प्रबुद्धों को आमंत्रण
(पूर्वार्द्ध)
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधनों की यह विशिष्टता है कि वे श्रोताओं को ममत्व के भाव से स्पर्श भी करके जाते हैं तो वहीं उनके हृदय में संकल्प को भी जगाकर जाते हैं। यहाँ प्रस्तुत एक ऐसे ही अलौकिक उद्बोधन के क्रम में परमवन्दनीया माताजी प्रत्येक साधक को स्मरण दिलाती हैं कि प्रबुद्ध होने का अर्थ अपनी भावनाओं के जागरण से है। हमारे जीवन की सही व सम्यक दिशा निर्धारित हो पाती है यदि हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखकर वैश्विक हितों की चिन्ता कर पाने में समर्थ हो पाते हैं। वन्दनीया माताजी, परमपूज्य गुरुदेव का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहती हैं कि यदि हम उनके जीवन से शिक्षा को प्राप्त कर सकें तो हम पाएँगे कि पूज्य गुरुदेव ने अपने व्यक्तित्व को एक ऐसी ही कसौटी पर कसा, जहाँ वे अनेकों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन सके। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
भावनाओं का नियंत्रण
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
हमारे आत्मीय परिजनो! आपके आने की बहुत प्रसन्नता, बहुत खुशी। आप इतनी दूर-दूर से आए, कहाँ गुजरात और कहाँ हरिद्वार। आपकी भावनाएँ यहाँ तक आपको लेकर आ पहुँचीं, जबकि हमने टेलीग्राम भी दिया था कि आप लोग न आएँ, क्योंकि यहाँ भीड़ है; लेकिन आपकी भावनाओं में उछाल आया। आपकी भावनाओं ने, आपकी निष्ठा ने यह कहा कि नहीं, हमको तो जाना ही है। हमको शान्तिकुञ्ज जाना है और गुरुजी के दर्शन करना है। माताजी को प्रणाम करना है।
बेटे! क्या यहीं तक बात सीमित हो जाएगी? नहीं, यहाँ तक सीमित नहीं होनी चाहिए। नित्यप्रति जैसे आप वहाँ से गाड़ी से चले हैं, घर से रवाना हुए हैं, आपको रोज ही इस शान्तिकुञ्ज का चक्कर लगाना है। कैसे लगाना है माताजी? पाँच मिनट की यह साधना है।
बाकी की बात मैं पीछे कहूँगी कि आप बैठ करके पाँच मिनट यह साधना कीजिए कि हम घर से चले। शान्तिकुञ्ज पहुँचे और पहुँच करके हम ऊपर गए। कहाँ गए? जहाँ कि गुरुजी ने 24-24 लक्ष्य के पुरश्चरण किए। उस सिद्धदीपक को हमने नमन किया। क्या नमन करके ही धन्य हो गए?
नहीं, उससे जो शक्ति गुरुजी ने पाई है, अपने गुरु से शक्ति पाई है, वही शक्ति पाने में हम भी समर्थ होंगे। वह शक्ति हमको भी मिलेगी। रोज-रोज आपको सारे शान्तिकुञ्ज का चक्कर लगाना है। ऊपर वहाँ तक, जहाँ तक आप हमारे पास जाते थे। वहाँ तक आपको चक्कर लगाना है। क्यों साहब! ऐसा आप क्यों कह रही हैं?
इसलिए कह रहे हैं कि आपको वह लक्ष्य याद बना रहेगा, वह उद्देश्य याद बना रहेगा, जिसके लिए हम आपको समय-समय पर झकझोरते रहते हैं। समय-समय पर हम आवाज उठाते रहते हैं और आपके द्वारा हम कुछ कराना चाहते हैं। आपको कुछ ऊँचा उठाना चाहते हैं।
जगाएँ अपनी भावनाएँ
आपकी भावनाएँ न मालूम कहाँ सो गईं, सिद्धान्त जाने कहाँ चले गए, व्यक्ति पाषाण हो गया है, भावहीन हो गया है, भावनाएँ हैं नहीं? भगवान के प्रति भावनाएँ नहीं हैं। भगवान की उपासना तो करते हैं; लेकिन वहाँ भी हमारा स्वार्थ चलता है, मिलावट चलती है।
ऐसे तो हर चीज में मिलावट है, भगवान की भक्ति में भी मिलावट है। वहाँ भी हमारा स्वार्थ टकराता है, वहाँ भी हम अपने स्वार्थ के लिए करते हैं और कहते हैं—भगवान हमको बेटा दे दो, बेटी दे दो, जो कुछ भी हो, वह दे दो। आप भी कुछ देंगे क्या? नहीं, हम क्या दे सकते हैं? हमारे पास क्या है? हम तो केवल भिखारी हैं।
यह नहीं, बेटे! यह भिखारी शब्द मनुष्यों के लिए शोभा नहीं देता है। सन्तपन तो शोभा देता है, जिसके कि आप अनुयायी हैं। सन्त और ऋषिपन तो आप लोगों के लिए शोभा देता है। भिखारीपन शोभा नहीं देता है कि अमुक चाहिए, तमुक चाहिए। अरे चाहिए क्या? भगवान ने जब हमको इतना बड़ा शरीर दे दिया है, जिस पर करोड़ों रुपये की सम्पत्ति निछावर की जा सकती है तो हमको क्या चाहिए? कुछ नहीं चाहिए!
दया माँगें, करुणा माँगें
भगवान हमको चाहिए, तो एक चीज चाहिए, वह चाहिए करुणा, वह चाहिए दया। दया, करुणा और प्यार चाहिए। इस प्यार के सहारे, इस करुणा के सहारे हम समस्त संसार को बदलने का हौसला रखते हैं।
वह करुणा न मालूम कहाँ चली गई है? इनसान के अन्दर से करुणा बिलकुल समाप्त हो गई है। यह किनकी जिम्मेदारी है? इसको कौन पूरा करेगा? बेटे! आपके साथ हम हैं, हम पूरा करेंगे और आप पूरा करेंगे। आप लोग जो बैठे हैं, जिनको कि हम बुद्धिजीवी कहते हैं, जिनको मूर्द्धन्य कहते हैं। मुरदों से क्या आशा रखेंगे, मुरदे तो मरे-मराए हैं, चाहे वे बीस साल के हैं।
जिसमें जीवट है, वही जीवित है
जिसके अन्दर कोई जीवट नहीं है, जिसके अन्दर कोई हौसला नहीं है, जिसके अन्दर कुछ कर गुजरने की हिम्मत नहीं है, उसको मुरदा कहेंगे और जिसके अन्दर जीवट है, क्या वो सौ बरस का वह भी नौजवान है। गुरुजी कैसे हैं बेटे? अरे झुर्री पड़ गई, दाँत उखड़ गए, 80 साल के हो गए। बुड्ढे हो गए? बुड्ढे हो गए होगे तुम, वह बुड्ढे नहीं हैं बेटे! बुढ़ापा दूर-दूर तक नहीं है। क्यों नहीं है? कितने क्रियाशील हैं। सम्पूर्ण विश्व के लिए जो उन्होंने बीड़ा उठाया है, सफल होंगे? हाँ, सफल होने चाहिए।
हम दावा करते हैं कि विश्व को बदलने के लिए हमने जो बीड़ा उठाया है, जी-जान से मिट क्यों न जाएँ? मिट जाएँगे, तो देखा जाएगा; लेकिन उसे पूरा करने का भरसक प्रयास करेंगे। भरसक प्रयास स्वयं ही नहीं करेंगे; बल्कि लाखों की तादाद में जो हमसे जुड़े हैं, अखण्ड ज्योति पत्रिका तीन लाख निकलती है, युगशक्ति गायत्री तीन लाख निकलती है, अन्य-अन्य भाषाओं में जो हमारी पत्रिकाएँ निकलती हैं, हमारा संगठन जो इतना मजबूत है कि उसको हम आगे करेंगे।
वह आपका उत्तरदायित्व है। जनमानस में फैली हुई जो विकृतियाँ हैं, मज़हब के नाम पर, जातिवाद के नाम पर, दहेज के नाम पर जो भ्रष्टाचार और अनाचार फैला हुआ है, इसका जिहाद कौन बोलेगा? आप लोग जो बैठे हैं, जिनके अन्दर जो बीज डाला जा चुका है।
आपको तो मालूम नहीं है कि आपके अन्दर वह बीज डाला जा चुका है, जो वृक्ष के रूप में परिणत होना चाहिए। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों—ये होना ही चाहिए। आपके अन्दर भी वह चेतना पहुँच चुकी है, जो कि दूसरों के अन्दर जानी चाहिए। आप ही उसके ठेकेदार नहीं हैं। नहीं साहब! चलिए गुरुजी के दर्शन करके आना है। कर ले बेटा! माताजी के कर ले, गुरुजी के कर ले।
विश्व की चिन्ता करिए
क्या रखा है? तुमसे भी गए बीते हैं, शक्ल- सूरत में, फिर भी गुरुजी के यदि दर्शन करने हैं तो उनकी फिलॉसफी देखिए, उनके अन्तरंग के दर्शन करिए। बाहर से दर्शन मत करिए, अन्दर से करिए। अन्दर से यदि दर्शन आप करेंगे, तो जिस तरीके से गुरुजी को चैन नहीं पड़ता है और बेटे! हमको नींद नहीं आती है कि सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए हम क्या करें, बेटे! हम क्या कर सकते हैं? आपको भी बेटे! बिलकुल वैसा ही होना पड़ेगा। आपके अन्दर भी वही अग्नि की ज्वाला जलती हुई दिखाई पड़ेगी और मानवमात्र के लिए आप भी दिन-रात यही सोचेंगे कि ऐसा करेंगे, जैसा कि हर समय हमारा चिन्तन रहता है, गुरुजी का चिन्तन रहता है।
बेटा! उनका दिमाग खोल करके देखा जाए, तो एक क्षण भी उनका बरबाद नहीं जाता है। आप तो घण्टों बरबाद करते हैं, वे एक क्षण भी बरबाद नहीं करते। सारा-का-सारा विश्व (विराट) मिशन-विश्व-मिशन, इसके अलावा कुछ भी नहीं है। आज एक भाई—दूसरे भाई का शत्रु बनता है, एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी का शत्रु बनता है, आखिर क्यों? यह चिन्तन की विकृति है। यदि चिन्तन सुधर जाए तब? तब फिर यह स्वर्ग हो जाएगा कि नहीं हो जाएगा। आज तो हमारे परिवार में भी स्वर्ग नहीं है।
हमने यह बीड़ा उठाया है। कौन-सा बीड़ा उठाया है कि व्यक्ति का निर्माण होना चाहिए, परिवार का निर्माण होना चाहिए, समाज का निर्माण होना चाहिए? व्यक्ति का निर्माण होगा तो परिवार का निर्माण होगा, परिवार का निर्माण होगा तो समाज का निर्माण होगा। पहले अपना निर्माण, फिर परिवार का निर्माण, फिर समाज का निर्माण, ये आपके हाथ में है।
मशाल की चिनगारी घर-घर तक पहुँचाएँ
हम वह जलती हुई मशाल आपको सौंपते हैं और आपसे उम्मीद करते हैं कि यह मशाल लेकर घर-घर इसकी चिनगारी को पहुँचाइए, जिसमें आप भी शामिल हैं और ये बच्चियाँ भी शामिल हैं। जो हमारी बेटियाँ कहलाती हैं, जिन्होंने हमको गुरु माना है, तो ये हमारी बेटी हो गईं न, आप हमारे बेटे हो गए न, आप हमारे शिष्य हैं न। आप हमारे बेटे हैं, तो आप हमारे वजन को हलका करिए। जो काम हम करना चाहते हैं, वह काम आप करिए; क्योंकि हम हर जगह नहीं जा सकते।
हम पूरे गुजरात में कहाँ जाएँगे बताना? पूरे गुजरात में हम कहीं भी नहीं जाते; क्योंकि हमने जो संकल्प लिया है, कहीं जाते ही नहीं हैं, तो कहीं नहीं जाएँगे। कौन जाएगा, कौन करेगा? आप करेंगे। कुरीतियों को कौन हटाएगा? आप हटाएँगे। दहेज के दानव को कौन जलाएगा? आप जलाएँगे। यदि आपके अन्दर करुणा है, तो आप शपथ लेंगे कि हम कभी भी दहेज नहीं लेंगे।
आज हमारी बेटियाँ, आज हमारी बहुएँ, रोज हम अखबार में यह पढ़ते हैं कि फलानी जगह लड़की जला दी गई, मर गईं, दहेज में कुँवारी रह गई। एक पेपर में पढ़ा कि उसकी तीन कन्याएँ थीं, तीनों फाँसी लगाकर मर गईं। हाँ, ऐसा क्लेश हुआ उस रोज! ऐसा लगा कि जैसे हमारी कोई शैलो चली गई, हमारी लड़की चली गई क्या? अनाचार-अत्याचार पनप रहा है। अभी और पनपेगा। क्यों नहीं पनपेगा?
जब तक हम सिद्धान्तवादी नहीं बनेंगे, तब तक यह पनपता ही रहेगा और बेचारे को उलटा-सीधा काम करना ही पड़ेगा, क्योंकि उसके तो चार बेटी हैं। उनके हाथ पीले करने हैं। कोई जहर खाकर मरती है। कोई फाँसी लगाकर मरती है, किसी को मारा जाता है और हम सो रहे हैं, जिनको हम कहते हैं कि ये बुद्धिजीवी वर्ग हैं।
ऐसे कैसे बुद्धिजीवी?
हम बुद्धिजीवी हैं? हम कठोर हैं, हम पाषाण हैं। पाषाण, जिसके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता। आपके ऊपर असर पड़ना चाहिए। आप घर-घर जाकर नारियों से भी कहेंगे। एक काम और भी है, आपके जिम्मे है कि आप महिलाओं को भी आगे आने दीजिए।
यदि हमारा आधा हिस्सा लकवा मारा हुआ रह गया, एक पहिया साबित रह गया, तो एक पहिये से गाड़ी चलेगी क्या? दोनों पहियों से चलेगी। दोनों समान होने चाहिए। यह जिम्मेदारी किसकी है?
यह जिम्मेदारी नर की है, नारी की नहीं। नारी को यदि ऊँचा उठाया जाए, तो जिस तरीके से आप काम करते हैं, वह भी काम कर सकती है। वह भी समाज में काम कर सकती है; लेकिन उसको उठने नहीं दिया जाता। उसको दबोचकर रखा जाता है, चाहे वह पढ़ी-लिखी ही क्यों न हो? भले से सर्विस कर रही हो। भले से कमा रही हो; लेकिन घर में गुलाम है।
नर और नारी एक समान
किसकी गुलाम है? पति की गुलाम, सास की गुलाम, वह सबकी गुलाम है। खुली हवा में साँस लेने का अधिकार उसको है कि नहीं? बिलकुल कतई अधिकार नहीं। उसको तो बस, उतना अधिकार है। गुलामी तो चली गई; लेकिन मानसिक गुलामी अभी भी है। आप इसे ऊँचा उठाइए।
इसे ऊँचा उठाएँगे, तो इसका चिन्तन सुधरेगा। इसका चिन्तन सुधरेगा, तो हमारे यहाँ गाँधी जी जन्म लेंगे, बुद्ध जन्म लेंगे और हमारे यहाँ जाने कौन-कौन जन्म लेंगे? राम जन्म लेंगे, कृष्ण जन्म लेंगे, पैगम्बर जन्म लेंगे और हमारे यहाँ ईसामसीह जन्म लेंगे। जाने कौन-कौन हमारे यहाँ जन्म लेंगे?
आज जो स्थिति है, वह तो आप भी जानते हैं और हम भी जानते हैं। अभी क्या? अभी तो देखते जाओ, हमारे घरों में ये कौन पैदा होते हैं? हमारे घरों में चोर, डकैत, जुआरी, शराबी जन्म लेंगे और मैं आपसे क्या कहूँ? राक्षस जन्म लेंगे। आप देख लेना, राक्षस हो रहे हैं। क्यों हो रहे हैं? इसलिए हो रहे हैं कि जो माता- पिता का चिन्तन है, वह सारा का सारा घुल करके उस बच्चे में चला जाता है। हमारे रहन-सहन का जो ढंग और तरीका होता है. वही हमारे बच्चे का होता है। हम क्या आशा रखेंगे?
बेटे! पत्नी को ऊँचा उठाइए, उसका मनोबल बढ़ाइए, उसकी सेहत का ध्यान रखिए और उसको आगे बढ़ाइए। सबसे यही कहना कि हमने यह कहा है। नारी आन्दोलन हमारे मुख्य कार्यक्रमों में एक है, कि नारी आन्दोलन के लिए नारी को आगे आने दीजिए।
इस बात का हमको गर्व भी है कि और प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात में नारियाँ बहुत काम कर रही हैं। हमारी बहुत लड़कियाँ काम कर रही हैं।
हमें खुशी है, हमको गर्व है; लेकिन और भी इनको आगे बढ़ने दीजिए। चिन्तन की दृष्टि से इनको प्रखर होने दीजिए। नहीं साहब! हम तो हजामत भी बनाएँगे, तो सेफ्टी रेजर मेज पर रखा जाएगा। अच्छा साहब जी! अभी रखते हैं। अच्छा हजामत बन गई, चलो धोकर रखो, अच्छा साहब जी! अभी रखते हैं। पानी भी रखो, नहाने के लिए, कपड़े भी रखो, जी अच्छा! बिना दाम का, बगैर पैसे का नौकर पकड़ रखा है।
रोटी पकाने के लिए आप नौकर खरीद लाइए, तो आज के जमाने में मैं समझती हूँ कि सौ-डेढ़ सौ रुपये महीने से कम नहीं लेगा। हिसाब लगाइए, धोबी रखिए, तो धोबी कितने में आएगा और फिर एक चौकीदार रखिए, चौकीदार कितने में आएगा? सरकारी चौकीदार कितने में होते हैं, बेटे! दस हजार तक पाते हैं? और इस बेचारी को चौकीदार, धोबी, माली सब बना रखा है। यह बगैर पैसे की मिल गई है कि नहीं मिल गई है। इसका चिन्तन आगे आने दीजिए, ताकि वह आपके समतुल्य हो सके।
यदि आप सच्चे अर्थों में गुरुजी के शिष्य हैं, तो कम-से-कम गुरुजी से इतना तो आप सीख लीजिए। इतना तो आप लेकर ही जाइए कि गुरुजी ने आज तक हमसे कभी भी सेवा नहीं ली है। एक गिलास पानी तक हमसे आज तक नहीं माँगा कि हमको एक गिलास पानी दें। उन्होंने हमेशा यह कहा कि मेरी सेवा यदि कोई करता है, तो मुझे ऐसा लगता है—जैसे कोई छुरा मार रहा हो। मैंने कहा कि नहीं, इस कीमत पर सेवा नहीं करनी। मैं तो आपकी पत्नी हूँ, तो आप ऐसा क्यों कहते हैं? नहीं, अपनी सेवा आप करनी चाहिए। अपने अन्दर इतना भरोसा है।
हम करें समर्पण
बेटे! उन्होंने मुझे अपने समतुल्य बना दिया है। शिक्षा की दृष्टि से तो मैं कहती नहीं हूँ; लेकिन हर दृष्टि से अपने समान बना दिया। उन्होंने मेरे हौसले को बढ़ाया और मैं आगे बढ़ती चली गई। समर्पण मेरा है | आपका भी यदि समर्पण है, तो आप भी सही मानना, आप भी बन जाएँगे, जिस तरीके से मैं बनी हूँ। मेरा समर्पण है, जो एक कदम चला, मेरे दो कदम आगे चले। कभी मैंने पीछे मुड़कर के यह नहीं देखा कि कुआँ है कि खाई है कि खन्दक है। जो कुछ कह दिया, वह ब्रह्मवाक्य है।
गलत है, उसका समर्थन तो नहीं किया। गलत कभी कहा ही नहीं, तो समर्थन की कोई बात ही नहीं है। हम दूध और पानी के तरीके से हैं और एक प्राण और दो शरीर के तरीके से बँधे हुए हैं। हम एक और एक ग्यारह के तरीके से काम करते हैं। आप तो एक और एक दो भी नहीं हैं, लाश हैं। आपके घरों में तो लोग लाश के तरीके से जिन्दा रहते हैं। किसी का, किसी के प्रति न प्यार है, न मुहब्बत है, न किसी का, किसी के प्रति समर्पण है, न त्याग है। यह कोई जीवन है। यह कोई जिन्दगी है? यह तो नरक है।
आप से कोई क्या शिक्षा पाएँगे? आपको जो कोई देखेगा, वह कहेगा—आ! हा! हा, यही हैं गायत्री परिवार वाले देखो-देखो इनके घर में क्या हो रहा है? यही हैं गुरुजी के शिष्य? नहीं बेटे! हमको यह कलंक मत लगवाना। हम आपसे निवेदन करते हैं कि सम्पूर्ण संसार में जो विभीषिका के बादल छाए हुए हैं, इसका निवारण करना आप बुद्धिजीवियों का काम है।
हमारे पदचिह्नों पर चलिए
हम तो आपके लिए पदचिह्न छोड़ जाएँगे कि इन पर आप चलिए। हम हमेशा जिन्दा नहीं रहने वाले हैं; लेकिन आप में से कितने नौजवान बैठे हैं, आपको तो बहुत जिन्दा रहना है। वह कार्य जो हम पूरा नहीं कर पा रहे हैं, आपको पूरा करना चाहिए, आपको घर-घर जाना चाहिए। नहीं साहब! हमारी तो नाक कट जाएगी। नाक कल कटे, सो आज ही कट जाए। उसको तो आज ही कट जाने दीजिए।
बेटे! आप तो जनसम्पर्क के लिए नहीं जाना चाहते। आप घर-घर में अच्छे विचार नहीं फैलाना चाहते हैं। आप लड़कियों को नहीं निकलने देना चाहते हैं, बहुओं को नहीं निकलने देना चाहते हैं; ताकि अच्छे विचार दूसरों को मिलें। आप उन्हीं सड़े-गले विचारों में, उन्हीं घटिया विचारों में लगे रहते हैं। आपके चिन्तन को जरा भी मौका नहीं मिलना चाहिए? नहीं, आप बढ़िया चिन्तन करिए, बढ़िया जिन्दगी जिएँ, उच्चकोटि का चिन्तन करिए। गाँधी जी के साथ जो रहते थे, बेटे! जिन्होंने गाँधी जी को अन्तरंग से समझा, उन्होंने ग्रन्थ लिखा।
उन्होंने लिखा कि गाँधी जैसा मैंने देखा और जो पास में एक मसखरा नाई रहता था, उससे पूछा—"यह बताओ भाई, गाँधी जी क्या करते रहते हैं? तुम तो हजामत बनाते हो न। इनके तुम ज्यादा निकट हो; क्योंकि तुमने तो शरीर छुआ है न। तो बताओ तुमको ज्यादा मालूम है। तुम घर में आते-जाते रहते हो।" उसने कहा—"मालूम नहीं, यह क्या करते रहते हैं? कुछ सूत-सा कातते रहते हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। सरकार से कुछ मिलता रहता है, उससे न जाने क्या करते रहते हैं, मालूम नहीं, क्या करते रहते हैं, क्यों?" क्योंकि उसने केवल शरीर देखा था और उसने उनकी फिलॉसफी को नहीं देखा था। गाँधी जी की फिलॉसफी को नहीं देखा था।
आप किसी भी मज़हब को देख लें, चाहे तो कुरान उठा करके देखिए, चाहे बाइबिल उठा करके देखिए, चाहे गुरुग्रन्थसाहब को उठा करके देखिए, उसमें से एक ही आवाज निकलती है कि सब मज़हब एक हैं, मानवमात्र सब एक हैं। करुणा, दया, सेवा। केवल करुणा वहीं तक न रह जाए। हाय यह क्या हुआ? इसका ऐसा हो गया। हाय करके रह जाएँगे कि उसकी मदद करेंगे।
जहाँ कहीं भी हमको पीड़ा और पतन मिलेगा, उस पीड़ा और पतन को मिटाने के लिए हमको भरसक प्रयास करना चाहिए। वह आपके जिम्मे है। आपको क्या करना पड़ेगा? दीपयज्ञ के माध्यम से जनसम्पर्क के लिए आपको घर-घर जाना पड़ेगा। छोटे-छोटे आयोजनों के रूप में घर-घर जन्मदिन मनाइए। जन्मदिन मनाना नहीं आता, तो हम केक को काट देते हैं, मोमबत्ती बुझा देते हैं। हो गया जन्मदिन | क्यों मोमबत्ती जलाई है, क्यों बुझाई है? ऐसा क्यों किया? क्यों तो आपने जलाई है और फिर अशुभ कार्य क्यों किया है? आपने पाश्चात्य सभ्यता ले ली न।
जन्मदिन के माध्यम से हम उनके घर और कुटुम्ब वालों को वह शिक्षण दे सकते हैं कि अपनी एक बुराई निकालिए और एक अच्छाई को ग्रहण करिए; ताकि आपको देख करके दूसरा बदले। आप वहीं के वहीं बैठे हैं, तो आपसे क्या शिक्षण लेंगे? आपसे निवेदन कर रहे हैं कि आप जन्मदिन के माध्यम से, विवाह आन्दोलन के माध्यम से आदर्श विवाह का प्रचलन प्रारम्भ कीजिए, आप यहाँ आ जाइए। पाँच व्यक्ति घर के पाँच घराती हैं, पाँच बराती, बस एक लड़का एक लड़की आ जाइए, यहाँ शादी कर ले जाइए।
कोई खरच नहीं होगा? गाजे-बाजे में कुछ नहीं खरच होगा और दावत में तुम्हें नहीं मालूम है? दोपहर को दावत मिलेगी बेटे! दलिया, चावल, सब्जी, दाल और ज्यादा-से-ज्यादा भीड़ हुई, तो दो रोटी। इससे भी ज्यादा भीड़ हुई, तो रोटी कट, आपको यह दावत मिलेगी। इस दावत के लिए आप सब आमंत्रित हैं। इस पवित्रभूमि में आपको आना चाहिए। बार-बार आइए, पर कुछ-न-कुछ अपना ध्येय और लक्ष्य लेकर के आइए, जो हम आपसे कराना चाहते हैं। आप जो उम्मीद लेकर के आए हैं, वह तो हमको मालूम है। बेटे! हम बड़े हैं, तो हमको मालूम है।
जैसे टिटिहरी बैठी थी और समुद्र उसके अण्डों को बहा ले गया। टिटिहरी ने कहा—अच्छा तेरी यह हिम्मत कि मेरे अण्डे को बहाकर ले जाएगा। अच्छा अभी देखती हूँ। मेरा भी संकल्प है कि तुझे सुखा न लूँ, तो मेरा भी नाम टिटिहरी नहीं है। बेटे! हम टिटिहरी के तरीके से और जैसे कछुई होती है और अपने अण्डे को छाती से लगाए रहती है। मुरगी अपने अण्डों को छाती से लगाए रहती है। इस तरीके से भावनात्मक दृष्टि से हम आपको छाती से लगाए रहते हैं।
गुरुसत्ता का आश्वासन
आप विश्वास रखिए कि आप पर कभी कोई कष्ट-कठिनाई आती है, तो हमारा हृदय रो पड़ता है। यह कहता है कि हम इनकी मदद कैसे करें, किस तरीके से हम इनकी मदद करें? बेटे! आपके प्रारब्ध तो नहीं पलटे जा सकते। यह कहना तो हमारी मूर्खता होगी कि हम आपके प्रारब्धों को पलट देंगे। बेटे! पलटा तो भगवान राम से भी नहीं गया; जबकि पुत्रवियोग में दशरथ जी चले गए और सुभद्रा का अकेला लड़का अभिमन्यु था और कृष्ण देखते ही रह गए और अकेला चला गया।
उनकी बहन ने कहा कि भाई! यह बता कि लोग तुझे भगवान कहते हैं और तेरा अकेला भानजा था, वह मारा गया। तू बड़ा कठोर है, बड़ा हृदयहीन है। उन्होंने कहा—बहन, प्रारब्ध जन्म जो भोगने हैं, वह तो सबको ही भोगने पड़ेंगे। उसके लिए तो दृढ़ता के साथ हमको मुकाबला करना चाहिए, उन परिस्थितियों का हमको मुकाबला करना चाहिए। मर गया है, तो रोते रहो, रोने से आ जाएगा? नहीं आएगा।
अपने विवेक से काम लीजिए। विवेक से आप काम लेंगे, तो आपकी जिन्दगी कटती हुई चली जाएगी और विवेक से आपने काम नहीं लिया, तो आप ऐसे हैरान हो जाएँगे कि बस, मैं आपसे क्या कहूँ? आप विक्षिप्त हो जाएँगे। बेटे! मैं यहाँ समुद्र की बात कह रही थी और टिटिहरी की बात कह रही थी। तो जब टिटिहरी ने यह संकल्प लिया कि मैं समुद्र को सुखा दूँगी, तो अगस्त्य ऋषि आए।
अगस्त्य ऋषि ने कहा कि यह तो अपने प्रण की बड़ी धनी है। चलिए इसकी मदद करनी चाहिए। कहा—टिटिहरी क्या बात है? ऋषिवर! यह मेरे अण्डों को बहाए ले जा रहा है। इस तरह इसकी हिम्मत कैसे हो गई?
अगस्त्य ने कहा—बेटी! तेरी मदद हम करेंगे। कहते हैं कि उन्होंने चुल्लू से ले करके पानी पिया और समुद्र को सुखा दिया। सुखा दिया कि नहीं सुखा दिया, इस बहस में मैं नहीं पड़ती, पर मैं तो उदारता के लिए कहती हूँ, करुणा के लिए, प्यार के लिए कहती हूँ तो वह प्यार और वह ममता हमारे भीतर प्रत्येक व्यक्ति के लिए होनी चाहिए।
हमारी तो करुणा आपके प्रति है ही, इसमें तो दो राय ही नहीं है, लेकिन आपकी भी हर व्यक्ति, हर इनसान, हर मानव—जो मानव के रूप में भगवान है, उसके प्रति होनी चाहिए। उस भगवान को तो अभी कहीं किसी ने देखा नहीं है। जो सर्वव्यापक है, जड़-चेतन में समाया हुआ है, उसको हम इस दृष्टि से कैसे देख पाएँगे?
उसको हम सम्वेदनाओं के रूप में तो समझ लेंगे कि भगवान हमारे अन्दर आ गया। भगवान आ गया, तो परिवर्तन हो गया, नहीं आया, तो परिवर्तन नहीं हुआ, जैसे-के-तैसे ही बने रहे।
(क्रमशः अगले अंक में समापन )
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
प्रबुद्धों को आमंत्रण (उत्तरार्द्ध)
विगत उद्बोधन में आपने पढ़ा कि परमवन्दनीया माताजी अपने इस हृदयस्पर्शी उद्बोधन में समस्त गायत्री परिजनों को यह स्पष्ट आश्वासन प्रदान करती हैं कि जीवन के हर उतार एवं चढ़ाव में गुरुसत्ता का साथ उनके साथ सदैव बना रहेगा। वन्दनीया माताजी प्रबुद्धों को आमंत्रण देते हुए कहती हैं कि प्रबुद्ध होने का अर्थ भावनाओं के जागरण से है। जिनकी भावनाएँ जाग्रत हो जाती हैं, जिनके हृदय आत्मीयता से सिक्त हो जाते हैं एवं जिनके मनों में गुरुसत्ता के लिए कुछ करने का भाव जाग जाता है, वे प्रबुद्ध कहलाने के अधिकारी बन जाते हैं। वन्दनीया माताजी कहती हैं कि हमें प्रबुद्ध होने के नाते अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को समझने की गहन आवश्यकता है तथा स्वयं को वैश्विक मानवता के लिए समर्पित करने की आवश्यकता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को ...
विश्व के लिए समर्पित हों
बहुत दिन हुए हम और गुरुजी एक जगह गए, नाम तो नहीं लूँगी। हजार कुण्डीय यज्ञ हुआ था। जब गए, तो वहाँ एक लड़का देखा, बहुत गोरा-चिट्टा बैठा था। एक तरफ उसकी औरत, एक तरफ उसकी माँ बैठी थी। वह झूम रहा था और चिल्लाने लगा—गायत्री माता आ गई। अब उसकी औरत और उसकी माँ ने उसकी पीठ को ठोक-ठोककर लाल कर दिया। वह भी उन्माद में आ गई।
मैंने गुरुजी से कहा—चलिए साहब! प्राण बचाने हैं, तो यहाँ से चलें, भीड़ के मारे यहाँ दम निकला जा रहा है। मैंने कहा—कुण्डों की गरमी और भीड़ की गरमी, ऊपर से शेखचिल्ली बने बैठे, पागल जो यह कहते हैं कि हमको तो दिखाई नहीं पड़ा, हमको तो चमक नहीं दिखाई पड़ी, गुरुजी नहीं दिखाई पड़े, गायत्री माता दिखाई नहीं पड़ीं। गायत्री माता तेरे पास इतनी दूर से आई हैं और तू कहता है कि हमको तो नहीं दिखाई पड़ीं। स्वप्न में दीख जाएँगी तो क्या हो जाएगा तेरा?
एक और लड़का आया, उसने कहा—साहब! पहले तो दिखाई पड़ता था। वह, अब मुझे नहीं दिखाई पड़ता। मैंने जोर से डाँट लगाई और कहा—दस सालों में तूने यहाँ आ करके शक्ल दिखाई है, पहले यह बता कि अब तक मिशन का क्या कार्य किया? तब तुझे दिखाई पड़ते थे और अब दिखाई नहीं पड़ते हैं। तब तूने क्या किया था? दस साल में तूने अब यहाँ आ करके शक्ल दिखाई है, हृदयहीन कहीं का।
इस पागलपन को तो अलग रखना चाहिए; लेकिन यह मानना चाहिए कि गुरुजी आपके साथ हैं। गायत्री माता आपके साथ हैं, हम आपके साथ हैं। हर क्षण आपके हृदय में हम विराजमान हैं, हर क्षण आपकी साँस में हम विराजमान हैं। बेटे! यह हमारा समर्पण है। मिशन के लिए, विश्व के लिए आपका भी समर्पण होना चाहिए।
बेल आपने देखी होगी। बेल जब समतल जमीन पर होती है, तो उसका कोई अस्तित्व नहीं होता है और जब वह पेड़ से लिपटने लगती है, तो ऊँची चढ़ती हुई चली जाती है और पेड़ के समान हो जाती है। पेड़ के समान ऊँचाई पर जा पहुँचती है। यह है समर्पण। आग और ईंधन जो कि सुबह आप ध्यान में सुनते हैं, जब लकड़ी आग के लिए समर्पित हो जाती है, तो उसका स्वरूप लाल हो जाता है। अँगारे में जब तक परत जमी रहती है, तो उसका जो मूलस्वरूप है, दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि उसके ऊपर राख की परत पड़ी हुई है और उसकी सफेद वाली परत हटा दीजिए, तो लाल अँगारा दहकता हुआ दिखाई पड़ेगा।
पतंगे और दीपक का समर्पण
बेटे! पतंगे का और दीपक का समर्पण है। भगवान के लिए यदि हम समर्पित हैं, तो हमें समर्पित जीवन जीना चाहिए। लोक-मंगल के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए हमको समर्पित होना चाहिए। यदि हम समर्पित हैं, तो हमारा जीवन धन्य है, नहीं, तो बेटे धिक्कारने योग्य है कि हमको मनुष्य योनि मिली, फिर भी हम बरबाद करते हुए चले गए। किसके लिए? मुट्ठी भर व्यक्तियों के लिए, जिनमें हमारा बच्चा, बीबी, माँ, बहन, भाई, कुटुम्ब जिनको हम अपना कहते हैं। बस, इसी के लिए जन्म लिया था क्या? इसको तो कीड़े-मकोड़े और पशुयोनि कहते हैं।
बेटे! आप बुरा मत मानना, बुरा आपको लगता है, तो क्षमा करना; लेकिन ये पशुयोनि होती है, जो केवल खुदगर्जी के लिए जीना चाहता है, दूसरों के लिए नहीं। बेटे! पीड़ा-पतन में जो कराह रहा है और अन्धी आँखें पुकार रही हैं, जो चीत्कार हो रहा है, उसको आप नहीं सुन रहे क्या? उसको यदि आप नहीं सुन रहे हैं, तो फिर गुरुजी के प्रति आपका क्या समर्पण है? उनका समर्पण है, जो दिन-रात सोते भी नहीं हैं और दो लेख लिख करके तब पानी पीते हैं। बेटे! समर्पण उनका है, जो कि सारे समाज को एक चेतना देने के लिए और उसको सुधारने के लिए दिन-रात यही चिन्तन करते रहते हैं कि हमको क्या करना चाहिए, हम क्या कर सकते हैं, इसको क्या दिशाधारा दे सकते हैं और वह हम करते हैं।
कहाँ तक सफल होंगे? यह तो भगवान मालिक है, कोई हमारी जिम्मेदारी नहीं है, पर जो कुछ भी हम कर सकते हैं, वह तो हम करें। तो आप भी यही करिए कि यहाँ से जा करके एक नई चेतना ले करके जाइए, नई उमंग ले करके जाइए, नया उत्साह लेकर के जाइए और मानव के भीतर वह आग फूँकिए कि बस, आनन्द आ जाए।
टॉम काका की कुटिया
अमेरिका में एक नाटी-सी औरत थी, मैं जरा उसका नाम भूल गई ( हैरिएट स्टो)। उसने एक पुस्तक लिखी—"टॉम काका की कुटिया।" उसने जो पुस्तक लिखी, उससे समस्त अमेरिका में जो आग फैली, तो उससे तहलका मच गया कि गोरे और काले का भेद कैसे रह सकता है? और जिस दिन स्वाधीनता मिली, तो उसको टेबल पर खड़ा कर दिया कि यही वो नाटी-सी औरत है। जिसने कि मिट्टी में प्राण फूँक दिए, मिट्टी में प्राण डाल दिए इनमें प्राण डालने की आवश्यकता है।
इसमें प्राण कौन डालेगा? आप लोग डालेंगे, जो यहाँ उपस्थित हैं। यह मिट्टी का शरीर है, इसमें प्राण डालने हैं, आपको प्राण फूँकने हैं। जहाँ कहीं भी आप जाएँ, सुधार की बात करिए। गिरावट की नहीं, गिराने की नहीं, उठाने की। हर व्यक्ति को उठाइए, हर मजहब वालों को उठाइए। हमें मजहब से कोई लेना-देना नहीं है। हमें जातिवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
हमारी जाति एक—मानव जाति
हमारी तो सब एक ही जाति है। वह मानव जाति है और मानव जाति की सेवा मानव नहीं करेगा, तो आ करके कौन करेगा, आप लोग नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? आपको करना चाहिए, यह बीड़ा आपको उठाना चाहिए, यह शपथ आपको लेनी चाहिए। यह संकल्प आपको करना चाहिए, जिसके लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं, आपको बुलाते हैं और आप अपने आप भी आते हैं।
आप तो भावनाओं से आते हैं, श्रद्धा से आते हैं, लेकिन इस श्रद्धा को थोड़ा-सा फलने दीजिए। श्रद्धा यदि आपके अन्दर है, तो आपकी करुणा मानवमात्र के लिए जगनी चाहिए और उसकी सेवा होनी चाहिए।
किन-किन रूपों में आप सेवा कर सकते हैं? उस सेवा का बाह्यस्वरूप हमारे कार्यकर्ता आपको बताएँगे। आप झोला पुस्तकालय के माध्यम से करेंगे; क्योंकि जब तक अज्ञान का अन्धकार नहीं हटेगा, ज्ञान का उदय नहीं होगा। ज्ञान का उदय तब होगा, जब व्यक्ति स्वाध्याय करेगा, स्वाध्याय नहीं करेगा, तो अज्ञान का अँधेरा हटेगा ही नहीं। वह तो कूपमण्डूक है।
हमारे यहाँ यह होता है कि शादी होती है, तो बिल्ली मार के रखी जाती है। कभी किसी के यहाँ कोई ब्याह-शादी हो रही थी। बिल्ली मर गई तो यह सोचा गया कि भाई यह जो बिल्ली मर गई है, जब बरात यहाँ से चली जाए और लड़की के फेरे पड़ जाएँ, तब इसको निकालना शुभ होता है तो डलिया के नीचे ढककर रख दी।
अब वह परम्परा चल गई। उन्होंने कहा कि कहीं से बिल्ली लाओ और उसे मारकर रखो, तभी शादी होगी। किसी विचारशील ने कहा—पागल तो नहीं हो गए हो तुम? अरे बाबा वह तो किसी जमाने में कुछ हो गया होगा, बिल्ली बाईचान्स मर गई होगी। लकीर के फकीर बने ही रहेंगे? नहीं, ऐसा तो होता ही था, ऐसा ही करना चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए।
प्रगतिशील विचार रखें
हम प्रगतिशील विचारों के हैं, तो प्रगतिशील ही विचार करिए। आप प्रगतिशील विचार ही औरों को दीजिए, मैंने आज आपसे यह एक निवेदन किया है। आप ये कहेंगे कि हम अपने दुःख-कष्ट-कठिनाई लेकर के आए थे, हम उसे तो आपसे कह भी नहीं सके। हाँ, बेटा! आप ठीक कह रहे हैं कि आप लगभग हजार के करीब आए हैं। एक-एक से बात कैसे की जाएगी? लेकिन हम आप सबके अन्तःकरण की बात जानते हैं।
ऐसा कोई भी नहीं बैठा है, जिसके अन्तःकरण की बात हमको मालूम नहीं है, सबकी हमको मालूम है और जो भी कुछ कर सकते होंगे, आपके लिए जरूर करेंगे। बेटे! हम-गुरुजी ऐसे खिवैया हैं, जिनकी नाव में जो कोई भी बैठा है, न तो डूबा है और न हमने डूबने दिया। हम आपके रथ को चलाएँगे, हम आपके जीवन की नाव के खिवैया बनेंगे और हमें आपके जीवन के रथ के दो पहिये बनेंगे। आपके रथ को हम चलाएँगे, लेकिन आप जरा अपनी संकीर्णता को तो छोड़ दीजिए।
नहीं, हमने तो गुरुदेव आपके हाथों में सब सौंप दिया। क्या सौंप दिया तूने? ये सौंप दिया है कि आप हमारी चार लड़कियों का विवाह कराओ गुरुजी! तनख्वाह भी हमारी कम है, सो गुरुजी! सौंप दिया सब भार तुम्हारे हाथों में। तुमने क्या भार सौंप दिया है? अरे सौंपना उसको कहते हैं कि जब सौंप दिया, तो पूरे दिल से सौंप दिया। जो कुछ आपको कराना है, कराइए, अब आपके हवाले हैं, आप क्या कराना चाहते हैं। जो चाहें, आप हमसे काम ले सकते हैं, हम आपके हवाले हैं। आप लीजिए तब तो हम समझें, आपने समर्पण कर दिया है, कर दीजिए शादी। अच्छा तो यह मामला है। तूने बेवकूफ समझ रखा है।
बेटे! गुरुजी, तो ऐसे नहीं मिल गए। आपकी जो समस्या है, वह हमको मालूम है। हमने आपकी गारण्टी ली है, अपने ऊपर आपकी जिम्मेदारी ली है कि आपके जीवन की नाव को हम चलाते रहेंगे। आप हमारी नाव में बैठे हैं, तो आप डूब नहीं सकते। किसी भी कीमत पर आपको नहीं डूबने देंगे। न हम डूबते हैं, न किसी को डूबने देते हैं। हम तो जो डूबता है, उसको भी उठाकर किनारे पर लगाने वालों में से हैं, किनारे पर लगाते हैं। उसको भी कहते हैं— बेटा! डूबो मत, तुझे शोभा नहीं देता। तू इनसान है, इनसान का हौसला रख, ब्राह्मण होकर के जी।
कौन होता है ब्राह्मण
ब्राह्मण कौन होता है? ब्राह्मण वह होता है, जो सारे संसार को देता है। ब्राह्मण वर्ग नहीं होता, जाति नहीं होती है। ब्राह्मण एक सिद्धान्त होता है, एक भावना होती है, एक आदर्श होता है। किसी जमाने में हमारे यहाँ सात ऋषि थे। वे सारे विश्व को सँभालते थे। आज हमारे यहाँ, अब तो नहीं हैं, 25 साल पुरानी बात कहती हूँ कि तब का आँकड़ा था—56,00,000 सन्त थे। इतने सन्त किसे कहते हैं? इतने तो बेटे! फौजी भी नहीं हैं। इतनी तो मिलिट्री भी नहीं है, जितनी कि सन्तों की फौज है। जिनको हम सन्त कहते हैं, वे हरेक गाँव के पीछे सात आते हैं। कहीं निरक्षरता रह जाएगी? अनाचार-अत्याचार रह जाएगा, गुण्डागर्दी रह जाएगी, कैसे रह सकती है? लेकिन बेटे! अब क्या कहें? बस, यहीं रहने दे।
इनको सन्त कहेंगे? नहीं, बेटे! सन्त कहने में लज्जा आती है। हे भगवान! कहीं सन्त हों और वे खड़े हो जाएँ, तो उनके पाँव को धोकर के पियें, लेकिन सन्त कहीं दिखाई नहीं पड़ते। दुकानें तो दिखाई पड़ती हैं, दुकानें तो एक-से-एक बढ़िया आप देख लीजिए, दाढ़ी देख लीजिए, लम्बा-चौड़ा तिलक देख लीजिए, काले-पीले कपड़े देख लीजिए, चाहे जैसे देख लीजिए ; लेकिन ये सारा-का-सारा पाखण्ड और ढोंग होगा। सन्त होते, तो आज हमारे देश की यह हालत न होती, फिर हमारा देश वह देश होता, जैसा कि गुरुगोविन्द सिंह के समय था, जब एक ही ने कमाल कर दिया था। अभी भी एक ही पैगम्बर ने कमाल कर दिया है।
समाज को भगवान मानें
एक कहानी जरा मैं भूल रही हूँ। एक पैगम्बर थे, तो एक फरिश्ता जा रहा था। उसने कहा कि फरिश्ते! भाई यह तो बताओ कि आपके हाथ में यह क्या चीज लगी है? उन्होंने कहा—देखो, यह वह डायरी लगी है कि जो कोई समाजसेवा करता है, भगवान का जो सुमिरन करता है, उसकी है। उन्होंने कहा कि अच्छा जरा पलटकर देखना कि क्या इसमें कहीं मेरा नाम है? उन्होंने पलटकर देखा, तो उसमें कहीं नाम नहीं था।
उन्होंने कहा कि मैं सारी जिन्दगी उपासना करते रह गया। मेरा तो इसमें कहीं नाम ही नहीं है। बहुत दिन हो गए, दोबारा वह फरिश्ता फिर लौट-घूम करके आया। फिर उसने डायरी देखी। उन्होंने कहा साहब! बताइए अबकी बार इस डायरी में क्या है? उन्होंने कहा—अब की बार भक्तों की वह डायरी है, जिसमें अल्लाह ताला उनका सुमिरन करता है। उन्होंने कहा—इसमें तो मेरा नाम हो ही नहीं सकता। उन्होंने कहा कि आप ऐसे अधीर क्यों होते हैं? पन्ना पलटकर देखते हैं। उन्होंने पलटा तो पहले ही नम्बर पर उसका नाम था।
क्यों? उसने समाज को पहला भगवान माना था। उन्होंने कहा कि खुदा इनमें हैं, भगवान इनमें हैं। किसमें? यह जो बैठे हैं। इनकी सेवा से हम मुँह मोड़ते हैं और जाने कहाँ-कहाँ पल्ला फैलाते हैं। नहीं, बेटे! हमको इस भगवान का भी सुमिरन करना है। उस भगवान के पास बैठना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि जो मल और विक्षेप जीवात्मा पर पड़े रहते हैं, इनको धोने के लिए आत्मशोधन के लिए भगवान के पास बैठना बहुत जरूरी है।
आप गायत्री मंत्र की उपासना जरूर करिए। चाहे किसी भी मजहब के आप मानने वाले हों, कोई भी बैठे हों, इससे कोई मतलब नहीं है। जो भी आपका मजहब हो, जो भी आपका धर्म हो, आप कम-से-कम आधा घण्टा तो बैठिए। आधा घण्टा नहीं, तो 15 मिनट ही बैठिए। आप भगवान से यह तो प्रार्थना कीजिए कि हे भगवान! हमको कुछ नहीं, हमको आत्मबल चाहिए, आत्मबल दीजिए। आत्मबल हमें मिल गया, तो हमको सब कुछ मिलेगा, आत्मबल नहीं मिला, तो जो आएगा सो ही दबोचता चला जाएगा, जरा किसी ने आँख दिखाई तो बस, प्राण निकल गए।
भगवान से साहस माँगिए
यह हिम्मत है आपके पास कि तन कर खड़े हो जाएँ कि देखें क्या कर लेगा? भगवान से वो रूहानियत माँगिए, वह हिम्मत माँगिए। एक ही चीज हिम्मत माँगिए, हिम्मत और साहस। अभी मैंने कहा था कि ब्राह्मण वह होता है, जो समस्त संसार को देता है। वह ज्ञान देता है। शरीर से जो कुछ भी उससे बनता है, वह देता ही रहता है। दूसरी एक बात और मैं कहना चाहती थी कि आप क्षत्रिय होकर रहिए।
क्षत्रिय कौन होता है? अभी तो आप ब्राह्मण बना रही थीं, अभी क्षत्रिय बना रही हैं। अब जाने तीसरे नम्बर पर क्या बनाती फिरेंगी? नहीं, बेटे! मैं दो ही बनाऊँगी और कुछ नहीं बनाऊँगी। ब्राह्मण तो आप सभी हैं, हम सबको ब्राह्मण मानते हैं। मैंने कहा न ब्राह्मण एक सिद्धान्त, एक भावना है, एक विचारणा है।
कौन है क्षत्रिय?
ब्राह्मण वह होता है, जो सारे संसार को देता है और क्षत्रिय? क्षत्रिय क्या करता है? अनाचार-अत्याचार के विरुद्ध तनकर खड़ा हो जाता है। देखा जाएगा, जो भी हमारे विपरीत परिस्थितियाँ हैं, उनको हम कुचलकर फेंक देंगे, रगड़कर फेंक देंगे। देखें परिस्थितियाँ क्या होती हैं? हमारे सामने कोई परिस्थितियाँ नहीं होतीं। परिस्थितियों का जो गुलाम हो जाता है, वह समय से पहले मर जाता है और जो परिस्थितियों को कुचलकर फेंक देता है, वह जिन्दादिल होता है। आप शूरवीरों के तरीके से जिन्दगी जिएँ, जैसे एक क्षत्रिय जीता है।
क्षत्रिय संग्राम में आगे-आगे चलता है और जो भगोड़ा होता है, पीठ दिखाकर चलता है, वह भगोड़ा कहलाता है। उसका कोर्टमार्शल करते हैं और जो आगे-आगे चलता है, वह शहीद होता है। मरता है तो क्या? शहीद होता है। अच्छे कार्य के लिए हमें अपनी जान भी देनी पड़े, तब भी हम देंगे। व्यक्ति हमें हाड़-माँस का दिखाई तो पड़ता है; लेकिन उसके अन्दर हम देवत्व का उदय चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हर इनसान में देवत्व का उदय होना चाहिए।
आप घर-घर जाइए और उस देवत्व को जो सो गया है, जो देवता सो गया है, जो हमारा भगवान सो गया है, हमारे जीवात्मा में समाया हुआ जो भगवान आज सो गया है, हम उसे पुनः उठाने के लिए कोशिश करें, तो एक-न-एक दिन हमारा भगवान जाग जाएगा, हमारा पुरुषार्थ जाग जाएगा और जहाँ हमारा पुरुषार्थ होगा, जहाँ हमारी भावनाएँ होंगी, जहाँ हमारी निष्ठा होगी और जहाँ हमारी श्रद्धा होगी, तो बेटे! वहाँ तो न जाने हम क्या कर सकते हैं? हम क्या नहीं कर सकते।
अभी बिहार में जो गवर्नमेण्ट आई है, उसने कहा है कि हम आपके यहाँ नैतिक शिक्षण के लिए 8000 व्यक्तियों को भेजेंगे और आप प्रशिक्षण दे दीजिए। मैंने कहा—अभी तो यूपी गवर्नमेण्ट के नहीं निपटे हैं, तो अभी आपके कहाँ से कर दें? अभी 1000 का तो हमने कह दिया है, जो कि अभी यहाँ से चलेगा। यह दिसम्बर से शुरू होगा। हमने कहा है कि 8000 का हम नहीं कर सकते। हम केवल 1000 का कर सकते हैं, आप 1000 भेज दीजिए।
जो भी हमारी औकात है, हम जी-जान से इनके लिए कोशिश करेंगे और हम इनमें विचार डालेंगे; ताकि वे अपने यहाँ जा करके अपने परिवार और कुटुम्ब और शिक्षकों में अथवा विद्यार्थियों में वह प्राण फूँकें; ताकि अच्छे नागरिक पैदा हों। यह हमने उनसे कहा है। हमने यहाँ एक स्वावलम्बन विद्यालय लगाया है। आप उसको देख करके जाइए, हम चाहते हैं कि हमारी हरेक शाखा में, हरेक शक्तिपीठ में जहाँ शिक्षा तो है; लेकिन रोजी-रोटी नहीं है। शिक्षित होकर तो निकलते जा रहे हैं, पर नौकरी नहीं है। तो आखिर पेट कैसे भरा जाए? उसके लिए आप यहाँ का स्वावलम्बन विद्यालय देख करके जाइए।
यह आपको अपने यहाँ करना है। आप यहाँ ट्रेंड हो जाइए और आप वहाँ करिए। आप अपनी महिलाओं को यहाँ भेजिए ताकि वे सब एक महीने का प्रशिक्षण ले जाएँ और संगीत से लेकर के, सम्भाषण से लेकर, कर्मकाण्ड से ले करके ऐसी विद्वान हो जाएँ कि बस, यह कहें कि पूरी पण्डित बना करके भेजी हैं। यह लड़की भेजी है; क्योंकि वह हमारी है न। हमारी है, तो उसके लिए हम जी-जान से कोशिश करेंगे। तो जैसे भी आपके यहाँ से आएगी, उसे हम बना देंगे, पर अँगूठा छाप नहीं चाहिए।
बेटे! इनका हम क्या करेंगे? तीन महीने का हमने प्रशिक्षण चलाया था। हमने यह सोचा था कि तीन महीने हम इनको प्रशिक्षण दे देंगे, तो सारे-के-सारे हिन्दुस्तान से बाहर जो अपनी शाखाएँ और शक्तिपीठें हैं, ये लोग वहाँ काम करेंगे और वहाँ जाग्रति आएगी।
जीवन्त की जरूरत है
माताजी! हम तो अब आ गए, हम तो जीवनदानी हैं। अच्छा मुबारक है, अब मुझे मन-ही-मन हँसी आई और मैंने कहा—मुँह पर आ गई, यह बात, तो आपसे तो कह ही दूँ। उससे तो मैंने नहीं कही, पर अब कह रही हूँ कि इनके लिए कफन-काठी और चाहिए होगी और ऐसों की जरूरत नहीं है। यहाँ तो जीवन्त व्यक्तियों की जरूरत है। आप में से जो भी लड़कियाँ बैठी हैं, इनमें से आप आइए, तो हम आपको यहाँ से बना करके भेजेंगे और आप औरों को बनाइए। इनके पास इतना फालतू समय होता है कि रोटी के अलावा कौन-सा काम है? वह भी आजकल गैस चल गई है।
बेटे! घर-गृहस्थी का कोई ज्यादा काम नहीं है। यदि बचाना चाहें, तो घर-गृहस्थी का इतना काम कर सकती हैं। ये महिलाएँ बड़ा गजब का काम कर सकती हैं। ये हमसे ज्यादा व्यस्त नहीं हैं। हम समय निकाल सकते हैं, तो ये समय क्यों नहीं निकाल सकती हैं? यह समय निकाल सकती हैं। दो से पाँच बजे तक का जो तीन घण्टे का टाइम होता है, ये घर-घर जाकर के यह कार्य कर सकती हैं। इनको आगे आना चाहिए। हिम्मत से आना चाहिए | मरी-मराई नहीं कि उठी तो एक घण्टे में नहा रही हैं। अच्छा, एक घण्टे में कितना नहाया जाता है? एक घण्टे में सौ आदमी नहा लेंगे। अरे जरा नहाए-धोये छुट्टी हो गई।
नहीं, साहब! जहाँ बैठे हैं, वहीं कोई गिलास हाथ में लगा, तो उसी को धो रहे हैं, उसी को रख रहे हैं। सारे काम का जो फेर होना चाहिए, वह काम का फेर ही नहीं होता। काम का फेर हो, तो हम कहते हैं कि दस व्यक्तियों को करके खिलाना पड़े, तब भी खिला सकते हैं। आप मुझे छोड़ दीजिए और पचास व्यक्ति बैठ जाइए, न खिला दूँ, तो चाहे जो कहना | आपको मोटी तगड़ी दिखती हूँ, बहुत चलने में जरा कमजोर हूँ; लेकिन हाथ कमजोर नहीं हैं। मेरे हाथ काम में खूब चलते हैं। आपको वह फुरती, वह चुस्ती रखनी चाहिए, तभी आप लोग समाज की सेवा कर पाएँगे। उससे पहले आप समाज की सेवा नहीं कर पाएँगे।
हमें आपसे बहुत उम्मीद है। जितनी उम्मीद इनसे है, उससे ज्यादा आप लोगों से है। क्यों? इनसे क्यों कम है और आपसे क्यों ज्यादा है? आपसे ज्यादा यों है कि नारी हमेशा भावनाशील रही है। यह तो त्याग की देवी है, जितना इसका गुण-गान करें, उतना ही कम है। आप यों कहेंगे कि माताजी तो पक्षपात कर रही हैं। नारी जाति का इतना गुणगान कर रही हैं और हमें यह क्या कह रही हैं?
त्याग की मूर्ति—नारी
बेटे! आपकी औकात हम जानते हैं, इसलिए आपसे कह रहे हैं। आपकी भी हमें मालूम है, क्योंकि आप हमारे हैं, तो आपकी नस-नस हमें मालूम है और आप हमारी हैं, आप तो त्याग की मूर्ति हैं, आप तो देवी हैं। आपके अन्दर भावना है। नारी जो संकल्प कर लेती है, आजीवन निभा लेती है। कल मैंने आप लोगों से कहा था कि इनका नम्बर नहीं आया था, आपका नम्बर आया था, तो मैंने यह कहा था कि नारी जिस समय संकल्प लेकर खड़ी हो जाती है, तो बड़े-से-बड़ा काम कर लेती है।
हमारे यहाँ यूपी में हाथरस के पास एक अकेली महिला लक्ष्मी देवी ने उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था और कल-परसों ही हमारे हिन्दुस्तान की प्रधानमंत्री कौन थी? नारी थी न। और लक्ष्मीबाई कौन थी? नारी थी न। स्वतंत्रता के लिए कितना काम किया? अरे नारी न जाने क्या कर सकती है? वह तो ऐसे सन्त पैदा कर सकती है, ऋषि पैदा कर सकती है, अपने कुटुम्ब और परिवार को स्वर्ग बना सकती है और इन सबकी अकल ठिकाने लगा सकती है।
ये जो बैठे हैं, यह आपके पति के रूप में बैठे हैं, उन सबकी अकल ठिकाने लगा सकती है। कौन? पत्नी | पत्नी बड़ी जबरदस्त होती है, पत्नी को क्या समझ रखा है? वह जब तक दबती रहती है, तब तक दबती रहती है, उसका स्वभाव है, त्याग है, दबना ही चाहिए। चलिए यह तो मैं नहीं कहती, विद्रोह की भावना तो नहीं फैलाती; लेकिन एक बात मैं जरूर कहती हूँ कि त्याग में और प्रेम में इतनी शक्ति! इतनी शक्ति!! है कि व्यक्ति को कुछ-से-कुछ बना देती है।
मैंने कल सन्त तुलसीदास जी का उदाहरण दिया था और यह कहा था कि उनको बनाने वाली उनकी पत्नी थी और स्वामी श्रद्धानन्द को बनाने वाली कौन थी? उनकी पत्नी थी, जिनका कि यहाँ स्थापित किया हुआ गुरुकुल कांगड़ी है। उन्होंने अपने जीवन चरित्र में लिखा है कि मेरी गुरु, मेरी पत्नी है। यदि मेरी पत्नी ऐसी नहीं होती, तो आज मैं इस स्थिति में नहीं आया होता। महिलाएँ बहुत काम कर सकती हैं। आपसे हमें बहुत उम्मीदें हैं, क्योंकि आप बहुत भावनाशील हैं। हम प्रत्येक के हृदय को देखते हैं, प्रत्येक की आँखों को देखते हैं, हम देखते हैं कि प्रत्येक के अन्दर बहुत भावना है, बहुत कुछ कर गुजरने की भावना है।
बेटी! अपनी भावनाओं से अपने घर-गृहस्थी को बनाइए, कुटुम्ब को बनाइए, बच्चों को बनाइए, उन्हें संस्कार दीजिए। ये संस्कारविहीन हैं। पति, वह भी बे-संस्कार का है। उसके माँ-बाप में ही संस्कार नहीं थे, तो उसमें संस्कार कहाँ से आते? वही बे-ताज का बादशाह है, उसको बनाइए। उसको बनाना आपका काम है। बच्चों को बनाना आपका काम है। जीजाबाई ने शिवाजी को बनाया था। बनाया था कि नहीं बनाया था?
बनाया था। गुरु का वरदान मिला? हाँ, गुरु का वरदान भी मिला था, पर शिवाजी को माँ ने बनाया था। अनेकानेक नारियों ने कितना काम किया है? आप बहुत कुछ काम कर सकती हैं। आप से हमें बहुत आशा है। बेटे! आप लोगों से भी आशा है कि आप लोग यहाँ से जो विचार लेकर के जा रहे हैं, ये किनके विचार हैं?
गुरुजी के विचार ले जाएँ
ये बेटे गुरुजी के विचार हैं। ये सिद्धान्त किनके हैं? गुरुजी के हैं। वाणी अपनी अलग-अलग है। हमने अलग तरीके से कह दिया। कार्यकर्ता हमारे अलग तरीके से कहते हैं—अलग-अलग भाषा, अलग-अलग शैली। भाषा तो एक ही है—हिंदी भाषा, लेकिन शैली अलग-अलग है। शैली से क्या है? हमारे सिद्धान्त और भावनाएँ तो एक ही हैं।
हमने कहा—तो गुरुजी ने कहा और गुरुजी ने कहा—तो हमने कहा, बात एक ही है तो यहाँ से आप भावनाएँ लेकर के जाइए और प्यार के सागर में बस, छलकते जाइए। जहाँ आप आए हैं, उस सागर में प्यार-ही-प्यार बरसता है। हर किसी में आप प्यार-ही-प्यार पाएँगे। इस समुद्र में आप भरपूर डुबकी लगाइए, भरपूर प्यार लेकर के जाइए और सर्वत्र इस प्यार को बिखेरिए। इस प्यार के छींटे हर मानव पर पड़ने चाहिए। जो आपके ऊपर पड़ रहे हैं, वही दूसरों के ऊपर भी पड़ने चाहिए। इन शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।
आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥