अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप
पवित्र कर्मों से पूर्व स्नान है जरूरी
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने की पहली
वाली शर्त के बारे में मैं आपको कल समझा रहा था कि स्नान को हमारे यहाँ
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। किसी भी शुभ कर्म को करते समय सबसे पहले
स्नान, विवाह से पहले स्नान, मुर्दे को जलाने से पहले स्नान, बच्चे ने
जन्म लिया तब स्नान, गंगा पर जाइये-स्नान, सोमवती के दिन जाइये-स्नान,
हमारे यहाँ हर जगह स्नान की आवश्यकता समझी गयी है। यदि स्नान न हो सकता हो,
तो हाथ-पैर धोये बिना चौके में प्रवेश नहीं कर सकते। पुरानी परंपरा के
अनुसार चौके में जाइये, तो हाथ-पैर धोकर के जाइये। अरे साहब! यह चौका है।
बिना स्नान के आप चौके में कैसे घुस आये? स्नान, सफाई-स्वच्छता हमारे
आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने की पहली वाली शर्त है।
मित्रो! पहली वाली शर्त के साथ में दूसरी चीजें भी जुड़ी हुई हैं। आपको
पूजा करने के वक्त में धुले हुए वस्त्र ही पहनने चाहिए। अगर आप धुले हुए
वस्त्र नहीं पहन सकते हैं, तो कम से कम अपने कमरे में झाड़ू लगाइये, बर्तन
साफ कीजिए। अरे साहब! यह पंचपात्र है। यह ताँबे का लोटा है। इसमें क्या है?
नहीं साहब! इसे साफ कीजिए, माँज कर लाइये। पूजा की सामग्री को साफ करके
लाइये। भगवान जी को स्नान कराकर के लाइये। नहीं साहब! भगवान जी कहीं
इंग्लैण्ड में भी स्नान करते हैं क्या? वहाँ, जहाँ उत्तरी ध्रुव में
तो-‘‘कै नहाबै पंचमाई। कै नहाबै दाई-माई।’’ वहाँ तो केवल जन्म के समय या
मृत्यु के समय में नहाते हैं।
एस्किमो लोगों को कहिए न, वे रोज नहाया करें। वे तो जिन्दगी भर कभी
नहीं नहाते। फिर हम कैसे नहायेंगे? नहीं बेटे, हमको और आपको तो स्नान करना
ही पड़ेगा। हमारे यहाँ स्नान की अत्यधिक आवश्यकता मानी गयी है। आप तीर्थ में
जाइये, गंगाजी नहाइये। नहीं साहब! हम तो गरम पानी में नहायेंगे। नहीं
बेटे, गंगाजी में नहाना है। और कुछ नहीं कर सकता, तो जा मार्जन करके आ,
स्नान करके आ। जितने भी तीर्थ हैं, सबमें आप जायें तो कभी न कभी स्नान जरूर
करना पड़ेगा।
मित्रो! इसी तरह आपको ठाकुर जी को स्नान जरूर कराना पड़ेगा। ठाकुर जी की
स्थापना कीजिए। उन्हें स्नान कराइए। अरे साहब! ठाकुर जी तो रोज ही स्नान
करते रहते हैं। वे गंगाजी में रहते हैं। इनको स्नान क्या कराना? नहीं साहब!
हमारे ठाकुर जी तो स्नान करेंगे। बिना नहाये भला ठाकुर जी का काम किस
तरीके से चलेगा और नहाये बिना हमारा भी काम कैसे चलेगा? वस्त्रों की सफाई
के बिना, पूजा-पाठ की जगह की सफाई के बिना, कमरे में झाड़ू लगाये बिना तो
कोई काम नहीं चल सकता। सफाई तो हमारी पहली शर्त है और यह भौतिकता की शर्त
है।
कर्मकाण्ड है इशारा
मित्रो! भौतिकता की यह शर्त अब हमारी आध्यात्मिकता की शर्त
में प्रवेश करती है। आपको यह मानकर ही चलना पड़ेगा कि जितने भी कर्मकाण्ड
हैं, उन कर्मकाण्डों के पीछे कोई न कोई दिशा है और कोई न कोई संकेत है। वही
उसका प्राण है। जब कर्मकाण्डों को पूर्ण मान लिया गया, तो हमारा दुर्भाग्य
वहीं से प्रारंभ हो गया। झण्डी को पूर्ण मान लिया गया। रेलवे का गार्ड हरी
झण्डी दिखाता है तो गाड़ी चल पड़ी। लाल झण्डी दिखाता है तो गाड़ी खड़ी हो गयी।
झंडी से गाड़ी चलती है?
हाँ साहब! झण्डी में बड़ी ताकत रहती है। कितनी ताकत रहती है? झंडी में
बिजली के २००० वॉट के बराबर ताकत रहती है। हरे रंग की झंडी दिखाइये, वह
गाड़ी को खींचती हुई चली जायेगी। नहीं साहब! झंडी गाड़ी को कैसे खींच सकती
है? इंजन को स्टीम खींचती है, ड्राइवर की अकल खींचती है। फिर यह झंडी किस
काम आती है? यह झंडी इशारा करती है और दिशा देती है कि अब चलना चाहिए, लाइन
क्लियर हो गयी है। टाइम हो गया है और अब रास्ता साफ है। यह बताने के लिए
झंडी इशारा है कि इस तरफ चलिए और कुछ भी नहीं है।
मित्रो! लाल झंडी में बड़ी ताकत है। कितनी ताकत है? जितनी कि राममूर्ति
पहलवान में थी। राममूर्ति पहलवान अपनी ताकत से, अपनी कुब्बत से चलती
गाड़ियों को रोक लिया करते थे। हमारे जमाने में सरकसों में पहले राममूर्ति
आते थे। उनका यह खेल होता था कि मोटर स्टार्ट होती थी और वे अपनी ताकत से
स्टार्ट की हुई मोटर को रोक लिया करते थे। लाल झंडी में क्या ताकत होती है?
बेटे, हम कोई बात नहीं कहते। वह एक इशारा है-लाल रंग का इशारा, हरे रंग का
इशारा।
आध्यात्मिकता के सारे के सारे कर्मकाण्ड संकेत हैं। अगर यह बात समझ में
आ जाय, तो बस काम बन जाय और अगर आप यह ख्याल करते रहेंगे कि कर्मकाण्डों
में ही कोई जादू है और इन्हीं कर्मकाण्डों में न जाने क्या से क्या फायदा
है। इन्हीं कर्मकाण्डों को देख करके देवी-देवता प्रसन्न हो जाते हैं, मंत्र
प्रसन्न हो जाते हैं, भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। सब पैसे लेकर के आते
हैं, माल ले करके आते हैं। बेटी-बेटा ले करके आते हैं। बेटे, इस तरह समझने
वाला व्यक्ति अज्ञान में डूबा हुआ होगा और कुछ नहीं।
मित्रो! कर्मकाण्डों का कोई खास महत्त्व नहीं होता। अगर कर्मकाण्डों का
महत्त्व रहा होता, तो ये पंडित लोग, साधु लोग, दूसरों के लिए पूजा-पाठ
करने वाले लोग अब तक मालदार हो गये होते और अमीर हो गये होते, और पैसे वाले
हो गये होते। बलवान हो गये होते, पहलवान हो गये होते, विद्वान हो गये होते
और ज्ञानी हो गये होते परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। जैसे थे, वैसे के वैसे
ही हैं। भीख माँगते हैं और भूख से मरते हैं। नहीं साहब! हनुमान जी में बड़ी
ताकत है। क्या ताकत है, कोई ताकत नहीं है।
कैसा हो हमारी चेतना का स्तर?
मित्रो! आपको यह मानकर ही चलना पड़ेगा कि इनके पीछे केवल संकेत
और इशारे हैं। यह संकेत और इशारे बताते हैं कि हमारा आध्यात्मिक जीवन कैसा
होना चाहिए और हमारी चेतना का स्तर कैसा होना चाहिए। अगर इस सिद्धान्त को
आप स्वीकार कर लें, तो मैं समझूँगा कि आपने आध्यात्मिकता का पहला वाला पाठ
पढ़ लिया। और अगर आप यह ख्याल करते रहेंगे कि कर्मकाण्डों का जादू निहाल कर
सकता है, तो मैं आपको गलत दिशा में भटकता हुआ इंसान मानूँगा। जादू किसे
कहते हैं? जरा सी मिट्टी हाथ में ली, लकड़ी फिराई, फूँक मार दी और क्या बन
गया? रुपया बन गया। इस प्रकार से बन सकता है रुपया?
अगर मिट्टी से फूँक मार करके रुपये बना करते, तो बेटे, गवर्नमेंट को
टकसाल खोलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। बाजीगर लोग टकसाल खोले होते और रुपये
बनाते। साहब! दस रुपये का नोट बनाइये, सौ रुपये का नोट बनाइये। टकसाल का
काम बाजीगरों के जिम्मे हो गया होता और ये बाजीगर भीख माँगने और तमाशा
दिखाने के लिए नहीं आते। तब वे सारे के सारे बाजीगर मिट्टी से रुपया
बना-बना करके बिरला सेठ हो जात। डालमिया हो जाते और दूसरे आदमी टाटा हो
जाते। उनके पास रुपयों का ठिकाना न रहता, फिर वे क्यों भीख माँगते?
मित्रो! जादू सही है या गलत? जादू गलत है। फिर सही क्या है? बेटे, सही
है इसकी साइंस। मिट्टी से रुपया बन सकता है? कैसे बन सकता है? आप मिट्टी
लीजिए, मिट्टी से ईंटें बनाइये और ईंटें बना करके बाजार में बेच दीजिए और
पैसा कमा लाइये। मिट्टी में मशक्कत कीजिए। मिट्टी में बीज बोइये, बगीचा
लगाइये। मिट्टी में खेती कीजिए और मिट्टी में से रुपये कमा लीजिए। मिट्टी
में से रुपया साइंटिफिक तरीके से कमाया जाता है।
अध्यात्म भी विज्ञान है
मित्रो! अध्यात्म साइंटिफिक है, मैजिक नहीं है जैसा कि आपने
और हम लोगों ने समझ रखा है। मैजिक घुमाइए, पैसा कमाइए। माला घुमाने से पैसा
कमाया गया होता, तो माला बेचने वाले एक लाख रुपये की माला बेचते। अपने
पड़ोसियों को बेचते और अपने जमाई को बेचते, अपने साले को बेचते। आप लोग भी
जाते और कहते-साहब! माला दीजिए। नहीं साहब! माला बिकाऊ नहीं है। एक माला के
पचीस हजार रुपये दीजिए, तब हम आपको कम से कम एक माला दे सकते हैं। माला
घुमाने से लक्ष्मी आयी होती, तो माला की कीमत कितनी हो सकती थी, जरा हिसाब
तो लगाइये। तब यह चवन्नी में नहीं बिकती और तीन आने में नहीं बिकती। तब यह
सड़क पर रखी नहीं मिलती। फिर बेटे, यह किसी सेफ में रखी जाती और जौहरियों के
डिब्बों और तिजोरियों में रहती। इतना भी नहीं समझता मूर्ख, बात तो समझ।
इसलिए मित्रो! वह आध्यात्मिकता, जो हमारे ऋषियों के पास थी। वह
आध्यात्मिकता, जिसको प्राप्त करने के बाद यह देश नर-रत्नों की खदान हो गया
था। वह आध्यात्मिकता, जिसने भारत के इतिहास को जमीन से ले करके आसमान तक
पहुँचा दिया था। वह आध्यात्मिकता, जिसकी वजह से इस देश का प्रत्येक नागरिक
देवताओं की श्रेणी में गिना जाता था और वह अध्यात्म जिसने न केवल भारत वर्ष
को ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ बनाया था, बल्कि किसी जमाने में सारे संसार में
शिक्षा का प्रसार, सामाजिकता का प्रसार, पशु-पालन का प्रसार, ज्ञान का
प्रसार, विज्ञान का प्रसार-सारे का सारा प्रसार किया था।
‘‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’’ नामक मेरी पुस्तक अभी थोड़े
दिन पहले छपी है। पिछले साल मैंने लिखी थी। इसमें बताया है कि हिन्दुस्तान
के लोगों ने सारे संसार को किस तरीके से अपनी क्षमता के द्वारा, प्रतिभा के
द्वारा, अपनी क्रियाशक्ति के द्वारा समर्थ बना दिया था। लोगों को हुकूमत
करना नहीं आता था। शासन करना नहीं आता था। कच्छ और गुजरात के लोग चले गये।
शैलेन्द्र खानदान के लोग जावा में चले गये, मलेशिया मे चले गये। सिंगापुर
में चले गये और वहाँ के जंगली लोगों को यह सिखाया कि हुकूमत किसे कहते हैं?
शासन किसे कहते हैं? समाज किसे कहते हैं? शादियाँ किसे कहते हैं? कपड़ा
किसे कहते हैं? सारी दुनिया के जंगली लोगों में उन्होंने सभ्यता सिखायी। न
केवल एशिया में, बल्कि सारे संसार में सिखायी।
मित्रो! अभी ‘मय सभ्यता’ का मैंने इतिहास लिखा है। उसी पुस्तक में
जिसमें अमेरिका वाले लोग कहते हैं कि कोलम्बस से पहले यहाँ सब खाली था।
अमेरिका वीरान था और यहाँ रेड इंडियन रहते थे। हाँ इंडियन रहते थे परन्तु
रेड की बात गलत है। कोलम्बस जिस हिन्दुस्तान को तलाश करने के लिए गया था,
वह वहाँ न पहुँचकर अमेरिका जा पहुँचा था। बात सही है? हाँ सही है।
हिन्दुस्तान में ‘‘मय’’ नाम का एक दैत्य था। कौन सा था? जो लंका के रावण के
खानदान का था, जो पाताल लोक में रहता था। कौन-कौन रहता था? महिरावण रहता
था और अहिरावण रहता था। महिरावण और अहिरावण का उल्लेख इतिहास-पुराणों में
मिलता है। वही लोग अमेरिका चले गये थे और मय सभ्यता का उन्होंने विकास किया
था। अमेरिका में जो चीजें पुरानी पायी गयी हैं, पेरू, मैक्सिको एवं और
दूसरी जगहों में जो प्राचीन चीजें पायी गयी हैं, उन सारी की सारी चीजों में
यह मालूम पड़ता है कि कभी यह दूसरा हिन्दुस्तान रहा होगा।
मित्रो! हिन्दुस्तान के लोग कितने लम्बे-लम्बे सफर करते हुए पाताल लोक
पर जा पहुँचे थे। न केवल पाताल लोक पर, बल्कि सारे यूरोप पर छाये हुए थे,
अफ्रीका पर छाये हुए थे। अफ्रीका में जो पिरामिड बने हुए हैं, उन पिरामिडों
की जो खुदाई हुई है और उनके भीतर जो चीजें पायी गयी हैं, उनसे मालूम पड़ता
है कि वे हिन्दू लोगों द्वारा निर्मित थे। हिन्दू प्रतीकों के तरीके से
वहाँ गाय की प्रतिमा पायी गयी है, और चीजें पायी गयी हैं। इतने ढेरों निशान
पाये गये हैं, जिनसे मालूम पड़ता है कि अफ्रीका में किसी जमाने में हिन्दू
धर्म छाया हुआ था। सारी दुनिया में ये लोग छा गये थे। सारी दुनिया में वे न
जाने क्या से क्या कर रहे थे। देवता लोग-कौन थे? हिन्दुस्तान के नागरिक।
क्या विशेषताएँ थीं इनकी? यही विशेषता थी कि नाक, आँख, कान तो हमारे-आपके
तरीके के थे। चावल, दाल, रोटी, शाक तो वे लोग हमारे-आपके तरीके से खाते थे,
लेकिन वे देव थे।
देवों की क्या विशेषताएँ होती हैं? वही जो अभी-अभी मैंने आपके सामने
निवेदन किया था कि उनकी विचारणाएँ देवतुल्य थीं, दैवी गुणों से परिपूर्ण
थीं। बेटे उसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए हम जिसकी उपासना करना चाहते
हैं, जिसका हम फिर से अवतरण करना चाहते हैं, जिसको हम फिर से जाग्रत करना
चाहते हैं। जिसको हम फिर से जीवन्त करना चाहते हैं और जिसकी निष्ठा,
श्रद्धा और विश्वास हम जन-जन के अंतःकरण में जमाना चाहते हैं।
इसी उद्देश्य को ले करके तो हमने आपको यहाँ बुलाया है। जिस उपासना को
करने के लिए आपको यहाँ बुलाया गया है, उसमें कर्मकाण्ड मुख्य नहीं है।
कर्मकाण्ड हम बहुत पहले ही आपको सिखा चुके हैं और समझा चुके हैं। माला कैसे
घुमानी चाहिए, मंत्र का उच्चारण कैसे करना चाहिए और बीजमंत्र कैसे लगाना
चाहिए, यह सब तो मुद्दतों पहले ही हमने आपको बता दिया था। अब और पिसे को
पीसने का हमको कोई शौक नहीं है। जो बता दिया गया और आपने जान लिया, उसको
फिर से बताने का हमें कोई शौक नहीं है।
अध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप
मित्रो! हम विशेष उद्देश्य से यह शिविर बुलाते हैं। ये शिविर
इसलिए बुलाते हैं कि आध्यात्मिकता का वास्तविक स्वरूप आपको हृदयंगम कराया
जा सके। आप तो कर्मकाण्डों में उलझे रहते हैं, जबकि कर्मकाण्डों से आगे जा
करके आध्यात्मिकता वह है, जो हमारी चेतना को प्रभावित करती है। जो हमारी
आस्थाओं को प्रभावित करती है। जो हमारी विचारणाओं को प्रभावित करती है। जो
हमारी क्रियाशक्ति को उलट-पुलट कर रख देती है और जो हमारे जीवन का कायाकल्प
करके रख देती है। जो हमें दिशायें देती है, जो हमको धारायें देती है और जो
हमको प्रेरणाएँ देती है, जो हमको प्रकाश देती है, वह आध्यात्मिकता है। वह
आध्यात्मिकता का प्राण है और कर्मकाण्ड उसका कलेवर है। कौन सा? जो आपने
मुद्दतों से सीख रखा है। जिसे आप पहले से जानते हैं और जिनको आप करते भी
हैं और काम में भी लाते हैं लेकिन प्राणरहित, जीवनरहित, आस्थारहित और केवल
निर्जीव उपासना करते रहते हैं।
मित्रो! निर्जीव उपासना से क्या मिलने वाला है। मैं आपको निर्जीव
उपासना के बावत कह चुका हूँ। निर्जीव वाली गाय को आप खरीद करके लाइये। आप
उसकी शक्ल देख सकते हैं, लेकिन आप उससे दूध नहीं पा सकते। जीवित गाय ही
आपको दूध दे सकती है। जीवित गाय ही आपको बछड़ा देने में समर्थ है। जीवित गाय
ही आपको गोबर दे सकती है। मरी हुई और मिट्टी की गाय में से कोई चीज काम
में नहीं लाई जा सकती।
मिट्टी का अध्यात्म कर्मकाण्डों तक सीमित है। इसके बावत लोगों ने यह कर
लिया है कि ये कर लेंगे, वो कर लेंगे। नाक में से हवा निकाल लेंगे, कान
में अँगुली लगा देंगे। जीभ से अक्षरों का उच्चारण कर लेंगे। वस्तुओं की
हेरा−फेरी कर लेंगे। इसको यहाँ रख देंगे। चंदन को ऐसे लगा देंगे। बेटे यह
मरी हुई, निर्जीव और केवल कर्मकाण्डपरक आध्यात्मिकता है। इसका क्या फल मिल
सकता है? हम नहीं कह सकते कि कोई फल मिलता भी है या नहीं मिलता। मिला होता
तो पुजारियों को जरूर मिला होता, जिन्होंने बारह-बारह घंटे भजन-पूजन किये
हैं।
मित्रो! मैं आपको जीवन्त अध्यात्म का शिक्षण देते हुए वह पाठ जो
कर्मकाण्डों के माध्यम से आपको सिखाये जाने चाहिए थे और सिखाये जाने चाहिए,
बताता और समझाता रहा हूँ। पहला वाला पाठ कल मैंने आपको समझाया था और यह
कहा था कि स्वच्छता न केवल शरीर की, न केवल कपड़ों की, न केवल मन की होनी
चाहिए, क्योंकि यह तो आवश्यक कर्तव्य है। यह तो हर नागरिक का कर्तव्य है कि
आप अपने को साफ रखें। अपने मकान को साफ रखें। यह तो नागरिक कर्तव्य-सिविल
सेंस है, जो आपको करना ही चाहिए लेकिन इससे आगे वाली सफाई जो कि आपकी
विचारणा के ऊपर, आपकी आस्थाओं के ऊपर और आपकी क्रियाओं के ऊपर छा गयी है,
उसको आप साफ कीजिए। अगर आप इसे साफ कर लेते हैं तो आध्यात्मिकता की पहली
वाली शर्त पूरी कर देते हैं और आध्यात्मिकता का पहला वाला पाठ पढ़ लेते हैं।
परिष्कार के चार मार्ग
मित्रो! आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और
आत्मविकास-ये चार रास्ते हैं। आप अपने आप में देखिए। अपने गिरेबान में मुँह
डालिए और तलाश कीजिए कि हमारे विचारों में क्या-क्या गलतियाँ हैं? हमारी
क्रियाओं में क्या-क्या गलतियाँ हैं? हमारी आस्थाओं में क्या-क्या गलतियाँ
हैं? हमारी आस्थाओं में क्या-क्या गलतियाँ भरी पड़ी हैं? उनको आप तलाश कीजिए
और उनको बुहारिए, झाड़ू लगाइये। कूड़े को फेंक करके आइए।
‘‘मन-मंदिर में बावरे तू झाड़ू नित्य लगाया कर।’’ मन-मंदिर में झाड़ू
लगाने का काम कैसे करें, कल मैंने यह बात आपको समझाने की कोशिश की थी। पहली
वाली शर्त अगर आपने समझी होगी, तो आपने यह अवश्य समझा होगा कि हम अपने
आपकी समीक्षा करें। अपने आपका निरीक्षण करें। अपने साथ में कठोरता बरतें और
जो गलतियाँ हमारे ऊपर हावी हो गयी हैं, उन गलतियों को मिटाने के लिए, उन
गलतियों को हटाने के लिए पूरी ताकत लगा दें। स्वयं के साथ लड़ पड़ें। आप अपने
आप से लड़िए। अपने आप से लड़ना आध्यात्मिकता की पहली वाली शर्त है।
मित्रो! आप कहेंगे कि साहब! हमारे अंदर तो बहुत सारी कमजोरियाँ हैं। हम
उनसे नहीं लड़ सकते। लड़ने के लिए बेटे, तूने कल्पनायें की हैं कि इन
बुराइयों को हटायेंगे। कल्पना कभी किसी की पूरी नहीं हो सकी। गुरुजी! हमारी
मनोकामना पूरी नहीं होती। बेटे, तेरी मनोकामना कभी पूरी नहीं हो सकती।
दुनिया में किसी की भी मनोकामना कभी पूरी नहीं हो सकती। दुनिया में किसी की
भी मनोकामना कभी भी पूरी नहीं हुई तो तेरी कैसे पूरी हो जायेगी? कल्पना
कभी पूरी नहीं होती। तो क्या-क्या चीज पूरी होती है? संकल्प पूरे होते हैं।
आदमी ने संकल्प किया है तो वह जरूर पूरा हो करके रहेगा। संकल्प में रुकावट
डालने वाला दुनिया में कोई पैदा नहीं हुआ। मनुष्य का संकल्प इतना तीव्र,
इतना प्रखर, इतना वास्तविक होता है कि संसार की कोई परिस्थिति उसमें रुकावट
नहीं डाल सकती।
संकल्प किसे कहते हैं? संकल्प उसे कहते हैं जिसमें कि आदमी कीमत चुकाने
के लिए तैयार हो जाता है। कीमत चुकाइए, परिणाम पाइये। नहीं साहब! हम तो
कीमत नहीं चुकाना चाहते। कल्पना करना चाहते हैं और मनोकामना पूरी कराना
चाहते हैं। तो बेटे, मैं तेरा नाम शेखचिल्ली रखूँगा। आप हमारा नाम
शेखचिल्ली क्यों रखेंगे? इसलिए रखेंगे कि शेखचिल्ली की हैसियत और तेरी
हैसियत बिल्कुल एक जैसी है। तराजू के एक पलड़े में शेखचिल्ली को बिठा देंगे
और दूसरे में तुझे बिठा दें, तो दोनों का वजन बराबर हो जायेगा। कैसे
साहब!
शेख-चिल्ली कल्पना करता था। क्या कल्पना करता था? यह कि सिर पर जो घड़ा
रखा हुआ है, इसके दो पैसे मिलेंगे। उससे मुर्गी का अण्डा लाऊँगा और फिर
बच्चा निकालूँगा। फिर मुर्गी बेच करके बकरी खरीदूँगा। फिर बकरी से गाय-भैंस
खरीदूँगा। गाय-भैंस बेच करके ब्याह करूँगा। ब्याह करने के बाद में बच्चे
पैदा हो जायेंगे। और बच्चे कहेंगे कि चलिए पिताजी! घर में मम्मी बुला रही
है। सिर हिलाते ही सिर पर रखा घड़ा गिरा और सारा खेल खत्म हो गया। आप केवल
बैठे-बैठे कल्पनायें ही करते रहते हैं। कल्पनाओं की कोई कीमत है? कल्पनाओं
की कोई औकात है? कल्पनाओं की-इच्छाओं की कोई कीमत नहीं है।
हम ही हैं हमारे भाग्य विधाता
मित्रो! हर चीज की कीमत है। अपना श्रम और अपना मनोयोग, उस काम
में लगाइए, जिसे आप करना चाहते हैं और उन्नति की ओर बढ़ते हुए चले जाइए,
जैसे कि जॉर्ज वाशिंगटन गरीबी की अवस्था में से ऊपर उठते हुए चले गए थे।
अब्राहम लिंकन ऐसे परिवार में पैदा हुए थे, जहाँ बेचारों के लिए रोटी खाने
तक की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन वे अमेरिका के राष्ट्रपति हो करके रहे।
वाशिंगटन, अमेरिका के राष्ट्रपति हो करके रहे। ऐसे महामानव न केवल उस देश
में, बल्कि इस देश में भी पैदा हुए हैं और सारी दुनिया में पैदा हुए हैं।
संकल्पवान व्यक्ति किस तरह से आगे बढ़े। नेपोलियन बोनापार्ट सरीखा व्यक्ति,
कमजोर व्यक्ति, जो सिपाही बनने के लिए कोशिश करता था, लेकिन कितना बड़ा
अधिनायक बन गया।
सारी-की दुनिया के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति इसी तरह से हुए हैं, जिन्होंने
अपने संकल्प किए हैं, निश्चय किए हैं और निश्चय करके कीमत चुकाने के लिए
तैयार हो गए। क्या कीमत हो सकती है? बेटे, अपने आपके साथ, अपनी कमजोरियों
के साथ लड़ाई लड़ना है। वास्तव में हमें किसी ने नहीं गिराया है। हमें गिराने
की ताकत दुनिया में किसी में नहीं है। हम अपने आपको स्वयं गिराते हैं।
हमारी कमजोरियों के अलावा, कोई हमें गिराने वाला नहीं है और हमारी
संकल्पशक्ति के अलावा दुनिया में हमें कोई उठाने वाला नहीं है। नहीं साहब!
भगवान जी उठा सकते हैं। नहीं बेटे, भगवान जी नहीं उठा सकते। देवता गिरा
सकते हैं? शनिश्चर गिरा सकते हैं? नहीं बेटे, देवता या शनिश्चर नहीं गिरा
सकते हैं? देवता उठा सकते हैं? नहीं बेटे, देवता नहीं उठा सकते। कोई किसी
तरह नहीं गिरा सकता। आप ही अपने आपको गिराते हैं और आप ही उठाते हैं।
इसलिए मित्रो! कल के पाठ में हमने आपको यह बताया था कि आप बाहर तलाश
करने की अपेक्षा, अपनी मुसीबतों का कारण अपने भीतर तलाश कीजिए। अपनी तरक्की
का सहारा बाहर मत देखिए, वरन् अपनी नाभि में देखिए और कस्तूरी हिरण की
तरीके से तलाश करिए कि आपके भीतर ही सुगंध है और आपके भीतर ही वह सारी
मुसीबतें हैं जिसकी वजह से आप तबाह हुए हैं और भविष्य में तबाह होंगे।
इसलिए आत्मशोधन करना, अपने आपकी साफ-सफाई करना, अपने आपको ठीक करना और अपनी
गलतियों को सँभाल लेना, अपने आपको परिष्कृत कर लेना—यह पहला वाला पाठ था,
जो मैंने आपको बताया था कि गायत्री मंत्र में जो पाँच क्रियाएँ, जिनको हम
षट्कर्म कहते हैं, इसीलिए बताए जाते हैं। आज हम आपको एक और पाठ पढ़ाना चाहते
हैं। वह यह पाठ पढ़ाना चाहते हैं कि आपको अपना कोई-न लक्ष्य निर्धारित करना
चाहिए।
इष्ट माने लक्ष्य
मित्रो! लक्ष्य को संस्कृत में—आध्यात्मिक भाषा में कहते
हैं—इष्ट। इष्ट किसे कहते हैं? आपका कौन-सा इष्ट है? साहब! हमारे इष्ट
हैं—हनुमान और आपका इष्ट क्या है? देवी। आपका इष्ट क्या है? रामचंद्र जी।
आपका इष्ट क्या है? गणेश जी। सबके इष्ट होते हैं न? हाँ साहब! क्या अर्थ
होता है—इष्ट का? इष्ट किसे कहते हैं? हिन्दी में बताइए आप। बेटे, इष्ट
कहते हैं—लक्ष्य को। लक्ष्य से क्या मतलब है?
लक्ष्य से यह मतलब है कि आपको जाना कहाँ है और बनना क्या है? आपके
सामने कोई नक्शा तो होना चाहिए। कहाँ जा रहे हैं साहब? ऋषिकेश। कितनी दूर
है? १२ मील दूर है। कितना किराया लगता है? २६ रुपये लगते हैं। लक्ष्य
निर्धारित हो गया न कि कहाँ जा रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं साहब? बम्बई या
कलकत्ता जा रहा हूँ। फिर मैं मद्रास या कश्मीर चला जाऊँगा। फिर कहाँ
जाएँगे? अरे साहब! जहाँ कहीं रेलगाड़ी ले जाएगी, वहीं चला जाऊँगा। यह भी कोई
तरीका है? यह भी कोई ढंग है? बेटे क्या पढ़ेगा? स्कूल में पढ़ूँगा। अरे
बेटे, यह तो बता कि तू पढ़ेगा क्या? फिजिक्स पढ़ेगा, साइंस पढ़ेगा, कॉमर्स
पढ़ेगा, आर्ट्स पढ़ेगा? नहीं साहब! जो मास्टर पढ़ा देंगे, वही पढ़ूँगा। यह भी
कोई तरीका है? यह भी कोई ढंग है? दुनिया में कहीं ऐसी कोई पढ़ाई होती है
क्या? पढ़ाई के लिए हमेशा लक्ष्य तय करना पड़ता है, इष्ट तय करना पड़ता है।
मित्रो! जब कोई सफर करना पड़ता है, तो उसके लिए इष्ट तय करना पड़ता है।
आध्यात्मिक तरक्की के लिए भी हमें कोई इष्ट तय करना पड़ता है। इसे कहते
हैं—लक्ष्य। हमको अपने जीवन का विकास करते-करते कहाँ जा पहुँचना है? वह जगह
कहाँ होनी चाहिए? जहाँ हमें पहुँच जाना है, जहाँ तुम्हें पहुँचना है, उसे
मैं देवताओं का सिंबल कहता हूँ। मेरी लड़कियाँ कल आपको समझाने की कोशिश कर
रही थीं कि देवता सिंबल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। नहीं साहब! देवता ऐसे
होते हैं, जो फालतू में यह तलाश कर रहे होते हैं कि हमारा पाठ कौन कर रहा
है? जो कोई पाठ कर रहा होता है? उसे डायरी में नोट करते रहते हैं। आपने
कितना पाठ किया लाला गुलाब चंद्र जी? हनुमान जी का ३२४ पाठ किया। अच्छा
साहब! ३९९० रुपयों का थैला, उसके यहाँ भेज दीजिए। पाठ करने वालों के यहाँ
इस तरह के फूल की, परिणाम की वर्षा होती है, आप यही समझते थे न? देवताओं का
यही धंधा है? देवताओं का यही पेशा है कि लोगों के लिए चीजें तलाश करते
फिरें।
मनोकामना पूरी करना नहीं है काम देवताओं का
मित्रो! किसने कितने अक्षत चढ़ा दिये, कितनी पूजा कर दी, कितने
पाठ करा दिये? उसी पाठ के हिसाब से उसकी मनोकामना पूरी कर दी जाए, देवताओं
के जिम्मे बस यही काम रह गया है? पाठ कीजिए, मनोकामना पूरी कीजिए। अरे
मुनीम जी! लोगों का जल्दी-जल्दी एकाउण्ट तैयार कीजिए। क्या करें? ठाकुर
रामलाल जी ने चंडी के ग्यारह पाठ कराए। चंडी जी! इनको पैसा दीजिए। क्या
भेजें? इनके ऊपर तो इन्कमटैक्स के सात मुकदमे चल रहे हैं, तो ठीक कराइए?
चंडी जी का पाठ कराइए और मुकदमे जीत करके लाइए। चंडी जी का एकाउण्ट ठीक
कराइए। हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। आप इस धंधे को समझते हैं और सोचते हैं
कि देवताओं का यही धंधा है। फिर तो देवता बड़े घटिया और निकम्मे आदमी हैं,
जो दुनिया में से कर्म के फल के सिद्धांत को खतम करना चाहते हैं। पुरुषार्थ
को खतम करना चाहते हैं। न्याय को खतम करना चाहते हैं। इंसाफ को खतम करना
चाहते हैं और पूजा-पाठ की रिश्वत लेकर के आपकी मनोकामना को पूरा करना चाहते
हैं।
मित्रो! आपके पाठ को मैं रिश्वत कहूँगा, चालाकी और चमचागिरी कहूँगा।
लड़कियाँ कल कह रही थीं—चमचागिरी। यह शब्द मुझे बहुत फिट लगा, आपके
स्तोत्रपाठ के लिए। आप क्या स्तोत्रपाठ कर रहे हैं? किसका स्तोत्रपाठ कर
रहे हैं? हनुमान जी का स्तोत्रपाठ कर रहे हैं। क्या-क्या कह रहे हैं—
सहस्र योजन जापर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
सहस्र योजन लंबा जो सूर्य है, उसको हनुमान जी ने गाल में दबा लिया। गाल
में दबा करके मीठे फल नारंगी की तरह से सूरज को चबाने लगे। बात समझ में
आती है।
यह चमचागिरी की इंतहा है। पुराने जमाने में चारण थे। वे भी यही कहते थे
कि राजा साहब की गद्दी बनी रहे और राजा साहब ऐसे और वैसे बने रहें। आपने
तो आखिर कर ही दिया। सूरज कितना लंबा है? चार सौ मील लंबा है। नहीं बेटे,
वह करोड़ मील लंबा है। फिर पृथ्वी पर बैठा हुआ कोई मनुष्य या देवता—मसलन
हनुमान, हैं तो पृथ्वी पर ही। हाँ साहब! और पृथ्वी से बड़े तो नहीं हैं?
आदमी जब पृथ्वी पर खड़ा होगा, तो उसका गाल पृथ्वी के बराबर होगा कि छोटा
होगा और सूरज तो करोड़ों गुना बड़ा है, तो फिर हनुमान जी उसे गाल में कैसे ले
लेंगे? मुझे समझा तो दीजिए। सूरज की गरमी हमें यहाँ तपा देती है और अगर
वही गरमी हनुमान के गाल में जाएगी, तो उनका गाल जलेगा या रह जाएगा? ‘‘सहस्र
योजन जा पर भानू।’’ बस, हनुमान जी की चमचागिरी करेंगे और मनोकामना पूरी
कराएँगे, पागल कहीं के।
देवताओं की दुर्गति तो न करें
मित्रो! यही पागलपन और यही जाहिलपन जो कि आपके ऊपर हावी हो
गया है और देवताओं को भी घटिया बनाना चाहता है। आप घटिया रहें तो रहें,
परंतु देवताओं को ऐसा क्यों बनाते हैं? देवताओं की क्यों मिट्टीपलीद करते
हैं। देवताओं की दुर्गति करने पर क्यों उतारू हो गए हैं? आप माँस खाएँ, ठीक
है। अपने साहब को ह्विस्की पिलाइए, मटन-मुर्गा खिलाइए, उससे काम निकालिए।
नहीं साहब! हम तो देवताओं के साथ भी यही सलूक करना चाहते हैं। भैरव जी को
भी शराब पिलाना चाहते हैं। देवी जी को भी मटन खिलाना चाहते हैं। उनको आमलेट
खिलाना चाहते हैं और उनसे मनोकामना पूरी कराना चाहते हैं। अरे बाबा! इन पर
तो दया कर, इन पर तो रहम कर, तू चाहे वहशी बन, पर इनको तो भला आदमी बना
रहने दे। देवता नाम जिनके लिए इस्तेमाल किया जाता है, कम-से देवता के नाम
को तो इस्तेमाल करने के लायक बने रहने दे। देवताओं को तो बदनाम मत कर।
देवताओं को तो इतना कमीना मत बना। देवताओं की मिट्टीपलीद तो मत कर।
लेकिन मित्रो! आजकल लोगों ने अपनी मिट्टीपलीद करने के बाद यह कसम खायी
है कि हम हर किसी की मिट्टीपलीद करेंगे और वह दूसरा आदमी होगा देवता।
देवताओं को हम घटिया बनाकर छोड़ेंगे। देवताओं को सिद्धान्तरहित बना करके
छोड़ेंगे। देवताओं को पक्षपाती बना करके छोड़ेंगे। देवताओं को कर्मफल के
सिद्धांत को न मानने वाला बना करके छोड़ेंगे और न जाने क्या-से बना करके
छोड़ेंगे। बेटे, देवताओं पर दया करो, देवताओं को क्षमा करो। देवताओं पर
करुणा करो। देवताओं को जिंदा रहने दो। आप देवताओं का पूजन करने चले हैं, तो
उनको जिंदा रहने दें।
मित्रो! देवताओं का उद्देश्य क्या हो सकता है? देवताओं का उद्देश्य एक
ही है और वह है—हमारा इष्ट। इष्ट माने लक्ष्य। लक्ष्य माने जैसा बनना है।
आखिर बनना क्या है? जाना कहाँ हैं? उनके सिद्धांत क्या हैं? आखिर हमको बनना
क्या है, इष्ट इसी का नाम है। देवता के नाम पर हम एक अलंकारिक प्रतिमा बना
करके रखते हैं और यह देखते हैं कि हमें क्या बनना चाहिए? आप कभी ताजमहल
देखने गए हों और आपने वहाँ का म्यूजियम देखा हो, तो शाहजहाँ ने ताजमहल
बनाने से पहले न केवल कागज पर नक्शे बनाए थे, बल्कि एक मॉडल भी बनाया था।
इंजीनियरों से कहा कि साहब! आप यह नक्शे कागज पर बनाकर ले आते हैं, जो
हमारी समझ में नहीं आता। आप एक मॉडल बना करके ले आएँ ताकि हम यह देख लें कि
ताजमहल कितना खूबसूरत बनता है। इंजीनियर मॉडल बना करके ले आए। शाहजहाँ ने
कहा कि देखिए यह मीनार इसके हिसाब से कम मालूम पड़ती है। इसका टॉप इस पोरशन
से कम है, इसको आप बढ़ा दीजिए। इसको घटा दीजिए। इसकी चौड़ाई कम कीजिए। इसकी
लंबाई बढ़ाइए। इंजीनियरों ने नक्शे के मॉडल को काट-छाँट करके ठीक कर दिया और
जब शाहजहाँ ने पसंद कर लिया कि हाँ, यह प्रपोजल हमको मंजूर है। इसकी यह
शेप हमें मंजूर है। बस उसी हिसाब से, उसी प्रपोजल के हिसाब से नींव खोदनी
शुरू की गयी और ताजमहल बनाना शुरू कर दिया।
जीवन का आदर्श हैं देवता
मित्रो! मॉडल किसका था? ताजमहल का। आप दयालबाग जाइए। आपका
आगरा कभी जाना हुआ तो आप दयालबाग जाना। वहाँ स्वामी जी महाराज की समाधि बन
रही है। समाधि बनाने से पहले कमेटी के मेंबरों ने यह निश्चय किया कि हमको
अपने गुरु की समाधि कैसी बनानी है-इसके लिए भी इंजीनियरों ने एक मॉडल बनाया
था। कितने मंजिल की इमारत बनेगी, सीढ़ियाँ कैसी बनेंगी? नक्शा कैसे बनेगा?
सारी-की चीजें बना करके एक मॉडल तैयार कर लिया गया। आप दयालबाग के म्यूजियम
में जाइए और तलाश करके यह पता लगाइए कि आपका दयालबाग बनने वाला है, गुरुजी
की समाधि बनने वाली है, वह कितनी बन गयी और कितनी बननी बाकी है? वह फट से
आपको मॉडल दिखा देंगे। देखिए यहाँ तक तो बन चुकी है और इतनी बननी बाकी है।
इसमें अमुक-अमुक चीजें तैयार हो गयीं और अमुक-अमुक चीजें बाकी हैं। वहाँ
मॉडल बना हुआ रखा है।
मित्रो! हमारे जीवन का मॉडल, हमारे जीवन के लक्ष्य का मॉडल-देव है।
देवताओं को कैसा बनना चाहिए, कैसा होना चाहिए? यह सारी-की बातें हमारी
बच्चियाँ व्याख्या के रूप में समझा रहीं थी। हमको और आपको कौन-सा आदर्श
पसंद है? शिव पसंद है, तो आप यह मानकर चलिए कि शिव भगवान कैसे हैं? वे गंगा
के रूप में उत्कृष्ट विचारधारा को प्रवाहित करते हैं। आप विचार कीजिए कि
हमारे शिव के, सिर के ऊपर चंद्रमा टँगा हुआ है अर्थात् उनका मस्तिष्क हमेशा
संतुलित रहता है। जरा-जरा सी बात के ऊपर गरम नहीं हो जाता। जरा-जरा सी बात
के ऊपर विक्षुब्ध नहीं हो जाता।
हमारा लक्ष्य, हमारा मॉडल, हमारा मस्तिष्क कैसा होना चाहिए? जैसा कि
शंकर जी का संतुलित दिमाग-संतुलित मस्तिष्क है। हमारी विचारणाएँ कैसी होनी
चाहिए और हमारा दिमाग कैसा होना चाहिए? जैसा कि शंकर जी का है। शंकर जी के
मस्तिष्क में से गंगा की धाराएँ प्रवाहित होती हैं। हमारी लड़कियाँ आपको
समझा रही थीं कि हमारी दो आँखें नहीं, वरन् तीसरी आँख भी है। तीसरी आँख—दूर
देखने वाली आँख, भविष्य को देखने वाली आँख, बुढ़ापे को देखने वाली आँख, मौत
को देखने वाली आँख, स्वर्ग-नरक को देखने वाली आँख, अगले जन्म को देखने
वाली आँख भी है।
मित्रो! हमारी यह दो आँखें तो इतनी कमजोर हैं कि कागज पर चश्मे का नंबर
देखती हैं। कितने नंबर का चश्मा है? अरे साहब! मानइस आठ है। बिना चश्मे के
पढ़ भी नहीं पाते। बिलकुल नाक पर कागज रखकर पढ़िए। बेटे, हमको यह बीमारी हो
गयी है शॉर्टकट में अभी का, आज का फायदा हमें दिखाई पड़ता है। कल का नुकसान
हमको दिखाई नहीं पड़ता। अरे साहब! बुढ़ापे में क्या होने वाला है, यह दिखाई
नहीं पड़ता। इस समय तो मौज की छनती है, आगे की खुदा जाने। मरने के बाद क्या
होगा? बुढ़ापे में क्या होगा? जो कुछ होगा, देखा जाएगा।
अरे बेटे! संयम से तो रह। अरे साहब! संयम-वंयम से क्या रहें? अभी तो
मौज-मस्ती के दिन हैं। बुढ़ापे में ही तो मुसीबत आएगी। आँखों में मोतियाबिंद
बुढ़ापे में ही तो होगा। अभी तो बुढ़ापा बहुत दिन की बात है। अभी तो बुढ़ापे
में बाइस साल की देर है। अभी जो कुछ करना है, सो कर लें। चोरी से लेकर के
बुरे-से काम हम इसलिए करते हैं कि हम इस समय की बात देखते हैं।
मित्रो! शंकर जी के तरीके से अगर विवेक की आँख हों और आपका जीवन लक्ष्य
शिव हों तो आपको एक और आँख खोलनी चाहिए, जो कामदेव को जलाकर खाक कर सकती
है। ऐसी आँख आपको खोलनी चाहिए, जो टेलीस्कोप की तरीके से दूर की बात, कई-कई
मील दूर का नजारा हमको दिखा दे। टेलीस्कोप हमें दिखा देता है कि दुश्मन
वहाँ से आ रहा है। फौज वहाँ जा रही है। बादल वहाँ से आ रहे हैं। तूफान वहाँ
से आ रहा है। हमारा टेलीस्कोप दूर की चीज दिखा देता है।
अगर हमारा लक्ष्य शंकर जी हैं तो दूरदर्शिता और विवेकशीलता होनी ही
चाहिए और मित्रो! शंकर जी के गले में मुण्डों की माला पड़ी रहती है। आप केवल
बार-बार शीशे में अपनी इस शक्ल को न देखें, वरन् उसे भी देखें, जो मरने के
बाद में लातों से ठोकर खाता हुआ, मुण्ड सड़क पर पड़ा हुआ है और मरघट में पड़ा
हुआ है। अपना वह मुण्ड आपको दिखाई पड़ता है? नहीं साहब! हमको तो दिखाई नहीं
पड़ता। शीशे में देखकर जिस पर हम क्रीम लगाते हैं, पाउडर लगाते हैं, वह
मुण्ड तो दिखता है, पर वह मुण्ड क्यों नहीं दिखाई पड़ता जो श्मशान में पड़ा
हुआ है।
अगर आप शिव हैं, तो आपको मौत दिखाई पड़नी चाहिए और आपका घर श्मशान में
होना चाहिए। आपको मौत की तैयारी करनी चाहिए। जब हम मरेंगे तो शांति के साथ
मरेंगे। भगवान के दरवाजे पर जाएँगे तो हम शान से सिर ऊँचा उठा करके कहेंगे
कि आपने जिस उद्देश्य के लिए हमको मनुष्य का जन्म दिया था, उसे ठीक तरीके
से पूरा कर लिया। अब बताइए आप क्या हुकुम करते हैं? ऊँचा सिर लेकर के भगवान
के पास जाइए पर यह तभी हो सकता है, जब आप मौत का भी ख्याल रखें। मौत का
ख्याल तो आपको कभी नहीं आता, केवल जिंदगी का ख्याल आता है।
मित्रो! शिव की बहुत सारी बातें लड़कियाँ कह रही थीं। किस-किसकी बात
बताऊँ, सारे-के देवता हमारे जीवन के मॉडल हैं। हमारा लक्ष्य, हमारा
उद्देश्य क्या होना चाहिए? हमारे क्रियाकलाप क्या होना चाहिए? हमारी
गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए? हमारा चिंतन क्या होना चाहिए? हमारी आस्था
क्या होनी चाहिए? इन सारी समस्याओं के समाधान हम उस खिलौने के माध्यम के
द्वारा तलाश कर सकते हैं, जो शंकर के रूप में बनाया गया है और अपने आपके
बारे में, अपनी गतिविधियों के बारे में, रीति-नीति के बारे में यह फैसला कर
सकते हैं कि हमको चलना किधर है? विचार क्या करना है? ये है शंकर का मॉडल,
जिसे हमने अपना इष्ट बनाया है।
मित्रो! बाकी देवताओं के बारे में मैं आपको क्या बताऊँ? दो देवताओं के
बारे में मैं ज्यादा बता सकता हूँ, जिन पर मेरा ज्यादा विश्वास है। एक शिव
जी के ऊपर और एक शालिग्राम के ऊपर। शालिग्राम जी कैसे गोल-मटोल पिंड के रूप
में, मंदिर में रखे रहते हैं। गोल-मटोल पिंड, अरे साहब! इनके तो हाथ-पैर
भी नहीं हैं। आँख-कान, दाँत भी नहीं हैं। इनकी तो टाँगें भी नहीं है। ये तो
कपड़े भी नहीं पहनते हैं।
ये कैसे इष्टदेव हैं? बेटे, ये हमारे इष्टदेव इसलिए हैं कि ये सारे-के
विश्व के प्रतीक हैं, ग्लोब की तरीके से नमूने हैं और हम यह तय करते हैं कि
हमारा इष्ट यह सारा विश्व है और हमारा इष्ट लोकमंगल है। हमारा इष्ट समाज
है। हमारा इष्ट धर्म और संस्कृति है और जिसका प्रतीक है—यह ग्लोब, गोल-मटोल
यह पिंड। पिंड शंकर जी के रूप में है और बेटे, हमारा इष्ट है—शालिग्राम।
शालिग्राम किसे कहते हैं? अरे बेटे, नाम का फर्क है। शिवलिंग में और
विष्णु में यानि शालिग्राम में क्या फर्क है? ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा
वदन्ति’’—दोनों एक हैं। दुनिया का मालिक एक है। इस दुनिया का संचालक एक है।
अनेक देवी-देवता अगर पैदा हो गए होते, तो अब तक दुनिया में गदर फैल गया
होता। अब तक देवताओं में ऐसी आफत आ जाती कि उनमें मुकदमेबाजी हो जाती।
इलेक्शन पिटीशन दायर हो जाते। फौजदारी हो जाती, खून खराबा हो जाता। कत्लेआम
हो जाते और देवताओं में मारकाट हो जाती। फिर देवता अलग, चंडी अलग, काली
अलग, देवी अलग, सरस्वती अलग, लक्ष्मी अलग—अरे बाबा! क्या आफत आ गयी? ये तो
मुसीबत पैदा करेंगे।
मित्रो! देवताओं की इतनी हुकूमतें नहीं हो सकतीं। एक ही हुकूमत हो सकती
है। भगवान दुनिया में एक है। उसी के अनेक नाम हैं। बेटे, शालिग्राम,
विष्णु और शिव एक हैं। वे दो हो ही नहीं सकते। दो विधाता हैं ही नहीं। हमने
अलग-अलग नाम रखे हैं और कोई फर्क नहीं है। हमको कोई गुरुजी कहता है। कोई
आचार्य जी कहता है, कोई पंडित जी कहता है। कोई स्वामी जी कहता है। कोई
संपादक जी कहता है। कोई न जाने क्या-क्या कहता है? हमारे पिताजी-माताजी
हमको बेटा कहते थे और हमारा बेटा हमको पिताजी कहता है और हमारे मित्र हमको
भाईसाहब कहते हैं, न जाने हमारे कितने नाम हैं।
ऐसे ही भगवान के अनेक नाम हैं। हमारे हजारों फोटो खिंचे हुए हैं। कोई
सामने से आचार्य जी बैठे हुए हैं, कोई खाना खाते हुए है, कोई व्याख्यान
देते हुए है, तो क्या गुरुजी व्याख्यान ही देते हैं? नहीं बेटे, खाते भी
हैं, नहाते भी हैं, सोते भी हैं, केवल व्याख्यान ही नहीं देते। व्याख्यान
एक घंटे देते हैं, बाकी समय में अन्य दूसरे काम भी करते हैं। भगवान एक और
फोटो अनेक। नाम और रूप अनेक, लेकिन देवता एक। दुनिया में एक ही देवता है,
लेकिन नाम और रूप असंख्य हैं। साहब! हम तो देवी के उपासक हैं। हम गायत्री
के उपासक हैं, तो गायत्री नाराज होंगी या प्रसन्न होंगी? बेटे, गायत्री का
नाम देवी है और देवी का ही नाम गायत्री है। नहीं साहब! देवी और गायत्री
नाराज हो जाएँगी? नहीं बेटे, कोई नाराज नहीं होंगी। गुरुजी को माला पहना
दें, तो आचार्य जी नाराज हो जाएँगे? नहीं, कोई नाराज नहीं होगा। जो गुरुजी
हैं, वही आचार्य जी हैं।
देवपूजन का लक्ष्य
मित्रो! अगर आप अपने मन से अनेक
देवी-देवताओं का भ्रम जंजाल निकाल डालें, तो अच्छा हो। मैं समझता हूँ कि
आप इतनी सफाई अपने दिमाग की कर लें, तो अच्छी बात है। फिर आपकी आध्यात्मिक
प्रगति का दूसरा रास्ता खुल सकता है। देवता, इष्ट, लक्ष्य और शालिग्राम-सब
उसी का नाम है, जो गोल-मटोल ग्लोब या पिण्डनुमा दिखता है।
मित्रो! हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए? लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्या
करना चाहिए? और किस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए? देवपूजन प्रत्येक
आध्यात्मिक उपासना का दूसरा वाला चरण है। हमने बहुत पहले आपको यह सिखा रखा
था कि गायत्री माता के फोटो के सामने धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत चढ़ाया करें।
यही देवपूजन की विधि आपको बताई थी न? अभी भी आपको हवन कराते हैं, तो हवन
करने से पहले, आहुतियाँ देने से पहले देवपूजन कराते हैं। ‘‘कलशस्य मुखे
विष्णुः कंठे रुद्रः समाश्रितः’’-कलश की स्थापना कीजिए। यहाँ चावल चढ़ाइए,
दीपक जलाइए, धूप जलाइए। उसके बाद हवन होता है।
मित्रो! संध्यावंदन का भी यही कायदा है। प्रत्येक क्रिया का यही कायदा
है कि उसको करने से पहले देवपूजन किया जाता है। पट्टीपूजन, गणेश जी का
पूजन, लक्ष्मी जी का पूजन, त्यौहारों के दिन पूजन किया जाता है। देवपूजन का
अर्थ क्या है, यह आपको जानना चाहिए। देवपूजन का अर्थ यह है कि आप कौन सी
कंपनी में भर्ती होना चाहते हैं, यह बताइए। पहले आप यह बताइए कि कम्पनियाँ
क्या हैं? दिशा क्या है? बेटे, दो दिशाएँ हैं। आप इसमें से जिसको पसन्द
करना चाहते हैं, स्वीकार कीजिए। उसके बारे में अपना वोट डाल दीजिए।
कौन सी दिशाएँ हैं? बेटे, एक उत्थान की दिशा है और एक पतन की दिशा है।
एक को हम देव कहते हैं और एक को दैत्य कहते हैं। दैत्य कैसे होते हैं और
देव कैसे होते हैं? आपको हम अभी बता सकते हैं कि हिन्दू धर्म में दैत्यों
की शक्ल क्या है? हिन्दू धर्म क्या है? अलंकारों के माध्यम से अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने का यह एक बेहतरीन तरीका है। कबीर की एक
उलटबाँसी है-जो एक तरह से पहेली बुझौअल है-‘‘कद्दू काट मृदंग बनाया और खीरा
का मंजीरा।’’ खीरा का मंजीरा बन सकता है और कद्दू काटकर मृदंग बन सकता है?
यह कबीर की उलटबाँसी है।
हिन्दू धर्म का रहस्यवाद
मित्रो! कबीर ने यह कोशिश की है किसी भी तरीके से रहस्यवाद के
आधार पर लोगों को अचंभे में डाल करके महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों को समझाने
में सफल हो सकें। हिन्दू धर्म का निर्माण इसी तरीके से हुआ है। यह कलाकारों
का धर्म है। यह चित्रकारों का धर्म है। यह मूर्तिकारों का धर्म है और यह
कवियों का धर्म है, जिन्होंने अलंकार बना-बना करके ऐसी महत्त्वपूर्ण
गुत्थियाँ सुलझाने की कोशिश की है जिससे कि बच्चे भी आसानी के साथ-खेल में
बिना किसी कठिनाई के, बिना किसी दिक्कत के समझने में समर्थ हो सकें।
मित्रो! यह है-देववाद। देवताओं के पूजन के लिए हमें कौन सी लाइन में
जाना चाहिए। इससे पहले यह जान लेना चाहिए कि दैत्य कैसे होते हैं? बेटे,
दैत्य काले रंग के होते हैं। दैत्यों के दाँत बड़े-बड़े होते हैं। अच्छा? और
दैत्यों के सींग होते हैं। ऐसे होते हैं दैत्य। फिर तो महाराज जी। हमने कभी
दैत्य देखे ही नहीं। काले-चेहरे वाले तो हमने बहुत देखे हैं। हमारे पड़ोस
में भी रहते हैं, लेकिन वे तो अच्छे आदमी हैं। शरीफ आदमी हैं।
दक्षिण अफ्रीका में शरीफ लोग रहते हैं। बड़े-बड़े दाँत होते हैं। गुरु
जी! हमारे ताऊजी के दाँत बड़े-बड़े हैं और वे ५६ वर्ष के हो गये हैं और उनके
दाँत होठों से बाहर निकले हैं। तो बेटे तेरे ताऊ जी दैत्य हैं। महाराज जी!
आप क्या बात कहते हैं, हमारे ताऊ जी तो बहुत ही अच्छे हैं और बहुत शरीफ
हैं। नहीं बेटे, अगर दाँत बाहर निकल आये हैं, तो उनके दाँतों की जड़ें ढीली
पड़ गयी हैं और ढीली पड़ जाने की वजह से उनके दाँत कभी-कभी बाहर निकल आते
हैं।
सींग किसके होते हैं? मनुष्यों के सींग होते हैं कभी? हमने तो देखे
नहीं हैं? यह क्या है? खाली अलंकार है। दैत्य का तरीका क्या होना चाहिए?
चेहरा कलंक की कालिमा से पुता हुआ। जिन्होंने जिंदगी भर इस तरीके से काम
किये हैं, अगर उनके कर्म को नंगा करके रखा जाय, तो उसे कलंकी समझा जा सकता
है। कोढ़ी वे होते हैं जिनके कि अँगुलियों में गड्ढे पड़ जाते हैं। अँगुलियाँ
गलने लगती हैं। कलंकी वे होते हैं जिन पर काले रंग के दाग धब्बे लगे हुए
हैं। जिनके ऊपर निंदा, आक्षेप का दाग और काले रंग के धब्बे लगे हुए हैं।
चेहरा काले रंग से पुता हुआ है।
कौन है दैत्य?
मित्रो! यह अलंकार है। काले रंग से कोई मतलब नहीं है और सफेद
रंग से कोई मतलब नहीं है। जिनके दाँत बड़े-बड़े होते हैं-जैसे कि भेड़ियों के।
और किसके दाँत बड़े-बड़े होते हैं-चीतों के। किसलिए बड़े होते हैं? इसलिए कि
वे किसी को भी दुःख दे करके उसका खून पी सकते हैं। वे किसी में भी दाँत गड़ा
सकते हैं और कहीं से भी अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। ऐसे आदमियों का नाम
है-दैत्य। दाँतों का बड़ा होना और छोटा होना कोई खास बात नहीं है। हम तो
अलंकार की बात कर रहे थे।
दैत्य वह जो अपने स्वार्थ के लिए किसी को भी तंग कर सकता हो, कोई भी
कष्ट दे सकता हो। और सींग उसे कहते हैं जो किसी में भी चोट मार सकता है और
चोट मारने का मजा ले सकता है। आपने कभी दंगल देखे हैं? किसके? भैंसों के
दंगल, मुर्गों के दंगल, तीतरों के दंगल। उसमें क्या होता है? बेटे, उसमें
दो जानवरों को बहका देते हैं और बहकाये हुए जानवर आपस में टक्कर मारते हैं।
खून-खराबे हो जाते हैं। उनकी हड्डी, पसली और टाँगें टूट जाती हैं। मुर्गे
एक दूसरे के पंख उखाड़ लेते हैं। तीतर एक दूसरे को लहू-लुहान कर देते हैं।
फिर क्या होता है? देखने वालों को बड़ा मजा आता है। अरे साहब! बड़ा मजा आ
गया।
मित्रो! राजा-रजवाड़ों के जमाने में हाथी-हाथी में लड़ाई हुआ करती थी। दो
हाथी छोड़े जाते थे। एक हाथी ने दूसरे हाथी का सिर फोड़ दिया और फूटे सिर
वाला हाथी चिल्ला रहा है, हाय-हाय कर रहा है। दूसरे हाथी ने उसकी सूँड़
मरोड़ दी और देखने वालों को मजा आ गया। वे कौन हैं? बेटे, वे दैत्य हैं।
किसी के प्राण निकल रहे हैं, किसी बकरे का सिर काटा जा रहा है, बकरी का सिर
काटा जा रहा है और वे प्रसन्न हो रहे हैं। आऽऽहाऽऽ देवी मैय्या की जय।
वे कौन हैं? मित्रो! वे दैत्य हैं, राक्षस हैं। जिनके भीतर करुणा नहीं
है। जो दूसरों को दुखी देख करके प्रसन्न हो सकते हैं, खुशियाँ मना सकते
हैं, वे आदमी दैत्य हैं। दैत्यों वाला हमारा जीवन नहीं होना चाहिए। हमारा
लक्ष्य क्या होना चाहिए? हमारा लक्ष्य देव होना चाहिए।
कौन हैं देव?
मित्रो! देव कैसे होते हैं? देव ऐसे होते हैं कि उनके रंग
सफेद होते हैं। देव हमेशा जवान रहते हैं। देवों में एक खास बात है, बाकी
बातें हो न हों। अगर आपको यह तलाश करना हो कि कोई देवता है कि नहीं, तो आप
यह बात जरूर तलाश करना कि इसमें यह अच्छाई है कि नहीं है। देवता खाते तो
हैं, पर गंदगी नहीं करते। आपने हनुमान जी को गंदगी करते देखा है क्या?
नहीं, वे गंदगी नहीं करते। आप रामचंद्र जी को खिला दीजिए, लक्ष्मण जी को
खिला दीजिए। लक्ष्मी जी को खिला दीजिए। वे खा तो जायेंगी, आप चाहें तो
प्रसाद खिला दीजिए, पर वे गंदगी नहीं करेंगी। यह खास बात है।
देवता कौन होते हैं? जिनके अंदर से बेटे, विकृतियाँ उत्पन्न नहीं
होतीं। जो गंदगी नहीं करते, बदबू नहीं फैलाते। वे जहाँ कहीं भी रहते हैं,
उनके चारों ओर धूपबत्तियाँ जलती रहती हैं। चंदन जलता रहता है। देवता खुशबू
फैलाते रहते हैं और जवान बने रहते हैं। देवता, जिनकी उम्मीदें, जिनकी आशाएँ
कभी धूमिल नहीं होती। बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी कल की बात सोचते
रहते हैं कि अच्छा होने वाला है और अच्छा होना चाहिए। देवता, जिनकी जवानी
कभी नष्ट नहीं होती है।
मित्रो! बुढ़ापा खराब है। मौत से तो किसी को डरने की जरूरत नहीं है, पर
बुढ़ापे के ऊपर लानत है। बूढ़ा किसी को नहीं होना चाहिए। बूढ़ा किसे कहते हैं?
बूढ़ा उसे कहते हैं जिसकी उम्मीदें खतम हो गयीं। जो थक गया, जिसने हिम्मत
छोड़ दी और जिसके आगे अंधकार भरा भविष्य दिखाई पड़ता है, उस आदमी का नाम
बुड्ढा है। वह चाहे जवान हो, चाहे उसकी उम्र पच्चीस साल की हो, चाहे नब्बे
साल की। उम्र से कोई बात बनती नहीं है। जो थका हुआ हो, हारा हुआ हो, टूटा
हुआ हो, गिरा हुआ हो, अंधकार में भटकने वाला, नाउम्मीद और निराश हो, बेटे
वह बुड्ढा है।
देवता बुड्ढे नहीं होते। आपने किसी देवता की बुड्ढे की शक्ल देखी है?
कोई बुड्ढा देवता देखा है? रामचन्द्र जी का बुढ़ापे वाला कोई फोटो खरीदकर तो
लाना? नहीं साहब! उनके फोटो तो बिना मूँछ के हैं जो अठारह साल के मालूम
पड़ते हैं। अच्छा तो श्रीकृष्ण भगवान का लाइये? गुरुजी! पूरे बाजार में फोटो
देखे, लेकिन बूढ़े कृष्ण का नहीं मिला। कितनी उम्र का मिला? साहब! कोई
अठारह साल के रहे होंगे वंशी बजाते हुए, गौ-चराते हुए। अरे बेटे, वे खाँसते
तो होंगे? कमर तो झुक गयी होगी? आँख में चश्मा तो लगाते होंगे? उनके
बुढ़ापे का कोई तो फोटो होगा? नहीं महाराज जी! कोई फोटो नहीं है। बेटे,
देवता कभी बूढ़े नहीं होते।
मित्रो! देवता सदा दूसरों की सेवा-सहायता में रत रहते हैं। सेवा हमेशा
जिनकी मस्ती में रहती है और जहाँ कहीं भी वे जायेंगे, लोगों की मदद करेंगे
और सेवा करेंगे। देव सदा सेवा की भावना से भरे हुए होते हैं। अब आप यह
फैसला कीजिए कि दैत्य का पूजन करना चाहते हैं या देव का पूजन करना चाहते
हैं। दैत्य आपको पसंद हैं या देवता आपको पसंद हैं।
दो रास्ते हैं-या तो आप देवताओं की कंपनी में भर्ती होंगे या फिर
दैत्यों की कंपनी में भर्ती होंगे। देवताओं की कंपनी में भर्ती होंगे, तो
ठीक है। फिर आपको आध्यात्मिकता को अपनाना है और आध्यात्मिकता के लाभ उठाने
हैं, आध्यात्मिकता के चमत्कार देखने हैं। आध्यात्मिकता को ग्रहण करने के
बाद में आदमी का कितना विकास होगा और वह कितना महान बनेगा, इसका अगर
चमत्कार देखना है, तो आपको देव कंपनी में भर्ती हो जाना चाहिए। अच्छा साहब!
हम तैयार हैं देव कंपनी में भर्ती होने के लिए। अच्छा तो अब आप देवता की
उपासना करना प्रारंभ कर दीजिए।
उपासना किसे कहते हैं?
उपासना किसे कहते हैं? मित्रो! इसे मैं आपको समझाना चाहता
हूँ। उपासना का अर्थ होता है-नजदीक बैठना, समीप बैठना, पास बैठना। इतना पास
बैठ जाना कि एक दूसरे में आदान-प्रदान शुरू हो जाय। जब तक आदान-प्रदान
शुरू न हो तब तक उसको पास बैठना नहीं कहते। उपासना का अर्थ है-आदान प्रदान।
इतने निकट कि एक दूसरे में आदान-प्रदान का, सहयोग का होना शुरू हो जाय।
भावनात्मक सहयोग शुरू हो जाय। जैसे कि आपने सोने का, लोहे का और पारस का
उदाहरण सुना होगा। पारस ने लोहे को छुआ और छूने के पश्चात लोहा सोना हो
गया।
श्रेष्ठ चीज के समीप जाकर के आदमी को बदल जाना चाहिए। उपासना इसे कहते
हैं कि एक जलती हुई अँगीठी के पास अगर हम आपको बिठा दें, तो आपका कपड़ा गरम
हो जाना चाहिए। आपके ठंडे हाथ गरम हो जाने चाहिए। आपका भीगा हुआ रूमाल सूख
जाना चाहिए। अँगीठी के नजदीक अगर आप बैठते हैं और आप यह दावा करते हैं कि
हम अँगीठी के पास बैठे हुए थे, तो बताइये कि आपके हाथ गरम हुए कि नहीं हुए।
आप अंगीठी के पास बैठे थे, तो आपके हाथ गरम होने चाहिए और बर्फ के पास अगर
बैठे हैं तो आपको ठंडा होना चाहिए। बर्फ का पानी पियें तो आपके होठ और गले
को ठंडा होना चाहिए। बर्फ अगर आपके हाथ में रखी हुई हो तो आपके हाथों को
ठंडा होना चाहिए। हाथों का ठंडा होना और आपके शरीर का गरम होना इस बात का
चिह्न है कि आप किसी प्रभावशाली व्यक्ति के पास बैठे हैं। प्रभावशाली शक्ति
और व्यक्ति के पास बैठ जाना-उपासना कहलाती है।
मित्रो! सांसारिक जीवन में भी मैं आपको उदाहरण देने को तैयार हूँ। लाल
बहादुर शास्त्री नाम के बहुत ही गरीब विद्यार्थी की जान पहचान पंडित नेहरू
के साथ हो गयी। उन दिनों पंडित नेहरू कांग्रेस के कप्तान थे। लाल बहादुर
शास्त्री उनके घनिष्ठ मित्रों में से एक थे, जो अपने विश्वास के कारण और
अपने चरित्र के कारण बन गये। और जब चुनाव का समय आया तो पंडित नेहरू ने
उनकी मदद की। उन्होंने कहा-हमारे पास चुनाव के लिए तो पैसा नहीं है और हमें
कोई जानता भी नहीं है। नेहरू ने कहा आपको नहीं जानते, तो हमको तो जानते
हैं। हमारे पास तो पैसा है और शास्त्री जी को इलेक्शन के लिए खड़ा कर दिया
था। वे एम.एल.ए. बन गये।
एम.एल.ए. के बाद पंडित नेहरू के इशारे पर लाल बहादुर शास्त्री यू.पी.
में मिनिस्टर हो गये। फिर उन्हीं के इशारे पर रेलमंत्री हो गये। जब पंडित
नेहरू मरने को थे तो लोगों ने पूछा कि आपके स्थान पर आपकी गद्दी पर किसको
बिठा दिया जाय? उन्होंने इशारा किया कि लाल बहादुर शास्त्री बेहतरीन आदमी
हैं। विश्वस्त आदमी हैं। पंडित नेहरू की समीपता की वजह से, कृपा की वजह से,
अनुग्रह की वजह से, प्यार की वजह से और उनके साथ जुड़ जाने की वजह से एक
छोटा सा विद्यार्थी हिन्दुस्तान का बादशाह बन गया था।
मित्रो! उपासना किसे कहते हैं? उपासना इसे कहते हैं कि किसी
महत्त्वपूर्ण शक्ति के साथ व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को इतना भिड़ा दे, इतना
मिला दे कि उसमें गुणों का आदान-प्रदान शुरू हो जाय। मसलन गाँधी जी और
विनोबा को ले सकते हैं। एक गरीब घर में पैदा हुआ और मामूली आदमी था। जब
सत्याग्रह चालू हुआ तो गाँधी जी ने घोषणा की कि मेरे उत्तराधिकारी विनोबा
होंगे। लोगों ने हरेक से पूछा-क्योंजी! ये क्या बीमारी है? विनोबा क्या बला
होता है? उसने पूछा-क्योंजी! विनोबा का आपने नाम सुना है? नहीं सुना। आप
जानते हैं बिनोवा को? नहीं हम तो नहीं जानते। आपको मालूम है? नहीं, हमें तो
नहीं मालूम। जिन दिनों सत्याग्रह में गाँधी जी ने अपना उत्तराधिकारी घोषित
किया कि मेरे बाद जो सत्याग्रह करेगा, वह विनोबा करेगा। मित्रो! उसी दिन
लोगों को मालूम पड़ा कि विनोबा भी कोई आदमी होगा। दूसरे दिन हरेक ने जान
लिया कि महात्मा गाँधी के बराबर या उनका समकक्ष या गाँधी का सबसे प्यारा
आदमी जो हो सकता है, वह है-बिनोवा। विनोबा दूसरे दिन से कहाँ से कहाँ चमकते
चले गये और कहाँ से कहाँ होते चले गये।
शरीर की नहीं, मन की नजदीकी है उपासना
मित्रो! उपासना नजदीक बैठने का नाम है। नजदीक तो गुरुजी! आपके
हम भी बैठे हैं। नहीं बेटे, शरीर से आप समीप बैठे हैं, पर मन से आप नहीं
बैठे हैं। अगर आप मन से हमारे समीप बैठे होते, तो रामकृष्ण परमहंस और
विवेकानन्द जी की जिस तरह दोनों की हालत एक हो गयी थी, हमारी और आपकी भी
वही हालत हो जाती। मान्धाता और शंकराचार्य-दोनों आपस में मिले और दोनों के
मिलने के बाद में दोनों की शक्ति एक हो गयी। हमारी और आपकी शक्ति एक हो
जाती, अगर आप हमसे मिल जाते।
आप हमारा दर्शन करने आये हैं। हाँ गुरुजी! हम आपका दर्शन करने आये हैं।
बेटे, आज के बाद कभी दर्शन मत कहना। साहब! तो क्या कहूँ? देखने आये हैं,
यों कहना। तो साहब! गुरुजी! देखने में और दर्शन में क्या फर्क होता है?
बेटे, दर्शन में और देखने में जमीन-आसमान का फर्क होता है। देखना किससे
होता है? आँखों से होता है। आँखों से आप दिखा दीजिए? क्या दिखा दें? आँखों
से गुरुजी को दिखा दीजिए। ले देख ले हमको। देख लिया? हाँ साहब! देख लिया।
हम तुझे कैसे लगे? अशोक कुमार जैसे? नहीं महाराज जी! आप अशोक कुमार तो नहीं
हैं। तो फिर बूढ़े आदमी का क्या देखने आया था? नहीं साहब! आपका दर्शन करने
आया हूँ। चल, बड़ा आया दर्शन करने? यों क्यों नहीं कहता कि देखने आया हूँ।
तो तैने हमको देखा नहीं? हमारा फोटो छपा हुआ है, उसमें देख ले। अब तो हम
बूढ़े हो गये हैं, लेकिन उस फोटो में हम जवान हैं।
देखना अलग है और दर्शन अलग है
मित्रो! देखने की कोई बकत नहीं है, कोई कीमत नहीं है। कोई
फायदा नहीं है। इसमें केवल अपना समय खराब करना है और दूसरों का समय खराब
करने के बराबर है। फिर दर्शन का क्या फायदा होता है? दर्शन किसे कहते हैं?
दर्शन कहते हैं फिलॉसफी को। संस्कृत में दर्शन का अर्थ होता है-फिलॉसफी को
समझना। पंडित नेहरू ने गाँधी जी की फिलॉसफी को समझा और गाँधी जी के साथ-साथ
चलने की हिम्मत की और वो पंडित नेहरू हिन्दुस्तान के बादशाह हो गये।
राधाकृष्णन से ले करके राजेन्द्र बाबू तक और जाकिर हुसैन से लेकर
राजगोपालाचार्य तक, जिन्होंने गाँधी जी की फिलॉसफी को समझा। गाँधी जी स्वयं
तो बादशाह नहीं हुए, लेकिन अपने नजदीक आने वालों में से हर किसी को बादशाह
बनाते हुए चले गये। राष्ट्रपति बनाते हुए चले गये। प्रधानमंत्री बनाते हुए
चले गये। मुख्यमंत्री बनाते हुए चले गये। यह सारी की सारी शृंखला उन्हीं
की है। महात्मा गाँधी को जिन्होंने पास से देखा, वे निहाल हो गये।
मित्रो! आप उसे छूना नहीं चाहते हैं, देखना चाहते हैं। साहब! बद्रीनाथ
को देखने जायेंगे। देखने से कोई फायदा नहीं हो सकता। बद्रीनाथ के दर्शन
कीजिए। दर्शन किसे कहते हैं? आपने तो दर्शन और देखना-दोनों को एक ही मान
लिया है। मैं क्या कहूँ आप तो देखने को ही दर्शन मान बैठे हैं। बेटे, देखने
को दर्शन नहीं कह सकते। वास्तव में दर्शन वह हो सकता है जिसकी फिलॉसफी
हमको शिक्षण देती है, जैसे-देवताओं का दर्शन। देवताओं का दर्शन कैसे हो
सकता है? देवताओं की उपासना कैसे हो सकती है? देवताओं के नजदीक जाने से किस
तरीके से भगवान का आदान-प्रदान हो सकता है? इसके लिए एक छोटा-सा उदाहरण
मैं आपको सुनाना चाहूँगा। एक पंडित जी थे। उन्हें चार सौ रुपये कहीं से
दान-दक्षिणा के मिल गये। उनकी एक कन्या थी १०-१२ साल की। उन्होंने सोचा कि
इन चार सौ रुपयों को हम किसी सेठ के यहाँ जमा कर देंगे। उस जमाने में बैंक
तो थे नहीं, इसलिए उन्होंने सोचा कि सेठ के यहाँ जमा कर देने से इसका ब्याज
समेत कुछ रुपया ज्यादा हो जायेगा और कन्या के विवाह में काम आ जायेगा, हम
खर्च कर देंगे।
मित्रो! पंडित जी किसी सम्पन्न आदमी के पास गये और कहा कि लीजिए हमारा
चार सौ रुपया जमा कर लीजिए। अभी हमारी लड़की बारह वर्ष की है, सोलह वर्ष की
होने पर उसका ब्याह करेंगे। चार साल में आप ब्याज सहित पैसा दे देना। हाँ
साहब! हम चार साल के ब्याज सहित पैसा आपको दे देंगे। उसने पैसा जमा कर
दिया। चार-पाँच साल बाद जब पंडित जी गये और कहा कि लाइये साहब! हमारा
रुपया। सेठ जी के मन में बेईमानी आ गयी। उन्होंने सोचा कि यह पंडित क्या
जानता है। पढ़ा-लिखा भी नहीं है। ऐसे ही मारकर धमका देंगे और रुपया हमारा हो
जायेगा।
सेठ ने कहा-रसीद लाइये। पंडित जी बोले-रसीद तो आपने दी नहीं। अच्छा तो
किस तारीख को रुपये दिये थे, बताइये तो हम बही खाते में दिखवाएँ। पंडित जी
बोले-हमें क्या पता, आप बैठे थे और ये लोग बैठे थे जिन्होंने देखा था कि
हमने रुपये आपको दे दिये। हमें नहीं मालूम, कोई सबूत हो तो आप आना। नहीं
साहब! हमको रुपये दे दीजिए। चल भाग, कान पकड़कर बाहर निकाल दो। नौकरों ने
निकाल दिया। पंडित जी भाग गये।
मित्रो! पंडित जी सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए? गाँव में
सबके पास गए, सबसे कहा कि सेठ जी ने हमारे रुपये मार लिए हैं। हमारे रुपये
दिलवाइए। कोई लिखा-पढ़ी, कोई सबूत? कोई नहीं है साहब! उस गाँव का एक
जागीरदार था, राजा था। पहले जागीरदार राजा होते थे। वह जागीरदार के पास गया
और कहा कि साहब! हमारे साथ ऐसी-ऐसी बेईमानी हो गयी है। हमारे रुपये मारे
गए। राजा ने कहा—अच्छा तो एक और तरीका निकालते हैं। शायद तुक्का बैठ जाय और
आपका पैसा मिल जाय। लगाइए तुक्का। राजा ने कहा कि आप ऐसा करना कि जिस सेठ
के यहाँ आपने पैसा जमा किया था, उसकी दुकान के आसपास ही सड़क पर खड़े रहना।
कल हमारी सवारी निकलेगी, सब लोग स्वागत करेंगे। चार घोड़ों की बग्घी में
बैठे हुए, तलवार पकड़े हुए राजा साहब की सवारी निकली। सब लोग फूल-माला लेकर
खड़े हो गए। बैंडबाजा बज रहा था। घुड़सवार साथ में आगे-पीछे चल रहे थे।
पंडित जी, सेठ जी की दुकान के बराबर में खड़े हुए थे। राजा साहब ने देखा
और कहा—अरे पंडित जी! आप तो हमारे मित्र हैं, आप तो हमारे साथी हैं। आप तो
हमारे साथ पढ़े थे। आप तो हमारे गुरु भी हो सकते हैं। आप यहाँ आइए, हमारे
पास बैठिए। अरे साहब! हम तो गरीब हैं। आप गरीब कैसे हो सकते हैं? आप तो
हमारे मित्र हैं, आइए पास बैठिए। राजा साहब ने उन्हें पास बिठा लिया और
कहा—आप अच्छे तो हैं? कोई कष्ट हो तो बताना। दोनों बात कर रहे थे और सेठ जी
की हवा खराब हो रही थी। उस जमाने में राजा साहब के पास सभी ताकतें थीं। वे
जिसे चाहते, शहर से बाहर निकलवा सकते थे और उसका सारा का सारा माल जब्त कर
सकते थे। जैसे ही राजा साहब सेठ की दुकान से थोड़ी दूर आगे गए, उन्होंने
कहा—जाइए पंडित जी, अब हमने अपना काम कर दिया। घर जाइए।
पंडित जी बग्घी से उतर गए। उधर सेठ ने कहा—भाई! यह तो भारी आफत आई।
मुनीम जी! किसी तरीके से पंडित को बुलाकर लाइए और उनका पैसा चुकाइए, नहीं
तो हमारी आफत आ जाएगी। शिकायत हो जाएगी। कई लोग यहाँ-वहाँ दौड़ पड़े और देखने
लगे। कुछ दूर पर पंडित जी दिखे। मुनीम जी ने कहा—अरे पंडित जी। सेठ जी
आपको कई दिनों से याद कर रहे हैं, चलिए। पंडित जी आ गए। सेठ जी ने कहा—जिस
दिन से आप गए हैं, तब से आज तक हम सिर्फ बहीखाते में आपका नाम ढूँढ़ रहे
थे। आपके चार सौ रुपये जमा थे और पाँच सौ रुपये उसके ब्याज के हो गए और
साहब! दो सौ रुपये हमारी ओर से कन्यादान के ले लीजिए। सेठ जी ने ग्यारह सौ
रुपए दे दिए और पंडित जी को विदा कर दिया। कैसे मिल गया? राजा साहब के पास
बैठने से, राजा साहब के पास एक घंटा बैठने का लाभ पंडित जी को मिल गया।
भगवान का सामीप्य है उपासना
मित्रो! उस परम शक्तिशाली सत्ता के पास अगर आप बैठ पायें, जो
राजाओं का भी राजा है, महाराजाओं का भी महाराजा है, शक्तियों का स्वामी है,
शक्तियों का पुंज है, जिसके एक इशारे पर सारी दुनिया तहस-नहस हो सकती है
और जिसकी कृपा की एक किरण आने के बाद हम धन्य हो सकते हैं। ऐसी महान सत्ता
के साथ अपने आपको नजदीक बिठा लेना, पास बिठा लेना—उसका नाम है—उपासना।
उपासना का मतलब चावल बिखेर देना नहीं है। कैसे बैठा जा सकता है? कैसे
मालदार बना जा सकता है? बेटे, इस तरीके से मालदार बना जा सकता है, जैसे कि
भगवान के भक्त बने थे। कौन-कौन बने थे? एक-दो के नाम बता दीजिए? हाँ बेटे,
बताता हूँ कि उपासना किस-किसने की थी। उस उपासना के ढंग को आपको जानना
चाहिए।
मित्रो! हनुमान जी, रामचंद्र जी के पास बैठे और हर समय रामचंद्र जी से
एक ही बात मालूम करते रहे कि आप हुक्म दीजिए, मैं आपके लिए क्या कर सकता
हूँ? उनका इम्तिहान लेने के लिए कड़े-से और असंभव-से काम भगवान ने हनुमान जी
को सौंपे। एक बार हुक्म दिया, तो समुद्र लाँघ गए। अरे साहब! हम डूब सकते
हैं और हमारी टाँग टूट सकती है। कोई हर्ज की बात नहीं है, हम कहते हैं,
इसलिए छलाँग लगा दीजिए।
एक बार हनुमान जी को हुक्म दिया गया कि जड़ी-बूटी का पहाड़ उखाड़ लाइए।
अरे साहब! हम पहाड़ कैसे उखाड़ेंगे? हमारी अँगुली के ऊपर एक पत्थर आ गया, तो
अँगुली का चूरा कर देगा। हनुमान जी चले गए और पहाड़ उठाकर ले आए। एक बार
सीता जी को खोज लाने का हुक्म दिया गया। हनुमान जी लंका गए तो रावण ने उनकी
पूँछ में आग लगवा दी। पूँछ की आग सारे बदन में फैल सकती थी और शरीर में
छाले हो सकते थे। अस्पताल में जाते-जाते सेप्टिक हो सकता था और हनुमान जी
मर सकते थे। उन्होंने कहा—जो होगा, सो देखा जाएगा। छलाँग लगाने वाले को कुछ
नहीं हुआ।
सच्ची भक्ति का स्वरूप
मित्रो! भक्ति ऐसी होती है। भक्ति का तरीका यही है। भगवान से
यह कहा जाता है, देवता से यह कहा जाता है, इष्टदेव से यह कहा जाता है कि आप
हुक्म दीजिए, ताकि आपकी आज्ञानुसार चलने के लिए मैं तैयार हो जाऊँ। सारे
के सारे देवताओं के और उपासना करने वालों के तरीके यही रहे हैं। भागीरथ
तपस्या करने के लिए चले गए और गंगा जी का और शंकर जी का आदेश पालन करते हुए
चले गए।
मित्रो! अपने लिए क्या माँगा? कुछ भी नहीं माँगा। शबरी को गुरु का
हुक्म मिला कि सड़क पर झाड़ू लगाया कीजिए, जिससे कि जो विद्यार्थी वहाँ पढ़ने
जाते हैं, तालाब में नहाने जाते हैं, उनके पैर में काँटे लग जाते हैं, उनसे
बच सकें। सेवा कीजिए। सारी जिंदगी शबरी सेवा करती रही। झाड़ू लगाती रही।
श्रेष्ठ काम करना भगवान का आदेश है। भगवान का आदेश अगर आप पालन करते हैं,
तो बाल्मीकि की तरीके से, नारद जी की तरीके से, अर्जुन की तरीके से, गुरु
गोविंद सिंह की तरीके से और दूसरे महान भक्तों की तरीके से, जिन्होंने चाहा
कुछ नहीं, वरन् अपना सब कुछ सौंपा। सौंपने के पश्चात, बीज के तरीके से
गलने के पश्चात हमारी चीजें बढ़ सकती हैं और उनका विकसित होना संभव है। अगर
हम सौंपने के लिए तैयार नहीं हैं और हरदम लेने के लिए तैयार हैं, तो हमारी
भक्ति एक तरीके से मजाक बन करके रहेगी और हमारी वह भक्ति वेश्यावृत्ति कहला
करके रहेगी। वेश्यावृत्ति में नाच दिखाइए, पैसा पाइए, गाना गाइए-पैसा
पाइए।
मित्रो! भगवान जी के साथ हमको वेश्यावृत्ति जैसा सलूक नहीं करना चाहिए।
चौबीस हजार का अनुष्ठान करवाइए, बेटा लाकर दीजिए। अच्छा, तो यह मामला है,
इसलिए तू अनुष्ठान कर रहा है। हाँ, महाराज जी! मैं तो इसीलिए कर रहा था।
बेटे, कामना सहित जो भी उपासना है, वह उपासना नहीं हो सकती। वह खालिस
वेश्यावृत्ति है। भजन का इससे कोई ताल्लुक नहीं है और भक्ति का इससे कोई
ताल्लुक नहीं है। यह तो अमुक चीज पाने के लिए, तमुक चीज पाने के लिए किया
गया है। अगर कुछ पाने के लिए किया गया है, तो बराबर की कीमत चुका दीजिए। सौ
रुपये दीजिए।
बेटा चाहिए, तो देखिए कि बेटा कितने दाम का आता है? गुरुजी! बेटा तो
बहुत दाम का आता है। बैल कितने का आता है? बैल तो एक हजार रुपये का आता है
और हाथी? हाथी गुरुजी! छः हजार का आता है और घोड़ा? अच्छे घोड़े तो बहुत दाम
के आते हैं और बेटा कितने दाम का आता है? गुरुजी! बेटा तो पच्चीस हजार का,
चालीस हजार का आता होगा। नब्बे हजार का आता होगा, तो बेटे! दे, निकाल रुपया
भगवान जी को और दुकानदारी कर। नहीं गुरुजी! मैं तो अक्षत चढ़ा सकता हूँ,
धूपबत्ती जला सकता हूँ और चौबीस हजार का जप कर सकता हूँ।
अच्छा बेटे, जरा यह तो बता कि यह सब तेरा सामान कितने दाम का हुआ?
चौबीस हजार पाठ कितने दाम का है? अजी साहब! तीन घंटे रोज लगाता हूँ। तेरा
एक घंटा कितने दाम का है? एक रुपया, एक घंटे की मजदूरी होती है। तीन घंटे
लगाता है। हाँ साहब! नौ दिन लगाता हूँ। चल सत्ताईस रुपये का तेरा भजन हो
गया। हाँ साहब! और क्या-क्या किया? धूपबत्ती जलाई। कितने पैसे की जलाई?
चवन्नी की जलाई और क्या-क्या खर्च किया? चावल खर्च किया। धूपबत्ती खर्च
हुई, रोली खर्च हुई। कितने का हुआ सब? बताता क्यों नहीं?
अरे साहब! एक रुपये का माल हो गया। सत्ताईस रुपये का तेरा श्रम और एक
रुपये का लंगड़-खंगड़ रुपये हो गए। बेटे, अट्ठाईस रुपये का तो रबर का गुड्डा
आता है। असली बेटा अट्ठाईस रुपये में नहीं आ सकता। बेटा लेना हो तो—छब्बीस
हजार रुपये निकाल, छब्बीस हजार रुपये का अनुष्ठान कर। नहीं, महाराज जी! मैं
तो फोकट में लाऊँगा, तो फिर तेरी भक्ति कैसी हो सकती है? यह भक्ति नहीं
है। फिर क्या चीज है? यह तो जालसाजी है।
सच्चे प्रेम की कथा
मित्रो! इसका एक और मजेदार उदाहरण है, जो मुझे बार-बार याद आ
जाता है। आज की हमारी और आपकी भक्ति के संबंध में एक उदाहरण ऐसा ही है। एक
बार ऐसा हुआ कि मजनू, लैला के लिए फकीर हो गया और कहने लगा कि बस मेरा
ब्याह होगा तो लैला के साथ होगा और अगर नहीं होगा तो मैं इसी तरह पागल बना
रहूँगा और उसी का नाम लेता रहूँगा। लैला को मालूम हुआ कि हमारे लिए एक लड़का
पागल हो गया है, तो उसने दुकानदारों से कहा कि ब्याह-शादी तो हमारी उससे
नहीं हो सकती लेकिन तुम ऐसा करना कि जब कभी भी ये छोकरा दुकान के सामने
भूखा-प्यासा दिखाई पड़े, तो उसे बुला करके खाना खिला दिया करना और पैसे
हमारे यहाँ से मँगा लिया करना।
जब कभी भूखा-प्यासा मजनू उधर से निकलता, तो दुकानदार आवाज देते—क्यों
रे मजनू! तैने कुछ खाया है? नहीं साहब! नहीं खाया है। तो ले, यहाँ बैठकर खा
ले। चार आने-आठ आने का खा लिया। दुकानदार ने उसे नोट कर लिया। महीने भर
में २-५ रुपये का जिस दुकानदार का बिल पहुँचता, लैला के यहाँ से मिल जाया
करता। वह पैसे भेज देती।
मित्रो! एक दिन मजदूरों ने पूछा—क्यों रे मजनू। तू कल वहाँ बैठकर जलेबी
खा रहा था, वह कहाँ से आई थी? अरे! हमारी लैला खिलाती है। हम तो मजनू हैं।
मजनू में क्या बात है? तुझे हमारी शक्ल दिखायी नहीं पड़ती? बाल बिखरे हैं,
कुर्ता फटा है। ऐसे फटेहाल मजनू होते हैं? उसने कहा कि तब तो हम भी मजनू
बनेंगे और दूसरे दिन से एक और मजनू बन गया। लंबा तिलक, लंबी माला, कंठा पहन
लिया और ये बन गया मजनू। कैसे मजनू? जैसे आप और मैं। ऐसे-ऐसे मजनू उस
दुकान के यहाँ जा बैठे। लाइए साहब! जलेबी, लाइए कचौड़ी। उसके पास कोई पैसा
या आइडेंटिटी कार्ड तो था नहीं। फिर तो दो-चार और अस्सी मजनू आ गए।
मजनुओं की भीड़ बढ़ गयी और सारा-का शान्तिकुञ्ज भर गया। साहब! हम भी
अनुष्ठान करेंगे, हम भी अनुष्ठान करेंगे। आइए, आइए। फिर क्या हुआ? उन सबके
बिल बने और लैला के पास पहुँचे। यह क्या हुआ? अरे साहब! २००० रुपया खर्च हो
गया। लैला को उसका बाप २५ रुपया महीने जेब खर्च दिया करता था। १०-१५ रुपये
वह मजनू को दे देती थी। २००० रुपये का बिल देख करके वह हक्का-बक्का हो
गयी, पसीना आ गया।
मित्रो! फिर क्या हुआ? उसने नौकरानी को बुलाया और कहा—अब क्या करना
चाहिए? २००० रुपये कहाँ से आएँगे? अब तो जेवर बेचकर रुपये चुकाने पड़ेंगे।
लेकिन आइंदा के लिए जो सही में मजनू है, वही काबू में रहा आए और बाकी भाग
जायें, तो अच्छा है। इसके लिए हम एक रास्ता निकाल देते हैं। लैला की
नौकरानी एक कटोरा लेकर के गयी और सब मजनुओं को इकट्ठा किया। उसने कहा कि
तुम लोगों को मालूम है कि नहीं? क्या है? लैला सख्त बीमार है।
अरे! लैला बीमार है तो हम कैसे जियेंगे? उसने कहा कि अगर लैला को जिंदा
रखना चाहते हो, तो बैठ जाओ। हाँ, जिंदा रखना चाहते हैं, तो एक तरीका है,
मैं एक कटोरा लायी हूँ। डॉक्टर ने कहा है कि एक कटोरा खून चाहिए, जो लैला
को चढ़ाया जाएगा। आप एक कटोरा खून दे दें, तो लैला अच्छी हो सकती है, जो नए
मजनू थे, उन्होंने देखा कि यह तो आफत आ गयी। जरा-सा खून होता तो अलग बात
थी, पर यह तो कटोरा भर करके खून माँग रही है। उन्होंने कहा—भाई! मैं तो
थोड़ी देर में आता हूँ। कोई-न बहाना बना करके, कोई पेशाब के बहाने, कोई पानी
पीने के बहाने सब मजनू चले गए।
मित्रो! केवल एक मजनू बाकी रह गया। सबके जाने के बाद जब नौकरानी वापस
जाने लगी, तो असली मजनू ने कहा—लैला के लिए खून चाहिए तो मेरे जिस्म में छः
कटोरा खून है। एक कटोरा खून तो तू अभी लेकर जा सकती है। पाँच कटोरा खून
अभी और शरीर में बाकी है। नंबर से आती रहना और जब तक मैं जिंदा हूँ, मेरे
रक्त की एक-एक बूँद ले जाना। उसने सड़क पर पड़ा एक पत्थर उठाया और अपने सीने
को चीर डाला और खून दे दिया। खून लेकर बाँदी चली, तो उसने कहा—फिर से आप
आएँगी ना? उसने कहा—अभी नहीं आऊँगी। बाँदी ने ड्रेसिंग कर दी, खून बंद हो
गया। बस वही एक असली मजनू था। आपने सुना होगा कि बाद में लैला और मजनू का
ब्याह हो गया था।
आत्मसुधार है भजन
मित्रो! खून देना, सेवा करना, अनुदान देना भक्ति की निशानी
है। ‘‘भज सेवायाम्’’। ‘भजन’ जिस शब्द से बना है, वह मनोकामना पूरी करने के
अर्थ में नहीं बना है वरन् सेवा के अर्थ में बना है, परमार्थ के अर्थ में
बना है। आत्मसंशोधन के अर्थ में बना है। मित्रो! यह देव भावना और देवबुद्धि
अगर आपके भीतर पैदा हो जाय, तो आपको क्या करना चाहिए और क्या करना पड़ेगा?
आपको देवताओं की कंपनी में भर्ती होना पड़ेगा।
अगर आप देवताओं की कंपनी में भर्ती हो जायें, तो आपको क्या करना चाहिए?
आपकी रीति-नीति में क्या फर्क आना चाहिए? यह हम आपको पंचोपचार की
प्रक्रिया के माध्यम से समझाते हैं। पंचोपचार की प्रक्रिया क्या है?
देवपूजन है। देवताओं की स्थापना करने के साथ-साथ आपको देवताओं का पूजन करना
चाहिए, जैसा कि हम आपको कराते हैं। ४५ मिनट की उपासना में हमने आत्मशोधन
के साथ-साथ पूरे-के दो अध्याय देवपूजन पर लिखे हैं। देवपूजन की विधियाँ
बतायी हैं। तरीका बताया है। उसमें पाँच चीजें ऐसी हैं, जिसे यदि आप काम में
लायें, तो देवता आपसे प्रसन्न हो जायेंगे। देवता पूर्ण संतुष्ट हो जायेंगे
और देवता की समीपता का, देवता की उपासना का पूरा-पूरा लाभ आपको मिल
जाएगा।
पंचोपचार में क्या-क्या है? अरे भाई! वही है— ‘‘पाद्यं समर्पयामि,
अर्घ्यं समर्पयामि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।’’ यही सब चढ़ा दिया
करें, तो देवता प्रसन्न हो जायेंगे। हाँ, महाराज जी! यह तो बड़ा सस्ता तरीका
निकल आया। रोजाना कितने का खर्च आएगा? अरे बेटे! इसमें क्या रखा है? चम्मच
से पानी डाल दिया कर, ४-६ चावल के दाने डाल दिया कर, एक धूपबत्ती जला दिया
कर, चंदन की एक बूँद टपका दिया कर, बस हो गया—देवपूजन।
मित्रो! यह कितने पैसे का हो गया? १-२ पैसे का है। महीने भर में कितने
का हो गया? ४ से लेकर आठ आने का चक्कर है। कोई खास बात नहीं है तो महाराज
जी! इससे कौन प्रसन्न हो जाएगा? बेटे, सब देवता प्रसन्न हो जायेंगे। महाराज
जी! आपने तो बड़ा सस्ता तरीका बता दिया। इतने शक्तिशाली देवता, इतने
सामर्थ्यवान देवता, इतने ज्ञानी देवता, इतनी कम चीजों से प्रसन्न हो
जायेंगे, तब तो मैं हमेशा करता रहूँगा। हाँ बेटे, हमेशा करते रहना।
कुछ फायदा हो जाएगा? कुछ खास फायदा नहीं हो सकता, तो देवता प्रसन्न हो
जायेंगे? बेटे, मैं कुछ कह नहीं सकता। देवताओं से पूछ करके बताऊँगा कि वे
कर्मकाण्डों के द्वारा प्रसन्न हो सकते हैं कि नहीं हो सकते लेकिन
कर्मकाण्डों के पीछे जो प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं-अगर
इनको आप धारण करेंगे, तो मैं यकीन दिलाता हूँ—अपने सारे जीवन के अनुभव की
साक्षी और शपथ खाकर कह सकता हूँ कि देवता प्रसन्न हो जायेंगे। प्रसन्न ही
नहीं, आपके चरणों को चूमेंगे और आपके पीछे-पीछे घूमेंगे। आपसे मैं, फिर से
यह कहता हूँ कि इन कर्मकाण्डों के पीछे जो शिक्षाएँ, जो प्रेरणाएँ, जो
दिशाएँ भरी पड़ी हैं, उन्हें समझने की कोशिश करेंगे तो आपको वह सब मिलेगा,
जिसके कि आप अधिकारी हैं। अगर आप उन्हें नहीं समझेंगे, तो फिर आप करते रहिए
कर्मकाण्ड। क्या मिलेगा? कुछ नहीं मिलेगा, खाली हाथ रहना पड़ेगा।
कर्मकाण्ड की प्रेरणाएँ
मित्रो! कर्मकाण्डों की क्या प्रेरणाएँ हैं, क्या शिक्षाएँ
हैं, क्या दिशाएँ हैं? हम जल चढ़ाते रहते हैं—‘‘पाद्यं समर्पयामि, स्नानं
समपर्यामि, अर्घ्यं समर्पयामि।’’ इनका क्या मतलब है? बेटे, जल नम्रता का
प्रतीक है, सज्जनता का प्रतीक है, शीतलता का प्रतीक है। सरलता का प्रतीक
है, सहजता का प्रतीक है। आर्द्रता का, आँसुओं का प्रतीक है। दूसरों के दुःख
और दर्द में हमारे आँसू आने चाहिए। हमारी प्रकृति नम्र होनी चाहिए। हमको
जल की तरीके से शीतल होना चाहिए। हमारा स्वभाव और प्रकृति जल की तरीके से
हो, तो समझना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व उस जल की भाँति है, जो जल भगवान पर
चढ़ाया जाता है। हम अपना व्यक्तित्व जल की तरीके से ठंडा, शीतल और नम्र बना
करके विकसित करें, तो हमको भगवान का प्यार मिल सकता है। जल के अंदर यही
शिक्षा है।
मित्रो! इसके अंदर एक और शिक्षा है। हमारे पास पाँच संपदाएँ हैं। ये
पाँचों-की अनंत संभावनाओं को अपने भीतर समेटे हुए हैं। यदि हम इन पाँचों का
पालन करें, तो हमें पूरा लाभ मिल जाएगा। पंचोपचार पूरा कर लें, तो क्या
मिल जाएगा? तब हमें पाँच संपदाएँ मिल जाएँगी। इन पाँचों संपदाओं को हम
भगवान के चरणों पर अर्पित करें, ताकि वे पाँचों सिद्धियों के रूप में,
पाँचों देवताओं के रूप में पुष्पित, पल्लवित होकर के हमारे सामने आकर के
खड़ी हो जाएँ। पाँचों विभूतियों को आप बीज की तरीके से बोएँ जो बरगद की
तरीके से, कल्पवृक्ष की तरीके से उग आयें। नहीं साहब! हम तो बीज बोयेंगे
नहीं, तो आप पायेंगे भी नहीं। बोइएगा नहीं तो पाइएगा भी नहीं। इसलिए जो
पाँच चीजें भगवान ने हमारे पास दी हैं, उन पाँचों चीजों को हम देवत्व के
खेत में बोएँ। देवता के खेत में, आदर्शवादिता के खेत में, भलमनसाहत के खेत
में, लोकमंगल के खेत में अपनी विभूतियों को बोएँ।
पहले बोओ, फिर पाओ
मित्रो! संसार में जितने भी महामानव हुए हैं, जिनका स्वर्णिम
इतिहास है, उन्होंने पहला काम यह किया है कि अपनी जो संपदाएँ मिली हुई थीं,
उनको बोया था। किसके खेत में? देवत्व के खेत में। आप तो कंजूस के तरीके
से, कृपण के तरीके से, चालाक के तरीके से, लोभी के तरीके से, स्वार्थी के
तरीके से अपनी सब चीजों को दबाए बैठे हैं। उसमें से कुछ खर्च करना नहीं
चाहते। किसी को अनुदान देना नहीं चाहते और बदले में न जाने क्या-से चाहते
हैं? ऐसा नहीं हो सकता। पहले बोइए, फिर पाइए।
मित्रो! देवत्व के खेत में क्या बोना पड़ेगा? एक तो बोना पड़ेगा—जल। जल
से क्या मतलब है? जल से मतलब है बेटे, —श्रम। श्रम से मतलब है—पसीना। आप
पसीना बहाइए। पसीने से क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है कि मेहनत
कीजिए, समय लगाइए। आप अपना समय और श्रम उन-उन कामों के लिए लगाइए जो कि
देवत्व की भूमिका अदा करने के लिए आवश्यक है। आप अपना समय केवल स्वार्थ के
लिए सीमित मत रखिए, पेट के लिए सीमित मत रखिए। औलाद के लिए सीमित मत रखिए।
आपका श्रम लोकमंगल के लिए भी लगाया जाना चाहिए। आपका श्रम परमार्थ
प्रयोजनों में भी संलग्न होना चाहिए। जिसके लिए आप बार-बार यह कहते रहते
हैं कि हमें तो फुर्सत नहीं मिलती। फुर्सत उस काम के लिए नहीं मिलती, जिसको
आदमी बेकार समझता है, उपेक्षित समझता है। जिस कार्य को आदमी आवश्यक समझता
है, उस काम के लिए हर तरह से समय निकलता है और करना शुरू कर देता है। आपकी
उपेक्षा यह बताती है कि आपको लोकमंगल के लिए फुरसत नहीं मिलती, सेवाकार्यों
के लिए और भगवान के श्रेष्ठ काम के लिए फुर्सत नहीं मिलती। आप उपेक्षा में
बेकार समय बिताते हैं। आपको बहाना मिल जाता है कि फुर्सत नहीं मिलती।
समय व श्रम लगे लोकमंगल में
इसलिए मित्रो! आपको क्या करना चाहिए? अपना परिश्रम और अपना
समय श्रेष्ठ कार्यों के लिए, मानवीय आदर्शों के लिए, इस दुनिया को सुंदर और
सुसज्जित बनाने के लिए लगाना चाहिए। पसीना बहाने का यही अर्थ है। भगवान को
हम स्नान कराते हैं—‘‘स्नानं समर्पयामि।’’ किससे स्नान करा रहे हैं? एक
चमची—जल से। अरे भाई! पहले तो तू स्वयं एक चमची जल से नहा करके आ जरा, तब
भगवान जी को स्नान कराना। अरे साहब! एक चमची से भगवान जी तो नहा भी लेते
हैं और ‘‘आचमनं समपर्यामि’’—बेटे, तेरे मुँह पर जम रही है धूल, ले एक चमची
जल से अपना मुँह धोकर तो दिखा?
महाराज जी! इतने पानी से तो मुँह नहीं धुलेगा, तो कितने से धुलेगा?
महाराज जी! कम-से एक लोटा तो होना ही चाहिए मुँह धोने के लिए और भगवान जी
का मुँह इतना छोटा है कि एक चम्मच जल से काम चल जाएगा? एक चम्मच में आचमन
करा देगा? एक चम्मच में—‘‘पाद्यं समर्पयामि’’—पाद्य धो देगा? एक चम्मच में
स्नान करा देगा और एक चम्मच में सब काम करा देगा? ऐसा नहीं हो सकता। बेटे,
यही पसीने की बूँदों से ताल्लुक है और अपने श्रम को, अपने स्वभाव को नम्र,
सरल, शीतल बनाने से ताल्लुक है। अगर आपने यह प्रकाश पाया हो, दिशाधारा पायी
हो, तो आपके पंचोपचार का पहला चरण सही है। देवपूजन का पहला चरण सही है।
मित्रो! दूसरा वाला चरण है—‘‘अक्षतान् समर्पयामि।’’ अक्षत सौंपिए।
अक्षत क्या है? अक्षत बेटे, चावल है और क्या? कितना सौंपूँ? अच्छा यह बता
कि दोपहर की रोटी खाता है, तो कितने चावल में तेरा पेट भर जाता है? महाराज
जी! मैं तो जब एक बार पत्नी परोसती है, तब ले लेता हूँ और दूसरी बार फिर ले
लेता हूँ। अच्छा, तो कितने चावल ले लेता है? महाराज जी! तीन छटाँक चावल तो
मैं दोपहर को खा जाता हूँ और शाम को? तीन छटाँक शाम को भी खा जाता हूँ।
तीन और तीन—छः छटाँक खा जाता है। कब? जब संग में दाल भी लेता है, शाक भी
लेता है और पूड़ी-रोटी भी लेता है। अगर मैं तुझे अकेला चावल ही खिलाऊँ तो?
सारे दिन में तो केवल चावल डेढ़ पाव से आधा किलो खा सकता हूँ, अगर आप दूसरी
चीज, दें तब। बेटे, भगवान जी तुझसे कितने बड़े हैं? महाराज जी! बहुत बड़े
हैं। बड़े हैं तो उनको रोजाना कितना चावल खिलाया करेगा? कम-से पाँच किलो
चावल भगवान जी को रोज खिलाया कर। गणेश जी को पूजता है, तो कम-से पाँच किलो
लड्डू खिला। उनका कितना बड़ा पेट है। पाँच किलो कितने दाम का आएगा? इस समय
यह ढाई-तीन रुपये किलो है। ५x२.५ = १२.५० रुपये का चावल रोज गणेश जी को
खिला। महाराज जी! ऐसा तो नहीं करूँगा।
भगवान के लिए लगायें कमाई
मित्रो! ‘अक्षतान् समर्पयामि’, ‘नैवेद्यं निवेदयामि।’ इसका
क्या मतलब है? ‘अक्षत’ का अर्थ है कि हम जो अनाज कमाते हैं। पहले सब लोग
अनाज कमाते थे। आज तो रुपये भी मिलते हैं। हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा
भगवान के लिए खर्च होना चाहिए। हमारा सारा-का धन, हमारे स्वयं के स्वार्थ
में ही नहीं खर्च हो जाना चाहिए। अध्यात्म की भाषा में यह चोरी है। आप अपना
कमाएँ, अपना खाएँ। कोई पुलिस आपको पकड़ नहीं सकती। कोई इन्कम टैक्स वाला
पकड़ने नहीं आ सकता, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से गिरफ्तार किया जाएगा;
क्योंकि आप अपने लिए कमाते हैं और अपने लिए खाते हैं—‘‘केवलाघो भवति
केवलादी।’’ अर्थात् जो अपने लिए कमाए और अपने लिए खाए, वह चोर है। इसलिए
आपको अपनी जिंदगी को और अपनी संपत्तियों को साझेदारी की दुकान मानना
चाहिए।
यह भगवान के साथ साझेदारी की दुकान है। इसमें से भगवान का हिस्सा भी
हमको देकर के चलना चाहिए। हमारी कमाई का एक अंश भगवान के लिए भी खर्च होना
चाहिए। यह इस तरीके से खर्च होना चाहिए जैसे कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर करते
थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को ५०० रुपये वेतन मिलता था। उन्होंने ५० रुपये
अपनी गृहस्थी के लिए सुरक्षित रखा और कहा कि हम गरीबी में जिएँगे और ५०
रुपये में काम चलाएँगे। ४५० रुपये महीने उन्होंने विद्यार्थियों की शिक्षा
के लिए सुरक्षित रखे और सारे बंगाल के, कलकत्ते के लोगों से कहा कि जिस
विद्यार्थी के पास फीस न हो, वह यहाँ से पैसे लेकर के जाए। जिस विद्यार्थी
के पास मिट्टी का तेल न हो, वह हमारे यहाँ से लेकर के जाए।
मित्रो! ईश्वरचंद्र विद्यासागर इतनी गरीबी में पले थे कि वे सड़क के
किनारे की लाइट में बैठकर पढ़ा करते थे। मिट्टी के तेल का पैसा नहीं था। वे
समझते थे कि गरीबी किसे कहते हैं? कंगाली किसे कहते हैं? इसलिए गरीबी और
कंगाली में जी रहे बच्चों की सहायता के लिए उन्होंने निश्चय किया कि हम ५०
रुपये में अपना गुजारा कर सकते हैं और ४५० रुपये विद्यार्थियों के लिए लगा
सकते हैं। आप तो अपनी कमाई का ५०० रुपया भी खा जाते हैं और चोरी-चालाकी का
भी खा जाते हैं। फिर बेटे, बात कैसे बनेगी? आपको अपनी कमाई का एक हिस्सा
भगवान के काम में लगाना ही चाहिए। नहीं साहब! हम तो नहीं लगा सकते, तो फिर
भगवान की भक्ति नहीं हो सकती। आपकी भगवान की भक्ति केवल खिलौना है, विडंबना
है, आडम्बर है और ढोंग है। इसलिए मित्रो! क्या करना पड़ेगा? ‘‘अक्षतान्
समर्पयामि’’—अर्थात अपनी कमाई का एक अंश भगवान के काम में लगाइए।
मित्रो! श्रम के बारे में अभी-अभी बता चुका हूँ और धन के बारे में अभी
बता रहा था। आपके पास पाँच चीजें हैं और पंचोपचार के माध्यम से आप इन
पाँचों को कोशिश कीजिए कि लोकमंगल के लिए, श्रेष्ठता के लिए, आदर्शवादिता
के लिए इनमें से बड़े-से अंशदान करना है। यह पंचोपचार अंशदान की शिक्षा है।
पंचोपचार खिलौना नहीं है, ढोंग नहीं है, चालाकी नहीं है, हाथों की
हेरा-फेरी नहीं है। इसके पीछे यही प्रेरणा है कि आपके पास जो कुछ भी है,
उसका बड़े-से अंश श्रेष्ठ कामों के लिए लगाएँ।
दीपक का अर्थ है ज्ञान
मित्रो!
फूल क्या है? और चंदन क्या है? चंदन, फूल और दीपक—ये तीन चीजें अभी और
बाकी रह जाती हैं। चंदन का क्या अर्थ होता है और फूल का क्या अर्थ होता है?
इसको आपको जानना चाहिए। दीपक का अर्थ है—ज्ञान। आपकी जो समझ है, जो बुद्धि
है। जैसे हमारे मस्तिष्क में ज्ञान रहता है। मस्तिष्क में दीपक के ऊपर
ज्ञान की बत्ती, ज्योति जलती रहती है। प्यार से भरा हुआ हृदय और पात्रता से
भरा हुआ कलेवर होता है। पात्र में दीपक होता है। उसके भीतर क्या होता है?
स्नेह होता है, प्यार होता है, चिकनाई होती है। चिकनाई को स्नेह, प्यार
कहते हैं।
दीपक, जो हमारे ज्ञान का प्रकाश है, वह दूसरों के लिए भी खर्च होते
रहना चाहिए और सदैव जलते रहना चाहिए। आप बुद्धिमान हैं, विचारशील हैं, आप
जानकार हैं, आप ज्ञानी हैं, तो वह आपका ज्ञान केवल आपके पेट भरने के लिए
खर्च नहीं होना चाहिए। आप वकील हैं तो आपकी वकालत का ज्ञान गाँधी जी के
तरीके से असंख्यों को मिलना चाहिए। आप अगर विद्वान हैं, तो महर्षि व्यास के
तरीके से आपके ज्ञान का लाभ असंख्यों को मिलना चाहिए। नहीं साहब! अपने
ज्ञान से हम फायदा उठाएँगे और अपनी वकालत करेंगे और अपना घर भरेंगे।
मित्रो! यह अमानत है, भगवान की सौंपी हुई संपत्ति है। इसमें से कम-से
हिस्सा अपने लिए रखें और बड़े-से हिस्सा समाज के लिए फैला दें, ताकि दुनिया
में रोशनी होना संभव हो सके। प्रकाश होना संभव हो सके। आपने एम.ए. किया है,
तो एम.ए. का ज्ञान समाज को मिलने दीजिए। नहीं साहब! हम तो पेट भरने के लिए
लगाएँगे। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। नहीं साहब! हमारी आमदनी हमको
मिलेगी और औरत की भी कमाई हम खाएँगे और चालाकी की कमाई भी खाएँगे, ईमानदारी
की कमाई भी खाएँगे। नहीं मित्रो! ऐसा नहीं हो सकता। अगर आप अध्यात्मवादी
हैं और आप देवताओं की कंपनी में भरती होना चाहते हैं, तो आप ऐसा नहीं कर
सकते, क्योंकि देवता उन्हें कहते हैं, जो दिया करते हैं। जिनकी नीयत हमेशा
लेने की रहती है, इससे भी लेना चाहिए और देवता से भी लेना चाहिए। मित्र,
भाई से भी लेना चाहिए, आचार्य जी से भी लेना चाहिए। गुरु से भी लेना चाहिए।
पड़ोसी से भी लेना चाहिए। सबसे लेना चाहिए, तो यह देवता नहीं, लेवता है।
जो दें, सो देवता
मित्रो! देवता की वृत्ति है कि वह गरीब-से आदमी को भी मौका दे
सकती है कि वह लोगों को निहाल कर सके और समाज को लाभान्वित कर सके। बिहार
के हजारीबाग जिले में एक गरीब किसान था, बिना पढ़ा, कोई ज्ञान नहीं, विद्या
नहीं, लेकिन उसने अपने गाँव में आम का एक बगीचा लगाया। गाँव वाले लोग आते
और कहते कि हमको आम की केरी दीजिए, चटनी बनाएँगे। हमको भी दीजिए। पेड़ पर
पक्षियों को घोसला बनाते हुए देखा। गाँव के किसानों को दोपहरी में, पेड़ की
छाया में बैठते हुए देखा। रात के समय में जंगली जानवरों को, खरगोश को,
लोमड़ियों को पेड़ के नीचे बैठते हुए देखा, तो वह गरीब किसान प्रसन्न हो गया
कि मैंने एक धर्मशाला बना दी, अच्छा किया। मैंने अन्नक्षेत्र बना दिया,
अच्छा किया। बस उस किसान ने गाँव-गाँव में बगीचे लगाना शुरू कर दिया।
दूसरों से भी प्रार्थना की, आप भी आम का बगीचा लगाइए। हजारी किसान सारी
जिंदगी आम के बगीचे लगवाता रहा।
मित्रो! जब उसका जीवन समाप्त हुआ, तो लोगों ने पाया कि उसने जहाँ-तहाँ
घूम-घूमकर हजार बगीचे लगाए थे। हजारी उसका नाम था और उसने हजार बगीचे लगाए।
इसलिए लोगों ने उस इलाके का नाम हजारीबाग रखा। हजारीबाग जिला बिहार प्रांत
में है। वे बगीचे हजारी किसान के स्मारक के रूप में उसी तरीके से हैं,
जैसे कि शाहजहाँ का स्मारक ताजमहल है। श्रम से भी आप ऐसा कर सकते हैं।
हमारे मथुरा शहर में आज से ५०-१०० वर्ष पहले एक स्त्री थी—पिसनहारी। उसका
असली नाम तो कोई नहीं जानता, पर वह पिसनहारी का काम करती थी। १२-१३ वर्ष की
उम्र में विधवा हो गयी थी। ब्याह हुआ और थोड़े दिन में विधवा हो गयी। विधवा
होने के पश्चात चक्की पीसने का धंधा उसने शुरू किया। दो आने, १२ नए पैसे
रोज की, आटे की पिसाई लेती थी। उसी से उसने अपनी जिंदगी काट ली। मंदी का
जमाना था, सो कभी एक पैसा, तो कभी दो पैसा बचत करती रही और जब बुड्ढी हुई,
तो उसके पास घड़ा भरकर ताँबे के जो पैसे जमा थे, उसने गाँव वालों को बुलाया
और कहा कि इस पैसे को किसी अच्छे काम में लगा दीजिए।
मित्रो! गाँव वालों ने उस पैसे से कुँआ बनवाया। पिसनहारी का वह कुँआ,
दिल्ली वाली सड़क पर मथुरा से ३-४ मील आगे है। आप कभी जाएँ तो पिसनहारी का
कुँआ तलाश करना। इतना ठंडा पानी, इतना मीठा पानी कि सारे इलाके में कहीं
नहीं है। बीमारियों में उस पानी को लिया जाता है। अब वहाँ स्टैण्ड बन गया
है। लोगों ने बगीचे लगा दिये हैं। बरात कहाँ ठहरेगी? पिसनहारी के कुँए पर।
दोपहरी में विश्राम कहाँ करेंगे? पिसनहारी के कुँए पर। पिसनहारी का कुँआ
इतनी बड़ी धर्मशाला है, इतनी बड़ी चीज है कि मैं क्या कहा सकता हूँ? श्रम से
भी—आप चाहें तो लोकमंगल का बहुत बड़ा काम कर सकते हैं। पैसा आपके पास न हो,
तो कोई बात नहीं।
हँसता-हँसाता जीवन जिएँ
मित्रो! पुष्प हँसता हुआ और हँसाता हुआ, खिलता हुआ और खिलाता
हुआ रहता है। नम्र और कोमल, जिसने यह स्वीकार कर लिया है कि हम श्रेष्ठ के
चरणों पर गिरेंगे। हम उन्हीं के चरणों के आसपास रहेंगे और कहीं नहीं
जाएँगे। बगीचे में रहे तो खिलते रहे और हँसाते रहे। जब उनके जीवन का अंत
हुआ, तो उनके गले में सुराख किया। उसे भी उसने मंजूर कर लिया। माला बन
करके, एकता के संगठन में एकत्र हो करके, किसी महामानव या भगवान के गले में
जा विराजमान हो गए। श्रेष्ठ पुरुषों के चरणों पर विराजमान हो गए। आपका भी
जीवन हँसता हुआ और हँसाता हुआ होना चाहिए। खिलता-खिलाता हुआ जीवन होना
चाहिए। चंदन के तरीके से हमारा व्यक्तित्व ऐसा श्रेष्ठ होना चाहिए कि हमारे
नजदीक जो कोई भी आए, साँप आए, बिच्छू आए, तरावट लेकर के जाए। हमारे
मोहल्ले में उगे हुए झाड़-झंखाड़ हमारी ही—तरीके से खुशबूदार बनते हुए चले
जायँ। जिन हाथों से चंदन घिसा जाए, उन हाथों में सुगंध फैले। जो लोग उसको
जलाएँ, तो भी उनकी रूह को आनंद प्राप्त हो। आपका व्यक्तित्व चंदन जैसा होना
चाहिए।
मित्रो! अगर आप देवत्व की सेना में भर्ती होना चाहते हों, देवता का
पूजन करना चाहते हों, देवता का अनुग्रह पाना चाहते हों, आप दैवी जीवन जीना
चाहते हों, दैवी संपदाओं के स्वामी बनना चाहते हों और वो विशेषताएँ पाना
चाहते हों, जो सारी-की देवताओं में होती हैं, तो आपको पंचोपचार की शिक्षाएँ
और प्रेरणाएँ अपने जीवन में धारण करनी होंगी। देवताओं के पास सिद्धियाँ
होती हैं। देवताओं के पास चमत्कार होते हैं। देवताओं के पास भुजबल होता है।
देवताओं के पास सम्मान होता है। देवताओं के पास सब कुछ होता है। उस सब कुछ
को पाना चाहते हों, तो आपको देवता की पूजा-उपासना, देवता की आराधना
प्रारंभ करनी चाहिए, जैसी कि प्रत्येक अध्यात्मवादी को दूसरे पाठ के रूप
में करनी पड़ी है और करनी चाहिए।
मित्रो! मैंने गारण्टी से आपको देवत्व का यह स्वरूप समझाया है। अगर
आपने वह देवत्व प्राप्त नहीं किया है, तो देवता अगर चाहें कि हम आपकी मदद
करेंगे, सहायता करेंगे, आपको लाभ देंगे, आपको वरदान देंगे, तो वे दे तो
देंगे, लेकिन आप उससे कोई फायदा नहीं उठा सकते, लाभान्वित नहीं हो सकते।
सारे अनुदान-वरदान बेकार चले जाएँगे।
देवत्व के बिना नहीं मिलते अनुदान
कैसे
बेकार चले जाएँगे? देखिए-एक बार ऐसा हुआ कि पार्वती जी और शंकर जी आकाश
मार्ग से बैल पर बैठकर चले जा रहे थे। शंकर जी का एक भक्त था। भक्त
ब्राह्मण, उसकी स्त्री और एक बच्चा था। वे सारे दिन ‘‘ॐ नमः शिवाय’’ का जप
करते। पार्वती जी ने—शंकर जी से कहा कि ये हमारे भक्त लोग हैं। हम इधर से
निकल ही रहे हैं, तो इन बेचारों को कुछ वरदान देकर के चलें। शंकर जी ने
कहा—पार्वती! बेकार है इनको वरदान देना। क्यों? क्योंकि ये इस लायक नहीं
हैं कि इन्हें कुछ दिया जाय और वे उसे सँभाल सकें। न तो इनमें पात्रता है
और न ही सँभालने की क्षमता है। इसलिए इनको वरदान देना बेकार है और हमारे
लिए अपनी शक्तियों को खराब करने के बराबर है। ये सब खराब कर देंगे और
बेचारे कुछ पायेंगे नहीं। पार्वती जी ने कहा—नहीं, महाराज जी! आप तो ऐसे ही
बहाने बना देते हैं। इन्हें कुछ देकर के जाइए। पहले आप इन्हें कुछ दें, तो
फिर पता चलेगा। अच्छा देकर के चलेंगे। तीनों वरदान माँगने को तैयार हो गए
कि हम अपनी मनोकामना पूरी कराएँगे। स्त्री जरा समझदार थी, होशियार थी। सबसे
पहले उछलकर वह आगे आ गयी और बोली—पहले हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। शंकर जी
ने पूछा कि तुम्हारी मनोकामना क्या है? उसने कहा—भगवन्! हमें बीस साल की
खूबसूरत युवती बना दीजिए। शंकर जी ने ‘तथास्तु’ कहकर जल छिड़क दिया। बस, वह
ऐसी खूबसूरत हो गयी कि अगर सिनेमा की कंपनी में कोई ब्रांड निकलते तो उसी
का नाम आए, बिलकुल टिपटॉप। ब्राह्मण ने उसे देखा तो, उसे बड़ा गुस्सा आया।
वह बोला—अच्छा कल तक तो कहती थी कि तुम्हारे साथ सती हो जाऊँगी और पतिभक्ति
दिखाऊँगी। आज क्या हुआ? मुझे और बच्चे को भूल गयी। ब्राह्मण की बारी आयी
वरदान माँगने की, ब्राह्मण ने शंकर जी से कहा—भगवन्! मैं आपसे वरदान माँगता
हूँ कि इस स्त्री को शूकरी बना दीजिए। शंकर जी ने कहा—अच्छी तरह सोच लो?
उसने कहा—महाराज जी! मैंने सोच-विचार कर ही वर माँगा है। तथास्तु कहते हुए
शंकर जी ने जल छिड़का और वह नारी से शूकरी बन गयी।
बालक यह सारा दृश्य देखकर रोने लगा। शंकर जी ने कहा—तुम क्यों रोते हो?
तुम भी वरदान माँग लो, बच्चे ने कहा—भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो
मेरी माँ को पहले जैसी बना दें। मुझे मेरी माँ चाहिए। शंकर जी ने
कहा—तथास्तु और ब्राह्मणी पुनः शूकरी से पहले जैसी स्थिति में आ गयी। शंकर
जी ने पार्वती जी से कहा—देवि! देखा आपने, इन तीनों ने तीन वरदान व्यर्थ
गँवा दिये। ये तीनों चाहते तो विवेकपूर्ण वरदान प्राप्त कर सकते थे और अपना
जन्म और जीवन सुधार सकते थे। हम इसीलिए आपसे कह रहे थे कि इनमें वरदान
प्राप्त करने की पात्रता नहीं है। मित्रो! देवपूजन का अर्थ होता है—देवता
की तरह अपने को विकसित कर लेना, ताकि देवता का जो स्तर है, उसके साथ जुड़ी
जो विशेषताएँ हैं, वे हमको मिलती चली जायँ। पात्रता का विकास करना ही,
देवपूजन का मुख्य उद्देश्य है। देवता बनकर ही देवोपासना की जाती है।
आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥