अध्यात्म विज्ञान के साथ एक आश्चर्य चकित करने वाली सम्भावना जुड़ी हुई है। वह है अचेतन मनःक्षेत्र की प्रसुप्त पड़ी हुई दिव्य क्षमताओं को जगाना एवं सक्रिय बनाना। इस सन्दर्भ में भौतिक विज्ञानी भी कुछ कुरेद-बीन करते रहे हैं और जो उनके हाथ लगा है उसे देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि व्यक्ति में विज्ञान पराक्रम जन्य क्षमताओं की तुलना में कहीं अधिक उच्चस्तरीय प्रभावी एवं समर्थताओं से भरी पूरी सत्ता विद्यमान है। दूरदर्शन, दूर श्रवण, भविष्य कथन, विचार संचालन जैसे अगणित प्रयोग परीक्षण परा मनोविज्ञान, मेटाफिजिक्स के आधार पर हुए हैं और उस आधार पर इस तथ्य की परिपूर्ण पुष्टि हो चुकी है कि मानवी अन्तराल में दिव्य क्षमताओं का अजस्र भण्डार छिपा पड़ा है। नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्सिस कैरेल ने अपनी ‘मेनादि अननोन’ पुस्तक में अगणित तथ्य प्रमाण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध किया है कि सामान्य जीवन में चेतना की सामर्थ्य का मात्र सात प्रतिशत ही प्रयुक्त होता है। जो उपयोग में आता है वह हल्का उथला एवं इतना है, जिससे अन्य प्राणियों की तरह निर्वाह क्रम चलता रहे। जो विभूतियाँ अन्तराल में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हैं उन्हें जाना और जगाया जा सकें तो निस्सन्देह मानवी अस्तित्व को उतना सक्षम पाया जा सकता है कि वह अपनी कायिक एवं मानसिक प्रयोगशाला के सहारे भौतिक जगत की उन सभी सम्पूर्णताओं एवं सम्पदाओं को उपलब्ध कर सकें, जिन्हें विज्ञानी बहुमूल्य उपकरणों के सहारे हस्तगत करते हैं।
जानने योग्य एक बात और भी है कि जिस तरह परमाणु में सन्निहित असीम शक्ति विश्व व्यापी पदार्थ प्रकृति का एक अंश मात्र है, उसी प्रकार व्यक्ति चेतना भी विश्व चेतना की एक अंश है। परमाणु की सामर्थ्य उसका निजी वैभव नहीं है, वरन् विराट विश्व की शक्ति समुद्र की एक लहर बूँद भर है। उसी प्रकार चेतना की अपनी स्वतन्त्र हस्ती कुछ भी नहीं है। वह विश्व चेतना में ही अपनी पात्रता एवं आवश्यकता के अनुरूप सामर्थ्य अर्जित करती रहती है। इस चेतना लोक का अपना अस्तित्व है। अदृश्य सूक्ष्म जगत में प्रकृति की ऐसी अविज्ञात शक्तियों का आभास मिल चुका हैं, जो विदित एवं उपलब्ध वैभव की तुलना में असंख्यों गुना अधिक हैं। ठीक इसी प्रकार चेतना के दिव्य लोक का अपना अस्तित्व है और उसमें इस स्तर का वैभव भरा पड़ा है, जिसकी परब्रह्म की विश्व चेतना के रूप में तत्त्व दर्शन द्वारा चर्चा की जाती रही है।
इस दिव्य लोक का निरूपण पुरानी भाषा में परमेश्वर, देव परिकर, ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-मुक्ति आदि के रूप में किया जाता रहा हैं। उसके लिए योग, तप, जप, ध्यान, पूजा, पुरश्चरण आदि की प्रक्रिया अपनाई जाती रही हैं और ऐतिहासिक साक्षियों के आधार पर यह सुखद परिणति भी उपलब्ध होती रही हैं, जिन्हें देखते हुए इन प्रयोग परीक्षणों की परिपूर्ण सार्थकता सिद्ध की जा सकें।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए-मध्यकाल में सर्वत्र अन्धकार युग फैला और विकृतियों एवं अवांछनीयताओं का बोलबाला रहा। राजनीति से लेकर अर्थ व्यवस्था के क्षेत्रों में जब अनाचार अपना सिर आसमान तक उठाये हुए हैं, तब धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही यह आशा कैसे की जाय कि वह छद्म सनक एवं निहित स्वार्थों की पकड़ से बचा रहेगा। पिछले दिनों यही स्थिति रही हैं और आज भी वैसी ही हैं। ऐसी दशा मे अध्यात्म का तत्त्व दर्शन ही नहीं, प्रयोग उपचार भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। जो बना है उसे एक प्रकार से छिलका, छूँछ, खिलौना, नमूना भर कह सकते हैं। प्रत्यक्ष है जो कुछ इन दिनों अध्यात्म के नाम पर माना अपनाया जाता है वह न केवल अधूरा है, वरन् भ्रान्तियों एवं विकृतियों की भी उसमें बुरी तरह घुसपैठ हैं। फार्मूला गलत होने पर श्रम निरर्थक ही जाता है। ऐसा ही इन दिनों भी हो रहा हैं। उपासनात्मक उपचार करने वाले जब प्रतिफलों के सम्बन्ध में निराश होते हैं, तो एक प्रकार से नास्तिक ही बनते जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि एक अत्यन्त उच्चस्तरीय एवं महान सम्भावनाओं से भरे पूरे विज्ञान को उपहासास्पद बनना-तिरस्कृत होना पड़ता है। इस स्थिति से भारी हानि यह हो रही है कि उन असाधारण उपलब्धियों से व्यक्ति और समाज को वंचित रहना पड़ रहा हैं, जो समस्त मानवी समुदाय को आन्तरिक उत्कृष्टता एवं बहिरंग सुसम्पन्नता से भरा पूरा रख सकती थी।
सृष्टि के इतिहास में कई बार खण्ड प्रलय होती रही है। हिमयुग आये हैं और उनमें भयानक विनाश के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान के अनेक उपार्जनों को भी एक प्रकार से विस्मृत किया है। इतने पर भी सृष्टा का वह अनुदान मनुष्य को मिलता ही रहा है कि आनुवांशिकी के आधार पर पूर्वजों के संचित ज्ञान की हल्की-फुल्की ज्योति जलाये रह सके और समयानुसार उसे पुनर्जीवित कर सकने में सफल हो सके। खण्ड प्रलयों के इतिहास से अवगत मनीषी बताते हैं कि विभीषिकाओं के युग कितने ही विनाशकारी एवं लम्बे क्यों न रहे हों, वे जब समाप्त हुए हैं, तो मनुष्य ने देर-सबेर में उसे किसी न किसी प्रकार एक या दूसरे रूप में पुनः उपलब्ध कर लिया है। अध्यात्म विज्ञान के यथार्थवादी पुरातन स्वरूप के मध्यकाल के अन्धकार युग में विलुप्त या विकृत हो जाने की स्थिति को भी हिम प्रलय जैसी दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना की तरह ही समझा जा सकता है। इतने पर भी निराश होने का कोई कारण नहीं। आनुवांशिकी का आश्वासन है कि जो खोया है, उसे नये सिरे से प्रबल पुरुषार्थ में जुट पड़ने पर पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
भौतिकी शक्तियों के चमत्कारों से हम सभी परिचित हैं। लेसर किरणों की, ऐन्टी मैटर, ऐन्टी यूनीवर्स आदि की चर्चा दाँतों तले उँगली दाबकर की जाती रहती हैं। अब इसी स्तर की एक और उपलब्धि करत-लगत हो सकने की बात बन रही है, जिसके आधार पर अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभार कर मनुष्य को न केवल चरित्र, व्यवहार, वैभव की दृष्टि से वरन् अन्तःशक्ति के साथ जुड़ी हुई विलक्षण ऋद्धि-सिद्धियों की दृष्टि से भी सुसम्पन्न बनाया जा सके। इस सम्भावना को देव युग का पुनर्जीवन अथवा धरती पर स्वर्ग के अवतरण वाला सतयुग कहा जा सकेगा।
आत्मिकी के ईश्वर, आत्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म जैसे प्रतिपादन कुल मिलाकर मनुष्य को नीति समर्थक एवं उदार बनने की प्रेरणा देते हैं। यदि उनका उच्छेदन कर दिया जाय और कहा जाय कि ‘मनुष्य मात्र चलता फिरता पेड़ है, उदर पूर्ति एवं प्रजनन तक ही उसका अस्तित्व है, मरण के उपरान्त उसका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता, स्वचालित अणु-परमाणुओं का संयोग वियोग ही मनुष्य जीवन है’, तो समझना चाहिए कि वह सारा आधार ही नष्ट हो गया जो मानवी गरिमा के नाम से जाना जा रहा है। प्रकारान्तर से उन सभी मान्यताओं का खण्डन हो गया जो मनुष्य को संयमी, सदाचारी, कर्तव्य परायण, उदार एवं सदाशयता के समर्थन में कष्ट तक उठाने की, उदारता बरतकर प्रसन्न होने की प्रेरणा देती हैं। कहना न होगा कि आदर्शों से रहित निरंकुश मानवी बुद्धि के लिए तब उद्धत स्वार्थ साधना के लिए पूरा द्वार खुल जायेगा। ऐसी दशा में जंगल का कानून ही चलेगा। तब बड़ी मछली छोटी को निगलेगी। बड़ा पेड़ समीपवर्ती पौधों की खुराक खींचने में कोई संकोच न करेगा। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का, ‘सर्वाइवल आफ दी फिटेस्ट’ का सिद्धान्त सही और स्वाभाविक ठहराये जाने पर मानवी सभ्यता की कैसी दुर्दशा हो सकती है? मनुष्य की बुद्धि उन मान्यताओं को अपनाकर किस सीमा तक अनाचरण पर उतर सकती है? इसकी आज तो एक झाँकी भर मिल रही है। वह दिन दूर नहीं जब इस अभिनव प्रतिपादन के परिपूर्ण में रूप होने पर हिमयुग एवं खण्ड प्रलय से भी अधिक भयानक स्थिति उत्पन्न होगी। आज तो लुक-छिपकर अनाचरण बरते जाते हैं, किन्तु अगले दिनों नृशंस स्वेच्छाचारी शासकों की तरह सर्वत्र कत्लेआम मचाते दृष्टिगोचर होंगे। अन्तःकरण की पुकार से लेकर मानवी गरिमा तक के उन आदर्शों के लिए कहीं कोई स्थान रह नहीं जायेगा, जिनके कारण ‘बन्दर की औलाद’ कहाये जाने वाले मनुष्य ने विश्व का मुकुटमणि बनने की स्थिति तक पहुँचने में प्रगति की है।
यह सब पारस्परिक सहयोग और उदार-अनुदान की नीति अपनाने से ही सम्भव हुआ है। सामाजिक सभ्यता और वैयक्तिक संस्कृति का प्रादुर्भाव तथा उत्थान इन्हीं उत्कृष्टता की पक्षधर आस्थाओं के सहारे सम्भव हुआ है। यदि यह आधार नष्ट हो गया तो हमें फिर आदिम युग की ओर वापिस लौटना होगा। शायद वह भी न बन पड़े क्योंकि बुद्धि कौशल के रहते आदर्शहीन व्यक्ति मात्र पिशाच ही बन सकते हैं। पशुता के स्तर तक उतर कर सन्तोष कर लेने के लिए भी उन्हें सहमत न किया जा सकेगा, इस सम्भावना की आंशिक झाँकी आज भी हो रही है। अनास्था युग के बाल्यकाल में जब स्वार्थपरता का विस्तार निष्ठुरता से लेकर आततायी प्रवृत्तियों के रूप में बेतरह विकसित हो रहा है तो फिर प्रौढ़ता आयेगी, तो हर व्यक्ति अपने समीपवर्तियों की गरदनें नापता हुआ दूरवर्तियों का सफाया करेगा। फलतः सृष्टि विकास के समय उपजे अनगढ़ महागजों, महासरीसृपों, महाव्याघ्रों की तरह अभावों और आक्रमणों की आग में जल कर समाप्त होना पड़ेगा।
आज जो उपेक्षा, असहयोग विज्ञान और अध्यात्म के मध्य दिखाई पड़ती है, उसे मिटाकर विग्रह की वृत्ति को हटाकर सहयोग भरी रीति-नीति की प्रतिष्ठापना कर समुद्र मन्थन जैसे सत्परिणाम पा सकना पुनः इसी धरती पर सम्भव है। दैनन्दिन जीवन में सहकार के परस्पर विरोधी परिणामों के प्रतिफल आये दिन सामने आते रहते हैं, पर जब विज्ञान व अध्यात्म परस्पर मिलेंगे तो उसका सहयोग अनूठा ही होगा। सभी जानते हैं कि ठण्डे व गरम तार मिलकर बिजली का प्रवाह बनाते हैं। जब दो विध्वंसकारी रचनात्मक शक्तियाँ एक ही उद्देश्य हेतु नियोजित होगी, तो उनके सम्मिलित प्रयासों की फलश्रुति अपनी इस धरती को सुन्दर और अधिक सुव्यवस्थित व सुसंस्कृत बनाने के रूप में ही निकलेगी, इसमें कोई संदेह नहीं। यह एक स्वप्न नहीं वास्तविकता है। आग पानी के मिलने से भाप बनने तथा उसके रचनात्मक कार्यों में लगने पर कमाल दिखाने जैसी परिणति विज्ञान अध्यात्म सहयोग की होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। अनेकानेक प्रमाण, तथ्य बताते हैं कि इस परिकल्पना को साकार रूप देने पर कितने सुन्दर परिणाम निकल सकते हैं।
मरणोत्तर जीवन का जब अस्तित्व सिद्ध होने ही जा रहा है तो फिर उस कड़ी को भी जोड़ना ही पड़ेगा, जिसके अनुसार पितरों की दुनिया का जीव जगत के साथ आदान-प्रदान चल पड़े। ऐसा सम्भव हो गया तो समझना चाहिए कि एक और अपनी जैसी ही नई दुनिया के साथ रिश्ता जुड़ गया। इसमें दोनों ही लोकों के निवासियों का सुखी समुन्नत होना और एक दूसरे की महत्त्वपूर्ण सहायता कर सकना सम्भव हो सकता है।
व्यक्ति के हिस्से में थोड़ी सी समर्थता आई है, किन्तु वह जिस विराट भण्डार से परब्रह्म से जुड़ा है उसकी सामर्थ्य का कोई अन्त नहीं। कम ताकत का बल्ब धीमी रोशनी देता है, पर यदि उसी स्थान पर बड़ी ताकत का बड़ा बल्ब लगा दिया जाय तो उसी बिजली फिटिंग से अनेक गुना प्रकाश उत्पन्न हो सकता है। बिजली की लाइन में उतनी सामर्थ्य रहती है कि छोटे उपकरणों के स्थान पर बड़े लगा देने पर अधिक ऊर्जा पाई और अधिक सुविधा उठाई जाय। परब्रह्म सत्ता के साथ आमतौर से आत्मा का सीमित एवं सामान्य सम्बन्ध ही रहता है, पर यदि व्यक्तित्व को अधिक परिष्कृत बनाया जा सके, तो वह अदृश्य जगत की महान दैवी शक्तियों से भरपूर लाभ उठा सकता है और उस आधार पर अपनी सफलताओं में चार चाँद लगा सकता है।
अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय से व्यक्ति के अन्तराल को परिष्कृत करके आज की तुलना में उसे अनेक गुना समर्थ एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। उसी प्रकार विश्व चेतना की असीम सम्भावनाओं में उसे इतना कुछ आकर्षित किया जा सकता है, जिससे मनुष्य के स्तर, स्वरूप एवं वर्चस् में कायाकल्प जैसा सुखद सत्परिणाम उत्पन्न हो सके। ऐसी ही उपलब्धियों को प्राचीन काल में दैवी वरदानों के नाम से पुकारा जाता था। आज भी इस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न होते रहने की सम्भावना पूर्ववत् ही बनी हुई हैं।
अन्तरिक्ष में पदार्थ सम्पदा उससे कहीं अधिक भरी पड़ी है, जितनी कि जल और थल में, तरल एवं ठोस रूप में पाई जाती है। जिस प्रकार जल और थल का वैभव मनुष्य के काम आता है, उसी प्रकार अन्तरिक्ष में भरी-पूरी वही सम्पदा फिर से ठोस एवं द्रव के रूप में परिणत करके धरती की सम्पदा में असंख्य गुनी वृद्धि हो सकती है।
यज्ञ प्रक्रिया प्राचीन काल में शारीरिक, मानसिक दुर्बलता और रुग्णता के निवारण में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती रही है। इसके अतिरिक्त उस माध्यम से वातावरण का परिशोधन एवं प्राणपर्जन्यों का अभिवर्षण भी सम्भव होता रहा है। इसमें व्यक्ति और समाज की स्वस्थता, समृद्धि एवं प्रगति की कितनी ही सम्भावनाएँ बढ़ती हैं। इस उपेक्षित एवं अस्त-व्यस्त यज्ञ प्रक्रिया को यदि फिर से नये परीक्षणों के साथ एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया का रूप दिया जा सके, तो उसकी परिणति समस्त संसार पर दैवी वरदान बरस पड़ने के समान ही सौभाग्य भरी सिद्ध होगी।
प्रकृति को भौतिक समझकर उसकी पदार्थ सत्ता स्तर पर ही अब तक की माथा पच्ची होती रही है। अब उस ब्रह्माण्ड में चेतना का समुद्र भरा-पूरा अनुभव किया जा सके और उसी क्षेत्र के मणि मुक्तक ढूँढ़ने में लग पड़ा जाय, तो विश्व वैभव में निश्चय ही आश्चर्यजनक प्रगति हो सकती है।
अपनी पृथ्वी इस विशाल ब्रह्माण्ड परिवार का एक छोटा सा घटक है। उसे जो भी प्रत्यक्ष परोक्ष वैभव मिला हुआ है, वह ब्रह्माण्डीय सम्पदा का एक अंग है। पृथ्वी उत्तरी ध्रुव के माध्यम से उसमें से उपयोगी अंश खींचती और जो अनुपयोगी है उसे दक्षिणी ध्रुव से बाहर फेंक देती है। यह प्रकृतिगत आकर्षण, विकर्षण मानवी चेतना के एकाकी एवं संयुक्त चुम्बकत्वों द्वारा सामयिक आवश्यकता के अनुरूप खींचा एवं रोका जा सकता है। अन्तर्ग्रही कारणों से पृथ्वी पर अनेकों विपत्तियाँ आती हैं। इन्हें रोकने एवं अनुकूलताओं को बढ़ाने के लिये चेतनात्मक प्रयोग उपचार हो सकते हैं। इस क्षमता को भी पूर्व काल की तरह इन दिनों अध्यात्म एवं विज्ञान के सिद्धान्तों का समन्वय करके सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
82. अध्यात्म ही अनगढ़ विज्ञान को सुगढ़ बना सकता है
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
इस विश्व-ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक की संरचना में दो तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष। प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियगम्य है। परोक्ष जिसे इन्द्रियातीत कहा जा सकता है। इन्द्रियातीत अर्थात् बुद्धिगम्य। प्रत्यक्ष को ज्ञान कहते हैं और परोक्ष को विज्ञान। इन्हीं दो पक्षों को अध्यात्म की भाषा में स्थूल एवं सूक्ष्म कहा जाता है।
हर घटक की प्रत्यक्ष क्षमता एवं उपयोगिता स्वल्प है। उसका वर्चस्व परोक्ष में छिपा है। समग्र क्षमता एवं उपयोगिता समझने पर ही समुचित लाभ उठाया जाना सम्भव है अन्यथा इस दुनिया में सर्वत्र मिट्टी बिखरी पड़ी है। पानी के गड्ढे और पेड़ पौधे भर दृष्टिगोचर होते हैं। चाबीदार खिलौनों की तरह कुछ जीवधारी चित्र-विचित्र हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं। इतने भर से सन्तोष होता और काम चलता होता तो मनुष्य भी अन्य प्राणियों की भाँति अपने निर्वाह की आवश्यकता जुटाने भर तक सीमाबद्ध रहा होता। प्रस्तुत प्रगति की न आकांक्षा उठती है और न आवश्यकता प्रतीत होती है।
जमीन पर बिखरी धूलि की कोई कीमत नहीं। पर उसके छोटे से परमाणु की परोक्ष शक्ति की जो जानकारी रहस्य का पर्दा उठने पर मिलती है, उसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। आकाश नीले शामियाने जैसा दीखता है, पर इस प्रत्यक्ष से आगे बढ़कर इन्द्रियातीत रहस्यों का पता चलता रहता है कि उस पोल में उससे भी अधिक सम्पदा भरी पड़ी है, जितनी कि इस धरती पर इन्द्रियों के सहारे बिखरी हुई लगती है। यह रहस्य लोक ही है जिसे इन्द्रियातीत या बुद्धिगम्य कहते हैं। परोक्ष भी प्रत्यक्ष के साथ ही गुँथा हुआ है, पर उसे जानने, पकड़ने और करत-लगत करने के लिए इन्द्रियों की क्षमता से काम नहीं चलता, उसके लिए बुद्धि क्षेत्र की प्रखरता उभार कर उसके सहारे गहराई में प्रवेश करने और मोती ढूँढ़ निकालने का पुरुषार्थ करना पड़ता है। प्रत्यक्ष जानकारी को ज्ञान और परोक्ष के रहस्योद्घाटन को विज्ञान कहते हैं। ज्ञान सब प्राणियों को समान मिला है। विज्ञान मनुष्य की अपनी उपलब्धि है।
विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में इन दिनों तक इतनी सामर्थ्य प्रदान कर दी है, कि उसे पौराणिक महादैत्यों के समतुल्य मानने में कोई अत्युक्ति नहीं। पाँचों देवता उसकी सेवा में नियुक्त हैं। अग्नि देव खाना पकाते हैं। वरुण देव नल में विराजमान आज्ञा की प्रतीक्षा करते हैं। पवन पंखा झलते है। अनन्त (आकाश) रेडियो सुनाते हैं। धरती अपनी उदरदरी की छिपी हुई सम्पदा की तिजोरी खोल-खोल कर उसका वैभव बढ़ाती चली जाती है। प्राचीनकाल के पौराणिक महादैत्यों ने भी इसी प्रकार देवताओं को वशवर्ती करके उनके माध्यम से विपुल वैभव और वर्चस्व उपलब्ध किया था।
अब तक जो मिला है वह आदि मानव को आश्चर्यचकित कर सकता है। भविष्य में जो मिलने वाला है उसे भी इतना ही महत्त्वपूर्ण और रहस्यमय समझा जा सकता है कि आज का मनुष्य हजार वर्ष बाद फिर लौटकर इस धरती पर आये तो देखे कि वह सन् ८३ के युग को करोड़ों मील पीछे छोड़कर किसी देव मानवों के लोक में आ पहुँचा। यह पदार्थ विज्ञान की देन है। विज्ञान अर्थात परोक्ष। परोक्ष अर्थात इन्द्रिय शक्ति से परे बुद्धिगम्य। पदार्थ की प्रकृति सत्ता और मनुष्य की जिज्ञासाजन्य तत्परता के समन्वय का चमत्कार ही है, जिसके कारण हम इस समूचे ब्रह्माण्ड के कदाचित सर्वश्रेष्ठ लोक में निवास करने का गौरव पा रहे और आनन्द ले रहे हैं।
पदार्थ जगत के साथ विज्ञान की प्रखरता जुड़ जाने से जो सम्पदा हस्तगत हुई है, होने वाली है उस पर हम सभी प्रसन्न है, गौरवान्वित है और भविष्य में इससे भी अधिक पाने की अपेक्षा लगाये बैठे हैं। इस प्रकार विज्ञान को जितना सराहा जाय उतना ही कम है। उसे देवाधि देव न कहे तो दैत्यादिदैत्य तो कहा ही जा सकता है। दैत्य शक्ति को कहते हैं और देव सम्पदावानों को। इसलिए विज्ञान को देव कहकर दैत्य नाम देना ही ठीक है।
अब सृष्टि संरचना के दूसरे पक्ष का प्रसंग आता है वह है चेतना। चेतना प्राणियों में पाई जाती है। इसलिए उसे प्राण भी कहते हैं। प्राण होने से प्राणी कहे गये या प्राणियों की आधारभूत सत्ता होने के कारण उस चेतना को प्राण कहा गया है। इस विवाद में न पड़कर इतना मान लेने से ही काम चल जायेगा कि प्राणियों की काया देखने में जैसी भी लगती हो, करने को जो कुछ भी करती हो, पर यह उनका निर्वाह पक्ष भर है। उनकी रहस्यमय क्षमता इन्द्रियातीत है परोक्ष, बुद्धिगम्य। मनुष्य की हलचलें उसी सीमा तक सीमित हैं, जिसके सहारे वह अपना निर्वाह करता हैं। निर्वाह क्षेत्र में ही आजीविका और परिवार को जोड़ा जा सकता है। अन्य प्राणियों के पेट प्रजनन की सीमा छोटी है। मनुष्य जीवन में उन्हीं दो आवश्यकताओं ने थोड़ा विस्तार करके आजीविका एवं परिवार क्षेत्र तक विस्तार कर लिया है। व्यक्तिगत विशेषता देखनी हो तो उसकी वाणी, भाषा, सज्जा, शिल्प, कला आदि की गणना हो सकती है। इन्द्रिय लिप्सा की प्रबलता उसे और कुछ प्रपंच रचने, सरंजाम जुटाने को बाधित करती रहती है। इसके अतिरिक्त मूर्धन्य समझे जाने वाले मनुष्य का भी क्या विवेचन विश्लेषण किया जाय? औरों की तरह वह भी खाता, सोता और साँसें पूरी करके मौत के मुँह में चला जाता है। सामान्यतया मनुष्य की व्याख्या और क्या की जाय? उसकी विशेषता और क्या बताई जाय? इन्द्रियगम्य उसका प्रत्यक्ष स्वरूप इतना ही तो है। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की प्रत्यक्ष विशेषता इतनी ही आँकी जा सकती है कि उसकी चतुरता एवं सम्पन्नता की दृष्टि से कुछ अधिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
मनुष्य की वास्तविक विशेषता प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है। वह चतुरता और सम्पन्नता से बहुत आगे की वस्तु है। मानवी परोक्ष को अध्यात्म कहते हैं। यह वह उद्गम स्रोत है जहाँ से उसे सर्वतोमुखी प्रगति के लिए आधारभूत सामर्थ्य उपलब्ध होती है। असली व्यक्तित्व, हाड़−माँस की टोकरी में नहीं है, वरन् उस लचीली तिजोरी में भरा हुआ बहुमूल्य रत्न भंडार है। इतना बहुमूल्य जिसकी तुलना में इस वसुधा पर बिखरी हुई समूची सम्पदा भी कम पड़ती है। यदि मानवी बुद्धिमत्ता प्रकाश में न आई तो इस धरती का यह स्वरूप ही न निखरता और उसकी रहस्यमयी क्षमता से अविज्ञात के पर्दे में ही छिपी पड़ी रहती है जैसे कि अन्य ग्रहों में उपेक्षित पड़ी हुई है। सृष्टि में क्या है क्या नहीं, इस असीम अनन्त और अचिन्त्य को कौन जाने? जो प्रकाश में, उपयोग में आया वही तो सब कुछ बना और गौरवान्वित हुआ। इस दृष्टि से न केवल प्रकृति वैभव का वरन् परब्रह्म तक का सृजेता न सही उद्घाटनकर्ता तो मनुष्य ही ठहरता है। कान के समतुल्य किसी खंदक में पड़े हीरे का अपना महत्त्व कुछ भी क्यों न हो, श्रेय तो उस जौहरी को ही मिलेगा जिसने उसे ढूँढ़ निकालने से लेकर खरादने और आभूषण का रूप देने की कला दिखाई। इस प्रकार सृष्टि का, सृष्टा का, उद्घाटनकर्ता होने का श्रेयाधिकारी यदि मनुष्य को ठहराया जाय तो इसे अतिरंजित नहीं कहा जाना चाहिए।
पदार्थ शक्ति की सम्भावनाओं का अनुमान लगाते-लगाते वैज्ञानिक पसीने-पसीने हो जाते हैं। दूसरे पक्ष चेतन की प्रत्येक तरंग का मूल्यांकन किया जा सके तो उसकी भूतकालीन उपलब्धियों और भावी सम्भावनाओं को देखते हुए चेतना क्षेत्र को सूक्ष्मदर्शियों को और भी अधिक आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। मनुष्य जो न्यूनाधिक मात्रा में अपने तथाकथित वानर पूर्वजों से कुछ ही बात में विशिष्ट प्रतीत होता है, जिन विभूतियों से भरा पूरा है वे उसके काय संरचना एवं मस्तिष्कीय विशेषता तक सीमित नहीं है, वरन् अन्तराल की गहन परतों में छिपी पड़ी है। व्यक्तित्व की परिभाषा शोभा, सज्जा, सम्पदा एवं चतुरता के रूप में नहीं हो सकती। इनके सहारे तो वह मात्र सुविधा सामग्री एवं इन्द्रिय जन्य प्रसन्नता ही प्राप्त कर सकता है। जिस आधार पर वह महान बनता है वे तत्व तो उसके अन्तःकरण की गहन गुफा में प्रसुप्त जैसी ही पड़ी होती है।
महर्षि व्यास का कथन है-‘‘मैं एक अद्भुत रहस्य का उद्घाटन करता हूँ कि इस विश्व में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं हैं।’’ इस रहस्य को प्रकट करते हुए वे यह बताना चाहते थे कि चेतना का उच्चस्तरीय प्रतिनिधित्व करने वाली क्षमता मनुष्य के अन्तराल में छिपी पड़ी है। उन्हें समझने, उभारने और प्रयोग में लाने की विद्या का नाम अध्यात्म है। प्रकृतिगत अणु सत्ता और तरंग सत्ता की खोज एवं उपलब्धि को विज्ञान कहते हैं और चेतना की भावनात्मक विभूतियों के रहस्योद्घाटन एवं उपार्जन उपयोग को अध्यात्म।
विज्ञान के स्वरूप एवं प्रयोग क्रमबद्ध होने से उसकी महत्ता सर्व साधारण के सम्मुख है, किन्तु अध्यात्म को सुनियोजित न किये जाने के कारण वह अनगढ़ अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ा रहा। इतना ही नहीं भ्रान्त प्रतिगामिता और निहित स्वार्थों की कुचेष्टा का संयुक्त आक्रमण होने से वह उपयोगी सिद्ध होने के स्थान पर विकृत स्थिति में पहुँच जाने के कारण अवास्तविक, उपहासास्पद एवं दयनीय भी बन गया। आज उसकी वही दुर्गति है। इतने पर भी तथ्य अपने स्थान पर जहाँ के तहाँ ही रहेंगे जैसे कि बदली छा जाने से सूर्य और चन्द्रमा ढक जाते हैं, फिर भी प्रखरता के कारण उनका अस्तित्व यथावत बना रहता है और बदली हटते ही वे पूर्ववत् फिर चमकने लगते हैं। विज्ञान की तरह अध्यात्म भी एक तथ्य है। विज्ञान ने प्रकृतिगत सम्पदा और समर्थता को मनुष्य के हाथ सौंपा। अध्यात्म में वह क्षमता विद्यमान है कि चेतना के परोक्ष स्वरूप को प्रकाश में लाये और उसके वर्चस्व से शोधकर्ता साधक को समर्थ बनाये। साथ ही उसकी विशिष्टता से समूचा समुदाय लाभ भी उठाए।
मनुष्य समुदाय की शरीर संरचना में कोई बड़ा अन्तर नहीं। कुछ अपंग अपवादों को छोड़कर मनःसंस्थान भी एक जैसा है। साधनों में न्यूनाधिकता हो सकती है, पर परिस्थितियाँ सभी के लिए एक जैसी है। इतने पर भी किसी को पतित पराजित, दीन दुर्बल, दुखी दरिद्र देखा जाता है। कोई चैन के दिन गुजारते हैं, किन्तु किन्हीं-किन्हीं की वरिष्ठता ऐसी होती है कि उसके सहारे वे न केवल प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचते हैं, न केवल असाधारण सफलताएँ पाते हैं, वरन् अपनी प्रतिभा प्रखरता से असंख्यों का मार्गदर्शन करते हैं, अपने क्षेत्र एवं समय के वातावरण को प्रभावित परिवर्तित करने की भूमिका निभाते हैं। इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में क्या अन्तर है? इसकी गहराई में उतरकर जाँच पड़ताल करने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि साधन, सहयोग, परिस्थिति इन भिन्नताओं में कारण या बाधक उतने नहीं रहे हैं जितने कि इन वर्गों की अपनी-अपनी मनःस्थिति। यही है वह उद्गम केन्द्र जो अन्तराल में सन्निहित रहने पर भी बाह्य जगत की परिस्थितियों को प्रभावित करता है और उपयुक्त सहयोगी तथा साधन अपने चुम्बकत्व के सहारे खींच बुलाता है। यही है उत्थान पतन का रहस्य।
वस्तु का स्वरूप देखने से ही काम चलाना, उसकी विशेषताओं को समझना, उभारना, एवं प्रयोग में लाना भी आवश्यक होता है। चेतना वस्तु नहीं शक्ति है। इसलिए उसके रहस्यों को जानने तथा प्रयोग करने में और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। ईंट पत्थरों को इधर से उधर हटाया, पटका जा सकता है, किन्तु आग या बिजली की उलट-पलट करने में अधिक जानकारी तथा सतर्कता की आवश्यकता होती है। पदार्थ को अनुपयुक्त रीति में प्रयोग करने में जितनी हानि है, उससे कहीं अधिक बिजली जैसी शक्तियों के सम्बन्ध में अनजान या प्रमाद ग्रस्त रहने से होती है। मनुष्य के पास उसकी चेतना का अस्तित्व ही सर्वोपरि सम्पदा है। यह ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती हुई कायकलेवर में विद्यमान है। इस वैभव के सम्बन्ध में अभीष्ट जानकारी एवं प्रयोग प्रक्रिया से मनुष्य को अवगत होना ही चाहिए। इसी को ब्रह्मविद्या, अध्यात्म विद्या के रूप में तत्त्वदर्शियों ने विवेचन, निरूपण, निर्धारण किया है। इससे अनजान रहना या विकृत मान्यताएँ अपनाये रहना प्रत्येक सचेतन के लिए उतना ही हानिकारक है जितना कि कपड़े में आग छिपाये फिरना या अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना।
शस्त्र, पेट्रोल, बारूद, बिजली आदि शक्तिशाली पदार्थों का प्रयोग करने एवं सुरक्षा रखने में हर कोई समुचित ध्यान रखता है। चेतना महाशक्ति है। वह अपने अन्तराल में विद्यमान है। हर स्तर के शाप वरदान देने की सामर्थ्य उसमें विद्यमान है। देवता अपमानित असन्तुष्ट होने पर शाप देते, अनिष्ट करते हैं। प्रसन्न होने पर वरदान देते, ऋद्धि-सिद्धियाँ बरसाते और निहाल कर देते हैं।
चेतना को ही आत्मदेव कहते हैं। जीवनचर्या के साथ उसी प्रकार गुँथा है जिस प्रकार कि जीवकोषों, अंग अवयवों एवं रस धातुओं के साथ। रक्त माँस की गतिविधियों में चेतना की शक्ति ही काम करती है। प्राण निकल जाने पर समूची काया निश्चेष्ट हो जाती है और देखते-देखते सड़ने लगती है। ठीक इसी प्रकार जीवन की अन्तरंग एवं बहिरंग की गतिविधियों पर चेतना का प्रभाव रहता है। चिन्तन एवं चरित्र के रूप में उसी का अनुशासन चलता है। कहना न होगा कि अन्तराल की गहन गुफा में विद्यमान यह सचेतन किन्तु अदृश्य व्यक्तित्व ही मनुष्य के भाग्य का निर्माण करता है। तिरस्कृत, विकृत, अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित किये जाने पर उसी के शाप उभरते हैं और मनुष्य को दुःखी, दरिद्र, पतित, पराजित बनाकर दयनीय स्थिति में पटक देते हैं। उसी सत्ता को सम्मानित, सुसंस्कृत, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने पर विभूतियाँ अन्तराल से उभरती है, उन्हीं के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि वे किसी अदृश्य लोक से, दैवी शक्ति द्वारा सौभाग्य या वरदान की तरह अनुग्रहपूर्वक दी गई है।
आत्म साधना का नाम अध्यात्म है। चेतना को किस प्रकार मल आवरण, विक्षेपों से बचाया जाय? किस प्रकार उसे प्रगति पथ पर अग्रसर होने का अवसर दिया जाय? किस प्रकार उसे बलिष्ठ, प्रखर और परिष्कृत बनाया जाय? इसी विद्या का नाम अध्यात्म है। वह विज्ञान से कनिष्ठ नहीं वरिष्ठ है। विज्ञान ने मनुष्य को अगणित सुविधा साधन दिये हैं। किन्तु यदि पदार्थ की ही तरह चेतना की भी शोध और साधना की जाय, तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य इसी जीवन में देवताओं जैसा अन्तराल प्राप्त न कर सके, कोई कारण नहीं कि वह सामान्य परिस्थितियाँ और सीमित साधनों के सहारे भी स्वर्गीय वातावरण में रहने का आनन्द न ले सके।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
82-2 सच्ची व सार्थक उपासना क्या और कैसे?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आत्मशक्ति एक ऐसी दिव्य विभूति है, सामर्थ्यों का भाण्डागार है जो प्रसुप्त चेतना को जगाती एवं मानव में देवत्व का उदय सार्थक कर दिखाती है। इसी जीवन का परमानन्द प्राप्त कराने वाली इस प्रसुप्त सामर्थ्य से बहुसंख्य व्यक्ति अनभिज्ञ ही बने रहते हैं। आत्मशक्ति प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है, उसके दो पक्ष हैं-एक क्रिया-काण्ड, भजन पूजन का उपचार। दूसरा ब्रह्माण्डीय चेतना के, उत्कृष्टता, देवात्मा के साथ योग, एकात्म्य। उपचारों में जप, भजन, व्रत, उपवास जैसे शरीर साध्य कृत्य करने पड़ते हैं। योग भावना प्रधान है, उसमें समर्पण स्तर की भाव श्रद्धा जगानी पड़ती है। भक्ति का, प्रेम का अभ्यास करना और स्वभाव बनाना पड़ता है। आदर्शों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व को योगी कहते हैं, जबकि मात्र कर्मकाण्डों में ही निरत रहने वाले भावशून्यों को अधिक से अधिक पुजारी की संज्ञा दी जा सकती है। उपचारों को तीर और योग एकात्म्य को धनुष कहते हैं। तीर उतनी ही दूर जाता, उतनी ही चोट करता है जितना कि प्रत्यंचा का खिंचाव उसे प्रेरणा देता है। धनुष के बिना तीर की कोई चमत्कृति नहीं, किन्तु अकेला धनुष किसी छोटे से कंकड़ को फेंककर लगभग तीर लगने जैसा परिणाम उत्पन्न कर सकता है। उपचार का कोई महत्त्व नहीं, सो बात नहीं। लेखक को कलम, दर्जी को सुई, चित्रकार को तूलिका, वादक को वीणा जैसे उपकरणों का सहारा लेना पड़ता हैं। इतने पर भी उनकी अन्तःचेतना का प्रखर प्रवीण होना आवश्यक है, अन्यथा वे उपकरण हाथ में रहते हुए भी किसी सफलता का श्रेय प्रदान न कर सकेंगे। पूजा परक उपचारों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। उनकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। हथौड़ी के बिना लुहार, बाजे के बिना वादक अपने कौशल का परिचय कैसे देगा? उस्तरा न हो तो नाई किस प्रकार किसी की हजामत बनाए?
बीज की महत्ता सर्वविदित है। उसके बिना न खेती होती है और न बगीचा लगता है। इतने पर भी मात्र बीज को ही सब कुछ मान बैठने वाले न फसल काट सकते हैं और न फल सम्पदा के सहारे धनवान बन सकते हैं। बीज बोने की तरह ही खाद पानी का प्रबन्ध करना आवश्यक है। बीज को उपासना उपचार कह सकते हैं, किन्तु उसे लहलहाते पौधे का रूप देने के लिए भाव श्रद्धा का खाद पानी अनिवार्यतः चाहिए। अन्यथा बीज बोने में जो परिश्रम एवं धन खर्चा गया, वह भी बेकार चला जाएगा। यहाँ उस तथ्य का रहस्योद्घाटन किया जा रहा है, जिस पर साधना की सफलता-असफलता का केन्द्रबिन्दु निर्धारित है।
साधना को सिद्धि के रूप में परिणत होते देखने के इच्छुक प्रत्येक विचारशील को जहाँ निर्धारित पूजा-उपचार नियमित रूप से करने चाहिए, वहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इष्ट के, लक्ष्य के प्रति श्रद्धा का क्रमिक विकास हो रहा है या नहीं? प्राण विहीन शरीर को लाश कहते हैं और आस्था रहित पूजा उपक्रम को विडम्बना। दोनों का बाह्य स्वरूप तो सही दीखता है, पर आन्तरिक खोखलेपन के कारण उनके सहारे किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। मृतक के निर्जीव काय कलेवर से किसी को क्या कुछ मिल सकेगा? इसी प्रकार भाव-श्रद्धा से रहित पूजा को परिश्रम से इतना ही लाभ हो सकता है कि वह समय किसी दुष्कर्म में न लगकर सत्प्रयोजन के अभ्यास में व्यतीत हुआ। इतने पर भी उससे किसी चमत्कारी प्रतिफल की आशा अपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रत्येक तथ्यान्वेषी साधक को जितना परिश्रम, उपासना उपचार पर करना होता है, उससे कहीं अधिक प्रयास अपनी भाव चेतना में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए करना होता है। यह मरुस्थल को सुरम्य उद्यान में बदलने जैसा परम पुरुषार्थ है।
कई भ्रान्तिग्रस्त व्यक्ति मात्र पूजा उपचार के कर्मकाण्डों को ही ऋद्धि-सिद्धि का भाण्डागार मान बैठते हैं और बाजीगरों द्वारा तुर्त-फुर्त करतब-कौतूहल दिखाये जाने की तरह अपने तन्त्र-मन्त्र से आकाश-पाताल जैसी कल्पना करने लगते हैं। वे पूरी नहीं होतीं तो नास्तिक जैसा आक्रोश प्रकट करने और उपासना विज्ञान पर चित्र-विचित्र लाँछन लगाते देखे जाते हैं। सभी जानते हैं कि जादूगरी मात्र छलावा है। मिट्टी से रुपया बनाना, हथेली पर सरसों जमाना विज्ञान के सामान्य नियमों से सर्वथा विपरीत है। मिट्टी से रुपया बन तो सकता है, पर उसके लिए किसान, कुम्हार या ईंट पकाने वाले जैसी सुनियोजित प्रक्रिया का सहारा लेना होता है। पूजा उपचार के जादूगरी जैसे परिणाम देखने के लिए आतुर व्यक्ति बालकों जैसी आशा-निराशा के झूले में झूलते रहते हैं। अध्यात्म वस्तुतः अन्तःचेतना के परिष्कार का एक सुनियोजित विज्ञान है। जो आत्मसत्ता से जिस स्तर की उत्कृष्टता का समावेश कर पाता है, वह उतना ही पवित्र और प्रखर होता जाता है। सभी जानते हैं कि व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति जिस भी क्षेत्र में हाथ डालते हैं, उसी में सफलता पाते हैं; जबकि मन्त्र-तन्त्र के बाजीगर व्यक्तित्व के सुधार परिष्कार की ओर नजर तक नहीं डालते और मात्र जादुई क्रिया-कृत्यों के सहारे उन सफलताओं को तत्काल उपलब्ध करने की बात सोचते हैं, जो अभीष्ट योग्यता एवं तत्परता के मूल्य पर ही खरीदी जा सकती है।
इन दिनों हर क्षेत्र में भ्रान्तियों का बाहुल्य है। अध्यात्म का क्षेत्र तो उससे भी बुरी तरह भर गया है। आत्मपरिष्कार के, व्यक्तित्व निर्माण के उच्चस्तरीय विज्ञान की आज जो दुर्गति हो रही है, उसे देखकर भारी दुःख होता है। उपचार कृत्यों के गुण-दोषों पर विचार पीछे किया जाना चाहिए। पहले यह देखा जाना चाहिए कि अध्यात्म के नाम पर जो मान्यताएँ प्रचलित हैं, वे कहाँ तक सत्य और तथ्य पर आधारित हैं? आज उस आत्म परिष्कार की पुनीत प्रक्रिया को पदच्युत करके बाजीगरी का, उठाईगीरी का सिद्धान्त मान्यता प्राप्त कर चुका है। हर व्यक्ति चित्र-विचित्र कर्मकाण्डों से जादू भरे चमत्कार और टोकरा भरे आकाश कुसुमों के उपहार पाना चाहता है। यदि उनकी मान्यता सही होती है तो फिर इस विश्व व्यवस्था में कर्मफल, योग्यता एवं तत्परता के लिए कोई स्थान शेष न रह जाएगा। तब महती सफलताएँ जादूगरों की पिटारी से ही बिखरती-बरसती पाई जायेंगी।
अध्यात्म निश्चय ही जादू भरा है। संसार के महामानवों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का इतिहास एवं अनुदान ऐसा गौरवशाली है, जिस पर हजारों लाखों जादूगरों को निछावर किया जा सकता है। वैसी ही महत्त्वाकांक्षा हर सच्चे अध्यात्मवेत्ता को सँजोनी चाहिए। जादू भरे कौतूहलों को देखने की बचकानी ललक को कूड़े के ढेर में बुहारकर फेंक देना चाहिए, साथ ही वह आत्मतेजस् उभरना चाहिए जिसके सहारे अभ्यस्त कुसंस्कारों में, स्वभाव एवं आदतों में कायाकल्प जैसे परिवर्तन कर सकना शक्य हो सके।
आत्मीयता का विस्तार ही भक्तियोग है। इसके अभ्यास में सर्वत्र अपनापन दीखता है। उदार सेवा सहायता करने को मन करता है। आस्थाएँ उत्कृष्टता के साथ जुड़ी रहने से अन्तरंग में जो उल्लास उमँगता रहता है, उसी को अमृत, आत्मदर्शन, ब्रह्म साक्षात्कार आदि का नाम तत्त्वदर्शियों ने दिया है। जीवन मुक्तों की, देवदूतों की ऐसी ही स्थिति होती है।
ज्ञानयोग उच्चस्तरीय दूरदर्शिता का नाम है। आम आदमी तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भविष्य की आवश्यकताओं-सम्भावनाओं पर तनिक भी विचार नहीं करते। यही कारण है कि उनकी बुद्धि विलास, संचय एवं अपव्यय के ताने-बाने बुनती रहती है। जिन्दगी इस व्यामोह में कट जाती है और जब परिणामों के परिपक्व होने का अवसर सामने आता है, तो मात्र पश्चात्ताप ही शेष रहता है। ज्ञानयोग अन्धी भेड़ों जैसे लोक प्रवाह को अमान्य ठहराकर अपनी स्वतन्त्र विवेक बुद्धि का उपयोग करता है और नरपशुओं की तरह नष्ट-भ्रष्ट होने वाले जीवन को नये निर्धारणों के आधार पर देवोपम गतिविधियों के साथ जोड़ देने का पराक्रम प्रकट करता है।
कर्मयोगी अपनी क्रियाशक्ति को पेट प्रजनन में, तृष्णा अहंता की पूर्ति से ऊपर उठाकर उसे आदर्शवादी क्रिया-कलापों में नियोजित करता है। सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धान्त ही कर्मयोग का पर्यायवाचक है। जो उच्चस्तरीय जीवन जियेगा, उसे संयम बरतना पड़ेगा। आवश्यकता और इच्छाएँ घटाकर देशवासियों के औसत स्तर तक नीची लानी पड़ेंगी। इतना बन पड़ने पर ही कोई अपने श्रम, समय, मनोयोग एवं वैभव को बचत करके उच्च विचारों को साकार करने वाले परमार्थ में नियोजित कर सकता है। कर्मयोगी की आन्तरिक स्थिति यही है।
कर्मयोगी महामानव बनते हैं, ज्ञानयोगी ऋषि कहलाते हैं और भक्तियोगी जीवनमुक्त अवतारी देवदूतों में गिने जाते हैं। मनुष्य के तीन शरीर हैं। स्थूल शरीर को कर्मयोग से, सूक्ष्म शरीर को ज्ञानयोग से एवं कारण शरीर को भक्तियोग से परिष्कृत करते हुए परम लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। यही आत्मिक प्रगति का राजमार्ग है। इसी पर चले हुए सामान्यों को असामान्य बनने का और युग प्रवाह को उलटने से लेकर समूचे वातावरण में उत्कृष्टता भर देने का सुअवसर मिलता है। उनकी गतिविधियों की परिणति को देखते हुए हर विवेकवान की आँखें उन्हें चमत्कारी सिद्ध पुरुष कहतीं और शत्-शत् नमन करती देखी जाती है, बचकाने जादू जैसे दृश्य देखने, कौतूहल दिखाने के लिए ललकते रहते हैं, पर परिपक्व प्रज्ञा वाले उस ओर नजर उठाकर भी नहीं देखते। उन्हें अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में, दृष्टिकोण, रुझान एवं कर्तृत्व की उत्कृष्टता में ऐसे चमत्कारों की भरमार दीखती है, जिसके लिए सामान्य नर-पामर प्रायः तरसते-तरसते ही मरते हैं।
देवशक्तियों के स्वरूप, स्तर एवं क्रियाकलाप के सम्बन्ध में तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके, उतना ही उत्तम है कि वे चमचागिरी, जीभ की लपालपी, छोटे पुष्प-दीप जैसे उपहारों से प्रभावित होकर किसी को अपना भक्त मान बैठने और उसकी उचित अनुचित कामनाओं की तत्काल पूर्ति में लग जाने वाले नहीं हैं। इस आधार पर उन्हें फुसलाने बहलाने की तिकड़मबाजी को ही यदि कोई पूजा साधना समझता हो तो इस भ्रम जंजाल में फँसने के उपरान्त निराश होने, गाली देने की अपेक्षा यही अच्छा है कि बिना किसी भजन पूजन के ही काम चलाया जाए। पुरुषार्थ के आधार पर सफलता पाने में नीतिमत्ता भी है और वास्तविकता भी। छुटपुट जादुई उपचारों के उलटे उस्तरे से देवताओं की हजामत बनाने के धन्धे में हाथ डालने की अपेक्षा उसे न करना ही अधिक समझदारी की बात है।
पेड़ों की आकर्षण शक्ति आकाश में उड़ने वाले बादलों को धरती पर उतरने और बरसने के लिए विवश करती है। साधक की चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा का समन्वय ही ऐसी आकर्षण शक्ति का उद्भव करता है, जो दैवी अनुदानों को साधक पर बरसाने के लिए विवश कर सके। अस्तु, मनुहार उपहार के लोभ-लालच में दैवी शक्तियों को बहेलियों और मल्लाहों की तरह फँसाने का विचार छोड़कर अपना प्रयास यह करना चाहिए कि अपनी पात्रता किस प्रकार इस स्तर तक विकसित की जाए कि दैवी शक्तियों को बादलों की तरह बरसने के लिए विवश होना पड़े। बर्तन जितने बड़े होते हैं उतना ही पानी उनमें भरा जा सकता है। विपुल जलाशय भी बर्तन की परिधि से अधिक पानी दे सकने में असमर्थ रहते हैं। दैवी शक्तियाँ भी ऐसे ही अनुबन्धों में बँधी हुई हैं।
ईश्वर आदर्शों का समुच्चय है। उपासना का अर्थ होता है-समीप बैठना। समीप बैठना वैसा-जैसा कि गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचकर अपना गीलापन समाप्त कर लेती है और आग की ऊष्मा को अपने में धारण करके सूखती चली जाती है। अधिक निकट पहुँचने पर स्वयं आग बन जाती है। उपासना का वास्तविक अर्थ यही है। महानता की समस्त उत्कृष्टताओं के पुंज परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त करके साधक उसकी गुण गरिमा को क्रमशः अपने में अधिकाधिक मात्रा में भरता चला जाए। यही दैवी विभूतियाँ व्यक्तित्व को श्रेष्ठ, शालीन, उदार और उदात्त बनाती हैं। कहना न होगा कि व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति एक प्रकार से सिद्ध पुरुष ही होता है। उसका मूल्य हर क्षेत्र में सामान्य नर-पशुओं की तुलना में हजारों लाखों गुना अधिक आँका जाता है। तदनुरूप उस पर चारों ओर से सम्मान सहयोग भी बरसता है। जो इस स्तर का लाभ पा सकेगा, उसे स्वभावतः उच्चस्तरीय सफलताएँ भी मिलती चली जायेंगी। ऐसे लोग ही हर क्षेत्र में श्रेय पाते और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं। इसी सुखद प्रतिफल को यदि कोई चाहे तो उपासना का चमत्कार कह सकता है।
ईश्वर निष्पक्ष न्यायकारी है, उसके दरबार में किसी का मूल्य उसकी प्रामाणिकता एवं परमार्थ परायणता के आधार पर ही आँका जाता है। न उसे प्रशंसा की आवश्यकता है, न पूजा सामग्री की। नाम लेने न लेने का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे किसी उपहार की भी कोई आवश्यकता नहीं। विश्व सम्पदा के अधिष्ठाता की ऐसी इच्छा आवश्यकता हो भी नहीं सकती। यह हमारी अपनी क्षुद्रता है, जो इतनी बड़ी शक्ति को नगण्य से उपचारों से प्रभावित करके उससे उचित अनुचित मनोरथों की पूर्ति करा देने की बात सोचते हैं। ऐसा पक्षपात तो कोई ईमानदार न्यायाधीश तक नहीं करता। फिर ईश्वर जैसी महान शक्ति प्रशंसा पूजा जैसे उपहासास्पद उपहारों के बदले कर्मफल की समस्त नियम मर्यादाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर देगी, यह सोचना परले सिरे की मूर्खता का परिचय देना है।
ईश्वर उपासना जिन्हें भी करनी हो वे इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए करें। उस आधार पर उपलब्ध होने वाली दिव्य प्रेरणाओं के सहारे अपने गुण, कर्म, स्वभाव की प्रसुप्त विशेषताओं को विकसित करें और उन्हीं समस्त सिद्धियों-विभूतियों को पाने के अधिकारी बनें जो भक्तियोग की साधना करने वालों में मिलने की बात शास्त्रकारों एवं आप्तजनों ने अपने प्रतिपादनों में समय-समय पर बताई है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
83. अध्यात्म विज्ञान सम्मत बनें एवं विज्ञान अध्यात्मपरक
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पिछले दिनों बुद्धिवाद एवं विज्ञान का जो विकास हुआ है, उसने भौतिक सुविधाओं को भले ही बढ़ाया हो, आध्यात्मिक आस्था को दुर्बल बनाया है। विज्ञान ने जब मनुष्य को एक पेड़ पौधा मात्र बनाकर रख दिया और उसके भीतर किसी आत्मा को मानने से इनकार कर दिया, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत किया, इस सृष्टि को सब कुछ अणुओं की स्वाभाविक गतिविधि के आधार पर स्वसंचालित बताया, तो स्वभावतः विज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर अति प्रामाणिक मानने वाली बुद्धिवादी नई पीढ़ी उसी मान्यता को शिरोधार्य क्यों न करेगी? प्रत्यक्ष है कि विचारशील वर्ग अनास्थावान् होता चला जा रहा है और यह एक भयानक परिस्थिति है, क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग के पीछे जनता के अन्य वर्गों को चलने के लिये विवश होना पड़ता है। आज के थोड़े से अनास्थावान् बुद्धिजीवी कल परसों अपनी मान्यताओं से समस्त जन-समाज को आच्छादित किये हुए होंगे।
आध्यात्मिक मान्यताएँ सदाचार, सहयोग, सद्भाव, सेवा सद्भावना, पुण्य, संयम एवं त्याग, बलिदान जैसी सत्प्रवृत्तियों की रीढ़ है। आत्म-कल्याण ईश्वरीय प्रसन्नता, पुण्य-परमार्थ, स्वर्ग-नरक, कर्मफल आदि मान्यताओं के आधार पर ही मनुष्य अपनी चिरसंचित पशुता पैशाचिकता पर नियन्त्रण करने और लोक-कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक सत्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने में समर्थ होता है। यदि वह आधार ही नष्ट हो गया, यदि उन मान्यताओं को कपोल कल्पित मान लिया गया, तो फिर न किसी को संयमी बनने की आवश्यकता अनुभव होगी, न सदाचारी होने की। न पुण्य अभीष्ट होगा, न परमार्थ। न त्याग की बात कोई करेगा, न बलिदान की। फिर मनुष्य ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ के आदर्श को अपना कर हर अनैतिक कार्य करने के लिये तैयार हो जायेगा, ताकि वह अधिक मौज मजा उड़ाने का अधिक अवसर प्राप्त कर सके।
कानूनी पकड़ एवं दण्ड से बचने का रास्ता अब अति सरल है। कानून बहुत ही ढीले पोले हैं। फिर जिन पर कानून पालने के लिए विवश करने की, दण्ड देने-दिलाने की जिम्मेदारी है, वे राज्य कर्मचारी ही कहाँ दूध के धुले हैं? अपराधी से साँठ-गाँठ रखने की कला उन्हें भी आ गई है और उस दुर्बलता से ही भ्रष्टाचारी, हर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला पूरा-पूरा लाभ उठाता है, उठा सकता है। केवल कानून के द्वारा अपराध रोक सकने की बात सोचना उपहासास्पद है। मनुष्य केवल अपनी अन्तरात्मा की पुकार और ईश्वरीय सत्ता के रोक अनुग्रह का विचार स्मरण रखकर ही कुमार्ग से बचता और सन्मार्ग अपनाता है। यदि आत्मा और ईश्वर कोई है ही नहीं, कर्मफल देने की कोई अज्ञात व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर पाप प्रवृत्तियों को अपनाकर शौक-मौज के साधन जुटाने से कोई चूके क्यों? आज यही विचार बुद्धिजीवी पीढ़ी के मस्तिष्क में घूम रहे हैं और उसका नैतिक स्तर दिन-दिन दुर्बल होता चला जा रहा है।
यह विभीषिका इतनी भयानक है कि इसकी भावी सम्भावनाओं का स्मरण करने मात्र से आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। शुतुरमुर्ग की तरह बालू में मुँह ढक कर खतरा टल गया ऐसा सोचना मूर्खता है। सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा ऐसी मान्यता वास्तविकता से दूर है। जहाँ धर्म अध्यात्म का प्रकाश नहीं पहुँचा है, ऐसे अफ्रीका आदि प्रदेशों के जंगली लोग अभी भी नर माँस खाते और एक से एक बढ़कर घृणित एवं नृशंस रीति-रिवाज अपनाये बैठे हैं। अपने आप सब कुछ ठीक होने वाला होता तो सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक लाखों वर्षों में वे अपने आपको सभ्यता के उच्च स्तर तक ले आने में समर्थ हो गये होते। अपने आप कुछ नहीं होता, सब कुछ करने से होता है। ऋषियों ने लाखों वर्ष तक तप, त्याग, मनन-चिन्तन करके अध्यात्म और धर्म का अति महत्त्वपूर्ण कलेवर खड़ा किया है। उसे जन-मानस में प्रविष्ट कराने के लिए अगणित साधु ब्राह्मणों ने तिल-तिल करके अपना जीवन जलाया है। अगणित धर्म ग्रन्थ लिखे गये हैं और उन्हें पढ़ने, सुनने, समझने तथा हृदयंगम करने की स्थिति उत्पन्न करने के लिये अगणित मानववादी परम्पराओं या रीति-रिवाजों, प्रक्रियाओं, पूजा-पद्धतियों एवं कर्मकाण्डों का प्रचलन किया है। लगातार उस विचारधारा से सम्पर्क बनाये रखने के लिए उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया है।
यदि ऋषियों द्वारा प्रादुर्भूत धर्म-संस्कृति का आविर्भाव न हुआ होता तो अन्य प्रदेशों को उद्धत जंगली जातियों की तरह समस्त जन-समाज पशु प्रवृत्तियाँ अपनाये होता और उसकी बौद्धिक विशेषता पतनोन्मुख होकर इस संसार में पैशाचिक कुकर्मों की आग जला रही होती। ईश्वर अपने आप सब कुछ कर लेगा यह सोचना ठीक नहीं। गत 80 वर्षों में संसार का 80 फीसदी भाग बौद्धिक एवं राजनैतिक स्तर पर साम्यवादी शासन के अन्तर्गत आ गया। जिस तीव्रगति से अब वह चक्र घूम रहा है उसे देखने हुए अगले 20 वर्ष में शेष 20 प्रतिशत भाग भी उसी मान्यता के क्षेत्र में चला जा सकता है।
बुद्धिवाद और विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित उन मान्यताओं के सम्बन्ध में हमें सतर्क होना होगा जो मनुष्य को अनास्थावान् एवं अनैतिक बनाती है। विचारों को विचारों से, मान्यताओं को मान्यताओं से, प्रतिपादनों से काटा जाना चाहिए। समय-समय पर यही हुआ भी है। वाममार्गी विचारधारा को बौद्धों ने हटाया और बौद्ध धर्म के शून्यवाद का समाधान जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रबल प्रयत्नों द्वारा हुआ। लोगों को केवल तलवार बन्दूकों की लड़ाइयाँ ही स्मरण रहती हैं। असली लड़ाइयाँ तो विचारों की लड़ाइयाँ हैं। वे ही जन-समूह के भाग्य का निर्माण करती हैं। प्रजातंत्र सिद्धान्त के जन्मदाता रूसो और साम्यवाद के प्रवर्तक कार्लमार्क्स की विचारधाराएँ पिछली शताब्दियों से मानव समाज का भाग्य निर्माण करती रही हैं। पूँजीवाद, समाजवाद, अधिनायकवाद की विचारधाराओं ने भी अपने ढंग से अपनी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रस्तुत की है। बाह्य संघर्षों की पृष्ठभूमि में मूलतः यह विचारधाराएँ काम करती हैं। देशों और जातियों का उत्थान पतन उनकी आस्थाओं और प्रवृत्तियों के आधार पर ही होता है, होता रहा है, हो सकता है।
उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने वाली आज की बुद्धिवादी और विज्ञानवादी मान्यता जिस तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती चली जा रही है, उसकी भयंकरता की दुर्धर्ष संभावना का मूल्यांकन कम नहीं किया जाना चाहिए। उसका प्रतिरोध करने के लिए तत्परता पूर्वक खड़ा होना चाहिए। युग के प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह महती जिम्मेदारी है। इसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न अवज्ञा। हमें एक ऐसा विचार मोर्चा खड़ा करना चाहिए जो भौतिकवादी अनास्था से पूरी तरह लोहा ले सके। यदि यह कार्य सम्पन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानव जाति के मस्तिष्क को, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म को अंधकार के गर्त में गिरने से बचा लिया गया। पर यह मोर्चा खड़ा न किया जा सका, उसे सफलता न मिली तो परिणाम प्रत्यक्ष है। कुछ ही दिन बाद हम जंगली संस्कृति के, नास्तिकता के, पशु प्रवृत्तियों के पूरी तरह शिकार हो जायेंगे और लाखों वर्षों की मानवीय संस्कृति आत्मदाह करके अपना करुण अन्त प्रस्तुत करेगी।
समय रहते चेतने में ही बुद्धिमानी है। बुद्धिमत्ता की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। वही शुभारम्भ किया भी जा रहा है। बुद्धि सम्पन्न एवं विज्ञान सम्पन्न अध्यात्म के प्रतिपादन की चर्चा इसी दृष्टि से की जा रही है। यह कहना सही नहीं कि धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, आत्मा आदि का प्रतिपादन बुद्धि का नहीं श्रद्धा का मिश्रण है। अन्ध-श्रद्धा नहीं, विवेक सम्पन्न श्रद्धा ही स्थिर और समर्थ हो सकती है। प्राचीन काल के ऋषियों ने भी बुद्धि की शक्ति से ही अध्यात्म का सारा कलेवर खड़ा किया था। प्राचीन काल में श्रद्धा, शास्त्र और आप्त वचन जन मान्यता के आधार थे। अब यदि दिमाग, तर्क और प्रमाण उसके आधार बन गये हैं तो कोई कारण नहीं कि आज की जन मनोभूमि के अनुसार अध्यात्म सिद्धान्तों का प्रतिपादन और समर्थन न किया जा सके।
कार्य कठिन है। अति विस्तृत और अति श्रम साध्य है। उसके लिए भारी मनोयोग, अध्यात्म और प्रत्युत्पन्न मति की आवश्यकता है, पर इस संसार में अभाव तो किसी वस्तु का नहीं। आखिर कठिन काम भी तो मनुष्यों ने ही किये हैं। यह काम भी ऐसा नहीं है जो न किया जा सके। सही आधार पर किये गये प्रतिपादन जब मनुष्य के अन्तःकरण में बैठ जाते हैं, तो उनके अनुसार वे आचरण भी करते हैं। गाँधी युग में जब लोगों को स्वतन्त्रता प्राप्ति की उपयोगिता और उसके लिए त्याग, बलिदान की आवश्यकता समझाई गई तो लाखों लोगों ने बड़े से बड़े त्याग, बलिदान उसके लिए किये। हजारों ने फाँसी और गोली खाकर अपने जीवन निछावर कर दिये। ठीक आधार पर पक्की तरह जो आदर्श लोगों को सिखा समझा दिया जाता है, उसके लिए वे कष्ट सहते हुए भी आगे बढ़ते हैं। प्राचीन काल में धर्म और अध्यात्म की मान्यताएँ जब लोगों के गले उतर गई थी, तो भारतीय समाज का हर सदस्य देवोपम उत्कृष्ट जीवन जीने में अपनी शान और बहादुरी समझता था, भले ही उसे उसमें कितना ही बड़ा कष्ट क्यों न सहना पड़ता रहा हो। आगे भी यही रीति-नीति बरती जाती रहेगी। जब भी कोई आदर्श उस युग की मनोभूमि का आधार लेकर सिखाया समझाया जायेगा, तो वस्तु स्थिति को लोग समझेंगे और उस पर आचरण भी करेंगे। यदि हम अध्यात्मवादी मान्यताओं का आज विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सकते हो तो निस्संदेह जन समाज को उसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी। और यह भी निश्चित है कि जो बात अन्तःकरण की गहराई में स्वीकार की जाती है वह आचरण में भी अवश्य उतरती है।
आज अध्यात्म का प्रतिपादन जिन आदर्शों पर जिस ढंग से किया जाता है, वे जन मानस में गहराई तक प्रवेश नहीं करते। कथा पुराणों, धर्म शास्त्रों, किम्वदन्तियों एवं परंपराओं की प्रामाणिकता पर अब लोगों के मन में संदेह उत्पन्न हो गया है। वे उन्हें किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की ऐसी कल्पनायें मानते हैं जिनकी उपयोगिता एवं वास्तविकता प्रमाणित नहीं होती। शंका शंकित और संदिग्ध मन से धर्मोपदेश सुन तो लेते हैं, पर उसकी यथार्थता एवं व्यवहारिकता पर विश्वास नहीं करते। यही कारण है कि धर्मोपदेशों का विशालकाय कलेवर इतने बड़े आडम्बर के साथ विद्यमान रहते हुए भी उसका जन जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। धर्म के बाह्य आवरणों को एक-एक पक्षपात के रूप से अपना लेते हैं, पर आचरण में उन आदर्शों का प्रवेश तनिक भी नहीं होने देते जो धर्म की आत्मा है। इसका एक ही कारण है कि अध्यात्म को उन आदर्शों पर नहीं समझाया जाता जो आज की जन मनोभूमि के अनुरूप हो। आज हर व्यक्ति तर्क, प्रमाण और विज्ञान को आधार मानता है। इस युग में कोई भी मान्यता केवल इन तीन आधारों पर ही प्रामाणिक एवं ग्राह्य बन सकती है।
इस युग के मनीषियों का पवित्र कर्तव्य है कि वे अपने समय की आवश्यकता को समझें और उसको एक व्यवस्थित विचार पद्धति विनिर्मित करने में संलग्न हों। युग निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए जीवन जीने की कला का, व्यवहारिक अध्यात्म का प्रतिपादन शिक्षण किया भी जा रहा है। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका इसी प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न है और आवश्यक गोला-बारूद, विचार प्रवाह प्रस्तुत करती चली आ रही है। यह प्रयत्न आगे इसी गति से और भी अधिक तीव्र गति से आगे बढ़े, ऐसे प्रयास चल रहे हैं। आज से तीस वर्ष पूर्व यह कहा जाता था कि ‘जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहाँ से अध्यात्म आरम्भ होता है।’ विज्ञान और अध्यात्म का क्षेत्र सर्वथा पृथक एक दूसरे से सर्वथा असंबद्ध है। पर अब ऐसी स्थिति नहीं रही। गत बीस वर्षों में विज्ञान ने अति तीव्र गति से प्रगति की है और उसका हर चरण अध्यात्म के समर्थन की ओर बढ़ा है। लगता है कि यह प्रगति क्रम जारी रहा तो अगले पचास वर्षों में अध्यात्म विज्ञान दोनों इतने समीप आ जायेंगे कि दोनों का एकीकरण एवं समन्वय असम्भव न रहेगा।
सर्व साधारण की जानकारी प्रायः बहुत पिछड़ी हुई बनी रहती है। प्रगति के नवीन चरण उसमें प्रायः अविज्ञात ही बने रहते हैं। डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त अब नयी खोजों के आधार पर उपहासास्पद बनता चला जा रहा है और फ्रायड के कामुकता समर्थक मनोविज्ञान के अब धुर्रे उड़ा दिये गये हैं। नवीन शोधों ने विकासवाद और मनोविज्ञान को अध्यात्म की दिशा में काफी आगे तक बढ़ा दिया है और लगता है उनके बढ़ते जाते कदम अध्यात्म के समर्थन की दिशा में ही बढ़ रहे हैं। अणु विज्ञान के आचार्य आइन्स्टीन की नवीन खोजों ने अणु-सत्ता की पीठ पर एक सचेतन उत्कृष्ट सत्ता के (ईश्वर के) अस्तित्व को स्वीकार किया है। और भी इस दिशा में बहुत कुछ काम हुआ है, पर वह उतने ऊँचे स्तर के क्षेत्र में है कि सर्व साधारण तक उसकी जानकारी मुद्दतों बाद पहुँचेगी और तब तक अनास्थावादी मान्यताएँ इतनी प्रखर हो जायेंगी कि उन्हें हटाना, मिटाना संभव न रहेगा।
दर्शन और तत्त्वज्ञान के उद्गम से ही कोई विचार पद्धति एवं आचार प्रक्रिया प्रादुर्भूत होती है। अध्यात्म का दर्शन और तत्त्वज्ञान प्रतिपादन करने के लिए ही वेद उपनिषद् ,, दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक आदि का आविर्भाव हुआ। ईश्वर, जीव प्रकृति के विभिन्न भेद-उपभेदों की चर्चा रही। दर्शन ही विचार और आचरण का मूल आधार है। इसलिए ईश्वर, आत्मा, धर्म, स्वभाव, कर्मफल आदि के दार्शनिक सिद्धान्तों को सही ढंग से प्रतिपादित करना होगा। संसार की दिशा मोड़ने वाले दार्शनिकों ने मानवीय आस्थाओं का मूलभूत विश्लेषण अपने ढंग से किया है और यदि वह लोगों को ग्राह्य हुआ तो निस्संदेह जनसमूह की गतिविधि भी उसी दिशा में सोचने, करने और बढ़ने के लिए प्रेरित प्रभावित होगी। अब भी यही किया जाना है। हम अध्यात्म के दार्शनिक सिद्धान्तों का विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सके, तो निस्संदेह जन-मानस को पुनः उसी प्रकार सोचने और करने को तत्पर किया जा सकता है, जिस पर कि भारतीय जनता लाखों वर्षों तक आरूढ रहकर समस्त विश्व का प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शन करती रही है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
84.
85. अध्यात्म के अवलम्बन से नर का नारायण में परिवर्तन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रकृति विनिर्मित सभी वस्तुएँ मनुष्य के यथावत उपयोग में नहीं आ पाती। उनमें से कुछेक ही ऐसी हैं जिन्हें प्राकृत रूप में प्रयोग किया जा सकता है। साधारणतया प्राणी समुदाय आहार पोषण तक ही सीमित रहते, काम चलाते और सन्तुष्ट रहते हैं। यही बात चेतना के सम्बन्ध में भी है। सभी प्राणी अपनी इन्द्रिय क्षमता और अन्तःप्रेरणा के सहारे सामान्य निर्वाह की आवश्यकता तथा सुरक्षा की कठिनाइयों का सामना कर लेते हैं। इससे अधिक की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस स्तर का जीवन उन्हें जीना है उसके लिए अतिरिक्त प्रयोजन अभीष्ट न होने से सृष्टा ने अधिक कुछ देने की आवश्यकता भी नहीं समझी और अतिरिक्त भार का झंझट भी नहीं लादा।
मनुष्य को इस समुदाय में नहीं गिना जाता। उसे सृष्टा ने इस जगती का मुकुटमणि बनाकर भेजा है। उसके लिये पेट भरने एवं आक्रमणों से जान बचाने की पशु स्तर की सुविधाएँ पर्याप्त नहीं समझी गई। इससे अधिक भी उसे कुछ चाहिए। शरीर भी उतने से सन्तुष्ट नहीं होता, जितने से कि अन्य प्राणियों का काम चल जाता है। मन की आकाँक्षाएँ भी बढ़ी-चढ़ी हैं। साथ ही अन्तःकरण उच्चस्तरीय रीति-नीति अपनाने के लिए अन्यान्य समर्थताओं की भी माँग करता हैं। यह साधन न मिलें तो फिर वन-मानुष स्तर का निर्वाह करने से आगे की कुछ बात नहीं बनती है।
मानवी संरचना बड़ी विचित्र है। उसकी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए मात्र इन्द्रिय चेतना एवं मूल प्रवृत्तियों के आधार पर गतिशील अन्तःप्रेरणाओं के सहारे उस तरह काम चल नहीं सकता, जिस तरह कि अन्य प्राणियों का चल जाता है। आवश्यकताओं के असंख्य क्षेत्र बढ़ जाने के कारण मनुष्य को अगणित पदार्थों का रूपान्तरण करके उन्हें अपने उपयोग में आ सकने योग्य बनाना पड़ा है। इसी प्रयास-प्रक्रिया का नाम भौतिकी है। इस विज्ञान का आश्रय लिये बिना मनुष्य को आदिम युग से आगे बढ़ सकने का अवसर ही नहीं मिल सकता था। वर्तमान विकास युग का पूरा-पूरा श्रेय इसीलिए भौतिकी को दिया जा सकता है।
उदाहरण के लिए कपास से वस्त्र, कच्चे अन्न से सुपाच्य भोजन, रात्रि में प्रकाश, भूमि से उत्पादन, पशु-पालन, नौकायन, चिकित्सा, परिवहन शिक्षा जैसे कार्यों में जिन वस्तुओं का उपयोग होता है, वे प्राकृत रूप में उपलब्ध नहीं होते, उन्हें पदार्थ के मौलिक स्वरूप को बदलकर काम में आने योग्य बनाना पड़ता है। औजार जमीन में से नहीं निकलते। प्रकृतितः तो भूमि में से मिट्टी मिला लोहा निकलता है, उससे कोई भी वस्तु नहीं बन सकती। अनेकों अग्नि संस्कार करने के उपरान्त ही कच्चा लोहा शुद्ध होता है और उससे उपयोग योग्य अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। पानी की आवश्यकता वर्षा के द्वारा बनने वाले नालों, जोहड़ों से पूरी नहीं हो सकती। इसके लिए कुआँ खोदने, पम्प, चरस आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। यह ‘भौतिकी’ है।
इससे आगे उन अनेकानेक आविष्कारों, यन्त्र-कारखानों का सिलसिला शुरू होता है, जिनके माध्यम से प्राकृत पदार्थों को उलट-पुलट कर अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। यह निर्वाह की प्रक्रिया हुई। इसके आगे अस्त्र-शस्त्र, कला-कौशल, सुविधा-सम्वर्धन, परिवहन-संचार, विनोद उपचार आदि के अनेकों ऐसे साधनों का क्षेत्र प्रारम्भ होता है, जो निर्वासन से आगे की आवश्यकता पूर्ण करती है। संक्षेप में भौतिकी का वह स्वरूप समझा जाना चाहिए जो अभ्यास में आने के कारण नया जैसा, महत्त्वपूर्ण जैसा तो प्रतीत नहीं होता, पर वस्तुतः है सभ्यता और प्रगति का मेरुदण्ड, उनके अभाव में मनुष्य की आज क्या स्थिति हो सकती है, इसकी कल्पना मात्र से भय का संचार होता है।
ठीक यही बात आत्मिकी के सम्बन्ध में है। स्पष्ट है, जड़ से चेतन का स्तर ऊँचा है। चेतन ड्राइवर के बिना लाखों, करोड़ों की बनी रेलगाड़ी सही रीति से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। स्वसंचालित यन्त्रों का भी कोई संचालक, नियामक होता है। पदार्थ सत्ता का मानवोपयोगी पक्ष पूर्णतः भौतिकी के चमत्कारों से भरा पड़ा है। आत्मिकी का उद्देश्य मानवी चेतना को इस योग्य बनाना व ऊँचा उठाना है कि पदार्थों और प्राणियों के साथ व्यवहार करने की ऐसी विधि सुझाये, जिसके कारण सुविधा एवं प्रसन्नता बढ़ती रहे। इस आलोक के अभाव में वस्तुओं के दुरुपयोग और प्राणियों से दुर्व्यवहार की अव्यवस्था फैलेगी और फलतः ऐसी परिस्थिति सामने आ खड़ी होगी, जिससे कि सुविधा सहयोग देने वाले उलटी हानि पहुँचाने लगें और प्राणघातक संकट खड़े करें। आत्मिकी ही है, जिसके आधार पर मनुष्य अपने चिन्तन और चरित्र को परिष्कृत स्तर का तालमेल बिठा सकने में सक्षम बनाता है। इसके अभाव में उसे अनगढ़, पिछड़े, असभ्य लोगों की तरह वन-मानुष जैसा जीवन जीना पड़ेगा। साधन रहते हुए भी सही उपयोग न बन पड़ने के कारण उलटे संकट में फँसना पड़ेगा।
अन्य प्राणियों में बुद्धि और आवश्यकता का सन्तुलन है, इसलिए उनकी गाड़ी पटरी पर लुढ़कती रहती है। मनुष्य ने प्रगति की है, सुविधा बढ़ाई है, तो उसे यह भी जानना होगा कि उपलब्धियों का उपयोग करते समय किस प्रकार सोचा जाय और व्यवहार में किन मर्यादाओं का ध्यान रखा जाय। इसके अभाव में बढ़े हुए साधनों का दुरुपयोग होने पर विपत्तियों और विग्रहों के टूट पड़ने का खतरा रहेगा। विक्षिप्तों, सनकियों, दुर्बुद्धि-दुराचारियों को अपने पैरों कुल्हाड़ी मारते और दूसरों के लिए संकट खड़े करते आये दिन देखा जाता है। इसका कारण साधनों का अभाव नहीं, उनके उपार्जन, संरक्षण एवं उपयोग की प्रक्रिया में अनभ्यस्त रहना होता है। प्रगतिशील और पिछड़े लोगों के बीच इसी विशेषता की न्यूनाधिकता होती है, जिसे सभ्यता, बुद्धिमत्ता, सज्जनता व्यवहार-कुशलता आदि नामों से पुकारते हैं। संस्कृति यही है। इसी के सहारे मनुष्य प्रगतिशील बनते, सुखी रहते और दूसरों की सहायता करके उनका स्नेह सहयोग अर्जित करते हैं।
आत्मिकी की यह चर्चा व्यावहारिक जीवन में सरलता और प्रसन्नता पूर्वक निर्वाह चलाने की, सन्तुलन बनाये रहने की प्रक्रिया हुई। आगे और भी बहुत कुछ जानने योग्य है। श्रम शक्ति के चमत्कार से सभी परिचित हैं। शारीरिक हो या मानसिक, विद्युत आदि के माध्यम से उत्पन्न की गई श्रम शक्ति ही विविध-विध निर्माणों की व्यवस्था बनाती है। इसके बाद दूसरी शक्ति है-विचारणा। इसके अनेकों पक्ष हैं-कल्पना, तर्क, निर्धारण, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, आकांक्षा, आस्था आदि। इन्हीं मानसिक क्षमताओं के द्वारा मनुष्य अपनी विशिष्टताओं को प्रकट करता, सफलताएँ प्राप्त करता तथा श्रेय बटोरता है। विचारशक्ति बढ़ाने की आवश्यकता सभी समझते है और शरीर को स्वस्थ रखने के निमित्त आहार-उपचार की तरह बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण एवं अनुभव सम्पादन के अनेकों साधन जुटते हैं। यह विचारणा का कामकाजी पक्ष हुआ। इसके सहारे ही समृद्धि, प्रगति एवं प्रसन्नता के आधार बनते हैं इस प्रक्रिया को सभ्यता कहते हैं। नागरिकता, सामाजिकता, शिष्टता, व्यवहार कुशलता से सम्बन्ध रखने वाली आवश्यक मर्यादा से अवगत एवं उन्हें ठीक तरह क्रियान्वित कर सकने वालों को सभ्य कहते हैं। यह आवश्यकता भी स्वास्थ्य रक्षा की तरह नितान्त उपयोगी है। इस प्रयास में यथा सम्भव अधिकाँश लोग प्रयत्नशील भी रहते हैं।
आत्मिकी ‘अध्यात्म विद्या’ में विचारणा में उत्कृष्टता का समावेश कर सकने की विशिष्ट व्यवस्था है, जिसमें निर्धारण और अभ्यास दोनों का ही समावेश है। दृष्टिकोण इसी आधार पर विनिर्मित होता है। आत्मिकी का सीधा सम्बन्ध अन्तःकरण के उस मर्मस्थल से है, जिसमें श्रद्धा-विश्वास रूपी उमा-महेश का निवास है। अन्तःकरण चतुष्टय की व्याख्या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में की जाती है। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हीं को आकाँक्षा, आस्था, आदतें कहते और व्यक्तित्व का मूलभूत आधार मानते हैं। यह क्षेत्र जिसका जिस स्तर का होता है उनका व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। घड़ी की चाबी ही उस मशीन के समस्त कल-पुर्जों को चलाती हैं। उसी प्रकार मनुष्य के अन्तराल से उठने वाली उमंगें ही मस्तिष्क को तद्नुसार सोचने के लिए, शरीर को अभीष्ट साधन जुटाने के लिए विवश करती हैं। मस्तिष्क सोचने के लिए स्वतन्त्र नहीं है और न अपनी मर्जी से कुछ करता है। दोनों को स्वामिभक्त नौकर की तरह अन्तःकरण से उठने वाली आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए विवश होकर कार्यरत होना पड़ता है।
मानवी सत्ता का मर्मस्थल केन्द्रबिन्दु उसका अन्तःकरण ही माना गया है। वह जिस भी भले-बुरे रूप में ढल जाता है प्रत्यक्ष जीवन का स्वरूप और प्रवाह तद्नुसार बनता चला जाता है। व्यक्तित्वों की उत्कृष्टता निकृष्टता के रूप में जो कुछ भी घटित होता दीखता है, वस्तुतः उसे अन्तःकरण का स्तर ही समझा जाना चाहिए। एक शब्द में अन्तःकरण का आधारभूत उद्गम इसी रहस्यमय केन्द्र को समझा जाना चाहिए। दृष्टिकोण यहीं विनिर्मित होता है। नीति निर्धारण एवं निर्देशन यही से होता है। बाकी शारीरिक और मानसिक ढाँचा तो गाड़ी के दो पहियों की तरह वजन ढोने में लगा रहता हैं। दिशा निर्धारण करने एवं गति देने की सारी व्यवस्था जिस ड्राइवर को करनी होती है, उसे अन्तःकरण ही समझा जाना चाहिए। प्रगति, अवगति और दुर्गति की चित्र-विचित्र प्रतिक्रिया है। वह कठपुतली की तरह नाचती तो है, पर उनके धागे अन्तःकरण का बाजीगर अपनी उँगली से बाँधें हुए पर्दे के पीछे बैठा रहता है। मनुष्य का विश्लेषण-परीक्षण, गुण-कर्म के आधार पर होता है, पर वस्तुतः यह तीनों भी स्वनिर्मित नहीं होते वरन् अन्तःकरण के प्रजापति द्वारा बनाये गये चित्र-विचित्र आकृति के खिलौने भर होते हैं।
भौंड़ी अक्ल से किसी के ठाट-बाट, चातुर्य, उपार्जन या पद-वैभव को देखकर गरिमा का मूल्यांकन किया जाता है, पर इस अवास्तविक निर्धारण की पोल तब खुलती है जब परिस्थितियाँ तनिक भी प्रतिकूल पड़ने पर उथले आधार पर खड़ा हुआ बड़प्पन झाग बैठने, गुब्बारा फूटने और बबूले के अदृश्य हो जाने की तरह जादुई सरंजाम हवा में गायब होते दीखता है और तथाकथित बड़ा आदमी छोटे लोगों से भी गई-गुजरी स्थिति में होने से मुँह मारा हुआ दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत जिनके व्यक्तित्व उच्चस्तरीय आधार पर विनिर्मित हुए हैं, वे आन्तरिक प्रखरता के बलबूते अभावों, प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए साहसपूर्वक आगे बढ़ते हैं। अपने निजी चुम्बकत्व से ये न केवल लोक श्रद्धा, जन सहयोग वरन् आत्म-सन्तोष और दैवी अनुग्रह भी प्रचुर परिणाम में उपलब्ध करते हैं।
शरीर एवं मस्तिष्कीय संरचना में मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भारी भेद नहीं है और न परिस्थितियाँ ही किसी के इतनी अनुकूल-प्रतिकूल होती है कि प्रगति, प्रतिभा एवं प्रखरता की दृष्टि से जमीन आसमान जितना अन्तर देखा जा सके। एक ही जंक्शन पर बराबर वाली पटरियों पर खड़ी हुई दो गाड़ियाँ लीवर गिराने में अन्तर रहने के कारण दो भिन्न दिशाओं में चल पड़ती हैं और कुछ ही देर में उनके मध्य हजारों मील की दूरी बन जाती है। जबकि चाल दोनों की एक जैसी, साधन, ड्राइवर आदि एक जैसे, फिर यह दूरी का अन्तर क्यों पड़ गया? साथ-साथ क्यों नहीं चलती रहीं? इसका एक ही उत्तर है उनकी दिशा बदल गयी। जीवन की दिशाधारा बदलने का आधार मात्र एक ही है-दृष्टिकोण। किस स्तर का जीवन जिया जाय? उसे किस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जाय? निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किन मान्यताओं और गतिविधियों को अपनाया जाय? यही है वह आधारभूत निर्धारण, जिसके सहारे भली या बुरी दिशाओं में जीवन प्रवाह बहता है और पतन के गर्त या उत्थान के शिखर पर जा पहुँचता है।
अमीबा से लेकर मनुष्य स्तर तक पहुँचने में विकास क्रम की जो लम्बी यात्रा करनी पड़ी है, उसमें विभिन्न स्तर के अनुभव अभ्यास होते और उपार्जित सम्पदा की तरह जमा होते रहे हैं। यह पूँजी संचित संस्कारों के नाम से जानी जाती हैं मनोविज्ञानी इसी को मूल प्रवृत्ति के नाम से निरूपित करते हैं। स्वभावतः यह मानवी गरिमा से तुलना करते हुए हेय स्तर की होनी चाहिए। कृमि-कीटकों और पशु-पक्षियों को जिस आचार संहिता का पालन और अनुभव-अभ्यासों का संचय करना पड़ा है वे निश्चय ही मनुष्य स्तर के नहीं हो सकते। छोटे बालकों को जो कपड़े पहनाये जाते हैं, वे बड़े होने पर उसके उपयोग योग्य नहीं रहते। पशु-प्रवृत्तियाँ मनुष्य द्वारा अपनाए जाने पर उपहासास्पद एवं निन्दनीय बन जाती हैं। उन्हें बरबस छोड़ना ही पड़ता है। भले ही संचित अभ्यास उन्हें ही अपनाये रहने का आग्रह क्यों न करता रहे। इतना ही नहीं छोड़ने के अतिरिक्त पद एवं उत्तरदायित्व के अनुरूप कुछ नया ग्रहण भी करना पड़ता है। अध्यात्म विज्ञान की भाषा में इसी को तप कहते है। पदोन्नति करते-करते छोटे कर्मचारी जब बड़े अफसर बनते हैं, तो प्रगति के हर नये मोड़ पर उन्हें ट्रेनिंग लेनी होती है। अन्यथा पद ऊँचा और अनुभव नीचा होने पर सारी व्यवस्था ही गुड़ गोबर हो जाती है।
मनुष्य जीवन सृष्टि के समस्त जीवधारियों की तुलना में सर्वोच्च पद है। प्राणी के लिए इससे बड़ा न कोई पद है और न गौरव। उसे ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि उपहार और उपलब्धकर्त्ता का अभूतपूर्व सौभाग्य कहा जा सकता है। ऐसे बड़े पद का कार्यभार सफलतापूर्वक चलाने के लिए किस रीति-नीति का, किस दिशाधारा का अपनाया जाना आवश्यक है, इसके लिए कुछ ऐसा सोचना, मानना और अपनाना पड़ता है जो भूतकाल की तुलना में सर्वथा भिन्न ही कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया को आत्मिकी कहते है। उपयोगिता की दृष्टि से भौतिकी की तुलना में कम नहीं वरन् अधिक ही महत्त्व दिया जा सकता है। भौतिकी की उपलब्धियाँ मात्र शरीर को सुविधा एवं मन को गुदगुदी भर प्रदान करती है, किन्तु आत्मिकी के आधार पर जिस तरह समूचे व्यक्तित्व की गलाई-ढलाई होती हैं उसे एक प्रकार से काया कल्प ही कहना चाहिए।
यह कायाकल्प द्विजत्व नाम से भी पुकारा जाता है। साधना की प्रक्रिया नरपशु को नर नारायण में किस प्रकार बदलती है, इसे जानने के लिये जिज्ञासु मनीषियों को आत्मिकी विद्या के गूढ़ तत्त्वदर्शन को भली-भाँति जानना चाहिये। उच्चस्तरीय साधना सोपानों को तुरन्त पाने का प्रयास करने वालों को इस एक तथ्य को समझ लेना बहुत अनिवार्य है कि अन्तःकरण का परिष्कार, वृत्तियों का शोधन ही समस्त सिद्धियों का राजमार्ग है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
86. आध्यात्मिक कामविज्ञान की जानकारी जन-जन तक पहुँचे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सृष्टि का संचरण किस क्रिया से होता है, इस सम्बन्ध में पदार्थ विज्ञान अणु को प्रथम इकाई मानता है। उनका कहना है कि अणु के अन्तर्गत नाभिक तथा दूसरे उपअणु अपना क्रिया-कलाप जिस निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संचरित करते हैं, उसी में विविध हलचलें उत्पन्न होती हैं और वस्तुओं के उद्भव से लेकर शक्ति उप शक्तियों विधा की विभिन्न क्रम-विक्रमों के आधार पर चल पड़ती है। यह तीस वर्ष पुरानी मान्यता है। विज्ञान की आधुनिकतम शोधों ने बताया है कि अणु आरम्भ नहीं परिणति है। सृष्टि का मूल एक चेतना है, जिसे पदार्थ और विचार की द्विधा से सुसम्पन्न कहा जा सकता है। इस चेतना को वे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति के स्फुल्लिंग ही परमाणु माने जाते हैं और कहा जाता है कि उन्हीं की गतिविधियों पर सृष्टि का उद्भव, विकास और विनाश अवलम्बित हैं।
अध्यात्म विज्ञान इसकी बहुत अधिक गहराई तक जाता है और वह सृष्टि का आरम्भ प्रकृति और पुरुष के सम्मिश्रण से मानता है। वैज्ञानिक शब्दों में प्रकृति को रयि और पुरुष को प्राण भी कहा जाता है। इसी को शक्ति और शिव कहते हैं। वेदों में इसे सोम और अग्नि कहा गया है। और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो ऋण और धन विद्युत धारायें कह सकते हैं। विद्युत विज्ञान के ज्ञाता जानते है कि प्रवाह के अन्तराल में उपरोक्त दोनों धाराओं का मिलन-बिछुड़न होता रहता हैं। यह मिलन-बिछुड़न की क्रिया न हो तो बिजली का उद्भव ही सम्भव न हो सकेगा।
प्रकृति और पुरुष के बारे में सांख्यकार की उक्ति है कि वह निरन्तर मिलन-बिछुड़न के संघर्ष अपकर्ष की प्रक्रिया संचरित करते हैं। फलस्वरूप परा और अपरा प्रकृति के नाम से पुकारा जाने वाला वह सृष्टि वैभव आरम्भ हो जाता है, जिसका प्रथम परिचय हम अणु प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करते हैं। क्लाक घड़ियों में पेण्डुलम लगा रहता है और गतिचक्र के नियमानुसार एक बार हिला देने पर चलने लगती है। प्रकृति और पुरुष निरन्तर उसी प्रकार का मिलन-बिछुड़न क्रम संचरित करते हैं और सृष्टि का क्रिया कलाप दीवार घड़ी की पेण्डुलम प्रक्रिया की तरह चल पड़ता है।
इस सूक्ष्म तत्त्वज्ञान, एक अन्तर विज्ञान को और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो उसे नर नारी का रूपक दिया जा सकता है। ब्रह्म को नर और प्रकृति को नारी का प्रतीक प्रतिनिधि माना जा सकता है। सृष्टि का उद्भव विकास और विगठन करने वाली शक्ति त्रिवेणी को ब्रह्मा विष्णु महेश के नाम से पुकारते हैं। यों तत्व एक ही है, पर उसके क्रिया कलाप की भिन्नता को अधिक स्पष्टता के साथ समझने समझाने के लिए तीन देवताओं का नाम दिया गया है। वे तीनों ही सपत्नीक हैं। ब्रह्मा की पत्नी का नाम सावित्री, विष्णु की लक्ष्मी और शिव की उमा प्रख्यात है। इस अलंकार के पीछे इसी तथ्य का प्रतिपादन है, कि सृष्टि का उद्भव अकेले ब्रह्म से नहीं वरन् प्रकृति के संयोग से होता है। नर और नारी दोनों मिलकर ही एक व्यवस्थित शक्ति का रूप धारण करते हैं, जब तक यह मिलन न हो गति एवं चेतना उत्पन्न ही न होगी और सब कुछ शून्य निष्प्राण की तरह पड़ा रहेगा। नृतत्व विज्ञान की दृष्टि से पति-पत्नी का मिलन सृष्टि का स्थूल कारण है। संयोग या संभोग से प्रजा उत्पन्न होती है। प्रजनन प्रक्रिया में मिलन-बिछुड़न क्रम की एक रगड़ संघर्ष जैसी हलचल चलती है। इससे सृष्टि के अति सूक्ष्म क्रिया कलाप का अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का जीवन इसी क्रिया कलाप पर जीवित है। माँस पेशियाँ सिकुड़ती फैलती हैं और जीवन शुरू हो जाता है। साँस का संचरण, दिल की धड़कन, नाड़ियों का रक्त संचार, कोशिकाओं का क्रिया कलाप इस मिलन-बिछुड़न की आकुंचन-प्रकुंचन की क्रिया पर ही निर्भर है। जिस क्षण यह क्रम टूटा उसी क्षण मृत्यु की विभीषिका सामने आ खड़ी होती है। यह तथ्य मात्र देह के जीवन का नहीं सम्पूर्ण सृष्टि का है। समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटे की तरह यहाँ सब कुछ उस संयोग पर हो रहा है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्रकृति और पुरुष अथवा रयि और प्राण कहते हैं।
मानव जीवन इसी सर्वव्यापी क्रिया कलाप पर निर्भर है। नर और नारी मिलकर स्थूल जीवन को पुरुष और प्रकृति के संयोग से चलने वाले सूक्ष्म जीवनक्रम की तरह विनिर्मित करते हैं। इसलिये सामाजिक जीवन में नर और नारी का मिलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। अपवाद की बात अलग है। विवशता और अति उच्चस्तरीय आदर्शवादिता नर नारी के मिलन को वर्जित भी रख सकती है, पर वह मात्र अपवाद है। उनमें स्वाभाविक नहीं और न सरल विकास क्रम की क्रम-व्यवस्था का ही समावेश है। स्वाभाविक जीवन नर नारी के सुयोग संयोग से विकसित होता है। इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यह संयोग मात्र प्रजनन के लिए नहीं है और न इन्द्रिय तृप्ति के लिए। वंश वृद्धि और आह्लाद की आवश्यकता इन क्रियाओं को अपनाने के लिए भी प्रेरणा कर सकती है, पर नर नारी के मिलन के आधार पर बनने वाला संयोग मूलतः दोनों की प्रसुप्त चेतनाओं को जगाने के लिए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त यह आवश्यकता समान रूप से बनी रहती है। बचपन में माता का स्तन पीना, गोदी में खेलना लाड़-दुलार एक आवश्यकता है। मातृ विहीन लड़के और पितृ विहीन लड़कियाँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत हद तक अविकसित रह जाते हैं। बहिन-भाइयों का साथ खेलना परिवार की शोभा है। जिन घरों में केवल लड़के ही लड़के हैं या लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं, उनमें सर्वतोमुखी प्रतिभा का विकास बहुत कुछ रुका रहता है और मानसिक अपूर्णता को वहाँ सहज ही देखा जा सकता है। यौवन के आँगन में प्रवेश करते ही दाम्पत्य जीवन की व्यवस्था जुटानी पड़ती है। ढलती आयु में यह जरूरत पुत्र और पुत्रियों को गोदी में खिलाते हुए पूरी होती हैं। इस प्रकारान्तर में नर नारी आपस में प्रायः गुँथे ही रहते हैं और अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण एक दूसरे की प्रतिभा की प्रसुप्त शक्तियों को जगाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्थापित करते रहते हैं।
मनोविज्ञान शास्त्री डॉ. फ्रायड ने मानव जीवन के विकास की सबसे महती आवश्यकता ‘काम’ मानी है। जिसे वह नर और नारी के मिलन से विकसित होने वाली मानता है। चूँकि अपने देश में ‘काम’ शब्द प्रजनन क्रिया एवं संयोग के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है, इसलिये वह अश्लील जैसा बन गया है और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसलिए फ्रायड की उपरोक्त मान्यता अपने गले नहीं उतरती और न रुचती है। पर यदि उसे वैज्ञानिक परिभाषा के आधार पर सोचें और शब्दों के प्रचलित अर्थों को कुछ समय के लिये उठाकर एक ओर रख दे, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि सृष्टि के मूल कारण प्रकृति पुरुष के मिलन से लेकर दाम्पत्य जीवन बसाने तक चली आ रही काम प्रक्रिया विश्व की एक ऐसी आवश्यकता है, जिसे अस्वीकार करने में केवल आत्म वंचना ही हो सकती है।
दुरुपयोग हर वस्तु का निषेध है। अति को सर्वत्र वर्जित किया गया है। अविवेकी मनुष्य ने हर इन्द्रिय का दुरुपयोग करने में कोई कसर नहीं रखी है। संयम और ब्रह्मचर्य के महत्त्व को समझते हुए मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए तत्सम्बन्धित कामोल्लास का लाभ लिया जाय, तो उससे हानि नहीं लाभ ही होगा। हानि तो दुरुपयोग से है। सो दुरुपयोग अमृत का करके भी हानि उठाई जा सकती है और सदुपयोग विष का भी किया जाय, तो उससे भी आश्चर्यजनक लाभ उठाया जा सकता है। हेय काम प्रवृत्ति नहीं भर्त्सना उसके दुरुपयोग की की जानी चाहिए।
नर नारी का मिलना जितना ही प्रतिबन्धित किया जायेगा उतनी ही विसंगतियाँ उत्पन्न होगी। सच तो यह है कि अनावश्यक प्रतिबन्धों ने ही हेय काम प्रवृत्ति को भड़काया हैं। बच्चा माँ का दूध पीता है उसे स्तन स्पर्श से कुछ भी अश्लीलता प्रतीत नहीं होती है और न लज्जा जैसी कोई बुराई दीखती है। आदिवासी क्षेत्रों में, पिछड़े कबीलों में स्त्रियाँ प्रायः छाती नहीं ढकती। वहाँ किसी को इसमें अश्लीलता और काम विकार भड़काने वाली कोई बात ही प्रतीत नहीं होती। यह मानसिक कुत्साएँ और मूढ़ मान्यताएँ ही हैं, जिन्होंने नारी के स्तन जैसे परम पवित्र और अभिवन्दनीय अंग को विकारों का प्रतीक बनाकर रख दिया। यह विचार विकृति का दोष ही है कि अति स्वाभाविक और अतिसामान्य नारी की एक कुत्सा गढ़ कर खड़ी कर दी है। काम का विकृत स्वरूप जिसने मनुष्य की एक प्रकृति प्रदत्त दिव्य सामर्थ्य को कुत्सित बनाकर रख दिया, वस्तुतः हमारी बौद्धिक भ्रष्टता ही है। पशु पक्षी नग्न रहते है। उनकी जननेन्द्रियाँ बिना ढकी रहती है। सभी साथ-साथ खाते, सोते हैं, पर बिना अवसर की माँग हुए दोनों पक्षियों में से कोई किसी की ओर ध्यान तक नहीं देता, आकर्षित होना तो दूर। मनुष्य कृत गर्हित काम शास्त्र को यदि जला दिया जाय और प्रकृति की स्वाभाविक प्रेरणा और जीवन विकास के पुण्य प्रयोजन के लिए उस संजीवनी शक्ति का सदुपयोग किया जाय तो काम क्रीड़ा गर्हित न रहकर जीवनोत्कर्ष की महती आवश्यकता पूर्ण कर सकने में समर्थ बनाई जा सकती है।
आध्यात्मिक काम शास्त्र की जानकारी हमें सर्व साधारण तक पहुँचानी ही चाहिए। भले ही उस प्रशिक्षण को अवांछनीय या अश्लील कहा जाय। सृष्टि के इतने महत्त्वपूर्ण विषय, जिसकी जानकारी प्रकृति जीव जन्तुओं तक को करा देती है, उसे गोपनीय नहीं रखा जाना चाहिए। खास तौर से तब जबकि इस महत्त्वपूर्ण विज्ञान का स्वरूप लगभग पूरी तरह से विकृत और उलटा हो गया हो। जो मान्यताएँ चल रही हैं वे ही चलने दी जायें। सुलझे हुए समाधान और सुरुचिपूर्ण प्राविधान यदि प्रस्तुत न किये गये तो विकृतियाँ ही बढ़ती, पनपती चली जायेंगी और उससे मानव जाति एक महती शक्ति का दुरुपयोग करके अपना सर्वनाश ही करती रहेगी।
आध्यात्मिक काम विज्ञान नर नारी के निर्मल सामीप्य का समर्थन करता है। दाम्पत्य जीवन में उसे इन्द्रिय तृप्ति और काम क्रीड़ा द्वारा उत्पन्न होने वाले हर्षोल्लास की परिधि तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वह सौम्य सामीप्य अप्रतिबन्धित रहना चाहिए। जिस प्रकार दो नर या नारी चाहे वे किसी वय के हो, निर्बाध रूप से हँस बोल सकते है और स्नेह सामीप्य बढ़ा सकते है और उससे कुछ भी अनुचित आशंका नहीं की जाती, इस प्रकार नर नारी का परस्पर व्यवहार भी निर्मल और निष्कलंक रखा जा सकना अति सरल है। इस सौम्य सरलता को प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिबन्ध परक प्रयोग पिछले बहुत दिनों से चले आ रहे है और उनके निष्कर्षों ने उस मान्यता की निरर्थकता ही सिद्ध की है। पर्दे की प्रथा चलाकर हमने क्या पाया? केवल इतना भर हुआ कि नवागन्तुक वधुएँ अपनी ससुराल का जो अविच्छिन्न स्नेह पा सकती थी, अनुभवी गुरुजनों का परामर्श प्राप्त कर सकती थी, अपनी कठिनाइयों की चर्चा करके समाधान पा सकती थी, उससे वंचित रह गई। उन्हें ससुराल का वातावरण पितृ ग्रह से उतना भिन्न और विपरीत लगा जितना स्वच्छन्द विचरण करने वाले पक्षी की आँखें बन्द करके चारों ओर से पर्दा लगाकर रखे गये पिंजड़े में बन्द किये जाने की स्थिति में हो सकता है। कई भावुक लड़कियाँ तो इस जमीन-आसमान जैसे परिवर्तन से बुरी तरह घबरा जाती है और उन्हें हिस्टीरिया सरीखे भय, भूत प्रेत, घबराहट जैसी अनेकों मानसिक बीमारियाँ उठ खड़ी होती है। ऐसी स्थिति में हीनता की भावना बढ़ना नितान्त स्वाभाविक है।
यह स्वाभाविक प्रक्रिया एक कदम भी जीवित न रह सकी। पर्दे का उद्देश्य रत्ती भर भी सफल न हुआ। उसका उद्देश्य नर और नारी के बीच पारस्परिक आकर्षण को रोकना था। वह कहाँ पूरा हुआ। नव वधू केवल ससुराल में सास-ससुर, जेठ आदि गुरुजनों से पर्दा करती है। जो वस्तुतः उसे बेटी जैसी ही समझ सकते हैं। जिनसे खतरा है उनके लिये तो पर्दा फिर भी खुला रह सकता है। यदि व्यभिचार की रोकथाम की समस्या है तो उसकी सबसे अधिक गुंजायश पितृगृह के स्वच्छन्द वातावरण में रहती है। ससुराल में भी बाहर के लोगों से हाट-बाजार में, मेले-ठेले में किसी से भी मुँह खोलकर बातें की जा सकती हैं।
अध्यात्म तत्त्वज्ञान की मान्यताएँ नर नारी के बीच की उन अवांछनीय दीवारों को तोड़ना चाहती है जो मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है और एक दूसरे का सहयोग करने में अस्वाभाविक, अप्राकृतिक प्रतिबन्ध उत्पन्न करती है। यौन विकृतियों और व्यभिचार के खतरों को रोकने के दूसरे तरीके हैं। एक दूसरे से सर्वथा पृथक रखने वाली प्रक्रिया इस प्रयोजन को पूरा नहीं करती। आधी जनसंख्या को इन प्रतिबन्धों के नाम पर अपंग बनाकर हम अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सारी समस्या का एक मात्र कारण वह बौद्धिक भ्रष्टाचार है, जिसने नारी को कामिनी और रमणी का अतिरंजित चित्रण करके उसे एक भयावह चुड़ैल के रूप में प्रस्तुत कर दिया।
नर और नारी के बीच पाये जाने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम, स्वाहा और स्वधा तत्वों का महत्त्व सामान्य नहीं असामान्य है। सृजन और उद्भव की, उत्कर्ष और आह्लाद की असीम सम्भावनाएँ उसमें भरी पड़ी है, प्रजा उत्पादन तो उस मिलन का बहुत ही सूक्ष्म सा स्थूल और अति तुच्छ परिणाम है। इस सृष्टि के मूल कारण और चेतना के आदि स्रोत इन द्विधा संस्करण और संचरण का ठीक तरह मूल्यांकन किया जाना चाहिए और इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इनका सदुपयोग किस प्रकार विश्व कल्याण की सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक हो सकता है और उनका दुरुपयोग मानव जाति के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार क्षीण विकृत करके विनाश के गर्त में धकेलने के लिए दुर्दान्त दैत्य की तरह सर्वग्राही संकट उत्पन्न कर सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
87. मृगतृष्णा हमीं ने रची है, हमीं उससे उबरें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
दरिद्रता की शिकायत किसी प्राणी को नहीं। निर्वाह के उपयुक्त साधन सामग्री उन्हें अपने चारों ओर पर्याप्त मात्रा में पड़ी दीखती हैं। साथियों से विद्वेष की उन्हें कोई शिकायत नहीं। सभी हिलमिल कर रहते हैं। मृगों से लेकर हाथियों तक, गौरैया से लेकर हंसों तक, चींटी से लेकर मधुमक्खी तक सभी को मण्डली बनाकर सहयोग पूर्वक रहते देखते हैं। अपवाद तो कभी-कभी कहीं-कहीं ही दीखते हैं। जब सर्वत्र सन्तोष और शान्ति का वातावरण है, भगवान का अनुदान सभी पर बरसा हो, तो अकेला मनुष्य ही क्यों ऐसा अभागा रह गया जिसे उतना समुन्नत शरीर, इतना सुविकसित मस्तिष्क इतना समृद्ध वातावरण उपलब्ध होते हुए भी चैन का नाम नहीं, सन्तोष दुर्लभ और हर समय खीजते कलपते रहने की मनःस्थिति।
अवश्य ही यहाँ कोई ऐसा गतिरोध अड़ गया है, जिसने आनन्द लूटने और प्रगति के उच्च शिखर तक चढ़ दौड़ने की समस्त सम्भावनाओं को ही कुंठित करके रख दिया। मनुष्य के सामने महती समस्या यही है यदि इसका समाधान बन पड़े, तो समझना चाहिए दुर्भाग्य से छुटकारा मिला और सौभाग्य अनायास ही आकाश से टूट पड़ा।
यह व्यक्तिगत जीवन की चर्चा हुई। इससे एक कदम आगे बढ़ते ही परिवार सामने आता है। परिवार के बीच सभी को आनन्द मनाने का अवसर मिलता है। पक्षी अपने घोसलों में अण्डे बच्चों समेत मोद मानते हैं। मुर्गी अपने परिवार को साथ लिए फिरती हैं। चींटी अपनी सन्तान को लिये लिये फिरती है। बिल्ली से लेकर कुत्ती तक के बच्चे अपनी माताओं की पीठ चढ़े मोद मनाते हैं। माता जिस भी परिस्थिति में है उन्हें दुलार से नहा देती है। बालकों को भी कोई शिकायत नहीं। एक मनुष्य है जिसके घर में स्वार्थों की खींचतान आरम्भ से लेकर अन्त तक चलती रहती है। सभी अपनी-अपनी गोद हरी करना चाहते हैं। बाहर से देखने में भेड़ों के बड़े सरायों, जेलखानों, मुसाफिर खानों की तरह एक घर में रहते अवश्य हैं और लोकाचार भी किसी कदर पालते हैं, पर जिस सघन आत्मीयता के लिए प्राणी तरसता और घर परिवार बसाता है उसका कहीं नाम निशान नहीं दीखता। बुढ़ापे का सहारा किसी को मानना इन दिनों शेख चिल्ली के सपनों से कम नहीं रह गया है। पिण्ड मिलने, वंश चलने जैसी मूढ़ मान्यताओं को उपहासास्पद भी ठहराया जा सकता है पर बनता इतना तक नहीं कि उन्हें स्वावलम्बी सुसंस्कारी बन सकने तक का अनिवार्य उद्देश्य सध सके।
चन्दन अपने समीपवर्ती पौधों को सुगन्धित बना देता है, माली का उद्यान फल-फूलों से लदा दीखता है, किसान जिन खेतों में मेहनत करता है उसके बदले में अनाज के कोठे भर लेता है, गड़रिया जिन्हें पालता है उनकी संख्या और स्थिति बढ़ाता है। दूध, ऊन और बच्चों के सहारे अपने श्रम का प्रतिफल पाता है। यह बात देखने योग्य है कि परिवार पालने वाले इतना भी आखिर पाते क्या हैं? उनके उस खेत से क्या फसल उगी और उससे किसका हित सधा यह विचारने ही योग्य है। इस तथ्य पर आरम्भ से अन्त तक विचार किया जाना चाहिए कि मनुष्य अपने लिए, परिवार के लिए करता तो बहुत कुछ है, पर दोनों ही क्षेत्रों में उसे घोर असफलता हाथ लगती है। आखिर इस श्रम की निरर्थकता का कोई तो कारण होना ही चाहिए।
ऐसे लोग कम नहीं जो शादियों में हजारों लाखों की सम्पत्ति फुलझड़ी की तरह देखते-देखते धुआँ उड़ा देते हैं। ऐसों की कमी नहीं जो तीर्थ यात्रा, ब्रह्मभोज और देव पूजन और चींटी के बिलों पर आटा डालते और अपने को पुण्यात्मा सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। कौन जाने उन्हें उसमें कितनी सफलता मिली होगी। जिन पण्डों ने जेब काटी वे उस धर्म धुरीणज् यजमान को काठ का उल्लू से अधिक और कुछ समझ रहे होंगे या नहीं। जिन चींटियों के बिलों पर आटा डाला गया था उन्हें दूसरे ही क्षण कुत्ता उदरस्थ कर गया होगा तो वे बेचारी क्या कहती होंगी? उन्हें पुण्य प्रदर्शन के ढिंढोरचियों को शादी में दौलत उड़ाने वालों का ससुर और जमाता भविष्य में इन धन कुबेरों से और भी न जाने कितना पाने की आशा लगाने लगे होंगे और न मिलने पर उस वधू को मार कर दूसरी शादी करने पर इतना ही धन और कमाने की योजना बना रहे होंगे।
मनुष्य की बुद्धिमानी में कोई शक नहीं, पर उसकी मूर्खता भी ऐसी है जिस पर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाने या आँखों से आँसू बहाते हुए हिलकी भर कर फूट पड़ने को मन करता है। बुद्धिमानी और मूर्खता का इतना विचित्र संयोग देखकर कभी तो उसके सृजेता से लड़ पड़ने को जी करता है और कभी मन आता है कि इन विडम्बनाओं, विपन्नताओं में बेतरह उलझे हुए अभागों को छाती से चिपटा कर फफक-फफक कर रो लिया जाय। उसका न सही अपना तो मन हलका कर ही लिया जाय। दुर्मति जन्य दुर्गति का अभिशाप जैसा मनुष्य के हिस्से में आया, कदाचित ही सृष्टा की इस सृष्टि में अन्य किसी को संत्रस्त कर रहा हो।
आखिर यह सब है क्या? मनुष्य जीवन सृष्टा का सर्वोपरि उपहार है। उसे भव बन्धनों से मुक्त होने, आत्म कल्याण के चरम लक्ष्य तक जा पहुँचने, सदुपयोग कर सकने पर भी ऊँची पदोन्नति पाकर ऋषि, देवता, अवतार बनने जैसी अगणित सम्भावनाओं से भरा-पूरा यह उपहार क्या इसलिए दिया था कि उसे अभिशाप की तरह वहन करना पड़े। सृष्टा ने अपेक्षा रखी है कि उसका राजकुमार हाथ बँटायेगा और अपने विवेक से इस उद्यान को अधिक सुरम्य बनाने में सहयोग देगा। पर यह क्यों, वह तो स्वयं ही ऐसे दलदल में फँस गया है। जिससे उबरने में उसका अपना पुरुषार्थ काम नहीं दे रहा।
असफलताओं और असमंजसों से घिरा, विडम्बनाओं से उलझा, समय और संकटों से जकड़ा, दलदल में पैर से सिर तक धँसा यह कैसा जीवन जिसमें न सन्तोष, न चैन, न उत्साह, न आशा, न भविष्य। निश्चय ही कहीं कोई बड़ी भूल हो गई है। लगता है वह है ऐसी जो मूर्खता होते हुए भी बुद्धिमत्ता दीखती है। विष तुल्य होते हुए भी अमृत जैसी मीठी लगती है। समझने में आती नहीं, न छूटती है, न हटती है, न उसे छोड़ने की इच्छा ही होती है। सम्भवतः इसी को मोहमयी मदिरा और माया की मृग तृष्णा कहा गया है। सम्भवतः यही भ्रम ग्रस्तता है जिसके लिए कस्तूरी के हिरन भटकते रहते है। यही वह मृग तृष्णा है जो प्यासे मृगों को ललचाती, दौड़ाती, थकाती और बेमौत मारती हैं।
चासनी पर बेहिसाब टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पंख फँसाती और प्राण गँवाती है। आटे की गोली के प्रलोभन में मछली और जाल के दानों पर टूट पड़ने वाली चिड़िया की अदूरदर्शिता हर किसी को अखरती है, पर उस व्यामोह को क्या कहा जाय? जो दुर्मति के सहारे दुर्गति कराने वाले अभिशाप के रूप में जन-जन के ऊपर लदा पड़ा है। इस सुयोग का जो लाभ मिलना चाहिए उनमें से तो एक भी मिल नहीं पाता, उलटे ऐसे संकटों का दुर्भाग्य सहना पड़ता है जितना कदाचित ही इस सृष्टि के अन्य किसी प्राणी के ऊपर लदता हो। अन्य प्राणी अपने संचित कर्मों का फल भोगकर निवृत्त हो जाते है किन्तु मनुष्य है जो त्राण पाने की अपेक्षा जन्म जन्मान्तरों तक भुगते जाने वाले पाप कर्मों का पोटला बोझिल करता चला जाता है।
बुद्धिमानों द्वारा इस मूर्खता का कारण प्राचीन काल में माया के नाम से जाना और कहा जाता रहा है और उससे विरत होने वाले को लोक-परलोक से असीम आनन्द मिलने का प्रतिपादन अपने ढंग से किया जाता रहा है। अब परिभाषाएँ बदल गई हैं। माया शब्द का उपयोग किये बिना भी कहा जा सकता है। उसमें दृष्टिकोण में समाविष्ट भ्रान्ति व्यवहार, अव्यवस्था और निर्धारण में अदूरदर्शिता का समावेश कहा जाय तो भी हर्ज नहीं। मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने वाले सिद्धान्तों, आदर्शों और विधानों तथा आज के प्रचलनों के बीच जमीन आसमान जैसी खाई बन गई है। पहले यह अन्तर कम था। तब मनुष्य उतना ही प्रसन्न और सन्तुष्ट था। आज परिस्थितियों में जटिलता आ गई है। उसके अनुरूप दृष्टिकोण को अपेक्षाकृत अधिक उदात्त और परिमार्जित होना चाहिए था। इसके स्थान पर हुआ ठीक उलटा है। समाज में सम्पन्नता अर्जित करने और उसे उद्धत प्रयोजनों में उड़ाने की प्रथा चल पड़ी है। इसके निमित्त मनुष्य को अधिक संकीर्ण, निष्ठुर, अनैतिक एवं आक्रामक बनना पड़ा है। संक्षेप में यह है आज का प्रचलन।
यदि सामयिक समस्याओं का तात्कालिक हल निकालना ही अभीष्ट हो, तो उसी प्रचलित नीति को अपनाये रहा जा सकता है जिससे मच्छरों, मक्खियों को पकड़ने और चेचक की हर फुंसी पर अलग-अलग मरहम पट्टी करने की विडम्बना प्रचलित है। यदि आत्यन्तिक और चिरस्थायी समाधान खोजना हो तो उसका उपाय एक ही है कि दृष्टिकोण, व्यवहार, स्वभाव एवं निर्धारण का पुनर्निरीक्षण किया जाय। नाली साफ करके सड़ी कीचड़ बुहार देने से ही मक्खी मच्छरों, दुर्गन्ध और कृमियों से छुटकारा मिलेगा। रक्त शोधन के उपचार से ही फुंसियों से पीछा छूटेगा। मनुष्य का आज का चिन्तन और स्वभाव ही गड़बड़ा गया और उसे भटकाव ने ग्रस लिया है कि सुखी सन्तुष्ट एवं समुन्नत जीवनयापन के लिए क्या सोचना और क्या करना चाहिए। यह बन ही नहीं पड़ता। प्रचलित ढर्रे में किस प्रकार, कितना क्या हेर-फेर करना चाहिए। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि जन-जन के सम्मुख उपस्थित समस्याओं और विभीषिकाओं में से अधिकांश का अधिकांश समाधान मिल गया है और संकट का घटाटोप अनुकूल हवा बहते ही उड़ गया।
अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति के विकास, समुन्नत जीवन के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि सुविधा साधन अर्जित करने के लिए भौतिक विज्ञान। सुविधा सामग्री श्रम और साधनों के सहारे उपलब्ध होती है। व्यक्तियों और परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सकने में समर्थ व्यक्तित्व का निर्माण अध्यात्म विज्ञान के सुनिश्चित फार्मूलों के आधार पर ही सम्भव होता है। संभव है कि स्वास्थ्य, सन्तुलन, सम्मान, वैभव को सन्तोष जनक मात्रा में अर्जित कर सके।
पदार्थ विज्ञान प्रत्यक्ष है। उसके सहारे अभीष्ट प्रतिफल हाथों-हाथ पाया कमाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अध्यात्म विज्ञान भी ऐसा सुनिश्चित विधान है, जिसके आधार पर अपने दृष्टिकोण, व्यवहार, स्वभाव निर्धारण को परिष्कृत किया जाता है। प्रस्तुत ढर्रे को दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर पर्यवेक्षण कर सकना बन पड़े और जो उचित है उसी को अपनाने, अभ्यास में उतारने का साहस उग सके तो समझना चाहिए कि समस्याओं का कुहासा छँट गया। तमिस्रा ही डरावनी होती है। उसी में ठोकरें लगने का भय रहता है। निशाचर की दाल भी उसी आवरण के पीछे गलती है। आलस्य भी उन्हीं घड़ियों में चढ़ता है और नींद की गोद में भी उसी माहौल में सब लोग चले जाते हैं। उत्पादन होता नहीं। न कुछ सूझता है न बन पड़ता है। सभी लोग बिस्तरों में मुँह छिपाये पड़े होते है और खरीद करते दीखते हैं। यह दुर्गति तमिस्राजन्य है। इसे हटाने के लिए जन-जन को झकझोरने और दरवाजे-दरवाजे को खटखटाने का प्रयोजन पूरा कर सकना कठिन है। प्रकाश उगने से ही यह सारी समस्याएँ हल होती हैं।
अध्यात्म वह प्रकाश है जिसे अपनाने पर मनुष्य को प्रचलित ढर्रे के दलदल से उबरने की आवश्यकता प्रतीत होती है। साथ ही उन भ्रान्तियों, आदतों को बदलने की इच्छा होती है जो वस्तुतः इस सारी विपत्ति की जन्मदात्री है, जिसमें आज जन-जन को फँसा पाया जा सकता है। विपत्तियाँ कही से उतरती नहीं हैं, समस्याएँ ऊपर से टूटती नहीं है। वे मनुष्य की अपनी बोई, उगाई या न्यौत बुलाई हुई होती हैं। जाला मकड़ी बुनती है और उसमें स्वयं उलझ कर विलाप करती और बेमौत मरती है। नये सिरे से सोचती और नई रीति-नीति अपनाती है। इतने मात्र से सारा माहौल बदल जाता है। जाल को वह उसी मुँह से समेटती निगलती चली जाती है, जिसके माध्यम से कि उसे निकाला और फैलाया गया था। जाले का कच्चा मसाला मकड़ी के पेट से निकलता है और फिर ढर्रा बदलते ही उसी पेट में चला जाता है, जिसमें से कि वह निसृत हुआ था। मनुष्य भी एक प्रकार की मकड़ी है। अपने दृष्टिकोण में अवांछनीयताओं का समावेश करके उन संकटों का सृजन करता है। जिनने उन्हें बेतरह खिन्न, विपन्न कर रखा है और तोड़-मरोड़ कर रख दिया है।
परित्राण पाने के लिए दूसरों की ओर तकना व्यर्थ है। हम मुँह से भोजन करते और पेट से पचाते हैं। नित्य ही नहाते, मल-मूत्र त्यागते, सोते, पढ़ते, व्यवसाय रत होते और बच्चे जनते हैं। यह कार्य औरों से नहीं कराये जा सकते। अपना उद्धार आप करने का गीता का परामर्श नितान्त सही सार्थक है। यदि कोई आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म परिष्कार के लिए सच्चे मन से सहमत हो, उसकी आवश्यकता अनुभव करे और उस परिवर्तन के लिए साहस सँजोये तो कोई कारण नहीं कि भौतिक विज्ञान की तरह ही आत्म विज्ञान के चमत्कार भी हाथों हाथ न देखे जा सकें। खोया स्वास्थ्य वापस लौटाने की, उद्विग्न मनःक्षेत्र में उल्लास भरने की, अर्थ संकट से उबरने की, शत्रुता को मित्रता में बदलने की पूरी-पूरी गुँजायश है। जहाँ इतना आत्म परिशोधन, आत्म परिष्कार का क्रम चलेगा वहाँ यह भी बने बिना न रहेगा कि जिस परिवार में सर्वत्र कुसंस्कारिता, आपाधापी, खींचतान, अशिष्टता और असहकारिता भरी दीखती है उसमें आमूलचूल परिवर्तन के दृश्य न दीखने लगें।
स्मरण रखने योग्य तथ्य एक ही है कि अध्यात्म जादूगरी नहीं है। उसके द्वारा किसी देवी-देवता का अनुदान, सिद्ध पुरुष का वरदान या मन्त्र-तन्त्र का चमत्कार बरसने की दुराशा में जहाँ तहाँ नहीं भटकते फिरना चाहिए। यह विशुद्ध आत्म निर्माण की विद्या है। इसके कुछ सिद्धान्त और निर्धारण हैं। जो उन्हें अपनाते हैं वे उबरते हैं और अपने साथ-साथ सम्बन्धियों समेत समूचे समाज समुदाय को उबारते हैं।
यही है वह आत्म विज्ञान जिसकी प्रत्यक्ष परिणति का रसास्वादन कराने के लिए शान्तिकुञ्ज को एक समर्थ विद्यालय, गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। त्रिवेणी स्नान का प्रतिफल रामायण में काक होहि पिक बकहु मराला का आलंकारिक उल्लेख किया गया है। त्रिपदा गायत्री की तीन धाराएँ समझदारी, जिम्मेदारी, ईमानदारी के रूप में किस प्रकार जीवनचर्या में समाविष्ट की जा सकती हैं, इसी की अनुभूति का प्रशिक्षण कल्प साधना सत्रों में कराया जाता है। इस कल्पवृक्ष उद्यान में जो प्रवेश करते हैं उन्हें इस अध्यात्म विज्ञान की जानकारी, प्रेरणा एवं विद्या हस्तगत होती है जिसके आधार पर शेष जीवन को सुखी, समृद्ध, सम्मानित, सुसंस्कारी और आदर्श अनुकरणीय स्तर का बनाया जा सके।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
88. अपने अंतः के देवता को जगाइये
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग समस्याएँ जानी पहचानी हैं। समाधान भी सभी विचारवानों को विदित है। फिर से उस सन्दर्भ मे अधिक ध्यान देने के लिए कहा जाता रहता है कि तथ्यों पर जिस हलके ढंग से विचार किया जाता रहा है वह अपर्याप्त है। ढर्रे का आवरण उठाकर हमें वास्तविकता को देखना चाहिए। इसी को तत्त्वदर्शन या ईश्वर दर्शन कहते हैं। इसी का नाम आत्म साक्षात्कार अथवा ब्रह्म निर्वाण है। ढर्रे का अभ्यास ही भव बन्धन है। माया अर्थात् अवास्तविकता की खुमारी। इसे हटाया और तथ्य को अपनाया जा सके तो समझना चाहिए कि जीवन मुक्ति के मार्ग का अवरोध मिट गया।
मनुष्य जीवन ईश्वर का बहुमूल्य अनुदान है। इसे इनाम नहीं अमानत माना जाय। भव बन्धनों के कुचक्र से निवृत्ति, पूर्णता की प्राप्ति, स्वर्ग और मुक्ति की उपलब्धि, सिद्धियों की विभूति, आत्मा और परमात्मा की एकता, जैसी महान सफलताएँ इस एक ही तथ्य पर निर्भर हैं कि यथार्थता को हृदयंगम करना सम्भव हो सका या नहीं?
कहने सुनने को तो आदर्शवादी बकवास आये दिन चलती रहती है, पर वस्तुतः उसमें कुछ सार नहीं। अध्यात्म का लाभ एवं चमत्कार मात्र उन्हीं को मिलता है, जो उसे कल्पना लोक की उड़ान न मानकर जीवन दर्शन के रूप में मान्यता देते और तदनुरूप दिशाधारा का निर्धारण करते हैं।
युग सन्धि की ब्रह्म बेला में जागृत आत्माओं का आत्म-चिन्तन, जीवन दर्शन की यथार्थता के साथ जुड़ सके तो काम चले। सोचा जाय कि अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को जो विशेष मिला है वह शौक-मौज भर के लिए है? विचारा जाय कि चौरासी चक्र से छूटने के, पूर्णता तक पहुँचने के, ईश्वर के साथ अनन्य होने के इस स्वर्ण सुयोग को आगे भी इसी तरह नष्ट करते रहना उचित है जैसा कि अब तक किया जाता रहा? लोग क्या कहते और क्या करते हैं इसे देखने, सुनने और उन्हीं का अनुकरण करने से तो एक के पीछे एक-एक करके गर्त में गिरने वाली भेड़ों की तरह अपनी भी दुर्गति ही होनी है। क्या इस दुर्भाग्य से बचा नहीं जा सकता?
थोड़ी दूरदर्शिता और थोड़ी साहसिकता अपनाने पर उन तथाकथित परिस्थितियों का स्वरूप ही बदल सकता है जो लक्ष्य पथ पर चल सकने की असमर्थता, विवशता बनकर सामने आती रहती है। मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसमें फँसकर छटपटाती और जिस-तिस को दोष देती है। किन्तु जब अपना चिन्तन उलटती है तो अपने बुने जाले के धागों को समेटती निगलती चली जाती है। निविड़ दीखने वाले बन्धन देखते-देखते साँझ के रंगीन बादलों की तरह अदृश्य होने लगते हैं।
सामान्यतया मनुष्य जीवन की गरिमा का समुचित उपयोग विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने में योगदान देकर इस सुअवसर को सार्थक बनाने में ही है। पेट प्रजनन तक अन्यान्य प्राणियों को सीमित रहना शोभा देता है, मनुष्य को नहीं। अन्य प्राणियों को साधन सीमित मिले हैं। उनकी शरीर संरचना और बौद्धिक क्षमता इतनी ही है कि अपना निर्वाह जीवन भर चला सकें। किन्तु मनुष्य तो सृष्टा का युवराज है। उसे इतना मिला है कि अपनी विशेषताओं के सहारे उसे तनिक से श्रम मनोयोग लगाकर चुटकी बजाते उपार्जित कर सकता है और शेष विभूतियों से आत्म कल्याण और लोक कल्याण जैसे उच्च उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है।
इस सुअवसर को ठुकरा कर जो तृष्णा वासना का, लोभ मोह का अनावश्यक भार सँजोते और ढोते हैं, उनकी समझदारी को किस तरह सराहा जाय? दलदल में घुसते जाना और उसकी सड़न से खीजते और जकड़न से चीखते जाना, किसी का लादा हुआ नहीं स्वयं का अपनाया हुआ दुर्भाग्य है। यह अनिवार्य नहीं अपना ही चयन है, कोई चाहे तो इस स्थिति को किसी भी समय बदल भी सकता है। इसके लिए बहुत कुछ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मात्र दृष्टिकोण उलटना और कार्यक्रम बदलना पड़ता है। इस परिवर्तन से व्यवस्था बिगड़ती नहीं वरन् और भी अच्छी बन जाती है। किन्तु उस अदूरदर्शिता को क्या कहा जाय, जो अभ्यस्त ढर्रे के रूप में सिर से पैर तक लद गई है। कोई चाहे तो उसे सहज ही उतार भी सकता है।
माया छाया की तरह है वह आगे आगे चलती और नेतृत्व करती है। किन्तु जब प्रकाश की ओर पीठ किये रहने की प्रक्रिया बदली जाती है, दिशा को उलट दिया जाता है तो सूर्य के सम्मुख होते ही छाया पीछे दौड़ने लगती है। परिस्थितियों की विवशता के सम्बन्ध में ऐसा ही सोचा जाता है कि वही बाधक हो रहा है। किन्तु ऐसा है नहीं। चिन्तन का प्रतिगामी ढर्रा ही बाधक है। यदि आदर्शवादी आधार अपनाकर नये ढंग से सोचना और गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण कर सकना सम्भव हो सके, तो प्रतीत होगा कि समस्त गुत्थियाँ सुलझ गई। ऐसा मार्ग निकल आया जिस पर चलते हुए लोक और परलोक का सुव्यवस्थित रीति से सध सकना सम्भव ही नहीं सरल भी है। इस आन्तरिक परिवर्तन के लिए गतिविधियों के अमिट निर्धारण के लिए जो साहस जुटा लेते हैं, वे देखते हैं प्रगति पथ पर बढ़ चलने की कितनी सहज सुविधा उपलब्ध थी। अदूरदर्शी आदतों ने ही उस सौभाग्य से मुँह मोड़ा जो ईश्वर ने हर किसी को जीवन लक्ष्य पूरा कर सकने के निमित्त उदारता पूर्वक प्रदान किया है।
सामान्य परिस्थितियों में जन्मे और कठिनाइयों से घिरे व्यक्ति भी चरमोत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँचे और महामानव बने हैं। दूसरे लोग जिन परिस्थितियों को विवशता मानते रहे, उनने उन्हें इस रूप में देखा ही नहीं। नये ढंग से सोचा और नया मार्ग निकाला। फलतः परिस्थितियाँ अपनी जगह पर बनी रहीं और अग्रगमन के लिए दूसरा रास्ता निकल आया। महामानवों में से प्रत्येक का जीवनक्रम इसका साक्षी है कि उनने परिस्थितियों को अपरिहार्य नहीं माना और उनके न बदलने पर अपना ढर्रा बदलने का साहस जुटाया। पिछड़ेपन और प्रगतिशीलता का मध्यवर्ती अन्तर इतना ही है। जो इस रहस्य को समझते हैं उनके लिये दैत्यों के जादू, तिलस्म से बाहर निकलना और देवों के उन्मुक्त आकाश में विचरण करना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता। तिलिस्म अवास्तविक है। स्व सम्मोहन और आत्म समर्पण ही उसका आधार है। अन्तरंग बदलते ही बहिरंग के उलटने में देर नहीं लगती। जो भीतर की गुत्थी सुलझा सके उनके लिए बाहरी समस्याओं का हल निकालते देर नहीं लगती। प्रपंच का जंजाल तो भीतर ही भरा पड़ा है। अपच होने से ही स्वादिष्ट व्यंजन कड़ुए लगते हैं।
यदि विलासी लिप्सा और संग्रह की तृष्णा को हलका किया जा सके, तो औसत भारतीय जैसा नैतिक निर्वाह आसानी से उपार्जित हो सकता है। यदि परिवार को बढ़ाने की मूर्खता न की जाय, जो अब तक ही है उसे स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाना भर कर्तव्य माना जाय तो उस परिपोषण के लिए सामान्य प्रयास से ही काम चल सकता है। बोझिल जीवन तो उनका होता है जो अमीरी के स्वप्न देखते और उत्तराधिकारियों को वैभव से लादने की ललक संजोये रहते हैं। बोझ इस दुश्चिन्तन भर का है। न किसी के लिए पेट भारी पड़ता है और न परिवार। बोझिल तो वह मूर्खता है जो लिप्सा तृष्णा के रूप में जोंक की तरह शिराओं में दाँत गढ़ाए रहती है। आवश्यकता हर किसी की पूरी हो सकती है, पर तृष्णा की आग को बुझा सकना कितने ही प्रचुर वैभव से सम्भव नहीं हो सकता। ईंधन पड़ने पर वह शान्त कहाँ होती, दूनी चौगुनी भड़कती है।
प्रसुप्ति ग्रस्तों का चिन्तन और आचरण जैसा होता है, उसकी तुलना में जागृतों के सोचने और करने में भारी अन्तर रहता है। जागृतों को मोहग्रस्तों की तरह नहीं सोचना चाहिए, उन्हें सुख में ही लिप्त नहीं रहना चाहिए, सन्तोष भी उपार्जित करना चाहिए। बड़प्पन ही पर्याप्त नहीं महानता भी अभीष्ट है। वाहवाही लूटने के लिए उद्धत प्रदर्शन का सरंजाम जुटाने में सार नहीं, महत्त्व उस लोक श्रद्धा का है जो उत्कृष्टता और उदारता अपनाने पर प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती और अन्तरात्मा को आनन्द भरी पुलकन से परितृप्त करती है। हर जागरूक को इन दिनों इसी स्तर का प्रगतिशील चिन्तन अपनाना चाहिए और ढर्रे में ऐसा परिवर्तन करना चाहिए, जिससे इस विषम बेला में आपत्ति धर्म का निर्वाह कर सकना सम्भव हो सके। ढूँढने पर हर किसी को राह मिलती है। यदि आकाँक्षा सच्ची हो तो एक न सही दूसरे ढंग से सही कोई हल निश्चित रूप से ऐसा निकल सकता है, जिसमें निर्वाह भी कठिन न पड़े और जीवन लक्ष्य पाने तथा युग धर्म निभाने का अवसर भी मिलता रहे।
रोज कुँआ खोदने और रोज पानी पीने वाले भी यदि आदर्शवादिता को अपना सके तो आठ घण्टा कमाने के, सात घण्टा सोने के, पाँच घण्टा गृह कार्यों के लिए लगाकर बीस घण्टे में संसार यात्रा भली प्रकार चला सकते हैं और शेष चार घण्टे बिना किसी कठिनाई के युगधर्म के निर्वाह में नियमित रूप से लगा सकते हैं। बहानेबाजों की बात दूसरी है। उन्हें बीस बहाने पहले से ही याद हैं। चाहें तो चालीस और भी गढ़ सकते हैं। इन भावना रहित लोगों की आत्म-प्रवंचना ही मूलभूत कठिनाई है। यथार्थ चिन्तन की कसौटी पर उनकी वह मनगढ़न्त नितान्त बनावटी लगती है जिसका आश्रय लेकर वे अपनी जागरूकता को कर्तव्य पथ पर चलने से रोके रहते हैं।
पूरा समय आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण में लगा सकने की परिस्थिति प्रायः आधे लोगों की होती है। संचित सम्पदा को समेटकर यदि स्थाई निधि के रूप में जमा कर दिया जाय तो दस प्रतिशत ब्याज भर से इतना पैसा सहज ही मिलता रह सकता है, जिसमें निर्वाह भी होता रहे और देव जीवन भी जिया जा सके। परिजनों को स्वावलम्बी भर बनाने का लक्ष्य हो तो उनमें अन्य समर्थों को बैठकर न खाने, कुछ कमाने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। बैठकर खाने में इज्जत और कमाने में अपमान की मान्यता यदि बदली जा सके तो प्रतीत होगा कि बचे हुए समय में घर के समर्थ लोग कुछ न कुछ कमा सकते हैं। बेटों को बैरिस्टर बनाने और लड़की को कुबेर के घर भेजने का नशा हलका किया जा सके और उन्हें औसत नागरिकों की तरह निर्वाह करने और सुसंस्कारी गतिविधियाँ अपनाने के मार्ग पर चलाया जा सके तो प्रतीत होगा कि पहाड़ जैसा बोझ उतरकर हलका हो गया। सन्तानें स्वावलम्बी हो जाने पर छोटे परिवार से विदाई लेनी चाहिए और बड़े परिवार, विश्व परिवार की बात सोचनी चाहिए।
परिस्थितियाँ असंख्यों की ऐसी हैं जिनको युगधर्म के निर्वाह की समुचित सुविधाएँ प्राप्त हैं। हथकड़ियाँ मोह की और बेड़ियाँ लोभ की हैं, जो एक कदम आगे बढ़ने और एक परमार्थ करने देने में अवरोध अटकाती है। इन्हें तोड़ा न जा सके तो ऐंठ मरोड़कर ढीला तो किया ही जा सकता है। इतने भर से दौड़ा न सही घिसटना तो निश्चित रूप से सम्भव हो सकता है।
युग सन्धि की इस पुनीत बेला में आपत्ति धर्म के निर्वाह से मुँह मोड़ना ऐसा प्रमाद है, जिसके लिए समय निकल जाने पर हाथ मलना और पश्चाताप करना ही शेष रह जायेगा।
देवताओं से सहायता माँगने की बात तो सदा ही चलती है, पर कुछ विशेष समय ऐसे भी आते हैं जब देवता मनुष्य से याचना करते हैं। ऐसे अवसर किन्हीं सौभाग्यवानों को ही मिलते हैं, जब वे देवताओं की मनोकामना पूरी करने में समर्थ हो सकें। दशरथ को देवताओं की सहायता के लिए जाना पड़ा था। अर्जुन भी गये थे। दधीचि ने उदारतापूर्वक उन्हें दान दिया था। कृष्ण साधु के वेश में घायल कर्ण के पास पहुँचे थे। वामन ने बलि के सामने हाथ पसारा था। राम ने शबरी से बेर की याचना की थी। सुदामा से तन्दुल माँगे गये थे। अंगद और हनुमान ने देवताओं से अपनी कामना पूर्ण नहीं कराई थी वरन् उनकी पूरी की थी। इस प्रसंग में ऋषियों की परम्परा याद आ जाती है। विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र से, उद्दालक ने आरुणी से, चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से, समर्थ ने शिवाजी से, परमहंस ने विवेकानन्द से, विरजानन्द ने दयानन्द से कुछ माँगा था और सत्पात्र शिष्यों ने जी खोल कर दिया भी था। बुद्ध और गाँधी की झोलियाँ आदि से अन्त तक फैली ही रही। देने वाले घाटे में नहीं रहे। लेने वाले जितने धन्य हुए उससे अधिक श्रेय देने वाले को मिला। मान्धाता ने शंकराचार्य को जो दिया था उससे अधिक पाया। अंगुलिमाल और अम्बपाली, हर्ष वर्धन और अशोक बुद्ध को देते समय उदारता की चरम सीमा पर पहुँचे थे। गाँधी के सत्याग्रहियों ने अनुदानों की अपने दाँव पर झड़ी लगा दी थी। देखते है कि जो दिया गया था वह निरर्थक नहीं गया वरन् असंख्य गुना होकर उन उदारमनाओं के ऊपर दैवी वरदान की तरह इस प्रकार बरसा कि वे कृत-कृत्य हो गये। धनी अकेले भामाशाह ही नहीं हुए हैं। मरण अकेले भगतसिंह के हिस्से में ही नहीं आया है। जेल अकेले नेहरू, पटेल ही नहीं गये हैं। मुसीबतें बहुतों को आती हैं। त्यागने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। किसी से चोर छीनता है किसी से बेटा। पेट भरने और तन ढकने के अतिरिक्त और किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। जब विरानों के लिए ही सब कुछ छोड़ना है, तो इन विरानों का स्तर कुछ ऊँचा क्यों न उठा लिया जाय। जब अपना उपार्जन श्रम, सहयोग किसी को देना ही है तो उन्हें देवताओं, ऋषियों एवं सदुद्देश्यों के लिए ही क्यों न दिया जाय? इस उदार नीति को अपनाने वाले बैंक में जमा की गई पूँजी की तरह ब्याज समेत लम्बा लाभ पाते हैं, जबकि मोह के गर्त में धकेली हुई उपलब्धियाँ निरर्थक ही नहीं जाती, विघातक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न करती हैं।
दूसरों से बात करने में समय और चातुर्य का कचूमर निकल जाता है। यदि अपने से भी एकान्त में जी खोलकर समझदारी की बात की जा सके और अभिन्नों के सहयोग से बनने वाली सृजनात्मक योजना बनाने जैसा कुछ किया जा सके, तो अन्तःलोक में प्रसुप्त पड़े देवता ही जागृत होकर ऐसा परामर्श एवं सहयोग देने लगेंगे, जिन्हें पाकर समस्त अभाव की पूर्ति और समस्त वैभव की उपलब्धि हो सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
89. परिष्कृत काम-तत्व, हेय नहीं अभिनन्दनीय
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
इस समस्त विश्व में शक्ति का अनन्त सागर लहलहा रहा है। ब्रह्मा की दो पत्नियाँ होने की चर्चा पुराणों में आती है। एक का नाम सावित्री दूसरी का गायत्री है। एक को परा प्रकृति दूसरी को अपरा प्रकृति कहते है। दूसरे शब्दों में इन्हें जड़ चेतन सृष्टि कह सकते हैं। जड़शक्ति वह है जो अणु शक्ति के पीछे काम करने वाली प्रेरक सत्ता से आरम्भ होती है। नाभिक न्यूक्लियस के अन्तराल में भरी हुई अगणित और अद्भुत गतिविधियों और दिशा-विदिशाओं के रूप में जिसका परिचय प्राप्त किया जाता है। भौतिक जगत इसी का पसारा है। इन्द्रियों से जिनका स्वरूप देखा समझा जाता है एवं इन्द्रियातीत वे शक्तियाँ जिनको उपकरणों से पकड़ा जा सकता है, वे सभी दृश्य अदृश्य शक्तियाँ भी हलचल से शून्य नहीं हैं। पर उनमें चिन्तन क्षमता न होने से जड़ कहते हैं। जड़ प्रकृति का अर्थ गतिहीन नहीं। शक्ति में गति न हो तो फिर वह शक्ति कैसी। बोलचाल की भाषा में उसे जड़, दार्शनिक चर्चा में उसे परा-पौराणिक, अलंकारों में उसे सावित्री कहते हैं। जितना कुछ यह जगत देखा समझा जा सकता है उसे सावित्री कहना चाहिए। जो कुछ विचार की, भावना की, उत्साह की शक्ति है उसे गायत्री कहते हैं। पुराणों का उपरोक्त अलंकारिक उपाख्यान यही प्रतिपादित करता है कि ब्रह्म-परमेश्वर अपनी परा और अपरा प्रकृति के जड़ और चेतन विभूतियों के माध्यम से समस्त सृष्टि का उद्भव, पोषण और प्रत्यावर्तन करता है।
मनुष्य इन परा और अपरा प्रकृतियों का सजीव सम्मिश्रण है। शरीर पंच तत्वों का बना होने से जड़ है। आत्मा विचारशील और भाव सम्पन्न होने से चेतन है। जड़ और चेतन का यह संयोग ही मनुष्य की अद्भुत प्रतिभा का स्रोत है, जिन निम्न वर्ग वाले जीव-जन्तुओं का चेतन जितना निर्बल है, वे उतने ही पिछड़े हुए हैं। हम इसीलिये अगणित सम्पदाओं और विभूतियों के अधिपति बन सके कि इस काया में उत्कृष्ट स्तर की परा और अपरा प्रकृति को कर्ता ने भली प्रकार नियोजित कर दिया है।
काया में दो केन्द्र इन दोनों शक्तियों के हैं। सावित्री जड़ परा प्रकृति का केन्द्र है। मूलाधार चक्र यहाँ कुण्डलिनी महाशक्ति अत्यन्त प्रचण्ड स्तर की क्षमताएँ दबाये बैठी है। पुराणों में इसे महाकाली के नाम से पुकारा गया है। मोटे शब्दों में इसे काम-शक्ति कह सकते है। काम-शक्ति का अनुपयोग दुरुपयोग किस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है, उसे आध्यात्मिक काम विज्ञान कहना चाहिए। इस शक्ति का बहुत सूझ-बूझ के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य का तत्त्वज्ञान है। बिजली की शक्ति से अगणित प्रयोजन पूरे किये जाते हैं और लाभ उठाये जाते हैं, पर यह होता तभी है जब उसका ठीक तरह प्रयोग करना आये, अन्यथा चूक करने वाले के लिये तो वही बिजली प्राणघातक सिद्ध होती है।
काम-शक्ति को गोपनीय तो माना गया है, जिस प्रकार धन कितना है, कहाँ है, आदि बातों को आमतौर से लोग गोपनीय रखते हैं। उसकी अनावश्यक चर्चा करने से अहित होने की आशंका रहती है। इसी प्रकार काम-तत्व को गोपनीय ही रखा गया है। पर इसकी महत्ता, सत्ता और पवित्रता से कभी किसी ने इंकार नहीं किया। यह घृणित नहीं, पवित्रतम है। यह हेय नहीं अभिवन्दनीय है। भारतीय अध्यात्म शास्त्र के अन्तर्गत शिव और शक्ति का प्रत्यक्ष समन्वय जिस पूजा प्रतीक में प्रस्तुत किया गया है, उसमें इस रहस्य का सहज ही उद्घाटन हो जाता है। शिव को पुरुष की जननेन्द्रिय और पार्वती को नारी की जननेन्द्रिय का स्वरूप दिया गया है। उनका सम्मिलित विग्रह ही अपने देव मन्दिरों में स्थापित है। यह अश्लील नहीं है। तत्त्वतः यह सृष्टि में संचरण और उल्लास उत्पन्न करने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम के संयोग से उत्पन्न होने वाले महानतम शक्ति प्रवाह की ओर संकेत है। इस तत्त्वज्ञान को समझना न तो अश्लील है और न घृणित वरन् शक्ति के सद्भाव, विकास एवं विनियोग का उच्चस्तरीय वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारभूत एक दिव्य संकेत है। यदि ऐसा न होता अपने त्रिकालदर्शी और ईश्वर समकक्ष स्तर पर पहुँचे हुए तपःपूत ग्रन्थि, भगवान शिव और उनकी स्फुरण शक्ति का समन्वय मन्दिरों में स्थापित न करते। हेय तो हर वस्तु का दुरुपयोग ही होता है। अमृत भी दुरुपयोग से विष बन सकता है। काम-शक्ति स्वयं घृणित नहीं। घृणित तो वह विडम्बना है, जिसके द्वारा इतनी बहुमूल्य ज्योति धारा को शरीर को जर्जर और मन को अधःपतित करने के लिए अविवेकपूर्वक प्रयुक्त किया जाता है। सावित्री का कुण्डलिनी का प्राण-काम पतित कैसे हो सकता है। वह तो देवता की पंक्ति में अति सम्मानपूर्वक विराजमान होता रहा है। जो जितना उत्कृष्ट है विकृत होने पर वह उतना ही निकृष्ट बन जाता है और यह एक तथ्य है।
ब्रह्म की दूसरी पत्नी शक्ति गायत्री जिसे विचारणा एवं भावना कहते हैं। अपने स्थान पर अति महत्त्वपूर्ण है। मानवीय चिन्तन का उचित निर्देशन उसी के द्वारा होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा ही नर-पशु को नर-नारायण बनाता है। समस्त धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान, स्वाध्याय, सत्संग, मनन-चिन्तन उसी की क्षेत्र परिधि में आता है। उसके प्रकाश विस्तार पर कोई प्रतिबन्ध न होने से अतीत से लेकर अद्यावधि पर्यन्त बहुत कुछ कहा सुना जाता रहा है। अखण्ड ज्योति में भी उसी की चर्चा रहती रही है। चर्चा जिसकी नहीं वह सावित्री ही थी। कुण्डलिनी शक्ति की गोपनीयता का उद्घाटन करने से कतराने की ही परम्परा चली आई है। गोपनीयता की मर्यादा जहाँ तक रही वहाँ तक उसे तन्त्र विद्या के माध्यम से किसी न किसी रूप में कहा जाता रहा। पर जब दुरुपयोग का विग्रह, उग्र से उग्रतर होने लगा और बात अश्लीलता तक पहुँच गई, उसके प्रयोक्ता आसुरी दुष्टता को अपनाने लगे तो उसकी चर्चा और भी अधिक अस्पर्श हो गई। तन्त्रकाल जब तक रहा, तब तक स्नायु मण्डल में थिरकती हुई इस महाकाली की विवेचना और साधना सम्मानित बनी रही। दस महाविद्याएँ जिनकी साधना से भौतिक जीवन में ऋद्धि-सिद्धियों का अद्भुत संचरण होता है, तन्त्र विज्ञान की आधार स्तम्भ है। इन दस देवियों का पूजा प्रकरण हमने अपने तन्त्र विज्ञान ग्रन्थ में लिखा भी है, पर गहन क्षेत्र में प्रवेश करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुस्थिति पूजा-उपासना तक सीमित नहीं। उन्हें जीवन को ज्योतिमयी शक्तिपीठ ही कहना चाहिए। दस विद्याएँ मात्र पूजा साधना में प्रयुक्त होने वाली देवियाँ नहीं हैं। वरन् मानवीय चेतना की समस्त क्रिया-प्रक्रियाओं में व्याप्त शक्ति निर्झरिणी है, जिनमें स्नान अवगाहन करने पर मनुष्य सामान्य न रहकर असामान्य बनता है और तुच्छता का कलेवर उतार कर महानता की भूमिका में प्रवेश करता है।
समय आ गया कि काम-विद्या के तत्त्वज्ञान का संयत और विज्ञान सम्मत प्रतिपादन करने का साहस किया जाय और संकोच का यह पर्दा उठा दिया जाय कि इस महान विद्या की विवेचना हर स्तर पर अश्लील ही मानी जायेगी, उसे हर स्थिति में गोपनीय ही रखा जाना चाहिए। यह संकोच मानव जाति को एक महान लाभ से वंचित ही रखे रहेगा। चर्चा करने वाले को लोग हलके स्तर का समझेंगे। उसकी गरिमा घटेगी यह अपराध ही है। शरीर शक्ति का शिक्षण करने वाले उपाध्याय जननेन्द्रियों का स्वरूप समझाने में झिझक कर अपने छात्रों को उस महत्त्वपूर्ण ज्ञान से वंचित नहीं करते। यदि यह संकोचशीलता न तोड़ी जाती तो यौन रोगों के चिकित्सक कहाँ से आते? प्रसव सहायता और गर्भाशयों की शल्य क्रिया कैसे सम्भव होती? संकोच वहाँ उचित है जहाँ कुत्साएँ भड़कने की आशंका हो। प्रतिबन्ध पशुता भड़काने वाली अश्लीलता, कामुकता, वासना की आत्मघाती प्रवृत्ति के प्रसारण पर होना चाहिए। सृष्टि की संचरण प्रक्रिया और मानव जीवन की अतिशय महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरक प्रवृत्ति की दिशा-विदिशा जानने से वंचित रहना, वस्तुतः अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारना है। उचित ज्ञान के अभाव में ही प्रक्षिप्त ज्ञान को विस्तार मिलता है। काम-वासना मनुष्य जीवन की एक अति प्रबल प्रवृत्ति है। उसकी हलचल मस्तिष्क को उद्वेलित करती ही रहती है। फलतः व्यक्ति उस सम्बन्ध में कुछ न कुछ कहने सुनने के, पूछने बताने के, पढ़ने जानने के लिए भी खोजबीन करता रहता है। उच्चस्तरीय जानकारी न होने से उसे घटिया, विकृत और अवांछनीय सामग्री हाथ लगती है। जिससे आत्मघात करने का ही पथ प्रशस्त होता है। इस स्थिति से बचने की दृष्टि से भी यह आवश्यक है कि काम प्रवृत्ति की तथ्यपूर्ण जानकारी सर्वसाधारण को उपलब्ध रहे और उसके आधार पर उसे अपने व्यक्तित्व विकास एवं सन्तुलन में सहायता मिलती रह सकें।
आध्यात्मिक काम-विज्ञान का प्रथम पाठ आज की स्थिति में भारतीयों को यह पढ़ना चाहिए कि ये प्रकृति और पुरुष की समीपता एवं एकता को तात्त्विक दृष्टि से देखें और उसका समन्वय वैसे ही करे, जैसे कि एक ही शरीर में रहने वाले इन दो तत्वों का सहज भाव से बना चला आता है। मस्तिष्क प्राण का, अग्नि का, ब्रह्म का प्रतीक है। मूलाधार काम संस्थान, रयि का, सोम का प्रतीक है। दोनों एक ही शरीर में घुले-मिले पास-पास रहते हैं। दोनों की यह स्थिति कोई उपद्रव उत्पन्न नहीं करती वरन् एक की अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करती है। दो पृथक अंगों की सीमा में विकसित होकर यही प्रक्रिया एक से दो में और दो से बहुत में विकसित होती है। नर और नारियाँ दोनों ही मनुष्य हैं और दोनों के अस्तित्व में प्रत्यक्षतः कोई बड़ा अन्तर नहीं है। दोनों की योग्यता मर्यादा और क्षमता लगभग एक ही माननी चाहिए। पर यदि सूक्ष्मता की गहराई में जाया जाय तो उनकी मूल प्रकृति में पाया जायेगा-नर जहाँ प्राण का, पौरुष का, अग्नि का बाहुल्य रख रहा होगा वहाँ नारी सोम की, सौजन्य की भावना का प्रतिनिधित्व कर रही होगी। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ है और उनका महत्त्व समान रूप से मूल्यवान है। दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक है। इसलिए उन्हें परस्पर अछूत की तरह नहीं रहना चाहिए। पिछले दिनों सामन्तवादी युग में नारी का बहुत ही दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण चित्रण कर दिया गया। उसे स्वर्ग की देवी के उच्च स्थान से घसीट कर वैश्या जैसे नारकीय स्तर की चित्रित किया गया। कामिनी और रमणी मात्र उसे रहने दिया गया। कला के नाम पर केवल घृणित वासना की प्रतिमूर्ति नारी को सँजोया गया। गीत, काव्य, चित्र, मूर्ति, अभिनय, नृत्य, साहित्य आदि कला के जितने भी स्वर थे सब ने मिलकर नारी को यौन लिप्सा की पूर्ति में प्रयुक्त होने वाली भोग सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया। मस्तिष्क उसी साँचे में ढलते चले गए। और नारी का वेष-विन्यास ऐसा अभ्यस्त करा दिया गया जिससे वासना भड़काना ही उसका एकमात्र लक्ष्य दीखने लगे। नारी को जिस कुरुचिपूर्ण साज-सज्जा में अलंकृत आज सर्वत्र देखा जाता है, उसके पीछे सामन्तवादी युग की बनी दुरभिसन्धि काम कर रही है। यों तत्त्वतः नारी का यह घोर अपमान है कि वह नर की वासना भड़काने वाली साज-सज्जा को स्वीकार कर ले।
नारी का जो स्वाभाविक स्थान है वह उसे मिलना ही चाहिए। समाज में उसे पुरुष का पूरक बनकर रहना चाहिए, नारी की अछूत अस्पर्श की स्थिति जो इन दिनों बनी हुई है उसका एकमात्र कारण वह रुग्ण मनोवृत्ति है, जिसके अनुसार नारी का अस्तित्व काम-सेवन भर मान लिया गया है। यदि उसे बहिन, बेटी, माँ, सखा और पूरक मान लिया जाय तो जिस प्रकार दो पुरुषों के सान्निध्य से काम-प्रवृत्ति भड़कने का कोई डर नहीं रहता, उसी प्रकार नर-नारी के बीच भी अकारण कलुष कषाय उत्पन्न न हो। वासना या विकार के लिए न नर का अस्तित्व दोषी है न नारी का। केवल मनोवृत्ति दोषी है, जो अवांछनीय तत्वों में मौजूद भ्रम जंजाल के रूप में कागज के रावण की तरह बनाकर खड़ी कर दी गई।
सर्वसाधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि नारी न भोग्या है, न रमणी, न कामिनी। यह भी मनुष्य ही है, अगणित विभूतियों की धनी है। नर की पूरक है। दोनों हिलमिल कर सहयोगी सहचर की तरह रहें यही स्वाभाविक, उचित और न्यायसंगत है। प्रतिबन्धों के पीछे जिस व्यभिचार पर नियन्त्रण की बात सोची जाती है वह सर्वथा निरर्थक है। व्यभिचार मात्र क्रिया नहीं है वस्तुतः वह दूषित दृष्टि ही है। जिसमें दृष्टि दोष भरा पड़ा है, वह अविवाहित भी व्यभिचार का दण्ड भुगतेगा और जिसकी भावनायें पवित्र हैं वह विवाहित रहते हुए भी ब्रह्मचारी है। हमें इसी प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए और रमणी कामिनी की भाषा में सोचना बन्द कर देना चाहिए।
कला के नाम पर जिन दुष्ट दुरात्माओं ने नारी को वैश्या का स्थान देने की ठान ठानी है, उन्हें अपराधियों की पंक्ति में खड़ा करना चाहिए। परस्पर पूरक रहकर सहयोग और सद्भाव की, नेह और सौजन्य की भावनाओं का विकास करते हुए ही हम अवांछनीय एवं स्वाभाविक स्थिति का समाज विनिर्मित कर सकते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से तो यह नितांत आवश्यक है। प्राण और रयि की समीपता के बिना आंतरिक उल्लास का उद्भव ही न हो सकेगा। माना कि बिना पत्नी के सरसता, बहिन के बिना सौहार्द्र, पुत्री के बिना स्नेह की धाराएँ सूखी ही पड़ी रहेंगी और नारी को अछूत मानने वाला नर मरघट में रहने वाले प्रेत-पिशाच की तरह एकाकीपन की आग में जलता रहेगा। इसी प्रकार प्रतिबन्धित नारी भी मणि विहीन सर्प की तरह खोई-खोई भूली भटकी सी अशांत और उद्विग्न बनी रहेगी। इस अवांछनीय स्थिति को जिस गर्हित काम विज्ञान ने उत्पन्न किया है, उसे बहिष्कृत, परिष्कृत करना ही होगा। अन्यथा ब्रह्म भी प्रकृति के सान्निध्य की तरह नर-नारी का स्नेह सद्भाव बढ़ने से सृष्टि का, मानव समाज का, सौन्दर्य और प्रकाश बढ़ेगा ही घटेगा नहीं।
यौन सम्पर्क एक विशेष प्रक्रिया है। उसके पीछे अग्नि और सोम के मिलन से उत्पन्न एक विद्युत संचार की विशेष प्रक्रिया सन्निहित है इसलिए उसकी उपयुक्तता और पवित्रता पर अधिकतम ध्यान रखा जा सकता है। पर वह प्रयोजन अनावश्यक प्रतिबन्धों से न हो सकेगा। यह प्रतिबन्ध तो उस दुष्ट मान्यता को ही बल देंगे, जिसके अनुसार व्यभिचार के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नर-नारी चर्चा ही नहीं कर सकते। वर्तमान प्रतिबंधों की अवांछनीयता समझी जानी चाहिए और उन्हें इस दृष्टि से शिथिल एवं समाप्त किया जाना चाहिए कि नर और नारी स्वेच्छा से सद्भाव की महत्ता स्वीकार करे और सौजन्य के साथ रह सकें और प्रगति की दिशा में एक दूसरे के पूरक बनकर साहसपूर्ण कदम बढ़ा सकें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
90. वैज्ञानिकों की दृष्टि में जीवात्मा की सत्ता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवात्मा आखिर है क्या? उसका लक्षण, स्वरूप, स्वभाव और लक्ष्य क्या है? इस प्रश्न पर विज्ञान अपने बचपन में विरोधी था, वह कहता था जड़ तत्त्वों के, अमुक रसायनों के एक विशेष संयोग-सम्मिश्रण का नाम ही जीव है। उसकी सत्ता वनस्पति वर्ग की है। अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी एक चलता-फिरता पेड़ है। रासायनिक संयोग उसे जन्म देते, बढ़ाते और बिगाड़ देते हैं। ग्रामोफोन के रिकार्डों पर सुई का संयोग होने से आवाज निकलती है और वह संयोग-वियोग में बदलते ही ध्वनि प्रवाह बन्द हो जाता है। जीव अमुक रसायनों के अमुक मात्रा में मिलने से उत्पन्न होता है और वियोग होते ही उसकी सत्ता समाप्त हो जाती है। अणु अमर हो सकते हैं, पर शरीर ही नहीं, उसकी विशेष स्थिति चेतना भी मरण धर्मा है।
यही था वह प्रतिपादन जो चार्वाक मुनि के शब्दों को विज्ञान दुहराता रहा। उसकी दलील यही थी-‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमने कुतः’ शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है। इस मान्यता का निष्कर्ष यही निकला कि जब शरीर के साथ ही अस्तित्व नष्ट होते हैं, तो परलोक का भय क्या करना? जितना सुख जिस प्रकार भी सम्भव हो लूट लेना चाहिए, इसी में जीवन की सार्थकता है। नास्तिकवाद ने जन-साधारण को यही सिखाया ‘यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’ जब तक जियो, कर्ज से लेकर भी घी पियो। चूँकि अब घी भी हजम नहीं होता और वह तथाकथित सभ्यता का चिह्न भी नहीं है इसलिए आधुनिक चार्वाकों ने ‘‘कुकर्म करके धन कमाओ-नशा पियो और मजा उड़ाओ’’ के सूत्र रच दिये। इन दिनों जन-मानस इसी प्रेरणा का अनुगमन कर रहा है।
बचपन से आगे बढ़कर विज्ञान जब किशोरावस्था में पहुँचा तो उसने जीव को एक स्वतन्त्र चेतना के रूप में मानना स्वीकार किया। मनःशक्ति को मान्यता दी गई। आरम्भिक दिनों में जीवाणु ही शरीर और मन का आधार था। पीछे माना गया मनःचेतना की अपनी सत्ता है, वह अपने अनुकूल जीवाणुओं पर सवारी गाँठती है। उन्हें अपनी इच्छा आवश्यकतानुसार ढालती है। मरणोत्तर स्थिति में भी उसकी सत्ता बनी रहती है। इतने पर भी उसे बिजली, चुम्बक, ताप, प्रकाश, शब्द स्तर की एक भौतिक अदृश्य शक्ति ही माना गया। अब इस युग से विज्ञान आगे बढ़ रहा है, उसकी प्रौढ़ता समीप है और थोड़ी हिचकिचाहट के साथ उसकी तैयारी इसी दिशा में कदम बढ़ाने की है, कि जीवन को अणु निर्मित भौतिक जगत की तरह चेतना जगत को स्वतन्त्र सत्ता का एक घटक मान लिया जाय। यह मान्यता लगभग उसी प्रकार की होगी जैसी कि अध्यात्म के क्षेत्र में जीव के स्वरूप, लक्षण एवं गुण के सम्बन्ध में व्याख्या की जाती रही है।
आशा की जानी चाहिए कि विज्ञान जब अपनी अधेड़ परिपक्वावस्था में पहुँचेगा तो उसे जीवन के लक्ष्य एवं विकास का वह स्वरूप भी मान्य हो सकेगा जो आत्मा को परमात्मा स्तर का बनाने के लिए, योग और तप का अवलम्बन लेने के लिए तत्त्वदर्शियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि के आधार पर कहा बताया था। विज्ञान की पदयात्रा क्रमशः नास्तिकता से आस्तिकता की ओर बढ़ रही है और प्रत्यक्ष है।
पदार्थ को शक्ति के रूप में अब मान्यता मिल चुकी है और यह विज्ञान के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को तो नहीं, पर मूर्धन्य स्तर पर स्वीकार है कि यह विश्व एक शक्ति सागर भर है। शक्ति की दो धाराएँ मानी जाती रही हैं, उसी परम्परा के अनुसार एक को भौतिक और दूसरी को प्राणिज माना गया है। दोनों आपस में पूरी तरह गुँथी हैं, इसलिए जड़ में चेतन का और चेतन में जड़ का आभास होता है। वस्तुतः वे दोनों ज्वार-भाटे की तरह लहरों के मूल और ऊर्ध्व में निचाई-ऊँचाई का अन्तर दीखने की तरह हैं और एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं। यद्यपि उन दोनों की व्याख्या अलग-अलग रूपों में भी की जा सकती है और उनके गुण, धर्म पृथक बताये जा सकते हैं। एक को जड़ दूसरी को चेतन कहा जा सकता है। इसी विभेद की चर्चा अध्यात्म ग्रन्थों में परा और अपरा प्रकृति के रूप में मिलती है।
मस्तिष्कीय विद्या के मनोविज्ञान के आचार्य न्यूरोलॉजी, मैटाफिजिक्स, साइकोलॉजी आदि के सन्दर्भ में मस्तिष्कीय कोशों और केन्द्रों की दिलचस्प चर्चा करते हैं। उनकी दृष्टि में वे कोश ही अपने आप में पूर्ण हैं। यदि यही ठीक होता तो मृत्यु के उपरान्त भी उन कोशों की क्षमता उसी रूप में या अन्य किसी रूप में बनी रहनी चाहिए थी। पर वैसा होता नहीं। इससे प्रकट है कि इन कोशों में मनःतत्त्व भरा हुआ है जीवित अवस्था में वह इन कोशों के साथ अतीव सघनता के साथ घुला रहता है। जब इन दोनों का अलगाव हो जाता है तो उस मृत्यु की स्थिति में मस्तिष्क के चमत्कारी कोश सड़ी-गली श्लेष्मा भर बनकर रह जाते हैं।
मनःशास्त्र के यशस्वी शोधकर्ता कार्ल गुस्ताजुंग ने लिखा है-मनुष्य के चेतन और अचेतन के बीच की शृंखला बहुत दुर्बल हो गई है। यदि दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जा सके, तो प्रतीत होगा कि व्यक्ति की परिधि छोटे से शरीर तक सीमित नहीं है, वरन् वह अत्यधिक विस्तृत है। हम हवा के सुविस्तृत आयाम में साँस लेते और छोड़ते हैं उसी प्रकार विश्वव्यापी चेतन और अचेतन की संयुक्त सत्ता के समुद्र में ही हम अपना व्यक्तित्व पानी के बुलबुले की तरह बनाते, बिगाड़ते रहते हैं। जैसे हमारी अपनी कुछ रुचियाँ और आकांक्षाएँ हैं, उसी प्रकार विश्वव्यापी चेतना की धाराएँ भी किन्हीं उद्देश्यपूर्ण दिशाओं में प्रवाहित हो रही हैं।
गैरल्ड हर्ड ने आइसोटोप ट्रेसर्स के सम्बन्ध में हुए नवीनतम शोधकार्य की चर्चा करते हुए कहा है कि जीव विज्ञान का निष्कर्ष है, कि शरीर की कोशिकाओं और परमाणुओं पर मनःशक्ति का असाधारण नियन्त्रण हैं। चेतन और अचेतन के रूप में जिन दो धाराओं की विवेचना की जाती है वस्तुतः वे दोनों मिलकर मनःशक्ति का निर्माण करती हैं। यह मनःचेतना सहज ही नहीं मरती वरन् एक ओर तो वंशानुक्रम विधि के अनुसार गतिशील रहती है, दूसरी ओर मरणोत्तर जीवन के साथ होने वाले परिवर्तनों के रूप में उसका अस्तित्व अग्रगामी होता है। मनःचेतना का पूर्ण मरण पिछले दिनों सम्भव माना जाता रहा है अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने ही वाले हैं कि चेतना अमर है और उसका पूर्ण विनाश उसी तरह सम्भव नहीं जिस प्रकार कि परमाणुओं से बने पदार्थों का।
भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेता श्री पियरे दि काम्ते टुनाऊ ने विज्ञान और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए लिखा है-अब हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि मनुष्य में अपनी ऐसी चेतना का अस्तित्व मौजूद है जिसे आत्मा कहा जा सके। यह आत्मा विश्वात्मा के साथ पूरी तरह सम्बद्ध है। उसे पोषण इस विश्वात्मा से ही मिलता है। चूँकि विश्व चेतना अमर है इसलिए उसकी छोटी इकाई आत्मा को भी अमर ही होना चाहिए।
‘ह्यूमन डेस्टिनो’ ग्रन्थ के लेखक ‘लेकौम्ते टू नाउ’ ने जीव सत्ता की स्वतन्त्र व्याख्या अगले कुछ ही दिनों में प्रचलित विज्ञान मान्यताओं के आधार पर ही की जा सकने की सम्भावना व्यक्त की है और कहा है, कि हम इस दिशा में क्रमशः अधिक द्रुतगति से बढ़ रहे हैं।
प्राणि का ‘अहम्’ उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का सृजन करता है और जब तक वह बना रहता है तब तक उसकी अन्तिम मृत्यु नहीं हो सकती। स्वरूप एवं स्थिति का परिवर्तन होता रह सकता है। इस अहम् ईगो सत्ता का स्वरूप निर्धारण अब इलेक्ट्रो डायनैमिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत प्रमाणित किया जाने लगा है। इस व्याख्या के अनुसार यह मानने में कठिनाई नहीं होती कि जीव सत्ता जन्म-मरण के चक्र में घूमती हुई भी अपनी आकृति-प्रकृति में हेर-फेर करती रहकर भी अपनी मूल सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रह सकती है।
‘दि सूट्स आफ कोइंसिडेन्स’ ग्रन्थ के लेखक महामनीषी आर्थर कोइंसिडेन्स ने जीव सत्ता के आयाम को स्वीकार किया है और कहा है कि प्राणी की सत्ता विशेषता को सर्वथा आणविक या रासायनिक नहीं ठहराया जा सकता।
‘यू डू टेक इट विद यू’ के लेखक श्री डिविट मिलर इस बात से सहमत हैं कि मस्तिष्कीय कोशों को प्रभावित करने वाली एक अतिरिक्त चेतना का उसी क्षेत्र में घुला मिला किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व है।
मृत्यु के उपरान्त प्राणी की चेतना शक्ति उसी प्रकार बची रह सकती है जैसे कि अणु गुच्छक एक पदार्थ से टूट-बिखर कर किसी अन्य रूप में परिणत होते रहते है। शक्ति के समुद्र इस विश्व में प्राणियों की सत्ता बुलबुलों की तरह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती है, विकसित करती है और समयानुसार अपने मूल उद्गम में लीन हो जाती है। जड़ चेतन मिश्रित इस शक्ति सागर को कहा जा सकता है। यदि इन्हें अलग से कहना आवश्यक हो तो एक को प्रकृति और दूसरे को पुरुष कह सकते हैं।
अपने समय के मूर्धन्य खगोलवेत्ता डॉ गुस्ताफस्ट्रोम वर्ग की पुस्तक ‘दि सोल आफ यूनिवर्स’ में जीवन क्या है? विशेषतया मनुष्य क्या है? इस प्रश्न पर प्रस्तुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण की मार्मिक समीक्षा की है। वे विज्ञान से पूछते हैं-क्या मनुष्य ब्रह्माण्ड की कुछ धूलि का ताप और रासायनिक घटकों की औंधी सीधी क्रिया-प्रक्रिया मात्र है? क्या वह प्रकृति की किसी अनिच्छित क्रिया के अवशेष उच्छिष्ट से बना खिलौना मात्र है? क्या मानव जीवन वस्तुतः लक्ष्य विहीन हलचलों के बनने-बिगड़ने वाले संयोगों की परिधि तक ही सीमित है? अथवा वह इससे आगे भी कुछ है?
इन प्रश्नों के सही उत्तर प्राप्त करने के लिए स्ट्रोम वर्ग ने तत्कालीन विज्ञान की दार्शनिक विवेचना करने वाले मनीषियों से भी परामर्श किया। उन्होंने इस सम्बन्ध में एफ. आर. मोस्टन, वास्टर आडम्स, आर्थर एडिंगटन, थामस हैट मार्गन, जान वूदिन, कारेलहूजर, ओ. एल. स्पोसलर आदि प्रख्यात मनीषियों के सामने अपना अन्तर्द्वन्द्व रखा और जानना चाहा कि विज्ञान सम्मत दर्शन द्वारा क्या मानव चेतना की इतनी ही व्याख्या हो सकती है जितनी कि वह अब तक की गई है, अथवा उससे आगे भी कुछ सोचा जा सकता है।
अपनी जिज्ञासा, दृष्टि, कठिनाई, समीक्षा और विवेचना का एक विचारणीय स्वरूप स्ट्रोमवर्ग के ‘दि सोल आफ यूनिवर्स’ ग्रन्थ में है। इस पुस्तिका की भूमिका लिखते हुए आइन्स्टीन ने प्रस्तुत जिज्ञासा को युग चिन्तकों के सामने अति महत्त्वपूर्ण चुनौती माना है और कहा है हमें किन्हीं पूर्वाग्रहों से प्रभावित हुए बिना सम्भावित सत्य के आधार पर ही इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए।
फ्रायड ने प्रेरणाओं का प्रधान स्रोत ‘काम’ को माना था और उसकी व्याख्या ‘सेक्स’ के रूप में की थी। इसके बाद उन्होंने अपने ही जीवन में उसे यौन लिप्सा से आगे बढ़ाकर कामना, इच्छा तथा वासना तक पहुँचा दिया इसके बाद जुंग और एडलर ने उस काम वृत्ति की व्याख्या कामाध्यात्म के रूप में की और उसे आनन्द, उल्लास की सहज सुलभ प्रवृत्ति के साथ जोड़ दिया।
जुंग का कथन है कि आत्मा की अमरता को यद्यपि अभी भी प्रयोगशालाओं में सिद्ध नहीं किया जा सका, फिर भी ऐसी अगणित अनुभूतियाँ मौजूद हैं जो यह बताती है कि आदमी मरण-धर्मा नहीं है वह मौत के बाद भी जीवित रहता है।
मनःशास्त्र का विकास क्रमिक गति से आगे बढ़ा है। आरम्भ में विज्ञान ने एक जागृत चेतन मन ही स्वीकारा था। पीछे अचेतन मन की खोज की गई। इस अचेतन की भी कई शाखा प्रशाखाएँ खोजी गई। सबकान्शस, अर्धचेतन और रैशियल अनकान्शस, जातीय अचेतन, इसकी प्रमुख धाराएँ इन दिनों सर्वविदित हैं। फ्रायड की कल्पना पर सुपर ईगो-उच्चतर अहम् और सेन्सर अंकुश तथ्य छाये रहे। उन्होंने इसी परिधि में मनःशास्त्र की संरचना की है। तब से अब तक पानी बहुत आगे बह गया और मनोविज्ञान ने कितने ही नये-नये रहस्यों का उद्घाटन किया है।
जर्मनी के मनःशास्त्री हेन्सावेन्डर ने अतींद्रिय क्षमता के अनेकों प्रमाण संग्रह करके यह सिद्ध किया है कि सूक्ष्म सत्ता उससे कहीं अधिक सम्भावनाओं से भरी पूरी है, जैसी कि अब तक जानी जा सकी है। टैलिपैथी के शोधकर्ता रेने वार्कोलियर ने मनःचेतना को ज्ञात भौतिकी से ऊपर वाले सिद्धान्तों पर आधारित बताया है। वे कहते है-‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों के सहारे नहीं हो सकती।’’
विश्व विख्यात लेखक एच. जी. वेल्स ने अपनी पुस्तक ‘‘इन दि एज आफ दि क्रामेट’’ में यह सम्भावना व्यक्त की है, कि निकट भविष्य में मनुष्य का मन और दृष्टिकोण अधिकाधिक परिष्कृत होता चला जायेगा। तब मनुष्य में सहृदयता, सहयोग-भावना तथा दूरदर्शिता बढ़ती जायेगी। फलस्वरूप समाज का ढाँचा और मानवी आचार इतना उपयोगी बन जायेगा, जिसे अब की अपेक्षा कायाकल्प जैसा कहा जा सके। तब कोई युद्ध का समर्थन न करेगा और चिन्तन की दिशा सहयोग पूर्वक शान्ति एवं प्रगति के लिए प्रयुक्त हो सकने वाले आधारों को ढूँढने के लिए प्रयुक्त होगी।
शंकराचार्य कहते थे स्व और पर का भेद भ्रान्ति है। हम सब भिन्न दीखते भर हैं, वस्तुतः सब एकता के सघन सूत्र में पिरोए हुए मनकों की तरह हैं। ‘ईसा कहते थे-अपने पड़ोसी को प्यार करो ताकि तुम्हारा विकसित प्यार तुम्हें निहाल कर दे।’ ‘बुद्ध ने कहा था-करुणा से बढ़कर मनुष्य के पास और कोई दिव्य सम्पदा नहीं। जो ममता और करुणा से भरा है वही दिव्य है।’
जीव चेतना का लक्ष्य और विकास क्रम का पूर्णत्व इसी स्तर पर विज्ञान को भी पहुँचा देगा जो ऋषियों और तत्त्वदर्शियों ने बताया था। यदि विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज है तो उसे आत्मा की वर्तमान स्वीकृति को परमात्मा स्तर प्राप्त करने तक भी पहुँचना होगा। इसके लिए कल न सही परसों की प्रतीक्षा तो की ही जा सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार