हमारा जीवन कैसा हो?
अपने प्रयोग से आरम्भ से ही यह व्रतशील धारण की गई कि परम सत्ता के अनुग्रह से जो मिलेगा; उसे उसी के विश्व उद्यान को अधिक श्रेष्ठ, समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए ही खरच किया जाता रहेगा। अपना निजी जीवन मात्र ब्राह्मणोचित निर्वाह भर से काम चला लेगा। औसत नागरिक स्तर से बढ़कर अधिक सुविधा, प्रतिष्ठा आदि की किसी ललक को पास में न फटकने दिया जाएगा।
इस प्रयोग के अंतर्गत अपना आहार-विहार, वस्त्र-विन्यास, रहन-सहन, व्यवहार, अभ्यास ऐसा रखा गया जो न्यूनतम था। आहार इतना सस्ता, जितना कि देश के गरीब व्यक्ति को मिलता है। वस्त्र ऐसे जैसे कि श्रमिक स्तर के लोग पहनते हैं। महत्त्वाकाँक्षा न्यूनतम। आत्मप्रदर्शन ऐसा जिसमें किसी सम्मान, प्रदर्शन और अखबारों में नाम छपने जैसी ललक के लिए गुंजाइश न रहे। व्यवहार ऐसा जैसा बालकों का होता है। यह पृष्ठभूमि बना लेने के उपरांत शारीरिक और मानसिक श्रम इतना किया कि कोई पुरुषार्थपरायण कर सकता है, उसे पूजा-उपासना तो नहीं पर जीवन-साधना अवश्य कहा जा सकता है। --परिवर्तन के महान क्षण, पृष्ठ १९
क्या करना चाहिए? आपको वह काम करना चाहिए, जो कि हमने किया है। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते हैं। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा! यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धांतों के प्रति श्रद्धा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। वहाँ से जहाँ से हम चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर आजीवन निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलते हुए भटकने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं। --परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-१ पृष्ठ-४.७६
व्यक्ति-निर्माण के लिए आप एक काम करें, एक निश्चय कर लें कि हमको एक औसत भारतीय के तरीके से जिन्दा रहना है। औसत भारतीय स्तर पर अपने मुल्क में कितने आदमी रहते हैं? सत्तर करोड़ आदमी रहते हैं। अत: मुट्ठी भर आदमियों की ओर गौर मत कीजिये। थोड़े-से आदमी मालदार हैं, थोड़े-से आदमी सम्पन्न हैं, थोड़े-से आदमी मजा उड़ाते हैं, थोड़े-से आदमी फिजूलखर्च करते हैं, थोड़े-से आदमी ठाठ-बाट से रहते हैं, तो आप उनको क्यों महत्त्व देते हैं? उनकी नकल क्यों करना चाहते हैं? उनके साथ में अपनी समृद्धि क्यों मिलाना चाहते हैं? आप उनके साथ में समृद्धि मिलाइये न, जो आपसे कहीं गये-बीते हैं, कितने किफायत से गुजारा करते हैं, कितने मामूली से काम चला लेते हैं? आप ऐसा कीजिये ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धांतों का परिपालन कीजिये। सादगी, सादगी, सादगी...। अगर आपने ये अपना सिद्धान्त बना लिया, तो आप विश्वास रखिये आपका बहुत कुछ काम हो जाएगा, बहुत समय बच जाएगा आपके पास और उन तीनों कर्तव्यों व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण को पूरा करने के लिए आप विचार भी निकाल सकेंगे, श्रम भी निकाल सकेंगे, पसीना भी निकाल सकेंगे, पैसा भी निकाल सकेंगे। अगर आपने व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को जमीन-आसमान के तरीके से ऊँचा उठाकर के रखा, फिर आपको स्वयं के लिए ही पूरा नहीं पड़ेगा, उसके लिए आपको अपनी कमाई से गुजारा नहीं हो सकेगा। फिर आपको बेईमानी करनी पड़ेगी, रिश्वत लेनी ही चाहिए, कम तोलना ही चाहिए और दूसरों के साथ में दगाबाजी करनी ही चाहिए, फिर आपको कर्ज लेना ही चाहिए और जो भी बुरे कृत्य कर सकते हैं, करने ही चाहिए ऐसा सोचेंगे। अगर आप अपनी हविश को कम नहीं कर सकते, अगर अपनी भौतिक खर्च की महत्त्वाकांक्षा और बड़प्पन की महत्त्वाकाँक्षा को काबू में नहीं कर सकते, तो फिर यह मानकर चलिये कि आत्मोन्नति की बात धोखा है। आपको यह करना ही पड़ेगा। नहीं करेंगे, तो फिर आत्मा की बात कहाँ रही? आत्मा की उन्नति का सवाल कहाँ रहा? आत्मा की उन्नति कोई खेल-खिलौने थोड़े ही है कि आप रामायण पढ़ लेंगे, गीता पढ़ लेंगे, माला घुमा देंगे, गंगा जी में डुबकी लगा देंगे, तो उसका उद्धार हो जाएगा। ये तो केवल शृंगार हैं, सज्जा हैं, उपकरण हैं। ये कोई आधार थोड़े ही हैं, जिनके आधार आप न जाने क्या-क्या सपने देखते रहते हैं? ये तो वास्तव में माध्यम हैं कि आपके व्यक्तित्व का कैसे विकास हो? व्यक्तित्व का विकास न हुआ इनके माध्यम से, तो इनको फिर सिवाय ढकोसले के और क्या कहेंगे? ये ढकोसले हैं। इनके द्वारा आप अपने व्यक्तित्व को विकसित कैसे कर सकेंगे? फिर क्या करना चाहिए? किफायतसार बनिये। किफायतसार अगर बनते हैं, तो आपको नौ सौ निन्यानवे बुराइयों से छुटकारा मिल जाएगा। जितनी भी बुराइयाँ हैं, जितने भी पाप हैं या तो पैसे के लिए होते हैं या पैसे मिलने पर होते हैं। पैसा पाने के लालची बुरे-बुरे कर्म करते हैं। पैसा होने के बाद जो अहंकार उत्पन्न होता हैं, मद उत्पन्न होता है, उसी के प्रदर्शन में वह खर्च होता है। ..... आत्मा की उन्नति के लिए कुछ तो लगाना पड़ेगा न, पूँजी लगानी पड़ेगी। आप पूँजी कहाँ से लाएँगे, बताइये? श्रम की पूँजी आप कहाँ से लाएँगे? समय की पूँजी आप कहाँ से लाएँगे? साधनों की पूँजी आप आत्मा की उन्नति के लिए लगा सकते थे, उसको कहाँ से लाएँगे? ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का मतलब ये है कि ऊँचे विचार की जिन्दगी अगर आपको जीनी है, उत्कृष्ट जीवन आपको जीना है, तो सादगी का जीवन जिएँ। ये आत्मा की उन्नति के लिए सबसे पहला, सबसे आधारभूत सिद्धान्त है। --परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-१ पृष्ठ-३.६२ ।