41.    तीर्थ प्रक्रिया प्राणवान बने
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


तीर्थ प्रक्रिया का चिर पुरातन ऋषि प्रणीत काय कलेवर अभी भी उसी प्रकार है जैसा कि प्राचीन समय में था। पहले लोग पैदल चलते थे। अब द्रुतगामी वाहनों ने यात्रा को सुगम बना दिया है। बहिरंग में दृष्टिगोचर स्वरूप में वृद्धि ही हुई है, कमी तनिक भी नहीं। लगता है धार्मिकता, आस्तिकता बढ़ी है, पर बात यह है नहीं। बाहर से सब कुछ वैसा दीखते रहने पर, तीर्थयात्रियों की संख्या बढ़ते चले जाने पर भी उसमें प्राण कहीं नजर नहीं आता। कठिनाइयों से भरी पूरी यात्रा सुविधा पूर्ण हो गयी है। सभी जगह पैकेज टूर चलते हैं। सरकार ने भी एल. टी. सी. की सुविधा प्रदान करके पिकनिक कम तीर्थयात्रा को अधिक महत्त्व दिया है। समय और श्रम ही नहीं, पैसे की भी बचत हुई है। फिर भी एक प्रश्न यथावत् रह जाता है क्या इससे उस उद्देश्य की पूर्ति हुई जो ऋषियों ने कभी विचारा था? जिस आधार पर यह प्रचलन चला था?

तीर्थों को सुन्दर एवं आकर्षक बनाने में उन लोगों ने अधिक उत्साह दिखाया है जिन्हें पुण्यफल, देव अनुग्रह एवं यश कामना के लिए तीर्थ में देवालय स्थापित करने, धर्मशाला बनाने की अधिक उपयोगिता दीखती है। यों मन्दिर आदि बन तो कहीं भी सकते हैं, पर उनकी जानकारी स्थानीय लोगों को ही रहती है और वे थोड़ी ही संख्या में होते हैं। तीर्थों में असंख्य लोग दूर-दूर से आते रहते हैं, उन्हें देव दर्शन के अतिरिक्त निर्माता की जानकारी भी मिलती है। धर्मशालाओं में ठहरने वाले भी निर्माताओं की स्मृति रखते हैं, उन्हें धर्मपरायण मानते हैं। इस प्रकार यश लाभ का सिलसिला चिरकाल तक चलता रहता है। साधन सम्पन्न लोगों के लिए पुण्य और यश का समन्वय, यह सहज आकर्षण उत्पन्न करता है कि वे अपनी स्मृति के लिए तीर्थ स्थानों को अपनी वृत्ति प्रस्तुत करने के लिए चुने। इस आधार पर तीर्थों में संख्या और भव्यता की दृष्टि से पहले की अपेक्षा अब अधिक दर्शनीय स्थान बन गये हैं। सरकार मन्दिर तो नहीं बनाती, पर पर्यटकों को आकर्षित करने वाले निर्माण की वह कुछ न कुछ व्यवस्था करती ही रहती है। यात्री टैक्स वसूल करके स्थानीय निकाय भी इन स्थानों की शोभा बढ़ाने के लिए यथा सम्भव कुछ सोचते और करते रहते हैं। व्यवसायी वर्ग अपने लाभ के लिए कुछ ऐसे प्रयत्न करता है, जिससे दर्शकों का आकर्षण बढ़े और खरीद के लिए उत्साह बढ़े। मनोरंजन के साधन बढ़ने से पर्यटन में रुचि रखने वाली प्रवृत्ति को तीर्थयात्रा में दुहरा लाभ दीखा है। ऊब मिटाने, मन हल्का करने, नवीनता का आनन्द लेने के लिए श्रमजीवियों से लेकर नव दम्पत्तियों तक को परिभ्रमण की उत्सुकता होती है और उसके लिए अपने देश में तीर्थ स्थान ही उपयुक्त पर्यटन केन्द्रों की आवश्यकता पूरी करते हैं। गर्मी की छुट्टियों में बच्चों का कहीं बाहर चलने का आग्रह रहता है। अभिभावकों को भी अपेक्षाकृत उन दिनों सुविधा रहती है। फलतः तीर्थ प्रवास और भी अधिक बढ़ जाता है।

ऐसे-ऐसे अनेकों कारण मिल जाने से तीर्थ यात्रा के लिए पहुँचने वाली जनसंख्या में दिन-दिन बढ़ोत्तरी ही होती जाती है। भव्यता और सुविधा की दृष्टि से भी पहले की अपेक्षा उनका आकर्षण और विस्तार क्रमशः बढ़ता ही चला गया है। इसे बाह्य कलेवर का विस्तार कह सकते हैं। तीर्थ यात्रा को निकलने वाली ट्रेन और बसें हर साल बढ़ ही जाती है। इससे यात्रियों में और भी अधिक उत्साह बढ़ता हैं। उनमें चलने के लिए महिलाओं, वृद्धों और बालकों का आग्रह और भी अधिक बढ़ जाता है। इसमें पड़ने वाले खर्चें को भी अच्छी या कमजोर आर्थिक स्थिति के लोग किसी प्रकार वहन कर ही लेते हैं। पर्यटन का आकर्षण और पुण्य प्रलोभन मिलकर तीर्थयात्रा का उभयपक्षीय परिपोषण करते हैं। फलतः धर्म, श्रद्धा का अनुपात बढ़ते हुए बुद्धिवाद ने जिस तेजी से घटाया है, उस घटोत्तरी का तीर्थ प्रवास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

विचारणीय यह है कि तीर्थों में पहुँचने वाली जनता क्या उनसे वैसा प्रतिफल प्राप्त करती है, जैसी कि अपेक्षा की जानी चाहिए? पर्यवेक्षण करने पर उत्तर निराशा जनक ही मिलता है। भिक्षा व्यवसायी वर्ग के लोग जिस प्रकार यात्रियों के पीछे लगते हैं और विनोद के लिए कहीं चलने की स्थिति पा सकना दूभर कर देते हैं, उसे देखते हुए विनोद का आकर्षण प्रायः चला ही जाता है। सज्जन प्रकृति के अनुपयुक्त दबाव और थोड़े से विनोद के क्षणों को बुरी तरह नष्ट होने पर खीझने लगते हैं, फलतः लोग झल्लाते हुए ही लौटते हैं और भविष्य में तीर्थों में न जाकर कहीं अन्यत्र जाया करने की बात सोचते हैं।

बुद्धिवाद की कसौटी पर धर्मतत्त्व का प्रचलित स्वरूप लोकोपयोगी दीखता है। घटती हुई श्रद्धा पर धर्म-व्यवसायी कोढ़ में खाज की तरह अपने कुचक्रों से वहाँ पहुँचने वालों को विक्षुब्ध करते हैं। इस परिस्थिति में देखना यह है कि तीर्थ स्थापना के जिस महान उद्देश्य को लेकर मनीषियों ने प्रबल प्रतिपादन और सफल प्रचलन के रूप में जो महान प्रयास किया था, उसकी पूर्ति हो रही है या नहीं? पर्यवेक्षण करने पर निराशाजनक उत्तर ही सामने आता है। यह दुःख का विषय है। होना यह चाहिए था कि तीर्थों का आकर्षण और आवागमन का विस्तार होने का समुचित लाभ पहुँचने वालों को मिलता। लोग धर्म श्रद्धा को सुविकसित करते, उसे व्यवहार में उतारते और व्यक्तित्व की दृष्टि से अधिक प्रखर परिष्कृत बनते। उस उत्कर्ष का लाभ सामाजिक सुव्यवस्था, समृद्धि एवं प्रगतिशीलता के रूप में सामने आने पर प्रतीत होता है कि तीर्थयात्रा की प्रतिक्रिया में उपरोक्त लाभों में से एक ही उपलब्ध हो रहा है। इन स्थानों में पर्यटन केन्द्रों जैसा आकर्षण तो क्रमशः बढ़ता जाता है, पर चिन्ता की बात यह है कि धर्म धारणा को जीवंत रखने के लिए तत्वदर्शियों ने जिस महान परम्परा को जन्म दिया था और उसे अपनाने के लिए जन-जन को सहमत किया था, उस लक्ष्य का क्या हुआ? यदि उसकी पूर्ति नहीं होती तो इस बढ़े हुए कलेवर को, निष्प्राण विस्तार को ढकोसला ही कहा जायेगा। निरुद्देश्य परिभ्रमण को आवारागर्दी कहा जाता है। श्रद्धा मानवी अन्तरात्मा का परिपोषण करने वाली कामधेनु है। धर्म कृत्यों द्वारा उसका परिपोषण और अभिवर्द्धन होना चाहिए। तीर्थों से यही अपेक्षा की गई थी। बहुत समय तक उसकी उत्साहवर्धक पूर्ति भी हुई, पर अब यदि उस प्रकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है तो उसकी प्रतिक्रिया खेद जनक ही होगी। पर्यटन केन्द्रों के रूप में यदि तीर्थों का अस्तित्व बन भी गया, तो विनोद के अन्यान्य साधनों में ही उनकी गणना भी होने लगेगी। संस्कृति के परिशोधन के लिए जो प्रकाश स्तम्भ खड़े किये गए थे, यदि उनका प्रकाश बुझ गया तो फिर उसकी उपयोगिता ही क्या रह जायेगी। समुद्रों में खड़े प्रकाश स्तम्भों की ज्योति बुझ जाय तो वे उधर से निकलने वाले जहाजों को बचाने की अपेक्षा उलटे टकराने और डुबाने वाले संकट बन सकते हैं।

तीर्थ सज्जा पर सरकारी, गैर सरकारी तत्वों का ध्यान है किन्तु उनके प्राणतत्त्व को बुझने न देने, मरने न देने पर किसी का ध्यान नहीं है। धर्म के नाम पर जो स्टाल इन पुनीत स्थानों में लगे हुए हैं, उन पर बिकने वाला माल आत्मिक स्वास्थ्य को बढ़ाने में नहीं गिराने में ही सहायक हो रहा है। भावुक जनों की धर्म-श्रद्धा का शोषण जिन अन्ध विश्वासों के सहारे होता देखा जाता है, उससे विचारशीलता को पीड़ा ही होती है। सड़ा हुआ अमृत भी विष हो जाता है। मृत शरीर फूलता तो तेजी से है, पर उस विस्तार पर किसी को प्रसन्नता नहीं होती। तीर्थों की आत्मा निकल गई और काया फूलने लगी तो उसमें प्रसन्नता की नहीं व्यथा अनुभव करने जैसी ही बात है।

तीर्थ यात्रा को पुण्य लाभ का ही प्रमुख प्रयोजन माना जाता है। प्रत्यक्षतः इसी प्रयोजन के लिए, यात्रा उपक्रम के लिए घर से निकला जाता है। वह सर्वथा अपूर्ण ही बना रहना चाहिए कि उस श्रम और व्यय की सार्थकता नहीं हुई जिसकी आशा अपेक्षा की गई थी। उपलब्धि रहित विनियोग से निराशा भी बढ़ती है और खिन्नता भी। प्रयोजन के परिपोषण के लिए लोक अनुदानों में कमी नहीं हुई है। तीर्थयात्रा के माध्यम से धर्म प्रयोजन के लिए जन साधारण को बहुत कुछ करते हुए देखा जाता है। इससे आशा बँधती है कि धर्म जीवित है। पर दूसरे ही क्षण हुए उस अनुदान का प्रतिफल तलाश किया जाता है, तो प्रतीत होता है कि ऊसर भूमि में बोने जैसा विनियोग ही बन पड़ा और उससे निराशा जनक परिणाम ही निकला।

देखा जाता है कि तीर्थों के निर्माण में कितनी प्रचुर सम्पदा लगी हुई है। उनका संचालन व्यय वहन करने में जितनी अधिक धन शक्ति और जनशक्ति लगती है इसका प्रतिफल व्यक्ति और समाज को सुखद सत्परिणामों के रूप में ही मिलना चाहिए। यदि नहीं मिल रहा तो उन छिद्रों को बन्द करना चाहिए जिनमें होकर लोक श्रद्धा की कामधेनु का अमृतोपम दूध ऐसे ही पड़ता, बिखरता, नष्ट होता और गन्दगी फैलाता रहता है।

इस संदर्भ में कुछ अधिक गहराई तक उतरने पर आश्चर्यजनक तथ्य सामने आते हैं। उदाहरण के लिए सोमवती पर्व पर गंगा स्नान जैसी छोटी बात का ही पर्यवेक्षण करके देखा जाय। उत्तरकाशी से लेकर गंगा सागर तक प्रत्येक सोमवती अमावस्या को प्रायः पचास लाख व्यक्ति स्नान करते हैं। इनमें से कुछ स्थानीय एवं समीपवर्ती होते हैं कुछ दूरवर्ती। सभी का समय लगता है। सभी को पैसा खर्च करना पड़ता है। श्रम, समय और धन की औसत लगाई जाय तो हर व्यक्ति पीछे वह राशि न्यूनतम दस रुपया बैठती है। पचास लाख व्यक्तियों के पीछे दस रुपया प्रति के हिसाब से ५ करोड़ हुआ। वर्ष में ४-५ सोमवती अमावस्या होती हैं। यहाँ राशि प्रायः २५ करोड़ जा पहुँचती है। गंगा की ही तरह अन्य प्रान्तों में अनेक पवित्र नदियाँ हैं। नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, सरयू, यमुना आदि प्रमुख दस नदियों का महत्त्व और माहात्म्य प्रायः गंगा के समतुल्य ही समझा जाता है। सोमवती अमावस्या पर वहाँ भी उसी श्रद्धा से उन क्षेत्रों के लोग स्नान करने जाते हैं। इन सब पर पहुँचने वाली जनता का व्यय ७५ करोड़ माना जा सकता है। इस प्रकार सोमवती सन्दर्भ में लगने वाली राशि १०० करोड़ के लगभग जा पहुँचती है।

यह एक प्रसंग हुआ सोमवती पर्व स्नान का। इसके अतिरिक्त तीर्थयात्रा वर्ष भर चलती रहती है। ऋतु प्रतिकूलता के कुछ ही महीने ऐसे जाते हैं, जिनमें कुछ शिथिलता आती है। वर्ष भर में हिन्दू तीर्थों पर पहुँचने वाले यात्रियों का समय और धन १००० करोड़ से कम नहीं अधिक ही मूल्य का होता है। यह जन सम्पदा यदि रचनात्मक प्रयोगों में लग सकी होती तो उससे देश की प्रौढ़ शिक्षा जैसी कई समस्याएँ हल हो सकती थी। इस राशि से कुटीर उद्योग पनप सकते थे। पवित्र नदियों में गिरने वाले तटवर्ती नगरों के गन्दे पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिए यह राशि प्रयुक्त हो सकी होती तो उसका चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होता। नदियों का जल अस्वच्छ न होने पाता। दूसरी ओर उस खाद मिले पानी से जो सिंचाई होती उससे खाद्य उत्पादन का परिणाम कहीं अधिक बढ़ जाता। यदि एक वर्ष की तीर्थयात्रा में व्यय होने वाला धन ऐसे रचनात्मक प्रयोजनों में लग सके, तो नदियों की पवित्रता, घाटों का नये सिरे से निर्माण, मन्दिरों का जीर्णोद्धार, पानी और सड़कों का प्रबन्ध जैसे कितने ही उपयोगी कार्य सिद्ध हो सकते हैं। तीर्थ प्रयोजनों के लिए जो इमारतें बनी हैं। उनके संचालन के लिए जो स्थाई निधियाँ जमा है उन सब का यदि रचनात्मक कामों में न सही, धर्म प्रयोजनों में ही दूरदर्शिता पूर्वक विनियोग होने लगे तो उसके सत्परिणामों को देखते हुए धर्मश्रद्धा की उपयोगिता स्वीकार करने का नया आधार बन सकता है।

धर्म व्यवसायी तीर्थ यात्रियों को फुसलाने और उनका धन हरण करने के कुचक्र में जितना समय और मनोयोग लगाते हैं उसे उलटकर आगन्तुकों के अन्तःकरणों में धर्म चेतना उत्पन्न करने वाली सदाशयता व्यक्त करने लगें, तो उनका गौरव तो बढ़ेगा ही सम्मान पूर्वक जीविका चलाने में भी कोई कमी न रहेगी पर, प्रवाह जिस दिशा में बह रहा है उसे देखते हुए इस प्रकार के हृदय परिवर्तन की सम्भावना कम दीखती है।

विचारशील वर्ग के मूर्धन्य व्यक्ति यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो उन्हें प्रतीत होगा कि धर्म श्रद्धा मनुष्य जीवन की बहुमूल्य थाती है। उसी के अनेक रूप आदर्शवादी प्रयोजनों में उभरते और महान प्रयोजनों की पूर्ति करते दिखाई देते हैं। देश भक्ति, परमार्थ परायणता, उदार सहृदयता, सेवा साधना, आत्म संयम, चरित्र निष्ठा, तप तितीक्षा जैसे व्यक्ति का गौरव बढ़ाने वाले, समाज को समुन्नत बनाने वाले समस्त प्रयोजन वस्तुतः धर्मश्रद्धा के ही रूपान्तरण है। यह चेतना जिस भी क्षेत्र में प्रयुक्त होती है वहीं मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले महान कार्य रच कर खड़े कर देती है। यह तत्व जहाँ भी हैं उस रत्न राशि से, स्वर्ण खदान से बढ़कर बहुमूल्य माना जाय। उसे अन्ध श्रद्धा से टकराकर चूर-चूर होने और उसके टुकड़े अवांछनीय तत्वों में जाने की दुर्गति से बचाया ही जाना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब उसे दूसरी उपयोगी दिशा मिले। कोसने और गाली देने से कुछ काम नहीं बनता। अनुपयुक्तता की तुलना में उपयुक्तता प्रस्तुत की जानी चाहिए। ताकि जन विवेक को दो में से एक चुनाव करने का अवसर मिल सके। समतुल्य प्रस्तुतीकरण ही वह कारगर उपाय है जिसमें उपयुक्त और अनुपयुक्त के अन्तर को समझना और उनमें से किसी एक को चुनाव करने का अवसर जन विवेक को मिल सकता है।

भारतीय धर्म और दर्शन की अन्तरात्मा को प्रकट करने वाली तीर्थ प्रक्रिया का पतनोन्मुख प्रवाह इसी रूप में चलने दिया जाय या उसे उलटा बदला जाय, यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। समस्या किसी धर्म स्थापना का उन्मूलन, अवसाद होने या उसके उन्नयन उत्कर्ष की नहीं, वरन् यह है कि मानवी गरिमा के परिपोषक तीर्थ तन्त्र को जीवन्त रखा जाय अथवा उपेक्षा अवमानना के आघात सह सहकर अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाय? यदि तीर्थ तत्व की उपयोगिता समझी जा सके तो उसे रुग्ण, विकृत एवं अर्ध मूर्च्छित स्थिति से उबारना भी आवश्यक है। इस परिवर्तन के लिए रचनात्मक प्रयासों की आवश्यकता होगी। श्रद्धा को सजीव और प्रगतिशील देखने की इच्छुक विवेकशीलता के लिए ठीक यही समय है, जिसमें तीर्थों की ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित किया जाय और उसके लिए कुछ साहसिक कदम उठाया जाय।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

42.    आहार-क्रान्ति से कुपोषण निवारण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


हरे और सूखे का अन्तर लगभग वैसा ही है जैसा जीवित और मृतक का। खाद्य-पदार्थों में हरेपन का, गीलेपन का होना उनकी रसता का, जीवित होने का चिह्न है। पानी सूखने के साथ-साथ उनकी कोमलता, स्वादिष्टता ही नष्ट नहीं होती, अनेक उपयोगी तत्व भी चले जाते हैं। हरी घास और सूखे भूसे के अन्तर को पशु भी समझते हैं। घास खाने वाले पशु मोटे तगड़े रहते हैं और भूसों पर गुजारा करने वाले थक जाते हैं, कम परिश्रम कर पाते हैं और कम दूध देते हैं। आहार के बारे में भी यही बात है। जड़ों द्वारा भूमि से निकाला हुआ और पेड़ों की नस-नाड़ियों में घूमता हुआ रस अनेक उपयोगी रासायनिक पदार्थों से युक्त होता है। सूखने के बाद उनकी यह उपयोगिता चली जाती है और जो कुछ शेष रहता है वह काम चलाऊ भर होता है।

आहार स्वाद तृप्ति और पेट की जलन मिटाने भर के लिए नहीं है, वरन् उसका वास्तविक उद्देश्य शरीर की क्षति को पूरा करना और उसके विकास में योग देना है। यदि यह बात समझ ली जाय तो आहार के गुणों पर ध्यान देना होगा। मनुष्य शाकाहारी है, वनस्पतियों की जड़ें, पत्ते, फूल-फल खाकर ही वह गुजारा करता है। स्पष्ट है कि वनस्पतियाँ तभी तक अपने गुणों से भरपूर रहती हैं जब तक वे हरी रहती हैं। अस्तु प्रयत्न यह करना चाहिए कि उन्हें हरे रूप में ही कच्ची खाया जा सके। यदि पाचन की सुविधा और स्वाद परिवर्तन की दृष्टि से पकाना, उबालना ही पड़े तो उसे मन्द आग पर कम से कम मात्रा में ही अग्रि सम्पर्क करना चाहिए। वस्तुएँ जितनी सूखी पुरानी, भूनी, तली होंगी उतना ही उनका गुण घटता जायेगा और उनसे पोषण भी उसी अनुपात से कम मिलेगा।

आज के प्रचलन में अन्न को प्रधानता मिली है। वही सुलभ और सस्ता पड़ता है। फल उत्पादन में भूमि बहुत घिरती है और शाक देर तक सुरक्षित नहीं रह सकते। फिर स्वाद की दृष्टि से दूसरी चीजें बाजी मारने लगी है, ऐसी दशा में फल, शाकों की ओर से उपभोक्ता और उत्पादनकर्ता दोनों की ही उपेक्षा होगी वह घटेगा ही। यही हुआ भी है। हमें अन्न पर निर्भर रहना पड़ता है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि उसमें जितना कुछ पोषक अंश है कम से कम उसका उपयोग तो पूरी तरह कर लिया जाय।

इन दिनों होता यह है कि हर अनाज का छिलका फेंक दिया जाता है और उसका सूखा हुआ गूदा आटे के रूप में काम आता है। छिलकों में कसैलापन होता हैं और वे कड़े होने के कारण पकाने, चबाने में उतने सरल नहीं होते, इसी के कारण वे हटा दिये जाते हैं और पशुओं के काम आते हैं। रासायनिक दृष्टि से देखा जाय तो बीजों का सबसे महत्त्वपूर्ण और उपयोगी अंश इस छिलके में ही होता है, जीवन और शक्ति का सबसे बड़ा भाग इन्हीं में होता है किन्तु अज्ञानवश उन्हें निर्दयता पूर्वक फेंक दिया जाता है।

सूर्य की किरणों से ही प्रत्येक प्राणी एवं वनस्पति को जीवन मिलता है। किरणें बीज और फलों के ऊपरी हिस्से से टकराती हैं और सबसे अधिक पोषक तत्व जमा होते रहते हैं। विटामिन बी, विटामिन डी जैसे जीवन तत्व आमतौर से अनाज के छिलके में ही पाये जाते हैं। कमजोर व्यक्तियों को शक्तिदायक औषधियों के रूप में डाक्टर लोग अक्सर विटामिन बी का सेवन कराते हैं। औषधि रूप में उसका बहुत थोड़ा अंश पच जाता है शेष पीला पेशाब बनकर बाहर निकल जाता है। गेहूँ के छिलके में विटामिन बी की उतनी ही मात्रा रहती है जितनी कि मनुष्य का पेट आसानी से पचा सके। साथ ही दूसरे तत्व भी उसे पचाने में मदद करते हैं। गूदे में रहने वाले कैल्शियम आदि पदार्थ उसके शक्कर भाग को पचा देते हैं, किन्तु अकेली चीनी उतनी सफलता से नहीं पचती। यही अन्तर गेहूँ के छिलके में रहने वाले विटामिन बी और बाहर से खाये कैप्सूल में रहता है। छिलका युक्त गेहूँ खाया जाय तो डाक्टरों द्वारा सुझाये हुए कीमती टानिकों से अधिक लाभ हो सकता है। पर हम हैं जो भूसी छान कर देते हैं और उसका गूदा भर काम में लेते हैं। यह तो ऐसा ही हुआ जैसे कोई चाय का रस निकाल कर फेंक दे और जो लुगदी बचती है उसी को सब कुछ समझ कर काम में लाये।

जिन अन्नों के छिलके आसानी से खाये जा सकते हैं उन्हें बिना छाने ही खाना चाहिए। जौ जैसे कुछ ही अनाज ऐसे होते हैं जिनका छिलका कड़ा और दुष्पाच्य होता है उसे निकालना पड़ता है। शेष सभी अनाज आसानी से छिलके सहित खाये जा सकते हैं। दाल छिलके समेत ही खानी चाहिए। दो दाल वाले अनाजों को दालों की संज्ञा में गिना जाता है। उनके जोड़ पर एक निशान चोंच जैसा उभार होता है, तोड़ने पर उस जगह एक गाँठ मिलती है। इसी केन्द्र को उनका सार भाग समझना चाहिए। चना मूँग आदि पूरे घुनकर खोखले हो जाएँ पर उनका पहला जोड़ चोंच वाला भाग ठीक रहे तो बोने पर अंकुर अवश्य उगेगा। इसके विपरीत यदि यह केन्द्र नष्ट हो जाये और पूरा दाना यथावत बना रहे तो उसके उगने की कोई संभावना नहीं है। इससे स्पष्ट है कि यह केन्द्र कितना महत्त्वपूर्ण है। इसे अलग कर देने पर आधे से अधिक सार तत्व गँवा दिया जाता है। दालें दो टुकड़े करके पकाने की अपेक्षा यदि साबुत ही खाई जायें तो वे कहीं अधिक पोषक सिद्ध होगी।

चावल का प्रचलन बहुत है पर दुर्भाग्य से उसके ऊपर की कीमती परत जो भूरे रंग की होती है हटाकर अलग कर दी जाती है। मिल का पालिश किया हुआ चावल आमतौर से ऐसा ही होता है। धान का छिलका तो चावल का डिब्बा भर है उसे तो नारियल के खोखले की तरह हटाना ही पड़ेगा पर चावल की ऊपरी भूरी पर्त अलग नहीं की जानी चाहिए। देखने में भले ही भात उतना सफेद सुन्दर न लगे तो भी वह परत वाला चावल बहुत गुणकारक होगा। बाजार में ऐसा चावल न मिले तो धान समेत खरीद कर उसे घर में ओखली में कूट लेना चाहिए और छिलका हटाने के बाद परत समेत चावल पकाना  चाहिए।

यहाँ एक बात और स्मरण रखने की है कि आटा पीसने की चक्की को स्वास्थ्य दायिनी देवी की तरह घर-घर में प्रतिष्ठित रखा जाय। हृदय, फेफड़ा, जिगर, पेट, पेडू, कंधे, हाथ आदि अति महत्त्वपूर्ण अवयवों का सन्तुलित व्यायाम चक्की पीसने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं हो सकता। आहार की तरह ही व्यायाम का भी स्वास्थ्य रक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्त्रियों को भोजन बनाने, झाड़ू लगाने जैसे काम तो ढेरों करने पड़ते हैं पर उनसे बड़े व्यायाम की आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती। इस कमी के कारण धड़ के भीतर रखा हुआ इन्जन खराब होने लगता है, अपच रहता है और गर्भाशय जैसे कोमल अंगों की पुष्टि नहीं हो पाती। धड़ के भीतर वाले अंगों की मजबूती के लिए उनका व्यायाम भी आवश्यक है। इसकी पूर्ति जितनी अच्छी तरह चक्की पीसने से हो सकती है उतनी और किसी उपाय से नहीं। यों कपड़े धोना, दही मथना भी पुराने जमाने में कई व्यायाम थे, पर उनका प्रचलन भी घट गया है और कम परिश्रम में इन कामों को कर देने वाले उपकरण निकल आये हैं। मशीन की चक्कियों ने हाथ चक्की का भी पत्ता काट दिया है। यह कम से कम स्वास्थ्य की दृष्टि से तो बुरा ही हुआ है।

जहाँ स्वास्थ्य का महत्त्व समझा जा रहा हो वहाँ हाथ चक्की का प्रचलन करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। आजकल शारीरिक श्रम करने वालों को छोटा और आराम तलब लोगों को बड़ा माना जाता है। परिश्रम में बेइज्जती और आराम में खुशहाली समझी जाती है। यह मान्यता दरिद्रता की निशानी और स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही अहितकर है। यह मान्यता बदली जानी चाहिए और पैसा बचाने की दृष्टि से न सही, स्त्रियों के लिए सर्वोत्तम व्यायाम मानकर ही पीसने का कम से कम थोड़ा बहुत अभ्यास तो जारी रखना ही चाहिए। घर की सभी महिलाएँ यदि इस दिशा में उत्साह दिखायें तो फिर नव वधुओं को भी इसमें अपमान और दबाव अनुभव न होगा।

हलका, सन्तुलित एवं उत्पादक व्यायाम चक्की पीसने से बढ़कर दूसरा कोई कदाचित ही हो सके। इसमें पैसे की बचत प्रत्यक्ष है। मशीन की चक्की पर अनाज पहुँचाना, वापिस लाना, पिसाई का पैसा देना, छीजन के नाम पर कटौती का आटा कम मिलना आदि काफी मँहगा पड़ता है। मँहगे अनाज में सस्ता मिला देने और तराजू में हेरा-फेरी करके कम तौलने में भी कोई-कोई चक्की वाले अपनी उस्तादी दिखाते हैं। उस समय और पैसे की बर्बादी को हाथ की चक्की सहज ही बचा सकती है। मशीन की चक्कियाँ तेजी से पीसती है और आटा आग जैसा गरम हो जाता है। इस अनावश्यक गर्मी से आटे के बहुत सारे गुण नष्ट हो जाते हैं। हाथ की चक्की धीरे-धीरे पीसती और उसका ठण्डा आटा गुणों की दृष्टि से कहीं अधिक अच्छा रहता है।

सूखे अनाजों को पुनः हरा करने का अच्छा तरीका यह है कि उन्हें अंकुरित कर लिया जाय। पानी में एक दिन भिगोए रखा जाय, दूसरे दिन भीगे तौलिये में उन्हें बाँधकर हवा में लटका दिया जाय, तो एक दो दिन में उनमें से अंकुर फूट आता है। इस स्थिति में अनाज भी हरे अन्न की तरह ही हो जाता है और उसे कच्चा अथवा उबाल कर खाया जा सकता है। जिनके पेट कमजोर हैं वे प्रायः कच्चे अन्न ठीक से पचा नहीं पाते, उन्हें उबाल कर दिया जा सकता है अथवा तवे पर हलकी आग से गरम किया जा सकता है।

सूखने से पूर्व अन्न जब तक हरे रहते हैं, तब तक उनकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ी-चढ़ी होती है। मक्का, ज्वार, बाजरा, चना, मटर, गेंहूँ की दालें तथा भुट्टे भूनकर किसान लोग बड़ी रुचि पूर्वक खाते हैं। इनमें से कुछ चीजें बाजार में भी बिकने आ जाती हैं। मक्के के भुट्टे और मटर के दाने तो फसल पर अक्सर सब्जी वालों की दुकान पर मिलते हैं। जिन्हें इस प्रकार का अन्न मिल सके उपयोग में लाने का प्रयत्न करना चाहिए। इनमें से हरे चना, मटर तो शाक भाजी के काम भी आ सकते हैं।

सूखे फलों में छुहारे की अपेक्षा खजूर, किशमिश की अपेक्षा अंगूर, सूखी नारियल गिरी से उसका पानी और कच्चा गूदा, सूखे अंजीर से हरे अंजीर इसीलिए अच्छे माने जाते हैं कि उनमें समूचे पेड़ का प्राकृतिक रस विद्यमान रहता है। सूखे अमचूर की अपेक्षा कच्ची आमी की चटनी में अधिक जान रहती है। यही बात सूखे आँवले, पुदीना, धनिया, मिर्च, अदरक आदि पर भी लागू होती है। यह चीजें सुखाई हुई भी बाजार में बिकती हैं, पर हरी के जितने गुण उनमें शेष नहीं रहते।

हमारा आहार समय और धन तो काफी खर्च करा लेता है, पर उसमें पोषक तत्व नहीं रहते, फलतः कुपोषण के कारण जन साधारण का स्वास्थ्य गिरा हुआ रहता है, दुर्बलता और उदासी छाई रहती है। तनिक भी सर्दी-गर्मी या प्रतिकूलता उत्पन्न होते ही बीमारियाँ धर दबोचती हैं। बच्चों के शरीर की वृद्धि तेजी से होती है और पेट कमजोर होते हैं, अस्तु उन्हें अधिक सन्तुलित एवं पोषक तत्वों से युक्त आहार की आवश्यकता पड़ती है। हम लोग इस सम्बन्ध में न तो आवश्यक जानकारी ही रखते हैं और न जानकार लोग ध्यान देते हैं। फलतः बच्चों का विकास आरम्भ से ही रुक जाता है। दुर्बलता एवं रुग्णता बचपन से ही उनके साथ हो लेती है और जिन्दगी भर तंग करती है।

यदि हमारी स्वाद, रुचि एवं निर्माण विधि में थोड़ा सा परिवर्तन किया जा सके, तो उतने भर से कुपोषण से उत्पन्न स्वास्थ्य संकट का समाधान निकल सकता है। आवश्यक नहीं कि बहुत कीमती खाद्य-पदार्थ ही खरीदे जायें। जो खाते हैं उसी को सऊर सलीके से थोड़े हेर-फेर के साथ पकाने खाने लगें तो उतने भर से जमीन-आसमान जितना अन्तर हो सकता है, हमारी गिरती हुई तन्दुरुस्ती संभल सकती है और बलिष्ठता की दिशा में बढ़ सकती है।

चटोरेपन पर अंकुश लग सके, मिर्च, मसाले, मिठाई, खटाई की भरमार रुक सके और खाद्य-पदार्थों के स्वाभाविक स्वाद में रुचि एवं सन्तोष का समावेश हो सके तो पेट पर अनावश्यक भार लदना बन्द हो जायेगा और स्वाद में ठूँस-ठूँस कर खाने के कारण जो अपच उत्पन्न होती है, उसके कहीं दर्शन भी न होंगे। अपच पर काबू पाया जा सके तो तीन चौथाई बीमारियों का अन्त हुआ ही समझना चाहिए।

पकाने की विधि में तेज आग का प्रयोग बन्द किया जाय और भाप से हलकी आग पर पकाने की प्रक्रिया अपनाई जाय। भाप से पकाने वाले स्टीम कुकर किसी भी नगर में मिल सकते हैं। यह प्रायः तीन चार डिब्बे के होते हैं। नीचे छोटी सी अंगीठी रहती है। इन डिब्बों में दाल, चावल, शाक थोड़ा पानी डालकर पकने रख दिये जाते हैं और वे धीमे-धीमे हलकी आग पर दो तीन घण्टे में पककर तैयार हो जाते हैं। ये वस्तुएँ स्वादिष्ट भी होती हैं और उनके जीवन तत्व भी नष्ट नहीं होने पाते, अब प्रेशर कुकर भी चल पड़े हैं ।। इनमें दबाव और गर्मी अधिक रहने से भोजन जल्दी पक जाता है, स्वादिष्ट भी रहता है, किन्तु दबाव तथा गर्मी की अधिकता के कारण उतनी सरसता सुरक्षित नहीं रह पाती जितनी भाप की मन्द गति से, मन्दी आग पर पकाने वाले पुराने ढंग के स्टीम कुकरों में बनी रहती है। बनाने की दृष्टि से भी वह सुविधा जनक रहते हैं। प्रेशर कुकर में पकने का समय पूरा हो जाने पर भी यदि उसे आग पर रखा रहने दिया जाय तो जलने फूटने का खतरा है, किन्तु स्टीम कुकर में थोड़े से कोयले डाल देने और वस्तुएँ चढ़ा देने के बाद निश्चिन्त रहा जा सकता है। वह पक तो दो तीन घण्टे में ही जायेगा, पर वैसे ही चार, छः घण्टे के लिए बिना देख−भाल के छोड़ा जा सकता है। उतनी देर बाद भी भोजन गरम स्वादिष्ट और यथावत निकलेगा।

बड़े स्टीम कुकर अपने हाथों थोड़ी सी लुहार की मदद लेकर आसानी से बनाये जा सकते हैं। इनमें रोटी तो नहीं पक सकती, पर डबल रोटी, बाटी किस्म की कुछ चीजें पकाने की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। सब मिलाकर रसोई घर का एक अनिवार्य उपकरण यह भाप कुकर बनना चाहिए और इसका प्रचलन, प्रशिक्षण सर्वत्र होना चाहिए। इसके सहारे पकाते समय भोजन का सार तत्व जो बहुत बड़ी मात्रा में नष्ट होता रहता है, सरलता पूर्वक बचाया जा सकता है। अब तो प्रेशर कुकर क्रान्ति घर-घर पहुँच चुकी है। चाहे कोयले की अंगीठी पर धीरे-धीरे भाप से पकाने की प्रक्रिया हो अथवा चूल्हें पर आधुनिक प्रेशर कुकर से पकाने की विधि अपनायी गयी हो, दोनों के ही अपरिमित लाभ हैं। आहार क्षेत्र में यह क्रान्ति किसी भी स्थिति में लायी ही जानी चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

43.    विनाश की घड़ी आ पहुँची अब तो बदलें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


समाज शास्त्रियों और इतिहासकारों के अनुसार ईसा के समय विश्व की कुल जनसंख्या ३० करोड़ थी अब तो अकेले भारत की ही आबादी इतनी है कि यह ईसा के समय की आबादी से दुगुनी हो जाती है, ईसा के १७५० वर्ष बाद जनसंख्या लगभग ढाई गुनी अर्थात् ७५ करोड़ हुई। इसके बाद से अब तक चक्रवृद्धि गणित के क्रम से जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। सन् १८५० में आबादी ११० करोड़ हुई, १९०० में १६० करोड़, १९२० में १८० करोड़ ९१ लाख, १९४० में २२४ करोड़, १९६० में ३०६ करोड़ और अब १९८० में ४१२ करोड़ हो चुकी थी अब पाँच अरब के निकट पहुँचने वाली है।

कहा जा चुका है कि पृथ्वी के पास सीमित प्राणियों के लिए ही स्थान और साधन उपलब्ध है। अन्य प्राणियों की तरह यह नियम मनुष्यों पर भी लागू होता है। मनुष्येतर प्राणियों के सम्बन्ध में देखा गया है कि जब उनकी संख्या बढ़ने लगती है और सीमा रेखा को लाँघ जाती है तो प्रकृति उनका सफाया करने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले सुविधा साधन संचय में प्राणियों के लिए कम पड़ने लगते हैं। कम साधन और अधिक उपभोक्ताओं के कारण निश्चित ही संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। शक्तिशाली दुर्बल को दबाता है और उसके हिस्से का भाग छीनता है। इस प्रकार के संघर्ष में जो सशक्त होते हैं, वही बचते हैं और दुर्बल मारे जाते हैं, संघर्ष की यह स्थिति अन्ततः पूरे के पूरे वर्ग को ही नष्ट करके रख देती है। नृतत्व शास्त्रियों को प्राचीनकाल में विद्यमान रहे ऐसे कई प्राणियों के अवशेष मिले हैं, जो उन दिनों काफी शक्तिशाली और विशालकाय थे किन्तु उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि प्रकृति के पास उपलब्ध साधन स्रोत कम पड़ने लगे, संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई और फलतः वह पूरा का पूरा प्राणी वर्ग अपना अस्तित्व नष्ट कर बैठा।

क्या मनुष्य के लिए भी प्रकृति यही न्याय नीति बरतने वाली है? उसके विधान में किसी से भी पक्षपात करने या किसी को भी छूट देने की गुंजाइश नहीं है, सो इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मनुष्य के लिए भी संघर्ष और अन्ततः विनाश का चक्र घूमने को तैयार बैठा है। इस आधार पर संसार भर के विचारशील और बुद्धिजीवी व्यक्ति लोगों को तरह-तरह से सीमित सन्तानोत्पादन के लिए समझाते, बड़े परिवारों की हानियाँ और जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों की विवेचना करते रहे हैं। इन बातों का कोई प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न हुआ हो ऐसा देखने में नहीं आता, आखिर प्रकृति को ही अपना कुल्हाड़ा तेज करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है।

इन दिनों संसार में हिंसा की आग बड़ी तेजी से फैल रही है। हत्या, मारपीट, उपद्रव, दंगे, लूटमार और अपराधों में बड़ी तेजी से बाढ़ आ रही है। मनोवैज्ञानिकों और प्रकृति विज्ञानियों की दृष्टि में इसका एक बड़ा कारण जनसंख्या का बहुत अधिक बढ़ जाना है, पिछले दिनों ब्रिटेन के दो प्रसिद्ध समाज शास्त्री क्लेअर रसेल और डब्ल्यू. एस. रसेल ने कई मामलों का अध्ययन करने के बाद जो निष्कर्ष प्राप्त किये, उनसे यही सिद्ध होता है कि इस तरह की घटनाओं के मूल में वस्तुतः प्रकृति प्रेरणा ही काम कर रही है। इन दिनों छुट-पुट कारणों से उत्पन्न हुए मन-मुटाव भी भयंकर हिंसावृत्ति के रूप में उभरते हैं और उनकी चपेट में प्रतिद्वन्द्वियों के निरीह बाल-बच्चे भी आ जाते हैं। धन के लालच में चोरी ठगी की अपेक्षा सफाया करके निश्चिन्तता पूर्वक लाभान्वित होने की आपराधिक प्रवृत्तियाँ पिछले दिनों तेजी से बढ़ी हैं। क्यों हिंसावृत्ति इतनी उग्र होती जा रही है? इस पर विभिन्न दृष्टियों से विचार और कई परीक्षण करने के बाद यही सिद्ध हुआ कि जनसंख्या का दबाव मनुष्य को उथला, असहिष्णु और असंतुलित बना देता है, इसी कारण लोग जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं अथवा हत्या और हिंसा करने में जरा भी नहीं झिझकते।

जनसंख्या में दबाव का मनोवैज्ञानिक प्रभाव जाँचने के लिए किये गए प्रयोगों में देखा गया कि छोटे-छोटे जानवर जब छिरछिरे, खुले और शांत वातावरण में रहते थे, तब उनकी प्रकृति बहुत शान्त थी किन्तु जब उन्हें भी भीड़ में रखा गया, तो वे उत्तेजित और थके-माँदे रहने लगे तथा उनमें एक दूसरे पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति भी पनपती देखी गई। सर्व विदित है कि भीड़-भाड़ के कारण मल-मूत्र, पसीना तथा रद्दी चीजों की गंदगी भी बढ़ती है और शरीर से निकलने वाली ऊष्मा अपने निकटवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है, मनःशास्त्रियों के अनुसार यह विकृतियाँ ही प्राणियों तथा मनुष्यों को उत्तेजित करती एवं उन्हें अशान्त बनाती हैं। यही कारण है कि छोटे गाँवों की अपेक्षा कस्बों और शहरों में अधिक अपराध होते हैं।

शहरों में आबादी बढ़ रही है और परिवारों में संतान की संख्या। कुल मिलाकर जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है और जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ एक दूसरा खतरा भी मनुष्य जाति के सिर पर मँडरा रहा है, वह है औद्योगीकरण के कारण स्वच्छ जल और शुद्ध वायु का दिनों दिन दुर्लभ होते जाना। इन दिनों नये-नये उद्योग धंधे, नये-नये कल-कारखाने खुलते जा रहे हैं। इन कारखानों और फैक्ट्रियों के लिए बड़ी मात्रा में पानी भी चाहिए और वह पानी उपलब्ध जलस्रोतों से ही प्राप्त किया जाता है। बात यही तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, समस्या तो तब और विकराल रूप धारण करती है जब कल-कारखानों से निकलने वाला कूड़ा-कबाड़ा जलस्रोतों में फेंकी गई उन गंदगियों के कारण जलस्रोत दूषित हो जाते हैं। यों पृथ्वी पर पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, पर अधिकांश जलस्रोत इतने दूषित हो गए हैं कि पीने योग्य पानी का एक तरह से अकाल ही पड़ता जा रहा है। अपनी पृथ्वी का ९७ प्रतिशत हिस्सा समुद्र से ढँका हुआ है। समुद्र का वह पानी न तो पीने योग्य होता है और न ही कल कारखानों या कृषि उद्योगों के ही उपयुक्त है। दो प्रतिशत जल बर्फ के रूप से उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों तथा ऊँचे पर्वतों की चोटियों पर जमा रहता है। एक प्रतिशत जल ही ऐसा होता है जो खेती, जंगल, उद्योग धन्धों तथा पीने के काम में लाया जा सकता है। उसमें भी काफी पानी बेकार चला जाता है, जितना पानी बचता है उसका सातवाँ भाग नदियाँ, समुद्रों में फेंक देती है। अब जो पानी बचता है उसी में कल-कारखानों, खेती, बागवानी और पीने, पकाने की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है।

कल-कारखानों और फैक्ट्रियों की बाढ़ पेयजल का एक बहुत बड़ा भाग झपट लेती है। इतना ही नहीं उत्सर्जित गंदगी से आसपास के जल स्रोतों को भी दूषित कर देती है। कल कारखानों के कारण मनुष्य को अपने भाग में से कितनी कटौती करनी पड़ती है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महानगरों में रहने वाले लोगों को अपनी आवश्यकता का केवल ४० प्रतिशत ही स्वच्छ जल मिल पाता है। इसी में उन्हें खींचतान कर काम चलाना पड़ता है।

स्वच्छ जल का कितना बड़ा भाग कारखाने और फैक्ट्रियाँ झटक लेते हैं? यह कल्पना करने के लिए इन तथ्यों से अनुमान लगाना चाहिये कि एक लीटर पेट्रोल बनाने के लिए १० लीटर पानी फूँकना पड़ता है। १ किलो सब्जी पर ४० लीटर, १ किलो कागज के लिए १०० लीटर तथा १ टन सीमेंट के लिए ३५०० लीटर पानी जलाना पड़ता है। इतना होने के बाद कारखाने जो जहर फेंकते हैं वह भी उपलब्ध पानी का एक बहुत बड़ा हिस्सा नष्ट कर डालता है क्योंकि उसे भी नदी, तालाबों में ही फेंका जाता है। इसके कारण उन नदी, तालाबों का पानी किसी काम का नहीं रह जाता। वह इतना विषाक्त हो जाता है कि न केवल झील, तालाबों की सुन्दरता नष्ट हो जाती है वरन् उनमें रहने वाले जीव−जन्तु और उनका प्रयोग करने वाले सभी अपना स्वास्थ्य नष्ट करने के लिए विवश हो जाते हैं। इन दिनों अमेरिका के कई झील, झरने जो कभी अपनी सुन्दरता के कारण प्रकृति प्रेमियों का जी ललचाते थे और लोग उनके किनारे बैठकर अपना थोड़ा बहुत समय शांति से बिताया करते थे, अपना आकर्षण खो बैठे हैं। प्रशासन ने अब कई झील, झरनों और नदी जलाशयों के किनारों पर बड़े-बड़े सूचनापट लगा दिए हैं, जिन पर लिखा है डेन्जर, पोल्यूटेड वाटर, नो स्विमिंग। खबरदार पानी जहरीला है तैरिए मत। वहाँ के औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर अब एक प्रकार से मृतक जलाशय बन चुके हैं। नदियाँ अब गंदगी बहाने वाली गटरें मात्र रह गई।

यह कैसे हुआ? मात्र एक ही कारण है कि कारखानों में जो कुछ वेस्टेज कूड़ा-कबाड़ा निकलता है वह इन नदी, तालाबों में फेंक दिया जाता है। विशेषज्ञों का कथन है कि इस प्रकार जो प्रदूषण फैल रहा है उसके कारण अगले दिनों पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न होगा। प्रसिद्ध रसायन विशेषज्ञ नाटवल्ड डफितराइट ने नार्वे की सेंट फ्लेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें पारे की खतरनाक मात्रा मौजूद है। मछलियों में पारे का अंश कहाँ से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि उस झील के किनारे लगे हुए कारखानों से जो औद्योगिक रसायन फेंका जाता है उसमें पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती है और वह गंदगी के रूप में बहती हुई झीलों में पहुँचती है। सोचा गया था कि यह पारा भारी होने के कारण जल की तली में बैठ जाएगा। कुछ मछलियाँ यदि पारे से मर भी गई तो कुछ विशेष हानि नहीं होगी। पर यह अनुमान गलत निकला और मछलियाँ पारे की प्रतिक्रिया से प्रभावित हुई तथा वह प्रभाव उनके शरीर में इकाई बनकर जम गया। उल्लेखनीय है कि इन मछलियों का भोजन के रूप में उपयोग करने के कारण कई मनुष्य अन्धे और पागल हो गए तथा सैकड़ों की तो मृत्यु हो गई।

फिलहाल तो ब्रिटेन, जर्मनी, फ्राँस, बेल्जियम, अमेरिका जैसे उन्नत देशों में ही स्थिति विषम से विषमतर होती जा रही है किन्तु शीघ्र ही धुँए के जहरीले प्रभाव से सारा संसार संकट में पड़ने वाला है। रोम की राष्ट्रीय अनुसंधान समिति के निर्देशक रावर्टों पैसिनों ने वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले खतरों की ओर संकेत करते हुए कहा है कि इससे जीवन संकट की समस्या निकट भविष्य में ही खड़ी होने जा रही है। भले अभी कुछेक उन्नत देश ही इससे प्रभावित होते दिखाई दे रहे हों, किन्तु शीघ्र ही संसार भर के देश कम ज्यादा रूप में इन संकटों से प्रभावित होंगे। उद्योग धंधों और कल-कारखानों के कारण वायु में घुलते जा रहे विषों के प्रभाव से यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि संभवतः इन विषैले तत्वों के कारण सारी पृथ्वी ही भयंकर रूप से गर्म होकर जल जाये अथवा उस पर रहने वाले प्राणी धुँए के कारण घुट-घुट कर मरने लगे।

इस दुःखद और दुर्भाग्य पूर्ण संभावना का वैज्ञानिक आधार बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि कारखानों की भट्टियों और रेल, मोटरों से निकलने वाला धुँआ आकाश में छाने लगता है तथा अवसर पाते ही धरती की ओर झुकने लगता है। यह झुकाव कभी इतना घना हो सकता है कि कभी भी कहीं भी कोई भी दुर्घटना घट सकती है और हजारों लोगों को अपनी चपेट में, मृत्यु की गोदी में फेंक सकती है। थर्मल इन्वर्शन ताप व्यतिक्रमण की प्रक्रिया शुरू होते ही धुँआ धुँध के रूप में बरसने लगता है। जब तक वायु गर्मी से प्रभावित रहती है, तब तक तो धुँआ धुँध हवा के साथ ऊपर उठता रहता है, लेकिन जब शीतलता के कारण वायु नम हो जाती है तो धूलि का उठाव रुक जाता है और वह नीचे की ओर गिरने लगती है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ सकती है। पिछले दिनों कई देशों में पाँच-सात दिन तक इस तरह के विषैले धुँए की धुँध छाई रही और इस धुँध के दौरान ही सैकड़ों लोगों को घुट-घुट कर बुरी तरह खाँसते-खाँसते अपने प्राण गँवाने पड़े। इस तरह की घटनाएँ अगले दिनों यत्र-तत्र घटेंगी।

हजारों लोगों को एक साथ मार डालने वाली घटनाओं का ताँता न भी लगे तो भी कल-कारखाने और रेल, मोटरें जिस तेजी से वायुमण्डल को विषाक्त करते जा रहे हैं, उनके कारण नये-नये रोगों के उत्पन्न होने की संभावना निश्चित ही समझनी चाहिए। वायु प्रदूषण के भयंकर खतरों की ओर वैज्ञानिक समय-समय पर ध्यान आकर्षित करते रहे हैं। हाल ही ब्रिटेन की पर्यावरण प्रदूषण शोध संस्था के वैज्ञानिकों ने यह वक्तव्य प्रसारित किया है कि पिछले दिनों धुँए के रूप में जितना विष वायु मण्डल में छोड़ा गया है और अब भी छोड़ा जा रहा है। यदि शीघ्र ही कोई नियन्त्रण नहीं किया गया तो बहुत जल्द ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है जिसमें विश्व के अधिकांश जीवों का, जिसमें मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी आते हैं, सबको दम घोट कर चट कर जायेगा।

भावी युद्ध के लिये अणु आयुधों का निर्माण भारी मात्रा में हो रहा है। उनके परीक्षण विस्फोटों से जितना विकिरण अन्तरिक्ष में भर चुका उसके फलस्वरूप अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और इससे नई पीढ़ियों को विकलांग, विक्षिप्त एवं अविकसित स्तर का जीवन यापन करना पड़ेगा। यह विस्फोटों का सिलसिला अभी चल ही रहा है और उससे सर्वनाश का खतरा दिन-दिन बढ़ रहा है। अणु युद्ध हुआ तब तो समझना चाहिए कि महाप्रलय जैसी स्थिति ही उत्पन्न होगी और इस धरती का वातावरण मनुष्य ही नहीं, किसी अन्य प्राणी के जीवित रहने योग्य न रहेगा।

कुछ विपत्तियाँ ऐसी होती हैं जो शस्त्र प्रहार की तरह तत्काल प्राण संकट उत्पन्न करती हैं कुछ क्षय रोग की तरह अविज्ञात रहती और धीरे-धीरे गलाती, घुलाती मरण के मुख में धकेलती हैं। जनसंख्या वृद्धि, वायु प्रदूषण, अणु विकिरण, कोलाहल, रासायनिक विषाक्तता, नशे जैसे संकट होते हैं जो गलाकर समस्त मानव समाज को विनाश के गर्त में धकेलते जा रहे हैं।

स्थिति बताती है, संकट बढ़ते चले जा रहे हैं। इनसे जूझना या मरण के सम्मुख सिर झुकाना यही दो मार्ग सामने हैं। अच्छा यही है कि विनाश से मुठभेड़ करने की तैयारी की जाय। इसी में अपना बचाव है और इसी में समस्त मानव समाज का संरक्षण।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

44.    जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ में नियोजित हो
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


आयुष्य के उत्तरार्द्ध में शरीर और मस्तिष्क के थक जाने से वह आयु न तो भौतिक आकर्षणों में निरत रहने योग्य रहती है, न किन्हीं महत्त्वाकाँक्षाओं को पूरा करने की उसमें सामर्थ्य ही रहती है। यह समय मुख्यतः सेवा साधना के लिए नियोजित होना चाहिए न कि युवावस्था जैसी ललक-लिप्साएँ अपनाए रहने में। देव संस्कृति की वानप्रस्थ आश्रम परम्परा इस वर्ग विशेष के लिए व्यक्तिगत हित साधन एवं समष्टिगत परमार्थ की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ सदुपयोग का अवसर लेकर आती है।

ढलती उम्र में भी कामुकता की खिलवाड़ करने वाले निश्चित रूप से बेमौत मरते हैं। रुग्णता और अशक्तता के गर्त में औंधे मुँह गिरते हैं। चटोरापन भी ढलती उम्र में रही बची पाचन क्रिया को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देता है। नई पीढ़ी अपने हाथों सत्ता चाहती है, उसे न दी जाय तो घर में विग्रह उत्पन्न होता है। परामर्श, मार्गदर्शन, सहयोग और नियन्त्रण का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करते रहे और काम करने का बोझ लड़कों पर डालें तो उनकी शिक्षा भी होती है और अपना बोझ हलका होता है। अत्यधिक तृष्णामग्न रहकर कमाई की आपाधापी में लगे रहें, तो उस मानसिक तनाव से ब्लडप्रेशर, दिल के दौरे, मधुमेह, अनिद्रा आदि कितने ही रोग घेरते हैं।

आध्यात्मिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाकर जीवन के उत्तरार्द्ध को इतना मृदुल और सरस बनाया जा सकता हैं, मानों नवीन जन्म ग्रहण किया गया है। जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला है, मानव जन्म का जो परम लक्ष्य है वह पूर्वार्द्ध में यत्किंचित ही पूरा हो पाता है। अधिक उत्तम सुअवसर तो उत्तरार्द्ध में ही मिलता है। मानसिक उभार उतर जाने और परिवार का भार हलका हो जाने से मन भी अच्छी तरह लगता है और चित्त के डाँवाडोल होने की, लुढ़कन-फिसलने की आशंका भी कम रहती है। मरण का दिन समीप आता देखकर परमार्थ की पुण्य पूँजी संग्रह करने के लिए, अगले जन्म में ऊँची स्थिति पाने के लिए उत्कंठा जाग्रत होती है और अधिक गम्भीरतापूर्वक दिव्य जीवन की उन गतिविधियों को अपनाया जा सकता है, जो चढ़ती उम्र में प्रायः अरुचिकर और कठिन लगती थी।

ब्रह्म विद्या की तत्त्वदर्शन ज्ञान साधना, योगाभ्यास की तप साधना, लोक मंगल की सेवा साधना यह तीनों अमृतमयी देव सरिताएँ मिलकर गंगा यमुना सरस्वती के मिलन, संगम का प्रयोजन पूरा करती हैं और तीर्थराज प्रयाग जैसी त्रिवेणी इस जीवन में प्रादुर्भूत होती है। यह अभिनव आनन्द अपने ढंग का अनोखा है और ऐसा है जिससे बालकपन, किशोरावस्था और यौवन में जो अर्जित किया गया था उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही आनन्दमयी विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती हैं, होती हैं। सम्पदाओं से विभूतियों का स्तर हलका ही नहीं भारी भी है। इसलिए पूर्वार्द्ध में जो उपार्जित किया गया था उसकी तुलना में उत्तरार्द्ध की कमाई का मूल्य भी अधिक ही आता है। ऐसी दशा में परमार्थ परायण उत्तरार्द्ध में प्रवेश करने वाले को बाल्यकाल और यौवन के चले जाने का पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता, वरन् यही अनुभव होता है कि वह अल्हड़पन चला गया सो अच्छा ही हुआ। यह ढलती आयु ऐसे अनुदान वरदान लेकर आई है, जिनका इस गधा-पच्चीसी के दिनों मिल सकना कठिन है। ऐसे चिन्तन के रहते किसी को पूर्वार्द्ध के बीत जाने से दुखी होने, पछताने की जरूरत नहीं पड़ती, वरन् यह अधिक महत्त्वपूर्ण अवसर हाथ लगने का सन्तोष ही होता हैं।

जब सामाजिक दृष्टि से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि किसी देश या समाज के उत्कर्ष की समस्त आशाएँ और सम्भावनाएँ इसी केन्द्र पर केन्द्रित हैं। अगणित विचारशील व्यक्ति एक से एक उत्तम योजनायें बनाते हैं, बना सकते हैं पर सबसे बड़ी कठिनाई एक ही होती है कि उन्हें कार्यान्वित कर सकने योग्य व्यक्ति मिलते ही नहीं। फलस्वरूप वे कागजों में लिखी और मस्तिष्कों में बिखरी रहकर ही हवा में विलीन हो जाती हैं।

लोक निर्माण का कार्य इतना सरल नहीं है कि उसे किसी भी ऐरे-गैरे के सुपुर्द किया जा सके। उसके लिए अनुभवी, सुयोग्य, ईमानदार, सक्षम, लगनशील और प्रभावशाली कार्यकर्ता चाहिए। ऐसे लोग संस्थाओं के पास भी नहीं हैं। उनसे भी ओछी प्रकृति के यश लोलुप व्यक्ति भरे पड़े हैं, सरकार के पास भी उपयुक्त व्यक्ति नहीं है। जन सहयोग के बिना कोई योजना सफल नहीं हो सकती यह स्पष्ट है। साथ ही यह भी साफ है कि यह सहयोग जुटाना ऐसे व्यक्तियों का ही काम है जिनके प्रति सहज श्रद्धा उभरती हो। सरकारी कर्मचारियों की भर्ती जिन उपाधियों के आधार पर होती है, वे जन सम्पर्क कार्यकर्ता की योग्यता का आधार नहीं हो सकती। अनुभवहीन लड़के जिनकी आयु पच्चीस वर्ष से भी कम है, उन महान उत्तरदायित्वों को निभा सकेंगे यह कहना कठिन है। फिर वहाँ रौब-दाब, ठाट-बाट, ऐंठ-अकड़, रिश्वत खुशामद का बोलबाला रहता है। भारत जैसे पिछड़े देश की जनता का तालमेल उनसे बैठता ही नहीं। न सही अर्थों में जन सम्पर्क बनता है, न जन सहयोग मिलता है। ऐसे ही कागजी खाना पूरी चलती रहती है। अफसर मौज-मजा करते हुए भत्ता बनाते और समय काटते रहते हैं। यह स्थिति जब तक रहेगी, तब तक सरकार की योजनायें कितनी ही अच्छी क्यों न हो, उनसे कुछ ठोस कार्य न हो सकेगा। प्रगति का सरकारी अभियान रुका ही पड़ा रहेगा।

लोक-कल्याण के लिए विनिर्मित संस्थाओं की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। यश, प्रशंसा के लिए थोड़ी विज्ञापनबाजी करना महत्त्वाकाँक्षी लोगों के लिए एक धन्धा बन गया है। तरह-तरह के आडम्बर, सभा सम्मेलन, संगठन संस्थान जुलूस, पोस्टरों की इन दिनों बहुत धूम हैं। नित नई संस्थाएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं। पदों के लिए लड़ने मरने वाले, परदे के पीछे कई तरह के स्वार्थ साधन करने वाले लोगों का सार्वजनिक संगठनों में बोलबाला हैं। विविध संस्थाओं का ढाँचा कागज से बने रावण की तरह विशाल कलेवर तो बनाये खड़ा हैं, पर भीतर ही भीतर खोखली पोल भरी पड़ी है। यही कारण है कि काम नहीं के बराबर और आडम्बर पहाड़ के बराबर दृष्टिगोचर होता है। प्रगति के विभिन्न प्रयोजनों को लेकर बने हुए इतने अधिक संस्था संगठनों तथा कथित लोकसेवियों, नेताओं के रहते एक इंच भी आगे खिसक सकना सम्भव न हो सके, तो समझना चाहिए कि आडम्बर ने यथार्थता को कुचल-मसल कर रख दिया है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का एक ही कारण है सद्भावना सम्पन्न सुयोग्य एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का अभाव। मिशन अनेक बने हुए हैं और बन रहे है, पर मिशनरियों का कहीं पता नहीं। ऐसी दशा में लोकशक्ति को जगाना, लोकमंगल का प्रयोजन पूरा कर सकना किस प्रकार सम्भव होगा?

जनता की स्थिति भी अब अजीब बन चली है। वक्ताओं और नेताओं की कथनी तथा करनी में जमीन-आसमान जितना अन्तर देखकर अपीलों तथा धुँआधार भाषणों का असर ही समाप्त हो गया। स्पीचें सुनने या तो लोग आते ही नहीं, आते हैं तो उथला मनोरंजन मात्र करके पल्ले झाड़ते हुए वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से आए थे। जब नेता और अभिनेता एक ही पंक्ति में गिने जाने लगें तो यह आशा कैसे की जाय, कि जनता उनका कोई कष्टसाध्य अनुकरण स्वीकार करेगी। अब हड़तालें कराना भर एक काम ऐसा हैं जिसे कोई भी नेता आसानी से करा सकता है। जिसमें कुछ त्याग और सुधार की कष्टसाध्य बात हो उसे मानना तो दूर, कोई सुनने तक को तैयार नहीं।

इस अभाव की पूर्ति उज्ज्वल चरित्र, सुसंस्कृत और निस्वार्थ लोकसेवा निरत व्यक्ति ही अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर कर सकते हैं। ऐसे नेतृत्व का उत्पादन वानप्रस्थ आश्रम की ही खदान से होता रहा है और हो सकता है। यदि वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा चल पड़े तो एक से एक बढ़कर सुयोग्य और भावनाशील लोकसेवी विभिन्न सत्प्रवृत्तियों में संलग्न दृष्टिगोचर हो सकते हैं। और बिना वेतन भार उठाए जनता को ऐसे कार्यकर्ता लाखों की संख्या में मिल सकते हैं जो अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चाबन्दी पर कटकर लड़ने के लिए साहसी शूरवीरों की भूमिका प्रस्तुत कर सकें। रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन इन्हीं लोगों के द्वारा होगा। अवैतनिक सेवा साधना में संलग्न उच्चकोटि के सुशिक्षित एवं अनुभवी व्यक्ति जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं वह जनता का अजस्र सहयोग उपलब्ध करते हैं और निश्चित रूप से सफल होते हैं। नव निर्माण की बहुमुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होकर ऐसे लोग देश को कितनी जल्दी आगे बढ़ा सकते हैं, ऊँचा उठा सकते हैं इसकी कल्पना मात्र करने से आँखें चमकने लगती हैं।

नव निर्माण की, पुनरुत्थान की सभी दिशाएँ सूनी पड़ी हैं। शिक्षा, संस्कृति, समाज, स्वास्थ्य, आजीविका, विनोद जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र जन सहयोग से ही समुन्नत और सुव्यवस्थित हो सकते हैं। सरकार का मुँह ताकते रहने और शासन को गाली देने से दबे हुए असन्तोष को व्यक्त होने का अवसर मिल सकता हैं और उससे थोड़ा जी हलका हो सकता है, पर कुछ काम नहीं बनेगा। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में संव्याप्त गगनचुम्बी विकृतियों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर सकना और उससे जूझकर विजय प्राप्त कर सकना केवल लोकशक्ति के लिए ही सम्भव हैं। उसी को गठित, सुदृढ़ और परिष्कृत करना होगा। यही है आज का अतिशय महत्त्वपूर्ण कार्य, जिसे बिना कल की प्रतीक्षा किए, आज ही आरम्भ करना चाहिए। हजार वर्ष की बौद्धिक और राजनैतिक गुलामी के उपरान्त अपना देश उठा है, उसकी आर्थिक और राजनैतिक समस्याएँ भी हैं, पर पिछले दिनों न कुछ सोचा गया हैं और न कुछ किया गया है। अपने देश की सामाजिक विकृतियाँ ही समस्त संकटों की जड़ हैं। जाति-पाँति के नाम पर राष्ट्र हजारों टुकड़ों में बँटा पड़ा हैं, हर जाति अपने आप में एक ऐसी स्वतन्त्र इकाई बन गयी है। मानों दूसरी जाति वालों से उसे कुछ लेना-देना ही न हो। ऊँच-नीच की मान्यताओं ने एक तिहाई मनुष्यों को पद दलित और दो तिहाई लोगों को मिथ्या अहंकार से ग्रसित बना रखा है। विवाह, शादियों में होने वाला खर्चा देश के आर्थिक मेरुदण्ड को तोड़कर रखे दे रहा हैं। अन्ध विश्वासों और कुरीतियों में कितना समय, कितना श्रम, कितना धन और कितना मनोयोग नष्ट होता है इसे देखकर रुलाई आती है।

अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों का, अस्सी प्रतिशत छोटी देहातों में रहने वालों का देश वस्तुतः कितना पिछड़ा पड़ा हैं, इसे शहरों से दूर बसे छोटे देहातों की झोंपड़ियों में जाकर ही देखा समझा जा सकता हैं। जिस प्रगति की डींगें हाँकी जाती हैं वे केवल बीस प्रतिशत आबादी वाले शहरों तक ही सीमित हैं। राजनैतिक और सामाजिक उछलकूद इन्हीं थोड़े से लोगों तक सीमित है। अख़बारी धुँआधार प्रचार केवल इसी छोटे क्षेत्र तक सीमित है। असली भारत अस्सी प्रतिशत बहुमत वाला देहाती अशिक्षा ग्रस्त कुरीतियों और कुण्ठाओं से जर्जर देश तो अभी सदियों पुराने पिछड़ेपन से ही सन्त्रस्त हैं। उठना तो उसी को है, उस समुद्र में घुसे कौन? और कौन गहरे गोते लगाकर मोतियों की तलाश करें?

इन प्रश्नों का उत्तर वानप्रस्थ परम्परा के पुनर्जागरण पर ही पूर्णतया अवलम्बित है। भारत न तो अमेरिका है न इंग्लैण्ड। यहाँ ऊँचे वेतन देकर मिशनरी नौकर रखने और पिछड़े देहातों में जाकर काम करने के लिए प्रचुर धन उपलब्ध नहीं है, और न सरकारी साधन ही उतने हैं। हो भी तो नौकरशाही के वर्तमान ढर्रे को देखते हुए यह आशा करना बालू में से तेल निकालना है कि वे साधन रहित देहातों में जाकर उनमें घुलेंगे और जनशक्ति के सहयोग से पुनर्निर्माण के कार्यों में लगेंगे। देहाती दवाखानों में जाने के लिए नौसिखिए डाक्टर तक तैयार नहीं होते। सरकारी नौकरी तो जागीर है, उसे पाकर भी पंखा और मेज कुर्सी छोड़नी पड़ी तो फिर बात ही क्या रही? नौकरी करने का लाभ ही क्या रहा? इस मनोवृत्ति के रहते सरकार भी कुछ कर नहीं सकती। लोक निन्दा से बचने के लिए समाज कल्याण का खर्चीला आडम्बर खड़ा कर देना भर उसके बस की बात है, सो करती भी हैं। करेगी भी।

राष्ट्र निर्माण की समस्याएँ अगणित हैं। देश बहुत अधिक विस्तृत क्षेत्र में बिखरा पड़ा है। अशिक्षा और यातायात के साधन ऐसे अवरोध हैं, जिनके कारण असली भारत से, पिछड़े भारत से बौद्धिक तथा प्रत्यक्ष संपर्क साधना तक कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में सबसे बड़ी, सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता एक ही सामने उपस्थित होती है-सुयोग्य, भावनाशील, अवैतनिक और सेवा की उत्कट लगन के साथ राष्ट्र निर्माण में जुट पड़ने वाले कर्मठ कार्यकर्ताओं की। इस अभाव को पूरा किए बिना कोई गति नहीं, कोई राह नहीं, कोई आशा नहीं। इस प्रयोजन को वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जागरण करके ही पूरा किया जा सकता है। यदि इस दिशा में एक प्रबल और सुव्यवस्थित आन्दोलन खड़ा किया जा सके, तो इस धर्मप्राण देश में प्राचीन संस्कृति की रक्षा और भाव प्रेरणा से प्रेरित अगणित व्यक्ति आगे आ सकते है। और उस सृजन सेना से देखते-देखते द्वापर में उँगली पर गोवर्धन उठाये जाने की तरह, त्रेता में सेतुबन्ध बाँधे जाने की तरह वह चमत्कार सम्भव हो सकता हैं जिसके आधार पर राष्ट्र का पिछड़ापन प्रचण्ड प्रगतिशीलता में परिणत हुआ देखा जा सके।

भारत में धर्म, अध्यात्म और संस्कृति के प्रति अभी भी आस्था का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। भौतिकवादी विचारधारा ने नास्तिकवाद को प्रोत्साहन अवश्य दिया है और धर्म ध्वजी वर्ग के कुकर्मों ने जन मानस में धर्म के प्रति उपेक्षा, अवज्ञा एवं आक्रोश का भाव अवश्य पैदा किया है। इतना सब होने पर भी स्थिति अभी इस सीमा तक नहीं पहुँची है कि धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए आरम्भ किए गए प्रचण्ड अभियान को सर्वथा उपहासास्पद ठहरा दिया जाय और उसकी प्रतिक्रिया उदासीनता एवं निराशा के रूप में सामने आये। हर धार्मिक व्यक्ति वृद्धावस्था में शान्ति प्राप्त करना और परमार्थ साधना की बात सोचता अवश्य है, भले ही परिस्थितियाँ उसे वैसा अवसर ही न होने दें। जिनमें थोड़ा उत्साह हैं वे साधु-बाबाओं के आश्रय में दिन काटते, राम-नाम जपते और तथाकथित सत्संग में उलझे देखे जा सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों की संख्या गिनी जाय तो वह लाखों तक अभी भी पहुँचेगी। यदि इन्हें सही मार्गदर्शन मिला तो वे आत्मकल्याण के साथ लोकमंगल क्षेत्र में प्रवेश कर सकते थे और नव निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकते थे।

परम्परा का राजमार्ग मौजूद है। भावनाओं का अभाव नहीं। परमार्थ के प्रति अपनी आस्था अपनी जगह यथावत विद्यमान है। इसलिए यदि वानप्रस्थ को पुनर्जीवित किया जाय, उसके लिए ओजस्वी आह्वान किया जाय, आगे आने वाले व्यक्तियों का उचित प्रशिक्षण और मार्गदर्शन किया जाय तो कोई कारण नहीं कि लाखों की संख्या में प्रचण्ड क्षमता सम्पन्न लोकसेवी कार्यक्षेत्र में उतारे न जा सकें। यह सम्भावना मूर्तिमान हो सकती है, होनी चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

45.    पशु स्तर त्यागें, मानवी गरिमा में प्रवेश करें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


डार्विन के अनुसार मनुष्य बन्दर की औलाद है कि नहीं, यह विषय विवादास्पद है। फिर भी इतना अवश्य माना जाता है कि मनुष्य-वानरों में आकृति भेद रहते हुए भी कितनों की ही प्रकृति एक जैसी होती है। वन मानुषों जैसी मनोभूमि वाले नर-वानरों की कमी नहीं है। ऐसे भी हैं जो निरुद्देश्य जीते हैं और मर्यादा बन्धन का पालन उतनी ही मात्रा में, उतनी ही देर तक करते हैं जब तक कि उन्हें नकेल, लगाम, नाथ, अंकुश, हंटर का भय दीखता रहता है। दबाव हटते ही वे बन्दर की तरह स्वेच्छाचारिता अपनाते और पशु-प्रवृत्तियों में ही मोद मनाते और दिन गुजारने लगते हैं।

मानवी आकृति भी अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत सुविधाजनक हैं, पर इतने से ही उस सौभाग्य का उदय अनुभव नहीं होता, जो मनुष्य जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। इसके लिए मानवी प्रकृति भी चाहिए। आकृति भगवान प्रदान करते हैं, प्रकृति अपने पुरुषार्थ से स्वयं अर्जित करनी होती है। इसके लिए जिन दो कदमों को उठाना पड़ता है, उनकी धातु क्षेत्र की गलाई ढलाई से उपमा दी जाती है। खदान से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला होता है। उसे भट्टी में गलाना पड़ता है। मिट्टी वाला अंश जल जाने पर ही यह अनगढ़ खंगड़ शुद्ध लोहा बनकर सामने आता है।

अब इसका क्या किया जाय? इसके लिए उसे उपयोगी उपकरणों के साँचे में ढालने के लिए एक बार और तपाया जाता है। इतने से कम में मिला खंगड़ लौह खण्ड अपने स्वाभाविक मूल्यांकन किए जा सकने वाले स्तर तक नहीं पहुँच सकता। बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। शुद्ध लोहा गोदाम में भरा रह सकता है, पर उससे तलवार कैसे बने? ढलाई से इन्कार किया जाय तो लोहा लगभग इसी स्तर पर किसी गोदाम में पड़ा रहेगा, जिस पर कि मिट्टी में मिली स्थिति में किसी लोह खदान में दबा हुआ था। गलाई-ढलाई अग्नि संस्कार लगते तो डरावने हैं, पर इसके बिना कोई गति नहीं। प्रगति पथ पर चलने वाले हर किसी को एक कदम छोड़ना दूसरा उठाना होता है। इसका अर्थ है संचित पशु-प्रवृत्तियों का परित्याग और मानवी गरिमा का अवधारण। लोहे से लेकर हर पदार्थ को, हर प्राणी को आगे बढ़ने और ऊँचा उठने के लिए ऐसी ही अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।

पशु स्तर में पेट-प्रजनन ही सब कुछ होता है। मानवी गरिमा के दो आधार हैं-एक मर्यादाओं का निर्वाह, दूसरा कर्तव्यों का परिपालन। पशु को इन बन्धनों में न बँधने की छूट है। वह स्वेच्छाचारिता अपनाये रह सकता हैं, किन्तु मनुष्य भी यदि वैसा ही करे तो उसे नर-पशु कहा जाएगा। नागरिकों को नैतिक कर्तव्यों के परिपालन के लिए बाधित करने वाले यों सामाजिक और शासकीय प्रतिबन्ध एवं दण्ड विधान भी है, पर बात उतने से भी नहीं बनती। मनुष्य का चातुर्य इतना बढ़ा-चढ़ा है कि वह चाहे तो किसी भी मर्यादा को लुक-छिपकर या दुस्साहस के सहारे तोड़ता भी रह सकता है और दण्ड विधान से बचा भी रह सकता है। अन्तरात्मा की पुकार के रूप में विकसित होने पर ही इस क्षेत्र का अनुशासन निभता है।

मर्यादाओं के अनुबन्धों के निर्वाह में जन्म-जन्मान्तरों की संचित कुसंस्कारिता से जूझना पड़ता है। वह आलस्य प्रमाद के संकीर्ण, स्वार्थपरता के, लिप्सा-लालसा के रूप में भी पुरानी आदतों को इस समय भी कार्यान्वित रखे रहना चाहती है। इसलिए लोभ, मोह, अहंकार के रूप में वे कुसंस्कार उभरते रहते हैं। इन्हें दबाया-दबोचा न जाय तो वे अभ्यास की आदतें सहज छूटती नहीं। विचारों को विचारों से काटना पड़ता है। कुसंस्कारों को अपनाए रहने से वर्तमान स्तर के निर्वाह में कितनी बाधा पड़ती है। भय, तृष्णा, घृणा, तिरस्कार, असहयोग जैसे बाहरी दबावों के अतिरिक्त असह्य आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। मनोविकारों द्वारा विनिर्मित चेतना की ग्रन्थियाँ किस प्रकार व्यक्तित्व को हेय एवं उपहासास्पद बना देती हैं, इसे मनोविज्ञान के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्ति क्या पाता, क्या कमाता है? मोटे तौर से यही दीखता है, पर उनके प्रयोक्ता के अन्तराल को टटोला जाय तो प्रतीत होगा कि यह सब कुछ खोखला हो गया। मोटे शहतीरों और अनाज के गोदामों को नन्हे से घुन खोखला करके रख देते हैं। देखने में अत्यन्त छोटे लगने वाले कीड़े सन्दूक में भरे कपड़ों में छेद करके रख देते हैं। दीमक से न छत बचती हैं न छप्पर, दीवार। शरीर में क्षय, कैन्सर जैसे रोगों के थोड़े से विषाणु घुस पड़े तो मौत के दिन निकट आ गए। कुसंस्कारों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। उनके रहते कोई व्यक्तित्व के वास्तविक वैभव का धनी नहीं बन सकता। पैसा तो उचक्के भी आसानी से जमा कर लेते हैं।

कुसंस्कारों से जूझना ही मर्यादा पालन है। इसके लिए आत्म नियन्त्रण, आत्मानुशासन के हण्टर खुद ही सँभालने पड़ते है और अभ्यस्त अवांछनीयताओं पर वैसा आक्रोश भरा आक्रमण करना पड़ता है, जैसा कि फसल को चौपट करने वाले भूमि कीटकों के ऊपर मारक दवा छिड़कने के समय। यही आध्यात्मिक महाभारत है जिसे हर गाण्डीवधारी आत्मा को लड़ना ही पड़ता है। मर्यादाओं का निर्वाह सहज सुलभ नहीं। अनभ्यस्त आदतें ही नहीं, इर्द-गिर्द फैली पड़ी हेय परम्पराएँ एवं दुरभिसन्धियाँ भी दबाती और अन्धानुकरण के लिए बाधित करती हैं। इस कौरवी सेना जैसी खल मण्डली से निपटने में प्रह्लाद जैसा साहस अपेक्षित होता हैं।

आन्तरिक प्रगति का दूसरा कारण हैं-कर्तव्यों का परिपालन। इसके लिए सत्प्रवृत्तियों को नये सिरे से अपनाना पड़ता है। दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन एक बात है। सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन दूसरा। रोग से निवृत्त होना एक काम है और स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए आवश्यक सरंजाम जुटाना दूसरा। नशा छोड़ देना अच्छी बात हैं, पर इतने भर से कहाँ बात बनी, उस आधार पर हुई शारीरिक क्षति को पूरा करने के निमित्त आहार-विहार का नया उपयोगी उपक्रम बनाना पड़ता है। जुआ खेलना छोड़ दिया ठीक, पर बेकारी से पीछा छुड़ाने के लिए किसी उपयोगी उद्योग में लगने की बात सोचनी होगी। जुआ छोड़ने से संचित रुपये को समाप्त करते चलने वाला प्रवाह तो रुका, इतने पर भी बात तो अधूरी रही। उदर पूर्ति के लिए आलस्य-प्रमाद छोड़कर कोई उपार्जन का रास्ता भी खोजना पड़ेगा। दुष्प्रवृत्ति निराकरण एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष है सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इसी का दूसरा नाम है कर्तव्य पालन।

मानवी काया में प्रवेश करते ही मानवी चेतना पर अनेकानेक जिम्मेदारियाँ आती हैं, वे सभी ऐसी है, जिसके लिए सम्पर्क क्षेत्र की हर इकाई के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझना ही पड़ता है। उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम सदुपयोग, समय सम्पदा के एक-एक क्षण का सुनियोजन, शरीर की मोटर को एक्सीडेण्टों से बचाए रहना, मनःसंस्थान के बहुमूल्य कम्प्यूटर को अनावश्यक छेड़छाड़ करके अस्त-व्यस्त न होने देना, अर्थ सन्तुलन के लिए उपार्जन में श्रमशीलता और उपयोग में मितव्ययिता बनाए रहना जैसे अनेकों निजी उत्तरदायित्व है, जिनका निर्वाह न करना धीमी आत्म-हत्या के समान दुखदायी सिद्ध होता है।

परिवार क्षेत्र में सर्वप्रथम अभिभावकों से ऋणमुक्त होने के लिए, उनकी जराजीर्ण स्थिति को देखते हुए आवश्यक सेवा शुश्रूषा करने की जिम्मेदारी सामने आती है। इसके बाद समान एवं छोटों का ध्यान रखना होता है। जिस संस्था की छत्रछाया में बड़े होने, शिक्षा प्राप्त करने, समर्थ बनने का सौभाग्य मिला है, उसका ऋण ब्याज समेत चुकाया जाना चाहिए। यह हर समर्थ व्यक्ति का सुनिश्चित उत्तरदायित्व है। इस ऋण मुक्ति से किसी को भी विरत नहीं होना चाहिए।

इसके बाद ही अपने विवाह या सन्तानोत्पादन का कदम उठाना चाहिए। विवाह के सम्बन्ध में तो थोड़ी छूट भी है कि यदि पत्नी भारभूत नहीं है, परिवार की अर्थ व्यवस्था तथा प्रबन्ध उत्कर्ष में सहायता दे सकने योग्य है, तो ऋणमुक्ति के भागीदार का लाभ देखते हुए विवाह का खर्च तथा पत्नी के व्यय भार को वहन भी किया जा सकता है। किन्तु यदि वह मात्र भार बनकर ही आ रही हो तो विचार करना होगा कि जो साधन प्रस्तुत परिवार के लिए नियोजित होने चाहिए, उनमें कटौती करके नया भार बढ़ाने की आवश्यकता है या नहीं। कामुकता की तरंगें कुछ भी क्यों न कहें, हर विचारशील को यह देखना होगा कि कर्तव्य क्या कहता है। उपार्जन में समर्थ होते ही अपने ऊपर मनमाना खर्च करने लगना, पत्नी को लेकर अलग हो जाना, जो कमाना उसी के लिए खर्च करना, परिवार को अँगूठा दिखाकर मौज-मजा उड़ाना एक प्रकार की कृतघ्नता है। अभिभावक यही आशा करते हैं कि लड़के के पोषण और शिक्षण पर जो खर्च पड़ रहा है वह उसके समर्थ होने पर वापस मिलेगा और बड़ों का सहारा छोटों के लिए आशा का केन्द्र बनकर रहेगा। उन समस्त आशंकाओं पर पानी फेर देना प्रकारान्तर से विश्वासघात ही कहा जायेगा। यह मानवी प्रगति की मेरुदण्ड कहलाने वाली महान परिवार परम्परा का एक प्रकार से उन्मूलन ही है। परिवार में अभिभावकों को सन्तान के प्रति कर्तव्य पालन का ज्ञान रहता भी है और रखा भी जाना चाहिए। इससे भी बड़ी बात है कि परिवार के हर सदस्य को इस मातृ संस्था के परिपोषण, उन्नयन में समुचित योगदान देने की जिम्मेदारी समझनी चाहिए और समझाई जानी चाहिए, अन्यथा क्रम ही उलट जायेगा।

सन्तानोत्पादन जैसे अत्यन्त गहन उत्तरदायित्व से भरे कार्य में हाथ डालने से पूर्व हर किसी को इन दिनों हजार बार सोचना चाहिए कि हर नया बच्चा, प्रस्तुत परिवार की सुविधाओं में कटौती करता है। देखना यह होगा कि निर्वाह के साधन इतने हैं क्या, जिनमें एक नए साझीदार की भर्ती की जा सके। यों दबाने, दबोचने से तो किसी प्रकार कुछ न कुछ जगह निकल ही आती है पर शालीनता इसी में है कि जो खाली थाली लिए आशा लगाए बैठे हैं, पहले उनका प्रबन्ध किया जाय। पीछे किन्हीं अन्य अतिथियों को निमन्त्रण देने के लिए चल पड़ने वाला कदम उठाया जाय। इस सन्दर्भ में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जननी के स्वास्थ्य पर सन्तानोत्पादन के बाद भारी दबाव पड़ता है और वह अपने को खोखला बनाकर दुर्बलता एवं रुग्णता के ऐसे जाल में जा फँसती है, जिससे फिर कदाचित ही किसी को मुक्ति मिलती है। अभावग्रस्त स्थिति में पौष्टिक आहार, अनुकूल विहार कैसे मिलें? ऐसी दशा में भी जिस महिला को बार-बार प्रजनन का भार वहन करना पड़ेगा वह अपनी स्वस्थ काया सम्पदा को क्रमशः गँवाती चली जायेगी और इस दूसरे के विनोद की वेदी पर रोते कलपते, अकाल मृत्यु का वरण करेगी। ऐसी स्थिति में जन्मे बालकों का भविष्य नितान्त अन्धकारमय है। पौष्टिक आहार, महँगा शिक्षण और छोटे पिंजड़े में बँधी जैसी जिन्दगी जीने वाले अभावग्रस्त, उपेक्षित बालक अपने लिए समूचे समाज के लिए विशेषतया अभिभावकों के लिए सिरदर्द बनते हैं और बड़े होने पर उस मूर्खता का भरपूर बदला लेते हैं।

घोर महँगाई और देश व्यापी अभावग्रस्तता को देखते हुए जहाँ वर्तमान लोगों की ही अशिक्षा, गरीबी, बीमारी का निवारण बन नहीं पड़ रहा है वहाँ नयी संख्या बढ़ाते जाना समय की कसौटी पर एक प्रकार का देशद्रोह ही कहा जा सकता है। वंश चलने, पिण्ड दान मिलने, घर का दीपक जैसी बेहूदी मान्यता अब किसी को भी शोभा नहीं देती। लड़की-लड़कों के बीच भेदभाव भी सर्वथा अनैतिक है। इन सभी कारणों को देखते हुए संतानोत्पादन की ललक को निरस्त करना ही हितकर है। इस क्षेत्र में सभी को समझ-बूझकर कदम बढ़ाना चाहिए।

परिवार के लिए उत्तराधिकार में स्वावलम्बन, सुसंस्कारिता, शिक्षा जैसी विभूतियाँ ही छोड़नी चाहिए। असमर्थ आश्रितों के लिए सुविधा छोड़ मरना एक बात है और कमाने खाने वालों पर जमा पूँजी उड़ेल जाना दूसरी। हराम की कमाई चोरी, उठाईगीरी ही नहीं, मुफ्तखोरी भी है। किसी गृहस्वामी को सन्तान के लिए धन संचय करने की नहीं सोचनी चाहिए। जो देना है उसका व्यक्तित्व विकसित करने पर चालू कृषि उद्योग आदि का पहिया लुढ़कते रहने जितनी पूँजी व्यवस्था को ही पर्याप्त मानना चाहिए। इतने पर कुछ न बन पड़े तो उसे विशुद्ध रूप से सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए उदारता से विसर्जित करना चाहिए। उपार्जन कोई कितना ही करे पर खर्च करते समय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह ध्यान रखे कि औसत भारतीय जैसा निर्वाह ही न्यायोचित है। बचत को विलास में नहीं, वरन् मानवी आदर्शों को अधिकाधिक समुन्नत बनाने के लिए नियोजित करना चाहिए।

कर्तव्य पालन ही अध्यात्म धर्म है। प्रथा परम्पराओं में से जो उचित है उन्हें अपनाना मर्यादा पालन के अन्तर्गत आता है। इससे अगला कदम कर्तव्य पालन का है जीवन के प्रति, परिवार के प्रति निबाहने के साथ-साथ सामाजिक उत्कर्ष की जिम्मेदारी वहन करने की विद्या भी सम्मिलित होती है। जो इस निर्वाह के प्रति जागरूक है उसे सच्चे अर्थों में धर्मात्मा कहा जा सकता है।

इन दिनों प्रगति का अर्थ वैभव का संचय, ठाट-बाट, प्रशंसा आदि की बढ़ोत्तरी समझा जाने लगा है फलतः उन्हें अर्जित करने के लिए लोग औचित्य का, मर्यादाओं का परित्याग करके जिस प्रकार भी बन पड़े साधन बटोरने में लगे है। सरल दीखते हुए भी यह मार्ग वस्तुतः कठिन है। धूर्तता देर तक ठहरती नहीं और साथी सहयोगी खिसकते रहते हैं। चर्चा का विषय बनता है तो अनीति का साझीदार बनने में उस स्तर के लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इसके उपरान्त उद्धत तरीकों से कमाई सम्पदा अपने खर्च की निकासी भी प्रायः उसी स्तर की निकालती है।

प्रगति आत्मा का धर्म है। पशु स्तर छोड़ने वाले और मानवी गरिमा में प्रवेश करने वालों को यह महान सौभाग्य यदि सार्थक बनाना हो तो उपाय दो ही हैं। एक पेट प्रजनन तक सीमाबद्ध रखने वाली पशु प्रवृत्तियों का परित्याग। दूसरा मर्यादाओं का निर्वाह, कर्तव्यों का परिपालन। सोने को कसौटी पर घिसकर और आग में तपाकर खरा-खोटा जाँचा जाता है। मनुष्य शरीर में रहने वालों को मानवी गरिमा का सुयोग भी मिला या नहीं, इसकी जाँच पड़ताल भी तथ्यों का पर्यवेक्षण करने पर हो सकती है-एक मर्यादा निर्वाह दूसरा कर्तव्य पालन। इस कसौटी पर जो सही सिद्ध हो, समझना चाहिए उसने मनुष्य जन्म को सार्थक बनाने का राजमार्ग अपनाया। ऐसों को ही सच्चे अर्थों में प्रगतिशील कहा जा सकता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

46.    मरने से डरना क्या?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


सुकरात को जहर दिए जाने की तैयारी चल रही थी। शिष्य, मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी सभी के नेत्र सजल हो उठे। प्राणों से प्रिय अपने मार्गदर्शक से बिछुड़ने की वेदना असह्य हो रही थी। पर सुकरात पर इसका कोई प्रभाव नहीं था। उल्टे उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा प्रसन्नता, प्रफुल्लता मुख मण्डल पर और भी अधिक परिलक्षित हो रही थी। मृत्यु को गले लगाने की आतुरता सुकरात की देखते बनती थी। ऐसा लगता था कि किसी प्रिय जन से मिलने की उत्सुकता हो। मित्रों ने इस आतुरता का कारण रोते हुए पूछा। सुकरात ने कहा-मैं मृत्यु का साक्षात्कार करना चाहता हूँ तथा यह जानना चाहता हूँ कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं। मृत्यु जीवन का अन्त है अथवा एक सामान्य परिवर्तन क्रम।

सुकरात को निर्धारित समय पर विष दे दिया गया। सभी आत्मीय उन्हें घेरे हुए बैठे थे। नेत्रों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी। सुकरात ने कहा ‘‘मेरे घुटने तक विष चढ़ गया है, पैरों ने काम करना बन्द कर दिया वे मर चुके किन्तु मैं फिर भी जीवित हूँ। मेरे अस्तित्व में थोड़ा भी अन्तर नहीं आया, मैं पूर्ण हूँ। देखो मेरे हाथों ने, कमर ने, नेत्रों ने काम करना बन्द कर दिया, निर्जीव हो गये किन्तु मैं ठीक पहले जैसा हूँ।’’ उपस्थित स्नेही, सहयोगी फूट-फूट कर रोने लगे। सुकरात ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा-देखो तुम्हें जीवन की वास्तविकता को समझने का एक अलभ्य अवसर मिला है। एक व्यक्ति मृत्यु की अवधि से गुजर रहा है तथा तुम सबको संदेश दे रहा है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं, एक अविरल प्रवाह है। जीवन की सत्ता मरणोपरान्त भी बनी रहती है।

रूस के प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. पी.डी. आस्पेंस्की की रुग्णता इस सीमा तक बढ़ी कि चिकित्सकों ने बिस्तर से भी उठने को मना कर दिया। तीन माह के भीतर चिकित्सकों ने उनके मरने की घोषणा कर दी। आस्पेंस्की ने सोचा कि जब मरना ही है तो बिस्तर पर क्यों मरा जाय? मृत्यु का साक्षात्कार क्यों न किया जाय? वह उठा और चल पड़ा। निरन्तर चलता रहा। मित्रों ने अस्वस्थता की याद दिलायी तथा विश्राम के लिए सलाह दी। उसने कहा मैं अचेतन अवस्था में नहीं मरना चाहता। पूर्ण चेतना के साथ मृत्यु को देखना चाहता हूँ। बिस्तर पर मरने की अपेक्षा चलते-चलते मृत्यु को गले लगाना चाहता हूँ। वह चलते-चलते मरा। अन्तिम पग रखने से पूर्व उसने कहा-अब यह शरीर गिरने वाला है। तुम सब यह देखोगे किन्तु मैं तो बहुत समय पूर्व से देख रहा हूँ कि शरीर ने साथ छोड़ दिया है, मेरी सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं है, मैं यथावत हूँ। अन्तिम घड़ियों में उपस्थित प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा है कि आस्पेंस्की की आँखों में जो चमक, चेहरे पर शान्ति देखी गई वह उसके जीवन में पहले कभी नहीं दिखाई पड़ी थी।

जिसने जन्म लिया है उसका मरण सुनिश्चित है। सृष्टि क्रम ही जन्म मरण की धुरी पर घूम रहा है। जो जन्मा है सो मरेगा ही। जीवनेच्छा कितनी ही प्रबल क्यों न हो मरण से बचा नहीं जा सकता। मृत्यु की चलती चक्की में अन्न के दानों की तरह हमें आज नहीं कल पिसकर ही रहना है। इस तथ्य को न तो झुठलाया जा सकता है और न उसका सामना करने से बचा जा सकता है। मरण को एक धु्रव सत्य ही मानकर चलना चाहिए। अनिच्छा, भय, भीरुता अथवा कृपणता-कायरता कुछ भी मन में क्यों न हो प्रकृति का सुनिश्चित क्रम रुकेगा नहीं, हमारा परमप्रिय लगने वाला आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महान शून्य में विलीन होकर रहेगा। आज की यथार्थता कल विस्मृति के गर्त में गिरकर सदा के लिए अविज्ञात अन्तरिक्ष में बिखर जायेगी।

मरण से भयभीत होकर आतुर लोग ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं क्षणों जितना अधिक आनन्द उठा लिया जाय उतना ही उत्तम है। वे इन्द्रिय लिप्सा एवं मनोविनोद के लिए अधिकाधिक साधन जुटाते हैं और उसके लिए जो भी उचित, अनुचित करना पड़े उसे करने में नहीं चूकते। यह उपभोग की आतुरता कई बार तो इतनी बढ़ी-चढ़ी और इतनी अदूरदर्शी होती है कि उपभोग का आरम्भ होते-होते विपत्ति का वज्र सिर पर टूट पड़ता है। अपराधियों और कुकर्मियों की दुर्गति होती आये दिन देखी जाती है। कइयों को तुरन्त ही प्रतिरोध या प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़ता। सामयिक सफलता भी मिल जाती है, पर ईश्वरीय कानून तो उलटे नहीं जा सकते।

जब तक जीना तब तक मौज से जीना, ऋण करके मद्य पीने वाली नास्तिकतावादी नीति मरण की भयंकरता के अनुरूप जीवन को भी भयानक बना लेने की मूर्खता करना है। असीम उपभोग चाहा गया और अप्रत्याशित संकट उभरा, यह कहाँ की समझदारी हुई। उच्छृंखल भोग लिप्सा मन में उठने से लेकर तृप्ति का अवसर आने तक हर घड़ी आशंका, व्यग्रता, जुगुप्सा, चिन्ता की इतनी भयानकता अपने साथ जुड़ी रहती है कि उपभोग की तृप्ति बहुत भारी पड़ती है। सच तो यह है कि अभाव सहने की अपेक्षा उसका कही अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है।

यह तो मृत्युभय को और भी अनेक गुना बढ़ा देने वाली बात हुई। सोचा यह गया है कि मरने तक जितना अधिक आनन्द उठाया जा सकता हो, उतना उठा लिया जाय और नीति, अनीति का विचार न करके इस समय से जितनी अधिक तृप्ति सम्भव हो उतनी प्राप्त कर ली जाय। इसलिए अचिन्त्य चिन्तन और अकर्म करण को अपनाने का दुस्साहस भी किया गया, पर सृष्टि व्यवस्था ने उसे भी कहाँ पूरा होने दिया। तृप्ति के क्षण आने से पहले इतनी आत्म-प्रताड़ना सहनी पड़ी कि उपभोग की सारी सरलता ही नष्ट होकर रह गई। जो मिला वह इतना अधिक दुष्परिणाम साथ लाया कि कामना पूर्ति के सुख की अपेक्षा व्यथा वेदना भरा पश्चात्ताप अपेक्षाकृत कष्टसाध्य ही सिद्ध हुआ।

इस आतुरता से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। एक दिन मरने की अपेक्षा आत्म-प्रताड़ना की, आत्म-हत्या का कष्ट पग-पग पर सहन करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। एक दिन तो सभी को मरना पड़ेगा पर आतुर उपभोग की ललक, कुकर्मों पर उतारू मनुष्य हर कदम पर मृत्यु जैसी झुलसी व्यथा को सहन करता है। मरणोत्तर जीवन पर अविश्वास करने वाले नास्तिक प्रकृति के मनुष्य निश्चित रूप से उनकी अपेक्षा अधिक घाटे में रहते हैं जो अध्यात्म दर्शन के आधार पर मृत्यु को एक वस्त्र परिवर्तन जैसी सहज सामान्य प्रक्रिया मानते हैं और आत्मा को मरणोत्तर जीवन बना रहने की बात पर विश्वास करते हैं।

मृत्यु वस्तुतः उतनी भयानक है नहीं जितनी कि समझी जाती है। आत्मा का अस्तित्व अब एक सुनिश्चित तथ्य मान लिया गया है। वे दिन लद गये जब नौसिखिए, अत्युत्साही बुद्धिवादी मनुष्य को एक जड़ उत्पादन कहा करते थे और शरीर की मृत्यु के साथ ही आत्मा का अस्तित्व न रहने का प्रतिपादन करते थे। पुनर्जन्म के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर धारण किये रहने तक के अब तक इतने प्रमाण मिल चुके है कि उनकी यथार्थता से इनकार करने का कोई साहस नहीं कर सकता। जन्मजात विशेषताओं का बहुत पहले वंश परम्परा के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता था। अब यह मान लिया गया है कि वंश परम्परा से सर्वथा भिन्न प्रकार की जो असाधारण विशेषताएँ मनुष्यों में जन्मजात रूप से पाई जाती हैं, उसका कारण प्राणी के पूर्व जन्म के संस्कार ही हो सकते हैं। विज्ञान और बुद्धिवाद ने पिछली शताब्दियों में जो प्रगति की है उसके आधार पर मरणोत्तर जीवन की प्रामाणिकता में सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रहा है। पैरा साइकोलाजी, मैटरफिजिक्स एवं आकाल्ट साइंस के क्षेत्र में एक के बाद एक ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो मरणोत्तर जीवन की यथार्थता को एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

बुद्धिमत्ता अब यह नहीं कहती कि मरने के बाद अस्तित्व नहीं रहेगा, इसलिए अधिकाधिक उपभोग के लिए अनीति स्तर तक बढ़ा जाय। यह सोचना दोनों ही दृष्टि से गलत है। एक तो मरणोत्तर जीवन और कर्मफल के पुराने सिद्धान्त अब नई कसौटियों पर भी तथ्य पूर्ण सिद्ध हो रहे हैं। दूसरे अनियन्त्रित उपभोग के प्रयत्नों में और उपभोग के उपरान्त उत्पन्न हुए संकटों में जो कष्टकर स्थिति जुड़ी रहती है, वह उस क्षणिक एवं स्वल्प उपभोग की तुलना में कहीं अधिक मँहगी पड़ती है।

मृत्यु से डरने की अपेक्षा यही उत्तम है कि उसे एक सुनिश्चित तथ्य मानकर, जीवन की सहचरी मानकर चला जाय और अनन्त जीवन प्रवाह में मरण को एक छोटा विश्राम मात्र समझा जाय। जीवन भी सृष्टि प्रवाह और परमेश्वर की तरह ही अनादि और अनन्त है। रात्रि में जिस प्रकार हर रोज सोया जाता है और दूसरे दिन सबेरे ही उठकर फिर नया कार्यक्रम चलाया जाता है, उसी प्रकार मरण का विश्राम लेकर हर बार नया जीवन नये दिन की तरह आरम्भ होता है। अगले दिनों की, भविष्य की चिन्ता व्यवस्था में हम सर्वदा संलग्न रहते हैं। रात्रि को सोना पड़ेगा और अगले दिन उठना होगा, ऐसा जो सोचेगा वह सनकी कहलायेगा। मरने के बाद भी जन्म लेना पड़ेगा अथवा सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व रहेगा। दोनों ही अवसरों पर सुखद परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ेगी और वे साधन आज के सत्प्रयत्नों से ही उपयुक्त समय के लिये संचित किये जा सकते हैं। अस्तु मरण का तथ्य ध्यान में रखते हुए हमें मरणोत्तर जीवन के समय के लिए उपयोगी साधन सामग्री जुटाने के लिए निरत रहना चाहिए। यह प्रयोजन सत्कर्म साधना से ही सम्भव हो सकता है। अस्तु उसे जीवन काल में परिपूर्ण तत्परता के साथ ही करते रहना उचित है।

पुराने कपड़े उतार कर नये कपड़े बदलने में हमें तनिक भी बुरा नहीं लगता वरन् प्रसन्नता होती है। आज के बोझिल जीवन की अपेक्षा भविष्य में अधिक कोमल हलका और प्रफुल्ल अवसर बालकपन के रूप में मिलेगा तो इसमें खिन्न होने की क्या बात है? आज शरीर और परिवार की छोटी सी परिधि में कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटने की भारवाही स्थिति से आगे बढ़कर कुछ समय उन्मुक्त अन्तरिक्ष में विचरण करने का अवसर मिलेगा और ईश्वर की अदृश्य गतिविधियों के सम्पर्क में रहना पड़ेगा तो उस कौतूहल पूर्ण स्थिति में रस लेने में भय क्यों माना जाय? यात्राओं का, प्रवास पर्यटन का आनन्द उठाने की इच्छा सभी को रहती है। उन दिनों घर छोड़ना पड़ता है और ढर्रे का जीवन क्रम सम्भव नहीं रहता। तो भी अजनबी और अनोखी वस्तुएँ देखने, नयों के सम्पर्क में आने की प्रसन्नता सन्तोष देती है। यही बात मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, उसे सुखद यात्रा प्रसंग गिना जा सकता है।

मृत्यु का भय उन्हें ही भयभीत करता है जिन्होंने मरणोत्तर जीवन के लिये सुखद स्थिति प्राप्त करने की कोई पूर्व तैयारी नहीं की है। अनिश्चित अन्धकार में प्रवेश करना ही भयानकता की आशंका बनकर मनुष्य को डराता है। विशेषतया यह डर तब और भी अधिक बढ़ जाता है, जब अगले दिनों अधिक गहरी विपत्ति सामने प्रस्तुत होने की आशंका रहती हो। जिनने संकीर्ण स्वार्थपरता और अनैतिकता का आश्रय लेकर जिन्दगी के दिन काटे हैं, उनकी अन्तरात्मा को अदृश्य चेतना आगाह करती रहती है कि इन आज की दुष्प्रवृत्तियों का परिणाम कल भयानक विपत्ति के रूप में ही सामने आ रहा है। यह आगाही मृत्यु भय को सघन बनाती है और मरने का नाम सुनते ही कँपकँपी आती है।

मृत्यु के उपरान्त जीव के कर्मों का लेखा-जोखा परमेश्वर के सामने होता है और न्याय तुला पर तौलकर दण्ड-पुरस्कार का विधान बनता है। अपराधी मनःस्थिति यह जानती है सर्वान्तर्यामी न्यायाधीश से कुछ छिपा नहीं है। वह कर्म और उसके उद्देश्य को भली प्रकार जानता है और बिना किसी पक्षपात अथवा दया-निर्दयता का आश्रय लिये परिणाम भुगतने के लिये प्राणी को बाध्य करता है। इस परीक्षा की घड़ी में अपना खोटापन अपने लिए कितने विघातक परिणाम प्रस्तुत करेगा, यह नंगा तथ्य जब अचेतन मन की आँखों के सामने घूमता है तो उसकी बेचैनी का ठिकाना नहीं रहता। वधस्थल पर ले जाये जाने वाले भयभीत बलि पशु की तरह मृत्यु का भय सामने आते ही अपनी चेतना भी उसी प्रकार काँपती है।

जिन्होंने सत्कर्म किये है और जीवन की विभूतियों का सदुपयोग किया है उन्हें निश्चिन्तता रहती है कि अपना भविष्य उज्ज्वल है। ऊँचे पद पर स्थानान्तर होने वाले कर्मचारी खिन्न नहीं प्रसन्न होते हैं, वे जानते है कि जहाँ जा रहे हैं वहाँ अधिक सम्मान और सुविधा साधन मिलेंगे। ऐसे लोग पुराना स्थान छोड़ते हुए दुखी नहीं प्रसन्न होते हैं। दुःख होता भी है तो वह विदाई विछोह जैसा क्षणिक होता है। ऐसे तो कन्या भी ससुराल जाते समय अपनी सखी-सहेलियों से बिछुड़ते हुए दुखी होती है, पर वह दुःख क्षणिक होता है। विदाई के तुरन्त बाद उसे ससुराल के सुहागरात के सुखद सपने आने लगते हैं और वियोग के हलके से भार को भी कुछ ही क्षणों में भुला देती है। सुकृतकर्मी लोग मरने के समय स्वजन सम्बन्धियों से बिछुड़ते समय कुछ खिन्न भी हो सकते हैं, पर सुखद भविष्य की निश्चिन्तता के कारण वह कष्ट उन्हें न तो भारी पड़ता है और न देर तक ठहरता है। उनके लिए मृत्यु एक पदोन्नति सहित होने वाले सुखद स्थानान्तरण जैसी प्रसन्नता और निश्चिन्तता लिये हुए ही आती है।

सत्कर्म और सदुद्देश्य लेकर ही जीना उचित है। इस राह पर चलते हुए यदि अभाव, अवरोध अथवा संकट का सामना करना पड़े और वह मृत्यु जैसा कष्ट लेकर सामने आ उपस्थिति हो, तो भी विचलित होने की आवश्यकता नहीं। मरना तो एक दिन निश्चित है। वह घड़ी कब आ पहुँचे इसका भी ठिकाना नहीं। जब सामान्य रीति से कभी भी मरना हो सकता है तो सदुद्देश्य की रक्षा में मृत्यु आ उपस्थित होने पर ही क्यों भीरुता प्रकट की जाय। सामान्य मौत से मरने की अपेक्षा सदुद्देश्य के लिए मरना आत्म सन्तोष देता है, अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करता है और शूर, साहसी महामानवों की श्रेणी में अपने को बिठाता है। इतने लाभ जिस मृत्यु के साथ जुड़े हुए हैं वस्तुतः वह चारपाई पर मरने वालों की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सौभाग्यशालिनी है।

मौत जिन्दगी की सहचरी है। दोनों जुड़वाँ बहिनें हैं। एक जहाँ रहेगी वहाँ दूसरी देर सबेर में आ ही पहुँचेगी। एक के बिना दूसरी अपूर्ण है। हमें इन दोनों का ही सम्मान करना चाहिए और दोनों का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध जीवन पद्धति का निर्धारण करना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

47.    आत्मबोध से देवत्व की प्राप्ति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


व्यक्ति स्वयं क्या है? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़ी हुई विभूतियों का सही उपयोग क्या है? इन प्रश्नों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्म-विस्मृति छाई रहती है। अन्तःकरण मूर्छित स्थिति में जा पहुँचता और जीवन नीति का गम्भीर निर्धारण हो नहीं पाता। इन्द्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती हैं। प्रचलित ढर्रे का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। अहंता की तृप्ति के इर्द-गिर्द ही तथाकथित प्रगति कामना चक्कर काटती रहती है। अन्य कीट-पतंगों की तरह नर-पशु भी पेट और प्रजनन के लिए किसी प्रकार जीवित रहता और मौत के दिन पूरे करता है। कटी पतंग और पेड़ से टूटे पत्ते हवा के झोंकों के साथ दिशाविहीन स्थिति में जिधर-तिधर उड़ते और छितराते हैं। हमारे जीवन भी इसी प्रकार जीने के लिए जीते रहते हैं। कोई उच्च उद्देश्य सामने न रहने और उस दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण प्रयास न बन पड़ने पर जीवन का आनन्द मिल नहीं पाता। ऐसे ही रोते-कलपते हारी थकी जिन्दगी कट जाती है। बहुत बार तो अधिक सुख की आतुरता में नीति, मर्यादा, औचित्य और विवेक को भी उठाकर ताक में रख दिया जाता है और ऐसा मार्ग पकड़ा जाता है, जिसमें न केवल अपना वरन् सम्बद्ध व्यक्तियों और पूरे समाज का भी अहित होता है।

बाह्य ज्ञान की तरह अन्तःज्ञान भी आवश्यक है। सुख-साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोक्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना भी आवश्यक है, अन्यथा सुख-साधनों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे विपन्नताएँ एवं समस्याएँ ही उत्पन्न होंगी। आत्मज्ञान की आवश्यकता भौतिक ज्ञान से भी अधिक है। अच्छी मोटर खरीदने के साथ-साथ अच्छे ड्राइवर की भी व्यवस्था करनी चाहिए, अन्यथा पैदल चलने से भी अधिक कठिनाई अनाड़ी द्वारा चलाई जा रही मोटर में बैठने से उत्पन्न हो सकती है।

आत्म-ज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सबसे पहले यह विचार करना होगा कि हम है क्या? और आखिर क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता महामनीषियों ने अपने गम्भीर चिन्तन से जो निष्कर्ष निकाले हैं वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उन्हें भारत ने अपनाया था और उस आधार पर सर्वतोमुखी उत्कर्ष का लाभ उठाया था।

अणु क्या है? सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा सा घटक। आत्मा क्या है? परमात्म सत्ता का एक छोटा सा अंश। अणु की अपनी स्वातंत्र्य सत्ता लगती है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रियाकलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्व से भिन्न नहीं है। एक ही सूर्य की अनन्त किरणें दिग्दिगन्त में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं। देखने में यह किरणें और लहरें स्वतन्त्र और एक दूसरे से भिन्न हैं। तो भी थोड़ी गम्भीर दृष्टि का उपयोग करने पर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता कृत्रिम और एकता वास्तविकता है। अलग-अलग बर्तनों के बीच रहने वाले आकाश में अपनी सीमा में बँधे होने के कारण अलग-अलग लगते हैं, तो भी उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं है। पानी में अनेकों बुलबुले उठते और विलीन होते रहते हैं। बहती धारा में भँवर पड़ते हैं। दीखने में बुलबुले और भंवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचल मात्र हैं। जीवात्मा की सत्ता स्वतन्त्र दीखती भर है, पर वह न केवल, उसका अस्तित्व एवं स्वरूप भी व्यापक चेतना का एक अंशमात्र है।

अध्यात्मवाद के इस सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि हम विश्व चेतना के एक अंशमात्र है। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है, हम उसकी छोटी चिनगारी भर है। एकता को शाश्वत भर समझा जाय पृथकता को कृत्रिम। सब में अपने को और अपने को सब में समाया हुआ देखा, समझा और माना जाय। सबके हित में अपना हित सोचा जाय। सबके दुःख में अपना दुःख माना जाय, सबके सुख में अपना सुख। सबका उत्थान अपना उत्थान, सबका पतन अपना पतन। यह मानकर चलने से सीमित परिधि में सुखी होने की क्षुद्रता घटती है और व्यापक क्षेत्र में सुख सम्वर्धन की योजना सामने आती है।

सीमा संकीर्णता को अवास्तविक मानने से व्यक्तिवाद पर अवलम्बित स्वार्थपरता घटती चली जाती है। अपने को बड़ी मशीन का एक छोटा पुर्जा भर समझने से यह बात ध्यान में रहती है कि उसकी निजी उपयोगिता भी पूरी मशीन का अंग बनकर रहने में ही है। अलग निकलकर अलग से, अलग बड़प्पन सुखोपभोग की बात सोची जायेगी तो यह पृथकता अपनाकर कुछ लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। हानि ही होगी। घड़ी से अलग निकलकर एक पुर्जा बाजार में बिकने चला जाय तो उसे कोई दो कौड़ी का न पूछेगा और मिलने पर उपेक्षा पूर्वक इधर-उधर पटक देगा, पर यदि वह पूरी घड़ी के साथ हो तो घड़ी को मिलने वाले सम्मान में वह भी समान रूप से भागीदार बना रहेगा। पृथकतावादी स्वार्थपरता पर अंकुश लगाने और समूहवादी गतिविधियाँ अपनाने में यह एकता का दर्शन बहुत काम करता है।

अपनापन ही प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वही आत्मीय परम प्रिय लगने लगता है। अपनेपन का दायरा छोटा हो तो मात्र शरीर की, बहुत हुआ तो परिवार की सुख सुविधा सोची जाती रहेगी। वह थोड़ा सा क्षेत्र ही अपना प्रतीत होगा और उतने तक ही प्रिय लगने की परिधि सीमित बनकर रह जाएगी। यह क्षेत्र जितना अधिक बढ़ेगा, उतनी ही प्रियता की परिधि विस्तृत होती चली जायेगी। सभी अपने लगेंगे तो अपना परिवार अत्यन्त सुविस्तृत बन जायेगा। प्रिय पात्रों की मात्रा जितनी ही बढ़ती है उतना ही सुख-सन्तोष मिलता है। यदि व्यापक क्षेत्र में आत्मीयता विस्तृत कर दी जाय तो अपनेपन का प्रकाश बढ़ता जायेगा और उस सारे क्षेत्र का वैभव परमप्रिय लगने लगेगा। उन्नति में, वृद्धि और विस्तार में हर किसी को गर्व गौरव अनुभव होता है। बड़े उत्तरदायित्व समझना ही बड़प्पन का चिन्ह है, यह अनुभूतियाँ उन्हें सहज ही मिल सकती हैं जो सीमा-बन्धनों की तुच्छता को निरस्त करके समष्टि के साथ जुड़े हुए कर्तव्यों का पालन करने के लिए कटिबद्ध होता है।

एकता का दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अंशी के सारे गुण सूक्ष्म रूप से अंश में विद्यमान रहते हैं। अस्तु परमात्मा की समस्त विशेषताएँ तथा सम्भावनाएँ आत्मा में विद्यमान हैं और उन्हें विकसित करने के साधन जुटाकर उच्चतम स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। चिनगारी में वे सभी संभावनाएँ मौजूद रहती हैं जो दावानल में पाई जाती हैं। विशाल वृक्ष का सारा ढाँचा बीज के भीतर मौजूद है। प्राणी की आकृति और प्रकृति का अधिकांश स्वरूप उस नन्हे से शुक्राणु में पूरी तरह मौजूद रहता है कि आँखों से दिखाई तक नहीं पड़ता। ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र जिस रीति-नीति पर अपना क्रिया कलाप चला रहे है, उसी का अनुकरण सौर मण्डल करता है और उसी लकीर पर अणु परमाणुओं के परिभ्रमण के प्रयास चलते हैं। छोटे से परमाणु के भीतर एक पूरे सौरमण्डल का नक्शा देखा जा सकता है। एटम के भीतर काम कर रहे इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान आदि की भ्रमण गतियाँ तथा कक्षाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी कि सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रहों की।

इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है जीव की मूलसत्ता गुणों की दृष्टि से ईश्वर के समतुल्य ही है। इस सम्भावना को विकसित करना मनुष्य जीवन में ही सम्भव हो सकता है। अस्तु उच्च पद प्रदान करने में नियोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं की तरह ही अपना मनुष्य जीवन मिला हुआ है। जिन्हें परीक्षा में भाग लेने का अवसर मिला है वे अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ परायणता का परिचय देकर उत्तीर्ण होने का प्रमाण पत्र प्राप्त करते और प्रतियोगिता जीतकर उच्च पद प्राप्त करते हैं। ऐसा ही अवसर मनुष्य जीवन के रूप में भी मिला हुआ है। उसकी सार्थकता इसमें है कि अपने छोटे से जीवात्मा स्तर को विकसित करके महात्मा-देवात्मा की कक्षाएँ पार करते हुए परम आत्मा, उत्कृष्टतम आत्मा बनने की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करे। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की उदात्त रीति-नीति अपनाने वाले ही इस महान् जीवन लक्ष्य को प्राप्त करते देखे जाते हैं।

मनुष्य जीवन भगवान का प्राणी को दिया गया सबसे बहुमूल्य उपहार है। इससे अधिक महत्त्वपूर्ण चेतन संरचना उसके भण्डार में और कोई नहीं है। इसे अनुपम और अद्भुत कह सकते हैं। बोलना, सोचना, शिक्षा, कला, आजीविका उपार्जन, भोजन, निश्चिन्तता, वस्त्र, निवास, चिकित्सा, वाहन, परिवार, समाज, शासन, कृषि, पशुपालन, वैज्ञानिक उपकरण एवं अनेकानेक सुख-साधनों की सुविधा सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को प्राप्त नहीं हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं। एक समदर्शी पिता को अपनी सन्तानों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए और समान अनुदान देने चाहिए। फिर ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य को ही इतना अधिक दिया गया और अन्य प्राणी उससे वंचित रखे गए? यदि यह सब विभूतियाँ मात्र मौज करने के लिए ही मनुष्य को मिली होती तो निश्चय ही इसे अन्याय और पक्षपात कहा जाता, किन्तु परमात्मा न तो ऐसा है और न ऐसी नीति अपना सकता है, जो उसके महान गौरव पर उँगली उठाने का अवसर देती हो। मनुष्य को अधिक विश्वस्त, अधिक प्रामाणिक और समझदार बड़ा पुत्र माना गया है और उसके हाथ में वे अतिरिक्त साधन सौंपे गये हैं, जिनके सहारे वह ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान संसार को अधिक सुन्दर, अधिक सुविकसित, अधिक समुन्नत और अधिक सुसंस्कृत बना सके।

खजांची के पास ढेरों सरकारी रुपया रहता है, शस्त्र भाण्डागार का स्टोरकीपर सेना के हथियार और गोला बारूद अपने ताले में रखता है, मिनिस्टरों को अनेकों सुविधा, साधन एवं अधिकार मिले होते हैं। यह सब विशुद्ध रूप से अमानतें हैं, इन्हें निजी लाभ के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। खजांची, स्टोरकीपर, मिनिस्टर आदि यदि अपने अधिकार की वस्तुओं को निजी उपयोग में खर्च करने लगें तो यह उनका अपराध माना जाएगा और दण्ड मिलेगा। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को जो मिला है, वह संसार को अधिक सुखी, समुन्नत बनाने के लिए मिली हुई धरोहर के रूप में है। उसमें से औसत नागरिक के स्तर का निर्वाह भर अपने उपयोग में लिया जा सकता है, इसके अतिरिक्त समय, श्रम, ज्ञान एवं धन के, पद प्रभाव आदि के रूप में जो वैभव मिला है, उसका जितना अंश शेष रह जाता है, उसे लोक मंगल के लिए नियोजित किए रहना मनुष्य जीवन का दूसरा प्रयोजन है।

पूर्णता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय, आदर्श एवं पवित्रतम देव जीवन जिया जाय और शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक उपलब्धियों में से न्यूनतम अंश अपने लिए लेकर शेष का परमार्थ प्रयोजनों में उपयोग किया जाय, यही है ईश्वर प्रदत्त सुर-दुर्लभ मानव जीवन के अलभ्य अवसर का श्रेष्ठतम उपयोग। राज घरानों में यह प्रथा थी कि बड़े बेटे को राजगद्दी पर बिठाया जाता था और यह युवराज ही समयानुसार पिता के सारे उत्तरदायित्वों को वहन करता था। छोटे भाई-बहिनों की सुव्यवस्था का भार भी उसी के कन्धे पर रहता था। समझा जाना चाहिए कि राजाधिराज परमेश्वर का ज्येष्ठ पुत्र युवराज मनुष्य है उसे अन्य जीवधारियों की तुलना में जितना कुछ अधिक मिला है वह सब विशेष उद्देश्य के लिए है। उसे विलासिता, संग्रह, अलंकार के उद्धत प्रदर्शन एवं औलाद के लिए मुफ्त का धन छोड़ जाने जैसे हेय प्रयोजनों में खर्च नहीं किया जाना चाहिए। अमानत को, धरोहर को उसी प्रयोजन में लगाया जाना चाहिए जिसके लिए वह मिली है।

शरीर और मन जीवन रूपी रथ के दो पहिये, दो घोड़े हैं। इन्हें काम करने के दो हाथ, आगे बढ़ने के दो पैरों से उपमा दी जा सकती है। अन्तःकरण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप यह दोनों ही स्वामिभक्त सेवक सदा कार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं। शरीर की अपनी स्वतन्त्र कोई सत्ता या इच्छा नहीं। वह जड़ है। इन्द्रियाँ भी जड़ पंचतत्वों से बनी हैं। अन्तःकरण में जैसी उमंगें उठती हैं, उसी दिशा में शरीर की क्रियाशीलता चल पड़ती है। इसी प्रकार मन भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं करता। उसमें सोचने का गुण तो है, पर क्या सोचना चाहिए? यह निर्धारण करना अन्तःकरण का काम है। सज्जनों का चिन्तन एवं कर्तृत्व एक तरह का होता है और दुर्जनों का दूसरी तरह का। इसमें दोनों के शरीर और मन सर्वथा निर्दोष होते हैं। अन्तःप्रेरणा का निर्देश बजाते रहना भर उनका काम है। दुष्कर्म करने या मन को दुर्बुद्धिग्रस्त होने का जो दोष दिया जाता है वह अवास्तविक है। इन दिनों वाहनों को प्रेरणा एवं दिशा देने का काम अन्तःकरण रूपी सारथी का है। शरीर में क्रिया, मन में विचारणा और अन्तरात्मा में भावना काम करती है। भावनाओं को ही श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, मान्यता आदि के नाम से जाना जाता हैं। इन्हीं सबके समन्वय से आकांक्षा उभरती है और फिर उसी की निर्देशित दिशा में शरीर और मन के सेवक काम करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

आत्म-ज्ञान का अर्थ है अन्तरात्मा के गहन स्तर में यह अनुभूति एवं आस्था उत्पन्न करते रहना कि हम सत् चित् आनन्द परमात्म सत्ता के अविच्छिन्न अंग हैं। हमें पूर्णता प्राप्ति के लिए श्रेष्ठतम जीवन क्रम अपनाना है और जो उपलब्ध है उसे लोकहित के लिए प्रयुक्त करना है। आत्मज्ञान की भूमिका में जगा हुआ जीवात्मा संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लाँघकर सब में अपने को और अपने में सबको देखता है, इसलिए उसके सामने व्यक्तिवादी आपाधापी फटकने भी नहीं पाती, जो सोचता और करता है उसमें व्यापक लोकहित की, सदुद्देश्यों को कार्यान्वित करने की भावना कार्य करती है। कहना न होगा कि आत्मबोध से लाभान्वित आत्माओं को प्रत्येक विचारणा और प्रत्येक क्रिया-पद्धति में मात्र आदर्शवादिता ही उभरती, छलकती दिखाई पड़ती हैं। ऐसे लोग अभावग्रस्त और संकटग्रस्त हो सकते हैं, पर अन्तःकरण में उन्हें असीम आनन्द और सन्तोष की अनुभूति हर घड़ी होती रहती है।

भगवान बुद्ध को जिस दिन आत्मज्ञान हुआ, उसी दिन से दिव्य मानव बन गए। जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें आत्मबोध हुआ था उसकी टहनियाँ काट-काटकर उनके अनुयायी अपने-अपने क्षेत्रों में ले गये और वहाँ उसकी मूर्तिमान देवता के रूप में स्थापना की। इसका तात्पर्य है बुद्ध को सामान्य राजकुमार से भगवान बना देने का श्रेय उस आन्तरिक जागरण को ही दिया गया जिसे आत्मबोध के रूप में पुकारते हैं। यह उपलब्धि जिसे भी मिल सकेगी, वह उसी मार्ग पर चलने वाला वैसा ही सत्परिणाम प्राप्त करने का अधिकारी माना जायेगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

48.    आत्मिक प्रगति के तीन सोपान
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


मानवी सत्ता के तीन पक्ष हैं (1) भावना (2) विचारणा (3) क्रिया-प्रक्रिया। इन तीनों को परिष्कृत बनाने के लिए पुरातन प्रतिपादन के अनुसार भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग के अभ्यास की आवश्यकता बताई गई है। यह एक नियत समय या नियत स्थान पर नियत विधान के साथ हो सकने वाले कृत्य नहीं हैं वरन् ऐसे उच्चस्तरीय निर्धारण हैं जिनके अनुसार कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर की गतिविधियों का नियमित रूप से निरन्तर सूत्र संचालन करना पड़ता है। उपासना में अन्तःकरण को, साधना में मनःसंस्थान को और आराधना में क्रिया कलापों को उच्चस्तरीय उद्देश्यों के अनुरूप गतिशील रखना पड़ता है। श्वास-प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन जैसी गतिविधियाँ अनवरत रूप से निरन्तर चलती रहती हैं। ठीक इसी प्रकार आत्मसत्ता के उपरोक्त तीनों पक्षों को इस प्रकार प्रशिक्षित करना पड़ता है कि वे अभ्यस्त कुसंस्कारिता से छुटकारा पाकर सुसंस्कारी शालीनता के ढाँचे में ढलने के लिए विवश हो सकें।

पूजा पाठ के समस्त उपचारों का एक मात्र लक्ष्य यह उत्कृष्टता सम्पादन ही है। परब्रह्म को किसी उपहार मनुहार के सहारे फुसलाया नहीं जा सकता। उसने नियति क्रम जड़ चेतन सभी को बाँधा है और स्वयं भी बँध गया है। प्रशंसा के बदले अनुग्रह और निन्दा के बदले प्रतिशोध लेने पर यदि भगवान उतर पड़े तो समझना चाहिए कि व्यवस्था परक अनुबन्ध समाप्त हो गए और सर्वतोमुखी अराजकता का उपक्रम चल पड़ा। ऐसा होता नहीं है। लोगों का भ्रम है जो सृष्टा को फुसलाने और नियति क्रम का उल्लंघन करने वाले अनुदान इसलिए माँगते हैं कि वे पूजा करने के कारण पक्षपात के अधिकारी हैं। यह बाल बुद्धि जितनी जल्दी हट सके उतना ही अच्छा है। पूजा उपचार का तात्पर्य चेतना संस्थान को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का प्रभावी व्यायाम पराक्रम प्रशिक्षण मात्र है। इस या उस प्रकार जो अपने चेतना क्षेत्र को जितना समुन्नत बना सकेगा वह उतना ही ऊँचा उठेगा, आगे बढ़ेगा और देवत्व के क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकारी बनेगा।

उपासना का उद्देश्य है-आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना। आत्मा अर्थात् अन्तःकरण, भाव संस्थान जिसके साथ मान्यताएँ आकांक्षाएँ लिपटी रहती हैं। परमात्मा अर्थात् उत्कृष्ट आदर्शवादिता। स्मरण रहे परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, सृष्टि में जितना भी देव पक्ष है उसके समुच्चय को, आत्माओं के समष्टि समुदाय को परमात्मा कहते हैं। संक्षेप में व्यापक क्षेत्र की सत्प्रवृत्तियों का समग्र रूप ही मनुष्य का इष्ट उपास्य है। इसी के साथ आत्मसात्, घनिष्ठतम, एकाकार होते जाना ही परमात्मा की उपासना है। सर्वविदित है उपासक का स्तर ऊँचा होगा और उपास्य का स्वरूप वास्तविक होगा तो उन दोनों की घनिष्ठता का प्रभाव इसी रूप में प्रकट होगा कि उपासक उपास्य के तद्रूप बनता चला जाय।

ईंधन आग के जितना समीप पहुँचता है उतना ही गरम होता जाता है। जब वह इष्ट से लिपट जाता है उसकी सत्ता अग्नि रूप में प्रकट होती है। नाला नदी में, बूँद समुद्र में, नमक पानी में मिलने पर उन्हें एकात्म होते देखा जाता है। चन्दन के निकट उगे हुए झाड़-झंखाड़ सुगन्धित होते हैं। लोहा पारस का स्पर्श करके सोना बनता है। पेड़ से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची चढ़ती जाती है। पत्नी का समर्पण पति के समस्त यश वैभव, स्नेह सहयोग की भागीदारी खरीद लेता है। यह प्रक्रिया भाव-भरी उपासना से सम्पन्न होती है। परमात्मा के साथ, आदर्शवादी देव परिवार के साथ मनुष्य जितना भाव और कर्म से एकीभूत होता जाता है उसी अनुपात में उसका प्रभाव भी हाथों-हाथ बढ़ता है। बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़ते ही बल्ब जलने और पंखे चलने लगते हैं। दो तालाबों के बीच नाली बना दी जाय तो ऊँचे वाले का पानी नीचे वाले में चलता रहता है जब तक कि दोनों की सतह एक नहीं हो जाती। उपासना यदि कर्मकाण्ड की चिह्न पूजा मात्र हो, मनुहार की लकीर पिट रही हो तो बात दूसरी है अन्यथा आत्मा के परिष्कृत एवं विशद रूप परमात्मा के बीच यदि घनिष्ठ आत्मीयता जुड़े तो उसकी परिणति स्पष्टतः यही हो सकती है कि मनुष्य में देवत्व उभर पड़े। उसका चिन्तन, चरित्र और व्यवहार वैसा बन पड़े जैसा उदात्त दृष्टि वाले भगवद् भक्तों का होना चाहिए। इस संदर्भ में विभिन्न सम्प्रदायों ने कई प्रकार के पूजा विधान बनाये हैं उनमें से कोई भी चुना जा सकता है किन्तु उस कलेवर के अन्तराल में आदर्शों के प्रति आत्म समर्पण की, जीवन को उसी स्तर का बनाने की ललक होनी चाहिए। इसी ललक को भक्ति भावना कहते हैं। इष्ट की आकृति मनुष्य जैसी या सूर्य शिवलिंग जैसे प्रकृति पदार्थ की प्रयुक्त हो सकती है। पर ध्यान रहे उसे विराट की प्रतीक प्रतिमा भर माना जाए। ऐसा न हो कि उस सीमित में असीम को सीमाबद्ध करने की भूल की जाय। उपासना यदि निर्भ्रान्त और श्रद्धा विश्वास से भरी पूरी है तो कोई कारण नहीं कि उसका प्रभाव भक्त में स्तर से क्रमशः उच्च से उच्चतर, उच्चस्तर से उच्चतम बनाने का प्रगति क्रम निरन्तर गतिशील न बना रहे। यह यात्रा परम लक्ष्य तक पहुँच कर ही रुकती है।

उपासना का उपरोक्त तत्त्व दर्शन समझ लेने के उपरान्त शेष इतना ही रह जाता है कि उसे भावनात्मक व्यायाम की तरह पूजा उपचार के क्रिया कृत्यों के सहारे आगे बढ़ाया जाय। इसके लिए किस पद्धति का अवलम्बन किया जाय। इसका उत्तर प्रज्ञा परिजनों के लिए एक ही है कि उनकी जैसी मनोभूमि के लिए ‘प्रज्ञायोग’ की विधि व्यवस्था ही सर्वोत्तम सिद्ध होगी। यह सर्वांगपूर्ण है। इसमें उपासना, साधना और आराधना के तीनों तत्त्वों का समान रूप से समावेश है। संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित रूपरेखा अगले पृष्ठों पर अलग से प्रस्तुत है। कारण शरीर में सन्निहित भाव श्रद्धा को दिशा देने और ऊँचा उठाने के लिए उपासनात्मक आवश्यकता की पूर्ति प्रज्ञायोग के सहारे सम्पन्न की जानी चाहिए।

साधना अर्थात् अपने आपे को साधना। उसके अनगढ़पन, पिछड़ेपन, कुसंस्कार का निराकरण संशोधन, निम्न योनियों से क्रमिक यात्रा करते हुए मनुष्य जन्म तो प्राणी भगवान के अनुग्रह से प्राप्त कर लेता है। पर पिछली कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ाना और मानवी गरिमा के उपयुक्त विशिष्टता उत्पन्न करना उसका अपना काम है। भगवान इसी आधार पर किसी की पात्रता जाँचते हैं, और उसे अधिक ऊँचे उत्तरदायित्व, पद, वैभव, प्रदान करते हैं। महामानव मनीषी, ऋषि, सिद्ध पुरुष, देवात्मा, अवतार आदि इसी स्तर की प्रगति पदोन्नति हैं जिन्हें मनुष्य पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करने के उपरान्त विजेता की तरह उपहार में प्राप्त करता है। चिन्तन और चरित्र में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश ही साधना है। इसके लिए पिछले कुसंस्कारी ढर्रे से पग-पग पर जूझना पड़ता है। कुविचारों के सम्मुख सद्विचारों की सेना खड़ी करते हुए उन्हें मल्लयुद्ध में परास्त करना पड़ता है।

मन को मारना अर्थात् साधना, अध्यात्म क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। जो मन के पीछे चलते हैं वे अनगढ़ घोड़े की पूँछ में अपनी गरदन बाँधकर झाड़ झंखड़ों में खिंचते, घिसटते-फिरते और लहूलुहान होकर बे मौत मरते हैं। जिस मनोनिग्रह को, चित्तवृत्ति निरोध को आत्मिक प्रगति का मेरुदण्ड माना गया है उसे नट-बाजीगरों द्वारा बरती जाने वाली एकाग्रता मात्र नहीं समझना चाहिए। उसका तात्पर्य है मन को कुसंस्कारी भटकावों से रोककर उत्कृष्टता के, लक्ष्य के राजमार्ग पर संकल्प पूर्वक चल पड़ने की अटूट भाव श्रद्धा। कहा गया है-‘‘जिसने अपने को जीता वह विश्व विजयी है।’’ इस युक्ति में बहुत कुछ सार है जिसका दबाव अपने स्वभाव तक को बदलने में सफल न हो सका उस असफल व्यक्ति को कौन मान्यता देगा? कौन उसकी बात सुनेगा? कौन उसके कहने पर चलेगा? व्यक्तित्व की प्रामाणिकता इसी कसौटी पर कसी जाती है कि वह अनगढ़ मन के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचता है अथवा मनस्वी घुड़सवार की तरह अपने वाहन को अभीष्ट दिशा में अभीष्ट गति से चलाने दौड़ाने में समर्थ रहता है।

साधना हो या उपासना उसकी चाबी भरने के लिए कोई समय नियत हो सकता है, किन्तु काम इतने भर से बनने वाला नहीं। घड़ी के पुर्जों को अनवरत क्रम से चलना और सुइयों को बिना विश्राम के चलते रहना पड़ता है। दोनों ही प्रक्रिया ऐसी हैं जिनमें अपनी क्रिया, विचारणा और आकांक्षा को हर घड़ी परखना और सुधारना-संभालना पड़ता है। खजाने के रक्षक, जेल के वार्डर और सीमा के प्रहरी निरन्तर चौकस रहते हैं। जीवन सम्पदा में व्यतिक्रम न उत्पन्न होने पाये, इसके लिए जो सर्वदा जागरूक रहता है और अवांछनीयता के प्रवेश करते ही रक्त के श्वेत कणों की तरह विजातियों से गुँथ पड़ता है, उसी को विजेता कहते हैं। प्रशंसा, प्रतिष्ठा, सम्पन्नता, सफलता जैसी विभूतियाँ अर्जन करने में ऐसे पराक्रमी लोग ही समर्थ होते हैं।

आत्म-निर्माण में गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता अपनानी होती है। पर उस प्रयास का अभ्यास कहाँ हो? सिद्धान्त को आदत में बदलने के लिए कहीं न कहीं अभ्यास तो करना ही होगा। बलिष्ठता के लिए व्यायामशाला, विद्वता के लिए पाठशाला, धनाढ्य बनने के लिए उद्योगशाला का आश्रय लेना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आत्म-निर्माण के लिए व्यक्तित्व में जिन सत्प्रवृत्तियों के समावेश की आवश्यकता पड़ती है उसके लिए कोई न कोई कार्यक्षेत्र तो चाहिए ही। समझा जाना चाहिए कि इस स्तर का नियमित, निरन्तर, दीर्घकालीन अभ्यास चलाते रहने के लिए एक सुनियोजित प्रयोगशाला का कार्य परिवार के वातावरण में ही सम्भव हो सकता है। पशु जीवन में जिन उत्कृष्टताओं से कोई वास्ता न पड़ा था उसे मनुष्य जीवन में अपनाना पड़ता है। यह कार्य पठन, श्रवण से संभव नहीं। प्रवृत्तियाँ दीर्घकालीन अभ्यास से स्वभाव का अङ्ग बन जाती हैं। परिवार में पग-पग पर हर सदस्य के मर्यादा पालन, अनुशासन, सहकार, आत्मभाव एवं उदार व्यवहार का अभ्यास करना पड़ता है लगता है इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाया गया है। उस सामाजिकता का अभ्यास करने के लिए परिवार की छोटी प्रयोगशाला का संचालन सौंपा गया है। इसमें दुहरा लाभ है। इसमें आत्मिक सद्गुणों का अभ्यास तथा एक छोटे उद्यान को सुविकसित बनाकर सृष्टि सौन्दर्य बढ़ाने, सृष्टा का मनोरथ पूरा करने वाला उपक्रम है। यह पारिवारिकता ही है जो आत्म विकास का उद्देश्य पूरा करती है और समुन्नत होते ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ की विश्व परिवार की युग साधना सम्पन्न करती है।

उपासना-साधना के अतिरिक्त तीसरा कार्यक्रम है-आराधना। आराधना अर्थात् विराट ब्रह्म की विश्वमानव की सेवा संलग्नता। हर भगवद्भक्त को भजन एवं जीवन परिष्कार के साथ-साथ इस विश्व उद्यान को सुन्दर समुन्नत बनाने के लिए किसी न किसी रूप में अपने श्रम, समय और साधन का एक अंश नियमित रूप से लगाना पड़ा है। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक स्तर के सभी धर्म प्रेमी किसी न किसी रूप में लोक-मंगल के लिए सार भरे अनुदान प्रस्तुत करते रहे हैं। इसके अभाव में आध्यात्मिक प्रगति का लाभ किसी को भी नहीं मिला। भूमि-शोधन तथा बीजारोपण को उपासना साधना कहा जा सकता है। पर फसल इतने से ही नहीं काटी जा सकती।

युग सन्धि में सर्वोत्तम लोक-साधना एक ही है-लोक का परिष्कार। इसके लिए जन सम्पर्क साधने और जन-जन को युगान्तरीय चेतना से परिचित अनुप्राणित करना प्रमुख एवं प्रधान कार्य है। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के बहुमुखी कार्यक्रम इन दिनों इसी निमित्त चल रहे हैं। प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण तथा प्रज्ञा अभियान का संचालन जिन उद्देश्यों को सामने रखकर अग्रसर हो रहा है उसे लोक सेवा की सामयिक एवं सर्वोत्तम प्रक्रिया कहना चाहिए। इसी में सम्मिलित होकर, सहभागी बनकर आराधना का उद्देश्य पूरा होता है। सभी प्रज्ञा परिजनों को अपनी आत्मबल सम्पादन प्रक्रिया में उपासना और आराधना का समावेश करना चाहिए।

आत्मिक प्रगति के लिए जिन तीन सोपानों पर चढ़ना पड़ता है, उनमें उपासना, साधना के अतिरिक्त तीसरा मोर्चा आराधना का रह जाता है। आराधना के लिए अन्तःकरण कुरेदना पड़ता है। साधना के लिए परिवार की प्रयोगशाला में अपने निर्धारणों को परिपक्व करना पड़ता है। आराधना का अर्थ है-लोक मंगल के सर्वोत्तम उपाय सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में निरत होना। संक्षेप में इसी को समाज सेवा, लोक साधना, जन कल्याण, पुण्य परमार्थ आदि नामों से पुकारते हैं। यह भी मानवी गरिमा का एक सुनिश्चित पक्ष है। इसकी उपेक्षा करने पर सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अङ्ग बना सकना संभव ही नहीं हो पाता। सिद्धान्तों को समझना, पढ़ना, सुनना, पर्याप्त नहीं। इतने भर से मनोविनोद भर होता रहता है, पल्ले कुछ नहीं पड़ता। श्रेष्ठता को स्वभाव का अङ्ग बनाने के लिए एक ही मार्ग है-पुण्य परमार्थ का प्रयोग, अभ्यास। इसलिए सेवा-साधना को मानवी गरिमा का अविच्छिन्न अङ्ग ठहराया गया है और स्वार्थ परायण को अपराधी की तरह घृणित बताया गया है। मनुष्य का अस्तित्व पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। अन्य प्राणी तो कुछ दिन ही माता की सहायता लेकर स्वावलम्बी बन जाते हैं, पर मनुष्य को आजीवन दूसरों की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। अन्न, वस्त्र, पुस्तक, औषधि आजीविका जैसे साधनों से लेकर पत्नी, पिता, माता, सास, श्वसुर आदि सम्बन्धियों की उदार सहायता बिना एक पल भी काम नहीं चलता। एकाकी जीवन अन्य प्राणी जी सकते हैं, पर मनुष्य की संरचना को देखते हुए वैसा संभव नहीं। समाज सहयोग से रहित व्यक्ति को रामू भेड़िये जैसा वनचर, मूक-बधिर होकर रहना पड़ेगा। इस उपकार का प्रत्युपकार होना ही चाहिए सहयोग, आदान-प्रदान का, उदारता का सिलसिला चलना ही चाहिए। यही प्रकारान्तर से पुण्य परमार्थ है। ऋण मुक्ति, सद्गुणों की उपलब्धि, आत्मीयता विस्तार की विभूति जैसी अनेकों सुखद संभावनाएँ लोक मंगल की साधना के साथ जुड़ी हुई हैं। भजन का वास्तविक तात्पर्य परमार्थ है। संस्कृत की ‘भज् सेवायां’ धातु से भजन शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है-सेवा को जीवन क्रम में सम्मिलित रखना। व्यक्ति समाज को समुन्नत बनाये। समाज व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने का अवसर करे। यही है-‘‘देवान् भावयतानेन्.........।’’ का गीता प्रतिपादन। हम देवत्व का सम्वर्धन परिपोषण करने वाली सेवा-साधना में निरत रहें तो बदले में वह परिपुष्ट हुआ देवत्व हमें सर्वतोमुखी प्रगति के साथ जुड़ी हुई अगणित विभूतियों से सुसज्जित करेगा और कृत-कृत्य बनाकर रहेगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

49.    विवाहोन्माद के असुर से जूझ पड़ें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


जिन दुष्प्रवृत्तियों ने हमारे समाज को अधःपतित स्थिति में ला पटका है उनका उन्मूलन करने के लिये कभी न कभी किसी न किसी को खड़ा होना ही होगा। वे जीवित रहेंगी तो समाज की सजीवता मरेगी और यदि समाज को स्वस्थ और समुन्नत स्थिति में जीना है, तो इन दुष्प्रवृत्तियों को मरना होगा। खेत को उपजाऊ बनाना हो तो कँटीली झाड़ियाँ उखाड़नी पड़ेंगी नहीं तो खेत में कुछ महत्त्वपूर्ण उत्पादन की आशा नहीं की जा सकती। अपने समाज पर काली घटाओं की तरह छाई हुई दुष्प्रवृत्तियों की विभीषिका ही हमारी वर्तमान दुर्दशा का एकमात्र कारण है। इस तथ्य को सुनते समझते तो रहा जाय पर उनके निराकरण के लिए कोई उपाय न हो तो उसे एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। जो अवांछनीय है, अनैतिक है, अनुपयुक्त है, अन्याय मूलक है, उसके प्रति रोष उत्पन्न न हो तो इसे मृतक मनोभूमि का ही चिन्ह माना जायेगा। जो अविवेक पूर्ण है, अनुचित है, हानिकारक है उसको सहन करने और सहयोग एवं प्रोत्साहन देते रहा जाय तो यही कहना चाहिए कि मानवीय वर्चस्व का अन्त हो गया और मनुष्य साँस लेता हुआ मृतक ही बन गया।

पिछले एक हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार में हमें मुट्ठी भर विदेशियों द्वारा पद दलित होना पड़ा। इसका कारण कोई भौतिक विवशता एवं असमर्थता नहीं थी, केवल एक ही दुर्बलता थी कि हम अनीति के साथ समझौता करने वाले और अनुपयुक्त को सहने वाले भीरु मानस बन गये थे। कायर और क्लीव कितने ही साधन सम्पन्न हो, दुष्टताओं के निरन्तर शिकार होते रहेंगे और उन्हें शोषण एवं उत्पीड़न की शिकायत करते सदा ही सुना जायेगा। जो प्रतिरोध करने का शौर्य खो बैठा उसे कोई नाचीज भी सता सकता है। अपने दुर्भाग्यपूर्ण हजार वर्ष के इतिहास के पीछे यही विडम्बना जमी बैठी है। अनीति का सामूहिक प्रतिरोध करने की दुष्टता से लड़ पड़ने की मानवोचित शूरता यदि हम समुचित मात्रा में धारण किये रहते, तो किसी का भी साहस न पड़ता कि हमें तिरस्कृत, पीड़ित और शोषित बनाने की दुरभिसंधियाँ बनाता।

अपनी भीरुता और मानसिक दीनता का दण्ड हम बहुत पा चुके। अब अपने पास बचा ही क्या है? जो था बहुत बड़ा भाग खो चुके। जो है उसकी सुरक्षा का साधन तभी बनेगा जब हमारे भीतर मानवोचित शौर्य और साहस का उदय हो। अनीति से लड़ने के लिये, अनाचार को हटाने के लिये जिसकी भुजाएँ नहीं फड़कती, जिनके आँखों के तेवर नहीं चढ़ते उन्हें अनन्त काल तक शोषण, उत्पीड़न के, अपमान के कड़ुवे घूँट अपनी कायरता के दण्ड में अनन्त काल तक पीने पड़ेंगे। इस दुनिया को वीर भोग्या बनाया गया है। आनन्द और उल्लास केवल बहादुरों के हिस्से में आया है। भीरु और निस्तेज व्यक्ति तो दुखड़ा रोने के लिये ही बनाये गये हैं। वे अपने को बदलने के लिये तैयार न हो तो कम से कम निरन्तर विपत्तियाँ सहने और अनीति के शिकार बने रहने के लिए तो तैयार होना ही होगा।

अपने समाज की कुछ ऐसी ही दयनीय दशा हो गई है। अविवेकपूर्ण एवं अवांछनीय परिस्थितियों से हम बुरी तरह घिरे हुए हैं। चक्रव्यूह में फँसे हुए एकाकी अभिमन्यु ने अंतिम साँस तक आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था। शक्ति सन्तुलन बिगड़ा और वह बालक मारा गया तो भी आदर्श जीवित रह गया। किसी भी प्रलोभन से, यहाँ तक कि प्राणों के मोह से भी अन्याय के आगे शिर नहीं झुकाना चाहिये। यह आदर्श ही सजीव और समर्थ जातियों का होता है। जो भीरुता से ग्रस्त, आशंकाओं से भयभीत होकर एक कोने में चुपचाप मुँह ढककर बैठ जाते हैं, वे शुतुरमुर्ग की तरह भले ही सोचते यह रहे कि हम झंझटों से बच गये। पर झंझट उन्हें छोड़ने वाले नहीं। कायरता का दण्ड शोषण और उत्पीड़न के रूप में मिलता रहा है और भविष्य में मिलता ही रहेगा।

जीवित रहने के लिये अवांछनीयता के साथ संघर्ष करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है, इस तथ्य को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही उत्तम है। व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट मूढ़ता, अदूरदर्शिता, भीरुता और अन्धानुकरण की प्रवृत्ति से लड़ना ही चाहिए और अपने आप को विवेकशील, न्याय निष्ठ एवं सत्यभक्त के रूप में प्रस्तुत करना ही चाहिये। यह परिवर्तन सम्पन्न हुए बिना हमारे जीवन का तेजस्वी अस्तित्व प्रकाश में न आ सकेगा। और हम कुण्ठाओं एवं कुत्साओं में ही ग्रसित बने रहेंगे, समाज को सुसंगठित एवं सुविकसित बनाने के लिये भी उसमें समता, शुचिता एवं ममता की प्रवृत्तियों को बढ़ाना पड़ेगा। शोषण, उत्पीड़न, छल, दंभ एवं संकीर्णता की जो दुष्प्रवृत्तियाँ सामाजिक जीवन की नस-नस में समा गई है उनका आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। स्वस्थ मान्यताएँ एवं सत्प्रवृत्तियाँ ही किसी राष्ट्र या समाज को सबल समर्थ एवं संगठित कर सकने में सफल होती है, अस्तु समाज का वर्तमान अवांछनीय स्तर भी बदलना ही होगा। यह कार्य अनायास अपने आप ही न हो जायेंगे। व्यक्ति और समाज के वर्तमान स्तर का यदि कायाकल्प करना है, तो उसके लिये ऐसा प्रबल प्रयत्न करना होगा जिसे संघर्ष नाम दिया जा सके।

विचार क्रान्ति की उपयोगिता आज सर्वत्र अनुभव की जा रही है। हर कोई यह सोचता और चाहता है कि व्यक्तिगत एवं समाजगत मूढ़ मान्यताएँ एवं अनैतिकताएँ ही समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, इन्हें बदला जाना चाहिये। पर बदलने के लिये क्या किया जाय यह सूझ नहीं पड़ता। सभा, मीटिंग, प्रस्ताव, भाषण की सस्ती रीति-नीति अब बहुत पुरानी हो गई। निरर्थक लोग ही वाचालता की कला में बहुत प्रवीण हो गये हैं। लोग यह जान गये हैं कि बकझक करने मात्र की योग्यता वाले भी समाज सुधारक का आडम्बर बनाये फिरते हैं और वे ‘पर उपदेश कुशल’ भर होते हैं। उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर होता है। ऐसे लोगों का किस पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? रचना, सभाएँ जमाना और लच्छेदार लैक्चरबाजी करना तथाकथित आत्म विज्ञापन बाजों का एक शुगल मात्र रह गया है। वस्तु स्थिति समझ ली जाने से अब वह प्रक्रिया अपना मूल्य खो बैठी और उसकी ओर से जनता ने उदासीनता धारण कर ली। देखा जाता है कि अब इस प्रकार के प्रयोग उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाते हैं और लोग उनमें सम्मिलित होने तथा सहयोग देने को उत्सुक नहीं रहते। वस्तुतः कुछ करना हो तो अब ठोस और सच्चाई से भरे आधार ढूँढने होंगे और उनका संचालन सच्चे, कर्मठ और सक्रिय व्यक्तियों के हाथों में सौंपना होगा।

परिवर्तन के लिये संघर्ष की नितान्त आवश्यकता है। लोगों की आदतें विशेषतया बुरी आदतें मात्र कहने सुनने से नहीं बदलती। बदलाव झटके के साथ आता है, सरलता से वह सब हो ही नहीं सकता। प्रचार की, लोक शिक्षण की दृष्टि से सिखाने-पढ़ाने की प्रक्रिया का उपयोग हो सकता है लोग आलोचना, निन्दा और विरोध सुनने में रुचि भी लेते हैं और मौखिक समर्थन भी सुधारवाद का करते है, पर जब परिवर्तन के लिये सक्रिय कदम उठाने का अवसर आता है तब देखा जाता है कि बढ़-चढ़कर बातें बनाने वाले भी पीछे हटने और बगलें झाँकने लगते हैं। अतएव वांछनीय परिवर्तन लाने के लिये ऐसे आन्दोलन खड़े करने पड़ते हैं जिनमें कितने ही लोग भाग ले और उनका अनुकरण करने के लिये दूसरों को साहस प्राप्त हो। देखा-देखी की प्रवृत्ति लोगों में पाई जाती है। जहाँ बुरी बातों का अनुकरण किया जाता है, वहाँ आदर्शवादी कार्य पद्धति यदि चल पड़े तो लोग उसका अनुकरण भी करते हैं।

गाँधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन का संचालन करते हुए एक छोटा मोर्चा आरम्भ किया था, जिसके द्वारा आसानी से व्यापक क्षेत्र में सरकार के कानून उल्लंघन का संघर्ष आरम्भ किया जा सके। नमक सत्याग्रहियों की एक छोटी प्रक्रिया थी, पर उसने कानून तोड़ने और सरकार से लड़ने की प्रवृत्ति व्यापक क्षेत्र में फैला दी और फिर वह अभियान अनेक मोर्चों पर विकसित होते हुए इतना बढ़ा कि अँग्रेज सरकार की लम्बी अवधि से चली आ रही राजनैतिक पराधीनता को पलायन करने के लिये ही विवश होना पड़ा। सामाजिक और नैतिक क्रान्ति के लिए हमें एक छोटा मोर्चा आरम्भ में चुनना चाहिए और ऐसे संघर्षात्मक आन्दोलन का सृजन करना चाहिए, जिसे व्यापक क्षेत्र में विकसित किया जा सके। आरम्भ भले ही छोटा और सीमित हो पर ऐसा संघर्ष रुके तभी, जब परिवर्तन की समग्र आवश्यकताएँ तथा दिशायें प्रभावित हो जाय। हजार वर्ष की गुलामी के कारण हमारी विचारणाओं, प्रवृत्तियों और गतिविधियों में अवांछनीय तत्वों का, मूढ़ता एवं अनैतिकता का इतना समावेश हो गया है कि वे पग-पग पर शान्ति और सुव्यवस्था में बाधक सिद्ध हो रही है। समय का तकाजा है कि उन्हें बदला जाय अन्यथा वे हमारे लिये और भी अधिक अधःपतन की विभीषिका उत्पन्न करेंगी।

मूढ़ता को विवेकशीलता में, अविवेक को औचित्य में परिवर्तित करने के लिए एक व्यापक जन आन्दोलन की, संघर्षात्मक कार्यक्रम की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। समय आ गया कि उसका शुभारम्भ किया जाय। इसके लिये एक महत्त्वपूर्ण मोर्चा विवाहोन्माद के उन्मूलन का आधार लेकर खड़ा किया जाना है कि अभिभावकों से कहा जाना चाहिए कि वे अपने बच्चों के विवाह में न तो दहेज लें और न जेवर दें। अतिसादगी के साथ दस-पाँच आदमियों की बारात में एक छोटा पारिवारिक उत्सव मनाकर विवाह कर लिया करें। यदि बड़ा आयोजन अभीष्ट हो तो किसी यज्ञ सम्मेलन अथवा सामूहिक विवाहों के रूप में सार्वजनिक उत्सव रखा जाय और उस समारोह को लोक-शिक्षण की आवश्यकता पूरी करने वाला बनाया जाय। वैयक्तिक विवाहों में अतिसादगी और अति मितव्ययता बरती जाय। उपजातियों के बन्धन ढीले किये जाय और चार वर्णों की प्राचीन परिपाटी को ही पर्याप्त मान लिया जाय।

अभिभावकों की प्रतीक्षा में बैठे रहना ही पर्याप्त न होगा। आन्दोलन को विचारशील छात्रों और छात्राओं में, युवक और युवतियों में भी फैलाया जाना चाहिए। उनके कानों तक विवेक, न्याय और औचित्य की यह माँग पहुँचाई जानी चाहिये और उनकी सहृदयता, सज्जनता एवं विवेकशीलता को जगाया जाना चाहिए। यदि उन्हें वस्तु स्थिति समझाई जा सके तो उनका नया रक्त और नया विवेक बूढ़ों की रूढ़िवादिता और मूढ़ता की तुलना में अधिक प्रगतिशील सिद्ध हो सकता है।

संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण अंग यदि विवाहोन्माद के निराकरण को मान लें, अपनी गतिविधियों में इस प्रक्रिया को भी जोड़ लें और देश में बिखरे हुए अनेक धार्मिक, सामाजिक संगठन थोड़ा-थोड़ा भी प्रयत्न करें तो सब मिलाकर बहुत काम हो सकता है।

जातीय संगठनों, संस्थाओं और पर्वों की रीति-नीति में तो यही प्रमुख प्रयोजन होना चाहिये कि दुष्प्रवृत्तियों से लड़ें और अपने वर्ग को नैतिक दृष्टि से अधिक परिष्कृत बनाने को कटिबद्ध हों। इस दृष्टि से विवाहोन्माद का निराकरण सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रथम पंक्ति में रखे जाने योग्य कार्य है। जातीय पंचायतें फैसले करें, प्रस्ताव पास करें कि उनके वर्ग में विवाहों की खर्चीली प्रथा बन्द की जायेगी और अगणित मूढ़ताओं का, रीति-रिवाजों का बहिष्कार कर अति सादगी और मितव्ययता पूर्वक विवाह, शादी किये जाया करेंगे। हर वर्ग अपनी संकीर्णता को घटाये और विशालता को बढ़ाये तो उसे उपजातियों को मिलाकर एक बड़ी जाति मात्र रहने देने की उपयोगिता हर दृष्टि से विवेक पूर्ण एवं हितकर दिखाई देगी। जातीय पंचायतें यदि यह सुधारात्मक कार्य हाथ में लें और उसे पूरा करने में जुट पड़े तो वे अपने अस्तित्व की उपयोगिता सिद्ध कर सकती हैं। अन्यथा संकीर्णता एवं विभेद की खाई चौड़ी करने वाली विडम्बनाओं में ही उनकी गणना होती रहेगी।

देश में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं और उनमें से सभी सुधारवाद, विवेक एवं औचित्य का समर्थन करती है। अच्छा हो सभी एक न्यूनतम संयुक्त कार्यक्रम बनाकर उसमें विवाहोन्माद का प्रतिरोध एवं आदर्श विवाहों की परिपाटी चलाने को प्राथमिकता देने लगें। सभी पत्र इस संदर्भ में लोकमत जागृत करें और प्रचलित रूढ़िवादिता को हटाने के लिये एक व्यवस्थित आन्दोलन खड़ा कर दें। मूढ़ता की हानियाँ और दूरदर्शिता की आवश्यकता को यदि कहानी, कविता, समाचार, लेख आदि माध्यमों से प्रस्तुत करना आरम्भ कर दें, तो इस दिशा में लोकमत जगाया जा सकता है और प्रचलित लोगों के मस्तिष्क पर विवाहोन्माद का चढ़ा हुआ नशा उतारा जा सकता है।

अभिनय, गायन, नाटक, एकांकी, प्रहसन, फिल्म, स्वांग आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुधारवाद का समावेश किया जा सकता है और इस पंक्ति में विवाहोन्माद के उन्मूलन को प्राथमिकता दी जा सकती है।

लेखक, कवि एवं प्रकाशक ऐसे साहित्य का सृजन एवं प्रसारण कर सकते हैं जो विवाह व्यवसाय के रोमांचकारी दुष्परिणामों से परिचित करायें और इस पद्धति के विरुद्ध घृणा एवं रोष उत्पन्न करें। वक्ता और गायक अपनी वाणी से समाज की इस भ्रष्ट प्रणाली पर तीखे प्रहार कर सकते हैं। और जन मानस में यह तथ्य एवं तर्क प्रतिष्ठित कर सकते हैं कि बिना दहेज, बिना जेवर, बिना धूमधाम के अति सरल और सादा विवाह उत्सवों का प्रचलन ही अनीति की कमाई करने एवं दिन-दिन दरिद्र बनते जाने की विभीषिका से छुड़ा सकता है।

उपाय अनेक हैं। रास्ते बहुत हैं। आवश्यकता उन पर चलने के लिये प्रोत्साहन करने की और ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने की है जिनका, अनुकरण करने के लिये सर्व साधारण का उत्साह जगाया जा सके। प्रबुद्ध वर्ग का उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य है कि अपने समय की दुष्प्रवृत्तियों से जूझने और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना करने के लिये समय निकाला जाये और अपने प्रभाव एवं चातुर्य का ऐसा उपयोग हो जिससे अपने समय की इस सबसे अधिक कष्टकारक दुष्प्रवृत्ति का उन्मूलन संभव हो सके।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

50.    लोकरंजन से लोकमंगल की लक्ष्यसिद्धि
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


मनुष्य की विचारणाओं को, भावनाओं को प्रभावित करने के लिए साहित्य की शक्ति सर्वोपरि है। इतिहास, कथा, धर्म-दर्शन, अध्यात्म, पद्य आदि विभिन्न स्तर की पुस्तकें, पत्रिकाएँ यदि उच्च उद्देश्य को लेकर निकाली जाए तो निस्सन्देह उनसे प्रभावित मनुष्य की अन्तःचेतना आदर्शवादिता की दिशा में अग्रसर हुए बिना न रहेगी। आज लोगों की रुचि पशुता भड़काने वाले और उथले साहित्य की ओर इसलिए है कि उनका बौद्धिक स्तर पिछले अन्धकार युग ने निम्न स्तर का बना दिया है। उसे ऊँचा उठाने में कुछ समय तो लगेगा पर प्रयत्न करने पर हर बात सम्भव है। अभिरुचि इन दिनों निर्माण साहित्य की ओर नहीं है। लोग उस तरह की वस्तुएँ पढ़ना नहीं चाहते यह ठीक है। पर यह भी ठीक है कि यदि एक बार उन्हें इसका महत्त्व विदित हो जाय, पढ़ने का चस्का लग जाय तो वे दूसरे अन्य सभी निरर्थक विषयों को छोड़कर केवल जीवन विद्या पढ़ने पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करने लगेंगे।

आरम्भिक दिनों में उत्कृष्टता में दिलचस्पी लेने वाली अभिरुचि जगाना सबसे बड़ा काम है। सत्साहित्य निर्माण से भी यह कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण है। लोगों की रुचि ही न मुड़ी तो उस सृजन और प्रकाशन का लाभ कौन उठावेगा। हम देखते हैं कि पुस्तकालयों में पढ़ने वाले, बुक सेलरों के यहाँ खरीद करने वाले पाठक, ग्राहक केवल उथले किस्म की चीजें मँगाते हैं। अच्छा साहित्य बन्द पड़ा सड़ता रहता है, उसे कोई पूछता भी नहीं। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए। कुरुचि बदलने और सुरुचि बढ़ाने का कार्य व्यक्तिगत सम्पर्क से ही सम्भव है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व यदि सत्साहित्य द्वारा उपलब्ध होने वाले सत्परिणामों की आकर्षक ढंग से चर्चा करने लगें तो सुरुचि उत्पन्न करने का कठिन दीखने वाला कार्य कुछ ही समय में सरल हो सकता है।

आज से ५० वर्ष पूर्व चाय को बहुत कम लोग जानते थे। सर्व साधारण को उससे परिचित कराने के लिए चाय के एजेण्ट घर-घर जाकर मुफ्त पिलाया करते थे। एक-एक पैसे का पैकिट बेचते थे और चाय की प्रशंसा में आकाश पाताल के कुलावे मिलाते थे। लोगों की रुचि उसी से मुड़ी। आज चाय के बिना निपट देहातों में भी काम नहीं चलता। हर व्यक्ति उसका आदी होता चला जाता है। बीड़ी, सिगरेट को ही देखिए, कितनी तेजी से उनका प्रचार बढ़ रहा है। उसके लिए उन कम्पनियों द्वारा किए जाने वाले विविध प्रकार के खर्चीले प्रचार को ही श्रेय दिया जा सकता है। नव निर्माण के लिए जिस विचार क्रान्ति की हम तैयारी कर रहे हैं, उसमें सत्साहित्य का प्रथम स्थान है। इसका सृजन, प्रकाशन जितना आवश्यक है उससे ज्यादा यह आवश्यक है कि उसे पढ़ने के लिए, सुनने के लिए जन साधारण में इच्छा, अभिरुचि उत्पन्न की जाय। प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को अपनी सेवा साधना में इस तथ्य को प्रथम स्थान देना चाहिए और जन सम्पर्क स्थापित कर प्रगति का संदेश पढ़ने, सुनने के लिए आवश्यक अनुकूलता उत्पन्न करनी चाहिए। सृजन और अनुशीलन की यह उभयपक्षीय प्रक्रिया ही विचार परिष्कार का प्रयोजन पूरा कर सकने में समर्थ होगी।

अपने देश में एक बड़ी कठिनाई यह है कि यहाँ शिक्षा अभी भी बहुत कम है। २३ प्रतिशत साक्षर और ७७ प्रतिशत निरक्षर है। देश में बड़ा भाग उन्हीं का हैं। इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, प्रजातन्त्र के हिसाब से तीन चौथाई के बहुमत वाले यह लोग ही देश की वास्तविक तस्वीर हैं, अशिक्षा के साथ-साथ गरीबी भी जुड़ी रहती है और विचार विस्तार की सुविधा न रहने से मूढ़ता भी जकड़े रहती है। इन तक पहुँचना कठिन भले ही हो, पर है अनिवार्य। शहरी क्षेत्र में रहने वाले या पढ़े लिखे लोगों को ही देश मान बैठने से काम न चलेगा, हमें नव निर्माण की योजना बनाते हुए, इस देश की प्रजा अशिक्षित है और देहातों में फैली हुई है, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा।

इस सन्दर्भ में हमें सुनाने की पद्धति का प्रयोग करना पड़ेगा। जो पढ़ नहीं सकते वे सुन सकते हैं। समाज सेवियों को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि लोग सुनने में रुचि लेने लगे और परिवर्तन एवं निर्माण के आधारों को समझने के लिए आकर्षित हो सकें। चूँकि अशिक्षा के कारण सोचने-समझने का दायरा बहुत सीमित रह जाता है इसलिए उन्हें किसी तथ्य को घटनाक्रम का, कथानकों का, उदाहरणों का सहारा लेकर समझाया जा सकना अधिक सरल पड़ता है। कोई बात बताई जाय और उसके सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर के रूप में तब तक चर्चा को चलाया जा सकता है, जब तक कि बात पूरी तरह समझ में न आ जाये। कथाएँ, दृष्टान्त समाचार, उदाहरणों का हवाला देकर भी बात मन में बिठाई जा सकती है। पिछले दिनों जबकि जन साधारण का बौद्धिक स्तर बहुत नीचे गिर गया था, तब धर्म दर्शन अध्यात्म के गहन विषयों को समझाने के लिए कथा पुराणों का सृजन और प्रचलन आरम्भ किया गया था। आज भी अपने देश में उन्हीं तरीकों का प्रयोग करके जन साधारण को व्यक्ति और समाज की वर्तमान परिस्थितियाँ समझ सकने योग्य प्रशिक्षित किया जा सकता है और सुधारात्मक तथ्यों को उनके गले उतारा जा सकता है। हमें इस तरह की व्यवस्था जगह-जगह बनानी चाहिए। देवी-देवताओं वाले पुराणों की कथाएँ सुनाना इन दिनों उतना आवश्यक नहीं रहा जितना कि वर्तमान परिस्थितियों का ज्ञान कराना। इसलिए आज की हमारी कथा, गोष्ठियाँ प्राचीन काल की लकीर तो न पीटें, पर उस लोक शिक्षण करने की स्वतन्त्र पद्धति का सृजन अवश्य करें। इस प्रकार का प्रबन्ध किए बिना वर्तमान भारतीय समाज का पुनरुत्थान और पुनर्निर्माण सम्भव न हो सकेगा। कथा, गोष्ठियाँ आज देहाती क्षेत्रों के लिए अति उपयुक्त सिद्ध हो सकती हैं। व्याख्यान प्रवचन किए जाने हो तो भी इसी शैली के किए जाने चाहिए। विद्वतापूर्ण भाषण उस क्षेत्र में निरर्थक ही सिद्ध होते हैं। हमें अपने देश का उपयुक्त प्रवचन शैली का स्वतन्त्र विकास करना चाहिए।

दूसरा आधार संगीत के माध्यम से खड़ा किया जा सकता है। देहातों की क्षेत्रीय भाषा में लोकगीतों का प्रचलन अभी भी है और लोग अपने-अपने ढंग से उन्हें गुनगुनाते, गाते बजाते भी रहते हैं। पर्व त्यौहारों, उत्सवों, संस्कारों तथा दूसरे हँसी-खुशी के अवसरों पर गीत वाद्य प्रायः सभी जगह प्रयुक्त होते हैं। इनकी पुनः रचना की जानी चाहिए। देहातों में ऐसे साक्षर प्रतिभाशाली व्यक्ति मिल ही सकते हैं जो क्षेत्रीय भाषा में, वहाँ की शैली में लोकगीतों का सृजन कर सकें। खड़ी बोली हिन्दी में इस प्रकार के गीतों का केन्द्र द्वारा सृजन हो। उन्हीं भावों का अनुवाद अपनी शैली, बोली में स्थानीय कवि कर लिया करें। उन्हें सिखाने के लिए संगीत गोष्ठियाँ चलाई जाये, पुस्तकें छापी जाये। महिलायें महिला गायन तैयार करें और पुरुष पुरुषों को सिखाया करें। इस प्रयोजन के लिए सरल सी वाद्य शिक्षा की कक्षाएँ चलाई जा सकती हैं। संगीत में स्वाभाविक सरसता होती है, वह सभी को आकर्षित करता है। इस आकर्षण में प्रगतिशील तत्वों का समन्वय कर दिया जाय तो सोने में सुगन्ध वाली कहावत चरितार्थ हो सकती है। संगीत सम्मेलनों के स्थानीय तरीके अलग हो सकते हैं, पर उनके द्वारा एक राष्ट्रव्यापी प्रेरणा यह दे सकते हैं कि लोक-मानस को वर्तमान अवांछनीयता के विरुद्ध भड़का कर सृजन के प्रगतिशील मार्ग पर चलने के लिए बेचैन बनाया जाय। यह प्रवृत्ति जितनी विस्तृत और व्यापक होगी उतनी ही विचारक्रान्ति की सम्भावना उन पिछड़े क्षेत्रों में भी सरल हो जायेगी, जहाँ शिक्षा के अभाव में सुधारात्मक प्रयत्नों की सफलता कठिन ही दीखती है।

लोकरंजन के नव निर्माण के लिए युग गायकों की एक बड़ी सेना जल्दी ही खड़ी करनी पड़ेगी, जो जन जागरण के गीत घर-घर, गली-गली गूँजा सकें और जिनमें इस प्रकार की रुचि हो उन्हें आवश्यक शिक्षण देकर अपना सहयोगी बना सकें। छोटे-छोटे संगीत विद्यालय हर जगह चलाये जाने चाहिए जिनमें केवल गायन, वादन, वाद्य भर की शिक्षा न हो वरन् उन गीतों की, उन भाव भंगिमाओं और कला मुद्राओं की शिक्षा भी दी जाय जो लोकमानस का पुनर्निर्माण कर सकने का प्रयोजन ठीक तरह पूरा कर सके। सीमित साधनों में व्यापक उद्देश्य पूरा करने के लिए अपना यह प्रशिक्षण ऐसा सरल और सीमित ही रखा जा सकता है, जो स्वल्प काल के अभ्यास से शिक्षार्थी को काम चलाऊ बना दे।

इस सन्दर्भ में नाट्य मंच का उपयोग भी किया जाने वाला है। अब तक नाटक अभिनय मात्र मनोरंजन के लिए होते थे। बहुत हुआ तो उनमें कामुकता भड़काने वाले कथानक जोड़ दिये। अब उस मंच को निकृष्टता के प्रति घृणा और उत्कृष्टता के प्रति आस्था जमाने के लिए प्रयोग किया जायेगा। ऐसे कथानक, संवाद, दृश्य, भाव इन नाटकों में जोड़े जायेंगे जो उन पतनकारी दुष्प्रवृत्तियों का भली प्रकार भण्डाफोड़ कर सकें, जिनने हमारे समाज को खोखला करके रख दिया है। इसी प्रकार इन सत्प्रवृत्तियों का माहात्म्य भी समझाया जायेगा जो मानवीय भविष्य को उज्ज्वल बना सकने में सब प्रकार समर्थ सिद्ध हो सकती हैं। जो नाटक तैयार किए जा रहे हैं, वे धार्मिक ऐतिहासिक कथानकों वाले होने से जनता में लोकप्रिय भी होंगे और उनके भीतर जो आग भरी गई है उससे गरमी भी प्राप्त करेंगे।

सिनेमा लोकप्रिय तो बहुत हुआ है, पर उसकी पहुँच शहरों तक हो सकी है। देहातों तक पहुँचने में उसे अभी सैकड़ों वर्ष लगेंगे। उस क्षेत्र की आँशिक आवश्यकता पूरी करने वाले छाया चित्रों वाले कुछ यन्त्र अभी भी काम में लाए जा सकते हैं। बिजली या बैटरी से इन्हें चलाकर पर्दे पर प्रकाश दृश्य दिखाए जा सकते हैं। लाउडस्पीकर से उनकी विवेचना सुनाई जा सकती है अथवा टेपरिकार्डर से उन दृश्यों की व्याख्या संगीत सहित की जा सकती है। इस प्रयोजन के लिए मैजिक लालटेन, ऐपिदेस्कोप स्लाइड प्रोजेक्टर, फिल्म प्रोजेक्टर, टेप रिकार्डर आदि ऐसे यंत्रों का प्रयोग किया जायेगा जो देहातों में बैटरी के माध्यम से भी प्रयुक्त हो सकते हैं। संस्था के खर्च में अथवा स्थानीय लोगों के थोड़े-थोड़े अर्थ सहयोग से इस प्रकार के आयोजन स्वल्प व्यवस्था में हर जगह हो सकते हैं और उनके प्रभाव से लोकमानस को सुधारने, मोड़ने एवं ऊँचा उठाने में भारी सहायता मिल सकती है। पिछड़े हुए क्षेत्रों में इसी स्तर के प्रयोगों को अधिक सफलता मिल सकती है। जहाँ ऊँचे साहित्य और ऊँचे प्रवचनों की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, वहाँ इस प्रकार के लोक रंजन और लोकमंगल के संयुक्त प्रयत्न जादू जैसा प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। इस तथ्य को समझते हुए लोक शिक्षण के लिए कला मंच का प्रयोग एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रयुक्त करने की तैयारी की जा रही है।

चलती-फिरती चित्र प्रदर्शनियाँ भी उपरोक्त प्रयोजन को एक सीमा तक पूरा कर सकती हैं। जो बात मात्र कहने सुनने से कल्पना में नहीं आती वह देखने से अधिक आसानी और अधिक गहराई तक मन में प्रवेश कर जाती है। इसलिए दृश्य प्रचार का महत्त्व बहुत अधिक माना गया है। सिनेमा ने जो असर जन मानस पर डाला है, उसकी गहराई से इनकार नहीं किया जा सकता। सिनेमा वालों ने जो सिखाया उसे नई पीढ़ी ने भली प्रकार सीख लिया है। पोशाक, वेषभूषा, भाव-भंगिमा, इच्छा, आकाँक्षा, क्रिया, दिशा, बातचीत, रहन-सहन पर नई पीढ़ी ने जितना प्रभाव सिनेमा से लिया है, उतना और किसी माध्यम से नहीं लिया। कारण स्पष्ट है-दृश्य के साथ जो बातें आँखों के सामने से गुजरती और मस्तिष्क से टकराती हैं, वे अपना गहरा प्रभाव छोड़कर जाती हैं। चिन्तन, मनन और स्वाध्याय प्रवचनों में एक तो लोगों की रुचि ही कम होती है, फिर उन माध्यमों से गहरा प्रभाव ग्रहण कर सकना केवल परिष्कृत मस्तिष्कों के लिए ही सम्भव होता है। सर्व साधारण के उथले मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने में मनोरंजन, आकर्षण साथ लेकर बनने वाले दृश्य श्रव्य साधन ही अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। सिनेमा की सफलता का यही कारण है। इस तथ्य को समझते हुए दृश्य, श्रव्य एवं मनोरंजन की सम्मिलित प्रक्रिया का हमें विकास करना चाहिए और उस उपलब्धि के द्वारा लोकमानस का निर्माण करने के लिए हमें योजना बद्ध कदम बढ़ाने चाहिए। कला भारती इस प्रकार के प्रयोगों का शुभारम्भ कर रही है। आशा की जानी चाहिए कि यह प्रयोग लोकमंगल में अभिरुचि रखने वालों को अभिनव माध्यम प्रदान करेंगे और उनके प्रयासों को अधिक सरल एवं सफल बनाने की पृष्ठभूमि तैयार करेंगे।

टेप रिकार्डर से संगीत व्याख्यान विवेचना अलग, फिल्म के दृश्य अलग रखे जाने के बाद भी एक ऐसी सस्ती प्रक्रिया निकल सकती है, जो अपने प्रयोजन की सस्ती फिल्में बनाने और दिखाने का प्रयोजन पूरा कर सके। छोटे जनरेटरों से इतनी बिजली पैदा की जा सकती है कि एक देहाती सिनेमा भली प्रकार चल सके। १६ मिलीमीटर के मूवी फिल्म दिखा सकने योग्य प्रोजेक्टर, टेप रिकार्डर, बिजली पैदा करने का जनरेटर, पर्दा उपकरण आदि मिलाकर कुल दस हजार की पूँजी से एक चलता फिरता सिनेमा घर बन सकता है। इसके लिए दो घण्टे दिखाई जा सकने वाली फिल्म की लागत भी कुछ बहुत बड़ी नहीं पड़ेगी।

फिल्म निर्माण का कार्य एक मंच करता रहे। सिनेमा घर अपने क्षेत्रों में घूमते रहें। हर वर्ष दस नए फिल्म बनाए जाते रहें तो चालू सिनेमा उद्योग खड़ा किया जा सकता है। जिस प्रकार शहरी जनता चालू सिनेमा से दुष्प्रवृत्तियाँ सीखती है, उसी प्रकार देहाती जनता इस छोटे स्तर के दीखने वाले सिनेमाओं से नवजीवन की प्रेरणा ग्रहण कर सके तो निःसन्देह भारतीय लोक मानस का नव निर्माण करने की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी बात होगी।

लोक मानस को परिष्कृत करने के लिए कला का उपयोग किया ही जाना चाहिए। यह हमारा विश्वास है कि यह माध्यम बहुत प्रभावशाली अनुभव किए जायेंगे और राष्ट्र निर्माण के लिए बेचैन लोकसेवी उन माध्यमों को बड़े पैमाने पर विकसित करने के लिए आगे आवेंगे। मानवता के उज्ज्वल भविष्य की आशा हम जिन प्रयत्नों के आधार पर कर सकते हैं, उनमें से साहित्य के बाद कला का ही नम्बर आता है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार