परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप में हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प (Vang-66 P-5.21)

परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप में हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प (Vang-66 P-5.21)

परिस्थितियों का हमारे जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। आस-पास का जैसा वातावरण होता है वैसा बनने और करने के लिए मनोभूमि का रुझान होता है और साधारण स्थिति के लोग उन परिस्थितियों के ढाँचे में ढल जाते हैं। घटनाएँ हमें प्रभावित करती हैं, व्यक्ति का प्रभाव अपने ऊपर पड़ता है। इतना होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि सबसे अधिक प्रभाव अपने विश्वासों का ही अपने ऊपर पड़ता है। परिस्थितियाँ किसी को तभी प्रभावित कर सकती हैं जब मनुष्य उनके आगे सिर झुका दे। यदि उनके दबाव को अस्वीकार कर दिया जाय तो फिर कोई परिस्थिति किसी मनुष्य को अपने दबाव में देर तक नहीं रख सकती। विश्वासों की तुलना में परिस्थितियों का प्रभाव निश्चय ही नगण्य है।

कहते हैं कि भाग्य की रचना ब्रह्माजी करते हैं, सुना जाता है कि कर्म-रेखाएँ जन्म से पहले ही माथे में लिख दी जाती हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि तकदीर के आगे तदवीर की नहीं चलती। यह किम्वदंतियाँ एक सीमा तक ही सच हो सकती हैं। जन्म से अन्धा, अपंग उत्पन्न हुए या अशक्त, अविकसित लोग ऐसी बात कहें, तो उस पर भरोसा किया जा सकता है। अप्रत्याशित दुर्घटना के शिकार कई बार हम हो जाते हैं और ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। अग्निकाण्ड, भूकम्प, युद्ध, महामारी, अकाल-मृत्यु, दुर्भिक्ष, रेल, मोटर आदि का पलट जाना, चोरी, डकैती आदि के कई अवसर ऐसे आ जाते हैं कि मनुष्य उनकी संभावना को न तो समझ पाता है और न रोकने में समर्थ हो पाता है। ऐसी कुछ घटनाओं के बारे में भाग्य या होतव्यता की बात मानकर सन्तोष किया जाता है। पीड़ित मनुष्य के आन्तरिक विक्षोभ को शान्त करने के लिए भाग्यवाद का सिद्धान्त एक वैसा ही उत्तम उपचार है जैसे घायल की तड़पन दूर करने के लिए डॉक्टर लोग नींद की गोली खिला देते हैं, मार्फिया का इन्जेक्शन लगा देते हैं या कोकीन आदि की फुरहरी लगाकर पीड़ित स्थान को सुन्न कर देते हैं। वह विशेष परिस्थितियों के विशेष उपचार हैं। यदा-कदा ही ऐसी बात होती है, इसलिये इन्हें अपवाद ही कहा जायगा।

पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों का भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी-कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न प्रकार के बच्चे जन्मते देखे गये हैं, कभी-कभी कोई पेड़ कुसमय में ही फल-फूल देने लगता है, कभी-कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद हैं। इन्हें कौतुक या कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्व निश्चित भाग्य-विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है वैसा यदि अमिट ही है तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती ?

हर व्यक्ति अपने-अपने अभीष्ट उद्देश्यों के लिए पुरुषार्थ करने में संलग्न रहता है इससे प्रकट है, कि आत्मा का सुनिश्चित विश्वास पुरुषार्थ के ऊपर है और वह उसी की प्रेरणा निरन्तर प्रस्तुत करती रहती है। हमें जानना चाहिए कि ब्रह्माजी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। जिस प्रकार कल का जमाया हुआ दूध आज दही बन जाता है, उसी प्रकार कल का पुरुषार्थ आज भाग्य बनकर प्रस्तुत होता है। आज के कर्मों का फल आज ही नहीं मिल जाता। उसका परिपाक होने में, परिणाम होने में, परिणाम निकलने में कुछ देर लगती है। यह देरी ही भाग्य कही जा सकती है। परमात्मा समदर्शी और न्यायकारी है , उसे अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं फिर वह किसी का भाग्य अच्छा किसी का बुरा लिखने का अन्याय और पक्षपात क्यों करेगा ? उसने अपने हर बालक को भले या बुरे कर्म करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है पर साथ ही यह भी बता दिया है कि उनके भले या बुरे परिणाम भी अवश्य प्राप्त होंगे। इस कर्म को ही यदि भाग्य कहें तो अत्युक्ति न होगी।

हमारे जीवन में अगणित समस्याएँ उलझी हुई गुत्थियों के रूप में विकराल वेष धारण किए सामने खड़ी हैं। इस कटु सत्य को मानना ही चाहिए उनके उत्पादक हम स्वयं हैं और यदि इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी आदतों, विचारधाराओं, मान्यताओं और गतिविधियों को सुधारने के लिए तैयार हों तो इन उलझनों को हम स्वयं ही सुलझा सकते हैं। बेचारे ग्रह-नक्षत्रों पर दोष थोपना बेकार है। लाखों-करोड़ों मील दूर दिन-रात चक्कर काटते हुए अपनी मौत के दिन पूरे करने वाले ग्रह-नक्षत्र भला हमें क्या सुख-सुविधा प्रदान करेंगे? उनको छोड़कर और सच्चे ग्रहों का पूजन आरम्भ करें जिनकी थोड़ी-सी कृपा कोर से ही हमारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, सारी आकांक्षाएँ देखते-देखते पूर्ण हो सकती हैं।

नव-दुर्गाओं की नव-रात्रियों में हम हर साल पूजा करते हैं कि वे अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ प्रदान करती हैं। सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के लिए उनकी कृपा और सहायता पाने के लिए विविध साधन पूजन किये जाते हैं। जिस प्रकार देवलोकवासिनी नव दुर्गाएँ हैं उसी प्रकार भू-लोक में निवास करने वाली, हमारे अत्यन्त समीप—शरीर और मस्तिष्क में ही रहने वाली—नौ प्रत्यक्ष देवियाँ भी हैं और उनकी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम भी मिलता है। देवलोकवासिनी देवियों के प्रसन्न होने और न होने की बात तो संदिग्ध हो सकती है पर शरीर-लोक में रहने वाली नौ देवियों की साधना का श्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। यदि थोड़ा भी प्रयत्न इनकी साधना के लिए किया जाय तो उसका भी समुचित लाभ मिल जाता है। हमारे मनःक्षेत्र में विचरण करने वाली इन नौ देवियों के नाम हैं:—

(१) आकांक्षा (२) विचारणा (३) भावना (४) श्रद्धा (५) प्रवृत्ति (६) निष्ठा (७) क्षमता (८) क्रिया व (९) मर्यादा। इनका संतुलित विकास करके मनुष्य अष्ट-सिद्धियों और नव-निधियों का स्वामी बन सकता है। संसार के प्रत्येक प्रगतिशील मनुष्य को जान या अनजान में इनकी साधना करनी ही पड़ी है और इन्हीं के अनुग्रह से उन्हें उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ने का अवसर मिला है।

अपने को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया जाय तो हमारे सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोग भी श्रेष्ठ बन सकते हैं। आदर्श सदा कुछ ऊँचा रहता है और उसकी प्रतिकृति कुछ नीची रह जाती है। आदर्श का प्रतिष्ठापन करने वालों को सामान्य जनता के स्तर से सदा ऊँचा रहना पड़ा है। संसार को हम जितना अच्छा बनाना और देखना चाहते हैं उसकी अपेक्षा कहीं ऊँचा बनने का आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। उत्कृष्टता ही श्रेष्ठता उत्पन्न कर सकती है। परिपक्व शरीर की माता ही स्वस्थ बच्चे का प्रसव करती है। आदर्श पिता ही बनें तो सुसन्तति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। यदि आदर्श पति हों तो ही पतिव्रता पत्नी की सेवा प्राप्त कर सकेंगे। शरीर की अपेक्षा छाया कुछ कुरूप ही रह जाती है। चेहरे की अपेक्षा फोटो में कुछ न्यूनता ही रहती है। हम अपने आपको जिस स्तर तक विकसित कर सके होंगे, हमारे समीपवर्ती लोग उससे प्रभावित होकर कुछ ऊपर तो उठेंगे, तो भी उसकी अपेक्षा कुछ नीचे रह जावेंगे। इसलिए हम दूसरों से जितनी सज्जनता और श्रेष्ठता की आशा करते हों, उसकी तुलना में अपने को कुछ अधिक ही ऊँचा प्रमाणित करना होगा। हमें हर चन्द यह याद रखे रहना होगा कि उत्कृष्टता के बिना श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं हो सकती।

लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर, लम्बी-चौड़ी डींग हाँककर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती है पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। युग-निर्माण जैसे महान् कार्य के लिए तो यह साधन सर्वथा अपर्याप्त और अपूर्ण हैं। इसका प्रधान साधन वही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊँचा उठाएँ, चरित्रात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ट बनें। अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है। गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने की प्रक्रिया से काम चल सकता है पर व्यक्ति निर्माण के लिए तो निखरे हुए व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता पड़ेगी। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले हमें स्वयं ही आगे आना पड़ेगा। हमारी उत्कृष्टता के संदर्भ में संसार की श्रेष्ठता अपने आप बढ़ने लगेगी। हम बदलेंगे तो युग भी जरूर बदलेगा और हमारा युग-निर्माण संकल्प भी अवश्य पूर्ण होगा।

आज ऋषि-मुनि नहीं रहे जो अपने आदर्श-चरित्र द्वारा लोक-शिक्षण करके जन-साधारण के स्तर को ऊँचा उठाते थे। आज वे ब्राह्मण भी नहीं रहे जो अपने अगाध ज्ञान, वन्दनीय त्याग और प्रबल-पुरुषार्थ से जन-मानस की पतनोन्मुख पशु-प्रवृत्तियों को मोड़कर देवत्व की दिशा में पलट डालने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाते थे। वृक्षों के अभाव में एरंड का पेड़ ही वृक्ष कहलाता है। इस विचारधारा से जुड़े हुए विशाल परिवार—देव परिवार के परिजन अपने छोटे-छोटे व्यक्तित्वों को ही आदर्शवाद की दिशा में अग्रसर करें तो भी कुछ न कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा, कम से कम एक अवरुद्ध द्वार तो खुलेगा ही। यदि हम मार्ग बनाने में अपनी छोटी-छोटी हस्तियों को जला दें तो कल आने वाले युग प्रवर्तकों की मंजिल आसान हो जायेगी। युग-निर्माण सत्संकल्प का शंखनाद करते हुए छोटे-छोटे लोग आगे बढ़ चलेंगे तो प्रसुस पड़ी हुई युगनिर्मात्री शक्तियों के जागरण की आवश्यकता अवश्य अनुभव होगी। राष्ट्र की प्रबुद्धता और चेतना को यदि चारित्रिक संस्थान के लिए हम जाग्रत कर सकें तो आज न सही कल, हमारा युग-निर्माण संकल्प पूर्ण होगा, पूर्ण होकर रहेगा।

युग परिवर्तन की सुनिश्चितता पर विश्वास करना हवाई महल नहीं बल्कि तथ्यों पर आधारित एक सत्य है। परिस्थितियाँ कितनी ही विकट हों, जब सदाशयता सम्पन्न संकल्पशील व्यक्ति एकजुट होकर कार्य करते हैं तो स्थिति बदले बिना नहीं रहती। असुरता के आतंक से मुक्ति का पौराणिक आख्यान हो या जिनके शासन में सूर्य नहीं डूबता था उनके चंगुल से मुक्त होने का स्वतन्त्रता अभियान, नगण्य शक्ति से ही सही पर संकल्पशील व्यक्तियों का समुदाय उसके लिए युग-शक्ति के अवतरण का माध्यम बन ही जाता है। युग-निर्माण अभियान से परिचित व्यक्ति यह भली प्रकार समझने लगे हैं कि यह ईश्वर प्रेरित-प्रक्रिया है। इस संकल्प को अपनाने वाला ईश्वरीय संकल्प का भागीदार कहला सकता है। अस्तु, उसकी सफलता पर पूरी आस्था रखकर उसको जीवन में चरितार्थ करने-कराने के लिए पूरी शक्ति झोंक देना सबसे बड़ी समझदारी सिद्ध होगी।

परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप में हमारा युग-निर्माण सत्संकल्प इस प्रकार है—

(१) हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
(२) शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
(३) मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
(४) इंद्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करेंगे।
(५) अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
(६) मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
(७) समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
(८) चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
(९) अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
(१०) मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे।
(११) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।
(१२) नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
(१३) संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य-प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
(१४) परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे।
(१५) सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे।
(१६) राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
(१७) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है—इस विश्वास के आधार हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
(१८) ‘‘हम बदलेंगे—युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे—युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा पूर्ण विश्वास है।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि उपरोक्त संकल्पों को योजनाबद्ध तरीके से व्यापक रूप दिया जा सका तो हमारा युग-निर्माण का संकल्प अवश्य पूरा होकर रहेगा और यह कार्य उन वैज्ञानिकों से कई गुना अधिक उत्तम होगा जो निरन्तर अपनी बुद्धि को संहार में ही लगाये रहते हैं। हमारी युग निर्माण योजना इन दिनों रचनात्मक प्रयासों में निरत है। प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा, उचित साधनों द्वारा—दूरदर्शी कार्य-पद्धति के साथ सदुद्देश्य लेकर जो भी कार्य आरम्भ हुए हैं सदा सफल होते रहते हैं। विश्वास किया जाना चाहिए कि उपयोगी तथ्यों को ध्यान में रखकर चल रही युग-निर्माण योजना मानव में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार करके रहेगी।