सेवा-साधना

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।


भूमिका

परम् पूज्य गुरुदेव ने शतसूत्री योजना को मिशन का आधार बताया है। उसी को केन्द्र मानकर सेवा-साधना के विभिन्न आयाम अपने उद्बोधनों में स्पष्ट किये है। परम् पूज्य गुरुदेव की प्रस्तुत अमृतवाणी मिशन के कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट निर्देश एवं भावी कार्ययोजना का स्वरूप प्रस्तुत करती है। गायत्री परिवार के प्रत्येक परिजन को इन पंक्तियों को बार-बार पढ़ना चाहिए। इससे उन्हें न केवल ऊर्जा मिलेगी; अपितु देश-काल, परिस्थिति के अनुरूप कार्य करने की दृष्टि मिलेगी।

सेवा-साधना के इस उद्बोधन में शहरी एवं ग्रामीण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सप्त आन्दोलन का शंखनाद वर्षों पूर्व पूज्यवर ने किया है। ज्ञानयज्ञ विद्या-विस्तार, रचनात्मक कार्यक्रम, देव-मन्दिर पुस्तकालय, व्यायामशालाएँ, ग्राम उद्योग एवं कुटीर उद्योग, प्रतियोगिता, लोक-संगीत का मार्गदर्शन एवं ग्राम स्वच्छता अभियान को जिस सरल एवं सुपाच्य भाषा में प्रस्तुत किया है, वह गायत्री परिवार के परिजनों के लिए मील का पत्थर है। अमृतवाणी की एक-एक पंक्ति हृदयंगम करने एवं जीवन में उतारने योग्य है। प्रज्ञामण्डल, युवामंडल, महिला मण्डल एवं नव विकसित होने वाले नव कोपलों केलिए स्वयं ही कार्यक्षेत्र निर्धारित करने के लिए मार्गदर्शिका है।

देवियो! भाइयो!!

ज्ञान की अंतरंग में स्थापना हुई या नहीं हुई, इसकी परीक्षा पहचान सिर्फ एक है।कि मनुष्य को उस तरह के कार्य, विचार को सुनने से उनको क्रियात्मक रूप देने के लिए, उसमें साहस इकट्ठा हुआ कि नहीं, एक बात सुनने-समझने तक सीमित है। जैसे कि लोगों का ख्याल है कि कथा सुन लेनी चाहिए, गीता सुन लेनी चाहिए और रामायण पढ़ लेनी चाहिए और रामायण सुना लेना चाहिए—बस खतम हो गया, पुण्य हो गया, उद्देश्य पूरा हो गया बात खतम। बात ये नहीं है। इस सारी की सारी ज्ञान का आविर्भाव इसलिए हुआ है कि आदमी उन विचारों को चरित्र के अनुरूप परिणित कर सके। भगवान श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया ही नहीं बल्कि अर्जुन को कर्म करने के लिए भी सिखाया। भगवान रामचन्द्रजी अपने पैर पुजाने, अपनी आरती उतरवाने के लिए नहीं आये थे बल्कि लोगों में ये प्रेरणा उत्पन्न करने के लिए आये थे कि अनीति और अन्याय के विरुद्ध छोटे आदमियों को भी संघर्ष करना चाहिए। रावण के विरुद्ध उन्होंने रीछ और बन्दरों को इकट्ठा किया था। हनुमान जी में भी त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा की थी।

त्याग और सेवा की वृत्ति और लोकमंगल के लिए कुछ काम कर लेने की वृत्ति जब मनुष्य के भीतर पैदा हो जाये, और हिम्मत पैदा हो जाये, एक उमंग पैदा हो जाये और एक ललक पैदा हो जाये, तब जानना चाहिए इसने जो कुछ ज्ञान सीखा था, वह सार्थक हुआ और अगर ऐसी ललक उत्पन्न हो और आदमी सुनने भर का व्यसनी हो जाये, आज गीता, कल गीता, आज गीता, कल गीता, आज रामायण कल भागवत्, इस तरह से सुनता ही चला जाय, तो सिर्फ यह एक तरह का का मनोरंजन, व्यसन बन जाता है। व्यसन कितने ही तरीके के होते हैं। किसीको बार-बार तम्बाकू पीने का व्यसन होता है। किसी को ताश खेलने का व्यसन होता है। किसी को सिनेमा देखने का, किसी को सत्संग सुनने का और सत्संग करने का व्यसन पैदा हो जाता है, और यहाँ बाबा जी की कहानी सुन मारी और वहाँ पण्डित जी की भागवत् सुन ली। ऐसे ही अपने समय का विक्षेप करता रहता है। अगर यहाँ तक कथा सुनने भर की बात हो, तो उसे केवल उसे ज्ञान का व्यसन कहा जायेगा। दूसरे व्यसनों की अपेक्षा थोड़ा बहुत है अच्छा थोड़े ही कहते हैं कि अच्छा नहीं है समय काटने की अपेक्षा बुरा काम किया होता जुआ खेला होता, उसकी अपेक्षा तो अच्छा ही है। ज्ञान की बात सुनता है। उसमें इसमें बुराई ही क्या है। पर कुछ उसका कोई परिणाम भी नहीं है, परिणाम भी क्या हो सकता है, परिणाम उस समय होगा। जब मनुष्य उन विचारों को इस ढंग से सुने और समझे कि क्या ये कार्य में लाये जाने योग्य हैं, अगर ये कार्य में लाये जाने योग्य हैं तो उसे कार्य में लाये जाने की हिम्मत भी आदमी के भीतर में होनी चाहिए। आत्मबल इसी को कहते हैं।

आत्मबल

आत्मबल का अर्थ यह है कि जिन विचारों को हम सही मानते हैं उन सही मानने वाले कामों को हम करने की हिम्मत इकट्ठा करें, त्याग इकट्ठा करें। इसके लिए पुरुषार्थ करें। इसके लिए मेहनत करें और उसके रास्ते पर कोई विरोध आता है तो इसको भी बरदाश्त करें। इस तरह की आदमी के भीतर विचारों को कार्य रूप में परिणित करने की क्षमता उत्पन्न हो जाये तो समझना चाहिए कि जो बीज बोया गया था उसका पत्ता और पल्लव पैदा होना शुरू हो गया। बीज बोया जाय और उसका पत्ता पैदा ही न हो, अंकुर पैदा ही न हो, बीज बोने न बोने से क्या फर्क पड़ा। कथा हमने सुनी, ज्ञान हमने सुना, पुस्तकें हमने पढ़ीं लेकिन हमारे मन में काम करने की ऐसी उमंगें ही नहीं उठीं, तो ये मानना चाहिए कि हमने बीज बोया और बीज बोने के बाद पैदा नहीं हुआ, उगा नहीं फला नहीं, फूला नहीं। फला-फूला नहीं तो बोने का लाभ क्या रह गया? हमको जो अच्छे विचार और श्रेष्ठ विचार और जीवन को ऊँचा उठाने वाले विचार लोगों में विस्तृत करने चाहिए और फैलाने चाहिए जैसे कि अभी-अभी कहा गया। ज्ञानयज्ञ के माध्यम से जन साधारण को विचार करने की महती आवश्यकता पर बल देना चाहिए। और ये उसे सिखाया जाना चाहिए कि जीवन श्रेष्ठ तरीके से कैसे जीया जा सकता है, और समाज को सुव्यवस्थित कैसे बनाया जा सकता है? समाज अर्थात भगवान। भगवान की पूजा कैसे की जा सकती है इसका एक समग्र शिक्षण करने के लिए ज्ञान-यज्ञ किया गया था। ज्ञान-यज्ञ बीज बोने के बराबर है। वह बीज पैदा हुआ कि नहीं, उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा ये है और हमारा प्रयत्न सफल हुआ कि नहीं उसकी परीक्षा, उसकी परीक्षा यह है कि आदमी को उसके विचारों को कार्यान्वित करने के लिए सामर्थ्य पैदा हुई कि नहीं। सामर्थ्य पैदा होने का अर्थ ही उस ज्ञान यज्ञ की सफलता है।

समय का सुनियोजन

ज्ञानयज्ञ का दूसरा चरण रचनात्मक कार्यक्रमों के रूप में और सेवा-साधना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिन लोगों ने उन विचारों पर निष्ठा उत्पन्न कर लिया और ये ख्याल कर लिया है कि ठीक है। २४ घण्टे हमारे लिए ही नहीं है और हमारी जिन्दगी अपना पेट पालने के लिए ही नहीं है, हम बच्चों के हम गुलाम नहीं हैं। बल्कि समाज के लिए भी हमारा फर्ज हो जाता है, और वो समय इसके लिए आगे निकालना चाहिए। ज्ञानयज्ञ के लिए एक घंटा निकालने के लिए बात कही थी वो प्राथमिक पाठ था। मनुष्य को ज्यादा समय देना चाहिए। ८ घंटा आदमी कमाने के लिए खर्च करें। ठीक है मुनासिब है, पेट पालने के लिए बच्चों को पालने के लिए ८ घंटा हर आदमी ठीक तरीके से करें। विदेशों में ८ घण्टे ही दुकानें खुलती हैं, ८ घण्टे से ज्यादा कोई काम नहीं करता। बाजार बिल्कुल आठ घण्टे से एक मिनट ज्यादा नहीं खुलता।

किसी मजदूर को दूसरे आदमी से आठ घण्टे से ज्यादा काम करने की इजाजत नहीं है। क्योंकि अगर आदमी ज्यादा काम करेगा तो इसके दिमागी और शारीरिक स्थिति सब खराब हो जायेंगी और आदमी किसी काम का नहीं बचेगा। आठ घण्टे आदमी जीता है कमाने के लिए, रोटी कमाये बिल्कुल ठीक बिल्कुल सही, आठ घण्टे में इतना काम हो सकता है। अगर आदमी मुस्तैदी से काम करें तो मैं क्या कह सकता हूँ। हिन्दुस्तान का किसान, हिन्दुस्तान का मजदूर जितना काम आठ घण्टे में करता है। अमेरिकन मजदूर ५ गुना काम ज्यादा करता है, लीजिए ये कमीशन की रिपोर्ट है। मुस्तैदी से करता है। दिलचस्पी से करता है। मेहनत से करता है। आठ घण्टे काम करें तो शिक्षित व्यक्ति १२ घण्टे और १६ घण्टे काम करने की अपेक्षा ज्यादा काम कर सकता है। छः घण्टे सात घण्टे काफी होना चाहिए। आठ घण्टे मुस्तैदी के साथ रोटी कमाने के लिए काम करे, सही है। और अगर आठ घण्टे हमें सोने और स्नान वगैरह करने लिए नित्य कर्म में खर्च करें। सोने के लिए छः-सात घण्टे काफी होना चाहिए और एक घण्टे में नहाया-धोया जा सकता है। एक घण्टे लेट्रीन वगैरह जाया जा सकता है।

आठ घण्टे शरीर के लिए हो गये और आठ घण्टा सोने के लिए और शरीर के लिए हो गये। अब इसके बाद में लगभग आठ घण्टे बच जाते हैं। आदमी के पास जो काम करते है जो रोजी-रोटी कमाते है, गुजारा करते हुए भी आदमी लोक मंगल के लिए—समाज के लिए बहुत काम कर सकता है। आठ घण्टे इतने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। किसी को नौकरी छोड़ने की भी जरूरत नहीं। बाबाजी होने की भी जरूरत नहीं और कुछ भी करने की जरूरत नहीं। अपनी रोटी कमाता हुआ आदमी इतना काम कर सकता है जो पूरे एक आदमी के काम के बराबर होता है। आठ घण्टे बाकी रह गये ना।

आठ घण्टे सोने के लिए और खाने के लिए और आठ घण्टा, आठ घण्टा मजदूरी करने के लिए,१६ घण्टे, आठ घण्टे बचते हैं। चलिए आठ घण्टे में से और निकाल डालिए चार घण्टे मटर गस्ती के लिए मान लीजिए, यहाँ खड़े हो गये, वहाँ खड़े हो गये, ताश खेल लिये बच्चों के लिए सामान खरीद रहे हैं। इसी के चार घण्टे और भी निकाल लीजिए। अब चार घण्टे तो आदमी निकाल सकता है। कौन ऐसा है जो चार घण्टे नहीं निकाल सकता। इसका उपयोग कहाँ सीखा लोगों ने, समय की कीमत कहाँ सीखी लोगों ने, बस याद रख ली, हम यहाँ चल दिये, यहाँ बैठे, यहाँ पड़े, आदमी की आधी जिन्दगी—तीन चौथाई जिन्दगी ऐसे ही कूड़े-कबाड़ी की तरह खर्च हो जाती है।

आदमी अगर समय का उपयोग करना सीख लिया। आलस्यहीन जीवन सीखे और एक-एक मिनट का ठीक तरह से इस्तेमाल सीखे। तो हम लोग इतना काम कर सकते हैं। सौ गुना ज्यादा काम कर सकते हैं। जैसे अपने जिन्दगी में इतना साहित्य लिखा। संगठन किया। क्या किया, क्या नहीं किया? लोग इसे कोई जादू कहते हैं और चमत्कार, देवता की सिद्धि कहते हैं, मैं कहता हूँ कोई सिद्धि नहीं है। यह केवल इस बात की सिद्धि है कि समय को आदमी किस तरह से खींच सकता है और एक मिनट पर हावी कैसे हो सकता है और एक-एक मिनट के लिए जो काम किया जाय उसको पूरी मनोयोग और दिलचस्पी के साथ करने के कारण वो थोड़े समय में कितना बेहतरीन किस्म का हो सकता है। बस यही चमत्कार हैं। यही मोटे सिद्धान्त हैं। मोटे सिद्धान्तों को कार्यरत कर लीजिए। आप भी ऐसे ही चमत्कारी बन सकते हैं। जैसे मैंने विद्या प्राप्त कर ली, साहित्य लिख लिया, कोई भी बन सकता है। किसी के लिए न बन्धन है न किसी के लिए रोक। चमत्कार हर आदमी के लिए है।

आज आदमी ढीला, आलसी, निकम्मा, प्रमादी, यहाँ बैठा, वहाँ बैठा, यहाँ दिन काटा, वहाँ वक्त काटा। ये जिन्दगी को काटना बहुत ही बुरी बात है। इसीलिए मैं ये निवेदन कर रहा था कि मनुष्य के पास जो आठ घण्टे बच जाते हैं। उसमें से चार घण्टा मुस्तैदी के साथ समाज की सेवा के लिए लगा दें। और ५० करोड़ मनुष्य चार घण्टा समय लगाने लगे तो २५ करोड़ लोकसेवी पैदा हो जाते हैं, जो २५ करोड़ आदमी विषपान करने के लिए भी, ईश्वर की सेवा के लिए काफी हैं। चार घण्टे का वक्त किस तरीके से सेवा कार्य में खर्च किया जाय। इसका एक छोटा सा उदाहरण अपने शत सूत्री योजना में है। कोई न कोई आदमी ये कसम खा ले कि मुझे समाज की सेवा करनी ही है। अपने जीवात्मा को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए ईश्वर की पूजा और क्या हो सकती है। समाज की सेवा के अलावा मैं पूछता हूँ कि ईश्वर की सेवा और क्या हो सकती है? कोई सेवा नहीं। और ईश्वर का भजन क्या हो सकता है? आत्म चिन्तन? आत्म चिन्तन और आत्मशोधन और आत्म-निर्माण और आत्म विकास के लिए आदमी एकान्त में बैठता है। समझ में आ गया। लेकिन ईश्वर की खुशामद करना, और बहुत सारे आवरण लाद देना, क्या मतलब है? ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वरवृत्ति है। और भावनाओं का परिपोषण करने के लिए आदमी को विश्व मानव की सेवा ही करनी पड़ेगी और कोई तरीका नहीं।

विश्व मानव की सेवा करने के लिए आदमी को कोई कार्यक्रम नियत निर्धारित करना चाहिए और ये देखना चाहिए कि हम समय का कितना अंश खर्च कर सकते हैं। पैसा आदमी के पास में न हो, तो कोई हर्ज की बात नहीं। आदमी के पास समय इतना कीमती है और भावनाएँ इतनी कीमती हैं कि इस समय और भावना का ही आदमी ठीक तरह से इस्तेमाल कर सके, समाज के लिए इतना अनुदान दिया जा सकता हैं, जो करोड़ों रुपयों के कीमत से ज्यादा है। अगर हम लोग चाहें और हम पढ़े-लिखे लोग चाहें तो अपने इस बचे हुए सेवा वाले समय में से हम क्या दो घण्टे रात्रि पाठशाला नहीं चला सकते। हाँ हम चला सकते हैं। चला सकते हैं। दो घण्टे हमारे पास फुरसत का नहीं है, हाँ है, हमारे पास, अगर हम चाहें तो उसे लगा सकते हैं।

एक आदमी एक रात्रि पाठशाला चलाने का समय दे, जिस तरीके से हमारी योजनाओं के अन्तर्गत केवल साक्षरता ही नहीं, साक्षरता के साथ विचारक्रान्ति और ज्ञानयज्ञ और सही ढंग से सोचने के तरीके सिखाने के लिए यदि विद्यालय स्थापित किये जायें, उन विद्यालयों को अपने मोहल्ले में गली में, कस्बे में गाँव में इकट्ठा किया जा सकता है। और छोटी उमर से लेकर बड़े बूढ़ों तक के इस मामले में सब बच्चे हैं। आज कल हमारे यहाँ सब बच्चे लोग रहते हैं। एक भी जवान आदमी नहीं है। जवान आदमी होते तो मजा आ जाता। सब बिना पढ़े-लिखे लोग रहते हैं, एक भी पढ़ा आदमी नहीं। पढ़े आदमी रहे होते तो अकल नहीं होती क्या? जिन्दगी के बारे में कुछ समझ नहीं होती क्या, जिन्दगी के बारे में जरा भी समझ नहीं है इनको। बिना पढ़ा-लिखा कौन कहेगा और जो आदमी ठीक से विचार करना नहीं जानते तो जिन्दगी को उत्कृष्ट जीवन जीने और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पालन करने की भावना नहीं है उनको दुबारा आदमी कौन कहेगा। बच्चा ही कहा जायेगा। बिना पढ़े-लिखे कहा जाएगा। बिना पढ़े और बच्चे, छोटे उमर के भी और बूढ़े उमर के भी, और बिना पढ़े भी पढ़े-लिखे भी, दोनों एक ही किस्म के लोगों में आते हैं। और इन लोगों को शिक्षित बनाने के लिए विद्यावान् बनाने के लिए हमें रात पाठशाला की सख्त जरूरत है और हर जगह रात्रि पाठशाला चलाई जानी जानी चाहिए। भले ही हमारे पाठशाला में पढ़ने के लिए न आये हमारी धर्मपत्नी तो शामिल हो ही सकती है। हमारे बच्चे तो शामिल हो ही सकते हैं।

हमारे माँ-बाप और भाई-बच्चे तो शामिल हो ही सकते हैं। उन्हें पढ़ायें, सिखायें और समझायें। यही शान की बात है। और अपनी तो रात पाठशाला में भेजना इतना आकर्षक है, उसमें तो बिना पढ़े-लिखे लोगों के लिए कथानकों को जोड़ दिया गया है, सरस बना दिया गया है, कि हम दो घण्टे क्या 4 घण्टे भी किस्से कहते रहें, कहानियाँ कहते रहें, और शिक्षा देते रहें और उनको बात बताते रहें, तो आदमी चल नहीं सकता है, हट नहीं सकता, टस से मस नहीं हो सकता। बैठा ही रहेगा और ऐसे कहेगा। दो घण्टे कम है, क्या मजेदार बात कह रहे थे, ऐसी कथा कहानियाँ हमको रोज सुनाइए ना, भाई साहब और ज्यादा कहिए। इस तरीके से एक काम ये है कि हमको रात्रि पाठशालाओं के माध्यम से प्रौढ़ पाठशालाओं के माध्यम से साक्षरता का प्रचार करना चाहिए और साक्षरता के साथ-साथ मनुष्य के जीवन की समस्याओं के समाधान करने वाली विचारणाओं को देने का प्रयत्न करना चाहिए।

देव मन्दिर पुस्तकालय

एक सेवा नं एक। सेवा नं २ जैसा कि अभी-अभी ज्ञान यज्ञ के अन्तर्गत कहा गया था, हमको एक देव मन्दिर हर जगह स्थापित करना चाहिए। देव मन्दिर वह नहीं है, जिसमें पत्थर की मूर्तियाँ रखी गई हैं, देव मन्दिर वह है, जहाँ ज्ञान रखा हुआ है, ज्ञान जहाँ रखा हुआ है, असली भगवान का मन्दिर उसी को कहते हैं। ज्ञान मन्दिरों में, मन्दिरों में यदि मुझसे पूछा जाय तो मैं एक ही तरह के मन्दिर का सम्मान कर सकता हूँ, उसका नाम हो सकता है पुस्तकालय और पुस्तकालय भी वो, जहाँ श्रेष्ठ किस्म की पुस्तकें रखी गईं हों। दुनियाँ में सन्त, महात्माओं का एसेन्स निकाल कर, धर्म ग्रन्थों का एसेन्स निकालकर के, भगवान की विचारणाओं का एसेन्स निकालकर के, एक ही जिस लेबोरेटरी में रखा गया है, उसका नाम है पुस्तकालय। रवीन्द्रनाथ टैगोर अब नहीं हैं, और उनकी कविताओं का कवित्त हमारे लिए सुरक्षित नहीं है? मीरा बाई अब जीवित नहीं है, तो क्या उनके कविताओं का कवित्त हमारे लिए जीवित नहीं है? सूरदास से लेकर तुलसीदास तक और रैदास से लेकर कबीर दास जी तक, और सुकरात से लेकर अफलातून तक, ईसा मसीह से लेकर अमुक तक महामानव इस विश्व में हुए हैं, जिन्होंने विश्वमानव के लिए अनेक अनुदान दिये हैं, एक से एक बढ़िया ज्ञान दिया। उन सारी की सारी ज्ञानों को एक जगह शीशी में रख करके जिस जगह पर रखा उस देव मन्दिर का नाम है पुस्तकालय, पुस्तकालय मानवजाति के लिए सबसे बड़ी सेवा है।

दूसरा पुस्तकालय से बड़ा मन्दिर हो ही नहीं सकता कहीं, क्योंकि उसके अन्दर जीवित ज्ञान रखा हुआ है। और ज्ञान, ज्ञान मानव जाति के लिए सबसे बड़ी सम्पदा है। ज्ञान जिस जगह पर रखा हुआ है, उस जगह पर सारे की सारे ऋषि बैठे हुए हैं। महात्मा बैठे हुए हैं। रात को २ बजे जरूरत पड़ती है हमको तो पुस्तकालय खोल लेते हैं, किताब खोल लेते हैं। किताब लेकर पढ़ना-लिखना शुरू देते हैं और हम रवीन्द्रनाथ टैगोर से सत्संग कर रहे हैं। और मरे हुए महात्मा गाँधी से रात को १ बजे सत्संग करना हो, चार घण्टे करना हो तो उनकी पुस्तक खोल लीजिए और महात्मा गाँधी जी से ऐसे ठीक १ बजे बात शुरू कर दीजिए और चार घण्टे जारी रखिये।

ये सत्संग की आवश्यकता सब पुस्तकालय पूरी कर सकते हैं और कोई पूरी नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता इस बात की थी कि ये अभागा देश जिसकी बौद्धिक गुत्थियाँ बुरी तरह से पूरी तरह से उलझी हुई पड़ी हैं उनके गाँव-गाँव, घर-घर, मोहल्ले-मोहल्ले पुस्तकालय स्थापित कर दी जायें और पुस्तकालय स्थापित करने के लिए और पैसे की जरूरत हो तो संकलन किया जाय। और पैसा की जरूरत न हो तो कम से कम अपना शारीरिक श्रम, घर-घर जाया जाय जैसे कि चल पुस्तकालय के बारे में बताया गया था। पुस्तकालय अगर कोई स्थापित करें। उसकी महत्ता लोगों को समझाये जाएँ ऐसी गाय जैसे कि दूध के बारे में कहा गया था। गाय के दूध का महत्त्व पहले समझाना पड़ेगा। तब गाय की रक्षा होगी। इसी प्रकार से ज्ञान का महत्त्व और ज्ञान की उपयोगिता लोगों को समझानी पड़ेगी तब उसको लोग पसंद करेंगे। ये काम करने के लिए पुस्तकालय स्थापित किये जाएँ और ऐसे आदमी उस पर नियुक्त किये जायें जो लोगों में आकर्षण पैदा करें। जबरदस्ती थोपें। रुचि पैदा करें। ऐसे पुस्तकालय स्थापित करना हर देश को, राष्ट्र को उठाने के लिए महती आवश्यकता है। इसके पश्चात, इसके पश्चात सेवा के माध्यमों में क्या-क्या आते हैं। व्यायामशालाओं की बहुत आवश्यकता है।

हमारे गाँव-गाँव, घर-घर, मोहल्ले-मोहल्ले में आदमी काहिल होता चला जाता है। कमजोर होता चला जाता है। आलसी होता चला जाता है। अब तो घरों में बाथरूम कम्बाइन्ड होने लग गये हैं। आदमी को हिम्मत या दम नहीं कि घर में से—कमरे में से उठे। पूजा करता है, उसके बाहर ही पेशाब कर लेता है। पेशाब भी उसी चारपाई में करना चाहता है। इतना आलसी हो गया है। इतना शरीर ढीला हो गया कि आलस्य आदमी के शरीर के अन्दर बना रहा तो थोड़े ही दिनों में आदमी को रोटी चबाने के लिए, रोटी खाने की मशीनें लगाना पड़ेगी, रोटी चबी-चबाई पेट में डालनी पड़ेगी। टट्टी करने के लिए मशीन लगानी पड़ेगी, आदमी चारपाई पर पड़ा-पड़ा टट्टी कर लिया करे। आदमी कैसा ढीठ और आलसी होता चला जा रहा है। इस आलसी आदमी को परिश्रमी और उद्योगी बनाने के लिए व्यायामशालाओं की खेलकूद की बात को फिर से जागृत करना पड़ेगा। कीर्तिवान आदमी को बनाना पड़ेगा और मजबूत आदमी बनाना पड़ेगा। इसके लिए ये कार्य का शिक्षण करने के लिए जिन संस्थाओं की आवश्यकता है, उन संस्थाओं का नाम व्यायामशाला नहीं हो सकता क्या? हाँ हो सकता है।

सर्वोपयोगी व्यायामशाला

व्यायामशाला, इसमें जरूरी नहीं है कि दण्ड बैठक ही लगाया जाय अनेक तरह के खेलकूद हो सकते हैं। बच्चों के लिए अलग, बच्चियों के लिए अलग, बूढ़ों के लिए अलग, आसन जैसी बहुत सी चीजें हो सकती हैं। और मिलेट्री ट्रेनिंग जैसी कवायद जैसी बात हो सकती है, लाठी चलाने की बात हो सकती है। हथियार चलाने की बात हो सकती हैं। इससे गुण्डा-गर्दी का दमन होगा। गुण्डे और बदमाश इसीलिए भागते हुए चले जाते हैं कि आदमी को ये मालूम पड़ता है कि हमारा कोई मुकाबला करने वाले नहीं हैं। बहादुर लोग दुनियाँ में नहीं हैं। सारे की सारे गाँव में कायर और नपुंसक लोग रहते हैं। और सब लोग बीमार और बेकार लोग रहते हैं। इसलिए एक गाँव में दो गुण्डे आते हैं और सारे बढ़िया आदमी के नाक में नकेल डाल देते हैं, और सारे के सारे गाँव वालों को उल्लू बना देते हैं। सारे गाँव पर हावी हो जाते हैं। ये कायर लोग हैं, नपुंसक लोग हैं, कमजोर लोग हैं, और क्या नाम है। क्या-क्या लोग हैं। कोई दम नहीं है, बिल्कुल बेदम के आदमी है। अगर आदमी को ये मालूम पड़े कि दमदार आदमी रहते हैं और किसी को छेड़ा गया खबर ली जा सकती है, तो दुनियाँ में जो आधे अपराध और गुण्डा-गर्दी अपने आप समाप्त हो सकती है। व्यायामशालाएँ ये काम पूरा कर सकती हैं। गुण्डा-गर्दी पर रोक लगा सकती हैं। आदमी की हिम्मत नष्ट हो गई है और शारीरिक क्षमता जो नष्ट हो गई है, और आदमी कमजोर और काहिल हो गया, इन सारी की सारी बस्तियों को और जो आदमी बीमार होता चला जा रहे है, अपनी काहिली और कमजोरी की वजह से उनको नियंत्रण करने के लिए, दूर करने लिए व्यायामशालाओं का बहुत महत्त्व हैे। बाकी अगर अखाड़ा ही हो, दण्ड पेलना ही सिखाया जाय। स्वास्थ्य का शिक्षण, स्वास्थ्य की रक्षा, आदमी की हिम्मत और मनोबल की वृद्धि। इसके लिए क्लास भी चलाये जाते हैं और बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के लिए हरेक लिए शारीरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए अनेक तरह की शिक्षण भी दिया जा सकता है, अखाड़े भी हों, खेल-कूद भी हों, खेल-कूद की प्रतियोगिता भी हों, दंगल हों इस तरह की साधन सामग्री, संस्थाएँ गाँव-गाँव में स्थापित की जा सकें, तो मजा आ जाये। शिक्षा के बारे में मैंने कहा—और व्यायामों के बारे में मैंने कहा—

वृक्षों पर टिका है जीवन का अस्तित्व

एक और भी बात है जो सुनी जाती है वो अन्न की समस्या और खाद्य पदार्थों की समस्या है और भोजन की समस्या है। अपने देश में से पेड़-पौधे और हरियाली भी दिनों दिन कम होती चली जा रही है। उसका परिणाम यह हो रहा है कि वर्षा कम हो रही है। पेड़ कटते जायेंगे, वर्षा घटती जायेगी। यह मोटा वैज्ञानिक सिद्धान्त है। आप पेड़ों को काट डालिए, जैसलमेर जैसा प्रान्त यहाँ पेड़-पौधे नहीं होते है। पेड़ों में वो आकर्षण है, जो वर्षा के बादलों को खींच कर ले आते हैं। और पेड़ों में वो आकर्षण है जो आक्सीजन पैदा करते हैं, और मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य सम्वर्धन करते हैं। पेड़ भी मनुष्य के सहयोगी हैं। पेड़ों को लगाया जा सकता है। एक बिहार जिला में हजारी बाग जिला है, वहाँ का एक किसान, किसी ने यह कह दिया बाग लगा दो उसकी सन्तान हो जायेगी बस उसने सौ पेड़ आम के लगाये, आम के पौधे बढ़ते गये, जब उसके नीचे छाया आने लगी और बच्चे फल खाने लगे और सारे गाँव को आम मिलने लगे तो बहुत खुशी हुई। उनने कहा, बेटा हुआ तो क्या, न हुआ तो क्या, आम का लगाना, आम के बगीचे का लगाना अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। बस उसके दिमाग में ऐसी अपेक्षा और तरंग उत्पन्न हुई और सारे जिले के लिए खड़ा हो गया और गाँव-गाँव जाके बिना पढ़ा किसान और गरीब किसान और ये कहने लगा, मैंने आम का बगीचा लगाया मुझे बहुत खुशी हुई, मेरे गाँव के सब बच्चों को आनन्द आया। वहाँ खेलने को जगह मिल जाती है और उसकी ठण्डक में सारे गाँव के लोग जा बैठते हैं। आपको भी आम का बगीचा लगाना चाहिए। लोगों ने उत्साह दिखाया तो स्वयं लगाने लगा, स्वयं पानी लगाने लगा गाँव के लोग फिर उत्साहित हुए, जब लोग सम्हालने लगे तो वहाँ से दूसरे गाँव में लगाने लगा। हजार बाग, हजार आम के बाग लगाये, उसका नाम हजारी बाग हो गया, हजारी बाग जिला इस बात का सबूत है, इस बात की परम्परा लिये बैठा है, किसी जमाने में एक ही किसान ने अपनी जिन्दगी में सहयोग दे कर के लोगों के साथ मिलजुल करके लोगों को आन्दोलन के रूप में प्रोत्साहित करके बिहार के उस जिले में हजारों आम के बाग लगवाये थे और सारे के सारे जिले को हरा−भरा कर दिया था। आदमी के मन में सेवा की बुद्धि, सेवा की वृत्ति आये तो बिना पढ़ा किसान ये काम कर सकता है कि जहाँ जंगल पड़े हुए हैं, जहाँ खाली जगह पड़ी हुई है, जहाँ वीरान जगह पड़ी हुई है, वहाँ फल लगवाये और पेड़ों की गुंजाइश न हो तो हम अपने मकान में, घरों में अपने आँगन में शाक-वाटिका लगा सकते हैं, और अपनी खाद्य समस्या के हल में योगदान दे सकते हैं। मिट्टी की नाँदें, टूटे हुए घड़े, गमले, लकड़ी की पेटियाँ, कहीं भी रखी जा सकती हैं। पक्के मकानों में भी, जहाँ खेती बाड़ी की गुंजाइश भी नहीं।

लखनऊ में एक हमारे मित्र हैं, उन्होंने अपने पक्के मकान की छत के ऊपर २० लकड़ी की पेटियाँ रख लीं, और उसमें मिट्टी और गोबर मिलाकर भर दिया, उसमें साग-भाजी बोई, ६ महीना के लिए पूरी शाक-भाजी उसी से पैदा करते गये, हमारे कुटुम्ब में तीन चार रुपये का रोज साग आता था, हम तीन चार रुपये की रोज बचत कर लेते है। तीन चार रुपयेकी बचत अर्थात १०० रुपये महीना और १०० रुपये महीने उनको सात आठ महीने साग मिलती रही तो वो सात आठ सौ रुपये कमा लिया। और साथ ही अन्न की कमी थी उसकी बचत कर ली और पौष्टिक आहार प्राप्त कर लिया। ये भी एक सेवा है, अपने गाँव में बच्चों की तरीके से, पशु−पक्षियों की तरीके से फल और फूल लगें, और साग लगें तो क्या बुरा है, जिन-जिनके घरों के आसपास थोड़ी जमीन खाली पड़ी रहती है, और अक्सर थोड़ी बहुत जमीन खाली पड़ी रहती है, उनमें साग लगा सकते हैं, लौकी लगा सकते, प्याज लगा सकते हैं, गोभी लगा सकते हैं। न जाने क्या लगा सकते हैं, अपने घर की साग-भाजी की समस्या हल कर सकते हैं और न केवल बचत कर सकते हैं। बल्कि अपने शरीर के लिए अच्छा खाद्य और आवश्यक खाद्य भी मुहैयाकर सकते है। साग उगाने वाली बात और फूल लगाने वाली बात हँसते हुए, मुस्कुराते हुए प्रकृति के बालक, जो हमको उल्लास दे सकते हैं, हमको खुशबू दे सकते हैं, हमको बल दे सकते हैं ये फूलों की भी आवश्यकता है, फूल पैदा करने के लिए हम अपने आँगन में गमले लगायें, फूलों के बीज इकट्ठा करें गाँव में जायें, लोगों से कहें, फूलों के पैकेट हम मँगायें, और फूल बोने की व्यवस्था हम बनायें और शाक−भाजी की बीज इकट्ठे कर लें, बिना की कीमत से दें, अथवा कीमत से दें। लोगों से कहें, हम आपकी मदद करना चाहते हैं, फूल लगाना चाहते हैं, दो आने का पैकेट है, एक फूल का पौधा लगाइये न। इस तरीके से साल के छोटे-छोटे से काम हैं, सेवा, हम इस तरह के काम करना शुरू करें, तो हमारे देश में हजारी बाग की तरह से कितनी छाया पैदा हो सकती है, लकड़ी पैदा हो सकती है, और वृक्षों में अपनी भाई और बहिन फूल-पौधों के तरीके से उनको बढ़ाने के लिए बहुत काम किया जा सकता है। जैसा काम बताया है, काम आदमी कर सकता है अगले समय की एक महती आवश्यकता।

व्यापारी नहीं, सेवाभावी बनें

व्यापारी समाज के हित के लिए व्यापार नहीं चलाता, केवल अपने हित के लिए काम करता है और हर क्षेत्र में बेईमानी पैदा होती हुई चली जा रही है। खास तौर से खाद्य पदार्थों के सम्बन्ध में, जीवन मरण का प्रश्न है। हम मसाले खरीदते हैं, लाल मिर्च खरीदते हैं गेरू मिला हुआ है, हल्दी खरीदते हैं पीली मिट्टी मिली हुई है। धनिया खरीदते हैं, घोड़े की लीद मिली हुई है। जीरा खरीदते हैं जवारे किस्म का जो छिलका मिला होता है, हर चीज दवा-पानी से लेकर कोई भी चीज सही मिल नहीं पाती, दूध सही मिल नहीं पाता, घी हमको सही मिल नहीं पाता, तेल हमको सही मिल नहीं पाता, अच्छा चावल और अच्छा गेहूँ मिल नहीं पाता, खाद्य पदार्थ तक मिल नहीं पाते, हरी चीजों की बात क्या कही जाय, और जो चीजें मिलती हैं वो घटिया किस्म की मिलती है। साबुन खरीद कर लाइये, उसकी नकल ही पैदा हो गयी, सनलाईट साबुन की नकल ले आई असली सनलाईट साबुन मिलती है १०० गुना नकली साबुन मिलता है। लाइफ ब्वाय साबुन ले आइए, दुकानदार का इन्ट्रेस्ट इन बात में रहता है जहाँ से नकली चीजें मिलें, सस्ती चीजें मिलें, वहाँ से ले लें और ग्राहक को भेज दें ताकि वो मालदार जल्दी हो जाये, चाहे ग्राहक का कितना भी नुकसान क्यों न हो जाये। अब दुकानदार की बेईमानी पर अंकुश लगाना होगा। और इसका समाधान भी करना पड़ेगा। अपनी खाद्य पदार्थों के लिए स्वावलम्बी भी होना पड़ेगा। ये कार्य गाँव के लोग एक सहकारी समितियाँ बनायें और सहकारी समितियों के माध्यम से इस तरह की व्यवस्था करें। अच्छी और स्वस्थ वस्तुएँ गाँव वालों की देख−भाल में, पंचायत की कमेटी में और अध्यक्षों के देख−भाल में कमीटी देख−भाल में बनाई जाये और एक ऐसा ईमानदार आदमी नियुक्त किया जाये जो अच्छी चीजें और सही चीजों, अच्छी चीजों की गारण्टी तो हुई, अच्छी चीजों की गारण्टी तो हुई उसके मुश्किलें दूर करने के लिए उनको रखने के लिए एक रास्ता तो खुला, जीवनोपयोगी वस्तुएँ जो कभी ब्लैक में चली जाती हैं, कभी कहीं चली जाती हैं व्यापारी समय देकर चौगुनी दाम कर लेता है, कभी क्या कर देता है, कभी खराब चीजों को सस्ते दामों में बेच देता है। सारी के सारी मुसीबतों से दूर पाने के लिए, इससे छुटकारा पाने के लिए गाँव के कॉपरेटिव स्टोरों की आवश्यकता है, अगले दिनों व्यापार का विस्तार होने वाला है वह सहकारिता के माध्यम से होगा, समाजवाद आयेगा तो वह सहकारिता के माध्यम से आयेगा। सहकारिता की वृत्तियों को विकसित करने के लिए छोटे-छोटे कोआपरेटिव सोसायटियाँ, कोआपरेटिव स्टोर-समितियाँ हमको खोलनी चाहिए। इसके लिए गवर्नमेंट लोन देती है, इससे पैसे की व्यवस्था और भी सरल हो जाती है। इन कामों को कराये जाना और भी सरल हो जाता है। हमको हर गाँव में कोआपरेटिव स्टोर खोलना चाहिए। कोआपरेटिव व्यवस्था को बढ़ाने के लिए खाद्य पदार्थों से प्रारम्भ करके कपड़े तक, गाँव वालों की अन्य चीजों को पूरा करने के लिए सुई-धागे से लेकर साबुन और तेल तक कोआपरेटिव स्टोर में जमा कर लेनी चाहिए। फिर देखना चाहिए एक आदमी का खर्चा कितना निकलता है। हर आदमी की आवश्यकता आपूर्ति भी होती रहे, परस्पर सहयोग करने का माद्दा और परस्पर सहयोग करने की वृत्ति विकसित होती रहे। क्या ऐसी कोआपरेटिव आवश्यक नहीं हैं, हाँ ऐसी कोआपरेटिव स्टोरों की बड़ी आवश्यकता है। और वो सारी की सारी जगह जगह कोआपरेटिव सोसायटी खुलने लगें तो मजा आ जाये। इसी के साथ में एक और भी चीज सेवा की जुड़ जाती है, और वह है ग्रामोद्योग।

ग्राम उद्योग—कुटीर उद्योग स्थापना

एक और भी चीज सेवा के लिए आती और वह है ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योग। हम ग्राम उद्योग और कुटीर उद्योगों की स्थापना करके अपने गाँव वालों के, नगर वालों के, बेकार आदमियों के आजीविका में खुशहाली में सहायक हो सकते हैं, और इस तरह के गृह उद्योग के चलाये जाने की आवश्यकता है, बहुत कुछ गुंजाइश है। शेखावटी में दो उद्योग की मुझे याद आ गई, मारवाड़ी गृह उद्योग सोसायटी कलकत्ता में दो उद्योग को उस क्षेत्र में फैला दिया है, एक उद्योग है पापड़ तैयार करना, और दूसरा उद्योग है जनेऊ तैयार करना। पापड़ों का मारवाड़ी स्टाइल में खाये जाने का रिवाज़ है, कलकत्ता में मारवाड़ियों की संख्या भी ज्यादा है। पापड़ का एक गृह उद्योग ठीक ढंग से विकसित करके और सारे के सारे जिले को जिसमें विधवाएँ भी शामिल हैं, बच्चा भी शामिल है, कुँवारी कन्याएँ भी शामिल हैं, बुढ़िया भी शामिल हैं, हरेक को थोड़ा काम करने का मौका मिल जाता है और हरेक को थोड़ी आमदनी मिल जाती है। और थोड़ी-थोड़ी आमदनी मिलाकर के हर आदमी में स्वावलंबन की भावना पैदा हो जाती है। दो पैसा जेब में होते है। तो उसमें दान पुण्य करने से लेकर के खर्च करने तक, स्वास्थ्य सम्वर्धन से लेकर के घूमने-फिरने मनोरंजन तक के लिए गुंजाइश मिल जाती है। उनमें खुशहाली पैदा होती है, स्वावलम्बन पैदा होता है। कलात्मक दृष्टि का विकास होता है, और हरामखोरी से बचाव करने की वृत्ति पैदा होती है। इस तरह से पापड़ के उद्योग लगते हैं। जनेऊ तो लोग पहनते ही हैं हाथ से कता हुआ सूत और हाथ से बना हुआ सूत और उसके द्वारा हाथ से गाँठ लगा के यदि जनेऊ बनाये जायें तो उससे कितने आदमियों को काम मिल सकता है। मैंने मूल्य की बात बताई। सही अर्थों में उद्योगों का विकेन्द्रीकरण किया ही जाना चाहिए। बड़े-बड़े मिल और आटोमैटिक मशीनें जो हजारों मनुष्य के श्रम को खा जाती है। उनका मुकाबला करने में मालूम पड़ता है कि बड़ा मुश्किल है लेकिन कुटीर उद्योग के लिए किया जाय साथ में दो रुपये की ग्राहक और मेन्टेनेंश और मशीनों की टूट-फूट और गवर्नमेन्ट के टैक्स वगैरह जो लाख रुपयों का जो खर्चा आता है, हम कुटीर उद्योगों को उनके मुकाबले में खड़ा कर देंगे। हमारे कपड़े देहात में बनाये जाने लगें तो मशीनों के मुकाबले में बहुत ही सस्ते में बन सकते हैं। इस तरह की चीजें पैदा की जा सकती हैं।

स्वस्थ प्रतिस्पर्धाएँ—प्रतियोगिताएँ

प्रतियोगिताएँ चालू करके भारतीय बहुत सा काम कर सकते हैं। वाद-विवाद की प्रतियोगिता, संगीत की प्रतियोगिता, खेलकूदों की प्रतियोगिता, बच्चों को स्वस्थ रखने की प्रतियोगिता, पशु किसका अच्छा है और कौन ज्यादा दूध देता है। अनेक तरह की प्रतियोगिताएँ हैं। मनुष्य में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा कर सकता है, और एक सम्मेलन, एक पुस्तक का भाव पैदा करने लोग आते हैं, तमाशबीन तमाशा देखते हैं लेकिन उसमें से अच्छा साबित करने वाले लोग ये भी करते हैं। इसके लिए ये भी एक अच्छी समाज की सेवा है कि हम समाज के लिए अच्छे काम करने के लिए प्रतियोगिता, पुरस्कार देने के लिए मेले लगायें और आदमी के अन्दर उत्साह पैदा करें कि हमको बढ़-चढ़ कर जीवन को विकसित करने वाले कार्य करने चाहिए।

लोक संगीत का युग संगीत में रूपान्तरण

इसी प्रकार से संगीत, कला का विकास। ये भी बड़े महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, इसके लिए अन्तरंग को छुआ जा सकता है। हर गाँव में संगीत जानने वाले लोग होते हैं, उन संगीत जानने वाले लोगों को वो चीजें दी जायें, जो आज के युग के लिए आवश्यक है। विचारकों के पास विचार नहीं है, संगीतकार को किसी ने जो सिखा दिया वो सीख लिये। कीर्तन करना सिखा दिया, तो सीख गये। पान खाओ फूल खाओ और खाओ मेवा। पान कहाँ से खायें बाबा पान भी १० पैसे का आता है, मेवा तेरे सिर में से खायें, पैसे होंगे तो खायेंगे, तू खा जा। खाओ और अपने पैसे से खाओ, बेकार की बात है काहे खराब करता है अपनी अकल। इस तरह से बेसिर-पैर की तरह गाना गाते रहते हैं, गाने की हविस को पूरा करने के लिए और वो राधा और श्री कृष्ण के गीत गाते रहते हैं, कामुकता भड़काने वाली, उनके स्थान पर गायकों को इस तरह के विचार दें जो मनुष्य के चरित्र को ऊँचा उठाते हों और लोक सेवा की भक्ति उत्पन्न करते हों तो मजा आ जाये। गाँव-गाँव जाना चाहिए और ऐसे संगीत को एक संघबद्ध करना चाहिए और ऐसी मण्डलियाँ बनानी चाहिए और उनका ऐसा नियंत्रण करना चाहिए, कि उनको नये-नये गाने गाने चाहिए तब कोई बात बने। संगीत का शौक पैदा किया जाये। नाट्य और अभिनय का शौक पैदा किया जाये। अब तो आदमी भागता है सिनेमा के लिए भागता है। सिनेमा के अलावा और कोई मनोरंजन रहा ही नहीं। अगर हम चाहें तो ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रम जिसमें मनोरंजन का पुट दिया हुआ हो और शिक्षा का भी पुट दिया हुआ हो। छोटे स्तर पर एकांकी नाटक खेली जा सकतीं है, छोटे-छोटे ड्रामा कमेटियाँ बन सकती हैं, लीला और अभिनय किया जा सकता है। जिससे आदमी को अपनी कोमल भावना का विकास करने का मौका मिल सकता है। मनोरंजन के लिए गुंजाइश रहती है और लोकशिक्षण की व्यवस्था भी बन जाती है। ये सब आसानी से किया जा सकता है।

गन्दगी—एक अभिशाप

गन्दगी एक अभिशाप है हमारे समाज का। अभिशाप ही नहीं है राष्ट्र का अपव्यय है, हमारे राष्ट्र का मल और मूत्र की समस्या इतनी बड़ी है हिन्दुस्तान जैसे देश में, जिसमें मल और मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता, जापान में अपने देश में खाद की समस्या का मनुष्य की मल को इस्तेमाल किया जाता है। आदमी का टट्टी का थोड़ा भी भाग जापान में बरबाद नहीं होता, आदमी की टट्टी और पेशाब को बिल्कुल खाद के रूप में बदल दिया जाता है और वहाँ फर्टीलाइज़र कारखानों की कोई जरूरत नहीं पड़ती। खाद्य की समस्या के पश्चात मनुष्यों का मल इतना ज्यादा है, इतना ज्यादा है अब पशुओं से भी ज्यादा मनुष्यों के हैं। मनुष्यों से पशु कम है, मनुष्यों का मल और पशुओं का मल जो कि देहात में जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ फैला सड़ता रहता है। बिखरा फैलता रहता है, पड़ा रहता है उसका कोई उपयोग नहीं होता, उसका कोई लाभ नहीं होता। उस बिना उपयोगी और बिना लाभ के पदार्थ को जब लाभ का बना सकते हैं तो देश में सोना फैला सकते है। यदि हम गाँव की सफाई रखने लगें, सफाई से दो फायदे हैं।

सफाई से दो फायदे

स्वास्थ्य लोगों के खराब होने लगते हैं। एक इग्लिश हिन्दुस्तान में आया था। उसने अपनी डायरी में लिखा है, उसमें ये लिखा है—जब मैं नाक में देखता रहता हूँ बदबू किधर से आती है, जंगल में खड़ा होकर देखता हूँ कोई गाँव जाना होता है तो बदबू आती है और जिधर से बदबू आती है उसी के सामने चल देता हूँ और गाँव मिल जाता है। बदबू का केन्द्र तो होना ही चाहिए, हमारे गाँव, जहाँ पेशाब और टट्टी के निकासी की कोई गुँजाइश नहीं है। और जहाँ मल और टट्टी, इतने आदमी गाँव में रहते हैं, उसके लिए कोई खर्च करने की, गाँव वालों के लिए खर्च करने की व्यवस्था नहीं है, वहाँ बदबू नहीं आयेगी तो और क्या होगा, बीमारी नहीं होगी तो वहाँ क्या होगा, गन्दगी नहीं होगी तो वहाँ क्या होगा, गन्दगी न होगी तो और क्या होगा। लोग मलीनता के आदी न होंगे तो क्या होगा। आज हमारा ग्रामीण जीवन ऐसा ही है अस्त व्यस्त है, गन्दगी उसके रोम-रोम में समा गई है। चूहे भी वहीं रहते हैं, आदमी भी वहीं रहते हैं, बच्चे भी वहीं टट्टी करते रहते हैं। इस गन्दगी के विरुद्ध हमें लोहा लेना चाहिए।

सभ्यता कहाँ से शुरू होती है? सफाई से शुरू होती है। अगर जो आदमी साफ कपड़ा नहीं पहन सकता, मानना चाहिए सभ्य नहीं है, और जिसका मकान साफ नहीं है वह सभ्य नहीं है, उसको भी किताबों को यथा स्थान नहीं रखता, जिस घर में चप्पलें दूसरी चीजें, बर्तन साफ-साफ नहीं रखे जाते वह सभ्य नहीं है, यह मानना चाहिए? सभ्यता का शिक्षण उनको सफाई से शुरू करना चाहिए, और सफाई से शुरू करके गाँव में ऐसे व्यवस्था बनानी चाहिए, ऐसे वालेन्टीयर भर्ती करनी चाहिए, ऐसा आन्दोलन खड़ा करना चाहिए कि व्यक्ति को न केवल अपना घर अपने पड़ोस का घर, अपनी गली कूचे एकाध घण्टे समय निकाल कर साफ कर लेनी चाहिए। और जो गोबर, जानवरों का गोबर, ऐसे ही फेंक दिया जाता है, धूप में डाल दिया जाता है, कण्डे बनाकर जला दिये जाते है, राष्ट्र के सोने और हीरे जैसे कीमती चीज को नष्ट कर दिया जाता है, इसके लिए समझाया जाना चाहिए, छोटे-छोटे गढ्ढे बनाये जायें, गढ्ढों में जानवरों का गोबर जमा किया जाय, उसके ऊपर कम्पोष्ट की विधि से बढ़िया खाद बनायी जाय, जो सोने के बराबर है और सोना उगा सकता है, हमारे खेतों में गोबर जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है, गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले दरवाजे-दरवाजे पर कीचड़ फैलाता रहता है, वहाँ एक स्थान बनाया जाये, क्या यह सेवा नहीं है? हाँ, यह सेवा है और मनुष्य जो अपनी टट्टी जहाँ-तहाँ फेंकते रहते हैं, और जहाँ-तहाँ गन्दगी करते रहते हैं। स्त्रियाँ निकलती हैं और गाँव के दीवारों के सहारे टट्टी करने बैठ जाती हैं और गाँव के आसपास का वातावरण सब गन्दा रहता है। मैं और क्या कहूँ, इसकी सफाई करने के लिए इस तरह के पाखाने ड्रेनेज़ बनाये जा सकते है उसमें गढ्ढा खोदा जा सकता है और उसमें लकड़ी का एक ढाँचा खड़ा किया जा सकता है और लोग उसमें टट्टी जायें, मिट्टी भर दें एक खेत में दूसरे हिस्से में गाड़ दिया जाय, लोग बाग टट्टी जायँ ढाँचे में शरम भी बनी रहे, स्त्रियाँ और मर्द जहाँ-तहाँ नंगे बैठ जाते हैं, आदमी निकलते रहते हैं, गन्दगी देखते रहते हैं, नग्नता देखते रहते हैं, किसी का पिछला हिस्सा दिखता है किसी का अगला हिस्सा दिखता रहता है। शरम आती है और बड़ी डूब मरने की बात है, इन सब बातों को आसानी से दूर नहीं किया जा सकता क्या, हाँ साहब एक-दो घण्टे मेहनत करने से सब बात बन जाती है। क्या पेशाब घर घरों में नहीं बन सकती, हर जगह बन सकती है, लोग नहाते हैं गलियों में रात में पेशाब करते हैं, गलियों में बच्चे पेशाब कर देते हैं, रात को उठते हैं, सब गलियों में पेशाब। पेशाब की बदबू आती है, किसी का पेशाब किसी को बीमार भी बना सकता है, छोटे पेशाबघर हर जगह बन सकते हैं, मिट्टी डालकर के, चूना डालकर के, ऐसे सूखने वाले गड्ढे हर जगह बन सकते हैं, इससे सफाई भी रह सकती है, और आदमी को सुविधा भी रह सकती है।

टट्टी घर ऐसे भी बन सकते हैं, जिससे कि मनुष्य का मल खेती-बाड़ी के काम आ जाय, और खाद का काम आ जाये। इसके साथ-साथ ऐसा भी हो सकता है, कि आदमी के हाथ में, एक हाथ में खुरपी लें और एक हाथ में लोटा, खुरपी में कितना वजन होता है। जहाँ जाये गढ्ढा खोद लें, गढ्ढे पर टट्टी करें उसके बाद मिट्टी डालें, खाद भी बन जायेगा गन्दगी भी नहीं फैलेगी, अशोभनीयता भी नहीं बनेगी, बदबू भी नहीं फैलेगी। इस तरह के आन्दोलन न जाने कितने आन्दोलन हैं, खड़े किये जा सकते हैं, इन सब बातों के बारे में शत सूत्रीयोजना अपनी है। उसमें सौ तरह के सूत्रों के बारे में यह बताया गया है, और यह बताया गया है, शारीरिक सेवा के अनेक काम भरे पड़े हैं, हर आदमी को काम देना, अपंगों को काम देना न जाने कितने काम है, अगर आदमी के मन में सेवा की वृत्ति हो, तो हर जगह शिक्षा से लेकर के गृह उद्योगों तक और सफाई से लेकर लोक शिक्षण तक और संगीत से लेकर न जाने कितने काम ऐसे हैं, जो रचनात्मक कार्यों की श्रेणी में गिने जा सकते है। और सेवा बुद्धि जिनके अन्दर है वो अपनी सेवा भावना को परिष्कृत करने के लिए थोड़ा समय इसमें लगा सकते है, सम्पन्न आदमी थोड़ा पैसा दे सकते है। लोगों का थोड़ा-थोड़ा धन और लोगों का थोड़ा-थोड़ा श्रम मिलने लगे तो श्रमदान के आधार पर न जाने क्या से क्या कर सकते हैं, सड़कें बना सकते हैं, नहरें बना सकते हैं, ग्राम पाठशालाएँ बना सकते हैं, पंचायतें बना सकते हैं और न जाने क्या से क्या कार्य करा सकते हैं और जो समय, समय हमारे गप्पों में नष्ट हो जाता है, अगर हम गप्पों वाली और आराम हरामखोरी वाले समय को ठीक तरीके से उपयोग करना सीख पाये और सेवा की वृद्धि कर पाये, हमारा समय वो कार्य कर सकता है जो कि दूसरों ने किया और वे समर्थ कहलाये, गवर्नमेंट के कार्य से काम चलने वाला नहीं है। हमें स्वयं अपने कदमों पर खड़ा होना पड़ेगा। और अपनी सेवा वृत्ति के द्वारा राष्ट्र का नया निर्माण करना पड़ेगा।

जिन लोगों ने ज्ञान पाया, ज्ञान सीखा उसकी परीक्षा यही है, क्या सेवा की बुद्धि की प्रगट उनके अन्दर हुई, और सेवा की वृद्धि का कार्य उन लोगों ने शुरू किया, समझना चाहिए उनका ज्ञान प्राप्त करना ठीक है, ज्ञान रामायण पढ़ना ठीक, प्रवचन करना ठीक और सेवा की बुद्धि नहीं आयी तो समझना चाहिए कि केवल ज्ञान भर सीखा बीज, तो बोया, पर कोई पौधा उत्पन्न न हो सका, हमारे ज्ञान को सार्थकता की ओर, हमारे ज्ञान को कर्म की ओर, हमारे ज्ञान को कर्म में अर्थात सेवा में विकसित होना ही चाहिए।

आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥