61.    महत्त्वाकांक्षाएँ विकृत न होने पायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य की एक मौलिक विशेषता है-महत्त्वाकांक्षा। वह ऊँचा उठना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है। प्रगति के लिए उत्सुक और श्रेय पाने के लिए आतुर रहता है। इस मौलिक प्रवृत्ति को तृप्त करने के लिए कौन क्या रास्ता चुनता है, किस निर्णय पर पहुँचता है और किन प्रयासों का आश्रय लेता है? यह उसकी अपनी सूझबूझ पर निर्भर करता है।

यहाँ कहा यह जा रहा है कि प्रवृत्ति को ऐसे सत्प्रयोजनों के साथ नियोजित किया जाय, जिनमें अपना और दूसरों का समान रूप से हित साधन होता हो। प्रतिद्वन्द्विता आवश्यक नहीं। यदि उसके बिना काम न चलता हो, तो स्वस्थ प्रतियोगिता में उतरा जा सकता है और सामान्यजनों की तुलना में अपने को श्रेष्ठ, उत्कृष्ट एवं वरिष्ठ सिद्ध किया जा सकता है। यह क्षेत्र उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का होना चाहिए। चोर की तुलना में डाकू बन कर वरिष्ठता सिद्ध करना यही हुआ कि कोई पैरों को कुल्हाड़ी से काटे तो उसकी तुलना में दूसरा अग्नि में जलकर अपने बढ़े-चढ़े पराक्रम का परिचय दे। अधिक विनाश करना, अधिक गहरे पतन के गर्त में गिरना नहीं, प्रतिस्पर्धा का स्वतन्त्र कार्यक्षेत्र है सृजन और उत्थान के अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करना। इसी से प्रतिशोध का शमन होता और सौजन्य बढ़ता है।

किसी भी प्रगति क्षेत्र में कदम बढ़ाने से पूर्व यह सोचा और देखा जाना चाहिए कि इस प्रयास की आरम्भिक उपलब्धियाँ आकर्षक होते हुए भी क्या उसकी अन्तिम परिणति भी श्रेयस्कर है? तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को गँवा देना अदूरदर्शिता है। अदूरदर्शिता भी एक अपराधी दुष्प्रवृत्ति है, जिसका परिणाम राजदण्ड के रूप में न सही, आत्म दण्ड या ब्रह्म दण्ड के रूप में भुगता पड़ता है। तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी हित-अनहित का विचार छोड़ देने वाले प्रायः ऐसे कृत्य करते देखे गये हैं, जिनसे वे न केवल स्वयं विपत्ति में फँसते हैं, वरन् स्वजन सम्बन्धियों को भी साथ में ले डूबते हैं। इसलिए समग्र सौभाग्य का प्रतीक प्रतिनिधि विवेक को माना गया है। विवेक अर्थात् दूरगामी प्रतिफल का सही अनुमान और तदनुरूप किसान, विद्यार्थी जैसा व्यवस्था निर्धारण ।। इन कार्यों में आरम्भिक हानि को बीजारोपण जैसी अनिवार्य आवश्यकता माना जाता है और उसके लिए किसी प्रकार का खेद, असमंजस न करते हुए सुखद परिणति को ध्यान में रखा जाता है। यह भूल ही समस्त भूलों की जननी है। इस केन्द्र के साथ गुँथी हुई चूक ऐसी है जो पग-पग पर चूक कराती जाती है। फार्मूला गलत हो तो अंक गणित, बीजगणित, रेखा गणित का एक भी प्रश्न हल नहीं हो सकता, परिश्रम निरर्थक चला जायेगा और दूसरों के सम्मुख उपहासास्पद बनना पड़ेगा। इसलिए गणित प्रयोजनों को हाथ में लेने से पूर्व हल करने में प्रयुक्त होने वाले फार्मूले सही कर लेने चाहिए।

प्रगति का क्रम, स्तर एवं प्रतिफल सही सुखद हो। इसके लिए हर प्रयोजन के लिए दूरगामी परिणामों पर विचार करना चाहिए और आतुरता से विरत रह कर यह अनुमान लगाना चाहिए कि अन्तिम परिणति क्या होगी। चासनी में पंख फँसाकर बेमौत मरने वाली मक्खी का नहीं, पुष्प का सौन्दर्य अवलोकन और रसास्वादन करने वाले भौरे का अनुकरण करना चाहिए। बया घोंसला बनाती और परिवार सहित सुख पूर्वक रहती है। मकड़ी कीड़े फँसाने का जाल तानती और उसमें खुद ही उलझ कर मरती है। हमारी विचारणा दूरदर्शी विवेकशीलों जैसी होनी चाहिए, किसी भी दिशा में प्रयास करने से पूर्व उसकी मध्यवर्ती स्थिति और पहुँचने की परिणति का भली-भाँति पर्यवेक्षण कर लेना चाहिए। आकर्षण में मोहान्ध होकर कुछ भी करने लगना, भेड़िया धसान में आँखें बन्द करके चल पड़ना, लगता तो सरल है किन्तु इस मानसिक आलस्य का प्रतिफल अगले ही दिनों दुष्परिणाम प्रस्तुत करने लगता है। जो इस सम्बन्ध में जागरूक हैं, उन्हें बुद्धिमान कहना चाहिए। जो पत्ते की तरह प्रवाह में बहते हैं, वे क्रमशः नीचे उतरते, गिरते और अन्ततः खारी समुद्र में जा पहुँचते और दुर्गति पर पश्चाताप करते हैं। यही कारण है कि विवेक को सर्वोपरि सौभाग्य माना गया है। कहा गया है कि जिसे वह प्राप्त है, उसके लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है। भगवान का यही प्रमुख वरदान है। स्वर्ग लोक की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा गायत्री इसी को कहा गया है। एक शब्द में इसे उत्कृष्टता की पक्षधर दूरदर्शी विवेकशीलता कहा जा सकता है। जिसे यह उपलब्ध है, उसे भौतिक क्षेत्र की सिद्धियाँ और मनःक्षेत्र की ऋद्धियाँ अनायास ही प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती रहती हैं। महत्त्वाकांक्षा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाय और प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचने का गौरव अर्जित किया जाय। शर्त एक ही है कि उस निर्धारण में दूरदर्शी विवेकशीलता का समन्वय गम्भीरता पूर्वक किया जाय।

आमतौर से दो ललक सामान्य जनों पर छाई रहती है-एक सम्पन्नता की, दूसरी कामुकता की। प्रायः इन्हीं दो प्रयोजनों में जीवन सम्पदा की समूची पूँजी खप जाती है। इतना कुछ बचता ही नहीं, जिससे पुण्य परमार्थ जैसी विभूतियों को कमाया और उसके सहारे अपना तथा समाज का गौरव बढ़ाया जा सके। देखा जाना चाहिए कि क्या सम्पन्नता और कामुकता की उतनी ही महत्ता है जितनी कि दिग्भ्रान्त दृष्टिकोण द्वारा आँकी जाती है। क्या उनके सहारे उस सुख सुविधा का रसास्वादन किया जा सकता है, जिनकी कल्पना भ्रान्त धारणाओं के आधार पर सँजोई गई है?

मनुष्य का निर्वाह अत्यधिक स्वल्प साधनों से हो सकता है। उतना उपार्जन कुछ ही घण्टे में सामान्य श्रम से हर किसी के लिए सम्भव है। फिर सम्पन्नता अर्जित करने के लिए मनोयोग और श्रम, पराक्रम में इस कदर क्यों खपा दिया जाय, जिससे मानवी गरिमा के निर्वाह एवं विभूतियों के सम्पादन का सुयोग ही न बन सके। समय हर किसी के पास सीमित हैं, उसे किसी भी प्रयोजन के लिए लगाया जा सकता है। ललक में दोष यह है कि वह जिस निमित्त लगती है उसी में सराबोर रहती है। भौतिक आकर्षणों में दोष यही है। सम्पन्नता और कामुकता का नशा जिस पर भी छाया रहेगा, उसका मनोयोग एवं श्रम-समय ऐसे प्रयोजनों के लिए न तो बचेगा ही और न लगेगा ही, जिससे उत्कृष्टता का श्रेय सम्पादन संभव हो सके। कौड़ी मोल हीरा गँवा देना इसी को कहते हैं।

शरीर यात्रा के लिए निर्वाह साधनों को जुटाने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। संकट धन कुबेर बनने में खड़े होते हैं। सोने की लंका खड़ी करने में रावण को क्या नहीं करना पड़ा था। हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, जरासन्ध, सिकन्दर जैसे पराक्रमी भी इस क्षेत्र में सन्तोषजनक अर्जन न कर सके और हाथ मलते चले गये। सोचा जाना चाहिए कि औसत नागरिक की तरह निर्वाह साधनों को पर्याप्त मानकर सम्पन्नता की ललक से पीछा क्यों न छुड़ाया जाय? और कटौती में जो समय श्रम बचता है, उसे उच्चस्तरीय महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पुण्य परमार्थ में क्यों न लगाया जाय?

स्मरण रहे, औसत निर्वाह से अतिरिक्त सम्पदा संचय अगणित विग्रहों को जन्म देता है। दुर्गुण दुर्व्यसन उन्हीं के खेत में पनपते हैं, जिनने अनावश्यक धनराशि जमा कर रखी है। कम में खर्च चलाने और बचत को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह परमार्थ के लिए हाथों-हाथ लगाते चलने की नीति ही सर्वोत्तम है। ठाठ-बाट बनाने से ईर्ष्या भड़केगी और असंख्य विग्रह खड़े होंगे। उत्तराधिकारियों की मुफ्तखोरी के लिए विपुल धनराशि छोड़ मरने का सीधा साधा अर्थ है, उन्हें हर दृष्टि से तबाह कर देना। परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने का कर्तव्य पालन ही पर्याप्त है। मोहवश उन्हें विलासी बनाना अथवा बैठे-ठाले गुलछर्रे उड़ाने की लानत लाद देना प्रकारान्तर से अपंग या विक्षिप्त बना कर रख देने जैसी कुचेष्टा है। यह स्नेह प्रदर्शन नहीं उनका भविष्य बिगाड़ देने वाला अभिशाप ही सिद्ध होता है।

कामुकता की दिशा में बढ़ती हुई महत्त्वाकांक्षा, अनेकानेकों के साथ सम्पर्क साधने के लिए मचलती है। वर्तमान समाज अनुशासन, गृहस्थ निर्धारण के अन्तर्गत यह सम्भव नहीं। पशु वर्ग में भी मादा के प्रस्ताव पर ही उत्साह उभरता है। फिर उनमें बलिष्ठता की प्रमुखता रहती है। ऐसे अनेक कारण हैं, जिससे स्वेच्छा रमण किसी नर-नारी के लिए सम्भव नहीं। आतुर कामनाओं की पूर्ति न बन पड़ने पर निराशा और खीज़ उत्पन्न होती है, जिनके कारण तनाव बढ़ता है, मन उचाट रहता है, स्वेच्छाचारी चिन्तन अपनाने पर अन्यान्य नैतिक सामाजिक मर्यादाओं का अनुशासन शिथिल पड़ता है। फलतः अवांछनीय कृत्यों, अपराधों के लिए रुझान बढ़ता है। बहिन, भाई, पिता, पुत्री, माता, बच्चे के पवित्र सम्बन्धों का व्यतिक्रम करने पर व्यभिचारी चिन्तन को छूट मिलती है। जबकि देव संस्कृति में गृहिणी को भी धर्म पत्नी, सहचरी, सहधर्मिणी आदि नामों से सम्बोधित किया गया है।

वंश वृद्धि की प्रकृति प्रेरणा से यौनाचार में आकर्षण तो है, पर वैसा उत्साह उभरना मात्र प्रजनन का निमित्त कारण होना चाहिए, उसे कौतूहल या मनोरंजन की तरह प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। अतिवाद बरता जायेगा तो शारीरिक मानसिक दुर्बलता बढ़ेगी और असमय बुढ़ापे का अनुभव होगा।

नर-नारी में यौन संरचना की दृष्टि से राई रत्ती अन्तर तो है, पर वह ऐसा नहीं जिसके कारण किसी को किसी का वशवर्ती होना और नागरिक अधिकारों से वंचित रहना पड़े। दोनों मनुष्य हैं। दोनों को मनुष्यों के समान कर्तव्य उत्तरदायित्व निबाहने चाहिए और मिल जुलकर प्रगति के साधन जुटाने चाहिए। इस स्वाभाविकता को कामुकता बेतरह नष्ट भ्रष्ट करती है। विलास साधनों की तरह समर्थ का अपने कब्जे में असमर्थ पक्ष को खींच कर रखने की आवश्यकता मनमाने उपभोग के लिए पड़ती है। यह विशुद्ध अवांछनीयता है। यौनाचार की अतिवादिता के फलस्वरूप अधिक बच्चे उत्पन्न होते हैं, जो आज की स्थिति में हर दृष्टि से अवांछनीयता है।
     कामुकता एक प्रकार का मानसिक उन्माद है, जिसमें प्रतिपक्ष की माँसलता एवं रमण चेष्टा की कुकल्पनाएँ मस्तिष्क में आवेश बनकर भ्रमण करती रहती हैं। फलस्वरूप वह तन्त्र इस प्रकार अस्त-व्यस्त हो जाता है, जिसमें किसी उच्चस्तरीय चिन्तन के लिए आवश्यक एकाग्रता जुट सकने जैसी स्थिति ही नहीं रहती। कामुक चिन्तन से उत्पन्न चंचलता एक आदत बन जाती है। फलतः उस स्तर के व्यक्ति विज्ञान, साहित्य, शोध जैसे गम्भीर चिन्तन से सम्बन्धित कार्यों के लिए मानसिक तीक्ष्णता गँवा बैठते हैं। कामुकता भड़काने वाले चित्र छाप कर व्यवसाय विज्ञापन का प्रयोजन पूरा करना बुरी बात है। विशेषतया नारी समाज का इसमें प्रत्यक्ष अपमान है। इस प्रकार उसकी स्वाभाविक गरिमा छीनी और कामिनी रमणी की कुत्सा थोपी जाती है।

शालीनता के रहते हर परिवार में युवा नर-नारी भी साथ-साथ रहते हैं। उनके बीच पवित्र रिश्ते निभते हैं। फिर क्या कारण है कि घर के बाहर की बात सोचते ही उन मर्यादाओं का व्यतिक्रम होने लगे? नैतिक अतिक्रमण की दिशा में उठने वाले चरण एक के बाद दूसरे का क्रम अपनाते हुए अन्ततः उस अनुशासन की जड़े खोखली करते हैं, जिन पर कि मानवी गरिमा, प्रगति और सुख शक्ति के आधार खड़े हुए हैं। अच्छा हो हमारी प्रवृत्ति कामुकता की ओर से मुड़े और पारिवारिकता से जुड़े। पारिवारिकता और कलाकारिता की दो उच्च स्तरीय सरसताएँ ऐसी हैं, जिनका रसास्वादन यदि मिलने लगे तो कामुकता की ललक सहज ही शिथिल पड़ने लगेगी। जिस प्रकार सम्पदा की लिप्सा से विरत होकर मनुष्य नीतिवान एवं परमार्थी बन सकता है, उसी प्रकार कामुकता पर नियन्त्रण होते ही उदार शालीनता निखरने लगती है।

अहंता का परिपोषण शोभा, अमीरी, बलिष्ठता या आतंक प्रदर्शन के माध्यम से होता है। यह जंजाल बहुत मँहगा और प्रवंचना पूर्ण है। चकाचौंध उत्पन्न करने के लिए अकारण छद्म बरतने और पाखण्ड रचने पड़ते हैं। अहंता जताने में ईर्ष्या भड़कती है। दूसरों को छोटा या मूर्ख सिद्ध किया जाने पर वह अपना अपमान अनुभव करता है और अवसर मिलते ही प्रतिशोध का डंक मारता है। सजधज पर व्यभिचार का और वैभव पर बेईमानी का आरोपण होता है। जिस प्रकार अनावश्यक सम्पदा जमा करने पर हजार विग्रह खड़े होते हैं, ठीक उसी प्रकार अहंकारी के अकारण शत्रु बढ़ते जाते हैं।

उदरपूर्णा एवं परिवार व्यवस्था पर जितना समय और धन खर्च होता है। औसतन उतना ही अकेले अहंकार प्रदर्शन में खर्च हो जाता है। शादियों, पार्टियों में होने वाले खर्च को इसी मद में जोड़ा जाना चाहिए। फैशन तो विशुद्ध रूप से इसी विडम्बना की देन है। दूसरों की वाहवाही लूटने के लिए बुने गये जाल-जंजाल से यदि पर्दा उघाड़ कर देखा जाये तो व्यंग-उपहासों से भरा होता है। ऐसे लोग ओछे, बचकाने, छोटे, उद्धत समझे जाते हैं और ललक के सर्वथा विपरीत विज्ञजनों की आँखों में गिरते चले जाते हैं। उनकी उपयोगिता एवं प्रामाणिकता तक संदिग्ध होती चली जाती है। इन तथ्यों से यदि कोई गम्भीरता पूर्वक अवगत हो सके, तो उसे सादा जीवन उच्च विचार की नीति ही बुद्धिमत्ता पूर्ण प्रतीत होगी।

आम आदमी की तीन चौथाई सामर्थ्य सम्पन्नता, कामुकता एवं अहंता की खाई खोदते और पाटते रहने में ही खप जाती है। तथ्यतः यह तीनों अनावश्यक ही नहीं अहितकर भी हैं। इनमें शक्तियों का अपव्यय ही नहीं वरन् ऐसी अनुपयुक्त प्रतिक्रियाएँ भी उत्पन्न होती हैं, जिनमें भौतिक हानि और आन्तरिक ग्लानि असाधारण मात्रा में सहन करनी पड़ती है। जिस ओछी वाहवाही की अपेक्षा की गई थी वस्तुतः वह और भी अधिक दूर हटती जाती है। इस भूल को यदि सुधारा जा सके, संयम और सादगी की शालीनता का अविच्छिन्न अंश माना जा सके, तो इतने भर से विपन्न दीखने वाली परिस्थितियों का कुहासा पूरी तरह छट सकता है।

वितृष्णा और व्यामोह के भव बन्धनों से यदि छुटकारा मिल सके, तो दृष्टिकोण में स्वर्ग तैरता दिखाई पड़ेगा। इन्हीं तीन दुष्प्रवृत्तियों को हथकड़ी, बेड़ी और तौक के नाम से भव बन्धन के रूप में चित्रित किया गया है। इनसे छुटकारा मिल सके तो समझना चाहिए जीवित रहते ही मुक्ति मिल गई। इसी स्थिति को सन्त कबीर ने सहज समाधि कही है।

दूरदर्शी विवेकशील इन त्रिविध नाश-पाशों से छुटकारा पाने और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण करने के लिए पुण्य परमार्थ के निमित्त परिपूर्ण उत्साह, संकल्प और साहस के साथ अग्रसर होते हैं। ऐसे लोग ही धरती के देवता हैं। उनकी उच्चस्तरीय महत्त्वाकांक्षाओं में से हर एक पूर्ण होकर रहती हैं। फलतः वे सदा सुखी सन्तुष्ट दिखाई पड़ते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



62.   आस्तिकता व्यवहार में उतरेगी तो ही संकट मिटेंगे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों का प्रभाव, अभ्यास मनुष्य जीवन में भी बना रहता है, निम्न योनियों का स्वभाव जड़ जमाये बैठा रहता है और मानवी प्रवृत्तियों को अभ्यास में सम्मिलित करने के मार्ग में अनेकानेक बाधाएँ उपस्थित करता है। पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहता है। गुरुत्वाकर्षण शक्ति किसी भी वस्तु को अवसर मिलते ही नीचे खींच लेती है ।। ठोस पदार्थों को नीचे की ओर गिरने और प्रवाहों की ओर बहने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती। पर जब उन्हें ऊपर उठाना या बहाना होता है, तो साधन जुटाने और प्रयत्न करने पड़ते हैं। मन की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। उसकी मर्जी चलने दी जाए तो फिर नर पशुओं और नर कीटकों से अधिक उपयुक्त चिन्तन और आचरण बन पड़ना सम्भव नहीं हो सकता। क्रोध सरल है, स्नेह कठिन। क्रोध बिना किसी प्रशिक्षण के आरम्भ से ही प्रकट होने लगता है, पर प्रेम को स्वभाव का अंग बनाने के लिए सुसंस्कारी वातावरण और तदनुरूप अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। ईर्ष्या और अपहरण, अहंता और आक्रमण, वासना और आधिपत्य का आचरण करते हुए सभी प्राणी पाये जाते हैं, मनुष्य भी। किन्तु संयम और सद्भाव को जीवनक्रम में सम्मिलित करने के लिये सभ्यता और संस्कृति को, धर्म और अध्यात्म को गले उतारना कितना कठिन पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यौनाचार की पूर्ति हर प्राणी बिना किसी प्रशिक्षण के संचित अभ्यास के आधार पर स्वयमेव करने लगता है, किन्तु ब्रह्मचर्य पालन के तत्त्वज्ञान को हृदयंगम करने से लेकर तप साधन करने तक के उपाय अभ्यास अपनाने होते हैं। वस्तुस्थिति देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि पतन सरल और उत्थान कठिन है। इस कठिनाई को पार करना ही परम पुरुषार्थ कहलाता है। अनेकानेक साधना विधानों का आविर्भाव इसी दृष्टि से हुआ है।

उत्कृष्टता की धुरी आस्तिकता है। यों विकृतियों के घुस पड़ने से मध्य काल के अन्धकार युग में इस क्षेत्र की दुर्गति भी कम नहीं हुई है। इतने पर भी तथ्य और सत्य अपने स्थान पर अडिग हैं। आस्तिकता को आस्था में सम्मिलित किये बिना आत्मिक प्रगति का आधार बनता नहीं। दार्शनिक पर्यवेक्षण करने पर आदर्शवादिता और आस्तिकता एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। उच्चस्तरीय आदर्शों का समुच्चय ही ईश्वर का वह स्वरूप है, जिसकी उपासना की जाती है। परब्रह्म तो नियामक सत्ता भी है, सृष्टि प्रवाह को सुव्यवस्थित रीति से चलाने के अतिरिक्त मानवी चेतना को वह उच्च स्तरीय चिन्तन और चरित्र अपनाने के लिए बाधित करती है। इसी को अन्तःप्रेरणा या ईश्वर की वाणी कहते हैं। कर्मफल के दण्ड-पुरस्कार की विधि व्यवस्था परब्रह्म के द्वारा संचालित होती है, किन्तु मानवी गरिमा विशुद्ध रूप से आस्तिकता के तत्व ज्ञान से जुड़ी हुई है। आस्तिकता के अनेक स्वरूप हैं। उनमें से एक ईश्वर उपासना का अवलम्बन लेकर चेतना के दिव्य परतों को सुविकसित और सशक्त बनाना भी है। आस्तिकता एक आस्था दर्शन है और उपासना उसे परिपक्व करने का प्रयोग अभ्यास। दोनों का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। दर्शन एक कल्पना है उसका परिणाम तभी निकलता है जब वह अभ्यास में उतरे। आस्तिकता में मात्र ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार कर लेने और उपासना में मनुहार द्वारा उसकी कृपा प्राप्त कर लेने जितना छोटा उद्देश्य सन्निहित नहीं हैं, वरन् तथ्य यह है कि ईश्वर को उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समुच्चय मानना होता है और उसे चिन्तन एवं चरित्र का अविच्छिन्न अंग बनाकर तादात्म्य स्थापित करना ही होता है।

भक्ति का अर्थ है-प्यार भरी सेवा। संक्षेप में इसे आत्मीयता एवं उदारता का समन्वय कह सकते हैं। ईश्वर भक्ति का अर्थ होता है आदर्शों के प्रति असीम प्यार। असीम का तात्पर्य है इतना प्रबल कि उसे क्रियान्वित किये बिना रहा न जा सके। ईश्वर भक्ति को समर्पण योग भी कहते है। शरणागति, लय आदि कई नामों से इस स्थिति का उल्लेख किया जाता है।

आत्मा की उत्कृष्टतम स्थिति को ही परमात्मा कहते हैं। पुरुष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण बनने का एकान्त अभ्यास ही उपासना है। इसमें ईश्वर को व्यक्ति बनाने का नहीं, व्यक्ति को ईश्वर, अति मानव बनाने और अति मानस को प्रखर करने का प्रयोग है। सच्ची उपासना लघु को विभु, क्षुद्र को महान बनाती एवं कामना को भावना में विकसित करती है। मनोकामना पूर्ति के लिए ईश्वर का मनुहार करना बाल कक्षा के विद्यार्थियों तक ही सीमित रहता है। आत्मिक प्रौढ़ता की स्थिति आते ही ईश्वर का स्वरूप उत्कृष्ट आस्थाओं और आदर्शवादी भाव सम्वेदनाओं का समुच्चय बन जाता है।

ईश्वर भक्ति और आदर्शों के लिए समर्पित व्यक्तित्व परस्पर पर्याय वाचक बन जाते हैं। इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए भावात्मक अभ्यासों की चिर−परिचित प्रणाली को उपासना कहते हैं। इसी अवलम्बन का आश्रय लेकर प्राचीन काल में साधकों को ऋषिकल्प, देवमानव एवं सिद्ध पुरुष बनने का अवसर मिला है। ऐसे व्यक्तित्वों में भगवान का स्वरूप प्रत्यक्ष झाँकता है। अतएव भक्त और भगवान की एकता का प्रतिपादन शास्त्रकार सदा से करते रहे हैं।

युग परिवर्तन का श्रीगणेश आस्था क्षेत्र में उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के साथ होना है, व्यक्तित्व प्रस्तुत आस्था समुच्चय का ही दूसरा नाम है। उसी स्तर के अनुरूप आकाँक्षाएँ उभरती हैं। आकाँक्षाएँ विचारणा को दिशा देती हैं, विचारणा के दबाव से शरीर की गतिविधियाँ चलती हैं। गतिविधियों के अनुरूप परिस्थितियाँ बनती हैं। यह भली-बुरी परिस्थितियाँ ही स्वर्ग-नरक, उत्थान-पतन, विनाश आदि नामों से निरूपित होती रहती हैं। पतन को उत्थान में बदलना हो, नरक को स्वर्ग बनाना हो तो तदनुरूप परिस्थितियाँ बननी चाहिये। परिस्थितियाँ गतिविधियाँ शरीर की कार्य पद्धति को कहते हैं। शरीर पर मन का परिपूर्ण नियन्त्रण है। मनःक्षेत्र का सूत्र संचालन इच्छाएँ करती हैं। इच्छाएँ अन्तराल के आस्था परक स्तर के अनुरूप उठती हैं। यही तत्व दर्शन का खुला रहस्य है। जो इसे जानते हैं वे पत्ते धोने की अपेक्षा जड़ को सींचते है। फुन्सियों पर दवा लगाने की अपेक्षा रक्त शोधन पर अधिक ध्यान देते हैं, मच्छर मारते फिरने का श्रम करने की अपेक्षा गन्दी नाली साफ कर डालने की आवश्यकता अनुभव करते हैं।

सामयिक परिस्थितियों पर दृष्टिपात करने से उनमें भरी हुई विकृतियों और विभीषिकाओं के अनेकानेक रूप दिखाई पड़ते हैं, वे एक दूसरे से भिन्न भी दिखाई पड़ते हैं, उनके समाधान भी स्थिति के स्वरूप को देखते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के सोचे जाते हैं। प्रत्यक्षवाद के आधार पर समाधान इसी प्रकार सम्भव दिखाई पड़ता है। शारीरिक दुर्बलता का निवारण पौष्टिक आहार और रुग्णता का निराकरण चिकित्सा उपचार से ही सम्भव प्रतीत होता है, किन्तु परोक्ष तक पहुँचने वालों को इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यह सारा बखेड़ा असंयम की दुष्प्रवृत्ति ने उत्पन्न किया है। असंयम के रहते भी पुष्टाई और दवाई की खिलवाड़ तो चलती रह सकती है, पर उनमें दुर्बलता एवं रुग्णता का स्थायी निवारण कदापि सम्भव न हो सकेगा। तात्कालिक उपचार से जादुई लाभ तो मिल भी सकता है, किन्तु स्थिर स्वास्थ्य की अपेक्षा रखने वालों को संयम साधना की जीवन नीति बनाकर चलना होगा।

मानसिक विक्षोभों से जन-जन को तनावग्रस्त, खिन्न उद्विग्न, निराश एवं नीरस भारभूत जीवन जीते पाया जाता है। मनोविकारों की प्रबलता से अनुकूलताएँ, प्रतिकूलताएँ बनती हैं। सामान्य परिस्थितियाँ भी विकृत चिन्तन के कारण तिल जैसी होते हुए भी ताड़ जितनी भयानक प्रतीत होती हैं। लोग परिस्थितियाँ बदलना चाहते हैं, पर जिस अनुपयुक्त दृष्टिकोण के कारण वे उत्पन्न होती हैं, उसके बदलने की बात तक नहीं सोचते। झरना झरता रहे और बहाव को मेंड़ बाँधकर रोकने में श्रम किया जाता रहे तो थकान और निराशा के अतिरिक्त और कुछ पल्ले पड़ने वाला नहीं है। स्वस्थता की तरह प्रसन्नता भी आवश्यक है, पर उसे परिष्कृत दृष्टिकोण के मूल्य पर ही खरीदा जा सकता है। शरीर सुख संयम पर निर्भर है और मानसिक सन्तोष चिन्तन के सन्तुलन पर। यह तथ्य भले ही आज न सही हजार वर्ष बाद समझा जाए, किन्तु समाधान सही निष्कर्ष पर पहुँचने और सही उपाय अपनाने पर ही सम्भव हो सकेगा।

आज व्यक्ति और समाज के सामने अगणित समस्याएँ और विभीषिकाएँ मुँह बाये खड़ी हैं। उनका निराकरण बुद्धिमानों द्वारा प्रत्यक्ष उपचारों, सामयिक उपायों के आधार पर सोचा जाता है, मस्तिष्क की दौड़ इतनी ही है। विग्रहों को साम, दाम, दण्ड, भेद जैसे कूटनीतिक उपायों से हल करने का बरताव ही उसने देखा समझा है। सो उन्हें क्रियान्वित करने में भी कोई कसर नहीं रखी जाती। आर्थिक सुधार के लिए गरीबी हटाओ अभियान के अन्तर्गत गृह उद्योगों से लेकर विशालकाय कारखाने लगाने तक का प्रावधान पंचवर्षीय योजना में है। निजी क्षेत्र भी इस सन्दर्भ में कुछ उठा नहीं रख रहा है, पर कठोर श्रम और मितव्ययता की तपश्चर्या का सिद्धान्त जन जीवन में उतर न पाने के कारण बढ़ा हुआ उपार्जन, दुर्व्यसनों की बढ़ोत्तरी तक को पूरा नहीं कर पाता और दरिद्रता जहाँ की तहाँ बनी रहती है। इस कुचक्र में से निकल सकना अर्थोपार्जन और व्यय व्यवस्था में आदर्शवादी सिद्धान्तों का समावेश किए बिना सम्भव ही नहीं हो सकता।

परिवारों की स्थिति का यदि सही मूल्यांकन किया जाए तो स्थिति सराय से अधिक उपयुक्त न मिलेगी। भेड़ें बाड़ों में भी रहती हैं और कैदी जेलों में। सद्भाव और सहकार के अभाव में होटलों में की जाने वाली चटक-मटक भी कितनी कृत्रिम, कितनी नीरस और कितनी कुरूप, कर्कश लगती है उसे सभी जानते हैं। आर्थिक अभाव रहते हुए भी परिवारों में स्नेह सौजन्य के सहारे स्वर्गीय आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है, इसके लिये साधनों की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक सुसंस्कारिता की। यह उपलब्धि बाह्य व्यवस्थाओं के सहारे नहीं आन्तरिक सदाशयता के सहारे ही सम्भव हो सकती है।

समाज में अनेकानेक मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों, अवांछनीयताओं की भरमार है। अपराध बेहिसाब बढ़ रहे हैं। प्रामाणिकता दिन-दिन घट रही है। सज्जनता का प्रतिपादन तो है, पर प्रचलन नहीं। सहकारिता का समर्थन जोरों से होता है और आर्थिक क्षेत्र में उसका लँगड़ा-लूला कलेवर भी बना है। किन्तु पारस्परिक व्यवहार में सहकारिता एवं उदारता को खोज निकालना अति कठिन है।

कलह और विग्रहों के असंख्य क्षेत्र हैं, सबके अपने-अपने कारण हैं। भाषा, प्रान्त, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि के निहित स्वार्थों को लेकर परस्पर टकराव की इतनी अधिक घटनाएँ होती हैं कि उनका निराकरण कानून और पुलिस के द्वारा अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही निकल पाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले दावपेचों और कुटिल कुचक्रों से शीतयुद्धों की भरमार बढ़ती जा रही है और गरम युद्ध की, अणु-अणुओं से लड़े जाने वाले तृतीय एवं अन्तिम युद्ध की सम्भावनाएँ तेजी से समीप आ रही हैं। घटनाचक्र पर दृष्टिपात करने से महाप्रलय का दिन दूर दिखाई नहीं पड़ता। इस विग्रह से निपटने में तो कानून और पुलिस जैसे अनुबन्ध भी कुछ काम करते नहीं दीखते।

धर्म और अध्यात्म का उपयोगी कलेवर तो प्राचीन काल से भी अधिक विस्तृत और आकर्षक बन गया है, पर उसमें प्राण का दर्शन दुर्लभ हो रहा है। कर्मकाण्डों के घटा टोप छाये हुए हैं, पर आस्थाओं में उत्कृष्टता भरने वाली प्रक्रिया तो एक प्रकार से विकृत ही होती चली जाती है। धर्म ने मूढ़ता और कट्टरता के कवच कुण्डल पहन लिये हैं और अध्यात्म के कल्पना लोक में बिना पंखों की उड़ाने उड़ने जैसे उपक्रम चल रहे हैं। इन क्षेत्रों में धूर्तों और मूर्खों के बीच ऐसी पटरी बैठी है कि विज्ञजनों को इस कुछ का कुछ हो जाने को देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ बना देने वाले असमंजस का अनुभव हो रहा है।

समस्याओं की यह मोटी झाँकी है, इस स्तर के अगणित कारण हैं जो व्यक्ति और समाज को सुखी समुन्नत बनाने वाले सभी प्रयत्नों को व्यर्थ करते चले जा रहे हैं। इन विग्रहों के रहते आर्थिक, वैज्ञानिक, बौद्धिक उपलब्धियाँ कोई समाधान कारक हल खोजने में अपनी असमर्थता प्रकट कर रही हैं। इन परिस्थितियों को पीछे मुड़कर देखना होगा और वस्तुस्थिति समझने की गहराई में उतरना होगा। परिस्थितियों का उत्तरदायित्व मनःस्थिति पर लदा हुआ है। मनःस्थिति का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। वे आस्थाओं एवं आकाँक्षाओं पर निर्धारित हैं, अन्तःकरण ही वह क्षेत्र है जो व्यक्तित्व के स्तर को उठाता गिराता है। मनुष्य ने स्वयं ही अपना इतिहास सृजा है, वर्तमान की परिस्थितियों के लिए भी वही पूरी तरह उत्तरदायी है। भविष्य को उज्ज्वल या अन्धकारमय बना लेना पूरी तरह उसी के हाथ में है। इस तथ्य को स्वीकार करने में असमंजस उन्हीं को हो सकता है, जो व्यक्तित्व के उद्गम स्रोत अन्तःकरण की सामर्थ्य से अपरिचित हैं। मनुष्य को सर्व समर्थ माना गया है। यह तथ्य पूर्णतया उसके आस्था क्षेत्र के आधार पर सर्वथा सत्य पाया जा सकता है।

नवयुग में मनुष्य आस्था प्रधान होंगे। वे उत्कृष्टता, आदर्शवादिता और उदात्त भाव सम्वेदनाओं से भरे पूरे होंगे। प्रश्न एक ही है कि वर्तमान अनास्था को उदात्त भाव श्रद्धा में पारित कैसे किया जाये? इस सन्दर्भ में उत्तर तो कई दिये जा सकते हैं, पर प्रामाणिक प्रतिपादन आस्तिकता की भाव श्रद्धा का उन्नयन ही है। यह कार्य उपासना के आधार पर सम्भव हो सकता है। व्यक्ति निर्माण का आधारभूत क्षेत्र यही है। यह प्रक्रिया ऐसी है जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। उसे प्रमुखता ही देनी होगी। जन-जन को आस्तिक और उपासना प्रिय बनाने के प्रयत्नों में नवयुग की उज्ज्वल सम्भावनाएँ पूर्णतया समाविष्ट हैं, अस्तु युग शिल्पियों को अपने समस्त क्रिया कलापों में इस केन्द्र बिन्दु को प्रधान मानकर चलना होगा। महाकाल वैसी ही प्रेरणा देने और व्यवस्था बनाने में संलग्न भी है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार





63.    नारी उत्थान हेतु सुनियोजित २४ सूत्री कार्यक्रम
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

 
बड़ी समस्याओं का बड़े साधनों से ही समाधान हो सकता है। थोड़ा बोझ तो हाथों से या रस्सों से भी उठ सकता है, पर विशालकाय वस्तुओं को उठाने के लिए बड़ी क्रेन चाहिए। नदी से थोड़े से लोगों को पार करने के लिए छोटी सी नाव तो मल्लाह भी बना सकता हैं, पर नदी के कारण विभक्त दो इलाकों की एकता के लिए तो मजबूत पुल चाहिए। उसे बनाने के लिए बड़े दिमाग, बड़े श्रम, सहयोग एवं बड़े साधन जुटाये बिना काम नहीं चल सकता। घर-घर में आधिपत्य जमाये हुए, आधे जन समूह को शोषित और आधे को शोषक बनाकर अनेकानेक संकट उत्पन्न करने वाली नारी समस्या को हल करने के लिए अनेक प्रकार के प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक प्रयत्न उतने ही बड़े परिमाण में करने पड़ेंगे, जितनी बड़ी कि कठिनाई और उससे उत्पन्न विभीषिका है।
 
इस सन्दर्भ में सबसे बड़ा और प्रधान कार्य जनमानस में प्रस्तुत अनाचार के प्रति आक्रोश उत्पन्न करना और उसे सुधारने के लिए आकुलता उत्पन्न करना है। इसके बिना प्रगति प्रयासों को तीव्र करने और उसके लिए साधन जुटाने की उत्सुकता ही न होगी। उत्साह भी न उमड़ेगा और परिवर्तन के लिए जो किया जाना है, उसके आधार ही खड़े न हो सकेंगे। प्रबल आकाँक्षा ही प्रगति उत्पन्न करने के लिए समस्या की गरिमा की ओर ध्यान खींचने वाले प्रबल प्रचार की आवश्यकता है। प्राथमिकता उसी को मिलनी चाहिए, आकुलता उत्पन्न हो सके तो फिर साधन जुटाने का कार्य सहज ही सरल बन जायेगा। विकृतियों की हानि और सुधार की सुखद सम्भावना की और जन साधारण का ध्यान जितनी अच्छी तरह खींचा जा सकेगा, उतनी ही सुविधा से परिवर्तन के आधार खड़े होते चले जायेंगे।
 
परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाते हुए हमें प्रचार के मोर्चे को सँभालने के लिए सर्वप्रथम कटिबद्ध होना चाहिए। उसमें सफलता मिल गई तो अगले मोर्चे जीतने में अधिक कठिनाई न रहेगी। किले का फाटक टूट गया तो समझना चाहिए कि उसमें प्रवेश करने और जीतने का आधार बन गया। जन मानस एक अद्भुत महादैत्य है, वह जिधर भी मुड़ता है उधर ही रास्ता साफ होता चला जाता है। संसार की समस्त क्रान्तियाँ उमगते हुए जन मानस द्वारा ही सम्भव हुई हैं। क्या राजनैतिक, क्या सामाजिक, क्या आर्थिक किसी भी स्तर के परिवर्तन क्यों न हो वे उभरती हुई जन आकाँक्षा के आधार पर ही सम्पन्न हुए हैं। बीजारोपण किसी ने भी किया हो, परिवर्तन तो लोक प्रवाह की समर्थ क्षमता से ही प्रस्तुत हो सकते हैं।
 
आज की समस्याओं के समाधान के लिए जन मानस उभारने के लिए प्रबल प्रचार तन्त्र को प्रथम मोर्चाबन्दी के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। इसके लिए कितने ही साधन ऐसे हैं, जिन्हें तत्काल जुटाया जाना आवश्यक है जैसे-(१) प्रगतिशील लेखक वर्ग से अनुरोध किया जाय कि वे नारी समस्या के ऊपर लेख लिखना आरम्भ करें। उन्हें देश की सभी भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करायें।
(२) इन दिनों नारी की भोग्या, रमणी और कामिनी के रूप में जो लेख, कहानियाँ, कविताएँ तथा तस्वीरें घटाटोप की तरह छपती हैं, उन्हें निरस्त करने के लिए जन आक्रोश उत्पन्न किया जाय।
(३) प्रकाशकों से कहा जाय कि वे नारी उत्कर्ष की आवश्यकता पूरी कर सकने वाला साहित्य छापने का साहस जुटायें। वह कम बिके और कम लाभ दे तो भी इसे मानवता की एक महती आवश्यकता की पूर्ति समझकर उसमें उदारता पूर्वक पूँजी लगायें।  
(४) चित्र-प्रकाशक नारी को इस प्रकार चित्रित करें, जिससे उसके प्रति श्रद्धा, पवित्रता और शालीनता की दृष्टि उभरे। उत्तेजक और अश्लील चित्रण से वे हाथ खींच लें, भले ही इसमें लाभ की दृष्टि से कुछ कमी रहने लगे।
(५) पत्र-पत्रिकाओं के संचालकों, सम्पादकों से आग्रह किया जाय कि वे नारी के सामाजिक उत्कर्ष की आवश्यकता पर ध्यान दें और इसके लिए उपयोगी सामग्री नियमित रूप से प्रकाशित करें। यह कार्य सभी भाषाओं के सभी भाषाओं के सभी पत्र-पत्रिकाओं को पवित्र सामाजिक कर्तव्य की तरह हाथ में लेना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नई पत्रिकाएँ निकाली जायें अथवा पुरानी पत्रिकाओं की नीति बदल कर उन्हें इसी लक्ष्य को अपना लेने के लिए सहमत किया जाय।
(६) भावनाएँ उभारने की दृष्टि से गीतों और कविताओं का अपना महत्त्व है। गीतकार ऐसे गायनों का सृजन करें जो नारी समस्याओं के विभिन्न पक्षों पर जन साधारण का ध्यान आकर्षित कर सकें। ऐसे गीत क्षेत्रीय भाषाओं में विशेष रूप से लिखे और छापे जायें, उनमें स्थानीय रुचि की लोक ध्वनियों को प्रमुखता दी जाय। नारी वर्ग की गायन अभिरुचि को इस आधार पर उपयोगी सामग्री मिल सकेगी।  
(७) फिल्म निर्माताओं से अनुरोध किया जाय कि वे नारी की दुर्गति के प्रति करुणा, प्रतिबन्धों के प्रति आक्रोश और परिवर्तन का मार्ग दर्शन कराने वाली कहानियाँ लिखाएँ और फिल्में बनायें। समय बदल रहा है। प्रगति और परिवर्तन के लिए उत्साह उमड़ा है। अगले दिनों नारी समस्या का समाधान जैसे विषयों पर बनी फिल्मों का स्वागत होगा। उसमें लाभ भी रहेगा और निर्माताओं को मानवतावादी आदर्शों में योगदान देने का श्रेय भी मिलेगा। वर्तमान फिल्म निर्माताओं तक यह युग की पुकार पहुँचाई जाय एवं प्रगतिशील फिल्म निर्माण तन्त्र नये सिरे से खड़े किये जायें।
(८) प्रचारार्थ दिखाई जाने वाली फिल्में १६ मिली मीटर अथवा ८ मिली मीटर की बन सकती है। टाकीज बनाने में खर्च अधिक आता हो तो वे मात्र मूवी भी रखी जा सकती हैं। आवाज का प्रयोजन साथ-साथ टेपरिकार्डर चलाकर पूरा किया जा सकता है। लाउडस्पीकर से बोलते रहकर भी कथानक का परिचय कराया जाता रह सकता है।  
(९) छोटे देहातों के लिए, गली मुहल्लों में प्रचार करने के लिए स्लाइड प्रोजेक्टर बहुत सफल होते हैं। उन्हें आसानी से चलाया और सरलता पूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया भी जा सकता है। इस उपकरण के प्रचलन से लोक-रंजन और लोकमंगल का समन्वय करते हुए गाँव-गाँव, घर-घर नारी उत्कर्ष का युग सन्देश पहुँचाया जा सकता है।
(१०) चित्र प्रदर्शनियों का सैट बनाया जाय। बड़े साइज के १०० रंगीन पोस्टर छाप लेने से यह प्रदर्शनी बड़ी सस्ती लागत में बन सकती है। इसे गाँव-गाँव, गली मुहल्लों में हाट बाजारों में, मेले ठेलों में तीर्थ स्थानों में, स्कूल विद्यालयों में दिखाने का प्रबन्ध किया जाय तो समस्या के स्वरूप को जन मानस में उतारने का और उसका समाधान खोजने का उत्साह बढ़ेगा।
(११) नारी समस्या पर ग्रामोफोन के रिकार्ड बनें। घरेलू रिकार्ड प्लेयरों पर लाउड स्पीकरों पर उन्हें समय समय पर सुनाया जाता रहे। टेप रिकार्डों पर सुनाये जाने वाले संगीत टेप भी इस प्रयोजन की एक सीमा तक पूर्ति करते रह सकते हैं।
(१२) अभिनय, नाटक, एकांकी, प्रहसन, गीत नाटिकाएँ, नीति कथाएँ, छाया नृत्य, कठपुतली आदि कितने ही छोटे बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रम समय-समय पर नियोजित किये जा सकते हैं। नारी समस्या का इनमें समावेश करके जनमानस को दिशा देने में सहायता मिल सकती है।
(१३) नारी शिक्षा पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। कन्याओं को अधिक पढ़ाने के लिए अभिभावकों को समझाया जाय। कन्या विद्यालयों की संख्या बढ़े। महिलाओं की निरक्षरता दूर करने के लिये तीसरे प्रहर चलने वाली प्रौढ़ महिला पाठशालाओं की व्यवस्था गली-गली मुहल्ले-मुहल्ले की जाय। कुछ घण्टे के लिए तीसरे प्रहर या रात्रि के गलने वाले ऐसे महिला विद्यालयों का प्रबन्ध किया जाय जिनके सहारे काम काजी महिलाएँ अपनी पढ़ाई आगे जारी रख सकें और प्राइवेट परीक्षाएँ देती रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें।
(१४) महिला समस्याओं पर परिवार संस्था के परिष्कार से सम्बन्धित अनेक विषयों पर उपयोगी प्रकाश डाल सकने वाली पुस्तकों के पुस्तकालय सर्वत्र स्थापित किये जाय। ऐसी पुस्तकों की सूची बनाई जाय जिन्हें यह पुस्तकालय अपने यहाँ रखने की व्यवस्था कर सकें और उनके प्राप्ति स्थानों से परिचित हो सकें। महिला पुस्तकालयों को अचल न रहने देकर चल बनाया जाय। पुस्तकें घर-घर पहुँचाने और वापिस लाने का प्रबन्ध करने से ही इनका समुचित लाभ संभव हो सकेगा। बाल साहित्य भी इन पुस्तकालयों का अविच्छिन्न अंग माना जाय।  
(१५) गृह उद्योगों के प्रशिक्षण एवं संगठन के तन्त्र जगह-जगह खड़े किये जाय। इस कार्य को व्यक्तिगत रूप से व्यवसायिक आधार पर भी चलाया जा सकता है पर उत्तम यही है कि उसे सामूहिक रूप से सहकारिता के आधार पर चलाया जाय। कच्चा माल देने, तैयार मोल खरीदने और निर्माण में प्रवीणता बढ़ाने का प्रशिक्षण देने से ही गृह उद्योग पनप सकते है। नारी स्वावलम्बन की दृष्टि से इस प्रकार के प्रबन्ध जगह जगह किये जाये।
(१६) विशाल परिवार-लार्जर फैमिली स्तर के प्रयोग यथा संभव सर्वत्र किये जाय। अलग-अलग चूल्हे जलाने से व्यय होने वाली शक्ति की बर्बादी बचाई जा सकती है यदि कई परिवारों का एक संयुक्त रसोई घर चले। इसी प्रकार बच्चों के संभालने के लिए भी संयुक्त व्यवस्था की जा सकती है। इससे भोजन पकाने का एक नया उद्योग विकसित होगा। इससे कितनी ही बेकार महिलाओं को आजीविका मिलेगी। साथ ही सुयोग्य प्रतिभाओं को अधिक महत्त्वपूर्ण काम कर सकने को सुविधा मिल सकेगी।
 
कम्यून संयुक्त व्यवस्था को ही कहते हैं। भारत में चल रही संयुक्त परिवार प्रथा के मूल में भी यही तथ्य काम करते हैं। इस पद्धति को अधिक उपयोगी एवं अधिक व्यवहारिक बनाने की प्रक्रिया का नाम लार्जर फैमिली प्रक्रिया है।
(१७) नारी शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत स्वास्थ्य संरक्षण, वैज्ञानिक आहार शास्त्र, सुधरे हुए रसोई घर, ईंधन बचाने, शिशु पालन, टूट-फूट की मरम्मत, शाक-वाटिका, वस्त्रों की धुलाई तथा सुरक्षा, स्वच्छता, चूहे दीमक आदि से बचाव, रोगी की परिचर्या, आमदनी और खर्च का सन्तुलित बजट, पारिवारिक शिष्टाचार का सद्व्यवहार, घरेलू विग्रहों का निपटारा, असन्तुलन और उद्योगों का निराकरण, परिवार में पनपती दुष्प्रवृत्तियों के प्रति सतर्कता, अनौचित्य से संघर्ष, माधुर्य का अभिवर्धन विनोद और उल्लास का वातावरण, स्नेह और सौजन्य क अस्त्र की संचालन कला, घर को कलाकेन्द्र बनाने की प्रवीणता, दम्पत्ति जीवन की सरसता के साथ प्रजनन भार से न लादने का कौशल, अतिथि सत्कार की मर्यादा, कुरीतियों के कुचक्र से होने वाली क्षति से आत्म रक्षा, बड़े बड़ों का तुष्टिकरण जैसी अनेकों पारिवारिक विकास से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान बना सकने का तर्क संगत महत्त्वपूर्ण एवं व्यवहारिक मार्ग दर्शन नारी को मिल सके, इसकी व्यवस्था अलग से उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
(१८) अपव्यय की रोकथाम पर ध्यान दिया और दिलाया जाय, फैशन के नाम पर चल रहे उद्धत बचकानेपन को निरस्त किया जाय। सादगी और शालीनता के परिधानों को सराहा जाय। सुरुचिपूर्ण व्यवस्था का अभ्यास कराया जाय।
(१९) अनीति की कमाई का महिलाएँ विरोध करें। वे अपने मर्दों को समझायें कि नीति का धन ही फलता-फूलता है। कम खर्च में गुजारा करने के लिए वे तैयार हैं, पर अनीति का धन स्वीकार न करेंगी। इस प्रकार नारी के विरोध से आर्थिक भ्रष्टाचार सरलता पूर्वक दूर हो सकता हैं।
(२०) अन्न की बर्बादी रोकने के लिए विशेष रूप से ध्यान रखा जाय। न तो अनावश्यक पकाया जाय और न अति आग्रह पूर्वक परोसा जाय। जूठन छोड़ने की आदत बच्चों से लेकर बड़ों तक में पनपने न पाये, इसका ध्यान रखा जाय। देश में अन्न की कमी है। सप्ताह में एक दिन मात्र शाकाहार का उपवास रखा जाय। भोजनालय में अन्न का उपयोग घटाने और शाक भाजी की मात्रा बढ़ाने का प्रयास किया जाय।
(२१) समाज में फैली दुष्टता और भ्रष्टता से जूझने का साहस महिलाओं में भी उभारा जाय। खाद्य-पदार्थों में मिलावट, कम तोल, कम नाप, मुनाफाखोरी, रिश्वतखोरी, करचोरी, जमाखोरी, रिश्वत आदि आर्थिक अनाचारों को रोकने और पकड़वाने के लिए प्रखरता बनाये रखी जाय।
(२२) सरकारी प्रचार तन्त्र बहुत समृद्ध और सम्पन्न है। रेडियो, टेलीविजन आदि के माध्यम से नारी समस्या की ओर ध्यान देने के लिए जन मानस तैयार किया जा सकता है। सरकारी पत्र-पत्रिकाएँ विभिन्न भाषाओं में अनेकों निकलती हैं। जिनकी पहुँच उन सूत्रों तक हो, उन्हें प्रयत्न करना चाहिए-इन माध्यमों का अधिकाधिक उपयोग नारी उत्कर्ष का वातावरण बनाने के लिए हो सकें।
(२३) सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ सके ,, इसके लिए जहाँ सम्भावना हो, वहाँ उन्हें चुनाव के लिए खड़ा किया जाय। ताकि वे उस तन्त्र को महिला कल्याण के लिए अधिक प्रयुक्त कर सकें। इससे महिला वर्ग का साहस और अनुभव भी बढ़ेगा। सम्भव हो तो महिला प्रतिनिधियों की संख्या का नियत अनुपात इन संस्थाओं में रखने का प्रयत्न किया जाय।
(२४) प्रसूति गृहों की, प्रशिक्षित दाइयों की, महिला तथा शिशु चिकित्सालयों की सुविधाएँ अधिक बढ़ सकें, ऐसा प्रयत्न सरकारी तन्त्र के माध्यम से करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अधिक कन्या विद्यालयों की स्थापना, निजी विद्यालयों को अनुदान सुविधा आदि के सम्बन्ध में भी सरकार बहुत कुछ कर सकती है। परित्यक्ताओं, अनाश्रितों, अवैध गर्भ धारण करने वाली महिलाओं को सरकारी आश्रय मिल सके ऐसे प्रयत्नों का अधिक विस्तार कराया जाय।
 
उपरोक्त २४ सूत्री कार्यक्रम की तरफ दृष्टि दौड़ाने पर ऐसे अनेक कार्य सामने आ सकते हैं, जो नारी उत्कर्ष में सहायक सिद्ध हो सकें। इन्हें कार्यान्वित करने के लिए पूँजी, प्रतिभा एवं साधनों की जरूरत पड़ेगी। सम्पन्न, समर्थ और प्रभावशाली लोग यदि उत्साह दिखायें और इन कार्यों को हाथ में लें तो निश्चय ही महिला पुनरुत्थान की आवश्यकता जल्दी और अच्छी तरह पूर्ण हो सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



64.    मानवी सभ्यता की जननी परिवार संस्था
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

नव सृजन के अति महत्त्वपूर्ण क्रिया-कलापों में परिवार-निर्माण को मूर्धन्य माना जाना चाहिए। यह संकेत अभियान को आरम्भ करते ही कर दिया गया था। गायत्री-परिवार, युग निर्माण परिवार, अखण्ड ज्योति परिवार आदि नामों में अपने संगठन का स्वरूप सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता रहा है। परिवार गठन को प्रजातन्त्र और राजतन्त्र का समन्वय कह सकते हैं। कुलपति का अनुशासन परिवार के सदस्य मानते हैं और परिवार के हित चिन्तन तथा सुझाव परामर्श का कुलपति ध्यान रखता है। प्रगाढ़ आत्मीयता, शुभेच्छा और सहकारिता जैसे सुदृढ़ सूत्रों से वह परिकर बँधता है और एक दूसरे को हर घड़ी सुविधा, प्रसन्नता प्रदान करते हुए सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है, यही सामूहिक प्रगति का सच्चा मार्ग है।

समाज का गठन इसी आधार पर होना चाहिए। वसुधैव कुटुम्बकम् का सूत्र हर व्यक्ति की भाव संवेदना और विचारणा पर छाया रहना चाहिए इसी अति सरल, अति स्वाभाविक और परम श्रेयस्कर रीति-नीति का जन-जन को अवलोकन करना चाहिए। यही है युग सृजन का तत्त्वदर्शन, जिसे इस अभियान को आरम्भ करते समय संगठन के नाम के साथ जोड़ा और प्रत्येक संबद्ध व्यक्ति को अवगत कराया गया था। उज्ज्वल भविष्य की समस्त संभावनाएँ इसी मान्यता के क्रियान्वित होने पर केन्द्रीभूत है। संगठन के प्रत्येक घटक सदस्य को परिजन कहा जाता रहा है। परिजन अर्थात् कुटुम्बी संचालक एवं संचालितों को ही कुटुम्बी बन कर रहना नहीं है वरन् सभी संबद्ध व्यक्तियों को परस्पर कौटुम्बिकता का प्रगाढ़ परिचय देना है, यही इस मिशन की आचार संहिता का तत्त्वदर्शन है। अन्य संगठन उथले आधारों पर खड़े होते हैं। उत्तेजना के वातावरण में जीते और परिस्थितियाँ बदलते ही बिखरते रहते हैं। उथले आधार पानी के बबूले से बड़ा उदाहरण प्रस्तुत भी नहीं कर सकते।

आर्थिक छीना झपटी, वर्ग संघर्ष, आक्रमण संरक्षण, अपनों का पक्ष समर्थन, असुविधाओं का निराकरण यही है आज के संगठनों के प्रेरणा स्रोत। यह सभी विग्रहों और अनर्थों के रहने तक ही जीवित रह सकते हैं। आवश्यक नहीं कि विकृतियाँ देर तक ठहरें अथवा वर्तमान स्वरूप में ही बदलती रहें। हवा के दबाव से बादलों की आकृतियाँ बदलती रहती है और कई तरह के परिवर्तनों से परिस्थितियों में हेर-फेर होता है। उसी दशा में उत्तेजना का कारण बदलते ही उस आधार को लेकर खड़े होने वाले और जीवित रहने वाले संगठन भी समाप्त हो जाते हैं। किसी समय के प्रचण्ड आन्दोलनों में बंग-भंग, नमक सत्याग्रह, असहयोग, खिलाफत, बमक्रान्ति, गदर आदि उल्लेख किया जा सकता है अपने समय में वे गगनचुम्बी बने हुए थे। अब न वे संगठन कहीं दिखाई पड़ते और न उनकी गतिविधियों का कोई अस्तित्व है।

भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्घटना, दुर्भिक्ष, युद्ध आदि कारणों से होने वाली क्षति को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े प्रयास आरम्भ होते हैं। उन दिनों सभी का ध्यान उन पर केन्द्रित रहता है किन्तु स्थिति सँभलते ही वह सारा सरंजाम बिखर जाता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि निषेधात्मक कारणों के आधार पर खड़े होने वाले संगठन स्थाई नहीं हो सकते। स्थायी तो मात्र सृजन है। नव निर्माण की प्रक्रिया को स्थायित्व प्रदान किया जाता है। इसलिए उसके आधार को सृजन समर्थक रखा गया है। इस संदर्भ में परिवार संस्था के नाम को प्राथमिकता दी जाती है यह मानवी सभ्यता की जननी है। पारिवारिकता पहले उत्पन्न हुई सभ्यता पीछे जन्मी। यदि मनुष्य में यह प्रवृत्ति न हो तो उसकी स्थिति जलाशयों में रहने वाले मत्स्य, मेढकों और आकाश में उड़ने वाले मक्खी-मच्छरों से अधिक अच्छी न होती। विकास युग में प्रवेश करने का प्रथम चरण परिवार गठन के रूप में ही सामने आया अन्यथा बन्दरों की औलाद कहा जाने वाला मनुष्य अब तक भी वन मानुषों की तरह जीवनयापन करता और अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़ता दृष्टिगोचर होता। परिवार संगठन सृजन उद्देश्यों को लेकर खड़ा हुआ है। इसलिए वह अक्षय वट की तरह अमर है। दिन बीतते जाते हैं और उसकी जड़ें मजबूत होती जाती हैं।

सामाजिक और आर्थिक आधार पर लार्जर फैमिली सिद्धान्त को मान्यता मिल चुकी है। अगले दिनों उसका प्रयोग ही नहीं, प्रचलन भी होने जा रहा है। दर्शन और अध्यात्म ने उसे पहले से ही मूर्धन्य ठहराया है और वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता को सर्वतोमुखी प्रगति और शान्ति का आधार तत्व बताया है उसी सनातन सत्य पर से धूल झाड़ने, माँज रगड़ कर निखारने, व्यवस्थापूर्ण सजाने का कार्य अपने मिशन ने हाथ में लिया है। उसकी उपयोगिता और सम्भावना के सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते।

गायत्री परिवार और युग निर्माण परिवार ये दो नाम नहीं वरन् एक ही प्रगतिक्रम के दो चरण है, जिन्हें परस्पर पूरक अन्योन्याश्रित कहा जा सकता है। गायत्री दर्शन है और युग निर्माण कार्यक्रम। एक से प्रेरणा मिलती है दूसरे से दिशा। गायत्री आत्मदर्शन का नवनीत है। ऋतम्भरा प्रज्ञा की उच्चस्तरीय दूरदर्शिता अपनाने में ही मनुष्य का आत्यान्तिक हित साधन है। आस्थाओं के क्षेत्र की विकृतियों का निष्कासन और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन जिस कौशल एवं उपकरण से किया जाता है, उसे एक शब्द में गायत्री कह सकते है। भाषा एवं आग्रह की कठिनाई से नाम दूसरा भी हो सकता है, किन्तु प्रगति और शान्ति की चिरस्थाई आधारशिला ऋतम्भरा, प्रज्ञा, गायत्री के अतिरिक्त और कुछ हो सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं बनती। गायत्री परिवार को इसी दर्शन के भाव सूत्र में बँधा हुआ परिवार समझा जा सकता है। उपासना से आरम्भ होने वाला प्रयोग अन्ततः दर्शन को हृदयंगम करके भी रहेगा ही।

युग निर्माण का तात्पर्य है प्रचलन के प्रवाह को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़-मरोड़ देना। व्यक्ति को धनी, विद्वान, बलिष्ठ, समर्थ, सिद्ध बना देने से सामूहिक प्रगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सामर्थ्य तो वातावरण में होती है। हवा के दबाव से पत्ते मुड़ते हैं। वातावरण के दबाव से मनुष्य खिलौनों की तरह ढलते हैं। अस्तु उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए वैयक्तिक उन्नति से भी अधिक ध्यान इस तथ्य पर दिया जाना है कि सामूहिक प्रचलनों में आवश्यक हेर-फेर हो और उसके प्रवाह में लोगों को तिनकों की तरह बहने में सुविधा प्रतीत हो। आँधी के साथ पत्ते उड़ते हैं और तूफानों के साथ धूलि के कण आसमान तक पहुँचते हैं। युग प्रवाह की गति और दिशा यदि उत्कृष्टता की दिशा में चल पड़े तो जन-जन को अलग से समझाने, धमकाने की आवश्यकता न पड़ेगी।

संक्षेप में आदर्शवादी वातावरण बनाने के व्यापक प्रयास को युग निर्माण कह सकते हैं। ऋतम्भरा प्रज्ञा से प्रगट भाव सम्वेदनाओं का क्रियान्वयन युग निर्माण में ही होना चाहिए। अस्तु उसे दूसरा चरण कह सकते हैं। ज्ञान की सार्थकता तभी है जब वह कर्म में परिणित हो। गायत्री परिवार को स्थापना और युग निर्माण परिवार को प्रक्रिया कहा जाय तो दोनों के मध्यवर्ती तालमेल सहज ही समझ में आ सकते हैं और किसी भ्रम में पड़ने की अपेक्षा दोनों को प्रगति क्रम पर बढ़ते दो चरणों का सम्मिलित उपक्रम समझा जा सकता है।

ऋतम्भरा प्रज्ञा और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का समन्वित स्वरूप क्या बन सकता है? इसके लिए नये सिरे से खोजबीन करने की आवश्यकता नहीं। पुराना राजमार्ग ही सुधार, सम्हाल लिया जाय तो पगडंडी खोजने और जंजाल में भटकने की आवश्यकता न पड़ेगी। धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया चिर परीक्षित है। दूरदर्शियों ने मानव जीवन और समाज संगठन के हर पक्ष को ध्यान में रखते हुए इस राजमार्ग का निर्धारण किया है। इसमें श्रद्धा और प्रखरता के लिए समान रूप से स्थान है। आज का पर्यवेक्षण करना व्यर्थ है। इन दिनों विकृतियों ने अकेले धर्म पर ही आक्रमण नहीं किया है। लोक व्यवहार के हर क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों के आधार पर ही यदि उसे बहिष्कृत किया जाना हो तो फिर अकेला धर्म ही नहीं बचेगा। शासन, समाज, व्यवहार, विनोद, उद्योग, दर्शन आदि के सभी क्षेत्रों की स्थिति को अवांछनीय घोषित करना पड़ेगा।

बात परिवार शब्द की व्याख्या को लेकर आरम्भ हुई और नव सृजन की कार्य पद्धति तक आ पहुँची। इतने पर भी तारतम्य वही बना हुआ है कि पारिवारिकता ही गौरवशाली अतीत की पृष्ठभूमि रही है और उसी पर उज्ज्वल भविष्य की आशाएँ केन्द्रित हैं। सतयुग में मनुष्यों की आकाँक्षाएँ और गतिविधियाँ आत्मीयता की भावना और पारिवारिकता की रीति-नीति पर आधारित थी। देव मानवों का समुदाय उन दिनों किस प्रकार धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ बना सका, इसका पुनः परीक्षण करना हो तो एक बार उन्हीं आस्थाओं और प्रथाओं को अपनाकर यह अनुभव किया जा सकता है कि अभावों और समस्याओं का हल किस प्रकार जादुई चमत्कार के साथ होता है और वर्तमान साधनों के सदुपयोग भर से किस प्रकार प्रगति और समृद्धि की, प्रसन्नता और आशा की परिस्थितियाँ अनायास ही बनती चली जाती है।

पारिवारिकता भौतिक भी है और आध्यात्मिक भी। भौतिक इस अर्थ में कि उसकी उत्कृष्टता को स्वर्ग में और निकृष्टता को नर्क में परिणत होते हुए इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आध्यात्मिक उस अर्थ में कि श्रेष्ठता का दर्शन और आदर्शवादी व्यवहार को अभ्यास में उतारने के लिए इससे अच्छा और कोई सरल स्वाभाविक कार्यक्षेत्र बन सकने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतएव नव सृजन के लिए आधारभूत तथ्य परिवार संस्था का नव निर्माण नितान्त आवश्यक समझा गया और मिशन के संगठन का स्वरूप एवं गतिविधियों का निर्धारण एक ही परिवार शब्द के अन्तर्गत कर दिया गया। अब उसी घोषणा को अधिक तत्परता के साथ क्रियान्वित करना है। इस कर्तव्य के लिए जितनी शक्ति और सामर्थ्य अर्जित करनी थी अब उतने समय में वह भली प्रकार जुट भी गई है।

पारिवारिकता एक आदर्श है जिसे गृही, वैरागी सभी समान रूप से अपने चिन्तन और व्यवहार में भली प्रकार उतार सकते हैं। उससे विवाहित या अविवाहित होने, संतान पैदा करने का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह अपनी इच्छा या सुविधा की बात है। इससे पारिवारिकता की आदर्शवादिता के साथ सीधा सम्बन्ध तनिक भी नहीं है। यो वंश, परिवार में भी विश्व परिवार की ही तरह सद्भावनाओं का विकास, विस्तार करने में कोई कठिनाई भी नहीं है। यह तथ्य इसलिए उजागर किया गया है कि परिवार अभियान का अर्थ कोई विवाह और प्रजनन के साथ न जोड़ने लगे और पशु प्रवृत्तियों को आदर्शवादिता का प्रतीक ठहरा कर उसे आवश्यक सिद्ध न करने लगे।

विवाह गठन और प्रजनन एक सृष्टि क्रम है उसे न निरुत्साहित करने की आवश्यकता है, न प्रोत्साहित करने की। वह प्राणि स्वभाव का सहज प्रवाह अनादि काल से चलता आ रहा है और अनन्त काल तक रहेगा। परिवार बसे हुए हैं और बसे ही रहेंगे। इसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता उन्हें नहीं है जो युग सृजन का, प्रज्ञावतरण का महान उद्देश्य लेकर चले हैं। उन्हें तो इतना ही सोचना और करना है कि पारिवारिकता की उदार सद्भावना का अधिकाधिक विकास कैसे हो? कुटुम्ब तो असंख्य है पर पारिवारिक सद्भावना का जिनमें दर्शन हो सके, वे कठिनाई से थोड़े ही ढूँढ़े जा सकेंगे। शेष तो सराय, जेलखाने, भेड़वाड़े की तरह खाने, सोने के आश्रय भर बन कर रह रहे हैं। काम कौतुक, शिशु वात्सल्य और निर्वाह व्यवस्था के सूत्र ही किसी प्रकार कुटुम्बों को साथ रहने की विवशता में जकड़े रहते हैं। अन्यथा वे निरन्तर चलने वाली आपाधापी से टकरा कर बिखरते, जुड़ते और अराजकता का वातावरण उत्पन्न करते हैं।

परिवार निर्माण का एक कार्यक्रम कुटुम्बों में पारिवारिकता की सदाशयता का प्रवेश करना और घर घरौंदों में स्वर्ग का उल्लास अवतरित करके दिखाना भी है। इसे आरम्भिक और सीमित प्रयोजन कह सकते हैं। बड़ा और व्यापक उद्देश्य यह है कि व्यक्ति के दृष्टिकोण और आचरण में उन सद्भावनाओं का समावेश हो, जिनमें कौटुम्बिक आत्मीयता और उदार सहकारिता का पग-पग पर परिचय मिलता रहे। बड़ा उद्देश्य वह है जिसमें समाज की पूरी रचना ऐसी हो, जिसमें समस्त मनुष्य समुदाय परस्पर कुटुम्बियों जैसा सद्भाव सम्पन्न व्यवहार करें। दुःख बँटाने की सामूहिक प्रगति एवं प्रतिष्ठा को निजी सफलता मानने की प्रवृत्ति पारिवारिकता की कसौटी है।

देश, धर्म, जाति, भाषा आदि की संकीर्णताओं तथा धन, वैभव, पद आधिपत्य, अहंकार आदि की उच्छृंखलताओं से जो अनाचार सर्वत्र फैला हुआ है उसका निराकरण पारिवारिकता की सदाशयता का विस्तार किये बिना और किसी तरह हो ही नहीं सकता। पारिवारिकता का विस्तार उन्हीं प्रयोजनों और कार्यक्रमों के साथ जुड़ा हुआ है जो चिन्तन और चरित्र को प्रभावित कर सके, सहकारिता और सद्भावनाओं का प्रचलन एवं प्रवाह उत्पन्न कर सके। परिवार निर्माण कुटुम्ब सुधार से आरम्भ हो सकता है। किन्तु उसका विस्तार तो तभी होगा जब उसे सद्भाव सम्पन्न सहकारिता के रूप में हर क्षेत्र में क्रियान्वित, विस्तृत एवं परिपुष्ट होता देखा जा सके। प्रज्ञा परिजनों का यह बृहत् संगठन सच्चे अर्थों में पारिवारिकता का परिचय दे सकने योग्य व्यक्तियों का समुदाय गठित करने के लिए विनिर्मित हुआ था। परिजनों का पारस्परिक व्यवहार इसी आधार पर विकसित होना चाहिए। उनकी सेवा साधना में अपने तथा दूसरों के कुटुम्बियों में पारिवारिकता का समावेश करने के लिए भाव-भरे क्रियाकलापों का प्रचलन करने में प्रकट परिलक्षित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त नव सृजन का लक्ष्य पूरा करने के लिए उन समस्त सद्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन होना चाहिए, जो धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण और लोक निर्माण का कार्यक्रम अपनाकर सदाशयता का वातावरण बनाने में जुटी हुई है। परिवार निर्माण अभियान को इसी प्रकार जागरूकता और तत्परता के साथ इसी दिशा में अगले दिनों अग्रसर होना है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



65.    जीवन सम्पदा का स्वरूप और सदुपयोग
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्वभावतः मनुष्य जीवन की आवश्यकताएँ बड़ी सीमित और स्वल्प है। उपार्जन में भी वह सरल हैं। बुद्धिहीन और अनगढ़ काया वाले प्राणी शरीर यात्रा के साधन सरलता पूर्वक जुटा लेते हैं, फिर कोई कारण नहीं कि विलक्षण काय-संरचना और अद्भुत बुद्धिमत्ता से सम्पन्न मनुष्य अपने निर्वाह में किसी कठिनाई का अनुभव करे। उदर पूर्ति के लिए अन्न, तन ढकने को वस्त्र और ऋतु प्रभाव से बचने के लिए आच्छादन जैसी कुछ ही आवश्यकताएँ हैं, जिन्हें हँसते खेलते कुछ ही घंटों के प्रयास से हर कोई उपार्जित कर सकता है। न किसी के सामने अर्थ संकट होना चाहिए और न खिलाड़ी जैसी मनःस्थिति रखने वाले पर चिन्ता परेशानियों का भार लदना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य जीवन का उपहार सुरदुर्लभ अनुदान के रूप में प्रदान किया है, साथ ही उसके साथ उच्चस्तरीय उत्तरदायित्व लाद दिये है। स्पष्ट है कि बड़े पद या गौरव जिन्हें प्रदान किये जाते हैं, उन्हें बड़ी जिम्मेदारियों से भी लाद दिया जाता हैं। सेनापति का पद, दर्जा सम्मान, अधिकार, वेतन आदि अन्यान्यों से बढ़ा-चढ़ा होता है, पर साथ ही उसके ऊपर जिम्मेदारियाँ भी इतनी अधिक होती हैं कि तनिक सा प्रमाद करने पर भी क्षम्य नहीं समझा जाता, वरन् कोर्ट मार्शल के निर्णयानुसार गोली से उड़ाया जाता है। सफाई कर्मचारी के प्रमाद की छोटी चेतावनी या प्रताड़ना से भरपाई हो जाती है, पर सेनापति को उतने भर से छुटकारा नहीं मिल सकता। कारण स्पष्ट है। सफाई कर्मचारी की लापरवाही से थोड़ी सी गंदगी बढ़ने भर की सीमित हानि होती है, किन्तु सेनापति की भूल से तो सारी सेना का ही नहीं पूरे देश का ही सर्वनाश हो सकता है। इसके विपरीत उसकी कुशलता एवं सूझ-बूझ के फलस्वरूप सारा देश सुरक्षित रह सकता है और समृद्धिवान बन सकता है। सेनापति को सम्मान, अधिकार, वेतन आदि का जो अनुदान मिलता है वह किसी का अनुग्रह नहीं वरन् सौंपी गई जिम्मेदारियों को ठीक तरह पालन कर सकने के लिए आवश्यक सुविधा भर है।

यही बात अन्यान्य उच्च अधिकारियों के सम्बन्ध में भी हैं। उन्हें कितने ही ऐसे साधन और सहायक मिलते हैं जो साधारण कर्मचारियों को उपलब्ध नहीं होते। इसमें किसी पक्षपात का आरोपण करने की आवश्यकता नहीं है।

मनुष्य जीवन की गरिमा न समझी जा सके तो उसे एक प्रकार से अभिशाप ही कहा जायेगा, क्योंकि वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक रुग्ण, चिन्तित, उद्विग्न और समस्याओं से ग्रसित पाया जाता हैं। पग-पग पर दुर्गति भी उसी की होती है और मरणोत्तर जीवन में वही सबसे अधिक कष्ट सहता है। इसके विपरीत यदि कोई यह समझ सके कि उसे ईश्वर के वैभव भंडार का सर्वोपरि उपहार उपलब्ध है, इसके साथ असंख्य संभावनाएँ अगणित विभूतियाँ जुड़ी हुई हैं तो उसके उत्साह का ठिकाना न रहेगा। साथ ही यह अनुभव भी होगा कि इतने बड़े पद का मिलना जहाँ अनुपम सौभाग्य है, वहाँ उसके साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों का भार भी कम नहीं हैं। मनुष्य जीवन ईश्वर का उपहार है, उसे सार्थक, सुखद और सफल बनाना मनुष्य का निजी उत्तरदायित्व है।

ईश्वर समदर्शी और न्यायकारी है, उसे न किसी से राग है न द्वेष, सभी को पात्रता में उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण होने का अवसर वह क्रमानुसार देता है। स्कूली छात्रों में से जो उत्तीर्ण होते है वह अगले दर्जे में चढ़ जाते हैं। जो अधिक अच्छे नम्बर लाते हैं, वे छात्रवृत्ति पाते हैं इतना ही नहीं बड़े चुनावों में भी उन्हीं को प्राथमिकता मिलती हैं। इसके विपरीत जो फेल होते रहते हैं वे साथियों में उपहासास्पद बनते, घरवालों की भर्त्सना सहते, अध्यापकों की आँखों में गिरते और अपना भविष्य अंधकारमय बनाते हैं। इसमें ईश्वर की विधि व्यवस्था को अन्य किसी को कोसना व्यर्थ है। मनोयोग और परिश्रम में अस्त-व्यस्तता कर लेने से ही छात्रों को प्रगतिशीलता का वरदान अथवा अवमानना का अभिशाप सहना पड़ता हैं। यह बाहर से मिला हुआ सोचा तो जा सकता है पर असल में होता है स्व उपार्जित ही। मनुष्य जीवन निस्संदेह सुर-दुर्लभ उपहार और ईश्वरी वरदान है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि उसका दुरुपयोग करना ऐसा अभिशाप भी है जिसकी प्रताड़ना मरने के उपरान्त नहीं, तत्काल हाथों-हाथ सहनी पड़ती है।

यह एक प्रकट रहस्य है कि बोलने, सोचने, कमाने, साधन जुटाने, घर बसाने, चिकित्सा, शिक्षा उपकरण, विज्ञान, वाहन, शासन, बिजली आदि की जो सुविधाएँ मनुष्य को मिली हैं वे सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली। अभ्यास में रहने के कारण इनका महत्त्व प्रतीत नहीं होता, पर यदि उसे अन्य जीवों की आँख में बैठकर देखा जाए तो प्रतीत होगा कि स्वर्ग और देवता की सुविधा का जो वर्णन है, वह पूरी तरह मनुष्य पर लागू होता है। भगवान ने ऐसा पक्षपात क्यों किया कि अन्य प्राणी जिन सुविधाओं से वंचित रहे उन्हें मात्र मनुष्य को दिया गया? मोटी दृष्टि से यह अन्याय या पक्षपात समझा जा सकता है किन्तु वास्तविकता कुछ दूसरी ही है। जीवों में से लम्बी अवधि के उपरान्त हर किसी को यह अवसर मिलता है कि वह सुयोग का लाभ उठाये और अपनी इस पात्रता का परिचय दे कि वह बड़े अनुदानों को उन्हीं कामों में खर्च कर सकता है कि नहीं, जिनके लिए कि वे दिये गये थे। निश्चित रूप से वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए यह अनुदान किसी को भी नहीं मिला है। यह पशु प्रवृत्तियाँ हेय से हेय योनि में भली प्रकार पूरी होती रहती है। इन सुविधाओं के लिए ऐसा अनुदान देने की उसे कोई आवश्यकता न थी। मनुष्य जीवन तो विशुद्ध रूप से एक काम के लिए मिला है-‘‘सृष्टा के विश्व उद्यान का भौतिक पक्ष समुन्नत और आत्मिक पक्ष सुसंस्कृत बनाने में हाथ बँटाने के लिए।’’

शासनाध्यक्ष अपना सुविस्तृत कार्य अकेले नहीं संभाल पाते है इसके लिए सुयोग्य पार्षदों एवं अफसरों की सहायता से काम चलाना पड़ता है। मनुष्य की गणना ऐसे ही राजकुमारों में की गई है। उसे सृष्टा ने मात्र इस विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि अपनी विशिष्ट प्रतिभा एवं क्षमता के सहारे इस विश्व उद्यान को अधिक समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में उसकी सहायता करें। सहायता वही कर सकता है जिसे उपयुक्त सुविधाएँ उपलब्ध हों। इस दृष्टि से भगवान ने उसे ऐसी संरचना की काया प्रदान की है जैसी अन्य किसी प्राणी को नहीं मिली। ऐसी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा दी है जिसका उदाहरण समस्त प्राणी समुदाय में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। इतनी प्रचुर साधन सामग्री प्रदान की है मानों सृष्टि सम्पदा का स्वामित्व ही उसे सौंप दिया गया हो। इसके अतिरिक्त पारस्परिक सहयोग सद्भाव का अनुदान मानवी समाज व्यवस्था के अनुरूप उसे मिलता रहता है। ऐसा आदान-प्रदान किसी अन्य समुदाय में नहीं मिलता। आनन्द केवल मनुष्य ही उठाता है। वात्सल्य की इतनी लम्बी और इतनी सरस शृंखला अन्यत्र मिल सकनी सम्भव नहीं। अभिभावकों और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन कौन करता है? मात्र मनुष्य ही है जिसे कर्मठता-विचारणा जैसे प्रत्यक्ष दैवी वरदान मिले हैं, इसके लिए प्यार, करुणा उल्लास, उमंग, आनन्द, सेवा आत्मीयता उदारता जैसी भाव संवेदनाओं की एक दुनिया अनोखी है जिसका स्पर्श करके व्यक्ति कवि, कलाकार, दार्शनिक, योगी और देवात्मा बनता है। इस सरसता के अमृत में डुबकी लगाकर वह अनुभव करता है कि अपनी काया वस्तुतः पंच तत्वों से बनी धरती पर रहते हुए भी स्वर्गीय संवेदनाओं के भाव क्षेत्र में बिना पंख लगाये ही विचरण कर रही है। श्रद्धा और भक्ति ऐसे अनुदान हैं, जिसे निरन्तर बरसाने वाले ईश्वरीय अनुदानों में बिना संकोच गिना जा सकता है। इनके अतिरिक्त उन दैवी सहायताओं का क्षेत्र अलग ही है जो समय-समय पर सत्प्रयोजनों के लिए कदम बढ़ाने वालों को मिलते रहते हैं। वे आश्चर्य जनक सफलताएँ पाते हैं और सिद्धि सम्पन्न महामानव कहलाते है। अज्ञानग्रस्त आँखें यदि उसे न देख सके तो उस क्षेत्र के लिए अन्य किसी प्राणी के शरीर में प्रवेश करके उसकी आँखों से यह परखा जा सकता है कि उसकी और मनुष्य की स्थिति में जमीन आसमान जैसा कितना बड़ा अन्तर है?

यह अन्तर न तो अकारण है और न पक्षपात युक्त। ईश्वर ने मनुष्य को प्राणि जगत में सबसे अधिक सज्जन और जिम्मेदार माना है और विश्वास किया है कि उसे जिस प्रयोजन के लिए अतिरिक्त साधन मिले हैं वह ईमानदारी के साथ उसी में उन्हें प्रयुक्त करेगा। बड़ों की विशेषता एक ही होती है कि वे बेईमान नहीं होते। विशिष्ट उपयोग के लिए मिले साधनों का उपयोग वे स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं करते। ऐसा रहा होता तो खजांची अमीर बनने में मात्र एक घण्टे की हेरा-फेरी पर्याप्त होती। सेनाध्यक्ष शत्रु से मिलकर बादशाहत प्राप्त कर लेते। पर आमतौर से ऐसा होता नहीं। पिछड़े वर्ग के लोग अपनी क्षुद्रता और धूर्तता का परिचय देते रहते है, पर संसार में एक वर्ग महानों का भी है। उन्हीं की विशेषताओं पर यह धरती टिकी हुई है और सृष्टि का व्यवस्था क्रम चल रहा है।

मनुष्य जीवन अपने इस लोक की सर्वोपरि कही जाने वाली सम्पदा है। इसके दो ही उपयोग है आत्म कल्याण और विश्व कल्याण। आत्म कल्याण यह कि वे सदुद्देश्य में निरत रहकर आत्म संतोष, लोक सम्मान, दैवी अनुग्रह प्राप्त करते हुए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करें। विश्व कल्याण यह है कि ईश्वर की इच्छा पूरी करें, सृष्टि में सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में प्रयत्नशील रहें। चिन्तन की उत्कृष्टता और व्यवहार की आदर्शवादिता ही वे तत्व है, जिनके सहारे इस धरती की सुख शान्ति और प्रगति, समृद्धि फलती फूलती है। यदि उन्हें निरस्त कर दिया जाए तो फिर पदार्थ वैभव कितना ही प्रचुर क्यों न हो मात्र विनाशकारी दुष्परिणाम ही उत्पन्न करेगा। मूल्य वैभव का नहीं उसके उपयोग का है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है।

यह जीवन के स्वरूप और सदुपयोग का चर्चा प्रसंग जागृत आत्माओं के सामने गीता बोध की तरह है। इसे विषम बेला में विशिष्ट प्रयोजन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इन दिनों युग संधि का पावन पर्व है। ऐसा पर्व जो लाखों वर्ष उपरान्त ही आता है। ऐसा पर्व जिसमें भगवान् स्वयं लीला संचार करते हैं और जागृतों को अपना सहचर बनाने का स्वर्ण सुयोग प्रदान करते हैं। इन दिनों मनुष्य जाति के महाविनाश या उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण हो रहा हैं। इन दिनों जागरूकों के स्वल्प श्रम से ऐसा सुयोग पाने का अवसर मिल रहा है जैसा कि जन्म जन्मान्तरों तक योग तप करने वालों में से कदाचित ही किसी को मिलता है। जो समय की प्रकृति को जानते हैं वे यह भी समझते है कि सुयोग सदा नहीं आते वे बिजली की तरह कभी-कभी ही कौंधते और घटा की तरह कभी-कभी ही बरसते हैं, जो समय का लाभ उठा लेते हैं, वे अपने से हुई दूरदर्शिता को सराहते नहीं थकते।

युग संधि की इस पावन बेला में जो लोभ की हथकड़ी और मोह की बेड़ियाँ कुछ ढीली कर सकेंगे वे देखेंगे कि न व्यस्तता का बहाना ढूँढ़ना पड़ेगा और न चिन्ता, समस्याओं की दुहाई देनी पड़ेगी। निश्चिन्त इस दुनियाँ में एक भी नहीं है। मकड़ी के जाल बुनते रहने का कोई अन्त नहीं। उस व्यस्तता से कैसे छूटा जा सकता है, जो आवश्यकता की सहज पूर्ति होते रहने पर भी तृष्णा की खाई पाटने के लिए बुना गया है। यह खाई रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, सिकन्दर, नेपोलियन जैसे महाप्रतापियों से नहीं पटी तो बेचारे क्षुद्रजनों से उसे पूरा करना और व्यस्तता से छुटकारा पा सकना सम्भव ही कैसे हो सकता है?

निर्वाह की गुत्थी सुलझाने के ऐसे उपाय हैं। परिवार को सुसंस्कारी बनाने भर की आवश्यकता हो तो इसके ९९९ रास्ते हैं, पर यदि कुटुम्बियों को अपंग बनाकर बिठा देने और उन्हें स्वर्ण अलंकारों से लादने का मन हो तो फिर कोल्हू के बैल की तरह हड्डियाँ निचोड़ने के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं है। तब उतने से भी काम चलने वाला नहीं है। आत्मा और ईमान को भी उसी कोल्हू में पेलने के लिए अपनी समर्थता के साथ-साथ ही डालना पड़ेगा। इतने पर भी कहा नहीं जा सकता कि इतने भर से राधा का नाच ठन सकने लायक नौ मन तेल जुट पायेगा या नहीं।

परिवार के सब लोग मिल जुलकर परिश्रम करें। संचित पूँजी को भूमि में गाड़ने के स्थान पर उसी की हेरा-फेरी करें तो लालच घट सकता है, जो अर्थ संकट बनकर राक्षस की तरह मुँह बाँधे खड़ा रहता है। सादगी और मितव्ययता अपनाने पर प्रायः आधे खर्च की कटौती हो जाती है। संचित पूँजी समर्थ उत्तराधिकारियों को मिलनी ही चाहिए यह लकीर कानूनी तो हो सकती है, पर उसमें नैतिकता और आध्यात्मिकता का रत्ती भर भी पुट नहीं है। जो संचय सन्तान को समर्थ बनाने के अतिरिक्त बच जाता है वह न्याय और विवेक की दृष्टि से विशुद्ध समाज सम्पदा है। प्रजातन्त्री सरकारें मृत्यु कर कड़ा कर रही हैं। श्राद्ध अर्थात् पूर्वजों की संचित सम्पदा का सत्प्रयोजनों के लिए नियोजन। साम्यवाद इस सन्दर्भ में और भी अनावश्यक संचय को बल पूर्वक समाज सम्पदा के रूप में अधिकृत करने के लिए कृत संकल्प है। किसी भी न्याय कसौटी पर पूर्वजों की संचित सम्पदा के लिए समर्थ उत्तराधिकारी अपना अधिकार नहीं जता सकते। सच तो यह है उनने शिक्षा, पोषण, विवाह, व्यवसाय आदि माध्यम से पूर्वजों का जो ऋण अर्जित किया हैं, उसे उन्हें वृद्धावस्था की सेवा सुविधा में अथवा उनके यश पुण्य की वृद्धि में वापस करने का निश्चय करना चाहिए। यदि वे आनाकानी करे तो उन्हें नैतिक दबाव से इसके लिए बाधित किया जाना चाहिए। बच्चों का शिक्षित, स्वावलम्बी, सुसंस्कारी बनाना तो अभिभावकों का कर्तव्य हैं, पर इस प्रचलन का तनिक भी औचित्य नहीं है कि समर्थों को पूर्वजों की सम्पदा का उपभोग हरामियों की तरह करने का अवसर मिले।

पर कुछ मौलिक प्रश्न है जिन्हें जीवन सम्पदा का सदुपयोग करने की बात सोचने वाले यदि समय रहते अपने दृष्टिकोण में समाविष्ट कर लें, तो किसी को भी उस दबाव में पिसना न पड़ेगा जो व्यस्तता, चिन्ता, समस्या आदि के नाम से जन-जन पर छाया हुआ है। तथ्यतः किसी के सामने कोई ऐसी समस्या नहीं हैं जिसके कारण इन दिनों दिग-दिगन्त में गूँज रहे महाकाल की प्रेरणा-युग साधना और समय की पुकार की अवहेलना करते हुए आत्म प्रताड़ना सही जाय और इतिहास कारों की काया कलंकियों की सूची में अपने नाम का उल्लेख करने दिया जाए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार





66.     संघ शक्ति जागे, समाज को सुसंस्कृत बनाए  
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

 
व्यक्ति सुखी रहे, इसके लिए समुन्नत समाज की आवश्यकता है। समुन्नत समाज भी अपने आप नहीं बन जाता, उसमें उत्कृष्ट व्यक्ति घट जाते हैं और सामाजिक वातावरण में उत्कृष्टता बनाये रचाने के रचनात्मक प्रयास शिथिल जो जाते हैं तो समाज का स्तर गिर जाता है। समाज गिरेगा तो उस काल के व्यक्ति भी निकृष्ट, अधःपतित और दीन दुर्बल बनते चले जायेंगे। अच्छा समाज अच्छे व्यक्ति उत्पन्न करता है और अच्छे व्यक्ति अच्छा समाज बनाते है। दोनों अन्योन्याश्रित है। मुर्गी में से अण्डा, या अण्डे में से मुर्गी? बीज में से वृक्ष अथवा वृक्ष में से बीज की तरह है। यह प्रश्न भी है कि व्यक्तियों से समाज अथवा समाज से व्यक्ति? वस्तुतः दोनों इतने अविच्छिन्न है कि उन्हें पृथक किया ही नहीं जा सकता है। अच्छे व्यक्तियों की आवश्यकता हो तो अच्छा समाज बनाने के लिए जुटना चाहिए। अच्छा समाज बनाने पर ही श्रेष्ठ व्यक्तित्व की आवश्यकता पूरी होगी। सुख साधनों का अभिवर्धन और समुन्नत लोक व्यवहार का प्रचलन ही सर्वतोमुखी सुख शान्ति की आवश्यकता पूरी करता है और इस प्रकार का उत्पादन प्रखर प्रतिभा सम्पन्न सुसंस्कृत व्यक्ति ही कर सकने में समर्थ होते हैं।
 
निजी स्वार्थ सिद्धि की दृष्टि से विचारे अथवा परिवार के हित साधन की दृष्टि से देखें दोनों ही तरह यह आवश्यक हो जाता है कि सुसंस्कृत समाज में रहकर ही निर्वाह करने का अवसर मिले। बुरे लोगों के बीच बुरे वातावरण में अपनी तथा परिवार की प्रगति के लिए किये गये सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। जिस मुहल्ले में आग लगी हो, हैजा फैला हो उसमें रहने वाले स्वच्छताप्रिय अथवा जागरूक लोगों की भी सुरक्षा नहीं होती। सूखे के साथ गीला जलने की कहावत चरितार्थ होती है। चारों ओर दुष्ट के पड़ोस में रह रहा कोई सज्जन भी चैन से नहीं बैठ सकता। बैठना चाहे तो भी वे दुष्ट लोग शान्त रहने न देंगे। उपद्रव खड़े करके सन्तुलन बिगाड़ेंगे। अपने परिवार को सुसंस्कृत बनाने के लिए कुछ भी क्यों न किया जाता रहें, पड़ोस की गन्दी हवा अपना प्रभाव छोड़ेगी और निकृष्टता का आकर्षण भी उसी प्रकार की दुर्बुद्धि के संस्कार पैदा करेगा। वेश्याओं के पड़ोस में रहकर उनकी हरकतें भर देखते रहा जाय तो सदाचार की मानसिक मर्यादाएँ टूटे बिना न रहेंगी।
 
यदि समाज में अनैतिक, अवांछनीय, अपराधी तत्व भरे पड़े हो तो उनकी हलचलें, हरकतें किसी सन्त, सज्जन की उत्कृष्टता को सुरक्षित नहीं रहने दे सकती। विकृत समाज मे असीम विकृतियाँ उत्पन्न होती है और अनेक प्रकार के विग्रह उत्पन्न करती हैं। उनकी लपेट में आये बिना कोई नीतिवान व्यक्ति भी रह नहीं सकता। उसे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष आक्रमणों का शिकार होना पड़ेगा। जहाँ खाद्य पदार्थों में मिलावट का बोलबाला हो वहाँ स्वास्थ्य रक्षा पर ध्यान रखे रहने वाला व्यक्ति भी बीमार पड़े बिना नहीं रह सकता।
 
कुरीतियों और रूढ़ियों से भरे समाज में सामान्य मनोबल का सुधारवादी चीं बोल जायेगा और उसे सिद्धान्तवाद ताक पर रखते हुए समूहगत प्रवाह में बहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। दहेज के विरोधी और आदर्श विवाहों के समर्थक को भी जब अपनी जवान कन्या के लिए विवाह का कोई सुयोग बनता नहीं दीखता तो जाति बिरादरी वालों और दहेज लोभियों की शरण में ही जाना पड़ता है और उनके इशारों पर चलने के लिए विवश होना पड़ता है। सुविस्तृत समाज के विरुद्ध एकाकी खड़े रहने वाले तो कोई बिरले ही दुस्साहसी होते है, सामान्य मनोबल के लोग तो लड़खड़ा ही जाते हैं।  
 
शिक्षा में उद्दण्डता भरती चली जाय तो न तो अपनी लड़की का गृहस्थ चैन से बैठेगा और न बेटे की बहू घर में शान्ति रहने देगी। क्या जामाता क्या पुत्रवधू? निकले तो उसी शिक्षा संस्था से हैं, जहाँ उच्छृंखलता का निरन्तर बोलबाला रहता है। यह बच्चे जिस प्रकार का प्रशिक्षण पाते रहे है उसका प्रभाव उनके गृहस्थ पर न पड़े यह हो ही नहीं सकता। देश शिक्षा पद्धति से हमें क्या लेना देना, कहकर काम नहीं चल सकता। उसका प्रभाव अपने बच्चों के गृहस्थ जीवन पर पड़ेगा ही और फलस्वरूप अपनी बेचैनी भी बढ़ेगी ही।  
 
इसी प्रकार शासन की स्थिति, व्यापारियों की रीति नीति, अपराधों और अनैतिकता की वृद्धि, साहित्य और कला संगीत का प्रवाह मूर्धन्य व्यक्तियों का कर्तृत्व वर्ग संघर्ष आदि की विषाक्तता किसी सज्जन सद्गृहस्थ को शान्ति पूर्वक जीवन यापन नहीं करने दे सकती। वास्तविकता यही है कि व्यक्ति एकाकी निर्वाह नहीं कर सकता, उसे समाज से प्रभावित होना ही पड़ता है। इतना ही नहीं उस प्रवाह में जन साधारण की पीढ़ियों का मनःस्तर अनायास ही ढलता चला जाता है। बुरे वातावरण में केवल बुराई ही पनपती है। बुरे बढ़ते है और उनके उपद्रवों से बुरी परिस्थितियाँ ही उफनती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत रूप से किया गया स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, पूजा पाठ अथवा सज्जनोचित निर्वाह में कुछ सार नहीं रह जाता।  
 
व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण की तरह ही समाज निर्माण भी हमारे अत्यन्त आवश्यक दैनिक कार्यक्रमों का अंग माना जाना चाहिए। आने लिए हम जितना श्रम, समय, मनोयोग एवं धन खर्च करते है उतना ही समाज को समुन्नत बनाने के लिए लगाना चाहिए। यह परोपकार परमार्थ की दृष्टि से ही नहीं, विशुद्ध स्वार्थ साधन और सुरक्षा की दृष्टि से भी आवश्यक है।  
 
अपनी क्षुद्रता की संकीर्णता को व्यापक आत्मीयता में विकसित करना ही अध्यात्म तत्व दर्शन का मूलभूत प्रयोजन है। इस दृष्टिकोण को अपनाने पर ही संयम, सदाचार, सेवा एवं लोक मंगल के लिए संकल्प एवं उत्साह उत्पन्न होता है और उन्हें निरन्तर निबाहने के लिए साहस, विश्वास बढ़ता है। ईश्वर भक्ति इसी तात्त्विक दृष्टि का ही नाम है। इसी तत्त्वदर्शन का प्रतिपादन करने के लिए धर्म, अध्यात्म एवं ईश्वरवाद का विशालकाय कलेवर खड़ा किया गया है। स्वर्ग और मुक्ति जैसे अमरफल आत्म विस्तार के कल्पवृक्ष पर ही लगते है। साधना, उपासना, तपश्चर्या, योग-परायणता, वैराग्य, संन्यास, दान पुण्य, स्वाध्याय सत्संग एवं विविध विधि धर्म कृत्यों का एक मात्र प्रयोजन यही है कि आत्मा पर चढ़े हुए संकीर्ण स्वार्थपरता के वे कषाय कल्मष हट जाये जो वासना तृष्णा के लोभ मोह के भव बन्धनों में जकड़े रहते हैं। नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है। उदारता एवं सेवा साधना के जल साबुन से ही मनःक्षेत्र पर छाई हुई मलीनताएँ धोई जाती है। यह समस्त प्रयोजन समाज सेवा का व्रत धारण किये बिना सम्भव नहीं हो सकते। सेवा धर्म को अंगीकार किये बिना कोई व्यक्ति मात्र पूजा पाठ की टण्ट घण्ट अपनाये रहकर सच्चा अध्यात्मवादी नहीं बन सकता और न उसे आत्मिक प्रगति का लाभ मिल सकता है।
 
प्राचीन काल में साधु और ब्राह्मण वर्ग अपना समस्त जीवन लोक मंगल के लिए समर्पित करते थे। वानप्रस्थ आश्रम स्वार्थ की परिधि से निकलकर परमार्थ की कक्षा में प्रवेश करने की सन्धि बेला ही तो है। क्षुद्रता की, संकीर्णता की, आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुम्बकम् के देवत्व में विकसित परिणत करने का व्यावहारिक कार्यक्रम वानप्रस्थ के रूप में आप्त पुरुषों ने निर्धारित किया है। भारतीय संस्कृति की सुनिश्चित परम्परा है कि वैयक्तिक और पारिवारिक प्रयोजनों के लिए किसी को भी आधे से अधिक समय एवं मनोयोग नहीं लगाना चाहिए।
 
जीवन का पूर्वार्द्ध ब्रह्मचर्य गृहस्थ की भौतिक प्रगति के लिए पर्याप्त है। उत्तरार्द्ध को वानप्रस्थ एवं संन्यास के रूप में समाज के लिए समर्पित करना चाहिए। यह विधान इसीलिए है कि व्यक्ति को अपना महत्त्वपूर्ण अनुदान समाज निर्माण के लिए देना चाहिए। दान पुण्य का जो महात्म्य महत्त्व बताया गया है, उसके पीछे भी यही प्रयोजन है।
 
प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण उन्हें कहते थे, लो लोक मंगल के लिए सर्वतो भावेन आत्म दान करके उसी में तन्मय निमग्न हो जाय। उन दिनों देवालयों और तीर्थ स्थानों का निर्माण, जन कल्याण के लिए संचालित प्रवृत्तियों के केन्द्र संस्थान के रूप में होता था। उनका संचालन ऋषि कल्प, देव पुरुषों के हाथ में रहता था। जनता भी इस झंझट में नहीं पड़ती थी कि इन दिनों किन सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन को प्राथमिकता दी जाय? यह निर्णय साधु ब्राह्मणों की परिषद ही करती थी।
 
धार्मिक जनता साधु ब्राह्मणों को, तीर्थ, देवालयों को दान इसी के लिए देनी थी कि उसके द्वारा समाज में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का प्रयोजन पूरा होता रहे। इन लोक सेवा के निमित्त बने धर्म केन्द्रों को भगवान का निवास गृह माना जाता था और वहाँ जाकर लोग श्रद्धा से मस्तक नवाते थे एवं संचालित सत्प्रवृत्तियों में योगदान देने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। तीर्थों में विशेष समारोह भी समय समय पर इसी आह्वान के लिए होते थे कि इन अवसरों पर अधिक संख्या में अधिक भावना सम्पन्न लोग एकत्रित हों और समाज निर्माण के लिए तत्कालीन योजनाओं को अग्रगामी बनाने के लिए व्यावहारिक मार्ग दर्शन एवं अभीष्ट उत्साह प्राप्त करें। समय दान, क्षमा दान, धन दान का एक मात्र उद्देश्य समाज के पिछड़ेपन को दूर करना, पिछड़े वर्गों को ऊँचा उठाना है। इस प्रयोजन को पूरा करने वाले व्यक्तियों तथा संगठनों को पोषण करना है।  
 
पिछड़े वर्ग में अन्धे, कोढ़ी, अपंग, दीन, दुर्बल ही नहीं आते वरन ऐसे अज्ञानी, कुमार्गगामी, उद्दण्ड एवं दुराग्रही भी आते हैं जो औचित्य एवं विवेक का तिरस्कार करके अवाञ्छनीय लोक प्रवाह में बहते हुए चले जा रहे है। अन्न वस्त्र अन्धे अपंगों को बाँटने भर से समाज सेवा की इतिश्री नहीं हो जाती, वरन उनकी सहायता का भी ध्यान रखना चाहिए जो अविवेक का शिकार होकर घिनौना और दुराग्रही जीवन ही रहे है। वस्तुतः यह वर्ग और भी अधिक दया का पात्र है। सत्प्रेरणाएँ देकर यदि उन्हें सन्मार्गगामी बनाया जा सके तो गन्दे नाले में गिरकर नष्ट होने वाली महत्त्वपूर्ण शक्ति को बचाया और उपयोगी प्रयोजनों में लगाया जा सकता है। इसमें उन भूले-भटकों का भी कल्याण होता है और समाज को ऊँचा उठाने का भी अवसर मिलता है। विचारक्रान्ति एवं ज्ञान यज्ञ की पुण्य प्रक्रिया ज्ञान दान के जिस महान उद्देश्य को पूर्ण करती है उसे अन्न वस्त्र दान की तुलना में लाख करोड़ गुना अधिक श्रेयस्कर, सत्परिणामोत्पादक माना जायेगा।
 
अपने समाज में आज अगणित दुष्प्रवृत्ति संव्याप्त हैं। असंख्य उलझी हुई समस्याएँ सामने है। कष्ट, कलह और शोक सन्ताप के असीम कारण मौजूद हैं। इन विकृतियों के दुष्परिणाम पग-पग पर भुगतने पड़ रहें है। मनुष्य पतित और दुष्ट बनता जा रहा है। अपने और दूसरों के लिए विपत्तियाँ और विभीषिकाएँ उत्पन्न कर रहा है। इस समस्त विशृंखलता की जड़ में व्यापक दुर्बुद्धि ही उफनती दिखाई देती है। चिन्तन का स्तर निकृष्टता के दल-दल में फँस जाने से उत्पन्न विग्रह की चीख पुकार का ही आज दसों दिशाओं में कुहराम गूँज रहा है। संसार में न तो वस्तुओं का अभाव है और न उपयुक्त परिस्थितियों की कोई कमी है। विपत्ति केवल दुर्बुद्धि की उत्पन्न की हुई है। सद्भावों का स्थान दुर्भावों ने सत्प्रवृत्तियों का स्थान दुष्प्रवृत्तियों ने पकड़ लिया है। फलस्वरूप जो वस्तुएँ सुख शान्ति एवं प्रगति के अभिवर्धन में लग सकती थी वे ही विपत्तियाँ एवं उलझनें बढ़ने में प्रयुक्त हो रही है। प्रगति के स्थान पर अधोगति पल्ले बँध रही है। इसका निराकरण अमुक कठिनाई को अमुक उपाय से हल करने की बात सोचना मुरझाये पेड़ की पत्तियाँ धोनी की तरह है, इससे कुछ बनेगा नहीं। काम तो जड़ सींचने से चलेगा।
 
जीवन के हर क्षेत्र में, समाज के हर वर्ग में दुष्प्रवृत्तियों ने गहराई तक जड़े जमा ली हैं। फलस्वरूप हर दिशा में संकटों के दानव सर्व भक्षी नग्न नर्तन कर रहे है। लड़ना हमें उस दुर्बुद्धि से है जो समस्त विपत्तियों की जननी है। समाज सेवा के यो छुट-पुट उपाय भी बहुत है और उन्हें खड़ा करने वाले को थोड़ा यश भी मिल जाता है, पर इससे संकट के मूल प्रयोजन को टालने में रत्ती भर भी सहायता नहीं मिलती। अन्न क्षेत्र, सदावर्त, प्याऊ ,, धर्मशाला, दवाखाना, बगीचा, मन्दिर आदि स्थापित करने वाले धर्मात्मा कहलाने की वाहवाही प्राप्त कर सकते हैं। आत्म विज्ञापन का लाभ तो इसमें प्रत्यक्ष है, पर विश्व संकट की छाई हुई घटाओं को खिसकाने में इससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। दुर्बुद्धि से लड़ने के लिए विचार क्रान्ति का गाण्डीव उठाना पड़ेगा और पाञ्चजन्य बजाना पड़ेगा। परशुराम के कुल्हाड़े को सँभाल कर निकृष्ट चिन्तन के परिवार का शिर उतारना पड़ेगा। किसी समय रावण, कुम्भकरण, कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, महिषासुर, मधुकैटभ, वृत्रासुर, हिरण्यकश्यपु आदि का दमन धर्म स्थापना के लिए आवश्यक माना गया था। आज दुष्प्रवृत्तियों के परिपोषक ज्ञान का कलेवर ओढ़कर नग्न नृत्य करने वाले अज्ञान रूपी महादैत्य का दमन करना पड़ेगा। विचार क्रान्ति किये बिना समाज निर्माण की आधार शिला नहीं रखी जा सकेगी। ज्ञानयज्ञ के बिना सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वतोमुखी सम्भावनाएँ प्रस्तुत कर सकने वाले नवयुग का अवतरण नहीं हो सकेगा। हमें हनुमान आदि की तरह पाण्डवों की तरह धर्म की स्थापना कर सकने वाले अधर्म विरोधी अभियान में अपने आपको झोंकना चाहिए। गोवर्धन उठाने में योगदान देने वाले ग्वाल बालों की तरह अपनी भूमिका उत्साह पूर्वक सम्पन्न करनी चाहिए। भले ही वह देखने में कितनी ही नगण्य क्यों न हो।
 
युग निर्माण का तीसरा चरण समाज निर्माण है। आत्म निर्माण और परिवार निर्माण के समान ही महत्ता उपयोगिता है। संगठनात्मक, प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों के अन्तर्गत समाज निर्माण की जो सुव्यवस्थित क्रिया प्रक्रिया प्रस्तुत की हुई है, उसमें सभी तत्वों का समावेश है जो आज की स्थिति में समाजोत्थान के सुनिश्चित आधार बन सकते है। विचार विस्तार जैसा व्यापक और महान प्रयोजन संगठित संस्थान ही कर सकते हैं। वह मिल जुल कर करने का काम है। एक व्यक्ति चाहे कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, जन सम्पर्क का कार्य बड़े पैमाने पर नहीं कर सकता। इस युग की सबसे बड़ी सामर्थ्य संघशक्ति ही है। इसे जाग्रत एवं सुनियोजित करने से ही समाज का नवनिर्माण कर सकना सम्भव है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



67.    व्यक्तित्व सम्पन्न युग शिल्पी ही नवनिर्माण करेंगे  
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

 
यों मनुष्य जीवन भी अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यधिक सुख सम्पदाओं एवं वैभव विशेषताओं से भरा हुआ है पर जिनके पास अतिरिक्त रूप से विभूतियाँ विद्यमान हैं उन्हें और भी अधिक ईश्वर का कृपापात्र अपने को समझना चाहिए। और यह अनुभव करना चाहिए कि उन्हें यह अतिरिक्त अमानत किसी अतिरिक्त कार्य के लिए ही मिली हुई है।
 
सृष्टि का भार विस्तार बहुत बड़ा है। इसका संतुलन बनाये रखना और नियन्ता की गौरव गरिमा के अनुरूप उसका स्वरूप बनाये रखना एक बहुत बड़ी बात है। इसी प्रयोजन में सहायक बनने, सहायता पहुँचाने हेतु ईश्वर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति के रूप में मनुष्य को सृजा है। अन्यथा उसके लिए सभी प्राणी समान प्रिय होने के कारण समान रूप से अनुदान पाने के भी अधिकारी थे। मनुष्य को जो कुछ अधिक अतिरिक्त मिला है उसका प्रयोजन उसकी वैयक्तिक सुख सुविधाओं का अभिवर्धन नहीं वरन् यह है कि वह इन अतिरिक्त साधनों के आधार पर उसका हाथ बटाने में सृष्टि संतुलन के सुखद पक्ष को भारी बनाये रहने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। विवेकवान मानव प्राणी को मात्र शरीर यात्रा के ताने बाने बुनने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। लोभ मोह के जाल जंजाल में जकड़ा नहीं रहना चाहिए वरन् उन तथ्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए जो अतिरिक्त रूप में मिले हुए मानव जीवन की विशेषताओं के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जीवन के स्वरूप, प्रयोजन लक्ष्य और उपयोग का चिन्तन न किया जाय, उसे उपेक्षा के गर्त में डाले रहा जाय तो इस प्रमाद का परिणाम आज न सही अगले दिनों अनन्त पश्चाताप के रूप में ही भुगतना पड़ सकता है।
 
ईश्वरीय अनुग्रह उन विभूतियों के रूप में है जो अतिरिक्त रूप में हमें मिली हैं। समस्त जीवधारी पेट की भूख और प्रजनन की ललक से पीड़ित होकर तदनुरूप व्यवस्था जुटाने में अपने अपने ढंग की हलचलें करते रहते है और उसी कुचक्र में उलझे हुए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जीवन की लाश ढोते हैं। उतना ही स्तर यदि मनुष्य का भी रहे तो समझना चाहिए कि वह तात्त्विक विश्लेषण की दृष्टि से नर पशु की संज्ञा में ही है। इससे आगे बढ़ने और ऊँचा उठने का सौभाग्य उसे मिला ही नहीं। इस स्तर के व्यक्ति कितने ही सुख सुविधा सम्पन्न क्यों न हो उन्हें इस दृष्टि से दुर्भाग्य ग्रसित ही कहा जायेगा कि बहुमूल्य मानव जीवन के सदुपयोग की आत्म चेतना से वंचित रह कर केवल किसी प्रकार साँसें पूरी कर रहे हैं।
 
हर विवेकवान व्यक्ति को यह तथ्य अधिकाधिक गम्भीरता पूर्वक हृदयंगम करना चाहिए और उस पर हजार बार विचार करना चाहिए कि निर्वाह के अतिरिक्त उसे जो कुछ उच्चस्तरीय अनुदान मिले हैं वे मौज मजा करने के लिए नहीं, बेटे-पोतों को गुलछर्रे उड़ाने के लिए दौलत जमा करने के लिए नहीं वरन् ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए हैं। कोई अमीर कोई गरीब, कोई अज्ञ कोई विज्ञ बनकर रहे और इस दुनिया में विषमता विशृंखलता फैले यह अव्यवस्था ईश्वर को अभीष्ट नहीं, वह अपने सभी मानव पुत्रों को लगभग एक ही स्तर का निर्वाह करते हुए समता को अपनाकर चलते हुए देखना चाहता है। दूसरों की तुलना में अधिक विलासी और संग्रही होकर जीना स्पष्टतः जीवनोद्देश्य से विपरीत मार्ग पर चलना है। इस मनोवृत्ति के व्यक्ति पूजा पाठ की विडम्बना रचकर भी ईश्वरीय अनुग्रह का एक कण प्राप्त कर सकेंगे इसमें सन्देह ही समझना चाहिए।  
 
आत्मबोध के अतिरिक्त ईश्वरीय अनुग्रह का प्रमाण दूसरा हो ही नहीं सकता। आत्मबोध के साथ यह व्याकुलता जुड़ी हुई है कि अतिरिक्त उपलब्धियों को उस प्रयोजन के लिये नियोजित किया जाय, जिनके लिए यह अतिरिक्त अनुदान दिया गया है। इस प्रकार की आन्तरिक पुकार को स्पष्टतः ईश्वर की वाणी समझा जाना चाहिए और जिसमें यह आत्मा की पुकार जितनी तीव्र हो उसे अपने को उतना ही बड़ा ईश्वर का प्रियपात्र अनुभव करना चाहिए। जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए जो जितना अधिक पुरुषार्थ कर सके, साहस दिखा सके उसे उतना ही बड़ा अध्यात्मवादी ईश्वर परायण मानना चाहिए। हमें नकलीपन से ऊँचा उठना ही होगा और सच्ची ईश्वर भक्ति का मार्ग अपनाकर वह सच्चा ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करना होगा जो मरने के बाद स्वर्ग मुक्ति मिलने के आश्वासनों में नहीं उलझाता वरन् देवोपम महानता के पथ पर तत्काल अग्रसर करता है। साथ ही आत्म सन्तोष एवं आत्मोल्लास के वरदान से तत्काल सुसम्पन्न करता है।
 
विभूतिवानों को अपने अतिरिक्त सौभाग्य पर सन्तोष और गर्व अनुभव करना चाहिए उन्हें दूसरों की अपेक्षा अधिक उच्च पद और अधिक भारी उत्तरदायित्व सौंपा गया हैं। सेना में सिपाही बहुत होते है पर नायक, कप्तान, जनरल आदि के पद तो चुने और छटे हुए व्यक्तियों को ही दिये जाते है। जिन्हें पेट और परिवार पालने से अधिक आगे बढ़ने की उत्कण्ठा एवं योग्यता प्राप्त है उन्हें मुक्त कण्ठ से ईश्वर का विशिष्ट कृपापात्र एवं प्रतिनिधि समझा जाना चाहिए। इस कृपा को सार्थक बनाने के लिए उस स्तर के व्यक्तियों को लोभ और मोह का अन्धकार चीरते हुए आगे बढ़ना चाहिए और अवरोधों को कुचलते हुए साहस पूर्वक उस मार्ग पर चलना चाहिए जिस पर कि सच्चे भगवद् भक्त अनादि काल से चलते रहे हैं।
 
विभूतिवानों की गणना में भावनाशील प्रतिभाशाली, विद्या बुद्धि सम्पन्न, कलाकार, लोक नायक, विज्ञानी, राजनेता, धनीमानी, प्रभृति वर्ग के लोगों को गिना जाता है। जिन्हें अपने में इन विभूतियों का जितना अंश दृष्टिगोचर हो उन्हें अपने को ईश्वर का उतना ही विश्वास पात्र और उच्च पद पर नियुक्त प्रिय पुत्र मानना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि वह इस धरोहर का श्रेष्ठतम उपयोग करने के प्रयत्न में कुछ कोर कसर न छोड़े।
 
सबसे बड़ा और सबसे प्रथम विभूतिवान व्यक्ति वह है जिसके अन्तःकरण में उत्कृष्ट जीवन जीने और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने के लिए निरन्तर उत्साह उमड़ता है। ऐसा साहस उत्पन्न होता रहता है जो लोभ, मोह के भव बन्धनों के रोके रुक ही न सके। व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के जाल जंजाल में ही आमतौर से नर पशुओं की क्षमताएँ गलती जलती रहती हैं। आमतौर से लोग परिवार वालों की मनोकामनाएँ पूरी करते रहने में जुटे-खपे रहते हैं। इस चक्रव्यूह को वेध सकना उन्हीं के लिये सम्भव है जिनके भीतर आत्मबोध का आलोक प्रस्फुटित होने लगा। भावनाशील व्यक्ति ही ऐसा साहस पूर्ण निर्णय करते है कि निर्वाह मात्र के साधनों में सन्तोष करें और परिवार को उतना ही सम्पन्न बनाने तक अपने कर्तव्य की इतिश्री मानेंगे जितने में कि अपने समाज के औसत नागरिक को जीवन यापन करना पड़ता है। भावनाशीलता को दिव्य-विभूति की सार्थकता के लिए इस प्रकार का साहसिक निर्णय नितान्त आवश्यक है अन्यथा परमार्थ के लम्बे-चौड़े सपने मात्र कल्पना ही बनकर रह जायेंगे।
 
अध्यात्मवादी, धर्म परायण, त्यागी, तपस्वी, परमार्थी, सन्त सुधारक, ब्रह्मपरायण महामानव स्तर के देव पुरुष वही हो सकते है जिन्हें भावना की विभूति भगवान ने दी हो। कृपण और संकीर्ण लोगों को इस प्रकार का सौभाग्य मिल ही नहीं सकता। स्वार्थपरता का पिशाच उन्हें कुछ करने ही नहीं देता। यदि उसकी पकड़ से एक कदम आगे बढ़ा भी जाय तो वह दूसरे बाड़े में और भी अधिक मजबूत रस्सों से पकड़कर जकड़ देता हैं। सांसारिक लोभ-मोह से ऊँचा उठकर त्याग-परमार्थ की बात सोचने वाले लोग भी प्रायः कुछ कदम ही चलने के बाद फिर औंधे मुँह गिर पड़ते है। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, पूजा प्रतिष्ठा जैसे व्यक्तिगत लोभ लाभ ही फिर नये रूप में मार्ग को घेरकर खड़े हो जाते हैं। स्वार्थी मनुष्य इस लोक की सम्पदा के बदले परलोक की सम्पदा चाहने लगता है। यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी है। छुट-पुट दान पुण्य करने वाले स्वर्ग में आलीशान भवन और अजस्र वैभव पाने के लिए दाँव लगाते हैं। स्वार्थ पूर्ति के बिना चैन नहीं। संसार के पैसे का लोभ घटा तो स्वर्ग के ऐश्वर्य का लालच सिर पर सवार हो गया। कोल्हू के बैल की दिशा भर बदली घेरा ज्यों का त्यों ही रहा। चक्कर जैसे का तैसा ही लगता रहा।
 
भावनाओं को यदि उत्कर्ष की दिशा में बढ़ चलने का अवसर मिले तो उसके लिये एक दिशा है वह है अपने चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता का सघन समावेश करने की। चिन्तन की उत्कृष्टता की निरन्तर प्रेरणा यह रहती है कि उसका व्यक्तित्व आदर्श, उज्ज्वल और अनुकरणीय हो। ऐसा व्यक्ति संयम, सदाचार, कर्तव्य का पूरा-पूरा ध्यान रखता है और पुरुषार्थ को प्रखर बनाकर मानवी क्षमता के सदुपयोग से सम्भव हो सकने वाली प्रगति को सर्वसाधारण के सम्मुख प्रमाण रूप में प्रस्तुत करता है। उत्कृष्ट चिन्तन हर घड़ी इसी प्रयास में लगा रहता है किस प्रकार गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर श्रेष्ठतम बनाया जाय, पुरुषार्थ को किस प्रकार प्रखर और व्यवस्थित किया जाय। आत्म निर्माण में प्रचण्ड तत्परता को देखकर ही यह प्रमाण प्राप्त होता है कि चिन्तन की उत्कृष्टता का कितना अंश घुल-मिल सका है। भावना का अदृश्य पक्ष यही है।
 
भावनात्मक उत्कर्ष का दृश्य है आदर्शवादी क्रिया-कलाप। लोक मंगल, जन कल्याण समाजोत्थान, सेवा साधना एवं परमार्थ प्रयोजन की गतिविधियों में इस दृश्य को गतिशील रहता देखा जा सकता है। भावनाशील व्यक्ति स्वार्थ भरी संकीर्णता की सड़न में कृमि-कीटकों को तरह संतुष्ट रह ही नहीं सकता। उसे उन्मुक्त आकाश में उड़ने वाले पक्षी की तरह अपना क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत दीखता है। विश्व मानव की समस्याएँ अपनी ही होती हैं। विश्व कल्याण में उसे अपना निज का स्वार्थ दिखाई पड़ता है। अस्तु निजी महत्त्वाकांक्षाओं की ओर से उसे मुँह मोड़ना पड़ता है। पुत्रैषणा, वित्तैषणा की त्रिविधि स्वार्थपरताएँ उसे दुर्बुद्धिजन्य दुर्गन्ध मात्र प्रतीत होती हैं।  
 
ऐसा व्यक्ति बड़प्पन को ठुकरा कर महानता का वरण करता हैं। शरीरगत लिप्साएँ और परिवारगत लालसाओं पर विवेक युक्त नियन्त्रण रखता है और देखता है कि उसका जीवन इतने छोटे क्षेत्र में ही सड़ गल नहीं जाता है, व्यापक क्षेत्र में भी उसके कुछ कर्तव्य है और वे तभी पूरे हो सकते हैं जब शरीर और परिवार को ही चरम लक्ष्य मान बैठने की क्षुद्रता से ऊपर उठकर रहा जाय। ऐसे व्यक्ति घोर व्यस्तता के बीच परमार्थ प्रयोजनों के लिए पर्याप्त समय पाते हैं लोक मंगल के कामों से उन्हें फुरसत न रहने का बहाना नहीं बनाना पड़ता। इसी प्रकार अभाव ग्रस्त स्थिति में भी वे अपनी रोटी का एक टुकड़ा विश्व की कुरूपता को सुन्दरता में परिणत करने के लिए खुशी-खुशी समर्पित करते रहते हैं उन्हें दरिद्रता के कलेवर में अपनी कृपणता छिपाने की आत्म वंचना नहीं करनी पड़ती।
 
यों भावनाओं के असंतुलित उभार कभी-कभी ज्वार-भाटे की तरह साधारण सी सामयिक परिस्थितियों को लेकर भी आवेश ग्रस्त हो जाते हैं। कभी करुणा और दयालुता का इतना उभार आता है कि जो कुछ पास में है इसी घटना या स्थिति पर निछावर कर दें। उफान ठंडा होते ही उस ओर से विमुख हो जाने और उपेक्षा बरतने में भी देर नहीं लगती। जरा सी बात इतनी चुभ जाती है कि आँसू रोक नहीं सकते। जरा सी हानि इतनी असह्य होती है कि सब कुछ सदा के लिए अन्धकारमय प्रतीत होता है। कभी कोई सफलता मिल जाय तो कल्पनाएँ आकाश के तारे चूमने लगती हैं। किसी के प्रति आकर्षण हो जाय तो वही सर्वगुण सम्पन्न देवता दिखाई पड़े और जरा सी खटक जाय तो फिर उसका स्थान राक्षस पिशाच से कम प्रतीत न हो। मूड ही उनका प्रेरणा केन्द्र होता है। भावुकता की अत्यधिक प्रबलता वाले व्यक्तियों का भक्ति के बिना गुजारा नहीं। भक्तिभाव की एक लहर आ जाय तो नाचने कूदने लगे और ऐसे तन्मय दिखाई पड़े मानों समाधि में चले गये। वह बुखार उतरते ही आचरण ऐसा गिर जाय मानों अध्यात्म तो दूर साधारण सौजन्य से भी इनका कोई रिश्ता नहीं।
 
ऐसी चित्र विचित्र प्रकृति के आवेशों और उभारों के पालने में झूलने वाले कल्पना जीवी व्यक्तियों की इस संसार में कमी नहीं। मोटे तौर से इसी वर्ग के लोगों को भावनाशील मान जाता है और इन्हीं अस्त-व्यस्त मनोदशा वाले अर्ध विक्षिप्तों को भावुक कहा जाता है पर तथ्य यह नहीं है। भावनाशील व्यक्ति में विवेकशीलता और दूरदर्शिता की मात्रा अपेक्षाकृत कम नहीं अधिक ही होती है। वह लोभ और मोह के वासा और तृष्णा के चारों जाल जंजालों के बन्धनों को तोड़ने का साहस दिखा सकता है और औचित्य को अपनाने में अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्र में उपस्थित होते रहने वाले अवरोध का साहस पूर्वक निराकरण कर सकता है।
 
चिन्तन में उत्कृष्टता और आचरण में आदर्शवादिता का प्रगाढ़ समावेश कर सकने में समर्थ मनस्विता और तेजस्विता की आवश्यकता पड़ती है। उसे अपनाने का जो शौर्य साहस प्रदर्शित कर सके उसे भावनाशील कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में सदुद्देश्य के लिए दुस्साहस पूर्ण संकल्प करने वाले एवं उनके परिपालन में बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करने के सुदृढ़ निश्चय को भावशीलता कह सकते हैं। सद्भाव सम्पन्न व्यक्ति उच्चस्तर पर सोचते हैं और उच्च आचरण पर तत्परता पूर्वक कटिबद्ध अड़े खड़े रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो भावना के खदान में से ही नर रत्न महामानव उपलब्ध होने का तथ्य कैसे मूर्तिमान रहता? ऐतिहासिक महापुरुषों में से प्रत्येक अनिवार्य रूप से भावनाशील रहा है। उसके अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आकांक्षा कोलाहल करती रहती है। क्रमशः वे इतनी प्रखर हो जाती है कि उन्हें तृप्त किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। आत्मा की पुकार अन्तर्वेदना ईश्वर की वाणी इसी को कहते है। उसी आत्म प्रेरणा के प्रकाश में मनस्वी लोग साहसिक कदम उठाने हैं। प्रस्तुत अवरोधों की उपेक्षा करते हैं। और क्रमशः प्रस्तुत लक्ष्य के पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। और वह क्रमिक मात्रा उस व्यक्ति के ऐतिहासिक महामानव के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है। विभिन्न कार्य क्षेत्रों में विभिन्न देशों और कालों में उत्पन्न हुए महामानवों के बाह्य क्रिया कलाप भले ही भिन्न रहे हो पर उनका आन्तरिक विकास इस एक ही स्तर का रहा है। भावना की पूँजी के अतिरिक्त महानता और किसी प्रकार खरीदी ही नहीं जा सकती।
 
युग परिवर्तन के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए जिस पूँजी की सबसे प्रथम, सबसे अधिक मात्रा में आवश्यकता है वह भावना ही है। इसका जागरण, अभिवर्धन किये बिना और किसी प्रकार युगधर्म की माँग को पूरा नहीं किया जा सकता। 
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



68.    युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सूर्योदय पूर्व दिशा से होता है। उषा काल की लालिमा उसकी पूर्व सूचना लेकर आती है। कुक्कुट उस पुण्य बेला की अग्रिम सूचना देने लगते हैं। तारों की चमक और निशा कालिमा की सघनता कम हो जाती है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है कि प्रभात काल समीप आ गया और अब सूर्योदय होने ही वाला है।

नव जागरण का, युग परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्व मानव से सम्बन्धित समस्या है। एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्व मानव ने जब भी करवट ली है तब उसका सूत्र संचालन सूर्योदय की भाँति ही पूर्व दिशा से हुआ है। यों पाश्चात्य देशवासी भारत को पूर्व मानते हैं, पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न है निस्संदेह यह श्रेय सौभाग्य इसी देश को मिला है, वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे, इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। युग परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्य भूमि से आरंभ हो चुका अब वह कुछ ही समय में विश्व व्यापी बनने जा रहा है।

विश्व जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त है। जड़ प्रकृति से सम्बन्धित प्रगति को सम्पदा के रूप में देखा जा सकता है और चेतन प्रकृति के विकास को विचारणा एवं भावना के रूप में समझा जायेगा। सुविधा और संपदा की अभिवृद्धि भौतिक प्रगति कहलाती है और चेतना की उत्कृष्टता को आत्मिक उत्कर्ष कहा जाता है, जहाँ तक भौतिक प्रगति का सम्बन्ध है वहाँ तक उसके लिए राजतन्त्र, अर्थतन्त्र, विज्ञान तन्त्र और शिक्षा तन्त्र का उत्तरदायित्व है कि वे अधिकाधिक सुविधा एवं सम्पदा उत्पन्न करके सुख साधनों को आगे बढ़ायें।

आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान तन्त्र उत्तरदायी है। इसे दूसरे शब्दों में दर्शन, धर्म, अध्यात्म एवं कला के नाम से जाना जा सकता है। चेतना की भूख इन्हीं से बुझती है, उसे इन्हीं से दिशा और प्रेरणा मिलती है। परिवर्तन एवं उत्कर्ष भी इन्हीं आधारों को लेकर सम्भव होता है। अस्तु यह अनिवार्य है कि यह चेतनात्मक प्रगति आवश्यक हो तो ज्ञान तन्त्र को प्रखर बनाना पड़ेगा। सच तो यह है जब कभी ज्ञान तन्त्र शिथिल पड़ता है, विकृत होता है तभी व्यक्ति का स्तर लड़खड़ाता है और उस अस्त-व्यस्तता में भौतिक जगत की समस्त गतिविधियाँ उलझ जाती हैं। तत्त्वदर्शी सदा से यह कहते रहे है कि सम्पदा नहीं विचारणा प्रमुख है। यदि विचारणा सही रही तो सम्पदा छाया की तरह पीछे-पीछे फिरेगी, पर यदि सम्पदा को ही सब कुछ माना गया और चेतना स्तर की उत्कृष्टता उपेक्षित की गई तो बढ़ी हुई सम्पदा दूध पीकर परिपुष्ट हुए सर्प की तरह सर्वनाश करने पर उतारू हो जायेगी। यह शाश्वत तथ्य है इसे इतिहास ने लाखों बार आजमाया है और करोड़ों बार आजमाया जा सकता है।

युग परिवर्तन के जिस अभियान में हमें दिलचस्पी है वह चेतनात्मक उत्कर्ष ही है। इसके लिए ज्ञान तन्त्र को समर्थ और परिष्कृत करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह नहीं कि भौतिक प्रगति व्यर्थ है। वह भी आवश्यक है, पर वह दूसरे लोगों का काम है, जिसे वे शक्ति भर सम्पन्न कर भी रहे हैं। सरकारें पंच वर्षीय योजनाएँ बनाती हैं। वैज्ञानिक शोध कार्यों में जुटे हुए हैं, अर्थशास्त्री व्यवसाय उत्पादन और वितरण का ताना-बाना बुन रहे हैं। सैन्य तन्त्र आयुधों के निर्माण और योद्धाओं के प्रशिक्षण में लगा है। शिक्षा शास्त्री बौद्धिक क्षमता के अभिवर्धन में लगे हैं। उपेक्षित तो ज्ञान तन्त्र ही पड़ा है उस नाम पर जो खड़ा है उसे तो विदूषकों जैसी विडम्बना ही कहा जा सकता है। धर्म के नाम पर जो कहा और किया जा रहा है उससे ऐसी आस्तिकता की अपेक्षा नास्तिकता भली प्रतीत होती है। ज्ञान तन्त्र यदि मानवीय सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन को उपेक्षा कर्मकाण्डों में ही उलझाये रहे और सातवें आसमान के सपने दिखाता रहे, कर्म को व्यर्थ और भक्ति को प्रधान कहता रहे तो उससे मानव समाज का, विश्व का कोई हित साधन न हो सकेगा। धर्म व्यवसायियों की आजीविका भले ही चलती रहे।

नव निर्माण के अवतरण की किरणें अगले दिनों प्रबुद्ध एवं जीवन्त आत्माओं पर बरसेंगी, वे व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा को लोक उत्सर्ग करने की आन्तरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर भी वे संकीर्ण स्वार्थ परता भरा व्यक्तिवादी जीवन जी ही न सकेंगे। लोभ और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेंगी जैसे कृष्ण जन्म के समय बन्दी गृह के ताले अनायास ही खुल गये थे। यों माया वृद्ध नर कीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना लगभग असंभव जैसा लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की और कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल जंजाल में जकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछल कर आगे आती हैं और सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रिया कलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देख कर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ेगा। जन्मजात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महामानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़े तो समझना चाहिए युग परिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्व साधारण को प्रत्यक्ष हो चला।

निस्सन्देह युग परिवर्तन का प्रधान आधार भावनात्मक नव निर्माण ही होगा। जन मानस में इन दिनों झूठ मान्यताओं की भरमार है। सोचने की सही पद्धति एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी है। स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकने वाला दृष्टिकोण हाथ से चला गया है। उसके स्थान पर भ्रान्तियों की चमगादड़ें विचार भवन के गुम्बदों में उलटी लटक पड़ी हैं। इस सारे कूड़े करकट को एक बार झाड़ बुहार कर साफ करना होगा और चिन्तन की इस परिष्कृत प्रक्रिया को जन मानस में प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा जो मानवीय गरिमा के अनुरूप है। किसी धर्म सम्प्रदाय, सन्त या ग्रन्थ को बुद्धि बेच कर किसी का भी अन्धानुकरण न करने की बात हर किसी के मन में घुसती चली जायेगी और जो न्याय, विवेक, सत्य एवं तथ्य की कसौटियों पर खरा सिद्ध होगा उसी को स्वीकारने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस आधार के प्रबल होते ही न अनैतिकताओं के लिए कोई स्थान रह जायेगा और न मूढ़ मान्यताओं के लिए। निर्मल और निष्पक्ष चिन्तन किसी भी देश, धर्म या वर्ग के व्यक्ति को उसी स्थान पर पहुँचा देगा, जिसके लिए भारतीय अध्यात्म अनादि काल से अंगुलि निर्देश करता रहा है।

यह हलचलें जन-जन में दृष्टिगोचर होंगी। समुन्नत आत्मा निजी सुख सुविधाओं को तिलाञ्जलि देकर विश्व के भावनात्मक नव निर्माण को इस युग की सर्वोत्तम साधना, उपासना, तपश्चर्या एवं आवश्यकता समझते हुए इसी में सर्वतो भावेन संलग्न होगी। साथ ही सामान्य स्तर के व्यक्तियों में इतना विवेक तो अनायास ही जागृत होगा कि वे अन्धकार और प्रकाश का अन्तर समझ सकें। अनुचित के लिए दुराग्रह छोड़कर न्याय और विवेक के आधार पर प्रतिदिन उचित को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार उभय पक्षीय सुयोग संयोग उस प्रयोजन को अग्रगामी बनाता चला जायेगा जो युग परिवर्तन का मूलभूत आधार है।

आज की स्थिति को देखते हुए यह दोनों ही कार्य कठिन दीखते हैं। धर्म विडम्बना के सस्ते प्रलोभनों को तिरस्कृत कर धर्म प्रेमी लोग कष्ट साध्य परमार्थ में प्रवेश करेंगे यह कठिन है। बुद्धिजीवी अपनी अच्छी खासी सुविधाओं का परित्याग कर लोक मंगल के लिए दर-दर ठोकरें खायेंगे यह भी कठिन ही दीखता है। पर समय यह भी कराके छोड़ेगा। रीछ वानर अपने प्राण हथेली पर रख कर मौत से लड़ने गये थे। बुद्ध के ढाई लाख अनुयायी यौवन की उमंगों को कुचलते हुए भिक्षुक बनने की जटिल प्रक्रिया स्वीकार करने को सहमत हुए थे। गाँधी की पुकार पर लाखों ने अपनी बर्बादी को स्वीकार किया था। उसी प्रकरण को यदि इतिहास फिर दुहराए तो इसे न कठिन मानना चाहिए और न असंभव। जो भूतकाल में होता रहा है उसकी पुनरावृत्ति को कठिन या जटिल मानने का कोई कारण नहीं। समय की पुकार इस कष्टसाध्य प्रक्रिया को भी पूरा करके रहेगी। जीवन्त और जागृत आत्माओं का एक बड़ा वर्ग निकट भविष्य में ही आगे आवेगा और ज्ञान तंत्र का ऐसा विशालकाय शस्त्रागार खड़ा करेगा, जिसकी सहायता से अनाचार की लंका को ध्वस्त किया जा सके।

धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगा। उसके प्रसार प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जायेगा। सम्प्रदाय वादियों के डेरे उखड़ जायेंगे, उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दीखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपनाकर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे। तब चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोक मंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी को सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा। पाखण्ड पूजा के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौंचक होकर देखेंगे और किसी कोटर में बैठे दिन गुजारेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते तो रहेंगे पर फिर समय लौटकर कभी आ न सकेगा।

अगले दिनों ज्ञानतन्त्र ही धर्मतंत्र होगा। चरित्र निर्माण और लोक मंगल की गतिविधियाँ धार्मिक कर्मकाण्डों का स्थान ग्रहण करेंगी। तब लोग प्रतिमा पूजक देव मन्दिर बनाने को महत्त्व देंगे। तीर्थ-यात्राओं और ब्रह्मभोजों में लगने वाला धन लोक शिक्षण की भाव भरी सत्प्रवृत्तियों के लिए अर्पित किया जायेगा। कथा पुराणों की कहानियाँ तब उतनी आवश्यक न मानी जायेंगी जितनी जीवन समस्याओं को सुलझाने वाली प्रेरणाप्रद अभिव्यंजनाएँ। धर्म अपने असली स्वरूप में निखर कर आयेगा और उसके ऊपर चढ़ी हुई सड़ी गली केंचुली उतर कर कूड़े करकट के ढेर में जा गिरेगी।

ज्ञान तन्त्र वाणी और लेखनी तक ही सीमित न रहेगा, वरन् उसे प्रचारात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के साथ बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। साहित्य, संगीत, कला के विभिन्न पक्ष विविध प्रकार से लोक शिक्षण का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करेंगे। जिनके पास प्रतिभा है, जिनके पास सम्पदा है वे उससे स्वयं लाभान्वित होने के स्थान पर समस्त समाज को समुन्नत करने के लिए समर्पित करेंगे।

(१) एकता (२) समता (३) ममता और (४) शुचिता। नव निर्माण के चार भावनात्मक आधार होंगे।

एक विश्व, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक आचार, एक संस्कृति के आधार पर समस्त मानव प्राणी एकता के रूप में बँधेंगे। विश्व बन्धुत्व की भावना उभरेगी और वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श सामने रहेगा। तब देश, धर्म, भाषा, वर्ण आदि के नाम पर मनुष्य मनुष्य के बीच दीवारें खड़ी न की जा सकेंगी। अपने वर्ग के लिए नहीं, समस्त विश्व के हित साधन की दृष्टि से ही समस्याओं पर विचार किया जायेगा।

जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे, छूत-अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा एवं बलिदान ही किसी को सम्मानित होने के आधार बनेंगे, जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से श्रेष्ठ नर है उसे अधिक अधिकार प्राप्त है, ऐसी मान्यता हट जायेगी। दोनों के कर्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रतिबन्ध या मर्यादाएँ दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी। प्राकृतिक सम्पदाओं पर सब का अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यानुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन, मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर्थ सदस्य ही गुजारा प्राप्त कर सकेंगे। हट्टे-कट्टे और कमाऊ बेटे बाप के उपार्जन के दावेदार न बन सकेंगे, वह बचत राष्ट्र की सम्पदा होगी। इस प्रकार धनी और निर्धन के बीच का भेद समाप्त करने वाली समाजवादी व्यवस्था समस्त विश्व में लागू होगी। हराम खोरी करते रहने पर भी गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा किसी को न मिलेगी। व्यापार सहकारी समितियों के हाथ में होगा, ममता केवल कुटुम्ब तक सीमित न रहेगी, वरन् वह मानव मात्र की परिधि लाँघते हुए प्राणिमात्र तक विकसित होगी। अपना और दूसरों का दुःख-सुख एक जैसा अनुभव होगा। तब न तो माँसाहार की छूट रहेगी और न पशु पक्षियों के साथ निर्दयता बरतने की। ममता और आत्मीयता के बन्धनों में बँधे हुए सब लोग एक दूसरे को प्यार और सहयोग प्रदान करेंगे।

शरीर, मन, वस्त्र, उपकरण सभी को स्वच्छ रखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। शुचिता का सर्वांगीण विकास होगा। गंदगी को मानवता का कलंक माना जायेगा। न किसी का शरीर मैला कुचैला रहेगा न वस्त्र। घरों को गंदा गलीज न रहने दिया जायेगा। मनुष्य और पशुओं के मल-मूत्र को पूरी तरह खाद के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। वस्तुएँ यथा स्थान, यथा क्रम और स्वच्छ रखने की आदत डाली जायेगी। मन में कोई छल-कपट, द्वेष-दुर्भाव जैसी मलीनता न रहेगी।

एकता, समता, ममता और शुचिता इन चार मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर विभिन्न आचार संहिताएँ, रीति-नीति, विधि व्यवस्थाएँ, मर्यादाएँ और परम्पराएँ बनाई जा सकती हैं। भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियों को देखते हुए उनमें हेर-फेर भी यत्किंचित होते रह सकते हैं। पर आधार उनके यही रहेंगे।

यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्रमुख शक्तियाँ है-एक राजतन्त्र दूसरी धर्मतन्त्र। राजसत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्म सत्ता में अन्तःचेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा।

नव निर्माण की पृष्ठभूमि धर्म मूलक ज्ञान होगा। इसी के लिए ज्ञानतन्त्र खड़ा किया गया है और ज्ञान यज्ञ का महान अभियान चलाया गया है। स्वल्प साधनों से भी वह जिस द्रुतगति के साथ बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए पूर्व से सूर्योदय होने के और उसका प्रकाश सर्वत्र फैलने की बात पर सहज ही विश्वास किया जा सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



69.    अध्यात्म मानवता का प्राण-संस्कृति का मेरुदण्ड
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

 
   भारतीय इतिहास का उज्ज्वल अतीत इस कारण शानदार रहा कि तब आदर्शवादिता को विचारणा एवं क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता था। सोचने का स्तर उदारता एवं विवेकशीलता से और क्रिया का स्तर लोकमंगल एवं आदर्शों की रक्षा से अनुप्राणित रहता था। जहाँ उस रीति-नीति को प्रश्रय मिलेगा, वहाँ सुख और शांति का, प्रगति और समृद्धि का बाहुल्य रहना स्वाभाविक है। इस आधार को जब कभी भुलाया जायगा-उपेक्षित किया जायेगा एवं ओछापन अपनाया जायगा, तभी पतन एव संकट की विपन्नताएँ इकट्ठी होती चली जाएगी। साधनों की दृष्टि से हम अपने पूर्वजों से बहुत आगे हैं, अस्तु हमें उनकी अपेक्षा अधिक समर्थ, सशक्त, सम्पन्न एवं सफल होना चाहिए था; किन्तु हो ठीक उल्टा रहा है। इसका कारण हमारी विचारणा में घटियापन आ जाने से क्रियाओं का अवांछनीय हो जाना ही है। उस स्थिति को जब तक न बदला जाएगा तब तक अन्य छुट-पुट प्रयत्न मन बहलाव के बालविनोद मात्र सिद्ध होते रहेंगे।
   अध्यात्मवाद का समस्त कलेवर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से-भावनात्मक स्तर पर अपनी उत्कृष्टता सुरक्षित रखने एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे और बाह्य दृष्टि से-क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं लोकमंगल के लिए गतिविधियाँ अपनाये रहने की तत्परता बरते। पूजा, उपासना, कथा-वार्ता, तीर्थ, मन्दिर, व्रत, अनुष्ठान, जप-तप तथा नियम-संयम, स्नान-ध्यान, दान-पुण्य आदि की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के आधार पर यदि बारीकी से दृष्टिपात किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इन मनोवैज्ञानिक क्रियाकलापों का प्रयोजन व्यक्ति की अन्तरङ्ग उत्कृष्टता का अभिवर्धन करना है। आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना, जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है। यदि यह विश्वास कोई सच्चे मन से कर ले तो उसकी विवेक-बुद्धि कुकर्म करने की दिशा ने एक कदम भी न बढ़ने देगी। हम आग नहीं छूते, जहर नहीं खाते तो कोई कारण नहीं कि सर्वव्यापी कर्मफल के अनुरूप सुख-दुःख देने वाली ईश्वरीय सत्ता विधि-व्यवस्था तोड़ने और अनाचार अपनाने का दुस्साहस करे। आस्तिकता हमें उसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है। यह हमें विवश करती है कि यदि सुख-शांति के लिए आकर्षण है तो सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं का ही अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए। संक्षिप्त में आस्तिकता का तत्त्वज्ञान हमारे अन्तरंग में उत्कृष्टता एवं बहिरंग में आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा का समावेश करने वाला अन्तःविश्वास ही कहा जा सकता है।

इसी केन्द्रबिन्दु पर आस्तिकता का समस्त दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक आधार खड़ा किया गया है। समस्त धर्मग्रन्थों में विविध कथा उपाख्यानों द्वारा इसी तथ्य का प्रतिपादन है। धार्मिक कर्मकाण्डों को इसी आस्था को हृदयंगम कराने का मनोवैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है। योगशास्त्र का प्रयोजन कुसंस्कारों एवं लिप्साओं से संघर्ष कर ऊर्ध्वगामी मनस्विता को प्रखर बनाना है। व्यक्ति ईश्वर का पुत्र है, उसमें अपने पिता की समस्त विभूतियाँ एवं महत्ताएँ बीज रूप से विद्यमान हैं। साधना का प्रयोजन अन्तःकरण पर चढ़े हुए उन मल आवरण विक्षेपों को हटाना है, जो हमें देवत्व से वंचित कर नर-पशु की स्थिति में डाले हुए हैं। तपश्चर्या इसी मलीनता को स्वच्छ करती और प्रसुप्त ऋद्धि-सिद्धियों को जागृत करके दैवी वरदान की तरह लघु को महान् बना देती है।

आस्तिकता और उपासना का सारा आधार यही है। धार्मिकता का कलेवर कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसकी शाखायें कितनी ही क्यों न हों, बीज मूल की तरह तथ्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी महान् महत्ता को समझे, उसी के अनुरूप सोचे और गतिविधियाँ अपनाये। व्यक्ति और समाज की प्रगति एवं सुख-शान्ति का आधार इतना ही है। उत्थान और पतन का सौभाग्य, दुर्भाग्य इन्हीं तथ्यों पर पूर्णतया निर्भर है। सद्गुणी, सदाचारी, उदार और जनकल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत मनुष्य ही सच्चा मनुष्य है। देवता उसी को कहते हैं और वह जहाँ भी रहता है, वहाँ स्वर्ग अनायास ही अवतरित होकर रहता है। परिस्थितिवश कुछ कष्टकर परिस्थितियाँ भी सामने आ जाय तो भी उच्च दृष्टिकोण रखने वाले उनका कोई बहुत बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होने देते वरन् अपनी सत्प्रवृत्तियों को और भी अधिक उत्तमता से प्रस्तुत करने का एक ईश्वरीय परीक्षा का सौभाग्य सुअवसर मानते हैं और अपनी महानता को और भी अधिक प्रखरता के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार सामान्य लोगों के लिए जो घटनायें विपत्ति जैसी लगती हैं, वे ही अध्यात्मवादी के लिए अधिक प्रखर एवं यशस्वी होने की ईश्वरीय अनुकम्पा सिद्ध होती है। इस तथ्य में दो मत नहीं हो सकते कि उत्कृष्ट और आदर्शवादी व्यक्ति ही अपने और समस्त विश्व के लिए एक वरदान बन कर जीते हैं। उन्हीं से संसार में सुख शान्ति, सुव्यवस्था, प्रगति और समृद्धि की संभावनाएँ साकार होती हैं। मनुष्य जाति का सारा सौभाग्य अध्यात्म के सूर्य से प्रभावित होता है। इसकी विमुखता घोर अन्धकार और आपत्ति भरी अस्तव्यस्तता ही उत्पन्न करती है। आज की विपन्न परिस्थितियों का तात्त्विक कारण हमारी अनास्था ही है। उच्च आदर्शों से विमुख होकर संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाने वालों की सदा ही दुर्गति होती रही है। प्रकृति के इस अटल नियम को कोई चुनौती नहीं दे सकता। निकृष्ट स्तर के व्यक्ति कभी शांति से न रह सकेंगे और उनके बाहुल्य वाला समाज कभी भी समुन्नत बन सकेगा।

यदि हम व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की बात सोचते हों तो हमें उसके मूल आधार ‘अध्यात्म’ की ओर ध्यान देना होगा और उसको स्वस्थ स्थिति में लाकर जन-मानस में गहराई तक प्रतिष्ठापित करने के लिए घोर प्रयत्न करना होगा। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही, कुछ भी प्रयत्न किये जाते रहें, उनका तनिक भी संतोषजनक परिणाम उत्पन्न न होगा। कोई योजना कितनी ही उत्तम क्यों न हो, उसे चलाने वाले, कार्यान्वित करने वाले, उत्कृष्ट व्यक्तित्व और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने वाले ही हों। ओछे और कमीने लोग जो भी कार्य हाथ में लेंगे उसे अपने दुर्गुणों के कारण कलुषित कर देंगे और वही लाभदायक की जगह हानिकारक बन जायगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम हर क्षेत्र में देखते हैं। उच्च आदर्शों के लिए बनी हुई संस्थाएँ आज पदलिप्सा और धन-लोभ के कारण संघर्ष का अखाड़ा बनी हुई हैं।

मानव-जीवन का प्रत्येक क्षेत्र आज कण्टकाकीर्ण और असुविधाओं से भरा हुआ है। जो आधार हमें प्रगति और प्रसन्नता में सहायक सिद्ध होने चाहिए थे, के ही हमें शोक-सन्ताप देकर दुःखों में वृद्धि कर रहे हैं। शरीर रुग्ण, मन अशांत, परिवार उद्विग्न, समाज विक्षुब्ध, धन अपर्याप्त, विज्ञान घातक, राजनीति विस्फोटक, धर्म जंजाल, शिक्षा अनुपयुक्त, किसी भी दिशा में दृष्टिपात करें, सर्वत्र उलझनें और विभीषिकाएँ ही दीखती हैं। लगता है सुख-शान्ति के सारे आधार उलटकर दुःख दैन्य के कारण बन गये हैं। इस विडम्बना का एकमात्र कारण अध्यात्म की उपेक्षा है। अध्यात्म मानव जीवन का प्राण है। उसे जिस क्षेत्र से भी तिरस्कृत, बहिष्कृत किया जायगा, उसी में विपन्नता उत्पन्न हो जायेगी। जल के बिना मछली नहीं जी सकती। मानवीय शांति भी अध्यात्म की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकती। आज की श्मशान जैसी सर्वव्यापी जलन का एक मात्र कारण यही है।

आर्थिक क्षेत्र में उपार्जन उत्पादन काफी बढ़ा है। पैसा पहले की अपेक्षा कम नहीं, अधिक है। पर इतने पर भी प्रतिकूलता बनी रहे तो इस विडम्बना भरी स्थिति में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता।

पारिवारिक आनन्द के लिए गहन अन्तस्तल से निकलने वाले सद्भाव की आवश्यकता है और इसे केवल वे ही उपलब्ध कर सकते हैं जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा भावनाओं से परिपूर्ण हैं। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केबल आध्यात्मिकता के आदर्श ही कर सकते हैं। जब यह तथ्य लोगों के अन्तःकरणों में प्रतिष्ठापित हो जायगा तो तभी यह आशा की जा सकेगी कि गरीब रहते हुए भी छोटे घर-घरौंदों में रहकर व्यक्ति आनन्द और उल्लास भरे दिन बिता सके।

मानसिक शांति और संतुलन का आधार यों लोगों की समझ में धन की बहुलता और परिस्थितियों की अनुकूलता ही माना जाता है, पर वास्तविकता यह है नहीं। यदि ऐसा होता तो धनी-मानी लोगों की आन्तरिक स्थिति संतोष एवं शांति से भरी-पूरी पाई जाती। किन्तु देखा इससे प्रतिकूल जाता है। सम्पन्न लोग बाहर वालों को ही सुखी दीखते हैं। कोई भीतर से उन्हें देख सके तो पता चलेगा कि वैभव का सदुपयोग कर सकने की बुद्धि न होने के कारण वह सम्पदा उनके लिये अनेक उलझनें, चिन्ताएँ, कुत्साएँ, आशंकायें और विभीषिकाएँ उत्पन्न करने वाली बनी हुई है। बाहर से मित्र दीखने वाले ही भीतर से उनके शत्रु बने हुए हैं। घात-प्रतिघातों ने उनकी मनःस्थिति को विक्षुब्ध किया है और अति अशांति भरा जीवन वे जी रहे हैं। मानसिक शांति वैभव पर आधारित नहीं है। वह तो सोचने की सही दिशा पर अवलम्बित है। जिसे विचारों को क्रम से सजाना, सँभालना, मोड़ना, बदलना एवं सुधारना आता है, केवल वही सुखी, सन्तुष्ट और हर्षोल्लास भरा जीवन जी सकता है। यह स्थिति आध्यात्मिक आस्थाएँ अपनाने से ही उपलब्ध हो सकती है।

समाज में व्यापक रूप से फैली हुई कुरीतियों और अनैतिकताओं ने उसे जर्जर, विसंगठित और दीन-दुर्बल बनाकर रख दिया है। ऐसे समाज का हर सदस्य अपने को अशांत एवं असुरक्षित ही अनुभव करेगा। उसे अपने चारों ओर घिरा वातावरण आक्रमणकारी, आशंका भरा और अविश्वस्त ही अनुभव होता रहेगा। समाज में अवांछनीय परम्पराएँ चल पड़ें तो उसके सदस्यों का स्तर हर दृष्टि से दयनीय बना रहेगा। अपने समाज में नारी जाति के प्रति, अछूतों के प्रति जो ओछी मान्यता प्रचलित है, उसने आधी जनसंख्या को अविकसित, असमर्थ और असन्तुष्ट बनाकर रख दिया है। आधे शरीर को लकवा मारे जाने की तरह नारी तथा अछूतों के प्रति अवांछनीय दृष्टिकोण रखने के कारण हिन्दू जाति अपङ्ग और असहाय बनकर रह गई है।

जाति-पाँति और ऊँच-नीच की मान्यताओं ने एक ही जाति को हजारों टुकड़ों में खण्ड-खण्ड करके इतना दुर्बल बना दिया है कि विदेशी शक्तियाँ उतनी आसानी से इतनी बड़ी जाति को लम्बे समय तक पद-दलित बनाये रह सकीं, जैसा कि भेड़ों के झुण्ड पर ग्वाले के लिए भी सम्भव नहीं होता। विवाह-शादियों के समय होने वाले अपव्यय, मोल-तोल और धूम-धड़क्के की परम्पराओं ने जन-समाज को दरिद्र और अनैतिक बनाकर रख दिया है।

धर्मतन्त्र का अपना महत्त्व और स्थान है। उसकी शक्ति राजतन्त्र से कम नहीं वरन् अधिक है। धर्म के नाम पर प्रचलित मूढ़ता, अन्धविश्वास, परावलम्बन और संकीर्णता को हटाकर महान् धार्मिक आदर्शों की आस्था यदि जन मानस में उत्पन्न की जा सके तो घर-घर में प्राचीनकाल की तरह महापुरुष और नर-रत्न उत्पन्न होने लगें। तब धर्म किसी वर्ग विशेष का व्यवसाय न रहकर जन-साधारण का स्तर उठा सकने में समर्थ होगा और संसार में धर्म और धार्मिकता की उपयोगिता समझी जान लगेगी।

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग और क्षेत्र विशेष के संकीर्ण स्वार्थों के लिए जो संघर्ष, शोषण, घृणा, आरोप, आक्रमण, विद्वेष और अनाचार उत्पन्न किये जाते रहते हैं, उनकी कोई भी चिनगारी कभी भी विश्व-युद्ध की आग लगा सकती है और चिर संचित मानव संस्कृति का अन्त हो सकता हैं। बढ़ते हुए अणु आयुधों की विभीषिका किसी दिन मानव जाति की सामूहिक आत्महत्या करके अपने अस्तित्व को गँवा बैठने के लिए विवश कर सकती है। अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज का खेल इन दिनों जिस स्तर पर खेला जा रहा है, उसका परिणाम मानव जाति को कभी न उबरने वाले संकट में धकेल देना ही हो सकता है। छुट-पुट उपायों से काम न चलेगा। आयोग और कमीशनों की रिपोर्टें समस्याओं का हल न ढूँढ़ सकेंगी। विश्व-शान्ति का आधार आध्यात्मिकता के आदर्श ही हो सकते हैं।

विश्वबन्धुत्व और विश्व-परिवार के आदर्श को अपना कर यदि परस्पर सहयोग, सद्भाव और संरक्षण की नीति अपनाई जाय तो सारा नक्शा ही बदल जाय। तब विवादों का हल पंचायत किया करें। विश्व-शासन का संचालन एक ही नीति पर हो और संसार के समस्त राष्ट्र विश्व-राष्ट्र के जिले, प्रान्त मात्र रहकर काम करें। युद्ध को अनैतिक घोषित कर दिया जाय और अस्त्र-शस्त्र केवल स्थानीय उपद्रवों की शांति के लिए प्रयुक्त किये जाने के अतिरिक्त किसी देश का किसी के विरुद्ध प्रयोग न हो सकें। सम्पदाओं तथा सुविधाओं का वितरण समान रूप से हो और सबको योग्यता के अनुरूप करने तथा आवश्यकतानुसार पाने की व्यवस्था में बँधे रहना पड़े। न कोई शोषण कर सके, न शोषित रह सके। सबको समान अवसर मिले और सबको नीति-नियम में बँधे रहने के लिए बाध्य होना पड़े।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आध्यात्मिकता का समावेश विश्वबन्धुत्व और विश्व-परिवार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा। तब सेना पर होने वाला व्यय शिक्षा पर किया जायेगा। युद्ध की तैयारियों में लगने वाली धन, जन एवं बुद्धि की शक्ति बेकारी, बीमारी, गरीबी एवं अनीति के निवारण में लगेगी। संसार में इतनी सम्पदा मौजूद है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन यापन कर सकने तथा आनन्द उल्लास के साधन प्राप्त कर सकने की सुविधा मिल सके। गरीबी और अमीरी को सबमें बाँट दिया जाय तो हर एक के हिस्से में पर्याप्त धन आ जायगा और उससे संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी रह सकेगा।
   धर्म और अध्यात्म के संरक्षण की जिम्मेदारी ब्राह्मणों की है। इस आड़े वक्त में संस्कृति ने ब्राह्मणत्व को पुकारा है। यदि वह कहीं जीवित हो तो आगे आये। ऐसे ब्राह्मण जो वर्ण से नहीं कर्म से हों, जिनमें आदर्शवादिता हिलोरें लेती हों, उन्हें मानवता के प्राण अध्यात्म से संसार को अनुप्राणित करने के लिए आगे आना ही होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार



70.    आस्तिकता का तत्त्वज्ञान एवं व्यवहारिक स्वरूप
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जीव को ईश्वर का अंश कहा गया है। यह अंश उतने परिमाण में प्रत्येक प्राणी में है, जिसमें वह अपनी सामान्य जीवन-यात्रा की गतिविधियाँ ठीक तरह चला सके। उदर पोषण, शरीर रक्षा, वंश वृद्धि, विश्राम, विनोद जैसे प्रयोजन पूरे करने के लिए कुछ करना और सोचना पड़ता है। इसके अतिरिक्त शरीर और मन का ढाँचा खड़ा रखने के लिए भी ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। प्राणधारी को इन प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करने में क्रियाशीलता और कुशलता की आवश्यकता पड़ती है, इसे जुटाते रहने की सामर्थ्य दे सकने वाला ईश्वरीय अंश प्रत्येक प्राणी में मौजूद है। इतना अनुदान प्रायः सभी को समान रूप से मिला है। जिसकी काया जिस स्तर की है उसकी आवश्यकता का स्वरूप भी उसी प्रकार का होता है। उन्हें जुटाने की क्षमता में बाह्य अन्तर देखा जा सकता है, पर तात्त्विक दृष्टि से सभी अपने ढंग से, अपने साधनों से अपनी आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। यह क्षमता समान रूप से प्रत्येक प्राणी को प्राप्त होने से यह कहा जा सकता है कि सभी को समान रूप से समान स्तर का ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त है। सभी ईश्वर के समान अंश हैं।

इससे आगे की प्रगति करना जीवधारी के अपने निज के पुरुषार्थ पर निर्भर है। स्पष्ट है कि चेतनात्मक प्रगति ही भौतिक उन्नति के साधन एकत्रित करती है। इसे प्रयत्नपूर्वक बढ़ाया जा सकता है। साधना इसी का नाम है। साधना के दो स्तर हैं-एक स्थूल दूसरा सूक्ष्म। स्थूल साधना में व्यायाम, अध्ययन, अनुभव, शिल्पकला, वाणिज्य आदि विषय आते हैं। सूक्ष्म साधना में अपने दृष्टिकोण, क्रिया-कलाप, गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत किया जाता है। प्रसुप्त शक्तियों को जगाया जाता है। स्थूल साधना में मस्तिष्कीय प्रशिक्षण तथा शरीर को अभ्यास कराने की क्रिया-पद्धति चलती है। सूक्ष्म साधना में आकाँक्षाओं मान्यताओं एवं भावनाओं को उच्चस्तरीय बनाया जाता है।

शरीर पंचतत्वों का बना है इसलिए उसके निर्वाह तथा प्रशिक्षण में भौतिक उपकरण काम आते हैं। मस्तिष्क में मन और बुद्धि की हलचलें होती हैं उन्हें अध्ययन, अनुभव एवं चिन्तन के आधार पर विकसित किया जाता है। लोक-साधना में यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। व्यक्ति अपनी क्रियाशीलता और बौद्धिक स्थिति में प्रवीणता उत्पन्न करते और भौतिक प्रगति का पथ प्रशस्त करते हैं। सूक्ष्म साधना में अन्तरात्मा का स्तर ऊँचा उठाना पड़ता है। इसके लिए परमात्म सत्ता के साथ सम्पर्क बनाना पड़ता है। भौतिक प्रगति के लिए भौतिक क्षमता और आत्मिक प्रगति के लिए आत्मिक क्षमता चाहिए। इसके लिए जो प्रयोग प्रयत्न करने पड़ते हैं उन्हें अध्यात्म साधना कहते हैं। इसके लिए प्रधान अवलम्बन ईश्वर है। चेतना की उच्चस्तरीय सम्वेदना को ईश्वर कहते हैं। साधना प्रयोजनों में इसी के साथ सम्पर्क बनाना पड़ता है।

यो समस्त सृष्टि के उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के अगणित क्रिया-कलापों में संलग्न ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना का विस्तार और स्वरूप इतना बड़ा है कि उसकी आंशिक जानकारी प्राप्त कर सकना भी सीमित मानवी बुद्धि के लिए सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए परब्रह्म को अचिन्त्य, अनिर्वचनीय, अगम्य आदि कहा गया है और उसके सन्दर्भ में की गई समस्त चर्चा, विवेचनाओं को नेति-नेति कहकर अपूर्ण बताया गया है। किन्तु अन्तरात्मा के भावनात्मक स्तर को स्पर्श करने वाला ब्राह्मी अंश पहचाना, पकड़ा और अपनाया जा सकता है उपास्य यही है। इष्टदेव इसी को कहते हैं। साधना अभ्यर्थना इसी की की जाती है। अनुग्रह और वरदान इसी से प्राप्त होते हैं। वस्तुतः इसे विश्वात्मा अथवा मानवी उत्कृष्टता की चरमावस्था कह सकते हैं। परब्रह्म की असंख्य हलचलों में से एक यह परमात्म सत्ता तरंग भी है, जिसके साथ सम्पर्क बनाकर मानवी अन्तरात्मा को अपने विकास का अवसर मिलता है। अस्तु, उपासना में आस्तिकता को, ईश्वर भक्ति को परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने वाले प्रयोग प्रयोजनों को अनिवार्य माना गया है। उपासना साधना की पृष्ठभूमि इस केन्द्र बिन्दु पर आधारित है।

हमारा उपास्य इष्टदेव परमेश्वर क्या है? इसकी विवेचना कई प्रकार से की जा सकती है। अन्तःकरण में उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाएँ उत्पन्न करने वाली व्यापक चेतना को निराकार ईश्वर कह सकते हैं। वह शरीर में सत्कर्म, मन में सत् चिन्तन एवं अन्तरात्मा में सद्भाव बन कर दिव्य प्रेरणाएँ भरता है। अपने को अधिकाधिक परिष्कृत एवं उदार बनाने की आकांक्षाएँ जगना इसी की प्रचुरता का प्रमाण है। इसमें दुहरा प्रयास होता है। एक अवांछनीयताओं से जूझना दूसरे उत्कृष्टताओं को बढ़ाना। भगवान के अवतार का यही प्रयोजन है। जब भी जहाँ भी ईश्वर का अवतरण हुआ है, तब उसने धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश का दुहरा प्रयत्न किया है। अवतारों की कथा, गाथाओं में यही दो क्रिया-कलाप उभरे दिखाई पड़ते हैं। गीता में ‘यदा-यदा हि धर्मस्य......’ वाले प्रसिद्ध श्लोकों में इसी की घोषणा है कि ईश्वर का अवतार इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए होता है। न केवल संसार लीला के लिए वरन् व्यक्ति के अन्तःकरण में इन्हीं दो हलचलों को उभरते देखकर यह कहा जा सकता है कि यहाँ ईश्वर के लिए उठती हुई उत्कृष्ट अभिलाषा एवं प्रबल पुरुषार्थ परायणता को ईश्वर दर्शन के रूप में कहा समझा जा सकता है।

आँखें जड़ तत्वों से बनी हैं उनकी क्षमता जड़ पदार्थों को देख सकने तक सीमित है। चेतना जड़ नहीं है। परमेश्वर जड़ तत्व न होने के कारण आँखों से नहीं देखा जा सकता। उसके स्वरूप की कल्पना भर की जा सकती है। यथार्थ में उसे किसी प्रतीक स्वरूप की तरह देखा नहीं जा सकता। चेतना का गुण देखना नहीं अनुभव करना है। आत्मिक चेतना उसे अनुभव तो कर सकती है, पर मूर्तिमान प्रतीक के रूप में देख नहीं सकती। देखना नेत्रों का गुण है और अनुभव करना चेतना का। जीव नेत्र नहीं है, चेतना का अंश है। वह ईश्वरीय अनुभूति कर सकता है उसे आकृतिवान देख नहीं सकता।

फिर भी मस्तिष्क की स्थिति ऐसी है कि उसे किसी तथ्य पर निष्ठापूर्वक केन्द्रित होने के लिए कुछ प्रमाण चाहिए। यह प्रमाण स्थूल रूप से दृश्य और श्रव्य होते हैं और सूक्ष्म रूप से तर्क और प्रमाण। मोटे तौर से किसी बात पर भरोसा तब होता है जब उसे देखा या सुना जाय। शरीर क्षेत्र में इन्द्रिय समूह का एक उद्देश्य रसास्वादन और दूसरा ज्ञान सम्वर्धन है। नेत्रों द्वारा अन्य सभी इन्द्रियों की तुलना में अधिक ज्ञान सम्वर्धन होता इसलिए देखना सबसे आकर्षक और प्रिय विषय है। कहना न होगा कि सौंदर्यानुभूति ही हमें सबसे अधिक आकर्षित करती है। ईश्वर दर्शन की इच्छा को भी इसी आधार पर मान्यता दी गई है और उसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रतीकों के रूप में साकार अनुभव करने का प्रयत्न किया जाता रहा है।

ईश्वर की साकार उपासना के लिए प्रतीक पूजा मूर्तिपूजा एक चिर-प्रचलित आधार है। इससे अपनी आस्तिकता को केन्द्रित एवं विकसित करने का आधार बनता है। पुस्तक के माध्यम से अध्ययन एवं मुद्गर आदि व्यायाम उपकरणों के सहारे स्वास्थ्य सम्वर्धन की सुविधा होती है, इसी प्रकार प्रतीक पूजा से श्रद्धा संवर्धन का प्रयोजन पूरा होता है। यही कारण है कि साकारवादी ही नहीं निराकारवादी भी किसी न किसी प्रतीक में दिव्य सत्ता का समन्वय करके अपनी श्रद्धा का पोषण करते हैं। ईसाई धर्म में क्रूस, इस्लाम धर्म में काबा संगे असवद, पारसी और आर्य समाजियों में अग्नि में दिव्यता का आरोपण किया गया है। अन्य निराकारवादी मत भी ध्यान में प्रकाश ज्योति जैसे प्रतीकों का सहारा लेते हैं। देव मानवों की प्रतीक प्रतिमाएँ, समाधियाँ तथा अपने-अपने देश की राष्ट्रध्वजाएँ गहरे सम्मान का केन्द्र इसी आधार पर बनी होती हैं। मूर्तिपूजा के पीछे कोई अवांछनीयताएँ छिपी बैठी हो तो उन्हें निरस्त किया जाना चाहिए। शिर में जुएँ पड़ जाने पर मुंडन कराने या गरदन काटने की उतावली नहीं करनी चाहिए।

प्रतीक पूजा में पूर्ण मानव की कल्पना है। इसे जीवन लक्ष्य का स्वरूप कह सकते हैं। भगवान राम, भगवान कृष्ण आदि को पूर्ण मानव के अवतार के रूप में मान्यता दी गई है। इनके प्रतीकों को ध्यान में रखकर अपनी पूर्णावस्था का स्वरूप ध्यान में रखा जाना चाहिए और उसके लिए क्रमबद्ध योजना बनाई जानी चाहिए। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि ईश्वरीय प्रतिमाओं की आकृति में अन्तर तो रखा जा सकता है पर उन्हें भिन्न-भिन्न नहीं मानना चाहिए। व्यापक ईश्वरीय सत्ता एक है। अलग-अलग देवी-देवताओं की उसके साथ साझेदारी नहीं है। सूक्ष्म जगत अराजकता का केन्द्र नहीं और न वहाँ सामंतशाहों जैसी इलाकेदारी बँटी हुई है। ‘‘अमुक देवता का लोक या क्षेत्र यह है, अमुक का यह। हर देवता अपने-अपने पूजनकर्ता की रखवाली करता है।’’ प्रायः ऐसी ही भ्रमग्रस्त मान्यता लोगों के मस्तिष्क में जमी होती है। देववाद की विशृंखलता इसी से फैली है। यथार्थता इतनी ही है-एक व्यापक ब्रह्म की विभिन्न दिव्य शक्तियों को देव संज्ञा दी गई है। सूर्य की सात किरणों को सविता देवता के रथ में जुते हुए सात घोड़ों के रूप में चित्रित किया जाता है। यह अलंकार है। वस्तुतः न तो सूर्य का कोई रथ है और न उसमें अपने घोड़ों जैसे कोई प्राणी जुते हैं। देवी-देवताओं का पृथक-पृथक व्यक्तित्व मानना और अमुक पूजा पाठ के आधार पर उन्हें फुसलाकर वशवर्ती कर लेना, उनसे मन चाहे वरदान पाने की अपेक्षा करना भ्रान्त धारणा है। हमें ईश्वरीय प्रतीक प्रतिमाओं को पूर्ण मानव का लक्ष्य विग्रह एवं श्रद्धा अभिवर्धन को दिव्य उपकरण मानकर ही चलना चाहिए। सम्प्रदाय भेद से बनी अनेक प्रतिमाओं के बीच तात्त्विक एकता ही अनुभव करनी चाहिए।

साकार उपासना का उच्चस्तरीय दर्शन ‘विराट स्वरूप’ के रूप में देखा जा सकता है। यह समस्त विश्व ब्रह्माण्ड ईश्वर की साकार प्रतिमा है, ऐसा मानकर चलने से लोक मंगल की, जन सेवा की, विश्व कल्याण की आकाँक्षा उभर कर आती है। रामायण की एक चौपाई में ‘सियाराम मय सब जग जानी’ की स्थापना है। ईशावास्यमिदं सर्व जैसी उक्तियाँ प्रत्येक अध्यात्म ग्रन्थ में पन्ने-पन्ने पर अंकित है। कितने ही उपाख्यानों में इस विराट् दर्शन की चर्चा है। अर्जुन ईश्वर दर्शन का आग्रह करता है तो भगवान कृष्ण कहते हैं कि ऐसा दर्शन चमड़े वाली आँखों से नहीं, दिव्य चक्षुओं से, ज्ञान नेत्रों से ही सम्भव हो सकता है। उन्होंने विराट् रूप के दर्शन कराये। मिट्टी खाने के कारण ताड़ना देते समय यशोदा को भी कृष्ण के ऐसे ही विराट् रूप के दर्शन हुए थे। राम को पालने में झुलाते समय कौशल्या ने भी उनका विराट् दर्शन पाया था। काकभुसुण्डि जी की दर्शन आकांक्षा इसी प्रकार के दर्शन से तृप्त हुई थी। अन्य देव चरित्रों में भी उनके स्तवनों में विराट् स्वरूप की झाँकी कराई गई है। इस समस्त संसार को ईश्वर का रूप मानना यही प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है कि जड़ के प्रत्येक घटक के साथ हमें उच्चस्तरीय मान्यता रखनी चाहिए और उसके साथ श्रेष्ठतम सद्व्यवहार करना चाहिए।

आत्मा का कषाय-कल्मषों से रहित आन्तरिक उत्कृष्टता से भरा पूरा स्वरूप परमात्मा कहा जा सकता है। खदान में से निकला कच्चा लोहा मिट्टी मिला होता है, उसे भट्टी में तपाकर शुद्ध किया जाता है। यह शुद्ध लोहा ही फौलाद कहलाता है। मिट्टी मिले कच्चे लोहे और शुद्ध फौलाद में जो अन्तर है, वही आत्मा और परमात्मा के बीच समझा जा सकता है। जीव ईश्वर बन सकता है और ईश्वर जीव के रूप में अवतार लेता है, इन दोनों कथनों में पूर्ण एकता है और इस तथ्य का प्रतिपादन है कि मल आवरण विक्षेप रहित सद्भाव सम्पन्न सत्कर्म परायण व्यक्ति में वे सभी विशेषताएँ हो सकती हैं जो ईश्वर में पाई जाती हैं। कोयले और हीरे की तात्त्विक संरचना में नाम मात्र का अन्तर है। दोनों का रासायनिक पदार्थ एक है, मात्र परमाणुओं के भीतरी संगठन में नगण्य सा हेर-फेर होता है। जीव जब अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता और अहंता के सीमा बन्धन तोड़कर अपने को विश्व सम्पदा मानता है तो भगवान बनने की राह पर चल पड़ता है। उसमें जितनी ही उत्कृष्टता बढ़ती है उतनी ही गहरी देव भूमिका में प्रवेश मिलता चला जाता है।

दूसरे की स्थिति में अपने को रखकर सोचा जा सके तो सहज ही पर पीड़ा में हाथ बँटाने और अपनी उपलब्धियों से दूसरों को लाभान्वित करने को जी मचलता है। विराट् ब्रह्म का उपासक अपने को विश्व नागरिक मानता है और ईश्वरीय सृष्टि को अधिकाधिक सुविकसित बनाने में जीवन लक्ष्य की पूर्ति अनुभव करता है। आस्तिकता की विराट् दर्शन मान्यता भक्ति-दर्शन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादन है। इसे अपनाने वाला लोक मंगल की परायणता को प्रत्यक्ष उपासना मानता है और सत्कर्म संलग्न रह कर कर्तव्य पालन में ईश्वर पूजा की उक्ति को सार्थक बनाता है।

सर्वव्यापी, न्यायकारी, निष्पक्ष ईश्वर की प्रसन्नता सत्कर्मों पर आधारित है। कर्म के आधार पर ही वह भक्त और अभक्त की परख करता है। उसकी कसौटी पर देव मर्यादाओं का पालन करने वाला आस्तिक और उनका उल्लंघन करके दुष्प्रवृत्तियों में निरत व्यक्ति नास्तिक। आस्तिकता की यह मान्यता मनुष्य की सज्जनता और शालीनता बढ़ाती है। सामाजिक विरोध और राजकीय दंड से बचकर अनीति के मार्ग पर चलते रहने की चतुरता मनुष्य में मौजूद है। उसे दुष्कर्मों में लाभ दीखता है और पर्दे की आड़ में कुकर्म करता रहता है। यदि सच्ची आस्तिकता को अन्तरात्मा में स्थान मिल सके तो वह आत्मानुशासन की, आत्मनियन्त्रण की रस्सी से बँधा रहकर मर्यादाएँ पाल सकता है।

आस्तिकता व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था एवं प्रगति की दृष्टि से नितान्त उपयोगी मान्यता है। उपासना रत होकर व्यक्ति अपना स्तर ऊँचा उठाता है और सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करता है। आस्तिकता को परिपक्व करने में उपासना का असाधारण योगदान रहता है। इसी से तत्त्वदर्शियों ने उपासना को अत्यन्त आवश्यक नित्यकर्म माना है और उसे अपनाने पर होने वाले अनेकानेक लाभों का वर्णन किया है। वस्तुतः यह अवलम्बन ऐसा ही है। इसे अपनाकर हर व्यक्ति उज्ज्वल भविष्य की दिशा में अनवरत रूप से बढ़ते हुए पूर्णता का जीवन लक्ष्य पूरा कर सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार