सूक्ष्मीकरण की वेला में जनवरी १९८६ में प्रसारित पूज्यवर का वीडियो संदेश
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी—
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो ! अध्यात्म एक विज्ञान है । इसका सही अर्थ और मर्म न समझ पाने के कारण ही इस क्षेत्र में अंधविश्वास पनपा है । नयी पीढ़ी के लोग कहते हैं कि यह अंधविश्वास है । इसके पीछे वे तर्क देते हैं कि जो कर्मकाण्ड लिखे हुए हैं, उसको जब हम करते हैं तो जो उसके परिणाम और फल बताये गये हैं. वे नहीं मिलते तो उनके कहने के मुताबिक यह अंधविश्वास सही है ? और जो विश्वासी हैं वे कहते हैं कि ऋषियों को, शास्त्रकारों को, आप्त पुरुषों को जिन्होंने अध्यात्म के विधि-विधानों के ऊपर इतना जोर देकर कहा है—तो उनको झूठ बोलने से क्या फायदा ? इसके पीछे कोई न कोई सच्चाई होनी चाहिए । अध्यात्म विज्ञान है अथवा अंधविश्वास है, यह तलाश करने के लिए हमने अपनी पूरी की पूरी जिंदगी इस काम के लिए खर्च कर डाली और अब हम जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, उस नतीजे को आप लोगों को सुनाने का हमारा मन है ।
लोहा जब खदानों से निकलता है, तब आपने देखा होगा—कच्चा निकलता है—मिट्टी मिला हुआ होता है । धातुएँ जब जमीन में से निकलती हैं तब सभी कच्ची होती हैं । उनमें मिट्टी का सम्मिश्रण होता है । आग पर तपाने के बाद में उनका वास्तविक स्वरूप निकलता है । मिट्टी गल जाती है और लोहा, सोना तथा दूसरी धातुयें निकल आती हैं । तेल के बारे में भी यही बात है । कोयला जो होता है उसे भी साफ करना पड़ता है । हर चीज को साफ करना पड़ता है । जो व्यक्ति अध्यात्म का प्रयोग करता है, अगर अपनी सफाई का भी ध्यान रखता है, तो जानना चाहिए कि उसको परिणाम मिलेगा और अगर उसने सफाई का ध्यान नहीं रखा, अपने आपका संशोधन नहीं किया है, उसको ठीक तरीके से काम में लाने को स्थिति में नहीं है, तो फिर मान लीजिये कि वह कर्मकाण्ड केवल अंधविश्वास है । अंधविश्वास से क्या काम निकलने वाला है ? इसलिए साधक को अपने जीवन में जीवन का परिष्कार करना पड़ता है । पात्रता का विकास करना पड़ता है । पात्रता का विकास न करे—जीवन का संशोधन न करे तो उसका वह लाभ जो मिलना चाहिए नहीं मिलेगा । तब फिर अंधविश्वास कहलाने वाली बात सही है और अगर आदमी उसके समग्र स्वरूप को समझता है और समय, स्वरूप की कीमत चुकाने के लिए तैयार है, तो फिर मैं समझता हूँ । कि इसको विज्ञान ही होना चाहिए ।
मेरी सारी जिंदगी इसी काम में खर्च हुई है और मैंने पाया है कि अध्यात्म एक विज्ञान है—साइंस है और यह सही है । कैसे ? इस तरीके से कि हमारे गुरु ने—हमारे मास्टर ने 'बॉस' ने सबसे पहले यह समझाया कि कारतूस से भी ज्यादा बन्दूक का सही होना आवश्यक है । कर्मकाण्ड अपने आप में पर्याप्त नहीं है । उसको चलाने वाला जो व्यक्ति है, वह सही होना चाहिए । बीज में अपनी शक्ति है । जो बीज जमीन में बोते हैं वही पैदा होता है । आम बोते हैं तो आम पैदा होता है, बबूल बोते हैं तो बबूल पैदा होता है । गेहूँ बोते हैं तो गेहूँ पैदा होता है—यह बात सही है, लेकिन इससे भी ज्यादा सही यह बात है कि जमीन ठीक होनी चाहिए । जमीन को जोता नहीं गया है, खाद-पानी नहीं दिया गया है—तो ऐसी ऊबड़-खाबड़ जमीन में अच्छी पैदावार की आप कैसे उम्मीद रखेंगे ? इसलिए अध्यात्म के साथ में दो सिद्धांत जुड़े हुए हैं । एक सिद्धांत यह मिला हुआ है कि जो इसके लिए कर्मकाण्ड बताये गये हैं, वह करने चाहिए । दूसरी इससे भी सही बात यह है कि जो आदमी प्रयोग करने वाला है, उसे व्यक्तित्व की दृष्टि से बहुत साफ, बहुत पैना और बड़ा तीखा होना चाहिए । तीखे व्यक्तित्व के ऊपर—बढ़िया वाली बन्दूक के अंदर अगर आपने कारतूस रखी है तो निशाना सही लगेगा और बहुत दूर तक लगेगा । लेकिन अगर आपके पास बन्दूक नहीं है या नकली बन्दूक है और खाली कारतूस लेकर के आप चलाने का मन करते हैं तो फिर आपकी बात बनेगी नहीं । तो फिर आप इसे अंधविश्वास भी कह सकते हैं।
खेत में जो बीज बोया जाता है वही पैदा होता है, इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन अगर खेत में खाद-पानी नहीं लगायेंगे, जुताई नहीं करेंगे, तब फिर कुछ भी पैदा नहीं होगा । तब फिर आपको यही कहना पड़ेगा कि बीज बोना, खेती करना—मेहनत करना बेकार है ! इस तरीके से बीज बोना अंधविश्वास हो गया और अगर आपने ढंग से—कायदे से बीज बोया है तो बीज बोना विज्ञान हो गया । लोहे के बारे में आप जानते हैं कि वह जमीन से मिट्टी मिला हुआ निकलता है । उससे आप कोई बर्तन बनाना चाहें, हथियार बनाना चाहें, औजार बनाना चाहें तो कुछ नहीं बन सकता । लेकिन अगर आपने उसे तपाया है और तपाकर के मिट्टी वाले हिस्से को जला दिया है, तब फिर आप उस लोहे से जो कुछ भी बनाना चाहें, बना सकते हैं । ज्यादा टेम्परेचर देंगे तो फिर स्टील बना सकते हैं—फौलाद बना सकते हैं और दूसरी कीमती चीजें बना सकते हैं । लौह भस्म भी बना सकते हैं, मंडूर भस्म भी बना सकते हैं । यह सब चीजें ताप के ऊपर टिकी हुई हैं । लोहे के ऊपर नहीं । लोहा तो जैसा है वैसा ही रहेगा । यही बात अध्यात्म के सिद्धांतों के बारे में है । अध्यात्म के सिद्धांतों को जो आदमी अपने जीवन में प्रयोग करता है और अपने आपको सही बना लेता है तो उसके चमत्कार जरूर दिखाई पड़ेंगे । ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ—जैसा कि उनके बारे में बताया गया है सब बिलकुल सही बैठेगी । कहीं भी गलती करने का अवसर नहीं आयेगा अगर आपने अपने जीवन को साफ किया है तब ।
सर्वत्र पात्रता के हिसाब से मिलता है । बर्तन अगर आपके पास है तो उसी बर्तन के हिसाब से आप जो चीज लेना चाहें तो ले भी सकते हैं । खुले में रखें तो पानी उसके भीतर भरा रह सकता है । दूध देने वाले के पास जायँगे तो जितना बड़ा वर्तन है उतना ही ज्यादा दूध देगा । ज्यादा लेंगे तो वह फैल जायगा और फिर वह आपके किसी काम नहीं आयेगा । इसलिए पात्रता को अध्यात्म में सबसे ज्यादा महत्त्व दिया गया है। जो आदमी अध्यात्म का प्रयोग करते हैं, वे अपने व्यक्तिगत जीवन में अपनी पात्रता का विकास कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं—यह बात बहुत जरूरी है । आदमी का व्यक्तित्व अगर सही नहीं है तो यह सब बातें गलत हैं । कपड़े को रंगने से पहले धोना होगा । धोयें नहीं और मैले कपड़े पर रंग लगाना चाहें तो रंग कैसे चढ़ेगा ? रंग आयेगा ही नहीं—गलत-सलत हो जायेगा । इसी प्रकार से अगर आप धातुओं को गरम नहीं करेंगे, तो उससे जेवर नहीं बना सकते । हार नहीं बना सकते ! क्यों ? इसलिए कि आपने सोने को गरम नहीं किया है । गरम करने से आप इनकार करते हैं । फिर बताइये जेवर किस तरीके से बनेगा ? इसलिए गरम करना आवश्यक है । जो आदमी साधना के बारे में दिलचस्पी रखते हैं या उससे कुछ लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहला जो कदम उठाना पड़ेगा, वह है अपने व्यक्तित्व का परिष्कार । साधना भगवान की नहीं की जाती वरन् अपने आपकी की जाती है । उपासना भगवान की की जाती है । कर्मकाण्ड किसी की मनुहार नहीं है, खुशामद नहीं है, कोई बाजीगरी नही हैं । कर्मकाण्ड का सार, उद्देश्य और मकसद यह है कि आदमी अपने आपको ठीक बनाकर इस लायक बनाले कि उसके माध्यम से कर्मकाण्डों के मंत्रों के जो विधि-विधान हैं, देवपूजन हैं, उनका समुचित लाभ उठाया जाना संभव हो सके।
इसके लिए आदमी को संयमी बनना पड़ता है । आपने देखा होगा कि रेलगाड़ी को चलाने के लिए थोड़ी भाप बनाई जाती है और पिस्टन के साथ जोड़ दी जाती है । यही संग्रहीत भाप रेलगाड़ी और इंजन सहित हजारों-लाखों मन बोझ को खींच ले जाती है । अगर यही भाप फैला दी जाय तो वह हवा में चारों तरफ बिखर जायगी और फिर किसी काम नहीं आयेगी । इसी तरीके से व्यक्ति के बारे में भी यही बात लागू होती है कि उसे सही तरीके से ठीक किया जाय । कोयले से ही हीरा बनता है । हीरा कोई अलग चीज नहीं वरन् साफ किया हुआ कोयला ही हीरा कहलाता है । कच्चा पारा सस्ता होता है और शरीर के लिए नुकसान देय भी, लेकिन अगर उसी पारे को मकरध्वज बनालें तो वह बहुत कीमती होता है, रसायन कहलाता है और बुड्ढे को जवान बना देता है और बहुत से मर्जों में काम आता है । अध्यात्म के बारे में भी यही बात है कि इससे व्यक्ति को स्वयं अपने आपको ठीक करना पड़ता है । मंत्र आप किससे जपेंगे—वाणी से । वाणी अगर आपने ठीक की हुई नहीं है तो फिर आप मंत्र जप कैसे कर पायेंगे और उसका परिणाम किस तरीके से निकल पायेगा । ठीक की हुई वाणी का अर्थ यह होता है कि जीभ को ऐसी होनी चाहिए जिससे आप किसी दूसरे आदमी को गलत रास्ते पर नहीं ले जायँ । अगर आपने जीभ को इस तरीके से बना करके रखा है तो आपकी जिह्वा चमत्कार दिखाने में समर्थ हो सकेगी ।
इस बारे में, मैं एक पुराना किस्सा सुनाना चाहता हूँ—शृंगीऋषि का। उनके पिता ने शृंगीऋषि को इस तरीके से पाला अपने आश्रम में कि उनको स्त्रियों एवं अन्य बातों के बारे में कुछ मालूम न था । राजा दशरथ के पुत्र नहीं होता था । गुरुवशिष्ठ ने कहा—आप शृंगीऋषि के पास जाइये । अगर वे आपके पुत्रेष्ठि यज्ञ-अनुष्ठान को पूरा करा देंगे तो आपका उद्देश्य पूरा हो जायेगा । राजा ने पूछा—शृंगीऋषि में क्या बात है जो अन्यान्य ब्राह्मणों में नहीं है । गुरु वशिष्ठ ने कहा—दूसरे ब्राह्मणों को कर्मकाण्ड आते हैं, विधि-विधान आते हैं, मंत्र बोलना आता है, लेकिन अपने स्वयं के जीवन को जैसा बनाना चाहिए, वैसा बनाने के बारे उन्होंने न कभी ख्याल किया और न उसका अभ्यास किया। शृंगीऋषि के पिता ने अभ्यास कराया है । जब शृंगीऋषि आये और राजा दशरथ का पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया तो उनकी तीनों रानियों से चार बच्चे हुए और चारों बच्चे साधारण नहीं, भगवान के स्तर के थे । क्योंकि उनकी वाणी में बल था । शृंगीऋषि को प्रयोग करना आता था । यही ऋषि परंपरा है । शारीरिक श्रम, बुद्धि, समय, धन, भावनायें, व्यक्तित्व ये सारी चीजें ऐसी हैं जो एक-एक करके ठीक करनी चाहिए । हमारे जीवन में यही करना पड़ा और उसी का यह परिणाम है कि जो कुछ हमने पाया उसमें से हर चीज को सही पाया । कोई चीज ऐसी नहीं पायी जिसके बारे में हम यह कह सकें कि हमको इसमें संदेह रह गया है कि अध्यात्म विज्ञान नहीं है ।
वस्तुतः अध्यात्म विज्ञान है । इस विज्ञान को और ज्यादा तेज करने के लिए अब हम आप लोगों से विदा होते हैं । विदा होने का मतलब है कि अब हमारी और आपकी बातचीत का सिलसिला, जो इतने लंबे समय से चलता रहा है, आगे से चलना अब मुमकिन नहीं है । आगे से अब हमारा दूसरा कार्यक्रम यह है कि अध्यात्म के विज्ञान को जिस हद तक हमने समझा है, उस हद तक यह लोभ हमसे अब संवरण नहीं होता कि इससे भी ज्यादा फायदा होना चाहिए । व्यक्तियों की व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान होना अध्यात्म से संभव है, लेकिन समूह का समाज का और सारे विश्व का समाधान होने के लिए उससे भी बड़ी ताकत की जरूरत है । अब तक हमने जैसी उपासना की है, उससे भी बड़ी उपासना करने की अब हमको आवश्यकता पड़ी है । इसलिए अब आप लोगों से विदा लेते हैं । क्यों ? साथ रहते तो क्या हर्ज था ? तब यह हर्ज था कि शक्ति बिखर जाती । पहले भी ऐसा हुआ है । कई व्यक्तियों को इसी तरीके से करना पड़ा है । पाण्डिचेरी वाले अरविंद घोष के बारे में आपने सुना है । श्री अरविंद ने कई इंतजाम किये कि अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से भगा दिया जाय, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली । आखिर में उनकी समझ में आया कि रूहानी शक्ति को इकट्ठा करना चाहिए । रूहानी शक्ति ही इस दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति है । उससे बड़ी कोई शक्ति नहीं है । वे पाण्डिचेरी चले गये । वहाँ अंग्रेजों की हुकूमत नहीं थी । वहाँ जाकर उनने तप करना शुरू कर दिया और तप से इतनी गर्मी पैदा की कि सारे के सारे वातावरण को 'साइक्लोन्स' चक्रवातों से भर दिया । जब ज्यादा गर्मी पड़ती है तब साइक्लोन—चक्रवात आते हैं और पेड़ों को, छप्परों को उखाड़ कर फेंक देते हैं । इसी प्रकार श्री अरविंद के तप करने की वजह से ऐसे साइक्लोन आये जिन्होंने पेड़ों को जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया । क्या नाम थे साइक्लोनों के ? इनमें से एक साइक्लोन का नाम था गाँधी, एक का नाम था मालवीय, एक नाम था जवाहार लाल नेहरू , एक का नाम था—सरदार पटेल, एक का नाम था सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपतराय—वगैरह-वगैरह । जब वे उठे, तब अंग्रेजों को बोरी बिस्तर बाँधने पड़े । ऐसे जबरदस्त थे साइक्लोन । वे महापुरुष थे—महामानव थे । इनके व्यक्तित्व और इनकी हस्तियाँ ऐसी जबरदस्त थीं, जो बहुत दिनों से पैदा नहीं हुई थीं।
वे कैसे हुईं । यह श्री अरविंद एवं श्री माँ का तप था और किसका महर्षि रमण का तप था । महर्षि रमण ने भी इन्हीं दिनों ऐसा तप किया था जिससे कि सारे के सारे वातावरण में गर्मी पैदा हो गयी थी और उससे हिन्दुस्तान की आजादी के लिए बड़े-बड़े काम संपन्न हो गये थे । महर्षि रमण और श्री अरविंद के अतिरिक्त बाहरी दुनिया में भी कई व्यक्ति हुए हैं । बाहर कौन हुआ है आइन्स्टीन । उन्होंने भी अपनी शक्तियों को बिखरने से बचाने के और अपने वैज्ञानिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए एकांत में रहना शुरू कर दिया था। उनके रहने की जगह ऐसी थी जहाँ कोई भी नहीं जा सकता था । जिसको उनके पास जाना होता था, वे नौकर की मार्फत अपना विजिटिंग कार्ड भिजवा देते थे और जब उनको फुर्सत होती थी तभी वे किसी को बुलाते थे अन्यथा किसी की हिम्मत नहीं होती थी जो उनके पास जाये, उनसे बातचीत करे । टाल्स्टाय ने भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में ऐसा ही किया था । वे मौनधारण करने लगे थे । मौनधारण करने का मतलब है अपनी शक्तियों को एकत्र करना । अब हम भी अपनी शक्तियों को एकत्र करने के लिए मौनधारण करते हैं । आप कोई यह मत सोचिये कि आप लोगों से कोई हमारी नाराजगी है । आप हमको बहुत प्यारे हैं और हमेशा बहुत प्यारे रहेंगे । प्यार में हम कुछ भी कमी नहीं आने देंगे और न ही दूर रहने से हमारे और आपके बीच कुछ फरक पड़ेगा । सूर्य, चन्द्रमा और समुद्र के नजदीक क्या कभी गये हैं आप ? वे आप से करोड़ों मील दूर हैं, फिर भी अपनी शक्ति से आपको कितना फायदा पहुँचाते हैं । हम और आप भी पास-पास खड़े रहें, पास-पास बैठे रहें देखते रहें, इसकी कोई जरूरत हमें नहीं दीखती । अब इससे आगे आप हमें नहीं भी देखें तो उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । आपने अपना दिल देखा है क्या ? फेफड़े देखे हैं क्या ? गुर्दे देखे हैं क्या ? वे दिन-रात चौबीसों घंटे आपकी सेवा में लगे रहते हैं । हमको आप इसी तरीके से मानिये कि दिल की तरीके से आपके साथ हम चौबीसों घंटे लगे रहेंगे । गुर्दे की तरीके से आपकी जिंदगी को साफ करेंगे । फेफड़ों की तरीके से आक्सीजन पहुँचाने के लिए हम से जो कुछ भी मुमकिन होगा बराबर करते रहेंगे । इसलिए आप तो इस बात को त्याग दीजिए कि गुरु जी से मिलना-जुलना नहीं हो सकेगा।
मिलने-जुलने की प्रक्रिया को हम सिर्फ इसलिए बंद कर रहे हैं कि अब तक आध्यात्मिक जीवन से जो अपने व्यक्तियों का, समाज का जो हित कर सकते थे किया, अब समस्यायें ऐसी पैदा हो गयी हैं जो बड़ी हैं और उनके लिए बड़ी तैयारी करनी पड़ेगी । छोटे कामों के लिए छोटी तैयारी करनी पड़ती है । चिड़िया को मारना होता है तो गुलेल भर से काम चल जाता है, या छोटी बन्दूक से भी मार सकते हैं । किसी डाकू को मारना होता है, शेर को मारना होता है तो स्टेनगन की जरूरत पड़ती है । जब कुछ बड़े काम करने पड़ते हैं या शत्रु सेना पर हमला बोलना होता है तब तोपों की जरूरत पड़ती है । अब समय कुछ इस प्रकार का आ गया है कि हमको बड़े कदम उठाने पड़ सकते हैं—पड़ेंगे । अब छोटे कदमों से आज की समस्यायें हल होने वाली नहीं हैं । कौन-कौन सी समस्यायें हैं ? आपकी आँखों को दिखाई नहीं पड़ेगा । आपको सूर्य का परिभ्रमण तथा पृथ्वी की परिक्रमा कहाँ दिखाई पड़ती है । हमारी आँखें आपकी अपेक्षा अधिक तेज हैं । वे कुछ ऐसी समस्यायें देख रही हैं जो कि बहुत ही मुश्किल हैं । इन मुश्किल समस्याओं को हल करने के लिए बड़ी शक्ति की जरूरत है । मुश्किल समस्यायें क्या हैं ? एक समस्या यह है कि वातावरण में जहर भरता जा रहा है । हवा में जहर, पानी में जहर, मिट्टी में जहर—सभी जगह औद्योगीकरण के द्वारा, मोटर-वाहनों के द्वारा, रासायनिक खादों एवं एटमी विकिरण के द्वारा जहर ही जहर भरता जा रहा है । जिससे कैंसर से लेकर अन्यान्य बीमारियाँ पैदा हो रही हैं । यह चीजें वह हैं जिसे साइंस ने तमाम जगह भर दी हैं । पर एक चीज ऐसी है जो सांइस ने तो नहीं भरी है, पर हमारे और आपके ख्यालातों से जन्मी है जिससे कि यह परोक्ष वातावरण गंदा हुआ है । परोक्ष वातावरण की इस गंदगी को दूर करने की, साफ करने की भरसक जरूरत है।
सफाई किस तरीके से की जाय ? हमको उसके लिए मुनासिब स्थान और मुनासिब कदम उठाने की जरूरत है । अब हम बड़े कदम उठायेंगे । अब तक जैसे अनुष्ठान किये हैं, वैसे अनुष्ठानों से काम नहीं चलेगा । अब हमको बड़े अनुष्ठान करने चाहिए । पिछले अनुष्ठानों में हम लोगों से मिलते भी रहे हैं और काम भी करते रहे हैं, पर आगे अब क्या करना है ? आगे हम अकेले पड़ जायेंगे । अकेले से काम नहीं चलेगा । रामचन्द्र जी से अकेले से काम नहीं चला था । इसलिए वे सुग्रीव को बुलाने के लिए गये—हनुमान को बुलाने के लिए गये । फिर नल और नील को बुलाने के लिए गये जिनने समुद्र पर सेतु बना दिया । सबने मिलकर लंका को पार करने की फतह करने की तैयारी की । अकेले रामचन्द्र जी नहीं कर पाये । उन्होंने जब रामराज्य की स्थापना की, तब भी इन्हीं लोगों की सहायता की जरूरत पड़ी । अकेले रामचन्द्र जी रामराज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे । हम भी अकेले नहीं कर पायेंगे । कुन्ती ने श्रीकृष्ण भगवान की आज्ञा मान करके उनके लिए पाँच सहायक पैदा किये थे । पाँच देवताओं की शक्तियों से वे पैदा हुए थे, जिनके नाम थे—अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव । एक का नाम कर्ण था जो सूर्य के अंश से पैदा हुए थे । काम बड़ा था—छोटा नहीं।
एक बार ऐसा हुआ कि सब जगह पानी का अभाव हो गया । पानी के बिना कुँए, तालाब सूख गये । कहीं पानी दिखाई नहीं पड़ रहा था । सब जगह वाहि-त्राहि मच गयी । कई वर्ष हो गये कहीं पानी नहीं बरसा । कुछ चीजें हैं जिन्हें मनुष्य अपने आप नहीं कर सकता, उसे बड़ों की सहायता से पूरा करता है । उसके लिए बड़ी शक्तियों की सहायता चाहिए । भगीरथ ने विचार किया कि इसके लिए स्वर्ग से गंगा जमीन पर लायी जाय । गंगा को स्वर्ग से जमीन पर लाने के लिए वे तप करने चले गये । उन्हें खुशामद नहीं करनी पड़ी । खुशामद करने, प्रार्थना करने, चावल चढ़ाने, धूप-दीप-नैवेद्य चढ़ाने से कोई भी बड़ी शक्ति काबू में नहीं आ सकती । ऐसे बड़े कामों के लिए तप करने पड़ते हैं । भगीरथ ने जैसे-जैसे तप किया और तप करके गंगा को स्वर्ग से लाये तो देवताओं ने भी मदद की । जो अपनी मदद आप करता है, उसकी ईश्वर भी मदद करता है । शंकर भगवान ने उनकी मदद की । हमारे गुरु ने भी हमारी मदद की है, क्योंकि हमारे सामने बड़े मकसद रहे हैं । शुरू से आखिर तक जो कुछ भी काम हम करते रहे हैं, बड़े उद्देश्यों के लिए करते रहे हैं । अगर यह बात, यह नीयत नहीं रही होती और यह नीयत रही होती जो कुछ भी हम अपने लिए, अपने बाल-बच्चों के लिए, रिश्तेदारों के लिए करेंगे तब ये सब देवता हम को सूँघ कर भाग खड़े हुए होते । आप देवताओं की शक्ति का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो उनको एक ही बात बतानी पड़ेगी कि हम किसी बड़े काम के लिए—बड़े मकसद के लिए-बड़े उद्देश्यों के लिए कुछ काम करना चाहते हैं । भगीरथ ने जब यह बताया कि गंगा हमें इसलिए चाहिए कि जो पीढ़ियाँ सदियों से अनास्था के कारण शाप से जल रही हैं, सारी धरती सूखी पड़ी है, उसके लिए चाहिए तो गंगा भी तैयार हो गयी और उनकी मदद करने के लिए शंकर जी भी तैयार हो गये और गंगा ने उनकी जटाओं में गिरने के बाद जमीन पर बहना शुरू कर दिया।
देवताओं के ऊपर एक बार एक और मुसीबत आयी । ऐसा हुआ कि वृत्रासुर नामक एक दैत्य ने देवताओं को मारपीट कर भगा दिया और उनका इन्द्रासन वगैरह राज सिंहासन छीन लिया । देवताओं ने देखा कि इसको मारने के लिए तपस्वी की शक्ति चाहिए । तपस्वी की शक्ति से बड़ी और किसी की शक्ति नहीं होती । वे दधीचि के पास गये । दधीचि ने कहा—कि मेरी आस्थियों का वज्र यदि बने तो वह इतना मजबूत हो सकता है कि सब देवता एक ओर , राक्षस एक ओर और मेरी अस्थियों से बना हुआ वज्र एक ओर । तपस्वी दधीचि ने इन्द्र को बुलाया और कहा कि आप हमारी हड्डियाँ ले जाइये और उससे वज्र बनाकर वृत्रासुर के विरुद्ध काम में लाइये । ऐसा ही हुआ । इन्द्र ने उन्हीं हड्डियों से वज्र बनाया और उससे वृत्रासुर का नाश किया और बड़ा काम हो गया।
बड़े कामों के लिए बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है । हमारे सामने भी काम बड़ा है । इसके लिए बड़े त्याग की जरूरत है । इसमें दधीचि जैसे, भगीरथ जैसे त्याग करने वाले होने चाहिए, बड़े आदमी होने चाहिए । बड़े आदमी आयेंगे कहाँ से ? हमने आपसे कहा है कि भगवान केवल उसी की सहायता करता है जो बड़े कामों के लिए—बड़े उद्देश्यों के लिए अपने आपको सौंप देते हैं । सुग्रीव के साथ भी यही हुआ और हनुमान के साथ भी यही हुआ । पहले दोनों बालि का मुकाबला नहीं कर सकते थे और जान बचाकर एक पहाड़ पर जा छिपे थे और वहीं पर किसी प्रकार अपना गुजारा कर रहे थे । लेकिन जब दोनों रामचन्द्र जी के साथ जुड़ गये और सीता की खोज करने और लंका का दहन करने का जोखिम उठाने को तैयार हो गये तो वही हमुमान भी पहाड़ उखाड़ने और लंका जलाने सहित समुद्र को छलांग मारने में समर्थ हो गये । जो आदमी जोखिम नहीं उठा सकता, केवल फायदा ही फायदा तलाश करता है, उसको मैं क्या कह सकता हूँ, लेकिन जो महापुरुष हैं वे महान कामों के लिए ही सहायता करते हैं । उन्होंने रामराज्य की स्थापना के लिए बड़े गजब के काम किये और रामचन्द्र जी का इतना प्यार पाया कि उन्हें रामपंचायतन में स्थान मिला । यह वह तथ्य है कि जिसने अपने आपको रामचन्द्र जी के सुपुर्द कर दिया । सुपुर्द करके तो देखिये कि बदले में क्या मिलता है । इसी तरीके से नल-नील ने, रीछ-बानरों ने एक ऐसा पुल बना दिया जो पानी पर तैरता था । तो क्या नल-नील में इतनी ताकत थी ? नहीं, भगवान की ताकत थी । अच्छे उद्देश्यों के लिए , अच्छे कामों के लिये भगवान की हमेशा सहायता मिलती रही है और आगे भी मिलती रहेगी।
कुन्ती के पाँचों पुत्रों में अर्जुन सहित पाँच पाण्डव थे । जब उनको वनवास हो गया तो अपनी जान बचाने के लिए वे मारे-मारे फिरते थे । नहीं साहब वे बड़े ताकतवर थे और उन्होंने कौरवों को मार गिराया और महाभारत फतह करके दिखा दी । तो फिर पहले क्यों नहीं दिखा दी थी ? पहले इमलिए नहीं दिखा सके थे कि पहले भगवान नहीं थे उनके साथ । भगवान किसके साथ होते हैं ? उसके साथ होते हैं जो बड़े कामों के लिए समर्पित हो जाते हैं । बड़े कामों के लिए अब हम आप से अलग हो रहे हैं । आप में से कई आदमी बड़े ताकतवर भी हैं, शक्तिशाली भी हैं । कौन-कौन ताकतवर हैं ? ताकतवर मैं उन्हें मानता हूँ जो कि बुद्धिजीवी हैं, जो कलाकार हैं, संपन्न हैं और जो राजनेता हैं और किसे मानते हैं—भावनाशीलों को मानते हैं । आप लोग तो भावनाशील हैं । भावनाशीलों ने ही दुनिया में ऐसे-ऐसे गजब के बड़े-बड़े काम किये हैं कि सारी दुनिया को हिला करके रख दिया है । भावनाशील किसी से भी कम नहीं हैं, राजनेताओं से भी नहीं । तब क्या करना है ? अब हमको इससे आगे आने वाले समय में अकेला नहीं रहना है । पाँच बच्चे ऐसे पैदा करना है जो बड़े हों । वायु-पवन ने एक बच्चा पैदा किया था जिसका नाम था—हनुमान-बजरंगबली । ऊपर से एक शिला पर पटक दिया कि देखें यह है कुछ या नहीं । बच्चे ने पत्थर की शिला को तोड़कर फेंक दिया और वह बजरंगबली कहलाया । कर्ण जो था वह सूर्य से पैदा हुआ था । उसके पास कवच, कुंडल थे । इसी तरह से हमको अपने सहायकों की आवश्यकता पड़ी है । ऊपर जिन पाँच ताकतवरों का नाम गिनाया है, उनको ठीक करना और सही रास्ते पर लाना एक बड़ा काम है । जो अगले ही दिनों संपन्न होने जा रहा है।
तो फिर आपको क्या करना पड़ेगा ? आपको कभी करना हो, अध्यात्म को विज्ञान की तरीके से देखना हो, उसे अंधविश्वास न कहना हो तो कृपा करके आप भगवान का तरीका समझना, भगवान का कायदा समझना, भगवान के मन को समझना । भगवान का मन क्या है ? भगवान का मन यह कि वे माँगते हैं । जो कोई भी सामने आता है, हर एक से माँगते हैं । किसको दें किसको नहीं दें, इसकी उनकी एक ही परीक्षा है कि वह आदमी देने को तैयार है कि नहीं । यदि देने को तैयार है तो भगवान उसको देंगे । उन्होंने जिससे भी मिला, पहले माँगा । शबरी के पास गये तो माँगते गये कि हम तो भूखे हैं । गोपियों के पास गये तो माँगते गये कि हम भूखे हैं । राजा कर्ण के पास गये तो उससे कहा कि हमको सोना चाहिए । राजा बलि के पास गये तो कहा कि हमको जमीन चाहिए । जहाँ कहीं भी भगवान गये हैं, उनमें से हर एक से माँगा है और जिस किसी ने दिया है वह खाली हाथ रहने नहीं पाया है । भगवान ने सबसे माँगा है । हमारे गुरु ने भी हमसे माँगा था और जब हमने दिया तो उसके बदले में क्या पाया? उनने कहा—जो तुम्हारे पास है—वह दे । मैंने कहा—कहाँ दूँ, किसको दूँ ? तो उनने कहा—भगवान की खेती में बो दे । अपने पास जो कुछ भी था हमने सब भगवान की खेती में बो दिया और जो कुछ भी बोया सौगुना होकर के पाया । हमारे पास शरीर है । शरीर हमने बोया और शरीर सौगुना होकर हमने पाया । आपने सुना नहीं है अभी एक पागल आया था और उसने सिर से पैर तक सैकड़ों छुरे चलाये, रिवाल्वर तान दिया, पर उसमें से कोई बाल तक बाँका नहीं हुआ । यह शक्तियाँ भगवान की दी हुई हैं। भगवान की दी हुई यह शक्तियाँ किसी को भी मिल सकती हैं, आपको भी ।
इस तरीके से हमने अपना शरीर दिया था और शरीर पाया । हमने अपनी बुद्धि दी । अपनी सारी बुद्धि का इस्तेमाल अपने लिए नहीं, समाज के लिए किया । हमारी जो बुद्धि है वह इतनी पैनी और तीखी है कि आप यह जानकर अचंभे में रह जायेंगे । व्यास जी ने एक महाभारत लिखा था और उसके लिए गणेश जी को स्टेनो-टाइपिस्ट बनाकर ले गये थे । हमारे पास कोई स्टेनो-टाइपिस्ट नहीं है । हमारी यह भुजायें ही स्टेनो-टाइपिस्ट हैं । इसी से हमने इतना साहित्य लिखा है जो कि हमारे वजन से भी भारी है । यह हमारी बुद्धि है । हमारे पास धन है । हमारे पास तो नहीं था, पर पिताजी का दिया हुआ था, जिसे सारे का सारा समाज को दे दिया । गायत्री तपोभूमि को दे दिया । उससे जो कुछ बचा हुआ था, उससे अपने गाँव में एक स्कूल बना दिया । उसके बाद भी कुछ धन बचता दिखाई दिया तो कुछ और इंतजाम करके गाँव में ही एक अस्पताल बना दिया । सारी की सारी चीजें ऐसी बना दीं जो समाज की हैं । आप पूछेंगे कि तो फिर आपका धन चला गया होगा और आप गरीबी में दिन काट रहे होंगे ? नहीं, हम गरीबी में दिन नहीं काटते । आप देखते नहीं, जहाँ हम रहते हैं कितने दामों की है । आपने शान्तिकुञ्ज देखा है, लाखों रुपयों का बना हुआ है । गायत्री तपोभूमि लाखों रुपयों का बना हुआ है । ब्रह्मवर्चस् लाखों रुपयों का बना हुआ है । हमें लाखों से कम में गिनती ही नहीं आती । क्यों ? इसलिए नहीं आती कि जो हमारे पास था हमने भगवान को, समाज को दिया है । बोया है और बोने के बदले में काटा है ।
अध्यात्म विज्ञान है या अंधविश्वास—अगर आपका मन यह जानने को हो तो फिर आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि अध्यात्म का सही तरीका क्या है । सही तरीका नहीं मालूम है, इसलिए आप बेकाबू होते हैं—परेशान हैं । आप केवल पूजा-पाठ करते हैं, कर्मकाण्ड करते हैं, परंतु कर्मकाण्ड के साथ-साथ में जीवन को जैसा ऊँचा बनाना चाहिए वैसा ऊँचा बनाने के लिए आप का मन नहीं करता । आप कोई प्रयत्न नहीं करते । आप मन से कीजिये—प्रयत्न कीजिए, फिर देखिये कि भगवान आपकी सहायता करता है कि नहीं । भगवान झूठा है कि सच्चा है ? भगवान सच्चा है । और कैसा है ? कैसा देखा है आपने ? भगवान को हमने प्रतिच्छाया के रूप में और प्रतिध्वनि के रूप में देखा है । शीशे में आप जैसा अपना चेहरा देखते हैं, भगवान हूबहू वैसा ही होता है । भगवान को हमने देखा कि बिलकुल हमारे जैसा है । हमारे जैसा उसका ईमान, हमारे जैसा उसका मन, हमारी जैसी उसकी बुद्धि, हमारे जैसे उसका प्यार—हमारे भगवान का बिलकुल हमारे जैसा है । गुंबज में जो आवाज लगाते हैं, ठीक वही आवाज प्रतिध्वनित होकर सुनाई देती है । इसी प्रकार जो आवाज हम लगाते हैं, वही आवाज सुनाई देती है । हम कहते हैं—लीजिए और आप आवाज लगाते हैं कि लाइये भगवान जी आपके पास जो कुछ है हमारे सुपुर्द कीजिए । भगवान भी इसके बदले में आवाज लगाते हैं कि लाइये आपके पास क्या है, हमारे सुपुर्द कीजिए । आप कहते हैं कि हम तो देने वाले नहीं है, भगवान भी कहते हैं कि हम देने वाले नहीं हैं । दोनों में जद्दोजेहद होती है । राम और भरत में राजगद्दी को लेकर लड़ाई हो गयी थी । राम कहते थे कि हमारा भरत इस गद्दी पर बैठेगा और भरत कहते थे कि राजगद्दी पर तो हमारे भाई राम बैठेंगे । दोनों के बीच में जद्दो जेहद होती रही—लड़ाई होती रही । गेंद को दोनों ठोकरें मारते रहे और गेंद यहाँ पड़ी, कभी वहाँ पड़ी । हमारे और हमारे भगवान के बीच प्यार की बातें हुई हैं और लड़ाई की बातें भी हुई हैं । लड़ाई इस बात पर हुई है कि भगवान ने बीसियों बार हमसे कहा है कि हमारे पास जो कुछ भी है, तू ले ले । हमने कहा—जो कुछ भी हमारे पास है आप ले लें । हम देने की कोशिश करते हैं । भगवान से हमने यह नहीं कहा कि आप हमें यह दीजिए—वह दीजिये, हमारे पास यह कम है । हम न तो भिखारी हैं और न दीन-दुर्बल, हम ब्राह्मण हैं और हम तपस्वी हैं । हम शक्तिशाली हैं और इसीलिए हमने भगवान से कहा कि आपको जो कुछ जरूरत है—माँगिये । भगवान ने कहा—क्यों नहीं जरूरत है ? समाज के लिए—देश के लिए क्यों नहीं जरूरत है । दुनिया में जो तहस-नहस मचा हुआ है, विष फैला हुआ है, उसके लिए तेरी हड्डियों की जरूरत है, तप की जरूरत है । हमने कहा—लीजिए इस दधीचि का सब कुछ आपके सामने है ।
भगवान को आपने कैसे देखा ? भगवान को हमने घोड़े-हाथी पर सवार नहीं देखा । हमने भगवान को पायलट की तरीके से देखा और अपने बॉडीगार्ड की तरीके से देखा । भगवान हमारे बॉडीगार्ड की तरीके से चलता है और यह कहता है कि आप जो कहेंगे, हम वही करेंगे । आप आगे-आगे चलिए हम पीछे से सँभाल लेंगे । हमारा पायलट आगे-आगे चलता है और कहता है कि देखिये रास्ता साफ है । मैं रास्ता साफ करता हूँ आपके लिए—आप आगे बढ़िये । भगवान इस तरह का है । ऐसा भगवान आप चाहते हों तो आप वही रास्ता अख्तियार करना जो हमने अख्तियार किया है । हमारा जीवन एक वैज्ञानिक अध्यात्म के साथ मिला हुआ है, इसलिए उसका परिणाम भी हमने वैज्ञानिक अध्यात्म जैसा ही पाया है । आपसे भी प्रार्थना है कि आप भी ऐसे ही करना । आप भी वही पायेंगे जो कि हमने पाया है।
॥ॐ शान्तिः॥