अपने भीतर के जखीरे को उभारने की कला है अध्यात्म
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
क्या है आध्यात्मिकता?
देवियो, भाइयो! आज की दुनिया नासमझों की है। कैसे? जो आदमी नामवरी के लिए, तारीफ के लिए, राजसत्ता के लिए, पैसे इकट्ठे करने के लिए और दूसरी चीजों के लिए अपनी जिंदगी को तबाह करते रहते हैं, मित्रो! मैं उन्हें समझदार कैसे कहूँगा! मैं तो नासमझ ही कहूँगा। आज की दुनिया यही है। आज की आध्यात्मिकता का हमारा उद्देश्य आदमी की नासमझी में समझदारी का समन्वय करना है। हमारा युग पैंतालीस वर्ष पूर्व शुरू हुआ, जब मेरी नासमझी में समझदारी का समन्वय किया गया। तब मैं छोटा नासमझ मनुष्य था। बेअक्ल, इच्छाओं का मारा, वासनाओं का मारा, तृष्णाओं का मारा, अभावों का मारा, असंतोष का मारा, एक गया-गुजरा साधारण मनुष्य था। एक दिन ज्ञान की-अमृत की एक धारा की एक किरण मेरे पास आई और न जाने कैसे-कैसे हुआ। मेरे गुरुदेव ने जो किया, मैं चाहता हूँ कि आपको बुला करके आपके साथ भी वही सलूक करूँ, जो मेरे गुरुदेव ने मेरे साथ किया था। मेरे गुरुदेव ने मुझे ज्ञान की धारा से परिचय कराया। उन्होंने यह परिचय कराया कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो मनुष्य के जीवन में समाविष्ट हो जाती है। जीवन में जो ज्ञान व्यावहारिक धरातल पर उतारा जा सकता है, उस चीज का नाम आध्यात्मिकता है।
भावनाओं का स्तर ऊँचा उठे
मित्रो! मुझे पहले यह मालूम था कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो पूजा की कोठरी में कुछ थोड़ा सा टंट-घंट करने के लिए काम में लाई जा सकती है। पहले मेरा ख्याल था कि अगर माला घुमाई जा सकती है; पूजा की जा सकती है; रामायण पढ़ी जा सकती है; गीता पढ़ी जा सकती है। भगवान को चावल चढ़ाए जा सकते हैं; रोली चढ़ाई जा सकती है; आरती उतारी जा सकती है तो आध्यात्मिकता का उद्देश्य पूरा हो जाता है, लेकिन पीछे मैंने अपना ख्याल बदल दिया और मेरी अक्ल एवं समझ में जमीन-आसमान जैसा फरक हो गया। जब मुझे असलियत मालूम पड़ी तो मैंने कुछ और ही बात पाई। मैंने देखा कि जो भी कर्मकाण्ड हैं, उपासनाएँ हैं, उन सबका मतलब और उद्देश्य एक ही है और वह उद्देश्य यह है कि मनुष्य का अंतरंग और मनुष्य का हृदय, मनुष्य की जीवात्मा का स्तर ऊँचा उठाया जाए और मनुष्य की भावनाओं का विकास किया जाए। भावनाओं का स्तर घटता है तो आदमी घटिया ही बना रहेगा, वह कभी बढ़ नहीं सकता और अगर मनुष्य की भावनाएँ ऊँची हैं तो उसका व्यक्तित्व ऊँचा होगा। ऊँचा व्यक्तित्व जहाँ कहीं भी होगा, वह जहाँ कहीं भी निवास करता होगा, उसको लौकिक सुविधाएँ भी मिल रही होंगी और पारलौकिक भी और अगर मनुष्य का घटिया वाला व्यक्तित्व है तो उसे जीवन में असुविधाएँ और कठिनाइयाँ पैदा होंगी, आंतरिक जीवन की उत्कृष्टता का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
आया मर्म समझ में
इसलिए मित्रो ! जब मुझे सिखाया गया तो कर्मकाण्डों और पूजा-उपासना का सारे का सारा रहस्य मेरी समझ में आ गया और मेरे रोम-रोम में समा गया। तब मैंने पाया कि जो कुछ भी हमको पूजा-उपासना के क्रिया कृत्य करने हैं, उनके माध्यम से हमको अपने व्यक्तित्व, अपनी विचारणा, अपनी भावना की क्रियापद्धति का परिष्कार करना चाहिए। फिर क्रिया-कृत्यों के रहस्य मुझे मालूम पड़े कि भगवान के चरणों में गुलाब के फूल क्यों चढ़ाए जाते हैं। यह रहस्य मेरी समझ में आ गया कि खिलता हुआ गुलाब, हँसता हुआ गुलाब, मुस्कराता हुआ गुलाब, सुगंध से भरा हुआ गुलाब ही इस बात का अधिकारी है कि भगवान के चरणों में स्थान पाए और भगवान के गले में स्थान पाए। गुलाब केवल उस पौधे का नाम नहीं है, जो वनस्पति के वन में पैदा होता है। भगवान उस आदमी का नाम नहीं है, जो गंदी जगहों पर रहता है और अगर गुलाब का फूल सूँघने को मिल जाए तो फूलकर कुप्पा हो जाता है। गुलाब के फूल से उसका क्या लेना-देना! उसके लिए सारी की सारी दुनिया में गुलाब ही गुलाब तो खिले हुए हैं। वह आपका गुलाब लेकर के क्या करेगा!
गुलाब की तरह खिलें, सुगंध फैलाएँ
मित्रो! भगवान को गुलाब समर्पित करने का मतलब उसकी किसी जरूरत को पूरा करना नहीं है, वरन अपने मन के ऊपर एक छाप और एक संस्कार डालना है कि यदि मनुष्य का जीवन एक गुलाब के फूल के तरीके से खिला हुआ होगा तो भगवान का प्यार और भगवान की समीपता का अधिकार प्राप्त कर सकता है। क्या हमने गुलाब के फूल की तरह खिलने की कोशिश की? क्या हमने अपने आप को सुगंधित बनाया? क्या अपने आप को हँसता हुआ आदमी बनाया? क्या अपने आप को संतुष्ट आदमी बनाया? क्या अपने आप को खिलता-खिलाता हुआ आदमी बनाया? क्या अपनी खुशी से दूसरे आदमी को खुशी देने का कभी प्रयास किया? अगर हमने ऐसा किया हो तो समझना चाहिए कि हमको फूल चढ़ाने की बात और फूल चढ़ाने का रहस्य मालूम हो गया। अगर इतनी सी बात समझ में न आई तो आपके फूल चढ़ाने से क्या फायदा हो सकता है, मैं नहीं जानता। इसी तरीके से हमने भगवान पर चंदन चढ़ाया, कर्मकाण्ड किए, फिर भी इसके मतलब नहीं समझ पाए। ऐसा नहीं है कि जहाँ भगवान रहते हैं, वहाँ बदबू बनी रहती है। यदि उनको हम चंदन लगा देंगे तो भगवान जी का काम चल जाएगा।
चंदन से गुण आ जाएँ
मित्रो! भगवान जहाँ रहता है, वहाँ खुशबू की, सुगंध की कोई कमी नहीं है। वहाँ बहुत सेंट बिखरे हुए हैं और वहाँ बहुत धूपबत्तियाँ जलती रहती हैं। वहाँ हम चंदन नहीं भी चढ़ाएँ तो भगवान जी को कोई कष्ट और तकलीफ होने वाली नहीं है। असल में चंदन चढ़ाने का मतलब यह है कि हमारा जीवन वैसा ही शांत और सुगंधित हो कि जहाँ कहीं भी लगाया जाए, वहाँ तरावट व सुगंध पैदा कर दे। उसके समीप में जो पौधे उगे हुए हों, उन पौधों में अपनी खुशबू बिखेर दे और अपने समीप रहने वाले व्यक्तियों को वैसा ही सुगंधित बना दे, जैसा कि चंदन अपने समीप वाले लोगों को बनाता रहता है। चंदन के आस-पास बिच्छू भी लिपटे रहते हैं, साँप भी लिपटे रहते हैं और डंक मारते रहते हैं, पर चंदन क्या कभी साँप के जहर से जहरीला हो गया? क्या बिच्छू के जहर का असर उस पर आया? नहीं! आदमी भी चंदन के तरीके से अपने गुणों को बढ़ा सकता है और यह समझ सकता है कि हमने चंदन चढ़ा करके इसके मकसद को और उद्देश्य को पूरा कर लिया।
नैवेद्य व दीपक का वास्तविक अर्थ
भगवान को हम शक्कर चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं। मिठाई चढ़ाने का मतलब यह नहीं है कि भगवान को खटाई नापसंद है, मिर्च नापसंद है, नीबू नापसंद है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि भगवान जी काली मिर्च नापसंद करते हैं; अथवा दूसरे जो जायके हैं; वे भगवान को नापसंद हैं। मिठाई चढ़ाने का मतलब केवल एक है कि भगवान जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं और भगवान के पास जिस चीज की सबसे ज्यादा पहुँच हो सकती है, वह मिठास है। मनुष्य की वाणी की मिठास, मनुष्य के व्यवहार की मिठास, मनुष्य के क्रिया-कलापों की मिठास मनुष्य की वृत्तियों की मिठास आदि अगर चारों ओर फैलती चली जाए तो हम इस बात के अधिकारी बन सकते हैं कि हमारा जीवन और हमारी मनोभावनाएँ बिना किसी रुकावट के भगवान के चरणों में चढ़ाई जा सकती हैं। इसी तरह हम भगवान के सामने दीपक जलाते रहते हैं। दीपक जलाने का मतलब यह नहीं है कि भगवान की आँखों की ज्योति कम हो गई है और उन्हें आदमी से कम दिखाई पड़ता है। आँखों में मोतियाबिंद हो गया है, इसलिए उन्हें चश्मे लगवाने पड़ेंगे। मित्रो! भगवान जी की आँखें सही हैं और उनकी आँखों के आगे दीपक न भी जलाएँ तो भगवान जी को किताब पढ़ने में और अखबार पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आती। उनकी आँखें सही हैं। फिर आपके दीपक जलाने का क्या मतलब है!
जलने की तमन्ना : स्नेह का विस्तार
मित्रो! खुद को दीपक जलाने की जरूरत होती है, क्योंकि दिन में जब बादल आ जाते हैं और अंधेरा हो जाता है. तब प्रकाश कम हो जाता है और घर में बत्ती जलानी पड़ती है। ठीक है, हमारी आँखें कमजोर हैं, इसलिए बत्ती जलानी पड़ती है, लेकिन भगवान जी की आँखें कमजोर नहीं हैं। भगवान जी के सामने आप दीपक न भी जलाएँ तो उनको कोई दिक्कत नहीं आने वाली है। इसके बिना भी वे सो सकते हैं, सिलाई कर सकते हैं और किताबें पढ़ सकते हैं। मैंने उनकी आँखों को देखा था। फिर दीपक की जरूरत क्या है ! दीपक की जरूरत केवल यह है कि हम अपने भीतर अलौकिक भावनाओं का विकास करें। भगवान को दीपक प्यारा है। भगवान को मुहब्बत प्यारी है। भगवान दीपक को मुहब्बत करते हैं। दीपक वह है, जिसके मन में जलने की तमन्ना है, जिसके भीतर प्यार भरा पड़ा है, स्नेह भरा पड़ा है। स्नेह प्यार को भी कहते हैं। स्नेह का दूसरा अर्थ घी भी होता है और तेल भी होता है। मुहब्बत को भी स्नेह कहते हैं। जिसके भीतर स्नेह भरा हो, वह दीपक है और जिसने यह नीति अख्तियार कर ली है कि मैं दुनिया में प्रकाश फैलाऊँगा, रोशनी फैलाऊँगा और अँधेरे में उजाला पैदा करूँगा और इसके लिए मैं जलने के लिए तैयार हूँ। जो आदमी जलने के लिए तैयार है, वह सितारे की तरह है, जो रात के समय जब चारों ओर अँधेरा छाया रहता है, उस समय राह चलते मुसाफिरों को जो अँधेरे में रास्ता भटक सकते थे, उनको अपनी छोटी सी चिनगारी के द्वारा रास्ता दिखाता रहता है। बच्चे गाते रहते हैं—'ट्विकल-ट्विकल लिटिल स्टार। हाऊ आई वंडर, ह्वाट यू आर।' इस तरीके से छोटा वाला मनुष्य अपनी नाचीज और छोटी हस्ती को अपने छोटे-छोटे कार्यों द्वारा इस संसार में कैसे प्रकाश फैला सकता है और दूसरों को रास्ता दिखाने वाली जिंदगी कैसे जी सकता है, यह बात छोटा सा दीपक सिखाता है कि गरीब आदमी भी दूसरों को रास्ता दिखाने वाली जिंदगी जी सकता है और हजारों मनुष्यों को रास्ता दिखा सकता है।
जीवन जीने की सही विधि यही है
मित्रो! बहुत से आदमियों ने ऐसी जिंदगी जी है। ऐसी जिंदगी जीना भगवान की भक्ति का उद्देश्य है। इन कर्मकाण्डों का उद्देश्य भी यही है। अगर यह उद्देश्य हमारी समझ में न आए और केवल क्रिया समझ में आए तो बहुत मुश्किल है। तब हम अपने लक्ष्य तक पहुँच पाएँगे कि नहीं, इसमें हमें पूरा शक है। इसीलिए मेरे गुरुजी ने मुझे बताया कि हमको आध्यात्मिकता के सहारे, क्रिया के सहारे, गायत्री महामंत्र के चौबीस पुरश्चरणों के सहारे अपने आप ही अपनी जीवात्मा का विकास करना चाहिए और विचारणाओं एवं भावनाओं का परिष्कार करना चाहिए। विचारणाओं और भावनाओं का परिष्कार जहाँ कहीं भी जिन किन्हीं व्यक्तियों ने शुरू किया है, वे छोटे-छोटे, नगण्य से नगण्य, गरीब से गरीब, मामूली से मामूली आदमी भी इस संसार के महान व्यक्ति होते हुए चले गए और उन्हें भगवान की कृपा और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए स्वर्ग तक फैलने का इंतजार नहीं करना पड़ा। गरीब होते हुए भी उन्हें वे दौलतें और नियामतें और वे चीजें मिली कि जिनकी मामूली आदमी ख्वाब में भी कल्पना नहीं कर सकता। ऐसी चीजों का हकदार आप में से हर आदमी बन सकता है। अगर आप लोगों को यह ख्याल आए तो आपको अपना मन, अपनी तबीअत, अपना चाल-चलन, अपनी रीति-नीति और अपनी जिंदगी जीने की विधि ठीक कर लेनी चाहिए। अगर इतनी छोटी-सी बात आपकी समझ में आ जाए तो मजा आ जाए और आपको भगवान का प्यार ही नहीं, भगवान की दौलत ही नहीं, भगवान की कृपा भी आपको मिलती हुई चली जाएगी।
जोखिम में डालकर दुनिया का उद्धार—यह है ईश्वरीय कृपा
मित्रो! इसी तरीके से भगवान की कृपा लोगों को मिली भी है। हर एक आदमी के लिए भगवान की कृपा, भगवान की दौलत और भगवान की मुहब्बत सुरक्षित रखी हुई है। भगवान बहुत देर से इंतजार में बैठे हुए हैं कि कोई आदमी है, जिसे मेरी मुहब्बत पाने का हक है। कोई भी ऐसा आदमी हो, जिसको कि अपना प्यार दे दूँ। कोई आदमी हो, जिसको कि मैं अपनी सहायता दूँ। हमेशा भगवान ने यही किया है और उन्होंने बहुत लोगों को बहुत तरह की सहायता दी है। अर्जुन को उन्होंने कहा कि हे अर्जुन! दुनिया में बहुत सी बुराइयाँ छाई हुई हैं और बुराई का मुकाबला करने के लिए अपने आप को जोखिम में डालना चाहिए और दुनिया में से बुराई को दूर करना चाहिए। अर्जुन ने कहा कि मुझे आप झगड़े में क्यों फँसाते हैं। यह काम तो आप किसी और को सौंप दीजिए और मुझे तो आप पूजा करने की बात बता दीजिए। इस दुनिया में सबसे सुगम काम यही है। इससे सुगम काम और कोई है ही नहीं। यह सबसे सस्ता और सबसे सरल काम है। आपको चरखा चलाना हो तो उसमें अक्ल की जरूरत है। धागा टूट न जाए, सूत खराब न हो जाए, तकुवा टेढ़ा न हो जाए और इसकी स्पीड ज्यादा न हो जाए। इतनी बातें ध्यान में रखेंगे, तब कहीं धागा निकलेगा और माला घुमानी हो तो माला खट-खट घुमाते जाइए, इसमें न स्पीड का ध्यान रखना, न धागे का ध्यान रखना। यह सबसे सस्ता, सबसे कमजोर और सबसे हलका काम है भगवान का।
भगवान के आने का उद्देश्य
अर्जुन ने कहा कि महाराज जी! हमको आप यही सस्ता काम सौंप दीजिए। जिस तरह से छप्पन लाख बाबाजी आपके गंगाजी के तट पर बैठे रहते हैं और सतत सीताराम गाते रहते हैं, मैं भी गाता रहूँगा। मुझे क्या दिक्कत है ! बस, यही काम करूँगा और मेरा काम बन जाएगा। आप तो मुझे इस झगड़े में फँसाइए मत। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि तुझे इस झगड़े में फँसना ही पड़ेगा, क्योंकि जब भी मैं इस दुनिया में अवतार लेता हूँ तो मेरे अवतार लेने के दो उद्देश्य होते हैं—एक उद्देश्य है धर्म संस्थापना का और दूसरा मेरे जीवन का उद्देश्य है दुष्टों का विनाश—
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना, यही दो मेरे कार्य हैं। मैं कभी भी और कहीं भी जब कभी इस दुनिया में स्वयं आऊँगा, तो इन्हीं दो कामों के लिए आऊँगा, तीसरा मेरा कोई मकसद नहीं है और अगर मैं मनुष्य के भीतर आऊँगा, तो इन्हीं दो कामों के लिए आऊँगा। मनुष्य के पास आने का तीसरा मेरा कोई और मकसद नहीं है। मनुष्य के पास आऊँगा तो सिर्फ इस काम के लिए आऊँगा कि उसे इस काम में लगाऊँ कि धर्म की स्थापना करने के लिए वह व्यक्ति पुरुषार्थ दे और अपनी सारी शारीरिक शक्ति खरच कर डाले। पाप और अन्याय, अनीति और अनाचार का निराकरण करने के लिए वह अपनी सारी शक्तियाँ खरच कर डाले। उसे ऐसा ही करना चाहिए।
'करिष्येवचनं तव' अर्जुन की स्वीकारोक्ति
भगवान की बात को अर्जुन ने मंजूर कर लिया और तब भगवान ने कहा कि तू गाण्डीव उठा और तीर चला. बाकी सब काम मैं कर लूँगा। उन्होंने कहा कि यदि मैं थक गया तब? भगवान ने कहा कि मैं तुझे थकने नहीं दूँगा। अर्जुन ने कहा कि यदि मैं रास्ता भूल गया तब? श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं तेरे घोड़े चलाऊँगा। अर्जुन ने कहा कि यदि मेरी हार हो गई तब? श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं तेरा काम करूँगा। भगवान आगे-आगे रथ बढ़ाते चले जा रहे थे और अर्जुन गाण्डीव चलाता हुआ चला जा रहा था। गाण्डीव चलाने वाला अर्जुन, जो कि भगवान का काम करने के लिए कटिबद्ध हुआ था, भगवान की सहायता पाने का अधिकारी हुआ। यह तो हुई पुराने जमाने की बात।
संघं शरणं गच्छामि
नए जमाने में भगवान की आज्ञानुसार गौतम बुद्ध जब पूजा पर से उठे तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि मुझे आपका प्यार पाने के लिए जीवन में क्या करना होगा? उन्होंने कहा कि दो ही काम हैं, तीसरा काम मैंने किसी को नहीं सौंपा—एक धर्म की स्थापना और दूसरा पाप का निष्कासन। इसलिए तू धर्म की स्थापना कर और लोगों से कह 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि।' धर्म के इस्तेमाल से संघबद्ध हो जाएँ और बुद्धि की, अक्ल की सहायता से, विवेक की सहायता से अज्ञान और अनाचार, छोटापन और मूढ़मान्यताओं, परंपराओं के पीछे भागने वाली दुनिया को हे बुद्ध! तुम कहो—'बुद्धं शरणं गच्छामि'—बुद्धि की शरण में जाऊँगा, विवेक की शरण में जाऊँगा और विवेक के विरुद्ध की सब बातों को उखाड़कर फेंक दूँगा। लोगों से कहो कि हे अच्छे अनुचरो! नेक आदमियो! संघबद्ध हो जाओ। इकट्ठे हो जाओ।
साधन भगवान देंगे
बुद्ध ने भगवान की बात मान ली। 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि' का संदेश लेकर के भगवान की आज्ञा से भगवान बुद्ध चले गए और वैर की, हिंसा की और नर आहुति वाली अंधपरंपरा जो देश में छाई हुई थी, उससे लड़ने के लिए बुद्ध ने बहुत बड़ा संघर्ष किया। भगवान बुद्ध अपने जमाने के बहुत बड़े-महान क्रांतिकारी थे। बुद्ध अकेले जंगल में बैठे हुए थे, कमजोर थे। उन्होंने भगवान से कहा कि आपने इतना बड़ा काम मुझे सौंपा है। इसे मैं किस तरीके से पूरा कर सकूँगा? मेरे पास रुपया कहाँ हैं? पैसा कहाँ है? मेरे पास साधन कहाँ हैं? भगवान ने कहा कि तू आगे चल और पीछे से मैं रुपया लेकर आया। और मित्रो! सम्राट अशोक आया। उसने कहा कि आप हैं भगवान बुद्ध? उन्होंने कहा कि हाँ, भगवान की आज्ञानुसार, भगवान की इच्छानुसार मैंने अपने जीवन को हथेली पर रखा और अपना सारा जीवन कुरबान कर दिया। उसने कहा कि फिर आपको सामान की जरूरत है ना? उन्होंने कहा कि हाँ, मुझे चीजें चाहिए, मुझे पैसा चाहिए, मुझे सोना चाहिए, मुझे अमुक-अमुक चीजें चाहिए। अशोक ने कहा कि भगवान का सब सामान आपके चरणों पर समर्पित है। सारी की सारी चीजें, धन, दौलत सब उनके पास आ गईं। भगवान बुद्ध ने अजंता, एलोरा की गुफाओं से लेकर ढाई लाख शिष्यों के माध्यम से एशिया में और सारे विश्व में क्रांति मचा दी। भगवान सम्राट अशोक के रूप में उनकी सहायता कर रहे थे।
समुद्र मंथन
एक बार देवता और असुर समुद्र मंथन करने लगे। उन्होंने सोचा कि भगवान की इच्छा और आज्ञा से पुरुषार्थ किया जाना चाहिए और उस वसुधा में, जिसमें अनेक रत्न भरे पड़े हैं, उनको निकाला जाना चाहिए। देवताओं ने कहा कि हम हार जाएँगे और असुरों ने भी कहा कि हम हार जाएँगे। भगवान ने कहा कि मैं तो जिंदा हूँ, तुम हार जाओगे तो मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा। समुद्र मंथन होने लगा और मंदराचल पर्वत नीचे समुद्र की तलहटी में चला गया। देवता चिल्लाए—अरे महाराज जी! मंदराचल पहाड़ जिससे हम रई का काम ले रहे थे, अब डूबा और हमारा काम फेल हुआ। भगवान ने कहा—कैसे फेल होगा, मैं आता हूँ और भगवान कछुए का रूप बनाकर आए और अपनी पीठ के ऊपर पहाड़ को उठा लिया और समुद्र मंथन होता रहा, समुद्र से रत्न निकाले जाते रहे।
शंकर दिग्विजय
मित्रो! इसी तरह आद्य शंकराचार्य भगवान का काम करने के लिए रवाना हुए और संसार दिग्विजय की उनकी यात्रा आरंभ हो गई। शंकराचार्य ने कहा—भगवन्! मैं बीमार आदमी हूँ और मैं छोकरा हूँ, बाईस साल का हूँ और देखिए अभी मेरी मूँछें भी नहीं आईं और मैं बहुत छोटा आदमी हूँ, बीमार हूँ, मेरे भगंदर का फोड़ा है, मैं कमजोर आदमी हूँ। फिर मैं कैसे काम करूँगा! भगवान ने कहा—चल मैं आया तेरे साथ। सम्राट मांधाता को उन्होंने शंकराचार्य की सहायता के लिए भेज दिया। मांधाता ने कहा कि आप दिग्विजय के लिए विश्व में जा रहे हैं? उन्होंने कहा कि हाँ, जा रहा हूँ। तो आप यह मेरी सेना ले जाइए, मेरा रथ ले जाइए। आपसे शास्त्रार्थ में जो कोई मुकाबला करे, उससे मुकाबला कीजिए। ताकत में आपको धमकाना चाहे तो मेरे सैनिक उसे ठिकाने लगा देंगे। राजा मांधाता की सेना और करोड़ों का खजाना आगे-आगे चला।
ध्येयनिष्ठ जीवन
अभी तो मैं आपसे पुरानी बातें कह रहा था। अब मैं अभी की बात कहूँगा कि किस तरह मनुष्य के ऊपर भगवान की सहायता बरसती हुई चली गई और चली जानी चाहिए। जापान में एक छोटा सा छोकरा था। उसके जी में आया कि कमाते-खाते तो सभी हैं। यू० जी० सी० से छात्रवृत्ति पाने की तमन्ना सभी को रहती है। अच्छी नौकरी की इच्छा भी सभी को रहती है, लेकिन क्या इनकी अपेक्षा भी बेहतरीन काम किया जा सकता है? क्या मनुष्य का जीवन बेहतरीन कामों के लिए नहीं मिला है? एक छोटा सा विद्यार्थी जिसके माँ-बाप दोनों मर चुके थे, अकेला रह गया था। क्या करना चाहिए? हमारे आपके जैसा आदमी होता तो यह ख्वाब देखता किं ब्याह करना चाहिए, बच्चे पैदा करना चाहिए, नौकरी करनी चाहिए, किराए का घर लेना चाहिए, सिनेमा देखना चाहिए और बीबी के लिए जेवर बनाना चाहिए। बस, इन्हीं सारी ख्वाहिशों में सारी की सारी जिंदगी खत्म हो जाती है। फिर हमारे और आपके जैसा घटिया आदमी जापान का गाँधी कागावा कैसे बनता! तमन्नाएँ हों, पर ऐसी जो आध्यात्मिक मनुष्यों की होती हैं। उस छोटे से बच्चे ने भी सोचा कि भगवान ने मुझे जापान की सेवा करने के लिए भेजा है, अत: मेरे जीवन का उत्तम ध्येय सेवा करना है।
कागावा ने चुना रास्ता
वह गाँव-गाँव गया, मुहल्ले-मुहल्ले गया। उसने शहर में एक मुहल्ला ऐसा देखा, जहाँ कोढ़ी रहते थे; बीमार रहते थे; शराबी रहते थे; जुआरी रहते थे; निकम्मे लोग और वेश्याएँ रहती थीं। वहाँ रोज गाली-गलौज और खून-खच्चर होता रहता था। सारे के सारे लोग भयानक नरक में डूबे हुए थे। उसी मुहल्ले में जाकर के उसने अपनी एक झोंपड़ी बना ली और वहीं पर लोगों का इलाज करने लगा। सारा दिन उन्हीं रोगियों के साथ बिताता, उनकी सेवा करता, बीमारों को उठाकर अस्पताल ले जाता और लोग जो दूसरी बीमारी में पड़े थे, उनकी दूसरी सहायता करता। शाम को ट्यूशन करता और पचास रुपये महीने कमाकर ले आता। बस, यही उसकी कमाई थी, गुजारे का साधन था। उस गुजारे के धन के सहारे कागावा सारे के सारे गाँव की सेवा करने लगा, दीन जनों की सेवा करने लगा।
दरिद्रनारायण की सेवा में और भी लगे
एक दिन उसके पास एक छोकरी आई और कहने लगी कि कागावा! आप रोज कहाँ जाते हैं? उसने कहा कि मैं तो एक गंदे मुहल्ले में रहता हूँ और जो दुखी हैं, उनकी सेवा करता हूँ। उन्हीं में तो भगवान हैं। भगवान हाथ पसारता है और यह कहता है कि मैं गरीब के रूप में हूँ, पिछड़े लोगों के रूप में हूँ, दरिद्र के रूप में हूँ, मैं अज्ञानियों के रूप में हूँ। आओ, जिसके भीतर भगवान है, उसकी सेवा करो, सहायता करो। मैंने उस भगवान को गंदे वाले मुहल्ले में देखा और सेवा करने के लिए चला गया। उस छोकरी ने कहा कि क्या सेवा करने का मौका हमें भी मिलेगा? उसने कहा कि हाँ, तुम भी चल सकती हो। उसने देखा कि फूस की झोंपड़ी में पड़ा हुआ एक सैनिक कैसे दिन-रात दीन-दुखियों की सेवा में जुटा रहता है। उस छोकरी ने कहा कि तुमको दीन-दुखियों की सेवा में क्या मजा आता है? कागावा ने कहा कि इस मजे को और इस आनंद को चख लेना हर आदमी का काम नहीं है। क्यों? क्योंकि हर आदमी इंद्रियों का गुलाम है, वासनाओं का गुलाम है। इसीलिए उसे चीजें चाहिए, पर यह आनंद सेवा का आनंद है, त्याग का आनंद है, महात्मा का आनंद है, जो किसी-किसी भाग्यवान के ही हिस्से में आता है और वह भाग्यवान मैं हूँ, जो सेवा में अपने जीवन को लगाए हुए है। छोकरी ने कहा कि मैं भी अपना जीवन इसी काम में लगाना चाहूँगी और वह लड़की भी कागावा के साथ हो गई।
जापान का गाँधी बन गया कागावा
मित्रो! कागावा की वजह से जापान में समाज सेवा का बड़ा भारी काम होने लगा। अब मैं आपसे उसकी लंबी कहानी कहाँ तक कहूँ, बस अंत में यही कह सकता हूँ कि कागावा जापान का गाँधी हो गया। हर आदमी यही कहता कि भगवान अगर जिंदा है तो कागावा के रूप में। कागावा कौन? जो सेवा के लिए अपने आप को उत्सर्ग कर सका, उसका नाम भगवान है। लोग आते, उस भगवान के दर्शन करने के लिए, उसके चरणों में श्रद्धांजलि चढ़ाने के लिए। जापान का गाँधी कागावा अपने देश का कितना सुधार कर सका। जापान की गवर्नमेंट को कितना प्रभावित कर सका, जापान की जनता के हृदय पर अपनी कितनी छाप डाल सका, यह बात वहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। छोटा सा मामूली विद्यार्थी, जिसकी न माँ थी, न बाप था; जिसके पास न मकान था, न जायदाद थी, लेकिन जब महानता मनुष्य के भीतर आती है, तब भगवान की दौलत और भगवान का प्यार और भगवान का सहयोग अनायास ही न जाने कहाँ से बरसता हुआ चला जाता है।
(क्रमशः)
एक असामान्य व्यक्ति
मित्रो! राजस्थान का बाईस-तेईस साल का एक छोकरा संस्कृत में मध्यमा तक पढ़ा हुआ था। अठारह साल की उम्र में उसका ब्याह हुआ और बाईस साल की उम्र में उसकी पत्नी का देहांत हो गया। चार साल तक दोनों साथ रहे थे, अत: जब उसकी याद आती तो कलेजा थामकर रह जाता। इस उम्र में आपकी बीबी का देहांत होते ही तीन-चार दिन बाद से ही दोबारा ब्याह कहाँ करना चाहिए तथा दूसरी और कहाँ से लानी चाहिए. यही ताना-बाना बुनने लगते, लेकिन उस आदमी की सोच अलग थी। उस व्यक्ति ने विचार किया कि जिस महिला ने मेरी जिंदगी में चार साल आनंद और उल्लास के साथ व्यतीत किए, उसका एहसान मुझे किस तरीके से चुकाना चाहिए? यह महान व्यक्तियों के सोचने का ढंग है। हमारे-आपके जैसा होता तो बिना बोले चला जाता और पिंड बनाकर उसकी छाती पर रखता और कहता कि ले कच्चे आटे के पिंड खा ले, लेकिन उसने आटे के कच्चे पिंड खिलाने की अपेक्षा दूसरे तरीके अख्तियार किए और वहाँ चला गया, जिस गाँव से वह महिला आई थी। गाँव के लोगों से उसने कहा कि आप लोगों का मेरे ऊपर एहसान है, आप लोगों की उस छोकरी का एहसान मेरे ऊपर है।
हमारा एहसान बनाम समाज का एहसान
मित्रो! भगवान के भक्त यों कहते हैं कि सारे समाज का एहसान हमारे ऊपर है; जबकि निकम्मे आदमी यह कहते हैं कि मेरा एहसान दूसरों के ऊपर है। जो आदमी यह मानता है कि भगवान का एहसान, समाज का एहसान हमारे ऊपर है, उसे बड़ा आदमी मानना चाहिए, लेकिन जो कहता है कि गुरुजी! माला जप करते-करते एक महीना हो गया। तो क्या हो गया? गुरुजी! भैंस का दूध साढ़े चार से साढ़े पाँच किलो नहीं हुआ और गुरुजी! नौकरी में तरक्की भी नहीं हुई। महाराज जी! कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि गायत्री माता नाराज हो गई हैं। तो फिर क्या करना चाहिए? बड़ा गजब हो गया। गायत्री माता तो ध्यान नहीं देतीं और आपने जो बताया था, उससे भी कोई फायदा नहीं होता। फिर क्या कहूँ बेटे! यही कह सकता हूँ कि तू एक काम कर, लोहे की एक सलाई गरम कर और आचार्य जी के पुट्ठे पर चिपका दे। एक महीना जप कर लिया, दिन में तीन माला जप कर लिया, नौकरी में तरक्की नहीं हुई, फलाना नहीं मिला, ढिमाका नहीं मिला, धूर्त कहीं का! भगवान के ऊपर एहसान जताता है, आचार्य जी के ऊपर और गायत्री माता के ऊपर एहसान जताता है। अरे, एहसान से तो तू दबा हुआ है। भगवान के असंख्य अहसानों से तो तू रत्ती-रत्ती दबा हुआ है। इन सारे एहसानों को भुला दिया और कहता है कि एक महीने में तीन माला जप कर लिया और मेरा यह नहीं किया, इम्तिहान में पास नहीं कराया, भैंस का दूध नहीं बढ़ाया। उल्लू कहीं का!
बड़ी सोच : बड़ा चिंतन
इस तरह मित्रो! छोटी सोच और घटिया सोच के लोग, जो अपना एहसान जताते रहते हैं, वे घटिया आदमी हैं और उन्हें भगवान की मंजिल तक पहुँचने में बहुत टाइम लगेगा। दूसरे वे लोग हैं, जिनके मन में आता है कि भगवान का एहसान, समाज का एहसान, माता-पिता का एहसान मेरे ऊपर है और असंख्य अहसानों के तले मैं दबा हुआ हूँ। समझना चाहिए कि वे ऐसे आदमी हैं, जिनको हम आध्यात्मिक कह सकते हैं। इनको भगवान की तरफ आगे बढ़ने की हिम्मत अवश्य मिलती है। यही हुआ। वह छोकरा, जो अध्यापक था, वहाँ उस गाँव में गया और बोला कि आपका, आपके गाँव का और आपकी छोकरी का हम पर बहुत एहसान है। आप क्या करना चाहते हैं? उसने कहा कि हम अपनी सेवा देंगे और आपके गाँव में रहेंगे और आपकी बच्चियों को पढ़ाएँगे, उन्हें सुसंस्कृत बनाएँगे। हम अपनी सारी जिंदगी इसी में लगाएँगे। लोगों ने कहा कि पागल है, पैंतालीस रुपये की नौकरी छोड़ेगा और यहाँ बिना कीमत के पढ़ाएगा। उनसे कहा कि यह जिंदगी नौकरी करने के लिए नहीं है। लोकमान्य तिलक को ही लीजिए, जिन्होंने इक्कीस रुपये की नौकरी मंजूर कर ली। लोगों ने कहा कि इतने में तुम्हें मरने के लिए कफन भी नसीब नहीं होने वाला है। उन्होंने कहा कि कफन की चिंता औरों को करनी चाहिए, जिन्हें लाश सँभालनी है। मुझे तो अपनी लाश सँभालनी नहीं है, इसलिए मुझे अपनी चिंता करने की कोई बात नहीं है।
एक और प्रमाण गोखले का
इसी तरह गोपालकृष्ण गोखले, जिन्होंने एक शिक्षा समिति बनाई और जो अध्यापक वहाँ रखे, उन्हें दो सौ रुपये महीने तनख्वाह देते थे और स्वयं संचालक के रूप में तीस रुपये महीना लेते थे। लोगों ने कहा कि आपके अध्यापक और आपके नौकर को दो सौ रुपये महीने मिलते हैं और आप शिक्षा समिति के मालिक, संचालक, संस्थापक हैं और इतनी कम तनख्वाह लेते हैं—क्या बात है? उन्होंने कहा कि आदमी को खरच करने के लिए इतना ही काफी है। अध्यापकों को दो सौ रुपये मिलते हैं और मुझे ढाई सौ रुपये मिलने लगें तो ऐसा आदमी अपनी चाल और सेवा की छाप दूसरों के ऊपर नहीं डाल सकता। तब अध्यापक भी चुपके-चुपके कहेंगे कि ढाई सौ रुपये लेता है, इसलिए लंबी-लंबी बातें बनाता है। कम पैसों में बच्चों का पालन कैसे किया जाता है, यह पता नहीं और बड़ा आया हुकूमत चलाने वाला!
ऐसे व्यक्ति भगवान बन जाते हैं
मित्रो! महापुरुष नौकरी करने के लिए पैदा नहीं होते। महापुरुष अपना कर्तव्य पालन करने के लिए पैदा होते हैं। छोटा वाला अध्यापक की नौकरी छोड़कर गाँव में चला गया और बच्चियों एवं कन्याओं को पढ़ाने लगा। पहले लोगों ने उसे पागल कहा, फिर उसका विरोध किया। हर तरह की मुश्किलें उसे पार करनी पड़ी। भगवान के भक्त को हर परीक्षा पास करनी पड़ी है। उसका मखौल उड़ाया जाता है, खिल्ली उड़ाई जाती है, फिर विरोध किया जाता है। पीछे लोगों को जब मालूम पड़ता है कि उसको ताकत आने लगी है, वह अच्छे काम करने लगा है, अपने पाँव जमाने लगा है तो फिर उसके पास आने की कोशिश की जाती है। यह दूसरी वाली स्टेज है। तीसरी वाली स्टेज वह है, जब दुनिया उसके सामने झुक जाती है, उसके पाँव के ऊपर अपना हृदय बिछा देती है। इस तीसरी वाली स्टेज पर अध्यापक जमा हुआ पड़ा रहा, गाँव का स्कूल चलता रहा, लड़कियों को बुलाता रहा और उन्हें पढ़ाता रहा। फिर क्या हुआ? हुआ यों कि थोड़े दिन बाद लोगों ने कहा कि यह इनसान नहीं, भगवान है। इनसान वह आदमी है, जो वासनाओं, इच्छाओं, तृष्णाओं की जंजीरों में बँधा हुआ जानवरों के तरीके से है। इनसान वह आदमी है, जिसको ख्वाइशें खा जाती हैं और भगवान वह आदमी है, जिसने तृष्णाओं को, वासनाओं को छोड़ दिया और जो कर्तव्य के पीछे कटिबद्ध है। इन इनसानों का नाम भगवान है।
दैवी अनुग्रह मिला हीरालाल शास्त्री को
लोगों ने कहा कि यह अध्यापक नहीं, भगवान है और उस भगवान के लिए लोग अपने घर से सारी की सारी चीजें उठाकर लाए। स्कूल के लिए पहले कच्ची इमारत बनाई, पीछे पक्की इमारत बनाई गई। उसके लिए चारपाई लाई गई, नए कुरते बनवाए गए। मित्रो! उस भगवान का काम बढ़ता गया। राजस्थान के वनस्थली कन्या विद्यापीठ के संस्थापक हीरालाल शास्त्री का नाम आपने सुना होगा। यह वही छोरा था, जो संस्कृत में मध्यमा तक पढ़ा हुआ था। जब राजस्थान बना तो लोगों ने कहा, कि यहाँ का मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए। लोगों ने कहा उसी भगवान को बनाया जाए। कौन से भगवान को? उसी हीरालाल शास्त्री को, जो मध्यमा तक पढ़ा हुआ था और सरकारी स्कूल से सहायता पाता था। उसी भगवान ने इस ऐतिहासिक स्कूल की स्थापना की है। मित्रो! मैं आपको कोई किस्से नहीं सुना रहा हूँ और न कोई दृष्टांत ही दे रहा हूँ। मैं तो यह कह रहा हूँ कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में महानताओं का समावेश कर लिया, वह इसी तरह से भगवान के प्यार और अनुग्रह और भगवान के सहयोग का अधिकारी होता चला गया।
मैंने सिद्धांतों को जीवन में घोलकर पिया है
मित्रो! मैं अपने गुरु की आज्ञानुसार उसी रास्ते पर चलता हुआ चला गया, जो कि आपको सिखाता हूँ। मैंने आध्यात्मिकता के सिद्धांतों, नियमों को जीवन में घोलकर पिया है। आप लोगों ने जबान से कहा है और कान से सुना है। जबान से कहने और कान से सुनने की चीज यह नहीं है। अध्यात्म ऐसा नहीं है, जिसको आप कान से सुनने के बाद अपना उद्देश्य पूरा कर सकें और भगवान उस आदमी का नाम नहीं है, जिसका नाम जबान से कहने के बाद में आपका उद्देश्य पूरा हो सकता हो। इसे जीवन में साबित करना पड़ेगा। जब आप दवा का सेवन करेंगे, दूसरी गोलियाँ खाएँगे, स्ट्रेप्टोमाइसिन खाएँगे, विटामिन 'बी' खाएँगे, अमुक दवा खाएँगे तो बीमारी दूर होगी। आप अच्छे हो जाएँगे। इसी तरह आध्यात्मिकता नाम लेने व सुनने की चीज नहीं है, काम में लाने की चीज है। मित्रो ! मैं उस आध्यात्मिकता का आपसे इजहार कर रहा हूँ, जिसे मेरे गुरु ने सिखाया और सारी जिंदगी उसे मैं काम में लाता रहा। काम में लाने का परिणाम यह है कि मैं छोटा सा आदमी—अदना सा इनसान लोगों की आँखों में क्या हूँ, आप नहीं जानते और मैं बताना भी नहीं चाहता। मरने के बाद में, मेरे चले जाने के बाद—थोड़ा इंतजार कीजिए कि वह आदमी, जिसका कि हम व्याख्यान सुनने के लिए गए थे और जिस आदमी के पास शान्तितकुञ्ज में रहे थे, क्या इतना छोटा आदमी था? क्या बड़ा आदमी था? उससे आपने क्या पाया था? हाँ, हमने बहुत कुछ पाया था, न जाने आपने प्रभाव की दृष्टि से क्या-क्या पाया, पैसे की दृष्टि से न जाने क्या-क्या पाया। इसका मैं आपको इजहार करूँगा? नहीं, इजहार नहीं करूँगा।
कुछ अपवादरूप घटनाएँ
मित्रो! मैं वह आदमी हूँ कि किसी आदमी की सेवा के लिए खड़ा हो जाऊँ और मन से आशीर्वाद देने लगूँ तो न जाने क्या से क्या हो जाए। इस तरह की घटनाएँ तो मैं नहीं सुनाता, लेकिन आपकी जानकारी के लिए एकाध घटना बता देता हूँ। दो वर्ष पहले मुझे भोपाल जाने का मौका मिला। वहाँ पर मेरा व्याख्यान हुआ। जब मेरा व्याख्यान हो रहा था तो एक लंबा आदमी जीप में बैठा मेरा भाषण सुन रहा था। जब मैं चला तो बोला कि मैं आपसे कुछ बात करना चाहता था। मैंने कहा कि क्या बात करना चाहते हो? वह बोला कि आप तो मुझे नहीं जानते, लेकिन मैं आपको जानता हूँ। मैंने कहा कि बताइए न, आप क्या जानते हैं, तो क्या बात है? यह स्त्री आपकी शिष्या है। मैंने कहा—होगी, बहुत सी स्त्रियाँ मेरी शिष्या हैं, दीक्षा लेती हैं और चली जाती हैं। कोई पैसा थोड़े ही देना पड़ता है दीक्षा में। वे आती हैं और पालथी लगाकर एवं हाथ जोड़कर बैठ जाती हैं, कलावा बाँधकर बैठ जाती हैं। फूल चढ़ा जाती हैं और जय बोल जाती हैं। लाखों हैं और न जाने कौन-कौन हैं। नहीं साहब! आपकी यह शिष्या मेरी धर्मपत्नी है। मुझे आपसे कुछ काम की बात कहनी है। अच्छा, तो मैं शाम को रामचंद्रलाल एडवोकेट के यहाँ ठहरा हुआ हूँ। आप शाम को वहाँ आ जाना।
शाम को साढ़े आठ बजे वे अपनी जीप दौड़ाते हुए वहाँ पहुँच गए। उन्होंने कहा कि मेरा नाम श्यामाचरण शुक्ल है। मैंने कहा कि आपका नाम तो मैंने बहुत सुन रखा था। उन्होंने कहा कि गुरुजी! बात यह है कि मैंने इंदिरा गाँधी से कुछ वायदे किए थे। गुरुजी ! मैंने तो अपनी सारी ताकत लगा दी, पर अब मुझे मालूम पड़ता है कि जमे हुए नेताओं को उखाड़ना हँसी-खेल नहीं है। अब मैं इंदिरा गाँधी को क्या मुँह दिखाऊँगा और उनसे क्या कहूँगा! पहले बड़ा चौड़ा सीना करके कह रहा था कि उन्हें उखाड़ फेंकूँगा, पर अब क्या करें! गुरुजी! आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए? मेरी पत्नी ने कहा है कि आपकी कृपा हो जाए तो सब कुछ हो सकता है। उसने कहा है कि आचार्य जी को लोग जानते नहीं हैं। जो जानते हैं, वही उनकी कीमत जानते हैं। हमारे पिताजी के पचीसों काम आचार्य जी की कृपा से पूरे हुए थे। इंदौर के एक थानेदार थे, उनकी लड़की को विश्वास था कि आचार्य जी के पास चले जाओ, काम बन जाएगा।
सामान्य आदमी मुख्यमंत्री बन गया
उन्होंने कहा कि चौबीस दिन के लिए नहीं, चौबीस घंटे के लिए मुझे मुख्यमंत्री बना दीजिए। अरे बाबा! मैं मंत्री बनाता हूँ या भगवान की बात कहता हूँ। मेरा काम मंत्री बनाना है या गायत्री का प्रचार करना है? नहीं आचार्य जी! आप कह दीजिए कि मैं मंत्री हो जाऊँ, फिर मैं देख लूँगा। अरे बाबा! मैं कैसे कह दूँ! मैं कोई मंत्री नहीं हूँ, गवर्नर नहीं हूँ, कैसे कह दूँ! रात को साढ़े आठ बजे से लेकर साढ़े बारह बजे तक—चार घंटे तक वे हमारे साथ रहे, साथ में खाना खाया, जप किया। अच्छा, अबकी बार तुम मुख्यमंत्री हो जाओगे। गुरुजी! कब तक हो जाऊँगा? तीन महीने बाद हो जाओगे। सच में वह आदमी मुख्यमंत्री हो गया। यह बात कानोकान एक से दूसरे तक फैलती चली गई। जब मैं ग्वालियर गया तो तत्कालीन राजपुरुष मेरे आगे-पीछे चलते थे; जबकि मैं राजनीति से दूर भागता हूँ। ग्वालियर में रानी सिंधिया ने कहा कि आचार्य जी हमारे नगर में आए और उनका स्वागत नहीं हुआ, इनकी व्यवस्था ठीक से नहीं हुई, यह भला कैसे हो सकता है! हमारी बात बिगड़ जाएगी। नागरिक होने के नाते हमको भी हक है कि हम आचार्य जी का स्वागत करें। मैंने कहा कि अरे बाबा! मैं तो हर साल आता हूँ।
अन्य ऐसों की अभिव्यक्ति
मित्रो! इसी तरह राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया को पता चला कि आचार्य जी हमारे प्रांत में आए हैं। कानोकान बात कहाँ से कहाँ पहुँचती है। उन्होंने कहा कि मैं आचार्य जी का व्याख्यान सुनना चाहता हूँ। व्याख्यान सुनना चाहते हो तो तुम भी सुन लो। मेरे पास खबर आई कि आपका भाषण सुखाड़िया जी पंद्रह मिनट सुनना चाहते हैं और आपके दर्शन करना चाहते हैं। किसी ने इनको बताया है कि आपने आचार्य जी का दर्शन नहीं किया तो आपने कुछ नहीं किया। सुखाड़िया जी आए और उन्होंने कहा कि पंद्रह मिनट आपका भाषण सुनूँगा। मैंने कहा कि बैठ जाइए, आप भी सुन लीजिए। पंद्रह मिनट उन्होंने मेरा भाषण सुना। पंद्रह मिनट बाद वे स्वयं हाथ जोड़कर कहने लगे कि मेरे लायक कोई काम नहीं बताएँगे क्या? वक्त आने पर बताऊँगा, अभी क्या बताऊँ, आप अपना काम ईमानदारी से कीजिए, यही क्या कम है। आपके ऊपर वही जिम्मेदारियाँ काफी हैं। यह घटना नहीं सुना रहा हूँ आपको, घटनाएँ तो बहुत हैं, जो ऊँचे तबके से लेकर साधारण जन तक की हमारे यहाँ पड़ी हुई हैं। यू० पी० के गवर्नर विश्वनाथ दास बोलते थे कि हमें आचार्य जी से मिलना है। उनके बारे में हमें बहुत जानकारी है। लोगों ने कहा कि वे आपसे मिलने के लिए आने वाले हैं और आपसे कुछ बात करेंगे। इंतजाम कर दिया। मथुरा के नागरिकों को बुलाकर बिठा दिया और सौ-दो सौ आदमियों के लिए चाय पार्टी का इंतजाम कर दिया। विश्वनाथ दास आए, उन्होंने कहा कि भगवान का दर्शन करने के लिए मैं मथुरा आया था, किंतु भगवान का दर्शन मैं नहीं कर सका, लेकिन एक व्यक्ति में भगवान को जीता और जागता मैं अवश्य देख सका और वे व्यक्ति हैं—आचार्य जी। विश्वनाथ दास ने कहा कि बहुत लोगों ने बहुत आदमियों की सेवा की है, लेकिन उतनी सेवा एक आदमी ने अकेले की है और उस आदमी का नाम है आचार्य जी। लोगों ने उनके कान खींचे कि आपने एक आदमी को एक भगवान कैसे कह दिया! उन्होंने कहा कि यह मेरे हृदय की सच्ची अनुभूति है। जैसा मैंने अनुभव किया, वही बात कही कि यह व्यक्ति वैसा ही है।
क्षुद्र इच्छाएँ-छोटी तमन्नाएँ
मित्रो! यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ? इसलिए कह रहा हूँ कि आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ। आप कहेंगे कि हमको इन बातों से क्या फायदा, आप तो हमारा एक छोटा सा काम कर दीजिए। हमारे दो लड़कियाँ हैं, एक लड़का कर दीजिए। मैं कर दूँगा, आप विश्वास रखिए, आपको लड़का होगा। आपके घुटने में दरद होता है, उसको भी बंद कर दूँगा। आप यकीन रखिए, घुटने का दरद बंद हो जाएगा। फिर आप कहेंगे कान में दरद होता है। फिर आप कहेंगे कि महाराज जी! बच्चा नहीं होता था, हो गया। अब ऐसा कर दीजिए कि मेरी लड़की विधवा है, उसका इंतजाम कर दीजिए। अरे बाबा! एक बार आशीर्वाद दे दिया, अब क्या मैंने सबका ठेका ले रखा है! सारी दुनिया में मुसीबतें हैं, कष्ट हैं, मैंने कोई ठेका ले रखा है क्या! अगर आप अपनी ये छोटी-छोटी चीजें, छोटी-छोटी तमन्नाएँ ही मेरे सामने रखते रहे और अपने नियम, व्रत अपने मन से निकाल दिए, तो न कोई आपको प्रसन्नता होगी और न कोई शांति होगी और मेरे संपर्क का लाभ आप जरा भी नहीं उठा पाएँगे। मैं तो आपको बड़े रास्ते पर—महानता के रास्ते पर चलाना चाहता था और यह नहीं चाहता था कि आप छोटी-छोटी चीजों के लिए बार-बार मुझसे कहें। आप नहीं भी कहेंगे, तो भी मैं पूरा कर दूँगा, क्योंकि मेरा मन बहुत ही कोमल और मुलायम है। मुझे अपने दरवाजे पर आने वाले का वजन और एहसान याद रहता है। कबूतर और कबूतरी के तरीके से हम और हमारी धर्मपत्नी सारी जिंदगी यही काम करते रहे हैं। हमने दरवाजे पर आने वाले की इज्जत का और भावना का बड़ा ख्याल रखा है। आगे भी ख्याल रखेंगे। जब तक जिंदा रहना है, अपनी आदत और स्वभाव से बाज नहीं आने वाले हैं। आप यकीन रखिए, हम जरूर सहायता करेंगे।
मन की शुद्धि ही समस्याओं का हल
मित्रो! आपकी जरूरत को पूरा भी कर दें तो आपको शक्ति मिल सकती है, लेकिन इससे आपका उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। आपकी कहानी तो वही चूहे वाली ही बनी रहेगी, जिसे एक संत ने दया करके उसे पहले बिल्ली से बचने के लिए बिल्ली बना दिया था। बिल्ली को जब कुत्ता तंग करने लगा, तो उसे कुत्ता बना दिया, कुत्ते से लकड़बग्घा, लकड़बग्घे से शेर बना दिया। शेर को जब शिकारियों का डर सताने लगा, तो संत ने उसे फिर से चूहा बना दिया और कहा कि अब मस्त रहा कर और मौज किया कर। मित्रो! जीवन की समस्याएँ ज्यों की त्यों हर जगह खड़ी रहती हैं। आज आपकी समस्या एक है, कल पाँच हो जाएँगी, फिर पच्चीस हो जाएँगी। मैं पच्चीस हल कर दूँगा, तो कल आप पाँच सौ लेकर आएँगे। दुनिया में समस्याएँ खत्म नहीं हो सकतीं और न हल हो सकती हैं। समस्याएँ हल होने का यदि कोई उपाय है, तो वह यह कि आदमी अपने मन को और आत्मा को शुद्ध कर डाले और अपने विचारों का परिवर्तन कर ले। विचार करने की शैली को—दृष्टिकोण को सही कर ले। इस तरह से सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी।
आपके वहम को मिटाने को बुलाया
इसलिए मित्रो! प्रथम दिन आपको यही शिक्षण दिया था और आज अंतिम दिन भी यही शिक्षण दिया है। मैंने आज आपको इसलिए बुलाया था कि मैं आपकी अंतश्चेतना के कपाट खोल दूँ और ऐसा शिक्षण दूँ जैसा कि अध्यात्मवेत्ता हमेशा से अपने शिष्यों को देते रहे हैं। मैंने आपको इसलिए यहाँ बुलाया कि आपको आपके रास्ते के बारे में बता दूँ। आप गुमराह हो गए थे, इसलिए आपको बुलाया कि आपके लक्ष्य के बारे में फिर जानकारी दे दूँ। इसलिए भी बुलाया कि आपके मन में यह वहम जो जम गया है कि भगवान का प्यार और भगवान का अनुग्रह और भगवान की शक्ति पाने के लिए हम छोटे-छोटे कर्मकाण्ड और क्रियाकृत्य करने के बाद उस स्थान पर पहुँच सकते हैं, जहाँ पहुँचने वाले को भगवान का प्रताप दिखाई पड़ता है और भगवान का स्नेह मिलने का हक मिल जाता है। मित्रो! मैंने आपके मन में से वे चीजें निकालने के लिए बुलाया और साथ ही आपको इसलिए बुलाया कि भगवान ने आपको पुकारा है। मैंने आपको इसलिए भी बुलाया है कि आपसे यह कहूँ कि आपमें से हर आदमी किसी भी मायने में बहुत अच्छा, बहुत कौशलपूर्ण और बहुत ही ऊँचे पद का आदमी है। आपके ऊपर मलीनताएँ जम गई हैं, मैल जम गई है और आपके ऊपर कषाय-कल्मष की परतें जम गई हैं, इसलिए आपको अपने स्वरूप का ध्यान नहीं रहा। अगर आपको अपने स्वरूप का ध्यान रहा होता तो आपमें से हर आदमी आचार्य श्रीराम शर्मा होता। आपमें से हर आदमी महात्मा गाँधी होता, बुद्ध होता, कबीर होता, दादू होता, नानक होता और जमनालाल होता और न जाने क्या-क्या होता, दयानंद होता, शंकराचार्य होता। आपको खाना भी मिल जाता, कपड़ा भी मिल जाता, रोटियाँ भी मिल जातीं, लेकिन रोटियाँ पाने के बाद और कपड़े पहनने के पश्चात आपने समाज की सेवा करने के लिए, देश को ऊँचा उठाने के लिए, संस्कृति के लिए जो रोल अदा किया होता, तो मजा आ जाता।
जीवन के उद्देश्य का आपको भान कराया है
मित्रो! आप काम करते गए और रोटी कमाते गए, लेकिन जीवन का उद्देश्य भूल गए। मैंने यही याद दिलाने के लिए आपको यहाँ बुलाया है और अपना सारा का सारा समय, अपना मन और अपनी सारी की सारी भावनाएँ इकट्ठी कीं और आपके ऊपर छाया रहा। इन चार दिनों में मैंने व्याख्यान भी दिए, लेकिन व्याख्यानों का कोई असर आपके ऊपर होने वाला था, इस पर मैं यकीन नहीं करता। फिर भी मैं आपके ऊपर छाया रहा हूँ और सारे दिन आपको घेरकर रखा है और आपके दिमाग, मन और बुद्धि पर छाया रहा हूँ। इन चार दिनों में मैंने आपसे हाथ जोड़कर बहुत कुछ कहा है, अनुरोध किया है और प्रार्थना की है। जब आप सोए रहे हैं अथवा आप बीसियों काम करते रहे हैं, तब मैं आपके पीछे-पीछे अपने सूक्ष्मशरीर के द्वारा, अंतश्चेतना के द्वारा लगा रहा हूँ और मैंने आपमें से हर आदमी को यह कहा है कि मित्रो! आप उनके तरीके से न चलिए, जिनको अपने बच्चा पैदा करने के लिए जानवरों के तरीके से जिंदा रहना होता है। आपको ऊँचे और अच्छे काम के लिए जिंदा रहना चाहिए, यह मैंने आपसे बार-बार कहा है। साथ ही साथ यह भी बार-बार कहा है कि आप ऐसे जमाने में पैदा हुए हैं कि जिस जमाने में मनुष्य जाति को आप जैसे लोगों की सेवा सहायता की बहुत सख्त जरूरत है। इस समय आदमी किस कदर गिर गया है, मैं क्या कह सकता हूँ! आदमी ने अपने आप को भुला दिया है, मैं क्या कह सकता हूँ!
कीचड़ में गिरा आज का घटिया इनसान
साथियो! इतिहास साक्षी है कि कहीं भी, कभी भी ऐसा गंदा जमाना नहीं आया था कि जब आदमी अपने आप को भूल गया हो। अपने लक्ष्य और उद्देश्यों से इतना पिछड़ गया हो। आदमी इतना पढ़ गया, मुबारक, आदमी को अँगरेजी बोलना आ गया, मुबारक, आदमी के पास पैसा हो गया, मुबारक, लेकिन आदमी आज जितना घटिया दिखाई पड़ता है, इतिहास में इतना घटिया आदमी कभी नहीं हुआ। ये घटिया आदमी मुसीबतें पैदा करेंगे, दिक्कतें पैदा करेंगे। ये घटिया आदमी समाज में विद्रोह पैदा करेंगे, अशांति पैदा करेंगे और समाज में क्लेश पैदा करेंगे। इसलिए इस कीचड़ में गिरे हुए इनसान को भावनात्मक स्तर पर ऊँचा उठाने के लिए भगवान ने आपको पुकारा है। मानवता ने आपको पुकारा है, संस्कृति ने आपको पुकारा है, देश ने आपको पुकारा है, धर्म ने आपको पुकारा है। इस पुकार को क्या आप कानों में उँगलियाँ डालकर अनसुनी कर देंगे और क्या आप केवल पेट के लिए ही जिंदा रहेंगे? क्या आपके अपने विचारों का, सारी की सारी आकांक्षाओं का केंद्र बच्चा पैदा करना ही बना रहेगा? क्या आपके सामने अपना परिवार और धन के अलावा कोई तीसरी चीज नहीं आएगी? आपको आनी चाहिए। मेरा पूरा-पूरा मन है कि आपके अंदर ऐसी स्फुरणा पैदा होनी चाहिए, जो आपका कल्याण करे और सारे समाज का कल्याण करे।
मैं आपको नहीं छोडूँगा
बस, इसी प्रेरणा को पैदा करने के लिए मैंने आपको बुलाया और बहुत प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद फिर से आपको याद दिलाता हूँ। दोबारा हमारा और आपका कब मिलन होगा, मैं नहीं जानता। हो सकता है कि मैं हिमालय चला जाऊँ और फिर मेरा आपका मिलना न हो सके और ऐसा दबाव आपके ऊपर न डाल सकूँ। यद्यपि आप ऐसा ख्याल मत कीजिए कि इन्होंने जो हमसे आज्ञा या अनुरोध किए हैं, इनको हम नहीं मानेंगे, तो ये हमारा क्या बिगाड़ लेंगे! हम इनका कहना नहीं मानेंगे, तो देखें, ये हमारा क्या कर लेंगे! बेटे ! मैं आपका बहुत कुछ कर लूँगा, मुझे कसम है, मैं आपको कभी छोड़ने वाला नहीं। आप छोड़कर देख लीजिए और फिर मैं देखता हूँ कि आप कैसे छोड़ते हैं मुझे—मैं आपको नहीं छोड़ूँगा।
वाराह अवतार धरती पर आए
एक बार ऐसा हुआ कि भगवान वाराह के रूप में धरती पर आए। उनने हिरण्याक्ष राक्षस को, जो पृथ्वी को चुराकर ले गया था, लड़ाई में मार डाला और पृथ्वी को छुड़ा लिया। भगवान वाराह ने पृथ्वी का उद्धार कर दिया और दुनिया में शांति स्थापित कर दी। अब वाराह भगवान ने कहा कि अब क्या करना चाहिए? वे धरती पर घूमने लगे, फिर मन में आया कि शादी कर लेनी चाहिए, सो उनने एक सुंदर सी मोटी सुअरिया से विवाह कर लिया। फिर उससे बच्चे पैदा हुए, बच्चे के बच्चे पैदा हुए। भगवान बैठे रहते और बच्चों का सिलसिला चलता रहा। भगवान वाराह यहीं रहने लगे।
(कथा-प्रवाह अगले अंक में जारी)
(क्रमशः)
भगवान धरती पर ठहर गए
मित्रो! वाराह भगवान को पृथ्वी पर रहते हुए बहुत दिन हो गए। उधर विष्णुलोक में खबर पड़ी कि बहुत सारी फाइलें इकट्ठी हो गई हैं। इनमें साइन नहीं हो रहे हैं, सब गड़बड़ हो रहा है। सब काम रुके पड़े हैं। पानी नहीं बरस रहा है, काम हर्ज हो रहा है। कौन हुक्म दे कि पानी कहाँ बरसाया जाएगा? किसको नरक में डाला जाएगा? किसको स्वर्ग में डाला जाएगा? सारा काम चौपट हुआ जा रहा है। सेक्रेटरी ने कहा कि बिना मिनिस्टर के साइन के मैं कब तक काम चलाऊँगा! वाराह भगवान के पास धरती पर खबर भेजी गई कि भगवन! आप अपनी पोस्ट पर पधारिए। अपना काम धंधा कीजिए। स्वर्गलोक को चलिए। उन्होंने कहा कि हमको नहीं जाना है। गणेश जी आए और बोले कि चलिए आपको विष्णुलोक में बुलाया है। उन्होंने कहा कि हम नहीं जाते। ब्रह्माजी आए और बोले कि चलिए, वहाँ आपकी बहुत जरूरत पड़ रही है। उन्होंने कहा कि हम नहीं जाते। सूर्यनारायण जी आए और कहा कि बहुत दिन हो गए. आप जिस काम के लिए आए थे, वह पूरा हो गया अब आपका मूल उद्देश्य है, वह काम करने चलिए न! उन्होंने कहा कि हम नहीं जाते।
आप भी उन्हीं की तरह हैं
देवता बहुत परेशान हो गए। उन्होंने कहा कि मनुष्यों की भाँति वे भी जंजाल में फँस गए हैं—क्या करना चाहिए। शंकर जी ने कहा— "अच्छा ठहर जा, मैं जाता हूँ!" बस, शंकर भगवान एक लंबा वाला त्रिशूल लेकर के वहाँ गए, जहाँ वाराह बैठे हुए थे, बच्चे कच्चे बैठे हुए थे। चारों ओर वाराहिनियाँ बैठी हुई थीं। बस, खटाक से उन्होंने सबको मार दिया और वाराह भगवान को रस्सी से बाँधकर कंधे पर लादा और विष्णुलोक में ला पटका और देवताओं से कहा कि वह लो तुम्हारे वाराह भगवान आ गए। वाराह भगवान ने हाथ जोड़े और कहा कि हाँ भाई! गलती हो गई। बस, अब अपना काम करेंगे—जो हो गया, सो हो गया। आप लोग कौन हैं? आप वाराह भगवान हैं। जमीन पर आपको जिस काम के लिए भेजा गया था, जिस काम की जिम्मेदारी आपको सौंपी गई थी, वह बहुत बड़ा काम था। आपको ज्ञान की मशाल जलानी थी; क्योंकि चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है। मनुष्य के जीवन में अँधेरा छाया हुआ है। अपने बारे में अँधेरा, समाज की मान्यताओं के बारे में अँधेरा, जीवन के उद्देश्य के बारे में अंधेरा, बच्चों के लालन पालन के बारे में अँधेरा, अपनी तसल्लियों के बारे में अँधेरा, सामाजिक जिम्मेदारियों के बारे में अँधेरा, आदमी के हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा है। ऐसे वक्त में एक मशाल जलाने की जरूरत थी, एक दीपक जलाने की जरूरत; इसलिए मैं आपके पास आया और आपको बुलाया।
आज का अध्यात्म बदला जाना है
मित्रो ! मैंने आपको इसलिए भी बुलाया कि आप वाराह भगवान हैं और आपके ऊपर बड़ी जिम्मेदारियाँ हैं और आपको दीपक जलाने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। रोटी भी खानी चाहिए। मैं कब कहता हूँ कि रोटी नहीं खानी चाहिए और बच्चे नहीं पैदा करने चाहिए, लेकिन रोटी खाने और बच्चे पैदा करने के अलावा भी आपके मन में इतनी शरम और दरद पैदा हो तो आप मेरे तरीके से समाज के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, जिसकी आज बहुत जरूरत है। आध्यात्मिकता ही पाप को दूर करेगी। आध्यात्मिकता ही दुनिया में शांति लाएगी, खुशियाँ लाएगी और दुनिया के पापों के अंगारों से पानी की तरह आपकी रक्षा करेगी, इसलिए दुनिया में आध्यात्मिकता को लाया जाना बहुत जरूरी है। आध्यात्मिकता का स्वरूप जो आज किसी काम का नहीं रहा तो इस निकम्मे वाले, बेकार वाले अध्यात्म, बेवकूफी वाले अध्यात्म से किसी का फायदा नहीं होने वाला है। अगर इससे किसी का फायदा है केवल पण्डों का है, और किसी का फायदा नहीं है। आपका फर्ज और कर्तव्य है कि आप आज की जिम्मेदारियों को उठाएँ और अपने जीवन में उस काम को करें, जिस काम के लिए आपको भेजा गया है। यह भगवान का मिशन है, उत्तम मिशन है और महान मिशन है। अगले दिनों यह सारे विश्व में फैलने वाला है। आप चंद्रमा के तरीके से इस मिशन में पूरा सहयोग कर सकते हैं। मैंने इसके बारे में आपको छोटी सी भूमिका बताई।
बचे हुए समय में समझदारी आ जाए
मित्रो! मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यही है कि वह अपने बचे हुए समय का ठीक से इस्तेमाल कर ले। जो समय व्यतीत हो गया, सो हो गया, लेकिन जो रह गया है, उसको अगर आदमी ठीक से इस्तेमाल कर ले तो राजा परीक्षित की तरह सात दिन में ही मुक्ति का द्वार खोल सकता है। एक बात समझ में आ जाए कि मनुष्य का मन और मनुष्य की अंतरात्मा इतनी महान और इतनी विशाल है कि अगर सीप के तरीके से इसमें स्वाति बूँद के पानी का एक कण भी मिल जाए तो यह जीवन धन्य हो सकता है। आदमी के सामने एक ही समस्या है और वह है अज्ञान की। आदमी पढ़ा-लिखा तो इतना है कि वह सारे के सारे काम चलाता है। पैसे कमाता है; रोटी कमाता है; व्यापार करता है; धंधा करता है और अमीर हो जाता है। वह क्या-क्या नहीं करता है इन सबके लिए, लेकिन बेवकूफ भी इतना है कि इसको इस बात तक का ज्ञान नहीं है कि उसका स्वरूप क्या है, किसलिए पैदा किया गया और क्या करना चाहिए। अगर उसके अंदर यह ज्ञान पैदा हो जाए, जाग्रत हो जाए तो आदमी के काम करने का ढंग और विचार करने का ढंग बहुत ही श्रेष्ठ बन सकता है और मनुष्य थोड़े ही दिनों में अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अज्ञान का निवारण करना ही मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करना है।
अज्ञानता की मलिनता के आवरण हटें
मित्रो! अज्ञान जो हमारे ऊपर छाया हुआ है और हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के ऊपर कषाय-कल्मष, पाप और ताप के आवरण छाए हुए हैं, इन आवरणों को अगर हटा दिया जाए तो आत्मा का सूर्य उस तरीके से प्रकाशवान हो सकता है, जिस तरीके से बादलों की घटाएँ हट जाने पर अँधेरा दूर हो जाता है और सूर्य की पुण्य प्रकाशभरी आभा चारों ओर फैलने लगती है। अतः हमारा पहला काम है—अज्ञानता की मलिनता के आवरण को दूर करना। भगवान और इनसान के बीच एक छोटी सी एक इंच मोटी दीवार है, अगर इस दीवार को हटाया जा सके तो दोनों एकदूसरे के बिलकुल समीप आ जाएँगे और दोनों एकदूसरे के प्यार का आदान-प्रदान निरंतर करते रह सकेंगे। बस, अज्ञानता की इस पतली दीवार ने मनुष्य को यह विचार करने के लिए मजबूर कर दिया कि आदमी एक शरीर है, आदमी एक कीड़ा है, एक जानवर है और जानवरों को जैसा जीना चाहिए, उस तरह से हम अपनी जिंदगी जिएँ। यही विचार हमारे मन से लेकर रोम-रोम में आच्छादित है। हमारी सारी की सारी गतिविधियाँ कीड़े-मकोड़े के तरीके से, जानवरों के तरीके से, बिल्ली और बंदरों के तरीके से हैं। पेट पालना और बच्चे पैदा करना, यही दो उद्देश्य इनके सामने रहते हैं। वासना और तृष्णा—इन दोनों के गुलाम सारे के सारे प्राणी हैं। इनसान और जानवर में फरक करना है तो उस दीवार को, जो कि मनुष्य और भगवान के बीच में खड़ी कर दी गई है, गिरा दिया जाए। यदि इतना किया जा सके तो आनंद और उल्लास की धाराएँ जीवन में प्रवाहित हो सकती हैं।
जिन खोजा तिन पाइयाँ
मित्रो! क्रिया-कृत्यों के, कर्मकाण्डों के फल नगण्य हैं। सारे के सारे फल जो मनुष्य के जीवन में स्थापित होते हैं, उसकी विचारणाओं पर टिके हुए हैं। विचारणाएँ मनुष्य की ऊँची हों, तब छोटी से छोटी क्रिया से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है और जीवन के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। मनुष्य की क्रियाएँ पहाड़ के बराबर हों और उसकी भावनाएँ नगण्य हों तो वे क्रियाएँ कुछ काम में नहीं आ सकतीं। क्रियाओं की कीमत राई के बराबर है। एक आदमी था। नाव में बैठकर समुद्र का बहुत लंबा-चौड़ा सफर करके आया। वहीं समुद्र किनारे पनडुब्बा रहता था। वह रोज समुद्र में जाता और पाँच पच्चीस मोती ले आता। लंबे-चौड़े समुद्र को पार करने वाला वह आदमी पानी में डुबकी लगाने वाले पनडुब्बे के पास आया और उससे पूछा कि भाईसाहब! हमने सारा समुद्र घूम लिया, पर एक भी मोती हमारे हाथ नहीं लगा। तुम यहाँ रहते हो और मोती बीन लाते हो, इसकी वजह क्या है? उसने कहा कि भाईसाहब! इसका एक ही उत्तर है—आप बाहर ही बाहर समुद्र की सतह के ऊपर घूमते रहते हैं और भीतर प्रवेश नहीं करते। अगर आपने समुद्र के भीतर गर्भ में प्रवेश करने की हिम्मत की होती और साहस दिखाया होता तो आपको भी मेरे तरीके से मोती मिल जाते; जैसे कि मैं रोज ले आता हूँ। मैं समुद्र में घुस जाता हूँ, डुबकी लगाता हूँ और अपनी जान को हथेली पर रखकर जोखिम उठाता हूँ। इतना करने के बाद फिर कोई आदमी मोती प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है।
सिद्धांतों को भीतर तक उतारिए
मित्रो! अध्यात्मवादी को गहरे में प्रवेश करना पड़ता है—कहने, सुनने और करने तक ये बातें सीमित नहीं हैं। आपने रामायण सुन ली, ठीक किया। आपने रामायण पढ़ना सीख लिया, यह उससे भी अच्छा है। आपने गोवर्धन की परिक्रमा लगा ली, यह उससे भी अच्छा काम कर लिया। ये सभी काम अच्छे हैं, करने चाहिए, लेकिन ये सब काम करने पर भी आप अध्यात्मवादी नहीं हो सकते और आध्यात्मिकता का लाभ नहीं उठा सकते। आध्यात्मिकता का लाभ उठाने के लिए जरूरी है कि उन विचारों को और उन सिद्धांतों को, जो हमको बताए जाते हैं, सिखाए जाते हैं, उनको हम अपने जीवन में उतारना प्रारंभ कर दें, तो ही हम अध्यात्म के अधिकारी हो सकते हैं।
हमारे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण वेला
मित्रो! मेरे जीवन में यही हुआ। मेरे गुरु जब हमारे जीवन में पहली बार आए तो उनने मेरे अंतरंग के कपाट खोल दिए। चार दिन मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना है, जिनको मैं सदा याद रखूँगा, भुला नहीं सकता। क्यों? क्योंकि उसने मेरे जीवन का कायाकल्प कर दिया। बूढ़े आदमी को जवान बना दिया, मरे हुए को जिंदा कर दिया। आज से दस साल पहले दोबारा अपने गुरु के पास जाना पड़ा। मेरे गुरुदेव हिमालय पर जहाँ रहते हैं, वहाँ मैं चार दिन तक रहा और ज्ञान का अमृत पिया। चार-चार दिन दो बार अमृत पीकर के मैं निहाल हो गया और अब न जाने मैं क्या करने के लिए जा रहा हूँ। वह अमृत जो मैंने चार दिनों में पहली बार पिया था और फिर चार दिन अपने गुरु के पास रहकर दोबारा पिया था, उनमें से एक पैंतालीस साल पूर्व था और दूसरा दस साल पूर्व था। ये दोनों मेरे सौभाग्य के दिन हैं, जिनको मैं याद करता रहूँगा, इन्हें कभी भूलूँगा नहीं। आदमी अपना जन्मदिन मनाते हैं कि हम २९ दिसंबर को पैदा हुए थे। खुशियाँ मनाते हैं, मिठाई खिलाते हैं और गीत गाते हैं, लोगों को दावत देते हैं और कहते हैं कि आज हमारा २८वाँ जन्मदिन है। आज से अट्ठाईस वर्ष पहले हम २९ नवंबर को पैदा हुए। आइए, गाना गाएँ, खुशी मनाएँ और सिनेमा देखें।
आत्मा का रस निचोड़कर देना चाहता हूँ
मित्रो! मेरे जीवन का सबसे खुशी का दिन वह है, जिसमें कि छोटे से, नगण्य से इनसान को भगवान की तरफ चलने के लिए जो राह मिलनी चाहिए, उस रास्ते पर चला दिया गया। अपने गुरु के पास चार-चार दिन रहकर जो मैंने ज्ञानामृत पिया, उसी घटना की पुनरावृत्ति यह शिविर है, जिसमें कि मैंने आपको बुलाया। ठीक उसी तरह के ये चार दिन हैं, जैसे कि मेरे जीवन में घटित हुए। मेरे गुरु ने अपनी वाणी, अपनी आत्मा का रस निचोड़कर के मुझे पिलाया और मैं चाहता हूँ कि अपनी आत्मा का रस इन चार दिनों में आपको निचोड़ करके पिला दूँ। यह शिविर आपके जीवन में ऐतिहासिक घटना बनकर के रहेगा कि हम आचार्य जी के पास गए थे और उन्होंने हमको कुछ कहा था। मैं व्याख्यान करने वाला व्यक्ति नहीं और न ही मैं व्याख्यानों पर यकीन करता हूँ। रोज रामायण सम्मेलन होते हैं, गीता सम्मेलन होते हैं, रोज भागवत कथाएँ होती हैं। यदि इनका कुछ प्रभाव रहा होता तो हर साल एक गाँव में से एक-एक अर्जुन निकलता और अब तक तो दस-बीस अर्जुन सामने आ ही गए होते। रोज होने वाले गीता सम्मेलनों में से एक-एक गाँव से एक-एक अर्जुन निकलता तो अब तक जितने सम्मेलन हुए हैं तो उनमें से लाख दो लाख अर्जुन सामने आ गए होते और गीता का अमृत पीकर वह काम करने लगे होते, जो अर्जुन ने किया था। इसीलिए व्याख्यानों पर से मेरा यकीन कम होने लगा है और मैं सोचने लगा हूँ कि बहुत से ऐसे बेकार आदमी हैं, जिनको कहने का हक नहीं है और जिनको सुनने का हक नहीं है, लेकिन वे कहने और सुनाने की आदत को अपने धंधे के रूप में, अपनी तारीफ के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। वे दुनिया का कोई भला नहीं कर रहे हैं, वरन दुनिया का समय बरबाद कर रहे हैं। अब मेरा व्याख्यानों पर से और लेखों पर से दिन-दिन यकीन कम होता जा रहा है।
मेरा विश्वास नहीं है लिखने व बोलने पर
मित्रो! पुराने जमाने में एक बात थी कि ऋषि ने जो एक बात लिख दी, लोगों ने कहा कि शास्त्रों में लिखा हुआ है, बस, खतम हो गई। शास्त्र में लिखा हुआ है, शास्त्र को नहीं मानोगे—'तस्मात् शास्त्रम् प्रमाणम्'। तो आपके लिए शास्त्र प्रमाण हैं। ऋषि ने लिख दिया, महापुरुष ने लिख दिया, आदिपुरुष ने लिख दिया और इस जिम्मेदारी के साथ लिख दिया कि मेरा वचन और मेरी वाणी लाखों-करोड़ों मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर सकती है। इसलिए मुझे बहुत जिम्मेदारी के साथ कलम उठानी चाहिए। जिनके ऊपर उत्तरदायित्व भरा हुआ पड़ा था, वे आदमी एक-एक अक्षर लिखते हुए काँपते जाते थे और भगवान को मनाते जाते थे कि भगवन्! ऐसा कोई शब्द मेरी कलम से न लिखा जाए, जिसके द्वारा जनता का कोई अहित होता हो या जनता गुमराह होती हो। अब तो हमारा लिखने का धंधा है और हम पेशेवर लोग हैं, चाहे जो कुछ लिखवा लीजिए। अभी हमसे इंडीकेट के बारे में लिखवा लीजिए, सिंडीकेट के बारे में लिखवा लीजिए अथवा उसके विपक्ष में लिखवा लीजिए। अभी हम जनसंघ के खिलाफ ऐसा लेख लिख दें कि जनसंघ वाले को नानी याद आ जाए। धंधा है हमारा, इसलिए धंधे के रूप में आदमी ने लिखना शुरू कर दिया और धंधे के रूप में आदमी ने बोलना शुरू कर दिया। इसलिए मेरा यकीन अब लिखने और बोलने से हटता जाता है।
उन्नयन की एक यात्रा
मित्रो! मैंने आपको बोलने के लिए, व्याख्यान भुनाने के लिए और आपका मनोरंजन करने के लिए नहीं बुलाया है। मैंने इसलिए बुलाया कि मैं अपनी जबान के द्वारा ही नहीं, अपनी अंतरात्मा के द्वारा कुछ काम की बातें कहूँ। मैंने आपको इसलिए बुलाया है कि अपने जीवन का रस और निचोड़ और जो मेरे जीवन का निष्कर्ष है, उसे बताऊँ और जिस आधार पर मैं छोटा सा व्यक्ति फलता और फूलता हुआ चला गया, वह आपके सामने रखूँ कि एक छोटे से देहात में पैदा हुआ व्यक्ति अंतरराष्ट्रीय फेम का कैसे हो गया। अब मैं केवल भारतीय नागरिक नहीं हूँ, वरन मैं एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति हूँ। सारा विश्व इस इंतजार में बैठा हुआ है कि नई फिजाएँ, नई दिशाएँ, नई रोशनी, नया जमाना, नया युग और नई व्यवस्था में लाने के लिए मार्गदर्शन करने वाला कौन आदमी है, जो दुनिया को नया रास्ता दिलाएगा। उन आदमियों में अब मेरी गणना की जाती है। अभी आपने शायद मार्च की अखण्ड ज्योति में एम० एंडरसन की भविष्यवाणी पढ़ी होगी। वह व्यक्ति न मुझे जानता है, न कभी हमारी जान पहचान हुई, न कभी मुलाकात हुई, न मैंने कभी देखा है, न चिट्ठी-पत्री की बात हुई है, लेकिन उसने अपनी आध्यात्मिकता के सहारे एक भविष्यवाणी की है।
जन्म-जन्मान्तरों के हमारे संबंध
मित्रो! उन्होंने कहा कि नई दुनिया को बनाने वाला एक मसीहा पैदा हो गया है। वह हिंदुस्तान में है और वह अपना काम करने लगा है। यह किसकी तरफ इशारा है, यह बात मैं आपके ऊपर छोड़ देता हूँ, लेकिन वह आध्यात्मिकता का मंत्र और आध्यात्मिकता का जादू है जिसके द्वारा मैं वे शक्तियाँ प्राप्त करता हुआ चला जाता हूँ। न केवल मैंने अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ हल कर लां, न केवल मैंने समाज को प्रकाश दिया, न केवल मैं हिंदुस्तान का पुनर्निर्माण करने के लिए जी-जान से लगा हुआ हूँ, वरन दुनियावालों को भी यह उम्मीद दिलाता हूँ कि अब मैं तुम्हें रास्ता बताऊँगा और अशान्ति की आग में जलते हुए लोगो! मैं तुम्हें ठीक-ठिकाने पर ले जाकर के पहुँचा दूँगा। मैं बहुत ताकतवर और बड़ा आदमी हूँ। यह ताकत और बप्पन की निशानियाँ, जो मैंने पाईं और जिनके चिन्ह मैंने पाए, मैं चाहता हूँ, इस चार दिन के शिविर में वह सब आपको सिखा करके जाऊँ और आप सीख करके जाएँ। आपके ये चार दिन बहुत कीमती हैं, आप नहीं जानते, आपके और मेरे संबंध क्या हैं? आप मेरे साथ अनेक जन्मों से जुड़े हुए हैं और मैं बता सकता हूँ कि मैं किस-किस जन्म में आपका क्या रहा हूँ? आप पहले जन्म में कौन थे और कौन से महान कार्य करने में समर्थ थे? आप अपने आप को भूल गए। आप अपने आप को नहीं जान सकते, क्योंकि आपके ऊपर अज्ञान का आवरण इतना ज्यादा छाया हुआ है, जाे आपकी दूर की दृष्टि को रोकता है। आप दूर की बात नहीं देख सकते, लेकिन मैं दूर की बात को देख सकता हूँ, इसीलिए मेरे और आपके संबंध उसी प्रकार से प्रगाढ़ बने हुए हैं, जैसे पहले जन्मों में थे।
मेरी बात गंभीरता से सुनें-समझें
इसलिए जब मैं चलने लगा, विदा होने लगा तो मेरे जी में आया कि दौलत मेरे पास इकट्ठी है वह, अपने कुटुंबियों और मित्रों में बाँट दूँ, उनके ऊपर बिखेर दूँ, इसलिए मैंने आपको इस शिविर में बुलाया। आपको इसे तबीअत के साथ सुनना चाहिए। मैं क्या कहता हूँ, इसको आपको गाैर से सुनना चाहिए। ऐसे नहीं, जैसे कि रामायण की कथा होती रहती है और स्त्रियाँ बीज छीलती रहती हैं और आपस की बात कहती रहती हैं, स्वेटर बुनती रहती हैं। इधर रामकथा चल रही है, उधर वे अपने गोरखधंधे में लगी हुई हैं। आप ऐसे मत सुनना, ऐसे सुनेंगे तो मुझे बहुत दु:ख होगा। मैं नहीं चाहता कि आप इस तरह से मेरा व्याख्यान और कथा सुनने के लिए आएँ; जबकि अंतिम दिन मैं अपने सारे निष्कर्ष का निचोड़ सुनाने वाला हूँ।
श्रीराम द्वारा लक्ष्मण को उपदेश
मित्रो! रावण मरने लगा तो रामचंद्र जी ने कहा—"लक्ष्मण रावण तो मर गया, पर एक बड़ी दुर्घटना हो गई।" "क्या दुर्घटना हो गई?" "एक बहुत बड़ा व्यक्तित्व दुनिया में आया और चला गया। बेचारा भूल गया, गुमराह हो गया कि उसको क्या करना चाहिए था? कहाँ चलना चाहिए था? लेकिन उसने एक मंजिल जरूरी पूरी कर ली कि व्यक्ति के अंदर जो शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, उन शक्तियों को बढ़ाने के लिए उसने एक मंजिल पूरी कर ली।" छोटे से छोटा भी हर इनसान अगर चाहे तो अपने भीतर दबी हुई ताकत और दबी हुई कुव्वत और अंदर की शक्ति को आसानी से उभार सकता है। ऊँचे उठा सकता है। आदमी भूल जाए तो बात अलग है। रावण ने एक मंजिल पूरी कर ली कि उसने आत्मा के स्वरूप को समझा और आत्मा के स्वरूप को समझ करके उसने अपनी शक्ति, अपना स्वरूप और अपना वर्चस्व जान लिया और उसको बढ़ाने के लिए थोड़ी सी हिम्मत की और वे चीजें बढ़ती हुई चली गईं।
अंदर की शक्ति को जाना था रावण ने
रावण बहुत ताकतवर था। उसकी सारी की सारी लंका सोने की बनी हुई थी। वह बहुत मालदार आदमी था। वह बहुत ताकतवर और बलवान था। मन हुआ तो चला गया, देवताओं को पकड़ लाया, अमुक को पकड़ लाया। बहुत जोरदार था रावण। अपनी शक्ति को उसने बढ़ा लिया था। वह बहुत बड़ा विद्वान भी था। जब वह वेदों का अनुवाद करने के लिए खड़ा हो गया तो वेदों का अनुवाद कर डाला। साइंस को निकालने के लिए खड़ा हो गया तो साइंस को निकाल डाला। रावण आधे हिस्से तक अध्यात्मवादी था। अगर व्यक्ति अपनी क्षमता, अपनी शक्तियाँ और अपने स्वरूप के बारे में जान ले और उसको विकसित करने के लिए खड़ा हो जाए तो मैं उसको आधा आध्यात्मिक कहूँगा। रावण आधा अध्यात्मवादी था। उसने अपनी शक्ति को पहचान लिया था।
रास्ता सबके लिए खुला है
इसी तरह सैंडो एक बहुत दुबला-पतला छोकरा था और बहुत बीमार रहता था। ११-१२ बरस का था तो उसको जुकाम रहने लगा, खाँसी आती थी, लिवर बढ़ा हुआ था। बाप के साथ वह ज्यूरिक अजायबघर देखने गया। अजायबघर उसने देखा और देख करके उसने अपने पिता से पूछा—"पिताजी! ये जो हमारे पूर्वजों की मूर्तियाँ यहाँ रखी हुई हैं, क्या उनकी शक्लें ऐसी ही थीं?" पिता ने कहा—"हाँ बेटे! ऐसी ही थीं।" "क्या उनकी कलाइयाँ ऐसी मोटी थीं?" उसने कहा—"हाँ बेटे! ऐसी ही थीं।" "क्या हमारे बुजुर्गों के गले और गरदन इसी तरह मोटे थे?" उसने कहा—"हाँ बेटे! ऐसे ही थे।" "क्या उनकी पेशानी और सीने ऐसे ही थे?" उसने कहा—"हाँ, हमारे बुजुर्गों की पेशानी (मस्तक) और सीने ऐसे ही जबरदस्त थे।" वे जैसे थे, वैसे ही उनके स्टैच्यू बनाए गए हैं। सैंडो ने फिर पूछा—"पिताजी! क्या मैं भी ऐसा बन सकता हूँ?" पिता ने कहा—हाँ, तू भी ऐसा बन सकता है। दुनिया का कोई भी एक इनसान जो काम कर सका, वह दुनिया का दूसरा इनसान भी कर सकता है। जो रास्ता एक के लिए खुला है, वह दूसरे के लिए भी खुला है। एक आदमी ने बी० ए० पास कर लिया, तो दूसरा आदमी भी चाहे तो बी०ए० पास कर सकता है। एक आदमी ने एम० ए० पास कर लिया, तो दूसरा आदमी भी चाहे तो एम० ए० पास कर सकता है। समय ज्यादा लग जाए या कम, यह मैं नहीं कह सकता, लेकिन एक आदमी ने जो काम कर लिया, वह दूसरे के लिए नामुमकिन नहीं है।"
अंदर की सामर्थ्य से सैंडो बना पहलवान
इस तरह से सैंडो ने कहा कि अच्छा, ये नामुमकिन नहीं है, तो मैं भी ऐसा पहलवान बन सकता हूँ। हाँ बेटे! अगर चाहे तो हर आदमी ठीक रास्ते पर चल सकता है। अगर व्यक्ति ठीक तरह से अपनी मंजिल बना ले और प्रोग्राम बना ले तो छोटे से छोटा व्यक्ति भी महान से महान कार्य कर सकता है। तू भी ऐसा व्यक्ति बन सकता है। सैंडो म्यूजियम से आया और पिता से बोला—"बताइए, मैं कैसे पहलवान बन जाऊँ?" उसके पिता ने बताया—बेटे ! अपने खान-पान में यह नियंत्रण करना चाहिए और अपने आहार-विहार में यह नियंत्रण करना चाहिए और कसरत ऐसे करना चाहिए। विचारों का संयम ऐसे करना चाहिए। एक प्रारंभिक ढाँचा बनाकर उसके सामने रख दिया। सैंडो उसी तरीके से काम करने लगा। मित्रो! शायद आपको हिस्टी मालूम नहीं है कि हिंदुस्तान में राममूर्ति का नाम लिया जाता है। गामा पहलवान का नाम लिया जाता है। चंदगीराम का नाम लिया जाता है। चंद बड़े-बड़े पहलवान हिंदुस्तान में मशहूर हैं। यूरोप में भी एक बहुत बडा पहलवान हुआ था। उसका नाम था सैंडो। वह अंतरराष्ट्रीय ख्याति का पहलवान था; क्योंकि उसने अपने भीतर दबी हुई सामर्थ्य को समझा और ठीक प्रकार से इस्तेमाल किया और बहुत बड़ा हो गया।
गुमराह न हो तो बना जा सकता है सामर्थ्यवान
मित्रो! रावण एक तरह का सैंडो था। उसने अपने भीतर की सामर्थ्य को समझा। उसने अपने दिमाग की कीमत को समझा और उसको विकसित किया। दिमाग को विकसित करके आदमी कितना विद्वान बन सकता है, यह बात आपको जाननी हो तो विनोबा भावे से पूछिए, जिन्होंने दुनिया की मुख्य-मुख्य तेईस भाषाएँ सीखीं है और अभी भी चौबीसवीं भाषा—'चाइनीज' सीख रहे हैं। मित्रो! आदमी का दिमाग अनमोल है, उसकी कोई तुलना नहीं कर सकता। आदमी के शरीर की शक्ति की कोई तुलना नहीं कर सकता और आत्मा के उपादान की कोई तुलना नहीं कर सकता। जब रावण मरने लगा, तो रामचंद्र जी ने कहा कि लक्ष्मण! रावण गुमराह आदमी था, जिसने आधी मंजिल पार कर ली थी और आधी मंजिल भूल गया। आत्मा के स्वरूप को समझा, लेकिन उसने परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझा। अगर उसने आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ा होता तो वह विश्व का न जाने कौन रहा होता। व्यास जी, वसिष्ठ जी, याज्ञवल्क्य जी उसके पीछे रह गए होते। भले आदमी को अगर जरा सी बात समझ में आ गई होती कि आत्मा परमात्मा से मिलाए जाने के लिए है, तो उसने सारी की सारी दिशाएँ बदल दी होतीं। उसके पास जो अक्ल थी, जो कुव्वत थी, जो दौलत थी, उसने वह सब उन कामों में खरच कर डाली होती, जिन कामों में अध्यात्मवादी खरच किया करते हैं, तो मजा आ जाता।
हमारे आपके अंदर भी है शक्ति का जखीरा
मित्रो! लोग भौतिक जीवन की उन्नति करने के लिए दूसरी चीजों का सहारा लिया करते हैं। यह भूल जाते हैं कि हमारे भीतर ऐसी कुव्वत भरी पड़ी है कि अगर हम इसको उभार सकते हों, उसको हम बढ़ा सकते हों तो सारी की सारी नियामतें, विभूतियाँ, जो हम बाहर से चाहते हैं, वे सब अपने भीतर से ही हमें मिल सकती हैं। लोग न जाने क्यों यह सोचते हैं कि सब चीजें बाहर हैं और हम बाहर की उन चीजों से अपना फायदा उठा सकते हैं। मित्रो! बाहर कोई चीज नहीं है। बाहर केवल मिट्टी और धूल है। जो कुछ है, वह आदमी के भीतर है। दुनिया की दौलतें, संपदाएँ, समृद्धियाँ और सुविधाएँ लोहे के बुरादे के तरीके से हैं, जो हमेशा से उनके पास आती हैं, आती रहेंगी और जाती रहेंगी, जिनके पास आत्मा का बल, आत्मा का चुंबक जाग्रत और समर्थ होता है। हमने आपको इस शिविर में इसी आत्मबल को जाग्रत और समर्थ बनाने के लिए बुलाया है। अगर आप इतना कर सके तो आपका यहाँ आना और हमारा बुलाना सार्थक हो गया। आज की बात समाप्त।
(यह प्रवचन जून, १९७१ का है)
॥ॐ शान्तिः॥