक प्रकार का निजी विचार परिवार बना लेने में किसी प्रकार के विग्रह की आशंका नहीं है। हर दम्पत्ति अपना नया परिवार बनाता और नया वंश चलाता है। प्रज्ञा परिजनों में से जो भी मानसिक बौनेपन से बढ़कर प्रौढ़ता परिपक्वता की स्थिति तक पहुँच चुके हैं, उन्हें अपने निजी पुरुषार्थ का विशिष्ट परिचय देना चाहिए। हर प्रौढ़ होने पर अपना एक नया घोंसला बनाता है।

स्वाध्याय मंडल के संस्थापन संचालन की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। इस सृजन के लिए जिसकी भी श्रद्धा उमगे, उसे अपने प्रभाव क्षेत्र के और अपने जैसी प्रकृति के चार साथी ढूँढ़ निकालने चाहिए। पाँच की संचालक मंडली गठित करनी चाहिए। इन पाँच पाण्डवों में से प्रत्येक को बीस-बीस पैसा नित्य अंशदान और न्यूनतम एक घंटा समयदान करते रहने के लिए सहमत करना चाहिए इतनी भर पूँजी जुटाने पर स्वाध्याय मंडल की निर्धारित गतिविधियाँ निर्बाध रूप से चल पड़ेंगी।

प्रमुख कार्यक्रम प्रज्ञा साहित्य का सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को नियमित स्वाध्याय कराना है। संगठन का नामकरण इसी प्रमुख कार्यक्रम के आधार पर किया गया है। आयुर्वेद में औषधियों के नामकरण उनमें पड़ने वाले द्रव्यों में से जो प्रमुख होता है, उसके आधार पर किया जाता है। द्राक्षासव, अमृतारिष्ट, लवंगादिवटी, सितोपलादि चूर्ण, हींग आदि में पहले जिस प्रकार प्रमुख द्रव्य की चर्चा है, उसी प्रकार विचार क्रान्ति के लिए स्वाध्याय को सीधी और गहरा प्रभाव छोड़ने वाली प्रक्रिया माना गया है और इन संगठनों को इसी कार्यक्रम को सर्व प्रधान मानने के लिए कहा गया है।

पाँच व्यक्तियों की बीस-बीस पैसे वाली सम्मिलित राशि माह में तीस रुपया बनती है। इतने का प्रज्ञा साहित्य युग निर्माण योजना से हर महीने मँगाते रहा जाय। यही है मंडल की स्थायी सम्पदा। प्रज्ञा पुस्तकालय के रूप में इसी पैसे से संगठन की प्राणवान पूँजी निरन्तर बढ़ती रहेगी और उससे धीरे-धीरे सहस्त्र व्यक्ति लाभान्वित हो सकेंगे।

संचालक मंडली के पाँच सदस्यों में से प्रत्येक को अपने परिवार सम्पर्क के पाँच-पाँच ऐसे व्यक्ति ढूँढ़ने चाहिए, जिनकी स्वाध्याय में विचारशीलता में रुचि है अथवा पैदा की जा सके। इस प्रकार पाँच सदस्यों की पाँच-पाँच की मंडली से तीस सदस्य हो जाते हैं। तीस फूलों का यह हार यदि युग देवता के गले में पड़ सके, तो अपनी गरिमा और देवता की शोभा बढ़ाने में पूरी तरह सफल हो सकता है। पाँचों संचालक अपनी-अपनी क्यारियों को ठीक तरह सँभालें संजोये। उन तक नियमित रूप से घर बैठे बिना मूल्य प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने के व्रत निर्वाह का प्रथम चरण इतने भर से पूरा हो जाता है।

सर्व विदित है कि कार्लमार्क्स के विचारों ने एक शताब्दी के भीतर प्रायः आधी दुनियाँ को अपने विचारों में समेट लिया। रूसो के प्रतिपादन से प्रजातंत्र की जड़ जमी। ईसाई पादरियों ने विश्व के कोने-कोने में अपने धर्म की विशेषता समझाई। प्रायः दो तिहाई मनुष्य जाति को कुछ ही शताब्दियों के अन्दर ईसाई धर्मावलम्बी बना लिया। अमेरिका में से दास प्रथा समाप्त करने का बहुत कुछ श्रेय हैरियट स्टो को जाता है। बुद्ध और गाँधी ने अपने-अपने समय के विचारक्रान्ति प्रतिपादनों को जन-जन को परिचित करा सकने के कारण ही सफल बनाया था। इतिहास साक्षी है कि बन्दूक की तुलना में प्राणवान विचारों की सामर्थ्य कही अधिक समर्थ सिद्ध हुई है। जब सभी लोग बिना पढ़े थे, तब नारद की तरह वाणी ही प्रमुख सामर्थ्य थी, पर जब से शिक्षा का, प्रेस का साहित्य का विस्तार हुआ है तब से वाणी की तुलना में अधिक स्थायी, अधिक गंभीर, अधिक प्रभावी विचार देने में लेखनी की, साहित्य की शक्ति ही विश्व की सबसे बड़ी सामर्थ्य बन कर उभरी है।

अपने समय में विचार क्षेत्र की भ्रान्तियाँ और विकृतियाँ ही लोक चिन्तन को भ्रष्ट और आचरण प्रचलन को दुष्ट बनाने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। अन्यथा विज्ञान शिक्षा और उद्योग क्षेत्र की वर्तमान प्रगति के रहते मनुष्य हर दृष्टि से सुखी सम्पन्न रह सकता था। आस्था संकट ही अपने समय का सबसे बड़ा विग्रह है। उसी ने व्यक्ति और समाज के सम्मुख अगणित समस्याएँ, विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ खड़ी की हैं। समाधान के लिए प्रचलित सुधार इसी से सफल नहीं हो पाते कि भावनाओं, मान्यताओं, विचारणाओं, आकांक्षाओं में सुधार परिष्कार का प्रयत्न नहीं हुआ। मात्र अनाचारों के दमन, सुधार की बात सोची जाती रही। सड़ी कीचड़ यथा स्थान बनी रहे तो मक्खी मच्छर पकड़ने, मारने, पीटने से क्या काम बने? रक्त में विषाक्तता भरी रहे तो फुन्सियों पर मरहम लगाने भर से क्या बात बने? एक सुधार पूरा होने से पूर्व ही सौ नये बिगाड़ उठे तो चिरस्थायी सुधार की संभावना नहीं रहेगी।

अपने समय की समस्त समस्याओं का एक ही हल है विचारक्रान्ति अभियान, लोक मानस का परिष्कार। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग की ढाल तलवार का प्रयोग करना होगा। युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा साहित्य करता है। उसे पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया यदि द्रुतगामी बनाई जा सके, तो अब तक चल रही प्रगति में तूफानी उभार आ सकता है। नगण्य से साधनों पर पिछले दिनों २४ लाख व्यक्तियों का प्राणवान देव परिवार खड़ा किया जा सका है, तो कोई कारण नहीं कि उसी कार्य को व्यवस्थित प्रज्ञा संस्थान संभाल ले तो देखते-देखते जन जागरण की प्रक्रिया को सैकड़ों गुनी अधिक प्रचंड बनाया जा सकेगा। देखने में यह छोटा सा उपचार कितना महत्त्वपूर्ण है, उसका संदर्भ घने अंधकार से निपटने में छोटे से दीपक की भूमिका से समझा समझाया जा सकता है।

स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थानों को भी बड़े प्रज्ञापीठों के लिए निर्धारित कार्य पद्धति अपनानी होगी। जन जागरण के लिए जन सम्पर्क, जन सम्पर्क से जन समर्थन और सहयोग मिलने, उस आधार पर युग परिवर्तन का ढाँचा खड़ा होने का सरंजाम जुटने की बात बार-बार कही जाती रही है। इस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा साहित्य का पठन-पाठन और दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन की प्रक्रिया को स्वाध्याय कहा जा सकता है। प्रज्ञापीठों की पंच सूत्री योजना में सत्संग को व्यापक बनाने के लिए स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, प्रदर्शनी और जन्म दिवसोत्सवों को प्रमुखता दी गई है। इनके माध्यम से एक व्यक्ति भी सैकड़ों को हर दिन युग चेतना से अवगत अनुप्राणित करते रहने की प्रक्रिया नियमित रूप से चलाता रह सकता है।

स्वाध्याय क्रम के पैर जमते ही सभी प्रज्ञा संस्थानों को उपरोक्त कार्य पद्धति हाथ में लेनी चाहिए। उसके लिए साधन जुटाने चाहिए। हर प्रज्ञा संस्थान को स्वाध्याय शुभारंभ करके अग्रिम चरणों में सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेने होंगे, इसके लिए दस सूत्री योजना की चर्चा होती रही है, उनमें से चार तो ऐसे है जिन्हें छोटे प्रज्ञा संस्थान भी अपने न्यूनतम ३० सदस्यों की परिधि में कार्यान्वित कर सकते हैं। प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कार शाला, व्यायाम शाला, खेलकूद, तुलसी आरोपण, हरीतिमा संवर्धन। शादियों में दहेज और धूमधाम का विरोध इन चार कार्यक्रमों में जन-जन को भागीदार बनाने का कार्य स्वाध्याय मंडलों को अपने तीस सदस्यों के परिवार से आरंभ करना चाहिए। इन कार्यक्रमों के सहारे यह छोटे संगठन भी अपनी गौरव गरिमा का परिचय देंगे। जन-जन का समर्थन सहयोग प्राप्त करेंगे और बीज से वृक्ष, चिनगारी से दावानल का नया उदाहरण बनेंगे।

स्वाध्याय के दो और सत्संग के चार चरण मिलकर छः बनते हैं। अगले दिनों हर मंडल को पर्व आयोजनों, नवरात्रि सत्रों और वार्षिकोत्सवों की व्यवस्था बनानी होगी। इन सब कार्यों के लिए, साधन जुटाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती रहेगी। इसका सरल और स्थायी रूप ज्ञानघट ही हो सकते हैं। प्रज्ञा परिवार को सदस्यता के लिए एक घण्टा समयदान और बीस पैसे की अंशदान नित्य नियमित रूप से करते रहने की शर्त है। ऐसे सच्चे प्रज्ञा परिवार विनिर्मित करने चाहिए जो बातों के बताशे ही न बनाते रहे, वरन् श्रद्धा का प्रमाण परिचय देने वाला भाव भरा अनुदान भी प्रस्तुत करें। बीस पैसे वाले ज्ञानघट पुरुषों के और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट महिलाओं के द्वारा चलें, तो प्रज्ञा संस्थानों को अगले दिनों जो कतिपय नये उपकरण खरीदने तथा नये कार्यक्रम चलाने होंगे, उनके लिए समयानुसार पैसा मिलता रहेगा। इस न्यूनतम अनिवार्य अंशदान के अतिरिक्त उदार मना परिजनों से कुछ अधिक खर्च करने की बात भी गले उतारनी चाहिए। ताकि स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान साहित्य पढ़ाने के प्रथम चरण तक ही न सीमित रहे। वर्ण माला और गिनती पहाड़ा ही न रटता रहे। अन्ततः इन छोटे संगठनों को विकसित होना है। हर सदस्य को एक से पाँच की विकास विस्तार प्रक्रिया को कार्यान्वित करना है। नवजात शिशु तो खिलौनों से खेलता और गोदी में चढ़ता रहता है, पर समय बीतने पर वह किशोर और प्रौढ़ भी तो बनता है। तदनुसार उसकी गतिविधियाँ भी भारी भरकम बनती चली जाती है।

स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थान की समर्थता पाँच साथियों का सहयोग प्राप्त करने और तीस का कार्यक्षेत्र बनाने की विधि व्यवस्था पर अवलम्बित माना गया है। किसी भी प्रतिभाशाली के लिए इतने संगठन और योजना चला सकना कठिन नहीं पड़ना चाहिए। इतने पर भी यह हो सकता है कि कोई नितान्त व्यस्त, संकोची, रुग्ण, अविकसित, असमर्थ एवं महिलाओं की तरह प्रतिबंधित होने की स्थिति में संगठन क्रम न चला सके। उन्हें भी मन मसोस कर बैठने की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए एकाकी प्रयत्न से चल सकने वाली प्रज्ञा केन्द्र व्यवस्था का प्रावधान रखा गया है। इसमें संगठित प्रयत्न के बिना भी एकाकी प्रयास से काम चल सकता है। ऐसे लोग बीस पैसे के स्थान पर अपनी तथा कुटुम्बियों की ओर से चालीस पैसा प्रतिदिन की व्यवस्था करे। और उतने भर से हर महीने प्रकाशित होने वाली तीस फोल्डर पुस्तिकाएँ मँगाये और परिवार पड़ोस के बारह व्यक्तियों को उन्हें पढ़ाते सुनाते रहें। इस प्रकार भी प्रज्ञापीठ संस्थान वाली प्रक्रिया का एकाकी स्तर पर निर्वाह हो जाता है। इस आधार पर घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालय बनता और बढ़ता रह सकता है।

स्मरण रहे प्रज्ञा संस्थानों और प्रज्ञा केन्द्र द्वारा पढ़ाने के लिए खरीदा गया साहित्य उन्हीं की पूँजी के रूप में उन्हीं के पास रहता है। कोई चाहे तो लागत से थोड़े कम मूल्य में किसी भी दिन कहीं भी बेच भी सकता है। अस्तु यह दान नहीं सम्पदा संचय है। ऐसी सम्पदा जिसे सोने चाँदी की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली कहा जा सकता है। हर विचारशील को अपने निजी परिवार को सुसंस्कारी बनाने के लिए इस संचय को करना ही चाहिए।

प्रज्ञा केन्द्र, प्रज्ञा संस्थान, प्रज्ञापीठ के गठन का कोई भी स्वरूप क्यों न हो, उसे चलाने वाले अनायास ही विचारशीलों के सम्पर्क में आते हैं, उनके साथ घनिष्ठता स्थापित करते, सहानुभूति अर्पित करते और मित्रता करते हैं। यह उपलब्धि आरंभ में तो कम महत्त्व की दीखती है, पर जब आने वाले समय में उन मित्रों के सहयोग से विपत्ति निवारण और प्रगति लाभ के सुयोग बनते है तब प्रतीत होता है कि इस सेवा साधना में जो श्रम समय एवं पैसा लगा, वह अनेक गुना होकर वापिस लौटने लगा। विचारशीलों की सद्भावना एवं घनिष्ठता उपलब्ध करने वाले प्रकारान्तर से सुखद वर्तमान एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करते और अनुदान का प्रतिदान हाथों हाथ प्राप्त करते हैं।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार


110. चमत्कारी, किन्तु सर्वथा हानि रहित योग साधनाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अन्तःकरण की गहन परतों तक जिन योग साधनाओं की पहुँच है, उनमें (१) बिन्दु योग (२) नाद योग (३) लय योग को प्रमुख माना गया है। इनमें मान्यता, भावना एवं आकांक्षा क्षेत्रों में सुधार परिवर्तन कर सकने की विशिष्ट क्षमता है।

बिन्दु योग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नाद योग को अनाहत ध्वनि भी कहते हैं। लय योग को आत्मदेव साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अन्तर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लय योग, सूक्ष्म के साथ बिन्दु योग और कारण शरीर के साथ नाद योग का सीधा सम्बन्ध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत, अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है।

स्थिर शरीर, शान्त चित्त, कमर सीधी हाथ गोदी में, आँखें बन्द यह है ध्यान मुद्रा का स्वरूप, अनुशासन। ध्यान धारणा आरम्भ करने से पूर्व साधक को अपनी स्थिति ऐसी ही बना लेनी चाहिए। तीनों योगों का सामान्य विवरण इस प्रकार है-

(१) बिन्दु योग-त्राटक साधना को आज्ञा चक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भौंहों के बीच मस्तक के भृकुटी भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य, एक भृकुटी स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट के दर्शन कराये थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयन्ती ने भी कुदृष्टि डालने वाले व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह, दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आँखों देखा हाल सुनाते रहे।

आज्ञा चक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का द्विदलीय चक्र, दिव्य दृष्टि केन्द्र कहा जाता है। टेलीविजन, राडार, टेलिस्कोप की समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता, वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता से सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन, विचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलता, किन्तु यदि इसे प्रयत्न पूर्वक जगाया जा सके, तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूँकि यह केन्द्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिन्दु माना जाता है, इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिन्दु योग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी हैं।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बन्द करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता हैं। साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों को जागृत कर रहा है। आरम्भ में यह ध्यान दस मिनट से आरम्भ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी, तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। दीपक का सहारा आरम्भ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उसकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलम्बन के मात्र कल्पना भावना के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुंज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण सविता भी है। आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा, सम्वेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुञ्ज बनाती हैं। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण, तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। शान्तिकुञ्ज में दीपक के स्थान की पूर्ति हेतु नीले प्रकाश के बल्ब लगाये गये हैं। इनसे भी वही लाभ मिलता है। बुझने आदि का झंझट भी नहीं रहता।

(२) नाद योग-यह साधना सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। खुले कान तो एक सीमा तक की समीपवर्ती प्रत्यक्ष ध्वनि ही सुन पाते हैं। किन्तु सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों में श्रवणातीत दिव्य ध्वनियाँ सुनने की भी क्षमता है। प्रकृति का मूल शब्द है। शब्द को ब्रह्म भी कहा गया है। नादयोग में इसी शब्दब्रह्म की साधना है। उस आधार पर दिव्य ध्वनियों को सुनने का अभ्यास किया जाता है और ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य रहस्यों को जाना जाता है। अपनी आन्तरिक स्थिति का विश्लेषण पर्यवेक्षण करने एवं प्रकृति की सामयिक हलचलों का कारण समझकर अपनी ज्ञान परिधि को अत्यधिक व्यापक बनाया जा सकता है। इसी आधार पर भूतकाल के स्मृति कम्पन एवं भविष्य में घटित होने वाले प्रकरणों का पूर्वाभास सम्भव हो पाता है। नादयोग की शब्द साधना को कालजयी कहा जाता है। ऋषियों को दृष्टा, त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ आदि की सिद्धियाँ इसी आधार पर उपलब्ध होती थी।

बिन्दुयोग की तरह नादयोग में भी ध्यान मुद्रा पर एकान्त स्थान में बैठते हैं। स्थूल ध्वनियों को रोकने के लिए कान में रुई लगा लेते हैं। इसके उपरान्त प्रयत्न करते हैं कि प्रकृति के गर्भ में प्रवाहित दिव्य ध्वनि तरंगों का सुनना सम्भव हो सके। आरम्भ में बहुत धीमा अनुभव होता है। जो सुनाई पड़ता हैं, वह वंशी, नफीरी बजने, झींगुर बोलने, भ्रमर गूँजने, बादल बरसने, झरना झरने जैसा हल्का होता है। बाद में अधिक प्रखरता, उत्तेजना और उतार-चढ़ाव भी उत्पन्न होने लगता है। यह दिव्य ध्वनियाँ बड़ी मोहक और आनन्ददायक होती हैं। इनकी तुलना सर्प को, मृग को मोहने वाले वीणा निनाद से की जाती है। नारद की वीणा, शंकर का डमरू, सरस्वती का सितार अलंकार रूप में इस नादयोग के रहस्यों का ही उद्घाटन करने वाले संकेत हैं। कल्प साधना के साधकों की कुटियाओं में दिव्य ध्वनियाँ सुनने का प्रारम्भिक अभ्यास करने के लिए संगीत टेप सुनने का प्रबन्ध है। इससे ध्वनि तरंगों के साथ अन्तराल को लहराने का अवसर मिलता है और कुछ समय बाद इस सहायता के बिना भी नादयोग का अभ्यास स्वयमेव चल पड़ता है।

(३) लय योग-कला साधना में तीसरा अनिवार्य अभ्यास लययोग का है। इसमें शरीराभ्यास को आत्मसत्ता के साथ समर्पित विसर्जित करना पड़ता है। आमतौर से मनुष्य अपने आपको शरीर भर मानता है और उसी की इच्छा, आवश्यकता पूरी करने में जुटा रहता है। आत्मा को उसके स्वरूप, लक्ष्य एवं उत्तरदायित्व को तो एक प्रकार से विस्मृत ही किये रहता है। यह वह भटकाव है, जिसे मायापाश, भव बन्धन आदि नामों से पुकारते हैं।

ध्यानमुद्रा में बैठकर दर्पण को सामने रखा जाता है। साधकों के कमरे में इसी प्रयोजन के लिए एक बड़ा दर्पण रखा गया है। साधना के समय अपने स्वरूप के भीतर ही परमात्मा की सत्ता का अनुभव अभ्यास किया जाता है। अपने चेहरे पर सज्जा सौन्दर्य की नहीं, एक विशेष दृष्टि डाली जाती है कि इस माँस-पिण्ड के भीतर सृष्टा का प्रतिनिधित्व करने वाली आत्मसत्ता विद्यमान है। वही इस काया की अधिष्ठात्री है। उसी का उत्कर्ष परम लक्ष्य है। काया उसी प्रयोजन की पूर्ति का वाहन, साधन, उपकरण मात्र है। शरीर की सार्थकता आत्मा के प्रति वफादार, जिम्मेदार और ईमानदार रहने में ही है। आत्मा काया का पोषण तो सही रूप से करे, पर साथ ही यह भी ध्यान रखे कि उसे उच्छृंखल बनाने वाली वासना, तृष्णा, अहंता के आक्रमण से सुरक्षा का प्रबन्ध भी होता रहे।

छाया पुरुष साधना से अपने समतुल्य एक और व्यक्तित्व का निर्माण कर लिया जाता है और वह एक अभिन्न मित्र एवं समर्थ सेवक की तरह निरन्तर साथ देता तथा सहायता करता है। दर्पण साधना से भी उस छाया साधना की उद्देश्य पूर्ति होती है।

बंध-इन तीन योग साधनाओं के साथ ही चक्रों पर सूक्ष्म प्रभाव डालने वाले बंध अभ्यासों की चर्चा भी अभीष्ट है। ध्यानयुक्त साधनाओं में इनका प्रतिफल मानसिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष के रूप में मिलता है। बंध कुल तीन हैं। मूलबंध, जालंधर बंध, उड्डियान बंध। सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के स्वतन्त्र प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करने वाली ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि इन अभ्यासों से शीघ्र खुल जाती है। बंध मुख्यतः प्राण-प्रवाह के नियंत्रण हेतु किये जाते हैं, जिनका सुनियोजन ध्यान प्रक्रिया द्वारा किया जाता है।

प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्रों को सिकोड़कर ऊपर खींचे रहना मूलबंध कहलाता है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में इससे स्फुरण होता है। चूँकि यह मनुष्य के मूल को बाँधता है, अपव्यय के मार्ग को अवरुद्ध करता है, इसलिए यह नाम दिया गया है।

मस्तक को झुकाते हुए ठोड़ी को कण्ठकूप से लगाने की प्रक्रिया जालन्धर बन्ध कहलाती है। इस बंध का भावार्थ है जाल को धारण करना अर्थात ज्ञानतन्तुओं को स्थिर नियोजित करना। चित्तवृत्ति शान्त होती है तथा एकाग्रतापूर्वक ध्यान योग की सिद्धि में सफलता मिलती है।

पेट में स्थित आँतों को पीठ की ओर खींचने की क्रिया को उड्डियान बंध कहते हैं। यह अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी बनने की स्थिति की पहली सीढ़ी है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खोलने हेतु यह सर्वश्रेष्ठ योगाभ्यास है। ये तीनों ही क्रियाएँ कल्पकाल में साधकों को उनकी स्थिति आवश्यकतानुसार बताई समझाई जाती हैं। निरापद लेकिन फलदायी इन क्रियाओं का प्रयोग जब उपरोक्त योग साधनाओं व उपयुक्त प्राणायामों के सम्मिश्रण के साथ किया जाता है, तो साधक अपने में अप्रत्याशित परिवर्तन पाते हैं।

साधकों के हर कमरे में इस साधना व्यवस्था के सूत्र संचालक के साथ सम्पर्क साधने-सत्संग करने की सुव्यवस्था है। ध्वनि प्रसारण यन्त्र के माध्यम से प्रवचन प्रातःकाल नित्य नियमित रूप से उन्हें सुनने को मिलते हैं। यह न केवल परामर्श मार्गदर्शन है, वरन् इसके साथ प्राण ऊर्जा का अनुदान भी जुड़ा रहता है। इस आधार पर प्राण पुँज के साथ अपनी निकटता घनिष्ठता का भी लाभ मिलता रहता है। इसके साथ ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है-कल्पकाल की अवधि में साधक का चिन्तन। साधकों को प्रारम्भ में ही निर्देश दे दिये जाते हैं कि सत्रकाल में निर्धारित दिनचर्या सम्पन्न करने के साथ ही चिन्तन को एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित रखा जाय कि भूतकाल की कुसंस्कारिता, अनगढ़ता से, लोभ, मोह और अहंकार के भव बंधनों से पीछा कैसे छुड़ाया जाय? जीवन-मुक्ति का आनन्द कैसे लिया जाय? साधना याचना नहीं होती और न उस कारण कहीं आसमान से वरदान उपहार बरसते हैं। आत्मशोधन और आत्म-परिष्कार के निमित्त किया गया मंथन और उच्च स्तर के निर्धारण ही वास्तविक योगाभ्यास है। तपश्चर्या का उद्देश्य है सुविधा, लिप्सा की ललक से विमुख होकर आदर्शों के परिपालन में आवश्यक माने गये संयम और कष्ट सहने का अभ्यास। इसी ढाँचे में अपने को ढालने के लिए सत्र काल में मान्यता, भावना, विचारणा एवं आकांक्षा में उत्कृष्टता के अधिकाधिक समावेश में प्रयत्नरत रहना चाहिए।

कल्प सत्र के शिक्षार्थियों को आरम्भ में ही एक दो दिन के भीतर अपनी व्यक्तिगत एवं सांसारिक कठिनाइयों, आवश्यकताओं के सम्बन्ध में संचालकों से परामर्श कर लेना चाहिए। उन्हीं समस्याओं में न उलझे रहना चाहिए। सत्र का पूरा समय इस प्रकार व्यतीत करना चाहिए कि अन्तर्मुखी, आत्म मंथन के लिए एक विशिष्ट सुयोग की संज्ञा मिल सके। पर्यटकों जैसी चंचल मनोवृत्ति रखने और इधर-उधर भटकने की भाग-दौड़ में साधना का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। इसी से पर्यटन में रुचि रखने वाले स्त्री, बच्चों, वयोवृद्धों, अशिक्षित, अनगढ़ों को साथ लेकर चलने की मनाही कड़ाई के साथ कर दी गई है। घुमक्कड़पन की चंचलता और साधना सत्र की अन्तर्मुखी एकाग्रता के साथ किसी प्रकार संगति नहीं बैठती।

सत्रकाल पूरा होने से पूर्व किन्हीं निष्कर्षों पर पहुँच जाना चाहिए। (१) सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन को अलभ्य सौभाग्य माना जाय और उसकी सार्थकता के लिए उस अवधि को आत्म-कल्याण और लोकमंगल के लिए निरत रखा जाय। (२) शरीर को ही सब कुछ न माना जाय। आत्मा का भी हित सोचा जाय। अपनी क्षमताओं तथा सम्पदाओं का उपयोग आत्म-कल्याण के निमित्त आवश्यक पुण्य परमार्थ में भी उपयुक्त मात्रा में नियोजित रखा जाय। (३) भगवान को परिवार के एक सदस्य जितना तो माना ही जाय। उसके निमित्त इतना मन तथा धन तो खर्च किया ही जाय, जितना कि एक परिवार पर होता है। (४) औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाया जाय। परिवार छोटा रखकर स्वावलम्बी एवं सुसंस्कारी बनाया जाय। इसके लिए औचित्ययुक्त कर्तव्य पालन ही पर्याप्त समझा जाय। विलास संग्रह और उत्तराधिकार में बहुत छोड़ने की ललक पर अंकुश लगाया जाय। क्षमता को समयदान में और सम्पदा को अंशदान में कितना अधिक लगाया जा सकता है, उसकी सम्भावना पूरी तरह परखी और कार्यान्वित की जाय। (५) भावी जीवन को महामानव स्तर का बनाने की उमंग लेकर वापिस लौटा जाय। इसके लिए गुण, कर्म, स्वभाव में आदर्शवादी परिवर्तन किया जाय। अंगों की कार्य पद्धति, विधि व्यवस्था एवं रीति-नीति ऐसी बनाई जाय, जिसके सहारे क्षुद्रता को महानता में परिवर्तित कर सकना सम्भव हो सके।

इन निर्धारणों को दिनचर्या और परिवार क्षेत्र में प्रयुक्त करते रहने से उन्हें व्यवहार में उतारना एवं समाज क्षेत्र में कार्यान्वित कर सकना संभव हो सकता है। अस्तु अपनी जीवनचर्या, दिनचर्या एवं परिवार चर्या को नये सिरे से नये निर्धारणों के अनुरूप ढालने के लिए सुव्यवस्थित योजना बनाकर वापिस लौटा जाय और उसकी पूर्ति हेतु अगले दिनों निरन्तर प्रयत्नरत रहने का निश्चय किया जाय।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार