51.    दुष्प्रवृत्तियों से जूझेंः सत्प्रवृत्तियाँ उभारें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

देव और असुर दोनों तत्वों से मिलकर मनुष्य बना है। उसमें ईमान भी रहता है और शैतान भी। परिस्थितियाँ इन्हें विकसित करती हैं। यदि अच्छा वातावरण मिले तो देवतत्व और ईमान विकसित होता है। सज्जनता और महानता की वृद्धि होती है। यदि बुरा वातावरण मिले तो उसका प्रभाव अन्तरंग में छिपी असुरता को उभारता है और मनुष्य का चिन्तन और कर्तृत्व निकृष्ट स्तर का पतनोन्मुख बनता चला जाता है। यदि व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर करना अभीष्ट हो तो उसका उपाय यही है कि वातावरण ऐसा बनाया जाय जो दुष्प्रवृत्तियों को निरुत्साहित करने और सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर सकने में समर्थ सिद्ध हो सके।

होता यह रहा है कि दुष्प्रवृत्तियों की हानि को समझते हुए उन्हें रोकने के लिए व्यवस्था बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया। अपराधियों को पकड़ने और उन्हें सुधारने या दण्ड देने के लिए खर्चीले तन्त्र खड़े किए जाते रहे। पुलिस, कानून, जेल, अदालत आदि का ढाँचा अपराधियों पर नियन्त्रण रखने के लिए विनिर्मित हुआ। पर देखते हैं कि उस पर खर्च होने वाली शक्ति की तुलना में सफलता नगण्य ही मिल सकी। यदि सज्जनता के समर्थन, अभिवर्धन के लिए समाज ने कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाये होते तो आज की स्थिति दूसरी होती।

सत्प्रवृत्तियों को उभारने के लिए, सद्भावनाओं को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करने के लिए कुछ नहीं किया गया। जबकि होना यह चाहिए था कि जितना दुष्टता के दमन पर ध्यान दिया जाता है, कम से कम उतना ध्यान तो सज्जनता के सराहने और आदर्शवादी सत्साहस को पुरस्कृत करने के प्रयत्न पर दिया जाता। अपराध और दण्ड यह निषेधात्मक पक्ष है। उससे भी महत्त्वपूर्ण पक्ष वह है, जिसे विधेयात्मक कहना चाहिए। उसे उभारना, उठाना, जगाना और सम्मानित करना भी उतना ही आवश्यक है, जितना अनैतिकता को दण्डित करना। समाज का कर्तव्य है कि अपराधियों के लिए बने दण्ड विधान की तरह लोक मंगल के लिए त्याग बलिदान करने वालों को पुरस्कृत करने की भी समर्थ व्यवस्था बनाकर खड़ी करें। उभय पक्षीय प्रयत्नों से ही सदाचारी सन्तुलन कायम रखा जा सकेगा।

इन दिनों वातावरण यह है कि उद्दण्ड, अनाचारी लोग भले-भोले लोगों को आतंकित करके अपना उल्लू सीधा करते हैं। आक्रमण के डर से वे प्रतिशोध की इच्छा होते हुए भी वैसा नहीं कर पाते। आतंक से अनाचारी तत्व न केवल प्रतिरोध की आशंका से ही निश्चिन्त हो जाते है वरन् उन डरे हुए लोगों का मनमाना शोषण भी करते हैं।

धूर्तता बेईमानी, ठगी, फरेब, चोरी, चालाकी के बल पर अनेक व्यक्ति बहुत जल्दी बहुत अधिक लाभ प्राप्त करते देखे जाते हैं। उनके ठाट-बाट देख कर दूसरों का मन चलता है और इस सरल सस्ते तरीके को अपनाकर वे भी उसी तरह लाभान्वित होने के लिए अग्रसर होते हैं।

धूर्तता और उद्दण्डता की सम्मिश्रित प्रक्रिया का नाम ही अपराध है। उसी को अनैतिकता, चरित्र भ्रष्टता कहा जाता है। आज का सारा समाज इसी रोग से पीड़ित है। प्रगति के सारे द्वार इसी महामारी ने अवरुद्ध कर रखे हैं। मजदूर से लेकर मालिक तक, प्रजा से लेकर राजा तक, शिष्य से लेकर गुरु तक, ग्राहक से लेकर व्यापारी तक यही व्याधि जड़ पकड़ गई है। फलतः सर्वत्र आशंका, अविश्वास और असुरक्षा का आतंक फैल रहा है। ऐसी स्थिति में न शान्ति रह सकती है न प्रगति हो सकती है। सृजन के सब प्रयत्नों को अनैतिकता का विघटन सहज ही चौपट करके रख देता है।

दूसरी ओर सत्प्रवृत्तियों का पक्ष है, वातावरण उन्हें विकसित होने में सहायता नहीं करता। भले मनुष्य न भौतिक लाभ उठा पाते हैं न सम्मानात्मक सन्तोष के लिए उनके पास केवल बहुत ऊँचा तत्त्वज्ञान ही रह जाता है, जिसे गले उतारना हर किसी के लिए सहज नहीं। ईमानदारी से काम करने पर सीमित आजीविका प्राप्त होती है, उससे सन्तोष, सादगी और मितव्ययिता का जीवन ही जिया जा सकता है। भ्रष्ट साधनों से आजीविका कमाने वाले शान-शौकत और ठाट-बाट का जीवन जीते हैं, जबकि ईमानदार व्यक्ति को गरीबी और सादगी में ही रहना पड़ता है। ऐसे समय में ईमानदारी पर अड़ें रहना एक प्रकार का दुस्साहस ही कहा जायेगा। बेईमानी की सुविधाओं को त्यागकर जिसने ईमानदारी के साथ जुड़ी हुई सादगी का वरण किया उसका मनोबल और आदर्शवाद सराहा जाने योग्य ही है।

पर देखा यह जाता है कि इस प्रकार के व्यक्ति सामाजिक सम्मान से वंचित भी रहते हैं, उन्हें उलटा मूर्ख बनना पड़ता है और व्यंग, उपहास सहने पड़ते हैं। कई बार तो उनके अनाचारी साथी मिल जुलकर नीचा दिखाने का षड्यन्त्र भी करते हैं और उसमें सफल भी हो जाते हैं। इस वातावरण में यदि ईमानदार व्यक्ति की हिम्मत टूटने लगे और वे भी बेईमानी के साथ चलने की बात सोचने लगें तो कुछ अचम्भे की बात नहीं है।

समाज का नेतृत्व करने वाले प्रबुद्ध लोगों का काम है कि वे ऐसा वातावरण बनायें, ऐसा आन्दोलन चलायें जिसमें आदर्शवाद का अवलम्बन करने वाले व्यक्तियों को कम से कम सामाजिक सम्मान का लाभ तो मिल ही सके। यों उन आदर्शवादी व्यक्तियों को निःस्पृह ही रहना चाहिए और किसी सम्मान, सहयोग पुरस्कार आदि की आशा न करके अपने कर्तव्य पालन जन्य आत्मसन्तोष को ही पर्याप्त मान लेना चाहिए। उनके लिए यही शोभनीय है। पर समाज के कर्णधारों का उत्तरदायित्व भिन्न है। उन्हें चाहिए कि ऐसे वातावरण का सृजन करें, जिसमें अवांछनीय तत्वों की हिम्मत न बड़े, प्रोत्साहन न मिले। साथ ही आदर्शवादी व्यक्ति कम से कम लोक श्रद्धा के भाजन तो बन ही सकें। उनके साहस का परिचय अधिक लोग प्राप्त करके उस मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा प्राप्त करें।

यह तथ्य भुलाने का नहीं है कि वातावरण से व्यक्ति प्रभावित होते हैं और व्यक्तियों का रुझान जिस ओर चल पड़े समाज वैसा ही बन जाता है। समाज का निर्माण वातावरण के निर्माण पर निर्भर है। वातावरण बनाने के लिए ही आन्दोलन चलाए जाते हैं। नव निर्माण के आन्दोलन में यह प्रक्रिया जुड़ी हुई रहनी ही चाहिए कि असामाजिक तत्वों को, अनैतिक व्यक्तियों को कोई सहयोग, समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त न हो। इसके विरुद्ध सन्मार्गगामी आदर्शों पर सुदृढ़ रहने वाले, अपने साहस के लिए उचित सम्मान प्राप्त कर सकें।

आज अनीति की कमाई करने वाले ठग, चोर, बेईमान इसलिए बढ़ रहे है कि उन्हें लाभ तो लगे हाथों मिलता है। हानि की दृष्टि से कानूनी पकड़ ही एक कारण है जिससे बच निकलने के लिए इतनी अधिक तरकीबें निकलती चली आ रही है कि किसी चतुर और सम्पन्न व्यक्ति के लिए राजदण्ड से बच निकलना कुछ भी कठिन नहीं रह गया है। सामाजिक भर्त्सना, असहयोग और प्रतिरोध वस्तुतः राजदण्ड से भी बढ़कर हैं। सर्व साधारण की दृष्टि में यदि कोई व्यक्ति घृणास्पद सिद्ध हो जाय तो उसे तिरस्कार और असहयोग का ही भाजन बनना पड़ेगा, पर आज उलटी स्थिति है। लोकमत की दुर्बलता से अनाचारी व्यक्ति भी सहयोग, समर्थन एवं सम्मान प्राप्त करते हैं। उनके विरोध, तिरस्कार के प्रयत्न शिथिल ही पड़े रहते हैं। ऐसी दशा में यदि कोई अनाचारी व्यक्ति अपने कुकर्म व्यवसाय को अधिक लाभदायक समझे तथा और भी अधिक साहस के साथ करने लगे तो आश्चर्य ही क्या है?

अनाचार को प्रोत्साहन और सदाचार को हताश करने में लोकमत की दुर्बलता एक बहुत बड़ा कारण है। उसमें सुधार परिवर्तन होना ही चाहिए, अन्यथा न अनाचार रुकेगा और न सदाचार बढ़ेगा। सदाचरण पर चलने का साहस करने के लिए अनेक सामान्य स्तर के व्यक्ति भी प्रोत्साहित हो सकते हैं। बशर्ते कि उन्हें अपनी सत्प्रवृत्ति का लाभ, उचित समर्थन और सम्मान प्राप्त होता रहे। हमें लोकमत में इस तत्व को सजग करना चाहिए कि अनाचारी व्यक्तियों का समर्थन और सहयोग न किया जाय। उनकी हाँ में हाँ न मिलाई जाय, उनके दोष छिपाये न जाएँ। उन्हें किसी प्रकार का सामाजिक सम्मान मिलने न दिया जाय। इसमें यदि दुष्ट दुराचारियों के आक्रमण का जोखिम हो तो भी उसे उठाना ही चाहिए।

सच तो यह है कि यदि मिल-जुलकर असामाजिक तत्वों का मुकाबला करने की, उनका पर्दाफाश करने की प्रवृत्ति चल पड़े तो उनका साहस नष्ट हो सकता है। राजदण्ड से ही दुष्टता पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता, उसके लिए लोकमत का संगठित और प्रखर होना भी आवश्यक है। अनीति विरोधी वातावरण इसी प्रकार बनेगा और दुष्प्रवृत्तियों का कार्य इस सतर्कता द्वारा ही होगा।

सरकार दुष्टों को दण्ड तो देती है। पर आदर्शवादियों को सम्मानित पुरस्कृत नहीं करती। इस स्तर का जो ढकोसला चल रहा है, उसका लाभ भी पहुँच और सिफारिश के बलबूते सभी उठाते देखे जाते हैं। इसके लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार अनाचारियों के लिए राजदण्ड व्यवस्था को पर्याप्त मान बैठना भूल है, इसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए भी शासन पर निर्भर रहना बेकार है। इस प्रक्रिया को सामाजिक स्तर पर हाथ में लिया जाना चाहिए।

इस प्रयोग को हमें अपने घरों से आरम्भ करना चाहिए। जिन बच्चों की, परिजनों की गतिविधियाँ प्रशंसनीय हो उन्हें समुचित सहयोग, समर्थन, प्यार, सम्मान एवं पुरस्कार मिलना चाहिए। अच्छे काम करने वालों को प्रोत्साहित करने वाला कुछ भी न कहा जाय, कुछ भी न किया जाय यह उचित नहीं। भूल करने वालों को, कुमार्ग पर चलने वालों की उपेक्षा न की जाय, भर्त्सना, ताड़ना असहयोग आदि परिस्थिति अनुसार वह क्रम अपनाया जाय, जिससे कुमार्गगामी को अपने कार्य से परिवार की नाराजी और भर्त्सना का परिचय मिले। यह नीति परिवार के भावनात्मक विकास और व्यवस्था सन्तुलन में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है।

यह रीति-नीति समाज में अपनाई जानी चाहिए। आदर्श प्रस्तुत करने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति मिल सकते हैं, जिनको गरीबी के कारण किसी ने प्रोत्साहित नहीं किया। ऐसे स्वर्गीय लोगों की जयन्तियाँ मनाना, उनके चित्रों पर पुष्प चढ़ाना, उनके स्मारक स्वरूप पर वृक्ष लगाना, उनके जीवन वृत्तान्त से सर्व साधारण को अवगत कराना ऐसी पद्धति है, जिससे हर व्यक्ति को सन्मार्गगामी लोकसेवी बनने का प्रोत्साहन मिल सकता है।

संसार में बुराइयों का भी अस्तित्व है और अनीति तथा कुरूपता भी विद्यमान है। पर यह इसलिए नहीं कि हम उन्हें ही अपना लें या ईश्वर को उनके विनिर्मित करने का दोष दें। यह अवांछनीयता और आसुरी तत्व इसलिए हैं कि उन्हें एक चुनौती समझा जाय और उसे हटाने के प्रयास, पुरुषार्थ में देवत्व अपनी क्षमता को प्रखर और समर्थ बनाए रहने का अवसर प्राप्त करता रहें।

यहाँ पिछड़ापन इसलिए है कि अग्रगामी लोग उन पिछड़े हुओं को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में अपनी कुशलता उदारता और महत्त्व सिद्ध करें। यदि संसार में पिछड़ापन न होता तो उदारता प्रकट करने के अवसर से ही हमें वंचित रहना पड़ता।

व्यायामशाला में मुद्गर, डग्बल, भारी गोले, नाल आदि इसलिए रखे जाते है कि उनके साथ जूझकर पहलवान लोग अपने शरीर को मजबूत बनायें। बिना जूझे माँस पेशियों का मजबूत होना सम्भव नहीं। व्यायामशाला में यह भारी उपकरण उसकी कुरूपता नहीं बढ़ाते और उनके कारण न उसकी महत्ता घटती है। सच तो यह है कि उस अखाड़े को सुन्दर, सुसज्जित, कोमल, मृदुल वस्तुओं से सजाया गया होता, तो यह विलास विनोद का साधन मात्र बनकर रह जाता। फिर वहाँ से बलवान पहलवान न निकलते।

यह संसार एक व्यायाम की तरह है जहाँ बुराइयाँ विकृतियाँ इसलिए रखी गई हैं कि सज्जनता उससे जूझे और निरस्त करे। इससे उनकी समर्थता भी बढ़ेगी और गरिमा भी।

सेना को अभ्यास करने के लिए नकली लड़ाई कराई जाती है और युद्ध की रीति-नीति सिखाने के लिए वैसा वातावरण बनाया जाता है। यदि ऐसा न हो तो सैनिक समय पर युद्ध कौशल कैसे प्रकट कर सकें?

असली शत्रु हमारे दोष दुर्गुण हैं। यह छिपे हुए शत्रु अत्यधिक भयंकर और प्रबल है। उन्हें जीत लिया जाय तो समझना चाहिए कि दिग्विजय कर ली, समस्त संसार जीत लिया। महाभारत भीतर ही होता है। इसे जीते बिना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं। उससे लड़ सकने की सामर्थ्य एवं कुशलता संग्रह करने के लिए हमको बाहर जगत में फैली हुई बुराइयों और विकृतियों से जूझना पड़ता है। बाहर की गन्दगी साफ करने से स्वच्छता की प्रवृत्ति का विकास होता है और फिर उसी प्रवीणता के आधार पर आन्तरिक मलीनता को हटाने में सफलता प्राप्त होती है।

खेल प्रतियोगिता में प्रतिद्वन्द्विता खड़ी की जाती है। उस आधार पर कुशल खिलाड़ियों का चयन होता है और उन्हें पुरस्कार मिलता है। इन विजेताओं की प्रशंसा देखकर अन्य लोगों को खेल व्यायाम में उन्नति करने का उत्साह पैदा होता है। यह सब होता तभी है, जब प्रतिस्पर्धा का आधार प्रस्तुत करने वाले खेलों की व्यवस्था की जाय। संसार में बुराइयाँ इसलिए हैं कि उनके शमन करने की प्रतिस्पर्धा में सत्प्रवृत्तियाँ उतरें, विजयी बनें, अपनी गरिमा सिद्ध करें और सर्वसाधारण पर यह छाप डालें कि अनीति का विस्तार कितना बड़ा ही क्यों न हो विजयी अन्ततः नीति ही होती है।

जीवित व्यक्तियों की आदर्शवादी गतिविधियों के लिए सम्मान, प्रशस्ति पत्र, पुष्पहार, उपहार आदि दिए जाने चाहिए। प्रतिस्पर्धाओं में जीतने वाले जिस प्रकार पुरस्कार प्राप्त करते, दंगल में कुश्ती पछाड़ने वालों को जैसे उपहार मिलते हैं उसी प्रकार आदर्शवादी उत्कृष्टता का परिचय देने वालों को प्रोत्साहित, सम्मानित करने के लिए उपहारों का कुछ क्रम चलाया जा सकता है।

अवांछनीयता के निरुत्साहित और आदर्शवादिता को प्रोत्साहित करने के लिए हमें कुछ अधिक तत्परता के साथ प्रयत्न करना चाहिए और ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिससे सर्व साधारण को कुमार्गगामी होते हुए संकोच हो और सन्मार्ग पर चलते हुए आत्म सन्तोष ही नहीं गर्व गौरव प्राप्त करने का भी अवसर मिले।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

52.    परिवार संस्था-नवसृजन की प्रयोगशाला
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

परिवार निर्माण के छोटे से दीखने और बिखरे से लगने वाले क्रिया कलाप का भावी परिणाम क्या हो सकता है इसकी यदि सही कल्पना की जा सके तो प्रतीत होगा कि सृजनात्मक कार्यक्रमों में यही सबसे मूर्धन्य और महत्त्वपूर्ण है। लगने में तो पैसा और विनोद सबसे बड़े दीखते हैं और उसके लिए लोग अपने स्वास्थ्य, सन्तुलन और ईमान तक को गँवाते रहते हैं, पर इतने पर भी तथ्य तो जहाँ के तहाँ ही रहेंगे। पैसा और विनोद कितना ही आकर्षक, उत्तेजक क्यों न हो जीवन क्रम की सुव्यवस्था का महत्त्व सर्वोपरि रहेगा। नशा उतरते ही यह समझने में देर नहीं लगती है कि व्यक्तित्व मूल्यवान है, वैभव नहीं। ठीक इसी प्रकार परिवार निर्माण की बात हल्की, उथली सी भले ही लगे उसकी परिणति पर ध्यान देने से प्रतीत होगा कि मानवी समाज की प्रगति शान्ति और समृद्धि की आधारशिला इसी पर रखी हुई है।

निरन्तर जिन विषयों की चर्चा होती है, जिनका महत्त्व समझाया जाता है उन्हें मस्तिष्क अपना भी लेता है और स्वभाव एवं आचरण का प्रवाह भी उसी दिशा में मुड़ता है। पंचशीलों में जिन प्रधान सद्गुणों का समावेश है यदि वे स्वभाव में, चिन्तन एवं चरित्र में समाविष्ट होते हैं तो निश्चय ही प्रभावित व्यक्ति का भविष्य बनेगा। उसका सम्पर्क जिससे भी रहेगा उन्हें चन्दन वृक्ष के समीप उगने वाले पौधों की तरह सुखी, सौभाग्यशाली बनने का अवसर मिलेगा। अगली पीढ़ी यदि पंचशील के ढाँचे में ढलती है और वर्तमान पीढ़ी को उन सत्प्रवृत्तियों से प्रभावित होने, अपनाने का अवसर मिलता है तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को साकार होने में कोई बड़ी कठिनाई शेष नहीं रह गई ।।

असन्तोष, खीज़, निराशा, भय, चिन्ता एवं उद्विग्नता की मनःस्थिति में मनुष्य की कार्य क्षमता तीन चौथाई नष्ट हो जाती है। शरीर विवशता में कुछ काम करता भी है तो वह आधा अधूरा होता है। उसमें इतने छिद्र रहते है कि कई बार तो वह श्रम न करने से भी अधिक मँहगा पड़ता है। मन में सन्तुलन उत्साह बना रहे तो दुर्बलता और स्वल्प योग्यता रहने पर भी मनुष्य थोड़ा-थोड़ा करके भी इतना काम कर लेता है जो सुयोग्य के कर्तृत्व से भी अधिक बहुमूल्य सिद्ध हो। कछुए खरगोश से शर्त बदकर चलने और अन्ततः कछुए द्वारा बाजी जीते जाने की कहानी का एक ही निष्कर्ष है कि समर्थता से भी अधिक मानसिक स्थिरता का महत्त्व है। कहना न होगा कि सद्गुण परिवार के शान्त वातावरण में उपजता और बढ़ता है।

उपयुक्त आहार विहार का स्वास्थ्य रक्षा से अविच्छिन्न सम्बन्ध है। भोजनालय प्रकारान्तर से एक चिरस्थायी अस्पताल है। वहाँ से हर दिन टानिक भी पिया जा सकता है और विष मिक्चर भी। भोजन निश्चित रूप से औषधि है, उससे क्षुधा ही शान्त नहीं होती, रसना की तृप्ति ही नहीं होती वरन् बलिष्ठता और दीर्घजीवन की आधारशिला भी रखी जा सकती है। आहार में रोगों से बचाने और हटाने के दोनों गुण विद्यमान है। यदि घर का रसोई वाला अमृत परोसा जाय, उसे खिलाने की विधि व्यवस्था में चिकित्सा जैसा अनुशासन बरता जाय तो कोई कारण नहीं कि अस्पताल का चक्कर काटने और डाक्टर का दरवाजा खटखटाने की आवश्यकता पड़े। अन्न ही मन है। मनों में जो विक्षोभ पाया जाता है उसका बहुत बड़ा कारण आहार में घुसी हुई अवांछनीयता ही है। भोजन को औषधि रूप में पाने की व्यवस्था घर में बन सकती है बाजार में नहीं। होटल स्वाद तो देते हैं, पर प्रकारान्तर से उनमें वे प्रदूषण भी घुले रहते हैं जिनके कारण शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी लड़खड़ाता, गड़बड़ाता देखा गया है।

आहार पाक विद्या नहीं है न उसकी गरिमा स्वादिष्टता पर टिकी हुई है। षट् रस, व्यंजन और छप्पन भोग आहार की विशिष्टता का परिचय नहीं देते। उसके साथ चिकित्सक जैसी सूक्ष्म दृष्टि जुड़ी रहनी आवश्यक है। किसके लिए क्या चाहिए, इसका निर्णय भोजनालय की अध्यक्षा ही कर सकती है। उसे अस्पताल की बड़ी डाक्टर के समतुल्य समझा जाना चाहिए। समूचे परिवार की स्वास्थ्य रक्षा का परोक्ष उत्तरदायित्व उसी के कन्धों पर रहता है। प्रश्न एक ही है कि उसका निर्वाह कर सकने की क्षमता का विकास हुआ है या नहीं। यह कार्य होम साइन्स की पाक विद्या की पुस्तकें पढ़ने से नहीं वरन् सुसंस्कारी परिवारों में पाये जाने वाले सद्गुणों से ही विकसित होता है।

मन की खीज़ बढ़ते-बढ़ते क्रोधी प्रकृति भी बन सकती है, पर उसका आरम्भ पारिवारिक छेड़छाड़ से ही होता है। पिल्ले लड़ाने वाले अन्ततः उसे कटखना कुत्ता ही बनाकर छोड़ते हैं, घर में हर घड़ी होने वाली चख-चख उसके सदस्यों में मनोमालिन्य से लेकर विद्वेष तक के बीजारोपण करती है और वे बढ़ने पर विष वल्लरी जैसी दुष्प्रवृत्तियों, दुरभिसंधियों में विकसित होते हैं। यदि पारिवारिक वातावरण में आदि से अन्त तक शालीनता छाई रहे तो उसमें पलने वाले हर अंकुर, हर पौधे और हर पेड़ को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनने का अवसर मिलता रहेगा। वह प्रक्रिया जहाँ पनपेगी वहाँ दुर्भाग्य से बचना और सौभाग्य को उपलब्ध करना कितनी बड़ी मात्रा में सम्भव हो सकेगा, इसकी आज तो कल्पना ही की जा सकती है। प्रमाण ढूँढ़ने हो तो उस अतीत का स्मरण करना पड़ेगा, जब घरों में स्वर्ग की आत्मा निवास करती थी। या फिर उस भविष्य की कल्पना करनी पड़ेगी, जिसमें नव सृजन की महत्त्वपूर्ण प्रयोगशाला परिवार निर्माण को फलते-फूलते देखा जा सके ।।

परिवारों में कन्याएँ वधू बनकर दूसरे घर में जाती हैं। यदि वे अपने साथ सुसंस्कारिता की दहेज सम्पदा लेकर जाया करें तो निश्चय ही उस नये घर में प्रत्यक्ष गृहलक्ष्मी की भूमिका निभा सकती है। अपनी नई उपस्थिति से किसी घर में नये आनन्द, उल्लास का अरुणोदय प्रकट कर सकती है। इस प्रकार विवाहों के साथ पुरातन में नवीनता का, नीरस ढर्रे में नव जीवन का संचार होता रह सकता है। इस प्रयोजन की पूर्ति सौन्दर्य शिक्षा या पैसा लेकर जाने वाली वधू नहीं कर सकती, उसके लिए सद्गुणों से सम्पन्न ऐसी महिला चाहिए जिसे देव पुत्री कहा जा सके। जहाँ उनका पदार्पण होगा वहाँ का हर निवासी अपने सौभाग्य को सराहेगा। कहना न होगा कि ऐसी देव कन्याएँ आसमान से नहीं उतरती वरन् सुसंस्कृत परिवारों में ढाली और खरादी जाती हैं।

गरीबी दूर करने के लिए अनेकानेक छोटी बड़ी योजनाओं की इन दिनों भरमार है। इसी में एक और अध्याय यह जुड़ना चाहिए कि परिवार का हर समर्थ व्यक्ति बचे हुए समय में कुछ उपार्जन करने की बात सोचे और वैसा कुछ करते समय अपने को हीन नहीं वरन् स्वावलम्बन स्वाभिमान की दिशा में बढ़ने वाला अग्रणी माने तो इतने भर से ही स्थिति उलट सकती है। गृह उद्योगों के लिए हर जगह गुँजायश है, हर परिस्थिति में वे किसी न किसी रूप में चल सकते हैं। यह उत्साह उभरे और प्रचलन बने तो समझना चाहिए कि प्रायः दूनी उपार्जन शक्ति का नया उदय होगा और गरीबी को आसानी से खदेड़ा जा सकेगा। जापान जैसे देश इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। वहाँ हर घर में छोटे-छोटे कुटीर उद्योगों का प्रचलन है। बचे हुए समय का उपयोग महिलाएँ, बच्चे तथा वयोवृद्ध उसमें मनोरंजन की तरह प्रयुक्त करते हैं और खेल-खेल में ही उतना कमा लेते हैं जितना कि गृह स्वामी दुकान, दफ्तर से कमा कर लाते हैं।

इस प्रचलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हर परिवार अपने आप में उद्योगशाला बना रहता है। उसका आर्थिक स्वावलम्बन कभी नहीं छिनता। कमाऊ के मरने पर पूरा परिवार अनाथालय बन जाना यह आज की अकर्मण्यता का अभिशाप है। परिवारों में हो सकने वाला उपार्जन यदि उपेक्षित रहेगा तो स्वभावतः खाली समय में घर के लोग कलह खड़ा करने, दुरभिसंधियाँ रचने और दुर्व्यसनों में उसे लगावेंगे। इस प्रकार पतन का गर्त गहरा ही होता चला जायेगा। गरीबी को यदि वस्तुतः हटाना ही हो तो उसके लिए बिजली, पानी, व्यवसाय उत्पादन आदि का प्रबन्ध करना ही होगा, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि आधी श्रम शक्ति परिवारों के दायरे में नष्ट होती रहती है। इसे इसी प्रकार बर्बाद कर दिया तो ऊपरी उपचारों से कुछ बनेगा नहीं, गृह उद्योगों से धन ही नहीं बढ़ता कौशल भी विकसित होता है जो पैसे से भी कहीं अधिक मूल्यवान है। गृह उद्योगों में बिक्री का सामान न बन सके तो भी जिन कार्यों के लिए पैसा बाहर देना पड़ता है उन्हें तो श्रम कौशल से बचाने का प्रबन्ध हो ही सकता है। इस प्रकार उपार्जन न सही बचत पक्ष भी परिवार की, देश की सम्पन्नता बढ़ाने में साहसिक सिद्ध हो सकता है।

निरक्षरता दूर करने के लिए सरकारी प्रयासों को सराहा भी जाना चाहिए और बढ़ाया भी। किन्तु स्मरण रहे शिक्षित लोग अपने घर या पड़ोस को शिक्षित बनाने के लिए जब तक प्रयत्नशील न होंगे तब तक इतनी बड़ी समस्या का हल मात्र सरकारी साधनों से हो नहीं सकेगा। शिक्षितों को राष्ट्र का शिक्षा ऋण चुकाना चाहिए। इस भावना को उभारा जाय और जो उससे बचे उन पर दोषारोपण करने से लेकर गुदगुदाने झकझोरने तक का दबाव डाला जाय तो साक्षरता निवारण के लिए लाखों अध्यापकों और अरबों रुपयों की जो आवश्यकता अनुभव की जा रही है, उसकी तनिक भी आवश्यकता न पड़ेगी। हर घर में, हर मुहल्ले में सुविधा के समय चलने वाली प्रौढ़ पाठशालाएँ स्थापित और गतिशील हो सकती है। शिक्षित महिलाएँ तीसरे प्रहर के अवकाश वाले समय को इस पुण्य प्रयोजन में लगा सकती हैं।

अध्यापक वर्ग वेतन बढ़ाने की माँग ही न करता रहे वरन् अपने विशिष्ट पवित्र कर्तव्य पर भी ध्यान दे। स्कूल में पाँच घण्टे पढ़ाने के अतिरिक्त जो उन्नीस घण्टे का समय बचता है उसमें से दो-दो घण्टे निजी रूप से छात्रों को पढ़ाने में लगाये और शिक्षा पद्धति में जो कमी है उसे पूरा करे। यदि ऐसा उत्साह जग पड़े तो शिक्षा का अधूरापन, जिसे सरकार भले ही पूरा न कर सके पर अध्यापक वर्ग अपने निजी पुरुषार्थ से सहज ही पूरा कर सकता है। वेतन वृद्धि की माँग की तरह यदि कर्तव्य वृद्धि और उत्तरदायित्व वृद्धि के लिए भी शिक्षकों में उत्साह जाग पड़े, शिक्षित स्वयं सेवी भावना से इस दिशा में कुछ करने चल पड़े तो सरकार का मुँह तके बिना भी शिक्षा के अभाव एवं अधूरेपन की समस्या का समाधान हो सकता है।

गरीबी, निरक्षरता और बीमारी अपने देश की, पिछड़े वर्ग की यही तीन प्रमुख समस्याएँ है। उनके समाधान का उत्तरदायित्व सरकार पर, समर्थों पर तो है ही, पर यह भुला नहीं देना चाहिए कि एक और समर्थ पक्ष है, जिसे जगा देने पर इन तीनों से ही जन शक्ति के सहारे अत्यन्त सरलता के साथ लड़ा जा सकता है। ऊपर इसी समाधान के सन्दर्भ में कहा गया है कि परिवार मे दबी प्रचण्ड शक्ति को यदि बर्बादी से बचाया और सृजन में लगाया जा सके तो यह उपेक्षित पक्ष भी अपनी प्रखरता और समर्थता का इतना बड़ा परिचय दे सकता है कि समाधान ढूँढ़ने वालों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़े। बड़े लोगों को मनाने और बड़े साधन जुटाने की प्रतीक्षा करना ‘‘नौ मन तेल होने पर राधा का नाच ठनने’’ जैसा है। चट्टानें तोड़ने की अपेक्षा दूसरी मोड़दार पगडण्डी ढूँढ़ लेना और अपने पैरों चल पड़ना अधिक सरल और अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है। परिवारों के रूप में विकेन्द्रित शक्ति केन्द्रों को यदि गुदगुदाया सम्भाला, संजोया जा सकता है तो उन छोटे खेत, तालाबों से भी प्रचुर सम्पदा का उपार्जन हो सकता है।

मशीनों का आश्रय लेकर उपलब्धियों का उपार्जन करना और सुविधा साधन बढ़ाना अच्छी बात है, पर जब तक उतनी बड़ी व्यवस्था नहीं बन पाती तब तक साठ करोड़ मनुष्यों में से समर्थों के दो-दो हाथों का उपयोग करना क्या बुरा है? इनमें से आधे हाथ ही आधा अधूरा काम करते हैं। मस्तिष्कों के मनोयोग का तो इतना भी उपयोग नहीं बन पड़ता। यदि उस दिशा में बरती जाने वाली उपेक्षा को ही हटाया जा सके तो इतनी बड़ी सृजन शक्ति का उद्भव हो सकता है जिसके सहारे व्यक्ति और समाज की भौतिक ही नहीं आत्मिक समस्याओं का समाधान भी सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।

धर्म धारणा और आदर्शों की प्रेरणा के लिए संत मनीषियों के प्रवचन सत्संग भी सराहे ही जाते रहेंगे, पर सभी को सर्वदा तो उपलब्ध हो नहीं सकते। इस आत्मिक क्षुधा को मिटाने के लिए परिवार में निरन्तर चलने वाली कथा कहानियों वाली शैली ही कारगर सिद्ध हो सकती है। आस्था क्षेत्र में ज्ञान गंगा की आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी संगम की प्रभावी भूमिका रहनी चाहिए, पर इसके लिए किसी चमत्कारी भागीरथ की प्रतीक्षा क्यों की जाय? क्यों न अपने परिवार देवता की मनुहार करने और मनौती मनाने में जुटा जाय?

क्रान्तिकारी कार्लमार्क्सों का उदय होने में देर लगती दीखे तो घरेलू प्रज्ञा पुस्तकालयों के सहारे विचारक्रान्ति की बात सोची जा सकती है। अनैतिकताओं और अन्ध परम्पराओं से जूझने में यदि मूर्धन्य प्रतिभाओं ने हार मानी हैं तो उन्हें परास्त करने के लिए प्रबुद्ध परिवारों के छापामार दस्ते खड़े किये जाय। यह नई रणनीति अपनाने भर की देर है। विजयश्री के समीप पहुँचने के लिए इस नये प्रयोग से नये आधार और नये आयाम बन सकते हैं।

यदि आदर्शवादी जागरूकता की चण्डी देव परिवारों के सहकारी प्रयत्नों से प्रकट हो सके तो यह कहने की आवश्यकता न पड़ेगी कि अनाचार का वृत्तासुर अनियन्त्रित हो रहा है। प्रजातन्त्री व्यवस्था में वोट से राज्य पलटते हैं यह वोट कहाँ रहते हैं। इसे तलाश करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं, वे परिवारों में ही विराजमान विद्यमान मिल सकते हैं। विनाश से उबरने और विकास को वरण करने के लिए अन्य आधार भी उपयोगी हैं, पर परिवार संस्था के अन्तराल में छिपी अनन्त सामर्थ्य को उभारना और उसका प्रयोग करना सबसे अधिक आवश्यक है और सबसे महत्त्वपूर्ण है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

53.    विभूतियाँ अर्जित करें सम्पदा नहीं
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जीवन में धन सम्पत्ति की कमाई का भी महत्त्व है, पर उतना ही जिससे शरीर यात्रा का आवश्यक निर्वाह होता रहे अथवा पारिवारिक उत्तरदायित्वों को उस स्तर पर पूरा किया जा सके, जिसमें अपने देश के औसत निवासी को गुजर करनी पड़ती है। भौतिक कमाई के लिये इस सीमा के अन्तर्गत जो चेष्टाएँ की जाती हैं उनका औचित्य है। जिस शरीर के उपकरण से जीवन यात्रा चलनी है, उसे पोषण तो देना ही चाहिए और जिस परिवार के साथ हमारे कर्तव्य, उत्तरदायित्व जुड़े हैं उसका निर्वाह भी चलना ही चाहिए।

शरीर जब तक है तब तक ही भौतिक कमाई का उपयोग है। शरीर ही इस उपार्जन का उपभोग करता है। किन्तु जीवन इतने में ही समाप्त नहीं हो जाता, वह तो अनन्त है, आगे भी चलने वाला हैं। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार कल-परसों की शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए आज से ही कुछ कमाने और बचाने की चिन्ता की जाती है, वैसी ही चेष्टा जीवन की लम्बी अवधि में काम आने वाली कुछ सामग्री संचित करने की जानी चाहिए। यदि आत्मा की यात्रा का महत्त्व ही न समझें, और उसे शान्ति पूर्वक गतिशील रहने के लिए आवश्यक साधन जुटाने की उपेक्षा करे, तो यह भयंकर भूल ही होगी। शरीर सुविधा के साधन जुटाने में अहर्निश जुटे रहें। जो काया कल-परसों नष्ट होने वाली है उसकी तात्कालिक सुविधाओं का संचय हमें आवश्यक प्रतीत हो और आत्मा की लम्बी यात्रा के साधन जुटाने में उपेक्षा बरती जाय तो अदूरदर्शिता पूर्ण ही कहा जायेगा।

मृत्यु के उपरान्त जीवन समाप्त नहीं हो जाता यह सुनिश्चित है। उसके बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है, उसमें संदेह की गुँजाइश नहीं। शरीर त्यागने के बाद आत्मा खाली हाथ नहीं जाता वरन् उसके साथ बहुत सी सूक्ष्म वस्तुएँ जाती हैं। धन, परिवार, पद, वैभव जैसी भौतिक वस्तुएँ जहाँ की तहाँ रह जाती हैं, वे आत्मा के साथ नहीं जाती। शरीर भी गल या जल कर ऐसे ही समाप्त हो जाता है। मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अंग है। सरकस के नट जिस प्रकार हाथ पैरों को कई तरह की कलाबाजी दिखाने के लिए प्रशिक्षित कर लेते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क को भी शिक्षा-शिल्प अथवा कला-कौशल में प्रवीण बना लिया जाता है। जिस प्रकार मरने के बाद शरीर के अन्य अंग यहीं नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क और उसका शिक्षा कौशल भी जीवन लीला समाप्त होने के साथ ही नष्ट हो जाता है।

अनन्त जीवन के साथ रहने वाली वस्तुओं में संस्कार ही मुख्य है। संस्कार अर्थात् अन्तःकरण में जमी हुई प्रगाढ़ आस्थाएँ और परिपक्व आदतें। जीव की चेतन सत्ता के साथ में यह संस्कार सघन रूप से इतने घुले मिले रहते हैं कि उन्हें अस्तित्व का एक अंग ही कहा जा सके। यह संस्कार ही आगामी जन्म के आधार होते हैं। इसी परिपक्व प्रकृति की दिशा में आत्मा की लालसा भटकती है, तदनुरूप उसका प्रचण्ड चुम्बकत्व लगभग उसी स्तर की परिस्थितियों में उसी स्तर की काया में जन्म ग्रहण कर लेता है। आत्मा स्वसंचालित यन्त्र की तरह हैं। उसके भीतर ही वह व्यवस्था मौजूद है, जो अपने भाग्य एवं भविष्य का निर्धारण निर्माण स्वयं कर सके। इसके लिए किसी अन्य द्वारा दण्ड पुरस्कार देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

कहा जाता है कि मरने के बाद चित्रगुप्त के दरबार में जीव को उपस्थित होना पड़ता है। वहाँ उसके कर्मफल का लेखा-जोखा लेकर तदनुसार स्वर्ग-नरक की, पुनर्जन्म की व्यवस्था की जाती है। यह चित्रगुप्त का दरबार कहीं अन्यत्र नहीं अपने अन्तःकरण में विद्यमान है। हमारी आस्थाएँ, आकाँक्षाएँ एवं गतिविधियाँ जिस दिशा में चलती हैं, जो सोचती हैं और करती हैं उनका सार तत्व अन्तःकरण के भीतरी पर्त पर जमा होता रहता हैं। इन्हीं को कर्मबीज कहते हैं, इन्हीं को संस्कार कहा जाता हैं। वे अपने स्थान पर सुरक्षित भण्डार की तरह जमा होते रहते हैं। मरण के उपरान्त अनुकूल अवसर पाते ही वे संस्कार उभर आते हैं और उनकी प्रतिक्रिया सहज ही सामने आती चली जाती हैं।

जीवित अवस्था में चिन्तनशील जागृत मस्तिष्क अपने विचार प्रवाह में बहता रहता है। शरीरगत क्रिया-कलापों की स्नायविक उत्तेजना भी चेतना पर छाई रहती है। इस दबाव से मूल संस्कार अचेतन मनःक्षेत्र में दबे पड़े रहते हैं। तब उन्हें उतना अधिक उभरने का अवसर नहीं मिलता, थोड़ा बहुत जो मिलता है, उसके अनुसार तत्काल कर्मफल भी मिलने लगते हैं।

आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से कितने ही शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं, यह वैज्ञानिक तथ्य अब भली प्रकार स्पष्ट हो गया है। आधे से अधिक बीमारियाँ ऐसी होती हैं, जिनकी चिकित्सा दवा-दारू के द्वारा ही सम्भव नहीं होती। उनका निवारण केवल आन्तरिक कुसंस्कारों के निराकरण से ही सम्भव होता है। असाध्य समझे जाने वाले शारीरिक और मानसिक रोगों की सूची अब दिन-दिन लम्बी होती जाती है। इनका निवारण कर सकने में चिकित्सा विज्ञानी अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं, क्योंकि अन्तःकरण के गहन स्तर में जमे हुए उन कुसंस्कारों को पकड़ना, उखाड़ना उनके साधनों में नहीं आता, जो उन असाध्य रोगों के कारण बने होते हैं।

इसी प्रकार जीवन में अन्यान्य कष्टकर परिस्थितियाँ इन्हीं कुसंस्कारों के कारण उपस्थित होती रहती है। चोरी की आदत के कारण लोक सम्मान चला जाना, जेल भुगतना और सहयोग से वंचित हो जाना कितना कष्टकारक और कितना प्रगति बाधक होता है? इसे भुक्तभोगी भली प्रकार जानते हैं। सामान्य कामों में पग-पग पर असफलता मिलना अस्थिर चित्त का ही प्रतिफल होता है। यह अस्थिरता अनायास ही पीछे नहीं पड़ जाती वरन् संचित कुसंस्कारों की एक व्यवस्थित प्रतिक्रिया ही होती है। ऐसे-ऐसे कितने ही अवरोध और संकट जीवन-क्रम में आये दिन उपस्थित होते रहते हैं, जिन्हें अपने ही अन्तःकरण में संचित कुसंस्कारों की प्रतिक्रिया कह सकते हैं।

चेहरे में आकर्षण, वाणी में प्रभाव, आँखों में चमक, कार्यों में स्फूर्ति जैसी कितनी ही विशेषताओं का यदि विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह सारी विशेषता संचित संस्कारों का ही फल हैं, वे ही हमें निकृष्ट परिस्थितियों में धकेलती हैं, वे ही प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचा देने वाले साधन जुटाती हैं।

यह तो जीवित अवस्था की बात हुई। संस्कारों का प्रभाव व्यक्तित्व के उत्कृष्ट एवं निकृष्ट स्तर में समाविष्ट देखा जा सकता है और उनके आधार पर उत्थान-पतन का आधार बनता हुआ अनुभव किया जा सकता है। मरणोत्तर जीवन में यही संस्कार सम्पदा साथ रहती है। शरीर और मस्तिष्क का तनाव, दबाव हल्का पड़ते ही यह संस्कार उभरते हैं और प्राणी को स्वर्ग एवं नरक जैसे दृश्य दिखाते हैं, अनुभव कराते हैं। अपना स्वर्ग-नरक हम स्वयं ही बनाते हैं। हमारे संचित संस्कारों को बीजरूप से विकसित होकर अंकुर एवं पौधे की स्थिति प्राप्त होती है, तो मृतात्मा अनुभव करता है कि उसे कुसंस्कारों का दण्ड और सुसंस्कारों का पुरस्कार मिल रहा हैं। नरक और स्वर्ग की अनुभूतियों का आधार यही होता हैं।

पुनर्जन्म कहाँ मिले, किस प्रकार के परिवार में अथवा कैसे वातावरण में जन्म मिले? इसकी व्यवस्था भी अपना ही स्वसंचालित चेतना संस्थान स्वयं ही कर लेता है। इसके लिए अन्य किसी बाहरी न्यायाधीश या नियन्त्रण कर्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती। इतने अधिक प्राणियों के इतने अधिक कर्मों का लेखा-जोखा रखना और उनके लिये दण्ड, पुरस्कार कर्मफल, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था करना अन्य किसी बाहरी व्यवस्थापक के लिए संभव नहीं है। यह सारा कार्य अपनी ही अन्तःचेतना निपटाती है। मरने के बाद तर्क बुद्धि समाप्त हो जाती है। भीतर कुछ बाहर कुछ का झंझट नहीं रहता, भले या बुरे जैसे भी कुछ संस्कार जमे होते हैं, उन्हीं के अनुरूप आकाँक्षाएँ उभरती हैं और उसी उभार का आकर्षण अभीष्ट परिस्थितियों के साथ पुनर्जन्म का तालमेल बिठा देता है। जीवित मनुष्य में दुहरा अस्तित्व रहता है। उसकी आकाँक्षा और रहे और व्यक्ति कुछ और करे यह सम्भव है, पर मरणोत्तर काल में वह स्थिति नहीं रहती। इसलिए यदि निकृष्ट संस्कार जमे होंगे तो निकृष्ट व्यक्तियों अथवा निकृष्ट परिस्थितियों की ओर ही खिंचाव रहेगा और जीव उसी वातावरण में उसी स्तर के शरीर में जन्म ग्रहण कर लेगा। तर्क बुद्धि रहती तो शायद वह निकृष्ट संस्कारों के कारण मिलने वाली निकृष्ट परिस्थितियों की हानि भी सोचता और अपने स्वाभाविक स्तर से भिन्न प्रकार की परिस्थिति में काम लेने की चेष्टा करता, पर उस स्थिति में वैसा सम्भव नहीं रहता। एक ही व्यक्तित्व, एक ही चेष्टा का वर्चस्व इन दिनों रहता है। भौंरा फूल पर जा बैठता है और गुबरीला कीड़ा गोबर तलाश करता है। इसके लिए उसे न किसी की सलाह लेनी पड़ती है और न कोई जोर जबरदस्ती करता है। वे कीड़े अपनी प्रकृति के अनुरूप ही परिस्थिति ढूँढ़ लेते हैं और वहाँ जाकर सन्तोष करते हैं। ठीक इसी प्रकार अन्तःचेतना अपने संचित संस्कारों के अनुरूप जन्म ग्रहण कर लेती हैं। इसमें रहने से सुख मिला या दुःख यह तो तब पता चलता है, जब जिस योनि में जन्म लिया गया है, उसमें रहने के बाद दूसरे प्राणियों के साथ अपनी तुलना कर सकने में बुद्धि विकसित होती हो।

अगले जन्म का स्थान शरीर, वातावरण बनाकर ही वे संस्कार समाप्त नहीं हो जाते वरन् उस जन्म की अनेकानेक प्रेरणाओं, आकाँक्षाओं एवं प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन भी वे ही करते हैं। यदि वह संचालन हेय स्तर का ही रहा होगा, तो उस प्राणी को उसकी प्रतिक्रिया नाना प्रकार के कष्ट संकटों के रूप में भुगतनी पड़ेगी। यदि वह सूक्ष्म संचालन श्रेष्ठ स्तर का हो रहा होगा तो उस जीव को सुखद एवं सुसम्पन्न परिस्थितियों का लाभ मिल रहा होगा। पतित एवं उत्कृष्ट, निन्दित एवं सम्मानास्पद, दरिद्र एवं समुन्नत, दुखी एवं प्रसन्न रखने वाली परिस्थितियों का कारण यही आन्तरिक सूत्र संचालन ही होता है। जिसे दूसरे शब्दों में संस्कार समुच्चय भी कह सकते हैं।

असल में यह संस्कार ही व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होते हैं। उन्हीं को प्रारब्ध, विधि का विधान, ईश्वर इच्छा, कर्मफल आदि की गहन पृष्ठभूमि कह सकते हैं। हमारे ऊपर कोई बाहरी शक्ति थोपती नहीं है। इस सम्बन्ध में ईश्वर ही निस्पृह है। उसे दृष्टा अथवा साक्षी इसीलिए कहा गया है, कि वह किसी की प्रगति, अवनति में सहायक अथवा बाधक नहीं होता। एक व्यवस्था उनकी बना दी। स्वसंचालित चेतना यन्त्र फिट कर दिया, अब उसका उत्तरदायित्व समाप्त हो गया। प्राणी अपने स्वतन्त्र कर्तृत्व के आधार पर उठते, गिरते है और सुख-दुःख सहन करते हैं। कुछ भी कर गुजरने की छूट मनुष्य को पूरी तरह दी गई है, पर साथ ही प्रतिफल एवं प्रतिक्रिया भुगतने के लिए उसे बाध्य, विवश कर दिया गया है। ईश्वरीय न्याय, कर्मफल, स्वर्ग नरक, पुनर्जन्म, विधि-विधान, प्रारब्ध योग आदि अदृश्य जगत के प्रतिपादनों का यदि रहस्योद्घाटन करना हो तो उसका समाधान इस संस्कार संचय के केन्द्रबिन्दु में ही सन्निहित दृष्टिगोचर होगा।

भविष्य को उज्ज्वल एवं अन्धकारमय बनाने वाले इन सुसंस्कारों एवं कुसंस्कारों का संचय पूर्णतया अपने हाथ की बात है। इनका संचय अपनी आज की आस्थाओं, आकाँक्षाओं एवं क्रिया पद्धति में सुधार करके सहज ही किया जा सकता हैं। यह भली प्रकार समझ लिया जाना चाहिए कि धोखा बाहर वालों को दिया जा सकता हैं अपने आपको नहीं। दुहरी चाल अन्य लोगों से चली जा सकती हैं, अपने आपे को भुलाया नहीं जा सकता। मूल अन्तः चेतना का स्तर जैसा होगा, ठीक उसी के अनुरूप संस्कारों का फोटोग्राफ खिंचेगा। दुष्प्रवृत्तियों में निरत रहकर अन्ततः चेतना में सुसंस्कारों के पर्त जमाये जा सकें, यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। वहाँ सत्य का ही निर्वाह होता है। चालाकी और किसी के भी साथ की जा सकती है, अपने आप को ठग सकना और उसे उलटी पट्टी पढ़ा सकना किसी के लिए भी शक्य नहीं है। सत्य रूपी नारायण का अन्तःकरण अविच्छिन्न आधिपत्य है। वहाँ यथार्थता के अतिरिक्त और किसी नीति का प्रवेश नहीं हो सकता। सुखदायी संस्कारों को संचय करना हो, तो अपने आस्था केन्द्र को उच्चस्तरीय आदर्शों से ओत-प्रोत करना होगा। उसी स्तर की आस्थाएँ, भावनायें नये सिरे से जमानी पड़ेगी। इसके लिए पुराने संस्कारों को उखाड़ना पड़ेगा। उन्हें हटाकर रिक्त हुए स्थान पर ही तो सुसंस्कारों का बीजारोपण किया जा सकेगा।

प्रायः यह देखा भी जाता है कि सामने प्रस्तुत कठिनाइयों, दुःखों का कारण दूसरों के मत्थे मढ़कर अधिकाँश व्यक्ति छुट्टी पा लेते है, पर वे गम्भीरता से विचार भी नहीं करते कि उनका मूल कारण अपने ही अन्तस् में विद्यमान है। उपलब्ध जो भी भली-बुरी परिस्थितियाँ हैं उनका वास्तविक निर्माता मनुष्य स्वयं है संस्कारों की प्रतिक्रियाएँ इस जीवन तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि जन्म-जन्मान्तरों तक चलती हैं। इस तथ्य को समझ लिया जाय तो कभी भी असमंजस की स्थिति नहीं आ सकती।

शरीर की सामयिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली सम्पदा का उपार्जन उचित तो है, पर सुसंस्कारों की विभूतियों की उपेक्षा करना भी अदूरदर्शिता पूर्ण है। वर्तमान काया तो कुछ ही समय ठहरने वाली हैं, अन्ततः जीवन तो जीवात्मा को ही जीना पड़ेगा। उसमें केवल सुसंस्कारों की पूँजी ही काम देगी। धन-वैभव के खोटे सिक्के उस यात्रा में किसी भी प्रकार सहायक सिद्ध न हो सकेंगे।

सुसंस्कार किसी पूजा-पाठ या कर्मकाण्ड से नहीं जम सकते। कथा-कीर्तन से लेकर तीर्थयात्रा तक के क्रिया कृत्यों से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। योगाभ्यास और तप साधना की शारीरिक, मानसिक कसरतें भी उस आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं। इन समस्त आचरणों का मूल उद्देश्य एक ही है उच्चस्तरीय आस्थाओं, आकाँक्षाओं, आदर्शों की अन्तःकरण में इतनी सघन स्थापना जिसकी प्रेरणा से अपनी गतिविधियाँ केवल श्रेष्ठ सत्कर्मों की दिशा में ही गतिशील रह सकें। इस प्रयोजन को जीवन साधना से ही पूरा किया जा सकता है। निरन्तर सत् चिन्तन और श्रेष्ठ कर्मों के साथ अपने को बाँधे रहकर ही हम सुसंस्कारों की सम्पत्ति उपार्जित कर सकते हैं और उस आधार पर अपने उज्ज्वल भविष्य का सुखद निर्माण कर सकने में सफल हो सकते हैं।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

54.    स्वयं को बदलें-जग को सुधारें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

नव निर्माण अभियान का शुभारम्भ, श्रीगणेश अपने आप से शुरू किया जाना है। दूसरे को उपदेश और अपनी उपेक्षा यह बात अन्य प्रकरणों में चल सकती है, पर जहाँ लोक मानस के परिष्कार का प्रश्न सामने आयेगा, वहाँ उसका प्रथम चरण स्वयं ही उठाना पड़ेगा। उत्कृष्टता उपदेश से नहीं अनुकरण से उत्पन्न होती है, इस तथ्य को जितनी जल्दी और जितनी गहराई से समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है। यदि अखण्ड ज्योति प्रतिपादित ज्ञान को उपयोगी माना जाय तो फिर उसे मस्तिष्क से आगे बढ़ा कर अन्तःकरण तक ले जाया जाय। इसे जानकारी मात्र न रहने देकर आस्था में परिणत किया जाय और दो साहसिक कदम उठाये ही जायें। एक यह कि अपनी वर्तमान जीवनचर्या में जितना भी सम्भव हो सके परिवर्तन किया जाय, भले ही वह परिवर्तन न्यूनतम ही क्यों न हो। अपनी अवांछनीयताओं को ढूँढ़ना, स्वीकार करना, उन्हें हटाने की आवश्यकता अनुभव करना और साहस पूर्वक कुछ में तो लड़ पड़ा ही जाय और उन्हें छोड़ने के लिए ऐसा संकल्प पूर्ण निश्चय किया जाय कि भविष्य में उसे निबाहते हुए किसी बाधा को आड़े न आने दिया जाय। दूसरा कदम यह है कि अपने में जिन सद्गुणों का अभाव है उनमें से कुछ को अपनाने और स्वभाव अभ्यास में लाने का व्रत धारण किया जाय। निकृष्टताओं को उत्कृष्टताओं में परिणत करने के शौर्य, साहस का नाम ही आत्मबल है। तप-तितीक्षा का, साधना-उपासना का, स्वाध्याय सत्संग का, एक मात्र प्रयोजन इस आत्मबल को उत्पन्न करने की पृष्ठभूमि, मनःस्थिति बनाना ही है। ईश्वर को न किसी की खुशामद चाहिए और न रिश्वत। वह न तो पूजा−पत्री से प्रभावित होता है और न विविध विधि कर्मकाण्डों का उसकी प्रसन्नता, अप्रसन्नता से कोई सम्बन्ध है। सारा धर्म आवरण और उपासना प्रकरण तो विशुद्ध रूप से आन्तरिक परिशोधन के लिए है। अवांछनीयताओं के निराकरण और वांछनीयताओं के अभिवर्धन का शौर्य साहस प्रदर्शन करने से आत्मबल बढ़ता है। बढ़ा हुआ आत्मबल ही वह शक्ति है, जिससे आश्चर्यजनक एवं चमत्कारी आध्यात्मिक विभूतियों से मनुष्य सुसम्पन्न बनता है। ज्ञान और तप की सार्थकता उस साहसिकता की कसौटी पर कसी जाती है, जिसके आधार पर दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ना और सत्प्रवृत्तियों को जमाने का संकल्प, साहस और पराक्रम सम्भव हो सके।

उपरोक्त दो प्रयास आध्यात्मिक साधना के वे दो चरण है, जिनके सहारे जीवन लक्ष्य की पूर्ति तक क्रमबद्ध रूप से बढ़ा जा सकता है। इन्हें साधना एवं उपासना का युग्म कहा जा सकता है। दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन साधना है और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन उपासना, असुरता का उन्मूलन और देवत्व का परिपोषण यही धर्मधारणा है और यही ईश्वर आराधना। यह तथ्य यदि गहराई से समझ लिया जाय तो तत्व दर्शन के उस मूल प्रयोजन को समझ जायेंगे जिसके लिए आस्तिकता और धार्मिकता का विशालकाय कलेवर दूरदर्शी ऋषियों ने खड़ा किया है। आत्मिक प्रगति की दिशा में हम इन्हीं दो कदमों को क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ाते हुए अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। वह तो हुआ सनातन और शाश्वत सत्य। यदि सामयिक परिस्थितियों की दृष्टि से भी सोचें तो लोक मानस को निकृष्टता से उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए भी इसी उपाय का तात्कालिक उपचार के रूप में भी प्रयोग करना पड़ेगा। विचारक्रान्ति इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह विचारक्रान्ति इतनी सजीव होनी चाहिए कि उसकी कमर में नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति भी बँधी और खिंची चली आये। इस समग्र विचारक्रान्ति का शुभारम्भ अपने आप से ही हो सकता है। दूसरों को शिक्षा देने के लिए वाणी और लेखनी एक हद तक ही काम करती है। असली प्रभाव तो उपदेशक के चरित्र का ही पड़ता है। अनुकरण के लिए जब तक आदर्श सामने न हो, तब तक उस कष्ट साध्य मार्ग पर चलने का लोगों में साहस ही नहीं होता। भौतिक जानकारियाँ लेखनी और वाणी से पूरी हो सकती हैं। पर आध्यात्मिक प्रशिक्षण के लिए तो शिक्षक का परिवर्तित जीवन ही प्रधान आधार है। इसके बिना दूसरों में वह उत्साह उत्पन्न ही नहीं हो सकता, जिसके आधार पर व्यक्ति में, समाज में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन सम्भव होते हैं।

युग निर्माण की तीन सीढ़ियाँ है (१) आत्म निर्माण (२) परिवार निर्माण (३) समाज निर्माण। इनमें से क्रमशः एक के बाद दूसरी पर चढ़ने के लिये अधिक योग्यता और समर्थता चाहिए। सबसे सरल और सबसे आवश्यक आत्म निर्माण है। प्रत्येक स्थिति का व्यक्ति इस दिशा में निरन्तर आगे बढ़ता रह सकता है। घोर व्यस्त, सर्वथा अयोग्य, असमर्थ यहाँ तक कि रुग्ण-अपंग व्यक्ति भी इस मार्ग पर उपयोगी कदम बढ़ा सकते हैं। आत्म निरीक्षण करके गुण, कर्म, स्वभाव में भरे हुए दोष-दुर्गुणों को ढूँढ़ा जा सकता है और उन्हें निरस्त करने का प्रयास आरम्भ किया जा सकता है। लोहे से लोहा कटता है और विचारों से विचारों की काट की जाती है। हेय आदतें, इच्छाएँ और मान्यताएँ जो अपने मनःक्षेत्र में जड़ जमाये बैठी हो, उन्हें आत्म निरीक्षण की टार्च जलाकर बारीकी से तलाश करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि उनका उन्मूलन करके ही रहेंगे। प्रत्येक निकृष्ट विचार के विरोधी विचारों की एक सुसज्जित सेना खड़ी करनी चाहिए। उन्हें नोट करना चाहिए और बार-बार उन पर मनन-चिन्तन करते हुए मनःक्षेत्र में गहराई तक प्रतिष्ठापित करना चाहिए।

यथा अपने भीतर यदि कामुक दृष्टि ने जड़ें जमा रखी हो, मानसिक अथवा शारीरिक व्यभिचार होता रहता हो तो उस अपव्यय से होने वाली शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक हानियों की लम्बी सूची नोट करनी चाहिए। जिनने इस बुरी आदत के चंगुल में अपने को फँसाए रखा, उन्हें जो दुष्परिणाम भोगने पड़े उनके उदाहरण सामने रखने चाहिए। इसके विपरीत जिन्होंने संयम साधा, उन प्राचीन एवं अर्वाचीन व्यक्तियों के उदाहरणों की जीवनचर्या सामने लानी चाहिए। कामुकता की प्रवृत्ति कितनी मूर्खतापूर्ण और कितनी अहितकर है इस सन्दर्भ में यदि देर तक चिन्तन-मनन करते रहा जाय तो बुद्धि इतने तर्क और प्रमाण प्रस्तुत कर देगी कि इस दिशा में बना हुआ रुझान प्रत्येक दृष्टि से अवाञ्छनीय प्रतीत होगा। मल-मूत्र, अस्थि-मज्जा जैसी घृणित वस्तुओं के ऊपर जो चिकनी चमड़ी चिपकी हुई है उनमें सौन्दर्य निहारना और मुग्ध होना कितना उपहासास्पद है। किसी रूपवान की काया की यदि चमड़ी उखाड़कर के सम्मुख रखी जाय तो प्रतीत होगा कि सुन्दर दीखने वाली काया वस्तुतः घोर घृणास्पद वस्तुओं से ही भरी पड़ी है। उसका सौन्दर्य सर्वथा दिखावटी और बनावटी है। फिर उस दुष्प्रवृत्ति को अपनाकर हम पाते कुछ नहीं, खोते ही खोते हैं। अपने बहुमूल्य वस्त्रों में आग लगाकर थोड़ी देर तापना बुद्धिमत्ता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। हम अपना ही तेज, ओजस, बल सर्वस्व जला, गला कर कुछ क्षण का घिनौना मनोरंजन करें इससे क्या बनेगा? क्या मिलेगा? दूसरे से कुछ पाने में लाभ की बात सोची जा सकती है। चोरी, उठाईगीरी आदि से कुछ तो लाभ होता है, पर व्यभिचार में तो अपनी वह बहुमूल्य सामर्थ्य जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी थी, गन्दी नाली में बहा दी जाती है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर अपने ही जबड़े छील लेता है और उसमें से बहने वाले रक्त को सूखी हड्डी का रस समझ कर स्वाद लेता है। इस मूर्खता में कुत्ता अपने ही जबड़े घायल करता है और देर तक उनकी पीड़ा सहता है। कामुकता के प्रयास लगभग इसी स्तर के हैं। इसके अतिरिक्त समाज में जो अव्यवस्था फैलती है, मर्यादाएँ टूटने से पारिवारिक विशृंखलता उत्पन्न होती है, उसकी हानियाँ अलग हैं। ऐसे-ऐसे अनेकों आधार कामुकता की दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध सोचे जा सकते हैं और हर दिन कई बार गम्भीरता पूर्वक उनका चिन्तन-मनन किया जा सकता है।

ऊपर की पंक्तियों में काम विकार की चर्चा की गई। अन्यान्य कुविचारों के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, आलस्य, प्रमाद, अपव्यय आदि के विरुद्ध भी प्रतिपक्षी विचारधारा की ईंटें जमाते हुए ऐसी दीवार खड़ी की जा सकती है, जिससे सिर पटक कर मनःक्षेत्र पर आधिपत्य जमाने वाले असुर विचारों को निराशा और असफलता के साथ वापिस लौटना पड़े। असुरता की अपने ऊपर विजय केवल इसलिए होती है कि हम उसे सहन करते हैं और पोषण, समर्थन प्रदान करते हैं। वस्तुतः उसमें अपनी निजी कोई ऐसी क्षमता नहीं है कि हमारे ऊपर विजय प्राप्त कर सके। जब भी जो भी डट कर उनका सामना करने खड़ा हो जायेगा, उन्हें अपना शत्रु मानेगा, घृणा करेगा जो उनका साथ निभाने पर होने वाली अपार हानि का विचार करता रहेगा उसे किसी मनोविकार से कभी हारना न पड़ेगा।

प्रतिरोध का सामना न करना पड़े तो छोटे-छोटे कीड़े तक बहुमूल्य वस्तुओं को, सुदृढ़ शरीरों को खोखला कर देते हैं, फिर मनोविकार वस्तुतः कितने ही दुर्बल क्यों न हो, प्रतिरोध रहित मनःक्षेत्र पर कब्जा कर ही लेंगे इसमें उनकी समर्थता एवं प्रबलता कारण नहीं वरन् अपनी उपेक्षा, मूर्छा, कायरता को ही दोष दिया जायेगा। सतर्कता, जागरूकता एवं प्रतिरोध करने की क्षमता जिसने भी विकसित की है, उसे मनोविकारों से परास्त होने का दुर्दिन नहीं देखना पड़ेगा।

सत्प्रवृत्ति का अभिवर्धन आत्म निर्माण का, आत्म विकास का दूसरा चरण है। सद्गुणों के अभाव में हम निस्तेज जीवन जीते हैं। समृद्धि, सशक्तता, विभूति, प्रतिभा एवं सफलता किसी के पास आसमान से नहीं टपकती। उन्हें सद्गुणों की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। क्या बुरे क्या भले, हर स्तर के लोग सफलतायें अपने सद्गुणों के आधार पर ही प्राप्त करते हैं। डाकू तक तभी सफल होते हैं जब उनमें शौर्य, साहस, निर्भीकता और सतर्कता जैसे गुणों का बाहुल्य हो। यह गुण न हो तो डकैती करते बन ही नहीं पड़ेगा। चोर, जेबकट की चतुरता एवं कुशलता उच्च स्तर की होती है। दूसरे की असावधानी से लाभ उठाने एवं अपने दुष्कृत्य को छिपाने के लिए उसे सूक्ष्म बुद्धि का असाधारण परिचय देना पड़ता है। यदि इन सद्गुणों का अभाव हो तो चोरी, जेबकटी बन ही नहीं पड़ेगी। कोई करेगा तो असफल रहेगा। ठगी तभी सफल होती है, जब मधुर भाषण और दूसरे का विश्वास अर्जित करने की कला आती हो। बनावटी रूप से ही सही, पर छल से सफलता तभी मिलेगी जब दूसरों के ऊपर अपनी विश्वसनीयता की छाप डालने वाला अभियान कर सकना ठीक तरह आता हो। उसके बिना छल प्रयास की कलई आरम्भ में ही खुल जायेगी।

यह सब तो हेय प्रयोजनों के लिये सद्गुणों के उपयोग की बात हुई। सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए सफलता प्राप्त करना तो व्यक्तित्व में उपयोगी सद्गुणों की स्थापना किये बिना सम्भव हो ही नहीं सकता। दुर्गुणी व्यक्ति तो उपलब्ध सम्पदा की रक्षा तक नहीं कर सकते। सहज ही जो कुछ उन्हें मिला हुआ है, उस तक का समुचित लाभ उठा सकना उनके लिए सम्भव न होगा। कितने ही दुर्गुण अपने बाप-दादों की छोड़ी हुई प्रचुर सम्पदा को कुछ ही दिनों में बारूद की तरह फूँक कर समाप्त कर देते हैं। सुविधा और सम्मान भरी उपलब्धियों से देखते-देखते हाथ धो बैठते हैं। इसके विपरीत गरीबी और कठिनाइयों की अभावग्रस्त असुविधा भरी परिस्थितियों में जन्मे बालक अपनी उत्कट इच्छा शक्ति, श्रम साधना, अध्यवसाय एवं तलाश, प्रयास को अपनाते हुए उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं। अपने हाथों अपना मार्ग बनाते हैं और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं।

सद्गुणों का अर्थ सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, ईश्वरभक्ति जैसे उच्च आदर्शों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उनकी परिधि अन्तरंग और बहिरंग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र तक फैली हुई है। समग्र व्यक्तित्व को परिष्कृत, सज्जनोचित एवं प्रामाणिक बनाने वाली सभी आदतों एवं रुझानों को सद्गुण की सीमा में सम्मिलित किया जायेगा। कोई व्यक्ति झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता व्यभिचार से बचा है, यह बचाव उचित है और अनुकरणीय भी, पर इतने को ही आत्म निर्माण मान बैठना अपर्याप्त होगा। कीट-पतंग और वृक्ष-वनस्पति भी तो झूठ चोरी से बचे रहते हैं। यह स्थूल सदाचार का आंशिक पालन मात्र हुआ। इतने भर से आत्म विकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। मन में कुहराम मचाने वाली घुटन का भी अन्त होना चाहिए। जिन उद्वेगों और विकारों ने मनःक्षेत्र को अस्त-व्यस्त करके रख दिया है, उनका भी निराकरण होना चाहिए। गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अभाव रहने के लिये जो सर्वतोमुखी दरिद्रता छाई है, उसका भी अन्त होना चाहिए।

धर्म और अध्यात्म के विशालकाय कलेवर का एक ही उद्देश्य है, व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के, सज्जनोचित शालीनता के, प्रतिभा और कर्म कौशल के उच्च शिखर तक पहुँचाना। इस प्रयोजन के लिये जिस उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की आवश्यकता है, उसे जुटाने के लिए अनवरत अथक प्रयत्न करने का नाम ही तप साधना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन का इसके अतिरिक्त और कोई उद्देश्य नहीं। ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग उपलब्धि और जीवन मुक्ति का तात्त्विक स्वरूप यही है कि व्यक्ति अपनी समस्त क्षुद्रताओं और निकृष्टताओं को निरस्त करके सदुद्देश्य पूर्ण सत्प्रयोजनों में निरत रहने का अभ्यस्त बन जाय। परिष्कृत आत्मा का नाम ही परमात्मा है। अपने कषाय कल्मषों का निराकरण करना ही तप साधना है। ईश्वर प्रेम का सहारा लेकर अन्तःकरण में अपार प्रेम निष्ठा की धारणा और उसका लाभ उदार सेवा प्रवृत्ति के रूप में प्राणिमात्र को देना, ईश्वर भक्ति हमें इसी लक्ष्य की ओर ले जाती है। स्पष्ट है कि ईश्वर को किसी की खुशामद या रिश्वत की जरूरत नहीं। कर्मकाण्डों का घटाटोप उसे न तो आकर्षित करता है और न प्रभावित। जीव और ब्रह्म का मिलन मात्र उस अवरोध को हटाने से ही सम्भव हो सकता है जो कषाय कल्मषों के रूप में हम अन्तरंग और बहिरंग जीवन को निकृष्ट एवं पतित स्तर का बनाते हैं। अध्यात्म दर्शन की सारी सफलता इस बात पर निर्भर है कि व्यक्तित्व के समग्र निर्माण के लिये कितना साहस किया गया। दुर्गुणों को निरस्त करने और सद्गुणों को बढ़ाने में कितना प्रयास किया गया?

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

55.    जीवन व्यापार में ईश्वर की साझेदारी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी ने एकाकी, अपने ही बलबूते पर सफलता अर्जित कर ली हो, ऐसा बहुत कम ही देखने में आता है। आहार मनुष्य जीवन की नितान्त सामान्य बात है, पर उसे जुटाने में भी कितने ही लोगों का सहयोग और साझेदारी अभीष्ट हैं, इसे सभी जानते हैं।

कोई भी व्यक्ति अकेले गृहस्थ नहीं बसा सकता। पति-पत्नी मिलकर ही उस अभाव की पूर्ति करते हैं। एक पहिए की गाड़ी नहीं चल सकती। अकेले धन या ऋण आवेश से विद्युत धारा प्रवाहित नहीं हो सकती। जीवन के लिए जल की आवश्यकता सभी समझते हैं, किन्तु काम आग के बिना भी नहीं चल सकता। एक डाँड से नाव एक किनारे तो खड़ी की जा सकती है, पर नदी पार नहीं कर सकती। जीवन का हर व्यापार साझेदारी की नीति पर बना हुआ है, जिसमें पग-पग पर औरों के सहयोग की हर किसी को आवश्यकता पड़ती है।

बड़ी और महान उपलब्धियों में तो सहयोग की अपेक्षाएँ और भी सघन होती हैं। धर्मचक्र प्रवर्तन का महान कार्य गौतम बुद्ध ने पूर्ण किया, किन्तु वह कार्य अधूरा पड़ा रहता, यदि हर्षवर्धन ने आगे बढ़कर साझेदारी न निभाई होती। मान्धाता और शंकराचार्य, महाराणा प्रताप और भामाशाह, समर्थ रामदास और शिवाजी, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द की साझेदारी के पावन स्मारक और कृतियाँ अभी हजारों वर्षों तक भुलाए न भूलेंगी। अवतारों तक को यही नीति अपनानी पड़ी। राम के साथ लक्ष्मण का, श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन का योगदान सभी जानते हैं। अन्धे और पंगे के पूरक सिद्धान्त की तरह साझेदारी का नियम उन सभी अपूर्णताओं को दूर करता हैं, जिसका सामना प्रायः संसार में हर किसी को करना पड़ता है।

जीवन की छोटी-छोटी बातों में ही जब सहयोगी और साझेदारी का इतना महत्त्व हैं, तो मनुष्य जीवन जैसे अलभ्य अवसर को सार्थक बनाने, उसे दीन-हीन तथा दरिद्र स्थिति में पड़ा रहने देने के लिए, चौरासी लाख योनियों के पश्चात मिले सुरदुर्लभ जीवन को सफल बनाने में उसका कितना महत्त्व हो सकता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।

यह साझेदारी किसकी हो? मनुष्य को मिली विभूतियाँ, ईश्वर प्रदत्त क्षमताएँ इतनी गरिमामय हैं, जिन्हें देखकर उसे सृष्टि का राजकुमार ही कह सकते हैं। शिक्षा, दीक्षा, वाणी और विचारों के आदान-प्रदान, संस्कृति और सामाजिकता के सुन्दर उपहार किसी अन्य प्राणी को वैसे नहीं मिले जैसे कि मनुष्य को। इतने उच्चकोटि की प्रतिभा और क्षमताओं से सम्पन्न मनुष्य की साझेदारी किसी पशु-पक्षी, जीव-जन्तु से नहीं, अपने से श्रेष्ठ से ही हो सकती है। जीवन की गहराई और उस तात्त्विक दृष्टि के कारण भी यह साझेदारी परमात्मा की ही हो सकती है। आज का मनुष्य दीन-हीन स्थिति में यदि है, तो उसका एकमात्र कारण ईश्वरीय साझेदारी से वंचित रहना है। यदि परमात्मा हमारे जीवन व्यापार में घुल जाय तो लोहे का सा काला कुरूप जीवन पारस स्पर्श से बने स्वर्ण की तरह साकार हो सकता है। मनुष्य जीवन की अपूर्णताएँ केवल मात्र परमात्मा के संस्पर्श और साझेदारी से ही पूर्ण हो सकती हैं।

साझेदारी का अर्थ है मिल-जुलकर काम करना और साधनों को एकत्रित करके पारस्परिक सहमति से गतिविधियों का निर्धारण करने की रीति-नीति को अपनाना। जीवन एक व्यवसाय है, एक समूचा उद्योग है। इसमें ईश्वर के साथ साझेदारी को जीवन्त कर लिया जाय तो फिर घाटे की, असफलता की, विपन्नता आने की सम्भावना नहीं है। आज का हमारा ईश्वर-विमुख जीवन ही दुःख से घिरा और दारिद्र्य से भरा रहता है। यदि उसमें ईश्वर की साझेदारी जुड़ सके तो अज्ञान, अशक्ति और अभाव के तीनों ही संकटों से सदा सर्वदा के लिए निवृत्ति मिल सकती है।

अमर आत्मा का विश्वास सचमुच भूलोक का अमृत है। इसे पान करने के उपरान्त मनुष्य की दिव्य दृष्टि खुलती है। वह कल्पना करता है कि मैं अतीत काल से, सृष्टि के आरम्भ से एक अविचल जीवन जीता चला आया हूँ। अब तक लाखों करोड़ों शरीर बदल चुका हूँ। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, जलचर, नभचरों के लाखों मृत शरीरों की कल्पना करता है और अन्तर्दृष्टि से देखता है कि ये इतने शरीर समूह मेरे द्वारा पिछले जन्मों में काम में लाए एवं त्यागे जा चुके हैं। उसकी कल्पना भविष्य की ओर भी दौड़ती है। अनेक नवीन सुन्दर ताजे शक्तिसम्पन्न शरीर सुसज्जित रूप से सुरक्षित रखे हुए उसे दिखाई पड़ते हैं, जो निकट भविष्य में उसे पहनने हैं। यह कल्पना, यह धारणा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थी के मानस लोक में सदैव उठती, फैलती और पुष्ट होती रहती हैं। यह विचारधारा धीरे-धीरे निष्ठा और श्रद्धा का रूप धारण करती जाती है। जब पूर्ण रूप से समस्त श्रद्धा के साथ यह विश्वास करता है कि वर्तमान जीवन मेरे अनन्त जीवन का एक छोटा सा परमाणु मात्र है, तो उसके समस्त मृत्युजन्य शोकों की समाप्ति हो जाती हैं। उसे बिलकुल ठीक वही आनन्द उपलब्ध होता है, जो किसी अमृत का घट पीने वाले को होना चाहिए।

‘मैं पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा हूँ’ इस महान सत्य को स्वीकार करते हुए मनुष्य अमरत्व के समीप पहुँच जाता है। उसका दृष्टिकोण अमर, सिद्ध महात्मा और देवताओं जैसा हो जाता है। इस परिस्थिति के भव बन्धन में बँधा हुआ इधर-उधर नाचता नहीं फिरता, वरन् अपने लिए वैसा ही संसार का जान-बूझकर निर्माण करता है, जैसा आत्मविश्वास और आत्मपरायणता का मार्ग है। यदि आप अपना सम्मान करते हैं, अपने को आदरणीय मानते हैं, अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता पर विश्वास करते हैं, तो सचमुच वैसे ही बन जाते हैं। जीवन की अन्तःचेतना उसी साँचे में ढल जाती है और रक्त के साथ दौड़ने वाली विद्युत शक्ति में ऐसा प्रवाह उत्पन्न हो जाता है, जिसके द्वारा हमारे सारे काम-काज ऐसे होने लगते हैं, जिनमें उपरोक्त भावनाओं का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है। आत्म-तिरस्कार करने वालों के कामों को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह नीच वृत्ति का, अकर्मण्य, आलसी, दास, दीन और अपाहिज है। अपने आपे का तिरस्कार करने वाले आत्महत्यारे अपना यह लोक भी बिगाड़ते हैं और परलोक भी।

आत्मा की अमरता पर विश्वास करना ही अमृत है। ‘मैं अविनाशी हूँ’ पग-पग पर दिखाई देने वाले भय को मार भगाकर निर्भयता प्रदान करने वाला यह मृत्युञ्जय बीज मन्त्र है। अपने अन्दर पवित्रता अनुभव करने में आत्मसम्मान है और अपने को अविनाशी समझने से आत्मविश्वास का प्रादुर्भाव होता है। निराशा और भय के झूले में झूलने वाले लोगों को ‘मैं अविनाशी हूँ’ यह मन्त्र जीवन सन्देश देता है। वह कहता है-उठो, कर्तव्य पर प्रवृत्त होओ। तुम्हारा जीवन अखण्ड है। कपड़े बदल जायेंगे, पर तुम नहीं बदलोगे। शरीर बदल जायेंगे पर जीवन नहीं बदलेगा। अपने ऊपर विश्वास करो। आत्मा और परमात्मा पर विश्वास करो। तुम्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता। इस विश्वास के सहारे उसका जीवन तेजस्विता से परिपूर्ण श्रद्धामय, आनन्दमय हो जाता है।

परमात्मा को साझेदार बनाने का अर्थ है वह प्रति क्षण हमारे जीवन के हर क्रिया-कलाप में घुला हुआ आच्छादित रहे, हम कभी उससे रिक्त न रहें। यह वह अमृत है जो समस्त चिन्ता और तृष्णा को समाप्त कर देता है।

जीवन में अभय की प्राप्ति, आत्मा के दर्शन, मुक्ति, निर्वाण को सर्वोपरि पुरुषार्थ कहा जाता है। उसे पाकर मनुष्य समर्थ हो जाता है। पर यह तभी सम्भव है, जब परमात्मा अपने साथ घुला रहे। जिसके अन्तःकरण में यह परमार्थ जाग गया उसका जीवन धन्य हुआ ही माना जाता है।

संसार के प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएँ प्रायः १. आरोग्य और दीर्घ जीवन, २. आर्थिक सम्पन्नता तथा ३. सफलता और सम्मान की प्राप्ति के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती हैं। हर व्यक्ति किसी ऐसे पारस पत्थर की तलाश में रहता है जो लोहे जैसी मनोकामनाओं का स्पर्श करके ही उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर दे। ऐसा कोई पत्थर संसार में किसी को मिल गया हो, ऐसा अभी तक सुनने में नहीं आया। किन्तु परमात्मा की साझेदारी एक ऐसा पारस प्रदान करती है, जो जीवन को सोने जैसा सुन्दर बना देती है। उस समय यह सांसारिक इच्छाएँ भी तुच्छ प्रतीत होने लगती हैं।

यह पारस क्या है? यह है प्रेम। एक काला-कलूटा आदमी जिसे आप पूर्णतया कुरूप, गँवार या असभ्य कह सकते हैं, अपनी स्त्री के लिए कामदेव सा रूपवान और इन्द्र के समान सामर्थ्यवान लगता है। जैसे शची अपने इन्द्र को पाकर प्रसन्न है और अपने को सौभाग्यशाली मानती है, वैसे ही एक भीलनी अपने अर्द्धनग्न और धनहीन भील को पाकर प्रसन्न है। विचार कीजिए कि इसका कारण क्या है? जो आदमी सबको कुरूप और गन्दा लगता है, वह एक स्त्री को इतना प्रिय क्यों लगता है? इसका कारण है-प्रेम। प्रेम एक प्रकार का प्रकाश है, अँधियारी रात में आप अपनी बैटरी की बत्ती से किसी वस्तु पर रोशनी फेंके तो वह वस्तु स्पष्ट रूप से चमकने लगेगी, जबकि पास पड़ी हुई दूसरी अच्छी चीजें भी अँधियारी के कारण काली-कलूटी और श्री-हीन सी मालूम पड़ेंगी। तब वह वस्तु जो चाहे सस्ती और भद्दी क्यों न हो, बैटरी का प्रकाश पड़ने के कारण स्पष्टतया चमक रही होगी, अपने रंग रूप का प्रदर्शन कर रही होगी, आँखों में जँच रही होगी। प्रेम में ऐसा ही प्रकाश है। जिस किसी से भी प्रेम किया जाता है, वही सुन्दर, गुणकारी, लाभदायक, भला, बहुमूल्य, मनभावन मालूम पड़ने लगता है। माता का दिल जानता है कि उसका बालक कितना सुन्दर है। अमीर अपने हीरे-जवाहरात और महल की जैसी कीमत अनुभव करते हैं, गरीबों को अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी, फटे-पुराने कपड़े और मैले-कुचैले सामान से भी वैसी ही ममता होती है।

प्रेम एक सजीव बिजली है, वह जिसके ऊपर पड़ती है उसे गतिशील बना देती है। निराश, उदास, रूखे, गिरे हुए और झुँझलाये-झल्लाए हुए लोगों को एकदम परिवर्तित कर देती है। वे आशा, उत्साह, उमंग, प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भर जाते हैं। देखा गया है कि उपेक्षा और तिरस्कार ने जिन लोगों को दुर्जन बना दिया था, वे ही प्रेम की डली चखकर बड़े उदार सद्गुणी और सज्जन बन गए। दीपक स्नेह की चिकनाई को पीकर जलता है। मनुष्य का जीवन भी कुछ ऐसा ही है। जिसे स्नेह से सींचा गया है, उसका दिल हरा और फला रहेगा। जो स्नेह से वंचित है वह सूखा, झुँझलाया, दुःखी, निराश और अनुदार बन जाएगा। इसलिए दूसरों को यदि अपना इच्छानुवर्ती, मधुरभाषी, प्रिय व्यवहारी बनाना है तो इस निर्माण कार्य के लिए प्रेम चाहिए। अन्धकार को प्रकाश में, निर्जीवता को जीवन में, मरघट को उद्यान में बदल देने की शक्ति का नाम प्रेम है। इतनी चमत्कारपूर्ण, सजीव परिवर्तन कर सकने वाली शक्ति को यदि पारस कहा जाता है तो कुछ अत्युक्ति की बात नहीं है।

ऐसा पारस वास्तव में बनाया गया होता तो सृष्टि क्रम के असन्तुलित और बाधित होने में कोई आशंका न थी, पर यह पारस जो परमात्मा के रूप में मिलता है, जीवन के हर क्षण हर साँस को स्वर्णमय बना देता है। प्रेम का अन्त वहीं होता है जहाँ स्वार्थ और मोह भरा हो। जिसे ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास होगा, जो संसार के वास्तविक स्वरूप को पहचानता होगा, वह आत्मा से प्यार करेगा शरीर से नहीं। ऐसे व्यक्ति के लिए न तो कोई अपना न पराया, वरन् सभी में एक ही प्रेमास्पद सत्ता से ओतप्रोत दिखाई देगी। यह दिव्य दृष्टि, यह निर्मलता जीवन को आनन्दपूर्ण बना देती है। जिसने उसका रसास्वादन किया, मीरा, कबीर, सूर, तुलसी, नानक बन गया।

परमात्मा के सान्निध्य में प्राप्त होने वाली तीसरी निधि कल्पवृक्ष की है। कल्पवृक्ष तपस्वी जीवन के रूप में फलित होता है। तप का अर्थ है-सच्ची लगन और निरन्तर प्रयत्न। यही दो महान साधनाएँ हैं जिनसे परमात्मा प्रसन्न होता है और इच्छित वरदान प्रदान करता है।

उदासीन, आलसी और निकम्मा व्यक्ति दो घण्टा काम करके एक पर्वत पार कर लेने की थकान अनुभव करता है; किन्तु उत्साही, उद्यमी और अपने काम में दिलचस्पी लेने वाले व्यक्ति सोने के समय को छोड़कर अन्य सारे समय लगे रहते हैं और जरा भी नहीं थकते। सच्ची लगन, दिलचस्पी, रुचि और झुकाव एक प्रकार का डायनेमो है, जो काम करने के लिए क्षमता की विद्युत शक्ति हर घड़ी उत्पन्न करता रहता है।

उत्साह, स्फूर्ति, लगन, धुन, परिश्रमप्रियता, साहस, धैर्य, दृढ़ता और कठिनाई को देखकर विचलित न होना, यह तप के लक्षण हैं। जिसने तप द्वारा इन गुणों को पैदा किया, अपने मनोवांछित तत्व को पाने के लिए खून-पसीना बहाना सीखा, वह एक प्रकार का सिद्ध है। कल्पवृक्ष की सिद्धि उसके आगे हाथ बाँधे खड़ी रहती है। ऐसे आदमी जो चाहते हैं, कर गुजरते हैं; जो चाहते हैं प्राप्त कर लेते हैं। नेतृत्व, लोकसेवा, धन उपार्जन, प्रतिष्ठा, ज्ञान, भोग आदि सम्पदाएँ पाने को जिनके मन में लालसाएँ उठती हों, उन्हें सबसे पहले अपने को तपस्वी बनाना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, समय का अपव्यय, बकवाद, ठलुआपन्थी, निराशा, निरुत्साह, अस्थिरता आदि दुर्गुणों को हटाकर तपश्चर्या के सद्गुणों को अपने अन्दर धारण करना चाहिए। तप ही कल्पवृक्ष है। जिस किसी ने इस दुनिया में कुछ पाया है, परिश्रम से पाया है। आप भी कुछ पाना चाहते हैं तो अदम्य उत्साह के साथ घोर परिश्रम करना अपना स्वभाव बनाइए। इस साधना के फलस्वरूप आपको कल्पवृक्ष जैसी प्रतिभा मिलेगी और उसके द्वारा आपकी सब प्रकार की इच्छा, आकांक्षा आसानी से पूरी हो जाया करेंगी।

परमात्मा को अपने जीवन व्यवसाय में साझीदार बनाकर उपरोक्त तीनों अनुदान-वरदान प्राप्त किए जा सकते हैं। साझे में चलने वाली कई कम्पनियाँ दूसरों से पूँजी प्राप्त कर अपना काम चलाती हैं। इसी प्रकार कई मालिकों को अपने पिता से ही उत्तराधिकार में सम्पत्ति मिल जाती हैं और वह उसको चतुराई से उपयोग करता हुआ अपनी सम्पन्नता, श्री, समृद्धि को बढ़ाता रहता है। परमात्मा भी आपके जीवन में यह पूँजी लगाने के लिए तैयार है। आपको भी उत्तराधिकार में यह सम्पदा प्राप्त हो रही है। आप इसका उपयुक्त नियोजन और सदुपयोग करने में जरा चतुराई बरतिए तो सही।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

56.    जीवन देवता की साधना आराधना
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

ईश्वर का प्राणी को सबसे बड़ा उपहार मनुष्य जीवन है। इससे श्रेष्ठ एवं बहुमूल्य सम्पदा ईश्वर के विभूति भण्डार में और कोई है नहीं। शरीर संरचना एवं मनःसंस्थान की दृष्टि से मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत आगे है। उसे प्रकृति रहस्यों को खोज निकालने और उनके आधार पर पदार्थ वैभव का मनचाहा उपयोग करने की अद्भुत क्षमता मिली है। ज्ञान और विज्ञान के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से उसकी सत्ता सुसज्जित है। क्रियाशीलता, विचारणा तथा भावना के तन्त्रों में इतनी उत्कृष्टता भरी पड़ी है कि उनके सहारे भौतिक एवं आत्मिक सम्पदाओं का प्रचुर परिमाण में उपार्जन कर सकना उसके बाएँ हाथ का खेल है। गृहस्थ आनन्द, आजीविका के सुनिश्चित आधार अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं। ऐसा क्रिया-कौशल और किसी के भाग्य में बदा नहीं है। उपलब्धियों को देखते हुए उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाना सर्वथा सार्थक है।

जीवन सत्ता का स्वरूप, लक्ष्य एवं सदुपयोग समझा गया या नहीं, समझने के उपरान्त उत्कर्ष का मार्ग अपनाया गया या नहीं। मार्ग पर उत्साह, पुरुषार्थ सहित चला गया या नहीं? इसी चयन, निर्धारण पर उत्थान-पतन की आधारशिला रखी जाती है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। अवाञ्छनीयता अपनाकर पतन के गर्त में गिरने की या उत्कृष्टता का वरण करके उत्कर्ष के चरम लक्ष्य तक जा पहुँचने की उसे पूरी छूट है। कोई परिस्थितियों का रोना रोता रहे और मनःस्थिति को न सुधारे तो उस विडम्बना रचे बैठे प्रमाद ग्रस्त से कोई क्या कहे?

देवता अनेक हैं, पर तत्काल फलदायक अत्यन्त निकटवर्ती और अनुदान देने के लिए आतुर-आत्मदेव से बढ़कर और कोई नहीं। जीवन को कल्पवृक्ष कहा गया है। उसकी गरिमा समझने वाले और निर्धारित लक्ष्य के लिए उसे प्रयुक्त करने वाले वह सब कुछ प्राप्त करते हैं, जो पाने योग्य है। अन्य देवताओं की अनुकम्पा संदिग्ध है, पर जीवन देवता की साधना का प्रतिफल सर्वथा असंदिग्ध है। दुःख इसी बात का है कि जीवन का महत्त्व समझा ही नहीं गया और उसे ऋद्धि-सिद्धियों से सुसम्पन्न बनाने की ओर ध्यान गया ही नहीं। अन्यथा स्थिति वैसी न होती, जैसी कि सामने है।

भूमि की साधना से किसान और माली फसल काटते और उद्यानों को सोना उगलने के लिए विवश करते हैं। विद्या की साधना करने वाले विद्वान् कहलाते और उच्च पदासीन बनते हैं। व्यवसाय की साधना करने वाले धन कुबेर बनते हैं। शरीर साधने वाले बलवान पहलवान अनेकों पर हावी रहते हैं। कला साधना से गायक, अभिनेता, मूर्तिकार, चित्रकार, कवि, साहित्यकार आदि यशस्वी भी बनते हैं और सम्मानित समृद्ध भी। देवताओं की साधना भी जब तब कुछ वरदान अनुदान देती रहती है। इन सबसे बढ़कर जीवन साधना है जो उसके लिए अग्रसर हुआ, सो निहाल हो गया। ढेले की तरह निरर्थक दीखने वाले जीवन को यदि गहराई में उतरकर कुरेदा जा सके तो उसके अन्तराल में ऐसे अगणित परमाणु मिलेंगे, जिनमें से एक-एक का विस्फोट ही धरती को हिला सकता है। उपेक्षा से तो हीरा भी काँच की तरह ठुकराया जाता है। फिर जीवन का स्वरूप और रहस्य न समझने पर, उसकी साधना से विरत रहने पर कोई अभाव दारिद्र्य से, शोक-संताप, पतन-पराभव से घिरा पड़ा रहे तो इसके लिए अन्य किसी को दोष कैसे दिया जाय? जीवन की अवहेलना से बढ़कर पाप इस संसार में और कोई नहीं। अन्य पापी के कर्ता को तत्काल लाभ तो मिल ही जाता है, पर जीवन की उपेक्षा का पातक ऐसा है जिसमें उस छोर से इस छोर तक, आरम्भ से अन्त तक नरक ही नरक सड़ता देखा जा सकता है। भाग्योदय का एक ही चिन्ह है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई महान संभावनाओं को समझा जाय और उसे कषाय-कल्मषों के गर्त से उबार कर परिशोधन, परिष्कार की प्रयोगशाला में भेजा जाय।

सर्प, बन्दर, भालू, शेर आदि भयानक जन्तुओं को सधाकर उपयोगी और कमाऊ बनाया जाता है। असभ्य अनपढ़ और कुसंस्कारी को भी आत्मसाधना की भट्टी में अभिशप्त जीवन को गलाना और श्रेय, सौभाग्य के ढाँचे में ढालना नितान्त सम्भव है। लोग जितना पुरुषार्थ साधन जुटाने, प्रतिपक्षी को हराने में करते हैं, उससे आधा भी यदि अपने आपका परिशोधन, परिमार्जन करने में कर सकें तो प्रतीत होगा कि यह सबसे अधिक बुद्धिमत्ता का, सबसे अधिक सम्पन्नता, सफलता उपार्जन का काम बन पड़ा। व्यक्तित्व एक प्रकार का चुम्बक है, जो अपने स्तर का सम्पर्क, समर्थन, सहयोग प्रचुर परिमाण में स्वतः खींच बुलाता है।

पानी का नीचे ढलना, ढेले का नीचे गिरना स्वाभाविक है, पर ऊँचा उठाने के लिए, आगे बढ़ने के लिए कुछ अतिरिक्त साहस करने, कोई नया मार्ग अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। अवांछनीय ढर्रे को तोड़ना और चिन्तन तथा व्यवहार को उत्कृष्टता के साथ जोड़ना ही जीवन साधना के निमित्त किया गया सच्चा पराक्रम एवं तप साधन है।

जीवन ही अपना घनिष्ठतम स्नेही सहयोगी है। अन्यान्यों की सेवा सहायता की बात सोचने से पहले देखना होगा कि इस अपने ऊपर सर्वथा आश्रित को सुखी समुन्नत बनाने का प्रयत्न हुआ या नहीं? उत्तरदायित्व निभाया या नहीं? यहाँ यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए-साधन सम्पदा मात्र शरीर यात्रा के काम आती है। जीवन को सुसम्पन्न, समुन्नत बनाने के लिए गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता भर देने वाली विभूतियों का संचय करना पड़ता है।

समृद्धि सम्पादन के दो ही उपाय हैं, एक घाटा देने वाले छिद्रों को रोकना, दूसरा वैभव बढ़ाने वाले उपाय उपचारों को अपनाना। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक क्षेत्रों में लोग दिवालिया होते और समुन्नत बनते देखे जाते हैं। उनमें निमित्त कारण इन्हीं दो अवलम्बनों को अपनाने, न अपनाने की सूझबूझ काम करती है ।।

जीवन साधना में मनन और चिन्तन को, निदिध्यासन को आवश्यक माना गया है। हर दिन सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के बाद-जब चित्त शान्त एकान्त हो, तब अपनी अन्तरंग-बहिरंग स्थिति का लेखा-जोखा लेना चाहिए और भूलों को सुधारना, कमियों को पूरा करने तथा भावी प्रगति के लिए जो कदम उठाने आवश्यक हैं, उनका दूरगामी एवं सामयिक निर्धारण करना चाहिए। निर्धारण ऐसा होना चाहिए जो वर्तमान स्थिति में बिना समय गँवाये कार्यान्वित हो सके।

[1] आत्मचिन्तन [2] आत्मसमीक्षा [3] आत्मसुधार [4] आत्मविकास, यह चार चरण, चारपाई के चार पायों की तरह, कमरे की चार दीवारों की तरह अनिवार्य रूप से आवश्यक माने गये हैं। आमतौर से अपने दोष-दुर्गुण समझ में न आने देने वाली पक्षपाती धारणा हर किसी पर चढ़ी रहती है। निष्पक्ष पर्यवेक्षक की दृष्टि अपनाकर गौरवास्पद व्यक्तित्व को सामने रखते हुए उसके साथ तुलना करने पर ही यह जाना जा सकता है कि इन दिनों अपनी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति में किन भूलों और अभावों का दौर है। निदान के उपरान्त ही उपचार बन पड़ता है। न केवल भूलें ढूँढ़ते रहना चाहिए, वरन् उनके सुधार का उपाय भी खोजना चाहिए। यह मनन पक्ष हुआ।

चिन्तन में दो बातें आती हैं-परिमार्जन और परिष्कार; पथ्य और औषधि। व्यक्तित्व को पवित्र प्रखर बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों को कैसे अपनाया जाय? वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस सन्दर्भ में नया कदम उठाया जाय। इसका निर्धारण ही नहीं, उसे अपनाने का तत्परता पूर्वक प्रयास भी अविलम्ब चलना चाहिए। गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता और प्रतिभा के दोनों उपायों का नियोजन रहना चाहिए। आत्मनिर्माण का यही रचनात्मक उपाय है। इसके उपरान्त चौथा चरण यह है कि जो उपलब्ध है, उसे किस प्रयोजन के लिए किस अनुपात में, कहाँ लगाया जाय? उपलब्धियों का महत्त्व तभी है जब वे सत्प्रयोजन में लग सकें, अन्यथा दुरुपयोग अपव्यय ही चलता रहे तो सम्पन्नता दरिद्रता से भी महँगी पड़ती है। आत्मविकास का अर्थ है अपना दायरा बड़ा करना। दायरा बड़ा करना अर्थात् संकीर्ण स्वार्थपरता के, लोभ-मोह के भव बन्धनों को शिथिल करते हुए समष्टि के साथ अपने आपको जोड़ना। उस दृष्टिकोण को अपनाने पर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना उमँगती है और असीम के साथ जुड़ने को जी मचलता है। दूसरों का दुःख बाँटने और सुख बँटाने का आत्मभाव जब विस्तृत होगा तो उसका उपयोग लोकमंगल के कार्यों के लिये समयदान अंशदान के रूप में प्रस्तुत किये बिना चैन पड़ेगा ही नहीं।

मनन चिन्तन के निदिध्यासन को यदि नियमित रूप से गम्भीरता पूर्वक करते रहा जाय तो परिशोधन और परिष्कार के दोनों कदम उठते रहेंगे। परिस्थिति के अनुसार क्रमबद्ध कदम उठते रहेंगे और पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाला उपक्रम सुनिश्चित रूप से बनता रहेगा।

यहाँ एक बात और समझने की है कि मनुष्य पूर्ण से उत्पन्न होने के कारण पूर्ण ही है। जन्मजात रूप से उपलब्ध विभूतियों का दुरुपयोग-अपव्यय ही एकमात्र वह कारण है, जिसके कारण कामधेनु का दूध छलनी में दुहने पर जमीन पर गिरता, कपड़े चिकने करता और खेद पश्चाताप का निमित्त कारण बनता है। इस दुष्प्रवृत्ति को असंयम कहते हैं। इसे रोक देने की दूरदर्शिता एवं साहसिकता को तपश्चर्या कहते हैं। तप से ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ उपलब्ध होने की बात सर्वविदित है।

परमात्मा अदृश्य है। आत्मा का भी कोई दृश्य स्वरूप नहीं। सृष्टा ने जीवन उपहार के साथ-साथ तीन ऐसे साधन भी दिये हैं जिनको मण्डी से भुनाकर कुछ भी खरीदा जा सकता है। (1) समय (2) चिन्तन (3) पराक्रम की क्षमताएँ सभी को उपलब्ध हैं। इनके बदले हर स्तर के साधन खरीदे जा सकते हैं। प्रश्न इतना ही है कि इनका उपयोग कौन कितनी समझदारी के साथ करता है। बुद्धिमानी की परीक्षा किसी की सम्पन्नता या सफलता नहीं है। वह तो अनीति पूर्वक तथा भाग्य विधान के सहारे भी उपलब्ध हो सकती है। समझदारी खर्च करने में है। किसी की विवेकयुक्त दूरदर्शिता परखनी हो तो देखना पड़ेगा कि वह उपलब्धियों का खर्च किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार करता है।

संयमशील ही सच्ची सम्पदा और एवं समर्थता उपार्जित करते हैं। चारों विभूतियों के सम्बन्ध में हर विचारशील को संयमी होना चाहिए। समय का एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाने देना चाहिए। दिनचर्या बनानी ही चाहिए। आलस्य प्रमाद में एक क्षण का भी अपव्यय नहीं होना चाहिए। हर साँस को हीरे मोतियों से बढ़कर मूल्यवान मानना चाहिए और कार्य पद्धति अपनाकर उसमें तत्पर-तन्मय रहना चाहिए। विश्राम आलस्य का प्रतीक न बने, उसके लिए स्थान तो रहे, पर ऐसा न हो की टालमटोल, अनख, आलस में समय गुजरता रहे। रावण ने काल पाटी से बाँधकर सफलताएँ अर्जित की थी। वही मार्ग हर विवेकवान को अपनाना पड़ा है। उनने समय का एक क्षण भी बर्बाद नहीं होने दिया। योजनाबद्ध रूप से व्यस्त दिनचर्या बनाकर उसका सदुपयोग किया है। प्रगति के आकांक्षी हर व्यक्ति को यही करना चाहिए।

समय का सदुपयोग पराक्रम के सहारे बन पड़ता है। पराक्रम का अर्थ है-तत्परता और तन्मयता। तत्परता अर्थात् उत्साह भरा परिश्रम। तन्मयता अर्थात् रुचि पूर्वक मनोयोग। दोनों का संयोग जहाँ भी होगा चमत्कारी प्रतिफल हस्तगत होंगे। पसीने में लक्ष्मी निवास करती है। व्यस्तता से ही आरोग्य और मनोबल स्थिर रहता है। ‘आलस्य और दारिद्र्य अभिन्न मित्र बनकर साथ-साथ रहते हैं’ जैसे सूत्रों को सदा स्मरण रखना चाहिए। हाथ में लिये कामों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसे श्रेष्ठतम स्तर का बनाने के लिए अपनी समूची प्रतिभा, कुशलता का नियोजन करना चाहिए। जो समय और श्रम की संगति बिठा लेगा, उसे कुशल व्यवस्थापकों की तरह हर क्षेत्र में श्रेय सम्मान मिलेगा। जिसका समय आलस्य से और मस्तिष्क प्रमाद से घिरा रहेगा, वह पतन पराभव के गर्त में गिरेगा। पिछड़ी और दुर्गतिग्रस्त परिस्थितियों से जकड़ा रहेगा। इसलिए पराक्रम में व्यस्तता का नियोजन रहना ही चाहिए।

तीसरा वैभव है-चिन्तन। शरीर काम करता है किन्तु उसमें रस न लिया जाय। बेगार भुगती जाय तो उसमें मनोयोग न लगेगा। मात्र शरीर काम करता रहेगा। ऐसी दशा में खाली दिमाग शैतान की दुकान बने बिना न रहेगा। विचार ही कर्म की पूर्व भूमिका बनाते हैं। उन्हीं का स्तर उत्थान-पतन के लिए उत्तरदायी होता है। विचार दीखते नहीं, किन्तु वस्तुतः वे ही सौभाग्य और दुर्भाग्य की दिशाधारा का नियोजन करते हैं। विचारों को दिशाधारा देना ही वह बहुचर्चित मनोनिग्रह है, जिसे एकाग्रता कहा जाता है और जिसका दैवी वरदान जैसा माहात्म्य बताया जाता है।

विचारों को आवारा कुत्ते की तरह जहाँ-तहाँ झूठे पत्ते चाटते फिरने की, अनगढ़ विचारों को कीचड़ में लोटते रहने की छूट नहीं देनी चाहिए। उन्हें सृजनात्मक सज्जनोचित चिन्तन का अभ्यास कराना चाहिए। अवांछनीय कल्पना करते रहने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। बुरे विचार मस्तिष्क में प्रवेश करते ही उनसे मल्ल युद्ध करने के लिए प्रतिपक्षी सद्विचारों को जुटा देना चाहिए। काँटे से काँटा निकाला जाता है और अवांछनीय विचारों को उत्कृष्टता आदर्शवादिता की मान्यताओं को उभार कर निरस्त करना चाहिए। चिन्तन के लिए विषयों का पूर्व निर्धारण हो। वैज्ञानिकों, दार्शनिकों एवं महापुरुषों की तरह अपना चिन्तन निरन्तर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए सीमित एवं सुनिश्चित रहना चाहिए।

चौथी सम्पदा है-धन। यह है तो पराक्रम की उपलब्धि, पर उसे भी ईश्वर प्रदत्त समय, पराक्रम और चिन्तन की ईश्वरीय सम्पदा के बदले खरीदी हुई विभूति मानना चाहिए। नीति पूर्वक कमाया जाय और सत्प्रयोजनों में खर्च किया जाय, यही है सच्ची और समझदारी की अर्थनीति। धन को अपने परिवार एवं समाज में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में खर्च करना चाहिए। दुर्व्यसनों में एक छटाँक भी खर्च न होने देने का नियन्त्रण बरता जा सके, तो असंख्यों दुर्व्यसनों और अनाचारों से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। बजट बनाकर खर्च किया जाय, अपव्यय को पास न फटकने दिया जाय तो थोड़े से धन से भी अपनी तथा परिवार की सर्वतोमुखी प्रगति के अनेक रास्ते खुल सकते हैं। समय, श्रम, चिन्तन की ही तरह अर्थ साधनों का भी संयम बरतना चाहिए। स्मरण रहे संयम तप है। व्यावहारिक जीवन में उपरोक्त चार सम्पदाओं का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए उन्हें अपव्यय दुरुपयोग से बचाने की सावधानी बरती जानी चाहिए। यही सच्ची तपश्चर्या, जीवन साधना है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

57.    साधना से सिद्धि का सिद्धान्त और स्वरूप
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सामान्य जन अनेकानेक क्षुद्र योनियों के कुसंस्कारों से लदे होते हैं। शिश्नोदर परायण पशु प्रदर्शन में ही उनका मन रमता और प्रयत्न चलता है। इस क्षेत्र से उठकर मानवी गरिमा के क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रक्रिया अध्यात्म तत्त्वज्ञान और साधना विधान के सहारे ही सम्भव होती है। उसका आलोक अन्तराल में प्रवेश करता है तो पुण्य-परमार्थ की प्रवृत्तियाँ उभरती हैं। पुण्य अर्थात् आत्मसंयम, परमार्थ अर्थात् सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में उत्साह। इन्हीं के समन्वय को देवत्व कहते हैं। महामानवों का यही कार्यक्षेत्र है। उसकी विचारणा एवं तत्परता इन्हीं दो प्रयोजनों पर केन्द्रित होती है, फलतः वे स्वयं कृतकृत्य होते हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र में शालीनता का वातावरण उत्पन्न करने में चन्दन वृक्ष का उदाहरण बनते हैं। यह अध्यात्म क्षेत्र ही देवमानवों की, नर-रत्नों की खदान है। इस विद्या का जब जितना प्रचलन-विस्तरण होता है, तब उसी अनुपात से वैयक्तिक प्रखरता और सामूहिक समर्थता की अभिवृद्धि होती है। सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। चेतना में उत्कृष्टता का स्तर बढ़ने से स्वल्प साधनों को मिल-बाँटकर खाया और सन्तोष पूर्वक रहा जा सकता है, जबकि इसकी कमी पड़ने पर लोग आपस में टकराते और नारकीय दुष्प्रवृत्तियों से सर्वत्र अशान्ति उत्पन्न करते हैं, भले ही सम्पदा के पर्वत इर्द-गिर्द ही क्यों न खड़े रहें।

इन तथ्यों पर ध्यान देने से अध्यात्म तत्त्वज्ञान और साधना विधान की व्यावहारिक गरिमा प्रकट होती है। यह प्रतिफल ऐसे हैं जिन्हें अपनाए जाने पर मनुष्य में देवत्व का उदय होना निश्चित है। जहाँ सज्जनता बढ़ेगी वहाँ अपनी इसी धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बिखरा-बिखरा फिरेगा। यही है अध्यात्म की विभूतिवान् परिणति, जिसके लिए उसे विचारशीलों द्वारा असाधारण महत्त्व दिया गया है और उसके माहात्म्यों का वर्णन आलंकारिक आकर्षणों सहित व्यक्त किया गया है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि चेतना को नरक से उबारकर स्वर्ग में पहुँचाने वाली इस विद्या को जादूगरी-बाजीगरी की पंक्ति में बिठा दिया गया है। प्रचलन में अध्यात्म का अर्थ कौतुक-कौतूहल, चमत्कार जैसा माना जाता है और उस आधार पर छुट-पुट सी हेरा−फेरी करने पर विपुल सम्पदाएँ, मनमानी सफलताएँ पाने का सपना देखा जाता है। अकर्मण्य लोग पुरुषार्थ के बल पर वैभव खोदने में सफल नहीं होते तो इन हथकण्डों के सहारे सम्पत्तिवान और यशस्वी बनने की बात सोचते हैं। कइयों को चित्र-विचित्र दृश्यों के देखने की बाल-सुलभ उत्सुकता रहती है। कोई देवी-देवता के अपने इर्द-गिर्द नाचने-कूदने का दृश्य देखना चाहते हैं। कुछ को कुण्डलिनी सर्पिणी की फुफकार सुनने, आँखों के आगे आज्ञा चक्र घूमने, आकाश से पुष्प वर्षा होने जैसे कौतूहलों का मजा लूटने की इच्छा रहती है। कुछ हवा में हाथ मारकर इलायची, जलेबी आदि मँगाने और उन मुफ्त की वस्तुओं का स्वाद चखना चाहते हैं। संक्षेप में यही है ऋद्धि-सिद्धि का कौतुक-कौतूहल, जिसके आधार पर किसी को गड़ा-दबा खजाना बताने का प्रलोभन और किसी को मारण-मोहन का भय दिखाकर उँगली के इशारे पर नचाया जाता है। कुछ देवताओं के सोल एजेण्ट बनते हैं और कुछ भविष्यवक्ता भाग्य विधान होने का दावा करते हुए अपने को सिद्ध पुरुष के रूप में चमत्कारी घोषित करते हैं। अब अणिमा महिमा जैसी हवा में उड़ने, पानी पर चलने और अदृश्य बनने जैसी करामातों के दावेदार तो नहीं रहे, पर बाजीगरों की तरह बालों में से बालू निकालने वालों की अभी भी कमी नहीं है। आश्चर्य होता है कि यह सारा भ्रम जंजाल अध्यात्म के साथ कैसे जुड़ गया! देवता से मलीनता का यह अम्बार किस प्रकार चिपक गया!

अध्यात्म क्षेत्र के साधकों को जहाँ दूरदर्शी विवेकवान होना चाहिए था, तथ्य और सत्य की परख में रस लेना चाहिए था, संयमी और परोपकारी जैसी प्रवृत्ति से उन्हें विभूतिवान रहना चाहिए था, वहाँ मुफ्त की मनोकामनाएँ पूरी कराने और कौतूहल देखने की ललक से उनका मनःक्षेत्र किस कारण इतना दिग्भ्रान्त और कलुषित हो गया? पुरातन उदाहरणों में अध्यात्म क्षेत्र के साधक और प्रवक्ता ऋषि स्तर के ही दीख पड़ते हैं। उन्हें ऋषितुल्य जीवन यापन करते और अहर्निश लोकसेवा में प्राणपण से निरत पाते हैं। पर आज तो सब कुछ उलटा है। तथाकथित साधु-सन्तों की मनःस्थिति और परिस्थिति को कसौटियों पर कसने से प्रतीत होता है कि महानता के स्थान पर प्रवञ्चना और विडम्बना ने बुरी तरह आधिपत्य जमा रखा है।

चमत्कार की घुसपैठ इस क्षेत्र में कैसे हुई? इसका आधार तपश्चर्या के आधार पर उपलब्ध होने वाली अतीन्द्रिय क्षमता के साथ जुड़ता-सा दीखता है। अन्तराल की गहन परतों में साधना के आधार पर प्रवेश करने वाले निस्सन्देह अतीन्द्रिय क्षमताएँ अर्जित करते हैं। अतिमानस का निखार होने पर व्यक्ति अतिमानव बनता है। ऐसों के पास देवोपम स्तर की क्षमताएँ होनी चाहिए। होती भी हैं। पर प्रश्न यह है कि उनका प्रदर्शन कौतुक-कौतूहल प्रदर्शित करने के लिए क्यों हो? क्यों न उस विशिष्टता के आधार पर लोकमंगल की सामयिक एवं महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा किया जाय? पुरातन काल की ऋषि परम्परा यही थी। आत्मबल के धनी एक-एक महामानव ने अपने उपार्जन को सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से लिए प्रयुक्त किया है। किसी को चमत्कार तमाशे नहीं दिखाए। फिर आज उस प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ गई?

यह तथ्य है कि किसी क्षेत्र में असाधारण पुरुषार्थ करने पर उसकी असाधारण उपलब्धियाँ भी हस्तगत होती हैं। सामान्यतया स्थूल शरीर ही व्यवहार में आता है और उससे सम्बन्धित बलिष्ठता, सम्पन्नता, प्रतिभा जैसी सम्पदाएँ उपार्जित की जाती हैं। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के क्षेत्र और भी अधिक महत्त्वपूर्ण विभूतियों से भरे पड़े हैं। उनमें स्रष्टा का समस्त वैभव बीज रूप से प्रतिष्ठित है। प्रयत्नकर्ता उस सम्पदा को कुरेदने, उभारने और बटोरने में समर्थ हो सकते हैं। अतीन्द्रिय क्षमता का भण्डार हस्तगत कर सकते हैं और देवमानव स्तर के चमत्कारी सिद्ध पुरुष बन सकते हैं। अध्यात्म क्षेत्र के वरिष्ठों में ऐसी ऋद्धि-सिद्धियों के समय-समय पर दर्शन होते भी रहते हैं। इसमें इतना तो सिद्ध होता है कि तपश्चर्या एवं योग साधना के सहारे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों की क्षमता को देवोपम स्तर तक उभारा-उठाया जा सकता है।

इतना जानने वालों को इतना और भी जानना चाहिए कि जिनके पास ऐसी विभूतियाँ होती हैं, वे उनका प्रदर्शन कौतुक-कौतूहल दिखाने जैसी आत्मश्लाघा एवं बालक्रीड़ा में कभी भी न करेंगे और न ठगों की चापलूसी से प्रभावित होकर कुपात्रों की मनोकामना के निमित्त लुटाने की भूल करेंगे। उन्हें ध्यान रहता है कि इस उपार्जन का सदुपयोग मात्र लोकमंगल एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के निमित्त ही हो सकता है। ऐसी दशा में कौतुक-कौतूहल देखने वालों और मुफ्त का वरदान बटोरने वालों का पक्ष हेय रहने से उन्हें निराश रहना पड़ता है। अध्यात्म क्षेत्र के सुसम्पन्नों में से प्रत्येक का स्तर एवं प्रयास यही रहा है। उनका उच्चस्तरीय उपार्जन व्यक्ति विशेष को इन्द्र-कुबेर बनाने का नहीं वरन् मात्र लोकमंगल के लिए नियोजित रहा है। पुरातन काल के ऋषियों से लेकर तत्कालीन बुद्ध, शंकर, समर्थ रामदास, परमहंस, गाँधी जैसे सन्त अध्यात्मवादी अपनी शक्ति को महान् प्रयोजन में ही निरत रखे रहे हैं। सत्प्रयोजनों के लिए ही उनने अपनी सम्पत्ति के अनुदान हस्तान्तरित किए हैं। किसी भी लुटेरे की दाल उनके आगे नहीं गली। व्यक्तिगत सम्पन्नता पाने और गुलछर्रे उड़ाने के लिए कोई भी धूर्त उनकी जेब काट लाने में कुछ भी विडम्बना रचकर सफल नहीं हो सका। सन्त सामान्य जनों की मनोदशा मोड़ते और सुधारते हैं। सस्ती चापलूसी के बदले अपने बहुमूल्य भण्डारों को कुपात्रों को लुटाने या चित्र-विचित्र करामातें दिखाने की भूल सन्तों अध्यात्मवादियों में से आज तक किसी ने भी नहीं की है। जिनकी जेब खाली है, उन्हें ही करोड़पति जैसी शेख बघारने और विडम्बना रचने में संलग्न देखा जाता है। विभूतिवान जिस घोर तप साधना से सिद्धियों को अर्जित करते हैं, उसी जिम्मेदारी के साथ उसका उपयोग भी फूँक-फूँककर करते हैं। लुटाने का पाखण्ड रचने वालों में से शत-प्रतिशत ढपोलशंख ही होते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमताओं की ऋद्धि-सिद्धि ऋषि स्तर के विशिष्ट व्यक्ति के पास ही होती है और उसका प्रयोग विशिष्ट प्रयोजनों के लिए ही होता है। सर्वजनीन सिद्धियाँ तीन हैं-१. आत्मसन्तोष २. जन-सहयोग ३. दैवी अनुग्रह। इन्हें अध्यात्मवादी हाथों हाथ प्राप्त करता है और उनके महत्त्वपूर्ण प्रतिफल का रसास्वादन करते हुए अपने आपको कृतकृत्य अनुभव करता है। यह सिद्धियाँ ऐसी हैं जिन्हें पारस, कल्पवृक्ष और अमृत की उपमा निस्सन्देह दी जा सके।

सामान्य जन आत्मसन्तोष के लिए ही दिन-रात श्रम करते और भले-बुरे कार्यों में हाथ डालते हैं। सम्पन्नता, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा कितनी ही अधिक अर्जित करें, पर उनका लाभ शरीर भर को मिलता है। आत्मा की क्षुधा-पिपासा आन्तरिक उत्कृष्टता एवं उदार सेवा साधना से ही तृप्त होती है। सच्चे अध्यात्मवादी को इन्हीं दो प्रयत्नों में सर्वतोभावेन निरत होना पड़ता है। फलतः असीम मात्रा में आत्मसन्तोष मिलता है। जड़ें मजबूत एवं गहरी होने से ही वृक्ष सुविकसित होता है। आत्मा के समर्थन एवं आशीर्वाद से ही व्यक्तित्व की महानता उभरती है। फलतः साहस, उत्साह और सङ्कल्प की कमी नहीं रहती। आत्मसन्तोष और आत्मबल अन्योन्याश्रित है। जहाँ एक होगा, वहाँ दूसरा भी रहेगा। अन्तर्द्वन्द्व ही आत्मबल को नष्ट करते हैं। जहाँ आत्मा और परमात्मा की, व्यक्ति और आदर्श की एकता है, वहाँ हर घड़ी प्रसन्नता बनी रहेगी और उल्लास भरी उमंगें उठती रहेंगी।

आत्मबल संसार का सबसे बड़ा बल है। वह जहाँ होता है, वहीं अन्य बल भीतर से उपजते, बढ़ते भी हैं और बाहर से खिंचते भी चले आते हैं। आत्म सम्पदा के धनी लोगों को भौतिक सम्पन्नता की भी कमी नहीं रही। जहाँ क्षुद्रता से घिरे लोग कुकर्म करते और हेय स्तर अपनाने पर भी दरिद्र, उद्विग्न बने रहते हैं, वहाँ आत्मबल के धनी बुद्ध, गाँधी की तरह हर स्तर की विभूतियों से घिरे रहते हैं। यह बात दूसरी है कि क्षुद्रजनों की तरह अपना पराया सब कुछ उदरस्थ ही नहीं करते रहते, वरन् उसे सत्प्रयोजन के निमित्त भगवान के खेत में बोते रहते हैं ताकि अदृश्य स्तर की दिव्य विभूतियों से उनका कोष हजारों गुना बढ़ता रहे। जिसे खिलाने में मजा आया वह खाने में कटौती करता है और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह दूसरों को खिलाता रहता है। शबरी इसी आधार पर कृतकृत्य हुई थी। गोपियों ने यही नीति अपनाकर भगवान को ललचाया और आँगन में नचाया था। क्षुद्र जन खाना ही खाना जानते हैं जबकि महान खिलाने का आनन्द लूटते और आत्मसन्तोष आत्मबल के धनी बनते हैं।

अध्यात्म क्षेत्र की दूसरी सिद्धि है-लोक सम्मान, जन सहयोग। हर किसी की इच्छा जन सहयोग पाने की होती है। सज-धज, ठाट-बाट में ढेरों समय और धन इसीलिए लगता है कि लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न हो, वरिष्ठता स्वीकारें, प्रभावित हों और वाह-वाह कहने लगें। इस ललक की पूर्ति के लिए मनुष्य निरन्तर लालायित रहता है। स्टेटस बनाना, स्टेण्डर्ड मेन्टेन करना इसी को कहते हैं। इस विडम्बना में मनुष्य का अधिक चिन्तन, श्रम एवं उपार्जन खप जाता है। फिर भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, वरन् उलटे ईर्ष्या का शिकार होना पड़ता है। अपव्ययजन्य तंगी और उसकी पूर्ति के लिए अनीति अपनाने का एक कुचक्र अलग ही चल पड़ता है।

अध्यात्मवादी की आत्म परिष्कार और लोक मंगल में संलग्न सत्प्रवृत्तियाँ जन-जन का मन जीत लेती हैं, सहज श्रद्धा उत्पन्न करती हैं। श्रेष्ठता को सदा वरिष्ठता मिलती है और उसे हार्दिक स्नेह सम्मान मिलता है। शत्रु भी प्रशंसा करते हैं। इसी आधार पर मनुष्य प्रामाणिक बनता है। जो प्रामाणिक है, उसे भरपूर सम्मान मिलता है। यह तथ्य भी स्मरण रखने योग्य है कि सम्मान के साथ सहयोग भी जुड़ा हुआ है। जो जिसकी इज्जत करेगा, उसका अनायास ही सहयोग करेगा। सहयोग ही वह आधार है जिसके सहारे बहुमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होना किसी के लिए सम्भव होता है। महामानवों को सफलताएँ इसी आधार पर सम्भव हुई हैं। उन्होंने अपनी टाँगों से छलांग नहीं लगाई वरन् लोगों ने कन्धों पर बिठाकर उन्हें ऊपर उठाया और सफल बनाया है। इस स्तर की सफलता भले ही आँखों से तत्काल प्रत्यक्ष न दीखती हो, पर उसकी परोक्ष परिणति को तनिक सी गहराई में उतरने पर सहज ही जाना जा सकता है। इस स्तर की सफलताओं को सच्चे अर्थों में सिद्धि कहा जा सकता है। इससे अपना ही नहीं, दूसरे असंख्यों का भी भला होता है। आश्रितों को अनुकरण की प्रेरणा मिलती है और वातावरण में उत्कृष्टता का पक्ष उभर कर आता है।

दैवी अनुग्रह तीसरी सिद्धि है। सत्प्रयोजन में आमतौर से सर्व साधारण का व्यंग्य, उपहास, असहयोग, विरोध ही रहता है। प्रचलन के विपरीत कदम बढ़ाने वालों के मार्ग में लोग पग-पग पर अड़चनें अटकाते, निरुत्साहित करते और विपरीत परामर्श देते हैं। ऐसी दशा में श्रेय पथ के पथिक को आत्मविश्वास के सहारे एकाकी आगे बढ़ना होता है। स्पष्ट है कि विरोध में सारा वातावरण और प्रयास में साधन रहित एकाकी, फिर सफलता कैसे मिली? इस सन्दर्भ में परा दैवी शक्तियाँ सहायता करती और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलती देखी गयी हैं। इन्हीं के समर्थन से आदर्शवादी संकल्प को स्थिर रखने एवं साहस बनाए रहने में समर्थ होता है। आदर्शवादियों की सफलता का यही परोक्ष इतिहास है। उन्हें दैवी अनुग्रह के सहारे ही भँवरों को पार करते हुए पार पहुँचने का सौभाग्य मिला है। इतना ही नहीं, उनने अपनी नाव खेते हुए अगणित अन्यान्यों को भी पार उतारा है।

अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ सम्भव हैं या नहीं? चमत्कार दिखाने और निहाल बनाने की जादूगरी का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध है या नहीं? इसका निर्णय हर विज्ञ जन को अपने विवेक से करना चाहिए। किन्तु इस तथ्य को निश्चित रूप से गिरह बाँध लेना चाहिए कि अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन करने पर व्यक्तित्व में उत्कृष्टता की सामर्थ्य का जो लाभ मिलता है, उसके सहारे आत्मसन्तोष, जन सहयोग, दैवी अनुग्रह की अजस्र वर्षा निश्चित रूप से होती है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

58.    अध्यात्म का लक्ष्य, आधार और प्रयोग
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

विद्वान् बनने के लिए विद्यार्थी अध्ययन करते हैं। पहलवान बनने के लिए व्यायाम किया जाता है। किसान इसलिए जोतने, बोने, सींचने में लगा रहता है कि समयानुसार फसल कटेगी और कोठे भरेंगे। व्यवसायी, शिल्पी, कलाकार आदि सभी वर्ग के लोग कुछ लाभदायक उद्देश्य सामने रखकर प्रयत्नरत होते हैं। उपलब्धियों की ललक ही उन्हें प्रेरणा देती हैं और तत्परता-तन्मयता जुटाये रह सकने वाली मनःस्थिति बनती हैं।

लक्ष्य और प्रयास में संगति होनी चाहिए। कार्य और कारण का तारतम्य बैठना चाहिए। भ्रम हो जाने से प्रयास निरर्थक चले जाते हैं और परिश्रम करने वाले को निराशा, खीझ और थकान पल्ले पड़ती हैं। ऐसी स्थिति से लक्ष्य या प्रयास की गरिमा उपयोगिता पर से विश्वास उठने लगता है। आवश्यक है कि किसी कार्य में हाथ डालने से पूर्व यह देख लिया जाय कि जो चाहा गया है, उसके लिये यह मार्ग है भी या नहीं, यह मार्ग जहाँ पहुँचता है वहाँ हमें जाना हैं या नहीं। यदि लक्ष्य और प्रयत्न के बीच विसंगति रह रही होगी तो सफलता की सम्भावना नहीं रहती। भ्रमग्रस्त मनःस्थिति में अपनाया गया उत्साह अन्ततः अनास्था में बदलता है। इसलिये विज्ञ जन यही परामर्श देते रहे हैं कि कार्य और कारण की, लक्ष्य और प्रयास की संगति बिठाते हुए प्रयत्नरत हुआ जाय। भ्रान्तियों और भावुकता से ग्रस्त न रहा जाय। वस्तुस्थिति को समझे बिना अपनाई गई उतावली अन्ततः साहस ही तोड़ देती है। अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करते समय इस प्रकार की भ्रान्तियों से निपट लेना आवश्यक है।

अध्यात्म प्रयोजनों से भौतिक लाभ उपलब्ध होने की बात कही जाती रही है और इस प्रकार के माहात्म्य बताये जाते रहे हैं; उनमें प्रायः आदि और अन्त का ही वर्णन दीख पड़ता है। मध्यवर्ती प्रयासों का विस्तृत उल्लेख कदाचित् इसलिए नहीं किया गया है कि जिन दिनों शास्त्र रचे गये अथवा आप्त वचन कहे गये, उन दिनों सर्वसाधारण का चिन्तन और चरित्र उच्चस्तरीय था। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी गई कि इस क्षेत्र के प्रवेश कर्ताओं का व्यक्तित्व की दृष्टि से पवित्र एवं प्रखर होना आवश्यक है। इस आरम्भिक शर्त से उन दिनों सभी परिचित थे, अस्तु, उसकी चर्चा विस्तार पूर्वक करने की आवश्यकता नहीं समझी गई और आदि तथा अन्त बताते हुए यह अनुमान लगा लिया गया कि मध्यवर्ती प्रक्रिया तो सर्वविदित है, उसे तो लोग सामान्य बुद्धि से ही समझ रहे होंगे, फिर किसी को पीसने से क्या लाभ?

बन्दूक का घोड़ा दबाने और लक्ष्य वेधने का आदेश ही कप्तान देते हैं। वे जानते हैं कि इस प्रयोजन के लिये सिपाही कारतूस को बन्दूक में भरने की आवश्यकता से अवगत होंगे ही। इसमें भूल होने की आदेश देने वाले को आशंका नहीं रहती। कोई सिपाही कारतूस भरे बिना ही घोड़ा दबा दे और निशाने पर गोली न लगने पर लक्ष्य, बन्दूक, कप्तान आदि को दोष देने लगे, तो उसका आक्रोश निरर्थक माना जाएगा और कहा जाएगा कि नली में कारतूस डालने का सामान्य ज्ञान क्यों भुला दिया जाय?

औषधि खाने और रोग अच्छा होने की ही आमतौर से चर्चा होती रहती है; निदान, पथ्य, परिचर्या, मात्रा, अनुपान आदि का उस सम्बन्ध से विस्तृत विवेचन नहीं किया जाता, क्योंकि हर कोई जानता है कि इलाज कराना है तो यह बात तो ध्यान में रखनी ही होती है, उनको तो हर हालत में अपनाना ही होता है।

डॉक्टर बनने के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश, इंजीनियर बनने के लिए इंजीनियरिंग कालेज में भर्ती के लिए दौड़-धूप होती है। अभिभावक और विद्यार्थी यह जानते हैं कि डॉक्टर या इंजीनियर बनने पर धन, यश, पद आदि की दृष्टि से संतोषजनक स्थिति प्राप्त होती है। कॉलेज में दाखिला मिलने पर सदा ध्यान केन्द्रित रहता है। दौड़-धूप होती है और प्रवेश मिलने पर संतोष की साँस ली जाती है। उत्साह से आँखें चमकने लगती हैं। इस माहौल में कोई यह प्रसंग नहीं उभारता कि पाँच वर्ष तक मनोयोग पूर्वक पढ़ना पड़ेगा; फीस, पुस्तकें, बोर्डिंग खर्च आदि का प्रबन्ध भी करना होगा। सभी जानते हैं कि यह तो अनिवार्य ही हैं। सभी करते हैं। इसके बिना तो लक्ष्य पूर्ति का आधार खड़ा ही नहीं होता। सामान्य ज्ञान को भी अकारण दुहराने और समय नष्ट करने की आमतौर से आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई सर्वथा अनजान हो तो बात दूसरी है।

उपयुक्त जोड़ी, विवाह निर्धारण और सुखी गृहस्थ जीवन की संगति बिठाते हुए प्रयोजनकर्ता प्रसन्न होते हैं। इसकी मध्यवर्ती एक शर्त भी है कि वर-वधू अपने-अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का नियमित रूप से पालन करते रहें। इसकी उपेक्षा करे तो चयन-निर्धारण कितना ही उपयुक्त क्यों न हो, विवाह सफल नहीं हो सकता और सुखी गृहस्थ की आशा नहीं बँधती। फिर भी विवाह निर्धारण के लिए दौड़−धूप करते समय उपयुक्त चयन ही पर्याप्त मान लिया जाता। इसकी चर्चा नहीं होती कि वे दोनों किस प्रकार गृहस्थ की गाड़ी चलायेंगे। सभी जानते हैं कि वर-वधू इतना तो स्वयं ही समझते होंगे, न समझते होंगे तो परिवार वाले समझा लेंगे। यह सर्वविदित तथ्य है कि गृहस्थ की सफलता विवाह संस्कार पर नहीं, जोड़ी के कर्तव्यपालन पर निर्भर है; पर उस प्रसंग को उस निर्धारण में तूल नहीं दिया जाता। सामान्य ज्ञान की बातों का बतंगड़ कौन बनाता है?

उपरोक्त उदाहरण इसलिए दिये गए हैं कि अध्यात्म क्षेत्र की साधनाओं का स्वरूप और उनका सिद्धि-प्रतिफल बताते समय भी आदि और अन्त का ही वर्णन किया जाता रहा है। इसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं की गई कि साधक को उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और उदात्त व्यवहार अपनाने की शर्त पूरी करने पर ही साधक कहलाने का अधिकार मिलता है। ओछा और घिनौना व्यक्तित्व बनाये रखकर कोई मात्र पूजा-पाठ के, तंत्र-मंत्र के सहारे उन सफलताओं को प्राप्त नहीं कर सकता, जो माहात्म्य-प्रतिपादन में बताई गई है।

योग-साधना का प्रथम सोपान यम और नियम है, जिनका तात्पर्य है-जीवनचर्या में सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का समुचित समावेश। भक्ति-साधना में ‘नामापराध’ का निर्धारण है। नाम तो जपा जाय, पर चरित्र दोषों से लिप्त रहा जाय तो उस पर भगवान का नाम बदनाम करने का अपराध लगेगा और छद्म करने का दण्ड सहना पड़ेगा। भक्ति-भावना का सत्परिणाम मिलना तो दूर, उलटा भगवान के क्रोध का भागी बनना पड़ेगा। साधनात्मक कर्मकाण्डों की फलश्रुतियों को सुनाते-समझाते समय इस तथ्य के प्रदिपादनकर्ताओं को इतना तो ध्यान रखना ही होगा कि उसे इस प्रयास में दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का उच्चस्तरीय समावेश करना है। इसकी उपेक्षा करने पर तो शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना पड़ेगा। वह बेचारा यह तो भूल करता रहा कि आदि और अन्त की बात सोची, मध्यवर्ती क्रिया-प्रक्रिया की उपेक्षा करके रंगीन सपने देखने लगा। यह भूल वे लोग करते हैं, जो मन्त्र-जप मात्र से सम्पदाओं-विभूतियों से घर भर लेने के दिवास्वप्न देखते रहते हैं। सिर और पैर ही सब कुछ नहीं, मध्यवर्ती धड़ की भी उपयोगिता और महत्ता है। इस तथ्य से हर किसी को अवगत होना चाहिए। साधना और सिद्धि के मध्य में चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता, संयम और सेवा की जीवन-साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

भूल यह होती रही है कि विकृत भ्रमग्रस्तता द्वारा यह समझा या समझाया गया कि देवी-देवता पूजा−पाठ के भूखे बैठे रहते हैं और उतना-सा लालच दिखाकर उन्हें कुछ भी कराने के लिए वशवर्ती किया जा सकता है। उपासना को जादूगरी, बाजीगरी के समतुल्य ठहराया गया और सोचा गया कि उससे कौतुक-कौतूहल देखने-दिखाने वाले दृश्य सामने दौड़ने लगते हैं। मनोकामना सिद्धि के लिए यह सस्ते नुस्खे बाल-बुद्धि को बहुत सुहाये। बिना पात्रता और परिश्रम के ऐसे ही हाथों की हेरा−फेरी, जीभ से कुछ कहते रहने भर से ऋद्धि सिद्धियाँ छप्पर फाड़कर घर में कूदेंगी। ऐसे ही कुछ अनगढ़ सपने तथाकथित साधकों के सिर पर छाये रहते हैं।

इन्हें सच मानने में मनुष्य की वह मनोवैज्ञानिक दुर्बलता सहायता करती है, जिसके अनुसार वह कम परिश्रम में अधिक लाभ कमाने की विडम्बनाएँ रचता रहता है और इस चिन्तन को परिपुष्ट करते-करते दुरभिसंधियाँ-दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। जुआ, सट्टा, लाटरी, गड़ा खजाना आदि की ललक इसी आधार पर उभरती हैं। उत्तराधिकार में, दान-दहेज में विपुल धन मिलने की लिप्सा भी इसी कारण प्रचंड बनती और लूट-खसोट को अधिकार मानती, उसके लिए हठ करती देखी गई है। एक कदम और आगे बढ़ने पर मनुष्य छल-प्रपंच रचता या अपराध-आक्रमण पर उतारू होता है। मुफ्तखोरी, अनैतिकता अवांछनीयता की जन्मदात्री है। वह जिस कारण भी पनपे, उस पूरे परिकर की निन्दा की जानी चाहिए। योग्यता और श्रमशीलता के आधार पर उचित उपार्जन की ही प्रशंसा होती है। इसके अतिरिक्त जो भी मार्ग रह जाते हैं, वे सभी अनुचित एवं अहितकर हैं। उन्हें अपनाने से व्यक्ति और समाज की हर प्रकार हानि ही हानि है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जिस तत्त्वज्ञान की संरचना, जिस साधना-विधान की निर्धारणा मात्र व्यक्तित्व में पवित्रता और प्रखरता का अनुपात बढ़ाने के लिए हुई थी, उसका आधार ही उलटा जा रहा है। वह बिना मूल्य चुकाये, जिस-तिस प्रकार सम्पदाएँ-सफलताएँ बटोरने के लिए व्यक्ति को प्रोत्साहित करता है। जबकि इससे ठीक उलटा होना चाहिए था। अध्यात्मवादी को अपरिग्रही, स्वल्प और संतोष एवं औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाने वाला होना चाहिए था। औचित्य का पक्षधर एवं न्याय नीति का समर्थन करना चाहिए। मनोकामना सिद्धि का तात्पर्य एक ही है-योग्यता और श्रमशीलता की मर्यादाओं को छलाँग कर तुर्त-फुर्त, नैतिक या अनैतिक उपाय से मनचाही सुविधाएँ हस्तगत कर लेना। जहाँ भी ऐसी प्रवृत्ति उभरती हो, समझना चाहिए कि नीतिमत्ता पर कुठाराघात हुआ और साथ ही अध्यात्म तत्त्वज्ञान के आधार को समाप्त कर देने वाला कुचक्र चल पड़ा।

भगवान्, सिद्धपुरुष, धर्मानुष्ठान, साधना विज्ञान सभी इस मर्यादा में बँधे हैं कि न्याय एवं औचित्य का निर्वाह होता रहे। सत्प्रवृत्तियों को, उच्चस्तरीय निर्धारणों को मान्यता मिलती रहे, उनकी प्रतिष्ठा दिन-दिन गहरी बनती चले। इनके विपरीत यदि वह समुदाय तनिक-तनिक से प्रलोभनों से, मनुहारों से प्रभावित होकर तथाकथित भक्तजनों के साथ पक्षपात बरतने लगे तो समझना चाहिए औचित्य के आदर्श का अन्त होने जा रहा है। भगवान भी यदि ऐसा करेंगे, सिद्ध पुरुष भी यदि इतने ओछे सिद्ध होंगे, तो फिर न्याय-नीति की रक्षा कौन करेगा? औचित्य को संरक्षण कहाँ मिलेगा? यदि रिश्वत और चापलूसी भगवान को भी वशवर्ती कर सकती है; न्याय की, पात्रता की उपेक्षा करके यदि व्यक्तिगत कृपा-अकृपा का सिलसिला चल पड़े, तो फिर सामान्य लोगों को रिश्वत, खुशामद, भाई-भतीजावाद, पक्षपात जैसे अमान्य आधारों से विरत करने की बात कैसे बनेगी?

सामान्य निर्धारण है-उचित मूल्य चुकाकर उचित उपलब्धियाँ प्राप्त करना। यदि आधार उच्चस्तरीय सत्ताओं ने ही निरस्त कर दिया और भक्तजनों को उसकी छूट दे दी, तो फिर समझना चाहिए कि औचित्य के आधार पर कुछ पाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया कोई क्यों अपनाता रहता है। तब तपस्या की, संयम पराक्रम की, शोधन-परिष्कार की कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाने की कोई उपयोगिता-आवश्यकता ही न रहेगी। सभी शार्ट-कट ढूँढ़ेंगे। इसकी प्रतिक्रिया का प्रत्यक्ष स्वरूप होगा औचित्य के प्रचलन और अनुशासन का समापन। यदि यह क्रम चल पड़ा तो समझना चाहिए कि पूजा-पाठ और अनौचित्य का ठाठ-बाट यही दो इस संसार में शेष रहेंगे। उस आधार का समापन हो जाएगा, जिसके लिए धर्म-अध्यात्म की, भक्त और भगवान की आवश्यकता अनुभव की गई है।

संकट में एक-दूसरे की सहायता करना-उठाने और बढ़ाने में सहायता करना मानवी गरिमा का एक पक्ष है। उसे यथावत चलना चाहिए। जिनके पास आत्मबल की सम्पदा है, वे उसे सहायता के लिए भी प्रयुक्त करते हैं, पर साथ ही औचित्य का भी ध्यान रखते हैं। जिस-तिस की उचित-अनुचित मनोकामनाओं की पूर्ति में सस्ती वाहवाही के बदले, उसे खर्च करने लगेंगे तो समझना चाहिए कि सिद्ध पुरुष कहलाने की अध्यात्म गरिमा से वे लोग बहुत नीचे आ गये। दाता और याचक के बीच में औचित्य की कसौटी रहती है। उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। तथाकथित भक्तजन और सिद्ध पुरुष मिलकर भी ऐसे भ्रष्टाचार को मान्यता नहीं दिला सकते। विश्व व्यवस्था के कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं और उसमें उचित मूल्य चुकाकर उपलब्धियाँ प्राप्त करने की भी एक परम्परा है। सस्ते मोल महँगे साधन समेट लेना विश्व-व्यवस्था से सर्वथा बाहर की बात है।

सांसारिक सम्पदाओं का सीधा सादा-सा उपाय-उपचार है-योग्यता की वृद्धि, समग्र श्रमशीलता, व्यावहारिक शालीनता एवं सुव्यवस्था। इन आधारों को अपनाकर ही व्यक्तियों और समाजों ने प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने में सफलताएँ पायी हैं।

अध्यात्म-विज्ञान के विद्यार्थियों को यह तथ्य गिरह बाँध लेना चाहिए कि यह क्षेत्र चिन्तन एवं चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने तथा व्यक्तित्व में पवित्रता-प्रखरता भर देने की ही सुव्यवस्था का है। इस दिशा में जो जितना आगे बढ़ता है, उसकी पात्रता-प्रामाणिकता का स्तर उतना ऊँचा उठता जाता है, फलतः आत्मबल के रूप में साहस, संकल्प एवं पुरुषार्थ के सत्प्रयोजनों में तत्परतापूर्वक निरत देखा जाता है। सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों से व्यक्तित्व भरा-पूरा दीखता हैं। जहाँ ऐसी स्थिति होगी, वहाँ आत्मिक ही नहीं, भौतिक सम्पदाओं की भी कमी न रहेगी। जिसे आत्मविश्वास उपलब्ध है, जिसने जन-सम्मान और जन-सहयोग अर्जित कर लिया, उसके लिए भौतिक सफलताएँ एवं सम्पन्नताएँ प्राप्त कर लेने में तनिक भी कठिनाई नहीं रहती। हाँ, साथ ही इतना भी आवश्यक होता है कि अध्यात्मवादी, साधनारत व्यक्ति वैभव का उपभोग नहीं करता। उपार्जन कितना ही क्यों न कर ले, उसमें से औसत नागरिकों जैसा ही निर्वाह स्वीकार करता है। शेष को उदारतापूर्वक उस लोकमंगल के लिए हाथों-हाथ वापिस कर देता है, जिसके कन्धों पर सर्वजनीन सुख-शांति का आधार टिका हुआ है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

59.    एकता, समता और सुव्यवस्था की नीति अपनायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य ने प्रगति तो बहुत की है, फिर भी उसकी सामुदायिक प्रवृत्ति में अभी दो अवांछनीयताएँ बेतरह घुसी हुई है और उस गरिमा से वंचित रख रही है जो नियति ने उसे उदारता पूर्वक प्रदान की है।

दो दुष्प्रवृत्तियों में से एक है संकीर्णता, दूसरी है विलगता। दृष्टिकोण में संकीर्णता और व्यवहार में विलगता घुस पड़ने से वे दोनों ही क्षेत्र विकृत हो चले, फलतः उत्पन्न होने वाली सड़न भरी विषाक्तता ने मनुष्य का स्तर और समाजगत वातावरण बेतरह अस्त-व्यस्त करके रख दिया है। फलतः समृद्धि और प्रगति के, सुख और शान्ति के स्थान पर विनाश और विग्रह उभरता, अनेकानेक संकट खड़े करते दीखता है। भावना क्षेत्र की इन दो दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाया जा सकें, तो समस्त समस्याओं का हल निकले और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण अनायास ही बन पड़े।

गूलर के भुनगे और कुएँ के मेंढक अपने दायरे में सन्तुष्ट पाये जाते हैं। पिंजड़े में बन्द पक्षी निश्चिन्त भी रहते हैं और सुरक्षा भी देखते हैं। इतने पर भी जिनने विस्तृत क्षेत्र में विचरण करते हुए विशालता का आनन्द लिया है उनके लिए संकीर्णता का वह दयनीय दायरा बहुत ही लज्जा जनक और कष्ट प्रद प्रतीत होता है। निर्वाह ही तो सब कुछ नहीं है। जीवन में इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। उसका परित्याग करके मात्र उदरपूर्ति तक ही सीमाबद्ध रहा जाय तो जड़ चेतन में क्या अन्तर रहा? वृक्ष वनस्पति भी निर्वाह साधन उपलब्ध कर लेते हैं। कृमि कीटकों को भी उसकी कमी नहीं पड़ती। फिर आत्मा की गरिमा को पोषण कहाँ मिला? आन्तरिक उल्लास का विकास कब संभव हुआ। महानता की अभिलाषा ही महत्त्वाकांक्षा कहलाती है। प्रगति का मार्ग अवरुद्ध रहा तो हाथ पैर बँधे कैदी जैसी जिन्दगी जी लेने पर क्या मिला? अन्न वस्त्र तो उसे भी मिल जाता है।

अध्यात्म क्षेत्र की संकीर्णता से तात्पर्य है-अपनेपन का दायरा छोटी परिधि में जकड़ लेना। शरीर तक अपनी सत्ता मानने वाले आत्मा की परवाह नहीं करते, भविष्य की ओर से आँखें बन्द किए रहते हैं, परिवार और समाज के प्रति निर्धारित उत्तरदायित्व का पालन नहीं करते। कितने ही मध्यम, आवारा स्तर के लोग जो कमाते हैं, शरीर सुख के लिए उड़ाते रहते हैं। उसमें अन्य किसी की भागीदारी नहीं सोचते। ऐसे इक्कड़ वन्य पशुओं में भी होते हैं। हाथी, सुअर, हिरन आदि में से कभी-कभी कोई-कोई झुण्ड छोड़कर एकाकी रहने लगते हैं। इसमें वे अनुशासन से स्वच्छन्द रहने का लाभ देखते हैं, किन्तु वैसा करते ही अपनी सामाजिकता गँवा बैठते हैं और ऐसी स्नेह सौजन्य जैसी सभी विशेषताएँ गँवा कर निष्ठुर निर्मम स्तर का स्वभाव बना लेते हैं। अकारण किसी पर हमला कर बैठने की उद्दण्डता बरतते रहते हैं। वनवासियों पर आतंक जमाकर वे घृणा तिरस्कार उत्पन्न करते हैं और प्रतिशोध की उसी आग में बेमौत जल मरते हैं।

आत्मीयता सरसता उत्पन्न करती है। जो अपना हो वही प्यारा लगता है। यह दायरा जितना छोटा होगा, प्रियजन उतने ही कम रह जायेंगे और उस लाभ से वंचित रहना पड़ेगा, जो असंख्यों को अपना मानने, बना लेने पर उपलब्ध हो सकता है। आत्मीयता का आरोपण जिस पर भी किया जायेगा, वह अपना लगेगा और आत्म विस्तार के परिकर का सदस्य बनकर आनन्द की अभिवृद्धि करेगा। जिसके अपने कम हैं, सभी विराने दीखते हैं। वह सदा अपने को असुरक्षित, अभाव ग्रस्त और असन्तुष्ट अनुभव करेगा। आत्मीयता के विस्तार का अर्थ है जागृतों को अपनेपन की परिधि में जकड़ लेना। अधिक सुविधा साधनों से प्रसन्नता अनुभव होती है, गर्व गौरव प्रतीत होता है। उसी प्रकार जिसके जितने अधिक अपने हैं, वह आत्मिक दृष्टि से अपने को उतना ही अधिक सुसम्पन्न अनुभव करता है। यही है प्रसन्नता का केन्द्र बिन्दु। अनेकों के दुःख बाँट लेने और अपने सुख अनेकों को बाँट देने पर ही मनुष्य हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी जी सकता है।

आत्म विकास की अध्यात्म प्रक्रिया का सीधा सच्चा स्वरूप इतना ही है कि अपनेपन का दायरा अधिकाधिक विस्तृत करते चला जाय। आत्मवत् सर्वभूतेषु की मान्यता अपनाते हुए अधिकाधिकों के साथ आत्मीयता घनिष्ठता का रिश्ता स्थापित किया जाय। अपनों के सुख-दुःख का जिस प्रकार ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार अन्यान्यों का भी रखा जाय। जिस प्रकार उपलब्ध क्षमताओं का लाभ साधारणतया अपनों को पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार विशेष मनःस्थिति में उस उदार सेवा साधना को अधिक लोगों तक विस्तृत किया जाय। यहाँ तक कि उसमें प्राणि जगत को ही नहीं, वनस्पतियों तक को जकड़ लिया जाय। गीता के अनुरूप सबको अपने और अपने में सबको देखा जाय। यही है सच्चा अध्यात्मवाद, इसी की छाया लेकर भौतिकता वादियों ने समाजवाद या साम्यवाद की संरचना की है।

साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, लोक सेवी स्तर के महामानवों की एक ही प्रमुख विशेषता है कि वे आत्मीयता का परिकर बढ़ाते हैं और उसमें समूचे समाज या संसार को जकड़ लेते हैं। विराट दर्शन यही है। समुदाय को भगवान मानने और उसके साथ श्रद्धा-संवेदना जोड़ लेने पर भगवद्भक्ति का व्यावहारिक स्वरूप लोक मंगल की साधना बनकर रह जाता है। योगाभ्यासों से सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन की सेवा साधना को सर्वोत्तम एवं सर्व सुलभ माना गया है। उसमें समाज के उपकारों का प्रत्युपकार बन पड़ने से ऋण मुक्ति का हलकापन प्रतीत होता है। आत्म गौरव निखरता है और सेवा के बदले सम्मान एवं सहयोग बरसने लगता है। थोड़ा समय या धन गँवा देने के प्रथम चरण में इसमें कुछ घाटा जैसा प्रतीत होता है, पर देर तक वस्तु स्थिति अप्रकट नहीं रहती। कुछ ही समय में बीजारोपण अंकुरित होता, लहलहाता, फलता-फूलता और समुन्नत स्तर पर पहुँच कर सिर को सर्वोन्नत रख सकने की स्थिति में होता है। परमार्थ के निमित्त उठाये गये घाटे को ठीक ऐसा ही दूरदर्शी निर्धारण समझा जा सकता है।

स्वार्थी वे जो मात्र शरीर को, स्त्री-बच्चों को ही अपना मानें और अन्यान्यों के प्रति उपेक्षा बरतें। परमार्थी वे जो अपने स्वार्थों को परम व्यापक बना ले। आत्मा सीमित को और परमात्मा असीम को कहते हैं। अपनेपन का दायरा बढ़ाने वाले, सबके सुख-दुःख में सक्रिय रूप से भागीदार बनने वाले प्रकारान्तर से परमात्मा तक ले जाने वाले सुनिश्चित राजमार्ग पर चलते हैं, महामानवों ने सदा यही रीति-नीति अपनाई है, वे शरीर या परिवार के प्रति अनिवार्य उत्तरदायित्वों का तो निर्वाह करते रहे हैं, किन्तु उतने तक सीमित नहीं रहे। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति अपने वरिष्ठ उत्तरदायित्व को भी निभाया है। आवश्यकता हुई है तो महान के लिए तुच्छ को गौण मानने का साहस भी अपनाया है। सन्त, सज्जन, लोकसेवी, देशभक्त, महामानव प्रायः यही कहते रहे हैं। कुटुम्बियों की सुविधा में कटौती करके भी उन्होंने समाजगत सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में अपने को नियोजित किया है। यहाँ तक कि इसके लिए तथाकथित स्वजनों का विरोध भी सहा है और उनके आग्रह को निरस्त भी किया है। वैराग्य और त्याग बलिदान की चर्चा इसी आदर्श के प्रतिपादन में होती रहती है। अनेक बार संचित संकीर्णता इस मार्ग में बाधक भी होती है, किन्तु उदारता की उमंगें व्यवधान को टिकने कहाँ देती हैं।

संकीर्णता की ही तरह दूसरा व्यवधान बिखराव का है। यों इन दोनों को भी एक दूसरे का अनन्य सहयोगी कहा जा सकता है। स्वार्थ परता और अहंता का आग्रह यह रहता है कि अपना स्वतन्त्र ढकोसला खड़ा किया जाय। अपनी कमाई का लाभ स्वयं लिया जाय। आत्म प्रदर्शन से अहंता का पोषण किया जाय। ऐसे ही अनेकों मनोवैज्ञानिक कारण हैं, जिनसे प्रेरित होकर लोग समूह के सदस्य रहने की अपेक्षा अपना शैतूल अलग खड़ा करते हैं। डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाने वाले, ढाई चावल की खिचड़ी पकाने वाले प्रायः इसी स्तर के होते हैं। आठ कनौजिया नौ चूल्हे की विडम्बना वे ही रचते रहते हैं। बिखराव में उन्हें अहंता का पोषण तो मिलता है, पर ऐसे अनेकानेक लाभों से वंचित रहना पड़ता है, जो समुदाय के साथ घनिष्ठता या एकात्मकता स्थापित करने के उपरान्त ही सधते हैं। इक्कड़ तो दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंके जाते हैं। संकीर्ण स्वार्थ परता अपनाने वालों के हाथ केवल अनर्थ ही लगता हैं।

क्या व्यक्तिगत? क्या समूह व्यवस्था? दोनों ही क्षेत्रों में हमें विशालता, उदारता एवं एकता का परिचय देना चाहिए। संयुक्त परिवार जैसी सहकारिता का हर जगह प्रतिपादन समर्थन करना चाहिए और उसे परिपक्व गतिशील बनाने में कुछ उठा न रखना चाहिए। पहल अपनी हो तो इन सत्प्रवृत्तियों को अपनाये जाने में भी देर न लगेगी। वरिष्ठ लोग जो करते हैं, कनिष्ठ उसका अनुगमन सहज ही करने लगते हैं। सामूहिकता को, एकता को, सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में जहाँ, जिस प्रकार, जो भी किया जा सकना सम्भव हो किया ही जाना चाहिए। संकीर्णता और विलगाव की प्रवृत्ति को निरुत्साहित ही करते रहना चाहिए।

जनसंख्या की वृद्धि, वैज्ञानिक प्रगति, आर्थिक समृद्धि एवं बढ़ती बुद्धिमत्ता ने संसार को बहुत छोटा कर दिया है। पाँच वर्षों पुरानी दुनियाँ से आज की दुनिया प्रायः सर्वथा भिन्न है। उसकी अगणित समस्याएँ, कठिनाइयाँ, विपत्तियाँ एवं विभीषिकाएँ ऐसी हैं, जिनके समाधान के लिए सामयिक उपाय सोचने होगे। प्रस्तुत चक्रव्यूह से निकलने के लिए नई रणनीति अपनानी पड़ेगी। अब राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पुरानी हो गई। उसके द्वारा क्षेत्रीय स्वार्थ संघर्ष ही खड़े किये जा सकते हैं। किये भी जा रहे हैं। स्थायी समाधानों के सूत्र उसके पास नहीं। इसी प्रकार भाषाएँ, सम्प्रदाय, प्रचलन परम्परा, आचार व्यवहार जैसे पुरातन निर्धारण समय के साथ-साथ नहीं चल पा रहे हैं। उपयोगिता सिद्ध करने और समाधान में योगदान करने की अपेक्षा नये-नये संकट खड़े करने में स्वयं ही व्यवधान बन रहे हैं। उलटी स्थिति को उलटकर सीधा करने के अतिरिक्त और कोई चारा है नहीं।

सर्वतोन्मुखी एकता, समग्र एकता और सार्वभौम सुव्यवस्था के अतिरिक्त विनाश को विकास में बदल सकने वाला उपचार वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव नहीं दीखता।

सर्वतोन्मुखी एकता से तात्पर्य है विश्व राष्ट्र, विश्व भाषा एवं विश्व धर्म का अभिनव निर्धारण, जन समुदाय को उन्हें अपनाने के लिए सहमत या बाधित करने के प्रबल प्रयास। यही है वे उपाय अवलम्बन, जिनके सहारे एक संस्कृति का तत्व ज्ञान और एक आचार संहिता का निर्धारण किया जा सकता है। इसी आधार पर विश्व एकता बनेगी और निभेगी। विग्रहों का, बरबादियों का वर्तमान वातावरण ऐसी ही दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने पर निरस्त हो सकेगा।

दूसरा सूत्र है समता, जाति और लिंग के आधार पर बरती जाने वाली असमानता को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाय। मनुष्य की एक बिरादरी रहे। मित्रता तो बाल-वृद्ध की स्थिति में भी रहती है। वैसी ही नर और नारी के बीच भी कार्य क्षेत्र और नियति क्रम के अनुरूप रह सकती है, परन्तु समाज व्यवस्था में कोई ऐसा अवरोध न रहने दिया जाय, जिसमें नर और नारी में से किसी को वरिष्ठ-कनिष्ठ कहा जा सके और भेदभाव का अवरोध अड़ सके। जन्म जाति के आधार ऊँच-नीच जैसा वर्गीकरण करने की न्याय निर्धारण में कहीं भी गुंजायश नहीं है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जन्मे काले, सफेद, पीले, गेहुँए रंग वाले भी इस आधार पर अपनी पृथकता या विशिष्टता सिद्ध न कर सकें। सभी अपने को विश्व नागरिक माने और मानव बिरादरी का एक अविच्छिन्न घटक समझें।

तीसरा सूत्र है-सार्वभौम सुव्यवस्था। इसमें आर्थिक क्षेत्र की आपाधापी को बदल कर उत्पादन और वितरण की सार्वभौम प्रबन्ध व्यवस्था के अन्तर्गत लाया जाना है। देशों की वर्तमान सीमाएँ समाप्त करके उन्हें एक विश्व राष्ट्र के प्रबन्ध संस्थानों के हिसाब से प्रान्त जैसी स्थिति में विभाजित कर दिया जाय। समस्त धरती की भूमि विश्व राष्ट्र की हो और उस पर बसने के लिए क्षेत्र एवं जनसंख्या के हिसाब से नये निर्धारण हो। उत्पादन और वितरण के बीच तारतम्य बिठाया जाय, जिनमें न कोई अतिरिक्त संग्रह उपभोग करे और न किन्हीं को अभाव ग्रस्त स्थिति में रहना पड़े। बड़े साधनों के लिए बड़े उद्योग रहें, पर जिन्हें लघु उद्योगों से विकसित कर हर हाथ को काम देने की योजना के अन्तर्गत लाया जा सकता हैं, उन्हें बड़े कारखानों में न जाने दिया जाय।

शहरी आबादी बिखेरी जाय और कस्बों को पनपाया जाय। शिक्षा, चिकित्सा, स्वच्छता, न्याय जैसी आवश्यकताएँ सर्व सुलभ रहें। इस नये निर्धारण के लिए आवश्यक है कि विश्व सम्पदा केन्द्रित रहे और उपयुक्त प्रयोजनों के लिए उसका विवेक पूर्ण उपयोग होता रहें। सम्पदा कुछेक हाथों में केन्द्रित न रहे, तभी यह सम्भव है कि संसार में गरीबी मिटाने वाला नया तन्त्र खड़ा किया जा सके। युद्धों और महायुद्धों का सदा के लिए अन्त करने के लिए आवश्यक है कि क्षेत्रों में आन्तरिक व्यवस्था के लिए पुलिस और दस्ती हथियार रहे। झंझटों को लड़ाई से नहीं, वरन न्याय पंचायत से हल कराया जा सके। भाषाओं की भिन्नता मनुष्य के ज्ञान विस्तार में अत्यधिक भारी, कष्टकर, खर्चीला और झंझट भरा व्यवधान है। एक भाषा एक लिपि होने से ज्ञान की सुलभता और व्यापकता देखते-देखते हजारों गुनी अधिक बढ़ सकती है। यही बात संस्कृति, आचरण, कानून, रहन-सहन आदि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। उनमें एकरूपता लाने के लिए जिस निष्पक्षता, दूरदर्शिता, उदारता की आवश्यकता है, उसे हर व्यक्ति अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में विकसित करना आरम्भ कर दे। ताकि समयानुसार उस बीजांकुर को विशाल वृक्ष बनने का अवसर मिल सके।

वसुधैव कुटुम्बकम् का सिद्धान्त यों था तो सदा से प्रशंसनीय, किन्तु अब वह समय की अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आया है। हमें संकीर्णता के बन्धन काटने चाहिए और उदार आत्मीयता, एकता की दिशा में हर किसी का चिन्तन प्रवाह बहना चाहिए। विलगाव की बात सोचनी बन्द करें। हिल-मिलकर रहने और मिल-बाँट कर खाने की नीति अपनायें तभी उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण हो सकेगा। पारिवारिकता की नीति ही सर्वोत्तम है। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श हमें अपने चिन्तन और व्यवहार में समाविष्ट करने का प्रयास आरम्भ कर देना चाहिए, ताकि मानवी गरिमा और प्रगति को सतयुग की तरह पुनर्जीवित किया जा सके।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

60.    जनशक्ति को नव सृजन में जुटाया जाय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सौरमण्डल तथा विश्व ब्रह्माण्ड में अगणित ग्रह नक्षत्र विद्यमान है। उनमें सर्वश्रेष्ठ और सुरम्य यह पृथ्वी ही क्यों बनी? इसके उत्तर में जहाँ प्रकृति संरचना को श्रेय दिया जायेगा, वहाँ मानवी कौशल को भी कम नहीं सराहा जायेगा। पदार्थ में गति और ऊर्जा है, पर वह स्थिति अन्य लोकों में भी तो है। इस चित्र सी सुसज्जित और गुड़िया सी आकर्षक बनी हुई पृथ्वी को वर्तमान स्तर तक पहुँचाने में मानवी क्षमता और कुशलता ने कम योगदान नहीं दिया है। यदि वैसा न बन पड़ा होता तो इस धरती का स्वरूप भी खाई खड्डों से भरे हुए चन्द्रमा की तरह किसी अनगढ़ जैसा ही बना रहता। उस पर वन्य जीव ही निवास करते। सभ्यता और सुव्यवस्था तो मानवी सूझबूझ का प्रतिफल है। इसकी महत्ता स्रष्टा की संरचना से यत्किंचित ही कम है।

बुद्धि और श्रम के समन्वय से विनिर्मित होने वाले मानवी कौशल को जिस भी भले-बुरे प्रयोजनों में निरत किया जाता है, उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। बात रुझान भर की है। उसके मुड़ते ही शक्ति की अजस्र धारा बहने लगती है। और देखते-देखते अपने कर्तृत्व का आश्चर्यजनक परिचय देने लगती है। समुदायों के संयुक्त प्रयासों की परिणति है कि यहाँ अनेकानेक सुयोग संयोग बने और सफलताओं के पर्वत खड़े हो गए। शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, पशु पालन, व्यवसाय, कला विज्ञान आदि के अनेकों उपयोगी प्रसंग ऐसे हैं, जिन्हें मनुष्य जाति के वर्ग विशेषज्ञों ने अपने रुझान, कौशल को तत्परता पूर्वक नियोजित किए रहकर खोजा और समुन्नत बनाया। शास्त्रकार ने सच ही कहा है कि ‘एक रहस्य बताते हैं-मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं। और कुछ नहीं के शब्द से यह ध्वनि भी निकलती है कि परमेश्वर भी नहीं।’ परमेश्वर ने यह विश्व ब्रह्माण्ड सृजा है यह सही है। पर गलत यह भी नहीं है कि परमेश्वर को वर्तमान स्तर की मान्यता प्रदान करने में मानवी कल्पना एवं स्थापना को ही श्रेय दिया जायेगा। अन्यथा वह विश्व व्यवस्था की एक अदृश्य एवं अविज्ञात शक्ति भर बना रहता। अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी उससे अपरिचित ही बना रहता। संसार में गतिशील सत्प्रवृत्तियों के रूप में परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन किया जाता है। यह भी मनुष्य की अपनी संरचना शक्ति का एक महान उपहार है।

इस प्रसंग पर जितना अधिक विचार किया जाय उतना ही यह तथ्य उभरता आता है कि मानवी सृजन क्षमता अद्भुत है। उसका जितना गुणगान किया जाय उतना ही कम है। न केवल सत्प्रवृत्तियों के रूप में वरन् दुष्प्रवृत्तियाँ उभारने में भी उसी ने कमाल किया है। उदाहरण के लिए जीभ का चटोरापन, कामुकता का दर्शन, छल प्रपंचों का कुचक्र, आक्रामकता का विधान भी उसी का अपना चमत्कार है। मात्र भाषा, कला, दर्शन, धर्म, सम्प्रदाय ही उसने नहीं सृजे हैं। पदार्थ विज्ञान की तरह अध्यात्म विज्ञान का ढाँचा खड़ा करने और उसके प्रयोगों को क्रियान्वित करने में प्रयुक्त हुए मानवी पुरुषार्थ को शतमुख से सराहा जायेगा। वन्दनीय भगवान ही नहीं है, मनुष्य का सृजन कौशल भी है। सामर्थ्य की दृष्टि से भी वह कुछ ही हलका पड़ता है। स्रष्टा ने यह धरती बनाई यह सही है। पर परमाणु युद्ध की जैसी तैयारी चल रही है उसे देखते हुए यह कहने में भी अतिश्योक्ति नहीं कि वह प्रस्तुत विनाश साधनों का प्रयोग करके कुछ ही क्षण में इस भूलोक को धूलि के रूप में परिणत कर सकता है और अन्तरिक्ष के किसी कोने में धुँए का बादल बनकर भ्रमण करने लगने के लिए विवश कर सकता है। यह स्रष्टा की क्षमता न सही, प्रतिद्वन्द्विता तो हो गई न?

मानवी गरिमा की प्रशंसा में एक और उदाहरण शासन तन्त्र खड़ा करने का है। अस्त-व्यस्तता को व्यवस्था में बदलने, प्रगति के द्वार सुनियोजित ढंग से खोलने तथा उद्दण्डता पर अंकुश रखने जैसे प्रगति और शान्ति के लिए आवश्यक कार्यों में सरकार का असाधारण योगदान रहता है। सुधार का आक्रोश व्यक्त करने वाले भी यह जानते हैं कि अराजकता का न तो प्रतिपादन हो सकता है और न उस स्थिति में निर्वाह चल सकता है। शासन की उपयोगिता और क्षमता से सभी परिचित हैं, फलतः आलोचक भी उसमें प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। सरकार से अनेकानेक अपेक्षाएँ की जाती हैं। किन्तु उसकी अपनी सीमाएँ और दुर्बलताएँ हैं। फलतः सृजन और सुधार की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की शत प्रतिशत पूर्ति के लिए उसी का आश्रय तकते रहने से काम नहीं चलेगा।

सुरक्षा, व्यवस्था, प्रगति, नियमन जैसे काम ही अब क्रमशः इतने भारी हो गए हैं कि सरकार के लिए उतना बोझिल शकट खींच सकना ही कठिन पड़ता है। बढ़ती हुई जनसंख्या, महत्त्वाकांक्षा एवं आवश्यकता का तालमेल बिठाने की सारी जिम्मेदारी सरकार पर ही नहीं छोड़ी जा सकती। तानाशाही में भी जन सहयोग ही उभारना पड़ता है। फिर प्रजातन्त्र में तो यह और भी आवश्यक है कि प्रबुद्ध और स्वतन्त्र जनता अपने बलबूते भी प्रस्तुत उत्तरदायित्वों का एक बड़ा भाग अपने कंधों पर उठाए और सरकार को अपने सीमित उत्तरदायित्वों को ही सही रूप में सम्पन्न करने की सुविधा प्रदान करें।

वैसे भी सब काम सरकार कहाँ करती है। किसका गृह प्रबन्ध सरकार करती है? किसकी दिनचर्या में उसका हस्तक्षेप होता है? विवाह शादियाँ सरकार थोड़े ही करती है? भली या बुरी राह अपनाने के लिए सरकार किस-किस को कंधे पर बिठाये फिरती है? स्वच्छता, आजीविका, प्रजनन, रुझान, स्वभाव, अभ्यास मनुष्य की अपनी मर्जी पर निर्धारित रहते हैं। इन्हीं प्रयासों में दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन भी सम्मिलित है। जन मानस के समर्थन उत्साह की न्यूनाधिकता से ही उनमें घटोत्तरी-बढ़ोत्तरी होती है। अतिक्रमण का नियमन ही सरकार का काम है, अधिक से अधिक यह हो सकता है कि वह सुविधा-संवर्धन के कुछ ढाँचे खड़े करे, सरंजाम जुटाये पर उनकी सफलता का श्रेय भी जन सहयोग पर निर्भर रहता है। वह न मिले तो अकेले अफसर ही सारा काम कहाँ कर सकेंगे?

बढ़ती हुई सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए जागृत जनमानस को अपनी भूमिका निभानी चाहिए और जनशक्ति को उस प्रसंग के लिए उत्साहित एवं संगठित करना चाहिए। स्मरण रहे सूर्य, पवन जैसे प्रकृति उपहारों की तरह जन शक्ति का रुझान एवं प्रवाह भी तूफानी क्षमता से भरपूर है। उपेक्षा होती रहे तो बात दूसरी है, अन्यथा उसके सहारे कठिन से कठिन कार्य सरल हो सकते हैं। बिखरी रही तो वह अस्त-व्यस्त भी रह सकती है। ध्वंस में लगे तो वह विनाश के घटाटोप भी खड़े कर सकती है। साथ ही यह भी तथ्य है कि यदि उसे सृजन प्रयोजनों में लगा दिया जाये, तो देखते-देखते सतयुग जैसे दृश्य खड़े हो सकते हैं। मनुष्य का देवत्व उभारने का प्रवाह यदि बह चले, तो धरती पर स्वर्ग जैसे वातावरण के अवतरण में तनिक भी सन्देह न रहे।

इसके लिए किसी व्यक्ति विशेष या तंत्र पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। शक्ति के उद्गम का आश्रय लेना पड़ेगा। यह उद्गम और कुछ नहीं जन समुदाय के रुझान एवं प्रयास का समन्वय भर है। यही है दुर्दान्त दैत्य। यही है विभूतिवान् देव। यह दोनों ही जन शक्ति के प्रवाह भर हैं। उनकी सामर्थ्य प्रचण्ड तूफानों से बढ़कर उन्हें वर्षा, शीत, ग्रीष्म जैसे मौसम कहा जा सकता है, जो देखते-देखते परिस्थितियों को उलट-पुलट करके रख दे। महान क्रान्तियों के इतिहास में इसी को बाजीगर की भूमिका निभाते और कठपुतली के चित्र विचित्र तमाशे दिखाते पाया गया है।

आज दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का एक महायुद्ध लड़ने जैसा प्रसंग सामने है। नयी आवश्यकताओं के अनुरूप नये सृजन उपक्रमों को बड़े परिमाण में खड़े किए जाने का काम भी युग चुनौती के रूप में प्रस्तुत है। उन्हें लंकाकाण्ड और महाभारत के समतुल्य माना जा सकता है। गोवर्धन उठाने और समुद्र सेतु बाँधने से यह किसी प्रकार भी कम नहीं है। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रयोजनों के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है, वह जन शक्ति की सृजनात्मक क्षमता का उभार ही हो सकता है। इसी के अवतरण की अभ्यर्थना जागृत आत्माओं को मिल जुलकर करनी चाहिए। समूची विश्व व्यवस्था को प्रभावित करने वाले महान प्रयोजन इससे कम में नहीं सध सकते। यह हस्तगत हो सके तो समझना चाहिए कि असंभव नाम की कोई बात इस दुनिया में रह नहीं गई। मनुष्य समुद्र की लहरों और सूर्य की किरणों की सामर्थ्य से संसार की ऊर्जा आवश्यकता जुटा लेने की बात सोचता है। उसे यह भी सोचना चाहिए कि शक्ति का प्रवाह दिशा विशेष में मोड़ देने भर से समुद्र मंथन जैसी पुनरावृत्ति हो सकती है और एक से एक बढ़कर सुखद संभावनाओं के बहुमूल्य रत्न निकाले जा सकते हैं। जहाँ-तहाँ भटकने की अपेक्षा हमें इसी कल्पवृक्ष का आश्रय लेना और प्रस्तुत विभीषिकाओं से निपटने के लिए जन शक्ति के वरिष्ठ पक्ष का द्वार खटखटाना चाहिए।

शासन तंत्र खड़ा करने के आवश्यक साधन जनता ही टैक्स देकर जुटाती है। उसकी सामर्थ्य इतनी सीमित नहीं है कि टैक्स देने के अतिरिक्त और कुछ बनता ही नहीं। धर्म का स्वरूप भले ही विडम्बना जैसा रह गया हो, फिर भी उसके लिए अपने देश में अरबों खरबों की धनराशि हर साल लगती है। साठ लाख बाबाओं का तो धर्म ही व्यवसाय है। मन्दिर मठों, पंडे पुरोहितों, अनुष्ठान समारोहों का खर्च इसके अतिरिक्त है। जनता इसे स्वेच्छापूर्वक वहन करती है। यह भार शासन पर होने वाले व्यय जितना ही जा पहुँचता है।

इसके अतिरिक्त नशेबाजी का लेखा-जोखा लिया जाये, तो उस निमित्त भी प्रायः उतनी धन शक्ति और जन शक्ति का नियोजन होता है, जितना कि सरकार चलाने में। अन्धविश्वासों, कुरीतियों और अवांछनीयताओं के निमित्त लगने वाली जन शक्ति का मूल्यांकन करने पर प्रतीत होता है कि इनका खर्च भी असाधारण है। इस स्वेच्छा पूर्वक अपनाये और उठायें जाने वाले भार को जन शक्ति प्रसन्नतापूर्वक अभ्यस्त ढर्रे के अनुरूप अनायास ही वहन करती है। उसमें इसके अतिरिक्त भी इतनी गुंजायश है कि नव सृजन के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, उन्हें तनिक सा दिशा निर्देश मिलने और उत्साह उभरने पर सहज ही प्रस्तुत कर सके। फिल्म देखने, जेवर पहनने, सजधज-ठाठ-बाट बनाने पर जितना समय और धन खर्च होता है, उतना भी यदि समय की महती आवश्यकताओं की पूर्ति में नियोजित हो सके, तो समझना चाहिए कि युग बदल गया। विनाश का संकट टल गया और उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित सरंजाम जुट गया।

जन शक्ति अपने ढंग से अस्त-व्यस्त दिशा में बहती है। हवा के झोंके उसे हलके पत्ते की तरह इधर-उधर उड़ाते झुकाते रहते है। पर यदि उसे कोई मूर्धन्य चेतना उपयुक्त दिशा दे सके, तो समझना चाहिए कि वह गोली की तरह सनसनाती हुई लक्ष्य बेधने में निश्चित रूप से सफल होकर रहेगी। मनस्वियों ने समय-समय पर लोक मानस को दिशा दी है। सम्प्रदाय इसी आधार पर बने हैं। संस्कृतियों का सृजन किन्हीं मूर्धन्यों के नेतृत्व में हुआ है। राजक्रान्तियों के लिए इसी ने सिगनल गिराये और इंजन दौड़ाए हैं। प्रचलित कुप्रथाओं और अवांछनीयताओं का इतिहास खोजना हो तो प्रतीत होगा कि इसके पीछे भी कुछ ऐसे बाजीगर छिपे बैठे हैं, जिनने जन मानस को उकसाया और रीछ-बन्दरों की तरह नचाया है। यदि दुष्प्रयोजनों के लिए यह सब हो सकता है, तो कोई कारण नहीं कि सृजनात्मक सत्प्रयोजनों के लिए इस प्रवाह को न मोड़ा-मरोड़ा जा सके।

कुछ तात्कालिक आवश्यकताएँ ऐसी है जो अनिवार्य स्तर की हैं और अविलम्ब अपना हल माँगती हैं-(१) निरक्षरता निवारण (२) दरिद्रता का निष्कासन (३) हरीतिमा अभिवर्धन (४) स्वास्थ्य संवर्धन (५) सहकारिता प्रचलन। इनके लिए कुछ सृजनात्मक प्रयास इन्हीं दिनों आरम्भ करने होंगे। प्रौढ़ पाठशालाओं की स्थापना, गृह उद्योगों की सहकारी व्यवस्था, घरेलू शाक वाटिका से लेकर धान्य उत्पादन एवं वृक्षारोपण तक में उत्साह, व्यायाम शालाओं से लेकर स्वच्छता सुव्यवस्था का अभियान, सहकारी प्रवृत्तियों का विस्तार, संगठन के सृजन तंत्र जैसे कार्यों को इन्हीं दिनों हाथ में लिया जाना है। यह सभी कार्य कोई एकाकी नहीं कर सकता। जनता के विज्ञपक्ष की सद्भावनाएँ उभारकर उन्हें सृजन सेवातंत्र के अन्तर्गत संगठित और प्रयत्नरत किया जा सकता है।

उन्मूलन के क्षेत्र में नशेबाजी, खर्चीली शादियाँ, जातिगत ऊँच-नीच नर और नारी की मध्यवर्ती खाई, मूढ़ मान्यताएँ, अनीतिजन्य विभीषिकाएँ जैसे कितने ही मोर्चे ऐसे हैं जिन पर अविलम्ब मोर्चा खोलने की आवश्यकता है। स्मरण रहे-सृजन और उन्मूलन की उभयपक्षीय विधि व्यवस्थाएँ ऐसी हैं जिनके लिए सरकार, सम्पन्न और विद्वान अपनी सीमित सामर्थ्य के आधार पर सम्पन्न नहीं कर सकते। इसके लिए लोक चेतना के सृजनात्मक तत्वों को ढूँढ़ना, उभारना और जुटा देना यदि बन पड़े तो समझना चाहिए कि निराशा को आशा में बदल देने वाली व्यवस्था बन गई। तमिस्रा को निरस्त करने वाली प्रभात बेला आ गई। इससे कम में छुटपुट प्रयासों से स्थानीय एवं सामयिक समस्याओं के तात्कालिक हल भले ही निकलते रहें, स्थायी समाधान संभव न हो सकेंगे।

दफ्तरों में बैठकर कागजी योजनाएँ बनाने और लिखने बोलने के साथ कर्तव्यों की इतिश्री कर लेने की विडम्बना लम्बे समय से चलती रही है। उस विडम्बना की विडम्बना भी सर्वविदित है। फिर क्यों उसी पिसे को पीसते रहा जाय? क्यों न जन सम्पर्क में उतरा जाय? क्यों न पुरातन काल जैसी घर-घर अलख जगाने वाली प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाय? यह हो सकता है। यही होना भी चाहिए। प्रश्न एक ही रह जाता है कि इसे करे कौन? इसका उत्तर पाने के लिए भी जिस-तिस की मनुहार करने की आवश्यकता नहीं। कार्तिक अमावस्या की तमिस्रा दूर करने के लिए जब सूर्य-चन्द्र ने उपेक्षा दिखायी तो छदाम मूल्य वाले दीपकों ने जलने का व्रत लिया था और दीवाली के पुण्यपर्व का शुभारम्भ किया था। प्रज्ञा परिजनों की जागृत आत्माएँ क्यों उस उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकती? इतने महान प्रयोजन के लिए लोभ और व्यामोह की क्षुद्रता पर थोड़ा अंकुश क्यों नहीं लगा सकती? समय की समस्याओं के समाधान हेतु जन शक्ति जुटाने की भागीरथी साधना में हमें स्वयं ही संलग्न होना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार