बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका-1


अखण्ड ज्योति, सितम्बर २००५ के पृष्ठ ५६ का अंश

‘‘देश में सब कुछ है, बस व्यक्ति नहीं। कहने को तो लोग बहुत हैं, जनसंख्या भी दिनों-दिन बढ़ रही है, पर खरे-परखे उच्चस्तरीय व्यक्ति नहीं हैं। आज के हिन्दुस्तान में न तो गांधी है, न सुभाष, न लोकमान्य तिलक है और न स्वामी विवेकानंद। पर हम गढ़ेंगे और यह सब हम इस शरीर को छोड़ने के बाद करेंगे।
फिर बोले-चिन्ता की बात नहीं, तुम लोगों से करायेंगे। तुम्हें कुछ नहीं करना है। मैं तुम लोगों के पास नई पीढ़ी के बच्चे लाऊँगा। तुम उनके पास बैठना, उनसे अच्छी-अच्छी बातें करना, उन्हें साधनाएँ कराना, बाकी पीछे मैं सब कर दूँगा। स्थूल क्रियाकलापों को उत्कृष्ट बनाने की जिम्मेदारी तुम्हारी और सूक्ष्म में परिवर्तन, प्रत्यावर्तन करने की जिम्मेदारी हमारी।’’ परम पूज्य गुरुदेव

बाल संस्कारशाला का उद्देश्य

बा- बालकों में दिव्य गुणों का विकास करना।
- लक्ष्य भेदी बनाना।
सं- संस्कृति का ज्ञान करा कर उसका रक्षक बनाना।
स् - स्वाध्यायी, स्वावलम्बी, स्वयंसेवी बनाना।
का- कार्य कौशल बढ़ाना।
- रचनात्मक शैली द्वारा मानवीय गुणों को उभारना।
शा- शालीन-शिष्ट व्यक्तित्व गढ़ना।
ला- लाख मनकों में चमकदार हीरा बनाना।


शुभकामना संदेश

आत्मीय परिजनो!
राष्ट्र में आज महामानवों की बड़ी आवश्यकता है। राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का चक्र चलाने के लिए प्रखर-तेजस्वी व्यक्तित्वों की बड़ी जरूरत है। समय की माँग बहुत बड़ी है, जिसकी पूर्ति तभी हो सकेगी, जब बाल्यावस्था से ही भावी पीढ़ी के नौनिहालों का सर्वांगीण निर्माण किया जा सके।
देश भर में सक्रिय-प्राणवान् परिजन किसी भी सामुदायिक केन्द्र, मन्दिर, हॉल या अपने घर में ही बाल संस्कार शालाओं को चलाने की छोटी सी जिम्मेदारी निबाहने लगें, तो भावी पीढ़ी का वाञ्छित नव-निर्माण हो सकेगा। इसके लिये थोड़ा समय अलग निकालना होगा। बालकों को नियमित रूप से यदि वैचारिक पोषण, भावनात्मक पोषण मिलता रह सके, तो युग की माँग पूरी हो सकेगी। परम पूज्य गुरुदेव-वन्दनीया माताजी के विराट् स्वप्नों की नींव भी यही च्नयी पीढ़ी के सुकोमल बच्चेज् हैं। इनके व्यक्तित्व के निर्माण में लगना गुरुसत्ता की सर्वश्रेष्ठ सेवा होगी। उनके अगणित अनुदान एवं प्रसन्नता हर पल पाते रहने के सच्चे श्रेयाधिकारी बनने का अनुपम सौभाग्य आपको मिल सकेगा।
प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में अत्यन्त सहायक सिद्ध होगी। हर मुहल्ले में, हर गाँव में कोई-न-कोई परिजन आगे आकर प्राणवान् अग्रदूत की भूमिका निबाहें। इस कार्य में हमारी बहिनें अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। मातृशक्ति में सुकोमल बच्चों के नव-निर्माण की अतीव क्षमता विद्यमान है। बस आवश्यकता है, तो सिर्फ उनके उभरकर आगे आने की। बच्चों का निर्माण करना एक श्रेष्ठतम यज्ञ है। साधनों की कहीं कोई कमी न पड़ेगी, केवल संकल्पपूर्वक आगे आयें। इस अत्यन्त विशिष्ट दायित्व को साप्ताहिक कक्षा के रूप में किसी भी स्थान से प्रारम्भ करायें। अनुपम आत्म संतोष, दैवी अनुग्रह और लोक सम्मान के त्रिविध लाभ आप पाते रहेंगे।
आप सबको सम्पूर्ण अन्तःकरण से हमारी शुभकामनाएँ एवं गुरुसत्ता के भाव भरे आशीष।
आपका भाई आपकी बहिन
(प्रणव पण्ड्या) (शैलबाला पण्ड्या)

प्रस्तावना

भौतिक विकास के इस दौर में उभरने वाली विसंगतियों का अध्ययन करने पर एक बात विश्व के हर क्षेत्र के शिक्षाविदों ने स्वीकार की है कि बालकों को विभिन्न विषयों की शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता देने के भी गंभीर प्रयास किये जाने चाहिए। विसंगतियों से बचने के साथ जब इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि ‘कैसे हों नये - श्रेष्ठ समाज के नागरिक?’ तो बालकों में सुसंस्कारिता के जागरण संवर्धन का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
बच्चों में सुसंस्कारिता जागृत करने के लिए क्या किया जाय? प्रारंभ कैसे हो? यह प्रश्न उठने पर अधिकांश लोग शिक्षा नीति और शिक्षणतंत्र को कोसकर अपनी बात समाप्त कर देते हैं। इससे बात कैसे बनेगी? कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी को कुछ व्यावहारिक पहल तो करनी ही पड़ेगी। इसके लिए सबसे सुलभ, प्रभावी और व्यावहारिक है, जगह-जगह बाल संस्कारशालाओं का संचालन।
युग निर्माण अभियान के प्रणेता पू. गुरुदेव (पं.श्रीराम शर्मा आचार्य) ने बाल संस्कारशालाओं के संचालन को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने नारा दिया है ‘अध्यापक हैं युगनिर्माता, छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता।’ यह नारा सुसंस्कारिता धारण करने, कराने वाले अध्यापकों एवं छात्रों के लिए ही लागू होता है, विषय रटने-रटाने वालों के लिए नहीं। इस संदर्भ में उन्होंनें कई पुस्तिकाएँ भी लिखी, प्रकाशित की हैं, जैसे ‘छात्रों का निर्माण अध्यापक करें’, ‘बालकों का पालन ही नहीं, निर्माण भी करें’, ‘कैसे चलाएँ बाल संस्कार शाला’ आदि।
युग निर्माण आन्दोलन से जुड़े परिजनों से उनकी अपील रही है कि वे जगह-जगह स्कूल खोलने के स्थान पर बाल संस्कार शालाएँ चलाने को प्राथमिकता दें। स्कूल तो विभिन्न सरकारी और स्वयंसेवी संगठन खोल ही रहे हैं। स्कूल खोलने पर ८० से ९० प्रतिशत साधन और शक्ति विषय पढ़ाने में ही लग जाती है। वह तो लोग कर ही रहे हैं। हम अपनी अधिकांश शक्ति बच्चों में सुसंस्कारिता संवर्धन के लिए ही लगाएँ तो समाज के हित साधन और अपने लिए पुण्यार्जन की दिशा में बड़ी सफलता पा सकेंगे। उनका कथन है, ‘‘हजारों लाखों को आदर्शों का उपदेश देने से अधिक फलदायी है, थोड़े से चरित्रवान व्यक्ति तैयार कर देना’’। इसे वे चन्दन के वृक्ष लगाने, समाज को जीवन-संजीवनी देने जैसा पुण्य मानते रहे हैं।
नैष्ठिक परिजन इस दिशा में काफी कुछ प्रयास भी कर रहे हैं। ‘‘बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका’’ पुस्तिका उन्हीं के सहयोगार्थ तैयार की गई है। पुस्तिका को सभी दृष्टियों से संतुलित और सुगम बनाने का प्रयास किया गया है। वैसे अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना है। विभिन्न आयु, वर्ग एवं विभिन्न क्षेत्रीय परिस्थितियों, विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में आस्था रखने वालों को दृष्टि में रखते हुए कई वर्गीकृत प्रयोग भी करने होंगे, किन्तु शुभारंभ के लिए यह बहुत उपयोगी है।
पुस्तिका में विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र-छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि।
विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग-व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं।
पढ़ी-लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे। ब्रहमवर्चस


विषय सूची

क्र. विषय पेज

१. बाल संस्कारशाला के आचार्य हेतु निर्देश ०७
२. कक्षा क्रम ०९
३. संचालन हेतु आवश्यक सामग्री एवं व्यवस्था १०
४. अध्याय-१ कक्षा का स्वरूप ११
५. अध्याय-२ बाल प्रबोधन
भाग - १ प्रेरणाप्रद कहानियाँ १९
भाग - २ प्रेरक प्रसंग ४३
भाग - ३ महापुरुषों का बचपन ७७
भाग - ४ सुविचार - सद्वाक्य ९९
६. अध्याय-३ प्रेरणाप्रद गीत १०३
७. अध्याय-४ जीवन विद्या ११७
८. अध्याय-५ प्रेरक एवं मनोरंजक अभ्यास १५३
९. अध्याय-६ मनोरंजक तथा मैदानी खेल
भाग - १ मनोरंजक खेल १६९
भाग - २ मैदानी खेल १७७
११. अध्याय-७ योग व्यायाम - प्राणायाम १८७
(१) प्रज्ञायोग १९२
(२) प्राणायाम १९८
(३) उषापान (वाटर थेरेपी) २०१
१२. अध्याय-८ व्यक्तित्व विकास के महत्वपूर्ण तथ्य २०५
(१) शिष्टाचार २०५
(२) पढ़ाई में ढिलाई के कुछ कारणों एवं उनके निवारण पर चिन्तन २१५
(३) विद्यार्थी जीवन की समस्यायें व उनका निवारण; आप क्या करेंगे? २२०
(४) दुर्व्यसनों से हानि ही हानि २२३


बाल संस्कार शाला के आचार्य हेतु निर्देश

१. स्वयं निर्धारित गणवेश में रहें। व्यक्तित्व सरल, सौम्य, शालीन एवं आकर्षक हो।
२. जो बच्चों को सिखाना है, उसका स्वयं भी अभ्यास करें।
३. प्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करें। प्रशिक्षण विषय की पूर्व तैयारी अवश्य करेंं।
४. बच्चों को सिखाने, संस्कारित करने हेतु स्वयं का चरित्र सबसे प्रभावी माध्यम है।
५. पाठ्यक्रम बच्चों को मानसिक बोझ न लगे, इस हेतु उसकी रोचक-प्रेरणाप्रद प्रस्तुति करें तथा सहयोगी बनें, शासकनहीं।
६. पाठ्य वस्तु ऐसी हो, जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक (नैतिक, सांस्कृतिक एवं संवेदनात्मक) विकास हो।
७. सप्ताह में एक निश्चित दिन व समय पर कक्षा लें।
८. कक्षा प्रारंभ होने से दस मिनट पूर्व अनिवार्य रूप से उपस्थित रहें।
९. बालक-बालिकाओं को अलग-अलग पंक्तियों में बैठायें एवं उपस्थिति लें।
१०. प्रस्तुत पाठ्यक्रम ६ से १३ वर्ष के बच्चों के लिए है।
११. माह में एक बार बच्चों के माता-पिता से संपर्क करें या अभिभावकों की गोष्ठी का आयोजन कर बच्चों के विकास एवं घर के वातावरण को परिष्कृत बनाने हेतु चर्चा करें।
१२. संस्कारशाला के बालक-बालिकाओं पर अपनी दृष्टि रखें ( ठ्ठस्रद्गह्म् ह्रड्ढह्यद्गह्म्1ड्ड- ह्लद्बशठ्ठ) जो मूल्यांकन में सहयोगी होगी।
१३. मूल्यांकन का आधार केवल बौद्धिक न होकर भावनात्मक एवं चारित्रिक विकास और आचरण की सभ्यता हो।
१४. केवल लिखित परीक्षा ही आवश्यक नहीं, अपितु आचार्य, माता-पिता, पास- पड़ोस, समाज एवं सहपाठियों का अभिमत तथा अवलोकन आदि भी मूल्यांकन का आधार रहे।
१५. सप्ताह में पड़ने वाले जन्म दिन(बच्चों के), महापुरुषों की जयन्ती एवं त्यौहारों का संक्षिप्त आयोजन अवश्य करें।
१६. उपस्थिति पंजिका में बालकों के जन्मदिन भी अवश्य अंकित करें।
१७. शैक्षणिक परिभ्रमण वर्ष में एक या दो बार।
१८. बालकों को अपनी आध्यात्मिक डायरी लिखने हेतु प्रेरित करें।
१९. बालकों में जिज्ञासा जगाने हेतु परिस्थिति निर्माण कर प्रश्न पूछें एवं समाधान करें।
२०. कक्षा में विषयों की समयावधि सांकेतिक है, इसे विवेकानुसार एवं आवश्यकतानुसार घटाया-बढ़ाया जा सकता है।
२१. वार्षिक सत्र पूरा होने पर निम्र लिखित विषयानुसार परीक्षा एवं मूल्यांकन की व्यवस्था बनाएँ।


क्र. विषय अंक

१. संस्कार ४०
२. स्वास्थ्य १५
३. शिक्षा (ज्ञान) १५
४. खेलकूद १५
५. सेवा भाव १५
कुल अंक १००

अपने ‘विचारों’ पर पैनी दृष्टि रखें, क्योंकि ये एक दिन ‘शब्द रूप’ में मुखरित होंगे।
अपने ‘शब्दों’ पर इससे भी पैनी दृष्टि रखें, क्योंकि ये ही एक दिन ‘कर्म रूप’ में प्रस्फुटित होंगे।
अपने ‘कर्मों’ पर उससे भी पैनी दृष्टि रखें, क्योंकि ये ही ‘आदतों’ में परिणत होते हैं।
अपनी ‘आदतों’ पर और भी पैनी दृष्टि रखें, क्योंकि आदतें ही चित्त में ‘संस्कारों’ के रूप में जड़ जमा कर बैठ जायेंगी।
इन्हीं संस्कारों से चरित्र का निर्माण होकर रहेगा। परम पूज्य गुरुदेव


२. कक्षा क्रम

१. प्रार्थना ५ मिनट
(यदि अन्य धर्म-सम्प्रदाय के बच्चे हैं, तो सर्वधर्म प्रार्थना)
२. बाल प्रबोधन-
अ. प्रेरणाप्रद कहानियाँ १०मिनट
ब. प्रेरक प्रसंग १० मिनट
स. सुविचार/सद्वाक्य ३ मिनट
३. प्रज्ञागीत १० मिनट
४. जीवन विद्या २० मिनट
५. जप/ध्यान ५ मिनट
६. शुभकामना, शान्तिपाठ २ मिनट
७. सत्संकल्प/जयघोष ५ मिनट
८. खेल आदि की पूर्व तैयारी ५ मिनट
९. खेल, योग, जन्मदिन, जयंती, पर्व आयोजन, शिष्टाचार आदि ४५ मिनट

संक्षेप में कक्षा क्रम इस प्रकार है-
कक्षा अवधि १ घंटा १५ मिनट
कक्षा उपरान्त बाल योग,
खेलकूद या प्रतियोगिता ४५ मिनट
कुल अवधि १२० मिनट


सा विद्या या विमुक्तये
विद्या वह है, जो मनुष्य को पूर्णता प्राप्त कराकर उसे जीवन के बन्धनों से मुक्ति दिलाती हो।

३. संचालन हेतु आवश्यक सामग्री एवं व्यवस्था

१. बाल संस्कारशाला का मुख्य उद्देश्य बालकों में संस्कारों का बीजारोपण करनाहै, एवं उन्हें निज के व्यक्तित्व विकास हेतु जागरूक एवं जिम्मेदार बनाना है। यह ट्यूशन क्लास जैसा नहीं है। इसे प्रत्येक रविवार एवं छुट्टियों में चलाएँ। इस प्रकार यह रविवासरीय या छुट्टियों में चलने वाला विद्यालय है।
२. संस्कारशाला संचालन हेतु अतिरिक्त भवन अथवा स्थान की आवश्यकता नहीं है। अपने घर, बगीचे, मंदिर आदि में ही इसे चला सकते हैं।
३. आस-पास के ५-२५ बच्चों को लेकर संस्कारशाला प्रारंभ की जा सकती है। संख्या अधिक होने पर दो कक्षाएँ भी चलाई जा सकती हैं।
४. आवश्यक सामग्रीः
(१) भारत माता का चित्र, गायत्री माता का चित्र, मशाल का चित्र, पंचदेव चित्र ।
(२) बैठने हेतु दरी
(३) पीने के लिए पानी
(४) रोलर ब्लैक बोर्ड, चौक- डस्टर
(५) पर्व पूजन, संस्कार हेतु पूजन सामग्री एवं पूजा की थाली
४. बालकों के जीवन में मानवीय मूल्यों का विकास करते हुए उनकी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति हेतु बालक के लिए व्यवस्थित जीवनचर्या का क्रम इस पुस्तक में दिया गया है। विभिन्न विषयों पर बालक, माता-पिता एवं आचार्य हेतु सुझाव दिये गये हैं। संस्कारशाला में आचार्य, बालकों को अभ्यास करायें तथा अभिभावकों से संपर्क कर उनका भी मार्गदर्शन करें।
५. शिक्षण प्रक्रिया ऋषि परम्परा अनुसार गुरु-शिष्य परम्परा के रूप में होगी। आचार्य स्वयं प्रत्येक विषय का समुचित ज्ञान प्राप्त करें तथा उसे अपने जीवन का अंग बनाएँ। तभी वाणी से वाणी, आचरण से आचरण एवं व्यक्तित्व से व्यक्तित्व का शिक्षण-प्रबोधन संभव हो सकेगा।
६. शिक्षण में उदाहरणों, चित्रों, कहानियों, प्रेरक प्रसंगों, प्रयोगों एवं मूल्यपरक खेलों का विवेक पूर्वक सहारा लें।


प्रथम अध्याय


कक्षा का स्वरूप

१. प्रार्थना

वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जायें।
पर सेवा, पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जायें।
हम दीन-दुःखी, निबलों, विकलों, के सेवक बन संताप हरें।
जो हों भूले, भटके, बिछुड़े, उनको तारें, खुद तर जायें। वह शक्ति......
छल-द्वेष-दम्भ, पाखण्ड झूठ, अन्याय से निश दिन दूर रहें।
जीवन हो शुद्ध सफल अपना, शुचि प्रेम, सुधा रस बरसायें। वह शक्ति...
निज आन-मान, मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे, अभिमान रहे,
जिस देवभूमि में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जायें। वह शक्ति.....

अ. प्रार्थना

- बच्चों को पंक्ति में बिठाकर कक्षा आरंभ करें।
- ध्यान मुद्रा में बैठने का निर्देश दें- कमर सीधी, हाथ गोदी में बायाँ हाथ नीचे, दायाँ हाथ ऊपर, आँखें बंद।
- मंत्रों का उच्चारण धीरे-धीरे कराएँ।
- ध्वनियों के सही उच्चारण पर ध्यान दें, यह देखें कि कौन छात्र गलत उच्चारण कर रहा है? उसे बीच में ही रोक कर सही उच्चारण का अभ्यास कराएँ।
- उच्चारण में आरोह और अवरोह पर ध्यान दें।
- प्रतिमाह प्रार्थना के दो मंत्र (नये) सिखायें, पहले सप्ताह सिखायें, दूसरे सप्ताह दोहराने-याद करने को कहें।
- गायत्री मंत्र का तीन बार धीरे-धीरे उच्चारण कराएँ।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ब. गुरु-वंदना

ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुरेव महेश्वरः,
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः॥
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्,
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका,
नमोऽस्तु गुरु सत्तायै, श्रद्धा-प्रज्ञा युता च या॥

स. वेदमाता-देवमाता-विश्वमाता की वंदना

ॐ आयातु वरदे देवि! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनी,
गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते।
ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्नऽआ सुव। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।

द. विशेष

विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय के बच्चे हों तब उनकी प्रार्थना (देखें पृष्ठ-१७) अवश्य करें अथवा केवल सूर्य का ध्यान करवायें। उसके तेजस्, वर्चस् को अपने अन्दर धारण करने का भाव करने को कहें।


२. बाल प्रबोधन

अ. प्रेरणाप्रद कहानी
प्रति सप्ताह एक प्रेरणाप्रद कहानी सुनाएँ। कहानी में दी गयी प्रेरणा को हृदयंगम करने के लिए छात्रों से वार्तालाप करें। कहानियाँ याद कराएँ ।
संदर्भ- १. पुस्तक से
२. बाल निर्माण की कहानियाँ (भाग-१ से १६ तक)
३. पंचतंत्र की कहानियाँ
४. प्रेरणाप्रद कहानियाँ
५. उपनिषदों की कथाएँ

ब. प्रेरक प्रसंग/दृष्टांत
प्रति सप्ताह एक प्रेरक प्रसंग /दृष्टांत सुनाएँ।
संदर्भ- १. पुस्तक से
२. प्रज्ञा पुराण (भाग-१ से ४ तक)
३. प्रेरणाप्रद दृष्टान्त (वाङ्मय खण्ड-६७)
४. महापुरुषों की अविस्मरणीय जीवन प्रसंग (वाङ्मय खण्ड-५०, ५१)
५. मरकर भी अमर हो गए जो (वाङ्मय खण्ड-४४)
- इन प्रेरक प्रसंगों/दृष्टान्तों से क्या सीखा? छात्रों से चर्चा करें।

स. सुविचार/सद्वाक्य
प्रति सप्ताह एक सद्वाक्य सुनायें और बड़े-बड़े शब्दों में लिखकर कक्षा में टाँगें। उस ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित करें। दूसरे सप्ताह में पहले के लिखे हुए वाक्य पर छात्रों से चर्चा करें, वाक्य के मूल संदेश को छात्रों के जीवन में उतारने का अभ्यास करायें।
संदर्भ-
-बोलती दीवारें (पुस्तक)
-विचार सूक्तियाँ (वाङ्मय क्र. ६९, ७०)

३. प्रज्ञागीत
प्रति माह दो नये गीत सिखायें, शब्दों के सही उच्चारण एवं अर्थ का बोध करायें।
संदर्भ- पुस्तक से, प्रज्ञागीत, क्रांति गीत, समूह गान एवं सहगान कीर्तन पुस्तक ।

४. जीवन विद्या
(जीवन में सुव्यवस्था एवं संस्कार संवर्धन हेतु विशेष पाठ्यक्रम)
बालकों की जीवनचर्या सुव्यवस्थित करने, नैतिकता व आस्तिकता संवर्धन हेतु जीवन विद्या अध्याय में से प्रति सप्ताह क्रम वार थोड़ा-थोड़ा अभ्यास कराएँ।
संदर्भ-
१. पुस्तक
२. विद्यार्थी जीवन की दिशाधारा
३. नैतिक शिक्षा भाग-१ एवं २
४. सफल जीवन की दिशाधारा
५. सफलता के सात सूत्र-साधन
६. भावी पीढ़ी का नवनिर्माण

५. ध्यान/जप
गायत्री मंत्र का ५ मिनट जप एवं उगते सूर्य का ध्यान।
प्रार्थना- असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय्।


६. शुभकामना

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्।

७. शांति पाठ
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्वशान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः। सर्वारिष्ट सुशान्तिर्भवतु।

हिन्दी अनुवादः—
शान्ति कीजिए-शान्ति कीजिए।
प्रभु त्रिभुवन में-शान्ति कीजिए॥
जल में, थल में और गगन में-शान्ति कीजिए।
अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में-शान्ति कीजिए॥
औषधि वनस्पति वन उपवन में-शान्ति कीजिए।
सकल विश्व के जड़ चेतन में- शान्ति कीजिए॥
प्रभु त्रिभुवन में..................
शान्ति विश्व निर्माण सृजन में-शान्ति कीजिए।
नगर ग्राम में और भवन में-शान्ति कीजिए॥
जीव मात्र के तन में मन मे-शान्ति कीजिए।
और जगत के हर कण-कण में-शान्ति कीजिए॥
प्रभु त्रिभुवन में..................


८. युग निर्माण सत्संकल्प पाठ एवं जयघोष

यहाँ वर्णित १८ संकल्प इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य की सर्वोपयोगी आचार संहिता है। जीवन में इन सूत्रों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। इसका प्रत्येक सूत्र व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र में आमूलचूल परिवर्तन की आधार शिला है।
व्यक्ति निर्माण और राष्ट्रोत्थान के बीज इन्हीं सूत्रों में विद्यमान हैं। इन्हें ठीक प्र्रकार से समझें। इन पर मनन-चिंतन करें। बालकों से युग निर्माण सत्संकल्प का पाठ कराएँ तथा किसी एक का सरल अर्थ एवं महत्व समझाएँ और उसे अपने जीवन का अंग बनाने के लिए उन्हें प्रेरित करें।
० हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
० शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
० मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाये रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
० इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
० अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
० मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्त्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
० समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
० चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
० अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
० मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी, उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
० दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करेंगे, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं।
० नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
० संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
० परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
० सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
० राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेद-भाव न बरतेंगे।
० मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
० हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा। इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।


जयघोष

कक्षा समाप्त होने पर उत्साह पूर्वक जयघोष करें-कराएँ।
१. गायत्री माता की - जय
२. यज्ञ भगवान की - जय
३. वेद भगवान की - जय
४. भारतीय संस्कृति की - जय
५. भारत माता की - जय
६. एक बनेंगे - नेक बनेंगे
७. हम सुधरेंगे - युग सुधरेगा
८. हम बदलेंगे - युग बदलेगा
९. विचार क्रांति अभियान - सफल हो, सफल हो, सफल हो
१०. ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल - सदा जलेगी, सदा जलेगी।
११. ज्ञान यज्ञ की ज्योति जलाने - हम घर-घर में जाएँगे।
१२. नया सबेरा, नया उजाला - इस धरती पर लाएँगे
१३. नया समाज बनाएँगे - नया जमाना लाएँगे
१४. जन्म जहाँ पर - हमने पाया
१५. अन्न जहाँ का - हमने खाया
१६. वस्त्र जहाँ के - हमने पहने
१७. ज्ञान जहाँ से - हमने पाया
१८. वह है प्यारा - देश हमारा
१९. देश की रक्षा कौन करेगा - हम करेंगे, हम करेंगे
२०. युग निर्माण कैसे होगा - व्यक्ति के निर्माण से
२१. माँ का मस्तक ऊँचा होगा - त्याग और बलिदान से
२२. मानव मात्र - एक समान
२३. जाति वंश सब - एक समान
२४.नर और नारी - एक समान
२५. नारी का सम्मान जहाँ है - संस्कृति का उत्थान वहाँ है
२६. जागेगी भाई जागेगी - नारी शक्ति जागेगी
२७. नशा नाश की जड़ है भाई - जिसने किया मुसीबत लाई
२८. हमारी युग निर्माण योजना - सफल हो, सफल हो, सफल हो
२९. हमारा युग निर्माण सत् संकल्प - पूर्ण हो, पूर्ण हो, पूर्ण हो
३०. इक्कीसवीं सदी - उज्ज्वल भविष्य
३१. वन्दे वेद मातरम्


९. कक्षा के उपरान्त संस्कार संवर्धन हेतु निम्रलिखित गतिविधियाँ चलाएँ

१. सप्ताह में पड़ने वाले पर्व-त्योहारों का संक्षिप्त आयोजन करें।
२. सप्ताह में जिन छात्रों का जन्मदिन आया हो, उनका संक्षिप्त आयोजन कर जन्मदिन संस्कार मनायें।
३. बाल शिष्टाचार-चर्चा एवं प्रयोग।
४. प्रज्ञायोग।
५. आओ खेलें खेल (मूल्य परक, मनोरंजक तथा मैदानी खेल) (खेल परिशिष्ट) एक या दो खेल समयानुसार
६. रोचक अभ्यास (रोचक अभ्यास परिशिष्ट) एक या दो समयानुसार करायें।

संस्कार संवर्धन हेतु अन्य गतिविधियाँः-
१. प्रतियोगिताएँ, मनोरंजन, कहानी, निबंध, भाषण आदि।
२. आसन प्राणायाम-सूर्य नमस्कार, प्रज्ञायोग के आसन आदि।
३. लघुनाटक एवं नृत्य नाटिका। पुरस्कार के रूप में पुस्तकेंभेंट करें।
४. पर्वों त्योहारों की प्रेरणा और यथा संभव/ समय उनका संक्षिप्त आयोजन।
५. महापुरुषों के जन्मदिन मनाना, उनके बचपन के प्रेरणाप्रद प्रसंगों की जानकारी देना।
६. शैक्षणिक भ्रमण आयोजन- वर्ष में एक या दो बार।

१०. भ्रमण
वर्ष में एक या दो बार सांस्कृतिक भ्रमण कार्यक्रम आयोजित करें।


सबके लिए सद्बुद्धि, सबके लिए उज्जवल भविष्य की प्रार्थनाएँ

गायत्री मंत्र सार्वभौम प्रार्थना

ॐ भूर्भवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
भावार्थ उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।

जैन नमो अरिहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं।
नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्व-साहूणं।
एसो पंच-नुमक्कारो सव्व- पावप्पणसणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं॥

सिक्ख एक ओंकार (ॐ) सतिनामु, कर्तापुरखु, निर्भउ, निर्वैरु, अकालमूरति अजूनी सैभं,गुरुप्रसाद। जपु। आदि सचु, जुगादि सचु। है भी सचु नानक होसी भी सचु।

मुस्लिमबिस्मिल्लाहिर्रहमाननिर्रहीम् अल्-हम्दु लिल्लाह-ए रब्बिल आलमीन। अर्रहमानिर्रहीम्। मालिकेयौमिद्दीन। ईय्याकन-अबोदो वइय्याक नस्तईन। एहदिनस्सेरातल् मुस्तकीम। सीरातल्लजीनऽअन-अम्तो-अलैहिम गैरिल मगदूब-ए अलैहिम्-वलद्दुआलिन। आमीन

क्रिश्चियन
Almighty God unto whom all hearts be open, all desires known, and from whom no secrets are hid; cleanse the thoughts of our hearts by the inspiration of Thy Holy Spirit, that we may perfectly love thee, and worthily magnify thy Holy Name through Christ our Lord
यहाँ परमात्मा चेतन सत्ता (Super Power) के रूप में हैं। उसका- अल्लाह, गॉड, वाहे गुरु, तीर्थंकर, बुद्ध आदि अपने इष्टानुसार, ध्यान किया जा सकता है।


द्वितीय अध्याय

बाल प्रबोधन

प्रेरणाप्रद कहानियाँ (भाग- १)

१. भला आदमी
एक धनी पुरुष ने एक मन्दिर बनवाया। मन्दिर में भगवान् की पूजा करने के लिए एक पुजारी रखा। मन्दिर के खर्च के लिये बहुत-सी भूमि, खेत और बगीचे मन्दिर के नाम कर दिए। उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था कि जो भूखे, दीन -दुःखी या साधु संत आएँ, वे वहाँ दो-चार दिन ठहर सकें और उनको भोजन के लिए भगवान् का प्रसाद मन्दिर से मिल जाया करे। अब उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो मन्दिर की सम्पत्ति का प्रबंध करे और मन्दिर के सब कामों को ठीक-ठीक चलाता रहे।
बहुत से लोग उस धनी पुरुष के पास आये। वे लोग जानते थे कि यदि मन्दिर की व्यवस्था का काम मिल जाय तो वेतन अच्छा मिलेगा। लेकिन उस धनी पुरुष ने सबको लौटा दिया। वह सबसे कहता, मुझे एक भला आदमी चाहिये, मैं उसको अपने-आप छाँट लूँगा।’
बहुत से लोग मन ही मन उस धनी पुरुष को गालियाँ देते थे। बहुत लोग उसे मूर्ख या पागल कहते। लेकिन वह धनी पुरुष किसी की बात पर ध्यान नहीं देता था। जब मन्दिर के पट खुलते थे और लोग भगवान् के दर्शनों के लिये आने लगते थे, तब वह धनी पुरुष अपने मकान की छत पर बैठकर मन्दिर में आने वाले लोगों को चुपचाप देखा करता था।
एक दिन एक व्यक्ति मन्दिर में दर्शन करने आया। उसके कपड़े मैले फटे हुए थे। वह बहुत पढ़ा-लिखा भी नहीं जान पड़ता था। जब वह भगवान् का दर्शन करके जाने लगा, तब धनी पुरुष ने उसे अपने पास बुलाया और कहा-‘क्या आप इस मन्दिर की व्यवस्था सँभालने का काम स्वीकार करेंगे?’
वह व्यक्ति बड़े आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा-‘मैं तो बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मैं इतने बड़े मन्दिर का प्रबन्ध कैसे कर सकूँगा?’
धनी पुरुष ने कहा- ‘मुझे बहुत विद्वान् नहीं चाहिए। मैं तो एक भले आदमी को मन्दिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’
मैं जानता हूँ कि आप भले आदमी हैं। मन्दिर के रास्ते में एक ईंट का टुकड़ा गड़ा रह गया था और उसका एक कोना ऊपर निकला था। मैं इधर बहुत दिनों से देखता था कि ईंट के टुकड़े की नोक से लोगों को ठोकर लगती थी। लोग गिरते थे, लुढ़कते थे और उठकर चल देते थे। आपको उस टुकड़े से ठोकर नहीं लगी; किन्तु आपने उसे देखकर ही उखाड़ देने का यत्न किया। मैं देख रहा था कि आप मेरे मजदूर से फावड़ा माँगकर ले गये और उस टुकड़े को खोदकर आपने वहाँ की भूमि भी बराबर कर दी।
उस व्यक्ति ने कहा-‘यह तो कोई बड़ी बात नहीं है। रास्ते में पड़े काँटे, कंकड़ और ठोकर लगने वाले पत्थर, ईटों को हटा देना तो प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।’धनी पुरुष ने कहा-‘अपने कर्त्तव्य को जानने और पालन करने वाले लोग ही भले आदमी होते हैं।’ मैं आपको ही मंदिर का प्रबंधक बनाना चाहता हूँ।’ वह व्यक्ति मन्दिर का प्रबन्धक बन गया और उसने मन्दिर का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध किया।

२. शिवाजी को बुढ़िया की सीख
बात उन दिनों की है, जिन दिनों छत्रपति शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापा मार युद्ध लड़ रहे थे। एक दिन रात को वे थके-माँदे एक वनवासी बुढ़िया की झोंपड़ी में पहुँचे और कुछ खाने के लिए माँगा। बुढ़िया के घर में केवल चावल था, सो उसने प्रेम पूर्वक भात पकाया और उसे ही परोस दिया। शिवाजी बहुत भूखे थे, सो झट से भात खाने की आतुरता में उँगलियाँ जला बैठे। हाथ की जलन शान्त करने के लिए फूँकने लगे। यह देख बुढ़िया ने उनके चेहरे की ओर गौर से देखा और बोली-‘सिपाही तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है और साथ ही यह भी लगता है कि तू उसी की तरह मूर्ख है।’
शिवाजी स्तब्ध रह गये। उनने बुढ़िया से पूछा- ‘भला शिवाजी की मूर्खता तो बताओ और साथ ही मेरी भी।’
बुढ़िया ने उत्तर दिया-‘तूने किनारे-किनारे से थोड़ा-थोड़ा ठण्डा भात खाने की अपेक्षा बीच के सारे भात में हाथ डाला और उँगलियाँ जला लीं। यही मूर्खता शिवाजी करता है। वह दूर किनारों पर बसे छोटे-छोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की अपेक्षा बड़े किलों पर धावा बोलता है और हार जाता है।’
शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण विदित हो गया। उन्होंने बुढ़िया की सीख मानी और पहले छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें पूरा करने की रीति-नीति अपनाई। इस प्रकार उनकी शक्ति बढ़ी और अन्ततः वे बड़ी विजय पाने में समर्थ हुए।
शुभारंभ हमेशा छोटे-छोटे संकल्पों से होता है, तभी बड़े संकल्पों को पूरा करने का आत्मविश्वास जागृत होता है।

३. स्वर्ग के दर्शन
लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी। एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा।
दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते-रोते ही वह सो गया। उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम-चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- ‘‘बच्चे! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।’’
स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा-स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्यकर्मों का रुपया चलता है। अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।
जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला। एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते-रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले-तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी। अब रोते क्यों हो? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है।
दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे। उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा-इसे आज संतरे का रस देना। मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली-‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’
लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया। बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।
मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है। लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे-धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते-करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।
लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला-‘बाबा! आप क्यों रो रहे है?’
साधु बोला-बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था। बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गङ्गा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी।
लक्ष्मी नारायण ने कहा-‘बाबा! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।’
साधु बोला-‘तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा।’
लक्ष्मी नारायण ने कहा-‘मुझे दुःख नहीं होगा बाबा! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हँॅू। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।’
साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।
जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा-बेटा! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।

४. धर्म का मर्म
एक साधु शिष्यों के साथ कुम्भ के मेले में भ्रमण कर रहे थे। एक स्थान पर उनने एक बाबा को माला फेरते देखा। लेकिन वह बाबा माला फेरते-फेरते बार-बार आँखें खोलकर देख लेते कि लोगों ने कितना दान दिया है। साधु हँसे व आगे बढ़ गए।
आगे एक पंडित जी भागवत कह रहे थे, पर उनका चेहरा यंत्रवत था। शब्द भी भावों से कोई संगति नहीं खा रहे थे, चेलों की जमात बैठी थी। उन्हें देखकर भी साधु खिल-खिलाकर हँस पड़े।
थोड़ा आगे बढ़ने पर इस मण्डली को एक व्यक्ति रोगी की परिचर्या करता मिला। वह उसके घावों को धोकर मरहम पट्टी कर रहा था। साथ ही अपनी मधुर वाणी से उसे बार-बार सांत्वना दे रहा था। साधु कुछ देर उसे देखते रहे, उनकी आँखें छलछला आईं।
आश्रम में लौटते ही शिष्यों ने उनसे पहले दो स्थानों पर हँसने व फिर रोने का कारण पूछा। वे बोले-‘बेटा पहले दो स्थानों पर तो मात्र आडम्बर था पर भगवान की प्राप्ति के लिए एक ही व्यक्ति आकुल दिखा-वह, जो रोगी की परिचर्या कर रहा था। उसकी सेवा भावना देखकर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और सोचने लगा न जाने कब जनमानस धर्म के सच्चे स्वरूप को समझेगा।’

५. ब्रह्मा जी के थैले
इस संसार को बनाने वाले ब्रह्माजी ने एक बार मनुष्य को अपने पास बुलाकर पूछा- ‘तुम क्या चाहते हो?’
मनुष्य ने कहा- ‘मैं उन्नति करना चाहता हूँ, सुख-शान्ति चाहता हूँ और चाहता हूँ कि सब लोग मेरी प्रशंसा करें।’
ब्रह्माजी ने मनुष्य के सामने दो थैले धर दिये। वे बोले-‘इन थैलों को ले लो। इनमें से एक थैले में तुम्हारे पड़ोसी की बुराइयाँ भरी हैं। उसे पीठ पर लाद लो। उसे सदा बंद रखना। न तुम देखना, न दूसरों को दिखाना। दूसरे थैले में तुम्हारे दोष भरे हैं। उसे सामने लटका लो और बार-बार खोलकर देखा करो।’
मनुष्य ने दोनों थैले उठा लिये। लेकिन उससे एक भूल हो गयी। उसने अपनी बुराइयों का थैला पीठ पर लाद लिया और उसका मुँह कसकर बंद कर दिया। अपने पड़ोसी की बुराइयों से भरा थैला उसने सामने लटका लिया। उसका मुँह खोल कर वह उसे देखता रहता है और दूसरों को भी दिखाता रहता है। इससे उसने जो वरदान माँगे थे, वे भी उलटे हो गये। वह अवनति करने लगा। उसे दुःख और अशान्ति मिलने लगी।
तुम मनुष्य की वह भूल सुधार लो तो तुम्हारी उन्नति होगी। तुम्हें सुख-शान्ति मिलेगी। जगत् में तुम्हारी प्रशंसा होगी। तुम्हें करना यह है कि अपने पड़ोसी और परिचितों के दोष देखना बंद कर दो और अपने दोषों पर सदा दृष्टि रखो।

६. उपकार
अफ्रीका बहुत बड़ा देश है। उस देश में बहुत घने वन हैं और उन वनों में सिंह, भालू, गैंडा आदि भयानक पशु बहुत होते हैं। बहुत से लोग सिंह का चमड़ा पाने के लिये उसे मारते हैं।
गरमी के दिनों में हाथी जिस रास्ते झरने पर पानी पीने जाते हैं, उस रास्ते में लोग बड़ा और गहरा गड्ढा खोद देते हैं, उस गड्ढे के चारों ओर भाले के समान नोंकवाली लकड़ियों को गाड़ देते हैं। फिर गड्ढे को पतली लकड़ियों और पत्तों से ढक देते हैं। जब हाथी पानी पीने निकलते हैं तो उनके दल में सबसे आगे-आगे चल रहा हाथी गड्ढे के ऊपर बिछी टहनियों के कारण गड्ढे को देख नहीं पाता और जैसे ही टहनियों पर पैर रखता है, टहनियाँ टूट जाती हैं और हाथी गड्ढे में गिर जाता है।
हाथी पकड़ने वाले उस हाथी को लाकर पहले कई दिनों भूखा रखते हैं। गड्ढे में भी हाथी कई दिन भूखा रखा जाता है, जिससे कमजोर हो जाने के कारण निकलते समय बहुत उधम न मचाए। भूख के मारे हाथी जब छटपटाने लगता है, तब एक आदमी उसे चारा देने जाता है। चारा देने के बहाने वह आदमी हाथी से धीरे-धीरे जान-पहचान कर लेता है और फिर हाथी को वही सिखाता है। शिक्षा देने के बाद हाथी को लोग बेच देते हैं।
कई बार हाथी पकड़ने के लिये जो गड्ढा बनाया जाता है, उसमें रात को धोखे से हिरन, नीलगाय, चीते या जंगल के दूसरे पशु भी गिर जाते हैं। गड्ढा बनाने वाले उन्हें भी निकाल लाते हैं। हाथी पकड़ने वालों ने अफ्रीका के जंगल में एक बार हाथी फँसाने के लिये गड्ढा बनाया और ढक दिया। रात में एक सिंह उस गड्ढे में गिर पड़ा। सिंह किसी छोटे पशु को पकड़ने दौड़ा होगा और भूल से गड्ढे में जा पड़ा होगा।
एक शिकारी उधर से निकला। उसने सिंह को गड्ढे में गिरा देखा। वीर पुरुष किसी को दुःख में देखकर उसे मारते नहीं, उसकी सहायता करते हैं। सिंह बार-बार उछलता था, परन्तु गड्ढे के चारों ओर गड़ी नोक वाली लकड़ियों से उसे चोट लगती थी और वह फिर गड्ढे में गिर जाता था। शिकारी ने एक रस्सी में दो लकड़ियों को बाँधा और पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ पर रस्सी खींचकर उसने लकड़ियाँ उखाड़ दी। शिकारी ने नीचे से लकड़ियाँ इसलिये नहीं उखाड़ी कि कहीं गड्ढे से निकलने पर सिंह उसे मार न डाले। दो लकड़ियाँ उखाड़ने से सिंह को रास्ता मिल गया। वह उछलकर गड्ढे से बाहर निकल आया और जंगल में चला गया।
वही शिकारी एक दिन एक झरने के किनारे पानी पीकर बंदूक रखकर बैठा था। वह बहुत थका था, इसलिये लेट गया और उसे नींद आ गयी। इतने में वहाँ एक चीता आया और शिकारी को मारने के लिये उस पर चढ़ बैठा, बेचारा शिकारी डर के मारे चिल्ला भी न सका।
इतने में एक भारी सिंह जोर से गर्जा। उसकी गर्जना सुनकर चीता पूँछ दबाकर भागने लगा; पर सिंह चीते के ऊपर कूद पड़ा और उसने चीते को मार डाला।
शिकारी समझता था कि चीते को मारकर सिंह अब उसे मारेगा; लेकिन सिंह आया और शिकारी के सामने बैठकर पूँछ हिलाने लगा। शिकारी ने पहचान लिया कि यह वही सिंह है, जिसे गड्ढे में से निकलने में शिकारी ने सहायता की थी।
सिंह जैसा भयङ्कर पशु भी अपने उपकार करने वाले को नहीं भूला था। तुम मनुष्य हो, तुम्हें तो कोई थोड़ा भी उपकार करे तो उसे नहीं भूलना चाहिये और उस परोपकारी की सेवा-सहायता करने के लिये सदा तैयार रहना चाहिये।

७. सबसे बड़ा गरीब
एक महात्मा भ्रमण करते हुए नगर में से जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक रुपया मिला। महात्मा तो विरक्त और संतोषी व्यक्ति थे। वे भला उसका क्या करते? अतः उन्होंने किसी दरिद्र को यह रुपया देने का विचार किया। कई दिन तक वे तलाश करते रहे, लेकिन उन्हें कोई दरिद्र नहीं मिला।
एक दिन उन्होंने देखा कि एक राजा अपनी सेना सहित दूसरे राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा है। साधु ने वह रुपया राजा के ऊपर फेंक दिया। इस पर राजा को नाराजगी भी हुई और आश्चर्य भी। क्योंकि, रुपया एक साधु ने फेंका था इसलिए उसने साधु से ऐसा करने का कारण पूछा।
साधु ने धैर्य के साथ कहा- ‘राजन्! मैंने एक रुपया पाया, उसे किसी दरिद्र को देने का निश्चय किया। लेकिन मुझे तुम्हारे बराबर कोई दरिद्र व्यक्ति नहीं मिला, क्योंकि जो इतने बड़े राज्य का अधिपति होकर भी दूसरे राज्य पर चढ़ाई करने जा रहा हो और इसके लिए युद्ध में अपार संहार करने को उद्यत हो रहा हो, उससे ज्यादा दरिद्र कौन होगा?’
राजा का क्रोध शान्त हुआ और अपनी भूल पर पश्चात्ताप करते हुए उसने वापिस अपने देश को प्रस्थान किया।
प्रेरणाः- हमें सदैव संतोषी वृत्ति रखनी चाहिए। संतोषी व्यक्ति को अपने पास जो साधन होते हैं, वे ही पर्याप्त लगते हैं। उसे और अधिक की भूख नहीं सताती।

८. मनुुष्य या पशु
यह एक सच्ची घटना है। छुट्टी हो गयी थी। सब लड़के उछलते-कूदते, हँसते-गाते पाठशाला से निकले। पाठशाला के फाटक के सामने एक आदमी सड़क पर लेटा था। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सब अपनी धुन में चले जा रहे थे।
एक छोटे लड़के ने उस आदमी को देखा, वह उसके पास गया। वह आदमी बीमार था, उसने लड़के से पानी माँगा। लड़का पास के घर से पानी ले आया। बीमार ने पानी पीया और फिर लेट गया। लड़का पानी का बर्तन लौटा कर खेलने चला गया।
शाम को वह लड़का घर आया। उसने देखा कि एक सज्जन उसके पिता को बता रहे हैं कि ‘आज, पाठशाला के सामने दोपहर के बाद एक आदमी सड़क पर मर गया।’ लड़का पिता के पास गया और उसने कहा- ‘बाबूजी! मैंने उसे देखा था। वह सड़क पर पड़ा था। माँगने पर मैंने उसे पानी भी पिलाया था।’
इस पर पिता ने पूछा, ‘‘ फिर तुमने क्या किया।’’ लड़के ने बताया-‘‘फिर मैं खेलने चला गया। ’’
पिता थोड़ा गम्भीर हुए और उन्होंने लड़के से कहा-‘तुमने आज बहुत बड़ी गलती कर दी। तुमने एक बीमार आदमी को देखकर भी छोड़ दिया। उसे अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया?
डरते-डरते लड़के ने कहा- ‘मैं अकेला था। भला, उसे अस्पताल कैसे ले जाता?’
इस पर पिता ने समझाया -‘‘तुम नहीं ले जा सकते थे तो अपने अध्यापक को बताते या घर आकर मुझे बताते। मैं कोई प्रबन्ध करता। किसी को असहाय पड़ा देखकर भी उसकी सहायता न करना पशुता है।’’
बच्चो! आप सोचो कि आप क्या करते हो? किसी रोगी, घायल या दुःखिया को देख कर यथाशक्ति सहायता करते हो या चले जाते हो? आपको पता लगेगा कि आप क्या हो- ‘मनुष्य या पशु?’

९. संतोष का फल
एक बार एक देश में अकाल पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। नगर में एक धनी दयालु पुरुष थे। उन्होंने सब छोटे बच्चों को प्रतिदिन एक रोटी देने की घोषणा कर दी। दूसरे दिन सबेरे बगीचे में सब बच्चे इकट्ठे हुए। उन्हें रोटियाँ बँटने लगीं।
रोटियाँ छोटी-बड़ी थीं। सब बच्चे एक-दूसरे को धक्का देकर बड़ी रोटी पाने का प्रयत्न कर रहे थे। केवल एक छोटी लड़की एक ओर चुपचाप खड़ी थी। वह सबसे अन्त में आगे बढ़ी। टोकरे में सबसे छोटी अन्तिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नता से ले लिया और वह घर चली गयी।
दूसरे दिन फिर रोटियाँ बाँटी गयीं। उस लड़की को आज भी सबसे छोटी रोटी मिली। लड़की ने जब घर लौट कर रोटी तोड़ी तो रोटी में से सोने की एक मुहर निकली। उसकी माता ने कहा कि-‘मुहर उस धनी को दे आओ।’ लड़की दौड़ी -दौड़ी धनी के घर गयी।’’
धनी ने उसे देखकर पूछा-‘तुम क्यों आयी हो?’
लड़की ने कहा-‘मेरी रोटी में यह मुहर निकली है। आटे में गिर गयी होगी। देने आयी हूँ। आप अपनी मुहर ले लें।’
धनी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे अपनी धर्मपुत्री बना लिया और उसकी माता के लिये मासिक वेतन निश्चित कर दिया। बड़ी होने पर वही लड़की उस धनी की उत्तराधिकारिणी बनी।

१०. गाली पास ही रह गयी
एक लड़का बड़ा दुष्ट था। वह चाहे जिसे गाली देकर भाग खड़ा होता। एक दिन एक साधु बाबा एक बरगद के नीचे बैठे थे। लड़का आया और गाली देकर भागा। उसने सोचा कि गाली देने से साधु चिढ़ेगा और मारने दौड़ेगा, तब बड़ा मजा आयेगा लेकिन साधु चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं।
लड़का और निकट आ गया और खूब जोर-जोर से गाली बकने लगा। साधु अपने भजन में लगे थे। उन्होंने उसकी ओर कोई ध्यान न दिया। तभी एक दूसरे लड़के ने आकर कहा-‘बाबा जी! यह आपको गालियाँ देता है?’
बाबा जी ने कहा-‘हाँ भैया, देता तो है, पर मैं लेता कहाँ हँॅू। जब मैं लेता नहीं तो सब वापस लौटकर इसी के पास रह जाती हैं।’
लड़का बोला-लेकिन यह बहुत खराब गालियाँ देता है।
साधु-यह तो और खराब बात है। पर मुझे तो वे कहीं नहीं चिपकीं, सब की सब इसी के मुख में भरी हैं। इससे इसका ही मुख गंदा हो रहा है।
गाली देने वाला लड़का सब सुन रहा था। उसने सोचा, साधु ठीक ही तो कह रहा है। मैं दूसरों को गाली देता हूँ तो वे ले लेते हैं। इसी से वे तिलमिलाते हैं, मारने दौड़ते हैं और दुःखी होते हैं। यह गाली नहीं लेता तो सब मेरे पास ही तो रह गयीं। लड़का मन ही मन बहुत शर्मिंदा हुआ और सोचने लगा छिः मेरे पास कितनी गंदी गालियाँ हैं। वह साधु के पास गया, क्षमा माँगी और बोला- बाबाजी! मेरी यह गंदी आदत कैसे छूटे और मुख कैसे शुद्ध हो?
साधु ने समझाया -‘पश्चात्ताप करने तथा फिर ऐसा न करने की प्रतिज्ञा करने से बुरी आदत दूर हो जायेगी। मधुर वचन बोलने और भगवान् का नाम लेने से मुख शुद्ध हो जायेगा।’

११. बड़ों की बात मानो
एक बहुत घना जंगल था, उसमें पहाड़ थे और शीतल निर्मल जल के झरने बहते थे। जंगल में बहुत-से पशु रहते थे। पर्वत की गुफा में एक शेर-शेरनी और इन के दो छोटे बच्चे रहते थे। शेर और शेरनी अपने बच्चों को बहुत प्यार करते थे।
जब शेर के बच्चे अपने माँ बाप के साथ जंगल में निकलते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। लेकिन शेर-शेरनी अपने बच्चों को बहुत कम अपने साथ ले जाते थे। वे बच्चों को गुफा में छोड़कर वन में अपने भोजन की खोज में चले जाया करते थे।
शेर और शेरनी अपने बच्चों को बार-बार समझाते थे कि वे अकेले गुफा से बाहर भूलकर भी न निकलें। लेकिन बड़े बच्चे को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन शेर-शेरनी जंगल में गये थे, बड़े बच्चे ने छोटे से कहा-चलो झरने से पानी पी आएँ और वन में थोड़ा घूमें। हिरनों को डरा देना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
छोटे बच्चे ने कहा-‘पिता जी ने कहा है कि अकेले गुफा से मत निकलना। झरने के पास जाने को बहुत मना किया है। तुम ठहरो पिताजी या माताजी को आने दो। हम उनके साथ जाकर पानी पी लेंगे।’
बड़े बच्चे ने कहा-‘मुझे प्यास लगी है। सब पशु तो हम लोगों से डरते ही हैं। फिर डरने की क्या बात है?’
छोटा बच्चा अकेला जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा- ‘मैं तो माँ- बाप की बात मानूँगा। मुझे अकेला जाने में डर लगता है।’ बड़े भाई ने कहा। ‘तुम डरपोक हो, मत जाओ, मैं तो जाता हूँ।’ बड़ा बच्चा गुफा से निकला और झरने के पास गया। उसने पेट भर पानी पिया और तब हिरनों को ढँॅूढते हुए इधर-उधर घूमने लगा।
जंगल में उस दिन कुछ शिकारी आये हुए थे। शिकारियों ने दूर से शेर के बच्चे को अकेले घूमते देखा तो सोचा कि इसे पकड़कर किसी चिड़िया घर में बेच देने से अच्छे रुपये मिलेंगे। शिकारियों ने शेर के बच्चे को चारों ओर से घेर लिया और एक साथ उस पर टूट पड़े। उन लोगों ने कम्बल डालकर उस बच्चे को पकड़ लिया।
बेचारा शेर का बच्चा क्या करता। वह अभी कुत्ते जितना बड़ा भी नहीं हुआ था। उसे कम्बल में खूब लपेटकर उन लोगों ने रस्सियों से बाँध दिया। वह न तो छटपटा सकता था, न गुर्रा सकता था।
शिकारियों ने इस बच्चे को एक चिड़िया घर को बेच दिया। वहाँ वह एक लोहे के कटघरे में बंद कर दिया गया। वह बहुत दुःखी था। उसे अपने माँ-बाप की बहुत याद आती थी। बार-बार वह गुर्राता और लोहे की छड़ों को नोचता था, लेकिन उसके नोचने से छड़ तो टूट नहीं सकती थी।
जब भी वह शेर का बच्चा किसी छोटे बालक को देखता तो बहुत गुर्राता और उछलता था। यदि कोई उसकी भाषा समझा सकता तो वह उससे अवश्य कहता-‘तुम अपने माँ-बाप तथा बड़ों की बात अवश्य मानना। बड़ों की बात न मानने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। मैं बड़ों की बात न मानने से ही यहाँ बंदी हुआ हूँ।’
सच है- जे सठ निज अभिमान बस, सुनहिं न गुरुजन बैन।
जे जग महँ नित लहहिं दुःख, कबहुँ न पावहिं चैन॥

१२. स्वच्छता
एक किसान ने एक बिल्ली पाल रखी थी। सफेद कोमल बालों वाली बिल्ली। रात को वह किसान की खाट पर ही उसके पैरों के पास सो जाती थी। किसान जब खेत पर से घर आता तो बिल्ली उसके पास दौड़ कर जाती और उसके पैरों से अपना शरीर रगड़ती, म्याऊँ -म्याऊँ करके प्यार दिखलाती। किसान अपनी बिल्ली को थोड़ा सा दूध और रोटी देता था।
किसान का एक लड़का था। वह बहुत आलसी था। रोज नहाता भी नहीं था। एक दिन किसान के लड़के ने अपने पिता से कहा-‘पिता जी! आज रात को मैं आपके साथ सोऊँगा।’
किसान बोला- ‘नहीं! तुम्हें अलग खाट पर ही सोना चाहिये।’
लड़का कहने लगा-‘बिल्ली को तो आप अपनी ही खाट पर सोने देते हैं, परंतु मुझे क्यों नहीं सोने देते?’
किसान ने कहा-‘तुम्हें खुजली हुई है। तुम्हारे साथ सोने से मुझे भी खुजली हो जायेगी। पहले तुम अपनी खुजली अच्छी होने दो।’
लड़का-खुजली से बहुत तंग था। उसके पूरे शरीर में छोटे-छोटे फोड़े-जैसे हो रहे थे। खुजली के मारे वह बेचैन रहता था। उसने अपने पिता से कहा-यह खुजली मुझे ही क्यों हुई है? इस बिल्ली को क्यों नहीं हुई?
किसान बोला-‘कल सबेरे तुम्हें यह बात बताऊँगा।’ दूसरे दिन सबेरे किसान ने बिल्ली को कुछ अधिक दूध और रोटी दी, लेकिन जब बिल्ली का पेट भर गया तो वह दूध-रोटी छोड़कर दूर चली गयी और धूप में बैठकर बार-बार अपना एक पैर चाटकर अपने मुँह पर फिराने लगी।
किसान ने अपने लड़के को वहाँ बुलाया और बोला- ‘देखो, बिल्ली कैसे अपना मुँह साफ कर रही है। यह इसी प्रकार अपना सब शरीर स्वच्छ रखती है। इसीसे इसे खुजली नहीं होती। तुम अपने कपड़े और शरीर को मैला रखते हो,इस कारण तुम्हें खुजली हुई है। मैल में एक प्रकार का विष होता है। वह पसीने के साथ जब शरीर की चमड़ी में लगता है और भीतर जाता है, तब खुजली, फोड़े और दूसरे भी कई रोग हो जाते हैं।
लड़के ने कहा-‘मैं आज सब कपड़े गरम पानी में उबालकर धोऊँगा। बिस्तर और चद्दर भी धोऊँगा। खूब नहाऊँगा। पिता जी! इससे मेरी खुजली दूर हो जायेगी।’
किसान ने बताया-‘शरीर के साथ पेट भी स्वच्छ रखना चाहिये। देखो, बिल्ली का पेट भर गया तो उसने दूध भी छोड़ दिया। पेट भर जाने पर फिर नहीं खाना चाहिये। ऐसी वस्तुएँ भी नहीं खानी चाहिये, जिनसे पेट में गड़बड़ी हो। मिर्च, खटाई, बाजार की चाट, अधिक मिठाइयाँ खाने और चाय पीने से पेट में गड़बड़ी हो जाती है। इससे पेट साफ नहीं रहता। पेट साफ न रहे तो बहुत से रोग होते हैं। बुखार भी पेट की गड़बड़ी से आता है। जो लोग जीभ के जरा से स्वाद के लिये बिना भूख ज्यादा खा लेते हैं अथवा मिठाई, घी में तली हुई चीजें, दही-बड़े आदि बार-बार खाते रहते हैं, उनको और भी तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं। पेट साफ करने के लिये चोकर मिले आटे की रोटी, हरी सब्जी तथा मौसमी-सस्ते फल अधिक खाने चाहिये।’
किसान के लड़के ने उस दिन से अपने कपड़े स्वच्छ रखने आरम्भ कर दिये। वह रोज शरीर रगड़कर स्नान करता। वह इस बात का ध्यान रखता कि ज्यादा न खाए तथा कोई ऐसी वस्तु न खाए, जिससे पेट में गड़बड़ी हो। उसकी खुजली अच्छी हो गयी। वह चुस्त, शरीर का तगड़ा और बलवान् हो गया। उसके पिता और दूसरे लोग भी अब उसे बड़े प्रेम से अपने पास बैठाने लगे।

१३. बैल और गधा
दो पण्डित एक गृहस्थ के घर अतिथि हुए। एक विद्वान स्नान गृह में गये तो। गृहस्थ ने दूसरे से उनके बारे में पूछा। वह कहने लगे, वह तो बिल्कुल बैल है। पहला बाहर आ गया और दूसरा स्नान करने गया तो गृहस्थ ने उससे भी वही बात पूछी । दूसरा विद्वान बोला- वह तो पूरा गधा है। दोनों भोजन के लिए बैठे तो गृहस्थ एक के आगे भूसा और दूसरे के आगे घास पटक कर बोला लीजिये महाराज बैल और गधे का भोजन हाजिर है। यह सुनकर दोनों बड़े लज्जित हुए।
एक दूसरे से ईर्ष्या और निन्दा अमानवीयता का ही घोतक है।

१४. सद्व्यहार का अचूक अस्त्र
एक राजा ने एक दिन स्वप्न देखा कि कोई परोपकारी साधु उससे कह रहा है कि बेटा! कल रात को तुझे एक विषैला सर्प काटेगा और उसके काटने से तेरी मृत्यु हो जायेगी। वह सर्प अमुक पेड़ की जड़ में रहता है, पूर्व जन्म की शत्रुता का बदला लेने के लिए वह तुम्हें काटेगा।
प्रातःकाल राजा सोकर उठा और स्वप्न की बात पर विचार करने लगा। धर्मात्माओं को अक्सर सच्चे ही स्वप्न हुआ करते हैं। राजा धर्मात्मा था, इसलिए अपने स्वप्न की सत्यता पर उसे विश्वास था। वह विचार करने लगा कि अब आत्म-रक्षा के लिए क्या उपाय करना चाहिए?
सोचते-सोचते राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि मधुर व्यवहार से बढ़कर शत्रु को जीतने वाला और कोई हथियार इस पृथ्वी पर नहीं है। उसने सर्प के साथ मधुर व्यवहार करके उसका मन बदल देने का निश्चय किया।
संध्या होते ही राजा ने उस पेड़ की जड़ से लेकर अपनी शय्या तक फूलों का बिछौना बिछवा दिया, सुगन्धित जलों का छिड़काव करवाया, मीठे दूध के कटोरे जगह-जगह रखवा दिये और सेवकों से कह दिया कि रात को जब सर्प निकले तो कोई उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाने या छेड़-छाड़ करने का प्रयत्न न करे।
रात को ठीक बारह बजे सर्प अपनी बाँबी में से फुसकारता हुआ निकला और राजा के महल की तरफ चल दिया। वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, अपने लिए की गई स्वागत व्यवस्था को देख-देखकर आनन्दित होता गया। कोमल बिछौने पर लेटता हुआ मनभावनी सुगन्ध का रसास्वादन करता हुआ, स्थान-स्थान पर मीठा दूध पीता हुआ आगे बढ़ता था। क्रोध के स्थान पर सन्तोष और प्रसन्नता के भाव उसमें बढ़ने लगे।
जैसे-जैसे वह आगे चलता गया, वैसे ही वैसे उसका क्रोध कम होता गया। राजमहल में जब वह प्रवेश करने लगा तो देखा कि प्रहरी और द्वारपाल सशस्त्र खड़े हैं, परन्तु उसे जरा भी हानि पहुँचाने की चेष्टा नहीं करते। यह असाधारण सौजन्य देखकर सर्प के मन में स्नेह उमड़ आया। सद्व्यवहार, नम्रता, मधुरता के जादू ने उसे मन्त्र-मुग्ध कर लिया था। कहाँ वह राजा को काटने चला था, परन्तु अब उसके लिए अपना कार्य असंभव हो गया। हानि पहुँचाने के लिए आने वाले शत्रु के साथ जिसका ऐसा मधुर व्यवहार है, उस धर्मात्मा राजा को काटूँ तो किस प्रकार काटूँ? यह प्रश्न उससे हल न हो सका। राजा के पलंग तक जाने तक सर्प का निश्चय पूर्ण रूप से बदल गया।
सर्प के आगमन की राजा प्रतीक्षा कर रहा था। नियत समय से कुछ विलम्ब में वह पहुँचा। सर्प ने राजा से कहा-‘हे राजन्! मैं तुम्हें काटकर अपने पूर्व जन्म का बदला चुकाने आया था, परन्तु तुम्हारे सौजन्य और सद्व्यवहार ने मुझे परास्त कर दिया। अब मैं तुम्हारा शत्रु नहीं मित्र हूँ। मित्रता के उपहार स्वरूप अपनी बहुमूल्य मणि मैं तुम्हें दे रहा हूँ। लो इसे अपने पास रखो।’ इतना कहकर और मणि राजा के सामने रखकर सर्प उलटे पाँव अपने घर वापस चला गया।
भलमनसाहत और सद्व्यवहार ऐसे प्रबल अस्त्र हैं, जिनसे बुरे-से-बुरे स्वभाव के दुष्ट मनुष्यों को भी परास्त होना पड़ता है।

१५. सज्जनता और शालीनता की विजय यात्रा
एक राजा ने अपने राजकुमार को किसी दूरदर्शी मनीषी के आश्रम में सुयोग्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा। उसे भर्ती कर लिया गया और पढ़ाई चल पड़ी। एक दिन मनीषी ने राजकुमार से पूछा- तुम क्या बनना चाहते हो यह तो बताओ? तब तुम्हारी शिक्षा का क्रम ठीक से बनेगा।
राजकुमार ने उत्तर दिया- वीर योद्धा।
मनीषी ने उसे समझाया, यह दोनों शब्द तो एक जैसे हैं, पर इनमें अन्तर बहुत है। योद्धा बनना है तो शस्त्र कला का अभ्यास करो और घुड़सवारी सीखो, किन्तु यदि वीर बनना हो तो नम्र बनो और सबसे मित्रवत् व्यवहार करने की आदत डालो। सबसे मित्रता करने की बात राजकुमार को जँची नहीं और वह असन्तुष्ट होकर अपने घर वापस चला गया। पिता ने लौटने का कारण पूछा, तो उसने मन की बात बता दी। भला सबके साथ मित्रता बरतना भी कोई नीति है?
राजा चुप हो गया। पर जानता था, उससे जो कहा गया है सो सच है। कुछ दिन बाद राजा अपने लड़के को साथ लेकर घने जंगलों में वन-विहार के लिए गया। चलते-चलते शाम हो गई। राजा को ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। उठा तो देखा कि उसकी अँगूठी में जड़ा कीमती हीरा निकलकर पथरीले रेत में गिरकर गुम हो गया है। हीरा बहुत कीमती था, सो राजा को बहुत चिन्ता हुई, पर किया क्या जाता, अन्धेरी रात में कैसे ढूँढ़ते?
राजकुमार को एक उपाय सूझा। उसने अपनी पगड़ी खोली और वहाँ का सारा पथरीला रेत समेटकर पोटली में बाँध लिया और उस भयानक जंगल को पार करने के लिए निकल पड़े।
रास्ते में सन्नाटा तोड़ते हुए राजा ने पूछा-‘‘हीरा तो एक छोटा-सा टुकड़ा है, उसके लिए इतनी सारी रेत समेटने की क्या जरूरत थी?’’ राजकुमार ने कहा- ‘‘जब हीरा अलग से नहीं मिलता, तो यही उपाय रह जाता है कि उस जगह की सारी रेत समेटी जाय और फिर सुविधानुसार उसमें से काम की चीज ढूँढ़ ली जाय।’’
राजा चुप हो गया किन्तु कुछ दूर चलकर उसने राजकुमार से पुनः पूछा कि फिर मनीषी अध्यापक का यह कहना कैसे गलत हो गया कि ‘सबसे मित्रता का अभ्यास करो।’ मित्रता का दायरा बड़ा होने से ही तो उसमें से हीरे ढूँढ़ सकना संभव होगा।
राजकुमार का समाधान हो गया और वह फिर उस विद्वान् के आश्रम में पढ़ने के लिए चला गया।

१६. दृष्टिकोण व्यक्तित्व का आईना है
एक धर्मात्मा ने जंगल में एक सुंदर मकान बनाया और उद्यान लगाया, ताकि उधर आने वाले उसमें ठहरें और विश्राम करें। समय-समय पर अनेक लोग आते और ठहरते। दरबार हरेक आने वाले से पूछता ‘‘आपको यहाँ कैसा लगा। बताइए मालिक ने इसे किन लोगों के लिए बनाया है।’’
आने वाले अपनी-अपनी दृष्टि से उसका उद्देश्य बताते रहे। चोरों ने कहा- ‘‘एकांत में सुस्ताने, योजना बनाने, हथियार जमा करने और माल का बँटवारा करने के लिए।’’
व्यभिचारियों ने कहा-‘‘बिना किसी रोक-टोक और खटके के स्वेच्छाचारिता बरतने के लिए।’’
जुआरियों ने कहा,- ‘‘जुआ खेलने और लोगों की आँखों से बचे रहने के लिए।’’
कलाकारों ने कहा-‘‘एकांत का लाभ लेकर एकाग्रता पूर्वक कला का अभ्यास करने के लिए।’’
संतो ने कहा-‘‘शांत वातावरण में भजन करने और ब्रह्मलीन होने के लिए।’’
कुछ विद्यार्थी आए, उनने कहा-‘‘शांत वातावरण में विद्या अध्ययन ठीक प्रकार होता है।’’
हर आने वाला अपने दृष्टिकोण द्वारा अपने कार्यों की जानकारी देता गया।
दरबान ने निष्कर्ष निकाला- ‘‘जिसका जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है।’’

१७. सबसे बड़ा पुण्यात्मा
काशी प्राचीन समय से प्रसिद्ध है। संस्कृत विद्या का वह पुराना केन्द्र है। इसे भगवान् विश्वनाथ की नगरी या विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है। विश्वनाथजी का वहाँ बहुत प्राचीन मन्दिर है। एक दिन विश्वनाथ मंदिर के पुजारी ने स्वप्न देखा कि भगवान् विश्वनाथ उससे मन्दिर में विद्वानों तथा धर्मात्मा लोगों की सभा बुलाने को कह रहे हैं। पुजारी ने दूसरे दिन सबेरे ही सारे नगर में इसकी घोषणा करवा दी।
काशी के सभी विद्वान्, साधु और अन्य पुण्यात्मा दानी लोग भी गंगा जी में स्नान करके मन्दिर में आये। सबने विश्वनाथ जी को जल चढ़ाया, प्रदिक्षणा की और सभा-मण्डप में तथा बाहर खड़े हो गये। उस दिन मन्दिर में बहुत भीड़ थी। सबके आ जाने पर पुजारी ने सबसे अपना स्वप्न बताया। सब लोग हर-हर महादेव की ध्वनि करके शंकर जी की प्रार्थना करने लगे।
जब भगवान् की आरती हो गयी घण्टे-घड़ियााल के शब्द बंद हो गये और सब लोग प्रार्थना कर चुके, तब सबने देखा कि मन्दिर में अचानक खूब प्रकाश हो गया है। भगवान् विश्वनाथ की मूर्ति के पास एक सोने का पात्र पड़ा था, जिस पर बड़े-बड़े रत्न जड़े हुए थे। उन रत्नों की चमक से ही मन्दिर में प्रकाश हो रहा था। पुजारी ने वह रत्न-जड़ित स्वर्णपात्र उठा लिया। उस पर हीरों के अक्षरों में लिखा था- ‘सबसे बड़े दयालु और पुण्यात्मा के लिये यह विश्वनाथ जी का उपहार है।’
पुजारी जी बड़े त्यागी और सच्चे भगवद्भक्त थे। उन्होंने वह पात्र उठाया सबको दिखाया। वे बोले-‘प्रत्येक सोमावार को यहाँ विद्वानों की सभा होगी, जो सबसे बड़ा पुण्यात्मा और दयालु अपने को सिद्ध कर देगा, उसे यह स्वर्णपात्र दिया जाएगा।’
देश में चारों ओर यह समाचार फैल गया। दूर-दूर से तपस्वी,त्यागी, व्रत करने वाले, दान करने वाले लोग काशी आने लगे। एक साधू ने कई महीने लगातार चान्द्रायण-व्रत किया था। वे उस स्वर्णपात्र को लेने आये। लेकिन जब स्वर्णपात्र उन्हें दिया गया, उनके हाथ में जाते ही वह मिट्टी का हो गया। उसकी ज्योति नष्ट हो गयी। लज्जित हो कर उन्होंने स्वर्णपात्र लौटा दिया। पुजारी के हाथ में जाते ही वह फिर सोने का हो गया और उसके रत्न चमकने लगे।
एक धर्मात्मा ने बहुत से विद्यालय बनवाये थे। कई स्थानों पर सेवाश्रम चलाते थे। दान करते-करते उन्होंने लगभग सारा धन खर्च कर दिया था। बहुत सी संस्थाओं को सदा दान देते थे। अखबारों में उनका नाम छपता था। वे भी स्वर्णपात्र लेने आये, किन्तु उनके हाथ में भी जाकर मिट्टी का हो गया। पुजारी ने उनसे कहा- ‘आप पद, मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं। नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं हैं।
इसी प्रकार बहुत-से लोग आये, किन्तु कोई भी स्वर्णपात्र पा नहीं सका। सबके हाथों में पहुँचकर वह मिट्टी का हो जाता था। कई महीने बीत गये। बहुत से लोग स्वर्णपात्र पाने के लोभ से भगवान् विश्वनाथ के मन्दिर के पास ही दान-पुण्य करने लगे। लेकिन स्वर्णपात्र उन्हें भी नहीं मिला।
एक दिन एक बूढ़ा किसान भगवान् विश्वनाथ के दर्शन करने आया। वह देहाती किसान था। उसके कपड़े मैले और फटे थे। वह केवल विश्वनाथ जी का दर्शन करने आया था। उसके पास कपड़े में बँधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था। लोग मन्दिर के पास गरीबों को कपड़े और पूड़ी-मिठाई आदि बाँट रहे थे; किन्तु एक कोढ़ी मन्दिर से दूर पड़ा कराह रहा था। उससे उठा नहीं जाता था। उसके सारे शरीर में घाव थे। वह भूखा था, किन्तु उसकी ओर कोई देखता तक नहीं था। बूढ़े किसान को कोढ़ी पर दया आ गयी। उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और अपना कम्बल उसे उढ़ा दिया। वहाँ से वह मन्दिर में दर्शन करने आया।
मन्दिर के पुजारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जितने यात्री दर्शन करने आते थे, सबके हाथ में एक बार वह स्वर्णपात्र रखते थे। बूढ़ा किसान जब विश्वनाथ जी का दर्शन करके मन्दिर से निकला, पुजारी ने उसके हाथ में स्वर्णपात्र रख दिया। उसके हाथ में जाते ही स्वर्णपात्र में जड़े रत्न दुुगुने प्रकाश से चमकने लगे। सब लोग बूढ़े की प्रशंसा करने लगे।
पुजारी ने कहा- जो निर्लोभ है, दीनों पर दया करता है, जो बिना किसी स्वार्थ के दान करता है, और दुखियों की सेवा करता है, वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है।

१८. अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मफल शुभाशुभम्
आठों वसु एक बार सपत्नीक पृथ्वी लोक पर भ्रमण के लिए उतरे। कई तीर्थ और देवताओं के दर्शन करते हुये वे वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुँचे। वशिष्ठ का आश्रम उन दिनों तप, ज्ञान, साधना और ब्रह्मवर्चस् के लिए विश्व विख्यात था। वहाँ अलौकिक शान्ति छाई हुई थी।
वसु और उनकी पत्नियाँ देर तक आश्रम की प्रत्येक वस्तु को देखती रहीं। आश्रम की यज्ञशाला, साधना-भवन और स्नातकों के निवास आदि सभी स्वच्छ, सजे हुए एवं सुव्यवस्थित देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। बड़ी देर तक वसुगण, ऋषियों के तप, ज्ञान, दर्शन और उनकी जीवन व्यवस्था पर चर्चा करते और प्रसन्न होते रहे।
इसी बीच वसु प्रभास एवं उनकी धर्म पत्नी, आश्रम के उद्यान भाग की ओर निकल आये। वहाँ ऋषि की कामधेनु नन्दिनी हरी घास चर रही थी। गाय की सुंदरता, भोली आकृति, धवल वर्ण को देखकर वे दंग रह गए। प्रभास-पत्नी तो उसे पाने के लिये व्याकुल हो उठीं।
उन्होंने प्रभास को सम्बोधित करते हुए कहा-‘‘स्वामी! नन्दिनी की मृदुल दृष्टि ने मुझे विमोहित किया है। मुझे इस गाय में आसक्ति हो गई है, अतएव इसे अपने साथ ले चलिये।’’
प्रभास हँसकर बोले- ‘‘देवी! औरों की प्यारी वस्तु को देखकर लोभ करना और उसे अनाधिकार पाने की चेष्टा करना पाप है। उस पाप के फल से मनुष्य तो मनुष्य, हम देवता भी नहीं बच सकते, क्योंकि ब्रह्माजी ने कर्मों के अनुसार ही सृष्टि की रचना की है। हम अच्छे कर्मों से देवता हुये हैं, बुराई पर चलने के लिये विवश मत करो, अन्यथा कर्म-भोग का दण्ड हमें भी भुगतना पड़ेगा।’’
‘‘हम देवता हैं, इसीलिये पहले ही अमर हैं। नन्दिनी का दूध तो अमरत्व के लिये है, इसलिये उससे अपना कोई प्रयोजन भी तो सिद्ध नहीं होता?’’ प्रभास ने अपनी धर्म-पत्नी को सब प्रकार से समझाया। पर वे नहीं मानीं। उन्होंने कहा-‘‘ऐसा मैं अपने लिये तो कर नहीं रही। मृत्यु लोक में मेरी एक सहेली है, उसके लिये कर रही हूँ। ऋषि भी आश्रम में हैं नहीं, इसलिये यथाशीघ्र गाय को यहाँ से ले चलिये।’’
प्रभास ने फिर समझाया-‘‘देवी! चोरी और छल से प्राप्त वस्तु को परोपकर में भी लगाने से पुण्य-फल नहीं होता। अनीति से प्राप्त वस्तु के द्वारा किये हुए दान और धर्म से शान्ति भी नहीं मिलती। इसलिये तुमको यह जिद छोड़ देनी चाहिये।’’
वसु-पत्नी समझाने से भी न समझीं। प्रभास को गाय चुरानी ही पड़ी। थोड़ी देर में अन्यत्र गये हुये ऋषि वशिष्ठ आश्रम लौटे। गाय को न पाकर उन्होंने सबसे पूछ-ताछ की। किसी ने उसका अता-पता नहीं बताया। ऋषि ने ज्ञान-चक्षुओं से देखा तो उन्हें वसुओं की करतूत मालूम पड़ गई। देवताओं के इस उद्धत-पतन पर शांत ऋषि को भी क्रोध आ गया। उन्होंने शाप दे दिया- ‘‘सभी वसु देव शरीर त्यागकर पृथ्वी पर जन्म लें।’’
शाप व्यर्थ नहीं हो सकता था। देवगुरु के कहने पर उन्होंने ७ वसुओं को तो तत्काल मुक्ति का वरदान दे दिया, पर अन्तिम वसु प्रभास को चिरकाल तक मनुष्य शरीर में रहकर कष्टों को सहन करना ही पड़ा।
वह आठों वसु क्रमशः महाराज शान्तनु और गंगा के घर जन्मे। सात की तत्काल मृत्यु हो गई, पर आठवें प्रभास को पितामह के रूप में जीवित रहना पड़ा। महाभारत युद्ध में उनका शरीर छेदा गया। यह उसी पाप का फल था, जो उन्हें देव शरीर में करना पड़ा था। इसलिये कहते हैं कि गलती देवताओं को भी क्षम्य नहीं। मनुष्य को तो उसका फल अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़ता है। दुष्कर्म के लिए पश्चात्ताप करना ही पड़ता है। ऐसा न सोचें कि एकान्त में किया गया अपराध किसी ने देखा नहीं। नियन्ता की दृष्टि सर्वव्यापी है। उससे कोई बच नहीं सकता।

१९. सत्य, ज्ञान के समन्वय में निहित
सम्राट ब्रह्मदत्त ने सुना कि उनके चारों पुत्र विद्याध्ययन कर लौट रहे हैं, तो उनके हर्षातिरेक का ठिकाना न रहा। स्वतःजाकर नगर-द्वार पर उन्होंने अपने पुत्रों की आगवानी की और बड़े लाड़-प्यार के साथ उन्हें राज-प्रासाद ले आये। राजधानी में सर्वत्र उल्लास और आनन्द की धूम मच गई।
किन्तु हवा के झोंके के समान आई वह प्रसन्नता एकाएक तब समाप्त होती जान पड़ी जब चारों पुत्रों में परस्पर श्रेष्ठता का विवाद उठ खड़ा हुआ।
पहले राजकुमार का कहना था- मैंने खगोल विद्या पढ़ी है-खगोल विद्या से मनुष्य को विराट का ज्ञान होता है इसलिये मेरी विद्या सर्वश्रेष्ठ है। सत्य-असत्य का जितना अच्छा निर्णय मैं दे सकता हूँ, दूसरा नहीं।
द्वितीय राजकुमार का तर्क था कि तारों की स्थिति और उनके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लेने से कोई ब्रह्मा नहीं हो जाता-ज्ञान तो मेरा सार्थक है क्योंकि मैने वेदान्त पर आचार्य किया है। ब्रह्म विद्या से बढ़कर कोई विद्या नहीं, इससे लोक-परलोक के बन्धन खुलते हैं। इसलिये मैं अपने को श्रेष्ठ कहूँ, तब तो कोई बात है। इन भाई साहब को ऐसा मानने का क्या अधिकार?
तीसरे राजकुमार का मत था-वेदान्त को व्यवहार में प्रयोग न किया जाए, साधनाएँ न की जाएँ तो वाचिक ज्ञान मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता-देखने वाली बात है कि हम अपने सामाजिक जीवन में कितने व्यवस्थित हैं-मैंने सामजशास्त्र पढ़ा है इसलिये मेरा दावा है कि श्रेष्ठता का अधिकारी मैं ही हो सकता हूँ।
चौथे रसायनशास्त्री राजकुमार इन सबकी बातें सुनकर हँसे और बोले- बन्धुओं झगड़ो मत। इस संसार में श्रेष्ठता का माप दण्ड है लक्ष्मी। तुम जानते हो मैंने लोहे और ताँबे को भी सोना बनाने वाली विद्या पढ़ी है। पारद को फूँककर मैं अलौकिक औषधियाँ बना सकता हूँ और तुम सबकी विद्या खरीद लेने जितना अर्थ उपार्जन कर सकता हूँ, तब फिर बोलो, मेरी विद्या श्रेष्ठ हुई या नहीं?
श्रेष्ठता सिद्धि के अखाड़े के चारों, प्रतिद्वन्द्वियों में से किसी को भी हार न मानते देख सम्राट ब्रह्मदत्त अत्यन्त दुःखी हुये। सारी स्थिति पर विचारकर एक योजना बनाई। उन्होंने एक राजकुमार को पतझड़ के समय जंगल में भेजा और किंशुक तरु को पहचानकर आने को कहा। उस समय किंशुक में एक भी पत्ता नहीं था। वह ठँॅूठ खड़ा था, सो पहले राजकुमार ने यह ज्ञान प्राप्त किया किंशुक एक ऐसा वृक्ष है जिसमें पत्ते नहीं होते। अगले माह दूसरे राजकुमार गये, तब तक कोंपलें फूट चुकी थीं। तीसरे माह उसमें पुष्प आ चुके थे और चौथे माह फूल- फलों में परिवर्तित हो चुके थे। हर राजकुमार ने किंशुक की अलग-अलग पहचान बताई।
तब राजपुरोहित ने उन चारों को पास बुलाया और कहा-‘‘तात्! किंशुक तरु इस तरह का होता है- चार महीने उसमें परिवर्तन के होते हैं। तुम लोगों में से हर एक ने उसका भिन्न रूप देखा पर यथार्थ कुछ और ही था। इसी प्रकार संसार में ज्ञान अनेक प्रकार के हैं पर सत्य उन सबके समन्वय में है। किसी एक में नहीं।’’
राजकुमार सन्तुष्ट हो गये और उस दिन से श्रेष्ठता के अहंकार का परित्याग कर परस्पर मिल-जुलकर रहने लगे।

२०. सेवाभावी की कसौटी
स्वामीजी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा-धर्म की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह पर चलने के इच्छुक हों, वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। सभा विसर्जन के समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नाम लिखाये। स्वामीजी ने उसी समय दूसरे दिन आने का आदेश दिया।
सभा का विसर्जन हो गया। लोग इधर-उधर बिखर गये। दूसरे दिन सड़क के किनारे एक महिला खड़ी थी, पास में घास का भारी ढेर। किसी राहगीर की प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आये और उसका बोझा उठवा दे। एक आदमी आया, महिला ने अनुनय-विनय की, पर उसने उपेक्षा की दृष्टि से देखा और बोला-‘‘अभी मेरे पास समय नहीं है। मैं बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने जा रहा हूँ।’’ इतना कह वह आगे बढ़ गया। थोड़ी ही दूर पर एक बैलगाड़ी दलदल में फँसी खड़ी थी। गाड़ीवान् बैलों पर डण्डे बरसा रहा था पर बैल एक कदम भी आगे न बढ़ पा रहे थे। यदि पीछे से कोई गाड़ी के पहिये को धक्का देकर आगे बढ़ा दे तो बैल उसे खींचकर दलदल से बाहर निकाल सकते थे। गाड़ीवान ने कहा-‘‘भैया! आज तो मैं मुसीबत में फँस गया हूँ। मेरी थोड़ी सहायता करदो।’’
राहगीर बोला-मैं इससे भी बड़ी सेवा करने स्वामी जी के पास जा रहा हूँ। फिर बिना इस कीचड़ में घुसे, धक्का देना भी सम्भव नहीं, अतः अपने कपड़े कौन खराब करे। इतना कहकर वह आगे बढ़ गया। और आगे चलने पर उसे एक नेत्रहीन वृद्धा मिली। जो अपनी लकड़ी सड़क पर खटखट कर दयनीय स्वर से कह रही थी, ‘‘कोई है क्या? जो मुझे सड़क के बायीं ओर वाली उस झोंपड़ी तक पहुँचा दे। भगवान् तुम्हारा भला करेगा। बड़ा अहसान होगा।’’ वह व्यक्ति कुड़कुड़ाया-‘‘क्षमा करो माँ! क्यों मेरा सगुन बिगाड़ती हो? तुम शायद नहीं जानती मैं बड़ा आदमी बनने जा रहा हूँ। मुझे जल्दी पहुँचना है।’’
इस तरह सबको दुत्कार कर वह स्वामीजी के पास पहुँचा। स्वामीजी उपासना के लिए बैठने ही वाले थे, उसके आने पर वह रुक गये। उन्होंने पूछा-क्या तुम वही व्यक्ति हो, जिसने कल की सभा में मेरे निवेदन पर समाज सेवा का व्रत लिया था और महान् बनने की इच्छा व्यक्त की थी।
जी हाँ! बड़ी अच्छी बात है, आप समय पर आ गये। जरा देर बैठिये, मुझे एक अन्य व्यक्ति की भी प्रतीक्षा है, तुम्हारे साथ एक और नाम लिखाया गया है।
जिस व्यक्ति को समय का मूल्य नहीं मालुम, वह अपने जीवन में क्या कर सकता है? उस व्यक्ति ने हँसते हुए कहा। स्वामीजी उसके व्यंग्य को समझ गये थे, फिर भी वह थोड़ी देर और प्रतीक्षा करना चाहते थे। इतने में ही दूसरा व्यक्ति भी आ गया। उसके कपड़े कीचड़ में सने हुए थे। साँस फूल रही थी। आते ही प्रणाम कर स्वामी जी से बोला-‘‘कृपा कर क्षमा करें! मुझे आने में देर हो गई, मैं घर से तो समय पर निकला था, पर रास्ते में एक बोझा उठवाने में, एक गाड़ीवान् की गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकालने में तथा एक नेत्रहीन वृद्धा को उसकी झोंपड़ी तक पहुँचाने में कुछ समय लग गया और पूर्व निर्धारित समय पर आपकी सेवा में उपस्थित न हो सका।’’
स्वामीजी ने मुस्कारते हुए प्रथम आगन्तुक से कहा- दोनों की राह एक ही थी, पर तुम्हें सेवा के जो अवसर मिले, उनकी अवहेलना कर यहाँ चले आये। तुम अपना निर्णय स्वयं ही कर लो, क्या सेवा कार्यों में मुझे सहयोग प्रदान कर सकोगे?
जिस व्यक्ति ने सेवा के अवसरों को खो दिया हो, वह भला क्या उत्तर देता?

२१. एकान्त नहीं मिला
आचार्य उपकौशल को अपनी पुत्री के लिये योग्य वर की खोज थी। उनके गुरुकुल में कई विद्वान् ब्रह्मचारी थे, किन्तु वे कन्यादान के लिए ऐसे सत्पात्र की खोज में थे, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रताड़ित न करे। परीक्षा के लिए सब ब्रह्मचारियों को गुप्त रूप से आभूषण लाने को कहा, जिसे माता-पिता क्या, कोई भी न जाने।
सब छात्र चोरी से कुछ न कुछ आभूषण लेकर लौटे। आचार्य ने वे आभूषण संभालकर रख लिये। अन्त में वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत्त खाली हाथ लौटे। आचार्य ने उनसे पूछा- ‘क्या तुम्हें एकान्त नहीं मिला?’ ब्रह्मदत्त ने उत्तर दिया-‘निर्जनता तो उपलब्ध हुई, पर मेरी आत्मा और परमात्मा तो चोरी को देखते ही थे। ’ बस आचार्य को वह सत्पात्र मिल गया, जिसकी उन्हें खोज थी।
१. ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान देखने वाला कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता।
२. अनुचित कार्य, चाहे जिसने भी आदेश दिया हो, नहीं करना चाहिए। (गुरु की आज्ञा होने पर भी नहीं)।

२२. जीवों को सताना नहीं चाहिये
माण्डव्य ऋषि तपस्या में लीन थे। उधर से कुछ चोर गुजरे। वे राजकोष लूट कर भागे थे। लूट का धन भी उनके साथ था। राजा के सिपाही उनका पीछा कर रहे थे। चोरों ने लूट का धन ऋषि की कुटिया में छिपा दिया और स्वयं भाग गये। सिपाही जब वहाँ पहुँचे तो चोरों की तलाश में कुटिया के भीतर गये। चोर तो नहीं मिले पर वहाँ रखा धन उन्हें मिल गया। सिपाहियों ने सोचा कि निश्चित ही बाहर जो व्यक्ति बैठा है, वही चोर है। स्वयं को बचाने के लिये साधु का वेष बना, तपस्या का ढोंग कर रहा है। उन्होंने ऋषि को पकड़ लिया और राजा के सामने ले जाकर प्रस्तुत किया। राजा ने भी कोई विचार नहीं किया और न ही पकड़े गये अभियुक्त से कोई प्रश्न किया और सूली पर लटकाने की सजा सुना दी।
माण्डव्य ऋषि विचार करने लगे कि ऐसा क्यों हुआ? यह उन्हें किस पाप की सजा मिल रही है? उन्होंने अपने जीवन का अवलोकन किया, कहीं कुछ नहीं मिला। फिर विगत जीवन का अवलोकन किया। देखते-देखते पूरे सौ जन्म देख लिये, पर कहीं उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया जिसके परिणाम स्वरूप यह दण्ड सुनाया जाता। अब उन्होंने परमात्मा की शरण ली। आदेश हुआ, ‘ऋषि अपना १०१ वाँ जन्म देखो।’ ऋषि ने देखा ‘‘एक ८-१० वर्ष का बालक है। उसने एक हाथ में एक कीट को पकड़ रखा है। दूसरे हाथ में एक काँटा है। बालक कीट को वह काँटा चुभाता है तो कीट तड़पता है और बालक खुश हो रहा है। कीट को पीड़ा हो रही है और बालक का खेल हो रहा है।’’ ऋषि समझ गये कि उन्हें किस पाप का दण्ड दिया जा रहा है।
पर वह तो तपस्वी हैं। क्या उनकी तपस्या भी उनके इस पाप को नष्ट न कर पाई थी? ऋषि विचार ही कर रहे थे कि कुछ लोग जो ऋषि को जानते थे, वे राजा के पास पहुँचे और ऋषि का परिचय देते हुए उनकी निर्दोषता बताई। राजा ने ऋषि से क्षमायाचना करते हुए ऋषि को मुक्त कर दिया।
इतनी देर में क्या-क्या घट चुका था। भगवान् का न्याय कितना निष्पक्ष है, कितना सूक्ष्म है। इसे तो ऋषि ही समझ रहे थे। मन ही मन उस कीट से क्षमा याचना करते हुए वे पुनः अपनी तपस्या में लीन हो गये।

२३. छोटी आयु में बड़ी सफलता
नेपोलियन ने २५ वर्ष की आयु में इटली नी विजय प्राप्त की थी। न्यूटन ने २१ वर्ष का होने से पूर्व ही अपने महत्वपूर्ण आविष्कार कर डाले थे। विक्टर ह्यूगो जब १५ वर्ष के थे तब तक उनने कई नाटक लिख लिये थे और तीनपुरस्कार जीते थे। सिकन्दर जब दिग्विजय को निकला तब कुल २२ वर्ष का था। फ्रांस की क्रांति का नेतृत्व करने वाली देवी जौन १७ वर्ष की थी।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जब वीरगति को प्राप्त हुई तब वह केवल २३ वर्ष की थी। स्वामी विवेकानंद ने केवल ३९ वर्ष का जीवन जिया। भगत सिंह को जब फाँसी दी गई तब वे भी केवल २३ वर्ष के थे। गुरू गोबिंदसिंह जी के शहजादों के विषय में तो सभी जानते हैं। वे बाल्यावस्था में ही वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
यदि उत्कट इच्छा, अदम्य साहस और प्रबल भावना जागृत हो जाए तो अल्प आयु में भी मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है। बहुत कुछ बन सकता है।


द्वितीय अध्याय

बाल प्रबोधन

प्रेरक प्रसंग (भाग- २)

जिन्होंने जीवन ही बदल दिया (बड़ों के जीवन की कुछ सच्ची घटनाएँ)

जिस प्रकार छोटे-से बीज के भीतर विशाल वृक्ष समाया रहता है, उसी प्रकार बालक के भीतर भी विकसित मानव समाविष्ट रहता है। कदाचित् इसी सत्य को लक्ष्य कर अंग्रेजी के महाकवि वर्डस्वर्थ ने कहा था-‘‘चाइल्ड इज़ द फादर ऑफ द मैन।’’ अर्थात् बालक में मानव का जनक विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि बालक की अन्तर्निहित वृत्तियों और शक्तियों को सहज भाव से विकसित होने का अवसर दिया जाय। कौन जानता है कि बालक किस वृत्ति के विकास से क्या-से-क्या बन जाय! अभिभावकों को चाहिये कि बच्चों के प्रति अपने व्यवहार में वे सजग एवं सावधान रहें।
नीचे हम कतिपय महापुरुषों के जीवन की कुछ छोटी-छोटी घटनाएँ दे रहे हैं। पाठक देखेंगे कि छोटी होने पर भी उन्होंने उन महापुरुषों के जीवन पर कितना गहरा प्रभाव डाला। उनके जीवन को एक दिशा में मोड़ दिया। इन घटनाओं से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों पर दबाव डालकर उनका निर्माण करने की प्रचलित परिपाटी अत्यन्त दोषपूर्ण है। समझ-बूझकर स्वेच्छा से गलती करके भी बालक अपना जितना विकास कर सकता है, उतना अभिभावकों की सख्ती या ज़ोर-जबरदस्ती से नहीं।

१. संकल्प
वह एक सम्पन्न घर था। घर क्या, आलीशान महल कहिये। वैभव के जितने उपकरण हो सकते हैं, वे सब वहाँ मौजूद थे। मूल्यवान् मेज-कुर्सियाँ, रंग-बिरंगे एक से बढ़कर एक आचरण, दरियाँ, मखमली कालीन, पियानो, रेडियो। वहाँ के समूचे वायुमण्डल में आभिजात्य की भावना व्याप्त थी और यह स्वाभाविक ही था। कारण कि उस भवन के स्वामी सामान्य व्यक्ति नहीं थे। देश के बड़े-बड़े लोगों में उनकी गणना होती थी। दैवयोग से पत्नी भी उन्हें बड़े घर की मिली थी। घर की साज-सज्जा में उनका बड़ा हाथ था।
घर में कई बालक थे, जिनका पालन-पोषण घर के वैभव और प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होता था। उनके रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा, बोल-चाल सब में घर का बड़प्पन झलकता था। लेकिन उनमें एक बालक था, जो अन्य बालकों की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और प्यारा लगता था। रंग तो-दूसरे बच्चों का भी साफ था, परंतु इस बालक की आकृति में कुछ ऐसा आकर्षण था कि जो भी उसे देखता था, सुग्ध हो जाता था। घर और पड़ोस सबका उसके प्रति असीम प्रेम था। संयोग से बालक का स्वभाव भी अन्य बालकों से कुछ भिन्न था। उस वैभवशाली वायुमण्डल में उसे विशेष रस न था। वह सीधे-सादे ढंग से रहता था और बिना भेद-भाव के सबसे मिलता-जुलता था।
एक दिन अनायास ही घर में कोलाहल मच गया। बात बड़ी नहीं थी। नौकर से चीनी की कुछ मूल्यवान् रकाबियाँ टूट गयीं। अपराध नौकर का नहीं था। वह रकाबियाँ लेकर आ रहा था कि पैर फिसल गया और रकाबियाँ धरती पर गिरकर चूर-चूर हो गयीं। गृह-स्वामी और गृहिणी दोनों ने देखा तो आग-बबूला हो गये। उन्होंने कहनी-अनकहनी सब तरह की बातें उससे कहीं और जब नौकर ने धीमी आवाज में इतना कह दिया ‘कि उसने जान-बूझकर थोड़ी तोड़ डाली?’ तो उनका पारा और भी चढ़ गया। गृह-स्वामी ने कहा-‘अच्छा, तुम यों बाज नहीं आओगे तो मैं तुम्हें थाने भेज देता हूँ।’
इतना कहकर उन्होंने आवेश में थाने के अधिकारी को पत्र लिखा और उसके साथ नौकर को थाने भेज दिया। बेचारे को जाना पड़ा। न जाता तो करता क्या!
थाने में उस पर कोड़ों की मार पड़ी और इतनी कि उसकी देह नीली पड़ गयी। पिट-पिटाकर शाम को जब वह घर लौटा, तब ऐसा लगता था मानो महीनों का बीमार हो। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और कोड़ों की मार तथा अपमान के कारण उसके पैर ठीक से नहीं उठते थे। ज्यों ही उसने घर में प्रवेश किया, वही बालक सामने आया। अपने प्यारे नौकर और उसके मुरझाये चेहरे को देखकर बालक ठिठक कर खड़ा हो गया और क्षणभर उसकी ओर देखता-का-देखता रह गया। नौकर की आँखें सूजी हुई थीं और चेतना इतना विवश दीख पड़ता था मानो अभी रो पड़ेगा।
बालक को देखते ही नौकर भी खड़ा हो गया और एक बार उसने निगाह भरकर उसे देखा। वह कुछ कहना चाहता था, पर होंठ नहीं खुले। देखते-देखते उसकी आँखों की बेबसी क्रोध में परिणत हो गयी और उसने मुँह जरा टेढ़ा करके धीमे पर आवेश भरे स्वर में कहा-‘देखते क्या हो बाबू। एक दिन तुम भी ऐसे ही बनोगे।’
बालक का सारा शरीर काँप उठा, जैसे किसी ने उसके शरीर से बिजली का स्पर्श करा दिया हो। उसका हृदय रो पड़ा। मन-ही-मन उसने कहा कि ‘हे भगवन! धरती फट-जाय तो मैं उसमें समा जाऊँ।’
नौकर के साथ जो हुआ, उससे बालक पहले ही से बहुत क्षुब्ध था और वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब नौकर लौटे और कब वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार चूमे और उसे ढाढ़स बँधाये! लेकिन नौकर लौटा तो उसके मुँह से ऐसे शब्द सुनकर उसका बाल-हृदय एक साथ चीत्कार कर उठा। नौकर मूर्तिवत् खड़ा था मानो स्पन्दनहीन हो और बालक के भीतर भारी तूफान उठ रहा था।
नौकर फिर बोला, ‘क्यों बाबू! मैं झूठ कहता हूँ?’
बालक ने अपने सिर को लटका दिया। बोला-‘नहीं, नहीं, मैं कदापि ऐसा नहीं करूँगा।’ इतना कहकर वह तेजी से आगे बढ़ा और नौकर को अपनी-पतली बाहों में भरकर उसके कपड़ों में उसने अपना मुँह छिपा लिया।
बालक के इस सद् व्यवहार से नौकर का हृदय उमड़ आया। वह अपनी व्यथा को भूल गया।
बचपन का वह संकल्प रूस के महान् अराजकतावादी विचारक प्रिंस क्रोपोट्किन को आजीवन स्मरण रहा और उन्होंने बड़े से बड़ा अपराध होन ेपर भी अपराधी के प्रति सदा सहानुभूति और करुणा का भाव रखा। करुणा का बीज उनमें पहले से मौजूद था। उक्त घटना से उसे जीवन मिला और वह आगे जाकर लहलहा उठा।

२. प्रायश्चित
वह बारह-तेरह वर्ष का बालक ही तो था। कच्ची बुद्धि थी और साथ अच्छा न था। उसके एक सम्बन्धी सिगरेट पीते थे। उसे भी शौक लगा। सिगरेट से फायदा तो क्या, धुआँ उड़ाना उसे अच्छा लगता था। समस्या आयी कि सिगरेट खरीदने के लिये पैसे कहाँ से आयें बड़ों के सामने न तो वह पी ही जा सकती थी, न खरीदने के लिये उन से पैसे ही माँगे जा सकते थे। तब, क्या हो? नौकरों की जेबें टटोली जाने लगीं और पैसा-धेला जो भी पल्ले पड़ता, उड़ा लिया जाता। बड़े सिगरेट पीकर फेंक देते तो वे टुकड़े बीनकर इकट्ठे कर लिये जाते। किसी ने कह दिया कि एक पेड़ की डंठल होती है, जिसे जलाकर पीने से सिगरेट-सा आनन्द आता है। उसका भी प्रयोग किया गया, लेकिन मजा नहीं आया। मजा तो सिगरेट पीने में भी नहीं आता था, पर उससे क्या? यह सिलसिला कुछ दिन तक चला, अचानक एक दिन विचार उठा कि ऐसा काम क्यों करना, जो बड़ों से छिपाना पड़े और जिसके लिये चोरी करनी पड़े? बात उठी। और वहीं की वहीं दब गयी।
फिर उभरी और पराधीनता दिन पर दिन खलने लगी। यह भी क्या कि बड़ोंं की आज्ञा के बिना कुछ न कर सकें? ऐसे जीने से लाभ क्या? इससे तो जीवन का अन्त कर देना ही अच्छा है।
पर करें कैसे? किसी ने कहा था कि धतूरे के बीज खा लेने से मृत्यु हो जाती है। बीज इकट्ठे किये गये, पर खाने की हिम्मत न हुई। प्राण न निकले तो? फिर भी साहस करके दो-चार बीज खा ही डाले, लेकिन उनसे क्या होता था। मौत से वह डर गया और उसने मरने का विचार छोड़ दिया। जान बची, साथ ही एक लाभ यह हुआ कि बीड़ी की जूठन पीने, नौकरों के पैसे चुराने की आदत भी छूट गयी।
दो वर्ष बाद बालक के उस सम्बन्धी-साथी पर २५ का कर्ज हो गया। वह कैसे निकले? जब कोई उपाय दिखायी न दिया, तब सोचा गया कि साथी के हाथ में सोने का जो ठोस कड़ा था, क्यों न उसमें से थोड़ा-सा सोना काटकर बेच दिया जाय और कर्ज चुका दिया जाय? अन्त में यही किया गया। कड़़ा कटा, सोना बिका और ऋण से मुक्ति हो गयी।
ऋण से मुक्ति तो हुई, पर वह घटना बालक के लिये असह्य हो गयी। उसने आगे कभी चोरी न करने का निश्चय किया। साथ ही यह भी कि अपनी चोरी को अपने पिता के सामने स्वीकार कर लेगा। यह डर तो था कि पिताजी उसे पीटेंगे, और यह भी कि वे यह सब सुनकर बहुत दुखी होंगे। अगर उन्होंने स्वयं अपना ही सिर पीट लिया, तो जो हो, पर भूल स्वीकार किये बिना मन की व्यथा दूर न होगी।
पिता के आगे मुँह तो खुल नहीं सकता था। तब बालक ने चिठ्टी लिखकर अपना दोष स्वीकार किया। चिठ्टी अपने हाथों ही पिता को दी। उसमें सारा दोष कबूल किया गया था, साथ ही उसके लिये दण्ड माँगा गया था। आगे चोरी न करने का निश्चय भी था।
पिताजी बीमार थे। वे बिस्तर पर लेटे थे। चिट्ठी पकड़ने के लिये उठ बैठे। चिट्ठी पढ़ी। आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं। थोड़ी देर के लिये उन्होंने आँखे बंद कर लीं। चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और बिस्तर पर पुनः लेट गये।
मुँह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। बालक अवाक् रह गया। पिता की वेदना को उसने अनुभव किया और उनकी पीड़ा तथा शान्तिमय क्षमा से वह रो पड़ा।
बड़े होने पर उसने लिखा-‘जो मनुष्य अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदय से कह देता है और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है।’
इस बालक से भारत ही नहीं, सारा संसार परिचित है। वह था मोहनदास करमचंद गाँधी।

३. दया
एक बालक कहीं से लौट रहा था। सन्ध्या हो चुकी थी और मार्ग जंगल से होकर था। बालक खेलता-कूदता आ रहा था। अचानक एक पेड़ की नीची टहनी पर क्या देखता है कि एक छोटे से घोंसले में दो अंडे रखे हैं और उन पर एक चिड़िया बैठी है। बालक रुक गया। उसे वे अंडे बड़े अच्छे लगे। देखने में सुन्दर तो थे ही, साथ ही बाल-सुलभ कौतूहल भी था। उसने सोचा कि इन अंडो को ले चलूँ और माँ को दिखाऊँ तो वह बहुत खुश होगी। वह घोंसले की ओर बढ़ा, फिर ठिठका। चिड़िया फुर्र से उड़ गयी। घोंसले के बीच में जरा-सा गढ्ढा था, जिसमें एक-दूसरे से सटे दोनों अंडे रखे थे। चिड़िया उड़कर ऊपर की डाल पर जा बैठी और चीं-चीं करने लगी। बालक ने धीरे-धीरे घोंसले की ओर हाथ बढ़ाया और फिर खींच लिया। नहीं, उसे अंडे नहीं उठाने चाहिये। पर क्यों? माँ उन्हें देखकर कितनी प्रसन्न होंगी? और भाई-बहनें? ...कहेंगे कि वाह, क्या बढ़िया चीज लाया है।
उसने जी कड़ा किया और दोनों अंडे हाथ में उठा लिए। चिड़िया जोर से चीत्कार कर उठी, पर बालक रुका नहीं। अंडे धीरे से मुठ्ठी में दबाकर और हाथ को कोट की जेब में डालकर वह घर चला आया।
घर आकर उसने साँस ली। हाँफता हुआ बोला, ‘ओ माँ, ओ माँ! देख, कैसी बढ़िया चीज लाया हूँ।’
माँ ने अंडे देखे ओर बालक की आशा के विपरीत उनका चेहरा एकदम गम्भीर हो गया। बोली- ‘हाय! तूने यह क्या किया।’
बालक ने कहा-‘देखती नहीं कैसे सुन्दर हैं।’ माँ कहती गयी, ‘तूने यह नहीं सोचा कि चिड़िया कितनी हैरान होगी। वह बार-बार घोंसले पर आकर इन्हें खोजती होगी और अपना सिर पीटती होगी। हाय! तूने यह क्या किया। ...और...अगर लाना ही था तो एक ले आता। कम से कम एक तो उसके लिये छोड़ ही आता।’
बालक को अपनी भूल मालूम हुई, पर अब वह क्या करे? देर जो हो चुकी थी।
माँ रातभर नहीं सो सकी और बालक भी सारी रात सपने में चिड़िया का भयंकर आर्त्तनाद सुनता रहा, उसका फड़फड़ाना देखता रहा।
सबेरे उठते ही वह दौड़ा-दौड़ा गया। बड़ी मुश्किल से उसे वह जगह मिली। उसने देखा कि चिड़िया सूने घोंसले के एक द्वार पर सुस्त-सी बैठी है। शायद रातभर रोते-रोते थक गयी थी।
़ बालक के आगे बढ़ते ही वह उड़कर दूसरी शाखा पर जा बैठी। बालक ने दोनों अंडे घोंसले में रख दिये और आड़ में खड़े होकर देखने लगा कि आगे क्या होता है?
चिड़िया आयी घोंसले पर बैठ गयी। उसने तिरछी गर्दन करके अंडों को घूरा। बालक को हर्ष हुआ, लेकिन उसने देखा कि चिड़िया की आँखों में वह दुलार नहीं है, जो पहले था। वह चुपचाप घोंसले के किनारे पर टिकी रही, पर अंडो पर नहीं बैठी।
बालक देर तक खड़ा-खड़ा इस हृदयस्पर्शी दृश्य को देखता रहा। उसके जी में आता था कि वह उस वेदना से विह्वल चिड़िया को पकड़ ले और कहे कि मेरे अपराध को क्षमा कर दे और अपने इन पेट के जायों को स्वीकार कर ले। मेरे लिये नहीं, भगवान् के लिये तू एक बार फिर इन्हें अपने पंखों के साये में समेट ले। पर चिड़िया की खोयी ममता फिर नहीं लौटी। निराश बालक घर की ओर चला तो उसका हृदय बहुत भारी था।
जीव दया का यह ऐसा पाठ था कि वह बालक के हृदय पटल पर गहरा अंकित हो गया और जब तक जिया प्राणि-मात्र के प्रति सदा दयावान् बना रहा।
पाठक इस बालक को जानते हैं। वह थे दीनबन्धु एण्ड्रयूज-भारत के अनन्य मित्र और हितैषी।

४. परदुःखकातरता
विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अपने उपकुलपति से बहुत हैरान थे। वे विद्यार्थियों को जो भी दण्ड देते, विद्यार्थी उपकुलपति के पास जाते और माफ करा लाते। यों अनुशासन कैसे चलेगा? विद्यार्थी उनकी बात कैसे मानेंगे?
वे काफी दिन तक सहन करते रहे, लेकिन जब उन्होंने देखा कि उपकुलपति के व्यवहार में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है, तब उन्होंने एक दिन उनके पास जाकर शिकायत की ‘आप जो करते हैं, उसका प्रभाव संस्था पर अच्छा नहीं पड़ेगा। विद्यार्थी आपको छोड़कर किसी भी अध्यापक की बात नहीं मानेंगे और हम लोगों को काम करना मुश्किल हो जायगा।’ उपकुलपति ने उनकी बात को ध्यान से सुना। फिर कुछ गम्भीर होकर बोले-‘आप ठीक कहते हैं, पर क्या आप मेरी विवश्ता के लिये मुझे क्षमा नहीं करेंगे?’
‘कैसी विवशता?’ एक अध्यापक ने पूछा।
उपकुलपति थोड़ी देर मौन रहे, मानो वह वहाँ न हों। फिर कुछ सँभलकर बोले- ‘अपने बचपन की एक बात मैं भूल नहीं पाता। जब मैं छोटा था, मेरे पिता नहीं रहे थे। माँ थी और घर में बेहद गरीबी थी। मैं स्कूल में पढ़ता था। फीस उन दिनों नाम मात्र को लगती थी, लेकिन वह भी समय पर नहीं निकल पाती थी। माँ चाहती थी कि मैं ढंग के कपड़े पहनकर स्कूल जाऊँ, पर लाती कहाँ से? एक दिन घर में साबुन के लिये पैसा न था। मैं मैले कपड़े पहनकर स्कूल चला गया। अध्यापक आये। उन्होंने क्लास पर एक निगाह डाली। मुझे भी देखा और उनकी निगाह मुझ पर रुक गयी। बोले, ‘खड़े हो जाओ।’ मैं क्या करता? खड़ा हो गया। बोले इतने गंदे कपड़े पहनकर स्कूल आने में शर्म नहीं आती? मैं तुम पर आठ आना जुर्माना करता हूँ।’
आठ आना! मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसक गयी। मुझे अपमान की उतनी चिन्ता न थी जितनी कि इस बात की कि जब घर में साबुन के लिये एक आना पैसा नहीं था तो माँ आठ आने कहाँ से लायेंगी।’ कहते-कहते उपकुलपति की आँखें भर आयीं। फिर कुछ सुस्थिर होकर बोले-‘तब से मुझे बराबर इस बात का ध्यान रहता है कि विद्यार्थी की पूरी परिस्थिति जाने बिना यदि हम उसे दण्ड देते हैं तो प्रायः उसके साथ अन्याय कर बैठते हैं, दूसरी बात यह कि जब तक आदमी स्वयं कष्ट नहीं पाता, दूसरे के कष्ट को नहीं समझ सकता।’
अध्यापक निरुत्तर होकर चले गये। यह घटना भारतीय राजनीति के पण्डित माननीय श्री निवास शास्त्री के बाल्य-काल की है।

५. निष्काम की कामना
सभी भाँति समझाने, डराने, धमकाने से लेकर प्रलोभन देने तक के उपाय अपना लेने के बाद भी जब प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति का आश्रय नहीं छोड़ा तो हिरण्यकशिपु क्रोधाविष्ट होकर बोला, ‘‘रे दुष्ट! इस कुल में विष्णु का नाम लेने वाला कोई नहीं हुआ है और तुम ईश्वर-ईश्वर की रट लगाकर कुल मर्यादा भंग किये दे रहे हो। यह अक्षम्य अपराध है।’’
‘‘श्रेष्ठ कर्म करने से कुल मर्यादा नहीं टूटती तात्!’’प्रह्लाद ने शान्त गम्भीर वाणी में अपने पिता को समझाना चाहा, उन्हें कभी भी कोई भी नमन करे, उससे कुल का गौरव ही बढ़ता है।
उन्मत्त हिरण्यकशिपु की क्रोधाग्नि में प्रह्लाद के इन वचनों ने घी का काम किया और वह गरजता हुआ प्रह्लाद की ओर दौड़ा, मेरी सीख को न समझकर मुझे ही उपदेश देने वाले दुष्ट! तू ऐसे नही मानेगा। तुझ जैसे कुल कलंकी का तो कुल में न होना ही अच्छा।
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मारने के लिये झपटा। आवेश में सन्तुलन न रह सका और जो घूँसा प्रह्लाद पर वार करने के लिये उठा था, वह उस खम्भे पर पड़ा जिसके सहारे प्रह्लाद खड़ा था। खम्भा टूट गया और उसी खम्बे से प्रकट हुए नृसिंह भगवान् आधा नर और आधा सिंह का रूप धारण किये। उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपने तीक्ष्ण नखों से उसका पेट फाड़ डाला।
उस समय भगवान नृसिंह का रौद्र रूप देखकर उपस्थित देवगण तक काँप उठे। सबने अलग-अलग स्तुति की परन्तु किसी का कोई परिणाम नहीं हुआ। देवगण सोचने लगे कि यदि प्रभु का क्रोध शान्त नहीं हुआ। तो अनर्थ हो जायेगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा किन्तु लक्ष्मी जी भी वह विकराल रूप देखकर भयभीत हो लौट आईं। अन्त में ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहा,‘‘बेटा तुम्हीं समीप जाकर उनका क्रोध शान्त करो।’’
प्रह्लाद सहज भाव से प्रभु के सम्मुख गये और दण्डवत् प्रणिपात करके उनके सामने लेट गये। भगवान् नृसिंह ने अपने भक्त को सामने देखकर कहा, ‘‘वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वही वरदान माँग लो।’’
‘‘प्रभु! मेरी क्या इच्छा हो सकती है?’’ प्रह्लाद ने कहा-मुझे कुछ नहीं चाहिये। भगवन्! मुझे कुछ नहीं चाहिये। जो सेवक कुछ पाने की आशा से अपने स्वामी की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप तो परम उदार हैं, मेरे स्वामी हैं और मैं आपका आश्रित-अनुचर। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना ही उत्पन्न न हो।
‘एवमस्तु’, भगवान् ने कहा और पुनः आग्रह किया फिर भी प्रह्लाद कुछ तो अपने लिये माँग लो।
प्रह्लाद ने सोचा, प्रभु जब बार-बार मुझ से माँगने के लिये कहते हंै तो अवश्य ही मेरे मन में कोई कामना है। बहुत सोच-विचार करने, मनःमन्थन करने के बाद भी जब उन्हें लगा कि कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं है तो वह बोले, ‘‘नाथ! मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और आस्तिकजनों को बहुत कष्ट दिया है। वे घोर पातकी रहे हैं। मैं यही चाहता हूँ कि वे इन पापों से छूटकर पवित्र हो जायें।’’
भगवान् नृसिंह ने प्रह्लाद को गद्गद् होकर कण्ठ से लगा लिया और उसकी सराहना करते हुये कहा, ‘‘धन्य हो बेटा तुम! जिसके मन में यह कामना है कि अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो।’’

६. सत्य की विजय
काबुल के सम्राट नमरूद ने ऐलान कराया कि वही ईश्वर है, उसी की पूजा की जाय। भयभीत प्रजा ने उसकी मूर्तियाँ बनाईं और पूजा आरम्भ कर दी।
एक दिन राज-ज्योतिषियों ने नमरूद को बताया कि इस वर्ष एक ऐसा बालक जन्मेगा जो उसके ईश्वरत्व को चुनौती देने लगेगा।
सम्राट को यह बात अखरी और उसने उस वर्ष जन्मने वाले सब बालकों को मार डालने की आज्ञा, दे दी। बालक ढूृँढ़-ढूँढ़ कर मारे जाने लगे। नमरूद की मूर्तियाँ गढ़ने वाले कलाकार आजर की धर्म-पत्नी को भी प्रसव हुआ और सुन्दर पुत्र जन्मा। मातृ-हृदय बालक की रक्षा के लिये व्याकुल हो गया। वह उसे लेकर पहाड़ की एक गुफा में गई और वहीं उसका लालन-पालन करने लगी।
बालक बन्द गुफा में बढ़ने लगा। धीरे-धीरे वह पाँच वर्ष का हो गया। एक दिन उसने माता से पूछा-हम लोग जहाँ रहते हैं, क्या उससे बड़ा इस दुनिया में और कुछ है? माता ने बालक को संसार के विस्तार के बारे में बहुत कुछ बताया और कहा इस सबका निर्माता एक ईश्वर है। बालक ईश्वर के दर्शन करने के लिये व्यग्र रहने लगा।
एक दिन अवसर पाकर बालक गुफा से बाहर निकला, सबसे पहले उसने उन्मुक्त आकाश को देखा। रात्रि का अंधकार छाया हुआ था। उसे एक चमकता हुआ तारा दिखाई दिया। बालक ने सोचा, हो न हो यही ईश्वर होगा। थोड़ी देर में तारा अस्त हो गया और चाँद निकला।
बालक सोचने लगा कम प्रकाश वाला तारा ईश्वर नहीं, अधिक चमकने वाला यह चाँद ईश्वर होना चाहिये। थोड़ी देर में रात समाप्त हुई, चन्द्रमा डूबा और सूरज निकल आया और दिन गुजरते-गुजरते उसके भी डूबने की तैयारी होने लगी।
बालक इब्राहीम के मन में भारी उथल-पुथल मची। उसने सोचा जो बार-बार डूबता और उदय होता है, ऐसा ईश्वर नहीं हो सकता। वह तो ऐसा होना चाहिये जो न जन्मे और न मरे। विचार ने विश्वास का रूप धारण किया। ईश्वर का स्वरूप उसकी समझ में आ गया। इब्राहीम ने ईश्वर-चिन्तन का व्रत लिया और साधुओं की तरह न जन्मने और न मरने वाले ईश्वर की उपासना करने के लिये प्रचार करने लगा। नमरूद को पता चला कि उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई फकीर पैदा हो गया है, तो उसने इब्राहीम को पकड़ बुलाया और अनेक यन्त्रणायें देने लगा। जब इब्राहीम के विचार नहीं बदले, तो उसे जलती आग में पटक कर मार डालने का आदेश हुआ।
अग्नि प्रकोप से बचाने में सहायता करने के लिये जब देवता इब्राहीम के पास पहुँचे, तो उन्होंने यह कहकर वह सहायता अस्वीकार कर दी कि सत्य की निष्ठा कष्ट सहने से ही परिपक्व होती है और आत्मा का तेज परीक्षा के बाद ही निखरता है। मुझे अपनी निष्ठा की परीक्षा कष्ट सहने के द्वारा देने दीजिये। मेरा आत्मबल विचलित न हो, यदि ऐसी सहायता कर सकें तो आपका इतना अनुग्रह ही पर्याप्त है।
अन्त में सत्य ही जीता। नमरूद का गर्व गल गया। इब्राहीम अपनी सत्यनिष्ठा के कारण और अधिक चमके। नमरूद नहीं रहा, पर इब्राहीम की ईश्वर विवेचना आज भी बहु-संख्यक मनुष्यों के हृदय में स्थान प्राप्त किए हुये है। बल नहीं जीतता और न आतंक ही अन्त तक ठहरता है। असत्य कितना ही साधन सम्पन्न क्यों न हो वह सत्य के आगे ठहर नहीं पाता। साधनहीन होते हुये भी सत्य, सुसम्पन्न असत्य से कहीं अधिक सामर्थ्यवान होता है। विजय असत्य की नहीं सत्य की ही होती है।

७. ‘ब्रह्म तेजो बलं बलम्’
विश्वामित्र तब तक एक क्षत्रिय राजा थे। उनका प्रचंड प्रताप दूर-दूर तक प्रख्यात था। शत्रुओं की हिम्मत उनके सम्मुख पड़ने की न होती थी। दुष्ट उनके दर्प से थर-थर काँपा करते थे। बल में उनके समान दूसरा उस समय न था।
एक दिन राजा विश्वामित्र शिकार खेलते-खेलते वशिष्ठ मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। मुनि ने राजा का समुचित आतिथ्य-सत्कार किया और अपने आश्रम की सारी व्यवस्था उन्हें दिखाई। राजा ने नन्दिनी नामक उस गाय को भी देखा, जिसकी प्रशंसा दूर-दूर तक हो रही थी। यह गाय प्रचुर मात्रा में अमृत के समान गुणकारी दूध तो देती ही थी, साथ ही उसमें और भी दिव्य गुण थे, जिस स्थान पर वह रहती वहाँ देवता निवास करते और किसी बात का घाटा न रहता। सुन्दरता में तो अद्वितीय ही थी। राजा विश्वामित्र का मन इस गाय को लेने के लिए ललचाने लगा। उन्होंने अपनी इच्छा मुनि के सामने प्रकट की पर उन्होंने मना कर दिया। राजा ने बहुत समझाया और बहुत से धन का लालच दिया पर वशिष्ठ उस गाय को देने के लिए किसी प्रकार तैयार न हुए। इस पर विश्वामित्र को बहुत क्रोध आया। मेरी एक छोटी-सी बात भी यह ब्राह्मण नहीं मानता। यह मेरी शक्ति को नहीं जानता और मेरा तिरस्कार करता है। इन्हीं विचारों से अंहकार और क्रोध उबल आया। रोष में उनके नेत्र लाल हो गये। उन्होंने सिपाहियों को बुलाकर आज्ञा दी कि जबरदस्ती इस गाय को खोलकर ले चलो। नौकर आज्ञा पालन करने लगे।
वशिष्ठ साधारण व्यक्ति न थे। उन्होंने कुटी से बाहर निकलकर निर्भयता की दृष्टि से सबकी ओर देखा। अकारण मेरी गाय लेने का साहस किसमें है, वह जरा आगे तो आए। यद्यपि उनके पास अस्त्र-शस्त्र न थे, अहिंसक थे तो भी उनका आत्मतेज प्रस्फुटित हो रहा था।
विश्वामित्र विचार करने लगे। भौतिक वस्तुओं का बल मिथ्या है। तन, मन की शक्ति बहुत ही तुच्छ, अस्थिर और नश्वर है। सच्चा बल तो आत्मबल है। आत्मबल से आध्यात्मिक और पारलौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ ही लौकिक शक्ति भी प्राप्त होती है। मैं इतना पराक्रमी राजा, जिसके दर्प को बड़े-बड़े शूर-सामन्त सहन नहीं कर सकते। इस ब्राह्मण के सम्मुख हत-प्रभ होकर बैठा हूँ और मुझसे कुछ भी बन नहीं पड़ रहा है। निश्चय ही तनबल, धनबल की अपेक्षा आत्मबल अनेकों गुनी शक्ति रखता है। उन्होंने निश्चय कर लिया कि भविष्य में वे सब ओर से मुँह मोड़कर आत्मसाधना करेंगे और ब्रह्मतेज को प्राप्त करेंगे। ब्रह्म तेज पर वे इतने मुग्ध हुए कि अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा ‘धिक् बलं, क्षत्रिय बलं, ब्रह्मतेजो बलंबलम्।’ क्षत्रिय बल तुच्छ है, बल तो ब्रह्म तेज ही है। उसी दिन विश्वामित्र ने संकल्प किया और घोर तपस्या में जुट गए व ब्रह्म तेज को प्राप्त किया।

८. दैवी प्रतिशोध
सूर्यास्त के बाद अन्धकार घना होता जा रहा था। अरब की मरुभूमि में रातें भी बड़ी भयावह लगा करती हैं। ऐसे ही रेतीले सुनसान स्थान पर यात्री को एक झोंपड़ी दिखाई दी, जिसमें कोई व्यक्ति गीत गा रहा था। यात्री एक क्षण को रुका और गीत के बोल सुनने लगा।
यात्री को झोंपड़ी में रहने वाली वृद्ध पुरुष की आकृति जानी-पहचानी लगी। स्मृतियाँ उघड़ती गयीं और उसे याद आया कि इस व्यक्ति से उसका निकटतम सम्बन्ध रह चुका है। झोंपड़ी में रहने वाला वृद्ध व्यक्ति युसुफ के नाम से जाना जाता था, जो अपने समय के बहुत ही विख्यात सन्त थे। यात्री ने यूसुफ से कहा- ‘‘मैं समाज द्वारा बहिष्कृत एक पापी हूँ। सभी ने मुझे अधम कहकर मेरा परित्याग कर दिया। राज कर्मचारी मुझे पकड़कर दण्डित करने के लिए मेरा पीछा कर रहे हैं। आज की रात आपके घर में गुजारने का मौका मिल जाय तो बड़ी दया होगी। युसुफ आप तो अपनी दया के लिये संसार भर में प्रसिद्ध हैं।’’
युसुफ ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा-‘‘भद्र पुरुष। यह घर मेरा नहीं उस परमात्मा का ही है। इसमें तुम्हारा भी उतना ही अधिकार है जितना कि मेरा। मैं तो इस देह का भी स्वामी नही हूँ, यह भी एक धर्मशाला है। तुम प्रसन्नतापूर्वक जी चाहे तब तक यहाँ रहो।’’
वह अन्दर खाना खाने के लिए चला गया। अभ्यागत को भरपेट भोजन करवाकर सोने के लिए बिस्तर लगा दिया और बिना परिचय पूछे ही सो जाने के लिए कहा।
प्रातःकाल हुआ। पूर्व दिशा में अरुणिमा फैलने लगी और पक्षियों का कलरव गूँजने लगा। यूसुफ उठ गये थे और नहा-धोकर अतिथि के जागने का इन्तजार कर रहे थे। उधर अतिथि कई दिनों का थका हारा होने के कारण चैन की नींद ले रहा था। यूसुफ अतिथि के पास गये और धीरे से जगाकर बोले-‘‘उठो भाई, सूरज उग आया है। तुम्हारी सुविधा के लिये मैं थोड़ा-बहुत धन लाया हूँ, उसे लेकर द्रुतगामी घोड़े पर सवार होकर दूर चले जाना ताकि तुम अपने शत्रुओं की पहँुंच से बाहर निकल सको।’’
इस सत्पुरुष के मुखमण्डल पर हार्दिक पवित्रता ‘शीतल’ रजनी चन्द्रिका की भाँति फैली हुई थी। उनके शब्द जैसे अन्तःकरण से निकलकर आ रहे थे तभी तो उनका व्यवहार इतना दिव्य बन पड़ा था। इस दिव्य व्यवहार के प्रभाव स्वरूप ही आगन्तुक के हृदय में भी पवित्र और सात्विक विचारों का प्रवाह बहने लगा था। अतिथि को अपना पूरा विगत स्मृत हो आया और लगा कि पापपूर्ण प्रवृत्तियों की कालिमा पश्चाताप के रसायन से स्वच्छ होती जा रही हैं और उनके स्थान पर निर्मल भावों की तंरगें उठने लगी हैं।
पृथ्वी पर घुटने टेक यूसुफ के चरणों में झुककर अतिथि ने कहा-‘‘हे शेख! आपने मुझे शरण दी, भोजन दिया, शान्ति दी और पवित्रता भी दी, अब आपके प्रति कृतज्ञता के लिये क्या कहूँ? मैं कैसे कहूँ कि यह उपकार पापी इब्राहीम के लिए किया है, जो आपके बड़े पुत्र का हत्यारा है। हमारे कबीलों में हत्यारे को शिरच्छेद कर को मृतात्मा शांति पहुँचायी जाती है, आप भी उसी परम्परा का पालन कीजिए।’’
इब्राहीम यह कहकर मौन हो गया, परन्तु यूस़ुफ ने तो उसे भगाने में और भी जल्दी की क्योंकि वे डरने लगे थे-अपने आप से कहीं अपने पुत्र के हत्यारे का वध करने के लिए पाश्विक प्रतिशोध न जाग पड़े। वे बोले-तब तो तुम और भी जल्दी चले जाओ। कहीं मैं प्रतिशोध के कारण कर्त्तव्य भ्रष्ट न हो जाऊँ।
इब्राहीम चला गया और यूसुफ ने अपने दिवंगत पुत्र को सम्बोधित करते हुए कहा-‘‘मैं तेरे लिये दिन-रात तड़पता रहा हूँ। आज मैंने तेरा बदला ले लिया है। तेरे हत्यारे की नृशंस भावना पश्चाताप की अग्नि में जलकर नष्ट हो गयी है और उसका हृदय पवित्र हो गया। अब तू शान्ति की चिरनिद्रा में सो जा।’’

९. मंगलामंगलम्
भवन अमंगल-मकड़ियों ने जहाँ-तहाँ जाले बुन रखे हैं, शिशुओं का शौच दुर्गन्ध फैला रहा है- पशुओं ने सर्वत्र गोबर फैला रखी है, सर्वत्र, अस्वच्छता, अमंगल ऐसे घर में रहना तो नर्क में रहना है। दिन भर यही विचार उठता रहता, श्रुतिधर बेचैन हो उठे, यह भवन अमंगल है कह कर एक दिन उन्होंने गृह-परित्याग किया और समीप के एक गाँव में जाकर रहने लगे। ग्रामवासी निर्धन हैं, अशिक्षित हैं मैले-कुचैले वस्त्र पहनकर सत्संग में सम्मिलित होते हैं। गाँव की गन्दगी ने पुनः श्रुतिधर के मन में पीड़ा भर दी। ग्राम भी अमंगल है- इस अमंगल में कैसे जिया जाए? श्रुतिधर ने उसका भी परित्याग किया और निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे एकाकी कुटी बनाकर रहने लगे।
रात आनंद और शान्ति के साथ व्यतीत हो गई किन्तु प्रातःकाल होते ही पक्षियों का कलरव, कुछ जंगली जीव उधर से गुजरे थे कुटी के बाहर उन्होंने आखेट किये जीवों की हड्डियाँ छोड़ दी थीं, आशंका से ओत-प्रोत श्रुतिधर के अन्तःकरण को आकुलित करने के लिए इतना ही पर्याप्त था, उन्हें वन में भी अमंगल के ही दर्शन हुए। अब क्या किया जाए वे इसी चिन्ता में थे तभी उन्हें सामने बहती हुई श्वेत सलिला सरिता दिखाई दी, उन्हें आनन्द हुआ, विचार करने लगे यह नदी ही सर्वमंगल सम्पन्न है सो कानन-कुटी का परित्याग कर वे उस शीतल, पयस्विनी के आश्रय में चल पड़े।
शीतल जल के सामीप्य से उन्हें सुखद् अनुभूति हुई, अंजुलि बाँधकर उन्होंने जल ग्रहण किया तो अन्तःकरण प्रफुल्लित हुआ, पर इस तृप्ति के क्षण अभी पूरी तरह समाप्त भी नहीं हो पाये थे कि उन्होंने देखा एक बड़ी मछली ने आक्रमण किया और छोटी मछली को निगल लिया, इस उथल-पुथल से सरिता के तट पर हिलोर पहुँची-जिससे वहाँ रखे मेढकों-मच्छरों के अण्डे बच्चे पानी में उतराने लगे अभी यह स्थिति भी न हो पाई थी कि ऊपर से बहते-बहते किसी श्वान का शव उनके समीप आ पहुँचा। यह दृश्य देखते ही श्रुतिधर का हृदय घृणा से भर गया। उन्हें उस नदी के जल में भी अमंगल के ही दर्शन हुए।
अब कहाँ जाया जाए? इस प्रश्न ने श्रुतिधर को झकझोरा! वन, पर्वत, आकाश सभी तो अमंगल से परिपूर्ण हैं उनका हृदय उद्वेलित हो उठा। इससे अच्छा तो यही है, कि जीवन ही समाप्त कर दिया जाए, अमंगल से बचने का एक ही उपाय उनकी दृष्टि में शेष रहा था।
श्रुतिधर ने लकड़ियाँ चुनीं, चिता बनाई, प्रदक्षिणा की और उस पर आग लगाने लगे तभी उधर कहीं से वासुकी आ पहुँचे। यह सब कौतुक देखकर उन्होंने पूछा- ‘‘तात्! तुम क्या कर रहे हो?’’ दुःख भरे स्वर में श्रुतिधर ने अपनी अब तक की सारी कथा सुनाई और कहा- ‘‘जिस सृष्टि में सर्वत्र अमंगल ही अमंगल हो उसमें रहने से तो मर जाना अच्छा।’’
वासुकी मुस्काराये, एक क्षण चुप रहे फिर मौन भंग करते हुए बोले- ‘‘वत्स तुम चिता मे बैठोगे, तुम्हारा शरीर जलेगा, शरीर में भरे मल भी जलेंगे, उससे भी अमंगल ही तो उपजेगा, उस अमंगल में क्या तुम्हें शान्ति मिल पायेगी?’
तात्। सृष्टि में अमंगल से मंगल कहीं अधिक है घर में रहकर सुयोग्य नागरिकों का निर्माण गाँव में शिक्षा संस्कृति का विस्तार, वन में उपासना की शान्ति और जल में दूषण का प्रच्छालन प्रकृति की प्रेरणा यही तो है कि सृष्टि में जो मंगल है उसका अभिसिंचन, परिवर्द्धन और विस्तार हो, जो अमंगल है, उसका शुचि-संस्कार, यदि तुम इसमें जुट पड़ो तो अशान्ति का प्रश्न ही शेष न रहे। श्रुतिधर को यथार्थ का बोध हुआ वे घर लौट आये और मंगल की साधना में जीवन बिताने लगे।

१०. सत्यनिष्ठ बालक
अपने शयनागार में सोये हुए महाराज छत्रपति शिवाजी के निकट पहुँचकर वह बालक तलवार का प्रहार करने ही वाला था कि सेनापति तानाजी ने उसे देख लिया और लपककर उसका हाथ पकड़ लिया धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया।
धमाका सुनकर महाराज शिवाजी जाग पड़े। देखा कि तानाजी द्वारा एक बालक पकड़ा हुआ है, जो उन्हें मारने के लिए किसी प्रकार शयनागार में घुस आया था, पकड़ा हुआ बालक निर्भीकता से खड़ा हुआ था। शिवाजी ने उससे पूछा-‘तुम कौन हो? और यहाँ किसलिए आये थे?’
बालक ने कहा-मेरा नाम मालोजी है और मैं आपकी हत्या करने के लिए यहाँ आया था। महाराज ने पूछा-तुम नहीं जानते हो कि इसके लिए तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा?
‘‘जानता हूँ महाराज! मृत्युदण्ड’’ बालक ने उत्तर दिया।
तो इतना जानते हए भी तुम मेरी हत्या करने क्यों आये? क्या तुम्हें अपने प्राणों का मोह नहीं था, मालो। शिवाजी ने उससे पूछा।
बालक ने अपनी सारी कथा कह सुनाई। उसने कहा-‘‘मेरे पिता आपकी सेना में नौकर थे, वे एक युद्ध में मारे गये। पीछे राज्य से हम लोगों को कोई सहायता न मिली। अब हम माँ-बेटे बड़े कष्ट से जीवन काट रहे है। माँ तो कई रोज से बीमार पड़ी है, घर में अन्न का एक दाना भी न होने के कारण हम लोगों को कई फाके हो गये।’’ बालक की आँखे छलक आईं, उसने अपने वृत्तान्त को जारी रखते हुए कहा-मैं भोजन की तलाश में घर से बाहर निकला था कि आपके शत्रु सुभागराय ने मुझे बताया, कि शिवाजी कितना निष्ठुर है, जिसकी सेवा में तेरे पिता की मृत्यु हुई उस शिवाजी से बदला लेना चाहिए, यदि तू उन्हें मार आवेगा, तो मैं तुझे बहुत-सा धन दूँगा। यह बात मुझे उचित प्रतीत हुई और मैं आपकी हत्या के लिये चला आया।
तानाजी ने कहा- ‘‘दुष्ट! तेरे कुकृत्य से महाराष्ट्र का दीपक बुझ गया होता, अब तू मरने के लिए तैयार हो जा।’’
तैयार हूँ! मृत्यु से मैं बिल्कुल नहीं डरता, पर एक बात चाहता हूँ कि मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई माता के चरण स्पर्श करने की एक बार आज्ञा मिल जाय। माता के दर्शन करके सबेरे ही वापस लौट आऊँगा। बालक ने उत्तर दिया।
शिवाजी ने कहा- यदि तुम भाग जाओ और वापस न आओ तो?
बालक ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया-मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ, वचन से नहीं लौटूँगा। महाराज ने मालोजी को घर जाने की आज्ञा दे दी।
दूसरे दिन सवेरे ही मालोजी दरबार में उपस्थित था, उसने कहा-महाराज। मैं आ गया, अब मृत्यु दण्ड के लिए तैयार हूँ।
शिवाजी का दिल पिघल गया। ऐसे चरित्रवान बालक को दण्ड दूँ, न मुझसे यह न होगा। महाराज ने बालक को छाती से लगा लिया और कहा-‘‘तेरे जैसे उज्जवल रत्न ही देश और जाति का गौरव बढ़ा सकते हैं, मालो। तुझे मृत्युदण्ड नहीं, सेनापति का पद प्राप्त होगा। तेरी सत्यनिष्ठा को सम्मानपूर्ण गौरव से पुरस्कृत किया जायेगा।’’

११. अपनी कमाई-सदा काम आई
राजा जनमेजय प्रति माह कुछ समय राज्य में यह देखने के लिए भ्रमण किया करते थे कि उनकी प्रजा को किसी प्रकार कष्ट तो नहीं है। विकास की जो योजनाएँ क्रियान्वित की जाती हैं, उनका परिपालन होता है या नहीं? उनका लाभ नागरिकों को मिलता है या नहीं?
वे एक गाँव से गुजर रहे थे। छद्म वेश में थे, इसलिए कोई पहचान नहीं सका। एक जगह, लड़के खेल, खेल रहे थे। एक लड़का उनमें शासक बनकर बैठा था, सभासद बने लड़के सामने बैठे थे। शासक का अभिनय करने वाला लड़का, जिसका नाम कुलेश था, खड़ा सभासदों को व्याख्यान दे रहा था- ‘‘सभासदों! जिस राज्य के कर्मचारीगण वैभव-विलास में डूबे रहते हैं, उसका राजा कितना ही नेक और प्रजावत्सल क्यों न हो, उस राज्य की प्रजा सुखी नहीं रहती। मैं चाहता हूँ, जो भूल जनमेजय के राज्याधिकारी कर रहे हैैं, वह आप लोग न करें, ताकि मेरी प्रजा असन्तुष्ट न हो। तुम सबको वैभव-विलास का जीवन छोड़कर जीना चाहिए। जो ऐसा नहीं कर सकता वह अभी शासन सेवा से अलग हो जाय।’’
सभासद तो अलग न हुए पर बालक की यह प्रतिभा उसे ही वहाँ से अवश्य खींच ले गई। जनमेजय उससे बहुत प्रभावित हुए और उसे ले जाकर महामन्त्री बना दिया। कुलेश युवक था तो भी वह बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से राज्य कार्यो में सहयोग देने लगा। सामान्य प्रजा से उठकर जब वह महामन्त्री बनने चला था, तब उसके पास एक कुदाली, लाठी और एक उतरीय वस्त्र अँगोछे के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वह इन्हें अपने साथ ही लेता गया।
उसके प्रधानमंत्रीत्व काल में अन्य मन्त्रियों सामन्तों एवं राज्य कर्मचारियों के लिए आचार-संहिता बनाई गई, जिसके अनुसार प्रत्येक पदाधिकारी को दस घण्टे अनिवार्य रूप से कार्य करना पड़ता था। अतिरिक्त आय के स्रोत बन्द कर दिये गये, इससे बचा बहुत-सा धन प्रजा की भलाई मे लगने लगा। सारी प्रजा में खुशहाली छा गई। जनमेजय कुलेश के आदर्श व प्रबन्ध से बड़े प्रसन्न हुए।
लेकिन शेष सभासद, जिनकी आय व विलासितापूर्ण जीवन को रोक लगी थी, महामन्त्री कुलेश से जल उठे और उसे अपदस्थ करने का षड्यन्त्र रचने लगे।
उन्हें किसी तरह पता चल गया कि महामन्त्री के निवास स्थान पर एक कक्ष ऐसा भी है, जहाँ वह किसी भी व्यक्ति को जाने नहीं देता, जब वह दिन भर के काम से लौटता है, तब स्वयं ही कुछ देर उसमें विश्राम करता है।
सभासदों ने इस रहस्य को लेकर ही जनमेजय के कान भर दिए कि कुलेश ने बहुत-सी अवैध सम्पत्ति एकत्रित कर ली है। महाराज उनके कहने में आ गये अतएव जाँच का निश्चय कर एक दिन वे स्वयं सैनिकों सहित कुलेश के निवास पर जा पहुँचे। सब ओर घूमकर देखा पर महाराज को सम्पत्ति के नाम पर वहाँ कुछ भी तो नहीं दिखा, तभी उनकी दृष्टि उस कमरे में गई, वे समझे कुलेश निश्चय ही अपनी कमाई इसमें रखता है।
महाराज ने पूछा-‘‘कुलेश! तुम इस कक्ष में एकान्त में क्या किया करते हो?’’ इनकी पूजा महाराज! उसने उत्तर दिया। कुदाली मुझे सदैव परिश्रम के प्रेरणा देती है और लाठी स्वजनों की सुरक्षा की उत्तरीय वस्त्र की पूजा मैं इसलिए करता हूँ कि घर हो या बाहर यही बिछौना मेरे लिए पर्याप्त है। यह कहकर कुलेश ने तीनों वस्तुएँ उठा लीं और फिर उसी ग्रामीण जीवन में चला गया।
महाराज जनमेजय को सभासदों के षड्यन्त्र का दुःख अब भी बना हुआ है, वह तब दूर हो जब कुलेश जैसे राज्य कर्मचारी देश में उत्पन्न हों।

१२. लोकरंजन के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए
घर के सब लोग सो चुके थे। पर रसोईघर में दीपक का मन्द प्रकाश अभी टिमटिमा रहा है। इसी दीपक तले बैठा एक चौदह वर्षीय बालक जमीन पर खड़िया से चित्र बना रहा था।
आधी रात इसी प्रकार बीत गयी। नींद आने लगी, तो वह कमरे में सोने चला गया और यह सोचकर प्रसन्न हो रहा था कि प्रातः जब लोग मेरे मर्मस्पर्शी चित्र को देखेंगे, तो खुश होंगे, पुरस्कार देंगे।
सुबह हुई। बालक प्रतिक्रिया जानने पिता के पास यह सोचते हुए पहुँचा कि आज यदि पुरस्कार मिला, तो सबसे पहले वह उससे एक तूलिका और कुछ रंग-रोगन खरीदेगा एवं कागज पर चित्रकारी करेगा। पिता के समक्ष जब वह उपस्थित हुआ तो इनाम की जगह मिला उसे एक जोरदार तमाचा और अपमान भरे भद्दे शब्द-चित्रकार बनने चला है। अरे! पहले यह भी सोचा है कि तेरे इस पेट को भरेगा कौन? चितेरा ही बनना है, तो पहले अपने इस पेट को भरने का उपाय कर फिर अपनी कलाकारी दिखाना अन्यथा निकल जा इस घर से। मैं इतना धनी-मानी नहीं, जो तुम्हें बिठाकर खिला सकूँ और तुम्हें हाथ भी न हिलाना पड़े।
बालक अभी था तो किशोरावस्था की दहलीज में ही पर इतना अबोध भी नहीं कि मान-अपमान भी न समझ सके। स्वाभिमान जगा तो घर और घरवालों को सदा-सदा के लिए तिलांजलि देकर निकल पड़ा, आजीविकोपार्जन के लिए। थोड़े से ही प्रयास से बालक राउल्ड को पेरिस के स्टेन्ले ग्लास मेकर कम्पनी में नौकरी मिल गयी। प्रतिमाह 4 फ्रेंक इस छोटी सी नौकरी से ही उसने किराये का एक छोटा सा मकान लिया और किसी प्रकार अपनी गुजर करने लगा। मितव्ययिता निर्वाह से पाँच महीने में उसने इतनी राशि इकट्ठी कर ली, जिससे कैनवास, स्टैण्ड, ब्रुश और रंग खरीदा जा सके। बस, फिर उसने चिरइच्छित अपनी चित्रकारी शुरू कर दी।
बालक राउल्ड बड़ा संवेदनशील था। वह चित्र के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को उभारना चाहता था। चूँकि वह अल्पशिक्षित था, अतः मानवीय करुणा को मूर्तिमान कर दूसरों के अन्तःकरण को छूने और पीड़ा का आभास दिलाने का एक मात्र आधार भी तो यही था, इसीलिए अपनी इस कला को और अधिक निखारने और जीवन्त बनाने के लिए पेरिस के नेशनल आर्ट इंस्टीट्यूट में उसने दाखिला ले लिया।
कहते हैं कि यदि सोने में सुगन्ध होती, तो अपनी चमक -दमक से वह चन्दन को भी फीका कर देता। राउल्ड के साथ ऐसा ही हुआ। सोने में सुगन्ध का सम्मिलन, जब वह प्रशिक्षण लेकर बाहर निकला तो मानवता के प्रति उसके हृदय में कसक और वेदना थी, वह उसकी तूलिका से ऐसी उभरी, मानो साक्षात् मानवीय करुणा को उठाकर कैनवास पर रख दिया हो। उसने पहला चित्र प्रशिक्षण लेने के बाद बनाया, वह एक ऐसी पीड़ित नारी का था, जिसके पाँवों के घावों पर मरहम पट्टी करते हुए एक सुहृदय की सौजन्यता को दर्शाया गया था। दूसरी तस्वीर उसने एक गाय को ऊँट के बच्चे को दूध पिलाते हुए बनायी थी। तीसरा चित्र उसने एक भूख से बिलबिलाते प्राण त्यागते बालक का बनाया था। इसी प्रकार उसने ढेर सारी तस्वीरें बनायीं, जो समाज की किसी न किसी समस्या का प्रतिनिधित्व करती थीं, जो भी उन चित्रों को देखता, आह निकले बिना न रहती। हाय! ऐसी दुर्दशा है हमारे समाज की लोगों के मुुँह से बरबस उस समय वेदना फूट पड़ती।
एक बार राडल्ड के एक घनिष्ठ मित्र ने उसे सलाह दी-राउल्ड! यह क्या समाज की घिसी-पिटी समस्याओं को लेकर चित्र बनाते हो। शायद इसीलिए तुम्हारे चित्र दूसरों की तुलना में अधिक नहीं बिकते। मेरा कहा मानो तो मार्डन तस्वीर बनाओ, फिर देखो तुम रातों-रात किस तरह चमकते हो?
यह मार्डन तस्वीर क्या बला होती है? राउल्ड ने उत्सुकतावश पूछा, क्योंकि इस नये शब्द को उसने पहली बार सुना था।
वही जो दूसरों की समझ में न आये। मित्र ने स्पष्ट किया।
जो दूसरों की समझ में ही न आये, वैसी तस्वीर बनाने का क्या तात्पर्य, उससे समाज को क्या लाभ?
शायद तुमने एक शायर की यह पंक्तियाँ नहीं सुनीं।
‘‘कौन सी?’’ राउल्ड ने पूछ लिया।
‘‘वही तस्वीर कलामय है, जिसे आलिम तो क्या समझे।
अगर सौ साल सर मारे, तो शायद ही खुदा समझे।’’
आज मार्डन आर्ट की परिभाषा यही है और एक बात और! तुम समाज के हानि-लाभ के व्यापार में मत पड़ो। अपने नफे-नुकसान की बात सोचो।
बस तुम्हारे-हमारे विचारों में यही सबसे बड़ा अन्तर है। राउल्ड ने कहा-तुम अपने हानि-लाभ के लिए अपनी यश कीर्ति के लिए काम करना चाहते हो, जबकि हमारा मत ठीक इसके विपरीत है। मैं हर कार्य को करने से पूर्व यह सोचता हूँ कि इससे समाज को क्या और कितना लाभ मिलेगा, भले ही उसमें हमें व्यक्तिगत रूप से हानि उठानी पड़े।
इसलिए प्रिय बन्धु! मैं समाज के समस्यामूलक चित्रों को बनाना न छोडूँगा, भले ही वे न बिकें और मेरा उद्द्ेश्य भी पैसा कमाना नहीं है। मैं इन चित्रों की जगह-जगह प्रदर्शनी लगाकर समाज की विभिन्न समस्याओं के प्रति जनचेतना उभारूँगा और लोगों को उनके प्रति जागरूक करूँगा? भड़ाकने और यौन-उन्माद उत्पन्न करने अथवा प्रेरणाहीन तथाकथित आधुनिक चित्र बनाने को मैं कला की श्रेणी में नहीं गिनता। यही मेरा अन्तिम निर्णय और निश्चय है।
मित्र उसके तर्क के आगे नत्मस्तक हो गया। कभी फ्रांस में मूक क्रांति लाने वाले इस चित्रकार की क्रान्तिधर्मी तस्वीरें आज भी पेरिस के मोरियो गुटराव संग्रहालय में सुरक्षित पड़ी हैं। यद्यपि आज इन चित्रों का सृष्टा तो न रहा, किन्तु काश कोई उसकी प्रेरणा को ग्रहण कर उसके अधूरे आन्दोलन को पूरा करे। काश! आधुनिक चित्रकार उनकी अन्तःपीड़ा को समझकर उनकी आदर्शवादी लीक पर चल सकते तो सामाजिक समस्याओं के प्रति जन-जागृति लाने में काफी मदद मिलती।

१३. प्रतिकूलताओं ने प्रशस्त किया सफलता का पथ
अमेरिका का ख्यातिनामा शहर शिकागो-सर्दी के दिन! व्यस्त राजमार्ग पर भी बहुत कम चहल-पहल नजर आ रही थी। जितने अमरीकी, सड़क पर गुजरते हुए दिखाई भी देते, वे लम्बा ऊनी कोट पहने और कैप लगाए थे। होटल और रेस्तरां खचाखच भरे थे। लोग गर्म चीजें खा-पीकर अपनी ठण्ड को भुलाने का प्रयास कर रहे थे।
ऐसी कड़ाके की ठण्ड में एक भारतीय सन्यासी बोस्टन से आने वाली रेलगाड़ी से शिकागो स्टेशन पर उतरा। सिर पर पगड़ी बँधी थी, उसका भी रंग गेरुआ ही था। विचित्र वेश-भूषा को देखकर अनेक यात्रियों की दृष्टि उस पर जम गई। वह फाटक पर पहुँचा। लम्बे चोगे की जेब से टिकिट निकाला और टिकिट कलेक्टर को देकर वह प्लेटफार्म से बाहर आ गया। उसे देखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में से ही किसी ने पूछ लिया-‘‘आप कहाँ से आए हैं?’’
बोस्टन से, पर निवासी भारत का हूँ।
यहाँ किससे मिलना है?
डॉ बैरोज से,
कौन डॉ बैरोज?
सन्यासी ने अपने चोगे की जेब में हाथ डाला पर हाथ खाली ही निकला।
क्यों, क्या हुआ?
मैं डॉ. बैरोज के नाम बोस्टन से प्रोफेसर जे. एच. राइट का एक पत्र लाया था। उसी पर पता लिखा था, पर वह कहीं रास्ते में गुम हो गया।
दर्शक उसकी बात को सुनकर हँसने लगे। भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगी। सन्यासी अब अकेला रह गया। पास से निकलने वाले एक शिक्षित व्यक्ति को रोककर संन्यासी ने पूछा-‘क्या आप मुझे डॉ. बैरोज के घर का पता बता सकते हैं?’
वह अनसुनी करके अपनी आँखें मटकाता हुआ आगे बढ़ गया। सन्यासी स्टेशन की सीमा पार कर राजमार्ग पर चलने लगा। उसकी दृष्टि दोनों ओर लगे साइन बोर्डो पर थी। शायद इन्हीं के बीच कहीं डॉ. बैरोज का बोर्ड दिखाई दे जाए। ढूँढते-ढूँढते शाम हो गयी। बिना पूूरे पते के इतने बड़े शहर में किसी व्यक्ति से मिलना आसान काम न था। ठण्ड बढ़ने लगी। शीत लहर चलने लगी। साधु के पास गर्म कपड़े तो थे नही। उसने दो दिन से भोजन भी न किया था। पास में एक पैसा नही सोचा था शिकागो पहुँचकर वह डॉ. बैरोज का अतिथि बनेगा, पर कभी-कभी सोचा हुआ काम कहाँ हो पाता है?
उसे सामने एक बहुत बड़ा होटल दिखाई दिया। केवल रात काटनी थी। उसने होटल की ओर कदम बढ़ाए। सीढ़ियों की ओर चढ़ना था कि दरबान ने रोक दिया-तुम कौन हो?
मैं रात्रि में यहाँ विश्राम करना चाहता हूँ।
नीग्रो को ठहरने के लिए इस होटल में कोई स्थान नहीं।
मैं भारतीय हूँ।
तुम काले हो। काले लोगों के लिए इस होटल में कोई जगह नहीं। दरबान ने बड़ी बेरहमी से कहा।
सन्यासी के चरण पुनः सड़क की ओर अनमने भाव से बढ़ने लगे। उसे लगा कि अब आगे एक कदम भी चलना मुश्किल है। आँखों के सामने अन्धेरा छाने लगा। यदि वह और आगे बढ़ा तो जमीन पर गिर जाएगा, पर क्या करता? आगे बढ़ना ही जिसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो।
उसने देखा वह रेलवे मालगोदाम के पास आ गया है। वह उसी तरफ बढ़ता चला गया, गोदाम बन्द हो चुका था। बाहर लकड़ी का एक बड़ा बॉक्स खाली था अन्दर थोड़ी घास पड़ी थी। ऊपर ढक्कन रखा हुआ था। भोजन की कोई व्यवस्था न हो पायी, पर ठण्ड से अपने शरीर की रक्षा करनी ही थी। वह अन्दर की घास को एक तरफ करके उसमें उतर गया, ऊपर से ढक्कन खिसका लिया।
रात भर बर्फीली हवा चलती रही। जब तख्तों के छेदों से सर्दी अन्दर प्रवेश कर जाती तो वह काँप उठता था। जैसे-तैसे रात कट गयी। बॉक्स से सन्यासी बाहर निकला। शरीर सुन्न पड़ गया था, जैसे-तैसे लकड़ी की पेटी से निकलकर सड़क के किनारे पड़ी बैंच पर बैठ गया।
बैठकर सोच रहा था क्या करे? संघर्ष, निरन्तर संघर्ष, परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों, उसने हार मानना सीखा न था। विपरीतताएँ-उसका क्या कर सकती हैं, जिसने हार मानना सीखा न हो। फिर जिन्हें परम सत्ता पर, उसके निर्देशों के अनुसार चलने का विश्वास हो उनका क्या कहना। उसे पूर्ण विश्वास था कि जब मनुष्य किसी सत्कार्य में पूरी तरह अपने शरीर व मन को खपा देता है, तो जैसे ही उसकी शक्तियाँ चुकने को होती हैं, दैवी-चेतना उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाती है। और हुआ भी ऐसा ही-जिस स्थान पर बैठे थे, अचानक उसके सामने के भवन का द्वार खुला। एक सुशील सौम्य महिला बाहर निकली, पास आयी और बोली-स्वामी जी मैं अज्ञात किन्तु सशक्त प्रेरणा से आपके पास आयी हूँ। आप यहाँ सर्व धर्म सम्मेलन हेतु पधारे हैं-मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ?
मेरा नाम विवेकानन्द है। मैं भारत से इस सम्मेलन में भाग लेने आया हूँ। मुझे बोस्टन से डॉ.बैरोज के नाम प्रो.राइट ने पत्र दिया था वह कहीं गुम हो गया।
वह महिला बड़े सम्मान के साथ उन्हें अपने घर ले गयी। भोजन, गर्म कपड़े तथा निवास की पूर्ण व्यवस्था की। दूसरे दिन सर्वधर्म सम्मेलन के कार्यालय में ले जाकर परिचय कराया।
11 सितम्बर, 1893 का दिन बड़े ही महत्त्व का था। इसी दिन हजारों की संख्या में लोगों ने उनके उद्गारों को सुना, सराहा और अनुयायी हुए। अब प्रत्येक अमेरिकावासी की जुबान पर उन्हीं का नाम था। यह वही व्यक्ति था जो रात काटने के लिए एक दिन भटकता रहा था। आज लोगों के हृदय में अपना स्थान बनाए हुए था। अनेक समाचारों के मुखपृष्ठ पर उनके भाषण छपने लगे। उसी नगर में स्थान-स्थान पर अनेक बड़े-बड़े चित्र लगाए गए जिसके नीचे मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था ‘‘स्वामी विवेकानन्द एमाँक फ्रॉम इण्डिया ’’ क्या था उनकी सफलता का राज? उसे उन्होंने ही बताते हुए एक अवसर पर कहा था-‘‘उठो जागो, रुको मत, जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाओ।’’ इसी मन्त्र की उन्होंने साधना की, आदि काल से महामानवों ने इसी को अपने जीवन मन्त्र के रूप में अपनाया है। हमारे अपने लिए भी यही महामन्त्र है।

१४. सबसे श्रेष्ठ-सबसे महान् स्मारक
घटना कलकत्ता की है। आजकल श्री सोमानी जी बड़ी ही उलझन में रहते थे, उनके पिताजी का देहान्त हो चुका था और वे उनकी स्मृति को अमर बनाने के लिये कोई प्रतीक बनवाना चाहते थे। वे एक धनीमानी व्यक्ति हैं साथ ही बुद्धिमान भी। यों तो परम्परागत कई चीजे हैं बनवाने को-कुआँ, मन्दिर, धर्मशाला, अस्पताल तथा अन्य उपकरण किन्तु इन सबसे परे वे कोई ऐसी चीज बनवाना चाहते थे, जिससे अधिक से अधिक व्यक्ति केवल लाभान्वित ही न हों-बल्कि जीवन में कोई सही दिशा भी पा सकें।
क्या बनावाएँ? यही निर्णय वे नहीं ले पा रहे थे और इसी से मानसिक स्थिति उद्विग्न बनी रहती थी। आज भी जब भोजन से निवृत्त हुए तो थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से लेटे थे। पत्नी से भी छिपी न रही थी वह मानसिक ग्रन्थि। वह आई और पास बैठ गई। पूछा-‘‘आजकल आप बहुत सोच-विचार किया करते हैं। ऐसी क्या नई बात आ गई है? पिताजी के न रहने से काम की सारी जिम्मेदारी आपके ऊपर आ गई है। काम भी बढ़ ही गया है। न हो तो एक-आध आदमी और रख लें।’’
तब श्री सोमानी जी बोले-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। काम से मैं नहीं घबराता। सब हो ही रहा है। मेरे दिमाग मे एक ही चिन्ता है। पिताजी का स्वर्गवास हुए एक वर्ष होने को आया और मैं अभी तक उनके स्मारक के रूप में कुछ बनवाने की बात को पूरा नहीं कर सका हूँ।
तब सौहार्द्र भरे स्वर में पत्नी बोली-यदि आप स्वयं इस समस्या का हल निकालने में सफल नहीं हो पा रहे हैं, तो अपने मित्रों से सलाह लीजिये। कोई न कोई बात जँच ही जायेगी।
और दूसरे दिन से सचमुच ही वे अपने सब मित्रों से इस विषय पर परामर्श करने लगे। मित्र भी सभी स्तरों के थे। अधिकांश ने वही बातें दुहराई। किसी ने मन्दिर बनवाने को कहा, किसी ने प्याऊ लगाने को। किसी ने अन्न तथा वस्त्र के वितरण पर जोर दिया तो किसी ने बच्चों को मुफ्त दूध बँटवाने की सलाह दी, पर सारे ही परामर्श उन्हें उपयोगी होते हुए भी प्राणहीन से लगे। वे कोई ऐसी योजना चाहते थे, जिससे व्यक्ति कोई स्थायी सहायता पा सके। तभी उनके एक मित्र ने उन्हें परामर्श दिया कि आप एक पुस्तकालय बनवाएँ, उससे अधिक से अधिक व्यक्ति लाभान्वित होंगे तथा जीवन का शाश्वत-ज्ञान प्राप्त करेंगे।
यह बात श्री सोमानी जी को बहुत पसन्द आई। उनके मस्तिष्क के तन्तु जिस तत्व की खोज में थे, वह मिल गया था। अब उन्होंने तत्काल ही योजना को कार्यान्वित करने के लिये सारी योजनाएँ जुटाने की जिम्मेदारी विभिन्न व्यक्तियों को सौंप दी।
श्री सोमानी जी ने तीस हजार रुपया इस शुभ कार्य के लिये व्यय किया। पुस्तकालय बन गया, उसमें चुन-चुन कर व्यक्ति और समाज का सही मार्ग-दर्शन कर सकने वाली पुस्तकें रखी गई, निरर्थक साहित्य का एक कागज भी उनमें नहीं घुसने दिया। अब सैकड़ों व्यक्ति हर रोज उसका लाभ उठाने लगे। अनेक दिशाहीनों को जीवन जीने का ढंग मिला। ज्ञान आत्मा का भोजन है वह जिसे भी मिला है उसने सद्पथ की ओर ही कदम बढ़ाये हैं। सदा अनेक व्यक्ति इस पुस्तकालय से जीवन निर्माण का प्रकाश प्राप्त कर रहे हैं।
निश्चय ही इस स्वरूप में अपना स्मारक देखकर स्वर्ग में उनके पिताजी की आत्मा बहुत ही प्रसन्न तथा संतुष्ट हुई होगी।

१५. वीर बाला रत्नावती
जैसलमेर - नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर किले की रक्षा का दायित्व उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंपा था। इसी समय दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने जैसलमेर को घेर लिया। इस सेना का सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुसलमानी सेना ने पड़ाव डाल दिया, लेकिन इससे रत्नावती घबराई नहीं । वह वीर सैनिक का वेश पहने, तलवार बाँधे, धनुष-बाण चढ़ाये घोड़े पर बैठी किले की बुर्जों पर और दूसरे सब आवश्यक स्थानों पर घूमती और सेना का संचालन करती थी। उसकी चतुरता और फुर्ती के कारण मुसलमान सेना ने जब-जब किले पर आक्रमण करना चाहा, उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हट जाना पड़ा।
जब अलाउद्दीन के सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने पहले तो अपने रक्षक सैनिक हटा लिये और उन्हें चढ़ने दिया, पर जब वे दीवार पर ऊपर तक चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने और गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी। इससे शत्रु का वह पूरा दल नष्ट हो गया।
एक बार एक मुसलमान सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा, लेकिन रत्नावती इतनी सावधान रहती थी कि उसने उस सैनिक को देख लिया। सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा कि मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हूँ। किन्तु राजकुमारी रत्नावती को धोखा देना आसान नहीं था। उसने शत्रु सैनिक को बाणों से बींध दिया।
सेनापति मलिक काफूर ने देखा कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। लेकिन सच्चे राजपूत लोभ में आकर विश्वासघात नहीं करते। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने भी देखा कि शत्रु को पकड़ने का यह अच्छा अवसर है। उसने द्वारपाल को रात में किले का दरवाजा खोल देने को कहा।
आधी रात को सौ सैनिकों के साथ मलिक काफूर किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने फाटक खोल दिया। वे लोग भीतर आ गये तो फाटक बंद करके वह उन्हें रास्ता दिखाता आगे ले चला। थोड़ी दूर जाकर बूढ़ा किसी गुप्त रास्ते से चला गया। मलिक काफूर और उसके साथी हैरान रह गये। कि ले के बुर्ज पर खड़ी होकर राजकुमारी रत्नावती हँस रही थी। राजकुमारी की सूझ-बूझ से वे लोग कैद कर लिये गये थे। सेनापति के पकड़े जाने पर भी मुसलमान सेना ने किले को घेरे रखा। किले के भीतर जो अन्न था वह समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास रखने लगे। रत्नावती भूख से दुबली और पीली पड़ गई। लेकिन ऐसे संकट में भी उसने राजा के न्याय-धर्म को नहीं छोड़ा। अपने यहाँ जेल में पड़े शत्रु को पीड़ा नहीं देनी चाहिये, यह अच्छे राजा का धर्म है। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती पर मलिक काफूर और उसके कैदी साथियों को रोज दो मुट्ठी अन्न दिया जाता था।
अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर के किले में उसका सेनापति कैद है और किला जीता नहीं जा सकता तो उसने महारावल जी के पास संधि का प्रस्ताव भेज दिया। रत्नावती ने देखा कि एक दिन किले के चारों ओर से मुसलमानी सेनाएँ अपना तम्बू-डेरा उखाड़ रही हैं और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं।
मलिक काफूर जब किले की जेल से छोड़ा गया तो उसने राजकुमारी को शीश नवाया और कहा - राजकुमारी साधारण लड़की नहीं हैं। वे वीर तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे पूजा करने योग्य हैं।

१६. साहस और सामूहिकता का अनुपम चमत्कार
सन्ध्या बेला थी। दिवाकर की अन्तिम अरुणिम किरणें उस हरी-भरी वाटिका के पुष्पों को दुलार रही थीं। नाना प्रकार के सुन्दर-सुरभित पुष्प-गुच्छ उपवन की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे।
सभी बच्चों ने मिलकर इसी वाटिका को अपना क्रीड़ा-स्थल चुना था। आज भी सदैव की भाँति सभी बालक एकत्रित हो, यहीं खेलने आये। सभी अपना अलग-अलग मन्तव्य देने लगे कि आज अमुक खेल खेलेंगे, किन्तु कुछ समय पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि आज लुका-छिपी का खेल खेला जायेगा। छिपने के लिए एक बालक उस वाटिका की सीमा से बाहर निकलकर कुछ दूरी पर एक पेड़ के नीचे जाकर छिप गया। सभी बालक इकट्ठे होकर फिर छिपने की तैयारी में थे, तभी एक बालक को कम पाया। सभी चिन्तित हो गये।
एक लड़का जो कि टोलीनायक था; उसने सभी का शोरगुल बन्द करवाया तथा एक-एक से पूछने लगा। कोई भी उसका सही पता नहीं बता सका।
इसी शान्त वातावरण के बीच ही एक ओर से कुछ चीखें सुनाई दीं। बालकों ने सोचा शायद उसी की आवाज होगी। वे सभी तुरंत ही उस आवाज की ओर भागे। कुछ ही क्षण में सभी बालक उस निर्जन स्थान में पहुँच गये, जहाँ वह बालक अजगर की लपेट में फँसा छटपटा रहा था। बालक इस भयावह दृश्य को देखते ही उल्टे पाँव भागे, किन्तु उन्हीं बालकों में से एक ग्यारह वर्षीय बालक वहीं खड़ा रहा। वह अपने साथी को इस स्थिति में छोड़कर न जा सका।
उसने अपने भागते हुए साथियों को पुकारकर कहा-‘‘हमें अपने साथी को इस विपत्तिग्रस्त स्थिति में छोड़कर नहीं भागना चाहिए। एक तरफ तो वह अकेला अजगर है और एक तरफ हम इतने ढेर सारे साथी। फिर डरकर क्यों भागें? क्या हम सभी अपने साथी को छुड़ा न सकेंगे? अपना वह साथी कुछ ही क्षणों में मृत्यु का ग्रास बनने वाला है और हम हैं कि उसे बचाने का प्रयास भी नहीं कर पा रहे हैं, दूर से ही डर रहे हैं। यह तो उसके प्रति विश्वासघात होगा। हमें ऐसा नहीं करना चाहिये। हम साथ खेलने आये थे, साथ ही जाना चाहिये।’’
इतना कहते ही वह उस बालक को बचाने के प्रयास में अपने प्राणों का मोह त्यागकर सर्प की तरफ भागा। उसे जाते देख अन्य साथी भी निकट से डण्डे उठाकर ले आये, कोई टहनियाँ तोड़ लाया और वे अपने साथी को छुड़ाने हेतु आगे बढ़े। लड़कों की भीड़ को अपने ऊपर झपटते देख अजगर ने पकड़ ढीली कर दी और समीपवर्ती झाड़ी में छिप गया। बौखलाया हुआ बालक मृत्यु के पंजे से स्वतन्त्र हो गया और प्रसन्न होता हुआ अपने साथियों के गले से लिपट गया।
ऐसे विकट समय में यदि वह बालक साहस से काम न लेता तो अपने एक साथी को खो देता। साथ ही कायरता का कलंक भी लगता। संकट से जूझने से उन्हें आत्मविश्वास की शक्ति भी मिली और पारस्परिक सहयोग में सफलता की नींव का मर्म उनकी निर्मल बुद्धि में बैठ गया।
जिन बालकों में ऐसे साहस एवं सहयोग के गुण होते हैं, उन्हें यदि प्रस्फुटित होते रहने का पर्याप्त अवसर मिलता रहे तो वे अपने भावी जीवन में महान् कार्य भी सम्पादित कर जाते हैं, जिससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलती है। यही साहसी बालक था ‘‘वर्द्धमान’’ जो आगे चलकर तीर्थंकर ‘‘महावीर स्वामी’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

१७. मिस कार्लविन सी करुणा हो तो संसार स्वर्ग बन जाए
२६ नवम्बर १९६२ की बात है। हॉलैण्ड के आन्हर्म शहर में शाम को टी.वी. पर एक डाक्टर ने बड़े ही मार्मिक स्वरों में जनता से अपील की। वह अपंगों के लिए एक गाँव बसाना चाहता था। टी.वी. के माध्यम से उसने अपनी योजना और अपंगों के प्रति करुणा और सहानुभूति जगाने की प्रेरणा जनता को दी। जनता से अपंगों के लिए मदद भेजने की अपील की।
कार्लविन ने भी इस अपील को सुना और विचार करने लगी ‘‘सचमुच इस योजना के लिए कुछ न कुछ दिया जाना चाहिए। ये सब भी हमारे परिवार, समाज के अंग हैं, इनके लिए हमें कुछ करना चाहिए। पर वह क्या दे?’’
‘‘वह तो एक नौकरानी है। बहुत कम कमाती है। जो कमाती है वह सब खर्च भी हो जाता है। उसके पास कुछ बचत भी नहीं है। उसने सोचा कुछ दिनों बाद उसकी शादी होने वाली है, तब वह अपने पति से कहकर इस बस्ती के लिए यथा शक्ति दे सकगी।’’
पर शादी में तो अभी बहुत समय है। तब तक के लिए इस सेवा यज्ञ में आहुति देने से रुकना नहीं चाहिए।’’ उसने अपनी मालकिन से दो महीने की तनख्वाह उधार माँगी। उसकी मालकिन कड़क स्वभाव की थी, ‘‘क्या करोगी? क्या जरूरत आ पड़ी?’’ उसने पूछा।
कार्लविन का मन हुआ कह दे कि ‘‘हेट डार्प’’ के लिए भेजूँगी, पर तभी मन में ख्याल आया कि मालकिन हँसी न उड़ाने लगे। सो उसने बहाना बनाया कि सहेली का विवाह है उसे उपहार देने के लिए चाहिए। ‘‘फिर अपनी शादी के लिए चार महीने की तनख्वाह पेशगी माँगोगी!’’ कहकर मालकिन ने पैसे देने से इन्कार कर दिया। पर कार्लविन का संकल्प दृढ़ था। वह अपनी ओर से कुछ मदद करना चाहती थी। उसने अपना संदूक टटोला कि शायद कहीं कुछ रुपए रखे हों, पर उसे एक पैसा भी नहीं मिला। वह कुछ निराश हो गई और सोचने लगी कि अब क्या करे? तभी उसकी आँखें चमक उठीं। उसके हाथ में कुछ दिनों पूर्व ही बनवाए कपड़े थे। यह कपड़े उसने पाई-पाई जोड़कर अपनी शादी के लिए बनवाए थे।
मन में प्रेरणा उठी कि हेट डार्प में बसने वाली स्त्रियों के लिए कपड़ों की जरूरत भी तो पड़ेगी। क्यों न ये कपड़े उनके लिए दे दिए जाएँ। उसने उसी दिन टी.वी. द्वारा प्रसारित पते पर एक पत्र लिखा। पत्र में अपनी पूरी स्थिति स्पष्ट करते हुए इस क्षुद्र सहयोग को स्वीकार करने का आग्रह किया।
पत्र जिस तत्परता के साथ लिखा गया था, उसी तत्परता से उत्तर भी आया। उसका योगदान न केवल स्वीकर कर लिया गया था, वरन् उसे यह उपहार देने के लिए टी.वी. स्टेशन बुलाया गया था; ताकि उसकी भावनाओं को फिल्म द्वारा जन साधारण तक पहुँचाकर उनमें भी वैसी ही भावनाएँ उभारी जाएँ। कार्लविन टी.वी. स्टेशन गई और जब उसे अपनी शादी के लिए बनवाए गए कपड़े देते हुए दिखाया गया तो दर्शक दंग रह गए।
लोगों पर इसका इतना प्रभाव पड़ा कि वे अपने रेडियो, कारें, फर्नीचर और दूसरी तरह-तरह की चीजें दान में भेजने लगे। कुछ विद्यार्थियों ने अपनी छुट्टियों में आकर अपंगों की बस्ती के निर्माण कार्य में हाथ बँटाने का उत्साह दर्शाया। छोटे-छोटे बच्चों ने अपना जेब खर्च बचाकर अपने अपाहिज भाइयों के लिए साधन जुटाए। इस प्रकार कुल मिलाकर ८५ हजार रुपए नकद इकट्ठे हुए और ७ लाख २० हजार रुपए के उपहार जमा हुए, जिनके सहारे अपंगों का वह गाँव बसा। जहाँ आज सैकड़ों व्यक्ति लोगों के सामने दया की भीख माँगने की अपेक्षा उनके कार्यों में सहयोग बँटाते हैं।
जन भावना उभारने में मिस कार्लविन ने वैसी ही भूमिका निबाही, जैसी कि अब से ढाई हजार वर्ष पहले एक अकाल पीड़ित क्षेत्र में एक निर्धन बालिका ने भगवान् बुद्ध के समय निबाही थी और पास में कुछ न होते हुए भी सब कुछ जुटाने का साहस दर्शाया था।

१८. युधिष्ठिर की उपासना
एक-दूसरे के मुख से निकलती हुई यह बात अनेक कानों में समा गई। भले ही कहने वालों के स्वर धीमे हों, पर सभी के मनों में आश्चर्य तीव्र हो उठा। ‘‘क्या करते हैं सम्राट? कहाँ जाते हैं?’’ यद्यपि युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व ही उन्होंने इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि शाम का समय उनकी व्यक्तिगत उपासना के लिए है। इस समय उन्हें कोई व्यवधान न पहुँचाए।
‘‘लेकिन वेष बदलकर जाना?’’ अर्जुन के स्वर के पीछे चिन्ता की झलक थी। प्रश्न उनकी सुरक्षा का है। भीम कुछ उद्विग्न थे। ‘‘इससे सहायक सेनाएँ विचलित हो सकती हैं।’’ नकुल, सहदेव प्रायः एक साथ बोले। महायुद्ध का प्रवाह पिछले दस दिनों से धावमान था। ऐसे में इन सबका चिन्तित होना स्वाभाविक था। इन भाइयों की भाँति अन्य प्रियजनों की भी यही मनोदशा थी। ‘‘सत्य को जानने का उपाय उद्वेगपूर्ण मानसिकता-चिन्ताकुल चित्त नहीं। एक ही समाधान है। शान्त मन से शोधपूर्ण कोशिश।’’ पार्थसारथी के शब्दों ने सभी के मनों में घुमड़ रहे प्रश्न का उत्तर साकार कर दिया।
दिन छिपते ही युधिष्ठिर जैसे ही अपने कक्ष से बाहर निकले। अन्य भाई भी उनके पीछे हो लिए। मद्धिम पड़ते जा रहे प्रकाश में इन्होंने देखा महाराज अपने हाथ में कुछ लिए उधर की ओर बढ़ रहे हैं, जिधर दिन में संग्राम हुआ था। यह देखकर सभी की उत्सुकता और बढ़ गई। वे अपने को छिपाए उनका सावधानी से पीछा कर रहे थे। युद्धस्थल आ गया तो सब एक ओर छिपकर खड़े हो गए। तारों के मन्द प्रकाश में इन सबकी आँखें पूर्ण सतर्कता से देख रही थीं; आखिर अब ये करते क्या हैं? इनकी ओर से अनजान युधिष्ठिर उन मृतकों में घूम-घूम कर देखने लगे। कोई घायल तो नहीं है, कोई प्यासा तो नहीं है, कोई भूख से तड़प तो नहीं रहा, किसी को घायलावस्था में अपने स्नेही-स्वजनों की चिन्ता तो नहीं सता रही। वे घायलों को ढूँढ़ते, उनसे पूछते और उन्हें अन्न-जल खिलाते-पिलाते बड़ी देर तक वहाँ घूमते रहे। कौरव पक्ष का रहा हो या पाण्डव पक्ष का, बिना किसी भेदभाव के वह सबकी सेवा करते रहे। किसी को घर की चिन्ता होती तो वे उसे दूर करने का आश्वासन देते। इस तरह उन्हें रात्रि के तीन पहर वहाँ बीत गए?
ये सभी उनके लौटने की प्रतीक्षा में खड़े थे। समय हो गया। युधिष्ठिर लौटने लगे तो ये सभी प्रकट होकर सामने आ गए। अर्जुन ने पूछा ‘‘आपको यों अपने आपको छिपाकर यहाँ आने की क्या जरूरत पड़ी?’’
युधिष्ठिर सामने खड़े अपने बन्धुओं को सम्बोधित कर बोले-‘तात्! इनमें से अनेकों कौरव दल के हैं, वे हमसे द्वेष रखते हैं। यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने हृदय की बातें मुझसे न कह पाते और इस तरह मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता।’
भीम तनिक नाराज होकर कहने लगे-‘‘शत्रु की सेवा करना क्या अधर्म नहीं है?’’
‘‘बन्धु! शत्रु मनुष्य नहीं, पाप और अधर्म हुआ करता है।’’ युधिष्ठिर का स्वर अपेक्षाकृत कोमल था ‘‘अधर्म के विरुद्ध तो हम लड़ ही रहे हैं, पर मनुष्य तो आखिर आत्मा है, आत्मा का आत्मा से क्या द्वेष?’’ भीम युधिष्ठिर की इस महान् आदर्शवादिता के लिए नतमस्तक न हो पाए थे, तब तक नकुल बोल पड़े- ‘‘लेकिन महाराज! आपने तो सर्वत्र यह घोषित कर रखा है कि यह समय आपकी ईश्वरोपासना का है, इस तरह झूठ बोलने का पाप तो आपको लगेगा ही।’’
‘‘नहीं नकुल।’’ युधिष्ठिर बोले -‘‘भगवान की उपासना, जप-तप और ध्यान से ही नहीं होती, कर्म भी उसका उत्कृष्ट माध्यम है। यह विराट् जगत् उन्हीं का प्रकट रूप है। जो दीन-दुःखी जन हैं उनकी सेवा करना जो पिछड़े और दलित हैं, उन्हें आत्मकल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान् का ही भजन है।’’ अब और कुछ पूछने को शेष नहीं रह गया था।
सहदेव ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणित निवेदन करते हुए कहा-‘‘लोग सत्य ही कहते हैं, जहाँ सच्ची धर्मनिष्ठा होती है, विजय भी वहीं होती है। हमारी जीत का कारण इसीलिए सैन्यशक्ति नहीं, आपकी धर्मपरायणता की शक्ति है।’’

१९. ईश्वर पर विश्वास
उत्तरी अमेरिका में नियाग्रा नामक एक प्रपात है। इसमें पानी की बहुत चौड़ी धार १६० फीट ऊँचाई से गिरती है। यदि प्रपात के पास कोई खड़ा हो तो जल का कल-कल शब्द बहुत ही भयानक प्रतीत होता है। कोई पानी के प्रपात में गिर पड़े तो जीवित रहने की आशा नहीं है।
अभी कुछ वर्ष पहले की बात है। एक अमरीकन पहलवान ने यह घोषणा की कि वह एक तार पर चलकर नियाग्रा प्रपात पार करेगा। नियाग्रा प्रपात के एक किनारे से दूसरे किनारे तक एक हवाई जहाज की सहायता से ठीक प्रपात के ऊपर से तार फैलाया गया।
पहलवान ने जो दिन निश्चित किया था, उस दिन उसके इस कौशल को देखने को बहुत भीड़ इकट्ठी हुई। ईश्वर का नाम लेकर उसने तार पर चलना प्रारम्भ किया।
भीड़ की आँखें उस पहलवान की ओर लगी थीं। वह धीरे-धीरे चलकर उस पार कुशलता से पहुँच गया। ज्योंही उस पार पहुँचा, भीड़ उसकी प्रशंसा में चिल्ला उठी। बहुतों ने उसको ईनाम दिया। उस समय उसने लाउडस्पीकर पर ईश्वर का धन्यवाद दिया और भीड़ से पूछा, ‘‘क्या आपने मुझे तार पर चलकर प्रपात पार करते देखा?’’ भीड़ ने उत्तर दिया ‘‘हाँ।’’
उसने दूसरा प्रश्न किया,‘‘क्या मैं फिर इस पार से उस पार तक इसी प्रकार पार कर सकता हूँ?’’ भीड़ ने उत्तर दिया ‘‘हाँ।’’
उसने तीसरा प्रश्न किया, ‘‘क्या आप लोगों में से कोई मेरे कन्धे पर बैठ सकता है, जब मैं इस प्रपात को पार करूँ?’’
इस प्रश्न पर भीड़ में सन्नाटा छा गया। कोई भी उसके कन्धे पर पार करते समय बैठने को तैयार नहीं हुआ। फिर उसने अपने १६ वर्षीय इकलौते बेटे को कन्धे पर बैठने को कहा। पुत्र पिता के कहने पर कन्धे पर बैठ गया। पिता ने धीरे-धीरे तार पर चलना प्रारम्भ किया। भीड़ की आँखें उनकी ओर लगी हुई थीं। कोई कहता था, ‘‘अभी दोनों गिरते हैं-अब मरे’’ इत्यादि। परन्तु ईश्वर की कृपा से पहलवान अपने पुत्र सहित सरलता से पार हो गया।
भीड़ ने इस बार पहले से अधिक उसकी प्रशंसा की और बहुत से ईनाम दिये। उसने लाउडस्पीकर से ईश्वर की महिमा पर छोटा-सा भाषण दिया। उसने कहा, ‘‘आप लोगों को मेरी सफलता या योग्यता पर विश्वास न था। इस कारण आप लोगों में से कोई मेरे कन्धे पर बैठने को तैयार नहीं था।
मेरे पुत्र को मुझ पर विश्वास था और इस कारण वह मेरे कन्धे पर बैठने को तैयार हो गया और मैं उसे लेकर इस पार आ गया हूँ। हम सबका पिता ईश्वर है। जिस प्रकार से मेरे बेटे को मुझ पर विश्वास था, ठीक उसी प्रकार से यदि आपका विश्वास उस परम पिता परमात्मा पर हो, तो आप सांसारिक कठिनाइयों को ठीक उसी प्रकार पार सकते हैं, जैसे मेरे बेटे ने मेरे कन्धों पर नियाग्रा प्रपात पार किया है। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखिये और परिश्रम करिये। मुझे ईश्वर पर दृढ़ विश्वास था कि वह मेरी इस कठिनाई के समय सहायता करेगा और उसने सहायता की।’’

२०. ईश्वर की इच्छा
विक्रमादित्य के इस प्रश्न पर सभासदों के विभिन्न मत थे कि सज्जनता बड़ी है या ईश्वर शक्ति। कई दिन तक विचार-विमर्श होने पर भी निर्णय न निकल सका। कुछ दिन बीते। राजा एक दिन परिभ्रमण के लिए निकले।
दुर्भाग्य से मार्ग में किसी आखेटक जाति के आक्रमण के फलस्वरूप उनका शेष सहयोगियों से संबंध टूट गया। वे निविड़ वन में भटक गये। जंगल में प्यास के मारे राजा का दम घुटने लगा। कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था। किसी तरह वे एक कुटिया के पास पहुँचे। वहाँ एक साधु समाधि में मग्न थे। वहाँ पहुँचते-पहुँचते महाराज मूर्छित होकर गिर पड़े। गिरते-गिरते उन्होंने पानी के लिये पुकार लगाई।
कुछ देर बाद जब मूर्च्छा दूर हुई तो महाराज विक्रमादित्य ने देखा, वही सन्त उनका मुँह धो रहे हैं, पंखा झल रहे और पानी पिला रहे हैं। राजा ने विस्मय से पूछा-‘‘आपने मेरे लिये समाधि क्यों भंग की? उपासना क्यों बन्द कर दी?’’ सन्त मधुर वाणी में बोले-‘‘वत्स! भगवान् की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दीन-दुःखी न रहे। उनकी इच्छापूर्ति का महत्व अधिक है।’’ इस उत्तर से उनका पूर्ण समाधान हो गया। सेवा और सज्जनता भी शक्ति-साधना का अंग है।

२१. सर्वाधिक महत्त्वपूर्णवर्तमान
प्रसिद्ध साहित्यकार टॉलस्टॉय ने ‘तीन प्रश्न’ नामक एक कहानी लिखी है। कहानी का सारांश इस प्रकार है। किसी समय एक राजा था। उनके मन में तीन प्रश्न उठे- (१) सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या है? (२) परामर्श के लिए सबसे अधिक महत्त्व का व्यक्ति कौन है? (३) निश्चित कार्य को आरम्भ करने का सबसे महत्त्वपूर्ण समय कौन-सा है? इसका उत्तर जानने के लिए राजा ने सभासदों की बैठक बुलायी, पर किसी का उत्तर सन्तोष जनक नहीं रहा। राज्य मन्त्री का परामर्श मानकर वह सुबह ही जंगल की कुटिया में रहने वाले साधु से जिज्ञासा-समाधान के लिये चल पड़ा। साधु की कुटिया के निकट पहुँचने पर उसने साथ में आये सैनिकों को जंगल में ही छोड़कर साधु से अकेले मिलने का निश्चय किया।
साधु को खेत में कुदाल चलाते देख वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। कुछ देर बाद जब साधु ने दृष्टि उठायी तो राजा से आने का कारण पूछा। राजा ने तीनों प्रश्नों को उनके समक्ष रखा तथा उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। साधु ने संकेत द्वारा राजा को निकट बुलाया और अपनी कुदाल दे दी। राजा ने कुदाल लेकर खेत जोतना आरम्भ किया। संध्या होने को आयी। इतने में एक व्यक्ति साधु की कुटिया की ओर दौड़ता हुआ आया और भूमि पर गिर पड़ा। उसके कपड़े रक्त से लथपथ थे। पेट से रक्त की धार निकल रही थी। दोनों ने मिलकर उसकी मलहम-पट्टी की। घायल व्यक्ति सो गया।
प्रातः काल राजा ने घायल व्यक्ति को क्षमायाचना करते पाया। यह देखकर राजा विस्मय में पड़ गया। आगन्तुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं किसी समय आपका घोर शत्रु था। आपने ने मेरे भाई को फाँसी दे दी थी। तभी से बदला लेने का अवसर ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे मालूम था कि सामान्य वेशभूषा में आप साधु के पास आये हैं। मार डालने की इच्छा से मैं झाड़ी में छुप गया, किन्तु इसी बीच आपके सैनिकों ने हथियार से हमला कर दिया। शत्रु होते हुये भी आपने मेरे प्राणों की रक्षा की। हमारा द्वेष-भाव समाप्त हो गया। मैं आपके चरणों का सेवक हूँ। आप मुझे चाहें तो दण्ड दें अथवा क्षमा करें।’’
घायल व्यक्ति की बातें सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। अप्रत्याशित ईश्वरीय सहयोग मानकर वह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देने लगा। साधु ने मुस्कराते हुये कहा, ‘‘राजन्! क्या अब भी आपको प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले?’’ राजा को मौन देखकर उसने अपनी बात आगे बढ़ायी और कहा कि कार्यों द्वारा आपके प्रश्नों का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। सबसे महत्व का कार्य वह है जो सामने है, सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति वह है, जो हमारे पास है और सबसे महत्त्व का समय वर्तमान ही है। यदि आप आकर मुझे सहानुभूति न दिखाते तथा तुरन्त चले जाते तो आज आपकी जीवन-रक्षा संभव न हो पाती। अतएव महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मैं था, जिसे सहायता अपेक्षित थी। दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य आगन्तुक की रक्षा थी। महत्त्वपूर्ण समय भी वही था, जिसके सदुपयोग से शत्रु भी मित्र में बदल गया। राजा को तीनों प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर मिल गया।
कहानी के तीनों प्रश्नों के उत्तर में महत्त्वपूर्ण प्रेरणाएँ समाहित हैं। महत्त्वपूर्ण कार्य, महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, महत्त्वपूर्ण समय की कल्पना अधिकांश व्यक्ति करते हैं तथा भविष्य की ओर दृष्टि गड़ाये रहते हैं, जबकि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्तमान है। जिसमें विद्यमान व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत कार्य एवं समय का सदुपयोग कर लिया जाय तो उज्जवल भविष्य की संभावनाएँ बन सकती हैं। प्रस्तुत कार्य को पूरे मनोयोग से करना वर्तमान समय एवं सम्बन्धित व्यक्तियों का सदुपयोग ही सर्वांगीण प्रगति का मूल मन्त्र है।

२२. सुन्दर वह जो सुन्दर करई
सुकरात बहुत कुरूप थे, फिर भी वे सदा दर्पण अपने पास रखते थे और बार-बार उसमें अपना चेहरा देखते रहते थे। एक दिन उनके एक मित्र को इस पर बहुत आश्चर्य हुआ और वह पूछ ही बैठा ‘‘आप बार-बार दर्पण में चेहरा क्यों देखते हैं?’’
सुकरात बोले ‘‘मैं सोचता हूँ कि अपनी इस कुरूपता का प्रतिकार मुझे अपने कार्यों की सुन्दरता को बढ़ाकर करना चाहिए। इस तथ्य को याद रखने के लिए मैं दर्पण देखता रहता हूँ।’’
इसके बाद वे बोले ‘‘जो सुन्दर हैं, उन्हें भी इसी प्रकार बार-बार दर्पण देखना चाहिए और सीखना चाहिए कि ईश्वर ने जो सौंदर्य दिया है, कहीं दुष्कृत्यों के कारण उसमें दाग-धब्बा न लग जाए।’’
सच ही तो है, ‘‘वास्तविक सौंदर्य तो मनुष्य के कार्यों में छिपा है। इसीलिए तो अष्टावक्र (आठ जगह से टेढ़े थे), महात्मा गाँधी, कबीर आदि महापुरुषों को, दिखने में साधारण होने पर भी समाज श्रद्धा से याद करता है। मनुष्य में चंदन जैसे गुण होने चाहिए, सुडौल हो या बेडौल, बिखेरें तो सुगंध ही बिखेरें।’’

२३. रेखा छोटी हो गई
स्वामी रामतीर्थ सन्यास लेने से पूर्व एक कालेज में प्रोफेसर थे। एक दिन बच्चों के मानसिक स्तर की परीक्षा लेने के लिये उन्होंने बोर्ड पर एक लकीर खींच दी और विद्यार्थियों से कहा-‘‘इसे बिना मिटाये ही छोटा कर दो।’’
एक विद्यार्थी उठा किन्तु वह प्रश्न के मर्म को नहीं समझ सका उसने रेखा को मिटा कर छोटी करने का प्रयत्न किया। इस पर स्वामीजी ने बच्चे को रोका और प्रश्न को दोहराया। सभी बच्चे बड़े असमंजस में पड़ गये।
थोड़े समय में ही एक लड़का उठा और उसने उस रेखा के पास ही एक बड़ी रेखा खींच दी। प्रोफेसर साहब की खींची हुई रेखा अपने आप छोटी हो गई। उस बालक की सराहना करते हुए स्वामी जी ने कहा ‘‘विद्यार्थियों दुनिया में बड़ा बनने के लिये किसी को मिटाने से नहीं वरन् बड़े बनने के रचनात्मक प्रयासों से ही सफलता मिलती है। बड़े काम करके ही बड़प्पन पाया जा सकता है।’’