देवत्व के जागरण का आधार यज्ञ

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

देवत्व के जागरण का आधार यज्ञ

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी की यह विशिष्टता है कि उसमें ज्ञान के शिखर एवं सम्वेदना की गहराई को साथ-साथ अनुभव किया जा सकता है। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में वन्दनीया माताजी, यज्ञ की विशद विवेचना करते हुए कहती हैं कि यज्ञ का मूल आधार लोक-कल्याण है। सन्त कबीर का उदाहरण देते हुए वे कहती हैं कि जिस तरह सन्त कबीर ने थोड़ी-सी हींग से अनेकों को तृप्त कराया, उसी तरह यज्ञ की मूल भावना भी समष्टि की तृप्ति में सन्निहित है। इसके साथ ही वन्दनीया माताजी यज्ञ को देवत्व के जागरण का मूल आधार घोषित करती हैं। वे कहती हैं कि यज्ञ वस्तुस्थिति में एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम में समाजतन्त्र में एक समग्र एवं सम्यक परिवर्तन सम्भव है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को, जो नागपुर अश्वमेध यज्ञ में निस्सृत हुई।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

क्या है यज्ञ?

बेटियो! आत्मीय प्रज्ञा परिजनो!

यह नगरी सन्तों, सुधारकों की है। मैं उन्हें नमन करती हूँ। आप सभी भावनाशील हैं, जो अश्वमेध के लिए यहाँ आए हैं। स्त्रियों के लिए नहीं है गायत्री यज्ञ, यह भ्रान्ति गुरुजी ने मिटाई।

यज्ञ क्या है? यह एक यथार्थ है, सिद्धान्त है, जीवन है, चरित्र है, व्यवहार है। व्यक्ति का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ठीक है, जहाँ व्यक्ति संगठित होकर रहते हैं—वहीं यज्ञ है।

अश्वमेध क्या है? अश्व जैसी पाशविक प्रवृत्तियाँ जो लगाम लगने पर भी नहीं रुकतीं, उन्हें यज्ञ कुण्ड में होम देना ही अश्वमेध यज्ञ है। व्यक्ति को जीवन्त बनाने के लिए यज्ञों की परम्परा डाली गई।

कबीर को उनके गुरु ने एक चवन्नी भेजी और कहा इससे सभी को भोजन करा दो। कबीर ने उससे हींग खरीदी और खिचड़ी में डालकर सभी को भोजन कराया। सब तृप्त हो गए। फिर उनने गुरु को एक चवन्नी भेजी और कहा—इससे सारे संसार को भोजन करा दीजिए। उनने चवन्नी का घी, गुग्गुल मँगाया और उस सामग्री से हवन कराया।

उस यज्ञ से निस्सृत सुगन्धित प्राणवायु वृक्ष, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों-मनुष्यों में संचरित हो गई। श्वास सभी लेते हैं। श्वास मार्ग में प्रविष्ट होकर वह यज्ञीय ऊर्जा सभी के रोम-रोम में समाहित हो गई। यह तो था कबीर का यज्ञ।

महायज्ञों की परम्परा को जिस जीवन्त महापुरुष ने आगे बढ़ाया, हर व्यक्ति को प्रेरणा दी, उसके मूल में गुरुदेव की प्रेरणा रही है। मेरे सामने जो समुदाय, देव परिवार बैठा हुआ है, इनमें ब्राह्मणत्व पैदा किया जाए, यही सोचा पूज्यवर ने।

गुरुदेव सच्चे ब्राह्मण थे—वर्ण से ही नहीं, कर्म से भी। उन्होंने कहा—ब्राह्मण समाज सेवा के लिए आगे आएँ। ब्राह्मणों की पौध समाप्त हो गई। ब्राह्मण वर्ग विशेष नहीं, वरन एक चिन्तन चेतना है।

राष्ट्र का निर्माण धर्म से

हम भी एक माँ के रूप में आपके अन्दर दरद पैदा करना चाहते हैं। राष्ट्र को धर्म ही बना सकता है (यदि वह कायरों का नहीं हो तो) पन्थ नहीं। यज्ञ में आहुति डालने का अर्थ है—कर्मों की सुगन्धि फैलाना। भगवान राम ने १०० अश्वमेध यज्ञ किए थे। बाहु ने ६० और पृथु ने १०० अश्वमेध किए थे। उसी शृंखला में इन वाजपेय यज्ञों—ज्ञान यज्ञों को, आश्वमेधिक प्रयोगों को सम्मिलित किया गया है।

भावना से व्यक्ति बदला जा सकता है, अनुशासन से नहीं। एक बार श्री चेन्ना रेड्डी से गुरुदेव ने कहा था कि आप शासन कर सकते हैं, पर धर्मतंत्र भावना दे सकता है। शासन तंत्र आरोपित करता है, पर भावना नहीं दे सकता। शासन यदि पैसा ले लेगा, तो बैलगाड़ी से जाकर हम जन-जन को जगाएँगे।

शान्तिकुञ्ज कार्यकर्ताओं की टकसाल है। कार्यकर्ता गुरुजी-माताजी के लाल हैं। सबकी एक ही जाति, एक ही धर्म—गायत्री परिवार। जो गायत्री मन्त्र कान तक-एक सीमित वर्ग तक सीमित था, आज छह करोड़ से अधिक व्यक्ति गायत्री परिवार के 'फॉलोवर' हैं।

एक माँ की सब सन्तान

आप सब एक ही माँ के बच्चे हैं—माँ के दूध की लाज रखना। भावनाओं का पोषण, सिद्धान्तों का पोषण जरूर हमने दिया है, उसकी लाज रखना। स्वामी दयानन्द ने पाखण्ड खण्डिनी पताका फहराई थी। आप भी जाना और जन-जन तक गुरुदेव के विचार फैलाना।

सन् १९५८ में सम्पन्न हुए मथुरा के सहस्रकुण्डीय यज्ञ को जिनने देखा है और उसमें भाग लिया है, उसकी प्रामाणिकता को असन्दिग्ध मानते हैं। सम्पूर्ण यज्ञ जड़ी-बूटियों से निर्मित हवन सामग्री से सम्पन्न हुआ था। उसमें श्री अनन्तशयनम् एवं गोविन्द वल्लभ पन्त जी जैसे प्रामाणिक व्यक्तियों ने भाग लिया और यज्ञ किया था।

ऋषि बनाने का मन्त्र

गायत्री मन्त्र का ही प्रतिफल था कि विश्वामित्र वसिष्ठ ऋषि बने। महर्षि वसिष्ठ के पास कामधेनु, नन्दिनी गाय थी। सावित्री-सविता और गायत्री के ज्ञाता थे वे। विश्वामित्र ने उनसे पराजित होने के पश्चात कहा था—"धिक् बलम् क्षत्रिय बलम्, ब्रह्मतेजो बलम्-बलम्।" शक्ति के प्रयोग से नहीं, भावना से भगवान को पाया-जगाया जा सकता है।

नागपुर का अभी यह ग्यारहवाँ अश्वमेध यज्ञ है। अभी हमें एक सौ आठ अश्वमेध करने हैं। ऐसे-ऐसे विशाल। हम सारे राष्ट्र को भाई-चारे के एक सूत्र में पिरोना चाहते हैं। मजहब के नाम पर आज जो बिखराव दिखाई देता है, उसे एकता के सूत्र में बाँधना चाहते हैं। कोई भी धर्म बँटवारा नहीं सिखाता। मानवता की सेवा ही धर्म है।

हमने भी कहा है—'एक बनेंगे, नेक बनेंगे' हम राजनीति से परे हैं। न हम किसी मजहब से और न राजनीति से जुड़े हैं। ठोस व्यक्तित्व उभरकर आए, उसी के लिए गायत्री परिवार का गठन हुआ है, पद लिप्सा की आकांक्षा से नहीं। प्रयत्न करने पर आप भी विवेकानन्द और निवेदिता बन सकते हैं।

नारी जागरण का कार्य पूज्य गुरुदेव ने किया है। परदा प्रथा, घूँघट को मिटाया है। माया वर्मा और जयपुर के पास विजौली की रानी के उदाहरण सामने हैं, जिन्होंने घूँघट के पट खोल कर मर्दों की तरह काम करना शुरू किया। सबला बनीं और वह सब करके दिखा दिया, जिसे कभी पुरुषों का अधिकार समझा जाता था।

यज्ञ से देवत्व का जागरण

यज्ञ की प्रतिक्रिया देवत्व के जागरण के रूप में होती है। जिनके अन्दर देवत्व नहीं है, वे भी प्रेरणा लें। हर वर्ग, जाति के नगरवासी, सभी इसमें भाग लें और धोती पहनकर आ जाएँ। यह यज्ञ कल-कारखानों के प्रदूषण से लेकर मानसिक प्रदूषण तक को ठीक करने के लिए है। अकेले दिल्ली में ९० लाख में से २० लाख व्यक्ति टी.बी. के मरीज हैं। यज्ञ से वातावरण संशोधन से लेकर स्वास्थ्य संरक्षण तक की प्रक्रिया शास्त्रसंगत, विधिसम्मत है।

कर्मकाण्डों—विधि-विधानों का अपना महत्त्व है, परन्तु यज्ञ उसे जीवन्त बनाता है। कर्ता का चरित्र एवं व्यक्तित्व इसमें महत्त्व रखता है। दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ वसिष्ठ ने नहीं, शृंगी ऋषि ने सम्पन्न कराया था। विधि-विधानों के साथ व्यक्तित्व की श्रेष्ठता नितान्त आवश्यक है। ऐसे ही व्यक्ति तपःपूत कहलाते हैं और उनके द्वारा सम्पन्न किए गए कृत्य विशिष्ट फल प्रदान करते हैं। शेष तो कुमार्ग पर ले जाने का ही प्रयत्न करते हैं और स्वयं कुमार्गगामी बनते हैं।

यहाँ भी वे ही यज्ञ सम्पन्न कराएँगे, जो अपने जीवन में चरित्रनिष्ठा को उतार चुके हैं। शृंगी ऋषि ने उस यज्ञ में चरु के—खीर के तीन भाग किए थे, जिससे तीनों रानियों से राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न पैदा हुए थे।

समाज के परिवर्तन का आधार

इस उपराजधानी में एक से बढ़कर एक व्यक्तित्व भरे पड़े हैं। सारे महाराष्ट्र में हमारे जो मुट्ठी भर कार्यकर्ता हैं, उन्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनी है और अपने अनुकरणीय व्यक्तित्व के माध्यम से जन-जन को अपना बनाना है। राजनीति नहीं करनी है। समाज तंत्र का परिवर्तन राजगद्दी पर बैठकर नहीं, वरन जमीन पर जाकर सेवा के माध्यम से किया जाता है।

हम अपने परिजनों से कहेंगे कि राजनीति से दूर रहना। जो खड़ा होगा, वह सौ प्रतिशत जीत जाएगा, पर इससे तो अच्छा आप हमारा काम कीजिए, मिशन का काम कीजिए, भगवान का काम कीजिए, हम आपको अपनी छाती से लगाकर रखेंगे। अश्वमेध हमें प्यार से गले लगाना सिखाता है।

नारी ही कल की कर्णधार है। यह यज्ञ नारी शक्ति को, जो समाज की धुरी है, उसकी शक्ति को उभारने के लिए हो रहे हैं। उसे हम जगाएँगे। नारी ने जो त्याग किए हैं, उसके बारे में कुछ तो सोचो। समाज का, आबादी का आधा भाग नारी है। यदि वही दबी और पिछड़ी स्थिति में बनी रही तो एकांगी प्रगति कैसे सम्भव हो सकती है?

मैंने गुरुदेव को आश्वासन दिया था कि आपके बच्चों को छाती से लगाकर रखूँगी, प्राणों से भी बढ़कर प्यार करूँगी। इनको कोई बहका नहीं पाएगा। वे टिटहरी के अण्डे हैं, किसी ने छेड़ा तो वह शाप दे देगी, पूर्वकाल की तरह। पूर्वकाल में जब समुद्र टिटहरी के अण्डों को बहा ले गया था, तो अगस्त्य ऋषि सहयोगी बनकर आए थे और समुद्र के पानी को चुल्लू में भरकर सोख लिया था। सिद्धान्त वही है। मेरे अण्डों को कुछ भी न होगा।

मैं भगवान नहीं, माँ हूँ

मैं भगवान नहीं, सच्ची माँ हूँ। भाग्य के विधाता तो हम नहीं, पर हम आपको परिस्थितियों से लड़ने के लिए मजबूत बना देंगे। आप हिम्मत न हारें, ऐसा बना दिया जाएगा। भगवान पर विश्वास रखिए। जितना मैंने गुरुजी के जीवन से सीखा है, अपने जीवन में उतारा है—कारण पहला नंबर मेरा है, मैं उनके साथ रही हूँ। काकभुशुण्डि ने भगवान राम के अन्दर सारा ब्रह्माण्ड देख लिया। शक्तियों को बारीकी से पढ़ा और पाया कि इस व्यक्ति के कण-कण में भगवान व शक्ति समाहित है। सभी उसके अधिकारी हैं—आप अपने अन्दर से भावना, सेवा, यज्ञीय जीवन की वृत्ति पैदा करें तो पाएँगे कि इन दो दिनों में जनसमुदाय ऐसा उमड़ेगा कि देखते बनेगा। आप इस यज्ञ में सभी को बुलाइए, यज्ञ में बिठाइए और यज्ञ कराइए। यह सबका है।

॥ॐ शान्तिः॥