नारी की सनातन गरिमा
नारी आज जिस स्थिति में रह रही है उसे अच्छा नहीं समझा जा सकता, यह बात सभी स्वीकार करते हैं। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी की स्थिति और स्तर बदलने की आवाज इसीलिए उठायी जा रही है, और हर समझदार व्यक्ति इसका समर्थन कर रहा है। फिर भी कुछ परम्परावादी यह आग्रह करते हैं कि नारी की वर्तमान स्थिति को बदला न जाय। इस सम्बन्ध में उनका तर्क यह होता है कि हमारे पूर्व पुरुष अधिक उदार थे, उन्होंने जो नियम तथा मर्यादाएँ बनायी थीं उन्हें बदलना उनका अपमान करने जैसा है। कुछ की सोच इस विषय में इतनी अधिक है कि इन रूढ़ियों को ही वे धर्म मर्यादाएँ मानते हैं और उनमें सुधार करना उन्हें धर्म विरुद्ध लगता है।
ऐसा कहने वाले व्यक्ति यदि सचमुच पूर्वजों के प्रति आस्था रखकर ऐसा करते हैं, तो उनकी भावना का आदर किया जा सकता है, किन्तु उनसे एक विनम्र निवेदन करना उचित लगता है। वह यह है कि वे सही अर्थों में अपने पूर्वजों के आदर्श तथा धर्म का स्वरूप समझने के लिए कुछ सौ वर्ष की परम्पराओं तक ही सीमित न रह जाये, भारत के उस गौरवमय अतीत का भी अध्ययन करें जब यह देश विश्व-गुरु का सम्मान पाये हुए था।
यहाँ एक बात और समझ लेनी चाहिए वह है—सिद्धान्तों, आदर्शों तथा प्रथाओं-परम्पराओं का अन्तर। नैतिक आदर्शों तथा श्रेष्ठ सिद्धान्तों को ही सनातन माना जाता है। आत्म संयम, कर्तव्य पालन, लोकहित की भावना जैसे उच्च आदर्शों को ही न बदले जाने योग्य धर्म सिद्धान्त कह सकते हैं। उन्हीं के पालन के लिए लोगों पर दबाव डालना उचित हो सकता है। खाने-पीने, उठने-बैठने जैसे मोटे नियम तो बराबर बदलते ही रहते हैं।
यदि अपने पूर्वकाल और आज की स्थिति के बीच हम इन स्थूल नियमों के आधार पर ही विचार करें तब तो उनमें जमीन आसमान का अन्तर दिखाई देता है। उस समय के खान-पान, रहन-सहन, मकान और आने जाने के साधनों में भारी अन्तर पड़ गया है। हजारों वर्ष पुरानी बात छोड़कर यदि कुछ सौ वर्ष पहले की स्थिति देखें, तो पता पड़ता है कि बिजली, रेल, मोटर, डाक, तार, घड़ी, चश्मा, फाउन्टेन पैन आदि का अता-पता भी नहीं था। उनके बिना ही सारा काम चलता था। जिन साधनों से पहले काम चलता था, अब वे प्रयोग में नहीं आते। नयी सुविधाजनक वस्तुओं का विरोध कोई इसलिये नहीं करता है कि उन्हें पूर्वज प्रयोग नहीं करते थे, तो अब हम क्यों करें? ठण्डक के दिनों में जो कपड़े पहने जाते हैं उन्हें गर्मी के दिनों में कोई नहीं पहनता—इसी प्रकार गर्मी के हलके कपड़े सर्दी में काम नहीं देने, इस परिवर्तन का कोई विरोध नहीं करता। सर्दी के दिनों में मोटे कपड़े पहने जाते थे और बन्द घरों में सोया जाता था, इस प्रचलन को क्यों तोड़ें? यह तर्क देकर कोई गर्मी में भी ऊनी कपड़े पहनने और बन्द घर में सोने का आग्रह नहीं करता। बच्चे जिन कपड़ों को पहनते हैं—बड़े होने पर उनसे काम नहीं चलता। बचपन के कपड़े उसी को ही आजीवन पहने रहने का आग्रह इस आधार पर नहीं किया जाता कि हमारे पूज्य पिताजी ने जो पोशाक सिलवाई थी, वह बड़ी आयु में भी काम देनी चाहिए।
यों केवल पुरानी होने के आधार पर किसी चीज को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता। पुरानी रस-भस्में अच्छी मानी जा सकती है, पर दस साल पुराना घी खाने के लिए कोई तैयार न होगा। पुराने कपड़े, पुराने जूते, पुराने मकान—नये की तुलना में घटिया माने जाते है। प्रश्न उपयोगिता का है, नये पुराने का नहीं। यदि पुरानापन ही श्रेष्ठता का चिन्ह रहा होता तो कबाड़ियों की दुकान पर बिकने वाली फटी-पुरानी चीजें नई की तुलना में अधिक मूल्यवान रही होतीं। हमारा आग्रह नई-पुरानी का नहीं होना चाहिए, उपयोगिता को ही महत्त्व देना चाहिए। यह सही है कि बच्चे की तुलना में बूढ़े समझदार होते हैं, पर यह भी गलत नहीं है कि सरकारी भर्ती में नौजवान ही चुने जाते हैं और बूढ़े रिटायर कर दिए जाते हैं। आज की स्थिति में जो उपयोगी हैं हमें उसी बात का बुद्धिमत्ता पूर्ण चुनाव करना चाहिए।
फिर भी यदि परम्पराओं पर ही दृष्टि डालनी है तो यह कार्य भी समझदारी से किया जाय। पिछले हजार वर्षों में तो हमारे राष्ट्र का पतन ही हुआ है। वह अन्धकार युग था। उन दिनों की परम्पराएँ अनुकरण के योग्य नहीं कही जा सकती। अपने गौरवमय अतीत से बहुत कुछ सीखा समझा जा सकता है। नारी के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। नारी के सम्बन्ध में उस समय की मान्यताओं को देखें-समझें, तो पता पड़ता है कि पुरुष की अपेक्षा नारी कम नहीं अधिक सम्मान योग्य ही समझी जाती रही है। पुराने धर्म शास्त्रों को देखने से पता पड़ता है कि अपने ऋषियों—तत्त्वदर्शियों ने उसे मूर्तिमान देवी की तरह पूज्य माना है। प्राणिमात्र जिसकी गोद में पलता है—उस मातृशक्ति के आगे नमस्तस्यै-नमस्तस्यै कहते हुए बार-बार मस्तक झुकाया है।
नारी और नर दोनों मनुष्य जाति के समान अंग होने के नाते समान अधिकार तथा समान सम्मान के अधिकारी हैं। किन्तु यदि यह मानकर चला जाय कि समाज के हर वर्ग में कुछ न कुछ अन्तर तो होता ही है—तो वरिष्ठता नर की अपेक्षा नारी के पक्ष में ही जाती है। भारतीय संस्कृति में नारी को आदि शक्ति—परा प्रकृति की प्रतीक माना गया है। उसे मानवी नहीं, देवी कहा जाता है। भगवान मनु का कहना है 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं के निवास स्वर्ग जैसा वातावरण रहता है। पूजा का अर्थ यहाँ—उसे श्रेष्ठ मानकर सम्मान देते रहने और सन्तुष्ट रखने से ही है।
नारी मनुष्य को जन्म देती है। क्या पुरुष क्या स्त्री मनुष्य जाति के दोनों ही पक्ष नारी के उदर से उत्पन्न होते हैं। उसी का दूध और स्नेह पान करके जीवित रहते हैं। सुरक्षा, सुशिक्षा, स्नेह-दुलार, माता से प्राप्त करने के साथ-साथ ही बच्चे का जीवन प्रारम्भ होता है। माँ से—नारी से यह अनुदान न मिले, तो शरीर का जीवित रहना और मन का विकसित होना सम्भव नहीं। माता-पत्नी, बहिन और बेटी के दिव्य अनुदान पाकर ही मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनता है। पाने वाले की अपेक्षा देने वाले का पद बड़ा है। उपहार पाकर कोई अपने सौभाग्य को सराह तो सकता है, पर उस दाता की बराबरी नहीं कर सकता, जिसने अपना स्नेह उड़ेलकर, खून-पसीना एक करके, हमें पाला-पोसा और सजाया-सँवारा है। माता हो या पत्नी, दोनों स्वरूप में नारी आदि से अन्त तक अनुदानों से भरी है। बहन और बेटी मनुष्य जीवन में पवित्र प्रेरणा का प्रवाह सदा से पैदा करती रही हैं। उनसे अधिक पवित्रता, स्नेह और ममता का बोध शायद ही कहीं और दीख पड़े। उनकी समीपता से, सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी कवि-कलाकार जैसी भावभरी मनोभूमि में पहुँच जाता है। गंगा और नर्मदा के दर्शन से लोगों के हृदय में श्रद्धा भावना उमड़ती होगी, किन्तु उससे अनेक गुनी अधिक भावना, अपनी बहन-बेटी की समीपता से सहज ही फूट पड़ती है। उनमें मनुष्य को फूल जैसी निश्छलता और बर्फ जैसी शीतलता मिलती है। कला और पवित्रता का ऐसा उच्चतम उद्गम देखना हो तो बहिन-बेटी को ही गंगोत्री-यमुनोत्री के रूप में मानकर देखा जा सकता है।
नारी के स्वभाव में ही, पाना कम और देना अधिक है। पसीने के रूप में श्रम और सेवा से लेकर, दूध और भाव अनुदान तक उसका देने तक का क्रम बराबर चलता रहता है, कोई उसको माने या न माने। स्वभाव से ही नारी में दया, करुणा, ममता, सेवा, सद्भावना, उदारता, आत्मीयता जैसी देववृत्तियाँ अधिक मात्रा में रहती हैं। पाप, अपराध, स्वार्थ और क्रूर कर्मों में उसका हिस्सा नहीं के बराबर ही रहता है। निष्ठुर-नृशंसता के कामों में तो नर ही आगे रहता है। नारी को दैवी वृत्ति जन्म से ही दिव्य वरदान के रूप में मिली है। इसीलिए उसे देवी शब्द का सम्बोधन दिया जाना हर तरह से उचित है। पुष्पा देवी, सीता देवी, शान्ति देवी, कमला देवी आदि नामों में नारी के लिए देवी शब्द सार्थक ही प्रयुक्त होता रहा है।
स्वामी विवेकानन्द कहते थे—नारी ब्रह्मविद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्रता है, कला है, और वह सब कुछ है जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य के रूप में दृष्टिगोचर होता है। रामकृष्ण परमहंस की दृष्टि से नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है, ऋद्धि है और सब कुछ है जो मानव प्राणी के समस्त कष्टों और संकटों का निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जा सके तो वह सोमलता विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है।
कवीन्द्र रवीन्द्र की दृष्टि में नारी सृष्टा की सर्वोत्तम कृति है। सृष्टि में वात्सल्य, स्नेह, ममत्व, प्रेम आदि अनुदानों की अमृत धाराएँ उसी के अन्त:करण से निकलकर इस संसार को जीवन दान दे रही हैं।
मध्यकाल में वह श्रेष्ठ चिन्तन समाप्त सा हो गया। यह अन्धकार युग था, जिसमें सामन्तों का बोलबाला रहा। जिसकी लाठी उसकी भैंस का मत्स्य न्याय जंगल का कानून मनुष्य समाज में भी चल पड़ा। मध्यकालीन अनाचार मनुष्य जाति के मुँह पर पुता हुआ कलंक है। उस समय में लगभग सभी क्षेत्रों में भ्रष्ट परम्पराओं ने जड़ जमा ली थीं। उन्हीं दिनों की देन है कि नारी देवी के सिंहासन से उतार कर कैदियों से भी गई गुजरी हालत में पहुँचा दी गयी। पददलित और प्रतिबन्धित स्थिति के गर्त में वह जा गिरी।
नारी पर प्रतिबन्ध उन दिनों लगाये गए थे जब अनाचारी शासक प्रजा का धन ही नहीं लूटते थे, वरन बहू-बेटियों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं रहने देते थे। उन दिनों आत्मरक्षा के लिए यही उचित समझा गया था कि स्त्रियाँ घर से बाहर न निकलें, घूँघट मार कर रहें ताकि उनके का सौन्दर्य का लुटेरों को पता ही न चले और कोई संकट खड़ा न होने पावे। छोटी उम्र में लड़कियों के विवाह की प्रथा भी उन्हीं दिनों चली। युवावस्था आने से पहले ही वे घर-गृहस्थी वाली बन जाती थीं। इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता था पर किसी प्रकार प्राण तो बचा जाते थे। उन दिनों आपत्ति धर्म के रूप में इस तरह की प्रथाएँ आरम्भ की गई थीं। निस्सन्देह उस समय यह आरम्भ बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का प्रतीक था, पर आज तो वैसी विपत्ति नहीं फिर हम क्यों उसी लकीर के फकीर बने रहें और क्यों नुकसान उठाते रहें? किसी समय सामन्तों-नवाबों में बड़ी संख्या में औरतें रखैलें रखने की होड़ चल पड़ी थी? स्त्रियों से अन्तःपुर भरे रहते थे। उनमें असन्तोष और विद्रोह के भाव उठते थे। उन्हें दबाये, रहने के लिए वे लोग स्त्रियों पर कैदियों जैसे प्रतिबन्ध लगाते रहे होंगे? पर आज तो वैसी अनीति का अस्तित्व नहीं रह गया है फिर उन घृणास्पद बन्धनों में नारी को जकड़े रहने की आवश्यकता क्यों समझा जाय? अरब के रेगिस्तान में उड़ने वाले सूखे रेत से आँखों की रक्षा करने के लिए बुर्का ओढ़ने का औचित्य हो सकता है, पर अपने यहाँ वैसी कोई कठिनाई नहीं, फिर मुँह पर नकाब ओढ़ने की जरूरत किसलिए मानी जाय? भारतीय समाज में नारी के प्रति उच्च भावना और उच्च मान्यताएँ सदा से रही है। यहाँ नारी मात्र को अभी भी माता-बहिन की पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे वातावरण में भूखे भेड़ियों से उनके शील की रक्षा के लिए पर्दा ओढ़ने की आवश्यकता किस आधार पर अनुभव की जानी चाहिए? यह प्रथा भारतीय पुरुष समाज पर गहरा लांछन है कि उनकी बहिनों और बेटियों को ओढ़ कर किसी तरह अपना शील बचाना पड़ता है। इस कलंक को जितनी जल्दी धो डाला जाय उतना ही अच्छा है। परम्पराएँ वे ही स्वीकार की जानी चाहिए जो अपने समय की परिस्थितियों से मेल खाती हों और औचित्य एव उपयोगिता की कसौटी पर खरी उतरती हों।
परम्पराओं को ही देखना हो तो उस युग को देखना चाहिए जिनकी गौरव गरिमा से आज भी हमारा मस्तक ऊँचा हो जाता है। जिन दिनों अपना देश देवमानवों—नर रत्नों की खदान था। जिन दिनों अपना देश ज्ञान क्षेत्र में जगद्गुरु, शक्ति क्षेत्र में चक्रवर्ती और अर्थ क्षेत्र में सोने की चिड़िया कहा जाता था। उन दिनों उसकी परम्पराएँ भी महान थीं। वे ऐसी थीं जिनका अनुकरण करके सारा संसार—समस्त मानव समाज धन्य बनता था। उन दिनों नारी पैर की जूती नहीं थी वरन् वरिष्ठता के उच्च सिंहासन पर विराजमान थी। उसकी श्रेष्ठता के आगे सर्वत्र मस्तक झुकाया जाता था। यह उचित भी था। माता के चरणों में हर किसी की भावभरी श्रद्धा अर्पित होनी ही चाहिए। पुत्री और बहिन के प्रति मनुष्य की तो पवित्र भावना ही उमड़ेगी। धर्म-पत्नी भी सहोदर भाई के समान होती है। दाम्पत्य जीवन, राम-भरत जैसी अगाध आत्मीयता से भरा-पूरा होना चाहिए। नारी को बनाते समय उसमें उच्च स्तरीय भावना और आदर्शवादिता कूट-कूटकर भरी गयी है, इस तथ्य को और किसी ने समझा हो या न समझा हो, किन्तु भारत के ऋषि पुत्रों ने अवश्य समझा है। इसीलिए यहाँ नारी को हर स्तर पर श्रेष्ठतम सम्मान दिया जाता रहा है।
तीन प्रत्यक्ष देवताओं में माता-पिता और गुरु का उल्लेख होता है। उन्हें क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है। सृजनकर्त्री माता, पोषणदाता पिता और अज्ञानहर्ता गुरु, अपने लोक के ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। उनमें प्रथम माता को माना गया है। दशरथ द्वारा राम को वनवास दिये जाने पर माता कौशल्या राम से कहती हैं कि पिता से माता बड़ी है, इसलिए उनकी आज्ञा उल्लंघन करके भी तुम मेरी आज्ञा मानकर रुक सकते हो। राम द्वारा लोकमंगल की पूर्ति हो सके इसलिए उन्होंने उन्हें रोका नहीं कि इससे उनकी श्रेष्ठता कम नहीं होती, बढ़ती ही रहती है।
भगवान को धरती पर अवतार लेने के लिए विवश करने वाली तपश्चर्या में मुख्य भूमिका शतरूपा की थी। पौराणिक उपाख्यानों के आधार पर शतरूपा के आग्रह से सहमत होकर मनु भी तपश्चर्या में पत्नी सहित संलग्न हुए थे। तप सफल हुआ। शतरूपा जी कौशल्या बनी और भगवान राम रूप में उनकी गोदी में खेले। इसी प्रकार अदिति के आग्रह से महर्षि कश्यप ने भगवान को जन्म देने का श्रेय पाया। राम और कृष्ण बड़े हैं, उनकी भगवान के रूप में मान्यता भी है। पर जिनकी कोख में उनने पैर पसारे, जिनका दूध पिया, जिनका संरक्षण और दुलार पाकर बड़े हुए उन माताओं का गौरव उनसे कम नहीं।
तपस्या के हर क्षेत्र में नारी को प्रवेश का अधिकार रहा है, और उनकी उपलब्धियाँ भी किसी से कम नहीं रही हैं। भागीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने की कथा सर्वविदित है, परन्तु यह उपाख्यान कम ही लोगों को मालूम है कि ठीक उसी प्रकार का तप करके, अत्रि पत्नी अनुसूया ने चित्रकूट के समीप बहने वाली मन्दाकिनी नदी को अवतरित किया था।
तप की तरह ज्ञान के क्षेत्र में भी नारी अनादि काल से नर के समान ही रही है। अनेक वेद-मन्त्रों के अवतरण में ऋषियों के ही नहीं ऋषिकाओं के भी नाम मिलते हैं। ऋषि पद नर एवं नारी को समान रूप से प्राप्त होता था। वेद ऋचाओं की दृष्टा के रूप में भी विश्वपारा, गोधा, सरमा, घोषा, अपाला, यमी, अदिती, लोपामुद्रा, शची आदि का बड़ा सम्मान पूर्ण स्थान है। यही नहीं—सर्वोच्च सप्तऋषि पद तक भी नारी की गति थी। अरुन्धती का सप्तऋषि पद पाना सर्व विदित है।
आज इन सब तथ्यों को भुलाकर नारी को वेद मन्त्रों के पाठ तक का अधिकारी नहीं माना जाता। कैसे दुःख और आश्चर्य की बात है कि रूढ़िवादिता के पक्षपाती व्यक्तियों की समझ में यह छोटी सी बात भी नहीं आती, कि जब नारियाँ वेदमन्त्रों की सृष्टा हो सकती हैं, तो उन्हें पढ़ने का अनाधिकारी कैसे कहा जा सकता है।
ज्ञान और अध्यात्म क्षेत्र में तो नर-नारी का भेद करना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। परब्रह्म—आदि सत्ता, नर-नारी के भेद से परे हैं। उसे उस अव्यक्त रूप में मनुष्य की बुद्धि समझ नहीं पाती। प्राणी उसे समझ सके इस दृष्टि से जब उसने स्वयं को व्यक्त किया तो दोनों ही रूपों में समान रूप से व्यक्त किया है। उसे परम पुरुष परमात्मा कहा जाता है तो आदि शक्ति, आदि चेतना भी कहा जाता है। पुरुष और प्रकृति के नामों से भी उसे जाना समझा जाता है। दोनों के पीछे तत्त्व एक ही है, केवल नाम भेद है।
सृष्टि निर्माण की व्याख्या के साथ भी यही तथ्य जुड़ा हुआ है। ईश्वर की प्रकृति ने उसे ‘एकोऽहं बहुस्यामि' के लिए, एक से अनेक होने के लिए बाध्य कर दिया। ब्रह्म की इच्छा अथवा आदि चेतना में संकल्प उठने के प्रसंग से सृष्टि निर्माण के पीछे नर और नारी दोनों ही रूपों की समान महत्ता बतलायी गई है। पुराणों में लिखा है कि ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के पहले महाशक्ति गायत्री की उपासना की थी। उससे प्राप्त शक्ति द्वारा ही उन्हें प्रजापति कहलाने का अवसर मिला। अन्य देवशक्तियों—देवताओं के सन्दर्भ में भी यही बात सामने आती है। लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, सीताराम, राधेश्याम आदि में पहले नारी का—पीछे नर का नाम आता है।
भारतीय धर्म संस्कृति का स्रोत गायत्री है। आगम और निगम का सारा ज्ञान-विज्ञान इसी से उत्पन्न हुआ है। अनादि काल से गुरु मन्त्र तथा सब में प्रधान उपास्य गायत्री को ही माना जाता है। भारतीय धर्म के प्रतीक शिखा और सूत्र का प्राण यही है। बाद में अनेक उपासनाएँ चल पड़ने पर भी, यह मान्यता सभी की है कि बिना गायत्री के कोई भी उपासना सफल नहीं होती। आदि ज्ञान के प्रतीक चारों वेद भी गायत्री के चार चरणों की व्याख्या के रूप में बने। स्पष्ट है कि महाशक्ति गायत्री के रूप में नारी विग्रह को ही घोषित किया गया है। गायत्री महाशक्ति की इस महिमा में नारी तत्त्व को मानने की झलक है।
किसी भी पक्ष से विचार करें, बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है। जहाँ परब्रह्म को ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों रूपों में व्यक्त किया गया है, वहाँ आदि शक्ति—महासरस्वती, महालक्ष्मी तथा महाकाली के रूपों में व्यक्त होती हैं। देवस्थलों की तुलना में शक्तिपीठ कम नहीं हैं। देव रूप में उपासना करने वालों की अपेक्षा देवी रूप को प्रधानता देने वाले अधिक ही होंगे। पुराणों में जहाँ कहीं भी देवासुर संग्राम का वर्णन आता है वहाँ यही तथ्य मिलता है कि देवताओं के पराजित होने पर देवी शक्ति, किसी न किसी रूप में सामने आकर उन्हें विजयी बनाती है।
नारी को किसी भी क्षेत्र में अनाधिकारी ठहराना हमारी भूल ही है। यह गलत मान्यता हमारी प्रगति में रुकावट ही डालती रहेगी। जब हमारा देश हर दिशा में आदर्श माना जाता था, उन दिनों नारी आगे बढ़ने के लिए स्वतन्त्र थी और उसने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता और उपयोगिता की धाक जमा रखी थी। इसके ढेरों उदाहरण शास्त्रों में मिलते हैं।
कुन्ती ने अपनी तपश्चर्या से देवशक्तियों को आकर्षित करके दिव्य विभूति सम्पन्न सन्तानें उत्पन्न की थीं। सूर्य की शक्ति से कर्ण, इन्द्र की शक्ति से अर्जुन और वायु की शक्ति से महाबली भीम जैसे देवमानवों का सृजन करना भारतीय ललनाओं के लिए कुछ कठिन न था। देवी अंजनी ने भी इसी प्रकार समुद्र लाँघने वाले पवन पुत्र हनुमान की जननी बनने का गौरव प्राप्त किया था।
मनु को अपने वाजपेय यज्ञ के लिए उपयुक्त पुरोहित न मिला, तो उन्हें उस काल की महान मनीषि अपनी पुत्री इला को यज्ञाचार्य नियुक्त करके उस अनुष्ठान को सम्पन्न कराया था।
राजा जनक के दरबार में महा विदुषी गार्गी और महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। उस विवाद में महर्षि सिटपिटाने लगे और क्रोध में आकर उन्हें शाप देने पर उतारू हो गए। उन दिनों गार्गी के समतुल्य विदग्धा, उद्दालिका, बीचावन्ती, अनुसूया, गौतमी, यमी, सूर्या आदि विदुषियाँ भी प्रख्यात थीं।
आद्य शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ में देवी भारती निर्णायक बनी थीं। उनकी विद्वत्ता दोनों ही विद्वानों ने स्वीकार की थी।
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान भास्कराचार्य की लिखी "सिद्धान्त शिरोमणि" पुस्तक के उत्तरार्द्ध की रचना उनकी पुत्री लीला द्वारा की गई है। यह सिद्धान्त आज भी अकाट्य सिद्ध होते हैं।
नारी की यह गौरव गाथा माता एवं पुत्री अथवा अविवाहित साधिकाओं के रूप में ही नहीं, धर्मपत्नियों के रूप में भी मिलती है। आदर्शवादी नारियाँ भोग-विलास, सुविधा अथवा अपने संरक्षण के लिए विवाह नहीं करती थीं, उनका उद्देश्य अपने पतियों के महान कार्यों में हाथ बँटाना होता था। सुविधा को लात मारकर अपना जीवन आदर्शों की पूर्ति के लिए किन्हीं विद्वानों-कलाकारों के हाथ में अपने को सौंप देने का त्याग-बलिदान भी उन्होंने समय-समय पर प्रस्तुत किया है।
महर्षि याज्ञवल्क्य की द्वितीय पत्नी मैत्रेयी सांसारिक सुख के लिए नहीं विशुद्ध आत्म साधना के लिए ही उनकी सहधर्मिणी बनी थीं। सांसारिक सुखेच्छा के बारे में महर्षि ने जब भी उनसे पूछा वे उनसे स्पष्ट इन्कार करती रहीं। राजकुमारी सुकन्या ने अन्धे और अतिवृद्ध च्यवन ऋषि से केवल इसीलिए विवाह किया था कि वे उनकी तपस्या के लिए आवश्यक साधन जुटाने में सहायता कर सकें। सावित्री राजा अश्वपति की प्राणप्रिय विदुषी एवं रूपवती पुत्री थी। उन्होंने वनवासी अति निर्धन सत्यवान् से इसीलिये विवाह किया कि उसके वनौषधि शोधकार्य में सहायक होकर लोकमंगल के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें।
विद्वान कैयट को अपने ग्रन्थ लेखन कार्य में लगे रहने देने के लिए उनकी पत्नी भामती मूँज की रस्सी बँटती थीं। उस श्रम से जो उपार्जन होता उसी से वे अपना और पतिदेव के निर्वाह का साधन जुटाती थीं। साध्वी पत्नी की इस सेवा साधना के प्रति कृतज्ञता स्वरूप कैयट ने अपनी संस्कृत टीकाओं का नाम 'भामती' रख दिया।
पतियों को सुयोग्य बनाने और सन्मार्ग पर लाने की भूमिका निबाहने में नारी कभी पीछे नहीं रही। पत्नी का धर्म पति का हित साधन करना है। यदि पति सही मार्ग पर है, आदर्श पर चल रहा है, तो उसका समर्थन और सहयोग करने में ही दोनों का हित है। परन्तु यदि पति सही मार्ग पर बढ़ने में झिझकता है अथवा गलत मार्ग पर चलता है तो फिर बात दूसरी हो जाती है। फिर पत्नी का धर्म पति का समर्थन नहीं, उसे सही दिशा देना हो जाता है। भारतीय नारी अपनी इस तेजस्विता का परिचय हमेशा देती आयी।
विदुषी विद्योत्तमा का विवाह अशिक्षित कालिदास से हो गया। कालिदास अपनी योग्यता बढ़ाने का महत्त्व ही नहीं समझते थे। विद्योत्तमा ने पहले उन्हें उत्तेजित करके ज्ञान के प्रति उनमें लगन पैदा कर दी और फिर उनके अध्ययन की उच्चस्तरीय व्यवस्था बना दी। इसी का फल था कि निरक्षर कालिदास महाकवि कालिदास बन गए। इसी प्रकार रत्नावली ने अपनी सुख-सुविधा को महत्त्व न देकर तुलसीदास जी की प्रतिभा को कामुकता की ओर से मोड़कर ईश्वर भक्ति की ओर कर दिया। यह रत्नावली का सत्साहस ही था जिसने समाज को तुलसी जैसा सन्त और रामचरित मानस जैसा ग्रन्थ उपलब्ध कराया।
पत्नी की रूप में नारी के तेजस्विता के अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने कुमार्गगामी पतियों का डटकर विरोध भी किया है। मन्दोदरी का कहना रावण माना तो नहीं पर वह निर्भीकता पूर्वक उसका विरोध आदि से अन्त तक करती रही। बालि की पत्नी तारा ने भी सुग्रीव के साथ बरती गई अनीति को चुपचाप नहीं सहा था वरन् वे पति का सम्मान करते हुए भी नीति पालन के बराबर आग्रह करती रहीं। न मानने और तिरस्कृत होने का खतरा उठाकर भी उन्होंने कुमार्ग से अपने पति को हटाने में जो भी बन सकता था, सब कुछ किया।
सुसन्तति निर्माण में नारी हमेशा बेजोड़ रही है। शकुन्तला के संरक्षण में बालक भरत का विकास हुआ था। बचपन में ही वह सिंह शावकों के साथ खेलता था और बड़े होने पर उसने विशृंखलित देश को एक झण्डे के नीचे संगठित किया। उसी के नाम पर इस देश को भारत कहा गया है।
लव-कुश का पालन-पोषण अभावग्रस्त परिस्थितियों वाले वाल्मीकि आश्रम में हुआ था, पर सीता के सत्प्रयत्नों से वे बच्चे अपने पिता के समान ही हर दृष्टि से सुयोग्य बन सके।
सन्त विनोबा तीन भाई हैं और तीनों ही ब्रह्मचारी रहकर समाज सेवा के अति महत्त्वपूर्ण कार्यों में संलग्न हैं। इन तीनों को इस रूप में विकसित करने का श्रेय उनकी संस्कारवान माता को है।
सम्राट शान्तनु की पत्नी गंगा ने अपने सभी बच्चों को बसु ब्रह्मचारी बनाया। उनके विवाह से पूर्व ही पति से यह समझौता कर लिया था कि उसकी सभी सन्तानें ज्ञान और तप साधना में संलग्न रह सकने की दृष्टि से गंगा किनारे ऋषि आश्रमों में भेज दी जावेगी। उनके अन्तिम पुत्र भीष्म थे। शान्तनु के अनुरोध पर गंगा इस बात के लिए सहमत हो गयी थी कि उन्हें राज्य संचालन के लिए वहीं रहने दिया जाय। किन्तु माँ के संस्कारवश सामान्य सी बात का आधार लेकर वे अधिकार से दूर और ब्रह्मचारी ही बने रहे।
मदालसा ने अपने सभी बालक ब्रह्मचारी बनाए थे। इसके लिए सारा शिक्षण उन्होंने स्वयं दिया था। पति के आग्रह पर उन्होंने भी अन्तिम पुत्र को राजनेता बनाया था। सुभद्रा भी अर्जुन की तरह ही शस्त्र और शास्त्र कला में समान रूप से प्रवीण थी। उसी का प्रभाव था कि अभिमन्यु गर्भ से ही चक्रव्यूह भेदन जैसी युद्धकला सीखकर पैदा हुआ। भर्तृहरि के भानजे गोपीचन्द को संसार सुख छोड़कर विश्व-कल्याण की तप-साधना में प्रवृत्त होने की प्रेरणा उनकी माता ने ही दी थी।
सीता ने शिव धनुष को बचपन में ही उठाकर राजा जनक को चकित कर दिया था। ऐसी शक्ति अपनी पुत्री में देखकर राजा जनक ने निश्चय किया था कि वे अपनी पुत्री का विवाह समर्थ बलशाली से ही करेंगे। तदनुसार धनुष यज्ञ रचाया था, और उस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही राम के साथ उनका विवाह किया गया था। महाभारत उनके अनुसार अर्जुन को श्रीकृष्ण का सामना करना पड़ा। कृष्ण जैसे योद्धा के साथ युद्ध में अर्जुन का सारथी बनने योग्य व्यक्ति न मिला तो द्रौपदी ने वह कार्य बड़ी कुशलता से सँभाला था। यह कथा विस्तार से 'कृष्णार्जुनीयम' ग्रन्थ में मिलती है।
एक बार इन्द्र ने किसी युद्ध में राजा दशरथ से सहायता माँगी। उस युद्ध में कैकेयी भी साथ गई। युद्ध के बीच रथ के पहिये की कील निकलती देखकर कैकेयी ने अपनी उँगली उस जगह लगा दी थी। इस प्रकार रथ के गिरने पर प्राण संकट में फँस जाने से अपने पति को बचा लिया। राजा दशरथ ने अपनी पत्नी के शौर्य-साहस से प्रभावित होकर ही उन्हें वरदान देने का वचन दिया था।
कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में धनुर्धारी महिलाओं का उल्लेख किया है और तत्कालीन समाज में लड़की-लड़कों की समान शिक्षा के प्रचलन की चर्चा की है। भरहुत की खुदाई में ईसा से ७०० वर्ष पूर्व की बनी मूर्तियों में घोड़े पर सवार सैनिक वेश में, हथियारों से लैस भारतीय नारियों की प्रतिमाएँ भी मिली हैं। उससे पता चलता कि उस काल की महिलाएँ युद्ध कला में भी निपुण थीं।
देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा में भी भारतीय नारियों का योगदान कम नहीं रहा है। धर्मप्रचार से लेकर लोकसेवा के विभिन्न प्रयोजनों के लिए, धर-द्वार छोड़कर सुख-वैभव को लात मारकर, जन-जन के द्वार पर अलख जगाने के कठिन कार्य को भी वे प्रसन्नतापूर्वक अपने कन्धों पर उठाती रही हैं।
आचार्य बृहस्पति की पुत्री देवहुति और आचार्य भाव भव्य की पुत्री रोमशा अपने पिता और पति से आज्ञा लेकर देश-देशान्तरों में धर्म चेतना उत्पन्न करने के लिए परिव्राजिका बनकर लम्बी यात्राओं पर गयी थीं। अभृण ऋषि की कन्या याकूती के आचार्यत्व में चलने वाला गन्ध-मावन क्षेत्र का गुरुकुल छात्र और छात्राओं के लिए समान रूप खुला था।
अम्बपाली बुद्धकाल की अद्वितीय रूपवती नर्तकी थी। उसे बहुत धन, वैभव और यश प्राप्त था। भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर उसने अपनी जीवनधारा ही बदल दी। वह तपस्विनी बन कर ज्ञान साधना और धर्म प्रचार में संलग्न हुई और अपनी सारी सम्पत्ति बौद्ध विहारों के संचालन में समर्पित कर दी।
सम्राट अशोक की पुत्री राजकुमारी संघमित्रा ने गृहस्थ सुख और राजसुख से सर्वथा इन्कार करके धर्म प्रचारिका बनना स्वीकार किया, आजीवन कुमारी रहकर देश-विदेश में धर्म प्रचार करती रही। उसकी प्रेरणा से असंख्य महिलाओं ने नव जीवन का प्रकाश प्राप्त किया। इसी प्रकार सम्राट हर्षवर्धन की बहिन राजश्री भी अविवाहित रही और सारा जीवन परिव्राजिका बनकर धर्म प्रसार में लगा दिया।
बुद्ध धर्म को सारे देश और विश्व के कोने-कोने में जिन आत्माओं की सेवाएँ मिलीं, उनमें स्त्रियों के नाम बड़ी संख्या में हैं। अम्बपाली, नन्दा, सुजाता, किसा, गौतमी, भद्रा, कापिला, मण्डपदायिका, ब्रम्हदत्ता, सुप्रिया, मिगारमाता, विशाखा, पट्टाचारा, धर्मदिन्ता, उत्पलवर्णा तथा महा प्रज्ञावती खेमा के नाम उनमें से प्रमुख हैं। इन कन्याओं ने अपनी इस साधना में हर चुनौती का सामना किया और किसी भी प्रलोभन से विचलित नहीं हुईं।
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में भी महिलाओं का बड़ा योगदान रहा है। वैशाली के राजा चेटक की कन्या सृगवती, जिनदास की पुत्री सुभद्रा तथा वेन्नातट के एक धनाढ्य परिवार में जन्मी सुनन्दा ने जैन धर्म के विस्तार में अपूर्व भूमिका निबाही थी।
जैन धर्म की महा श्रमणी आर्य चन्दना ने ३६ हजार आर्याओं का श्रमणी संघ बनाया था। कल्प सूत्र में उनके क्रिया कलाप का वर्णन है। उससे विदित होता है कि जैन धर्म के महान उपदेष्टा गणधर गौतम जहाँ केवल सात सौ श्रवणों को परम ज्ञान प्रदान कर सकने में समर्थ हुए, वहाँ आर्य चन्दना के नेतृत्व में साध्वी संघ की चौदह सौ श्रमणियों ने पारंगत सिद्धि प्राप्त की।
राजकुमारी मधूलिका अपने समय में वेद ज्ञान के नष्ट होने और मनमाने मतों के फैल जाने से दुखी होकर आँसू बहा रही थी। रास्ता निकलते कुमारिल भट्ट के हाथ पर राजकुमारी के आँसू गिरे। उन्होंने सिर उठा ऊपर देखा और रोने का कारण पूछा। मधूलिका ने कहा—"को वेदानुद्धरिश्यसि" अर्थात् वेदों का उद्धार कौन करेगा? कुमारिल का ब्रह्म तेज जाग पड़ा। उन्होंने उत्तर दिया—"मा विषीद बकारोहे भट्टाचार्योऽसि भूतले" भद्रे ! खिन्न मन होओ। इस कार्य को पूरा कर सकने की क्षमता सम्पन्न कुमारिल भट्ट अभी इस पृथ्वी पर जीवित है। इतना कहकर वे जिस कार्य से जा रहे थे, उसे स्थगित करके वहीं से वापिस लौट पड़े और परिव्राजक बनकर वेद धर्म की पुनः स्थापना के कार्य में जुट गए। इस उद्बोधन का श्रेय मधूलिका को ही था। चन्दबरदाई द्वारा पृथ्वीराज को और भूषण द्वारा शिवा जी को उद्बोधन देने जैसी ही भूमिका राजकुमारी की भी रही।
इस प्रकार के उदाहरणों का कोई अन्त नहीं है। इन सबका सारांश यह है कि नारी को किसी भी श्रेष्ठ दिशा में बढ़ने से रोकना हमारी पुण्य परम्परा के अनुकूल नहीं है, और नारी में किसी भी उत्तरदायित्व का भार उठाने योग्य क्षमता भी है। आज समय की पुकार है कि नारी फिर से अपने उस शानदार स्वरूप में सामने आये। यह होना कठिन नहीं है। उसका तो जीवन ही स्नेह, करुणा, वात्सल्य, सेवा, समर्पण जैसे दिव्य तत्त्वों से मिलकर बना है। उसे बढ़ने और विकसित होने से न रोका जाय, थोड़ा सहयोग समर्थन भर दे दिया जाय तो वह अपनी विशेषताओं के लाभ से समाज को सम्पन्न बना सकती है। वह अपने अभिभावकों को, सन्तति को, साथी सहचरों को, परिवार को, और अपने सम्पर्क के हर व्यक्ति को वह कोमल सम्वेदनाएँ वह प्रखर प्रेरणाएँ दे सकती है, जिसके द्वारा वे पशुता से मनुष्यता की ओर बढ़ सकें, मनुष्यता के स्तर पर दृढ़ रह सकें और ऊँचे उठते हुए देवत्व तक पहुँच सकें।
देव लोक को लक्ष्मी के बारे में बहुत सी आकर्षक कल्पनाएँ की जाती हैं। पता नहीं उनमें कितना सत्य है किन्तु नारी को गृह लक्ष्मी के रूप में विकसित होने देकर उसके आश्चर्यजनक लाभ हर व्यक्ति पा सकता है। आदर्शपरायण, विकसित, सन्तुष्ट, प्रसन्न और उल्लसित नारी साक्षात गृहलक्ष्मी सिद्ध होती है। उसके अनुदान से सारा परिवार घर में ही स्वर्ग जैसी अनुभूति करता है। घर में सभी तरफ सजीवता की चमक और सुन्दरता की झलक मिलती है। कठिन और भयंकर लगने वाली परिस्थितियाँ भी हलकी-फुलकी और आसान बन जाती हैं। दम घोंटने वाली मनहूसी पर स्नेह जनित उल्लास छा जाता है, और कठिनाइयों से भरे दिन भी हँसते-हँसाते बीत जाते हैं।
आज मनुष्य जीवन हर तरफ से बुरी तरह उलझा हुआ है। व्यक्तिगत जीवन से शान्ति-सन्तोष न जाने कहाँ चला गया है। परिवार के सदस्यों में स्नेह, आत्मीयता न रहने से परिवार स्वयं में एक समस्या बनते जा रहे हैं। मँहगाई और आर्थिक तंगी के कारण कठिनाइयाँ और भी बढ़ गयी हैं। जीवन यापन इतना भारी हो गया है कि अकेला घर का मुखिया उसे उठाने-खींचने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। उसकी कमर टूटी जा रही है, गर्दन झुकी जा रही है। उधर सहधर्मिणी कहलाने वाली नारी, बेचारी—लाचार सी बनी हुई चुपचाप तमाशा देखने, दुःख से आँसू बहाने अथवा क्रोध से झल्ला पड़ने के अलावा कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है। जिन गुणों और क्षमताओं के द्वारा वह भार उठा सकती है, हाथ बँटा सकती है उन्हें कौन जगाये, कौन बढ़ाये? वह स्वयं उन्हें भूल चुकी है और समाज उसके विकास को अधर्म एवं अनावश्यक माने बैठा है। यदि उस पर प्रतिबन्ध हटाये जा सकें, प्रोत्साहन दिया जा सके तो समस्याओं के समाधान निकालने में वह महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
अतीत के महान् गौरव को वापस लौटाने के लिए विश्व विभीषिकाओं को निरस्त करने के लिए खोये हुए मानवी मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए सर्वत्र छाये विषाद को उल्लास में बदलने के लिए—पति को नई सहधर्मिणी, बच्चों की नई निर्मात्री और परिवार को नई गृहलक्ष्मी दिलाने के लिए—राष्ट्र को समर्थ बनाने के लिए भारतीय समाज को उस पर लगे अनीति के कलंक से छुटकारा दिलाने के लिए—नारी को मनुष्य स्तर पर लाया ही जाना चाहिए। इससे कम में आज की सर्वभक्षी विभीषिकाओं की चुनौती का सामना किया ही नहीं जा सकता है।