सम्पदा एकत्रित होती है, तो उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। शरीर से स्वस्थ मनुष्य बलिष्ठ और सुन्दर दीखता है। सम्पदा वालों के ठाठ-बाठ बढ़ जाते हैं। बुद्धिमानों का वैभव वाणी, रहन-सहन में दिखाई पड़ता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक सम्पदा बढ़ने पर उसका प्रभाव भी स्पष्ट उदीयमान होता दृष्टिगोचर होता है। साधना से सिद्धि का अर्थ होता है, असाधारण सफलताएँ। साधारण सफलताएँ तो सामान्य जन भी अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे प्राप्त करते रहते हैं और कई तरह की सफलताएँ अर्जित करते रहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र बड़ा और ऊँचा है, इसलिए उसकी सिद्धियाँ भी ऐसी होनी चाहिए जिन्हें सामान्यजनों के एकाकी प्रयास से न बन पड़ने वाली, अधिक ऊँचे स्तर की मानी जा सके।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आध्यात्मिकता का अवमूल्यन होते-होते वह बाजीगरी स्तर पर पहुँच गई है और सिद्धियों का तात्पर्य लोग किसी ऐसे ही अजूबे से समझने लगे हैं, जो कौतुक-कौतूहल उत्पन्न करता हो। दर्शकों को अचम्भे में डालता हो। भले ही वे अचरज सर्वथा निरर्थक ही क्यों न हों? बालों में से खाल निकाल लेना कोई ऐसा काम नहीं है कि जिसके बिना किसी का काम रुकता हो या फिर किसी का उससे बहुत बड़ा हित होने वाला हो। असाधारण कृत्य, चकाचौंध में डालने वाले करतब ही बाजीगर लोग दिखाते रहते हैं। इसी के सहारे वाहवाही लूटते और पैसा कमाते हैं, किन्तु इनके कार्यों में से एक भी ऐसा नहीं होता कि जिससे जन-हित का कोई प्रयोजन पूरा होता हो। कौतूहल दिखाकर अपना बड़प्पन सिद्ध करना उनका उद्देश्य होता है। इसके सहारे वे अपना गुजारा चलाते हैं। सिद्ध पुरुषों में भी कितने ही ऐसे होते हैं, जो ऐसी ही कुछ हाथों की सफाई दिखाकर अपनी सिद्धियों का विज्ञापन करते रहते हैं। हवा में हाथ मारकर इलायची या मिठाई मँगा देने, नोट दूने कर देने जैसे कृत्यों के बहाने चमत्कृत करके कितने ही भोले लोगों को ठग लिए जाने के समाचार आए दिन सुनने को मिलते रहते हैं। लोगों का बचपना है, जो बाजीगरी-कौतुकी और अध्यात्म क्षेत्र की सिद्धियों का अन्तर नहीं कर पाते। बाजीगरों और सिद्ध पुरुषों के जीवन क्रम में—स्तर में जो मौलिक अन्तर रहता है, उसे पहचानना आवश्यक है।
साधना से सिद्धि का तात्पर्य उन विशिष्ट कार्यों से है, जो लोक-मंगल से सम्बन्धित होते हैं और इतने बड़े-भारी तथा व्यापक होते हैं, जिन्हें कोई एकाकी संकल्प या प्रयास के बल पर नहीं कर सकता। फिर भी वे उसे करने का दुस्साहस करते हैं, आगे बढ़ने का कदम उठाते हैं और अंततः असम्भव लगने वाले कार्य को भी सम्भव कर दिखाते हैं। समयानुसार जन सहयोग उन्हें भी मिलता रहता है। जब सृष्टि नियमों के अनुसार हर वर्ग के मनस्वी को सहयोग मिलते रहते हैं, तब कोई कारण नहीं कि श्रेष्ठ कामों पर वह हर विधान लागू न होता हो। प्रश्न एक ही है अध्यात्मवादी साधनों और सहयोगों के अभाव में भी कदम बढ़ाते हैं और आत्मविश्वास तथा ईश्वर-विश्वास के सहारे नाव खेकर पार जाने का भरोसा रखते हैं। सामान्यजनों की मनःस्थिति ऐसी नहीं होती। वे सामने साधन-सहयोग की व्यवस्था देख लेते हैं, तभी हाथ डालते हैं।
साधनारत सिद्ध पुरुषों द्वारा महान् कार्य सम्पन्न होते रहे हैं। यही उनका सिद्धि-चमत्कार है। देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन आरम्भ कराने के लिए समर्थ गुरु रामदास एक मराठा बालक को आगे करके जुट गए और उसे आश्चर्यजनक सीमा तक बढ़ाकर रहे। बुद्ध ने संव्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्वव्यापी बुद्धवादी आन्दोलन चलाया और उसे समूचे संसार तक विशेषतया एशिया के कोन-कोने में पहुँचाया। गाँधी ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा। मुट्ठी भर लोगों के साथ धरसना में नमक बनाने के साथ शुरू किया। अन्ततः इसका कैसा विस्तार और कैसा परिणाम हुआ, यह सर्वविदित है। विनोबा द्वारा एकाकी आरम्भ किया गया भूदान आन्दोलन कितना व्यापक और सफल हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। स्काउटिंग, रेडक्रास आदि कितने ही आन्दोलन छोटे रूप में आरम्भ हुए और वे कहीं से कहीं जा पहुँचे। राजस्थान का वनस्थली बालिका विद्यालय, बालासाहब आम्टे का अपंग एवं कुष्ठ रोगी सेवा सदन ऐसे ही दृश्य मान कृत्य हैं, जिन्हें साधना से सिद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सके। ऐसी अगणित घटनाएँ संसार में सम्पन्न हुई हैं, जिनमें आरम्भ कर्ताओं का कौशल, साधन एवं सहयोग नगण्य था, पर आत्मबल असीम था। इतने भर से गाड़ी चल पड़ी और जहाँ-तहाँ से तेल-पानी प्राप्त करती हुई क्रमशः पूर्व से अगली मंजिल तक जा पहुँची। सदुद्देश्यों की ऐसी पूर्ति के पीछे साधना से सिद्धि की झाँकी देखी जा सकती है।
हमारी जीवन साधना की परिणतियाँ यदि कोई सिद्धि स्तर पर ढूँढ़ना चाहे तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा। हर कदम अपने कौशल और उपलब्ध साधनों की सीमा से बहुत ऊँचे स्तर का उठा है। आरम्भ करते समय सिद्धि का पर्यवेक्षण करने वालों ने इसे मूर्खता कहा और पीछे उपहासास्पद बनते फिरने की चेतावनी भी दी, किन्तु मन में इस ईश्वर के साथ रहने का अटूट विश्वास रहा जिसकी प्रेरणा उसे हाथ में लेने को उठा रही थी। लिप्सारहित अन्तःकरणों में प्रायः ऐसे ही संकल्प उठते जो सीधे लोकमंगल से सम्बन्धित हों और जिनके पीछे दिव्य सहयोग मिलने का विश्वास हो।
साधना की ऊर्जा सिद्धि के रूप में परिपक्व हुई तो उसने सामयिक आवश्यकताएँ पूरी करने वाले किसी कार्य में उसे खपा देने का निश्चय किया। कार्य आरम्भ हुआ और आश्चर्य इस बात का है कि सहयोग का साधन जुटने का वातावरण दीखते हुए ही प्रयास इस प्रकार अग्रगामी बने मानों वे सुनिश्चित रहे हों और किसी ने उसकी पूर्व से ही सांगोपांग व्यवस्था बना रखी हो। पर्यवेक्षकों में से अनेकों ने इसे आरम्भ में दुस्साहस कहा था, लेकिन सफलताएँ मिलती चलने पर वे उस सफलता को साधना की सिद्धि कहते चले गए।
इन दुस्साहसों की छुटपुट चर्चा तो की जा चुकी है। उन सबको पुनः दुहराया जा सकता है।
१. पन्द्रह वर्ष की आयु में चौबीस वर्ष तक चौबीस गायत्री महापुरश्चरण चौबीस वर्ष में पूरा करने का अनेक अनुबन्धों के साथ जुड़ा हुआ संकल्प लिया गया। वह बिना लड़खड़ाए नियत अवधि में सम्पन्न हो गया।
२. इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति में निर्धारित जप का हवन करना था। देश भर के गायत्री उपासक आशीर्वाद देने आमन्त्रित करने थे। पता लगाकर ऐसे चार लाख पाए गए और वे सभी मथुरा में सन् १९५८ में सहस्र कुण्डीय यज्ञ में आमन्त्रित किए गए। प्रसन्नता की बात थी कि उनमें से एक भी अनुपस्थित नहीं रहा। पाँच दिन तक निवास, भोजन, यज्ञ आदि का निःशुल्क प्रबन्ध रहा। विशाल यज्ञशाला, प्रवचन मंच, रोशनी, पानी-सफाई आदि का सुनियोजित प्रबन्ध था। सात मील के घेरे में सात नगर बसाए गए। सारा कार्य निर्विघ्न पूरा हुआ। लाखों का खर्च हुआ, पर उसकी पूर्ति बिना किसी के आगे पल्ला पसारे ही होती रही।
३. गायत्री तपोभूमि मथुरा के भव्य भवन का निर्माण-शुभारम्भ अपनी पैतृक सम्पत्ति बेचकर किया। पीछे लोगों की अयाचित सहायता से उसका ‘‘धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण’’ का उत्तरदायित्व सँभालने वाले केन्द्रों के रूप में विशालकाय ढाँचा खड़ा हुआ।
४. ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ पत्रिका का सन् १९३७ से अनवरत प्रकाशन। बिना विज्ञापन और बिना चन्दा माँगे, लागत मूल्य पर निकलने वाली, गाँधी की हरिजन पत्रिका जबकि घाटे के कारण बन्द करनी पड़ी थी, तब अखण्ड-ज्योति अनेकों मुसीबतों का सामना करती हुई निकलती रही और अभी एक लाख पचास हजार की संख्या में छपती है, एक अंक को कई पढ़ते हैं इस दृष्टि से पाठक दस लाख से कम नहीं है।
५. साहित्य सृजन। आर्षग्रन्थों का अनुवाद तथा व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों का सफल समावेश करने वाली नितान्त सस्ती, किन्तु अत्यंत उच्चस्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन। इनका अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद। यह लेखन इतना है कि जिसे एक मनुष्य के शरीर भार के समान तोलने पर भी अधिक ही होगा। इसे करोड़ों ने पढ़ा है और नया प्रकाश पाया है।
६. गायत्री परिवार का गठन—उसके द्वारा लोकमानस के परिष्कार के लिए प्रज्ञा अभियान का और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए युग निर्माण योजना का कार्यान्वयन। दोनों के अन्तर्गत लाखों जागृत आत्माओं का एकीकरण। सभी का अपने-अपने ढंग से नव सृजन के लिए भाव-भरा योगदान।
७. युग शिल्पी प्रज्ञा पुत्रों के लिए आत्मनिर्माण—लोक निर्माण की समग्र पाठ्य-विधि का निर्धारण और सत्र योजना के अन्तर्गत नियमित शिक्षण, दस-दस दिन के गायत्री साधना सत्रों की ऐसी व्यवस्था जिसमें साधकों के लिए निवास-भोजन आदि का भी प्रबन्ध है।
८. अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की शोध के लिए ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की स्थापना। इसमें यज्ञ विज्ञान एवं गायत्री महाशक्ति का उच्चस्तरीय अनुसन्धान चलता है। इसी उपक्रम को आगे बढ़ाकर जड़ी-बूटी विज्ञान की ‘‘चरक कालीन’’ प्रक्रिया का अभिनव अनुसन्धान हाथ में लिया गया है। इसके साथ ही खगोल विद्या की टूटी हुई कड़ियों को नए सिरे से जोड़ा जा रहा है।
९. देश के कोने-कोने में २४०० निजी इमारत वाली प्रज्ञा पीठ और बिना इमारत वाले ७५०० प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना करके नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने का सफल प्रयत्न। इस प्रयास को ७४ देशों के प्रवासी भारतीयों में भी विस्तृत किया गया है।
१०. देश की समस्त भाषाओं तथा संस्कृतियों के अध्ययन-अध्यापन का एक अभिनव केन्द्र स्थापित किया गया है ताकि हर वर्ग के लोगों तक नवयुग की विचारधारा को पहुँचाया जा सके। प्रचारक हर क्षेत्र में पहुँच सकें। अभी तो जन-जागरण के प्रचारक जत्थे जीप, गाड़ियों के माध्यम से हिन्दी, गुजराती, उड़िया, मराठी क्षेत्रों में ही जाते रहे हैं। अब वे देश के कोने-कोने में पहुँचेंगे और पवित्रता, प्रखरता एवं एकात्मता की जड़ें मजबूत करेंगे।
११. प्रचार तन्त्र अब तक टैप रिकार्डरों और स्लाइड प्रोजेक्टरों के माध्यम से ही चलता रहा है। अब उसमें वीडियो फिल्म निर्माण की एक कड़ी और जोड़ी जा रही है।
१२. प्रज्ञा अभियान की विचारधारा को फोल्डर योजना के माध्यम से देश की सभी भाषाओं में प्रसारित-प्रचारित किया जा रहा है ताकि कोई कोना ऐसा न बचे, जहाँ नव चेतना का वातावरण न बने।
१३. प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्डों का प्रकाशन हर भाषा में तथा उसके टैप प्रवचनों का निर्माण। इस आधार पर नवीनतम समस्याओं का पुरातन कथा आधार पर समाधान का प्रयास।
१४. प्रतिदिन शान्तिकुञ्ज के भोजनालय में शिक्षार्थियों, अतिथियों और तीर्थयात्रियों की संख्या प्रायः एक हजार रहती है। किसी से कोई मूल्य नहीं माँगा जाता। सभी भावश्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करके ही जाते हैं।
१५. अगणित व्यक्ति गायत्री तीर्थ में आकर अनुष्ठान साधना करते रहे हैं। इससे उनके व्यक्तित्व में परिष्कार हुआ है। मनोविकारों से मुक्ति मिली है एवं भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करने में मदद मिली है। विज्ञान सम्मत पद्धति से ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में उनका पर्यवेक्षण कर इसे सत्यापित भी किया गया है।
उपरोक्त प्रमुख कार्यों और निर्धारणों को देखकर सहज बुद्धि यह अनुमान लगा सकती है कि इनके लिए कितने श्रम, मनोयोग, साधन कितनी बड़ी संख्या में—कितने लोगों के लगे होंगे, इसकी कल्पना करने पर प्रतीत होता है कि सब सरंजाम पहाड़ जितना होना चाहिए। उसे उठाने, आमन्त्रित, एकत्रित करने में एक व्यक्ति की अदृश्य शक्ति भर काम करती रही है। प्रत्यक्ष याचना की, अपील की, चन्दा जमा करने की प्रक्रिया कभी अपनाई नहीं गई। जो कुछ चला है स्वेच्छा से-सहयोग से चला है। सभी जानते हैं कि आजकल धन जमा करने के लिए कितने दबाव, आकर्षण और तरीके काम में लाने पड़ते हैं, पर मात्र यही एक ऐसा मिशन है, जो दस पैसा प्रतिदिन के ज्ञानघट और एक मुट्ठी अनाज वाले धर्मघट स्थापित करके अपना काम भली प्रकार चला लेता है। जो इतनी छोटी राशि देता है, वह यह भी अनुभव करता है कि संस्था हमारी है, हमारे श्रम-सहयोग से चल रही है फलतः उसकी आत्मीयता भी सघनता पूर्वक जुड़ी रहती है। संचालकों को भी इतने लोगों के सामने उत्तरदायी होने, जबाब देने का ध्यान रखते हुए एक-एक पाई का खर्च फूँक-फूँक कर करना पड़ता है। कम पैसे में इतने बड़े काम चल पड़ने और सफल होने का रहस्य यह लोकप्रियता ही है।
निःस्वार्थ, निस्पृह और उच्चस्तरीय व्यक्तित्व वाले जितने कार्यकर्ता इस मिशन के पास हैं, उतने अन्य किसी संगठन के पास कदाचित ही हों। इसका कारण एक ही है, संचालन सूत्र को अधिकाधिक निकट से परखने के उपरान्त यह विश्वास करना कि यहाँ ब्राह्मण आत्मा सही काम करती है। बुद्ध को लोगों ने परखा और लाखों परिव्राजक घर-बार छोड़कर उनके अनुयायी बने। गाँधी के सत्याग्रहियों ने भी वेतन नहीं माँगा। इन दिनों हर संस्था के पास वैतनिक कर्मचारी काम करते हैं, तब मात्र प्रज्ञा अभियान ही एक मात्र ऐसा तन्त्र है जिसमें हजारों लोग उच्चस्तरीय योग्यता होते हुए भी मात्र भोजन-वस्त्र पर निर्वाह करते हैं।
इतने व्यक्तियों का श्रम-सहयोग बूँद-बूँद करके लगने वाला इतना धन-साधन किस प्रकार चुम्बकत्व से खिंचता हुआ चला आता है, वह भी एक सिद्धि का चमत्कार है, जो अन्यत्र कदाचित् कहीं दीख पड़े।
पिछले दिनों बार-बार हिमालय जाने और एकान्त साधना करने का निर्देश निबाहना पड़ा। इसमें क्या देखा? इसकी जिज्ञासा बड़ी आतुरता पूर्वक सभी करते हैं। उनका तात्पर्य, किन्हीं यज्ञ, गन्धर्व, राक्षस, बेताल, सिद्ध पुरुष से भेंट वार्ता रही हो। उनकी उछल-कूद देखी हो। अदृश्य और प्रकट होने वाले कुछ जादुई गुटके लिए हों। इन जैसी घटनाएँ सुनने का मन होता है। वे समझते हैं कि हिमालय माने जादू का पिटारा। वहाँ जाते ही कोई करामाती बाबा डिब्बे में से भूत की तरह उछल पड़ते होंगे और जो कोई उस क्षेत्र में जाता है, उसे उन कौतूहलों-करतूतों को दिखाकर मुग्ध करते रहते होंगे। वस्तुतः हिमालय हमें अधिक अन्तर्मुखी होने के लिए जाना पड़ा। बहिरंग जीवन पर घटनाएँ छाई रहती हैं और अन्तःक्षेत्र पर भावनाएँ। भावनाओं का वर्चस्व ही अध्यात्मवाद है। कामनाओं और वस्तुओं की घुड़दौड़—भौतिकवाद। चूँकि अपना जीवन क्रम दोनों का संगम रहा है, इसलिए बीच-बीच में एकान्त में बहिरंग के जमे हुए प्रभावों को निरस्त करने की आवश्यकता पड़ती रही है। आत्मा को प्रकृति सान्निध्य से जितना बन पड़ा उतना हटाया है और आत्मा को परमात्मा के साथ जितना निकट ला सकना सम्भव था, उतना हिमालय के अज्ञातवास में किया है। आहार-विहार में परिस्थितिवश अधिक सात्त्विकता का समावेश होता ही रहा है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात हुई है—उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं का उन्नयन और रसास्वादन। इसके लिए व्यक्तियों की—साधनों की—परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसा भी भला-बुरा सामने प्रस्तुत है, उसी पर अपने भाव-चिन्तन का आरोपण करके ऐसा स्वरूप बनाया जा सकता है, जिससे कुछ का कुछ दीखने लगे। कण-कण में भगवान् की, उसकी रस सम्वेदना की झाँकी होने लगे।
जिनने हमारी ‘‘सुनसान के सहचर’’ पुस्तक पढ़ी है, उनने समझा होगा कि सामान्य घटनाओं और परिस्थितियों में भी अपनी उच्च भावनाओं का समावेश करके किस प्रकार स्वर्गीय उमंगों से भरा-पूरा वातावरण गठित किया जा सकता है और उसमें निमग्न रहकर सत-चित्-आनन्द की अनुभूति हो सकती है। यह भी एक उच्चस्तरीय सिद्धि है। इसे हस्तगत करके हम इसी सर्वसाधारण जैसी जीवनचर्या में निरत रहते हुए स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की तरह आनन्दमग्न रहते रहे हैं।
चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। सन्देश पूर्ववत् सन्देश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलम्ब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किन्तु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा ही होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय में रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अन्तराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेण्डुलम धड़कता और उछलता रहता है।
यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्म शरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा-भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्म शरीर कहाँ रहता है, क्या करता है यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है—मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवन्दन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरन्त आरम्भ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी जितनी बार भी बुलाया गया है तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी सम्भवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरान्त सम्भवतः अब इसी ऋषि प्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। यह रास्ते के संकल्प-विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा—‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ जैसे वानर को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरान्त यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग हैं, वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही सम्पदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’
गुरुदेव ने कहा—‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितान्त स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा वरिष्ठ मानव कर सकते हैं, भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सँभालोगे, तो यह सारे कार्य दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह-नक्षत्र भी—सौर मण्डल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर बिना किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं।
अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायु मण्डल और सूक्ष्म वातावरण इन दिनों इतने विषाक्त हो गए हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, सत्ता भी संकट में पड़ गई है। भविष्य बहुत भयानक दीखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा, जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।
धरती का घेरा—वायु, जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं। वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थ लोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यन्त्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के सिर पर मँडराने लगा है। अणु-आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रजा की उत्पत्ति बरसाती घास-पात की तरह हो रही है। यह खाएँगे क्या? रहेंगे कहाँ? इन दिनों सब विपत्तियों-विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमण्डल धरती को नरक बना देगा।
जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं, उसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिन्त्य चिन्तन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर पशु और नर-पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान् की इस सर्वोत्तम कृति धरती और मानव सत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की सम्भावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्धन पर्वत उठाना पड़ेगा, लम्बा समुद्र छलाँगना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने को ही तुम्हें बुलाया गया है।
इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर पाँच मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुन्ती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा, जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न-भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेंगी।’’
मैंने बात के बीच में विक्षेप करते हुए कहा—‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूल आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म सन्देश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। गायत्री के चौबीस महापुरश्चरणों के सम्पादन से लेकर स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने तक, लेखनी पकड़ने से लेकर विराट यज्ञायोजन तक एवं विशाल संगठन खड़ा करने से लेकर करोड़ों की स्थापनाएँ करने तक आपकी आज्ञा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन ने ही सारी भूमिका निभाई है। दृश्य रूप में हम भले ही सबके समक्ष रहे हों, हमारा अन्तःकरण जानता है कि यह सब कराने वाली सत्ता कौन है? फिर इसमें हमारा सुझाव कैसा, सलाह कैसी। परिस्थितियों के सन्दर्भ में आपका जो भी निर्देश होगा, वह करेंगे। इस शरीर का एक-एक कण, रक्त की एक-एक बूँद, चिन्तन-अन्तःकरण आपको—विश्व मानवता को समर्पित है।’’ उनने प्रसन्न बदन स्वीकारोक्ति प्रकट की एवं परावाणी से निर्देश व्यक्त करने का उन्होंने संकेत किया।
बात जो विवेचना स्तर की चल रही थी, सो समाप्त हो गई और सार-संकेत के रूप में जो करना था, सो कहा जाने लगा।
‘‘तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच रामदूतों की तरह, पाँच पाण्डवों की तरह काम पाँच तरह से करने हैं, इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच बना लो। इसे ‘‘सूक्ष्मीकरण’’ कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे, क्योंकि व्यापक क्षेत्र को सँभालना सूक्ष्म सत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतन्त्र काम न सँभाल सकें, तब एक इसी एक शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जाएँ तो उन्हें अपना काम करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूल शरीर की छुट्टी हो जाएगी।’’
यह दिशा निर्देशन हो गया। करना क्या है? कैसे करना है? इसका प्रसंग उन्होंने अपनी वाणी में समझा दिया। इसका विवरण बताने का आदेश नहीं है। जो कहा गया है, उसे कर रहे हैं। संक्षेप में इसे इतना ही समझना पर्याप्त होगा—
१—वायु मण्डल का संशोधन,
२—वातावरण का परिष्कार,
३—नवयुग का निर्माण,
४—महाविनाश का निरस्तीकरण-समापन,
५—देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्द्धन।
‘‘यह पाँचों काम किस प्रकार करने होंगे, इसके लिए अपनी सत्ता को पाँच भागों में कैसे विभाजित करना होगा, भागीरथ और दधीचि की भूमिका किस प्रकार निभानी होगी, इसके लिए लौकिक क्रिया-कलापों से विराम लेना होगा। बिखराव को समेटना पड़ेगा। यही है—सूक्ष्मीकरण।’’
‘‘इसके लिए जो करना होगा, समय-समय पर बताते रहेंगे। योजना को असफल बनाने के लिए, इस शरीर को समाप्त करने के लिए जो दानवी प्रहार होंगे, उससे बचाते चलेंगे। पूर्व में हुए आसुरी आक्रमण की पुनरावृत्ति कभी भी किसी भी रूप में सज्जनों-परिजनों पर प्रहार आदि के रूप में हो सकती है। पहले की तरह सबमें हमारा संरक्षण साथ रहेगा। अब तक जो काम तुम्हारे जिम्मे दिया है, उन्हें अपने समर्थ सुयोग्य परिजनों के सुपुर्द करते चलना, ताकि मिशन के किसी काम की चिन्ता या जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर न रहे। जिस महा परिवर्तन का ढाँचा हमारे मन में है, उसे पूरा तो नहीं बताते, पर उसे समयानुसार प्रकट करते रहेंगे। ऐसे विषम समय, में उस रणनीति को समय से पूर्व प्रकट करने से उद्देश्य की हानि होगी।’’
इस बार हमें अधिक समय रोका नहीं गया। बैटरी चार्ज करके बहुत दिनों तक काम चलाने वाली बात नहीं बनी। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारी ऊर्जा अब तुम्हारे पीछे अदृश्य रूप से चलती रहेगी। अब हमें एवं जिनको आवश्यकता होगी, उन ऋषियों को तुम्हारे साथ सदैव रहना और हाथ बँटाते रहना पड़ेगा। तुम्हें किसी अभाव का, आत्मिक ऊर्जा की कमी का कभी अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः यह ५ गुनी और बढ़ जाएगी।’’
हमें विदाई दी गई और हम शान्तिकुञ्ज लौट आए। हमारी सूक्ष्मीकरण सावित्री साधना राम नवमी १९८४ से आरम्भ हो गई।
तपश्चर्या—आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य
अरविन्द ने विलायत से लौटते ही अंग्रेजों को भगाने के लिए जो उपाय सम्भव थे, वे सभी किए। पर बात बनती न दिखाई पड़ी। राजाओं को संगठित करके, विद्यार्थियों की सेना बनाकर व पार्टी गठित करके उनने देख लिया कि इतनी सशक्त सरकार के सामने यह छुटपुट प्रयत्न सफल न हो सकेंगे। इसके लिए समान स्तर की सामर्थ्य, टक्कर लेने के लिए चाहिए। गाँधीजी के सत्याग्रह जैसा उन दिनों सम्भव नहीं था। ऐसी दशा में उनने आत्मशक्ति उत्पन्न करने और उसके द्वारा वातावरण गरम करने का काम हाथ में लिया। अंग्रेजों की पकड़ से अलग हटकर वे पाण्डिचेरी चले गए और एकान्तवास—मौन साधना सहित विशिष्ट तप करने लगे।
लोगों की दृष्टि में वह पलायनवाद भी हो सकता था, पर वस्तुतः वैसा था नहीं। सूक्ष्मदर्शियों के अनुसार उसके द्वारा अदृश्य स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न हुई। वातावरण गरम हुआ और एक ही समय में देश के अन्दर इतने महापुरुष उत्पन्न हुए, जिसकी इतिहास में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं मिलती। राजनैतिक नेता कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भी हो सकते हैं। किन्तु महापुरुष हर दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं, जिनका व्यक्तित्व कहीं अधिक ऊँचा होता है। जनमानस को उल्लसित-आन्दोलित करने की क्षमता भी उन्हीं में होती है। दो हजार वर्ष की गुलामी में बहुत कुछ गँवा बैठने वाले देश को ऐसे ही कर्णधारों की आवश्यकता थी। वे एक नहीं अनेकों, एक ही समय में उत्पन्न हुए। प्रचण्ड ग्रीष्म में उठते चक्रवातों की तरह। फलतः अरविन्द का वह संकल्प कालान्तर में ठीक प्रकार सम्पन्न हुआ, जिसे वे अन्य उपायों से पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे।
अध्यात्म विज्ञान के इतिहास में उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए तप-साधना एक मात्र विधान-उपचार है। वह सुविधा भरी विलासी रीति-नीति अपनाकर सम्पादित नहीं की जा सकती है। एकाग्रता और एकात्मता सम्पादित करने के लिए बहुमुखी बाह्योपचारों में, प्रचार प्रयोजनों में भी निरत नहीं रहा जा सकता है। उससे शक्तियाँ बिखरती हैं। फलतः केन्द्रीयकरण का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जो सूर्य किरणों को आतिशी शीशे पर केन्द्रित करने की तरह अग्नि उत्पादन जैसी प्रचण्डता उत्पन्न कर सके। अठारह पुराण लिखते समय व्यास उत्तराखण्ड की गुफाओं में वसोधारा शिखर के पास चले गए। साथ में लेखन कार्य की सहायता करने के लिए गणेश जी इस शर्त पर रहे कि एक शब्द भी बोले बिना सर्वथा मौन रहेंगे। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य इससे कम में सम्भव नहीं हो सकता था।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेकों उच्चस्तरीय आत्माओं की विशिष्ट तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चलीं। राजनेताओं द्वारा संचालित आन्दोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा, किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।
जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपचार के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए, इस बार विशिष्ट तपश्चर्या वातावरण के प्रवाह को बदलने-सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरम्भिक दिनों में जो काम कन्धे पर आया था वह भी लोकमानस को परिष्कृत करने, जागृत आत्माओं को एक संगठन सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उत्साह उभारने का था। इतने भर से काम चल जाया करे तो इसकी व्यवस्था सम्पन्न लोग अपनी जेब से अथवा दूसरों से माँग-जाँचकर आसानी से पूर्ण कर लिया करते और अब तक स्थिति को बदलकर कुछ से कुछ बना लिया गया होता। कइयों ने पूरे जोर-शोर से यह प्रयत्न किए भी हैं। प्रचारात्मक साधनों के अम्बार भी जुटाए हैं, पर उनके बलबूते कुछ ऐसा न बन पड़ा जिसका कारगर प्रभाव हो सके। वस्तुस्थिति को समझने वाले निर्देशक ने सर्वप्रथम एक ही काम सौंपा। चौबीस साल की गायत्री महापुरश्चरण साधना शृंखला का पिछले तीस वर्षों में जो कुछ बन पड़ा, उसमें श्रेय है। कमाई की वह हुण्डी ही अब तक काम देती रही। अपना, व्यक्ति विशेष का, समाज का, संस्कृति का यदि कुछ भला अपने द्वारा बन पड़ा, तो इस चौबीस वर्ष के संचित भण्डार को खर्च किए जाने की बात ही समझी जा सकती है। उस समय भी मात्र जप संख्या ही पूरी नहीं की गई थी, वरन साथ ही कितने ही अनुबन्ध-अनुशासन एवं व्रत पालन भी जुड़े हुए थे।
जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय वाला पूरी कर सकता है, पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाने वाला कोई व्यक्ति उतनी भर चिह्न पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़े रहने चाहिए जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीरों को तपाते और हर दृष्टि से समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी आत्मिक प्रगति के मार्ग में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्टी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। जमीन में से निकालते समय लोहा मिट्टी मिला कच्चा होता है। अन्य धातुएँ भी ऐसी ही अनगढ़ स्थिति में होती हैं। उन्हें भट्टी में डालकर तपाया और प्रयोग के उपयुक्त बनाया जाता है। रस शास्त्री बहुमूल्य रस भस्में बनाने के लिए कई-कई अग्नि संस्कार करते हैं। कुम्हार के पास बर्तन पकाने के लिए उन्हें आँवे में तपाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्यों पर भी यही नियम लागू होते हैं। ऋषि-मुनियों की सेवा-साधना, धर्म-धारणा तो प्रकट है ही, साथ ही वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए तपश्चर्या भी समय-समय पर अपनाते रहते थे। यह प्रक्रिया अपने-अपने ढंग से हर महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को सम्पन्न करनी पड़ी है, करनी पड़ेगी। क्योंकि ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का उन्नयन, परिपोषण इसके बिना हो नहीं सकता। व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रखरता और परिपक्वता न हो तो कहने योग्य—सराहने योग्य सफलताएँ प्राप्त कर सकने का सुयोग ही नहीं बनता। कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब टिकेगा और किस प्रकार फूलेगा-फलेगा?
तपश्चर्या के मौलिक सिद्धान्त हैं—संयम और सदुपयोग। इन्द्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भण्डार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करना पड़ता है, फलतः न दरिद्रता फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है, श्रम तथा मनोयोग को निर्धारित सत्प्रयोजनों में लगाए रहना पड़ता है। फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता है। जो बन पड़ता है, श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना सहज सधती रहती है। संयम का अर्थ है—बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास इतनी अधिक सामर्थ्य बच रहती है, जिसे परिवार निर्वाह के अतिरिक्त महान प्रयोजनों में प्रचुर मात्रा में भली प्रकार लगाया जाता रहे। संयमशीलों को वासना, तृष्णा और अहंता की खाईं पाटने में मरना-खपना नहीं पड़ता। इसलिए सदुद्देश्यों की दिशा में कदम बढ़ाने की आवश्यकता पड़ने पर व्यस्तता, अभावग्रस्तता, चिन्ता, समस्या आदि के बहाने नहीं गढ़ने पड़ते। स्वार्थ-परमार्थ साथ-साथ सधते रहते हैं और हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी जीने का अवसर मिल जाता है। इसी मार्ग पर अब से ६० वर्ष पूर्व मार्गदर्शक ने चलना सिखाया था। वह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। जब-तब वातावरण में बैटरी चार्ज करने के लिए बुलाया जाता रहा। विगत तीस वर्षों में एक-एक वर्ष के लिए एकान्तवास और विशेष साधना उपक्रम के लिए जाना पड़ा है। इसका उद्देश्य एक ही था। तपश्चर्या के उत्साह और पुरुषार्थ में, श्रद्धा और विश्वास में कहीं कोई कमी न पड़ने पाए। जहाँ कमी पड़ रही हो, उसकी भरपाई होती रहे। भागीरथ शिला गंगोत्री में की गई साधना से धरती पर ज्ञान गंगा की—प्रज्ञा अभियान की अवतरण की क्षमता एवं दिशा मिली। इस बार उत्तरकाशी के परशुराम आश्रम में वह कुल्हाड़ा उपलब्ध हुआ जिसके सहारे व्यापक अवांछनीयता के प्रति लोकमानस में विक्षोभ एवं आक्रोश उत्पन्न किया जा सके। पौराणिक परशुराम ने धरती पर से अनेक आततायियों के अनेकों बार सिर काटे थे। अपना सिर काटना ‘‘ब्रेन वाशिंग’’ है। विचार क्रान्ति एवं प्रज्ञा-अभियान में सृजनात्मक ही नहीं, सुधारात्मक प्रयोजन भी सम्मिलित हैं। यह दोनों ही उद्देश्य जिस प्रकार जितने व्यापक क्षेत्र में जितनी सफलता के साथ सम्पन्न होते रहे हैं, उनमें न शक्ति कौशल है न साधनों का चमत्कार, न परिस्थितियों का संयोग। यह मात्र तपश्चर्या की सामर्थ्य से ही सम्पन्न हो सका।
यह जीवनचर्या के अद्यावधि भूतकाल का विवरण हुआ। वर्तमान में इसी दिशा में एक बड़ी छलांग लगाने के लिए उस शक्ति ने निर्देश किया है, जिस सूत्रधार के इशारों पर कठपुतली की तरह नाच-नाचते हुए समूचा जीवन गुजर गया। अब हमें तपश्चर्या की एक नवीन उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश करना पड़ा है। सर्वसाधारण को इतना ही पता है कि हम एकान्तवास में हैं, किसी से मिल जुल नहीं रहे हैं। यह जानकारी सर्वथा अधूरी है। क्योंकि जिस व्यक्ति के रोम-रोम में कर्मठता, पुरुषार्थ परायणता, नियमितता और व्यवस्था भरी पड़ी हो, वह इस प्रकार का निरर्थक और निष्क्रिय जीवन जी ही नहीं सकता जैसा कि समझा जा रहा है। एकान्त वास में हमें पहले की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ा है। अधिक व्यस्त रहना पड़ा है तथा लोगों से न मिलने की विधा अपनाने पर भी इतने ऐसों से सम्पर्क सूत्र जोड़ना पड़ा है, जिनके साथ बैठने में ढेरों-का-ढेरों समय चला जाता है, पर मन नहीं भरता। फिर एकान्त कहाँ हुआ? न मिलने की बात कहाँ बन पड़ी? मात्र कार्यशैली में ही राई रत्ती परिवर्तन हुआ। मिलने-जुलने वालों का वर्ग एवं विषय भर बदला। ऐसी दशा में अकर्मण्य और पलायनवाद का दोष ऊपर कहाँ लदा? तपस्वी सदा ऐसी ही रीति-नीति अपनाते हैं। वे निष्क्रिय दीखते भर हैं, वस्तुतः अत्यधिक व्यस्त रहते हैं। लट्टू जब पूरे वेग से घूमता है, तब स्थिर खड़ा भर दीखता है। उसके घूमने का पता तो तब लगता है, जब चाल धीमी पड़ती है और बैलेंस लड़खड़ाने पर औंधा गिरने लगता है।
आइन्स्टीन जिन दिनों अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अणु अनुसन्धान में लगे थे, उन दिनों उनकी जीवनचर्या में विशेष प्रकार का परिवर्तन किया गया था। वे भव्य भवन में एकाकी रहते थे। सभी साधन-सुविधाएँ उसमें उपलब्ध थीं; साहित्य, प्रयोग, उपकरण एवं सेवक-सहायक भी। वे सभी दूर रखे जाते थे ताकि एकान्त में एकाग्रतापूर्वक बन पड़ने वाले चिन्तन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। वे जब तक चाहते नितान्त एकान्त में सर्वथा एकाकी रहते। कोई उनके कार्य में तनिक भी विक्षेप नहीं कर सकता था। जब वे चाहते घण्टी बजाकर नौकर बुलाते और इच्छित वस्तु या व्यक्ति प्राप्त कर लेते। मिलने वाले मात्र कार्ड जमा कर जाते और जब कभी उन्हें बुलाया जाता तब की महीनों प्रतीक्षा करते। घनिष्ठता बताकर कोई भी उनके कार्य में विक्षेप नहीं कर सकता था। इतना प्रबन्ध बन पड़ने पर ही उनके लिए यह सम्भव हुआ कि संसार को आश्चर्य चकित कर देने वाली—मनुष्य जाति को महान अनुदान देने वाली उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकें। यदि यार वासों से घिरे रहते, उथले कार्यों में रस लेकर समय गुजारते तो अन्यान्यों की तरह वे भी बहुमूल्य जीवन का कोई कहने लायक लाभ न उठा पाते। प्राचीनकाल में ऋषि-तपस्वियों की जीवनचर्या ठीक इसी प्रकार की थी। उनके सामने आत्म-विज्ञान से सम्बन्धित अगणित अनुसन्धान कार्य थे। उसमें तन्यमतापूर्वक अपना कार्य कर सकने के लिए वे कोलाहल रहित स्थान निर्धारित करते थे और पूरी तरह तन्मयता के साथ निर्धारित प्रयोजनों में लगे रहते थे।
अपने सामने भी प्रायः इसी स्तर के नए कार्य करने के लिए रख दिए गए। वे बहुत वजनदार हैं, साथ ही बहुत महत्त्वपूर्ण भी। इनमें एक है—विश्वव्यापी सर्वनाशी विभीषिकाओं को निरस्त कर सकने योग्य आत्मशक्ति उत्पन्न करना। दूसरा है—सृजन शिल्पियों को जिस प्रेरणा और क्षमता के बिना कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ रहा है, उसकी पूर्ति करना। तीसरा है—नवयुग के लिए जिन सत्प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन होना है, उनका ताना-बाना बुनना और ढाँचा खड़ा करना। यह तीनों ही कार्य ऐसे हैं, जो अकेले स्थूल शरीर से नहीं बन सकते। उसकी सीमा और सामर्थ्य अति न्यून है। इन्द्रिय सामर्थ्य थोड़े दायरे में काम कर सकती है और सीमित वजन उठा सकती है, हाड़-माँस के पिण्ड में बोलने, सोचने, चलने-फिरने, करने-कमाने, पचाने की बहुत थोड़ी सामर्थ्य है। उतने भर से सीमित काम हो सकता है। सीमित कार्य से शरीर यात्रा चल सकती है और समीपवर्ती सम्बद्ध लोगों का यत्किंचित् भला हो सकता है। अधिक व्यापक और अधिक बड़े कामों के लिए सूक्ष्म और कारण शरीरों के विकसित किए जाने की आवश्यकता पड़ती है। तीनों जब समान रूप से सामर्थ्यवान और गतिशील होते हैं; तब कहीं इतने बड़े काम बन सकते हैं, जिनके करने की इन दिनों आवश्यकता पड़ गई है।
रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानन्द को सौंप दी थी तथा उनने कार्यक्षेत्र को सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य सँभाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूल शरीर के सहारे नहीं कर पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेंस से अधिक वरदान देते रहने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उनकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैन्सर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋण मुक्त होकर विवेकानन्द के माध्यम से उस कार्य में जुट गए जिसे करने के लिए उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था। प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गए। उनका अभाव खटका, शोक भी बना, पर हुआ वह जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के उपरान्त उनकी सामर्थ्य हजार गुनी अधिक बढ़ गई। इसके सहारे उनने देश एवं विश्व में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन किया। जीवन काल में वे भक्तजनों को थोड़ा-बहुत आशीर्वाद देते रहे और एक विवेकानन्द को अपना संग्रह सौंपने में समर्थ हुए, पर जब उन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर से काम करने का अवसर मिल गया, तो उनसे पूरे विश्व में इतना काम किया जा सका जिसका लेखा-जोखा ले सकना, सामान्य स्तर की जाँच-पड़ताल से समझ सकना सम्भव नहीं।
ईसा की जीवनचर्या भी ऐसी ही थी। वे जीवन भर में बहुत दौड़-धूप के उपरान्त मात्र १३ शिष्य बना सके। देखा कि स्थूल शरीर की क्षमता से उतना बड़ा काम न हो सकेगा, जितना कि वे चाहते हैं। ऐसी दशा में यही उपयुक्त समझा कि सूक्ष्म शरीर का अवलम्बन ले कर संसार भर में ईसाई मिशन फैला दिया जाए। ऐसे परिवर्तनों के समय महापुरुष पिछला हिसाब-किताब साफ करने के लिए कष्ट साध्य मृत्यु का वरण करते हैं। ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण को तीर लगना, पाण्डवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगन्दर होना यह बताता है कि अगले महान प्रयोजनों के लिए उन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अन्त करते हैं, जिसे बलिदान स्तर का—प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय का पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके। हमारे साथ भी यही हुआ है व आगे होना है।
स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन—सूक्ष्मीकरण
युग परिवर्तन की यह एक ऐतिहासिक वेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई थी। सन् १९८० से लेकर अब तक के पाँच वर्षों में जो काम हुआ है, पिछले तीस वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई और खपत को ध्यान में रखते हुए तदनुरूप शक्ति उपार्जित की गई। यह वर्ष कितनी जागरूकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुँचकर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा। क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल २४०० प्रज्ञा पीठों और १५००० प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है, शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा-जोखा किस प्रकार सम्भव हो?
युग सन्धि की वेला में अभी पन्द्रह वर्ष और रह जाते है। इस अवधि में गतिचक्र और भी तेजी से भ्रमण करेगा। एक ओर उसकी गति बढ़ानी होगी, दूसरी ओर रोकनी। विनाश को रोकने और विकास को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों ही गतियाँ इन दिनों मन्थर हैं। इस हिसाब से सन् २००० तक उस लक्ष्य की उपलब्धि न हो सकेगी, जो अभीष्ट है। इसलिए सृष्टि के प्रयास चक्र निश्चित रूप से तीव्र होंगे। उसमें हमारी भी गीध-गिलहरी जैसी भूमिका है। काम कौन, कब, क्या, किस प्रकार करें—यह बात आगे की है। प्रश्न जिम्मेदारी का है। युद्ध काल में जो जिम्मेदारी सेनापति की होती है, वही खाना पकाने वाले की भी है। आपत्तिकाल में उपेक्षा कोई नहीं बरत सकता।
इस अवधि में एक साथ कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़नी होगी। समय ऐसे भी आते हैं, जब खेत की फसल काटना, जानवरों को चारा लाना, बीमार लड़के का इलाज कराना, मुकदमें की तारीख पर हाजिर होना, घर आए मेहमान का स्वागत करना जैसे कई काम एक ही आदमी को एक ही समय पर करने होते हैं। युद्ध काल में तो बहुमुखी चिन्तन और उत्तरदायित्व और भी अधिक सघन तथा विरल हो जाता है। किस मोर्चे पर कितने सैनिक भेजना है, जो लड़ रहे हैं, उनके लिए गोला-बारूद कम न पड़ने देना, रसद का प्रबन्ध रखना, अस्पताल का दुरुस्त होना, मरे हुए सैनिकों को ठिकाने लगाना, अगले मोर्चे के लिए खाइयाँ खोदना जैसे काम बहुमुखी होते हैं। सभी पर समान ध्यान देना होता है। एक में भी चूक होने से बात बिगड़ जाती है। करा-धरा चौपट हो जाता है।
हमें अपनी प्रवृत्तियाँ बहुमुखी बढ़ा लेने के लिए कहा गया है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई स्थूल शरीर का सीमा बन्धन है। यह सीमित है, सीमित क्षेत्र में ही काम कर सकता है। सीमित ही वजन उठा सकता है। काम असीम क्षेत्र से सम्बन्धित हैं और ऐसे हैं जिनमें एक साथ कितनों से ही वास्ता पड़ना चाहिए। यह कैसे बने? इसके लिए एक तरीका यह है कि स्थूल शरीर को बिल्कुल ही छोड़ दिया जाए और जो करना है, उसे पूरी तरह एक या अनेक सूक्ष्म शरीरों से सम्पन्न करते रहा जाए। निर्देशक को यदि यही उचित लगेगा, तो उसे निपटाने में पल भर की भी देर नहीं लगेगी। स्थूल शरीरों का एक झंझट है कि उनके साथ कर्मफल के भोग विधान जुड़ जाते हैं। यदि लेन-देन बाकी रहे तो अगले जन्म तक वह भार लदा चला जाता है और फिर खींचतान करता है। ऐसी दशा में उसके भोग भुगतते हुए जाने में निश्चिन्तता रहती है।
रामकृष्ण परमहंस ने आशीर्वाद-वरदान बहुत दिए थे। उपार्जित पुण्य भण्डार कम था। हिसाब चुकाने के लिए गले का कैन्सर बुलाया गया। बेबाकी तब हुई। आद्य शंकराचार्य की भी भगन्दर का फोड़ा ही जान लेकर गया था। महात्मा नारायण स्वामी को भी ऐसा ही रोग सहना पड़ा। गुरु गोलवलकर कैन्सर से पीड़ित होकर स्वर्गवासी हुए। ऐसे ही अन्य उदाहरण भी हैं, जिनमें पुण्यात्माओं को अन्तिम समय व्यथा पूर्वक बिताना पड़ा। इसमें उनके पापों का दण्ड कारण नहीं होता, वह पुण्य व्यतिरेक की भरपाई करना होता है। वे कइयों का कष्ट अपने ऊपर लेते रहते हैं। बीच से चुका सके तो ठीक अन्यथा अन्तिम समय हिसाब-किताब बराबर करते हैं, ताकि आगे के लिए कोई झंझट शेष न रहे और जीवन-मुक्त स्थिति बने रहने में पीछे का कोई कर्मफल व्यवधान उत्पन्न न करे।
मूल प्रश्न जीव सत्ता के सूक्ष्मीकरण का है। सूक्ष्म व्यापक होता है, बहुमुखी भी। एक ही समय में कई जगह काम कर सकता है। कई उत्तरदायित्व एक साथ ओढ़ सकता है। जबकि स्थूल के लिए एक स्थान, एक सीमा के बन्धन हैं। स्थूल शरीरधारी अपने भाग-दौड़ के क्षेत्र में ही काम करेगा। साथ ही भाषा ज्ञान के अनुरूप विचारों का आदान-प्रदान कर सकेगा। किन्तु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर भाषा सम्बन्धी झंझट दूर हो जाते हैं। विचारों का आदान-प्रदान चल पड़ता है। विचार सीधे मस्तिष्क या अन्तराल तक पहुँचाए जा सकते हैं। उनके लिए भाषा माध्यम आवश्यक नहीं। व्यापकता की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी सुविधा है। यातायात की व्यवस्था भी स्थूल शरीरधारी को चाहिए। पैरों के सहारे तो यह एक घण्टे में प्रायः तीन मील ही चल पाता है। वाहन जिस गति का होगा, उसकी दौड़ भी उतनी ही रह जाएगी। एक व्यक्ति की एक जीभ होती है। उसका उच्चारण उसी से होगा, किन्तु सूक्ष्म शरीर की इन्द्रियों पर इस प्रकार का बन्धन नहीं है। उनकी देखने की, सुनने की, बोलने की सामर्थ्य स्थूल शरीर की तुलना में अनेक गुनी हो जाती है। एक शरीर समयानुसार अनेक शरीर में भी प्रतिभाषित हो सकता है। रास के समय श्रीकृष्ण के अनेकों शरीर गोपियों का अपने साथ सहनृत्य करते दीखते थे। कंस वध के समय तथा सिया स्वयम्बर के समय उपस्थित समुदाय को कृष्ण और राम की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दृष्टिगोचर हुईं थीं। विराट रूप के दर्शन में भगवान् ने अर्जुन को, यशोदा को जो दर्शन कराया था, वह उनके सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ही आभास था। अलंकार काव्य के रूप में उसकी व्याख्या की जाती है, सो भी किसी सीमा तक ठीक ही है।
यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाए, यह सम्भव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र सम्बन्धित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उनसे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीर पहले से ही परिष्कृत हो चुका होता है। सूक्ष्म शरीर को उच्चस्तरीय क्षमता-सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष स्तर की बनाने के लिए अगला कदम सूक्ष्मीकरण का है। सिद्घ पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं, उसी से दूसरों की सेवा-सहायता करते हैं, किन्तु शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गए हैं जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है। शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए सम्भव नहीं क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ऐसी नहीं है, जो पदार्थ विज्ञान की सीमा-मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता तो उसने वैज्ञानिकों की चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्याय अवश्य ही जोड़ता। किम्बदन्तियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जाएगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणिक किए बिना किसी की गति नहीं।
प्रश्न सूक्ष्मीकरण साधना का है, जो हम इन दिनों कर रहे हैं। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर के रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरान्त भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थतियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग-पुरुषार्थ के, तप-साधना के सम्भव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।
इसके लिए किसे क्या करना होता है, यह इसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर होता है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता। किन्तु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है, अण्डा जब तक पक नहीं जाता तब तक एक खोखले में बन्द रहता है इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने-फिरने और दौड़ने-उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं, जो हमने पिछले दिनों किए हैं। प्राचीनकाल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।
सूक्ष्म शरीर धारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक मिलता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तार पूर्वक वर्णन है। यक्ष, गन्धर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्म शरीर धारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच ‘‘वीर’’ रहते थे। शिवजी के गण ‘‘वीरभद्र’’ कहलाते थे। भूत-प्रेत, जिन्द, मसानों की अलग ही बिरादरी थी। ‘‘अलादीन का चिराग’’ जिनने पढ़ा है, उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छाया पुरुष द्वारा साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ साथी सहयोगी जैसा काम करती है।
इन सूक्ष्म शरीर धारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकारक या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। सम्भव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरान्त ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्धों की मार-काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे, पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में भी काम करती थी, वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक-लोकान्तरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे, वहाँ भक्तजनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।
ऋषियों में से अन्य कइयों के भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं। वे समय-समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुँचे, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि वह राह भटक जाने पर कोई उन्हें उपयुक्त स्थल तक छोड़कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं की ऐसी कितनी ही कथा गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसायटी की मान्यता है कि अभी भी हिमालय के ध्रुव केन्द्र पर एक ऐसी मण्डली है, जो विश्व शान्ति में योगदान करती है, इसे उन्होंने ‘‘अदृश्य सहायक’’ नाम दिया है।
यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों, सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा-सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है, पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं, या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है, उसे भगवान् ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्तिग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है, ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय-समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाए भी सहायता के लिए दौड़ते हैं। इससे बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं रही, या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। ऐसा रहा होता तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिन्त हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने—परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते।
यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है। पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे, उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुत बढ़ा-चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई रख जाएगा, ऐसी आशा भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए। भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घुमाई और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गए हैं। दैवी शक्तियों से, सूक्ष्म शरीरों से हमें सामयिक सहायता की आशा करनी चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों को अच्छा शिक्षक मानकर अगले कदम अधिक सावधानी, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।
सूक्ष्म शरीरों की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास, विचार-सम्प्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीर की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं, जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ सम्बन्ध जुड़ने से भी करना चाहिए।
जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं, ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिल्कुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यन्त उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य लोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारना और सुधरों को अधिक सफल बनाने में अयाचित सहायता माँगने का प्रयोजन, और माँगने वाले का स्तर उपयुक्त होने पर तो वह सहायता और भी अच्छी तरह और भी बड़ी मात्रा में मिलती है।
यह सूक्ष्म शरीरों की, सूक्ष्म लोक की सामान्य चर्चा हुई। प्रसंग अपने आपे को विकसित करने का है। यह विषम वेला है। इसमें प्रत्यक्ष शरीर वाले, प्रत्यक्ष उपाय-उपचारों से जो कर सकते हैं, सो तो कर ही रहे हैं। करना भी चाहिए, पर दीखता है कि उतने भर से काम चलेगा नहीं। सशक्त सूक्ष्म शरीरों को बिगड़ों को अधिक न बिगड़ने देने के लिए अपना जोर लगाना पड़ेगा। सँभालने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है, वह पर्याप्त न होगी। उसे और भी अधिक सरल-सफल बनाने के लिए अदृश्य सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। यह सामूहिक समस्याओं के लिए भी आवश्यक होगा और व्यक्तिगत रूप से सत्प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तित्वों को अग्रगामी-यशस्वी बनाने की दृष्टि से भी।
जब हमें यह काम सौंपा गया तो उसे करने में आना-कानी कैसी? दिव्य सत्ता के संकेतों पर चिरकाल से चलते चले आ रहे हैं और जब तक आत्मबोध जागृत रहेगा तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। यही गतिविधि चलेगी। यह विषम बेला है, इन दिनों दृश्य और अदृश्य क्षेत्र में जो विषाक्तता भरी हुई है, उसके परिशोधन का प्रयास करना अविलम्ब आवश्यक हो गया है, तो संजीवनी बूटी लाने के लिए पर्वत उखाड़ लाने और सुषेन वैद्य की खोज में जाने के लिए जो भी करना पड़े करना चाहिए। यह कार्य स्थूल शरीर को प्रसुप्त से जाग्रत स्थिति में लाने के लिए हमें अविलम्ब जुटना पड़ा और विगत दो वर्षों में कठोर तपश्चर्या का-एकान्त साधना का अवलम्बन लेना पड़ा।
इन दिनों हम यह करने में जुट रहे हैं
हमारी जिज्ञासाओं एवं उत्सुकताओं का समाधान गुरुदेव प्रायः हमारे अन्तराल में बैठकर ही किया करते हैं। उनकी आत्मा हमें अपने समीप ही दृष्टिगोचर होती रहती है। आर्षग्रन्थों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा पुराण की संरचना तक जिस प्रकार लेखन प्रयोजन में उनका मार्गदर्शन अध्यापक और विद्यार्थी जैसा रहा है, हमारी वाणी भी उन्हीं की सिखावन को दुहराती रही है। घोड़ा जिस प्रकार सवार के संकेतों पर दिशा और चाल बदलता रहता है, वही प्रक्रिया हमारे साथ भी कार्यान्वित होती रही है।
बैटरी चार्ज करने के लिए जब हिमालय बुलाते हैं, तब भी वे कुछ विशेष कहते नहीं। सेनीटोरियम में जिस प्रकार किसी दुर्बल का स्वास्थ्य सुधर जाता है, वही उपलब्धियाँ हमें हिमालय जाने पर हस्तगत होती हैं। वार्तालाप का प्रयोग अनेकों प्रसंगों में होता रहता है।
इस बार सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया और साधना विधि तो ठीक तरह समझ में आ गई और जिस प्रकार कुन्ती ने अपने शरीर में से देव सन्तानें जन्मीं थीं, ठीक उसी प्रकार अपनी काया में विद्यमान पाँच कोशों, अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोषों को पाँच वीरभद्रों के रूप में विकसित करना पड़ेगा, इसकी साधना विधि भी समझ में आ गई। जब तक वे पाँचों पूर्ण समर्थ न हो जाएँ, तब तक वर्तमान स्थूल शरीर को उनके घोंसले की तरह बनाए रहने का भी आदेश है और अपनी दृश्य स्थूल जिम्मेदारियाँ दूसरों को हस्तान्तरित करने की दृष्टि से अभी शान्तिकुञ्ज ही रहने का निर्देश है।
यह सब स्पष्ट हो गया। सावित्री साधना का विधान भी उनका निर्देश मिलते ही इस निमित्त आरम्भ कर दिया।
अब प्रश्न यह रहा है कि पाँच वीरभद्रों को काम क्या सौंपना पड़ेगा और किस प्रकार वे क्या करेंगे? उसका उत्तर भी अधिक जिज्ञासा रहने के कारण अब मिल गया। इससे निश्चिन्तता भी हुई और प्रसन्नता भी।
संसार में आज भी ऐसी कितनी ही प्रतिभाएँ हैं, जो दिशा पलट जाने पर अभी जो कर रही हैं, उसकी तुलना में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य करने लगेंगी। उलटे को उलट कर सीधा करने के लिए जिस प्रचण्ड शक्ति की आवश्यकता होती है, उसी को हमारे अंग-अंग वीरभद्र करने लगेंगे। प्रतिभाओं की सोचने की यदि दिशा बदली जा सके, तो उनका परिवर्तन चमत्कारी जैसा हो सकता है।
नारद ने पार्वती, ध्रुव, प्रह्लाद, वाल्मीकि, सावित्री आदि की जीवन दिशा बदली, तो वे जिन परिस्थितियों में रह रहे थे, उसे लात मारकर दूसरी दिशा में चल पड़े और संसार के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन गए। भगवान् बुद्ध ने आनन्द, कुमार जीव, अंगुलिमाल, अम्बपाली, अशोक, हर्षवर्धन, संघमित्रा आदि का मन बदल दिया तो वे जो कुछ कर रहे थे, उसके ठीक उलटा करने लगे और विश्व विख्यात हो गए। विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र को एक मामूली राजा नहीं रहने दिया वरन इतना वरेण्य बना दिया कि उनकी लीला अभिनय देखने मात्र से गाँधी जी विश्ववंद्य हो गए। महाकृपण भामाशाह को सन्त विठोबा ने अन्तःप्रेरणा दी और उनका सारा धन महाराणा प्रताप के लिए उगलवा दिया। आद्य शंकराचार्य की प्रेरणा से मान्धाता ने चारों धामों के मठ बना दिए। अहिल्या बाई को एक सन्त ने प्रेरणा देकर कितने ही मन्दिरों-घाटों का जीर्णोद्धार करा लिया और दुर्गम स्थानों पर नए देवालय बनाने के संकल्प को पूर्ण कर दिखाने के लिए सहमत कर लिया। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को वह काम करने की अन्तःप्रेरणा दी जिसे वे अपनी इच्छा से कदाचित ही कर पाते। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने नरेन्द्र के पीछे पड़कर उसे विवेकानन्द बना दिया। राजा गोपीचन्द का मन वैराग्य में लगा देने का श्रेय सन्त भर्तृहरि को था।
ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, जिसमें कितनी ही प्रतिभाओं को किन्हीं मनस्वी आत्म वेत्ताओं ने बदलकर कुछ से कुछ बना दिया। उनकी अनुकम्पा न हुई होती तो वे जीवन भर अपने उसी पुराने ढर्रे पर लुढ़कते रहते, जिस पर कि उनका परिवार चल रहा था।
हमारी अपनी बात भी ठीक ऐसी ही है। यदि गुरुदेव ने उलट न दिया होता तो हम अपने पारिवारिक जनों की तरह पौरोहित्य का धन्धा कर रहे होते या किसी और काम में लगे होते। उस स्थान पर पहुँच ही न पाते, जिस पर कि हम अब पहुँच गए हैं।
इन दिनों युग परिवर्तन के लिए कई प्रकार की प्रतिभाएँ चाहिए। विद्वानों की आवश्यकता है, जो लोगों को अपने तर्क-प्रमाणों से सोचने की नई पद्धति प्रदान कर सकें। कलाकारों की आवश्यकता है, जो चैतन्य महाप्रभु, मीरा, सूर, कबीर की भावनाओं को इस प्रकार लहरा सकें, जैसे सँपेरा साँप को लहराता रहता है। धनवानों की जरूरत है, जो अपने पैसे को विलास में खर्च करने की अपेक्षा सम्राट अशोक की तरह अपना सर्वस्व समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए लुटा सकें। राजनीतिज्ञों की जरूरत है जो गाँधी, रूसो और कार्लमार्क्स, लेनिन की तरह अपने सम्पर्क के प्रजाजनों को ऐसे मार्ग पर चला सकें, जिसकी पहले कभी भी आशा नहीं की गई थी।
भावनाशील का क्या कहना? सन्त सज्जनों ने न जाने कितनों को अपने सम्पर्क से लोहे जैसे लोगों को पारस की भूमिका निभाते हुए कुछ से कुछ बना दिया।
हमारे वीरभद्र अब यही करेंगे। हमने भी यही किया है। लाखों लोगों की विचारणा और क्रिया पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन किया है और उन्हें गाँधी के सत्याग्रहियों की तरह, विनोबा के भूदानियों की तरह, बुद्ध के परिव्राजकों की तरह अपना सर्वस्व लुटा देने के लिए तैयार कर दिया। प्रज्ञा पुत्रों की इतनी बड़ी सेना हनुमान के अनुयायी वानरों की भूमिका निभाती है। इस छोटे से जीवन में अपनी प्रत्यक्ष क्रियाओं के द्वारा जहाँ भी रहे वहीं चमत्कार खड़े कर दिए तो कोई कारण नहीं कि हमारी ही आत्मा के टुकड़े जिसके पीछे लगें, उसे भूत−पलीत की तरह तोड़-मरोड़ कर न रख दें।
अगले दिनों अनेकों दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की आवश्यकता पड़ेगी। उसके लिए ऐसे गाण्डीव धारियों की, जो अर्जुन की तरह कौरवों की अक्षौहिणी सेनाओं को धराशायी कर दें, आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे हनुमानों की जरूरत होगी, जो एक लाख पूत-सवा लाख नाती वाली लंका को पूँछ से जलाकर खाक कर दें। ऐसे परिवर्तन अन्तराल बदलने भर से हो सकते हैं। अमेरिका के अब्राहम लिंकन और जार्ज वाशिंगटन बहुत गई-गुजरी हैसियत के परिवारों में जन्मे थे, पर वे अपने जीवन प्रवाह को पलट कर अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए।
प्रतिभाहीनों की बात जाने दीजिए, वे तो अपनी क्षमता और बुद्धिमत्ता को चोरी, डकैती, ठगी जैसे नीच कर्मों में भी लगा सकते हैं, पर जिनमें भावना भरी हो, वे अपने साधारण पराक्रम से समय को उलटकर कहीं से कहीं ले जा सकते हैं। स्वामी दयानन्द, श्रद्धानन्द रामतीर्थ जैसों के कितने ही उदाहरण सामने हैं, जिनकी दिशाधारा बदली तो वे असंख्यों को बदलने में समर्थ हो गए।
इन दिनों प्रतिभाएँ विलासिता में, संग्रह में, अहंकार की पूर्ति में निरत हैं। इसी निमित्त वे अपनी क्षमता और सम्पन्नता को नष्ट करती रहती हैं। यदि इनमें से थोड़ी सी भी ढर्रा बदल दें, तो वे गीता प्रेस वाले जय दयाल गोयन्दका की तरह ऐसे साधन खड़े कर सकती हैं, जिन्हें अद्भुत और अनुपम कहा जा सके।
कौन प्रतिभा किस प्रकार बदली जानी है और उससे क्या काम लिया जाना है, यही निर्धारण उच्च भूमिका से होता रहेगा। अभी जो लोग विश्व युद्ध छेड़ने और संसार को तहस-नहस कर देने की बात सोचते हैं, उनके दिमाग बदलेंगे तो विनाश प्रयोजनों में लगने वाली बुद्धि, शक्ति और सम्पदा को विकास प्रयोजनों की दिशा में मोड़ देंगे। इतने भर से परिस्थितियाँ बदलकर कहीं से कहीं चली जाएँगी। प्रवृत्तियाँ एवं दिशाएँ बदल जाने से मनुष्य के कर्तृत्व कुछ-से-कुछ हो जाते हैं और जो श्रेय मार्ग पर कदम बढ़ाते हैं, उनके पीछे भगवान् की शक्ति सहायता के लिए निश्चित रूप से विद्यमान रहती है। बाबा साहब आम्टे की तरह वे अपंगों का विश्व विद्यालय, कुष्ठ औषधालय बना सकते हैं। हीरालाल शास्त्री की तरह वनस्थली बालिका विद्यालय खड़े कर सकते हैं। लक्ष्मीबाई की तरह कन्या गुरुकुल खड़े कर सकते हैं।
मानवी बुद्धि की भ्रष्टता ने उसकी गतिविधियों को भ्रष्ट, पापी, अपराधी स्तर का बना दिया है। जो कमाते हैं, वह हाथों-हाथ अवाँछनीय कार्यों में नष्ट हो जाता है। सिर पर बदनामी और पाप का टोकरा ही फूटता है। इस समुदाय के विचारों को कोई पलट सके, रीति-नीति और दिशाधारा को बदल सके, तो यही लोग इतने महान् बन सकते हैं, ऐसे महान् कार्य कर सकते हैं कि उनका अनुकरण करते हुए लाखों धन्य हो सकें और जमाना बदलता हुआ देख सकें।
इन दिनों हमारी जो सावित्री साधना चल रही है, उसके माध्यम से जो अदृश्य महाबली उत्पन्न किए जा रहे हैं, वे चुपके-चुपके असंख्य अन्तःकरणों में घुसेंगे, उनकी अनीति को छुड़ाकर मानेंगे और ऐसे मणि-माणिक्य छोड़कर आएँगे, जिससे वे स्वयं धन्य बन सकें और ‘‘युग परिवर्तन’’ जो अभी कठिन दीखता है, कल सरल बना सकें।
मनीषी के रूप में हमारी प्रत्यक्ष भूमिका
मनुष्य अपनी अन्तःशक्ति के सहारे प्रसुप्त के प्रकटीकरण द्वारा ऊँचा उठता है, यह जितना सही है, उतना ही यह भी मिथ्या नहीं कि तप-तितिक्षा से प्रखर बनाया गया वातावरण, शिक्षा, सान्निध्य-सत्संग, परामर्श-अनुकरण भी अपनी उतनी सशक्त भूमिका निभाता है। देखा जाता है कि किसी समुदाय में नितान्त साधारण श्रेणी के सीमित सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति एक प्रचण्ड प्रवाह के सहारे असम्भव पुरुषार्थ भी सम्भव कर दिखाते हैं। प्राचीन काल में मनीषी-मुनिगण यही भूमिका निभाते थे। वे युग साधना में निरत रहे। लेखनी-वाणी के सशक्त तन्त्र के माध्यम से जन-मानस के चिन्तन को उभारते थे। ऐसी साधना अनेक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों को जन्म देती थी, उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को उजागर कर उन्हें सही दिशा देकर समाज में वाँछित परिवर्तन लाती थी। शरीर की दृष्टि से सामान्य दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति भी प्रतिभा-कुशल, चिन्तन की श्रेष्ठता से अभिपूरित देखे जाते थे।
सर्वविदित है कि मुनि एवं ऋषि ये दो श्रेणियाँ अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रही हैं। ऋषि वह जो तपश्चर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसन्धान कर उन निष्कर्षों से जन-समुदाय को लाभ पहुँचाए तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिन्तन-मनन, स्वाध्याय द्वारा जन-मानस के परिष्कार की अहम् भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक है, तो दूसरा प्रखरता का। दोनों को ही तप साधना में निरत हो सूक्ष्मतम बनना पड़ता है ताकि अपना स्वरूप और विराट् व्यापक बनाकर स्वयं को आत्मबल सम्पन्न कर वे युग चिन्तन के प्रवाह को मरोड़-बदल सकें। मुनि जहाँ प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता रखते हैं, वहाँ ऋषियों के लिए यह अनिवार्य नहीं। वे अपने सूक्ष्म रूप में भी वातावरण को आन्दोलित करके, सुसंस्कारित बनाए रख सकते हैं।
लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का प्रायः अर्थ उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है जिसका मन उसके वश में हो। जो मन से नहीं संचालित होता, अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है, उसे मनीषी एवं ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। शास्त्रकार का कथन है—‘‘मनीषा अस्ति येषां ते मनीषा नः’’ लेकिन साथ ही यह भी कहा है—‘‘मनीषी नस्तु भवन्ति, पानानि न भवन्ति’’, अर्थात्—मनीषी तो कई होते हैं, बड़े-बड़े बुद्धिमान होते हैं, परन्तु वे पावन हों-पवित्र हों यह अनिवार्य नहीं। प्रतिभाशााली-बुद्घमान होना अलग बात है परन्तु पवित्र-शुद्ध अन्तःकरण रखना अलग बात है। आज सम्पादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक हैं, देश-देशान्तरों में फैले पड़े हैं, लेकिन वे मनीषी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि तपःशक्ति द्वारा अन्तःशोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।
साहित्य की आज कहीं कमी है? जितनी पत्र-पत्रिकाएँ आज प्रकाशित होती हैं, जितना साहित्य नित्य विश्व भर में छपता है, उस पहाड़ के समान सामग्री को देखते हुए लगता है, वास्तव में मनीषी बढ़े हैं, पढ़ने वाले भी बढ़े हैं। लेकिन इस सबका प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? क्यों एक लेखक की कलम कुत्सा भड़काने में ही निरत रहती है एवं उस साहित्य को पढ़कर तुष्टि पाने वालों की संख्या बढ़ती है, इसके कारण ढूँढ़े जाएँ, तो वहीं आना होगा, जहाँ कहा गया था ‘‘पावनानि न भविन्त’’। यदि इतनी मात्रा में उच्चस्तरीय चिन्तन को उत्कृष्ट बनाने वाला साहित्य रचा गया होता एवं उसकी भूख बढ़ाने का माद्दा जन-समुदाय के मन में पैदा किया गया होता, तो क्या ये विकृतियाँ नजर आतीं, जो आज समाज में विद्यमान हैं। दैनन्दिन जीवन की समस्याओं का समाधान यदि सम्भव है तो वह युग मनीषा के हाथों ही होगा।
जैसा कि हम पूर्व में भी कह चुके हैं कि नवयुग यदि आएगा तो विचार शोधन द्वारा ही, क्रान्ति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी, समाज का नव-निर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही सम्भव होगा। अभी तक जितनी मलिनता समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष-कलह, नस्लवाद, व्यापक नरसंहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अन्तःकरण पवित्र होते, तप ऊर्जा का सम्बल उन्हें मिला होता, तो उन्होंने विधेयात्मक विचार प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता, ऐसे आन्दोलन चलाए होते। हिटलर ने जब नीत्से के सुपर मैन रूपी अधिनायक को अपने में साकार करने की इच्छा की तो सर्वप्रथम सारे राष्ट्र के विचार प्रवाह को उस दिशा में मोड़ा। अध्यापक-वैज्ञानिक वर्ग नाजीवाद का कट्टर समर्थक बना तो उसकी उस निषेधात्मक विचार साधना द्वारा जो उसने ‘‘मीन कैम्फ’’ के रूप में आरोपित की। बाद में सारे राष्ट्र के पाठ्यक्रम एवं अखबारों की धारा का रुख उसने उस दिशा में मोड़ दिया जैसा कि वह चाहता था। जर्मन राष्ट्र नस्लवाद के अहं में सर्वश्रेष्ठ जाति का प्रतीक होने के गर्वोन्माद में उन्मत्त हो व्यापक नर संहार कर स्वयं ध्वस्त हो गया। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है, ऐसे मोड़ की जो सही दिशा में होता तो ऐसे समर्थ-सम्पन्न राष्ट्र को कहाँ से कहाँ ले जाता।
कार्लमार्क्स ने सारे अभावों में जीवन जीते हुए अर्थशास्त्र रूपी ऐसे दर्शन को जन्म दिया जिसने समाज में क्रान्ति ला दी। पूँजीवादी किले ढहते चले गए एवं साम्राज्यवाद दो तिहाई धरती से समाप्त हो गया। ‘‘दास कैपीटल’’ रूपी इस रचना ने एक नवयुग का शुभारम्भ किया जिसमें श्रमिकों को अपने अधिकार मिले एवं पूँजी के समान वितरण का यह अध्याय खुला जिससे करोड़ों व्यक्तियों को सुख-चैन की, स्वावलम्बन प्रधान जिन्दगी जी सकने की स्वतन्त्रता मिली। रूसो ने जिस प्रजातन्त्र की नींव डाली थी, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के पक्षधर शोषकों की रीति-नीति ही उसकी प्रेरणा स्त्रोत होगी। मताधिकार की स्वतन्त्रता, बहुमत के आधार पर प्रतिनिधित्व का दर्शन विकसित न हुआ होता। यदि रूसो की विचारधारा ने व्यापक प्रभाव जनसमुदाय पर न डाला होता तो 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' की नीति ही सब जगह चलती, कोई विरोध तक न कर पाता। जागीरदारों एवं उत्तराधिकार के आधार पर राजा बनने वाले अनगढ़ों का ही वर्चस्व होता है। इसे एक प्रकार की मनीषा प्रेरित क्रान्ति कहना चाहिए कि देखते-देखते उपनिवेश समाप्त हो गए, शोषक वर्ग का सफाया हो गया। इसी सन्दर्भ में हम कितनी ही बार लिंकन एवं लूथर किंग के साथ-साथ उस महिला हैरियट स्टो का उल्लेख करते रहे हैं, जिसकी कलम ने कालों को गुलामी के चंगुल से मुक्त कराया। प्रत्यक्षतः यह युग मनीषा की भूमिका है।
बुद्ध की विवेक एवं नीतिमत्ता पर आधारित विचार क्रान्ति एवं गाँधी, पटेल, नेहरू द्वारा पैदा की गई स्वातन्त्र्य आन्दोलन की आँधी उस परोक्ष मनीषा की प्रतीक है, जिसने अपने समय में ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न किया कि युग बदलता चला गया। उन्होंने कोई विचारोत्तेजक साहित्य रचा हो, यह भी नहीं। फिर यह सब कैसे सम्भव हुआ। यह तभी हो पाया जब उन्होंने मुनि स्तर की भूमिका निभाई, स्वयं को तपाया, विचारों में शक्ति पैदा की एवं उससे वातावरण को प्रभावित किया।
परिस्थितियाँ आज भी विषम हैं। वैभव और विनाश के झूले में झूल रही मानव जाति को उबारने के लिए आस्थाओं के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा और मानवी गरिमा को उभारने, दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ करना होगा। साधन इस कार्य में कोई योगदान दे सकते हैं, यह सोचना भ्रान्तिपूर्ण है। दुर्बल आस्था अन्तराल को तत्त्वदर्शन और साधना प्रयोग के उर्वरक की आवश्यकता है। अध्यात्म वेत्ता इस मरुस्थल की देख−भाल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते व समय-समय पर संव्याप्त भ्रान्तियों से मानवता को उबारते हैं। अध्यात्म की शक्ति विज्ञान से भी बड़ी हैं। अध्यात्म ही व्यक्ति के अन्तराल में विकृतियों के माहौल से लड़ सकने—निरस्त कर पाने में सक्षम तत्त्वों की प्रतिष्ठापना कर पाता है। हमने व्यक्तित्वों में पवित्रता व प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को ही अपना माध्यम बनाया एवं उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा है।
हमने अपने भावी जीवनक्रम के लिए जो महत्त्वपूर्ण निर्धारण किए हैं, उनमें सर्वोपरि है—लोक चिन्तन को सही दिशा देने हेतु एक ऐसा विचार प्रवाह खड़ा करना जो किसी भी स्थिति में अवांछनीयताओं को टिकने ही न दे। आज जन समुदाय के मन-मस्तिष्क में जो दुर्गति घुस पड़ी है, उसी की परिणति ऐसी परिस्थितियों के रूप में नजर आती है, जिन्हें जटिल, भयावह समझा जा रहा है। ऐसे वातावरण को बदलने के लिए व्यास की तरह, बुद्ध, गाँधी, कार्लमार्क्स की तरह, मार्टिन लूथर किंग, अरविन्द, महर्षि रमण की तरह भूमिका निभाने वाले मुनि व ऋषि के युग्म की आवश्यकता है, जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों द्वारा विचार क्रान्ति का प्रयोजन पूरा कर सके। यह पुरुषार्थ अन्तःक्षेत्र की प्रचण्ड तप साधना द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष रूप युग मनीषा का हो सकता है, जो अपनी शक्ति द्वारा उत्कृष्ट स्तर का साहित्य रच सके जिसे युगान्तरकारी कहा जा सकता है। अखण्ड-ज्योति के माध्यम से जो संकल्प हमने आज से सैंतालीस वर्ष पूर्व लिया था, उसे अनवरत निभाते रहने का हमारा नैतिक दायित्व है।
युग ऋषि की भूमिका अपने परोक्ष रूप में निभाते हुए उन अनुसन्धानों की पृष्ठभूमि बनाने का हमारा मन था जो वैज्ञानिक अध्यात्म का प्रत्यक्ष रूप इस तर्क, तथ्य, प्रमाणों को आधार मानने वाले समुदाय के समक्ष रख सकें। आज चल रहे वैज्ञानिक अनुसन्धान यदि उनसे कुछ दिशा लेकर सही मार्ग पर चल सके तो हमारा प्रयास सफल माना जाएगा। आत्मानुसन्धान के लिए अन्वेषण कार्य किस प्रकार चलना चाहिए, साधना-उपासना का वैज्ञानिक आधार क्या है? मनःशक्तियों के विकास में साधना उपचार किस प्रकार सहायक सिद्ध होते हैं? ऋषिकालीन आयुर्विज्ञान का पुनर्जीवन कर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को कैसे अक्षुण्ण बनाया जा सकता है, गायत्री की शब्द शक्ति एवं यज्ञाग्नि की ऊर्जा कैसे व्यक्तित्व को सामर्थ्यवान एवं पवित्र तथा काया को जीवनी शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रतिकूलताओं से जूझने में समर्थ बना सकती है, ज्योतिर्विज्ञान के चिर पुरातन प्रयोगों के माध्यम से आज के परिप्रेक्ष्य में मानव समुदाय को कैसे लाभान्वित किया जा सकता है, ऐसे अनेकानेक पक्षों को हमने अथर्ववेदीय ऋषि परम्परा के अन्तर्गत अपने शोध प्रयासों में अभिनव रूप में प्रस्तुत कर दिया है। हमने उनका शुभारम्भ कर बुद्धिजीवी समुदाय को एक दिशा दी है, आधार खड़ा किया है। परोक्ष रूप में हम उसे सतत पोषण देते रहेंगे। सारे वैज्ञानिक समुदाय का चिन्तन इस दिशा में चल पड़े, आत्मिकी के अनुसन्धान में अपनी प्रज्ञा नियोजित कर वे स्वयं को धन्य बना सकें, ऐसा हमारा प्रयास रहेगा। सारी मानव जाति को अपनी मनीषा के द्वारा एवं शोध अनुसन्धान के निष्कर्षों के माध्यम से लाभान्वित करने का हमारा संकल्प सूक्ष्मीकरण तपश्चर्या की स्थिति में और भी प्रखर रूप ले रहा है। इसकी परिणतियाँ आने वाला समय बताएगा।
‘‘विनाश नहीं सृजन’’—हमारा भविष्य कथन
अगला समय संकटों से भरा-पूरा है, इस बात को विभिन्न मूर्धन्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न प्रकार से जोरदार शब्दों में कहा। ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबिल में जिस ‘‘सेविन टाइम्स’’ में प्रलय काल जैसी विपत्ति आने का उल्लेख किया है, उसका ठीक समय यही है। इस्लाम धर्म में चौदहवीं सदी के महान संकट का उल्लेख है। भविष्य पुराण में इन्हीं दिनों महती विपत्ति टूट पड़ने का संकेत है। सिखों के गुरु ग्रन्थसाहिब में भी ऐसी ही अनेक भविष्यवाणियाँ हैं। कवि सूरदास ने इन्हीं दिनों विपत्ति आने का इशारा किया था। मिस्र के पिरामिडों में भी ऐसे ही शिलालेख पाए गए हैं। अनेक भारतीय भविष्यवक्ताओं ने इन दिनों भयंकर उथल-पुथल के कारण अध्यात्म आधार पर और दृश्य गणित ज्योतिष के सहारे ऐसी ही सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं।
पाश्चात्य देशों में जिन भविष्य वक्ताओं की धाक है और जिनकी भविष्यवाणियाँ ९९ प्रतिशत सही निकलती रही हैं, उनमें जीन डिक्शन, प्रो०हरार, एण्डरसन, जॉनबावेरी, कीरो, आर्थर क्लार्क, नोस्ट्राडेमस, मदर शिम्टन, आनन्दाचार्य आदि ने इस समय के सम्बन्ध में जो सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं, वे भयावह हैं। कोरिया में पिछले दिनों समस्त संसार के दैवज्ञों का एक सम्मेलन हुआ था, उसमें भी डरावनी सम्भावनाओं की ही आगाही व्यक्त की गई थी। टोरन्टो-कनाडा में संसार भर के भविष्य विज्ञान विशेषज्ञों (फ्यूचराण्टालाजिस्टा) का एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें वर्तमान परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करते हुए कहा था कि बुरे दिन अति समीप आ गए हैं। ग्रह-नक्षत्रों के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने वालों ने इन दिनों सूर्य पर बढ़ते धब्बों और लगातार पड़ने वाले सूर्यग्रहणों को धरती निवासियों के लिए हानिकारक बताया है। इन दिनों सन् ८५ के प्रारम्भ में उदय हुए ‘‘हैली धूमकेतु’’ की विषैली गैसों का परिणाम पृथ्वीवासियों के लिए हानिकारक बताया गया है।
सामान्य बुद्धि के लोग भी जानते हैं कि अन्धा-धुन्ध बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अगले दिनों अन्न-जल तो क्या सड़कों पर चलने का रास्ता तक न मिलेगा। औद्योगीकरण-मशीनीकरण की भरमार से हवा और पानी भी कम पड़ रहा है और विषाक्त हो चला है। खनिज तेल और धातुएँ, कोयला पचास वर्ष तक के लिए नहीं है। अणु परीक्षणों से उत्पन्न विकिरण से अगली पीढ़ी और वर्तमान जन समुदाय को कैन्सर जैसे भयानक रोगों की भरमार होने का भय है। कहीं अणु युद्ध हो गया तो इससे न केवल मनुष्य, वरन अन्य प्राणियों और वनस्पतियों का भी सफाया हो जाएगा। असन्तुलित हुए तापमान से ध्रुवों की बर्फ पिघल पड़ने, समुद्र में तूफान आने और हिमयुग के लौट पड़ने की सम्भावना बताई जा रही है और अनेक प्रकार के संकटों के अनेकानेक कारण विद्यमान हैं। इस सन्दर्भ में साहित्य इकट्ठा करना हो, तो उनसे ऐसी सम्भावनाएँ सुनिश्चित दिखाई पड़ती हैं, जिनके कारण इन वर्षों में भयानक उथल-पुथल हो। सन् २००० में युग परिवर्तन की घोषणा है, ऐसे समय में भी विकास से पूर्व विनाश की, ढलाई से पूर्व गलाई की सम्भावना का अनुमान लगाया जा सकता है। किसी भी पहलू से विचार किया जाए, प्रत्यक्षदर्शी और भावनाशील मनीषी-भविष्यवक्ता इन दिनों विश्व संकट को अधिकाधिक गहरा होता देखते हैं।
पत्रकारों और राजनीतिज्ञों के क्षेत्रों में इस बार एक अत्यधिक चिन्ता यह संव्याप्त है कि इन दिनों जैसा संकट मनुष्य जाति के सामने है, वैसा मानवी उत्पत्ति के समय से कभी भी नहीं आया। शान्ति परिषद आदि अनेक संस्थाएँ इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि महाविनाश का जो संकट सिर पर छाया हुआ है, वह किसी प्रकार टले। छुट-पुट लड़ाइयाँ तो विभिन्न क्षेत्रों में होती ही रहती हैं। शीतयुद्ध किसी भी दिन महाविनाश के रूप में विकसित हो सकता है, यह अनुमान हर कोई लगा सकता है।
भूतकाल में भी देवासुर संग्राम होते रहे हैं, पर जन-जीवन के सर्वनाश की प्रत्यक्ष सम्भावना का, सर्व सम्मत ऐसा अवसर इससे पूर्व कभी भी नहीं आया।
इन संकटों को ऋषि-कल्प सूक्ष्मधारी आत्माएँ भली प्रकार देख और समझ रही हैं। ऐसे अवसरों में वे मौन नहीं रह सकतीं। ऋषियों के तप स्वर्ग, मुक्ति एवं सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं होते। यह उपलब्धियाँ तो आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने वाले स्थूल शरीरधारी भी प्राप्त कर लेते हैं। यह महामानवों को प्राप्त होने वाली विभूतियाँ हैं। ऋषियों को भगवान् का कार्य सम्भालना पड़ता है और वे उसी प्रयास को लक्ष्य मानकर संलग्न रहते हैं।
हमारे ऊपर जिन ऋषि का—दैवी सत्ता का अनुग्रह है, उनने सभी कार्य लोकमंगल के निमित्त कराए हैं। आरम्भिक २४ महापुरश्चरण भी इसी निमित्त कराए हैं कि आत्मिक समर्थता इस स्तर की प्राप्त हो सके, जिसके सहारे लोक-कल्याण के अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने में कठिनाई न पड़े।
विश्व के ऊपर छाए हुए संकटों को टालने के लिए उन्हें चिन्ता है। चिन्ता ही नहीं प्रयास भी किए हैं। इन्हीं प्रयासों में एक हमारे व्यक्तित्व को पवित्रता और प्रखरता से भर देना भी है। आध्यात्मिक सामर्थ्य इसी आधार पर विकसित होती है।
उपासना का वर्तमान चरण सूक्ष्मीकरण की सावित्री साधना के रूप में चल रहा है। इस प्रक्रिया के पीछे किसी व्यक्ति विशेष की ख्याति, सम्पदा, वरिष्ठता या विभूति नहीं हैं। एक मात्र प्रयोजन यही है कि मानवी सत्ता और गरिमा के लड़खड़ाते हुए पैर स्थिर हो सकें। पाँच वीरभद्रों के कन्धों पर वे अपना उद्देश्य लादकर उसे सम्पन्न भी कर सकते हैं। हनुमान के कन्धों पर राम-लक्ष्मण दोनों बैठे फिरते थे। यह श्रेष्ठता प्रदान करना भर है। इसे माध्यम का चयन कह सकते हैं। एक गाण्डीव धनुष के आधार पर किस प्रकार इतना विशालकाय महाभारत लड़ा जा सकता था। इसे सामान्य बुद्धि से असम्भव ही कहा जा सकता है। पर भगवान् की जो इच्छा होती है, वह तो किसी न किसी प्रकार पूरी होकर रहती है। महाबली हिरण्याक्ष को शूकर भगवान ने फाड़-चीरकर रख दिया था, उसमें भी भगवान् की ही इच्छा थी।
इस बार भी हमारी निज की अनुभूति है कि असुरता द्वारा उत्पन्न हुई विभीषिकाओं को सफल नहीं होने दिया जाएगा। परिवर्तन इस प्रकार होगा कि जो लोग इस महाविनाश में संलग्न हैं, इसकी संरचना कर रहे हैं, वे उलट जाएँगे या उनके उलट देने वाले नए पैदा हो जाएँगे। विश्व-शान्ति में भारत की निश्चित ही कोई बड़ी भूमिका हो सकती है।
समस्त संसार के मूर्धन्यों, शक्तिवानों और विचारवानों की आशंका एक ही है कि विनाश होने जा रहा है। हमारा अकेले का कथन यह है कि उलटे को उलटकर ही सीधा किया जाएगा। हमारे भविष्य कथन को अभी ही बड़ी गम्भीरता पूर्वक समझ लिया जाए। विनाश की घटाओं को प्रचण्ड तूफानी प्रवाह अगले दिनों उड़ाकर कहीं ले जाएगा और अँधेरा चीरते हुए प्रकाश से भरा वातावरण दृष्टिगोचर होगा। यह ऋषियों के पराक्रम से ही सम्भावित है, इसमें कुछ दृश्यमान व कुछ परोक्ष भूमिका हमारी भी हो सकती हैं।
यह मानकर चलना चाहिए कि सामान्य स्तर के लोगों की इच्छाशक्ति भी काम करती है। जनमत का भी दबाव पड़ता है। जिन लोगों के हाथ में इन दिनों विश्व की परिस्थितियाँ बिगाड़ने की क्षमता है, उन्हें जागृत लोकमत के सामने झुकना ही पड़ेगा। लोकमत को जागृत करने का अभियान ‘‘प्रज्ञा-आन्दोलन’’ द्वारा चल रहा है। यह क्रमशः बढ़ता और सशक्त होता जाएगा। इसका दबाव हर प्रभावशाली क्षेत्र की समर्थ व्यक्तियों पर पड़ेगा और उनका मन बदलेगा कि अपने कौशल-चातुर्य को विनाश की योजनाएँ बनाने की अपेक्षा विकास के निमित्त लगाना चाहिए। प्रतिभा एक महान शक्ति है। वह जिधर भी अग्रसर होती है, उधर ही चमत्कार प्रस्तुत करती जाती है।
वर्तमान समस्याएँ एक दूसरे से गुँथी हुईं हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा युद्ध सामग्री का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी आपदाएँ। एक को सुलझा लिया जाए और बाकी सब उलझी पड़ी रहें, ऐसा नहीं हो सकता। समाधान एक मुश्त खोजने पड़ेंगे और यदि इच्छा सच्ची है, तो उनके हल निकल कर ही रहेंगे।
शक्तियों में दो ही प्रमुख हैं। इन्हीं के माध्यम से कुछ बनता या बिगड़ता है। एक शस्त्रबल-धनबल। दूसरा बुद्धि बल-संगठन बल। पिछले बहुत समय से शस्त्र बल और धन बल के आधार पर मनुष्य को गिराया और अनुचित रीति से दबाया और जो मन में आया सो कराया जाता रहा है। यही दानवी शक्ति है। अगले दिनों दैवी शक्ति को आगे आना है और बुद्धिबल तथा संगठन बल का प्रभाव अनुभव कराना है। सही दिशा में चलने पर यह दैवी सामर्थ्य क्या कुछ दिखा सकती है, इसकी अनुभूति सबको करानी है।
न्याय की प्रतिष्ठा हो, नीति को सब ओर से मान्यता मिले, सब लोग हिल-मिलकर रहें और मिल बाँटकर खाएँ, इस सिद्धान्त को जन भावना द्वारा सच्चे मन से स्वीकारा जाएगा, तो दिशा मिलेगी, उपाय सूझेंगे, नई योजनाएँ बनेंगी, प्रयास चलेंगे और अन्ततः लक्ष्य तक पहुँचने का उपाय बन ही जाएगा।
‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ यह दो ही सिद्धान्त ऐसे हैं, जिन्हें अपना लिए जाने के उपरान्त तत्काल यह सूझ पड़ेगा कि इन दिनों किन अवांछनीयताओं को अपनाया गया है और उन्हें छोड़ने के लिए क्या साहस अपनाना पड़ेगा, किस स्तर का संघर्ष करना पड़ेगा? मनुष्य की सामर्थ्य अपार है। वह जिसे करने की यदि ठान ले और औचित्य के आधार पर अपना ले तो कोई कठिन कार्य ऐसा नहीं है, जिसे पूरा न किया जा सके।
अगले दिनों एक विश्व, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति का प्रावधान बनने जा रहा है। जाति, लिंग, वर्ण और धन के आधार पर बरती जाने वाली विषमता का अन्त समय अब निकट आ गया। इसके लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वह सूझेगा भी और विचारशील लोगों के द्वारा पराक्रमपूर्वक किया भी जाएगा। यह समय निकट है। इसकी हम सब उत्सुकता से प्रतीक्षा कर सकते हैं।
जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
बड़ी और कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही किसी की महिमा और गरिमा का पता चलता है। प्रतिस्पर्धाओं में उत्तीर्ण होने पर ही पदाधिकारी बना जाता है। खेलों में बाजी मारने वाले ही पुरस्कार पाते हैं। खरे सोने की पहचान अग्नि में तपाने और कसौटी पर कसने से ही होती है। हीरा इसीलिए कीमती माना जाता है कि वह साधारण आरी या रेती से कटता नहीं है। मोर्चे फतह करके लौटने वाले सेनापति ही सम्मान पाते और विजय श्री का वरण करते हैं।
चुनौतियाँ स्वीकार करने वाले ही साहसी कहलाते हैं। उन्हें अपनी वरिष्ठता भयानक कठिनाइयों को पार करके ही सिद्ध करनी पड़ती है। योगी, तपस्वी जानबूझकर कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाते हैं। कृष्ण की गरिमा को जिनने जाना वे दुर्दान्त उन्हें बर्बाद करने के लिए आरम्भ से ही अपनी आक्रामकता का प्रदर्शन करते रहे। बकासुर, अघासुर, कालिया सर्प, कंस आदि अनेकों के आघातों का सामना करना पड़ा। पूतना तो जन्म के समय ही विष देने आई थी। आगे भी जीवन भर उन्हें संघर्षों का सामना करना पड़ा। महानता का मार्ग ऐसा ही है जिस पर चलने और बढ़ने वाले को पग-पग पर खतरे उठाने पड़ते हैं। दधीचि, भागीरथ, हरिश्चन्द्र और मोरध्वज आदि की महिमा उनके तप-त्याग के कारण ही उजागर हुई।
भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। भगवान् का प्यार बाजीगरी जैसे चमत्कार देखने-दिखाने में नहीं है। मनोकामनाओं की पूर्ति भी वहाँ नहीं होती।
हमारे निजी जीवन में भगवत् कृपा निरन्तर उतरती रही है। चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण करने का अत्यन्त कठोर साधना क्रम उन्हीं दिनों से लाद दिया गया जब दुधमुँही किशोरावस्था भी पूरी नहीं हो पाई थी। इसके बाद संगठन, साहित्य, जेल, परमार्थ के एक से एक बढ़कर कठिन काम सौंपे गए। साथ ही यह भी जाँचा जाता रहा कि जो किया गया, वह स्तर के अनुरूप बन पड़ा या नहीं। बड़ी प्रवंचना के सहारे संसारी ख्याति अर्जित करने की विडम्बना तो नहीं रचाई गई है। आद्यशक्ति गायत्री को युग शक्ति के रूप में विकसित और विस्तृत करने के दायित्व को सौंपकर वह जान लिया गया कि एक बीज ने अपने को गलाकर नये २४ लाख सहयोगी-समर्थक किस प्रकार बना लिए? उनके द्वारा २४०० प्रज्ञापीठें विनिर्मित कराने से लेकर सतयुगी वातावरण बनाने और प्रयोग परीक्षणों की शृंखला अद्भुत-अनुपम स्तर तक की बना लेने में आत्म समर्पण ही एक मात्र आधारभूत कारण रहा। सस्ता ईंधन ज्वलन्त ज्वाला बनकर धधकता है तो इसका कारण ईंधन का अग्नि में समर्पित हो जाना ही माना जा सकता है।
अब जबकि ७५ वर्षों में से प्रत्येक को इसी प्रकार तपते-तपाते बिता लिया तो एक बड़ी कसौटी सिर पर लदी। इसमें नियन्ता की निष्ठुरता नहीं खोजी जानी चाहिए, वरन यही सोचा जाना चाहिए कि उसकी दी हुई प्रखरता के परीक्षण क्रम में अधिक तेजी लाने की बात उचित समझी गई।
हीरक जयन्ती के वसन्त पर्व पर अन्तरिक्ष से दिव्य सन्देश उतरा। उसमें ‘लक्ष्य’ शब्द था और पाँच उँगलियों का संकेत। यों यह एक पहेली थी, पर उसे सुलझाने में देर नहीं लगी। प्रजापति ने देव, दानव और मानवों का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें एक शब्द का उपदेश दिया था—‘‘द’’। तीनों चतुर थे। उनने संकेत का सही अर्थ अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप निकाल लिया। कहा गया था—‘‘द’’। देवताओं ने दमन (संयम), दैत्यों ने दया, मानवों ने दान के रूप में उस संकेत का भाष्य किया, जो सर्वथा उचित था।
एक-एक लाख की पाँच शृंखलाएँ सँजोने का संकेत हुआ। उसका तात्पर्य है—कली से कमल बनने की तरह खिल पड़ना। अब हमें इस जन्म की पूर्णाहुति में पाँच हव्य सम्मिलित करने पड़ेंगे, वे इस प्रकार हैंः
१. एक लाख कुण्डों का गायत्री यज्ञ।
२. एक लाख युग सृजेताओं को उभारना तथा शक्तिशाली प्रशिक्षण करना।
३. एक लाख अशोक वृक्षों का आरोपण।
४. एक लाख ग्रामतीर्थों की स्थापना।
५. एक लाख वर्ष का समयदान-संचय।
यों पाँचों कार्य एक-से-एक कठिन प्रतीत होते हैं और सामान्य मनुष्य की शक्ति से बाहर, किन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं। वे सम्भव भी हैं और सरल भी। आश्चर्य इतना भर है कि देखने वाले उसे अद्भुत और अनुपम कहने लगें।
१-एक लाख गायत्री यज्ञ— वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों में से प्रत्येक को अपना जन्मदिवसोत्सव अपने आँगन में मनाना होगा। उसमें एक छोटी चौकोर वेदी बनाकर गायत्री मन्त्र की १०८ आहुतियाँ तो देनी ही होंगी। इसके साथ ही समयदान-अंशदान की प्रतिज्ञा को निबाहते रहने की शपथ भी लेनी होगी। अभ्यास में समाए हुए दुर्गुणों में से कम-से-कम एक को छोड़ना और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए न्यूनतम एक कदम उठाना होगा। इस प्रकार अंशदान से झोला पुस्तकालय चलने लगेगा और शिक्षितों को युग साहित्य पढ़ने तथा अशिक्षितों को सुनाने की विधि-व्यवस्था चल पड़ेगी। अपनी कमाई का एक अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाते रहने से वे सभी कार्य प्रायः चल पड़ेंगे, जिनके लिये प्रज्ञा मिशन द्वारा सभी प्रज्ञा-संस्थानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
हर गायत्री यज्ञ के साथ ज्ञानयज्ञ जुड़ा हुआ है। कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, पड़ोसी आदि को अधिक संख्या में इस अवसर पर बुलाना चाहिए और ज्ञानयज्ञ के रूप में सुगम संगीत के अनुरूप प्रवचन करने की व्यवस्था बनानी चाहिए। यज्ञवेदी का मण्डप सूझ-बूझ और उपलब्ध सामग्री से सजाया जा सकता है। वेदी को लीपा-पोता जाए और चौक-पूर कर सजाया जाए, तो वह देखने में सहज आकर्षक बन जाती है। मन्त्रोच्चार सभी मिल-जुलकर करें। हवन सामग्री के रूप में यदि सुगन्धित द्रव्य न मिल सके तो गुड़ और घी से छोटे बेर जैसी गोली बनाई जा सकती हैं। १०८ गोलियों में १०८ आहुतियाँ हो जाती हैं। इससे सब घर का वातावरण एवं वायुमण्डल शुद्ध होता है। एक स्थान पर १ लाख कुण्ड का यज्ञ करने से उसका प्रभाव सीमित क्षेत्र में रहेगा किन्तु यदि एक लाख घरों में १ लाख गुणा १०८ लगभग एक करोड़ आहुतियों का यज्ञ हो जाएगा। यह न्यूनतम है। इससे अधिक हो सके, तो संख्या २४० तक बढ़ाई जा सकती है। आतिथ्य में कुछ खर्च करने की मनाही है, इसलिए हर गरीब-अमीर के लिए यह सुलभ है। महत्त्व को देखते हुए वह छोटी सी प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ हो सकती है।
युगसन्धि सन् २००० तक है। अभी उसमें प्रायः १४ वर्ष हैं। हर साल इतने जन्मदिन भी मनाए जाते रहें तो १ लाख कार्यकर्ताओं के जन्मदिन १ लाख यज्ञों में होते रहेंगे। देखा-देखी इसका विस्तार होता चले, तो हर वर्ष कई लाख यज्ञ और कई करोड़ आहुतियाँ हो सकती हैं। इससे वायुमण्डल और वातावरण दोनों का ही संशोधन होगा, साथ ही जनमानस का परिष्कार करने वाली अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ इन अवसरों पर लिए गए अंशदान-समयदान संकल्प के आधार पर सुविकसित होती चलेंगी।
२-एक लाख को संजीवनी-विद्या का प्रशिक्षण— शान्तिकुञ्ज की नई व्यवस्था इस प्रकार की जानी है कि जिसमें ५०० आसानी से और १००० ठूँस-ठूँस कर नियमित रूप से शिक्षार्थियों का प्रशिक्षण होता रह सकता है। इस प्रशिक्षण में व्यक्ति का निखार, प्रतिभा का उभार, परिवार सुसंस्कारिता, समाज में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन जैसे महत्त्वपूर्ण पाठ नियमित पढ़ाए जाएँगे। आशा की गई है कि इस स्वल्प अवधि में भी जो पाठ्यक्रम हृदयंगम कराया जाएगा, जो प्राण-प्रेरणा भरी जाएगी वह प्रायः ऐसी होगी जिसे साधना का, तत्त्वज्ञान का सार कह सकते हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस संजीवनी विद्या को जो साथ लेकर वापिस लौटेंगे, वे अपना काया-कल्प अनुभव करेंगे और साथ ही ऐसी लोक नेतृत्त्व क्षमता सम्पादित करेंगे, जो हर क्षेत्र में हर कदम पर सफलता प्रदान कर सके। यह प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में पाँच सूत्री योजना का संचालन एवं प्रशिक्षण करेंगे।
मिशन की पत्रिकाओं के पाठक तो ग्राहकों की तुलना में पाँच गुने अधिक हैं। पत्रिका न्यूनतम पाँच व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है। इसी प्रकार प्रज्ञा परिवार की संख्या प्रायः २४-२५ लाख हो जाती है। इनमें जो नर-नारी शिक्षित वर्ग के हैं। सभी को इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किया गया है। २५ पीछे एक शिक्षार्थी मिले तो उनकी संख्या एक लाख हो जाती है। युग सन्धि की अवधि में इतने शिक्षार्थी विशेष रूप से लाभ उठा चुके होंगे। इन्हें मात्र स्कूली विद्यार्थी नहीं माना जाना चाहिए, वरन् जिस उच्चस्तरीय ज्ञान को सीखकर वे लौटेंगे उससे यह आशा कि जा सकती है कि उनका व्यक्तित्व महामानव स्तर का युग नेतृत्व की प्रतिभा से भरा-पूरा होगा।
वह शिक्षण मई १९८६ से आरम्भ हुआ है। उसकी विशेषता यह है कि शिक्षार्थियों के लिए निवास, प्रशिक्षण की तरह भोजन भी निःशुल्क है। इस मद में स्वेच्छा से कोई कुछ दे तो अस्वीकार भी नहीं किया जाता, पर गरीब-अमीर का भेद करने वाली शुल्क परिपाटी को इस प्रशिक्षण में प्रवेश नहीं करने दिया गया है। अभिभावक और अध्यापक की दुहरी भूमिका प्राचीनकाल के विद्यालय निभाया करते थे, इस प्रयोग को भी उसी प्राचीन विद्यालय प्रणाली का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।
जीवन की बहुमुखी समस्याओं का समाधान, प्रगति पथ पर अग्रसर होने के रहस्य भरे तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त इसी अवधि में भाषण, कला, सुगम-संगीत, जड़ी-बूटी उपचार, पौरोहित्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, गृह-उद्योगों का सूत्र संचालन भी सम्मिलित रखा गया है ताकि उससे परोक्ष और प्रत्यक्ष लाभ अपने तथा दूसरों के लिए उपलब्ध किया जा सके।
अनुमान है कि अगले १४ वर्षों में एक लाख छात्रों के उपरोक्त प्रशिक्षण पर भारी व्यय होगा। प्रायः एक करोड़ भोजन व्यय में ही चला जाएगा। इमारत की नई रद्दोबदल, फर्नीचर, बिजली आदि के जो नए खर्च बढ़ेंगे, वे भी इससे कम न होंगे। आशा की गई है कि बिना याचना किए भारी खर्च को वहन कर अब तक निभा व्रत आगे भी निभता रहेगा और यह संकल्प भी पूरा होकर रहेगा। २५ लाख का इस उच्चस्तरीय शिक्षण में सम्मिलित होना तनिक भी कठिन नहीं; किन्तु फिर भी प्रतिभावानों को प्राथमिकता देने की जाँच-पड़ताल करनी पड़ी है और प्रवेशार्थियों से उनका सुविस्तृत परिचय पूछा गया है।
३-एक लाख अशोक वृक्षों का वृक्षारोपण— वृक्षारोपण का महत्त्व सर्वविदित है। बादलों से वर्षा खींचना, भूमि-कटाव रोकना, भूमि की उर्वरता बढ़ाना, प्राणवायु का वितरण, प्रदूषण का अवशोषण, छाया, प्राणियों का आश्रय, इमारती लकड़ी, ईंधन आदि अनेकों लाभ वृक्षों के कारण इस धरत्री को प्राप्त होते हैं। धार्मिक और भौतिक दृष्टि से वृक्षारोपण को एक उच्चकोटि का पुण्य परमार्थ माना गया है।
वृक्षों में अशोक का अपना विशेष महत्त्व है। इसका गुणगान सम्राट अशोक जैसा किया जा सकता है। सीता को आश्रय अशोक वाटिका में ही मिला था। हनुमान जी ने भी उसी के पल्लवों में आश्रय लिया था। आयुर्वेद में यह महिला रोगों की अचूक औषधि कहा गया है। पुरुषों की बलिष्ठता और प्रखरता बढ़ाने की उसमें विशेष शक्ति है। साधना के लिए अशोक वन के नीचे रहा जा सकता है। शोभा तो उसकी असाधारण है ही। यदि अशोक के गुण सर्वसाधारण को समझाए जाएँ तो हर व्यक्ति का अशोक वाटिका बना सकना न सही पर घर-आँगन, अड़ोस-पड़ोस में उसके कुछ पेड़ तो लगाने और पोसने में समर्थ वे हो ही सकते हैं।
एक लाख अशोक वृक्ष लगाने का संकल्प पूरा करने में यदि प्रज्ञा परिजन उत्साह पूर्वक प्रयत्न करें तो इतना साधारण निश्चय इतने बड़े जन समुदाय के लिए तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए। उसकी पूर्ति में कोई अड़चन दीखती भी नहीं है। उन्हें देवालय की प्रतिष्ठा दी जाएगी। बिहार के हजारी किसान ने हजार आम्र-उद्यान निज के बलबूते खड़े करा दिए थे, तो कोई कारण नहीं कि एक लाख अशोक वृक्ष लगाने का उद्देश्य पूरा न हो सके। इनकी पौध शान्तिकुञ्ज से देने का निश्चय किया गया है और हर प्रज्ञापुत्र को कहा गया है कि वह अशोक वाटिका लगाने-लगवाने में किसी प्रकार की कमी न रहने दें। उसके द्वारा वायुशोधन का होने वाला कार्य शाश्वत शास्त्र सम्मत यज्ञ के समतुल्य ही समझें। अग्निहोत्र तो थोड़े समय ही कार्य करता है, पर यह पुनीत वृक्ष उसी कार्य को निरन्तर चिरकाल तक करता रहता है।
४-हर गाँव एक युग तीर्थ— जहाँ श्रेष्ठ कार्य होते रहते हैं, उन स्थानों की अर्वाचीन अथवा प्राचीन गतिविधियों को देखकर आदर्शवादी प्रेरणा प्राप्त होती है, ऐसे स्थानों को तीर्थ कहते हैं। जिन दर्शनीय स्थानों की श्रद्धालु जन तीर्थयात्रा करते हैं, उन स्थानों एवं क्षेत्रों के साथ कोई ऐसा इतिहास जुड़ा है, जिससे संयमशीलता, सेवा भावना का स्वरूप प्रदर्शित होता है। प्रस्तुत तीर्थों में कभी ऋषि आश्रम रहे हैं। गुरुकुल आरण्यक चले हैं और परमार्थ सम्बन्धी विविध कार्य होते रहे हैं।
इन दिनों प्रख्यात तीर्थ थोड़े से ही हैं। वहाँ पर्यटकों की धकापेल भर रहती है। पुण्य प्रयोजनों का कहीं अता-पता नहीं है। इन परिस्थितियों में तीर्थ भावना को पुनर्जीवित करने के लिए सोचा यह गया है कि भारत के प्रत्येक गाँव को एक छोटे तीर्थ के रूप में विकसित किया जाए। ग्राम से तात्पर्य यहाँ शहरों से द्वेष या उपेक्षा भाव रखना नहीं है, वरन पिछड़ेपन की औसत रेखा से नीचे वाले वर्ग को प्रधानता देना है। मातृभूमि का हर कण देवता है, गाँव और झोंपड़ा भी। आवश्यकता इस बात की है कि उन पर छाया पिछड़ापन धो दिया जाए और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना की जाए। इतने भर से वहाँ बहुत कुछ उत्साहवर्धक प्रेरणाप्रद और आनन्ददायक मिल सकता है। ‘‘हर गाँव—एक तीर्थ’’ योजना का उद्देश्य है—ग्रामोत्थान, ग्राम-सेवा, ग्राम-विकास। इस प्रचलन के लिए घोर प्रयत्न किया जाए और उस परिश्रम को ग्राम देवता की पूजा माना जाए। यह तीर्थ स्थापना हुई, जिसे स्थानीय निवासी और बाहर के सेवा भावी उद्बोधनकर्त्ता मिल-जुलकर पूरा कर सकते हैं। पिछड़ेपन के हर पक्ष से जूझने और प्रगति के हर पहलू को उजागर करने के लिए आवश्यक है कि गाँवों की सार्थक पद यात्राएँ की जाएँ, जन सम्पर्क साधा जाए और युग चेतना का अलख जगाया जाए।
हर गाँव को एक तीर्थ रूप में विकसित करने के लिए तीर्थयात्रा टोलियाँ निकालने की योजना है। पद यात्रा को साइकिल यात्रा के रूप में मान्यता दी है। चार साइकिल सवारों का एक जत्था पीले वस्त्रधारण किए, गले में पीला झोला लटकाए, साइकिलों पर पीले रंग के कमण्डलु टाँगे प्रवास चक्र पर निकलेगा। यह प्रवास न्यूनतम एक सप्ताह के, दस दिन के, पन्द्रह दिन के अथवा अधिक से अधिक एक महीने के होंगे। जिनका निर्धारण पहले ही हो चुका होगा। यात्रा जहाँ से आरम्भ होगी, एक गोल चक्र पूरा करती हुई वहीं समाप्त होगी। प्रातःकाल जलपान करके टोली निकलेगी। रास्ते में सहारे वाली दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखती चलेगी। छोटी बाल्टियों में रंग घुला होगा। सुन्दर अक्षर लिखने का अभ्यास पहले से ही कर लिया गया होगा।
१. हम बदलेंगे—युग बदलेगा।
२. हम सुधरेंगे—युग सुधरेगा।
३. नर और नारी एक समान—जाति वंश सब एक समान।
वाक्यों की प्रकाशित शृंखलाएँ जो जहाँ उपयुक्त हों, वहाँ उन्हें ब्रुश से लिखते चलना चाहिए।
रात्रि को जहाँ ठहरना निश्चय किया हो, वहाँ शंख-घड़ियालों से गाँव की परिक्रमा लगाई जाए और घोषणा की जाए कि अमुक स्थान पर तीर्थयात्री मण्डली के भजन-कीर्तन होंगे।
गाँव में एक दिन के कीर्तन में जहाँ सुगम संगीत से उपस्थित जनों को आह्लादित किया जाएगा, वहाँ उन्हें यह भी बताया जाएगा कि गाँव को सज्जनता और प्रगति की प्रतिमूर्ति बनाया जा सकता है। प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कारशाला, स्वच्छता, व्यायामशाला, घरेलू शाक वाटिका, परिवार नियोजन, नशाबन्दी, मितव्ययिता, सहकारिता, वृक्षारोपण आदि सत्प्रवृत्तियों की महिमा और आवश्यकता बताते हुए यह बताया जाए कि इन सत्प्रवृत्तियों को मिलजुलकर किस प्रकार कार्यान्वित किया जा सकता है और उन प्रयत्नों का कैसे भरपूर लाभ उठाया जा सकता है।
सम्भव हो तो सभा के अन्त में उत्साही प्रतिभा वाले लोगों की एक समिति बना दी जाए जो नियमित रूप से समयदान-अंशदान देकर इन सत्प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करने में जुटे। गाँव की एकता और पवित्रता का ध्वज अशोक वृक्ष के रूप में दूसरे दिन प्रातःकाल स्थापित किया जाए। यह देव प्रतिमा उपयोगिता और भावना की दृष्टि से अतीव उपयोगी है।
इन आन्दोलनों का एक लाख गाँवों में विस्तार हेतु शान्तिकुञ्ज ने पहला कदम बढ़ाया है। इसके लिए संचालन केन्द्रों की स्थापना की गई है। वहाँ चार-चार नई साइकिलें, चार छोटी बाल्टियाँ, बिस्तरबन्द, संगीत उपकरण, साहित्य आदि साधन जुटाए गए हैं। इनके सहारे यात्रा की सभी आवश्यक वस्तुएँ एक ही स्थान पर मिल जाती हैं और कुछ ही दिनों की ट्रेंनिंग के उपरान्त समयदानियों की टोली आगे बढ़ चलती है। कार्यक्रम की सफलता तब सोची जाएगी जब कम से कम एक नैष्ठिक सदस्य उस गाँव में बने और समयदान और अंशदान नियमित रूप से देते हुए झोला पुस्तकालय चलाने लगे। यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनाई जाएगी, वहीं एक उपयोगी संगठन बढ़ने लगेगा और उसके प्रयास से गाँव की सर्वतोमुखी प्रगति का उपक्रम चल पड़ेगा। यही है तीर्थ-भावना—तीर्थ स्थापना। इसके लिए एक हजार ऐसे केन्द्र स्थापित करने की योजना है, जहाँ उपरोक्त तीर्थ यात्राओं का सारा सरंजाम सुरक्षित रहे। समयदानी तीर्थयात्री प्रशिक्षित किए जाते रहें और एक टोली का एक प्रवास चक्र पूरा होते-होते दूसरी टोली तैयार कर ली जाए और उसे दूसरे गाँव के भ्रमण प्रवास पर भेज दिया जाए। सोचा गया है कि पचास-पचास मील चारों दिशाओं में देखकर एक तीर्थ मण्डल बना लिया जाए, उनमें जितने भी गाँव हों, उन में वर्ष में एक या दो बार परिभ्रमण होता रहे।
देश में सात लाख गाँव हैं, पर अभी वर्तमान सम्भावना और स्थिति को देखते हुए एक लाख गाँव ही हाथ में लिए गए हैं। २४ लाख प्रज्ञा परिजन एक लाख गाँवों में बिखरे होंगे। उनकी सहायता से यह कार्यक्रम सरलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। इसके बाद वह हवा समूचे देश को भी अपनी पकड़ में ले सकती है। क्रमिक गति से चलना और जितना सम्भव है, उतना तत्काल करते हुए आगे की योजना को विस्तार देते हुए चलना, यही बुद्धिमत्ता का कार्य है।
५-एक लाख वर्ष का समयदान— जितने विशालकाय एवं बहुमुखी युग परिवर्तन की कल्पना की गई है, उसके लिए साधनों की तुलना में श्रम-सहयोग की कहीं अधिक आवश्यकता पड़ेगी। मात्र साधनों से काम चला होता, तो अरबों-खरबों खर्च करने वाली सरकारें इस कार्य को भी हाथ में ले सकती थीं। धनी-मानी लोग भी कुछ तो कर ही सकते थे, पर इतने भर से काम नहीं चलता। भावनाएँ उभारना और अपनी प्रामाणिकता, अनुभवशीलता, योग्यता एवं त्याग भावना का जनसाधारण को विश्वास दिलाना, यही वे आवश्यकताएँ हैं, जिनके कारण लोकहित के कार्यों में दूसरों को प्रोत्साहित किया और लगाया जा सकता है, अन्यथा लम्बा वेतन और भरपूर सुविधाएँ देकर भी यह नहीं हो सकता है कि पिछड़ी हुई जनता को आदर्शवादी चरण उठाने के लिए तत्पर किया जा सके। जला हुआ दीपक ही दूसरे को जला सकता है। भावनाशीलों ने ही भावना उभारने में सफलता प्राप्त की है। सृजनात्मक कार्यों में सदा कर्मवीर अग्रदूतों की भूमिका सफल होती है।
बात पर्वत जैसी भारी किन्तु साथ ही राई जितनी सरल भी है। व्यक्ति औसत नागरिक स्तर स्वीकार कर ले और परिवार को स्वावलम्बी-सुसंस्कारी बनाने भर की जिम्मेदारी वहन करे तो समझना चाहिए कि सेवा-साधना के मार्ग में जो अड़चन थी, सो दूर हो गई। मनोभूमि का इतना सा विकास-परिष्कार कर लेने पर कोई भी विचारशील व्यक्ति लोक-सेवा के लिए युग परिवर्तन हेतु ढेरों समय निकाल सकता है। प्राचीन काल में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सद्गृहस्थ ऐसा साहस करते और कदम उठाते थे। गुरुगोविन्द सिंह ने अपने शिष्य समुदाय में से प्रत्येक गृहस्थ से बड़ा बेटा सन्त-सिपाही बनने के लिए माँगा था। वे मिले भी थे और इसी कारण सिखों का भूतकालीन इतिहास बिजली जैसा चमकता था। देश की रक्षा प्रतिष्ठा के लिए असंख्यों ने जानें गँवाईं और भारी कठिनाइयाँ सहीं। यही परम्परा गाँधी और बुद्ध के समय में भी सक्रिय हुई थी। विनोबा का सर्वोदय आन्दोलन इसी आधार पर चला था। स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द आदि ने समाज को अनेकानेक उच्चस्तरीय कार्यकर्ता प्रदान किए थे। आज वही सबसे बड़ी आवश्यकता है। समय की माँग ऐसे महामानवों की है, जो स्वयं बढ़ें और दूसरों को बढ़ाएँ।।
माना कि आज स्वार्थपरता, संकीर्णता और क्षुद्रता ने मनुष्य को बुरी तरह घेर रखा है, तो भी धरती को वीर विहीन नहीं कहा जा सकता। ६० लाख साधु बाबा यदि धर्म के नाम पर घर बार छोड़कर मारे-मारे फिर सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि मिशन की एक लाख वर्ष की समयदान की माँग पूरी न हो सके। एक व्यक्ति यदि दो घण्टे रोज समयदान दे सके तो एक वर्ष में ७२० घण्टे होते हैं। ७ घण्टे का दिन माना जाए तो यह पूरे १०३ दिन एक वर्ष में हो जाते हैं। यह संकल्प कोई २० वर्ष की आयु में ले और ७० का होने तक ५० वर्ष निबाहे तो कुल दिन ५ हजार दिन हो जाते हैं, जिसका अर्थ हुआ प्रायः १४ वर्ष। एक लाख वर्ष का समय पूरा करने के लिए ऐसे १०००००/१४=७१४३ कुल इतने से व्यक्ति अपने जीवन में ही एक लाख वर्ष की समयदान याचना को पूर्ण कर सकते हैं। यह तो एक छोटी गणना हुई। मिशन में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जो साधु-ब्राह्मणों जैसा परमार्थ परायण जीवन अभी भी जी रहे हैं और अपना समय पूरी तरह युग परिवर्तन की प्रक्रिया में नियोजित किए हुए हैं। ऐसे ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी हजारों की संख्या में अभी भी हैं। उनका पूरा समय जोड़ लेने पर तो वह गणना एक लाख वर्ष से कहीं अधिक की पूरी हो जाती है।
बात इतने तक सीमित नहीं है। प्रज्ञा परिवार के ऐसे कितने ही उदारचेता हैं, जिनने हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में समयदान के आग्रह और अनुरोध को दैवी निर्देशन माना है और अपनी परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए एक वर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक का समय एक मुश्त दिया है। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो प्रवास पर तो नहीं जा सके, पर घर पर रहकर ही आए दिन मिशन की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने के लिए समय देते रहेंगे, स्थानीय गतिविधियों तक ही सीमित रहकर समीपवर्ती कार्यक्षेत्र को भी सँभालते रहेंगे।
पुरुषों की तरह महिलाएँ भी इस समयदान यज्ञ में भाग ले सकती हैं। शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के श्रम ऐसे हैं, जिन्हें अपनाकर वे महिला समाज में शिक्षा-सम्वर्धन जैसे अनेकों काम कर सकती हैं। अशिक्षित महिलाएँ तक घरों में शाक-वाटिका लगाने जैसा काम कर सकती हैं। जिनके पीछे पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं हैं, शरीर से स्वस्थ मन से स्फूर्तिवान् हैं, वे शान्तिकुञ्ज के भोजनालय विभाग में काम कर सकती हैं और यहाँ के वातावरण में रहकर आशातीत सन्तोष भरा जीवन बिता सकती हैं।
कार्यक्रमों में प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक अनेक कार्य हैं, जिन्हें घर से बाहर रहते हुए परिस्थितियों के अनुरूप कार्यान्वित किया जा सकता है। प्रचारात्मक स्तर के कार्य—१-झोला पुस्तकालय, २-ज्ञान रथ, ३-स्लाइड प्रोजेक्टर प्रदर्शन, टेपरिकार्डर से युग संगीत एवं युग संदेश को जन-जन तक पहुँचाना, ४-दीवार पर आदर्श वाक्य लिखना, ५-साइकिलों वाली धर्म प्रचार पद यात्रा योजना में सम्मिलित होना। संगीत, साहित्य, कला के माध्यम से बहुत कुछ हो सकता है। साधन दान से भी अनेकों सत्प्रवृत्तियों का पोषण हो सकता है। रचनात्मक कार्यों में—१-प्रौढ़ शिक्षा—पुरुषों की रात्रि पाठशाला, महिलाओं की अपराह्न पाठशाला। २-बाल संस्कारशाला। ३-व्यायामशाला। ४-स्वच्छता सम्वर्धन। ५-वृक्षारोपण आदि। सुधारात्मक कार्यों में अवांछनीयता, अनैतिकता, अन्धविश्वास आदि का उन्मूलन प्रमुख है। १-जातिगत ऊँच-नीच, २-पर्दा प्रथा, ३-दहेज, ४-नशेबाजी, ५-फैशन के नाम पर अपव्यय, बाल विवाह, बहु प्रजनन आदि के उन्मूलन में सामर्थ्य भर प्रयत्न करना। इसके अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्हें कार्यान्वित करने के लिए हर क्षेत्र और हर स्थिति में गुंजायश हैं। जिन्हें नवसृजन के लिए समय देना हैं, उन्हें अपनी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप कोई काम चुन या पूछ लेना चाहिए। यह सभी कार्य प्रगति प्रयास समयदान से सम्बन्धित हैं।
एक व्यक्ति का एक लाख वर्ष का समय यों सुनने-कहने में बहुत अधिक प्रतीत होता है, किन्तु जब सब परिजन मिलजुलकर इसकी पूर्ति करने पर कटिबद्ध होते हैं, तो हर परिजन के हिस्से में थोड़ा ही आता है।
६-बड़े अनुदान-बड़े वरदान—फुन्सी का मवाद घरेलू सुई चुभोकर भी निकाला जा सकता है, पर मस्तिष्क या हृदय में घुसी गोली को निकालने के लिए कुशल सर्जन और बहुमूल्य उपकरणों की जरूरत पड़ती है। मकड़ी का पेट एक मक्खी से भर जाता है, पर हाथी को मनों गन्ना रोज चाहिए। घोंघे जलाशय की तली में जा बैठते हैं, पर समुद्र सोखने के लिए अगस्त्य ऋषि जैसे चुल्लू चाहिए। कुएँ से घड़ा भरकर पानी कोई भी निकाल सकता है, पर स्वर्ग से गंगा का अवतरण धरती पर करने के लिए भागीरथ जैसा तप और शिव जटाओं का आधार चाहिए। वृत्तासुर वध के लिए ऋषि दधीचि की ऊर्जामयी अस्थियों से वज्र बनाना पड़ा था। छोटे काम साधारण मनुष्यों की साधारण हलचलों से स्वल्प साधनों से बन पड़ते हैं, पर महान् कार्यों के लिए महान् व्यवस्था बनानी पड़ती है। धरती की प्यास बादल बुझाने और समुद्र की सतह यथावत बनाए रहने के लिए सहस्रों नदियों की असीम जलराशि का निरन्तर समर्पित होते रहना आवश्यक है।
परिवर्तन और निर्माण दोनों ही कष्टसाध्य हैं। भ्रूण जब शिशु रूप में धरती पर आता है तो प्रसव पीड़ा के साथ होने वाला खून-खच्चर दिल दहला देता है। प्रस्तुत परिस्थितियों के दृश्य और अदृश्य दोनों ही पक्ष ऐसे हैं, जिनके कण-कण से महाविनाश का परिचय मिलता है। समय की आवश्यकताएँ इतनी बड़ी है जिन्हें पूरा करने के लिए बहुतों को बहुत कुछ करना चाहिए। विनाश से निपटने और विकास प्रत्यक्ष करने के लिए असामान्य व्यक्तित्व, असामान्य कौशल और असीम साधन चाहिए। इतने असीम जिन्हें जुटा सकना किसी व्यक्ति या समुदाय के लिए कठिन है। उस सारे सरंजाम को जुटाना मात्र परमेश्वर के हाथ है। हाँ इतना अवश्य है कि निराकार को साकार जीवधारियों में नियोजित रणनीति की और कौशल भरी व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। सो भी बड़े परिमाण में। ऐसे कार्यों का संयोजन तो सृष्टा की विधि व्यवस्था ही करती है, पर उसका श्रेय श्रद्धावान साहसियों को मिल जाता है। हनुमान और अर्जुन की शक्ति उनकी निज की उपार्जित नहीं थी, वे सृष्टा का काम करते हुए उसी की सामर्थ्य को प्राप्त कर सके। अर्जुन को सारथी का यदि समर्थन न रहा होता, तो महाभारत कैसे जीता जाता? हनुमान स्वयं बलवान रहे होते तो सुग्रीव सहित ऋष्यमूक पर्वत पर छिपे-छिपे न फिरते। समुद्र छलांगने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़ने की सामर्थ्य उन्हें धरोहर में इसलिए मिली थी कि वह राम काज में समर्पित हों। यदि निजी मनोवाँछनाओं के लिए किसी भक्त ने माँगा है तो नारद मोह के समय पर मिले उपहास की तरह तिरस्कृत होना पड़ा है।
महान् परिवर्तन के साथ जुड़े हुए नवसृजन का उभय पक्षीय कार्य ऐसा है कि जिसे सम्पन्न किए जाने के लिए उतने साधन चाहिए जिनका विवरण शब्दों में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। वह जुटाए जाने हैं, जुटेंगे भी।
अभीष्ट प्रयोजन की महानता को समग्र रूप से आँका जाना कठिन है। इसकी किस्तें ही शृंखला की कड़ियों की तरह प्रादुर्भूत होती हैं। प्रस्तुत संकट या संकल्प इसी प्रकार का है जो अवतरण पर्व पर विगत वसन्त पंचमी को प्रकट हुआ। उस एक को पाँच भागों की सुविधा की दृष्टि से विभाजित किया गया है। १-एक लाख यज्ञ, २-एक लाख नर रत्न, ३-एक लाख अशोक वाटिका, ४-एक लाख ग्राम्य तीर्थ, ५-एक लाख वर्ष का समयदान संकलन। यह पाँचों ही काम इतने भारी लगते हैं मानों शेषनाग के सिर पर धरती का बोझ लादने वाले का अनुशासन ही प्रत्यक्ष हुआ हो। यह सभी कार्य ऐसे हैं जिन्हें मानवी सत्ता न सोच सकती है, न उसकी योजना बना सकती है और न पूरी करने का दुस्साहस ही सँजो सकती है। ये अतिमानवी कार्य हैं जिन्हें हमारे जैसा तुच्छ व्यक्ति अपने निज के बलबूते किसी भी प्रकार वहन एवं सम्पन्न नहीं कर सकता। यह परम सत्ता का कार्य है और वही बाजीगर की तरह कठपुतलियों को नचा-कुदा रही है।
अच्छा हो कि इस गोवर्धन को मिल-जुलकर उठाया जाए। अच्छा हो इस समुद्र बाँधने की कड़ी में कंकड़-पत्थर ढोने मात्र से श्रेय लूटा और यशस्वी बना जाए। प्रज्ञा परिजनों के लिए इस योजना में हाथ बँटाना उनके निज के हित में है, जो खोएँगे उससे हजार गुना अधिक पाएँगे। बीज को कुछ क्षण ही गलने का कष्ट उठाना पड़ता है। इसके उपरान्त तो बढ़ने, हरियाने और फूलने-फलने का आनन्द ही आनन्द है। वैभव ही वैभव है। स्वतन्त्रता संग्राम में जो अग्रगामी बने, वे मिनिस्टर बनने से लेकर स्वतन्त्रता सेनानियों वाली पेन्शन, सम्मान सहित प्राप्त कर सके। यह अवसर भी ऐसा ही है, जिसमें ली हुई भागीदारी मणिमुक्तकों की खदान, कौड़ी मोल खरीद लेने के समान है जिसका श्रेय, यश और वैभव सुनिश्चित है। उसे हस्तगत करने में कृपणता बरतना अदूरदर्शिता भरी कृपणता से अधिक और कुछ नहीं हो सकता।
तीन संकल्पों की महान् पूर्णाहुति
हमने जैसा कि इस पुस्तक में समय-समय पर संकेत किया है, जैसे हमारे बॉस के आदेश मिलते रहे हैं, वैसे ही हमारे संकल्प बनते, पकते व फलित होते गए हैं। सन् १९८६ वर्ष का उत्तरार्द्ध हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण सोपान है। इस वर्ष के समापन के साथ हमारे पचहत्तरवें वर्ष की हीरक जयन्ती का वह अध्याय पूरा होता है, जिनके साथ एक-एक लाख के पाँच कार्यक्रम जुड़े हुए हैं। उसकी पूर्णाहुति का समय भी आ पहुँचा है। अखण्ड ज्योति पत्रिका जो इस मिशन की प्रेरणा पुंज रही है, जिसके कारण यह विशाल परिवार बनकर खड़ा हो गया है, अपने जीवन के पचासवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। उसकी स्वर्ण जयन्ती इस उपलक्ष्य में मनायी जा रही है। तीन वर्ष से हमारी सूक्ष्मीकरण साधना चल रही है। उसे सावित्री साधना या भारतवर्ष की देवात्म-शक्ति की कुण्डलिनी जागरण साधना भी कह सकते हैं। आम साधक अपनी वैयक्तिक स्वर्ग-मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि के लिए साधना करते हैं पर हमारी साधना विशुद्धतः लोकमंगल के प्रयोजनों के निमित्त हुई है। जिससे न केवल अपने देश की गरिमा बढ़े, वरन धरती पर बिखरे अनेक अभावों, संकटों, व्यवधानों, विपत्ति भरे घटाटोपों का निराकरण भी सम्भव हो सके।
इन तीन महाअनुष्ठानों की पूर्णाहुति एक विशेष धर्मानुष्ठान के द्वारा की जा रही है। २४ लक्ष्य के २४ महापुरश्चरणों के समापन पर—पूर्णाहुति के अवसर पर सन् १९५८ में हमने १००० कुण्डीय यज्ञ किया था जो अविस्मरणीय बन गया। इस बार की तीन साधनाओं की पूर्णाहुति सारे भारत में कुल एक हजार स्थानों पर एक सौ आठ कुण्डीय यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलनों के रूप में होगी। एक वर्ष में एक हजार यज्ञों के माध्यम से एक लाख यज्ञों का संकल्प भी हमारा पूरा होगा एवं विभिन्न क्षेत्रों के वातावरण का परिशोधन करने में समृद्धि तथा प्रगति में सहायता मिलेगी।
यह न समझा जाए कि ये सभी संकेत-आदेश किसी व्यक्ति विशेष के लिए हैं, इसलिए उसे ही पूरा करना चाहिए। यहाँ यह समझ रखना चाहिए कि इतना बड़ा भार कोई एक व्यक्ति न तो उठा सकता है और न उसे लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। यह व्यक्ति वस्तुतः समुदाय है जिसे आज की स्थिति में प्रज्ञा परिवार जैसी छोटी इकाई समझा जा सकता है, किन्तु अगले दिनों यह उदार चेताओं की एक महान् बिरादरी होगी। इस यशस्वी वर्ग में सम्मिलित होना, उनके दायित्वों में हाथ बँटाना उन बड़भागियों के लिए एक अलौकिक वरदान है, जो अपने हिस्से का काम करके उपयुक्त अनुदान प्राप्त करते हैं।
युग सन्धि २००० तक चलेगी। तब तक हमें स्थूल या सूक्ष्म शरीर से सक्रिय रहना है। हमें सौंपे गए सभी कामों को पूरा करके ही जाना है। परिजन अब तक के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों में साथ देते, हाथ बँटाते और कदम से कदम मिलाकर चलते रहे हैं। विश्वास किया गया है कि इस अग्निपरीक्षा की घड़ी में वे साथ नहीं छोड़ेंगे, मुँह नहीं मोड़ेंगे। इस श्रेय साधना में सभी प्राणवानों की बराबर की भागीदारी रहेगी।
आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
साधना से उपलब्ध अतिरिक्त सामर्थ्य को विश्व के मूर्धन्य वर्गों को हिलाने-उलटने में लगाने का हमारा मन है। अच्छा होता सुई और धागे को आपस में पिरो देने वाले कोई सूत्र मिल जाते। अन्यथा सर्वथा अपरिचित रहने की स्थिति में तारतम्य बैठने में कठिनाई होगी। मूर्धन्यों में सत्ताधीश, धनाध्यक्ष, वैज्ञानिक और मनीषी वर्ग का उल्लेख है। यह सर्वोच्च स्तर के भी होंगे और सामान्य स्तर के भी। सर्वोच्च स्तर वालों की सूक्ष्मता जहाँ पैनी होती है, वहाँ वे अहंकारी और आग्रही भी कम नहीं होते। इसलिए मात्र उच्च वर्ग तक ही अपने को सीमित न रखकर हम मध्यम वृत्ति के इन चारों को भी अपनी पकड़ में ले रहे हैं ताकि बात नीचे से उठते-उठते ऊपर तक पहुँचने का भी कोई सिलसिला बने।
दूसरा वर्ग जाग्रत आत्माओं का है। इसका उत्पादन सदा से भारतभूमि में अधिक होता रहा है। महामानव, ऋषि, मनीषी, देवता यहाँ जितने जन्मे हैं, उतने अन्यत्र कहीं नहीं। यही हमारे लिए समीप भी पड़ता है। अस्तु प्रयत्न करेंगे कि जहाँ कहीं भी पूर्व संचित संस्कारों वाली आत्माएँ दृष्टिगोचर हों उन्हें समय का संदेश सुनाएँ, युगधर्म बताएँ और समझाएँ कि यह समय व्यामोह में कटौती करके, किसी प्रकार निर्वाह भर में सन्तोष करने का है। जो हस्तगत है उसे बोया, उगाया और हजार गुना बढ़ाया जाना चाहिए। हम अकेले ही उगे, बढ़े और गलकर समाप्त हो गए तो यह एक दुर्घटना होगी। एक से हजार वाली बात सोची और कही जा रही है तो उसकी प्रत्यक्ष परिणति भी वैसी ही होनी चाहिए। प्रज्ञा परिवार बड़ा है। फिर भारत भूमि की उर्वरता कम नहीं है। इसके अतिरिक्त अपनी योजना विश्वव्यापी है। उसकी परिधि में अकेला भारत ही नहीं, समूचा संसार भी आता है। अस्तु प्रयत्न यह चला है कि विचार-क्रान्ति की प्रक्रिया को परिस्थितियों के अनुरूप व्यापक बनाने के लिए जाग्रत आत्माओं का समुदाय हर क्षेत्र में हर देश में मिले। कार्य पद्धतियाँ क्षेत्रीय वातावरण के अनुरूप बनती रहेंगी, पर लक्ष्य एक ही रहेगा—'ब्रेन वाशिंग'—विचार परिवर्तन—प्रज्ञा अभियान। हम सब तीर की तरह सनसनाते हुए ही लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न करेंगे। जिनमें इस प्रकार की जीवटता होगी, वे अनुभव करेंगे कि उन्हें कोई कोंचता, कुरेदता, झकझोरता, घसीटता और बाधित करता है। यों ऐसे लोग समय की पुकार पर अन्तरात्मा की प्रेरणा से भी जग पड़ते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में मुर्गा तक बाँग लगाने के लिए उठ खड़ा होता है, तो कोई कारण नहीं कि जिनमें प्राण चेतना विद्यमान है, वे महाकाल का आमन्त्रण न सुनें ओर पेट-प्रजनन की आड़ में व्यस्तता और अभावग्रस्तता की ही बहानेबाज़ी करते रहें। समय की पुकार और हमारी मनुहार का संयुक्त प्रभाव कुछ भी न पड़े, ऐसा हो ही नहीं सकता। विश्वास किया गया है कि इस स्तर का एक शानदार वर्ग उभरकर ऊपर आएगा और सामने ही कटिबद्ध खड़ा दृष्टिगोचर होगा।
तीसरा वर्ग प्रज्ञा परिवार का है। इसमें हमारा व्यक्तिगत लगाव है। लम्बे समय से जिस-तिस बहाने साथ-साथ रहने के कारण घनिष्ठता ऐसी और इतनी बढ़ गई है कि उसका समापन किसी भी प्रकार हो सकना सम्भव नहीं। इसके कई कारण हैं। प्रथम यह कि हमें अनेक जन्मों का स्मरण है, लोगों को नहीं। जिनके साथ पूर्व जन्मों में सघन सम्बन्ध रहे हैं उन्हें संयोगवश या प्रयत्नपूर्वक हमने परिजनों के रूप में एकत्रित कर लिया है और वे जिस-तिस कारण हमारे इर्द-गिर्द जमा हो गए हैं। इन्हें अखण्ड ज्योति अपने आँचल में समेटे-बटोरे रही है। संगठन के नाम पर चलने वाले रचनात्मक कार्यक्रम भी इस सन्दर्भ में आकर्षण उत्पन्न करते रहे हैं। इसके अतिरिक्त बच्चों और अभिभावकों के बीच जो सहज वात्सल्य भरा आदान-प्रदान रहता है, वह भी चलता रहा है। बच्चे सहज स्वभाववश अभिभावकों से कुछ चाहते रहते हैं। भले ही मुँह खोलकर माँगें अथवा भाव-भंगिमा से प्रकट करते रहें। बच्चों की आकाँक्षा बढ़ी-चढ़ी होती हैं। भले ही वह उपयोगी हो या अनुपयोगी, आवश्यक हो या अनावश्यक। दे दिलाकर ही उन्हें चुपाया जाता है। इतनी समझ होती नहीं कि पैसा व्यर्थ जाने और वस्तु किसी काम न आने का तर्क उसके गले उतारा जा सके। बच्चों और अभिभावकों के बीच यह दुलार भरी खींचतान तब तक चलती रहती है, जब तक वे परिपक्व बुद्धि के नहीं हो जाते और उपयोगिता-अनुपयोगिता का अन्तर नहीं समझने लगते। हमारे साथ एक रिश्ता परिजनों का यह भी चलता रहा है।
मान्यता सो मान्यता। आदत सो आदत। प्रत्यक्ष रिश्तेदारी न सही पूर्व संचित सघनता का दबाव सही। एक ऐसा सघन सूत्र हम लोगों के बीच विद्यमान है जो विचार विनिमय, सम्पर्क-सान्निध्य तक ही सीमित नहीं रहता, कुछ ऐसा भी चाहता है कि अधिक प्रसन्नता का कोई साधन कोई अवसर हाथ लगे। कइयों के सामने कठिनाइयाँ होती हैं। कई भ्रमवश जंजाल में फँसे होते हैं। कइयों को अधिक अच्छी स्थिति चाहिए। कारण कई हो सकते हैं, पर देखा यह जाता रहा है कि अधिकाँश लोग इच्छा-आकाँक्षा लेकर आते हैं। वाणी से या बिना वाणी के व्यक्त करते हैं, साथ ही सोचते हैं कि हमारी बात यथा स्थान पहुँच गई। उसका विश्वास उन्हें तब होता है जब पूरा न सही आधा-अधूरा उपलब्ध भी हो जाता है।
याचक और दानी का रिश्ता दूसरा है, पर बच्चों और अभिभावकों के बीच यह बात लागू नहीं होती। बछड़ा दूध न पिए तो गाय का बुरा हाल होता है। मात्र गाय ही बछड़े को नहीं देती, बछड़ा भी गाय को कुछ देता है। यदि ऐसा न होता तो कोई अभिभावक बच्चे जनने और उनके लालन-पालन में समय लगाने, पैसा खर्च करने का झंझट मोल न लेते।
कहने को गायत्री परिवार, प्रज्ञा परिवार आदि नाम रखे गए हैं और उनकी सदस्यता का रजिस्टर तथा समयदान-अंशदान का अनुबन्ध भी है, पर वास्तविकता दूसरी ही है, जिसे हम सब भली-भाँति अनुभव भी करते हैं। वह है जन्म-जन्मान्तरों से संग्रहीत आत्मीयता। जिसके पीछे जुड़ी हुई अनेकानेक गुदगुदी उत्पन्न करने वाली घटनाएँ हमें स्मरण हैं। परिजन उन्हें स्मरण न रख सके होंगे। फिर भी वे विश्वास करते हैं कि परस्पर आत्मीयता की कोई ऐसी मजबूत डोरी बँधी है, जो कई बार तो हिलाकर रख देती है। एक-दूसरे के अधिक निकट आने, परस्पर कुछ अधिक कर गुजरने के लिए आतुर होते हैं। यह कल्पना नहीं वास्तविकता है, जिसकी दोनों पक्षों को निरन्तर अथवा समय-समय पर अनुभूति होती रहती है।
यही तीसरा वर्ग है—बालकों का। इनकी सहायता से मिशन का कुछ काम भी चला है, पर वह बात गौण है। प्रमुख प्रश्न एक ही है कि इन्हें हँसता-हँसाता, खिलता-खिलाता देखने का आनन्द कैसे मिले? अब तक भेंट, परामर्श, सत्संग, सान्निध्य से भी इस भाव सम्वेदना की तुष्टि होती थी, पर अब तो नियति ने वह सुविधा भी हाथ से छीन ली है। अब परस्पर भेंट-मिलन का अध्याय समाप्त होता है। इसमें समय की कमी या कोई व्यवस्था सम्बन्धी कठिनाई-कारण नहीं है। बात इतनी भर है कि इससे सूक्ष्मीकरण में बाधा पड़ती है। चित्त भटकता है और जिस स्तर का अन्तराल पर दबाव पड़ना चाहिए, वह बिखर जाता है। फलतः उस लक्ष्य की पूर्ति में बाधा पड़ती है, जिसके साथ समस्त मनुष्य समुदाय का भाग्य-भविष्य जुड़ा हुआ है। अपनी निज की मुक्ति, सिद्धि या स्वर्ग-उत्कर्ष जैसा कारण रहा होता तो उसे आगे कभी के लिए टाला जा सकता था, पर समय तो ऐसा विकट है जो एक क्षण की भी छूट नहीं देता। ईमानदार सिपाही की तरह मोर्चा सँभालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं। इसलिए सूक्ष्मीकरण के सन्दर्भ में परिजनों को हमें अपनी साधना हेतु एकाकी छोड़ देना चाहिए।
बच्चों के, प्रज्ञा परिजनों के सम्बन्ध में चलते-चलाते हमारा इतना ही आश्वासन है कि वे यदि अपने भाव-सम्वेदना क्षेत्र को थोड़ा और परिष्कृत कर लें तो निकटता अब की अपेक्षा भी अधिक गहरी अनुभव करने लगेंगे। कारण कि हमारा सूक्ष्म शरीर सन् २००० तक और भी अधिक प्रखर होकर जिएगा। जहाँ उसकी आवश्यकता होगी, बिना विलम्ब लगाए पहुँचेगा। इतना ही नहीं, स्नेह-सहयोग, परामर्श-मार्गदर्शन जैसे प्रयोजनों की पूर्ति भी करता रहेगा। कठिनाइयों में सहायता करने और बालकों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की हमारी प्रकृति में राई-रत्ती भी अन्तर नहीं होने जा रहा है। वह लाभ पहले की अपेक्षा और भी अधिक मिलता रह सकता है।
हमारे गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से हिमालय में रहते हैं। विगत ६१ वर्षों में हमने निरन्तर उसका सान्निध्य अनुभव किया है। यों आँखों से देखने की बात मात्र जीवन भर में तीन बार ही, तीन-तीन दिन के लिए सम्भव हुई है। भाव-सान्निध्य में श्रद्धा की उत्कृष्टता रहने से उसकी परिणति एकलव्य के द्रोणाचार्य, मीरा के कृष्ण, रामकृष्ण परमहंस के काली-दर्शन जैसी होती है। हमें भी वे भविष्य में हमारी निकटता अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह अनुभव करते रहेंगे।
बच्चे बड़ों से कुछ चाहते हैं, सो ठीक है, पर बड़े बदले में कुछ न चाहते हों ऐसी बात भी नहीं। नियत स्थान पर मल-मूत्र त्यागने, शिष्टाचार समझने, हँसने-हँसाने, वस्तुएँ न बिखरने, पढ़ने जाने जैसी अपेक्षाएँ वे भी करते हैं। जितना सम्भव है, उतना तो उन्हें भी करना चाहिए। हमारी अपेक्षाएँ भी ऐसी ही हैं। गोवर्धन उठाने वाले ने अपने अनगढ़ ग्वाल-बालों के सहारे ही गोवर्धन उठाकर दिखाया था। हनुमान की बात किसी ने नहीं सुनी तो अपने सहचर रीछ-वानरों को ही समेट लाए। नव-निर्माण के कन्धे पर लदे उत्तरदायित्व को वहन करने में हम अकेले ही समर्थ नहीं हो सकते थे। यह मिल-जुलकर सम्पन्न हो सकने वाला कार्य था। सो समझदारों में से कोई हाथ न लगा तो अपने इसी बाल-परिवार को लेकर जुट पड़े और जो कुछ, जितना-कुछ सम्भव हो सका, करते रहे। अब तक की प्रगति का यही सार-संक्षेप है।
बात अगले दिनों की आती है। हमें अपने बच्चों के लिए क्या करना चाहिए। इस कर्तव्य-उत्तरदायित्व का सदा ध्यान रहा है और जब तक चेतना का अस्तित्व है, उसका स्मरण बना भी रहेगा। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकाँक्षा और आवश्यकता को भुला न दिया जाए। समय विकट है। इसमें प्रत्येक परिजन का समयदान और अंशदान हमें चाहिए। जितना मिलता रहा है, उससे भी अधिक मात्रा में। क्योंकि जो करना है, उसके लिए तत्काल कदम उठाने हैं। सो भी बड़े कामों के लिए बड़े-बड़े लोग चाहिए, बड़े साधन भी। हमारे परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का तो उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। भेड़ों के समूह में पले सिंह शावक की कथा अपने प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के ऊपर लागू होती है या हो सकती है।
हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटक कर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों-आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा है। एकाकी चलने का आत्मविश्वास जागा और आदर्शों को भगवान् मानकर कदम बढ़े। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा और न साधनहीन-उपेक्षित स्थिति का कभी आभास हुआ। सत्य का अवलम्बन अपनाने भर की देर थी कि असत्य का कुहासा अनायास ही हटता चला गया।
हमारा परिजनों से यही अनुरोध है कि हमारी जीवनचर्या को घटना क्रम की दृष्टि से नहीं वरन इन पर्यवेक्षण की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए कि उसमें दैवी अनुग्रह के अवतरण होने से ‘‘साधना से सिद्धि’’ वाला प्रसंग जुड़ा या नहीं। इसी प्रकार यह भी दृष्टव्य है कि दूसरों के अवलम्बन योग्य आध्यात्मिकता का प्रस्तुतीकरण करते हुए हमारे कदम ऋषि परम्परा अपनाने के लिए बढ़े या नहीं? जिसे जितनी यथार्थता मिले, वह उतनी ही मात्रा में यह अनुमान लगाए कि अध्यात्म विज्ञान का वास्तविक स्वरूप यही है। आन्तरिक पवित्रता और बहिरंग की प्रखरता में जो जितना आदर्शवादी समन्वय कर सकेगा, वह उन विभूतियों से लाभान्वित होगा जो अध्यात्म तत्त्वज्ञान एवं क्रिया-विज्ञान के साथ जोड़ी और बताई गई हैं।
अपने अनन्य आत्मीय प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक के नाम हमारी यही वसीयत और विरासत है कि हमारे जीवन से कुछ सीखें। कदमों की यथार्थता खोजें, सफलता जाँचें और जिससे जितना बन पड़े अनुकरण का, अनुगमन का प्रयास करें। यह नफे का सौदा है, घाटे का नहीं।