नारी का सम्मान जहाँ है
परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी
नारी का सम्मान जहाँ है
परमवन्दनीया माताजी का जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व सदा से नारी उत्थान के लिए समर्पित रहे हैं। उन्होंने वर्षों तक अपना जीवन उन संकल्पों के आधार पर जिया, जिनसे प्रेरणा प्राप्त करके अनेक लोगों ने नारियों के उत्थान के लिए अनुकरणीय प्रयास किए। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में वन्दनीया माताजी इसी सत्य को स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि भारतीय चिन्तन में सदा से नारी को सम्मान के भाव से देखा जाता रहा है एवं जब तक उस गौरव की पुर्प्राप्ति नारियों को नहीं होगी, तब तक भारतीय गौरव-गरिमा को वापस लौटा पाना सम्भव न हो सकेगा। मध्ययुग के समय में आए रूढ़िवादी चिन्तन को दरकिनार करते हुए वे नारियों को आगे बढ़ने एवं समाज को एक अच्छी प्रेरणा देने का आवाहन करती हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........
परिवार में संस्कार का आधार
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
प्रज्ञा पुत्रो, बेटियो और प्रज्ञा परिजनो! शिवाजी की पिताजी मुसलिम शासन में वेतनभोगी कर्मचारी थे। उनकी माता जीजाबाई के वे संस्कार थे, जिनने शिवाजी को महान बनाया। हम्मीरदेव के पिता में सामन्तवादी कुसंस्कार थे; पर उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तित्व मिला। इसमें उनकी माँ की भूमिका प्रमुख थी। जगद्गुरु शंकराचार्य संन्यासी पीछे बने, पहले उनकी मनोभूमि के आध्यात्मीकरण की प्रक्रिया माता के अंक में ही पूरी हुई थी। विश्वविजेता नैपोलियन के पिता साधारण सिपाही थे, पर उनके अन्त:करण में अजेय संकल्पशक्ति का बीज उनकी माँ ने आरोपित किया था।
यह तो माताओं की बात हुई। पुरुष के निर्माण में नारी का प्रतिरूप सहधर्मिणी, धर्मपत्नी स्वरूप उससे कम गरिमायुक्त नहीं है। एक पुलिस कोतवाल के बिगड़े हुए बेटे मुंशीराम, जिन्हें छोटी उम्र में ही जुआ, शराब आदि दुर्गुण विरासत में मिले थे; किन्तु अपने पवित्र साहचर्य से आर्यसमाज के मूर्धन्य मनीषी के रूप में ढालने वाली उनकी पत्नी थी।
सरदार चूड़ावत को कौन जानता, यदि उनकी सहधर्मिणी हाड़ा रानी ने राष्ट्र, जाति एवं संस्कृति के लिए मर-मिटने का प्राण उनके अन्दर न फूँका होता। भाभी की पवित्र प्रेरणाओं ने सरदार भगतसिंह को इतिहास पुरुष बना दिया और वीर बहन उत्तरा ने शंख जैसे कायर भाई को महान योद्धा बनने का पथ प्रशस्त किया। ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि पारिवारिक जीवन में पुरुष और नारी, दोनों की समानता होते हुए भी मुख्य भूमिका किसकी है?
यह तय करना हो, तो ध्यान स्त्री पर अपने आप केन्द्रित हो जाता है; क्योंकि अन्तरंग व्यवस्था से लेकर पारिवारिक जीवन तक जिसमें सम्वेदना, करुणा और ममता का मूलस्रोत वही है। इन गुणों के कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य उसके निकट का हो जाता है और प्रभावित होता है। इससे स्पष्ट है कि किसी परिवार की सुख-शान्ति, समुन्नति का अनुमान करना हो, तो सर्वप्रथम उस परिवार में स्त्रियों की स्थिति का मूल्यांकन करना अनिवार्य हो जाएगा।
स्त्रियाँ अनपढ़, अनगढ़ और असभ्य हों तो उनके बालकों से कोई भी शिष्ट, सुसंस्कृत व्यवहार करने की आशा नहीं कर सकता। इसलिए प्राचीनकाल से ही हमारे देश में नारी को सद्गृहिणी के रूप में प्रतिष्ठा मिल सकी थी और उसके स्वरूप को स्थिर बनाए रखने के लिए शिक्षा, सुसंस्कारिता और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वरिष्ठता प्रदान की गई थी।
सीताराम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, राधेश्याम आदि शब्द नारी जाति की सजीव गरिमा का ही उद्घोष करते हैं। प्रत्येक नाम के पहले देवियों का नाम जोड़कर देवता का नाम स्मरण किया जाता है। माता, पुत्री, बहन, भाभी, चाची, दादी आदि सभी रिश्ते नारी की गरिमा का ही अर्थबोध कराते हैं। ये सभी पारिवारिक जीवन में प्रत्येक सदस्य को अपने स्तर से प्रभावित करते हैं। इसलिए एक का भी कुसंस्कारी, अशिक्षित, अनपढ़ और विग्रह प्रिय होना सारे कुटुम्ब की शान्ति-व्यवस्था को डुबा ले जाता है।
इसलिए परिवार संस्था को सर्वजनीय सुख, शान्ति के शाश्वत आधार का रूप खड़ा करना है, तो उसके प्रमुख घटक नारी को सभ्य, सुशिक्षित और सुसंस्कारवान बनाने की प्रक्रिया का शुभारम्भ करना सर्वोत्तम उपाय सूझ पड़ता है। इस सुनिश्चित तथ्य को हमारे ऋषि-मनीषियों ने सभ्यता के आरम्भिक दिनों में जान लिया था।
नारी का सम्मान
बेटे! एक समय था, जब एक नारी जाति की विशेषता को पूरी तरह समझा गया था। "जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।" इस एक वाक्य से भारत के अतीत की झलक मिल जाती है। इस देश के तैंतीस कोटि नागरिकों को एक देवता के सम्मानास्पद विशेषण से सम्बोधित किया गया, तो स्पष्ट है कि यहाँ के नारी समाज को बहुत सम्मान मिला होगा।
कौशल्या, सुमित्रा, सुनीति और सीता जैसी सुगृहिणियाँ, गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, इला और विश्ववारा, अपाला, अरुन्धती जैसी ब्रह्मवादिनी ऋषि और समरांगण में बैरियों के दाँत खट्टे करने वाली कैकेयी, सुभद्रा जैसी वीरांगना इन्हीं देवियों की ही देन हैं। रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी का हेय चिन्तन प्राचीन भारत में कभी स्थान नहीं पा सका था।
पारिवारिक उत्तरदायित्वों से लेकर शिक्षा, संस्कृति, समाज तथा शासन कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं रहा, जिसमें भारतीय नारी का योगदान पुरुषों से कम रहा हो। कैयट ने व्याकरण शास्त्र लिखा। उसके अधिकांश श्लोक उनकी पत्नी भामती ने लिखे थे। याज्ञवल्क्य जैसे प्रकाण्ड पण्डित को विदुषी गार्गी के पाण्डित्य का लोहा मानना पड़ा था। ब्रह्मा जी ने एक बार बड़ा यज्ञ आयोजित किया। उसके आचार्य का पद मनु महाराज को सँभालना था। मनु अस्वस्थ हो गए, तो प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि अब इस यज्ञ का संचालन कौन करे? उस समय सारे विद्वानों ने एक स्वर से मनु की पुत्री इला को प्रमुख आचार्य घोषित किया। उन्हीं ने इतना बड़ा यज्ञ सम्पन्न कराया। महर्षि कण्व के आश्रम में पली और पढ़ी शकुन्तला ने न केवल भरत जैसे प्रतापी बालक को जन्म दिया; अपितु कठिन समय में भी परावलम्बन स्वीकार नहीं किया। जंगल में रहीं, तब अपनी आजीविका और बालक भरत की शिक्षा-दीक्षा का भार स्वयं उठाया और वापस लौटीं तो राजा दुष्यन्त का सारा राजकाज वही सँभालती रहीं। एक ओर नारी का यह वर्चस्वप्रधान जीवन, तो दूसरी ओर आज की धार्मिक प्रतिगामिता, जिसने नारी जीवन को अछूत की श्रेणी में ला पटका है। उसके आत्मविकास के सारे अधिकार छीन लिए गए। इस स्थिति से नारी को उबारे बिना भावी पीढ़ी का निर्माण सम्भव नहीं।
मध्ययुग में हुआ पतन
मध्ययुग भारतीय नारी के अपमान और पतन का इतिहास रहा है। अशिक्षा, बालविवाह, परदाप्रथा, दहेज आदि जैसे अन्धविश्वासजनित बन्धनों ने इस तरह जकड़ा कि इन दिनों इसकी स्थिति अर्द्धमूर्च्छित और अर्द्धमृतक जैसी हो रही है। स्वतंत्रता के सैंतीस वर्ष बाद भी नारी के स्तर में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। शिक्षा के क्षेत्र में थोड़ी प्रगति देखने को मिली तो अवश्य, पर उसी अनुपात से दहेज की माँग बढ़ जाने की समस्या ने उनके भविष्य पर जबरदस्त प्रश्नचिह्न लगा दिया कि बच्चियों को उनकी शिक्षा दिलाई जाए अथवा नहीं।
भारतीय समाज की प्रगति में यह प्रश्न अहम महत्त्व रखता है। उसे सुलझाया न गया, तो परिवार नारकीय यंत्रणाओं में दिन गुजारते रहेंगे। विग्रह, कुसंस्कारिता और पराभव का अभिशाप आगे आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्ट धरोहरों से विमुख, उद्दण्ड, आवारा और सब तरह से हेय कर्मों में लिप्त सन्तानें यहाँ के समुदाय में जन्में, पनपें तो कोई आश्चर्य नहीं समझा जाना चाहिए।
बेटे! भावनाओं की दृष्टि से भारतीय नारी का स्थान आज भी सारे संसार से ऊँचा है। इस सन्दर्भ में लाला लाजपतराय की आत्मकथा का वह अंश याद आ जाता है। घर की महिलाएँ मंगल करवा चौथ का व्रत कर रहीं थीं। उनके नन्हें नाती ने प्रश्न किया—"बाबा आज दादी, मम्मी ने भोजन क्यों नहीं किया?" लाला जी ने बताया—"वे व्रत कर रही हैं।" बच्चे के मुँह से फिर प्रश्न उभरा—"फिर आपने और पापा जी ने व्रत क्यों नहीं किया?" उत्तर में लाला जी ने सुदूर, अतीत का स्मरण कराते हुए कहा "बेटा! हर भारतीय नारी में श्रेष्ठता के संस्कार जन्मजात होते हैं। इसलिए पुरुषों को आशंका नहीं रहती कि उन्हें खराब पत्नी मिलेगी, किन्तु हर पुरुष चरित्रनिष्ठ और सदाचारी होगा, इसमें सन्देह है।"
महिलाएँ इसीलिए व्रत-उपवास करती हैं, ताकि अच्छा ही घर-वर मिले। परिवार निर्माण के महान उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए नारी की योग्यता, शारीरिक और मानसिक क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है। परदे में रहने, चक्की-चूल्हे और प्रजनन के अत्यधिक दबाव में रहने से शरीर, स्वास्थ्य तो चौपट हुआ ही है; कुण्ठाग्रस्त मस्तिष्क किसी काम का नहीं रह गया है, फिर श्रेष्ठ सन्तति की आशा कैसे की जा सकती है। ऐसी स्थिति में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, सुसंस्कारिता के प्रबल समर्थन द्वारा ही अपंगता के इस कलंक को छुड़ाया जा सकता है।
प्रत्येक भावनाशील सद्गृहस्थ यदि नारी जीवन की इन अभिन्न चार आवश्यकताओं की क्षतिपूर्ति में जुट पड़ें, तो देखते-ही-देखते परिवार का एक अच्छा स्वरूप उभरकर सामने आएगा। फिर सुख और समृद्धि भी सच्चे अर्थों में प्राप्त हो सकेगी। अल्पवयस्क बालिकाओं के पाणिग्रहण संस्कार का समाज में औचित्य नहीं रहा। विदेशी आक्रान्ताओं से शीलधर्म की रक्षा हेतु मध्यकाल में यह परम्परा पनपी थी। ग्यारह वर्ष की कन्याओं के विवाह को तत्कालीन धर्माचार्यों ने भी मान्यता प्रदान की थी।
संकट की घड़ी में लिया गया निर्णय हमेशा के लिए पत्थर की लीक बन जाए, यह शोभनीय नहीं है और न ही ऐसी अनुमति शास्त्र देते हैं। बाल-विवाहों के दुष्परिणाम कितने घातक निकलते हैं, इसका खुला दस्तावेज मद्रास की लेडी डॉक्टर मिस मेऊँ की पुस्तक 'नरभक्षी बकासुर' पढ़ लेने से बात पूरी तरह समझ में आ जाती है। भले ही यह परम्परा कभी श्रेष्ठ ठहराई गई हो, पर आज उसे त्याग देना नीति और धर्म की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल ही होगा।
नारी जीवन की यह करुणाजनक स्थिति अपने ऋषि वंशजों से पूछती है कि क्या सचमुच हमारे पितामह इतने निर्मम रहे होंगे? कन्या को करुणा और वात्सल्य की स्नेहमूर्ति समझने वाले भारतीय समाज ने समय-समय पर इन घातक प्रथाओं का स्वयं परिशोधन किया है। बेटे! ऋषि दयानन्द जैसे विचारकों ने बार-बार इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है; किन्तु पोंगापन्थी श्रद्धालु समाज को विवेकशीलता की देहरी तक पहुँचने दें, तब तो कुछ बात बने। इसका स्पष्ट निर्देश स्मृतिकार मनु महाराज ने किया था। हमें खेद है कि उसी बुद्धिजीवी मनीषी परम्परा के धर्माचार्य मध्ययुग की अन्धचलन की ही लकीर पीट रहे हैं। इससे न व्यक्ति का भला होगा और न राष्ट्र, जाति और संस्कृति का। आज देश स्वाधीन है। जनसंख्या का अत्यधिक दबाव भी है, अतएव अल्पवयस्क बालकों के विवाह का कोई औचित्य नहीं बैठता।
दमयन्ती अकेली जंगल में भटक गई, तब एक बहेलिये से आत्मरक्षा के लिए उन्हें शरीरबल का ही सहारा लेना पड़ा था। हम्मीर देव की माता जब छोटी थीं, एक राजकुमार उन्हें रस्सी फेंककर पटकना चाह रहा था, पर उनने रस्सी जोर से खींची तो राजकुमार धरती पर आ पड़ा और उसने अपनी हार मान ली और हाथ जोड़कर के उनसे प्रार्थना करने लगा।
हमारी बच्चियों का स्वास्थ्य इस दृष्टि से भी आवश्यक है और स्वस्थ सन्तति की दृष्टि से भी। बालिकाओं को सबल और समर्थ बनाने की दृष्टि से खेल-कूद, व्यायाम आदि पर भी उतना ही महत्त्व दिया जाए, जितना कि बालकों पर। एक की भी उपेक्षा समूचे समाज की दुर्गति का कारण बनेगी। सफाई भी स्वास्थ्य का ही अंग है, इस बात को तो महिलाएँ भी समझें। बनावटी फैशन−परस्ती, जेवर और शृंगार प्रसाधनों में सिवाय बरबादी के और कुछ भी नहीं।
इन सबसे स्वास्थ्य तो चौपट होता ही है, घर की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सौन्दर्य के लिए स्वास्थ्य और स्वच्छता ये दो उपादान पर्याप्त हैं। वेशभूषा साधारण हो, पर स्वच्छ हो तो वह बनावटी शृंगार की अपेक्षा अधिक उत्तम होगी। इससे अनेक दुर्घटनाओं से बचाव का लाभ तो अनायास ही मिल जाता है। गृहस्थ जीवन की गाड़ी सुभीते से आगे बढ़ती है।
नारी आगे बढ़े और प्रेरणा दे
अश्लील आचरण की शुरुआत पुरुष करे अथवा न करे, पर इससे उत्पीड़ित नारी को अब प्रतिरोध करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। जब नारी स्वयं आगे बढ़ेगी, तब पुरुष भी प्रेरणा पाएँगे। वह सभ्यता की एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ेगी। शिक्षा नारी जीवन के उत्कर्ष की दूसरी बड़ी आवश्यकता है। जरूरी नहीं कि वह स्कूली और आधुनिक ही हो। विचारशील होने के लिए जिस शिक्षा की आवश्यकता होती है, वह स्कूल की पुस्तकों से पूरी हो भी नहीं पाएगी। आजकल तो उसमें भ्रमित करने वाले अंश ही अधिक हैं।
शिक्षा का अर्थ है—मानवीय गरिमा का बोध। प्रारम्भिक ज्ञान तो विद्यालय में कराया जा सकता है, पर उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय आवश्यक नहीं। उसके लिए जीवन को ऊँचा उठाने वाले साहित्य की नारियों को भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी किसी पुरुष को। इसके लिए उपयुक्त व्यवस्था अभिभावकों को करनी चाहिए।
इस क्षतिपूर्ति के लिए सत्साहित्य की रचना की ओर और प्रसार की ओर हमारा ध्यान हमेशा बना रहा है। अनपढ़ और प्रौढ़ महिलाओं की शिक्षा की देख-भाल करना प्रत्येक गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य है। अपने साथी और सहयोगियों का बौद्धिक स्तर बढ़ाने में रुचि लेना नारी जीवन और समाज की बहुत बड़ी सेवा है।
परिवार को ऊँचा उठाने और बालकों की अधिक अच्छी देख-भाल करने के दो लाभ तो इस सेवा-साधना से हाथों-हाथ प्राप्त हो जाते हैं। इसमें महिलाएँ भी पीछे न रहें। शिक्षित महिलाएँ तो अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। कमला हास्पेट और शिवदेवी शास्त्री जैसी समाजसेवी देवियाँ अपने प्रज्ञा परिवार के बीच से निकलें और अनपढ़ महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए थोड़ा भी समय निकालें, तो यह अपने तरीके की महान सेवा होगी। जनसमर्थन, जनसहयोग की कमी नहीं पड़ेगी।
सुसंस्कारिता का महत्त्व शिक्षा से भी बढ़ा-चढ़ा है। माँ के संस्कार अच्छे हों और शैक्षणिक योग्यता कम भी हो, तो काम आसानी से चल सकता है। प्राचीनकाल में भारतीय परिवारों में षोडश संस्कारों की, बलिवैश्व यज्ञ की तथा कथा-कहानियों की परम्परा पूरे उभार पर थी। पहली रोटी गोग्रास की बच्चे में परमार्थ-भावना का बीजारोपण करती है। बलिवैश्व से देवत्व के प्रति समर्पण का पाठ पढ़ाया जाता है।
षोडश संस्कार बाल मनोविज्ञान का अति उच्चस्तरीय निर्धारण कहा जा सकता है। सड़क के हर मोड़ पर, चौराहे पर दिशा-निर्देश के पट या बोर्ड लगे होते हैं, ताकि यात्रियों और वाहनों को निर्धारित दिशा की राह पकड़ने की सुविधा हो। संस्कारों को इसी तरह का उच्चकोटि का मार्गदर्शन समझना चाहिए। बल्कि इससे अनेक गुना श्रेष्ठ विद्या है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक नाजुक मोड़ पर उसका प्रकाश मिलता है।
बालक का ध्यान विचारों की ओर मोड़ने के लिए चूड़ाकर्म एवं शिक्षा के महत्त्व को बतलाने समझ विकसित होते ही विद्यारम्भ संस्कार कराना चाहिए। किशोरावस्था के भटकावों से बचाने के लिए व्रतबन्ध अर्थात यज्ञोपवीत संस्कार अतिमहत्त्वपूर्ण है। संस्कार पारिवारिक वातावरण में कितने उपयोगी थे, इसे आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है।
ये कार्य घर की महिलाओं के जिम्मे ही रहे हैं। जीवन के मूल उद्देश्य की ओर सतत जागरूक रखने वाली इन श्रद्धासिक्त परम्पराओं को पोषण देना चाहिए। परिवार का हर घटक चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, थोड़ी सी भी सावधानी बरतें, तो आशा की किरणों को झलकते देर नहीं लगेगी।
नारी जीवन का पतन यथार्थ में परावलम्बन से शुरू हुआ। पुरुष कमाई करता है, इसलिए वह वरिष्ठ है और स्त्री उसकी आश्रिता, इस मान्यता ने नारी जाति का बहुत अहित किया है। स्त्री की भावनामूलक बनावट और कोमल देह दृष्टि के कारण किसी समय उपार्जन जैसा कठोर कार्य पुरुषों ने अपने कन्धों पर उठाया था और गृह व्यवस्था नारी को सौंपी थी। पीछे मूल आदर्श तो तिरोहित हो गया और परम्परा ने नारी जीवन को लूला-लँगड़ा कर दिया।
नारी को दासी मानने, उसे प्रताड़ित करने और दहेज जैसी विकृतियों की जड़ भी यहीं से फैली। पहले तो विधवा हो जाने या पति द्वारा परित्यक्त कर देने के बाद भी उसका भाई अथवा परिवार का कोई समझदार व्यक्ति उन्हें पूरे सम्मान के साथ रखकर जीवन-निर्वाह को कठिन होने से बचा लेता था। पर आज जब पारिवारिक परिवेश में स्वार्थपरायणता और संकीर्णता ने अड्डा जमा लिया है, इस कारण स्त्रियों का स्वावलम्बन की ओर झुकना बहुत आवश्यक हो गया है। इससे जहाँ इन दिनों नारी जीवन से आत्महीनता की ग्रन्थियाँ टूटेंगी, वहीं वे संकट के समय अपनी गृहस्थी का बोझ सँभालने के लिए परमुखापेक्षी नहीं बनेंगी। श्रेष्ठ, स्वाभिमानी सन्तति और सुखी परिवार के लिए नारी जीवन का चतुर्मुखी विकास आज की सर्वोपरि आवश्यकता है।
प्रत्येक प्रज्ञा परिजन, प्रत्येक भारतीय को इसे गम्भीरतापूर्वक अनुभव करना चाहिए। इसके लिए आवश्यक कदम उठाने से किसी को भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। इसमें किसी प्रकार की कोई भी धार्मिक मान्यता आड़े नहीं आएगी। जो लोग नारी को लांछित करते हैं, उसे धार्मिक अधिकारों से प्रतिबन्धित ठहराते हैं, उन्हें सर्वप्रथम अपने प्राचीन ग्रन्थों को जलाना होगा; ताकि उनके इस अधिकार का समर्थन करने वाले साक्ष्य शेष न रहें। पति की उदासीनता सहन न करने पर अपाला ने उच्चस्तरीय साधनाएँ सम्पन्न की थीं, तभी वे मन्त्रदृष्टा ऋषि हो पाई।
रामवंश के यथार्थ इतिहासकार महर्षि वाल्मीकि जी ने अपनी रामायण में लिखा है कि जब सीता जी का अपहरण हो गया, भगवान राम उन्हें खोजने चले, तो उन्होंने लक्ष्मण से कहा—"तात! सायंकाल हो रहा है। सीता जी को जलाशय के किनारे संध्यावन्दन बहुत प्रिय है। चलो उन्हें नदी किनारे ढूँढ़ें।" यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि नारी का आत्मिक स्तर पुरुष से कतई कम नहीं।
इस तथ्य की खोज हिन्दू धर्म के प्राण महामना मदन मोहन मालवीय ने स्वयं कराई थी। उन्होंने विद्वानों की एक कमेटी नियुक्त की थी, जिसने यह निष्कर्ष दिया था कि स्त्रियों के धार्मिक अधिकार पुरुषों से कम नहीं। तभी से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में कन्याओं को वेद पढ़ाए जाने लगे। इतना होने पर भी यदि नारी जीवन में अपावन, आश्रित होने की मान्यता पनपती रही, तो इस देश की महानता को फिर से विकसित कर सकना कभी भी सम्भव न होगा, जो हमें प्राचीनकाल में प्राप्त हुई थी।
आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥