11. काया को रुग्ण और दुर्गतिग्रस्त न बनायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
सृष्टा ने इस संसार में जितने भी प्राणी बनाये हैं, उन सभी को ऐसा शरीर, ऐसा
अवसर एवं ऐसा साधन भी प्रदान किया है कि वे सभी सुख शान्ति पूर्वक रह सकें और
जितना आयुष्य मिला है, उसे पूरी अवधि तक निरोग रह कर जी सकें। अपवाद तो
सर्वत्र देखे जाते हैं, पर सामान्य नियम यही है। इस आधार पर प्राणियों के
अपने संसार चल रहे है।
आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य ही क्यों इस सृष्टि व्यवस्था से अलग हटकर रह रहा है, जबकि उसे अपेक्षाकृत और भी प्रसन्न और बलिष्ठ होना चाहिए था। जिन्हें मात्र प्रकृति प्रेरणा और उपलब्ध साधनों से ही गुजारा करते हुए काम चलाना पड़ता है, उनकी तुलना में मनुष्य की स्थिति कहीं अधिक अच्छी है। अन्यान्यों की अपेक्षा उसकी शरीर संरचना में विलक्षणता है। ऐसे सुनियोजित हाथ किसी को नहीं मिले, जिनमें इतनी अँगुलियाँ, इतने मोड़, इतने जोड़ हों। खड़े होकर चलना किसी को नहीं आता। इसके अतिरिक्त बोलने और सोचने के तन्त्र भी ऐसे हैं, जिनकी समता और किसी प्राणी के साथ नहीं होती। सहकारिता का, आदान-प्रदान का ऐसा विलक्षण स्वभाव उसे मिला है, जिसके सहारे वह परिवार बसाने और समाज बनाने में समर्थ हो सके। प्रगति क्रम में इतना आगे बढ़ सकने की सुविधा उसे निजी पुरुषार्थ से ही नहीं मिली है, ईश्वर प्रदत्त ऐसे उपहार, अनुदान भी उसके साथ है, जो एकांकी उसी के हिस्से में आये हैं। ऐसी विलक्षण काया हस्तगत न हुई होती, तो कदाचित वह भी अपने तथा कथित पूर्वजों की श्रेणी में ही रह रहा होता। चिंपांजी, गोरिल्ला जैसे वन मानुषों की तरह आदिम काल जैसी स्थिति में रहकर ही किसी प्रकार दिन व्यतीत कर रहा होता।
सृष्टा के अनुदानों का उसने भौतिक सुविधा-साधन बढ़ाने में समुचित उपयोग भी किया है। प्रकृति की उसने विनम्र मनुहार भी की है और लड़-झगड़ कर अधिक हथियाने की चेष्टा भी। उसके अंचल में छिपे अनेकानेक रहस्यों को उसने इस उस खिड़की में से ताक-झाँक लगाकर आश्चर्य जनक मात्रा में समेट-बटोर लिया है। आज बिजली, भाप, गैस जैसे सामान्य साधनों से होकर ईथर तरंगों, लेसर किरणों, अणु विकिरणों जैसे रहस्यों तक उसकी पहुँच दौड़ी है। फसल उगाने, खनिजों को खोद निकालने, जल, थल और नभ में द्रुतगामी वाहनों पर दौड़ लगाने, दूर श्रवण, दूर दर्शन जैसी सिद्धियों का अधिष्ठाता बनने की सफलताएँ देखते ही बनती है। कला और साहित्य में उसकी प्रगति अद्भुत है। आजीविका कमाने, सुविधा सम्पन्न निर्वाह करने, समाज बनाने, शासन करने, युद्ध में प्रवीण होने जैसे अनेकानेक कौशल भी हस्तगत किये हैं। शिक्षा, चिकित्सा, परिधान जैसे अगणित सुविधा-साधनों के रहते मनुष्य अन्यान्य प्राणियों की तुलना में अधिक खिन्न विपन्न रहे, तो समझना चाहिए कि कही कोई मौलिक भूल हो रही है, अन्यथा कोई सामान्य कारण ऐसा हो नहीं सकता, जिसके कारण सृष्टि का मुकुटमणि समझा जाने वाला इस प्रकार दीन-हीन मनःस्थिति और खिन्न-विपन्न परिस्थिति में पड़े रहकर दिन गुजारे।
आरोग्य प्रकृति प्रदत्त ऐसा अनुदान है, जो सभी प्राणियों को समान रूप से उपलब्ध है। मनुष्य के पाश-बन्धन में जो प्राणी बँधे है, उन्हें छोड़कर सभी पशु-पक्षी निरोग रहते और कलोल करते है। नियत समय पर मौत बुढ़ापा तो सबको आता है। दुर्घटनाग्रस्त भी कारण वश होना पड़ता है, पर आये दिन बीमार पड़ने जैसा त्रास किसी को भी नहीं सहना पड़ता। सभी गहरी नींद सोते, प्रसन्न वदन उठते और दिन भर कुदकते-फुदकते जिन्दगी का आनन्द लूटते हैं। एक मनुष्य ही है जो आये दिन कराहता कलपता है। दर्द, सूजन, जकड़न, तनाव, अपच, अवरोध उभार जैसी अनेकानेक शिकायतें लेकर हकीमों और दवाखानों में झक मारता फिरता है। दवा-दारु बेचारी क्या करे। उनकी औकात ही कितनी है। कुछ क्षण जादू चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त उनमें से किसी में भी ऐसी क्षमता नहीं है, जो रोग की जड़ तक पहुँच सके और मूल कारण यथावत बना रहने पर भी रोग मुक्ति का वरदान दे सके। यही कारण है कि अस्पतालों, डॉक्टरों और नये-नये औषधि विज्ञापनबाजी के होते रहने पर भी सर्व साधारण का आरोग्य दिन दिन क्षीण होता चला जा रहा है। हर नया दिन पुरानों से बुरा बीतता है। हर पीढ़ी पुरानी से कमजोर होती है।
स्वास्थ्य संवर्धन के निमित्त सरकारों से लेकर वैज्ञानिकों तक को बहुत चिन्ता है। बलवर्धक टॉनिकों के चमत्कारी गुण बता कर विज्ञापन बाज करोड़पति बन गये, किन्तु यथार्थता सर्वथा नंगी है। इस आधार पर किसी को भी खोया स्वास्थ्य वापिस लौटाने का अवसर नहीं मिला। टॉनिक कैप्स्यूल निगलते रहने पर भी किसी का कोई भला नहीं हुआ। अन्ध विश्वासों में बुरे किस्म की मूढ़ मान्यताएँ यह है कि दवाओं के सहारे खोया स्वास्थ्य पाया जा सकता है। इसी में एक कड़ी और भी जुड़ सकती है कि बीमारियों का कारण ग्रह-नक्षत्र, भूत-पलीत या विषाणु-कीटाणु है। यदि वे ही कारण रहे होते तो फिर किसी का भी उनसे बच निकलना कठिन था। वे इतने समर्थ हैं कि किसी को भी दबोच सकते हैं और किसी का भी कचूमर निकाल सकते हैं। उनके सामने बेचारी दवा-दारु की क्या बिसात? किस बलबूते पर वे विषाणुओं को मारें, वात, पित्त, कफ़ से निपटें और ग्रह नक्षत्रों के विरुद्ध किस प्रकार मोर्चा ठानें। यदि वस्तुतः बीमारियों के कारण शरीर से बाहर अन्यत्र रहे होते और वे आक्रमण करके रोगी बनाते तो निश्चय ही उनकी पकड़ से एक भी पशु-पक्षी एवं जीव-जन्तु न बचा होता। जब आठ-गाँठ कुम्यैत, चतुरता में कौए और चीते को मात देने वाले मनुष्य पर वे घात लगा सकती है तो बुद्धिहीन, साधन हीन जीव जन्तुओं को वे क्यों बख्शती। सबसे पहले वे उन्हीं का सफाया करके अपना पेट भरती, इसके बाद मनुष्य से लोहा लेने की मोर्चा बन्दी करती। इस रणनीति से तो बीमारियों समेत हर कोई परिचित है कि पहले दुर्बल पर हमला करना चाहिए। सरल काम में हाथ डालना चाहिए। बीमारियों को इतना भी पता न हो यह हो ही नहीं सकता। ऐसी दशा में विचारणीय यह है कि बीमारियाँ मात्र मनुष्य पर ही हमला क्यों करती है, अन्य जीव-जन्तुओं को दबोचने में उनकी रुचि क्यों नहीं?
तथ्यों तक पहुँचना हो तो आज या हजार वर्ष बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि प्रकृति अनुशासन के प्रति विद्रोह करके मनुष्य ने अपने सिर पर आफत मोल ली है। प्रकृति किसी को नहीं बख्शती। वन विनाश होगा तो वह अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूक्षरण, महामारी का दण्ड देगी। जीवनी शक्ति का ह्रास होगा तो प्रकृति का ब्रह्मास्त्र सीधे प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने वाली रण सेना पर पड़ता है और उनके कमजोर पड़ते ही बीमारियाँ आ घेरती हैं। जीवाणु तो हमारे अपने अन्दर भी है। फिर वे क्यों आफत नहीं मचाते। जब-जब भी उनसे छेड़खानी की जाती है, परावलम्बन पर जी रहे, पर मनुष्य के सहयोगी बनकर बसे हुए ये जीवाणु घातक एण्टीबायोटिक दवाओं से नष्ट होते हुए विकृति को जन्म दे जाते हैं। ऐसी व्याधियाँ विकास क्रम में अत्यन्त घातक बन जाती है और धीरे-धीरे मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती है। आज की परिस्थितियों में जी रहे मनुष्य ने तो सचमुच मूर्खता वश इन बीमारियों को न्यौत बुलाया है और आव भगत के साथ उन्हें अपना मेहमान बनाया है। मनुष्य कितना ही चतुर क्यों न हो, पर वह चतुरता ऐसी नहीं हो सकती जो प्रकृति को चकमा दे सकने में सफल हो सके। मनुष्य कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह प्रकृति व्यवस्था से बड़ा नहीं हो सकता। मनमानी आपस में तो की जा सकती हैं, दुर्बलों को भी सताया जा सकता है, पर प्रकृति को परास्त करने में उस मनमानी को सफलता नहीं मिल सकती। इसी को कहते है राई का पर्वत होना, चिनगारी का दावानल के रूप में प्रकट होना, बीज का वृक्ष बनना और खड्ड में गिरने का मजाक करते ही बेमौत मरना।
मनुष्य ने अनेकानेक आविष्कार किये है और वे सभी एक से एक बढ़कर अद्भुत है। उनमें से चकित करने वाला बहुत बड़ा आविष्कार है-बीमारियों को जन्म देना और उन्हें अपनी ही काया में पाल पोसकर दैत्य जितनी बलिष्ठ बनाना। यह आविष्कार वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ अपने निर्वाह क्रम में से प्रकृति की विधि-व्यवस्था को तोड़-फोड़ कर फेंक देने का दुस्साहस संजोया जाता है, आहार विहार के क्षेत्र में जान-बूझकर पग-पग पर अतिक्रमण उत्पन्न किया जाता है।
इसे दुर्बुद्धि का प्रथम दौर ही कहा जा सकता है, जिसके अनुसार मनुष्य सोचता है कि शरीर खिलौना है और उसके साथ किसी भी प्रकार खिलवाड़ की जा सकती है। उसे औंधा-सीधा किसी भी प्रकार झुनझुने की तरह बजाया जा सकता है, और गेंद की तरह कहीं भी उछाला, पटका जा सकता है, ठोकर मारकर कहीं से कहीं पहुँचाया जा सकता है। यह समझना भूल है कि काया को प्रकृति अवस्था से छीनकर पूरी तरह अपना बना लिया गया है और उसके साथ कैसा ही व्यवहार करते रहने की छूट मिल गई है। यह अहमन्यता एक सीमा तक ही निभ सकती है। जब पेट में हवा भर कर बैल बनने के प्रयास करने वाले मेढ़क जैसा दुस्साहस अपनाया जायेगा तो निश्चय ही उसका बुरा नतीजा होगा। प्रकृति अनुशासन की उपेक्षा करके शरीर के साथ मनमानी करने, धींगा-मुश्ती बरतने में मनुष्य ने पाया कम और खोया अधिक है। अच्छा होता वह तथ्य को समझता, भूल अनुभव करता, वापस लौटता और निर्वाह क्रम ऐसा बनाये रहता जैसा कि संसार के समस्त प्राणी शालीनता पूर्वक अपनाते और सुख शान्ति के साथ दिन बिताते हैं।
प्रकृति अनुशासन ऐसे नहीं है जिन्हें सीखने पढ़ने के लिये किसी कॉलेज में भर्ती होना पड़े या अभ्यास के लिये उस्तादों का शागिर्द बनना पड़े। वह अन्तःचेतना के साथ जुड़े हुए है। प्रकृति प्रेरणा इसी को कहते है। इसे हर जीव जन्तु भली प्रकार अनुभव ही नहीं, पालन भी करते हैं। ईश्वर उदार है वह भक्त जनों के साथ पक्षपात करता और प्रार्थना करने पर क्षमा करता भी सुना जाता है, किन्तु प्रकृति अनुशासन में इस प्रकार के व्यतिरेक की कही कोई गुंजाइश नहीं है। मनुष्य हो या देवता जो भी उसकी अवज्ञा करेगा, करनी का फल भुगतेगा और औंधे मुँह गिरेगा। मनुष्य की कायिक दुर्गति का यदि एक मात्र कारण इसी दुर्बुद्धि को कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।
शरीर मनुष्य को उपभोग करने भर के लिये मिला है। उसके साथ निर्धारित नियमों का उल्लंघन करने की मनमानी नहीं की जा सकती। धरोहर पर मालिक का भी अधिकार बना रहता है। सही उपयोग करने की शर्त पालन करने तक ही वह अधिकार अक्षुण्ण रहता है। किरायेदार मकान को तोड़-फोड़ करने लगे, ऑफिसर सरकारी खजाने को अपने काम लाने लगे तो मुसीबत खड़ी होगी कि नहीं? मोटर अपनी होने पर भी ड्राइवर निर्धारित विधि-व्यवस्था तोड़े तो दुर्घटना होनी निश्चित है। शरीर के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। इस तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिए।
यह काया सही उपयोग करके सही लाभ उठाते रहने भर के लिये अमानत के रूप में दी गयी है। उस पर शत-प्रतिशत अपनी मालिकी नहीं है। इतनी तो स्त्री-बच्चों पर भी नहीं हो सकती। उन्हें अनुचित रीति से सताया नहीं जा सकता। पशुओं तक पर निर्दयता बरतने के विरुद्ध कानून है और वैसा करने पर राजकीय कोप का भाजन बनना पड़ता है। लोक भर्त्सना तो होती ही है। शरीर के सम्बन्ध में इतना तो सोचा ही जाना चाहिए कि वह प्रकृति व्यवस्था से सर्वथा मुक्त नहीं है। उसे सही रूप में सही समय तक बनाये रहना यदि सचमुच ही अभीष्ट हो तो फिर इतना और गाँठ बाँधना चाहिये कि प्रकृति-मर्यादाओं को पालन करने के लिये इच्छा या अनिच्छा से बाधित होना ही पड़ेगा।
अपना मन क्या कहता है? आदत क्या पड़ गई है? प्रचलन क्या है? इन सब बातों को ताक में रख कर इतना ही सोचना होगा कि इन समस्त अड़ंगेबाजी की तुलना में प्रकृति का अनुशासन बड़ा है। अराजकता मचाने पर शासकीय प्रताड़ना सहनी पड़ती है। असामाजिक आचरण करने वाले अपराधी आततायी अपनी करनी का फल भुगतते हैं। प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध ताल ठोकने वाले भी चट्टान से टकरा कर सिर फोड़ने का उदाहरण बनते हैं।
स्वास्थ्य की उपयोगिता जिन्हें विदित हो, जिन्हें निरोग रहना अच्छा लगता हो, जिन्हें अकाल मृत्यु से जल्दी मरने की उतावली न हो, उनको इतनी समझदारी का भी परिचय देना चाहिये कि प्रकृति अनुशासन ऐसा उपक्रम है जिसे जानने, अपनाने और पालने में ही भलाई है। इस संदर्भ में सभी प्राणियों ने अपना आचरण ऐसा बनाया है जिसमें न तो व्यतिरेक का दोष उन पर लगे, न अराजकता, उच्छृंखलता अपनाने पर प्रताड़ना का भाजन बनना पड़े। विष खाने पर न विद्वान बच सकता है न मूर्ख। आग में हाथ डालने पर जलने में न धनी बच सकता है न निर्धन। उस क्षेत्र में राजा, रंक सभी को एक पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है।
आहार और विहार की मर्यादाएँ ऐसी है, जो हर किसी को पालनी चाहिए। वे क्या हो सकती है इसके लिये न वैज्ञानिकों से पूछताछ करनी है, न विशेषज्ञों के पास जाना है, और न पंडितों से धर्म शास्त्रों के अभिवचन जानने है। यह कार्य इस सृष्टि के छोटे से छोटे जीव जन्तु द्वारा अपनाई जाने वाली गतिविधियों का निरीक्षण करके भी सरलता पूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। मनुष्य के पास ऐसा कुछ नहीं है, जिसे सृष्टि के अन्य प्राणी सीखें और अपना सुधार करने की बात सोचे। जीव जगत के हर सदस्य के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे तथाकथित प्रगति की डींग हाँकने वाले मनुष्य में से प्रत्येक को सीखना समझना चाहिये और गलतियों को सुधारने की दूरदर्शिता अपनानी चाहिये। आहार-विहार में औचित्य का समावेश करते ही वह राजमार्ग मिल जाता है जिस पर चलते हुए अविच्छिन्न आरोग्य का लाभ मिल सके। निरोग, बलिष्ठ और दीर्घ जीवन का लाभ मिल सके।
यहाँ यह तथ्य और भी स्मरण रखने योग्य है कि प्रकृति विपर्यय अपनाने में अहित ही अहित है। दुर्बुद्धि हर क्षेत्र में दुर्गति में परिणत होती है। आहार-विहार की प्रकृति विरोधी नीति अपनाये रहने पर हमें अनन्तकाल तक काया को निरोग रखने के लिये ठहरना और तरसना पड़ेगा। औषधि नहीं प्राकृतिक जीवन क्रम ही एक मात्र वह सम्बल है, जो मनुष्य में प्राण शक्ति सतत फूँकता रहता है। इसी के अभाव में व्यक्ति ओज हीन, तेज हीन होते देखे जाते हैं। प्राण शक्ति का संचय आहार-विहार के नियमों का पालन करने पर ही संभव है, इसे एक अकाट्य तथ्य मान कर चलना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
12. जिह्वा पर नियन्त्रण हो तो स्वास्थ्य सुधरे
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
काया को निरोग या रोगी रखना बहुत कुछ जिह्वा की गतिविधियों पर निर्भर है।
जन्मजात रूप से हर किसी की जीभ को प्रकृति-अनुशासन का स्मरण रहता है। उसे
चटोरी तो बाद में बलात्कार पूर्वक बनाया जाता है। बुरी आदतें तो प्रयत्न करने
पर किसी को भी डाली जा सकती है। सरकस के वन मानुष सिगरेट पीते देखे गये हैं।
कितनों को बिना बीड़ी पीये टट्टी नहीं होती। कई नींद की गोली खाये बिना सो
नहीं सकते। इसी प्रकार कुटेव की जकड़न में फँस जाने पर जीभ भी चटोरी हो जाती
है और ऐसे जायके माँगती हैं जो स्वभावतः उसकी आवश्यकता के सर्वथा विरुद्ध,
विपरीत है।
किस जीवधारी के लिए क्या आहार उपयुक्त या अनुपयुक्त है? इसकी जाँच पड़ताल के लिए भीतर प्रवेश करने से पूर्व पदार्थ की आवश्यक जाँच-पड़ताल के लिए एक सुयोग्य पारखी पर्यवेक्षक दरवाजे पर नियुक्त है। उसे स्वाद के आधार पर यह निर्णय देने की क्षमता प्राप्त है कि क्या गले से नीचे उतरने दिया जाय और किसके प्रवेश पर रोक लगा दी जाय। प्रत्येक प्राणी इसी आधार पर अपने आहार की जाँच पड़ताल करता है और मात्र वही ग्रहण करता है जो उसके उपयुक्त है। गाय भूखी मर सकती है, पर माँस नहीं खायेगी। दुःसह प्राण संकट उत्पन्न होने पर भी घास खाकर रहने के लिए रजामंद न होगा। रिश्वत खाने के आदी गलत-सही का विवेक खो बैठते हैं। जीभ के संबंध में भी यही बात लागू होती है। यदि उसकी परख-क्षमता को तथाकथित स्वादिष्ट पदार्थ खिला-खिला कर कुंठित या विकृत कर दिया गया है, तो फिर स्वाभाविक है कि यथार्थवादी निर्णय दे सकने की स्थिति उसकी न रहे। तब वह भी कडु़ई शराब या अफीम की तरह नशेबाजी जैसी रट लगाने लगे।
एक और भी बात है कि वस्तु का स्वरूप बदल देने पर उसकी असलियत का पता लगाना कठिन हो जाता है। उबालने, तलने, भूनने, मिर्च मसाले, शक्कर सुगंध आदि मिला देने पर भी यह पता नहीं चलता कि क्या भक्ष्य है, क्या अभक्ष्य। जब तक वस्तु अपने असली रूप में है, तभी तक उसकी परख हो सकती है। अनेक तरह के सम्मिश्रण कर देने पर जाँच पड़ताल कैसे हो?
प्रत्येक प्राणी आहार को उसके असली रूप में ही ग्रहण करता है। जीवन एवं पोषण भी उसी स्थिति में रहता है। अन्यथा कूटने, भूनने पर तो उसका सारतत्त्व निचुड़ कर, उड़कर अपना गुण ही गँवा बैठता है। मनुष्य स्वाद के लिए अभक्ष्य को भक्ष्य और भक्ष्य को अभक्ष्य बनाने के लिए ऐसी उलट-पुलट करता है जिसको योगाभ्यासियों के शीर्षासन और नटों की तरह हाथ के बल चलने जैसा कौतुक ही समझा जा सकता है। पाकविद्या के नाम पर ऐसी ही बाजीगरी इन दिनों होटलों से लेकर घरों तक में मान्यता पाने लगी है। स्पष्ट है कि इसमें खाद्य पदार्थ के अधिकाँश गुण समाप्त हो जाते है। भूनने, तलने के उपरान्त आहार मात्र स्वादिष्ट कोयले जैसा बनकर रह जाता है जिसकी पेट पर भार लादने के अतिरिक्त और कोई उपयोगिता विशेषता शेष नहीं रह जाती।
नमक मिर्च और खटाई-मिठाई के आधार पर बनाई गई तथाकथित स्वादिष्टता का परिणाम यह होता है कि इस ललक में अनावश्यक मात्रा में ठूँस-ठाँस होती है और बेचारा पेट इतना लद जाता है मानो गधे की पीठ दुहरी हो रही हो। बात बोझ लादने भर की भी तो नहीं है। जो खाया गया है उसे पचाने के लिए बहुमूल्य पाचक रसों की आवश्यकता होती हैं। उनकी मात्रा कम पड़े तो स्पष्ट है कि जो खाया गया है वह पचेगा नहीं, जो पचता नहीं सो सड़ता है। सड़न से विष भरी गैस उत्पन्न होती है। यही है वह निग्रह जो शरीर के जिस-तिस अवयव में भ्रमण करता रहता है और जहाँ भी रुकता है वहीं विस्फोट खड़े करता है। इन विस्फोटों को ही दाह, शोथ, दर्द, तनाव, व्रण आदि के रूप में प्रकट होने पर उन्हें विभिन्न रोगों का नाम दिया जाता है। आमतौर से रुग्णता और दुर्बलता का यही आधारभूत निदान है। जब सही मात्रा में, सही स्तर का रस-रक्त न बनेगा तो पोषण के अभाव में दुर्बलता का दौर रहेगा ही। दुर्बलता के रहते शरीर में उत्पन्न होने वाली गन्दगी को ठीक तरह बाहर निकाल पाना संभव नहीं होता। रुका हुआ विष जहाँ कहीं फूटेगा, पीड़ा उत्पन्न करेगा। इतना जाना जा सके तो प्रतीत होगा कि अनेक नाम रूपों वाले रोगों का वास्तविक कारण अपच है। उसी उद्गम से बहने वाले प्रवाह में जो छोटी बड़ी, टेढ़ी-सीधी लहरें उठती हैं उन्हीं को विभिन्न रोगों के नाम से जाना जाता है।
बात छोटी सी लगती है पर काय संस्थान को जर्जर बनाने में जिस घुन का योगदान रहता है, वह अपच ही है। परहेज का दर्शन पक्ष तो सभी भली-भाँति समझते हैं, सिर हिलाते भी देखे जाते है और पथ्या-पथ्य पर लम्बे भाषण देते नजर आते है। परंतु व्यावहारिक जीवन में ये बातें कोरा ढकोसला भर सिद्ध होती है। बहुसंख्य व्यक्ति खटाई, बघार, अतिरिक्त नमक, मिर्च के बिना रह ही नहीं सकते। मात्र रसना को तृप्ति दी जाने पर वह कितने कुछ दुष्परिणाम खड़े कर सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं की जाती। आहार असंयम से प्रारंभ हुई यह शृंखला पेप्टिक अल्सर, डिसेण्ट्री, पेट में कीड़े, लीवर की कमजोरी, मुँह में छाले, बवासीर, रक्त में अम्लाधिक्य का स्वरूप लेती हुई सारी काया को अंदर ही अंदर अव्यवस्थित करती चली जाती है। उपचार इन प्रतिक्रियाओं का किया जाता है, मूल का नहीं। लक्षण कुछ दिन मिट जाते है, फिर उभर कर विकराल रूप में सामने आते है।
ऐसी दशा में सारी भ्रान्तियों को मिटाते हुए उनका उपचार एक ही किया जाना चाहिए-अपच का निवारण। यह काम पाचकचूर्ण, गुटिकाओं, आसव-अरिष्टों का नहीं वरन् उन उपायों के अवलम्बन का है, जिनसे पेट पर लदने वाला अनावश्यक वजन घटे और उसे उतना ही काम करना पड़े, जिसे कर सकने में वह सक्षम है। पेट पर अनावश्यक भार क्यों लदता है? इसका उत्तर एक है-चटोरेपन की ललक में तब तक ठूँस-ठाँस करते जाना, जब तक कि पेट तनने न लगे और फटने की पूर्व सूचना न देने लगे। इसे एक शब्द में पाचन तन्त्र के प्रति बरता गया निष्ठुर अत्याचार ही कहा जा सकता है। आज हममें से अधिकांश को ऐसे ही अत्याचारी अपराधियों की पंक्ति में खड़ा किया जा सकता है और आत्मघात की एक प्रक्रिया अपनाने जैसा अभियोग भी चल सकता है। मनुष्यकृत दण्डविधान में इस प्रकार के अपराध करने वालों को प्रताड़ना देने का अनुबंध नहीं है तो क्या? प्रकृति के अपने कानून तो है। ऐसे कठोर, ऐसे सुनिश्चित जिनसे बच निकलना कठिन है। कल न सही परसों तो उनके दुष्परिणाम भुगतने ही होते है। रोगी को जो व्यथाएँ सहनी पड़ती है उनकी तुलना नरक के यमदूतों के जल्लादी प्रसंगों से की जा सकती है। बर्बर समाजों में अंग काटने, कोढ़े मारने जैसे प्रचलन आदिम−युग की तरह अभी भी विद्यमान है। रोगजन्य पीड़ाओं की उनसे तुलना की जा सकती है और इसे प्रकृति व्यतिरेकों से उत्पन्न होने वाली स्वसंचालित विधि व्यवस्था कहा जा सकता है।
बात वहाँ से आरंभ होती है जहाँ मनुष्य जीभ की आदत बिगाड़कर उसे चटोरी बनाने के लिए पाकविद्या के नाम पर प्रवंचना भरी दुरभिसंधि रचता है। मसाले और मिठाई खाना मनुष्य की मौलिक प्रकृति में सम्मिलित नहीं है। छोटे बच्चे को मिर्च चखाई जाय तो वह तिलमिलाने लगेगा और उस प्रभाव को निकाल बहाने के लिए मुँह से पानी बहने लगेगा। मसाले ऐसे ही अवांछनीय पदार्थ है, जो आँख-नाक जैसे कोमल स्थानों तक पहुँच जाने पर आफत करते हैं और उस पहुँच को खदेड़ने के लिए पानी बहाने लगते हैं। शक्कर के संबंध में भी यही बात है, वह मुँह की लार का अनावश्यक क्षरण करती है, साथ ही गले में दाह भी। मुँह की लार सैलावा इतना निरर्थक पदार्थ नहीं है कि उसे भोजन चबाने तक सम्मिश्रण करने के अतिरिक्त अन्य अवसरों पर भी अकारण बहाया जाय। उसका भण्डार भी सीमित है। अनावश्यक क्षरण का परिणाम यह होता है कि नाक, कान, आँख, मस्तिष्क आदि के लिए काम आने वाला पोषण नीचे खिसकता है और उन्हें अभावग्रस्त स्थिति का सामना करना पड़ता है। मसाले न केवल पेट पर ही भार लादते है, वरन् मुँह के बहुमूल्य रसों को अनावश्यक मात्रा में बहाकर शिर पर अवस्थित बहुमूल्य अवयवों की सामर्थ्य का भंडार खाली करते हैं। इससे दुहरा घाटा है। लाभ मात्र इतना ही है कि जीभ को थोड़ी देर के लिए दाद जैसी खुजली खुजाने का मजा चखने को मिलता रहे। यह कोई भी सोच सकता है कि जायकेदार भोजन अधिक मात्रा में खाया गया इसलिए उससे लाभ भी अधिक मिलेगा, यह भयंकर भूल है। जो पचता है वही पोषण प्रदान करता है। बिना पचा, भाररूप भोजन तो पाचनतन्त्र के गिरने लगने जैसी विपन्नता ही उत्पन्न करता है। उससे जो रस बनता है उसे विषभरी गैस ही कह सकते है। इस विषाक्तता को उगाने वाला व्यक्ति पोषण के अभाव में दुर्बल भी रहेगा और विग्रहों की भरमार जमते जाने पर चित्र विचित्र रोगों का शिकार भी होगा।
इस विपत्ति की जड़ वहाँ से आरंभ होती है जहाँ मनुष्य हरे आहार से मुँह मोड़कर उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए जलाने, उबालने की बात सोचता है। सृष्टि के सभी प्राणी सजीव आहार ग्रहण करते हैं। मनुष्य शाकाहारी है। इसलिए उसका स्वाभाविक भोजन हरी वनस्पतियाँ अपने स्वाभाविक रूप में ही हो सकती है। फलाहार इस दृष्टि से सर्वोत्तम कहा जा सकता है। बड़े पेड़ों पर लगने वाले महँगे फल खरीदना यदि महँगा पड़ता हो, तो सस्ते ऋतुफलों से भी काम चल सकता है। शाक प्रजातियों में भी कितनी ही ऐसी हैं जो फलों का काम देती है। खरबूजा, तरबूजा, टमाटर, पपीता, केला जैसे फल ऐसे ही है, जिन्हें फल और शाक के मध्यवर्ती कह सकते हैं। जब फसल आती है तब आम, जामुन, शहतूत, अमरूद, गाड़ी भर-भर कर आते है और अनाज से कहीं सस्ते बिकते हैं। शाकों में कितने ही ऐसे हैं जो बिना पकाए कच्चे भरपेट खाये जा सकते हैं। बैंगन, भिण्डी, गाजर, मूली, चुकन्दर, सलाद, चौलाई, पालक आदि ऐसे हैं जो बिना उबाले भी खाए जा सकते हैं। अनाजों में सभी ऐसे हैं जो पककर सूखने से पहले, जब तक हरे गीले हैं, तब तक भली प्रकार कच्चे खाए जा सकते हैं। सूख जाने पर उन्हें पानी में भिगोकर अंकुरित किया जा सकता है और हरी कच्ची, सजीव स्थिति में फिर वापिस लौटाया जा सकता है।
लगता हो कि इतना पीछे लौट सकना इतनी जल्दी संभव न हो सकेगा, तो फिर इतना तो करना ही चाहिए कि सूखे अन्न की मात्रा कम और शाक फलों की मात्रा अधिक रखी जाय। भूनने, तलने की अपेक्षा मन्दी आग पर ढक्कन बन्द करके उबालने भर से काम चलाना चाहिए।
यह स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि हर खाद्य पदार्थ के छिलके वाले भाग में सबसे अधिक सार-तत्त्व होता है। इसलिए नितान्त विवशता होने पर भी छिलका न उतारा जाय, उन्हें दलिये के रूप में प्रयोग किया जा सके तो सर्वोत्तम। अन्यथा आटे को छानकर छिलका फिर उसी में मिला देना चाहिए। चावल पालिश किए हुए नहीं, हाथ के कुटे हुए लिए जायें। दालें साबुत बनाई जायें ताकि उनका छिलका और दोनों दलों की मध्यवर्ती गठान बर्बाद न होने पाये। शाकों में अरबी, कटहल जैसे कुछ ही शाक ऐसे हैं जिसका छिलका हटाए बिना काम नहीं चलता। अन्यथा अधिकाँश को छिलके समेत उबाला जा सकता है। आलू, लौकी, तोरी जैसे शाकों में छिलका हटाने की आवश्यकता तो है ही नहीं।
खाते समय चार बातों का ध्यान रखने से काम चल जाता है। एक यह कि चौबीस घण्टे में दो बार से अधिक न खाया जाय। बीच में जरूरत पड़े तो कोई पेय भर लिया जाय। बार-बार न खाया जाय। दूसरा यह कि ग्रास को देर तक इतना चबाया जाय कि वह मुँह के स्राव मिलने पर गले से नीचे सरलतापूर्वक उतर सकने जितना पतला हो जाय। तीसरा यह कि आधे पेट खाया जाय। आधा हवा, पानी की गुंजायश रखने के लिए खाली रखा जाय। चौथा यह कि भोजन के समय थोड़ा ही पानी पिया जाय, हो सके तो नहीं लिया जाय। आवश्यकतानुसार एक घंटा उपरान्त पिया जा सकता है। इन निर्धारणों का कड़ाई से पालन किया जाय और ऐसा नियम बनाया जाय कि सप्ताह में एक दिन न सही, एक समय का उपवास तो किया ही जाय। उपवास से मतलब कुछ न खाने, पेट को विश्राम देने से है। काम न चले तो दूध, छाछ, रस, रसा जैसा कोई पतला पेय मात्र लेना चाहिए। ऋषि अन्न के नाम पर भूनकर, तलकर जो खाद्य पदार्थ बनाए जाते हैं वे उपवास का प्रयोजन पूरा करना तो दूर उल्टे अपच को ही जन्म देते हैं। उपवास का अर्थ ही है-परिपूर्ण विश्राम।
अदरक, नीबू, आँवला, धनिया, पुदीना जैसी वस्तुएँ आवश्यकतानुसार दाल, शाक में मिलाई जा सकती है। मिर्च, लौंग, हींग जैसे गरम मसालों से तो परहेज ही करना चाहिए। शक्कर के स्थान पर गुड़ लिया जा सकता है, पर उसकी मात्रा भी कम ही होनी चाहिए। कई चीजें एक साथ लेने की अपेक्षा यह अच्छा है कि एक समय में दो ही वस्तुएँ ली जायें। दलिया, खिचड़ी जैसे अमृताशन हलके भी रहते हैं और सस्ते भी। उन्हीं में कोई शाक काटकर डाला जा सकता है। भोजन स्वाद के लिए नहीं, औषधि मानकर लिया जाय और उसके गुणों को प्रधानता दी जाय। पकाने एवं परोसने में सफाई, सात्विकता के अतिरिक्त उस कार्य को करने वालों के स्वास्थ्य पर भी नजर रखना आवश्यक है। गंदगी किसी भी स्तर की क्यों न हो, भोजन के साथ मिलकर खाने वालों के स्वास्थ्य और संतुलन पर बुरा प्रभाव डालती है।
खानपान के सम्बन्ध में पड़ी हुई बुरी आदतों को छोड़कर औचित्य की मर्यादा के अनुरूप नया स्वभाव ढाला जा सके तो समझना चाहिए कि दुर्बलता एवं रुग्णता से पीछा छुड़ाने वाले नव निर्धारण का सुयोग सौभाग्य हाथ आ गया।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
14. कला प्रोत्साहन की उपयोगिता आवश्यकता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
मानवी आवश्यकताओं में आजीविका कुशलता की भाँति एक पक्ष विनोद मनोरंजन भी है।
उसकी सर्वथा उपेक्षा नहीं हो सकती। मनुष्य मशीन नहीं है और न कोल्हू के बैल
की तरह वह निरन्तर कार्यरत ही बना रह सकता है। थकान उतारने के लिए विश्राम की
आवश्यकता पड़ती है और ऊब का भार हलका करने के लिए मनोरंजन की। उसका प्रबन्ध
शिक्षा-आजीविका स्तर का न सही, हलके-फुलके रूप में तो करना ही पड़ता है।
साप्ताहिक छुट्टियों का, पर्व-त्यौहारों का निर्धारण इसी हेतु हुआ कि एकरसता
के कारण जो ऊब आती है, उसे दूर करने के लिए प्रसन्नता प्रदान करने वाली
गतिविधियाँ अपनाकर जी हलका किया जा सके, नवीन उत्साह अर्जन करके नये सिरे से
निर्धारित काम पर जुटा जा सके।
सृष्टा ने शरीर में कई उपयोगी संस्थान ऐसे बनाये हैं, जो अपने महत्त्वपूर्ण काम करने के साथ-साथ मनोरंजन भी प्रदान करते रहते हैं। नेत्र, कान, रसना, जननेन्द्रियों में अपने-अपने ढंग के रस है। वे दुहरा काम करती हैं। इतने पर भी काम नहीं चलता। प्रकृति सम्पर्क से पर्यटन-पर्यवेक्षण जैसी गतिविधियाँ भी अपनानी पड़ती है। परिश्रम भी आहार की तरह निर्वाह प्रक्रिया का अविच्छिन्न अंग है। उसे यो तो उद्योग, व्यवसाय एवं निर्वाह कृत्यों से भी पूरा किया जाता है। पर उतना ही पर्याप्त नहीं माना जाता। इसके लिए खेलकूदों की, प्रतिस्पर्धाओं की अन्यान्य योजना भी बनती रहती है।
अपने-अपने समय में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रचलन रहे हैं। अस्त्र-शस्त्रों के धनी मृगया को विनोद माध्यम मानते रहे हैं। सर्वसाधारण के लिए गीत-वाद्य माध्यम बनाया जाता रहा है। छोटे-बड़े उत्सवों में उनके छोटे-बड़े सस्ते-मँहगे सामूहिक उपक्रम बनते रहते हैं। लोकगीतों की तरह लोक नृत्यों का भी अपना, अपने समय पर, अपने क्षेत्रों में अपना माहौल रहता है। सामूहिक उल्लास का उभार प्रदर्शन-दर्शकों तक में थिरकन उत्पन्न करता है। यह सभी प्रचलन जब तक विशुद्ध विनोद परक रहे और मानसिक थकान उतारने में योगदान देते रहे, तब तक उनका जन-जीवन में समुचित स्थान, सम्मान भी रहा। उन प्रयोजनों के संचालन, अध्यापन, संगठन में कितने ही प्रतिभाशील व्यक्ति अपना उत्साह भरा योगदान देते रहे। इस माहौल में व्यक्ति की रस कामना का समाधान बनता रहा और हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकने का माहौल बना रहा।
ट्रेजेडी तब हुई, जब इन विनोद प्रयोजनों में से प्रत्येक में अश्लीलता का प्रवेश चल पड़ा। दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अब विनोद और कामुकता का उत्तेजन प्रायः पर्यायवाची बन चले हैं। यह तो कला की देवी को स्वर्ग से उतारकर, नरक में बिठा देना और उसे वैश्या जैसी दुष्प्रवृत्ति अपनाने के लिए विवश करना जैसा हुआ। साहित्य को मनीषा का अंग माना जाय तो फिर कला का शेषांश गायन-वादन और नृत्य अभिनय के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। क्या कारण है कि इस उत्कृष्ट प्रवृत्ति को अधोगामी मोड़ मिला और स्थिति कहाँ की कहाँ जा पहुँची?
उन दिनों तो धर्म शब्द के अन्तर्गत ही नीति, सदाचार, लोक व्यवहार, स्वास्थ्य, परिवार, अनुशासन, मनोविज्ञान, आत्म-निर्माण, लोक-कल्याण जैसे सभी विषय सिमटकर रहते थे। अब जीवन का अनेकानेक क्षेत्रों में विकास, विस्तार हुआ है, तो इन विषयों के भी स्वतन्त्र स्थान बन गये। ठीक इसी प्रकार मानसिक परिष्कार और उल्लास में काम आने वाले हलके-फुलके प्रयोजन तब संगीत साहित्य, कला के एक परिकर में बँधते थे। अब साहित्य का मनीषा में और मूर्ति, चित्रकला आदि का सृजन-शिल्प में विभाजन कर देने पर कला शब्द के अन्तर्गत वे थोड़े से प्रयोजन ही रह जाते हैं जिनमें मन को गुदगुदाने की, हुलसाने की रुचि है।
इन प्रसंगों का स्वरूप सौम्य, सर्वोपयोगी एवं प्रेरणाप्रद ही रहना चाहिए। इन दिनों प्राचीन काल के विस्तृत और अर्वाचीन सीमित क्षेत्रों के सभी पक्षों पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कामुकता का प्रवेश बढ़ता और आधिपत्य जमता जा रहा है।
जीवन की एक महत्त्वपूर्ण दिशा विद्या और आवश्यकता को उपेक्षित या विकृत कर देने से अनेकानेक कुत्साएँ और कुंठाएँ उत्पन्न हुई हैं। छोटे बालक सारे दिन हँसते-हँसाते, विनोद मस्ती करते, खेलते-खिलाते अपना समय बिताते हुए जीवन क्षेत्र में प्रवेश करते है। यही है राजमार्ग, आनन्द बटोरते और बिखेरते हुए प्रगतिशील जीवन जी सकने का। प्रकृति ने आरम्भ में ही इसका समावेश मानवी स्वभाव में सम्मिलित किया है। किशोरावस्था की वय संधि में यद्यपि विद्याध्ययन को प्रमुखता दी जाती है, किन्तु फिर भी खेलकूद को उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ रखा जाता है। जो बच्चे खेलते नहीं, जिन्हें वैसा अवसर या प्रोत्साहन नहीं मिलता वे आगे चलकर आत्महीनता की ग्रन्थि में बँधते-जकड़ते जाते हैं। निराश, नीरस जीवन जीते है और व्यवहार में मनहूस जैसे दृष्टिगोचर होते हैं।
यहाँ एक और दुर्घटना होती है, यदि बचपन के विनोद क्रम को किशोरावस्था में सर्वथा अवरोध दीखता है तो वह कुमार्ग पर भटकती है। आवारागर्दी में भटकने वाले कितने ही लड़के अपने साथी तलाश करते-फिरते है ताकि मजेदारी मिल जुलकर और भी अच्छी तरह निभ सके।
उस चाण्डाल चौकड़ी में से अनेकानेक दुर्व्यसन सीखते, जिस-तिस बहाने घर से गायब रहते तथा पैसे चुराते है। अप्राकृतिक यौनाचार, जुआ, चोरी, आवारागर्दी, मटरगश्ती, नशा, ताश, सिनेमा जैसे अनगढ़ मनोरंजन ही सरलता पूर्वक मिल जाते हैं। इसके लिए कोई आन्तरिक तन्त्र नियोजित नहीं करना पड़ता। एक दो लड़के मिलकर ही उस कुचक्र का छोटा-बड़ा रूप खड़ा कर लेते हैं। कई मिल गये तब तो एक अच्छा खासा गिरोह ही बन जाता है। इस आँवे में पककर यौवन की दहलीज पर पैर रखते-रखते ये किशोर अपराधियों की अच्छी खासी भूमिका निभाने लगते हैं। कई तो उनमें से दुस्साहसी, आक्रामकों और दस्यु तस्करों के रूप में अपना आतंक जमाते हैं। बात लड़कों तक ही सीमित नहीं है लड़कियों के लिए भी वह पगडंडी खुली पड़ी है। फैशन का चस्का लगने, इच्छा, आवश्यकता भड़कने, प्रदर्शन, प्रशंसा, आकर्षण की ललक उभरने पर सहेलियों से आगे बढ़कर वह साथी तलाश करती है या उनके चंगुल में जा फँसती है। आगे क्या-क्या होता है, इसकी परिणति हत्या, आत्महत्या, अपहरण जैसी दुर्घटनाओं के रूप में सामने आती रहती है।
इस दुर्दशा तक पहुँचाने में विनोद, आकाँक्षा की कला प्रवृत्ति को अवसर न मिलने और कुमार्ग छिद्रों से फूट निकलना कहा जा सकता है। अच्छा हो मानवी मनोविज्ञान को समय रहते समझा जाय और उसके लिए उपयुक्त द्वार खुला रखने का व्यावहारिक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण कदम उठाने में कुछ भी कमी शेष न रखी जाय।
घर के नियन्त्रण से थोड़ी छूट मिलते ही काम धन्धे में लगने से पूर्व ही कितनी ही बुरी आदतों में नवयुवकों को ग्रस्त होते देखा गया है। इसका कारण वातावरण में अवांछनीयता का विषाक्त आकर्षण एवं माहौल तो है ही, पर उसके साथ-साथ विनोदवृत्ति के लिए समुचित अवसर न मिलने से उत्पन्न कुंठा भी एक बड़ा कारण है, जो जिस-तिस मार्ग से फूटती और विकृतियों के रूप में प्रकट होती है। जिन लड़कों को प्रतियोगिताओं-प्रतिस्पर्द्धाओं में रस आने लगता है वे खेलकूदों में रुचि लेते और पराक्रमी प्रतिभावान बनते देखे गये हैं। महत्त्वाकांक्षाओं से रहित अर्द्धमृत ही होते है। सामान्यतया हर जीवन्त में कुछ बनने, कुछ बढ़ने, कुछ कर दिखाने और कुछ समेटने-बटोरने की ललक उभरती रहती है। इनका सामयिक और सस्ता समाधान कला प्रयोजनों के द्वारा मिलता रहता है। अस्तु उसे जीवन की आवश्यकताओं में सम्मिलित रखा गया है। स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, परिवार जैसी आवश्यकताओं में यदि कला विनोद को भी सम्मिलित रखा जाय तो उसे अनुचित नहीं माना जाना चाहिए।
कामुकता की अभिवृद्धि का इन दिनों जो अंधड़ चल रहा है, उसके पीछे कला प्रवृत्ति का अवरोध या व्यतिरेक भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है। अश्लील चित्र, साहित्य दृश्य, देखने की ललक कलारुचि का ही एक अंग है। भिन्न लिंग के साथ छेड़खानी में गुदगुदी लगती है। आरम्भ में यह ऐसे ही हलके फुलके ढंग से चल पड़ती है। बाद में घनिष्ठता एवं व्यग्रता बढ़ने पर उसका रूप विकृत एवं उद्धत होता चला जाता है और बात उद्दंडता तक जा पहुँचती है। समलिंगी आकर्षण एवं आत्मरति जैसे दुर्व्यसन एक रास्ते पर चलते हुए मिलने वाले खाई खंदक है। चिन्तन का एक आकर्षक विषय बन जाने पर उस दुष्प्रवृत्ति के परिपोषण में जो कुछ दीखता या बन पड़ता है, प्रकारान्तर से उसी को अश्लीलता या कामुकता के हेय रूप में विकसित होते देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में उफनने वाली अवांछनीयता की हानि को यदि समझा जा सके और उसकी रोकथाम आवश्यक प्रतीत हो, तो समस्या की जड़ तक पहुँचना चाहिए और उसका समाधान दूरदर्शिता अपनाते हुए सोचना चाहिए। इस मन्थन निष्कर्ष में हमें कला को सही स्वरूप में विकसित एवं परिष्कृत करने के वे आधार खड़े करने चाहिए, जो कुछ समय पूर्व तक सर्व सुलभ थे, पर अब तथाकथित प्रगतिशीलता एवं सभ्यता के दबाव में उपेक्षित एवं विस्मृत होते जा रहे हैं।
अच्छा हो जन जीवन में गायन, वादन और नृत्य अभिनय को सुनियोजित एवं शालीन ढंग से विकसित होने दिया जाय। उसके विस्तार से जन-जीवन को प्रमुदित उल्लसित रहने का अवसर मिलने दिया जाय। इसी का दूसरा पक्ष है-खेलकूदों का माहौल। इसमें स्वास्थ्य सम्वर्धन और साहसिकता के विकास का भी दुहरा लाभ अतिरिक्त रूप से जुड़ता है। यों गीत नृत्य में भी सम्वेदनाएँ तरंगित करने की विशेषता है। उस आधार पर श्रद्धा करुणा, ममता जैसी सद्भावनाओं को उभरने, तरंगित होने का अवसर मिलता है। इस क्षेत्र का समुचित परिपोषण चलता रहे, तो व्यक्ति भक्ति-भावना का धनी बन सकता है और आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाले महामानवों तक ऊँचा उठ सकता है। कला मात्र विनोद ही नहीं है, उसमें सद्भावनाएँ उभारने और सत्प्रवृत्तियों को बलिष्ठ बनाने की भी उच्चस्तरीय क्षमता विद्यमान है। आवश्यकता सही स्वरूप और सदुपयोग की है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है।
अच्छा हो वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति की बात सोचते समय कला पक्ष को भी ध्यान में रखें और उसे सर्वसुलभ बनाने के लिए कारगर कदम उठायें। इस संदर्भ में व्यायामशालाओं की स्थापना, खेलकूदों के सुनियोजित प्रचलन, प्रशिक्षण की बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। उनकी प्रतियोगिताओं पर, प्रदर्शन आयोजन पर जोर दिया जाना चाहिए। इससे न केवल उसके भागीदारों की प्रखरता बढ़ती है वरन् दर्शकों को भी उत्साहवर्धक, आनन्ददायक लगते हैं। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी को उन्हें देखते हुए रस आता है।
बड़े लोगों द्वारा बड़े रूप में खर्चीले ठाठ-बाट के साथ सम्पन्न होने वाले खेलकूदों की चर्चा अख़बार, रेडियो, टेलीविजन पर दृष्टिगोचर होती रहती है। अच्छा हो इसका छोटा ‘चरखा संस्करण’ हर गाँव मुहल्ले में आरम्भ किया जाय और समर्थ गुरु रामदास के व्यायाम प्रधान हनुमान मन्दिरों जैसा प्रयास उभरे।
घरों में खिलौने बनाना, पुष्प वाटिका, घरेलू शाक वाटिका, सज्जा-उपकरण, गृह-उद्योग, हस्त-कौशल, मरम्मत, कढ़ाई-बुनाई, कथा-कीर्तन, आरती, गीत, वाद्य जैसे कितने ही छुट-पुट प्रयोजन ऐसे खड़े किये जा सकते है जिनसे उत्साहवर्धक वातावरण बनाने और सृजनात्मक प्रवृत्तियों को उभारने का सुयोग बनता है। जिन्हें रेडियो टेलीविजन आदि की सुविधा प्राप्त है वे उनके उपयोगी प्रोग्रामों को देखते सुनते रह सकते हैं। पशु पक्षियों को भी यदि जकड़ा बाँधा न जाय तो उनका पालन भी शिशु पालने की तरह ही आकर्षक बन जाता है।
सुगम संगीत का प्रशिक्षण गली मुहल्लों में चल पड़े। इसके लिए पाठशालाएँ और मण्डलियाँ गठित की जाय, जो इच्छुकों को सिखाती भी रहें एवं पर्व-त्यौहारों, हर्षोत्सवों के अवसर पर अपने कौशल का प्रदर्शन भी करती रहे। महिलायें विवाह शादियों और पर्व-त्यौहारों पर गीत वाद्य की परम्परा अभी भी किसी रूप में चला लेती है। उसमें कला और भावना का समन्वय करके और भी अधिक उत्साह वर्धक बनाया जा सकता है। स्कूलों में संगीत कक्षाएँ बढ़ाने पर विशेष रूप से जोर देने की आवश्यकता है। प्रौढ़ पाठशालाओं की तरह निजी प्रयास से छोटी संगीत पाठशालाएँ भी खुल सकती है। जिनमें शास्त्रीय संगीत न सही, लोक गीतों को गाने और स्थानीय सस्ते वाद्ययन्त्रों का काम चलाऊ अभ्यास करने की व्यवस्था तो सरलता पूर्वक बन सकती है। उत्साह उभारने और आरम्भिक ढाँचा खड़ा करने पर प्रदर्शन तथा समारोह जैसा स्तर भी बढ़ सकता है।
नृत्य अभिनय को एक कला-कौशल एवं छोटे उद्योग-व्यवसाय का रूप मिल सकता है। रामलीला, रासलीला आदि का कुछ समय तक अच्छा प्रचलन था। ढोला-मारू, आल्हा-ऊदल,नौटंकी, स्वाँग, रसिया आदि में नृत्य गीतों का समन्वय रहता था। इन कार्यों में संलग्न मण्डलियाँ आजीविका भी कमाती थी और लोकरंजन का प्रयोजन भी पूरा करती थी। इन दिनों एक्शन साँग, गीत, नाटिकाएँ, प्रहसन, अभिनय, कठपुतली, जादूगरी जैसे अनेकों ऐसे आधार खड़े हो सकते हैं जिनमें संलग्न व्यक्तियों का निर्वाह चलता रहे और प्रेरणाप्रद मनोरंजनों की आवश्यकता का सुयोग भी बनता रहे। लोग सिनेमा, थियेटर, सरकस आदि पर ढेरों समय और धन खर्चते और बदले में अवांछनीय प्रभाव लेकर वापिस लौटते हैं, इसके स्थान लोक-अभिनय के लिए गठित थोड़ी कला मण्डलियाँ भली प्रकार पूरा कर सकती है।
नट, मदारी, बाजीगर स्तर के उद्योग तो अब समाप्त होते जा रहे हैं। उन कष्ट साध्य कार्यों में हाथ डालने की पैतृक परम्परा भी अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। पर उनके स्थान पर चलते-फिरते सिनेमा, चित्र-प्रदर्शनी जैसी नई वस्तुएँ बन सकती है। प्रदर्शनियों की सजावट, प्रतियोगिताएँ एवं जहाँ-तहाँ मेले लगाने, हाट बाजारों का प्रचलन करने की ऐसी व्यवस्थाएँ बन सकती है, जिनमें पहुँचकर लोग अपना मन हलका कर सकें और साथ ही सामयिक आवश्यकताएँ भी जुटा सकें।
स्मरण रहे कला विनोद की आवश्यकता भले ही कम महत्त्व की प्रतीत होती हो, पर तत्त्वतः उसकी उपयोगिता आवश्यकता ऐसी नहीं है जिसकी ओर से आँखें बन्द रखी जाये एवं उपेक्षा बरती जाय। इस प्रयोजन के लिए हमें कुछ सोचना ही नहीं करना भी चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
15. मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
समुद्र में जब तक बड़े ज्वार-भाटे उठते रहते हैं तब तक उस पर जलयानों का ठीक
तरह चल सकना सम्भव नहीं होता। रास्ता चलने में खाइयाँ भी बाधक होती हैं और
टीले भी। समतल भूमि पर ही यात्रा ठीक प्रकार चल पाती है। शरीर न आलसी, अवसाद
ग्रस्त होना चाहिए और न उस पर चंचलता, उत्तेजना चढ़ी रहनी चाहिए। मनःक्षेत्र
के सम्बन्ध में भी यही बात है, न उसे निराशा में डूबा रहना चाहिए और न
उन्मत्त, विक्षिप्तों की तरह उद्वेग से ग्रसित होना चाहिये। सौम्य सन्तुलन ही
श्रेयस्कर है। दूरदर्शी विवेकशीलता के पैर उसी स्थिति में टिकते हैं।
उच्चस्तरीय निर्धारण इसी स्तर की मनोभूमि में उगते-बढ़ते और फलते फूलते है।
पटरी औंधी तिरछी हो तो रेलगाड़ी गिर पड़ेगी। वह गति तभी पकड़ती है, जब पटरी की
चौड़ाई-ऊँचाई का नाप सही रहे। जीवन-क्रम में सन्तुलन भी आवश्यक है। उसकी
महत्ता पुरुषार्थ, अनुभव, कौशल आदि से किसी भी प्रकार कम नहीं है। आतुर,
अस्त-व्यस्त, चंचल, उद्धत प्रकृति के लोग सामर्थ्य गँवाते रहते हैं। वे उस
लाभ से लाभान्वित नहीं हो पाते जो स्थिर चित्त, संकल्पवान्, परिश्रमी,
दूरदर्शी और सही दिशाधारा अपना कर उपलब्ध करते हैं। स्थिरता एक बड़ी विभूति
है। दृढ़ निश्चयी धीर-वीर कहलाते हैं। वे हर अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में
अपना संतुलन बनाये रहते है। महत्त्वपूर्ण निर्धारणों के कार्यान्वित करने और
सफलता के स्तर तक पहुँचने के लिए मनःक्षेत्र को ऐसा ही सुसन्तुलित होना
चाहिए।
निराशा स्तर के अवसाद और क्रोध जैसे उन्माद आवेशों से यदि बचा जा सके तो उस बुद्धिमानी का उदय हो सकता है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्रज्ञा कहते और जिसे भाग्योदय का सुनिश्चित आधार माना जाता है। ऐसे लोगों का प्रिय विषय होता है उत्कृष्ट आदर्शवादिता। उन्हें ऐसे कामों में रस आता है, जिनमें मानवी गरिमा को चरितार्थ एवं गौरवान्वित होने का अवसर मिलता हो। भविष्य उज्ज्वल होता हो और महामानवों की पंक्ति में बैठने का सुयोग बनता हो। इस स्तर के विभूतिवान बनने का एक ही उपाय है कि चिन्तन को उत्कृष्ट और चरित्र, कर्तृत्व से आदर्श बनाया जाय। इसके लिए दो प्रयास करने होते है, एक संचित कुसंस्कारिता का परिशोधन उन्मूलन। दूसरा अनुकरणीय अभिनन्दनीय दिशाधारा का वरण, चयन। व्यक्तित्वों में उन सत्प्रवृत्तियों का समावेश करना होता हैं जिनके आधार पर ऊँचा उठने और आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। कहना न होगा कि गुण, कर्म, स्वभाव की विशिष्टता ही किसी को सामान्य परिस्थितियों के बीच रहने पर भी असामान्य स्तर का वरिष्ठ अभिनन्दनीय बनाती है।
यह मान्यता अनगढ़ों की है कि वैभव के आधार पर ही समुन्नत बना जा सकता है, इसलिए उसे हर काम छोड़कर हर कीमत पर अर्जित करने में अहर्निश संलग्न रहना चाहिए। सम्पन्नता से मात्र सुविधाएँ खरीदी जा सकती है और वे मात्र मनुष्य के विलास, अहंकार का ही राई रत्ती समाधान कर पाती है। राई रत्ती का तात्पर्य है, क्षणिक तुष्टि। उतना जितना कि आग पर ईंधन डालते समय प्रतीत होता है कि वह बुझ चली। किन्तु वह स्थिति कुछ ही समय में बदल जाती है और पहले से भी अधिक ऊँची ज्वालाएँ लहराने लगती हैं। दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने में वैभव काम आ सकता है। दर्प दिखाने, विक्षोभ उभारने के अतिरिक्त उससे और कोई बड़ा प्रयोजन सधता नहीं है। अनावश्यक संचय के ईर्ष्या द्वेष से लेकर दुर्व्यसनों तक के अनेकानेक ऐसे विग्रह खड़े होते है, जिन्हें देखते हुए कई बार तो निर्धनों की तुलना में सम्पन्नों को अपनी हीनता अनुभव करते देखा गया है।
उत्कृष्टता के आलोक की आभा यदि अन्तराल तक पहुँचे तो व्यक्ति को नए सिरे से सोचना पड़ता है और अपनी दिशाधारा का निर्धारण स्वतन्त्र चिन्तन एवं एकाकी विवेक के आधार पर करना पड़ता है। प्रस्तुत जन समुदाय द्वारा अपनायी गयी मान्यताओं और गतिविधियों से इस प्रयोजन के लिए तनिक भी सहायता नहीं मिलती। वासना, तृष्णा के लिए मरने खपने वाले नर पामरों की तुलना में अपना स्तर ऊँचा होने की अनुभूति होते ही परमार्थ के लिए मात्र दो ही मनीषियों का आश्रय लेना पड़ता है, इनमें से एक को आत्मा दूसरे को परमात्मा कहते हैं। इन्हीं को ईमान और भावना भी कहा जा सकता है। उच्चस्तरीय निर्धारणों में इन्हीं का परामर्श प्राप्त होता है। व्यामोह ग्रस्त तो ‘कोढ़ी और संघाती चाहे’ वाली बात ही कर सकते हैं। नरक में रहने वालों को भी साथी चाहिए। अस्तु वे संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में उन्हीं की तरह बुलबुलाते रहने में ही सरलता, स्वाभाविकता देखते हैं। तदनुसार परामर्श भी वैसा ही देते हैं, आग्रह भी वैसा ही करते हैं। इस रस्साकशी में विवेक का कर्तव्य है कि औचित्य का समर्थन करें। अनुचित के लिए मचलने वालों की बालबुद्धि को हँसकर टाल दें। गुड़ दे सकना सम्भव न हो तो, गुड़ जैसी बात कहकर भी सामयिक संकट को टाला जा सकता है। लेकिन बहुधा ऐसा होता नहीं। निकृष्टता का अभाव सहज ही मानव को अपनी ओर खींचता है। इसका निर्धारण स्वयं औचित्य, विवेक के आधार पर करना होता है। निषेधात्मक परामर्शों को इस कान सुनकर दूसरे कान से निकाल देना अथवा ऐसा परामर्श देने वाले व्यक्ति के चिन्तन का परिष्कार करना भी एक ऐसा प्रबल पुरुषार्थ है, जो बिरलों से ही बन पड़ता है। लेकिन यह संभव है क्योंकि मानवी गरिमा उसे सदा ऊँचा उठने, ऊँचा ही सोचने का संकेत करती है। कौन, कितना इस पुकार को सुन पाता है, यह उस पर, उसकी मन की संरचना, अन्तश्चेतना पर निर्भर है।
सन्तुलित मस्तिष्क की पहचान यह नहीं है कि वह शिथिलता, निष्क्रियता अपनाये और संसार को माया मिथ्या बताकर बे सिर-पैर उड़ाने उड़ने लगें। विवेकवान उद्विग्नता छोड़ने पर पलायन नहीं करते। वे कर्तव्य क्षेत्र में अंगद की तरह अपना पैर इतनी मजबूती से जमाते हैं कि असुर समुदाय पूरी शक्ति लगाकर भी उखाड़ने में सफल न हो सके। प्रलोभनों और दबावों से जो उबर सकता है, उसी के लिये यह सम्भव है कि उत्कृष्टता को वरण करे और आँधी तूफानों के बीच भी अपने निश्चय पर चट्टान की तरह अडिग रहे। इसके लिए उदाहरण, प्रमाण ढ़ूँढ़ने हों, साथी, सहचर, समर्थक ढ़ूँढ़ने हों तो इर्द-गिर्द नजर न डालकर महामानवों के इतिहास तलाशने पड़ेंगे। अपने समय में या क्षेत्र में यदि वे दीख न पड़ते हो तो भी निराश होने की आवश्यकता नहीं। इतिहास में उनके अस्तित्व और वर्चस्व को देखकर अभीष्ट प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है और विश्वास किया जा सकता है कि महानता का मार्ग ऐसा नहीं है, जिस पर चलने से यदि लालची सहमत न हो तो छोड़ देने की बात सोची जाने लगे।
वैभववानों की एक अपनी दुनिया हैं। किन्तु सोचना यह नहीं चाहिए कि संसार इतना ही छोटा है। इसमें एक क्षेत्र ऐसा भी है जिसे स्वर्ग कहते हैं। उसमें सत्प्रवृत्तियों का वर्चस्व है और अपनाने वाले जो भी उसमें बसते है, देवोपम स्तर का वरण करते हैं। दैत्यों के संसार में सोने की लंका बनाने और दस सिर जितनी चतुरता और बीस भुजाओं जैसी बलिष्ठता हो सकती है, किन्तु उतना ही सब कुछ नहीं हैं। भागीरथों, हरिश्चन्द्रों, प्रह्लादों और दधीचियों जैसी भी एक बिरादरी है। बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर, रैदास, गाँधी, विनोबा जैसे अनेकों ने उसमें प्रवेश पाया है। दयानन्दों और विवेकानन्दों का भी अस्तित्व रहा है। संख्या की दृष्टि से कमी पड़ते देखकर किसी को भी मन छोटा नहीं करना चाहिए। समूचे आकाश में सूर्य और चन्द्र जैसी प्रतिभाएँ अपने पराक्रम से संव्याप्त अन्धकार से निरन्तर लड़ती रहती हैं। हार मानने का नाम नहीं लेती। समुद्र में मणि मुक्तक तो जहाँ तहाँ ही होते हैं, सीपों और घोंघों से ही उसके तट पटे पड़े रहते हैं। बहुसंख्यकों को बुद्धिमान अथवा अनुकरणीय मानना हो तो फिर उद्भिजों की बिरादरी को वरिष्ठता देनी पड़ेगी। यह बहुमत वाला सिद्धान्त मनुष्य समाज पर लागू नहीं हो सकता। श्रेष्ठता ही सदैव जीतती रही है, श्रेय पाती रही है। हमें अपनी दृष्टि नाव के मस्तूल पर, प्रकाश स्तम्भ पर रखनी चाहिए। इस संसार में निकृष्टता है तो श्रेष्ठता भी अनुपलब्ध नहीं है। मात्र दृष्टिकोण ही है, जो हमें उसके दर्शन नहीं करा पाता।
स्वर्ग में देवता रहते हैं। उनके पास दैत्यों की तुलना में वैभव की कमी होती है। आक्रमण के क्षेत्र में भी पहल उन्हीं की होती है। फिर भी गौरव देवत्व के हिस्से में ही रहा है। वन्दन, अभिनन्दन और अनुकरण भी उन्हीं का होता रहा है। इस क्षेत्र में प्रवेश करने में किसी को कठिनाई नहीं, अड़चन इतनी भर है कि कुसंस्कारिता के चक्रव्यूह से निकलने का प्रयत्न सच्चे मन से किया जाय। इसके लिए आदर्शों की गरिमा समझने की आवश्यकता है। यदि हनुमानों और अर्जुनों का उदाहरण सामने न रहा, कठिनाइयों की कीमत पर गौरव खरीदने का साहस न उभरा तो क्षणिक आवेश की बबूले जैसी दुर्गति होती फिरेगी।
संतुलित मस्तिष्क का प्रधान गुण है दूरदर्शी विवेकशीलता। इसके प्रकट होते ही मनुष्य तत्काल की सीमा को तोड़कर भविष्य पर दृष्टि डालता है। किसान, विद्यार्थी, व्यवसायी की तरह पूँजी लगाकर समयानुसार अधिक लाभ उपार्जन का लाभ दीख सकता है। बीज गलता तो है पर इसमें वह कुछ खोता नहीं। भूमि के साथ आत्मसात् होकर उसे देखते-देखते अंकुरित पल्लवित और फलित होने वाले विशाल वृक्ष का सुयोग मिलता है। दूरदर्शिता इससे कम में सन्तुष्ट नहीं होती। उसका अनादिकाल से एक ही परामर्श रहा है, महान के लिए तुच्छ को त्यागा जाय। कामना का भावना पर उत्सर्ग किया जाय। क्षुद्रता का महानता के पक्ष में विसर्जन किया जाय। भक्त को भगवान की प्राप्ति के लिए यही करना पड़ता है। महानता इससे कम में सधती नहीं।
जीवन का एक रूप है जिसमें ललक लिप्सा के लिए आदर्शों को गँवाना पड़ता है और महानता की ओर से मुँह मोड़ना पड़ता है। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वाँछित कामनाओं की पूर्ति भी हो सकेगी या नहीं जीवन का दूसरा रूप है महानता का, जिसमें महामानवों ने श्रद्धापूर्वक प्रवेश किया है और देवोपम गौरव और स्वर्ग जैसा सन्तोष सौजन्य का भरपूर रसास्वादन किया है। दोनों में से किसे चयन किया जाय। इसी के निर्धारण में उस सूझ-बूझ का परिचय मिलता है, जिसे मनोजयी, धीर-वीर अपनाते और असंख्यों के लिए अनुगमन की पथ रेखा विनिर्मित करते है।
उत्कृष्ट व्यक्तित्व का एक ही पक्ष है-भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं का दमन, न्यूनतम निर्वाह की अपरिग्रह परम्परा का वरण। जिनकी निजी महत्त्वाकांक्षाएँ अभिलाषाएँ, तृष्णा, लिप्साएँ असाधारण रूप से उभरी होती है, उनके लिए यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता कि वे नीति-नियमों का व्यतिरेक न करें। इसी प्रकार यह भी नहीं बन पड़ता कि समय, श्रम या साधनों का उपार्जन से कम उपयोग अपने लिए करें और उस बचत को उच्च स्तरीय प्रयोजनों के लिए नियोजित करें। लिप्सा में भौतिक दोष यह है कि उसकी तृप्ति की कोई मर्यादा नियत नहीं रहती। कमी कभी दूर नहीं होती और अधिक कमाने, जोड़ने, उड़ाने की व्याकुलता उसी अनुपात से बढ़ती चली जाती है। फल यह होता है कि आदर्शवादिता की मात्र उथली चर्चा या खोखली विडम्बना ही बन पाती है। वैसा कोई ठोस प्रयत्न नहीं बन पड़ता जैसा कि उत्कृष्ट जीवन के लिए अपेक्षित है। अतएव निस्पृह जीवन के लिए यह अनिवार्य है कि भौतिक आकाँक्षाओं और आवश्यकताओं को उतना नियन्त्रित किया जाय कि वे लगभग औसत नागरिक स्तर की जा पहुँचे। आत्म-निर्माण का, आत्म-परिष्कार का सुनियोजन इससे कम में नहीं बन पड़ता।
अध्यात्म जीवन जीने की एक शैली है। पूजा उपचार उसके लिए भावनात्मक पृष्ठभूमि बनाने वाले उपचार हैं। उपासनात्मक क्रिया-कृत्यों को याचना, रिश्वत, जेबकटी, बाजीगरी के रूप में जो अपनाते हैं, वे भूल करते हैं। देवताओं को मन्त्रबल से वशवर्ती बनाकर उनसे उचित अनुचित कुछ करा लेने की दुरभिसन्धि में नियत व्यक्ति जब अपनी दुरभिसन्धियों को भक्ति भावना, योग साधना आदि का नाम देते हैं, तब हँसी रोके नहीं रुकती। बाल क्रीड़ाओं से यदि ऊँचा उठा जा सके, तो अध्यात्म का एक मात्र यही स्वरूप रहा जाता है कि व्यक्तित्व को अधिकतम पवित्र, प्रखर एवं उदात्त बनाया जाय। जो क्षमता विभूतियाँ उपलब्ध हैं उन्हें सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए लगाया जाय। वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श हर घड़ी सामने रखकर अपनेपन का दायरा इतना बड़ा बना दिया जाय कि आत्मवत् सर्वभूतेषु की प्रतीति होने लगे। दूसरों के दुःख को बँटा लेने और अपने सुख को बाँट देने की उमंग इतनी उमगे कि उसे रोक सकने में संकीर्ण स्वार्थपरता कोई व्यवधान प्रस्तुत न कर सकें।
सन्तुलित मस्तिष्क का तात्पर्य भावना रहित बन जाना नहीं है। भले-बुरे को एक दृष्टि से देखने जैसी समदर्शिता की दुहाई देना भी सन्तुलन नहीं है। बुरे के प्रति सुधार और भले के प्रति उदार रहकर ही सन्तुलन बना रह सकता है। आँखों के सामने तात्कालिक लाभ का पर्दा उठ जाने, शरीर को ही सब कुछ मानकर उसी के परिकर को पोषित करते रहने की मोह माया ही भ्रान्तियों के ऐसे भण्डार जमा करती है जिन्हें विकृतियों का रूप धारण करते देर नहीं लगती। यही वह आँधी और तूफान है जिसके कारण उठने वाले चक्रवात समस्वरता बिगाड़कर रख देते है और ऐसा कर गुजरते हैं जिनके कुचक्र में फँसने के उपरान्त मनुष्य न जीवितों में रहे न मृतकों में, न बुद्धिमानों में गिना जा सके और व विक्षिप्तों में।
मलीनताएँ हर कहीं कुरूपता उत्पन्न करती है। गन्दगी जहाँ भी जमा होगी वहीं सड़न उत्पन्न करेगी। इस तथ्य को समझने वालों को एक और भी जानकारी नोट करनी चाहिए कि मनःक्षेत्र पर चढ़ी हुई मलीनता जिसे मल, आवरण या कषाय कल्मष के नाम से जाना जाता है, अन्य सभी मलीनताओं की तुलना में अधिक भयावह है। अन्य क्षेत्रों की गन्दगी मात्र पदार्थों को ही प्रभावित करती है, पर मनःक्षेत्र की गन्दगी न केवल मनुष्य को स्वयं दीन दयनीय, पतित और घृणित बनाती है वरन् उसका सम्पर्क क्षेत्र भी विषाक्त होता है। छूत की संक्रामक बीमारियों की तरह चिन्तन की निकृष्टता भी ऐसी है, जो जहाँ उपजती है उसका विनाश करने के अतिरिक्त जहाँ तक उसकी पहुँच है वहाँ भी विनाशकारी वातावरण उत्पन्न करती है।
मानसिक स्वच्छता के लिए जागरूकता बरती जानी चाहिए और विचारणा को श्रेष्ठ कार्यों में, सदुद्देश्य में नियोजित करने की बात सोचनी चाहिए। इसी में दूरदर्शी और सराहनीय विवेकशीलता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
16. ज्ञान सम्पदा कमाने में उपेक्षा न बरतें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
शिक्षा के अभाव में मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से अन्धा होता है। उसकी जानकारी
उतनी ही रहेगी, जितनी कि सम्पर्क क्षेत्र से हस्तगत हुई है। सम्पर्क क्षेत्र
हर किसी का बहुत छोटा होता है। उसके प्रचलन भी क्षेत्रीय होते है, जबकि
दुनिया बहुत बड़ी है। व्यापक जानकारियों के सहारे बुद्धि को यह सोच सकने का
अवसर मिलता है कि क्या सोचना, करना और बनना उचित है? कूपमण्डूक और गूलर के
भुनगे की दुनियाँ बहुत छोटी होती है। वे सोचते हैं, यह संसार इतना ही बड़ा है,
जितना कि सामने प्रस्तुत है। ज्ञान सम्पदा जिनके पास जितनी है, उन्हें
मनुष्यों में उतना ही वरिष्ठ समझा जाता है। जिन्हें सीमित दायरे को ही सब कुछ
मानने के लिए विवश करने वाली मनःस्थिति मिली है, पिछड़ापन उन्हीं पर सवार रहता
है। ऐसों को ही हठवादी, सनकी देखा जाता है। बुद्धि विस्तार का अवरुद्ध होना
एक प्रकार से कारागार में बन्द रहना है। इस अभिशाप से छूटने के लिए शिक्षा का
आश्रय लेना पड़ता है। इसी के सहारे भूतकाल की घटनाएँ, वर्तमान की परिस्थितियों
एवं भावी संभावनाओं की जानकारी मिलती है। इसी आधार पर मनुष्य प्रगतिशीलता
अपनाने में समर्थ होता है। अशिक्षित को अन्धा कहा जाता है। यह दृश्य रूप में
गलत होने पर भी तथ्यतः सही है।
व्यसनों में विद्या व्यसन ही सराहनीय एवं श्रेयस्कर है। उसके प्रति अभिरुचि आजीवन बनी रहनी चाहिए। इस संचय से कभी तृप्त नहीं होना चाहिए। उसे बुरे किस्म की दरिद्रता ही माना जाय और हटाने के लिए गरीबी मिटाओ जैसा उत्साह उत्पन्न करना चाहिए। इसके लिए अपने देश की स्थिति देखते हुए प्रौढ़ शिक्षा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। बच्चों को तो स्कूलों में जगह भी मिलती है और अभिभावकों से प्रेरणा सुविधा भी, पर जो बड़े हो चुके, अनेक उत्तरदायित्वों को वहन करते और व्यस्त रहते हैं, उनके लिए स्कूली शिक्षा के द्वार एक प्रकार से बन्द ही समझे जाने चाहिए। उनके लिए प्रौढ़ पाठ शालाओं की व्यवस्था बननी चाहिए। आमतौर पर महिलाओं को तीसरे प्रहर और पुरुषों को रात्रि के समय थोड़ा अवकाश रहता है। उसी अवसर पर उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का प्रबन्ध उत्साहपूर्वक किया जाना चाहिए।
निरक्षरता के अभिशाप से मुक्ति पाने का एक मात्र यही उपाय है। सरकार के लिए बालकों की शिक्षा व्यवस्था भी ठीक तरह बन नहीं पा रही है। ऐसी दशा में वह ७० प्रतिशत जनता की अशिक्षा दूर करने का प्रबन्ध कर सकेगी, यह सोचना व्यर्थ है। यह कार्य सार्वजनिक सेवा साधना के क्षेत्र को ही अपने कंधों पर उठाना चाहिए और तत्परतापूर्वक पूर्ण करना चाहिए। प्रौढ़ पाठशालाओं का संस्थापन और संचालन देव मन्दिरों की स्थापना की तुलना में किसी भी प्रकार कम महत्त्व का कार्य नहीं है।
शिक्षा प्रसार का कार्य प्रौढ़ शिक्षा एवं स्कूली व्यवस्था के माध्यम से हो सकता है, यह प्रथम चरण है। द्वितीय चरण साक्षरों के लिए पुस्तकालयों के रूप में होना चाहिए, अन्यथा शिक्षा का उपयोग मात्र चिट्ठी पत्री का, हिसाब-किताब लिखने तक ही सीमित रहेगा और उतने भर से सद्ज्ञान सम्वर्धन का प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। इस निमित्त उपयोगी साहित्य के अधिकाधिक अध्ययन का उपक्रम बनना चाहिए। स्पष्ट है कि अपने देशवासियों की न तो आर्थिक स्थिति इस योग्य है और न अभिरुचि ही इतनी विकसित हुई है कि व्यक्ति और समाज के सम्मुख उपस्थित अनेकानेक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर सकें, उपयोगी जानकारियों का दायरा बढ़ा सकें। ऐसी दशा में उस आवश्यकता की पूर्ति सार्वजनिक पुस्तकालयों के सहारे ही संभव हो सकती है।
कूड़े-कचरे से भरे पुस्तकालय ही जहाँ-तहाँ दिख पड़ते हैं। हमें न केवल प्रौढ़ पाठशालाओं का प्रचलन करना चाहिए वरन् ऐसे पुस्तकालय भी स्थापित करने चाहिए, जिनमें उपयोगी जानकारियाँ तथा उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ निरन्तर उपलब्ध होती रहें। सार्वजनिक स्थापनाओं में पाठशालाओं, पुस्तकालयों तथा व्यायाम शालाओं को अत्यधिक महत्त्व मिलना चाहिए। इन प्रयत्नों में विज्ञजनों को अग्रिम भूमिका निभाने का नेतृत्व करना चाहिए और जन-जन को इन सत्प्रवृत्तियों में पूरा-पूरा सहयोग देना चाहिए।
साक्षरता सम्वर्धन और सामान्य ज्ञान का अर्जन, प्रौढ़ पाठशालाओं और पुस्तकालयों के माध्यम से हो सकता है। इसके बाद भी एक अतिरिक्त आवश्यकता भी अपने स्थान पर यथावत बनी रहती है कि विशेष अभिरुचि आवश्यकता पूर्ति के लिए अभीष्ट ज्ञान सम्पादन किस प्रकार हो? इसके लिए विशिष्ट स्तर के पाठ्यक्रम चलाने वाले विशिष्ट विद्यालयों की व्यवस्था होनी चाहिए। कितने लोग हैं, जो अपनी रुचि, प्रगति अथवा आजीविका से सम्बन्धित विषयों की अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं? पर इसके लिए न तो स्कूलों कॉलेजों में काम छोड़कर भर्ती होने जैसी उनकी परिस्थिति है और न सुविधा के समय कुछ पढ़ सकने, सीख सकने की कहीं कोई सुविधा। ऐसी दशा में अधिक योग्यता एवं दक्षता बढ़ाने का द्वार एक प्रकार से बन्द जैसा ही रहता है। इच्छुक की उत्कण्ठा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, किन्तु विवशता के कारण मन मसोस कर ही रहना पड़ता है।
होना यह चाहिए कि विषयों के विशेष विद्यालय चलें। उनके खुलने का समय ऐसा हो, जिसमें कार्यरत व्यक्ति थोड़ा बहुत अवकाश पाते हों। समृद्ध वर्गों में प्रायः शनिवार-रविवार की छुट्टियाँ रहती है। कहीं शनिवार को आधी छुट्टी रहती है। इस प्रकार डेढ़ या दो दिन हर सप्ताह अवकाश के मिलते हैं। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी तो सर्वत्र होती है। इन दिनों ऐसी कक्षाएँ लग सकती है, जिसमें अपनी रुचि का विषय पढ़ने की प्रवीणता बढ़ाने की सुविधा मिल सके।
अपने देश में कृषि, पशु पालन एवं वस्त्र निर्माण जैसे प्रमुख उद्योगों में अधिकांश जन-समुदाय संलग्न है, किन्तु काम चलाऊ जानकारी या कुशलता के सहारे ही उनका ढर्रा ज्यों-त्यों करके घूमता रहता है। इन विषयों में यदि प्रवीणता बढ़ सके, तो वे लोग अपना काम अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, अभिनव निर्धारणों से अवगत हो सकते और अधिक लाभ उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी अनेक विषय हैं। आजीविका से सम्बन्ध रखने वाले शिल्प उद्योग अनेकों हैं। कला प्रेमियों को अपने विषय में अधिक सुयोग्य बनने के लिए बहुत कुछ जानने सीखने की आवश्यकता रहती है। स्वास्थ्य रक्षा, मानसिक सन्तुलन, परिवार निर्माण जैसी दैनिक जीवन से सम्बन्धित अनेक समस्याओं का विस्तृत अध्ययन होने पर ही अपने कार्यक्षेत्र में अधिक सफल समर्थ बना जा सकता है। महिलाओं को धात्री कला, शिशु पोषण, पाक विज्ञान, गृह व्यवस्था, लोक व्यवहार जैसे विषयों का वर्तमान ज्ञान बहुत ही सीमित मात्रा में होता है। कई बार तो उन जानकारियों में भ्रांतियाँ तथा विकृतियाँ इतनी भरी होती है कि उस स्थिति को अनाड़ी रहने से अधिक हानिकारक कहा जा सकता है। इन विषयों में पारंगत प्रवीणता दिला सकने वाली सामयिक पाठशालाओं की जितनी अधिक व्यवस्था बन सके, उतना ही उत्तम है।
शिल्पी, कलाकार, समाज सेवी, व्यवसायी इन दिनों आधे-अधूरे समय से पिछले ज्ञान से ही अपना काम चलाते हैं, जबकि समय तेजी से आगे बढ़ रहा है और हर क्षेत्र में नई जानकारियों, नई उपलब्धियों का भण्डार बढ़ता और भरता ही चला जा रहा है। समय के साथ चलने वाले नफे में रहते हैं और पिछड़ जाने वाले प्रतिस्पर्धा में पीछे रहते हैं और घाटा उठाते हैं। समाज व्यवस्था, तत्व दर्शन एवं राजनीति की उथल पुथल हर व्यक्ति को प्रकारान्तर से प्रभावित करती है। उन प्रसंगों से हमें अनजान नहीं रखना चाहिए। इन सामान्य विषयों के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे विषय हैं, जिनकी विभिन्न परिस्थितियों के व्यक्ति असाधारण आवश्यकता अनुभव करते हैं और चाहते हैं कि साथियों की तुलना में अधिक प्रवीण, पारंगत बनकर प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ें।
विदेशों में इस प्रकार के सामयिक एवं प्रासंगिक विद्यालयों का बाहुल्य रहता हैं। जन स्तर पर वे खुलते हैं और फीस देकर सुविधा के साथ लोग उनमें पढ़ते हैं। स्कूली शिक्षा में जितने छात्र प्रवेश पाते हैं, उनकी तुलना में इन सामयिक पाठशालाओं के छात्र कम नहीं, वरन् अधिक ही रहते हैं। इस प्रकार शिक्षा संवर्धन में सरकारी प्रयत्न पर निर्भर रहकर लोग अपने पैरों खड़े होते हैं और अपनी आवश्यकता को अपनी व्यवस्था के सहारे पूर्ण करते हैं। अपने देश में गमर में ऐसी सुविधा बनाने के लिए विज्ञजनों को आगे आना चाहिए और ज्ञान संवर्धन क्षेत्र की एक अनसुलझी समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होना चाहिए।
यह शिक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक आवश्यकता का विहंगावलोकन हुआ। अब व्यक्तिगत एवं पारिवारिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था पर भी दृष्टिपात किया जाना चाहिए। घर में एक परम्परा पड़े कि अधिक पढ़े अपने से कम पढ़ों को पढ़ाने की जिम्मेदारी उठायें और उसे पूरा करें। निर्धन बच्चे ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च निकालते है, साथ ही स्वयं भी अध्ययनरत रहकर अच्छे नम्बरों से पास होते हैं। यह परम्परा हमारे हर घर-परिवार में चलनी चाहिए। अधिक शिक्षितों को अपने से कम पढ़ों को पढ़ाने और अपने स्तर तक बढ़ा ले चलने की रुचि होनी चाहिए। इसमें अपने काम में हर्ज होने जैसी बात नहीं सोचनी चाहिए। अध्यापन भी एक कला है, विद्यादान भी एक गौरव है। उस उपार्जन के लिए हर दूरदर्शी भावनाशील को अपना समय नियोजित रखना चाहिए। परिवारों में शिक्षा सम्वर्धन की प्रक्रिया इसी आधार पर अग्रगामी रह सकती है। रात्रि को कहानियाँ सुनाने, रामायण, प्रज्ञा पुराण जैसी कथाएँ कहने का भी मनोरंजक, किन्तु प्रेरणाप्रद प्रशिक्षण जारी रहना चाहिए।
जिन सुशिक्षितों के पास थोड़ा अवकाश निकल सकता है, वे अपने क्षेत्र में उपरोक्त शिक्षा प्रसार प्रयोजनों में उसे शिक्षा ऋण चुकाने के निमित्त लगाने की उदारता दिखायें। यह कार्य दुःख दारिद्र्य मिटाने के लिए दिखाई गई उदारता से कम महत्त्व का नहीं हैं, सुविधा सम्वर्धन की भी आवश्यकता हैं, पर विचारणा को विकसित करने में समर्थ ज्ञान सम्पदा की उपयोगिता उससे किसी भी प्रकार कम नहीं है। व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए जिन कार्यों को हाथ में लिया जाना चाहिए, उनमें प्रमुखता देने योग्य शिक्षा सम्वर्धन है। इसके बिना न व्यक्तित्व निखरता है, न प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। यों विद्या का दुरुपयोग भी हो सकता है, किन्तु संसार में जो कुछ महानता सम्पन्न हुई है, उसमें शिक्षा की भूमिका निश्चित रूप से सम्मिलित रही है। अपने समय के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा निमित्त कारण, शिक्षा के अभाव को तत्परता पूर्वक दूर करना चाहिए। इस संदर्भ में हर विद्या प्रेमी का कुछ न कुछ योगदान रहना ही चाहिए।
अपने बच्चों को पढ़ाते समय एक बात नोट करनी चाहिए कि नौकरी के लिए पढ़ाई के दिन अब बहुत पीछे रह गये। यदि शिक्षा का विस्तार बढ़ता गया और हर किसी ने नौकरी के लिए हाथ फैलाया तो वह असंभव माँग किसी भी प्रकार पूरी न हो सकेगी। इतने नौकरी चाहने वालों को आखिर नौकर रखेगा कौन? समय रहते हमें सोचना चाहिए कि स्वास्थ्य की तरह ही शिक्षा है, उसमें व्यक्तित्व कौशल निखरता है, उसमें आजीविका उपार्जन में परोक्ष रूप से सहायता मिलती है, पर यह संभव नहीं कि हर शिक्षित को नौकरी मिल ही जाय, फिर नौकरी में स्वाभिमान घटता है और भविष्य की सुखद संभावनाओं पर अंकुश लगता है। स्वतन्त्र विकास की बात सोचनी चाहिए और कृषि, उद्योग, शिल्प, व्यवसाय जैसे आधार अपना कर आजीविका अर्जित करने की बात सोचनी चाहिए। कुटीर उद्योगों की अपने देश में काफी गुंजाइश है। निर्वाह का, काम आने वाली सामग्री का उत्पादन सहकारी प्रयासों से अपने-अपने क्षेत्र में ही करना चाहिए। लोगों को इसके लिए तैयार किया जाय कि कुटीर उद्योगों की वस्तुओं का ही उपयोग करें। वे अपेक्षाकृत भौंड़ी या मँहगी ही क्यों न लगे। विदेशी या बड़े कारखानों के उत्पादन तभी काम में लाने चाहिए, जब वे हाथ, मजूरों द्वारा छोटे कारखानों में बनती ही न हों।
अच्छा होता सरकार ऐसे कुटीर उद्योगों के साथ चलने वाली बड़े कारखानों की प्रतियोगिता रोकती और उत्पादन के कुछ क्षेत्र मात्र उन्हीं के लिए सुरक्षित कर देती। इससे बढ़ती जाने वाली बेकारी पर रोकथाम होती और हर हाथ को काम मिलने की व्यवस्था बनती। जब तक वैसा नहीं बन पड़ता तब तक भी निराश बैठने की अपेक्षा जन सहयोग से कुटीर उद्योगों को जीवित रखने वाला वातावरण बनाना चाहिए। शिक्षितों को नौकरी की बात सोचने की अपेक्षा अन्यान्य उद्योगों के सहारे अपने निर्वाह की बात सोचनी चाहिए। असंभव की आशा साधना और उसकी पूर्ति न होने पर खीजते फिरना अनुचित है। शिक्षा माध्यमिक स्तर की प्राप्त की जाय या कालेज स्तर की, यह अपनी रुचि और परिस्थिति के ऊपर निर्भर है, पर एक बात हर हालत में नोट रखनी चाहिए कि सरकारी नौकरी प्राप्त करने की दृष्टि से पढ़ाई में पूँजी लगाना निश्चित रूप से घाटे के व्यवसाय में हाथ डालना है।
औसत शिक्षित का पाठ्यक्रम उस जानकारी से भरा पूरा होना चाहिए जो सामान्य, जीवंत एवं लोक व्यवहार में काम आती है। अनावश्यक विषयों का छात्रों के मस्तिष्क पर बोझ लादना और कुछ रट रटाकर पास होने का वर्तमान प्रचलन अनुचित है। अच्छा हो इस जंजाल से निकलकर ऐसी शिक्षा पद्धति बने जो सामान्य जीवन के पग-पग पर काम आये। ऐसी शिक्षा पद्धति गैर सरकारी रूप में विकसित की जा सकती है। जब भोजन, वस्त्र आदि बिना सरकारी सहायता के जन स्तर पर प्राप्त करने की व्यवस्था है, तो अपने उपयोग की शिक्षा का प्रबन्ध जन स्तर पर क्यों नहीं हो सकता। हर बात के लिए सरकार का ही मुँह क्यों ताका जाय। विशेषतया जब नौकरी पर से ध्यान हटा लिया जाय तब तो ऐसी व्यवस्था बनने में कोई कठिनाई नहीं ही होनी चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
17. उपलब्धियों का सही समय पर सही उपयोग
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
स्व उपार्जित धन वैभव और ईश्वर प्रदत्त श्रम-समय का उपयोग शत प्रतिशत शरीर
सुविधा में ही नियोजित रहने लगे तो समझना चाहिए कि आत्म-पोषण का द्वार बन्द
हो गया। ऐसी दशा में अन्तर्निहित देवत्व को भूख-प्यास से तड़पने जैसी स्थिति
में पड़े रहना पड़ेगा। शरीर जिए पर आत्मा न मरे, ऐसा सुयोग बन सके तो समझना
चाहिए कि बुद्धिमत्ता काम आई, दूरदर्शिता को उपयोगिता दी गई। यह जीवन की
सर्वोपरि समस्या है। दैनिक प्रयोजन में आए दिन कई उतार-चढ़ाव सामने आते हैं।
उनका महत्त्व राई रत्ती जितना है। राई को पर्वत और पर्वत को राई की तरह नहीं
आँका जाना चाहिए। आये दिन सामने आने वाली समस्याएँ अपने समाधान माँगती हैं और
विवेक एवं पौरुष की जाँच पड़ताल करने के बाद इधर या उधर लुढ़क जाती हैं। जिसका
जितना महत्त्व है उसे उतना मान मिलना चाहिए। तिल का ताड़ नहीं बनाया जाना
चाहिए।
सर्वोपरि महत्त्व की समस्या एक ही है। उसी पर पूरी तरह अपना वर्तमान और भविष्य अवस्थित है। वह है जीवन सम्पदा का सही सदुपयोग करा सकने वाला निर्धारण। जिसने इस गुत्थी को सुलझा लिया, समझना चाहिए कि उसकी प्रायः सभी साधारण समस्याएँ अनायास ही हल हो गईं। जीवन अजस्र सौभाग्य की तरह मिला है। इसका महत्त्व समझा जाना चाहिए और सार्थकता का उपाय खोजा जाना चाहिए। यों फिजूलखर्ची और बर्बादी हर वस्तु की बुरी मानी जाती है, पर यदि जीवन सम्पदा के बारे में उस मूर्खता का उपयोग हुआ तो समझना चाहिए कि अनर्थ ही हो गया। ऐसा अनर्थ जिसका भूल सुधार समय निकल जाने के उपरान्त किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता।
मनुष्य इस सृष्टि का मुकुटमणि है। तदनुरूप ही उसे गौरव और वर्चस्व भी मिला है। उसके उपकरण एवं साधन न केवल असीम हैं वरन् उच्चस्तरीय भी हैं। इनका उपयोग भी यदि उसी प्रक्रिया में होता रहे जिसे कृमि कीट अनायास ही सम्पन्न करते रहते हैं, तो फिर समझना चाहिए कि हीरा घुमची के बदले बेच दिया गया, चन्दन को जलाऊ लकड़ी की तरह प्रयुक्त किया गया। पेट और प्रजनन का ताना बुन लेने जितनी कुशलता क्षुद्र स्तर के जीवधारियों को भी प्राप्त है। इसी कोल्हू में यदि मनुष्य भी पिसता रहा तो समझना चाहिए कि राजगद्दी के समय वनवास मिलने जैसी दुर्घटना घटित हो गई। यदि मनुष्य इतनी छोटी परिधि में जीये, इसी कुचक्र में कोल्हू का बैल बना रहे तो समझना चाहिए कि उपलब्ध गरिमा का श्राद्ध-तर्पण हो गया।
मनुष्य महान है। महान का ज्येष्ठ पुत्र युवराज है। इसलिए स्वभावतः उसका उत्तरदायित्व भी महान है। उनकी उपेक्षा अवज्ञा इसलिए नहीं होनी चाहिए कि लोभ मोह के जाल-जंजाल में उलझे रहने के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। महान प्रयोजनों की ओर ध्यान दिया ही नहीं जाता। हेय योनियों से ऊपर उठकर मनुष्य स्तर तक पहुँचने पर पूरी मंजिल नहीं हो जाती। अभी महामानवों, ऋषियों, सिद्ध पुरुषों, देवात्माओं और अवतारों की पदोन्नति के अनेकों अवसर विद्यमान हैं, उन सबसे मुख मोड़कर ललक लिप्सा की कीचड़ ही नहीं चाटते रहना चाहिए।
विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने की जिम्मेदारी मात्र मनुष्य की है। आदिम युग से लेकर अब तक के इतिहास में उसी की गरिमा का बोलबाला है। ऊबड़-खाबड़ खाई खड्डों वाली इस कानी-कुबड़ी धरती को चित्र जैसी सुन्दर कलाकृति के रूप में परिणत करने में उसकी सूझबूझ और तत्परता ने महती भूमिका निभायी है। पर अभी समग्र प्रयोजन पूरा कहाँ हुआ? जो करना शेष है जितना कराना बाकी है, वह कहीं अधिक है। विगत की तुलना में आगत अधिक भारी है। उस जिम्मेदारी का वहन भी उसी को करना पड़ेगा।
मनुष्य भी स्वभावतः वनमानुषों की बिरादरी का है। मानवी चेतना के विकास की अगणित मंजिलें पूरी हुई हैं। आदिम काल में न भाषा थी न लिपि, न वस्त्र थे न उद्योग। शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, संचार, शिल्प, विज्ञान कला जैसे प्रसंगों से नर वानरों का भला क्या सम्बन्ध रहा होगा? यह मानवी सूझ-बूझ ही है कि उसने परिवार संस्थान, समाज और शासन का ढाँचा खड़ा कर दिया। नीति, दर्शन, आचरण और अनुशासन का ऐसा तन्त्र खड़ा किया कि मनुष्य को सभ्यता का दावेदार और सुसंस्कारिता का धनी कहा जा सकता है। इसमें ईश्वर की अनुकम्पा के उपरान्त यदि किसी की सराहना हो तो इसके लिए मनुष्य द्वारा चेतना क्षेत्र में प्रस्तुत की गई भूमिका को ही श्रेय दिया जायेगा। फिर भी समझना चाहिए कि मनुष्य में देवत्व के उदय का दिन दूर है। अपने लक्ष्य में नए सिरे से उसे नित्य नया प्रयास, नया पुरुषार्थ करना पड़ेगा। मंजिल यह भी कम लम्बी नहीं है।
सुविधा संवर्धन और भावनात्मक परिष्कार के दो रचनात्मक क्षेत्र तो मानवी पुरुषार्थ को भाव भरे निमन्त्रण देते ही हैं। समय की चुनौती भी वरिष्ठता को झकझोरती है। इसके अतिरिक्त संव्याप्त विकृतियों की गन्दगी भी कम विषमता उत्पन्न नहीं कर रही है। अनाचार का प्रदूषण वातावरण में इतनी घुटन भर रहा है कि साँस लेते न बन पड़े। इससे जूझना एक तीसरा मोर्चा है, जिससे लड़ने के लिए भी मनुष्य को ही प्रत्यंचा चढ़ानी और तुंणीर की फेंट बाँधनी पड़ेगी। सर्वनाश की विषम विभीषिका में इस महाभारत के लिए गांडीवधारों को नियति ने आह्वान भेजा है। युगधर्म के निर्वाह से इन्कार करने की बात उनमें नहीं बन पड़ेगी जिनसे मानवी गरिमा के अनुपम ओजस् विद्यमान है।
मनुष्य पेड़ नहीं है। उसकी सत्ता शिश्न के लिए समर्पित नहीं हो सकती। निर्वाह का तिल, लालच का पर्वत बन पड़े ऐसा भी क्या? परिवार एक हँसता हँसाता उद्यान है, उसे भव बन्धन बनाकर क्यों रखा जाय? समाज के साथ जुड़कर उदात्त विशालता का अभ्यास किया जाता है। उसमें भेड़ियों जैसा परस्पर फाड़ खाने का प्रचलन क्यों बढ़े? करने योग्य वह नहीं है जो किया जा रहा है, सोचने योग्य वह नहीं है जो सोचा जा रहा है। मानवी गरिमा का न अस्त होना चाहिए और न अन्त होने जैसी विपन्नता से आक्रान्त होना चाहिए।
तब करना क्या? इसका उत्तर एक ही है कि हममें से हरेक मानवी गरिमा का स्मरण करे। देखे कि उसके लिए गूलर का भुनगा, कुएँ का मेढ़क बनकर संकीर्णता की चहारदीवारी में बैठा रहना ही पर्याप्त है या इससे आगे की भी कुछ बात हो सकती है? विचार की आवश्यकता ही न समझी जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा गहराई में उतरने पर हर सीढ़ी एक भाव भरी प्रेरणा प्रस्तुत करती दिखाई देगी। नव परिवर्तन के प्रभात पर्व पर उसे विशेष रूप से अपने महान उत्तरदायित्वों का स्मरण करना चाहिए और जो सम्भव हो उसके लिए अधिकाधिक साहस जुटाना चाहिए।
कौन क्या करे? यह निर्धारण अति सरल है। अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुसार नवसृजन की त्रिवेणी की किसी भी धारा में स्नान अवगाहन करने लगें। सुव्यवस्था, स्वच्छता और शालीनता के तीन मोर्चों में से किसी पर भी, तीनों पर भी जूझने का उपक्रम बन सकता है। अभाव, अज्ञान और अनाचार के त्रिविध असुर-महिषासुर, भस्मासुर और वृत्रासुर की तरह, आलस्य, अहंकार और अनाचार की तरह अपनी दुर्दान्त दुष्टता का परिचय दे रहे हैं। ऐसे आपत्तिकाल में किसी भी जीवन्त को मूकदर्शक बनकर हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना अशोभनीय होगा। तिनके की आड़ में पर्वत नहीं छिपाना चाहिए। मनुष्य न विवश है, न पराधीन, न दुर्बल। आत्मविस्मृति ही उस पर अभिशाप की तरह चढ़ दौड़ती है और राजा को रंक जैसी अनुभूति कराती है। जिस कच्चे धागे में गजराज को बाँध रखा है, वह लोहे का रस्सा नहीं है। पूँछ हिलाने, कान फड़फड़ाने भर से इधर-उधर किया जा सकता है।
इस प्रयास का शुभारम्भ कैसे हो? इसके लिए पट्टी पूजन की तरह छोटा श्रीगणेश भी किया जा सकता है और एकाकी बड़ा साहस न बन पड़ने पर बच्चे की भाँति उँगली पकड़कर सीखा जा सकता है। सब कुछ या कुछ नहीं वाली अतिवादिता कोई रास्ता नहीं निकालती वरन् असमंजस खड़ा करती है।
हनुमान जैसे महान समुद्र लाँघ सकते हैं और पर्वत उठा सकते हैं; किन्तु साधारण स्थिति में तो लकड़ी पत्थर जमा करना, तोड़कर पाटा जाना ही संभव हो सकता है। भगीरथ, हरिश्चन्द्र, दधीचि, विश्वामित्र, ध्रुव, बुद्ध, गाँधी, समर्थ जैसों ने एक बार ही बड़े निर्णय किए थे। वैसा साहस न बन पड़े तो भी स्वल्प शुभारम्भ का अणुव्रत तो हर किसी के लिए सहज सुगम हो सकता है। यहाँ गिलहरी की बालू, शबरी के बेर और सुदामा के तन्दुल स्मरण हो आते हैं। स्तर की छोटाई को देखते हुए भी यह अपेक्षा की जा सकती है बड़ा न सही, मुट्ठी भर योगदान करें और ग्वाल−बालों की तरह गोवर्धन उठाने में लाठी का सहारा लगायें। यों छोटे-बड़े साहस और अनुदान के परिणामों का अन्तर तो रहेगा ही, फिर भी उदारता के प्रयोग-परीक्षण में सर्वथा अनुत्तीर्ण होने की अपेक्षा क्या बुरा है कि परिस्थिति के अनुरूप भले ही आकार कम रहे, किन्तु सर्वथा उपेक्षा बरतने का कलंक तो न लगे।
युग निर्माण की सदस्यता में न्यूनतम शर्त जुड़ी हुई है कि नित्य नियमित रूप से दस पैसा ज्ञानघट में डाले जावें और एक घण्टा समय जन सम्पर्क द्वारा युगान्तरीय चेतना के आलोक वितरण में लगाया जाय। ईमानदार सदस्यों में से प्रत्येक उस प्रतिभा का निर्वाह नियमित रूप से कर रहा है। आलसी और अश्रद्धालु ही आनाकानी करते हैं। यह निर्धारण उद्देश्यपूर्ण था। जाग्रत् आत्माओं को अपनी वरिष्ठता बकवास से नहीं, सेवा साधना से प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध करनी चाहिए। स्व उपार्जित धन और ईश्वर प्रदत्त समय के दोनों ही वैभव ऐसे हैं जिन्हें धरोहर माना जाय और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए सदाशयता पूर्वक वापिस लौटाया जाय। संक्षेप में यही है-प्रज्ञा परिवार की सदस्यता की पात्रता और वफादारी सिद्ध करने के लिए अनुदान प्रस्तुत करते रहने में आनाकानी न की जाय। परिमाण चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो पर उसका संकल्प तो उठे, अभ्यास तो बने, स्मरण तो रहे, उदारता की कली तो खिले, योगदान की उमंग तो जगे।
अब समय बहुत आगे बढ़ गया। पैंतीस वर्ष पुराने उन संकल्प-शिशुओं में प्रौढ़ता प्रकट होनी चाहिए और अनुदान का स्तर बढ़ना चाहिए। दस पैसे माँगने वाला नवजात शिशु अब एक महीने में एक दिन की आजीविका से कम में अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं देखता। यह आर्थिक कठिनाई का नहीं, आस्था की प्रौढ़ता का प्रश्न है। उन्तीस दिन की कमाई में भी महीना कट सकता है। इस कटौती में तीन प्रतिशत का अंशदान निकलता है। प्राचीन काल में प्रत्येक भावनाशील अपनी आजीविका का दशांश पुरोहित के हाथ में धर्म प्रयोजन के लिए निकालता था और उसमें कृपणता को किसी भी कारण व्यवधान उत्पन्न नहीं करने देता था। अब आवश्यकता तो हरिश्चन्द्र और भामाशाहों जैसी उदारता की है, पर उतना न बनने पर तीन प्रतिशत की बात तो सोचना ही चाहिए, अन्यथा नव सृजन की इतनी विशाल कार्य योजना जिसके साथ ४५० (अब ६ अरब से अधिक) करोड़ मनुष्यों का भाग्य और भविष्य जुड़ा हुआ है, किस प्रकार अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेगी? स्मरण रहे, ध्वंस से सृजन महँगा पड़ता है। सर्वतोमुखी नव निर्माण में भी तो आखिर कुछ न कुछ लगेगा ही। उसकी पूर्ति कहीं अन्यत्र न होते देखकर जाग्रत् आत्माओं को ही अपनी रोटी पर कैंची चलानी चाहिए और उस बचत की श्रद्धाञ्जलि युग चेतना की झोली में प्रस्तुत करनी चाहिए।
सृजनात्मक प्रवृत्तियों में सद्भाव सम्पन्नों का श्रम, समय प्रचुर मात्रा में लग सके, इसका प्रबन्ध बिना देर लगाये इन्हीं दिनों होना चाहिए। प्रतीक टोकन की तरह एक घण्टा आरम्भिक स्थापना में अब कई गुनी अभिवृद्धि होनी चाहिए। बीस घण्टे में निर्वाह साधन जुटाये जा सकते हैं। बचत के ४ घण्टे इस निमित्त नियोजित होने चाहिए कि उस आधार पर लोक मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से सम्बन्धित अनेकानेक रचनात्मक कार्यों का बीजारोपण, परिपोषण, अभिवर्धन सम्भव हो सके। भागीरथी तप-साधना से ही स्वर्गस्थ गंगा को भूमि पर बहने और संव्याप्त पिपासा और शीतलता सरलता से परितृप्त करने का सुयोग बना था। इन दिनों फिर से विश्वकर्माओं की जरूरत पड़ रही है जो टूटी सुदामापुरी को भव्य भवनों में बदलें।
श्रम, समय के नियोजन से ही इस संसार का वह स्वरूप बना है जैसा कि सामने है। इसे विकृत बनाने में तथाकथित बलिष्ठों और विशिष्टों ने कोई कमी नहीं रहने दी है। अपने युग में समर्थों, सुयोग्यों की यही देन है। नई बारी उनकी है जो प्रतिभा के धनी नहीं है, किन्तु विश्व मानव की सुसंस्कारिता अक्षुण्ण रखने के लिए प्रयत्नशील हैं। ऐसे भाव-निष्ठों को अपने समय में कटौती करनी चाहिए। आपत्तिकाल में खाना, सोना छोड़कर भी दुर्घटनाओं से निपटने में जुटा जाता है। इन दिनों इसी स्तर की उदार तत्परता बरती जानी चाहिए। जो जितना समय बचा सके उसे इसी सृजन प्रयोजन के लिए प्रस्तुत करे। जो सच्चे मन से इसके लिए प्रयत्नशील होंगे, वे बीस घण्टे अपने लिए और चार घण्टे युग धर्म के लिए निकाल ही सकेंगे, इसमें सन्देह की गुँजाइश नहीं है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
19. रोग से लड़ें, पर रोगी को तो बचायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
विचारशीलता का तकाजा यह रहा है कि रोग को मारना चाहिए, रोगी को नहीं। अपराध
और अपराधी में अन्तर किया जाना चाहिए। अपराध एक प्रवृत्ति है और अपराधी एक
सत्ता। दोनों को एक ही समझ लिया जाय और अपराध के प्रति अपने रोष के आवेश में
अपराधी को समाप्त करने की योजना बनाई जाय तो यह रोग के साथ रोगी को मार डालने
की तैयारी करने जैसी ही भूल होगी।
प्रवृत्तियाँ सामयिक होती हैं, साथ ही अस्थिर भी। उनके उतार-चढ़ाव परिस्थितिवश आते रहते हैं। कई बार बाहरी घटनाएँ सामने की समझने अथवा असन्तुलित मनःस्थिति मनुष्य को ऐसे क्रूर कर्म करने के लिए घसीट ले जाती हैं जैसा करना उसकी मूल प्रकृति में सम्मिलित नहीं था। नशे की बदहवासी में मनुष्य न जाने क्या-क्या कहता और क्या-क्या करता है, पर नशा उतर जाने के बाद वह स्थिति नहीं रहती। ठीक इसी प्रकार आवेशों की स्थिति में मनुष्य न जाने क्या-क्या कहता और क्या-क्या करता है, पर वह उन्माद उतरते ही उस असन्तुलित स्थिति में किये गये कुकर्मों के प्रति पश्चाताप भी कम नहीं होता।
अपराधी मनःस्थिति आवेशग्रस्तता है, मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति नहीं। ज्वर एक आवेश है, जीवन क्रम नहीं। सभी आवेश एक आपत्तिकालीन विपत्ति के समान होते हैं। उनसे बचने और बचाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यों आपत्तिग्रस्त को हटा देना या मिटा देना भी एक उपाय हो सकता है, पर वह है बड़ा महँगा। अपना कोई स्वजन रोगी हो तो चिकित्सा, परिचर्या, चिन्ता आदि से बचने का एक उपाय यह भी हो सकता है कि उस रोगी स्वजन को मार डाला जाय। ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ वाली उक्ति के अनुसार इस उपाय का भी समर्थन किया जा सकता है। पर दूरदर्शिता यही कहेगी केवल रोग को हटाया जाय, रोगी को तो जीवित रहना चाहिए। इसी मान्यता के कारण चिकित्सकों, चिकित्सालयों और औषधि निर्माण की गतिविधियाँ चल रही हैं। यदि रोग और रोगी दोनों को ही साथ-साथ मिटा देने वाली बात सही होती तो बीमारों के लिए वध गृह ही विनिर्मित किये जाते और चिकित्सा प्रक्रिया के लिए झंझट भरे आधार खड़े नहीं किये जाते।
अपराधियों से अपना पाला पड़ते रहना स्वाभाविक है। क्योंकि अपच की तरह अनाचार भी अब एक सभ्यताजन्य रोग हो गया है। वह एक फैशन बन गया है। नेकी के बदले बदी, मैत्री के बदले छल और विश्वासघात मिलने की बात पग-पग पर देखी जा सकती है। आतंकवादी, अपराधी, अनाचारी और आततायी तत्व अब बेहिसाब बढ़ रहे हैं। उनके उपद्रव आये दिन कुहराम मचाये रहते हैं। प्रतिरोध के अभाव में उनकी बढ़ती हुई उच्छृंखलता को गले उतारना खून का घूँट पीने के समान कष्टसाध्य होता है।
ऐसी दशा में आक्रमण का उत्तर प्रत्याक्रमण भी हो सकता है। आत्मरक्षा के लिए इस प्रकार की छूट कानून ने भी दी है और न्याय की आचार संहिता ने भी। पुलिस, कानून और न्यायालयों की संरचना इसी उद्देश्य के लिए की गई है। समाज शास्त्र और नागरिक शास्त्र के अनुसार यह मानवी कर्तव्य घोषित किया गया है कि आततायी तत्वों का मिल जुलकर सामना किया जाय। एक को सताया जा रहा है तो दूसरे सब लोग उसका प्रतिरोध करने के लिए उठ खड़े हों। अनीतिकर्ता का न तो कोई समर्थन करे और न सहयोग दे। इतना ही नहीं, यह सोचकर चुप भी न बैठें कि हमें दूसरों के झंझट में पड़ने से क्या लाभ? जिस पर बीते वह भुगते। इस असामाजिक मनोवृत्ति के कारण ही हर भले मानुष को एक एक करके गुण्डा तत्वों का शिकार होना पड़ता है और थोड़े से आतंकवादी सौम्य जनता की विशाल जनसंख्या को चुनौती देते रहते हैं और किसी को भी अपने उत्पात का शिकार बनाते रहते हैं। उद्दण्ड और अपराधी प्रवृत्तियों को पनपने के लिए आवश्यक खाद-पानी जनसमाज को इस कायरता और स्वार्थपरता भरी उपेक्षा वृत्ति से ही मिलता है। यदि अपराधों के प्रति सर्वत्र सजगता रहे, एक पर अनीतिपूर्वक किया गया आक्रमण समस्त मानव जाति पर किया गया हमला माना जाय तो कहीं भी किसी पर भी किये गये अन्याय को अपने ऊपर किया गया अनाचार ही माना जायेगा। सामूहिक प्रतिरोध के सामने मुट्ठी भर अपराधियों को, अपराधों को एड़ी के नीचे रगड़ कर रख दिया जा सकता है।
अपराधों को रोकने के लिए, अपराधकर्ताओं की दुष्टता से निपटने कि लिए आवश्यक जनमत जागृत किया जाना चाहिए और जन सहयोग जुटाया जाना चाहिए। सरकारी विभाग भी यदि सहयोग करे तो उसे लेना चाहिए।
पर यह सभी उपाय फुन्सी उठने के उपरान्त मरहम पट्टी करने के बराबर हैं। मूलोच्छेदन की प्रक्रिया यह नहीं है। रक्त शुद्धि की रीति-नीति बरतना यह वास्तविक उपाय है जिससे न फुन्सी उठे और न मरहम लगानी पड़े। अपराधी को दण्ड देना दुर्घटना के उपरान्त किया जाने वाला उपचार मात्र है। इससे समस्याओं का स्थायी हल नहीं हो सकता। अपराधी मनोवृत्ति उत्पन्न होने के कारणों को ढूँढ़ना होगा और शांत चित्त से उन उपायों को खोजना होगा जिससे रोग को मारने और रोगी को बचाने का उद्देश्य पूरा हो सके।
यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों के साथ घृणा बरतनी चाहिए। घृणा एक मारक विष है, उससे दूसरों का अहित हो सकता है यह सही है, पर यह और भी अधिक सही है कि घृणा जहाँ कहीं भी रहती है, उस अन्तःकरण को अनेकानेक दुष्ट चिन्तनों की दुर्गन्ध से भर देती है। घृणा का अभ्यासी इतना शंकाशील और विग्रही हो जाता है कि फिर उसके लिए सज्जनों के प्रति भी श्रद्धा और विश्वास रख सकना सम्भव नहीं रहता। दुष्टता का गहरा चिन्तन करने पर ही घृणा उत्पन्न होती है। इससे व्यक्ति या स्थिति का निकृष्ट स्तर ही उभरता है और मस्तिष्क पर छाया रहता है। इस विषाक्त घुटन से अपना चिन्तन तन्त्र ही सड़-गल जाता है। फिर उसके लिए कोई ऊँची बात सोच सकना तक कठिन हो जाता है।
घृणा से संघर्ष की वृत्ति उपज सकती है और अवांछनीयता से अधिक तत्परता पूर्वक लड़ सकना सम्भव हो जाता है, यह सही है। तीव्र घृणा मन में भरी रहे तो शत्रु पर तीखे प्रहार कर सकना बन पड़ता है, यह भी सही है। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि आक्रमण की अभ्यस्त मनोभूमि फिर केवल उसी प्रयोजन के उपयुक्त बनकर रह जाती है। उसे सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सकना कठिन होता है। ऐसे लोगों के सामने जब शत्रु पक्ष नहीं रहता तो वे अपनों का ही विनाश करने में लग जाते हैं। आक्रमण की आदत को अपनी तृप्ति के लिए आखिर कुछ तो चाहिए। शत्रु न सही, मित्र ही सही। क्रूर कर्मों में निरत व्यक्ति जितने भयंकर बाहर वालों के लिए होते हैं, उतने ही निर्मम स्वजनों के लिए होते हैं। तनिक सी बात पर वे अपने ही स्त्री, बच्चों तक की हत्या करने पर उतर आते हैं। क्रूर कर्म और क्रूर चिन्तन उनकी ममता को, कोमल भावना को एक प्रकार से समाप्त ही करके रख देता है। यह हानि इतनी बड़ी है जिसकी तुलना में घृणास्पद का विनाश करना भी कम महत्त्व का रह जाता है।
प्रेम हमारे जीवन की प्रमुख नीति होनी चाहिए। मल-मूत्र और हाड़ माँस की गठरी इस काया में रहने के लिए आत्मा इसलिए तैयार हुई कि उसे मानव शरीर में रहते हुए प्रेम का अमृत चखने के लिए मिलेगा। वस्तुतः प्रेम से मधुर इस जीवन में और कुछ है ही नहीं। दूसरों के साथ सद्भाव भरी आत्मीयता जोड़ने से वह प्रिय लगते हैं और सुन्दर भी।
छिद्रान्वेषण की दृष्टि बदल जाने पर जब उनके साथ गुणग्राही सम्पर्क बनाया जाता है, तब प्रतीत होता है कि पहले जितनी बुराइयाँ सोची गई थीं, वस्तुतः उनमें उतनी थी नहीं। जो थीं वे बिना विद्वेष के शस्त्र का प्रहार किए अपेक्षाकृत अधिक सौम्य उपायों से अधिक अच्छी तरह हल की जा सकती थीं। प्रेम की धार घृणा की अपेक्षा कहीं अधिक पैनी है। दण्ड देने में जितनी शक्ति खर्च होती है और सुधार कर जितना परिणाम सामने आता है, उसकी अपेक्षा प्रेम का प्रहार करने पर अधिक सरलता से अधिक सुधार हो सकना सम्भव है। आज का अपराधी कल सज्जन बन सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखा ही जाना चाहिए। भूतकाल में वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल, बिल्वमंगल, अशोक आदि अगणित अपराधी प्रवृत्ति वालों का आमूलचूल परिवर्तन सम्भव बनाने वाले उदाहरण सामने आते रहे हैं। वैसा होना अभी भी, कभी भी सम्भव हो सकता है। इसलिए अपराधों के सामयिक दमन की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी यह दृष्टि रखनी होगी कि वह आवेशग्रस्तता आखिर पैदा क्यों होती है? उसकी जड़ कहाँ है और उसके मूलोच्छेदन के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए?
पहला अपराध यही है कि हम अपराध और अपराधी के बीच का अन्तर समझें और विश्वास करें कि मनुष्य पत्थर का नहीं, मोम का बना है; उसकी आकृति न सही, प्रकृति तो बदली ही जा सकती है। आज का अपराधी कल सज्जन बन सकता है और बनाया जा सकता है। इस मान्यता को सुदृढ़ बनाकर ही यह सोचा जा सकता है कि दण्ड के अतिरिक्त भी कोई उपाय इस दिशा में किये जा सकते हैं। जब तक हम आतंक के प्रति रोष का एक मात्र प्रतिशोध ही सोचते रहेंगे, तब तक वह विवेक बुद्धि कार्यान्वित न हो सकेगी जो चिकित्सा उपचार की आवश्यकता का प्रतिपादन करती है।
आमतौर से सज्जन तत्व अपराधी प्रकृति के लोगों से दूर रहते हैं। वे सोचते हैं उससे उन्हें भी बुरा समझा जाने लगेगा और लोग सन्देह करेंगे या उँगली उठावेंगे। यह सोचना उचित नहीं कि अस्पताल में अहर्निश सेवा साधना में संलग्न डाक्टरों, कम्पाउण्डरों, नर्सों और सेवकों को भी रोगी ही समझा जायेगा। अफ्रीका के नरभक्षी आदिवासियों के बीच सुसंस्कृत योरोपीय पादरी स्थायी रूप से जा बसे और उन्हें सुधारने में बहुत हद तक सफल हुए। उन पादरियों को किसी ने नरभक्षी नहीं कहा। यदि वे ऐसा अपडर, डरा करते तो उनकी इस सज्जनता को दुर्बल और अधूरा ही माना जा सकता था। पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने के लिए उन्हीं के बीच बसना आवश्यक है और अपराधियों के अन्तःकरण को छूकर उनकी कोमल भावनाओं को जगाने के लिए उनके बीच रहना भी आवश्यक है। दूर रहकर यदा-कदा उपदेश देने की लकीर पीट देने से झूठा मनोविनोद किया जा सकता है, उसका कुछ स्थायी लाभ नहीं हो सकता।
अपराधियों के सुधार के लिए इन दिनों कई प्रकार के प्रयत्न चलते हैं। सुधारगृहों की धूम है। जेलों को भी सुधारगृह कहा जाता है और कुछ उसी तरह की व्यवस्था भी बनाई जाती है। अनैतिक वातावरण में फँसी हुई नारियों के उद्धार के लिए भी नारी सुधार गृह स्थापित हैं। बाह्य उपचार की दृष्टि से यह सब कुछ ठीक है, पर भीतरी पोल को भरने के लिए ऐसे चरित्रवान, आदर्शवादी और कर्मनिष्ठ व्यक्तियों की जरूरत है जो सुधार की औपचारिकता ही पूरी न करें, अपने व्यक्तित्व की छाप भी उन पर डालें।
बात सुधारगृहों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि वहाँ तो कोई तब पहुँचता है जब उसका अपराध सिद्ध हो जाता है। यह स्थिति तो फोड़ा पककर फूटने और नासूर बनने जैसी बहुत बाद की स्थिति है। आरम्भ इससे बहुत पहले होना चाहिए। जहाँ भी, जिस क्षेत्र में भी अपराधियों के पनपने की आशंका हो, सेवाभावी तत्वों के आत्मविज्ञापन के प्रलोभन से बचकर उन्हीं लोगों के बीच अड्डा जमाना चाहिए।
कल-कारखानों के मजदूर बचे हुए समय में जो कुछ करते हैं, जिन प्रवृत्तियों में व्यस्त रहते हैं, वे सुखद नहीं है। उनके लिए उपयोगी वातावरण हो तो उस बचे हुए समय में अपनी क्षमताएँ बढ़ाने और उपयोगी विनोद मनोरंजन करने मे लग सकते हैं। छात्रावासों में उपयोगी वातावरण निर्माण कर सकने वाले लोग यदि रह सकें तो वहाँ उफनती रहने वाली उच्छृंखलता सृजनात्मक सौमनस्य में बदल सकती है। ठाली बैठे लोग ही खुराफात सोचते और अकर्म करते हैं। बेकारी का समय आजीविका उपार्जन में प्रयुक्त हो सके, ऐसा कुछ न भी बन सके तो ऐसा तो कुछ किया ही जा सकता है जहाँ वे लोग शान्तिपूर्वक समय काटते हुए गुत्थियों को सुलझाने वाला प्रकाश प्राप्त कर सकें।
अपने देश के सुधारवादी लोगों की एक भारी दुर्बलता यह है कि वे अपना विज्ञापन करने वाला कोई न कोई स्वतन्त्र अड़ंगा खड़ा करते रहते हैं। कोई नई संस्था गढ़े बिना उन्हें चैन ही नहीं पड़ता। एक आदर्श सुधार संस्था बनाने की सनक में उनका सारा श्रम और सारा उत्साह खर्च हो जाता है, तो भी वह ढाँचा ठीक तरह खड़ा नहीं हो पाता जहाँ निवास करने के लिए पिछड़े हुए लोग आवें और सुधार का लाभ प्राप्त करें। अपने देश का सुधारवादी उत्साह कुछ न कुछ नया शिगूफा खड़ा करने में ही लालायित रहता है। इसके मूल में आत्म-ख्याति का जितना पुट रहता है उतना सेवा भावना का नहीं। यह ओछापन यदि छूट जाय तो सेवाभावी लोग नई-नई संस्थाएँ रचने की अपेक्षा उन क्षेत्रों में जाकर बसने लगें जहाँ पिछड़ापन किसी उपदेशक की नहीं, ऐसे साथी-सहयोगी की बाट जोह रहा है जो उन्हीं में घुल-मिलकर आत्मीयता उत्पन्न करे और अपनी जलती ज्योति से उनके बुझे हुए दीपक जलावे।
कबीर ने जुलाहे का, रैदास ने चमार का, नामदेव ने दर्जी का धन्धा अपनाया और उस वर्ग के पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने में अपने को खपा दिया। क्या यह आदर्श हम सुधारवादियों के लिए उपयोगी नहीं हो सकता?
जटिल रोगियों के लिए अस्पताल की उपयोगिता हो सकती है और अत्यन्त बिगड़े हुए लोगों को सुधारगृहों में भी बाधित किया जा सकता है, पर स्वास्थ्य शिक्षा तो व्यापक होनी चाहिए। उसी तरह चरित्रनिष्ठा के लिए भी सुविस्तृत वातावरण बनाया जाना चाहिए, तभी रोग से लड़ने और रोगी को बचाने का प्रयोजन पूरा हो सकेगा। अपराधों से हमें द्वेष हो सो ठीक है, पर अपराधी से बिना घृणा किए भी हम उसे स्नेह सद्भाव प्रदान करते हुए सुधारने में बहुत हद तक सफल हो सकते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
20. बृहत्तर परिवारों की संरचना एक सामयिक
आवश्यकता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
एकाकी मनुष्य न प्रगति कर सकता है और न प्रसन्न रह सकता है। मानवी संरचना ही
कुछ ऐसी है जिसमें मिल-जुलकर चलने और सहयोग पूर्वक आगे बढ़ने की व्यवस्था है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसे अन्यान्य प्राणियों से आगे बढ़कर जिस ऊँचाई तक
चढ़ने और साधन सम्पन्न बनने का सुयोग मिलता है, उसमें उसकी सहकारी सामाजिक
प्रवृत्ति का सबसे बड़ा योगदान है। यदि वह एकाकीपन से ग्रसित रहा होता तो वन
मानुषों से आगे बढ़ सकने की स्थिति उसे हस्तगत हुई ही न होती। अपने अनुदानों
को दूसरों के लिए हस्तान्तरित करते रहने, हिल-मिलकर रहने और मिल-बाँटकर खाने
की आदत ही वह दैवी वरदान है जिसके आधार पर मनुष्य को प्रकृति का लाडला बेटा
और परमात्मा का युवराज कहने का अवसर मिला।
इस प्रवृत्ति में घटोत्तरी नहीं होनी चाहिए। उसे निरन्तर अधिकाधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। परिवार संस्था से समाज आरम्भ होता है। दाम्पत्य जीवन के साथ अभिनव सहकार का नूतन अध्याय जुड़ता है। बच्चे उसे और भी विस्तृत एवं सघन बनाते हैं। वृद्धजनों और भाई बहिनों के जितने ही उत्तरदायित्व एवं व्यवहार परिवार में जुड़ते हैं, फलतः वह छोटे रूप में एक समाज या राष्ट्र का रूप धारण कर लेता है। संगठन, संचालन एवं सामूहिक निर्वाह की विधि-व्यवस्था सीखने के लिए परिवार से अधिक सरल किन्तु महत्त्वपूर्ण व्यवस्था और कोई है नहीं।
परिवार पिछले दिनों वंश परम्परा के आधार पर चलते रहे हैं। विवाह और प्रजनन के आधार पर बनने वाला संगठन इच्छा या अनिच्छा से निर्वाह क्रम चल पड़ने की गाड़ी अपने क्रम से अपनी पटरी पर चलती आ रही है। अब प्रगतिक्रम में आगे बढ़ते हुए मनुष्य को एक कदम और आगे बढ़ाना चाहिए और वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श को व्यवहार में सम्मिलित करने के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें उज्ज्वल भविष्य की झलक दृष्टिगोचर हो सके।
वंशानुक्रम वाले परिवारों से आगे बढ़कर मनुष्य ने आर्थिक संगठनों के निमित्त यत्किंचित उत्साह दिखाया है। सहकारी समितियाँ, कम्पनियाँ, बैंक इसी दिशा में कुछ प्रयास करती हैं। व्यवसायियों एवं श्रमिकों के संगठन भी प्रायः अर्थ प्रयोजन को सुलभ बनाने का दृष्टिकोण साथ लेकर ही चलते हैं। शेयरों के आधार पर खड़े होने वाले विशाल व्यवसाय बैंकों की सहायता से अपना कार्य क्षेत्र बढ़ाते हैं। बीमा कम्पनियाँ भी प्रायः इसी प्रयोजन की पूर्ति करती हैं। साझेदारी की छोटी फर्मों तथा खेती बाड़ी की परिपाटी में भी इस प्रवृत्ति की व्यावहारिकता मिलती रहती है।
आवश्यकता है परिवार के सामाजिक स्वरूप को आगे बढ़ाने की। क्योंकि सघनता, एकता, आत्मीयता, वितरण जैसी अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का विकास साथ रहने और मिलजुल कर निर्वाह करने की प्रक्रिया अपनाने पर ही संभव होता है। आर्थिक संगठन इस उद्देश्य की पूर्ति में कदाचित ही कुछ सहायता कर पाते हैं। अर्थ सुविधा का जितना महत्त्व है, उससे कहीं अधिक भावनात्मक सहकारिता का है। सत्प्रवृत्तियों को यदि मानवी गरिमा का आधार माना जाय तो यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि इसका प्रयोग, अभ्यास एवं परिपाक करने के लिए भावनात्मक पारिवारिकता को ऐसा प्रोत्साहन मिलना चाहिए जिनसे वह व्यवहार में भी उतर सके।
पारिवारिकता को अग्रगामी बनाने के लिए विज्ञजनों ने लार्जर फैमिली व्यवस्था की परिकल्पना की है। निर्वाह जन्य व्यवसायों का बिखराव दूर करके उसे केन्द्रित करने के लिए निर्धारण को उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण माना गया है। एक गली-मुहल्ले के लोग मिलजुल कर ऐसी व्यवस्था बना लें जिसमें भोजन पकाने, कपड़े धोने, बच्चे खिलाने, बाजार की खरीद फरोख्त करने, ट्यूशन लगाने, सुरक्षा प्रबन्ध करने जैसी दैनिक आवश्यकताओं को अलग-अलग न रखकर एक संयुक्त व्यवस्था के अन्तर्गत सुनियोजित बना लिया जाय। समय की अनावश्यक बर्बादी को एक केन्द्रीय व्यवस्था बनाकर आसानी से रोका जा सकता है। इस आधार पर जो अवकाश मिले उसका अभीष्ट प्रगति के लिए अपने-अपने ढंग से अपने-अपने प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसमें पैसे की, समय की बचत होती है और तरह-तरह की चिन्ताओं में व्यग्र रहने, साधन जुटाने की भाग-दौड़ करने से सहज छुटकारा मिल सकता है।
बड़े कुटुम्बों की तरह सभी सदस्यों का समय एकत्रित करके उसे कार्य विभाजन के अनुसार नियोजित कर देने से भी काम चल सकता है। ऐसा न बन पड़े तो फिर वैतनिक कर्मचारी नियुक्त करके भी यह कार्य हो सकता है। एक रसोई घर में अनेक परिवार के लोग भोजन करें तो इसमें क्या हर्ज है। स्कूलों के बोर्डिंगों में, सेना की छावनियों में, साधुओं के लंगरों में यह व्यवस्था बड़ी सरलता पूर्वक चलती भी रहती है। थोड़ी सूझबूझ का प्रयोग हो और कुछ उत्साही लोग इसकी पहल करें तो सभी को इसमें अनुकूलता प्रतीत होगी और एक से दूसरे का अनुकरण करने पर यह प्रथा परम्परा चल पड़ेगी। छोटे बच्चों को खिलाने का प्रबन्ध एक जगह बन पड़े तो घर के अन्य लोग उसी में बँधे रहने के स्थान पर अन्य काम कर सकते हैं। विशेषतया महिलाओं के लिए तो प्रगति का एक नया द्वार ही खुल सकता है। बच्चे भी प्रसन्न रहेंगे। साथियों में उनका मन लगा रहेगा, फलतः गोदी में चढ़े रहने की और जिद्दी बनने जैसी बुरी लतें अपनाने का अवसर ही न मिलेगा। थोड़े बड़े होने पर उन्हें बाल विद्यालयों में अन्यत्र भेजने की अपेक्षा यह अधिक सस्ता और सही है कि मुहल्ले के बच्चों की अपनी पाठशाला हो जिसमें वे खेलते भी रहें और पढ़ते भी। जब तक वे स्कूल जाने लायक न हो तब तक यह शिक्षण क्रम बहुत ही सुविधा और सफलता के साथ लार्जर फैमिली पाठशाला के अन्तर्गत अपने मुहल्ले में ही चल सकता है। इससे बाल विकास में समीपवर्तियों से अधिक स्नेह सहकार बढ़ने में अतिरिक्त सहायता मिल सकती है। बच्चे सुरक्षित भी रहेंगे, प्रसन्न भी और अभिभावकों की देख−भाल के अन्तर्गत भी।
दैनिक व्यवहार की वस्तुएँ इसी प्रबन्ध के अन्तर्गत बने एक स्टोर के अन्तर्गत रखी जा सकती हैं। इकट्ठी लेने पर वे सस्ती भी पड़ेगी और परख कर सही वस्तु लेने में भी सुविधा रहेगी। अभिरुचि की पत्र-पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें एक जगह खरीदी जाया करें और सभी लोग उनसे बारी बारी लाभ उठा लिया करें तो कम खर्च में अधिक लाभ पाने का अवसर मिलेगा। चौकीदार रखकर मुहल्ले की सुरक्षा का भी प्रबन्ध इसी आधार पर हो सकता है।
यह सुविधा सम्वर्धन की बात हुई। समय और पैसे की बचत को उपरोक्त प्रतिपादन में उभारा गया है। किन्तु उससे भी बड़ी बात है पारिवारिक स्नेह सहयोग और सद्भाव का सम्वर्धन। यह स्वाभाविक है। जो लोग आँख के सामने रहते हैं, किसी कारण मिलते-जुलते और आदान-प्रदान का सहकारी प्रयोग चलाते रहते हैं, उनके बीच सहज घनिष्ठता उत्पन्न होती है। वे एक दूसरे के सुख में सहायक होते हैं। हाथ बँटाते और हिम्मत बढ़ाते हैं। यह लाभ देखने में सामान्य होते हुए वस्तुतः असामान्य है। इस प्रयास से नैतिकता, सामाजिकता और सहकारिता के सम्वर्धन में जो भावनात्मक प्रोत्साहन मिलता है, उसका महत्त्व कम नहीं आँका जाना चाहिए। समयानुसार जब उसकी उपलब्धियाँ सामने आती हैं तो प्रतीत होता है कि वंशानुक्रम के आधार पर चलने वाले कुटुम्बों की तरह ही यह सम्पर्क क्षेत्र का, सुविधा सम्वर्धन के आधार पर बना परिवार भी कम उपयोगी नहीं है। प्रारम्भिक कदम के रूप में इतना भी कम नहीं कि एक मुहल्ले के लोग सुविधा सम्वर्धन के लिए सम्मिलित व्यवस्था सोचें और बिखराव की मनोवृत्ति पर अंकुश लगाकर केन्द्रीकरण की दिशा में कुछ न कुछ करने के लिए आगे बढ़ें।
प्राचीन काल में बिरादरियों की पंचायतें होती थी। उनमें बुद्धिमान, परिपक्व और प्रभावशाली लोग पंच-सरपंच की भूमिका निभाते थे। वोट डालकर चुनाव तो नहीं होते थे, पर विशिष्टता एवं वरिष्ठता के आधार पर उनका सम्मिलित स्वरूप अनायास ही पंचायत जैसा बन जाता था। उन दिनों एक व्यवसाय के लोग एक बिरादरी बन जाते थे। व्यवस्था एवं सुविधा की दृष्टि से वे इर्द-गिर्द ही रहते थे। संक्षेप में बिरादरियाँ इसी आधार पर बनती थी। उनमें अन्तर्कलह खड़े न होने पायें, नैतिक अनाचार न पनपे, कोई उच्छृंखलता न बरते, सामाजिक अनुशासन का व्यतिक्रम न हो, इसकी देख−भाल एवं जिम्मेदारी इन बिरादरी पंचायतों पर रहती थी। छोटे-मोटे आर्थिक झगड़े और मनोमालिन्य भी वे ही निपटा दिया करती थी। इस व्यवस्था का एक क्षेत्रीय समुदाय में चलने वाली कार्यपालिका के ऊपर न्यायपालिका का अनुशासन कहा जा सकता है।
समर्थों का असमर्थों के प्रति अन्याय जब तब हर क्षेत्र में उभरता रहता है। कुछ उद्दण्ड और मूर्ख प्रकृति के भी हर समुदाय में रहते हैं। इनका नियमन लोकमत के दबाव और पंचायत के निर्णय की समन्वित शक्ति से बिना किसी कठिनाई के होता रहता था। स्त्रियों को, बच्चों को सताने की शिकायतें आमतौर से उठती रहती हैं। अवज्ञा, अवहेलना और उद्दण्डता के कौतुक भी आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। इनकी ओर से उपेक्षा बरतने और घर-परिवार में उतनी सूझबूझ या दबाव व्यवस्था न होने से अनीति पनपती रहती है और पके फोड़े की तरह सड़ती रहती है। इनका निराकरण मुहल्ले की पंचायतें बड़ी आसानी से कर सकती हैं और पुरानी बिरादरी पंचायतों का स्थान नये सिरे से, नये रूप में ग्रहण कर सकती है। इस आधार पर सुव्यवस्था और सद्भावना बने रहने का देखने में छोटा किन्तु दूरगामी परिणाम की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होता रह सकता है।
यह नियमन की बात हुई। यही लार्जर फैमिली विशाल परिवार प्रक्रिया अपने-अपने क्षेत्र में सुविधा सम्वर्धन की तरह प्रगतिशील प्रयोजनों को भी कार्यान्वित कर सकने में समर्थ हो सकती है। छोटे गृह उद्योगों की नींव सामयिक विद्यालय इसी योजना में सम्मिलित रखे जा सकते हैं। कथा वार्ता, सत्संग, विचार विनिमय, संगीत, प्रवचन, छोटे-मोटे खेल मनोरंजन, रेडियो, टेलीविजन जैसे कितने ही प्रबन्ध इस प्रकार किये जा सकते हैं कि इस संगठन के सभी सदस्य उनका समुचित लाभ उठा सकें।
इन दिनों कितनी ही निवास कालोनियाँ बस रही हैं। उनमें से कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें एक व्यवसाय के या एक जगह काम करने वाले अपने लिए नये घरों का प्रबन्ध करते हैं। अच्छा हो कुछ प्रगतिशील विचारवान लोग ऐसी कालोनियाँ बसाएँ जिनमें लार्जर फैमिली स्तर की सुविधाएँ खड़ी की जा सकें। कुछ छोटे गाँव ऐसे बसाए जा सकते हैं जिनमें भारत की जलवायु तथा गरीबी को देखते हुए ऐसा ढाँचा खड़ा किया जा सके जो दूसरों के लिए अनुकरणीय हो सके। कई जगह बड़ी इमारतें कटरे ऐसे होते हैं जिनमें सैकड़ों व्यक्ति एक साथ रहते हैं। इनमें से एक एक स्तर के व्यक्ति अपने-अपने ढंग की लार्जर फैमिलियों का प्रबन्ध कर सकते हैं। इसके लिए ऐसे स्थान की व्यवस्था बनानी पड़ेगी जिसमें रसोई गृह, शिशु विनोद, अध्ययन कक्ष आदि के लिए स्वतन्त्र रूप से कुछ बड़ा स्थान मिल सके।
प्रयत्न नया होने से उसमें कितने ही उतार-चढ़ाव आ सकते हैं। आशा-निराशा उत्पन्न करने वाले घटनाक्रम घटित होते रह सकते हैं। कुछ लोग आरम्भ में उत्साह दिखाकर फिर किसी छोटी बात पर तुनक सकते हैं। ऐसे अपवादों की चिन्ता न करके यदि कोई धन का धनी किसी बड़े परिवार का संचालन करने वाले भारी गृहपति की तरह इसे चलाता रहे तो कुछ ही समय में ऐसी स्थिति आ जायेगी जिससे उसे सरल और सफल माना जा सके। यह एक अत्यन्त उपयोगी परम्परा है जिसे परिस्थितियों की बढ़ती हुई जटिलता को देखते हुए समय की माँग कहा जा सकता है।
कम्युनिष्ट पार्टी के आरम्भिक प्रतिपादकों के मस्तिष्क में एक सपना था कम्यून। कम्यून का अर्थ लगभग वही होता है जो लार्जर फैमिली का है। विशाल परिवार की आचार संहिता क्या हो, उसकी अर्थ व्यवस्था किस प्रकार चले, पारस्परिक सम्बन्धितों का निर्धारण किस रीति-नीति के आधार पर विनिर्मित हो? यही चिन्तन उस स्थापना के पीछे काम करता रहा और योजनाएँ बनती रहीं। गली, मुहल्लों और गाँवों में उसका प्रयोग चला। तथ्यों ने उसकी उपयोगिता का पूरा-पूरा समर्थन किया। बड़े मस्तिष्कों और दूरदर्शी विचारकों ने इस आधार पर समूचे समाज के गठन की बात सोची। उस व्यापक प्रचलन का तारतम्य बिठाते-बिठाते एक शासन पद्धति का इस आधार पर ढाँचा खड़ा करने की बात आगे बढ़ गई। क्रान्तियाँ हुई और कम्यून चिन्तन को राजनैतिक पार्टी तथा शासन तन्त्र के रूप में मान्यता मिल गई। यही है संक्षेप में कम्यूनिज्म के बीजारोपण और उसके विशाल उद्यान में परिणत होने का इतिहास।
बढ़ती हुई जनसंख्या, आकाश चूमती महँगाई, बढ़े हुए खर्च जुटाने की व्यस्तता, निर्वाह साधन जुटाने में सिरदर्द जैसी दौड़-धूप को ध्यान में रखते हुए उसका समाधान ढूँढ़ना ही पड़ेगा। इस प्रयास में लार्जर फैमिली बृहत्तर परिवार व्यवस्था ऐसी है जिसमें समय और पैसे की बचत के अतिरिक्त प्रसन्नता बढ़ाने और सद्भावना का वातावरण बनाने की सुखद संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं।
अप्रचलित काम सदा ही कठिन प्रतीत होते हैं। कभी-कभी तो वे असंभव और उपहासास्पद भी प्रतीत होते हैं। जनता द्वारा जनता पर शासन करने की प्रजातन्त्र पद्धति का जिन दिनों आरम्भिक प्रतिपादन हुआ था, उन दिनों उसे मूर्खतापूर्ण कल्पना बताया और भरपूर उपहास उड़ाया गया था। नये प्रतिपादन भले ही कितने ही तथ्यपूर्ण क्यों न हों आमतौर से पुरातनवादियों की दृष्टि में जमते नहीं। इस अवरोध से जूझने में मनस्वी लोग अपनी वरिष्ठता का परिचय देते रहे हैं। बृहत्तर परिवार की संरचना में उनके ही अग्रगामी साहस और उत्साह की आवश्यकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार