गुरुसत्ता को श्रद्धांजलि
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
गुरुसत्ता को श्रद्धांजलि
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह मौलिकता है कि वे सारगर्भित भी हैं, सम्वेदना को जगाने वाले भी हैं और संकल्प को मजबूत करने वाले भी हैं। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में वे कुछ इसी तरह की भावनाएँ प्रत्येक परिजन के हृदय में जगाती दृष्टिगोचर होती हैं। परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के उपरान्त आयोजित श्रद्धांजलि समारोह के अवसर पर दिए गए उनके इस व्याख्यान में वे सभी परिजनों को आश्वस्त करती हैं कि वे स्वयं एवं परमपूज्य गुरुदेव, दो नहीं, बल्कि एक चेतना एवं एक सत्ता हैं । वन्दनीया माताजी यह कहती हैं कि पूज्य गुरुदेव से एकाकार वही हो सकता है, जो उनके उद्देश्य के प्रति स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दे और ऐसा करने वाला फिर कभी कैसे भी नुकसान में नहीं रह सकता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को...
गुरुदेव और माताजी एक हैं
गायत्री मन्त्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
बेटियो, आत्मीय प्रज्ञा परिजनो ! उपस्थित हमारे आत्मीय जनो ! बाहर से आए हुए हमारे परिजन, विदेशों से आए हुए हमारे परिजन, सभी का, सभी बच्चों का यहाँ हार्दिक स्वागत करती हूँ, जो इतनी कठिनाइयाँ सहकर के, न जाने कितनी-कितनी इन्होंने गाड़ियाँ बदलीं, कितने-कितने दिनों में बच्चे यहाँ आए हैं, इनकी श्रद्धा का मैं स्वागत करती हूँ और साथ ही आशीर्वाद हमारा और गुरुजी, दोनों का आप सभी को है।
हम दोनों एक ही हैं, एक ही रूप में दोनों हैं। गुरुजी और हम अलग-अलग नहीं हैं, शरीर से भले ही अलग हो गए हों; लेकिन उनकी दिव्यचेतना मेरे अन्दर पूर्णतः समायी हुई है।
मैं नहीं समझती कि वे मुझसे अलग हैं। मैं दाएँ और बाएँ, आगे और पीछे उनका संरक्षण पाती है और उनकी प्रेरणा हर क्षण मुझको मिलती रहती है। आप लोगों को उपस्थित किया गया है, बुलाया गया है, आमन्त्रण दिया गया है, आखिर क्यों ?
इस सन्दर्भ में मैं कहना चाहूँगी कि जो गुरुजी के पावन सन्देश एवं जो पावन प्रेरणाएँ, जो उन्होंने चलते समय मुझे बुलाकर बताईं, वे सभी मैं आपको सुनाना चाहती हूँ। व्याख्यान नहीं, व्याख्यान मुझे न कभी आया, न आएगा और न मैं अभी व्याख्यान कर रही हूँ।
मैं तो अपने बालकों से, अपने परिजनों से अपने दिल की एक बात कहना चाहती हूँ, जो कि महाप्रयाण से पहले बैठा करके मुझसे उन्होंने कही, वही मैं सन्देश आपको सुनाना चाहती हूँ, जो पावन सन्देश के रूप में है।
चूँकि आपको यहाँ बुलाया गया, आप यह न समझें कि आपका श्रम निरर्थक गया है, आपका अर्थ निरर्थक गया। निरर्थक नहीं गया है, आपका धन सार्थक में लग गया, आपके श्रम की बहुत आवश्यकता है। इस देश को इस महान कार्य में आपके दान की बहुत आवश्यकता थी और हमने महसूस किया कि हमारे परिजनों में, हमारे बच्चों में वह शक्ति संघशक्ति की प्रतीक है, इसलिए हमने आपको इकट्ठा किया।
चूँकि दो जून के बाद अथवा उस समय हम आपको बुला नहीं सकते थे, जो कि अपने पिता के लिए आप श्रद्धांजलि देते। समय बीतता गया, अन्त:प्रेरणा हुई कि क्यों न अपने बालकों को जो दूर-दूर देशों में फैले हुए हैं, अपने राष्ट्र में विभिन्न प्रान्तों में फैले हैं, इनको एकत्रित किया जाए और उस सन्त को—ऋषि को, उस पिता को एक संकल्पशक्ति के रूप में श्रद्धांजलि प्रस्तुत करें। इसलिए मैंने आपको यह कष्ट दिया। मुझे मालूम है कि कितना आपने श्रम किया है ? आपके हाथों में छाले पड़े हैं, मुझे मालूम है।
आपका कष्ट हमारा कष्ट
बेटे ! मेरे मन में छाले पड़े हैं, तुम्हारे हाथों में पड़े हैं। मेरे मन में पड़े हैं, मेरा मन बहुत कोमल है। दृढ़ भी ऐसा है कि एक चट्टान के तरीके से। हमारे संकल्प के सामने चट्टान को भी चूर होना पड़ेगा। मेरा हृदय इतना दृढ़ है और इतना कोमल है कि अपने बच्चों के दुःख को देखकर के मन विह्वल हो जाता है कि यह कष्ट हमारे ऊपर क्यों नहीं आया ? हमने क्यों नहीं सहा ?
जिस तरीके से शंकर जी ने विष पिया था जनहित के लिए, इसी तरह हम भी अपने परिवारीजनों के लिए, जिसको हम अपना विशाल परिवार कहते हैं, इनके कष्टों को हलाहल की तरह से क्यों न पी जाएँ ? जरूर अनुभव भी किया और पिया भी। शायद आप में से हजारों की तादाद में परिजन सोच बैठे होंगे कि किन-किन कठिनाइयों में से, किन- किन परेशानियों में से उनको उबारा गया है, निकाला गया है दलदल से । किस नरक की अग्नि में वे झुलस रहे थे और आज इनको एक स्वर्ग तक ला पहुँचाया है, यह कैसे सम्भव हुआ ?
ऋषि विश्वामित्र ने जो तपस्या की थी, तो केवल एक के लिए नई सृष्टि स्थापित की थी। इस विश्वामित्र ने करोड़ों जो हमारे भारतवासी हैं, उनके लिए और सारे विश्व में जो मानवमात्र फैला हुआ है, उसके कल्याण के लिए, उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए, उन्होंने बीड़ा उठाया और कहा कि हम स्वर्ग स्थापित करके रहेंगे और हम बताएँगे कि स्वर्ग क्या होता है और नरक क्या होता है ? खुदगर्ज क्या होता है और परोपकारी क्या होता है ?
क्या है ब्राह्मणत्व
ब्राह्मणत्व क्या होता है ? असली ब्राह्मण कौन होता है, क्या हो सकता है, उसके गुण क्या हैं ? उसका आदर्श क्या है ? उसकी भावनाएँ क्या हैं ? ब्राह्मण एक ही हो सकता है, वह हो सकता है—जिसके अन्दर करुणा, दया, सम्वेदना, ज्ञान को बाँटने की, अज्ञानता के अँधेरे से निकालने की पीर है, यही ब्राह्मण की पहचान है।
आगे मैं यह निवेदन करूँगी कि जो महाप्रयाण के वक्त उससे दो-चार दिन पहले मुझे बुलाकर उन्होंने सन्देश दिया था, उसी सन्दर्भ में मुझे दो उदाहरण याद आ रहे हैं। भगवान बुद्ध ने अपनी सांसारिक जो कार्यप्रणाली थी, उसे समेटने वाले दिन अपनी नित्य साधना प्रारम्भ की, तो उनका एक मुँहलगा शिष्य था—आनन्द। उसने यह कहा—"गुरुदेव आप यह बताइए कि आप तो इस साधना में लग गए, तो हमें प्रेरित कौन करेगा? आप यह तो बताइए कि हमको करना क्या है ?" तो उन्होंने कहा—"एक ही कार्य है कि सारे विश्व में फैल जाओ। हर देश के चप्पे-चप्पे में आप जाकर फैल जाइए।"
उनके महाप्रयाण के बाद उन शिष्यों ने उस सन्देश को फैलाया और आगे बढ़ चले। जड़ें हिन्दुस्तान में रहीं; लेकिन टहनियाँ और पत्ते सारे संसार में फैलते चले गए। चीन से लेकर कोरिया, श्रीलंका से लेकर थाईलैंड तक और न जाने कहाँ-कहाँ तक सारे विश्वभर के देशों में बौद्ध धर्म फैलता हुआ चला गया।
यह निर्देश था उन बुद्ध का, जो धर्मचक्र के प्रवर्तक थे। उन परिस्थितियों में यह बहुत बड़ी आवश्यकता थी।
घर-घर अलख जगाएँ
बेटे! यही परिस्थितियाँ आज भी बिलकुल विद्यमान हैं। इसके लिए बहुत आवश्यक है, चाहे आप इसे निर्देश समझिए, चाहे अनुनय-विनय, एक ही है, वह संस्था एक ही है, वह मार्गदर्शक—एक ही है, वह प्रेरणास्त्रोत जो आगे आपको लेकर चल सकता है।
आप लोग चलना चाहें, तो वह है आपके गुरु एवं मिशन। जैसे कि मैंने अभी आपसे निवेदन किया था कि सारे नगरनिवासी, जो भी कोई आता है, वह यह कहता चला जाता है कि अरे! माताजी! हमने हजारों संस्थाएँ देखी हैं; लेकिन यहाँ के जैसा कहीं देखा ही नहीं। आपके ये बच्चे क्या हैं ? इनकी तो हथेलियाँ चूमने लायक हैं।
मुझे गर्व होता है—मैं यह समझ रही थी कि मैं अपने ही शरीर से जुदा हो गई हूँ, मैं अकेली हो गई हूँ। नहीं, मुझे हर समय अनुभूति है, अभी भी मुझे अनुभूति है। अभी भी ऐसा मालूम पड़ रहा है कि वे मेरे निकट पास ही बैठे हैं। फिर भी शरीर की जो जुदाई होती है, इतने तो हम वैरागी नहीं हैं कि हम उन्हें भूल जाएँ। वे भुला दिए जाएँ।
उस परमसत्ता को हम कैसे भुला सकते हैं ? उस सन्त को मैं क्या, आप में से कोई भी भुला नहीं सकता। आपको यह काम हाथ में लेना चाहिए, जो भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को निर्देश दिया था, वही निर्देश आप पर भी लागू होता है कि आपको भी घर-घर अलख जगाना है।
हर व्यक्ति को उठाने के लिए पहले स्वयं को उठाना पड़ता है, स्वयं को ब्राह्मण जीवन जीना पड़ता है, अपने लिए कम, दूसरों के लिए ज्यादा। इसी सन्दर्भ में एक दूसरा उदाहरण मुझे याद आ गया कि गुरु नानक जा रहे थे भ्रमण के लिए।
एक गाँव पड़ा, कसबा पड़ा। जहाँ जाकर उन्होंने विश्राम किया, तो जो उनकी शिष्यमंडली थी, उन्होंने यह कहा—"भगवान! यहाँ के जो निवासी हैं, नरक में रहते हैं। जो भी दुर्गुण हैं, उन सब अवगुणों से ये सम्पन्न हैं। अभक्ष खाने से लेकर शराब पीने तक और भी जो-जो गन्दी आदतें हैं, सारी की सारी इनमें हैं।
ऐसी कटुता से भरी जिन्दगी है। गृहस्थ जीवन देखें, तो आग लगी पाएँगे। धू-धू जलते हुए, इनका यह रहन-सहन है। ऊपर के लिफाफे से देखने में तो टीपटॉप हैं, ऐसे मालूम होंगे कि बस, क्या कहने के, किन्तु भीतर घोर गन्दगी व्याप्त है।" जब सुबह हुई और वे जाने लगे, तो गाँववालों ने कहा—हमारे लिए कोई आशीर्वाद। उन्होंने कहा—बच्चो! आप आबाद रहें, आबाद हो जाइए। आगे जब चले, तो एक और गाँव नजर आया।
विश्राम करके जब जाने लगे, तो फिर उनके शिष्यों ने कहना शुरू किया कि भगवान! यहाँ जो भी व्यक्ति हैं—बड़े श्रद्धालु, भक्ति से ओत-प्रोत और सादा जीवन उच्च विचार, सेवाभावी, सहायक, दूसरों के प्रति मर-मिटने वाले, ऊँचा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, यहाँ तो साक्षात् स्वर्ग है, ऐसा मालूम पड़ता है कि आकाश से उतरकर स्वर्ग पृथ्वी पर आ गया है।
उनको बहुत प्रसन्नता हुई। प्रसन्नता हुई, तो उन्होंने चलते वक्त उनको आशीर्वाद दिया कि आप बरबाद हो जाइए। मगर यह क्या कह रहे हैं ? उनको आबाद, इनको बरबाद ? शिष्यों की शंका का समाधान उन्होंने किया और यह कहा—"देखो! जो गन्दगी है, वह ढककर रखी जाती है; ताकि सारे समाज में काफी बदबू न फैले और अच्छाइयाँ होती हैं, वह बिखरने के लिए होती हैं।"
"इसलिए मैंने इनसे यह कहा कि आप बरबाद हो जाइए। एक जगह संगठित बैठे रहेंगे, तो अच्छाई घर-घर कैसे फैलेगी ? अच्छाइयाँ फैलाने के लिए फैलना ही पड़ेगा, ऐसा गुरु नानक ने अपने शिष्यों से कहा।"
गुरुदेव का आदेश याद रखें
हमारे मिशन के इतिहास में भी एक विलक्षण मोड़ आया। ऐसा जबरदस्त मोड़ आया—दहलाने वाला, जो सारे मोड़ों को मैं भूल चुकी थी। ऐसी कठिन परिस्थितियाँ कि मथुरा छोड़ना पड़ा, बच्चे छोड़ने पड़े, परिजन छोड़ने पड़े और जहाँ कि कोई बिल्ली और कुत्ता भी होता है, याद आता है, लेकिन यहाँ गुरुजी के कदम से कदम मिलाकर आगे चलती हुई, चली गई। आगे बढ़ाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था, जो इस मंजिल तक, अपने समकक्ष लाकर उन्होंने मुझे खड़ा किया।
मैं बड़ी सौभाग्यशाली हूँ। अभी भी अपने को सौभाग्यशाली मानती हूँ, किन्तु एक परिवर्तन आया, ऐसा आया कि जी दहलने लगा। मैंने जी कड़ा किया, अपने अन्दर दृढ़ता पैदा की कि नर्वस होने की जरूरत नहीं है। जो कहा जा रहा है, उसके प्रेरणा के रूप में अब तक जो अपनी जिन्दगी रही है—एक साधिका के तरीके से, एक पुजारिन के तरीके से।
इस भगवान की प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है। उसको मैं अपना मस्तक झुका करके सुनूँगी। चाहे कितनी ही विकट परिस्थितियाँ क्यों न हों, सब से लोहा लेने के लिए मैं अपने को चट्टान जैसी दृढ़, लोहे जैसी पाषाण बना लूँगी और बनाया है।
मैं आपसे यही निवेदन करूँगी कि उनका आदेश क्या था, उनका उपदेश क्या था, उसे याद रखें ? उनका एक निर्देश था, वह था कि उन्होंने मुझे बुला करके दो-तीन बार कहा भी था; लेकिन आँखें एक ही बार में छलछला आईं, हम दोनों आधे घंटे के करीब ऐसे ही बैठे रहे। हम दोनों के आँसू बन्द नहीं हुए।
मैंने कहा—कहिए, अब हमें क्या निर्देश है ? वह यह कि जिस तरीके से रामकृष्ण परमहंस नहीं रहे और उनकी पत्नी कई साल जीवित रहीं। उन्होंने अपने मिशन को बनाया और मिशन से जुड़े जो बच्चे कहीं कुम्हला न जाएँ, इस तरीके से इनको सेती रहना, जैसे कि मुरगी अपने बच्चों को छाती से लगाए रहती है। इनकी रक्षा करती रहना, इनको प्यार देती रहना, इनको दुलार देती रहना, इनको प्रेरणा देती रहना, इनको मार्गदर्शन देती रहना, नहीं तो ये भटक जाएँगे।
यह दुनिया की भीड़ में खो जाएँगे, कोई अपहरण करके न ले जाए, कहीं ये गुमराह न हो जाएँ। तुम्हारा कर्तव्य है, तुम माँ हो। मैंने कहा—मैं सच्चे अर्थों में माँ हूँ, दो की नहीं, चार की नहीं, मैं लाखों दिल और दिमाग की, करोड़ों भुजाओं-भुजाओं की माँ हूँ। लाखों बच्चे मेरे हैं और करोड़ों भुजाएँ हैं और मैं कितनी सौभाग्यशाली माँ हूँ, जिसके पास इतने बच्चे हों, जो मेरी हर आज्ञा के पीछे अपनी जान कुरबान करने को तैयार हो जाएँ, तो मुझे किसी की चिन्ता नहीं।
बेटो! आज परीक्षा में आप सफल हुए हैं। मुझे बहुत खुशी हुई है कि जिस मोर्चे पर लगा दूँगी, उसी मोर्चे पर ये सेना, मेरे बालक, मेरे नाचीज छोटे-छोटे नन्हे बालक, मेरे लिए इतने-इतने से हैं। चाहे आपके भूरे बाल क्यों न हो गए हों ? आपकी दाढ़ी-मूँछ भूरी क्यों न हो गई हो ? चाहे आपके झुर्रियाँ क्यों न पड़ गई हों ? लेकिन मेरे लिए तो आप वही हैं, जैसे कि छोटा अबोध बच्चा हो और उसके प्रति जो ममता, दया, जो एक माँ के अन्दर होती है। एक आँख दुलार की, तो एक आँख उसकी सुधार की।
जहाँ दुलार की बात है, वहाँ सम्पूर्ण दुलार निछावर है। कहीं आपके कदम गड़बड़ाएँगे, तो वहाँ मेरी सुधार की आँख काम करेगी। चाहे मुझे कड़क भाषा क्यों न बोलनी पड़े? तो वह मैं बोलूँगी। नहीं सुनेंगे तो जबरदस्ती मुझे सुनानी पड़ेगी। सोते होंगे, तो जगाना पड़ेगा, कहना पड़ेगा कि बेटा उठ, तेरे उठने का समय है। क्या सोता ही रहेगा ? क्या यह सोने का समय है ?
सारे देश में चीत्कार फैली हुई है, जो भयावह है वह आग, इसे मैं आग के सिवाय और कुछ नहीं कहती। इसका निवारण कौन करेगा ? इसका निवारण वह ब्राह्मण करेगा, जिसके अन्दर करुणा है, सम्वेदना है, वही कर सकता है। अन्यथा कोई नहीं कर सकता।
ब्रह्मकमल खिल उठा
तो उन्होंने मुझे निर्देश दिया। मैंने कहा—जैसा आप कहते हैं—वैसा ही होगा। मैं तो एक साल पहले यह कह रही थी कि मुझे जाना चाहिए। आपने मेरे मुँह पर हाथ रख दिया, नहीं, यह मत कहना। यह तुम्हें कभी नहीं कहना चाहिए । 30 साल तो मेरे बेटो, मुझे नहीं रहना है, पर उनके कार्यों के लिए, लक्ष्य के लिए, यदि भगवान कुछ वर्षों की जिन्दगी देते हैं, तो मैं उसे स्वीकार भी करूँगी।
वैसे मेरा मन नहीं है। मैंने जैसे ही देख लिया कि बच्चे इस लायक हैं, समर्थ हो गए हैं, तो इन्हें जिम्मेदारी सौंपकर मुझे भी विदाई ले लेना चाहिए। मैं क्यों बाजी मारने में इतनी पीछे रह जाऊँ ? मैं भी उस बाजी को जल्दी मारूँ।
अभी ऐसा नहीं है, उन्होंने कहा—फिर अपने कुछ बालकों को बुलाकर के उन्होंने स्वप्न सुनाना चाहा। उन्होंने कहा कि आज मैंने स्वप्न देखा है। बात लम्बी हो जाएगी, पर मैं कहकर ही उठूँगी। उन्होंने कहा कि आज बच्चो मुझे कुछ नींद आ गई और मैंने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में क्या देखा ? गुरुदेव! आपको स्वप्न तो कभी दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे जिस करवट सोते थे। उसी करवट उठते थे, कोई चक्कर नहीं।
मैं कहती थी कि मुझे नींद कम आती है, तो मखौल में कह देते थे कि शान्तिकुञ्ज का पहरा, तो तुम देती हो, मुझे क्या चिन्ता है ? मैं तो हमेशा निश्चिंतता की नींद सोता हूँ। हाँ, तो मैं यह कह रही थी कि आगे जो उन्होंने स्वप्न के बारे में कहा कि झपकी लग गई, तो मैंने स्वप्न में यह देखा कि मानसरोवर में एक ब्रह्मकमल खिलता हुआ चला आ रहा है और वह पूर्ण रूप से विकसित हो गया और खिलता हुआ चला गया, पक गया, पकने पर जो उसके अन्दर बीज पैदा हुए, कमल तो डाली से टूट गया; लेकिन उसमें से जो बीज निकले, वे मानसरोवर में अनेक कमलों के रूप में विकसित होते चले गए।
करोड़ों की तादाद में ब्रह्मकमलों के रूप में विकसित होते चले गए। ऐसा उन्होंने कहा। गुरुजी उस समय क्या कह रहे थे तब समझ में नहीं आया ? किन्तु मैंने सुना था कि यह यथार्थ है एवं जीवन का सत्य है कि जिस तरीके से व्यक्ति को एक ब्राह्मणोचित जीवन जीना चाहिए, ब्राह्मण की परिभाषा क्या है ? यह उन्होंने ही सभी को बताई। ब्रह्मकमल के रूप में संकेत, उसी ब्राह्मण बीज से पैदा हुए ब्रह्मसमुदाय से है।
ब्राह्मण की एक ही परिभाषा है कि ईश्वर की उपासना—सतत वह करता रहे। उसको यह मानना चाहिए कि भगवान हमारे साथ है। चाहे दुनिया वाले हमसे कुछ भी क्यों न कहें; लेकिन हमको मानना चाहिए कि मूलतः हम सभी ब्राह्मण हैं।
किसी समय में हमारे राष्ट्र में ब्राह्मण-पुरोहित का बाहुल्य था, फिर क्या हुआ ? जो ब्रह्मबीज थे, वे गलते हुए चले गए। भूमि यदि सही नहीं है, तो उसमें कुछ भी बोया जाएगा, तो नष्ट हो जाएगा। यदि भूमि ठीक है, साफ-सुथरी उपजाऊ है, तो उसमें थोड़ा-सा बीज डालने भर की देरी है, खाद-पानी देने की देर है। फिर देखिए फसल कैसी होती है ?
वह ऐसी बढ़िया फसल होती है कि बस, भगवान की खेती को रोज-रोज काटो। जो बोया ही नहीं है, उसे काट कैसे सकते हैं ? अपने-अपने चिन्तन को, चरित्र को, व्यवहार को, अपने वातावरण को जब ऐसा बनाया नहीं गया है, तो उसे पास कौन बैठने देगा ? न ही कोई सुनेगा।
गाँधी जी की आवाज को, लाल बहादुर शास्त्री की आवाज को, सुना इसलिए गया कि वे सही अर्थों में ब्राह्मण थे। वह राष्ट्र के पिता थे। फकीर होता है, वह जो कि एक पैसा भी बरबाद नहीं करता, झोली में जो दान पड़ा, गाँधी जी का एक पैसा नीचे गिर पड़ा, तो उसे खोजने निकल पड़े। अरे एक पैसा तो हम दे देंगे। एक क्या, आप चार पैसे ले लीजिए ?
उन्होंने कहा—सवाल एक पैसे का नहीं है, सवाल उस निष्ठा का है, जो कि व्यक्तियों ने हमारी प्रामाणिकता समझकर हमको एक-एक पैसा श्रद्धा से दिया है। हम अपनी प्रामाणिकता को खो दें क्या ? वे बराबर उस भीड़ में खोजते रहे और खोज करके ही निकाला। वह राष्ट्रपिता थे न। गुरुजी कौन हैं ?
बेटे! गुरुजी, उस हस्ती का क्या कहना कि जिसने यथार्थ करके दिखा दिया कि ब्राह्मणोचित जीवन कैसा होना चाहिए ? जो ज्ञान है, वह भगवान के लिए समर्पित है। शरीर है, वह भी भगवान के लिए है। भगवान माने सारा विश्व ।
एक भगवान वह जो चेतना के रूप में है, जो हम आत्मा की मलिनता को निकालते हैं, वह उसी चेतना रूप में हमारे अन्दर बैठा-बैठा हमारा भगवान ही निर्देश देकर निकालता है। एक भगवान वह जो समष्टि में संव्याप्त है, सविता—सूर्य के रूप में गतिशील है। मैं इसी के विषय में कह रही थी कि सूर्य जैसा जीवन ब्राह्मण का होना चाहिए।
मैं आपसे कह रही थी कि सूर्य जैसा जीवन, जो ब्राह्मण का होना चाहिए, वह गुरुदेव ने जीवनभर जिया। सूर्य सतत चलता रहता है, एक दिन के लिए भी बन्द हो जाए, तो फिर क्या होगा ? समझती हूँ कि सूर्य यदि अपनी दीप्तिमान आभा खो दे, बुझ जाए, तो सारे प्राणिमात्र मर जाएँ। जड़ और चेतन में खुशहाली लाने, बाँटने का काम यही सूर्य करता है।
गुरुदेव ने यही कहा है कि जब तक सूर्य जैसी प्रेरणा देने वाला ब्राह्मण वर्ग जिन्दा रहेगा, तब तक समाज में भी सतयुगी प्रकाश फैला रहेगा। साथ ही उन्होंने गायत्री महामन्त्र के साथ धारण किए जाने वाले यज्ञोपवीत के बारे में बताते हुए कहा कि यह नौ गाँठ वाला धागा अवश्य है, किन्तु इस धागे को जब हम धारण करते हैं और व्रत लेते हैं कि हमको ऐसा ही जीवन जीना चाहिए, तो फलित होता है, वह हमारी रक्षा करता है।
मैं आपको यह बताना चाहती थी कि गुरुजी ने उन नौ गुणों को अपने अन्दर धारण किया। वह नौ गुण कौन-कौन से थे ? सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शुचिता, शान्ति, आस्तिकता एवं तितिक्षा जैसे नौ गुण बताए गए हैं। जिसके अन्दर ये नौ गुण होंगे, वह ब्राह्मण होगा।
कोई भी क्यों न हो, हमारा जाति से कोई मतलब नहीं है। जब कभी भी ब्राह्मण का अर्थ आए तो आप यह मत जानना कि कोई वर्ग विशेष या जाति विशेष के लिए कहा जा रहा है। वही व्यक्ति सन्त जीवन जीता है, जो ब्राह्मणों जैसा जीवन जीता है। वही ब्राह्मण होता है, जो इन गुणों को धारण करता है । चाहे वह कोई भी क्यों न हो ?
वाल्मीकि ऋषि थे कि नहीं थे ? वाल्मीकि ऋषि थे, जिनके यहाँ सीता को रखा गया था। तो उदाहरणों के माध्यम से यह बात भली-भाँति समझी जा सकती है। जिस तरीके से बच्चों को पट्टी पर लिखाया जाता है—उन्होंने आम, इमली ऐसे ही समझाया।
उदाहरणार्थ यहाँ शुक्रताल में एक स्वामी जी श्री कल्याण देव जी हैं, अच्छे सन्त रहे हैं, सौ वर्ष से अधिक उनकी आयु थी। उन्होंने तीस विद्यालय स्थापित किए। कई विद्यालय, हाईस्कूल, जूनियर हाईस्कूल, कॉलेज उन्होंने स्थापित किए। जहाँ कहीं भी वे जाते, एक घर से आधी रोटी लेकर आते। यहाँ पेट नहीं भरा, तो दूसरी जगह चले गए। उसका अर्थ क्या हुआ, परिणाम क्या हुआ ?
तपस्या का परिणाम हुआ—वह अनेक गुना श्रद्धा के रूप में उनको मिलता हुआ चला गया और इतनी अपार सम्पदा उनको मिलती चली गई, जिससे यह विद्या-विस्तार का तंत्र खड़ा हुआ, किन्तु उनके पास सबसे बड़ी दौलत थी उनका ईमान, उनकी आस्था, उनकी श्रद्धा, उनका विश्वास, जिसको उनने सारे समाज को दिया और बनते हुए चले गए।
दूसरा उदाहरण ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का है। विद्यासागर सात सौ रुपये प्रतिमाह कमाते थे। एक दिन अपनी माँ से कहा—"माँ! हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं ?" माँ ने जवाब दिया—"बेटे! आवश्यकताएँ कम-से-कम में पूरी हो सकती हैं और इच्छाएँ किसी से भी पूरी नहीं हो सकतीं, चाहे जितना कमा लो, उससे भी नहीं होंगी।" उन्होंने कहा—"माँ! कम-से-कम कितने में गुजारा होगा ?" 70 रुपये अपने लिए रख करके बाकी के सारे विद्यार्थियों के अनुदान में लगा दिए।
एक भिखारी आया, उसने कहा—"हमको पैसा दीजिए ?" उन्होंने कहा—"तुम हट्टे-कट्टे जवान हो। तुम्हें भीख माँगने की आवश्यकता क्यों पड़ गई ? मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते ? भीख तो भगवान से भी मत माँगो, भगवान से माँगो वह शक्ति; ताकि हम सारे संसार में अच्छी परम्पराएँ डालते हुए चले जाएँ, प्रेरणाएँ माँगते चले जाएँ न कि भीख।" गुरुजी! डाल दो हमारी झोली में।
बेटा! झोली में भीख डालें बेटे की, तो जब बेटा बड़ा हो जाएगा तो ? बुढ़ापे में ऐसा लगाएगा जूते कि आनन्द आ जाएगा और सारी जो कमाई है, वह बुढ़ापे की सारी ले जाएगा। आज के जमाने के जो बेटे हैं, वह सबको मालूम है कि कैसे होते हैं ? जोड़े हुए धन को सब खा जाएँगे, चाहे बेटा हो, चाहे साला हो, चाहे जमाई हो, क्यों नहीं लेगा ? तेरे साथ कुछ भी जाने वाला नहीं है।
सिकन्दर जब मरने लगा, तो उसने कहा दुनियावालो, मेरे हाथ बाहर निकाल देना और कहना यह वही व्यक्ति है, जिसने पैसे के लिए खून-खराबा किया था। आज वह खाली हाथ जा रहा है; ताकि दुनिया के लोगों को नसीहत मिल सके कि यह पैसा हमारे काम नहीं आ सकता। काम आएगी हमारी रूहानी ताकत । भगवान का अनुदान, जो हमें मिल रहा है, वही काम आएगा और कुछ काम नहीं आएगा जरा भी। यह अनेक उदाहरण देकर गुरुदेव ने समझाया।
हजारी किसान का उदाहरण दिया, कई बार दिया जो सभी ने सुना है। एक पिसनहारी मथुरा में हुई है। वह बालपन में विधवा हो गई थी। बहुतों ने कहा—इसका लालन-पालन करेंगे। हमारे पास आ जाइए, बेटी, बहन हम सहयोग करेंगे, पर उसने कहा नहीं, आपकी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं।
मेरे दो भाई हैं। कौन-से ? कौन-से ? ये हैं—एक मेरा हाथ, जो पुरुषार्थ-साधना जुटाएगा, दूसरा परमार्थ करेगा। मुझे फिर किसी की भी आवश्यकता नहीं है। यदि गाँव खुद देता है, मदद करता है, तो एक सहानुभूति हो सकती है। चूँकि मैं एक महिला हूँ, कहाँ जाऊँ ? तो आप इतना कर सकते हैं कि आप पीसने के लिए अनाज दें, बदले में आटा या पैसा दें, ताकि मैं अपनी उदरपूर्ति कर सकूँ। पुरुषार्थी महिला हूँ, स्वाभिमानी हूँ, किसी की भीख नहीं चाहिए और यही बच्चो! गुरुजी ने भी किया।
मैं पिसनहारी का उदाहरण देने के बाद दूसरी बात बताऊँगी कि उसने ऐसा क्यों किया ? गाँववालों ने दिया, उसने पीसा आटा, जो पैसे बचे, उसमें से मथुरा में परिक्रमा करते समय एक कुआँ पड़ता है, वह कुआँ बनवाया। सारी मथुरा का पानी खारा, जिसमें दाल भी नहीं गलती, लेकिन एक कुआँ है, उसका पानी मीठा है, जहाँ कि बरातें जाती हैं।
अब तो धर्मशालाएँ, होटल बन गए। पहले कहाँ थे ? वहाँ बरातें विश्राम करती थीं। जन- समुदाय शान्ति पाता था। लोगों ने वहाँ चारों तरफ वृक्ष भी लगवा दिए। यह उदाहरण है उदारता का, परमार्थपरायणता का, जो कोई भी अपना सकता है ? जो सहृदय होता है, ब्राह्मण होता है, उसी पर यह लागू होता है।
जो ब्राह्मण का जीवन जीता होगा, वही ऐसे कदम उठाएगा। नहीं, तो ऐसे सेठ क्या कहने के ? इनकी सम्पत्ति हमें मिल जाए, तो फिर हम दिखा दें कि लोक क्या होता है ? परलोक क्या होता है ? क्या होता है बनाना और क्या होता है बिगाड़ना ? तू बिगाड़ रहा है, अपने बच्चों को बिगाड़ रहा है, हम सारे संसार को बना रहे हैं, विस्तार करके दिखा रहे हैं, पर क्या करें, दाँत हैं, तो चने नहीं। चने हैं, तो दाँत नहीं। तो बताइए कैसे चलेगा ?
यदि हमारे पास होता, तो हम इतना श्रम कराते। हम नहीं कराते। हम भी आपको खूब अच्छी तरह से पुचकार-पुचकार करके पालते। हम क्यों आपसे श्रम कराते ? नहीं, हमें आपको फौलाद का बनाना है। आप लोगों को इस तरीके का बनाना है कि जैसे वसिष्ठ जी ने राम-लक्ष्मण समेत चारों भाइयों को बनाया था।
राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न चारों भाई आश्रम में पढ़ने गए थे, तो लकड़ी तोड़ने से लेकर, सारे आश्रम की सफाई से लेकर, सारा काम वे उनसे कराते थे। उनकी पत्नी जो थीं—अरुन्धती, उसने उनसे कहा—इतना कठोर श्रम मत कराइए। वे पुचकारती थीं, उनके सिर सहलाती थीं, तो वे कहते—देवी! यह क्या कर रही हैं ? बिगाड़ेंगी क्या ? बच्चे के लिए, तो आखिर माँ ही ऐसी दयालु है, जो कि जो दोष-दुर्गुण होते हैं, उन्हें भी सह लेती है।
उनने कहा—देखिए, आप अपना काम करिए। मैं अपना काम करूँगी, मैं इन बच्चों के अन्दर करुणा और सम्वेदना पैदा कर रही हूँ। आप पुरुषार्थ पैदा कर रहे हैं। केवल पुरुषार्थ से काम नहीं चलता, केवल करुणा से भी काम नहीं चलेगा, उसको व्यावहारिक रूप देना पड़ेगा।
उन्होंने कहा—आपका पुरुषार्थ और मेरी सम्वेदना और मेरी करुणा और मेरा प्यार, इन बच्चों में जान डालेगा। यही डालने के लिए, इसी तथ्य को समझाने के लिए हमने आप लोगों को यहाँ एकत्रित किया है; ताकि हम गुरुदेव का पुरुषार्थप्रधान शिक्षण व मेरे प्यार की शिक्षा को समझा सकें।
गुरुजी से एक बार कहा गया—इतने छात्र पढ़ाते हैं, तो आपको धन की आवश्यकता तो पड़ती होगी न ? आप खुलकर के क्यों नहीं कहते ? आपके पास धन कहाँ से आता है ? उनने कहा कि मेरे पास धन भगवान से आता है। आप भगवान से ले सकते हैं ? मैं भगवान से नहीं ले सकता।
आपको व्यापार में फायदा होगा, तभी आप दे सकते हैं और घाटा होगा, तो आप एक पैसा भी नहीं देंगे। मुँह फेरकर चले जाएँगे, लाखों आशीर्वाद आपको मिल चुके; लेकिन आप पर दबोचा पड़े, तो सब भूल जाएँगे, फिर न कोई गुरु है और न कोई चेला। शिष्य भी चालाक होता है। चेला सधा हुआ होता है। बहुत चालाक होता है, किन्तु शिष्य माने होता है सधा हुआ शिष्य, वह जो अच्छी परम्पराएँ डालने के लिए गुरु का ही अनुकरण करे।
गुरुजी कहते थे कि "गुरु करिए जान के, और पानी पीजिए छान के।" इधर जो गुरु चेला हैं, आज सही माने में न जाने कितने वरदान माँगेगा—बेटा-बेटी, व्यापार जो कुछ न माँगे, सो कम है। एक-दूसरे को मूँड़ने की प्रक्रिया चलती रहती है। यह कौन है ? यह गुरु और वह चेला तो—'पानी पीजे छान के, गुरु कीजे जान के।'
जो उदाहरण पेश किए हैं, वह जो मुझे जिन्दगी का अनुभव है कि वह किस स्तर से बढ़ते हुए आज इस स्तर तक बनते चले गए। हमारे यहाँ तपोभूमि जैसा भवन नहीं था। पहले एक थे—भावनगर के सज्जन, जो हमारे ट्रस्टी भी थे। वे पहली बार आए, तो हमारे अखण्ड ज्योति कार्यालय में ही छोटा-सा हमारा मकान है, शायद आपने देखा भी होगा, उसे अब तो लड़के ने सँभलवा लिया है। बड़ा बनवा लिया है। हमारे समय में तो वही था। जब वे आए, तो 51 रुपये दान दिए।
उन्होंने कहा कि जाधव जी! आप मेरे साथ चलिए। साथ ले गए और 51 रुपये की रुई की बंडियाँ होती हैं। देखी हैं आपने। ले जा करके भिखारियों को दे बैठे। यह उन्होंने कहा कि मेरा यह व्यक्तिगत संकल्प है कि मैं अपनी भुजाओं का कमाया हुआ खाऊँगा, दान का नहीं खाऊँगा। मुझे नहीं चाहिए दान, दान चाहिए तब, जब सार्वजनिक क्षेत्र में जाऊँगा, पर माँगूँगा नहीं, कभी भी नहीं माँगूँगा। गल जाऊँगा, पर माँगूँगा नहीं। कभी भी नहीं माँगा।
अभी भी लोग दाँतों तले उँगली दबाकर यह कहते हैं कि इतना विशाल आयोजन, इतनी-इतनी भव्यता, पत्रिका का इतना विशाल पाठक-क्षेत्र, इतने अनुशासित परिजन इन सबके लिए आपके पास खरच कहाँ से आता है ? अरे! आपको मालूम पड़ गया, तो आप भी चले जाएँगे, आपको क्यों बता दें, हमारी बैंक कहाँ की है ? बैंक में लाखों लिए जो आप बैठे हैं। आपकी जेब से निकाला और उसे काम में ले लिया, कौन रखवाली करेगा इसकी ? हमें रखवाली नहीं करनी है।
हमें तो उतना ही चाहिए, जितना हमारी आवश्यकता है, तब हम बैंक से ले लेते हैं। इतनी बैंक तो विश्वभर में कहीं भी नहीं हैं, जो हमारे पास बैंक है। कैसे करोड़पति होते हैं ? अरबपति होते हैं, हमने नहीं देखे; किन्तु सारे संसार का खजाना हमारे पास है। खजाने के रूप में हमारे यह बालक और बालिकाएँ जो हैं। आज इनकी श्रद्धा देखते ही बनती है।
मैंने उस रोज देखा है, जिस रोज मैं गई थी। मेरी आँखों में आँसू छलछला आए, देखकर के उनको कि बच्चे अपनी कमीजें उतार-उतारकर श्रम कर रहे थे।
कोई फावड़ा चला रहा था और कोई कुदाली चला रहा था, कोई क्या कर रहा था-कोई क्या कर रहा था ? मैंने भरपूर उनको हृदय से आशीर्वाद दिया कि भगवान अगर कोई शक्ति हो हमारे अन्दर, कोई तप किया हो तो उसका फल इन बालकों को मिले।
मैंने गुरुजी का उदाहरण देते हुए यह समझाया कि ब्राह्मणोचित जीवन कैसा होना चाहिए तो जानिए ? उन्होंने तपस्या भी की, उपासना भी, उसका भी हो सकता है, दूसरों का भला करने में उनने उसका भी उपयोग किया हो, किन्तु उससे भी ज्यादा जो मैंने गुण बताए हैं, वो उनके अन्दर पूर्ण रूप से विद्यमान थे।
जो भी जबान से उनने कहा वह 99 प्रतिशत सही हुआ। एक प्रतिशत की तो मैं कहती नहीं हूँ कि कहीं किसी का दुर्भाग्य ही हो, तो उसके लिए क्या किया जाएगा ? भगवान तो हैं नहीं। एक सच्चा ब्राह्मण जो करता है, जो करना चाहिए, वह उनने जीवनपर्यंत तक उसको पूरा किया और अपने द्वारा समझाया कि ब्राह्मणोचित जीवन कैसा होना चाहिए ? चिन्तन से ही चरित्र बनता है, उसी से व्यवहार बनता है।
दैवी आकांक्षा का ही परिणाम था कि जो उनने सविता देवता के विराटस्वरूप को अन्दर समा लिया था। उस भगवान की चेतना को उन्होंने व्यवहार रूप में उतार लिया। मीरा, कबीर, रैदास के तरीके से कभी पीछे नहीं रहे, आगे ही कदम बढ़ते गए और जिस तरीके से कभी नरसी मेहता की हुंडी भुनी होगी, हमें नहीं मालूम, हमने नहीं देखा; लेकिन गुरुजी की हुंडी ऐसी भुनी कि बेटो! आनन्द आ गया। बेटे-बेटियो! हुंडियों के रूप में क्या कहना जैसे जलाराम बापा की कहें, क्या गुरुजी की, अपनी कहें, किस-किसकी कहें ? आज एक लड़का आया, बोला कि क्या कमाल हो रहा है ?
मैंने कहा देखता जा। क्या हो रहा है ? यह सारी की सारी वही गुरुसत्ता की शक्ति छाई हुई है, जो किसी के मुँह पर मलीनता भी नहीं है। चेहरा गुलाब के तरीके से खिला है, चाहे उसे रातभर श्रम ही क्यों न करना पड़ा हो ? दिन और रात फिर भी गुलाब की तरह से चेहरा। वैसे तो घर में ऑफिस से आते हैं, तो जरा-सा करके ऐसा मुरझा जाते हैं कि जाने क्या हो गया हो ? यहाँ क्यों नहीं हो रहा है ? घर क्यों लगता है ?
इसलिए लगता है कि व्यक्तिगत जीवन नहीं है, यह परोपकार वाला जीवन है। वह स्वार्थ है, यह परमार्थ है। जब परमार्थ समाया होता है, तब थकान क्यों होगी ? बिलकुल थकान नहीं आना चाहिए। आगे आने वाले समय में मैं आपसे आशा रखती हूँ कि हमारे बालक, जो यहाँ उपस्थित परिजन हैं, वह ब्राह्मणोचित जीवन जिएँगे, सारे संसार में जिस तरीके से रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को बनाया था, वैसे ही विवेकानन्द बनेंगे। आप कितने विवेकानन्द यहाँ बैठे हैं, कितनी सिस्टर निवेदिता बैठी हुई हैं।
ये लाखों की संख्या में सिस्टर निवेदिता, लाखों की संख्या में विवेकानन्द यदि अपनी शक्ति को पहचान जाएँ और उस शक्ति का सही सदुपयोग करें, तो कमाल हो जाए। शक्ति का सदुपयोग नहीं करते, दुरुपयोग करते हैं, तो खाली हाथ रह जाते हैं। सदुपयोग कर लें, तो अपना जीवन भी सार्थक हो जाता है और दूसरों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
आशा है कि आप दिव्य ज्योति का-सा काम करेंगे। आप स्वयं प्रेरणा लीजिए। दूसरों को प्रेरणा दीजिए। आप स्वयं ऊँचा उठिए और दूसरों को ऊँचा उठाइए। जब आप दूसरों को ऊँचा उठाने लगेंगे, तो स्वतः ही आप ऊँचे उठते चले जाएँगे। आप सबके साथ यही हमारा आशीर्वाद है! इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।
आज की बात समाप्त