तपश्चर्या के लाभ

( पूर्वार्ध्द )

परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधन न केवल एक सामान्य जन को श्रेष्ठ पथ पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, वरन वे गायत्री परिजनों, साधकों, शिष्यों को भी गहन साधनात्मक पथ पर बढ़ने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। अपने ऐसे ही प्रस्तुत उद्बोधन में परमवन्दनीया माताजी नवरात्र के पूर्णाहुति के क्रम में सभी साधकों को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि सभी साधकों के अनुष्ठान में पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्म उपस्थिति एवं वातावरण की ऊर्जा भी जुड़े हुए हैं, जो उनके अनुष्ठान को और विशिष्ट बनाते हैं। वे सभी से कहती हैं कि नवरात्र अनुष्ठान का फल तभी प्राप्त हो पाता है, जब व्यक्ति अपने अन्तरंग को भगवान से जोड़ पाता है और लोक-मंगल के भाव से की गई ऐसी तपस्या अतुलनीय प्रभाव छोड़कर जाती है। वन्दनीया माताजी सभी साधकों से कहती हैं कि वे स्मरण करें कि वे भगवान का स्वरूप हैं और उसी के अनुरूप अपनी दिनचर्या को विकसित करने का प्रयत्न करें। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........

अनुष्ठान की उपलब्धियाँ

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

बेटियो, आत्मीय प्रज्ञा परिजनो! आज आपका अनुष्ठान पूर्ण हो रहा है। आज आपकी पूर्णाहुति है। पूर्णाहुति हो चुकी और थोड़ी देर में आपकी विदाई भी होने वाली है। आपने इसमें क्या पाया? इस उपासना से इस अनुष्ठान से आपको क्या-क्या उपलब्धियाँ मिलीं? यदि आपने गहराई से विचार किया होगा व आत्ममंथन किया होगा, तो आपकी झोली में अनेकों उपलब्धियों के रूप में वह अनुदान और वरदान पड़े होंगे, जिसे आप नहीं समझ सके होंगे, कि इस वातावरण में किस तरीके से हम आपके साथ घुले रहे और आपके साथ हम छाए रहे। अगर आप यह समझते हैं कि आपने अकेले ने अनुष्ठान सम्पन्न किया है, तो ऐसा नहीं है। आप अकेले नहीं कर सकते हैं। इसमें हम जुड़े हुए हैं, गुरुजी आपके साथ में जुड़े हुए हैं, तब आप यह सम्पन्न कर पाए हैं।

बेटे! आप अपने घर में अनुष्ठान करते थे, उस अनुष्ठान में और यहाँ जो आपने नौ दिवसीय अनुष्ठान किया है, जो विशेष उपासना के लिए आपने विशेष संकल्प लिया है, आप उसको देखिए और अपने घर पर जब आप करते थे, उस पर आप विचार करेंगे, तो आपको यह मालूम पड़ेगा कि दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। बेटे! इतना अन्तर है कि हम आपसे क्या कहें? यह इस भूमि का प्रभाव है।

इस भूमि पर विश्वामित्र ने तप किया है और दूसरा आपके युगऋषि, युग के विश्वामित्र हैं, उनने तप किया है। इस भूमि पर करोड़ों की संख्या में और अरबों की संख्या में जप और अनुष्ठान होते रहे हैं और होते रहेंगे।

बेटे! इस भूमि का प्रभाव है, इस वातावरण का प्रभाव है कि व्यक्ति न मालूम किन-किन चिन्ताओं से ग्रस्त और किन-किन समस्याओं से उलझा हुआ आता है और यहाँ शान्ति और सन्तोष पाता है।

आखिर क्यों? आप इसमें एक ही कारण पाएँगे कि इसके कण-कण में बेटे गुरुजी का प्राण, हमारा प्राण इसमें घुला है। हर कण में हमारा प्राण घुला हुआ है। जो प्रभाव है, वातावरण है, उसकी ही उपलब्धि के रूप में आपको मिलता है। आप जान नहीं पाए, तो इसमें कोई क्या करेगा। जान नहीं पाएँगे, तो भगवान भी साक्षात् आपके सामने आ जाए व आपकी अनुनय-विनय करे और आपको इतना अनुदान दे डाले कि आपकी झोली भर जाए, तब भी आप खाली-के-खाली रह जाएँगे।

भगवान के अंग बनें

मुझे एक किस्सा याद आ जाता है। एक ब्राह्मणी और ब्राह्मण था और एक उनका बच्चा था। मैं उपलब्धि की, अनुदान और वरदान की बात कह रही हूँ। उन्होंने भगवान शंकर की तपश्चर्या की। भगवान शंकर और पार्वती गुजर रहे थे। पार्वती जी ने कहा—देखो, ये कितने बड़े साधक हैं और इन्होंने कितना अनुष्ठान किया है। उनको वरदान दे देना चाहिए। शंकर जी ने एक बात कही। उन्होंने कहा कि वे इस लायक नहीं हुए हैं कि इनको वरदान-अनुदान दिया जाना चाहिए। क्यों? इन्होंने केवल हमारी शक्ल को देखा है और यह देखा है कि शंकर जी बेलपत्र और धतूरा खाते हैं, अतः इन्हें पूजो; लेकिन इन्होंने शंकर जी जैसा बनना नहीं चाहा है।

बेटे! आप गायत्री माता के भक्त तो हैं, लेकिन गायत्री माता के अंग नहीं बन पाए कि गायत्री माता हमसे क्या चाहती हैं? हमसे क्या अपेक्षा है? हमसे जो अपेक्षा है, इस लायक हम बने कि नहीं बने?

यदि आप बन गए, तो सही अर्थों में आप गायत्री माता के बेटे हैं। गुरुजी के आप शिष्य हैं और माताजी के आप बेटे हैं। यदि आप ऐसा नहीं कर पाए, तो यह समझा जाएगा, आप तो बेचारे हैं। हैं तो हमारी सन्तान, लेकिन बेचारे हैं और बेचारे ही रह गए। आपके अन्दर वह स्फुरणा, वह शक्ति, वह प्रेरणा नहीं आई, तो कैसे माना जाए कि आपके अन्दर भक्ति आ गई।

बेटे! अभी मैं शंकर जी की बात सुना रही थी और कह रही थी कि पार्वती जी ने कहा कि नहीं, दे ही दीजिए। शंकर जी ने कहा—भाई दे देते हैं। तो क्या सबसे आगे बुड्ढा ब्राह्मण आया? नहीं, ब्राह्मणी आई, उसने कहा कि भगवान हमको दीजिए वरदान।

शंकर जी ने कहा कि ले लो वरदान। क्या चाहिए? लौकिक चाहिए? पारलौकिक चाहिए? उसने कहा कि लौकिक चाहिए, पारलौकिक से हमें क्या मतलब? उन्होंने कहा कि माँगना है, तो वो चीज माँगिए, जिसमें कि आपका भी कल्याण हो और दूसरों का भी कल्याण हो।

उसने कहा कि दूसरों से हमें क्या फायदा? हमें तो अपने लिए चाहिए, हमको दीजिए। हमें क्या मतलब कि हमारा पड़ोसी दुःखी है, सुखी है या पीड़ा-पतन निवारण के लिए दोनों हाथों से हमें पुकार रहा है और यह कह रहा है कि देखिए हमारी तरफ देखिए। हम कितने कष्ट में हैं। आइए, जब आपको प्रेरणा मिली है, तो हमको शान्ति दीजिए। उन्होंने कहा कि नहीं, हमको कोई जरूरत नहीं। हमको तो अपनी जरूरत है।

शंकर जी बोले—क्या चाहिए? उसने कहा कि देखिए, अब हमारे मरने का वक्त आ गया। हमको अब एक ही चीज चाहिए। क्या चाहिए? खुदगर्जी, जिसमें खुद का लाभ होता हो। वह भले ही दिखावटी हो। कैसा दिखावटी?

उसने कहा कि मुझे तो रूप-यौवन चाहिए, तो आप रूप-यौवन ले लीजिए। उसे रूप-यौवन मिल गया। अब आई—दूसरे की बारी। बुड्ढे की बारी आई। उन्होंने कहा कि आप भी एक वरदान माँग लीजिए। बुड्ढा बहुत बुरी तरह से गुस्से में तमतमा रहा था। उसने कहा कि इस बुढ़िया को क्या सूझी है कि रूप-यौवन माँग बैठी है। अरे कुछ और माँग लेती। शंकर जी ने कहा—भाई, तुम क्यों नाराज हो रह हो? तुम भी माँग लो। उसने कहा कि मैं यह माँगता हूँ कि बुढ़िया सुअरिया बन जाए। उन्होंने कहा कि सुअरिया बन जाएगी।

अभी जो एक बच्चा था, वह बहुत तिलमिला रहा था, रो रहा था। चूँकि माँ से ही बच्चा बड़ा होता है और माँ की छत्रछाया में बढ़ता है। पिता तो केवल साधन जुटाता है और माँ लालन-पालन करती है और संस्कार देती है। माँ बच्चे को सुसंस्कारी बनाती है।

जितने भी हमारे सन्त हुए हैं और ऋषि हुए हैं, उन्हें किसने पैदा किया? माँ ने बनाए और दूसरा जो संस्कार मिला, वह गुरु ने उनको ढाला। माँ ने पैदा किए, संस्कार दिया और गुरु ने वातावरण बनाया। उनमें प्रेरणा भरी, ऊँचा उठाया।

उन्होंने कहा—बच्चे, तू क्यों रोता है? मैं यों रोता हूँ कि मेरी मम्मी तो सुअरिया बन गई, अब मेरा लालन-पालन कैसे होगा? मुझे खाना कौन खिलाएगा? मुझे प्यार कौन देगा? मुझे सँभालेगा कौन? उन्होंने कहा—एक वरदान तू भी माँग ले। उसने कहा—मेरी माँ जैसी थी, वैसी ही आप बना दीजिए। उन्होंने जल छिड़क दिया और वह वैसी की वैसी बन गई। तीनों को वरदान भी मिला और तीनों खाली-के-खाली हाथ रह गए।

बेटे! आपने विचार किया क्या? आखिर ये खाली हाथ कैसे रह गए? खाली हाथ इसलिए रह गए कि उन्होंने केवल अपने स्वार्थ के लिए माँगा था, अपने लिए माँगा था। कहीं परमार्थ के लिए माँगा होता, लोक-मंगल के लिए माँगा होता, तो वे भी उसी श्रेणी में आ गए होते, जिस श्रेणी में भगीरथ आए हैं।

भगीरथ ने तपश्चर्या की थी न और उनको जो वरदान मिला, सारा का सारा उन्होंने लोक-मंगल में लगा दिया, तो आज भी हम भगीरथ की जय बोलते हैं। विश्वामित्र की जय बोलते हैं। परशुराम की जय बोलते हैं। क्यों?

परशुराम ने तपश्चर्या की थी और जो कुछ भी पाया, वह सारे का सारा लोक-मंगल में लगा दिया और अपनी सारी जिन्दगी को खपा दिया। कहते हैं कि उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों के सिर काटे थे। इसमें तो शक है कि ऋषि किसी का सिर नहीं काटता; लेकिन ऋषि एक धारा के प्रवाह को बदलता है।

ऋषि उस चाल को बदलता है, जिसमें भेड़ें चलती हैं। भेड़चाल में ऋषि सहयोग नहीं करता, ऋषि की चाल और ऋषि की दिशा अलग होती है। उसकी लाइन बिलकुल अलग होती है। जैसे समुद्र में मछली जाती है और सरसराती हुई अपना रास्ता बना लेती है। इसी तरीके से ऋषि अपना रास्ता बनाता है और सूरज और चाँद के तरीके से चमकता है। वह सारे संसार को एक दिशा देता है, रोशनी देता है और प्रकाश देता है। तपश्चर्या हो, तो इस श्रेणी की हो।

तपश्चर्या का लाभ

तपश्चर्या से लाभ मिलता है? हाँ बेटे, मिलता है। वही तो मैंने अभी आपसे निवेदन किया। आपको भी मिलेगा और मिल चुका है। आप अनुभव क्यों नहीं करते कि हमें मिल चुका है। आपने तो यही अनुभव किया कि रोना-रोना, सारी जिन्दगी रोना-ही-रोना। लाओ-ही-लाओ। बीबी लाओ, बच्चे लाओ, पैसे लाओ। अरे! इसी के लिए जिन्दगी है क्या? या इससे आगे भी है। बेटे! इसके आगे भी है।

इसके आगे वह जिन्दगी है कि सारा संसार आपको दुआ देता रहेगा। आपको आशीर्वाद देता रहेगा और आपको अपने कलेजे से लगाएगा। हमारी औलाद, तो जाने हमारे लिए सेवा करेगी कि नहीं करेगी; लेकिन हम जानते हैं कि एक साधक की, एक ऋषि की और एक सन्त की औलाद जो होती है, वह कितना कर पाती है, यह हमारी आँखों से देखिए न आप। आप तो अपनी आँखों से देख रहे हैं। आप अपने चिन्तन से विचार कर रहे हैं। आप हमारे चिन्तन में घुसिए न, आप हमारी गहराई में घुसिए न।

बेटे! आपने अभी गुरुजी का केवल बाह्य स्वरूप देखा है। कहीं गुरुजी का आपने विराट स्वरूप देखा होता तो फिर मैं समझती हूँ कि आप में से कोई भी कामना ले करके नहीं आए होते। आपमें से एक भी यह शब्द नहीं निकालते कि हमारे तीन लड़कियाँ हैं, एक लड़का तो आप दे दीजिए। फिर आप यह कहते कि भगवान ने बहुत बड़ा आशीर्वाद दिया कि हमको बेटी दे दी। बेटा नहीं दिया है, यह भगवान ने बहुत बड़ा आशीर्वाद हमें दिया है।

क्यों? बेटा सारी जिन्दगी की कमाई खा जाएगा और बुढ़ापे में वो ठोकर मारेगा कि चित गिर जाएँगे। नानी याद आ जाएगी, कि हमने जिसके लिए सारी जिन्दगी कमाया था और जिसके लिए हमने सारी जिन्दगी खपा डाली, यही हमारा भगवान था। इसको हमने भगवान समझा और असली भगवान को नम्बर दो पर समझा और वह हमें लात मार करके भगा रहा है।

लोक-मंगल के लिए जिएँ

बेटे! जो सही इनसान होता है, जो सही साधक होता है, वह लोक-मंगल के लिए होता है। अपने लिए नहीं होता है। हमने एक ही नारा लगाया और ये कहा है कि आप ब्राह्मणोचित जीवन जिएँ। आपको इसमें आनन्द आएगा। ब्राह्मण सारे संसार को देता है, लेता नहीं है। वह देता है। क्या देता है? वह ज्ञान देता है, वह सेवाएँ देता है। वह भावनाएँ देता है, वह निष्ठा देता है, वह श्रद्धा देता है। आप भी ब्राह्मण होकर के रहिए। आप अभी ब्राह्मण नहीं हुए हैं। कौन हुए हैं?

अब मैं क्या कहूँ कि आप कौन हुए हैं? मैं यह क्यों कहूँ? मेरे तो आप बच्चे हैं। आप हमारे कुटुम्बी हैं, तो आपकी बेइज्जती करने का हमारा मन नहीं है। हमारा मन तो यह है कि आप जिस जगह हैं, इससे ऊँचे तो उठिए जरा, आप ऊँचे उठ कर तो देखिए। आप भक्त की श्रेणी में तो आइए। भक्त की श्रेणी में नहीं आए, अभी तो बगला-भगत की श्रेणी में आए हैं। बगला-भगत मालूम है, कैसा होता है? नदी किनारे पर बैठा रहता है और ध्यान लगाए रहता है। जहाँ मछली पर पड़ी नजर, उसे उसने चोंच में उठाया और गपक। बगला-भगत इसे कहते हैं।

भक्त उसे कहते हैं—जिसका ध्यान केवल अपनी उपासना पर और अपने आत्मकल्याण पर लगा रहता है और यह लगा रहता है कि हमारा आत्मशोधन किस तरीके से होगा? किस तरीके से हम जिस निकृष्ट कोटि में हैं, उससे ऊँचे उठें? भगवान हमको वह शक्ति दीजिए, चल तो हम अपने आप लेंगे; लेकिन बगैर आपकी शक्ति के हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। आप हमें शक्ति दीजिए। आप हमको प्रेरणा दीजिए, फिर देखिए हम चलते हैं कि नहीं चलते हैं।

गुरुजी पहले एक गाने की लाइन गाया करते। एक बार मैंने कहा कि साहब! इस गाने के बारे में आपको मालूम है, किसका है? बोले हमें क्या मालूम किसका है? होगा किसी का, हमें क्या मतलब? हम तो हर गाने को अध्यात्म से जोड़ते हैं। उन्होंने कहा—मेरे पैरों में घुँघुरू बँधा दे, फिर मेरी चाल देख ले। मेरे पैरों में घुँघुरू बँधा, फिर देख मेरी चाल, कि मैं ठुमकता हूँ कि नहीं ठुमकता। भगवान मुझे शक्ति दे और फिर देख मेरी चाल की करामात।

गुरुदेव का विराट रूप देखिए

आपने देखा है न? अभी नहीं देखा। गुरुजी का वो विराट रूप देखिए, जो काकभुशुण्डि ने भगवान राम के पेट में जाकर देखा था। भगवान कृष्ण के मुँह में माँ यशोदा ने विराट रूप के दर्शन किए थे। जब अर्जुन को समझा रहे थे तब भगवान कृष्ण ने यह कहा कि तू अभी यह देख रहा है न कि मेरे सगे-सम्बन्धी मर जाएँगे, तो इनको मर जाने दे। मरने लायक ही हैं।

इन कौरवों को परास्त होना ही चाहिए। वो मरने ही चाहिए। कौन से कौरव? वो कौरव नहीं, जो इनसान के रूप में हैं, वरन जो विकृतियों के रूप में हैं। उन कौरवों को मरना ही चाहिए।

जो अन्तःकरण में विचर रहे हैं, उन कौरवों का तो हम अनुमान ही नहीं लगाते। वो कौरव तो सौ थे और हमारे भीतर जो भरे पड़े हैं, अरे वो तो हजारों की तादात में, लाखों की तादात में हैं। कौरवों को मार, तो अर्जुन ने कहा—मैं मारूँगा। मुझमें शक्ति नहीं है।

उन्होंने कहा—जनखे खड़ा हो जा। उन्होंने एक ही शब्द कहा और उसकी शक्ति को ललकारा। अर्जुन ने कहा कि मुझमें वो शक्ति नहीं है कि मैं महाभारत के संग्राम में अकेला लड़ूँ।

भगवान कृष्ण ने कहा—तुझसे कौन कहता है कि तू अकेला है? अकेला नहीं है, मैं जो तेरे साथ हूँ। तेरे रथ को चलाने वाला मैं हूँ। तू धनुष उठा, बाण उठा, लड़ना तो तुझे ही पड़ेगा, पर शक्ति हमारी तेरे साथ चलेगी। महाभारत में वह विजयी हो गया। कौन हो गया? अर्जुन हो गया। जो कायर था और यह कहता था कि मुझसे नहीं लड़ा जाएगा। मैं नहीं लड़ सकता।

गुरुजी मैं क्या करूँ? मेरी तो औरत बीमार है। मेरा बच्चा तो बे-लाइन चलता है और मुझमें सामर्थ्य नहीं है। अब बताइए कि मैं कैसे जा सकता हूँ? घर से बाहर मैं कैसे शक्ल दिखा सकता हूँ? बेटा! जनसम्पर्क के लिए जाओगे क्या? नहीं गुरुजी! हम नहीं जाएँगे। लोक-कल्याण का काम करोगे क्या? नहीं। अपनी संकीर्णता को त्यागोगे क्या? नहीं, अपनी संकीर्णता को तो हम नहीं त्यागेंगे गुरुजी। तो बेटा! आप इस जीवन में कभी कुछ नहीं बन सकते और खाली हाथ ही रहेंगे। आप पैसा कमा लें, दंद-फंद से या चाहे जैसे कमा लें; लेकिन पैसा क्या साथ जाएगा? पैसा साथ नहीं जाएगा।

वह पैसा आपका किसी अच्छे काम में लगे तो सार्थक है। जैसे गाँधी जी और जमनालाल बजाज थे। गाँधी जी की शक्ति थी और जमनालाल बजाज का साधन था। उनका साधन था और उनकी शक्ति—दोनों मिल गए, तभी तो इतना बड़ा महान कार्य हो सका।

अन्धे और पंगे जिस समय मिल जाते हैं तो अन्धे का पाँव काम करता है और पंगे की दिशा काम करती है। पंगे ने कहा कि यहाँ चल, इधर को लकड़ी चला, इधर को रास्ता है, इधर को मुड़, इधर को चल और अन्धा उधर ही चलता रहा।

गुरु-शिष्य की वास्तव में अन्धे और पंगे की जोड़ी है। जो श्रद्धा से जुड़ा रहता है, उसको अनेक रूपों में अनुदान मिलता रहा है और मिलता रहेगा। भक्तों की श्रेणी मैं आपको कहाँ तक गिनाऊँ? उनको कहाँ तक गिनाऊँ, जिन्होंने तप भी किया है और वरदान भी पाया है। फिर सब स्वाहा हो गए। जिसमें रावण भी शामिल है और भस्मासुर भी शामिल है। इन्होंने तपश्चर्या करके कितने वरदान पाए थे और वे क्या से क्या बने और क्या से क्या करके वे मिट गए, मिट गए? हाँ, मिटने में भी देर नहीं लगेगी। क्यों नहीं लगेगी?

जो कुछ किया है, वह नम्र बनने के लिए नहीं किया। वह लोक-मंगल के लिए नहीं किया, लोकोपकार के लिए नहीं किया। जो कुछ किया है, वह तो अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए ही किया है, तो अहंकार बढ़ा लो बेटे, जब पोल खुल जाएगी, तो कहीं के भी नहीं रहोगे। इसलिए नम्र बनिए, उदार बनिए और यह संसाररूपी जो भगवान है, मानव के रूप में जो भगवान है—इसको आप पहचानिए, तो आप पाएँगे कि यह भगवान है।

भगवान का स्वरूप हैं आप

आप सब कौन बैठे हैं? हमारी निगाह से देखिए, तो आप सब भगवान के स्वरूप बैठे हैं; लेकिन आपने अपने भगवान को सुला रखा है। अभी जगाया नहीं है। कुम्भकरण की नींद आप खुद सो रहे हैं और भगवान की दुर्गति कर रहे हैं। कुम्भकरण की नींद यदि आप न सोएँ और जाग जाएँ, तो फिर देखिए कि आपका भगवान कैसे-कैसे आपको सहयोग देता है, मीरा के तरीके से। मीरा के साथ में भगवान कृष्ण नाचते थे।

मीरा के लिए जहर का प्याला गया था और कहते हैं कि वह अमृत का प्याला हो गया। फिर जहर किसने पिया? कृष्ण ने। कृष्ण पिएगा जहर? हाँ, कृष्ण ही पिएगा जहर और मीरा क्या पिएगी? मीरा, मीरा अमृत पिएगी। क्यों? क्योंकि उसकी श्रद्धा जो थी न भगवान के प्रति।

भगवान के प्रति जिस दिन उसने समर्पण किया था, उस दिन से लेकर और जब तक उसका अन्त हुआ तब उसकी जबान पर एक ही नाम था—कृष्ण-कृष्ण। कृष्ण का गुणगान करने के लिए मीरा दर-दर भटकती रही और कहाँ से कहाँ मीरा घूमती रही।

बेटे! कबीर, रैदास, सूरदास सबकी ऐसी ही कहानी है। सूरदास की तो लकड़ी लेकर के आगे-आगे भगवान चलते थे। आपकी लकड़ी लेकर चली हैं, गायत्री माता कभी? क्यों नहीं चलीं? इसलिए नहीं चलीं कि जितनी श्रद्धा होनी चाहिए, उस श्रद्धा का अभाव पाया गया। आप तो डाल-डाल और पात-पात पर घूमते रहे?

आज हनुमान जी के पास चलिए, शायद कुछ हनुमान जी से ही मिल जाए। कल शंकर जी के द्वारे चलिए, हो सकता है शंकर जी से ही कुछ मिल जाए। फिर सन्तोषी माता से ही कुछ मिल जाए, चण्डी माता से ही कुछ मिल जाए। चलिए सबके दर पर पल्ला फैलाइए अपना-अपना, शायद इससे मिल जाए, शायद उससे कुछ मिल जाए।

बुरा मत मानिएगा बेटे! यह क्या हुआ? यह हुई वेश्यावृत्ति। ये वेश्यावृत्ति होती है कि यहाँ से भी कुछ मिल जाए, वहाँ से भी कुछ मिल जाए, इससे भी कुछ मिले, उससे भी मिले। हर किसी से कुछ पाने की इच्छा को छोड़िए। अपनी श्रद्धा को बढ़ाइए। यह संकीर्णता कैसे आई? यह खुदगर्जी कैसे आई?

एक सती का उदाहरण देती हूँ। सती का कौन होता है? सती का वह होता है कि जिस दिन से अपने पति के घर में आती है। वह हर परिस्थिति में उसका साथ देती हुई चली जाती है। वह कहती है कि मैं तो समर्पित हूँ न इनके लिए। इनके परिवार के लिए जो भी परिस्थितियाँ हैं, उन परिस्थितियों से या तो मैं तालमेल बैठाऊँगी, नहीं तो योगी होकर के चलूँगी।

बेटे! वह योगी होकर के जीती है और जब न करे, भगवान कुछ आगा-पीछा हो जाए, तो सारी दौलत की स्वामिनी हो जाती है पत्नी। और वेश्या? वेश्या कैसी हो जाएगी? सारी जिन्दगी जिसकी सेवा की थी, ठोकर मार देगी तुमको।

क्यों ठोकर मार देगी? क्योंकि पत्नी में और वेश्या में अन्तर है। पत्नी की भावना है, उसकी श्रद्धा है, उसकी निष्ठा है अपने पति के प्रति, वह उसे भगवान का स्वरूप मानती है। वेश्या वह केवल पैसा माँगती है। अन्तर है कि नहीं, दोनों में अन्तर है।

इसी तरीके से भगवान और भक्त में इतनी ही दूरी है। जब जीवात्मा परमात्मा से मिल जाती है, तो सारे संसार का स्वामी वह जीवात्मा हो जाती है और भगवान उसके साथ-साथ चलता है। इसका उदाहरण हैं—समर्थ गुरु रामदास। उन्होंने जो अनुदान और वरदान शिवाजी को दिया था और किसी को क्यों नहीं दिया?

इसलिए नहीं दिया कि केवल उसके ही अन्दर वह निष्ठा और श्रद्धा पाई गई, जबकि उन्होंने यह कहा कि इसकी परीक्षा लेनी चाहिए कि यह सफल है कि असफल है। बनावटी है कि वास्तविकता है। जब वास्तविकता देख ली गई, तो अक्षय कटारी दे दी गई। ले जा बेटा, इसी से विजयी होगा।

विवेकानन्द को वह शक्ति मिल गई, तो सारे संसार में उन्होंने अकेले ही रामकृष्ण मिशन को फैला दिया। वे खुद भी चमक गए, उनके गुरु भी चमक गए। कैसे? उनकी निष्ठा थी, श्रद्धा थी, उससे सब कुछ पा लिया।

[ क्रमश: अगले अंक में समापन ]

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

तपश्चर्या के लाभ
( उत्तरार्द्ध )

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमवन्दनीया माताजी अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में सभी साधकों को उस शाश्वत सत्य से परिचित कराती हैं, जो अनादिकाल से तपस्या का आधार रहा है। नवरात्र-साधना में भाग लेने के लिए आए सभी साधकों को सम्बोधित करते हुए वन्दनीया माताजी कहती हैं कि किसी भी साधक के लिए तपस्या तभी फलीभूत हो पाती है, जब उसका अन्तःकरण परमात्मा से एकरूप हो पाता है। अन्तर्मन की भावनाएँ जब इष्ट को समर्पित हो पाती हैं, तभी वे तपस्या के लाभ साधक को प्रदान कर पाती हैं। परमपूज्य गुरुदेव के जीवन का उदाहरण हरेक को देते हुए वन्दनीया माताजी कहती हैं कि हमें उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करने की आवश्यकता है। पूज्य गुरुदेव ने स्वयं को जीवन भर गलाया और तपाया एवं उसी के परिणामस्वरूप तपस्या के लाभ प्राप्त कर पाए। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को .......

समर्पण किया आपने?

बेटे! अध्यात्म जगत् की हर चीज श्रद्धा के बल पर, भक्ति के बल पर ही खरीदी जाती है। पैसों से नहीं खरीदी जाती। बनावटीपन से नहीं खरीदी जाएगी। यदि श्रद्धा है आपके अन्दर, तो शबरी भी हैं आप। तभी भगवान राम आपके यहाँ आएँगे। जैसे रामकृष्ण परमहंस की काली आकर के उनको खिलाती थी और काली को वे स्वयं खिलाते थे। वो निष्ठा कहाँ चली गई।

बोलते हैं साहब! उपासना में हमें आनन्द ही नहीं आता। अरे आनन्द आएगा कैसे? मन तो बेलगाम का घोड़ा बनकर न जाने कहाँ-कहाँ फिरता है। न जाने किधर को भटकता रहता है। हाथ में तो लगी है माला और दिमाग न जाने किधर-किधर जा रहा है।

कहीं व्यापार में जा रहा है। कहीं सर्विस में जा रहा है। कहीं लड़ाई-झगड़े में जा रहा है, तो कहीं बदले की भावना में जा रहा है। जाने कहाँ-कहाँ जा रहा है?

हम कहते हैं कि इन भावनाओं को त्याग दो। आप अपने को समर्पित करिए, फिर देखिए आपको कुछ मिलता है कि नहीं। आपने समर्पण किया है? नहीं, आपने समर्पण नहीं किया। माताजी, कैसे नहीं किया? किया तो है हमने। हम अंशदान देते हैं। दिया है कि नहीं दिया है? हाँ बेटे, सिर-माथे पर है। यदि यह अंशदान आप नहीं देते, तो इतनी बड़ी बिल्डिंग कहाँ से बनती? जो यहाँ के क्रियाकलाप हैं, वो कैसे चलते? यहाँ के जो इतने कार्यकर्ता हैं, कितने भावनाशील कार्यकर्ता हैं। जो अपनी सर्विस छोड़ करके आए हैं। आप उनकी निष्ठा को तो देखिए। आप उनकी श्रद्धा को देखिए।

क्यों साहब! ये आ कैसे गए? आपको मालूम है, कैसे आ गए? ये बेटे! अपने आप नहीं आए हैं। सही मानना, एक भी अपने आप नहीं आया। ये खींच-खींचकर बुलाए गए हैं। जैसे गोताखोर होता है न, वह समुद्र में गोता लगाकर मणि-माणिक्य पाता है। हमने इन मणि-माणिक्यों की माला बनाकर, पिरोकर रखा है। हम गोताखोर हैं। हम बुलाते हैं। इनको भी बुलाया है, तब आए हैं।

हाँ, अंशदान दे दिया, मुबारक है बेटे! बहुत-बहुत धन्यवाद आपके लिए। कम-से-कम आपके अन्दर यह उदारता तो आई। आपके अन्दर भगवान की शक्ति ने वह काम तो किया कि हमको अपने लिए और अपने बीबी-बच्चों के लिए ही नहीं; बल्कि इस मिशन के लिए भी सोचना है कि मिशन हमारा एक पिता है। मिशन हमारा एक भगवान है। भगवान या पिता न मानें, तो चलो एक बेटा ही समझ लो। आपके चार बेटे होते, तो उनके लिए आप कुछ करते कि नहीं करते? चलिए एक बेटा ही आपने समझा।

श्रद्धा है तो श्रेष्ठ हैं आप

आप लोगों के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद है; लेकिन मैं तो एक और बात कह रही थी। मैं बात कह रही थी—श्रद्धा की। यदि आपकी श्रद्धा है, तो आप हीरे के हैं, मोती के हैं। हमारे लिए आप सब कुछ हैं और फिर देखिए हम आपको श्रेष्ठ बनाते हैं कि नहीं। आप अपने को जरा समर्पित तो करिए हमको। कह दीजिए कि हम वह काँच का टुकड़ा हैं, जो देखने में हीरा जैसा लगता है, चमचमाता है पर है नकली हीरा।

दिल्ली में एक दुकान है। एक लड़का आया और बोला माताजी! आप अपनी पोती की शादी करेंगी? हाँ, बेटा कर तो रहे हैं। तो मैं आपको एक हीरे की चीज दिखाऊँ क्या? दिखा जरा, देख तो लूँ क्या है? तो वह लाया। मैंने चुपके से उससे कान में पूछा—क्या है रे ये? देना तो मुझे कुछ है नहीं। न दिया है, न हमने लिया है। न हम देंगे, न लेंगे। हमें हीरा-पन्नों से क्या करना? पर वह विनोद की बात थी, जो थी सस्तेपन की। उसने मुझे एक हार दिखाया, बड़ा जड़ाऊ और देखने में बहुत बढ़िया लगा। कितने का है जरा बताना?

उसने कहा माताजी यह चार सौ रुपये का है। बेटे! चार सौ में तो एक नग भी नहीं मिलता हीरे का। इसको कहाँ से उठा लाया? चल और किसी को बहकाना। माताजी को बहकाने आया है। उसने सही बात बता दी कि चार सौ का है। मैं तो कह रही हूँ कि जितने आप बैठे हैं। ये कितने के हैं? चार सौ के हैं, पर अब सही हीरा बनने के लिए तैयार हो जाइए। फिर देखिए आपकी बोली कितने की लगेगी? करोड़ों की, अरबों की लगेगी। उतनी लगेगी, जितनी गाँधी जी के सिर की लगी थी। किसी ने यह कहा था कि गाँधी जी का सिर हमें मिल जाए, तो अरबों-खरबों निछावर कर दें, इसके ऊपर। अरबों-खरबों निछावर कर देंगे इस एक सिर के लिए, फिर आप तो इतने बैठे हैं।

बेटे! हीरा बनने के लिए तैयार तो हो जाइए, फिर देखिए आपके अन्दर से कैसी-कैसी सतरंगी किरणें निकालते हैं। फिर हम आपको कैसी बढ़िया मूर्ति के रूप में, उस सन्त के रूप में खड़ा करते हैं। कुछ ऐसा, जो सारा संसार आपको देखता रह जाए और पूजता रह जाए, पर हम अपने बच्चों को पीछे इसलिए रखते हैं कि कहीं इनमें अहंकार न आ जाए। हमने पुजवाकर भी देख लिया है। बस, पूजने को ही नहीं कहेंगे कि कोई इन्हें पूजना।

यदि देना ही हो तो श्रद्धा जरूर देना। व्यक्ति की निष्ठा को आगे बढ़ाना; लेकिन पूजना मत हर किसी को। पूजा आपको गया, पर हमारा तो बिचारा लाख का हीरा खाक में मिल जाता है। हम क्या करें तुम्हारी पूजा का, हमें नहीं चाहिए ऐसी पूजा। हमें तो वह पूजा चाहिए, जिससे आप भी आगे बढ़िए और दूसरों को भी आगे बढ़ाइए। क्यों साहब! हम कैसे आगे बढ़ेंगे? यही तो मैं अभी कह रही थी कि श्रद्धा के बल पर और लोकमानस के सहयोग के रूप में आप आगे आइए।

आप देखिए कि जितने भी सन्त हुए हैं, कबीरदास से लेकर अभी तक सभी ने उपासना की है। उन्होंने उपासना तो की भगवान की; लेकिन सारी की सारी जिन्दगी लोक-मंगल के लिए लगा दी। जब तक उनके शरीर में प्राण रहे, तब तक वे भगवान की उपासना करते ही रहे। भगवान की जो सही रूप में उपासना करता है, वह उसी रूप में उन्हें पा लेता है।

हम अपने मल और विक्षेप को हटाने के लिए तैयार नहीं होते। अपनी मलीनताओं को त्यागने के लिए हम तैयार नहीं होते। मोह और लोभ की जंजीरों से हम इस कदर जकड़े रहते हैं कि उनको खोल ही नहीं पाते। अगर उसको एक झटका दे दें, तो वे जंजीरें अलग जाकर गिर जाएँ, जिनमें हम जकड़े रहते हैं।

कृपा करके आप उन जंजीरों से निकलिए और देखिए कि आप कुछ पाते हैं कि नहीं पाते। तो फिर हमको करना क्या पड़ेगा? बेटे, बहुत बड़ा तो कुछ नहीं करना पड़ेगा। देखो, आप कुछ नहीं करेंगे, तब भी यह परिवर्तन तो होने ही वाला है। यह क्रान्ति तो हर हालत में होनी ही है।

हर विषम समय में भगवान ने जन्म लिया है। सन्त के रूप में, शहीद के रूप में शक्तियाँ आती रही हैं और आती ही रहेंगी। जब-जब समय पड़ेगा, वे शक्तियाँ आती रहेंगी इनसान के रूप में और परिवर्तन होता रहेगा। जो कि आदिकाल से होता चला आया है। भगवान राम के समय से लेकर कृष्ण के समय तक, बुद्ध के समय से लेकर गाँधी के समय तक और अब तो सतयुग की वापसी का इन्तजार है।

इस समय तो कलियुग है। हाँ बेटे, घोर कलियुग है। ऐसा कलियुग है कि बस, आपसे क्या कहें। आपको यह भयावह दिखाई पड़ रहा है कि नहीं पड़ रहा है। सारे संसार में कैसी चीत्कारें मच रही हैं। इस विज्ञान का क्या ठिकाना है? जो विज्ञान सर्वनाश पर तुला हुआ है। क्या इसे कोई शान्ति देने वाला है? कोई अक्ल देने वाला है कि ये सारा-का-सारा संसार हमारा विनाश के कगार में चलता हुआ चला जा रहा है?

हमारी आग ले जाएँ

विध्वंशकारी है यह विज्ञान। विज्ञान है न, अकल है न? बेटे! यह किस काम की। किसी काम की नहीं है यह अकल। अब हम आपसे क्या कहें इस अकल के बारे में; लेकिन यदि यह अकल श्रद्धा उभारे तब, भावनाएँ उभारे तब? तो हम उनको वह शक्ति दें कि सारा संसार शान्ति पा सके, सन्तोष पा सके और प्रेरणा पा सके। इसी के लिए हम समय-समय पर आपको झकझोरते रहे हैं और आज भी आपको झकझोर रहे हैं। जब कभी भी आप आएँगे, हमेशा आपसे एक ही प्रार्थना हम करते रहेंगे कि बेटे आप हमारी आग को ले जाइए।

कौन-सी आग है हमारी? वह हमारी जनमानस की आग है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है। वही मैं कह रही थी कि गुरुजी के अन्तरंग में घुसिए, तो आपको एक ऐसी धधकती हुई ज्वाला नजर आएगी। वह ज्वाला यह कह रही है कि बेटे, आप घर में से निकलकर आओ। आप अभी भी नहीं देख पा रहे हैं। तो कोई ऐसा समय आएगा, जब आप हाथ मलते हुए रह जाएँगे और यह कहेंगे कि एक सन्त इस दुनिया में आया था। जिसने हमको दिशा दिखाई थी और यह कहा था कि इस रास्ते पर चलो, पर हमने गवारा नहीं किया। हम उसके लिए तैयार नहीं हुए। फिर आप सब ढूँढ़ते रहेंगे, और आप अन्य सबकी झोली में जाते रहेंगे। कहाँ से कहीं से कुछ भी मिल जाए, पर क्या मिल जाएगा?

धिक्कार है चमत्कार पर

कई लड़के आते हैं और कहते हैं कि हम तो वहाँ गए थे। हमने उनका ऐसा चमत्कार देखा। क्या चमत्कार देखा? उन्होंने बालों में से बालू निकाल दी। अच्छा और क्या किया? उन्होंने हाथ की मुट्ठी में से लौंग निकाल दी। अच्छा यह तो बड़ा भारी चमत्कार है और पानी में चलना सिखा दिया। और क्या किया? आहा, पालथी लगाई और ऐसे उड़ते चले गए कि वाह। अच्छा, ये सिद्धियाँ, यह चमत्कार।

बेटे! इस चमत्कार को धिक्कार के योग्य कहूँगी। यह चमत्कार है कोई? कोई चमत्कार नहीं है। यह हाथों का खेल है, चाहे बालू निकाल दो और चाहे लौंग निकाल दो। क्या हुआ लौंग निकालने से? हम कहें सिद्धि ही सही, पर कौन-सी सिद्धि है? जिससे इनसान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, उसके हृदय का परिवर्तन नहीं हुआ। यह कौन-सी उपासना है? यह कौन-सा तप है?

तप वह है, जो कि व्यक्ति को बनना सिखाता है। अँगुलिमाल गए थे भगवान बुद्ध के पास। किसके लिए गए थे? लूट-पाट करने के लिए। लेकिन जब उनका सही रूप देखा, तब उन्होंने कहा कि जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो न, वह रास्ता धिक्कारने योग्य है और हम जो रास्ता बता रहे हैं, वह सही रास्ता है। बात समझी और अँगुलिमाल सन्त हो गए। जिस युग में जो आवश्यकता होती है, अगर उसके अनुरूप व्यक्ति नहीं उठता है, तो फिर वह कभी नहीं उठ सकता। वह कुछ कर सकेगा? नहीं, कुछ नहीं कर सकेगा।

आज युग की माँग है—संगठित होना। जिसके लिए आपसे समय-समय पर कहा जाता है कि एक से पाँच बनिए, पाँच से पच्चीस बनिए। आप प्रज्ञामण्डल बनाइए, आप गोष्ठियाँ करिए, सत्संग चलाइए। आपने दीपयज्ञ किया।

संगठन की शक्ति

इसके पीछे क्या राज छिपा है, आपको मालूम है? आपको तो केवल क्रियाकलाप ही मालूम हैं कि हमसे यह कह दिया गया है। एक से पाँच बनाओ, पाँच से पच्चीस बनाओ। संगठन बनाओ। हाँ बेटे, संगठन में बहुत बड़ी शक्ति है। संगठन तभी बन पाता है, जब व्यक्ति के अन्दर से वह स्फुरणा पैदा होती है और वह ललक होती है कि हमको कुछ कर गुजरना है। जो कर गुजरना है, वह हमारा विश्वास कराता है। सारे-के-सारे कार्य उसकी आस्थाएँ कराती हैं।

देखिए साहब! हम तो जाते हैं, पर कोई सुनता ही नहीं है। सुनेगा कैसे? आपके अन्दर वह शक्ति है कि कोई आपकी सुने? आप मरे-मराए से, बुझे-बुझाए-से तो हैं। बीमारी के मारे-से तो हैं, टी. बी. के मारे-से तो हैं। नहीं साहब! टी. बी. कहाँ है हमको? देखिए हम तो बिलकुल हट्टे-कट्टे बैठे हैं। आप देखने में हट्टे-कट्टे बैठे हैं, लेकिन आपके चेहरे से देखा जाए, तो आपके अन्दर वह ओज नहीं है, जो ओज होना चाहिए। आप अपने को ओजवान बनाइए।

बेटे! हम कब कहते हैं कि माँ के पेट से ऐसे बच्चे पैदा नहीं होते, जो कि शक्ति लेकर चले आते हैं। कुछ पीछे बनते हैं, आप भी अब बनिए न। अब समय आ गया है, आप आगे बढ़िए। अपने घर की महिलाओं को आगे बढ़ाइए। अपनी पत्नी को भी आगे बढ़ाइए। नहीं साहब! हमारी पत्नी आगे बढ़ेगी, तो हमारी नाक कट जाएगी। कट जाने दें नाक को, एक दिन कटनी है, तो कट-कटा जाए क्या हर्ज है? यहीं रख जाना अपनी नाक को, काट करके शान्तिकुञ्ज में फेंक जाना। इनको आगे तो बढ़ाइए। आप आगे तो चलिए। आप आगे चलना नहीं चाहते हैं, आप कुछ करना नहीं चाहते हैं। जिस दिन आपके मन में कुछ करने की भावना पैदा होगी, फिर देखिए आप आगे-आगे चलते हैं कि नहीं। लोग आपकी बात को सुनते हैं कि नहीं सुनते। देखना सब सुनेंगे।

बेटे! आपके साथ हम हैं न, पर आपको विश्वास नहीं है। जिस दिन आपको यह विश्वास हो जाएगा कि हमारे साथ गुरुजी हैं, माताजी हैं, गायत्री माता हैं और एक कितनी बड़ी फौज आपके साथ खड़ी है। फिर देखिए आपके अन्दर शक्ति आती है कि नहीं आती है। गुरुजी के साथ कौन था? बेटे परोक्ष था, प्रत्यक्ष तो कोई नहीं था।

कब आती है शक्ति?

उनके साथ परोक्ष था और उनकी श्रद्धा थी, उनकी निष्ठा थी। उसने इतनी शक्ति उनके अन्दर भर दी कि मैं तो यह समझती हूँ कि सारा विश्व एक तरफ और वे अकेले एक तरफ हैं। शक्ति है कि नहीं? बिलकुल शक्ति है। शक्ति कब आती है? शक्ति तब आती है, जब हम उठने को तैयार होते हैं—हम यदि उठने को, आगे बढ़ने को तैयार नहीं होते और गिरने को तैयार होते हैं, तो दस लोग धक्का देने वाले तैयार हो जाएँगे। यदि हम उठने के लिए तैयार होंगे, तो हमको हजार हाथों से उठाया जाएगा।

शीरी-फरहाद की घटना

शीरी-फरहाद का किस्सा आपने सुना होगा। शीरी फरहाद से विवाह करना चाहती थी। उसके पिता ने कहा कि इसकी शादी की जाएगी, पर इस तरीके से शादी नहीं करेंगे। उन्होंने सोचा जब किसी तरीके से बला नहीं कटेगी, तो एक तरीके से कटेगी। सो उन्होंने कहा कि देख भाई! तू पहाड़ को काट करके और नहर निकालना, तब हम शादी करेंगे। पहले उसके मन ने कहा कि शक्ति ही नहीं है, हमारे अन्दर तो इतना बड़ा काम कैसे कर लेंगे? फिर उसकी अन्तरात्मा ने शक्ति को झकझोरा—शक्ति कैसे नहीं है? अभी निकालते हैं और बातों-ही-बातों में वह नहर निकाल लाया। अकेला जूझा, अकेला कर लाया?

नहीं बेटे, व्यक्ति अकेला नहीं करता। उसके साथ में समूह होता है। संगठन में बहुत बड़ी शक्ति होती है। इतनी बड़ी शक्ति होती है कि जब पुल पर से फौज निकलती है, तो उनसे पहले से कह दिया जाता है कि देखिए जिस तरह आप रोड पर चलते हैं, ऐसे मत चलना, नहीं तो पुल टूट जाएगा। आप बिखरे हुए चलना। कदम ताल, लेफ्ट-राइट, लेफ्ट-राइट करते मत चलना। समझ में आ गई कि संगठन में बहुत बड़ी शक्ति है।

जो कोई आता है, आपके संगठन की ओर देखता हुआ चला जाता है। सबके मुँह में पानी आता रहता है। मैं संगठन की बात को बता रही हूँ। जब आप संगठित हो जाएँगे और जिधर भी निकलेंगे, जैसे अभी आप जब हरिद्वार में निकलते हैं, तो सारे के सारे यह देखते हैं कि ये कौन आ गए?

ये सेना कहाँ की आ गई? किनकी है? शान्तिकुञ्ज वालों की, गुरुजी की है ये सेना। अन्य जगह तो दिखाई नहीं पड़ते, पर यहाँ हर समय दिखाई पड़ते हैं। क्यों? यहाँ का वातावरण है न। यहाँ संगठित हैं। ये हमारे हैं और हम इनके हैं।

हम आपके और आप हमारे

बेटे! हम आपके हैं और आप हमारे हैं। हम आपको कैसे बताएँ? आपके दुःख-दरद और पीड़ा में किस कदर हम आपके ऊपर छाए रहते हैं, यह हमारी अन्तरात्मा ही जानती है। यह बात अलग है कि हम आपकी मदद कर पाए कि नहीं कर पाए? यह तो आपका प्रारब्ध होगा, प्रारब्ध भोग होगा। जब अभिमन्यु मारा गया, तो सुभद्रा रोती हुई आई और उसने कृष्ण से कहा—"आप मेरे भाई और अर्जुन के मित्र हैं। मेरा लड़का अलग है, जो देखते रहे, ऐसा कैसे हो गया?"

तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—"बहन, भगवान तो जरूर हूँ और कुछ करना चाहता तो कर भी सकता था; लेकिन कर्मबन्धन और प्रारब्धजन्य जो भोग हैं, वे तो हर इनसान को भोगना चाहिए। तुझे भी भोगना चाहिए और मुझे भी भोगना चाहिए। भोग या तो बच्चा भुगतेगा या बाप भुगतेगा। कर्ज कौन अदा करेगा? या तो बेटा करेगा या बाप करेगा। या तो शिष्य स्वयं ही भोगे यदि स्वयं भोगने में सक्षम नहीं है और गुरु की उदारता है, क्योंकि वह उनका बच्चा है, उनका शिष्य है तो गुरु भोगे।"

गुरु आत्मबल ही नहीं देता; बल्कि उसके जो दुःख, कष्ट, कठिनाइयाँ होती हैं—उन्हें भी अपने ऊपर लेता है। भोगेगा? भोगना चाहिए, हम भी भोगने के लिए तैयार हैं। हमें भी भगवान किसी के बदले में कोई ऐसी बीमारी देता है, तो हम सहर्ष उसको स्वीकार करेंगे; लेकिन हम विश्वास के साथ कहते हैं कि जो भी आपके कष्ट-कठिनाई और पीड़ा है? हर सम्भव यह प्रयास करेंगे कि आप उस दलदल में से निकलें। मान लीजिए, यदि किसी तरीके से आप नहीं निकल पाए, तब हम आपको शक्ति देते रहेंगे कि आप उन परिस्थितियों से या तो तालमेल बैठा लें या कुचलकर फेंक दें। आपको वह शक्ति देंगे। शक्ति के रूप में आत्मबल देंगे।

कुछ समय पहले एक सज्जन आए। उन्होंने कहा कि आप सरकार से कोई सहायता नहीं लेते? सरकार क्या देगी हमको? हम देंगे, आप क्यों देंगे? मैंने कहा ऐसी प्रखर बुद्धि के व्यक्ति देंगे। हम संस्कारवान और परिष्कृत व्यक्ति देंगे, जो जिधर जाएँ, उधर ही माहौल ऐसा बढ़िया बना करके रख दें। सरकार और मिल जाए, तो वहीं-के-वहीं हमारे व्यक्ति दिखा दें कि कैसे काम होता है। हम तो वह देंगे आपको। हम श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, आप बनिए। आप यहाँ से कुछ बन करके जाइए। यहाँ आप अपनी संकीर्णताओं को और क्षुद्रताओं को छोड़ करके जाइए।

सारे संसार में विकृतियाँ फैली हुई हैं, इनके लिए हम आपसे कुछ माँगते हैं। क्या माँगने आए हैं? हम माँगने आए आपका समय, आपका श्रम, आपकी श्रद्धा, आपकी भावनाएँ। हम कुछ और माँगने के लिए नहीं आए हैं। पैसा माँगने के लिए मत कहना। हम कोई भिखारी हैं? नहीं बेटा! हम भिखारी नहीं हैं, जो आपके सामने पल्ला फैलाएँगे। भगवान के सामने फैलाएँगे, जिसने सारा-का-सारा हमको सहयोग दिया है। वही भगवान आपके अन्दर आएगा, वही कराएगा, वही करेगा। आपसे क्यों कहेंगे? आपसे नहीं कहेंगे। आपसे एक ही बात हम कहेंगे कि जो पीड़ा और पतन आपको पुकार रहा है? उसके लिए आप खड़े हो जाइए और आगे बढ़िए।

कुरीतियों को दूर करें

आपको मालूम नहीं है कि हमारी कितनी कन्याएँ जला दी गईं हैं। कितनी मार दी जाती हैं, कुँवारी रह जाती हैं। क्या उनकी चीत्कार कानों में नहीं पड़ती? पड़नी चाहिए। अन्यान्य विकृतियाँ हैं, जो कि हमारे समाज में कोढ़ हैं। वह कोढ़ पुकार रहा है कि भाई! कोई मरहम लगाओ, कोई पट्टी बाँधो। आपकी जरूरत है और आपको उनके साथ होना ही चाहिए। काम तो होगा ही; लेकिन रीछ-वानरों को जैसा श्रेय मिला था, हम चाहते हैं कि आपको हनुमान के तरीके से श्रेय मिल जाए। मिलेगा तभी, जब आप हनुमान बन जाएँ।

हनुमान क्या थे? नौकर थे? नहीं। और क्या थे? बन्दर थे। अच्छा तो हनुमान बड़े शक्तिशाली थे। हाँ, इसमें कोई दो राय नहीं, वे बड़े शक्तिशाली थे। कब थे शक्तिशाली? तब थे, जब भगवान राम से जुड़ गए। भगवान राम से जुड़ गए, तो भगवान ने उनके अन्दर वह शक्ति भर दी कि सारी लंका को जला आए और सुरसा के मुँह में होकर भी निकल आए।

हाँ बेटे, यह समाजरूपी जो सुरसा है और हमारे लोभ-मोहरूपी जो सुरसा है, जो कि मुँह फाड़े खड़ी है। यह कहती है कि हमारे लिए, बस, हमारे लिए। हमसे आगे और किसी का नहीं है। आप खड़े हो जाइए कि नहीं, हम केवल आपके ही नहीं, बीबी के ही नहीं हैं, बच्चों के ही नहीं हैं। अगर किसी माने में हैं, तो अपने फर्ज और कर्तव्य के हैं। बाकी हमको कोई जकड़ नहीं सकता। जो जंजीर हमको जकड़ेगी, उसको हम तोड़कर फेंक देंगे। आप तोड़कर फेंकिए, उन जंजीरों को। कृपा करके आप श्रद्धा और निष्ठा की जंजीरों में बँधिए, जिसमें आपका भी कल्याण है और सारे संसार का भी कल्याण निहित है। इस कार्य के लिए आप आगे आइए।

विदाई के क्षण

आज विदाई देते हुए, मेरे अपने मन में तो लग रहा है कि मेरे बच्चे यहाँ से जा रहे हैं। मैं इनसे कुछ पूछ भी नहीं सकी। आए भी तो बेचारों को लाइन में खड़ा कर दिया। बेटा, आप कह जाइए अपनी बात और यह मत समझना कि माताजी ने हमसे कुछ पूछा नहीं था। बेटे, हम जाने-अनजाने सब कुछ जानते हैं। आप जब सोते हैं, तब हम जागते हैं। अपने प्रत्येक बच्चे के सिर पर हम हाथ फिराते रहे हैं और यह वायदा करते रहे हैं कि हम आपके हैं। चाहे आपने कुछ कहा है, चाहे आपने नहीं कहा है, पर हमने आपको पढ़ लिया है; क्योंकि आप सब हमसे जुड़े हुए हैं।

आज आप विदा हो रहे हैं। आप जहाँ कहीं भी रहें, भगवान आपकी रक्षा करता रहे। जो कुछ भी हमसे बन पड़ेगा, हम भी आपकी रक्षा के लिए करेंगे। जहाँ-कहीं भी रहें, आप हमारे बन करके रहिए। हम आपके बनकर रहें और आप हमारे बनकर रहिए। आपको गुरुजी की, हमारी शक्ति मिले और भक्ति मिले।

आप यहाँ से भक्ति लेकर के जाना। आशीर्वाद में हम केवल अपने हृदय की आग की चिनगारी आपको समर्पित करते हैं। हम आप सबकी झोली में उस चिनगारी को डालते हैं। आप उस चिनगारी को लेकर के जाइए और उस चिनगारी को लगा तो दीजिए, फिर देखिए कि वह दावानल के रूप में दहकती हुई आपको दिखाई पड़ेगी।

बेटे! आप उस आग को लेकर के जाइए। जिसकी समाज में जरूरत है और मानव जाति को जरूरत है। उसको ऊँचा उठाइए, जो पीड़ा-पतन में गिरी जा रही है। जो सिसक रही है, उसको जीवनदान देना है। उसको ज्ञान देना है और प्रकाश के बिना ज्ञान नहीं आ सकता। जब ज्ञान आएगा, तब अज्ञानता हटेगी। अज्ञानता का अन्धकार हटेगा और ज्ञान का सूर्य उदय होगा।

ज्ञान मिलता है साहित्य के द्वारा। जितना हम उसको पिएँगे, अक्षर नहीं पढ़ेंगे केवल। अक्षर पढ़ना बात अलग है। ज्ञान अक्षर से नहीं बनता। किससे बनता है? उस साहित्य से, जिसमें गुरुजी ने कितनी आग उड़ेली है। उसके एक-एक अक्षर को आप पढ़िए तो सही।

आप तिलमिला जाएँगे। अरे यह क्या कह दिया? आप कहाँ पर चली गईं? साहित्य को आग ही बता दिया। हाँ, यह आग ही तो है, मैं कह रही हूँ। इस आग को, इस चिनगारी को आप फैलाइए। इस चिनगारी के रूप में आप यहाँ से आशीर्वाद लेकर के जाइए। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।

न त्वहं कामये राज्यं, न सौख्यं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनाम् आर्त्तिनाशनम् ॥

॥ ॐ शान्तिः ॥