अगले दिनों बहुत बड़े कदम उठाने होंगे
महिला जागरण अभियान का शुभारम्भ श्रीगणेश युग-निर्माण योजना के परिजन सृजन सेना के सैनिक मिल-जुलकर अपने घर परिवार से आरम्भ कर रहे हैं । आज की नारी इस स्थिति में नहीं है कि इतने व्यापक वजनदार अभियान को अपने कन्धों पर वहन कर सके । घायल व्यक्ति को तो सहारा देकर उठाने का प्रयत्न करना होता है, उससे वजन लादकर चलने के लिये नहीं कहा जा सकता है । पैर टूट जाने की स्थिति में घायल को कन्धे पर रख कर ले चलना पड़ता है । वह अपनी भारी पोटली लेकर नहीं चल सकता । अस्तु उस सामान को लेकर चलने का प्रबन्ध भी उन्हीं को करना पड़ता है जो उसे सहारा देकर उठाने और अस्पताल पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
अपने देश में सुशिक्षित और सुयोग्य महिलाओं की संख्या कम है । जो हैं वह अपनी नौकरी-चाकरी तथा घरेलू काम-काज में बेतरह व्यस्त हैं । सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकने और उस दिशा में निरन्तर श्रम करने की स्थिति में जो हैं उनमें से कदाचित ही कुछ इस दिशा में सोचती हैं । यदि वे चाहें तो भी वे अपने पास-पड़ोस के छोटे से क्षेत्र में ही कुछ कर सकती हैं । देशव्यापी अभियान वे कठिनाई से ही चला सकेंगी या आन्दोलन का दफ्तर खोलने, भाषण, प्रस्ताव करने, लेख लिखने जैसे छुटपुट काम करने में आगे कदाचित ही बढ़ सकेंगी । समय की पुकार इस अभियान को आँधी-तूफान की तरह व्यापक बना देने की है । उसे दावानल की तरह द्रुतगामी और गगन चुम्बी बनना चाहिए । इसलिए इसका प्रथम उत्तरदायित्व प्रगतिशील पुरुष-वर्ग पर डाला गया है और जोर देकर कहा गया है कि पश्चात्ताप—प्रायश्चित्य के रूप में भी और उज्ज्वल भविष्य की अनिवार्य आवश्यकता समझ कर भी नारी पुनरुत्थान का सूत्र संचालन उसी को करना चाहिए ।
नारी अग्रिम मोर्चे पर खड़ी जरूर होगी, पर उसे इसकी सफल भूमिका निभा सकने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए उसी को अपने घरों की नारियाँ आगे धकेलनी होगी । प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन, अवकाश देने से लेकर साधन जुटाने के लिए उसे पर्दे के पीछे रहकर पूरा-पूरा योगदान देना होगा । इसी आशा के साथ इस महान अभियान का आरम्भ किया गया है और विश्वास किया गया है कि सन् ७५ के अन्त तक सङ्गठन, सत्सङ्ग, प्रचार और पाठशाला के चारों चरण पूरा करते हुए महिला जागरण अभियान इस स्थिति नक पहुँच जायगा कि वह अपने पैरों खड़ा हो सके और उस भूमिका में प्रवेश कर सके जहाँ नारी नर के समान ही सामर्थ्य सम्पन्न हो सके और उसके कन्धे से कन्धा मिलाकर प्रगति पथ पर बढ़ चलने का साहस दिखा सके ।
प्रारम्भिक ढाँचा मजबूत पैरों पर खड़ा होते ही—चिन्तन और कार्य क्रम को सुविस्तृत बनाना होगा और तदनुरूप योजनाएँ बनानी होंगी । समस्या आधी जनसंख्या की है और उस पिछड़ेपन की है जो एक हजार वर्ष से क्रमशः सघन और भारी ही होता चला आया है । टूटी हुई नारी को उठाना और नर को उपलब्ध निरंकुशता की पकड़ ढीली करने के लिए मनाना यह दुहरी कठिनाई है । क्षेत्र की व्यापकता और कार्य की गुरुता को देखते हुए सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके लिए कितने अधिक प्रयत्न करने होंगे और कितने बड़े साधन जुटाने होंगे । नारी पुनरुत्थान का कार्य स्वतन्त्रता आन्दोलन जीतने से कहीं अधिक बड़ा काम है । जिनने भारतीय स्वाधीनता का इतिहास पढ़ा है, उसे निकट से देखा है वे जानते हैं कि उसमें कितनी जनशक्ति और साधन शक्ति झोंकनी पड़ी थी । नारी पुनरुत्थान के लिए उससे बड़ा ही चक्रव्यूह रचना होगा और उससे अधिक ही साधन जुटाने का प्रयत्न करना होगा । इस सन्दर्भ में कुछ ध्यान रखने योग्य तथ्य इस प्रकार हैं—
(१) जन-साधारण के मस्तिष्क में नारी पुनरुत्थान की आवश्यकता—उपयोगिता बिठाने और उसे पद-दलित स्थिति में रखने की हानियाँ समझाने के लिए इतना बड़ा प्रचार तन्त्र खड़ा करना पड़ेगा जो शिक्षित और अशिक्षित—नर और नारी—सभी को वस्तुस्थिति समझा सके । परिवर्तन के लिए आकुलता उत्पन्न कर सकें । इसके लिए लेखनी, वाणी एवं अन्य कला स्रोतों से जितने प्रकार के साधन सम्भव हो सकते हैं वे सभी जुटाये जाँय । निबन्ध, उपन्यास, कविताएँ, पत्रिकाएँ, पुस्तिकाएँ लिखने, छापने और घर-घर पहुँचाने का व्यापक प्रबन्ध किया जाय । भाषण, गायन, अभिनय, नाटक, फिल्म आदि सभी श्रव्य और दृश्य उपायों को इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जाय । हजार वर्ष की रूढ़ि मान्यताएँ जो अब एक प्रकार से मान्यता प्राप्त परंपराएँ बन चुकी हैं, उन्हें बदलने की इच्छा उत्पन्न करने के लिए उतने व्यापक साधन होने चाहिए जो समूची मनुष्य जाति को झकझोर कर रख सकें ।
(२) आज की अशिक्षित नारी को शिक्षित बनाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा का इतना बड़ा सङ्गठित प्रयास हो कि उसके प्रभाव क्षेत्र में समूचा राष्ट्र आ सके । इसे युग धर्म माना जाय और उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ अनुदान प्रस्तुत करने के लिए कहा जाय । तीसरे प्रहर दो से पाँच बजे चलने वाली प्रौढ़ महिला पाठशालाओं का प्रबन्ध गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में किया जाय । शिक्षित नारियाँ इनमें अध्यापन के लिए समय दें । प्रत्येक घर में मुट्ठी अनाज या दस पैसा प्रतिदिन संग्रह करने वाले ज्ञानघट स्थापित किये जाँय । उनसे महिला पाठशाला तथा चलते-फिरते पुस्तकालय के आवश्यक साधन जुटाये जाँय । इन पाठशालाओं में मनुष्य जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति, परिवार और समाज का पुनर्निमाण करने वाला पाठ्य-क्रम रहे । साथ ही सङ्गीत और गृह उद्योगों की शिक्षा भी सम्मिलित रहे । जहाँ सम्भव हो पूरे समय के कन्याओं एवं महिलाओं के लिए नये विद्यालय खड़े किये जाँय और पुरानों को विकसित किया जाय ।
(३) आर्थिक स्वावलम्बन के लिए कुटीर उद्योग सिखाने की व्यवस्था हो । कच्चा माल पहुँचाने और तैयार माल लेकर बेचने वाली सहकारी समितियाँ हर जगह खड़ी की जाँय । फालतू समय में सदुपयोग करने—कुछ कमा लेने और कुशलता विकसित करने की दृष्टि से यह व्यवस्था नितान्त आवश्यक है । विधवाएँ, परित्याक्ताओं तथा दूसरी अभावग्रस्त महिलाओं को नियमित काम देने और निवास की व्यवस्था करने वाली महिला शिल्प शालाएँ जगह-जगह स्थापित हों ताकि निराश्रिताएँ तिनके की तरह उड़ते फिरने की अपेक्षा कुछ निश्चित आधार प्राप्त कर सके । ऐसी महिलाओं की संख्या इन दिनों निरन्तर बढ़ती ही जा रही हैं ।
(४) सामान्य धातृ विद्या सिखाने के लिए हर जगह प्रबन्ध हो । प्रसूतिशालाएँ चलें । शिक्षित दाइयाँ प्रसव में सहायता देने के लिए उपलब्ध रहें । पिछड़े क्षेत्र में इस जानकारी के अभाव से हर साल लाखों मृत्यु होती हैं और अगणित महिलाएँ इसी कुचक्र में जीवन भर के लिए भयङ्कर यौन रोगों से ग्रसित हो जाती हैं । इनका जीवन बनाने के लिए हर जगह प्रबन्ध हो । प्रजनन सीमित करने की आवश्यक शिक्षा भी इन्हीं केन्द्रों में दी जाय और अनचाही एवं अनावश्यक सन्तान रोकने के लिए क्या सतर्कता रखी जानी चाहिए इन जानकारियों के होने से अत्यधिक सन्तान के भार से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गँवा बैठने वाली नारी को बहुत राहत मिल सकती है ।
(५) शिक्षा, आजीविका, चिकित्सा आदि के आवश्यक कार्यों के लिए जाते समय बच्चों को सँभालने, खिलाने वाले ऐसे शिशु गृह बनाये जाँय जिनमें उतने समय तक बच्चों को सँभालने की व्यवस्था रहे और महिलाएँ उतने समय तक अन्य आवश्यक कार्य कर सके । घर में खेलने और ज्ञानवर्धन का अभाव रहने से बच्चों की आदतें बिगड़ती हैं उसकी कमी भी इन शिशु गृहों में पूरी होती रहेगी । उनकी आयु के हिसाब से अच्छी आदतें डालने, ज्ञान बढ़ाने और स्वास्थ्य सँभालने का कार्य भी इन शिश गृहों के माध्यम से होता रह सकेगा ।
(६) घर परिवार की आवश्यक वस्तु शुद्ध और सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करने वाली महिला सहयोग समितियाँ स्थापित की जाँय । इनके माध्यम से उन्हें सुविधा भी रहेगी और खरीदने, बेचने का अनुभव भी बढ़ेगा । यह सहकारी समितियाँ अपने सदस्य परिवारों के लिए सामूहिक भोजन बनाने का उत्तरदायित्व भी सँभालें इससे साथ बैठने, साथ खाने की सहयोगी प्रवृत्ति पनपेगी और हर घर की स्त्रियों को छोटे से परिवार के लिए भोजन बनाने जैसे काम के लिए सारा समय नष्ट करना पड़ता है उसकी बचत हो सकेगी । इस बचे समय का उपयोग अन्य महत्त्वपूर्ण कामों में हो सकता है । घर-घर में चौका, चूल्हा, धुआँ, लकड़ी, कचरा आदि के कारण जगह भी घिरती है और गन्दगी भी होती है । यह सामूहिक भोजनालय से सहज ही दूर हो सकती है । कुछ महिलाओं को पकाने, परोसने और बर्तन आदि माँजने की नियमित आजीविका मिल सकती है और शेष समय में अपने और परिवार के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करने का अवसर मिल सकता है ।
(७) नारी समाज सेविकाओं के प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था हो जिनमें वे महिला वर्ग के लिए आवश्यक शिक्षा, स्वास्थ्य, सङ्गठन, स्वावलम्बन, परिवार निर्माण आदि उपयोगी प्रवृत्तियों का घर-घर जाकर या एकत्रित करके प्रशिक्षण करती रह सके । साथ ही इन कार्यों में उन्हें सहयोग देती रह सके । प्रौढ़ पाठशालाओं का संचालन तथा अध्यापन कैसे किया जाना चाहिए आदि का ज्ञान भी उन्हीं पाठशालाओं में उपलब्ध हो । व्यायाम, मनोरंजन, व्यवस्था समाज सुधार जैसी अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ नारी समाज में प्रचलित करने के लिए इन मार्गदर्शिकाओं और स्वयं सेविकाओं की बड़ी संख्या में आवश्यकता पड़ेगी । स्वेच्छा, सहयोग से सेवाभावी श्रमदान तो इतने बड़े अभियान का मूल आधार होगा ही पर इसी प्रयोजन में पूरा समय देने वाली समाज सेविकाओं की बड़ी संख्या ऐसी होगी जिनका निर्वाह व्यय जुटाना पड़े । इसकी आर्थिक व्यवस्था भी जुटाई जाय ।
(८) सार्वजनिक सेवा संस्थाओं में नारी को प्रवेश दिलाने की भूमिका बनाई जाय । ग्राम पंंचायतों, जिला पंचायतों, सहकारी समितियों, विधान सभाओं, लोक सभाओं में प्रवेश पाने के लिए उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए ।
इस दिशा में नारी को वोट का महत्त्व, उसका सदुपयोग समझाने और उचित व्यक्तियों को ही वोट देने का आधार समझाया जा सकता है । जब छोटे-छोटे वर्ग अपनी सङ्गठन शक्ति के सहारे अपने प्रतिनिधियों को सफल बना सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि नारी की आधी जनसंख्या संस्थाओं और सरकारों में अपना उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त न कर सकें । इन संस्थाओं के माध्यम से नारी उत्कर्ष के लिए बहुत बड़ा काम हो सकता है । इस क्षेत्र में नारी की अरुचि, उपेक्षा एवं अनभिज्ञता को दूर करने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय ।
(९) नारी को भोग्या के रूप में प्रस्तुत करके उसे अपमानित पतित बनाने वाले कामुक प्रचार को रोका जाय । साहित्य, चित्र, फिल्म गीत आदि माध्यमों से नारी को वासना की पुतली के रूप में प्रस्तुत करने में शालीनता की समस्त मर्यादाएँ तोड़ी जा रही हैं । इन प्रवृत्तियों का घोर विरोध खड़ा किया जाय । नारी को फूहड़, उत्तेजक एवं शृङ्गारी सजधज में सन्निहित आत्महीनता से विरत किया जाय । नर की तरह नारी को भी मात्र मनुष्य ही रहने देने का वातावरण बनाया जाय । उसे वासना की पुतली के रूप में प्रस्तुत करने वाले समस्त प्रयासों को प्रबल विरोध खड़ा करके निरस्त किया जाय । अश्लीलता तथा दूसरे प्रकार की नारी को दुखद परिस्थितियों में धकेलने वाली दहेज, बाल विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों को रोकने के लिए स्वयं सेवक सेना खड़ी हो जाय जो आवश्यकतानुसार विरोध के सभी उचित उपायों का सहारा लेकर अनीति को रोक सके ।
(१०) महिला जागरण अभियान को सुविस्तृत करके उसे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विशाल सङ्गठन के रूप तक पहुँचा दिया जाय । जिस प्रकार राष्ट्र संघ अनेकों राजनैतिक, वैज्ञानिक आर्थिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों के लिए कुछ न कुछ सोचता, करता रहता है उसी प्रकार नारी जाति से सम्बन्धित संसार भर की समस्याओं को समझने तथा सुलझाने के लिए यह सङ्गठन बहु मुखी प्रयत्न करें । कानून में तथा सामाजिक प्रचलनों में जहाँ नारी के साथ अन्याय हो रहा हो उसे बदलवाने का प्रयत्न करें । उसके स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रान्तीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन समय-समय पर होते रहें जिससे समस्त विश्व में नारी की सङ्गठित चेतना का विकास सम्भव हो सके । हिन्दू समाज के ही नहीं—भारत के ही नहीं—समस्त विश्व में जहाँ कहीं जिस भी स्तर की कठिनाइयाँ नारी के सामने हैं उनका सर्वे करना और तदनुरूप विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न स्तर के आन्दोलन खड़े करना और प्रगति के साधन जुटाना इस विश्व सङ्गठन का काम होगा । उसकी शाखा प्रशाखाएँ समस्त संसार में फैली पड़ी होंगी और वे नारी और नर की समानता तथा सघन सहकारिता उत्पन्न करने के लिए सभी सम्भव उपाय कर रही होंगी ।
उपरोक्त दस सूत्री कार्यक्रम ऐसे हैं जिनमें से प्रत्येक के अन्तर्गत ढेरों प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक प्रवृत्तियाँ आती हैं । उनका संचालन करने के लिए प्रत्येक भावनाशील नर-नारी को समय, श्रम, मनोयोग एवं साधन नियोजित करने के लिए भाव सम्पन्न अधिकाधिक साहस जुटाना पड़ेगा । इस महान परिवर्तन के लिए प्रचुर परिमाण में जनशक्ति तथा धन शक्ति झोंकनी पड़ेगी । बहुमूल्य प्रतिभाएँ इस दिशा में नियोजित होनी चाहिए । सुयोग्य व्यक्तित्वों को इस क्षेत्र में उतरना चाहिए । पेट और प्रजनन के—वासना, तृष्णा के क्षुद्र प्रयोजनों से विरत होकर जब विभूतिवान व्यक्तित्व इस मोर्चे को सँभालेंगे तभी इतना सुविस्तृत और महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सम्पन्न होगा ।
यह तथ्य अधिकाधिक गहराई के साथ समझा जाना चाहिए कि मानवी सत्ता के दोनों पक्ष जब तक समान रूप से समर्थ न होंगे तब तक न्याय और विवेक के सहारे सुविकसित सद्भावनाओं के आधार पर सच्ची घनिष्ठता उत्पन्न न हो सकेगी । इसके अभाव में उज्ज्वल भविष्य के लिए किये जा रहे समस्त प्रयास आधे अधूरे, लँगड़े-लूल बने रहेंगे । इस वस्तुस्थिति को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही अच्छा है । नारी को पद-दलित स्थिति में रखकर हमने पाया कुछ नहीं, खोया बहुत है । इस अवांछनीय स्थिति को बनाये रखने में किसी की—किसी प्रकार की कोई भलाई नहीं है ।