यज्ञ एक शिक्षण भी, उच्चस्तरीय विज्ञान भी

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

मार्गदर्शक है अग्नि

देवियो, भाइयो! चारों वेदों में पहला वाला वेद है ऋग्वेद और ऋग्वेद का पहला वाला मंत्र, जिसमें ज्ञान और विज्ञान की सारी की सारी धाराएँ भरी हुई हैं, वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आप देखेंगे तो पाएँगे कि मनुष्य जीवन की भौतिक और आर्थिक एवं आत्मिक उन्नति को विकसित करने के इस मंत्र में बहुत बड़े संकेत छिपे पड़े हैं। क्या मंत्र है? ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ यह पहला वाला मंत्र है। इसमें यज्ञ की प्रशंसा की गई है, उनकी प्रार्थना की गई है। भगवान को यज्ञरूप बताया गया है। भगवान कैसे हैं? भगवान कैसे हो सकते हैं? भगवान दिखाई तो नहीं पड़ते। भगवान को हम कहाँ ढूँढ़ने जाएँ! भगवान को हम किस तरीके से देख पाएँ? भगवान को देखने की मनुष्य की इस इच्छा का समाधान ऋग्वेद के इस पहले वाले मंत्र में किया गया है। जब हम भगवान को आँख से देखना चाहते हैं तो भगवान का एक ही रूप है और वह कौन सा रूप है—अग्नि अर्थात यज्ञाग्नि। यज्ञाग्नि को क्या कहा गया है? क्या नाम दिया गया है? उसका नाम दिया गया है पुरोहित। पुरोहित किसे कहते हैं? पुरोहित उसे कहते हैं, जो मार्ग दिखाता है, रास्ता दिखाता है, उपदेश करता है और हमको गलत रास्ते से घसीट करके सही रास्ते पर ले जाता है। ऐसे आदमी का, ऐसे मार्गदर्शक का नाम पुरोहित है।

यज्ञ है हमारा पुरोहित

मित्रो! अग्नि हमारा पुरोहित है। कुछ शिक्षा ग्रहण करनी हो, ज्ञान ग्रहण करना हो, आपको कोई आदर्श या सिद्धांतों की बाबत जानकारी प्राप्त करनी हो तो मनुष्यों के पास भटकने की जरूरत नहीं है। मनुष्य बड़े बेअक्ल होते हैं और हजार तरह की बातें बनाते हैं। एक व्यक्ति ऐसे बात कहता है, दूसरा ऐसे कह देता है, तीसरा ऐसे कह देता है, चौथा ऐसे कह देता है। कोई समाधान ही नहीं है। एक पंडित का दूसरा पंडित विरोधी बना बैठा हुआ है। एक मजहब का दूसरा मजहब विरोधी बना बैठा हुआ है। एक देवता की दूसरा देवता काट करने के लिए तैयार बैठा हुआ है। देवताओं की लड़ाई आप देखिए। 'देवी पुराण' में देवी की महत्ता बताई गई है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश को उनका गुलाम-नौकर बताया गया है। आप 'शिव पुराण' देख लीजिए, 'शिव पुराण' में शंकर जी सबसे बड़े हैं और विष्णु जी उनके नौकर हैं और फलाने जी उनके नौकर हैं। आप यह सब देखेंगे तो पता नहीं चलेगा कि यह क्या चक्कर है ! फिर आपको ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसके पास जाना चाहिए? पुरोहित के पास। पुरोहित के पास कैसे जाना चाहिए, जो भगवान का प्रतिनिधि हो अथवा भगवान का रूप हो अथवा भगवान के भेजे हुए संदेश को इस प्रकार कहता हो कि जिसमें हमें शक-शुबहा करने की गुंजाइश न रहे। यह कौन सा देवता है? यज्ञो वै विष्णुः। निश्चयपूर्वक, विश्वासपूर्वक पट्ठा ठोंक करके, छाती ठोंक करके हम कह सकते हैं कि यज्ञ ही विष्णु है।

यह किसने कहा? 'शतपथ ब्राह्मण' ने कहा—निश्चय, जरूर, गारंटी से, विष्णु जो है, वही यज्ञ भगवान है। जीवंत भगवान कैसे हो सकता है। जीवंत भगवान एक तो वह है, जो सबके भीतर समाया हुआ है, सब जगह समाया हुआ है, लेकिन अगर आपको प्रत्यक्ष देखने का मन हो, जो आपके सामने खड़ा हो करके आपका मार्गदर्शन कर सके और आपको सुझाव दे सके और आपके लिए लक्ष्य निर्धारित कर सके तो उसका नाम यज्ञ है। यज्ञ की क्या विशेषता है? अग्निमीले पुरोहितं। अग्नि जो हमारा पुरोहित है, जो हमारा मार्गदर्शक है, वह हमें क्या सिखाता है? बोलता तो जरूर नहीं है, बात-चीत भी नहीं करता। लिखना-पढ़ना भी नहीं जानता, लेकिन जिसको हम वास्तविक शिक्षा कहते हैं, जो आदमी के व्यक्तित्व में प्रकट होती है, चरित्र में प्रकट होती है, वह जीभ से प्रकट नहीं होती है। लोगों का यह ख्याल है कि हम लोगों को शिक्षा देंगे। यह शिक्षा आप किससे देंगे? जीभ से देंगे। जीभ तो बेटे! मांस की है और मांस की जीभ मांस को प्रभावित कर सकती हो तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन आदमी की आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। जीभ का विश्वास कौन करता है! जीभ तो बड़ी वाहियात है, जीभ तो बड़ी चटोरी है, जीभ बड़ी नामाकूल है। पंडित जी कहें या और कोई कहे, जीभ का असर बहुत थोड़ा-सा होता है, जानकारी तक होता है। जीभ से शब्द निकलते हैं और कान तक घुस जाते हैं और कान में घुसने के बाद में दिमाग का चक्कर काट करके दूसरे कान में से विदा हो करके बाहर चले जाते हैं। बस, उनका असर खतम हो गया।

शब्दों से-वाणी से नहीं, क्रिया से असर

शब्दों का क्या असर होता है? शब्दों का नहीं होता, क्रिया का असर होता है। अगर आपको किसी पर असर डालना हो, किसी पर छाप डालनी हो, अगर आपको वास्तव में कोई शिक्षण करना हो तो उसका तरीका जबान नहीं है। जबान की लपलप बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो सकती। आपको कथा कहना आता है, पुस्तक पढ़ना आता है, अच्छी बात है। हम आपकी प्रशंसा भी कर सकते हैं, लेकिन हम आपसे यह उम्मीद नहीं रखेंगे कि आपकी जबान का यह असर होगा कि लोग आपका कहना भी मान लेंगे और आपके बताए रास्ते पर चलने लगेंगे। अगर ऐसा रहा होता और कहने भर से लोगों ने मान लिया होता और पढ़ने से लोगों ने मान लिया होता तो गोरखपुर की गीताप्रेस ने जो पुस्तकें छापी हैं, उनकी तादाद करोड़ों जा पहुँची है। एक करोड़ से अधिक गीता की पुस्तकें छाप करके दे दी उन्होंने। इसे पढ़ने वाले सारे के सारे लोग अर्जुन हो गए होते, लेकिन गीता पढ़ने के बाद तो एक भी व्यक्ति अर्जुन न हो सका। क्या हुआ लेखनी का? क्या लेखनी बेकार है? नहीं बेटे! बेकार नहीं है। वह जानकारी देने में समर्थ हो सकती है। जीभ का भी यही हाल है। कितने सारे पंडित, कितने सारे रामायणी, कितने सारे कथावक्ता, कितने सारे लेक्चर देने वाले धार्मिक लेक्चरों से, राजनीतिक लेक्चरों से बेचारे माइक का दिवाला निकाले जा रहे हैं। माइकों का कचूमर निकला जा रहा है। बोलने वाले कहते हैं कि माइक कम पड़ते हैं, और लाइए। हर साल माइक कंपनियाँ और उत्पादन करती हैं, फिर भी कमी रहती है। बकवास करने वालों को अभी बहुत से माइकों की जरूरत है। अभी और बनाइए और बकवास करने वाले माइकों का ढेर लगा देते हैं। लाउडस्पीकरों का ढेर लगा देते हैं।

आचरण से शिक्षण

इससे उद्धार हो सकता है? नहीं बेटे! इससे उद्धार नहीं हो सकता है। तो फिर किस तरह से उद्धार होगा? दुनिया में इसका एक ही तरीका है और एक ही रहेगा कि आदमी अपने व्यक्तित्व और अपने चरित्र के माध्यम से शिक्षण करे। दूसरे आदमी जब देखेंगे कि वह आदमी जिस बात पर विश्वास करता है, उसके स्वभाव में यह बात क्यों नहीं आती, उसके व्यवहार में यह बात क्यों नहीं आती? जो बात वह दूसरों से कहता है, अगर यह बात सही है तो सबसे पहले उसी ने फायदा उठाया होता। सबसे पहले अपने जीवन में वही धारण करने में समर्थ रहा होता, लेकिन अपने जीवन में वही धारण न कर सका तो हमारे लिए क्या फायदेमंद हो सकता है! इतना फायदेमंद होता तो स्वयं क्यों न अपने लिए इस्तेमाल करता! इससे मालूम पड़ता है कि दाल में कुछ काला है। वह औरों को तो सिखाना चाहता है, पर अपने आप को नहीं सिखाना चाहता है। अविश्वास यहीं से पैदा हो जाता है और आदमी इस बात को मानने से पहले इनकार कर देते हैं। इसलिए हम आपसे यह कह रहे थे कि हमारा पुरोहित, जो हमारे जीवन को वास्तव में विकसित कर सकता हो, जो हमारे जीवन का वास्तविक कल्याण करना चाहता हो, वह पुरोहित ऐसा होना चाहिए, जो अपने चरित्र के माध्यम से हमारा शिक्षण कर सकता हो। इस मामले में यज्ञाग्नि अपनी कसौटी पर सही व खरी उतरती है।

यज्ञाग्नि की नसीहतें

मित्रो! यज्ञ हमको छह नसीहतें देता है। छह नसीहतें बहुत नहीं हैं। महाराज जी! बहुत सारे व्याख्यान दीजिए। नहीं बेटे! बहुत सारे व्याख्यान देने की जरूरत नहीं है। छह व्याख्यान बहुत हैं। यज्ञ, अग्नि, यज्ञाग्नि, जिसका हम प्रचार करते हैं और जिसका आपको रोज हवन कराते हैं। हमारी कन्याएँ नियमित रूप से हवन करती हैं। आप तो नहीं कर पाते, वर्षा हो जाती है तो बंद भी करना पड़ता है, पर हमारे यहाँ यह रोज प्रज्वलित रहती है। गायत्री तपोभूमि में रोज यज्ञ होता है। इसको हम हर रोज के लिए बलिवैश्व के रूप में घर-घर में फैलाना चाहते हैं। यह क्या शिक्षा देता है? छह नसीहतें देता है, जिन्हें यदि आप जीवन में उतार लें तो आपका बेड़ा पार हो सकता है। ये नसीहतें क्या हैं? यज्ञाग्नि की, अग्नि की एक नसीहत यह है कि वह सदा प्रकाशवान बनी रहती है। कभी भी इसका प्रकाश बंद नहीं हो सकता। आग जलेगी तो रोशनी जरूर होगी। आग बुझ जाएगी तो रोशनी भी बुझ जाएगी। आग जलेगी तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि उसमें से प्रकाश नहीं निकलता हो। प्रकाश का अर्थ क्या हो सकता है? आदमी में प्रकाश तो नहीं है। आदमी कोई बत्ती नहीं है, बल्ब नहीं है, जो जलेगा। फिर यज्ञ का अनुसरण करने वाले का क्या होना चाहिए? प्रकाश होना चाहिए। प्रकाश किसे कहते हैं? बेटे! व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन में प्रकाश का जहाँ कहीं भी इस्तेमाल किया गया है, ज्ञान के अर्थ में किया गया है। 'लेटेंट लाइट,' 'डिवाइन लाइट' 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' आदि ज्ञान के अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। प्रकाश का अर्थ चमक नहीं है; जैसा कि आप बार-बार समझते रहते हैं। आज्ञा चक्र में हम ज्योति का ध्यान कराते हैं। क्यों साहब! इसमें तो हमको कुछ चमकता हुआ नहीं मालूम पड़ता। जब हम ध्यान लगाते हैं तो इन भौंहों के बीच कोई चमकता हुआ प्रकाश नहीं मालूम पड़ता। गुरुजी! आप तो हमको रोज ध्यान कराते हैं, पर ऐसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

प्रकाश से अर्थ है—ज्ञान

बेटे! हम यह ध्यान नहीं कराते हैं कि चमक दिखाई दे। हम चमक के अर्थ में प्रकाश नहीं कहते हैं। ज्योति का अर्थ चमक नहीं हो सकता। नहीं साहब! चमक दिख जाएगी तो हमारा बड़ा भारी उद्धार हो जाएगा और हमको ध्यानयोग का अभ्यास हो जाएगा। नहीं बेटे! यह चमक नहीं है। चमक तो पंचभौतिक चीज है। यह पदार्थ है, यह अग्नि है, आग है। चमक आग है। इस चमक से योगाभ्यास का कोई खास ताल्लुक नहीं है। चमक दिखाई दे जाए तो अच्छी बात है, नहीं दिखे तो खराब बात भी नहीं है। अच्छा तो आप आज्ञा चक्र में जिसका ध्यान कराते हैं, वह क्या चीज हो सकती है? बेटे! वह ज्ञान है। आध्यात्मिक परिभाषा में प्रकाश हमेशा ज्ञान के अर्थ में आया है। आत्मा में प्रकाश हो गया अर्थात आत्मबोध हो गया। ज्ञान का अर्थ है आत्मबोध। ज्ञान कौन सा? जो स्कूलों में पढ़ाया जाता है? नहीं बेटे! स्कूलों वाला नहीं। स्कूल वाले ज्ञान को तो शिक्षा भी कहते हैं और जानकारी भी कहते हैं। यह तो पदार्थ विज्ञान के भीतर आती है; क्योंकि यह पदार्थों के बारे में सिखाती है। जब हम स्कूल में जाते हैं तो भूगोल सीखकर आते हैं, गणित सीखकर आते हैं, इतिहास सीखकर आते हैं। ये पंचभौतिक शिक्षाएँ हमको सांसारिक जानकारी देती हैं, जो रोटी कमाने के काम आती है और जो हमारी क्षमता को विकसित करने के काम आती है, यह शिक्षा है विद्या, जिसको हम प्रकाश कहते हैं, उसका ज्ञान के अर्थ में प्रयोग करते हैं।

'धी' तत्त्व भी ज्ञान का ही प्रतीक

मित्रो! गायत्री में भी ज्ञान के लिए 'धी' कहा गया है। 'धी' क्या चीज है? यह वह ज्ञान है, जो हमारी आत्मिक समस्याओं का समाधान करती है। ज्ञान का अर्थ केवल यह है कि जो हमारी आंतरिक समस्याएँ, आंतरिक गुत्थियाँ उलझी पड़ी हैं और सुलझाने में नहीं आती, यह उनका समाधान प्रस्तुत करता है। हमारे भीतर कितना अँधियारा भरा पड़ा है। बाहर तो अँधियारा नहीं है। दिन को सूरज चमकता है और रात को चंद्रमा चमकता है। चाँद और सूरज नहीं भी चमकते हैं तो हम बत्ती जला सकते हैं, दीपक जला सकते हैं। इससे यह अँधियारा तो दूर हो सकता है, लेकिन हमारे भीतर जो सघन अंधकार छाया हुआ है, जिसकी वजह से हमें रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। कहाँ चले जाएँ, इसका कुछ पता नहीं चलता। कहाँ जाना चाहिए, इसका भी कुछ पता नहीं चलता और हम जिंदगी भर भटकते रहते हैं और यह तलाश करते रहते हैं कि जाना किधर है। सारी जिंदगी यही पता नहीं चल सका कि जाना कहाँ है। इन इंद्रियों ने जिधर भटका दिया, उधर ही चल दिए। पैसे ने भटका दिया तो उधर ही चल दिए। दोस्तों ने भटका दिया तो हम चल दिए। सारे जीवन में भटकन ही भटकन हमारे हिस्से में आई है, परंतु हमको कोई रास्ता न दिखा सका, जिसको देख करके हमको वस्तुस्थिति का पता चल जाता। जिससे ज्ञान हो जाता और वास्तविकता की जानकारी हो जाती। कमरे में अँधेरा ही अँधेरा भरा पड़ा है। बत्ती नहीं जलाने की वजह से, ज्ञान का प्रकाश न होने की वजह से हमें जीवन की एक भी समस्या का वास्तविक स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता। न हमारे हाथ समाधान लगते हैं, न हमको समस्याओं का स्वरूप मालूम पड़ता है। हम केवल भटकते रहते हैं। इधर-उधर ढूँढ़ते रहते हैं कि इसका कारण यह भी हो सकता है और समाधान यह हो सकता है। हजारों समाधान तलाश करते हैं, हजारों काम तलाशते हैं और कहीं कुछ पता नहीं चलता। न कोई निदान हो पाता है और न हम कोई चीज तलाश कर पाते हैं, बस, भटकते रहते हैं। न मरज का पता है और न दवा का पता है कि कौन सी दवा कारगर हो सकती है।

पहली शिक्षा : प्रकाश की उपासना

मित्रो! वास्तविकता की जानकारी जिसको हो जाती है, उसे ज्ञान हो जाता है। वास्तविकता को हम ज्ञान कहते हैं, यज्ञाग्नि कहते हैं, जो हमको सिखाती है कि आदमी को प्रकाशवान होना चाहिए। आदमी को ज्ञानयुक्त होना चाहिए, जिससे वास्तविकता को समझा जा सकता है और वास्तविकता को समझाने में समर्थ हो सकता है। दीपक शान से जलता रहता है और चहुँओर अपना प्रकाश फैलाता है। वह अपनी ओर सबकी आँखों को आकर्षित करता रहता है और जहाँ-कहीं भी रखा रहता है, वहीं रोशनी पैदा करता रहता है, भटकाव को दूर करता रहता है। यज्ञाग्नि हमारा पुरोहित हो और हम उसके शिष्य हों, 'होता' हों, यज्ञ को मानने वाले हों। हमको किसकी उपासना करनी पड़ेगी? हमको प्रकाश की उपासना करनी पड़ेगी, पहली वाली शिक्षा हमको यही मिलती है, क्योंकि हमारा पुरोहित, हमारा यज्ञाग्नि हमको रोशनी देता है और पहली बात यह कहता है कि आप रोशनी प्राप्त कीजिए। दिशा प्राप्त कीजिए, रास्ता प्राप्त कीजिए। अभी हमारे जीवन में रोशनी का अभाव है। अगर रोशनी मिल जाती तो जीवन सार्थक हो जाता। भगवान बुद्ध को रोशनी मिल गई थी, प्रकाश मिल गया था। एक छोटे से राजकुमार से हट करके वे भगवान बन गए थे। महाराज जी! क्या इनसान भगवान हो सकता है? हाँ, बिलकुल हो सकता है, अगर उसको प्रकाश मिल जाए तब, लेकिन अगर अंधकार मिल जाए तो उसकी ऐसी मिट्टी पलीद होने लगती है, जैसी हमारी-आपकी होती है। दुर्बुद्धि हमको पटक-पटक करके मारती है, रुला-रुला करके मारती है और इस कदर हैरान करती है, जैसा कि हमारा कोई दुश्मन भी नहीं कर सकता।

दूसरा शिक्षण सक्रियता का

मित्रो! अंधकार से निजात, छुटकारा कैसे मिल सकता है? निजात पाने का एक ही तरीका है कि हमको प्रकाश मिल जाए। यज्ञाग्नि हमको यही सिखाती है, पहला शिक्षण यही देती है कि हम प्रकाशवान हैं। हम कौन हैं? अग्नि हैं। अग्नि कहती है कि आपको भी प्रकाशवान बनना चाहिए—एक। अग्नि की दूसरी नसीहत यह है कि हमारा जो पुरोहित है, जिसे हम यज्ञ की वेदी पर स्थापित करते हैं, उसको हम पुरोहित मानते हैं। बलि-वैश्व के समय भी हम यह कहते हैं कि इसको जमीन पर मत रखना, यह आपका पुरोहित है। पुरोहित को सिंहासन दिया जाता है और यज्ञाग्नि के लिए यज्ञवेदी तैयार की जाती है। जमीन पर नहीं रखते हैं। आपने यह जो बालू की वेदी बना दी है, वह सिंहासन बना दिया है। आपने इसका दरजा ऊपर कर दिया है, जमीन पर नहीं बैठने दिया। यह क्या है? बेटे! यह दूसरी वाली शिक्षा है। यह है कि जो आग है, यज्ञाग्नि है, जिसकी हम पूजा करते हैं, फायर वर्शिप के नाम पर जिस अग्निहोत्र को हम रोज करते हैं, उससे हम नसीहत लेते हैं। अग्निहोत्र क्या नसीहत देता है? यह नसीहत देता है कि जब तक आग जिंदा रहती है, तब तक गरम रहती है, हमारे जीवन में भी गरमी बनी रहनी चाहिए। हर इनसान को, हर यज्ञ उपासक को अपने पुरोहित से एक शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए कि वह जिंदगी भर गरम बना रहे। गरम से क्या मतलब है? बेटे! गरम से मतलब है सक्रिय बने रहना। क्रिया से गरमी पैदा होती है, यह गरमी की साइंस है। आखिर गरमी है क्या और कहाँ से आती है? बेटे! गरमी रगड़ से पैदा होती है, और किसी तरीके से पैदा नहीं होती है। गरमी पैदा होने का एक ही तरीका है—रगड़ का होना। रगड़ होने का मतलब है—क्रियाशीलता का होना, सक्रियता का होना।

कर्मनिष्ठा-क्रियाशीलता सदा बनी रहे

मित्रो! रगड़ से मतलब है क्रियाशीलता और निष्क्रियता का मतलब है हाथ पर हाथ रखे हुए बैठे रहना। निष्क्रियता से गरमी पैदा नहीं होती। गरमी कब पैदा होती है? रगड़ से। रगड़ क्रिया को कहते हैं, हलचल को कहते हैं। हलचल से गरमी पैदा होती है। हमारे जीवन में कर्मनिष्ठा अर्थात हलचल अर्थात हमारी क्रियाशीलता निरंतर बनी रहनी चाहिए। हमारे जीवन में कोई एक क्षण भी ऐसा न हो, जिसमें यह दोष हमारे ऊपर लगाया जा सके कि हम निष्क्रिय बैठे हुए हैं। हमारे जिंदगी के भीतर वाले हिस्से में कोई निष्क्रिय नहीं बैठता। आप तलाश कर सकते हैं कि हमारे शरीर के भीतर का रक्त बराबर चलता रहता है। मांसपेशियाँ बराबर काम करती रहती हैं। हम सो जाते हैं और सवेरे जग जाते हैं, फिर भी हमारे दिमाग के सेल्स काम करते रहते हैं। भाई साहब! आप सो गए हैं, ठीक है, लेकिन आपका दिमाग काम कर रहा है। वह सपने देख रहा है। सपने देखने के अलावा यह शरीर पर कंट्रोल करता है। आप समझते हैं कि हमारा सिस्टम हृदय से काम करता है। नहीं, हृदय से काम नहीं करता। इसका कंट्रोल-ऑफिस दिमाग में है। सोते समय भी रात भर दिमाग कंट्रोल करता है। आपको पता भी नहीं चलता और आप करवट बदल लेते हैं। रात को थकान हो जाती है, एक करवट में पड़े-पड़े शरीर दुःखने लगता है। इससे क्या हो जाता है? दिमाग को सब पता रहता है। वह हुक्म देता है कि करवट बदल लीजिए। पैर पर पैर रखकर सो गए और एक पैर पर दूसरे पैर का दबाव पड़ रहा है। हमारा दिमाग देखता है कि यदि यह दबाव ज्यादा देर तक पड़ता रहा तो खून का दौरा कम पड़ जाएगा, इसलिए वह हुक्म देता है कि इस पैर को इधर रखना चाहिए, करवट बदलना चाहिए। आपकी जानकारी के बिना यह सब अपने आप होता रहता है।

सतत काम, छुट्टी का नाम नहीं

मित्रो! हमारा दिमाग बराबर काम करता रहता है। काम करने से वह कभी रुक नहीं सकता। सूरज बराबर काम करता है। बंद हो जाएगा? नहीं बेटे! एक सेकंड के लिए भी उसे छुट्टी नहीं है। चाँद को भी एक सेकंड के लिए छुट्टी नहीं है। धरती को जबसे ब्रह्मा जी ने बनाया था, उस दिन से लेकर के जब तक इस धरती की मौत आएगी, तब तक एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलने वाली है। हमको बाहर के जीवन में छुट्टी नहीं मिलती और आदमी को भी कभी छुट्टी नहीं मिलनी चाहिए। बहुत सारे डिपार्टमेंट्स ऐसे हैं, जिनमें कभी छुट्टी नहीं मिलती। नहीं साहब! हरेक को साप्ताहिक छुट्टी मिलती है। नहीं बेटे! कितने ही डिपार्टमेंट ऐसे हैं, जिनको कभी छुट्टी नहीं मिलती। किसको नहीं मिलती? चलिए मैं बताता हूँ जैसे-जेलखाना। आप गिरफ्तार हो जाइए। नहीं साहब! आज तो रविवार है और आज आपको बाहर घूमना पड़ेगा। कल आपको भरती करेंगे। अरे भाई! हमको अभी भरती होना पड़ेगा। हम डाका डालकर आए हैं। आप हमको पकड़िए और जेल में बंद कीजिए। जेलखाने में कभी छुट्टी नहीं होती। दवाखाने की छुट्टी नहीं होती। घायल हो गए हैं, बंदूक की गोली लगी है। साँप ने काट खाया है। चलिए भरती हो जाइए। छुट्टी है? नहीं छुट्टी नहीं है।

काम करते-करते घिस जाएँ, आराम न करें

मित्रो! मनुष्य के जीवन में कभी छुट्टी नहीं होनी चाहिए। मनुष्य के जीवन का हर पल सक्रिय हो। हर समय मनुष्य को सक्रिय रहना चाहिए। हर समय मनुष्य को क्रियाशील बने रहना चाहिए। सक्रियता के बारे में, क्रियाशीलता के बारे में आदमी को हथियार नहीं डालना चाहिए। हम काम करेंगे। कब तक काम करेंगे? जब तक साँस चलेगी। रिटायर्ड होंगे तब? तब हम दूना काम करेंगे। पहले हमें कमाने की फिक्र थी, इसलिए रोटी कमानी पड़ती थी। अब तो रोटी के लिए पेंशन मिलती है, इसलिए अब हम समाज का काम करेंगे और ज्यादा काम करेंगे और करना भी चाहिए। यह क्या है? बेटे! यह क्रियाशीलता की गरमी है, जो बताती है कि आदमी को कर्मनिष्ठ होना चाहिए और कर्मयोगी होना चाहिए और निरंतर मेहनत का काम करना चाहिए। नहीं साहब! मेहनत का, मशक्कत का काम करने से थक जाएँगे। नहीं बेटे! कोई नहीं थकेगा। चलिए, मैं यह मान भी लेता हूँ कि आप थक जाएँगे, तो यह आपकी शान है। हमारे यहाँ मथुरा में एक नाई थे छबिलाल। उनके पास सात पीढ़ी का एक उस्तरा था। घिसते-घिसते उस्तरा इतना बच गया था कि पीछे वाली पीठ बची थी और जरा सी नोक रह गई थी। उसे दिखाकर वे कहते थे कि सात पीढ़ी से यह उस्तरा हमारे पास है। तब से अब यह मात्र इतना रह गया है। नाम मात्र की नोक रह गई थी, उस जंग खाए हुए उस्तरे में। जंग खाए हुए उस्तरे के ऊपर लानत है और जो आदमी काम करते-करते घिस गया, उसकी इज्जत है। आदमी काम करते-करते घिस जाए, काम करते-करते मर जाए, यह उसकी शान है, इज्जत है। जो हरामखोर बैठे रहते हैं और यह सोचते हैं कि हमारे बेटे कमाते हैं, हमारे पोते कमाते हैं, हमारा बाप कमाकर रख गया है और हमारे पास बहुत आमदनी है, पेंशन हमारे पास है, खेती-बारी हमारे पास है तो हम अब काम क्यों करें? बेटे! उन पर लानत है।

काम चोरी : एक सामाजिक अपराध

बेटे! तू तो कुछ काम करता है कि नहीं करता है? नहीं साहब! मैं तो नहीं करता।बेटे! काम तो करना चाहिए। समाज के लिए करना चाहिए। अपने लिए करना चाहिए, किसी के लिए भी करना चाहिए। आदमी को निष्क्रिय नहीं बैठना चाहिए। हमारे समाज में निष्क्रियता आई और आलस्य हमारे समाज में आया कि दरिद्रता हमारे समाज में आई। अपने समाज में हर आदमी इस बात की शान समझता है कि हमको निष्क्रिय बैठने को मौका मिले और हमको काम न करना पड़े। जिसके पास कड़े काम हैं, मेहनत के काम हैं, उनसे वह भागना चाहता है। कड़े काम से आदमी भागता है। हमारे देश के पिछड़ेपन की, दरिद्रता की यही निशानी है। काम का सम्मान कम कर दिया गया है। काम का सम्मान कम कर देने से समाज में कैसी आफत आ गई, आपको दिखाई नहीं पड़ती। जो व्यक्ति काम नहीं करते, उन्हें बड़ा आदमी माना गया और जो व्यक्ति रात-दिन काम करते हैं, पसीना बहाते हैं, उन्हें छोटे वर्ग का कहा गया और अलग कर दिया गया; क्योंकि ये श्रमिक हैं, मजदूर हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य यहीं से शुरू होता है। हमारे देश की दरिद्रता यहीं से शुरू होती है। हमने अपनी बेटी का विवाह करने का विचार किया और यह तलाश किया कि हमारी बेटी ऐसे घर में जानी चाहिए, जहाँ पलंग पर बैठ करके राज्य किया करे। इसका क्या मतलब है? यह कि हम चाहते हैं कि हमारी बेटी जहाँ-कहीं भी जाए, उसे काम न करना पड़े। फिर कौन काम करे? खाना पकाने वाली जिसके घर में हो, जो रोटी बना जाया करे। चौका-बरतन वाली चौका-बरतन कर जाया करे। बच्चा खिलाने वाली बच्चे खिला जाया करे। झाड़ू लगाने वाली झाड़ू लगा जाया करे और सब काम कर जाया करे। हाँ साहब! हमारी बेटी बहुत अच्छी है। जरा-सा भी काम न करना पड़े। अच्छा तो अबकी बार बेटी के पास जाना और एक बात पूछना, तूने एक के लिए नौकर रखा कि नहीं रखा? क्या पूछ करके आना? यह पूछकर के आना कि तूने खाना खाने के लिए नौकर रखा है कि नहीं रखा है? बेटी खाना खाएगी, तो मुँह चलाएगी। इससे तेरे दाँत घिस जाएँगे। इसलिए नौकरानी रख ले। वह तेरे बदले का खाना खा लिया करेगी, चाय पी लिया करेगी। चुप बदमाश कहीं के, हरामखोरी की बात करता है।

प्रकृति आपसे बदला लेगी

मित्रो! जहाँ-कहीं भी देखिए, हर आदमी काम से, मेहनत से जान छुड़ाना चाहता है। बिना मशक्कत के रहना चाहता है। मशक्कत से जान छुड़ाएँगे तो मैं एक बात कहूँगा कि मशक्कत के दबाव से तो आप बच सकते हैं, लेकिन इसका जो बदला आपको चुकाना पड़ेगा, बीमारी के रूप में चुकाना पड़ेगा, यह ख्याल रखना। आप हरामखोर हो जाइए, कोई बात नहीं है, लेकिन मैं आपसे फिर कहता हूँ कि नेचर आपसे पूरी तरह से बदला चुका लेगी। आपको बराबर कमजोर बनाती जाएगी और आपके हाथ-पाँवों को अपाहिजों जैसा बनाती चली जाएगी। अगर आप यह चाहते हैं कि आप काम नहीं करेंगे और आपके पास दौलत आएगी तो ऐसा नहीं होगा। दौलत खतम हो जाएगी और आपके पास अक्ल आएगी? नहीं, अक्ल भी चली जाएगी। अक्ल रहेगी? नहीं, निकम्मे आदमियों की अक्ल भी चली जाती है। निठल्ले आदमियों के पास, बैठे रहने वालों के पास बैठी रह जाती है। जो आदमी बैठा रहता है, उसका भाग्य भी बैठा रहता है। जो आदमी सोता रहता है, उसका भाग्य भी सोता रहता है और जो आदमी तनकर खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी तनकर खड़ा हो जाता है। जो आदमी चलना शुरू कर देता है, उसका भाग्य भी चलना शुरू कर देता है। मैं आपसे यही कह रहा था कि हमारा पुरोहित यही सिखाता है कि मानवीय समाज में हमें सक्रियता की परंपरा कायम रखनी चाहिए। हर आदमी को अपने तरीके से काम करना चाहिए। बुड्ढा है तो बुड्ढे के तरीके से काम करे, जवान है तो जवान के तरीके से काम करे। नहीं साहब! हम तो सास हैं। सास हैं, तो माताजी! आप सास के ढंग से काम कीजिए। आप बैठी क्यों रहती हैं? सास को भी काम करना चाहिए। नहीं, हमारी बहू आ गई है, तो वह रोटी खाती है। आप रोटी क्यों खाती हैं? बेटे! हर आदमी की शान, हर आदमी की इज्जत होनी चाहिए, हर आदमी का गर्व, गौरव होना चाहिए कि वह क्रियाशील है। क्रियाशीलता हमारी अग्नि की शिक्षा है। गरमी हमारी अग्नि की शिक्षा है। रोशनी और गरमी हमारे पुरोहित के दो शानदार शिक्षण हैं। इन्हें जीवन का अंग बनाना चाहिए।

(क्रमश:)

ज्ञान और कर्म के विस्तार की शिक्षाएँ

मित्रो! आपने व्याख्यान सुने हों या न सुने हों, लेकिन अगर आप यज्ञ भगवान की पूजा करते हैं तो उनसे आप दो शिक्षाएँ जरूर सुन लीजिए। वे हमको और आपको जो दो शिक्षाएँ—उपदेश देते हैं, वे एक से बढ़कर एक शानदार हैं। एक तो आपको विचारशील होना चाहिए ज्ञानवान होना चाहिए और आपको क्रियाशील होना चाहिए। ज्ञानयोगी भी होना चाहिए और आपको कर्मयोगी भी होना चाहिए। यदि यह ज्ञान आप यज्ञ से सीख लेते हैं तो यज्ञ का पूजन करना, यज्ञ को भगवान मानना, यज्ञ में आहुति देना आपका सार्थक हो जाता है। ये बातें दो शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं होतीं, भगवान सिखाते हैं और आप सीखते हैं। नहीं बेटे ! ये सार्वजनिक, सार्वजनीन और सार्वभौमिक शिक्षाएँ हैं। इन्हें हर आदमी को समझाया जाना चाहिए कि आपके पास ज्ञान की कमी है, उसे बढ़ाने की कोशिश कीजिए। दौलत के बारे में आप संतोष कर सकते हैं, पर ज्ञान के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए, पढ़ने के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए। जानकारी के बारे में आपको संतोष नहीं होना चाहिए कि अब हमारे पास काफी जानकारी हो गई, हमको अब और अधिक जानने की जरूरत नहीं है। ऐसा हमारे लिए यह मत कहिए कि स्वाध्याय आवश्यक है। यह कहना बंद कीजिए। ज्ञान की शिक्षा, ज्ञान के विस्तार की शिक्षा और कर्म के विस्तार की शिक्षा हमारा पुरोहित हमको देता है। ये दो यज्ञाग्नि की पुरोहित की शिक्षाएँ हो गईं। अब आगे चलिए।

हमारा लक्ष्य ऊँचा चलने का हो

मित्रो ! यज्ञाग्नि की चार शिक्षाएँ और रह जाती हैं। आप इन छह शिक्षाओं को ही दुनिया में फैला दें तो बहुत अच्छा है। उन छह में से तीसरी बात क्या है? तीसरी बात यह है कि यज्ञाग्नि का—आग का सिर हमेशा ऊँचा रहता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि आप चाहे जितना दबाव डाल दीजिए, आग का सिर नीचा नहीं होगा। आप दबाव डालकर देख लीजिए। चाहे आप दीयासलाई जला लीजिए, लकड़ी जला लीजिए, चाहे आप दीया जला लीजिए और यह कोशिश कीजिए कि हम इसको पलट देंगे। आप पलट दीजिए, दबाव डाल दीजिए, लेकिन अग्नि की लौ पलट कर भी ऊपर को उठेगी। नहीं साहब ! लौ को नीचे जला देंगे। नहीं बेटे! वेल्डिंग मशीन द्वारा भी बहुत ज्यादा प्रेशर देंगे तो थोड़ी देर तक वह नीचे जा सकती है, लेकिन जैसे ही प्रेशर कम होगा, लौ फिर ऊपर को जलने लगेगी। आग का स्वभाव ऊपर की ओर चलने का है, नीचे की ओर का नहीं। हमारा मस्तिष्क, हमारा दिमाग और हमारा जीवन नीचे की तरफ चलने का नहीं होना चाहिए वरन ऊँचे की ओर चलने का होना चाहिए। नीचे की तरफ बहना पानी का काम है। नीचे की तरफ गिरना ढेले का काम है। आप ढेले नहीं हैं और आप पानी नहीं हैं।

सिर कभी झुकने न पाए

आप कौन हैं? आप इनसान हैं और आप प्रगतिशील हैं। इसलिए आपका विचार और आपका चिंतन, आपकी आस्थाएँ और आपकी मान्यताएँ और आपका आदर्श और आपका गौरव हमेशा ऊँचा रहना चाहिए। दबाव पड़ता है। हाँ बेटे ! हम जानते हैं कि आप पर बाहरी लोगों का भी दबाव पड़ सकता है और आपको मजबूर करने वाले अंदर से भी दबाव पड़ सकते हैं। दोनों दबाव पड़ सकते हैं, लेकिन आपका सिर अर्थात आपका चिंतन, आपका गौरव, आपकी शिखा नीचे की तरफ नहीं चलनी चाहिए। कोई आदमी आपको यों न कहने पाए कि आपने सिर झुका लिया। अन्याय के सामने, अनीति के सामने आपने सिर झुका दिया। देवता के सामने, न्याय के सामने आप सिर झुका सकते हैं, लेकिन अनीति के सामने, दबाव के सामने आपका सिर नहीं झुकना चाहिए। आपका सिर हमेशा ऊँचा रहना चाहिए। यह किसकी नसीहत है? यह हमारे पुरोहित की नसीहत है, यज्ञ भगवान की नसीहत है। यह तीसरी वाली शिक्षा है।

सबको अपने जैसा बना लें

यज्ञ भगवान की चौथी वाली नसीहत क्या है? चौथी वाली नसीहत यह है कि जो कुछ भी इसके पास जाता है, उसे वह अपने समान बना लेता है। आग के पास जो कुछ भी चीज लेकर के जाइए, आग की कोशिश यही होगी कि हम जैसे भी कुछ हैं, अपने समान बना ले। आप आग में लकड़ी डाल दीजिए, उसे वह अपने समान बना लेगी। पत्थर डाल दीजिए, उसको भी वह आग बना देगी। हर चीज डाल दीजिए, बुरी से बुरी और अच्छी से अच्छी चीज डाल दीजिए, आग की कोशिश यही होगी कि जैसा भी कुछ है, जैसी भी भगवान ने बनाई है, उसे अपने समान बना दे। मित्रो! हमारी भी कोशिश यही होनी चाहिए कि जिस तरीके से हम शानदार हैं, उस तरीके से दूसरों को भी शानदार बनाने की कोशिश करें। कृण्वंतो विश्वमार्यम्—विश्व को, सारे संसार को श्रेष्ठ बनाने के लिए हमारे प्रयत्ल होने चाहिए। हम अच्छे हैं, यही काफी नहीं है, हमारे पड़ोसियों को भी अच्छा होना चाहिए। हम ज्ञानवान हैं, इतना ही काफी नहीं है, हमारे पड़ोसी को भी हमारे बराबर ज्ञानवान होना चाहिए। हम सामर्थ्यवान हैं, ठीक है, पर इतना ही काफी नहीं है हमारे पड़ोसी को भी, हमारे घर वालों और संबंधियों को भी सामर्थ्यवान होना चाहिए। हमारी सारी की सारी विचारणाएँ ऐसी ही हों। हम अकेले नहीं, वरन हम सारे समूह, सारे समाज को लेकर के आगे बढ़ें। यह किसका तरीका है? आग का तरीका है। आग सेकंडों में किसी को भी अपने समान बना लेती है। लकड़ी को अपने समान बना लेती है। सड़े हुए छप्पर को अपने समान बना लेती है। होली के दिनों में कूड़ा-करकट होता है, उसमें आग लगा देते हैं। वह आग के रूप में जल जाता है और चिता? चिता में मरा हुआ इनसान भी आग के रूप में जलने लगता है। क्यों साहब! मरा हुआ इनसान भी? हाँ, मरा हुआ इनसान भी आग बन जाता है; क्योंकि यह आग की, हमारे पुरोहित की विशेषता है कि वह दूसरों को भी अपने समान बना लेती है।

समधर्मी बना लें

मित्रो! हमारी कोशिश यही रहनी चाहिए कि हम दूसरों जैसा बनने की अपेक्षा उन्हें अपने जैसा बनाने की कोशिश करें। दूसरों के जैसा न बनें। आग लकड़ी नहीं बनती, आग पत्थर नहीं बनती, आग गंदी चीज नहीं बनती, लेकिन उन सबको अपने जैसा बना लेती है। दूसरों के दबाव में और प्रभाव में आकर के आप दूसरों के जैसा बनने की कोशिश न करें, वरन आप यह कोशिश करें कि आपकी हस्ती, आपका व्यक्तित्व, आपका चरित्र और आपका सिद्धांत उज्ज्वल होना चाहिए और आपके भीतर इतनी क्षमता होनी चाहिए कि दूसरों को अपने जैसा बना लेने में समर्थ हो सकें। यह आपकी विशेषता है। कौन सी? चौथे नंबर की—समान बनाने वाली विशेषता।

अपरिग्रह सीखें अग्नि से

साथियो! अभी दो विशेषताएँ और हैं। ये दोनों एक दूसरे से मिलती-जुलती हैं। इन्हें आप पाँचवीं कह सकते है। छठवीं कहने में भी कोई एतराज नहीं कर सकता, लेकिन आप पाँचवीं कह लीजिए। हम गायत्री की पंचमुखी उपासना सिखाते हैं तो आप इसे पंचमुख भी कह सकते हैं। कौन सी पाँचवीं उपासना है? उसका नाम है—अपरिग्रह। अपरिग्रह के साथ में एक और बात जुड़ी हुई है, इसलिए इसे दो भी कह सकते हैं। उसका अर्थ है वितरण। क्यों साहब! आपने दो क्यों कहा और एक क्यों नहीं कहा? बेटे! मैंने इसलिए कहा कि अपरिग्रह का चिह्न यह नहीं है कि हम पैदावार न करें। पैदावार न करना, काहिल की तरह बैठ जाना, यह अपरिग्रह का अर्थ नहीं होता है। हम अपरिग्रही हैं तो क्या करते हैं? हम तो साहब! बैठे रहते हैं। हमारे पास कुछ है नहीं। नहीं बेटे! अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ यह है कि आप कमाएँ तो बहुत, सौ हाथों से कमाएँ, लेकिन हजार हाथ से बाँट दें। जमाखोरी न करें। आपके कमाने की मैं तारीफ करता हूँ और कहता हूँ कि आपकी क्षमता और योग्यता बहुत कमाने लायक होनी चाहिए, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि आप अकेले सब खाइए मत। जब आप अकेले खाते हैं, तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। तब आप स्वार्थी हो जाते हैं। जो आदमी या वर्ग क्षमतासंपन्न है, अगर वह अपनी सारी कमाई खाता रहेगा तो हम पूछते हैं कि जो पिछड़े हुए हैं, जो दरिद्र हैं, जो अपंग हैं, जो पतित हैं, उनका क्या होगा—उनका हिस्सा कहाँ से आएगा?

संचय करना पाप है

मित्रो! आपको अपने में से कटौती करनी पड़ेगी, चाहे वह सरकारी टैक्स के रूप में चुकता कीजिए अथवा धर्म-परंपरा के नाम पर दान करके कटौती कीजिए अथवा अध्यात्म सिद्धांत के अनुसार अपरिग्रही हो जाइए। हमारे यहाँ शास्त्रों में मनुष्य जाति के लिए पाँच पाप और पाँच पुण्य बताए गए हैं। कौन-कौन से पाँच पुण्य हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पाँच पुण्य हैं, छठवाँ और कोई नहीं है और पाँच ही पाप हैं दुनिया में; इससे उलटा कर दीजिए, वे पाप हैं। उन सारे पापों और पुण्यों की व्याख्या तो मैं यहाँ पर नहीं करता, पर जो यज्ञाग्नि से संबंध रखता है, उस पुण्य की बात कहता हूँ। उसका नाम है—अपरिग्रह। अपरिग्रह पुण्य है और परिग्रह पाप है। आप मालदार आदमी हैं, मुबारक है आपको, पर आपके परिग्रह को आध्यात्मिकता की कसौटी पर हम अच्छा नहीं मानेंगे। आपका परिग्रह निंदनीय है। क्यों साहब! हमने कमाया और जमा कर लिया तो क्या बात हो गई? भाई साहब! हमने मान लिया कि आपने बेईमानी से नहीं कमाया है, मेहनत से कमाया है, लेकिन मैं कहता हूँ कि भगवान ने इतनी सामर्थ्य आपको दी थी कि आप इतना कमा सके, लेकिन उस भगवान ने कुछ ऐसा दिल आपको क्यों नहीं दिया जिससे पड़ोसी के दुःख को देख करके आपकी आँखों में आँसू आ जाते। ऐसा दिल आपको भगवान ने क्यों नहीं दिया? आपको योग्यता तो दे दी, पुरुषार्थ भी दे दिया, पराक्रम भी दे दिया, बुद्धि भी दे दी, कला-कौशल भी दे दिया। बहुत-सी चीजें आपको दे दी, आपको भाग्यवान बना दिया, पर आपका यह अधूरापन कैसे रह गया? कमाने की योग्यता के साथ-साथ में आपको ऐसा दिल मिला है, जिसको हम चट्टान का दिल कह सकते हैं, पत्थर का दिल कह सकते हैं। नहीं साहब! हमारा दिल तो माँस का दिल है। नहीं, आपका दिल माँस का नहीं हो सकता। अगर आपका दिल माँस का रहा होता, तब आपके भीतर करुणा रही होती, दया रही होती और जब आप ही आप अपनी कमाई खाते तो आपको उलटी हो जाती, कै हो जाती।

परिग्रही—पत्थरदिल मनुष्य

मित्रो! आप अपनी कमाई कमा तो सकते हैं, पर आप खा नहीं सकते, क्योंकि मनुष्य एक समाज है, समुदाय है। आप साढ़े छह सौ रुपये महीना कमाते हैं। भाई साहब! छोटा बच्चा दूध के लिए चिल्लाता है। नहीं साहब! हम कमाते हैं, यह नहीं कमाता है, अत: हम इसको नहीं पीने देंगे। तो आप बच्चे को दूध नहीं देना चाहते? हाँ साहब! हम नहीं देना चाहते। बच्चा मर जाए तो हमें इससे क्या लेना-देना। हम कमाते हैं, इसलिए हमीं खाएँगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हम मिठाई लाए हैं तो बैठकर आराम से खाएँगे। और जो आपके पाँच बच्चे हैं, वे? बच्चे जब आएँगे और हमसे माँगेंगे कि पिताजी हमको भी मिठाई दे दीजिए, तब हम उन्हें मारेंगे और कहेंगे कि तुम कोई कमाते हो? हम तो साढ़े छह सौ रुपये महीना कमाते हैं, सो हम खाएँगे। अगर आप ऐसे आदमियों में से हैं, जो अपने छोटों को, अपने बच्चों को और अपने घर वालों को इनकार कर देते हैं और यह कहते हैं कि आपका कोई हक, कोई हिस्सा नहीं है। हमने कमाया है और हम खाएँगे। अगर आपका ऐसा ख्याल है तो मैं मान सकता हूँ कि आप इनसान नहीं हो सकते और आपका कलेजा इनसान का नहीं हो सकता। आपको पत्थर का बना होना चाहिए और चट्टान का बना होना चाहिए। वे आदमी, जो कमाते तो बहुत हैं, लेकिन सारे का सारा खरचा अपने लिए कर डालते हैं, उनको मैं और क्या कह सकता हूँ? उनको चोर कहिए। नहीं बेटे! मैं चोर तो नहीं कह सकता, पर एक शब्द उनके लिए कह सकता हूँ कि ऐसे आदमी पत्थर के बने हुए हैं, चट्टान के बने हुए हैं, लोहे के बने हुए हैं, अष्टधातु के बने हुए हैं। भगवान ने इनका कलेजा ऐसा बनाया है, जिसमें न कहीं दया है, न धर्म है, न कोई ईमान है, न भगवान है।

यज्ञीय जीवन अर्थात मिल-बाँटकर खाना

मित्रो! जिन आदमियों के दिलों में ईमान और भगवान होगा, वे बाँटकर ही खा सकते हैं। उनके सामने दूसरों की मुसीबतें बनी रहती हैं। वे चारों ओर देखते रहते हैं कि हमारा पिछड़ा हुआ समाज, हमारा दुखियारा समाज, हमारा गया-गुजरा समाज अगर दुखी है तो हमको किस तरीके से गुजारा करना चाहिए। हमें औसत भारतीय के ढंग का जीवनयापन करना चाहिए। औसत भारतीय जिस तरह से जीवनयापन करता है, हमारा खरच भी उसी हिसाब से होना चाहिए। आमदनी जो भी हो, बाकी जो बच जाएगा तो उसका क्या करेंगे? जमा करेंगे। नहीं बेटे! जमा मत करना। क्या करेंगे? परिग्रह। परिग्रह उसे कहते हैं, जहाँ जमाखोरी की जाती है और अकर्मण्यता उसे कहते हैं, जो कमाता नहीं है। जो कमाता नहीं है, उस आदमी का नाम अकर्मण्य है। जो आदमी काम नहीं करता, उसको हरामखोर कहते हैं और जो आदमी जमा करता रहता है, अपने लिए खरच करता रहता है, वह आदमी विलासी है और वह पत्थर का बना हुआ है। वह कौन है? जमाखोर। जमाखोर और कामचोर, दोनों ही आध्यात्मिक दृष्टि से गालियाँ हैं। भौतिक दृष्टि से गालियाँ कोई भी हो सकती हैं। भौतिक दृष्टि से माँ-बहन की भी गाली हो सकती है। बेवकूफ, नालायक भी हो सकती है। गधा, उल्लू भी हो सकती है, लेकिन आध्यात्मिक भाषा में आपको किसी को गाली देनी हो अथवा सुननी हो तो दो ही गालियाँ हैं। एक गाली है, जिसमें आदमी को हरामखोर कहा गया है। ऐसा आदमी मशक्कत नहीं करता, कमाता नहीं। दूसरी गाली वह है, जिसको हम जमाखोर कहते हैं। जमाखोर का अर्थ यह हो सकता है कि या तो वह जमा करता जाए और जरूरत से ज्यादा अपने आप के लिए खरच करता जाए।

वितरण : एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण

मित्रो! हमारा पुरोहित—यज्ञ हमको दोनों बातें सिखाता है। हमारा पुरोहित जमा नहीं करता। जो कुछ भी इसके पास आता है, वह जमा नहीं करता। आपने हवन किया था? हाँ साहब! हवन किया था। हमने कहा—यज्ञ भगवान! बताइए, आपने क्या-क्या जमा कर रखा है? सुबह हमने एक किलो घी हवन कर दिया था, वह तो आपके पास डिब्बी में जमा करके रखा होगा? नहीं, देख लीजिए भाई साहब! हमारे पास कुछ नहीं है। आप तलाशी ले लीजिए। नहीं साहब! आपके पास बैंक में जमा किया हुआ है और आपके पास सोना है, जिसे आपने जमीन में गाड़ करके रखा हुआ है। भाई साहब! हमारे पास कुछ भी नहीं है, आप तलाश कर सकते हैं। यह कौन कहता है? यज्ञ कहता है। फिर हम यह पूछते हैं कि सवेरे से सैकड़ों आदमी आपको हवन कर रहे थे, कोई मिठाई खिला रहा था, कोई केला खिला रहा था, कोई सामग्री खिला रहा था। सब जगह से ढेरों आमदनी हो रही थी। इसका क्या हुआ? यज्ञ भगवान कहते हैं कि हम इसको बाँट देते हैं। जैसे-जैसे आया, हमने उसे तुरंत बाँट दिया। आपने आहुति दी और हमने तुरंत हवा में बिखेर दिया। आपने हमारे अंदर शक्कर डाली और हमने उसे तुरंत हवा में बिखेर दिया। आपने हमारे अंदर सुगंधित पदार्थ डाले और हमने तुरंत बिखेर दिया, जमा नहीं किया। आप तलाश कर लीजिए। भस्मांत ग्वं शरीरं—आप देख लीजिए, हमारे पास खाक है और कुछ नहीं है।

भगवान आया कि नहीं आचरण में

मित्रो! यज्ञीय जीवन इस तरह का होना चाहिए। यज्ञीय जीवन की यह परंपरा आपके व्यक्तिगत जीवन में हो तो मैं आपको संत कहूँगा और ऋषि कहूँगा। आप भजन कम करते हैं तो करें, कोई खास बात नहीं है। भजन-पूजन नहीं करते, तो बेटे! मैं आपसे भजन-पूजन की बहस नहीं करता। मैं तो यह कहता हूँ कि 'Work is Worship' अर्थात काम ही पूजा है। आपको याद है कि नहीं है, मैं आदमी की पूजा को माला से नहीं गिनना चाहता, वरन मैं यह देखना चाहता हूँ कि भगवान आपके जीवन में आ गया कि नहीं? आपके आचरण में आ गया कि नहीं? आपके आचरण में अगर भगवान नहीं है, आपके मन में अगर भगवान नहीं है, चिंतन में भगवान नहीं है, तो आपका माला वाला भगवान, पूजा की कोठरी वाला भगवान और चौकी पर बैठा हुआ भगवान किस काम का हो सकता है! मैं नहीं जानता कि उसका भी कोई उपयोग होगा कि नहीं होगा। ऐसा भगवान शायद मन बहलाने के काम भी आता हो; क्योंकि आदमी की तबीअत बहलाना भी एक बात है। थका हुआ आदमी, हैरान आदमी, घर से परेशान आदमी कई बार नशा पी करके भी अपना गम गलत कर लेता है। आपकी आत्मा को भी गम गलत करने के लिए शायद तीन मालाएँ काम भी दे जाएँ, ताकि आप आत्मा की भूख और आत्मा की पुकार को झुठला सकें। इसलिए संभव है कि आपका तीन माला का जप करना गम गलत करने के लिए किसी काम आ सकता हो, पर वास्तव में कुछ काम नहीं आ सकता। माला आपकी तभी काम आएगी, भजन आपका तभी काम आएगा, अग्निहोत्र आपका तभी काम आएगा, जब अग्निहोत्र के सारे के सारे सिद्धांतों को किसी न किसी तरह से पूरा न सही, कम सही, आपके जीवन में इनका समावेश हो। हमारा पुरोहित यही छह शिक्षण देता है। यदि यज्ञ करने वाले अपने जीवन में इन छह शिक्षाओं को धारण कर लें और यज्ञ कराने वाले, यज्ञ की शिक्षा देने वाले,यज्ञ का प्रकाश देने वाले, यज्ञ का सिद्धांत और उसकी फिलॉसफी का विस्तार करने वाले इन्हीं सिद्धांतों का विस्तार करने लगे तो मैं आपसे कहता हूँ कि दुनिया में वे सारी परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँगी, जिनके लिए हम सपने देखते हैं।

यज्ञाग्नि हमें समानता की ओर ले जाती है

मित्रो! यही देवत्व है। मनुष्य के भीतर देवत्व का उदय ही हमारा सपना है। जो हम आपसे कह रहे हैं, वही देवत्व के लक्षण हैं। सक्रियता देवत्व का लक्षण है। आदमी का ज्ञानवान होना देवत्व का लक्षण है। आदमी का सिर और आदमी का दिमाग ऊँचा रहना, ये देवत्व के लक्षण हैं। ज्ञानवान आदमी सबको अपने समान बना ले, यह देवत्व के लक्षण हैं। समानता के सिद्धांतों को ग्रहण करने की बात देवत्व के लक्षण हैं। आप समझते नहीं हैं, जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर, धन के आधार पर जो असमानता फैली हुई है, यह कितनी बुराइयों की जड़ है। लिंग के आधार पर असमानता कि यह स्त्री है और यह पुरुष है। मूँछें हैं तो पुरुष है और नहीं हैं तो नारी है, तो बेटे! हम क्या कर सकते हैं। आप में से ढेरों आदमियों के मूँछें नहीं हैं। हम भी औरत हैं, तो बेटे! इससे आपका क्या मतलब है? आदमी-आदमी एकसे होते हैं, अत: उनका अधिकार भी एकसा होना चाहिए। आदमी-आदमी के हुक्म, आदमी-आदमी की मर्यादा और आदमी-आदमी का पराक्रम एक जैसा होना चाहिए। मित्रो! यह क्या है? अग्नि की, यज्ञ की शिक्षा है। अग्नि बेटे! साम्यवादी है और ये सब कम्युनिस्ट हैं। नहीं साहब! कम्युनिस्ट नहीं हैं, अध्यात्मवादी हैं। चलिए, मैंने यह भी मान लिया कि समानता के मामले में अध्यात्मवादी और कम्युनिस्ट में कोई खास फरक नहीं है। वहाँ भी यह कहता है आत्मवत् सर्वभूतेषु—सबको अपने समान मानकर चलिए। हर आदमी को अपनी बराबरी का दरजा दीजिए। बेटे! ये समानता के सिद्धांत हैं। समानता चाहे आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक हो; चाहे साम्यवादियों की समानता हो, चाहे अध्यात्मवादियों की समानता हो; दोनों ही समानताएँ हमें वहाँ ले जाती हैं, जहाँ हमारी यज्ञाग्नि ले जाती है। जातिगत भिन्नताएँ, लिंगगत भिन्नताएँ, धनगत भिन्नताएँ, ऊँच-नीच की भावनाएँ जहाँ आ जाती हैं, वहाँ हमारा अध्यात्म मना करता है और हमारा पुरोहित मना करता है। ये मान्यताएँ वास्तविक नहीं हैं, अवास्तविक हैं। अनास्था वाली ये मान्यताएँ आध्यात्मिक नहीं हो सकती।

यह है यज्ञ का ज्ञान पक्ष

मित्रो! व्यक्ति का और सारे समाज का निर्माण करने के लिए हमको इन छह सिद्धांतों की जरूरत है, जिनका मैंने आपसे निवेदन किया। यज्ञ का यह कौन सा पक्ष है? ज्ञान पक्ष। ज्ञान पक्ष का विस्तार अगर आप कर पाएँ तो नया व्यक्ति बनाने में, मनुष्य के अंदर देवत्व जगाने में और नया समाज बनाने में हमको पूरी-पूरी सफलता मिल सकती है। अगर ये छह सिद्धांत, छह शिक्षाएँ, छह पाठ, छह उपदेश, छह व्याख्यान और छह ही पदार्थ दुनिया के सामने आ जाएँ तो मनुष्य में देवत्व उगने में देर नहीं लगेगी। यह पाँच अध्याय वाली सत्यनारायण की कथा है। गुरुजी! अभी तो आप पाँच कह रहे थे। बेटे! पाँच कह ले, छह कह ले, बात एक ही है। परिग्रह और वितरण, अपरिग्रह और वितरण, दोनों जुड़े हुए हैं। नहीं साहब! वे दो हैं। बेटे! दो मान लीजिए, छह मान लीजिए। आपसे कौन झगड़ा करेगा, बस, बात खतम हो जाती है। यज्ञ का ज्ञान वाला पक्ष, अग्निहोत्र का ज्ञान वाला पक्ष, जिसकी हम पूजा करते हैं, जिसको हम वेदी पर रखते हैं और यह कहते हैं कि पुरोहित! हमको ये शिक्षाएँ दीजिए। हम अग्निहोत्र भी करेंगे और आपकी नसीहतों को अपने जीवन में उतारने की और इन सिद्धांतों को सारी दुनिया में फैलाने की भी कोशिश करेंगे। यही हमारे अग्निहोत्र का आध्यात्मिक उद्देश्य है।

प्रदूषण-निवारण वाला विज्ञान पक्ष

अब आप उसका विज्ञान पक्ष सुन सकते हैं। किसका? यज्ञ का, जिसका हम प्रचार करने वाले हैं और जिसके लिए चौबीस लक्ष का पुरश्चरण करने के लिए आपको भेजने वाले हैं। हर जगह आपको यज्ञ करने का और यज्ञ कराने का मौका मिलेगा और आपके व्याख्यान करने पर जनता आपसे पूछेगी कि किसलिए आप हवन करा रहे हैं? हवन से क्या फायदा हो सकता है? ज्ञान पक्ष के नाम पर ये बातें, जो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ, आप लोगों को बता सकते हैं। अब यज्ञ का एक और पक्ष शुरू होता है। यज्ञ का, अग्निहोत्र का विज्ञान पक्ष क्या है? बेटे! यज्ञ का विज्ञान पक्ष यह है कि हम इस संसार में गंदगी फैला रहे हैं। आप इस संसार को मान लीजिए कि यह एक अच्छा-खासा तालाब है। इस तालाब में हमारा क्या काम है? जिस दिन से हमने जन्म लिया है, उस दिन से गंदगी फैला रहे हैं। कैसी गंदगी फैलाते हैं? हमारे शरीर में जितने भी सूराख हैं, सब गंदगी थूकते रहते हैं। हमारे मुँह में से थूक निकलता रहता है। नाक में से जो साँस निकलती है, आप पता लगा लीजिए, इसमें गंदी हवा रहती है। हम ऑक्सीजन खाते रहते हैं और हमारी नाक बराबर खराब हवा थूकती रहती है। हमारे मुँह में से बदबू निकलती रहती है और कफ निकलता रहता है, लार निकलती रहती है और पानी निकलता रहता है और नीचे वाले हिस्से तो निरंतर गंदगी फैलाते रहते हैं। हमारा एक सूराख टट्टी फैलाता रहता है और एक पेशाब उगलता रहता है। दूसरे छिद्र पसीने की बदबू फैलाते रहते हैं। हमारे शरीर में इतने ढेरों के ढेरों सूराख हैं, जो सब बदबू निकालते हैं। आदमी क्या निकालता है? बदबू। आदमी क्या है? बदबू। इसीलिए इस कमबख्त को बार-बार स्नान कराना पड़ता है। कभी तेल चुपड़ना पड़ता है, कभी कोई पाउडर चुपड़ना पड़ता है। कभी इत्र-फुलेल चुपड़ना पड़ता है।

दुर्गंध फैलाता है मनुष्य

मित्रो! यह बदबू का टोकरा है। कहीं ऐसा न हो कि इसकी वास्तविकता का पता चल जाए, इसलिए इसके ऊपर लीपा-पोती करते रहते हैं। गंदी जगहों पर फिनायल डालते रहते हैं, जिसकी गंध की वजह से बदबू दब जाती है। फिनायल डालने का यही मतलब है ना? हाँ साहब! यही मतलब है और बेटे! यह जो सेंट लगाते रहते हैं, यह किसलिए लगाते हैं? इसलिए कि इस शरीर से चौबीस घंटे जो बदबू निकलती रहती है, उस बदबू का किसी को पता न चले और यह बदबू खुशबू में चली जाए। अच्छा तो आप चालाकी कर रहे थे? बिलकुल, हमारा और कोई मतलब ही नहीं था, नहीं तो हम सेंट क्यों लगाते? हम सुपरलक्स क्यों लगाते? हम तो इसीलिए लगाते थे कि चौबीसों घंटे यह जो बदबू निकलती रहती है, इसे किसी तरह से दबाएँ तो सही, और लोगों को पता न चले, मालूम न पड़े। साँस में से बदबू आती है, इसलिए पान खाते हैं। इलायची चबाते रहते हैं। और बहुत सी चीजें चबाते रहते हैं, क्योंकि हमारे मुँह मे से बदबू निकलती रहती है, जिसकी किसी तरीके से रोक-थाम हो जाए। अच्छा, अब मैं समझ गया। चौबीसों घंटे बदबू उगलने वाला इनसान सारी की सारी हवा में कितनी गंदगी फैलाता होगा। अगर कभी आप बैठें और गणित के हिसाब से देखें कि हर क्षण इन सारे के सारे सूराखों से, जिसमें पसीने के सूराख भी शामिल हैं, कितनी सारी बदबू निकलती है और आदमी अपनी संपूर्ण जिंदगी में कितनी सारी बदबू निकाल देता है।

यज्ञ एक प्रकार से सफाई टैक्स है

मित्रो! आपके शरीर में से चौबीसों घंटे बदबू निकलती रहती है, आप इसका सफाई टैक्स अदा कीजिए। सफाई टैक्स आवश्यक है? हाँ भाई साहब! सफाई टैक्स आवश्यक है। यदि सफाई टैक्स आप नहीं देते तो चुंगी वाला आपको गिरफ्तार करेगा, समाज आपकी निंदा करेगा और आप आध्यात्मिक दृष्टि से भी गुनाहगार साबित होंगे। अतः आप टैक्स अदा करें, ताकि जिस हवा में से आपने अच्छी हवा ले करके खराब हवा पैदा कर दी है, उसके स्थान पर उसका कर्ज चुका देने के लिए, बैलेंस बराबर कर देने के लिए आपको टैक्स अदा कर देना चाहिए। यह क्या है? यह विज्ञान है। गंदगी को दूर करने के लिए अच्छी सुगंध फैलाना क्या है? यह हमारा फर्ज है और हमारा नागरिक कर्तव्य है, ताकि समाज से जब हम विदा हों तो हमारा बैलेंस बराबर हो जाए। गंदगी कितनी फैलाई—सौ मन। सौ मन सुगंध तो हम नहीं फैला सके, तो भी चलिए नौ मन तो फैलाई। ईमान तो है कि हमको सुगंध फैलानी है। इसमें और अधिक गंदगी से जो नुकसान होता है, उसे भी पूरा करना है। यह आवश्यक है, कंपलसरी है। इसलिए हमारे यहाँ बताया गया है कि हर आदमी के लिए यज्ञ एक आवश्यक दैनिक कृत्य है; क्योंकि आदमी गंदगी नित्य फैलाता है, इसलिए सुगंध के लिए भी नित्य प्रयत्न करना चाहिए। यह वायु संशोधन का काम नंबर एक हुआ। इसकी वजह से, विज्ञान की दृष्टि से हमारे लिए यह आवश्यक है कि अगर आप हवन नहीं करेंगे, वायु का संशोधन नहीं करेंगे, तो फिर आप देख लेना, वायु में प्रदूषण की शिकायत रोज बढ़ती ही जाएगी। मशीनें गंदगी फैलाती हैं, फैक्टरियाँ गंदगी फैलाती हैं। भाई साहब! ये जितनी गंदगी फैलाती हैं, सो तो है ही, पर इतने इनसानों द्वारा—चार सौ करोड़ इनसानों द्वारा कितनी गंदगी फैलती है, अगर आपने कभी इसका हिसाब लगाया होता तो आपकी समझ में आ जाता। मैं मानता हूँ कि फैक्टरियाँ गंदगी फैलाती हैं, पर इनसान भी खूब गंदगी फैलाते हैं। इनसानों द्वारा गंदगी फैलाने का निराकरण करना हमारा नागरिक कर्तव्य है, हमारा सामाजिक कर्तव्य है और हमारा नैतिक कर्तव्य है अर्थात यज्ञ हमारा नैतिक कर्त्तव्य है।

(क्रमश:)

मित्रो! हमारा एक और भी कर्त्तव्य है और वह है—नीयत, आध्यात्मिक नीयत हमारे पास बनी रहनी चाहिए। यह क्या है? यह कि हम बाँटकर खाएँगे, इस बात का बराबर ध्यान बना रहना चाहिए। बाँटकर खाने का तरीका क्या हो सकता है? बेटे! बाँटकर खाने का तरीका यज्ञ से ज्यादा शानदार और कोई नहीं हो सकता। कैसे? इस रूप में कि जो कुछ भी आपने हवन किया, उसका क्या हुआ? साहब! वह तो जल गया, नष्ट हो गया। यह बात तो आप अपनी आँखों के हिसाब से कह सकते हैं, किंतु साइंस के प्वाइंट ऑफ व्यू से ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मैटर या पदार्थ, जो भी संसार में है, वह कभी खत्म नहीं होता। केवल उसकी शक्लें बदलती रहती हैं। दुनिया का सारा मैटर तीन शक्लों में बदलता रहता है—Solid, Liquid और Gas अर्थात ठोस, द्रव और गैस। इन्हीं तीनों में हेर-फेर होता रहता है। पानी कभी बरफ बन जाता है। धूप में इसे रख देते हैं तो पानी बन जाता है। आग पर चढ़ा देते हैं तो हवा अर्थात भाप बन जाता है। पानी कहाँ है? है तो सही पानी, पर यही कभी बरफ बन जाता है, कभी पीने लायक पानी बन जाता है तो कभी हवा बनकर गायब हो जाता है। पानी कहीं नहीं जाता, घूमता रहता है। यह नष्ट नहीं होता। हम जिन पदार्थों का हवन करते हैं, वे वायुभूत हो जाते हैं। वायुभूत होने के बाद क्या होता है? इसमें सब आदमी हिस्सेदार हो जाते हैं। हरेक आदमी हिस्सेदार हो जाता है। इन चीजों को जब हम हवन द्वारा हवा में शामिल कर देते हैं तो ये हर आदमी के खाने के काम आ सकती हैं। हर जानवर के हिस्से में चली जाती हैं। ऋषि और संतों के भी काम आ सकती हैं। दुनिया में जितने भी अच्छे से अच्छे आदमी हैं, उन सब तक हमारी चीजें जा सकती हैं।

यज्ञं उ देवानाम् अन्न:

गुरुजी! हमको तो आपको दावत देनी थी। आप हमारे घर आएँ तो हम आपको भोजन कराएँ। नहीं भाई साहब! हम तो कहीं भी नहीं खा सकते। एक बार आप कृपा करें और अगर आप भोजन करें तो हम अपने हाथ से बनाकर देंगे। बेटे! मैं तो किसी के हाथ का खाता ही नहीं, फिर तेरे हाथ का बना कैसे लेंगे! तो आप नहीं खाएँगे? हाँ बेटे! नहीं खा सकते। नहीं साहब! हमारी तो बड़ी इच्छा थी कि हम आपको भोजन करा दें। बेटे! तेरी इच्छा है तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरी भी कुछ मर्यादा है, नियम हैं। चौबीस साल में भी ढेरों आदमियों ने कहा था कि आप हमारे यहाँ का भोजन कर लीजिए। नहीं बेटे! मैं जौ की रोटी खाता हूँ। जौ हम मँगा देंगे। नहीं, मैं आपका नहीं खा सकता, मुझे अपना ही खाना चाहिए। आप खाएँगे नहीं? हाँ, हम नहीं खाएँगे। तो आप छुआछूत मानते हैं? नहीं बेटे! हम छुआछूत नहीं मानते, पर खाएँगे नहीं। अच्छा, आप नहीं खाते तो अपने गुरुजी को खिलवा दीजिए। बेटे! हमारे गुरुजी अनाज भी नहीं खाते। नहीं साहब! हमारा तो मन है कि अगर ऐसे महात्मा हमारा भोजन खा लें तो उसका बड़ा पुण्य मिल सकता है। तो बेटे! खिलाने का एक और तरीका है। क्या तरीका है? तू ऐसा कर, जो भी चीज तुझे खिलानी हो, उसे तू हवन कर दे। हवन करने से वे चीजें हवा में फैलती हुई चली जाएँगी और दुनिया में जितने भी प्राणी हैं, हरेक के हिस्से में चली जाएँगी। तादाद थोड़ी है कि ज्यादा, यह बहस मैं आपसे नहीं करता, पर आपकी चीज के हिस्सेदार हरेक हो जाएँगे।

सारी वसुधा की हिस्सेदारी

तो महाराज जी! आपके गुरुजी भी हिस्सेदार हो जाएँगे? हाँ, हमारे गुरुजी भी आपके भोजन को जरूर खाएँगे, मना नहीं कर सकते। आप भी खाएँगे? बेटे! हम भी खाएँगे, इच्छा से या बिना इच्छा से खाएँगे। नाक के हिस्से से हवा घुसेगी, जिसमें आपका घी भी मिला हुआ होगा। उसमें से इसे हम कैसे अलग कर सकते हैं? अत: हमारे हिस्से में भी चला जाएगा। प्राणियों से लेकर पशु-पक्षियों तक, संतों, ऋषियों से लेकर सिद्धपुरुषों तक, सारे संसार में चार सौ करोड़ इनसान रहते हैं, उन तक एवं चौरासी लाख योनियों में न जाने कितने प्राणी रहते हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती, उन सारे के सारे प्राणियों को अगर आपको भोजन कराना हो, सारे विश्व को ब्रह्मभोज कराना हो तो आप हवन कीजिए, यज्ञ कीजिए, अग्निहोत्र कीजिए। उस रोज मैं आपसे राजा भोज की कहानी कह रहा था कि एक दिन उनने सारे नगर को इसी तरह की एक दावत दी थी। अगर आप भी सारे विश्व को दावत देना चाहें कि हम सारी दुनिया के प्रत्येक प्राणी को खिलाएँगे। कितना खिलाएँगे, यह तो मैं बहस नहीं करता कि आपने रत्ती भर खिलाया अथवा एक किलोग्राम खिलाया, पर सारा विश्व आपका हिस्सेदार जरूर हो गया। आपके हिस्से में हर आदमी ने हिस्सा बँटा लिया और सबने खा लिया। क्या ऐसा तरीका हो सकता है? हाँ बेटे! ऐसा तरीका हवन का ही हो सकता है, जिसमें हम सारी दुनिया को अपने यहाँ बुला सकते हैं और उसे खिला सकते हैं।

यज्ञोपैथी शानदार चिकित्सापद्धति

गुरुजी! हवन और किस काम आ सकता है? बेटे! हवन और भी कई काम आ सकता है। शारीरिक-मानसिक रोगों के निवारण में भी काम आ सकता है। जब मैं गहराई से विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि प्राचीन काल में यज्ञ की पैथी जितनी शानदार थी, वैसी पैथी फिर दोबारा कभी नहीं बनी। यज्ञोपैथी से बीमारियों को दूर करने के लिए बरेली के मशहूर डॉक्टर कुंदनलाल अग्निहोत्री ने बहुत सारा रिसर्च किया था। जब वे जबलपुर में सिविल सर्जन थे, तभी उन्होंने प्रयोग किए थे। बरेली में आकर उन्होंने फिर ढेर सारा रिसर्च किया और पाया कि जो मुश्किल से मुश्किल बीमारियाँ हैं, वे यज्ञोपैथी से ठीक हो सकती हैं। बेटे! हवन की साइंस हाथ से चली गई, अगर फिर से उस साइंस को काम में लाया जा सके तो मैं सोचता हूँ कि बीमारियों को ठीक करने का इससे अच्छा इलाज और कोई नहीं हो सकता। क्यों? इसलिए कि आज की साइंस इस बात पर चली जा रही है कि जो चीजें जितनी सूक्ष्म बना दी जाएँगी, उतनी ही ज्यादा फायदेमंद होंगी। आप में से किसी ने होम्योपैथी पढ़ी हो तो जानते होंगे कि चीजों को जितना बारीक बना दिया जाएगा, सूक्ष्म बना दिया जाएगा, उतनी ज्यादा वे ताकतवर हो जाती हैं। आप लोगों में से किसी ने डीशेन की दवा खाई है? डीशेन कौन था? डीशेन बेटे! एक दक्षिण की कंपनी है। वह एक पदार्थ ले लेती है और इतना पीसती है कि उसे अत्यंत सूक्ष्म बना देती है। वह कंपनी कहती है कि सूक्ष्म बनाने के बाद में थोड़ी से थोड़ी या छोटी से छोटी चीज भी बहुत फायदेमंद होती है।

सूक्ष्मीकरण का चमत्कार

मित्रो! हमारे पिताजी अपने इलाके के अच्छे वाले चिकित्सक माने जाते थे। पैसा तो वे कभी किसी से लेते नहीं थे, लेकिन जिस गाँव के लोगों का इलाज होता था, उस गाँव में शाम को वे, एक बड़ी घोड़ी थी उनके पास, उस पर बैठकर दौरा करने जाते थे। उन्हीं के घरों पर रोगी को दवा देते थे, मरीजों को देखते थे, पर पैसा किसी से नहीं लेते थे। तो फिर गुजारा किस तरह से होता था? इस तरह से होता था कि जब गाँव का कोई खाते-पीते परिवार का आदमी अच्छा हो गया तो इशारा कर देते थे कि हमारी सत्यनारायण की, भागवत की कथा कहलवा दे। अच्छा पंडित जी! आप हमारे यहाँ कथा कहिए। कथा में जो देना हो, दे देना, पर दवा के पैसे हम नहीं लेंगे। अच्छा पंडित जी। तो आप अमुक दिन को हमारे गाँव में आ जाना। सारे गाँव में खबर कर दी कि वे आँवलखेड़ा वाले पंडित जी आ रहे हैं, आप लोग कथा में चलिए। कथा में आपको भी जो चढ़ाना हो, चढ़ा दीजिए। दो बार वे आपके घर आ चुके हैं। फीस तो वे एक पैसा भी नहीं लेते, लेकिन आपका भी कुछ कर्तव्य है। अब कथा हो रही है, आप भी कुछ चढ़ाइए। सारे गाँव के लोग कुछ न कुछ चढ़ाते थे और उस जमाने में रुपया बहुत बड़ा होता था, पाँच-पाँच रुपये एक-एक गाँव में से आ जाते थे। उनने उसी से जायदाद खरीदी थी। दो हजार बीघे जमीन छोड़कर वे मरे थे। वह सारा का सारा पैसा उन भागवत कथाओं में से आ गया था। फिर वे क्या करते थे? बड़ा भारी इलाज करते थे। उनके इलाज का क्या कहना! जो कोई भी आए, उनके इलाज से अच्छे होते चले जाते।

चौंसठ पहरी पीपर

क्या करते थे वे? क्या देते थे? बेटे! उनके पास एक दवा थी। क्या दवा थी? वे चौंसठ पहरी पीपर बनाते थे। चौंसठ पहरी पीपर कैसे बनाई जाती है? इस पीपर-पिप्पली को चौंसठ पहर अर्थात आठ दिन तक लगातार घुटाई करते थे। लगातार घुटाई के मायने एक सेकंड के लिए भी खल-बट्टे की घुटाई बंद नहीं होती थी। कभी उसमें अदरक का रस डाल रहे हैं, तो कभी तुलसी का रस, तो कभी अमुक का रस डालकर बराबर घोटते रहते थे। जब तक वह रस सूखने पाए, इससे पहले और किसी का रस डाल देते थे। इस तरह चौंसठ पहर—आठ दिन तक दवा बनती रहती थी। भाई साहब! दवाई बन रही है, आप अपने घर से दो आदमियों को भेज दीजिए। बस, नंबर से लोग आते जाते और अपनी ड्यूटी देते जाते थे और पीपर की घुटाई होती रहती थी। वह दवा जितनी शानदार बनती थी, उतनी ही ज्यादा कारगर भी थी। लोग कहते थे कि पंडित जी के हाथ में अमृत है। यह अमृत क्यों था? यह अत्यंत सूक्ष्म था। वह पिप्पली को सूक्ष्म बनाते थे। मित्रो! मैं यह कहता हूँ कि किसी तरीके से यदि लोगों को सूक्ष्मीकरण का सिद्धांत हाथ लग गया तो आप विश्वास रखिए, लोगों की हर तरह की बीमारी को दूर करने का एक बहुत अच्छा तरीका हाथ में आ जाएगा। होम्योपैथी वाले इस दिशा में चले, डीशेन वाले इस दिशा में चले। प्राचीनकाल के लोग चले थे, लेकिन आगे जाकर के वह विद्या विलुप्त हो गई। आज जो दवाएँ हम खाते हैं, वे पेट में जाती हैं, हजम होती हैं और हजम होने के बाद शरीर में प्रवेश करती हैं। अगर न हजम हुई तो पाखाने के साथ बाहर निकल जाती हैं। इसके बाद इंजेक्शन का तरीका प्रयोग में आया। इसे खून में शामिल कर देते हैं, इंजेक्शन के द्वारा। वह भी खून में जाने के बाद फायदा किया कि नहीं? नहीं हुआ तो वह भी मल के साथ बाहर निकल गया।

श्रेष्ठतम माध्यम : औषधि पहुँचने का

मित्रो! शरीर में दवा पहुँचाने का एक और तरीका है—साँस के द्वारा वायुभूत रूप में। अगर इस रूप में दवा अंदर पहुँचाई जा सके तो वह खून तक ही सीमित नहीं रहेगी, वरन जहाँ खून से भी ज्यादा बारीक जगह है, वहाँ भी वह वायुभूत रूप में पहुँच जाती है। हवा हमारे शरीर के हर हिस्से में पहुँचती है। खून कहीं पहुँच पाता है, कहीं नहीं पहुँच पाता है। हड्डी के बहुत कड़े वाले हिस्से ऐसे हैं, जहाँ खून नहीं पहुँच पाता या बहुत कम जाता है, लेकिन हवा वहाँ भी पहुँचती रहती है। शरीर में जितने भी कण हैं, इनके बीच में थोड़ा-थोड़ा स्पेस है और इस स्पेस में हवा भरी रहती है। हवा नहीं जाए तो सफाई नहीं हो सकती, पदार्थों को आगे धकेलना संभव नहीं हो सकता और यदि वैक्यूम हो जाए, आकाश न हो, पोल न हो, हवा न हो तो हमारा शरीर जड़ हो जाए, लकड़ी हो जाए और लोहा हो जाए।

असाध्य रोगों की भी चिकित्सा

मित्रो! मैं यह निवेदन कर रहा था कि यज्ञ प्राचीनकाल में ऐसा माध्यम था, जिससे बीमारियाँ अच्छी हो जाती थीं। कौन सी बीमारियाँ अच्छी हो जाती थीं? बहुत सी बीमारियों का जिक्र आता था। दशरथ जी के यहाँ कोई संतान नहीं होती थी। तीनों रानियों में से किसी के संतान नहीं होती थी। क्या था? बेटे! ऐसे ही कोई बीमारी रही होगी। जब उनको चरु खिलाया गया, तब क्या हुआ? उनके बाल-बच्चे होने लगे। यह क्या चीज है? यह यज्ञीय परंपरा की बात है। यह लाइलाज बीमारियों के भी काम आ सकती है। पहले भी आती थी और फिर से आगे भी काम आने की संभावना है। प्राचीनकाल में यज्ञ एक साइंटिफिक ढंग से इलाज करने का तरीका था और हमारा ख्याल है कि अगले दिनों आपकी यह संस्था इसके लिए रिसर्च करने वाली है, खोज करने वाली है। शायद अब तक जितनी खोज होम्योपैथी ने की हो, एलोपैथी ने की हो, आयुर्वेद ने खोज की हो, इसमें हमने बहुत सारा श्रम लगाया है, लेकिन अगले दिनों हम यज्ञोपैथी का फिर से रिसर्च करने वाले हैं। शायद अगले वर्ष से ही हम शुरू कर सकें। इससे हम दुनिया के सारे रोगों का निवारण करने के लिए बहुत अच्छा तरीका ग्रहण कर सकते हैं। अभी भी आपका जैसा भी यज्ञ का तरीका है, आप हवन के नजदीक जाते रहें, हवन में आप बैठते रहें तो आपकी बहुत सारी बीमारियाँ इससे ठीक हो सकती हैं।

यज्ञ के द्वारा सोलह इंजेक्शन

प्राचीनकाल में यज्ञ मानसिक बीमारियों के इलाज के काम भी आता था—महायज्ञैश्च-यज्ञैश्च ब्राह्मीय क्रियते तनुः। हवन के संपर्क में आने पर आदमी के दिमाग, आदमी की समझ और आदमी की अक्ल में बहुत फर्क पड़ सकता है। अक्ल की कैसी भी दवाइयाँ अभी नहीं हैं। पागलपन की तो दवाइयाँ हैं। जब कोई आदमी पागल हो जाता है तो मेंटल हॉस्पिटल वाले बिजली का करेंट लगा देते हैं। एपीलेप्सी या मिरगी जैसा कोई चक्कर आदि आने लगता है तो उसमें ट्रैक्युलाइजर की तरह कई हलकी व तेज किस्म की दवाइयाँ हैं। इस तरह की तेज नशीली दवाइयाँ खिलाते रहते हैं, जिसकी वजह से दिमाग में यह चक्कर आने की बीमारी, मिरगी आने की बीमारी कुछ हलकी पड़ जाती है। यह क्या चीज है? बेटे! यह हिचकी की तरह है, जो आदमी को दौरा पड़ता है। इसका इलाज भी तो कुछ नहीं है। आदमी को गुस्सा आता है, स्वार्थी है, चोर है, चालाक है, षड्यंत्र करता रहता है, जलन में कुढ़ता रहता है। यह भी मानसिक बीमारी है। आज इसका कोई इलाज नहीं है। प्राचीनकाल में था और वह था यज्ञीय इलाज। यज्ञ के संपर्क में आने से मनुष्य के विचार सही होते थे। इसलिए मनुष्य को सोलह बार यज्ञ के समीप जाना पड़ता था। इस तरह एक प्रकार से मनुष्य को सोलह इंजेक्शन लगाने पड़ते थे, ताकि उसका मानसिक स्तर अच्छा बना रहे।

देवभूमि भारत की समग्र चिकित्सापद्धति

मित्रो! भारतीय भूमि को देवभूमि बनाने और भारतीय नागरिकों को देवतुल्य बनाने में जहाँ शिक्षा का प्रसंग रहा होगा और जहाँ अन्य बातों का प्रसंग रहा होगा तो मैं विचार करता हूँ कि वहीं यज्ञीय प्रणाली के संपर्क में लोगों के आने का भी विचार रहा होगा; क्योंकि हर आदमी को ब्राह्मण के छह कर्म जो थे, करना अनिवार्य था। इनमें से एक यज्ञ करना और कराना भी था। यज्ञ करना प्रत्येक वर्ण का कर्तव्य था, हर व्यक्ति का कर्तव्य था। बलिवैश्व हरेक के लिए अनिवार्य कर्तव्य था। केवल त्योहारों, संस्कारों, पर्वों के समय ही नहीं, वरन दैनिक जीवन, रोज के जीवन में बलिवैश्व करना अनिवार्य था। जिस बलिवैश्व को करने के लिए हम प्रचार करते हैं और आपको दैनिक जीवन में सम्मिलित करने के लिए कहते हैं, यह हमारे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बीमारियों को दूर करता है। यद्यपि आध्यात्मिक बीमारियाँ तो कुछ और ही होती हैं, जिनको हम अनास्था कह सकते हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी बीमारियाँ हैं, जिनको हम निष्ठुरता कह सकते हैं, संवेदनहीनता कह सकते हैं, अनुदारता कह सकते हैं। ये सब आध्यात्मिक बीमारियाँ हैं। गुस्सा आने से लेकर चिंता करने तक, ये सभी मानसिक बीमारियाँ हैं, मानसिक विकृतियाँ हैं। बुखार, खाँसी शारीरिक बीमारियाँ हैं। तीनों तरह की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बीमारियों का इलाज करने के लिए यज्ञ की कैसी चिकित्सापद्धति हो सकती है, आप समझ सकते हैं। किसी जमाने में यह प्रचलन में थी और आगे फिर से वही यज्ञीय चिकित्सा पद्धति काम आ सकती है। यज्ञ मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रोगों के उपचार करने में अगर समर्थ हो सके तो आप देखेंगे और पाएँगे कि आदमी की आधी से ज्यादा समस्याओं का समाधान हो गया।

यज्ञ से पर्जन्य की उत्पत्ति

मित्रो! यज्ञ केवल रोगों का ही समाधान नहीं करता और हवन न केवल सुगंध फैलाता है, वरन इसके अंदर और भी विशेषताएँ हैं। यज्ञ के बारे में अन्यान्य पुस्तकों में भी यह बात लिखी हुई है—यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः। (श्रीमद्भगवद्गीता-३/१४) अर्थात यज्ञ से पर्जन्य पैदा होता है। पर्जन्य का अर्थ लोगों ने बादल मान लिया है, जो कि सही नहीं है। हवन से बादल आते हैं? बेटे! यह बात सही नहीं है। हवन से अगर बादल आते होते तो हमने बहुत से बादलों को बुला लिया होता और बहुत से बादलों को भगा दिया होता। पर्जन्य का मतलब बादल से नहीं है, तो फिर क्या मतलब है? पर्जन्य से मतलब है—प्राण। प्राण क्या होता है? प्राण वह तत्त्व है, जो कि पानी के साथ में शामिल होकर जब जमीन पर बरसता है तो घास मजबूत होती है, अनाज मजबूत होता है। फल प्राणवान होते हैं। अनाज आदि के अंदर विटामिन्स ज्यादा होते हैं। ताकत ज्यादा होती है, जिसको खा करके आदमी जाने कैसे बन जाते थे। जड़ी-बूटियाँ भी ऐसी ही थीं। च्यवनप्राश अवलेह की जड़ी-बूटियाँ ऐसी ताकतवर होती थीं, जिनको खाकर के बुड्ढे आदमी भी जवान हो जाते थे। आज तो बुड्ढे क्या, जवान भी इसे खाकर के जवान नहीं होते। क्यों साहब! च्यवनप्राश खाने से क्या होगा? आप बुड्ढे से जवान हो जाएँगे। अच्छा, लाइए, एक डिब्बा हमको भी दे दीजिए। खा लिया? हाँ, खा लिया। क्यों साहब! जवान हुए कि बुड्ढे? नहीं साहब! न बुड्ढे से जवान हुए और न जवान से बुड्ढे हुए। इसमें क्या है? कुछ नहीं। इसमें आँवले की चटनी और गुड़ मिला है। दोनों को मिला दीजिए। अगर इसका जायका आपको अच्छा न लगता हो तो पंसारी की दुकान पर चले जाइए और उससे कहिए कि भाई साहब! आप दुकान में रोज झाड़ लगाते हैं। उसमें जो कुछ अल्लम-सल्लम निकलता है, उसे हमें दे दीजिए। इसे कूटकर हम च्यवनप्राश में मिला लेंगे। बस, स्वादिष्ट च्यवनप्राश अवलेह तैयार हो गया।

प्राण के अभाव में सत्त्व चला गया

बेटे! अबके च्यवनप्राश बनाने में जो जड़ी-बूटियाँ पड़ती हैं, वे भी फायदा नहीं करतीं। नहीं साहब! उसमें अष्टवर्ग की जड़ी-बूटियाँ पड़ती हैं। ठीक है, अगर अष्टवर्ग मिलता है, जो इस दवा की खास जड़ी-बूटियाँ हैं, तो हम मँगा देंगे, पर इससे न आप बुड्ढे होंगे और न जवान। हाँ, थोड़ी ताकत आ भी सकती है। क्यों साहब! यह क्या बात हो गई? क्या ऋषियों ने झूठ बोला? नहीं बेटे! ऋषियों ने झूठ नहीं बोला। प्राचीनकाल में जो वर्षा होती थी, उसके साथ में प्राण-पर्जन्य बरसता था। प्राण बरसने के बाद में जो घास पैदा होती थी, उसे खाने के बाद में जानवरों का जो दूध और घी होता था, वह जाने कैसा होता था! अमृत जैसा होता था। अनाज, जो पैदा होते थे, उनके अंदर वो ताकत होती थी, जिसको खाकर बादाम के तरीके से ताकत प्राप्त करके आदमी मजबूत होते थे। आज भी अनाज तो वही है, जड़ी-बूटियों की शक्ल भी वही है, और चीजों की शक्ल वही है, पर वे प्राणहीन होती चली जा रही हैं, निष्प्राण होती चली जा रही हैं। प्राचीनकाल में जब यज्ञ होते थे, तब प्राणों की वर्षा होती थी। बादलों के साथ प्राणों की वर्षा होती थी, हवा के साथ प्राणों की वर्षा होती थी। दोनों तरीके से वर्षा होती थी। प्राण केवल पानी के साथ ही नहीं बरसता था, हवा के साथ ही नहीं बरसता था, ऑक्सीजन भी बरसती थी। आज ऑक्सीजन की कितनी घट-बढ़ है, हवा में इसकी मात्रा कितनी कम है, आप देख रहे हैं। हवा बड़ी खराब है। पहाड़ की हवा अच्छी है, चले जाइए, वहाँ अच्छे हो जाएँगे। वहाँ क्या बात है? वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होती है और यहाँ ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। गीलापन ज्यादा होता है। तब हवा के अंदर भी प्राण होता था, जिसको पर्जन्य कहते हैं और वर्षा के अंदर भी प्राण होता था, जिसको हम पर्जन्य कहते हैं। दोनों वाले पर्जन्य होते थे। आदमी के सांसारिक जीवन के लिए, स्वास्थ्य के लिए, मजबूती के लिए, दीर्घ जीवन के लिए, नीरोगिता के लिए—ये सारी की सारी चीजें काम आती थीं।

यज्ञ से लाभ अधिक

मित्रो! हम जो हवन करते हैं, उसमें पैसे की दृष्टि से नुकसान तो जरूर होता है, पर मैं सोचता हूँ कि लाभ इससे ज्यादा होता है। दूध पीने की जगह आप पाँच सी०सी० का मिल्क इंजेक्शन लगा लें तो आप विश्वास रखिए, उससे आपको ज्यादा फायदा हो सकता है। आप एक गिलास दूध पी लीजिए। क्यों भाई! कुछ ताकत आई कि नहीं? अरे साहब! अभी तो एक किलो ही पिया है। अभी ताकत दिखाई नहीं पड़ती। अच्छा तो हमारे पास आइए। हम आपको मिल्क का इंजेक्शन लगाते हैं। मिल्क इंजेक्शन क्या होता है? दूध की छोटी-छोटी ट्यूब आती हैं। आप इन्हें केमिस्ट के यहाँ से खरीद सकते हैं और डॉक्टर के पास जाकर उससे कह सकते हैं कि डॉक्टर साहब! आप हमारी नस में पाँच सी०सी० का यह इंजेक्शन लगा दीजिए। मिल्क इंजेक्शन लगाते ही आपको मालूम पड़ेगा कि जिस तरह से शराब पीकर के आदमी खड़ा हो जाता है, उसी तरह से आप चलने लगे। यह क्या हो गया? पाँच सी०सी० दूध इतना होता है—एक-दो चम्मच के बराबर। पता चला कि दो चम्मच दूध आपके पेट में सूक्ष्म रूप में पहुँचा और कमाल दिखा दिया। इसीलिए मैं कहता हूँ कि यज्ञ के द्वारा जब पदार्थ, वस्तुएँ, दवाएँ, वनौषधियाँ वायुभूत होकर सूक्ष्म रूप से हमारे जीवन में पहुँचती हैं, तो आदमी के भौतिक और आत्मिक, दोनों जीवनों के लिए बड़ी शानदार बन सकती हैं।

क्रमशः (समापन अगले अंक में)

परिशोधन भी, पोषण भी

मित्रो! प्राण-पर्जन्य हमारे लिए परिशोधन का काम कर सकता है। हमारे लिए शक्ति-संचार का काम कर सकता है। कौन सा पर्जन्य? जो यज्ञ द्वारा निर्मित होता है। यज्ञ का पहला वाला हिस्सा रोग-निवारण का था, जो रोगाणुओं-विषाणुओं को मारता है; जो बीमारियों को मारता है; जो गंदगी को मारता है। इसका एक हिस्सा मारक है और एक हिस्सा संवर्द्धक—पैदा करने वाला। इस तरह यज्ञ संवर्द्धक भी है और मारक भी है। भगवान मारक भी हैं और भगवान संवर्द्धनकर्ता भी। वे जब अवतार लेते हैं तो विनाश भी करते हैं—परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् (गीता-४/८) अर्थात वे विनाश भी करते हैं और संवर्द्धन भी करते हैं। परित्राणाय साधूनां—वे विकास के अतिरिक्त विनाश भी करते हैं। यज्ञ के अंदर भी दोनों प्रक्रियाएँ हैं। जो हमारे संसार में अवांछनीयताएँ हैं, वह उनका भी विनाश करता है और जो श्रेष्ठताएँ हैं, उनका संवर्द्धन भी करता है। इसलिए यज्ञ हमारे भौतिक और आर्थिक जीवन की दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने वाला है। अगर आप इस बात को समझें और निष्कर्ष निकालें तो आप यह समझ सकते हैं कि भौतिक दृष्टि से इससे वातावरण संशोधित होता है, वायु शुद्ध होती है; यद्यपि वायु का शुद्ध होना उतना बड़ा काम नहीं है, जितना कि वातावरण का परिशोधन होना। वातावरण का परिशोधन होना भी एक बड़ा काम है।

वातावरण का निर्माण

वातावरण किसे कहते हैं? हवा को तो वायुमंडल कहते हैं। वातावरण उसे कहते हैं कि लोगों के दिमाग में एक खास तरह का प्रवाह, एक खास तरह का विचार प्रवाह छाया रहता है। किसी जमाने में—लड़ाई के जमाने में लड़ाई का वातावरण छाया रहता था। फाल्गुन के महीने में नाच-कूद का वातावरण, ब्याह-शादी में हँसी-मजाक का वातावरण छाया रहता है। ये वातावरण ही होते हैं, जो अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हैं। व्यापक वातावरण मनुष्य जाति को बहुत लाभ पहुँचाता है। व्यापक वातावरण पैदा करने के लिए व्यापक स्तर पर कार्य किए जाते हैं, उच्चस्तरीय विचार-प्रवाह फैलाए जाते हैं। व्यापक वातावरण कैसे पैदा किए जाते हैं, चलिए मैं बताता हूँ। भगवान राम कौन थे? भगवान राम का सारा जीवन यज्ञ के लिए व्यतीत हो गया। यज्ञ से ही वे पैदा हुए और यज्ञ में ही समा गए। कैसे? बेटे! देख, मैं यज्ञ की बात कहता हूँ। रामचंद्र जी जब पैदा हुए थे, तब यज्ञ से पैदा हुए थे। विश्वामित्र उन्हें अपनी यज्ञ-रक्षा के लिए ले गए थे। नहीं साहब! किसी और सिपाही को भेज दीजिए। सिपाही तो नहीं हैं। भाई साहब! आपको यज्ञ की रक्षा के लिए चलना पड़ेगा। विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा करने और यज्ञीय वातावरण में रहने के लिए रामचंद्र जी ने अपनी जान हथेली पर रखी और वहाँ काम करने लगे। वहाँ बने रहे। फिर क्या किया? उनका ब्याह हुआ। वह भी एक यज्ञ में हुआ। आपने सुना होगा कि राजा जनक ने धनुष यज्ञ रचाया था। इसमें उनका ब्याह हुआ। फिर क्या हुआ? फिर जो उनकी सीता जी थीं, जब उनको रावण ले जाने वाला था तो उन्होंने कहा कि आप वहाँ जाएँगी, तो बड़ी मुश्किल पड़ जाएगी। आपको रावण बहुत तंग करेगा। अत: ऐसा कीजिए कि आपको यज्ञ भगवान के सुपुर्द कर देते हैं और आपकी जगह एक नकली सीता बनाकर रावण के घर भेज देते हैं।

सूक्ष्मजगत भी प्रभावित

मित्रो! वाल्मीकि रामायण में एक कथा आती है कि यज्ञाग्नि में सीता जी ने प्रवेश किया था और उनके अग्नि में प्रवेश करने के बाद उनके स्थान पर एक नकली सीता उत्पन्न हुई थीं। वही रावण के यहाँ चली गई थीं। रावण को मारने के बाद में रामचंद्र जी जब उनको वापस अपने घर ले आए तो उन्होंने कहा कि हमको तो असली सीता चाहिए। असली सीता चाहिए तो वे वहीं से निकलेंगी, जहाँ आपने जमा कर दिया था। उस बैंक के लॉकर में, जहाँ आपने पैसा जमा कर दिया है, वहीं से तो निकालेंगे। यज्ञ में ही तो जमा किया था। नई वाली सीता की यज्ञाग्नि में परीक्षा ली गई। अग्निपरीक्षा के बाद वे नकली वाली सीता उसी में रह गई और असली वाली सीता उछलकर बाहर आ गईं। यही थी यज्ञाग्नि परीक्षा। यज्ञाग्नि का जगह-जगह पर वर्णन आता है। फिर क्या किया? रावण को मारने के पश्चात जब भगवान राम अयोध्या आ गए, तब गुरु वसिष्ठ विचार करने लगे। उन्होंने कहा—बेटे राम! रावण मारा गया, कुंभकरण मारा गया, खर-दूषण मारे गए, मेघनाद मारा गया? उसके खानदान वाले मारे गए? हाँ गुरुदेव! लेकिन तुझे एक बात का ध्यान नहीं है कि सारे के सारे वातावरण में जो राक्षसों ने असुरता के तत्त्व भर दिए थे, वे जब पैदा होंगे तो हमारी नई पीढ़ी के बच्चों पर हावी हो जाएँगे। दो वर्ल्डवार—विश्वयुद्ध हो चुके हैं—फर्स्ट वर्ल्डवार एवं सेकंड वर्ल्डवार। इन दोनों लड़ाइयों—विश्वयुद्धों में जो गोला-बारूद चलाया गया है, जो आदमी मरे हैं, जो चीत्कार हुआ, जो हाहाकार पैदा हुआ है, वह लौटकर पृथ्वी पर आया है और नई पीढ़ियाँ जो पैदा होकर आ रही हैं, वे सारी की सारी उस वातावरण से प्रभावित होकर आ रही हैं। नई पीढ़ियों को देखकर हम सोचते हैं कि यह क्या हो गया है? अच्छे घरों में पैदा हुए बच्चों को क्या हो गया है? ये खराब आदत के बच्चे कहाँ से आ गए? जब हम गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि यह दो महायुद्धों की वजह से जो वातावरण खराब हुआ था, उसका असर अभी भी है।

यज्ञ द्वारा विषाक्तता का निवारण

गुरु वसिष्ठ जी ने रामचंद्र जी से कहा था कि आपने रावण को मारकर लंका के राक्षसों को खतम करके जो पुरुषार्थ किया, अभी उससे भी एक बड़ा पुरुषार्थ करने की जरूरत है। वह जरूरत क्या है? यज्ञीय प्रक्रिया द्वारा सारे के सारे वातावरण को, जिसमें राक्षसपन और असुरता सूक्ष्मरूप से छाई हुई है, शोधित करना है, अन्यथा अगर यही वातावरण बना रहा तो यह फिर से मुसीबत पैदा करेगा। आप वाल्मीकि रामायण में पढ़िए, जिसमें उन्होंने लिखा है कि रामराज्य के स्थापित होते ही रामचंद्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। वह दशाश्वमेध घाट अभी भी गंगा किनारे बनारस में बना हुआ है। वहाँ भगवान राम और गुरु वसिष्ठ ने रामराज्य की स्थापना करने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अश्वमेध यज्ञ किए थे। वे जानते थे कि यज्ञ के अतिरिक्त और कोई सहायता नहीं कर सकता। जैसा कि मैंने आपको भगवान रामचंद्र जी और सीता जी के बारे में बताया कि उनका सारा जीवन यज्ञीय प्रक्रिया में चला गया। भगवान श्रीकृष्ण का भी ऐसे ही हुआ। पांडवों की विजय होने के पश्चात, महाभारत की विजय होने के पश्चात उन्होंने भी ऐसा ही किया। उन्होंने क्या काम किया? उन्होंने पांडवों से कहा कि कंस मारा गया, दुर्योधन और दुःशासन मारे गए। जरासंध वगैरह मारे गए और दूसरे मारे गए, लेकिन वातावरण में वह आसुरी गंदगी अभी भी भरी पड़ी है। यदि यह वातावरण फिर से बरसने लगा, तो मलेरिया की तरह से और दूसरे कीटाणुओं की तरह से दुनिया में फिर से तबाही लाएगा। तो क्या करना चाहिए? आसुरी मनुष्यों को मार डालना काफी नहीं है, वरन उस वातावरण का परिशोधन करना भी अनिवार्य है। क्या करना चाहिए? श्रीकृष्ण भगवान ने पांडवों को इसके लिए सलाह दी थी कि आपको ऐसा आयोजन करना चाहिए, ऐसा यज्ञ करना चाहिए, जिससे कि वातावरण का परिशोधन करने में मदद मिले। पांडवों ने यही किया था। उनने राजसूय यज्ञ किया था, जिसमें श्रीकृष्ण भगवान ने पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था। बहुत बड़ा आयोजन हुआ था, आपने पढ़ा-सुना होगा।

पौराणिक आख्यान भी पक्ष में

मित्रो! मैं क्या कह रहा था? यह कह रहा था कि रामचंद्र जी और श्रीकृष्ण भगवान, दोनों के दोनों इसी यज्ञीय प्रक्रिया को अपनाकर चले? सीता जी की अग्नि परीक्षा और अग्नि में से पैदा होने की बात मैंने आपसे कह दी। महाभारत में भी द्रौपदी के बारे में ऐसा ही वर्णन आता है कि वे एक यज्ञ में से पैदा हुई थीं। महाभारत की मूल भूमिका निभाने वाली एक महिला थी, जिसका नाम था द्रौपदी। इसकी वजह से महाभारत हुआ। इसी तरह से लंका का निराकरण और रामचंद्र जी का उद्देश्य पूरा करने में एक ही महिला थी। सारे का सारा खेल उसी के लिए रचा गया। सारे के सारे राक्षसों का विनाश एवं लंका का दहन करने के लिए सीता जी की जिम्मेदारी है और उधर महाभारत में किसकी जिम्मेदारी है? द्रौपदी की जिम्मेदारी है। दोनों महिलाएँ यज्ञ में से उत्पन्न हुई हैं। वे यज्ञ की अनुकृतियाँ थीं। यज्ञ की प्रतिक्रिया थीं। यज्ञ का वरदान थीं। बेटे! वातावरण के बारे में मैं बता रहा था कि इसके परिशोधन से क्या होता है। आप तो इसका महत्त्व ही नहीं समझते। अगर आपकी समझ में यह नहीं आता तो आप साईकिल लेकर चलना और यह देखना कि हवा का रुख किधर जाता है। हवा का रुख यदि आपके पीछे होगा तो आप एक घंटे में दस मील चल लेंगे और अगर हवा का रुख सामने होगा तो एक घंटे में आपको पाँच मील पार करना भी मुश्किल पड़ जाएगा। आपके घुटने दुखने लगेंगे और आपका कचूमर निकल जाएगा। आँखों में कूड़ा पड़ गया, सो अलग और आफत आएगी। साईकिल कभी इधर जाएगी, कभी उधर जाएगी। नाव में अगर हवा पीछे की तरफ होती है तो वह अपने आप तेजी से आगे की तरफ भागती जाती है और जब हवा आगे की ओर होती है, तब मल्लाह को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, आप पता लगाना। तब मल्लाह बताएगा कि भाई साहब! अगर हवा पीछे की तरफ हो, तब तो हमारी नाव बहुत तेज चलेगी और अगर सामने होगी; तब तो आफत ही आ जाएगी। फिर नाव को खेना और हवा का सामना करना हमारे लिए मुश्किल पड़ता है।

वातावरण की अनुकूलता का प्रकरण

मित्रो! मैं आपसे वातावरण की अनुकूलता के बारे में कह रहा हूँ। वर्षा ऋतु आती है तो हवा में ठंढक होती है, वातावरण में ठंढक होती है। वातावरण में पानी होता है। पौधे तेजी से उगते हुए चले जाते हैं। क्यों साहब! हम तो गरमी में गेहूँ बोएँगे। गरमी में गेहूँ बोएँगे तो सही, जमीन भी ठीक है, खाद भी ठीक है, पानी भी लगा लेंगे, पर वातावरण अनुकूल नहीं है, इसलिए आपके गेहूँ की फसल होगी नहीं। गेहूँ उग भी जाएगा तो फलेगा नहीं। फलेगा तो आपके काम का साबित नहीं होगा। अच्छा तो बरसात में बोइए। बरसात में क्या बात है? बरसात में वातावरण है। इसमें पौधा उगने का वातावरण आता है तो घास की सूखी हुई जड़ें, जो जमीन में होती हैं, उनमें कोई पानी लगाने की भी आवश्यकता नहीं होती। हवा में जैसे ही नमी आती है, सब के सब पैदा हो जाते हैं। नई घास पैदा हो जाती है। कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं। मच्छर पैदा हो जाते हैं, केंचुए पैदा हो जाते हैं और न जाने कौन-कौन पैदा हो जाते हैं ! इन्हें कौन पैदा करता है? वातावरण पैदा करता है। अनुकूल वातावरण बनाने के लिए, जिसमें कि हम नए युग के अनुरूप परिस्थितियाँ पैदा कर सकें और नए युग के अनुरूप मनुष्य पैदा कर सकें, इसके लिए हमारे भौतिक प्रयत्न ही काफी नहीं हैं, वरन हमारे सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयत्नों की भी आवश्यकता है। इन सूक्ष्म प्रयत्नों को, आध्यात्मिक प्रयत्नों को आप मानते हों, आप अंतर्जगत को मानते हों, सूक्ष्मजगत को मानते हों, दैवी जगत को मानते हों और आप दैवी प्रतिमा को मानते हों तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि केवल भौतिक प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते हैं, आध्यात्मिक प्रयत्नों का भी अपने आप में मूल्य है और आध्यात्मिक अनुकूलता और वातावरण की अनुकूलता भी अपने आप में कुछ माने रखती है।

यज्ञ से बनता है वातावरण

महाराज जी! इसके लिए क्या करना होगा? बेटे! यही तो मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि किस तरह से ये सारी की सारी प्रक्रियाएँ यज्ञ से संबंधित हैं। यज्ञ हमारे लिए वातावरण बनाता है। प्राचीनकाल में राजसूय यज्ञ होते थे। राजनीतिक समस्याओं के समाधान करने के लिए राजसूय यज्ञ और सामाजिक, धार्मिक एवं मानसिक समस्याओं के समाधान करने के लिए वाजपेय यज्ञ होते थे। आप लोग जिस यज्ञ को करने और कराने के लिए जा रहे हैं, वे सारे के सारे वाजपेय यज्ञ हैं। इनसे वातावरण बनाना, धार्मिक व्यक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उनसे परामर्श करना, उनसे सलाह-मशविरा करना, उन्हें संबद्ध करना और एक विशेष काम में लगा देना, एक प्रमुख उद्देश्य है। यह हमारे भौतिक प्रयत्न हैं और वातावरण का संवर्द्धन हमारा आध्यात्मिक प्रयत्न है। इन दोनों प्रयत्नों को लेकर हम चले हैं और इसी यज्ञीय आंदोलन को पूरा करने के लिए आपको जगह-जगह भेजा जा रहा है और जिसके लिए बड़ा वाला संकल्प लिया जा रहा है। हमको उम्मीद है कि इससे हम वातावरण को बदल सकेंगे। इसके बारे में हमें उम्मीद है कि यज्ञीय परंपराएँ बनाने, यज्ञीय जीवन जीने की शिक्षा देने और यज्ञीय वातावरण को बनाने की प्रक्रिया को संपन्न करने में हम बहुत हद तक सफल हो सकेंगे। इन्हीं यज्ञीय प्रक्रियाओं, शक्तियों को उभारने के लिए आपको यहाँ से भेजते हैं।

बलि अर्थात देवदक्षिणा

मित्रो! यज्ञ के पीछे एक और बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम छिपा पड़ा है, जिसको आप लगभग भगवान का अवतार कह सकते हैं। क्या छिपा हुआ पड़ा है? अपने यज्ञों में, युग निर्माण योजना के यज्ञों में उसके लिए दो फेफड़ों के तरीके से, दो गुरदों के तरीके से, दो आँखों के तरीके से दो महत्त्वपूर्ण पहलू छिपे हुए पड़े हैं। वे कौन से पहलू छिपे हुए पड़े हैं? उनमें से एक है देवदक्षिणा। देवदक्षिणा क्या है? देवदक्षिणा हमारा प्राण है। पुराने जमाने में पंडित आते थे तो वे बस, बलि चढ़ाते थे। चलिए साहब! बलि चढ़ेगी। यह कब की बात है? बहुत पुराने जमाने की। आज से हजार-दो हजार वर्ष पहले बलि के नाम पर जानवर मारे-काटे जाते थे, जिसका कि भगवान बुद्ध ने विरोध किया था। उनके प्रयत्न से ऐसे यज्ञों में से हिंसा बंद हो गई थी, लेकिन कुछ मंदिरों में जहाँ-तहाँ अभी भी बलि होती रहती है। प्राचीनकाल में बलि का यही रिवाज था। यज्ञों में बलि होती थी। गोमेध, अश्वमेध, नरमेध, अजमेध आदि जाने कितने यज्ञ होते थे। जानवरों को मार-मारकर हवन कर देते थे। मध्यकाल में इनसे पिंड छूटा तो ये देवी-देवता की शक्लों में आ गई। अब वहाँ बलि होने लगी। बलि से क्या मतलब था? बलि से मतलब था यज्ञ। यज्ञ और बलि दोनों एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। बलि के बिना यज्ञ पूरा नहीं हो सकता।

दोष-दुर्गुणों की बलि

बलि किसे कहते हैं? बलि उसे कहते हैं, जिसमें आदमी को अपने दोष और दुर्गुणों का निराकरण करना पड़ता है। सारे के सारे जानवरों की जो आदतें हैं, जैसे अज, गो आदि। अज किसे कहते हैं? आदमी की निष्ठुरता को कहते हैं। गो किसे कहते हैं? गो इद्रिय विकारों को कहते हैं। आदमी में जानवरों की जितनी वृत्तियाँ थीं, यह संकेत उन वृत्तियों के बारे में था और बलि के रूप में उन्हीं वृत्तियों का हवन करना पड़ता था और बलि किसे कहते हैं? बेटे! दूसरे रूप में बलि हम उसे कह सकते हैं, जो देवताओं को उपहार रूप में भेंट किए जाते हैं। पुराने जमाने में इसका विकृत स्वरूप जानवरों का सिर काटकर बलि चढ़ाने के रूप में प्रचलित हो गया, जबकि इसका वास्तविक रूप था त्याग-बलिदान। क्यों भाई साहब! आपका कोई त्याग-बलिदान है? हाँ साहब! हमारा बहुत बड़ा त्याग-बलिदान है। हमने समाज की बड़ी सेवा की। हम दो वर्ष के लिए जेल गए। हाँ भाई! इनकी प्रशंसा कीजिए, इनको माला पहनाइए। ये बड़े त्यागी हैं, बलिदानी हैं। क्या बलिदानी हैं? इन्होंने कष्ट उठाया, इन्होंने अमुक काम किए, तमुक काम किए। अच्छे कामों के लिए त्याग करने वाले आदमियों को बलिदानी कहते हैं। बलिदान की प्रक्रियाएँ दो हैं एक तो वह, जिसमें अवांछनीयता को खतम कर देते हैं। दूसरी वह, जिसमें अच्छाइयों का संवर्द्धन किया जाता है।

प्रतीक थे ये, लक्ष्य था श्रेष्ठता-संवर्द्धन

राजा परीक्षित को साँप ने काट खाया था तो उनके बेटे ने साँपों का हवन किया था। साँपों के हवन से क्या मतलब था? जनमेजय ने सर्पयज्ञ किया था। क्या इरादा था? उनका इरादा था कि संसार में जो अवांछनीय तत्त्व हैं, उनको हम जला देंगे। अवांछनीय तत्त्वों को जला देना हवन-प्रक्रिया का एक उद्देश्य है। हवन-प्रक्रिया का दूसरा वाला उद्देश्य यह है कि जो श्रेष्ठताएँ हैं, उनको बढ़ाने के लिए त्याग और बलिदान की परंपरा चालू की जाए। अच्छे कामों को बढ़ाने के लिए आदमी को कुरबानी करनी चाहिए। सेवा के लिए, समाज हित के लिए आदमी अपना कुछ अंशदान करे। यह भी बलिदान की एक प्रक्रिया है। बलिदान की प्रक्रिया यज्ञों के साथ सदा से जुड़ी रही है, लेकिन अब तो उसका रिवाज ही कैसा हो गया है—कहीं यह कार्य पंडित कराते हैं तो कहीं सनातनी कराते हैं। चलिए साहब! बलिदान की प्रक्रिया करेंगे। क्या करेंगे? यह सामान लाइए, खीर लाइए, उड़द लाइए। उड़द के ऊपर लाल रंग लगाइए, थोड़ा सा दही रखिए। थोड़ी सी कचौड़ी रखिए। थोड़ा सा पापड़ रखिए। अब क्या करेंगे? उसको ढककर ले जाइए और जौ के खेत में छोड़कर आइए। बलिदान की यह प्रक्रिया अभी भी होती है। पंडित कराते हैं, लेकिन सनातन धर्म में नहीं कराते हैं। उनके यहाँ यह रिवाज अभी भी चलता रहता है। इसका क्या मतलब है? बेटे! यज्ञ में बलि दिए बिना देवता प्रसन्न नहीं होते, लेकिन इसका स्वरूप बदल गया है।

संव्याप्त भ्रांतियाँ

मित्रो! इसलिए हमने अब इसका स्वरूप बदल दिया है। 'बलि' शब्द अब इतना गंदा, इतना फूहड़ हो गया है कि घुमा-फिराकर आदमी के पीछे आ जाता है। पंडितों को भी देख लिया है। वे भी इसमें माँस का किस्सा ले आते हैं। उड़द के बिना हवन में बलिदान नहीं होता। इसमें उड़द एक, लाल रंग दो, दही तीन, और कोई चीज चढ़ाएँ या न चढ़ाएँ, लेकिन ये तीन चीजें होना आवश्यक है। महाराज जी! यह क्या चक्कर है? बेटे! संस्कृत में उड़द के लिए 'माष' शब्द आता है। 'माष' में 'मा' पूरा है और 'ष' में पेट चीरा हुआ है। इसलिए 'माष' का माँस कर दिया, जबकि 'माष' माने उड़द होता है। माँस माने वही माँस, जो खाने के काम आता है? हाँ, वही माँस है। माँस काटने की जब हिम्मत न पड़ी तो क्या कर दिया? दही में लाल रंग का सिंदूर मिला दिया। यह क्या हो गया? यह माँस बन गया। दही में लाल रंग का सिंदूर मिला देने से या जरा सा कोई लाल रंग मिला देने से दही की शक्ल बिलकुल वैसी बन जाएगी—माँस जैसी। इस तरह बलिदान में घुमा फिराकर वही माँस शब्द आ जाता है, इसलिए यज्ञ में से बलिदान शब्द हमने काट दिया, लेकिन यज्ञीय परंपरा की रक्षा करना भी जरूरी है, इसलिए हमने उसका नाम क्या रख दिया है? अब वह हमारे यज्ञों में 'देवदक्षिणा' के नाम से एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में विद्यमान है। इसमें क्या करते हैं? इसमें हम यह करते हैं कि चाहे जन्मदिन मनाना हो, चाहे हवन करना हो, सबमें देवदक्षिणा को आवश्यक अंग माना है। जो कोई हवन करता है, जो आदमी परिक्रमा करने आते हैं, जो इसे देखने आते हैं, उन सब आदमियों से हम प्रार्थना करते हैं कि देवताओं का यहाँ आपने आवाहन किया है, तो उनकी विदाई के लिए कुछ न कुछ भेंट-उपहार देकर जाइए। भेंट और उपहार दिए बिना देवता को विदा कर देते हैं, तो देवता नाराज हो जाते हैं।

खाली हाथ मत जाइए

मित्रो! प्राचीनकाल की परंपरा यही है कि जब आप किसी देवता के समीप जाते हैं तो भले ही तुलसी का पत्ता लेकर जाया करें, पर चढ़ावा जरूर चढ़ाएँ। संत के पास जाया करें, तो आप भले ही बेर लेकर जाया करें, पर लेकर जाया करें। लेकिन खाली हाथ मत जाया करें। जब किसी पंडित से कहें कि हमारा पत्रा देख लीजिए, हमारे यहाँ लड़का हुआ है आदि, तो चाहे आपके पास दो नए पैसे ही क्यों न हों, पहले पत्रा पर चढ़ा दीजिए। नहीं साहब! हम तो नए फैशन के हैं, नई पद्धति के आदमी हैं। कहीं भी चले जाते हैं, लेने-देने का कोई काम नहीं है। बस, सलाम बोलते हैं और अपनी बात कहते हैं और अपना काम निकालते हैं। नहीं बेटे! ऐसा मत करना, कहीं खाली हाथ मत जाना। खाली हाथ जाने से देवता नाराज हो जाते हैं। खाली हाथ जाने से पाप पड़ता है। बेटे! देवता को आपने अपने घर बुलाया और खाली हाथ लौटा दिया तो वे नाराज हो जाएँगे। नहीं साहब! देवता नाराज नहीं होंगे। अच्छा, देवता नाराज नहीं होंगे तो देख, पहले चिट्ठी डालकर अपने जमाई को बुलाना और जाते समय किराया-भाड़ा देने से इनकार कर देना और जो रुपया आदि देते हैं, सो भी मत देना। इसी तरह अपने समधी को बुलाना, जहाँ आपकी बेटी ब्याही है। समधी को दावत देना और जब वे जाने लगे तो उनको पैसा मत देना। नाश्ते के लिए पूड़ी बाँधकर मत देना, मत उनको स्टेशन छोड़ने जाना। तो क्या होगा? वह समधी नाराज हो जाएगा और आइंदा आपके यहाँ नहीं आएगा। जमाई भी नाराज हो जाएगा और फिर दोबारा नहीं आएगा। पंडित भी नाराज हो जाएगा। कैसे नाराज हो जाएगा?

भाव चाहिए भगवान को, साधन-सामग्री नहीं

पंडित जी को कथा कहने के लिए, ब्याह-शादी कराने के लिए घर ले आइए। हाँ साहब! आ गए। सत्यनारायण की कथा सुनिए। कहिए पंडित जी! कुछ लेंगे-देंगे तो नहीं? देना क्या है? आप चले जाइए। जैसे अपने पाँव से आए थे, उसी पाँव से चले जाइए। अरे भाई! हम तो इसीलिए आए थे कि आपके यहाँ से कुछ मिलेगा। पंडित जी! यहाँ मिलने-मिलाने को कुछ नहीं है, यहाँ तो वैसे ही हरी झंडी है। चुपचाप चले जाइए। आपने भी देवताओं को बुलाया है—कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः। विष्णु भगवान! आप भी आइए। लीजिए साहब! आ गए। शंकर, भगवान! आप भी आइए, आप भी विराजमान होइए। सारे देवता आ गए, सब बैठ गए। चलने को हैं, तो साहब! कुछ देने-लेने को नहीं है। नहीं साहब! किराया-भाड़ा भी नहीं देंगे। बेटे ! जब बरातियों को ब्याह में बुलाते हैं, कि चलिए साहब! हमारे यहाँ बराती बनकर चलिए। किराया-भाड़ा कौन देगा? आप हमारे बेटे के ब्याह में चल रहे हैं, तो आने जाने का किराया-भाड़ा हम देंगे। बराती को जब आप किराया-भाड़ा देते हैं तो जब संतों को, ऐसे-ऐसे ऋषियों को बुलाया है, देवताओं को बुलाया है तो उनको भी कुछ देंगे कि नहीं देंगे? नहीं साहब! देने-लेने को तो अँगूठा है हमारे पास। नहीं बेटे! यह कुछ नहीं देना पड़ेगा। क्या देना पड़ता है? देवता वस्तुएँ नहीं लेते। देवता आपकी भावना को परखते रहते हैं। देवता और संत भावना के बिना प्रसन्न नहीं होते। भावना का प्रत्यक्ष प्रमाण दिए बिना देवता का आशीर्वाद पाना किसी तरह संभव नहीं हो सकता।

युग निर्माण योजना का यज्ञ आंदोलन

हमें क्या भावना प्रस्तुत करनी चाहिए? मित्रो! युग निर्माण योजना के अंतर्गत जितने भी आयोजन किए जाते हैं, उनमें दो चीजों का हमने अविच्छिन्न प्रयोग किया है। हर आदमी से कहा है कि देवदक्षिणा के रूप में आप अपनी बुराइयों में से एक का त्याग कीजिए। शारीरिक बुराइयों, मानसिक बुराइयों, आध्यात्मिक बुराइयों, सामाजिक बुराइयों आदि बुराइयों का हमने देवदक्षिणा में उल्लेख किया है, जिनको यहाँ बताना मुश्किल पड़ जाएगा। आप सब लोग जानते हैं, कोई नए नहीं हैं, ये सब बातें छपी हुई हैं। सारी की सारी सामाजिक कुरीतियों से लेकर अन्यान्य बातों के लिए हमने छापा है। ब्याह-शादियों के नाम पर होने वाले अनाचार के विरुद्ध हमने छापा है। 'युग निर्माण योजना' पत्रिका में हमने कहा है कि ब्याह-शादियों में दहेज लेना और दिखावे के नाम पर पैसा खराब करना, दोनों बुरा है, मानव समाज पर कलंक है। भिक्षा व्यवसाय, नशेबाजी एवं अन्यान्य दूसरी बातें आपको मालूम हैं। कितनी सारी बुराइयों को छोड़ने के लिए कहा गया है। केवल बुराइयों को छोड़ने भर के लिए ही नहीं कहा है, वरन अच्छाइयों के संवर्द्धन के लिए भी कहा है। आप ये अच्छी प्रतिज्ञा लेकर के जाइए, रोजाना हवन करने की बात लेकर के जाइए। अपनी कमाई में से एक हिस्सा, चाहे वह दस पैसा जैसा थोड़ा ही क्यों न हो, रोजाना अच्छे कार्यों के लिए निकालने की बात सीखकर जाइए। बहुत सारी अच्छाइयाँ बढ़ाने वाली बात, बुराइयों को नकारने वाली बात, ये सब हमारे यज्ञीय आंदोलन के अविच्छिन्न अंग हैं। हम इसलिए यह प्रयत्न करते हैं कि संसार में से अनाचार, जो फैला हुआ है, उसे नाकाम करने में और संसार में जो सत्प्रवृत्तियों की कमी है, उनको पैदा करने और बढ़ाने के लिए हम सफलता प्राप्त कर सकें।

अधर्म का नाश करने हेतु यज्ञ का अवतार

यह क्या हो सकता है? बेटे! मैंने आपसे कहा था कि अवतार होने वाला है। प्रज्ञावतार होने वाला है। गायत्री माता का अवतार होने वाला है। युगशक्ति का अवतार होने वाला है। नया युग आने वाला है। अवांछनीयता दूर होने वाली है। यह कैसे होगी? उसी का तो यह आंदोलन है। कौन सा? देवदक्षिणा वाला। यह हर आदमी के भीतर से, जो दुष्वृत्तियाँ हैं, उनको कम करने, सामाजिक जीवन में से अवांछनीयता को कम करने, अंधविश्वासों को कम करने, अनैतिकता को कम करने के लिए हमें संकल्पित कराता है। घृणा के विरुद्ध जो हमारी बगावत है, यह वह है, जिसमें भगवान ने यह कहा था कि हम अधर्म का नाश करने के लिए अवतार लेते हैं और आपका प्रज्ञावतार अधर्म का नाश करने के लिए अवतार लेता है। जहाँ-कहीं भी इस यज्ञ का आंदोलन होता है, आयोजन होता है, वहाँ अधर्म का नाश करने के लिए, अवांछनीयता को निरस्त करने के लिए हम प्रयत्न करते हैं और संकल्प कराते हैं। इसी प्रकार वांछनीयता का संवर्द्धन करने के लिए, श्रेष्ठताओं को बढ़ाने के लिए, सत्प्रवृत्तियों को जीवन में धारण और ग्रहण करने के लिए विभिन्न प्रकार के जो संकल्प कराते हैं। यह क्या हैं? यह अवतार की प्रक्रिया है। देवदक्षिणा के माध्यम से अवतार की प्रक्रिया एवं आस्था का संवर्द्धन तथा अनाचार का निराकरण, दोनों ही उद्देश्य पूरे होते हैं।

साक्षात् विष्णु हैं यज्ञ भगवान

मित्रो! यज्ञीय आंदोलन व्यक्ति के भीतर से ब्राह्मणत्व-ब्रह्मत्व पैदा करने के लिए, समाज में श्रेष्ठता का वातावरण पैदा करने के लिए, मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बीमारियों का निराकरण करने के लिए, अनुकूल वातावरण बनाने के लिए, पर्जन्य पैदा करने के लिए सारी प्रक्रियाएँ पूरी करने के लिए जब गायत्री माता का प्रज्ञावतार होगा तो उसके दोनों हथियार चलेंगे। अवांछनीयता का निराकरण करने के लिए अवांछनीयता को निरस्त करने के लिए एवं वांछनीयता का संवर्द्धन करने के लिए। देवदक्षिणा के रूप में हमारा यज्ञीय आंदोलन इन दोनों ही प्रक्रियाओं को संपन्न करने में समर्थ होगा, जिनकी कि नए युग के लिए, नए व्यक्ति के लिए आवश्यकता है। यह जीवन यज्ञ है। जीवन को इसके रूप में विकसित होना चाहिए। समाज में यज्ञीय परंपरा का प्रादुर्भाव होना चाहिए। यही दोनों उद्देश्य हैं, जिनको लेकर हमारा यज्ञीय आंदोलन चलता है। प्राचीनकाल में भी यज्ञ को इसीलिए श्रेष्ठ कर्म माना गया था। यज्ञ को विष्णु इसीलिए माना गया था। अभी भी व्यक्ति और समाज का कल्याण करने के लिए यज्ञ को आप श्रेष्ठ कर्म मान सकते हैं और उसे जीवंत विष्णु भगवान मान सकते हैं। जीवंत विष्णु भगवान इसलिए भी कि जो कुछ भी आप उन्हें खिलाते हैं, वे अपने हाथ से खा लेते हैं। आपने सुना होगा कि रामकृष्ण परमहंस एक बार देवी को भोजन कराने में समर्थ हो गए थे और रानी रासमणि यह जानकर बहुत प्रसन्न हो गई थी कि काली उनके हाथ से खाना खाती हैं। कोई और देवता खाना खाता है कि नहीं, वह मुझे मालूम नहीं, किंतु यज्ञ साक्षात् विष्णु भगवान हैं, आप इन्हें जो भी खिलाते जाइए, सब खाते चले जाएँगे। आप थोड़ा खिला दीजिए, उससे भी गुजारा कर लेंगे और आप ज्यादा खिला दीजिए, तो ज्यादा भी खाते चले जाएँगे।

घर-घर हो यज्ञ भगवान की प्रतिष्ठापना

मित्रो! यह यज्ञ भगवान हैं, जो प्रत्यक्ष हैं और आपके हाथ का भोजन करने में समर्थ हैं। यह आपको प्रकाश देते हैं, गरमी देते हैं, ज्ञान देते हैं और आपके उज्ज्वल भविष्य की संभावना का आश्वासन देते हैं। ऐसे हैं यज्ञ भगवान, जिनको हम व्यापक बनाना चाहते हैं, जिनका हम पूजन करना चाहते हैं और जिनको हम जनमानस में प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं। आप भी उसी का प्रचार-विस्तार करने के लिए जाइए। अपने घरों में बलिवैश्व के रूप में इन यज्ञ भगवान की प्रतिष्ठापना कीजिए और समाज में इनकी परंपरा को फैलाने के लिए प्राणपण से प्रयत्न कीजिए।

आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥