21.    आजीविका के स्रोत देहात में खोजें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


शिक्षा और आजीविका में से कौन प्रमुख-कौन गौण है, इसका निर्णय कठिन है। ज्ञान के बिना निर्वाह साधन कैसे जुटें? और निर्वाह न मिले तो ज्ञान-सम्पदा की बात कैसे सूझे? दोनों ही तथ्य अपने-अपने स्थान पर सही हैं। उन्हें परस्पर पूरक, अन्योन्याश्रित कहा जा सकता है। मुर्गी से अण्डा होता है या अण्डे से मुर्गी? बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है या वृक्ष से बीज? इस विवाद का समाधान कठिन है। एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए रहकर ही समाधान मिल सकता है। शिक्षा और आजीविका को भी इसी प्रकार परस्पर सुसम्बद्ध समझा जा सकता है। दोनों में से एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। एक को छोड़ देने से दूसरे की उपलब्धि न सम्भव है न प्रगति।

शिक्षा सम्वर्धन के लिए हर किसी को विचार करना चाहिए और उसके लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि निर्वाह के लिए आजीविका अर्जन में व्यतिरेक न पड़े। इसके लिए कई प्रश्न सामने आते हैं। जिनमें प्रथम तो योग्यता बढ़ाने और अधिक श्रमशील बनने की बात सामने आती है। आलसी प्रमादी लोग किस प्रकार उपयुक्त आजीविका कमा सकेंगे? पिछड़ी मनोभूमि और हेय स्वभाव अभ्यास वाले लोग जब गम्भीरतापूर्वक इस समाधान के लिए कारगर उपाय नहीं सोचेंगे तो उनके छप्पर पर सोने की वर्षा कहाँ आती है? धन-दौलत के खजाने किसके खेत-आँगन में गढ़े हुए हैं, जिन्हें उखाड़कर मौज मजे के दिन गुजारे जायें और गुलछर्रे उड़ाये जायें? लॉटरी, जुआ, सट्टा के सामने भी शेखचिल्ली की तरह मनमोदक ही बने रहते हैं। चोर उचक्के भी काठ की हाँडी में बहुत दिन खिचड़ी नहीं पका पाते। बचकाने चिन्तन और उथले प्रयत्नों से अर्थ क्षेत्र में जादुई सफलता किसे मिली है? किसी को राई रत्ती मिली होगी तो वह धूप-छाँव जैसी आँख मिचौनी का खेल, मटकते मचलते छोड़कर अपने घर चली गयी होगी। काम तो काम के रास्ते बनता है। बात तो बात के ढंग से बनती है। योग्यता की अभिवृद्धि और श्रम संलग्न की तत्परता ही उपयुक्त उपार्जन के काम आती है।

अपव्ययी, दुर्व्यसनी, ठाठ-बाट वाले रंगीले लोग शान बनाते शेखी बघारते फिरते हैं। पर उस सूखी हँसी से बनता क्या है? आजीविका न हो तो फिजूलखर्ची की रंगीली पतंगबाजी कितनी देर काम आती है? श्रमपूर्वक उपार्जन और एक-एक पाई का सदुपयोग करने वाली दूरदर्शिता ही सम्पन्नता को जन्म देती है। इस राजमार्ग को छोड़कर जो झाड़ियों वाली पगडण्डियों पर कदम बढ़ाते हैं, वे उस चतुरता में घाटा ही उठाते हैं। हथेली पर सरसों कहाँ जमती है? इसके लिए किसान जैसी कर्मठता अपनानी पड़ती है। आजीविका की स्थिर और समुचित व्यवस्था के लिए मनुष्य को बुद्धिमत्ता, प्रतिभा और तत्परता का समन्वय, सुनियोजन करना पड़ता है। इसके बिना सन्तोष और सम्मान प्रदान करने वाली स्थिर आजीविका की व्यवस्था बनती ही नहीं। इन सत्प्रवृत्तियों के अपनाने में जो जितनी तत्परता पूर्वक संलग्न हैं, उन्हें आर्थिक क्षेत्र की तंगी से छुटकारा पाने का अवसर उसी अनुपात में मिलता है। रावण जैसी तृष्णा को अपनाने का प्रसंग दूसरा है। हिरण्याक्षों से लेकर सिकन्दरों जैसे प्रतापियों को वैभव की महत्त्वाकांक्षा पूरी करने का अवसर न मिला तो सामान्यजनों की बात ही क्या है? सामान्यों में भी वे जो योग्यता, श्रमशीलता एवं मितव्ययता की उपेक्षा करते हैं, इतने पर भी धन कुबेर बनने की सोचते हैं, उन्हें मनुष्य के रूप में एक जीता जागता आश्चर्य ही कहा जा सकता है। आश्चर्य तो आश्चर्य है। कौतुक-कौतूहल से विनोद मनोरंजन हो सकता है, पर उस आधार पर समस्याओं के समाधान कहाँ निकलते हैं?

जिनने अपना दृष्टिकोण सही कर लिया है और औसत भारतीय स्तर के औचित्य के साथ जोड़ लिया है, उनके सामने ही इस सन्दर्भ के कुछ ठोस प्रश्न आते हैं। स्थिर समाधान प्राप्त करने के लिए उन्हें ही सुनिश्चित समाधान खोजने पड़ते हैं। ऐसे लोगों को औचित्य को ध्यान में रखना होता है और उपयुक्त का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। उन्हें सोचना चाहिए कि आजीविका उपार्जन के लिए क्या माध्यम अपनाये जाय?

सर्व विदित अर्थ साधनों में कृषि एवं पशु पालन, परम्परागत व्यवसाय हैं। कृषि में उद्यान भी आता है। पशु पालन में उनके उत्पादनों का व्यवसाय भी जोड़ा जा सकता है। चिरकाल से भारतीयों की प्रमुख आजीविका स्रोत यही रहा है। जिनके पास जमीन है, सिंचाई के साधन हैं, उन्हें इधर-उधर न भटक कर उसी को समुन्नत बनाने पर ध्यान देना चाहिए। अगले दिनों कृषि मजदूरों की कमी पड़ेगी, इसलिए यह कार्य अपने परिवार के छोटे बड़े लोगों को श्रमशील बनाकर ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। वस्त्र उद्योग भी ऐसा ही है, जिसमें समूचे परिवार के श्रमरत रहने पर ही उपयुक्त तारतम्य बैठता है। मालिक हुकुम चलायें और मजदूर कमा कमाकर खिलायें, इस दृष्टि से न खेती सफल हो सकती है, न बागवानी और न वस्त्र निर्माण कार्य में सफलता मिल सकती है। श्रम संकट अब दिन प्रतिदिन गहरा होगा। इसलिए नहीं कि सभी को रोजगार मिल गया और किसी को श्रम उपार्जन की आवश्यकता नहीं रही। वरन् इसलिए कि हर व्यक्ति हलके काम चाहता है, मेहनत से जी चुराता है और अधिकाधिक पाने के लिए कुचक्र रचने में ही माथा खपाता रहता है। ऐसे मजदूरों की कमाई पर किसी को गुजारा चलाने की इच्छा हो तो उसे निराश रहना और घाटा उठाना पड़ेगा।

लाखों, करोड़ों की लागत से खड़े होने वाले बड़े कारखानों और बड़े व्यवसायों की बात दूसरी है। सामान्य स्तर के लोगों के लिए यही उचित है कि या तो वे अपने परिवार को श्रमजीवी बनायें या फिर कई छोटे परिवारों को मिलाकर एक बड़ा संयुक्त परिवार बनायें। पिछले दिनों उपरोक्त उद्योगों के आधार पर आजीविका उपार्जित करने वाले प्रायः बड़े ही परिवार बनाये रहते थे। उसी में उनकी स्थिरता और प्रगति रहती थी। बिखर जाने पर छोटे गृहस्थों को अधिक सुविधा और स्वच्छता भले ही मिलती हो, पर उस परिवार की संयुक्त जन शक्ति एवं अर्थशक्ति की सम्भावना में जो लाभ मिलने थे, उनसे वंचित रहने पर प्रकारान्तर से सभी को घाटा सहना पड़ता था। पिछले दिनों यह प्रक्रिया भावनात्मक आधार पर चलती रही है। अब सहकारी सिद्धान्तों के अनुसार अधिकार और कर्तव्य निर्धारित करने वाली आचार संहिता नये सिरे से बनाई जा सकती है।

सरकारी नौकरी अपवाद ही मानी जा सकती है। बढ़ती हुई जनसंख्या को, शिक्षा विस्तार को ध्यान में रखने पर कोई तथ्यों से आँख मूँदने वाला ही यह सोच सकता है कि उच्च शिक्षा दिलाकर बच्चों को अफसर बनाने में मजा आयेगा। इस दिवास्वप्न से जितनी जल्दी मुँह मोड़ा जा सके, उतना ही अच्छा है। कुछ विशिष्ट प्रतिभाओं को छोड़कर औसत स्तर के परिवारों को नई पीढ़ी के लिए आजीविका के ऐसे स्रोत तलाश करने चाहिए, जिनमें सुविधा और निश्चिन्तता दोनों का ही समावेश हो।

इस दृष्टि से जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन और व्यवसाय यह दो ही काम शेष रहते हैं। दोनों में से उत्पादन पर अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अनेकों के उत्पादन को एक विक्रेता ही खपा सकता है। उत्पादन कार्यों में लगातार श्रम मिलता है जबकि विक्रय के लिए ग्राहक की प्रतीक्षा में बैठे रहना पड़ता है।

बड़े कारखाने विदेशों के निर्यात से अमीरों की शौकीनी के लिए प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के कारखाने भी लगा सकते और उसके लिये बड़ी पूँजी की व्यवस्था भी जिस तिस प्रकार कर सकते हैं। उनकी खपत के लिए भी समर्थ एजेन्सी की आवश्यकता पड़ती है। इतना बड़ा जंजाल बुनना सर्व साधारण के बलबूते की बात नहीं है। मध्यवर्ती लोगों को ऐसे कुटीर उद्योगों की बात सोचनी चाहिए जिनका उत्पादन समीपवर्ती लोगों में खप सके। इस दृष्टि से बुनकर दर्जी, रंगरेज, धोबी, मोची, कुम्हार, बढ़ई, राज मिस्त्री जैसे उद्योगों को नये सिरे से सुव्यवस्थित रूप में खड़े करने की आवश्यकता है। सहकारिता के आधार पर इनके कुछ बड़े कारखाने बन सकते हैं। उनमें बिजली से चलने वाली छोटी-छोटी मशीनों का प्रयोग हो सकता है। मात्र हाथ का श्रम उतनी आजीविका नहीं दे पाता, जिससे बढ़ी हुई महँगाई के अनुरूप खर्चा निकल सके। अगले दिनों श्रमिक मजदूरों का भी वेतन बढ़ेगा, वे आज जितने सस्ते नहीं मिलेंगे। ऐसी दशा में लागत बढ़ने पर ग्राहक को उचित मूल्य पर वस्तुएँ तभी मिल सकती हैं जब उत्पादन तन्त्र को अधिक सुविकसित और सुव्यवस्थित बनाया जाय। इसके लिए मध्यवर्ती छोटे कारखानों, कुटीर उद्योगों की बात ही सोचनी चाहिए। साथ ही यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि कच्चा माल जुटाने, बने माल के बेचने के लिए उत्पादक को ही भागदौड़ न करनी पड़े। पूँजी लगाने से लेकर विक्रय करने और आवश्यकतानुसार स्टोर भी जमा करने की जिम्मेदारी सहकारी समितियों को उठानी चाहिए। कुटीर उद्योग सहकारी समितियों के द्वारा ही चल और पनप सकते हैं। जो स्वयं ही बनाने के साथ बेचेगा भी, उसे वर्तमान परिस्थितियों में उत्साह वर्द्धक सफलता न मिल सकेगी।

विक्रय क्षेत्र में इन दिनों अप्रामाणिकता का समावेश तेजी से बढ़ रहा है। कम तोल, कम नाप, असली के नाम पर नकली, मिलावट, कीमतों में धोखाधड़ी, मुनाफाखोरी जैसी अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ व्यवसाय क्षेत्र में घुस पड़ी हैं। फलतः उपभोक्ता की जेब ही नहीं कटती, वरन् अनिश्चितता और असमंजस की तरह जगह जगह भटकना पड़ता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए प्रामाणिक विक्रय तन्त्र खड़े हो सकें, तो जहाँ ग्राहकों के लिए निश्चिन्तता रहेगी, वहीं विक्रेता भी अपना सम्मान और लाभांश स्थिर रख सकेगा। ऐसी प्रामाणिक दुकानों की आज हर जगह जरूरत है। वे पुराने बड़े सेठों से सर्वसाधारण को बहुत राहत दे सकती हैं। ऐसी दुकानें सहकारी या निजी रूप में खुलने लगेंगी तो उनका व्यवसाय टिका भी रहेगा और निर्वाह में भी कमी न पड़ने देगा।

फेरी व्यवसाय अब शिथिल होता जा रहा है, जबकि पिछड़े और देहातों में बसे हुए भारत में उसकी महती आवश्यकता है। वहाँ लोग स्टोर नहीं करते। रोज कुँआ खोदते, रोज पानी पीते हैं। ऐसी दशा में उनकी खरीद भी छोटी और थोड़ी होती है। इस प्रयोजन की पूर्ति फेरी वाले ही कर सकते हैं। सिर पर पीठ पर न सही, साइकिलों, ढकेल गाड़ियों के द्वारा यह काम अभी भी किया जा सकता है। सप्ताह में एक या दो दिन हाट लगाने का अभी भी बहुत जगह प्रचलन है। इसे सुनियोजित ढंग से फिर आरम्भ किया जा सके तो इस माध्यम से कितनों को ही काम मिल सकता है और सर्वसाधारण की सुविधा का एक नया द्वार खुल सकता है।

शहर से गाँवों को, गाँवों से शहरों को माल ढोने के लिये पशु-वाहनों का नये सिरे से नया सिलसिला चल सकता है। गधे, खच्चर, बैल, ऊँट, बैलगाड़ियों के पुराने साधन ही इन क्षेत्रों की आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं। जहाँ पक्की सड़कें अभी तक नहीं पहुँची हैं। पेट्रोल, डीजल की इन दिनों तंगी पड़ रही है। इन्हें दूसरे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए सुरक्षित रखकर देहाती क्षेत्रों में पशु वाहनों का उपयोग चल पड़े तो उनकी वृद्धि से गोबर, खाद तथा गोबर गैस जैसे नए आधार खड़े करने में सहायता मिल सकती है। दूध, घी, मक्खन, छाछ का व्यवसाय बढ़ाने की अपने देश में बहुत बड़ी गुँजाइश है। गुँजाइश तो मधुमक्खी पालन की भी कम नहीं है। हाट बाजार प्रदर्शनी समीपवर्ती क्षेत्रों के लिए और मिलें बड़े क्षेत्रों में व्यावसायिक आदान-प्रदान करने के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

शुद्ध पानी के लिए हैण्ड पम्प, मल-मूत्र का लाभदायक उपयोग करने के लिये सस्ते फ्लैश पाखाने हर क्षेत्र में लग सकते हैं। स्वास्थ्य संरक्षण और गन्दगी निराकरण के लिए इन दोनों ही प्रयोगों की इन दिनों इतनी बड़ी आवश्यकता है। इस कार्य को देहाती क्षेत्र का असाधारण एवं अभिनव उद्योग कहा जा सकता है। बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कितने ही नये काम उत्पन्न किए तथा बढ़ाये जा सकते हैं। सस्ते और स्थानीय सामग्री से बन सकने वाले खिलौनों का अपना अलग ही क्षेत्र है। अब उसे प्लास्टिक उद्योग हड़पता जा रहा है। इसे वापिस लौटाने की आवश्यकता है।

जिस प्रकार सरकारी नौकरियों से शिक्षा को विरत करने की आवश्यकता है, उसी प्रकार आजीविका के लिए शहरों की ओर भागने की प्रवृत्ति रोकी जानी चाहिए। शहरी आबादी बढ़ने के अनेकानेक खतरे और दूरगामी दुष्परिणाम हैं। अपने देश में आजीविका स्रोत अब ग्रामों की ओर बढ़ने चाहिए। गाँवों की संरचना, परम्परा एवं स्थिति सुधारी जानी चाहिए और स्थिति ऐसी बननी चाहिए जिससे शहरों की तुलना में ग्रामीण जीवन में चमक दमक न रहते हुए भी अधिक सौम्य, सरल, सस्ता और सुखद बन सके। यदि उद्योगों को प्रधानता देनी हो तो फिर कस्बों को उस प्रयोजन के लिए विकसित किया जा सकता है और निवास के लिए कृषि, पशु पालन, गृह उद्योगों के लिए गाँवों को उपयुक्त स्तर का बनाया जा सकता है। लोग शहरों की ओर न भागें, गाँवों में ही रहें। इसके लिए ग्राम विकास की अनेकानेक योजनाओं को हाथ में लिया जा सकता है। निवास के लिए घरों का निर्माण स्थानीय साधनों से सम्भव हो सके, इसलिए थोड़ा प्रयत्न करने और सूझ-बूझ से काम लेने पर ऐसी व्यवस्था बन सकती है कि कोठियों में काम आने वाले साधनों को खरीदने के लिए ग्रामीणों को विवश न होना पड़े और इस तनिक सी आवश्यकता के लिए शहरों के लिए न भागना पड़े।

यूगोस्लाविया जैसे देशों ने अपनी ग्राम प्रधान जनसंख्या को अनेकानेक सुविधाओं से सुसम्पन्न किया है, फलतः वहाँ गाँव से शहर की ओर भागने की प्रवृत्ति नहीं रही, वरन् शहरों से लोग गाँवों की ओर लौट रहे हैं। वही हमें भी करना चाहिए। देहाती जीवन के प्रति जन-जन के मन में सम्मान उत्पन्न करना चाहिए और मध्यवर्ती निर्वाह के लिए कठोर परिश्रम करने की आदत डालनी चाहिए

पनचक्की, झरनों के छोटे बिजलीघर, हलके ट्रैक्टर, छोटे स्तर के ऐसे उपकरणों का विकास होना चाहिए, जिनके लिए बड़ी पूँजी और उच्च स्तरीय तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता न पड़े। इन कार्यों को सरकार कर सके तो ठीक, अन्यथा हर काम के लिए उसी पर निर्भर रहने की आदत छोड़नी चाहिए और अपने बिखरे साधनों को ही समेट कर सहकारिता के आधार पर ऐसी व्यवस्थाएँ बनानी चाहिए, जिनके आधार पर देहातों की प्रगति तथा आजीविका उपार्जन की नई प्रक्रिया हस्तगत हो सके। इसके लिए थोड़ी सी सूझ-बूझ और तत्परता जुटाने भर की देर है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

22.    निर्माण से पूर्व सुधार की सोचें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


महत्त्व निर्माण का ही है। उपलब्धियाँ मात्र उसी पर निर्भर हैं। इतना होते हुए भी पहले से ही जड़ जमाकर बैठी हुई अवांछनीयता निरस्त करने पर सृजनात्मक कदम उठाने की सम्भावना बनती है। खेत में कंकड़, पत्थर, झाड़ झंखाड़ जड़ जमाये बैठे हो तो उपयुक्त बीज बोने पर भी फसल न उगेगी। इस प्रसंग में सर्वप्रथम जोतने, उखाड़ने, बीनने और साफ करने का काम हाथ में लेना होगा। पहलवान बनने से पूर्व बीमारियों से छुटकारा पाना आवश्यक है। बर्तन में पानी भरने का प्रयत्न करने से पूर्व उसके छेद बन्द करने चाहिए। उद्यान लगाने वालों को पौधे चर जाने वाले पशुओं और फल कुतरने वाले पक्षियों से रखवाली का प्रबन्ध भी करना होता हैं।

जीवन साधना में सर्वप्रथम यह देखना होता है कि चिन्तन और व्यवहार में अवांछनीयताओं ने कहाँ-कहाँ अपने घोंसले बना रखे हैं। इन मकड़ जंजालों को सफा करना ही चाहिए। भोजन बनाने से पूर्व रसोईघर की, पात्र-उपकरणों की सफाई आवश्यक होती है अन्यथा गन्दगी घुस पड़ने से खाद्य सामग्री विषैली हो जायेगी और पोषण के स्थान पर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करेगी।

मलीनता साफ करने के उपरान्त ही बात बनती है। प्रातः उठते ही शौच, स्नान, मंजन, कंघी, साबुन, बुहारी का काम निपटाना पड़ता है तब अगली गतिविधियाँ अपनाने का कदम उठता है। जन्मते ही बालक गन्दगी में लिपटा आता है, सर्वप्रथम उस जंजाल से मुक्त कराने की व्यवस्था बनानी पड़नी है, सुन्दर कपड़े पहनाना उसके बाद होता है। त्यौहार मनाने का पहला काम है साफ सफाई। पूजा उपचार का भी प्रथम चरण यही है। प्रगतिशील स्थापनाओं का एक पक्ष दुष्ट दुरभिसंधियों से निपटना भी है अन्यथा अन्धी पीसे कुत्ता खाय वाली उक्ति चरितार्थ होती रहेगी। पानी खींचने से पहले कुँआ खोदना पड़ता है। नींव खोदना पहला और दीवार चुनना दूसरा काम है।

दुर्व्यसनों, दुर्गुणों, उच्छृंखलताओं एवं बुरी आदतों से उत्पन्न होने वाली हानियाँ इतनी अधिक हैं कि उनकी आग में उपार्जन, स्वास्थ्य, सम्मान, सन्तुलन, भविष्य, परिवार सभी कुछ ईंधन की तरह जलते और समाप्त होते देखा जा सकता है। इसलिए प्रगति की योजनाएँ बनाते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों ने कहाँ कहाँ डेरे तम्बू गाड़ रखे हैं। अनुपयुक्त आदतों की विष बेलें कितनी गहराई तक अपनी जड़ें जमाती जा रही है। इस उखाड़-पछाड़ के बिना सुखद सम्भावनाओं का बीजारोपण हो नहीं सकेगा।

प्रत्यक्ष शत्रुओं से निपटना आसान है। चोर उचक्कों की सुरक्षा चौकीदारी से हो सकती है, किन्तु उन दुष्प्रवृत्तियों से निपटना तो दूर उनको ढूँढ़ निकालना और होने वाली हानियों का अनुमान लगाना तक कठिन पड़ता है। अदृश्य को कैसे देखा जाय? अप्रत्यक्ष को कैसे पकड़ा जाय? सूक्ष्मदर्शी विवेक का माइक्रोस्कोप ही इन विषाणुओं का अता-पता बता सकता है जो दुर्गुणों के रूप में विषाणुओं की भूमिका निभाते और सर्वनाश का ताना-बाना बुनते रहते हैं।

अपने गुण, कर्म, स्वभाव में किस हेय स्तर की दुष्प्रवृत्तियाँ अधिकार जमाती हैं, इसका तीखा निष्पक्ष पर्यवेक्षण करना चाहिए। शरीर क्षेत्र का शत्रु नम्बर एक आलस्य है और मनःक्षेत्र का प्रमाद। आलसी और प्रमादी प्रकारान्तर से आत्म हत्यारे हैं, वे अपने इन बहुमूल्य यन्त्रों को जंग लगाकर भोंथरे, अनुपयोगी एवं अपंग बना देते हैं। पक्षाघात पीड़ित जीते तो हैं किन्तु अशक्त असमर्थ, अर्ध मृतक की तरह रहकर। जिनके शरीर पर आलस्य का शनिश्चर छाया है वे काम से जी चुराते और परिश्रम में बेइज्जती अनुभव करते देखे जाते हैं। प्रमादी मस्तिष्क पर जोर नहीं डालते। उचित-अनुचित के पक्ष विपक्ष पर माथा पच्ची नहीं करते। जो चल रहा है उसी ढर्रे पर बेपेंदी के लोटे की तरह लुढ़कते रहते हैं। न समय की परवाह होती है न हानि लाभ की। किसी तरह दिन काटते चलना ही अभीष्ट होता है। पराक्रम रहित शरीर अपंग है और उत्साह रहित मस्तिष्क मूढ़मति। ऐसी दीन दयनीय स्थिति मनुष्य की अपनी बनाई होती है। यदि दिनचर्या बनाकर समय के एक-एक क्षण का उपयोग करने के लिए दिन भर के भविष्य के कार्य निर्धारित कर लिये जाय और उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर श्रमशील तत्परता और रुचि रस से भरी पूरी तन्मयता का संयुक्त नियोजन किया जा सके तो सफलता चरण चूमेगी और प्रगति पथ पर सरपट दौड़ने वाली चाल चौगुनी सौगुनी बढ़ती दीखेगी।

स्वभाव में कटुता, कर्कशता, उतावली, अधीरता, उत्तेजना की उद्दण्डता भी उतनी ही घातक है जितनी कि दीनता, भीरुता, निराशा, कायरता। यह दोनों ही असन्तुलन भिन्न प्रकार के होते हुए भी हाई ब्लड प्रेशर, लो ब्लड प्रेशर की तरह अपने-अपने ढंग से हानि पहुँचाते हैं। स्वभाव को सहिष्णु, धैर्यवान, गम्भीर, दूरदर्शी, सहनशील बनाने का प्रयत्न यदि निरन्तर जारी रखा जाय तो शिष्टता, सज्जनता के ढाँचे में प्रकृति ढलती जायेगी और हर किसी की दृष्टि में अपना मूल्य बढ़ेगा।

ईमानदारी, सच्चाई, सहकारिता, उदारता, मिल जुलकर रहना, मिल बाँटकर खाना, हँसने-हँसाने की हलकी-फुलकी जिन्दगी जीना जैसी आदतें यदि अपने चरित्र का अंग बन सके तो इसमें घाटा कुछ भी नहीं लाभ ही लाभ है। बेईमान, झूठे, ईर्ष्यालु, स्वार्थान्ध, विद्वेषी, मनहूस प्रकृति के लोग अपनी चतुरता और अहमन्यता का ढिंढोरा भर पीटते हैं। वस्तुतः वे कुछेक चापलूसों और अनाड़ियों को छोड़कर हर समझदार की दृष्टि से ओछे, बचकाने और घिनौने प्रतीत होते हैं। वस्तुतः ऐसे लोग जोकर भर समझे और अप्रामाणिक ठहराये जाते हैं। आमतौर से ऐसे लोग अविश्वस्त और चरित्रहीन समझे जाते हैं। फिजूलखर्ची, बड़प्पन, बेईमानी गरीबी के गर्त में गिरने की पूर्व सूचना है। ऐसी आदतें अपने में थोड़ी मात्रा में भी पनपी हो तो उन्हें छोटी दीखने वाली उस चिनगारी को लात से मसलकर बुझा ही देना चाहिए।

ऐसे-ऐसे और भी अनेकों दोष दुर्गुण हैं जो विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की अनुपयुक्त आदतों के रूप में प्रकट होते हैं। एक सभ्य सुसंस्कारी मनुष्य की प्रतीक प्रतिमा मन में बसानी चाहिए और उसकी तुलना में अपनी जो भी कमियाँ दीखती हों उन्हें संकल्प और साहस के सहारे उलटने का प्रयत्न करना चाहिए। उलटने का तरीका एक ही है कि अनौचित्य के स्थान पर उसका प्रतिपक्षी औचित्य अपनाया जाय। उसे अपने दैनिक जीवनक्रम में सम्मानित रखते हुए धीरे-धीरे स्वभाव को ही उस ढाँचे में ढाल लिया जाय। बुराई कोसते रहते से नहीं मिट जाती, उसकी प्रतिपक्षी भलाई को प्रयोग में लाने की नियमित कार्य पद्धति अपनानी होती है। काँटे को काँटे से निकालते हैं और दुष्प्रवृत्तियों को हटाने के लिए सत्प्रवृत्तियों को उनसे जूझने के लिए मोर्चे पर खड़े करते हैं।

जीभ का चटोरापन अनावश्यक मात्रा में अभक्ष्य पेट पर लादता है और क्रमशः अपच, रक्त दूषण बढ़ाते-बढ़ाते समूची स्वास्थ्य सम्पदा को ही बर्बाद करके रख देता है। इसी प्रकार कामुक चिन्तन में निरत रहने वाले पाते तो कुछ नहीं, अपनी एकाग्रता और चिन्तन की शालीनता गिराते-गिराते, घटाते-घटाते खोखला बनाने वाली दुश्चरित्रता के मानसिक मरीज बन जाते हैं। ऐसे लोग बौद्धिक दृष्टि से तो दुर्बल होते ही जाते हैं। शरीरबल, मनोबल और चरित्र बल की दृष्टि से भी गई गुजरी स्थिति में जा पहुँचते हैं।

व्यक्तित्व को खोखला करने वाली दुष्प्रवृत्तियों को अपने चिन्तन, स्वभाव और व्यवहार में ढूँढ़ते रहा जाय, साथ ही उन्हें संक्रामक बीमारी मानकर समय रहते उन्मूलन का उपाय उपचार किया जाता रहे तो यह अपने आप से स्वयं लड़ते रहने की शूरता किसी सफल सेनापति को विजयश्री मिलने जैसी मानी जायेगी। जो अपने को जीतता है वह विश्व विजयी बनता है। इस उक्ति को सर्वथा सारगर्भित समझा जाना चाहिए। गीता में ऐसे ही धर्मक्षेत्र, कर्मक्षेत्र में अर्जुन को लड़ने का उपदेश भगवान ने दिया था। वह हर विचारशील के लिए सदा सर्वदा अनुकरणीय है।

वह व्यक्तिगत सुधार परिधि की गुण, कर्म, स्वभाव क्षेत्र की चर्चा हुई। अब एक कदम और आगे बढ़ना चाहिए। परिवार एवं समाज में प्रयुक्त होने वाले प्रचलनों को भी इसी दृष्टि से देखना चाहिए और खोजना चाहिए कि सर्वत्र न सही अपने निज के व्यवहार तथा सम्बद्ध परिवार में ऐसी क्या अवांछनीयताएँ हैं जो व्यक्तिगत क्षेत्र में पनपने पर भी समूचे समाज के लिए घातक सिद्ध होती हैं। हैजा प्लेग के विषाणु आरम्भ में किसी छोटे क्षेत्र में होते हैं पर छूत की बीमारी बनकर दूर-दूर तक फैलते और असंख्यों का प्राण हरण करते चले जाते हैं। मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ और अनैतिकताएँ एक प्रकार से चरित्र एवं समाज क्षेत्र की बीमारियाँ हैं। यह जहाँ पनपती हैं उतने ही क्षेत्र में तबाही नहीं करती वरन् अपनी चपेट में सुविस्तृत क्षेत्र को जकड़ती और पतन पराभव का वातावरण बनाती चली जाती हैं।

कुरीतियों की दृष्टि से यों अपना समाज भी अछूता नहीं हैं, पर अपना देश तो इसके लिए संसार भर में बदनाम है। विवाह योग्य लड़के लड़कियों के उपयुक्त जोड़ों का विवाह कर दिया जाय और सार्वजनिक घोषणा के रूप में उनका पंजीकरण करा देना या घरेलू त्यौहार जैसा कोई हलका सा हर्षोत्सव कर देना यही औचित्य की मर्यादा है। पर अपने यहाँ उसे युद्ध जीतने या पहाड़ उठाने जैसा बना लिया गया है। उस धमाल में पैसों की, समय की जितनी बर्बादी होती है उसका हिसाब लगाने पर प्रतीत होता है कि आजीविका का एक तिहाई अंश इसी कुप्रचलन में होली की तरह जल जाता है। खर्चीली शादियाँ हमें किस तरह दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। कितने ही परिवारों की सुख शान्ति और प्रगति किस प्रकार इस नरभक्षी पिशाचिनी की बलिवेदी पर नष्ट होती है इसे अधिकाँश लोग समझते भी हैं और कोसते भी हैं। फिर भी आश्चर्य यह है कि छोड़ते किसी से नहीं बनता। इसे कुरीतियों का माया जाल ही कहना चाहिए जो तोड़ने का दम−खम करने वालों को भी अपने शिकंजे से छूटने नहीं देता।

जाति-पाँति के नाम पर प्रचलित ऊँच-नीच की मान्यता के पीछे न कोई तर्क है न तथ्य, न प्रमाण, न कारण। फिर भी अपने समाज में ब्राह्मण-ब्राह्मण के, ठाकुर-ठाकुर के, अछूत-अछूत के बीच जो ऊँच-नीच का भेद-भाव चलता है उसे देखते हुए लगता है कि यह सवर्ण-असवर्ण के मध्य चलने वाला विग्रह नहीं है, वरन् हर बिरादरी वाले अपनी ही उपजातियों में ऊँच-नीच का भेद बरतते-बरतते इस प्रकार बँट गये हैं मानो उनका कोई एक देश, धर्म, समाज या संस्कृति रह ही नहीं गई हो। इस दुर्विपाक से सभी परिचित हैं, सभी दुःखी हैं, सभी विरुद्ध हैं। फिर भी कुरीतियों का कुचक्र तो देखिये कि बरताव में सुधारक भी पिछड़े लोगों की तरह ही आचरण करते हैं।

नर-नारी के बीच बरता जाने वाला भेदभाव कुरीतियों की दृष्टि से और भी घिनौना है। इसने पर्दे के प्रतिबन्ध में आये जन समुदाय को दूसरे दर्जे के नागरिक की, नजरबन्द कैदी की स्थिति में ले जाकर पटक दिया है। नारी आज की स्थिति में देश की अर्थ व्यवस्था में, सामाजिक प्रगति में कुछ योगदान दे सकने की स्थिति में रही ही नहीं। अशिक्षा, उपेक्षा, अयोग्यता, पराधीनता, अस्वस्थता के बन्धनों में जकड़ी हुई, अन्धाधुन्ध प्रजनन के प्राण घातक भार के अत्याचार से लदी हुई नारी अपने आपके लिए, नर समुदाय के लिए, समूचे समाज के लिए भारभूत बनकर रह रही है।

भिक्षा व्यवसाय, मृतक भोज, बाल-विवाह, कन्या विक्रय, पत्नी त्याग आदि अनेकानेक प्रचलन ऐसे हैं जो औचित्य की कसौटी पर किसी भी प्रकार खरे सिद्ध नहीं होते फिर भी हमारे गले में फाँसी के फंदे की तरह कसे हुए हैं। इन कुरीतियों को इसी प्रकार सहते रहा गया, उनका मोह न छोड़ा गया तो समझना चाहिए कि हम दिन-दिन गलते, फिसलते, पिछड़ते और घटते गिरते ही चले जायेंगे।

अनैतिकता का तो कहना ही क्या? समय का पालन, वचन का पालन, विश्वास का पालन घटता जा रहा है। व्यवसाय, आचरण, कर्तव्य, उत्तरदायित्व के क्षेत्रों में तनिक तनिक सी बात पर मनुष्य ऐसी कलामुण्डी खाता है मानों नीति मर्यादा पालन की नहीं, कहने सुनने भर की बात रह गई है। कामचोरी, हरामखोरी, करचोरी, रिश्वत, धोखाधड़ी, छल, स्वार्थान्धता, नागरिक कर्तव्यों की अवहेलना आदि की अवांछनीयताएँ अब सामान्य व्यवहार की, चातुर्य कौशल की अंग बनती जा रही है। लगता है मनुष्य अपनी गरिमा का परित्याग कर प्रेत पिशाच जैसी अपनाई जाने वाली दुष्टता, भ्रष्टता अपनाने के लिए तेजी से अग्रसर हो रहा है।

आज राष्ट्र का एक भी परिवार परिकर इस सर्वव्यापी छूत से बचा हुआ नहीं है। नौकरी के लिए पढ़ाई की अब कोई उपयोगिता रह नहीं गई है। फिर भी लोग घर फूँककर तमाशा देखने और बालकों को उच्च शिक्षा के नाम पर ऐसी स्थिति में पटक देते हैं जिनमें से नौकरी न मिलने पर किसी काम के नहीं रहते।

आज की व्यस्तता को देखते हुए यह आशा तो नहीं की जा सकती कि जन सामान्य चक्रव्यूह तोड़ने वाले अभिमन्यु की भूमिका निभायें। पर इतनी आशा तो की ही जा सकती है कि वे अपने निजी जीवन में, परिवार के क्षेत्र में जो मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ, अवांछनीयताएँ पनपती देखें उन्हें समय रहते उखाड़ने का प्रयत्न करें। कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि उनका समर्थन न करें, उनकी प्रशंसा भी न करें। विरोध बन पड़े तो करे पर यदि वैसा साहस न हो तो कम से कम असहमति और असहयोग की स्थिति तो बनाये ही रहें। यदि सत्य निष्ठा उमगे, औचित्य के प्रति श्रद्धा जगे तो उसे साहस भरे संघर्ष के रूप में परिणत करना चाहिए और जितना सम्भव हो उतना विरोध अथवा असहयोग जारी रखना ही चाहिए। इतनी प्रखरता यदि जीवन्त रखी जा सके तो उतने से भी अनौचित्य के असुर का मनोबल टूटेगा और देवत्व पनपेगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

23.    आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


निर्माण आन्दोलन का प्रथम चरण आत्म-निर्माण है। उस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए किसी भी स्थिति के व्यक्ति को कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। पर्दे में जकड़ी स्त्रियाँ, जेल में बन्द कैदी, चारपाई पर पड़े रोगी और अपंग असमर्थ व्यक्ति भी आज जिस स्थिति में हैं उससे ऊँचे उठने, आगे बढ़ने में उन्हें कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। मनोविकारों को ढूँढ़ निकालने और उनके विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर देने में सांसारिक कोई विध्न बाधा अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। दैनिक जीवन में निरन्तर काम आने वाली आदतों को परिष्कृत बनाने का प्रयास भी ऐसा है, जिनके न बन पड़ने का कोई कारण नहीं। आलस्य में समय न गँवाना, हर काम नियत समय पर नियमित रूप से उत्साह और मनोयोग पूर्वक करने की आदत डाली जाय तो प्रतीत होगा अपना क्रिया कलाप कितना उत्तम, कितना व्यवस्थित, कितना अधिक सम्पन्न हो रहा है। प्रातःकाल अपनी दिनचर्या का निर्धारण कर लेना और पूरी मुस्तैदी से उसे पूरा करना, आलस्य प्रमाद को आड़े हाथों लेना, व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जल्दी सोने जल्दी उठने की एक छोटी सी ही आदत को लें तो प्रतीत होगा कि प्रातःकाल का कितना बहुमूल्य समय मुफ्त ही हाथ लग जाता है और उसका जिस भी कार्य में उपयोग किया जाय उसमें सफलता का कैसा स्वर्ण अवसर मिलता है। क्या व्यायाम, क्या अध्ययन, क्या भजन, कुछ भी कार्य प्रातःकाल किया जाय चौगुना प्रतिफल उत्पन्न करेगा। जो लोग देर में सोते और देर में उठते हैं वे यह नहीं जानते कि प्रातःकाल का ब्रह्म मुहूर्त इतना बहुमूल्य है जिसे हीरे मोतियों से भी नहीं तोला जा सकता, नियमित दिनचर्या का निर्धारण और उस पर हर दिन पूरी मुस्तैदी के साथ आचरण, देखने में यह बहुत छोटी बात मालूम पड़ती है पर यदि उसका परिणाम देखा जाय तो प्रतीत होगा कि हमने एक चौथाई जिन्दगी को बर्बादी से बचाकर कहने लायक उपलब्धियों में नियोजित कर लिया। अस्त-व्यस्त और अनियमित व्यक्ति यों साधारण ढील पोल के दोषी ठहराए जाते हैं, पर बारीकी से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे लगभग आधी जिन्दगी जितना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते है जिसका यदि क्रमबद्ध उपयोग हो सका होता तो प्रगति की कितनी ही कहने लायक उपलब्धियाँ सामने आती। यदि एक घण्टा रोज कोई व्यक्ति उपयोगी अध्ययन में लगाता रहे तो कुछ ही समय में वह ऐसा ज्ञानवान बन सकता है जिसकी विद्या बुद्धि पर स्पर्धा की जा सके।

स्वच्छता और व्यवस्था ऐसा गुण है जिसमें किसी की कुरुचि का सहज ही परिचय प्राप्त किया जा सकता है। गन्दगी से घृणा और स्वच्छता से प्रेम रखा जाय तो वह उत्साह सहज ही बना रहेगा जिसके आधार पर शरीर, वस्त्र, फर्नीचर, पुस्तकें, स्टेशनरी, बर्तन, फर्श, चित्र, साइकिल आदि सम्बन्धित सामान को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखा जा सके। सफाई की यह आदत हिसाब-किताब पर, लेन-देन पर भी लागू होती है। घर, दफ्तर को, बच्चों को, वस्तुओं को साफ-सुथरा रखकर न केवल आगन्तुकों को अपनी सुरुचि का परिचय देते हैं वरन् अपने स्वभाव में अनोखी विशेषता उत्पन्न करते है।

जिसे ईमानदारी का जीवन जीना हो उसे पूर्व तैयारी मितव्ययी रहने की, सादा जीवन जीने की करनी चाहिए। जो कम में गुजारा करना जानता है उसी के लिए यह सम्भव है कि कम आमदनी से सन्तोष पूर्वक निर्वाह कर ले। ईमानदारी से आय सीमित रहती है, उतनी नहीं हो सकती जितनी बेईमानी अपनाने से। ऐसी दशा में यदि श्रेष्ठ जीवन जीना हो तो अपने खर्च जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक घटाने चाहिए। जिसने खर्च बढ़ा रखे हैं उन्हें उनकी पूर्ति के लिए बेईमानी का रास्ता ही अपनाना पड़ेगा। फिजूलखर्ची यों निर्दोष भी मालूम पड़ सकती है। अपना कमाना अपना उड़ाना इसमें किसी को क्या ऐतराज होना चाहिए। परन्तु बात इतनी सरल नहीं है। प्रकारान्तर से फिजूलखर्ची बेईमानी अपनाने के लिए बाध्य करती है। अनियन्त्रित खर्च करने की आदत बढ़ती ही जाती है और वह देखते-देखते उस सीमा को छूती है जहाँ न्यायोचित आमदनी कम पड़े और घटोत्तरी की पूर्ति के लिए बेईमानी पर उतारू होना पड़े। जिसने आमदनी और खर्च का तालमेल बिठाना सीखा है वही कुछ सत्कर्मों के लिए भी बचा सकता है। अन्यथा सदुद्देश्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य भी आर्थिक तंगी के कारण रुके पड़े रहेंगे। सादगी की जीवनचर्या सस्ती पड़ती है, कम समय लेती है। अस्तु मितव्ययी व्यक्ति के लिए ही यह सम्भव होगा कि वह आदर्शवादी जीवन जी सके और परमार्थ की दिशा में कुछ कहने लायक योगदान दे सके।

दूसरों का आदर करना, सद्व्यवहार का अभ्यस्त होना, सज्जनोचित शिष्टाचार बरतना, मधुर वचन बोलना यह व्यक्तित्व की गरिमा बढ़ाने वाली साधना है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे दूसरों के साथ मिल-जुल कर रहना पड़ता है। स्नेह सौहार्द का वातावरण तभी बना रह सकता है जब दूसरों के साथ शालीनता का व्यवहार किया जाय। अहंकारी व्यक्ति दूसरों को तुच्छ समझते है और कटु वचन एवं दुर्व्यवहार पर उतारू रहते हैं। उद्धत आतंकवादी उच्छृंखल आचरण करके कोई अपने अहंकार की पूर्ति होने की बात सोच सकता है, पर वस्तुतः वह हर किसी की दृष्टि में अपना सम्मान खोता है। स्तर गिराता है और घृणास्पद बनता है। उद्धत आचरण से सम्भव है सामने वाला चुप ही रहे, परन्तु उसका स्नेह सहयोग तो चला ही जाता है। इस प्रकार क्रोधी, अशिष्ट, उच्छृंखल व्यक्ति अपना नाम बढ़ाने की बात सोचता है, पर वस्तुतः उसे निरन्तर खोता चला जाता है। कुसमय में अपने को एकाकी अनुभव करता है। स्नेह सहयोग से वंचित होकर वह भूत बेताल की अशान्त अतृप्त मनःस्थिति में जा फँसता है।

ईर्ष्या, द्वेष, झूठ, छल, प्रपंच, दुरभिसन्धि, षड्यन्त्र, शोषण, अपहरण, आक्रमणों की आसुरी मनोवृत्ति अपना कर मनुष्य अपराधी आचरण ही करता हैं उसकी गतिविधियाँ ऐसी हो जाती हैं, जिससे मनुष्य सबकी आँखों में गिरता है यहाँ तक कि अपनी आँखों में भी। धन या पद पाने की अपेक्षा लोकश्रद्धा प्राप्त करना अधिक मूल्यवान है। दुष्ट-दुराचारी बनकर कोई यदि साधन सम्पन्न बन जाय तो यही कहा जाना चाहिए कि उसने खोया बहुत पाया कम। व्यसनी, व्यभिचारी, आलसी और प्रमादी, आतंकवादी, अत्याचारी, उस सुखद उपलब्धि से वंचित ही रहते है जिसे पाने के लिए यह कुमार्ग अपनाया। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का आश्रय लेकर मनुष्य दूसरों की जितनी हानि करता है उसकी तुलना में अपनी असंख्य गुनी हानि कर लेता है।

समय को नियमितता के बन्धनों में बाँधा जाना चाहिए। चौबीसों घण्टे की निर्धारित दिनचर्या बनानी चाहिए और उस पर तत्परतापूर्वक चलते जाना चाहिए। समय ही सबसे बड़ी सम्पदा है, उसका एक क्षण भी बर्बाद नहीं होना चाहिये। शरीर की क्षमता के अनुरूप श्रम किया जाय, काम का स्तर और सिलसिला बदलते ही रहा जाय ताकि थकान नहीं चढ़ेगी। हर काम में दिलचस्पी पैदा की जाय, उसे खेल समझते हुए पूरे मनोयोग के साथ करना चाहिए। यह आदत पड़ जाय तो दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी बिना थके बहुत काम करता रह सकता है। आहार-विहार विवेकपूर्ण और क्रमबद्ध होने चाहिए। समयानुसार काम बदलने से विश्राम और विनोद का उद्देश्य पूरा हो सकता है। सामने प्रस्तुत कामों को दिलचस्पी और मनोयोग के साथ करने का अभ्यास करना मनोनिग्रह का सर्वोत्तम योगाभ्यास है। उस साधना में निष्णात व्यक्ति हाथों हाथ क्रिया कुशलता के अभिवर्धन और सफलताओं के वरण का उत्साहवर्द्धक लाभ प्राप्त करता है।

मन को, मस्तिष्क को अस्त-व्यस्त उड़ने की छूट नहीं देनी चाहिए। शरीर की तरह उसे भी क्रमबद्ध और उपयोगी चिन्तन के लिए सधाया जाना चाहिए। कुसंस्कारी मन बनैले सुअर की तरह कहीं भी किधर भी दौड़ लगाता रहता है शरीर भले ही विश्राम करे पर मन तो कुछ सोचेगा ही। यह सोचना भी शारीरिक श्रम की तरह ही उत्पादक होता है। समय की बर्बादी की तरह ही अनुपयोगी और निरर्थक चिन्तन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट करता है। दुष्ट चिन्तन तो आग से खेलने की तरह है। आज परिस्थितियों में जो सम्भव नहीं वैसी आकाश पाताल जैसी कल्पनाएँ करते रहने, योजनाएँ बनाते रहने से मनुष्य अव्यावहारिक बनता जाता है। व्यभिचार, आक्रमण, षड्यन्त्र जैसी कल्पनाएँ करते रहने से मन निरन्तर कलुषित होता चला जाता है और उपयोगी योजनायें बनाने के लिए गहराई तक प्रवेश कर सकना उसके लिए सम्भव नहीं रहता। उद्धत आचरण शरीर को नष्ट करते हैं और उद्धत विचार मन मस्तिष्क का सत्यानाश करके रख देते हैं। मनोनिग्रह का योगाभ्यास में बहुत माहात्म्य गाया गया है। उस चित्त निरोध का व्यावहारिक स्वरूप यही है कि जिस दिशा को हम उपयोगी मानते हैं और जिस सन्दर्भ में सोचना आवश्यक समझते हैं उसी निर्देश पर हमारी विचारणा गतिशील रहे। वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और योगाभ्यासियों में यही विशेषता होती है कि वे अपने मस्तिष्क को निर्धारित प्रयोजन पर ही लगाये रहते है। अस्त-व्यस्त उड़ानों में उसे तनिक भी नहीं भटकने देते। यह आदत हमें डालनी चाहिए कि चिन्तन का क्षेत्र निर्धारित करके उस पर मन को केन्द्रित करने की आदत यदि डाली जा सके तो मस्तिष्कीय प्रखरता का, मनोबल सम्पादन का द्वार खुल जायेगा और मन्दबुद्धि जैसी मस्तिष्कीय बनावट रहते हुए भी अपने चिन्तन क्षेत्र में निष्णात बन जायेंगे। समय की दिनचर्या में बाँधकर शरीर का श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है। मन का महत्त्व शरीर से कम नहीं अधिक है। उसका भटकाव रोककर उसे उपयोगी निर्दिष्ट चिन्तन में यदि सधाया जाना सम्भव हो सके तो मस्तिष्क की विचारशक्ति से बहुमूल्य लाभ उठाया जा सकता है। समुन्नत जीवन विकास में यह शरीर और मन पर बन्धन लगाने की साधना सही रूप से तप तितीक्षा का, व्रत संयम का उच्चस्तरीय लाभ दे सकती है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ मोटे सुझाव संकेत भर हैं। विचार करने पर अनेकों प्रसंग ऐसे सामने आते हैं जिनमें विधि निषेध की आवश्यकता पड़ती है। क्या छोड़ना, क्या अपनाना इसका महत्त्वपूर्ण निर्णय करना पड़ता है। यह हर दिन प्रस्तुत परिस्थितियों और आवश्यकताओं को देखते हुए किया जाना चाहिए। यह मान्यता हृदयंगम की जानी चाहिए कि आत्म-निर्माण का महान लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अवांछनीयताओं का क्रमशः परित्याग करना ही पड़ेगा और उपयोगी गुण, कर्म, स्वभाव को व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने का साहसपूर्ण प्रयास करना ही होगा। विधि और निषेध के दो कदम क्रमबद्ध रूप से निरन्तर उठाते चलने की व्रतशीलता ही हमें आत्मिक प्रगति के उच्च लक्ष्य तक पहुँचा सकने में समर्थ हो सकती है।

आत्म-निर्माण के मूलभूत चार दार्शनिक सिद्धांतों पर हर दिन बहुत गम्भीरता के साथ बहुत देर तक मनन-चिन्तन करना चाहिए। जब भी समय मिले चार तथ्यों को चार वेदों का सार तत्त्व मानकर समझना और हृदयंगम करना चाहिए। यह तथ्य जितनी गहराई तक अन्तःकरण में प्रवेश कर सकेंगे, प्रतिष्ठित हो सकेंगे, उसी अनुपात से आत्म-निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनता चला जायेगा।

आत्म-दर्शन का प्रथम तथ्य है आत्मा को परमात्मा का परम पवित्र अंश मानना और शरीर एवं मन को उससे सर्वथा भिन्न मात्र वाहन अथवा औजार भर समझना। शरीर और आत्मा के स्वार्थों का स्पष्ट वर्गीकरण करना। काया के लिए उससे सम्बन्धित पदार्थों एवं शक्तियों के लिए हम किस सीमा तक क्या करते हैं, इसकी लक्ष्मण रेखा निर्धारित करना और आत्मा के स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी क्षमताओं का एक बड़ा अंश बचाना, उसे आत्म कल्याण के प्रयोजनों में लगाना।

दूसरा आध्यात्मिक तथ्य है-मानव जीवन को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार मानना। इसे लोकमंगल के लिए दी हुई परम पवित्र अमानत स्वीकार करना। स्पष्ट है कि प्राणिमात्र को ईश्वर की सन्तान मानना। निष्पक्ष न्यायकारी पिता समान रूप से ही अपने सब बालकों को अनुदान देता है। मनुष्य को इतने सुविधा साधन वह विलासिता और अहन्ता की पूर्ति के लिए देकर पक्षपाती और अन्यायी नहीं बन सकता। जो मिला वह खजांची के पास रहने वाली बैंक अमानत की तरह है। संसार को सुखी समुन्नत बनाने के लिए ही मनुष्य को विभिन्न सुविधाएँ मिली हैं। उनमें से निर्वाह के लिए न्यूनतम भाग अपने लिये रखकर शेष को लोकमंगल के लिए ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान को अधिक सुरम्य सुविकसित बनाने के लिए खर्च किया जाना चाहिए।

तीसरा महासत्य है-अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचाने का जीवन लक्ष्य प्राप्त करना। दोष-दुर्गुणों का निराकरण करते चलने और गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से ही ईश्वर और जीव के बीच की खाई पट सकती है। इन्हीं दो कदमों को साहस और श्रद्धा के साथ अनवरत रूप से उठाते रहने पर जीवन लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अपनाकर ही आत्मा को परमात्मा बनने और नर को नारायण स्तर तक पहुँचाने का अवसर मिल सकता है। स्वर्ग, मुक्ति, आत्मदर्शन, ईश्वर प्राप्ति आदि इसी अपूर्णता के निराकरण का काम है।

चौथा महासत्य है-इस विश्व ब्रह्माण्ड को ईश्वर की साकार प्रतिमा मानना। श्रम सीकरों और श्रद्धा सद्भावना के अमृत जल से उसका अभिषेक करने की तप साधना करना। दूसरों के दुःख बटाने और अपने सुख बाँटने की सहृदयता विकसित करना। आत्मीयता का अधिकाधिक विस्तार करना। अपनेपन को शरीर परिवार तक सीमित न रहने देकर उसे विश्व सम्पदा मानना और अपने कर्तव्यों को छोटे दायरे में थोड़े लोगों तक सीमित न रख कर अधिकाधिक व्यापक बनाना।

यह चार सत्य-चार तथ्य ही समस्त अध्यात्म विज्ञान के, साधना विधान के केन्द्र बिन्दु हैं। चार वेदों का सार तत्व यहीं है। इन्हीं महासत्यों को हृदयंगम करने और उन्हें व्यवहार में उतारने से परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। जीवनोद्देश्य पूर्ण होता है। इन महासत्यों को जितनी श्रद्धा और जागरूकता के साथ अपनाया जायेगा आत्म-निर्माण उतना ही सरल और सफल होता चला जायेगा। युग निर्माण की दिशा में बढ़ते हुए हमें सर्वप्रथम आत्म-निर्माण पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

24.    आस्तिकता और सज्जनता की रीति-नीति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


मनुष्य मशीन नहीं है जिसे ईंधन, चिकनाई और सफाई की आवश्यकता पूरी करके सन्तुष्ट किया जा सके। रोटी कपड़ा और मकान होने से ही उसका काम नहीं चल सकता। आहार, निद्रा का प्रबन्ध कर देने से जिन्दा तो रहा जा सकता है, पर जीवन को पल्लवित नहीं किया जा सकता है। इसके लिए कुछ और भी चाहिए। निर्वाह साधनों में उसे निश्चिन्तता का आश्वासन और आक्रान्ताओं से बचे रहने का संरक्षण चाहिए। उसे यश, सम्मान एवं वर्चस्व के प्रकटीकरण का अवसर चाहिए। सामाजिक शान्ति और सद्व्यवहार की उसे अपेक्षा है। कला और सौन्दर्य के स्पर्श से जो गुदगुदी उत्पन्न होती है, प्रेम सम्वेदनाओं से जो उल्लास उभरता है वह भी उसकी आन्तरिक आवश्यकताओं का एक अंग है। उत्पादन के लिए श्रम न केवल शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता पूरी करता है, क्षुधा निवारण के साधन जुटाता है और बुद्धि की प्रखरता के अनेकों आधार खड़े करता है। ममत्व का विस्तार व्यक्तियों तथा वस्तुओं में करने से उसे आत्मविस्तार की अनुभूति होती है। इस प्रकार के अवसर न मिलें और किसी प्रकार गुजारा हो सके तो उसे बन्दी जीवन के अतिरिक्त और कुछ न कहा जा सकेगा। जीने को तो लोग एकान्त कारावासों में भी लम्बी उमर गुजार देते है। पर नीरस और निरानन्द परिस्थितियों में रहने वाली चेतना ऊब, खीज़ और बेचैनी सी अनुभव करती रहेगी। भूखा पेट सारे शरीर को बेचैन करता है और भूखा अन्तस् ऐसे विद्रोह पर उतारू हो जाता है जिसे आत्म हत्या के समतुल्य स्थिति का आँका जा सके।

प्रगति की लम्बी मंजिल पार करते हुए मनुष्य ने जो बहुमूल्य उपलब्धि अर्जित की है उसे एक शब्द में सभ्यता कहना उचित होगा। उसे प्राप्त करने में उसने समुचित मूल्य चुकाया है। प्राणधारी की सामान्य प्रवृत्तियाँ इन्सटिन्क्टस् उसके साथ ही जन्म जात रूप में मिली थी। उनके यथावत बनी रहने पर वह पशु वर्ग से ऊँचा नहीं उठ सकता। वे उसे सामाजिक सहयोग और चिन्तन के परिष्कार का अवसर ही नहीं मिलने दे सकती थी। सभ्यता ही है जिसने उसे आदर्श अपनाने और मर्यादा पालन के लिए प्रोत्साहित किया। यही था वह सभ्यता का अवलम्बन जिसके सहारे आदिमकाल के नर वानर को आज के समुन्नत मानव के स्तर तक पहुँचने का श्रेय प्राप्त हुआ है।

भीतर से क्रोध उठने पर भी उसे पी जाना, यौन स्वेच्छाचार को दाम्पत्य मर्यादा में सीमाबद्ध करना, लाभदायक अवसर आने पर भी उन्हें नीति-अनीति का विश्लेषण करने के उपरान्त ही स्वीकार करना, आविष्कारों का कर्तव्यों के पक्ष में त्याग करना, स्वयं भूखे रहकर दूसरों को खिला देना जैसे अनेकों विशिष्ट आचरण सभ्यता की देन है। नर वानर के लिए इतनी शालीनता प्रस्तुत कर सकना सम्भव न था। वह आत्म निरीक्षण और आत्म निर्माण की स्थिति में था ही नहीं। आदिम काल में नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ ही उस पर छाई रहती थी। सभ्यता ने उसे इतना विवेक और साहस दिया है कि उन जन्मजात प्रवृत्तियों की न केवल समीक्षा ही कर सके वरन् उन्हें बदलने, सुधारने और परिष्कृत करने का साहस दिखा सके ।।

यह तो प्रवृत्ति परक नियन्त्रण और परिष्कार की बात हुई। सभ्यता ने चिन्तन को सीमाबद्ध, क्रमबद्ध एवं दिशाबद्ध भी किया है। कल्पना शक्ति, तुलनात्मक समीक्षा दृष्टि, दूरगामी परिणामों की अनुभूति, समाज निष्ठा, चरित्र निष्ठा जैसी विशेषताओं को अति मानस का विकास कह सकते हैं। विकास का यही वह केन्द्र बिन्दु है जहाँ से पशु और मनुष्य के बीच मौलिक अन्तर आरम्भ होता है। व्यक्तित्व की अनुभूति को ही आत्मा कहते है। निकृष्ट स्तर के जीव क्रिया तो बहुत करते है, पर अपने आपे के सम्बन्ध में निजी तौर से कुछ सोच नहीं पाते। प्रकृति प्रेरणा ही उनकी निजी इच्छा होती है। इसमें उनका अपना कोई हाथ नहीं होता। मनुष्य की स्थिति इससे भिन्न है इससे वह शरीर के अतिरिक्त एक पृथक चेतना के रूप में न केवल आत्मानुभूति करता है वरन् उसके विकसित करने में भी यत्नपूर्वक प्रयास करता है। दर्शनशास्त्र और आत्म विद्या का विशालकाय कलेवर आत्म विश्लेषण एवं आत्मोत्कर्ष की दिशा धारा निर्धारित करने के लिए ही विनिर्मित हुआ है। आग जलाने, पहिये का उपयोग जानने, नोकदार उपकरणों का प्रयोग समझने से मानवी प्रगति में असाधारण योगदान मिला समझा जाता है, पर वास्तविकता यह है कि वह श्रेय सभ्यता की कल्पना और उसका स्वरूप निर्धारित करने की सफलता को ही दिया जा सकता है। बोलना, लिखना और हँसना जैसे दिव्य अनुदान उसने सभ्यता की साधना करके ही प्राप्त किये है। कृषि, पशु पालन, वस्त्र, वाहन, वस्तु विनिमय, परिवार, साधन, शिक्षा चिकित्सा, स्वच्छता जैसी उपलब्धियाँ शारीरिक अथवा पदार्थ परक नहीं, विशुद्ध रूप से सुविकसित चिन्तन की ही प्रतिक्रिया है। इन्हें सभ्यता की प्रगति के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता।

शरीर निर्वाह एवं मनःतोष ही अब जीवनयापन के आधार नहीं रह गये है। व्यक्तित्व इन सबसे बड़ी इकाई बन चला है। अब अहं का भी एक तथ्य है और उसकी तुष्टि के लिए इतना करना पड़ता है जितना शरीर एवं मन दोनों को संतोष देने के लिए किया जाता है। आत्म परितोष के लिए विकृत रीति-नीति अपनाई गई या परिष्कृत आधार अपनाया गया यह आगे का प्रश्न है। बात वहाँ से आरम्भ होती है जहाँ शरीर और मन को भी पीछे धकेल कर दोनों पर कष्टसाध्य अंकुश रखकर आत्म गौरव के लिए कुछ किया जाता है। आत्म सत्ता का अपना परिचय है। इसी को आत्मा कहा गया है। शरीर शास्त्र मनःशास्त्र का अपना विस्तार और अपना उपयोग है। आत्म शास्त्र अपना वर्चस्व इन दोनों से ऊपर सिद्ध कर रहा है। कर्म और ज्ञान की क्षमता सर्वविदित है पर इच्छाएँ, भावनाएँ अपनी सामर्थ्य उन दोनों से ऊपर सिद्ध कर रही है। यहाँ नैसर्गिक प्रवृत्तियों की प्रेरणा की ओर नहीं भाव सम्वेदनाओं की ओर इंगित किया जा रहा है। आत्मा का स्वरूप और कार्य क्षेत्र कितना अधिक बढ़ गया है इसे हम स्पष्ट देखते है। अहं को विकृत अथवा परिष्कृत आधार पर पूरा करने के लिए जन साधारण को कितना कठिन प्रयास करना पड़ता है, इसे कौन नहीं जानता? आत्म चेतना का स्वरूप निर्धारण करना और उसकी पूर्ति के नये आधार खड़े करना वस्तुतः प्रकृत प्रवृत्तियों के समानान्तर एक नया विज्ञान खड़ा कर देने के समान है। अविकसित जीवधारी इन उपलब्धियों से सर्वथा अपरिचित ही होते है। मानवी उपलब्धियों में भौतिक साधनों की लम्बी शृंखला सामने है, पर सभ्यता के विकास ने उसे जो आत्मा दी है और उसका सुविस्तृत ढाँचा वरदान रूप में दिया उसने वस्तुतः मनुष्य को कृत कृत्य कर दिया है। किसी दिव्यलोक का निवासी बना दिया है। दुनिया यही है जिसमें कृमि कीटक निवास निर्वाह करते है। पर मनुष्य कला, सम्वेदना, व्यवस्था, सम्पदा और वर्चस्व से भरे पूरे जिस लोक में रहता है वह अनोखा है। अविकसित जीवधारी भी यों इसी धरती पर रहते हैं, पर उनके और मनुष्य के लोक को भिन्न माना जाय तो इसमें अत्युक्ति जैसी कोई बात नहीं है।

शरीर और मन को सुविधा साधनों के उपार्जन, संग्रह एवं उपभोग में जो उत्साह रहता है, उसी ने अपने युग में व्यस्तता के चक्र घुमाने में अतिशय तीव्रता उत्पन्न की है। पर यदि गम्भीरता से देखा जाय तो नैतिक एवं अनैतिक दुस्साहसों के पीछे अहं के पोषण की दुर्दान्त लालसा काम करती दिखाई देगी। यदि यह न हो तो खाओ, पीओ, मौज करो के पशु प्रयोजन तो अति सरलता पूर्वक सम्पन्न होते है। अहं की सामर्थ्य जितनी बढ़ी-चढ़ी है उतनी ही भयंकर उसकी विकृति भी है। इस तथ्य को तत्त्वदर्शियों ने भुलाया नहीं है और उन्होंने सोते साँप को जगाने के साथ-साथ उसके विषैले दाँतों को कीलित करने के लिए कीलन मन्त्र के भी आविष्कार में उपेक्षा नहीं बरती है।

चेतना की प्रौढ़ता आत्मानुभूति के रूप में देखी जाती है उसका परितोष आत्म गौरव में होता है। विकृत चिन्तन उसका परितोष ध्वंस में देखता है। वह अपेक्षाकृत सरल है। एक बालक भी माचिस की तीली लेकर आग लगा सकता है और पूरे घर, गाँव को भस्म कर सकता है। आतंकवादी आये दिन ऐसे ही उत्पात खड़े करते है और ध्वंस के द्वारा अपनी विशिष्टता सिद्ध करते है। आततायी अपराध प्रायः अभाव पूर्ति के लिए नहीं अपने वर्चस्व और कौशल द्वारा दूसरों को आतंकित कर देने के लिए होते हैं। किसी इमारत को गिरा देना स्वल्प श्रम से ही संभव हो सकता है उसे कोई मूर्ख भी कर सकता है, पर निर्माण अति कठिन है। उसके लिए भावना, सूझ-बूझ, योग्यता एवं साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। यह कठिन है। इसलिए सृजनात्मक गतिविधियाँ अपनाकर आत्म गौरव का परिचय देना किसी किसी से ही बन पड़ता है। आतंकवाद अपनाकर ओछी सफलता प्राप्त करने के लालच पर अंकुश करना भी प्रखर आदर्शवादिता अपनाने वाले के लिए ही सम्भव हो सकता है। सभ्यता का लक्ष्य असुरता का, विकृतियों का अभिवर्धन नहीं, वरन् उस उत्कृष्टता का अनवरत अभिवर्धन है जिसे अपनाकर प्रगति की इतनी मञ्जिल पूरी हो सकी है।

आत्मानुभूति से लेकर आत्म गौरव तक का अनुदान देकर सभ्यता का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता वरन् वह अपूर्णता को पूर्णता में, अणु को विभु में परिणत करने के लिए अनवरत प्रयास करते हुए सतत संलग्न रही। उसने मनुष्य के सामने चरम उत्कृष्टता का लक्ष्य प्रस्तुत किया है। वह है परमात्मा। परमात्मा का विश्वास उसके अनुग्रह का उपार्जन और अन्ततः उसी के समतुल्य बनने की उत्कण्ठा का उत्पादन यही है ईश्वर भक्ति और उसकी प्राप्ति का वह चरम लक्ष्य, जिसकी पूर्ति के लिए उपासना एवं साधना के अनेकों विधि विधान विनिर्मित हुए है।

सृष्टि संचालक सत्ता का निरूपण, ब्रह्म के रूप में किया गया है। उसकी मान्यता के सन्दर्भ में विज्ञानवादियों और आत्मवादियों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। सृष्टि संतुलन इकॉलाजी सिद्धान्त सिद्ध करते है कि प्रकृति जड़ नहीं वरन् अत्यन्त दूरदर्शी और संतुलन बनाये रहने में आश्चर्यजनक रीति से क्रिया कुशल है। उसका ब्रह्माण्ड व्यापी कौशल इतना ही दूरदर्शितापूर्ण है, जितना कि कोई बुद्धिमत्ता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ अति मनुष्य हो सकता है। परमाणु संरचना और उसकी गतिविधियों का अतिसूक्ष्म निरीक्षण करने पर भी यही प्रतीत होता है कि विज्ञान के छात्रों द्वारा कही जाने वाली प्रकृति की जड़ता वस्तुतः विवेकशील चेतना के भी कान काटती है। अणु जगत में अन्धेरगर्दी नहीं चल रही है, वरन् आश्चर्यचकित करने वाली ऐसी सुव्यवस्था काम कर रही है जो उच्चस्तरीय विवेकशीलता के लिए ही सम्भव हो सकती है। ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान ’’ की स्थिति में सर्वत्र संव्याप्त विवेकशीलता को जड़ मानें या चेतन इस विवाद में न पड़े तो उसका अस्तित्व आस्तिक और नास्तिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मान्य हो सकता है। समष्टि ब्रह्म वर्चस्व को स्वीकार करने में शाब्दिक लड़ाई भले ही हो, पर उस विवाद में तथ्य कुछ नहीं ब्रह्म की सत्ता को सर्वमान्य घोषित किया जाय यह स्थिति दिन-दिन निकट ही आती चली जा रही है।

सभ्यता ने जो परमात्मा मनुष्य जाति को दिया है वह ब्रह्म से सम्बद्ध भले ही कहा जाय, पर उसकी संरचना एक प्रकार से स्वतन्त्र कहने में भी कोई संकोच नहीं माना जाना चाहिए। प्राणि मात्र में संव्याप्त चेतना के साथ आत्मिक एकता आत्मवत् सर्व भूतेषु की मान्यता करुणा, ममता, सहकारिता उदारता, सेवा जैसी परमार्थ प्रवृत्तियों को जगाती है। ईश्वरवाद का यह ऐसा अनुदान है जो विकृत अहं के द्वारा उत्पन्न होने वाले आततायी उत्पातों पर बहुत हद तक अंकुश लगाता है। पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, ईश्वरीय न्याय, कर्मफल की देर सबेर में सुनिश्चितता जैसे सिद्धान्त ईश्वरवाद के अविच्छिन्न अंग हैं। ईश्वर का स्वरूप निर्धारण करते हुए सर्वव्यापी, घट-घट वासी सर्वदर्शी और साथ ही न्याय निष्ठ माना गया है। मनुष्य के ऊपर ईश्वरीय अनुशासन होने और उच्छृंखलता बरतने पर अदृश्य सत्ता द्वारा दंडित किये जाने की मान्यता ही आस्तिकता का मूलभूत सिद्धांत है। सभ्यता ने इस प्रकार के ईश्वर का सृजन करके मनुष्य समाज का भारी उपकार किया है। अदृश्य अंकुश की मान्यता हटा देने पर विकृत अहं के उत्पातों का चरम सीमा तक जा पहुँचने का खतरा है। समाज व्यवस्था में अपराध की न्यूनतम सजा गोली हो तो बात दूसरी है, अन्यथा सुधारवादी उदारता की न्याय व्यवस्था से दुष्टता की बहुत ही स्वल्प मात्रा में रोकथाम की जा सकती है। अदृश्य अंकुश की मान्यता का प्रतिफल शासकीय अपराध नियन्त्रण व्यवस्था से भी असंख्य गुना प्रयोजन पूरा करता है। इस मान्यता के रहते हुए भी जब सामाजिक सुव्यवस्था और शान्ति में इतना व्यवधान खड़ा है तब उसके सर्वथा अभाव में तो स्थिति एक प्रकार से असह्य ही हो जायेगी।

भक्ति भावना में प्रेम तत्व की अभिवृद्धि मनोवैज्ञानिक साधना है। यह सद्भावना जितनी मात्रा में उपार्जित की जा सकेगी उतना ही मनुष्य सज्जन, सहृदय, उदार, सेवा भावी बनता चला जायेगा और न केवल स्वयं आन्तरिक उल्लास का अनुभव करेगा वरन् सम्पर्क क्षेत्र में भी शालीनता की प्रभावी शक्ति से स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करेगा। तत्काल कर्मफल न मिलने से अधीर होकर लोग दुष्कर्म करने पर उतारू होते और सत्कर्मों में निराश होते देखे गये है। इस विलम्ब के कारण आस्तिक को अधीर नहीं होना पड़ता और सज्जनता की नीति शान्ति पूर्वक अपनाये रहता है।

ऐसे अगणित लाभ आस्तिकता के है। एकांकी आदर्शवादिता अपनाये रहने से ईश्वर विश्वास के कारण असाधारण साहस प्राप्त होता है। सर्वत्र परमेश्वर की सत्ता संव्याप्त है, इस मान्यता से चिन्तन को सत्यं शिवं सुन्दरं की अनेकों कलात्मक भाव सम्वेदना के रसास्वादन का अवसर मिलता है।

आज सभ्यता के प्रति अनास्था उत्पन्न हो रही है। अवज्ञा और उच्छृंखलता को शौर्य, साहस एवं प्रगतिशीलता का चिह्न माना जाने लगा है। नैतिक मर्यादाएँ उपहासास्पद और सामाजिक मर्यादाएँ अव्यावहारिक कही जाने लगी हैं। फलतः उद्धत आचरण और विकृत चिन्तन के प्रति रोष प्रकट करने के स्थान पर उन्हें सहन करने तथा कभी-कभी तो प्रोत्साहन करने तक की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह सब थोड़ी ही मात्रा में क्यों न हो, है भयंकर ही। छोटी चिनगारी भी कभी व्यापक विध्वंस खड़ा कर सकती है। सभ्यता के प्रति अनास्था बढ़ती गई और उस खतरे को न समझा गया तो इसकी प्रतिक्रिया वैसी ही होगी जैसी कि अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

25.    

26.    हमारे अन्तः का देवासुर संग्राम
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


यह संसार सत् और तम से मिलकर बना है। तम अर्थात् जड़, चेतन अर्थात् सत्। जड़ यों निर्जीव दीखता भर है, पर उसका आकर्षण कम नहीं। यदि वह अनाकर्षक, असुन्दर, अनुपयोगी रहा होता तो चेतन को उसके प्रति रुचि ही क्या होती और क्यों होती? सत् और तम का संयोग यथावत रहे, इसी दृष्टि से नियति ने दोनों को परस्पर जोड़ दिया है। प्राणी का शरीर जड़ पंचतत्वों से बना है और उसमें प्राण सत्ता चेतना रूप में विद्यमान है। यह जड़-चेतन का संयोग ही तो है, जिसके कारण दोनों परस्पर मिल-जुलकर रहते और जीवन रथ को आगे चलाते हैं। दोनों का दोनों के प्रति आकर्षण और दोनों का दोनों से सहयोग। यह सहयोग की सौम्य अवस्था हुई।

प्रकृति की सुन्दरता और उपयोगिता सर्वविदित है। तारों से जगमगाता नील आकाश, सूर्य-चन्द्र का उदय-अस्त, शीतल वायु, ऋतु परिवर्तन, प्रातः-सायंकाल की रंग-बिरंगी झाँकी, बादल, वर्षा, बिजली आदि के कारण अपना ऊर्ध्वलोक कितना सुन्दर प्रतीत होता है! धरती पर पर्वत, वन, नदी, सरोवर, समुद्र, हरीतिमा, पुष्प उद्यान आदि कितने सुन्दर लगते हैं! यदि यहाँ कुछ भी आकर्षण न होता तो सम्भवतः जीवधारी को जीवन से कुछ भी प्यार न रहा होता।

नियति की इच्छा है कि जड़-चेतन परस्पर सहयोग पूर्वक रहें और एक दूसरे के लिए उपयोगी सिद्ध हो। नर और मादा के बीच काम आकर्षण की एक ऐसी सरस शृंखला जुड़ी हुई है, जिसके कारण वे निकट आते और घनिष्ठता के सूत्र में बँधते हैं। यदि यह सरसता सूत्र न रहा होता तो नर और मादा के बीच न तो आकर्षण रहता और न सन्तानोत्पादन का अतीव झंझट भरा उत्तरदायित्व वहन करने के लिए कोई तैयार होता। जड़ और चेतन के बीच में सुन्दरता, उपयोगिता एवं स्पर्शजन्य सरसता के ऐसे ही सूत्र जुड़े हुए हैं जैसे नर और मादा के बीच।

सृष्टि की इस औचित्य प्रक्रिया से किसी को कोई शिकायत नहीं हो सकती। यदि सन्तुलन बना रहे तो गड़बड़ी का कोई कारण नहीं। अव्यवस्था तो असन्तुलन से फैलती है। प्राणी के दृष्टिकोण में जब विकृति आती है तो औचित्य एवं उपयोग का तथ्य भूल जाता है और अतिवाद की नीति अपनाने लगता है। संग्रह, आधिपत्य और उपभोग को मर्यादा के अन्तर्गत रखा जाय तो जड़-चेतन का पारस्परिक संयोग हर दृष्टि से हर किसी के लिए सुखद हो सकता है। अमर्यादित मात्रा में चाहने से साम्य वितरण में गड़बड़ी फैलती है। एक जगह अधिक संग्रह दूसरी जगह अभाव की स्थिति उत्पन्न करेगा। यह प्रक्रिया अवांछनीय है। प्रकृति इसको सन्तुलित करने की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। इसी का नाम देवासुर संग्राम है।

अनगढ़ मनुष्य प्रकृति के साधनों पर व्यक्तिगत रूप से अनावश्यक मात्रा में आधिपत्य जमाता है। परिग्रही, संग्रही, अमीर बनकर अपने अहंकार एवं बड़प्पन का आतंक दूसरों पर छोड़ना चाहता है। इस ललक का नाम तृष्णा है।

दूसरा आकर्षण शरीरगत है। शरीर में कुछ संवेदनशील अवयव ऐसे बने हैं जिन्हें प्रकृति की अमुक स्थिति के साथ सम्पर्क बनाने में विचित्र प्रकार की सरस संवेदना अनुभव होती है। जीभ को खट्टे, मीठे, नमकीन, चरपरे पदार्थ विशेष रूप से सुहाते हैं। जननेन्द्रिय को रतिकर्म में असाधारण रस आता है। अनगढ़ मनुष्य इनकी असीम मात्रा चाहता है और मर्यादाएँ तोड़कर शहद पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह उसी में लिपटकर संकटग्रस्त होता है।

सीमित, सन्तुलित और विवेकपूर्ण स्थिति में औचित्य का ध्यान रखते हुए इन्द्रिय सुखों का सन्तुलित उपभोग लाभदायक सिद्ध होता है और उत्साह बढ़ाता है। शरीर के बाहर की वस्तुओं का सम्पर्क भी अमुक प्रयोजन के लिए अमुक मात्रा में उत्पादन एवं उपभोग किया जा सकता है। किन्तु जब सन्तुलन बिगड़ता है और अतिवाद अपनाया जाता है तो उसकी हानिकारक प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए विज्ञ पुरुष उस असंतुलन की भर्त्सना करते हैं। वस्तुओं के अनावश्यक संग्रह को ‘तृष्णा’ और इन्द्रिय भोगों की लिप्सा को ‘वासना’ कहते हैं। इन दोनों से ही व्यक्ति और समाज की हानि होती है, इसलिए इस अतिवाद को दूरदर्शियों ने हेय एवं निन्दनीय, अवांछनीय एवं त्याज्य ठहराया है। इसी को असुरता भी कहा गया है। दैत्य-दानव इसी दुष्प्रवृत्ति के प्रतीक प्रतिनिधि होते हैं।

असुरता आक्रमणकारी और आतंकवादी होती है। वह अपने विस्तार के लिए प्रयत्न करती है और आग की तरह जो भी उसकी पकड़ में आता है उसे आकार विस्तार के लिए जकड़ लेती है। असुरता के अतिरिक्त जो बचता है, वह देव है। सत और तम के, जड़ और चेतन के समन्वय से ही यह संसार बना है। रजोगुण तो इन दोनों का वैसा ही समन्वय है, जैसे रात्रि और दिन के समन्वय से बना सन्ध्याकाल।

असुरता का आक्रमण देवत्व पर ही होता है। असुरता की वृद्धि के लिए देवत्व ही ईंधन हो सकता है। रात, दिन को खाकर विकसित होती है और दिन, रात को परास्त करके अपना वर्चस्व जमाता है। असुरता की वृद्धि देवत्व को उदरस्थ करने से ही सम्भव हो सकती है। यही असुरों को देवताओं पर आक्रमण करने, पुराण वर्णित अलंकारिता कथा-गाथाओं की पृष्ठभूमि है।

देवता आत्मरक्षा के लिए लड़ते तो हैं, पर वे उपयुक्त पोषण प्राप्त न कर सकने के कारण दुर्बल बने रहते हैं। प्राथमिक आक्रमण में वे हारते हैं। स्वभावतः देवत्व दुर्बल नहीं है, पर वह असुरता की तुलना में बहुधा दुर्बल पड़ता है। इसके दो कारण हैं-असुरता के संस्कार जीव के साथ निम्न योनियों से जुड़े आते हैं और वर्तमान वातावरण में भी उन्हीं का बाहुल्य छाया होता है। दैनिक अभ्यास में भी वे ही प्रवृत्तियाँ काम आती हैं। अस्तु, पर्याप्त खाद, पानी पाकर वे परिपुष्ट होती रहती हैं और अपनी क्षुधा बुझाने के लिए देवत्व पर, मानवी मर्यादाओं पर ही हमला बोलती हैं। आग को बढ़ने के लिए ईंधन तो चाहिए ही। इसके लिए उस दावानल को वन प्रदेश में उगी हुई सूखी-गीली वनस्पति को ही अपनी लपेट में लेना पड़ता है।

देवत्व भी चुपचाप उदरस्थ नहीं हो जाता। आत्मरक्षा की लड़ाई उसे भी लड़नी पड़ती है। आदर्शवाद भी जीवित रहना चाहता है। अस्तु, विरोध-विद्रोह तो वह भी करता है। कम से कम मनुष्य की अन्तःभूमिका में अन्तर्द्वन्द्व के रूप में तो उसका रोष-आक्रोश एवं संघर्ष दृष्टिगोचर होता ही है। असुरता के सम्मुख नितान्त निष्क्रिय आत्मसमर्पण नहीं हो सकता। देवत्व हारता तो है, पर उसका प्रतिरोध किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। आत्मचेतना के साथ जुड़े हुए मानवी आदर्श सर्वथा नष्ट नहीं हो सकते।

देवत्व का तात्त्विक स्वरूप है-व्यापकता; एक को बहुत में देखने की सद्भाव भरी सत्प्रवृत्ति। वासनात्मक अतिवाद के कारण वाले शारीरिक और मानसिक विनाश की अपरिमित क्षति देव चक्षुओं से स्पष्ट दीख पड़ती है। देव मानस सोचता है कि अपने श्रम, समय, मनोयोग, प्रभाव, वर्चस्व एवं धन का लाभ यदि संकीर्ण स्वार्थपरता के क्षेत्र से बाहर तक जाने दिया जाय, तो उससे कितने बड़े परिमाण में प्रयोजन पूरे हो सकते हैं। यह तुलनात्मक विचार करते ही देवमानव को यही सूझ सूझती है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई उपलब्धियों का उपभोग जीवन क्रम को आदर्श एवं अनुकरणीय बनाने में किया जाय।

असुरत्व और देवत्व में निरन्तर संघर्ष इसलिए होता रहा है कि जीवन सम्पदा पर अधिकार जमाने के लिए दोनों की ही प्रबल चेष्टा रहती है। देवत्व की माँग यह है कि दिव्य जीवन जिया जाय; अपने आचरण अनुकरणीय रहें। असुरता तात्कालिक वासना और तृष्णा की तृप्ति चाहती है। अधिकाधिक इन्द्रिय उपभोग की वासना लिप्सा हर घड़ी छाई रहती है। उसी की उधेड़बुन का ताना-बाना सतत चलता रहता है।

देवत्व ऐसी क्षुद्रता की बालक्रीड़ा में सीमाबद्ध नहीं रहना चाहता। उसे बड़े प्रयोजन पूरे करने की आकांक्षा बेचैन किए रहती है। यही अन्तर्द्वन्द्व का देवासुर संग्राम है, जो प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य में अपने-अपने पक्ष समर्थन में निरत रहते हैं। भोजन करते समय वह खींचतान देखी जा सकती है। एक ओर स्वादिष्ट किन्तु गरिष्ठ हानिकारक पदार्थ और दूसरी ओर कम स्वाद के किन्तु सात्त्विक पदार्थ सामने होते हैं। दोनों ही थाली में सामने रखे हैं, किसे ग्रहण किया जाय? किसे छोड़ा जाय? इसमें भीतर ही भीतर सतत् अन्तर्द्वन्द्व चलता है।

धन उपार्जन में नीति-अनीति के, कर्म में श्रमशीलता और आलस्य-प्रमाद के, चिन्तन में विकारी एवं आदर्शवादी विचारों की, उपभोग में संयम-असंयम की, आचरण में आदर्शवादिता एवं धृष्टता की, दर्शन में आस्तिकता-नास्तिकता की आकांक्षाएँ हर क्षण मल्लयुद्ध करती हैं। यही देवासुर संग्राम है। परस्पर विरोधी दिशा में चल रही खींचतान में से कब किसकी विजय हुई, यह आत्मनिरीक्षण यदि सतर्कता पूर्वक जारी रखा जाय तो स्पष्ट हो जाएगा कि अन्तर्द्वन्द्व के महाभारत में किस पक्ष की सेना हारती और किसकी जीतती है।

व्यक्तिगत जीवन की विचारणा एवं क्रियाशीलता के क्षेत्र से आगे बढ़कर परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व के व्यापक क्षेत्र में भी यह देवासुर संग्राम चलता है। गरम युद्ध और शीत युद्ध के मोर्चे हर क्षेत्र में गड़े होते हैं। इन्हें मूक दर्शक की तरह तो कोई जीवित मृतक ही देखते रह सकते हैं। जीवन्त चेतना को किसी का पक्षधर बनना पड़ता है। जो नीति का पोषण नहीं करता वह परोक्ष रूप से अनीति का समर्थक है। सत्प्रवृत्तियों का समर्थन एवं सहयोग करना प्रत्यक्षतः देवपक्ष को विजयी बनाने का योगदान है। इसी प्रकार असुरता को सहन करने, उसके विरोध में मुँह तक न खोलने से भी प्रकारान्तर से असुर पक्ष का समर्थन बन जाता है।

लोक प्रवाह में आसुरी तत्वों का बाहुल्य रहने से बहुत मोर्चों पर दैत्य ही जीतता है। देवत्व दुर्बल पड़ता और हारता है, पर यह जीत-हार अस्वाभाविक है। आत्मचेतना का ईश्वरीय अंश मूलतः अति समर्थ है। सत् में हजार हाथियों के बराबर बल बताया जाता रहा है। सामान्य विवेक सहज ही देवत्व का पक्षधर होता है। चोरों के झुण्ड से पूछा जाय कि चोरी अच्छी होती है या ईमानदारी तो उनमें से प्रत्येक ईमानदारी के पक्ष में ही अपना मत देगा। वह ईमानदार दुकान से सौदा खरीदता, ईमानदार नौकर तलाश करता है और ईमानदारी से ही व्यवहार करने का इच्छुक रहता है। चोर होते हुए भी ईमानदारी का यह सरल समर्थन बताता है कि देवपक्ष कितना प्रबल है, जो विपक्षी के मुँह से भी अपना समर्थन करा लेता है। व्यभिचारी भी अपनी पत्नी या बेटी को उस मार्ग पर नहीं चलने देना चाहता। अपने घर में सदाचारियों को ही प्रवेश देते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसकी शक्ति प्रबल है।

व्यक्ति के जीवन में जब देवत्व के पक्ष, समर्थन की अदम्य अभिलाषा जग पड़े और वह अवांछनीयताओं से लड़ पड़ने का आक्रोश बनकर सत्प्रवृत्तियों को मूर्त रूप देने में जुट पड़े, तो समझना चाहिए कि यह मनःस्थिति प्रत्यक्ष ही ईश्वरीय अवतरण और देव-वरदान है। यही बात किसी सत्समर्थन में उभरे हुए प्रचण्ड आन्दोलन के सम्बन्ध में कही जा सकती है। अपने-अपने समय की विकृतियों का निराकरण करने का नेतृत्व श्रेय किन्हीं विशेष व्यक्तियों को ही मिलता है, पर यथार्थता यह है कि लोक मानस में उठती हुई सन्तुलन की वृत्ति के रूप में अवतार सत्ता का दिव्य अवतरण होता है। उसमें नीति के प्रति आग्रह होता है। किस समय, कहाँ, किस प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न हुईं और उनका निवारण करने के लिए किस प्रकार की प्रतिक्रिया उभरी, यह घटनाक्रम प्रायः नवीनता युक्त होता है। अधर्म का, अवांछनीयता का निराकरण और धर्म का, औचित्य का संस्थापन। रामायण काल और महाभारत काल की अनीति का स्वरूप और उनके निवारण का उपक्रम एक जैसा नहीं था। घटनाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार से घटीं तो भी तथ्य यथास्थान रहे। भगवान के अवतरण का स्वरूप सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप होता है। लोकमानस में अभीष्ट परिवर्तन के लिए भारी आवेश भरा होता है। उसी आधार का नेतृत्व प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति तथा घटनाक्रम दृश्यमान होते हैं। इन्हीं को अवतार की लीला कहा जा सकता है। श्रेय किन्हें मिला, किन्हें नहीं, इससे कुछ अन्तर नहीं आता है। नियति के उभार किसी को भी अपना वाहन बना सकते हैं। ईश्वर व्यक्ति उभार नहीं, शक्ति है। वह दिव्य चेतना का उभार बनकर व्यक्ति अथवा समष्टि में अवतरित होता है। समय की विकृतियों का समाधान और सुकृतियों का अभिवर्धन करके सन्तुलन सही करना ही उसका लक्ष्य होता है। भगवान की अवतार लीलाएँ इसी प्रयोजन के लिए उभरती और लीला करती दिखाई पड़ती हैं।

देवताओं के, ईश्वर के शरीर में जाने का तात्पर्य अन्तर्जगत् की दिव्य चेतना को आवेश पूर्वक अपनाया जाना। ईश्वर की शरण में जाने एवं उसका विशेष अनुग्रह पाने के लिए उसकी शरण में जाना आवश्यक माना गया है। शरण का तात्पर्य यह रोना गाना नहीं है, प्रचण्ड उत्कण्ठा उभारना है। जीव चेतना का आन्तरिक चुम्बकत्व ही सूक्ष्म जगत की सत्ताओं को अपने भीतर धारण करता है। आन्तरिक आकर्षण से आसुरी तत्व भी अपने भीतर भरते हैं और जब देवत्व की आवश्यकता होती है तो वह भी उसी प्रकार भीतर भरता आता है। ईश्वर साक्षी और दृष्टा है, वह विश्व जीवन का क्रम भर चलाता है।

आसुरी और दैवी शक्तियों के संघर्ष में हमें किसका पक्षधर बनना है, इसका निर्णय स्वयं ही करना पड़ता है। अदूरदर्शिता तात्कालिक लाभ भर देखती है और असुरता के आवेश में फँसकर नरक को आमन्त्रित करती है और सर्वनाश के गर्त में फँसती है। विवेकशीलता उज्ज्वल भविष्य को देख सकती है और उस फसल को उगाने के लिए धैर्यबद्ध किसान की तरह कष्टसाध्य श्रम करने में उत्साह बनाये रहती है। फलस्वरूप स्वर्ग सामने आ खड़ा होता है और जीवात्मा को महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। देवत्व और असुरत्व तो रस्साकशी में हर किसी के पक्षधर बन सकते हैं। अनवरत चल रहे देवासुर संग्राम के हम मूक दर्शक नहीं रह सकते। इच्छा या अनिच्छा से किसी का समर्थन सहकार तो करना ही होता है। फैसला गम्भीरता और सजगता पूर्वक किया जाय, इसी में बुद्धिमानी है।

देवासुर संग्राम के पुराण वर्णित कथा क्रम ऐतिहासिक हैं या नहीं, इसमें माथापच्ची करना व्यर्थ है। इनमें यह शाश्वत तथ्य सुनिश्चित रूप से भरा पड़ा है कि दैवी और आसुरी प्रकृति के आकर्षण प्राणी को खींचते हैं। इनमें से देवत्व का पक्षधर बनने और ईश्वर की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

27.    प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


अपने चारों ओर फैला हुआ संसार हमें न जाने प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से क्या-क्या सिखाता रहता है और अनायास ही न जाने किधर से किधर घसीटता रहता है। आँखें सर्वत्र धन वैभव की चमक-दमक देखती हैं और सम्पन्न लोगों को मौज-मजा करते हुए पाती हैं। भले ही कोई कुछ कहता न हो, पर यह वैभव हमारी अन्तःचेतना को अनायास ही सम्पत्तिवान बनने के लिए आकर्षित करता है।

धन के संग्रह और अभिवर्धन का जहाँ तक सम्बन्ध है नीति शास्त्र ने उसे सदा निरुत्साहित किया है। धर्म और अध्यात्म का, मानवीय आदर्शवादिता का प्रतिपादन धनियों के लिए अपरिग्रहण है। सौ हाथों से कमाया जाय किन्तु साथ ही उसे हजार हाथ से खर्च भी कर दिया जाय। कोई व्यक्ति अधिक कमा तो सकता है पर उसे अपने लिए उस देश के नागरिकों के सामान्य स्तर से अधिक खर्च अपने लिए नहीं करना चाहिए। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए, पिछड़े हुओं को ऊँचा उठाने के लिये उस उपार्जन को दान रूप में समाज को ही वापिस कर देना चाहिए। आदर्श यही है। पर इसे मानता कौन है? किसी भी तरीके से उचित अनुचित को ध्यान में रखे बिना अधिक से अधिक कमाया जाय और उससे अधिक से अधिक ठाट-बाट का विलासिता का उपयोग किया जाय, अधिक से अधिक शान-शौकत भरी अहन्ता का रोपण किया जाय। आज सर्वत्र यही हो रहा है।

विलासिता के इतने अधिक आकर्षण बढ़ते जाते हैं और उनका उपभोग करने वाले इतने चहकने लगते हैं कि अपना मन भी अनायास उसी ओर लालायित होता है। बाहर से आदर्शवाद की बातें कहने वाले भी भीतर-भीतर उसी लिप्सा में डूबे रहते हैं। जीवन का वास्तविक आनन्द विलास है। उसे प्राप्त करना हो तो नीति-अनीति का विचार छोड़ देना चाहिए। नीति से वैभव कैसे जुड़ेगा। उदारता बरतने से अपने पास क्या रहेगा? इसलिये निष्ठुर, विलासी, दुष्ट एवं अपराधी बनकर भी वैभव और विलास को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना चाहिए, यही आज के वातावरण का हर व्यक्ति के लिए शिक्षण है। उस समर्थन में भाषण नहीं किये जाते, लेख नहीं छपते तो क्या, प्रस्तुत परिस्थितियों की प्रत्येक तरंग मस्तिष्क को यही सिखाती है। सो आमतौर से मनुष्य उसी भीख को स्वीकार भी करते हैं। लोक प्रवाह को हम उसी धारा में प्रवाहित होते हुए देखते हैं।

ऐसी विषम परिस्थितियों में, ऐसे विकट वातावरण में किसी का सच्चे अर्थों में आदर्शवादी बने रहना वस्तुतः भारी शूरवीरता का काम है। मछली ही एक ऐसा जल जन्तु है जो पानी की धारा को चीरते हुए उल्टी चाल चल सके अन्यथा शेष सभी को प्रवाह की दिशा में बहना पड़ता है। दुर्बल मनोभूमि के सामान्य मनुष्य बहते हुए प्रवाह में ही घिसटते चले जाते हैं। आदर्शवाद की बात कह सुन लेना ही उनके लिये पर्याप्त होता है, उसे अपनाने का साहस कर नहीं पाते। व्यवहार में उतारना उसे सब अशक्य ही मानते हैं।

इन दुष्प्रवृत्तियों के आँधी तूफान में कोई कैसे कब तक आदर्शवाद की चट्टान पर खड़ा रहे? मनस्वी और आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की बात दूसरी है जो हर आँधी तूफान का मुकाबला कर सकते हैं और प्रलोभनों को चुनौती दे सकते हैं। साधारणतया आज की जैसी स्थिति में कुछ सहारा चाहिए। जिन पेड़ों की जड़ें गहरी होती हैं वे ही झंझावातों को सहन करते हैं। पहाड़ पर चढ़ने के साथ सहारे के लिये हाथ में लाठी की जरूरत पड़ती है। एकाकी ऊँची चढ़ाई कठिन पड़ती है। आदर्शवादिता को एक पहाड़ ही समझना चाहिये जिस पर चढ़ने के लिए सहारा चाहिये और वह सहारा है-स्वाध्याय।

धूर्त दुनियाँ के आकर्षणों का प्रतिरोध करने के लिए महामानवों का परामर्श और उदाहरण एक सबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा होता है और जिसने श्रद्धा पूर्वक उस आप्त विचारधारा को पढ़ना अपना अत्यावश्यक नित्यकर्म बना लिया है और जो उसको मनोरंजन की तरह नहीं, जानकारी के लिए पढ़ने के लिए नहीं वरन् उन मनीषियों के महान व्यक्तित्व को सामने उपस्थित मानकर उनके विचारों को गम्भीर परामर्श की तरह मनोयोग पूर्वक पढ़ता है उसके लिये वह स्वाध्याय परिपुष्ट साथी और सहायक का काम देता है।

यदि आत्मबोध से उत्पन्न प्रकाश ज्योति को स्थिर रखना हो तो उस दीपक में स्वाध्याय का तेल निरन्तर डालते रहना चाहिये। यह तेल जब तक पड़ता रहेगा तब तक उसके बुझने की आशंका न रहेगी। एक बार भावावेश में बहुत कुछ सोच डाला और आदर्शवाद की उड़ान उड़ ली, पर उस उमंग को नियमित परिपोषण न मिला तो हवा के साथ उड़ने वाले बादलों की तरह वह जोश आवेश भी कुछ समय में तिरोहित हो जायेगा तब अपनी प्रतिज्ञा न निभ सकने की, इच्छा के कार्यान्वित न होने की कमजोरी निश्चित ही अपने रहे बचे मनोबल को भी तोड़ देगी और आगे फिर उन दिव्य आकाँक्षाओं को पुनर्जीवित करना भी कठिन हो जायेगा। इस स्थिति से बचने के लिए प्रत्येक आदर्शवादी को स्वाध्याय को अपना जीवन साथी एवं अभिन्न सहचर बना लेना चाहिए।

स्वाध्याय भी आजकल एक रूढ़ि बन गई है। कथा पुराणों की पुस्तकों को बार-बार उलटते पलटते रहने का नाम स्वाध्याय कहलाता है और आमतौर से लोग इसी लकीर को पीटकर आत्म प्रवंचना कर लेते हैं। स्वाध्याय उन्हीं पुस्तकों का होना चाहिए जो आज की उलझनों से भरे हुए मनुष्य को बुद्धि संगत और व्यावहारिक मार्गदर्शन कर सके। इस तरह का प्रखर साहित्य यों बहुत ही कम मात्रा में मिलता है। पर उसका सर्वथा अभाव नहीं है। तलाश करने पर वह अपने आसपास भी मिल सकता है। स्नान, भोजन, शयन आदि की ही तरह स्वाध्याय को भी अन्तःकरण की एक महती आवश्यकता मानना चाहिए और इस आत्मिक भोजन को जुटाने के लिए समय और पैसा निकालना चाहिए।

स्वाध्याय का प्रयोजन महामानवों द्वारा लिखित जीवन विद्या के समग्र स्वरूप पर प्रकाश डालने वाले साहित्य को पढ़ने से ही पूरा होता है। उसका एक दूसरा पक्ष है उसे सत्संग कहते हैं। अशिक्षित व्यक्ति सत्संग से ही स्वाध्याय की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। वे दूसरे की आँखों से ग्रन्थों को पढ़ाकर कानों से सुनते रहें तो भी वह आवश्यकता पूरी हो जाती है। कभी-कभी सुलझे हुए विचारों के और परिष्कृत दृष्टिकोण सम्पन्न व्यक्ति परामर्श एवं प्रवचन के लिये भी उपलब्ध हो जाते हैं। पर यह उपलब्धि सदा सम्भव नहीं। धर्म और अध्यात्म के नाम पर जहाँ-तहाँ कूड़ा कचरा ही बिखरा पड़ा है। मूढ़ता, अन्ध श्रद्धा, अत्युक्ति और असम्मति से भरे हुए विचार ही अक्सर सत्संग के नाम पर सुनने को मिलते हैं। विक्षिप्त एवं सनकी स्तर के लोग एकाकी बातें सुनाकर अक्सर सुनने वाले को और अधिक उलझन में डाल देते हैं। सही सत्संग भी आज की परिस्थिति में यदा-कदा ही किसी को मिल सकता है। तो उसका उपयोग भी करना चाहिये और जो सुना या बताया गया है उसमें से जो उपयोगी तत्व हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।

स्वाध्याय की जोड़ी सत्संग से मिलती है। इसे नियमित रूप से जारी रखने के लिये मनन और चिन्तन को भी अपनी दैनिक क्रम व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिए। जीवन की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिये अपनी मान्यता और चेष्टा क्या है इसका गम्भीरता पूर्वक विश्लेषण करते रहना चाहिये और भूलों को सुधारने तक तथा प्रगति में प्रोत्साहित करने के लिये इसी चिन्तन में भविष्य की रूप रेखा निर्धारित करते रहना चाहिये। प्रस्तुत समस्याओं का क्रमशः समग्र चिन्तन और उनके आदर्शवादी समाधानों का निष्कर्ष यही मनन चिन्तन का मूलभूत प्रयोजन है। सत्संग की दैनिक आवश्यकता को यह क्रम अपनाकर पूरा किया जा सकता है।

मनन और चिन्तन का क्रम प्रातःकाल आँख खुलते ही और रात को सोने के लिये बिस्तर पर जाते ही आरम्भ किया जाना चाहिये। आँख खुलने और बिस्तर छोड़ने के बीच प्रातःकाल कुछ तो समय रहता है। आँख खुलते ही कोई तुरन्त नहीं उठ बैठता। कुछ समय ऐसे ही सब लोग पड़े रहते हैं। इस समय को मनन में लगाना चाहिये। अपने आपसे अपने और अपने शरीर के बीच का अन्तर, अपना स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, परमेश्वर की मनुष्य से आकांक्षा, इस सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात पर प्रत्येक पहलू से विचार किया जाना चाहिये और समीक्षा की जानी चाहिये कि अपनी वर्तमान गतिविधियाँ आदर्श जीवन पद्धति से तालमेल खाती हैं या नहीं? यदि अन्तर है तो वह कहाँ है कितना है? इस अन्तर को दूर रखने के लिये जो किया जाना चाहिए वह किया जा रहा है या नहीं? यदि नहीं तो क्यों?

यह प्रश्न ऐसे है जिन्हें अपने आप से गम्भीरता पूर्वक पूछा जाना चाहिए और जहाँ सुधार की आवश्यकता हो उसके लिए क्या कदम किस प्रकार उठाया जाय, इसका निर्णय करना चाहिए। छोटे व्यापारी कारखानेदार प्रायः बराबर अपने कारीगर में रह रही खामी और प्रगति के लिए क्या किया जाना चाहिये, इन पर विचार करते हैं। फिर जीवन व्यवसाय जिसकी तुलना संसार की और किसी उपलब्धि के साथ नहीं की जा सकती, उसे अँधेरे में क्यों रखा जाय? उसके सम्बन्ध में स्पष्ट रूपरेखा क्यों न बने?

हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत की अनुभूति यदि की जा सके तो उससे उत्कृष्ट जीवन जीने की बहुत ही सुव्यवस्थित योजना बन जाती है। हर दिन एक जीवन मानकर चला जाय और उसे श्रेष्ठतम तरीके से जीकर दिखाने का प्रातःकाल ही प्रण कर लिया जाय तो यह ध्यान दिन भर प्रायः हर घड़ी बना रहता है कि आज कोई निकृष्ट विचार मन में नहीं आने देना है, निकृष्ट कर्म नहीं करना है, जो कुछ सोचा जायेगा वैसा ही होगा और जितने भी कार्य किये जायेंगे उनमें नैतिकता और कर्तव्य निष्ठा का पूरा ध्यान रखा जायेगा। प्रातःकाल पूरे दिन की दिनचर्या निर्धारित कर लेनी चाहिये और सोच लेना चाहिए कि उस दिन भर की क्रिया पद्धति में कहाँ कब कैसे अवांछनीय चिन्तन का अवांछनीय कृति का अवसर आ सकता है? उस आशंका के स्थल का पहले ही उपाय सोच लिया जाय, रास्ता निकाल लिया जाय तो समय पर उस निर्णय की याद आ जाती है और सम्भावित बुराई से बचना सरल हो जाता है।

बुराई से बचना ही काफी नहीं आवश्यकता इस बात की भी है कि अपनी विचारणा भावना, चिन्तन प्रक्रिया सामान्य मनुष्यों जैसी न रहकर उच्च स्तर के सहृदय सज्जनों जैसी रहे और सारे काम पेट परिवार के लिए ही न होते रहें, वरन् लोक सेवा के लिए भी समय, श्रम, चिन्तन तथा धन का जितना अधिक समय हो सके उतना लगाया जाय। शरीर तथा शरीर से सम्बन्ध, सुविधाओं तथा सम्बन्धियों के लिए ही हमारा प्रयास सीमित नहीं हो जाना चाहिए, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा के लिए विश्व मानव की शान्ति एवं समृद्धि के लिए भी हमें बहुत कुछ करना चाहिए। आत्मा की भूख और हृदय की प्यास इस श्रेष्ठ कर्तृत्व से ही पूरी होती है। जीवनोद्देश्य की पूर्ति, ईश्वर की प्रसन्नता एवं आत्म कल्याण की बात को ध्यान में रखते हुए हमें कुछ ऐसा विशिष्ट भी करना चाहिए जिसे शरीर की परिधि से ऊपर आत्मा की श्रेय साधना में गिना जा सके।

इस प्रकार एक दिन के जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की याद यदि हर घड़ी ध्यान में बनी रहे तो वह दिन आदर्श ही व्यतीत होगा। ठीक इसी प्रक्रिया की हर दिन पुनरावृत्ति की जाती रहे तो एक के बाद एक दिन, एक से एक बढ़कर बनेगा और यह क्रम बनाकर चलते रहने से अपने गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता ओत-प्रोत हो जायेगी। उसे ओछे दृष्टिकोण और हेय कर्मों को यदि निरन्तर अपनी गतिविधियों में से पृथक किया जाता रहे तो थोड़े दिनों में स्वभाव ही ऐसा बन जायेगा कि बुराई को देखते ही घृणा होने लगे और उसे अपनाने के लिये अन्तःकरण किसी भी सूरत में तैयार न हो।

दिन व्यतीत हो जाने पर रात्रि को जब बिस्तर पर जाया जाय तो दिन भर की मानसिक चिन्तन प्रणाली और शारीरिक गतिविधियों की निष्पक्ष समीक्षा करनी चाहिए। जहाँ-जहाँ सदाशयता भरे कदम उठाये गये हैं वहाँ उनकी आत्मिक दृढ़ता को सराहना चाहिए। जहाँ साधारण मनुष्यों की अपेक्षा असाधारण उत्कृष्ट कर्तृत्व का परिचय दिया गया हो, वहाँ अपने आत्मबल पर गर्व और सन्तोष अनुभव करना चाहिए और जहाँ चूक हुई तो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित करते हुए अगले दिन वैसा न करने की अपने आपको कड़ी चेतावनी देनी चाहिए। जिस प्रकार व्यापारी अपने बही खाते से यह अनुमान लगाते रहते हैं कि कारोबार नफे में चल रहा है या नुकसान में, ठीक इसी तरह अपनी भावना और क्रिया के जीवन व्यापार की गतिविधियों की समीक्षा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि हम ऊपर उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं। यदि उठ रहे हो, तो उस उत्कर्ष की गति और भी तीव्र करने का उत्साह पैदा करना चाहिए और यदि पतन बढ़ रहा हो तो उसे रोकने के लिए रुद्र रूप धारण करना चाहिए। गीता में भगवान ने अलंकारिक रूप से जिन कौरवों से लड़ने के लिए कहा था वस्तुतः वे मनोविकार ही हैं। यह महाभारत हर व्यक्ति के जीवन में लड़ा जाना चाहिए। अपने दोष दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए हर व्यक्ति को तरकस तूरीण सम्भालकर रखना चाहिए।

भूलों के लिए पश्चाताप प्रार्थना भर पर्याप्त नहीं, वरन् उसके लिए प्रायश्चित भी किया जाना चाहिए। छोटी भूलों के लिए छोटे शारीरिक दण्ड दिये जा सकते हैं, भोजन में कटौती, कान पकड़कर बैठक लगाना, कुछ समय खड़े रहना, देर तक जागना, चपत लगाना आदि दण्ड हो सकते हैं। यदि दूसरों को क्षति पहुँचाई गई है तो उसकी पूर्ति समाज को किसी सत्प्रवृत्ति के अभिवर्धन के लिए अनुदान देकर पूरी कर देनी चाहिए। दुष्कर्मों का प्रायश्चित यही है कि व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति की पूर्ति समाज की सुविधा बढ़ाने के लिए लगा दी जाय। दुष्कर्मों का फल इसी तरह शमन होता है। मात्र छुट-पुट पूजा पाठ कर लेने से उनकी निवृत्ति नहीं हो सकती।

आत्मबोध की अग्रिम प्रगति सत्कर्मों में अनुरक्ति है। संसार में जो अन्धेर, अविवेक और अनाचार चल रहा है, उसके प्रति आकर्षण नहीं घृणा ही होनी चाहिए। उसे अपनाने के लिए नहीं प्रतिरोध के लिए ही अपनी चेष्टा होनी चाहिए। व्यक्तित्व का निर्माण इसी प्रकार होगा। हमें अपने व्यक्तित्व का आदर्शवादी निर्माण करके समाज निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करनी चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

28.    आत्मिक प्रगति की दिशाधारा
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


शरीर से कोई महत्त्वपूर्ण काम लेना हो तो उसके लिए उसे प्रयत्नपूर्वक साधना पड़ता है। कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला आदि के जो भी कार्य शरीर से कराने हैं उनके लिए उसे अभ्यस्त एवं क्रिया कुशल बनाने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग देनी पड़ती है। लुहार, सुनार, दर्जी, बुनकर, मूर्तिकार आदि काम करने वाले अपने शिल्पों को बहुत समय तक सीखते हैं, तब उनके हाथ उपयुक्त प्रयोजन के लिए ठीक प्रकार सधते हैं। गायक, चित्रकार, अभिनेता, पहलवान आदि को अपने-अपने कार्यों को ठीक तरह कर सकने की देर तक शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। अस्तु शरीर को अभीष्ट कार्यों के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता सर्वत्र समझी जाती है और उसके लिए साधन भी जुटाये जाते हैं।

शिक्षा का दूसरा क्षेत्र है मस्तिष्क। मस्तिष्क का ही शरीर पर नियंत्रण है। जीवन की समस्त दिशा धाराओं को प्रवाह देना मस्तिष्क का ही काम है। ‘‘बुद्धिर्यस्य बलं निर्बुद्धस्य कुतोबलम्’’ सूक्ति में सच ही कहा है जिसमें बुद्धि है, उसी में बल है। बुद्धिहीन तो सदा दुर्बल ही रहता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? हाथी को गधे जैसा लदते और सिंह तथा बन्दर को समान रूप से नाचते देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्बलकाय मनुष्य अपने बुद्धिबल से किस प्रकार सृष्टि के समस्त प्राणियों पर शासन कर रहे हैं। इस प्रशासन के अन्तर्गत वे जीव भी आते हैं जो शारीरिक प्रतियोगिता में मनुष्य को हजार बार पछाड़ सकते हैं।

मस्तिष्कीय शिक्षण के लिए ज्ञान और अनुभव सम्पादित करना पड़ता है। जानकारी और अभ्यास की इसके लिए आवश्यकता होती है। इसका बहुत कुछ प्रयोजन स्कूली शिक्षा, साहित्य, सत्संग, मनन, चिन्तन आदि के सहारे पूरा होता है। मस्तिष्कीय क्षमता विकास की उपयोगिता भी सर्वविदित है। इसलिए अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार स्कूली अथवा दूसरी प्रकार की शिक्षा पद्धति अपनाई जाती है और जानकारी, समझदारी बढ़ाने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया जाता है। शिक्षा का दूसरा चरण जानकारी की कमी को पूरा करना है। इससे विचार शक्ति बढ़ती है, बुद्धि तीक्ष्ण होती है और व्यवहार कुशलता आती है। बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा परक जो भी उपाय किये जाते हैं, वे सभी सराहनीय हैं। शारीरिक कुशलता की ही तरह मस्तिष्कीय विकास भी आवश्यक है। अस्तु शिक्षा के इन दोनों क्षेत्रों में अधिकाधिक समावेश करने के प्रयत्नों की प्रशंसा ही की जायेगी।

शिक्षा का प्रवेश प्रायः शरीर एवं मस्तिष्क तक ही सीमित रहता है। अन्तःकरण का स्तर बदलने में तथाकथित ज्ञान सम्पादन की कोई विशेष उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। यदि मस्तिष्कीय शिक्षण से आस्थाएँ बदली जा सकती तो हर राजनेता सच्चे अर्थों में देशभक्त होता, हर सरकारी कर्मचारी लोकसेवा में उसी निष्ठापूर्वक संलग्न रहता जैसा कि उसे ट्रेनिंग की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया गया था। धर्मोपदेशक नीति और सदाचार का ही आदर्श प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते।

तब प्रश्न उत्पन्न होता हैं कि व्यक्तित्व को सच्चे अर्थों में सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने के लिए क्या किया जाय? इसके उत्तर में एक ही तथ्य सामने आता है कि आस्थाओं के सहारे आस्थाओं को उभारा जाय। जंगली हाथी पकड़ने में प्रशिक्षित हाथियों का उपयोग होता है। काँटे से काँटा निकालने और विष से विष को मारने की कहावत प्रसिद्ध है। लोहे को लोहे से काटा जाता है। डूबे को पानी में से निकालने के लिए स्वयं डुबकी लगानी पड़ती है। अन्तःकरण के आस्था क्षेत्र को कुसंस्कारों से मुक्त करने के लिए सदुद्देश्यपूर्ण आस्थाओं की नये सिरे से प्रतिष्ठापना करनी पड़ती है।

जीवन के मध्य केन्द्र नाभिक को अन्तःकरण कहते हैं। उसी की स्थिति व्यक्ति को महान् बनाती है और उसी के आधार पर निकृष्टता के गर्त में गिरना पड़ता है। समुन्नत और पतित व्यक्तियों में एक जैसे साधन रहते हुए भी अन्तर क्यों आया? इसका कारण ढूँढना हो तो उनकी आस्थाओं में अन्तर रहना ही प्रधान निमित्त परिलक्षित होगा। धन-वैभव की दृष्टि से व्यवहार, कुशलता, अवसर, साधन, सहयोग आदि का महत्त्व हो सकता है, पर व्यक्तित्व के उत्थान पतन की बात तो पूरी तरह व्यक्ति के अन्तःकरण की स्थिति पर ही टिकी हुई है। गीताकार ने व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए ठीक ही कहा है-‘‘श्रद्धामयोऽयं पुरुष योगच्छ्रधः स एव स’’ अर्थात् यह मनुष्य श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वस्तुतः वह ठीक वही है। तात्पर्य स्पष्ट है। मनुष्य का स्वास्थ्य, ज्ञान, धन, पद उसका मूलस्वरूप नहीं है, वह तो आवरण शृंगार मात्र है जिनकी कभी भी उलट-पुलट हो सकती है। स्थायित्व तो अन्तःकरण में भावास्थित आस्थाओं, विश्वासों, आकांक्षाओं पर निर्भर है। वे जिस स्तर की होंगी, मनुष्य उन्हीं के अनुरूप ढलेगा और अन्ततः उन्हीं के अनुरूप उठने, गिरने का आधार बनेगा।

यहाँ समझने योग्य तथ्य इतना ही है कि आवरणों को सब कुछ न मानकर व्यक्ति की मूलसत्ता प्राण चेतना को ऊँचा उठाने की बात सामने हो तो फिर अन्तःकरण को परिष्कृत करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। अब प्रश्न यह उठता है कि यह किया किस प्रकार जाय? इसके दो ही उपाय हैं-

(१) आत्म-विश्लेषण के द्वारा स्व सत्ता की स्थिति तथा दशा का सही बोध कराने वाली आस्थाओं की गहन अन्तराल में प्राण-प्रतिष्ठा की जाय।

(२) साधनाओं के क्रिया-कलाप द्वारा संचित कुसंस्कारों को उखाड़ कर उत्कृष्ट आस्थाओं को जमा सकने में समर्थ प्राणशक्ति को प्रखर बनाया जाय।

प्रथम उपाय के लिए ब्रह्मविद्या का, तत्त्वदर्शन का अवगाहन करना होता है। अध्यात्म विज्ञान का ज्ञान भाग इसी के लिए विनिर्मित हुआ है। आत्मबोध के लिए उच्चस्तरीय स्वाध्याय-सत्संग, मनन-चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। आत्म चिंतन और आत्म मंथन पर विचार शक्ति को केन्द्रित करना होता है। भगवान बुद्ध आदि आत्मज्ञानियों को अपनी साधना का केन्द्र बिन्दु इसी को मानकर चलना पड़ा था। अध्यात्म की भाषा में इसे योग कहते हैं। योग का अर्थ है जोड़ना। यह चिन्तन परक प्रक्रिया है। आत्मा को परमात्मा से, जीव को ब्रह्म से, सामान्य को असामान्य से सम्बद्ध करने के लिये चिन्तन का उपयोग भी करना पड़ता है और भावनाओं का भी। ब्रह्मविद्या का विशालकाय कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। योग क्रिया परक नहीं विचारपरक है। उसकी परिधि में आत्मा और परमात्मा के बीच जुड़े हुए असंख्य सूत्रों का विविध आधारों पर गहन चिन्तन करना पड़ता है। दर्शन शास्त्र की रचना इसीलिए हुई है। इस परिधि में भावनाओं को उच्चस्तरीय प्रगति की दिशा में उभारना भी आता है। इसे भक्ति कहते हैं। प्रेम का निकृष्ट स्वरूप तो मोह और वासना के स्वरूप जैसा घटिया और घिनौना हो जाता हैं, पर उसकी ऊँची स्थिति आत्मीयता की संवेदनाओं को अधिकाधिक व्यापक बनाने के रूप में होती है। ‘रसो वै सः’ सूत्र में सत्य ही कहा गया है कि ‘प्रेम ही परमेश्वर है।’ इससे बढ़कर सरसता अन्यत्र कहीं है ही नहीं। जिस पदार्थ या प्राणी पर आत्मीयता बखेर दी जाती है उसी में सुन्दरता एवं सरसता की अनुभूति होने लगती हैं। त्याग, बलिदान, सेवा, उदारता जैसी सत्प्रवृत्तियों का तभी उभार आता है जब उच्चस्तरीय प्रेम का अन्तराल में उदय होने लगे। प्रेम तत्व की सम्वेदनाएँ जागृत करने के लिए ईश्वर भक्ति के रूप में भावनाएँ उभारनी पड़ती हैं। इसके लिए पूजा, अर्चा, कीर्तन, ध्यान, लीलाओं का श्रवण, दर्शन आदि उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। अर्जुन को विराट् ब्रह्म के रूप में ईश्वर की झाँकी जिस दिव्य दृष्टि से हुई थी, उसी को अपनाने से सियाराममय सब जग जानी की श्रद्धा उभरती है और स्वार्थ संकीर्णता से ऊँचे उठकर लोक मंगल की दिशा में चल पड़ने की उमंग क्रियान्वित होती हैं।

तप आत्मोत्कर्ष का दूसरा चरण है। चेतना के साथ जो तीन कलेवर लिपटे हैं, वे सामान्यतया जीवन निर्वाह के आवश्यक क्रिया कलाप पूरे करने भर के लिए मालूम पड़ते हैं, पर वस्तुतः उनके अन्तराल में शक्तियों और सिद्धियों के अजस्र भाण्डागार छिपे पड़े हैं। इस रत्न राशि को खोज निकालने और उखाड़-उभारकर ऊपर ले आने की वैज्ञानिक पद्धति का नाम तप है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की मोटी गतिविधियाँ सर्वविदित है। स्थूल शरीर रक्त माँस का बना, क्रिया-कलाप के उपयुक्त और जीवन धारण की आवश्यक कार्य पद्धति पूरी करने के लिए बना है। सूक्ष्म शरीर से मन और बुद्धि के विविध कार्य सम्पन्न होते हैं। कारण शरीर भावनाओं का केन्द्र है। इच्छाएँ, प्रेरणाएँ, उमंगें, संवेदनाएँ इसी में भरी रहती हैं। सन्तोष-असन्तोष, आनन्द-अवसाद का अनुभव इसी में होता है। इन तीनों शरीरों की मिली गतिविधियों को जीवन का स्वरूप कहते हैं। वह सामान्य बात हुई। असामान्य को खोजा जाय तो प्रतीत होगा कि शरीर की ओजस्विता, मस्तिष्क की मनस्विता और अन्तःकरण की तेजस्विता की सामर्थ्यें कितनी महान हैं। यह चेतनात्मक ऊर्जाएँ जिसमें जितनी मात्रा में बढ़ी-चढ़ी होती हैं वह उतना ही प्रभावी, पराक्रमी, समुन्नत एवं अभिवन्दनीय बनता चला जाता है।

यह वैयक्तिक चुम्बक हर व्यक्ति के भीतर न्यूनाधिक मात्रा में मौजूद है। वह आत्मा का गुण है। आत्मा की अविच्छिन्न ऊर्जा तीनों शरीरों में तेजस्, मनस् एवं ओजस् के रूप में झाँकती और काम करती देखी जा सकती है। जन्मजात रूप से हर व्यक्ति इस क्षमता को अपने साथ लेकर आता है। पर वह प्रसुप्त स्थिति में रहता है। जिनके पास पूर्व संग्रह है उनमें आरम्भ से ही इनकी अधिकता रहती है। जिनके पास ऐसा संचय नहीं है वे प्रयत्न पूर्वक उसे उभार सकते हैं।

तप का स्वरूप है तपाना, गरम करना। आग पर गरम करने से सामान्य वस्तुओं की भी उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है फिर व्यक्तित्व की प्रखरता उससे क्यों न बढ़ेंगी? कच्चे अन्न को चूल्हे पर पकाकर मिष्ठान्न, पकवान बनाते हैं। ईंटों को भट्टे में लगाने से वे टिकाऊ बन जाती हैं। धातुओं को शुद्ध और सुदृढ़ बनाने के लिए उन्हें भट्टी में डाला जाता है। पानी को गरम करने पर जो भाप बनती है उसकी सामर्थ्य से रेलगाड़ियाँ दौड़ती हैं। भस्में और रसायनें अग्नि संस्कारों से बनती हैं। बारूद में ताप पहुँचते ही भयंकर विस्फोट होता है। गर्मी से अण्डे पकते हैं। कृमि-कीटकों को मारने के लिए आग जलाई जाती है। प्रकाश और शक्ति का वैभव प्रकारान्तर से ताप की ही प्रतिक्रिया है। बिजली क्या है? ताप का ही एक रूप है। शरीर में तभी तक जीवन है जब तक उसका तापमान नियत मात्रा में बना रहे, उसके गिरने पर निष्क्रियता बढ़ती जायेगी और प्राणान्त होकर रहेगा। जितनी मशीनें चलती हैं वे सभी अपने-अपने स्तर के ईंधन माँगती हैं। तेल, कोयला, भाप, गैस आदि तरह-तरह के ईंधन ही अग्नि संयोग से वह शक्ति उत्पन्न करते हैं जिससे मशीनें काम कर सकें। शरीरों को यही ईंधन आहार के माध्यम से मिलता है। गतिशील बनाये रहने के लिए गर्मी आवश्यक है। पृथ्वी से पदार्थ और प्राणी अपनी हलचलें जारी रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से प्राप्त करते हैं।

मान्यता है कि देवी-देवताओं की मनुहार मन्त्र-तन्त्रों के आधार पर करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और साधनारत व्यक्ति को मनोवांछित वरदान प्रदान करते हैं। इस मान्यता का एक अन्धा पक्ष है दूसरा उजला। अन्धा यह है कि देवी-देवताओं के पास और कुछ काम धन्धा न हो, पूजा-प्रार्थना के लिए उनके मुँह में लार टपकती रही हो और प्रशंसा सुनने एवं सस्ते भेंट उपहार पाने भर से वे किसी पर लट्टू होकर ऐसे वरदान देते हों जो भारी उच्चस्तरीय पात्रता सम्पन्न व्यक्तियों को ही मिल सकते हैं। यदि यह मान्यता सही हो तो फिर देवी-देवताओं को रिझाना ही लाटरी लगाने की तरह अत्यन्त लाभप्रद व्यवसाय है। साधना विज्ञान में छाई हुई इस मूढ़ मान्यता का कोई आधार नहीं है। न इसके पीछे कोई तर्क है और न आधार।

उजला पहलू यह है कि मानवी अन्तराल में एक से एक अद्भुत क्षमता केन्द्र प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं। यही देवी-देवता हैं। इन्हें साधना पुरुषार्थ से उसी प्रकार बलिष्ठ बनाया जा सकता है जैसे व्यायाम से माँस-पेशियों को और अध्ययन से मस्तिष्कीय ज्ञानकोषों को। कारण शरीर का व्यायाम भी तप साधन है। इससे देव संस्थानों को जागृत होने का अवसर मिलता है। तप से अपने ही अन्तस् के प्रसुप्त को जागृत किया जाता है और उसके फलस्वरूप दिव्य अनुदानों-वरदानों का प्रतिफल मिलता है। यही देवाराधना का उजला पक्ष है। इस मान्यता के पीछे तर्क भी है और तथ्य भी। साधना से सिद्धि मिलने वाली मान्यता इस आधार पर पूर्णतया प्रामाणिक मानी जा सकती है।

संक्षेप में चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने को योग कहते हैं। यह आस्थाओं एवं आकांक्षाओं का परिष्कार है। योगी की मनोभूमि इसी प्रकार की होती है। वह शरीरगत तथा मनोगत वासनाओं, तृष्णाओं की उपेक्षा करता है उन्हें तुच्छ नगण्य मानता है। तीनों ऐषणाओं से उसे सहज विरक्ति हो जाती है। उसे कण-कण में परमेश्वर दिखाई पड़ता है। हर किसी से प्रेम करने को जी करता है। इस प्रेम दुलार और सुधार का सन्तुलित और समुचित समन्वय दूरदर्शी विवेक के आधार पर किया गया है। योगी की स्वार्थपरता मिट जाती है। विश्व नागरिक अपने को मानता है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि रहती है और प्राणिमात्र के साथ आत्मीयता का सूत्र जुड़ जाता है। विचारणा में उत्कृष्टता और क्रिया पद्धति में आदर्शवादिता का अधिकाधिक समन्वय होता चलता है। व्यष्टि, समष्टि और प्रकृति के गतिचक्र को समझ लेने के कारण उसे किसी भी प्रिय-अप्रिय स्थिति में असन्तुलन ग्रसित नहीं होना पड़ता है। कमलपत्रवत् स्थिति बनी रहती है। खिलाड़ी की तरह रंगमंच पर अभिनय करने वाले नट की तरह वह अपने प्रयास तो पूरे करता है पर हार-जीत का, मान-अपमान का बोझ नहीं ओढ़ता। जब खेल ही खेलना है तो हर स्थिति में विनोद ही विनोद की मनःस्थिति क्यों न रखी जाय? योगी की प्रकृति इसी तरह की होती है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

29.   उत्कृष्ट चिन्तन ही समग्र प्रगति का एकमात्र आधार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


व्यक्तिगत जीवन में सन्तोष उल्लास और उत्कर्ष की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए अध्यात्म का आवेश कितना आवश्यक है। तत्व दर्शन के अवलम्बन से ही दृष्टिकोण का विकास होता है, चिन्तन में प्रखरता आती है। इसी पृष्ठभूमि में गुण-कर्म और स्वभाव की परिष्कृत परिपक्वता का समावेश होता है। संयमी, सदाचारी, सन्तुष्ट, कर्मठ, कर्तव्य परायण व्यक्ति अध्यात्म विचारणा के आधार पर ही विनिर्मित और विकसित होता है। आन्तरिक परिपक्वता ही जीवन क्रम को सरल और सुखद बनाती है। उसी स्तर का व्यक्ति चैन से रहने और सम्बन्धित व्यक्तियों को चैन से रहने देने की स्थिति में होता है। चिन्तन में शालीनता, व्यवहार में सहृदयता और गतिविधियों में प्रखरता उच्चस्तरीय चिन्तन के बिना आ ही नहीं सकती। यदि यह अभाव दूर न हो सके तो कोई व्यक्ति सम्मान और श्रद्धा का भाजन न बन सकेगा। सच्चा सहयोग और स्नेह किसी को भी उपलब्ध न कर सकेगा। इन जटिलताओं से ग्रसित व्यक्ति किसी भी दिशा में ठोस उन्नति नहीं कर सकता। तब या तो उसे अविकसित पशु जीवन जीना पड़ता है या महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति उद्धत आचरण से करनी पड़ती है।

व्यक्ति का विकास कला नहीं विद्या है, इस प्रकार के कला-कौशल में छली पाखण्डी निष्ठागत होते हैं, उनका व्यवसाय ही इस हथकण्डे पर चलता है कि आरम्भ में मधुर सम्भाषण और प्रामाणिक आचरण का परिचय देकर कैसे किसी को आकर्षित करें और फिर उसके प्रिय विश्वास पात्र बनकर कैसे विश्वासघाती छुरी चलायें। यह कला अब कोई छिपा रहस्य नहीं रही। इन हथकण्डों को किसी भी छल व्यवसायी के पास से देखकर सहज ही जाना जा सकता है। पाश्चात्य जगत में इस विषय में ढेरों पुस्तकें छप रही हैं। नर नारी को, नारी नर को झूठे प्रणय-पाश में बाँधकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए किस प्रकार सम्भाषण, पत्र व्यवहार एवं हाव-भाव तथा गतिविधियाँ अपनायें, यह कला पाश्चात्य जगत का एक महत्त्वपूर्ण शास्त्र बन गया है। इससे अपरिचित भोले-भाले नर-नारी वहाँ बे-मौत मारे जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किस प्रकार दूसरों की चापलूसी प्रशंसा की जाय, कैसे आश्वासन, प्रलोभन या झाँसा दिया जाय इस प्रकार की ढेरों पुस्तकें बाजार में बिकती हैं। यह लोकप्रिय कला अध्यात्म के उच्च आदर्शों की विडम्बना भर है। भ्रम में डालकर किसी को हीरे के बदले काँच भी चपेका जा सकता है, पर यह छद्म भी होता असली हीरे की दुहाई देकर ही है।

अध्यात्म असली हीरा है। जिसने उसे अपनी विचारणा और गतिविधियों में समाविष्ट कर लिया सचमुच वह हीरा ही हो गया। हीरा ही नहीं उसे तो पारस भी कहा जा सकता है। ऐसा व्यक्ति अटूट लोकश्रद्धा का भाजन बनता है। कहना न होगा जिसके पीछे लोक श्रद्धा का बल है उसके लिए संसार की किसी भी दिशा में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करते चले जाना तनिक भी कठिन नहीं है। अन्तःकरण की तुष्टि भी आन्तरिक गरिमा से ही होती है। तीन चौथाई शान्ति को खा जाने वाले मनोविकारों से भी इसी आधार पर बचा जा सकता है। पग-पग पर खड़ी दीखने वाली अड़चनें और उलझनें भी परिष्कृत दृष्टिकोण ही सुलझाता सरल बनाता हैं।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अध्यात्म की संजीवनी विद्या आज विकृत और उपहासास्पद रूप में प्रस्तुत हो रही है। धर्म व्यवसाइयों ने उसे कैसा विकृत, कुरूप एवं दुरूह बनाया है इसे देखकर रोना आता है। भोले लोग किस प्रकार उस आडम्बरी जंजाल में उलझकर अपना समय, श्रम और मनोयोग नष्ट कर रहे हैं यह कथा और भी अधिक करुणाजनक है। इन दिनों की इस दुर्गति के रहते हुए भी यथार्थता के तत्त्वज्ञान में कोई अन्तर नहीं आता। प्राचीन काल की तरह आज भी यदि कोई उसके वास्तविक स्वरूप को समझने और अपनाने का साहस करे, तो दीखेगा कि यह व्यक्तित्व के  समग्र विकास की, प्रगति के सर्वतोमुखी आधार की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रत्यक्ष प्रक्रिया है।

व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त सामूहिक जीवन का, समाज व्यवस्था का क्षेत्र आता है। किसी देश, समाज या राष्ट्र को किस प्रकार समुन्नत बनाया जा सकता है इसके लिए विविध स्तरों पर विविध प्रकार के चिन्तन एवं प्रयोग किये जा रहे हैं। सो उचित भी है क्योंकि व्यक्ति की तरह समाज भी बहुमुखी है और उसकी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक साधनों को जुटाना ही पड़ेगा। शासन, सैन्य, उद्योग, व्यवसाय, नियन्त्रण, शिक्षा, कला, विज्ञान, कृषि, पशु-पालन, चिकित्सा, विनोद प्रभृति अगणित आवश्यकताएँ समाज की है और उनकी पूर्ति यथावत की ही जानी चाहिए। पर साथ ही यह भूल नहीं जाना चाहिए कि किसी भी समाज या राष्ट्र की समर्थता का, प्रगति का प्रधान कारण उसका चरित्र एवं चिन्तन ही होता है। यदि वह घटिया और ओछा रहा तो तात्कालिक प्रगति के लक्षण भले ही चकाचौंध पैदा कर दें। भावनात्मक खोखलापन रहने पर तथाकथित प्रगति बालू के महल की तरह तनिक सा आघात लगने पर ढह जायेगी।

इस सन्दर्भ में विश्व इतिहास के पृष्ठ उलटने पर यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि जिन शासकों ने, जिन नेताओं ने अनैतिक आचरण अपना कर अपने वर्ग को लाभान्वित करने का, अपने समाज या राष्ट्र को समुन्नत बनाने का प्रयास किया वे क्षणिक उछाला लेकर सदा के लिए पतन के गर्त में विलीन हो गये। इसी प्रकार जो समाज नैतिक मर्यादाओं में उपेक्षा एवं अनास्था व्यक्त करने लगा वह विलासी बनकर रह गया। अनैतिक और उच्छृंखल आचरण अपना कर वह सुखी नहीं बन सका। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त होकर दुर्बल ही बनता चला गया। नीति सदाचार की मर्यादाएँ शिथिल होते ही अपराधी प्रवृत्तियाँ अराजक हो उठती हैं और उस आन्तरिक विद्रोह में कोई राष्ट्र बाह्य आक्रमण से भी अधिक जर्जर हो जाता है।

सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रगति के अनेक पक्ष हैं और वे सभी कार्यान्वित किए जाने चाहिए, पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि मूलभूत राष्ट्रीय सम्पदा उस देश के नागरिकों की भावनात्मक एवं कर्मात्मक उत्कृष्टता ही है। इसके रहते कोई निर्धन समाज भी अपनी गौरव गरिमा बनाए रह सकता है। अपनी स्वतन्त्रता सुरक्षित रख सकता है। यदि इस सम्पदा में कमी आती हो तो विशाल क्षेत्रफल, विशाल जनसंख्या, विशाल सेना और विशाल साधनों वाले देश को भी अन्तर्द्वन्द्वों से जर्जरित, दीन दुर्बल एवं परमुखापेक्षी होकर रहना पड़ेगा।

पूर्वकाल में साधन अति स्वल्प थे, सम्पत्ति भी कम ही थी, पर आन्तरिक स्तर ऊँचा रहने के कारण लोग उतने से ही स्वर्गोपम सुख शान्ति पाते थे और देवोपम जीवन जीते थे। आज भौतिक दृष्टि से हम पूर्वकाल की अपेक्षा हजार गुने सुसम्पन्न हैं, पर भावनात्मक हीनता के कारण वह समस्त प्रगति सुख के स्थान पर दुःख को ही बढ़ा रही है। भेड़ियों की तरह मनुष्य एक दूसरे के रक्त पिपासु बने हुए हैं ऐसा साधनों के अभाव में नहीं, भावनात्मक स्तर की निकृष्टता के कारण हुआ है।

राज सत्ता एवं अर्थ सत्ता विश्व की भौतिक स्थिति को प्रभावित कर सकती है। विज्ञान की प्रगति सुख-सुविधाएँ बढ़ाने वाले उपकरण प्रस्तुत कर सकती है। बौद्धिक शिक्षा की प्रगति से मनुष्य की मस्तिष्कीय क्षमता बढ़ सकती है। पर इन सब साधनों का समन्वय हो जाने पर भी व्यक्ति का अन्तःकरण समुन्नत नहीं बनाया जा सकता। और यह भी असन्दिग्ध है कि जब तक भूमिका परिष्कृत न होगी तब तक न तो चिन्तन उत्कृष्ट बनेगा और न कर्तृत्व श्रेष्ठ बनेगा। यह न हो सका तो व्यक्ति ओछा और निकृष्ट ही बना रहेगा। ऐसी दशा में उसका आन्तरिक पिछड़ापन असीम सुख साधनों के रहते हुए भी उसे शोक सन्ताप ग्रस्त बनाये रहेगा। न वह स्वयं चैन से रहेगा न दूसरों को चैन से रहने देगा। दूध पीने पर सर्प का विष बढ़ने की तरह आन्तरिक दुष्टता साधनों की वृद्धि के साथ-साथ और भी अधिक भयंकर बनेगी। विनाश को सर्वनाश की दिशा में अग्रसर करेगी।

पूँजीवादी देश धन के अभिवर्द्धन को और साम्यवादी देश धन के वितरण को महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं। दोनों वर्ग घुड़दौड़ में आगे निकलने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं, विज्ञान के क्षेत्र में भी यही बाजी लगी हुई है। बुद्धि तन्त्र विकसित करने के लिए शिक्षा संस्थान भी कुछ उठा नहीं रख रहे हैं। जन स्तर पर कला, शिल्प, विनोद, आरोग्य जैसे साधनों का अभिवर्द्धन पूरे उत्साह से चल रहा है। युद्ध तन्त्र अपनी चरम सीमा को छू रहा है। इतने विकट प्रयास प्रगति के नाम पर ही हो रहे है।

इनका यदि सूक्ष्म विवेचन किया जाय और प्रतिक्रिया को जाना जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि व्यक्ति की आन्तरिक उत्कृष्टता में वृद्धि न हो सकने के कारण यह समस्त भौतिक प्रगति व्यक्ति एवं समाज के अधःपतन में योगदान दे रही है। सुख-चैन, सन्तोष, उल्लास और स्नेह सद्भाव का क्रमशः अन्त ही होता चला जा रहा है। कारण कि मानवी अन्तःचेतना उपलब्ध साधनों को निकृष्ट प्रयोजनों में ही प्रयुक्त कर रही है फलतः सर्वत्र अशान्ति की ही वृद्धि हो रही है।

कानून, कचहरी, पुलिस, जेल की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो, यह निश्चित है कि नैतिक मूल्यों के प्रति अनास्थावान् नागरिकों को अपराधी गतिविधियाँ अपनाये रहने से पूर्णतया रोका नहीं जा सकता। व्यसन और अपव्यय के अभ्यस्त व्यक्ति कितनी ही बड़ी आजीविका रहने पर भी आर्थिक तंगी से मुक्त नहीं हो सकते। असंयमी के लिए आरोग्य दुर्लभ है भले ही वह निरन्तर पौष्टिक औषधियाँ खाता रहें। कटुभाषी मित्र देर तक नहीं रहेंगे भले ही उन पर कितना ही खर्च करता रहे। कुकर्मी की सन्तान सुसंस्कृत न बन सकेगी। भ्रष्टाचारी और कामचोर कर्मचारियों के रहते कोई शासन जन-कल्याण नहीं कर सकता। पशु प्रवृत्तियाँ भड़काने वाले साहित्यकार, कलाकार जिस देश में बढ़ेंगे, वहाँ प्रजाजनों की दुष्टता पर नियन्त्रण न किया जा सकेगा।

शासन तन्त्र ही सब कुछ नहीं है। धन की अभिवृद्धि ही सुख शान्ति का आधार नहीं है। शिक्षा ही सदाचरण की मूल नहीं है। हमें गहराई तक विचार करना होगा कि जिन तथाकथित समुन्नत देशों में विज्ञान, शिक्षा, धन और साधनों का बाहुल्य है वहाँ के प्रजाजन क्यों दुष्प्रवृत्तियों में अधिकाधिक ग्रसित होकर क्यों सर्वनाश की ओर जा रहे हैं, क्यों अपना और अपने राष्ट्र का भविष्य अन्धकारमय बना रहे हैं? खोज हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाएगी कि वैयक्तिक चरित्र को राष्ट्रीय प्रगति का अंग मानकर भारी भूल की गयी। व्यक्तिगत जीवन में कुछ करने की छूट सामाजिक हस्तक्षेप से निजी जीवन को पृथक रखने का नारा हिप्पीवाद को जन्म दे रहा है, उस नैतिक अराजकता को जन्म दे रहा है जो समाज व्यवस्था का सर्वनाश करके रहेगी।

मनुष्य मशीन नहीं है, उसे मात्र भौतिक साधनों के आधार पर ही सुसंचालित नहीं रखा जा सकता। उसमें चेतना भी है और उस चेतना को उत्कृष्ट चिन्तन एवं परिष्कृत वातावरण का पोषण न मिलेगा तो निश्चय ही मानवीय उत्कृष्टता समाप्त होती चलेगी और उस समाज की जड़े खोखली करेगी।

राष्ट्र या समाज को सुस्थिर सुदृढ़ और समुन्नत रखने के इच्छुकों को भौतिक उन्नति की ही रट नहीं लगाये रहना चाहिए, वरन् यह भी देखना चाहिए कि वैयक्तिक उत्कृष्टता को पोषण देने वाले आधार विकसित हो रहे हैं या नहीं। यदि उस ओर उपेक्षा बरती जा रही है तो समझना चाहिए प्रगति थोथी, खोटी और उथली है। उस प्रवंचना से मिथ्या मन बीलाव भले ही किया जाता रहे, राष्ट्रीय उत्कर्ष का ठोस आधार न बनेगा। विचारशील समाज सेवियों, दूरदर्शी देश भक्तों और मानवता प्रेमी विश्व नागरिकों का कर्तव्य है कि वे आत्मिक प्रगति की बात सोचें। चरित्र निर्माण के आधार स्थापित करें और पत्ते धोने की अपेक्षा जड़ सींचने की बात को महत्त्व दें।

भावनाओं को प्रभावित करने वाले समस्त साधनों और आधारों को अवांछनीय हाथों से निकालकर उन उत्तरदायी हाथों में सौंपे जाने चाहिए जो उनका उपयोग शीलता एवं उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकें। प्रजातन्त्र में नागरिक आजादी होती है सो सही, पर वह आजादी आग लगाने और विष खिलाने की आत्महत्या की नहीं होनी चाहिए। यदि प्रजातन्त्र के साथ, नागरिक अधिकारों के साथ ऐसी सर्वनाशी आजादी जुड़ गई है तो उसे विचारा और सुधारा जाना चाहिए। आज साहित्यकार क्या रच रहा है, प्रकाशक क्या छाप रहा है, गायक क्या गा रहा है, अभिनय और रंग मंच जन-मानस पर क्या छाप छोड़ रहा है, चित्रकार द्वारा क्या चित्रित किया जा रहा है इसकी ओर से आँखें बन्द किए रहना भेड़ियों को छूट देकर शिशुओं के लिए प्राण संकट उत्पन्न करने की तरह है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि विचारों को प्रभावित करने वाले साधनों को उच्छृंखलता की दिशा में खुली छूट देकर व्यक्ति और समाज का भविष्य अन्धकारमय बनाने की प्रक्रिया को मूक दर्शक की तरह देखा जा रहा है और उसे रोकने के लिए अपंग, असमर्थों की तरह मौन रहा जा रहा है।

धर्म और अध्यात्म के नाम पर जो कूड़ा करकट जन मानस के गले उतारा जा रहा है उससे आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक किसी की कुछ सेवा होना तो दूर उलटे अज्ञान, अन्धकार और प्रपंच, पाखण्ड को प्रोत्साहन मिल रहा है। उचित यह था कि जन मानस को प्रभावित करने में समर्थ इस धर्म मंच को हाथ में लेने के लिए प्रगतिशील लोग आगे आते और उलूक शृंगालों को विडम्बनाएँ फैलाने से रोकने के लिए जनता को प्रशिक्षित करते। पर अपने देश में तो राजनीति से लाभान्वित होने की हर किसी को आपाधापी पड़ी है। हर कोई उसी भीड़ में घुसने के लिए व्याकुल है। मानों देश सेवा का और कोई क्षेत्र बना ही नहीं। कितना अच्छा होता यदि राजनैतिक धक्का-मुक्की में घुसकर विग्रह उत्पन्न करने के स्थान पर कुछ सच्चे लोक-सेवी जन मानस को भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत करने को अपना कार्यक्षेत्र बनाते और उसी में अपने को खपा देते।

प्रज्ञा अभियान के रचनात्मक प्रयोजनों के अन्तर्गत ऐसे अनेकों आधार हैं जिन्हें अपनाकर लोक चिन्तन की दिशा मोड़ी जा सकती हैं। भ्रष्ट साधनों में लोक मानस को दूषित करने में संलग्न दुष्प्रवृत्तियों से झगड़ना ही काफी नहीं, वरन् उसकी तुलना में हर क्षेत्र में उत्कृष्टता विकसित करने वाले साधन खड़े करने होंगे। श्रेष्ठता के अभाव में लोग निकृष्टता अपनाते हैं। निकृष्टता की निन्दा करना ही काफी नहीं वरन् उसका विधायक तरीका यह है उत्कृष्ट आधारों को विकसित करने में सृजनात्मक शक्तियाँ इस प्रकार जुट जायें कि जनता को भले-बुरे का अन्तर पहचानने, दोनों में से किसी एक का वरण करने का अवसर मिल सकें। जब तक भ्रष्टता ही स्वच्छन्द विचरण करती है जन मानस को प्रभावित करने की सारी क्षमता उसी के हाथ है तब तक अपकर्ष जीतता रहेगा। उत्कर्ष को असफल, असहाय ही रहना पड़ेगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

30.    अध्यात्म अपने परिष्कृत रूप में हमारे जीवन में उतरे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


अध्यात्म की तुलना अमृत, पारस और कल्पवृक्ष से की गई है। इस महान् तत्त्वज्ञान के सम्पर्क में आकर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को, बल और महत्त्व को, पक्ष और प्रयोजन को ठीक तरह समझ लेता है। इस आस्था के आधार पर विनिर्मित कार्य पद्धति को दृढ़ता पूर्वक अपनाये रहने पर वह मानव बन जाता है, भले ही सामान्य परिस्थितियों का जीवन जीना पड़े। अध्यात्मवादी की आस्थाएँ और विचारणाएँ इतने ऊँचे स्तर की होती हैं कि उनके निवास स्थान अन्तःकरण में अमृत का निर्झर झरने जैसा आनन्द और उल्लास हर घड़ी उपलब्ध होता रहता है।

अध्यात्म निस्संदेह पारसमणि है। जिसने उसे छुआ वह लोहे से सोना हो गया। गुण, कर्म और स्वभाव में महत्तम उत्कृष्टता उत्पन्न करना अध्यात्म का प्रधान प्रतिफल है। जिसकी आन्तरिक महानता विकसित होगी, उसकी बाह्य प्रतिभा का प्रखर होना नितान्त स्वाभाविक है। और प्रखर प्रतिभा जहाँ कहीं भी होगी, वहाँ सफलतायें और समृद्धियाँ हाथ बाँधे सामने खड़ी दिखाई देंगी। लघु को महान् बनाने की सामर्थ्य और किसी में नहीं, केवल अन्तरंग की महत्ता गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता में है। इसी को अध्यात्म उगाता, बढ़ाता और सँभालता है, फलस्वरूप उसे पारस कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं। उसे पाकर अन्तःरंग ही हर्षोल्लास में निमग्न नहीं रहता, बहिरंग जीवन भी स्वर्ग जैसी आभा से दीप्तिमान होता है। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस प्रतिपादन से भरा पड़ा है कि इस तत्त्वज्ञान को अपनाकर कितने कलुषित और कुरूप लौहखण्ड स्वर्ण जैसे बहुमूल्य, महान, अग्रिणी एवं प्रकाशवान बनने में सफल हुए हैं।

कल्पना की ललक और लचक ही मानव जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण है। कल्पना लोक में उड़ने वाले ही कलाकार कहलाते हैं। सरसता नाम की जो अनुभूतियाँ हमें तरंगित, आकर्षित एवं उल्लसित करती हैं, उसका निवास कल्पना क्षेत्र में ही है। भावनाओं में ही आनन्द का उद्गम है। आहार, निद्रा से लेकर इन्द्रिय तृप्ति तक की सामान्य शारीरिक क्रियाएँ भी मनोरम तब लगती हैं, जब उनके साथ सुव्यवस्थित भाव कल्पना का तारतम्य जुड़ा हो, अन्यथा वे नीरस एवं भार रूप क्रिया-कलाप मात्र बनकर रह जाती हैं। उच्च कल्पनायें अभाव ग्रस्त, असमर्थ जीवन में भी आशाएँ और उमंगें संचारित करती रहती है। संसार में जितना शरीर सम्पर्क से उत्पन्न सुख है, उससे लाख-करोड़ गुना कल्पना, विचारणा एवं भावना पर अवलम्बित है। उस दिव्य संस्थान को सुव्यवस्थित करने और परिस्थितियों के साथ ठीक तरह ताल मेल मिला लेने की पद्धति का नाम अध्यात्म है। इसलिए उसे कल्पवृक्ष भी कहते हैं।

अलंकारिक रूप से कल्पवृक्ष उस पेड़ का नाम है, जिसके नीचे बैठकर हर कल्पना, कामना को पूर्ण करने का अवसर मिल जाता है। मोटे अर्थ में जैसा कि कल्पवृक्ष को समझा जाता है, यदि उस तरह का अस्तित्व रहा होता तो सारे संसार में तबाही उत्पन्न हो जाती। सामान्य मनुष्य वासना, तृष्णा, द्वेष, लोभ-मोह का पुतला होता है और वे लिप्साएँ ऐसी हैं, जो कभी तृप्त नहीं होती। जितना मिलता है, उतनी ही बढ़ती जाती हैं। यदि कथित कल्पवृक्ष कहीं होता और ओछा मनुष्य कुछ घण्टे के लिये भी उसके नीचे बैठ जाता तो सारी विश्व वसुधा को अपनी मुट्ठी में करके सबका सुख, सौभाग्य छीन लेता और स्वयं निरकुंश स्वेच्छाचार बरतता। इसी से इस पृथ्वी पर कल्पवृक्ष नहीं है और सामान्य मनुष्य उसका लाभ नहीं ले सकते।

पृथ्वी का कल्पवृक्ष अध्यात्म है। उसकी छाया में बैठने पर अनावश्यक, अवांछनीय, अनुपयुक्त कल्पनायें स्वयंमेव तिरोहित हो जाती हैं। जो उचित, उपयुक्त है, वे ही शेष रह जाती हैं। उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक पुरुषार्थ करने की तत्परता अध्यात्मवादी में उत्पन्न होती है, तदनुसार वह अभीष्ट मनोरथ सरलता पूर्वक पूर्ण करता चला जाता है। बाधा केवल लोभ मोह की पूर्ति में आती है। सरल सौम्य और शुभ कल्पनायें, संयम सेवा और सज्जनता से ओत-प्रोत सद्भावनाएँ हर परिस्थिति में हर मनुष्य तृप्त करता रह सकता है। अध्यात्म निस्संदेह कल्पवृक्ष है, वह जिस अन्तःकरण में उगेगा, वहाँ न अवांछनीय कल्पनायें उगेंगी और न उनकी पूर्ति में बाधा उत्पन्न होने से असन्तोष उत्पन्न होगा। अध्यात्मवादी व्यक्ति सदा सब परिस्थितियों में अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण हँसता, मुस्कराता, तृप्त और सन्तुष्ट देखा जा सकता है। कल्पवृक्ष का यही तो प्रतिफल होना चाहिए सो अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला कोई भी कभी भी यह लाभ परिपूर्ण मात्रा में ले सकता है।

पुरुष को पुरुषोत्तम, आत्मा को परमात्मा, नर को नारायण और लघु को महान् बनाने की विद्या का नाम अध्यात्म है। धन और बल पाकर लोक में बड़े आदमी बन सकते है, पर महापुरुष बनने का श्रेय केवल आत्मबल सम्पन्न को मिलता है। ऐसे व्यक्ति की आन्तरिक विभूतियाँ इतनी स्थिर और प्रकाशवान होती हैं कि चिरकाल तक दूरवर्ती लोगों तक उनका उत्कर्ष प्रद प्रकाश पहुँचता रहता है। अपने को तो असीम शांति एवं तृप्ति मिलती ही है।

महापुरुष स्वयं धन्य बनते हैं और चन्दन वृक्ष की तरह अपनी सुगन्ध से समीपवर्ती सारे वातावरण को सुगन्धित कर देते हैं। दीपक की तरह वे स्वयं प्रकाशवान् होते है और अपने समीपवर्ती क्षेत्र का अन्धकार दूर कर वहाँ दूसरों की आँखें सार्थक बनाने वाली रोशनी उत्पन्न करते है। बड़प्पन की इच्छा ओछे व्यक्ति करते है, पर जिनका दृष्टिकोण विशाल है उन्हें महापुरुष बनने की ही आकाँक्षा रहती है और अध्यात्मवादी आस्थाएँ उन्हें उस लक्ष्य तक सफलता एवं सरलता पूर्वक पहुँचा भी देती हैं। बड़प्पन में विकृतियों की आशंका पग-पग पर विद्यमान है पर महानता का पथ निर्द्वन्द्व है। इसी से दूरदर्शी लोग बड़प्पन को तिलाञ्जलि देकर महानता का अवलम्बन लेते हैं और मनुष्य जीवन की सार्थकता का आनन्द लेते हैं।

भारत की एकमात्र विशालता एवं सम्पदा उसकी अध्यात्मवादी आस्था ही रही है। इसी से उसे पृथ्वी का स्वर्ग और देवताओं का निवास स्थल कहलाने का सौभाग्य प्रदान किया और समस्त संसार के सामने हर क्षेत्र में हर दृष्टि से सम्मानित अग्रणी बना रहा। जहाँ आन्तरिक उत्कृष्टता होगी वहाँ बाह्य सामर्थ्य एवं समृद्धि की कमी रह ही नहीं सकती। यही विशेषताएँ हमें समस्त विश्व का मार्गदर्शन करने एवं विविध अनुदान दे सकने योग्य बनाये रह सकीं। अपनी इस विशेषता को खोया तो मणिहीन सर्प की तरह खोखले हो गये।

संसार वालों ने अध्यात्म का प्रथम पाठ पढ़ा है और वे सांसारिक उन्नति की दिशा में बहुत आगे बढ़ गये। साहस, पुरुषार्थ, श्रम, तन्मयता, स्वावलम्बन, नियमितता, व्यवस्था, स्वच्छता सहयोग जैसे गुण अध्यात्म के प्रथम चरण में आते हैं। इन्हें यम नियम की परिभाषा में अथवा धर्म के दस लक्षणों में गिना जा सकता है। पाश्चात्य देशों ने उतना भर सीखा है। इन्हीं गुणों ने उन्हें शारीरिक, बौद्धिक, संगठनात्मक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरपूर कर दिया। जो देश कुछ समय पहले तक गई गुजरी स्थिति में पड़े थे, उन्होंने अध्यात्म का प्रथम चरण सद्गुणों के रूप मे अपनाया और आश्चर्य जनक भौतिक उन्नति कर सकने में सफल हो गये। यदि वे दूसरे चरण उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की भूमिका में प्रवेश कर सके होते, आस्तिकता एवं आत्मवादी तत्व ज्ञान को भी अपना सके होते, अध्यात्मवाद का अगला चरण भी बढ़ा सके होते तो उनकी भी वही महानता विकसित हुई होती जो कभी इस भारत भूमि के निवासी महामानवों में निरन्तर प्रस्फुटित होती थी।

अध्यात्म का तत्त्वज्ञान मनुष्य को आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की विचारणा से ओत प्रोत, भावनाओं से विभोर एवं प्रक्रिया से तत्पर बनाये रखने वाला दार्शनिक अवलम्बन है। हम ईश्वर के सत् चित् आनन्द स्वरूप अविनाशी अंग हैं, अस्तु अपनी महानता को अक्षुण्ण बनाये रखें। मानव जीवन महान प्रयोजन के लिये चिरकाल उपरान्त मिला है, उसका उपयोग उच्च प्रयोजनों के लिये करें। ईश्वर सर्वव्यापी, निष्पक्ष एवं न्यायकारी है, उसके दण्ड एवं कोप से बचने के लिये दुर्भावनाएँ एवं दुष्प्रवृत्तियाँ त्यागें। समस्त प्राणी ईश्वर के पुत्र और भाई हैं, इसलिये उनके साथ सद्व्यवहार करें। अपने पाशविक कुसंस्कारों को हटाने के लिये संघर्ष, साधना, तितीक्षा, संयम एवं तपश्चर्या का अभ्यास करें। फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटाने का पुरुषार्थ कर अपने आत्म बल को विकसित करें। आदर्श जीवन जीकर दूसरों के लिये प्रकाश प्रदान करने वाले उज्ज्वल नक्षत्र सिद्ध हों। उन विचारों से ओत-प्रोत रहें जिनसे शांति मिले। इन्हीं आस्थाओं को हृदयंगम कराने के लिये सारा धर्म कलेवर खड़ा किया है। समस्त कर्मकाण्डों के पीछे इन्हीं आस्थाओं को जीवन में उतारने का मनोवैज्ञानिक उद्देश्य छिपा पड़ा है।

पर आज के प्रचलित तथा कथित अध्यात्म की दिशा बिलकुल उल्टी है। वह व्यक्ति को भावनात्मक उत्कर्ष की ओर उठाने की अपेक्षा पतनोन्मुख बनाने में सहायक हो रहा है। भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए तीर्थ स्नान, देव-दर्शन, भजन-कीर्तन आदि के कर्मकाण्ड ही पर्याप्त मान लिये गये है। लोगों ने यह सोचना छोड़ दिया है कि इन कर्मकाण्डों का उद्देश्य भगवान की न्यायकारी सर्वव्यापक सत्ता का हर घड़ी स्मरण दिलाते रहना मात्र है। इस स्मरण का प्रयोजन यह है कि व्यक्ति सबमें ईश्वर की झाँकी करके हर किसी से सद्व्यवहार में निरत रहे। न्यायकारी के न्यास से डरे और कुछ का कुछ करके फल भोग से बच जाने की बात न सोचे। यदि देव-दर्शन, भजन-कीर्तन आदि के द्वारा उपरोक्त सदाचरण एवं परमार्थ की भावना उदय हो तो ही इन कर्मकाण्डों का महत्त्व है। अन्यथा प्रशंसा करके या प्रसाद खिलाकर परमेश्वर के वरदान, आशीर्वाद पाने की ललक एक भ्रम भरी विडम्बना ही कही जायेगी।

भाग्यवाद एवं ईश्वर की इच्छा से सब कुछ होता है जैसी मान्यताएँ विपत्ति में असन्तुलित न होने एवं सम्पत्ति में अहंकारी न होने के लिये एक मानसिक उपचार मात्र है। हर समय इन मान्यताओं का उपयोग अध्यात्म की आड़ में करने से तो व्यक्ति कायर, अकर्मण्य और निरुत्साही हो जाता है। सोचता है, अपने करने से क्या होगा, जो भाग्य में होगा, ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। पुरुषार्थ की दौड़-धूप करने से क्या लाभ? इस प्रकार की मान्यता वाले की प्रगति का क्रम समाप्त हो गया ही समझना चाहिये।

देव शक्तियों से लोग अपने में देवत्व के अवतरण की माँग करते, उनकी विशेषताओं, प्रेरणाओं एवं महानताओं को अपने में जागृत करने की आशा रखते तो देव पूजन का प्रयोजन सिद्ध होता। पर अब तो लोग देव पूजन इस शर्त पर करते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना बिना पुरुषार्थ किये अथवा योग्यता उत्पन्न किये ही देव कृपा से अनायास ही पूरी हो जाय। इस विकृति का परिणाम यह हुआ कि लोग अपनी योग्यता बढ़ाने एवं पुरुषार्थ करने में जो प्रयत्न करते उन्हें छोड़कर परावलम्बी होते चले गये और उन्हें दीन-दरिद्र रहना पड़ा। उल्टी और विकृत मान्यताएँ किसी को कुछ लाभ नहीं दे सकती केवल दुर्बलता और हानि ही प्रस्तुत कर सकती हैं।

अध्यात्म का तात्पर्य है आत्मा की परिधि का विस्तार। अपने अहम् को, स्वार्थ परता को, संकीर्ण परिधि को, विश्व मानव के लिये परमात्मा के लिये उत्सर्ग कर देना यही आत्मिक प्रगति का एकमात्र चिन्ह है। अनादिकाल से यही परम्परा चली आ रही है कि जो अपने व्यक्तिगत लोभ-मोह, यश एवं सुख का जिस हद तक विश्व मंगल के कृत्य में परित्याग करता है, वह उसी सीमा तक परमात्मा के सान्निध्य में पहुँचा माना जाता है। पर अब तो ठीक उलटा है। जो जितना स्वार्थी, संकीर्ण, अनुत्तरदायी अकर्मण्य है, वह उतना ही त्यागी-तपस्वी है। सबके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझकर आत्मसुख को लोक-मंगल में घुला देने की प्रवृत्ति अब अध्यात्मवादियों में दिखाई नहीं पड़ती वरन् लोग अपनी भौतिक सुख सुविधाओं की अभिवृद्धि के लिये ईश्वरीय सहायता की याचना-कामना किया करते हैं और उसी तराजू पर दैवी कृपा या अकृपा का अपनी पूजा-पत्री की सफलता का मूल्यांकन करते हैं। फलस्वरूप अब अध्यात्म व्यक्तिवाद का पोषक बनता जाता है और ऋद्धि-सिद्धियों से लेकर स्वर्ग मुक्ति तक विभिन्न स्तर के स्वार्थों की पूर्ति के लिये लिप्साएँ उत्पन्न करता है। यह स्तर बदला न गया तो तत्त्वज्ञान का महान् दर्शन मानव जाति के लिये और अधिक विपत्ति उत्पन्न करने वाला बनता चला जायेगा।

अध्यात्म दर्शन में उत्पन्न हुई विकृतियों ने हमारा मानसिक और सामाजिक ढाँचा चरमरा कर रख दिया है। विद्या, सदाचार, लोक-सेवा और उदात्त मनोभूमि के कारण पूजे जाने वाले साधु ब्राह्मण जब वंश और वेश के आधार पर पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे, तो उन महान् गुणों की ओर ध्यान देना ही बन्द हो गया। ओछे लोग जहाँ भी पूजे जायेंगे, वहाँ विकृतियाँ ही बढ़ेंगी, कर्म के आधार पर आरम्भ हुआ वर्णाश्रम धर्म जब वंश पर अवलम्बित हो गया और उसमें नीच-ऊँच का भेदवाद घुस गया तो ब्राह्मण दुर्गुणी होने पर भी पूजा जाने लगा और शूद्र सद्गुणी होने पर भी दुत्कारा जाने लगा। जहाँ गुणों का वर्चस्व समाप्त हो जाये और अकारण ही लोगों को मान या अपमान मिलने लगे तो वह समाज अपनों की और दूसरों की दृष्टि में अधःपतित होगा ही।

ओछा तत्व-दर्शन अपनाये रहने वाला व्यक्ति और समाज कभी भी ऊँचा नहीं उठ सकता। दर्शन ही प्रेरणाओं का आधार है। उसी के अनुरूप विचारणाएँ, आकांक्षाएँ और क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं। दर्शन ही व्यक्ति को ढालता है और उसी ढाँचे में समाज का कलेवर खड़ा होता है। हम अपने समाज और संसार को समर्थ, समृद्ध और सुविकसित बनाना चाहते हो तो उसका सर्व प्रमुख उपाय यही है कि वर्तमान विकृतियों का परिशोधन किया जाय।

यदि इस स्थिति को सुधारा, सँभाला और बदला न गया तो भावी परिस्थितियाँ दिन-दिन अधिक भयावह होती चली जायेंगी। वैयक्तिक जीवन में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता उत्पन्न करने वाला जब प्रकाश ही बुझ जायेगा तो अन्धकार में भटकने वाला दुर्दशा ग्रस्त ही होगा।

आज की महत्तम आवश्यकता यह है कि हमारा तत्त्वज्ञान और दर्शन अपने सौम्य पथ से भ्रष्ट होकर जिस अवांछनीयता की दिशा में चल पड़ा है, उसे रोका और टोका जाये। दिग्भ्रान्त जन मानस को वस्तु स्थिति से परिचित कराया जाय और अध्यात्म के महान स्वरूप, उपयोग एवं प्रतिफल से भली-भाँति परिचित कराया जाये।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार