आपत्तिकाल का अध्यात्म

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

कुछ समय ऐसे होते हैं, जिनको हम सामान्य कह सकते हैं। सामान्य समय में सामान्य प्रकार की गतिविधियाँ चलते रहने का औचित्य समझ में आता है। रोज आदमी पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, खेती-बाड़ी करते हैं, ब्याह-शादी होते हैं, बाल-बच्चे होते हैं, बड़े होते हैं और मौत के मुँह में चले जाते हैं। यह सामान्य क्रम है जो चलता रहता है। इसमें अचम्भे की कोई नई बात नहीं है, लेकिन कभी-कभी कोई ऐसे समय भी आते हैं, जिनको हम विलक्षण कह सकते हैं। जिनको ‘आपत्तिकाल’ कहा जाता है। मनुष्य के जीवन में आपत्तिकाल भी कई बार आते हैं। आपत्तिकाल में सामान्य प्रकार की प्रक्रियाएँ लड़खड़ा जाती हैं। घर में आग लग जाए, छप्पर जल रहा हो, उस समय खाना, नहाना सब कुछ छोड़कर जलते छप्पर पर पानी डालने के लिए सभी दौड़ पड़ते हैं। दुर्घटना हो जाए तो ऑफिस जाना छोड़कर पहले बच्चे को अस्पताल ले जाएँगे और प्लास्टर कराकर आएँगे। यह क्या कह रहे हैं? आपत्तिकाल की बात कह रहे हैं? आपत्तिकाल की कीमत जो समझते हैं, उनको यह भी ध्यान है कि आपत्तिकाल के लिए आपत्तिकालीन व्यवस्थाएँ बनाई जाती हैं।

देश के ऊपर जब कोई दुश्मन हमला कर देता है तो क्या करना पड़ता है? दुश्मन बनना पड़ता है। सैनिकों की छुट्टियाँ बन्द कर दी जाती हैं। नहीं साहब, हमारा ब्याह है, मुहूर्त भी छँट गया है। आपका ब्याह होगा अगले साल में, अभी तो दुश्मन ने हमला कर दिया है, इसलिए आपकी छुट्टियाँ रद्द की जाती हैं और आपको लड़ने के लिए जाना होगा। हमारा माँ मर गई है उसका श्राद्ध करना है, तो अगले साल करना, इस वक्त बन्द कीजिए। यह सब सामान्य समय की बातें हैं। सामान्य समय पर श्राद्ध भी करना चाहिए। बाप बीमार है तो उसका इलाज भी करना चाहिए। सामान्य समय पर अपनी लड़की बड़ी हो गई है तो उसके लिए दूल्हा भी ढूँढ़ना चाहिए। पर असामान्य समय पर यदि आप मिलिट्री में हैं तो मोर्चे पर जाना चाहिए और अगर मिलिट्री में नहीं हैं तो यदि भर्ती के लिए हुक्म दे दिया गया है कि नौजवानों में से हर एक को भर्ती होना पड़ेगा, तब आप भी भर्ती हो जाइए। नहीं साहब, हमारा बी.ए. सेकण्ड ईयर है, हम फेल हो जाएँगे, थर्ड डिवीजन हो जाएँगे। आपकी बात सही है, लेकिन यह उस समय के लिए सही है, जबकि सामान्य समय हो। सामान्य समय में आपको ट्यूशन करना चाहिए, पढ़ना चाहिए और जब आपत्तिकाल है तब पढ़ाई बन्द करनी चाहिए। क्या करें? आप एन.सी.सी. सीखिए और तुरन्त मिलिट्री में चले जाइए, क्योंकि यह आपत्तिकाल है। आपत्तिकाल की मर्यादा जो आदमी समझते हैं, वे यह जानते है कि इसमें सामान्य जीवन के क्रम और सामान्य जीवन की व्यवस्थाओं के बारे में बाहर से अलग से विचार करना पड़ता है।

साथियो! मैं यह कह रहा था आपसे कि यह आपत्तिकाल है, जिसमें से आप गुजर रहे हैं। इसे अगर आप हमारी आँखों से देख पाएँ तो आप देख सकते हैं कि कैसे तूफान आ रहे हैं, कैसी आँधियाँ आ रही हैं? आपको अपनी आँखों से दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि आप सामने की चीजें देखते हैं। आपको केवल वही चीज दिखाई पड़ती है जो सामने हैं। जमीन आपको चलती हुई दिखाई नहीं पड़ सकती, क्योंकि आप सामने की चीजें देखते हैं। आपकी आँखें बहुत छोटी हैं। आप तो कहेंगे कि मकान कहाँ भाग रहे हैं, पेड़ कहाँ भाग रहे हैं, वे जहाँ रात में थे वहीं पर अब भी हैं। सब गलत बात है। बेटे, एक मिनट में ६००० मील की चाल से पृथ्वी इस तेजी से भागती हुई चली जा रही है कि उसके सामने बन्दूक की गोली भी कोई चीज नहीं है। इस तेजी के साथ दनदनाती हुई पृथ्वी भाग रही है। आपको तो दिखाई नहीं देता, पर चन्द्रमा की जमीन पर जो लोग गए थे उन्होंने आकर खबर दी है कि चन्द्रमा की जमीन पर हमारी पृथ्वी तीन गुना बड़ी दिखाई देती है। वह ग्लोब के तरीके से रंग-बिरंगी चलती हुई दिखाई पड़ती है। यह क्या है? आँखों का फर्क है जो आपको दिखाई नहीं देता कि क्या हो रहा है? गूलर के फूल के बीच में बन्द रहने वाले भिनुगे को कुछ पता नहीं है कि कब रात हुई, कब दिन। धूप है या बरसात, महामारी फैली है या सब कुछ ठीक चल रहा है। आपकी अकल और बनावट अगर गूलर के भिनुगे की तरीके से हो तो मैं कुछ नहीं कह सकता। तब आपके लिए दिन सामान्य हैं। जैसे हमेशा थे वैसे ही अब भी जगत् की गति का असर आपके ऊपर नहीं हो सकता। जिनके लिए वही रोटी खाना, पैसा कमाना, बच्चे पैदा करना, इसके अतिरिक्त और कोई समस्या नहीं है, उन्हें मूढ़ के सिवाय और क्या कहा जाए?

जिनके पास न अक्ल है, न दूरदृष्टि है और न ही जिन्हें कर्तव्यों का भान है, उनके लिए मैं कुछ नहीं कह सकता। पर आपको मैं उनसे अलग मानता हूँ कि आप अलग किस्म के आदमी हैं। आप ऐसे आदमी हैं जिनको कि भगवान ने तीसरी वाली आँख देना शुरू कर दिया है। तीसरी वाली आँख क्या होती है? वह जो हम त्राटक से जाग्रत कराते हैं। तीसरी आँख खोलने के लिए प्रकाश का ध्यान कराते हैं। तीसरी आँख कहते हैं प्रकाश को जिससे कि बहुत दूर तक दिखाई पड़ता है। दूर की बातें दिखाई पड़ती हैं। हमको मौत दिखाई पड़ती है, अगला जन्म दिखाई पड़ता है। हमको अपना भविष्य दिखाई पड़ता है, भगवान दिखाई पड़ता है, मरने के बाद का चौरासी लाख योनियों का चक्र दिखाई पड़ता है और यह दिखाई पड़ता है कि हमारी अवांछनीय गतिविधियाँ जो आज हैं, वे हमारे लिए क्या नुकसानदायक हो सकती हैं। आगे चलकर इनकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है। आज हम जुलाब की गोली खा रहे हैं तो कल क्या हो सकता है? यह क्या है? यह समझदारी की निशानी है, जिसमें कि आदमी को अपने बाबत और दुनिया की बाबत आगे की बात दिखाई पड़ती है। वर्तमानकालीन यह युगसंध्या है। युगसंध्या किसे कहते हैं? इसका एक नमूना मैं आपको बता सकता हूँ। बताइए क्या है? बेटे, एक युग वह है जिस समय हम एक पेट में बैठे हुए थे। पेट में से बैठकर के जब हमारा परिवर्तन हुआ, तो हाहाकार मच गया। यह क्या था आपत्तिकाल था परिवार के लिए। सारे का सारा काम, खाना, पीना सब एक ओर। यह क्या नई आफत आ गई। क्या हुआ था? हमारा जन्म हुआ था। नए युग का जन्म होने जा रहा है। दो बातें होनी हैं—एक युग निर्माण की, दूसरा निर्माण से पहले ध्वंस होना है। इमारत जब बनाई जाती है, तब जमीन की खुदाई करनी पड़ती है। पीछे मिट्टी डालकर कुटाई-पिटाई करते हैं और गड्ढे को ठीक करके तब दीवार की चिनाई की जाती है। ‘‘नया मन्दिर बनेगा, खण्डहरी दीवार तोड़ो तुम’’—यह गीत लड़कियाँ गाती रहती हैं, आपने सुना नहीं है? भगवान के जब अवतार होते हैं तब एक ही काम नहीं करते, मात्र धर्म की स्थापना करते हुए नहीं आते, वरन् अनीति का ध्वंस करते हुए भी आते हैं। भगवान जब अवतार लेते हैं, तब कल्याण करते ही नहीं आते, वरन् सफाया करते हुए भी आते हैं। सफाया किए बिना नया नहीं बन सकता। निर्माण के लिए ध्वंस आवश्यक है। ध्वंस के बिना निर्माण सम्भव नहीं है। दोनों चीजें आपस में मिली हुई हैं। एक चीज का ध्वंस होता है तो दूसरी चीज का निर्माण होता है। एक आदमी मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। नई पीढ़ी पैदा करेंगे। बहुत शानदार नई पीढ़ियाँ पैदा होंगी।

अवतारों की प्रक्रिया के साथ में दोनों बातें एक साथ जुड़ी हुई हैं—एक ओर ध्वंस की, दूसरी ओर निर्माण की। ‘‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’’। साधुओं का उद्धार बाद में करेंगे, पहले दुष्कृतों को मारकर खत्म करेंगे। आप सोचते हैं कि भगवान जी आएँगे तो रामराज्य लेकर आएँगे, शक्ति लेकर, शान्ति लेकर आएँगे। आएँगे तो सही, पर यह भी ध्यान रखिए कि वे लाखों-करोड़ों के लिए रोना-पीटना और हाहाकार भी लेकर आएँगे। वे दया बरसाएँगे तो क्रोध भी बरसाएँगे। दोनों तरह का सन्तुलन मिलता रहता है, जब कभी परिवर्तन की सन्ध्या बेला होती है। परिवर्तन की इस संध्या में आपको न तो कोई विशेष-समय की माँग दिखाई पड़ती है, न कर्तव्यों की पुकार सुनाई पड़ती है और न ही भगवान का अवतार दिखाई पड़ता है। चारों ओर क्या हो रहा है, आपको दिखाई पड़ना चाहिए। अगर आप विमूढ़ ही बने रहे, रोटी खाने और पैसा कमाने से लेकर बच्चे पैदा करने तक के चक्र में ही पड़े रहे तो फिर मैं क्या कह सकता हूँ? लेकिन आपके भीतर जीवन आ गया होगा, जाग्रति आ गई होगी तो आपकी एक और आँख खुल गई होगी, जिसको त्राटक साधना में हमने बहुत महत्त्व दिया है।

पंचकोशीय उपासना में इस वर्ष हमने त्राटक को बहुत महत्त्व दिया है और कहा है कि आपकी मदद करने के लिए हम तैयार हैं। यह आपत्तिकाल है, इसलिए आप कोई विशेष उपासना न करें तो भी कोई हर्ज की बात नहीं है। आपके बदले हम कर देंगे। आप अपनी उपासना थोड़ी देर करें तो भी काम चल सकता है। नहीं गुरुजी, हम तो योगाभ्यास सीखेंगे, कुण्डलिनी जागरण सीखेंगे। बेटे, यह इतना सरल और सस्ता नहीं है जितना कि तू समझता है। इसमें सारे के सारे जीवन का कायाकल्प करना पड़ता है। अपने व्यक्तित्व को और चरित्र को उल्टा-पुल्टा करना पड़ता है। यह शीर्षासन है जीवनक्रम का। अध्यात्म क्या है? जीवन का शीर्षासन है। तू क्या इसे बाजीगरी समझता है कि यह कर लूँगा, वह कर लूँगा। इसमें ऐसा कुछ नहीं है, वरन् इसमें जीवन की दिशा उलटी जाती है, जीवन को पलटा जाता है। योगी की परिभाषा एक ही है कि योगी दिन में सोया करता है और रात में जागा करता है। क्या मतलब है इसका? यह ‘‘आश्वत्थम् प्राहुरव्ययम्’’ अर्थात पीपल का पेड़ है जिसकी टाँगें ऊपर हैं, जड़ें ऊपर हैं और उसकी शाखाएँ एवं पत्ते नीचे हैं। मतलब यह कि दुनिया वाले जिधर चलते हैं, उससे ये तरकीबें भिन्न हैं। दुनिया वाले लोगों के सोचने, करने का जो तरीका है, आकाँक्षाओं, इच्छाओं का जो ढंग है, उससे आध्यात्मिक जीवन की प्रक्रियाएँ भिन्न हैं, जिन्हें अलग ढंग से करना पड़ता है।

मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि पूजा-उपासना के बारे में, सिद्धि-चमत्कारों के बारे में, देवताओं के दर्शन के बारे में, ऋद्धि-सिद्धि पाने के बारे में जो तरह-तरह के खेल-खिलवाड़ आप करते रहते हैं, उसमें न पड़ें तो अच्छा है, क्योंकि आपके लिए वह कठिन पड़ेगा। आप पहली मंजिल पर ही टक्कर खाकर चकनाचूर हो जाएँगे। जब आपसे ब्रह्मचर्य के लिए कहा जाएगा कि शारीरिक ब्रह्मचर्य उतना आवश्यक नहीं जितना कि मानसिक ब्रह्मचर्य आवश्यक है, तब आप दाँत निकाल देंगे और कहेंगे कि शारीरिक ब्रह्मचर्य तो हमसे सधता नहीं, फिर मानसिक ब्रह्मचर्य की बात ही अलग है। चौबीस घण्टे हमारा दिमाग और आँखें दुराचार में लगी रहती हैं। जब बेटे तेरी सारी शक्ति इसी में खर्च हो जाएगी तब फिर तेरा सहस्रार-चक्र कहाँ से जागेगा? सहस्रार-चक्र में लगने वाली सारी शक्ति इसी में लय कर देंगे, तब फिर वह जागेगा कैसे? सहस्रार को जाग्रत करने वाला जो प्रकाश है, वह तो आपके आँखों के रास्ते सारा का सारा वाइब्रेशंस—तरंगों में से नष्ट हो जाएगा, फिर आप कहेंगे कि गुरुजी हमारा सहस्रार जगा दीजिए, तो कैसे जगाएँ हम? इसके अन्दर जो गर्मी थी, ऊर्जा थी वह तो तूने खत्म कर दी। इसी तरह आहार के आधार पर जो तेरा रक्त बनता है और जिससे बनता है मन, तमोगुणी अन्न, अनीति, बेईमानी का कमाया हुआ अन्न, हराम का कमाया हुआ अन्न खाकर के तूने उसे तमोगुणी बना लिया है। उसे मैं कैसे स्थिर कर दूँ? सारे का सारा अन्न जिसे तू खाता है, उसमें तमोगुण ही तमोगुण भरा हुआ है, रजोगुण की सीमा में भी नहीं। पूरा परिश्रम चुका करके जो अन्न खरीदा नहीं गया वह भी बेईमानी का है। केवल चोरी या डाका डालकर लाया गया अन्न ही नहीं, यह भी अभक्ष्य होता है। प्राचीनकाल के पिप्पलादि ऋषि, कणादि ऋषि एवं अन्य दूसरे ऋषि सबसे पहले इस बात के लिए योगाभ्यास करते थे कि हमारे आहार के लिए अन्न कहाँ से आता है, जिससे हमारा रक्त बनता है, शरीर बनता है जिससे हमें अच्छा कर्म करना आता है और हमारा मन, जिसमें अच्छे विचार आते हैं, वह कहाँ से बनता है, अन्न से बनता है।

बेटे, कान में उँगली लगा लेना या हर वक्त नाक में से प्राणायाम कर लेना भर योगाभ्यास नहीं है। योगाभ्यास जीवन का उपक्रम है, जिससे जीवन में परिवर्तन करना पड़ता है। साधु या ब्राह्मण एक जीवन-क्रम है, जीवन की एक फिलॉसफी है। सोचने और काम करने का एक तरीका है। योगाभ्यास, प्राणायाम आदि उसके ऊपर के शृंगार हैं। सान चढ़ने के पत्थर हैं जिस पर घिसकर तलवार पर धार निकाली जाती है। लोहा न हो तो लकड़ी की तलवार नहीं बन सकती। अध्यात्म मार्ग पर भगवान की कृपा-अनुकम्पा पाने के लिए, सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए, आत्मशान्ति प्राप्त करने के लिए सबसे ज्यादा एक ही चीज की जरूरत है दूसरी कोई नहीं और उसका नाम है—व्यक्तित्व का परिष्कार। इसके लिए वहाँ से साधनाएँ शुरू करनी पड़ती हैं, जहाँ से मनुष्य के आहार और व्यवहार को संयमित करना पड़ता है। यह शुरुआत है। फिर मन का संयम करना पड़ता है। यह एक साइंस है। उपासना में मन को अस्त-व्यस्त नहीं जाने दिया जाता। उससे कहा जाता है कि हमारा और हमारे भगवान का सम्बन्ध है, आप यहीं रहिए। इतने पर भी यदि मन भागता है तो भगवान की किताब पढ़िए, भगवान की शक्ल देखिए, भगवान से बातचीत कीजिए। बातचीत नहीं कर सकते तो भगवान का ध्यान कीजिए। ज्ञान, ध्यान की बात करके मन को पकड़ करके रखिए।

मन के निग्रह के बाद समय का निग्रह करना पड़ेगा। अपने आपको शिकंजे की तरीके से कसना पड़ेगा। यही तो एक सम्पत्ति है तेरे पास और दूसरी कोई चीज नहीं है। समय को व्यवस्थित नहीं किया तो फिर तेरे हाथ कुछ भी नहीं रह जाएगा। बिनोवा भावे से लेकर गाँधी जी तक जीतने भी महापुरुष और अध्यात्मवादी हुए हैं, उन्होंने समय को इस तरीके से कसा है कि एक क्षण भी बेकार न जाने पाए। यही तो दौलत है तेरे पास, जिससे चाहे आत्म-कल्याण कर ले, चाहे जनता की सेवा कर ले, चाहे अपना स्वास्थ्य बना ले, चाहे परिवार की सेवा कर ले। प्रगति करनी है तो समय का संयम करना पड़ेगा। धन का संयम करना पड़ेगा, क्योंकि धन का संयम जब तक तू नहीं करता तब तक सैकड़ों तरह की बुराइयाँ आ जाएँगी। आलस्य, अहंकार, शराबखोरी, अपव्यय आदि सारी बीमारियाँ तो अनायास ही तेरे भीतर आ जाएँगी। धन का अगर संयम न कर सकेगा और तो जो कुछ पुण्य-परमार्थ कर सकता होगा, सो नहीं करेगा और यदि इसे औलाद के लिए छोड़कर चला जाएगा तो वे आपस में लड़ेंगी और उनका सफाया हो जाएगा। उपार्जन और व्यय कैसे करना चाहिए? यह जीवन की एक शैली है, एक क्रम है और एक आधार है।

अध्यात्म एक साइंस है जिसमें जीवन का क्रम बदलना पड़ता है। इसलिए मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि इस आपत्तिकाल में योगाभ्यासी बनने के लिए सिद्ध-महात्मा बनने के लिए कोशिश मत कीजिए। इस आपत्तिकाल की जो जरूरत है, आप वही काम करें। हम आपकी सहायता करेंगे। इस आपत्तिकाल में हमने अपने गुरु की सहायता की है और उसने हमारे लिए आवश्यकताओं को पूरा किया है। आपत्तिकाल में हनुमान जी ने रामचन्द्र जी की मदद की थी और रामचन्द्र जी ने यह कहा था—आप हमारा काम कीजिए और हम आपका काम करेंगे। यह भी एक तरीका है—अन्धे और पंगे का। अन्धे की पंगे ने मदद की थी और पंगे न अन्धे की। आप हमारी मदद कीजिए और हम आपकी मदद करेंगे। आपके पास धन कम है, तो बेटे, मेरे पास भी कम है, पर जिससे हमारा सम्पर्क और सम्बन्ध है, वह बड़ा मालदार आदमी है। उसकी बैंक बहुत बड़ी है। आप उसमें शामिल क्यों नहीं हो जाते? आप हमारी कम्पनी में बीमा कर लीजिए। हमारा बड़ी कम्पनी में बीमा है। इसलिए हमने आपसे यह कहा था कि आप हमारी शृंखला में शामिल हो जाइए और उपासना का उत्तरदायित्व हमारे ऊपर छोड़ दीजिए तो काफी है। तो हम क्या करें गुरुजी? बेटे, आप वही करें जो हम अपने गुरु का करते हैं। आपके लिए सबसे बेहतरीन, सबसे अच्छा, सबसे नफे का सौदा यह है कि जिस तरह हमने अपने गुरु का कहना माना है और उसके कहने के मुताबिक़ यह योगाभ्यास कर रहे हैं, जो उसने हमको सुपुर्द कर दिए और जिससे शक्तियाँ पैदा होती हैं। आप भी ऐसा ही करें।

जिस योगाभ्यास को आप इतना सरल समझते हैं, वह सरल नहीं, वरन् इतना कठिन है कि आप कर नहीं पायेंगे। आप समझते हैं कि गायत्री माता का अनुष्ठान २४ हजार जप में हो जाता है? तो यह इतने से पूरा नहीं होता। गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है। अतः जप करने से पहले ब्राह्मण बन। नहीं साहब, ब्राह्मण नहीं बनेंगे, रहेंगे तो हम डाकू और रहेंगे तो हम हत्यारे-कसाई ही, पर २४ हजार का जप करेंगे। तब बेटे, इससे क्या हो जाएगा? गन्दे नाले में गंगाजल डाल देगा तो क्या सारा का सारा गन्दा नाला शुद्ध हो जाएगा? गन्दा नाला शुद्ध नहीं होगा, वरन् वह गंगाजी भी गन्दा नाला हो जाएगी। तू मोटी बातें भी समझता क्यों नहीं, मोटी बातें समझ। इसलिए मैं आप लोगों में से हर एक का उत्साह, जिसमें योगाभ्यास शामिल थे, तरह-तरह की जादूगरी शामिल थी, तरह-तरह के शब्द कानों में सुनने शामिल थे, उनसे आपको निरस्त करता हूँ और यह कहता हूँ कि आप उधर से मन हटा लें और हमारी साधना में शामिल हो जाएँ। कैसे शामिल हो जाएँ? यह आपत्तिकाल है। आपत्तिकाल में आपत्तिकालीन कार्यक्रम बना लें तो ठीक रहेगा। आपत्तिकालीन क्रियाकलाप में आप एक कार्यक्रम यह बना लें कि आप इतनी व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं को कम कर दें। सामान्य भारतीय जिस स्तर का जीवनयापन करता है, वहाँ तक आप अपने को सीमाबद्ध कर लें तो आप आपत्तिकाल में युग की माँग और समय की माँग के लायक कुछ कर पाएँगे। अगर आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ जिंदा रहीं तो आप कुछ नहीं कर पाएँगे, क्योंकि आदमी की महत्त्वाकाँक्षाओं के पूरा होने की कोई गारण्टी नहीं है। आपत्तिकालीन इस युगसन्ध्या में अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए अगर आपकी इच्छा है तो आपको भगवान के कार्यों में सहायक होना चाहिए और योगाभ्यास का, साधना का पहला कदम यह मानकर चलना चाहिए कि हमारे लिए इतना ही काफी है जितने में हमारा गुजारा हो सके। औसत भारतीय स्तर के हर आदमी के हिस्से में जितना आता है, उसी स्तर का आप अपना और अपने परिवार का खान-पान और रहन-सहन एवं संग्रह बना लें।

मित्रो! महत्त्वाकाँक्षाएँ अगर आपके दिमाग पर हावी नहीं तो हमको कहना पड़ेगा कि आपत्तिकालीन युग में आप कुछ नहीं कर पाएँगे। नामवरी के लिए यश, लोभ या भड़कावे-बहकावे में आकर परोपकार के नाम पर कुछ खेल-खिलौना थोड़ा-बहुत कर भी लें, पर असल में आप कुछ ठोस काम कर नहीं पाएँगे, अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को कम करिए। तो क्या महत्त्वाकाँक्षाएँ खत्म कर देने से आदमी का वर्चस् खत्म हो जाएगा? नहीं बेटे, उसके प्वाइंट बढ़ा दें, दिशाएँ बदल दें। जीवन को बड़प्पन की अपेक्षा महानता की दिशा में मोड़ दें कि हम महान बनेंगे। महान किसे कहते हैं? जो सिद्धान्तों के लिए काम करते हैं, आदर्शों के लिए काम करते हैं। इस दिशा में महत्त्वाकाँक्षाओं को जितना बढ़ाना चाहें बढ़ा दें। गुरुजी हम तो ऋषि बनेंगे। बेटा, हम तुझे ऋषि बनाएँगे, ऋषि की महत्त्वाकाँक्षा बढ़ा। हम तुझे ब्रह्मर्षि बना देंगे, राजर्षि बना देंगे, देवर्षि बना देंगे, पर शर्त एक ही है कि हमारे रास्ते पर चल और उधर की महत्त्वाकाँक्षाएँ कम करके इधर की महत्त्वाकाँक्षाओं में लगा दे, फिर जो भी तू कहेगा, हम बना देंगे। हम आपको सेठ नहीं बना सकते, मिनिस्टर नहीं बना सकते, पर आपकी आध्यात्मिक महत्त्वाकाँक्षाओं को हम पूरा कर सकते हैं, क्योंकि वे स्वाभाविक और सरल हैं। उसमें दैवी-शक्तियाँ सहायता करती हैं पर आपकी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं में दैवी-शक्तियाँ सहायता नहीं करतीं। उसमें आपका कर्म और पुरुषार्थ सहायता करता है। यही धूमधाम करके दैवी-कृपा, आशीर्वाद के रूप में आ जाता है। फोकट में दैवी कृपा आदमी की भौतिक महत्त्वाकाँक्षा को पूरा करने में सहायक नहीं होती है। यदि देवता पैसा देते होते तो हिन्दुस्तान जैसा देश जो देवताओं का देश कहलाता है, गरीब नहीं रहा होता। लक्ष्मीजी की पूजा करते हुए सात पीढ़ियाँ व्यतीत हो गईं फिर भी गरीबी हमारे घर से निकली नहीं, लक्ष्मी जी आई नहीं। हमने सुना है देवता कृपा करते हैं? देवता कृपा नहीं करते, भौतिक जीवन में योग्यताएँ काम करती हैं, पुरुषार्थ काम करता है। जापानियों से पूछकर आइए कि आपको जो सम्पत्ति मिली है, उसे क्या लक्ष्मी जी ने भेजा है या आपके पुरुषार्थ ने। हर जापानी यही कहेगा कि हमारे पुरुषार्थ ने भेजा है, लक्ष्मीजी की इसमें कोई सहायता नहीं। देवताओं की सहायता एक काम में आती है—आध्यात्मिक जीवन, आन्तरिक जीवन के विकास में, जो कि वास्तविक जीवन है और सारी की सारी सफलताओं का केन्द्र है। यही जीवन आपका विकसित हो सकता है।

इस आपत्तिकाल में, जो सामान्य समय नहीं है, यदि आप अपने जीवन की रीति-नीति और गतिविधियों को बदल दें, अपने भौतिक जीवन की महत्त्वाकाँक्षाओं को कम कर दें। जितने कम में गुजारा हो सकता हो उतने कम पैसे, कम समय में अपना गुजारा कर लें और बाकी सारे का सारा समय श्रेष्ठ कामों के लिए, आध्यात्मिक कार्यों के लिए, आपत्तिकाल के क्रिया-कलापों के लिए समय की माँग को पूरा करने में लगा दें। वह रीति अगर आप की समझ में आ जाएगी तो फिर मैं कहता हूँ कि बाद का रास्ता खुल गया और जो चीजें आप चाहते थे, उसके मिलने की गारण्टी हो गई। यदि आपने अपने आपको बदल दिया तो सिद्धियाँ भी मिल जाएँगी। सूरदास ने अपने आप को बदल दिया तो वे बिल्वमंगल से सूरदास हो गए थे। भगवान उनको इसी जीवन में मिल गए थे। तुलसीदास ने अपने जीवन-क्रम को बदल दिया था तो भगवान उनको इसी जीवन में मिल गए थे। बाल्मीकि ने अपने जीवन-क्रम को बदल दिया था तो भगवान उनको इसी जीवन में मिल गए थे। बुरे से बुरे आदमियों में से जिन्होंने अपने जीवन-क्रम में हेर-फेर नहीं किया, भगवान के ऊपर जाल फेंकते रहे और यह कहते रहे कि हमको दिला दीजिए बेटा और आप हमारी डकैती में फायदा करा दीजिए। बेटे ये देवी-देवता और भगत दोनों ही मरेंगे और दोनों ही पिटेंगे। मैं चाहता हूँ कि आप इस अज्ञान से, इस जंजाल से निकल आएँ तो अच्छा है। मैं चाहता हूँ कि आपके सामने अध्यात्म की, शान्ति की, भगवान के प्यार की, सिद्धियों की, चमत्कारों की, जीवन की सार्थकता की एक स्पष्ट रूपरेखा हो तो काम चल जाए।

यह आपत्तिधर्म है, इसमें आप लोग एक काम करना कि अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं को जितना कम कर सकते हों, कम करना, ताकि उसी सीमा में आप ब्राह्मण होते चले जाएँ। उसी सीमा के हिसाब से, उसी मर्यादा के हिसाब से आपको भगवान की कृपा मिलेगी। देवताओं की, सिद्धपुरुषों की सहायता मिलेगी। जो भी चीज आप चाहते हैं, वह सब चीजें मिलेंगी विशेषकर इस आपत्तिकाल में, यदि आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कर लें तो। इस जमाने में युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए, जलती हुई आग को बुझाने के लिए और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं को बढ़ाने के लिए महाकाल ने आपसे समय माँगा है। यदि आप अपनी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ कम करके आध्यात्मिक महत्त्वाकाँक्षाओं में अपने मन को लगा सकें तो आपको शक्ति भी मिलेगी, समय भी बचेगा। इतना ज्यादा सामान बचेगा कि आप कहने लगेंगे कि हम तो अपने आपको अभावग्रस्त समझते थे, पर हमारे पास इतनी ज्यादा दौलत निकल पड़ी कि हम दुनिया को निहाल कर सकते हैं।

आपको करना क्या है? आपके जिम्मे जो काम सुपुर्द किए गए हैं, वे वास्तविक परिव्राजक के काम सुपुर्द किए गए हैं। आपको परिव्राजक की वास्तविक भूमिका निभानी है, इससे कम में काम नहीं चलेगा। परिव्राजक की योजना को पूरा करने के लिए, परिव्राजक के उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों को निभाने के लिए वही काम करना पड़ेगा कि आप अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को कम कर दें और सामान्य जीवन-यापन करने से सन्तोष कर लें। सन्तोष करने के बाद में यह देखें कि हमारे पास कितना ज्यादा समय है? उस समय का सदुपयोग कहीं भी आप कर सकते हैं। वास्तव में परिव्राजक एक संकल्प है, एक व्रत है, एक नियम है, एक उपासना है, जिसमें श्रेष्ठ प्रकाश देने के लिए सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। सम्पर्क स्थापित कीजिए अपने घर-परिवार वालों से, अपने बच्चों से, अपने पड़ोसी और मुहल्लों वालों से। जिस दफ्तर में आप काम करते हैं, वहाँ लोगों से सम्पर्क स्थापित कीजिए अच्छे उद्देश्यों के लिए। आप वहाँ भी परिव्रज्या कर सकते हैं। आप दुकानदार हैं तो वहाँ भी सबेरे से शाम तक ५० आदमी आते हैं। दुकानदारी के साथ-साथ श्रेष्ठ कामों के लिए भी आप उतना समय निकाल सकते हैं। आप हर आदमी को २४ घण्टे अच्छी सलाह दे सकते हैं, श्रेष्ठ प्रेरणाएँ दे सकते हैं और सामान्य जीवन-क्रम के साथ परिव्राजक व्रत का, जिसका उद्देश्य जन-सम्पर्क है, हर समय पालन करते रह सकते हैं। आप कहीं भी जाएँ, हम आपसे यह नहीं पूछेंगे कि इनमें कितनी सफलता मिली? सफलता मिले या न मिले, पर प्रयास कितना किया, यह समयदानियों से हमारा मूल प्रश्न रहेगा।

इस युग की सबसे बड़ी माँग समयदान है। समयदान का दस-सूत्री कार्यक्रम आप समझ लें और करने की कोशिश करें, तो बात पूरी होगी। पहले आप बाहर जाइए और अपने आपसे, दूसरों से भी कहिए कि युग बदल रहा है। यह आपत्तिकाल है। आपत्तिकाल में भगवान ने प्रत्येक जाग्रत आत्मा से समय माँगा है। इस आड़े समय में आप समय दे पावें तो वह हीरे-मोती, जवाहरात के बराबर है। समय की पुकार के ऊपर जिन्होंने समय दिया, वे बेटे, गाँधीजी के मिनिस्टर हो गए, स्वतन्त्रता सेनानी हो गये और आज उन्हें पेंशन मिल रही है। क्यों? क्योंकि आपत्तिकाल में जब राष्ट्र पर आपत्ति आई थी तो देश को आजाद कराने के लिए वे सत्याग्रही सेना में शामिल हो गये थे और जेल की यातनाएँ सही थीं। तो गुरुजी आप ऐसा कीजिए कि मुझे भी कहीं स्वतन्त्रता सेनानियों में जेल भिजवा दीजिए। तीन महीने की जेल हो जाएगी और स्वतन्त्रता सेनानी बन जाएँगे। ढाई सौ रुपया पेंशन मिल जाएगी। बेटे, तुझे मिलेगी नहीं; क्योंकि समय चूक गया। जेल जाने का भी समय था, अब वह समय कहाँ है? अब आपत्तिकालीन समय है यह। युग बदल रहा है। आज का समय देना हीरे के बराबर, मोती के बराबर है। अगर अगली बार देगा तो तू क्या देगा? जब समय बदल जाएगा तब हम तेरे समयदान का क्या करेंगे? फिर समयदान की जरूरत नहीं पड़ेगी।

इसलिए आप यहाँ से जाने के बाद स्वयं से, अपने आप से और हर जाग्रत आत्मा से यह कहना कि सन् १९७८ से लेकर सन् २००० तक के ये २२ वर्ष ऐसे हैं, जिनमें दुनिया का कायाकल्प हो जाएगा, इस सम्बन्ध में मैं बेकार की भविष्यवाणी तो नहीं करता, बेकार की भविष्यवाणी करना मुझे नापसन्द है, पर मैं दो भविष्यवाणी कहे देता हूँ कि लोगों में बहुत तबाही आएगी। तब आपको राहत के लिए लोगों में काम करना पड़ेगा। तबाही क्यों आएगी? क्योंकि अवांछनीय तत्त्व जहाँ कहीं भी हैं, वे सब घटेंगे। घटने के लिए विनाश होगा और विकास के लिए नए निर्माण होंगे। नए निर्माण के लिए आपको समय देना पड़ेगा और श्रम करना पड़ेगा। विनाश में तो आपको सहायता करनी पड़ेगी, राहत-कार्यों में आपको सहायता करनी पड़ेगी, ताकि आपका आत्मबल विकसित हो सके और आपका देवत्व विकसित हो सके। यह काम होगा? हाँ बेटे, होगा। अभी भी हो रहा है। मारकाट से भी कर रहे हैं, बीमारियाँ भी कर रही हैं, बाढ़ें भी कर रही हैं और जाने कौन-कौन कर रहा है? जहाँ कहीं भी देखिए हर जगह सूखे के साथ गीला भी जल रहा है। सब जगह तबाही ही तबाही मची है।

बेटे! यह आपत्तिकाल है, राहत-कार्यों में लगना पड़ेगा। भगवान कोई नुकसान पहुँचाने वाला नहीं है, हमें यह नहीं कहने वाला है कि आप जहाँ जरूरत है, वहाँ सहायता कर सकते हैं। इसमें आपकी आत्मपरीक्षा है और वर्चस का अनुदान है। क्या आप मुसीबत में जहाँ के तहाँ हृदयहीन बने बैठे रहेंगे? मदद नहीं करेंगे? जाग्रत आत्माओं को आपत्तिकाल ने पुकारा है कि आप राहत-कार्यों के लिए मदद कीजिए। राहत-कार्य केवल बाढ़ और भूकम्प के नहीं हो सकते। पीड़ा और पतन इस जमाने में अभी और फैलेंगे। इनसे राहत दिलाने के लिए ही मैं आपसे कहता हूँ। देखते नहीं गुण्डागर्दी कैसे बढ़ती चली जाती है, दूसरे अपराध कैसे बढ़ते चले जाते हैं? इस तरह के राहत-कार्यों में आपकी हर जगह जरूरत है। आपको निर्माण-कार्यों के लिए एक नहीं लाखों कार्य करने हैं। ये इम्तिहान की घड़ियाँ हैं। आपको निर्माण-कार्य के लिए ईंट और चूने की भूमिका निभानी है। प्रत्येक व्यक्ति से समय इसी के लिए माँगा था। राम ने कभी समय माँग था, कृष्ण ने कभी समय माँगा था। हम भी आपसे समय माँगते हैं। समय की किसी के पास कमी नहीं है, केवल दिलेरी और साहस की कमी है, उदारता की कमी है। अगर आप अपने भीतर दिलेरी और उदारता पैदा कर सकें तो काम बन जाए।

आप यहाँ से जाने के बाद एक बात हर एक से कहना, अपने से सौ बार कहना और जो कोई जाग्रत आत्मा दिखाई पड़े उससे कहना कि महाकाल ने एक ही निमन्त्रण भेजा है—समय की माँग का निमन्त्रण। आप परिव्राजक हैं। जन-सम्पर्क में आप जहाँ कहीं भी जाएँ, आप कृपा करके एक ही बात कहना कि अगर आप भगवान का अनुग्रह पाने के इच्छुक हों, भगवान की सहायता करने के इच्छुक हों, तो गुरुजी ने पल्ला पसार करके, महाकाल ने पल्ला पसार करके, युग के देवता ने पल्ला पसार करके हर आदमी से समय माँगा है। आपके पास समय हो तो हमें दें—नवयुग के निर्माण के लिए, राहत-कार्यों के लिए, पीड़ा और पतन से लोहा लेने के लिए, सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में योगदान देने के लिए और दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष करने के लिए। दोनों हाथ से इस आपत्तिकाल में भगवान ने पुकार की है। अगर आप कर सकते हों तो करना, यहाँ से जाने के पश्चात्। समय देना केवल उनके लिए सम्भव हो सकता है, जो अपनी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं पर नियन्त्रण लगा सकते हैं। इसके अलावा कोई समय नहीं दे सकता। मित्रो! मैंने अपनी बातें कह दीं। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥