गायत्री उपासना का प्रतिफल
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
गायत्री उपासना का प्रतिफल
परमवन्दनीया माताजी के उद्बोधन न केवल गायत्री परिजनों में संकल्प संचार करने का कार्य करते हैं, वरन सामान्य जन के भीतर भी आध्यात्मिक पथ पर चलने की उत्कंठा उत्पन्न करते हैं। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में परमवन्दनीया माताजी यह बताती हैं कि किस तरह से गायत्री-उपासना ने परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में उस उच्चतम आदर्श को प्रतिष्ठित किया, जिसको प्राप्त करने का प्रयत्न हर गायत्री परिजन को करना चाहिए। वन्दनीया माताजी कहती हैं कि मात्र तपस्या करना ही आध्यात्मिक सिद्धियों को प्रदान करने का आधार नहीं होता; क्योंकि ऐसा रावण से लेकर अन्य असुरों ने भी किया था। तपस्या तभी सार्थक हो पाती है, जब उसके साथ व्यक्तित्व को परिशोधित करने का भाव जुड़ा हुआ हो। परमपूज्य गुरुदेव का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे कहती हैं कि गुरुदेव ने अपने जीवन में गायत्री उपासना के मर्म को अवतरित किया और इसीलिए उन सारी शक्तियों को प्राप्त करने के अधिकारी बन सके, जिसके लिए आज वे सारे विश्व में जाने जाते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
गुरुदेव की सफलता का रहस्य
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
बेटियो, आत्मीय प्रज्ञा परिजनो !
आपको मैं गुरुजी की सफलता का रहस्य बताना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि अपने परिजनों को बजाय इसके कि मैं कोई श्लोक सुनाऊँ और लम्बी-चौड़ी कहानी कहती रहूँ, यह नहीं; बल्कि उनके जीवन का सार, उनकी उपासना का सार, उनकी साधना का सार और उनकी आराधना का सार मैं आप लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहती हूँ। शायद आपने सुने भी होंगे, पर अच्छाइयाँ बार-बार सुननी चाहिए, बुराई नहीं सुननी चाहिए। मैं आपसे निवेदन करूँगी कि आप उनके बाल्यकाल से लेकर के और अब तक के उनके दाम्पत्य जीवन के, उनके गृहस्थ जीवन के और उनके सारे जीवन के, उनके राष्ट्र जीवन के कुछ तथ्य आपके सामने रखना चाहती हूँ, उन्हें सुनें।
बाल्यकाल से उन्होंने अपने जीवन को किस तरह से मोड़ दिया ? जो खाने और खेलने की उम्र होती है। बाल्यकाल से ही उनके मन में भगवान के प्रति अगाध आस्था, अगाध निष्ठा, अपार श्रद्धा भरी पड़ी थी।
गाँव के मन्दिर में उन्होंने उपासना की और गायत्री मन्त्र जप किया, जो सार है। गायत्री मन्त्र कोई जातीयता, साम्प्रदायिकता नहीं, वह मानवमात्र के लिए है। इसके 24 अक्षर हैं।
गायत्री उपासना का प्रतिफल
गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में जो शिक्षा भरी पड़ी है, यदि इसके एक-एक अक्षर का ज्ञान हो जाए और अपने जीवन में उसे उतारा जाए, तो उसका व्यक्तित्व इस तरीके से ऊँचा बढ़ता चला जाता है, जो आपके सामने है। बाल्यकाल से उनके मन में उपासना के प्रति लगाव पैदा हुआ, तो गायत्री की उपासना की। गायत्री माता ने अपना स्वरूप दिया भी, जो उदार व करुणा भरी होती है, सरल होती है। जिसे माँ के प्रति सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है, किसी भी रूप में माँ को पा सकता है।
भगवान की हमारे यहाँ उपासना किसी-न-किसी रूप में हर सम्प्रदाय करता है। चाहे वह ईसाई हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे पारसी हो, चाहे किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न हो ? उपासना का अपने आप में बड़ा महत्त्व है। उपासना का मतलब होता है ईश्वर के समीप बैठना, जुड़ जाना, एकाकार हो जाना, उसकी विराटता अपने अन्दर समा लेना।
ये होता है—आगे उपासना के पथ पर बढ़ने का तरीका। इस तरह से वे गुँथ गए अपने गुरु से, गायत्री माता से कि जीवनपर्यंत तक उन्होंने कभी पीछे की ओर नहीं देखा, आगे की ओर बढ़ते चले गए। आप यह न समझें कि कठिनाइयाँ आपके सामने ही आती होंगी, उनके सामने कभी नहीं आई हों, ऐसा नहीं। समस्याओं से भरा जीवन, कठिनाइयों से भरा जीवन, बड़ा कष्टसाध्य जीवन उन्होंने जिया।
आज जो आप उनकी प्रसिद्धि देख रहे हैं, यह उनकी उपासना का फल है, उनकी साधना का फल है। जो उन्होंने अपना व्यक्तित्व बनाया उपासना से। उपासना का कोई फल नहीं होता ? मैं पूछती हूँ, क्यों नहीं होता ? पहले आप यह बताइए सारी जिन्दगी हो जाती है माला घुमाते-घुमाते; लेकिन जैसे थे, वैसे ही जैसे-के-तैसे ही बने रहे, तो फिर उस उपासना से क्या लाभ ?
तपस्या के दुरुपयोग के परिणाम
रावण कैसा बलशाली था ? क्या कहने का, चारों वेदों का ज्ञाता, तेजस्वी, बलशाली, सारे-के-सारे गुण थे; लेकिन एक ही दुर्गुण सबसे ज्यादा था। वह क्या था कि जो भी वरदान—शक्ति उसे मिली, उसका दुरुपयोग करता चला गया, इसी से उसका सर्वनाश हो गया। भस्मासुर का भी यही हुआ था। भस्मासुर को वरदान मिला था शंकर जी का; लेकिन वह तो पार्वती के पीछे पड़ गया। फिर क्या हुआ ?
यह तो सब जानते ही हैं, इसलिए मैं उस गहराई में नहीं जाऊँगी; क्योंकि बात मुझे बहुत कहनी है। उसके पीछे पड़ गया, उसे वरदान था कि वह अपने आप मरेगा, उसे कोई नहीं मारेगा।
हाँ! व्यक्ति अपने आप ही मरा करता है, इसमें कोई शक नहीं। जिन्दा भी मरा करते हैं। एक तो जो आता है—उसे भगवान ने शरीर दिया है, उसे कभी-न-कभी जाना ही है, पर कुछ ऐसे होते हैं जो जिन्दे होने पर भी मुरदा के समान होते हैं। वह यह होता है कि हमारे अन्दर की जीवटता चली जाती है। हमारे अन्दर की सम्वेदना घुलती हुई चली जाती है, पता नहीं, हम तब कौन हो जाते हैं ?
भगवान ने नृत्य करवाया और कहा सिर पर हाथ रख और तू नाच, जब नाच पूरा हो जाएगा, तो शादी हो जाएगी। सिर पर हाथ रक्खा और वह जलकर भस्म हो गया। मैंने कहा कि तपस्या के दौरान जो उनको मिला, उन्होंने उसका दुरुपयोग किया, तो वे मिट्टी में मिल गए। इसी तरह की अनेकों कहानियाँ हैं।
व्यर्थ गया वरदान
एक ब्राह्मण-ब्राह्मणी और उसका बच्चा थे। वे तपस्या में लीन थे। पार्वती बोलीं—ऐसा करिए इतने बैठे हैं भक्त लोग और तपस्या कर रहे हैं, आप इनको वरदान क्यों नहीं देते ? तो उनने कहा कि पार्वती ऐसे जंजाल में मत पड़ो; इनके अन्दर भक्ति नहीं है, ये सब क्या कर रहे हैं ? खा-पी नहीं रहे हैं, एक पैर से खड़े हैं गंगा जी के किनारे। लम्बे-चौड़े तिलक लगाए हैं, फिर क्यों ऐसा कर रहे हैं ?
उनने कहा—यदि थोड़ी भी भक्ति इनमें रही होती, तो इनका जीवन पवित्र गंगा की तरह निर्मल रहा होता। इनमें भक्ति नहीं। इन्हें वरदान दो। देखिए पहले ब्राह्मणी ने कहा—मुझे युवती बना दो और वह वरदान पाकर युवती बन गई, तो ब्राह्मण जो बूढ़ा था, वह कुड़कुड़ाया और उसने कहा—अच्छा बुढ़ापे में उस पर जवानी सवार हुई है, अच्छा देखा जाएगा।
शंकर जी बोले—भाई आपको क्या हो गया ? आप भी वरदान माँग लीजिए। उनने कहा कि लाइए इसे सुअरिया बना दो। अब वह गों-गों करती हुई फिर रही थी और बच्चा रो रहा था। शंकर जी बोले—तू काहे को रोता है, तू भी ले जा वरदान। देखिए, माँ जैसी थी, वैसी ही बना दीजिए। लो ! तुम्हारी माँ जैसी थी, वैसी ही बना देता हूँ।
इसका सार अब आप समझ गए होंगे कि उन्होंने जो उपासना की, इतनी तपस्या में अपना शरीर गलाया, उसका प्रतिफल क्या मिला ? उसका प्रतिफल यह मिला कि जैसा दृष्टिकोण था, जैसा चिन्तन था, उसका वैसा ही फल मिलता है। पति-पत्नी फिर खाली हाथ ही चले गए।
क्या है तपस्या ?
क्या तपस्या इसी को कहते हैं ? तपस्या वह दीपक है, वह अग्नि है, जिस प्रकार अग्नि के पास बैठने से गरमी आती है। चन्दन जहाँ पैदा होता है, वहाँ झाड़ियाँ भी होती हैं, उस चन्दन से वे भी सुगन्धित होती चली जाती हैं। खुशबू किसके अन्दर होगी ? भक्त के अन्दर होगी, उस उपासक के अन्दर होगी, उस सन्त के अन्दर होगी, जो अपनी सुगन्धि सारे संसार को बाँटता हुआ चला जाए और चला जा रहा है। उससे सभी सुगन्धित होते चले जाते हैं, ऐसी उपासना होती है।
उनने अपने जीवनकाल में जो उपासना आरम्भ की, तो सारा घर विरोधी था। उन्होंने विरोध की परवाह नहीं की और 24-24 लक्ष के पुरश्चरण उन्होंने जौ की रोटी और छाछ के साथ खाकर यह कठिन तपश्चर्या की। गायत्री तपोभूमि की स्थापना हुई और उन्होंने उस उपासना से अपने को ऐसा बना लिया—कोमल, पवित्र, दूरदर्शी ऐसा प्रेरणा का स्रोत न मालूम बुद्धि कहाँ से आती चली गई ? भगवान की कृपा जिसके साथ हो, जिसके साथ भगवान जुड़ा हुआ हो, उसके अन्दर कषाय-कल्मष रह सकते हैं क्या ? नहीं, रह सकते।
यदि उपासना करनी है, भगवान से जुड़ना है, भगवान की जो सम्पत्तियाँ हैं, उनके अधिकारी बनना है, तो पहले अपने मन की मलिनता को निकालना पड़ेगा। जो झाड़-झंखाड़ अपने अन्दर उगे हैं, मलीनताएँ बसी हैं, कूड़ा-करकट है, तो भगवान बैठेगा कहाँ ? बताइए, बैठने के लिए साफ-सुथरी जगह चाहिए। उससे सम्बन्ध स्थापित करने के लिए नम्र होना चाहिए। किसी मित्र के पास जाते हैं, किसी अधिकारी के पास जाते हैं, तो क्या करते हैं ? नम्र होते हैं उसके प्रति, सहज ही श्रद्धा करते हैं, तो भगवान उससे भी घटिया है क्या ?
भगवान की दोस्ती बड़ी लाभदायक है और ऐसी लाभदायक होती है कि उसका प्रतिफल आपके रूप में दिखाई पड़ता है। उनकी उपासना की, अपने जीवन का परिष्कार किया, अपने को साधा, तो व्यक्तित्व ऐसा बनता हुआ चला गया कि बस, आनन्द आ गया।
व्यक्तित्व बनाती है तपस्या
बेटे ! देखने वाले यदि प्रेरणा न ले सकें, तो बात अलग है अन्यथा जो भी सम्पर्क में आता-जाता है, तो जैसे सोने को तपाकर अनेक आभूषण बनते हुए चले जाते हैं, वैसा ही बन जाता है। तपश्चर्या से जीवन बनता है, व्यक्तित्व बनता है। यदि व्यक्तित्व नहीं बना, तो यह जान लेना चाहिए कि इसकी उपासना एकांगी है। एकांगी उपासना से क्या बनेगा ? मुक्ति मिलेगी ? हमें तो विश्वास नहीं कि मुक्ति मिलेगी।
यदि मुक्ति मिलती है, तो हमें इसी जीवन में मिलती है, तत्काल मिलती है और कहीं यदि स्वर्ग है, तो इसी पृथ्वी पर ही स्वर्ग है। ऊपर किसने देखा है कि स्वर्ग में जाएँगे और भाई मुसलमान तो यह कहते हैं कि शराब की नहरें बहती हैं। वहाँ हूर और गुलमा रहते हैं और हिन्दुओं का कहना है कि वहाँ शेषनाग की शय्या पर पड़े रहो और क्षीरसागर में खीर खाओ। अच्छा दो-चार दिन खा लें, फिर देख तेरे पेट की क्या हालत होती है ? तो क्या वहाँ खीर खाने जाएँगे? उसके लिए वहाँ स्वर्ग होता है, हमें यह स्वर्ग चाहिए, जहाँ व्यक्ति हमारा स्वर्ग में निवास करता हो। वह है स्वर्ग।
ऐसे स्वर्ग का क्या करेंगे ? वही उन्होंने बीड़ा उठाया और अपने अन्दर यह दृढ़ संकल्प किया कि व्यक्ति के अन्दर देवत्व का उदय होना चाहिए। बाल्यकाल से ही उनका प्रयास रहा। मैंने छोटेपन में सुना है कि एक हरिजन महिला थी, जहाँ उनने सेवा की। उसको अम्मा कहते थे। मैं दूसरा प्रसंग सुनाऊँगी, पहले यह याद आ गया कि उन्होंने उपासना, साधना और आराधना पर जोर दिया।
उपासना-साधना की समीपता, साधना अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाना और आराधना मानव जाति की। उन्होंने तीनों का सम्मिश्रण कर दिया। त्रिवेणी बना लिया और उस त्रिवेणी में जब स्नान किया था तब क्या-से-क्या बनते हुए चले गए और जो भी आए नतमस्तक होते हुए चले गए। चाहे वह विरोधी ही क्यों न हों ? वे भी नतमस्तक हुए; क्योंकि उनकी व्यवहार कुशलता के सामने जो उन्होंने साधना की थी, जो उनका वातावरण था।
चिन्तन, चरित्र और व्यवहार
कल मैंने कहा था कि जिसका जैसा चिन्तन होता है, वैसा ही उसका चरित्र होता है, चरित्र जैसा होता है, वैसा ही व्यवहार होता है और जैसा व्यवहार होता है, वैसा ही वातावरण बनता है और अपने आप बनता चला जाता है। गन्दी जगह आप बैठेंगे, तो आप उसी से प्रभावित होंगे और अच्छी जगह किसी भले आदमी के साथ बैठेंगे तो आपके अन्दर अच्छाइयाँ आएँगी, निश्चय ही आएँगी। क्यों नहीं आएँगी ?
बेटे ! अम्मा की उन्होंने सेवा की, हरिजन बस्ती में जाकर के उन्होंने जो शंख फूँका, शायद इसमें जो हमारे साथ बैठे परिजन रूढ़िवादी हों, आपको यह पसन्द न हो, तो कृपा करके इसे निकाल दीजिए कि यह तथ्य है, सही है, आपका जो चिन्तन है घटिया, वह सड़ा हुआ है। व्यक्ति से व्यक्ति जुड़ता है। आज हम काटते हुए चले जाते हैं; लेकिन बनाना नहीं सीखा है।
विश्व में सात ऋषि थे और सात ऋषियों ने ही सारे संसार का संचालन किया था। आज हमारे राष्ट्र में जो 56 लाख साधुओं का आँकड़ा है, यह बहुत पुराना है। 50 साल पुराना। अब तो 80 लाख हो गए होंगे। वह कौन सन्त हैं, हम जैसे महान सन्त।
महान सन्तों की कोई कमी है ? कमी नहीं है, पर मैं यह कहती हूँ कि कृपा करके क्षमा कर दिया जाए, मुझे कोई मेरी बात गलत निकल गई हो, अच्छी न लग रही हो, पर मैं मन खोलकर अपने बच्चों से कहने आई हूँ, किसी अन्य से कहने नहीं आई हूँ। मैं तो इनके दिमाग धोने आई हूँ, अब वह मुझे कहने दीजिए। मुझे कहने दीजिए कि यह सड़ा-गलापन निकालना ही पड़ेगा। तो उन्होंने जाकर हरिजन बस्ती में सत्यनारायण की कथा कही। घर वाले विरोधी हुए। उनने अछूतों जैसा व्यवहार किया। कहा बाहर बैठे रहो। खाना नहीं मिलेगा। नहीं मिलेगा, तो कोई बात नहीं, बाहर सो लेंगे। जो भी कठिनाइयाँ आनी चाहिए, हर प्रकार की कठिनाइयाँ आईं, पर उन्होंने कदम पीछे नहीं रखा।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में जो उन्होंने कार्य किया, उपासना का परिष्कृत रूप आपको बता रही हूँ कि उपासना से उनका स्वरूप कितना परिष्कृत होता हुआ चला गया। कैसे प्राप्त नहीं होता है ? सब कुछ प्राप्त होता है। मैं तो कहती हूँ कि धन-दौलत पीछे-पीछे फिरती है। ऐसे क्यों फिरती है ? ऐसा क्यों होता है ? सारी जिन्दगी हाथ मलते-मलते रह जाते हैं | कमाते-कमाते रह जाते हैं। उसी नारकीय योनि में चले जाते हैं, ये हुई कि सन्त जो होता है, क्या बात हुई ? इसीलिए वह सारे विश्व का होता है, वह सारे विश्व का पिता होता है। सारे विश्व का होता है, जो भी होता है, वह उसे बनाने का प्रण करता है, इसलिए कोई कमी नहीं पड़ती।
गुरुजी के जीवन में जरूर यह कमी आई, हमारे जीवन में भी आई। जो आर्थिक कठिनाई आई, उसको हमने कभी महत्त्व नहीं दिया। ऐसा नहीं था कि ये जमींदार के लड़के थे। सब कुछ था; लेकिन उन्होंने कसम खाई थी कि नहीं, बाप की कमाई से हमें नहीं लेना। तो क्या करना है ? बाप की कमाई, बाप के श्राद्ध-तर्पण में जाएगी। हमने कमाई नहीं, तो हमें इसमें कोई अधिकार नहीं।
गुरुदेव का विराट स्वरूप
उन्होंने नहीं छुआ, इसकी मैं साक्षी हूँ, परिवार वाले साक्षी हैं और किसी ने तो नहीं देखा, पर सारी जमींदारी केवल गायत्री तपोभूमि के लिए दान कर दी। रहे मेरे जेवर, सन् 1956 की पूर्णाहुति में 108 कुण्डीय यज्ञ हुआ था, उसमें गुरुजी ने कहा—तुम्हें मोह है, मैंने कहा नहीं, मेरे लिए आप भगवान हैं, मुझे नहीं मालूम भगवान कहाँ है; लेकिन मैंने एक व्यक्ति को देखा, मैंने उसका विराट स्वरूप देखा।
जब मैंने विराट स्वरूप उसके अन्दर झाँका, तो मैं समर्पित हो गई कि मैं तो उनकी पत्नी हूँ; लेकिन पत्नी कम समर्पण ज्यादा। कदम-से-कदम मिलाना है। मुझे इससे क्या करना है? मुझे मेरा भगवान, मेरा ईमान, भगवान से जुड़कर मेरा ईमान रह जाता है, यह हमारा भगवान और हमें क्या आवश्यकता है? जब सन् 1971 में गायत्री तपोभूमि से हम चले, तो हम एक नया पैसा लेकर नहीं चले। भगवान हमारा साक्षी है, केवल अखण्ड दीपक को लेकर चले थे।
इसके बारे में गुरुजी कहते थे कि यह हमारा सिद्ध दीपक है। यह हमारे लिए प्राणों से भी ज्यादा प्रिय है और इसके द्वारा हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह हमारी धरोहर है। हम इसको ले जाएँगे। इस सम्पत्ति को ले जाएँगे। बाकी की सब छोड़ जाएँगे। सब छोड़कर के आए और उन्होंने पीछे मुड़कर यह नहीं देखा कि गायत्री तपोभूमि कैसी है ? इसका विस्तार हुआ या क्या हुआ ?
जब देशभर में दो हजार शक्तिपीठें बनीं। उनके उद्घाटन के लिए सन् 1980-81 में बाहर गए और सारे देश का भ्रमण किया। गायत्री तपोभूमि जाने के लिए रास्ता भी मिला। मथुरा गाड़ी रुकी, वहाँ परिजनों ने कहा, बच्चों ने कहा, गायत्री तपोभूमि वालों ने कहा—गुरुजी चलिए, उन्होंने कहा कि बेटा मैंने आगे का रास्ता सीखा है। पीछे हटना नहीं सीखा। जो छोड़ दिया, वह छोड़ दिया। उससे कोई लगाव नहीं, पैसे से लगाव नहीं।
अरे माताजी कल तो ऐसा ऐसा बोल रही थीं, आज क्या बोल रही हैं ? हम यह सुनने थोड़े ही आए थे। हमें कोई चटपटी कहानियाँ सुनाओ, अच्छा वह भी हम सुना देंगे, उसके लिए आप धैर्य रखिए; लेकिन इससे आपको प्रेरणा मिलेगी। उससे आपको ऐसा लगेगा कि माताजी ने अच्छी कही। इसमें तो हमें हँसा डाला सबको, इसमें तो हमें रुला डाला।
गुरुदेव की तपस्या से बना गायत्री परिवार
नहीं, बेटे! न मैं रुलाने आई हूँ, न हँसाने आई हूँ। मैं तो आपको उस ओर ले जाना चाहती हूँ, जिस ओर सारी जिन्दगी तिल-तिल आपका पिता गलता हुआ चला गया और एक दिन गायत्री माता में पूर्ण रूप से समा गया। उसने अपनी तपस्या के द्वारा, अपनी साधना के द्वारा, अपनी आराधना के द्वारा यह करके दिखाया। साबित किया कि आज जो आपका संगठन है, इसके बराबर कोई भी संगठन नहीं है, बड़े शब्द हमें कहने दीजिए। मैं कहती हूँ, वो तो नहीं कह रहे। मैं कहती हूँ कि जिसके साथ ईश्वरीय शक्ति है, वह दैवी शक्ति साथ है, भगवान साथ है, तो हर कार्य पूरे होते हुए चलते ही गए।
मैंने अभी स्वतन्त्रता आन्दोलन का थोड़ा-सा हिस्सा आपको सुनाना चाहा था, बीच में ही छूट गया। उसमें जो भी आन्दोलन सफल हुए, उसके साथ में ईश्वरीय प्रेरणा है। ईश्वरीय शक्ति साथ हुई है, अन्यथा एक व्यक्ति का काम है इतना बड़ा कार्य। कल-परसों एक अधिकारी आए। उन्होंने कहा—माताजी क्या खरच होगा ? भाई ! मुझे तो कुछ मालूम नहीं, खरचा कितना हुआ और कितना होगा ? क्या आपको नहीं मालूम ?
बेटा! मुझे एक ही बात मालूम है कि जिसके साथ हम जुड़े हुए हैं, हमको पूरा विश्वास और पूरी श्रद्धा है, टस से मस हमारी श्रद्धा नहीं हो सकती। तब हमारा कार्य पूरा क्यों नहीं होगा ? उनका कार्य अपने आप पूरा कराएँगे। हो रहा है और होता रहेगा। शानदार जो भी आन्दोलन पूरे होते रहे हैं, उसमें भगवान की शक्ति होती है उनके साथ। गायत्री माता, उनका गुरु, उनके साथ है, इसलिए प्रत्येक कदम आगे बढ़ते चले गए। जिनको विश्वास नहीं होता, उनकी उपासना कभी फलीभूत नहीं होती।
भगवान शिव से प्रेरणा लें
चाहे आप सोमवार का व्रत करो, चाहे मंगल का व्रत करो, चाहे शंकर जी के ऊपर आक (मदार) के पत्ते, धतूरा कुछ भी उनको खिला आओ, पर आपके आक के पत्तों से और धतूरों से शंकर जी खुश होने वाले नहीं हैं। आचरण से प्रसन्न होंगे।
शंकर जैसा परोपकारी, जिसने दूसरों के हित के लिए जहर पी लिया। समुद्र मन्थन में अनेक रत्न निकलते हुए चले गए, पर विष का क्या हो ? विश्व के कल्याण के लिए उन्होंने उस विष को स्वयं धारण किया। कहाँ वह हिम्मत, साहस है, क्या ? नहीं, साहब! हम तो धतूरा खिला आएँगे शंकर जी को। शंकर जी प्रसन्न होंगे। भाई तू तो बहुत चालाक है, पर शंकर जी बहुत होशियार हैं। धोखा देना चाहते हैं आप शंकर जी को धोखा मत दीजिए, उनसे शिक्षा लीजिए।
वह शीतलता के प्रतीक हैं। क्या आपके अन्दर इतनी शीतलता है ? क्या ज्ञान की गंगा जो अनवरत बहती चली जा रही है। अभी-अभी आपने देखा कि लड़कों ने गाया, वह सारा-का-सारा गुरुजी पर लागू होता है कि उन्होंने सारी जिन्दगी ज्ञान की गंगा बहाने के लिए अपनी कलम को माँ समझा, अपना आराध्य समझा। गायत्री माता को आराध्य समझा, उससे ज्यादा कम नहीं, कलम को समझा जो कि कलम क्रान्ति पैदा कर सकती है कि परिवर्तन कर दे, व्यक्ति को कुछ बना डाले। जो नारकीय जिन्दगी जी रहे थे, वो आज यह अनुभव करते हैं कि हमको ऐसी दिशा मिली। जिनको उनके दर्शन नहीं मिले, वे आज भी बिलखते चले आते हैं।
अभी अमेरिका का एक लड़का आया, वह लिपटकर रोने लगा। पहले तो मैं कुछ कहने लगी—बेटा ! रहने दे, गुरुजी तो साथ रहते हैं, ऐसा कैसे समझता है ? वास्तव में हैं भी। वास्तव में हम समझते हैं कि हम गुरुजी से जुड़े हैं, पर आपको कुछ त्याग करना पड़ेगा।
त्याग की कसौटी हमको हर परिजन दे। उनको त्याग का पाठ पढ़ाया है कि आप त्याग करिए। मानव मात्र की सेवा के लिए, उपासना के लिए समय निकालिए और साधना के लिए अपने व्यक्तित्व का परिष्कार कीजिए। आप जहाँ थे, वहीं बने हुए हैं, आगे क्यों नहीं बढ़े ? विद्या को आपने ऐसा कैसे समझ लिया ? आपके मस्तिष्क की, आपके हृदय की ऊँचाई बढ़नी चाहिए और सेवा के लिए हमारे अन्दर करुणा और सम्वेदना पैदा होनी चाहिए।
जहाँ सम्वेदना, वहाँ स्वर्ग
जहाँ करुणा, सम्वेदना होगी, वहाँ स्वर्ग होगा, चाहे वह परिवार हो, चाहे वह समाज हो, चाहे राष्ट्र हो। जहाँ सम्वेदना और करुणा जुड़ जाती है, सहज ही हमारी गति बढ़ जाती है। अभी जो एक महीने से आप लोग हैं या अभी आए हैं, आपके सामने इतनी कठिनाइयाँ आई हैं। क्या-क्या आन्दोलन चल रहे हैं, किन-किन कठिनाइयों का सामना करके आप आए हैं ? जो गाड़ी 24 घंटे में आती है, वह 60-61 घंटे में आई है। यह क्या है ? बेटे ! जरा बताना ?
यह उस व्यथा का, श्रद्धा का, करुणा का और सम्वेदना का बीज है, जो आपको यहाँ तक ले आया है। अब जो आपकी सम्वेदना और श्रद्धा है, वह केवल गुरुजी और माताजी तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। हम व्यक्ति नहीं हैं, आप यह मत समझना। जब बच्चे आते हैं, कई बार रोते चले आते हैं।
मुझे बहुत बुरा लगता है, दया भी आती है और यह भी आता है कि वे शरीर से जुड़े थे, यह स्वाभाविक भी है कि इतनी तड़पन तेरे अन्दर है, तो इसे सही दिशा में क्यों नहीं लगा रहा है ? जो गुरुजी का कार्य है, इसमें क्यों नहीं लग जाता है ? इसमें तपता क्यों नहीं है, तू निखरता क्यों नहीं है ? तू कुन्दन क्यों नहीं बनता है ? तू लोहे का क्यों है ? लोहा नहीं बनना चाहिए, आपको सोना बनना चाहिए, आपको हीरा बनना चाहिए, आपको क्वान्टिटी नहीं, क्वालिटी बनना चाहिए।
गुरुजी ! क्वालिटी पसन्द करते थे, उन्होंने सोसायटी का जीवन जिया है। साधारण वेश में वे एक बार कहीं जा रहे थे। बाहर सारे परिजन माला लेकर खड़े थे। उसी डिब्बे में एक और कोई सज्जन बैठे थे, वह थर्ड क्लास के डिब्बे में थे। उनने कभी लग्जरी का जीवन नहीं जिया था।
उनने कहा था—जो पैसा समाज के काम आए, राष्ट्र के काम में आए, उसको हम लग्जरी में व्यतीत करें, नहीं ! वहाँ जाकर पहुँचे तो पहले, तो वे समझ रहे थे कि इतनी भीड़ क्यों है कि जो मालाएँ लिए खड़े हैं, कोई मिनिस्टर होगा। जैसे ही वे रेल के डिब्बे से निकले, उसने कहा कि इनके लिए इतनी जनता, इनमें इतनी विशेषता क्या है ? आपस में कानाफूसी कर रहे थे। उनमें से एक सज्जन हमारे परिजन थे।
उन्होंने कहा कि इनमें वो विशेषता है, यदि इनकी विशेषताओं का एक कण भी कोई ग्रहण कर जाए, तो वह व्यक्ति धन्य हो जाएगा, उनके अन्दर कभी अहंकार नहीं आया, कभी उनके अन्दर मलीनता नहीं आई। हर व्यक्ति को ऊँचा उठाते हुए, खुद भी ऊँचे उठते गए और औरों को भी ऊँचा उठाते गए। उदाहरणार्थ मैं आपके सामने खुद ही बैठी हूँ। आप मुझसे कुछ शिक्षा ले सकें, तो आपका जीवन धन्य हो जाएगा।
आज की बात समाप्त