नारी को प्रतिबंधित करके किसने क्या पाया ?

नारी को बाधित-प्रतिबंधित करके हमने पाया कुछ नहीं खोया इतना है जिसे अपार या असीम से कम नहीं कहा जा सकता ।

कुछ अत्यन्त पिछड़े हुए लोगों को छोड़ कर संसार भर में मानवी विवेक ने असंदिग्ध रूप से नर और नारी दोनों पक्षों को समान सहयोगी, समान कर्तव्य एवं समान अधिकार का भागीदार स्वीकार किया है । दोनों की स्थिति एक जैसी मानी है । दोनों के लिये सरकारी कानून और सामाजिक सम्मान पूर्णतया एक समान है । भेद-भाव का औचित्य यदि है भी तो नारी को अधिक सुविधा एवं अधिक सम्मान देने के पक्ष में है । प्रजनन का अति महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व अकेली नारी के कंधों पर पड़ता है और पुरुष उस कष्ट साध्य प्रक्रिया से सहज ही बच जाता है । इस असंतुलन का पलड़ा बराबर करने के लिये नारी को अधिक सुविधायें दी गई हैं, जैसे नौकरियों में प्रजनन काल की अतिरिक्त छुट्टियाँ, बच्चों की संख्या के अनुपात से अतिरिक्त बोनस आदि । सभ्य देशों का सम्मान्य शिष्टाचार है—"नारी प्रथम" रेल, बस आदि में स्थान की कमी पड़ती हो तो पुरुष खड़े होंगे और नारी को बैठने के लिए जगह देंगे । यही नीति हर क्षेत्र में बरती जाती है । पुरुष उनके लिए अपनी सुविधायें छोड़ते हैं । विवेक उन्हें सुविधा देने की दिशा में ही झुकता है उनके मानवोचित अधिकारों के अपहरण में कहीं कोई प्रयास नहीं किया जाता ।

भारत नारी के प्रति समानता के अधिकार में बहुत आगे बढ़ कर उसे श्रद्धावनत विशिष्ट सम्मान प्रदान करता रहा है । यहाँ मातृ शक्ति को आराध्य उपास्य माना जाता रहा है । उसके प्रति देव पूजन जैसा उदार व्यवहार बरता जाता रहा है । माता, धर्म पत्नी, भगिनी और पुत्री के चारों रूपों में उसके प्रति भाव-भरा सहज सम्मान व्यक्त होता रहा है । अपने देश की महान परम्पराओं में अनादि काल से लेकर पिछले हजार वर्ष के अन्धकार युग से पहले तक नारी को वरिष्ठ और नर को कनिष्ठ गिने जाने की मान्यता रही है ।

मनुष्य की अन्तरात्मा जिस तत्त्व के लिये प्यासी फिरती है वह शरीर की संरचना अथवा उसकी हलचलों में सन्निहित नहीं है, वह तो विशुद्ध रूप से भावनात्मक है । आत्मा की एक मात्र प्यास भावना की है । उसी के लिये प्राणी प्यासा फिरता है, उसी की एक बूँद पाने के लिये प्राणी तरसता है । पग-पग पर मरने वाला मर्त्य उसी सुधा-सार को पीकर अमर होता है । माता के, पत्नी के, बहिन के, पुत्री के चार थनों से नारी रूपी कामधेनु अपने बछड़े को—मनुष्य को इसी अमृत का पय-पान कराती है और उसकी अतृप्ति को तृप्ति में बदल देती है ।

जिसकी मस्ती में आत्मा का अणु-अणु आनंद-विभोर होकर दिव्य-लोक की इसी धरती पर अनुभूति प्राप्त कर सके वह सोम-रस नारी के अतिरिक्त और कहीं नहीं है । उसे कहीं भी उगाया और कहीं भी पाया जा सकता है । यह अनायास ही कहीं नहीं मिलता । इसकी कृषि करनी पड़ती है । विश्वास और सम्मान का खाद-पानी पाकर ही यह अमृत-वल्लरी बढ़ती, पल्लवित होती और फलती-फूलती है । अवज्ञा, उपेक्षा से वह कुम्हला जाती है । पद-दलित और प्रताड़ित करने पर तो उस सुकुमारता का अंत ही हो जाता है । प्रतिबंधित और शोषित बना कर इस देव-सत्ता से कुछ पाया नहीं जा सकता । उसकी क्रुद्ध आँखों से बरसता हुआ अभिशाप दमयन्ती के कोप से जल मरने वाले व्याध का मूर्तिमान उदाहरण घर-घर में प्रस्तुत करता है ।

पिछले हजार वर्षों में जो कुछ हुआ है वह अत्यन्त लज्जाजनक है । नारी को उसके उच्च आसन से उठा कर विपत्ति के गहरे गर्त में धकेल दिया जाना इतना दुर्भाग्य पूर्ण है जिससे अपना समाज कलंकित ही नहीं क्षतिग्रस्त भी हुआ है ।

मानवी चेतना को आत्मा कह कर उसकी उच्च स्थिति एवं संभावनाओं पर विशद प्रकाश डालने वाला भारतीय तत्त्वदर्शन प्राणि मात्र में आत्मा देखता है और 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' का आचरण करने का निर्देश देता है । ऐसी दशा में मानव तत्व की पूर्वार्ध—नारी को हीन या हेय तो ठहराया ही कैसे जा सकता था । कहीं भी—कभी भी—ऐसी धृष्टता किसी ने भी नहीं बरती है कि नारी को पिछड़ी हुई बतावे या बनावे । ऐसा भेद-भाव जहाँ भी दिखाया गया हो तो समझना चाहिये कि पिछले हजार वर्षों में बरती गई दुरभि संधियों का ही यह क्षेपक प्रक्षेप है ।

यह भेद-भाव हमारे राष्ट्रीय अपमान का कारण बन जाता है । गान्धी जी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरे और काले रंग वालों के बीच बरते जाने वाले भेद-भाव के विरुद्ध जब आन्दोलन किया था तो उन्हें यह कह कर चिढ़ाया जाता था कि "पहिले अपने देश में अछूतों और स्त्रियों के साथ बरते जाने वाले भेद-भाव को दूर कराइए तब गोरे और काले का अन्तर मिटाने का प्रयास करना । " वस्तुतः हम जब भी जहाँ भी मनुष्य द्वारा मनुष्य के साथ बरती जाने वाली अनीति के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो विपक्षी लोग तत्काल गाल पर करारा तमाचा जड़ देते हैं और कहते हैं—"निर्लज्ज लोगो अपने घर को सुधारो, अछूतों और स्त्रियों के साथ तुम लोग क्या कर रहे हो उसे देखो और समानता के सिद्धांत की दुहाई देते हुए शर्म करो । " वस्तुतः हम इस योग्य हैं नहीं कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के साथ बरती जाने वाली अनीति का साहसपूर्वक विरोध कर सकें । आदर्श और व्यवहार में इतना अन्तर बरतने वाले लोग ढोंगी ही कहे जा सकते हैं । दुनिया हमें इसी दृष्टि से देखती है और अपने द्वारा उठाई गई न्याय की माँग सर्वथा उपहासास्पद बन जाती है । इस स्थिति को सुधारे बिना हम मानवी न्याय का समर्थन करने में—उसे प्राप्त करने के लिए कुछ योगदान दे सकने में असमर्थ ही रहेंगे ।

जनसंख्या में आधे नर होते हैं आधी नारी । भारत की आबादी ६० करोड़ के लगभग है इनमें ३० करोड़ नारियाँ हैं । उन्हें शिक्षा एवं स्वावलम्बन के अभाव ने पर्दा प्रथा, अनुभवहीनता एवं सामाजिक कुरीतियों ने बेतरह जकड़ रखा है । वे घर के कैदखानों में बंदी रह कर रोटी बनाने, चौकीदारी करने, एवं बच्चे जनने का काम कर रही हैं । ये कार्य भी वे अपने पिछड़ेपन के कारण ठीक तरह कर नहीं पातीं । स्वास्थ्य और आहार का संतुलन मिल सकना—व्यवस्था बुद्धि के अभाव में गृह व्यवस्था, सज्जा एवं सुरक्षा की दृष्टि से भी आधा-अधूरा ही काम कर पाती हैं । आवश्यक जानकारी एवं शारीरिक-मानसिक स्थिति की दुर्बलता के कारण उनके लिए स्वस्थ, समुन्नत एवं सुसंस्कारी संतानें प्रस्तुत कर सकना भी कठिन है । पिछड़ापन किसी को भी कुछ करने नहीं देता फिर भारतीय नारी भी यदि अपने थोड़े से उत्तरदायित्वों को भी ठीक तरह न निभा सके तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ।

पिछड़ा वर्ग समर्थ वर्ग के लिए सदा गले का पत्थर बना रहेगा । एक पिछड़ेपन से कराह रहा होगा और दूसरे की कमर उसका भार वहन करने से टूट रही होगी । पिछड़ी नारी न घर परिवार के लिए उत्पादक होती है न किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य में हाथ बँटा पाती है । जल्दी-जल्दी बच्चे जन कर अर्थ व्यवस्था को नष्ट करती रहती है । छोटे घरों में पर्दे के अन्दर कैद रहने में अपना स्वास्थ्य गँवा बैठती है—आये दिन बीमार पड़ी रहती है । स्वास्थ्य रक्षा एवं प्रजनन में बरती जाने वाली सतर्कता के अभाव में आरोग्य का नष्ट होना स्वाभाविक है । आज आधी महिलाएँ अपना स्वास्थ्य यौवन की देहरी पर पैर रखने से पूर्व ही गँवा बैठती हैं । शेष को भी रोते-कराहते अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है । इस स्थिति में पड़ी हुई नारी शारीरिक श्रम कर नहीं पाती, मानसिक क्षमता उसमें है नहीं, बीमारी का खर्च तथा खीज असन्तोष का वातावरण बढ़ता है । ऐसी दशा में नारी अपने समाज के लिए भार ही बनी रहेगी । उसे पालने वाले नफे में नहीं घाटे में ही रहेंगे । पिछड़ापन बनाये रहने की कुचेष्टा अन्ततः उन्हीं के लिए अभिशाप बन कर रहेगी ।

भारतीय समाज का आधा भाग लकवा ग्रसित होकर असहाय, असमर्थ बना पड़ा है । इससे समूचे राष्ट्र को भारी क्षति उठानी पड़ रही है । तीस करोड़ व्यक्ति निठल्ले बैठे खाते हैं । यदि वे भी उत्पादक रहे होते तो समृद्धि का दूना उत्पादन होता । इतनी जन-शक्ति उपयोगी कार्यों में संलग्न होकर देश की शक्ति और सम्पन्नता को दूना बढ़ा सकती थी उससे वंचित रहने से राष्ट्रीय प्रगति में भारी बाधा उत्पन्न होती है । कमाऊ व्यक्तियों पर इन बिना कमाने वालों का भार पड़ने से वे स्वयं भी दीन-दरिद्र रहते हैं । यदि नारी भी उत्पादक रही होती तो उसके उपार्जन से उसकी अपनी, बच्चों की, समस्त परिवार की स्थिति में आशाजनक सुधार हुआ होता । सभी सुखी रहते, समुन्नत बनते । पर बन्धनों ने तो वह मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया । समुन्नत नारी राष्ट्र की आय बढ़ा सकती है । इससे सरकार मजबूत बन सकती है । संसार के रंगमंच पर उसकी आवाज सुनी जा सकने योग्य जोरदार बन सकती है । जब आधी जनता असमर्थ स्थिति में पड़ी हो तो फिर सरकार के पास भी धन-शक्ति की और प्रखर जन-शक्ति की कमी ही पड़ती रहेगी ।

प्रतिबंधित नारी की विवशता उसके स्वास्थ्य को नष्ट करने का प्रधान कारण है । घूँघट स्वच्छ हवा को रोकता है, छोटे घरों में घर का सामान भरा पड़ा होता है, खाने-पीने की चीजें भी उतने में ही बनती हैं, सूर्य की किरणें जाने योग्य मकान नहीं होते, अस्तु खुली धूप और खुली हवा न मिलने पर देर-सवेर में बीमार तो पड़ना ही होता है । चौका-बर्तन जैसे हलके कामों में शारीरिक श्रम उतना नहीं होता जिससे व्यायाम की आवश्यकता पूरी हो सके ऐसी दशा में भीतरी और बाहरी अवयवों को जंग लग जाती है, वे जकड़ जाते हैं । पाचन, रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन आदि कुछ भी ठीक प्रकार न हो सके तो स्वास्थ्य नष्ट होना स्वाभाविक है । घर के लोगों का, मेहमानों का समय-कुसमय आना, उनके लिए घड़ी-घड़ी पर भोजन जलपान की व्यवस्था करना और इसी धंधे में रात को बारह बजे तक जगते रहना, प्रातःकाल जल्दी उठ कर गर्म पानी, चाय, झाड़ू आदि में लगना ऐसा व्यतिक्रम है जिसमें श्रम तो तनिक सा लगता है पर समय सारा चला जाता है । निद्रा विश्राम के लिए समुचित समय न मिलना ऐसी कठिनाई है जो उत्साही और लगनशील महिला का भी स्वास्थ्य नष्ट किये बिना नहीं रहने देती ।

काम-क्रीड़ा का अत्यधिक दवाब नारी को जर्जर बना कर छोड़ता है । सृष्टि के सभी प्राणियों में यह प्रथा है कि मादा की पुकार पर नर उसे तृप्त करता है । नर की ओर से कभी भी कोई दवाब नहीं डाला जाता । इसी प्रकृति परम्परा के निर्वाह से स्वास्थ्य स्थिर रह सकता है । नारी इस परम्परा का निर्वाह करने की अधिकारिणी नहीं समझी जाती, उसे अत्यधिक दवाब सहन करना पड़ता है इसका फल प्रत्यक्ष है । भारतीय महिलाओं में से अधिकांश छोटे-बड़े यौन रोगों से ग्रसित हैं और उस व्यथा में अपनी हड्डियाँ तिल-तिल करके गलाती हुई अकाल मृत्यु के मुख में प्रवेश करती हैं । दुर्बल और रुग्ण माता के पेट से उत्पन्न हुए बच्चे भी जन्मजात रुग्णता साथ लेकर आते हैं और दिन-रात रोते चिल्लाते रहते हैं । बच्चे दिन में तो भी सो लेते हैं पर माता के लिए तो कुछ घंटे ही सोने के लिए हैं उनमें भी बच्चे रोते-जगाते हैं । इस स्थिति में महिलाओं का स्वास्थ्य क्यों कर नष्ट न होगा ?

नारी यदि कल अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर सके तो वह स्वर्ग की अप्सरा बन कर इन्हीं टूटे-फूटे घरों में आनन्द और उल्लास की थिरकन भर कर उनमें स्वर्ग जैसी अनुभतियाँ भर सकती है, देव दुर्लभ परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकती है । इन दिनों अपने घर ईंट-पत्थरों के टुकड़ों से चुने हुए—लकड़ी-लोहे के काठ-कबाड़ से भरे पड़े हैं—वस्तुएँ कूड़े-करकट का ढेर बन कर जहाँ-तहाँ अपनी उपेक्षा पर आँसू बहा रही हैं । चीजें बहुत हैं पर सभी नीरस-निर्जीव । बहुत पैसा खर्च करके सजाये हुए घर भी निर्जीव निष्प्राण पड़े रहते हैं । श्मशान जैसी निस्तब्धता छाई रहती है, घर में प्रवेश करने वाले को चारों ओर उदासी झाँकती दीखती है । इसका कारण ढूँढ़ना हो तो एक ही मिलेगा—उपेक्षित नारी की नस-नस में भरी हुई उपेक्षा—प्रतिक्रिया । जब उसी को सम्मान नहीं मिला तो वह किसे किस तरह सम्मान दे । जब कोई उसे प्यार नहीं करता तो वह किसी को प्यार कहाँ से दे । पानी की प्यास से जिसके कंठ प्राण में आ रहे हैं उस गाय से घड़ा भर कर दूध पाने की अपेक्षा करना व्यर्थ है ।

मानसिक स्वास्थ्य—सुशिक्षा से, सुसंस्कारी वातावरण से और ज्ञान अनुभव संचय करने की परिस्थितियों से बनता है; वैसी परिस्थितियाँ कहाँ हैं । जन्म से मरण पर्यन्त एक छोटे से पिंजड़े में घुटते रहना पड़े और शिक्षा की प्रकाश किरणें समीप तक न पहुँचे तो समाज-संसार से पूरी तरह कटी हुई नारी का बौद्धिक विकास कैसे होगा ? भावनाओं पर खराद चढ़ाने वाली संगीत साहित्य कला का जिसे दर्शन तक नहीं होता उससे उदात्त और परिष्कृत भावनाओं की आशा करना व्यर्थ है । जन्मजात रूप से मनुष्य एक अविकसित पशु मात्र है । उसका विकास तो प्रगति की परिस्थितियाँ करती हैं । वह स्रोत सूख जाय तो यह किसी प्रकार संभव नहीं कि कोई अपने व्यक्तित्व का प्रखर निर्माण कर सके । यह स्वीकार करते हुए मर्मान्तक पीड़ा होती है कि भारतीय नारी शारीरिक और मानसिक दोनों ही दृष्टि से अस्वस्थ और जर्जर हो चली है ।

इस पीड़ित नारी से नर को क्या लाभ मिला ? उसे असहाय बना कर किसने क्या पाया ? घर परिवार के लोगों की इससे क्या सुविधा बढ़ी ? पति को उससे क्या सहयोग मिला ? बच्चे क्या अनुदान पा सके ? देश की अर्थ-व्यवस्था और प्रगति में पिछड़ी नारी ने क्या योगदान दिया ? समाज को समुन्नत बनाने में वह क्या योगदान दे सकी ? स्वयं नारी, जीवन का क्या सौभाग्य पा सकी ? इन प्रश्नों पर विचार करने से लगता है नारी को पीड़ित, पद-दलित, प्रतिबंधित, उपेक्षित रखा जाना किसी प्रकार उचित नहीं हुआ । समय पूछता है कि अनुचित को कब तक सहन किया जायेगा और कब तक उसे इसी तरह चलने दिया जायेगा ?