परिवार-निर्माण के पाँच आधार
सम्पदाओं और सुविधाओं का अपना महत्त्व है। उनके सहारे शरीर यात्रा सुखपूर्वक चलती है। मन प्रसन्न रहता है। साथियों को सहयोग दे सकना और सम्मान अर्जित करने में भी वे सहायक होती हैं। इसलिए हर कोई भौतिक दृष्टि से सुसम्पन्न बनने का प्रयत्न करता है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। भौतिक प्रगति की सम्पन्नता-सम्वर्धन की कोई आवश्यकता नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता, उसकी उपयोगिता सभी जानते हैं और यथाशक्ति उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं।
इतने पर भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि मनुष्य की मूल-भूत सम्पदा उसके सद्गुण ही हैं। व्यक्तित्व की प्रखरता उन्हीं के सहारे बनती है। यही वह चुम्बकत्व है जिसके सहारे पदार्थों की बहुलता-व्यक्तियों की सद्भाव भरी सहकारिता—परिस्थितियों की अनुकूलता—हाथ में लिए कार्यों की सफलता सहज ही खिंचती चली आती है। घटिया परिस्थितियों में जन्मे मनुष्यों में से कितने ही ऐतिहासिक महामानव बने और उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचे हैं। इस प्रगति का आधार उनके व्यक्तित्व की वही गरिमा रही है जो गुण-कर्म-स्वभाव की उत्कृष्टता के साथ ही विनिर्मित एवं विकसित होती है। भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के कारण मनुष्य के सद्गुण ही होते हैं। स्वार्थ या परमार्थ साधने में सफलता उन्हीं को मिलती है जिनमें वैयक्तिक विशेषता एवं प्रतिभा होती है। अकर्मण्य एवं दुर्गुणी व्यक्ति आजीवन गई गुजरी स्थिति में पड़े रहते हैं और अभावजन्य कठिनाई और उपेक्षाजन्य आत्म-ग्लानि सहन करते रहते हैं। अनुकूलताएँ और सफलताएँ किसी पर ऐसे ही नहीं बरस पड़तीं। उन्हें अपनी विशेषताओं के मूल्य पर उपार्जित किया जाता है। दुर्गुणी तो पूर्वजों की छोड़ी कमाई की भी होली फूँकते हैं और उससे दुर्व्यसनों में संलग्न होकर उलटे विपत्ति खरीदते हैं।
सम्पत्ति के साथ-साथ सद्गुणों की विभूतियों के सम्वर्धन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। अन्यथा येन-केन प्रकारेण उपार्जित की गई सम्पदा को उपयोगी कार्यों में लगा सकना सम्भव न हो सकेगा। अन्तर की दुष्प्रवृत्तियों के कारण उपलब्धियों को व्यर्थ के अपव्ययों में अथवा अनर्थ मूलक दुष्ट कर्मों में नियोजित किया जाता रहेगा। ऐसी दशा में सम्पदा की वृद्धि सुखद सिद्ध होने की अपेक्षा दुःखदायक बनती चली जायगी। सद्गुणों की विभूतियाँ ही मानव जीवन के साथ हर घड़ी जुड़ी रहने वाली वास्तविक सम्पत्ति हैं। उनके कारण प्रत्येक परिस्थिति में आन्तरिक सन्तोष और बाह्य सहयोग-सम्मान अनवरत रूप से मिलता रहेगा। प्रगतिशीलता—मनुजता की ही प्रतिक्रिया है। प्रशंसनीय उन्नति मात्र मनुज ही कर सकते हैं। दुष्टता के सहारे जो वैभव कमाया जाता है वह लोकमत का तिरस्कार और अन्त:करण का धिक्कार बरसते रहने से सर्वथा नीरस, निरर्थक और अन्ततः पश्चात्ताप का कारण बनकर रह जाता है।
स्वास्थ्य सम्वर्धन के साधन व्यायामशाला, अस्पताल और रसोई घर में मिल सकते हैं। प्रवीणता विद्यालयों के सम्पर्क, अभ्यास के सहारे इकट्ठी की जा सकती है। सम्पन्नता कृषि, व्यवसाय, शिल्प, नौकरी, कला-कौशल आदि माध्यमों से कमाई जा सकती है। किन्तु व्यक्तित्व में सद्गुणों की विभूतियों का समावेश करने के लिए परिवार की पाठशाला में ही प्रशिक्षण प्राप्त होता है। स्वभाव और संस्कार उसी फैक्टरी में ढलते हैं। परिवार एक छोटी-सी प्रयोगशाला है जिसमें सद्गुण सम्पन्न व्यक्तित्वों के विनिर्मित कर सकने के सभी आवश्यक उपकरण रहते हैं। परिवार को एक नर्सरी कह सकते हैं जहाँ बढ़िया पौध तैयार की जाती है। यही पौधे अन्यत्र उद्यानों में लगते और फलते-फूलते हैं। यशस्वी वह नर्सरी भी होती है जिसने बढ़िया पौध तैयार करने का उत्तरदायित्व निबाहा। कृषि फार्मों में कई तरह के प्रयोगों द्वारा अच्छी फसल देने वाले परीक्षण चलते रहते हैं। परिवारों को इसी स्तर का समझना चाहिए। उनमें रहने वाला वातावरण ही उन सबको प्रभावित करता है जो उस छोटे घरौंदे में निवास, निर्वाह करते हैं।
बच्चों पर तो पारिवारिक वातावरण का असाधारण प्रभाव पड़ता है। वे जहाँ कोमल होते हैं, वहाँ उनकी ग्रहण शक्ति भी बहुत बढ़ी-चढ़ी होती हैं। अभिभावकों का अनुकरण करके ही वे बोलना सीखते और दैनिक क्रिया-कलापों का अनुकरण-अभ्यास करते हैं। प्रत्यक्षतः बुद्धिहीन तो लगते हैं पर उनकी संग्राहक शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है। वे परिवार के वातावरण एवं प्रचलन के सहारे अपने दृष्टिकोण, स्वभाव एवं चरित्र का निर्माण करते हैं। प्रश्न गरीबी-अमीरी का नहीं, उससे तो सुविधा-असुविधा भर का प्रभाव पड़ता है। असली गरिमा पारिवारिक संस्कृति की है। उसमें जिस स्तर का चिन्तन, व्यवहार चलता है, वही बालकों के स्वभाव एवं चरित्र का अंग बन जाता है। सर्दी-गर्मी के ऋतु प्रभाव से जिस प्रकार सभी प्रभावित होते हैं ठीक उसी प्रकार परिवार की समस्याएँ सुकुमार बालकों को निश्चित रूप से प्रभावित करती हैं। बच्चों के भविष्य की चिन्ता हो तो भले ही उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा आदि में कटौती कर ली जाय, पर सुसंस्कार देने का प्रबन्ध तो करना ही चाहिए। अन्यथा बड़े होने पर वे बल, शिक्षा, धन, पद आदि कुछ भी प्राप्त करने पर भी निकृष्ट और घृणित बने रहेंगे। अपने लिए—परिवार और समाज के लिए अभिशाप ही सिद्ध होंगे।
न केवल बच्चों पर वरन् छोटे-बड़े सभी पर घर के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। शान्ति देने के लिए उद्यान की कुंजों और पर्वतों की गुफाएँ उतनी समर्थ नहीं होती जितनी कि घर की चहार दीवारी। कोई रंगमंच इतना मनोरंजक नहीं हो सकता जितना सुसंस्कृत परिवार। सौन्दर्य का कोई अन्य आधार इतना आकर्षक नहीं हो सकता जितना भाव-भरे परिजनों से भरा-पूरा परिवार। वस्तुतः स्वर्ग की छोटी-सी प्रतिकृति अपना घर-घरौंदा होता है बशर्ते कि उसमें सद्भावनाएँ और सत्परम्पराएँ उमगती दृष्टिगोचर होती रहें।
क्या घरों का ऐसा वातावरण बन सकता है। उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यदि गृह संचालिका का व्यक्तित्व गृह लक्ष्मी स्तर का है, तो वह अपने क्रिया-कौशल और स्नेह सद्भाव का सुसन्तुलित प्रयोग करके ऐसी परम्पराएँ प्रचलित कर सकती हैं जिसके आधार पर परिवार में सत्परम्पराएँ चल पड़ें और उनकी प्रतिक्रिया स्वर्गीय वातावरण बनकर परिलक्षित होने लगे। यह सब कल्पना करने मात्र से सम्भव नहीं हो जाता। इसके लिए प्रबल प्रयत्न की—और गृह सदस्यों के समुचित सहयोग की आवश्यकता रहती है। ठीक है, इस दिशा में आगे तो सुगृहिणी को ही रहना होता है पर उसका सहयोग अन्य सबको भी करना होता है। यह तथ्य घर के हर सदस्य को समझ लेना चाहिए कि परिवार संस्था साझे की ऐसी खेती है, जिसमें सभी का सहयोग अपेक्षित है। एक बनाएँ और दस तोड़ें तो ऐसा कोई सृजन किस प्रकार हो सकेगा?
उच्च स्तरीय सद्गुणों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि आते हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण और अभ्यस्त शालीनता की स्थिति होने पर ही इनका निर्वाह होता है। अस्तु इन्हें चरित्र क्षेत्र में कालेज स्तर की पढ़ाई कहा जा सकता है। इनके प्रति समुचित आस्था रखी जाय, किन्तु आरम्भ उस प्रकार किया जाय जिस तरह कि बाल कक्षा के छात्र अक्षर ज्ञान और गिनती गिनना सीखते हुए आगे बढ़ते हैं। दैनिक जीवन में अनिवार्य रूप से व्यवहृत होने योग्य कुछ प्रारम्भिक नीति नियम हैं जिन्हें अपनाये बिना नागरिक कर्तव्य स्तर का प्राथमिक चरित्र भी नहीं बनता। व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन के पंचशील—पाँच आदर्श ऐसे हैं जिन्हें अपनाने पर ही मानवी गरिमा की रक्षा होती है। जहाँ इतना भी न बन पड़े वहाँ घोर पिछड़ापन छाया रहेगा और नारकीय परिस्थितियाँ बनी रहेंगी। हर परिवार में (१) श्रमशीलता (२) स्वच्छता (३) मितव्ययिता (४) शिष्टता (५) आस्तिकता के पाँच देवताओं की श्रेष्ठ परम्परा के रूप ५ साधना चलती रहनी चाहिए।
(१) श्रमशीलता:—जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति का माध्यम 'श्रम' है। विद्या प्राप्ति, धन-उपार्जन, योग साधन, आत्मोन्नति किसी भी उद्देश्य को लेकर बढ़ने का प्रयत्न करें बिना श्रम को अपनाये, बिना परिश्रम किए हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते।
विद्यार्थी परीक्षा पास करने के लिए दिन-रात एक करता है। उसे सतत निरन्तर प्रयत्न करना पड़ता है तब कहीं परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होने का सुखद परिणाम प्राप्त होता है। स्नातक बनने के लिए एक विद्यार्थी को १४ वर्ष लगातार श्रम करना पड़ता है। श्रम की सतत साधना और निरालस्य ही उसकी सफलता के माध्यम होते हैं।
व्यवसायी, जाड़ा, गर्मी और बरसात की चिन्ता किए बिना लगातार एक रस, निरालस्य होकर काम में जुटा रहता है तब अपनी आजीविका कमाता है, परिवार का भरण-पोषण करता है। बिना श्रम किए, आलस्य में पड़कर वह चाहे कि मैं पैसा कमा लूँ, तो व्यवसाय में तो नहीं कमा सकता। इसी प्रकार, कृषक, शिल्पी, श्रमिक, कलाकार आदि अपने शारीरिक और मानसिक श्रम का समन्वय करके प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं।
निरालस्य श्रम ही जीवन विकास की कुंजी है। किसान भी वर्ष के किसी भी मौसम में विश्राम किए बिना आलस्य में पड़े बिना बिना सतत परिश्रम-रत रहे तो अन्न उत्पन्न करता है। समय पर बीज न बोया जाय, पानी न लगाया जाय, रखवाली न की जाय तो भला किसान किस प्रकार फसल घर ला सकेगा। एक भी काम में जरा आलस्य किया कि उसका सर्वस्व नाश ही समझें। साल भर का सारा श्रम भी चला जायगा और आगे साल के लिए खाने के लाले भी पड़ जाएँगे।
नौकरी करने के लिए भी श्रम को बिना अपनाये काम कैसे चल सकता है। अपना काम पूरी मुस्तैदी से न करने से, आलस्य में पड़ने से तो दूसरे दिन नौकरी में खतरा उत्पन्न हो सकता है।
इस प्रकार देखा जा सकता है कि परिश्रम के बिना कोई रास्ता नहीं है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता का मूलमन्त्र परिश्रम ही है।
इसके विपरीत है आलस्य की विकृति जो हमारे मनों में घुसा हुआ बैठा रहता है। कोई काम तत्परता से नहीं, सब काम में आलस्य, कामचोरी, अन्यमनस्कता, ढीलापन ही दिखाई देता रहता है। यह आलस्य ही शैतान है जो विकास के हर कार्य में हमारे लिए बाधक बन जाता है। यह शैतान आलस्य जहाँ भी रहता है, वहीं अपने नाते रिश्तेदारों—साथियों मित्रों को—दुर्गुणों एवं दुष्प्रवृत्तियों को एकत्रित कर लेता है। आलस्य जहाँ रहता है वहाँ मनुष्य में सारे दुर्गुण आप आ जाते हैं। कामचोरी, झूठ बोलना, चोरी करना, धोखा देना, मिलावट करना, कम तौलना, बेईमानी करना, सट्टा खेलना, लाटरी लगाना, जुआ खेलना, रिश्वत लेना, शराब पीना, नशा करना, व्यभिचार करना, जमाखोरी करना, ईर्ष्या करना, द्वेष करना, कपट करना, दुर्व्यवहार करना, निन्दा-चुगली करना बीसियों दुर्गुण और दुष्प्रवृत्तियाँ बिना प्रयास किए ही धीरे-धीरे उसी प्रकार आलसी मनुष्य में आ जाती हैं।
इसके ठीक विपरीत शीलवान, परिश्रमी व्यक्ति में अनचाहे ही सारे सद्गुण उसी प्रकार आते, चले जाते हैं जैसे समुद्र में सारी नदियाँ बिना प्रयास ही अपने आप जाती हैं।
महिलाएँ यह अच्छी तरह समझें कि परिश्रम जीवन की मूल पूँजी है अतः परिवार में क्रियाशीलता को बढ़ाएँ, परिवार के प्रत्येक सदस्य में कठोर परिश्रम का अभ्यास पैदा करें और अभिरुचि जगाएँ। यद्यपि महिलाओं के ऊपर काम का इतना भार रहता है कि उनके लिए परिश्रम के बिना दूसरा रास्ता नहीं है। किन्तु अकेले ही काम के भार से दबी जाती रहें और घर के अन्य सदस्य आलस्य में समय काटें, यह भी अनुचित है। अतः सभी में सहकारिता के आधार पर मिल-जुलकर काम निपटाने की आदत डालनी चाहिए, वह चाहे कोई भी काम हो। बच्चों से लेकर बड़ों तक सब में परिश्रम की अभिरुचि जागे। इस सन्दर्भ में व्यवस्थित दिनचर्या का निर्धारण होना आवश्यक है। समय और श्रम का तालमेल बिठाकर मुस्तैदी से उस निर्धारण को पूरा करते रहने से ही श्रम सन्तुलन बनता है। नियमित और क्रमबद्ध श्रम करने की आदत समय और श्रम का पारस्परिक सम्बन्ध मिला देने पर ही पड़ती है। समय का एक क्षण भी बेकार न गँवाया जाय। हर समय व्यस्त रहा जाय। श्रम और विश्राम के औचित्य का समुचित ध्यान रखा जाय तो ही श्रमशीलता फलप्रद होती है।
समय का सदुपयोगः— यह भी बड़ी महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है, जिसका विकास निरालस्य एवं श्रमशीलता के बिना नहीं हो सकता। समय हमारे जीवन की निधि है। भगवान ने हमें निश्चित आयु, गिनी हुई श्वाँसें दी हैं। यदि इस समय का हमने सदुपयोग न किया तो पीछे पछताना ही हाथ रहेगा। संसार में वही व्यक्ति समझदार और योग्य समझा जाता है, जो समय का सर्वोत्तम उपयोग कर लेता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए है, उन्होंने समय का मूल्य समझा और उसके एक-एक क्षण का सर्वोत्तम लाभ प्राप्त किया है।
समय की साधना ही मनुष्य को सफलता की सिद्धि दिलाती है, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। इसे काल की साधना कहें तो अत्युक्ति न होगी क्योंकि जिसने समय का मूल्य समझा है, वह अपने जीवन-काल का पूरा-पूरा उपयोग कर लेता है।
अपने समय का सर्वोत्तम उपयोग हो और एक क्षण भी अनुपयोगी न जाय इसके लिए हर व्यक्ति को नित्य अपनी दिनचर्या का विभाजन करके, टाइम टेबिल बनाकर खर्च करना चाहिए। हमारी दिनचर्या पहिले से निश्चित होने से हर काम समय पर करने का स्वभाव बन जाता है और आवश्यक तथा नित्य नैमित्तिक कार्यों से बचे हुए समय का उपयोग हम अपनी ज्ञान-वृद्धि करने में, स्वास्थ्य रक्षा के कार्यों में, परिवार के आर्थिक सन्तुलन को ठीक करने में, समाज सेवा में, बच्चों के शिक्षण में, लोक मंगल के कार्यों में कर सकते हैं। फिर यह शिकायत समाप्त हो जायगी कि समय नहीं मिलता।
अनुत्साह, आलस्य और प्रमाद के ढीलेपन से, बेगार भुगतने की तरह काम करते हैं तो समय अधिक लगता है और कार्य विशेष भी ठीक ढंग से नहीं होता। हमें ऐसा स्वभाव बनाना चाहिए कि तत्परतापूर्वक कम समय में अधिक काम निपटाने का प्रयत्न करें, हर कार्य में उत्साह और स्फूर्ति का परिचय दें। इससे जहाँ हमारे अन्दर कार्य कुशलता का गुण विकसित होगा। मनोवैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि प्रत्येक कार्य के पश्चात् कुछ मिनट यदि हम शिथिल होकर विश्राम करने की आदत डाल सकें तो नये काम करने के लिए वही नवीन स्फूर्ति आ जाती है, जो काम शुरू करने से पूर्व हमारे भीतर होती है।
परिवार का हर व्यक्ति नियत समय पर निर्धारित काम करे। बाहर भी अपने क्रिया-कलाप में समय के पालन का ध्यान रखे। किसी के यहाँ जाने पर कुछ देने का वायदा किया है तो उसे नियत समय पर पूरा करने का पूरी ईमानदारी के साथ प्रयत्न करना चाहिए। समय का पालन, सदुपयोग मानवी प्रगति का महत्त्वपूर्ण आधार है।
२. स्वच्छता:—स्वच्छता को सुसंस्कारी कहा गया है। पश्चिमी देशों में स्वच्छता को प्रतिष्ठा का प्रश्न माना गया है। अतः परिवार के हर सदस्य में स्वच्छता के संस्कार पैदा किए जाने चाहिए। शरीर, वस्त्र, कमरे, बर्तन और प्रयोग में आने वाली समस्त वस्तुओं की स्वच्छता का प्रत्येक सदस्य को ध्यान रखना चाहिए। इस आदत को अपने दैनिक अभ्यास में लाने की प्रेरणा देना चाहिए। घर, द्वार, रसोई, कमरे, चौका, स्नानघर, पेशाबघर और पाखाना सभी में नियमित सफाई का क्रम चलना चाहिए।
यह सारा कार्य एक व्यक्ति का नहीं है। इसे भी सहकारिता और सहयोग के माध्यम से मिल-जुलकर पूरा किया जाना चाहिए। परिवार के सभी लोग अपने क्रम या योग्यता के अनुसार वस्त्रों की, बरतनों की, मकान की स्वच्छता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। शारीरिक स्वच्छता तो हरेक को अपनी-अपनी ही रखनी पड़ेगी पर बच्चों की स्वच्छता का माँ को विशेष और अन्य लोगों को आंशिक रूप से ध्यान रखना पड़ेगा।
वास्तविक बात यह है कि यदि स्वच्छता का सिद्धान्त मन में बैठ गया तो हरेक को गन्दगी खटकेगी, कुरूपता अस्त-व्यस्त को हटाने की इच्छा उठेगी, उसमें आलस्य और प्रमाद की गुंजायश नहीं रहेगी। कहीं थोड़ी भी अस्वच्छता दिखाई देगी, अव्यवस्था अनुभव होगी तो गृहिणी या परिवार के सदस्य को खटकने लगेगी। और तब कहीं अस्वच्छता अस्त-व्यस्तता का रहना सम्भव न होगा।
प्रायः अपने परिवारों में शौकीनी ठाठ-बाठ और फैशन के नाम पर थोड़ी साज, सजावट दिखाई देती है। तीज त्यौहार, विवाह-शादी अथवा किसी महत्त्वपूर्ण अतिथि आने के अवसर पर सफाई में उत्साह दिखाई देता है अन्यथा चारों ओर अस्वच्छता का ही साम्राज्य छाया रहता है। स्वभाव न होने से वह खटकती भी नहीं है। कमरों में कपड़े अस्त-व्यस्त, कापी-किताबें इधर-उधर बिखरी हुई, सामान अव्यवस्थित, आलस्यवश सब ऐसा ही पड़ा बिखरा रहता है। रसोई में बरतन इधर-उधर फैले, धुयें की कालिख का साम्राज्य, धूल भरे जाले लटके रहते हैं। आँगन में बच्चों ने सबमें कूड़ा-करकट फैलाया हुआ। कहीं साग की टोकरी पड़ी है तो कहीं अनाज का टीन। एक तरफ कुर्सी पड़ी है तो बीच रास्ते में चौकी। स्नान घर में पानी बह रहा है, काई जम गई है, सीलन और पेशाब की बदबू आ रही है, पैखाने से दुर्गन्ध फैल रही है, पानी डालने की किसी को फुरसत नहीं है, मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं। ध्यान दीजिए, यह दृश्य कहीं अपने यहाँ का ही तो नहीं है ?? यदि ऐसा ही है तो हमें मानना चाहिए कि हम घर में नहीं, नरक में रह रहे हैं।
हम घर की थोड़ी बहुत सफाई करते भी हैं तो घर तो साफ करते हैं और गन्दगी घर के सामने डाल देते हैं, सड़क पर गिरा देते हैं, अपनी नाली साफ करके कचरा-मैला पड़ोसी के दरवाजे की ओर बढ़ा देते हैं। यह बहुत ही गन्दी और अनैतिक आदत है। अपनी खुद की सफाई के साथ-साथ सार्वजनिक सफाई का भी ध्यान रखें।
जिसके मन में स्वच्छता सिद्धान्त एवं अभ्यास रूप में आ जायगी वह घर और बाहर सब जगह स्वच्छता के नियमों का पालन करेगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते कहीं भी वह उनका उल्लंघन नहीं करेगा। जहाँ कहीं उसका विकृत रूप देखेगा उसे खटकेगा और वह उसे ठीक करने का प्रयत्न करेगा।
स्वच्छता का अर्थ है सभ्यता। स्वच्छता से सभ्यता, नागरिकता और स्वस्थ व्यक्तित्व का बोध होता है। अस्वच्छता—अस्वस्थ वातावरण और असभ्यता की परिचायक होती है।
व्यवस्था से सुन्दरता, सुरुचि, सुविधा और सम्मान प्राप्त होता है। अव्यवस्था-फूहड़पन निकम्मेपन को द्योतक है। इससे हर क्षेत्र में असुविधाओं का ही सामना करना पड़ता है।
घर, बाहर, आँगन, कमरे, रसोई सब साफ-सुथरे हैं, कपड़े-लत्ते, बिस्तर-बैठक, शरीर और वस्त्र सभी स्वच्छ हों तो इस स्वच्छता के वातावरण से मन प्रसन्न रहता है, विचार पवित्र आते हैं और अन्त:करण प्रफुल्लित रहता है। पूजा और यज्ञ कार्य में भी हम बाह्य और आन्तरिक पवित्रता की भावना करते हैं। वह बाह्य और आन्तरिक स्वच्छता-पवित्रता हमारे घरों में रहे, यह गृह लक्ष्मी द्वारा ही हो सकता है।
स्वच्छता से सौन्दर्य उपासना की प्रकृति निर्मित होती है। सजावट, चित्रों का चयन, फल-पत्ती गुलदस्ते, गमले-बेलें सजाने का नियम इसी का एक अंग है। मन्दिरों की सजावट, स्वच्छता और शृंगार-सुसज्जा भी हमें प्रसन्नता, रोचकता प्रदान करती है। वैसी ही स्थिति हमारे घरों की होनी चाहिए।
३. शिष्टाचार:—एक-दूसरे के प्रति सम्मानयुक्त व्यवहार को शिष्टाचार कहते हैं। हर व्यक्ति चाहता है कि उसे सम्मान दिया जाय। अतःजाय। हर समय समान स्तर तथा आयु वालों के बीच, छोटे द्वारा बड़ों के प्रति तथा बड़ों द्वारा छोटों के प्रति सभी को शिष्टाचार बरतना आवश्यक हो जाता है। सिद्धान्त है कि जैसा व्यवहार अपने लिए चाहें, वैसा ही स्वयं दूसरों से करें। अपना ही व्यवहार लौटकर स्वयं को मिलता है। आज दुर्भाग्यवश इस प्रकार का चिन्तन लगभग समाप्त हो गया है। उसके फलस्वरूप शिष्टाचार एवं मधुरता का अभाव अनुभव किया जा रहा है। पारिवारिक सम्बन्धों में मधुरता पैदा करने के लिए शिष्टाचार का ध्यान हर व्यक्ति को रखना सीखना चाहिए।
घर के विचारशील तथा प्रमुख व्यक्ति ही इसका विकास कर सकते हैं। सर्वप्रथम उनके द्वारा ही इसका पालन किया जाना चाहिए। अभिवादन करते समय बात करते समय हम वाणी में शालीनता लायें, मधुर और नम्रतापूर्ण वाणी प्रयोग करें। हमारी बोली में कठोरता, तू-तड़ाक और ताने-बाजी आदत होती है, उसे धीरे-धीरे हटाने-बदलने का प्रयास करना चाहिए। कहा है—
"ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरों को शीतल करे, आपहु शीतल होय॥"
बहुधा बोलने में 'तकिया-कलाम' के रूप में गाली के शब्द और निरर्थक शब्द बोलने का स्वभाव पड़ जाता है किन्तु वह सभ्य समाज में बोलते ही शर्म से आँखें नीची करना पड़ती हैं, अत: उनका उपयोग छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए।
हम कुछ भी आँय-शाँय जो मुँह पर आ जाय सो न बोलें। हम क्या बोल रहे हैं, उसका पहले से विचार कर लेना चाहिए। इसीलिए कहा है कि "जो कुछ बोलें, उसको तोलें" अर्थात् सन्तुलित बोलने का प्रयत्न किया जाय।
'तू' शब्द से किसी को सम्बोधित नहीं करना चाहिए। 'तू' शब्द से सम्बोधन किसी को भी सम्मानित जैसा नहीं लगता, अत: बात करने में 'आप' का प्रयोग करना चाहिए। आप कहने का अभ्यास डालना चाहिए, साथ ही 'जी' का उपयोग वाक्य को बहुत शालीन बना देता है। चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा यदि हम 'आप' और 'जी' का प्रयोग करें तो वाणी में शालीनता झलकेगी।
घरों में शिष्टाचार, सम्मान और आत्मीयता का वातावरण उत्पन्न करने के लिए सर्वोत्तम उपाय है कि प्रातः-सायं अभिवादन करने और चरण छूने का नियम डाला जाय। छोटे हों या बड़े, सभी अपने से बड़ों के चरण स्पर्श करें। पड़ोसी, आगन्तुक, अतिथियों से नमस्ते, प्रणाम करने का अभ्यास घरों में चलना चाहिए। इस व्यवहार से सहज ही आपस में आत्मीयता उत्पन्न होती हैं। छोटों का बड़ों के प्रति सम्मान भाव बढ़ता है और, बड़ों का छोटों के लिए प्यार उमड़ने लगता हैं, आशीर्वाद मन से निकलते है। आगन्तुक व्यक्ति गद्गद हो जाता है।
सम्भाषण-बातचीत में भी शिष्टाचार का ध्यान रखा जाना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना अन्य बातों में। बातचीत में भी हम ध्यान रख सकें कि अनर्गल-व्यर्थ की बातें न करें, कड़ुवी बात न करें, शेखी न बघारें, चीख-चीखकर न बोलें, तनिक-तनिक सी बात पर आवेश में न आए। रूठने की आदत न डालें। किसी की खिल्ली न उड़ाएँ, किसी की बातचीत में बीच में न बोलें, तो जीवन की आधी उलझनें समाप्त हो सकती हैं। अधिकांश झंझटें तो ऐसे व्यवहार से ही उत्पन्न होती हैं जिन्हें थोड़ी-सी सतर्कता से बचाया जा सकता है।
व्यवहार में शिष्टता का ध्यान रखना केवल छोटों के लिए ही आवश्यक है ऐसी बात नहीं है, बड़ों का छोटों के प्रति भी वही व्यवहार होना चाहिए। कितने ही घनिष्ट सम्बन्धी, रिश्तेदार या मित्र बैठे हों, बातचीत कर रहे हों—पर छोटों के सामने अभद्र शब्दों, हास-परिहास का व्यवहार न करें और इस प्रकार के व्यवहार को अपना व्यसन यानि गन्दे शब्दों के प्रयोग को, मजाक को तकिया-कलाम न बनने दें।
सास-बहू, ननद-भाभी, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि इन आधारों पर एक-दूसरे के सुख के आधार बन सकते हैं।
वार्तालाप एवं व्यवहार में कहीं भी ऐसा नहीं झलकना चाहिए कि दूसरों के सम्मान को ठेस लगाई जा रही है अथवा अपना अहंकार प्रदर्शित किया जा रहा है। यह हानि प्रत्यक्ष तो नहीं दीखती पर इस तनिक सी असावधानी से परस्पर खाई पैदा होती है और यदि वह पाटी न जा सकी तो मनोमालिन्य एवं द्वेष का रूप धारण कर लेती है। अधिकांश द्वेष-विग्रहों में कोई बड़े या ठोस कारण नहीं होते। शिष्टता का ध्यान रखने, असभ्य ढंग से बोलने या व्यवहार करने भर से तनिक सी बात बढ़कर पहाड़ जितनी हो जाती है। अस्तु दूसरों के साथ सम्भाषण में—व्यवहार में मुख मुद्रा से लेकर कहने-सुनने और आदान-प्रदान में शालीनता, सज्जनता, नम्रता का ध्यान रखा जाना चाहिए। मनुष्य को आत्म-सम्मान सबसे अधिक प्रिय है। किसी के अहं को चोट पहुँचाकर हम उसे उदासीन या शत्रु ही बना सकते हैं, जबकि शालीन सज्जनता के आधार पर उसे मित्र, सहयोगी एवं प्रशंसक बनाए रखा जा सकता था।
४. उदार सहकारिता:—परस्पर सहयोग के के आधार पर ही मनुष्य वनमानुष से ऊँचे उठते-उठते सृष्टि का मुकुटमणि बन सके हैं। मानवी प्रगति में बुद्धिमत्ता से अधिक सहकारिता की वृत्ति का अधिक योगदान रहा है। मनुष्य को उदार और सहयोगी होना चाहिए। परिवार में ही नहीं, समाज में भी एक-दूसरे से प्यार करना चाहिए। दूसरों के भी काम आना चाहिए, समय पड़ने पर परस्पर सहयोग करना चाहिए और एक-दूसरे के हित के लिए त्याग करना चाहिए। माता-पिता, चाचा-ताऊ, चाची-ताई, भाई-भाभी, बहिन-बुआ, भाई-भाई के प्रति, परिवार के प्रति, आस-पड़ोस के प्रति हमारे जो कर्तव्य धर्म हैं, उनका पालन यथासाध्य करें। अपना कर्तव्य पालन करते हुए, दूसरों के सुख-दुःख में सम्मिलित होकर सम्वेदनशीलता बढ़ाएँ, सहानुभूति प्रदान करें, उन्हें सुझाव ही न दें बल्कि अपने सहयोग द्वारा सहायता भी करें। इससे मानव में देवत्व का उदय होता है।
गृह कार्यों में एक-दूसरे का सहयोग करें। मिल-जुल कर काम करने में वह जल्दी तो होता ही है साथ ही एक खेल या मनोरंजन भी बन जाता है। इससे समता एवं सहयोग की प्रवृत्ति सुदृढ़ होती है। खाते समय पर यदि सब लोग मिल-जुलकर साथ बैठकर खाया करें, तो उससे आनन्द की अभिवृद्धि ही होगी।
एक-दूसरे का काम को हाथ बँटाने की सहज वृत्ति परिवार के हर सदस्य में होनी चाहिए। अधिकारों की माँग में पीछे और कर्तव्य पालन में आगे रहने की आदत से अपने को सबका प्यार और सम्मान मिलता है। अपने लिए कम दूसरों के लिए अधिक का दृष्टिकोण हर प्रकार से सराहनीय है। हारी-बीमारी में सेवा-सुश्रूषा का पूरा ध्यान रखा जाय। बड़े क्लास वाले छात्र अपने छोटे भाई-बहिनों को पढ़ाने में सहायता करें। खेलने-घूमने में बड़े छोटों को साथ लेकर चलें। अपने स्वार्थों की तरह परिवार का हर सदस्य दूसरे सदस्यों का ध्यान रखें। एक-दूसरे की प्रगति और सुविधा में सहायता करें तो उस सहयोगी वातावरण में स्वर्गीय तत्त्वों का सृजन होगा। सभी प्रसन्न रहेंगे और समुन्नत बनेंगे।
५. आस्तिकता का वातावरण:—परिवारों में आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता का वातावरण विकसित होता रहे, उसके लिए समुचित ध्यान रक्खा जाना चाहिए। ईश्वर विश्वास के साथ कर्मफल मिलने की आस्था जमती है और कुमार्ग से बचते हुए सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। चरित्र निष्ठा के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य आत्म-गौरव का अनुभव करे, आत्मविश्वासी बने और कर्तव्य पालन का महत्त्व समझे। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने की सम्भावना उच्च आदर्शवादिता पर आधारित है। उसे विकसित करने के लिए हर घर में आस्तिकता का वातावरण बनना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि परिवार का हर सदस्य किसी न किसी रूप में ईश्वर से सम्पर्क साधने का अवसर प्राप्त करता रहे।
घर में उपासना स्थल अवश्य होना चाहिए। इसके लिए अलग कमरा रखा जा सके तो अच्छा अन्यथा किसी भी अपेक्षाकृत एकान्त स्थान में पूजा की चौकी स्थापित कर ली जाय। उस पर भगवान का चित्र एवं प्रतीक प्रतिष्ठापित रहे एवं पूजा के उपकरण सजाकर रखे जाँय।
घर के हर सदस्य को नित्य उपासना के लिए कहा जाय। गायत्री मन्त्र अथवा जो भी भगवान का प्रिय नाम हो उस स्थान पर बैठकर जपा जाय और परमात्मा की निकट उपस्थिति का ध्यान किया जाय। समय की कमी या अरुचि होने पर भी पाँच मिनट किसी न किसी प्रकार हर सदस्य की उपासना चलती रहे, ऐसी परम्परा डाली जानी चाहिए। स्नान न करने की स्थिति में मानसिक जप-ध्यान हो सकता है। बैठना न बन पड़े तो खड़े-खड़े ही सही, पर दैनिक कार्य आरम्भ करने से पूर्व भगवत् स्मरण का नित्य कर्म पूरा होना चाहिए। हर सदस्य इसका अभ्यस्त रहे।
ईश्वर उपासना से लेकर स्वाध्याय सत्संग तक की विभिन्न धार्मिक क्रिया-प्रक्रियाओं का उद्देश्य यह है कि मनुष्य चरित्रनिष्ठ और समाजनिष्ठ बने। ईमानदारी को ईश्वर भक्ति का ही एक रूप माना जा सकता है। उदारता, परमार्थ परायणता की नीति अपनाने पर ही किसी को धर्मात्मा कहा जा सकता है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी एक ही पुण्य फल प्रदान करती है कि मनुष्य सच्चे अर्थों के मनुष्य बने। ईश्वर का अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म का विनाश करने के लिए होता है। आस्तिक व्यक्ति के अन्तःकरण में इन देवत्व समर्थक और असुर विरोधी भाव तत्त्वों के लिए समुचित स्थान होना चाहिए। भीतर और बाहर दोनों ही क्षेत्रों में अवांछनीयता के निराकरण और शालीनता के अभिवर्धन में साहस भरा उत्साह बना रहना चाहिए। परिवारों में आस्तिकता की जड़ें जमाते हुए उसके तत्त्वज्ञान और व्यवहार का स्वरूप भी समझाते रहने की आवश्यकता है। तभी इस पुण्य परम्परा का समुचित लाभ मिल सकेगा।
दो बजे से चार बजे तक का समय महिलाओं-गृहणियों के अवकाश का समय होता है, उस समय उन्हें थोड़ा विश्राम करके अपने गृह कार्यों से अवकाश निकाल कर आधा-एक घण्टे इकट्ठा बैठकर रामायण, गीता, अखण्ड-ज्योति, युग निर्माण योजना, महिला जागरण पत्रिका या ज्ञान मन्दिर की पुस्तकों का स्वाध्याय करना, समय का सदुपयोग होगा।
सायंकाल सब मिलकर आरती करें और आरती के बाद एक-दूसरे का अभिवादन करें। अभिवादन का स्वरूप यही हो कि छोटे बड़ों के चरण स्पर्श करें। पर्व-त्यौहारों पर इसके साथ या स्वाध्याय के साथ कीर्तन आदि को भी जोड़ा जा सकता है।
भोजन बनने के पश्चात् एक थाली में भोजन परोस कर भगवान को समर्पित करके, चौकी के सामने भावनापूर्वक भोग लगाकर सबको भोजन परोसा जाय। सब में यह भावना उत्पन्न की जानी चाहिए कि हम भगवान का प्रसाद मान कर ही भोजन करें। भगवान को अर्पित करके खाने की वृत्ति दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करती है।
हमारे अन्दर दान की, सत्कर्म या ज्ञान के लिए अपनी कमाई का एक अंश निकालने की प्रवृत्ति जगाना चाहिए। इसके लिए हम 'ज्ञानघट' स्थापित करें और उसमें नियमित रूप से दस पैसा या एक मुट्ठी अन्न डालने का नियम बनाएँ। बच्चों से इसमें पैसा या अन्न डलवाएँ और उन्हें ऐसा करने का कारण समझाएँ जिससे उनमें उदारता, लोक सेवा एवं परमार्थ परायणता की प्रवृत्ति जगेगी।
महिलाएँ तो स्वाध्याय करें ही, पुरुषों में भी स्वाध्याय की प्रवृत्ति उत्पन्न हो इसके लिए महिलाएँ पुरुषों को अच्छी-अच्छी पुस्तकें उपस्थित करके पढ़ने को प्रोत्साहित कर सकती हैं।
समय-समय पर आत्म-समीक्षा और कर्तव्य के प्रति जागरूकता की चर्चाएँ हों और समय आने पर वह हमारे जीवन में क्रिया रूप में उतर जाय, ऐसी स्थिति का निर्माण होना चाहिए। यह सब कार्य कुशल गृहिणी ही कर सकती है। वह ही सबको अपने बुद्धि कौशल और व्यवहार कुशलता से, आत्मीयता और प्यार के माध्यम से इन प्रवृत्तियों में लगाकर धरती पर स्वर्ग ला सकती है।