परिव्राजक परंपरा का पुनर्जीवन
परमपूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व की यह एक अलौकिक विशेषता रही है कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के समस्त आयामों को एक प्रगतिशील चिंतन एवं प्रासंगिक दृष्टिकोण के साथ समाज के सामने प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत उद्बोधन परिव्राजक परंपरा के पुनर्जीवन के प्रयास पर केंद्रित है। यद्यपि अनेक लोग परिव्राजक परंपरा का उद्देश्य मात्र प्रव्रज्या से लगाकर बैठ जाते हैं; जबकि परमपूज्य गुरुदेव उसी परंपरा के अनेक पक्षों पर एक सामयिक व्याख्या करते हुए नजर आते हैं। वे कहते हैं कि परिव्राजक होने का उद्देश्य स्वास्थ्य का संरक्षण भी है और जनसंपर्क करते हुए जीवन के अनुभवों को बेहतर बनाना भी है। वे कहते हैं कि जो इस भावना के साथ परिव्राजक प्रशिक्षण को प्राप्त करते हैं, उनका विकास समग्र होता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
स्वास्थ्य का सवंर्द्धन
देवियो, भाइयो! परिव्राजक अभियान के अंतर्गत आप लोग यहाँ आए हैं। इसके बारे में संसार में सब लोग जानते हैं। इसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों का समन्वय है। स्वार्थ का भी समन्वय है? हाँ, बेटे! स्वार्थ का भी समन्वय है। यह मत समझना कि इसमें परमार्थ है। परमार्थ तो है ही। परमार्थ की दृष्टि तो आपकी रहनी ही चाहिए, लेकिन इसमें स्वार्थ का समन्वय न हो, ऐसी बात नहीं। इसमें क्या है? इसमें सबसे बड़ा स्वार्थ है—स्वास्थ्य का संवर्द्धन। आपने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कैलाश जोशी का नाम सुना होगा, जो श्री सकलेचा से पहले थे। उनको स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी शिकायतें थीं। पहले पेट की शिकायत थी।
आरोग्य पत्रिका में उनका एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने लिखा है कि मेरा पेट खराब हो गया और दुनिया के सारे इलाज करा लिए। फिर मैंने सोचा कि अब क्या करना चाहिए? फिर किसी ने मुझसे कहा कि पैदल लंबा सफर करना चाहिए। आरोग्य पत्रिका के संपादक ने कहा कि आपको इंदौर से गोरखपुर तक पैदल ही आना है, तभी हम आपकी बीमारी को अच्छा कर सकेंगे। वे रजामंद हो गए और इंदौर से लेकर गोरखपुर तक का पैदल सफर उन्होंने किया और गोरखपुर जा पहुँचे। गोरखपुर थोड़े दिन तक रहे। पहले की बात है, जब वे मुख्यमंत्री नहीं थे। थोड़े दिन तक इलाज कराते रहे, फिर वापस पैदल ही निकल पड़े। पैदल चलने के बाद में उनका स्वास्थ्य बिलकुल अच्छा हो गया।
मित्रो! स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए व्यायामों में जितने अच्छे व्यायाम हैं, उनमें टहलना सबसे बढ़िया व्यायाम है। इससे बढ़िया कोई व्यायाम नहीं हो सकता। गाँधी जी ने जिस व्यायाम को करने के लिए सभी आदमियों को हिदायत दी है, वह है—टहलना। उन्होंने कहा है कि आप कोई काम करें या न करें, स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आप टहलने वाले व्यायाम को जारी रखें। बेटे! हमारा तो अभी भी टहलने का व्यायाम जारी है। जिंदगी भर में हमने दो काम नहीं छोड़े हैं। एक तो भजन नहीं छोड़ा है और दूसरा टहलना नहीं छोड़ा है।
गुरुजी! अब तो आप ऊपर बंद रहते हैं, जेलखाने में बंद रहते हैं, फिर आप कैसे टहलते हैं? आप घड़ी लेकर के देख लीजिए, मैंने टहलना और स्वाध्याय हमेशा जारी रखा है। चाहे जो हो जाए, अभी भी हम नियमित रूप से टहलते हैं, यह हमारा नियम है। महाराज जी! आप तो ऊपर बैठे रहते हैं? हम बैठे ही नहीं रहते, टहलते भी रहते हैं। बैठे रहेंगे तो बीमार हो जाएँगे। स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए टहलना आवश्यक है।
बगदाद के हकीम की कहानी
मित्रो! टहलने के लिए मुझे बगदाद के एक हकीम की बात याद आ गई। बगदाद में एक ऐसा हकीम था, जिसके बारे में सारे-के-सारे मुसलिम देशों में यह ख्याति थी कि अपने जमाने का सबसे बड़ा हकीम था। जो भी मरीज उसके पास आते थे, हर मरीज को वह अच्छा कर देता था। उसकी ख्याति बहुत से मुल्कों में फैल गई। एक जमींदार आदमी बहुत संपन्न था। वह बहुत सारी बीमारियों से घिर गया। उसने बहुत इलाज कराया, परंतु अच्छा न हो सका।
लोगों ने कहा—"अब एक ही हकीम है, जो आपको अच्छा कर सकता है और कोई भी हकीम नहीं है। आप उसके पास जाइए; लेकिन उसका यह नियम था कि अगर आप पैदल आएँगे, तभी हम आपकी देख-भाल करेंगे। पैदल नहीं आएँगे, तो नहीं करेंगे। कोई ऐसा मरीज हो, जो चल-फिर नहीं सकता हो तो अलग बात है। उसको भी जहाँ तक हो सके, धीरे-धीरे चलना चाहिए। उस जागीरदार का किस्सा अखण्ड ज्योति के अगले अंक में छपने जा रहा है। अगले अंक में उसका नाम-पता भी लिख दिया है।
मित्रो! वह जमींदार पैदल चलकर हकीम जी के पास गया। दवाखाने का पता लगाने लगा, तो पता चला कि हकीम जी ऊँट चराने गए हैं। वे सवेरे ही जाते हैं और शाम को वापस आते हैं। अगर आपको मिलना है, तो वहीं जाकर मिल सकते हैं। वह जागीरदार गया और तलाश करता रहा कि हकीम जी कहाँ हैं? इस जंगल से उस जंगल में सारे दिन ढूँढ़ता फिरा। बाद में हकीम जी रास्ते में मिले। हकीम साहब! हम तो आप से इलाज कराने आए हैं। हाँ! आइए, हम आपका इलाज करेंगे। हमारा तो कोई और काम ही नहीं है। आप ऊँट क्यों चराते हैं? हम इसलिए चराते हैं कि हम औरों का इलाज करते हैं, तो पहले अपना तो इलाज कर लें। हमारी सेहत अच्छी रहे, इसके लिए हमको ऊँट चराने पड़ते हैं। ऊँट से यह फायदा है कि वह एक जगह बैठकर नहीं खाता। कभी इस पेड़ की पत्ती, तो कभी उस पेड़ की पत्ती सारे जंगल में खाता फिरता है। उसकी आदत ही ऐसी है। उसके खाने का सामान एक जगह रख देंगे, तो उसका पेट हजम ही नहीं करेगा।
मित्रो! ऊँट चराने के बाद में उन्होंने जमींदार को देखा कि उसे क्या-क्या बीमारियाँ हैं? ये बीमारी, वो बीमारी—कितने साल से हैं? पाँच साल से हैं। बवासीर इतने साल से, डायबिटीज इतने साल से, हार्ट की बीमारी इतने साल से है। अच्छा तो हमने देख लिया। अब सारी बीमारियों की एक ही दवा देते हैं।
उन्होंने अपनी जेब से बहुत सारी दवाइयाँ निकाली और पुड़ियाँ बना-बनाकर दे दी। ये खाई कैसे जाएँगी? अब यह भी समझ लीजिए। बताइए साहब! आपको पैदल चलना होगा और पैदल चलते-चलते जब आपके माथे पर पसीना निकलने लगे, तो उस पसीने की बूँद को हथेली पर रख लीजिए और उसमें दवा मिलाकर चाट जाइए। शहद में नहीं, पसीने की बूँद में। पसीना भी ऐसा नहीं कि धूप में जा बैठें। धूप का पसीना भी काम का नहीं है। चलने का पसीना और वह भी माथे पर निकले। इससे कम में इलाज नहीं हो सकता। उन्होंने तीस पुड़ियाँ दीं। उन्हें लेकर के वह आदमी चला गया।
मित्रो! दवा खाना है तो पसीना चाहिए? धीरे-धीरे चलेंगे तो पसीना नहीं निकलेगा। तेज गति से चलने पर पसीना निकलेगा। जमींदार ने रोजाना पसीने में दवा मिला मिलाकर खाई। महीने भर के अंदर वह हट्टा-कट्टा हो गया, चंगा हो गया। फिर वह हकीम जी को धन्यवाद देने के लिए आया और कुछ इनाम देना चाहा। उसने कहा कि मैं दस साल से बीमार था। हजारों रुपये खरच हो गए। आपकी दवा ने तो मुझे ठीक कर दिया। आपकी दवा तो जादू की दवा है। इस दवा को हमें भी बता दें, तो हम भी लोगों को अच्छा कर दिया करेंगे।
हकीम ने कहा—"इसमें तो मिट्टी-धूल थी। इसे मैंने कूट-पीसकर रख दिया था।" तो फिर हम किससे अच्छे हो गए? आप अच्छे हो गए अपने पसीने से। पसीना बहाने के लिए आपको चलना पड़ा और चलने से आपकी सेहत अच्छी हो गई। पेट की नसें हिलने से लेकर के शरीर की सारी-की-सारी नसें, जो बैठे रहने से जकड़ जाती हैं और उसके कारण गठिया से लेकर मोटापे तक हजारों बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। क्योंकि आदमी का रक्त संचालन जैसा होना चाहिए, वह नहीं होता। चलने से शरीर की अनेक समस्याएँ ठीक हो जाती हैं।
परिव्राजक प्रशिक्षण में स्वास्थ्य का महत्त्व
मित्रो! परिव्राजक योजना में सेहत का फायदा खास है। अगर आपकी सेहत खराब है, आप बीमार रहते हैं। आपको बार-बार कमजोरी आती है। आपका पेट ठीक ढंग से काम नहीं करता, तो कृपा करके यह दवा लेना शुरू कर दीजिए। पुड़ियावाली वह दवा तो मैं नहीं देता। मैं क्यों चालाकी की बात बताऊँ? मैंने तो आपको पहले ही बता दिया। आप चलना शुरू कर दें। कोई बच्चे थोड़े ही हैं, जो मैं आपको बहकाता फिरूँ।
स्वास्थ्य संवर्द्धन परिव्राजक योजना का मुख्य अंग है, जिसमें हम पैदल चलना सिखाते हैं। गुरुजी! सवारी से? नहीं बेटे! सवारी से नहीं। परिव्राजक योजना सवारी पर नहीं चलेगी। सवारी से परिक्रमा हो ही नहीं सकती। आपको गोवर्धन की परिक्रमा करनी है, तो क्या सवारी से करेंगे? नहीं भाईसाहब! सवारी से नहीं होगी। सही माने में पूछे, तो परिक्रमा पैरों से ही नहीं, वरन दंडौती से होती है। दंडौती क्या होती है? दंडौती का अर्थ है—लंबे लेट जाइए और हाथ से निशान बना दीजिए। फिर दंडवत् लेट जाइए। यह दंडौती परिक्रमा कहलाती है। आप गोवर्धन जाकर कभी भी देख लीजिए। गुरुजी! इससे क्या होता है? बेटे! आदमी के स्वास्थ्य संवर्द्धन का स्वार्थ इससे जुड़ा हुआ है।
जनसंपर्क का महत्त्व
मित्रो! परिव्राजक योजना में यह महत्त्वपूर्ण स्वार्थ हमने आपको बताया। यह एक बात हुई। दूसरा स्वार्थ इसमें है—आपकी ज्ञानवृद्धि के लिए, अनुभव की वृद्धि के लिए। इसके लिए आपको जनसंपर्क करना पड़ेगा। व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए अनुभव की आवश्यकता पड़ती है। अनुभवहीन व्यक्ति ठगे जाते हैं। अनुभवहीन आदमी मारे जाते हैं। अनुभवहीन पढ़े-लिखे हों तो क्या और बिना पढ़े हों तो क्या? वे पग-पग पर ठोकर खाते हैं। व्यावहारिक जीवन में उनकी सफलताएँ संदिग्ध रहती हैं।
स्त्रियों के ऊपर एक ही समस्या है। वे बी.ए. भी कर लेती हैं, एम.ए. भी कर लेती हैं, बस, एक कठिनाई है कि जनसंपर्क का फायदा उनको नहीं मिलता। बस, वही मम्मी से मिलती रहेंगी; बहन, भाभी से मिलती रहेंगी और ससुराल में सास, ननद, देवरानी आदि से मिलती रहती हैं। बस, उनकी अक्ल की दुनिया थोड़े से लोगों तक सीमित रहती है। इसलिए स्त्रियों को हर आदमी बहका लेता है, ठग लेता है। पंडा, ज्योतिषी, बाबाजी सब बहका लेते हैं। पति की अगर मृत्यु हो जाती है, तो देवर बहका लेता है। पग-पग पर बहकावा जितना स्त्रियों के भाग्य में लिखा है, जितनी ठोकरें स्त्रियाँ खाती हैं, उतनी कोई नहीं खाता। ज्ञान के अभाव से, अनुभव के अभाव से जितनी परेशान स्त्रियाँ होती हैं, उतना और कोई वर्ग नहीं होता। पढ़ी-लिखीं तो हैं, पर इनको अनुभव नहीं है।
मित्रो! अनुभव कहाँ से आता है? अनुभव जनसंपर्क से आता है और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के तालमेल से आता है। आपने भिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ देखी नहीं हैं। आपने कभी मुसीबत देखी ही नहीं है। आपने कभी भीड़, कभी रेलगाड़ी देखी नहीं है। परदेस देखा ही नहीं है, तो आपका अनुभव इतना सीमित रहेगा कि आपका पढ़ा-लिखा होना और बिना पढ़ा होना एक बराबर है। बहुत से आदमी ऐसे होते हैं, जो सारी जिंदगी नौकरी करते रहे।
जब रिटायर्ड होकर के आए, तो क्या मिला? फंड मिला। आपको 60 हजार रुपये का फंड मिला है, तो क्या करेंगे? चिटफंड में लगा देंगे। यह कैसा होता है? रुपया लगा दीजिए और खूब पैसा आता है। खूब माल कमाते हैं। फिर क्या करेंगे? हम बिज़नेस करेंगे। दो-तीन वर्ष के भीतर सारे-का-सारा पैसा समाप्त हो जाता है और फिर भूखों मरते हैं। क्यों साहब! क्या किया था? बिज़नेस किया था। जब ज्ञान नहीं था, अनुभव नहीं था, तो काहे को किया।
नहीं साहब! सारी दुनिया कमाती है। सारी दुनिया कमाती है, पर आप नहीं कमा सकते; क्योंकि आपके पास ज्ञान नहीं है। जिनके पास ज्ञान है, वे थोड़ा-सा पैसा, थोड़ी सी पूँजी लेकर के और थोड़े से आदमियों की सहायता लेकर के, थोड़ा उधार का मामला लेकर के सारी गृहस्थी का पहिया घुमाते रहते हैं और किसी तरीके से कार्य करते रहते हैं।
जनसंपर्क से मिलता है अनुभव
मित्रो! हर कार्य के लिए अनुभव चाहिए। अनुभव किसे कहते हैं? अनुभव बेटे, जनसंपर्क को कहते हैं। जिस आदमी के पास जनसंपर्क नहीं है, जो आदमी लोगों से मिलता-जुलता नहीं है, वह अपने आप में ज्ञानरहित है। पुस्तकों के ज्ञान से नहीं, जनसंपर्क के ज्ञान से अनुभव बढ़ता है। सरकार ने भी यह मान लिया है कि किताबी ज्ञान काफी नहीं है। इसलिए बच्चों के लिए खास नियम बना दिए हैं कि बाहर जाना पड़ेगा। क्यों साहब! सरकार का क्या फायदा है? बच्चे मारे-मारे घूमते हैं। हैरान होते हैं।
आपको मालूम नहीं है कि वे कूपमंडूक के तरीके से, एक जेलखाने के तरीके से घर में रहते हैं। स्कूल चले जाते हैं। इसका ज्ञान बढ़ना चाहिए। दुनिया कितनी बड़ी है, यह इन्हें मालूम होना चाहिए। दुनिया की परिस्थितियाँ क्या हैं? इसका ज्ञान उन्हें होना चाहिए, तभी इनकी अक्ल खुलेगी। पढ़ाई आँखें खोल सकती है, पर अक्ल नहीं खोल सकती। अक्ल खोलने के लिए आदमी को ज्ञान की वृद्धि आवश्यक है। इसलिए क्या करना पड़ता है? आपको विभिन्न लोगों के पास जाने से, विभिन्न तरह की बात करने से, भिन्न-भिन्न तरह की मनःस्थिति समझने से, तरह-तरह के लोगों के अच्छे-बुरे स्वभाव समझने से, ताकि दुनिया का ज्ञान और अनुभव इकट्ठा हो जाए। यह हमारे लिए बहुत कीमती चीज है।
मित्रो! पढ़ाई एक ओर और अनुभव एक ओर। आपका बी०एस-सी० पढ़ना एक ओर, एम०एस-सी० पढ़ना एक ओर और आपको व्यावहारिकता का ज्ञान होना एक ओर। व्यावहारिकता का ज्ञान रखने वाले दुनिया में सफल होते रहते हैं। स्कूली पढ़ाई में फर्स्ट डिवीजन, सेकेण्ड डिवीजन पास होने वाले एल०डी-सी० की नौकरी के लिए झक मारते फिरते हैं; क्योंकि उनको व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। ज्ञान का बेटे, बहुत मूल्य है। अनुभव का बहुत मूल्य है।
सबसे बड़ी कमजोरी—आत्महीनता
ज्ञान और अनुभव एकत्र करने के लिए इसके अलावा कोई भी तरीका नहीं है कि आप जनसंपर्क में आएँ। जनसंपर्क का शिक्षण हम परिव्राजक योजना में सिखाते हैं और इसमें क्या है। बेटे! सबसे बड़ी कमी और कमजोरी का नाम है—आत्महीनता। आत्महीनता उसे कहते हैं—जिसमें आदमी पग-पग पर झिझकता है। बोलने में शरमाता है। टिकट लेने में आफत आती है। किसी से बात करने में दिक्कत मालूम होती है। चार दुकानों पर जाकर मोलभाव करने में उसका प्राण निकलता है। दूसरे आदमी को देखकर डरता है और काँपता रहता है।
हमारा व्यक्तित्व, जो आदमी की मूलभूत संपदा है, वह विकसित ही नहीं हो पाता। दूसरों से बातचीत करने का मौका ही नहीं मिला। जब देखो तब झिझक और शरम के मारे गिरे चले जाते हैं। बहुत से बच्चे ऐसे ही होते हैं। औरतें भी ऐसी शरमीली और कुछ व्यक्ति भी ऐसे ही शरमीले स्वभाव के होते हैं। शरम ही नहीं, इनकी हिम्मत भी नहीं पड़ती है। ऐसे व्यक्ति पस्तहिम्मत हैं, जो अपनी बात तक को नहीं कह पाते। अपने विचारों को व्यक्त भी नहीं कर पाते।
मित्रो! आपकी यह मानसिक बीमारी आपके व्यक्तित्व की वृद्धि में सबसे बड़ी रुकावट डालती है। सबसे बड़ा रोड़ा पैदा करती है, जिस कारण से आपका व्यक्तित्व विकसित ही नहीं हो पाता। जब तक आप विचारों का आदान-प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं, तब तक आप दूसरों की बात समझ नहीं सकते और अपनी कह नहीं सकते।
ऐसी स्थिति में जब आप घुटते रहेंगे, तो दूसरों पर प्रभाव कैसे डालेंगे? दूसरों की बात समझ ही नहीं सकते; क्योंकि आदान-प्रदान का माद्दा ही नहीं है। इस कारण आदमी की सफलता के मार्ग बंद पड़े हैं। जो आदमी विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर सकता, तो दूसरों के साथ में खुले जी से अपनी बात कह भी नहीं सकता और दूसरों को भी ऐसा मौका नहीं दे सकता कि दूसरे भी अपने मन की बात उससे कह सकें। तब तक घुटन पैदा होती रहती है और समस्याएँ उलझती रहती हैं। गुत्थियाँ पैदा होती हैं और लड़ाई-झगड़े शुरू हो जाते हैं। इतनी गलतफहमियाँ पैदा होती हैं कि आदमी और आदमी के बीच में दीवार खड़ी होती रहती है। आदमी-से-आदमी का जो सहयोग करने का रास्ता है, वह बंद हो जाता है।
आत्महीनता अधिकांश लोगों में पाई जाती है। इसको दूर करने का तरीका जनसंपर्क के अलावा और कोई हो नहीं सकता। आप जहाँ कहीं नई परिस्थितियों में जाएँगे, आपका परिचित तो कोई नहीं है वहाँ, फिर नए आदमी से ही आपको बात करनी पड़ेगी। नए आदमी से ही पूछताछ करनी पड़ेगी। धर्मशाला के लिए भी पूछने पर सौ बातें आपको वहीं मालूम करनी पड़ेंगी। खाने-पीने की दुकानों पर भी मोलभाव पूछना पड़ेगा। बाहर जाने पर ही आपको अनुभव होता है। यह आपके व्यक्तिगत लाभ की बात मैं कह रहा हूँ।
पाप का निराकरण और पुण्य का संपादन
मित्रो! आध्यात्मिक दृष्टि से आपके लिए दो काम और भी आवश्यक हैं। एक बड़ा भारी काम है—पाप का निराकरण और पुण्य का संपादन। पाप का निराकरण क्या है? पाप के निराकरण के लिए बेटे, दुनिया में एक ही काम है—प्रायश्चित। आपने समाज को जो नुकसान पहुँचाया है, उस गड्ढे को भरिए। आपने जितनी खाई खोदी है, उस खाई में मिट्टी डालकर उसका लेबल बराबर कीजिए। आपने दुनिया में पाप पाँच किलो किया है, तो पाँच किलो पुण्य कीजिए। पुण्य-पाप दोनों को मिला करके आप बैलेंस बराबर कर सकते हैं।
पाप क्या होता है? पाप, बेटे! इसे कहते हैं कि समाज में जो अव्यवस्थाएँ फैलाई हैं, जो आपने अवांछनीयताएँ फैलाई हैं। जो आपने अनैतिक कृत्य किए हैं, उनकी वजह से सामाजिक व्यवस्था को आघात पहुँचा है। उस आघात को पूरा करने के लिए ऐसे काम कीजिए, जिससे बैलेंस बराबर हो जाए। इसके लिए वह काम करना पड़ेगा, जिससे आप अपना समय देकर के, शक्ति खरच करके इसका प्रायश्चित करें।
सबसे अच्छा प्रायश्चित कौन-सा है? सबसे अच्छे प्रायश्चित की परंपरा तीर्थयात्रा रही है। तीर्थयात्रा के माहात्म्य जितने पुस्तकों में लिखे हैं, उनमें से हमारे धर्मग्रंथों में पापों के प्रायश्चित में तीर्थयात्रा को मुख्य स्थान दिया हुआ है। तीर्थयात्रा पाप को दूर करने का मुख्य माध्यम माना गया है। क्यों माना गया है? इसलिए माना गया कि आदमी उतने समय में अपना समय खरच करता है। नुकसान उठाता है। किराये-भाड़े में पैसा खरच करता है। क्यों? इसलिए कि उसने जो समाज को नुकसान पहुँचाया था, वह पूरा करने के लिए समय, श्रम और धन खरच करता है। यह क्या है? यह प्रायश्चित है।
मित्रो! पुण्य का संपादन यह है कि दुनिया में आपने जितनी भी गड़बड़ फैलाई है, समाज के उस गड्ढे को भरने के लिए एक ही काम हो सकता है कि लोगों को विचारों का दान दें। ज्ञान का दान दें। इससे बड़ा और कोई दान नहीं हो सकता। नहीं साहब! पैसे देने से भी काम चल सकता है। मालूम नहीं बेटे! पैसा देने से भी काम तो चलता होगा। मैं कह नहीं सकता कि पैसा देने से काम नहीं चलता, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि पैसा देने से मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी होती हैं और शारीरिक आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जो बहुत देर तक ठहर नहीं सकतीं। आप हमको खाना खिला दीजिए। अब तो भूख नहीं रही। बहुत भोजन खिला दिया, आपको बहुत धन्यवाद। लेकिन चार घंटे बाद फिर भूख लग जाएगी। अब और लाइए।
वाह साहब! क्या हमने जन्मभर का ठेका ले रखा है। कल दोपहर तो आपको खिलाया था, अब फिर माँगने आ गए। रोजाना भूख लगती है, रोजाना पुण्य कर, रोजाना दान दे। रोजाना हमारे खाने का इंतजाम कर।
नहीं साहब! हम नहीं कर सकते। फिर दान क्यों दे रहा था? ठीक है, कोई आदमी मुसीबत में फँसा हुआ है, तो उस मुसीबत में फँसे आदमी को राहत पहुँचाने के लिए सामयिक सहायता कर सकते हैं; लेकिन निरंतर की सहायता में आपके अनुदान से दूसरे का काम नहीं चल सकता। हम कपड़े देंगे। कपड़े देने से बेटे, हमेशा का काम नहीं चल सकता। अमुक सहायता देंगे, अमुक दान देंगे, इससे भी काम नहीं चल सकता।
मित्रो! काम चलने का एक ही तरीका है कि आप आदमी को ऐसी सलाह दें, जिससे वह अपने पाँव पर खड़े होने में समर्थ हो सके। एक बार मुसलमान धर्म के संस्थापक मुहम्मद साहब बैठे हुए थे। एक फकीर आया और बोला "हमारे खाने-पीने का इंतजाम करा दीजिए। हम रोज भूखे रहते हैं। हमारे लिए खाने की रोज कमी हो जाती है।" उन्होंने कहा—"आप बताइए कि अभी भूखे हो तो खाने का इंतजाम करा दूँ और जन्मभर के लिए हो, तो जन्मभर के लिए करा दूँ।" आज तो भूखा हूँ, अभी खाना खिलवा दीजिए।
उन्होंने कहा—"अभी खिलवाता हूँ। उसके खाने का इंतजाम करा दिया।" वह बोला—"अब हमेशा के लिए ऐसा इंतजाम करा दीजिए, जिससे दोनों वक्त हमको भोजन मिल जाए और हमको बार-बार परेशान न होना पड़े।" अच्छा तो लीजिए मैं निश्चित रूप से सारी जिंदगी भर के भोजन का इंतजाम कर देता हूँ। कल से आपको मारा-मारा नहीं फिरना पड़ेगा और भूख की तकलीफ आपको बरदाश्त नहीं करनी पड़ेगी। हाँ साहब! बड़ी कृपा होगी, तो लीजिए अभी करता हूँ।
मित्रो! उस फकीर के पास एक पीतल का लोटा था। मुहम्मद साहब ने वह लोटा उठा लिया और खड़े होकर के उसे नीलाम करने लगे। यह पीतल का लोटा बिकाऊ है। पीतल का वह लोटा तीन दीनार में बिक गया। उन तीन रुपयों में से उन्होंने एक रुपया की तो कुल्हाड़ी खरीदी और उस फकीर को दी। यह किसलिए?
उन्होंने कहा—"यहाँ पास में जंगल है। वहाँ जाइए और जंगल में से लकड़ी काटकर लाइए और बाजार में बेच दिया कीजिए और यह एक रुपया रखिए। जंगल में जाएँगे, लकड़ी काटेंगे, बाजार में जाकर बेचेंगे। इस बीच भूख लगेगी। जब तक लकड़ी नहीं बिके, इस एक रुपये से खाना खाइए। एक रुपये की रस्सी वगैरह, पैरों में चप्पल नहीं थीं, जूते नहीं थे। जंगल में जाएँगे तो काँटे लगेंगे, सो जूते पहन लीजिए। एक रुपये के जूते, रस्सी, एक रुपये की कुल्हाड़ी और एक रुपये का आटा दाल बाँध दिया। अब जाइए, आपके जन्मभर की गारंटी हो गई।" दूसरे दिन से वह फकीर जंगल में जाने लगा, लकड़ी काटने और बाजार में बेचने लगा। एक महीने बाद उसकी मुहम्मद साहब से फिर मुलाकात हुई। कहिए, आपकी समस्या का समाधान हुआ कि नहीं? वह बोला—"अरे साहब! समस्या का समाधान भी हुआ और अभी मेरे पास सात दीनार नगद जेब में रखे हए हैं। अब दोनों समय रोटी खाते हैं और किसी के सामने हाथ भी नहीं फैलाना पड़ता।"
[क्रमशः अगले अंक में समापन]
भारतीय संस्कृति की यह अद्भुत परंपरा रही है कि यहाँ मानवीय जीवन के प्रत्येक पहलू को ध्यान में रखकर उसके समग्र विकास के लिए एक आध्यात्मिक चिंतन प्रदान किया गया है। परिव्राजक परंपरा एवं प्रव्रज्या का भाव एक ऐसा ही चिंतन कहा जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव अपने प्रस्तुत उद्बोधन में इसी परंपरा की सामयिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। विगत अंक में आपने पढ़ा कि वे श्रोताओं को बताते हैं कि परिव्राजक का उद्देश्य मात्र विभिन्न स्थानों में घूमना नहीं, बल्कि एक समग्र स्वास्थ्य का चिंतन सभी को प्रदान करना है। इसके साथ ही परिव्राजक का जीवन-उद्देश्य यह भी है कि वह पापों का निराकरण और पुण्य का संपादन करने की सोच लोगों को प्रदान करे। इसके साथ ही यह परंपरा जनसंपर्क के माध्यम से लोगों को जीवन जीने का सही तरीका भी सिखाती है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
जीवन जीने का सही तरीका सिखाएँ
मित्रो! आप दुनिया को जो सबसे बड़ी सलाह दे सकते हैं, सबसे बड़ा जो दान दे सकते हैं, सबसे बड़ा जो उपकार आप कर सकते हैं, वह एक ही है कि आप जिंदगी जीने का सही तरीका सिखा दें। अगर कोई आदमी जिंदगी जीने का सही तरीका समझ सके, तो मैं समझता हूँ कि उसकी नब्बे प्रतिशत समस्याओं का हल हो सकता है। दस प्रतिशत के लिए तो नहीं कह सकता, जो मुसीबत के रूप में आ जाती हैं। नब्बे प्रतिशत समस्याएँ आदमी की स्वयं की पैदा की हुई हैं, जो उसकी बेअक्ली से पैदा हुई हैं। दस-पाँच फीसदी समस्याएँ समाज की वजह से, किसी चोर, उचक्के की वजह से आती हैं।
यदि उसको जिंदगी जीने की सलाह, मशवरा ऐसा दिया जा सके कि उनका समाधान कैसे किया जा सकता है तो सारी जिंदगी भर के लिए उसके अनेक दुःखों का निवारण हो सकता है, जो आप पैसा दे करके नहीं कर सकते। जो आप कंबल दान या अन्य दान देकर के नहीं कर सकते। हम दवा देंगे, अच्छा कर देंगे। नहीं, आप अच्छा नहीं कर सकते। थोड़े समय के लिए दवा से राहत दे सकते हैं।
हमारा आहार-विहार ठीक नहीं है, इसलिए हम कल फिर बीमार पड़ेंगे। आज बुखार अच्छा करेंगे, कल दूसरी बीमारी आ जाएगी, परसों तीसरी आ जाएगी; क्योंकि हमारा आचरण, हमारा रहन-सहन ठीक नहीं है। आप हमको दवाई देकर के टेंपरेरी तो ठीक कर सकते हैं, पर आप कोई समस्या का हल नहीं कर सकते हैं। आप हमारी सेहत को अच्छा करने की गारंटी ले सकते हैं और यकीनन आप छाती ठोंक करके कह सकते हैं कि हम आपकी सेहत अच्छी कर देंगे।
सुनना नहीं, मानना
मित्रो! इसकी अपेक्षा आप हमको सेहत की रखवाली करने का ज्ञान दें। हमको इस बात के लिए तैयार करें कि हम आपकी बात केवल सुने ही नहीं, अपितु मान भी लें। आदमी सुनने पर यकीन करता है। रामायण सुनने पर यकीन करता है। भागवत सुनने पर यकीन करता है। गीता सुनने पर यकीन करता है। सत्संग सुनने पर यकीन करता है। सुनने से नहीं बेटे, मानने से बात बनती है। आप लोगों को मानने के लिए रजामंद कर लें और अगर आपके पास इतनी अक्ल हो, तो आप लोगों की समस्याएँ सुनकर उनका मार्गदर्शन कर सकें, तो मैं नहीं समझता कि इससे बड़ा पुण्य कोई और भी हो सकता है।
मित्रो! ब्राह्मण सबसे बड़ा पुण्यात्मा होता है। सबसे बड़ा दानी कौन होता है? सेठ। नहीं, सेठ दानी नहीं हो सकता। सेठ जो चीजें देता है, वो टिकाऊ नहीं हैं। वो ठहरती नहीं हैं। अनाज खाकर के हमारी भूख की समस्या हल नहीं होती। कपड़ा हम आपसे ले लें, तो हमारी समस्या हल नहीं हुई। फोकट की दवा से बीमारी की समस्या हल नहीं हुई। फिर दान से कोई फायदा? नहीं, दान से कोई फायदा नहीं है।
सच्ची बात तो यह है कि उससे नुकसान बहुत है। देने वाले का नुकसान यह है कि वह घमंडी हो जाता है। बार-बार सिर उठाकर कहता है कि देखिए उस धर्मशाला में हमने 5100 रुपये दिए थे। आप कभी जाएँ तो वहीं ठहरना—चुन्नालाल-मुन्नालाल की धर्मशाला में। क्यों साहब! उसमें क्या खास बात है? उसमें हमारे नाम का पत्थर लगा हुआ है। हमने अपने पिता के नाम पर 5100 रुपये दिए हैं। देखना कैसा जोर का पत्थर लगा हुआ है। दान देने वाला घमंडी आदमी अपना यश बार-बार थोपना चाहता है। हर बार अपनी प्रशंसा कराना चाहता है। हर जगह बार-बार अपना विज्ञापन करना चाहता है। इसलिए दान देने से आदमी घमंडी होता है—एक और दूसरा—जिसको दिया जाता है, उसका स्वाभिमान खतम हो जाता है। आपसे आदमी ने रोटी तो ले ली, पर उसने अपना स्वाभिमान गँवा दिया।
कैसा हो दान?
मित्रो! किसी ने, किसी के सामने हाथ पसारा, समझ लो उसकी इज्जत चली गई, उसका वर्चस् चला गया। उसका गौरव, उसका सम्मान चला गया। आपने उसका मान छीन लिया, स्वाभिमान छीन लिया और अपना अहंकार बढ़ा लिया। दोनों को इतनी परेशानी पैदा करने के बाद अगर आपने थोड़े से पैसे दे दिए, तो क्या फायदा हुआ? तो महाराज जी! आप दान के लिए मना कर रहे हैं? मना नहीं करता बेटे, मैं तो यह कहता हूँ कि दान देने के तरीके क्या होने चाहिए?
दान वह होना चाहिए, जिससे दूसरे आदमी के व्यक्तित्व का विकास होता हो। पैसा भी देना चाहते हैं, तो भी आप इसी तरीके से दीजिए, जिससे किसी आदमी के व्यक्तित्व में शालीनता का संवर्द्धन होता हो। उसकी समस्याओं के समाधान निकलते हों। किसी भिखारी की सहायता तो करनी चाहिए, पर घुमाकर कीजिए। गाँधी जी ने खादी का आंदोलन चलाया। लोगों से कहा कि आप महँगी खादी खरीदिए। क्यों? महँगी खादी इसलिए खरीदें, ताकि जो श्रमिक हैं, मजदूर हैं, उन्हें बिना स्वाभिमान गँवाए ज्यादा पैसा मिल सके। मजदूरी का फायदा मिल सके।
नहीं साहब! हम तो दान देंगे। मत दीजिए दान। बड़ा दानी आया? मैं तो एक रुपये की सोलह रोटियाँ बाँटूँगा। कहाँ बाँटेगा? वहाँ हर की पौड़ी पर। बड़ा राजा कर्ण बनकर आया है, सोलह रोटियाँ बाँटेगा। सारे-के-सारे गाँव वालों को दिखाता रहता है कि देखिए साहब! सोलह रोटियाँ बाँटकर आए हैं। उन्हें स्वावलंबी बनाने के लिए कुछ पैसे खरच नहीं कर सकता। नहीं साहब! मैं क्यों उन्हें स्वावलंबी बनाऊँगा? गाँधी जी ने कहा था कि अगर आपको कुछ देना है, तो महँगी खादी खरीदिए; ताकि श्रमिक आपसे फायदा तो उठा ले, पर अपना स्वाभिमान नहीं गँवाए। उसे इस बात का पता न चले कि किसी ने हमारी मदद की है।
इसलिए बेटे मैं यह कहा रहा था कि दान देने के तरीकों में अगर आप गरीब हैं, तो हर्ज की कोई बात नहीं है। आपकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, तो भी कोई बात नहीं है, पर आपके पास ज्ञान तो है। समझ तो है। समझ दुनिया की सबसे कीमती चीज है। आज की सारी-की सारी समस्याएँ, कठिनाइयाँ मनुष्य के सामने समझ की कमी की वजह से हैं। इसलिए समझ की कमी को पूरा करने के लिए आप जब परिव्राजक योजना में निकलते हैं, घूमते हैं, तो आप जो कष्ट उठाते हैं, इसमें आपके पापों का प्रायश्चित हो जाता है।
प्रायश्चित तप की परंपरा
मित्रो! ऋषियों ने, शास्त्रकारों ने पाप के प्रायश्चित का सबसे बेहतरीन तरीका एक ही बताया है कि आप कठिनाई उठाइए, समय खरच कीजिए, त्याग कीजिए और समाज को जो नुकसान पहुँचाया है, उसे पूरा करने के लिए बैलेंस बराबर कीजिए। नहीं साहब! हम तो गंगा जी में नहाएँगे और पाप का प्रायश्चित हो जाएगा। बेटे, यह गलत बात है। यदि गंगा जी में नहाने से पाप का प्रायश्चित हो जाएगा, तो फिर पाप का दंड किसी को भी नहीं मिलेगा।
इसका मतलब यह हुआ कि गंगा जी हर प्राणी के लिए इस बात को प्रोत्साहित करती हैं कि आप पाप कीजिए और आपको पाप का दंड नहीं मिलेगा। आप एक डुबकी मार लीजिए और आपको पाप से छुट्टी मिल जाएगी। यह गलत बात है। अगर गंगा जी ऐसा कहती हैं, तो मैं कहता हूँ कि गंगा जी पुण्य देने वाली नहीं हैं, पाप को फैलाने वाली हैं, जो यह कहती हैं कि आप एक डुबकी मार लीजिए और हम आपको पापों से मुक्त कर देंगे। ऐसा नहीं हो सकता और कभी नहीं हो सकता।
मित्रो! क्या होना चाहिए था? प्रायश्चित की परंपरा चलनी चाहिए थी। प्रायश्चित की परंपरा में सबसे अच्छा प्रायश्चित चांद्रायण व्रत के साथ-साथ में जिसे हम प्रत्येक पत्रिका में छापते हैं, वह यह हो सकता है कि आप स्वयं कठिनाई उठाएँ, तप करें। पैदल चलने का तप, ठंढक में जाने का तप, रास्ता नापने का तप, धूप में चलने का तप, ठंढक बरदाश्त करने का तप करें। नहीं साहब! हम तो गरम पानी से नहाएँगे। गरम पानी कहाँ रखा है? नहीं, हम तो गरम पानी से नहाते हैं। तो अब ठंडे पानी से नहा। यहाँ, कहाँ रखा है गरम पानी? इसलिए सैकड़ों तरह के तप हैं। कभी रोटी मिली, कभी नहीं मिली। कभी कच्चा खा लिया, कभी पक्का खा लिया।
ये सारे-के-सारे तप हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से इनके जो लाभ हैं, वे बहुत हैं। परिव्राजक योजना से तप का, प्रायश्चित का उद्देश्य तो पूरा होता ही है, इससे समाज का भी संवर्द्धन होता है। पर्यटन अपने आप में एक व्यवसाय है।
भारत सरकार और दूसरी सरकारें पर्यटन को एक व्यवसाय बनाती हैं, ताकि घुमक्कड़ लोगों, यात्री लोगों का पैसा इधर-का-उधर, उधर-का-इधर चला जाए और कुछ रेलवे को मिल जाए, कुछ मजदूरों को मिल जाए, कुछ दुकानदारों को मिल जाए। पैसा खरच हो जाए। पैसे का पहिया घूमने लगे। सामाजिक दृष्टि से भी पर्यटन का आनंद मिल जाता है। परिव्राजक योजना में भी यह आनंद मिलता है। दुनिया का यह सबसे ज्यादा श्रेष्ठ मनोरंजन है। मनोरंजन के लिए सैकड़ों बातें हो सकती हैं, लेकिन जितना ज्यादा मनोरंजन, जितना अच्छा मनोरंजन, जितना बढ़िया मनोरंजन, जितना सात्त्विक मनोरंजन, जितना निर्दोष मनोरंजन परिव्राजक का है, उतना ज्यादा और कहीं नहीं है।
मित्रो! पर्यटन का धंधा आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी है और राष्ट्रीय दृष्टि से भी उपयोगी है। परिव्राजक भी उससे जुड़ा हुआ है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने देखा कि देश विशृंखलित हो जाएगा। सांप्रदायिकता फैल जाएगी। प्रांतवाद फैल जाएगा। प्रांतवाद की जड़ें मजबूत होती चली जाएंगी। भाषावाद की जड़ें मजबूत होती चली जाएँगी। इसलिए उन्होंने तीर्थयात्रा का ऐसा क्रम बनाया, जिस बहाने एक स्थान के आदमी दूसरी जगह और दूसरी जगह के तीसरी जगह सारे भारतवर्ष की परिक्रमा करते चलें।
जगद्गुरु शंकराचार्य ने दूर की निगाह फेंकी। उन्होंने एक तीर्थ पश्चिमी हिस्से में, एक तीर्थ पूर्वी हिस्से में, एक तीर्थ उत्तरी हिस्से में और एक तीर्थ की दक्षिणी हिस्से में स्थापना की। दक्षिण में रामेश्वरम्, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में बदरीनाथ और पूर्व में जगन्नाथ तीर्थ की स्थापना की। सारा भारतवर्ष घूमने के लिए उन्होंने तीर्थ बना दिए। आप परिक्रमा लगाइए। इससे क्या फायदा होगा? एक प्रांत के आदमी, दूसरे प्रांत के लोगों से मिलेंगे। दूसरे प्रांत के तीसरे और तीसरे प्रांत के चौथे प्रांत के लोगों से मिलेंगे। इससे भाईचारा बढ़ेगा, मुहब्बत बढ़ेगी, जानकारी बढ़ेगी। जानकारी के अभाव में हर जगह इतना क्षेत्रवाद फैल जाएगा कि आदमी का जीना मुश्किल हो जाएगा और हम रोटी-पानी से वंचित हो जाएँगे। मित्रो! क्षेत्रों के हिसाब से, भाषाओं के हिसाब से जगद्गुरु शंकराचार्य ने यह आवश्यक समझा कि आदमी पर्यटन करता रहे, घूमता रहे। घूमने से कितने ज्ञान प्राप्त होते हैं, यह आप जानते हैं? सवेरे भी मैंने प्रतिज्ञा कराई थी—"चरैवेति .........चरैवेति।" चलिए-चलिए। जो आदमी पड़ा रहता है, उसका भाग्य भी पड़ा रहता है। शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है—"जो आदमी चारपाई पर पड़ा रहेगा, उसका भाग्य भी पड़ा रहेगा और जो आदमी खड़ा हो जाएगा, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाएगा और जो आदमी चलने लगेगा, उसका भाग्य भी चलने लगेगा। मनुष्य का व्यक्तित्व और मनुष्य का भविष्य इस बात से ताल्लुक रखता है कि आदमी चलता है कि नहीं चलता।"
बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो आपके परिव्राजक आंदोलन से जुड़ी हुई हैं और जिसके साथ आपका स्वार्थ जुड़ा हुआ है। परमार्थ तो मैं क्या कह सकता हूँ? परमार्थ तो एक ही है। बादल अगर पानी बरसाना बंद कर दें, तो जमीन पर तबाही आ जाएगी। बादल अपना घुमक्कड़पन बंद कर दें, समुद्र से पानी लाकर के बरसाना बंद कर दें, तो दुनिया में तबाही आ जाएगी। हवा अपने बैग में-थैले में ऑक्सीजन लादकर सप्लाई बंद कर दे, तो प्राणियों का जीवन दूभर हो जाएगा। हवा दूधवाले के तरीके से लाखों रुपये की ऑक्सीजन थैले पर लाद कर घूमती है और कहती है कि आपको ऑक्सीजन चाहिए, लीजिए, आप भी लीजिए। हवा हर आदमी को ऑक्सीजन बाँटती हुई चली जाती है। हवा ऑक्सीजन बाँटना बंद कर दे तब दुनिया में तबाही आ जाएगी। चंद्रमा अपनी चाँदनी बाँटना बंद कर दे, तो दुनिया में तबाही आ जाएगी।
महत्त्वपूर्ण है मनुष्य की भावना
मित्रो! इसी तरीके से ब्राह्मण अगर ज्ञान बाँटना बंद कर दे, तो दुनिया में तबाही आ जाएगी। ब्राह्मण आप किसे कहते हैं? ब्राह्मण मैं आप सबको कहता हूँ। क्यों कहते हैं? इसलिए कहता हूँ कि सिद्धांत के लिए, आदर्शों के लिए, आदमी का ज्ञान संवर्द्धन करने के लिए जो विचारणा, भावना होनी चाहिए, वह आप में है। आदमी का सबसे महत्त्वपूर्ण माद्दा शरीर नहीं है, रोटी नहीं है, सामान नहीं है, कपड़ा नहीं है।
सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज है—आदमी की विचारणा और आदमी की भावना। भावना का, विचारणा का सिंचन और अभिवर्द्धन कितना ज्यादा लाभदायक हो सकता है, उसे आप समझते नहीं हैं। इससे बड़ा उपकार दुनिया के परदे पर कुछ भी नहीं हो सकता। राजा कर्ण के बारे में सुना है? राजा कर्ण रोज सवा मन सोने का दान करते थे और मैं आपसे कहता हूँ कि विचारशील व्यक्ति सवा मन ज्ञान का दान करते हैं और अगर सवा मन सोने का दान करने का पुण्य होता होगा एक-सवा किलो, तो सवा मन ज्ञानदान का होता होगा—सवा हजार किलो। सवा हजार किलो ज्ञान वितरण करने के साथ-साथ में आप स्वयं इससे लाभान्वित हो सकते हैं। "बाँटन वाले को लगे, ज्यों मेहँदी को रंग।" मेहँदी हाथ से पीसते रहते हैं और दूसरों के हाथ में लगाते हैं, तो स्वयं के हाथ भी रंग जाते हैं। जो सुगंध का धंधा करते हैं, दूसरों के लिए सेंट बेचते हैं, गुलाब बेचते हैं, उनके अपने कपड़े, अपने हाथ सुगंधित हो जाते हैं।
मित्रो! बाँटन वाले को लगे ........। दूसरों को ज्ञान देने वाले, दूसरों को राहत देने वाले, दूसरों को चरित्र की शिक्षा देने वाले, दूसरों को जीवन को ऊँचा उठाने वाली शिक्षा देने वाले को हया, शरम तो आएगी ही। हम दूसरों को सिखाते हैं, तो हमको भी तो अच्छा बनना पड़ेगा। इच्छा से, जानकारी से, अध्ययन से, स्वाध्याय से, मनन से, चिंतन से भी ज्ञान की वृद्धि होती है और इससे अगर न भी होती हो तो लोक-लाज से भी होती है। हमने आपको रामायण सुनाई थी और उसमें प्रसंग आया कि हम जो कुछ गलत करेंगे, तो खुल्लमखुल्ला नहीं कर सकते। छिपकर करेंगे। देखकर करेंगे कि कोई है तो नहीं। बीड़ी तो पिएँगे, पर वहाँ सड़क पर बैठकर पिएँगे। कोई और तो नहीं देख रहा, कोई वानप्रस्थी तो नहीं खड़ा है।
क्यों साहब! आप वानप्रस्थी तो नहीं हैं? नहीं, हम तो मुसाफिर हैं। अगर कोई वानप्रस्थी आ गए तो? क्यों साहब! क्या बात है? सब ठीक है और एक हाथ से बीड़ी मसलते जा रहे हैं। कम-से-कम आपको शरम तो आएगी। आप पीले कपड़े पहन करके ज्ञान की शिक्षा देने आए हैं, तो दूसरों की तुलना में चरित्र की दृष्टि से आपको किसी तरह तो अच्छा रहना पड़ेगा। आप निर्लज्ज तो नहीं हो सकते। बाबा जी सिनेमा भी देखेगा, तो अपने पीले कपड़े उतारकर—घर पर रख जाएगा। सफेद पायजामा-कुरता पहनकर सिनेमा जाएगा। कमंडलु लेकर बाबा जी सिनेमा नहीं जाएगा। कमंडलु का फजीता हो जाएगा और लोग कहेंगे कि देखो यह बाबा पैसा माँगता है और सिनेमा देखता है। इसलिए शरम भी करनी पड़ती है। शरम भी एक बंधन है आदमी के ऊपर। शरम से भी आदमी के चाल-चलन को सँभालने के लिए बड़ी मदद मिलती है।
बेअक्ली की समस्या
मित्रो! प्रव्रज्या अभियान के कितने सारे लौकिक और पारलौकिक, सामाजिक और वैयक्तिक आनंद के कितने सारे लाभ बताए गए हैं। वे तो मिलेंगे ही। आपको यह आनंद स्वयं लेने के लिए और दूसरों को बाँटने के लिए कमर कसकर चलना चाहिए। आज के जमाने की यह सबसे बड़ी आवश्यकता है। इससे बड़ी आवश्यकता मैं नहीं जानता। हो सकता है और भी हो सकती हो। आपको ज्ञान बाँटने के लिए और जानकारी बाँटने के लिए प्रव्रज्या पर निकलना चाहिए।
दुनिया की आज जो तबाही है, वह बेअक्ली की तबाही है और किसी बात की है? बेटे, और किसी बात की तबाही नहीं। बस, एक बात की तबाही है, जिसका नाम है—बेअक्ली। बेअक्ली कौन-सी? बेअक्ली वह नहीं, जो स्कूल की पढ़ाई से दूर हो जाती है। स्कूल की पढ़ाई का बेअक्ली से कोई ताल्लुक नहीं है। फिर क्या चीज है? यह तो एक टेकनिक है। जैसे आरा चलाकर लकड़ी चीरना। और बहुत दूसरे धंधे हैं। स्कूली पढ़ाई इसमें क्या काम आती है? बेटे, भौतिक जानकारियाँ मिलती हैं, जैसे—इतिहास, भूगोल, फिजिक्स आदि पढ़ाए जाते हैं। बॉटनी पढ़ाई जाती है। इससे हम जानकारी प्राप्त करते हैं और उस जानकारी को बाजार में बेच करके पैसे कमाए जा सकते हैं और अपना पेट भर सकते हैं।
मित्रो! यह शिक्षा है। यह विद्या नहीं है। हमने तो बी०एस-सी० पास किया है। तो भाई साहब! आप शिक्षित हैं, विद्वान हैं। विद्वान कौन हो सकता है? विद्वान वह हो सकता है, जो जीवन की समस्त समस्याओं के बारे में जानकारी रखता है। मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए किस तरीके से विचार करना चाहिए। कौन-सा रास्ता अख्तियार करना चाहिए? सही रास्ता अख्तियार करना और विचार करने का तरीका पकड़ लेना, यह आदमी को नहीं आता है और इसी को मैं बेअक्ली के नाम से संबोधित करता हूँ। बेअक्ली को दूर करने के लिए आज के बराबर कहीं दुनिया के परदे पर कभी ऐसा समय नहीं आया कि जब बेअक्ली के विरुद्ध लोहा लेने की जरूरत पड़ी हो। बेअक्ली कहाँ है? घर-घर फैली हुई है। गाँव-गाँव फैली हुई है। इसलिए सूरज के तरीके से घर-घर में रोशनी पैदा करने के लिए आपको घर-घर ही जाना पड़ेगा। इसके अलावा और कोई तरीका ही नहीं है। आज की परिस्थितियों में तो परिव्राजक अभियान के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं रह गया।
मित्रो! वानप्रस्थ परंपरा प्राचीनकाल में भी आवश्यक रही होगी, लेकिन आज तो अनिवार्य हो गई है। आज तो इसके बिना काम चल ही नहीं सकता। आज तो जहाँ पिछड़ापन है, वह आपके पास नहीं आएगा। आपको पिछड़ेपन के पास जाना होगा। नहीं साहब! पिछड़े लोग हमारे पास आएँगे, सत्संग सुनने के लिए आएँगे। बेटे, सत्संग सुनने कोई नहीं आएगा। नहीं साहब! हमने तो एक लाइब्रेरी खोल दी है, सो सब लोग ज्ञान की पुस्तकें पढ़ने आएँगे। आपके यहाँ कोई नहीं आएगा। अगर आपको लाइब्रेरी चलानी है, तो आप उपन्यास, गंदा साहित्य मँगाइए, जो पान बेचने वाले अपने यहाँ रखते हैं और दस पैसा रोज पर पढ़ाते हैं। ऐसी कथा-कहानियाँ जो लोगों को भ्रमित करती हैं, उनको पढ़ने वालों की भीड़ लगी रहती है।
जीवन-साहित्य, प्रेरक साहित्य पढ़ने आपकी लाइब्रेरी में कोई नहीं आएगा। उन्हें तो दीमक खा जाएगी और कीड़े खा जाएँगे। साहित्य ज्यों-का-त्यों अलमारी में रखा रहेगा, कोई भी पढ़ने नहीं आएगा। फिर क्या करना पड़ेगा? आपको घर-घर जाना पड़ेगा। लोगों में रुचि पैदा करनी पड़ेगी। पिछड़ापन अगर ऐसा रहा होता, जो कहता है कि हमारी जैसी ही तबाही आई है, तो वह कब का ठीक हो गया होता। उसको ज्ञान ही नहीं है, पता ही नहीं है। आदमी एक तरह से बेहोश है। बेहोश को होश में लाने के लिए, जाग्रति का संदेश पहुँचाने के लिए आपको घर-घर जाना चाहिए। आज की यह सबसे बड़ी सेवा है। आज मानवता की सेवा करने का इससे बेहतरीन कोई रास्ता नहीं हो सकता। इससे अच्छा उपाय और कोई नहीं हो सकता।
मित्रो! स्कूल से बात नहीं बन सकती। स्कूल से लड़के-लड़कियाँ पढ़ जाएँगे। पढ़ने से उनको बातचीत करने की तमीज आ जाएगी और कहीं-न-कहीं नौकरी करके रोजी-रोटी कमा लेंगे। छह रुपया रोज मजदूर को मिलता है। पढ़े-लिखे को सात-आठ रुपया मिल जाएगा। बिना पढ़ा आदमी धूप में घूमता है। पढ़ा-लिखा आदमी पंखे के नीचे बैठकर काम करेगा और कोई फायदा? बेटे, और कोई फायदा नहीं। गया-गुजरापन, पिछड़ापन पढ़े-लिखे और बिना पढ़े में बिलकुल बराबर है। अगर सच्ची बात मुझसे पूछो, तो मैं यह कह सकता हूँ कि बिना पढ़ों की अपेक्षा पढ़े-लिखों का पिछड़ापन और भी ज्यादा है। बिना पढ़ों की तुलना में चरित्र की दृष्टि से पढ़े-लिखे और भी गए बीते हैं।
करें विद्या का विस्तार
इसलिए आपको विद्या का विस्तार करना होगा। ज्ञान का विस्तार करना होगा। लोक-शिक्षण का विस्तार करना होगा। चिंतन की शैली का विकास करना होगा। आदमी के चरित्र और गुण, कर्म, स्वभाव में कैसे हेर-फेर होना चाहिए? यह बताने के लिए आपके यहाँ वे लोग नहीं आएँगे। आपको ही उनके यहाँ जाना पड़ेगा। बाढ़ पीड़ित हमारे यहाँ आएँ, तो हम रोटी खिलाएँगे, पर वे नहीं आ सकते। वे स्वयं पानी में डूबे पड़े हैं और घर-मकान भी। बच्चे बिलख रहे हैं। हमारा मकान खराब हो गया है। हम आपके यहाँ नहीं आ सकते। अगर आप कुछ कर सकते हों, तो रोटी का पैकेट यहीं भिजवा दीजिए, तब तो आपके लिए धन्यवाद है। नहीं, हम नहीं आ सकते। आप रोटी के लिए हमारे यहाँ आ जाइए। नहीं साहब! हमारे पास साधन नहीं हैं। हम आपके पास क्यों आएँगे? उतने समय में तो मेहनत-मजदूरी करके रोटी खा लेंगे।
मित्रो! सत्संग के लिए आप अपने यहाँ मत बुलाइए कि हमने सत्संग भवन बना लिया है। सत्संग भवन में आप ताला बंद करके रखिए। सत्संग भवन में नुमाइश लगा दीजिए। सत्संग भवन में उनको बुला लीजिए जो बुड्ढे, मरे-गिरे, सड़े-बुसे हैं, जिनके लिए कहीं जगह नहीं मिलती है। घर में सबसे लड़ाई होती रहती है। ऐसे लोग आकर के समय बिताने के लिए बैठ जाएँगे आपके सत्संग भवन में। हाँ स्वामी जी! हनुमान जी का सत्संग होगा। हाँ, पहले देख तो लो कि सत्संग भवन में कौन बैठा है? ये बैठे हैं ऐसे बुजुर्ग, जिनको कहीं कोई जगह नहीं है। न घर में जगह है, न पड़ोस में। हमउम्र कोई रहा नहीं। बच्चे जिन्हें चिढ़ाते हैं, खीजते हैं। घर से भगा देते हैं। ऐसा व्यक्ति जाए कहाँ? सो सत्संग में जा बैठता है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? घर-घर जाना पड़ेगा। सत्संग में अगर वास्तव में आपकी कोई रुचि है, आपको वास्तव में कोई जानकारी है, तो आपको अलख निरंजन के तरीके से घर-घर अलख जगाना पड़ेगा। घर-घर में ज्ञान बिखेरना पड़ेगा और घर-घर में पानी पहुँचाना पड़ेगा। इसके अलावा कोई और तरीका है ही नहीं। आज की परिस्थिति में परिव्राजक योजना की कितनी बड़ी आवश्यकता है, यह हम छाप भी चुके हैं और बता भी चुके हैं और मित्रो! हम यह कहते रहेंगे कि हमारी प्राचीनकाल की परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए हमको परिव्राजक योजना को जीवित करना ही पड़ेगा। इसके अलावा संस्कृति पिछड़ी ही पड़ी रहेगी। धर्म की आत्मा मूर्छित ही पड़ी रहेगी। अध्यात्म का दर्शन हो ही नहीं सकता। भगवान की भक्ति किसे कहते हैं? लोग समझ ही नहीं सकेंगे। व्यक्तित्व और चरित्र का विकास-उत्थान करने के लिए कोई रास्ता खुल ही नहीं सकेगा। बस, एक ही रास्ता है कि हम घर-घर जाएँ और लोगों को जाग्रत करें।
आज की बात समाप्त