131. प्रजा तन्त्र की सफलता के कुछ सुनिश्चित मापदण्ड
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आदिम युग से लेकर अब तक समाज को अनेकों प्रकार के परिवर्तनों से होकर गुजरना पड़ा। समाज के नियमन, संचालन एवं नियन्त्रण के लिए विचारक मनीषी समय-समय पर शासन व्यवस्था का स्वरूप निर्धारण करते रहे हैं। पुरातन काल का समाज बुद्धि की दृष्टि से आज जितना विकसित न था। तब राजतन्त्र का उद्भव हुआ, जो अपने समय में सफल भी रहा। जिन्हें अपने दायित्वों तथा अधिकारों का ज्ञान न था, उनके लिए राजतन्त्र की प्रणाली उपयोगी थी। पर संसार की परिस्थितियों में अब आसमान धरती जितना अन्तर आया है। बुद्धि की दृष्टि से मनुष्य का स्तर असाधारण रूप से ऊपर उठा है। ऐसी स्थिति में राजतन्त्र की प्रणाली अब उपयोगी नहीं रही। जिन देशों में उसके चिन्ह विद्यमान है, वहाँ भी देर सबेर विलुप्त होने वाले हैं। प्रबुद्ध मानस ने पूरी तरह से उस प्रणाली को बर्बर तथा निरर्थक ठहरा दिया है।
पूँजीवादी व्यवस्था एक वर्ग विशेष को आगे बढ़ाती, असमानता की खाई को चौड़ी करती है। गरीब-अमीर के बीच असमानता बढ़ने से संघर्षों की पृष्ठभूमि बनती है तथा उनके फूट पड़ने की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है। अशान्ति और असंतोष समाज में बढ़ता है। अस्तु पूँजीवादी व्यवस्था पर भी विचारशील वर्ग द्वारा उँगली उठाया जाना स्वाभाविक है। किसी देश विशेष में वह सामाजिक रूप से सफल भी हो तो भी वह वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के प्रतिकूल ही पड़ता है।
साम्यवाद के उद्भव, विकास एवं विस्तार की सफलता का कारण समाज शास्त्री पूँजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामों को मानते ।। अन्धे के हाथ में बटेर लगने जैसी स्थिति साम्यवाद के रूप में आयी। स्वस्थ विकल्प का अभाव साम्यवाद की सफलता का आधार बना। उसके आर्थिक पहलुओं तथा सिद्धान्तों की सराहना तो करनी पड़ेगी, पर अन्य पक्ष तो बर्बरता, निरंकुशता को ही जन्म देते हैं। स्वतन्त्रता तथा मौलिक अधिकारों के अभाव में मनुष्य के सर्वांगीण विकास की सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं। भौतिक प्रगति की बात अलग है, पर यदि समग्र विकास अभीष्ट हो तो मानवी स्वतन्त्रता पर पूरी तरह अंकुश लगाना हर दृष्टि से अहितकर है। समाज एवं उससे सम्बद्ध व्यक्तियों की स्थिति कटे पंख वाले पक्षी जैसी हो जाती है, इन दिनों साम्यवादी देशों के नागरिक अपनी हालत उस पक्षी से बेहतर नहीं समझते। अर्थ सिद्धान्तों की दृष्टि से समर्थ एवं सशक्त होते हुए भी मानवी आचार संहिता की उपेक्षा करने से साम्यवाद अपनी सफलता स्थिर नहीं बनाये रख सकता, विश्व के मूर्धन्य विचारक ऐसा अनुभव कर रहे हैं।
विश्व की आज जो स्थिति है उसके अनुरूप मनीषियों ने प्रजातन्त्र को इसलिए अधिक उपयोगी तथा सार्थक ठहराना शुरू कर दिया है, क्योंकि उसमें मनुष्य के अधिकारों का हनन नहीं होता है। साथ ही उसमें साम्यवाद के उपयोगी अर्थ सिद्धान्तों का भी समावेश है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहने तथा शासन तन्त्र के सुसंचालन का परोक्ष अधिकार जनता के हाथों में रहने से व्यक्ति एवं समाज के सर्वांगीण विकास की सम्भावना अधिक रहती है। पर प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली की उपलब्धियों का लाभ तभी सुचारु रूप से मिल सकता है, जब जनता सुशिक्षित हो, अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों को समझे, उनका ठीक उपयोग करे।
लोकतन्त्र प्रणाली में वास्तविक मालिक मतदाता होता है। उसे पूरी तरह छूट है कि अपने मताधिकार का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करे। काम करने के लिए नौकर रखते समय उसके गुणों अवगुणों, श्रमशीलता, चरित्र निष्ठा की परख की जाती है। देश की बागडोर सँभालने तथा उसके संचालन का दायित्व सौंपने से पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि यह भली-भाँति परख लिया जाये कि जिनके हाथों में देश की व्यवस्था की देख-रेख अरबों खरबों रुपये की सम्पत्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है वे कैसे हैं? ईमानदार चरित्र निष्ठ हैं अथवा नहीं। साढ़े अड़सठ करोड़ व्यक्तियों का भाग्य इस दूरदर्शी निर्णय पर निर्भर करता है। मतदाता को यह हजार बार सोचना चाहिए कि राष्ट्र के विकास, विनाश का उत्तरदायित्व प्रजातन्त्र ने उसके कंधों पर सौंपा हैं। उसे अवसर मिला हुआ है कि चाहें तो देश को ऊँचा उठाने में योगदान दे अथवा पतन के गर्त में घसीट ले जाय। इस अधिकार का प्रयोग वह वर्षों बाद मात्र एक बार ही करता है। मतदान चन्द घण्टे चलते हैं, किन्तु उतनी ही देर में देश के भाग्य को बदल देने जैसी प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है।
वर्तमान युग को मनोवैज्ञानिक युग कहना अधिक उपयुक्त होगा। वोट माँगने के लिए कितने ही प्रकार के मनोवैज्ञानिक हथकण्डे अपनाये एवं तरकीबें भिड़ाई जाती ,, जिसे देखकर मनुष्य की बुद्धि का लोहा मानना पड़ता है। जातिवाद, बिरादरीवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद के विभिन्न नुस्खे अवसरवाद की छत्रछाया में प्रयोग किये जाते ।। वे सफल भी होते देखे गये हैं। औचित्य की कसौटी पर कसने वाले थोड़े से व्यक्ति होते हैं, जो उस धूर्तता को समझते हैं अन्यथा अधिकांश वादों के प्रवाह में बहते देखे जाते हैं। भले लोग सहज ही उनके बहकावे में आ जाते हैं। बिरादरीवाद के आधार पर परस्पर एक बिरादरी का दूसरे से फूट पैदा करने की कोशिश करके वोट प्राप्त करने का भी प्रयत्न किया जाता है। चुनाव में ये हथकण्डे धड़ल्ले से चलते तथा कारगर सिद्ध होते देखे जाते हैं। थोड़े विवेक से काम लिया जाय तथा यह परखा जा सके कि बिरादरी का नारा लगाने वालों ने सही अर्थों में उसके विकास के लिए क्या योगदान दिया, तो परिणाम शून्य ही निकलेगा। जन सामान्य के ऊपर यह नैतिक दायित्व होता है कि वह विचार करे कि बिरादरी बिरादरी के बीच कोई युद्ध तो चल नहीं रहा हैं, जिसमें अपनी जीत आवश्यक है। कानून में भी यह भेद-भाव अवैध है। ऐसी स्थिति में उस प्रोपेगैंडा का कोई महत्त्व नहीं रह जाता सिवाय इसके कि मतदाता मूड़ा जाये और प्रत्याशी अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाये।
चुनावों में अन्धा धुन्ध, विपुल धनराशि खर्च करना अब एक परम्परा सी बन गयी है। जुआ की भाँति एक बड़ी राशि दाँव पर लगायी जाती है। आखिर इतना खर्च क्यों किया जाता है? यह भी पता लगाया जाना चाहिए। प्रायः अधिकांश की दृष्टि यह रहती है कि दाँव पर लगाया गया पैसा कई गुना होकर जीतने के बाद वापिस आ जायेगा। यदि यह कुटिलता काम कर रही है, तो मतदाता को उसकी परख करनी चाहिए। ईमानदार व्यक्तियों द्वारा देश सेवा का अवसर पाने के लिए इतना खर्च करना पड़े, यह बात गले नहीं उतरती। अधिक खर्च करने वाला प्रत्याशी जीतने के बाद नीतिवान बना रहेगा यह संदिग्ध है। खर्चीले चुनाव प्रचार का सर्वत्र विरोध होना चाहिए। महँगे चुनावों में सामान्य वर्ग के आदर्शवादी लोकसेवी का भाग ले सकना प्रायः कठिन है।
राजतन्त्र अधिनायकवाद में प्रजा के वश की बात नहीं होती कि वह परिवर्तन की बात सोच सके, पर लोकतन्त्र में यह पूरी-पूरी गुंजाइश है कि जनता अपनी मनमर्जी के अनुसार उचित-अनुचित का समर्थन करके जैसा चाहे वैसा प्रतिनिधि चुने। प्रामाणिक जिम्मेदार, चरित्रनिष्ठ व्यक्तियों का चुनाव तभी सम्भव होगा, जब मतदाता अपने मत तथा दायित्वों की गरिमा समझे तथा यह अनुभव करे कि लोकतन्त्र ने उन्हें कितना बड़ा अधिकार दिया है। अपने और अपने देश के भाग्य निर्माण कर सकने का उन्हें कितना बड़ा सौभाग्य उपलब्ध है। इतना बड़ा अधिकार उपलब्ध होते हुए भी यदि उसका उपयोग करना न आया, तो यही समझना चाहिए कि सोते समय सुरक्षा के लिए नियुक्त बन्दर के हाथ में तलवार देकर राजा ने भूल की थी। उसके मुँह पर मक्खी बैठी और उड़ाने के लिए बन्दर ने तलवार चला दी। फलस्वरूप उसे नाक से ही हाथ धोना पड़ा। अनाड़ी वोटर उस बन्दर की तरह है, जिसे तलवार के लिए उपयुक्त स्थान और अवसर ढूँढ़ने की समझ नहीं है। छूटा हुआ तीर वापस नहीं आ सकता, दिया हुआ वोट लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए जब तक मत का प्रयोग नहीं हुआ है, उससे पहले हजार बार सोचना चाहिए कि इस राष्ट्र की अमानत और समाज की पवित्र धरोहर की श्रद्धांजलि को कहाँ अर्पित किया जाय। यह देवता के चरणों में चढ़े अथवा असुर को सौंपा जाये। वोट देने के पूर्व ही प्रत्याशी की पात्रता की परख कर लेनी आवश्यक है।
सुशिक्षित विचारशील तथा दूरदर्शी मतदाता ही राष्ट्र का सच्चा भाग्य विधाता है, यह तथ्य हर नागरिक को हजार बार समझाया जाना चाहिए। प्रजातन्त्र की सफलता भी इस सत्य के क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। उसके लिए यह आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी बने, अपनी जिम्मेदारियों को समझे तथा दृढ़ता के साथ निर्वाह करे। वोट केवल उन्हें मिले, जो प्रामाणिक एवं ईमानदार हों, राष्ट्र भक्त हों। चुनाव में वे जीते, जिनके हाथ में न्याय तथा लोकहित सुरक्षित रहे। ऐसे लोगों की परख कथनी और ढपली की तरह बजने वाली वाणी से नहीं करनी चाहिए। उनके भूत तथा वर्तमान के क्रिया कलापों का सूक्ष्म अध्ययन इस तथ्य की गवाही प्रस्तुत कर सकता है। उस आधार पर भविष्य की भी एक कल्पना की जा सकती है। उन लोगों को वोट देने से इन्कार कर देना चाहिए, जो नीति, सदाचार और आदर्शों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इस बात की उपेक्षा का अर्थ यह होगा कि राजनीतिक क्षेत्र में अनीति एवं अवांछनीयता को समर्थन प्रोत्साहन देना। इन दिनों जिन भी देशों में प्रजातन्त्र असफल हो रहा है, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
सिद्धान्तों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से विभिन्न पार्टियों में विशेष अन्तर नहीं होता। प्रायः सभी के सिद्धान्त एवं लक्ष्य ठीक होते हैं। अतएव यह प्रश्न कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता कि कौन सी राजनीतिक पार्टी श्रेष्ठ है अथवा कौन बेकार। कार्यक्रमों का क्रियान्वयन हो सके, तो किसी भी पार्टी के सिद्धान्त एवं कार्यक्रम उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शर्त बस इतनी भर है कि प्रतिनिधि सच्चे अर्थों में ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ हों। कहा जा चुका है कि राजतन्त्र जैसी निरंकुश प्रणाली भी किसी समय सफल रही है, पर अब वह भर्त्सना की पात्र है। अच्छे से अच्छे संगठन तथा वाद जब बुरे लोगों से भर जाते हैं, तो उसके परिणाम भी बुरे ही होते हैं। इसलिए किसी पार्टी ने क्या घोषणापत्र छापा है अथवा क्या मोटो निर्धारित किया है, यह जाँचना, देखना महत्त्वहीन है। देखना ही हो तो पार्टी के प्रतिनिधियों के व्यक्तित्व की जाँच पड़ताल करनी चाहिए। यदि व्यक्तियों का स्तर ऊँचा न हो तो ऊँची घोषणाओं और आश्वासनों के बावजूद भी जो कुछ सामने आयेगा, वह निराशा और चिन्ता जनक ही होगा। प्रतिनिधि के चुनाव में उसकी सूझबूझ, सक्रियता, लोकमंगल की भावना, जनहित की कामना, प्रगतिशीलता, प्रतिभा, शिक्षा आदि बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। इन विशेषताओं के अभाव में शासन तन्त्र का सही प्रतिनिधित्व कर सकना सम्भव नहीं है। इनके अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, प्रतिनिधि का ईमानदार, चरित्रनिष्ठ तथा सज्जन होना।
शिक्षा, कुशलता अथवा सम्पन्नता भी किसी प्रतिनिधि की योग्यता का मापदण्ड नहीं है। योग्यता का वास्तविक मापदण्ड यह है कि वह सिद्धान्तों एवं आदर्शों के प्रति कितना अधिक दृढ़ रह सकता है तथा जो जिम्मेदारी सौंपी जा रही है, उसे कहाँ तक निभा सकने की क्षमता रखता है। यह परखना आसान भी है और कठिन भी। आसान उस समय जब मतदाता स्वयं ही इतना विवेकशील हो कि प्रतिनिधि के गुण दोषों का सही विश्लेषण कर सके। मुश्किल उस समय बन जाती है, जब उस विवेकशीलता का अभाव होता है तथा मतदाता उपरोक्त विश्लेषण कर सकने में अक्षम सिद्ध होता है।
समाज शास्त्रियों, विचारकों ने इस असमंजस के कारण ही लोकतन्त्र को एक दुधारी तलवार के रूप में निरूपित किया है, जो दोनों ओर वार कर सकती है। मतदाता सुशिक्षित, योग्य तथा विचारशील हो तो उन्हें अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का सही रूप में ज्ञान रहता है। लोक तान्त्रिक देश के नागरिक समाज एवं देश से जुड़े अपने कर्तव्यों को समझते और निर्वाह करते हैं। खतरा उस समय उत्पन्न होता है जब नागरिक अशिक्षित अयोग्य होते तथा उस तन्त्र की गरिमा नहीं समझते। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वेच्छाचारिता तथा अनुशासन हीनता इसी कारण पनपती, बढ़ती तथा नासूर की तरह अपनी जड़ें गहरी जमाती है। तब शासन तन्त्र भी व्यवस्था अराजकता का शिकार होता है। नागरिकों के सहयोग से ही देश का शासन चलने में सफल होता है। नागरिक ही अनुशासन हीनता बरतने लगे तो समाज की सुव्यवस्था अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती।
निस्संदेह प्रजातन्त्र अपने में विश्व की सर्वोत्तम प्रणाली है, पर उसकी सफलता इस बात पर ही निर्भर करती है कि देश में रहने वाले नागरिकों का स्तर कैसा है। देश की तीन चौथाई जनता के अशिक्षित, पिछड़ेपन से ग्रस्त रहते यह संदिग्ध है कि प्रजातन्त्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकता है। जो सचमुच ही परिवर्तन के इच्छुक है, समाज एवं शासन को स्वस्थ स्वरूप देना चाहते हैं, उनके ऊपर यह नैतिक दायित्व होता है कि अशिक्षा के घोर अन्धकार में डूबी तीन चौथाई जनता को उबारने के लिए आगे आयें। उनमें जो क्षमता एवं प्रतिभा है उसका सदुपयोग करें। हर नागरिक को साक्षर करना ही पर्याप्त नहीं है। उसे कर्तव्यों एवं अधिकारों से भली-भाँति परिचित कराया जाना चाहिए। साथ ही उसे ईमानदारी, चरित्रनिष्ठा, श्रमशीलता, सज्जनता, शालीनता का महत्त्व समझाया जाना भी आवश्यक है। योग्यता सम्पादन ही नहीं, व्यक्तित्व का उपार्जन भी अनिवार्य है। शिक्षण में इन दोनों का संयोग होना जरूरी है। व्यापक स्तर पर ऐसी उमंग विचारशील वर्ग में जन मानस को प्रशिक्षित करने के लिए उभर सके तो सचमुच ही देश एवं समाज का कायाकल्प हो सकता है। प्रजातन्त्र की सफलता एवं सार्थकता भी इसी में सन्निहित है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
132. नेता बहुत हैं, सृजेता चाहिए
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
नेता का अर्थ होता है-समाज का नेतृत्व करने वाला मार्गदर्शक। ऐसा मार्गदर्शक जिसे समाज की अगणित समस्याओं का भली-भाँति ज्ञान हो। न केवल ज्ञान ही, वरन् वह क्षमता भी हो कि उनका यथा सम्भव हल निकाल सके। ज्ञान और क्षमता ही नहीं अभीष्ट स्तर के व्यक्तित्व का होना, विशेषताओं का होना अनिवार्य है। जो इनसे युक्त है, वही समाज व देश को सही दिशा दे सकता है। जिस देश में ऐसे नेताओं का बाहुल्य होगा, वह निरन्तर आगे बढ़ेगा, सतत प्रगति करेगा। जहाँ भी इनका अभाव होगा, वह समाज अनेकानेक समस्याओं से घिरा रहेगा, पिछड़ेपन से ग्रस्त रहेगा।
समाज का मार्गदर्शन करना एक गुरुतर दायित्व है, जिसका निर्वाह हर कोई नहीं कर सकता। प्राचीन काल में मार्गदर्शक की भूमिका पुरोहित वर्ग निभाता था। ज्ञान का प्रसार ही नहीं, राजतन्त्र में भी उनका समान हस्तक्षेप रहता था। पद एवं प्रतिष्ठा की घृणित लिप्सा से वे कोसों दूर रहकर मूक साधना करते रहते, समाज की समस्याओं का गहन अध्ययन करते, उन्हें दूर करने के लिए हल निकालते रहते थे। शासन पर उनका कड़ा अंकुश रहता था। फलस्वरूप सभी क्रिया-कलाप ठीक ढंग से चलते थे। चाणक्य की नीति-निपुणता प्रख्यात है। शासन संचालन में परोक्ष नियन्त्रण उसका ही रहता था। समर्थ गुरु रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, राजनीतिक सलाहकार एवं समाज सुधारक भी थे। सामर्थ्य और व्यक्तित्व दोनों ही से सम्पन्न थे। ऐसे अगणित मार्गदर्शक धर्मक्षेत्र में हुए हैं, जो समय-समय पर समाज को दिशा और राजतन्त्र को प्रेरणा देते रहे हैं। सूझबूझ, दूरदर्शिता एवं महान व्यक्तित्व का धनी अरस्तू न रहा होता तो सिकन्दर का प्रादुर्भाव एवं उसके वर्चस्व का विस्तार नहीं हो पाता।
थोड़ा और पुरातन काल में चलें तो राजतन्त्र में पुरोहितों के वर्चस्व के अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं। महर्षि विश्वामित्र और वशिष्ठ के परामर्श से ही राजा दशरथ शासन का संचालन करते थे। शासन ही नहीं समाज से जुड़ी अगणित समस्याओं के हल में समय-समय पर उनका मार्गदर्शन मिलता रहता था। राजतन्त्र पर हस्तक्षेप रहते हुए भी वे सत्ता एवं पद की लिप्सा से लाखों मील दूर रहते थे। उनका स्वयं का व्यक्तिगत जीवन तपः ऊर्जा से आलोकित रहता था। ब्राह्मणत्व एवं ऋषित्व को उनने कभी अपने जीवन से तिरोहित नहीं होने दिया। पाण्डवों का शिक्षण करने वाले द्रोणाचार्य शस्त्र और शास्त्र दोनों ही विद्याओं के महान ज्ञाता थे। देश एवं संस्कृति के ऊपर आसन्न संकटों के समय एक नेता का, मार्गदर्शक का क्या कर्तव्य होना चाहिए, यह जानना हो तो भगवान कृष्ण का जीवन चरित्र जरूर पढ़ना चाहिए, जिनने अधर्म के उन्मूलन तथा धर्म की स्थापना के लिए जरूरत पड़ने पर महाभारत जैसे महाविनाशकारी युद्ध का सरंजाम जुटाया। पुरोहितों का कितना अधिक दबदबा था, यह अशोक के शासन काल में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। शासन तन्त्र प्रत्यक्षतः अशोक के हाथों में होते हुए भी परोक्ष नियन्त्रण बौद्ध भिक्षुओं का रहता था। शासन संचालन, समाज सुधार, समाज निर्माण की अनेकानेक योजनाएँ उनके मार्गदर्शन में ही चलती तथा सफल होती थी। देश व संस्कृति के वे सही अर्थों में मार्गदर्शक थे, जिनने अपने चट्टान जैसे दृढ़ तथा तपे सोने जैसे व्यक्तित्व से देश एवं समाज को दिशा दी। उन्हें भौतिक प्रगति तथा आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में गतिशील रखा। उनकी ज्ञान साधना तथा लोक आराधना को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
कालान्तर में धर्मतन्त्र राजतन्त्र से अलग हो गया। पुरोहितों की वह बिरादरी समाप्त सी हो गई, जो अपने प्रखर व्यक्तित्व एवं अगाध ज्ञान के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन करती थी। पौरोहित्य ने एक पेशे का रूप ले लिया। शासन एवं समाज पर से उनका अंकुश जाता रहा। नेतृत्व करने योग्य व्यक्तियों का अकाल पड़ने से ही देश को पराधीनता के चंगुलता में जकड़ना पड़ा तथा दस बीस वर्षों तक नहीं, एक हजार वर्ष तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ा। दासता का अवसान काल उन्नीसवीं सदी से उस समय आरम्भ हुआ जब सच्चे नेताओं का दल कमर कसकर उस पाश को तोड़ने के लिए आगे आया, जो सदियों से चला आ रहा था। उन्नीसवीं सदी ने अनेकों सच्चे नेताओं को, मार्गदर्शकों को जन्म दिया, जिन्हें इतिहास सदा याद रखेगा। मातृभूमि के लिए सिर कटाने वाले भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल, सुभाष के बलिदान को कौन भारतीय भुला सकेगा। धर्म एवं संस्कृति के लिए मर मिटने वाले वैरागी जोरावर सिंह का उदारहण अब कहाँ मिलेगा? पटेल, गाँधी, नेहरू, तिलक, अब्दुल कलाम आजाद जैसे निस्पृह, कैरियर पर लात मारकर स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी क्षमता एवं प्रतिभा की आहुति देने वाले अब कहाँ रहे? गाँव-गाँव में, नगर-नगर में रामायण की चौपाइयों के माध्यम से जन क्रान्ति का बीजारोपण करने वाले राघवदास अब कहाँ दिखायी पड़ते हैं? युग धर्म को समझने वाले आनन्द मठ जैसे संन्यासी कहाँ मिलते हैं? गरीबों, पिछड़ों का दुःख दर्द समझने तथा घर-घर जाकर भूदान यज्ञ की ज्योति जलाने वाले विनोबा अब चिराग लेकर ढूँढ़ें नहीं मिलेंगे। कुप्रथाओं, परम्पराओं, अन्धविश्वासों के जाल से समाज को बाहर निकालने वाले राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक का अब दर्शन नहीं मिल पाता। पीड़ितों को उठाने तथा पिछड़ों को मार्ग दिखाने वाले विद्यासागर तो अब स्मृति के विषय रह गए हैं। कर्मयोग का अलख जगाने तथा ज्ञान योग की ज्योति जलाने वाले विवेकानन्द, दयानन्द जैसे मार्गदर्शक अब मुश्किल से मिलेंगे।
अपने देश में ही नहीं, विदेशों में भी समय-समय पर अनेकों लोक प्रहरी पैदा होते रहे हैं, जिनके नेतृत्व में उस समाज को आगे बढ़ने का अवसर मिला है। रंगभेद, वर्णभेद के विरुद्ध सतत लड़ते रहने तथा अन्ततः प्राण गँवाने वाले तपःपूत लूथर किंग को कौन भुला सकता है। दासता की बेड़ियों में जकड़े तथा भयंकर यन्त्रणा सहते रहने वाले काले नीग्रो की आत्मा उस महान नारी के कृत्यों पर सदा सद्भावनाओं की पुष्पवृष्टि करती रहेगी, जिसने अपने उत्तेजक विचारों के माध्यम से एक क्रान्ति की नींव डाली तथा उन्हें गुलामी से मुक्ति दिलायी। हैरियट स्टो की उस मूक किन्तु जीवन्त साधना को पीढ़ियाँ युगों-युगों तक याद रखेंगी। सामन्तशाही के विरुद्ध सतत लड़ने वाले क्रान्तिकारी प्रिंस क्रापाटकिन अवांछनीयता के विरुद्ध आक्रोश रखने वाले भावनाशीलों के लिए सदा प्रेरणा के स्रोत रहेंगे। मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ने तथा अपनी समूची प्रतिभा एवं क्षमता की आहुति चढ़ा देने वाले आर्थिक क्रान्ति के जनक मार्क्स की सेवाओं को कभी विस्मृत करना सम्भव नहीं है। आपत्तिकाल में समूचे इंग्लैण्ड के मनोबल को बढ़ा देने और संकटों से उबारने वाले अस्सी वर्षीय चर्चिल जैसे नेता तो मात्र अब चर्चा के विषय बन कर रह गए हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतन्त्रता मिलने के साथ ही अपने देश में निस्पृह नेताओं की वह पीढ़ी काल के गर्भ में समा गयी जो बिना किसी स्वार्थ के अपने श्रम प्रतिभा के जल से समाज एवं देश को अभिसिंचित करती रहती थी। इक्के-दुक्के बचे अपवादों की बात अलग है। विशाल देश की अगणित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याएँ हैं। उन सबका हल निकाल सकना तथा हर वर्ग को दिशा दे सकना एक दो के सहारे कैसे सम्भव है। उन सबके लिए अगली पंक्ति में खड़े होकर हर वर्ग को दिशा देने वाले सेवाभावी नेतृत्व कर्ताओं की बड़ी संख्या की आवश्यकता है।
यो तो कहने के लिए खद्दर वेशधारी सफेदपोश नेताओं की देश में कमी नहीं है, जो गाँधी के अनुयायी, समर्थक कहलाते तथा उनके सपने को साकार करने की हामी भरने में वाक् कुशल है, गली, मुहल्ले, चौराहे, होटल, बाजार, क्लबों में चक्कर काटते, पान चबाते, जोशीले भाषण देते बरसाती मेढकों की तरह रंग बदलते, टर्र-टर्र करते उन तथाकथित नेताओं के दर्शन किए जा सकते हैं, जो किसी न किसी राजनैतिक पार्टी की छत्रछाया में पल रहे हैं। पार्टी का झण्डा बुलन्द करने, नारा लगाने तथा मंच पर बक-बक करते रहने की उन्हें एक मोटी रकम मुफ्त में आसानी से मिल जाया करती है। भोली जनता की भावनाओं को उत्तेजित करके तोड़-फोड़ कराना, हड़तालों को प्रोत्साहन देना, अव्यवस्था फैलाना ही उनका प्रमुख काम है। कभी-कभी संयोगवश कोई घटना उन्हें प्रख्यात बना देती है, तो लगे हाथ चुनावों में खड़े होने, जीतने का तुक्का भी हाथ लग जाता है। सेवा का बिना पाठ पढ़े, व्यक्तित्व का बिना परिमार्जन किए सत्ता में पहुँचने वाले उन अनगढ़ व्यक्तित्वों के हाथों में पड़कर व्यवस्थाएँ उसी प्रकार अभिशाप सिद्ध होती हैं, जिस प्रकार कि बन्दर के हाथों तलवार मिल गयी थी, जिसने बिना विचारे मक्खी मारने के चक्कर में मालिक का सिर ही उड़ा दिया था। दुर्भाग्य कि देश में ऐसे नेताओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। हालत यही रही तो कुछ ही वर्षों में देश का बच्चा-बच्चा उन नेताओं की श्रेणी में होगा, जिसे न अपने भविष्य का ज्ञान है और न ही समाज के भविष्य का।
नेतृत्व पहले विशुद्ध रूप से सेवा का मार्ग था। एक कष्टसाध्य कार्य था, जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे। वे पाते नहीं अपना गँवाते ही थे। स्वेच्छा पूर्वक कठिनाई का मार्ग चुनते थे। बिना किसी कामना महत्त्वाकाँक्षा के वे समाज में फैले पीड़ा पतन के निवारण तथा समुन्नति बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। पर अब तो स्थिति ठीक उल्टी हो गयी है। अन्य व्यवसायों की भाँति नेतागिरी भी एक व्यवसाय है, जिसमें अपना कुछ भी लगाना नहीं पड़ता। बस थोड़ी चतुरता का होना काफी है। न श्रम लगाने की जरूरत न किसी प्रकार की पूँजी। मुफ्त में मात्र जुबान चलाते रहने से ही इतना मिल जाता है कि अपनी गाड़ी सुगमता से चलती रहे। अवसर का लाभ उठाने की कला में निपुण हो जाने पर तो कभी-कभी माला माल होने का अप्रत्याशित संयोग भी बैठ जाता है।
बैठे ठाले वाणी की थोड़ी निपुणता प्राप्त करने से जीवन निर्वाह के सभी साधन आसानी से जुट जायँ, इससे बढ़िया एवं सस्ता व्यवसाय और क्या हो सकता है। नेता बनने में अगणित लाभ है इस मनोवृत्ति के कारण ही अधिकाँश व्यक्ति नेता बनने के इच्छुक रहते हैं। प्रायः इनमें उनकी संख्या अधिक होती है, जो किसी भी कार्य में अपना मनोयोग लगाना नहीं चाहते। नौकरी न मिलने, पढ़ाई से जी उचटने, घरवालों का तिरस्कार सहने के बाद सुगम मार्ग नेतागिरी दिखायी पड़ता है। वह भीड़ राजनीति क्षेत्र में बेरोक-टोक घुस पड़ती है। इस मनोवृत्ति के कारण राजनीति क्षेत्र में निठल्ले व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जबकि सच्चे नेताओं की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है।
कुछ दशकों पूर्व तक नेता शब्द सार्थक था तथा नेता का कर्तृत्व भी। पर अब वह शब्द सम्मानजनक नहीं रहा। नेता का नाम लेते ही आम व्यक्तियों की नजरों में एक ऐसे स्वार्थी व्यक्ति की तस्वीर घूम जाती है, जिसे अपने स्वार्थों के अतिरिक्त किसी से मतलब नहीं। जो कुर्सी एवं पद के लिए आम लोगों के हितों की बलि भी चढ़ा सकता है। अवसर आने पर वह एक पार्टी छोड़कर दूसरे की शरण ले सकता है। थोड़े से व्यक्तियों को छोड़ कर अधिकाँश की स्थिति ऐसी ही है। अस्तु नेता के बदले स्वरूप ने जो तस्वीर खींची है, वह गरिमामय नहीं है। अब इन नेताओं की नहीं देश को सृजेताओं की जरूरत है। सृजेता अर्थात नवसृजन की बागडोर संभालने वाले व्यक्ति, राजनीतिक क्षेत्र में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है। वहाँ तो भीड़ बढ़ती ही जा रही है। उसमें सीमित कार्य है, सीमित व्यक्ति भी करते रह सकते हैं। सृजेताओं को एक बड़े समुदाय की जरूरत विभिन्न क्षेत्रों में है। जो सचमुच ही समाज के लिए देश के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनके लिए समाज सेवा का असीमित क्षेत्र कार्य करने के लिए खुला पड़ा है। राजनीतिक क्षेत्र के संघर्ष मतभेद सर्वविदित है। उसमें पद, प्रतिष्ठा की सर्वत्र प्रतिष्ठा है। समाज सेवा के क्षेत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है। बिना किसी से टकराये, बिना किसी से वैर लिए इस क्षेत्र में काम करते रहा जा सकता है।
सचमुच ही जिन्हें समाज एवं देश के प्रति दर्द है, उन्हें गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि क्या राजनीतिक क्षेत्र से अलग हटकर कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता। जिनमें कसक होगी, उन्हें अनेकों क्षेत्र तथा असंख्यों काम अपनी ही आँखों से दिखायी देंगे। ऐसे कार्य जो श्रम साध्य, कष्टसाध्य है। यही सोचकर अधिकाँश व्यक्ति उनमें जानते हुए भी हाथ नहीं डालना चाहते।
देश की परिस्थितियों एवं उनसे जुड़ी समस्याओं से कौन विज्ञ अपरिचित होगा? यह किसे नहीं मालूम कि देश की तीन चौथाई जनता आज भी अशिक्षा के अन्धकार में डूबी हुई है। पचास प्रतिशत आबादी को आज भी एक जून ही रोटी मिल पाती है, पोषण के अभाव में प्रतिवर्ष करोड़ों बच्चे मरते हैं, करोड़ों कुपोषण के शिकार होते हैं, लाखों को अपंगता, अन्धेपन से ग्रस्त होना पड़ता है। रोजगार के अभाव में करोड़ों अशिक्षित बेकार बैठे हैं। अस्वच्छता के कारण कितने ही प्रकार के रोग बढ़ते और लोग मरते हैं। प्रगति के इस युग में ही देश की आधी पीढ़ी नारी समुदाय को घर की चहार दीवारी में कैद रहना पड़ रहा है। ऊँच-नीच की भावना से अल्प संख्यक वर्ग पिछड़ेपन से ग्रस्त है। नर-नारी के भेद-भाव से हर वर्ष हजारों मासूमों को हत्या, आत्म हत्या का शिकार होना पड़ता है। मृतक भोज, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियाँ समाज को जर्जर बना रही हैं। ऐसी अगणित सामाजिक समस्याएँ देश के सामने मुँह फाड़े खड़ी हैं, जिनके हल के लिए असंख्यों व्यक्तियों के खपने की आवश्यकता है।
जो यह कहते हैं कि पद अथवा सत्ता के बिना कुछ नहीं किया जा सकता अथवा पैसे के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता, उनकी नीयत पर स्वाभाविक रूप से शक होता है। कारण कि अगणित समस्याएँ अज्ञान के कारण उत्पन्न होती हैं। वह दूर किया जा सके तो बिना धन के भी उन समस्याओं का हल निकल सकता है। गाँधी, विनोबा, लोक नायक जयप्रकाश, कागावा, ईश्वरचन्द्र, राजा राममोहन राय जैसे अगणित नेता पद प्रतिष्ठा से कोसों दूर रहे, समाज एवं संस्कृति के लिए कार्य करते रहे। जो पद की दुहाई देते हैं उन्हें इनसे सबक लेना चाहिए कि मात्र व्यक्तित्व के बल पर भी बहुत कुछ किया जा सकता है। इस परम्परा का अनुगमन करने वाले सृजेताओं का समाज एवं देश के नव निर्माण हेतु आह्वान है, जो स्वयं कृतकृत्य हो सकें और अनेकों को दिशा देने में समर्थ सिद्ध हो सकें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
133. कामबीज की सृजनात्मक शक्ति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
नर-नारी को सामान्य सामाजिक स्तर पर अलग रहने की जरूरत नहीं है। जरूरत यौन सम्पर्क के सम्बन्ध में अति सतर्कता बरतने की है। मस्तिष्क के बाद जननेन्द्रिय का दूसरा स्थान है। इन दोनों केन्द्रों को शक्ति संस्थान कहना चाहिए। पृथ्वी के दो सिरे दो ध्रुव कहलाते हैं, इन ध्रुवों में अति रहस्यमय प्रकृति की शक्ति धाराओं के स्रोत बीज पड़े हैं। इन्हीं के कारण यह धरती अपनी धुरी पर घूमने, सूर्य की परिक्रमा करने, लहराती चाल से चलने, महासूर्य को अपने सौर मण्डल के साथ भ्रमण कराने में समर्थ है। ऋतु परिवर्तन से लेकर वनस्पति उत्पादन और खनिज द्रव्यों के निर्माण की सारी प्रक्रियाएँ उन्हीं उभय ध्रुवों में सन्निहित शक्ति बीजों के कारण सम्भव होती हैं। मनुष्य पिण्ड में पृथ्वी की ही तरह मस्तिष्क उत्तरी ध्रुव और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। जीवन की चेतनात्मक, बौद्धिक एवं भावनात्मक हलचलों का केन्द्र मस्तिष्क है। और शरीर में जो कुछ उत्तम, आकर्षक दीखता है उसका केन्द्र जननेन्द्रिय के अन्तराल में दबा पड़ा है। यदि मस्तिष्क में विकृति आ जाय तो बुद्धिहीन व्यक्ति पागल की तरह अपने और दूसरे के लिए निरर्थक हो जायेगा। इसी प्रकार यदि मूलाधार के कामबीज विकृत हो जायें तो स्नायु मण्डल से लेकर पाचनतन्त्र तक सारा कार्य-कलाप लड़खड़ा जायेगा। इसलिए इन दोनों शक्ति संस्थानों का बहुत ही समझ बूझ कर अति दूरदर्शिता पूर्वक उपयोग किया जाता है। इस उपयोग में बरती गई भूलें बहुत ही विघातक सिद्ध होती हैं।
नर-नारी का सामान्य मिलन जितना ही उपयोगी है उतना ही वासनात्मक सम्पर्क से खतरा भी है। दोनों का स्वरूप और महत्त्व अलग-अलग है। प्रतिबंधित व्यक्ति सान्निध्य नहीं, यौन मिलन किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखा जाय वासनाओं का उभार एक अलग चीज है, जिसका सामाजिक नर-नारी सम्पर्क से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। पुरुष दुकानदारों के यहाँ सामान खरीदने दिन भर औरतें जाती और सामान खरीदती है। कोई विकार उत्पन्न नहीं होता न कोई किसी की ओर आकर्षित होता है। आकर्षण उस विशेष मनःस्थिति में उत्पन्न होता है जिसमें यौन सम्पर्क की अभिलाषा भी रहती है। यदि इस भावस्थल को पहले से ही निर्मल बना लिया जाय तो वय भले ही नवयौवन की हो, सामने वाले रूपवान पक्ष के लिए भी आकर्षण पैदा न होगा।
यह बचाव इसलिए आवश्यक है कि यौन संस्थानों में अद्भुत विद्युत धाराएँ प्रवाहित करने वाला शक्ति केन्द्र विराजमान है, जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। वस्तुतः यह नामकरण बहुत ही समझ बूझकर किया गया है। यही शरीर के अन्तर्गत काम करने वाले सारे क्रिया कलाप, उत्साह, स्फूर्ति, कोमलता, आकर्षण, आरोग्य जीवन आदि का मूल आधार है। इसकी अवांछनीय छेड़खानी करने से हम काम क्षमता को एक प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट कर डालते हैं।
नर में प्राण और नारी में रयि शक्ति की प्रधानता है। उन्हें आध्यात्मिक भाषा में अग्नि और सोम कहते हैं। विज्ञान के शब्दों में इन्हें धन और ऋण विद्युतधारा पुकारते है। इनमें स्वभावतः आकर्षण है। एक दूसरे के समीप आकर अपनी अपूर्णता पूर्ण करना चाहते है। जहाँ तक सामान्य सम्पर्क का सम्बन्ध है वहाँ तक यह विनिमय उपयोगी है। सभी जानते है कि बिना बाप या भाई की लड़की और बिना माँ या बहिन का लड़का मानसिक दृष्टि से अपूर्ण अविकसित पाये जाते हैं। प्रतिपक्षी वर्ग का सम्पर्क व्यक्तित्व के विकास के अनेक द्वार खोलता है। एकाकी अलग-थलग पड़ा जीवनक्रम कुंठित और मूर्छित होता चला जाता है। विधवा और विधुरों की मृत्यु संख्या रोगग्रस्तता एवं शारीरिक दुर्बलता विवाहितों की अपेक्षा कहीं अधिक पाई जाती है। पर्दे में रहने वाली महिलाएँ हर दृष्टि से पिछड़ती चली जाती हैं। यह सामान्य प्रतिपक्षी सम्पर्क से वंचित होने का ही दुष्परिणाम है। यदि जन सम्पर्क में नर-नारी जैसी बाधा उपस्थित न की जाय तो इससे व्यक्तित्वों के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होगी वरन् सहायता ही मिलेगी।
यदि मन में काम-विकार जाग पड़े तो प्रतिपक्षी वर्ग के साथ सामान्य सम्पर्क की मर्यादा तोड़कर यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अभिलाषा होती है। दोनों विद्युत धाराएँ समीप आने के लिए मचल उठती हैं और उससे सामाजिक काम-विकृति तो प्रत्यक्ष ही फैलती है। शारीरिक, मानसिक गड़बड़ी भी कम नहीं उभरती। व्यभिचार के पीछे एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सामान्य स्तर के व्यक्ति अपने दाम्पत्य जीवन तथा परिवार के प्रति निष्ठावान् नहीं रहते। दूसरी जगह आकर्षण चला जाने में अपना परिवार उस स्नेह सौजन्य के लाभ से वंचित होने लगता है जो सामान्यतया किसी सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है। परिवार व्यवस्थाएँ गड़बड़ाने न लगें। गृहस्थ अपनी-अपनी धुरी पर टिके रहें इस दृष्टि से व्यभिचार को हेय माना गया, पर यह कोई अविच्छिन्न मर्यादा नहीं है। आवश्यकतानुसार इसमें हेर-फेर भी होते रहते हैं। जर्मनी में जब पिछले महायुद्ध के समय पुरुष बहुत मारे गए और नारियों की संख्या अधिक रह गई तो तत्कालीन स्थिति को देखते हुए एक पुरुष कई पत्नियाँ रख सके, कानून में ऐसे सुधार किये गए। सामान्यतया ईसाई देशों में एक पत्नी एक पति का ही कानून रहता है। इसी प्रकार देहरादून जिले के जौनसार बाबर क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में यह आम रिवाज है कि भाइयों में से एक बड़े भाई का विवाह होता है, जो पत्नी आती है वह सब छोटे भाइयों की भी उपपत्नी होती है। बच्चे उन जन्मदाताओं को बड़े पिताजी, मझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि कहकर सम्बोधित करते हैं। वहाँ इस विवाह पद्धति को न कोई व्यभिचार कहता है न बुरा मानता है। उनका कहना है कि हम उन पाण्डवों की सन्तान हैं, जिनने एक द्रौपदी से ही पाँचों ने अपना दाम्पत्य जीवन निभा लिया था। जहाँ तक उथले स्तर पर बहुपतियों बहुपत्नियों का सम्बन्ध है वहाँ तक उसे सामाजिक स्तर का परिवार जीवन में विकृति उत्पन्न करने वाला पाप ही कहा जा सकता है। यदि कहीं ऐसी गड़बड़ न होती हो और गृहस्थ सद्भाव यथावत बना रहता हो तो उस दोष का परिमार्जन हो जाता है, जिसके कारण एक से अनेक का दाम्पत्य जीवन गर्हित या वर्जित घोषित किया गया है। कृष्ण ने बहुपत्नी और द्रौपदी ने बहुपति का सफल प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया था कि पारिवारिक जीवन में विकृति उत्पन्न किये बिना यौन सम्पर्क को विस्तृत किया जा सकता है, पर यह हर किसी के बस की बात नहीं। इस प्रयोग में बहुत ऊँचे या बहुत नीचे व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं अस्तु सामान्य समाज व्यवस्था में एक पत्नी या एक पति प्रथा का ही प्रचलन है जो उचित भी है और आवश्यक भी।
नर-नारी सम्पर्क की अभिवृद्धि में जो खतरा है उसे समझने के लिए हमें अधिक गहराई तक विचार करना होगा। सामाजिक मान के रूप में जहाँ तक परिवार विग्रह के कारण उत्पन्न अव्यवस्था का सवाल है, वहाँ यदि उच्चस्तरीय सम्पर्क हो तो उस सम्बन्ध में थोड़ी उपेक्षा भी की जा सकती है। पर इस सम्बन्ध में अधिक कड़ाई बरतने का अधिक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यौन सम्पर्क से नर-नारी की अति महत्त्वपूर्ण विद्युत-शक्ति एक दूसरे में अति तीव्रता पूर्वक प्रवाहित होती है। यदि वह प्रवाह उपयुक्त न हुआ तो आन्तरिक क्षमता का भयानक ह्रास और विद्रूप प्रस्तुत होता है। शक्ति का नियम यह है कि अधिक स्वल्प समर्थता की ओर भागती है, दो तालाबों को यदि एक नाली खोदकर परस्पर मिला दिया जाय तो ऊँचे लेविल का पानी नीचे लेविल के तालाब की ओर बहना प्रारम्भ कर देगा और वह प्रवाह तब तक चलता रहेगा जब तक कि दोनों का पानी एक लेविल पर नहीं आ जाता। एक रोगी और दूसरा निरोग व्यक्ति यदि यौन सम्पर्क करेंगे तो प्रत्यक्षतः रोगी को लाभ और निरोग को हानि होगी। एक की सामर्थ्य दूसरे में प्रवाहित होगी और नर या नारी जो भी दुर्बल होगा लाभ में रहेगा और सबल को घाटा उठाना पड़ेगा। यह बात शरीर सम्बन्धी स्थिति पर जितनी लागू होती है उससे हजार गुनी अधिक मनःस्थिति पर लागू होती है। ओछे स्तर के दुष्ट, दुराचारी, व्यसनी और अनाचारी व्यक्तियों से यौन सम्पर्क बनाने वाला दूसरा पक्ष अपनी आत्मिक विशेषताओं को खोता चला जायेगा। इसी प्रकार मन्दबुद्धि और प्रतिभा सम्पन्नों के बीच इस प्रकार का प्रत्यावर्तन निश्चित रूप से समर्थ पक्ष के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।
उच्चस्तरीय प्रतिभाओं से सम्पन्न व्यक्तियों में स्वभावतः कितने ही महत्त्वपूर्ण चेतन तत्व भरे पड़े हैं उन्हीं के आधार पर उन्हें आश्चर्यजनक सफलताएँ मिलती हैं। यदि उस शक्ति स्रोत को वे काम क्रीड़ा में खर्च करने लगे तो धीरे-धीरे अपना कोष समाप्त करते चले जायेंगे। इसलिए प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को उच्चस्तरीय बौद्धिक अथवा आत्मिक गुण सम्पन्नों को ऐसे विनियोग करने से रोका गया है। ब्रह्मचर्य ऐसे लोगों के लिए अधिक आवश्यक है। घटिया शरीर स्थिति और मनःस्थिति का व्यभिचार करे तो उसे उतना घाटा नहीं है जितना मनोबल और आत्मबल सम्पन्न लोगों को। इस शरीर बल की तुलना में मनोबल का मूल्य अत्यधिक है। पुष्ट शरीर और दुर्बल शरीर का यौन सम्पर्क स्वस्थ पक्ष को थोड़ी सी ही शारीरिक क्षति पहुँचाता है पर मनोबल और बुद्धिबल तो प्रत्यक्ष प्राण है वह तनिक सा अवसर पाते ही प्रचण्ड प्रवाह की तरह विद्युत गति से दौड़ पड़ता है और निम्न स्तर के पक्ष में अपनी हानि कर लेता है। दुर्बल मनोबल वाला पक्ष थोड़ा लाभ उठा ले यह ठीक है, पर उससे प्राण शक्ति सम्पन्न पक्ष अपनी प्रतिभा खोकर उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में असमर्थ हो जाता है जो अनेक दृष्टियों से अति महत्त्वपूर्ण होते हैं।
विवाह वस्तुतः व्यक्ति विनियोग की दृष्टि से अतीव सतर्कता के साथ ही किये जाने चाहिए। जोड़ा ठीक हो तो ही उसकी सार्थकता है अन्यथा उससे लाभ से भी अधिक हानि की सम्भावना रहती है। भोजन पका देने या बच्चे पैदा करने का लाभ उतना महत्त्व का नहीं जितना कि प्राणों के प्रत्यावर्तन का। जिसका व्यक्तित्व जितना घटिया होगा, गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से जिसका स्तर जितना नीचा है उसमें आन्तरिक क्षमता उतनी ही स्वल्प होगी। कई व्यक्ति शरीर से सुन्दर और पुष्ट दीखते हुए भी आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बहुत ही दीन-हीन होते है। इसके विपरीत शरीर से क्षीण दीखने वालों का प्राणबल भी आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण बहुत प्रबल रहता है। यौन सम्पर्क से प्रत्यावर्तन शरीरों का नहीं प्राण का होता है। शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप प्राण है, शरीर या कलेवर नहीं। प्राण की पुष्टि परिपक्वता केवल उत्कृष्ट व्यक्तित्वों और श्रेष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों में ही सम्भव है।
काम विकार आँधी, तूफान की तरह आते हैं और बिना पात्र कुपात्र का भेद किये बादलों की तरह चाहे जहाँ बरस पड़ते हैं। यदि यह सम्पर्क वैध अथवा उपयुक्त नहीं है तो इससे बहुत प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। विवाह हो या व्यभिचार प्राण शक्ति का विनियोग समान रूप से अपना वैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा। घटिया, स्तरहीन प्राण और ओछे व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बनाकर न पत्नी को लाभ मिलेगा न प्रेयसी को। न पति का कल्याण है न प्रेमी का। यौन सम्पर्क एक प्रकार से अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पूँजी का आत्म समर्पण है। अविवेकपूर्वक चाहे जहाँ, चाहे जिसके साथ बिना उसकी आन्तरिक स्थिति को परखे, यदि शरीर समर्पण इन्द्रिय प्रेरणा से प्रेरित होकर किये जायेंगे तो उसमें समर्थ पक्ष को बहुत तरह की बहुत गहरी क्षति उठानी पड़ेगी। तनिक भी क्रीड़ा उसे बहुत मँहगी पड़ेगी। नर-नारी का समाज सम्पर्क यदि व्यभिचार तक बढ़ चले, तो निस्संदेह वह बहुत हानिकारक है इससे मनोबल उन्नत न होगा बहुत घाटे में रहेंगे, प्रतिभाएँ कुंठित होती चली जायेंगी और उच्च व्यक्तित्वों के दुर्बल होने से समाज को भारी क्षति होगी। यो शरीर सम्पर्क की मर्यादा का व्यतिक्रम भी कम हानिकारक नहीं है। सामान्य व्यक्तियों को भी बहुत दिन बाद यदा-कदा ही काम सेवन की बात सोचनी चाहिए यदि वे आये दिन इसी मखौल में उलझे रहे और अपने ओजस् को गन्दी नालियों में बहाते रहे, तो उन्हें शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता का शिकार ही नहीं बनना पड़ेगा, बल्कि मनोबल, आत्मबल और प्राणशक्ति की पूँजी से भी हाथ धोना पड़ेगा। काम सेवन में जिनकी अति प्रवृत्ति है वे अपनी ही पूँजी नहीं चुकाते वरन् साथी का भी सर्वनाश करते हैं। अपने समाज में नारी की शारीरिक और मानसिक दुर्गति का एक बहुत बड़ा कारण उनके पतियों द्वारा बरती जा रही अत्याचारी रीति-नीति है, जिसके कारण उन्हें विवश होकर अपने अच्छे खासे स्वास्थ्य की बर्बादी सहन करनी पड़ी, यदि संयम से गृहस्थ जीवन चलाया गया होता तो न कोई नारी बन्ध्या होती न किसी को प्रदर जैसे रोगों का शिकार बनना पड़ता। जितनी सन्तान भली प्रकार पालित नहीं की जा सकती उतनी पैदा करके गृहस्थ जीवन का उद्देश्य और आनन्द नष्ट कर लेना भी यौन सम्पर्क की मर्यादाओं का अतिक्रमण ही है। ऐसे अविवेकी साथी को पाकर किस गृहस्थ को विवाह का आनन्द मिलेगा।
जननेन्द्रियों का सम्पर्क ही काम उल्लास नहीं है। वरन् उच्च भावना सम्पन्न व्यक्तित्वों का परस्पर आन्तरिक आदान-प्रदान ही वह आनन्द प्रदान कर सकता है, जिसे भौतिक जगत का सर्वोपरि सुख माना गया है और जिसकी तुलना ब्रह्मानन्द से की गई हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग ही इस सृष्टि में आनन्द और उल्लास की तरंगें प्रवाहित कर रहे हैं। केवल उच्चस्तरीय भावनाओं से सम्पन्न नर-नारी ही एकान्त मिलन का वह आनन्द ले सकते हैं जो शक्ति को किसी तरह नष्ट नहीं करता वरन् असंख्य गुनी बढ़ा देता हैं, काम सेवन आमतौर से हानिकारक ही माना गया है पर उन अपवादों से लाभदायक, शक्ति संवर्धक और उत्कर्ष में सहायक भी सिद्ध हो सकता है। नहीं तो उन आत्माओं का शारीरिक ही नहीं आत्मिक मिलन भी सम्भव होता है। पर ऐसा होता कहाँ है? ऐसे जोड़े मिलते कहाँ है? जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, केवल इन्द्रिय सुख के लिए काम सेवन एक क्षणिक आवेश और हानिकारक कार्य ही सिद्ध होता है। इसलिए यौन सम्पर्क में बहुत ही सावधानी बरतने और जहाँ तक सम्भव हो ब्रह्मचर्य पालन करने की मर्यादा नियंत्रित की गई है। वही सर्वोपयोगी भी है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
134. आत्मशक्ति का परिष्कार ही नवयुग का मूल आधार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सर्वभक्षी विनाश विभीषिकाओं को निरस्त और उज्ज्वल भविष्य को विनिर्मित करने के दो मोर्चों पर दुधारी तलवार से अगले दिनों सभी सृजन सैनिकों को प्राणपण की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। दैवी अवतरण इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए होता है। उसे दुष्कृत्यों का विनाश और धर्म का संस्थापन करते हुए ‘यदा-यदा हि धर्मस्य...’ वाली अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी और असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने की व्यवस्था बनानी होती है। यह पुण्य प्रयोजन निराकार ब्रह्मसत्ता स्वयं नहीं करती, अपने साधनों और वाहनों से कराती है। प्रेरणा निराकार होती है और तत्परता साकार। महाकाल का आकार नहीं किन्तु उसके संदेश वाहक अग्रदूत होने के कारण सूत्र संचालक की भूमिका निभाते हैं। जीतता पुरुषार्थ है पर लड़ाई में चमत्कार तो तलवार ही दिखाती है। युगान्तरीय चेतना को वहन करने वालों का पुरुषार्थ तो ईश्वर प्रदत्त होता है, पर श्रेयाधिकारी वही बनते हैं, स्वर्णाक्षरों में उल्लेख उन्हीं का होता है और अनन्तकाल तक लोकश्रद्धा उन्हीं के चरणों पर बरसती है। ऐसा सौभाग्य जिन्हें मिले समझना चाहिए कि अवतार न सही उसके प्रतीक प्रतिनिधि बनने का श्रेय सौभाग्य तो उन्हें मिल ही गया।
नवयुग को सतयुग कहा जा सकता है। सतयुग अर्थात् धर्म धारणा का प्रचलन। मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। चिन्तन और चरित्र का स्तर एवं प्रतिफल ही भली-बुरी परिस्थिति बन कर सामने आता है। समस्याओं और विपत्तियों से जूझने में जितना काम साधनों और पराक्रमों के सहारे होता है, उससे हजार गुनी भूमिका लोक चिन्तन की गतिशीलता सम्पन्न करती है। इसलिए पराक्रमी सृजन प्रयोजनों के साधन जुटाते हैं और तत्त्वदर्शी ऐसी योजना बनाने की भूमिका निभाने में संलग्न रहते हैं, जिससे लोक चिन्तन के प्रवाह को उत्कृष्टता की पक्षधर दिशाधारा मिल सके। संक्षेप में यही है युग सृजन का तात्त्विक स्वरूप और योजना बद्ध क्रिया-कलाप, जिसे इन्हीं दिनों सम्पन्न किया जाना है। विलम्ब करने और अनर्थ सहने की गुंजायश अब नहीं रह गई है।
नवयुग जिस प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य के सहारे विनिर्मित होता है, उसे एक शब्द में आत्म शक्ति कह सकते हैं। आत्मशक्ति का अर्थ है-आदर्शों को क्रियान्वित करने की अदम्य उमंग और प्रचण्ड साहसिकता। आमतौर से जीवधारी पेट प्रजनन की कीचड़ खाते और उसी सड़न में दिन गुजारते हैं, पर सृजेता दूसरी धातु के बने होते हैं। उन्हें अर्ध विक्षिप्तों के न तो परामर्श सुहाते हैं और न उनकी उन्मादी उछल कूद का अनुकरण करने की इच्छा होती है। वे अपना रास्ता आप बनाते हैं और भीतर के ईमान तथा बाहर के भगवान से निर्देश प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें किसी की सलाह लेने की जरूरत नहीं पड़ती। महानता के मार्ग पर हर किसी को एकाकी संकल्प के सहारे ही आगे बढ़ना पड़ता है। भीड़ तो बहुत दिन बाद पीछे चलने और जय बोलने के लिए सहमत होती है। आदर्शवादियों के मार्ग में आने वाली बाधाओं में प्रथम उपहास, दूसरा विरोध, तीसरा आक्रमण आता है। सफलता और प्रशंसा के लक्षण इतनी मंजिल पार कर लेने के उपरान्त दिखाई पड़ते हैं। सहयोग समर्थन का लाभ इससे पूर्व कदाचित ही किसी को मिला हो। सदुद्देश्य के अग्रगामी धन्य भी बनते हैं और अभिनन्दनीय भी, पर वह स्थिति आरम्भ में नहीं बहुत दिन उपरान्त आती है। जिनमें इतनी प्रतीक्षा का धैर्य और अवज्ञा सहने का साहस होता है, उन्हीं को अग्रगामी महामानव बनने का सौभाग्य मिलता है। ईश्वर के पार्षद, युग सृजेता इन्हीं विभूतियों को कहते हैं। उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर असंख्यों को श्रेय साधक स्वनाम धन्य बनने का अवसर मिलता है।
आत्म शक्ति का उदय ही अपने इस नवयुग का आधारभूत निर्मित कारण है। यह अग्रगामियों में तो अन्तःप्रेरणा के आधार पर स्वतः ही उदय हो जाती है, उन्हें जगाने, उठाने एवं कटिबद्ध करने का कार्य ईश्वर स्वयं ही संजो देता है। पूर्व संचित सुसंस्कारों के सहारे उपयुक्त समय आते ही वे अपना उत्तरदायित्व बिना किसी दबाव के स्वयं ही वहन करने लगते हैं, किन्तु सर्वसाधारण के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उन्हें बालकों की तरह उठाने नहलाने, कपड़े पहनाने, नास्ता कराने से लेकर स्कूल पहुँचाने तक के सारे काम अभिभावकों को ही करने पड़ते हैं। साथ ही नखरे सहने के लिए भी तैयार रहना होता है। मरीजों के नखरे भी देखते ही बनते हैं। वे उम्र में बड़े होने पर भी बालकों के कान काटते है। सनकी, अर्ध विक्षिप्त, उद्दण्ड, अपराधी प्रकृति के लोग भी सदा कुचाल चलते हैं, उन्हें भलमनसाहत अपनाने के लिए सहमत करना भी एक पूरा सिरदर्द है। कुचाल को सुधार सकना भी इतना बड़ा पुरुषार्थ है, जिन्हें कुबेर जैसा अनुदान बाँटना कहा जा सकता है। पुलिस, फौज, कचहरी, जेल, फाँसीघर जैसे संस्थानों में लगी हुई जनशक्ति तथा साधन शक्ति कोई अन्न-वस्त्र उत्पादन जैसा उपयोगी काम थोड़े ही करती है? इसकी समस्त क्षमता उद्दण्डता से जूझने में ही समाप्त हो जाती है। मनुष्य में ईमान और भगवत् की ज्योति है तो, पर प्रबल हैवान और शैतान ही पाया जाता है। इसलिए उत्थान के लिए जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। पतन को रोकने में उससे कम नहीं अधिक ही पराक्रम करना होता है।
भगवान् के अवतार, लीलाओं के वर्णनों में सृजनात्मक श्रेय प्रसंग कम और ध्वंस प्रकरण अधिक मिलते हैं, असुरता के निवारण में उनकी जितनी शक्ति लगी उससे कम ही उन्होंने सृजन प्रयोजनों में लगाई है। यदि अधिक भी लगी हो तो स्मरण ध्वंस प्रकरणों का ही किया जाता है। राम चरित्र में सुबाहु, ताड़का, मन्थरा, कैकेयी, खर−दूषण, सूर्पणखा, मारीच, सुरसा, त्रिजटा, रावण, कुम्भकरण, मेघनाद आदि के प्रकरणों की चर्चा बड़े जोर शोर से होती है। शबरी, केवट, विभीषण, जटायु जैसे भक्तजनों की चर्चा संक्षेप में ही होती है। रामराज्य की स्थापना में भी उन्हें सम्मान दिया गया है, किन्तु उसका उल्लेख बहुत खोजने पर ही मिलता है।
कृष्ण चरित्र में भी यही बात है। उस समय जेल के प्रहरी, यमुना का उफान, सर्पों का आक्रमण, पूतना, तृणासुर, कालिया सर्प से लेकर कंस, चाणूर, मुष्टिकासुर, दुर्योधन आदि सभी उनके प्राण घातक बने रहे। गोपियों का भीलों द्वारा अपहरण, यादवों का गृहकलह में निधन, रण छोड़कर द्वारिका पलायन और अन्ततः व्याध के हाथों काय विसर्जन जैसी दुःखद घटनायें भुलाये नहीं भूलती। महाकाल की योजना और पाण्डवों के अज्ञातवास, गोपी विछोह में उन्हें क्या कुछ नहीं सहना पड़ा। यह कर्मयोग नहीं वरन् तप साधना की वह शृंखला है, जिसका अवलम्बन हर श्रेयाधिकारी का अपनाना पड़ता है।
इसके पूर्व के अवतारों और उनके सहकारी पार्षदों का कार्य विवरण पढ़ने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उन सभी को परिवर्तन की महान प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए अग्रगामी बनना पड़ा है। यह कार्य सरलता पूर्वक अनायास ही नहीं हो गया, वरन् उन्हें स्वयं कष्टकारी व्यवधानों को अपने सिर पर ओढ़कर अन्यान्यों का उत्साह एवं साहस जगाना पड़ा है। भगवान बुद्ध, महावीर, हनुमान, परशुराम, नृसिंह, वामन आदि को अपमान और कष्ट सहने के अगणित प्रसंग पग-पग पर सहने पड़े हैं। देखने में यह प्रसंग कितने ही अरुचिकर क्यों न लगते रहे हो, पर उन्हीं के सहारे वे अपने को महान एवं अनुकरण के लिए प्रामाणिक सिद्ध कर सके हैं। बुद्ध के गृह त्याग का प्रसंग उनके जीवन क्रम से हटा दिया जाय और घर बैठे नौकर चाकर की सहायता से धर्म चक्र प्रवर्तन की संभावना पर विचार किया जाय तो सरलता की बात समझ में आते हुए भी सफलता पूर्णतया तिरोहित हो जाती है। साधनों से भौतिक उत्पादन हो सकता है, पर आत्मिक उपलब्धियों के लिए तो अग्रगामियों का त्याग बलिदान ही एक मात्र उपाय है। जहाँ यह न जुट सका, समझना चाहिए कि वहाँ सब कुछ मखौल बनकर रह जायेगा।
पतन पराभव के गर्त में जनमानस को घसीट कर ले जाने का काम तो घिनौने आदमी भी अपने साधन एवं चातुर्य के बल पर सरलतापूर्वक करते रहते हैं। व्यभिचारी, मद्य व्यवसायी, लेखक, अभिनेता, नायक, वक्ता, ठग, कुचक्री एवं जुआरी जैसे लोगों की कमी नहीं जो असंख्यों को जाल में फँसाने और भले चंगों को बेमौत मरने के लिए विवश करते हैं। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व इन कुकर्मों में आश्चर्य जनक सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। डाकू, हत्यारे, राह जन, उचक्के, तस्कर आदि भी इसी स्तर के होते हैं। वे अपनी प्रतिभा का उपयोग दुरभिसन्धियों में करते हैं। साथ ही मूछों पर ताव देते हुए सफलता की शेखी भी बढ़-चढ़कर बघारते हैं। इतने पर भी उनका पुरुषार्थ उनके निज का और समस्त समाज का घोर अहित ही करता है। आक्रमणकारियों को छोड़ दें, तो विलासी, संग्रही, स्वार्थी, अनुदार प्रकृति के लोग भी प्रकारान्तर से इसी वर्ग में आते हैं। गर्मागर्म लड़ाई और शीतयुद्ध में देखने का अन्तर तो रहता है, पर परिणाम में प्रायः दोनों ही समान रहते हैं। समय लगने की जल्दी या देरी होने की बात दूसरी है। घुन भी उतना ही हानिकारक होता है जितना कुल्हाड़ा। क्षय के विषाणु भी प्राण हरण तो करते ही हैं, यह बात दूसरी है कि वे छुरा भोंकने जैसा वीभत्स दृश्य उपस्थित न करे। आक्रमणकारी, आततायी और लालची विलासी के बीच प्रत्यक्ष अन्तर हर किसी को विदित है कि एक बड़ा भला, भोला सा लगता है और दूसरा उद्दण्ड उच्छृंखल जैसा। पर जहाँ तक आत्म हनन और लोक पतन का प्रश्न है, दोनों के बीच कोई बड़ा अन्तर नहीं होता।
यही मनःस्थिति है जो मूलतः अकेली ही समस्त समस्याओं के लिए उत्तरदायी है। इसे बदला न जा सका तो इस तथ्य को भी सुनिश्चित समझना चाहिए कि परिस्थितियाँ सुलझेंगी नहीं। ऊपरी लीपा-पोती से इतना ही हो सकता है कि कठिनाई का स्वरूप बदलता रहे। एक सुलझने के साथ-साथ नई आकार प्रकार और नये ढंग-नये रूप की, नये नाम से पुकारी जाने वाली नई विपत्ति खड़ी होती रहे। पेट में सड़न और रक्त में विकृति को यथावत बनाये रखकर कोई रोग मुक्त नहीं हो सकता। गठिया, सिरदर्द से लेकर सूजन, अकड़न, अपच जैसी असंख्य नाम रूप लक्षण और कष्ट वाली व्यथाएँ प्रकारान्तर से पेट में आहार की सड़न से ही उत्पन्न होती है। यही है वह मूल कारण जो रक्त को दूषित करने से लेकर सभी उपयोगी अवयवों को दुर्बल क्षति ग्रस्त बनाते बनाते उन्हें रुग्ण रहने और अकाल मृत्यु का ग्रास बनने के लिए विवश करता है। कीचड़ कितने चित्र-विचित्र कृमि, कीटक और विषाणु उत्पन्न करती है उसे कौन नहीं जानता। इस दुर्गन्ध से बचने के लिए अगरबत्ती जलाने से नगण्य जितना प्रयोजन ही सिद्ध होता है। स्वच्छता अपेक्षित हो तो सड़ी कीचड़ को हटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यही तथ्य वर्तमान समस्याओं, कठिनाइयों, विपत्तियों, विभीषिकाओं के लिए लागू होता है। अनेक संकटों से जूझने के लिए अनेक उपाय करने का प्रयोग करने में कोई हर्ज नहीं, किन्तु किसी समाधान कारक परिणाम की आशा नहीं की जानी चाहिए।
फिर क्या किया जाय? क्या विनाश के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं? इस प्रकार जब निराशा जनक चिन्तन जीवनक्रम को घेरने लगे, तो आशा की किरण एक ही रह जाती है कि मानवी अन्तराल के किसी कोने में प्रसुप्त पड़ी उस शालीनता को जगाया जाय, जिसे आध्यात्म की भाषा में श्रद्धा और बोलचाल में उदार सज्जनता कहा जाता रहा है। यह श्रद्धा और सज्जनता आदर्शवादी तत्त्वज्ञान को हृदयंगम करने पर ही उभरती है। एक शब्द में इसी को धर्मधारणा कहा है, साम्प्रदायिक हठवादिता और अन्धविश्वासी भावुकता से यदि इस तत्त्वज्ञान को बचाया जा सके, तो इस एक ही अवलम्बन को डूबते को तिनके का सहारा कहा जा सकता है। भौतिक जगत के संकटों विग्रहों और अन्तःजगत के उद्वेग विक्षोभों का समाधान भी इसी एक केन्द्र बिन्दु पर आधारित है। व्यक्ति भी और समाज भी इसी एक अवलम्बन के सहारे सुखी ही नहीं समुन्नत भी हो सकता है। मनःस्थिति को परिस्थिति की जन्मदात्री माना जा सके और श्रम को सींचने पर पेड़ के हरे-भरे फूले-फले हो सकने पर विश्वास किया जा सके तो उस परिणाम को निश्चय पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है, जिसके लिए अज्ञ से विज्ञ तक सभी एक जैसे लालायित हो रहे हैं।
आन्तरिक परिष्कार को यदि व्यष्टि और समष्टि की समस्याओं का समाधान माना जा सके तो फिर करने योग्य एक ही काम रह जाता है कि भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं और आवश्यकताओं को घटाकर सादगी अपनाने और सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धान्त व्यवहार में उतारने का प्रयत्न किया जाय। विलासी और संग्रही लोक प्रवाह को देखते हुए यह लगता तो कठिन है, पर यदि कोई साहस पूर्वक इस नीति को अपना सके, तो फिर उसके पास प्रायः वह तीन चौथाई सामर्थ्य सदुद्देश्यों के लिए बच जाती है, जो आमतौर से कभी पूरी न हो सकने वाली लालसा लिप्सा के निमित्त अस्त-व्यस्त और नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है। लोभ और व्यामोह से ग्रस्त दिग्भ्रान्त जनमानस एक से दूसरे में यह छूत ग्रहण करता है कि उसे बड़ा आदमी बनना चाहिए। योग्यता, तत्परता और परिस्थिति की अनुकूलता न होने पर वैसी सफलता तो कदाचित ही किसी को यत्किंचित मात्रा में मिल पाती है, पर जलते झुलसते सभी हैं। सबसे बड़ी हानि यह होती है कि आत्म निर्माण और विश्व कल्याण जैसे महान प्रयोजनों में जिस सामर्थ्य का नियोजन करने में गई गुजरी स्थिति का व्यक्ति भी महामानव बन सकता था, उस सौभाग्य से उसे पूर्णतया वंचित रहना पड़ता है। इतना ही नहीं बहिरंग संकटों और अन्तरंग उद्वेगों की दुहरी फाँसी इस कदर कसी रहती है कि उस घुटन में न जीना बन पड़े और मरना सम्भव हो सके।
नवयुग में जिस दमन को सर्वप्रथम नियोजन करना है, वह है लिप्सा को घटा कर उदात्त को उभारना। इसी में व्यक्ति की महानता है और इसी में समाज की समर्थता, इसे करे कौन?
इसके लिए दसों दिशाओं में दृष्टिपात करने के उपरान्त नजर एक ही केन्द्रबिन्दु पर रुकती है, वह है जागृतों का अग्रगमन। ऐसे अग्रदूतों को यह शुभारंभ अपने निजी दृष्टिकोण में परिवर्तन और जीवन क्रम में हेर-फेर करते हुए करना चाहिए। करना इतना भर है कि औसत भारतीय नागरिक स्तर के निर्वाह साधनों को पर्याप्त माना जाय और महत्त्वाकाँक्षाओं के क्षेत्र से भौतिक बड़प्पन को निरस्त करके इतना भर सोचा जाय कि प्रगति का वास्तविक स्वरूप वह है, जिसे व्यक्तित्व की संयमशीलता सज्जनता और परमार्थ प्रयोजन में बरती गई उदार परमार्थ परायणता कहा जा सके।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
135. उपासना को समग्र रूप में अपनायें-समुचित लाभ उठायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आत्मोत्कर्ष के लिए उस महाशक्ति के साथ घनिष्ठता बनाने की आवश्यकता है जिसमें अनन्त शक्तियों और विभूतियों के भण्डार भरे पड़े ।। बिजली घर के साथ घर के बल्ब, पंखों का सम्बन्ध जोड़ने वाले तारों का फिटिंग सही होते ही वे ठीक तरह अपना काम कर पाते हैं। परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध जितना निकटवर्ती एवं सुचारु होगा, उसी अनुपात से पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला चलेगा और उससे छोटे पक्ष को विशेष लाभ होगा। दो तालाबों के बीच में नाली खोदकर उनका सम्बन्ध बना दिया जाय तो निचले तालाब में ऊँचे तालाब का पानी दौड़ने लगेगा। और देखते-देखते दोनों की ऊपरी सतह समान हो जाएगी, पेड़ से लिपटकर बेल कितनी ऊँची चढ़ जाती है इसे सभी जानते हैं। यदि उसे वैसा सुयोग न मिला होता अथवा वैसा साहस न किया होता तो वह अपनी पतली कमर के कारण मात्र जमीन पर फैल भले ही जाती, पर ऊपर चढ़ नहीं सकती थी। पोले बाँस का निरर्थक समझा जाने वाला टुकड़ा जब वादक के हाथों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तो बाँसुरी वादन का ऐसा आनन्द आता है जिसे सुनकर साँप लहराने और हिरन मन्त्र मुग्ध होने लगते हैं। पतले कागज के टुकड़े से बनी पतंग आकाश को चूमती है, जब उसकी डोर का सिरा किसी उड़ाने वाले के हाथ में रहता है। यह सम्बन्ध शिथिल पड़ने या टूटने पर सारा खेल खतम हो जाता है और पतंग जमीन पर आ गिरती है। यह उदाहरण यह बताते है कि यदि आत्मा को परमात्मा के साथ सघनतापूर्वक जुड़ जाने का अवसर मिल सके, तो उसकी स्थिति सामान्य नहीं रहती। तब उसे नर पामरों जैसा जीवन व्यतीत नहीं करना पड़ता। वरन् ऐसे मानव देखते-देखते कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। इतिहास पुराण ऐसे देव मानवों की चर्चा से भरे पड़े हैं जिनने अपने अन्तराल को निकृष्टता से विरत करके ईश्वरीय महानता के साथ जोड़ा और देखते-देखते कुछ से कुछ बन गए।
उपासना को आध्यात्मिक प्रगति का आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है। उसके बिना वह सम्बन्ध जुड़ता ही नहीं है, जिसके कारण छोटे-छोटे उपकरण बिजली घरों के साथ तार जोड़ लेने पर अपनी महत्त्वपूर्ण हलचलें दिखा सकने में समर्थ होते हैं। घर में हीटर, कूलर, रेफ्रीजरेटर, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन आदि कितने ही सुविधाजनक उपकरण क्यों न लगे हो, पर उनका महत्त्व तभी है जब उनके तार बिजलीघर के साथ जुड़कर शक्ति भण्डार से अपने लिए उपयुक्त क्षमता प्राप्त करते रहने का सुयोग बिठा लेते हो। उपासना का तत्त्वज्ञान यही है। उसका शब्दार्थ है-उप+आसन, अर्थात् अति निकट बैठना। परमात्मा और आत्मा को निकटतम लाने के लिए ही उपासना की जाती है। विशिष्ट शक्ति के आदान-प्रदान का सिलसिला इसी प्रकार चलता है।
उपासना के दो पक्ष है एक कर्मकाण्ड दूसरा तादात्म्य। दोनों शरीर एवं प्राण की तरह अन्योन्याश्रित एवं परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे को चमत्कार प्रदर्शित करने का अवसर ही नहीं मिलता। बिजली के दोनों तार जब मिलते तभी करेण्ट चलता है। अलग-अलग रहें तो कुछ बात बनेगी ही नहीं। दोनों पहिए धुरी से जुड़े हो और समान रूप से गतिशील हो तभी गाड़ी आगे लुढ़कती है। लम्बी यात्राएँ दोनों पैरों के सहारे ही संभव होती हैं, भले ही एक के कट जाने पर उसकी पूर्ति लकड़ी के पैर से ही क्यों न की जा रही हो। दोनों हाथ से ताली बजाने की उक्ति से सभी परिचित हैं। सन्तानोत्पादन में नर और नारी दोनों का संयोग चाहिए।
ठीक इसी प्रकार उपासना का शास्त्र प्रतिपादित और आप्तजनों द्वारा अनुमोदित माहात्म्य तभी चरितार्थ होता है, जब उसका कर्मकाण्ड वाला प्रत्यक्ष और तादात्म्य वाला परोक्ष पक्ष समान रूप से संयुक्त सक्रिय होते हैं। जप, ध्यान, प्राणायाम के उपासनात्मक कर्मकाण्डों का स्वरूप सभी को विदित है। जिन्हें उस जानकारी में कुछ कमी हो वे अपनी स्थिति के अनुरूप किसी अनुभवी मार्गदर्शक से परामर्श अथवा प्रामाणिक ग्रन्थ का अवलोकन करके उसका समाधान निर्धारण कर सकते ,, बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात तादात्म्य है। उसे जीवन सत्ता में प्राण का स्थान मिला है। कर्मकाण्ड तो काय-कलेवर की तरह उपकरण ही कहे जाते हैं, प्रहार तो तलवार ही करती है। वस्तुतः युद्ध मोर्चे को जिताने में वह लौहखण्ड उतना चमत्कार नहीं दिखाता, जितना कि प्रत्यक्ष न दीखने वाला पराक्रम और साहस। ठीक उसी प्रकार उपासना कर्मकाण्ड पक्ष का तलवार जैसा प्रतिफल देखना हो, तो उसके पीछे तादात्म्य का भाव समर्पण नियोजित किए बिना काम चलेगा ही नहीं।
उपासना कर्मकाण्डों में विधि-विधान का स्वरूप प्रज्ञा परिजनों में से सभी जानते हैं। स्थान, पूजा उपकरण, शरीर, वस्त्र आदि की शुद्धि के अतिरिक्त मन बुद्धि और अन्तःकरण की शुद्धि तथा इन्द्रियों, अवयवों को पवित्र रहने की प्रेरणा देने के लिए आचमन, न्यास आदि किए जाते हैं। पवित्रता के प्रतीक जल और प्रखरता के प्रतिनिधि दीपक या अन्य किसी विकल्प का अग्नि स्थापन किया जाता है। समझा जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिए सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि सज्जनता परक सद्गुणों की जितनी आवश्यकता है ठीक उतनी ही संयम, साहस, पराक्रम एवं संघर्ष के रूप में अपनाई जाने वाली तपश्चर्या का महत्त्व भी है। पवित्रता और प्रखरता का समन्वय ही पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाता है। मात्र संत सज्जन बने रहने और पौरुष को त्यागकर बैठने पर तो कायरों और दीन दुर्बलों जैसी दयनीय स्थिति बन जाती है। मध्यकाल की भक्तचर्या ऐसे ही अधूरेपन से ग्रसित रहने के कारण उपहासास्पद बनती चली गई है। कर्मकाण्डों के विधि-विधान तादात्म्य की चेतना उत्पन्न करने एवं प्रेरणा देने के लिए विनिर्मित हुए हैं।
तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट की अंतःस्थिति का समन्वय एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो अचिन्त्य है पर उपासना जिस परमात्मा की की जाती है वह आत्मा का ही परिष्कृत रूप है। वेदान्त दर्शन से सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्त्वमसि, अयमात्मा, ब्रह्म आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे-पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय को ही परमात्मा कहा गया है, उसके साथ ही मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है जब दोनों के मध्य एकता एकात्मता स्थापित हो। इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बँधे धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपनाने और तदनुरूप जीवनचर्या बनाने पर ही उपासना का समग्र लाभ मिलता है।
लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते-पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है। इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं, जिन्हें उपासना की फल श्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी-पति को आत्म समर्पण करती है। अर्थात उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म समर्पण के बदले वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय या चिन्ह पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाएगा। भक्त भगवान के अनुरूप चलता चला जाता है और अन्ततः नर नारायण, पुरुष-पुरुषोत्तम, भक्त भगवान की एकरूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमताएँ ही उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ही ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते हैं।
प्रज्ञा परिजनों को मूर्धन्य भूमिका निभाने के लिए आत्मशक्ति की प्राण ऊर्जा का बड़ी मात्रा में संचय करना होगा। यह परमात्मा से ही उसे मिलेगी। अस्तु उसे उपासना के लिए सच्चे मन से साहस जुटाना और प्रयास करना चाहिए। जीवन चर्या में उसे निष्ठापूर्वक सुनिश्चित एवं मूर्धन्य स्थान देना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए जितना भी समय निकाला जाय, उसे नियमित और निश्चित होना चाहिए। व्यायाम, औषधि सेवन, अध्ययन आदि के लिए समय भी निर्धारित किए जाते हैं और उसकी मात्रा का सीमा बन्धन भी रखा जाता है। यदि इन प्रसंगों में मन की मौज बरती जाय, समय और मात्रा ही उपेक्षा करके जैसा मन वैसा करने की स्वेच्छाचारिता अपनाई जाय तो पहलवान, विद्वान बनने और निरोग होने की इच्छा पूरी हो ही नहीं सकेगी। हर महत्त्वपूर्ण कार्य में नियमितता को प्रमुखता दी जाती है। जो किया जाता है उसमें समूचे मनोयोग का नियोजन किया जाता है, उपासना के सन्दर्भ में भी वही किया जाना चाहिए। अस्त-व्यस्तता बनी रहेगी तो अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति अति कठिन हो जाएगी।
युग सन्धि की अवधि में सभी प्रज्ञा परिजनों को न्यूनतम तीन माला गायत्री जप प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर करने के लिए कहा गया है। जप के साथ प्रभात कालीन सूर्य का दर्शन और उस सविता देवता की स्वर्णिम किरणों का स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में प्रवेश कराने का ध्यान भी करते चलना चाहिए। शरीर, स्थान और उपकरणों की स्वच्छता के अतिरिक्त, मन, बुद्धि, चित्त की स्वच्छता के लिए आचमन, प्राणायाम और न्यास कृत्य करने का विधान है। सामान्य प्राणायाम तो रेचक, कुम्भक, पूरक द्वारा ही सम्पन्न हो जाता है, पर उसमें विशेषता लानी हो तो उसे प्राणाकर्षण स्तर का विकसित कर लेना चाहिए। इन पंक्तियों में उसे संक्षिप्त ही लिखा जा रहा है क्योंकि अधिकांश परिजन उसे पहले से ही जानते हैं। जो नहीं जानते उनके लिए थोड़ी सी पंक्तियों के निर्देशन से काम नहीं चलेगा। उन्हें किसी समीपवर्ती निष्णात से, गायत्री महाविज्ञान से जानना होगा या शान्तिकुञ्ज पत्र व्यवहार करके अपनी वर्तमान स्थिति के अनुरूप साधना क्रम का निर्धारण करना होगा। स्पष्ट है कि साधक के स्तर और प्रवाह को ध्यान में रखते हुए साधना क्रम भी चिकित्सा उपचार की तरह आवश्यकतानुसार समय-समय पर बदलने होते हैं। शान्तिकुञ्ज को गायत्री तीर्थ के रूप में इन्हीं दिनों इसी प्रयोजन के लिए विकसित किया गया है। ताकि हर साधक की स्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसके लिए विशेष निर्धारण किए जा सकें और जो बताया गया है उसका प्रारम्भिक अभ्यास प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में ही सही कर लेना सम्भव हो सके।
सामान्यतया हर प्रज्ञा परिजन को युग सन्धि की बेला में अपनी उपासना को नैष्ठिक, नियमित एवं समग्र बना लेना चाहिए। तीन माला का जप, गुरुवार को जिस स्तर का बन पड़े उपवास, ब्रह्मचर्य, महीने में एक बार अग्निहोत्र का न्यूनतम साधना क्रम तो चलाना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने भावना क्षेत्र को उत्कृष्टताओं के समुच्चय परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। भावना, विचारणा और क्रिया-प्रक्रिया में जितनी अधिक उत्कृष्टता आदर्शवादिता का समावेश सम्भव हो सके, उसके लिए उपाय खोजने और प्रयत्न करने में सतत संलग्न रहना चाहिए। भजन कृत्य और तादात्म्य की उभय पक्षीय प्रक्रिया उपासना को समग्र बनाती है और अपना प्रत्यक्ष प्रतिफल हाथों हाथ प्रस्तुत करती है।
युग सन्धि के अगले दिन सृजन और विनाश की सम्भावनाओं से भरे पड़े ।। ऐसी परिस्थितियों में उपासना विधान की अपनी महत्ता है। नैष्ठिक साधना एवं प्रज्ञा पुरश्चरण इसी निमित्त आरम्भ किए गए प्रारम्भिक उपचार हैं। लेकिन यहीं तक सीमित होकर किसी को नहीं रहना है। जो भी उपासना के माध्यम से आत्मशक्ति अभिवर्द्धन की बात सोचते हैं, उन्हें अपने निजी जीवन का कायाकल्प तो करना ही है। अपने परिकर क्षेत्र को भी उसी रंग में रंगना है। इससे व्यक्तित्व में और निखार आएगा, वह पुण्य लाभ तो मिलेगा ही, जो महाकाल की योजना में भागीदार बनने से किसी को भी मिल सकता है।
इस कार्य के लिए यदि कल्प साधना में सम्मिलित होकर प्रारम्भिक स्थिति जान ली जाय एवं उसमें जो परिशोधन संभावित हो उसे मार्गदर्शकों द्वारा जानकर प्रायश्चित विधान द्वारा अपने अन्तः को परिष्कृत कर लिया जाय तो यह और भी अच्छा है। साधना से ही वह स्थिति बनती है कि मनुष्य परमात्म सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। बिना साधना के, तप-तितिक्षा के उपासना सम्भव नहीं। साधना कड़ा संयम, आहार की तितिक्षा अपनाकर ही सम्भव है। जो इस प्रारम्भिक सोपान को पूरा कर लेता है। उसके लिए साधना मार्ग में आगे और फिर कोई अवरोध आड़े नहीं आता। साधना उपासना के बाद आराधना पुण्य परमार्थ की बात आती है। ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न साधक बिना परमार्थ के रह नहीं सकता। लोक कल्याण, आराधना, परमार्थ परायणता ये सभी उपासना के उत्तरार्द्ध माने जा सकते हैं। जिसने स्वयं को अनुशासन के शिकंजे में कस लिया, दैवी प्रयोजन में सहभागी बनने योग्य स्वयं को बना लिया वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ऐसे व्यक्ति ही व्यक्तित्व सम्पन्न बनते, लोक सम्मान व दैवी अनुग्रह पाते हैं।
उपासना अपने समग्र रूप में ही सही कही जा सकती है। साधना, तप, आराधना उसके आवश्यक अंग माने जा सकते हैं। आत्मिक प्रगति का यह अवलम्बन मनुष्य को परमात्म सत्ता के साथ जोड़ देता है, समकक्ष बना देता है। यह कथन सत्य है। परन्तु शर्त मात्र यही है कि उसे सही रूप में अपनाया गया हो, चिन्ह पूजा की लकीर भर न पीटी गयी हो।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
136. तेजोवलय --एक बहुमूल्य आध्यात्मिक सम्पदा
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
भले-बुरे व्यक्तियों के सान्निध्य में पड़ने वाला प्रभाव सर्वविदित हैं, जिसे प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जा सकता है। पदार्थ की भाँति व्यक्तियों का भी अपना आकर्षण होता है। मानवी चुम्बकत्व की इसी विशेषता को साधना क्षेत्र में तेजोवलय के रूप में जाना जाता है। यों समस्त शरीर में उसकी मात्रा होती है, पर आवाज की भाँति शरीर से निकलकर दूर क्षेत्र में जाते ही उसका प्रभाव कम हो जाता है। शरीर से निकलते समय यह विद्युतधारा अत्यन्त तीव्र होती है। जिसके शरीर में तेजोवलय जितना अधिक प्रखर होता है वह उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। यह ‘वलय’ भला भी हो सकता है और बुरा भी। अपने-अपने ढंग का आकर्षण और प्रभाव दोनों में रहता है। समीपवर्ती व्यक्ति तथा वातावरण उसी के अनुरूप प्रभावित होते ।।
तेजोवलय की सर्वाधिक मात्रा चेहरे पर होती है। देवताओं के चित्र में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा एक घेरा चित्रित किया जाता है। यह इसी अदृश्य तेजोवलय का चित्रण है। ज्ञानेन्द्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युत भण्डार एक ही जगह है, इसलिए चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली होता है। मोटे तौर पर चेहरे को देखकर कितने ही व्यक्ति बहुत कुछ जानने और समझने में सफल हो जाते ।। आकृति देखकर प्रकृति का अनुमान लगाने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान, आँख, मुँह आदि की बनावट को नहीं वरन् चेहरे के भावों और उमड़ते-घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व का प्रभाव एवं परिचय प्राप्त करते हैं।
तेजोवलय का एक केन्द्र चेहरे की ही तरह जननेन्द्रिय क्षेत्र में छाया रहता है, पर इस क्षेत्र में प्रजनन सम्बन्धी केन्द्र होने से वलय का प्रभाव यौन-आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है। किशोर वय के भिन्न लिंगों के बीच यह वलय ही अधिक उभार उत्पन्न करता है। समलिंगों की समीपता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। कटि प्रदेश को सदा ढके रहने के पीछे यहीं आधार होता है कि समलिंगों का तेजोवलय भिन्न लिंगों के बीच अनावश्यक उभार न पैदा करे।
श्मशानों में कई बार धुँधले प्रकाश की गोलियाँ, लहरें अथवा धुन्ध उड़ती देखी जाती है। शरीर के जल जाने पर मृत व्यक्ति का तेजोवलय किसी रूप में विद्यमान बना रह सकता है। कब्र में गाड़े गये व्यक्ति की लाश सड़ जाने पर भी उसका तेजोवलय उस क्षेत्र में उड़ता रह सकता है, इसे कभी-कभी आँखों से देखा जाता है और कभी उधर से निकलने वालों को रोमांच, कँपकँपी, धड़कन के रूप में इसका असुखद अनुभव होता है और वहाँ से जल्दी भाग जाने की इच्छा होती है। ऐसी अनुभूतियाँ भय और आशंका का भी कारण हो सकती ।। पर कितनी ही बार पूर्ण निर्भय और मरणोत्तर सत्ता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी उस तरह की अनुभूति करते हैं और कहते हैं उन्हें उस क्षेत्र में कुछ अदृश्य हलचल का आभास हुआ।
मरघट में तांत्रिक साधनाएँ करने, कापालिकों के मृतकों की खोपड़ी को साफ करने, उससे जल पीने जैसी अघोर क्रियाओं के पीछे मृतकों की अवशिष्ट वलय ऊर्जा का साधना में उपयोग करने का सिद्धान्त ही काम करता है साधक न केवल अपने ही मनोबल का उपयोग करते वरन् किन्हीं अन्यों के शरीरों की ऊर्जा का दोहन भी करते ।। पशुबलि जैसे घृणित कर्म इसी स्तर का लाभ उठाने के लिए किये जाते ।।
मनुष्य की अन्तरंग प्राणशक्ति का बाह्य परिचय उसके तेजोवलय के आकार, विस्तार, सघनता एवं चुम्बकीय प्रखरता के आधार पर प्राप्त किया जा सकता है। संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के इस बाहर फैले हुए अंतरंग व्यक्तित्व को आसानी से परख सकते और उसके स्तर का पता लगा सकते ।। कई बार यह वलय इतना तेजस्वी होता है कि समीपवर्ती क्षेत्र को अपने प्रभाव से भर देता है। इस सीमा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति इसी प्रवाह में बहने लगते हैं।
तपस्वियों के आश्रमों में हिंसक और अहिंसक प्राणी वैर-भाव भूलकर प्रेम-भाव से रहते देखे गये ।। नेताओं में इस प्रकार की विशेषता प्रायः पाई जाती कि उनका आकर्षण लोगों को प्रभावित, सहमत करता है और अनुयायी बनने के लिए विवश करता है। यदि यह प्रभाव उथला है, तो सम्मोहित व्यक्ति थोड़े ही समय में उस प्रभाव से मुक्त होकर पूर्व स्थिति में आ जाते हैं, पर यदि उसमें सघनता हुई तो प्रभाव स्थायी भी बना रहता है। यह प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हर क्षेत्र में पाये जाते और साथियों को प्रभावित करते ।। डाकुओं तक को साथी मिल जाते हैं और सामने आने पर प्रतिरोध करने वालों की घिग्घी बँध जाती हैं। रूप और सौन्दर्य में शरीर की गति सुकोमल ऊँची रहती है, रुचिर लगती है और उस आकर्षण पर दूसरे अनायास ही मोहित होते हैं। नर्तकियाँ, बारि बंधुओं से लेकर छोटे बालकों की सुकोमलता में ऐसा आकर्षण पाया जाता जो सम्पर्क में आने वालों का मन बरबस अपनी ओर खींचें। इस आकर्षण के पीछे कोई गहरा कारण नहीं है मात्र तेजोवलय की वह प्रभावशाली शक्ति ही काम करती है जिसके आगे दूसरे अनायास ही झुकते खिंचते चले आते हैं।
जैसा भी तेजोवलय होगा अपने निकटवर्ती क्षेत्र को सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को, स्पर्श व्यवहार में आने वाले पदार्थों को सुनिश्चित रूप से प्रभावित करेगा। जिस तरह विद्युत ताप, चुम्बक जैसी ऊर्जाएँ अपनी विशेषताओं के अनुरूप व्यक्तियों एवं पदार्थों पर प्रभाव डालती है, उसी प्रकार तेजोवलय का विद्युत मण्डल समीपवर्ती क्षेत्र एवं सम्बन्धित व्यक्तियों एवं पदार्थों में अपना प्रकाश फैलाता रहता है। इसे अब वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से भी नापा और जाना जा सकता है। ‘ह्यूमन औरा’ पर पश्चिमी देशों में विस्तृत शोध भी चल रही है। इसका मापन व फोटोग्राफिक अंकन भी अब सम्भव है।
कितने ही व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है और कइयों का सान्निध्य अरुचिकर तथा कष्टकर प्रतीत होता है। इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण, विकर्षण होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती-मिलती और सहयोग, प्रोत्साहन प्रदान करती है, पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकरा कर वापिस लौटेगी तथा घृणा, द्वेष, अरुचि, अप्रसन्नता एवं खीज़ जैसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगी। रास्ता चलते कितने ही अनजान व्यक्तियों के बीच मित्रता हो जाती और वह घनिष्ठता में परिवर्तित हो जाती है। इसके विपरीत सदा एक-दूसरे के कितने ही निकट रहते हुए भी घनिष्ठ नहीं बन पाते, पराये जैसे लगते ।। वह सब अंतःऊर्जा के प्रतीक तेजोवलय का ही प्रभाव चमत्कार है, जो एक जैसी प्रकृति वालों के बीच आकर्षण तथा विपरीतों के बीच विकर्षण पैदा करता है।
तर्क के आधार पर अनायास उत्पन्न हुआ आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और जल्दबाजी में घनिष्ठता में बँध जाने से खतरे की आशंका की जा सकती है। पर तथ्य इतने प्रबल होते कि सम्भावनाओं को निरस्त करते हुए घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं, जबकि स्वजन सम्बन्धियों से भी अकारण अरुचि रहती है और उनकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूँढने पर ऐसा कोई कारण प्रतीत नहीं होता तो भी विषमता बनी ही रहती है, जिसमें तेजोवलय के कम्पनों की गति में छायी असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है।
यह तो समस्तरीय तेजोवलय सम्पन्न व्यक्तियों की चर्चा हुई। प्रचण्ड प्रतिभा से युक्त व्यक्तियों में तेजोवलय की प्रखरता एवं बहुलता होती है। चुम्बक का स्पर्श करने से साधारण लोहे में भी चुम्बक की विशेषता उत्पन्न हो जाती है। प्रखर व्यक्तित्वों में मानवी विद्युत की प्रचण्डता होती है। उनके परामर्श, ज्ञान, सहयोग का भी लाभ समीपवर्ती लोगों को मिलता है, पर सबसे बड़ा लाभ उस तेजोवलय का होता है, जो अपनी शक्तिशाली क्षमता को निरन्तर विस्तृत करता रहता है। जो भी उस सम्पर्क सान्निध्य की लपेट में आता है उसे बदलने, प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के दर्शन, चरण-स्पर्श, आशीर्वचन, दृष्टिपात में जो सत्परिणाम विद्यमान रहते हैं, उसमें उनका प्रकाश पुँज तेजोवलय ही काम करता है। दूसरे शब्दों में इस सूक्ष्म सत्ता को अदृश्य व्यक्तित्व भी कह सकते ।। दृश्य व्यक्तित्व पंचतत्त्वों से बनी काया के रंग, रूप, सुडौलता, अंगों की बनावट आदि पर निर्भर करता है, पर अदृश्य व्यक्तित्व पर इस दृश्य स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। शरीर से स्वस्थ, सुन्दर आकर्षक होते हुए भी कोई व्यक्ति आचरण की दृष्टि से हेय और हीन स्तर का हो सकता है इसके विपरीत कोई काला दुर्बल कुरूप होते हुए भी अत्यन्त तेजस्वी और प्रतिभा का धनी हो सकता है, जबकि वह बाहर से कितना भी उपहासास्पद क्यों न लगे। आँखों को आरम्भिक दर्शन में काय-कलेवर के अनुरूप किसी की वस्तुस्थिति समझने में भ्रम हो सकता है, पर जैसे ही उसकी यथार्थता अनुभव की जायेगी तब वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।
सामान्यतया रंग रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध करता है, पर यदि तेजोवलय तदनुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्यांकन बदल जाता है। रूपवान काया में भी विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो सकती है एवं कुरूप व्यक्ति अष्टावक्र, सुकरात, गाँधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। साज−सज्जा द्वारा तो शरीर की कुरूपता एक सीमा तक छिपायी भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता है। सुविकसित अन्तःकरण सम्पन्न व्यक्तियों को किसी की भीतरी स्थिति को पहचानने में देरी नहीं लगती है। यहीं कारण है कि महामानव किसी की बाह्य सुंदरता अथवा कुरूपता को अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वे रंग रूप की अपेक्षा तेजोवलय में संव्याप्त सुन्दरता एवं कुरूपता को वास्तविक व्यक्तित्व मानते ।। भले-बुरे व्यक्तित्वों के प्रति जन सामान्य की श्रद्धा एवं अश्रद्धा भी इसी अंतःऊर्जा के आधार पर बनती है।
शरीर को खुला-नग्न छोड़ देने पर शरीर विद्युत की मात्रा स्फुल्लिंगों के रूप में उड़ने लगती है। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है, पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की ऊर्जा बाहर न निकलने पाये इसीलिए वस्त्रों का आवरण ढका जाता है। आध्यात्मिक साधनाओं में निरत रहने वाले कठोर तप-तितिक्षा के अभ्यासी साधु संन्यासी तथा योगी भी नग्न शरीर में भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इस मान्यता के पीछे प्रमुख कारण सामाजिक मर्यादाएँ हैं, पर आध्यात्मिक कारण यह है कि शरीर को नग्न रखने वाला अपनी शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बिखेरता रहेगा साथ ही दूसरों के भले-बुरे प्रबल भावों से अपने को बचा भी न सकेगा। धूप का तीव्र प्रभाव नग्न शरीर पर पड़ता है। इसी प्रकार दूसरों का चुम्बकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। ऊन और रेशम में शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है। इसीलिए प्राचीन समय में प्रायः पुरश्चरण जैसे प्रखर साधना प्रयोगों में ऊनी अथवा रेशमी वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। ऊन ऐसी होती थी जो अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हो जाय। वध के उपरान्त भेड़ों की उतारी ऊन अथवा कीड़ों को उबालकर उन्हें मार डालने के उपरान्त पाया जाने वाला रेशम आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधना के प्रयोग योग्य नहीं होते। वध के समय प्राणियों का करुण क्रन्दन, निकला हुआ चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता है। ऐसे वस्त्रों को धारण करने वाले के ऊपर भी उस विक्षोभ का प्रभाव पड़ता है। साधना में शारीरिक विद्युत के आवागमन में प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता सम्पन्न होते हुए भी ऐसे वस्त्रों के धारण करने से अनेकों प्रकार की मानसिक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। फलतः आध्यात्मिक उन्नति का प्रयोजन पूरा नहीं होने पाता। ऊन अथवा रेशम अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हुआ है, इस बात की गारण्टी हो तभी ऊन से बने वस्त्र प्रयोग किये जाये, संदिग्ध स्थिति हो तो उनका प्रयोग न करना ही श्रेष्ठ है। ऐसी हालत में सूती वस्त्रों का उपयोग कहीं अधिक श्रेयस्कर है।
अन्य वस्त्रों तथा उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यही बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य अपनी प्रिय वस्तुओं पर जिन्हें वे उपयोग में लाते, अधिक प्रभाव छोड़ते हैं। साधु, सन्तों, महापुरुषों के माला, जनेऊ, खड़ाऊँ, वस्त्र अथवा अन्य वस्तुएँ उपहार आशीर्वाद स्वरूप पाकर लोग कृतार्थ हो जाते और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते ।। दीर्घकाल तक उनमें वह दिव्य प्रभाव बना रहता है। भगवान बुद्ध का एक दाँत लंका में आज भी सुरक्षित रखा है।
व्यक्तित्व पर तेजोवलय की भारी छाप रहती है। प्रायः यह जन्म-जन्मान्तरों के प्रयास, अभ्यास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है, पर मनुष्य अपनी स्वतन्त्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल सकता तथा बढ़ा सकता है। सामान्य स्तर के व्यक्ति इस बने बनाये तेजोवलय के अनुरूप अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते ,, पर मनस्वी साधक अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति से अभ्यस्त बाह्य एवं आन्तरिक स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर लेते हैं। तत्पश्चात् तेजोवलय भी उसी के अनुरूप बन जाता है।
सत् तत्त्वों से ओत-प्रोत तेजोवलय में परिवर्तन ही आध्यात्मिक काया-कल्प है। साधना की तप-तितिक्षा द्वारा तेजोवलय के प्रखरीकरण का उद्देश्य पूरा होता है। कहना न होगा कि इस महती उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही तप-साधना के उच्चस्तरीय प्रयोगों, उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती है जिससे प्रत्येक साधक साधना के उपरान्त तेजोवलय की एक बाहुल्य आध्यात्मिक पूँजी लेकर वापिस लौटता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
137. अतीन्द्रिय सामर्थ्य एवं परब्रह्म की विधि व्यवस्था
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह समस्त विश्व ब्रह्माण्ड चेतना का एक सुविस्तृत समुद्र हैं। स्थूल जगत में जो होता है, उसकी प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में निश्चित रूप से होती है। उसे देख समझ सकना हर किसी के लिए सम्भव नहीं होता, पर जिनकी चेतनात्मक स्थिति विशिष्ट है, वे उस अदृश्य को दृश्य की तरह देख सकते हैं और सुविदित की तरह जान सकते हैं।
प्रयत्नपूर्वक चेतना का अतीन्द्रिय विकास किया जा सकता है और अपनी जानकारी का क्षेत्र इन्द्रिय शक्ति के आधार पर सीमित रहने का बंधन तोड़कर वह सब भी जाना जा सकना है जो इस ब्रह्माण्ड में किसी भी क्षेत्र में हो रहा या हो चुका है। जब तक बूँद समुद्र से अलग है तब तक उसका विस्तार, मूल्य एवं बल स्वल्प है, किन्तु जब वह समुद्र में मिल जाती है, तो फिर उसका स्वल्प सागर जैसा बन जाता है और ज्वार-भाटों की तरह ऊँचा उठने लगता है और नीचे गिरने की नई सामर्थ्य प्राप्त करने का अवसर मिल जाता है। बूँद रहने पर उसका अपना अलग स्वरूप और स्वाद था, पर अब उसमें आमूल-चूल परिवर्तन हो गया। समुद्र जल का खारापन-भारीपन उसमें ओत-प्रोत हो गया। ब्रह्माण्डीय चेतना से, ब्रह्म-सत्ता से सम्बद्ध व्यक्ति सीमा बन्धन तोड़कर असीम बनता है। उसकी जानकारी का क्षेत्र असीम हो जाता है। स्तर बढ़ने पर स्थिति और भी आगे बढ़ती है। आत्मा में वे गुण उत्पन्न हो जाते हैं जो परमात्मा में है। परमात्मा सत् चित् आनन्दमय है-सत्यं शिवं सुंदर है। ब्रह्म परायण का व्यक्तित्व इन्हीं विभूतियों का प्रतीक प्रतिनिधि बन जाता है। इतना ही नहीं ईश्वर में जो सामर्थ्य एवं विशेषताएँ है उनकी झाँकी भी ऐसे मनुष्यों में होने लगती है। वे महान आत्माओं-महामानवों एवं देवात्माओं-अवतारों जैसे उस प्रकार के काम करते है जो सामान्य लोगों को अपने लिए अद्भुत एवं असम्भव प्रतीत होते हो। युग प्रवाह को मोड़ना और व्यापक असंतुलन को सन्तुलन में बदलना ऐसे ही महामानवों के लिए सम्भव होता है, जो ब्रह्मसत्ता के साथ अपना विशेष सम्बन्ध बनाकर असाधारण आत्मशक्ति के अधिकारी बन गए है। सीमित व्यष्टि चेतना भव-बन्धनों में-पंचभूत कलेवर में जकड़े हुए लोग तो अपना सामान्य निर्वाह तक ठीक प्रकार नहीं कर पाते और उतने भर प्रयोजन में रोते-कलपते असफलता पर हाथ मलते पाए जाते है। जबकि आत्मशक्ति सम्पन्न न केवल अपनी वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करते और समय की आवश्यकता को पूरी करते देखे जाते हैं।
आत्म-शक्ति का अभिवर्धन ही सत्ता के साथ घनिष्ठता स्थापित करने से सम्भव होता है। तपश्चर्याएँ एवं योग साधनाएँ उसी प्रयोजन के लिए की जाती है ।। यह ऊँची स्थिति एवं आगे की बात हुई। ऊपर की पंक्तियों में ब्रह्म सम्बन्ध बनाने और योगी की दिव्य शक्ति प्राप्त करने का प्रसंग है। इससे पहले की हलकी स्थिति वह है जिसमें आत्मशक्ति बढ़ने के लक्षण तो नहीं मिलते पर मस्तिष्कीय चेतना से सीमा बन्धन टूटते और असीम के साथ सम्बन्ध बनते है। यह पंच भौतिक प्रकृति के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश की बात है। भौतिक जगत उतना ही नहीं है जितना कि आँख से देखा, हाथ से छुआ या अन्य इन्द्रियों के आधार पर प्रत्यक्षतः जाना जाता है। अप्रत्यक्ष एवं अविज्ञात भी असीम है। वैज्ञानिक शोधों द्वारा उसी को खोजा जा रहा है जो अप्रत्यक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में अत्यधिक शक्तिशाली है। इसी सूक्ष्म प्रकृति के क्षेत्र में मस्तिष्कीय चेतना का प्रवेश होता है और प्रत्यक्ष जगत की जो छाया-प्रतिक्रिया जगत में विद्यमान है उसका परिचय स्पष्ट रूप से मिलने लगता है।
अतीन्द्रिय चेतना की चर्चा अध्यात्म ग्रंथों में आज्ञाचक्र एवं तृतीय नेत्र के रूप में होती रही है। शिव के, दुर्गा के मस्तक में भृकुटि के मध्य एक तीसरा नेत्र होने का उल्लेख है। इसे दिव्य चक्षु भी कहते है। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है। शिव ने इसी का उन्मीलन करके काम विकार को जला कर भस्म किया था। अर्जुन को विराट ब्रह्म का दर्शन इसी दिव्य चक्षु से हुआ था। संजय ने महाभारत का घटनाक्रम इसी नेत्र से देखते हुए धृतराष्ट्र को सारा वृत्तान्त सुनाया था। अदृश्य दर्शन इसी केन्द्र का काम है। यह रूप शक्ति का, दृष्टि क्षेत्र का प्रसंग है। शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श की अन्य अनुभूतियाँ भी अतीन्द्रिय क्षमता से हो सकती है जो प्रत्यक्ष सम्पर्क से तो बहुत परे है, पर देश काल की सीमा लाँघकर अपना अस्तित्व अन्यत्र कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से बनाए हुए है। इस प्रकार के अनुभव सर्वसाधारण को नहीं होते, इसलिए वे अद्भुत, अलौकिक प्रतीत होते है, किन्तु वस्तुतः वे होते सर्वथा लौकिक एवं सामान्य ही है। इस संसार में जो कुछ घटित होता है वह नितांत क्रमबद्ध और प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप ही होता है। अन्तर इतना ही है कि हम प्रकृति के थोड़े से नियमों से ही परिचित है। जो अभी भी अविज्ञात बना हुआ है उसका क्षेत्र, विज्ञात की तुलना में असंख्य गुना अधिक है।
प्रकृति व्यवस्था की सामान्य जानकारी अत्यल्प है। उससे गहरे जाकर जो लोग अन्तर्निहित नियम-सूत्रों तथा विधि-व्यवस्थाओं की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं और प्रकृति की सूक्ष्म तथा गहरी परतों के विश्लेषण एवं अर्थ संकेतों को समझने की क्षमता अपने में विकसित कर लेते ,, उन्हें यद्यपि प्रकृति के गर्भ में पक रही घटनाएँ प्रत्यक्षवत् ही दृष्टिगोचर होती हैं, किन्तु सामान्य लोकानुभव में तो इन घटनाओं को वर्षों बाद ही आना है और उस समय तो वे सर्वत्र अज्ञात व अनुमानित ही होती है। अतः भविष्य की उन घटनाओं का कथन जन सामान्य में विस्मय का कारण बने, यह स्वाभाविक ही है।
वर्तमान में जो सामने है, जिसे जानने के साधन उपलब्ध है उसे जाना जा सकता है, पर जो स्थान की दृष्टि से दूर है, जहाँ के समाचार साधन रहित स्थिति में है, पहुँच नहीं सकते वहाँ की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष घटना की तरह दृश्य रूप से देखने, श्रव्य रूप से सुनने की घटनाएँ निश्चय ही आश्चर्यजनक है। वर्तमान का ज्ञान भी तभी मिल सकता है जब वे इन्द्रिय अनुभूति के द्वारा प्रत्यक्ष हो अथवा पत्र, सन्देश, टेलीफोन, तार, रेडियो, टेलीविजन जैसे उपकरणों के सहारे उन्हें जाना जा सकता है। ऐसी स्थिति न होने पर भी यदि कोई घटनाक्रम प्रत्यक्ष की भाँति ही जाना जा सके तो उसे आश्चर्यजनक एवं अतीन्द्रिय क्षमता का चमत्कार ही कहा जायेगा।
वर्तमान में दूरवर्ती घटनाक्रमों को देख या सुन सकना भी विकसित इन्द्रिय शक्ति की परिधि में आ सकता है, पर भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत करना कि उनकी प्रामाणिकता में कोई सन्देह न रहे, सचमुच ही आश्चर्य की बात है। इससे भी अधिक आश्चर्य उन सम्भावनाओं की जानकारी का है, जो अभी घटित ही नहीं हुई और अनुमान के आधार पर भी उस प्रकार की कल्पना करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।
भूतकाल और वर्तमान के बीच समय की दूरी एक प्रकार की खाई है, जिसे पाट सकना सामान्यतया अति कठिन प्रतीत होता है। ये इतिहास के पृष्ठों पर अंकित लेखों-खण्डहरों शोधों तथा जनश्रुति प्रसंगों के आधार पर ही भूतकाल का आधा, अधूरा विवरण प्राप्त होता है, पर उसे ज्यों का त्यों जान सकना-प्रसंगों को उसी प्रकार देख या सुन सकना कठिन है। सामान्य मानवी चेतना इतनी लम्बी खाई छलांग सके ऐसे साधन उसके पास नहीं है। विकसित चेतना भूतकाल की घटनाओं को उसी प्रकार देख, सुन या जान सकती है, जिस प्रकार कि हम सब वर्तमान के प्रत्यक्ष घटनाक्रम की जानकारी सरलता पूर्वक जान लेते है।
भविष्य दर्शन और भी कठिन है। जो हो चुका उसके स्थूल अथवा सूक्ष्म प्रमाणों का मिल सकना समझ में आता है। पुरातत्व शोधें जिस प्रकार अवशेषों के सहारे प्राचीन घटनाक्रम का निष्कर्ष निकालती है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में विद्यमान किन्हीं प्रमाणों को सूक्ष्म चेतना द्वारा जान सकना तार्किक दृष्टि से सम्भव हो सकता है। उस प्रकार के उपकरणों का विकास अभी नहीं हो सका, यह दूसरी बात है, पर उसे जानने की सम्भावना को सिद्धान्ततः स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यदि भविष्य निश्चित है और उसे हम जान सकते, तो एक नया संकट यह उत्पन्न होता है कि कर्म की कोई उपयोगिता या महत्ता नहीं रहती। विधि का विधान, भाग्य का निर्धारण यदि पूर्व निश्चित ही है तो फिर उसी की प्रतीक्षा में बैठे रहना कोई बुद्धिमानी है? तब विविध-विधि दौड़-धूप करने की आवश्यकता क्या रहीं? ऐसी दशा में मनुष्य मात्र भाग्य की कठपुतली बन जाता है और पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रहता। यह विचित्र स्थिति है।
तत्त्वतः भविष्य दर्शन और भाग्यवाद एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। आसान दीखते हुए भी उनकी स्थिति में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। भाग्यवाद सुनिश्चित विधि-विधान का प्रतिपादन करता है जबकि भविष्य दर्शन इस बात पर निर्भर है कि जो कुछ वर्तमान में घटित हो रहा है अथवा भूतकाल में घट चुका है, उसकी संयुक्त प्रतिक्रिया निकट भविष्य में क्या होने वाली है।
असामान्य को देखा समझा जाय, सूक्ष्म जगत का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि भूत और वर्तमान के घटनाक्रमों की प्रतिक्रिया अपने ढंग से पकती और पनपती रहती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होता ही है, पर सूक्ष्म बुद्धि उसका अनुमान पहले से ही लगा लेती है। प्रसव के बाद यह पता हर किसी को चल जाता है कि लड़का पैदा हुआ या लड़की। पर जानकर लोग गर्भवती में उभरे लक्षणों को देखकर उसकी भविष्यवाणी पहले से ही कर देते है। अमुक मुकदमें का क्या फैसला हो सकता है इसका अन्दाज न्याय विशेषज्ञों को पहले से ही लग जाता है।
सूक्ष्म जगत में प्रस्तुत परिस्थितियों एवं हलचलों के आधार पर संभावना बननी आरम्भ हो जाती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होना ही है, पूर्वाभास के रूप में भी उसे जानना सम्भव हो सकता है। भविष्य वक्ताओं की दिव्य चेतना उस अदृश्य को देखती और अव्यक्त को व्यक्त करती है, जो निकट भविष्य में घटित होने जा रहा है। सामान्य अनुमान तो सभी लगाते और अपनी-अपनी सम्भावना व्यक्त करते हुए शर्त लगाते है। आश्चर्य जब माना जाता है कि सामान्य बुद्धि के आधार पर सोची जा सकने वाली बात की अपेक्षा कोई अटपटी बात कहीं जाती है और वह सत्य सिद्ध होकर रहती है।
विश्व चेतना के गर्भ में वर्तमान की हलचलों का सूक्ष्म रूप विद्यमान रहता है। उसे अन्यत्र पकड़ा और फिर पूर्व रूप में स्थूल किया जा सकता है। इसके प्रमाण रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से भली भाँति जानने चाहिए। रेडियो स्टेशन में ब्राडकास्ट की हुई वाणी, ध्वनि कम्पनों के रूप में अनन्त अन्तरिक्ष में उसी तरह बिखरती है जिस तरह तालाब में ढेला फेंक देने पर उसकी लहरे चारों ओर चलने लगती ।। इन्हीं लहरों को घरों में लगे रेडियो, ट्रांजिस्टर पकड़ते और फिर उन्हें प्रत्यक्ष आवाज में परिणित करके सुनने वालों के सामने प्रस्तुत करते ।। टेलीफोन में भी वही होता है। आवाज बिजली के रूप में परिणत होती है और तार के सहारे गन्तव्य स्थान तक चली जाती है। उस बिजली को रिसीवर फिर आवाज में बदल देता है। टेलीविजन में प्रकाश की तरंगें आकाश में फैलती और उन्हें जहाँ भी उपकरण लगे होते वहाँ फिर दृश्य रूप में बदल लिया जाता है। प्रत्यक्ष का अप्रत्यक्ष में बदलना और उसका फिर अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष हो जाना टेलीविजन, टेलीफोन, टेप रिकार्डर, ग्रामोफोन आदि यन्त्रों से स्पष्ट है।
भूतकाल की घटनाएँ भी अनंत आकाश में अपना अस्तित्व बनाये रहती और ढूँढ़ खोज करने पर उन्हें फिर उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है जैसी कि वे अपने समय में थी। प्रयत्न करने पर कृष्ण के मुख से निकली हुई गीता जिसे अर्जुन ने सुना था अब पुनः खोजी और उसी रूप में सुनी जा सकती है। आत्मा की तरह पदार्थ भी अविनाशी है। उसका रूपान्तरण तो होता रहता है, पर अस्तित्व समाप्त नहीं होता। सूक्ष्म जगत में भूतकाल का घटनाक्रम अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है, वह झीना पड़ता जाता है और बात जितनी पुरानी होती है उतना ही उसका ढूँढ़ निकालना कठिन पड़ता है, फिर भी इतना निश्चित है कि उसका अस्तित्व अनन्त काल तक बना रहता है। आवश्यकतानुसार कभी भी प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ निकाला जा सकता है।
भूतकाल की घटनाएँ ही नहीं, वस्तुओं की सत्ता ही नहीं, कई बार तो उन मृतात्माओं के अस्तित्व का भी परिचय मिलता है जिनके शरीर अंत्येष्टि कर्म द्वारा समाप्त किये जा चुके ।। वे अपना अस्तित्व चेतना क्षेत्र में एक प्रत्यक्ष सत्ता की तरह बनाये रहते ।। इतना ही नहीं उस प्रकार के आचरण भी करते हैं मानो उनकी स्थिति अभी भी प्रत्यक्ष जगत में हस्तक्षेप करने योग्य बनी हुई हो। स्थूल शरीर न रहने के कारण प्रत्यक्ष इन्द्रियाँ तो शेष नहीं रहती, फिर भी उनका सूक्ष्म शरीर अपने सूक्ष्म उपकरणों के साथ इस स्थिति में बना रहता है कि सांसारिक क्रिया कलापों में अपना योगदान दे सके एवं अभीष्ट व्यक्तियों को प्रभावित कर सके।
भविष्य में होने वाली घटनाओं के भी कई बार ऐसे आभास मिलते हैं जिनकी उस समय कोई सम्भावना नहीं थी, पर वह पूर्व सूचना समय पर सही सिद्ध हुई। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। फलित ज्योतिष तो भविष्य कथन को आधार बनाकर एक व्यवसाय ही बन गई है। भविष्यवक्ताओं में से अधिकांश तो बाजारू लोग होते और ऐसे ही तीर-तुक्का मारकर लोगों को बहकाने और जेब काटने में लगे रहते हैं। फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य का आभास मिलना एक सच्चाई है और वह बहुत बार अपनी वास्तविकता एवं प्रामाणिकता का परिचय देती है।
परिस्थितियों का प्रवाह बदल जाय तो भविष्य दर्शन भी निश्चित रूप से बदल जायेगा। भविष्यवाणियाँ वही सही उतरती है जिनकी घोषणा तथा फलित होने के मध्य घटना का प्रवाह अपनी चाल पर यथावत चलता रहता है। मनुष्य की सत्ता प्रचण्ड है वह अपने पराक्रम से सामान्य चाल को उलटकर नई रीति-नीति अपना सकता है। साहसी व्यक्ति ऐसे मोड़ बहुधा लेते रहते ।। ऐसी दशा में उनके सम्बन्ध में बताया गया भविष्य भी निश्चित रूप से मोड़ लेते देखा जायेगा। व्यक्ति की भाँति ही समूहगत सामाजिक हलचलें भी अपने प्रवाह की दिशा धारा बदल सकती है। चेतना जगत का यह वैचित्र्यपूर्ण लीला संदोह वस्तुतः समझने योग्य है, क्योंकि साधनाएँ इसी क्षेत्र को प्रभावित करती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
138. सृष्टि --कुशल कलाकार की एक अद्भुत कलाकृति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मोटी दृष्टि से यह सृष्टि अनगढ़ अव्यवस्थित और निष्प्रयोजन जान पड़ती है, पर गहराई से पर्यवेक्षण, अध्ययन करने वाले जानते हैं कि सर्वत्र सुव्यवस्था, सुगढ़ता का साम्राज्य है। अनगढ़, निष्प्रयोजन दीखने वाले घटकों की भी अपनी महत्ता उपयोगिता है। विशालकाय समुद्र को देखकर यह प्रतीत हो सकता है कि उसने बेकार में भूमण्डल का एक बड़ा भाग घेर रखा है। पर इकालॉजी शास्त्र के विशेषज्ञ जानते हैं कि समुद्र का अस्तित्व न होता तो समय पर वर्षा, मौसम आदि की प्रकृति सुविधाएँ नहीं उपलब्ध होती। इस विराट सृष्टि में जो कुछ भी है, उपयोगी है। उन घटकों में एक अद्भुत तारतम्य एवं सामंजस्य देखने को मिलता है। ऐसा लगता है, जिसने भी सृष्टि बनायी बड़ी सोच समझकर बनायी होगी।
गढ़ने एवं परस्पर एक दूसरे से तारतम्य स्थापित करने वाले सृष्टा कलाकार की कलाकृति एवं व्यवस्था बुद्धि को देखकर हैरत में पड़ जाना पड़ता है। गर्भकाल में जीवन को परिपोषित करने वाली एक तरह की परिस्थितियाँ उपलब्ध थी। जन्म होने पर समूची सत्ता ही बदली हुई थी, पर तदनुरूप दूसरे तरह की अनुकूल परिस्थितियाँ पहले से ही मौजूद थी। शरीर को विभिन्न प्रकार की इन्द्रियाँ मिली तो उनकी उपयोगिता को सार्थक करने वाले अनेकों विषयों का भी अस्तित्व विद्यमान था। शरीर को दो छोटी आँखें मिली तो उन आँखों को सार्थकता प्रदान करने वाला लाखों मील दूर प्रचण्ड सूर्य था, उससे भी दूर टिमटिमाते हुए नन्हे-नन्हे तारे थे। उनसे निस्सृत प्रकाश को हमारी आँखों ने देखा। प्रकाश का अस्तित्व न होता तो ये आँखें बेकार थी। एकाकी वे देख पाने में कुछ भी समर्थ न हो पाती। दाँयें-बाँयें कानों को सुनने के लिए ध्वनि की सत्ता मौजूद थी। तभी तो कर्णेन्द्रियाँ उसे सुनने में समर्थ हो सकी। ऐसा लगता है कि जिसने इन कानों की रचना की, मानो उसी ने ध्वनि उत्पादक स्रोतों में ध्वनि आविर्भाव की क्षमता भी प्रदान की। जिसने स्वादानुभूति के लिए जिह्वा दी उसी ने फलों, शाकों एवं खाद्यान्नों में रस उत्पन्न किया। यही स्थिति घ्राणेन्द्रियों की हैं। इसकी सार्थकता के लिए ही पुष्पों एवं वनस्पतियों की सुगन्ध सम्भवतः अभिव्यक्त हुई। इस विलक्षण तादात्म्य को देखकर यह भान होता है कि गर्भावस्था की घोर अन्धकार तमिस्रा में बैठा जो इन्द्रियों की रचना कर रहा था, वह अवश्य ही कुशल तत्त्वदर्शी सृष्टि का दृष्टा रहा होगा जिसे बाह्याभ्यन्तर जगत का परिपूर्ण ज्ञान था। जिसे इन्द्रियों को मात्र गढ़ना ही अभीष्ट नहीं था वरन् उनका सुनिश्चित प्रयोजन भी उसके समक्ष स्पष्ट था।
सुनिश्चित प्रयोजन और सुव्यवस्था का प्रमाण भूमण्डल पर उपलब्ध परिस्थितियाँ भी देती हैं। उन्हें देखकर लगता है कि किसी सर्वज्ञ द्वारा ही जीवन को परिपोषित करने के लिए हर तरह की अनुकूलताओं का सृजन किया गया है। भौतिकीविदों के वह प्रतिपादन तर्क पूर्ण नहीं लगते कि पृथ्वी सृष्टि के आदि में जलता हुआ एक आग का गोला थी जो कालान्तर में अनेकानेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने आप इस योग्य बन गया कि जीवन यापन कर सकें। जीवन धारण करने योग्य बनने के लिए पृथ्वी ने जितने रूप बदलें हैं वे इतने अधिक एवं सुव्यवस्थित है कि उन्हें आकस्मिक नहीं माना जा सकता। एक निश्चित गति एवं कक्षा में पृथ्वी सतत परिभ्रमण शील है। पृथ्वी सतत अपनी धुरी पर घूमती रहती है, जिससे एक के बाद एक दिन और रात बनते है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का घूमना एक दूसरे प्रकार की गति है। गैलीलियो तथा ब्रूनो ने इन्हीं दो गतियों की खोज की थी पर भारत के प्रख्यात ज्योतिर्विद् आर्यभट्ट ने सदियों पूर्व इन दोनों ही तरह की गतियों का वर्णन ‘आयं गौः पृश्निर क्रमीदसदन्मातरपुरः’ मन्त्र में किया है। इन दोनों गतियों के कारण ही पृथ्वी के परिभ्रमण में स्थिरता आती है। वह अपने ध्रुवीय अक्षों पर घूमते हुए 13 अंश पर झुकी हुई है। ऋतुओं में नियमितता का कारण यह झुकाव ही है। उल्लेखनीय है कि यदि झुकाव एवं गति की विशेषताएँ न होती तो पृथ्वी पर विविध प्रकार की वृक्ष-वनस्पतियों का अस्तित्व भी न होता। पृथ्वी की स्थिरता जड़ता को जन्म देती और वह ‘शस्य श्यामला’ नहीं दिखायी पड़ती। ध्रुवीय अक्ष पर पृथ्वी के झुकाव में पड़ने वाले थोड़े अन्तर से भी गम्भीर संकट उत्पन्न हो सकते हैं।
जीवन धारण करने योग्य परिस्थितियों के निर्माण में भूमण्डल के वातावरण की सहायक गैस परतों का विशेष योगदान है। खगोल विज्ञानियों के अनुसार प्रतिदिन लगभग दो करोड़ उल्काएँ तीस मील प्रति सेकेण्ड की गति से गिरती है। इनकी गति एवं प्रचण्ड ऊर्जा पृथ्वी को तहस-नहस करने के लिए पर्याप्त है। इनके अतिरिक्त सूर्य आदि पिण्डों से पोषक जीवन तत्त्वों के साथ-साथ घातक किरणें भी आती हैं। सोलह सौ कि०मी० की मोटी गैस परतें उन हानिकारक प्रभावों से पृथ्वी की रक्षा करती है। ट्रोपोस्फीयर, स्ट्रैटोस्फीयर, मीजोस्फीयर, थर्मोस्फीयर, आयनोस्फीयर जैसी विभिन्न परतें रक्षा कवच की भूमिका निभाती है। सूर्य की प्रचण्ड गर्मी का उपयोगी अंश पृथ्वी के जीवधारियों के लिए इन परतों से छनकर आता है। साथ ही समुद्र की विशाल जलराशि को वाष्पीकृत करने में भी इन परतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वायु मण्डल के साथ मिलकर महासागर भी प्रकृति के सन्तुलन चक्र में सहयोग देते हैं।
मूलतः जलवायु और प्रकाश पर सभी जीवधारियों का अस्तित्व टिका हुआ है। वृक्ष-वनस्पतियाँ जो प्राणियों की आहार है, भी इन्हीं तीनों के सहयोग से उगती, बढ़ती, फूलती और फलती है। ये तीनों ही जीवनदायी तत्त्व पृथ्वी पर प्रचुर परिमाण में मौजूद है। न केवल मौजूद है वरन् उनका एक सुनिश्चित चक्र एवं सन्तुलन है जिसके डगमगाते ही भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। अन्यान्य ग्रहों पर ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं हैं कि जीवधारी वहाँ जीवित रह सकें।
पृथ्वी की आकृति एवं प्रकृति को देखने से भी लगता है कि उसे सोच-समझकर इस योग्य बनाया गया है कि जीवधारी निवास कर सकें। यदि पृथ्वी का आकार अब की तुलना में छोटा चन्द्रमा जितना होता तो उसका व्यास भी एक चौथाई होता। प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से चन्द्रमा की गुरुत्व शक्ति छः गुनी कम है। पृथ्वी का आकार चन्द्रमा जितना हो जाने पर उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अत्यन्त कम हो जाती। उल्लेखनीय है कि धरती के वायुमण्डल, जल एवं खनिज सम्पदा को सम्भालने, सुरक्षित रखने में गुरुत्व बल का विशेष सहयोग है। उसमें कमी होते ही अनेकों प्रकार के असन्तुलनों का सामना करना पड़ता है। वायु मण्डल की रक्षा परतों में व्यतिरेक से ताप की मात्रा इतनी अधिक हो जाती कि जीवित रहना कठिन पड़ता। यदि पृथ्वी का व्यास वर्तमान व्यास से दुगुना होता तो भी अनेकों प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती। व्यास दूना होने से धरातल चौगुना हो जाता तथा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी दुगुनी हो जाती। परिणाम स्वरूप 16 सौ कि०मी० की ऊँचाई तक फैला वायु मण्डल खतरनाक रूप से सिकुड़ कर कम हो जाता। वायु मण्डलीय गैसों का दबाव भी 15 से 20 पौण्ड प्रति वर्ग इन्च तक बढ़ जाता, जिसका दुष्प्रभाव जीवन पर भी पड़ता। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव जैसी भीषण ठण्ड अधिकांश क्षेत्रों में पड़ती। फलतः जीना दूभर हो जाता।
उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले मानिटोबा (कनाडा) विश्व विद्यालय के जीव भौतिकविद् फ्रेंक एलेन ‘दी एवीडेन्स ऑफ गाड इन एक्सपेन्डिग यूनिवर्स’ पुस्तक में लिखते हैं कि ‘‘यह पृथ्वी किसी समर्थ सत्ता द्वारा बड़ी सोच-समझकर सत्प्रयोजन के लिए बनायी गयी है ताकि जीवों एवं पादपों का निर्वाह होता चले। यदि हमारी पृथ्वी का आकार सूरज जितना बड़ा होता तथा उसकी क्षमता यथावत कायम रहती तो उसकी गुरुता 150 गुणा बढ़ जाती। फलस्वरूप वायु मण्डल की ऊँचाई घट कर मात्र चार मील रह जाती। यदि ऐसा हो तो वह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें पानी भाप बनकर बन्द हो जायेगा। तब एक पौण्ड के प्राणी का वजन बढ़कर 150 पौण्ड हो जायेगा तथा मनुष्य, हाथी, शेर आदि का आकार घटकर अत्यन्त कम हो जायेगा।’’ फ्रेंक एलेन का मत है कि गिलहरी जैसी इस छोटी आकृति वाले मनुष्य में बौद्धिक क्षमता भी प्रायः समाप्त हो जाती। पर सचमुच ही वह सत्ता अत्यन्त महान है जिसने उन प्रतिकूलताओं से धरती को बचाये रखा तथा अनुकूलताओं को जन्म देकर समस्त जीवों को विकसित होने का अवसर प्रदान किया।
आकार का ही नहीं पृथ्वी की अन्य ग्रहों की दूरी से भी धरती पर अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण में घना तारतम्य एवं सम्बन्ध है। सूर्य को ही लें। उसकी दूरी पृथ्वी से इस समय जितनी है उससे यदि बढ़कर दूनी हो जाय तो सूर्य से मिलने वाला ताप घटकर चौथाई हो जायेगा सर्दियों के मौसम की अवधि दुगुनी हो जायेगी। यह स्थिति हिमयुग को आमन्त्रित करेगी। इसके विपरीत यदि सूर्य से पृथ्वी की दूरी वर्तमान दूरी से घटकर आधी हो जाय तो सूर्य से मिलने वाली गर्मी चार गुनी बढ़ जायेगी। फलतः ऋतुओं की लम्बाई आधी रह जायेगी। धरती इतनी अधिक गरम हो जायेगी कि प्राणी, वृक्ष, पादप सभी जलकर खाक बन जायेंगे। इस समय पृथ्वी का जो आकार है, सूर्य से जितनी दूरी है अयन में घूमने का जो वर्तमान वेग है, वे सभी जीवन धारण करने के अनुकूल है। मनुष्य जाति अनेकानेक सुख-सुविधाओं का उपभोग करती हुई आमोद-प्रमोद कर रही है, वह उन अनुकूलताओं का ही परिणाम है।
जड़ परमाणुओं के संघात ने सृष्टि के अकस्मात् बनने जैसे निराधार तथ्यों का प्रतिपादन करने वाले तथाकथित अल्प बुद्धि सम्पन्नों के बारे में सदियों पूर्व प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने कहा था कि थोड़ी वैज्ञानिक शोध बुद्धि एवं दार्शनिकता मनुष्य को आस्तिकता की ओर ले जाती है। अतएव सृष्टि के नियामक सत्ता के सन्दर्भ में इन्कार करने के पूर्व गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
सचमुच ही वह अन्वेषक दृष्टि विकसित हो जाय तथा गहराई से मनुष्य खोज-बीन करे तो अपने ही चारों ओर उसे समर्थ अदृश्य सत्ता के अनेकों प्रमाण मिल जायेंगे। तब वह चाहे वैज्ञानिक ही क्यों न हो रसायन शास्त्री ‘थामस डेविड पार्क्स’ की भाँति अपनी भाषा में कह उठेगा ‘मेरे चारों ओर जितना भी यह दृश्य जगत है, मैं उसमें नियम और प्रयोजन देखता हूँ। मुझे वह मान्यता निराधार जान पड़ती है कि सभी पदार्थ एवं पदार्थों से युक्त यह सृष्टि अकस्मात्-मात्र परमाणुओं के संघात से बनी हैं। मैं तो सर्वत्र कण-कण में बुद्धि व्यवस्था का साम्राज्य देखता हूँ। एक ऐसी बुद्धि जो सुपर है, अचिन्त्य, अगोचर है। उस महती बुद्धि को ही मैं परमात्मा कहता हूँ।’
डेविड पार्क्स के अनुसार ‘एक रसायनविद् के लिए तत्त्वों की नियत कालिक व्यवस्था सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षक अध्ययन का विषय होना चाहिए न कि मात्र तत्त्वों के गुण-दोषों का अध्ययन-विश्लेषण। कारण कि समाहित नियमबद्धता किसी निर्माण कर्ता सर्व समर्थ का प्रमाण स्वयं दे देगी।’ पानी को उन्होंने एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। फार्मूला के अनुसार पानी का परमाणु भार 18 होता है। रसायन शास्त्र के सिद्धान्तानुसार सामान्य तापमान एवं दबाव पर इसे गैसीय अवस्था में होना चाहिए। कारण कि तत्त्वों की कालक्रम तालिका से यही निष्कर्ष निकलता है। अमोनिया का परमाणु भार 17 तथा वह ऋण 33 सेंटीग्रेड जितने कम तापक्रम पर भी वायु मण्डल के दबाव में गैस है। कालक्रम तालिका में तत्त्वों की स्थिति के हिसाब से हाइड्रोजन सल्फाइड का पानी से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसका परमाणु भार 34 तथा ऋण 59 सेंटीग्रेड पर भी वह गैस ही है किन्तु आश्चर्य यह कि सामान्य तापमान पर भी वह सर्वथा द्रव्य अवस्था में रहता है। यह एक ऐसी विलक्षण स्थिति है जो हर विचारशील को सोचने पर बाध्य करती है। पर कोई कारण समझ में नहीं आता है, सिवाय इसके कि पानी की उपयोगिता पृथ्वी पर सर्वाधिक है। वृक्ष वनस्पतियों तथा प्राणियों सभी के लिए वह अत्यन्त उपयोगी है। सम्भव है उसे अन्य पदार्थों से अलग विशिष्ट स्थिति सृजनकर्ता ने इसीलिए प्रदान की है। थोड़ी और गहराई में चलें तो पानी के इस विशिष्ट गुण की महत्ता और भी स्पष्ट होती है। भूमण्डल का तीन चौथाई हिस्सा पानी से ढका है। ऋतु चक्र एवं तापमान के सन्तुलन में इस विपुल जल सम्पदा का विशेष सहयोग है। तत्त्वों की क्रम तालिका के अन्य तत्त्वों से अलग हटकर पानी की अपनी अलग विशेषताएँ न हो तो वायु मण्डलीय तापमान एवं प्रकृति सन्तुलन चक्र में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हो सकता है। पानी को पिघलने के लिए अधिक गर्मी चाहिए। चिरकाल तक वह द्रवावस्था में बना रहता है। भाप के रूप में परिवर्तित होकर उड़ने के लिए उसे और भी अधिक 100 अंश सेंटीग्रेड तापक्रम चाहिए। तापक्रम के सामान्य परिवर्तनों में पानी अपनी अवस्था नहीं बदलता। यह उसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। थोड़े तापक्रम पर यदि भाप बनकर उड़ने लगे अथवा ताप की थोड़ी कमी होने पर बर्फ के रूप में जमने लगे तो गम्भीर संकट पैदा होने लगेंगे। सर्वत्र पानी का अभाव पड़ जायेगा। ऐसी स्थिति में जीवन संकट में पड़ जायेगा। यदि पानी के अन्दर तापमान रोधक विशिष्ट क्षमता न होती तो पृथ्वी जीवन के लिए उतनी अनुकूल न होती।
सृष्टि के ऐसे अनेकों घटक हैं जो मस्तिष्क को हतप्रभ करते हैं। उनकी रचना का अध्ययन विश्लेषण तो भौतिक विज्ञान द्वारा किया जा सकता है, पर इसका कोई उत्तर नहीं मिलता कि उनमें वे आवश्यक विशेषताएँ क्यों कर उत्पन्न हुई। विशेषकर भू-मण्डल के लिए ही क्यों? उत्तर एवं समाधान के लिए डेविड थामस जैसे अनेकों मूर्धन्य वैज्ञानिकों की भाँति सोचना होगा कि यह समूची सृष्टि किसी सर्वोच्च बुद्धिमान कुशल कलाकार की अद्भुत कलाकृति है जो किसी प्रयोजन हेतु बनायी गयी है। वह परम सत्ता अभिनन्दनीय, वरणीय एवं श्रद्धा करने योग्य है। उससे सम्बन्ध जोड़कर, सहयोग प्राप्त कर मनुष्य अपनी सत्ता को भी ससीम से असीम, लघु से महान बना सकने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
139. शब्द विद्याः चमत्कारों से भरी एक अद्भुत शक्ति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
संसार की महत्त्वपूर्ण शक्तियों में एक हैं शब्द। जिसके बारे में सर्वजनीन जानकारी बहुत ही कम है। सामान्यतया इतना ही समझा जाता है कि परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने में वार्तालाप के माध्यम से शब्द का उपयोग होता है। या फिर प्रकृति की, प्राणियों की, यन्त्र वाहनों की हलचलों से शोर कोलाहल होता रहता है। यह सब सामान्य प्रतीत होता है, पर है निश्चित रूप से असाधारण।
सृष्टि का आरम्भ कैसे हुआ इस सम्बन्ध में तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन है कि सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के मिलन में घड़ियाल पर हथौड़ी की चोट पड़ने पर उत्पन्न होने वाली झनझनाहट सहित ॐकार जैसा ध्वनि प्रवाह उत्पन्न हुआ। उससे प्रकृति में हलचल उत्पन्न हुई। गतिशीलता ने छोटे बड़े पिण्ड गोलक बनाए और फिर उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन का चक्र चल पड़ा। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति शब्द से ठहरी।
वैज्ञानिक पदार्थ की गहरी खोजबीन करते हुए अब बहुत आगे बढ़ गए हैं। कभी पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु थी। फिर परिवार परिकर का मध्यवर्ती ‘नाभिक’ को यह श्रेय मिला। बाद में शक्ति तरंगें प्रमुख मानी गयी और कहा गया कि उन तरंगों का समुच्चय ही परमाणु है। अस्तु तरंगें प्रमुख हैं। तरंगों को शब्द, प्रकाश और ताप के तीन विभागों में विभाजित किया। अन्ततः अब उन तीन प्रमुख शब्द होने की मान्यता अग्रणी है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा रहा है कि यह प्रकृति विस्तार फलतः शब्द तत्त्व की परिणति है।
योगाभ्यास में नाद ब्रह्म, शब्द ब्रह्म, सुरति योग, स्वर योग, मन्त्र योग, लय योग आदि के माध्यम से शब्द साधना को प्रमुखता दी गई हैं। मन्त्र विज्ञान का समूचा आधार ही ध्वनि शक्ति के विभिन्न उपयोगों, उपचारों निर्धारणों पर ही ठहरा हुआ ।। मन्त्रों की संरचना में भाषा विज्ञान और व्याकरण अनुबन्धों का उतना ध्यान नहीं रखा गया ,, जितना कि अक्षरों के पारस्परिक गुंथन क्रम के आधार पर उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रवाह के स्तर एवं प्रमाण का। गायत्री मन्त्र की प्रमुखता न उसके अर्थ पर निर्भर हैं और न व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से उसकी परख की गई है। इसके उच्चारण क्रम में ही वह विशेषता है जिसके आधार पर अन्तराल के प्रसुप्त चक्रों, उपत्यिकाओं को जगाने का उद्देश्य पूरा होता है। अदृश्य जगत की हलचलों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। ऐसे-ऐसे रहस्यमय कारण ही मन्त्र विज्ञान की आधारशिला हैं।
शब्द शक्ति का उपयोग अब विज्ञान के क्षेत्र में भी बढ़-चढ़कर होने लगा है। यन्त्र मानव (रोबोट) शब्द को समझता है उसका उत्तर देता है तथा आदेशानुसार हलचल करने लगता है। अन्तरिक्ष को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली रेडियो तरंगें, तथा लैसर किरणों के मूल तत्त्व को अब शब्द परक माना गया है। उनकी प्रत्यक्ष क्षमता शब्द मूलक मानी गयी है। भले ही वे अपना प्रभाव ऊर्जा के रूप में प्रकट करती हो।
प्राचीन काल में मन्त्र शक्ति का, शब्द शक्ति का प्रयोग विभिन्न प्रकार की ऊर्जाएँ उत्पन्न करने तथा प्रकृति प्रयोजनों के लिए उपयुक्त माना गया था। यह उत्पादन में सरल सस्ती होने के कारण प्रभाव क्षेत्र में भी अद्भुत, अद्वितीय है। अन्य प्रकार की ऊर्जाएँ उत्पन्न करने के लिए मँहगे उपकरण चाहिए। साथ ही बहुमूल्य ईंधन भी प्रचुर परिमाण में हो। ईंधन चुक सकता है। उपकरण घिसते-बिगड़ते हैं। जबकि शब्द मानव शरीर की प्रयोगशाला में ही अभीष्ट स्तर एवं क्षमता के लिए उत्पन्न किये जा सकते हैं। समझा जाना चाहिए कि मनुष्य शरीर ऐसा उपकरण है जिनमें प्रकृति जगत और चेतना जगत को प्रभावित करने, संपर्क साधने और आदान-प्रदान के लिए आवश्यक क्षमता अभीष्ट परिमाण में विद्यमान है। यही कारण है कि योग और तप द्वारा शरीर यन्त्र और मनःतन्त्र का इस प्रकार परिशोधन परिष्कार किया जाता है कि उससे उपयुक्त ध्वनि प्रवाह उत्पन्न किए जा सकें और मन्त्र विद्या से प्रतिपादित लाभ उठाए जा सकें।
शब्द विद्या का सामान्य उपयोग भी कम नहीं है उसमें पदार्थों और प्राणियों को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। गद्य का उपयोग प्रवचन, परामर्श, वार्तालाप आदि में होता ही रहता है। पद्य की क्षमता उससे भी बढ़कर है। संगीत में ताल और लय का उपयोग होता है। इन दोनों के समुच्चय को ही स्वर विज्ञान कहते हैं। थपकी ताल कहलाती है और अलाप को स्वर कहते है। यों दोनों के मिलन से समग्र संगीत बनता है, पर उनका पृथक-पृथक उपयोग भी है। यह बात सामान्य गायन-वादन के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष है। संगीत के द्वारा रोग निवारण, भावनात्मक अभ्युदय, उत्साह सम्वर्धन, प्राणि-विकास, वनस्पति उन्नयन, जैसे काम लिए जाने लगे हैं, अब संगीत मात्र मनोविनोद की सीमा तक सीमित नहीं है। उसके माध्यम से मनःक्षेत्र में आनन्दातिरेक उत्पन्न किया और सम्वेदनाओं को भाव तरंगों के साथ जोड़ते हुए मनुष्य को आनन्द विभोर किया जा सकता है।
संगीत शास्त्र में ध्वनि प्रवाह के अनेकानेक प्रभावों का उल्लेख है। बुझे हुए दीपकों को जला देने वाला दीपक राग, बादलों को बरसने के लिए विवश करने वाला मेघ मल्हार, हिरन को स्तब्ध कर देने वाली गजगति, साँपों को लहरा देने वाला मोहन राग, मदोन्मत्त हाथियों को वश में करने वाला राग शंकर, सूखे पेड़ों को हरा करने वाला श्रीराम राग किस प्रकार अपना प्रभाव उत्पन्न करता है, इसका वर्णन मिलता है। लोक व्यवहार के मधुर वचनों की अनुकूल और कटु वचनों की प्रतिकूल प्रक्रिया का प्रत्यक्ष प्रमाण हर किसी को अपने इर्द-गिर्द ही मिल सकता है। अब विज्ञान ने इस ओर ध्यान देना आरम्भ किया है तो यह सम्भावना अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है कि संगीत का, शब्द शक्ति का महत्त्व प्रकृति की अन्यान्य सामर्थ्यों से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
नेपोलियन के समय में शब्द शक्ति का चमत्कार बताने वाली एक दुर्घटना घटी। उसकी सेना एक पुल पर होकर कदम से कदम मिलाये चल रही थी कि पदचाप के क्रमबद्ध हो जाने से पुल हिला और नीचे ढह गया। पूरी टुकड़ी नदी में बह गई। कारण तलाश करने पर यह क्रमबद्ध पदचाप का प्रभाव निकला। तब से पुल पर चलना हो तो सेना को तितर-बितर चलने का नियम बना। जिसका अभी भी पालन किया जाता है।
भूकम्पों में जो विनाश शक्ति देखी जाती है उसका कारण मात्र विस्फोट नहीं, वरन् पृथ्वी के भीतर से उठने वाले क्रमबद्ध कम्पन ।। यदि उनका विस्फोट मानवी प्रयासों से किया जाय तो बहुत कम विनाश होगा। किन्तु ऐसे अवसरों पर धरती के भीतर जो क्रमबद्ध ध्वनि प्रवाह उठते हैं उस कम्पन से प्रभावित क्षेत्रों को भारी हानि उठानी पड़ती है।
वाशिंगटन क्षेत्र में टेकोमा नदी पर प्रायः एक किलोमीटर लम्बा और 12 मीटर चौड़ा पुल बना था। वह 44 सेंटीमीटर मोटे लोहे के रस्सों पर टँगा था। नियमानुसार उस पर 180 किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से चलने वाले तूफान का भी कोई असर नहीं होना चाहिए किन्तु 7 नवम्बर 1940 को हवा कुछ तेज तो जरूर थी पर ऐसा कुछ नहीं था, जिसे तूफान कहा जा सके। अचानक पुल ने काँपना आरम्भ किया। वह तेज हिलोरें लेने लगा। ऊपर उचका और धड़ाम से नदी में जा गिरा।
ठीक ऐसी ही घटनायें अन्यत्र हो चुकी है। फ्रांस का लाहौक बर्नार्ड पुल सन् 1852 में ठीक इसी प्रकार गिरा था। उसे फिर से बनाया गया तो दुबारा भी ठीक वही घटना घटी और 1871 में फिर वैसा ही धराशायी हुआ।
अमेरिका की ओहियो नदी का पुल भी इसी प्रकार सन 1854 में टूटा था। नियाग्रा का जल प्रपात का मजबूत झूला पुल भी इसी प्रकार धराशायी हुआ। एक बार सन् 1864 में, दूसरी बार 1889 में। कारण तलाश करने पर न तो निर्माण सामग्री में कोई खराबी पाई गई और न बनाने वालों की विधि व्यवस्था में। फिर इन दुर्घटनाओं का क्या कारण हो सकता इसकी गहरी खोज करने पर यह निष्कर्ष निकला कि धरती के भीतर उत्पन्न हुए भूकम्प की नगण्य-सी हलचल ने तालबद्ध ध्वनि तरंगें उत्पन्न की, और उसके प्रभाव से यह अनर्थ होते रहे।
बारूद विस्फोट का इन दिनों बहुत उपयोग होता है। पहाड़ों को गिराने या पोला करने में आमतौर से यह प्रक्रिया काम में लाई जाती ।। विस्फोटों की आवाजें भी बहुत होती हैं। पर उससे समीपवर्ती क्षेत्र में मकान गिरने जैसी कोई दुर्घटना नहीं होती। देखा गया है कि 50 टन बारूद का विस्फोट मात्र 200 मीटर की दूरी पर बने हुए मकानों को कोई क्षति नहीं पहुँचाता ।। 130 किलो बारूद यदि फट पड़े तो उससे 350 मीटर दूर के मकानों की किवाड़ें भर खड़-खड़ा सकती हैं। साधारण भूकम्पों में उन्हीं मकानों को क्षति पहुँचती है जो सामग्री या बनावट के नियमों की दृष्टि से दोषपूर्ण होते है।
उपरोक्त दुर्घटनाओं के लिए धरती के भीतर ध्वनि कम्पन ठहराए गए है। यह प्रचण्ड शक्ति तब उत्पन्न होती है, जब उनमें निश्चित गति से कम्पन हो और वह एकीभूत होकर एक दिशा में प्रवाहित हो। यह प्रवाह सामान्य घटनाओं से, यहाँ तक कि घड़ी के पेण्डुलम की खट-खट को तालबद्ध कर देने तक से उत्पन्न हो सकते और कोई भयानक दुर्घटना उत्पन्न कर सकते ।।
स्नायविक रोगों तथा मानसिक विक्षेपों में संगीत के विशेष ध्वनि प्रवाहों के माध्यम से चिकित्सा का एक नया प्रचलन इन्हीं दिनों चला और बहुत सफल हुआ है। शोक, क्रोध, उद्वेग, तनाव, रक्तचाप आदि को शान्त करने में भी उससे बड़ी सहायता मिलती देखी गई है। सम्भावना व्यक्त की जा रहीं है कि अन्यान्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह अगले दिनों संगीत उपचार भी उभर कर आवेगा और जन-स्वास्थ्य के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करेगा।
इसके अतिरिक्त उसका प्रभाव पशु-पक्षियों को उल्लसित एवं वृक्ष-वनस्पतियों को अधिक विकसित करने की दृष्टि से भी बहुत लाभप्रद पाया गया ।। दुधारू पशु अधिक दूध देने लगे। बैल घोड़े बिना थके अधिक परिश्रम करने में समर्थ रहे। मुर्गियों और मछलियों ने अधिक अण्डे बच्चे दिए। डरते रहने और असहयोग करने वाले अन्य प्राणी इस आधार पर नरम पड़े और मनुष्य के अधिक निकट आए। इस आधार पर हिंस्र पशुओं को भी किसी हद तक सौम्य बनाने में सफलता मिली ।। सरकस वाले अब पशुओं को कलाकार बनाने के लिए साधने वाले मात्र हण्टर या लालच का ही उपयोग नहीं करते, वरन् संगीत का सम्मोहन चलाकर वशवर्ती बनाने का एक नया उपाय अपनाने लगे ।। यह प्रयोग वृक्ष-वनस्पतियों पर भी बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुआ ।।
वेस्ट बिल अमेरिका की कृषि प्रयोगशाला में ऐसे परीक्षण हुए ,, जिनमें संगीत के प्रभाव से खेती की फसलों को अधिक फैलने तथा फूलने-फलने वाली बनाने में सफलता प्राप्त की गई ।। इस सम्बन्ध में विस्कोन्सिन के आर्थर लाके के प्रयोगों की उस देश में वनस्पति विशेषज्ञों में बहुत चर्चा ।। उसने फूलों को जल्दी खिलने तथा भारी बनाने में इसी आधार पर सफलता पाई। जिन खेतों को संगीत सुनाए वे अधिक समुन्नत हुए और जिन्हें इससे वंचित रखा गया वे खाद पानी की दृष्टि से समान लाभ प्राप्त करने पर भी वे पिछड़े रह गए।
संगीत मनुष्यों की तरह पेड़-पौधों को भी पसन्द हैं। सुनियोजित संगीत तरंगों से वे प्रसन्न पुलकित होते और उत्साह भरे वातावरण में जल्दी अच्छा विकास करने लगते हैं। ब्रिटिश विज्ञानी जार्ज मिलस्टान इस सन्दर्भ में अधिक रुचि लेते रहे हैं। उन्होंने सिद्ध किया है कि संगीत में पौधों को भी उल्लसित करने की क्षमता ।। न्यूयार्क के डाक्टर डोरोव रेटालक ने रुग्ण वृक्षों की चिकित्सा में संगीत की लहरों का उपयोग किया और कहा है कि जिनका भविष्य सन्दिग्ध हो रहा था, जिन्हें रुग्ण समझा जा रहा था, ऐसे पौधों को भी संगीत चिकित्सा के माध्यम से रोग मुक्त किया और नया जीवन दिया गया।
कनाडा, ब्रिटेन, इसरायल तथा पश्चिमी जर्मनी में भी यह प्रयोग हुए ।। प्रयोग कर्ताओं ने कुछ खेतों, उद्यानों में खाद पानी के अतिरिक्त संगीत सुनाने का भी प्रबन्ध किया। इस पर जो अतिरिक्त खर्च पड़ा उसकी तुलना में अच्छी फसल का लाभ कहीं अधिक था। इसके विपरीत यह भी देखा गया कि कर्कश स्वर और कोलाहल का बुरा असर भी पड़ता है। धड़धड़ाते रहने वाले कारखानों के इर्द-गिर्द के बगीचे सदा मुरझाए कुम्हलाये पाए गए।
वनस्पतियों के संगीत पर प्रभाव के सम्बन्ध में महाकौशल महाविद्यालय के रसायन शास्त्री प्रो गोरै ने लम्बे समय तक परीक्षण करने के बाद अपना मत यही बनाया है कि जिस प्रकार मनुष्यों को संगीत प्रिय हैं, उसी प्रकार उसके द्वारा वनस्पति को भी उल्लसित ही नहीं विकसित भी किया जा सकता है।
लन्दन विश्वविद्यालय के एक वनस्पति इंजीनियर जेम्स स्मिथ ने पौधों के साथ किए गए दुर्व्यवहार और सद्व्यवहार की प्रतिक्रियाओं को जानने के लिए लम्बी अवधि तक अनेक उद्यानों में विभिन्न प्रकार के पर्यवेक्षण किए हैं। उनने पाया कि वनस्पतियाँ प्रताड़ना तथा प्रतिकूलता उत्पन्न करने से खिन्न होती हैं, उन पर इसके प्रभाव कुम्हलाने मुरझाने के रूप में देखा गया। इसी प्रकार खाद-पानी ऋतु प्रभाव की तरह वे सज्जनोचित व्यवहार से भी पालन-पोषण करती, बढ़ती और सुखी रहती पाई गई है। हँसी-खुशी का वातावरण जिस प्रकार मनुष्यों को पसन्द है, वैसा ही अनुभव पेड़-पौधे भी करते ।। शोक सन्ताप जहाँ छाया रहता है वहाँ पौधे भी दुखी, निराश एवं कुरूप कठोर स्थिति में रहते हैं। श्मशानों, कसाईघरों के नये और तेजी से बढ़ने वाले पौधों की विकास की गति अपेक्षाकृत अधिक मन्द और असन्तोषजनक पाई गई है।
वनस्पति विज्ञानियों का यह मत बनता जाता है कि संगीत की प्रतिक्रिया पौधों पर स्नेह सद्भाव जैसी होती हैं वे गायन वादन से प्रसन्न होते, उत्साहित रहते और जल्दी बढ़ते तथा फूलते फलते हैं।
शब्द तत्त्व असाधारण क्षमताओं एवं सम्भावनाओं से भरा-पूरा है, उसका रहस्य समझा जा सके और उपयोग सीखा जा सके, तो मनुष्य को सामर्थ्यों का विशिष्ट स्रोत हाथ लग सकता है। प्राचीन काल की तरह इस सामर्थ्य की शोध में संलग्न होकर उज्ज्वल भविष्य की नई सम्भावनाओं को हस्तगत किया जा सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
140. कामबीज एवं ज्ञानबीज की शक्ति सामर्थ्य का रहस्योद्घाटन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश हैं। उत्तरी मस्तिष्क का मध्य ब्रह्मरन्ध्र। दक्षिणी जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित मूलाधार। सामान्यतया हृदय, मस्तिष्क, जिगर, गुर्दा आदि महत्त्वपूर्ण अवयव माने जाते हैं, पर विशेष निरीक्षण से ऊर्ध्वलोक-ब्रह्मरन्ध्र और अधःलोक-कामबीज की महिमा अधिक गरिमामयी दृष्टिगोचर होती है। इन्हीं दो केन्द्रों के माध्यम से लघु का विराट से सम्बन्ध बनता और अति महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान का सिलसिला चलता ।। इस क्रम में यदि अवरोध उत्पन्न हो जाय तो घुटन जीवन को न तो सन्तुलित रहने देगी और न सम्भव। सूक्ष्म सत्ता पर विश्वास करने वाले इस परिस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। स्व उपार्जित रक्त, माँस से निर्वाह का ढर्रा तो लुढ़कता है, पर महत्त्वपूर्ण क्षमताएँ तो आदान-प्रदान के आधार पर ही उपलब्ध होती हैं। पृथ्वी सूर्य से आदान-प्रदान न कर सकें तो उस एकाकीपन से, स्वावलम्बन से कैसी विभीषिका उत्पन्न हो जाएगी, इसकी कल्पना करने मात्र से सिर चकरा जाता है।
मस्तिष्क की तीक्ष्णता के सहारे प्राप्त होने वाली उपलब्धियों से सभी परिचित हैं, बुद्धिमान सुशिक्षित व्यक्ति हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। इस तथ्य से परिचित होने के कारण लोग शिक्षा साधना में मुक्त हस्त से धन और समय लगाते हैं। मस्तिष्क के अन्तराल में उसका नाभिक न्यूक्लियस ब्रह्मरन्ध्र है। जिसके सहारे न केवल मस्तिष्क का स्तर प्रभावित होता है। वरन् सूक्ष्म जगत के साथ वैसे ही आदान-प्रदान का द्वार खुलता है जैसा कि पृथ्वी का सूर्य एवं अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों के साथ चलता है।
मानवी काया की धुरी ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिस अति सूक्ष्म केन्द्र नाभिक में सन्निहित है उसे सहस्रार चक्र कहते हैं। यह अपने क्षेत्र को, मस्तिष्क को प्रभावित करता है, उसके स्तर का निर्धारण करता है साथ ही ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क बनाकर आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिकी ऋद्धियाँ और आत्मिकी सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती हैं। वृक्ष अपने चुम्बकत्व से सजातीय धातु कणों को आकर्षित करते हैं। धातु खदानें अपने चुम्बकत्व से सजातीय धातु कणों को खींचती और जमा करती रहती हैं। सहस्रार में जैसा भी चुम्बक तत्त्व हो उसी स्तर का अदृश्य विश्व वैभव खिंचता और एकत्रित होता रहता है। यही जीवन का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियगम्य अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है उसका केन्द्र यही संस्थान है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्म-चिन्तन से लेकर भक्तियोग तक की समस्त आध्यात्मिक साधनायें यहीं से फलित और विकसित होती हैं। ओजस्, तेजस् और ब्रह्मवर्चस् के रूप में पराक्रम, विवेक एवं आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्द्धन भी यहीं से उभरता है।
इस तथ्य को पौराणिक गाथाओं में ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक के रूप में अलंकृत चित्रित किया गया है। ब्रह्माजी की प्रलय जलराशि में कमल पुष्प पर, विष्णु क्षीर सागर में शेष शैया पर और शिव मानसरोवर में कैलाश पर्वत पर विराजते हैं। ब्रह्मा के कमलासन में सहस्र पंखुड़ियाँ हैं। विष्णु सहस्र फन वाले शेषनाग पर सोए हैं। शिव के शरीर पर सहस्र फन और सान्निध्य में सहस्र भूतगण रहते हैं। इन अलंकारों में मस्तिष्क स्थित सहस्रार चक्र का ही चित्रण है। खोपड़ी के मध्य भरा हुआ ह्वाइट और ग्रे मैटर ही क्षीरसागर, कैलाश, दिव्य सागर है। सर्प, कमल, भूतगणों का सहस्र की संख्या युक्त होना मस्तिष्कीय नाभिक सहस्रार चक्र समझा जाता है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित ‘काम-बीज’ है। इसी को साधना शास्त्र में मूलाधार चक्र कहा गया है। इसकी उपयोगिता और गरिमा अपने स्तर की है। मस्तिष्क ज्ञान का और कामबीज सामर्थ्य का उद्गम है। आत्मिक बल ऊपर है और भौतिक बल नीचे। भावनाएँ, विचारणाएँ, आस्थाएँ ऊपर से उतरती हैं और पराक्रम, उत्साह और उल्लास नीचे से उभरता है। ऊर्ध्व केन्द्र को ब्रह्मा का, अधः केन्द्र को प्रकृति का सम्पर्क द्वार कह सकते हैं। अपने-अपने स्तर के आदान-प्रदान इन्हीं केन्द्रों से सम्भव होते हैं।
अधःक्षेत्र से विसर्जन होते प्रत्यक्ष देखा जाता है। मल, मूत्र, वीर्य का क्षरण इसी क्षेत्र से होता है। कामुकता यहीं से उठती है और मस्तिष्क की सरसता का प्रलोभन देकर अपने चंगुल में जकड़े रहती है। विवाह सन्तान का ताना-बाना इसके चरखे-करघे पर तैयार होता है। इन्हीं दो प्रयोजनों में जीवन-सम्पदा का अधिकाँश भाग खर्च हो जाता है। दक्षिणी ध्रुव से विसर्जन प्रक्रिया कामकेन्द्र द्वारा किस प्रकार होती है यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। ओजस् का दिव्य उत्पादन शरीर में होता है उसे क्रमशः अति सूक्ष्म और विकसित करते रहा जाय तो मानसिक तेजस् और आत्मिक वर्चस की अभिवृद्धि करते करते मनुष्य प्रचण्ड पराक्रमी हो सकता है, पर वे सभी दिव्य विभूतियाँ इसी कामक्षेत्र के उभारों में होकर अस्त-व्यस्त हो जाती है। शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य साधने और इस संचय को कलात्मक एवं भावनात्मक दिव्य प्रयोजनों में लगाकर मनुष्य क्या नहीं बन सकता?
कामकेन्द्र का यह अद्भुत चमत्कार है कि वहाँ से नये मनुष्य जन्म का अवतरण सम्भव होता है। प्राणियों का उत्पादक परमात्मा है, पर जीव को अपने ही समतुल्य नया जीव बनाते देखा जाता है तो जी चाहता है कि उसे भी सृष्टा कहा जाय? अपने शरीर में से अपने जैसे नए नए शरीर बनाकर खड़े करते जाना अनोखे किस्म का जादू है। जादूगर अपनी झोली, हथेली, मुख आदि से अन्य वस्तुएँ तो निकालते हैं, पर अपने जैसा मनुष्य निकाल सकना उनमें से किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सका। यह जादू मनुष्य काया में स्थित कामकेन्द्र का ही है जो ऐसा अद्भुत उत्पादन सम्भव बना देता है।
कामकेन्द्र मात्र रति प्रेरणा ही नहीं उभारता। उसमें कला, सौन्दर्य, उत्साह, उल्लास, साहस जैसी अनेकों सृजन सम्वेदनाएँ उफनती रहती हैं। ‘नपुंसक’ शब्द एक प्रकार की गाली माना जाता है ऐसे व्यक्ति राजकीय सेवा में स्वास्थ्य की दृष्टि से अनफिट कर दिए जाते हैं। सेना, पुलिस जैसे साहसिक कार्यों में उनको प्रवेश नहीं मिलता। श्राद्ध और यज्ञ संचालन करने में नपुंसक आचार्यों को बहिष्कृत ठहराया गया है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को ‘क्लीव’ कहकर प्रकारान्तर से गाली ही दी थी। अध्यात्म क्षेत्र की नपुंसकता, नीरसता, निष्क्रियता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इन प्रवृत्तियों में उभार या उतार की स्थिति बनने के लिए काम केन्द्र की स्थिति को उत्तरदायी माना गया है। सन्तानोत्पादन से लेकर सृजनात्मक क्षमताओं तक सम्बन्ध इसी केन्द्र से जुड़ता है। ऐसे-ऐसे अनेकों तथ्य मिलाकर यह सिद्ध करते हैं कि भौतिकी क्षमताओं और सफलताओं की दृष्टि से काम संस्थान का, मूलाधार चक्र का कितना महत्त्व है।
कामबीज का प्रतीक मूलाधार और ज्ञानबीज का प्रतिनिधि सहस्रार चक्र है। इन्हें मानवी सत्ता के दो अति महत्त्वपूर्ण शक्ति केन्द्र कहा जा सकता है। यहाँ एक बात विशेष रूप से स्मरणीय है कि इन्हें शरीर शास्त्र के अनुसार कोई प्रत्यक्ष अवयव नहीं मानना चाहिए यह सभी सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सत्ताएँ है। स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर से मिलते जुलते अवयव पाए जाते हैं और उनके सहारे स्थूल शरीरों के बीच आदान-प्रदान भी रहता है। इतने पर भी दोनों के अस्तित्व एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। रक्त संचार की थैली भी हृदय है और सहृदयता एवं हृदयहीनता के रूप में विद्यमान अन्तरात्मा भी हृदय कहलाती है। हृदय गुफा में ध्यान करने के लिए कहा गया है। यह ‘हृदय’ रक्त शोधक थैला नहीं, वरन् सूक्ष्म शरीर में अवस्थित विशिष्ट चेतना केन्द्र है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार एवं सहस्रार को प्रत्यक्ष शरीर का कोई अवयव विशेष नहीं मानना चाहिए।
कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार और सहस्रार में अवस्थित भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों के पारस्परिक शिथिल सम्बन्ध को सघन बनाया जाता ।। दोनों के बीच आदान-प्रदान की गति तीव्र की जाती ।। इन दोनों सरोवरों के बीच सम्बन्ध मार्ग है-मेरुदण्ड। इसी को महामार्ग कहा गया है। महाप्रयाण की, ऊर्ध्वगमन की देवयान प्रक्रिया यही है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण को इसी प्रयास का अलंकारिक कथा प्रसंग कहना चाहिए।
जीवसत्ता सामान्यतया शरीराभ्यास में डूबी रहती है। इसी वस्तु स्थिति का चित्रण कुण्डलिनी ज्ञान में इस प्रकार किया गया है कि मूलाधार क्षेत्र में एक महासर्पिणी किसी लिंग प्रतीक से साढ़े तीन लपेटे मारकर सोई है। उसका मुख नीचे की ओर है उससे विष झरता है। यह लिंग केन्द्र संसार का आकर्षण है। जीवसत्ता सर्पिणी है। वह आत्मबोध के सम्बन्ध में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी है। न उसे अपने स्वरूप का ज्ञान है न लक्ष्य का। मोह मदिरा पीकर वह अज्ञान की मूर्च्छा से ग्रसित हो रही है। साढ़े तीन फेरों में तीन तो वासना, तृष्णा और अहंता के पूरे हैं। बीच-बीच में कभी-कभी आत्म-कल्याण की बात भी हलके-फुलके ढंग से उभरती है। अन्तरात्मा की यह पुकार पूरी तरह कोई भी कुचल नहीं सकता। वह अपनी माँग करती ही रहेगी, भले ही उसे पग-पग पर अनसुनी किया जाता रहे। यही है आधा लपेट, जिसे मिलाकर साढ़े तीन फेरे बनते हैं। सुप्त-प्रसुप्त कुण्डलिनी का मुख नीचे की ओर अधःपतन की ओर है। हमारी निकृष्ट आकांक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ आत्म कल्याण से नीचे ही धकेलने वाली बन गई हैं। शक्तियों का क्षरण अधोमुखी बना हुआ ।। वीर्यपात से लेकर अन्य कार्य भी उठाने वाले नहीं, गिराने वाले ही बने हुए ।। उनके दुष्परिणाम विष तुल्य होते हैं। जीव सत्ता की दुर्गति का चित्रण प्रसुप्त सर्पिणी के रूप में किया गया है तो यह उचित ही है।
कुण्डलिनी जब जागती है प्रसुप्ति छोड़ती है। लपेटे खोल देती है। तनकर खड़ी हो जाती है। मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर चढ़ना प्रारम्भ करती है। उसके मुख से विषाक्त दुर्गन्ध के स्थान पर अमृतमयी सुगन्ध के श्वास निकलने लगते हैं। यह दृश्य आत्मोत्थान की ओर उन्मुख होने का है। कुण्डलिनी मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर चलती है और सहस्रार अवस्थित महासर्प से जा लिपटती है। इसे शिव पार्वती की कथा-गाथा के रूप में समझाने का प्रयत्न किया गया है। सती-शिव से विमुख होकर पिता के घर गई थी और खिन्न होकर अग्नि कुण्ड में जल मरी थीं। यह आत्मा का परमात्मा से विमुख होकर नारकीय यातनाओं के जलकुण्ड में जल मरना है। स्थिति बदलती है। सती नया जन्म पार्वती के रूप में लेती है। तप करती है शिव की अर्धांगिनी बन जाती है। यह जीवसत्ता का योग तप की साधना अपनाकर अपनी पात्रता को विकसित करना और ऊर्ध्वगामी बनकर परमात्मा में समन्वित हो जाने का विकास क्रम है। कुण्डलिनी जागरण साधना का तत्त्वदर्शन इन कथानकों के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
समुद्र मन्थन की कथा प्रकारान्तर से कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया का दिग्दर्शन है। जो समुद्र मथा गया था वह यह अपना खारी पानी वाला सागर नहीं, वरन् अग्नि समुद्र-शक्ति समुद्र था। उसका मन्थन देव असुर सहयोग से हुआ था। हमारी भौतिक शक्तियाँ आध्यात्मिक आस्थाओं का सहयोग करने लगें तो गतिविधियों का स्वरूप ऐतिहासिक महामानवों जैसा बन सकता ।। फलस्वरूप एक से एक बड़ी उपलब्धियाँ सामने आ सकती हैं। समुद्र मन्थन से अमृत, कौस्तुभ मणि, ऐरावत, धन्वन्तरि, लक्ष्मी जैसे उपहार उपलब्ध हुए थे। मानवी सत्ता भी उच्चस्तरीय पुरुषार्थ, स्वास्थ्य, सन्तोष, उल्लास, सन्तुलन, यश, वैभव, सहयोग, सम्मान, नेतृत्व, स्वर्ग, मोक्ष जैसे श्रेष्ठ जीवन को धन्य बना देने वाले अनुदान प्राप्त कर सकती ।।
समुद्र मंथन की कथा में जीव की वस्तुस्थिति और कुण्डलिनी जागरण साधना से उसकी प्रगति सद्गति का अच्छा खासा चित्रण है। कूर्म अर्थात् भगवान-पैर समेटे-गई गुजरी स्थिति में सबसे नीचे। मन्थन के लिए लाया गया मन्दराचल पर्वत उनकी पीठ पर। मथने के कार्य में प्रयुक्त होने वाली वासुकी सर्प की रज्जु। देवता और असुरों द्वारा उसका मन्थन। यही है समुद्र मन्थन का दृश्य चित्र। हमारे दैनिक जीवन में ईश्वर का स्थान सबसे नीचे है। वह कुछ करा सकने की स्थिति में नहीं है। कछुए की तरह सिकुड़ा सिमटा ज्यों-त्यों करके मानवी सत्ता का भार वहन कर रहा है। मन्दराचल वैभव। मदिरा (मादक) अचल (संग्रहीत)। अपना धन, वैभव, उद्धत अहंता की तृप्ति में तथा अचल (संग्रह) करने के लिए प्रयुक्त होता है। वासुकी सर्प-विषधर जीव। साढ़े तीन लपेटों के साथ मन्दराचल के साथ लिपटा है और दोनों दिशाओं में देव-दानवों द्वारा घसीटे जाने के कारण दुर्दशाग्रस्त हो रहा है। हड्डी पसलियों का कचूमर निकला जा रहा है। इस चित्र में हम अपनी दुर्दशा का चित्र तथा भावी प्रगति का उपाय आभास देखने का दुहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
जीवनक्रम में संव्याप्त जड़ता को, पशु प्रवृत्तियों के अभ्यस्त प्रवाह को निरस्त किया जाना चाहिए। चिन्तन में समुद्र मन्थन जैसी प्रखरता उत्पन्न की जानी चाहिए। प्रसुप्ति को जाग्रति में मूर्च्छना को क्रान्तिकारी परिवर्तन में परिणत करने की आवश्यकता है। जीवन मन्थन कर डाला जाय। कायाकल्प के लिए कटिबद्ध हुआ जाय। अन्तर्द्वन्द्वों की क्षमता का अपव्यय होता रहा तो इस जीवन व्यापार में कमाया कुछ न जा सकेगा। जो पूँजी साथ लेकर आए थे वह गवा कर ऋण भार लाद कर वापस जाना पड़ेगा। इस स्थिति से बचने के लिए जीवन मन्थन आवश्यक है। क्रान्तिकारी परिवर्तन अभीष्ट है। समुद्र मन्थन की कथा को मन्थन प्रक्रिया-कुण्डलिनी जागरण पद्धति के साथ सहज भाव से जोड़ा जा सकता है।
कामनाएँ भावनाओं में परिणत होने के लिए संकल्प करती हैं तो उनकी स्थिति गङ्गा के समुद्र में विलय होने की आतुरता जैसी बन जाती है। हिमालय से निकलकर गङ्गा आतुरतापूर्वक समुद्र मिलन के लिए लम्बा मार्ग पार करती हुई दौड़ती है। कुण्डलिनी को गङ्गा, मेरुदण्ड मार्ग को प्रवाह पथ और सहस्रार को समुद्र कहा जा सकता है। अपने प्रियतम को पाकर गङ्गा ने अशान्ति से छुटकारा पाया और महान से मिलकर महान बन गई। आत्मसत्ता कामनाओं के कामबीज से निकलकर सुविस्तृत जीवन यात्रा में असंख्यों को शान्ति तृप्ति प्रदान करती हुई परमात्म सत्ता में जा मिलती है। यही कामबीज और ज्ञानबीज का मूलाधार और सहस्रार का मिलन है। यह महा मिलन सम्भव होने पर नर नारायण बनता है और आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी बन जाती है। इसी लक्ष्य को सरल सम्भव बनाना कुण्डलिनी जागरण साधना का उद्देश्य है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार