विवाह शादियों में हमारा दृष्टिकोण साफ रहे

विवाह दो आत्माओं का मिलन और एक अभिनव परिवार का सृजन है । यह अत्यंत ही उत्तरदायित्व पूर्ण कदम है । दो निर्जीव वस्तुएँ मिलकर तो उनकी संख्या दो होती है, पर दो सजीव और समान स्तर की वस्तुएँ मिलने से एक-एक मिलकर ग्यारह बनने की उक्ति अंकगणित और मानव विज्ञान के अनुसार सर्वथा सही सिद्ध होती है । पति और पत्नी का घनिष्ट सहयोग मिलकर एक ऐसी शक्ति उत्पन्न करता है, जिसके सहारे दोनों जीवन धारा मिलकर एक नये प्रकार का, नई अनुभूतियों और नई संभावनाओं से भरा संगम उत्पन्न करता है ।

किन्तु यह संभव तभी है जब उसका शिलान्यास सही ढंग से किया गया हो । गलत रीति से पिया गया अमृत भी विष हो जाता है । गलत उपयोग करने पर तो अपना चाकू अपने लिए ही प्राणघात का निमित्त बन जाता है । यही बात विवाह के संबंध में भी लागू होती है । उसके लिए उपयुक्त जोड़ा, उपयुक्त परिस्थिति और उपयुक्त वातावरण का होना उतना ही आवश्यक है जितना किसी पौधे के लिए खाद, पानी और संरक्षण । इन बातों का ध्यान रखे बिना न तो पौधे फल-फूल सकते हैं और न विवाह सफल हो सकते हैं ।

किसी बच्चे के बारे में उसके विवाह की बात सोचते समय सबसे पहले यह देखने की आवश्यकता है कि क्या वह उस गुरुतर जिम्मेदारी को वहन कर सकने के योग्य हो गया ? यदि भली प्रकार ठीक जानने के उपरान्त उत्तर हाँ में मिलता हो तो ही उस बात को आगे बढ़ाना चाहिए । इस संदर्भ में सबसे पहली बात है शारीरिक और मानसिक परिपक्वता । इसके अभाव में मनुष्य स्वयं दूसरों पर आश्रित रहता है । अपना, अपने जोड़ीदार का और नये बच्चों का भार वहन करना अपरिपक्व स्थिति में नहीं हो सकता । यदि फिर भी दुराग्रह पूर्वक उसे उस बंधन में जकड़ दिया जाय तो इससे सभी को सब प्रकार हानि होती है । तब विवाह वरदान न रह कर अभिशाप बन जाता है ।

छोटी उम्र के लड़की-लड़के इस उत्तरदायित्व को अपने कंधों पर उठा सकने में सर्वथा असफल रहते हैं, वे इस भार के नीचे अपने हाथों अपने को बेतरह कुचल लेते हैं । शारीरिक दृष्टि से लड़कियाँ अठारह वर्ष की और लड़के बाईस वर्ष के होने के पश्चात ही वे काम-क्रीड़ा के योग्य बनते हैं, इससे पूर्व शरीर का विकास क्रम चलता रहता है । यदि विकास पूरा होने से पहले विवाह कर दिया जाय तो जो शक्ति शरीर को परिपुष्ट करती है वह क्रीड़ा-कौतुक में नष्ट होने लगती है । इसका भयंकर प्रभाव लड़के-लड़कियों के स्वास्थ्य पर पड़ता है और जन्म भर के लिए रुग्ण-दुर्बल बन जाते हैं । अनेक बार तो भयंकर यौन रोग भी उनके गले जीवन भर के लिए बँध जाते हैं । यह दुर्बलता और रोग अगली पीढ़ियों को भी नहीं छोड़ते । ।

जोड़े का चुनाव करने में आजकल रंग-रूप को प्रधानता दी जाती है । यह नितान्त उथली दृष्टि है । इससे वैवाहिक जीवन की सफलता-असफलता से तनिक भी संबंध नहीं है । गुण, कर्म और स्वभाव परखा जाना चाहिए । शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गृहस्थ का भार उठा सकने की क्षमता, जैसी कसौटियों पर उपयुक्त जोड़े तलाश किये जाने चाहिए । जो लड़के रंग रूप वाली वधू तलाश करते हैं, उनके साथ अपनी लड़की विवाहना खतरे से खाली नहीं है । उनका मनचलापन कभी भी इधर-उधर फिसल सकता है और लड़की की जिन्दगी बर्बाद हो सकती है ।

विवाह की रस्म बहुत ही सादगी से पूरी करनी चाहिए । यह दो व्यक्तियों का—दो परिवारों का एक परम पवित्र मिलन है । जिसे धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में पूर्ण सादगी एवं सात्विकता के साथ सम्पन्न किया जाना चाहिए । इसमें पैसे की होली फूँकने की जरुरत नहीं है । संसार भर में हर दिन लाखों विवाह होते हैं, पर वे सभी एक छोटे घरेलू उत्सव के रूप में सादगी के साथ पूरे हो जाते हैं । अकेले भारत का हिन्दू समाज ही विवाहोन्माद के रोग से ग्रसित है । यहीं लोग पागलों की तरह इस अवसर पर जीवन भर की कमाई की होली जलाते और कर्जदार बनते हैं ।

विवाहों की इन मूढ़ता पूर्ण परंपराओं से बचने के लिए हर परिवार में वातावरण बनाया जाना आवश्यक है । प्रगतिशील बात महिलाओं के गले देर से उतरती है । पिछड़ी स्थिति में रहते-रहते हमारी महिलाओं की पिछड़ी मनःस्थिति, अन्ध-विश्वासों, मूढ़-मान्यताओं एवं प्रतिगामी परम्पराओं के रूप में जकड़ गई हैं । उन्हें अपना बड़प्पन प्रतिगामी परम्पराएँ अपनाये रहने में ही प्रतीत होता है । बुढ़ियाएँ एक-दूसरे का समर्थन करके एक पूरा बुढ़िया पुराण ही गढ़ देती हैं । प्रगतिशीलता का पग-पग पर परम्पराओं की दुहाई देकर विरोध करती हैं । इस गरम दूध को पीना और उगलना दोनों ही प्रकार से भारी पड़ता है । समझाने से मानती नहीं और उलटा सिर पीटती हैं । इनके साथ निपटना है तो बड़ी टेड़ी खीर पर जिद्दी बच्चों को जिस तरह बहका-फुसला कर आग्रह पर से ध्यान बँटा कर रास्ते पर लाया जाता है, उनके साथ भी कुछ ऐसी ही तरकीब निकालनी चाहिए ताकि साँप मरे और न लाठी टूटे । वे अधिक रुष्ट क्रुद्ध भी न हों और साथ ही अवांछनीयता अपनाने पर जो हानि उठानी पड़ती है उससे भी बचा जा सके ।

भारत में विवाहों से सम्बन्धित अलन-चलन एक और मुसीबत बने हुए हैं । वर और कन्या पक्षों द्वारा समय-समय बरते जाने वाले 'अलन-चलन' कितने मँहगे और कितने निरर्थक होते हैं इसे हर कोई जानता है, उनका औचित्य भी कुछ नहीं है, पर उन्हें बुढ़िया पुराण के दबाव से अपनाना पड़ता है । जहाँ तक हो सके इन मामलों में आदेश एवं आग्रह मानने की अपेक्षा बच निकलने की बात ही सोचनी चाहिए ।

लड़के की शादी में दहेज की तरह लड़की की शादी के समय जेवर चढ़ावे का मोह भी छोड़ा जाना चाहिए । जेवर के मोह से धन की कितनी बर्बादी होती है यह किसी से छिपा नहीं है । उतना धन बैंक में रखा गया होता तो ब्याज मिलता । चोर-डाकुओं से सुरक्षा और अहंकार-ईर्ष्या से बचाव भी रहता । जेवर पहनने में सौन्दर्य नहीं, वरन् फूहड़पन है यह बात महिलाओं को समझाई जा सके तो इस निरर्थक प्रयोजन से राष्ट्र की जो भारी बर्बादी होती है, उससे सहज ही बचा जा सकता है ।

आज सर्वत्र चोरी, चालाकी, बेईमानी, रिश्वत्, भ्रष्टाचार, मिलावट, कम तोल, कम नाप जैसे आर्थिक अनाचारों का बोलबाला है । इसका एक बहुत बड़ा कारण विवाहों में होने वाले अपव्यय की पूर्ति के लिए किसी भी प्रकार धन जुटाने की विवशता भी है । प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों का विवाह करना चाहेगा । पर जब वह बिना प्रचुर धन खर्च किये हो ही नहीं सकता तो उसे नैतिक मर्यादाएँ तोड़कर अनैतिक उपार्जन का मार्ग अपनाना पड़ता है । इससे व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर इतनी समस्याएँ जकड़ लेती हैं, जिनमें उलझ कर प्रगति और समृद्धि और सुख-शान्ति की सारी संभावनाएँ समाप्त करनी पड़ती हैं ।

औसत परिवार इन खर्चीले विवाहों में अपनी आर्थिक व्यवस्था चौपट कर डालते हैं, एकदम निचुड़ जाते हैं । घर का निर्वाह ही मुश्किल हो जाता है, बच्चों की शिक्षा, दवा-दारू, आतिथ्य सत्कार, दान-पुण्य आदि का दरवाजा ही बंद सा हो जाता है । अर्थाभाव में कृषि अथवा व्यापार के साधन न जुट पाने से हानि पर हानि होने लगती है ।

जिनके घर में भी कुछ नहीं है—बेईमानी से कमाने का अवसर भी जिनके पास नहीं है, मिल सके तो वे भारी ब्याज पर कर्ज लेते हैं और उसे चुकाते-चुकाते बर्बाद हो जाते हैं । चुका नहीं पाते तो तिरस्कार सहते हैं, लज्जित होते हैं हर किसी की दृष्टि में जलील बनते हैं । अगले बच्चों के विवाह में तो नया कर्ज मिलने की संभावना ही समाप्त हो जाती है ।

जो कर्ज पाने या भ्रष्टाचार करने में सफल नहीं होते उनकी लड़कियाँ अविवाहित रह जाती हैं या फिर ऐसे बुड्ढे, बीमारों के गले मढ़ दी जाती हैं, जिनके यहाँ जाकर जन्म भर उन्हें रोते-कलपते दिन बिताने पड़ते हैं ।

इस दयनीय दुर्दशा उत्पन्न करने वाली परले सिरे की मूर्खता से हमें बचना चाहिए और इस भ्रष्ट परम्परा को अपनाने से इन्कार करने का साहस भरा निश्चय पहले से ही कर लेना चाहिए । बच्चों को समझा देना चाहिए कि यदि शालीनता और सज्जनता को अपनाने वाले लोग कहीं मिलेंगे तो उन्हीं के साथ संबंध जोड़ा जायगा अन्यथा यदि सारा समाज मोहान्ध हो चुका हो तो फिर विवाह करके उस दुष्टता को और अधिक बढ़ाने से क्या लाम ? इससे अच्छा तो अविवाहित रहना ही है । बच्चे यदि यह बात सुनते-समझते रहेंगे तो यदि भ्रष्ट परम्परा अपनाये बिना विवाह होना संभव न होगा तो भी वे अविवाहित रहकर जिन्दगी काट लेने के लिए तैयार रहेंगे ।

विचारशील लोगों को समय की स्थिति को समझते हुए बिना खर्च का सादगी पूर्ण रीति से विवाह आयोजन करने का सुदृढ़ निश्चय करके चलना चाहिए । जब अपना लड़का विवाह योग्य हो, हमें उस उत्सव के अवसर पर किसी प्रकार का दहेज स्वीकार नहीं करना चाहिए । यदि कोई अपनी लड़की को कुछ विदाई उपहार देना चाहता है, तो वह विशुद्ध स्त्री धन के रूप में दे सकता है किन्तु उसका प्रदर्शन तनिक भी न किया जाय । जो दिया गया है, उसे लड़की की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाय । ऐसे उपहार तो नव वधू को सुसराल वाले भी दे सकते हैं, किन्तु वे भी अहसान जताने या मान-बड़ाई पाने के लिए उसका प्रदर्शन न करें ।

बहुमूल्य वस्त्र आभूषण चढ़ाने, सजधज की बरात लाने, बाजे आतिशबाजी आदि में पैसा उड़ाने की कोई उपयोगिता नहीं । इसे कन्या पक्ष अस्वीकार करे और कहे इस प्रकार गरीबों के लिए अमीरी का स्वांग दिखाना किसी भी पक्ष का सम्मान नहीं बढ़ाता है । इसमें ओछेपन का उद्धत प्रदर्शन है, साथ ही दोनों पक्षों की बर्बादी । अस्तु बुद्धिमत्ता का तकाजा यही है कि उसे अस्वीकार कर दिया जाय ।

लड़के वाले दहेज और लड़की वाले बरात एवं जेवर को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये रहेंगे तो विवाहोन्माद का सर्वभक्षी असुर कभी भी नहीं मरेगा । इसे दोनों पक्षों के समान सहयोग से ही नष्ट किया जा सकता है । दहेज बन्द हो और जेवर, बरात जारी रहें यह नहीं हो सकता है । दहेज तो मिले पर बेटी वाले की "शोमा" के लिए पैसा पानी की तरह न बहाना पड़े ऐसा भी नहीं हो सकता । एक पक्ष मूर्ख रहे और दूसरा आदर्शवादी भी बन जाय और नफा भी उठा ले ऐसा भी नहीं चलेगा । दोनों पक्षों को विवेक और भलमनसाहत का परिचय देना होगा । सीधे-साधे ढंग से दस-पाँच आदमी बेटी वाले के घर पहुँचें । सज्जनोचित हँसी-खुशी का मिल-जुल कर साथ रहने का उत्सव रहे और धर्म परम्परा के अनुसार विवाह कृत्य सम्पन्न हो और लड़की विदा हो जाय । न कोई प्रदर्शन, न धूम-धाम, न लेन-देन । इसी प्रकार की परम्परा चलाने की आवश्यकता है । महिला जागरण अभियान के सदस्यों और सभ्यों को अपने बच्चों का विवाह इसी रीति-नीति को अपना कर करना चाहिए ।

कुछ धूम-धाम करनी हो तो वधू के घर आने पर लड़के वाले इस उपलब्धि की प्रसन्नता में अपने घर पर कुछ कर सकते हैं । सामूहिक विवाह गायत्री यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलनों के साथ होने का प्रचलन फैला फैलता जा रहा है । इससे बढ़ कर उत्सव, उल्लास एवं प्रदर्शन का अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता, इसलिए यदि वैसा मन हो तो विवाह को उस स्तर के सार्वजनिक आयोजन का रूप देना चाहिए । ऐसे विवाह एक साथ कई-कई हों तो उससे समाज में नई चेतना उत्पन्न होगी और नई परम्परा चल पड़ेगी । उत्सव अभीष्ट हो तो उसका ऐसा ही रूप बनाया जाना चाहिए ।

विवाहों की विकृति की प्रतिक्रियाओं का शिकार महिला समाज को ही अधिक होना पड़ रहा है । लड़कियों, बहुओं के तिरस्कार का यह प्रधान कारण है । हर महिला इस पीड़ा को भोग चुकी होती है, फिर भी दूसरी बहिन-बेटियों के प्रति निष्ठुर बन जाती हैं । स्वाभाविक तो यह है कि पीड़ित व्यक्ति, पीड़ित के प्रति सहानुभूति रखता है, पर यहाँ तो उलटी बात हो रही है । स्त्रियों के लिए उचित यह था कि लड़की के प्रति तिरस्कार और लड़के के प्रति पक्षपात के अनौचित्य में वे पीड़ित पक्ष का न्यायोचित समर्थन करतीं । कम से कम खुद तो उस अनीति में सम्मिलित न होतीं । लड़की के जन्म को दुर्भाग्य का सूचक मानना, उन्हें हेय दृष्टि से देखना, उनके लिए हर बात में कृपणता बरतना, उपेक्षा करना, तिरस्कार करना, पुरुष तो कहते ही हैं स्त्रियों को वैसा नहीं कहना चाहिए । उनकी सहज सहानुभूति लड़की के लिए होनी चाहिए । वधू में नारी है, किसी नारी में ही लड़की है । वह भी अपने बाप के घर उपेक्षित रही होगी । इन प्यार के प्यासे बालकों का, पुरुषों का उत्पीड़न सही पर स्त्री को—माँ और सास की सहानुभूति तो मिलनी ही चाहिए, पर जब उधर से भी उपेक्षा, अवज्ञा और प्रताड़ना मिले तो यही कहा जा सकता है कि दाँत भी जीभ को काटने लगे । कम से कम यह दुहरा अत्याचार तो नहीं ही होना चाहिए । लड़कियों को नारी पक्ष से तो स्नेह-सम्मान और सहानुभूति मिलनी ही चाहिए ताकि वे धूप से संतप्त स्थिति में कम से कम एक अंचल में तो छाया पा ही सकें ।

प्रचलित खर्चीली शादियों की परम्परा तोड़ने का हममें से प्रत्येक को पक्का निश्चय कर लेना चाहिए । जब विवाह आवश्यक हों, तब उसी मान्यता के परिवार ढूँढ़ने चाहिए । दोनों पक्ष एक दूसरे पर अनावश्यक भार डाले परस्पर स्नेह-संबंध बनाने का प्रयत्न करेंगे तो ही उनके बीच सद्भावना स्थिर रह सकेगी, अन्यथा कमर तोड़ भार से नष्ट होने वाला पक्ष आजीवन कलपता-कोसता रहेगा और उत्पन्न हुई रोष-प्रतिशोध की खाईं कभी भी पट नहीं सकेगी ।

महिला जागरण अभियान के सदस्यों को अपना दृष्टिकोण इस संबंध में बिलकुल स्वच्छ करना चाहिए । अपने प्रभाव क्षेत्र में वैसा ही परामर्श देना और दबाव डालना चाहिए । भ्रष्ट परम्परा अपनाने वालों को प्रोत्साहन एवं समर्थन तो किसी भी प्रकार नहीं देना चाहिए ।