अनुक्रमणिका
१. दो शब्द
२. स्रष्टा की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति—नारी
३. नारी स्रष्टा की जीवन्त कलाकृति
४. नारी—उत्कृष्टता की जीवन्त प्रतिमा
५. नारी—देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा
६. नारी मूर्तिमान उत्कृष्टता है
७. मूर्तिमान शक्ति सत्ता का अनन्त अभिनन्दन
८. कला और करुणा की जीवन्त प्रतिमा—नारी
९. वरिष्ठता नारी के पक्ष में जाती है
१०. वरिष्ठता में नारी का पलड़ा भारी है
११. नारी को भी परिपूर्ण मनुष्य ही माना जाए
१२. आस्था मूलक नारी जीवन
१३. नारी कामधेनु है, कल्पवृक्ष है
१४. नारी की वरिष्ठता स्वीकारें
१५. नर-नारी के बीच महान सद्भावना
१६. नर-नारी के बीच का सघन सहयोग
१७. पिछड़ापन अकुलाहट के बिना हटेगा नहीं
१८. नारी को मात्र न्याय चाहिए और कुछ नहीं
१९. नारी के साथ अदूरदर्शी नीति न बरती जाए
२०. समुन्नत परिवार सुसंस्कृत नारी ही बना सकेगी
२१. ससुराल में नारी को अतिथि सत्कार प्राप्त हो
२२. न्याय युग की वापसी और नारी की समर्थता
२३. नारी की एकाकी सत्ता समग्र उद्यान के समतुल्य
२४. जागृत-महिला परिवार-मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी
२५. अग्रगामी पिछड़ों की सहायता करें
२६. नारी पारिवारिकता की प्रतिमूर्ति
२७. सहकारिता का सम्वर्द्धन — पारिवारिक वातावरण में
२८. उठने की उत्कट अभिलाषा जगाएँ
२९. उठाने के साधन और उठने का उत्साह, दोनों ही चाहिए
३०. नारी को साथ लिए बिना प्रगति अधूरी
३१. अनीति के आतंक से समझौता न करें
३२. नीति-प्रतिष्ठा का आग्रह भी तो उभरे
३३. अपहरण की नहीं अनुदान की नीति अपनाएँ
३४. उपेक्षा के रहते उपयोगिता सम्भव नहीं
३५. मनुष्य में देवत्व के अवतरण का लक्षण
३६. सहयोग और सद्भाव की रीति ही श्रेयस्कर है
३७. नारी देवत्व की जीवन्त प्रतिमा
३८. नारी श्रद्धा और श्रेष्ठता की अधिष्ठात्री
३९. पवित्र दृष्टि से आत्मा में परमात्मा का अवतरण
४०. नारी इस धरती का श्रेष्ठतम सार तत्त्व
४१. नारी की गरिमा ही भारी पड़ती है
४२. नर और नारी की एकात्मता
४३. दुर्गति से परित्राण के लिए स्वतः का प्रयास आवश्यक
४४. अनीति को स्वीकार तो नहीं ही किया जाए
४५. शिक्षित महिलाएँ अहंकार का त्याग करें
४६. भारत में आदर्श नारी की शानदार परम्परा
४७. नारी की सच्ची शृंगारिकता
इस सृष्टि के कर्ता की सर्वोत्तम कलाकृति नारी है। उसे अन्य जीवधारियों की तरह जीवित रह सकने योग्य सामग्रियों से ही नहीं, विशिष्ट भाव सम्वेदनाओं के साथ गढ़ा गया है। उसकी इसी विशेषता ने इस सृष्टि की भौतिक शोभा में दिव्य सौन्दर्य एवं असीम उल्लास भर दिया है।
नारी की विशिष्ट भाव सम्पदा से ही अभिभूत होकर भारतीय संस्कृति ने उसे जगन्माता के गरिमामय पद पर अधिष्ठित कर उसे बार-बार नमन किया है—
या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
नारी को मात्र भोग-विलास की वस्तु न समझकर उसकी भाव सम्पदा का समुचित आदर किया जाना, उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखना आज की महती आवश्यकता है। उसके प्रति किए गए अन्यायों के प्रतिकार के लिए नर को ही आगे आना पड़ेगा और उसके उत्थान हेतु हर सम्भव प्रयास करना होगा। नारी भी अपनी दीर्घकालीन प्रसुप्ति से जागकर अपने मूल स्वरूप को पहचाने, अपने विकास के लिए स्वयं प्रयत्नशील हो और जगत के कल्याण के लिए, जिस निमित्त उसकी सृष्टि हुई है, अपनी भाव सम्पदा का उन्मुक्त भाव से वितरण करे। इसी में नर और नारी दोनों का ही हित सन्निहित है और संसार की सुख, शान्ति और अभ्युत्थान भी।
ऐसे ही प्रेरक भावों से परिपूर्ण एवं दिशा दर्शक कुछ अवतरण इस पुस्तक में संकलित किए गए हैं। दोनों ही पक्ष — नर और नारी — संकलित अवतरणों में व्यक्त विचारों पर चिन्तन-मनन करते हुए अपने अपने कर्तव्य निर्धारण में सफल हो सकें, इसी में इस छोटी सी पुस्तक के प्रकाशन की सार्थकता है।
स्रष्टा की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति—नारी
मनुष्यकृत संस्थाओं के अनेक नाम, रूप और क्रिया-कलाप सर्वत्र दीख पड़ते हैं। ईश्वरकृत संस्था एक ही है—परिवार। यह एक ऐसा नैसर्गिक संगठन है जिसके अन्तर्गत छोटे और बड़े सभी को एक-दूसरे से अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप अनुदान मिलते हैं। सभी एक-दूसरे को बहुत कुछ देते हैं और बदले में उतना पाते हैं जो देने की तुलना में कम नहीं, अधिक ही होता है। इस संगठन की रज्जु शृंखला में बँधा परिवार का हर सदस्य मर्यादाओं को समझने और अनुशासन अपनाने का अभ्यास करता है। फलत: वह क्रमिक गति से अधिक सभ्य और सुसंस्कृत बनता जाता है, साथ ही समुन्नत और सुसम्पन्न भी।
परिवार संस्था की सूत्र संचालिका परमेश्वर ने नारी को बनाया है। वही पत्नी के रूप में एक नए परिवार का श्रीगणेश करती है। जननी के रूप में उसका विकास-विस्तार करती है। गृहणी के रूप में सुव्यवस्था के सूत्रों को सँभालती है। अन्ततः वही है जो गृहलक्ष्मी के रूप में उस संस्था को नर रत्नों की खदान बना देती है। देव मानवों का निवास स्वर्ग कहा जाता है। ऐसे स्वर्ग की संरचना एक छोटे से घर-घरौंदे में कर सकना नारी का ही चमत्कार है। विधाता ने सृष्टि बनाई या नहीं, यह सन्दिग्ध है पर नारी द्वारा किसी भी घरौंदे को स्वर्ग बना सकने की सम्भावना सुनिश्चित है। भगिनी और पत्नी के रूप में सृष्टि की उस पवित्रतम कला और पारिजात जैसी सुषमा को देखकर किसकी अन्तरात्मा पुलकित नहीं हो उठती।
नारी स्रष्टा की उत्कृष्टतम कृति है। उसमें सज्जनता और सहृदयता के वे तत्त्व भरे पड़े हैं जिन्हें पाकर प्राणी की अन्तरात्मा कृत-कृत्य हो उठती है। आवश्यकता इस बात की है कि इस अमृत वल्लरी को विकसित होने और अपना कौशल दिखाने का अवसर दिया जाए। उसे मोड़ा और मरोड़ा न जाय। दबाने और जलाने से तो नारी ही नहीं मरेगी वरन् वह सब भी मरेगा जो इस सृष्टि में सुन्दर-सुखद है, श्रेष्ठ कहा-समझा जाता है।
नारी स्रष्टा की जीवन्त कलाकृति
नारी इस सृष्टि का सौन्दर्य है। उसे जीवन्त कलाकृति के रूप में देखा जा सकता है। स्नेह उसकी प्रवृत्ति और अनुदान उसका स्वभाव। उसमें जीवन-संचार के सभी तत्त्वों को स्रष्टा ने कूट-कूट कर भरा है और सृजन की अनगढ़ कुरूपता को सुगढ़ता के रूप में परिणत कर सकने की क्षमता से नारी को सँजोया है।
मनुष्य के पास अपना कहलाने योग्य जो कुछ है, वह नारी का अनुदान है। जीवन उसी के उदर से उपजता है। हरीतिमा उपजाने वाली धरित्री की अपनी गरिमा है, पर मानुषी-सत्ता की सृजनकर्ती तो जननी है। खनिजों और वनस्पतियों से मनुष्य श्रेष्ठ है, इसलिए धरित्री से जन्मदात्री जननी की महिमा असंख्य गुनी मानी जायगी। पृथ्वी पर हम निर्वाह करते हैं पर नारी तो समूची मानवी सृष्टि का ही सृजन और परिपोषण करती है।
मानवी-अण्ड माता के गर्भ में पकता है। शिशु का आरम्भिक आहार ममतामयी माँ के वक्षस्थल से टपकता है। दुलार पीकर अन्तरात्मा हुलसती और विकसित होती है। उससे बढ़कर पोषण, अभिवर्द्धन और संरक्षण और कोई कर नहीं सकता। न केवल शरीर वरन् अन्त:करण का अधिकतर निर्माण माता के अंचल की छाया में ही होता है। वयस्क पुरुष नारी का समर्पण भरा अनुराग पाकर अलौकिक आनन्द से भरता और तृप्ति अनुभव करता है। सृजन की देवी जिस घर में पहुँचती, निवास करती है, वहाँ गृहलक्ष्मी की भूमिका सम्पन्न करती है और मिट्टी के घरौंदे में स्वर्ग का अवतरण किस प्रकार सम्भव हो सकता है, उसे सिद्धान्त और व्यवहार में प्रत्यक्ष कर दिखाती है।
नर और नारी को समान रूप से सुविकसित और पूरक होना चाहिए। असन्तुलन से समूचे समाज में विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं और सर्वनाशी दुष्परिणाम उत्पन्न करती हैं। —रोम्या रोला।
नारी—उत्कृष्टता की जीवन्त प्रतिमा
मनुष्य का वरिष्ठ भाग नारी है। उसकी शोभा, कोमलता का नयनाभिराम होना तो विशिष्टता का आरम्भिक परिचय मात्र है। अन्तर की परतों में वह एक से एक दिव्य-तत्त्व छिपाये बैठी है। अभिभावकों को पुत्री से बढ़कर मृदुलता का दर्शन कदाचित ही अन्यत्र कहीं होता हो। कन्या की पवित्रता को देवोपम माना गया है। उसका पूजा-प्रचलन सर्वथा सार्थक है। देवत्व की जीवन्त प्रतिमा का दर्शन भोली सुकुमार कन्या में सहज ही हो सकता है।
भाई के लिए वह बहन है। बहन का भ्रातृ-भाव कितना निर्मल, कितना सौम्य और कितना उत्कृष्ट स्नेह सम्बन्ध हो सकता है, इसे प्रेम की दुनिया में अनोखी उपलब्धि ही कहा जा सकता है। वयस्क नर और नारी अति निकट, अति घनिष्ट रहते हुए भी कितना विशुद्ध प्रेम कर सकते हैं, इसकी जीवन्त साक्षी बहन ही होती है। यौन सम्भावनाओं का निर्बाध अवसर होते हुए भी भावनात्मक पवित्रता किस प्रकार पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रह सकती है—इसका मूर्तिमान प्रमाण बहन से बढ़कर इस धरती पर और क्या हो सकता है?
पति के प्रति स्वेच्छा से समर्पण, उसके लिए सब कुछ लुटा देने का उत्साह देखते ही बनता है। अध्यात्म-शास्त्र में जिस सर्वतोभावेन आत्म समर्पण को ईश्वर-प्राप्ति का आधार माना गया है, वह तत्त्व-ज्ञान किस प्रकार व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हो सकता है, इसे खोजना हो तो किसी पतिव्रता के चित्त और चरित्र की गहराई में उतरकर सहज ही देखा जा सकता है। सन्तान के लिए वह अपना शरीर, मन और श्रम का महत्वपूर्ण अंश जिस प्रकार बाँटती-बिखेरती है, उस आधार पर उसे त्याग और बलिदान की देवी ही कहा जा सकता है। 'प्रेम' जिसे ईश्वर का स्वरूप कहा गया है, शास्त्रकारों ने भक्ति रूप में प्रतिपादित किया है। इस अमृत-तत्त्व पर नारी प्रवचन तो नहीं करती, पर पितृ-कुल और पति-कुल के सदस्यों के साथ भाव-भरे अनुदान प्रस्तुत करते हुए बताती है कि प्रेम क्या है, किस प्रकार किया जाता है, और उसके कितने मधुर फल इसी जीवन में चखे जा सकते हैं?
नारी—देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा
देव-प्रतिमा को चमड़े की आँखों से देखने पर वह पत्थर का टुकड़ा भर मालूम पड़ता है और उसे सिंहासन पर स्थापित करने वालों और पूजने वालों की बुद्धि पर हँसी आती है किन्तु किसी तत्त्व ज्ञानी को जब उसी प्रतिमा की आराधना से आत्मशान्ति प्राप्त करते और सिद्धि प्रतिफल प्राप्त करते प्रत्यक्ष देखा जाता है तब प्रतीत होता है कि देव-प्रतिमा की दोनों स्थितियाँ सही हैं। चर्म चक्षुओं से वह निश्चय ही पाषाण खण्ड मात्र है पर जिस तत्त्व ज्ञानी ने प्रतिमा के अन्तराल में मुस्कराती दिव्य सत्ता को देखा है और उसके सान्निध्य का चमत्कारी प्रतिफल पाया है, वह भी भ्रान्त नहीं है। उसने भी सत्य का साक्षात्कार ही किया है।
नारी कायिक दृष्टि से दुर्बल किन्तु माँसलता की दृष्टि से आकर्षक है। स्थूल बुद्धि इन दोनों का दोहन करने की बात सोचती है। उसके लिए वह भोग्य पदार्थों की श्रेणी में आती है, तदनुसार वैसा ही व्यवहार भी चलने लगा है।
जिन्हें ज्योतिर्मय दिव्य दृष्टि मिली है, उनके लिए नारी के कलेवर में मूर्तिमान देवत्व झाँकता है, वह आद्यशक्ति की प्रतीक है। वह लक्ष्मी है क्योंकि परिवार को अपने कर्तृत्व द्वारा सुसम्पन्नता से भरती है। वह सरस्वती है क्योंकि वह अपनी स्नेहसिक्त सद्भावनाओं से अपने सम्पर्क क्षेत्र को वीणा की कलात्मक झंकार से गुंजित करती है। वह प्रत्यक्ष दुर्गा है क्योंकि जब प्रकट होती है तो कोई महिषासुर उसकी क्रोधाग्नि को सहन करने में समर्थ नहीं होता।
नर और नारी का तात्पर्य पति-पत्नी से नहीं, मानव जाति के उन दो अविच्छिन्न अंगों से है जो लिंग भेद के कारण गिने तो दो जा सकते हैं पर अनेक सम्बन्ध सूत्रों में बँधे होने के कारण एक-दूसरे से पृथक नहीं किए जा सकते।
मनुष्य वर्ग के दो अंग हैं—एक वह जो पीढ़ियों का सृजन करता है, दूसरा वह जो उपार्जन से सृजन को समुन्नत बनाने वाले पुरुषार्थ में लगा रहता है। यों व्यक्तित्व को विकसित करने वाली अनेक मानसिक एवं शारीरिक गतिविधियाँ अपनानी पड़ती हैं, पर प्रत्यक्ष और प्रमुख क्रिया-कलापों में नारी सृजेता और नर उपार्जन कर्ता की भूमिका निभाता है।
चेतनात्मक सृजन की गरिमा का मूल्यांकन नहीं हो सकता। मनुष्य अपने आप में अद्भुत है। उसे स्रष्टा की सर्वोपरि कलाकृति माना गया है। उस अमूर्त प्रयोजन को मूर्त रूप देने का श्रेय नारी को ही है। अवतारों से लेकर शिल्पियों तक संसार का प्रत्येक वर्ग नारी के उदर में उगता, रस पीकर पनपता, गोद में पलता और स्नेह-सहयोग पाकर बढ़ता है। इसलिए उसे दूसरा स्रष्टा कह सकते हैं। ब्रह्माजी ने कभी प्रजा का निर्माण करके प्रजापति का पद पाया होगा, पर अब तो उसकी प्रत्यक्ष भूमिका नारी को ही निभाते हुए देखा जाता है।
वह अपने छोटे संसार की, परिवार की साम्राज्ञी है। राजा का स्तर और कौशल किसी देश को उठाने-गिराने का प्रमुख कारण होता है। नारी को भी यही करना होता है। वह अपने छोटे से शासन क्षेत्र की व्यवस्था ही नहीं बनाती, उसमें इच्छानुसार स्वर्ग या नरक की स्थापना भी करती है। पति उसका स्नेह-सहयोग पाकर अपनी अपूर्णता को पूर्ण करता और कृत-कृत्य बनता है। भाई को वह परम पवित्रता का देवत्व प्रदान करती है। उसे पशुता से ऊँचा उठाकर मानवी मर्यादाओं के बन्धन में राखी के धागों से बाँधती है। पिता के लिए वह वात्सल्य युक्त कोमल सम्वेदनाओं की प्रतिमा बनकर सामने आती है और उसके मर्मस्थल की उस ममता को जगाती है, जिसे भक्ति भावना के नाम से जाना जाता है। नारी शरीर में रहने वाली आत्मा को यदि श्रद्धा की दृष्टि से देखा जा सके तो वह मूर्तिमान सौन्दर्य है, माधुर्य है, कला है, मधुर करुणा है, तपस्या है, पवित्रता है जिसे उत्कृष्ट कहा जा सके।
मूर्तिमान शक्ति सत्ता का अनन्त अभिनन्दन
नारी परब्रह्म की मूर्तिमान सृजन सत्ता है। वह सृजनात्मक समस्त सम्भावनाएँ अपने साथ लेकर जन्मती है। विभिन्न अनुदान देकर सम्बद्ध व्यक्तियों को, समस्त समाज को, सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर करती है।
कहते हैं कल्पवृक्ष पर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार फल लगते हैं। नारी प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है। वह पिता का वात्सल्य उभारती है, भाई को पवित्रता प्रदान करती है, पति को अपूर्णता से छुड़ाकर पूर्ण बनाती है और सन्तान का तो वह प्राण ही है। एक नगण्य से जीवाणु को मनुष्य के दिव्य कलेवर में परिणत कर देना उसी की सृजन शक्ति का चमत्कार है।
मनुष्य, जिसमें नर और नारी दोनों ही सम्मिलित है, जितनी कुछ उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं, उनकी आधी से अधिक सम्भावनाएँ बीज रूप में माता के अनुदान से प्राप्त होती हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की विशेषताएँ ही भौतिक जीवन में स्वास्थ्य, विद्या, प्रतिभा, सम्पत्ति आदि के रूप में विकसित होती हैं। आन्तरिक दृष्टि, श्रद्धा, आकांक्षाएँ ही व्यक्ति को लघु से महान एवं नर से नारायण रूप में परिणत करती हैं। क्या बहिरंग और क्या अन्तरंग दोनों ही क्षेत्रों के उसके अजस्र अनुदान समस्त मानव समाज पर अनवरत रूप से बरसते रहते हैं।
नारी कामधेनु है। सत्य है, शिव है, सुन्दर है। उसके उभयपक्षीय अनुदान पाकर स्त्री और पुरुष रूप में हलचल करता यह समस्त विश्व कृत-कृत्य होता है। ब्रह्म की उस प्रत्यक्ष सशक्तता को, नारी को, मानवीय चेतना के श्रद्धासिक्त भाव भरे अनन्त अभिनन्दन।
स्त्रियाँ यदि यह विचार करेंगी कि समाज को अच्छा बनाने की जिम्मेदारी उनकी है और उसके लिए उन्हें कुछ त्याग और सेवा का व्रत लेना है, तो परिष्कृत समाज की आधी आवश्यकता तत्काल दूर हो सकती है। —सन्त विनोबा
कला और करुणा की जीवन्त प्रतिमा—नारी
नारी को परिपोषण और संरक्षण का उत्तरदायित्व निभा सकने की क्षमता मिली है, किन्तु उत्पादन और अभिवर्द्धन की अभीष्ट समर्थता, नारी की विशिष्टता देखते हुए विधाता ने इसे ही सौंपी है। अपनी इस सृजन क्षमता का सर्वविदित परिचय वह सन्तानोत्पादन के रूप में इस प्रकार देती है जिसे चर्म चक्षुओं से देखा और हाथों से उठाया जा सके। यह उसके सृजन शिल्प की प्रत्यक्ष देखी-समझी जाने वाली अनुकृति है। उसका वास्तविक सृजन तो वह है जो चेतना के विश्वव्यापी महासमुद्र में सर्वत्र बहते और लहराते हुए प्रज्ञावानों द्वारा अनुभव किया जा सकता है।
चेतना जगत में संव्यात उत्कृष्टता की यदि दृश्यमान प्रतिमा ढूँढनी हो तो उसे स्रष्टा की सर्वोपरि कलाकृति नारी के रूप में देखा जा सकता है, उसकी समूची सत्ता में वे तत्त्व समाये हुए हैं जिनका नीतिशास्त्री उत्कृष्टता और दर्शनशास्त्री दिव्यता के नाम से भाव भरा निरूपण करते-करते थकते नहीं हैं। नारी को काम कलेवर सुन्दरता से, सरसता से, चिन्तन, सहयोग, श्रम और सृजन से, अन्त:करण की करुणा, सेवा और समर्पण से निरन्तर अनुप्राणित देखा जा सकता है, अपने आप में वह पूर्ण है। अपनी इस पूर्णता से वह स्वजन-सम्बन्धियों की अभावग्रस्तता और आवश्यकता पूर्ण करती है।
देवी का निवास उच्च लोकों में ही हो सकता है, पर उसका प्रत्यक्ष दर्शन करना हो तो नारी के कलेवर में विद्यमान उस दिव्य चेतना की झाँकी की जा सकती है जिसमें आदि से अन्त तक देवत्व की गरिमा भरी पड़ी है। नारी धरती की आत्मा है। मातृ शक्ति में कला और क्षमता का कैसा अद्भुत समन्वय है उसे देखकर स्रष्टा और उसकी इस अद्भुत सृष्टि के सामने सहज ही मस्तक झुक जाता है।
जिस जाति में माँ का सम्मान नहीं, उसके लिए समुचित व्यवस्था का ध्यान नहीं, वह जाति कभी ऊँची नहीं उठ सकती। —लाला लाजपत राय
वरिष्ठता नारी के पक्ष में जाती है
वरिष्ठता का आधार यदि भौतिक समर्थता को माना जाय तो फिर शरीर बल के धनी विशालकाय और आक्रमणकारी पशुओं को श्रेय मिलेगा, मनुष्य को नहीं। यदि सम्पदा और चतुरता को श्रेय दिया जाय तो फिर धूर्तता के आधार पर सम्पत्ति अर्जन करने वालों को सम्मान मिलेगा। आक्रामक साधनों को ही यदि महत्त्व मिले तो सज्जनों की उपेक्षा करनी पड़ेगी और आतंकवादी दस्यु-तस्करों के गुणगान करने पड़ेंगे।
यों प्रचलन और व्यवहार तो इन दिनों कुछ ऐसा ही है, जिसमें मत्स्य न्याय का जंगली कानून ही काम करता दीखता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धान्त ही यदि मान्य है तो फिर संस्कृति के प्रावधान को नमस्कार करके आदिमकाल के पाषाण युग की ओर हमें वापस लौटना होगा। शक्ति के सामने झुकने और न्याय की उपेक्षा करने का प्रचलन वन्य परम्परा के अन्तर्गत आता है। यदि उसी को मान्यता मिलनी है और वरिष्ठता की कसौटी भौतिक समर्थता को ही माना जाना है तो मनुष्य समाज को फिर आदिम युग में लौट चलने की तैयारी करनी चाहिए।
मानवी प्रगति की आधार भित्ति सज्जनता और उदारता को मानने का सांस्कृतिक प्रतिपादन यदि सही है तो आत्मीयता, भाव-सम्वेदना और आदर्शों के लिए कष्ट सहने की प्रसन्नता को प्राथमिकता देनी होगी। वरिष्ठता का मूल्यांकन इसी आधार पर करना होगा। न्याय और विवेक के आधार पर यदि नर और नारी के बीच किसी को श्रेष्ठता प्रदान की जानी हो तो सहज ही नारी का पक्ष भारी पड़ता है। आदि से अन्त तक उसका जीवनक्रम जिस प्रकार सदुद्देश्य के लिए सहज समर्पित पाया जाता है उसे देखते हुए मानवी शालीनता सहज ही उसके चरणों पर नतमस्तक हो उठती है। न्याय का मनु सोचता है कि मूल्यांकनों में नवयुग के अनुरूप परिवर्तन निर्धारण आवश्यक हो गया हो तो नर की तुलना में नारी की वरिष्ठता को श्रेय देना होगा।
वरिष्ठता में नारी का पलड़ा भारी है
वरिष्ठता और सम्पन्नता की भौतिक शक्तियों को प्रमुखता मिल जाने और उन पर पुरुष का आधिपत्य बन जाने से कुछ ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण प्रवंचना बन पड़ी कि नारी की सहज गरिमा ही उसके हाथ से छिन गई। नई पीढ़ियों के उत्पादन, परिपोषण और उन्नयन जैसे महान् उत्तरदायित्व को निभाने में उसका शरीर अपेक्षाकृत दुर्बल बैठा और परिवार संस्था के संचालन की व्यस्तता में स्वतंत्र अर्थोपार्जन भी उसके लिए सम्भव न रहा। गलत मूल्याकंन करने की दृष्टि ने इसे नारी की दुर्बलता माना और वैसा सोचना-व्यवहार करना आरम्भ कर दिया जैसा कि समर्थ असमर्थों के सम्बन्ध में करते रहते हैं। मत्स्यन्याय की, जंगल के कानून की, बड़े पेड़ द्वारा नीचे उगने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली नीति की चर्चा तो हो सकती है, पर वह पिछड़े प्राणियों की बात है। मनुष्य मनुष्य के प्रति वही नीति अपनाने लगे तो फिर मनुष्यता की विशिष्टता समाप्त ही हुई समझी जानी चाहिए।
नारी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व महान् है। जननी और पत्नी के रूप में उसका त्याग-बलिदान, शिवि, दधीचि और हरिश्चन्द्र जैसा है। जो मनुष्य गढ़ सके उसे दूसरा परमेश्वर ही कह सकते हैं। परिवार एक छोटा राज्य है। उसकी संचालिका को साम्राज्ञी कहने में किसी प्रकार की अत्युक्ति नहीं है। सुविधा, सम्पन्नता, शोभा और शालीनता का वातावरण बनाकर छोटे से घरौंदे को स्वर्ग बना सकने की क्षमता से सम्पन्न होने के कारण वह सचमुच ही गृहलक्ष्मी है। उसकी मुस्कान में कला है और चितवन में अमृत है। परमात्मा को 'रस' कहा गया है। वह रस किसी बिरले को ही मिलता है, पर परिवार का प्रत्येक सदस्य अमृत कलश की तरह छलकती हुई नारी में षट् रसों का ही नहीं, अनन्त रसों का आस्वादन अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुरूप करता है।
ऐसी नारी कनिष्ठ कैसे हुई? निकृष्ट कैसे मानी गई? नर ने उसका अभिवन्दन करने के स्थान पर उस पर आधिपत्य कैसे जमा लिया? पूजार्ह को शोषण के बन्धनों में क्यों कर बाँधा गया? यह सभी अनबूझे प्रश्न अन्तरिक्ष में गूँजते हैं और अपना समाधान पूछते हैं।
नारी को भी परिपूर्ण मनुष्य ही माना जाए
नारी को न वरिष्ठ माना जाए और न कनिष्ठ। वस्तुत: वह भी पूर्ण मनुष्य है। हर मनुष्य को जो कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है और अधिकार पाने की सुविधा रहती है वैसी ही परिस्थिति नारी के लिए भी अपेक्षित है। यही औचित्य का प्रतिपादन, विवेक का निर्धारण और न्याय का निर्णय है।
वरिष्ठ-कनिष्ठ का झंझट तब आरम्भ हुआ जब उसे बन्धित-प्रतिबन्धित किया गया। छोटा माना गया और अनुवर्ती बनने, सेवा संलग्न रहने के लिए प्रताड़ित किया गया। इसी अनाचार के विद्रोही स्वर वरिष्ठता के प्रतिपादन में उभरे। अच्छा यही है कि उसे एक पूर्ण मनुष्य माना जाए। दासी न बनाया जाए तो देवी की उपाधि से अलंकृत करने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।
हर व्यक्ति की अपनी क्षमता और विशिष्टता होती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रकृति, कुशलता, आयु आदि के अनुरूप कामों का विभाजन होता है। इतने पर भी मनुष्य के मौलिक अधिकारों का लाभ समान रूप से सभी को मिलता है। नारी की प्रजनन क्षमता उसकी विशिष्टता है। फलतः श्रम विभाजन में उसके हिस्से में स्वभावतः परिवार व्यवस्था का उत्तरदायित्व अतिरिक्त रूप से आ पड़ता है। उपार्जन और व्यवस्था एक-दूसरे के पूरक और समान महत्त्व के हैं। नर उपार्जन करें और नारी व्यवस्था सँभाले तो उस भिन्नता के कारण किसी को बड़ा कहने या छोटा मानने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। छोटा कहकर तिरस्कार न किया जाए तो उस आघात को सहलाने के लिए बड़प्पन की चापलूसी न करनी पड़ेगी। इस झंझट की अपेक्षा यही उत्तम है कि गाड़ी के दो पहियों की तरह, दो हाथ और दो पैरों की तरह समानता के आधार पर एक-दूसरे के पूरक बनें। नर की ही भाँति यदि नारी को भी पूर्ण मनुष्य मान लिया जाए तो नारी समस्या नाम की कोई अतिरिक्त उलझन ही रह न जाएगी।
जिस देवालय का विग्रह विखण्डित हो वहाँ दर्शनों की परम्परा समाप्त हो जाती है। खण्डित देव प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग किसी प्रकार जोड़ भी दिए जाएँ तो भी देव शक्ति के निष्प्राण हो जाने की अवधारणा से दर्शनार्थी की श्रद्धा समाप्त हो जानी स्वाभाविक है। ऐसे देवालय खण्डहर न भी हों तो भी वहाँ कोई जाता नहीं।
गृहस्थ जीवन भी ऐसा ही एक देव मन्दिर है जिसका विग्रह नारी मानी गई है। वह शरीर से सँभली तो रहे किन्तु यदि उसका हृदय भग्न हो जाए तो गृहस्थ में निवास करने वाली शोभा, शान्ति, समृद्धि और प्रसन्नता के क्षणों का इस तरह तिरोधान हो जाता है जिस तरह टूटी हुई प्रतिमा के देव मन्दिर से दर्शनार्थी गायब हो जाते हैं। प्रतिमा जिस प्रकार श्रद्धा का मूलाधार होती है उसी प्रकार गृहस्थ जीवन में आत्मीय सरसता का आधार नारी होती है। उसे प्रतिबन्धित रख कर यदि किसी ने आनन्द मिश्रित वातावरण की कल्पना की तो उस जैसा अभागा कोई नहीं होगा।
आज हमारे गृहस्थ देव मन्दिर कुछ इसी तरह विग्रह-विखण्डित हुए पड़े हैं। वहाँ पुरुष भी हैं, नारियाँ भी। किन्तु देवता और भक्त के बीच की श्रद्धा-शृंखला टूट चुकी है। उसे जोड़े बिना मन्दिर की पवित्रता कैसे प्रतिष्ठित होगी? नारी जीवन के प्रति सामाजिक जीवन में आनन्द, आदर और आस्था पैदा करके ही उस विसंगति को दूर किया जा सकता है। गृहस्थ मन्दिर को भावनामय बनाया जा सकता है। यह पुण्य कार्य आज से, अभी से अपने ही घर से आरम्भ कर देना आवश्यक है।
इस विज्ञान-युग में, जबकि पुरुषों की बुद्धि स्तम्भित हो गयी है, उस समय अगर स्त्रियाँ काम में आती हैं और अपने दैवी गुणों के साथ, संयम-शीलता के साथ, अपनी मातृ-शक्ति के साथ सामने आती हैं तो करुणा का राज्य स्थापित कर सकती हैं। 'मातृ-शक्ति' नारी का अध्यात्म-स्वरूप है। —महात्मा गाँधी
नारी सनातन शक्ति है। वह आदि काल से उन सामाजिक दायित्वों को अपने कन्धों पर उठाए आ रही है जिन्हें केवल पुरुष के कन्धों पर डाल दिया जाता तो वह न जाने कब लड़खड़ा गया होता। किन्तु विशाल भवनों का असह्य भार वहन करने वाली नींव के समान वह उतनी ही कर्तव्यनिष्ठ, उतनी ही मनोयोग-सन्तोष और उतनी ही प्रसन्नता के साथ उसे आज भी ढोए चल रही है। वह मानवी तपस्या की साक्षात् प्रतिमा है।
लोपामुद्रा, घोषा, वैषावारा, गार्गी और मैत्रेयी के रूप में उन्होंने धर्म और तत्त्वज्ञान को जीवन दान दिया तो मल्लिनाथ और संघमित्रा के रूप में उनने संस्कृति के सन्देश विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचाए। परिवार के पालन में तो वह परम वैष्णवी शक्ति है। त्याग, तप, सहनशक्ति, सक्रियता और तेजस्विता में उसकी तरह की और कोई रचना सृष्टि में दिखाई नहीं देती। अव्यवस्थित संसार को व्यवस्था, अनुशासन और मर्यादा का पाठ उसी ने पढ़ाया है। अपने प्रत्येक रूप में वह देवत्व की प्रतिष्ठा और सम्वेदना की प्रतिमूर्ति है। ऋषियों ने उसकी महत्ता को धरती की कामधेनु के रूप में एक स्वर से स्वीकारा और उसका अभिवन्दन किया।
भौतिक जीवन की लालसाओं को उसी ने रोका और सीमाबद्ध कर उन्हें प्यार की दिशा दी। प्रेम नारी का जीवन है। अपनी इस निधि को वह अतीतकाल से मानव पर न्यौछावर करती आई है। कभी न रुकने वाले इस अमृत निर्झर ने संसार को शान्ति और शीतलता दी है। इस कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर ही मनुष्य को आत्मतृप्ति मिलती है। उसे काटने की नहीं, जीवन देने की बात सोची जाए अन्यथा मानवता अपने पथ से भटक कर न उबरने वाले गर्त में गिर सकती है।
स्त्री-पुरुष का भेद बाह्य है, मूलभूत नहीं। —बिनोवा भावे
नर और नारी के युग्म में प्रकृतित: वरिष्ठता नारी की है। वही समस्त मनुष्य जाति को अपने उदर में से जन्म देती है। वह अपना लाल रक्त सफेद दूध के रूप में परिणत करती और बिना किसी प्रकार का अहसान जताए परिपूर्ण स्नेह-वात्सल्य के साथ उसे पिलाती है। छोटे से माँस पिण्ड को अपने समर्पण जल से सींचती और विकसित वृक्ष बनाकर मानव समाज की श्री समृद्धि बढ़ाती है। अपनी भावना और गतिविधियों की दृष्टि से नारी सचमुच ही देवी है। माता के रूप में सन्तान को वह जीवन प्रदान करती है। पिता के एक नगण्य से बिन्दु कण को आत्म सत्ता से सींच कर उसे सुयोग्य नागरिक बना देना उसी का चमत्कार है। पिता को वह नारी के प्रति पवित्रता, मृदुलता, कोमलता और ममता उभारने के लिए गंगा जैसी निर्मलता का प्रतिनिधित्व करती हुई नन्हीं सी गुड़िया बनकर उसकी गोदी में खेलती है। भाई के लिए उसकी ममता, आत्मीयता, सरलता, सहृदयता देखते ही बनती है। भाई के लिए वह क्या सोचती है, उसे कितना चाहती है, किस दृष्टि से देखती है, इसका कोई सजीव चित्र बना सके तो प्रतीत होगा कि प्रेम की पवित्रता दुनिया में अन्यत्र ढूँढ़े भले ही न मिलती हो, पर बहन के मन में भाई के प्रति वह अभी भी विद्यमान है। पति के लिए वह स्वर्ग की अप्सरा से अधिक मनोरम, दाहिनी भुजा की तरह साथी, काया की तरह सहचरी और हृदय की धड़कन जैसी जीवन दात्री है। नारी के बिना नर की क्या स्थिति हो सकती है — इसका एक भावपूर्ण कथा-चित्र सती की मृत्यु के उपरान्त शिव के विक्षिप्त हो उठने के कथानक से मिलता है। गृहस्थ में जिस 'गृह' को लक्ष्य माना गया है, वह कोई इमारत नहीं वरन् गृहिणी, घरवाली, गृहलक्ष्मी ही है। उसी के परिश्रम, अनुदान एवं सृजन प्रयत्न से नए परिवार का, नए वंश का शुभारम्भ होता है।
"पुरुष विष्णु है—स्त्री लक्ष्मी, पुरुष विचार है—स्त्री भाषा, पुरुष धर्म है—स्त्री बुद्धि, पुरुष तर्क है—स्त्री रचना, पुरुष धैर्य है—स्त्री शान्ति, पुरुष प्रयत्न है—स्त्री इच्छा, पुरुष दया है—स्त्री दान, पुरुष मंत्र है—स्त्री उच्चारण, पुरुष अग्नि है—स्त्री ईंधन, पुरुष समुद्र है—स्त्री किनारा, पुरुष धनी है—स्त्री धन, पुरुष युद्ध है—स्त्री शान्ति, पुरुष दीपक है—स्त्री प्रकाश, पुरुष दिन है—स्त्री रात्रि, पुरुष वृक्ष है—स्त्री फल, पुरुष संगीत है—स्त्री स्वर, पुरुष न्याय है—स्त्री सत्य, पुरुष सागर है—स्त्री नदी, पुरुष दण्ड है—स्त्री पताका, पुरुष शक्ति है—स्त्री सौन्दर्य, पुरुष आत्मा है—स्त्री शरीर।"
उक्त भावों के साथ ही विष्णु पुराण में यह बताया गया है कि पुरुष और स्त्री की अपने-अपने स्थान पर महत्ता, एक-दूसरे के अस्तित्व की स्थिति, एक से दूसरे की शोभा आदि सम्भव है। एक के अभाव में दूसरा कोई महत्त्व नहीं रखता।
अपूर्णता में मात्र असन्तोष ही बना रहेगा और विग्रह ही खड़ा रहेगा। सन्तोष और सौजन्य का समन्वय होने से ही प्रगति का रथ आगे बढ़ता है। नर और नारी के बीच घनिष्ठ सद्भाव और सहकार हर दृष्टि से आवश्यक है, पर वह एकांगी नहीं हो सकता। नर के प्रति नारी से जितनी उदार और मृदुल होने की अपेक्षा की जाती है ठीक उसी के अनुरूप नारी के प्रति नर को भी बनना पड़ेगा। विशृंखलता नारी ने नहीं, नर ने उत्पन्न की है। इसलिए उदार सहयोग के सृजन में उसे ही अपनी सद्भावनाओं का परिचय देने के लिए आगे आना पड़ेगा।
"स्त्री-पुरुष में एक ही पुरुष-तत्त्व, जो चेतना है, समान भाव से मौजूद है और दोनों के शरीर उसी प्रकृति तत्त्व के बने हैं। दोनों की संसारी शक्ति और संसारी बन्धन समान हैं और मोक्ष का आधार भी दोनों का समान है। अतएव दोनों ही उभयपक्षीय प्रगति के भी समान अधिकारी हैं। —विनोबा भावे
आधिपत्य के आधार पर पदार्थों का मनचाहा उपयोग होता है। पालतू पशुओं से भी वैसा ही लाभ उठाया जाता है। पर यह प्रयोग मनुष्यों पर सफल नहीं हो सकता। मनुष्य में स्वतंत्र चेतना है, जो स्नेह, सम्मान पाने और सहयोग-सद्भाव देने के आदान-प्रदान से कम में सन्तुष्ट नहीं रह सकती। कभी दास-दासी खरीदने-बेचने की प्रथा रही होगी, पर अब वैसा नहीं चल सकता। मजदूरों और कैदियों तक के साथ आदान-प्रदान, मर्यादा और सद्भावना की नीति बरती जाती है। यह वह नीति है जिसे अपना कर पारस्परिक हितों की अधिक सद्भावनापूर्वक, अधिक मात्रा में पूर्ति की जा सकती है।
नर और नारी के बीच अधिक सघनता और सहकारिता की अपेक्षा की जाती है। पर यह प्रयोजन स्वामी और सेवक का रिश्ता पूरा नहीं कर सकता। पुरुष अधिपति, नारी सम्पत्ति यह मान्यता एक का अहंकार बढ़ाती और दूसरे को दीनता के गर्त में धकेलती है। इसमें दोनों का पतन और दोनों का अहित है।
मित्रता की नीति ही सर्वश्रेष्ठ है। स्नेह, सम्मान और सहयोग का समानता के आधार पर आदान-प्रदान करने की नीति अपना कर ही उभयपक्षीय सद्भाव और सहकार बढ़ सकता है। नर और नारी को सघनता अपेक्षित हो तो वहाँ भी इसी आदर्श एवं तथ्य को अपनाकर चलना होगा।
मैं चाहता हूँ कि भारत की स्त्रियाँ अपनी आत्म-शक्ति का भाव रखकर सामने आ जाएँ। इसके आगे स्त्रियों के हाथ में समाज का अंकुश जाने वाला है। उसके लिए स्त्रियों को तैयार होना पड़ेगा। स्त्रियाँ शान्ति से कार्य-भार उठा लेंगी तो दुनियाँ बदल जायेगी और आज देश के, दुनियाँ के सामने जो मसले उपस्थित हैं, उनसे मुक्ति होगी। पुरुषों से यह सब होने वाला नहीं है। —टी. एल. वास्वानी
पिछड़ापन अकुलाहट के बिना हटेगा नहीं
पिछड़ापन किसी के कन्धे पर किसी भी कारण से लदा क्यों न हो, उसका भार उतारने के लिए पीड़ितों को ही करवट बदलनी पड़ती है। न्याय संसार में तो है पर उसकी दीर्घसूत्रता सर्वविदित है। पुकारने और माँगने के उपरान्त ही इस दुनियाँ में यह आवश्यकता समझी जाती है कि अनीति हटे और उसका स्थान न्याय-नीति को मिले। यदि अकुलाहट के लक्षण प्रकट न हों तो शायद इस जड़ पदार्थों से बने संसार में न्याय भी जड़ बना बैठा रहेगा।
मनुष्य की आत्मा चेतना है। उसे अपने ऊपर अनीति का आक्रमण न होने देने के लिए सजग रहना चाहिए। यदि हो रहा हो तो उसका प्रतिरोध करना चाहिए। दूसरों के साथ अनीति न बरतने, आक्रमण न करने का सिद्धान्त सही है, पर उसके साथ इतना और जुड़ा रहना चाहिए कि अनीति और आक्रमण को सहन भी न किया जाएगा। पीड़ित पक्ष को भाग्य, विधि-विधान, परम्परा, सन्तोष, शान्ति, क्षमा आदि के कितने ही दार्शनिक भूल-भुलैयों में उलझकर चुप बैठे रहने के लिए कहा जाता रहा है। निहित स्वार्थों का कुचक्र इन्हीं बन्धनों से बाँधकर सदा सहन करते रहने के लिए कहता आ रहा है। उत्पीड़न, अनीति और आक्रमण की तरह ही इस शान्तिवादी कुचक्र को भी अमान्य ठहराना है। उत्पीड़न का अन्त उसे निरस्त करने की अकुलाहट से ही होगा।
अपने विकृत युग की आपाधापी ने नर और नारी दोनों ही पक्षों का एक बड़ा वर्ग पिछड़ेपन के गर्त में धकेल दिया है। सम्भवत: इसमें समर्थों की आक्रामकता और असमर्थों की आत्महीनता का ही योगदान रहा है। अब परिवर्तन की घड़ी आ गई। इससे आक्रान्ताओं को अपने पंजों को पकड़ ढीली करने के लिए समझाना पड़ेगा। साथ ही उत्पीड़ितों को कहा जाएगा कि उनमें अकुलाहट तो उभरनी ही चाहिए, अन्यथा पिछड़ेपन की दुर्गति से छुटकारा मिल नहीं सकेगा।
नारी को मात्र न्याय चाहिए और कुछ नहीं
दूसरों को श्रेय सम्मान एवं सहयोग प्रदान करना दैवी गुण है। यह सत्प्रवृत्ति जहाँ जितनी मात्रा में होगी वहाँ उतना ही सन्तोष, सहयोग एवं उत्थान का आधार बनता और अपने सत्परिणामों में आनन्द भरता दृष्टिगोचर होगा।
इतना न बन पड़े तो मानवी गरिमा का इतना निर्वाह तो होना ही चाहिए कि दूसरों के न्यायोचित अधिकारों पर आक्रमण न किया जाय। उन्हें जीने के अधिकार से वंचित न किया जाय। सहायता और उदारता का व्यवहार न बन पड़े तो शोषण, अपहरण और उत्पीड़न की अनीति तो नहीं ही बरती जानी चाहिए। दैवी गरिमा न अपनाई जा सके तो मानवी शालीनता को हाथ से न जाने दिया जाए। स्वार्थान्धता हो या भ्रष्ट-परम्परा किसी को भी यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि समर्थता अनुचित लाभ उठाती रहे। जंगल का कानून मनुष्य समाज में नहीं चलना चाहिए। मत्स्यन्याय को सामाजिक मान्यता न मिले और जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति व्यवहार का अंग न बने।
नारी अपने महान अनुदानों का प्रत्युपकार नहीं चाहती। उसकी माँग इतनी भर है कि मनुष्य जाति में जन्म लेने के कारण जो मानवी अधिकार उसे स्रष्टा ने दिए है, उनका अपहरण न किया जाए। उसे मात्र न्याय चाहिए। उसे मानव समाज का सभ्य सदस्य मान लेने की व्यवस्था बन सके तो असन्तोष और असहयोग के कारण अदृश्य किन्तु रोमांचकारी, जो क्षति सहन करनी पड़ रही है, उससे सहज ही मुक्ति मिल जाएगी।
जिस देश अथवा राष्ट्र में नारी-पूजा नहीं, उसका यथोचित सम्मान नहीं, वह देश या राष्ट्र कभी महान या उन्नत नहीं हो सकता। नारी रूपी शक्ति की अवमानना करने से ही आज हमारा अधःपतन हुआ है, स्त्रियाँ माता की प्रतिमा हैं, शक्तिस्वरूपा हैं, जब तक उनका उद्धार न होगा, तब तक हमारे देश का उद्धार होना असम्भव है। —स्वामी विवेकानन्द
नारी के साथ अदूरदर्शी नीति न बरती जाए
शोषण का लाभ तत्काल मिलता है और पोषण का परिणाम समय साध्य है। सरसों का तेल तुरन्त निकाला जा सकता है किन्तु उसे उगाकर अनेक गुना लाभ उठाने के लिए धैर्य रखने की आवश्यकता होती है। अदूरदर्शिता तात्कालिक लाभ देखती है और पीछे पाखण्डियों और आततायियों की भाँति भारी घाटा उठाती है। दूरदर्शिता कृषि करने, उद्योगों में पूँजी लगाने, विद्याध्ययन और व्यायाम में श्रम करने की तरह आरम्भ में भले ही अखरती है, पर उसे अपनाने वाले अन्ततः उत्साहवर्द्धक लाभ ही उठाते हैं।
नारी के प्रजनन के गौरवशाली उत्पादन एवं परिवार संस्था के संचालन का मूल्यांकन नहीं किया गया। उसकी ममता, सेवा, शोभा एवं सरसता की गरिमा भी नहीं की जा सकी। मात्र शारीरिक बलिष्ठता की, प्रतिरोध के प्रखरता की न्यूनता को दुर्बलता समझा गया और उसका अनुचित लाभ उठाया गया। लगता है कि तत्काल लाभ पाने के लिए बीज को बेच खाने वाले, उद्यान में बकरी चराने वाले और चन्दन वृक्ष को कोयला बेचने के लिए जला डालने वाले अदूरदर्शियों जैसा व्यवहार नारी के साथ करने की बात सोची गई है। पशुओं को पकड़-जकड़ कर अधिक काम लेने और दुर्बल पड़ने पर उन्हें मार खाने का नुस्खा नारी पर भी आजमाया गया है। जो हो, यह अदूरदर्शिता अन्ततः भारी पड़ी और मँहगी सिद्ध हुई है।
नारी के शोषण में नहीं, सहयोग में लाभ है। उसे पददलित रखने में उतना स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता जितना सुविकसित बनने पर अनुदानों की रत्नराशि उपलब्ध करने में। यह तथ्य जिस दिन पुरुष वर्ग समझ सकेगा और शोषण के स्थान पर उत्कर्ष की व्यवस्था करेगा उस दिन से उसे नए भाग्योदय का नया अनुभव और नया दर्शन होने लगेगा।
समुन्नत परिवार सुसंस्कृत नारी ही बना सकेगी
परिवार की पाठशाला में व्यक्ति को सुसंस्कारों की शिक्षा-सम्पदा मिलती है। समाज को गौरवास्पद बनाने वाले मणि-मुक्तक भी इसी खदान में से निकलते हैं। व्यक्ति और समाज दो पहिए हैं, जिनके सुसंचालन की धुरी परिवार-संस्था को ही माना जा सकता है। धुरी में गड़बड़ी उत्पन्न होने पर प्रगति-रथ का आगे बढ़ सकना कठिन है। इस तथ्य को समझा जा सके तो व्यक्ति को समर्थ और समाज को परिष्कृत बनाने की ही तरह परिवारों को भी सुसंस्कृत बनाने की आवश्यकता समझी जा सकेगी।
यों परिवार नर और नारी के संयुक्त प्रयास से बनते और चलते हैं, पर मूलतः उसकी सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व नारी के कन्धों पर ही आता है। नर को आजीविका के लिए प्रायः घर से बाहर जाना पड़ता है। घर में सारे दिन नारी ही रहती है और उसी का व्यक्तित्व वस्तुओं पर, व्यवस्था पर तथा छोटे-बड़े सदस्यों पर छाया रहता है। इस प्रकार परिवार के स्तर का मेरुदण्ड नारी को ही समझा जा सकता है। सुसंस्कृत-परिवारों का हर सदस्य उसी छोटे घरौंदे में स्वर्गीय सुख-शान्ति और प्रगति की चेतनात्मक सम्पदा उपलब्ध करता है।
परिवार-संस्था और सुसंस्कृत-नारी एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। पिछड़ेपन से जकड़ी हुई उपेक्षित और तिरस्कृत नारी रसोईदारिन, चौकीदारिन एवं प्रजननकर्त्री भर रह सकती है। घर की सीमा में सीमित एक छोटे राष्ट्र का सुसंचालन उससे बन नहीं पड़ेगा। यदि समुन्नत परिवारों की आवश्यकता समझी जा सके तो नारी को प्रगतिशील, सुशिक्षित और सुसंस्कृत बनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।
ससुराल में नारी को अतिथि सत्कार प्राप्त हो
अतिथि को भारतीय संस्कृति में माता, पिता और गुरु के पश्चात् चौथा महान् देवता माना गया है। यों तो घात लगाने के लिए आने वाले चोर, ठग और अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी अतिथि होने का वैसा प्रयत्न कर सकते हैं जैसा कि रावण ने सीता को अतिथि सत्कार के नाम पर ही ठग कर किया था। किन्तु वस्तुत: अतिथि से प्रयोजन उन उदार आत्माओं से है जो कृपापूर्वक स्वयं कष्ट उठाकर किसी के यहाँ आते हैं और उसे अपने सहयोग-अनुदान से लाभान्वित करते हैं। प्राचीनकाल में उदारमना सन्त ऐसा ही अनुग्रह करने गृहस्थों के यहाँ पधारते थे और उन्हें पुण्य प्रभाव से सुखी-समुन्नत बनाने का प्रयास करते थे। ऐसे मेघ मानवों का, अतिथियों का देवोपम सत्कार किया जाना उचित भी है और आवश्यक भी। शास्त्र ने इसीलिए अतिथि को चौथा देवता मानने और उसका समुचित सम्मान करने का निर्देश दिया है।
नारी ससुराल में जाकर पूरी तरह अतिथि की भूमिका निभाती है। पति की सहचरी और पूरे परिवार की भाव भरी समृद्धि एवं अनवरत श्रम साधिका के रूप में उस गृहस्थ को कामधेनु की भाँति सुखी-समुन्नत बनाने में अपने व्यक्तित्व का चिरस्थायी उत्सर्ग करती है। यह सन्त-महात्माओं के अनुदानों की तुलना में कहीं अधिक भारी अनुग्रह है। रूखा-सूखा खाकर उदार अनुग्रहों से इस प्रकार लाभान्वित करने वालों में स्वर्ग की कामधेनु और पृथ्वी की नारी की गणना हो सकती है। जिस घर में वह पहुँचे वहाँ उसे भाव-भरा सत्कार और देवोपम सम्मान मिले, इसी में कृतज्ञता तत्त्व के दर्शन होते हैं। इसी में अतिथि देव के प्रति कर्तव्य-पालन का सांस्कृतिक संरक्षण है।
पति-पत्नी ऐसा व्यवहार करें, जिससे उनकी आपसी आशंका एवं उद्वेग नष्ट हो जायें। एकता बढ़े, विश्वास सघन हो तथा उत्साह प्रबल। इससे गृहस्थाश्रम में ही स्वर्गीय सुख की अनुभूति होती है। —साने गुरुजी
न्याय युग की वापसी और नारी की समर्थता
नारी का उन्मूलन और उत्पीड़न अब नए जागरण के आलोक में पिछड़े दिनों की पिछड़ेपन की दुःखद स्मृतियाँ भर बनी रह सकती हैं। उनके जड़ जमाए रहने का समय चला गया। प्रथा परम्परा की दुहाई देने वाले, उनका आश्रय लेकर अनैतिक को बरतने और नैतिक को झुठलाने वाले लोग भी यह समझने लगे हैं कि समय बहुत आगे बढ़ गया है। मनुष्य-मनुष्य के बीच खाईं खड़ी करने वाले तक अब अपनी मौत के साथ मर रहे हैं। जाति, लिंग और आर्थिक विषमता का निर्माण करने और उसे चलाते रहने वाले तत्त्वों का पराभव सुनिश्चित है। प्रकाश के सामने अन्धकार कैसे टिके? तथ्य के सम्मुख विडम्बना का आग्रह कब तक चले?
जो अपनी मौत आप मर रहा हो, उसके अनौचित्य के सन्दर्भ में बहुत चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता इस बात की है कि कोठी को भरा कैसे जाए? क्षति की पूर्ति कैसे हो? खाईं पाटने के लिए क्या किया जाए और खण्डहरों के स्थान पर नया भवन कैसे खड़ा हो?
समय की माँग यह है कि रचनात्मक प्रयोगों को हाथ में लिया जाए। अनौचित्य को निरस्त करना ही काफी नहीं, महत्त्वपूर्ण यह है कि उसका स्थानापन्न ढूँढ़ा जाए। नारी को उतना ही सुयोग्य एवं समर्थ बनने का अवसर मिले जितना कि नर को मिलता रहा है और मिल रहा है। क्षति की पूर्ति के लिए यह विशेष प्रयास और साहस करना पड़ेगा। नारी को नर के समतुल्य समर्थ बनाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों में जितनी तत्परता बरती जाएगी, न्याय युग की वापसी उतनी ही सुलभ होगी।
गृहस्थ जीवन गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं, जिसकी सफलता नर और नारी के समग्र सहयोग पर निर्भर है। गृहस्थ एक जीवन्त आनन्द है। स्वर्ग की छोटी सी प्रतिकृति है। किन्तु शर्त यह है कि वह सघन आत्मीयता के आधार पर विनिर्मित हुआ हो। —मेरी स्टोप
नारी की एकाकी सत्ता समग्र उद्यान के समतुल्य
यों जंगल में खजूर के पेड़ एकाकी भी खड़े रहते हैं और दूसरों की तुलना में अपने बड़प्पन की घोषणा भी करते रहते हैं, किन्तु वृक्षों की शोभा सुषमा उद्यान में ही देखने को मिलती है। पूरा उद्यान आकर्षण का केन्द्र बना रहता है और अपने अस्तित्व से अनेक की अनेकानेक आवश्यकताएँ पूर्ण करता है। पक्षी अपने परिवार बसाते हैं, व्यापारी फल खरीदने पहुँचते हैं, राह में उधर से निकलने वाले विश्राम पाते हैं। समीपवर्ती लोगों को सुगन्ध का आनन्द मिलता है। माली का परिवार अपना गुजारा करता है और श्रेय तथा स्वास्थ्य का आनन्द लुटता है। उपयोगी आरोपण करने के कारण लगाने वाले को सन्तोष और यश तो मिलता ही है, शास्त्रकार उसे स्वर्ग मिलने तक का आश्वासन देते हैं। उद्यान धन्य होता है और उससे सम्बन्धित समुदाय भी।
परिवार एक उद्यान है, जिसमें छोटे पौधे और बड़े वृक्ष मिल-जुल कर रहते और सुरंग तथा सिंचन-पोषण का समग्र लाभ प्राप्त करते हैं। संयुक्त परिवार का हर सदस्य कितना सुखी और श्रेयाधिकारी बनता है, इसे उद्यान में लगे हुए हर पौधे से पूछा और जाना जा सकता है। पक्षी परिवार बसाते और वन्य-पशु झुण्ड बनाकर रहते हैं। चींटी और दीमक, मधुमक्खी और टिड्डी जैसे छोटे कीड़े अपनी विशिष्टता का परिचय परिवार-परम्परा अपनाकर ही दे सके हैं। जिनने एकाकीपन अपनाया, उनने और कुछ भले ही पाया हो, वे उस आनन्द से वंचित ही रह गए जो सहकारी जीवनचर्या अपनाने वालों के ही भाग्य में बदा है।
नारी की सत्ता मूर्तिमान परिवार है। उसकी शारीरिक संरचना और मानसिक सम्वेदना परिवार बनाने, बसाने और बढ़ाने की ही नहीं, उसे समुन्नत-सुसंस्कृत बना सकने में भी स्रष्टा ने हर दृष्टि से उसे समर्थ बनाया है। वह जहाँ रहती है, उद्यान बनकर ही रहती है और अपने कर्तव्य से सारे वातावरण को उल्लास से भरती है।
जागृत-महिला परिवार-मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी
परिवार एक शरीर है और जागृत-महिला उसका प्राण। दीखता तो शरीर का समग्र ढाँचा है, पर उसमें जो स्फुरणा और प्रखरता पाई जाती है, वह प्राण शक्ति की ही होती है। प्राण दुर्बल पड़े तो शरीर मुरझाया हुआ प्रतीत होगा और उसके निकल जाने पर तो मरण ही निश्चित है। परिवार के ढाँचे को शरीर माना जाए और उसमें प्रखरता भरने वाली प्राण-शक्ति को जागृत-महिला।
यों नारी भी एक प्राणी है और अन्य जीवधारियों की तरह वह भी अपनी जीवन-यात्रा चलाती है, पर उसका गौरव 'महिला' सिद्ध होने में है। महिला ही नहीं, 'जागृत-महिला'। जागृत का अर्थ है—अवगति को रोकने और प्रगति सम्भावनाओं को बढ़ाने में जागरूक, सक्रिय और सक्षम।
नारी को महिला बनाया जाए। उसके शुभचिन्तकों का यही सबसे बड़ा अनुग्रह होगा कि अपने सम्पर्क के स्त्री-समुदाय को मात्र नारी न रहने दें, वरन् उन्हें महिला—जागृत महिला बनाने के लिए योजना बनाएँ और सक्रियता अपनाएँ।
नारी देखने में एक व्यक्ति की तरह प्रतीत होती है, पर उसकी प्रतिभा समूचे परिवार को अनुप्राणित करती है। किसी सुसंस्कृत परिवार को देखकर उसके वैभव को कारण नहीं मानना चाहिए, वरन् यह सोचना चाहिए कि यह इस घरौंदे में रहने वाली किसी जागरूक महिला का चमत्कार है। नारी की जागरूकता आमतौर से उसके वेश-विन्यास या कला-कौशल, शिष्टाचार एवं व्यवस्था-क्रम में दृष्टिगोचर होती है, पर वस्तुत: उसकी गरिमा का क्षेत्र इससे कहीं अधिक बड़ा है। परिवार को सुव्यवस्थित, सन्तुष्ट, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में जिसने जितना श्रम, मनोयोग एवं कौशल लगाया हो, इसके लिए जितने आत्म-नियंत्रण एवं उत्सर्ग का परिचय दिया हो, उसे उसी स्तर की जागृत-महिला कहना चाहिए। जागृत-महिला अर्थात् परिवार-मन्दिर में निवास करने वाली गृहलक्ष्मी, सृजन की अधिष्ठात्री मानव-आकृति में रहने वाली मातृ-शक्ति एवं देहधारी देवी।
अग्रगामी पिछड़ों की सहायता करें
पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भाव भरा योगदान प्रस्तुत करना उनका कर्तव्य है जिन्हें प्रगतिशील होने का सुअवसर मिला है। सामान्य स्तर से जो भी आगे हैं, उनकी अग्रगामिता इसी प्रकार सार्थक होती है कि वे अपने से पिछड़ों को बराबर लाने में, बराबर वालों को आगे बढ़ाने में उपलब्ध समर्थता का उपयोग करें।
पिछड़ेपन के कई भाग हैं—आर्थिक, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक आदि। इन सबसे अधिक भयावह भावनात्मक पिछड़ापन है। कोई अपने को हेय या हीन समझे, किसी को मानवी गौरव गरिमा से लाभान्वित होने से वंचित रखा जाय, प्रतिबन्धित किया जाय, यह भावनात्मक पिछड़ापन है। सर्वप्रथम किसे दूर किया जाए, यदि इसका चयन किया जाय तो सबसे अधिक हानिकारक और कष्टदायक भावनात्मक पिछड़ापन ही माना जाना चाहिए और उसी को दूर करने का अविलम्ब प्रयत्न होना चाहिए।
पिछड़ापन कौन दूर करे? इसके लिए उनसे कहा जाएगा जो गतिशील हैं। सुख और सौभाग्य को मिल-बाँटकर खाया जाना चाहिए। अन्यथा वह विग्रह, ईर्ष्या, अहंकार और अनाचार के प्रसंग उपस्थित करेगा। नर को नारी की तुलना में वरिष्ठता प्राप्त है। समर्थता का उन्हें अहंकार भी है और उसे स्वीकार करने में आतंकित नारी की सहमत विवशता भी। प्रचलन कुछ भी क्यों न हो, अनीति अनीति ही रहेगी। स्थिति बदली जानी चाहिए। स्त्रियों के पिछड़ेपन को दूर करने की जिम्मेदारी पुरुषों को अपने कन्धों पर उठानी चाहिए। पुरुष का पौरुष इसी में है कि वह अपनी जन्मदात्री, सहचरी एवं शालीनता की संरक्षिका नारी के पुनरुत्थान में प्राणपण से योगदान करे। नव जागृति की इस पुण्य वेला में समर्थ कहलाने वाले पुरुष को यह उत्तरदायित्व उठाना ही होगा कि वह नारी को मानवी अधिकारों से वंचित करने वाले बन्धनों से मुक्त कराने में समुचित योगदान प्रस्तुत करे।
नारी पारिवारिकता की प्रतिमूर्ति
परिवार मात्र एक संगठन नहीं, वरन् तत्त्वदर्शन भी है। व्यक्ति की महत्ता और समाज की समर्थता इसी तत्त्वदर्शन के प्रयोग पर अवलम्बित है कि पारिवारिकता की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति को कहाँ, किसने, किस प्रकार अपनाया। जहाँ उसमें अनुदारता बरती और उपेक्षा की गई होगी, वहाँ संकीर्ण स्वार्थपरता ने दूसरों का ही नहीं, अपना भी सर्वनाश किया होगा। विकास का एक ही आधार है—भावभरा सहयोग। जहाँ इस सदाशयता का जितना उपयोग हो रहा होगा, वहाँ प्रगति, समृद्धि और प्रसन्नता का वातावरण उसी अनुपात में बन रहा होगा।
आत्मीयता का क्षेत्र जितना ही बढ़ता है, पारस्परिक आदान-प्रदान का द्वार भी उसी अनुपात में खुलता है। उदारता और सहायता की सम्भावना भी उसी अनुपात में बढ़ती है जितनी कि आत्मीयता सघन और समर्थ बन सकी होगी। पारिवारिकता और आत्मीयता एक ही तथ्य के दो विवेचन हैं।
पारिवारिकता का अभ्यास घर-कुटुम्ब की पाठशाला से आरम्भ होता है। संस्कारों की जीवन में स्थापना के लिए यही प्रयोगशाला सफल होती है। घर-परिवारों में पारिवारिकता का अनुभव-अभ्यास कराने के बाद ही व्यक्तित्व में उदार दृष्टिकोण और आदर्श व्यवहार पनपता है। यही है वह ध्रुव केन्द्र जिस पर मानवी-प्रगति और सुख-शान्ति को निर्भर समझा जा सकता है।
नारी पारिवारिकता की मूर्तिमान प्रतिमा है, उसकी समग्र संरचना इसी प्रकार हुई है मानों उसे परिवार तत्त्वदर्शन की जीती-जागती प्रतिमा के रूप में गढ़ा गया हो। नारी का उत्कर्ष प्रकारान्तर से पारिवारिकता के तत्त्वज्ञान को परिपुष्ट करता है।
नारी जगत की एक पवित्र स्वर्गीय ज्योति है | त्याग उसका स्वभाव, प्रदान उसका धर्म, सहनशीलता उसका व्रत और प्रेम उसका जीवन है। —आचार्य चतुरसेन शास्त्री
सहकारिता का सम्वर्द्धन — पारिवारिक वातावरण में
सहकारिता और सभ्यता एक ही बात है। जो मिलजुल कर रहते हैं, वे सुखी भी बनते हैं और समुन्नत भी। सुख की सार्थकता उसे मिलजुल कर उपभोग करने और दुख की निवृत्ति उसे परस्पर बाँट लेने में सन्निहित है। यह दोनों ही प्रयोजन मिलजुल कर रहने और सहकारी विधि-व्यवस्था अपनाने से ही सम्भव हो सकते हैं।
मनुष्य की मौलिक विशेषता सहकारिता है। उसी के सहारे उसने समुदाय में रहना और परस्पर सहयोग करना सीखा। प्रगति का द्वार खोलने और अनेकानेक सुख-साधन जुटाने में इसी प्रवृत्ति ने प्रमुख भूमिका निभाई है। अनुभवों के आदान-प्रदान ने ही ज्ञान का वह ढाँचा खड़ा किया है, जिसके सहारे मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि बनने का सुअवसर मिला।
प्रगति और समृद्धि के सुखद प्रतिफल सहकारिता की वल्लरी पर लगते और फलते हैं। जो सहयोग की सद्भावना का जितना विकास और उपयोग करते हैं, वे उतने ही अधिक समुन्नत और सुसंस्कृत माने जाते हैं।
सहकारिता की सत्प्रवृत्ति का बीजारोपण एवं अभिवर्द्धन परिवार क्षेत्र में जितनी सरलता, सुविधा और सफलता के साथ होता है उतना अन्यत्र कहीं नहीं। परिवारों में यदि सुसंस्कारिता और सुव्यवस्था का समावेश किया जा सके तो उस आनन्द और वातावरण का अनुभव अपने इन्हीं घर-घरौंदों में किया जा सकता है जिनके सहारे देवता सामान्य से असामान्य बनते हैं।
रूढ़िवादिता जनित प्रतिबन्ध एवं आत्महीनता अथवा प्रगतिशीलता के नाम पर स्वछंदता एवं अहंकार दोनों नर-नारी को संयुक्त इकाई के रूप में परिवर्तित होने में बाधक हैं। इन बाधाओं को दूर करना तथा शिव एवं शक्ति, पुरुष एवं प्रकृति की तरह नर-नारी को संयुक्त, सशक्त इकाई के रूप में खड़ा करना ही नारी जागरण एवं समाज निर्माण का मुख्य आधार बन सकता है। —टी. एल. वास्वानी
सदाशयता का तकाजा है कि दुर्बलों को समर्थ बनाने की जिम्मेदारी वे उठायें जिन्हें ईश्वर ने इस योग्य बनाया है। सुसम्पन्नों का कर्तव्य है कि निर्धनों को उपार्जन के साधन उपलब्ध कराएँ और उन्हें सहज स्वावलम्बन की स्थिति तक पहुँचाएँ। सुशिक्षितों की शिक्षा तभी सार्थक कही जाएगी, जब उससे अशिक्षा का भार हल्का करने में सहायता मिले। सुसंस्कारिता उन्हीं की सराहनीय है जिन्होंने अनगढ़ को सुगढ़ बनाने में अपनी विशिष्टता का उपयोग किया। बलवानों में उन्हीं की गणना होगी जो निर्बलों की ढाल बनकर अपनी बलिष्ठता का परिचय दे सकें।
सजनता और शालीनता की इस जिम्मेदारी को समर्थ लोग उठाएँ, यह उचित है और सराहनीय भी। इसके लिए उन्हें समझाया और उकसाया जाना चाहिए। फिर भी प्रचलन को देखते हुए इस सन्दर्भ में इतना सहयोग मिलने की आशा नहीं है जिससे संव्यात पिछड़ेपन का समुचित समाधान हो सके। समर्थों में उदारता भी रही होती तो संसार को यह दुर्दिन क्यों देखने पड़ते। सम्पन्नता यदि सहृदयता भी साथ लिए होती तो धरती का आनन्द लेने के लिए देवताओं को स्वर्ग की अपेक्षा यहीं अपना निवास बनाना पड़ता। पिछड़े वर्ग को ऊपर उठने के लिए स्वयं पुरुषार्थ करना होगा। बच्चा खड़ा होने की कोशिश करता है तो अभिभावक उसे सहारा देते हैं और तीन पहिए की गाड़ी जैसे साधन उपलब्ध करते हैं। संसार के पिछड़े समुदाय में नारी ही सबसे बड़ा वर्ग है। आश्चर्य है कि आधी जनसंख्या को समान संख्यक पुरुष वर्ग ने किस प्रकार इतना आतंकित कर दिया कि वह अपनी दुर्गति का अनुभव भी न कर सके और उठने की सामर्थ्य होते हुए भी उसके लिए साहस न जुटा सके।
नारी को पिछड़ेपन से यदि छूटना है या उसे छुड़ाया जाना है तो नर के लिए आवश्यक है कि वह उसे स्वयं अपने पैरों खड़े होने की प्रेरणा दें और नारी उठ खड़े होने के लिए कटिबद्ध हो जाए। जब तक अवांछनीयता से उबरने की पद-दलित वर्ग में उत्कट अभिलाषा उत्पन्न न होगी तब तक उदार अनुदानों का यत्किन्चित योगदान भी कोई कारगर समाधान प्रस्तुत न कर सकेगा।
उठाने के साधन और उठने का उत्साह, दोनों ही चाहिए
उठने के लिए दूसरों की सहायता की आवश्यकता है। उससे प्रगति में सुगमता रहती है। खाद-पानी का सहयोग पाकर पौधे जल्दी बढ़ते हैं, इस सर्वविदित तथ्य से किसी को इन्कारी नहीं हो सकती।
स्मरण रखने योग्य तथ्य यह भी है कि बीज की अपनी उर्वरता जीवित हो तो ही बाहरी सहायता की कुछ उपयोगिता है। सड़े बीज में अंकुर उगाने की सामर्थ्य नहीं रहती। फलतः उसे उगाने-बढ़ाने के बाहरी प्रयत्नों का भी कोई मूल्य नहीं रह जाता, भले ही वे कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों न हों। नारी को पददलित किसी ने भी क्यों न किया हो, उसके कारण जो भी रहे हों, उठने की समस्या पर विचार करते ही यह प्रश्न सामने आता है कि उठने के लिए उसमें आतुर उत्कण्ठा कितनी है। यह कार्य सहायकों का नहीं, स्वयं नारी का है कि वह अपने उत्कर्ष की अकुलाहट प्रकट करे। इसी अकुलाहट से विषम बन्धन टूटते हैं। प्रसव में शिशु की, अण्डा फूटने में चूजे की भी अपनी कुछ भूमिका होती है। छिलके को तोड़कर अंकुर फूटने तक की प्रक्रिया बीज के अन्तरंग में ही सम्पन्न होती है। बाहर की सहायता तो बाद में उपलब्ध होती है।
जड़ पदार्थों को साधन के सहारे ऊपर उठाया और कहीं से कहीं पहुँचाया जा सकता है, पर चेतन पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता। उठाने वालों के प्रयास तभी सफल होते हैं जब उठने वाले की उमंगें भी उफनती-मचलती दिखाई दें।
नारी उत्थान अपने युग की महती आवश्यकता है। इसके लिए सहायक साधनों का जुटाया जाना आवश्यक है ही, पर सफलता तब मिलेगी जब पिछड़ेपन से ऊब और प्रगति के लिए उत्साह का परिचय जागृत महिला समाज की ओर से भी दिया जाए।
नारी को साथ लिए बिना प्रगति अधूरी
नई पीढ़ियाँ माता के पेट से पैदा होती हैं, घर-परिवार का वातावरण महिलाएँ बनाती हैं, संस्कार, स्वभाव और चरित्र का प्रशिक्षण घर की पाठशाला में ही होता है। परिवार का स्नेह-सौजन्य पूरी तरह स्त्रियों के हाथ में रहता है। यदि नारी की स्थिति सुसंस्कृत, सुविकसित स्तर की हो तो निस्सन्देह हमारे घर-परिवार स्वर्गीय वातावरण से भरे-पूरे रह सकते हैं। उनमें रहने वाले लोग कल्पवृक्ष जैसी शीतल छाया का रसास्वादन कर सकते हैं। हीरे जैसे बहुमूल्य रत्न किन्हीं विशेष खदानों से निकलते हैं, पर यदि परिवार का वातावरण परिष्कृत हो तो उसमें से एक से एक बहुमूल्य नर रत्न निकलते रह सकते हैं और उस सम्पदा से कोई भी देश, समाज समुन्नत स्थिति में बना रह सकता है। देश की आधी जनसंख्या नारी है। यदि वह पक्ष दुर्बल और भारभूत बनकर रहेगा तो नर के रूप में शेष आधी आबादी की अपनी सारी शक्ति उस अशक्त पक्ष का भार ढोने में ही नष्ट होती रहेगी। प्रगति तो तभी सम्भव है जब गाड़ी के दोनों पहिए साथ-साथ आगे की ओर लुढ़कते रहें। एक पहिया पीछे की ओर खिंचे, दूसरा आगे की ओर बढ़े तो उससे खींचतान भर होती रहेगी, हाथ कुछ नहीं लगेगा। प्रगतिशील देशों में नारी भी नर के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ने की, अपने देश को आगे बढ़ाने की सुविकसित स्थिति में रहती हैं। फलस्वरूप वे बहुत कुछ कर गुजरती हैं। यदि हमें सचमुच ही प्रगति की दिशा में आगे बढ़ना है तो नारी को साथ लेकर ही चलना होगा। एकांगी प्रयास कभी भी सफल न हो सकेंगे।
मुझे अगर अब किसी से ज्यादा उम्मीद है सेवा करने की, कौम की खिदमत करने को तो बहनों से, औरतों से है, क्योंकि उन लोगों में अभी तक खुदगर्जी नहीं आई है। परमात्मा के लोग बेगरजी होते हैं और परमात्मा का आशीर्वाद वे ही हासिल करते हैं। —सीमान्त गाँधी
अनीति के आतंक से समझौता न करें!
पिछड़ेपन का कारण बहुधा प्रतिकूल परिस्थितियों अथवा बाहरी दबावों को माना जाता है। यह एक अंश में ही सही है, पूर्ण तथ्य नहीं। प्रतिकूलताओं और दबावों की शक्ति को जब मनुष्य स्वीकार कर लेता है और उनके आगे झुकने के लिए सहमत हो जाता है तो ही वे अपना प्रभाव दिखा पाते हैं। सहमति न हो तो और कोई बाहरी शक्ति किसी को देर तक विवश नहीं बनाए रह सकती। मनुष्य जड़ नहीं है, उसे माँस-पिण्ड नहीं समझा जाना चाहिए। उसके भीतर जो चेतना काम करती है, वह इतनी प्रबल है कि प्रतिकूलताओं और दबावों से इसे देर तक विवश बनाकर नहीं रखा जा सकता। लाचारी की अनुभूति और पिछड़ेपन की स्वीकृति जहाँ जिस मात्रा में रहेगी, दबावों का प्रभाव उसी अनुपात में बढ़ता चलेगा।
मानवी गौरव के प्रतिकूल परिस्थितियों और परम्पराओं के निर्माणकर्ताओं और समर्थकों को यह समझाया जाना चाहिए कि अनीति का आतंक कितना ही प्रचण्ड क्यों न बना लिया जाय, वे इस सृष्टि की मूल प्रकृति के विपरीत हैं। उनके अस्तित्व देर तक टिके नहीं रह सकते, वे बेमौत मरते हैं। टिकाऊपन न्याय और औचित्य के साथ ही जुटा रहता है इसलिए बुद्धिमत्ता इसी में है कि पिछड़ापन उत्पन्न करने वाले आतंक से समय रहते ही हाथ खींच लिया जाए।
पिछड़े लोगों को यह समझाया जाना चाहिए कि उन्हें अनीति के साथ समझौता नहीं करना चाहिए। दबावों को न तो स्वीकार किया जाना चाहिए और न उनके साथ सहमति व्यक्त करनी चाहिए। संघर्ष के लिए साधन न हो तो भी असहमति और अस्वीकृति की ज्योति बुझने नहीं देनी चाहिए। औचित्य और न्याय के लिए आग्रह जारी रखा जाए तो आतंक के पैर जम नहीं सकेंगे। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि मनुष्य यदि अनीति के आगे झुके नहीं तो उसे और कोई झुका नहीं सकता।
नीति-प्रतिष्ठा का आग्रह भी तो उभरे!
नारी के पिछड़ेपन में पुरुष की बड़ी भूमिका रही है। इसका वह दोषी भी है। पर यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि दीनता की दुर्बलता जहाँ होती है, वहीं अनौचित्य का आतंक ठहरता और परिपुष्ट होता है। मनुष्य जिस धातु से बनाया गया है, उसमें ऐसे तत्त्व नहीं है, जो बिना आत्म-स्वीकृति के, मात्र दूसरों के दबाव से दब या झुक सकें।
आतंक की शक्ति से सभी परिचित हैं, पर दृढ़ता की सामर्थ्य की भी जानकारी होनी चाहिए। अनीति के आगे सिर न झुकाया जाए तो दमन का दबाव तोड़ भर सकता है, झुका सकने की उसमें सामर्थ्य नहीं है। झुकता तो मनुष्य अपनी दुर्बलता से है। अनीति के साथ समझौता कर लेना यही है। यह मौलिक दुर्बलता ही है जिसके कारण पग-पग पर पददलित होना पड़ता है। यह स्थिति बनी रहे तो एक ओर से दबाव हट जाने पर वह दूसरी दिशा में पड़ने लगेगा और अवांछनीयता के आतंक का अन्त न हो सकेगा।
नारी के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी दबाव का अन्त होना चाहिए। आतंकवादी प्रवृत्ति और अनीतिपूर्ण परम्परा का परिवर्तन होना चाहिए। साथ ही पीड़ित पक्ष को न्याय की पक्षधर प्रखरता को सजग करना चाहिए। स्नेहसिक्त स्वेच्छया समर्पण एक बात है और भयभीत होकर लाचारी के आगे नतमस्तक होना दूसरी। साहसिक शालीनता और भयभीत कातरता को एक नहीं माना जाना चाहिए।
नारी भी मनुष्य है। मानवी गरिमा की रक्षा में उसका भी योगदान होना चाहिए। आतंक रुके या न रुके, उसे अपनी ओर से अनीति को मान्यता देने वाली दीनता का परित्याग कर ही देना चाहिए। एक पक्ष की सुदृढ़ न्याय निष्ठा दूसरे को भी झुकने और बदलने के लिए विवश करती है। नीति की प्रतिष्ठा का आग्रह जितना प्रबल होगा, उतनी ही तीव्रता से अवांछनीयता का अन्त होते देखा जा सकेगा।
अपहरण की नहीं, अनुदान की नीति अपनाएँ
शरीर की बनावट के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच ऐसा अन्तर किया जाना जो मानवी मौलिक अधिकारों की उपेक्षा करता हो, हर दृष्टि से अनुचित है। लम्बे, ठिगने, मोटे, पतले, सुन्दर, कुरूप काया के होने पर भी सभी को समान नागरिक आधिकार प्राप्त रहते हैं, फिर नर और नारी की शरीर रचना में नहीं, वरन् यौन संस्थान में तनिक-सा आकृति भेद रहने मात्र से ऐसा कुछ नहीं होता जिससे किसी को अधिपति और किसी को सम्पत्ति की संज्ञा दी जा सके।
वरिष्ठता गुण, कर्म, स्वभाव में पाई जाने वाली श्रेष्ठता के आधार पर किसी को भी मिल सकती है। सज्जनता को, परमार्थ परायणता को सदा सम्मान मिला है। हेय उन्हें समझा गया है जिन्होंने अपने को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाने में प्रमाद बरता है। इस कसौटी के अतिरिक्त यदि जन्म, जाति अथवा लिंग भेद के आधार पर किसी को वरिष्ठ, किसी को निकृष्ट ठहराया जाएगा तो उसमें स्पष्टतः औचित्य का हनन है।
नर और नारी मनुष्य जाति के दो अविच्छिन्न पक्ष हैं। दो हाथ मिलकर काम करते और दो पैर मिलकर चलते हैं। दोनों की सार्थकता मिल-जुलकर काम करने में है। ऐसा सार्थक समन्वय भाव भरी मित्रता और उदार सहकारिता के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। बड़प्पन यदि आवश्यक ही हो तो उसके लिए यही उपाय है कि दोनों दूसरे पक्ष को वरिष्ठता दें। दूसरे की तुलना में अपने को बड़ा नहीं, कुछ घट कर ही व्यक्त करें। साथी का सच्चा सम्मान पाना इसके बिना शक्य नहीं है। अधिकारों के अपहरण को नहीं, उदार अनुदान की बात को ध्यान में रखकर ही नर और नारी के बीच स्नेह और सद्भाव की स्थिरता रह सकती है।
पत्नी के समान हितकारी और दुखों से उबारने वाला न तो कोई पुण्य है, न तीर्थ और न ही सुख। —पद्मपुराण
उपेक्षा के रहते उपयोगिता सम्भव नहीं
उपेक्षित वस्तु कूड़ा-करकट होती है और उपेक्षित व्यक्ति निरर्थक बनकर रह जाता है। जिसका महत्त्व समझा जाता है, उसे सुरक्षित रखा जाता है, और अधिक उपयोगी, और अधिक सुन्दर-समुन्नत बनाने का प्रयत्न किया जाता है। अपने आप की उपेक्षा करने वाले जीवन का महत्त्व नहीं समझते और उसमें कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ तो दूर, किसी प्रकार मौत के दिन ही पूरे कर पाते हैं।
नारी का महत्त्व भी जीवन का महत्त्व न समझने की भाँति ही गया-गुजरा समझा गया। फलतः वह कूड़ा-करकट बनती चली गई। उसे घर की छोटी सी सीमा में छोटे से प्रयोजन पूरे करते रहने में ही दिन गुजारने पड़ते हैं। उस क्षेत्र में भी वह बहुत कुछ कर सकती थी पर करे कैसे? जिसे तुच्छ माना गया है, जिसे तुच्छ बनाया गया है, वह तुच्छता की भूमिका ही निभाता रह सकता है।
कोयले की खदान में हीरा भी उसी मूल्य का है जितना कि जलावन का वह पूरा ढेर। उपेक्षा की दलदल में फँसी नारी अपनी गरिमा खोती चली जा रही है और उसके द्वारा सम्बन्धियों का, परिवार तथा समाज का जो हित साधन हो सकता था वह हो नहीं पा रहा है। नारी ही क्यों, किसी भी पदार्थ या प्राणी का महत्त्व गिरा दिया जाए और उसे उपेक्षित रखा जाए तो वह बहुमूल्य होते हुए भी निरर्थक बनकर रह जाएगा। नारी के सम्बन्ध में भी यही हुआ है और जीवन के सम्बन्ध में भी यही बात रही है।
जीवन हो, नारी हो, समय हो, धन हो, कुछ भी हो यदि उसका महत्त्व और सही उपयोग समझा जाएगा तो ही वह प्रयत्न सम्भव होगा जिसके आधार पर उसकी गरिमा का चमत्कार देखा जा सके।
नारी की मुस्कान में जीवन का स्रोत झरता और अमृत बहता है। —रवीन्द्रनाथ टैगोर
मनुष्य में देवत्व के अवतरण का लक्षण
मानवी मस्तिष्क में देवत्व के अवतरण का प्रत्यक्ष परिचय इस लक्षण से मिलता है कि उसके द्वारा पवित्रता का दर्शन होता है या नहीं। असुरता की दृष्टि नर के द्वारा नारी को और नारी के द्वारा नर को विलास उपभोग की वस्तु समझने के पाशविक आकर्षण में पाई जाती है। यह शरीर के अत्यन्त उथले स्तर, कामुक विलास तक सीमित रहती है। अच्छा होता इसका स्तर थोड़ा और ऊँचा रहा होता और स्वास्थ्य गठन के सौभाग्य पर प्रसन्नता अनुभव करने तक सन्तुष्ट रहा जाता। उपभोग की वह अश्लील बातें न सोची जाती जो व्यवहारतः असम्भव ही बनी रहती हैं और असन्तोष की आग भड़काती हैं।
देवत्व की दृष्टि से देखने पर नारी मात्र भगिनी, पुत्री, माता एवं सहचरी रह जाती है। इसी प्रकार नारी के लिए कोई नर मात्र भाई, पुत्र, पिता और सखा भर दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार की पवित्रता का अवतरण यदि अन्त:चेतना में विकसित होने लगे तो समझा जाना चाहिए कि मनुष्य में देवत्व का अवतरण होने लगा।
गृहस्थ का तपोवन
सिषक्ति सा वां सुमतिश्चनिष्ठाऽतापि धर्मो मनुषो दुरोणे। यो वां समुद्रान्त्सरितः पिपर्त्येतग्वा चिन्न सुयुजा युजानः। —ऋग्वेद ७/७०/०२
जिस प्रकार सूर्य आकाश में तप करता है उसी प्रकार गृहस्थ घर रूपी आकाश में तप करे। पति-पत्नी मिलकर सुमति सम्पन्न करें। एक रथ में जुते दो घोड़ों की तरह दोनों परिवार का संचालन करें। जैसे मेघ और नदी मिलकर समुद्र को पूर्ण करते हैं, उसी प्रकार पति-पत्नी मिलकर इस विश्व का श्रेय साधन करें।
सहयोग और सद्भाव की रीति ही श्रेयस्कर है
नर बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता है और नारी भावना की प्रतिमा है। बुद्धि और हृदय के समन्वय से ही व्यक्तित्व में पूर्णता आती है। एकाकी सहृदयता के भटक जाने का भय और एकाकी बुद्धि के दुष्टता पर उतर पड़ने की आशंका बनी ही रहेगी। शक्ति और श्रद्धा दोनों ही अपेक्षित हैं। नर की शक्ति और नारी की श्रद्धा का समन्वय होने से ही एक पूर्ण मानव का दर्शन सम्भव है।
प्रकृति ने नर और नारी तत्त्व को एक-दूसरे का सहयोगी और पूरक बनाकर भेजा है। दोनों की सघन सहकारिता सर्वतोमुखी सुख-शान्ति का सृजन कर सकती है। सभी जानते हैं कि दोनों के बीच स्नेह-सहयोग की जितनी सघनता होगी, उल्लास और विकास की स्थितियाँ उसी अनुपात से बढ़ती चली जाएँगी।
सद्भाव भरा सहयोग मात्र सज्जनता, सहृदयता, उदारता, आत्मीयता जैसे उच्चस्तरीय आधारों पर अवलम्बित है। मानवी आदर्शों को अक्षुण्ण बनाए रहने और प्रगति का पथ प्रशस्त किए रहने के लिए आवश्यक है कि दोनों के बीच घनिष्ठता एवं एकता बढ़ाने वाले तत्त्वों को बढ़ाया जाए। इस मार्ग को अवरुद्ध करने वाली मान्यताओं और प्रथाओं को क्षण भर के लिए भी सहन नहीं किया जाना चाहिए।
स्नेह की भावनात्मक और सहयोग की भौतिक शक्ति इस संसार में सर्वोपरि मानी गई है। दोनों का अभिवर्द्धन नर और नारी की घनिष्ठता के लिए आधार बनाया जा सके तो अपने छोटे घर-परिवारों में स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सकता है और उसमें निवास-निर्वाह करने वाले मनुष्य आनन्द उल्लास की देवोपम अनुभूतियों का रसास्वादन करते रह सकते हैं।
मानवी सत्ता की सबसे महत्वपूर्ण विभूति है—उसका दृष्टिकोण। उसका जैसा उपयोग जिस भी पदार्थ या प्राणी पर किया जाता है, उसकी स्थिति तदनुरूप ही बन जाती है। पत्थर प्रयोगशाला के हर परीक्षण में जड़ पाषाण ही रहेगा, पर जब उसमें देवत्व की स्थापना की जाती है तो श्रद्धालु की श्रद्धा उसमें भगवान प्रकट कर देती है। प्रतिमा के निर्माण और भावना के निर्धारण में मनुष्य के ही कर्तृत्व ने काम किया, इस प्रकार तत्त्वत: वह मानवी कृति ही हुई। इतने पर भी उसकी शक्ति सच्चे भगवान की तरह प्रकट होती है। यह दृष्टिकोण की सामर्थ्य का परिचय है। नदी के सामान्य जल प्रवाह में हम गंगा-यमुना जैसी भाव श्रद्धा का आरोपण करते हैं और वह सचमुच तरण तारणी बन जाती है। यह दृश्यमान जगत गतिशील तो है, पर इसमें रस, आनन्द और सौन्दर्य जैसा कहीं कुछ नहीं है। जड़ तो जड़ ही ठहरा।
अनेक भाव सम्वेदनाएँ हम अपने भीतर से उभारते हैं और उनका जिस-तिस पर आरोपण करके उसे उसी रंग का बना लेते हैं जैसा कि दृष्टिकोण रूपी चश्मा पहन कर रखा गया है। दृष्टिकोण का परिष्कार ही इस जगत के सजीव-निर्जीव घटकों को दिव्यता से भरता है, उनमें भाव-भरी उत्कृष्टता का संचार करता है। कस्तूरी मृग का यह अमृत मनुष्य के अन्तरंग में भरा है। बाहरी ढूँढ़-खोज तो मृगतृष्णा मात्र है।
नारी के प्रति पवित्रता की, करुणा की, श्रद्धा की, उदारता की मूर्तिमान प्रतिमा जैसी स्थापना की जा सके, तो निस्सन्देह हम इस संसार की जीती-जागती, हँसती-हँसाती, भाव भरे अमृत बरसाती २०० करोड़ देवियों के दर्शन करते रह सकते हैं। यह कल्पना नहीं, यथार्थता भी है। पुत्री, भगिनी, माता और धर्मपत्नी में दैवी तत्त्व कितने अधिक है, इसे भावना और बुद्धि दोनों की ही कसौटियों पर खरा पाया जा सकता है।
नारी श्रद्धा और श्रेष्ठता की अधिष्ठात्री
बलिष्ठता की दृष्टि से पुरुष की काय संरचना को बड़प्पन मिल सकता है, किन्तु जहाँ तक प्रगतिगत आध्यात्मिकता का सम्बन्ध है, वहाँ नारी को ही वरिष्ठ और विशिष्ट माना जाएगा।
नारी अन्तराल में विद्यमान करुणा उसे सेवा और सौजन्यता का पग-पग पर परिचय देने के लिए प्रेरित करती है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त नारी जिस रीति-नीति को सहज स्वाभाविक क्रम से अपनाती है उसे उच्चस्तरीय परमार्थ परायणता की ही संज्ञा दी जा सकती है।
परिवारों में उगने वाले कल्पवृक्ष की उपमा नारी को दी जाए तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी। माता के काम में हाथ बटाते हुए, भाई-बहनों को खिलाते हुए, खेल और विनोद में सौजन्य का समावेश रखते हुए हर लड़की को देखा जा सकता है। किशोरों में उद्दण्डता बढ़ती है और किशोरियों में संकोच भरी शालीनता। पति के लिए अर्धांगिनी की भूमिका वही निभाती है। उसकी अपूर्णताओं और अतृप्तियों को पूर्ण करना, घर परिवार को प्रसन्नता और सुसम्पन्नता से भर देना उसी अन्नपूर्णा का काम है। बच्चों से लेकर वृद्धों तक, समर्थों से लेकर असमर्थों तक सभी को उसके आँचल की छाया मिलती है। उसके श्रम, सहयोग, स्नेह एवं सौजन्य से घर के हर सदस्य को कृतकृत्य होने का अवसर मिलता है। नर रत्न उसी का उत्पादन है।
मातृ शक्ति की गरिमा समझी जा सके तथा उसे श्रद्धासिक्त परिपोषण दिया जा सके तो देवी नाम से सम्बोधित की जाने वाली नारी इस धरती को देवताओं के स्वर्ग जैसी शान्ति और समृद्धि से भर सकती है।
पति के लिए चरित्र, सन्तान के लिए ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया और जीव मात्र के लिए करुणा सँजोने वाली महाकृति का नाम नारी है। —महर्षि रमण
पवित्र दृष्टि से आत्मा में परमात्मा का अवतरण
आध्यात्मिक पवित्रता के अभिवर्द्धन की सरल किन्तु श्रेष्ठतम साधना यह है कि हर आत्मा में परमात्मा की दिव्य सत्ता का आलोक निहारा जाए और उस पर जो मलीनता के आवरण लदे हुए है, उन्हें उतार फेंका जाए। मनुष्य में दोष-दुर्गुण भी कम नहीं, उन्हें देखा और सुधारा जाए। पर दृष्टि यही रखी जाए कि बालक पवित्र है, मात्र उसके पैर पर चिपकी हुई गन्दगी ही निरस्त करने योग्य है। हम अपने को एवं अन्यों को भी पवित्र समझें, मलीनता के आवरण हटाकर पवित्र बनाएँ और उपार्जित पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखें।
इस सन्दर्भ में एक बहुत अच्छा साधनात्मक पक्ष है कि पुरुष नारी को ईश्वर की पवित्रतम शक्ति की प्रतीक माने और उसे माता, बहन एवं पुत्री की प्रगाढ़ श्रद्धायुक्त दृष्टि से देखें। धर्मपत्नी भी भोग्या नहीं, सहधर्मिणी और सहचरी है। घनिष्टतम आत्मीयता की भावना से उसे असीम प्यार दिया जा सकता है। आवश्यकतानुसार सन्तानोत्पादन भी किया जा सकता है पर इसके लिए अपने या पत्नी के स्तर को गिराने की आवश्यकता नहीं है। ठीक यही पवित्र दृष्टि नारी को नर के आध्यात्मिकता के प्रति रखनी चाहिए। वह उसे पिता, भाई, पुत्र की दृष्टि से देखें और पति के प्रति अभिन्न सहचर जैसी उदात्त भावना रखें।
नर-नारी के बीच चल रहा वासनात्मक अपवित्र चिन्तन अध्यात्म दृष्टि के विकास में सबसे बड़ा व्यवधान है। प्रस्तुत निकृष्टता को पवित्र उत्कृष्टता में बदलने का प्रयत्न भावनात्मक तप है। इस तप में जो जितना सफल होगा, वह अपने में उतनी ही ईश्वरीय दिव्य शक्ति का जाज्वल्यमान अवतरण अनुभव करेगा।
नारी इस धरती का श्रेष्ठतम सार तत्त्व
नर में संघर्ष की बलिष्ठ क्षमता का बाहुल्य भले ही हो, उसमें सृजन की सर्वतोमुखी प्रतिभा, क्षमता और प्रकृति प्रदत्त विशिष्टता वैसी नहीं जैसी नारी को उपलब्ध है। नारी सृजन की मूर्तिमान अधिष्ठात्री है। उसे धरित्री की उपमा दी जा सकती है। अपनी काया का स्वत्व निचोड़ कर वह अभिनव मनुष्य प्राणियों को उत्पन्न करती है। धरती से वनस्पति और खनिज पैदा होते हैं, पर वह भी प्राणियों के उत्पादन में समर्थ नहीं है। सृष्टि का मुकुटमणि समझा जाने वाला मनुष्य प्राणी जिस जननी की कोख से उत्पन्न होता है उसे पृथ्वी से भी महान माना जाएगा।
प्रजनन ही नहीं पोषण भी। पोषण ही नहीं भरण भी। शिशु के उपयुक्त अमृतोपम आहार माता के वक्षस्थल से ही मिलता है। आत्मरक्षा तक में असमर्थ मानवी शिशु की काया माता की परिचर्या अहर्निशि प्राप्त करने के उपरान्त ही जीवन धारण किए रहने योग्य बनती है। इन अनुदानों के बिना इस धरती पर मनुष्य का न जन्म हो सकता था न जीवन धारण। पुरुष इन दिव्य विशिष्टताओं की दृष्टि से सर्वथा असमर्थ ही कहा जायगा।
अधिकार ग्रहण, उपभोग एवं दमन की शक्ति वैभव और वर्चस्व का लाभ देती है। इस दृष्टि से नर को श्रेय मिल सकता है। किन्तु जिसमें आदि से अन्त तक करुणा, सहनशीलता, क्षमा, सेवा और समर्पण की विभूतियाँ कूट-कूट कर भरी हों, जो इन अनुदानों के कारण बालक से लेकर वृद्ध तक को कृतकृत्य करती रहती हो, वह गरिमा स्रष्टा ने मात्र नारी को ही प्रदान की है। नारी जीवन्त सरसता है। छोटे, साथी, वृद्ध सभी उस कल्पवृक्ष की छाया से अपने-अपने स्तर के वरदान प्राप्त करते हैं। नारी सुषमा है, कला है, आशा है, जीवन है और सब कुछ है। उसे इस संसार की श्रेष्ठतम तत्त्व की संज्ञा दी जा सकती है।
नारी की गरिमा ही भारी पड़ती है
उपेक्षा उसकी होती है जिसका महत्त्व कम माना जाता है; अवमानना उसकी होती है जिसका मूल्य कम समझा जाता है। नारी के सम्बन्ध में यही भूल हो रही है। भीलनी हीरे का मूल्य नहीं समझ पाती, उसकी दृष्टि में बेर से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता।
नारी को अर्थ उपार्जन में पिछड़ी हुई पाया गया, शारीरिक पराक्रम की दृष्टि से भी उसका नम्बर दूसरा रहा। समझने वालों ने इसे उसकी दुर्बलता समझा और जंगल का कानून अपनाकर सबल ने दुर्बल को धर दबोचा। विलास की सामग्री और अच्छी सामग्री उसकी काया को पाया गया। फलतः लोलुपता को सन्तोष तब हुआ जब उसने दमन की कठोरता और मधुरता की सरलता के उभयपक्षी बन्धनों में जकड़कर उसे पूरी तरह वशवर्ती बना लिया। यही है नर-नारी के पारिवारिक सम्बन्धों का आज का विश्लेषण।
यह नारी का प्रत्यक्ष अवमूल्यन है जिसने उसकी प्रतिष्ठा को गिराया, गरिमा को गलाया और उस अनुराग से वंचित कर दिया जिसे प्राप्त करने से मानवता धन्य होती रही है। माता, पत्नी, भगिनी और पुत्री के रूप में वह अपने सम्बद्ध परिवार को क्या देती और क्या पाती है, इसका लेखा-जोखा लिया जा सके तो प्रतीत होगा कि उसकी गरिमा असाधारण है। उसके अनुदान इतने बड़े हैं जिनकी महिमा सृजेता के उपरान्त मानवी-उपलब्धियों में सर्वप्रथम ही ठहरती है।
यह ठीक है कि नारी को नर का भी कुछ सहयोग चाहिए, किन्तु यह भुलाया नहीं जा सकता कि नारी की सद्भावना के सहारे ही उसकी भाव सम्वेदना की मर्मस्थली जीवित है। नारी माता है, अपने आश्रितों से जो पाती है, उसकी तुलना में उसके द्वारा प्रदान की जाने वाली विभूतियों का अनुपात असंख्य गुना है।
भूल वहाँ से आरम्भ हुई जहाँ से नारी को नर सत्ता का अभिन्न अंग न मानकर उसे उपयोग साधन मानने की कुकल्पना किसी के मस्तिष्क में उठी। वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। दोनों परस्पर पूरक ही नहीं, एक-दूसरे के साथ इतनी सघनता के साथ जुड़े हुए हैं कि किसी को किसी से पृथक करने की बात ही नहीं बनती। फिर भोक्ता और भोग्य का रिश्ता तो बन ही कैसे सकता है?
माता और सन्तान में कौन किसका उपभोक्ता हुआ — इसका उत्तर देना कठिन है। माता गाय या धाय नहीं है। सन्तान की सृजेता, पोषक और संरक्षक है। जो इतना दे सके वह दाता हुई, उसे उपभोग सामग्री कैसे कहा जाए? दाम्पत्य जीवन में पुरुष को सरसता, सहकारिता, सेवा के जितने अनुदान, जितने स्वरूप प्रतिदान से प्रदान करती है, उसे देखते हुए उसे ऐसी आश्रयदाता, अन्नदाता, जीवनदाता कामधेनु ही कहा जाएगा जिसके प्रति अनवरत कृतज्ञता ही बरसाई जा सकती है।
भगिनी और पुत्री के रूप में उसके अनुदान स्नेह, सौजन्य की चरम पवित्रता के रूप में उन सबको उपलब्ध होते हैं जिनने अपने को भाई और पिता के उच्च पद पर प्रतिष्ठित-गौरवान्वित किया। यदि यह दृष्टि उपलब्ध न हुई होती तो मनुष्य शालीनता एवं श्रेष्ठता से सर्वथा वंचित ही बना रहता। तब उसे पशुता से ऊँचे उठ सकने का, उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं से भरे-पूरे प्रेम का रसास्वादन ही न मिल सका होता।
अगर अन्तर करना ही आवश्यक हो तो मानवी काया को नर और मानवी आत्मा को नारी कहा जा सकता है। दोनों के सघन सहयोग और उच्चस्तरीय मिलन का नाम ही वह जीवन है जिसे आन्तरिक उल्लास और भौतिक विलास से भरा-पूरा देव जीवन कह सकते हैं।
दुर्गति से परित्राण के लिए स्वतः का प्रयास आवश्यक
यह भी सच है कि मनुष्य को गिराने-उठाने में दूसरों का अनाचार और परिस्थितियों का दबाव बहुत बड़ा कारण होता है, पर यह तथ्य भी भुला न दिया जाना चाहिए कि व्यक्ति की आन्तरिक कमजोरी भी उसे सताने और गिराने के अनेक आधार खड़े करती और विपत्तियों को न्यौत बुलाती है।
दबावों को हटाने और परिस्थितियों को बदलने के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। इस दिशा में होने वाले प्रयासों को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि अनीति और उत्पीड़न का अन्त हो सके, किन्तु ध्यान यह भी रखा जाना चाहिए कि गिरे हुए पक्ष की उठने की, संत्रस्त की इन्कारी की हिम्मत बढ़ सके।
नारी के अपकर्ष का कारण क्या रहा, अब इस पर देर तक चर्चा करते रहना व्यर्थ है। सोचा यह जाना चाहिए कि अवांछनीय स्थिति को बदलने का उपाय क्या हो सकता है। इस सन्दर्भ में एक बड़ी तैयारी यह होनी चाहिए कि नारी स्वयं ऊँचा उठने का प्रयास करे, अपनी स्थिति सुधारे। उस दबाव को स्वीकार करने से इन्कार करे जो नीतियुक्त न होते हुए भी परम्परा के नाम पर स्वाभाविक जैसे प्रतीत होते हैं। आवश्यक नहीं कि इस इन्कारी का रूप विद्रोह जैसा हो। मन से अस्वीकार कर देने पर भी लदे हुए लदान पतझड़ के पत्तों की तरह झड़ने और गिरने लगते हैं। अनीति तभी तक लदी रह सकती है, जब तक उसके प्रति अपनी अस्वीकृति स्पष्ट व्यक्त न की जाए।
बच्चे को उँगली का सहारा तब मिलता है जब वह अपने पैरों आप खड़ा होने का प्रयास करता है। ऊपर चढ़ने की इच्छा व्यक्त किए बिना माता तक बच्चे को गोदी में नहीं उठाती। नारी को अपने उत्कर्ष की आवश्यकता अनुभव करने और उसके लिए प्राणवान चेष्टा करने के लिए अपने पुरुषार्थ को आप जगाना होगा। अनुकूलता और सहायता पाने के लिए इतना तो हर किसी को करना पड़ता है। नारी का परित्राण भी उसके स्वतः के प्रयासों के बिना सम्भव न हो सकेगा।
अनीति को स्वीकार तो नहीं ही किया जाए
अनीतिकर्ताओं की जितनी भर्त्सना की जाए उतनी ही कम है पर इस तथ्य को भी ध्यान में रखना ही पड़ेगा कि दुर्बलता दुष्टता की जननी है। जब तक दुर्बलता रहेगी तब तक उससे अनुचित लाभ उठाने का लोभ किसी न किसी समर्थ पर चढ़ा ही रहेगा। गन्दगी से बदबू उठती है और दुर्बलता की माँद से दुष्टता पनपती है।
साधनों की दृष्टि से कोई कितना ही समर्थ क्यों न हो, दूसरों को अपना अनुचर तभी बना सकता है जब प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। अनीति को अस्वीकृत करने में कई प्रकार के खतरे तो हैं, पर सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि दुष्टता के सामर्थ्य की कलई खुल जाती है। अनीति को अस्वीकृत करने वाला कष्टों में पड़ सकता है, पर हारता नहीं। सत्य ही जीतता है असत्य नहीं, इस प्रतिपादन को सर्वत्र सही पाया जा सकता है। शर्त एक ही है कि दुष्टता को स्वीकार न करने की साहसिकता को जीवित बनाए रखा जाए।
नर और नारी के मानवी अधिकार एक हैं। ईश्वर ने उन्हें एक ही मनुष्य जाति के दो अविच्छिन्न घटक बनाया है। औचित्य ने उनके कर्तव्य और अधिकारों को समान माना है। सहयोग और सद्भावना की दृष्टि से दोनों पक्ष एक-दूसरे को श्रेष्ठ मानें, श्रेय दें और नमन करें। यह शालीनता है, इससे न्याय प्रतिपादित समानता का सिद्धान्त किसी प्रकार घटता नहीं है।
प्रजनन के अतिरिक्त उत्तरदायित्व से शारीरिक क्षमता में कमी पड़ना स्वाभाविक है। इसे दुर्बलता समझा गया है और दुष्टता को खुला खेल खेलने का अवसर मिला। इसमें दोष दुष्टता का तो है ही, दुर्बलता भी निर्दोष नहीं है। उसने अनीति के आगे सिर क्यों झुकाया?
यह परिमार्जन की बेला है। दुष्टता अपनी पकड़ कब शिथिल करेगी इसकी प्रतीक्षा किए बिना दुर्बलता को अपना प्रायश्चित्त करने का साहस समेटना चाहिए। आखिर 'न' कहने का अधिकार तो उसके पास है ही। अनीति सहने की तुलना में प्रतिरोध का संकट भारी नहीं, हल्का ही पड़ता है।
शिक्षित महिलाएँ अहंकार का त्याग करें
व्यापक नारी जागरण के लिए शिक्षित नारियों का उपयोग किया जाना चाहिए। धनाढ्य पढ़ी-लिखी महिलाएँ समय की गुहार को पहचान कर अपने अहंकार को त्यागें और अपने सुख-सुविधा को कम करते हुए उस बचत की राशि का उपयोग महिलाओं के कल्याण में समर्पित करने हेतु आगे आवें। नारी संगठन एवं जागरण में बहुमुखी महत्त्वपूर्ण योगदान वे महिलाएँ दे सकती हैं जो अध्यापक, डॉक्टर या अन्य प्रशासकीय उच्च पदों पर आसीन हैं। जो महिलाएँ दुहरे उत्तरदायित्व से बोझिल हैं उनके पास समय का अभाव है, लेकिन अपनी बहनों की उन्नति के लिए वे भी आगे आवें। शिक्षित महिलाएँ अपने क्षेत्र में जहाँ भी हैं, वहीं महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य करें। वे उन महिलाओं का सहयोग अवश्य लेवें जो कम पढ़ी-लिखी होते हुए भी अपने भीतर सेवा करने की इच्छा रखती हैं।
शिक्षित महिला अपनी शिक्षा-योग्यता का उपयोग रचनात्मक कार्यों में भी कर सकती हैं और समाज को उसका अधिक लाभ मिल सकता है। सेवा साधना के बदले मिलने वाला आत्म सन्तोष एवं सम्मान भी कम उपलब्धि नहीं है।
सहयोग के लिए सद्भाव की आवश्यकता तो हर जगह है, पर नारी की प्रकृति के अनुरूप उसे अधिक स्नेह, सौहार्द्र, सम्मान और विश्वास उपलब्ध होना चाहिए। इसके बिना वह चाहते हुए भी परिवार निर्माण में वैसा योगदान नहीं कर सकती जैसा कि कर सकना उसके लिए सम्भव है। —मेरी स्टोप
भारत में आदर्श नारी की शानदार परम्परा
पुरुषों की अपेक्षा सद्गुणशीलता और सच्चरित्रता में स्त्रियाँ अग्रणी रही हैं। यही कारण था कि उन्हें 'देवी' नाम से सम्बोधित करने की परम्परा डाली गई थी जो अब तक उसी तरह से चली आ रही है। भारत में धर्म, संस्कृति और नैतिकता की सर्वोपरिता का अधिकांश श्रेय हमारी माताओं, बहनों तथा बेटियों को प्राप्त है। समाज निर्माण में उनका सहयोग पुरुषों से कम न था। भौतिक विकास में वे पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती थीं। स्त्री-पुरुषों की पारस्परिक अभिन्नता के कारण ही यह देश समृद्धि की चरम सीमा तक पहुँचा हुआ था। नारियाँ सदैव से ही पुरुषों के लिए प्रेरणा और प्रकाश रही हैं। यही कारण है कि शक्ति की उपासना का प्रतीक भी नारी को ही माना गया। नारी जाति स्नेह और सौजन्य की देवी है, वह पुरुष की निर्मात्री है। किसी भी राष्ट्र का उदय नारी जाति के उत्थान से ही होता है। आज नारी की आवश्यकता कुरीति के उन्मूलन और निर्माण के क्षेत्र में अनुभव की जा रही है। विचारवान स्त्रियों को स्वयं ही इस दिशा में कुछ करने के लिए प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
शिवाजी के सैनिक शत्रु पक्ष की एक युवा लड़की को पकड़ कर लाए और उसे शिवाजी के सामने प्रस्तुत किया गया।
बदला चुकाने के लिए वही तरीका अपनाना चाहिए जो शत्रु पक्ष अपनाता रहा है, यही सोचकर वे उसे लाए थे।
शिवाजी ने ध्यानपूर्वक युवती को देखा, मुसकाये और ससम्मान उसे उसके घर तक पहुँचा आने की सैनिकों को आज्ञा दी। विदा करते हुए शिवाजी ने दरबारियों से कहा—"काश ! मेरी माता जीजाबाई इतनी ही सुन्दर होती तो आज मैं भी ऐसा ही सुन्दर होता। "
आभूषण से स्त्रियाँ नहीं सजतीं। यदि ऐसा रहा होता और इसमें कुछ लाभ रहे होते तो हमारे पूर्व पुरुषों में भी इस प्रथा का प्रचलन रहा होता। साधारण मंगल आभूषणों के अतिरिक्त भारी सोने, चाँदी के जेवरों का प्रचलन हमारी अपनी संस्कृति में नहीं था वरन् यवनों ने यह विकृति भारतीय नारी जीवन में पैदा की है। वैदिक साहित्य में इस तरह के गहनों का कहीं दर्शन नहीं है। स्त्रियाँ सरल और स्वाभाविक शृंगार फूल-पत्तों से कर लेती थीं। उनमें वासना को बढ़ाने वाला कोई दोष नहीं होता था और न उससे सामाजिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था में किसी तरह की गड़बड़ी पैदा होती थी। स्त्रियाँ अपने गुणों से सजती हैं। मन की निर्मलता और स्वभाव की पवित्रता से ही सच्चा शृंगार होता है। सदैव से भारतीय नारी की आवाज और आकांक्षा यही रही है कि वह नारी जाति का आदर्श बने। इसी से उसने संसार में यश कमाया और अपने बच्चों को यशस्वी बनाया है। जब तक जेवरों का प्रचलन बन्द नहीं होता तब तक नारी अपने को प्रगतिशील नहीं कहला सकती। गहने स्त्रियों के लिए काँटे का आटा हैं जो पुरुष सदा से उनके लिए डालता आया है।
नारी ने माँ के रूप में अपने रक्त को दूध में परिवर्तित कर, उसमें भावनात्मक शहद मिलाकर बच्चों को पिलाया एवं विकास किया। पत्नी के रूप में पुरुष को शक्ति दी और भगिनी के रूप में अपने स्नेह, सम्वेदनाओं एवं पवित्र भावनाओं से सींचा। —पं. श्रीराम शर्मा आचार्य