नारी को रचनात्मक दिशा दी जाय

उपेक्षा और पिछड़ेपन ने नारी की क्षमता और उमंग को कुण्ठित करके रख दिया है। अस्तु जो कुछ वह वर्तमान स्थिति में वर्तमान साधनों से कर सकती है, वह भी नहीं कर पाती। आवश्यकता इस बात की है कि उसकी उमंगें जगाई जाँय। विचार-पद्धति में प्रगतिशीलता जोड़ी जाय। साहस बढ़ाया जाय। इस बात का प्रशिक्षण दिया जाय कि वह आज की स्थिति में ही अपने और परिवार के विकास के लिए क्या कर सकती है? अयोग्यता की भर्त्सना तो होती है, पर यह नहीं बताया, दिखाया जाता कि उसे किस प्रकार, क्या करना चाहिए। अभ्यस्त ढर्रे को प्रगतिशील परिवर्तन में बदलने के लिए नये सिरे से सोचना, नया साहस समेटना और नया प्रयास करना पड़ता है। इसके लिए उपयुक्त परामर्श, मार्गदर्शन एव सहयोग की आवश्यकता होती है। महिला जागरण अभियान के अन्तर्गत इसी स्तर का प्रशिक्षण चलना है जिससे सामान्य स्तर की—सामान्य परिस्थितियों में रह रही नारी भी गृह-लक्ष्मी की भूमिका निभा सके। इतना ही नहीं, सम्पर्क क्षेत्र में वह कुछ सेवा कार्य भी कर सकती है और ऐसे प्रयत्नों में योगदान दे सकती है, जो नारी-समाज के उत्कर्ष में सहायक सिद्ध हो सके।

संगठन और सत्संगों का वातावरण इसी प्रकार के प्रशिक्षण की पृष्ठभूमि बनाने में निरत रहेगा। आगे चलकर पारिवारिक-गोष्ठियों, शिविरों तथा दूसरे प्रकार के प्रचार-प्रशिक्षणों के जो कदम बढ़ेंगे, उनका उद्देश्य भी नारी-जीवन में घुसी हुई अनेकानेक विकृतियों का निराकरण करना और परिवार में स्वर्गीय वातावरण बना सकने के लिए मार्ग-दर्शन करना ही होगा। धर्मतन्त्र से लोक-शिक्षण का अवलम्बन लेकर चलने वाले महिला जागरण अभियान का उद्देश्य नारी को मात्र पतिव्रता ही नहीं, वरन् सुगृहिणी बनाने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करना ही होगा।

नारी से परिवार-संस्था के विकास में, सामाजिक प्रगति में तथा व्यक्तिगत सहयोग में कुछ कहने लायक योगदान प्राप्त करना हो तो उसकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। महिला जागृति अभियान का प्रयत्न होगा कि नारी को वे सुविधाएँ मिलें जिन्हें मानवी मौलिक अधिकार माना जा सकता है। (१) स्वास्थ्य, (२) शिक्षा, (३) स्वावलम्बन, (४) सम्मान। यह चार आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जिनके सहारे ही व्यक्तित्व उभरते और निखरते हैं। हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि अगले दिनों ऐसा वातावरण बने, जिसमें इन चारों सुविधाओं को नारी बिना किसी अड़चन और संघर्ष के विकसित विवेक के आधार पर ही प्राप्त कर सकने में सफल हो सके। इस दिशा में निम्न परिवर्तन हो सके, ऐसे प्रयत्न आरम्भ कर दिये जाने चाहिए।

(१) गरीबी-अमीरी में भोजन-वस्त्र जिस स्तर का भी मिले, उससे गुजारा हो सकता है, पर समय की व्यस्तता में इस तरह उलझकर न रहा जाय कि घर के ताने-बाने में से विश्राम, अध्ययन आदि के लिए अवसर ही न मिले। भोजन करने का समय निर्धारित नहीं होता तो गई रात तक चौका चलता रहता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि नियत समय पर रसोई बन्द कर दी जाय और जिन्हें देर में खाना है, वे गरम रोटी का आग्रह न करके कुछ घण्टे पहले बना हुआ भोजन कर लिया करें। देर में सोने और सबेरे जल्दी उठने के फल-स्वरूप महिला का स्वास्थ्य आमतौर से बिगड़ता है। परिवार की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए, जिसमें काम के घण्टे नियत हों और सोने-जागने के लिए उचित समय सन्तुलन बना रहे। इसी प्रकार प्रजनन का अनावश्यक भार नारी पर न लादा जाय। आहार-विहार की अस्त-व्यस्तता से एक तो वैसे ही स्वास्थ्य गया-गुजरा रहता है, इस पर भी प्रजनन का भार चलते जाने से वे दुर्बलता एवं रुग्णता में दिन-दिन ग्रसित होती जाती हैं। रोते-कराहते, जीने और बेमौत मरने के लिए प्रजनन का दबाव कितना घातक होता है, इसे अनुभव किया जा सके तो नारी के स्वास्थ्य की बर्बादी रुक सकती है। घूँघट, पर्दे में कैद रहने, खुली धूप, हवा का अवसर न मिलने, विनोद परिवर्तन की गुंजायश न रहने से नारी का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है। हर व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि इस दबाव से राहत देकर नारी के स्वास्थ्य की बर्बादी कैसे रोकी जा सकती है।

(२) शिक्षा मनुष्य की बहुमूल्य सम्पदा है। उसी के सहारे नर-पशु को विचारशील मनुष्य बनने का अवसर मिलता है। रोटी के बिना शरीर की और शिक्षा के बिना मस्तिष्क की दुर्गति होती है। नौकरी के लिए पढ़ाई की आवश्यकता है, यह सोचकर नारी-शिक्षा की उपेक्षा करना उसे मानसिक दृष्टि से अपंग बना देने जैसा अन्याय है। अशिक्षिताओं को घर में शिक्षा प्राप्त करते रहने की सुविधा मिलनी चाहिए। जो थोड़ी पढ़ी हैं, अधिक और पढ़ना चाहती हैं, उन्हें उसके लिए अवसर मिले। पुस्तकालयों की सुविधा उनके लिए हो। इसके अतिरिक्त अनुभव सम्पादन तथा मान-संवर्धन के लिए महिला जागरण जैसे अभियानों में सम्मिलित होने का उसे अवसर दिया जाय। इन प्रयोजनों के लिए यदि कहीं सत्र, शिविर, प्रशिक्षण चलते हों तो उनकी जानकारी तथा सम्मिलित होने की सुविधा मिलनी चाहिए। नारी जागरण अभियान एवं विवेक को विकसित करने वाले प्रयास सदा ही किए जाते रहने चाहिए।

मात्र स्कूली पढ़ाई ही शिक्षा की सीमा नहीं है, वह तो प्रारम्भिक प्रवेश-द्वार भर है। नारी को अपने व्यक्तित्व के विकास एवं कर्तव्य निर्वाह सम्बन्ध में अति महत्त्वपूर्ण जानकारियों का समुचित ज्ञान होना चाहिए। स्वास्थ्य किन कारणों से नष्ट होता है और उसे गरीबी में भी किस प्रकार बचाया जा सकता है, इसकी जानकारी हो तो बीमारियों से कराहने और डाक्टरों के दरवाजे खटखटाने का अवसर ही न आवे। सामाजिक कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ, अवांछनीयताएँ किस प्रकार मनुष्य की आधी शक्ति नष्ट करती हैं, यह समझ में आ सके तो मस्तिष्क पर छाई रहने वाली विडम्बनाएँ रचनात्मक दिशा में लग सकती हैं। शिशु पालन, दाम्पत्य जीवन में परिवार में, भावनात्मक स्नेह सौजन्य का अभिवर्धन—उतार-चढ़ावों के बीच सन्तुलन स्थिर रखने जैसी अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ हैं, जिन्हें उपलब्ध करने के उपाय खोजे और सोचे जाने चाहिए।

(३) प्राचीनकाल में स्त्री-धन के रूप में जेवर आदि नारी को दिये जाते थे। विवाह में दहेज का प्रचलन भी इसी निमित्त था कि पिता की ओर से और ससुराल की ओर से कुछ स्त्री-धन नव-वधू को मिले और वह समय-कुसमय के लिए सुरक्षित रखे हैं। इस प्रचलन को जेवर के रूप में तो नहीं, पर बचत-धन के रूप में नारी के नाम से बैंक में रखा जाय। लम्बे समय के डिपाजिट में अब तो ब्याज भी अच्छा मिलता है। तीज-त्यौहार तथा मासिक जेब-खर्च के रूप में नारी के नाम से इस बचत का प्रचलन रखा जाय। इससे वह ब्याज के रूप में भी कुछ उपार्जन करती रह सकती है। आड़े वक्त में यह धन परिवार के भी काम आ सकता है।

(४) छोटे-मोटे कारणों पर गाली-गलौज, मार-पीट का स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाला व्यवहार अभी भी देखने को मिलता है। 'तू' और 'तुम' का अन्तर तो आमतौर से देखा जाता है। दुलार और आत्मीयता में तो कोई भी किसी से एकान्त में 'तू' कह सकता है, पर सामाजिक प्रचलन की दृष्टि से परम्परा एक जैसी होनी चाहिए। तू, तुम, आप इनमें जैसा जो भी सम्बोधन उपयुक्त समझा जाय, नर और नारी समान रूप से वैसा ही व्यवहार करें। ऐसा शिष्टाचार तो बच्चों के साथ भी बरता जाना चाहिए, ताकि वे उसी प्रकार की आदत बनाएँ और बड़ों, बराबर वालों तथा छोटों से सम्मानसूचक सम्बोधन का उपयोग करें। मार-पीट और गाली-गलौज तो असभ्य युग की जंगली प्रथा है। इस सभ्यता के युग में मनुष्य के साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। मतभेद, भूल, गलती आदि जो भी कारण हों, उनका सुधार, विरोध जो भी करना हो, उसमें भी सभ्यता के तरीके अपनाये जाएँ। अपमान से तो छोटे बच्चे तक रुष्ट होते हैं, फिर बड़ों के लिए तो वह जीवन-मरण का प्रश्न है। हमें बदलते हुए परिवेशों को समझना चाहिए और मनुष्य को मनुष्य के साथ शिष्टाचार की हर स्थिति में रक्षा की जानी है, यह समझना चाहिए।

इन सभी प्रकरणों में व्यक्तिगत स्तर पर घर-घर ध्यान दिया जाना तो आवश्यक है ही, महिला संगठनों को इसके लिए कुछ व्यक्तिगत एवं ठोस सामूहिक प्रयास भी करने चाहिए। नारी को अपने उत्तरदायित्व वहन करने की क्षमता प्रदान करने के लिए कुछ न कुछ निश्चित रूपरेखा एवं कार्यपद्धति हर जगह बनाई जा सकती है।

नारी-उत्कर्ष की दिशा में कारगर कदम क्या हो सकता है, यह विचार करते समय शिक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए। अशिक्षित-नारी को शिक्षित कैसे बनाया जाय? इस प्रश्न पर सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में अपने-अपने उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए साहसिक तैयारियाँ करनी चाहिए। शहरों में तो बहुत कुछ सुविधा है भी। हमें ८० प्रतिशत देहात में रहने वाले भारत पर ही अधिक ध्यान देना चाहिए और वहीं की समस्याओं को प्रमुख मानकर चलना चाहिए। देहातों में कन्या-शिक्षा के अधिकाधिक साधन खड़े करने के लिए सरकार से अनुरोध किया जाय। इसके लिए जन-सहयोग को भी एकत्रित किया जाय, ताकि सरकारी, गैर-सरकारी मिले-जुले सहयोग से सरलतापूर्वक अधिक कार्य बन पड़ना सम्भव हो सके।

पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा के महत्त्व को अभी तक नहीं समझा गया। पढ़ाई का अर्थ नौकरी समझा जाता है। लोग कहते हैं—हमारी लड़की को नौकरी नहीं करनी है, घर-गृहस्थी चलानी है, फिर उसे पढ़ाने से क्या लाभ? छोटी उम्र में ही लड़कों को काम-धन्धे में लगा दिया जाता है, लड़कियाँ माता के घरेलू कामों में हाथ बँटाने लगती हैं। इस सुविधा को अभिभावक छोड़ना नहीं चाहते और बच्चों को पढ़ाने में उत्साह नहीं दिखाते। विचारशील वर्ग का काम है कि शिक्षा के प्रति इस निरुत्साह को दूर करें और जो बच्चे पढ़ने योग्य हैं, उन्हें स्कूल भिजवाने के लिए अभिभावकों से सम्पर्क स्थापित करें। कन्या-शिक्षा में रुचि उत्पन्न करने के लिए पुरुषों की टोलियाँ पुरुषों में और नारियों की टोलियाँ घरों में जाकर नारियों से मिलें। जो लड़कियाँ पढ़ने योग्य हैं, उन्हें स्कूल भिजवाने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करें। छात्राओं की संख्या बढ़ने पर शिक्षा विभाग को उसके लिए प्रबन्ध करना ही होगा। जहाँ वैसी व्यवस्था न हो, वहाँ जन-स्तर पर निजी पाठशाला चलाई जानी चाहिए। लड़कियों को प्राइवेट पढ़कर सरकारी परीक्षा देने की सुविधा है। निजी पाठशालाओं में रात्रि को या सुविधा के समय थोड़ी देर पढ़कर भी लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करती और परीक्षाएँ देती रह सकती हैं।

प्रौढ़ शिक्षा का प्रश्न सबसे महत्त्वपूर्ण है। अविवाहित या छोटी आयु की लड़कियाँ स्कूलों का लाभ उठा सकती हैं। पर जिनकी उम्र बड़ी हो चुकी है, जो विवाहित हैं, जिन्हें घर गृहस्थी सँभालना है, उनको भी अशिक्षित नहीं रहने दिया जा सकता। आज जिनको सामाजिक भूमिकाएँ निभानी पड़ रही हैं, जिनका प्रभाव है, जो समर्थ हैं, आज की समस्याएँ उन्हीं से उत्पन्न होती हैं और उन्हीं के द्वारा सुलझ सकती हैं। छोटी कन्याएँ बड़ी होकर पन्द्रह-बीस साल बाद प्रभावशाली बनेंगी, तब तक वर्तमान पीढ़ी की अशिक्षित महिलाओं को उपेक्षित नहीं रहने दिया जा सकता। आज की समर्थ नारी को आज ही अशिक्षा के चंगुल से छुड़ाया जाना चाहिए।

इसके लिए प्रौढ़ नारी-शिक्षा का प्रबन्ध व्यापक रूप से होना चाहिए। कोई गाँव, मुहल्ला ऐसा न रहे, जहाँ इस प्रकार की व्यवस्था न हो। सेवा-भावी संस्थाएँ यह कार्य बड़ी अच्छी तरह कर सकती हैं। महिला जागरण अभियान को तो इस प्रयास में पूरी तत्परता के साथ जुटना ही चाहिए। समय तो दो से पाँच यही तीन घण्टे का रह सकता है। काम-काजी महिलाओं के पास और कोई समय बचता ही नहीं है। शिक्षित महिलाएँ अपना समय इस समय पढ़ाने के सेवा-कार्य में दिया करें। अशिक्षित नारियों के घरों पर जाकर उन्हें पढ़ने का महत्त्व समझाया जाय, रुचि जगाई जाय, संकोच छुड़ाया जाय और घर वालों को सहमत किया जाय कि वे उन्हें पढ़ने जाने देने में अड़चन उत्पन्न न करें। पाठशाला का स्थान—अध्ययन के लिए सेवा-भावी महिलाओं का सहयोग—शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले उपकरण, बिछावन आदि का प्रबन्ध करने के साथ ही घर-घर जाकर अशिक्षित या स्वल्प-शिक्षित महिलाओं को पढ़ने के लिए रजामन्द करना भी एक बड़ा काम है। इन सब प्रयोजनों में लगातार लगा रहा जाय, अनुत्साह एवं अन्य कठिनाइयों के कारण उत्पन्न होने वाली अड़चनों से आये दिन निपटते रहने का साहस सँजोये रहा जाय, तो कोई कारण नहीं कि नारी प्रौढ़-शिक्षा की गतिविधियाँ हर जगह न चल पड़ें। इसके लिए थोड़ी-सी अर्थ व्यवस्था चाहिए। उसकी भी कमी न रहेगी। सेवा-सहयोग अब भी भारत की नस-नाड़ियों में मौजूद है। आवश्यकता उसे जगाने-उभारने भर की है। उसकी पूर्ति जागरण अभियान को करनी है। साक्षरता समय की आवश्यकता है। उसकी पूर्ति हमें करनी ही चाहिए। जो शिक्षा प्राप्त करने योग्य हैं, उन्हें निरक्षरता का कलह अपने सिर पर से धो ही डालना चाहिए। गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में प्रौढ़ महिला पाठशालाएँ चलनी चाहिए।

स्वल्प-शिक्षित महिलाओं के, आगे पढ़ने के लिए भी इसी प्रकार के प्रयास होने चाहिए। निरक्षर—साक्षर बनें। साक्षर—आगे की पढ़ाई आरम्भ करें। जिनकी शिक्षा सन्तोषजनक है, वे दूसरों को पढ़ाने का सेवा-धर्म स्वीकार करें। जूनियर हाईस्कूल तक की पढ़ाई के लिए रिटायर अध्यापकों-अध्यापिकाओं की सेवाएँ आसानी से उपलब्ध हो सकती हैं। यदि पूर्ण अवैतनिक सेवा-भावी अध्यापक न मिले तो जेब-खर्च जैसा उपहार देने की व्यवस्था भी जुटानी चाहिए। प्रभावशाली नर-नारियों को अपने प्रभाव, परामर्श का उपयोग इस प्रकार करना चाहिए कि महिला शिक्षा-प्रसार का मार्ग प्रशस्त होता चला जाय। कठिनाइयों को हल करने के लिए ऐसे लोग थोड़ा भी उत्साह प्रदर्शित करने लगे, सहयोग का हाथ बढ़ाएँ—दिलचस्पी लें तो निराशाजनक स्थिति में आशा की किरणें उग सकती हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षा के साथ-साथ नारी प्रस्तुत वर्तमान समस्याओं के समाधान प्राप्त कर सकने वाली जानकारियों का समावेश पूरी तरह रहे। परिवार एक छोटा राष्ट्र है। जिस प्रकार किसी देश की सुव्यवस्था बनाने के लिए उसके विभिन्न विभागों को सुदृढ़, सुव्यवस्थित और विकसित बनाना होता है, ठीक उसी प्रकार परिवार को स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, संस्कृति, अर्थ-व्यवस्था, विकृतियों का निराकरण, कला, सुसज्जा, स्नेह, सहयोग, संगठन आदि से सम्बन्धित अनेकों विधाएँ जुड़ी रहती हैं। बच्चों का निर्माण, बड़ों का सन्तोष और बराबर वालों का सहयोग किस प्रकार सम्भव हो सकता है? इसके लिए नीति, शासन एवं मनोविज्ञान शास्त्र का समन्वय करना चाहिए। घर को गन्दी सराय न रहने देकर यदि हर्षोल्लास का केन्द्र बनाना है तो क्या करना और क्या सोचना होगा? दाम्पत्य जीवन की मधुरिमा किस प्रकार बनी और बढ़ती रह सकती है, इसके कुछ विशेष सिद्धान्त हैं। छोटे-से घरौंदे को आनन्द निकेतन बना देना उच्चस्तरीय कलाकारिता है। यह सारा ज्ञान इतना उपयोगी एवं आवश्यक है कि उसके सहारे किसी भी परिवार को—धरती को स्वर्ग रूप में परिणत किया जा सकता है। यही वह प्रशिक्षण है, जिसे नारी-जीवन का प्राण और परिवार-संस्था का हृदय कह सकते हैं।

स्कूलों में अनेक उपयोगी विषय पढ़ाए जाते हैं, जिनमें एक गृह-विज्ञान भी है। वे भी अपने स्थान पर उपयोगी हैं। पर इनमें उन तथ्यों का समावेश नहीं है, जिनके आधार पर परिवार रूपी एक छोटे राष्ट्र को समस्त समस्याओं का स्वरूप और समाधान सिखाया जा सके। ऐसी पुस्तकें बाजार में भी नहीं मिलती। जो मिलती हैं, उनके पीछे गम्भीर चिन्तन का सर्वथा अभाव है। ऐसे ही छापने-बेचने के लिए कुछ रच लिया जाय तो उससे नारी को सुविकसित बनाने वाली शिक्षा की आवश्यक पूर्ति कहाँ हुई?

महिला जागृति अभियान के अन्तर्गत इस प्रकार का लेखन आरम्भ हो गया है। उसका प्रकाशन भी अगले ही दिनों होने जा रहा है। अपेक्षा करनी चाहिए कि प्रकाशन की पहली किश्त दो-दो रुपया मूल्य की चालीस पुस्तकों के रूप में जून के अन्त तक उपलब्ध हो जायगी। प्रयत्न आगे भी जारी रहेगा और उससे शाखा संगठन अपने यहाँ एक अति महत्त्वपूर्ण पुस्तकालय की आवश्यकता पूरी कर सकेंगे।

प्रत्येक शाखा अपने नगर की शिक्षित महिलाओं की लिस्ट बनाकर उनके घर पर यह साहित्य पहुँचाने और वापिस मँगाने का एक सुनिश्चित कार्यक्रम चलायेंगी। इसके लिए कोई वयोवृद्ध पुरुष भी कारगर हो सकते हैं। इस साहित्य का विक्रय केन्द्र भी शाखा में रहेगा, ताकि जिन्हें यह पुस्तक पसन्द आवें वे उन्हें खरीद भी सकें। कन्या विद्यालयों की छात्राओं को इन्हें पढ़ाने के लिए उनकी अध्यापिकाओं अथवा जिम्मेदार लड़कियों की मारफत प्रबन्ध किया जा सकता है।

विचार यह भी है कि इन पुस्तकों के विधिवत् एवं गम्भीर अध्ययन को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से एक परीक्षा पद्धति आरम्भ की जाय। उत्तीर्ण होने पर सुन्दर बड़े आकार का प्रमाण-पत्र दिया जाय। इसमें इन पुस्तकों के सहारे उपयोगी ज्ञान प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शक कक्षाएँ भी चलाई जा सकती हैं, भले ही वे सप्ताह में एक दिन ही क्यों न काम करें।

नारी-उत्कर्ष और प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन दोनों को एक ही वस्तु के दो पक्ष कहना चाहिए। महिला जागरण के लिए सर्वतोमुखी शिक्षण की तैयारी करने में हमें उत्साहपूर्वक संलग्न होना चाहिए।

नारी के पिछड़ेपन एवं शोषण का कारण मात्र सामाजिक प्रतिबन्ध ही नहीं, अर्थोपार्जन की क्षमता का अभाव भी है। इसी विवशता के कारण उसे दबाया जाता है और दबना पड़ता है। नैतिक दबाव ही पर्याप्त है, विवशता से लाभ उठाने का तथ्य अनुचित है। नारी को समर्थ बनाने के लिए उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले अनुचित दबाव को घटाया जाना चाहिए। शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए तथा आर्थिक स्वावलम्बन की परिस्थितियाँ उत्पन्न की जानी चाहिए। उससे उसका आत्म-विश्वास उभरेगा, परिवार की सम्पन्नता बढ़ेगी और राष्ट्रीय समृद्धि में योगदान मिलेगा।

महिला जागरण अभियान को अपने क्षेत्र में बौद्धिक प्रशिक्षण, संगठन, वातावरण निर्माण, शिक्षा व्यवस्था के साथ ही नारी-स्वावलम्बन की दिशा में रचनात्मक कार्य हाथ में लेने ही चाहिए। नारी पर प्रकृति ने प्रजनन भार लादा है, साथ ही बच्चों की, गृह व्यवस्था की तथा चौकीदारी की जिम्मेदारी रहने के कारण उसे घर की सीमा में ही रहना पड़ता है। जिनके ऊपर वह भार न हो, वे ही बाहर जाकर नौकरी करने की स्थिति में होती हैं। अन्यथा घर-बाहर का दुहरा बोझ उनकी शारीरिक, मानसिक स्थिति को ही नष्ट नहीं करता, परिवार-व्यवस्था को भी लड़खड़ा देता है। अपवादों की बात दूसरी है। पर सामान्यतया नारी का कार्यक्षेत्र परिवार ही है और उसे उसी में रहते हुए अर्थोपार्जन के—स्वावलम्बन के स्रोत खोजने चाहिए। विदेशों में काम-काजी महिलाएँ बच्चों को शिशुगृहों में छोड़कर काम पर जाती हैं और वापिस लौटने पर उन्हें साथ लेती आती हैं। सम्मिलित परिवार वहाँ बिखर चुके हैं। अपने देश में वे हैं तो पर बच्चों को जिस-तिस पर छोड़कर चले जाने से उनकी आदतें बिगड़ने का पूरा खतरा बना रहेगा। ऐसी दशा में उपयुक्त यही है कि व्यापक रूप से आर्थिक स्वावलम्बन की बात घर के दायरे में ही सोची जाय और उसी की गतिविधियों को एक आन्दोलन के रूप में संगठित किया जाय। घर-परिवार के लोगों से कहा जाय कि वे यदि सच्चे अर्थों में अपनी आश्रित महिलाओं के शुभ-चिन्तक हैं तो उन्हें स्वावलम्बन की सुविधा देने में सहयोग प्रदान करें।

उपार्जन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है—एक बचत, दूसरा कमाई। बचत का कार्य तुरन्त हाथ में लिया जा सकता है, थोड़े प्रयत्न और प्रशिक्षण से वह कार्यान्वित हो सकता है। उसमें नकदी सीधी हाथ में तो नहीं आती, पर परिणाम की दृष्टि से लाभ उतना ही हो जाता है। स्त्रियों को उपार्जन क्षमता से रहित माना जाता है, पर उनके द्वारा होने वाली बचत का मूल्यांकन किया जाय तो प्रतीत होगा कि उनके द्वारा परिवार की आर्थिक समृद्धि बढ़ने में बचत प्रक्रिया का कितना अधिक योगदान है? घर में स्त्री न हो, तो भोजन या तो बाजार में खाना पड़ेगा या पकाने के लिए नौकर रखना पड़ेगा। जितने लोगों का भोजन घर में बनता है, उतना बाजार से खरीदकर या नौकर से बनवाकर देखा जाय और फिर घर पर बनने में आने वाली लागत को तोला जाय तो पता चलेगा कि नारी के भोजन बनाने मात्र के श्रम से परिवार की कितनी आर्थिक बचत होती है? बर्तनों से लेकर कपड़ों तक को साफ करने के लिए उसके श्रम का मूल्यांकन तब ही हो सकता है, जब बर्तन साफ करने, सफाई करने, वस्तुओं को यथाक्रम रखते रहने के लिए नौकर रखा जाय और उसे नकद वेतन दिया जाय। घर में कपड़े न धोकर यदि रोज का गट्ठर धोबी के यहाँ भेजा जाय तब पता लगेगा कि उसका बिल कितना बड़ा बनता है। चोर-उचक्कों की कमी नहीं। घर का ताला बन्द करके दुकान जाया जाय और वापिस आने पर उसे खोला जाय तो कुछ ही दिन में चोर पता पा लेंगे और किसी दिन सब कुछ साफ कर देंगे। यह तो सीधे शारीरिक श्रम की बात हुई। दाम्पत्य जीवन की मधुरिमा—पारस्परिक सौजन्य, विपत्ति में सहचर, पीढ़ियों का निर्माण, घर में स्वर्गीय सद्भावनाओं का अवतरण जैसे भावात्मक अनुदान भी तो नारी द्वारा ही बरसाये जाते हैं। इसको भी यदि खरीद-फरोख्त के रूप में तलाश किया जाय तो प्रतीत होगा कि नर की कमाई से नारी की कमाई भी किसी प्रकार कम नहीं है। नर नकदी कमा कर लाता है, इसलिए वह कमाऊ कहलाता है। बचत का महत्त्व ही नहीं समझा जाता, इसलिए नारी बिना कमाऊ समझी जाती है। यदि उपार्जन और बचत के परिणामों पर ध्यान दिया जा सके तो प्रतीत होगा कि दोनों का प्रतिफल समान स्तर का ही होता है।

अर्थ समृद्धि के लिए बचत कार्य में अधिक उत्साहवर्धक कदम तत्काल उठाये जा सकते हैं। ईधन जलाने से लेकर—भोजन परोसने और बचे भोजन को फेंकना न पड़े, ऐसा उपयोग जानना भी एक बड़ा काम है। चूहों और कीड़ों से अन्न की बर्बादी— कपड़ों का जन्तुओं द्वारा नष्ट किया जाना यदि बच सके तो प्रतीत होगा कि इन मदों से होने वाला खर्च कितना घट गया। कपड़े धोने की कला में यदि थोड़ा और निखार हो सके तो पता चलेगा कि धोबी के यहाँ जाने पर कपड़े जितनी जल्दी फटते थे, उसमें कितनी कमी आ गई। पुराने बड़े कपड़ों में से काटकर नये छोटे बना लेना—फटे-टूटों की मरम्मत कर लेना रफूगीरी-रंगाई तथा सिलाई की अच्छी जानकारी रहे तो भोजन के बाद खर्च की दूसरी सबसे बड़ी मद कपड़ों में काफी बचत हो सकती है। थोड़ी-सी टूट-फूट या खराबी होने पर वस्तुएँ बेकार समझ ली जाती हैं और फेंक दी जाती हैं। यदि टूट-फूट की मरम्मत करना आता हो तो इस मद में आश्चर्यजनक बचत हो सकती है। चारपाइयाँ थोड़ी-सी गड़बड़ी होने पर बेकार हो जाती हैं। उनका सुधार करना तथा बुनना आता हो तो वे दूने समय तक काम दे सकती हैं। बर्तन, फर्नीचर, स्टोव, लालटेन, जूते, चप्पल, पुस्तकें जैसी वस्तुएँ टूटती-फूटती और बेकार होती रहती हैं। यदि इनकी मरम्मत करना आता हो, तो इन वस्तुओं की जिन्दगी भी बहुत बढ़ सकती है और नई खरीदने में जो पैसा जाता है, वह बचाया जा सकता है। मकान की पुताई, किवाड़, खिड़कियों एवं फर्नीचर पर रंग, पालिस घर में ही हो सकती है। चूहों के छेद बन्द करने से लेकर, उखड़े फर्श और चूती हुई छतों को ठीक कर देना थोड़े-से उत्साह और कौशल के सहारे ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार की बचत के अनेक मद महिलाओं को संगठित रूप में सिखाये जा सकें तो उन्हें अपने परिवार की समृद्धि में प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान करते रहने का अवसर मिल सकता है।

यह तो बचत पक्ष की बात हुई। अब नकद कमाई वाले गृह-उद्योगों की बात आती है। इनमें सबसे सरल और सुगमता से चल सकने वाला उद्योग कपड़े का है। सूत कातना-कपड़े बुनना, सिलाई करना, धुलाई, रंगाई की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ हैं। जो कुछ सरलता से बन और खप सकता है, उसे स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सोचा जाना चाहिए।

गृह-उद्योग तो असंख्य हैं, पर देखना यह होगा कि उनके लिए सस्ते कच्चे माल की सुविधा है या नहीं और खपत के लिए मण्डी है या नहीं? मात्र उत्साह भर होने से अथवा कोई शिल्प सीख लेने तक से काम नहीं चलता। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसे उद्योग हाथ में लेने चाहिए, जिनके बड़े परिणाम में चल सकने की सम्भावना स्पष्ट हो। ऐसे प्रयोग कई जगह किए गए हैं। मारवाड़ी सोसाइटी ने शेखावाटी क्षेत्र के घरों में पापड़ बनवाने और कलकत्ता आदि के मारवाड़ी समाज में उसे खपाने का प्रबन्ध किया था। गीता प्रेस ने यज्ञोपवीत बनवाने का कार्य कुछ देहातों में कराया था। सौराष्ट्र के जामनगर, राजकोट में बिजली के स्विच बनने में काम आने वाले छोटे पुर्जे घर-घर में मशीनों से बनते हैं। मथुरा में कण्ठी, माला, जनेऊ आदि पूजा-पाठ की चीजें घरों में बनकर आती हैं। निवाड़, दरी बुनने का काम भी कितनी ही जगह गृह-उद्योगों की तरह ही होता है। ऐसे ही बड़े परिमाण में चल सकने वाले उद्योगों की खोज की जानी चाहिए और उन्हें अनुभवी लोगों के सहयोग-परामर्श से आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

थोड़े से व्यक्तियों को काम दे सकने वाले उद्योग अनेक हैं। ऐसे धन्धे तो शान्तिकुञ्ज के कन्या विद्यालय में भी बहुत से सिखाये जाते हैं। ऐसे शिक्षण अन्यत्र भी उपलब्ध हो सकते हैं।

ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि स्थानीय खपत के अनुरूप ही यह उद्योग सफल हो सकते हैं। अन्य मंडियों में खपाना हो तो फिर ऐसे उद्योगों की बड़ी पूँजी से, कुशल जानकारों की देख−रेख में तथा बड़ी पूँजी से चलाना पड़ेगा। व्यक्तिगत प्रयास और कम पूँजी से तो यह छोटे रूप में ही चल सकते और प्रतिस्पर्धा खड़ी न होने तक ही वे जीवित रह सकते हैं। सीखने को—उत्पादन की कुशलता-मानसिक दक्षता बढ़ाने के लिए इस प्रकार का प्रशिक्षण कहीं भी आरम्भ किया जा सकता है। यह सोचते हुए शिक्षा विस्तार के साथ-साथ गृह उद्योगों की कक्षाएँ भी चलनी चाहिए। प्रशिक्षण की दृष्टि से महिला जागरण अभियान के विद्यालयों में गृह-उद्योगों की, संगीत की सुगम कक्षाएँ चलती रहनी चाहिए। किन्तु यदि आर्थिक प्रगति और स्वावलम्बन के प्रश्न को बड़े पैमाने पर हल करना हो तो ऐसे उद्योगों की खोज करनी पड़ेगी, जिनमें अधिक लोगों का श्रम नियोजित हो सके और उत्पादन आसानी से खप सके। ऐसे उद्योग संगठित प्रयत्नों और बड़ी पूँजी से ही हो सकते हैं। अस्तु जब भी ऐसे आधार खड़े करने हों तो उसके लिए पूर्व सर्वेक्षण करने तथा अनुभवी लोगों की सहायता से किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता रहेगी। सरकारी उद्योग विभाग के अधिकारियों से भी इस सम्बन्ध में उपयोगी परामर्श एवं सहयोग मिल सकता है। इसी प्रकार कोई अर्थ-संगठन खड़ा करना हो तो कोऑपरेटिव सोसाइटी अधिकारियों से सम्पर्क किया जा सकता है।

बात उद्योग की चल पड़ी तो इसी से मिलते-जुलते उपयोगी वस्तु भण्डार चलाने की आवश्यकता को भी ध्यान में रखा जा सकता है। घरेलू उपयोग की वस्तुएँ शुद्ध और उचित मूल्य पर मिलें, इसके लिए सहकारी स्टोर बहुत कारगर सिद्ध होते हैं। व्यक्तिगत लाभ के लिए अन्धे लोग खाने-पीने तक की वस्तुओं में विषैली मिलावटें करते हैं। तोल-नाप में गड़बड़ी करते हैं। किसी के बदले कुछ सड़ा-गला और नकली माल भेजते हैं। मुनाफे में भी उचित अनुपात नहीं रखते। यों इन गड़बड़ियों को अपराध संज्ञा में गिना गया है और इनके विरुद्ध कानूनी रोकथाम भी मौजूद है। फिर भी व्यक्तिगत स्वार्थपरता अपनी चालें चलती ही रहती हैं और कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेती हैं। इसकी रोकथाम का अच्छा तरीका यह है कि 'सहकारी स्टोरों' का प्रचलन किया जाय। हाथ का पिसा आटा, घरों में पिसे हुए मसाले, साफ की हुई दूसरी वस्तुएँ इन दुकानों पर मिलें और वह कार्य करने के लिए घरों पर बेकार महिलाओं को काम मिले तो कितना अच्छा है। पापड़, दाल की बड़ियाँ, दालें, मसाले तथा दूसरी जरूरत की वस्तुएँ अपने ही सदस्यों से तैयार कराने की नीति अपनाकर यह स्टोर अनेकों महिलाओं को छोटे-बड़े—पूरे-अधूरे समय को काम दे सकते हैं। शाक भाजी से लेकर अन्य दैनिक आवश्यकता की चीजें इच्छित आर्डर अनुसार घरों पर सही रूप से पहुँच जाया करें, तो बाजार जाने में दुकान-दुकान पर भटकने में जो समय और किराया-भाड़ा खर्च होता है, वह सहज ही बच सकता है।

यहाँ कुछ संकेत मात्र प्रस्तुत किए गए हैं, जिनके आधार पर नारी को आर्थिक स्वावलम्बन की दिशा में अग्रसर किया जा सकता है। स्त्री-धन के रूप में हर घर में बचत परम्परा डाली जानी चाहिए। विवाह के समय मिलने वाला पितृ पक्ष तथा ससुराल का उपहार-धन नव वधू की भविष्य-निधि होनी चाहिए और उसे लम्बी अवधि पत्रों के रूप में जमा करते रहना चाहिए, ताकि उसकी ब्याज आमदनी के रूप में बढ़ती रहे। कठिन अवसरों पर नारी अपने आपको असहाय अनुभव न करे, इसलिए स्त्री-धन के रूप में उसके हाथ में कुछ रह सके, इसके लिए भी वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है।

स्वयं को स्वावलम्बी अनुभव करने पर नारी में वह आत्म-विश्वास सहज ही पैदा होने लगेगा, जिसके आधार पर वह समाज-निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं में खुलकर हाथ बँटा सके। समाज-निर्माण में मात्र पुरुष ही भाग लें और नारी को अछूत बनाकर घर के पिंजड़े में ही कैद रखा जाय, यह अनुचित है। इसमें नारी वर्ग की और समाज की तो हानि है ही, प्रतिबन्ध लगाने वाला पुरुष वर्ग भी उस हानि से बच नहीं सकता। परिवार संचालन का उत्तरदायित्व सँभालते हुए भी नारी समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। पुरुष भी तो मुख्यतया उपार्जन कृत्यों में संलग्न रहता है। इतने पर भी समाज के प्रति वह बहुत कुछ करता रहता है। नारी के लिए यह और भी सरल है कि परिवार का सुसंचालन करते हुए समाज-निर्माण में योगदान दे और इस आधार पर अपने ज्ञान, अनुभव, उत्साह एवं व्यक्तित्व का अनवरत विकास करती चले। परिवारों को, अपने घरों की महिलाओं को समाज-सेवा क्षेत्र में भी कुछ काम करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। बाहर के सम्पर्क में आने से नारी पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा करेगी, चरित्र-भ्रष्ट हो जायगी जैसी कुकल्पनाएँ करना निरर्थक है। ऐसी सम्भावनाएँ तो प्रतिबन्धित स्थिति में ही अधिक रहती हैं। अज्ञान, अनुत्तरदायित्व और खीज़-उद्वेग में जकड़ा हुआ मनुष्य ही उपद्रवी बनता और मर्यादाएँ तोड़ता है। प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी अनुभव करने वाले भले समाज सेवी अपना निजी और पारिवारिक स्तर ऊँचा उठाये रहने में ही भलाई सोचते हैं, उनसे अपेक्षाकृत खतरे कम ही रहते हैं। ऐसी आशंकाओं और कुकल्पनाओं से बचना ही श्रेयस्कर है।

इसका आरम्भ महिला जागरण शाखाओं के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन देने से करना चाहिए। इस संगठन में नारी ही काम करती हैं, इसलिए कुकल्पनाओं की कोई गुंजायश भी नहीं है। इससे आगे अन्य सामाजिक संस्थाओं का क्षेत्र आता है। पुस्तकालय, पाठशालाएँ, समाज-सुधार एवं रचनात्मक कार्यों में संलग्न स्थानीय संस्थाएँ प्रायः सभी जगह होती हैं। जहाँ वैसा कुछ हो, वहाँ उनमें सम्मिलित होने के लिए भी अवसर देना चाहिए। नारी-शिक्षा के लिए काम करने वाली पुरानी संस्थाओं में नव जीवन भरने एवं नई संस्था स्थापित करने का काम हाथ में लेकर भी उत्साही महिलाएँ कुछ कर सकती हैं।

सरकारी, अर्ध-सरकारी संस्थाएँ भी हर जगह होती हैं। ग्राम-पंचायत, टाउन-एरिया, सहकारी-समिति जैसे अन्य सरकारी छोटे-बड़े संगठन प्रायः सभी जगह पाये जाते हैं। उनमें महिलाएँ भाग लेने लगें तो निष्पक्षता, शालीनता एवं प्रगतिशीलता का नया वातावरण बनेगा। इस भागीदारी से नारी समाज में एक हवा बहेगी और वे अनुभव करेंगी कि उनका दायरा परिवार तक ही सीमित नहीं है, वे आगे बढ़कर समाज निर्माण में भी बहुत काम कर सकती हैं।

अस्तु नारी को शिक्षित एवं स्वावलम्बी बनाकर उसे समाज की एक पुष्ट इकाई के रूप में विकसित करने के लिए उपयुक्त अथवा उनसे मिलते-जुलते रचनात्मक चरण बढ़ाने का प्रयास हर जगह अविलम्ब किया जाना चाहिए।