कैसे होगा समन्वय, विज्ञान और अध्यात्म का?

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

विकासक्रम में आज हम कहाँ जा पहुँचे हैं, आइए जरा इस पर विचार करें। विज्ञान के इस युग में आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व का व्यक्ति यदि कहीं हो और वह आकर हमारी इस दुनिया को देखें तो कहेगा कि यह कितने अचम्भे की दुनिया है, यह भूत-पलीतों की दुनिया है। यदि वह सड़कों पर, रेलपटरियों पर जाएगा तो वहाँ से भाग खड़ा होगा, क्योंकि लोहे की पटरियों पर भागने वाली रेलगाड़ियाँ और आसमान में उड़ने वाले हवाईजहाज पुराने-जमाने के लोगों के लिए अचम्भे की बातें थीं। दिल्ली से बोलने वाला व्यक्ति इन्दौर में बैठे हुए व्यक्ति से ऐसे बातें करता है जैसे वह सामने ही बैठा हो। आज के इस विज्ञान की प्रगति के क्या कहने? उसने टेलीविजन से लेकर न जाने क्या-क्या बना लिया है? एक जमाना था जब तीर-कमान से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थीं और जब आदमी के शरीर में तीर चुभ जाता था तो उसे निकालने के लिए घोड़े की पूँछ से रस्सी बाँध दी जाती थी और घोड़े को भगा दिया जाता था, तब कहीं जाकर तीर बड़ी मुश्किल से शरीर से बाहर निकलता था। व्यक्ति बच गया तो बच गया—मर गया तो मर गया। पुराना जमाना था। आज मेडिकल साइंस ने—सर्जरी की साइंस ने न जाने क्या से क्या चमत्कार दिखा दिये शरीर के भीतर की चीजें दिखाने से लेकर निकाल बाहर करने तक के कितने चमत्कार विज्ञान ने कर दिखाये हैं। यह मनुष्य की बुद्धि का चमत्कार है—विज्ञान का चमत्कार है। यह हमारा जमाना वैज्ञानिक चमत्कारों का जमाना है।

पिछली शताब्दियों में मनुष्य ने जो प्रगति की और जो विकास किया उसकी तुलना में आज की दुनिया कुछ मायने में बहुत आगे है। संसार के बारे में कहा जाता है कि इसको बने हुए दस लाख वर्ष हो गये। इन दस लाख वर्षों में ऐसा वक्त कभी नहीं आया जैसा कि आज हमारे और आपके सामने सुख और सुविधाओं से भरा हुआ है। टेक्नालॉजी और बौद्धिक दृष्टि से हमारा युग और समय कितना प्रगतिशील और समृद्धिशाली है, कहा नहीं जा सकता। पिछले दिन प्रगति के दिन तो नहीं थे, अवसाद के दिन थे, लेकिन गिरावट के दिन तो नहीं ही थे। मनुष्य इतना नीचे कभी भी गिरा नहीं था जितना कि वह आज गिरता हुआ चला जा रहा है। शरीर की दृष्टि से इतना खोखला वह कभी नहीं हुआ जितना कि वह आज हो गया। आज हमारे लिए एक मील चलना भी मुश्किल हो जाता है। सवारी अगर हमारे पास न हो तो हम किस तरीके से चल सकते हैं? अपनी अटैची और होल-डाल लेकर किस तरीके से स्टेशन से घर तक पहुँचा सकते हैं? यह बहुत मुश्किल है हमारे लिए। हमारे बुजुर्ग कैसे थे? मैंने अपने नाना जी को आँख से देखा था जब वे चालीस मील तक सफर करते थे और पूर्णमासी के दिन गंगाजी नहाने जाया करते थे। उन्होंने जवानी के दिनों से ही ये कसम खायी थी कि मैं पूर्णमासी के दिन गंगा जी नहाने अवश्य जाया करूँगा। चालीस मील दूर हमारे गाँव से गंगा है। हमारे नाना जी सबेरे सफर करने के लिए निकलते थे और रात में ही गंगाजी जा पहुँचते थे। सबेरे स्नान किया और वहाँ से रवाना होकर चालीस मील दूर शाम को घर आ जाते थे। अस्सी मील का दो दिन का यह सफर आज हमारे लिए मुश्किल है, आज हम नहीं चल सकते। शारीरिक दृष्टि से हम दुर्बल होते हुए चले गये।

दाम्पत्य जीवन जिसमें कि सुख और सौभाग्य की गरिमाएँ रहती थीं और सन्तोष की धाराएँ बहती थीं। जहाँ राम और सीता हुआ करते थे। जहाँ एक-दूसरे के प्रति निष्ठा और विश्वास का क्या कहना? रामायण में एक प्रसंग आता है, जब लव-कुश ने देखा कि हनुमान जी और लक्ष्मण जी अश्वमेध के घोड़े को लिए चले जा रहे हैं तो उन्होंने पूछा आप लोग कौन हैं? उत्तर मिला—मैं लक्ष्मण हूँ और मैं हनुमान हूँ। उन्होंने कहा—आप वही लोग हैं, जिन्होंने हमारी माँ को जंगल में वनवास में अकेला और असहाय छोड़ दिया था। लक्ष्मण ने आँखें नीची कर लीं। बच्चों ने कहा अच्छा तो हम अब आपको मजा चखाते हैं। बस लव-कुश ने हनुमान जी को पकड़ लिया और उनकी पूँछ पेड़ से बाँध दी। लक्ष्मण जी को भी पकड़ा और एक रस्सी से पेड़ से बाँध दिया और माँ के पास गये। माँ से कहा—माँ! तो यही वे आदमी हैं, जिन्होंने आपको जंगल में अकेला छोड़ दिया था। माँ! हम इनको अब मजा चखाते हैं। माँ ने कहा—नहीं बच्चो! ये तुम्हारे पिता के भाई हैं और तुम्हारे पिता के प्रति मेरी कितनी गहन निष्ठा है, तुम नहीं जानते मुझे वनवास में किसलिए छोड़ा गया? संसार के इतिहास में दाम्पत्य जीवन के आदर्श उपस्थित करने के लिए। तुम्हारे लिए यह मुनासिब नहीं कि अपने बुजुर्गों का अपमान करो, इनको छोड़ देना चाहिए। राम ने जब मुझे वनवास भेजा था, तब भी उनका मन—मेरा जीवन, मेरा स्वरूप और मेरे आदर्श विश्व के सामने एक अभूतपूर्व उदाहरण रखने का था। उन्होंने कष्ट उठाये तो क्या, पर पुराने जमाने के दाम्पत्य जीवन की आज के हमारे दाम्पत्य जीवन की तुलना नहीं हो सकती। आज जिसकी आग में सारा विश्व जल रहा है। यूरोप जल चुका, अमेरिका जल चुका और वही आग धधकती हुई हमारे हिन्दुस्तान की तरफ बढ़ती चली आ रही है। रूप का भूखा मनुष्य, धन का भूखा मनुष्य, सैक्स का भूखा मनुष्य, दाम्पत्य जीवन के महान आदर्शों को भूलता हुआ चला जा रहा है और सारी दुनिया में एक तहलका मचता चला जा रहा है। श्मशान के तरीके से मनुष्य जलता चला जा रहा है। हर वक्त लम्बी-चौड़ी प्रेम की चिट्ठी लिखी जाती रहती है और लम्बे-चौड़े आश्वासन दिये जाते रहते हैं; लेकिन यकीन नहीं होता किसी स्त्री को कि छह महीने बाद हमारे गृहस्थ जीवन का क्या होगा? इसी तरह किसी मर्द को यकीन नहीं होता कि छह महीने बाद हमारे गृहस्थ जीवन का क्या होगा? लम्बे-चौड़े प्रेम-पत्रों को लिखे जाने के बावजूद हर मनुष्य इतना अशान्त होता हुआ चला जा रहा है।

अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में जहाँ हमारे बच्चे भाग करके वहाँ न जाने क्या-क्या सीखने जाते हैं? वहाँ कि जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन वहाँ का दाम्पत्य जीवन व गृहस्थ जीवन इतना जटिल और घटिया होता चला जा रहा है। आदमी के मस्तिष्क पर टेन्शन ही टेन्शन सवार रहता है। सारी रात वहाँ आदमी को चैन नहीं पड़ता। ट्रेंक्युलाइजर की गोलियाँ खाकर लोग रात गुजारते हैं। ब्लडप्रेशर, हार्टडिसीज, डायविटिज न जाने क्या-क्या बीमारियाँ घेरे रहती हैं? खाने की चीजों का ठिकाना नहीं। मेरा एक मित्र है, वहाँ इन्जीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाता है, कहता है—हम पानी नहीं पीते, यहाँ बराबर फलों के जूस की बोतलें आती रहती हैं और सारे दिन हम पानी की जगह पर फलों का जूस पीते रहते हैं। पहले आदमी सूखी रोटी खाकर के सुख-चैन की साँस लिया करता था और विश्वास दिलाया करता था कि हम सुखी लोगों में से हैं, पर अब हमारा दाम्पत्य जीवन न जाने कैसा है? हमारे गार्हस्थ्य जीवन में न जाने कैसी लग गई आग? हमारे बच्चे अभिभावकों के प्रति जैसे निष्ठावान होने चाहिए थे, नहीं हैं। अब श्रवणकुमार की सिर्फ कहानियाँ हैं। ये चाहें तो आप पढ़ सकते हैं; चाहें तो आप सुन सकते हैं। आपको श्रवणकुमार देखने का सौभाग्य अपने घर में अब नहीं मिल सकता। आपको रामायणकाल की कहानी किताब में पढ़नी चाहिए, पर आपको ये उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि आपके घर में बच्चे राम और सीता जैसे हों। पर पिता का मन सन्देह से भरा हुआ पड़ा है कि हमारे पाँच बच्चे हैं, लेकिन बड़े होने पर न जाने क्या होगा? हमारा सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन, हमारा आर्थिक जीवन कितना जटिल और कितना जकड़ा हुआ बनता चला जा रहा है? विज्ञान की प्रगति के बावजूद, धन की प्रगति के बावजूद इनसान के लिए एक अजीब समस्या उत्पन्न होती चली जा रही है। इसे आपको समझना पड़ेगा, इस पर विचार करना पड़ेगा कि ऐसा आखिर क्यों है?

मित्रो! आप लोगों के ऊपर, नई पीढ़ी के ऊपर वो जिम्मेदारियाँ आ रही हैं, आयेंगी और आनी चाहिए। आप लोगों को व्यक्तिगत जीवन, राष्ट्रीय जीवन, सामाजिक जीवन और आर्थिक जीवन की कठिनाइयों को हल करना पड़ेगा। आप लोगों में से अधिकांश को वह रोल अदा करना पड़ेगा जो कि राष्ट्रीय जीवन और व्यक्तिगत जीवन को विकसित करने के लिए किया जाना चाहिए। जिम्मेदारियाँ अपनी जगह पर रहेंगी और इसके लिए श्रम बहुत करना पड़ेगा। आज राष्ट्र के सामने, व्यक्ति के सामने अनेकानेक समस्याएँ हैं, जो यह कहती हैं कि हमको हल किया जाए। किस तरीके से हल किया जाए मैं आपको एक छोटा-सा फार्मूला देकर जाना चाहता हूँ। आप लोगों में से किसी आदमी को खासतौर से विद्यार्थियों को अगले दिनों कुछ जिम्मेदारियों के वजन अपने कन्धे पर उठाने पड़ेंगे और आप लोगों को वे काम करने पड़ेंगे, जो कि राष्ट्र-निर्माताओं को करने पड़े हैं। तब आपको किस आधार पर व्यक्ति का निर्माण, समाज का निर्माण, राष्ट्र का निर्माण और आज की उलझी हुई समस्याओं को हल करने के लिए क्या करना होगा? इसके लिए एक फार्मूला यह है कि व्यक्ति को अपने अन्तःकरण में प्रवेश करना पड़ेगा। समस्याओं के हल बाहर नहीं, बल्कि भीतर तलाश करने पड़ेंगे। समस्याएँ बाहर से पैदा नहीं होतीं। समस्याएँ भीतर की हैं और बाहर दिखायी पड़ती हैं। आदमी अपने भीतर से समस्याएँ पैदा करता है और बाहरी जीवन में वे केवल प्रस्तुत हो जाती हैं। मेरे भीतर एक रूह काम करती है। मेरा एक तार काम करता है। वही काम कर रहा है भाषण वही दे रहा है, पुस्तकें उसी ने लिखी हैं, समाज के नवनिर्माण के ख्वाब उसी ने देखे हैं। बाहर जो भी क्रिया-कलाप आप देखते हैं, वह बाहर का नहीं है, मेरे भीतर के अन्तरंग-चेतना के हैं। समस्याओं के बारे में भी यही बात है। बीमारियाँ भी बाहर से दिखाई पड़ती हैं, बुखार बाहर से आया मालूम पड़ता है, खाँसी बाहर से खाँसने में दिखाई पड़ती है पर वस्तुतः वह भीतर से पैदा होती है।

समस्याएँ वे उलझनें हैं, जिन्होंने हमारे राष्ट्र को, समाज को, व्यक्ति को और सारे विश्व को जकड़कर रखा है। ये हमारे भीतर से पैदा हुई हैं। मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ कि जब आपको इनके समाधान ढूँढ़ने पड़ें, तो सिर्फ आपको बाहर की ओर ही नहीं, भीतर की ओर भी गौर करना चाहिए कि मनुष्य का व्यक्तित्व और समाज का अन्तरंग कहीं गड़बड़ तो नहीं हो गया। यदि गड़बड़ हो तो उसे सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। समाज की और व्यक्ति की उलझी हुई समस्याओं को हल करने के लिए बाहरी उपचार करना ही काफी नहीं है। इलाज की सामग्री ढूँढ़ी जानी चाहिए, रिसर्च की जानी चाहिए कि दवाइयों के द्वारा बीमारियों से छुटकारा कैसे पाया जाए? आदमी की सेहत को कैसे अच्छा बनाया जाए? लेकिन आपको ये भुलाना नहीं चाहिए कि अन्तरंग जीवन अगर सुव्यवस्थित न हो सका तो हमारे स्वास्थ्य की समस्या नहीं हल हो सकेगी।

सैण्डो का नाम आपने सुना होगा, जिसकी सैैैैण्डोकट बनियान अक्सर पहनी जाती है। अपने जमाने में वह यूरोप का एक ख्यातिप्राप्त पहलवान हुआ है। एक समय था जब पहलवानों में सैण्डो का नाम पहले लिया जाता था। अब तो दूसरे लोग भी हो गये हैं। बचपन में वह बीमार रहा करता था—सर्दी-जुकाम से पीड़ित रहा करता था। अपने पिता के साथ एक दिन वह म्यूजियम देखने गया। वहाँ पहलवानों की तस्वीरें देखकर पूछा—पिताजी क्या मैं भी पहलवान बन सकता हूँ? पिता ने कहा—हाँ! ये सुनकर जिज्ञासा भरे स्वर में सैण्डो ने कहा—पिताजी बताइये हमको पहलवान बनने, मजबूत बनने के लिए क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा—बेटे मजबूती के सारे आधार, दीर्घजीवन के सारे आधार मनुष्य के भीतर सन्निहित हैं, पर आदमी इस चीज को भूल गया है। आदमी अगर अपनी भूलों को सुधार सके तो बेहतरीन स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। बेटे! हमने अपना पेट खराब कर डाला। खुराक से ज्यादा खाकर और वे चीजें खायीं जो हमारे लिए मुनासिब नहीं थीं। इन्द्रियाँ हमारे लिए काम करने को थीं, पर हर इन्द्रिय के भीतर से हमने अपनी शक्ति का इतना हिस्सा खर्च कर डाला जितना कि पैदा नहीं होता था। हमने अपने दिमाग को इस तरीके से चिन्ताओं से, दूसरी चीजों से उलझाए हुए रखा कि हमारे स्वास्थ्य को नियन्त्रित करने वाला नर्वससिस्टम अस्त-व्यस्त हो गया। हम इन तीन बुराइयों को अगर दूर कर सकें तो लम्बी जिन्दगी जी सकते हैं और कोई भी आदमी पहलवान बन सकता है। पिजाजी! हमें दवा खाने की जरूरत नहीं है? उन्होंने कहा—नहीं बेटा दवाएँ तो सिर्फ बीमारियों को ठीक करने के लिए हैं। ये अस्थाई एनर्जी दे सकती हैं। किसी आदमी को मजबूत व दीर्घजीवी बनाने के लिए दवाएँ कारगर सिद्ध नहीं हो सकतीं। अगर दवा कारगर रही होती तो जितने भी डॉक्टर हैं, वे दूसरे लोगों का इलाज करने से पहले अपना इलाज करते और जनसामान्य से बेहतरीन एवं पहलवान दिखायी देते। सैण्डो ने स्वास्थ्य के उन नियमों का जिनको मैं अध्यात्म का अंश कहता हूँ पालन किया और पहलवान बना।

आप इसको संयम कहिए। शब्दों से क्या होता है? मुझे उसको अध्यात्म कहने दीजिए। जुबान का संयम, इन्द्रियों का संयम, मस्तिष्क की विचारधाराओं का संयम, उठने-बैठने का संयम और अपने आहार-विहार का संयम, अगर आदमी इतना कर सकता हो, तो उसकी सेहत ठीक की जा सकती है। पुराने जमाने में डॉक्टर भी नहीं थे। तब तो कोई-कोई हकीम जड़ी-बुटी, नीम की पत्ती और कालीमिर्च बताने वाले ही पाये जाते थे। इन्हीं से बीमारियाँ अच्छी हो जाती थीं। इन सारी वजहों में एक वजह ये है कि आदमी अपने आपको खोखला बनाता हुआ चला जा रहा है। आप नई पीढ़ी के लोगों में से सम्भव है किसी को राष्ट्र का स्वास्थ्यमन्त्री बनना पड़े। तो मैं आपसे एक निवेदन करके जाना चाहता हूँ कि चाहे आप अस्पताल खुलवाना, मेडिकल साइंस पर रिसर्च कराना, पर ये मत भूलना कि आदमी के स्वास्थ्य का मूलभूत आधार संयम ही होता है? जिसको हमने कई बार आध्यात्मिकता कहा है और पुराने लोग पुकारते थे—संयमशीलता! संयमशीलता लोगों को सिखायी जानी चाहिए। बेहतरीन स्वास्थ्य और स्वास्थ्य की समस्या का हल निश्चित रूप से इस बात पर टिका हुआ है कि आदमी अपने आहार-विहार, इन्द्रियों और अपने दिमाग के इस्तेमाल, पेट के इस्तेमाल के बारे में पुनः जाने, इनको ठीक तरीके से इस्तेमाल में लाएँ। आप लोगों को कभी स्वास्थ्यमंत्री बनना पड़े तो मेरे इस छोटे-से नाचीज फार्मूले को याद रखना।

एक अन्य दूसरी बात की ओर भी मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि हमारे कहने के अनुसार प्लानिंग की जाए और इसकी एक योजना बनायी जाए और हर आदमी को सिखाया जाए कि आपको गृहस्थ बनने से पहले सौ बार विचार करना चाहिए कि आप बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में समर्थ हैं या नहीं। आप अपनी पत्नी को वह स्नेह और प्यार देने में समर्थ हैं, जिसके आधार पर वह नन्हा-सा फूल, नन्हा-सा पौधा, जो आपके घर में आया है, उसके सर्वांगीण विकास पर ध्यान दे सकें। आपके अन्दर वह योग्यता है क्या? इनसान की खुराक अनाज नहीं, रोटी नहीं, दूध नहीं, ये सिर्फ जिस्म की खुराक है। आदमी जिस्म नहीं है। आदमी में शरीर के अलावा भी एक चीज है—जिसको जीवात्मा कहते हैं और रूह कहते हैं और वह जीवात्मा प्रेम की, मुहब्बत की प्यासी है। प्रेम और मुहब्बत धर्मपत्नी को नहीं मिल सके तो उसकी प्रतिक्रियाएँ गलत होती चली जाएँगी और हमारे घरों में वह निष्ठाएँ पैदा न हो सकेंगी जो कि छोटे-छोटे घरौंदों को छोटे-छोटे किराये के मकानों को ऐसा बेहतरीन बनाती हैं, जिस पर स्वर्ग न्यौछावर किया जा सके। दो आदमी का स्नेह एक और एक मिलकर ग्यारह हो सकते हैं। राम और लक्ष्मण मिलकर दो नहीं थे एक और एक ग्यारह थे। जानदार चीजें एक और एक दो नहीं होती, एक और एक मिलकर ग्यारह होती हैं—अगर उनके भीतर निष्ठाएँ हों और एक दूसरे के प्रति वफादारी हो। हमारे दाम्पत्य जीवन—हमारे गृहस्थ जीवन गरीबी में भी सुख के आधार बन सकते हैं और एक-दूसरे से इतना प्रसन्न-सन्तुष्ट रह सकते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं।

यूरोप में एक गरीब दम्पत्ति थे। विवाह का दिन आने वाला था। दोनों एक-दूसरे को उपहार देने के इच्छुक थे, पर साधन कैसे जुटाएँ? पति के दिमाग में बहुत दिनों से ख्वाब था कि अपनी स्त्री के सुनहरे रेशम जैसे बालों के लिए सोने की क्लिप लाकर दूँ और पत्नी का मन था कि विवाह के दिन अपने पति की घड़ी के लिए सोने की चेन लाकर दूँ, लेकिन दोनों की जेबें खाली थीं। स्त्री बालों के व्यापारी की दुकान पर गयी और बाल बेचकर घड़ी की चेन खरीद लाई। उधर उसका पति अपनी घड़ी बेचकर क्लिप खरीद लाया। विवाह का दिन आया तो पति ने पत्नी से कहा—‘‘हम आपके लिए सोने की क्लिप लाये हैं पर आपने सिर पर रूमाल क्यों बाँध रखा है? इसे खोलिए हम आपके बालों में क्लिप लगाएँगे।’’ पत्नी बोली—हम आपके लिए घड़ी चेन लाये हैं लेकिन आज आपके हाथ पर ये रूमाल कैसे बँधा है? दोनों ने एक-दूसरे के रूमाल खोले तो देखा कि बाल कटे हुए हैं और कलाई खाली। एक के हाथ में क्लिप और दूसरे के हाथ में चैन। दोनों की आँखों में वफादारी और एक-दूसरे के प्रति निष्ठा के आँसू बहने लगे। भाइयो, जिन लोगों में इस तरह की भावनाएँ, निष्ठाएँ हैं, वहाँ हम यही कह सकते हैं कि दाम्पत्य जीवन में स्वर्ग आ गया।

एक और अभी थोड़े दिनों पूर्व झाँसी की घटना है। एक आदमी का विवाह हुआ। बीबी घर में आयी और तीन महीने स्वस्थ रही। उसके बाद उसे टी.बी. हो गयी, भगवान् की माया! बाइस साल तक वह स्त्री जिन्दा रही। टी.बी. से हालत ऐसी हो गयी थी कि उसको करवट लेना तक मुश्किल हो गया था। लेकिन उसके पति का एक ही काम था। ऑफिस जाने से पहले स्त्री को नहलाना, कपड़े साफ करना, सिर में कंघी करना, चाय-पानी पिलाना, खाना पकाना, शाम को आकर फिर घर का सारा काम करना, उसका सारा का सारा समय उसी में चला जाता था। मित्रों ने कहा—आप सिनेमा नहीं जाते? उसने कहा—हमारी बीबी बीमार है और मैं उसकी सेवा वफादारी से करता हूँ। इससे अधिक सन्तोष कहाँ मिल सकता है? सिनेमा में क्या है, जिसे देखकर चैन और खुशी प्राप्त हो सके। उसमें भी तो हम यही देखने जाते हैं कि हमारा दाम्पत्य जीवन खुशहाल कैसे हो? मेरी कर्तव्यपरायणता देखकर जब उसकी आँखों में से आँसू की बूँदें ढुलक पड़ती हैं तो मैं तो ये समझता हूँ कि ये हीरे-मोती से ज्यादा बड़े उपहार हैं और जब उसकी हालत देखकर मेरी आँखों से मुहब्बत के आँसू छलक उठते हैं, तो वह समझती है कि स्वर्ग उस पर न्यौछावर हो गया?

साथियो! पारिवारिक जीवन की सुख-शान्ति शक्ल-सुरत पर नहीं टिकी है, ये तो आदमी की सीरत पर टिकी हुई है। मनुष्यों को कहिए, जब आपको विवाह करना पड़े तो सुरत देखने की अपेक्षा सीरत और रंग देखने की अपेक्षा उसकी भावनाओं को देखना पसंद करें। अपने साथी का ‘कष्ट’ ढूँढ़ने की अपेक्षा गुण-कर्म और स्वभाव ढूँढ़ना पसन्द करें। अगर आपको बच्चों के निर्माण की राष्ट्रीय जिम्मेदारी उठानी पड़े, अगर आपके पास मुहब्बत है तो आप बच्चे पैदा करने से पहले यह भली-भाँति समझ लें कि बच्चे के विकास के लिए खुराक काफी नहीं हैं, बोर्नविटा काफी नहीं है, अच्छे कपड़े काफी नहीं हैं, स्कूलों के जेलखानों में भेज देना काफी नहीं है। इन जेलखानों में बच्चे सिर्फ एटीकेट सीख सकते हैं। कपड़े की क्रीज कैसे खराब हो जाती है? कैसे ठीक रखी जा सकती है, ये सभ्यता और शिष्टाचार सीख सकते हैं, पर उनका भावात्मक विकास नहीं हो सकता? क्योंकि जिन माँ-बाप के मनों में परिवार के प्रति, एक-दूसरे के प्रति प्यार-मुहब्बत और आदर्श-कर्त्तव्यनिष्ठा भरी है, उनके व्यवहार से ही बच्चे में भावनात्मक विकास हो सकता है। आज परिवारों में इनका अभाव है। इंग्लैण्ड और अमेरिका में ऐसे बहुत सारे बच्चे पैदा होते हैं, जिन्हें माँ-बाप सँभालने की स्थिति में नहीं होते और उन्हें अनाथालय में भर्ती करा दिया जाता है। सरकार उनको बेहतरीन शिक्षा, बेहतरीन खुराक देती है। फिर भी प्यार-मुहब्बत की कमी से उनका भावनात्मक विकास नहीं हुआ। इसीलिए जो सरकारी अनाथालयों में पाले गये, उनमें से कोई भी बच्चा राष्ट्र का कर्णधार नहीं हो सका, कोई भी महापुरुष नहीं हुआ, कोई लेखक-कवि नहीं हुआ। अधिकांश आदमी उनमें से फौजी होते हैं। ये वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने मुहब्बत का नहीं पिया। आदमी को मुहब्बत पिलायी जानी चाहिए, खासतौर से बच्चों को, बोर्नविटा नहीं।

मुहब्बत अगर हम पिला सकते हों तो हमारे बच्चे बेहतरीन राष्ट्र-निर्माण के लिए कितने उपयोगी और व्यक्ति के लिए कैसे उपयोगी बन सकते हैं, इसका एक छोटा-सा उदाहरण मैं आपको सुनाता हूँ। बिनोवा भावे की माँ को अपने बच्चे भी पालने पड़े और अपने पड़ोसी का एक बच्चा भी। उनकी पड़ोसिन एक बच्चा दे गयी और कह गयी थी कि अब हम दुनिया से जा रहे हैं, मेरे बच्चे का तुम पालन करना। बिनोवा भावे की माँ उस बच्चे का भी पालन करने लगी उसको वे घी से चुपड़कर गरम-गरम रोटी खिलाती थी अपने बच्चों को सूखी और बासी रोटी। बिनोवा ने एक दिन अपनी माँ से पूछा—माँ! हम बच्चे एक जैसे हैं फिर तुम फर्क क्यों करती हो, एक को गर्म रोटी खिलाती हो और एक को ठण्डी। एक को घी की, एक को बिना घी वाली। इस फर्क का क्या कारण है? हम बच्चे हैं तो एक जैसा खाना क्यों नहीं देतीं? माँ ने कहा—बेटे ये मेरी पड़ोसिन का बच्चा है, इसलिए ये भगवान का बच्चा है। तू मेरा बच्चा और तेरे साथ मेरी ममता जुड़ी हुई है और इसके साथ भगवान की जिम्मेदारियाँ जुड़ी हुई हैं क्योंकि एक माँ अपने बच्चे को मेरी गोद में सौंपकर गयी थी, सो भगवान के बच्चे के लिए जो करना चाहिए मैं वही इसके साथ करती हूँ। मुहब्बत से भरी बिनोवा की माँ उस बच्चे का पालन करती रही, उन्होंने स्वार्थ को नहीं देखा। बिनोवा जी की जीवनकथा में लिखा है कि सुबह के वक्त जब माँ चक्की पीसती थी, मैं उसके पास जाता था और मुझे भूख लग आती थी तो जो चने वो पीसती थीं, उसी को खाकर रह जाता था। विटामिन ए, विटामिन बी और विटामिन सी प्राप्त नहीं कर सके बिनोवा जी। लेकिन भोजन के साथ-साथ वह खुराक खाते रहे, जो इनसानी खुराक है—मतलब मुहब्बत! अगर आप के पास वह मुहब्बत है तो आपको बच्चे पैदा करने चाहिए, बच्चों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए अन्यथा नहीं! ईसामसीह से एक आदमी ने पूछा आपने भगवान देखा है? उन्होंने कहा—हाँ, तो दिखाइये। ईसा एक छोटा बच्चा उठाकर ले आये और बोले—यही भगवान है। इसका मन निर्मल, भावनाएँ निश्चल हैं, काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर इत्यादि बुराइयों से यह बचा हुआ है, जो इनसान इन बुराइयों से बचा हुआ है, उसे भगवान होना चाहिए और इनसान के रूप में भगवान देखना हो तो ये बच्चा है।

बच्चों के पालन के लिए जो निष्ठाएँ और वफादारी होनी चाहिए थीं, वह हमारे पास नहीं हैं। यही कारण है कि हमारे बच्चे बागी हो गये। बच्चा बैठा था इन्तजार में कि पिताजी आएँगे, बन्दर-भालू और खरगोश की कहानियाँ सुनाएँगे, गोदी में लेंगे, कन्धे में बिठाएँगे, घुमाने ले जाएँगे और पिताजी साइकिल से आये। बच्चे दौड़े पापा आ गये, किसी ने पायजामा पकड़ा, किसी ने कुर्ता और उछलने लगे और पत्थर दिल जैसे हम बच्चों को डाँटने-फटकारने लगे—भागो यहाँ से सारे कपड़े गन्दे कर दिये। बच्चे सहमकर माँ की गोद में छिप गये, सोचा शायद माँ आँखों के आँसू पोंछ देगी। पिता ने कहा—इन शैतानों को सँभालो, हमें सिनेमा जाना है, क्लब जाना है। जिन बच्चों ने स्नेह पाया ही नहीं, उनका विकास कैसे होगा? हम शिकायत करते हैं बच्चे अनुशासनहीन हैं, कहना नहीं मानते, बुजुर्ग की इज्जत नहीं करते और मास्टरों को धमकाते हैं, यूनिवर्सिटी के शीशे फोड़ देते हैं और यह नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे बेचारे? छोटेपन से यही देखा और सीखा है। इसे रोकने की जिम्मेदारी मास्टरों, अध्यापकों की नहीं, वरन् उन लोगों की है, जिन्होंने बच्चे पैदा किये, किन्तु उससे पहले ये नहीं सोचा कि हमारे पास मुहब्बत नहीं है, तो भगवान को क्यों बुलाएँ। ये विचार करना चाहिए था कि लोहे के दिल, पत्थर के दिलवाले, हम विलासी और कामी व्यक्ति बच्चों की जिम्मेदारी नहीं उठा सकते। ऐसे लोगों को यह कहना चाहिए कि भावी नागरिकों को महापुरुषों के रूप में विकसित करना चाहते हों और ये चाहते हों कि हमारे देश के नागरिक महान बनें, ओजस्वी बनें, शक्तिवान बनें, नेता बनें और महत्ता एवं महिमा को लेकर प्रकट हों तो उनके लिए दौलत जमा करना काफी नहीं है, बल्कि उनमें गुणों का विकास करना जरूरी है। गुणों का विकास ही वह प्रमुख तत्त्व है, जो छोटे और गरीब आदमियों को दुनिया की निगाहों में अजर-अमर बना सकता है। छोटे घरों में पैदा हुए मनुष्यों को बादशाह बना सकता है, ऊँचे पदों पर पहुँचा सकता है।

राजस्थान में हीरालाल शास्त्री नाम के ४५ रुपये मासिक वेतन पाने वाले एक संस्कृत के अध्यापक हुए हैं। २६ वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। लोगों ने कहा—दूसरी शादी कर लीजिए। उन्होंने कहा—पहली पत्नी की सेवा और वफादारी का तो कर्ज चुका नहीं पाया और आप लोग दूसरी शादी की बात करते हैं। वे नौकरी छोड़कर अपनी पत्नी के गाँव में चले गये और निश्चय किया कि इस गाँव की एक लड़की ने मेरी सेवा-सहायता की, मैं इस गाँव की सेवा करूँगा और कन्या पाठशाला खोलने के इरादे से गाँव की लड़कियों को एक पेड़ के नीचे पढ़ाने लगे। कुछ लोगों ने मजाक भी उड़ाया पर वे अपनी निष्ठा पर अडिग रहे। यह देख गाँव के भले लोगों ने छप्पर डाल दिया, बच्चियाँ पढ़ने लगीं। लोगों ने सोचा जो आदमी कष्ट-मुसीबतों को सहकर दूसरों की सुविधा और राष्ट्र की प्रगति, गाँव की प्रगति के लिए काम कर रहा है, उसका नाम इनसान के रूप में भगवान होना चाहिए। फिर क्या था—रुपया-पैसा, सोना-चाँदी, लोहा-सीमेण्ट भागते चले आये और उस स्थान पर वनस्थली नाम का विद्यालय बनकर खड़ा हो गया। हिन्दुस्तान में यह महिला विश्वविद्यालय पहले नम्बर का है, जिसमें हवाई जहाज उड़ाने से लेकर स्कूटर चलाने तक और विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्वाधीनता के बाद जब पहली गवर्नमेण्ट बनायी गयी तो इन्हीं हीरालाल शास्त्री को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया गया। मनुष्य का आध्यात्मिक विकास इस बात में नहीं कि उसके पास धन कितना है, ऐय्याशी और विलासिता के साधन कितने हैं? ये मनुष्य की महानताएँ या प्रगति की निशानियाँ आदमी के अन्दर की हिम्मत और जीवट है, जिसके आधार पर आदमी सिद्धान्तों का पालन करने में समर्थ हो पाता है।

कोरिया के एक किसान यांग का नाम सुना है आपने? जिस तरह हमारे यहाँ गाँधी जी की तस्वीरें घरों में टँगी रहती हैं, दक्षिण कोरिया में यांग की तस्वीर टँगी रहती हैं। नयी फसल जब तैयार होकर आती है, तो पहले यांग की पूजा होती है और बाद में अनाज का उपयोग किया जाता है। १८२१ में जब कोरिया में अकाल पड़ा, उस बुरे समय में लोग भूखों मरने लगे, एक-दूसरे को लूट-मारकर खाने लगे। यांग ने अपने बच्चों और बीबी को बुलाकर कहा—देश मेंं पन्द्रह-बीस लाख लोग भूख से तड़पकर मर रहे हैं, हमारे पास अनाज है, जिसे खाकर हम जिन्दा रह सकते हैं, लेकिन अगले वर्ष वर्षा हुई और अगर बीज न मिल सका तो सारे का सारा कोरिया मनुष्यों से रिक्त हो जाएगा इसलिए अनाज खाने की अपेक्षा बीज के लिए रखा जाए। अनाज के कोठे को बन्द करके सरकारी बैंक की सील लगवा दी और कहा—वर्षा होने पर जब बीज की जरूरत पड़े तभी इसे खोला जाए। बीबी-बच्चों सहित पाँचों प्राणी भूखों मर गये। वर्षा होने पर बीज बोया गया और यांग वहाँ का देवता बन गया क्योंकि उसने अपने स्वार्थ और हविश का त्याग किया था।

महानताएँ सिखायी जाती हैं, बड़प्पन नहीं। अमीरी नहीं महानता। हमें लोगों के मस्तिष्क बदलना चाहिए। अगर राष्ट्र को महान बनाना हो, व्यक्ति को महान बनाना हो, राष्ट्र को समर्थ और मजबूत बनाना हो तो हमको लोगों से यह कहना चाहिए कि पहले हर व्यक्ति स्वयं बदले, अपने परिवार को बदले तब अपने आस-पास के परिकर को बदले। दुनिया बदल रही है—सुधर रही है, ऐसे में हम कैसे बच सकते हैं? हमको महत्त्वाकाँक्षाएँ नहीं, महानताएँ जगानी चाहिए। आज आदमी के भीतर महत्त्वाकाँक्षाएँ भड़क गयी हैं। हर आदमी महत्त्वाकाँक्षी है और बड़ा आदमी बनना चाहता है—अमीर बनना चाहता है। हर आदमी खुशहाल बनना चाहता है। मैं खुशहाली और और अमीरी के खिलाफ नहीं हूँ, लेकिन मैं यह कहता हूँ कि अमीरी ही काफी नहीं है। अमीरी के साथ-साथ मनुष्य के भीतर जो महानताएँ प्रसुप्त पड़ी हैं, उन्हें भी जगाया जाना चाहिए, जैसे इंग्लैण्ड के नेलसन एवं जापान के गाँधी कागावा ने अपने भीतर से जगायी थी।

नेलसन इंग्लैण्ड की सेना में एक सामान्य सिपाही था, किन्तु जब उसने देखा कि उसके देश की सेनाएँ बुरी तरह दुश्मनों के हाथों पिट रही हैं, तो वह अपने अफसरों के पास गया और बोला—सिपाहियों को बन्दूकें ही काफी नहीं हैं। सिपाहियों में जोश, देशभक्ति की भावना और कटकर मरने की भावना ही विजय दिलाती है। यह काम मुझे सौंपा जाए। बड़े अफसरों ने उसे यह काम सौंप दिया और नेलसन जिस निष्ठा के साथ, देशभक्ति के साथ, जिस उमंग के साथ लड़ा वे उमंगें हमने भारतीय सैनिकों में पाकिस्तान के साथ लड़ाई के समय देखी हैं, जो टैंकों से टकराने में भी पीछे नहीं रहे और अपने जान की बाजी तक लगा दी। नेलसन ने यही किया। उसने अपने सीने पर बम बाँधी और दुश्मनों के टैंकों के सामने आ गया। टैंक द्वारा उसे कुचला गया लेकिन टैंक भी बमों के धमाके के साथ उड़ गये। घायल एवं लहू-लुहान नेलसन जब खड़े होने योग्य नहीं रह गया तो उसने अपने आपको एक पेड़ से बँधवा लिया और अपनी सेना का मार्गदर्शन करने लगा। शरीर से, फेफड़े से खून के फव्वारे छूट रहे थे, फिर भी वह मोर्चे पर डटा रहा। इंग्लैण्ड जब जीत गया तो खुशियों का समाचार नेलसन के कान में सुनाया गया, तो उसने कहा—अब मुझे मरने में कोई डर नहीं, मेरी मौत ही खुशी का उपहार है। अब मैं शांति के साथ—अपनी अच्छाई के साथ मरूँगा और इतना कहकर उसने अन्तिम साँस ली।

इसी तरह कागावा ने अपना पेट काटकर बीमारों, भिखारियों, अपाहिजों, कोढ़ियों और शराबियों की दशा सुधारने में सारा जीवन खपा दिया। जैसे हिन्दुस्तान में गाँधीजी की तस्वीरें हर जगह टँगी हुई मिलेंगी, वैसे ही जापान के हर घर में कागावा का चित्र टँगा हुआ मिलेगा। जैसे हर हिन्दुस्तानी बच्चे को गाँधी जी का नाम मालूम है, वैसे ही जापान के हर नागरिक को कागावा का नाम मालूम है। इसलिए मालूम है कि उसने देश के पिछड़े लोगों के लिए सारी जिन्दगी जद्दोजहद की। कागावा का नाम अजर-अमर हो गया। इंग्लैण्ड का हर नागरिक कृतज्ञता के भावों से भरा हुआ है नेलसन के लिए और जापान का कागावा के लिए, कोरिया का हर नागरिक कृतज्ञता के भावों से भरा हुआ है यांग के लिए। यही महानता है।

भाइयों, हमें महत्त्वाकाँक्षाओं को भूल जाना चाहिए और मनुष्य के भीतर उन्नति की भावना, महानता की भावना विकसित करनी चाहिए। अमीरी की नहीं, ऐय्याशी की नहीं। कारण अमीरी आदमी के अन्दर व्यसन पैदा कर देती है और उनके बच्चों को चोर बना देती है, आदमी को बीमार बना देती है और साथ ही सामाजिक जीवन में दुष्ट परम्पराएँ कायम हो जाती हैं। अतः इस बात को हमें और आपको जानना चाहिए। अगर आपको समाज विज्ञान का काम सौंपा जाए, लेक्चरर या प्रोफेसर बना दिया जाए या किसी विश्वविद्यालय का डीन बना दिया जाए और फिर आपको देश की—संसार की समस्याओं को हल करने के लिए कहा जाए तो आप हमारी इस बात को ध्यान रखना—नोट करके रखना कि कोई भी राष्ट्र केवल पैसों के कारण गरीब या अमीर नहीं होता। फ्रान्स के पास पैसा था, चारों ओर विलास-वैभव था। कितनी ही भव्य इमारतें बनी हुई थीं, लेकिन हिटलर ने जब चढ़ाई की तो तीन दिन के अन्दर सारा का सारा फ्रान्स तहस-नहस हो गया और वहाँ का हर नागरिक इस बुरी तरीके से पड़ोस वाले देशों में भागा कि त्राहि-त्राहि मच गयी। पड़ोस वाले देशों के नागरिक बोले—फ्रान्स के ये नागरिक जो अमीर कहलाते थे, पेरिस दुनिया का स्वर्ग कहा जाता था किसी जमाने में, आज उस पेरिस के नागरिक अपनी देश की रक्षा करने के लिए पूरी हिम्मत और जोश से—ताकत से क्यों नहीं लड़े? जबकि रूस वालों ने, ब्रिटेनवासियों ने एक-एक इंच की लड़ाई लड़ी। ऐसा क्या कारण हो सकता है, जो उनकी पराजय का कारण बना? उत्तर मिला—फ्रान्सीसियों के दिमाग पर ऐय्याशी और विलासिता छायी थी।

अमीरी से राष्ट्र मजबूत नहीं होते, मनुष्य मजबूत नहीं होते, राष्ट्र की समस्याओं का हल नहीं होता और राष्ट्रीय परम्परा का विकास नहीं होता, इसलिए आपके जिम्मे यदि कभी यह काम सौंपा जाए तो कृपा करके इस बात का ध्यान रखें। अगर मेडिकल कालेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में से किसी को धर्माचार्य बना दिया जाए, जगत् गुरु शंकराचार्य बना दिया जाए तो आपको एक काम करना पड़ेगा—हर साधु-संत और बाबाजी को यह कहना पड़ेगा कि आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को काम में लाएँ। आध्यात्मिकता की नकल बनाना, ढोंग बनाना, दाढ़ी-जटा बढ़ाना और तिलक छापा लगाना ही काफी नहीं है। धर्म की चिन्ता करना ही काफी नहीं है, वरन् धर्म की नीति पर भी विचार करना चाहिए। हिन्दुस्तान में सात लाख गाँव हैं और छप्पन लाख साधु-सन्त, पुरोहित, पण्डित, बाबाजी। एक गाँव पीछे आठ साधु-सन्त आते हैं। यदि आठ साधु-सन्त एक गाँव में चले जाएँ और उस छोटे-से गाँव में सफाई करने लगें, साक्षरता का विस्तार करने लगें तो जिन असंख्यों सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों ने सारे राष्ट्र को तबाह करके रखा है, जकड़ करके रखा है, उसे हम ठीक कर सकते हैं। मगर भाइयो, ये साधु-सन्त न जाने कहाँ खो गये, आध्यात्मिकता की चेतना न जाने कहाँ लुप्त हो गयी। यदि यह राष्ट्र के निर्माता का काम करें, आध्यात्मिकता का काम करें तो यह अपने देश को न जाने कहाँ से कहाँ ले जा सकते हैं? आध्यात्मिकता के इस सूत्र को मैं सेवा-सहायता कहता हूँ, कर्तव्यपरायणता कहता हूँ। हमारे जीवन में यदि यह आ जाए तो हमारा राष्ट्र न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाए? आपको कभी ऐसा काम करना पड़े तो कृपा करके ध्यान रखिये।

अगर आपको कभी धर्म का—अध्यात्म का काम सौंपा जाए तो आपको भगवान बुद्ध के तरीके से यही कहना चाहिए कि हमारा स्वर्ग गरीबों के बीच है, दुःखियों के बीच है, सेवा के बीच है। भगवान बुद्ध से जब पूछा गया कि क्या आप स्वर्ग जाएँगे? उन्होंने कहा नहीं, मुझे स्वर्ग जाने की जरूरत नहीं है। स्वर्ग में जो आनन्द है, उससे हजार गुना आनन्द वहाँ है, जहाँ दीन-दुःखियारे रहते हैं, पीड़ित लोग रहते हैं, अज्ञान और अभावग्रस्त लोग रहते हैं। मैं उनकी सेवा किया करूँगा और संसार के सभी मनुष्यों को स्वर्ग भेजने की कोशिश करूँगा। अभी मुझे बार-बार जन्म लेना है और दुःखियारों को, पिछड़े हुओं को, कर्तव्य से भटके हुओं को रास्ता दिखाना है। अगर ये भाव हमारे भीतर आ जाएँ तो स्वर्ग की समस्या हल हो जाए, फिर हमें साधु-बाबाजिओं की तरह से स्वर्ग का टिकट नहीं बाँटना पड़ेगा।

इन दिनों व्यक्ति के जीवन की असंख्य समस्याएँ हैं, राष्ट्रीय जीवन की असंख्य समस्याएँ हैं। राष्ट्रीय जीवन की असंख्य समस्याएँ हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकों समस्याएँ हैं। युद्ध के बादल चारों ओर मँडरा रहे हैं। हर मनुष्य एक-दूसरे के खून का प्यासा बना हुआ है, एक दूसरे को बैरी समझ रहा है। यदि अन्तर्राष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ कभी आपके ऊपर आवें, तो आपको युद्ध व घृणा की बातें मन में से निकाल देने के लिए हर राष्ट्र को मजबूर करना चाहिए और ये कहना चाहिए कि देश जमीनों के टुकड़ों में बँटे हुए नहीं हैं। इनसान के दिल को जमीन के टुकड़ों से बाँटा नहीं जा सकता। इनसान को—इनसानी मोहब्बत को जमीनों की वजह से बाँटा नहीं जा सकता है। आदमी के बीच में मनमुटाव है, तो इसे प्यार व मोहब्बत के साथ, इनसाफ के साथ आराम से सुलझाया जा सकता है। लड़ाई करने की जरूरत नहीं है। अगर आप लोगों को यह समझा सकें कि इनसान—इनसान का भाई है और भाई को भाई से मोहब्बत करनी चाहिए, भाई को भाई के लिए त्याग करना चाहिए। यदि यह बात हमारे जीवन में आ जाए, तो हम युद्धों से बच सकते हैं और सारी समस्याओं को हल कर सकते हैं। आज जबकि एक देश दूसरे देश से हर वक्त काँपता रहता है, इस विभीषिका को हम इस तरह प्यार और मोहब्बत से हल कर सकते हैं। अभी जो ज्ञान और सम्पदा टैंक बनाने में लगा हुआ है, उससे हम ट्रैक्टर बना सकते हैं, जो विज्ञान आज मशीनगनों को बनाने में लगा हुआ है, उससे हम पानी निकालने के पम्प बना सकते हैं और जो ज्ञान एवं शक्ति एक-दूसरे को मारने की—काटने की शिक्षा देने में लगा हुआ है, उसे एक-दूसरे के प्रति प्यार-मोहब्बत पैदा करने और बच्चों का शिक्षण देने में लगाया जा सकता है। यदि इनसान के भीतर मोहब्बत पैदा की जा सके और उसे यह समझाया जा सके कि सारा विश्व ही अपना कुटुम्ब है, परिवार है, तो फिर दुनिया में हजारों वर्ष तक शान्ति कायम रखी जा सकती है।

साथियो, अगर ऐसा न हो सका जैसा कि मैंने इन सूत्रों में अभी आपको बताया है तो फिर बर्टेण्ड रसेल के शब्दों में ऐसा होगा कि पहले लड़ाई तीर-कमान से लड़ी जाती थी फिर बन्दूकों से लड़ी गई और तीसरी लड़ाई एटमबमों से लड़ी जाएगी और चौथी लड़ाई के लिए आदमी के पास इतनी ही शक्ति बाकी रह जाएगी कि वह ईंट और पत्थरों का इस्तेमाल कर सके। बन्दूक और लाठियाँ चलाने लायक तब इसके पास न अकल बाकी रह जाएगी, न साधन बाकी रह जाएँगे और न सामर्थ्य बाकी रह सकेगी। ये अक्ल, ये विज्ञान जिसकी मैं प्रशंसा कर रहा था और जिस टेक्नालॉजी के बारे में शुरू से बता रहा था, ये सब इस तरह से जलकर खाक हो जाएँगे जैसे कि कागज का रावण अपने आप जलकर खाक हो जाता है। इस विज्ञान की तरक्की को सुरक्षित रखने के लिए इस टेक्नालॉजी के लाभ और हानि को ठीक प्रकार से समझने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि इस उन्मत्त हाथी के ऊपर अंकुश रखा जाए, सरकस के शेर को तमाशा दिखाने के लिए रिंगमास्टर के तरीके से एक हंटर रखा जाए। अगर भौतिक विज्ञान और भौतिक प्रगति के इस बाघ को खुला हुआ छोड़ा गया तो यह किसी को छोड़ने वाला नहीं है, सबको खा जाएगा। फिर इनसानियत जिन्दा रहने वाली नहीं है। इनसानियत को जिन्दा रखने के लिए इस टेक्नालॉजी और इस बौद्धिक विकास-आर्थिक विकास के पीछे आध्यात्मिकता का अंकुश उसी प्रकार रखा जाना चाहिए, जिस प्रकार से एक पागल हाथी के सूँड़ के ऊपर एक अंकुश रखा जाता है और उसकी दिशा निर्धारित की जाती है।

बच्चो, भविष्य में आपके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारियाँ आने वाली हैं, जिसे आपको उठाना होगा। अगले दिनों समस्याएँ उभरेंगी आपसे अपना हल माँगेंगी और ये कहेंगी कि हमारी समस्याओं का हल किया जाए। आपको इन समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने और करने पड़ेंगे और करना चाहिए। मैं तो एक बूढ़ा आदमी हूँ, जो न जाने कब किनारे लग जाए? पर मैं आपको एक छोटा-सा फार्मूला बताकर जा रहा हूँ। इसे आपको याद रखना चाहिए कि विश्व की हर समस्या का समाधान, राष्ट्रों की हर समस्या का समाधान एक ही है कि मनुष्यों के भीतर मनुष्यता को जिंदा रखा जाए, इनसानियत को जिंदा रखा जाए, भौतिक विकास के साथ-साथ महानता को विकसित किया जाए, जिसे मैं आध्यात्मिकता का विकास कहता हूँ। आप चाहें तो उसको नेकी कहिए, भलमनसाहत कहिए, धर्म-नीति कहिए—कुछ भी कहिए। आप किन्हीं शब्दों का इस्तेमाल कीजिए। मैं तो इसे आध्यात्मिकता के नाम से पुकारता हूँ और यह कहता हूँ कि इस महानता को, आदर्श-कर्त्तव्यनिष्ठा को मनुष्य के भीतर जिंदा रखा जा सके, समाज के भीतर जिंदा रखा जा सके तो खुशहाली कायम रह सकती है और भौतिक उपलब्धियों का हम परिपूर्ण आनन्द उठा सकते हैं।

सुख-सुविधा उपलब्ध कराने वाले इस भौतिक विज्ञान को धन्यवाद, भौतिक प्रगति को धन्यवाद, टेक्नालॉजी की प्रगति को धन्यवाद, लेकिन तब तक ये सभी अपूर्ण हैं, जब तक कि हम इसके दूसरे पक्ष को भी विकसित नहीं करेंगे, जिसको मैं आध्यात्मिकता कहता हूँ। इस महत्त्वपूर्ण दूसरे पक्ष को भुलाया नहीं जाना चाहिए। यही सब कहने के लिए आप सबों के सामने एक चेतन-व्यक्ति आया, जिसके ऊपर समाज के नवनिर्माण की जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारी आपको भी उठानी ही चाहिए और उठानी ही पड़ेगी। इस सुझाव को यदि आप इस्तेमाल कर सके तो मुझे उम्मीद है कि अपने देश की, मानव जाति की और विश्व की महानतम सेवा करने में आप समर्थ हो सकेंगे। आप लोगों ने एक घण्टे तक अपना मूल्यवान समय देकर मेरी छोटी-सी बात सुनी, इसके लिए आप सबका बहुत-बहुत आभार मानता हूँ। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥