प्रौढ़ महिला शिक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध किया जाय
जहाँ भी महिला जागरण शाखाएँ अपनी जड़ें जमाने लगें वहीं कुछ ठोस—स्थायी रचनात्मक कार्य आरम्भ करने का एक बड़ा एवं साहसपूर्ण कदम उठाया जाना चाहिए । वह कदम है—प्रौढ़ महिला विद्यालय की स्थापना । सङ्गठन, सत्सङ्ग, प्रचार के तीन कार्य जहाँ ठीक तरह गतिशील होने लगें उस क्षेत्र की महिलाएँ नवयुग के उपयुक्त उत्साह प्रदर्शित करने लगें—सहयोग देने लगें तो समझना चाहिए कि नींव मजबूती के साथ जम गई, अब इस पर चिर स्थायी भवन का निर्माण कार्य आरम्भ किया जा सकता है । कहना न होगा कि यह कार्य प्रौढ़ महिला विद्यालय की स्थापना से बढ़कर और कोई दूसरा नहीं हो सकता है ।
यह सोचना मूर्खता है कि पढ़ने का उद्देश्य नौकरी करना है । यदि ऐसा होता तो जिन्हें नौकरी नहीं करनी है ऐसे सुसम्पन्न लोगों के बालकों को पढ़ाने की आवश्यकता ही न पड़ती । वस्तुतः शिक्षा का उद्देश्य मानसिक विकास है जिसे शारीरिक समर्थता से भी असंख्य गुना महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए ।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अपने देश में शिक्षा का महत्त्व नहीं समझा गया और अधिकांश मनुष्य निरक्षर रह रहे हैं । प्रगतिशील देशों में बहुत छोटे बालकों या पागलों को छोड़कर शेष सभी व्यक्ति साक्षर होते हैं और अधिक शिक्षा सम्पदा संग्रह करने की दिशा में उनके अनवरत प्रयत्न आजीवन चलते रहते हैं । एक अपना देश है जिसमें जनसंख्या का ७५ प्रतिशत अशिक्षित और २५ प्रतिशत ही शिक्षित है । स्त्री शिक्षा की स्थिति तो और भी अधिक दयनीय है । उनके जब नागरिक अधिकार ही छिन गये—पर्दे के कैद खाने में जकड़ दिया गया तो पढ़ने-पढ़ाने की आवश्यकता कौन समझता और कौन उसके लिए चेष्टा करता । शहर, कस्बों में कन्या पाठशालाएँ खुली हैं और लड़कियों के पढ़ाने का कुछ प्रबन्ध हुआ है, पर छोटे देहातों में तो लड़कों के पढ़ाने तक का प्रबन्ध नहीं, फिर लड़कियों को कौन पूछता है ? कन्या शिक्षा तो कस्बे, शहरों में अब चली है । प्रौढ़ पीढ़ी के समय में तो पिछले दिनों वैसा कुछ भी प्रबन्ध न था । अतएव अधिकांश महिलाएँ बिना पढ़ी हैं । उनकी शिक्षा कठिनाई से ८-१० प्रतिशत तक पहुँची होगी । यह एक भारी कठिनाई है जिसका हल किया ही जाना चाहिए । नारी पुनरुत्थान की बात सोचते समय स्त्री शिक्षा की बात को प्राथमिकता देनी होगी । स्त्री शिक्षा को लड़कियों की पढ़ाई तक सीमित नहीं रखा जा सकता । जिनको आज अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ रही है उन प्रौढ़ नारियों को अगले जन्म में पढ़ने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता । समय की गति इतनी तीव्र है कि वर्तमान पीढ़ी की उपेक्षा करके आज की बच्चियाँ जो पन्द्रह वर्ष बाद अपनी जीवन भूमिका का कोई कहने लायक रोल अदा कर पावेंगी उन पर ध्यान लगाये बैठे रहें । आज की अशिक्षित प्रौढ़ नारी को कल हमें सुयोग्य बनाना है । वर्तमान भी हमारे लिए बहुत कुछ है । आज की रोटी के लिये हमें चिन्ता करनी पड़ती है तो अपनी आज की अशिक्षा से भी हमें इन्हीं दिनों जूझना पड़ेगा । नारी पुनरुत्थान के साथ उसे शिक्षित बनाने का उत्तरदायित्व भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है ।
स्पष्ट है कि सरकार के लिये यह कार्य कठिन है । स्कूलों में पढ़ने वाली पाँच प्रतिशत लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था ही उसके लिये भारी पड़ रही है, तो प्रौढ़ पीढ़ी की नारी को समग्र रूप से शिक्षित कर सकना किस प्रकार सम्भव होगा ? इतने साधन वह कहाँ से कैसे जुटावेगी ? जुटावेगी तो नये टैक्सों से जनता की कमर ही टूट जायगी । यह कार्य हमें जनता स्तर पर ही करना होगा और उसकी पहल महिला जागरण शाखा सङ्गठनों को अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में प्रधानता देते हुए करनी होगी ।
प्रौढ़ महिला शिक्षा के लिये एक पाठशाला का संचालन अपने शाखा सङ्गठनों के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रम है । जिन सङ्गठनों में थोड़ी समर्थता उत्पन्न हो जाय उन्हें इसे तुरन्त अपने हाथ में लेना चाहिए । समय की दृष्टि से तीसरे प्रहर दो से पाँच बजे तक तीन घण्टे का समय ही इसके लिये उपयुक्त पड़ता है और सारा समय उनके लिये प्रायः व्यस्त ही रहता है । दोपहर के भोजन से निवृत्त होने और शाम का भोजन आरम्भ करने से पूर्व के जो घण्टे बच जाते हैं उन्हें ही उनकी फुरसत का कहना चाहिए । यह तीन से पाँच या घण्टा-आधा घण्टा आगे पीछे हो सकता है, पर सुविधाजनक समय यही है । इसी में उनकी शिक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए ।
पाठशाला कहाँ चले ? इसके लिये उपयुक्त स्थान ही चुनना चाहिए । जहाँ उस क्षेत्र की महिलाएँ आसानी से पहुँच सकें—बैठने, पढ़ने के लिये समुचित स्थान हो, स्वच्छता एवं खुली धूप, हवा के लिये गुंजायश हो, शोर न होता हो, व्यङ्ग-उपहास- हस्तक्षेप करने वाले लोग न हों आदि बातों का ध्यान रखते हुए स्थान तलाश करना चाहिये । यह अपने ही किसी व्यक्ति का घर हो तो अच्छा है । यह समय ऐसा है जिसमें घर के लोग दफ्तर, दुकान, कारखाने आदि में रहते हैं । उनके उपयोग के कमरे का फर्नीचर एक कोने में उठाकर लगा दिया जाय और लौटने से पहले झाड़-बुहार कर हर चीज यथा स्थान लगा दी जाय तो उसी स्थान का दुहरा उपयोग हो सकता है । किसी बड़े कमरे को खाली समय में विद्यालय के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है । इस उदार उपयोग में किसी भी भावनाशील व्यक्ति को आपत्ति नहीं होनी चाहिए । छात्राएँ अधिक संख्या में होने पर किसी बड़े स्थान का किराये पर भी प्रबन्ध किया जा सकता है ।
इस सन्दर्भ में दूसरा कार्य है पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं की तलाश । यह भी अपने ही प्रभाव क्षेत्र में से ढूँढ़नी चाहिए । आठवीं कक्षा तक की योग्यता वाली कोई व्यवहार कुशल महिला इस उत्तरदायित्व को निभा सकती है । इतनी शिक्षा प्राप्त महिला अपने प्रभाव क्षेत्र में एक भी न हो ऐसी बात नहीं । जो हों उन्हें इस सेवा कार्य के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये । उनके घर वालों को इसके लिये स्वीकृति देने के लिये कहा जाना चाहिये । घर की अन्य महिलाएँ अध्यापिका को एवं छात्राओं को अवकाश दे पायें तभी गाड़ी आगे बढ़ेगी । उनके बच्चों को सँभालना तथा उतने समय तक कुछ घर कार्य उनके जिम्मे हो तो उसे कर देने की उदारता यदि वे दिखावेंगी तो ही विद्यालय में जाने का अवसर उन्हें मिल सकेगा । इसलिये जिस घर से अध्यापिका प्राप्त करनी है उसे उसके संरक्षकों को तथा घर की अन्य महिलाओं को इसके लिये रजामन्द करने की आवश्यकता पड़ेगी । आरम्भ में वेतन पर अध्यापिकाए तो रखी नहीं जा सकती । इसी प्रकार सेवा बुद्धि जगाकर मिशन के सारे काम चलाने पड़ेंगे । भावना उभार कर ही इन आवश्यकताओं को जुटाया जा सकता है ।
प्रारम्भ में कम से कम एक और बाद में कई-कई अध्यापिकाएँ इस प्रयोजन के लिये आवश्यक होंगी । स्थान का—अध्यापिकाओं का—प्रबन्ध बन जाय तो फिर शाखा की प्रतिभाशाली महिलाओं को टोली बनाकर घर-घर जाना चाहिए और प्रौढ़ महिलाओं को शिक्षा की क्यों आवश्यकता है यह समझाना चाहिए । जो पढ़ने की स्थिति में दिखाई पड़ें उनके घर कई-कई बार चक्कर लगाने के उपरान्त ही उन्हें सहमत किया जा सकेगा । पहली बार तो वे उसकी आवश्यकता, उपयोगिता भी न समझ सकेंगी—थोड़ा-थोड़ा करके कई बार में उनमें उस तरह की समझदारी एवं इच्छा जगाई जा सकेगी । पढ़ने वाली तैयार हो जाँय इतना ही काफी नहीं है, उनके घर वालों को सहमति देना तथा घर की अन्य महिलाओं का विरोध न करना भी एक कार्य है । इतना चक्रव्यूह बना लेने पर भी घरों से प्रौढ़ महिलाओं का पाठशाला में जाने लगना सम्भव हो सकता है । इसके लिये टोलियाँ कई-कई बार—कुछ-कुछ समय बाद जाती रहें तो ही कुछ काम चलेगा । शाखा के सहायक सभ्यों को ही सबसे पहले अपने-अपने घरों की महिलाएँ भेजनी पड़ेगी । जिस प्रकार महिला सदस्याएँ घर-घर टोली बनाकर जाया करें—उसी प्रकार सहायक सभ्यों को भी अपने मित्- परिचितों के पास जाकर उनके घर की महिलाओं को पाठशाला में जाने के लिये रजामन्द करने का प्रयत्न करना होगा । वे भी टोली बनाकर निकलें या एकाकी प्रयत्न करें तो वातावरण बनेगा और कुछ न कुछ छात्राएँ अवश्य प्राप्त हो जायगीं । स्थान और अध्यापिकाओं का प्रबन्ध करने में जितनी कठिनाई है उससे कई गुनी कठिनाई छात्राओं को प्राप्त करने में है । अपने देश में शिक्षा के प्रति बहुत कम रुचि है । उसे नौकरी करने के लिये ही आवश्यक माना जाता है । व्यक्तित्व के विकास में भी शिक्षा का कोई योगदान होता है इसे कोई-कोई ही समझते हैं, फिर महिलाएँ पढ़-लिखकर बेकाबू हो जाती हैं इस अपडर से भी लोग उन्हें पढ़ने नहीं देते । इन कठिनाइयों के रहते हुए भी बिना निराशा हुए—लगातार प्रयत्न करते रहा जाय तो आरम्भ में जहाँ घोर उपेक्षा दिखाई गई थी वहाँ भी आगे चलकर उत्साह उत्पन्न किया जा सकेगा ।
पाठय-क्रम में साक्षरता तो प्रथम ही है । निरक्षर महिलाओं को लिख-पढ़ लेने का सामान्य ज्ञान उसी स्तर पर आरंभ कराया जाना चाहिए जिस क्रम से स्कूली बच्चों को कराया जाता है । वे ही पाठ्य पुस्तकें काम दे जाती हैं । गीता प्रेस गोरखपुर की बाल पोथियाँ इस कार्य के लिए अधिक उपयोगी पड़ती हैं । स्कूली पुस्तकें बेचने वाली, यहाँ मिलने वाली, पुस्तकों में से ही उन्हें छाँटा जा सकता है । पाँचवें दर्जे तक की प्राथमिक शिक्षा में अपने और सरकारी पाठ्य-क्रमों में कोई अन्तर नहीं आता ।
आगे की पढ़ाई में अन्तर करना होगा । पाँचवीं कक्षा की योग्यता के बाद की शिक्षा में अपना पाठ्य-क्रम जीवनोपयोगी सामान्य भौतिक ज्ञान एवं व्यक्ति, परिवार और समाज की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने वाली पुस्तकों का होना चाहिए । आज की कूप मंडूक बनी नारी को इस प्रकार की बहमुखी एवं जीवन विकास की दिशा में मार्गदर्शन करने वाली शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है । साहित्य और व्याकरण का आवश्यक ज्ञान कराने के लिये इसी स्तर का प्रशिक्षण होना चाहिए । इसके लिये आवश्यक पुस्तक शान्तिकुञ्ज में छापी जा रही हैं । सन् ७५ पूरा होने से पहले ही ऐसी पुस्तकें छप कर तैयार हो जायँगी । इनके सहारे आठवीं कक्षा के स्तर तक की योग्यता करा दी जाय तो समझना चाहिए कि प्रौढ़ शिक्षा का प्रारम्भिक उद्देश्य पूरा हो गया ।
जो महिला साक्षर हैं—उन्हें पाँचवें दर्ज से लेकर आठवें तक की अपनी शिक्षा का अभिनव पाठय-क्रम पढ़ाया जाना चाहिये । वस्तुतः वह शिक्षण इतना आवश्यक, उपयोगी और अभिनव है कि उसे तो एम. ए. के छात्रों को भी पढ़ना चाहिए । आज की स्कूली शिक्षा में जिन तत्त्वों का लगभग सर्वथा अभाव है, उनकी पूर्ति हमें अपने अभिनव पाठ्य-क्रम से करनी चाहिए ।
इन पाठशालाओं में शिल्प एवं सङ्गीत की कक्षाएँ चलाने का प्रबन्ध बन सके तो उसके लिये पूरा-पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिए । इन विषयों को अध्यापिकाएँ तथा सिखाने के उपकरण एकत्रित करना आवश्यक है । इसकी व्यवस्था जहाँ बन पड़े वहाँ यह कक्षाएँ भी साथ में जोड़ देनी चाहिए । शिल्प में सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, खिलौने, बिस्कुट आदि बनाने के कई उपयोगी कार्य रखे जा सकते हैं । सङ्गीत में वह सुगम पाठ्य-क्रम पर्याप्त है जो शान्तिकुञ्ज में पढ़ाया जाता है ।
लगभग आठवें दर्जे के स्तर की अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्रौढ़ महिलाएँ एक वर्ष में पूरा कर सकती हैं । प्रथम आरम्भ तो किसी भी महीने से किया जा सकता है, पर आगे चलकर पढ़ाई वर्ष, कब से आरम्भ हो यह निर्धारित कर लेना पड़ेगा । साधारणतया जुलाई से आरम्भ करना अपने लिये भी सुविधाजनक रहेगा ।
इस शिक्षा की परीक्षा लेने और प्रमाण-पत्र देने का काम महिला जागरण अभियान हरिद्वार की ओर से चलता रहेगा । कनिष्ठ पाठय-क्रम पाँचवें दर्जे और वरिष्ठ पाठ्य-क्रम आठवें दर्जे स्तर का है । इसकी नियमावली भी इसी वर्ष बन जायगी ।
लड़कियों को अपनी स्कूली शिक्षा का घर पर अभ्यास कराने की दृष्टि से सहायक पाठशालाएँ चलाई जा सकती हैं, स्कूली समय के अतिरिक्त लड़कियों की सुविधा का अन्य समय दो घण्टे का रखा जाय तो उन छात्राओं को अपना स्कूली कोर्स सफलतापूर्वक पूरा करने की सुविधा मिल सकती है । लड़कों के लिये तो ट्यूशन लगा दिये जाते हैं, पर लड़कियों को ऐसी सुविधा कहाँ मिलती है । उन्हें तो गृह कार्यों में भी माता की सहायता करनी पड़ती है, जबकि लड़कों को पूर्ण अवकाश रहता है । इस अभाव की पूर्ति करने के लिये अपनी पाठशाला के अन्तर्गत विशेष कक्षाओं का प्रबन्ध किया जा सकता है । विवाह से पूर्व वाली पढ़ाई जिनकी अधूरी रह गई थी वे इन पाठशालाओं के माध्यम से उसे पूरा कर सकती हैं । यों हमें सरकारी पढ़ाई के लिये छात्राएँ तैयार नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसमें उलझने पर अपने महत्त्वपूर्ण पाठ्य-क्रम की उपेक्षा होने लगेगी तो भी जहाँ नाव किनारे आ लगी है वहाँ थोड़ा सहारा देकर उसे पूरा करा देना भी बुरा नहीं है ।
समर्थ महिला जागरण अभियान शाखाओं को सङ्गठन, सत्सङ्ग और प्रचार की व्यवस्था बनते ही प्रौढ़ पाठशाला चलाने का ठोस रचनात्मक कार्य आरम्भ कर देना चाहिए । इसके लिये सत्सङ्ग में आने वाली और जो संस्कार कथा आदि में आती हों उन सभी से अपील करनी चाहिये कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र से छात्राएँ—अध्यापिकाएँ देने का प्रयत्न करें । सदस्याएँ और सहायक सभ्य दोनों मिलकर सच्चे मन से प्रयत्न करें तो कोई कारण नहीं कि प्रत्येक शाखा अपने यहाँ प्रौढ़ शिक्षा के इस अभिनव कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला न सकें ।