हमारी वसीयत और विरासत - 1

प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण

प्रथम परीक्षा देने के लिए हिमालय बुलाए जाने के आमन्त्रण को प्रायः दस वर्ष बीत गए। फिर बुलाए जाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। उनके दर्शन उसी मुद्रा में होते रहे जैसे कि पहली बार हुए थे। ‘‘सब ठीक है’’ इतने ही शब्द कहकर प्रत्यक्ष सम्पर्क होता रहा। अन्तरात्मा में उसका समावेश निरन्तर होता रहा। कभी अनुभव नहीं हुआ कि हम अकेले हैं। सदा दो साथ रहने जैसी अनुभूति होती रही। इस प्रकार दस वर्ष बीत गए।

स्वतन्त्रता संग्राम चल ही रहा था। इसी बीच ऋतु अनुकूल पाकर पुनः आदेश आया हिमालय पहुँचने का। दूसरे ही दिन चलने की तैयारी कर दी। आदेश की उपेक्षा करना, विलम्ब लगाना हमारे लिए सम्भव न था। जाने की जानकारी घर के सदस्यों को देकर प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में चल पड़ने की तैयारी कर दी। सड़क तब भी उत्तरकाशी तक ही बनी थी। आगे के लिए निर्माण कार्य आरम्भ हो रहा था।

रास्ता अपना देखा हुआ था। ऋतु उतनी ठण्डी नहीं थी जितनी कि पिछली बार थी। रास्ते पर आने-जाने वाले मिलते रहे। चट्टियाँ (ठहरने की छोटी धर्मशालाएँ) भी सर्वथा खाली नहीं थीं। इस बार कोई कठिनाई नहीं हुई। सामान भी अपेक्षाकृत साथ में ज्यादा नहीं था। घर जैसी सुविधा तो कहाँ, किन्तु जिन परिस्थितियों में यात्रा करनी पड़ी, वह असह्य नहीं अनभ्यस्त भर थीं। क्रम यथावत चलता रहा।

पिछली बार जो तीन परीक्षाएँ ली थीं, इस बार इनमें से एक से भी पाला नहीं पड़ा। जो परीक्षा ली जा चुकी है, उसी को बार-बार लेने की आवश्यकता भी नहीं समझी गई। गंगोत्री तक का रास्ता ऐसा था जिसके लिए किसी से पूछताछ नहीं करनी थी। गंगोत्री से गोमुख के १४ मील ही ऐसे हैं जिनका रास्ता बर्फ पिघलने के बाद हर साल बदल जाता है, चट्टानें टूट जाती हैं और इधर-उधर गिर पड़ती हैं। छोटे नाले भी चट्टानों से रास्ता रुक जाने के कारण अपना रास्ता इधर से उधर बदलते रहते हैं। नए वर्ष का रास्ता यों तो उस क्षेत्र से परिचित किसी जानकार को लेकर पूरा करना पड़ता था या फिर अपनी विशेष बुद्धि का सहारा लेकर अनुमान के आधार पर बढ़ते और रुकावट आ जाने पर लौटकर दूसरा रास्ता खोजने का क्रम चलता रहा। इस प्रकार गोमुख जा पहुँचे।

आगे के लिए गुरुदेव का सन्देशवाहक साथ जाना था। वह भी सूक्ष्म शरीरधारी था। छाया पुरुष यों वीरभद्र स्तर का था। समय-समय पर वे उसी से अनेकों काम लिया करते थे। जितनी बार हमें हिमालय जाना पड़ा, तब नन्दन वन एवं और ऊँचाई तक तथा वापस गोमुख पहुँचाने का काम उसी के जिम्मे था। सो उस सहायक की सहायता से हम अपेक्षाकृत कम समय में और अधिक सरलता पूर्वक पहुँच गए। रास्ते भर दोनों ही मौन रहे।

नन्दन वन पहुँचते ही गुरुदेव का सूक्ष्म शरीर प्रत्यक्ष रूप में सामने विद्यमान था। उनके प्रकट होते ही हमारी भावनाएँ उमड़ पड़ीं। होंठ काँपते रहे। नाक गीली होती रही। ऐसा लगता रहा मानों अपने ही शरीर का कोई खोया अंग फिर मिल गया हो और उसके अभाव में जो अपूर्णता रहती हो सो पूर्ण हो गई हो। उनका सिर पर हाथ रख देना हमारे प्रति अगाध प्रेम के प्रकटीकरण का प्रतीक था। अभिवादन-आशीर्वाद का शिष्टाचार इतने से ही पूर्ण हो गया। गुरुदेव ने हमें संकेत किया, ऋषि सत्ता से पुनः मार्गदर्शन लिए जाने के विषय में। हृदय में रोमांच हो उठा।

सतयुग के प्रायः सभी ऋषि शरीरों से उसी दुर्गम हिमालय क्षेत्र में निवास करते आए हैं, जहाँ हमारा प्रथम साक्षात्कार हुआ था। स्थान नियत करने की दृष्टि से सभी ने अपने-अपने लिए एक-एक गुफा निर्धारित कर ली है। वैसे शरीर चर्या के लिए उन्हें स्थान नियत करने या साधन सामग्री जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, तो भी अपने-अपने निर्धारित क्रिया-कलाप पूरे करने तथा आवश्यकतानुसार परस्पर मिलते-जुलते रहने के लिए सभी ने एक-एक स्थान नियत कर लिए हैं।

पहली यात्रा में हम उन्हें प्रणाम भर कर पाए थे। अब दूसरी यात्रा में गुरुदेव हमें एक-एक करके उनसे अलग-अलग भेंट कराने ले गए। परोक्ष रूप में आशीर्वाद मिला था, अब उनका सन्देश सुनने की बारी थी। दीखने को हल्के से प्रकाश पुंज की तरह दीखते थे, पर जब अपना सूक्ष्म शरीर सही हो गया, तो उन ऋषियों का सतयुग वाला शरीर भी यथावत् दीखने लगा। ऋषियों के शरीर की जैसी संसारी लोग कल्पना किया करते हैं, वे लगभग वैसे ही थे। शिष्टाचार पाला गया। उनके चरणों पर अपना मस्तक रख दिया। उन्होंने हाथ का स्पर्श जैसा सिर पर रखा और उतने भर से रोमांच हो उठा। आनन्द और उल्लास की उमंगें फूटने लगीं।

बात काम की चली। हर एक ने परावाणी में कहा कि हम स्थूल शरीर से जो गतिविधियाँ चलाते थे, वे अब पूरी तरह समाप्त हो गई हैं। फूटे हुए खण्डहरों के अवशेष हैं। जब हम लोग दिव्य दृष्टि से उन क्षेत्रों की वर्तमान स्थिति को देखते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है। गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक का पूरा क्षेत्र ऋषि क्षेत्र था। उस एकान्त में मात्र तपश्चर्या की विधा पूरी होती थी।

उत्तरकाशी में जैसा जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक था, जहाँ-तहाँ वैसे अनेकों ऋषि आश्रम संव्याप्त थे। शेष ऋषि अपने-अपने हिस्से की शोध तपश्चर्याएँ करने में संलग्न रहते थे। देवताओं के स्थान वहाँ थे, जहाँ आज-कल हम लोग अब रहते हैं। हिमयुग के उपरान्त न केवल स्थान ही बदल गए, वरन् गतिविधियाँ बदलीं तो क्या, पूरी तरह समाप्त ही हो गईं, उनके चिह्न भर शेष रह गए हैं।

उत्तराखण्ड में जहाँ-तहाँ देवी-देवताओं के मन्दिर तो बन गए हैं ताकि उन पर धनराशि चढ़ती रहे और पुजारियों का गुजारा होता चले, पर इस बात को न कोई पूछने वाला है न बताने वाला कि ऋषि कौन थे? कहाँ थे? क्या करते थे? उसका कोई चिह्न भी अब बाकी नहीं रहा। हम लोगों की दृष्टि में ऋषि परम्परा की तो अब एक प्रकार से प्रलय ही हो गई।

लगभग यही बात उन बीसियों ऋषियों की ओर से कही गई, जिनसे हमारी भेंट कराई गई। विदाई देते समय सभी की आँखें डबडबाई सी दीखीं। लगा कि सभी व्यथित हैं। सभी का मन उदास और भारी है, पर हम क्या कहते? इतने ऋषि मिलकर जितना भार उठाते थे, उसे उठाने की अपनी सामर्थ्य भी तो नहीं है। उन सबका मन भारी देखकर अपना चित्त द्रवित हो गया। सोचते रहे। भगवान ने किसी लायक हमें बनाया होता तो इन देव पुरुषों को इतना व्यथित देखते हुए चुप्पी साधकर ऐसे ही वापस न लौट जाते। स्तब्धता अपने ऊपर भी छा गई और आँखें डबडबाने लगीं, प्रवाहित होने लगीं। इतने समर्थ ऋषि, इतने असहाय, इतने दुःखी, यह उनकी वेदना हमें बिच्छू के डंक की तरह पीड़ा देने लगी।

गुरुदेव की आत्मा और हमारी आत्मा साथ-साथ चल रही थी। दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे। साथ में उनके चेहरे पर भी उदासी छाई हुई थी। हे भगवान, कैसा विषम समय आया कि किसी ऋषि का कोई उत्तराधिकारी नहीं उपजा। सबका वंश नाश हो गया। ऋषि प्रवृत्तियों में से एक भी सजीव नहीं दीखती। करोड़ों की संख्या में ब्राह्मण हैं और लाखों की संख्या में सन्त पर उनमें से दस-बीस भी जीवित रहे होते, तो गाँधी और बुद्ध की तरह गजब दिखाकर रख देते। पर अब क्या हो? कौन करे? किस बलबूते पर करे?

राजकुमारी की आँखों से आँसू टपकने पर और कहने पर कि ‘‘को वेदान् उद्धरस्यसि?’’ अर्थात्—‘‘वेदों का उद्धार कौन करेगा?’’ इसके उत्तर में कुमारिल भट्ट ने कहा था कि—‘‘अभी एक कुमारिल भट्ट भूतल पर है। इस प्रकार विलाप न करो।’’ तब एक कुमारिल भट्ट जीवित था। उसने जो कहा था, सो कर दिखाया, पर आज तो कोई नहीं। न ब्राह्मण हैं, न सन्त। ऋषियों की बात तो बहुत आगे की है। आज तो छद्म वेशधारी ही चित्र-विचित्र रूप बनाए रंगे सियारों की तरह पूरे वन प्रदेश में हुआ-हुआ करते फिर रहे हैं।

दूसरे दिन लौटने पर हमारे मन में इस प्रकार के विचार दिन भर उठते रहे। जिस गुफा में निवास था, दिन भर यही चिन्तन चलता रहा। लेकिन गुरुदेव उन्हें पूरी तरह पढ़ रहे थे, मेरी कसक उन्हें भी दुःख दे रही थी।

उनने कहा—‘‘तब फिर ऐसा करो! अब की बार उन सबसे मिलने फिर से चलते हैं। कहना—आप लोग कहें तो उसका बीजारोपण तो मैं कर सकता हूँ। खाद-पानी आप देंगे, तो फसल उग पड़ेगी। अन्यथा प्रयास करने से अपना मन तो हल्का होगा ही।’’

‘‘साथ में यह भी पूछना कि शुभारम्भ किस प्रकार किया जाए, इसकी रूपरेखा बताएँ। मैं कुछ न कुछ अवश्य करूँगा। आप लोगों का अनुग्रह बरसेगा तो इस सूखे श्मशान में हरीतिमा उगेगी।’’

गुरुदेव के आदेश पर तो मैं यह भी कह सकता था। जलती आग में जल मरूँगा। जो होना होगा, सो होता रहेगा। प्रतिज्ञा करने और उसे निभाने में प्राण की साक्षी देकर प्रण तो किया ही जा सकता है। यह विचार मन में उठ रहे थे। गुरुदेव उन्हें पढ़ रहे थे। अब की बार मैंने देखा कि उनका चेहरा ब्रह्मकमल जैसा खिल गया है।

दोनों स्तब्ध थे और प्रसन्न भी। पीछे लौट चलने और उन सभी ऋषियों से दुबारा मिलने का निश्चय हुआ, जिनसे कि अभी-अभी विगत रात्रि ही मिलकर आए थे। दुबारा हम लोगों को वापस आया हुआ देखकर उनमें से प्रत्येक बारी-बारी से प्रसन्न होता गया और आश्चर्यान्वित भी।

मैं तो हाथ जोड़े सिर नवाए मन्त्र-मुग्ध की तरह खड़ा रहा। गुरुदेव ने मेरी कामना, इच्छा और उमंग उन्हें परोक्षतः परावाणी में कह सुनाई। और कहा—‘‘यह निर्जीव नहीं है। जो कहता है उसे करेगा भी। आप यह बताइए कि आपका जो कार्य छूटा हुआ है, उसका नए सिरे से बीजारोपण किस तरह हो? खाद पानी आप-हम लोग लगाते रहेंगे, तो इसका उठाया हुआ कदम खाली नहीं जाएगा।’’

इसके बाद उनने गायत्री पुरश्चरण की पूर्ति पर मथुरा में होने वाले सहस्रकुण्डीय पूर्णाहुति में इसी छाया रूप में पधारने का आमन्त्रण दिया और कहा—‘‘यह बन्दर तो है, पर है हनुमान। यह रीछ तो है, पर है जामवन्त। यह गिद्ध तो है, पर है जटायु। आप इसे निर्देश दीजिए और आशा कीजिए कि जो छूट गया है, वह फिर से विनिर्मित होगा और अंकुर वृक्ष बनेगा। हम लोग निराश क्यों हों? इससे आशा क्यों न बाँधें, जबकि यह गत तीन जन्मों में दिए गए दायित्वों को निष्ठापूर्वक निभाता चला आ रहा है।’’

चर्चा एक से चल रही थी, पर निमन्त्रण पहुँचते ही एक क्षण लगा और वे सभी एक-एक करके एकत्रित हो गए। निराशा गई, आशा बँधी और आगे का कार्यक्रम बना कि जो हम सब करते रहे हैं, उसका बीज एक खेत में बोया जाए और पौधशाला में एक पौध तैयार की जाए, उसके पौधे सर्वत्र लगेंगे और उद्यान लहलहाने लगेगा।

यह शान्तिकुञ्ज बनाने की योजना थी, जो हमें मथुरा के निर्धारित निवास के बाद पूरी करनी थी। गायत्री नगर बसने और ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान का ढाँचा खड़ा किए जाने की योजना भी विस्तार से समझाई गई। पूरे ध्यान से उसका एक-एक अक्षर हृदय पटल पर लिख लिया और निश्चय किया कि २४ लक्ष का पुरश्चरण पूरा होते ही इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनेगी और चलेगी। निश्चय ही, अवश्य ही और जिसे गुरुदेव का संरक्षण प्राप्त हो वह असफल रहे, ऐसा हो ही नहीं सकता।

एक दिन और रुका। उसमें गुरुदेव ने पुरश्चरण की पूर्णाहुति का स्वरूप विस्तार से समझाया एवं कहा कि ‘‘पिछले वर्षों की स्थिति और घटनाक्रम को हम बारीकी से देखते रहे हैं और उसमें जहाँ कुछ अनुपयुक्त जँचा है, उसे ठीक करते रहे हैं। अब आगे क्या करना है, उसी का स्वरूप समझाने के लिए इस बार बुलाया गया है। पुरश्चरण पूरा होने में अब बहुत समय नहीं रहा है, जो रहा है उसे मथुरा जाकर पूरा करना चाहिए। अब तुम्हारे जीवन का दूसरा चरण मथुरा से आरम्भ होगा।

प्रयाग के बाद मथुरा ही देश का मध्य केन्द्र है। आवागमन की दृष्टि से वही सुविधाजनक भी है। स्वराज्य हो जाने के बाद तुम्हारा राजनैतिक उत्तरदायित्व तो पूरा हो जाएगा, पर वह कार्य अभी पूरा नहीं होगा। राजनैतिक क्रान्ति तो होगी, आर्थिक क्रान्ति तथा उससे सम्बन्धित कार्य भी सरकार करेगी, किन्तु इसके बाद तीन क्रान्तियाँ और शेष हैं—जिन्हें धर्म तन्त्र के माध्यम से ही पूरा किया जाना है। उनके बिना पूर्णता न हो सकेगी। देश इसलिए पराधीन या जर्जर नहीं हुआ था कि यहाँ शूरवीर नहीं थे। आक्रमणकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे। भीतरी दुर्बलताओं ने पतन-पराभव के गर्त में धकेला। दूसरों ने तो उस दुर्बलता का लाभ भर उठाया।

नैतिक क्रान्ति-बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति सम्पन्न की जानी है। इसके लिए उपयुक्त व्यक्तियों का संग्रह करना और जो करना है उससे सम्बन्धित विचारों को व्यक्त करना अभी से आवश्यक है। इसलिए तुम अपना घर-गाँव छोड़कर मथुरा जाने की तैयारी करो। वहाँ एक छोटा घर लेकर एक मासिक पत्रिका आरम्भ करो। साथ ही तीनों क्रान्तियों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी देने का प्रकाशन भी। अभी तुम से इतना ही काम बन पड़ेगा। थोड़े ही दिन उपरान्त तुम्हें दुर्वासा ऋषि की तपस्थली में मथुरा के समीप एक भव्य गायत्री मन्दिर बनाना है। सह कर्मियों के आवागमन, निवास, ठहरने आदि के लिए। इसके उपरान्त २४ महापुरश्चरण के पूरे हो जाने की पूर्णाहुति स्वरूप एक महायज्ञ करना है। अनुष्ठानों की परम्परा जप के साथ यज्ञ करने की है। तुम्हारे २४ लक्ष के २४ अनुष्ठान पूरे हो जा रहे हैं। इसके लिए एक सहस्र कुण्डों की यज्ञशाला में एक हजार मान्त्रिकों द्वारा २४ लाख आहुतियों का यज्ञ आयोजन किया जाना है। उसी अवसर पर ऐसा विशालकाय संगठन खड़ा हो जाएगा, जिसके द्वारा तत्काल धर्मतन्त्र से जन जागृति का कार्य प्रारम्भ किया जा सके। यह अनुष्ठान की पूर्ति का प्रथम चरण है। लगभग २४ वर्षों में इस दायित्व की पूर्ति के उपरान्त तुम्हें सप्त सरोवर हरिद्वार जाना है, जहाँ रहकर वह कार्य पूरा करना है, जिसके लिए ऋषियों की विस्मृत परम्पराओं को पुनर्जागृति करने हेतु तुमने स्वीकृति सूचक सम्मति दी थी।’’

मथुरा की कार्य शैली आदि से अन्त तक किस प्रकार सम्पन्न की जानी है, इसकी एक सुविस्तृत रूपरेखा उन्होंने आदि से अन्त तक समझाई। इसी बीच आर्ष साहित्य के अनुवाद, प्रकाशन, प्रचार की तथा गायत्री परिवार के संगठन और उसके सदस्यों को काम सौंपने की रूपरेखा उन्होंने बता दी।

जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जायेगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया, पर एक ही सन्देह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धन शक्ति और जन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?

मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिन्ता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरम्भ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है, उसे कैसे, कहाँ बोया-जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी, यह जानकारी भी उनने दी।

जो उन्होंने कहा—उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? हमारे लिए भी अवज्ञा एवं उपेक्षा करने का कोई प्रश्न नहीं।

वार्ता समाप्त हो गई। इस बार छः महीने ही हिमालय रुकने का आदेश हुआ। जहाँ रुकना था, वहाँ की सारी व्यवस्था बना दी गई थी।

गुरुदेव के वीरभद्र ने हमें गोमुख पहुँचा दिया। वहाँ से हम निर्देशित स्थान पर जा पहुँचे और छः महीने पूरे कर लिए। लौटकर घर आए थे तो स्वास्थ्य पहले से भी अच्छा था। प्रसन्नता और गम्भीरता बढ़ गई थी, जो प्रतिभा के रूप में चेहरे के इर्द-गिर्द छाई हुई थी। लौटने पर जिनने भी देखा, उन सभी ने कहा—‘‘लगता है, हिमालय में कहीं बड़ी सुख-सुविधा का स्थान है। तुम वहीं जाते हो और स्वास्थ्य सम्वर्धन करके लौटते हो।’’ हमने हँसने के अतिरिक्त और कोई भी उत्तर नहीं दिया।

अब मथुरा जाने की तैयारी थी। एक बार दर्शन की दृष्टि से मथुरा देखा तो था पर वहाँ किसी से परिचय न था। चलकर पहुँचा गया और ‘‘अखण्ड ज्योति’’ प्रकाशन के लायक एक छोटा मकान किराए पर लेने का निश्चय किया।

मकानों की उन दिनों भी किल्लत थी। बहुत ढूँढ़ने के बाद भी आवश्यकता के अनुरूप नहीं मिल रहा था। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते घीया मण्डी जा निकले। एक मकान खाली मिला। बहुत दिनों से खाली पड़ा था। मालकिन एक बुढ़िया थी। किराया पूछा, तो उसने पन्द्रह रुपए बताया और चाभी हाथ में थमा दी। भीतर घुसकर देखा तो उसमें छोटे-बड़े कुल पन्द्रह कमरे थे। था तो जीर्ण-शीर्ण पर एक रुपया कमरे के हिसाब से वह मँहगा किसी दृष्टि से न था। हमारे लिए काम चलाऊ भी था। पसन्द आ गया और एक महीने का किराया पेशगी पन्द्रह रुपया हाथ पर रख दिए। बुढ़िया बहुत प्रसन्न थी।

घर जाकर सभी सामान ले आए और पत्नी-बच्चों समेत उसमें रहने लगे। सारे मुहल्ले में काना-फूसी होते सुनी। मानों हमारा वहाँ आना कोई आश्चर्य का विषय हो। पूछा तो लोगों ने बताया कि—‘‘यह भुतहा मकान है। इसमें जो भी आया, जान गँवाकर गया। कोई टिका नहीं। हमने तो कितनों को ही आते और धन-जन की भारी हानि उठाकर भागते हुए देखा। आप बाहर के नये आदमी हैं, इसलिए धोखे में आ गए। अब बात आपके कान में डाल दी। यदि ऐसा न होता तो तीन मंजिला १५ कमरों का मकान वर्षों से क्यों खाली पड़ा रहता? आप समझ-बूझकर भी उसमें रह रहे हैं। नुकसान उठायेंगे।’’

इतना सस्ता और इतना उपयोगी मकान अन्यत्र मिल नहीं रहा था। हमने तो उसी में रहने का निश्चय किया। भुतहा होने की बात सच थी। रात भर छत के ऊपर धमा-चौकड़ी मचती रहती। ठठाने की, रोने की, लड़ने की आवाजें आतीं। उस मकान में बिजली तो थी नहीं। लालटेन जलाकर ऊपर गए, तो कुछ स्त्री-पुरुष आकृतियाँ आगे, कुछ पीछे भागते दीखे, पर साक्षात भेंट नहीं हुई। न उन्होंने हमें कोई नुकसान ही पहुँचाया। ऐसा घटनाक्रम कोई दस दिन तक लगातार चलता रहा।

एक दिन हम रात को १ बजे करीब ऊपर गए। लालटेन हाथ में थी। भागने वालों से रुकने के लिए कहा। रुक गए। हमने कहा—‘‘आप बहुत दिन से इस घर में रहते आए हैं। ऐसा करें कि ऊपर की मंजिल के सात कमरों में आप लोग गुजारा करें। नीचे के आठ कमरों में हमारा काम चल जाएगा। इस प्रकार हम सब राजी नामा करके रहें। न आप लोग परेशान हों और न हमें हैरान होना पड़े।’’ किसी ने उत्तर नहीं दिया। खड़े जरूर रहे। दूसरे दिन से पूरा घटनाक्रम बदल गया। हमने अपनी ओर से समझौते का पालन किया और वे सभी उस बात पर सहमत हो गए। छत पर कभी-कभी चलने-फिरने जैसी आवाजें तो सुनी गईं, पर ऐसा उपद्रव न हुआ जिससे हमारी नींद हराम होती, बच्चे डरते या काम में विघ्न पड़ता। घर में जो टूट-फूट थी, अपने पैसों से सँभलवा ली। ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका पुनः इसी घर से प्रकाशित होने लगी। परिजनों से पत्र-व्यवहार यहीं आरम्भ किया। पहले वर्ष में ही दो हजार के करीब ग्राहक बन गए। ग्राहकों से पत्र व्यवहार करते और वार्तालाप करने के लिए बुलाते रहे। अध्ययन का क्रम तो रास्ता चलने के समय चलता रहा। रोज टहलने जाते, उसी समय में दो घण्टा नित्य पढ़ लेते। अनुष्ठान भी अपनी छोटी सी पूजा की कोठरी में चलता रहता। काँग्रेस के काम के स्थान पर लेखन कार्य को अब गति दे दी। अखण्ड ज्योति पत्रिका, आर्ष साहित्य का अनुवाद, धर्म तन्त्र से लोकशिक्षण की रूपरेखा, इन्हीं विषयों पर लेखनी चल पड़ी। पत्रिका अपनी ही हैंडप्रेस से छापते, शेष साहित्य दूसरी प्रेसों से छपा लेते। इस प्रकार ढर्रा तो चला, पर वह चिन्ता बराबर बनी रही कि अगले दिनों मथुरा में रहकर जो प्रकाशन का बड़ा काम करना है, प्रेस लगाना है, गायत्री तपोभूमि का भव्य भवन बनाना है, यज्ञ इतने विशाल रूप में करना है, जितना महाभारत के उपरान्त दूसरा नहीं हुआ, इन सबके लिए धन शक्ति और जन शक्ति कैसे जुटे? उसके लिए गुरुदेव का वही सन्देश आँखों के सामने आ खड़ा होता था कि ‘‘बोओ और काटो’’। उसे अब समाज रूपी खेत में कार्यान्वित करना था। सच्चे अर्थों में अपरिग्रही ब्राह्मण बनना था, इसी कार्यक्रम की रूपरेखा मस्तिष्क में घूमने लगीं।

विचार क्रान्ति का बीजारोपण, पुनः हिमालय आमन्त्रण

मथुरा से ही उस विचार क्रान्ति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्र कुण्डीय यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का एक माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अन्दर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा सम्पन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।

मथुरा में ही नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए गाँव-गाँव आलोक वितरण करने एवं घर-घर अलख जगाने के लिए सर्वत्र गायत्री यज्ञ समेत युग निर्माण सम्मेलन के आयोजनों की एक व्यापक योजना बनाई गई। मथुरा के सहस्र कुण्डीय यज्ञ के अवसर पर जो प्राणवान व्यक्ति आए थे, उन्होंने अपने यहाँ एक शाखा संगठन खड़ा करने और एक ऐसा ही यज्ञ आयोजन का दायित्व अपने कन्धों में लिया या कहें कि उस दिव्य वातावरण में अन्तःप्रेरणा ने उन्हें वह दायित्व सौंपा ताकि हर व्यक्ति न्यूनतम एक हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से ढूँढ़कर अपना सहयोगी बनाए। आयोजन चार-चार दिन के रखे गए। इनमें तीन दिन तीन क्रान्तियों की विस्तृत रूपरेखा और कार्य पद्धति समझाने वाले संगीत और प्रवचन रखे गए। अन्तिम चौथे दिन यज्ञाग्नि के सम्मुख उन लोगों से व्रत धारण करने को कहा गया, जो अवांछनीयता को छोड़ने और उचित परम्पराओं को अपनाने के लिए तैयार थे।

ऐसे आयोजन जहाँ-जहाँ भी हुए, बहुत ही सफल रहे। इनके माध्यम से प्रायः एक करोड़ व्यक्तियों ने मिशन की विचारधारा को सुना एवं लाखों व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने अनैतिकताओं, अन्ध-विश्वासों एवं कुरीतियों के परित्याग की प्रतिज्ञाएँ लीं। इन आयोजनों में से अधिकाँश के बिना दहेज और धूमधाम के साथ विवाह हुए। मथुरा में एक बार और सौ कुण्डीय यज्ञ में १०० आदर्श विवाह कराए गए। तब से ये प्रचलन बराबर चलते आ रहे हैं और हर वर्ष इस प्रकार के आन्दोलन से अनेक व्यक्ति लाभ उठाते रहे हैं।

सहस्र कुण्डीय यज्ञ से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से जुड़े अनेकानेक रहस्यमय घटनाक्रमों का विवरण बताना अभी जनहित में उपयुक्त न होगा। इस काया को छोड़ने के बाद ही वह रहस्योद्घाटन हो, ऐसा प्रतिबन्ध हमारे मार्गदर्शक का है, सो हमने उसे दबी कलम से ही लिखा है। इस महान यज्ञ से हमें प्रत्यक्ष रूप से काफी कुछ मिला। एक बहुत बड़ा संगठन रातों-रात गायत्री परिवार के रूप में खड़ा हो गया। युग निर्माण योजना के विचार क्रान्ति अभियान एवं धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण के रूप में उनकी भावी भूमिका भी बन गई। जिन-जिन स्थानों से आए व्यक्तियों ने अपने यहाँ शाखा स्थापित करने के संकल्प लिए, लगभग वहीं दो दशक बाद हमारे प्रज्ञा संस्थान एवं स्वाध्याय मण्डल विनिर्मित हुए। जिन स्थाई कार्यकर्ताओं ने हमारे मथुरा से आने के बाद प्रेस-प्रकाशन, संगठन-प्रचार का दायित्व अपने कन्धों पर लिया, वे इसी महायज्ञ से उभरकर आए थे। सम्प्रति शान्तिकुञ्ज में स्थाई रूप से कार्यरत बहुसंख्य स्वयं सेवकों की पृष्ठभूमि में इस महायज्ञ अथवा इसके बाद देश भर में हुए आयोजनों की प्रमुख भूमिका रही है।

इससे हमारी स्वयं की संगठन सामर्थ्य विकसित हुई है। हमने गायत्री तपोभूमि के सीमित परिकर में ही एक सप्ताह, नौ दिन एवं एक-एक माह के कई शिविर आयोजित किए। आत्मोन्नति के लिए पंचकोशी साधना शिविर, स्वाध्याय सम्वर्धन हेतु कायाकल्प सत्र एवं संगठन विस्तार हेतु परामर्श एवं जीवन साधना सत्र उन कुछ प्रमुख आयोजनों में से हैं, जो हमने सहस्र एवं शतकुण्डीय यज्ञ के बाद मथुरा में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार सम्पन्न किए। गायत्री तपोभूमि में आने वाले परिजनों से जो हमें प्यार मिला, परस्पर आत्मीयता की जो भावना विकसित हुई, उसी ने एक विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह वही गायत्री परिवार है, जिसका हर सदस्य हमें पिता के रूप में, उँगली पकड़ कर चलाने वाले मार्गदर्शक के रूप में, घर-परिवार और मन की समस्याओं को सुलझाने वाले चिकित्सक के रूप में देखता आया है।

इसी स्नेह-सद्भाव के नाते हमें भी उनके यहाँ जाना पड़ा, जो हमारे यहाँ आए थे। कई स्थानों पर छोटे-छोटे यज्ञायोजन थे, कहीं सम्मेलन तो कहीं प्रबुद्ध समुदाय के बीच तर्क, तथ्य प्रतिपादनों के आधार पर गोष्ठी-आयोजन। हमने जब मथुरा छोड़कर हरिद्वार आने का निश्चय किया तो लगभग दो वर्ष तक पूरे भारत का दौरा करना पड़ा। पाँच स्थानों पर तो उतने ही बड़े सहस्र कुण्डी यज्ञों का आयोजन था, जितना बड़ा मथुरा का सहस्र कुण्डी यज्ञ था। ये थे टाटानगर, महासमुन्द, बहराइच, भीलवाड़ा एवं पोरबन्दर। एक दिन में तीन-तीन स्थानों पर रुकते हुए हजारों मील का दौरा अपने अज्ञातवास पर जाने के पूर्व कर डाला। इस दौरे से हमारे हाथ लगे समर्पित, समयदानी कार्यकर्ता। ऐसे अगणित व्यक्ति हमारे सम्पर्क में आए, जो पूर्व जन्म में ऋषि जीवन जी चुके थे। उनकी समस्त सामर्थ्य को पहचान कर हमने उन्हें परिवार से जोड़ा और इस प्रकार पारिवारिक सूत्रों से बँधा एक विशाल संगठन बनकर खड़ा हो गया।

मार्गदर्शक का आदेश वर्षों पूर्व ही मिल चुका था कि हमें छः माह के प्रवास के लिए पुनः हिमालय जाना होगा, पर पुनः मथुरा न लौटकर हमेशा के लिए वहाँ से मोह तोड़ते हुए हरिद्वार सप्त सरोवर में सप्तऋषियों की तपस्थली में ऋषि परम्परा की स्थापना करनी होगी। अपना सारा दायित्व हमने क्रमशः धर्मपत्नी के कन्धों पर सौंपना काफी पूर्व से आरम्भ कर दिया था। वे पिछले तीन में से दो जन्मों में हमारी जीवन संगिनी बनकर रहीं ही थीं। इस जन्म में भी उन्होंने अभिन्न साथी-सहयोगी की भूमिका निभाई। वस्तुतः हमारी सफलता के मूल में उनके समर्पण-एकनिष्ठ सेवा भाव को देखा जाना चाहिए। जो कुछ भी हमने चाहा, जिन प्रतिकूलताओं में जीवन जीने हेतु कहा, उन्होंने सहर्ष अपने को उस क्रम में ढाल लिया। हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण जमींदार के घराने की थी, तो उनकी एक धनी शहरी खानदान की, परन्तु जब घुलने का प्रश्न आया तो दोनों मिलकर एक हो गए। हमने अपने गाँव की भूमि विद्यालय हेतु दे दी एवं जमींदारी के बाॅण्ड से मिली राशि गायत्री तपोभूमि के लिए जमीन खरीदने हेतु। तो उन्होंने अपने सभी जेवर तपोभूमि का भवन विनिर्मित होने के लिए दे दिए। यह त्याग-समर्पण उनका है, जिसने हमें इतनी बड़ी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अपनी दूसरी हिमालय यात्रा में उन्होंने हमारी अनुपस्थिति में सम्पादन-संगठन की जिम्मेदारी सँभाली ही थी। अब हम १० वर्ष बाद १९७१ में एक बहुत बड़ा परिवार अपने पीछे छोड़कर हिमालय जा रहे थे। गायत्री परिवार को दृश्य रूप में एक संरक्षक चाहिए, जो उन्हें स्नेह-ममत्व दे सके। उनकी दुःख भरी वेदना में आँसू पोंछने का कार्य माता ही कर सकती थी। माताजी ने यह जिम्मेदारी भलीभाँति सँभाली। प्रवास पर जाने के ३ वर्ष पूर्व से ही हम लम्बे दौरे पर रहा करते थे। ऐसे में मथुरा आने वाले परिजनों से मिलकर उन्हें दिलासा देने का कार्य वे अपने कन्धों पर ले चुकी थीं। हमारे सामाजिक जीवन जीने में हमें उनका सतत सहयोग ही मिला। २०० रुपए में पाँच व्यक्तियों का गुजारा परिवार का भरण-पोषण किया, आने वालों का समुचित आतिथ्य सत्कार भी वे करती रहीं। किसी को निराश नहीं लौटने दिया।

मथुरा में जिया हमारा जीवन एक अमूल्य धरोहर के रूप में है। इसने न केवल हमारी भावी क्रान्तिकारी जीवन की नींव डली, अपितु क्रमशः प्रत्यक्ष पीछे हटने की स्थिति में दायित्व सँभाल सकने वाले मजबूत कन्धों वाले नर तत्त्व भी हाथ लगे।

मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग

प्रारम्भ में मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथ, न अनुभव, न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार बन पड़े? हिम्मत टूटती सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सँभाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं करता रहा, लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि तार मजबूती से जकड़ कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ, वैसा करने से इंकार नहीं किया।

चार घण्टे नित्य लिखने के लिए निर्धारण किया। लगता रहा कि व्यास और गणेशजी का उदाहरण चल पड़ा। पुराण लेखन में व्यास बोलते गए थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद कार्य अति कठिन है। चारों वेद, १८ पुराण, १०८ उपनिषद, छहों दर्शन, चौबीसों स्मृतियाँ आदि-आदि सभी ग्रन्थों में हमारी कलम और उँगलियों का उपयोग हुआ। बोलती-लिखती कोई और अदृश्य शक्ति रही। अन्यथा इतना कठिन काम इतनी जल्दी बन पड़ना सम्भव न था। फिर धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का प्रयोग पूरा करने वाली सैकड़ों की संख्या में लिखी गईं पुस्तकें मात्र एक ही व्यक्ति के बलबूते किस प्रकार होती रह सकती थीं? यह लेखन कार्य जिस दिन से आरम्भ हुआ, उस दिन से लेकर आज तक बन्द ही नहीं हुआ। वह बढ़ते-बढ़ते इतना हो गया कि जितना हमारे शरीर का वजन है।

प्रकाशन के लिए प्रेस की जरूरत हुई। अपने बलबूते पर हैंड प्रेस का जुगाड़ किसी तरह जुटाया गया। जिसे काम कराना था, वह इतनी सी बाल क्रीड़ा को देखकर हँस पड़ा। प्रेस का विकास हुआ। ट्रेडिलें, सिलेंडर, आटोमैटिक, आफसेटें एक के बाद एक आती चली गईं। उन सबकी कीमतें व प्रकाशित साहित्य की लागत लाखों को पार कर गई।

‘‘अखण्ड-ज्योति’’ पत्रिका के अपने पुरुषार्थ से दो हजार तक ग्राहक बनने पर बात समाप्त हो गई थी। फिर मार्गदर्शक ने धक्का लगाया तो अब वह बढ़ते-बढ़ते डेढ़ लाख के करीब छपती है, जो एक कीर्तिमान है। उसके और भी दस गुने बढ़ने की ही सम्भावना है। युग निर्माण योजना हिन्दी, युग शक्ति गायत्री गुजराती, युग शक्ति उड़िया आदि सब मिलाकर भी डेढ़ लाख के करीब हो जाती है। एक व्यक्ति द्वारा रचित इतनी उच्चकोटि की, इतनी अधिक संख्या में बिना किसी का विज्ञापन स्वीकार किए, इतनी संख्या में पत्रिका छपती है और घाटा जेब में से न देना पड़ता हो, यह एक कीर्तिमान है, जैसा अपने देश में अन्यत्र उदाहरण नहीं ढूँढ़ा जा सकता।

गायत्री परिवार का संगठन करने के निमित्त, महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के बहाने हजार कुण्डीय यज्ञ मथुरा में हुआ था। उसके सम्बन्ध में यह कथन अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि इतना बड़ा आयोजन महाभारत के उपरान्त आज तक नहीं हुआ।

उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएँ ऐसी थीं, जिनके सम्बन्ध में सही बात कदाचित् ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने से आमन्त्रित किए गए। वे सभी ऐसे थे जिनने धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का काम हाथों-हाथ सँभाल लिया और इतना बड़ा हो गया जितना कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से हमारा परिचय बिल्कुल न था, पर उन सबके पास निमन्त्रण पत्र पहुँचे और वे अपना मार्ग व्यय खर्च करके भागते चले आए। यह एक पहेली है, जिसका समाधान ढूँढ़ पाना कठिन है।

दर्शकों की संख्या मिलाकर दस लाख तक प्रतिदिन पहुँचती रही। इन्हें सात मील के घेरे में ठहराया गया था। किसी को भूखा नहीं जाने दिया। किसी से भोजन का मूल्य नहीं माँगा गया। अपने पास खाद्य सामग्री मुट्ठी भर थी। इतनी जो एक बार में बीस हजार के लिए भी पर्याप्त न होती, पर भण्डार अक्षय हो गया। पाँच दिन के आयोजन में प्रायः ५ लाख से अधिक खा गए। पीछे खाद्य सामग्री बच गई जो उपयुक्त व्यक्तियों को बिना मूल्य बाँटी गई, व्यवस्था ऐसी अद्भुत रही, जैसी हजार कर्मचारी नौकर रखने पर भी नहीं कर सकते थे।

यह रहस्यमयी बातें हैं। आयोजन का प्रत्यक्ष विवरण तो हम दे चुके हैं, पर जो रहस्यमय था, सो अपने तक सीमित रहा है। कोई यह अनुमान न लगा सका कि इतनी व्यवस्था, इतनी सामग्री कहाँ से जुट सकी, यह सब अदृश्य सत्ता का खेल था। सूक्ष्म शरीर से वे ऋषि भी उपस्थित हुए थे, जिनके दर्शन हमने प्रथम हिमालय यात्रा में किए थे। इन सब कार्यों के पीछे जो शक्ति काम कर रही थी, उसके सम्बन्ध में कोई तथ्य किसी को विदित नहीं। लोग इसे हमारी करामात-चमत्कार कहते रहे। भगवान साक्षी है कि हम जड़ भरत की तरह, मात्र दर्शक की तरह यह सारा खेल देखते रहे। जो शक्ति इस व्यवस्था को बना रही थी, उसके सम्बन्ध में कदाचित् ही किसी को कुछ आभास हुआ हो।

तीसरा काम जो हमें मथुरा में करना था, वह था—गायत्री तपोभूमि का निर्माण। इतने बड़े कार्यक्रम के लिए छोटी इमारत से काम नहीं चल सकता। वह बनना आरम्भ हुई। निर्माण कार्य आरम्भ हुआ और हमारे आने के बाद भी अब तक बराबर चलता ही रहा है। प्रज्ञा नगर के रूप में विकसित-विस्तृत हो गया है। जो मथुरा गए हैं, गायत्री तपोभूमि की इमारत और उसका प्रेस, अतिथि व्यवस्था, कार्यकर्ताओं का समर्पण भाव आदि देख कर आए हैं, वे आश्चर्यचकित होकर रहे हैं। इतना सामान्य दीखने वाला आदमी किस प्रकार इतनी भव्य इमारत की व्यवस्था कर सकता है। इस रहस्य को जिन्हें जानना हो, उन्हें हमारी पीठ पर काम करने वाली शक्ति को ही इसका श्रेय देना होगा, व्यक्ति को नहीं। अर्जुन का रथ भगवान सारथी बनकर चला रहे थे। उन्होंने जिताया था, पर जीत का श्रेय अर्जुन को मिला और राज्याधिकारी पाण्डव बने। इसे कोई चाहे तो पाण्डवों का पुरुषार्थ-पराक्रम कह सकता है, पर वस्तुतः बात वैसी थी नहीं। यदि होती तो द्रौपदी का चीर उनकी आँखों के सामने कैसे खींचा जाता? वनवास काल में जहाँ-तहाँ छिपे रहकर जिस-तिस की नगण्य सी नौकरियाँ क्यों करते फिरते?

हमारी क्षमता नगण्य है, पर मथुरा जितने दिन रहे, वहाँ रहकर इतने सारे प्रकट और अप्रकट कार्य जो हम करते रहे, उसकी कथा आश्चर्यजनक है। उसका कोई लेखा-जोखा लेना चाहे, तो हमारी जीवन साधना के तथ्यों को ध्यान में रखे और हमें नाचने वाली लकड़ी के टुकड़े से बनी कठपुतली के अतिरिक्त और कुछ न माने, यही समर्पण भाव हमारी जीवन गाथा का केन्द्र रहा है। यही हमने सम्पर्क में आने वालों को भी सिखाया व सत्ता द्वारा परोक्ष संचालन हेतु स्वयं को एक निमित्त मात्र मानकर उपासना, साधना, आराधना के त्रिविध प्रसंगों का समय-समय पर रहस्योद्घाटन किया है। जो चाहें, उन्हीं प्रसंगों से हमारी आत्मकथा का तत्त्व दर्शन समझते रह सकते हैं।

महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई

उचित होगा कि आगे का प्रसंग प्रारम्भ करने के पूर्व हम अपनी जीवन साधना के, स्वयं की आत्मिक प्रगति से जुड़े तीन महत्त्वपूर्ण चरणों की व्याख्या कर दें। हमारी सफल जीवन यात्रा का यही केन्द्र बिन्दु रहा है। आत्मगाथा पढ़ने वालों को इस मार्ग पर चलने की इच्छा जागे, प्रेरणा मिले तो वे उस तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करें, जो हमने जीवन में उतारा है। अलौकिक रहस्य-प्रसंग पढ़ने-सुनने में अच्छे लग सकते हैं, पर रहते वे व्यक्ति विशेष तक ही सीमित हैं। उनसे ‘‘हिप्नोटाइज’’ होकर कोई उसी कर्मकाण्ड की पुनरावृत्ति कर हिमालय जाना चाहे, तो उसे कुछ हाथ न लगेगा। सबसे प्रमुख पाठ जो इस काया रूपी चोले में रहकर हमारी आत्म-सत्ता ने सीखा है, वह है सच्ची उपासना, सही जीवन साधना एवं समष्टि की आराधना। यही वह मार्ग है जो व्यक्ति को नर मानव से देवमानव, ऋषि, देवदूत स्तर तक पहुँचाता है।

जीवन धारण के लिए अन्न, वस्त्र और निवास की आवश्यकता पड़ती है। साहित्य सृजन के लिए कलम, स्याही और कागज चाहिए। फसल उगाने के लिए बीज, खेत और खाद-पानी का प्रबन्ध करना है। यह तीनों ही अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें एक की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आत्मिक प्रगति के लिए उपासना, साधना और आराधना इन तीनों के समान समन्वय की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से किसी अकेले के सहारे लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। कोई एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके।

उपासना का सही स्वरूप

भूल यह होती रही है कि जो पक्ष इनमें सबसे गौण है, उस ‘‘पूजा पाठ’’ को ही उपासना मान लिया गया और उतने पर ही आदि-अन्त कर लिया गया। पूजा का अर्थ है—हाथों तथा वस्तुओं द्वारा की गई मनुहार, दिए गए छुट-पुट उपचार, उपहार, पाठ का अर्थ है—प्रशंसा परक ऐसे गुणगान जिसमें अत्युक्तियाँ ही भरी पड़ी हैं। समझा जाता है कि ईश्वर या देवता कोई बहुत छोटे स्तर के हैं। उन्हें प्रसाद, नेवैद्य, नारियल, इलायची जैसी वस्तुएँ कभी मिलती नहीं। पाएँगे तो फूलकर कुप्पा हो जाएँगे। जागीरदारों की तरह प्रशंसा सुनकर चारणों को निहाल कर देने की उनकी आदत है। ऐसी मान्यता बनाने वाले देवताओं के स्तर एवं बड़प्पन के सम्बन्ध में बेखबर होते हैं और बच्चों जैसा नासमझ समझते हैं, जिन्हें इन्हीं खिलवाड़ों से फुसलाया-बरगलाया जा सकता है। मनोकामना पूरी करने के लिए उन्हें लुभाया जा सकता है। भले ही वे उचित हों अथवा अनुचित। न्याय संगत हों या अन्याय पूर्ण। आम आदमी इसी भ्रान्ति का शिकार है। तथाकथित भक्तजनों में से कुछ सम्पदा पाना या सफलता माँगते हैं, कुछ स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि की फिराक में रहते हैं। कइयों पर ईश्वर दर्शन का भूत चढ़ा रहता है। माला घुमाने और अगरबत्ती जलाने वालों में से अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है। मोटे अर्थों में उपासना उतने तक सीमित समझी जाती है। जो इस विडम्बना में से जितना अंश पूरा कर लेते हैं, वे अपने को भक्तजन समझने का नखरा करते हैं और बदले में भगवान ने उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं की, तो हजार गुना गालियाँ सुनाते हैं। कई इससे भी सस्ता नुस्खा ढूँढ़ते हैं। वे प्रतिमाओं की, सन्तों की दर्शन-झाँकी करने भर से ही यह मानने लगते हैं कि इस अहसान के बदले ये लोग झक मारकर अपना मनोरथ पूरा करेंगे।

बुद्धिहीन स्तर की कितनी ही मान्यताएँ समाज में प्रचलित हैं। लोग उन पर विश्वास भी करते हैं और अपनाते भी हैं। उन्हीं में से एक यह भी है कि आत्मिक क्षेत्र की उपलब्धियों के लिए दर्शन-झाँकी या पूजा-पाठ जैसा नुस्खा अपना लेने भर से काम चल जाना चाहिए, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। यदि ऐसा होता तो मन्दिरों वाली भीड़ और पूजा-पाठ वाली मण्डली अब तक कब की आसमान के तारे तोड़ लाने में सफल हो गई होती।

समझा जाना चाहिए कि जो वस्तु जितनी महत्त्वपूर्ण है, उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होना चाहिए। प्रधानमन्त्री के दरबार का सदस्य बनने के लिए पार्लियामेन्ट का चुनाव जीतना चाहिए। उपासना का अर्थ है—पास बैठना। यह वैसा नहीं है जैसा कि रेलगाड़ी के मुसाफिर एक-दूसरे पर चढ़ बैठते हैं। वरन् वैसा है जैसा कि दो घनिष्ठ मित्रों को दो शरीर एक प्राण होकर रहना पड़ता है। सही समीपता ऐसे ही गम्भीर अर्थों में ली जानी चाहिए, समझा जाना चाहिए कि इसमें किसी एक को किसी दूसरे के लिए समर्पण करना होगा। चाहे तो भगवान अपने नियम, विधान, मर्यादा और अनुशासन छोड़कर किसी भजनानन्दी के पीछे-पीछे नाक में नकेल डालकर फिरें और जो कुछ भला-बुरा वह निर्देश करे, उसकी पूर्ति करता रहे। अन्यथा दूसरा उपाय यही है कि भक्त को अपना जीवन भगवान की मर्जी के अनुरूप बनाने के लिए आत्म-समर्पण करना होगा।

हमें हमारे मार्गदर्शक ने जीवनचर्या को आत्मोत्कर्ष के त्रिविध कार्यक्रमों में नियोजित करने के लिए सर्वप्रथम उपासना का तत्त्वदर्शन और स्वरूप समझाया। कहा—‘‘भगवान तुम्हारी मर्जी पर नहीं नाचेगा। तुम्हें ही भगवान का भक्त बनना और उसके संकेतों पर चलना पड़ेगा। ऐसा कर सकोगे, तो तद्रूप होने का लाभ प्राप्त करोगे।’’

उदाहरण देते हुए उनने समझाया कि ‘‘ईंधन की हस्ती दो कौड़ी की होती है, पर जब वह अग्नि के साथ जुड़ जाता है, तो उसमें सारे गुण अग्नि के आ जाते हैं। आग ईंधन नहीं बनती, ईंधन को ही आग बनना पड़ता है। नाला नदी में मिलकर वैसा ही पवित्र और महान बन जाता है, पर ऐसा नहीं होता कि नदी उलट कर नाले में मिले और वैसी ही गन्दी बन जाए। पारस को छूकर लोहा सोना होता है, पारस लोहा नहीं बनता। किसी भक्त की यह आशा कि भगवान उसके इशारे पर नाचने के लिए सहमत हो जाएगा, आत्म-प्रवंचना भर है। भक्त को ही भगवान के संकेतों पर कठपुतली की तरह नाचना पड़ता है। भक्त की इच्छाएँ भगवान पूरी नहीं करते। वरन् भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए भक्त को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। बूँद को समुद्र में घुलना पड़ता है। समुद्र बूँद नहीं बनता। यही है उपासना का एक मात्र तत्त्वदर्शन। जो भगवान के समीप बैठना चाहे, वह उसी का निर्देशन, अनुशासन स्वीकार करे। उसी का अनुयायी, सहयोगी बने।’’

हमें ऐसा ही करना पड़ा है। भगवान की उपासना गायत्री माता का जप और सविता पिता का ध्यान करते हुए करते रहे। भावना एक ही रखी है कि श्रवण कुमार की तरह आप दोनों को तीर्थयात्रा कराने के आदर्श का परिपालन करेंगे। आपसे कुछ माँगेंगे नहीं, आपके सच्चे पुत्र कहला सकें, ऐसा व्यक्तित्व ढालेंगे। आपकी निकृष्ट सन्तान जैसी बदनामी न होने देंगे।

ध्यान की सुविधा के लिए गायत्री को माता और सविता को पिता माना तो सही पर साथ ही यह भी अनुभव किया कि वे सर्वव्यापक और सूक्ष्म हैं। इसी मान्यता के कारण उनको अपने रोम-रोम में और अपना उनकी हर तरंग में घुल सकना सम्भव हो सका। मिलन का आनन्द इससे कम में आता ही नहीं। यदि उन्हें व्यक्ति विशेष माना होता तो दोनों के मध्य अन्तर बना ही रहता और घुलकर आत्मसात् होने की अनुभूति होने में बाधा ही बनी रहती।

अभ्यास के लिए आरम्भिक चरणों में अपने को बेल और भगवान को वृक्ष मानकर उनके साथ लिपटते हुए उतनी ही ऊँचाई तक जा पहुँचने की मान्यता ठीक है। इसी प्रकार अपने को वंशी और भगवान को वादक मानकर उनके द्वारा अनुशासित-अनुप्राणित किए जाने का ध्यान भी सुविधाजनक पड़ता है। बच्चे के हाथ में डोरी और उसके इशारे पर पतंग के आकाश तक उड़ जाने का ध्यान भी उत्साहवर्धक है। यह तीनों ही ध्यान हमने समय-समय पर किए हैं और उनसे उत्साहवर्धक अनुभूतियाँ प्राप्त की हैं, पर सबसे सुखद और प्राणवान अनुभूति एकाकार अनुभव में हुई है। पतंगे का दीपक पर आत्म समर्पण करना, पत्नी का पति के हाथों अपना शरीर, मन और धन-वैभव सौंप देना भक्त को भगवान के साथ तादात्म्य मिलाने का एक अच्छा अनुभव है। उपासना काल में इन्हीं कृत्यों को अपनाते हुए जप और ध्यान की प्रक्रिया पूरी करते रहा गया है।

हमारी उपासना क्रिया प्रधान नहीं, श्रद्धा प्रधान रही है। निर्धारित जप संख्या को पूरा करने का अनुशासन कठोरतापूर्वक पाला गया है। प्रातः एक बजे उठ बैठने और निर्धारित संकल्प को पूरा करने में कभी कदाचित ही आपत्तिकाल में भूल हुई हो। जो कमी पड़ी है उसकी अगले दिनों पूर्ति कर ली गई है। उपेक्षा में नहीं डाला गया। इतने पर भी उस अवधि में भावनाओं से ओत-प्रोत रहने की मनःस्थिति बनाए रहने का अभ्यास किया गया है और वह सफल भी होता रहा है। समर्पण, एकता, एकात्मता, अद्वैत की भावनाओं का अभ्यास आरम्भ में कल्पना के रूप में किया गया था। पीछे वह मान्यता बन गई और अन्त में अनुभूति प्रतीत होने लगी।

गायत्री माता की सत्ता—कारण शरीर में श्रद्धा, सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा और स्थूल शरीर में निष्ठा बनकर प्रकट होने लगी। यह मात्र कल्पना ही तो नहीं है। इसके लिए बार-बार कठोर आत्म-परीक्षण किया जाता रहा है। देखा कि आदर्श जीवन के प्रति—समष्टि के प्रति अपनी श्रद्धा बढ़ रही है या नहीं। इनके लिए प्रलोभनों और दबावों से इंकार कर सकने की स्थिति है या नहीं। समय-समय पर घटनाओं के साथ जोड़कर भी परख की गई और पाया गया कि भावना परिपक्व हो गई है। उसने अपना स्वस्थ साधन श्रद्धा का वैसा ही बना लिया है जैसा कि ऋषि-कल्प साधक बनाया करते थे।

गायत्री माता मात्र स्त्री शक्ति के रूप में छवि दिखाती हैं। अब प्रज्ञा बनकर विचार संस्थान पर आच्छादित हो चलीं। इसका जितना बन पड़ा विश्लेषण किया जाता रहा। अनेक प्रसंगों पर हमने परखा भी है कि समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के रूप में प्रज्ञा का समन्वय आत्म-चेतना की गहराई तक हुआ या नहीं। यदि पक्षपात की चूक न हुई हो, तो प्रतीत होता रहा है कि भाव चेतना में प्रज्ञा के रूप में गायत्री माता का अवतरण हुआ है और उनकी उपासना, ध्यान-धारणा फलवती हो चली है। मान्यता का गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन होना यही तो उपासनात्मक धारणा की परख है।

त्रिपदा गायत्री का तीसरा स्वरूप है—निष्ठा। निष्ठा अर्थात संकल्प, धैर्य, साहस, पराक्रम, तप, कष्ट सहन। जिस प्रकार आँवे से निकले बर्तन को उँगली से ठोंक-ठोंककर देखा जाता है कि यह फूटा तो नहीं है, उसी प्रकार प्रलोभन और भय के प्रसंगों पर दृढ़ता डगमगाई तो नहीं, यह क्रिया और भावना की दृष्टि से जाँच-पड़ताल की जाती रही। पाया कि प्रगति रुकी नहीं है, हर कदम क्रमशः आगे ही बढ़ता रहा है।

सविता का तेजस्—ब्रह्मवर्चस् कहलाता है। उसी को ओजस्, तेजस्, मनस्, वर्चस कहते हैं। पवित्रता, प्रखरता और प्रतिभा के रूप में इसका प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। सविता के आलोक के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में प्रवेश की विधि पहले ही ऐसा अनुभव कराती रही कि शरीर में बल, मस्तिष्क में ज्ञान और हृदय में भाव-साहस भर रही है। पीछे अनुभव होने लगा कि अपनी समूची सत्ता ही अग्नि पिण्ड के, ज्योति पिण्ड के समान बन गई है। नस-नस में, कण-कण में अमृत संव्याप्त हो रहा है। सोमरस पान जैसी तृप्ति, तुष्टि, शान्ति का आनन्द मिल रहा है।

संक्षेप में यही है—हमारी चार घंटा नित्य की नियमित उपासना का उपक्रम। यह समय ऐसी अच्छी तरह कटता रहा है, मानों आधे घण्टे में ही समाप्त हो गया। कभी न ऊब आई, न थकावट और न जम्हाई। हर घड़ी नसों में आनन्द का संचार होता रहा और ब्रह्म सान्निध्य का अनुभव होता रहा। यह सहज-सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया चलती रही। न कभी गणना करनी पड़ी, न कभी गर्व हुआ, न परिणाम की अपेक्षा मन में उठी। जिस प्रकार दिनचर्या के अन्य कार्य सहज-सरल हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान के पास बैठना भी एक ऐसा कार्य है, जिसे किए बिना अब हमारे लिए एक दिन बिताना तक सम्भव नहीं है। नियत घण्टे तो उपासना के ऐसे हैं जैसे नशा पीने, ताड़ी खाने में जाने का। जो पिया है, उसकी खुमारी तो चौबीस घण्टे बनी ही रहती है। अपने को भगवान में और भगवान को अपने में अनुभव करते हुए हर क्षण गुजरते रहते हैं।

इस मनःस्थिति में उतार-चढ़ाव की परिस्थितियाँ भी सरल-स्वाभाविक लगती हैं। न हर्ष होता है-न शोक। चारों ओर आनन्द का समुद्र जैसा लहलहाता दीखता है।

जिधर भी देखते हैं, भगवान दीखता है। आगे भी-पीछे भी, जिधर भी चलते हैं, वह साथ ही चलता है। बॉडीगार्ड की तरह, पायलट की तरह उसकी उपस्थिति हर घड़ी परिलक्षित होती रहती है। समुद्र तो बूँद नहीं बन सकता, पर बूँद के समुद्र बन जाने की अनुभूति में अब कोई सन्देह भी नहीं रह गया है। उसकी उपस्थिति में न निश्चिन्तता की कमी है, न निर्भयता की।

आत्मा को परमात्मा से मिला देने वाली जिस श्रद्धा को लम्बे जीवन काल में सँजोया गया है, वह अब साक्षात् भगवती की तरह अपनी उपस्थिति और अनुभूति का परिचय देती रहती है।

जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

बालक की तरह मनुष्य सीमित है। उसे असीम क्षमता उसके सुसम्पन्न सृजेता भगवान से उपलब्ध होती है, पर यह सशर्त है। छोटे बच्चे वस्तुओं का सही उपयोग नहीं जानते, न उनकी सँभाल रख सकते हैं, इसलिए उन्हें दुलार में जो मिलता है, हलके दर्जे का होता है। गुब्बारे, झुनझुने, सीटी, लेमनचूस स्तर की विनोद वाली वस्तुएँ ही माँगी जाती और पाई जाती हैं। प्रौढ़ होने पर लड़का घर की जिम्मेदारियाँ समझता और निबाहता है। फलतः बिना माँगे उत्तराधिकार का हस्तान्तरण होता जाता है। इसके लिए प्रार्थना-याचना नहीं करनी पड़ती है। न दाँत निपोरने पड़ते हैं और न नाक रगड़नी पड़ती है। जितना हमें माँगने में उत्साह है, उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता है। कठिनाई एक पड़ती है, सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुई या नहीं?

इस सन्दर्भ में भविष्य के लिए झूठे वायदे करने से कुछ काम नहीं चलता। प्रमाण यह देना पड़ता है कि अब तक जो हाथ में था, उसका उपयोग वैसा होता रहा है। ‘‘हिस्ट्री सीट’’ इसी से बनती है और प्रमोशन में यह पिछला विवरण ही काम आता है। हमें पिछले कई जन्मों तक अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करनी पड़ी है। जब बात पक्की हो गई, तो ऊँचे क्षेत्र से अनुग्रह का सिलसिला अपने आप ही चल पड़ा।

सुग्रीव, विभीषण, सुदामा, अर्जुन आदि ने जो पाया, जो कर दिखाया यह उनके पराक्रम का फल नहीं था, उसमें ईश्वर की सत्ता और महत्ता काम करती रही है। बड़ी नदी के साथ जुड़ी रहने पर नहरें और नहरों के साथ जुड़े हुए रजवाहे खेतों को पानी देते रहते हैं। यदि इस सूत्र में कहीं गड़बड़ी उत्पन्न होगी, तो अवरोध खड़ा होगा और सिलसिला टूटेगा। भगवान के साथ मनुष्य अपने सुदृढ़ सम्बन्ध सुनिश्चित आधारों पर ही बनाए रह सकता है। उसमें चापलूसी जैसी कोई गुंजायश नहीं है। भगवान की किसी से न निजी मित्रता है, न शत्रुता। वे नियमों से बँधे हैं। समदर्शी हैं।

हमारी व्यक्तिगत क्षमता सर्वथा नगण्य है। प्रायः जनसाधारण के समान ही उसे समझा जा सकता है। जो कुछ अतिरिक्त दीखता है या बन पड़ा है, उसे विशुद्ध दैवी अनुग्रह समझा जाना चाहिए। वह सीधा कम और मार्ग दर्शक के माध्यम से अधिक आता रहा है, पर इससे कुछ अन्तर नहीं आता। धन बैंक का है। भले ही वह नकदी के रूप में, चैक, ड्राफ्ट आदि के माध्यम से मिला हो।

यह दैवी उपलब्धि किस प्रकार सम्भव हुई। इसका एक ही उत्तर है—पात्रता का अभिवर्धन। उसी का नाम जीवन साधना है। उपासना के साथ उसका अनन्य एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिजली धातु में दौड़ती है, लकड़ी में नहीं। आग सूखे को जलाती है, गीले को नहीं। माता बच्चे को गोदी तब लेती है, जब वह साफ-सुथरा हो। मल-मूत्र से सना हो तो पहले उसे धोएगी, पोंछेगी। इसके बाद ही गोदी में लेने और दूध पिलाने की बात करेगी। भगवान की समीपता के लिए शुद्ध चरित्र आवश्यक है। कई व्यक्ति पिछले जीवन में तो मलीन रहे हैं, पर जिस दिन से भक्ति की साधना अपनाई, उस दिन से अपना कायाकल्प कर लिया। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, विल्वमंगल, अजामिल आदि पिछले जीवन में कैसे ही क्यों न रहे हों, जिस दिन से भगवान की शरण में आए, उस दिन से सच्चे अर्थों में सन्त बन गए। हम लोग ‘‘राम-नाम जपना पराया माल अपना’’ की नीति अपनाते हैं। कुकर्म भी करते रहते हैं, पर साथ ही भजन-पूजन के सहारे उनके दण्ड से छूट मिल जाएगी, ऐसा भी सोचते रहते हैं, यह कैसी विडम्बना है?

कपड़े को रंगने से पूर्व धोना पड़ता है। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पड़ती है। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिए शुद्ध जीवन की आवश्यकता है। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता है। जिससे जीवन साधना नहीं बन पड़ी, उसका चिन्तन, चरित्र, आहार-विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलतः मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएँ और तृष्णाएँ जिनके मन को हर घड़ी उद्विग्न किए रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आएगी। कर्मकाण्ड की चिह्न पूजा भर से कुछ बात बनती नहीं। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध है। जहाँ भावनाएँ होंगी, वहाँ मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

सम्भ्रान्त मेहमान घर में आते हैं, कोई उत्सव होते हैं, तो घर की सफाई-पुताई करनी पड़ती है। जिस हृदय में भगवान को स्थान देना है, उसे कषाय-कल्मषों से स्वच्छ किया जाना चाहिए। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चारों ही दिशा धाराओं में बढ़ना आवश्यक है। इन तथ्यों को हमें भली-भाँति समझाया गया। सच्चे मन से उसे हृदयंगम भी किया गया। सोचा गया कि आखिर गर्हित जीवन बनता क्यों है? निष्कर्ष निकाला कि इन सभी के उद्गम केन्द्र तीन हैं—लोभ, मोह और अहंकार। जिसमें इनकी जितनी ज्यादा मात्रा होगी, वह उतना ही अवगति की ओर घिसटता चला जाएगा।

क्रियाएँ वृत्तियों से उत्पन्न होती हैं। शरीर मन के द्वारा संचालित होता है। मन में जैसी उमंगें उठती हैं, शरीर वैसी ही गतिविधियाँ अपनाने लगता है। इसलिए अवांछनीय कृत्यों-दुष्कृत्यों के लिए शरीर को नहीं मन को उत्तरदायी समझा जाना चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विष वृक्ष की जड़ काटना उपयुक्त समझा गया है और जीवन साधना को आधार भूत क्षेत्र मन से ही आरम्भ किया गया।

देखा गया है कि अपराध प्रायः आर्थिक प्रलोभनों या आवश्यकताओं के कारण होते हैं। इसलिए उनकी जड़ें काटने के लिए औसत भारतीय स्तर का जीवन-यापन अपनाने का व्रत लिया गया। अपनी निज की कमाई कितनी ही क्यों न हो, भले ही वह ईमानदारी या परिश्रम की क्यों न हो, पर उसमें से अपने लिए—परिवार के लिए खर्च देशी हिसाब से किया जाए, जिससे कि औसत भारतीय गुजारा करना सम्भव हो। यह सादा जीवन—उच्च विचार का व्यावहारिक निर्धारण है। सिद्धान्ततः कई लोग इसे पसन्द करते हैं और उसका समर्थन भी, पर जब अपने निज के जीवन में इसका प्रयोग करने का प्रश्न आता है तो उसे असम्भव कहने लगते हैं। ऐसा निर्वाह व्रतशील होकर ही निबाहा जा सकता है। साथ ही परिवार वालों को इसके लिए सिद्धान्ततः और व्यवहारतः तैयार करना पड़ता है। इस सन्दर्भ में सबसे बड़ी कठिनाई लोक-प्रचलन की आती है। जब सभी लोग ईमानदारी-बेईमानी की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं, तो हम लोग ही अपने ऊपर ऐसा अंकुश क्यों लगाएँ? इस प्रश्न पर परिजनों और उनके पक्षधर रिश्तेदारों को सहमत करना बहुत कठिन पड़ता है। फिर भी यदि अपनी बात तर्क, तथ्य और परिणामों के सबूत देते हुए ठीक तरह प्रस्तुत की जा सके और अपने निज का मन दृढ़ हो तो फिर अपने समीपवर्ती लोगों पर कुछ भी असर न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। आर्थिक अनाचारों की जड़ काटनी है, तो वह कार्य इसी स्तर के लोक शिक्षण एवं प्रचलन से सम्भव होगा। उस विश्वास के साथ अपनी बात पर दृढ़ रहा गया। घीया मण्डी मथुरा में अपना परिवार पाँच सदस्यों का था। तब उसका औसत खर्च १९७१ हरिद्वार जाने तक २०० रु. मासिक नियमित रूप से बनाए रखा गया। मिल-जुलकर, मितव्ययितापूर्वक लोगों से भिन्न अपना अलग स्तर बना लेने के कारण यह सब मजे से चलता रहा। यों आजीविका अधिक थी। पैतृक सम्पत्ति से पैसा आता था, पर उसका व्यय घर में अन्य सम्बन्धी परिजनों के बच्चे बुलाकर उन्हें पढ़ाते रहने का नया दायित्व ओढ़कर पूरा किया जाता रहा। दुर्गुणों-दुर्व्यसनों के पनपने लायक पैसा बचने ही नहीं दिया गया और जीवन साधना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष सरलतापूर्वक निभता रहा।

मोह परिवार को सजाने, सुसम्पन्न बनाने, उत्तराधिकार में सम्पदा छोड़कर मरने का होता है। लोग स्वयं विलासी जीवन जीते हैं और वैसी ही आदतें बच्चों को भी डालते हैं। फलतः अपव्यय का सिलसिला चल पड़ता है और अनीति की कमाई के लिए अनाचारों के विषय में सोचना और प्रयास करना होता है। दूसरों के पतन व अनुभवों से लाभ उठाया गया और उस चिन्तन तथा प्रचलन को घर में प्रवेश नहीं होने दिया गया। इस प्रकार अपव्यय भी नहीं हुआ, दुर्गुण भी नहीं बढ़े—कुप्रचलन भी नहीं चला, सुसंस्कारी परिवार विकसित होता चला गया।

तीसरा पक्ष अहंता का है। शेखीखोरी, बड़प्पन, ठाट-बाट, सजधज, फैशन आदि में लोग ढेरों समय और धन खर्च करते हैं। निजी जीवन तथा परिवार में नम्रता और सादगी का ऐसा ब्राह्मणोचित माहौल बनाए रखा गया कि अहंकार के प्रदर्शन की कोई गुंजायश नहीं थी। हाथ से घरेलू काम करने की आदत अपनाई गई। माताजी ने मुद्दतों हाथ से चक्की पीसी है। घर का तथा अतिथियों का भोजन तो वे मुद्दतों से बनाती रही हैं। घरेलू नौकर की आवश्यकता तो तब पड़ी जब बाहरी कामों का असाधारण विस्तार होने लगा और उनमें व्यस्त रहने के कारण माताजी का उसमें समय दे सकना सम्भव नहीं रह गया।

यह अनुमान गलत निकला कि ठाट-बाट से रहने वालों को बड़ा आदमी समझा जाता है और गरीबी से गुजारा करने वाले उद्विग्न, अभागे, पिछड़े पाए जाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यह बात कभी लागू नहीं हुई। आलस्य और अयोग्यतावश गरीबी अपनाई गई होती, तो अवश्य वैसा होता, पर स्तर उपार्जन योग्य होते हुए भी यदि सादगी का हर पक्ष स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया है, तो उसमें सिद्धान्तों का परिपालन ही लक्षित होता है। जो भी अतिथि आए, जिन भी मित्र-सम्बन्धियों को रहन-सहन का पता चलता रहा, उनमें से किसी ने भी इसे दरिद्रता नहीं कहा, वरन् ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह ही माना। मिर्च न खाने, खड़ाऊ पहनने जैसे एकाध नियम सादगी के नाम पर अपनाकर लोग सात्त्विकता का विज्ञापन भर करते हैं। वस्तुतः आध्यात्मिकता निभती है सर्वतोमुखी संयम और अनुशासन से। उसमें समग्र जीवनचर्या को ब्राह्मण जैसी बनाना एवं अभ्यास में उतारने के लिए सहमत करना होता है। यह लम्बे समय की और क्रमिक साधना है। हमने इसके लिए अपने को साधा और जो भी अपने साथ जुड़े रहे, उन्हें यथा सम्भव सधाया।

संचित कुसंस्कारों का दौर हर किसी पर चढ़ता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर अपनी उपस्थिति का परिचय देते रहे, पर उन्हें उभरते ही दबोच लिया गया। बेखबर रहने, दर-गुजर करने से ही वे पनपते और कब्जा जमाने में सफल होते। वैसा अवसर जब-जब आया उन्हें खदेड़ दिया गया। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों पर ध्यान रखा गया कि इसमें साधक के अनुसार सात्विकता का समावेश है या नहीं। सन्तोष की बात है कि इस आन्तरिक महाभारत को जीवन भर लड़ते रहने के कारण अब चलते समय अपने को विजयी घोषित कर सके।

जन्मतः सभी अनगढ़ होते हैं। जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कार सभी पर न्यूनाधिक मात्रा में लदे होते हैं। वे अनायास ही हट या भग नहीं जाते। गुरु-कृपा या पूजा-पाठ से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। उनके समाधान का एक ही उपाय है—जूझना। जैसे ही कुविचार उठें, उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना को पहले ही प्रशिक्षित, कटिबद्ध रखा जाए और विरोधियों से लड़ने को छोड़ दिया जाए। जड़ जमाने का अवसर न मिले तो कुविचार या कुसंस्कार बहुत समय तक ठहरते नहीं। उनकी सामर्थ्य स्वल्प होती है। वे आदतों और प्रचलनों पर निर्भर रहते हैं। जबकि सद्विचारों के पीछे तर्क, तथ्य, प्रमाण, विवेक आदि अनेकों का मजबूत समर्थन रहता है। इसलिए शास्त्रकार की उक्ति ऐसे अवसरों पर सर्वथा खरी उतरती है, जिनमें कहा गया है कि ‘‘सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं।’’ इसी बात को यों भी कहा जाता है कि ‘‘परिपक्व किए गए सुसंस्कार ही जीतते हैं, आधार रहित कुसंस्कार नहीं।’’ जब सरकस के रीछ-वानरों को आश्चर्यजनक कौतुक-कौतूहल दिखाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि अनगढ़ मन और जीवन क्रम को संकल्पवान साधनों के हण्टर से सुसंस्कारी न बनाया जा सके।

आराधना जिसे निरन्तर अपनाए रहा गया

गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने से त्रिवेणी संगम बनने और उसमें स्नान करने वाले का काया-कल्प होने की बात कही गई है। बगुले का हंस और कौए का कोयल आकृति से बदल जाना तो सम्भव नहीं है, पर इस आधार पर विनिर्मित हुई अध्यात्म धारा का अवगाहन करने से मनुष्य का अन्तरंग और बहिरंग जीवन असाधारण रूप से बदल सकता है, यह निश्चित है। यह त्रिवेणी उपासना, साधना और आराधना के समन्वय से बनती है। यह तीनों कोई क्रियाकाण्ड नहीं हैं जिन्हें इतने समय में, इस विधि से, इस प्रकार बैठकर सम्पन्न करते रहा जा सके। यह चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में होने वाले उच्चस्तरीय परिवर्तन हैं, जिनके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों पर निरन्तर ध्यान देना पड़ता है। दुरितों के संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई विचारधारा में अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इस प्रकार अभ्यस्त करना पड़ता है जैसे अनगढ़ पशु-पक्षियों को सरकस के करतब दिखाने के लिए जिस-तिस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है। पूजा कुछ थोड़े समय की हो सकती है, पर साधना तो ऐसी है, जिसके लिए गोदी के बच्चे को पालने के लिए निरन्तर ध्यान रखना पड़ता है। फलवती भी वही होती है। जो लोग पूजा को बाजीगरी समझते हैं और जिस-तिस प्रकार के क्रिया-कृत्य करने भर के बदले ऋद्धि-सिद्धियों के दिवास्वप्न देखते हैं, वे भूल करते हैं।

हमारे मार्गदर्शक ने प्रथम दिन ही त्रिपदा गायत्री का व्यावहारिक स्वरूप—उपासना, साधना, आराधना के रूप में भली प्रकार बता दिया था। नियमित जप-ध्यान करने का अनुबन्धों सहित पालन करने के निर्देशन के अतिरिक्त यह भी बताया था कि चिन्तन में उपासना, चरित्र में साधना और व्यवहार में आराधना का समावेश करने में पूरी-पूरी सतर्कता और तत्परता बरती जाए। उस निर्देशन का अद्यावधि यथासम्भव ठीक तरह ही परिपालन हुआ है। उसी के कारण अध्यात्म-अवलम्बन का प्रतिफल इस रूप में सामने आया कि उसका सहज उपहास नहीं उड़ाया जा सकता।

आराधना का अर्थ है—लोकमंगल में निरत रहना। जीवन साधना प्रकारान्तर से संयम साधना है। उसके द्वारा न्यूनतम में निर्वाह चलाया और अधिकतम बचाया जाता है। समय, श्रम, धन और मन मात्र उतनी ही मात्रा का शरीर तथा परिवार के लिए खर्च करना पड़ता है, जिसके बिना काम न चले। काम न चलने की कसौटी है—औसत देशवासियों का स्तर। इस कसौटी पर कसने के उपरान्त किसी भी श्रमशील और शिक्षित व्यक्ति का उपार्जन इतना हो जाता है कि काम चलाने के अतिरिक्त भी बहुत कुछ बच सके। इसी के सदुपयोग को आराधना कहते हैं। आमतौर से लोग इस बचत को विलास में, अपव्यय में अथवा कुटुम्बियों में बिखेर देते हैं। उन्हें सूझ नहीं पड़ता कि इस संसार में और भी कोई अपने हैं, औरों की भी कुछ जरूरतें हैं। यदि दृष्टि में इतनी विशालता आई होती, तो उस बचत को ऐसे कार्यों में खर्च किया गया होता जिससे अनेकों का वास्तविक हित साधन होता और समय की माँग पूरी होने में सहायता मिलती।

ईश्वर का एक रूप साकार है, जो ध्यान धारणा के लिए अपनी-अपनी रुचि और मान्यता के अनुरूप गढ़ा जाता है। यह मनुष्य से मिलती-जुलती आकृति-प्रकृति का होता है। यह गठन उस प्रयोजन के लिए है तो उपयोगी, आवश्यक किन्तु साथ ही यह ध्यान रखने योग्य भी है कि वास्तविक नहीं, काल्पनिक है। ईश्वर एक है, उसकी इतनी आकृतियाँ नहीं हो सकतीं, जितनी कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में गढ़ी गई हैं। उपयोग मन की एकाग्रता का अभ्यास करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। प्रतिमा पूजन के पीछे आद्योपान्त प्रतिपादन इतना ही है कि दृश्य प्रतीक के माध्यम से अदृश्य दर्शन और प्रतिपादन को समझने-हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाए।

सर्वव्यापी ईश्वर निराकार ही हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्शों का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट् ब्रह्म या विराट् विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुशुण्डि को इसी रूप को झलक के रूप में दिखाया था और प्राणियों को उनके दृश्य स्वरूप में। इस मान्यता के अनुसार यह लोक सेवा ही विराट् ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व उद्यान को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है। इसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलम्बन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है।

हम क्या करते रहे हैं? सामान्य दिनचर्या के अनुसार रात्रि में शयन, नित्य कर्म के अतिरिक्त दैनिक उपासना भी उन्हीं बारह घण्टों में भली प्रकार सम्पन्न होती रही है। बारह घण्टे इन तीनों कर्मों के लिए पर्याप्त रहे हैं। चार घण्टा प्रातःकाल का भजन इसी अवधि में होता रहा है। शेष आठ घण्टे में नित्य कर्म और शयन। इसमें समय की कोताही कहीं नहीं पड़ी। आलस्य-प्रमाद बरतने पर तो पूरा समय ही ऐंड-बेंड में चला जाता है, पर एक-एक मिनट पर घोड़े की तरह सवार रहा जाए, तो प्रतीत होता है कि जागरूक व्यक्तियों ने इसी में तत्परता बरतते हुए वे कार्य कर लिए होते जितने के लिए साथियों को आश्चर्य चकित रहना पड़ता है।

यह रात्रि का प्रसंग हुआ, अब दिन आता है। उसे भी मोटे रूप में बारह घण्टे का माना जा सकता है। इसमें से दो घण्टे भोजन, विश्राम के लिए कट जाने पर दस घण्टे विशुद्ध बचत के रह जाते हैं। इनका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों की लोकमंगल आराधना में नियमित रूप से होता रहा है। संक्षेप में इन्हें इस प्रकार कहा जा सकता है— १-जनमानस के परिष्कार के लिए युग चेतना के अनुरूप विचारणा का निर्धारण-साहित्य सृजन २-संगठन जागृत आत्माओं को युग धर्म के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए उत्तेजना-मार्गदर्शन, ३-व्यक्तिगत कठिनाइयों में से निकलने तथा सुखी भविष्य विनिर्मित करने हेतु परामर्श-योगदान। हमारी सेवा साधना इन तीन विभागों में बँटी है। इनमें दूसरी और तीसरी धारा के लिए असंख्य व्यक्तियों से सम्पर्क साधना और पाना चलता रहा है। इनमें से अधिकांश को प्रकाश और परिवर्तन का अवसर मिला है।

इनके नामोल्लेख और घटनाक्रमों का विवरण सम्भव नहीं क्योंकि एक तो जिनकी सहायता की जाए, इनका स्मरण भी रखा जाए। यह अपनी आदत नहीं, फिर उनकी संख्या और विनिर्मित उतनी है कि जितने स्मरण हैं उनके वर्णन से ही एक महापुराण लिखा जा सकता है। फिर उनको आपत्ति भी हो सकती है। इन दिनों कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रचलन समाप्त हो गया। दूसरों की सहायता को महत्त्व कम दिया जाए। अपने भाग्य या पुरुषार्थ का ही बखान किया जाए। दूसरों की सहायता के उल्लेख में हेटी लगती है। ऐसी दशा में अपनी ओर से उन घटनाओं का उल्लेख करना जिसमें लोगों के कष्ट घटें या प्रगति के अवसर मिलें, उचित न होगा। फिर एक बात भी है कि बखान करने के बाद पुण्य घट जाता है। इतने व्यवधानों के रहते उस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में मौन धारण करना ही उपयुक्त समझा जा रहा है और कुछ न कह कर ही प्रसंग समाप्त किया जा रहा है।

इतने पर भी वे सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक प्रज्ञा परिवार से प्रायः २४ लाख से भी अधिक व्यक्ति सम्बन्धित हैं। उनमें से जो मात्र सिद्धान्तों, आदर्शों से प्रभावित होकर इस ओर आकर्षित हुए हैं, वे कम हैं। संख्या उनकी ज्यादा है, जिनने व्यक्तिगत जीवन में प्रकाश, दुलार, सहयोग, परामर्श एवं अनुदान प्राप्त किया है। ऐसे प्रसंग मनुष्य के अन्तराल में स्थान बनाते हैं। विशेषतया तब जब सहायता करने वाला अपनी प्रामाणिकता एवं निस्वार्थता की दृष्टि से हर कसौटी पर खरा उतरता हो। सम्पर्क परिकर में मुश्किल से आधे-तिहाई ऐसे होंगे, जिन्हें मिशन के आदर्शों और हमारे प्रतिपादनों का गम्भीरतापूर्वक बोध है। शेष तो हैरानियों में दौड़ते और जलती परिस्थितियों में शान्तिदायक अनुभूतियाँ लेकर वापस लौटते रहे हैं। यही कारण है जिससे इतना बड़ा परिवार बनकर खड़ा हो गया। अन्यथा मात्र सिद्धान्त पर ही सब कुछ हो रहा होता, तो आर्यसमाज, सर्वोदय की तरह सीमित सदस्य होते और व्यक्तिगत आत्मीयता-घनिष्ठता का जो वातावरण दीखता है, वह न दीखता। आगन्तुकों की संख्या अधिक, समय-कुसमय आगमन, ठहराने, भोजन कराने जैसी व्यवस्थाओं का अभाव जैसे कारणों से इस दबाव का सर्वाधिक भार माताजी को सहन करना पड़ा है, पर उस असुविधा के बदले जितनों की जितनी आत्मीयता अर्जित की है, उसे देखते हुए हम लोग धन्य हो गए हैं। लगता है, जो किया गया वह ब्याज समेत वसूल हो रहा है। पैसे की दृष्टि से न सही भावना की दृष्टि से भी यदि कोई कुछ कम ले, तो वह उसके लिए घाटे का सौदा नहीं समझा जाना चाहिए।

आराधना के लिए, लोकमंगल साधना के लिए गिरह की पूँजी चाहिए। उसके बिना भूखा क्या खाए? क्या बाँटे? यह पूँजी कहाँ से आई? कहाँ से जुटाई? इसके लिए मार्गदर्शक ने पहले ही दिन कहा था—जो पास में है, उसे बीज की तरह भगवान के खेत में बोना सीखो। उसे जितनी बार बोया गया, सौ गुना होता चला गया। अभीष्ट प्रयोजन में कभी किसी बात की कमी न पड़ेगी। उन्होंने बाबा जलाराम का उदाहरण दिया था, जो किसान थे, अपने पेट से बचने वाली सारी आमदनी जरूरतमन्दों को खिलाते थे। भगवान इस सच्ची साधना से अतिशय प्रसन्न हुए और एक ऐसी अक्षय झोली दे गए, जिसका अन्न कभी निपटा ही नहीं और अभी भी वीरपुर (गुजरात) में उनका अन्न सत्र चलता रहता है, जिसमें हजारों भक्तजन प्रतिदिन भोजन करते हैं। जो अपना लगा देता है, उसे बाहर का सहयोग बिना माँगे मिलता है। पर जो अपनी पूँजी सुरक्षित रखता है, दूसरों से माँगता फिरता है, उस चन्दा उगाहने वाले पर लोग व्यंग्य ही करते हैं और यत्किंचित् देकर पल्ला छुड़ाते रहते हैं।

गुरुदेव के निर्देशन में अपनी चारों ही सम्पदाओं को भगवान के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। १—शारीरिक श्रम, २—मानसिक श्रम, ३—भाव संवेदनाएँ, ४—पूर्वजों का उपार्जित धन। अपना कमाया तो कुछ था ही नहीं। चारों को अनन्य निष्ठा के साथ निर्धारित लक्ष्य के लिए लगाते चले आए हैं। फलतः सचमुच ही वे सौ गुने होकर वापस लौटते रहे हैं। शरीर से बाहर घण्टा नित्य श्रम किया है। इससे थकान नहीं आई। वरन् कार्य क्षमता बढ़ी ही है। इन दिनों इस बुढ़ापे में भी जवानों जैसी कार्य क्षमता है। मानसिक श्रम भी शारीरिक श्रम के साथ सँजोए रखा। उसकी परिणति यह है कि मनोबल में—मस्तिष्कीय क्षमता में कहीं कोई ऐसे लक्षण प्रकट नहीं हुए जैसे कि आमतौर से बुढ़ापे में प्रकट होते हैं। हमने खुलकर प्यार बाँटा और बिखेरा है। फलस्वरूप दूसरी ओर से भी कमी नहीं रही है। व्यक्तिगत स्नेह, सम्मान, सद्भाव ही नहीं, मिशन के लिए जब-जब, जो-जो अपील, अनुरोध प्रस्तुत किए जाते रहे हैं, उनमें कमी नहीं पड़ी है। २४०० प्रज्ञापीठों का दो वर्ष में बनकर खड़े हो जाना इसका जीवन्त उदाहरण है। आरम्भ में मात्र अपना ही धन था। पैतृक सम्पत्ति से ही गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ। जन्मभूमि में हाईस्कूल खड़ा किया गया, बाद में एक और शक्तिपीठ वहाँ विनिर्मित हो गया। आशा कम ही थी कि लोग बिना माँगे देंगे और निर्माण का इतना बड़ा स्वरूप खड़ा हो जाएगा। आज गायत्री तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ, ब्रह्मवर्चस् की इमारतों को देखकर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बोया हुआ बीज सौ गुना होकर फलता है या नहीं। यह श्रद्धा का अभाव ही है, जिसमें लोग अपना संचय बगल में दबाए रखना चाहते हैं, भगवान से लाटरी अथवा लोगों से चन्दा माँगते हैं। यदि बात आत्मसमर्पण से प्रारम्भ की जा सके तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम होगा। विनिर्मित गायत्री शक्ति पीठों में से जूनागढ़ के निर्माता ने अपने बर्तन बेचकर कार्य आरम्भ किया था और वही अब तक विनिर्मित, सभी इमारतों में मूर्धन्यों में से एक है।

बाजरे का-मक्का का एक दाना सौ दाने होकर पकता है। यह उदाहरण हमने अपनी संचित सम्पदा के उत्सर्ग करने जैसा दुस्साहस करने में देखा। जो था, वह परिवार के लिए उतनी ही मात्रा में, उतनी ही अवधि तक दिया, जब तक कि वे लोग हाथ-पैरों से कमाने-खाने लायक नहीं बन गए। उत्तराधिकार में समर्थ सन्तान हेतु सम्पदा छोड़ मरना, अपना श्रम-मनोयोग उन्हीं के लिए खपाते रहना हमने सदा अनैतिक माना और विरोध किया है। फिर स्वयं वैसा करते भी कैसे? मुफ्त की कमाई हराम की होती है, भले ही वह पूर्वजों की खड़ी की हुई हो। हराम की कमाई न पचती है, न फलती है। इस आदर्श पर परिपूर्ण विश्वास रखते हुए हमने शारीरिक श्रम, मनोयोग, भाव सम्वेदना और संग्रहीत धन की चारों सम्पदाओं में से किसी को भी कुपात्रों के हाथ नहीं जाने दिया है। उसका एक-एक कण सज्जनता के सम्वर्धन में, भगवान की आराधना में लगाया है। परिणाम सामने है। जो पास में था, उससे अगणित लाभ उठा चुके। यदि कृपणों की तरह उन उपलब्धियों को विलास में, लालच में, संग्रह में, परिवार वालों को धन-कुबेर बनाने में खर्च किया होता, तो वह सब कुछ बेकार चला जाता। कोई महत्त्वपूर्ण काम न बनता, वरन् जो भी उस मुफ्त के श्रम-साधन का उपयोग करते वे दुर्गुण-दुर्व्यसनी बनकर नफे में नहीं, घाटे में ही रहते।

कितने पुण्य फल ऐसे हैं, जिनके सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए अगले जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, पर लोक साधना का परमार्थ ऐसा है, जिसका प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता है। किसी दुःखी के आँसू पोंछते समय असाधारण आत्म-सन्तोष होता है। कोई बदला न चुका सके, तो भी उपकारी का मन ही मन सम्मान करता है, आशीर्वाद देता है। इसके अतिरिक्त और एक ऐसा दैवी विधान भी है, जिसके अनुसार उपकारी का भण्डार खाली नहीं होता। उस पर ईश्वरीय अनुग्रह बरसता रहता है और जो खर्चा गया है, उसकी भरपाई करता रहता है।

भेड़ ऊन कटाती रहती है, हर वर्ष उसे नई ऊन मिलती है। पेड़ फल देते हैं, अगली बार टहनियाँ फिर उसी तरह लद जाती हैं। बादल बरसते हैं, पर खाली नहीं होते। अगले दिनों वे फिर उतनी ही जल सम्पदा बरसाने के लिए समुद्र से प्राप्त कर लेते हैं। उदारचेताओं के भण्डार कभी खाली नहीं हुए। किसी ने कुपात्रों को अपना श्रम-समय देकर भ्रमवश दुष्प्रवृत्तियों का पोषण किया हो और उसे भी पुण्य समझा हो तो फिर बात दूसरी है। अन्यथा लोक साधना के परमार्थ का प्रतिफल ऐसा है, जो हाथों-हाथ मिलता है। आत्मसन्तोष, लोक सम्मान, दैवी अनुग्रह के रूप में तीन गुना सत्परिणाम प्रदान करने वाला व्यवसाय ऐसा है, जिसमें जिसने भी हाथ डाला कृत-कृत्य होकर रहा है। कृपण ही हैं, जो चतुरता का दम भरते किन्तु हर दृष्टि से घाटा उठाते हैं।

लोक साधना का महत्त्व तब घटता है, जब उसके बदले नामवरी लूटने की ललक होती है। यह तो अखबारों में इश्तहार छपा कर विज्ञापन बाजी करने जैसा व्यवसाय है। एहसान जताने और बदला चाहने से भी पुण्यफल नष्ट होता है। दोस्तों के दबाव से किसी भी काम के लिए चन्दा दे बैठने से भी दान की भावना पूर्ण नहीं होती। देखा यह जाना चाहिए कि इस प्रयास के फलस्वरूप सद्भावनाओं का सम्वर्धन होता है या नहीं, सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने का सुयोग बनता है या नहीं। संकटग्रस्तों को विपत्ति से निकासने और सत्प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जो कार्य सहायक हों, उन्हीं की सार्थकता है। अन्यथा मुफ्तखोरी बढ़ाने और छल-प्रपंच से भोले-भाले लोगों को लूटते-खाते रहने के लिए इन दिनों अगणित आडम्बर चल पड़े हैं। उनमें धन या समय देने से पूर्व हजार बार यह विचार करना चाहिए कि अपने प्रयत्नों की अन्तिम परिणति क्या होगी? इस दूरदर्शी विवेकशीलता का अपनाया जाना इन दिनों विशेष रूप से आवश्यक है। हमने ऐसे प्रसंगों में स्पष्ट इनकारी भी व्यक्त की है। औचित्य-सनी उदारता के साथ-साथ अनौचित्य की गन्ध पाने पर अनुदारता अपनाने और नाराजी का खतरा लेने का भी साहस किया है। आराधना में इन तथ्यों का समावेश भी नितान्त आवश्यक है।

उपरोक्त तीनों प्रसंगों में हमारे जीवन-दर्शन की एक झलक मिलती है। यह वह मार्ग है, जिस पर सभी महामानव चले एवं लक्ष्य प्राप्ति में सफल हो यश के भागी बने हैं। किसी प्रकार के ‘‘शार्ट कट’’ का इसमें कोई स्थान नहीं है।

तीसरी हिमालय यात्रा—ऋषि परम्परा का बीजारोपण

मथुरा का कार्य सुचारु रूप से चल पड़ने के उपरान्त हिमालय से तीसरा बुलावा आया, जिसमें अगले चौथे कदम को उठाए जाने का संकेत था। समय भी काफी हो गया था। इस बार कार्य का दबाव अत्यधिक रहा और सफलता के साथ-साथ थकान बढ़ती गई थी। ऐसी परिस्थितियों में बैटरी चार्ज करने का यह निमन्त्रण हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक था।

निर्धारित दिन प्रयाण आरम्भ हो गया। देखे हुए रास्ते को पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुए। फिर मौसम भी ऐसा रखा गया था जिसमें शीत के कड़े प्रकोप का सामना न करना पड़ता और एकाकीपन की प्रथम बार जैसी कठिनाई न पड़ती। गोमुख पहुँचने पर गुरुदेव के छाया पुरुष का मिलना और अत्यन्त सरलतापूर्वक नन्दन वन पहुँचा देने का क्रम पिछली बार जैसा ही रहा। सच्चे आत्मीयजनों का पारस्परिक मिलन कितना आनन्द-उल्लास भरा होता है, इसे भुक्त-भोगी ही जानते हैं। रास्ते भर जिस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा करनी पड़ी वह आखिर आ ही गई। अभिवादन आशीर्वाद का क्रम चला और पीछे बहुमूल्य मार्गदर्शन का सिलसिला चल पड़ा।

अब की बार मथुरा छोड़कर हरिद्वार डेरा डालने का निर्देश मिला और कहा गया कि ‘‘वहाँ रहकर ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने का कार्य आरम्भ करना है। तुम्हें याद है न, जब यहाँ प्रथम बार आए थे और हमने सूक्ष्म शरीरधारी इस क्षेत्र के ऋषियों का दर्शन कराया था। हर एक ने उनकी परम्परा लुप्त हो जाने पर दुःख प्रकट किया था और तुमने यह वचन दिया था कि इस कार्य को भी सम्पन्न करोगे। इस बार उसी निमित्त बुलाया गया है।’’

भगवान अशरीरी हैं। जब कभी उन्हें महत्त्वपूर्ण कार्य कराने होते हैं, तो ऋषियों के द्वारा कराते हैं। महापुरुषों को वे (ऋषि) बनाकर खड़े कर देते हैं। ऋषि स्वयं तप करते हैं और अपनी शक्ति देवात्माओं को देकर बड़े काम करा लेते हैं। भगवान राम को विश्वामित्र अपने यहाँ रक्षा के बहाने ले गए और वहाँ बला-अतिबला विद्या (गायत्री और सावित्री) की शिक्षा देकर उनके द्वारा असुरता का दुर्ग ढहाने तथा रामराज्य—धर्मराज्य की स्थापना का कार्य कराया था। कृष्ण भी संदीपन ऋषि के आश्रम में पढ़ने गए थे और वहाँ से गीता गायन, महाभारत निर्णय तथा सुदामा ऋषि की कार्य पद्धति को आगे बढ़ाने का निर्देशन लेकर वापस लौटे थे। समस्त पुराण इसी उल्लेख से भरे पड़े हैं कि ऋषियों के द्वारा महापुरुष उत्पन्न किए गए और उनकी सहायता से महान कार्य सम्पादित कराए। स्वयं तो वे शोध प्रयोजनों में और तप साधनाओं में संलग्न रहते ही थे। इसी कार्य को तुम्हें अब पूरा करना है।

‘‘गायत्री के मन्त्र द्रष्टा विश्वामित्र थे। उन्होंने सप्त सरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी, वही स्थान तुम्हारे लिए भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलतापूर्वक मिल जाएगा। उसका नाम शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना जिन्हें पुरातन काल के ऋषिगण स्थूल शरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्म शरीर में हैं, इसलिए अभीष्ट प्रयोजनों के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। हमें भी तो ऐसी आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूल शरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर सम्पर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परम्पराओं का नए सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी, किन्तु साथ ही एक अतिरिक्त लाभ भी है कि हमारा ही नहीं, उन सबका भी संरक्षण और अनुदान तुम्हें मिलता रहेगा। इसलिए कोई कार्य रुकेगा नहीं।’’

जिन ऋषियों के छोड़े कार्य को हमें आगे बढ़ाना था, उनका संक्षिप्त विवरण बताते हुए उन्होंने कहा—विश्वामित्र परम्परा में गायत्री महामन्त्र की शक्ति से जन-जन को अवगत कराना एवं एक सिद्ध पीठ—गायत्री तीर्थ का निर्माण करना है। व्यास परम्परा में आर्ष साहित्य के अलावा अन्यान्य पक्षों पर साहित्य सृजन एवं प्रज्ञा पुराण के १८ खण्डों को लिखने का, पातञ्जलि परम्परा में योग साधना के तत्त्वज्ञान के विस्तार का, परशुराम परम्परा में अनीति उन्मूलन हेतु जन-मानस के परिष्कार के वातावरण निर्माण का तथा भागीरथ परम्परा में ज्ञान गंगा को जन-जन तक पहुँचाने का दायित्व सौंपा गया। चरक परम्परा में वनौषधि पुनर्जीवन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान, याज्ञवल्क्य परम्परा में यज्ञ से मनोविकारों के शमन द्वारा समग्र चिकित्सा पद्धति का निर्धारण, जमदग्नि परम्परा में साधना-आरण्यक का निर्माण एवं संस्कारों का बीजारोपण, नारद परम्परा में सत्परामर्श-परिव्रज्या के माध्यम से धर्म चेतना का विस्तार, आर्यभट्ट परम्परा में धर्मतन्त्र के माध्यम से राजतन्त्र का मार्गदर्शन (पृथ्वी का अन्तर्ग्रही वातावरण से प्रभावित होना), शंकराचार्य परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण का, पिप्पलाद परम्परा में आहार-कल्प के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं सूत-शौनिक परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा योजनों द्वारा लोक शिक्षण की रूपरेखा के सूत्र हमें बताए गए। अथर्ववेदीय विज्ञान परम्परा में कणाद ऋषि प्रणीत वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति के आधार पर ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की रूपरेखा बनी।

हरिद्वार रहकर हमें क्या करना है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? यह ऊपर बताए निर्देशों के अनुसार हमें विस्तारपूर्वक बता दिया गया। सभी बातें पहले की ही तरह गाँठ बाँध लीं। पिछली बार मात्र गुरुदेव अकेले की ही इच्छाओं की पूर्ति का कार्य भार था। अबकी बार इतनों का बोझ लादकर चलना पड़ेगा। गधे को अधिक सावधानी रखनी पड़ेगी और अधिक मेहनत भी करनी पड़ेगी।

साथ ही इतना सब कर लेने पर चौथी बार आने और उससे भी बड़ा उत्तरदायित्व सम्भालने तथा सूक्ष्म शरीर अपनाने का कदम बढ़ाना पड़ेगा। यह सब इस बार उनने स्पष्ट नहीं किया, मात्र संकेत ही दिया।

यह भी बताया कि ‘‘हरिद्वार की कार्य पद्धति मथुरा के कार्यक्रम से बड़ी है। इसलिए उतार-चढ़ाव भी बहुत रहेंगे। असुरता के आक्रमण भी सहने पड़ेंगे, आदि-आदि बातें उन्होंने पूरी तरह समझा दीं। समय की विषमता को देखते हुए उस क्षेत्र में अधिक रुकना उन्हें उचित न लगा और एक वर्ष के स्थान पर छः महीने रहने का ही निर्देश दिया। कहाँ, किस प्रकार रहना और किस दिनचर्या का निर्वाह करना, यह उनने समझाकर बात समाप्त की और पिछली बार की भाँति ही अन्तर्ध्यान होते हुए चलते-चलते यह कह गए कि ‘‘इस कार्य को सभी ऋषियों का सम्मिलित कार्य समझना, मात्र हमारा नहीं।’’ हमने भी विदाई का प्रणाम करते हुए इतना ही कहा कि ‘‘हमारे लिए आप ही समस्त देवताओं के समस्त ऋषियों के और परब्रह्म के प्रतिनिधि हैं। आपके आदेश को इस शरीर के रहते टाला न जाएगा।’’

बात समाप्त हुई। हम विदाई लेकर चल पड़े। छाया पुरुष (वीरभद्र) ने गोमुख तक पहुँचा दिया। आगे अपने पैरों से बताए हुए स्थान के लिए चल पड़े।

जिन-जिन स्थानों पर इन यात्राओं में हमें ठहरना पड़ा, उनका उल्लेख यहाँ इसलिए नहीं किया गया कि वे सभी दुर्गम हिमालय में गुफाओं के निवासी थे। समय-समय पर स्थान बदलते रहते थे। अब तो उनके शरीर भी समाप्त हो गए। ऐसी दशा में उल्लेख की आवश्यकता न रही।

लौटते हुए हरिद्वार उसी स्थान पर रुके, सप्त ऋषियों की तपोभूमि में जिस स्थान का संकेत गुरुदेव ने किया था। काफी हिस्सा सुनसान पड़ा था और बिकाऊ भी था। जमीन पानी उगलती थी। पहले यहाँ गंगा बहती थी, यह स्थान सुहाया भी। जमीन के मालिक से चर्चा हुई और शेष जमीन का सौदा आसानी से पट गया। उसे खरीदने में लिखा-पढ़ी कराने में विलम्ब न हुआ। जमीन मिल जाने के उपरान्त यह देखना था कि वहाँ-कहाँ, क्या बनाना है? यह भी एकाकी ही निर्णय करना पड़ा। सलाहकारों का परामर्श काम न आया, क्योंकि उन्हें बहुत कोशिश करने पर भी यह नहीं समझाया जा सका कि यहाँ किस प्रयोजन के लिए किस आकार-प्रकार का निर्माण होना है। वह कार्य भी हमने ही पूरा किया। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज—गायत्रीतीर्थ की स्थापना हुई।

शान्तिकुञ्ज में गायत्रीतीर्थ की स्थापना

मथुरा से प्रयाण के बाद हिमालय से ६ माह बाद ही हम हरिद्वार उस स्थान पर लौट आए, जहाँ निर्धारित स्थान पर शान्तिकुञ्ज के एक छोटे से भवन में माताजी व उनके साथ रहने वाली कन्याओं के रहने योग्य निर्माण हम पूर्व में करा चुके थे। अब और जमीन लेने के उपरान्त पुनः निर्माण कार्य आरम्भ किया। इच्छा ऋषि आश्रम बनाने की थी। सर्वप्रथम अपने लिए, सहकर्मियों के लिए, अतिथियों के लिए निवास स्थान और भोजनालय बनाया गया है।

यह आश्रम ऋषियों का, देवात्मा हिमालय का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए उत्तराखण्ड का—गंगा का प्रतीक देवालय यहाँ बनाया गया। इसके अतिरिक्त सात प्रमुख तथा अन्यान्य वरिष्ठ ऋषियों की प्रतिमाओं की स्थापना का प्रबन्ध किया गया। आद्य शक्ति गायत्री का मन्दिर तथा जलकूपों का निर्माण कराया गया, प्रवचन कक्ष का भी। इस निर्माण में प्रायः दो वर्ष लग गए। अब निवास के योग्य आवश्यक व्यवस्था हो गई, तब हम और माताजी ने नवनिर्मित शान्तिकुञ्ज को अपनी तपःस्थली बनाया। साथ में अखण्ड-दीपक भी था। उसके लिए एक कोठरी और गायत्री प्रतिमा की स्थापना करने के लिए सुविधा पहले ही बन चुकी थी।

इस बंजर पड़ी भूमि के प्रसुप्त पड़े संस्कारों को जगाने के लिए २४ लक्ष के २४ अखण्ड पुरश्चरण कराए जाने थे। इसके लिए ९ कुमारियों का प्रबन्ध किया। प्रारम्भ में चार घण्टे दिन में, चार घण्टे रात्रि में इनकी ड्यूटी थी। बाद में इनकी संख्या २७ हो गई। तब समय कम कर दिया गया। इन्हें दिन में माताजी पढ़ाती थीं। छः वर्ष उपरान्त इन सबने ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई आरम्भ कर दी। बीस और पच्चीस वर्ष की आयु के मध्य इन सबके सुयोग्य घरों और वरों के साथ विवाह कर दिए गए।

इसके पूर्व संगीत और प्रवचन का अतिरिक्त प्रशिक्षण क्रम भी चलाया गया। देश व्यापी नारी जागरण के लिए इन्हें मोटर गाड़ियों में पाँच-पाँच के जत्थे बनाकर भेजा गया। तब तक पढ़ने वाली कन्याओं की संख्या १०० से ऊपर हो गई थी। इनके दौरे का देश के नारी समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

हरिद्वार से ही तेजस्वी कार्यकर्ताओं को ढालने का कार्य हाथ में लिया गया। इसके लिए प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र, एक-एक मास के युग शिल्पी सत्र एवं वानप्रस्थ सत्र भी लगाए गए। सामान्य उपासकों के लिए छोटे-बड़े गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला भी चल पड़ी। गंगा का तट, हिमालय की छाया, दिव्य वातावरण, प्राणवान मार्ग दर्शन जैसी सुविधाओं को देखकर पुरश्चरणकर्ता भी सैकड़ों की संख्या में निरन्तर आने लगे। पूरा समय देने वाले वानप्रस्थों का प्रशिक्षण भी अलग से चलता रहा। दोनों प्रकार के साधकों के लिए भोजन का प्रबन्ध किया गया।

यह नई संख्या निरन्तर बढ़ती जाने लगी। ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए इसकी आवश्यकता भी थी कि सुयोग्य आत्मदानी पूरा समय देकर हाथ में लिए हुए महान कार्य की पूर्ति के लिए आवश्यक आत्मबल संग्रह करें और उसके उपरान्त व्यापक कार्यक्रम में जुट पड़ें।

बढ़ते हुए कार्य को देखकर गायत्री नगर में २४० क्वार्टर बनाने पड़े। एक हजार व्यक्तियों के प्रवचन में सम्मिलित हो सकने जितने बड़े आकार का प्रवचन हाल बनाना पड़ा। इस भूमि को अधिक संस्कारवान बनाना था। इसलिए नौ कुण्ड की यज्ञशाला में प्रातःकाल दो घंटे यज्ञ किए जाने की व्यवस्था की और आश्रम में स्थायी निवासियों तथा पुरश्चरण कर्ताओं का औसत जप इस अनुपात से निर्धारित किया गया कि हर दिन २४ लक्ष का गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न होता रहे। आवश्यक कार्यों के लिए एक छोटा प्रेस भी लगाना पड़ा। इन सब कार्यों के लिए निर्माण कार्य अब तक एक प्रकार से बराबर ही चलता रहा। इसी बीच ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के लिए भव्य भवन बनाना आरम्भ कर दिया था। इस सारे निर्माण में प्रायः चार वर्ष लग गए। इसी बीच वे कार्य आरम्भ कर दिए गए, जिन्हें सम्पन्न करने से ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन हो सकता था। जैसे-जैसे सुविधा बनती गई, वैसे-वैसे नए कार्य हाथ में लिए गए और कहने योग्य प्रगति स्तर तक पहुँच गए।

भगवान बुद्ध ने नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय स्तर के विहार बनाए थे और उनमें प्रशिक्षित करके कार्यकर्ता देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में भेजे गए थे। धर्मचक्र प्रवर्तन की योजना तभी पूरी हो सकी थी।

भगवान आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार धाम बनाए थे और उनके माध्यम से देश में फैले हुए अनेक मत-मतान्तरों को एक सूत्र में पिरोया था। दोनों ने अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में एक कुम्भ स्तर के बड़े सम्मेलन-समारोहों की व्यवस्था की थी, ताकि जो ऋषियों के मुख्य-मुख्य सन्देश हों, वे आगन्तुकों द्वारा घर-घर पहुँचाए जा सकें।

इन दोनों के ही क्रिया-कलापों को हाथ में लिया गया। निश्चय किया गया कि गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों के नाम से देश के कोने-कोने में भव्य देवालय एवं कार्यालय बनाए जाएँ, जहाँ केन्द्र बनाकर समीपवर्ती क्षेत्रों में काम किए जा सकें, जिनको प्रज्ञा मिशन का प्रण-संकल्प कहा जा सके।

बात असम्भव लगती थी, किन्तु प्राणवान परिजनों को शक्तिपीठ निर्माण के संकल्प दिए गए, तो २४०० भवन दो वर्ष के भीतर बन गए। उस क्षेत्र के कार्यकर्ता उसे केन्द्र मानकर युग चेतना का आलोक वितरण करने और घर-घर अलख जगाने के काम में जुट पड़े। यह एक इतना बड़ा और इतना अद्भुत कार्य है, जिसकी तुलना में ईसाई मिशनरियों के द्वारा किए गए निर्माण कार्य भी फीके पड़ जाते हैं। हमारे निर्माणों में जन-जन का अल्पांश लगता है, अतः सबको अपना लगता है, जबकि चर्च-अन्यान्य बड़े मन्दिर बड़ी धनराशियों से बनाए जाते हैं।

इसके अतिरिक्त चल प्रज्ञापीठों की योजना बनी। एक कार्यकर्ता एक संस्था चला सकता है। यह चल गाड़ियाँ हैं। इन्हें कार्यकर्ता अपने नगर तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में धकेलकर ले जाते हैं। पुस्तकों के अतिरिक्त आवश्यक सामान भी उसकी कोठी में भरा रहता है। यह चल पुस्तकालय अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक रहे, इसलिए वे दो वर्ष में बारह हजार की संख्या में बन गए। स्थिर प्रज्ञा पीठों और चल प्रज्ञा संस्थानों के माध्यम से हर दिन प्रायः एक लाख व्यक्ति इनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

इसके अतिरिक्त उपरोक्त हर संस्था का वार्षिकोत्सव करने का निश्चय किया गया, जिसमें उस क्षेत्र के न्यूनतम एक हजार कार्यकर्ता एकत्रित हों। चार दिन सम्मेलन चले। नए वर्ष का सन्देश सुनाने के लिए हरिद्वार से प्रचारक मण्डलियाँ कन्याओं की टोलियों के समान ही भेजने का प्रबन्ध किया गया, जिनमें ४ गायक और १ वक्ता भेजे गए। पाँच प्रचारकों की टोली के लिए जीप गाड़ियों का प्रबन्ध करना पड़ा ताकि कार्यकर्ताओं के बिस्तर, कपड़े, संगीत, उपकरण, लाउडस्पीकर आदि सभी सामान भली प्रकार जा सकें। ड्राइवर भी अपना ही कार्यकर्ता होता है, ताकि वह भी छठे प्रकार का काम देख सके। अब हर प्रचारक को जीप व कार ड्राइविंग सिखाने की व्यवस्था की गई है, ताकि इस प्रयोजन के लिए बाहर के आदमी न तलाशने पड़ें।

मथुरा रहकर महत्त्वपूर्ण साहित्य लिखा जा चुका था। हरिद्वार आकर प्रज्ञा पुराण का मूल उपनिषद् पक्ष संस्कृत व कथा टीका सहित हिन्दी में १८ खण्डों में लिखने का निश्चय किया गया। पाँच खण्ड प्रकाशित भी हो चुके। इसके अतिरिक्त एक फोल्डर आठ पेज का नित्य लिखने का निश्चय किया गया। जिनके माध्यम से सभी ऋषियों की कार्य पद्धति से सभी प्रज्ञापुत्रों को अवगत कराया जा सके और उन्हें करने में संलग्न होने की प्रेरणा मिल सके। अब तक इस प्रकार ४०० फोल्डर लिखे जा चुके हैं। उनको भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद कराने का प्रबन्ध चल पड़ा व देश के कोने-कोने में यह साहित्य पहुँचा है।

देश की सभी भाषाओं और सभी मत-मतान्तरों को पढ़ाने और उनके माध्यम से हर क्षेत्र में कार्यकर्ता तैयार करने के लिए एक अलग भाषा एवं धर्म विद्यालय शान्तिकुञ्ज में ही इस वर्ष बनकर तैयार हुआ है और ठीक तरह चल पड़ा है।

उपरोक्त कार्यक्रमों को लेकर जो भी कार्यकर्ता देशव्यापी दौरा करते हैं, वे मिशन के प्रायः दस लाख कार्यकर्ताओं में उन क्षेत्रों में प्रेरणाएँ भरने का काम करते हैं, जहाँ वे जाते हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा इन क्षेत्रों में संगठन पूरी तरह सुव्यवस्थित हो गया है। अब देश का जो भाग प्रचार क्षेत्र में भाषा व्यवधान के कारण सम्मिलित करना नहीं बन पड़ा है, उन्हें भी एकाध वर्ष में पूरी कर लेने की योजना है।

प्रवासी भारतीय प्रायः ७४ देशों में बिखरे हुए हैं। उनकी संख्या भी तीन करोड़ के करीब है। उन तक व अन्य देशवासियों तक मिशन के विचारों को फैलाने की योजना बड़ी सफलतापूर्वक आरम्भ हुई है। आगे चलकर कई सुयोग्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से कई राष्ट्रों में प्रज्ञा आलोक पहुँचाना सम्भव बन पड़ेगा। कदाचित ही कोई देश अब ऐसा शेष रहा हो, जहाँ प्रवासी भारतीय न रहते हों और मिशन का संगठन न बना हो।

ऊपर की पंक्तियों में ऋषियों की कार्यपद्धति को जहाँ जिस प्रकार व्यापक बनाना सम्भव हुआ है, वहाँ उसके लिए प्रायः एक हजार आत्मदानी कार्यकर्ता निरन्तर कार्यरत रहकर कार्य कर रहे हैं। इसके लिए ऋषि जमदग्नि परम्परा का गुरुकुल-आरण्यक यहाँ नियमित रूप से चलता है।

चरक परम्परा का पुनरुद्धार किया गया है। दुर्लभ जड़ी-बूटियों का शान्तिकुञ्ज में उद्यान लगाया गया है और उनमें हजारों वर्षों में क्या अन्तर आया है, यह बहुमूल्य मशीनों से जाँच-पड़ताल की जा रही है। एक औषधि का एक बार में प्रयोग करने की एक विशिष्ट पद्धति यहाँ क्रियान्वित की जा रही है, जो अत्यधिक सफल हुई है।

युग शिल्पी विद्यालय के माध्यम से सुगम संगीत की शिक्षा हजारों व्यक्ति प्राप्त कर चुके हैं और अपने-अपने यहाँ ढपली जैसे छोटे से माध्यम द्वारा संगीत विद्यालय चलाकर युग गायक तैयार कर रहे हैं।

पृथ्वी अन्तर्ग्रही वातावरण से प्रभावित होती है। उसकी जानकारी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हर पाँच वर्ष पीछे ज्योतिष गणित को सुधारने की आवश्यकता होती है। आर्यभट्ट की इस विधा को नूतन जीवन प्रदान करने के लिए प्राचीनकाल के उपकरणों वाली समग्र वेधशाला विनिर्मित की गई है और नेपच्यून, प्लेटो, यूरेनस ग्रहों के वेध समेत हर वर्ष दृश्य गणित पंचांग प्रकाशित होता है। यह अपने ढंग का एक अनोखा प्रयोग है।

अब प्रकाश चित्र विज्ञान का नया कार्य हाथ में लिया गया है। अब तक सभी संस्थानों में प्रोजेक्टर पहुँचाए गए थे। उन्हीं से काम चल रहा था। अब वीडियो क्षेत्र में प्रवेश किया गया है। इनके माध्यम से कविताओं के आधार पर प्रेरक फिल्में बनाई जा रही हैं। देश के विद्वानों, मनीषियों, मूर्धन्यों, नेताओं के दृश्य प्रवचन टेप कराकर उनकी छवि समेत सन्देश घर-घर पहुँचाए जा रहे हैं। भविष्य में मिशन के कार्यक्रमों का उद्देश्य, स्वरूप और प्रयोग समझाने वाली फिल्में बनाने की बड़ी योजना है, जो जल्दी ही कार्यान्वित होने जा रही है।

शान्तिकुञ्ज मिशन का सबसे महत्त्वपूर्ण सृजन है—‘‘ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान।’’ इस प्रयोगशाला द्वारा अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने के लिए बहुमूल्य यन्त्र-उपकरणों वाली प्रयोगशाला बनाई गई है। कार्यकर्ताओं में आधुनिक आयुर्विज्ञान एवं पुरातन आयुर्वेद विधा के ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं। विज्ञान की अन्य विधाओं में निष्णात उत्साही कार्यकर्ता हैं, जिनकी रुचि अध्यात्म परक है। इसमें विशेष रूप से यज्ञ विज्ञान पर शोध की जा रही है। इस आधार पर यज्ञ विज्ञान की शारीरिक, मानसिक रोगों की निवृत्ति में—पशुओं और वनस्पतियों के लिए लाभदायक सिद्ध करने में, वायुमण्डल और वातावरण के संशोधन में इसकी उपयोगिता जाँची जा रही है, जो अब तक बहुत ही उत्साहवर्धक सिद्ध हुई।

यहाँ सभी सत्रों में आने वालों की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। उसी के अनुरूप उन्हें साधना करने का निर्देश दिया जाता है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर इस प्रकार शोध करने वाली विश्व की यह पहली एवं स्वयं में अनुपम प्रयोगशाला है।

इसके अतिरिक्त भी सामयिक प्रगति के लिए जनसाधारण को जो प्रोत्साहन दिए जाने हैं, उनकी अनेक शिक्षाएँ यहाँ दी जाती हैं। अगले दिनों और भी बड़े काम हाथ में लिए जाने हैं।

गायत्री परिवार के लाखों व्यक्ति उत्तराखण्ड की यात्रा करने के लिए जाते समय शान्तिकुञ्ज के दर्शन करते हुए यहाँ की रज मस्तक पर लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करते हैं। बच्चों के अन्नप्राशन, नामकरण, मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार यहाँ आकर कराते हैं क्योंकि परिजन इसे सिद्ध पीठ मानते हैं। पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण कराने का भी यहाँ प्रबन्ध है। जन्म-दिन, विवाह-दिन मनाने हर वर्ष प्रमुख परिजन यहाँ आते हैं। बिना दहेज की शादियाँ हर वर्ष यहाँ व तपोभूमि, मथुरा में होती हैं। इससे परिजनों को सुविधा भी बहुत रहती है और, इस खर्चीली कुरीति से भी पीछा छूटता है।

जब पिछली बार हम हिमालय गए थे और हरिद्वार जाने और शान्तिकुञ्ज रहकर ऋषियों की कार्य पद्धति को पुनर्जीवन देने का काम हमें सौंपा गया था, तब यह असमंजस था कि इतना बड़ा कार्य हाथ में लेने में न केवल विपुल धन की आवश्यकता है, वरन् इसमें कार्यकर्ता भी उच्च श्रेणी के चाहिए। वे कहाँ मिलेंगे? सभी संस्थाओं के पास वेतन भोगी हैं। वे भी चिह्न पूजा करते हैं। हमें ऐसे जीवनदानी कहाँ से मिलेंगे, पर आश्चर्य है कि शान्तिकुञ्ज में—ब्रह्मवर्चस् में इन दिनों रहने वाले कार्यकर्ता ऐसे हैं, जो अपनी बड़ी-बड़ी पोस्टों से स्वेच्छा से त्याग पत्र देकर आए हैं। सभी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के हैं अथवा प्रखर-प्रतिभा सम्पन्न हैं। इनमें से कुछ तो मिशन के चौके में भोजन करते हैं। कुछ उसकी लागत भी अपनी जमा धनराशि के ब्याज से चुकाते रहते हैं। कुछ के पास पेन्शन आदि का प्रबन्ध भी है। भावावेश में आने-जाने वालों का क्रम चलता रहता है, पर जो मिशन के सूत्र संचालक के मूलभूत उद्देश्य को समझते हैं, वे स्थायी बनकर टिकते व काम करते हैं। खुशी की बात है कि ऐसे भावनाशील नैष्ठिक परिजन सतत आते व संस्था से जुड़ते चले जा रहे हैं।

गुजारा अपनी जेब से एवं काम दिन-रात स्वयं सेवक की तरह मिशन का, ऐसा उदाहरण अन्य संस्थाओं में चिराग लेकर ढूँढ़ना पड़ेगा। यह सौभाग्य मात्र शान्तिकुञ्ज को मिला है कि उसके पास एम०ए०, एम०एस०सी०, एम०डी०, एम०एस०, पी०एच०डी०, आयुर्वेदाचार्य, संस्कृत आचार्य स्तर के कार्यकर्ता मिले हैं। उनकी नम्रता, सेवा भावना, श्रमशीलता एवं निष्ठा देखते ही बनती है। जबकि वरीयता योग्यता एवं प्रतिभा को दी जाती है, डिग्री को नहीं, ऐसा परिकर जुड़ना इस मिशन का बहुत बड़ा सौभाग्य है।

जो काम अब तक हुआ है, उसमें पैसे की याचना नहीं करनी पड़ी। मालवीय जी का मन्त्र मुट्ठी भर अन्न और दस पैसा नित्य देने का सन्देश मिल जाने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो गया। आगे इसकी और भी प्रगति होने की सम्भावना है। हम जन्मभूमि छोड़कर आए, वहाँ हाईस्कूल, फिर इण्टर कालेज एवं अस्पताल चल पड़ा। मथुरा का कार्य हमारे सामने की अपेक्षा उत्तराधिकारियों द्वारा दूना कर दिया गया है। हमारे हाथ का कार्य क्रमशः अब दूसरे समर्थ व्यक्तियों के कन्धों पर जा रहा है, पर मन में विश्वास है कि घटेगा नहीं। ऋषियों का जो कार्य आरम्भ करना और बढ़ाना हमारे जिम्मे था, वह अगले दिनों घटेगा नहीं, प्रज्ञावतार की अवतरण वेला में मत्स्यावतार की तरह बढ़ता-फैलता ही चला जाएगा। चाहे हमारा शरीर रहे या न रहे, किन्तु हमारा परोक्ष शरीर सतत उस कार्य को करता रहेगा, जो ऋषि सत्ता ने हमें सौंपा था।

‘‘बोओ एवं काटो’’ का मन्त्र, जो हमने जीवन भर अपनाया

हिमालय यात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारम्भिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितने ही साधनों, व्यक्तित्वों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करने थे—एक संघर्ष, दूसरा सृजन। संघर्ष उन अवांछनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी हैं। सृजन उसका, जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख-शान्ति से भरा-पूरा बना सके। दोनों ही कार्यों का प्रयोग समूचे धरातल पर निवास करने वाले ५०० करोड़ मनुष्यों के लिए करना ठहरा था, इसलिए विस्तार क्रम अनायास ही अधिक हो जाता है।

निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट-पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरम्भ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया, न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहंता में से कोई भी भव बन्धन जैसी बँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था, गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टाल-मटोल करने की प्रवृत्ति न थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मजात दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत बनी रही।

जिन साधनों की नव सृजन के लिए आवश्यकता थी, वे कहाँ से मिलें, कहाँ से आएँ? इस प्रश्न के उत्तर में मार्गदर्शक ने हमें हमेशा एक ही तरीका बताया था कि ‘‘बोओ ओर काटो’’। मक्का और बाजरा का एक बीज जब पौधा बनकर फलता है, तो एक के बदले सौ नहीं वरन् उससे भी अधिक मिलता है। द्रौपदी ने किसी सन्त को अपनी साड़ी फाड़कर दी थी, जिससे उन्होंने लंगोटी बनाकर अपना काम चलाया था। वही आड़े समय में इतनी बनी कि उन साड़ियों के गट्ठे को सिर पर रखकर भगवान् को स्वयं भाग कर आना पड़ा। ‘‘जो तुझे पाना है, उसे बोना आरम्भ कर दे।’’ यही बीज मन्त्र हमें बताया और अपनाया गया, प्रतिफल ठीक वैसा ही निकला जैसा कि संकेत किया गया।

शरीर, बुद्धि और भावनाएँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के साथ भगवान् सबको देते हैं। धन स्व उपार्जित होता है। कोई हाथों-हाथ कमाता है, तो कोई पूर्व संचित सम्पदा को उत्तराधिकार में पाते हैं। हमने कमाया तो नहीं था, पर उत्तराधिकार में अवश्य समुचित मात्रा में पाया। इन सबको बो देने और समय पर काट लेने के लायक गुंजायश थी, सो बिना समय गँवाए उस प्रयोजन में अपने को लगा दिया।

रात में भगवान् का भजन कर लेना और दिन भर विराट् ब्रह्म के लिए—विश्व मानव के लिए समय और श्रम नियोजित रखना, यह शरीर साधना के रूप में निर्धारित किया गया।

बुद्धि दिन भर जागने में ही नहीं, रात्रि के सपने में भी लोक मंगल की विधाएँ विनिर्मित करने में लगी रही। अपने निज के लिए सुविधा-सम्पदा कमाने का ताना-बाना बुनने की कभी भी इच्छा ही नहीं हुई। अपनी भावनाएँ सदा विराट के लिए लगी रहीं। प्रेम किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आदर्शों से किया। गिरों को उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने की ही भावनाएँ सतत उमड़ती रहीं।

इस विराट् को ही हमने अपना भगवान् माना। अर्जुन के दिव्य चक्षु ने इसी विराट् के दर्शन किए थे। यशोदा ने कृष्ण के मुख में स्रष्टा का यही स्वरूप देखा था। राम ने पालने में पड़े-पड़े माता कौशल्या को अपना यही रूप दिखाया था और काकभुशुण्डि इसी स्वरूप की झाँकी करके धन्य हुए थे।

हमने भी अपने पास जो कुछ था, उसी विराट ब्रह्म को—विश्व मानव को सौंप दिया। बोने के लिए इससे उर्वर खेत दूसरा कोई हो नहीं सकता था। वह समयानुसार फला-फूला। हमारे कोठे भर दिए, सौंपे गए दो कामों के लिए जितने साधनों की जरूरत थी, वे सभी उसी में जुट गए।

शरीर जन्मजात दुर्बल था। शारीरिक बनावट की दृष्टि से उसे दुर्बल कह सकते हैं, जीवनी शक्ति तो प्रचण्ड थी ही। जवानी में बिना शाक, घी, दूध के २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ लेते रहने से वह और कृश हो गया था। पर जब बोने-काटने की विधा अपनाई तो पिचहत्तर वर्ष की इस उम्र में वह इतना सुदृढ़ है कि कुछ ही दिन पूर्व उसने एक बिगड़ैल साँड़ को कन्धे का सहारा देकर चित्त पटक दिया और उससे भागते ही बना।

सर्वविदित ही है कि अनीति एवं आतंक के पक्षधर एक किराए के हत्यारे ने एक वर्ष पूर्व पाँच बोर की रिवाल्वर से लगातार हम पर फायर किए और उसकी सभी गोलियाँ नलियों में उलझी रह गईं। रिवाल्वर उससे भय के मारे वहीं गिर गई। अब की बार वह छुरेबाजी पर उतर आया। छुरे चलते रहे। खून बहता रहा, पर भोंके गए सारे प्रहार शरीर में सीधे न घुसकर तिरछे फिसलकर निकल गए। डाक्टरों ने जख्म सी दिए और कुछ ही सप्ताह में शरीर ज्यों का त्यों हो गया।

इसे परीक्षा का एक घटनाक्रम ही कहना चाहिए कि पाँच बोर का लोडेड रिवाल्वर शातिर हाथों में भी काम न कर सका। जानवर काटने के छुरे के बारह प्रहार मात्र प्रमाण के निशान छोड़कर अच्छे हो गए। आक्रमणकारी अपने बम से स्वयं घायल होकर जेल जा बैठा। जिसके आदेश से उसने यह किया था, उसे फाँसी की सजा घोषित हुई। असुरता के आक्रमण असफल हुए। एक उच्चस्तरीय दैवी प्रयास को निष्फल कर देना सम्भव न हो सका। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा सिद्ध हुआ।

इन दिनों एक से पाँच करने की सूक्ष्मीकरण विधा चल रही है। इस लिए क्षीणता तो आई है, तो भी बाहर से काया ऐसी है, जिसे जितने दिन चाहे जीवित रखा जा सके, पर हम जान-बूझकर इसे इस स्थिति में रखेंगे नहीं। कारण कि सूक्ष्म शरीर से अधिक काम लिया जा सकता है और स्थूल शरीर उसमें किसी कदर बाधा ही डालता है।

शरीर की जीवनीशक्ति असाधारण रही है। उसके द्वारा दस गुना काम लिया गया है। शंकराचार्य, विवेकानन्द बत्तीस-पैंतीस वर्ष जिए, पर ३५० वर्ष के बराबर काम कर सके। हमने ७५ वर्षों में विभिन्न स्तर के इतने काम किए हैं कि उनका लेखा-जोखा लेने पर वे ७५० वर्ष से कम में होने वाले सम्भव प्रतीत नहीं होते। यह सारा समय नवसृजन की एक से एक अधिक सफल भूमिकाएँ बनाने में लगा है। निष्क्रिय-निष्प्रयोजन और खाली कभी नहीं रहा है।

बुद्धि को भगवान् के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है कि जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्च कोटि का है। आर्षग्रन्थों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है। आगे का सन् २००० तक का हमने अभी से लिखकर रख दिया है।

अध्यात्म को विज्ञान से मिलाने की योजना-कल्पना तो कइयों के मन में थी, पर उसे कोई कार्यान्वित न कर सका। इस असम्भव को सम्भव होते देखना हो तो ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में आकर अपनी आँखों से स्वयं देखना चाहिए। जो सम्भावनाएँ सामने हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अगले दिनों अध्यात्म की रूपरेखा विशुद्ध विज्ञान परक बनकर रहेगी।

छोटे-छोटे देश अपनी पंच वर्षीय योजनाएँ बनाने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे मिलाते हैं, पर समस्त विश्व की कायाकल्प योजना का चिन्तन और क्रियान्वयन जिस प्रकार शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में चल रहा है, उसे एक शब्द में अद्भुत एवं अनुपम ही कहा जा सकता है।

भावनाएँ हमने पिछड़ों के लिए समर्पित की हैं। शिव ने भी यही किया था। उनके साथ चित्र-विचित्र समुदाय रहता था और सर्पों तक को वे गले लगाते थे। उसी राह पर हमें भी चलते रहना पड़ा है। हम पर छुरा-रिवाल्वर चलाने वालों को पकड़ने वाले जब दौड़ रहे थे, पुलिस भी लगी हुई थी। सभी को हमने वापस बुला लिया और घातक को जल्दी ही भाग जाने का अवसर दिया। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, प्रतिपक्षी अपनी ओर से कुछ कमी न रहने देने पर भी मात्र हँसने और हँसाने के रूप में प्रतिदान पाते रहे हैं।

हमने जितना प्यार लोगों से किया है, उससे सौ गुनी संख्या और मात्रा में लोग हमारे ऊपर प्यार लुटाते रहे हैं। निर्देशों पर चलते रहे हैं और घाटा उठाने तथा कष्ट सहने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व प्रज्ञा संस्थान बनाने का स्वजनों को आदेश किया, तो दो वर्ष के भीतर २४०० गायत्री शक्ति पीठों की भव्य इमारतें बनकर खड़ी हो गईं और उसमें लाखों रुपयों की राशि खप गई। बिना इमारत के १२ हजार प्रज्ञा संस्थान बने—सो अलग। छुरा लगा तो सहानुभूति में इतनी बड़ी संख्या स्वजनों की उमड़ी, मानों मनुष्यों का आँधी-तूफान आया हो। इनमें से हर एक बदला लेने के लिए आतुरता व्यक्त कर रहा था। हमने तथा माताजी ने सभी को दुलार कर दूसरी दिशा में मोड़ा। यह हमारे प्रति प्यार की—सघन आत्मीयता की ही अभिव्यक्ति तो है।

हमने जीवन भर प्यार खरीदा, बटोरा और लुटाया है। इसका एक नमूना हमारी धर्मपत्नी, जिन्हें हम माताजी कहकर सम्बोधित करते हैं, की भावनाएँ पढ़कर कोई भी समझ सकता है। वे काया और छाया की तरह साथ रहीं हैं और एक प्राण दो शरीर की तरह हमारे हर काम में हर घड़ी हाथ बँटाती रही हैं।

पशु-पक्षियों तक का हमने ऐसा प्यार पाया है कि वे स्वजन-सहचर की तरह आगे-पीछे फिरते रहे हैं। लोगों ने आश्चर्य से देखा है कि सामान्यतः जो प्राणी मनुष्य से सर्वथा दूर रहते हैं वे किस तरह कन्धे पर बैठते, पीछे-पीछे फिरते और चुपके से बिस्तर में आ सोते हैं। ऐसे दृश्य हजारों ने हजारों की संख्या में देखे और आश्चर्यचकित रह गए हैं। यह और कुछ नहीं, प्रेम का प्रतिदान मात्र था।

धन की हमें समय-समय पर भारी आवश्यकता पड़ती रही है। गायत्री तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें करोड़ों रुपए मूल्य की हैं। मनुष्य के आगे हाथ न पसारने का व्रत निबाहते हुए अचानक ही यह सारी आवश्यकताएँ पूरी हुई हैं। पूरा समय काम करने वालों की संख्या एक हजार से ऊपर है। इनकी आजीविका की ब्राह्मणोचित व्यवस्था बराबर चलती रहती है। प्रेस, प्रकाशन, प्रचार में संलग्न जीप-गाड़ियाँ तथा अन्यान्य खर्चे ऐसे हैं, जो समयानुसार बिना किसी कठिनाई के पूरे होते रहते हैं। यह वह फसल है, जो अपने पास की एक-एक पाई को भगवान् के खेत में बो देने के उपरान्त हमें मिली है। इस फसल पर हमें गर्व है। जमींदारी समाप्त होने पर जो धनराशि मिली है, वह गायत्री तपोभूमि निर्माण में दे दी। पूर्वजों की छोड़ी जमीन किसी कुटुम्बी को न देकर जन्मभूमि में हाई-स्कूल और अस्पताल बनाने में लगा दी। हम व्यक्तिगत रूप से खाली हाथ हैं, पर योजनाएँ ऐसी चलाते हैं जैसी लखपति और करोड़पतियों के लिए भी सम्भव नहीं हैं। यह सब हमारे मार्गदर्शक के उस सूत्र के कारण सम्भव हो पाया है, जिसमें उन्होंने कहा—‘‘जमा मत करो, बिखेर दो। बोओ और काटो।’’ सत्प्रवृत्तियों का उद्यान जो प्रज्ञा परिवार के रूप में लहलहाता दृश्यमान होता है, उसकी पृष्ठभूमि इसी संकेत के आधार पर बनी है।

ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म

अन्तरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से सन्तुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में ही मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था। माता-पिता तो एक माँस पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे। ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पहनना और छोड़ना पड़ा होगा। तृष्णाओं की पूर्ति के लिए न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे, पर सन्तोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का, दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।

ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बचा रहता है, क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊँट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है, पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उँगली वाले दो हाथ, कमाने की हजार तरकीबें ढूँढ़ निकालने वाला मस्तिष्क, सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन, परिवार-सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा। फिर पेट की लम्बाई-चौड़ाई भी तो मात्र छः इंच की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घण्टे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली ही खाली बचता है। जिनके अन्तराल में सन्त जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता-प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका उपयोग कहाँ किया जाए? कैसे किया जाए?

इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में बहुत देर नहीं लगती। देव मानवों का पुरातन इतिहास इसके लिए प्रमाण-उदाहरणों की एक पूरी शृंखला लाकर खड़ी कर देता है। उनमें से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, अपने लिए चुना-अपनाया जा सकता है। केवल दैत्य ही हैं, जिनकी इच्छाएँ-आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ कभी किसी की पूरी नहीं हुई हैं। साधनों के विपुल भण्डार जमा करने और उन्हें अतिशय मात्रा में भोगने की योजनाएँ तो अनेकों ने बनाईं, पर हिरण्याक्ष से लेकर सिकन्दर तक कोई उन्हें पूरी नहीं कर सका।

आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती एक मिलन-विराम है, जिसे देवमानव कहते हैं। इसके और भी कई नाम हैं—महापुरुष, सन्त, सुधारक और शहीद आदि। पुरातन काल में इन्हें ऋषि कहते थे। ऋषि अर्थात वे—जिनका निर्वाह न्यूनतम में चलता हो और बची हुई सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किए रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करें। वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का अनुपात बढ़ाएँ। जो श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ रहे हैं, उन्हें मनोबल अनुकूल मिले। जो विनाश को आतुर हैं, उनके कुचक्रों को सफलता न मिले। संक्षेप में यही हैं वे कार्य निर्धारण जिनके लिए ऋषियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयास अनवरत गति से चलते रहते हैं। निर्वाह से बची हुई क्षमता को वे इन्हीं कार्यों में लगाते रहते हैं। फलतः जब कभी लेखा-जोखा लिया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे कितना कार्य कर चुके, कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। यह एक-एक कदम चलते रहने का परिणाम है। एक-एक बूँद जमा करते रहने की गति की ही परिणति है।

अपनी समझ में वह भक्ति नहीं आई, जिसमें मात्र भावोन्माद ही हो, आचरण की दृष्टि से सब कुछ क्षम्य हो। न उनका कोई सिद्धान्त जँचा, न उस कथन के औचित्य को विवेक ने स्वीकारा। अतएव जब-जब भक्ति उमगती रही, ऋषियों का मार्ग ही अनुकरण के योग्य जँचा और जो समय हाथ में था, उसे पूरी तरह ऋषि परम्परा में खपा देने का प्रयत्न चलता रहा। पीछे मुड़कर देखते हैं कि अनवरत प्रयत्न करते रहने वाले कण-कण करके मनों जोड़ लेते हैं। चिड़िया तिनका-तिनका बीनकर अच्छा-खासा घोंसला बना लेती है। अपना भी कुछ ऐसा ही सुयोग्य-सौभाग्य है कि ऋषि परम्परा का अनुकरण करने के लिए कुछ कदम बढ़ाए तो उनकी परिणति ऐसी हुई कि जिसे समझदार व्यक्ति शानदार कहते हैं।

अपने समय के विभिन्न ऋषिगणों ने अपने हिस्से के काम सँभाले और पूरे किए थे। उन दिनों ऐसी परिस्थितियाँ, अवसर और इतना अवकाश भी था कि समय की आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने कार्यों को वे धैर्यपूर्वक संचित समय में सम्पन्न करते रह सकें। पर अब तो आपत्तिकाल है। इन दिनों अनेक काम एक ही समय में द्रुतगति से निपटाने हैं। घर में अग्निकाण्ड हो तो जितना बुझाने का प्रयास बन पड़े उसे स्वयं करते हुए, बच्चों को, कपड़ों को, धनराशि को निकालने-ढोने का काम साथ-साथ ही चलता है। हमें ऐसे ही आपत्तिकाल का सामना करना पड़ा है और ऋषियों द्वारा हमारी हिमालय यात्रा में सौंपे गए कार्यों में से प्रायः प्रत्येक को एक ही समय में बहुमुखी जीवन जीकर सँभालना पड़ा है। इसके लिए प्रेरणा, दिशा और सहायता हमारे समर्थ मार्गदर्शक की मिली है और शरीर से जो कुछ भी हम कर सकते थे, उसे पूरी तरह तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किया है। उसमें पूरी-पूरी ईमानदारी का समावेश किया है। फलतः वे सभी कार्य इस प्रकार सम्पन्न होते चले हैं मानों वे किए हुए ही रखे हों। कृष्ण का रथ चलाना और अर्जुन का गाण्डीव उठाना पुरातन इतिहास होते हुए भी हमें अपने सन्दर्भ में चरितार्थ होते दीखता रहा है।

युग परिवर्तन जैसा महान कार्य होता तो भगवान् की इच्छा, योजना एवं क्षमता के आधार पर ही है, पर उसका श्रेय वे ऋषि कल्प जीवनमुक्त आत्माओं को देते रहते हैं। यही उनकी साधना का—पात्रता का सर्वोत्तम उपहार है। हमें भी इस प्रकार का श्रेय-उपहार देने की भूमिका बनी और हम कृत-कृत्य हो गए। हमें सुदूर भविष्य की झाँकी अभी से दिखाई पड़ती है, इसी कारण हमें यह लिख सकने में संकोच रंचमात्र भी नहीं होता।

अब पुरातन काल के ऋषियों में से किसी का भी स्थूल शरीर नहीं है, उनकी चेतना निर्धारित स्थानों में मौजूद है। सभी से हमारा परिचय कराया गया और कहा गया कि इन्हीं के पद चिन्हों पर चलना है। इन्हीं की कार्य पद्धति अपनानी, देवात्मा हिमालय के प्रतीक स्वरूप शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में एक आश्रम बनाना और ऋषि परम्परा को इस प्रकार कार्यान्वित करना है, जिससे युग परिवर्तन की प्रक्रिया का गति चक्र सुव्यवस्थित रूप से चल पड़े।

जिन ऋषियों, तप पूत मानवों ने कभी हिमालय में रहकर विभिन्न कार्य किए थे, उनका स्मरण हमें मार्गदर्शक सत्ता ने तीसरी यात्रा में बार-बार दिलाया था। इनमें थे, भागीरथ (गंगोत्री), परशुराम (यमुनोत्री), चरक (केदारनाथ), व्यास (बद्रीनाथ), याज्ञवल्क्य (त्रियुगी नारायण), नारद (गुप्तकाशी), आद्य शंकराचार्य (ज्योतिर्मठ), जमदग्नि (उत्तरकाशी), पातंजलि (रुद्र प्रयाग), पिप्पलाद, सूत-शौनिक, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न (ऋषिकेश), दक्ष प्रजापति, कणादि एवं विश्वामित्र सहित सप्त ऋषिगण (हरिद्वार)। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु, सन्त ज्ञानेश्वर एवं तुलसीदास जी के कर्तव्यों की झाँकी दिखाकर भगवान् बुद्ध के परिव्राजक धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान को युगानुकूल परिस्थितियों में संगीत, संकीर्तन, प्रज्ञा पुराण कथा के माध्यम से देश-विदेश में फैलाने एवं प्रज्ञावतार द्वारा बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध पूरा किए जाने का भी निर्देश था। समर्थ रामदास के रूप में जन्म लेकर जिस प्रकार व्यायामशालाओं, महावीर मन्दिरों की स्थापना सोलहवीं सदी में हमसे कराई गई थी, उसी को नूतन अभिनव रूप में प्रज्ञा संस्थानों, प्रज्ञापीठों, चरणपीठों, ज्ञानमन्दिरों, स्वाध्याय मण्डलों द्वारा सम्पन्न किए जाने के संकेत मार्गदर्शक द्वारा हिमालय प्रवास में ही दे दिए गए थे।

देवात्मा हिमालय का प्रतीक प्रतिनिधि शान्तिकुञ्ज को बना देने का जो निर्देश मिला, वह कार्य साधारण नहीं श्रम एवं धन साध्य था, सहयोगियों की सहायता पर निर्भर भी। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के उस ध्रुव केन्द्र में सूक्ष्म शरीर से निवास करने वाले ऋषियों की आत्मा का आह्वान करके प्राण प्रतिष्ठा का संयोग भी बिठाना था। यह सभी कार्य ऐसे हैं, जिन्हें देवालय परम्परा में अद्भुत एवं अनुपम कहा जा सकता है। देवताओं के मन्दिर अनेक जगह बने हैं। वे भिन्न-भिन्न भी हैं। एक ही जगह सारे देवताओं की स्थापना का तो कहीं सुयोग हो भी सकता है, पर समस्त देवात्माओं-ऋषियों की एक जगह प्राण-प्रतिष्ठा हुई हो ऐसा तो संसार भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। फिर इससे भी बड़ी बात यह है कि ऋषियों के क्रियाकलापों की गतिविधियों का न केवल चिह्न पूजा के रूप में वरन् यथार्थता के रूप में भी यहाँ न केवल दर्शन वरन् परिचय भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस्, गायत्री तीर्थ एक प्रकार से प्रायः सभी ऋषियों के क्रियाकलापों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भगवान् राम ने लंका विजय और रामराज्य की स्थापना के निमित्त मंगलाचरण रूप में रामेश्वरम् पर शिव प्रतीक की स्थापना की थी। हमारा सौभाग्य है कि हमें युग परिवर्तन हेतु संघर्ष एवं सृजन प्रयोजन के लिए देवात्मा हिमालय की प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा समेत करने का आदेश मिला। शान्तिकुञ्ज में देवात्मा हिमालय का भव्य मन्दिर पाँचों प्रयागों, पाँचों काशियों, पाँचों सरिताओं और पाँचों सरोवरों समेत देखा जा सकता है। इसमें सभी ऋषियों के स्थानों के दिव्य दर्शन हैं। इसे अपने ढंग का अद्भुत एवं अनुपम देवालय कहा जा सकता है। जिसने हिमालय के उन दुर्गम क्षेत्रों के कभी दर्शन न किए हों, वे इस लघु संस्करण के दर्शन से ही वही लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

जमदग्नि पुत्र परशुराम के फरसे ने अनेक उद्धत-उच्छृंखलों के सिर काटे थे। यह वर्णन अलंकारिक भी हो सकता है। उन्होंने यमुनोत्री में तपश्चर्या कर प्रखरता की साधना की एवं सृजनात्मक क्राति का मोर्चा सँभाला। जो व्यक्ति तत्कालीन समाज निर्माण में बाधक, अनीति में लिप्त थे, उनकी वृत्तियों का उन्होंने उन्मूलन किया। दुष्ट और भ्रष्ट जनमानस के प्रवाह को उलट कर सीधा करने का पुरुषार्थ उन्होंने निभाया। इसी आधार पर उन्हें भगवान् शिव से ‘‘परशु (फरसा)’’ प्राप्त हुआ। उत्तरार्द्ध में उन्होंने फरसा फेंककर फावड़ा थामा एवं स्थूल दृष्टि से वृक्षारोपण तथा सूक्ष्मतः रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण किया। शान्तिकुञ्ज से चलने वाली लेखनी ने—वाणी ने उसी परशु की भूमिका निभाई एवं असंख्यों की मान्यताओं, भावनाओं, विचारणाओं एवं गतिविधियों में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।

भागीरथ ने जल दुर्भिक्ष के निवारण हेतु कठोर तप करके स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाने में सफलता प्राप्त की थी। भागीरथ शिला गंगोत्री के समीपस्थ है। गंगा उन्हीं के तप पुरुषार्थ से अवतरित हुईं। इसीलिए भागीरथी कहलाईं। लोक मंगल के प्रयोजन हेतु प्रचण्ड पुरुषार्थ करके भागीरथ दैवी कसौटी पर खरे उतरे एवं भगवान् शिव के कृपा पात्र बने। आज आस्थाओं का दुर्भिक्ष चारों ओर संव्याप्त है। इसे दिव्य ज्ञान की धारा ज्ञान गंगा से ही मिटाया जा सकता है। बौद्धिक और भावनात्मक अकाल निवारणार्थ शान्तिकुञ्ज से ज्ञान गंगा का जो अविरल प्रवाह बहा है, उससे आशा बँधती है कि दुर्भिक्ष मिटेगा, सद्भावना का विस्तार चहुँ ओर होगा।

चरक ऋषि ने केदारनाथ क्षेत्र के दुर्गम क्षेत्रों में वनौषधियों की शोध करके रोग ग्रस्तों को निरोग करने वाली संजीवनी खोज निकाली थी। शास्त्र कथन है कि ऋषि चरक औषधियों से वार्ता करके गुण पूछते व समुचित समय में उन्हें एकत्र कर उन पर अनुसन्धान करते थे। जीवनीशक्ति सम्वर्धन, मनोविकार शमन एवं व्यवहारिक गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन करने वाले गुण रखने वाली अनेकों औषधियाँ इसी अनुसन्धान की देन हैं। शान्तिकुञ्ज में दुर्लभ औषधियों को खोज निकालने, उनके गुण-प्रभाव को आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों से जाँचने का जो प्रयोग चलता है, उसने आयुर्वेद को एक प्रकार से पुनर्जीवित किया है। सही औषधि के एकाकी प्रयोग से कैसे निरोग रहकर दीर्घायुष्य बना जा सकता है, यह अनुसन्धान इस ऋषि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु किए जा रहे प्रयासों की एक कड़ी है।

महर्षि व्यास ने नर एवं नारायण पर्वत के मध्य वसुधारा जल प्रपात के समीप व्यास गुफा में गणेश जी की सहायता से पुराण लेखन का कार्य किया था। उच्चस्तरीय कार्य हेतु एकाकी, शान्त, सतोगुणी वातावरण ही अभीष्ट था। आज की परिस्थितियों में, जबकि प्रेरणादायी साहित्य का अभाव है, पुरातन ग्रन्थ लुप्त हो चले, शान्तिकुञ्ज में विराजमान तंत्री ने आज से पच्चीस वर्ष पूर्व ही चारों वेद, अट्ठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद्, छहों दर्शन, चौबीस गीताएँ, आरण्यक, ब्राह्मण आदि ग्रन्थों का भाष्य कर सर्वसाधारण के लिए सुलभ एवं व्यावहारिक बनाकर रख दिया था। साथ ही जनसाधारण की हर समस्या पर व्यावहारिक समाधान परक युगानुकूल साहित्य सतत लिखा है, जिसने लाखों व्यक्तियों के मन मस्तिष्क को प्रभावित कर सही दिशा दी है। प्रज्ञापुराण के अट्ठारह खण्ड नवीनतम सृजन हैं, जिसमें कथा साहित्य के माध्यम से उपनिषद्-दर्शन को जन-सुलभ बनाया गया है।

पातंजलि ने रुद्रप्रयाग में अलकनन्दा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। उन्होंने प्रमाणित किया कि मानवी काया में ऊर्जा का भण्डार निहित है। इस शरीर तन्त्र के ऊर्जा केन्द्रों को प्रसुप्ति से जागृति में लाकर मनुष्य देवमानव बन सकता है, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बन सकता है। शान्तिकुञ्ज में योग साधना के विभिन्न अनुशासनों योगत्रयी, कायाकल्प एवं आसन-प्राणायाम के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों की बहुमूल्य यन्त्र उपकरणों से शारीरिक-मानसिक परीक्षा सुयोग्य चिकित्सकों से कराने उपरान्त साधना लाभ दिया जाता है एवं भावी जीवन सम्बन्धी दिशाधारा प्रदान की जाती है।

याज्ञवल्क्य ने त्रियुगी नारायण में यज्ञ विद्या अन्वेषण किया था और उनके भेद-उपभेदों का परिणाम मनुष्य एवं समग्र जीव-जगत के स्वास्थ्य सम्वर्धन हेतु, वातावरण शोधन, वनस्पति सम्वर्धन एवं पर्जन्य वर्षण के रूप में जाँचा-परखा था। हिमालय के इस दुर्गम स्थान पर सम्प्रति एक यज्ञकुण्ड में अखण्ड अग्नि है, जिसे शिव-पार्वती के विवाह के समय से प्रज्ज्वलित माना जाता है। यह उस परम्परा की प्रतीक अग्नि शिखा है। आज यज्ञ विज्ञान की लुप्त प्राय शृंखला को फिर से खोजकर समय के अनुरूप अन्वेषण करने का दायित्त्व ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अपने कन्धों पर लिया है। यज्ञोपचार पद्धति (यज्ञोपैथी) के अनुसन्धान हेतु समय के अनुरूप एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला आधुनिक उपकरणों से युक्त ब्रह्मवर्चस् प्रांगण के मध्य में विद्यमान है। वनौषधि यजन से शारीरिक, मानसिक रोगों के उपचार, मनोविकार शमन, जीवनीशक्ति वर्धन, प्राणवान पर्जन्य की वर्षा एवं पर्यावरण सन्तुलन जैसे प्रयोगों के निष्कर्ष देखकर जिज्ञासुओं को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

विश्वामित्र गायत्री महामन्त्र के द्रष्टा, नूतन सृष्टि के सृजेता माने गए हैं। उनने सप्तऋषियों सहित जिस क्षेत्र में तप करके आद्यशक्ति का साक्षात्कार किया था, वह पावन भूमि यही गायत्री तीर्थ—शान्तिकुञ्ज की है, जिसे हमारे मार्गदर्शक ने दिव्य चक्षु प्रदान करके दर्शन कराए थे एवं आश्रम निर्माण हेतु प्रेरित किया था। विश्वामित्र की सृजन साधना के सूक्ष्म संस्कार यहाँ सघन हैं। महाप्रज्ञा को युग शक्ति का रूप देने, उनकी चौबीस मूर्तियों की स्थापना कर सारे राष्ट्र एवं विश्व में आद्यशक्ति का वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सद्बुद्धि की प्रेरणा वाला सन्देश यहीं से उद्घोषित हुआ। अनेक साधकों ने यहाँ गायत्री अनुष्ठान किए हैं एवं आत्मिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है। शब्द शक्ति एवं सावित्री विधा पर वैज्ञानिक अनुसन्धान विश्वामित्र परम्परा का ही पुनर्जीवन है।

जमदग्नि का गुरुकुल-आरण्यक उत्तरकाशी में स्थित था एवं बालकों, वानप्रस्थों की समग्र शिक्षा व्यवस्था का भाण्डागार था। अल्पकालीन साधना, प्रायश्चित, संस्कार आदि कराने एवं प्रौढ़ों के शिक्षण की यहाँ समुचित व्यवस्था थी। प्रखर व्यक्तित्वों के उत्पादन, वानप्रस्थ, परिव्राजक हेतु लोकसेवियों का शिक्षण, गुरुकुल में बालकों को नैतिक शिक्षण तथा युग शिल्पी विद्यालय में समाज निर्माण की विधा का समग्र शिक्षण इस ऋषि परम्परा को आगे बढ़ाने हेतु शान्तिकुञ्ज द्वारा संचालित ऐसे ही क्रिया कलाप हैं।

देवर्षि नारद ने गुप्त काशी में तपस्या की। वे निरन्तर अपने वीणवादन से जन-जागरण में निरत रहते थे। उन्होंने सत्परामर्श द्वारा भक्ति भावनाओं को प्रसुप्ति से प्रौढ़ता तक समुन्नत किया था। शान्तिकुञ्ज के युग गायन शिक्षण विद्यालय ने अब तक हजारों ऐसे परिव्राजक प्रशिक्षित किए हैं। वे एकाकी अपने-अपने क्षेत्रों में एवं समूह में जीप टोली द्वारा भ्रमण कर नारद परम्परा का ही अनुकरण कर रहे हैं।

देव प्रयाग में राम को योग वाशिष्ठ का उपदेश देने वाले वशिष्ठ ऋषि धर्म और राजनीति का समन्वय करके चलते थे। शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार ने सन् १९३० से सन् १९४७ तक आजादी की लड़ाई लड़ी है। जेल में कठोर यातनाएँ सही हैं। बाद में साहित्य के माध्यम से समाज एवं राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है। धर्म और राजनीति के समन्वय-साहचर्य के लिए जो बन पड़ा है, हम उसे पूरे मनोयोग से करते रहे हैं।

आद्य शंकराचार्य ने ज्योतिर्मठ में तप किया एवं चार धामों की स्थापना देश के चार कोनों पर की। विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय एवं धार्मिक संस्थानों के माध्यम से जन-जागरण उनका लक्ष्य था। शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में २४०० गायत्री शक्तिपीठें विनिर्मित हुई हैं, जहाँ से धर्म धारणा को समुन्नत करने का कार्य निरन्तर चलता रहता है। इसके अतिरिक्त बिना इमारत वाले चल प्रज्ञा संस्थानों एवं स्वाध्याय मण्डलों द्वारा सारे देश में चेतना केन्द्रों का जाल बिछाया गया है। ये सभी चार धामों की परम्परा में अपने-अपने क्षेत्रों में युग चेतना का आलोक वितरण कर रहे हैं।

ऋषि पिप्पलाद ने ऋषिकेश के समीप ही अन्न के मन पर प्रभाव का अनुसन्धान किया था। वे पीपल वृक्ष के फलों पर निर्वाह करके आत्म संयम द्वारा ऋषित्व पा सके। हमने २४ वर्ष तक जौ की रोटी एवं छाछ पर रहकर गायत्री अनुष्ठान किए। तदुपरान्त आजीवन उबले आहार, अन्न-शाक पर ही रहे। अभी भी उबले अन्न एवं हरी वनस्पतियों के कल्प प्रयोगों की प्रतिक्रिया जाँच-पड़ताल शान्तिकुञ्ज में ‘‘अमृताशन शोध’’ के नाम से चलती रही है। ऋषिकेश में ही सूत-शौनिक कथा-पुराण वाचन के ज्ञान सत्र जगह-जगह लगाते थे। प्रज्ञा पुराणों का कथा वाचन इतना लोकप्रिय हुआ है कि लोग इसे ‘‘युग पुराण’’ कहते हैं। चार भाग इसके छप चुके हैं, चौदह और प्रकाशित होने हैं।

हर की पौड़ी हरिद्वार में सर्वमेध यज्ञ में हर्षवर्धन ने अपनी सारी सम्पदा तक्षशिला विश्वविद्यालय निर्माण हेतु दान कर दी थी। शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार ने अपनी लाखों की सम्पदा गायत्री तपोभूमि तथा जन्मभूमि में विद्यालय निर्माण हेतु दे दी। स्वयं या सन्तान के लिए इनमें से एक पैसा भी नहीं रखा। इसी परम्परा को अब शान्तिकुञ्ज से स्थायी रूप से जुड़ते जा रहे लोकसेवी निभा रहे हैं।

कणाद ऋषि ने अथर्ववेदीय शोध परम्परा के अन्तर्गत अपने समय में अणु विज्ञान का—वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का अनुसन्धान किया था। बुद्धिवादियों के गले उतारने के लिए समय के अनुरूप अब आप्तवचनों के साथ-साथ तर्क, तथ्य एवं प्रमाण भी अनिवार्य हैं। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में अध्यात्म—देव एवं विज्ञान—दैत्य के समन्वय का समुद्र मन्थन चल रहा है। दार्शनिक अनुसन्धान ही नहीं, वैज्ञानिक प्रमाणों का प्रस्तुतिकरण भी इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इसकी उपलब्धियों के प्रति संसार बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाए बैठा है।

बुद्ध के परिव्राजक संसार भर के धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु दीक्षा लेकर निकले थे। शान्तिकुञ्ज में, मात्र अपने देश में धर्मधारणा के विस्तार हेतु ही नहीं, संसार के सभी देशों में देव संस्कृति का सन्देश पहुँचाने हेतु परिव्राजक दीक्षित होते हैं। यहाँ आने वाले परिजनों को धर्म चेतना से अनुप्राणित किया जाता है। भारत में ही प्रायः एक लाख प्रज्ञा पुत्र परिव्रज्या में निरत रह कर घर-घर अलख जगाने का कार्य कर रहे हैं।

आर्यभट्ट ने सौर मंडल के ग्रह-उपग्रहों का ग्रह गणित कर यह जाना था कि पृथ्वी के साथ सौर परिवार का क्या आदान-प्रदान क्रम है और इस आधार पर धरित्री का वातावरण एवं प्राणी समुदाय कैसे प्रभावित होता है। शान्तिकुञ्ज में एक समग्र वेधशाला बनाई गई है एवं आधुनिक यन्त्रों का उसके साथ-साथ समन्वय स्थापित कर ज्योतिर्विज्ञान का अनुसन्धान किया जा रहा है। दृश्य गणित पञ्चांग यहाँ की एक अनोखी देन है।

चैतन्य महाप्रभु, सन्त ज्ञानेश्वर, समर्थ गुरु रामदास, प्राणनाथ महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी मध्यकालीन सन्तों की धर्मधारणा विस्तार परम्परा का अनुसरण शान्तिकुञ्ज में किया गया है।

सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग यह है कि इस आश्रम का वातावरण इतने प्रबल संस्कारों से युक्त है कि सहज ही व्यक्ति अध्यात्म की ओर प्रेरित होता चला जाता है। यह सूक्ष्म सत्ताधारी ऋषियों की यहाँ उपस्थिति की ही परिणति है। वे अपने द्वारा सम्पन्न क्रियाओं का यह पुनर्जीवन देखते होंगे तो निश्चय ही प्रसन्न होकर भावभरा आशीर्वाद देते होंगे। ऋषियों के तप प्रताप से ही यह धरती देवमानवों से धन्य हुई है। वाल्मीकि आश्रम में लव−कुश एवं कण्व के आश्रम में चक्रवर्ती भरत विकसित हुए। कृष्ण-रुक्मिणी ने बद्री नारायण में तप करके कृष्ण सदृश्य प्रद्युम्न को जन्म दिया था। पवन एवं अञ्जनी ने तपस्वी पूषा के आश्रम में बजरंग बली को जन्म दिया। यह हिमालय क्षेत्र में बन पड़ी तप साधना के ही चमत्कारी वरदान थे।

संस्कारवान क्षेत्र एवं तपस्वियों के सम्पर्क लाभ के अनेकों विवरण हैं। स्वाति बूँद के पड़ने से सीप में मोती बनते हैं, बाँस में वंशलोचन एवं केले में कपूर, चन्दन के निकटवर्ती झाड़-झंखाड़ भी उतने ही सुगन्धित हो जाते हैं। पारस स्पर्श कर लोहा सोना बन जाता है। हमारे मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीर से पृथ्वी के स्वर्ग इसी हिमालय क्षेत्र में शताब्दियों से रहते आए हैं, जिसके द्वार पर हम बैठे हैं। हमारी बैटरी चार्ज करने के लिए समय-समय पर वे बुलाते रहते हैं। जब भी उन्हें नया काम सौंपना हुआ है, तब नई शक्ति देने हमें वहीं बुलाया गया है और लौटने पर हमें नया शक्ति भण्डार भर कर वापस आने का अनुभव हुआ है।

हम प्रज्ञापुत्रों को—जाग्रत आत्माओं को युग परिवर्तन में रीछ-वानरों की, ग्वाल-बालों की भूमिका निभाने की क्षमता अर्जित करने के लिए शिक्षण पाने या साधना करने के निमित्त बहुधा शान्तिकुञ्ज बुलाते रहते हैं। इस क्षेत्र की अपनी विशेषता है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, प्राण चेतना से भरा-पूरा वातावरण एवं दिव्य संरक्षण यहाँ उपलब्ध है। इसमें थोड़े समय भी निवास करने वाले अपने में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हुआ अनुभव करते हैं। उन्हें लगता है कि वस्तुतः किसी जाग्रत तीर्थ में निवास करके अभिनव चेतना उपलब्ध करके वे वापस लौट रहे हैं। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक सैनीटोरियम है।

साठ वर्ष से जल रहा अखण्ड दीपक, नौ कुण्ड की यज्ञशाला में नित्य दो घण्टे यज्ञ, दोनों नवरात्रियों में २४-२४ लक्ष गायत्री महापुरश्चरण, साधना आरण्यक में नित्य गायत्री उपासकों द्वारा नियमित अनुष्ठान, इन सब बातों से ऐसा दिव्य वातावरण यहाँ विनिर्मित होता है जैसा मलयागिरि में चन्दन वृक्षों की मनभावन सुगन्ध का। बिना साधना किए भी यहाँ वैसा ही आनन्द आता है, मानों यह समय तप साधना में बीता। शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ की विशेषता यहाँ सतत दिव्य अनुभूति होने की है। यह संस्कारित सिद्ध पीठ है, क्योंकि यहाँ सूक्ष्म शरीरधारी वे सभी ऋषि क्रिया-कलापों के रूप में विद्यमान हैं, जिनका वर्णन हमने किया है।

उपरोक्त पंक्तियों में ऋषि परम्परा की टूटी कड़ियों में से कुछ को जोड़ने का वह उल्लेख है जो पिछले दिनों अध्यात्म और विज्ञान की, ब्रह्मवर्चस् शोध साधना द्वारा सम्पन्न किया जाता रहा है। ऐसे प्रसंग एक नहीं अनेकों हैं, जिन पर पिछले साठ वर्षों से प्रयत्न चलता रहा है और यह सिद्ध किया जाता रहा है कि लगनशीलता, तत्परता यदि उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न हो तो उसके परिणाम कितने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।

सबसे बड़ा और प्रमुख काम अपने जीवन का एक ही है कि प्रस्तुत वातावरण को बदलने के लिए दृश्य और अदृश्य प्रयत्न किए जाएँ। इन दिनों आस्था संकट सघन है। लोग नीति और मर्यादा को तोड़ने पर बुरी तरह उतारू हैं। फलतः अनाचारों की अभिवृद्धि से अनेकानेक संकटों का माहौल बन गया है। न व्यक्ति सुखी है, न समाज में स्थिरता है। समस्याएँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। सुधार के प्रयत्न कहीं भी सफल नहीं हो रहे हैं। स्थिर समाधान के लिए जनमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन यह दो ही उपाय हैं। यह प्रत्यक्ष, रचनात्मक, संगठनात्मक, सुधारात्मक उपयोग द्वारा भी चलने चाहिए और अदृश्य आध्यात्मिक उपचारों द्वारा भी। विगत जीवन में यही किया गया है। समूची सामर्थ्य को इसी में होमा गया है। परिणाम आश्चर्यजनक हुए हैं, जो होने वाला है, अगले दिनों अप्रत्याशित कहा जाएगा।

एक शब्द में यह ब्राह्मण मनोभूमि द्वारा अपनाई गई सन्त परम्परा अपनाने में की गई तत्परता है। इस प्रकार के प्रयासों में निरत व्यक्ति अपना भी कल्याण करते हैं, दूसरे अनेकानेकों का भी।

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