गायत्री मंत्र क्यों और कैसे जपें?

गायत्री मंत्र क्यों जपें?

मित्रो! अध्यात्म में जो शिक्षण हम प्राप्त करते हैं, उसको जीवन में उतारना पड़ता है। इससे कम में कोई बात बनती नहीं, गाड़ी आगे बढ़ती नहीं। उच्चारण हमारे लिए आवश्यक तो है, पर काफी नहीं है । राम नाम या गायत्री मंत्र तो सभी याद कर लेते हैं।.....अक्षर याद कर लेने भर से अध्यात्म का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता, जैसा कि आम लोगों का ख्याल है। आम लोगों को मुद्दतों से इसी तरह बहकाया जाता रहा है कि अक्षर याद कीजिए, अक्षरों का उच्चारण कीजिए और स्वर्गलोक को चले जाइए। पर ऐसा होता नहीं है। शुरुआत हम राम नाम से करें, ठीक है । नाम तो लेना ही पड़ता है। नाम नहीं लेंगे तो बात कैसे बनेगी? जिस तक पहुँचना है उसका नाम तो लेना ही पड़ेगा । स्टेशन का नाम बताए बिना तो उसका टिकट भी नहीं मिलता।.....लेकिन अगर नाम के उच्चारण तक ही सीमित रहा गया तो समझना चाहिए कि जिस तरीके से सुग्गा (तोता) राम नाम और गायत्री मंत्र को बोलता रहता है, पर लाभ कुछ नहीं पाता, उसी तरह उससे कम या अधिक लाभ आपको भी नहीं मिलेगा।

नाम उच्चारण आवश्यक है, पर इससे आगे उसे हमारी अंतरात्मा में इस गहराई तक समा जाना चाहिए कि वह हमारे व्यवहार में उतरने लगे।.....हम भी बार-बार गायत्री मंत्र याद करने की बात कहते हैं और अभी २४ हजार का जप करा रहे हैं। आप यह पूछ सकते हैं कि उसे चाहे हम एक बार जप कर लें या २४ हजार बार। फिर आप बार-बार क्यों कराते हैं? उससे क्या फायदा? गायत्री मंत्र याद भी हो गया और उसका अर्थ भी हम समझ गए कि हे भगवान हमारी बुद्धि को शुद्ध-पवित्र बना दीजिए। आप यही रेपिटिशन बार-बार क्यों कराते हैं? किस काम के लिए कराते हैं? आपको यह सवाल करना चाहिए और इसका जवाब मालूम करना चाहिए।

साथियो! रेपिटिशन इसलिए कराते हैं कि हमारा मस्तिष्क बड़ा भुलक्कड़ है। ऐसा भुलक्कड़ है कि इससे ज्यादा भुलक्कड़ इस दुनिया में कोई होगा क्या? जहाँ तक भौतिक जीवन का सवाल है, वहाँ तक हम और आप बिल्कुल सही हैं, कभी भुलक्कड़ नहीं हो सकते। इस मामले में हमारा दिमाग बहुत चालाक है, लेकिन इस मामले में वह इतना वाहियात है कि हम अपने जीवन-लक्ष्य को अनायास ही भूल जाते हैं। हम कौन हैं? हमारा क्या लक्ष्य है? हमारा क्या कर्तव्य है? हमारे जीवन का स्वरूप क्या है? हमको मालूम नहीं है । मूल चीज को हम एकदम भूल जाते हैं। बाहर की सब चीजें हमको याद रहती हैं कि दुकान में कितना नफा होगा, किसका लेना है, किसका देना है, आदि बातें हमको ऐसे याद रहती हैं कि कभी भी उसमें भूल नहीं पड़ती। लेकिन जहाँ तक अपनी जीवात्मा का सवाल है, परमात्मा का सवाल है, इसमें भूल पर भूल होती चली जाती है। इसलिए इस भुलक्कड़पन को दूर करने के लिए हम बार-बार आपसे गायत्री मंत्र का जप कराते हैं, ताकि आपकी जीवात्मा में वह घुल जाए और आपके स्मरण में, अंतःचेतना में उसको प्रवेश करने का मौका मिल जाए। ग्रामोफोन के रिकार्ड के तरीके से हमारी जीभ की नोंक कई तरह से अक्षरों का, मंत्रों का उच्चारण कर लेती है, पर हमारे जीवन में वे समाविष्ट नहीं हो पाते, प्रवेश नहीं कर पाते। फलतः हमको बार-बार याद करना पड़ता है। उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को जीवन में प्रवेश कराने के लिए, अंतःचेतना में नए संस्कार जमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। जिस तरह इम्तहान की तैयारी के लिए उसे बार-बार याद करना पड़ता है, उसी प्रकार हम आपको गायत्री मंत्र के जप के रूप में बार-बार रेपिटिशन कराते हैं ताकि आपकी याददाश्त में से जो बेशकीमती चीज भूल गई, उस गँवाई हुई चीज को आप तलाश पाएँ।.....

हम आपको जो बार-बार जप कराते हैं, उसके कई प्वाइंट हैं। पहला प्वाइंट मैंने आपको शिक्षक-छात्र का पढ़ने-पढ़ाने का बताया है। दूसरा व्यायामशाला का। व्यायामशाला में आप जाइए और पहलवान जी से पूछिए क्यों साहब, क्या हो रहा है? आप कितने दंड-बैठक करते हैं? उत्तर मिलेगा 200-300 बैठक करते हैं। यह क्या है? रेपिटिशन जिसे बार-बार करना पड़ता है। मिलिट्री वाले लेफ्ट-राइट और कवायद के रूप में रोज रियाज करते रहते हैं। संगीत को जानने वाले रोज अपना रियाज करते रहते हैं। रियाज हाथ से गया कि संगीत हाथ गया। स्नान करने और दाँत माँजने में हम रोज रेपिटिशन करते हैं। बर्तन साफ करते हैं तब, कपड़े साफ करते हैं तब, यह सब रेपिटिशन है। मन के ऊपर जो मलीनताएँ छाई हुई हैं, उसे धोने के लिए राम-नाम के माध्यम से, बार-बार जप करने के माध्यम से रेपिटिशन करना पड़ता है।.....हम बार-बार भगवान को पुकारते हैं कि हे भगवान! आप कहाँ हैं? आइए | हमारी जीवात्मा! आप कहाँ हैं? आइए। हमारे जीवन-लक्ष्य, हमारे उद्देश्य, हमारे जीवन की महानता आप कहाँ हैं? हे हमारे आदर्श! आप कहाँ हैं? आप आइए और हमको ले करके चलिए। बेटे, इसी के लिए हम जप कराते हैं आपसे।.....

जप का मोटा उद्देश्य तो मैं कितनी बार आपको समझाता रहा हूँ। गायत्री मंत्र का टाइपराइटर से उदाहरण देता रहा हूँ। मंत्र का हमारी जीभ से उच्चारण होता है। इससे शक्तिकेन्द्र खुल जाते हैं। बार-बार एक लयबद्ध और क्रमबद्ध शब्दों के उच्चारण करने से एक गति पैदा होती है—शब्द की गति। लोहे के पुल के ऊपर से फौजी कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तो क्रमबद्ध एक लय उत्पन्न होती है, जिससे पुल के गिरने का जोखिम पैदा हो जाता है। इसलिए उन्हें कदम से कदम मिलाकर पुल पर चलने से मना कर दिया जाता है। इसी तरह एक लयबद्ध, दिशाबद्ध, क्रमबद्ध ढंग से उच्चारण किया हुआ शब्द इतना शक्तिशाली हो जाता है, जिसे समझाना मेरे लिए मुश्किल है। लेकिन साइंस के साथ मैं आपको समझा सकता हूँ, कि बार-बार एक ही शब्द को, एक ही गति से, एक चक्र से घुमा देने से ‘सेंट्रीफ्यूगल फोर्स’ पैदा हो जाती है। श्रेष्ठ शब्दों के गुंथन और बार-बार उनके उच्चारण के माध्यम से हमारे भीतर सेंट्रीफ्यूगल फोर्स पैदा हो जाती है। इसके अतिरिक्त बार-बार एक ही शब्दोच्चारण का एक साइकोलाजिकल प्वाइंट भी है। पैरासाइकोलॉजी एवं मेटाफिजिक्स के हिसाब से हमारी चेतना चार हिस्सों में बँटी हुई है, जिसे प्रशिक्षित करने के लिए चार आधार और स्तर हैं। पहला वाला स्तर जिसको हम ‘लर्निंग’ कहते हैं। यह दिमाग का वह स्तर है, जो केवल एक बात को समझा देने से जानकारी मिल जाती है, जैसे आपको बता दिया कि ऋषिकेश यहाँ से 22 मील दूर है। इसकी जानकारी आपको हो गई। दूसरी परत वह है जिसे हम ‘रिटेंशन’ कहते हैं अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। जिस बात को हम निरंतर करते रहते हैं, बहुत दिनों बाद वह हमारे स्वभाव में शामिल हो जाती है, आदत में शामिल हो जाती है। यह रिटेंशन कहलाता है। एक और परत है, जिसमें बहुत सी चीजें दबी हुई पड़ी रहती हैं और बड़ी मुश्किल से ही कभी-कभी याद आ जाती हैं। चेतना की इस परत में बहुत सारी चीजें दबी हुई पड़ी होती हैं, जिन्हें हम भूल गए हैं। भूली हुई उन चीजों के ऊपर जब हम जोर देते हैं, उन पर प्रकाश फेंकते हैं तो वे स्मृतियाँ उठकर खड़ी हो जाती हैं, जाग जाती हैं, जिसे ‘रीकाल’ कहते हैं। आखिरी परत है—‘रीकॉग्नीशन।’ रीकॉग्नीशन उसे कहते हैं, जिसमें कि मान्यताएँ, आस्थाएँ, निष्ठाएँ और विश्वास जम जाते हैं। एक के बाद एक परत मिलती हुई चली जाती हैं। जप के द्वारा, उपासना के द्वारा अपनी जीवात्मा को उस स्थिति पर ले जाना पड़ता है जिसमें कि ‘रीकॉग्नीशन’ की स्थिति पैदा हो जाती है।

‘सियाराममय सब जग जानी’ यह वाक्य हमने हजार बार पढ़ा और हजार बार सुना है, लेकिन हमारे भीतर न राम के प्रति भावना पैदा होती है और न सिया के प्रति भावना पैदा होती है। हर आदमी हमें शिकार मालूम पड़ता है, हर मर्द शिकार मालूम पड़ता है, हर औरत शिकार मालूम पड़ती है। जबान से हम कहते हैं तो क्या बना? रीकॉग्नीशन नहीं हो सका। मान्यताएँ, निष्ठाएँ परिपक्व नहीं हो सकीं। निष्ठाओं को परिपक्व करने के लिए बराबर रस्सी से जिस तरीके से पत्थर के ऊपर निशान बनाने के लिए रगड़ करनी पड़ती है, उसी तरीके से जप के द्वारा, उपासना के द्वारा बार-बार रगड़ बना करके अपनी अंतःचेतना के ऊपर निष्ठाएँ जमानी पड़ी हैं। इसीलिए हम आपको जप कराते हैं, इस तथ्य को आप लोग ध्यान रखना। आप जप करने का स्वरूप समझिए, कारण समझिए । किस कारण से जप कराते हैं, वह वजह समझिए। अगर आप समझ जाएँगे तो ठीक है, फिर आपको जप करना हो तो करना और न करना हो तो मत करना, पर कम से कम आपकी मान्यता तो सही होनी चाहिए। मान्यताएँ सही हो जाएँ, जानकारी सही हो जाए तो ठीक है । तब आप समझना कि पचास फीसदी मंजिल पार कर ली। आगे आपकी मर्जी।

—पूज्यवर की अमृतवाणी वाङ्मय ६८, पृ.२.६१-६४




गायत्री मंत्र कैसे जपें?

मात्र अक्षर दोहरा लेने से तो स्कूली बच्चे प्रथम कक्षा में ही बने रहते हैं। उन्हें प्रशिक्षित बनने के लिए वर्णमाला, गिनती जैसे प्रथम चरणों से आगे बढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र के साथ जो विभूतियाँ अविच्छिन्न रूप से आबद्ध हैं, मात्र थोड़े से अक्षरों को याद कर लेने या दोहरा देने से उनमें वर्णित विशेषताओं को उपलब्ध करना नहीं माना जा सकता। उनमें सन्निहित तत्त्वज्ञान पर भी गहरी दृष्टि डालनी होगी। इतना ही नहीं, उसे हृदयंगम भी करना होगा और जीवनचर्या में नवनीत को इस प्रकार समाविष्ट करना होगा कि मलीनता का निराकरण तथा शालीनता का अनुभव संभव बन सके।

तत्त्वज्ञान मान्यताओं एवं भावनाओं को प्रभावित करता है। इन्हीं का मोटा स्वरूप चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार है। गायत्री का तत्त्वज्ञान इस स्तर की उत्कृष्टता अपनाने के लिए सद्विषयक विश्वासों को अपनाने के लिए प्रेरणा देता है।

गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। उसके तीन चरण हैं । उद्गगम एक होते हुए भी उसके साथ तीन दिशाधाराएँ जुड़ती हैं—

(१) सविता के भर्ग-तेजस् का वरण अर्थात् जीवन में ऊर्जा एवं आभा का बाहुल्य | अवांछनीयताओं से अंतःऊर्जा का टकराव । परिष्कृत प्रतिभा एवं शौर्य-साहस इसी का नाम है | गायत्री के नैष्ठिक साधक में यह प्रखर प्रतिभा इस स्तर की होनी चाहिए कि अनीति के आगे न सिर झुकाए और न झुककर कायरता के दबाव में कोई समझौता करे।

(२) दूसरा चरण—देवत्व का वरण अर्थात् शालीनता को अपनाते हुए उदारचेता बने रहना; लेने की अपेक्षा देने की प्रवृत्ति का परिपोषण करना; उस स्तर के व्यक्तित्व से जुड़ने वाली गौरव-गरिमा की अंतराल में अवधारणा करना । यही है 'देवस्य धीमहि ।'

(३) तीसरा सोपान है—'धियो यो नः प्रचोदयात् मात्र अपनी ही नहीं, अपने समूह, समाज व संसार में सद्बुद्धि की प्रेरणा उभारना—मेधा, प्रज्ञा, दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर-क्षीर विवेक में निरत बुद्धिमत्ता।

गायत्री का तत्त्वज्ञान समझने और स्वीकारने वाले में ये तीनों ही विशेषताएँ न केवल पाई जानी चाहिए वरन् उनका अनुपात निरंतर बढ़ते रहना चाहिए। इस आस्था को स्वीकारने के उपरांत संकीर्णता व कृपणता से अनुबंधित ऐसी स्वार्थरता के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि उससे प्रभावित होकर कोई दूसरों के अधिकारों का हनन करके अपने लिए अनुचित स्तर का लाभ बटोर सके—अपराधी या आततायी कहलाने के पतन-पराभव अपना सके।

इस आधार पर इसे ईश्वरीय निर्देश, शास्त्र-वचन एवं आप्तजन-कथन के रूप में अपनाया जा सकता है। गायत्री के विषय में गीता का वाक्य है—'गायत्री छंदसामहम्' । भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'छंदों में गायत्री मैं स्वयं हूँ,' जो विद्या-विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति योग में प्रकट हुई है।
— आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना

नाम-जप का तात्पर्य है—जिस परमेश्वर को, उसके विधान को आमतौर से हम भूले रहते हैं, उसको बार-बार स्मृति-पटल पर अंकित करें, विस्मरण की भूल न होने दें। सुरदुर्लभ मनुष्य-जीवन की महती अनुकंपा और उसके साथ जुड़ी हुई स्रष्टा की आकांक्षा को समझने, अपनाने की मानसिकता बनाए रहने का नित्य प्रयत्न करना ही नाम-जप का महत्त्व और माहात्म्य है। साबुन रगड़ने से शरीर और कपड़ा स्वच्छ होता है। घिसाई-रंगाई करने से निशान पड़ने और चमकने का अवसर मिलता है। जप करने वाले व्यक्तित्व को इसी आधार पर विकसित करें।
—जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

आप ऐसे कीजिए कि मन्त्र के साथ-साथ में आपने पढ़ा होगा—योगशास्त्र में लिखा है—क्या लिखा है? मन्त्र को अर्थ समेत जपना चाहिए । अर्थ समेत आप कहाँ जपते हैं? ये गलत बात है। गायत्री मन्त्र की जिस प्रकार से बोलने की स्पीड है, उस तरह से विचार की स्पीड नहीं हो सकती। 'भू' का अर्थ ये है, 'भुवः' का अर्थ ये है, तत् का अर्थ ये है। इस प्रकार से अर्थचिन्तन के साथ जप का समन्वय सम्भव नहीं और देखें जुबान कितनी तेजी से चलती है। अर्थ का चिंतन कितने धीमे से होता है? जप के साथ चिंतन नहीं हो सकता | गलत कहा है—गलत या तो गलत लिखा है या आपने गलत समझा है । गलत क्या बात है? इसका अर्थ ये है—कोई आप कृत्य करते हैं। प्रत्येक कृत्य को पीछे ये पता चलाना पड़ेगा । क्या पता चलाना पड़ेगा कि इसके पीछे प्रेरणा क्या है? शिक्षा क्या है? स्थूल शरीर से आप प्रतीकों का पूजन करेंगे, चावल चढ़ाएँ हाथ जोड़ें, नमस्कार करें, माला घुमाएँ, मन्त्र का उच्चारण करें। ये स्थूल शरीर की क्रियाएँ हैं। इतने से काम बनने वाला नहीं । फिर क्या करना चाहिए? आदमी को ये करना चाहिए कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के पीछे की विचारणाएँ, प्रेरणाएँ समझें । विचारणाएँ क्या हैं? प्रत्येक कर्मकाण्ड हमको कुछ शिक्षा देता है, कुछ नसीहत देता है, कुछ उम्मीदें कराता है। आपने उपासना की है, कर्मकाण्ड किया है, तो इस कर्मकाण्ड के माध्यम से जो आपको अपने जीवन में हेर-फेर करने चाहिए, विचारों में परिवर्तन करने चाहिए, उस परिवर्तन के लिए आप विचारमग्न हों और विचार करें कि आखिर ये क्यों किया जाए? आप तो कर्मकाण्ड करते रहते हैं और ये विचार तक नहीं करते कि क्यों करते हैं? वेदान्त का, फिलॉसफी का पहला वाला सूत्र है, क्या सूत्र है? ब्रह्म-जिज्ञासा । पहला काम ये है कि आप जानिए । ये क्या चक्कर है? गायत्री माता की मूर्ति हो, तो आप ये पूछिए कि क्या बात है साहब! हमने तो मूर्ति रख दी और दण्ड पेल रहे हैं। दण्ड पेलिये मत। पहला काम ये है कि समझो ।

क्यों और क्या? पहले यहाँ से चल । भजन पीछे करना । ये क्या चक्कर है? पहले ये पूछना, फिर इसके बाद शुरू करना । ये आपकी क्या है? जिज्ञासा है। प्रत्येक कर्मकाण्ड देखने से खिलवाड़ मालूम पड़ते हैं—बच्चों जैसे । खिलवाड़ मालूम पड़ते हैं।.....मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको ये करना पड़ेगा कि क्रिया के साथ-साथ में शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ आपको समझनी चाहिए और समझनी ही नहीं वरन् हृदयंगम भी करनी चाहिए।

—पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी वाङ्मय ६८, पृ.४.२२