प्रौढ़ महिला शिक्षा योजना
युग प्रभात में जो महान परिवर्तन होने जा रहे हैं। उनके लिए नारी को अपनी उपयुक्त भूमिका निभानी पड़ेगी। इसमें समर्थ हो सकने के लिए प्रथम प्रयास 'शिक्षा' की उपलब्धि के रूप में ही हो सकता है। अशिक्षित व्यक्ति एक प्रकार से अन्धा होता है। सम्पर्क क्षेत्र में जो सीमित जानकारियाँ उपलब्ध होतीं हैं, उतने ही दायरे में उसका विचार चक्र घूमता रहता है। इससे आगे भी कुछ है क्या? प्रस्तुत परिस्थितियों के अतिरिक्त भी कोई विकल्प है क्या, यह सोचना उसके लिए कठिन पड़ता है। कूप मण्डूक अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहता है और उसे ही पर्याप्त मानकर रह जाता है। कुछ अधिक करने की, अधिक पाने, देखने की इच्छा तो तब उठती है जब कुएँ से बाहर निकल कर बड़े क्षेत्र पर अपनी दृष्टि डालता है। अशिक्षित और शिक्षित की स्थिति में यही अन्तर होता है। 'यथा स्थिति' असन्तोष जनक है, अपर्याप्त है, यह विचार तभी उठेगा जब नारी की आँखें संसार की स्थिति समझें और उसमें नारी को अपनी बढ़ी-चढ़ी भूमिका समझने का अवसर मिले। भूतकालीन अपनी गौरव गरिमा को समझना और आज की स्थिति में उसकी तुलना करना ही वह आकुलता उत्पन्न कर सकता है, जो किसी बड़े परिवर्तन के लिए नितान्त आवश्यक है, संसार की प्रगतिशील नारियाँ क्या कर रही हैं और किस स्थिति में रह रही हैं, इसकी तुलना कर सकना जब तक सम्भव न होगा, तब तक यह कठिन ही रहेगा कि भारतीय नारी परिवर्तन के लिए अभीष्ट उत्सुकता प्रकट करे।
शिक्षा हर दृष्टि से आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन भले ही किसी भी स्थिति का हो, शिक्षा के बिना गई-गुजरी स्थिति में ही पड़ा रहता है, क्योंकि शिक्षा के बिना चिन्तन के स्रोत ही नहीं खुलते और प्रतिभाशाली होते हुए भी वह मनुष्य अपने चिन्तन और विवेचन को विस्तृत नहीं कर सकता। अशिक्षा का यही सबसे बड़ा अभिशाप है। लोग शिक्षा को रोटी कमाने की कला समझते हैं, यह भूल है। रोटी तो शिक्षितों की तुलना में अशिक्षित भी अधिक कमा सकते हैं। अशिक्षा व्यक्तित्व को, चिन्तन को, विकसित होने में असाधारण बाधक सिद्ध होती है, इसलिए "बिना पढ़े नर पशु कहावे, सदा सैकड़ों दुःख उठावें" की सार्थक उक्ति सुनने को मिलती है।
पुनर्जागरण में नारी अपनी भूमिका समुचित रीति से निबाहने योग्य बन सके, इसके लिए उसे सर्वप्रथम अशिक्षा के गर्त में से उबारना होगा, और उसके लिए व्यापक योजना बनाकर चलना होगा। स्त्री शिक्षा के नाम पर लड़कियों के दो-चार स्कूल खुलवा देने से इतने बड़े प्रयोजन की पूर्ति न हो सकेगी। आज प्रश्न समूचे नारी समाज को शिक्षित बनाने का है और वह भी भावी पीढ़ियों का नहीं, आज की नारी के सहारे आज ही परिवर्तन लाना है। अस्तु समस्या को भविष्य में सुलझते रहने योग्य मानकर नहीं चलना है। आज की नारी आज ही शिक्षित करनी पड़ेगी ताकि वह आज के परिवर्तनों में अपनी भूमिका का समुचित रीति से निर्वाह कर सके। हमें समूचे नारी समाज को इन्हीं दिनों शिक्षित बनाने की विशालकाय योजना मस्तिष्क में रखनी होगी और उसी को पूरा करने के साधन जुटाने होंगे।
बच्चों की शिक्षा का प्रयत्न हो रहा है सो ठीक है पर इतने भर से काम नहीं चल सकता। बच्चे दस-बीस वर्ष बाद समाज को प्रभावित करने की स्थिति में होंगे। समय जिस तेजी से बदल रहा है, उसे देखते हुए इतने समय तक हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठा जा सकता। वर्तमान पीढ़ी की, वर्तमान समय की, वर्तमान साधनों की उपेक्षा करके भविष्य की आशा लगाकर प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। हमें अपनी ७० प्रतिशत जनता को साक्षर एवं शिक्षित बनाना पड़ेगा ताकि भौतिक और आत्मिक प्रगति के अवरुद्ध द्वार खुल सकें। इसके लिए प्रौढ़ शिक्षा पर बाल शिक्षा से भी अधिक ध्यान देने की ओर अधिक बड़े प्रयास करने और साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ेगी।
प्रौढ़ नर-नारियों को शिक्षित करने की समस्या इतनी बड़ी है कि उसे सरकारी साधनों से पूरा किया जा सकना सम्भव नहीं। इसके लिए जन स्तर पर ही प्रबल प्रयत्न करने पड़ेंगे। निरन्तर प्रौढ़ पुरुषों को पढ़कर उन्हें सुयोग्य नागरिक बनाना और राष्ट्रीय प्रगति में समुचित योगदान दे सकने के लिए प्रशिक्षित करना एक आवश्यक काम है, पर उससे अधिक प्राथमिकता देने योग्य समस्या नारी शिक्षा को है। पुरुषों की योग्यता का प्रभाव जितने क्षेत्र में होता है, नारी की स्थिति उससे कहीं अधिक बड़े क्षेत्र को प्रभावित करती है। भावी पीढ़ी के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्तर का बहुत कुछ निर्माण माता के द्वारा ही होता है। गर्भस्थ शिशु अपने शरीर में माता का रक्त, माँस लाता है और उसके चिन्तन, स्वभाव एवं चरित्र की भी बहुत बड़ी छाप माता की ही रहती है। जन्म लेने के बाद बच्चा माता का दूध पीता और उसी के साथ सोता, खाता खेलता है। इस अवधि में अपने व्यक्तित्व का बहुत बड़ा भाग बीज रूप से माता द्वारा ही प्राप्त कर लेता है। उस स्त्रोत से उसे जैसा अनुदान मिलता है, वह उसी के अनुरूप ढलता है। इस तथ्य को समझते हुए हमें भावी पीढ़ी के निर्माण का आरम्भ उसकी माता का स्तर विकसित करने के ही साथ-साथ करना होगा। पुरुषों की शिक्षा-योग्यता आज की स्थिति को प्रभावित करेगी, पर नारी शिक्षा तो समूची भावी पीढ़ी का निर्धारण करती है और वह भली-बुरी परम्परा को क्रमश: अगली पीढ़ियों को भी प्रभावित करती चली जाती है।
विचारशील वर्ग इसे समझने और स्वीकार भी करने लगा है। किन्तु इतने भर से समस्या का समाधान नहीं हो जाता, उसके लिए व्यवस्थित प्रयास चाहिए। प्रयास की बात उठते ही लोग सरकार द्वारा उसकी पूर्ति की आकांक्षा करने लगते हैं। समाज की आवश्यकता की पूर्ति के प्रयास सामाजिक अवसर पर न करके अपने अनिवार्य उत्तरदायित्व की उपेक्षा करने लगते हैं। यह बुरी आदत है कि हर उपयोगी कार्य के लिए सरकार का ही दरवाजा खटखटाया जाय। नारी शिक्षा जैसे कार्यों को जन स्तर पर क्यों पूरा नहीं किया जा सकता है? कठिनाई यह कि हम जनशक्ति की सामर्थ्य का कभी मूल्यांकन ही नहीं करते। यह महाकाली समस्त सम्पत्तियों, विभूतियों और उपलब्धियों की जननी है। सरकार का ढाँचा उसके नगण्य से टैक्स जैसे अनुदान आधार पर खड़ा है। सरकार को जितना मिलता है, लगभग उतना ही जनता नशेबाजी पर खुशी-खुशी निछावर कर देती है। तमाखू और शराब का सारा खर्च सरकारी टैक्सों से कहीं अधिक है। गंगा स्नान, तीर्थ यात्रा, देवपूजा, अनुष्ठान-उत्सवों पर होने वाले धार्मिक खर्च सरकारी टैक्सों की तुलना में प्राय: दूने हैं। जनता इसे बिना किसी दबाव और संकोच के पूरा करती है। विवाह-शादियों के दान-दहेज और धूमधाम में हर साल जितना पैसा खर्च होता है, वह भी पूरे सरकारी खर्च की तुलना में कहीं अधिक है। नशेबाजी, सिनेमा, पर्यटन, धर्मोत्सव, विवाह-शादी, जैसे अनेकों खर्च हैं जिन्हें पेट पालन एवं जीवन निर्वाह की अनिवार्य आवश्यकताओं में नहीं जोड़ा जा सकता। इन्हें लोग खुशी-खुशी करते हैं। श्रम शक्ति, समय शक्ति, धन शक्ति, बुद्धि शक्ति, प्रतिभा शक्ति, भावना शक्ति, संकल्प शक्ति के अजस्र रत्न भण्डार जन समुद्र में छिपे पड़े हैं, यदि उन्हें खोजा और उभारा जा सके तो महान परिवर्तन के लिए अभीष्ट साधनों की कोई कमी न रहेगी। सरकार का मुँह ताकने की, किसी धनी, विद्वान, योगी, चमत्कारी नेता-अभिनेता का अनुग्रह पाने की आदत हमें छोड़नी चाहिए और सीधे जनता के कल्पवृक्ष तक पहुँचने की तैयारी करनी चाहिए। जो पाना है वहीं से पाया जा सकता है। जन भावना जिस भी दिशा में मुड़ जाती है, उसमें सफलता सुनिश्चित ही हो जाती है।
पेट भरने के बाद दूसरी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता शिक्षा की ही रह जाती है। शरीर जीवित रखने के लिए रोटी की और अन्तःचेतना को सशक्त रखने के लिए शिक्षा की जरूरत पड़ती है। लोक मानस ने शिक्षा का महत्त्व नहीं समझा और उसकी उपेक्षा की, अस्तु उसके साधन न जुट सके। यदि ज्ञान की भूख जागृत रहती और उसके लिए माँग उठती तो सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर उसका प्रबन्ध होकर रहता। एक बार यदि शिक्षा की प्रबल भूख जग पड़े तो समझना चाहिए कि साधन जुटाने में अब कोई बड़ी कठिनाई शेष नहीं रह मई है। अपने शाखा-संगठनों को इसके लिए ही प्रयास करने चाहिए।
प्रौढ़ महिला शिक्षा के लिए एक पाठशाला का संचालन अपने शाखा संगठनों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम है। जिन संगठनों में थोड़ी समर्थता उत्पन्न हो जाय उन्हें इसे तुरन्त अपने हाथ में लेना चाहिए। समय की दृष्टि से तीसरे प्रहर दो से पाँच बजे तक तीन घण्टे का समय ही इसके लिए उपयुक्त पड़ता है और सारा समय उनके लिए प्राय: व्यस्त ही रहता है। दोपहर के भोजन से निवृत्त होने और शाम का भोजन आरम्भ करने से पूर्व के जो घण्टे बच जाते हैं उन्हें ही उनकी फुरसत का कहना चाहिए।
प्रारम्भ में कम से कम एक और बाद में कई-कई अध्यापिकाएँ इस प्रयोजन के लिए आवश्यक होंगी। स्थान का—अध्यापिकाओं का—प्रबन्ध बन जाय तो फिर शाखा की प्रतिभाशाली महिलाओं की टोली बना कर घर-घर जाना चाहिए और प्रौढ़ महिलाओं को शिक्षा को क्यों आवश्यकता है, यह समझाना चाहिए। जो पढ़ने की स्थिति में दिखाई पड़े, उनके घर कई-कई बार चक्कर लगाने के उपरान्त ही उन्हें सहमत किया जा सकेगा। इसके लिए टोलियाँ कई-कई बार—कुछ-कुछ समय बाद जाती रहें तो ही कुछ काम चलेगा। शाखा के सहायक सभ्यों को ही सबसे पहले अपने-अपने घरों की महिलाएँ भेजनी पड़ेंगी।
पाठ्य क्रम में साक्षरता तो प्रथम ही है। निरक्षर महिलाओं को लिख-पढ़ लेने का सामान्य ज्ञान उसी स्तर पर आरम्भ कराया जाना चाहिए, जिस क्रम से स्कूली बच्चों को कराया जाता है। वे ही पाठ्य पुस्तकें काम दे जाती हैं। स्कूली पुस्तकें बेचने वाली, यहाँ मिलने वाली, पुस्तकों में से ही उन्हें छाँटा जा सकता है। पाँचवें दर्जे तक की प्राथमिक शिक्षा में अपने और सरकारी पाठ्यक्रमों में कोई अन्तर नहीं आता।
आगे की पढ़ाई में अन्तर करना होगा। पाँचवीं कक्षा की योग्यता के बाद की शिक्षा में अपना पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी सामान्य भौतिक ज्ञान एवं व्यक्ति, परिवार और समाज की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने वाली पुस्तकों का होना चाहिए। आज की कूप-मण्डूक बनी नारी को इस प्रकार की बहुमुखी एवं जीवन विकास की दिशा में मार्गदर्शन करने वाली शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। साहित्य और व्याकरण का आवश्यक ज्ञान कराने के लिए इसी स्तर का प्रशिक्षण होना चाहिए।
लगभग पाँचवें दर्जे के स्तर की अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्रौढ़ महिलाएँ एक वर्ष में पूरा कर सकती हैं। प्रथम आरम्भ तो किसी भी महीने से किया जा सकता है, पर आगे चल कर पढ़ाई वर्ष कब से आरम्भ हो यह निर्धारित कर लेना पड़ेगा। साधारणतया जुलाई से आरम्भ करना अपने लिये भी सुविधाजनक रहेगा।
लड़कियों को अपनी स्कूली शिक्षा का घर पर अभ्यास कराने को दृष्टि से सहायक पाठशालाएँ चलाई जा सकती हैं। स्कूली समय के अतिरिक्त लड़कियों की सुविधा का अन्य समय दो घण्टे का रखा जाय तो उन छात्राओं को अपना स्कूली कोर्स सफलतापूर्वक पूरा करने की सुविधा मिल सकती है। लड़कों के लिए तो ट्यूशन लगा दिये जाते हैं, पर लड़कियों को ऐसी सुविधा कहाँ मिलती है। उन्हें तो गृहकार्यों में भी माता की सहायता करनी पड़ती है जबकि लड़कों को पूर्ण अवकाश रहता है। इस अभाव की पूर्ति करने के लिए अपनी पाठशाला के अन्तर्गत विशेष कक्षाओं का प्रबन्ध किया जा सकता है। विवाह से पूर्व वाली पढ़ाई जिनकी अधूरी रह गई थी, वे इन पाठशालाओं के माध्यम से उसे पूरा कर सकती हैं।
अपनी योजना के अन्तर्गत घर, गली, मुहल्ले और गाँव में प्रौढ़ महिला पाठशालाओं की स्थापना होनी है। महिलाओं को अपने बाल-बच्चे, घर-गृहस्थी और चौका-चूल्हा भी सम्भालना पड़ता है, इसलिए उनके पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए घर से बाहर जाना स्वल्प समय के लिए ही सम्भव हो सकता है। आमतौर से यह समय मध्यान्होत्तर दो से पाँच बजे का, लगभग तीन घण्टे का ही होता है। इतना ही उन्हें अवकाश मिल सकता है। इतने में ही उनकी शिक्षा व्यवस्था चलनी है। यदि विद्यालय बहुत दूर होगा तो आने-जाने में ही सारा समय नष्ट हो जायगा। फिर सुरक्षा, किराया-भाड़ा आदि की समस्याएँ सामने आ सकती हैं। इसलिए समीपवर्ती स्थान ही उपयुक्त हो सकते हैं।
महिला जागरण शाखाएँ भी किसी पूरे नगर कस्बे की नहीं बनाई गई हैं। गली, मुहल्ले, गाँव की छोटी परिधि में ही शाखा-संगठन खड़े किए जा रहे हैं। बड़े नगरों में कई-कई शाखाएँ बना दी गई हैं, ताकि मिलना-जुलना आसानी से सम्भव हो सके। बड़े उत्सव आयोजनों में ही नगर की बड़ी शाखा में सब छोटी शाखाएँ सम्मिलित होती हैं। साधारणतया उनके कार्यक्रम अपने-अपने मुहल्ले में ही चलते रहते हैं। यही क्रम प्रौढ़ पाठशालाओं का भी चलेगा। किसी बड़े कस्बे या नगर की एक ही पाठशाला हो, ऐसा सोचना निरर्थक हैं। व्यावहारिक यही है कि प्रत्येक क्षेत्र की महिलाएँ अपनी-अपनी छोटी शाखा बनावें और छोटी प्रौढ़ पाठशाला चलायें। ऊँची शिक्षा की जब आवश्यकता पड़ेगी तब तो अधिक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकने वाला बड़ा विद्यालय ही बनेगा पर आरम्भिक ढाँचे छोटे-छोटे क्षेत्रों में बँट कर ही खड़े किए जा सकते हैं। इन पाठशालाओं के खुलने का समय भी तीसरे प्रहर के तीन घण्टे ही हो सकते हैं। दो से पाँच अथवा मौसम के अनुसार समय कुछ बदल कर भी रखा जा सकता है।
पाठशाला चलाने के लिए कई कदम उठाने पड़ेंगे। यथा—(१) शिक्षार्थिनियाँ जुटाना (२) स्थान का प्रबन्ध (३) अध्यापिकाओं की व्यवस्था (४) पाठ्य पद्धति का निर्धारण (५) शिक्षा उपकरणों का एकत्रीकरण आदि। इस सबसे पहले हर किसी के मन में प्रौढ़ महिलाओं के शिक्षण की उपयोगिता और आवश्यकता बिठाने से लिए अत्यन्त प्रभावशाली ऐसा प्रचार करने की आवश्यकता पड़ेगी, जो तथ्य, प्रमाण, उदाहरण आदि पर आधारित हो और हर किसी को वस्तु स्थिति समझने-स्वीकार करने के लिए बाध्य कर सके। इसके लिए पर्चे-पोस्टर, विज्ञप्तियाँ आदि के छपे पत्रक बाँटने, बेचने, चिपकाने, पढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही प्रभावशाली नर-नारियों की ऐसी प्रचार टोलियाँ गठित करनी पड़ेगी जो अभीष्ट प्रयोजन के लिए आवश्यक वातावरण बनाने में सफल हो सकें। उन्हें अपना कुछ समय नियमित रूप से जन सम्पर्क के लिए देना होगा।
इस जन सम्पर्क कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रचार टोलियाँ अपने क्षेत्र में घर-घर जाकर नारी शिक्षा का महत्त्व समझावेंगी और ऐसा वातावरण विनिर्मित करेंगी, जिसमें पढ़ने योग्य महिलाएँ शिक्षा प्राप्त करने के लिए तैयार हो सकें। आज की स्थिति में सबसे बड़ी और सबसे पहली कठिनाई यही है कि शिक्षा का महत्त्व ही भुला दिया गया है। न स्त्रियाँ पढ़ने को तैयार होती हैं और न उनके घर वाले इसके लिए इजाजत देते हैं। इसे व्यर्थ का काम माना जाता है। प्रचार टोलियों को पहला सिर दर्द यही ओढ़ना होगा कि वे घर के पुरुषों को—बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को इजाजत देने के लिए और प्रौढ़ महिलाओं को पढ़ने के लिए तैयार कर सकें। पहिया लुढ़कने लगे तब तो एक की देखा-देखी दूसरी भी तैयार हो सकती हैं और फिर शिक्षार्थिनियों की कमी नहीं रह सकती। पर आरम्भ में तो यह प्रथम सफलता प्राप्त करना ही कठिन पड़ेगा। इतना कर लिया गया तो समझना चाहिए कि आधी मंजिल पार हो गई।
उपयुक्त स्थान तलाश करना दूसरा काम है। इसके लिए आरम्भ में ही अपनी निज की इमारत बनाना या किराये का मकान लेना कठिन है। इसके लिए किसी का माँगा हुआ घर, कमरा, आँगन ही ढूँढना होगा। दिन में लोग १० से ६ बजे तक दफ्तर एवं दुकानों पर चले जाते हैं और उनके कमरे खाली रहते हैं। अपने प्रौढ़ विद्यालय दो से पाँच बजे तक ही चलते हैं। उस बीच खाली कमरे का फर्नीचर आदि एक ओर खिसका कर जगह बनाई जा सकती है और उतने में पाठशाला चल सकती है। पढ़ाई समाप्त होते ही उस कमरे की झाडू लगाकर चीज यथा स्थान जमाई जा सकती हैं और किसी को पता भी नहीं चल सकता कि यहाँ पीछे दूसरा काम भी किया गया है। मन्दिर, धर्मशाला, पुस्तकालय आदि सार्वजनिक स्थानों की खाली जगह भी इस प्रयोजन के काम आ सकती है। स्थान की सुविधा ऐसे ही बिना खर्च की जगह तलाश करके जुटानी पड़ेगी।
अध्यापिकाएँ भी वैतनिक रख सकना कठिन है। इसके लिए अशिक्षित महिलाओं में सेवा भाव जगाना पड़ेगा और नियमित रूप से इस पुनीत कार्य के लिए कुछ समय देते रहने के लिए उन्हें तैयार करना पड़ेगा। स्कूली अध्यापिकाएँ अपना बचा समय इसके लिए दे सकती हैं। घरों में भी पढ़ी-लिखी महिलाएँ होती ही हैं। दो से पाँच तक का समय उनके पास भी अवकाश का रहता है, उनसे समयदान की याचना करनी चाहिए। उनके घर वालों को इसके लिए आग्रह करना चाहिए। बूढ़े रिटायर पुरुष भी काम दे सकते हैं। शिक्षकों की व्यवस्था भी इसी प्रकार जुटानी पड़ेगी। यों शिक्षार्थियों से फीस और उदार व्यक्तियों से दान लेकर शिक्षिकाओं को कुछ जेब खर्च दिया जा सकता है। पर अच्छा यही है कि लोगों में सेवा बुद्धि जगे और सार्वजनिक कार्यों के लिए अभीष्ट मात्रा में श्रमदान उपलब्ध हो सके। नव निर्माण की व्यापक योजनाओं की सफलताओं का आधार यह स्वेच्छा सहयोग, श्रमदान ही हो सकता है।
पाठ्यक्रम के दो भाग हैं। एक साक्षरता वर्ग जिसमें स्कूली शिक्षा के अनुसार प्राथमिक शिक्षा, पाँचवें दर्जे जितनी हो। यह उनके लिए है जिन्हें निरक्षर स्वल्प शिक्षित करना चाहिए। यह अनिवार्य वर्ग है। इसके लिए वही पाठ्यक्रम पर्याप्त है, जो पाँचवें दर्जे तक स्थानीय स्कूलों में बालकों को पढ़ाया जाता है।
इससे आगे का विशेष वर्ग है, जिसमें साहित्य और व्याकरण का समुचित ज्ञान कराने के लिए भूगोल, इतिहास, गणित, नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र आदि सामान्य विषयों का समावेश करना पड़ेगा। जीवन जीने की कला, शिशु पालन, परिवार में भावनात्मक सद्भावनाएँ रखने वाला दृष्टिकोण, कुरीतियों एवं अन्ध-विश्वासों से होने वाली हानियाँ, व्यक्ति का समग्र निर्माण, शिष्टाचार, स्वास्थ्य शिक्षा, परिचर्या एवं चिकित्सा, फर्स्ट एड, पाक विद्या, शिशुपालन, गृह व्यवस्था एवं सुसज्जा, अर्थ सन्तुलन, टूट-फूट की मरम्मत, घरेलू शाक वाटिका, बही-खाता, बैंक-बीमा, रेल, डाकखाना आदि के नियम, सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स के लिए दाखिल कराने योग्य बही-खाता, सामान्य कानूनी ज्ञान जैसे दैनिक जीवन में काम आने योग्य प्राय: सभी विषयों का समावेश करना होगा।
इसे लगभग जूनियर हाईस्कूल आठवीं कक्षा के समतुल्य कहा जा सकता है। इस पाठ्यक्रम की प्रायः सभी पुस्तकें नये दृष्टिकोण से शान्तिकुञ्ज में लिखी और छापी जा रही हैं। आशा की जानी चाहिए कि सन् ७५ के अन्त तक यह पाठ्य पुस्तकें अपनी सभी प्रौढ़ पाठशालाओं को उपलब्ध हो जाएँगी। तब तक के लिए इन विषयों पर बाजार में मिलने वाली पुस्तकों से सहारा लेकर नोट लिखाए जा सकते हैं और प्रश्नोत्तर के रूप में वह प्रशिक्षण चलता रह सकता है।
अभी इतना लक्ष्य लेकर चलना पर्याप्त होगा कि आठवीं कक्षा स्तर का उपरोक्त पाठ्यक्रम पढ़ना ही प्रौढ़ शिक्षा योजना का लक्ष्य है। जहाँ अधिक पढ़ने का उत्साह हो, वहाँ प्रयाग महिला विद्यापीठ, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति आदि के पाठ्यक्रमों को अपनाकर उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है।
प्रथम सोपान जहाँ भी कार्यान्वित हो चले वहाँ द्वितीय सोपान का शिलान्यास किया जाना चाहिए। रचनात्मक कार्यों की दृष्टि से महिला प्रौढ़ पाठशाला को प्रथम स्थान दिया जाना चाहिए। उसमें अशिक्षितों को साक्षर बनाने का भी एक कार्यक्रम रहे पर बात इतने तक ही सीमित न रखी जाय। शिक्षा का महत्त्व अभी अपने देश में उतना नहीं समझा जाता जितना आर्थिक लाभ एवं कलाकारिता को अधिक आकर्षक माना जाता है। इन माध्यमों का समावेश भी इन पाठशालाओं में रहना चाहिए। कितने ही गृह उद्योग हैं जिन्हें सीखने का महत्त्व समझाया जा सकता है। कपड़ों की सिलाई, मरम्मत, पुराने बड़े कपड़ों में से छोटे निकालना, सही ढंग से धुलाई, रँगाई, इस्त्री कर सकना हर घर के उपयोगी उद्योग हैं। कढ़ाई तो निरर्थक अपव्यय है पर ऊनी स्वेटर मफलर आदि बुनना सीखने में लाभ है। वस्त्र शिक्षा के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण दो उद्योग हैं, बर्तन, फर्नीचर, चारपाई, पुस्तकें, मकान, स्टोव, लालटेन आदि की मरम्मत, दूसरा शाक वाटिका। टूट-फूट यदि स्वयं ठीक करना आता हो या दूसरे से करा लेने में उत्साह हो तो बहुत सी बर्बादी बचाई जा सकती है। इसी प्रकार शाक वाटिका से घर को फूल और बेलों से सुसज्जित बनाया जा सकता है, अदरक, मिर्च, धनिया, पोदीना जैसी चटनी की चीजें लगाकर हरे शाक-भाजी जरा सी जगह में लग सकती हैं। तोरई, लौकी, सेम आदि की बेलें तथा टमाटर, बैंगन, भिण्डी आदि के पौधे घर की शाक आवश्यकता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं ! सबसे बड़ा लोभ सृजनात्मक प्रवृत्ति का विकास है जो इन साधनों में विकसित होकर जीवन के हर कार्य में प्रयुक्त होती है। यह प्रगति का सर्वतोमुखी पथ प्रशस्त करती है।
साबुन, स्याहियाँ, सुगन्धित तेल, मोमबत्ती, तरह-तरह के खिलौने आदि बनाने से घर की आवश्यकता तो पूरी होती ही है, साथ ही उन्हें व्यवस्थित रूप से औद्योगिक स्तर पर किया जा सके तो उनसे आर्थिक लाभ हो सकता है। स्थानीय खपत और प्रचलन को ध्यान में रखते हुए ऐसे अन्य अनेक काम भी हो सकते हैं, जिन्हें प्रौढ़ पाठशालाओं में गृह उद्योग की तरह सम्मिलित किया जा सकता है।
कलाकारिता में संगीत का सबसे अग्रिम स्थान है। उसे भावनाओं को मोड़ने तथा स्वस्थ मनोरंजन के साधन रूप में भली प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है। इसमें महिलाओं की सहज रुचि भी होती है। संगीत शिक्षण यदि चल पड़े तो यह कला बहुत ही उपयोगी होगी।
इन पाठशालाओं का आरम्भ तो स्वल्प साधनों से भी हो सकता है पर प्रयत्न यह करना चाहिए कि उन्हें अधिक साधन सम्पन्न स्तर पर अधिक व्यवस्थित एवं अधिक आकर्षक बनाया जाय। उससे अधिक छात्राएँ अधिक लाभ उठा सकती हैं और प्रभावित भी होती है। यों साधनहीन व्यक्ति भी अपने निज के पुस्तकालय से भी छोटा कार्य आरम्भ कर सकते हैं और कुछ को कुछ लाभ तो दे ही सकते हैं पर साधन सम्पन्न व्यवस्था की बात ही दूसरी है। सिलाई की मशीनें, ऊन बुनाई की मशीन, टूट-फूट मरम्मत के उपकरण, संगीत शिक्षा के लिए बाजे आदि के कई-कई सैटों की आवश्यकता पड़ेगी ताकि मात्र तीन घण्टा खुलने वाली पाठशालाओं में अधिक छात्राओं का शिक्षण सम्भव हो सके। गृह-विज्ञान, धातृ कला, शिशुपालन, परिष्कृत पाक विद्या, परिवार की सुव्यवस्था तथा भावनात्मक सघनता, स्वास्थ्य रक्षा, परिचर्या, घरेलू चिकित्सा, सामान्य विज्ञान, जैसे अनेक विषयों की कामचलाऊ जानकारी इन पाठशालाओं में अनिवार्य रूप से पढ़ाई जानी है। उनके लिए पाठ्य पुस्तकें पाठशाला की लाइब्रेरी से मिलती रहें तो जिन्हें शिक्षा में आकर्षण नहीं है उन्हें पुस्तक खरीदने में अनख मानने की आवश्यकता न पड़ेगी। बैठने के लिए फर्श, आलमारी, अध्यापिका के लिए ऊँची चौकी, घड़ी, रजिस्टर आदि कितने ही छोटे-बड़े ऐसे साधन चाहिए जिनमें पैसा लगाने की आवश्यकता पड़ेगी। आरम्भ में किराये की या माँगे की इमारत से भी काम चल सकता है पर अन्ततः यदि अच्छा विद्यालय चलाना है तो उसके लिए अपनी इमारत भी ठीक है। यही इमारत तीसरे प्रहर प्रौढ़ विद्यालय के लिए, बाकी समय सत्संग आदि के लिए काम दे सकती है। इसे एक प्रकार से शाखा को सर्वतोमुखी गतिविधियों का केन्द्र ही कहना चाहिए।
शिक्षा आरम्भ में निःशुल्क ही रखी जानी चाहिए। किन्तु खर्च की जरूरत तो पड़ेगी ही। इसकी पूर्ति के लिए उदार व्यक्तियों से अर्थ सहायता ली जानी चाहिए। मासिक एवं विशेष सहायता देने के लिए भावनाशील व्यक्तियों का द्वार खटखटाया जाना चाहिए। इसके लिए ज्ञानघटों की स्थापना की जा सकती है, जिसमें नित्य कुछ पैसे या अन्न डाला जा सके और उसे संग्रह करके खर्च चलाया जा सके।
नारी शिक्षा के लिए स्थायी विद्यालयों के अतिरिक्त पत्राचार शिक्षा पद्धति का उपयोग भी किया जाना चाहिए। विदेशों में पत्र व्यवहार स्कूल बहुत हैं। विभिन्न विषयों की घर बैठे शिक्षा देने का यह उपयुक्त मार्ग है। जिन्हें स्कूल में नियत समय पर चलने वाली नियमित कक्षाओं में पहुँचने के लिए अवकाश नहीं है, वे उस पढ़ाई का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। इन कठिनाइयों का हल करने के लिए पत्र व्यवहार विद्यालयों की विधि व्यवस्था बनाई गई है। जो पाठ कक्षाओं में मौखिक रूप से पढ़ाए जाते हैं, उन्हें लिखकर छाप दिया जाता है और उन छात्रों के पास भेज दिया जाता है जो घर पर अपनी सुविधा का समय निकाल पर अमुक कक्षा का निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा करना चाहते हैं।
पाठ घर बैठे पहुँचते रहते हैं, छात्र अपनी सुविधा के समय उनका अध्ययन करते रहते हैं। समझ में न आई हुई बात विद्यार्थी अपने विषय के अध्यापक से पत्र लिखकर पूछ सकते हैं और उत्तर में समाधान पा सकते हैं। इस प्रकार अध्यापक लोग भी इन छात्रों से उनके अध्ययन क्रम को पत्र द्वारा ही जाँच करते हैं। पूछे गए प्रश्नों का उत्तर छात्रों को देना पड़ता है, फिर उनके सही या गलत होने की जानकारी छात्रों को मिल जाती है तथा आगे के परामर्श भी उन्हें मिल जाते हैं। यह पत्र व्यवहार पाठ्यक्रम स्कूलों में नियमित चलने वाली शिक्षाओं जितने कारगर तो नहीं हैं फिर भी जिन्हें भरती होने और विधिवत् पढ़ने की सुविधा नहीं है, उनके लिए यह पद्धति भी बहुत उपयोगी सिद्ध होती है।
परिवार संस्था का पुनर्निर्माण अपने आप में एक बहुत बड़ा शासन है। इसके साथ अनेकानेक समस्याएँ जुड़ी हुई हैं और वे सभी आज की स्थिति के अनुरूप समाधान चाहती हैं। यह प्रशिक्षण अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसे पूरा करने के लिए वह लिखना पड़ेगा जो चिर पुरातन होने के साथ-साथ चिर नवीन भी कहा जा सके। चिर पुरातन इसलिए कि ऋषि प्रणीत दिव्य दर्शन द्वारा इंगित दिशा में चलने में कहीं भटक न जाँय। चिर नवीन इसलिए कि हर युग के हर समय की अपनी स्थिति, अपनी उलझन और अपनी आवश्यकता होती है। उसे ध्यान में रखे बिना भूतकाल की किसी लकीर को पीट देने से कभी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अस्तु परिवार संस्था को सुविकसित बनाने के लिए भी पुरातन आदर्श और नवीन व्यवहार का समन्वय करते हुए प्रशिक्षण का ढाँचा खड़ा करना पड़ेगा। ऐसा पाठ्यक्रम स्वल्प संक्षिप्त सूत्र में भी हो तो सकता है, पर उसे बदली परिस्थितियों के कारण तर्क और तथ्य शैली से समझना और प्रतिकूलता को अनुकूलता बना सकने जितनी गहराई तक उतरना काफी कठिन काम है। इसलिए विस्तार में ही जाना पड़ेगा, कुछ अधिक ही लिखना, छापना पड़ेगा। परिवार निर्माण का प्रशिक्षण बहुत कोशिश करने पर भी संक्षिप्त न रह सकेगा। जो हो, उसके लिखने का प्रयत्न चल पड़ा है और वह क्रम देर तक चलता रहेगा। समस्या का सांगोपांग हल प्रस्तुत करने तक यह सृजन जारी ही रहने वाला है। लेखन और प्रकाशन की गति अभी साधनों के अभाव में मन्द है किन्तु आशा की जानी चाहिए कि उसमें तीव्रता आयेगी और समय की आवश्यकता को पूरा कर सकने में हम लोग महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करेंगे।
प्रस्तुत साहित्य को विशुद्ध पाठ्यक्रम माना जाय और उसे विचारशील वर्ग तक पहुँचने के लिए माध्यम की भूमिका निबाही जाय। इसके लिए आवश्यक है कि हर जगह चल-पुस्तकालय स्थापित हों। स्थिर पुस्तकालय इस आवश्यकता की पूर्ति बहुत हद तक नहीं कर सकते। पुस्तकें अपनी जगह बैठी रहती हैं। पढ़ने वाले गिने-चुने ऐसे लोग जाते हैं जिनके पास फुरसत होती है और साथ ही पढ़ने का शौक भी। इन शौकीन पढ़क्कू लोगों में अधिकांश लोग उथली, मनोरंजक, उत्तेजक चीजें पढ़ते हैं। आमतौर से उन्हीं की माँग रहती है। किसी भी पुस्तकालय अधिकारी से पूछा जा सकता है कि आप के पाठक क्या पढ़ते और क्या माँगते हैं? वे लज्जा से अपना सिर झुकाये हुए निरुत्तर मिलेंगे। ऐसे पुस्तकालय कम हैं जिनमें प्रेरणाप्रद, आदर्शवादी साहित्य माँगने वालों की बहुलता रहती हो। अच्छी पुस्तकें तो जहाँ की तहाँ जड़वत् बैठी रहती हैं। निजी रूप से उन्हें खरीद कर पढ़ने वाले तो बिरले ही होते हैं, इसलिए प्रकाशक उस हानिकारक क्षेत्र में हाथ भी नहीं डालते और वही छापते हैं जिसकी माँग होती है।
साहित्य के माध्यम से लोगों को समस्याओं के हल सुझाना आसान है, यदि वैसा साहित्य हो तथा लोग उसे पढ़ें। साहित्य के अभाव की पूर्ति तो मिशनरी स्तर पर काफी तंगी से की जा रही है। युगान्तर चेतना के केन्द्रीय संगठन की ओर से ऐसे साहित्य के लेखन और प्रकाशन की व्यवस्था बनाई गयी है जिसे व्यवसायिक लेखक और प्रकाशक आवश्यक मानकर भी घाटे के भय से हाथ नहीं लगाते। अगले दिनों उसे और भी अधिक तीव्र किया जाना है। किन्तु यह तो समाधान का केवल एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष भी इससे कम महत्त्व का नहीं है और उसे भी पूरा करना होगा। पहला कार्य तो युग की माँग को सुन-समझ सकने वाले, उस कार्य में अपने आप को खपा देने के लिए कृत संकल्प गिने-चुने व्यक्ति, थोड़े से भावनाशील धन सम्पन्न व्यक्तियों के सहयोग से कर सकते हैं। किन्तु दूसरा कार्य ऐसा है जिसके लिए हर क्षेत्र में तथा हर स्तर पर प्रयास करने होंगे। वह कार्य है प्रशिक्षित साहित्य को घर-घर, जन-जन तक पहुँचा देना। साहित्य तैयार कर लेने भर से यह आशा नहीं कि जानी चाहिए कि लोग सब उसे खोजकर, खरीदकर, माँगकर पढ़ सकेंगे।
ऐसी दशा में चल-पुस्तकालय ही एक मात्र वह तरीका है जिसे अपनाकर घर-घर पहुँचा जा सकता है और जहाँ भी थोड़ी परिष्कृत अभिरुचि हो वहाँ घर बैठे उसे बढ़ावा दिया जा सकता है। अपने देश में एक तो वैसे ही शिक्षा की कमी है, जो पढ़े हैं उनमें भी अध्ययनशील कम हैं। जो पढ़ते हैं, वे बेतुका पढ़ते हैं। ऐसी दशा में शिक्षितों की सुरुचि जगाना पहला काम है अन्यथा लोकमंगल के लिए प्रस्तुत किया गया साहित्य भी ज्यों का त्यों सड़ता रहेगा और उसका कोई उत्साहवर्धक उपयोग न हो सकेगा।
हम लोग मिल-जुलकर काम करें तो पुस्तकालय के रूप में महिला जागरण अभियान के अन्तर्गत परिवार निर्माण की प्रशिक्षण प्रक्रिया आसानी से चल सकती है। यह विषय विशेषतया महिलाओं का है अस्तु शिक्षित स्त्रियों की सूची बनाना, उन तक पुस्तकें पहुँचाना और वापिस लाना चल पुस्तकालय का यही स्वरूप हो सकता है। इसके लिए एक सेवा-भावी एवं स्वयं-सेविका महिला की आवश्यकता पड़ेगी जो इस कार्य को संकोच और आलस्य छोड़कर उसे उत्साहपूर्वक सम्पन्न करती रहे। पुस्तकालय एक जगह रहे। सदस्याएँ साप्ताहिक सत्संग वाले दिन अपनी पसन्दगी की पुस्तकें स्वयं ले जाया करें और पिछली वापिस कर जाया करें। घर पर तो उनके जाना है जो दूर रहती हैं, सदस्याएँ नहीं हैं एवं परिस्थितिवश आने-जाने में विवश हैं।
कन्या पाठशालाओं की अध्यापिकाओं, बड़ी आयु छात्राओं को यह पढ़ाने का क्रम बनाया जा सकता है। खोज-बीन की जाय तो अपने नगर में ही ढेरों शिक्षित महिलाएँ ऐसी मिल जाएँगी जिनको रुचि तो है पर काम की कोई चीज सीखती नहीं। इनकी आवश्यकता पूरी करने में अपनी पुस्तकालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यों इसे पढ़ने में प्रतिबन्ध तो किसी पर भी नहीं है, पुरुष भी उनसे उतने ही लाभान्वित हो सकते हैं जितनी महिलाएँ। परिवार निर्माण में महिलाओं की भूमिका प्रधान तो रहती है पर सहयोग तो पुरुष का भी रहना ही चाहिए, इस दृष्टि में जो महिलाएँ इस साहित्य को पढ़ें, वे घर की महिलाओं को ही नहीं पुरुषों को भी पढ़ने का आग्रह किया करें, तो प्रशिक्षण की सर्वतोमुखी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
महिला जागरण अभियान के अन्तर्गत परिवार निर्माण साहित्य का प्रकाशन एक प्रकार से अधिकारी प्राध्यापक द्वारा खोजपूर्ण चिन्तन, मन्थन और अनुभवपूर्ण पाठ्यक्रम कहा जा सकता है। पत्राचार विद्यालय के छात्रों की तरह लाखों, करोड़ों नर-नारियों को नियमित छात्र मानकर उनकी पाठन व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इसका एक मात्र स्वरूप चल पुस्तकालय ही है। पत्र व्यवहार विद्यालय में हर छात्र को तगड़ी फीस देनी पड़ती है पर हमें अपने सभी छात्रों तक यह प्रशिक्षण निःशुल्क ही पहुँचाया जाना है। यह कार्य स्वयं सेवक स्तर पर ही हो सकता है। अपनी शाखाएँ इस कार्य को आसानी से पूरा कर सकती हैं। प्रत्येक सदस्य एवं सहयोगी अपने-अपने सम्पर्क क्षेत्र में कुछ समय निकाल कर झोला पुस्तकालय चलाया करे और देने तथा वापिस लाने का कार्य स्वयं किया करे। वह व्यक्तिगत कार्यक्रम सामूहिक चल पुस्तकालय इसी प्रकार बनेगा कि शाखा कार्यालय में पुस्तकालय रहे। हर सदस्य अपने सम्पर्क क्षेत्र की महिलाओं और पुरुषों से सम्पर्क स्थापित करके यह साहित्य पढ़ने के लिए सहमत करें। इन सहमत लोगों के घरों पर पुस्तकें नियमित रूप में पहुँचती और वापिस आती रहें तो समझना चाहिए कि एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पत्राचार विद्यालय चल पड़ा, और इस प्रशिक्षण में सहस्रों पाठकों को, छात्रों को, अग्रगामी सत्परिणाम उपलब्ध होने की सम्भावना बन गई।
ये सभी कार्यक्रम इस ढंग के हैं जिन्हें कोई सामान्य स्थिति का व्यक्ति भी आसानी से चालू कर सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि उसके महत्त्व और उसके प्रति अपने कर्तव्य को अनुभव किया जा सके। हर स्थान पर महिला जागरण शाखाओं अथवा इसके समर्थकों को इस दिशा में अविलम्ब प्रयास प्रारम्भ कर दिये जाने चाहिए। छोटे से छोटे प्रारम्भ से लेकर बड़े से बड़े अभियान का रूप इसे अपनी सामर्थ्य और परिस्थितियों के अनुसार दिया जा सकता है। यथा साध्य यह प्रयास हर स्थान पर तुरन्त प्रारम्भ कर दिये जावेंगे, ऐसी आशा की जाती है।