111. तप साधना से प्रसुप्त क्षमताओं का उभार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
कल्प साधना में स्थूल शरीर की समर्थता एवं सूक्ष्म शरीर की प्रतिभा को निखारने का अभ्यास कराया जाता है। काय कलेवर की दुर्बलता, रुग्णता हटाने और जीवनी शक्ति निरोगता की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए दो साधनाओं का अभ्यास कराया जाता है। ये हैं अमृताशन एवं जड़ी बूटी कल्प। स्थूल शरीर के परिशोधन में इन दोनों उपक्रमों को ही प्रधानता दी जाती है। आसन, प्राणायाम द्वारा शारीरिक, मानसिक व्यायाम तो सभी साधक अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखते ही हैं।
‘‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन’’ वाली उक्ति में एक सुनिश्चित तथ्य जुड़ा हुआ है। तामसिक आहार से मन का तमोगुणी-कुमार्गगामी होना स्वाभाविक है। मन का संयम करना हो तो उसके लिए आहार संयम अनिवार्यतः आवश्यक है। जो जीभ का संयम न कर सकेगा उसका तन चंचल ही बना रहेगा। लक्ष्य पर कभी एकाग्र न होगा। इसलिए साधना में सर्वप्रथम आहार की सात्विकता पर ध्यान दिया जाता है और जीभ पर अंकुश लगा सकने वाले ही शारीरिक, मानसिक ब्रह्मचर्य के परिपालन में समर्थ होते हैं।
शारीरिक रोगों का प्रधान कारण आहार असंयम है। यदि जीभ को वश में रखा जाय तो अभक्ष्य भक्षण के लिए मन न चले। गरिष्ठ आहार अनिश्चित मात्रा में उदरस्थ न हो तो पेट में अपच जन्य सड़न उत्पन्न होने की नौबत ही न आये और उस कारण जो अनेकानेक रोग उगते-बढ़ते रहते हैं उनकी पीड़ा न सहनी पड़े। शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में निरोगता के लिए आहार का सात्विक, सुपाच्य होना आवश्यक है। इस आहार साधना से ही कल्प साधना का शुभारम्भ होता है।
वर्तमान परिस्थितियों में सरल और सस्ते उपवास यह हैं कि अमृताशन पर निर्वाह किया जाय। अमृताशन अर्थात् उबला अन्न। दाल, चावल, दलिया आदि। दालों में मूँग की दाल अधिक उपयुक्त पड़ती है। भाप पर पकाने से आहार के पोषक तत्त्व यथावत बने रहते हैं। अमृताशन में अन्न के साथ-साथ शाक भी पकने डाले जा सकते है। मसालों में नमक, अदरक, जीरा, हल्दी, नीबू भर की छूट है। मिर्च, लौंग, हींग जैसे उत्तेजक गरम मसालों का निषेध है। अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप अमृताशन का निर्धारण किया जाता है। एक बार जो निर्णय हो, सत्र की पूरी अवधि तक उसी को चलाना चाहिए। बार-बार बदलना नहीं चाहिए।
यों पूरी कल्प अवधि में शाकाहार, फलाहार पर भी रहा जा सकता है। दूध, छाछ पर रहने के सम्बन्ध में अधिक सतर्कता बरतनी पड़ती है और हर दिन की बदलती स्थिति के अनुरूप निर्देश लेने पड़ते है। उन झंझटों से बचने के लिए अमृताशन ही सर्वसुलभ समझा गया है। दस दिन और एक महीने वाले सभी साधक प्रायः उसी विद्या को अपनाते हैं।
शान्तिकुञ्ज में कल्प साधना सत्रों के साधकों के लिए भाप से भोजन पकाने हेतु दो बॉयलर लगाये गये हैं। उनके साथ दो बड़े स्टीम चैम्बर हैं। चैम्बरों में अमृताशन पकाने के छोटे-छोटे भगोने रखने के लिए खाने बने हैं। प्रत्येक साधक को स्टैनलैस स्टील की भगोनी, ढक्कन, थाली, गिलास आदि सभी सामान आश्रम की ओर से मिलता है। साधक अपने लिए निर्धारित अमृताशन निर्धारित मात्रा में खाद्यान्न डालकर माता जी के सुपुर्द कर जाते हैं। सभी पात्रों में अभिमन्त्रित गंगाजल, तुलसी पत्र डाला जाता है। उन्हें एक साथ भाप चैम्बर में पकाने रख दिया जाता है। एक घण्टे बाद सभी साधक लाईन में आते हैं और अपने नम्बर का भगोना लेकर वापिस चले जाते हैं। यही क्रम प्रातः-सायं दोनों समय चलता है। मूँग की दाल, गेहूँ का दलिया, चावल, सेंधा नमक, काली मिर्च सभी शुद्ध स्वच्छ करके सस्ते भाव में आश्रम के सहकारी स्टोर में उपलब्ध होती हैं।
आहार उपचार के अतिरिक्त कल्प सत्र में स्थूल शरीर के परिशोधन में जड़ी-बूटी कल्प का उपयोग होता है। वनौषधियों की रोग निवारक और स्वास्थ्य संवर्धक क्षमता से सभी परिचित हैं। आयुर्वेद का विशालकाय विज्ञान इसी पर आधारित है। इससे भी बड़ी और आगे की बात है—दिव्यौषधियों की। दिव्य औषधियाँ वे कहलाती हैं जिनका न केवल अङ्ग अवयवों पर, रस-रक्त आदि धातुओं पर प्रभाव होता है वरन् जो मन, बुद्धि, चित्त-अहंकार के, अन्तःकरण चतुष्टय को भी सुधारने, उभारने में असाधारण रूप में सहायक होती हैं। दिव्य औषधियों में तुलसी, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, शतावरी, अश्वगंधा, आँवला, बिल्व, अमृता, मूसली, विधारा, अड़ूसा, हरीतकी आदि की गणना होती है। इन्हें आरोग्य वर्धक और मेधावर्धक भी माना जाता है। कल्प साधना में दिव्यौषधियों के कल्प की एक विशेष व्यवस्था है। प्रातःकाल एक नियत मात्रा में हर साधक को उसकी स्थिति के अनुरूप एक दिव्यौषधि का कल्क अभिमन्त्रित करके पिलाया जाता हैं। किसे किस दिव्यौषधि का कल्प कराया जाय, यह निर्धारण उस आधार पर होता है जो साधकों के शरीर और मन का गहन पर्यवेक्षण करने के उपरान्त निश्चित होता है।
हर किसी की जिस प्रकार शारीरिक और मानसिक स्थिति भिन्न होती है, उसी प्रकार उसके अवरोधों के उपचार भी भिन्न होते हैं। पुरातन परिपाटी यही रही है कि चिकित्सा की तरह साधना का निर्धारण भी हर व्यक्ति का गंभीर पर्यवेक्षण करने के उपरान्त किया जाय। कल्प साधना सत्रों में मूर्धन्य चिकित्सकों द्वारा हर साधक की शारीरिक-मानसिक स्थिति का गंभीर पर्यवेक्षण किया जाता है। तदनुरूप यह निश्चय होता है कि किसे किस साधना का निर्देश दिया जाय। इसी प्रसंग में अमृताशन में क्या लिया जाय और बूटी कल्प किस औषधि का कितने परिमाण में दिया जाय, यह निर्णय भी उच्च स्तर पर लिया जाता है।
आहार व बूटी कल्प के निर्धारण के बाद सूक्ष्म शरीर की साधनाओं की व्यक्ति की स्थिति के अनुसार निर्धारण की बारी आती है। सूक्ष्म शरीर न केवल कुशलता, चतुरता, बुद्धिमत्ता का केन्द्र है, वरन् श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा का भी उद्गम श्रोत है। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, महाप्रज्ञा इसी क्षेत्र का उत्पादन हैं। अतीन्द्रिय क्षमताओं और ऋद्धि-सिद्धियों के भण्डार भी यहीं भरे पड़े हैं। इस क्षेत्र की जागृति पर मानवी गरिमा प्रतिभा और प्रखरता बहुत कुछ निर्भर रहती है। कल्प साधना में इसी क्षेत्र को जागृत, समुन्नत बनाने के लिए तीन साधनाओं का निर्धारण है। इनके आधार पर ही मन, बुद्धि और चित्त की विशेषताओं का विकास परिष्कार होता है। इस साधनाओं में प्राणायाम एवं मुद्रा की साधना प्रमुख है। उनका विवरण नीचे है—
प्राणायाम साधना—प्राणायामों के अनेकानेक भेद-प्रभेद हैं। उनमें से सूक्ष्म शरीर की साधना में नाड़ी शोधन, प्राणाकर्षण और सूर्यवेधन प्राणायामों को प्रमुखता दी गई हैं। इन तीनों की अपनी-अपनी विशेषता, उपयोगिता, परिणति एवं उपलब्धि है।
प्राणायाम की दो प्रतिक्रियाएँ हैं। एक दिव्य प्राण को बाहर से भीतर ले जाना और जीवनीशक्ति की स्थापना करना। दूसरा संचित मल-विक्षेपों को निकाल बाहर करना। मनःक्षेत्र के परिशोधन एवं परिष्कार में प्राणायाम साधना की उपयोगिता असाधारण मानी गई है तथा मन की स्थिरता का लाभ मिलने की बात वेद शास्त्रों में विस्तार पूर्वक कही गई है।
नाड़ी शोधन को एक प्रकार से आयुर्वेदोक्त पञ्चकर्म के समतुल्य माना जा सकता है। जबकि प्राणाकर्षण प्राणायाम में ब्रह्माण्ड व्यापी प्राण-तत्त्व से, सूर्यवेधन प्राणायाम में प्रकाशपुञ्ज से आर-पार चेतना में सूर्य की ऊर्जा और सविता की प्रेरणा अन्तराल में धारण करना है। उपरोक्त तीनों प्राणायामों की विधि संक्षेप में इस प्रकार है—
(१) नाड़ी शोधन प्राणायाम—ध्यान मुद्रा से बैठें। दाँयी नासिका का छिद्र बन्द कर बायें से साँस खींचें और उसे नाभिचक्र तक ले जायें। ध्यान करें कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के चन्द्र के समान शीतल प्रकाश विद्यमान है। साँस उसे स्पर्श कर स्वयं शीती एवं प्रकाशवान हो रहा है। इसी नथुने से साँस बाहर निकालें व थोड़ी देर साँस रोककर बायीं ओर से ही बाहर करें। इड़ा के इस प्रयोग को तीन बार करें। अब दायें नथुने से इसी प्रकार पूरक, अन्तः कुम्भक, रेचक व बाह्य कुम्भक करें व नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान करें। भावना कीजिए कि नाभि स्थिति सूर्य को छूकर लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी से होते हुए ऊष्मा और प्रकाश उत्पन्न कर रही है। इस क्रिया को भी तीन बार करें। अन्त में नासिका के दोनों छिद्र खोलकर साँस खींचकर व भीतर रोककर मुँह खोलकर एक बार में ही बाहर निकाल दें। प्रारम्भ में नाड़ी शोधन का तीन बार अभ्यास करें, पीछे धीरे-धीरे संख्या बढ़ायी जा सकती है।
(२) प्राणाकर्षण प्राणायाम—दोनों हाथ घुटनों पर, मेरुदण्ड सीधा, आँखें बन्द। ध्यान करें कि अखिल आकाश प्राणतत्त्व से व्याप्त है। सूर्य के प्रकाश में चमकते बादलों की शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। नासिका के दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए यह भावना कीजिए कि प्राण तत्त्व के उफनते हुए बादलों को हम अपने अन्दर खींच रहे हैं। यह प्राण हमारे विभिन्न अंग अवयवों में प्रवेश कर रहा है। जितनी आसानी से रोक सकें साँस को भीतर रोकें भावना करें कि प्राणतत्त्व में सम्मिश्रित चैतन्य बल, तेज, साहस, पराक्रम जैसे घटक हमारे अङ्ग-प्रत्यंगों में स्थिर हो रहे हैं। इसके बाद साँस धीरे-धीरे बाहर निकालें, साथ ही चिन्तन कीजिए कि प्राण का सार तत्त्व हमारे अङ्ग प्रत्यंगों द्वारा पूरी तरह सोख लिया गया। थोड़ी देर तक बिना साँस के रहें व भावना करे कि जो दोष बाहर निकाले गए हैं, वे हमसे बहुत दूर चले जा रहे है व उन्हें अब अन्दर प्रवेश नहीं होने देना है। इस पूरी प्रक्रिया का आरम्भ पाँच प्राणायामों से किया जाय और पीछे क्रमशः बढ़ाते हुए साधना काल में दस तक पहुँचाया जाय।
(३) सूर्य वेधन प्राणायाम—बायें हाथ को मोड़ें, उसकी हथेली पर दायें हाथ की कोहनी रखकर, दाहिने नथुने से अनामिका अंगुलियों से बायें नथुने को बन्द कर गहरी साँस खींचें। साँस इतनी गहरी हो कि पेट फूल जाय, वह फेफड़े तक सीमित न रहे। ध्यान करें कि प्रकाश प्राण से मिलकर दायें नासिका-छिद्र से पिंगला नाड़ी में होकर अपने सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रहा है। साँस रोकें व दोनों नथुने बन्द कर यह ध्यान करें कि नाभिचक्र के प्राण द्वारा एकत्रित यह तेज पुंज यहाँ अवस्थित चिरकाल से प्रसुप्त पड़े सूर्य चक्र को प्रकाशवान कर रहा है। वह निरन्तर प्रकाशवान हो रहा है। अब बाँयें नथुने को खोल दें और ध्यान करें कि सूर्य चक्र को सतत घेरे रहने वाले, धुँधला बनाने वाले कल्मष छोड़ी हुई साँस के साथ इड़ा नाड़ी से बाहर निकल रहा है।
अब दोनों नथुने फिर बन्द कर फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखें व भावना करें कि नाभिचक्र में एकत्रित प्राण पुंज की तरह ऊपर उठ रहा है, सुषुम्ना नाड़ी से प्रस्फुटित हुआ यह प्राण तेज सारे अन्तःप्रदेश को प्रकाशवान बना रहा है। यही प्रक्रिया फिर बायें नथुने से साँस खींचते व रोककर दाँयें से बाहर फेंकते हुए दुहरायें। यह पूरी प्रक्रिया लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम कहलाती है।
मुद्राओं में से तीन ली गयी हैं। शक्तिचालिनी, खेचरी एवं शिथिलीकरण मुद्रा। इनमें से शक्तिचालिनी का संबंध मूलाधार से है। कुण्डलिनी का निवास केन्द्र वही है। इसी मुद्रा द्वारा मूलाधार को जागृत, नियन्त्रित एवं अभीष्ट उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। खेचरी मुद्रा का सम्बन्ध ब्रह्मरन्ध्र सहस्रार कमल से है। पुराणों में इसे क्षीरसागर, कैलाश पर्वत की उपमा दी गई है। मन, बुद्धि, चित्त आदि किसी भी तन्त्र को इस मुद्रा द्वारा किसी भी प्रयोजन के लिए जागृत एवं तत्पर किया जा सकता है।
शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास शरीर, मन व बुद्धि को तनाव से मुक्ति दिलाने हेतु नई चेतना से अनुप्राणित करने के लिए किया जाता है। साधक को शरीर से भिन्न अपनी निज की सत्ता की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है।
(१) शक्तिचालिनी मुद्रा—यह मुद्रा वज्रासन या सुखासन में बैठकर कर सकते है। इसमें मल एवं मूत्र संस्थान को संकुचित करके उन्हें ऊपर की ओर खींचा जाता है। खिंचाव पूरा हो जाने पर उसे धीरे से शिथिल कर देते हैं। प्रारम्भिक स्थिति में दो मिनट व धीरे-धीरे पाँच-पाँच मिनट तक बढ़ाते हुए यही क्रिया बार-बार दुहरायी जाती है। इस क्रिया द्वारा समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर ऐसा सूक्ष्म विद्युतीय प्रभाव पड़ता है जिससे इस शक्ति स्रोत का जागरण व मेरुदण्ड मार्ग से ऊर्ध्वगमन के दोनों उद्देश्य पूरे होते हैं।
(२) खेचरी मुद्रा—मस्तिष्क मज्जा रूपी क्षीर सागर में विराजमान विष्णु सत्ता के सान्निध्य एवं अनुग्रह का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा की साधना की जाती है। ध्यानमुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है। सहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पन्दन किये जाते है। इस उत्तेजना से सहस्रदल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है। बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वाग्र भाग के माध्यम से अन्तःचेतना को अनुभव होता है। यही खेचरी मुद्रा है। तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जीभ के अगले भाग से उसे सहलाना सोमपान, पयपान कहलाता है। इस क्रिया से आध्यात्मिक आनन्द की, उल्लास की अनुभूति होती है।
(३) शिथिलीकरण मुद्रा—कोलाहल मुक्त वातावरण में शवासन में लेटकर पहले शरीर शिथिल
करके स्वयं को निर्देश दिये जाते हैं। शरीर के निचले अंगों से आरम्भ करके शनैः
शनैः यह क्रम ऊपर तक चलाते हैं। हर अंग को एक स्वतन्त्र सत्ता मानकर उसे विश्राम
का स्नेह भरा निर्देश देते हैं। धीरे-धीरे शारीरिक शिथिलीकरण सधने पर क्रमशः मानसिक
शिथिलीकरण एवं दृश्य रूप में शरीर पड़ा रहने, देखने, चेतन सत्ता के सरोवर में ईश्वर
को समर्पित कर देने की भावना की जाती है। उपरोक्त साधनाओं में आहार के माध्यम से
संयम, तप तथा प्राणायाम मुद्राओं के द्वारा संचित प्राण ऊर्जा का नियमन किया जाता
है। सूक्ष्म शरीर के अन्तराल में छिपे दिव्य भाण्डागारों को उभारने, प्रसुप्तों
को जगाने का यह तप पुरुषार्थ कितना लाभकारी है, उसे साधक कल्प विधि में प्रत्यक्ष
देखते और अपने सौभाग्य को सराहते हैं।
***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
112. प्रायश्चित से अन्तराल का परिशोधन परिष्कार
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा संचित दुष्कर्मों से उत्पन्न कुसंस्कारों की होती हैं। उन्हें हटाये बिना गाड़ी आगे बढ़ती ही नहीं। कुकर्मों का दण्ड दुःख-दारिद्रय, शोक संताप के रूप में मिलना निश्चित है। साधना प्रयत्नों को यह संचित असुरता उसी प्रकार अस्त-व्यस्त, नष्ट-भ्रष्ट करती रहती है जैसे कि पूतना, सूर्पणखा, ताड़का, त्रिजटा, सुरसा आदि ने दैवी प्रयत्नों को नष्ट करने में कुछ कमी न रखी थी। इन्हें निरस्त करने की संभावना साधना उपासना द्वारा बनती है, पर दुष्कृत्यों को यह स्वीकार नहीं, अतएव वे कोई न कोई कारण ऐसा बना देते हैं, जिससे विघ्न पड़ते रहे और वह सही रीति से सम्पन्न न हो सके। इस विघ्न को हटाने के लिए साधना काल में आत्मशोधन का, कुसंस्कार परिमार्जन का प्रयत्न करना होता है।
कल्प साधना में अपने आप को अध्यात्म दर्शन एवं ईश्वर सान्निध्य के लिए तत्पर करना होता है। यह एक प्रकार से अपने आप को रंगना है। रंगाई से पूर्व कपड़े को धोया जाता है। बीज बोने से पूर्व जमीन की जुताई होती है। भोजन करने से पूर्व बर्तन माँज लेते हैं। पूजा उपकरणों को भी प्रयोग से पूर्व माँजना पड़ता है। शरीर का स्नान और शुद्ध वस्त्र धारण भी इसी भावना का प्रतीक है कि मलीनता से निवृत्त होकर जप, यज्ञ, पूजन आदि पुण्य प्रयोजनों के लिए कदम बढ़ाया जाय।
पाप को पुण्य से काटा जाता है। लोहे को काटने के लिए लोहा, विष को मारने के लिए विष, काँटा निकालने के लिए काँटे का प्रयोग करना होता है। तपश्चर्या की आग में अपने को इसी हेतु तपाना पड़ता है। मलीनता चाहे किसी भी क्षेत्र की हो माजे, रगड़े, पीटे और तपाए बिना दूर हो नहीं सकती। साधक को भी इस प्रक्रिया से अनिवार्य रूप में गुजरना पड़ता है।
धातुएँ भट्टी में डाल कर शोधी जाती हैं। रसायन बनाने के लिए अग्नि संस्कार की विधि प्रयुक्त होती है। तपाने पर ईंटों से लेकर मृत्तिका पात्रों तक को मजबूत बनाया जाता है। तपश्चर्या से अन्तरात्मा को मल रहित बनाया जाता है। कुण्डलिनी योग में नाड़ी शोधन विधान की अनिवार्यता है। राजयोग में यम नियमों का विधान है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास, एनीमा का प्रयोग होता है। यह परिशोधन आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रायश्चित रूप में सम्पन्न किया जाता है।
वाल्मीकि, अशोक, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल, अम्बपाली आदि ने आत्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते ही प्रायश्चित, परिशोधन सम्पन्न किया था। उनने क्षतिपूर्ति के लिए अपनी संचित सम्पदा पुण्य अर्जन के लिए विसर्जित कर दी। साथ ही शरीर श्रम और मनोयोग द्वारा लोकहित में निरत रहकर पुण्य अर्जित करते रहे। धृतराष्ट्र, गान्धारी बच्चों को सुसंस्कारी न बना सकने पर प्रायश्चित करने के लिए हिमालय में तप साधना के लिए गये थे।
आयुर्वेदीय कायाकल्प उपचार में शरीर में भरे हुए विकारों को सर्वप्रथम पंचकर्म द्वारा निकाल बाहर किया जाता है, इसके बाद ही उपचार प्रारम्भ होता है। वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, स्नेहन यह पंचकर्म कहलाते हैं। इनमें मलशोधन करने के उपरान्त ही प्रयोग की सफलता बन पड़ती है। आध्यात्मिक कल्प साधना के लिए भी प्रकारान्तर से इसी प्रयोग को प्रमुखता देनी पड़ती है।
संचित कुकर्मों का परिशोधन प्रायश्चित प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव होता है। जितनी खाई खोदी है उतनी ही मिट्टी डालकर गड्ढा भरना पड़ता है। यह कार्य पंचगव्य पान, तीर्थ पर्यटन, दान-पुण्य, व्रत उपवास, तप, साधना आदि के द्वारा किया जाता है। इसमें कुछ प्रतीक हैं, कुछ निर्धारण, स्थान, पान, उपवास आदि को प्रतीक कहा गया है। उस आधार पर पश्चाताप एवं आत्म प्रताड़ना द्वारा भविष्य में न करने का संकल्प प्रकट होता है।
इतना हो जाने पर भी वह खाई नहीं पटती, जिसके द्वारा व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाई गई, पतन के गर्त में गिराया गया था अथवा भ्रष्ट परम्परा प्रचलित करने, समाज प्रवाह में विषाक्तता उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया। इसके लिए समाज का हित करने वाले परमार्थ कार्य उतने ही वजन के करने होते ,, जितना कि पाप कर्मों का भार था। यह कार्य क्षमा याचना या छुट-पुट पूजा उपचारों से सम्भव नहीं हो सकता। कार्य अपना फल दिये बिना रहते नहीं। नियति का यही विधान है। पश्चाताप, क्षमा-याचना मात्र भूल स्वीकारने और भविष्य में वैसा न करने जैसी मनःस्थिति का बोधक है। इतने भर से भरपाई नहीं होती। प्रायश्चित्त को इष्टापूर्ति भी, क्षति पूर्ति भी कहते है। उसके पाप का परिमार्जन पुण्य से करना पड़ता है।
दोष-दुर्गुणों के रहते चिरस्थायी प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। इसलिए छेदों को बन्द करना आवश्यक है। बर्तन का पेंदा जब गल जाता है, तो उसे हटाकर उतना ही बड़ा नया पेंदा लगाना पड़ता है। अन्तःकरण को दुष्कृत्यों से जितना गला दिया है उसके स्थान पर पुण्य सम्पदा की, श्रद्धा सद्भावना की उतनी ही साधना जुटानी पड़ती है। मकान के आसपास सौन्दर्य अभीष्ट है तो केवल मात्र सफाई पर्याप्त नहीं। फूल पौधे उगाने और हरीतिमा बढ़ाने से ही यह प्रयोजन पूर्ण नहीं होगा। इस आरोपण को भविष्य में सींचना भी होता है।
प्रसिद्ध है कि महान सन्त माधवाचार्य ने तेरह वर्ष तक वृन्दावन में गायत्री पुरश्चरण किए, पर उन्हें न कोई अनुभूति हुई न सिद्धि मिली। असफलता से खिन्न होकर वे काशी चले गये। एक कापालिक के परामर्श से मणिकर्णिका श्मशान में रहकर तन्त्र साधना करने लगे। एक वर्ष में उन्हें भैरव सिद्ध हुए। उनने वरदान माँगने के लिए तो कहा, पर सामने प्रकट नहीं हुए। माधवाचार्य सामने प्रकट होने का आग्रह करने लगे तो भैरव ने इतना ही कहा कि गायत्री उपासना से उत्पन्न आपके ब्रह्मतेज के सम्मुख मेरा प्रकट होना बन नहीं पा रहा।
माधवाचार्य अपने ब्रह्मतेज की बात सुनकर चकित हुए और कहने लगे यदि ऐसा ही है तो बताये कि मेरी साधना क्यों निष्फल रही। भैरव ने बताया कि पिछले तेरह जन्मों के पाप तेरह वर्षों के अनुष्ठानों से कटे ।। अब आपके पाप समाप्त हो गये। जो भी साधना करेंगे सफल होगी। माधवाचार्य वापिस वृन्दावन लौटे, एक वर्ष और साधना करके सिद्धि प्राप्त कर सके और माधव निदान जैसे महान ग्रन्थ की रचना की।
न केवल आत्मिक प्रगति के लिए वरन् कुकर्म जन्य कुसंस्कारों की भयावह परिस्थितियों से पीछा छुड़ाने के लिए भी प्रायश्चित परिमार्जन आवश्यक है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों का कारण मात्र आहार-विहार का विपर्यय ही नहीं होता। जलवायु का प्रदूषण एवं विषाणुओं के आक्रमण से ही आधि-व्याधियों की उत्पत्ति नहीं होती, वरन् उनका एक बड़ा कारण है, मनःक्षेत्र की गहराई में जमी हुई विष ग्रन्थियाँ। मस्तिष्कीय चेतना ही समूचे शरीर का संचालन करती है। इसी प्रवाह से विष ग्रन्थियों का प्रभाव अंग अवयवों में पहुँचता है और उन्हें रोगी बनाता रहता है। औषधि उपचार से उनमें कोई सुधार नहीं होता क्योंकि मूल कारण तो मनःक्षेत्र में बैठा है। जड़ यथावत जमी रहे तो मात्र पत्ते तोड़ने से क्या बने? विषैले रक्त के कारण उत्पन्न होने वाले फोड़े फुन्सियों का निराकरण मात्र मरहम लगाने के ऊपरी उपचार से कैसे संभव हो? उपाय गहराई में उतर कर करना होता है।
इन दिनों अधिकांश शारीरिक मानसिक रोग अन्तःक्षेत्र में जमी हुई, कुकर्मों से उत्पन्न हुई विष ग्रन्थियाँ ही उत्पन्न करती हैं। डाक्टर और दवाएँ बदलते रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता। इसका उपचार जड़ उखाड़ने से ही बन पड़ता है। यह कार्य प्रायश्चित विधान अपनाने पर ही होता है। मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्रों की विकृतियों और विपत्तियों से भी एक बड़ा कारण अन्तःक्षेत्र में जमे हुए कषाय-कल्मष ही होते हैं। उन्हें उखाड़ देने पर ही कर्मफल या भाग्य विधान का कुचक्र टूटता है। पाप का प्रतिफल दुःख है। उसकी निवृत्ति के लिए पुण्य संचय का उपचार ही काम देता है।
प्रायश्चित के तीन चरण है-
(१) इस जन्म में जो भी कुकृत्य बन पड़े हों उनका विस्तृत विवरण मार्गदर्शक के सम्मुख प्रकट करना। कारण, निदान जानने पर ही कोई चिकित्सक सही उपचार बता पाता है। पाप कितना बड़ा या छोटा था, किन परिस्थितियों में बन पड़ा, कितने समय तक चलता रहा, उसे स्वेच्छा से किया गया या दबाव, प्रलोभन, भय के वातावरण में, यह विवरण बता देने पर दुराव और अन्तर्द्वन्द्व की विष ग्रन्थियाँ खुलती ।।
यह विवरण ऐसे व्यक्ति के सम्मुख प्रकट किया जाय, जो उस कथन का अनुचित प्रयोग न करे वरन् उदार चिकित्सक की तरह मात्र उपचार की ही बात सोचें और निराकरण का वैसा उपाय बताये, जिसे कर सकना साधक के लिए शक्य हो।
(२) पश्चाताप एवं परिष्कार-इसके लिए व्रत, उपवास, पंचगव्य, मुण्डन, जप, अनुष्ठान आदि उपचारों का विधान है। इससे कुकृत्यों पर पश्चाताप और भविष्य में वैसा न करने का संकल्प प्रकट परिपक्व होता है।
(३) कुकृत्यों द्वारा जो पाप बन पड़ा उसके बदले में पुण्य अर्जित करने के लिए इतना परमार्थ करना जो खाई पाट सकने जितने स्तर का हो। जिस व्यक्ति की हानि की है उसका संतोष करना उचित होते हुए भी प्रायः वह सम्भव नहीं होता। इसलिए लोकहित के निमित्त किए गये परमार्थ से ही वह समाधान करना होता है।
श्रम और धन परस्पर सम्बद्ध हैं, दोनों एक ही तथ्य की परिणति है। श्रम सेवा एवं धन दान दोनों को ही परमार्थ का अङ्ग माना गया है। परमार्थ के लिए समयदान, श्रमदान के कितने ही निर्धारण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किये जा सकते ।। प्राचीनकाल में तीर्थ यात्राएँ इसी प्रयोजन के लिए होती थी। धर्म प्रचार की पद यात्रा को तीर्थ यात्रा कहते हैं। इसके लिए विस्तृत क्षेत्र में जन सम्पर्क साधने और लोक मानस को परिष्कृत करने वाले कितने ही कार्यक्रम बन सकते हैं। समीपवर्ती क्षेत्र में भी यह प्रयास किये जा सकते हैं। कार्यक्रमों का निर्धारण भी इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर किया जा सकता है।
शरीर दण्ड के रूप में तीर्थयात्रा, श्रमदान, समयदान, प्रायश्चित प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण भाग रहे ।। नव जागरण के लिए, जन सम्पर्क साधने के लिए, अपने गाँव नगर तथा क्षेत्र में घर-घर जाने के लिए नियमित समय लगाना तीर्थयात्रा की सबसे छोटी एवं सरल साधना है। यह क्रम कोई भी सरलतापूर्वक अपना सकता है। मुख्य उद्देश्य शरीर को कष्ट देना है। सो पद यात्राएँ अधिक उपयुक्त रहीं।
लम्बा प्रवास चक्र बनाकर साथियों सहित साइकिलों पर निकलने, मार्ग में मिलने वालों को युग चेतना से अवगत कराने, दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखते चलने की तथा रात्रि में जहाँ ठहरना हो वहाँ कथा कीर्तन द्वारा अनुप्राणित करना भी तीर्थ यात्रा का बड़ा प्रयोग है। प्रायश्चित स्वरूप इसके लिए संकल्प पूर्वक कुछ समय निकाला जा सकता है। घर से हरिद्वार तक एक रास्ते पहुँचना और दूसरे रास्ते लौटना भी तीर्थ यात्रा का एक प्रयोग है। अपने-अपने क्षेत्रों में भी ऐसी यात्रा, पद यात्राएँ की जा सकती हैं।
अर्थ दण्ड के रूप में दूसरा उपाय है धनदान, अंशदान। जिनके पास संचित सम्पदा है वे इसका एक उपयुक्त भाग उदारता पूर्वक विसर्जित कर सकते हैं। जिनकी स्थिति वैसी नहीं है वे दैनिक आजीविका में से एक निश्चित अंशदान इस निमित्त लम्बे समय तक लगाते रह सकते हैं। आवश्यक नहीं कि जितना पाप कमाया है उतना ही पुण्य किया जाय। आगे के लिए भी तो कुछ इस स्तर की पूँजी जमा करनी चाहिए। भविष्य को उज्ज्वल बनाने में पुण्य परमार्थ के अतिरिक्त और कोई साथी, सहयोगी नहीं हो सकता। पुण्य अर्जित करने के लिए कुछ उदारता दिखानी हो तो उसके पीछे दूरदर्शी विवेकशीलता का भी समावेश रहना चाहिए।
प्राथमिक व्यवस्था के मूल में जो दर्शन है उसे भली-भाँति समझा जाना चाहिए। जो गड्ढा खोदा है उसे भरना चाहिए। जो लिया है उसे वापिस करना चाहिए। धर्म परम्परा को क्षति पहुँचाई गई है, उसकी पूर्ति के लिए उतना ही बड़ा पुण्य परमार्थ करना चाहिए। कामुकता के लिए दूसरों का चरित्र गिर गया है तो उसके बदले अन्यान्यों का चरित्र सुधारने वाला श्रमदान, अंशदान करना चाहिए। चोरी, बेईमानी, कामचोरी आदि से कमाने वाले धन को सत्प्रयोजनों के लिए वापिस कर देना चाहिए। जिसको क्षति पहुँचाई गई है उसे उसी रूप में वापिस करना कठिन है। जिस नारी का शील बिगड़ा उसे फिर से शुद्ध कैसे किया जाय? जिस आदमी की जेब कटी, उसे कहाँ तलाश किया जाय। जो मर गया या दूर है उसे वह राशि किस प्रकार लौटाई जाय। तरीका एक ही है कि पुण्य परम्परा के आधारभूत कारणों के सोचने में अपना श्रम और धन उसी अनुपात से खर्च किया जाय, जितना कि भारी पाप था। इस क्षतिपूर्ति को शास्त्रकारों ने इष्टापूर्ति कहा है। सच्चा प्रायश्चित यहीं है। मात्र पंचगव्य पीने, गंगा नहाने, एकादशी व्रत रखने जैसे छुट-पुट उपचारों से उन भारी भरकम दुष्कर्मों का प्रायश्चित नहीं हो सकता, जो आत्मिक प्रगति के मार्ग में चट्टान की तरह अवरोध बनकर अड़े हुए है और सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने का सुयोग बनने ही नहीं दे रहे हैं।
कहना न होगा कि सर्वोत्तम पुण्य ब्रह्मदान है। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के पुण्य प्रयासों से असंख्यों पुण्य परमार्थ अनायास ही होते हैं। प्रज्ञा अभियान की गतिविधियों का परिपोषण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ अंशदान है। इसके साथ प्रायश्चित भावना जोड़नी चाहिए और भाव भरे भारी भरकम समयदान, अंशदान प्रस्तुत करते हुए सच्चे अर्थों में प्रायश्चित विधि सम्पन्न करनी चाहिए। इससे पाप परिशोधन और प्रगति के पुण्यार्जन का दुहरा लाभ हस्तगत होता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
113. प्रज्ञायोग-सर्वोत्तम किन्तु सर्व सुलभ साधना
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
यह प्रज्ञा युग के अवतरण की बेला है। इन दिनों युग धर्म के अनुरूप आद्यशक्ति महाप्रज्ञा की उपासना आवश्यक है। अवतारों का एक-एक काल होता है। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि के समय पर देवताओं ने उनका अनुगमन किया और प्रयोजन साधा था। इन दिनों आस्था संकट का असुर विनाश के लिए उतारू है। इस भस्मासुर, हिरण्य कश्यप, महिषासुर, वृत्तासुर को निरस्त करने के लिए महाप्रज्ञा का अवतरण इसी महापरिवर्तन के प्रभात पर्व में हो रहा है। इन दिनों देवात्माओं के लिए प्रज्ञायोग की साधना करके अपने आत्मबल और प्रभाव कौशल का अभिवर्धन करना चाहिए।
आद्यशक्ति गायत्री यों सदा-सर्वदा सार्वजनीन उपासना का आधार रही है और उसका ऋषियों-देवताओं से लेकर जन साधारण तक की साधना में समान समावेश रहा है। पर इन दिनों तो उसकी प्रमुखता युगधर्म के अनुरूप भी है, उससे साधक का दृष्टिकोण निखरेगा और गुण, कर्म, स्वभाव में उपयोगी सुधार परिष्कार सम्भव होगा। गायत्री साधना से ओजस्, तेजस् और वर्चस् की अभिवृद्धि एक तथ्य है।
इन समस्त प्रयोजनों के लिये जिस आत्मबल की आवश्यकता है, उसे उपलब्ध करने के लिये साधना का अवलम्बन लेना ही पड़ेगा। कल्प साधना सत्र में सभी के लिए समान रूप में प्रयुक्त होने वाली अनिवार्य साधना में प्रज्ञायोग को प्रमुख रखा गया है। गायत्री साधना का यह सर्वांग सम्पन्न, सर्वतोमुखी प्रयोग है। मात्र जप से ही उसकी पूर्ति नहीं हो जाती। मात्र भोजन ही सब कुछ नहीं होता। उसके साथ जल, साँस, शयन, शौच, स्नान, वस्त्र आदि की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार गायत्री साधना को यदि एकांगी न रखना हो, तो उसे समग्र प्रज्ञा योग के साथ सम्पन्न करना चाहिए।
सर्व साधारण के लिए प्रज्ञायोग में न्यूनतम तीन मालाओं का जप तीनों शरीरों के परिशोधन के लिए नित्य नियम में सम्मिलित रखने का विधान है। कल्प साधना में उसे बढ़ाना पड़ता है। १०८ मालाओं के तीन अनुष्ठान एक महीने में सम्पन्न करने होते हैं। जो नौ दिन की संक्षिप्त साधना करते हैं, उनके लिए १०८ माला का एक अनुष्ठान निर्धारित है। जप करते समय सविता प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान करना होता है और भावना की जाती है कि वह प्रकाश अपने शरीर, मन और अन्तःकरण में देवत्व की मात्रा भर रहा है। दिव्य प्राण की ऊर्जा उभार रहा है। फलतः समग्र व्यक्तित्व को देवोपम ढाँचे में ढलने का अवसर मिल रहा है।
प्रज्ञायोग का समूचा विधान इस प्रकार है।
(क) ज्ञानयोग-प्रातःकाल आँख खुलते ही आत्मबोध का चिन्तन करें। मनुष्य जन्म को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार अनुभव करें। इस अमानत को आत्म कल्याण का स्वार्थ और विश्व कल्याण का परमार्थ साधते हुए लक्ष्यप्राप्ति का अलभ्य अवसर मानें। आज के दिन को एक सम्पूर्ण जीवन मानकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की दिनचर्या बनायें। उसे निभाने की सुव्यवस्थित योजना बनायें। पन्द्रह मिनट इस आत्मबोध साधना में लगाएँ।
रात्रि को सोने से पूर्व शैया पर पड़े-पड़े जीवन के अन्त का स्मरण करें। मृत्यु को अनिवार्य अतिथि मानें। उसके उपरान्त ईश्वर के दरबार में पहुँचने और जीवन सम्पदा के सदुपयोग-दुरुपयोग के सम्बन्ध में लेखा-जोखा माँगे जाने की बात सोचें। बरते हुए प्रमाद की परिणति निकृष्ट योनियों में भटकने, यंत्रणाएँ सहने और पतन-पराभव के गर्त में गिरने की यथार्थता को समझें, लोक के साथ परलोक को भी जोड़ें। वर्तमान ऐसा बनायें, जिससे निर्वाह ही नहीं भविष्य भी सधे। सोते समय इन्हीं भावनाओं को लेकर चिरनिद्रा की तरह दैनिक निद्रा की गोद में चले जाये। आज के दिन की समीक्षा करें। बन पड़े तो दोष दुर्गुणों का पश्चाताप, प्रायश्चित करे और कल के लिए ऐसा विचार करें कि इसे आज की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाना है।
प्रातः आत्मबोध की साधना के साथ पन्द्रह मिनट तक चिन्तन में निमग्न रहें और रात्रि को सोते समय पन्द्रह मिनट मनन में निरत रहें। चिन्तन में परिमार्जन की और मनन में परिष्कार की प्रक्रिया है। दोनों को मिला कर ज्ञानयोग बनता है। चिन्तन में चार संयम पर विचार किया जाता है। चटोरेपन व कामुक चिन्तन की रोकथाम को इन्द्रिय संयम कहते हैं। समय संयम में ऐसी व्यस्त दिनचर्या बनानी पड़ती है, जिससे व्यर्थ या अनर्थ की हरकतें बन पड़ने की कोई गुंजाइश ही न रहे। अर्थ संयम में औसत भारतीय स्तर का निर्वाह, उपार्जन एवं समाज ऋण से मुक्त होने के लिए अनुकरणीय अंशदान का बजट बनाकर चलना पड़ता है। विचार संयम में चिन्तन को निरर्थक असामाजिक, अनैतिक कल्पनाओं से हटाकर मात्र उपयोगी योजना, कल्पना एवं भावना के क्षेत्र में ही सीमाबद्ध रखना पड़ता है। इन चारों संयमों को ही व्यवहारिक तप साधना कहा गया है।
मनन के चार अंग हैं-१. आत्म-चिन्तन २. आत्म-सुधार ३. आत्म-निर्माण ४. आत्म-विकास। इनका स्वरूप इस प्रकार है।
वर्तमान मनःस्थिति की समीक्षा करके उसमें से उचित अनुचित का पर्यवेक्षण वर्गीकरण करना पड़ता है। यह आत्म समीक्षा हुई। आत्म सुधार में यह योजना बनानी पड़ती हैं कि अभ्यस्त अनुपयुक्तताओं से किस प्रकार पीछा छुड़ाया जाय। आत्म निर्माण में उन सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने की योजना बनानी पड़ती है, जो अब तक अपने में उपलब्ध नहीं, किन्तु प्रगति प्रयास के लिए आवश्यक है। आत्म विकास में अपने आपको विश्व नागरिक मानना पड़ता है और वसुधैव कुटुम्बकम् की उदार व्यापकता को व्यवहार में सम्मिलित करना पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित लोभ, मोह के भव बन्धन तोड़ने होते हैं और सबमें अपने को, अपने में सबको समझते हुए सुख और दुःख बाँटने की उमंगें उछालनी पड़ती हैं। संक्षेप में यही व्यवहारिक जीवन का योग साधन है। चिंतन को तप और मनन को योग कहा गया है। इन दोनों को अपनाकर बढ़ते हुए कदम परम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। संक्षेप में इसे प्रज्ञायोग का ब्रह्मविद्या ज्ञान पक्ष कहा जा सकता है।
(ख) कर्मयोग-पूजा उपचार को क्रिया योग कहते हैं। इसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखें। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर शांत चित्त से बैठें। तीन माला गायत्री मन्त्र का जप आवश्यक है। इतना कृत्य प्रायः आधा घण्टे में सम्पन्न हो जाता है।
प्रज्ञायोग के क्रिया परक पाँच प्रमुख अंग हैं-१. आत्मशोधन २. देव पूजन ३. जप ४. ध्यान ५. विसर्जन।
(१) आत्मशोधन-पालथी पर बैठें। पाँच कृत्य करें। १. पवित्रीकरण-शरीर पर जल छिड़कना। २. आचमन-चम्मच से तीन आचमन। ३. शिखा स्पर्श वन्दन। ४. प्राणायाम श्वाँस को धीमी गति से गहरी खींचना, रोकना और बाहर निकालना। ५. न्यास-बायीं हथेली पर जल रखकर दायें हाथ की पाँचों उँगलियों से निर्धारित क्रम के अनुसार शरीर के प्रमुख अंगों से स्पर्श करना।
इन पाँच कृत्यों के साथ पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि की, मलीनता अवांछनीयता की निवृत्ति की भावना जुड़ी रहनी चाहिए। पवित्रता एवं प्रखर व्यक्तित्व ही ईश्वर के दरबार में प्रवेश पाने और अनुग्रह उपलब्ध करने के अधिकारी होते हैं। इसलिए आत्म कल्याण के मार्ग पर चलने वाले को सर्वप्रथम आत्मशोधन करना पड़ता है। इसी तथ्य का स्मरण करने के लिए उपरोक्त पाँच कृत्य करने होते हैं।
(२) देव पूजन-प्रज्ञायुग के अवतरण की इस संधि बेला में महाप्रज्ञा ऋतम्भरा गायत्री को सभी जागृत आत्माएँ अपनी उपासना का आधार केन्द्र मानें। महाप्रज्ञा का प्रतीक गायत्री माता का चित्र है। इसे सुसज्जित पूजा वेदी पर रखें और विश्वव्यापी महाप्रज्ञा का करबद्ध नत मस्तक होकर वन्दन करें।
घनिष्ठता स्थापना के पाँच उपाय उपचार हैं, इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप, नैवेद्य। इन प्रतीक समर्पणों को आराध्य के सम्मुख प्रस्तुत करने को पंचोपचार कहते हैं। एक एक करके एक छोटी तश्तरी में इन पाँचों को पूजा अभ्यर्थना के उद्देश्य से समर्पित करते चले। जल का अर्थ नम्रता सहृदयता। अक्षत का अर्थ है-प्रसन्नता प्रगति, शोभा। धूप-दीप अर्थात् स्वयं जलकर आलोक का वितरण, पुण्य परमार्थ। नैवेद्य अर्थात् स्वभाव, चरित्र एवं व्यवहार में सज्जनता का माधुर्य। पाँच उपचार कृत्यों के द्वारा व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों को जानना आवश्यक है, जो इन पंचोपचार कृत्यों के साथ भाव रूप में अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध हैं।
(३) जप-गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् प्रायः पन्द्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम, जप को एक प्रकार की मल शोधक रगड़ माना जाय, जिस तरह बार-बार घिसने पर वस्तुएँ चिकनी हो जाती हैं। अन्तराल में जीवनक्रम में घुल जाने के लिए ईश्वर को आग्रहपूर्वक आमन्त्रित करना ही जप का प्रयोजन है।
(४) ध्यान-शरीर के अंग अवयव जपकृत्य करते हैं, मन को खाली न छोड़े, परम तत्व में नियोजित रखे रहने के लिए जप के साथ-साथ ध्यान भी करना पड़ता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उसका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है
निराकार ध्यान में प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य की किरणों को शरीर में श्रद्धा, मस्तिष्क में प्रज्ञा काया में निष्ठा के दिव्य अनुदान उतरने की मान्यता परिपक्व की जाती है। जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र रहता है और आत्म सत्ता पर उस कृत्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
(५) सूर्य अर्घ्यदान विसर्जन-पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में चढ़ाया जाय। इसके लिए घर में तुलसी का थाँवला रहे तो और भी उत्तम। जल को आत्मसत्ता का प्रतीक प्रतिनिधि माना जाता है और सूर्य को विराट् ब्रह्म विश्व का। अपनी सत्ता सम्पदा को समष्टि के लिए समर्पित विसर्जित करने का भाव सूर्यार्घ्य में है।
सप्ताह में एक दिन रविवार या गुरुवार एक समय भोजन करें अथवा अस्वाद व्रत निबाहें, ब्रह्मचर्य रखें। दो घण्टे का मौन रखें। प्रातःकाल का समय इसके लिए अधिक उपयुक्त है।
इन दिनों हिमालय के अदृश्य ध्रुवकेन्द्र से जागृत आत्माओं को युगधर्म का निर्वाह कर सकने की विभिन्न विशिष्ट शक्ति धाराओं का प्रवाह अनुदान प्रेरित किया जा रहा है। वह प्रातः सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक और रात्रि को सूर्यास्त से एक घण्टे बाद तक चलता है। हर दिन तो उसे ग्रहण करने का साहस किन्हीं विशिष्टों को ही करना चाहिए और उस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज से परामर्श करना चाहिए। किन्तु सप्ताह में एक समय उसका लाभ लेने की छूट सभी प्रज्ञा परिजनों को है। जिस दिन उपरोक्त तीनों व्रत निबाहें जायें उसी दिन शक्ति प्रवाह का अवधारण भी किया जाय।
नियत समय पर किसी शांत एकान्त स्थान में पूर्व की ओर मुँह करके बैठे। स्थिर शरीर, शान्त चित्त, कमर सीधी, दोनों हाथ एक के ऊपर एक रखकर गोदी में, आँखें बन्द यह ध्यान मुद्रा है।
भावना एवं धारणा करनी चाहिए कि हिमालय के मध्यवर्ती हिमाच्छादित सुमेरु शिखर पर प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य का उदय हुआ। उसकी सुनहरी किरणें फैली। किरणें हिमालय से चलकर साधक तक पहुँची। उसके तीनों शरीर में तीन केन्द्रों द्वारा प्रवेश करने लगी। स्थूल शरीर में नाभि केन्द्र से सूक्ष्म शरीर में भूमध्य भाग आज्ञाचक्र से। कारण शरीर में हृदय केन्द्र से। यह तीनों ही शरीर प्रकाशवान प्राण ऊर्जा से भरते चले गये। रोम-रोम में, कण-कण में, नस-नस में दिव्य प्रकाश का प्रवेश हुआ और समूची काय सत्ता ज्योति पिण्ड प्राण पुञ्ज बन गयी। प्रकाश परमात्मा का प्रतीक। ज्योतिर्मय काय कलेवर आत्मा का घर। दोनों के मध्य सघन एकता, भक्त का समर्पण। भगवान का अनुग्रह। दोनों का आदान-प्रदान। समर्पण विसर्जन, विलय, एकत्व, अद्वैत स्तर का अनुभव। अमृतवर्षा की अनुभूति। रस विभोर, आनन्द से सराबोर मनःस्थिति। उपलब्धि स्थूल शरीर में निष्ठा, सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा। कारण शरीर में श्रद्धा। अनुभूति, तृप्ति, तुष्टि, शान्ति।
यह ध्यान धारणा आरम्भ में पन्द्रह मिनट की जाय। हर सप्ताह एक-एक मिनट बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचाया जाय। समापन के समय तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय का मौन पाठ किया जाय और अन्त में पाँच बार मानसिक ओंकार का गुँजन करते हुए शक्ति संचार की इस साप्ताहिक साधना का समापन किया जाय।
प्रज्ञा योग की इस साधना में जप एवं ध्यान के साथ अग्निहोत्र को अविच्छिन्न रखा गया है। गायत्री तीर्थ में नित्य यज्ञ होता है उसमें साधकों को सम्मिलित रह कर अपनी साधना को समग्र बनाना होता है। जिनकी आर्थिक स्थिति उपयुक्त है वे इसका खर्च अपने पास से दें। जो नहीं दे सकते वे मिशन की ओर से की गई इस व्यवस्था का लाभ उठाएँ।
जप, यज्ञ और ब्रह्मभोज अनुष्ठान के यह तीन अंग है। ब्रह्मभोज के लिए जिस तिस पात्र कुपात्र को खिलाते फिरने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि शान्तिकुञ्ज के भोजन भण्डार में अपनी श्रद्धानुसार कुछ जमा किया जाय। इस राशि से साधकों के लिए भोजन पकाने में आने वाले खर्च की पूर्ति होती है। कितने ही साधक अपना भोजन व्यय वहन नहीं कर पाते, उनकी पूर्ति इस ब्रह्मभोज के लिए दी गई राशि से पूरी होती रहती है। फिर कितने ही तीर्थ यात्री भी इस भोजनालय से प्रसाद आतिथ्य पाते रहते है। इस पुण्य कृत्य में अपनी उदार श्रद्धा नियोजित करने से उस स्तर का पुण्य फल मिलता है, जिसे सच्चे अर्थों में ब्रह्मभोज कहा जा सके। प्रज्ञायोग साधना का समग्र स्वरूप इन सबके समुच्चय से ही बनता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
114. धर्म तन्त्र की अनुपम शक्ति सामर्थ्य
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सन् १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन प्रश्न नव निर्माण का सामने आया। परिवर्तन दो क्षेत्रों में होना था। एक भौतिक परिस्थिति का दूसरा चेतना क्षेत्र में मनःस्थिति का, दोनों का ही समान महत्त्व है, दोनों परस्पर मिलजुल कर समान प्रगति एवं स्थिर सुख शान्ति का उत्तरदायित्व वहन करते रहे हैं। इनमें एक है राजतंत्र जो भौतिक क्षेत्र में सुरक्षा व्यवस्था, सम्पदा, शिक्षा, चिकित्सा जैसी जिम्मेदारियाँ संभालता है। दूसरा है धर्मतंत्र, जिसे लोक मानस में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का अनुपात घटने न देने के लिए कार्यरत रहना पड़ता है। चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, प्रचलन जैसे क्षेत्र उसी को संभालने होते हैं। परिष्कार, परिशोधन दोनों ही क्षेत्रों का करने की आवश्यकता स्पष्ट थी।
राजतंत्र अपना काम अपने ढंग से संभाले, इसके लिए कितनी ही उत्साही और सुयोग्य प्रतिभायें इस क्षेत्र में विद्यमान भी हैं और नये प्रवेश के लिए उत्सुक भी। रिक्तता धर्मतन्त्र के क्षेत्र में रही, उत्तरदायित्व बड़ा और कार्यक्षेत्र छोटा, नेतृत्व घटिया। यह चिन्ता का विषय था। अन्धकार युग की उपज, मूढ़ मान्यताओं से भरे प्रचलन, निहित स्वार्थों का आधिपत्य तो धर्म क्षेत्र को जर्जर कर ही रहा था।
कोढ़ में खाज की तरह विज्ञान द्वारा प्रतिपादित नास्तिकता और प्रत्यक्षवाद द्वारा समर्थित उपयोगितावाद का नया दौर उठा और उसने आदर्शवादी तत्त्वदर्शन की जड़ें हिला दी। जब विज्ञान ने ईश्वर, आत्मा, कर्मफल, परलोक आदि का अस्तित्व ही अस्वीकार कर दिया तो फिर आदर्श कहाँ टिके। जब मत्स्य न्याय के आधार पर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का सिद्धान्त ही प्रत्यक्षवाद ने सही ठहराया तो फिर नीति, धर्म, सदाचार अपनाने का प्रश्न ही कहाँ रहा?
इन परिस्थितियों में धर्मतंत्र को अपने सही उद्देश्य को पूरा कर सकना अत्यधिक कठिन पड़ गया। असमंजस इस बात का है कि यदि नैतिक और सामाजिक आदर्शवादिता न रहे तो फिर मनुष्य की पशु-प्रवृत्तियाँ कैसे रुकें? उसकी सामर्थ्य का सृजन प्रयोजनों में नियोजन कैसे हो? बढ़ती हुई सम्पदा ही सब कुछ नहीं है। राजतंत्र द्वारा समृद्धि कितनी ही क्यों न बढ़ा ली जाय, यदि भ्रष्टता और दुष्टता पर नियंत्रण न हुआ तो उपलब्धियों का दुरुपयोग होगा और समृद्धि का निकृष्टता के साथ संयोग बनाने पर तो दुष्प्रवृत्तियाँ पनपने से उल्टा विनाश विग्रह ही खड़ा होगा।
इन परिस्थितियों में धर्मतंत्र को सही, समर्थ एवं सक्रिय बनने और लोक चेतना में उत्कृष्ट आदर्शवादिता, धर्म, धारणा का स्तर बनाये रखने की जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता अनुभव हुई। यही वह संकल्प और चिन्तन है, जिससे युग निर्माण का, प्रज्ञा अभियान का प्रादुर्भाव हुआ। उसकी रूपरेखा बनी और विधि व्यवस्था कार्यान्वित हुई। सन् १९४७ से लेकर १९८२ तक के ३५ वर्षों में उस संकल्प ने सक्रिय होकर जो कार्य किया, उसे उत्साह वर्धक एवं आश्चर्य जनक ही कहा जा सकता है।
युग निर्माण योजना का कार्य क्षेत्र प्रधानतया देहाती क्षेत्र एवं अशिक्षित समुदाय है। देश की तीन चौथाई जनसंख्या देहात में रहती है और इतनी ही संख्या अशिक्षितों की है। यही है असली भारत। शहरों, नगरों में कितनी ही संस्थाएँ तथा पत्र पत्रिकाएँ जनजागरण का काम करती है। वहाँ वक्ता, उपदेशक, नेता भी मौजूद हैं और रेडियो, टेलीविजन, सभा-सम्मेलन आदि माध्यमों से भी कुछ न कुछ होता रहता है। किन्तु देहाती तथा अशिक्षित समुदाय का बहुत बड़ा भाग ऐसा है, जिसमें जन जागरण के प्रयास प्रयत्न नहीं जितने ही दृष्टिगोचर होते हैं। प्रज्ञा अभियान ने प्रधानतया इसी क्षेत्र में धर्मतंत्र से लोक शिक्षण का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाया है और उसे इस अवधि में प्राण पण से सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है।
प्रस्तुत परिस्थिति में धर्मतंत्र के माध्यम से परिशोधन, परिष्कार का प्रयत्न इसलिए भी आवश्यक हो गया है कि देश की परम्परा, प्रवृत्ति एवं परिस्थिति में, लोक मानस की पूर्व भूमिका में धार्मिकता का ही कुछ न कुछ तारतम्य चला आता है। राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज, विज्ञान, तत्त्वदर्शन आदि की ऊँची पृष्ठभूमि सुशिक्षितों की ही होती है। उस आधार पर प्रगतिशीलता को समझना-समझाना उन लोगों के लिए संभव नहीं जिनका उपरोक्त संदर्भों के साथ सीधा वास्ता नहीं रहा है। अपने देश की बहुसंख्यक जनता को यदि युगधर्म समझाना हो और परिशोधन परिष्कार की प्रगतिशीलता को गतिशील बनाया जाना हो तो फिर धर्मतंत्र की पुरातन पृष्ठभूमि के सहारे इस प्रकार का लोक शिक्षण सरल भी रहता है और सफलता का मार्ग भी सीधा पड़ता है।
अपने देश की समस्याएँ सामाजिक क्षेत्र की है। पिछड़ापन इसी क्षेत्र में घुसी हुई प्रतिगामिता की देन है। आर्थिक तथा दूसरी अनेकानेक समस्याएँ इसी की देन हैं। सर्वविदित है कि कुरीतियों में अपनी कितनी बर्बादी होती है। औसत गृहस्थ की प्रायः एक तिहाई आमदनी विवाह, शादी, मृतक भोज आदि से संबंधित अपव्ययों में गँवानी पड़ती है। फलतः निर्वाह तथा प्रगति की आवश्यकताओं में बेतरह कटौती करनी पड़ती है और तंगी गरीबी बुरी तरह छाई रहती है। यह एक प्रत्यक्ष तथ्य है कि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। मृतक भोज से लेकर अन्यान्य कितने ही रीत-रिवाज ऐसे हैं जो धर्म परम्परा बन गये हैं और उन खर्चों से जन साधारण की कमर टूटती है। शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, निर्वाह आदि सभी आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है। ऐसी दशा में प्रगतिशीलता के लिए बनाये गये निर्धारणों का क्रियान्वयन संभव है?
वर्ग भेद के कारण देश की बहुत बड़ी जनसंख्या अशक्त असमर्थ बन कर रह रही है। जनसंख्या में आधे नर और आधी नारी हैं। नारियों को पर्दा प्रथा के अन्तर्गत घरों में कैद रहना पड़ता है। जिन पर यह बंधन नहीं है वे भी अशिक्षा अनुभवहीनता के कारण परिवार के उत्कर्ष में कोई कहने लायक हाथ बँटा नहीं पाती।
यही बात जाति-पाँति एवं ऊँच-नीच की मान्यताओं से उपेक्षित स्थिति में पड़े हुए लोगों की है। वनवासी समुदाय के करोड़ों लोग एक प्रकार से अलग-थलग पड़ गये हैं। मध्य स्तर के हरिजन तो अब सामान्य प्रवाह में खपते जा रहे हैं, पर अन्त्यजों की स्थिति अभी भी दयनीय है। शहरों की अपेक्षा देहाती क्षेत्र में लिंग भेद एवं जाति भेद के कारण विषमता कहीं अधिक है। पिछड़ी स्थिति में पड़े हुए यह दोनों ही समुदाय आर्थिक, बौद्धिक आदि सभी क्षेत्रों में दुर्बल पड़ते हैं। इस दुर्बलता से सारे देश समाज की प्रगतिशीलता का कार्य अवरुद्ध होता है। यह समस्या विशुद्ध रूप से सामाजिक है। इनका समापन न हुआ तो राजनैतिक, आर्थिक आधार पर किये गये प्रगति के पक्षधर प्रयासों को जन सहयोग के अभाव में सफलता मिल नहीं सकेगी।
मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों की भरमार भी कम नहीं है। साठ लाख समर्थ व्यक्ति धर्म का आवरण ओढ़कर भिक्षा व्यवसाय को आजीविका का साधन बनाये हुए हैं। अपनी महत्ता उपयोगिता बताने के लिए यह समुदाय कुछ ऐसे आडम्बर खड़े करते रहते हैं, जिसमें जनता का धन, समय, श्रम का अपव्यय होता रहे। साठ लाख का ठाट-बाट वाला निर्वाह और साथ ही उनके द्वारा खड़े किये गये आडम्बरों की खर्चीली विडम्बना ये सब मिलकर देश की प्रगति पर बुरा असर डालती हैं। भाग्यवाद, पलायनवाद जैसी प्रतिगामिता भी इसी क्षेत्र की देन है।
इन कठिनाइयों का निराकरण कैसे हो? जो अंध परम्पराएँ पीड़ा, पतन की कुण्डली मारकर बैठी हैं वे मिटें कैसे? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि धर्मतंत्र के सहारे कुप्रचलनों का उन्मूलन किया जाय। साथ ही उस क्षेत्र की प्रमुख विशेषता भाव संवेदना, श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा को पिछड़ेपन से मोड़कर प्रगतिशीलता के साथ सम्बद्ध किया जाय। इस प्रयास से न केवल सामाजिक कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ, अन्धविश्वासों का निराकरण हो सकेगा वरन् प्रस्तुत प्रतिगामिता से होने वाली बरबादियों की संयुक्त शक्ति को सृजन प्रयोजनों में लगा सकना भी संभव हो जायेगा। इससे बचत और नियोजन का दुहरा उद्देश्य पूरा होता है।
उपरोक्त विकृतियों के अतिरिक्त और भी कितने ही ऐसे कार्य हैं, जिनकी रोकथाम होनी चाहिए। नशेबाजी एवं गंदगी दुष्प्रवृत्तियों से अधिक व्यापक है। आलस्य और प्रमाद एक प्रकार से सर्व-साधारण के स्वभाव में सम्मिलित हो रहा है। बाल विवाह, अनमेल विवाह जैसी कुरीतियों की भरमार है। अपराधी प्रवृत्तियाँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। सहकारिता, सज्जनता के तत्त्वों को बहुत अधिक उभारने की आवश्यकता है।
स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में सुधार परिवर्तनों की जिम्मेदारी धर्मतंत्र को उठानी चाहिए। राजतंत्र व्यवस्था ही संभाल सकता है। लोक मानस का आदर्शवादी परिवर्तन कर सकने जितनी गहरी पहुँच उसकी है नहीं। राजतंत्र के कंधों पर धर्मतंत्र का बोझ न लादा जाय और उसे उठाने के लिए उन्हीं को आगे लाया जाय, जो इस संदर्भ में रुचि रखते तथा कुछ करने में समर्थ हैं।
धर्मतंत्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया की विधि व्यवस्था को इसी रूप में समझा जा सकता है। प्रज्ञा अभियान गत ३६ वर्षों से सुनियोजित ढंग से इसी को अपने अनेकानेक क्रिया-कलापों द्वारा संचालित करता रहा है। हर वर्ष उसमें एक नयी कड़ी जुड़ती रही है और गतिविधियों को जन-जन तक, पीड़ित मानवता तक, सुदूर देहातों में बसे मानव समुदाय तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है। कहना न होगा कि धर्म प्रधान इस राष्ट्र के सत्तर प्रतिशत अशिक्षित समुदाय तक पहुँचे बिना भावनात्मक नव निर्माण संभव नहीं। युग निर्माण योजना ने इस आवश्यकता को समझा और बिना किसी प्रचार-प्रोपेगैंडा के अपना कार्यक्षेत्र वही बनाया है।
इस दुर्दशाग्रस्त स्थिति में भी भारत का धर्मतंत्र असाधारण रूप से जनमानस को प्रभावित किये हुए है और उस परिकर में भारी जनशक्ति, विचारशक्ति और धनशक्ति लगी हुई है। साठ लाख व्यक्ति धर्म के नाम पर आजीविका कमाने वालों के रूप में जनसंख्या रजिस्टरों में दर्ज है। प्रायः इतने ही लोग और भी है जो आजीविका तो नहीं कमाते पर अपना बहुत सारा समय धर्म-प्रयोजनों के लिए लगाते हैं। इस प्रकार कुल जनशक्ति एक-डेढ़ करोड़ से ऊपर जा पहुँचती है धनशक्ति को लें तो प्रायः एक लाख मंदिर मठों में खरबों की पूँजी लगी है और हर वर्ष अरबों की राशि पूजा अर्चा के निमित्त खर्च होती है। तीर्थ यात्रा के निमित्त ही हर वर्ष अरबों-खरबों खर्च होता है। छुटपुट कर्मकाण्डों के रूप में व्यय होने वाला धन इसके अतिरिक्त है।
राजतंत्र और धर्मतंत्र की सामर्थ्य को समान तो नहीं कहा जा सकता, पर गंभीरता पूर्वक देखने पर दोनों को ही इस योग्य पाया जाता है कि वे चाहें तो अपने-अपने क्षेत्र में देश को सम्पदा की दृष्टि से आगे और चेतना की दृष्टि से ऊँचा उठाने में अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभा सकने जैसी क्षमता से सम्पन्न हैं। धर्मतंत्र लगता ही दुर्बल, उपेक्षित और विकृत है। सामर्थ्य उसकी भी कम नहीं। जितनी धनशक्ति और जनशक्ति अपने देश में धर्म के निमित्त लगती है, इससे कही कम नियोजन में ही ईसाई मिशन ने सारे संसार में अपनी विचारणा एवं संस्कृति की जड़ें जमा दी। ईसाई धर्म मात्र २००० वर्ष पुराना है। इस अवधि में संसार की दो तिहाई जनता उसमें सम्मिलित हो चुकी। उसके लिए जितनी जनशक्ति और धनशक्ति उनने नियोजित की है, उसकी तुलना में अपने धर्म में प्रायः कई गुना जनशक्ति और धनशक्ति संलग्न हैं। उद्देश्य रहित अपव्यय ही इस बर्बादी का कारण है कि इतना कुछ होते हुए भी हम अपने देश की सामाजिक, नैतिक एवं बौद्धिक स्थिति सुधार सकने तक में समर्थ न हो सके। हिन्दुओं की संख्या घटते-घटते समस्त संसार में प्रायः पैंतीस करोड़ जितनी नगण्य रह गई। वृद्धि का नहीं घटने का ही क्रम चल रहा है।
३५ वर्ष पूर्व यह आवश्यकता अनुभव हुई थी कि अन्धकार युग की विकृतियों का निराकरण और अभीष्ट प्रगति परिष्कार का क्रियान्वयन करने के लिए धर्मतंत्र को नये सिरे से सुधारा, संजोया और सृजन प्रयोजनों में निरत किया जाय। यह उसी प्रयास की परिणति है कि युग निर्माण योजना की उपलब्धियाँ जन-जन के लिए आशा केन्द्र बन कर रह रही हैं। प्रयत्न यह भी किया गया था कि प्रस्तुत धर्म नेताओं, संत-महन्तों को इस प्रयोजन के लिए कुछ बदलने, करने के लिए सहमत किया जाय। पर जब अनेक बार मूर्धन्यों के दरवाजे खटखटाने पर भी राई रत्ती उत्साह न दीखा तो यही एक मात्र मार्ग दीखा कि प्रगतिशील धर्मतंत्र का एक नया आधार खड़ा किया जाय वही हुआ भी है। छोटा सा संकल्प निर्धारण एवं एकाकी प्रयास से किया जाने वाला कार्यान्वयन आज विशालकाय वट वृक्ष की तरह अपने सुदृढ़ अस्तित्व का परिचय दे रहा है।
शासन का उत्तरदायित्व भौतिक क्षेत्र की समृद्धि, सुरक्षा एवं व्यवस्था संभालना है। धर्म मनुष्य की भावना, आकाँक्षा, मान्यता, विचारणा के क्षेत्र को प्रभावित करता है। चिन्तन में उत्कृष्टता और चरित्र में आदर्शवादिता का समुचित समावेश रखना धर्म धारण का कार्यक्षेत्र है। नीति, धर्म, सदाचार, संयम, सद्व्यवहार, पुण्य परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों को अक्षुण्ण एवं प्रखर बनाये रहना धर्म के प्रभाव क्षेत्र में आता है। इनके अभाव में व्यक्ति पतन और पराभव के गर्त में गिरता है। निकृष्टता के मार्ग पर चलता और अपना तथा समीपवर्तियों का सर्वनाश करता है। अस्तु दूरदर्शी सदा से यह कहते और मानते रहे हैं कि मानवी गरिमा का स्तर बनाये रहने के लिए धर्म का अवलम्बन अपनाया जाना चाहिए। उसके निर्धारण और अनुशासन को श्रद्धा पूर्वक अपनाया जाना चाहिए।
आज की कठिनाई यह है कि धर्म का स्वरूप अस्त-व्यस्त हो चला है। उसमें भ्रान्तियाँ, विकृतियाँ, प्रतिगामिताएँ तथा निहित स्वार्थों की आपाधापी का बेतरह समावेश हो गया है। यह भावना क्षेत्र की अराजकता है। इसे सुधारने, संजोने का प्रयत्न न किया गया तो मनुष्य को असीम कठिनाई उठानी पड़ेगी। उठानी पड़ रही है।
आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के वास्तविक स्वरूप को उसके सनातन स्वरूप में जन-जन के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय और उसकी दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की क्षमता का समुचित सदुपयोग किया जाय। धर्म के प्रति जो श्रद्धा जमी चली आ रही है, उसे उन सृजन प्रयोजनों के लिए नियोजित किया जाय। उपयोगिता को श्रद्धा उत्पन्न करती है। धर्म की उपयोगिता और क्षमता सिद्ध करने के लिए प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत उसी भाव शक्ति को लोक शिक्षण में, लोक निर्माण में नियोजित किया जा रहा है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
115. अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की शोध प्रक्रिया
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
पदार्थ जगत की क्षमताओं का स्वरूप और उपयोग समझने की विद्या को विज्ञान कहते हैं, और चेतना को प्रगति एवं प्रसन्नता प्रदान करने वाली विद्या को अध्यात्म कहते हैं। मानवी सत्ता को दोनों क्षेत्रों के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है। प्राण चेतना का सुसन्तुलन अध्यात्म तथ्यों पर अवलम्बित है। काया पदार्थ विनिर्मित होने से उसका काम वस्तुओं के सहारे चलता है। जीवन को सुखी समुन्नत रखने में दोनों की समान रूप से आवश्यकता पड़ती है। अस्तु अध्यात्म और विज्ञान का परस्पर सहयोग समन्वय रहने पर व्यक्ति तथा समाज की सुविधा तथा प्रसन्नता को बनाये रहना तथा बढ़ाते चलना संभव हो सकता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दिनों उपरोक्त दोनों महाशक्तियों का परस्पर सहयोग समन्वय चल नहीं रहा है। एक ने दूसरे पर आक्षेप करने और हेय ठहराने की प्रतिस्पर्धा खड़ी की है। विज्ञान ने ईश्वर, आत्मा और कर्मफल के तत्त्वदर्शन को अमान्य ठहराया है। प्रत्यक्षवाद ने मत्स्य न्याय का पक्ष लिया है और जिसकी लाठी उसकी भैंस का उपयोगितावाद सही ठहराया है। फलतः मनुष्य नास्तिक ही नहीं अनैतिक भी बनता गया है। इन भौतिकवादी प्रतिपादनों ने मानवी चिन्तन को दिग्भ्रान्त करने में बहुत सफलता पाई है। स्वार्थपरता, उच्छृंखलता और आक्रामकता को बल मिला है। व्यक्तिगत चरित्र और समाजगत सद्भावना को इस कारण भारी ठेस लगी है। आर्थिक और बौद्धिक प्रगति में विज्ञान ने बहुत सहायता दी है, किन्तु उसके द्वारा चेतना क्षेत्र में जो विकृति उत्पन्न हुई है उसकी हानि भी कम नहीं है। पतन पराभव का घटाटोप अनेकानेक विभीषिकाएँ उत्पन्न कर रहा है। लगता है महाविनाश के दिन तेजी से निकट आते जा रहे हैं।
अध्यात्म ने विज्ञान के आक्षेपों का प्रामाणिक स्तर पर उत्तर नहीं दिया। खीज़ कर उसे गाली-गलौज देना आरम्भ कर दिया और अपनी स्वप्निल दुनियाँ अलग बसा ली। इससे बुद्धिजीवी वर्ग पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा और उसे पराजित की खीज़, मूढ़ मान्यता का समर्थन तथा निहित स्वार्थों का कुचक्र ठहरा कर भर्त्सना का भाजन बनाया। इस प्रकार अध्यात्म की व्यक्ति को उत्कृष्ट और समाज को समृद्ध बनाने की भौतिक क्षमता को भारी आघात लगा। अध्यात्म और विज्ञान के विग्रह असहयोग से समूची मानवता को भारी क्षति पहुँची है। व्यक्ति का पतन हुआ और समाज का संतुलन बिगड़ा। दर्शन क्षेत्र की इस विसंगति का जनजीवन पर, लोक व्यवस्था पर जो घातक प्रभाव पड़ा है, उसे सूक्ष्मदर्शी जानते हैं। उनकी चिन्ता और बेचैनी स्वाभाविक है।
समय की माँग है कि विज्ञान और अध्यात्म का, पदार्थ और चेतना का ऐसा तालमेल बैठे जिसके सहारे व्यक्ति की गरिमा और समाज की व्यवस्था को उच्चस्तरीय बनाया जाना सम्भव हो सके। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने दोनों महाशक्तियों को एक दूसरे के पूरक बनकर रहने और मिलजुलकर सर्वतोमुखी प्रगति के लिए नये सिरे से काम करने हेतु सहमत करने का प्रयत्न आरम्भ किया है। इसे पौराणिक काल के समुद्र मंथन से उपमा दी जा सकती है। जिसमें विज्ञान के दैत्य और अध्यात्म के देव ने सहयोग पूर्वक पुरुषार्थ किया था और चौदह बहुमूल्य रत्न निकाले थे। समय उस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति चाहता है। ब्रह्मवर्चस ने उसे आरम्भ भी कर दिया है।
काम कठिन है, सरल नहीं। इसके लिए आधुनिक अन्वेषणों के प्रकाश में उन सभी मान्यताओं की पुष्टि की जाती है, जिन्हें अभी तक ऋषि वाक्य कहकर श्रद्धा के साथ स्वीकारा जाता रहा है। उसके लिए ब्रह्मवर्चस ने चिरपुरातन आर्ष ग्रन्थों, दर्शन के प्रतिपादनों एवं आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं से भरे पूरे एक बृहद् ग्रंथागार की कल्पना की एवं उसे साकार रूप दिया है। विज्ञान व अध्यात्म क्षेत्र के विश्वभर की सभी मान्यता प्राप्त पत्रिकाएँ तथा चुने हुए शोध ग्रन्थ यहाँ संग्रहीत हैं। मनीषी गण निरन्तर उस साहित्य का मनन-चिन्तन कर विज्ञान को अध्यात्म परक एवं अध्यात्म को विज्ञान सम्मत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
अध्यात्म तत्त्वदर्शन, भावनात्मक प्रतिपादन, व्यवहार गत आदर्शवाद अनुशासन कपोल कल्पित नहीं वरन् उसके पीछे तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण ही नहीं भौतिक विज्ञान का भरपूर समावेश भी विद्यमान है, यह सिद्ध किये बिना वर्तमान बुद्धिवाद की खोई आस्थाओं को लौटाना इन दिनों संभव नहीं रहा। शास्त्र कथन और आप्तवचन अब उतने मान्य नहीं रहे जितने कभी थे। ऐसी दशा में यदि असमंजस ग्रस्त होकर बैठा रहा जाय, तो इसकी परिणति भयावह होगी। अध्यात्म दर्शन पर से आस्था चली जाने के उपरान्त किसी को नीति, धर्म, कर्तव्य, सदाचार, परमार्थ के लिए व्रतशील नहीं रखा जा सकता। वह मर्यादा गयी तो मनुष्य की चतुरता और समर्थता ऐसे विग्रह खड़े करेगी, जो इस धरती पर अराजकता, उच्छृंखलता, कुटिलता, दुष्टता के अतिरिक्त और कुछ ऐसा शेष नहीं रहने देगी जिसका उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, उदारता, संयमशीलता आदि नामों से परिचय दिया जा सके।
तथ्यों को, विग्रहों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि उत्कृष्टता के ऋषि प्रणीत प्रतिपादनों को तर्क, तथ्य, प्रमाण और विज्ञान की कसौटी पर खरा सिद्ध करके नैतिक अराजकता की आग में झुलसने से समय रहते मानवी गरिमा को बचा लिया जाय। ब्रह्मवर्चस के प्रयोग परीक्षण, अन्वेषण, अनुसंधान इस दिशा में असाधारण प्रयत्न कर रहे हैं। उसकी आधुनिक उपकरणों से सुसम्पन्न प्रयोगशाला है। साथ ही अन्वेषण के लिए बहुमूल्य ग्रन्थों का पुस्तक भंडार। स्नातकोत्तर स्तर के दर्जनों शोधकर्ता निर्धारित लक्ष्य में इस विश्वास के साथ संलग्न हैं कि मानवी गरिमा की पक्षधर उत्कृष्टता को हर कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकना अगले ही दिनों संभव हो जायेगा। इसके लिए अति महत्त्वपूर्ण सूत्र और आधार हस्तगत भी हो रहे हैं, जिन्हें देखते हुए लक्ष्य तक पहुँचने के विश्वास में कोई व्यवधान शेष न रहने की आशा प्रबलतम होती जा रही है।
मानव शरीर और मस्तिष्क ऐसे प्रकृति विनिर्मित यंत्र हैं, जिनमें मनुष्यकृत समस्त उपकरणों की क्षमता विद्यमान है। सूक्ष्म शरीर की इतनी रहस्यमय परतें हैं जिनके साथ तारतम्य बिठाते हुए प्रकृति के समस्त रहस्यों को समझने तथा शक्तियों को उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध करने का सुयोग बैठ सके। यह पर्यवेक्षण जिन साधनाओं के आधार पर किया जा सकता है, उनका सही रूप में प्रयोग पर्यवेक्षण करने का प्रयास ब्रह्मवर्चस की शोध प्रक्रिया के अन्तर्गत चल रहा है। षट्चक्र, पंचकोश, ग्रन्थि समुच्चय, उपत्यिकाएँ, दिव्य नाड़ियों, प्राण प्रवाह, सहस्रार, मूलाधार, सुषुम्ना, कुण्डलिनी केन्द्र आदि कितने अदृश्य भाण्डागार ऐसे हैं, जिनका आभास अनुभव एवं अभ्यास होने पर साधारण मनुष्य असाधारण विभूतियों एवं चमत्कारी अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी बन सकता है। इस संदर्भ में ब्रह्मवर्चस के प्रयोग परीक्षण उत्साहवर्धक स्तर तक आगे बढ़ चले हैं।
शान्तिकुञ्ज में चल रहे कल्प साधना सत्रों में कितने ही साधक आते हैं। उन्हें उनकी स्थिति एवं आवश्यकताओं के अनुरूप साधना कराई जाती है और देखा जाता है कि उस क्रिया का क्या परिणाम निकला। अब तक के प्रयोग में जिन साधकों को सम्मिलित किया गया, उनके द्वारा देखे गये परिणामों के आधार पर यह विश्वास जमा है कि शारीरिक स्वस्थता, बौद्धिक प्रखरता, भाव संवेदना, ओजस् तेजस् वर्चस् की अभिवृद्धि में यह प्रयोग अगले दिनों और भी अधिक सहायक सिद्ध होंगे। विभिन्न प्रकार की निर्बलतायें, रुग्णताएँ कुत्साएँ, कुण्ठाएँ निवृत्त करने, बलिष्ठताएँ, विशेषताएँ, प्रतिभाएँ, विकसित करने में साधनात्मक प्रयोगों का उत्साहवर्धक प्रतिफल उपलब्ध होता है।
देव संस्कृति के दो प्रमुख आधार है। एक गायत्री, दूसरा यज्ञ। गायत्री महाविद्या और शब्द विज्ञान मन्त्र विज्ञान परस्पर गुँथी विधाएँ हैं। मन्त्र विद्या में शब्द शक्ति के आधार पर उद्भूत प्राण ऊर्जा का प्रयोग होता है। परब्रह्म को शब्दब्रह्म एवं नादब्रह्म भी कहा गया है। गायत्री का शब्द गुँथन एवं उपासना विधान इसी पर आधारित है। मन्त्र विद्या से व्यक्ति विशेष की क्षमता का उभार दूसरों पर उसका उपयोगी प्रयोग एवं वातावरण पर उसका प्रभाव किस तरह होता है। गायत्री के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताएँ परीक्षण की कसौटी पर कितनी खरी-खोटी सिद्ध होती हैं, इसकी खोजबीन गम्भीरता पूर्वक की जा रही है और पाया जा रहा है कि इन 24 अक्षरों के गुंथन में से सूक्ष्म शरीर की रहस्यमय परतों को उभारने की विशिष्ट क्षमता विद्यमान है। अगले दिनों इस संदर्भ में अधिक मूल्यवान तथ्य हाथ लगने की सम्भावना है।
अग्निहोत्र के लाभ शास्त्रकारों ने शारीरिक रोगों के निवारण मानसिक विकृतियों के निराकरण के रूप में बताये हैं। शास्त्रीय प्रतिपादनों के आधार पर यह खोजा जा रहा है-क्या अग्निहोत्र का उपयोग आधि व्याधियों का निवारण कर सकने वाली चिकित्सा पद्धति के रूप में हो सकता है? आशा बँध चली है कि अग्निहोत्र चिकित्सा जब अपने समग्र रूप में प्रस्तुत होगी, तो उसका महत्त्व वर्तमान किसी भी चिकित्सा पद्धति से कम न रहेगा। वह बिना किसी प्रकार की हानि पहुँचाये, जीवनी शक्ति और प्रखरता का अभिवर्धन करते हुए शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सुधारने की उपयोगी भूमिका निभा सकेगी।
इस प्रयोजन के लिए एक ऐसा जड़ी-बूटी उद्यान शान्तिकुञ्ज में लगाया गया है, जिसमें यज्ञोपैथी में प्रयुक्त होने वाली औषधियाँ अपने यहाँ ही उगाई जा सकें ।। इनके गुण धर्म नये सिरे से जानने के लिए एक समर्थ वनौषधि विश्लेषण एवं अनुसंधान कक्ष बनाया गया है। चिकित्सा की दृष्टि से जड़ी-बूटी का एकौषधि प्रयोग किस रोग में किस प्रकार कारगर हो सकता है, इसकी अतिरिक्त खोजबीन भी साथ-साथ चल रही है।
यज्ञ के अन्यान्य लाभ भी हैं। अन्तरिक्ष से धरती तक प्राण पर्जन्य की वर्षा होने पर प्राणियों तथा वनस्पतियों की परिपुष्टता बढ़ सकना एक विशेष प्रयोग है। बढ़ते हुए वायु प्रदूषण एवं खाद्य प्रदूषण का निराकरण भी यज्ञ उपचार से संभव है। इसके अतिरिक्त यज्ञ ऊर्जा व्यक्तित्व निखारने में कषाय कल्मषों को दूर करके पवित्रता, प्रखरता बढ़ाने में भी काम आती है। इसकी दार्शनिक शोध भी इन दिनों साथ-साथ चलती रहती है।
अन्तर्ग्रही तरंगें पृथ्वी के वातावरण, प्राण परिकर एवं वनस्पति जगत को, विशेषतया मनुष्य को किस प्रकार किस हद तक प्रभावित करती हैं, इसकी असमंजस भरी मान्यताएँ ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर प्रचलित हैं। उस विधान का वर्तमान गणित क्रम भी संदिग्ध स्थिति में है। प्रभाव परिणामों के संबंध में भी अटकलें ही काम देती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि इतना महत्त्वपूर्ण मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करने वाला विज्ञान इस बुद्धि युग में भी ऐसी अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ा हुआ है। ब्रह्मवर्चस के अन्तर्गत पुरातन स्तर की सारे आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित वेधशाला खड़ी की गयी है। उसके सहारे प्रधानतया सौरमण्डल के ग्रह उपग्रहों की यथार्थ स्थिति को जाना जाता है, ताकि उस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सके कि इस स्थिति का भूलोक के किस समुदाय पर कब, क्यों, क्या प्रभाव पड़ेगा? इस प्रकार के पूर्वाभास मनुष्य की कितनी ही कठिनाइयों के निराकरण एवं सुविधा संवर्धन में काम आ सकते हैं। इस शोध शाखा के अन्तर्गत इसी वर्ष से एक नये खोजे गये नेपच्यून, प्लूटो, यूरेनस ग्रहों का भी अतिरिक्त ग्रह गणित सम्मिलित रहेगा। ज्योतिष भी अनेक प्रयोजनों में अध्यात्म विज्ञान के समन्वय की ही आवश्यकता पूर्ण करता है। इसलिए वर्तमान प्रयोग परीक्षण में उसे भी सम्मिलित रखा गया है। सचेतन अन्तर्ग्रही प्रभावों के सूक्ष्म परिणामों की उच्चस्तरीय जानकारी उपलब्ध करने के लिये आज यंत्रों के साथ नयी मान्यताओं एवं उपकरणों का समन्वित परीक्षण अनिवार्य है। यही विचार कर प्रस्तुत अनुसंधान में ज्योतिर्विज्ञान की शोध को भी स्थान दिया गया है।
इसके अतिरिक्त प्रकृति के अन्यान्य अविज्ञात एवं अनिर्णीत रहस्यों का पता लगाने में शोध की एक सुविस्तृत विषयसूची है। मनुष्य के अन्दर पायी जा सकने वाली अतीन्द्रिय क्षमताओं का आधार, स्वरूप एवं अभिवर्धन उपचार भी इस खोज का एक अंग माना गया है।
इस ब्रह्माण्ड में अदृश्य प्राणियों का भी एक समुदाय विद्यमान है। इन्हें प्रेतात्मा, देवात्मा आदि के नाम से जाना जाता है। इनका अस्तित्व यदि है तो कैसा है? और उनका मनुष्य के साथ आदान-प्रदान चल पड़ने पर किस पक्ष का क्या हित-अहित हो सकता है? यह विषय भी शोध प्रयोजन में सम्मिलित रखा गया है। तथ्यों का पता लगाने में वैज्ञानिक परीक्षण के साथ तर्क, तथ्य और प्रमाणों को भी सम्मिलित रखकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न किया जा रहा है।
अध्यात्म क्षेत्र में पुरातन इतिहास ग्रंथों के संदर्भ तथा प्रामाणिक व्यक्तियों के कथन, अनुभव एवं प्रमाण साक्षियों का अवलम्बन लिया गया है, जबकि विज्ञान की प्रायः पच्चीस प्रमुख शाखाओं को आधार मानकर उन कसौटियों पर प्रतिपादनों को परखने का प्रयत्न चल रहा है। इसके अतिरिक्त और भी विषयों का ध्यान हैं, जिन्हें समयानुसार शोध प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाता रहेगा।
कहा जा चुका है कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही इस विश्व की महान शक्तियाँ हैं। दोनों के समर्थन-सहयोग से सत्य के अधिक समीप तक पहुँचने का अवसर मिलेगा। साथ ही दोनों के समर्थन से जो प्रतिपादन प्रस्तुत होगा, वह जन मानस में स्थान भी सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकेगा। आशा की जानी चाहिए कि यह छोटा सा प्रयोग प्रयत्न अगले दिनों व्यक्ति कल्याण एवं विश्व कल्याण की महती भूमिका सम्पादित कर सकने में समर्थ होगा।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
116. प्रगति का प्रथम सोपान स्वास्थ्य संवर्धन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ मन दोनों का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों के सही रहने पर दुर्बलता और रुग्णता से पीछा छूटता है और मनुष्य कोई कहने लायक पुरुषार्थ कर सकने में समर्थ होता है। इस दृष्टि से जो गई गुजरी स्थिति में रहेगा, वह अपने तथा दूसरों के लिए भार बनकर रहेगा। असमर्थ व्यक्ति दूसरों के सहारे अपनी नाव चलाता है या पिछड़ेपन से ग्रसित रहकर किसी प्रकार दिन काटता है। ऐसों से देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए पुण्य-परमार्थ के लिए कुछ कर सकने की आशा नहीं की जा सकती। आत्मरक्षा, स्वावलम्बन, पराक्रम, प्रगति से लेकर परमार्थ साधनों तक में से एक भी उद्देश्य स्वस्थ शरीर रखे बिना बनता नहीं। दुर्बल और रुग्ण शरीर के विचार भी निषेधात्मक पतनोन्मुख रहते हैं, ऐसा व्यक्ति न केवल स्वयं दुःख पाता है, वरन् दूसरों को भी दुःख देता है। समाज व्यवस्था की दृष्टि से पिछड़ापन एक अभिशाप है, भले ही वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक किसी भी स्तर का क्यों न हो।
लोक हित की दृष्टि से जन साधारण को बलिष्ठ, निरोग बनाने के लिए परमार्थ परायणों को, सृजन शिल्पियों को निरन्तर प्रयत्न करने चाहिए। यह प्रयास समय-समय पर अन्यान्य महामानवों ने भी किए हैं। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में महावीर मन्दिर स्थापित किए थे और उनके साथ शरीरों को बलिष्ठ बनाने वाली व्यायामशालाओं को, मन को प्रखर बनाने वाली कथा परम्पराओं को समान महत्त्व दिया था। यही कारण रहा कि शिवाजी को उस क्षेत्र से सैनिकों, शस्त्रों और साधनों की प्रचुर उपलब्धि हो सकी और स्वतन्त्रता संग्राम का शुभारम्भ सफल सम्भव हो सका।
गुरु गोविन्द सिंह के एक हाथ में माला-दूसरे हाथ में भाला रखने की नीति ने प्रत्येक शिष्य (सिक्ख) को बलिष्ठ और सशस्त्र रहने का प्रावधान बताया था। प्राचीनकाल में भी ‘अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः।’ की परम्परा थी। परशुराम, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि ऋषियों ने इस स्तर की प्रखरता स्वयं कमाई और दूसरों को सिखाई थी। योग साधनाओं में शारीरिक समर्थता के लिए आसन और मन को प्रखर बनाने के लिए प्राणायामों का अष्टांग योग का चतुर्थांश निर्धारित किया है।
रोगी की चिकित्सा एक तात्कालिक आवश्यकता है। इस दृष्टि से चिकित्सा उपचार का अपना महत्त्व है। अस्पतालों चिकित्सकों की इस हेतु आवश्यकता है ही, पर बात इतने भर से कहाँ बनती है। जाना गहराई तक पड़ेगा और निवारण उस मूलभूत कारण का करना पड़ेगा, जिससे लोग दुर्बल होते, रोगी बनते और अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसते हैं। आहार-विहार के असंयम के कारण ही शरीरबल और मनोबल क्षीण होता चला जाता है और अन्ततः चिकित्सा की आवश्यकता पड़ती है। होना यह चाहिए कि चिकित्सा उपचार से भी अधिक स्वास्थ्य सम्वर्धन को महत्त्व दिया जाय और उस क्षेत्र में बरती जाने वाली उपेक्षा एवं अवांछनीयता को दूर किया जाय। इसके बिना न दुर्बलता घटेगी, न रुग्णता मिटेगी।
स्वास्थ्य शालाओं की आवश्यकता पाठशालाओं से किसी भी प्रकार कम नहीं है। बुद्धि को प्रखर बनाने के लिए जिस प्रकार शिक्षा की आवश्यकता समझी जाती है और उसके लिए हर किसी की इच्छा अपने को, अपनों को अधिकाधिक शिक्षावान सुयोग्य बनाने की रहती है। ठीक उतनी ही उपयोगिता स्वास्थ्य शाला में प्रवेश पाने की भी समझी जानी चाहिए। ज्ञानवर्धन से भी पहली आवश्यकता स्वास्थ्य सम्वर्धन की समझी जाय, यह उचित उपयुक्त है।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि पाठशालाओं की ओर जितना ध्यान दिया जाता है, उतना आरोग्य शालाओं की ओर नहीं। कुछ ध्यान दिया भी गया है, तो औषधियों, दवाखानों और चिकित्सकों को बढ़ाने मात्र का प्रयत्न चला है। यह नहीं सोचा गया कि आरोग्य के मूलभूत नियमों का इसी प्रकार व्यतिक्रम चलता रहा, तो उभरने वाली दुर्बलता टॉनिकों के सहारे दूर न की जा सकेगी। उभरती हुई रुग्णता पर इञ्जेक्शनों के बलबूते काबू न पाया जा सकेगा। जड़ सींचनी चाहिए। पत्तों पर छिड़काव करने से क्या बनेगा।
स्थापना आरोग्य मन्दिरों की भी होनी चाहिए। विद्या मन्दिरों और उपासना देवालयों से कम महत्त्व उन्हें भी नहीं मिलना चाहिए। प्राचीन काल में यह प्रबन्ध हर गाँव में था। भले ही पाठशाला न हो पर व्यायामशाला अवश्य होती थी, अखाड़े बने होते थे। उस्तादों की तूती बोलती थी। जो लड़का उसमें नहीं पहुँचता था, बचकाना या मनचला, आलसी-विलासी समझा जाता था। साथी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। यही कारण था कि पहलवानी की प्रतिस्पर्धा ठनी रहती थी। त्यौहारों पर जगह-जगह दंगल नियोजित होते थे। उनमें कुश्ती ही नहीं, क्षेत्रीय परम्परा के अनुरूप अनेकों प्रकार की बल प्रदर्शन प्रतियोगिताएँ भी होती थी। कुश्ती और लाठी, गदा, तलवार आदि चलाने की शिक्षा पर उन दिनों अधिक जोर दिया गया, जिन दिनों कि शासकों की आक्रामकता और लूट-खसोट ने बेतहाशा सिर उठाया था। सामान्यतया लड़ने-लड़ाने को कम, बलिष्ठ बनाने की आवश्यकता को ही अधिक महत्त्व दिया जाता था।
प्राचीन काल में आहार-विहार का संयम सभी बरतते थे। आवश्यकता व्यायाम द्वारा बलिष्ठ बनने की अधिक रहती थी। इसलिए उन दिनों की आरोग्य शालाओं का नाम व्यायामशाला ही रहता था। कार्य पद्धति भी उतने ही उपक्रम तक सीमित रहती थी। आहार, ब्रह्मचर्य आदि का तो व्यायामप्रेमी स्वयं ही ध्यान रखे रहते थे। आज उन प्रयासों को नये सिरे से जमाने एवं बढ़ाने की आवश्यकता है। उनमें पुरातन काल जैसी व्यायाम पद्धतियों की तो प्रमुखता रहे ही, पर बढ़ना एक कदम और आगे पड़ेगा। आहार-विहार के क्षेत्र में जो विकृतियाँ घुस पड़ी हैं, निराकरण उन्मूलन उनका भी करना पड़ेगा। अन्यथा असंयमजन्य खोखले मन के रहते व्यायाम करने की किसी में इच्छा ही न उठेगी, शक्ति ही न बचेगी। थकान और तनाव से जर्जर शरीरों को अपनी लाश ढोना ही भारी पड़ता है फिर व्यायाम की इच्छा और हिम्मत किसके सहारे जगे।
प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत जहाँ अन्तःकरण परिष्कार के लिए उपासना का, व्यक्तित्व के निखार के लिए जीवन साधना का और समाज में स्नेह सहयोग की आराधना परम्परा का प्रचलन किया जा रहा है, वहाँ एक चौथा काम आरोग्य शालाओं की स्थापना का भी किया जाय। जिस प्रकार प्रौढ़ शिक्षा के लिए सर्वत्र रात्रि पाठशालाओं का प्रयत्न किया जा रहा है, उसी प्रकार व्यायामशालाओं की स्थापना पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाय। इसके लिए आवश्यक उत्साह उभारने, साधन जुटाने एवं प्रचलन बढ़ाने में भी कुछ उठा न रखा जाय। उनका नाम पिछली परम्परा के अनुरूप व्यायामशाला ही रखा जाय तो भी हर्ज नहीं। ध्यान इतना ही रहना चाहिए कि व्यायाम की प्रधानता रहने पर भी इन स्थापनाओं का उद्देश्य आहार-विहार का समग्र परिष्कार है। अब एकांगी व्यायाम ही पर्याप्त नहीं, उससे पूर्व सर्व साधारण के स्वभाव में संव्याप्त आरोग्य की जड़ें काटते रहने वाली कुचेष्टाओं के दुष्परिणामों से भी जन-जन को अवगत कराना पड़ेगा। संयम शिक्षा की नींव पर ही पुष्टाई की व्यायाम प्रक्रिया को गतिशील बनाया जा सकेगा।
बढ़ते हुए चटोरेपन ने रसोई घर को एक प्रकार से आरोग्य अनाचार का घर बना दिया है। तलने भूनने, मसाले की भरमार रहने की प्रक्रिया को इन दिनों पाक विद्या का गुण माना जाता है। अनाज, दाल शाक, फल सभी के छिलके उतार फेंके जाते हैं। हल्की आँच पर उबालने भर से तो कहीं काम नहीं चलता। फलतः कोयले स्तर का आहार उदरस्थ करना पड़ता है, स्वादिष्टता के नाम पर अभक्ष्य को आवश्यकता से अधिक मात्रा में ग्रहण किया जाता है। फलतः अपच के साथ-साथ दुर्बलता और रुग्णता की जड़ें गहरी होती जाती हैं। आवश्यकता चौका क्रान्ति की है, जिसमें अंकुरित अन्न छिलकों को न फेंकना, भाप से पकाना, शाकों, ऋतु फलों, सलादों का उपयोग जैसी अनेकों बातें सिखाई और प्रचलन में लाई जानी चाहिए। यदि आहार संबंधी भ्रान्तियों का निवारण हो सके और बहुसंख्यक जनता उपलब्ध आहार को सही रूप में ग्रहण करने का तत्त्वदर्शन हृदयंगम कर ले, तो स्वास्थ्य रक्षा संबंधी आधा प्रयोजन तो पूरा हो ही जाता है। अन्यान्य राष्ट्रों में नागरिकों के स्वास्थ्य के इस पक्ष पर बड़ी गहराई से बालक स्तर से ही ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि उनकी जीवनी शक्ति हमारे राष्ट्र के औसत नागरिक की तुलना में कहीं बेहतर हैं।
कसे हुए भारी कपड़ों की भरमार, सौन्दर्य प्रसाधन, आभूषण जैसे सज्जा उपकरण आरोग्य की दृष्टि से कितने अहितकर हैं, यह पाठ हमें नये सिरे से पढ़ना होगा। गन्दगी सहन करने की कुरुचि को स्वभाव का अंग नहीं ही बने रहने देना चाहिए। गाँवों के गली कूँचों और पड़ोस के खेतों के मलमूत्र, कूड़े कचरे को उस प्रकार सड़ने नहीं देना चाहिए जैसा कि सर्वत्र इन दिनों दृष्टिगोचर होता है। घरों की नालियाँ गलियारे को किस प्रकार गंदा करती है और रोग कीटाणुओं को किस प्रकार बढ़ाती हैं, इस शिक्षण का शुभारम्भ इस प्रकार करना होगा, मानो हम आदिम काल से आगे बढ़कर सभ्यता के युग में प्रवेश कर रहे हो।
बाल विवाह, ब्रह्मचर्य का अभाव, अनावश्यक प्रजनन, पर्दा प्रथा, दिनचर्या का अनिश्चय जैसे कारण भी उतने ही कष्टकारक हैं, जितने कि गरीबी के कारण अन्न वस्त्रों में कमी पड़ना। मकानों की बनावट में धूप, हवा के लिए स्थान का न रहना सीलन और घुटन का कारण बनता है, और स्वास्थ्य की बर्बादी में किसी अन्य विपत्ति से कम नहीं रहता। ऐसी अनेकों बातें हैं जो आरोग्य रक्षा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। विशेषतया पिछड़े समुदायों को, स्त्री बच्चों को उन अवांछनीय प्रचलनों से उबारना ही होगा, जिससे वे स्वास्थ्य को धीरे-धीरे गँवाते और अपने तथा अन्यान्यों के लिए भारभूत बनते चले जा रहे हैं।
उपरोक्त प्रशिक्षण और प्रचलनों के अतिरिक्त आरोग्य शालाओं, व्यायाम शालाओं में दृश्यमान प्रत्यक्ष कार्यक्रम-खेलकूदों, व्यायामों को भी हाथ में लेना चाहिए, उसके सहारे प्रत्यक्ष वातावरण बनता और आँखों को कुछ ऐसा लगता है कि मानों स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए कुछ प्रकट प्रत्यक्ष भी किया जा रहा है। इसके लिए नव स्थापित आरोग्यशाला की त्रिविधि कार्य पद्धति रहनी चाहिए, और उस समग्र उत्तरदायित्व को वहन करना चाहिए।
नाम चाहे आरोग्यशाला रहे या व्यायामशाला, उनका एक कार्य होना चाहिए-स्वास्थ्य संरक्षण की समग्र शिक्षा, जिसमें आहार-विहार के क्षेत्र में घुसी विकृतियों का निराकरण और प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने के प्रचलन के निमित्त प्रशिक्षण चले। इसकी कक्षाएँ लगनी चाहिए। सत्र नियोजित होने चाहिए तथा प्रचार तन्त्र के अन्यान्य साधनों का उपयोग होना चाहिए। पुरस्कार प्रतियोगिताएँ चलनी चाहिए। ऐसा साहित्य भी सर्व साधारण को सुलभ कराया जाना चाहिए।
दूसरा कार्य है व्यायामों व खेल-कूदों का प्रचलन। इन दिनों दण्ड बैठक, कुश्ती उतनी उपयुक्त नहीं पड़ती, जितनी एन.सी.सी. स्तर की कवायदें। उनमें सर्व साधारण के सहन करने योग्य अंग संचालन भी हो जाता है साथ ही सैनिक अनुशासन जैसा अभ्यास भी बनता है। उस दृष्टि से प्रज्ञा अभियान ने कितने ही योगासनों और प्राणायामों का नया निर्धारण किया है। यह सरल होते हुए भी शरीर के प्रत्येक अंग अवयव को बलिष्ठ बनाने की दृष्टि से असाधारण रूप से उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त और भी कितने ही खेलकूद हो सकते हैं, जिनमें प्रतिस्पर्धाजन्य कौशल उभरता है। टीम स्प्रिट पनपती है, साथ ही मनोरंजक श्रम साधन भी बन पड़ता है। स्काउटिंग में भी ऐसी कितनी ही व्यायाम पद्धतियाँ सम्मिलित हैं। कई संस्थाओं के स्वयं सेवक दल अपनी-अपनी व्यायाम पद्धतियाँ विकसित करते हैं, उनमें से जो भी उपयुक्त हो उन्हें अपनाया जा सकता है।
उपरोक्त व्यायामों का नियमित प्रशिक्षण एवं अभ्यास क्रम चलना चाहिए। उनकी प्रतियोगिताएँ नियोजित होनी चाहिए, ताकि प्रतिस्पर्धा के लिए तैयारी चलती रहे। इन दिनों व्यायाम आन्दोलन बड़े लोगों के हाथ में खिसकता जा रहा है। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय खेलों को देखने-बढ़ाने की ओर सबका ध्यान है। यह भुला दिया गया है कि हर गाँव में एक व्यायामशाला होनी चाहिए और उनकी प्रतिस्पर्धाओं के लिए स्थानीय क्षेत्रीय आयोजनों की धूम रहनी चाहिए। देहातों में बिखरे भारत के स्वास्थ्य संरक्षण सम्वर्धन की समस्या का समाधान तभी हो सकता है, जब पाठशालाओं की तरह व्यायामशालाओं की स्थापना पर भी विचारशीलों का ध्यान मुड़े और कुछ कहने लायक कारगर कदम उठें
आरोग्य शालाओं का तीसरा कदम है चिकित्सा उपचार। इसके लिए फर्स्टएड जैसी शिक्षाओं का अधिकाधिक प्रचलन होना चाहिए। रोगी परिचर्या, धात्री विद्या का परिचय प्रत्येक वयस्क नर-नारी को होना चाहिए। प्राकृतिक चिकित्सा का निर्धारण ऐसा है, जिसे अपनाकर मिट्टी पानी आदि के सहारे रोग मुक्त बना जा सकता है। आसपास उगने वाली जड़ी-बूटियों के गुणों का सामान्य ज्ञान हो, तो उनके सहारे भी सामान्य रोगों से छुटकारा पाने के लिए अपना इलाज आप कर लेने जैसा अभ्यास रह सकता है। इसके लिए जड़ी-बूटी खेत और औषधि उद्यान लगाने के लिए नये सिरे से उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है।
उपरोक्त सभी उपक्रमों का प्रारंभिक प्रशिक्षण शान्तिकुञ्ज के कल्प साधना, युगशिल्पी सत्रों में कराया जाता है। यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त परिजन प्रज्ञा संस्थानों में जाकर आरोग्य रक्षा के विभिन्न नियमों की जानकारी अन्य व्यक्तियों को भी क्लास लगाकर देते रह सकते हैं। प्राकृतिक रूप में स्वास्थ्य संवर्धन के ये सभी उपचार ऐसे हानि रहित हैं, जिनका प्रयोग किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। वस्तुतः उनकी महत्ता को समझने का भली-भाँति प्रयास अब तक नहीं हुआ। यदि क्रमबद्ध प्रशिक्षण की व्यवस्था जम सके, तो हमारे यही प्रज्ञा संस्थान अपनी निर्धारित दस सूत्री योजना के प्रथम चरण को पूरा कर नये नागरिक ही नहीं, प्रज्ञा अभियान की गतिविधियों में संलग्न नये युग शिल्पी भी तैयार करते देखे जा सकेंगे। उसी आधार पर राष्ट्र के नव निर्माण की कल्पना भी की जा सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
117. गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले पाठशाला, मल्लशाला चल पड़ें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रज्ञा संस्थानों को नव निर्माण के निमित्त अनेकानेक गतिविधियों को कार्यान्वित करना है। आरम्भ में जन जागरण के लिए जनसम्पर्क की पंच सूत्री योजना का अनिवार्य एवं प्रमुख उत्तरदायित्व सँभालने के लिए कहा गया है, ताकि जन समर्थन और जन सहयोग का लाभ हाथों-हाथ मिल सके। इस पुरुषार्थ के लिए क्षमता चाहिए। नवसृजन में जनशक्ति ही प्रधान है। उसी का उपार्जन करने के लिए पंचसूत्री योजना में विचार परिष्कार की सेवा साधना को प्रत्यक्ष सक्रिय बनाने के लिए यह निर्धारण किया गया है, कि युग चेतना का आलोक सर्वत्र पहुँचाने के लिए घर-घर अलख जगाया जाय और जन-जन से सम्पर्क साधा जाय।
जहाँ उस चरण को पूरा कर लिया गया, वहाँ दूसरा कदम अन्य रचनात्मक कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए उठाना चाहिए। अगले प्रयासों में दो प्रमुख हैं शिक्षा विस्तार और स्वास्थ्य सम्वर्धन। स्वास्थ्य से शरीर और शिक्षा से मन की प्रखरता निखरती है। यदि यह दोनों क्षेत्र गई गुजरी स्थिति में बने रहे तो व्यक्ति दीन-दुर्बल बना रहेगा। उस पर पिछड़ापन ही लदा रहेगा। अशिक्षा और दुर्बलता से छुटकारा पाने के बाद ही सम्पन्नता के स्वप्न देखे जा सकते हैं। हमें क्रमिक प्रगति की व्यावहारिकता अपनानी चाहिए।
अपने देश की जनसंख्या में ७० प्रतिशत अशिक्षित हैं। शिक्षित बनाने की पूरी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती। उसके लिए बच्चों को पढ़ाना ही कठिन पड़ता है। तब शेष ५० प्रतिशत प्रौढ़ निरक्षरों को शिक्षित बनाने के लिए विशालकाय तन्त्र खड़ा करना और उतना बड़ा व्यय भार उठाना उसके लिए असम्भव है। सम्भव होगा तो नये टैक्सों से दरिद्र जनता की रही बची कमर भी टूट जायेगी। यही संव्याप्त दुर्बलता और रुग्णता के सम्बन्ध में भी है। इस अभिशाप से तो ९० प्रतिशत लोग ग्रसित हैं। उनको पौष्टिक भोजन देने, व्यायाम व्यवस्था बनाने तथा अस्पताल खोलने की बात इतनी बड़ी है, कि उसे सम्पन्न करने के लिए सरकार को समूचा बजट इसी एक काम के लिए नियोजित करना होगा। फिर भी यह आशा नहीं कि आन्तरिक सहयोग के बिना और बाहरी सहायता कुछ कारगर हो भी सकेगी या नहीं।
समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रभाव क्षेत्र के हर गाँव में महावीर मन्दिर बनाये थे। हनुमान की तरह बलिष्ठ और साहसी बनने का लक्ष्य जन-जन के मन में निश्चित कराया था। इस हेतु हर महावीर मन्दिर के साथ एक व्यायामशाला भी अविच्छिन्न रखी थी। बच्चों के लिए शिक्षण और वयस्कों के लिए सत्संग की व्यवस्था की थी। महामना मालवीय ने अपने स्वरचित एक श्लोक में भी जन जागृति के केन्द्रों की रूपरेखा बनाई थी। उसमें ग्रामे-ग्रामे पाठशाला, मल्लशाला, प्रतिपर्व महोत्सव, पाठशाला, व्यायामशाला और पर्व-त्यौहारों के आयोजन इन तीन को प्रमुखता दी थी।
समर्थ रामदास और महामना मालवीय का अनुकरण करते हुए प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना हुई तथा योजना बनी है। तदनुरूप उन सभी कार्यक्रमों को क्रियापद्धति में सम्मिलित रखा गया है। पंचसूत्री योजना के अनुसार जन सम्पर्क सधते ही, जन समर्थन और जन सहयोग हस्तगत होते ही उन महत्त्वपूर्ण कामों में हाथ डालना चाहिए जिन पर लोकमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध हो सकें।
प्रौढ़ शिक्षा का, साक्षरता प्रसार का, शिक्षितों को अधिक शिक्षित बनाने का कार्यक्रम ऐसी पाठशालाओं की स्थापना चाहता है, जो कार्यरतों के अवकाश समय में उन्हें पढ़ाने की सुविधा प्रदान कर सके। निश्चित है कि इसके लिए अन्यमनस्कता हटाकर शिक्षा के लिए उत्साह उत्पन्न करना ही बहुत बड़ा मोर्चा है। वर्तमान परिस्थितियों में यह आशा नहीं की जा सकती कि शिक्षार्थी फीस देकर पढ़ेंगे और अध्यापक वेतन पर रखे जायेंगे तथा पाठशालाओं की निजी इमारतें बनेंगी या किराये पर ली जायेंगी। यह समूचा ढाँचा निःशुल्क ही खड़ा करना होगा, अध्यापकों से २ घण्टे समय माँगा जायेगा। जो ऐसी मनोभूमि एवं परिस्थिति में हैं, उतने समय के लिए स्थान भी माँगे ही जायेंगे। धर्मशाला, देवालय, वृक्ष तले जहाँ भी जैसी सुविधा हो यह पाठशालाएँ चलेंगी। जन-जन से सम्पर्क साधकर बाल-वृद्ध, नर-नारी इसके लिए प्रोत्साहित किये जायेंगे, जिससे कि वे पढ़ने का महत्त्व समझें। निरक्षर से साक्षर बनें और साक्षर आगे की पढ़ाई जारी रखें। आवश्यक नहीं कि यह प्रशिक्षण सरकारी पाठ्यक्रम के अनुरूप ही हो। आज की परिस्थितियों में जो सोचना एवं करना है उन सभी दैनिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी एवं प्रवीणता बढ़ाने वाली शिक्षण प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है। विदेशों में ऐसे सामयिक स्कूलों की भरमार रहती है, जिनमें व्यक्ति अपनी रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप अपनी योग्यता वृद्धि कर सकें। ऐसा ही तन्त्र प्रज्ञा संस्थानों को अपनी इमारतों में बिठाना पड़ेगा। लोगों की इच्छा, आवश्यकता तथा मिशन की योजना का सम्मिश्रण करते हुए एक आकर्षक एवं दूरदर्शितापूर्ण पाठ्य विधि का निर्धारण तनिक भी कठिन नहीं हैं। अगले दिनों वही करना भी है। फिर जहाँ सुविधा भी है वहाँ आज से ही उसका शुभारम्भ क्यों न किया जाय।
शिक्षा प्रसार के अतिरिक्त दूसरा कदम है स्वास्थ्य सम्वर्धन। इसके लिए ऐसे स्वास्थ्य केन्द्र बनने चाहिए, जहाँ आहार-विहार सम्बन्धी वर्तमान कुप्रचलनों की हानियाँ तथा उनमें जो सुधार बिना कठिनाई के सम्भव है, उसकी उपयोगी प्रक्रिया समझाई जानी चाहिए। उन केन्द्रों में व्यायामशाला का एक पक्ष निश्चित रूप से जुड़ा रहे। इस प्रयास में न केवल स्वास्थ्य रक्षा वरन् साहसिकता और कौशल की अभिवृद्धि भी सम्मिलित है। लाठी, तलवार और शस्त्रों के चलाने का अभ्यास करने से आत्म विश्वास एवं शौर्य साहस की प्रवृत्तियाँ परिपक्व होती है। भले ही उन्हें चलाने की आवश्यकता कभी भी न पड़े।
कुछ ही दिनों पूर्व गाँव-गाँव अखाड़े थे। खेलकूदों का सभी को शौक था। दंगल और प्रतियोगिताएँ होती थी। तब लोगों का स्वास्थ्य और मनोबल बढ़ा-चढ़ा रहता था। आज वह शौक सिमटता, उठता जा रहा है। टूर्नामेन्ट, एशियाड, ओलम्पिक आदि बड़े लोगों के शुगल भारी खर्चीले होते हुए भी चलते रहते हैं। पर जन जीवन से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। गाँव-गाँव खेलकूदों, व्यायामों, प्रतियोगिताओं के सहारे सर्व साधारण की स्वास्थ्य रक्षा प्रवृत्तियों को बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में दूसरे लोग उपेक्षा बरतते हैं बरतते रहें, पर हमें तो प्रसुप्त और उपेक्षित सत्प्रवृत्तियों को नये सिरे से उभारना है। प्रज्ञा अभियान के व्यायाम आन्दोलन को न केवल शारीरिक श्रम अभ्यास के रूप में, वरन् स्वास्थ्य रक्षा के सभी पक्षों को सम्मिलित रखते हुए आगे बढ़ाना है। शरीर संरचना की जानकारी प्राथमिक चिकित्सा, परिचर्या, आहार-विहार सम्बन्धी सभी आवश्यक जानकारियाँ, खेलकूद, आसन प्राणायाम, शस्त्र संचालन आदि सभी आवश्यक विषयों में सम्मिलित रखकर ही एक समग्र स्वास्थ्य आन्दोलन का स्वरूप बनता है। प्रज्ञा संस्थानों को अपने संरक्षण में इसी ढाँचे को खड़ा करना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य को समान महत्त्व देते हुए इन दोनों ही रचनात्मक कार्यक्रमों को अपने हाथ में लेना चाहिए। जहाँ भी छोटे-बड़े प्रज्ञा संस्थान बने है वहाँ अनिवार्य रूप से और जहाँ वैसा कुछ नहीं बन सका है वहाँ प्रज्ञा परिजनों द्वारा यह प्रक्रिया निजी रूप में कार्यान्वित की जानी चाहिए। कोई सार्वजनिक स्वरूप न बन पड़े तो कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि हर घर परिवार में उपरोक्त दोनों ही रचनात्मक कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया जाय। परिवार भी एक छोटा सा समुदाय है। उस क्षेत्र में इन दोनों प्रयोगों के लिए गुंजायश रहती है। नियमित अध्ययन न बन पड़े तो स्वाध्याय सत्संग की कोई न कोई परिपाटी रात्रि के अवकाश काल में चल सकती है। अतः नित्य कर्म से निवृत्ति होने के समय ही पन्द्रह मिनट से लेकर आधे घण्टे तक का एक कार्यक्रम सरल व्यायाम के रूप में आसन-प्राणायाम का भी रखा जा सकता है। जिन्हें बाहर मैदान में सामूहिक रूप में कुछ करने की सुविधा नहीं है, उनके लिए आँगन या छत पर भी इस प्रयोग में कठिनाई नहीं हो सकती। अड़चन मात्र एक ही है कि जिस प्रक्रिया का पूर्व अभ्यास नहीं है उसे नये सिरे से किस प्रकार आरम्भ किया जाय। इसमें थोड़े से साहस और उत्साह की आवश्यकता आरम्भ में तो पड़ेगी पर जहाँ एक सप्ताह यह ढर्रा चल पड़ा, समझना चाहिए कि वहाँ एक अत्यन्त उपयोगी परम्परा का प्रयत्न आरम्भ हो गया और उसके दूरगामी परिणाम निकट भविष्य में ही दृष्टिगोचर होने लगेंगे।
उपरोक्त दोनों बड़े कामों को बड़े रूप में आरम्भ करने से पूर्व यह अधिक सरल एवं सुविधाजनक रहेगा कि छोटे रूप में उनका श्रीगणेश किया जाय। उसमें अपेक्षाकृत सफलता भी अधिक रहेगी, और सरलता की सम्भावना भी अधिक मात्रा में रहेगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य सम्वर्धन की संयुक्त प्रक्रिया पाँचवीं कक्षा के बालकों से लेकर आठवीं कक्षा तक के बालकों से आरम्भ की जाय। उनके लिए ट्यूटोरियल कक्षाएँ चलाई जाय। सरकारी स्कूलों की पढ़ाई भर से आजकल काम नहीं चलता। ट्यूशन की मोटी राशि देकर मास्टरों को घर बुलाने की मनःस्थिति हर अभिभावक की नहीं होती। ऐसी दशा में बालकों को अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हो सकना कठिन पड़ता है। अपने मन से अकेले पढ़ते रहे ऐसा उनका स्वभाव नहीं होता। फेल हो जाने या डिवीजन बिगड़ जाने पर उनका मनोबल टूट जाता है और कितने ही सदा के लिए पढ़ना छोड़ देते हैं। थर्ड डिवीजन पास होने पर भविष्य नहीं बनता। इन कठिनाइयों का समाधान यह है कि प्रज्ञा संस्थानों द्वारा बाल संस्कार पाठशालाएँ उनके स्कूली समय को छोड़कर चलाई जाय। फीस कुछ भी न ली जाय। इस पाठशाला में अनेकों छात्र आग्रहपूर्वक सम्मिलित होंगे। आम पाठक भी खुशी-खुशी उन्हें भेजेंगे। इस दृष्टि से भी कि स्कूली समय से अवकाश मिलने पर दंगा मचाते, आवारागर्दी में घूमते और कुसंग में पड़कर भविष्य बिगाड़ते हैं। इस झंझट से बचने के लिए भी हित इसी में है कि बच्चे इन बाल संस्कार के निमित्त बनाई गई प्रज्ञा पाठशालाओं में पढ़ने जाया करें। इसमें अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने और संस्कार प्राप्त करने का दुहरा लाभ है।
जिस प्रकार अन्य कामों के लिए विचारशील उदार चेताओं से समय माँगा जाता है, उसी प्रकार पाठशालाओं में पढ़ने के लिए बिना मूल्य पुरुषार्थियों से समय देते रहने के लिए आग्रह किया जा सकता है, जिनका ऐसे कार्यों में उत्साह है। आवश्यक नहीं कि सेवा निवृत्त ही यह उत्साह दिखायें। व्यवसाय नौकरी आदि रहते हुए भी इस हेतु समय दे सकने वाले और पाठशाला के समय पर पढ़ाने के लिए पहुँचते रहने वाले लोग तलाश करने पर अवश्य ही मिल सकते हैं। एक बार समूचे गाँव के हर घर में टोली बनाकर पहुँचा जाय और उपरोक्त कक्षाओं के बारे में बच्चों के अभिभावकों को उसके लाभों से अवगत कराया जाय, तो पहले दिन के प्रयास में ही शिक्षार्थियों की भर्ती उत्साहवर्धक संख्या में हो सकती है।
स्थान की दृष्टि से प्रज्ञा संस्थानों का हाल बरामदा या आँगन इस प्रयोजन के लिए सर्वोत्तम है। इससे उपयोगी सेवा साधना में संलग्न होने से संस्थानों की गरिमा बढ़ती है और जन-जन की सहानुभूति अर्जित होती है। बच्चों से प्रयास आरम्भ करना इसलिए सरल है कि उसकी व्यवस्था बनाने में कहीं भी कठिनाई नहीं हो सकती। जबकि प्रौढ़ नर नारियों को पढ़ना आरम्भ करने के लिए सहमत करना कठिन है। वे इसमें अपनी हेठी समझते हैं और संकोचवश आनाकानी करते हैं। बच्चों को समझाने पर उनमें से कितने ही समझ भी जाते हैं। पर वह कार्य हमें आगे कभी के लिए छोड़ देना चाहिए। श्रीगणेश बालकों की पाठशाला से करना चाहिए।
इस प्रयोजन के लिए ५ वीं, ६ वीं, ७ वीं ,, ८ वीं कक्षाओं के लिए एक प्रश्नोत्तरी बनायी जाएगी, जिसमें हर कक्षा के बच्चों के दैनिक जीवन में आने वाले प्रसंगों में अध्यात्म दर्शन का समावेश करने वाले समाधान प्रस्तुत किये जायेंगे। यह चार प्रश्नोत्तरी ही उपरोक्त कक्षाओं की विशिष्ट पाठ्य पुस्तक होगी। इसके अतिरिक्त सारा पाठ्यक्रम सरकारी रहेगा। जो स्कूलों में पढ़ाया जाना है, उसी को परिपक्व कराया जायेगा ताकि ट्यूशन पढ़ाने की आवश्यकता न रहे। साथ ही परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सम्भावना सुनिश्चित रहे।
व्यायाम आन्दोलन भी अगले दिनों किशोरों, युवकों एवं प्रौढ़ों को सम्मिलित करते हुए चलाया जाना है, पर अभी इतना हो सकता है कि उपरोक्त चार कक्षाओं के जो बालक प्रज्ञा संस्थान की पाठशाला में पड़ने आया करें उन्हीं को आधा घण्टे का खेलकूद, स्काउटिंग, ड्रिल, फर्स्ट एड परिचर्या, आसन-प्राणायाम आदि का भी कार्यक्रम जुड़ा रखा जाय। इस प्रयोजन के लिए यह प्रक्रिया एक सुगम व्यायाम के रूप में प्रचलित की जा रही है। उसमें शरीर के प्रायः सभी अंग अवयवों का व्यायाम हो जाता है। साथ ही श्वास-प्रश्वास क्रिया से सम्बन्धित प्रयासों का भी ऐसा प्रभाव रहता है, जो मनोबल एवं बुद्धि वैभव बढ़ाने में उपयुक्त योगदान दे सकें। यह आसन व्यायाम क्रम ऐसा है जिसे न केवल पाठशाला में, वरन् घर में बालकों, महिलाओं तथा वृद्धों को भी सिखाया कराया जा सकता है। जो पाठशाला नहीं जा सकते उनके लिए भी यह आधा घण्टे की व्यायाम कक्षाएँ ऐसी हैं जो मुहल्ले-मुहल्ले सत्र व्यवस्था के अनुरूप लगाई जा सकती हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
119. ‘‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’’ उद्घोष ही न रहे, व्यवहार में उतरे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
चासनी देखते ही टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पंख फँसाती और जान गँवाती है। यही दुर्गति आटे की गोली की आतुर मछली की तथा दानों का लोभ संवरण न कर सकने वाली जाल में जा फँसने वाली चिड़िया की होती है। बीन पर मुग्ध हिरण, मोर और साँप पकड़े जाते हैं। तत्काल का लाभ ही जिनके लिए सब कुछ है, वे विलास, वैभव और प्रदर्शन की उद्विग्नता को सीधे रास्ते पूरी होते न देखकर आमतौर से अनीति का रास्ता अपनाते हैं। कुछ ही क्षण उस उपार्जन का स्वाद चखकर आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना और दैवी दण्ड विधान के भागी बनते हैं। यही है इन दिनों का प्रचलन जिस पर अन्धी भेड़ों की तरह एक के पीछे दूसरा चलता और पतन पराभव के गर्त में गिरता जा रहा हैं।
चिर स्थाई सुख शान्ति की, उज्ज्वल भविष्य की, जीवन की सार्थकता की उपयोगिता समझी जा सके, तो स्वतन्त्र चिन्तन अपनाना पड़ेगा। प्रवाह में बहने वाले तिनके की तरह नहीं, लक्ष्य पर टूटने वाले बाण का अनुकरण करना पड़ेगा। प्रज्ञा युग के कर्णधारों में सम्मिलित होकर महामानवों जैसी भूमिका निभाने का यदि साहस उभरे, तो कुछ समय रुककर यह सोचना चाहिए कि प्रस्तुत विचारणा और गतिविधियों में कुछ हेर-फेर करना है क्या? इस प्रश्न पर जितनी गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण किया जाय, उतना ही यह स्पष्ट होता जायेगा। भूल-भुलैयों के भटकाव में अपनी गतिविधियाँ बेतरह उलझ गयी हैं। नये सिरे से सोचने, नया उपक्रम अपनाने और नया रास्ता खोजने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जन प्रवाह इन दिनों अवांछनीयता अपनाकर महाविनाश के गर्त में गिरता जा रहा है। उसमें तत्काल लाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाले उन्माद ही बेतरह छाये हुए हैं। इसके साथ बहने में छाया के पीछे दौड़ने की तरह थकान, दुर्गति और निराशा के अतिरिक्त और कुछ पल्ले बँधने वाला नहीं है।
विवेकवानों की विचारणा महामानवों जैसी होनी चाहिए। उनमें से प्रत्येक ने लोक प्रवाह में बहने से इन्कार किया है और अपना रास्ता आप चुना है। इसमें उन्हें प्रवाह को चीरकर उलटा चल सकने वाली मछली का उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा। यह नहीं देखा कि जब हाथी तक बहते जा रहे हैं, तो इसी धारा में हम क्यों न बहने लगें। भागीरथ, हरिश्चन्द्र, ध्रुव, प्रह्लाद, बुद्ध, शंकर, समर्थ, विवेकानन्द, गाँधी, कबीर, सूर, तुलसी, पार्वती, मीरा आदि ने हर क्षेत्र के महामानवों ने अपना रास्ता स्वयं चुना और कुटुम्बी, सम्बन्धी एवं मित्र पड़ोसियों के परामर्श से सर्वथा प्रतिकूल निर्णय किया। यदि वे स्वतन्त्र चिन्तन में समर्थ न हों, प्रवाह से प्रतिकूल चलने का साहस न सँजोये तो निश्चय ही जिन महामानवों की गरिमा से इतिहास धन्य हो रहा हैं, उनमें से एक का भी कहीं कोई जिक्र न हो सके। वे भी अन्यान्यों की तरह पेट प्रजनन के कोल्हू में चलते ठेलते-पिलते मौत के मुँह में अगणित अभागों की तरह घुस गये होते।
नीर क्षीर विवेक की, मोती चुनने, कीड़े न खाने की हंस वृत्ति अपनाकर ही महानता के पथ पर अग्रसर हो सकना सम्भव होता है। कौए जैसी चतुरता अपनाने वाले अभक्ष्य भक्षण से अपने अग्रिम होने का ढिंढोरा भले ही पीटते रहें, उन्हें घृणा तिरस्कार के अतिरिक्त और कुछ मिलता नहीं है। जागृत आत्माओं को प्रसुप्तों और अर्ध मृतकों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनी जिम्मेदारी और दूसरों की सुरक्षा का भार वहन करना चाहिए। सदा-सदा से समाज में ऐसे ही व्यक्ति अग्रगामी की भूमिका निभाते चले आए हैं, जिन्होंने समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को प्रमुख माना एवं स्वयं के स्वार्थों की उपेक्षा की। उन्हें ही जागृत अग्रदूत कहा जा सकता है। महाकाल ने सदा-सदा से ही ऐसे व्यक्तियों का आह्वान किया व परिवर्तन हेतु उन्हें अपना सहभागी बनाया है।
प्रज्ञा युग के मनुष्य में देवत्व का उदय होना है। इतना बन पड़ते ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण अविलम्ब दीखने लगेगा। मनुष्य का चिन्तन चरित्र ही भली बुरी परिस्थितियों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। स्तर में परिवर्तन आते ही वातावरण के उलट जाने में देर नहीं लगने वाली है। एक शब्द में यही है युग परिवर्तन का स्वरूप और कार्यक्रम। इसे प्रमुख उद्घोष के रूप में सर्व साधारण पर प्रकट भी कर दिया गया है। हम बदलेंगे-युग बदलेगा ही नवयुग के अवतरण का बीज मन्त्र है। प्रवाह के साथ बहने से इन्कार करना और अपनी रीति-नीति, दिशाधारा का दूरदर्शिता के आधार पर निर्णय करना यही है वह कार्य जो अग्रगामियों को करना पड़ेगा। प्रवाह बदलने का अर्थ ही युग परिवर्तन है। भ्रान्तियों और विकृतियों से ग्रसितों की भीड़ ने ही ये प्रस्तुत प्रचलन खड़े कर दिये हैं। इन्हें कोसते रहने से काम नहीं चलेगा। जागृतों को मिलकर नया शुभारम्भ करना चाहिए। कुछ समय बाद यह भी एक परम्परा बन जायेगी। जन समुदाय में प्रचलन का अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख होती है। भीड़ में स्वतन्त्र चिन्तन और विवेक पूर्ण निर्धारण की क्षमता कहाँ? यहाँ तो अन्धों के पीछे अन्धों के चलते रहने की परम्परा है। भ्रष्टाचार इसी आधार पर पनपा है। दुष्प्रवृत्तियों को भी नशा पीने की तरह एक ने दूसरे से सीखा है। जहाँ वैसा माहौल नहीं वहाँ नशेबाजी का कोई नाम भी नहीं लेता। सत्प्रवृत्तियों के वातावरण में टेढ़े भी सीधे होते चले जाते हैं।
युग परिवर्तन का बीज मन्त्र ‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’ अपने निजी जीवन क्रम में सम्मिलित करना चाहिए। कहते सुनते रहने से काम चला होता तो धर्मोपदेशकों और भक्तजनों की कथा सत्संग की विडम्बना ने चलते चलाते मोर्चा मार लिया होता और इन दिनों धर्म युग का मध्याह्न काल होता। बात तो कुछ करने से बनती है। हमें बदलना चाहिए ताकि दूसरों को अपने साँचे में ढाल सकने की व्यवस्था बन सके। किसी को आगे तो चलना ही पड़ेगा। इन्जन ठण्डा हो तो डिब्बे किस बलबूते पटरी पर दौड़ेंगे। प्रज्ञा युग की आद्योपान्त विधि व्यवस्था यही है कि जागृत अपना परिवर्तित स्वरूप प्रस्तुत करें, ताकि प्रेरणाप्रद वातावरण बने और उसका अनुगमन करने का असंख्यों को साहस मिले।
सर्व प्रथम क्या बदला जाय? इसका एक ही उत्तर है-चिन्तन, अभ्यास एवं निर्धारण। किस में नफा, किस में नुकसान? यह प्रश्न सर्वप्रथम हल होना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली जो रीति-नीति जन समुदाय ने बनाई है, उसे सर्वथा अस्वीकार कर दिया जाय। लोगों का अनुकरण करने से साहस पूर्वक इन्कार कर दिया जाय। आत्मा और परमात्मा का परामर्श पर्याप्त माना जाय और सदुद्देश्य की राह पर एकाकी साहस पुरुषार्थ सँजोकर महानता की दिशा में अपने पैरों आप चल पड़ा जाय। यहाँ सर्वप्रथम संघर्ष अपनी मान्यताओं तथा आदतों से करना पड़ता है। इसके उपरान्त वे लोग आड़े आते हैं, जिन्हें स्वजन सम्बन्धियों के नाम से जाना जाता है। परन्तु समुदाय कितना ही हितैषी कितना ही निकटवर्ती क्यों न हो, आदर्शों की महानता से सर्वथा अपरिचित होता है। जिनने जन्म से लेकर अद्यावधि मात्र स्वार्थ और विलास ही देखा सुना है। उनसे आदर्शवादी समर्थनों की आशा नहीं की जा सकती। भले ही अपनी आदतें हों, भले ही स्वजनों की मण्डली, सभी का आग्रह एक होगा-औरों की तरह ढर्रे पर चलते रहने में ही लाभ है।
महानता का मार्ग अपनाने के पक्ष में यदि निर्णय हो सके तो फिर परिवर्तन का प्रथम चरण यह होना चाहिए कि अपने चिन्तन ही नहीं चरित्र एवं व्यवहार में भी उस आदर्शवादिता को प्रतिष्ठित होने देना चाहिए। इसके बिना अपने पास कल्पना की उड़ानों के अतिरिक्त ऐसा कुछ बचा ही नहीं रहेगा, जिसे महानता के व्यवसाय में आरम्भिक पूँजी की तरह लगाया जा सके। प्रज्ञावतार के प्रत्येक सहचर को कुछ न कुछ अनुदान प्रस्तुत करने होंगे। जीभ से होने वाली बक-झक से कहाँ काम चलने वाला है? अनुदान के लिए मनुष्य के पास दो ही सम्पदायें हैं एक समय-श्रम, दूसरा साधन वैभव। यह दोनों ही आमतौर से पेट प्रजनन के निर्वाह और परिवार के लिए पूरी तरह नियोजित रहते हैं। बचता कुछ भी नहीं। वरन् खाई पाटने के लिए कुकृत्यों में निरत रहने से भी काम नहीं चलता। लोभ और मोह से न पूर्ति होती है न तृप्ति। प्रथम परिवर्तन इसी क्षेत्र में होना चाहिए। इसमें कटौती किये बिना किसी के पास ऐसा कुछ बच नहीं सकता जिसे ईमानदारी के साथ भगवान के आदर्शों के सम्मुख सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
भव बन्धन दो ही हैं-लोभ और मोह। इन्हें काटना हो तो सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनानी होगी, औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार करना होगा। लोकसेवी का अर्थ सन्तुलन इसी नियमन के आधार पर बैठता है। मोह का परिष्कार इस प्रकार बनता है कि वंश परम्परा को बढ़ने न दिया जाय। उसे स्वावलम्बी सुसंस्कारी भर बनाने का उत्तरदायित्व किसी ईमानदार माली की तरह निभाने भर में पर्याप्त सन्तोष अनुभव किया जाय। न तो सन्तानोत्पादन द्वारा अतिरिक्त भार लादा जाय और न उनकी प्रसन्नता खरीदने के लिए विलास जुटाने एवं उत्तराधिकार में वैभव छोड़ मरने की बात सोची जाय। इतनी कटौती करने के बाद ही किसी के लिए यह सम्भव हो सकता है कि युग देवता की झोली में अपनी कुछ कहने लायक श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर सकें।
परमार्थ के धर्मक्षेत्र और उत्तरदायित्व के कुरुक्षेत्र में प्रत्येक अर्जुन को महाभारत में लड़ने के लिए भगवान उभारते, धिक्कारते हैं। यह धर्म युद्ध अन्तःक्षेत्र में लड़ना ही होता है। लोभ और मोह ही है वे रावण, कुम्भकरण, कंस, दुर्योधन, वृत्तासुर, भस्मासुर, हिरण्याक्ष, मधुकैटभ जिनसे जूझने के लिए छोटे रीछ वानरों से लेकर बड़े हनुमान अर्जुनों तक को अपनी-अपनी स्थिति में रहते हुए समान रूप से पराक्रम करना होता है। इतना न बन पड़े तो किसी धन कुबेर के लिए भी युगधर्म जैसे महान कार्य के लिए एक पाई खर्च कर सकना कठिन पड़ेगा। कोई इन्द्र जितने परिकर वाला व्यक्ति भी एक मिनट लगा न सकेगा।
प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को युग देवता के चरणों में नव सृजन के लिए भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करनी है। इसके लिए समय और अंशदान जितना अधिक सम्भव हो सके, उतना बड़ा उदार साहस जुटाना है। इस हेतु हर कोई कुछ न कुछ कर सकता है। शबरी और गिलहरी से अधिक अभावग्रस्त कोई नहीं हो सकता, उनके छोटे अनुदान भी अविस्मरणीय अभिनन्दनीय बनकर रहे हैं। प्रशंसा विस्तार, वजन की नहीं, अनुपात की है। अपने समय और धन में से कौन किस अनुपात में प्रस्तुतीकरण कर सका, भगवान के यहाँ लेखा-जोखा इसी आधार पर रखा जाता है। वहाँ घरों और रुपयों में किसी के अनुदान की संख्या नहीं गिनी जाती।
रोज कुँआ खोदने, रोज पानी पीने वाले भी आठ घण्टे कमाने के लिए, सात घण्टे सोने के लिए, पाँच घण्टे नित्य कर्म तथा इधर-उधर के कामों के लिए लगा देने के उपरान्त भी चार घण्टे हर किसी के पास परामर्श के लिए बचा सकते हैं। महीने में एक दिन की आजीविका बिना कोई कठिनाई उठाये हर किसी के लिए निकाल सकना सम्भव है।
प्रज्ञायुग के मूर्धन्य अग्रगामियों को बदलने का प्रमाण यही से देना चाहिए कि लोभ मोह पर अंकुश लगायें। निर्वाह और परिवार के लिए लगने वाले समय और धन में कटौती करें और उस बचत को आज के सर्वोपरि पुण्य परमार्थ के लिए प्रस्तुत करें। अनुकरण की परम्परा नहीं चलनी चाहिए। विलासिता में हानि और महानता में लाभ समझने की बात हाँ हाँ करने से कहाँ बनती है? उसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण इसी रूप में प्रस्तुत करना होगा कि लोभ मोह पर किस सीमा तक अंकुश लगा और उस बचत को कितनी उदार साहसिकता अपनाकर युग देवता के चरणों में अर्पित किया गया। अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही ऐसे प्रसंगों में दूसरों को अनुगमन की प्रेरणा दी जा सकती है। बातों के छप्पर बाँधने से उपहासास्पद विडम्बना ही खड़ी होती है।
किसे क्या करना है, इसका उत्तर भी एक ही है-प्रस्तुत आपत्ति काल में सब ओर से ध्यान हटाकर हमें आस्था संकट से जूझना है। लोकमानस के परिष्कार में निरत होना है। एकहि साधे सब सधे की उक्ति इसी में सन्निहित है। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि समस्त समस्याओं का एकमात्र हल निकल आया। इसकी उपेक्षा होती रही तो समझना चाहिए कि विषाक्तता रहते फोड़े-फुन्सियों के ऊपरी उपचार से बात बन नहीं पायी। परिशोधन और परिष्कार का यह केन्द्र सँभाला जा सका तो फिर और कुछ करने को शेष न रहेगा।
कौन क्या करे, इसके लिए प्रज्ञा अभियान का क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसमें हर स्तर का, हर स्थिति का व्यक्ति कुछ न कुछ कर सकता है। अपने उबरने और दूसरों को पार उतारने हेतु असंख्यों कार्यक्रम विद्यमान है। उनमें से किन्हीं को भी मनःस्थिति या परिस्थिति के अनुरूप चुना जा सकता है या चयन निर्धारण के लिए शान्तिकुञ्ज से परामर्श किया जा सकता है।
यह तथ्य हर जागृत आत्मा को गिरह बाँध लेना चाहिए कि युग अवतरण की बेला में सृष्टा की नव सृजन योजना में भागीदार रहने के समान और कोई बुद्धिमत्तापूर्ण निर्धारण नहीं हो सकता। जिनके मन में यह उत्साह उभरे, उन्हें अपने निज के चिन्तन, स्वभाव और निर्धारण में आदर्शवादी साहसिक परिवर्तन करना चाहिए। ‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’ का उद्घोष यदि सही अर्थों में प्रज्ञा परिजनों के जीवन में उतर सके, तो यह बात सुनिश्चित मानना चाहिए कि युग प्रवाह अवश्य बदलेगा, सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी, दुष्प्रवृत्तियाँ मिटेंगी, वातावरण में व्याप्त दुष्टता और भ्रष्टता से जूझने के लिए प्रखरता सम्वर्धन आज की परिस्थितियों में अत्यन्त अनिवार्य है। वह तब ही संभव है जब आदर्शवादी जीवन जीने के लिये स्वयं मन में उमंगें उठने लगें और वैसे ही कर्तव्यों से भरा क्रिया कलाप हो। फिर युग बदलने में कोई संदेह नहीं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
120. महाप्रज्ञा का युगशक्ति के रूप में अरुणोदय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आद्य शक्ति गायत्री अब युगशक्ति बनने जा रही है। प्रायः इस महामन्त्र का उपयोग अन्तराल के सुधार परिष्कार हेतु किया जाता है। व्यक्तित्व को पवित्र और प्रखर बनाने में उसकी शिक्षा का असाधारण उपयोग है। इतने कम अक्षरों का इतना छोटा, इतना सारगर्भित धर्म शास्त्र, तत्त्व दर्शन संसार में कहीं कोई दूसरा है नहीं। उसके एक-एक अक्षर में जीवन के हर क्षेत्र में प्रयुक्त हो सकने योग्य ऐसा सद्ज्ञान भरा पड़ा है, जिससे अध्यात्म चिन्तन और धर्म व्यवहार के दोनों ही पक्ष सधते हैं। गायत्री को त्रिवेणी कहा गया है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता रूपी तीन धाराओं का उसके तीन चरणों में समावेश हुआ है।
ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्ति योग का-सत्यं शिवं सुन्दरम् का, सत् चित् आनन्द का जैसा संगम त्रिपदा में हुआ वैसा उदात्त चिन्तन से सम्बन्धित प्रतिपादन अन्यत्र नहीं देखा जा सकता। आत्म विज्ञान के क्षेत्र में उतरने पर उसकी त्रिविधि शक्तियाँ स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को प्रभावित कर सकने की क्षमता से सम्पन्न हैं। उपासना, साधना और आराधना के रूप में उसका उपयोग प्रतिभा, प्रखरता और अभिवर्धन के लिए किया जाता है। साधक को ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी बनने का अवसर मिलता हैं। अलंकारिक भाषा में त्रिपदा के तीन चरण ब्रह्मा-विष्णु के रूप में, सरस्वती, लक्ष्मी, काली के रूप मे प्रस्तुत किये गये हैं। तुलसीदास जी ने जिस त्रिवेणी संगम में स्नान करने का माहात्म्य काक होंहि पिक बकहुँ मराला के रूप में वर्णन किया है, उसे उसी आध्यात्मिक संगम के रूप में समझना चाहिए, जिसे त्रिपदा गायत्री कहते हैं। सिद्धि और स्वर्ग मुक्ति को इस महाशक्ति के अवगाहन से मिलने का माहात्म्य जिनने बताया है, उनने साथ-साथ यह भी कहा है कि शालीनतावादी क्रिया-प्रक्रिया दूरदर्शी विचारणा और आदर्शवादी आस्था की परिपक्वता इसी लोक में रहने वाले मनुष्यों में देवत्व का उदय कर सकती है। गायत्री को अमृत, पारस और कल्पवृक्ष इसी दृष्टि से कहा गया है कि उसके अवगाहन से मानवी सत्ता की तीनों परतें, चेतन, अचेतन और सुपर चेतन की, मन बुद्धि, चित्त की तीनों ही स्थितियाँ प्रभावित होती तथा निखरती हैं। फलतः इन तीनों विभूतियों से लाभान्वित होने में कोई संदेह नहीं रह जाता।
नित्य कर्म में गायत्री को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया गया है। शास्त्रोक्त विधि से त्रिकाल संध्या करने पर उसका समावेश करना अनिवार्य है। शिखा को ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क की ध्वजा कहा गया है और सूत्र यज्ञोपवीत के नौ धागों को सम्मिलित नौ अनुशासनों को कन्धे पर कर्म कौशल क्षेत्र का अंकुश माना गया है। गायत्री गुरुमन्त्र है जिसे देव संस्कृति में प्रवेश पाते समय सर्वप्रथम दिया और पढ़ाया जाता है।
यह गायत्री का व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार हुआ। विश्व व्यवस्था में, समाज संरचना में भी महत्त्वपूर्ण प्रेरणा और दिशा दे सकने की क्षमता उसमें विद्यमान है। गायत्री सार्वजनीन है। उस पर किसी देश, धर्म, समाज, संस्कृति का एकाधिकार नहीं है। उसमें ‘वसुधैव कुटम्बकम्’ का सिद्धान्त कूट-कूट कर भरा है। साथ ही दूरदर्शी विवेकशीलता की कसौटी पर प्रत्येक प्रचलन से परामर्श को कसते रहने का निर्देश है
गायत्री का वाहन हंस इसी तथ्य का प्रकटीकरण करता है कि नीर क्षीर विवेक की क्षमता प्रखर रखी जाय और इस कसौटी पर बिना नवीन पुरातन का पक्षपात किये प्रत्येक प्रतिपादन को जागरूकता पूर्वक कसा जाय। महाप्रज्ञा का तात्पर्य ही यह है कि सत्य और तथ्य की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही किसी कथन, प्रचलन को मान्यता दें। तात्कालिक लाभ में लुभाने वाली दुर्बुद्धि का परित्याग करते हुए दूरदर्शी विवेक के सहारे मात्र मोती ही चुना जाय, औचित्य ही अपनाया जाय। यही है हंस निर्धारण जिसे मनुष्यों में से राजहंस, परमहंस स्तर के व्यक्ति अपनाते और कृतकृत्य होते हैं।
अगला समय प्रज्ञा युग होगा। उसमें विवेक के सहारे ही सब कुछ सोचा, परखा और अपनाया जायेगा। प्रचलित कूड़े-कबाड़े में से मानव गरिमा के उपयुक्त आदर्शवादी शालीनता की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही वे तथ्य अपनाये जायेंगे जो आने वाले समय में नियम अनुशासन के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकें। इन चौबीस अक्षरों में व्यक्ति और समाज से सम्बन्धित सभी तथ्यों का स्पर्श करने वाले सिद्धान्त विद्यमान हैं। इन्हें क्रमबद्ध सँजोकर भावी संसार की आचार संहिता बन सकती है। विश्व व्यवस्था का संविधान बनाना हो तो उसके लिए भी आवश्यक सूत्र गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में हैं। उनकी विवेचना इस प्रकार की जा सकती है कि उसे सार्वभौम धर्म जैसी मान्यता मिल सके।
अगले दिनों बिखराव निरस्त करना होगा और मानवी गतिविधियों को एक दिशाधारा में बहने के लिए दबाया जायेगा। बौद्धिक, वैज्ञानिक और आर्थिक प्रगति ने सुविधा संवर्धन के साथ-साथ अगणित समस्याओं का घटाटोप संकट खड़ा किया है। इसका समाधान एकता, समता, शुचिता के त्रिविधि सिद्धान्तों को सर्वमान्य बनाने में ही संभव है। एक राष्ट्र भाषा, एक धर्मधारणा के आधार पर ही नवीन विश्व का अभिनव निर्धारण होगा। उसकी रीति-नीति क्या हो? दिशाधारा क्या रहे, इसका सूत्र संकेत अन्यत्र कहीं ढूँढ़ना न पड़ेगा। दूरदर्शी तत्त्वदर्शियों ने उसे गायत्री बीज मन्त्र में ‘गागर में सागर’ की तरह भर दिया है। उपासना क्षेत्र में भी किसी न किसी अवलम्बन की आवश्यकता पड़ेगी। तब सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करने पर महाप्रज्ञा को स्थान बड़ी सरलता पूर्वक मिल सकता है।
धर्म सम्प्रदायों के वर्तमान जंजाल में से उबारने के लिए इसी राजमार्ग को अपनाया जा सकता है। भूमि सीमा और जाति वर्ग के नाम पर बटने वाली मनुष्य जाति को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के एक सूत्र में बाँधकर उस केन्द्र पर लाया जाना है, जिसमें सभी हिल-मिलकर रह सकें, मिल-बाँटकर खा सकें और हल्की-फुल्की हँसती हँसाती जिन्दगी जी सकें। ऐसा प्रज्ञायुग लाने में महाप्रज्ञा गायत्री की असाधारण भूमिका होगी। वह एक नये सद्ज्ञान को जन्म देगी, जिसके सहारे जन-जन का चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार उत्कृष्ट आदर्शवादिता का पक्षधर बन सके। इसी प्रकार वह एक विज्ञान को भी जन्म देगी जिसमें मानवी सत्ता के अंग अवयवों में सन्निहित अजस्र ऊर्जा भण्डार का नवयुग के अनुरूप साधन, सुविधा तथा गौरव गरिमा का समुचित उत्पादन कर सके। आत्म विज्ञान में सभी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। उसमें वाक्, प्राण तथा संकल्प की तीन धारायें प्रस्तुत भौतिकी के ताप, शब्द और प्रकाश माध्यमों की तरह अनन्त वैभव के स्रोत उद्गम विद्यमान जो हैं।
इन दिनों सबसे विषम सामयिक समस्या है अदृश्य वातावरण में भरती जा रही विषाक्तता की। विकिरण प्रदूषण की भयावहता सर्वविदित है। इसके अतिरिक्त मानवी चिन्तन की भ्रष्टता और व्यवहार की दुष्टता ने प्रकृति को बुरी तरह रुष्ट कर दिया है। वह अभी भी अनेकानेक प्रकोप बरसाती है। भविष्य में उस क्षेत्र में और भी भयावह संकट उतरने की आशंका है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, तूफान, भूकम्प महामारी जैसे संकट प्रकृति प्रकोप स्तर के गिने जाते हैं। अन्तःविग्रहों, अपराधों की वृद्धि, दुर्बुद्धि जन्य दुरभिसंधि ही गिनी जाती है। लिप्सा और अहंता का समन्वय ही गृह युद्ध, सीमायुद्ध एवं महायुद्ध खड़े करता है। यह आशंका सम्भावनाएँ सामने ही मुँह बाए खड़ी हैं। इनके निराकरण में प्रत्यक्ष प्रयत्नों का उपयोग तो होना ही चाहिए। राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली विपन्नताओं का सूझ-बूझ और पराक्रम पूर्वक समाधान खोजा ही जाना चाहिए। उपचार प्रक्रिया के लिए प्रयत्नरत रहना ही चाहिए, किन्तु साथ ही एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि इतना करने पर भी अदृश्य दबावों का कुचक्र ऐसा है, जिसका निराकरण किये बिना भौतिक प्रयास उपचारों से ही गुत्थी पूरी सुलझने वाली नहीं है। इसके लिए कुछ ऐसा भी करना होगा, जिससे संव्याप्त विषाक्तता का परिमार्जन हो सके। यह प्रयोजन अध्यात्म उपचारों की सहायता से पूरे हो सकते हैं।
रावण राज्य समाप्त होने पर भी अदृश्य में संव्याप्त असुरक्षा समाप्त नहीं हुई। तब भगवान राम को दस अश्वमेधों की शृंखला चलानी पड़ी थी। महाभारत के उपरान्त भी अदृश्य क्षेत्र की विषाक्तता समाप्त न हुई तो भगवान कृष्ण ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। यह धर्मानुष्ठान उसी प्रकार अनेकानेकों के सहयोग से सम्पन्न हुए जैसे कि लंका युद्ध और महाभारत अगणित योद्धाओं के पराक्रम से अनेकानेक आयुधों के आधार पर लड़े गये। इससे पूर्व भी प्रत्येक अवतार के समय ऐसे ही सामूहिक धर्मानुष्ठान हुए हैं। सीता जन्म के लिए ऋषि रक्त संचय से घड़ा भरने की और देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गा अवतरण की कथा सर्वविदित है। गिरि गोवर्धन को उठाने और समुद्र सेतु बाँधने में भी उच्चस्तरीय आत्माओं के संयुक्त प्रयास को कार्यान्वित किया गया था। अन्यान्य अवतारों के समय भी आगे या पीछे ऐसे ही धर्मानुष्ठानों की आवश्यकता पड़ी है और वह तत्कालीन ऋषियों द्वारा पूरी की गयी है। विश्वामित्र का नरमेध यज्ञ, वाजिश्रवा का सर्वमेध यज्ञ उसी शृंखला की कड़ियाँ हैं।
शब्द शक्ति की महत्ता से सभी भली-भाँति परिचित हैं। गायत्री मन्त्र के अजपा या उच्चारित जप स्वरूप के माध्यम से जो ऊर्जा उद्भूत होती है, वह सामूहिक प्रयासों के रूप में सम्पन्न होने पर तो चमत्कृत कर देने वाली परिणति को जन्म देती है। गायत्री मन्त्र का सृष्टि का आदि से अन्त तक जितना उच्चारण हुआ है, उतना किसी और मन्त्र का नहीं हुआ। इसकी शब्द तरंगें अभी भी सूक्ष्म जगत में संव्याप्त हैं। समधर्मी गुणवाली शक्तियाँ एक दूसरे को सहज ही खींच बुलाती हैं। सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में एक ही समय, एक साथ, एक चिन्तन से कई व्यक्ति एक साथ जब भावना करते हैं तो उसका प्रभाव शब्द स्फोट के रूप में, लेसर की मार के रूप में होता है। इस वैज्ञानिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए ही प्रस्तुत समाधान हेतु ऐसे ही संयुक्त अनुष्ठान की आवश्यकता आ पड़ी है
इसके लिए नैष्ठिक उपासकों का बीस वर्षीय गायत्री अनुष्ठान पहले से ही चल रहा है। समस्या की गम्भीरता को देखते हुए दबाव और भी बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। महाप्रज्ञा को अदृश्य वातावरण के परिशोधन में प्रयुक्त करने में तत्त्वदर्शियों का ध्यान अधिकाधिक मात्रा में केन्द्रित हो रहा है। इस दिशा में अभी और भी बड़े कदम उठाने की आवश्यकता पड़ रही है। तद्नुसार एक नया निर्धारण यह किया गया है कि परिवार के बीस लाख परिजन प्रातः सूर्योदय के समय जिस भी स्थिति में हों, काम छोड़कर पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मौन मानसिक जप करें। साथ ही सविता का ध्यान भी। संकल्प करें कि इस प्रयास से उद्भूत शक्ति अनन्त अन्तरिक्ष में बिखरेगी और संव्याप्त विषाक्तता का परिशोधन निराकरण सम्पन्न करेगी।
जो जहाँ जिस भी स्थिति में है, जूते उतारकर आँख बन्द करके यह ध्यान जप सम्पन्न करे। सूर्योदय का समय हर देश, प्रान्त का समय अलग-अलग होता है जो स्थानीय पंचांगों से जाना जा सकता है। जिनके पास घड़ियाँ हो वे उनके सहारे समय जान लें। जहाँ वैसा प्रबन्ध नहीं है वहाँ मुर्गे की बाँग जैसी मसजिद के अजान मन्दिर के शंख जैसी ध्वनि किसी केन्द्र स्थान पर शंख बिगुल आदि बजाकर इस शुभारम्भ की घोषणा की जा सकती है। प्रज्ञा परिजन इस साधना में स्वयं तो सम्मिलित हो ही, साथ ही यह भी प्रयत्न करें कि उनके परिवार तथा सम्पर्क के लोग भी इस न्यूनतम साधना को अपनायें। इसमें स्नान पूजा उपचार स्थान आदि का भी प्रतिबन्ध न होने से वह सर्व साधारण के लिए अति सरल भी है। थोड़ा प्रयत्न करने पर इसमें सम्मिलित होने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुँच सकती है।
प्रज्ञा परिजनों की संख्या इन दिनों प्रायः बीस लाख है। पाँच मिनट में न्यूनतम जप साठ मन्त्रों का हो जाता है। बीस लाख को साठ से गुणा कर देने पर वह संख्या बारह करोड़ हो जाती है। लक्ष्य चौबीस करोड़ प्रतिदिन का है। इसके लिए ठीक दूने युग साधकों की आवश्यकता पड़ेगी। वर्तमान समय में से प्रत्येक अपने हिस्से का एक और जो नागा करेंगे उनके बदले का एक इस प्रकार दो और नये ऐसे युग साधक उत्पन्न करें जो प्रातःकाल पाँच मिनट की उपरोक्त साधना में संकल्प पूर्वक सम्मिलित हो। जो व्रत लें उसे निभायें। इसका विवरण रखने का उत्तरदायित्व स्वाध्याय मण्डल के संचालक को सौंपा जाय, जो किसी के द्वारा न करने की स्थिति से अवगत रहे और उस कमी की पूर्ति अन्य लोगों से कराता रहे। इस प्रयोजन के लिए वही इतने लोगों से उपरोक्त युग साधना कराने का उत्तरदायित्व उठायें। उनका एक कर्तव्य यह भी है कि अपने सम्पर्क क्षेत्र की जप संख्या की मासिक जानकारी शान्तिकुञ्ज हरिद्वार पहुँचाते रहें, जिससे यह पता चलता रहे कि प्रतिदिन चौबीस करोड़ जप के निर्धारण में कितनी कमी पड़ रही है या उसकी किस क्षेत्र में कितनी पूर्ति हो रही हैं।
सामूहिकता की शक्ति भौतिक क्षेत्र में बहुत कारगर सिद्ध होती है और उसका प्रतिफल हाथों-हाथ देखने को मिलता है। बुहारी, रस्सा, सेना, संयुक्त परिवार, झुण्ड, गिरोह, संगठन आदि उदाहरण यह बताते हैं कि बिखराव का केन्द्रीकरण कितना सशक्त होता है। आतिशी शीशे पर सूर्य किरणों का चमत्कार तत्काल आग लगने के रूप में सभी ने देखा है। प्रज्ञा परिजनों की उपरोक्त संयुक्त साधना परिस्थितियों के सुधार, परिष्कार में असाधारण भूमिका सम्पन्न करेगी। सिपाहियों की टुकड़ी यदि कदम मिलाकर एक ध्वनि उत्पन्न करे तो जिस लोहे के पुल पर से वह चल रही है, वह धँसक या गिर सकता है। पायल की क्रमबद्ध आवाज हाल की छत को गिरा सकती है। यह संयुक्त शब्द शक्ति का चमत्कार है। प्रज्ञा परिजन एक मन से एक उद्देश्य से एक प्रक्रिया अपनाकर एक समय में एक निर्धारण के अनुरूप साधना करें तो वह थोड़ी छोटी होते हुए भी इतना बड़ा प्रयोजन पूरा कर सकती है, जिससे विकृतियों, विषाक्तताओं का निराकरण हो सके और उसके स्थान पर उज्ज्वल भविष्य का, प्रज्ञा युग के अवतरण का सुनिश्चित आधार खड़ा हो सके।
इस विशिष्ट साधना का महत्त्व सभी प्रज्ञा परिजन गम्भीरता पूर्वक समझें और उसे कार्यान्वित करने में अपनी जागरूकता एवं तत्परता का परिचय दें। इस साधना को प्रज्ञा पुरश्चरण नाम दिया गया है तथा सभी परिजनों से उसे जन-जन तक व्यापक बनाने का अनुरोध किया गया है। युग परिवर्तन की इस बेला में आद्यशक्ति को युगशक्ति के रूप से प्रतिष्ठित होना है। परिजनों की नैष्ठिक परीक्षा का ठीक यही समय है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार