परिवार—एक पाठशाला

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

परिवार—एक पाठशाला

परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह मौलिकता है कि उनमें सम्वेदना एवं संकल्प के स्वर समन्वित रूप से महसूस किए जा सकते हैं। उन सारे विषयों पर वन्दनीया माताजी के उद्बोधन एक दिशानिर्देश की तरह प्रतीत होते हैं, जो विषय आज एक गम्भीर सामाजिक समस्या का रूप ले चुके हैं। भटकते व्यक्ति एवं टूटते परिवार एक ऐसी ही समस्या है, जिसका समाधान वन्दनीया माताजी के द्वारा प्रस्तुत उद्बोधन में प्रदान किया गया है। वे कहती हैं कि परिवार वस्तुतः एक पाठशाला की तरह है, जिसमें स्वर्गीय वातावरण का निर्माण करने के लिए हमें उन सारे गुणों को अपने भीतर विकसित करना पड़ता है, जिन्हें हम पारिवारिक वातावरण में पनपते देखना चाहते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......

घर एक पाठशाला

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

बेटियो! आत्मीय प्रज्ञा परिजनो! घर एक पाठशाला होती है। घर वह उपवन होता है, जो तरह-तरह के फूलों से भरा होता है। फूल से मतलब है—हमारे बच्चे। बच्चे वो फूल हैं, जो कि खुद भी सुगन्धित होते हैं और दूसरों तक खुशबू फैलाने में भी वे समर्थ होते हैं। अब किसकी बात रह जाती है? माँ का पाठ रह जाता है। माँ जिस ढंग से बच्चों को उस घर की पाठशाला में शिक्षण देती है। वह शिक्षण आजीवन काम आता है। अपने बच्चों को मदालसा ने शिक्षण दिया था। एक को राजर्षि बनाया था। एक को देवर्षि बनाया था। उन्होंने अपने सभी बच्चों को तेजस्वी बनाया था और कहा था—

शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरजनोऽसि,
संसारमाया, परिवर्जितोऽसि।
संसारस्वप्नं त्यजमोहनिद्रां
मदालसावाकमुवाच पुत्रम्॥

उन्होंने कहा कि हे पुत्र! तू निर्विकार की तरह से जी। संसार तो मिथ्या और माया है। इसमें यदि तू लिप्त रह गया, तो तू संसार को समझ नहीं सकेगा। भगवान ने जो उत्तरदायित्व देकर के मनुष्य को भेजा है, उसको तू भूल जाएगा। आगे चलकर के वे बच्चे जो बने, उसका हमारे ग्रन्थों में उदाहरण है। यह किसने बनाया था? यह मदालसा ने अपने बच्चों को बनाया।

माँ का कर्तव्य

माँ का कर्तव्य है कि बच्चे को सही दिशा दे और उसको एक अच्छा और सुयोग्य नागरिक बनाए। माँ ही संतान को ऐसा बना सकती है। यह पिता नहीं कर सकता। पिता साधन जुटा सकता है और माँ संस्कार दे सकती है। माँ ने अपना दूध पिलाया है और उस दूध से बच्चों में संस्कार दे सकती है। कौन देगी? एक गुणवती माँ ही दे सकती है। पहले माँ को पढ़ना पड़ता है, फिर वह बच्चे को पढ़ाती है। माँ गर्भकाल से ही बच्चे को पढ़ाती है।

इसका उदाहरण भी सामने आता है। सुभद्रा ने अभिमन्यु को गर्भावस्था में ही शिक्षण दिया था, जो कि चक्रव्यूह भेदन जितना उसने सीखा था, उसमें वह सफल हुआ और जो वह नहीं सीख पाया, उसमें वह असफल रहा और मारा गया। यह कथा महाभारत में आती है। सुनीति ने ध्रुव को बनाया और आगे चलकर वह भक्त हुआ और भगवान की गोद, उस परमपिता की गोद में जा बैठा।

बेटे! यह संस्कार किसने दिए थे? यह माँ ने दिए थे। शकुन्तला ने भरत को बनाया था और उसी के नाम से हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। भरत वह था, जो सिंह से लड़ने के लिए बचपन में ही समर्थ हो गया था और उसने सिंह के जबड़े को पकड़कर उसे पछाड़ दिया था और जीत गया था। यह संस्कार और सामर्थ्य किसने दिए? ये भावनाएँ, ये संस्कार और ये सिद्धान्त, साहस कहाँ से आए? वे सब माँ से ही आए।

माँ ने ही इस ढंग से लालन-पालन किया और शिक्षण भी माँ ने ही दिया। जीजाबाई ने शिवाजी को जो संस्कार दिए थे, वे जीवन भर काम आए। शिवाजी के सामने एक मुसलिम महिला लाई गई। सज-धज करके वह उनके सामने आई। उन्होंने कहा कि आज हम शिवाजी का मनोबल गिरा करके ही रहेंगे लेकिन जब शिवाजी ने उस खूबसूरत महिला को देखा, तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा कि यदि मेरी माँ जीजाबाई ऐसी सुन्दर होती, तो मैं भी ऐसा ही सुन्दर हुआ होता। वे बच्चे के संस्कार ही थे।

ऐसे ही संस्कार दीनबन्धु के थे, जिन्होंने एक हरिजन के बालक को पीट दिया। जब पीट दिया, तो घर आए और घर में देखा कि उनकी माँ के पास वही हरिजन बच्चा बैठा हुआ है और माँ खाना खिला रही है। उसे नहलाया-धुलाया, काजल लगाया और खाना खिलाया। जब दीनबन्धु ने यह सब देखा, तो उन्होंने अपनी माँ से कहा—इसको छुओ मत, छूने से पाप लगेगा; क्योंकि यह अछूत है, तो माँ ने अपने बच्चे दीनबन्धु को लताड़ा और कहा कि जो मार इसको पड़ी है, वही मार तेरे ऊपर पड़े, तब? यह मेरा बच्चा है और तुझसे ज्यादा प्यारा है।

सुधार का शिक्षण

दीनबंधु ने यह सुना, तो उनकी आँखें खुल गई। उनकी माँ ने उनको दण्ड दिया। यह क्या है? यह सुधार की आँखें हैं, सँभालने की आँखें हैं। पढ़ाने की आँखें हैं और शिक्षण की आँखें हैं, संस्कार देने की आँखें हैं। यह एकपक्षीय नहीं होता, बच्चे को प्यार किया ही जाना चाहिए। प्यार तो करना ही चाहिए, लेकिन साथ-ही-साथ में उसको संस्कार भी देने चाहिए; क्योंकि यही हमारी भावी पीढ़ी है, जो आगे चलकर के हमारे राष्ट्र को समृद्ध बनाएगी। राष्ट्र के निर्माण में हमारे यही संस्कारी बच्चे काम आएँगे। परिवार की पाठशाला में बच्चों को माँ के संस्कार मिलना बहुत ही आवश्यक है।

नेपोलियन और उसकी बहन, दोनों पढ़ने जाया करते थे। एक दिन एक अमरूद वाला, अमरूद बेचने के लिए आया और बहन ने एक लकड़ी से उसकी टोकरी नीचे गिरा दी। वह बेचारा गरीब था। वह रोता हुआ, उनकी माँ के पास पहुँचा। उसने कहा कि माँ मेरे सारे अमरूद आपके बच्चों ने गिरा दिए। माँ ने कहा कि बेटे यह पैसे ले जा और अपने घर जा। वह तो पैसा लेकर चला गया लेकिन जब दोनों भाई-बहन घर आए, तब माँ ने दोनों बच्चों का एक सप्ताह का नाश्ता बन्द कर दिया।

जब नेपोलियन ने पूछा—"माँ मैंने क्या किया? बहन ने तो उसके अमरूद गिराए थे, वह तो दोषी है, पर मैं दोषी कहाँ हूँ?" माँ ने उत्तर दिया—"बेटे! तू उसका बड़ा भाई है, तो उसे रोक सकता था; लेकिन तूने अपनी बहन को गलत काम करने से रोका नहीं। इसका मतलब यह है कि इस कार्य में दोषी तू भी है, तो दण्ड तुम दोनों को ही मिलना चाहिए और दण्ड यह है कि तुम्हारा नाश्ता बन्द।" यह होता है—बच्चों को शिक्षण और संस्कार देना। ऐसे संस्कार बच्चों में आजीवन बने रहते हैं।

सम्पत्ति नहीं, संस्कार दें

बेटियो! बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं और साँचा हैं—माता-पिता। जैसा घर का वातावरण होगा, उसी के अनुसार बच्चे बनेंगे। जिन घरों में लड़ाई-झगड़ा, कर्कशता रहती है, उन घरों में बच्चे उच्छृंखल हो जाते हैं। जब हमारे बच्चे उच्छृंखल और उद्दंड रहेंगे, तो हम इनसे क्या आशा करेंगे? हमारे राष्ट्र की नींव जब इन्हीं बच्चों पर आधारित है, तो जब नींव ही नहीं सँभाली गई, तो ईंटें कहाँ रहेंगी? ऐसा कमजोर मकान तो गिर जाएगा, ढह जाएगा और बिखर जाएगा। आवश्यकता इस बात की है कि माता और पिता दोनों बच्चों को सम्पत्ति नहीं, अच्छे संस्कार दें।

सीता जी जब वाल्मीकि के आश्रम में रहीं और वहीं लव-कुश पैदा हुए तो सीता ने लव-कुश को वह संस्कार दिए, शौर्य और साहस उन वीर बालकों को दिए कि किसी के सामने उन्होंने शीश नहीं झुकाया; बल्कि अनीति से लड़े। उन्हें यह नहीं पता कि राजा राम हमारे पिता हैं। उन्हें यह मालूम था कि सीता उनके द्वारा ठुकराई गई हैं। उनका परित्याग किया गया है। जंगल में भेजा गया है, तो हम इनका मुकाबला करेंगे। एक ऐसी सती-साध्वी नारी को इन्होंने घर से क्यों निकाला? यह हिम्मत किसने दी? यह हिम्मत माँ ने दी।

माँ ने जंगल में रहते हुए भी दोनों बच्चों को गढ़ा और ऐसे श्रेष्ठ साहसपूर्ण संस्कार दिए। इसी तरह से कण्व ऋषि के आश्रम में रहकर शकुन्तला ने भरत को जन्म दिया। बच्चों को छोटेपन में सिखाया जाता है? हाँ बेटे, सिखाया जाता है, उनको पढ़ाया जाता है, संस्कार दिए जाते हैं। कथा-कहानियों के माध्यम से छोटे बच्चे सीखते हैं। माँ-बाप के आचरण से सीखते हैं। जैसे माता-पिता होंगे, वैसी ही उनके बच्चों में भावनाएँ काम करेंगी।

एक परिवार था। उस परिवार में स्वभावगत कुछ कमियाँ थीं। बच्चों ने देखा कि उनके माता-पिता अपने बुजुर्ग माता-पिता को मिट्टी के बरतन में खाना खिलाया करते थे। वही मिट्टी के बरतन धोये और उठाकर रख दिए। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बच्चों ने यही सब देखा। तीसरी पीढ़ी जब आई, तो उसमें कुछ बच्चे समझदार थे। उन्होंने जब देखा कि हमारे माता-पिता ने अपने माता-पिता को घर से निकाल दिया है। पिता को जंगल में छोड़ आए, मार आए और माँ को मिट्टी के बरतन में खाना देने लगे। बच्चों ने देखा कि हमारे माता-पिता ऐसा कर रहे हैं, तो बच्चे कहीं से मिट्टी के बरतन इकट्ठा करके लाए।

पिता ने पूछा—"यह क्या कर रहे हो? ये कहाँ से लाए?" बच्चों ने कहा—"अपने माता-पिता के लिए लाए हैं। जब हम बड़े हो जाएँगे, तो आपको इन्हीं बरतनों में खाना खिलाया करेंगे और हम भी इसी तरीके से आपको मारेंगे, जिस तरीके से आपने अपने पिता को मारा है।" बच्चे बड़े हो गए, तो बोले—"चलिए पिताजी! आपको जंगल में घुमा लाएँ।" पिता समझ गए कि जो हमने किया है, वही हूबहू ये हमारे लिए करेंगे। हमने अपने पिता को जंगल में ले जाकर मारा था, अब ये भी यही करेंगे।

पिता चला तो गया, पर जाकर के एक जगह रुक गया और उसने कहा—"बेटे! मैं यह तो नहीं कहता कि तुम मुझे मत मारो; क्योंकि जब मैंने अपने पिता को मारा, तो तुम भी मुझे मारोगे। यह कोई गुनाह नहीं है। तुमने सीखा तो हमसे ही है, पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि कहीं ऐसा न हो कि यह परम्परा ही पड़ जाए। मैं चाहूँगा कि यह परम्परा बन्द हो जाए। इस दृष्टि से तुम हमें मारो मत।" उन्होंने कहा कि आपने पहले नहीं सोचा था? उन्होंने कहा कि पहले जो गलती हमने की है, वह गलती तुम्हें नहीं करनी चाहिए। तो यह सबक हमारे बच्चों को कौन सिखाएगा? यह माता-पिता का उदाहरण है। बच्चों को सिखाना चाहिए कि अपने बड़ों को प्रणाम करें। उन्हें अग्निहोत्र करना सिखाना चाहिए। अग्निहोत्र में पहले पाँच ग्रास बलिवैश्व करें, तब बच्चों को भोजन दें। यह संस्कार कौन सिखाएगा? माताएँ देंगी। प्रणाम करने का, सही ढंग से बोलने का, सत्य बोलने का और दूसरों के साथ में अच्छा व्यवहार करना। यह सब माताएँ ही सिखाएँगी।

कहानियों से दें शिक्षण

ईसप की कहानियाँ कुछ ऐसी ही हैं। ईसप बहुत कुरूप थे लेकिन उन्हें सम्मान मिला। कैसे सम्मान मिला? उन्होंने छोटे-छोटे बच्चों को कहानियाँ सुनाना शुरू किया। कहानियाँ सुनाकर के हम उनका मनोरंजन कर सकते हैं। उनका शिक्षण कर सकते हैं। जो हमारी ऐतिहासिक कहानियाँ हैं, धार्मिक कहानियाँ, सामाजिक सुधार की कहानियाँ बच्चों से सम्बन्धित हैं, उन्हें सुनाने की बच्चों में आदत डालनी चाहिए; लेकिन आज हम आदत डाल देते हैं कि मनोहर कहानियाँ पढ़िए, चन्दामामा पढ़िए। इनमें कुछ नहीं होता, सिवाय इसके कि भूत-पलीद की कहानियों से हम बच्चों में संस्कार बिगाड़ते हैं। हम बच्चों को बनाते नहीं हैं। बनाएगा कौन? माँ-बाप ही उनको बना पाएँगे। कुन्ती ने अपने बच्चों को बनाया था।

एक दिन कुन्ती ने जंगल में अपने बच्चे को भेजा था; जबकि उस गाँव के हर घर से राक्षस के पास एक व्यक्ति भेजा जाता था। यह कहानी आप सभी जानते हैं। अपने आश्रयदाता को बचाने के लिए कुन्ती ने भीम को भेजा; क्योंकि पाँचों में से एक को जाना था। भीम ने कहा—"माँ, हम पाँच में से एक कम हो जाएगा, तो क्या? आपके पास, आपके चार बच्चे तो रहेंगे ही।" यह संस्कार किसने दिए थे? यह संस्कार कुन्ती ने दिए थे। कुन्ती ने पाँचों पुत्रों को श्रेष्ठ संस्कार दिए थे। तीन बच्चे कुन्ती के थे और दो बच्चे माद्री के थे। पाँचों बच्चों को बिना भेदभाव के कुन्ती ने ही संस्कार दिए थे। कुन्ती जहाँ समझती थी कि जेठानी मेरी विरोधी है और जेठ ने भी कितना तबाह किया था, फिर भी गान्धारी जब तप करने जा रही थी, तो कुन्ती ने कहा कि आप अकेली नहीं जाएँगी, साथ में मैं भी चलूँगी और दोनों जंगल में चली गईं।

जैसा साँचा, वैसा स्वरूप

बात मैं बच्चों की कर रही हूँ कि बच्चों को जो भी संस्कार देगी, वह माँ देगी। माँ के जो संस्कार होंगे, वही बच्चों में विद्यमान होंगे। माता-पिता को ही अपने बच्चों को संस्कार देना चाहिए। बच्चे हमारी गीली मिट्टी हैं और माता-पिता साँचा हैं। जैसा चाहेंगे, उन बच्चों को बना लेंगे। साँचा होता है और मिट्टी होती है। कबूतर के साँचे से कबूतर बन जाता है। बन्दर के साँचे से बन्दर बन जाता है।

जैसा साँचा, वैसा आकार—कभी क्या बन जाता है, तो कभी क्या बन जाता है? मिट्टी तो एक ही होती है, लेकिन साँचे अलग-अलग होते हैं, तो वही स्वरूप निखर करके आता है। नहीं साहब! हमारे तो बच्चे हैं, पर लड़कियाँ हैं, लड़के तो हैं ही नहीं। मनु के भी लड़कियाँ थीं। इला का नाम तो आपने सुना होगा। वह ब्रह्मवादिनी थी और भी कितनी ही कन्याएँ हुई हैं? घोषा, लोपामुद्रा आदि कहाँ तक गिनाएँ? ढेर सारी कन्याएँ एक-से-एक बढ़िया और संस्कारी हुई हैं। उन्हें उनके माता-पिता ने संस्कार दिए थे। नहीं साहब! अब तो हमारे यहाँ बच्चों की लाइन लगेगी। लाइन लगेगी, तो बेटे, कुसंस्कारी बच्चे ही पैदा होंगे। बच्चों की संख्या कम रखिए और उन्हें संस्कार दीजिए।

भगवान शिव के दो बच्चे थे। राम, लक्ष्मण के दो-दो बच्चे थे। भरत-शत्रुघ्न के भी दो-दो बच्चे थे। तालाब में घुसकर ही तैरना सीखा जाता है और किनारे पर बैठकर के तो केवल आनन्द लिया जा सकता है। जब तक समुद्र में डुबकी नहीं लगाएँगे, तो बहुमूल्य रत्न कैसे पा सकेंगे? केवल मन को समझाना ही रह जाएगा। बच्चे पैदा तो किए; लेकिन उनको संस्कार नहीं दिए, तो वे पृथ्वी का भार होंगे, समाज के ऊपर भार होंगे। वे कुसंस्कारी होंगे, डकैत होंगे, चोर होंगे, जुआरी होंगे, अय्याश होंगे, शराबी होंगे। क्यों होंगे? क्योंकि उन्हें संस्कार नहीं दिए गए।

बच्चों को संस्कार दीजिए और एक से बढ़कर एक रत्न पाइए। वे कैसे होंगे? श्रवण कुमार जैसे होंगे, जो माता-पिता को काँवड़ में बिठाकर के कन्धे पर लेकर तीर्थयात्रा कराने ले गए थे। सारी जिन्दगी उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा की। दुष्ट के तो दुष्ट ही बच्चे होते हैं। अपवादस्वरूप कोई अच्छा हो, तो अलग बात है। रावण के तो जैसे होने चाहिए, वैसे ही थे। रावण का सारा परिवार दुष्ट ही था। हालाँकि उनके पिता ऋषि थे। वे उन्हें संस्कार देने में समर्थ नहीं हए। रावण में माता के संस्कार थे। सभी एक-से-एक दुष्ट, एक-से-एक कुसंस्कारी, एक से बढ़कर एक दुराचारी थे। सारी राक्षस जाति कुसंस्कारी थी।

रावण ने भाई को ठुकरा दिया था और शाहजहाँ को औरंगजेब ने ठुकरा दिया था। किसी के बेटे ने पिता को कैद कर लिया, किसी ने मौत के घाट उतार दिया। ऐसा क्यों? क्योंकि जो संस्कार बच्चों को देने चाहिए थे. वे संस्कार दिए नहीं। यदि संस्कार मिलते हैं, तो वे सन्त बन जाते हैं। सन्त ज्ञानेश्वर चार बहन-भाई थे। एक बहन थी और तीन भाई थे। उनके त्याग में कोई कमी नहीं थी। सब एक से बढ़कर एक थे। एक कदम बड़ा भाई था, उसी के बाद तीनों बच्चे भाई का अनुशरण करते थे। ये संस्कार होते हैं। माता-पिता की देन होते हैं। वे जैसे होंगे, वैसे ही बच्चे बनेंगे। इसमें कोई भी शक नहीं है। बच्चों को बनाने वाला माता-पिता के अलावा और कोई भी नहीं हो सकता।

दाराशिकोह को उसके भाई ने ही मारा था। राम और भरत का स्नेह भाई-भाई में प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है, नसीहत है। वह नसीहत कहाँ से आई? किससे आई? वह माता-पिता से आई। कौशल्या ने राम के अन्दर दी और कैकेयी ने भरत के अन्दर। हालाँकि बाद में कैकेयी पीछे हो गई। शुरू में तो उसने कहा था कि राम और भरत मेरी दोनों आँखें हैं। बाद में लोभ और लालच ने उसे अन्धा कर दिया था, इसलिए उसने अपने बेटे के लिए राजगद्दी माँगी थी और राम के लिए वनवास माँगा था।

सुमित्रा ने अपने बच्चों के अन्दर श्रेष्ठ भावनाएँ भरी थीं और कहा था लक्ष्मण से कि राम यदि वन जा रहा है और तू अयोध्या में रहेगा। तुझे शरम नहीं आएगी। तेरे भाई जो पितास्वरूप हैं, तेरी भाभी माँ स्वरूप हैं, उनके साथ जा और उनकी सेवा करना। मैं समझूँगी कि तूने मेरी ही सेवा की और सारे अयोध्यावासियों की सेवा की। ये भावनाएँ किसने दी थी? ये संस्कार किसने दिए थे? ये दिए थे उनकी माँ ने और पिता ने। दोनों ने लक्ष्मण को संस्कार दिए थे।

बुद्ध का पुत्र राहुल था। यशोधरा ने उसे संस्कार दिए थे और बुद्ध के तप और त्याग से राहुल ने सब सीखा था। अशोक के दो बच्चे थे। एक का नाम संघमित्रा और एक का महेन्द्र था। उन्होंने बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने प्रचार ही नहीं किया; बल्कि बुद्ध भगवान को समर्पित हो गए। उन्होंने कितना कार्य किया? वह आप सबको मालूम है। इसी तरीके से महाराणा प्रताप के हाथ में रोटी थी, दोनों बच्चों की रोटी और उनकी रोटी भी बिलाव ले गया; लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बच्चों ने कहा—"पिताजी! ले जाने दो, हमको भूख नहीं लगी है। हम बेभूख हैं, जो दुश्मन हमारे आगे खड़ा है, हमें तो केवल दुश्मन ही दिखाई पड़ रहा है और उससे जूझने की हिम्मत पिताजी हममें है। हम भूखे नहीं हैं।" उनकी आँखों में आँसू आ गए और वे पुनः पूरी शक्ति के साथ उठ खड़े हो गए। ऐसे संस्कार उनके बच्चों में महाराणा प्रताप के और उनकी पत्नी के दिए हुए थे, जो कि रोटी की तरफ न जाकर के उस लक्ष्य की ओर गए।

ऐसा महान वातावरण बनाएँ

बच्चो! ऐसा ही महान वातावरण हमको बनाना चाहिए। हमको बच्चों में संस्कार डालने चाहिए। उन्हें सद्गुणी स्वभाव का बनाना चाहिए। परिवार में घुल-मिलकर कैसे रहना चाहिए? यह उन्हें सिखाना चाहिए। आपस में कहा-सुनी हो भी, तो भी बच्चों के सामने वह प्रदर्शन मत करिए। अपने घर के वातावरण को सकारात्मक बनाइए। अपने से बड़ों को आप श्रद्धा से देखिए, उनका सम्मान कीजिए, ताकि बच्चे भी आपका सम्मान करें। समाज का सम्मान करें। समाज के, राष्ट्र के कुछ काम आएँ। हमें उम्मीद है कि हमारे परिजन इस ओर ध्यान देंगे। बच्चों को कहानियाँ सुनाएँगे।

इसी उद्देश्य के लिए, परिवार को बनाने के लिए, बच्चों को संस्कारी बनाने के लिए, समाज को बनाने के लिए अनेक कहानियाँ, अनेक उदाहरणों सहित प्रज्ञापुराण की रचना गुरुजी ने की और सबके सामने रखा। इसके लिए यह मानकर चलिए कि गुरुजी ने इतनी मेहनत, इतना श्रम किया है। इसको बनाने के लिए यह श्रम उन्होंने अपने परिजनों के लिए, अपने बच्चों के लिए और भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए किया है। उसे आप सभी को सुनना चाहिए।

जब आपके गुरुदेव ने इतनी मेहनत की है, तो फिर उसको आप सार्थक करिए, उसे दूसरों को सुनाइए। आपको तो पका-पकाया मिल गया है। आपको कोई मेहनत नहीं करनी है। बच्चों को केवल पढ़ना और सुनना भर है। बच्चों को एक घंटे लेकर के बैठिए; ताकि आपके घर का वातावरण अच्छा बने, संस्कारी बने और इससे लोग भी प्रेरणा लें। इसमें आपको अपनी सूझ-बूझ का परिचय भी देना होगा। आशा है कि इसमें जो कहा गया है, उस पर आप ध्यान देंगे।

बेटियो! अपने बच्चों को संस्कार दीजिए। धन की आवश्यकता नहीं है। आज की दौड़ में, भौतिकयुग में जो धन की दौड़ चल रही है कि बच्चों को सम्पत्ति दी जानी चाहिए। बच्चों को कुसंस्कार की ओर से मोड़ना चाहिए, जैसे—सिनेमा की ओर, श्रृंगार की ओर, बनावटीपन की ओर, फजूलखर्ची की ओर से उन्हें मितव्ययिता सिखाइए, उन्हें श्रमशील और संस्कारी बनाइए। पहले गुरुकुल पद्धति थी और बच्चों को गुरुकुलों में पढ़ने के लिए भेजा जाता था। इसका मतलब क्या होता था? उन बच्चों को संस्कारी बनाने के लिए ऋषियों के आश्रम में भेजते थे। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के आश्रम में भेजा था; ताकि वे आगे चलकर सारे राष्ट्र को सँभाल सकें और उन्होंने सँभाला भी। बच्चों के संस्कार सबसे ज्यादा जरूरी हैं, अपेक्षा इसके कि उनके लिए, आगे की पीढ़ी-दरपीढ़ी के लिए सोचते रहें और सम्पत्ति इकट्ठा करते रहें और उनके लिए न मालूम क्या-क्या आशाएँ सँजोकर रखें? यह जरूरी नहीं है। जरूरी हैं उनके संस्कार। इसी पर आप ध्यान दीजिए। जैसा कि अभी मैंने कहा है। आशा है आप इस ओर ध्यान रखेंगे और उस पर अमल भी करेंगे।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥