शक्तिपात एवं कुण्डलिनी जागरण का तत्त्वदर्शन
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
आज से पचपन वर्ष पूर्व हमारे जीवन में एक बहुत बड़ी घटना घटी। अपने गुरुदेव ने पूजा की कोठरी में प्रकाश के रूप में दर्शन दिये। मैंने उनका प्रकाश के रूप में दर्शन किया। शक्ल भी दिखायी पड़ी। उसी स्मृति में हमने अखण्ड दीपक जलाये, इसलिए कि वह प्रकाश मेरे जीवन में बना रहे जो पहले दिन गुरुदेव ने अपनी शक्ल और सूरत के रूप में मुझे दिखाया। कहीं भूल न जाए-कहीं पथ से दूर न हो जाए, इसलिए अखण्ड दीपक के रूप में उनकी स्थापना कर दी गयी। उस प्रकाश के साथ अपना जीवन भर सम्पर्क और सम्बन्ध बनाये रखने के लिए। गुरुदेव जब मिले तो घटना थोड़ी-सी है—एक-आधे घण्टे की। आधा घण्टे में वह घटना समाप्त हो गयी।
तब मैं पन्द्रह वर्ष का बालक था, पूजा की कोठरी में बैठा हुआ जप और ध्यान के कार्य में लगा था। यकायक एक प्रकाश कोठरी में घूमता हुआ दिखाई पड़ा। उस प्रकाश के भीतर एक मनुष्य की आकृति दिखायी पड़ी। मैं तो डर गया कि क्या बात है? भूत-प्रेत है क्या कोई? काँपते देखकर उस प्रकाश में बैठे हुए मनुष्य ने आवाज दी—बच्चे डरने की जरूरत नहीं है। तुम किसी विशेष काम के लिए आये हो। आँखें बन्द करो, आँखें बन्द की मैंने और तीन जन्मों का दृश्य फिल्म के तरीके से दिखायी पड़ा। मैं कौन हूँ? और कब-कब जन्म लिया और यह शक्ल जो मुझे गुरुदेव के रूप में दिखायी पड़ती है, कब-कब मेरे साथ नृत्य करती रही? बस, इतनी घटना घटित हुई और मेरे जीवन का कायाकल्प हो गया। मैंने उनके चरणों पर मस्तक झुकाया और कहा—‘‘आप मुझे लम्बे समय से राह बताते रहे हैं, अब इस जीवन की भी राह बताइये।’’ उन्होंने एक राह बतायी—चौबीस साल तक चौबीस गायत्री के महापुरश्चरण करने की आज्ञा दी और कहा—‘‘तुझे लोहे का, स्टील का बनना पड़ेगा। बड़े काम करने के लिए मजबूती की जरूरत है। मजबूत व्यक्तित्व न होगा तो बड़े काम नहीं कर सकते। हम चाहते हैं कि भगवान की धाराएँ तेरे पास आएँ। भगवान की धाराओं को अपने भीतर धारण करने के लिए कमजोर आदमी समर्थ नहीं हो सकते। कमजोर आदमी फट जाएगा—मर जाएगा। देवता की शक्ति जब आती है तो आदमी को पागल बना देती है। उसकी सामर्थ्य को धारण करने के लिए समर्थता होनी चाहिए। भगवान की शक्ति-धाराएँ हम तेरे ऊपर डालना चाहते हैं, तेरे माध्यम से कुछ बड़े काम कराना चाहते हैं।’’ तो मैंने कहा—‘‘कराइये।’’ उन्होंने कहा—‘‘ऐसे नहीं हो सकता। कच्चे आदमी-कमजोर आदमी जरा-सा नाम लेते ही पागल हो जाते हैं। जरा-सा सम्पदा मिलते ही विक्षिप्त और उन्मत्त हो जाते हैं। जाने क्या से क्या करने लगते हैं।’’
मजबूत चीजों को ग्रहण करने के लिए मजबूत चीजें चाहिए। एटामिक भट्टी बनायी जाती
है तो उसके चारों ओर घेरे इतने मजबूत बनाये जाते हैं कि उसके भीतर से रेडिएशन निकलकर
कहीं आस-पास के इलाके में न फैल जाएँ। ये घेरे बहुत मजबूत बनाये जाते हैं। इसी
तरह आध्यात्मिक शक्तियों को भीतर से जिस किसी आदमी को अवतरित करने की इच्छा हो,
हनुमान जी को—शंकर जी को भीतर अवतरित करने की इच्छा हो तो उसे अपने को इस लायक
बनाना पड़ेगा कि शंकरजी आएँ तो वहाँ निवास कर सकें। कमजोर आदमी—स्वार्थी, चालाक,
विलासी आदमी उसको धारण नहीं कर सकते। यदि आती भी हैं तो या तो टक्कर मारकर वापस
चली जाती हैं या फट जाती हैं। फट जाने से मतलब पागल हो जाते हैं। दिमाग खराब हो
जाता है, जैसे रावण का हो गया था, कंस का हो गया था, भस्मासुर का हो गया था। दैवी
शक्तियों को प्राप्त कर लेना सुगम है, पर उनको पचा डालना बड़ा मुश्किल है। वे हजम
नहीं होतीं। पारा हजम नहीं होता। आध्यात्मिक शक्तियाँ हजम नहीं होतीं। हजम करने
का वक्त आता है तो आदमी पागल हो जाता है—लोकेषणा, पुत्रैषणा और वित्तैषणा के आधार
पर।
आध्यात्मिकता जब आती है तो भीतर जो कुछ भी है, उसको पहले बाहर निकालती है। दुर्वासा
ऋषि के भीतर आध्यात्मिकता आयी थी तो क्रोध काबू से बाहर हो गया था। जो कुछ भी हमारे
भीतर चीजें हैं, वे बढ़ेंगी। हमारे अन्दर कामुकता है तो कामुकता बढ़ जाएगी। आप नवरात्रि
का अनुष्ठान कीजिए, यदि आपके पास संयम के विचार नहीं हैं, तो निश्चित रूप से कामुकता
बढ़ेगी। क्रोध आपके भीतर भरा है और उसका परिशोधन नहीं किया गया है और आध्यात्मिक
शक्तियों का अनुष्ठान आपने किया है तो मैं बताता हूँ कि क्रोध आपके भीतर बढ़ जाएगा।
जो भी चीज आपके भीतर है—ज्ञान आपके भीतर है तो ज्ञान बढ़ जाएगा। भक्ति है तो भक्ति
बढ़ जाएगी। अनुष्ठान का काम शक्ति उत्पन्न करना है। यह शक्ति किसमें खर्च होगी?
जो कुछ भी है, उसी में खर्च होगी। प्राप्त करना कोई मुश्किल नहीं है, तप करना कठिन
है। गुरुदेव ने मुझे सामर्थ्यवान और शक्तिशाली बनने के लिए तपस्वी होने के लिए
आज्ञा दी और मैं चौबीस साल तक तप करता रहा। जिव्हा के तप के बारे में आपको मालूम
है न कि चौबीस साल तक जौ की रोटी और छाछ के ऊपर निकाले हैं और बाकी तप की बातें
कैसे बताएँ कि कैसे कहें, किसी ने देखा नहीं? हम बराबर तप करते रहे और अपने आपको
मजबूत बनाते रहे, चौबीस साल तक। गुरुदेव की कृपा रही और लोहा, पारस को छूकर सोना
हो गया।
मेरे गुरुदेव ने मुझे दो चीजें दीं पहले दिन, जिनको पाकर मैं धन्य हो गया। उन दो चीजों से मेरी जिन्दगी पार हो गयी, जो पहले दिन उन्होंने दीं। तीसरी चीज की फिर मुझे कोई जरूरत ही नहीं पड़ी, वही वरदान काफी था। क्या थीं वे दो चीजें? एक तो उन्होंने मेरी कुण्डलिनी शक्ति जगा दी पहले दिन और दूसरा उन्होंने मेरे ऊपर शक्तिपात कर दिया। गुरुकृपा का यह अनुग्रह रहा मेरे ऊपर। इसी तरह का कहीं आपको भी लाभ मिल सके तो आप भी सौभाग्यवान हो जाएँ। मैं भी सौभाग्यवान हूँ। मैं अपने गुरु को पाकर धन्य हो गया। हम दोनों एक-दूसरे को पाकर धन्य हो गये। उन्होंने मेरी शक्ति जगा दी, मेरे ऊपर शक्तिपात कर दिया।
शक्तिपात क्या होता है? कुण्डलिनी क्या होती है? आपको जानकारियाँ बच्चों जैसी हैं। बच्चों की जानकारियाँ बहुत छोटी होती हैं, बहुत कमजोर होती हैं। कुण्डलिनी के बारे में आप लोगों का ख्याल है कि कोई मूलाधार चक्र है, जहाँ कोई साँप टाइप की चीज सोती-सी रहती है और जब जगती है तो पीठ में से रीढ़ की हड्डी में से निकलकर सिर पर जा बैठती है और आदमी को चमत्कार दिखाती है—तमाशे दिखाती है। आपके हिसाब से ये कोई शारीरिक रियाज है, फिजिकल एक्शन है। इसी तरह शक्तिपात के बारे में आप यह समझते हैं न कि शक्तिपात जब होता है, जब गुरु सिर पर हाथ रखता है तो आदमी के भीतर करण्ट मारता है, झटका मारता है, बिजली जैसी कोई चीज बढ़ जाती है। ताकत बढ़ जाती है। बेटे, ये तो मैस्मेरिज्म है—हिप्नोटिज्म है और इस तरह से मैं सैकड़ों ख्वाब आपको दिखा सकता हूँ, पर इससे कुछ होने वाला नहीं है। मैं आपको ऊँचे स्तर की कुण्डलिनी बताना चाहता हूँ, जिसका सम्बन्ध चेतना से है। चेतना में कोई हलचल नहीं होती और चेतना कोई करण्ट नहीं मारता। चेतना जो हमारा प्राण है, जीवात्मा है—इसमें से न कोई साँप निकलता है, न कोई बिच्छू निकलता है। ये सारी बातें ‘मैटर’ से सम्बन्धित हैं, ‘फिजिकल’ है और शरीर से सम्बन्ध रखती है। आत्मा से इन बातों का कोई ताल्लुक नहीं है।
बेटे जो लोग कुण्डलिनी जगा देने और दिखा देने की बात कहते हैं, मैं उन्हें ‘बाजीगर’ कहता हूँ और देखने वाले को ‘बच्चा’ कहता हूँ—बचकाना कहता हूँ। प्रकाश दिखा दीजिये और हनुमान दिखा दीजिए, बेटे, आत्मा में आँखें नहीं होतीं। आँखें हमारे स्थूल शरीर में हैं, लेकिन हमारी आत्मा में कोई आँख नहीं है। आत्मा में केवल संवेदना है। तो दो तरीके से मेरी कुण्डलिनी जगी। ‘कुण्डलिनी’ किसे कहते हैं? कुण्डलिनी-विवेकशीलता को कहते हैं—दूरदर्शिता को कहते हैं। विवेकशीलता मेरी उसी दिन जग गयी और मैंने देखा कि मेरी समझ और दुनिया की समझ में जमीन-आसमान का अन्तर है। दुनिया की अपनी समझ और अक्ल है और वह उसी के हिसाब से हमको प्रभावित करती तथा अपने रास्ते पर चलाना चाहती है। संस्कारों का, कुटुम्ब का दबाव और समाज का दबाव एक ओर और मेरी कुण्डलिनी शक्ति एक ओर अर्थात् विवेकशीलता एक ओर मेरी विवेकशीलता जगी और उसने कहा ‘हम और हमारा भगवान—हमारी आत्मा और परमात्मा एक ओर—ये दोनों मिलकर जो फैसला करेंगे, वह सबसे बड़ा है। यह दुनिया तो पागलों की है, जाहिलों की है। दुष्टों की है, इनमें से एक का भी कहना नहीं मानेंगे। हम अपनी मर्जी से चलेंगे जो बात हमको ठीक मालूम पड़ेगी, हमारा भगवान जो कहेगा, हम वही करेंगे और किसी का नहीं मानेंगे। हम अकेले फैसला करेंगे, हम अकेले चलेंगे।
कुण्डलिनी शक्ति का थोड़ा-सा परिचय रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दिया है। उन्होंने कहा—‘‘एकला चलो रे’’ अकेला चलो, फैसला जो करना है, अकेले करो। सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला चलता है, पृथ्वी अकेली चलती है। जब से यह कुण्डलिनी शक्ति हमारे भीतर जगी, लोगों की सलाह-मशविरा को उठाकर एक ओर फेंक दिया और कहा—आपकी राय आपको मुबारक हो। इस तरह की कुण्डलिनी शक्ति जिनकी जगी है, उसको, मरने के बाद मैं नहीं कहता, उसे इसी जीवन में महानताएँ मिली हैं। समर्थ गुरु रामदास के ब्याह की तैयारी हो चुकी थी, दूल्हा मण्डप में बैठा था। पण्डित चिल्लाया—लड़की-लड़का सावधान! समर्थ गुरु रामदास ने सोचा—जरूर कोई चक्कर है। दाल में कुछ न कुछ काला है अन्यथा पण्डित क्यों कहता सावधान? उन्होंने आँखें बन्द कीं तो सारा माजरा समझ में आ गया। उनके भगवान ने कहा—यह जिन्दगी का मोड़ है—इधर चल या उधर चल। समर्थ ने कहा—मैं तो आपके साथ चलूँगा। बस, एक ही क्षण में उनकी कुण्डलिनी जग उठी और मुकुट उतार फेंका—कंगन तोड़कर फेंक दिया और मण्डप से भाग खड़े हुए। समर्थ गुरु रामदास ने वहाँ से निकलने के बाद क्या किया? आप कभी भी महाराष्ट्र जाएँ तो वहाँ एक ही सन्त का नाम सर्वत्र पायेंगे—जिसका नाम है—समर्थ गुरु रामदास, उन्होंने शिवाजी को बनाया और हिन्दुस्तान को आजादी दिलाई।
ऐसी शानदार जिन्दगी और किसी की हो सकती है क्या? हाँ एक और है वह है शंकराचार्य। उनकी माँ रोज कहती थी कि बेटे तेरा ब्याह करूँगी। शंकराचार्य को एक सपना दिखाई पड़ा कि मैं शंकर का दूसरा रूप हूँ। मैं चाहूँ तो दुनिया का क्या-क्या कर सकता हूँ? मेरे पास ज्ञान की अगाध शक्तियाँ हैं। बस उन्होंने अपने भगवान से पूछा—मुझे क्या करना चाहिए? आपका कहना मानना चाहिए या माँ का? भगवान ने कहा—हमारा। शंकराचार्य ने निश्चय कर लिया और क्या से क्या बन गये? कितनी शानदार जिन्दगी उनकी व्यतीत हुई। बेटे, यह उनकी कुण्डलिनी शक्ति थी, जिसने उनके विवेक को जगा दिया।
सारा समाज हमारा खानदान ही है और हमारे भीतर वाले? चोर? इनका वर्णन करते हुए तुलसीदास ने कहा है कि हमारे मित्र—हमारे सहायक—हमारे सम्बन्धी जो हमारे भीतर कामना के रूप में, लोभ के रूप में, इसके रूप में, उसके रूप में विद्यमान हैं—बड़े-बड़े प्रलोभन दिखाते हैं और हमको पकड़े रखते हैं। ये भी हमारे भीतर के हैं। समाज के बाहर के भी हैं। सारे के सारे लोगों की समझ एक ओर, मेरी एक ओर। बस यही मेरी कुण्डलिनी है। छोटी-सी मछली पानी के बहाव को चीरती हुई उल्टी दिशा में चली जाती है, पर सीधी दिशा में हाथी तक बह जाते हैं। बड़े-बड़े समझदार-अक्लमन्द तक बह जाते हैं, लेकिन जिनके भीतर का विवेक जाग्रत होता है, वे अपने रास्ते पर—हम और हमारा भगवान—दो के हिसाब से निश्चयपूर्वक आगे बढ़ते चले जाते हैं। मेरी कुण्डलिनी जगी थी और उसने मुझे वहाँ से—छोटे-से देहात में जहाँ घर में खेती-बाड़ी का धन्धा होता था—बाप-दादे पण्डिताई का धन्धा करते थे, बढ़ते हुए मैं कहाँ से कहाँ चला आया? कुण्डलिनी ने मुझे कहाँ से कहाँ लाकर बिठा दिया। अब मैं उस गाँव का आदमी नहीं हूँ, सारे विश्व का आदमी हूँ और अभी बहुत बढ़ रहा हूँ। अभी दस-पाँच वर्ष मेरी जिन्दगी के हैं और मैं बढ़ता ही चला जाऊँगा। कुण्डलिनी ने मेरा दायरा कितना अधिक बढ़ा दिया, मेरा व्यक्तित्व बढ़ा दिया, चिन्तन बढ़ा दिया, मेरी आत्मा बढ़ा दी, आस्थाएँ बढ़ा दीं, आत्मज्ञान बढ़ा दिया, मेरी सामर्थ्य बढ़ा दी। हमारा मन था कि आप लोगों को बुलाकर आपकी भी ऐसी ही कुण्डलिनी जगा पाऊँ तो कितना अच्छा? मालूम नहीं मेरे सौभाग्य में वैसा कुछ सुयोग है कि नहीं जैसा कि मेरे गुरु में था।
मेरे गुरु ने एक और चीज दी थी। क्या दी थी? शक्तिपात किया था। शक्तिपात किसे कहते हैं? शक्तिपात—बेटे, उसे कहते हैं जिसमें उच्चकोटि के विचारों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए जिस ताकत की जरूरत पड़ती है, जिस बहादुरी और हिम्मत की जरूरत पड़ती है, उसका नाम है शक्तिपात। हर चीज के लिए—हर विचार को आगे बढ़ाने के लिए शक्ति चाहिए। मोटरकार आपके पास है, लेकिन उसे चलाने के लिए पेट्रोल चाहिए। पेट्रोल नहीं होगा तो कार चलेगी किससे? कुण्डलिनी से विवेक आ गया, विचार आ गया, निश्चय करने का हौसला आ गया कि कौन-सी बात उचित है और कौन-सी अनुचित है। लेकिन जो बात उचित है, उसको करने के लिए ताकत चाहिए और जो अनुचित है, उसको छोड़ने के लिए भी ताकत चाहिए। जो अनुचित है वह छूटता नहीं। नशे की आदत छूटती नहीं, शराब की आदत छूटती नहीं, दुराचार की आदत छूटती नहीं, कुसंस्कार छूटते नहीं। प्राण शक्ति है नहीं, जिससे कि हम अपने कुसंस्कारों को चैलेंज कर सकें कि आप हटिए और आप हमें छू नहीं सकते। हमें अपनी विकृतियों से लोहा लेने के लिए ताकत चाहिए और किसके लिए शक्ति चाहिए? श्रेष्ठ काम करने के लिए शक्ति चाहिए। किसी भी श्रेष्ठ काम करने के लिए फैसला कर लेना ही काफी नहीं है। किताब पढ़ लेना, विचार सुन लेना काफी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हमारे भीतर से एक साहस—एक हिम्मत उभरे, जो श्रेष्ठ कामों के लिए चल पड़े और दुष्प्रवृत्तियों से लड़ पड़े। श्रेष्ठता के मार्ग पर चलने के लिए इतनी बहादुरी की जरूरत है जितनी कि सिपाहियों को भी नहीं पड़ती। सिपाहियों को कम ताकत की जरूरत है, लेकिन अपने मानसिक चोरों के विरुद्ध लड़ने के लिए बहुत बड़ी ताकत चाहिए। हम जिस चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं, उसमें से निकलने के लिए बड़ी बहादुरी की जरूरत है—हिम्मत की जरूरत है।
मेरे गुरुदेव ने मुझे यही हिम्मत दी और मेरा शक्तिपात हो गया। शक्तिपात होने के पश्चात् मैं बढ़ता हुआ चला आया। उन दो चीजों के आधार पर मैं आगे बढ़ा। हमें हमेशा भगवान ने ही आगे बढ़ाया। श्रद्धा और विश्वास के रूप में भगवान होते हैं। भगवान ने मुझे कन्धे पर बिठाकर और अँगुली पकड़कर चलाया है। भगवान क्या है? वह एक कायदा है, कानून है—एक नियम है। खुशामद से वह बिल्कुल दूर है। उसके यहाँ न पूजा करने वालों के लिए रियायत है और पूजा न करने वालों के लिए शिकायत भी नहीं है। भगवान तो कायदे को देखता है। बिजली का उपयोग आप कायदे से करेंगे तो वह बड़ी दयालु है और यदि बेकायदे करेंगे तब बड़ी दुष्ट भी है, जान भी ले सकती है। जिन चीजों ने हमको उठाया, उसे हम कुण्डलिनी जागरण कहते हैं, शक्तिपात कहते हैं। हमारे गुरु का एहसान है हमारे ऊपर, जो उन्होंने हमारी दबी हुई क्षमता को जगा दिया। बीज के भीतर वृक्ष का छोटा-सा हिस्सा बैठा रहता है। खाद, पानी और जमीन-तीनों मिलकर उस बीज की क्षमता को जगाते हैं, उभारते हैं। हमारे भीतर जो महानताएँ हैं—उनको उठा देना—यही है सन्तों का काम, यही है भगवान का काम, यही है देवी-देवताओं का काम। जब वे किसी पर दया करते हैं तो उसके भीतर की सोयी हुई क्षमता को उभार देते हैं। देखिये मेरे जीवन में यही हुआ। मैं भी यही चाहता था कि आपको बुलाकर इसी तरीके से आपकी सेवा करूँ जैसे मेरे गुरु ने की।
तो गुरुजी आप करिये न सेवा। नहीं बेटे, मैं अकेले नहीं कर सकता। अगर सीप अपना मुँह बन्द करके रखे तो दुनिया में ऐसी कोई स्वाति की बूँद नहीं जो उसके भीतर मोती पैदा कर सके। स्वाति-बूँदों के अन्दर बड़ी ताकत होती है, लेकिन वह ताकत वहाँ खत्म हो जाती है, जहाँ सीपी ने अपना मुँह बन्द करके रखा है। यदि हम अपने कमरे के किवाड़ों को, खिड़कियों को बन्द कर दें तो दुनिया का कोई सूरज हमारे कमरे में प्रकाश नहीं फैला सकता। इसी तरह हमारी मर्जी के बिना हमारे जीवन में कोई प्रवेश नहीं कर सकता। इसमें भगवान भी शामिल हैं, सन्त भी शामिल हैं। भगवान अपना तो है, पर हमारी मर्जी के बिना वह हमारी जिन्दगी में प्रवेश नहीं कर सकता। इस सम्बन्ध में हम अपने गुरु से बहस करते रहते हैं। हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनसे कहते हैं कि आपका अनुग्रह है—आपकी कृपा है, जो आपने हमें धन्य कर दिया। वे भी कभी-कभी ठीक इन्हीं शब्दों को दोहराते हैं। वे कहते हैं कि अगर तेरे अन्दर पकड़ने का—ग्रहण करने का माद्दा न रहा होता, प्रकट करने का माद्दा न रहा होता तो इतने लाखों लोग दुनिया में हैं, उनमें से हर किसी को हम बना सकते थे, पर किसी को नहीं बना सके। तेरे अन्दर वह चीज थी जो तुमने पकड़ ली और हमारी कृपा को सार्थक बना दिया। हम दोनों अपनी नम्रता प्रकट करते रहते हैं, अगर भगवान किसी पर अनुग्रह करेंगे, सन्त कृपा करेंगे, तो उस पर कृपा करेंगे, जिसने अपने आपको इस लायक बना रखा है।
मैंने यह कोशिश की कि आप किसी तरह अपने आपको इस लायक बना सकें तो मजा आ जाए। भगवान से माँगने की अपेक्षा आप अपने आप से माँगना शुरू करें तो बहुत अच्छा। आप मेरी बात मानें तो देने वालों की तलाश न करें। देने वाले बहुत हैं, पर असल में लेने वाले नहीं हैं। पात्रता का अभाव है। महाराज जी कोई ऐसा सन्त दिखा दीजिए जो हमको वरदान दे सके। बेटे, महात्मा के कितने वरदान दिला दूँ? मैं तो तेरे हाथ में मिट्टी का ढेला दे दूँगा, वही तेरे लिए वरदान बन जाएगा। मीरा को गिरिधर गोपाल का एक मिट्टी का ढेला वरदान दे गया था और एकलव्य को मिट्टी का एक ढेला द्रोणाचार्य बनकर आ गया था। तेरे भीतर जो क्षमता है, जहाँ कहीं भी भीतर की रोशनी ‘रिफ्लेक्ट’ होगी वही चीज चमत्कारी हो जाएगी। अपने आपको देख। यदि आप अपने आप को सुधार सकें तो देने वाली शक्तियाँ आपको असीम देने के लिए तैयार हैं। आप यह ख्याल मत कीजिये कि हम छोटे हैं, हमारी कोई और सहायता करेगा। आप छोटी हैसियत के हैं, तो हम आपको मदद दिलायेंगे, लेकिन आप कायदे पर चलिए, कानून पर चलिए, आप किस काम के लिए माँगना चाहते हैं, बताइये हम गवाह पेश करेंगे कि हम हैसियत के—कम योग्यता के होते हुए भी दैवी-शक्तियाँ आपको मदद करने के लिए तैयार हैं। दैवी-शक्तियों ने किन-किनकी सहायता की, चलिए गवाही पेश करता हूँ?
छह फुट लम्बे-चौड़े सुराख से मैंने गंगाजी को गोमुख से निकलते देखा है। गोमुख में जो धारा पतली दिखाई पड़ती है, वही आगे चलकर बंगाल में मीलों चौड़ी हो जाती है। गंगा माता घर में छोटी थी, व्यक्तित्व छोटा था, लेकिन रास्ते में हजारों नद-नदियों ने मदद की और उनका विस्तार होता गया। यह मदद क्यों दी, क्योंकि नीयत साफ थी। यही स्थिति नर्मदा और यमुना की है। नर्मदा अमरकण्टक में एक छोटे-से गड्ढे से निकलती है। सभी तालाब सूख गये, क्योंकि उन्होंने अपने दायरे को सीमित करके रखा, लेकिन नर्मदा ने कहा था कि हम बहेंगे, कष्ट उठाएँगे, निरन्तर श्रम करेंगे, लोकहित के लिए। चलिए अब मैं मनुष्य का उदाहरण देता हूँ। राजस्थान के एक स्वामीजी हुए हैं। नाम था केशवानन्द, जिसने वास्तव में सन्त की अभिव्यक्ति पेश की। उन्होंने गाँव-गाँव में स्कूल खुलवाए। बाद में हिन्दुस्तान की पार्लियामेण्ट में भी कई साल तक मेम्बर रहे। इसी तरह छोटी-सी हैसियत से पैदा हुआ राजस्थान का एक छोटा-सा प्राइमरी स्कूल का मास्टर नौकरी छोड़कर चला गया और गाँव में छप्पर के नीचे कन्या पाठशाला प्रारम्भ कर दी। उसके पश्चात् क्या हुआ? देखिये उसकी नीयत भगवान भी एक ही चीज देखता है और वह है नीयत। भगवान ने उस मास्टर की नीयत को देखा और उसके हाथ चलाया हुआ विद्यालय आज हिन्दुस्तान के कन्या महाविद्यालयों में अग्रणी माना जाता है। बाबा साहब आमटे, नागपुर के एक बहुत छोटे वकील जो गुजारे लायक पैसा कमा लेते थे, वकालत छोड़ दी और कोढ़ियों को लेकर एक आश्रम स्थापित किया। उनका आश्रम अब एक विश्वविद्यालय बन गया है, जहँ अन्धों के लिए कोढ़ियों के लिए काम करने का प्रशिक्षण मिलता है। जार्ज वाशिंगटन, जिसका बाप एक लकड़हारा था। उसकी माँ उसे एक झोपड़ी में बन्द कर जाती थी और कहती थी कि यदि मैं तुझे खुला हुआ छोड़ जाऊँगी तो भेड़िये खा जाएँगे। जब तू बड़ा हो जाएगा, तब तू लकड़ियाँ काटना, भेड़ियों का मुकाबला करना।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब आदमी की परिस्थितियाँ, आदमी की अक्ल कमजोर हो तो भी क्या उसकी उन्नति के लिए गुंजाइश है। जार्ज वाशिंगटन आपको गवाही देंगे और कहेंगे—‘‘हमारे पास योग्यता, साधन, बुद्धि-कौशल कुछ भी नहीं था, सिर्फ एक ही साधन था—वह था हमारा लक्ष्य।’’ लक्ष्य ऊँचा था, आदर्श ऊँचे थे, इसलिए सारी दुनिया ने हमारी सहायता की। सहायता इस तरीके से बरसी जैसे अमृत-वर्षा, स्नेह-वर्षा, शक्ति-वर्षा! ईमान साफ होना चाहिए। यदि आप अपना व्यक्तित्व, अपना अन्तरंग इतना ऊँचा उठा सकते हैं, जितना उस बालक का हो सकता है तो बाकी कमी आप हमारे ऊपर छोड़ सकते हैं। किसी देवता की कृपा हमको मिलेगी बेटे, मैं यह जिम्मेदारी उठा सकता हूँ। देवताओं से मेरी बड़ी जान-पहचान है। मेरा गुरु भी बड़ा समर्थ है। मैं गुरु की हिमायत कर लूँगा, गुरु का पल्ला पकड़ लूँगा। उनसे कहूँगा कि जो आपने मुझे दिया है, उसे छीन लीजिए और इसको दे दीजिए। आप सन्तों की तलाश मत कीजिए। देवताओं का मन्त्र भी आपको सिद्ध नहीं करना पड़ेगा। मैं देवता के हाथ जोड़ूँगा और कहूँगा कि मेरे पास कोई पुण्य हो तो मेरी शक्ति इसे दे दीजिए।
आपको इसके लिए जप भी नहीं करना पड़ेगा। आपके बदले मैं जप कर लूँगा। आप तो एक ही काम करें कि अपना कायाकल्प करके यहाँ से जाएँ। कायाकल्प वैसे तो शरीर के कायाकल्प को कहते हैं, बुड्ढे से जवान बनने को कायाकल्प कहते हैं, लेकिन मैं आपके अन्तरंग को बदल देना चाहता हूँ। हम चाहते हैं कि आपकी नीयत, आपका ईमान, आपका व्यक्तित्व, चिन्तन और चरित्र जिस स्तर का था, उसे बदल दें। अगर आपके अन्तरंग वाला हिस्सा बदल जाए तो मजा आ जाए। अभी तो आपके मन के ऊपर एक ऐसी छाप जम गई है, एक ऐसा संस्कार जम गया है कि आप अपने को शरीर मानते हैं। छोटा आदमी, बीमार आदमी, कंगाल या अमीर आदमी मानते हैं। अभी तो आप शरीर को मान्यता देते हैं। यदि सम्भव हो सके तो आप यह कोशिश करना कि हम शरीर नहीं, शरीर हमारा औजार है—हथियार है और हम आत्मा हैं। आप कोई न कोई समय ऐसा जरूर निकालें जब आत्मचिन्तन कर सकें। सोचें जब हम शरीर से बाहर निकल जाते हैं और ऊँचाई पर, मीनार पर, पहाड़ पर जाकर बैठ जाते हैं। वहीं से आप देखते रहें कि हमारा वह मरा हुआ शरीर पड़ा हुआ है और हम उससे अलग बैठे हैं। हमारे हित अलग हैं और उसके हित अलग। शरीर की अपनी उपयोगिता है और आत्मा की अपनी। अभी तो सब गुड़-गोबर कर रखा है आपने, जो किसी काम का नहीं है।
अभी तो हमने अपनी चेतना को शरीर में इस कदर घुला रखा है कि शरीर के अलावा अपने बारे में कुछ विचार ही नहीं कर पाते कि हमारी आत्मा भी है या नहीं। आत्मा का भी कुछ लाभ होता है, हमें मालूम ही नहीं। आत्मा का भी कुछ स्वार्थ होता है, उसकी भी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं, हमें मालूम ही नहीं। सिवाय शरीर की आवश्यकताओं के हम कुछ सोच ही नहीं पाते। यदि सम्भव हो सके तो यह कोशिश करना कि आप शरीर से अलग हो सकें। अगर आप अलग होने की कोशिश करेंगे तो आपके सामने नये विचार आयेंगे, नयी समस्याएँ आएँगी, नये दृष्टिकोण आएँगे, नये कार्यक्रम आएँगे कि हमको क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? शरीर और आत्मा दोनों को अलग-अलग करने की कोशिश करना। दोनों के हितों के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा जब आप विचार करेंगे तो आपको दिशा मिलेगी।
जब आप यहाँ से जाएँ तो माली होकर जाएँ। मालिकी को यहीं छोड़ जाएँ। दुनिया में मालिक होना बन्द कर दें। जहाँ कहीं भी जाएँ माली होकर जाएँ, मालिक मत होना। जब तू मालिक हो जाएगा तो दुनिया इतनी भारी हो जाएगी तेरे लिए कि तेरे प्राण ले जाएगी। जब तू माली हो जाएगा तब दुनिया हँसती भी रहेगी और तेरे साथ रहेगी। जब मक्खी चासनी में घुसती है तो पंखों को लपेट लेती है और मर जाती है और जब किनारे बैठी रहती है तो उसका जायका चखती रहती है। जुड़ो मत उससे। मालिकी को छोड़े। अपना कर्तव्य पूरा कर बस, अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर। अपनी स्त्री के लिए, बेटे के लिए, बाप के लिए, बहिन के लिए, समाज के लिए हर एक के प्रति अपने कर्तव्य को पूरा करना है। मालिकी मत जताना, मुनीम के तरीके से रहना, सो जो तेरे पास पैसा हे उसका ठीक उपयोग कर सकेगा। मालिक बनेंगे तो आपको दुनिया में पाप कमाने पड़ेंगे। न्याय पर आप चल नहीं सकेंगे। जो वस्तु आपको मिली है, उसका कोई उपयोग नहीं कर सकेंगे। आपके पास समय की सम्पदा है, श्रम की सम्पदा है, बुद्धि की सम्पदा है, उसका उपयोग करें। यही कायाकल्प करना है। यदि सन्तों का अनुग्रह प्राप्त करना है, देवताओं की कृपा प्राप्त करनी हो तो भगवान जितना उदार है, उतनी उदारता सीखें।
शरीर की अपेक्षा अपनी जीवात्मा पर विचार करें जो सम्पदाएँ आपके पास हैं, उनका उपयोग कीजिए और जो नहीं है उनका रोना-धोना बन्द कीजिए। जो हैं, उसका उपयोग यदि करेंगे तो सहायता अपने आप मिल जाएगी। आप पहले उदार बनिये, अपनी योग्यता और पात्रता के सम्बन्ध में विचार कीजिए। आप अपनी नीयत को ईमान—को इस तरह बनाएँ कि भगवान को, समाज को, पड़ोसियों को पता चल जाए कि आप इस लायक हैं तो आपके पास उनका स्नेह-सहयोग और आशीर्वाद बरसेगा। आपके पास हर चीज बरसेगी जिसकी आपको आवश्यकता है। माँगने की अपेक्षा देने की परम्परा, जो ऋषियों की परम्परा है, बनाएँ। अपनी स्त्री को देंगे प्यार, बच्चों को देंगे संस्कार, अपने बहिन-भाई को देंगे स्नेह, समाज को देंगे ज्ञान और सारे विश्व को देंगे श्रेष्ठ परम्पराएँ। यदि हम कुछ नहीं दे सकते तो रास्ता तो दिखा सकते हैं अपनी शानदार जिन्दगी जीकर के ताकि दूसरे आदमी हमारे चले हुए रास्ते पर चलें। अपने आपको तो श्रेष्ठ और शालीन बना ही सकते हैं। हम निर्धन हैं, गरीब हैं तो भी ऐसा कर सकते हैं। चारों ओर जो गहरा अन्धकार छाया हुआ है, लोगों को रास्ता चलने के लिए अपने चरण-चिन्ह छोड़ते हुए चले जाएँ। हम विश्वास लेकर चले थे, आप भी विश्वास लेकर चलें तो भी आप धन्य हो जाएँगे।
मैं कहता हूँ कि आप तकलीफ का, कष्टों का रास्ता नहीं चलेंगे तो आप फलेंगे। आप बीज की तरह से गलें तो वृक्ष की तरह से फलेंगे। वृक्ष की तरीके से फलने के लिए बीज की तरह गलना आवश्यक है। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। वे तपस्वी होंगे, महापुरुष होंगे जिन्होंने अपने कलेजे चौड़े किये। कृपणता पर अंकुश रखा। लोकहित के लिए, समाज के लिए, देश के लिए त्याग और बलिदान किया। ये ऐतिहासिक लोग हैं। वे समाज का सम्मान पाने के लिए अधिकारी हुए हैं, ऊँचे पदों पर पहुँचे हैं। नेता हुए हैं, जो कुछ भी वैभव और वर्चस्व मिला है, गलने की वजह से मिला है। आप भी बीज की तरह से गलें ताकि वृक्ष की तरह से फलने की सम्भावना हो सके। अपने अन्दर विवेकशीलता को जगाएँ। यदि आपके अन्दर इतनी हिम्मत हो जाए तो आपके अन्दर शक्तिपात कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥