परम पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मीकृत जीवनचर्या
पूज्य गुरुदेव की जीवनचर्या का हर मोड़ वसन्त पर्व से घूमा है । इस शुभ मुहुर्त में उनने एक के बाद दूसरा अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है । एक-एक सीढ़ी पार करते हुए, मंजिलों पर मंजिलें पार करते हुए, मोर्चे पर मोर्चा फतह करते हुए वे उस लक्ष्य तक पहुँचे हैं जिसे हिमालय के सुमेरु शिखर जितना ऊँचा कहा जा सकता है ।
उनकी बहुमुखी प्रतिभा और क्रियाशीलता को वटवृक्ष की तरह सुविकसित और सुविस्तृत देखकर उसका आधारभूत कारण जानना हो तो उसे साधनाबीज का चमत्कार कहा जा सकता है । हाड़-माँस की दृष्टि से सर्वसाधारण की तरह होते हुए भी उनकी मौलिक विशेषता 'साधना' है । जिस दिन को वे अपना आध्यात्मिक जन्मदिवस मानते हैं वह साधना से आरम्भ होता है । आज से ६० वर्ष पूर्व वे पन्द्रह वर्ष के थे । चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों का संकल्प लिया था । मात्र जौ की रोटी और छाछ के सहारे उसे पूर्ण करने के उपरान्त ही लोक सेवा के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश किया है । इसी आधार पर उनने वह बल विक्रम एकत्रित किया जिसके आधार पर अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को कहीं से कहीं पहुँचा सके । वातावरण को गरम करके परिस्थितियों में तूफानी परिवर्तन सम्भव कर सके । उनके प्रत्यक्ष क्रियाकलापों में साहित्य-सृजन, संगठन, लोकशिक्षण प्रमुख हैं । नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रांति की, लोकमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की बहुमुखी रचनात्मक और सुधारात्मक प्रवृत्तियों में वे संलग्न रहे हैं । उनका दृश्यमान पुरुषार्थ तो इतना ही है पर यदि कोई इस सामर्थ्य-संचय का कारण खोजना चाहे तो थोड़ा अधिक गहराई में उतरना होगा और उपासना, साधना, आराधना की दृष्टि से की गई ऋषिकल्प तपश्चर्या का पर्यवेक्षण करना होगा । निजी जीवन में वे न केवल गायत्री उपासना में अनन्य श्रद्धा के साथ संलग्न रहे हैं वरन् उस बीजारोपण को फलित करने के लिए आवश्यक खाद-पानी देने में भी तत्परता बरतते रहे हैं । श्रम, समय, मनोयोग और साधना सम्पदा को पूरी तरह लोकमंगल में समर्पित करने वाली इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम वाली जीवन साधना के कारण ही उनकी साधना चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न कर सकी है । निराश वे रहते हैं जो माला धुमाने और धूपबत्ती जलाने भर से ऋद्धि-सिद्धियों के बाल-मनोरथ सजोये रहते हैं । उपासना और साधना के बल पर ही उनने वह वर्चस्व अजित किया है जिसके सहारे वे समय को बदलने, प्रवाह को उलटने का, दधीचि, भगीरथ और परशुराम जैसा पराक्रम करते दृष्टिगोचर होते हैं ।
इस सन्दर्भ में अब एक नया मोड़ आता है । आरम्भिक जीवन में चौबीस महापुरश्चरणों द्वारा अर्जित वर्चस्व के सहारे इतने लम्बे समय तक गाड़ी चलती रही है । ७५ वर्ष की आयु में ७५० वर्ष में सम्भव हो सकने वाले कार्यों का विवरण जानने वाले अब चकित होते हैं तो उनका समाधान एक ही आधार पर होता है कि चौबीस वर्ष की साधनात्मक कमाई इतने चमत्कार दिखा सकी । उस पूँजी का खर्च असाधारण रूप से हुआ है । लोककल्याण के लिए भी, प्रज्ञा परिजनों को प्राण-चेतना प्रदान करने के लिए भी उसी संचित पूँजी के सहारे काम चला है । जमा कम हुआ और खर्च अधिक रहा । ऐसी दशा में कोष का चुकते जाना स्वाभाविक है । जो बचा है वह कामचलाऊ भर है । जबकि समय की नई जिम्मेदारी इतनी बड़ी आ गई है कि उसके लिए अपेक्षाकृत सैकड़ों गुनी अधिक सामर्थ्य चाहिए । उसे नये सिरे से उपार्जित करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं ।
युग संधि की इस विषम वेला में जटिलताएँ और विभीषिकाएँ क्रमशः अधिक सघन होती जा रही हैं । व्यक्ति और समाज दोनों ही अपने-अपने ढंग की विपत्तियों के दलदल में क्रमशः अधिक गहराई तक धँसते जा रहे हैं । मानवी दुष्कृतों ने अगणित समस्याएँ ऐसी खड़ी कर दी हैं जो सुलझाए सुलझ नहीं रही हैं । दुर्मति ने दुर्गति को चरम सीमा तक पहुँचाया है । जनसंख्या विस्फोट, भूगर्भीय सम्पदा का समापन, प्रदूषण, विकिरण, अणुयुद्ध जैसे मनुष्य कृत अनाचारों ने प्रकृति को रुष्ट और क्षुब्ध कर दिया है फलतः दैवी प्रकोपों की शृङ्खला बाढ़, भूकम्प, दुर्भिक्ष, महामारी तक सीमित न रहकर ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने और हिमयुग लौट पड़ने जैसी चुनौतियाँ दे रही हैं । इनके निराकरण में बौद्धिक और आर्थिक साधन काम नहीं दे रहे हैं । राजनेता भी अपने आपको असहाय अनुभव कर रहे हैं । अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करने वाली ज्योति अध्यात्म क्षेत्र में ही उत्पन्न होने की आशा शेष रह गई है ।
समय को इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति के उच्चस्तरीय उत्पादन के लिए सशक्त प्रयत्नों की आवश्यकता है । भूतकाल में भी ऐसे विषम अवसरों पर उसी उपाय का आश्रय लिया गया है । दुर्दान्त दैत्य वृत्रासुर द्वारा देवताओं को परास्त कर दिये जाने पर सर्वत्र हाहाकार मचा था । उसे निरस्त करने के लिए जिस वज्र से काम बन सकता था उसके लिए किसी तपस्वी की हड्डियाँ चाहिए थीं । दधीचि ने बिना हिचके उसका प्रबन्ध कर दिया । घोर दुर्भिक्ष के दिनों में पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसती हुई दुनिया को जल सुविधा प्रदान करने के लिए गंगावतण की आवश्यकता पड़ी । वह कार्य घोर तपश्चर्या के बिना और किसी उपाय से बन नहीं रहा था । राजकुमार भगीरथ ने आगे बढ़कर वह उत्तरदायित्व सँभाला और तरणतारिणी गंगा स्वर्ग से धरती पर उतर सकी ।
प्रज्ञा परिवार के द्वारा सामूहिक प्रज्ञा पुरश्चरण और प्रज्ञा अभियान की विविध प्रक्रिया को उसी स्तर का माना जा सकता है जैसा कि द्वापर में ऋषि-रक्त के संचय से घड़ा भरने पर सीताजी जन्मी और असुरता का वातावरण हटने की व्यवस्था बनी । इस प्रक्रिया को अभी और भी अधिक तीव्र करने की आवश्यकता है । तीव्रता उत्पन्न करने के लिए अतिरिक्त शक्ति चाहिए । इन दिनों उसी का उत्पादन सबसे बड़ा काम है । समय की माँग को ध्यान में रखते हुए पू० गुरुदेव का नया कदम इसी स्तर का उठा है जिससे प्रजा परिवार को रीछ-वानरों और ग्वाल-बालों जैसी भूमिका निभा सकने के लिए आवश्यक प्राण-चेतना उपलब्ध हो सके । अदृश्य जगत में संव्याप्त विषाक्त वातावरण बदल सके । ग्रीष्म की प्रचण्डता से जलते धरातल की स्थिति बदलने के लिए बादलों की मूसलाधार वर्षा ही काम पाती है । उसी के द्वारा जल-जंगल एक होने और सर्वत्र मखमली चादर जैसी हरीतिमा उगने का माहौल बनता है ।
ऐसे अनेक कारणों को ध्यान में रखते हुए पू० गुरुदेव की भावी जीवनचर्या सूक्ष्मीकरण स्तर की बनी है । प्रत्यक्ष जनसम्पर्क पर अब प्रतिबन्ध लगा लिया है । अधिकांश समय एकाकी रहेंगे और उसमें साधनात्मक उपक्रम की ही प्रधानता रहेगी । बिखराव को रोकना, नये सिरे से नयी शक्ति अर्जित करने की एक जानी-मानी प्रक्रिया है । आतिशी शीशे द्वारा सूर्य किरणें एक केन्द्र बिन्दु पर इकट्ठी करने से देखते-देखते आग जलने लगती है । बारूद को बिखेरकर जला देना एक बात है और बन्दूक की नली में बन्द कर निशाना साधना दूसरी । भाप ऐसे ही उड़ती फिरती है पर उसे यदि प्रतिबन्धित कर दिया जाय तो रेल का इंजन दौड़ने लगता है । यह केन्द्रीकरण की प्रक्रिया ही अध्यात्म चमत्कार उत्पन्न करती है । मौन द्वारा वाणी का और ब्रह्मचर्य द्वारा ओजस् का बिखराव रोककर उसे उद्देश्य-विशेष में केन्द्रीभूत किया जाता है । ऋषियों ने ऐसी ही तपश्चर्याओं द्वारा भूतकाल में अनेकानेक सिद्धियाँ और विभूतियाँ अर्जित करने में सफलताएँ प्राप्त की हैं । अब भी वही सनातन राजमार्ग अध्यात्मबल एकत्रित करने का है । पू.गुरुदेव ने उसी के निमित्त नयी जीवन चर्या अपनाई है । उन्हें वातावरण बदलने और प्रज्ञा परिजनों को हनुमान, अंगद, अर्जुन, विवेकानन्द, शिवाजी, चन्द्रगुप्त जैसी प्रेरणा देने के लिए जो सामर्थ्य चाहिए उसे इसी आधार पर उपार्जित किया जा रहा है ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति का प्रत्यक्ष श्रेय तो सत्याग्रहियों को ही मिलता है पर उसकी परोक्ष भूमिका बनाने में योगिराज श्री अरविन्द और महर्षि रमण जैसे तपस्वियों की एकान्त साधना का भी कम महत्त्व नहीं रहा है । उस प्रभाव से वातावरण गरम हुआ और एक साथ अनेक महामानव इस देश में तूफानी चक्रवात की तरह उभरे और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होते हुए भी आजादी मिलने का सुयोग बना । इसी प्रकार का अदृश्य वातावरण इन दिनों आवश्यक है और उसके लिए अधिक उच्चस्तरीय तप करना अभीष्ट है ।
पू० गुरुदेव का जनसम्पर्क कट जाने से स्वभावत: प्रज्ञा परिजनों को हैरानी और असुविधा होगी । कइयों को वियोगजन्य व्यथा भी सहनी होगी । आत्मभाव का विछोह-प्रतिबन्ध में परिणत होना स्वभावत: कष्टकर होता है । पर इसे इसलिए सहा जाना चाहिए कि उसके फलस्वरूप जो उपलब्धियाँ उत्पन्न होंगी उनसे संसार प्रभाषित होगा और स्वयं प्रज्ञा परिजन भी अधिक लाभ उठा सकेंगे । वार्तालाप, सत्संग, सान्निध्य का अपना आनन्द है पर इसमें समय न लगाकर भी शक्ति का आदान-प्रदान भली प्रकार चल सकता है । भक्त और भगवान के बीच ही नहीं, सघन आत्मीयता रहने पर प्रियजनों के बीच भी आदान-प्रदान निर्बाध रूप से चलता रह सकता है । परदेश में बसने वाले कमाऊ लोग दूर रहने वाले परिवार को समुचित स्नेह दे सकते हैं और उनके निर्वाह तथा अभ्युदय का साधन भी भेजते रह सकते हैं । गुरुदेव को अपने मार्गदर्शक के अनुदान दूर रहते हुए भी निरन्तर उपलब्ध होते रहे हैं । अस्तु प्रज्ञा परिजनों का यह सोचना उचित नहीं कि प्रत्यक्ष सम्बन्ध कट जाने से उन्हें निजी रूप में या मिशन को सार्वजनिक रूप में किसी प्रकार की क्षति पहुँचेगी । सूक्ष्म की स्थूल से सामर्थ्य कहीं अधिक बड़ी है । अदृश्य प्राण की महत्ता दृश्य शरीर से कहीं अधिक है । उच्चरित बैखरी वाणी की तुलना में कान से न सुनी जाने वाली मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियों की सशक्तता कहीं अधिक है । नये आधार अपनाकर गुरुदेव अबकी अपेक्षा अपनी सूक्ष्मीकरण जीवन चर्या के सहारे और भी अधिक सेवा सहायता कर सकेंगे, यह निश्चित है ।
महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन, अणु अनुसंधान की अवधि में नितांत एकाकी जीवनचर्या अपनाये रहे । चिन्तन में विक्षेप न पड़े इसलिए उनके विशाल कक्ष में उनकी इच्छा के बिना किसी को भी प्रवेश की आज्ञा नहीं थी । जब वे जिससे मिलना चाहते थे उसी से मिलते थे अन्यथा अन्य व्यक्ति एक स्थान पर विजिटिंग कार्ड और मिलने का प्रयोजन नोट करके महीनों अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे । बकवास, गपबाजी, यारबाशी और मनोरंजन के अभ्यस्त लोगों को ऐसे प्रतिबन्ध अटपटे लग सकते हैं । पर जो एकान्त, एकाग्रता और केन्द्रीकरण-सूक्ष्मीकरण की सामर्थ्य से परिचित हैं उन्हें इस कष्टसाध्य नीरस समझी जाने वाली प्रक्रिया में असंख्य गुना लाभ दीखता है ।
पू० गुरुदेव के नये निर्णय की आधी-अधूरी जानकारी से कइयों को असमंजस होता है । कुछ इसे बुढ़ापे की थकान को देखते हुए विश्राम-वैराग्य सोचते हैं । कुछ इसे पलायन का नाम देते हैं और कुछ इस निर्णय से लोकहित में व्यवधान पड़ने की कल्पना करते हैं । यह सभी बातें अधूरी जानकारी पर आधारित होने के कारण असंगत हैं । कई सदा के लिए हिमालय चले जाने या समाधि लेने जैसे अत्युक्ति भरे मनगढ़न्त अनुमान लगाते और अफवाहें भी फैलाते सुने गये हैं । विज्ञ समुदाय को इन भ्रांतियों से बचना चाहिए ।
पू० गुरुदेव न बूढ़े हुए हैं, न थके हैं । अभी-अभी वे एक दुर्दान्त डकैत के आक्रमण को निरस्त कर चुके हैं । उनके लौह-शरीर पर न रिवाल्वर की गोलियाँ चुभीं और न तेज धार वाला छुरा गहरी काट-फाँस कर सका । उलटे हाथों-हाथ टाँग टूटने और जेल जाने का प्रतिफल मिल गया । शरीर पर झुर्री पड़ना, बाल सफेद होना एक बात है और बूढ़ा होना दूसरी । फिर बूढ़ा होने पर भी वे उस अभ्यास को कैसे छोड़ेंगे जिसमें हर साँस लोकहित के लिए चली और हर धड़कन प्रबल पुरुषार्थ के साथ जुड़ी है । बूढ़े होकर रिटायर होने की तरह यह बात भी गलत है कि वे पलायन कर रहे हैं । वस्तुत: अगले दिनों उनका पराक्रम और भी अधिक प्रचण्ड होगा । लट्टू जब पूरी तेजी से घूमता है तब स्थिर जैसा लगता है । तूफान के आगे-आगे सन्नाटा चलता है । सिंह जब शिकार पर टूटता है तब कुछ कदम पीछे हटता और अँगड़ाई लेता है । महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए महामानवों को समय-समय पर एकान्तवास करना पड़ता है । विषधर से लड़ने पर नेवला नई स्फूर्ति प्राप्त करने के लिए, कोई जड़ी-बूटी खाने के और लेटने के लिए पीछे लौटता है और कुछ क्षण बाद फिर फुसकारते हुए साँप से जा भिड़ता है । पू० गुरुदेव का एकान्तवास उसी स्तर का है ।
वे हिमालय रहेंगे या शान्तिकुञ्ज ? इस स्थान परिवर्तन का कुछ भी महत्त्व नहीं । व्यक्ति कहीं भी रहे धरती भी वही रहेगी और काया भी वैसी ही, इससे क्या फर्क पड़ता है ? महत्ता क्रिया की है । आत्मविज्ञानी जानते हैं कि मानवी सत्ता के स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन शरीर हैं । उसी प्रकार प्याज के छिलके या केले की परत की तरह पाँच कोश भी हैं । अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश । यह भी अदृश्य शरीर हैं जिन्हें जागृत कर लेने पर मनुष्य एक ही समय में विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ निभा सकता है । छाया पुरुष सिद्धि, भैरव सिद्धि आदि में यही होता है कि आत्मसत्ता को कई गुना कर लिया जाता है । सुकरात ने 'डैमिन' नाम की एक ऐसी ही आत्मसत्ता विकसित कर रखी थी जो उसके निरन्तर साथ रहती थी । विक्रमादित्य के पाँच वीरभद्र प्रख्यात हैं । अलादीन के चिराग से सम्बन्धित जिन 'जिन्नों' की कथा आती है, वह यदि सच रही होगी तो वे 'जिन्न' और कुछ नहीं, प्रयोक्ता के अपने अदृश्य शरीर ही रहे होंगे ।
पू० गुरुदेव ने पिछले ७५ वर्षों में इतने काम किये हैं जितने सामान्य जन ७५० वर्ष से कम में नहीं कर सकते । इनने एक समय में अनेक तरह के कार्य साथ-साथ सम्पन्न किये हैं । लोग इसे उनके सूक्ष्म शरीरों की जागृति एवं सक्रियता कहते हैं । हो सकता है कि उनकी सूक्ष्मीकरण एकान्त प्रधान जीवनचर्या में कोई ऐसा ही प्रावधान हो जिससे शान्तिकुञ्ज या हिमालय ही नहीं, प्रज्ञा परिवार के वरिष्ठों तक और संसार भर के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों तक उनकी ऊर्जा का प्रभाव परिलक्षित होता रहे ।
जो हो, पू० गुरुदेव का अभिनव निर्धारण सूक्ष्मीकरण ऐसा है जिस पर किसी को भी व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है । वरन् हममें से प्रत्येक को गौरवान्वित होना चाहिए कि ऋषि-परम्परा अभी जीवित ही नहीं, सक्रिय भी है और हम सब उनकी छत्रछाया में महामानवों जैसी भूमिका निभा सकने योग्य समर्थता का सुयोग उपलब्ध करने जा रहे हैं ।
—भगवती देवी शर्मा
युगान्तर चेतना प्रेस; शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार ।