जागो शक्ति स्वरुपा नारी

 

दो शब्द

समाज में वर्ग भेद के बहुत से प्रकार हैं, जो समाज के विकास में बाधक सिद्ध हो रहे हैं। जाति-भेद, रंग-भेद एवं सम्प्रदाय भेद आदि में से प्रत्येक के कारण एक सीमित वर्ग ही बाधित देखा जाता है। नर-नारी का भेद एकमात्र ऐसी समस्या है, जिसने विश्व की ५०% जनसंख्या को बाधित बना रखा है। नर-नारी के बीच भेद के कारण उत्पन्न विषमता से विश्व का कोई क्षेत्र एवं कोई वर्ग अछूता नहीं है।

समाज को श्रेष्ठ बनाना है, विश्व को उज्ज्वल भविष्य तक पहुँचाना है, तो 'नारी' को उसकी स्वाभाविक सृजनशीलता एवं सम्वेदना के साथ विकसित होकर कर्मक्षेत्र में उतरने का अवसर देना ही होगा।

इस संग्रह में वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा द्वारा नारी जागरण एवं परिवार निर्माण सम्बन्धी ऐसे प्रेरक सूत्रों का संकलन किया गया है, जो हर क्षेत्र में नारी जागरण के लिए उत्साह जगाने और पुरुषार्थ को फलित करने में सफल हो सकते हैं।

—प्रकाशक

 

**     भगवान् की इच्छा इन दिनों स्पष्ट रूप से प्रभातकाल की अरुणिमा की तरह प्रकट हो रही है कि आधी मनुष्य जाति पददलित स्थिति में न रहे। उसे भी अपने पराक्रम और वर्चस् को प्रकट करने का अवसर मिले। इस दैवी प्रयोजन का परिचय इन्हीं दिनों दो रूपों में देखने को मिलेगा।

एक तो दूरदर्शी विवेकवान् पुरुष बढ़-चढ़ कर यह प्रयत्न करेंगे कि नारी के उत्कर्ष के लिए, जो कुछ अधिक से अधिक कर सकना सम्भव हो, उसे कर गुजरने में किसी प्रकार की कमी-कोताही न रहने दी जाए।

दूसरी अन्त:स्फुरणा नारी के अन्तराल में अदम्य उत्कण्ठा के रूप में उभरेगी और वे इस प्रयास में जुट पड़ेंगी कि अपने वर्ग के पिछड़ेपन को प्रगतिशीलता में बदलने के लिए कार्य क्षेत्र में उतरें।

निजी उलझनों को एक कोने में रखकर प्रधानता इस बात को दें कि नारी उत्कर्ष के लिए उनकी भूमिका असाधारण होनी चाहिए। पिछड़ों को उठाने और दलितों को उभारने के लिए आखिर कुछ असाधारण त्याग-बलिदान तो करना ही पड़ता है, करना भी पड़ेगा। नारी अभ्युदय इसी आधार पर सम्भव हो सकेगा।     —भगवती देवी शर्मा (वाङ्मय-२१वीं सदी-नारी सदी, पेज-४.६)

 

**     काम बहुत पड़ा है। आवश्यकता ऐसी प्रतिभावान् नारियों की है, जो महिला कल्याण के लिए इस परम उपयोगी और अति महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए अपनी भावना एवं शक्ति का एक बड़ा अंश समर्पित कर सकें। कितने ही आन्दोलन हैं, जो घर-घर जाकर चलाये जा सकते हैं—

१- घरों, दुकानों तथा कमरों में टँगे हुए नारी को अपमानित करने वाले अश्लील चित्रों को हटाया जाना और उनके स्थान पर गायत्री मंत्र तथा प्रेरणाप्रद वाक्य तथा आदर्श चित्रों का लगाया जाना।
२- बेटा-बेटी में भेद न करने की प्रतिज्ञा।
३- भोंड़ी फैशन, चुश्त कपड़े, भद्दे शृंगार तथा जेवर लादने जैसे ओछी टीपटाप छोड़कर शालीन वेश-विन्यास अपनाने का अनुरोध।
४- घरों में उपासना कक्षों की स्थापना।
५- उत्सवों में भद्दे गीत न गाने की प्रतिज्ञा।
६- पर्दा प्रथा का त्याग।
७- अन्ध विश्वासों का बहिष्कार।
८- मृतक भोज, विवाह-शादियों में अपव्यय का विरोध।
९- घरेलू शाक-वाटिका का प्रशिक्षण।
१०- गृह व्यवस्था के अगणित पक्षों का ज्ञान तथा उनका व्यवहार।     —भगवती देवी शर्मा (नैतिक शिक्षा-प्रथम, पेज-६५)

 

**     भारत का नारी समाज संकोच, भय छोड़कर महिला उत्कर्ष के अभियान में सम्मिलित हो, यही युग की पुकार है। त्याग-बलिदान की तो उसमें कमी नहीं। पति के लिए, बच्चों के लिए उसका सारा जीवन ही त्याग-बलिदान से ओत-प्रोत बीतता है। इसलिए उसे लोभ, मोह छोड़ने की बात कहने की—कष्ट सहने के लिए तैयार होने का उद्बोधन करने की तो आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। यह गुण तो उसमें प्रकृति प्रदत्त और जन्मजात है। उद्बोधन केवल संकोच और झिझक छोड़ने का करना है। यदि ऐसा किया जा सके, तो विश्व को चकाचौंध कर देने वाले अगणित नारी- रत्न अपने देश में अनायास ही पैदा हो जाएँ।     —भगवती देवी शर्मा (हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-१८५)

 

**     हम परमेश्वर के पश्चात् सर्वाधिक ऋणी किसी के हैं, तो नारी के; क्योंकि प्रथम परमात्मा तो मात्र जीवन देता है; किन्तु द्वितीय मातृशक्ति नारी हमें जीने के योग्य बनाती है।

इस दिव्य चेतना शक्ति को प्रतिबन्धित एवं शोषित कर कुछ पाने की कल्पना करना निरर्थक है। वह जब क्रुद्ध होती है, तो उसकी आँखों से बरसता हुआ अभिशाप, दमयन्ती के रूप में कोप से जल मरने वाले व्याध का मूर्तिमान उदाहरण घर-घर में प्रस्तुत करता है। रणचण्डी दुर्गा बनकर महिषासुर मर्दिनी की भूमिका का निर्वाह करती है। सीता के रूप में रावण वंश का समूल उन्मूलन तथा द्रौपदी के रूप में कौरवों के अवसान का कारण बनती है। नारी का अपमान बर्बरता का प्रतीक है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अगस्त-२)

 

**     अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकालकर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिए उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिए उसके प्रतिबन्ध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिए, उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा।

समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है, जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता, सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है, तो वह दम्भी है, आडम्बरी है और मिथ्याचारी है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अगस्त-५)

 

**     नारी युग-युगान्तरों से मूक साधिका के रूप में संसार को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बनाती आई है। अनादिकाल से ही पुरुष समाज पर नारी का ऋण चला आ रहा है और चलता रहेगा। इस दृष्टि से पुरुष समाज नारी का कृतज्ञ है। वह उसके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता; किन्तु नारी की दुर्दशा देखकर आज ऐसा लगता है, पुरुष आज उसके अनुदानों को भूल बैठा है। फलस्वरूप कृतघ्नता का परिचय दे रहा है।

यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता, सामाजिकता, नागरिकता एवं मानवता है कि पुरुष नारी के प्रति अपना संकीर्ण दृष्टिकोण बदले और उसके आध्यात्मिक तत्त्वों—साहस, नैतिकता, सहनशीलता, विवेक-चातुर्य, त्याग, बलिदान, समर्पण आदि से अपने आपको तथा राष्ट्र एवं समाज को सुखी एवं समुन्नत बनाए। युग परिवर्तन का भी महान् प्रयोजन पूर्ण करने के लिए सर्वतोभावेन उसी मातृशक्ति को जाग्रत् करना चाहिए, उसी को बढ़ाना चाहिए और विश्व शान्ति के उपयुक्त वातावरण बनाने की उसी से याचना करनी चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अगस्त-१०)

 

**     नारी के सम्बन्ध में संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाकर हम न केवल अपना, अपने परिवार का; वरन् समस्त संसार का अहित ही करते हैं।

नारियों के बीच प्रत्यक्ष काम करना वर्तमान परिस्थितियों में नर के लिए अति कठिन है। इसमें सन्देह का वातावरण बनेगा, आशंका रहेगी और उँगलियाँ उठेगी। सहयोग मिलने की अपेक्षा असहयोग और बदनामी के प्रसंग उठ खड़े होंगे।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए नर को सूत्र संचालन तक ही सीमित रहना चाहिए। उसकी पीठ पीछे रहकर अधिकाधिक कार्य करना और साधन जुटाना ही उचित है। प्रत्यक्ष में तो नारी की हलचलें दृष्टिगोचर होनी चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, फरवरी-७)

 

**     मातृत्व पर, नारीत्व पर सर्वाधिक लानत फेंकने का काम दहेज के राक्षस ने किया है। इसे समझा भी गया तथा उसके निवारण के प्रयास भी बहुत हुए। सामाजिक भर्त्सनाएँ की गई, कानून भी बना। दहेज के प्रतिरोध में सैकड़ों विचारशील व्यक्तियों ने लिखा, भाषण किया, पर पुरानी पीढ़ी अपने स्थान से तिल भर हटने को तैयार नहीं।

दहेज के दानव ने हर किसी का अहित ही किया है, पर अपनी बाजी से कोई नहीं चूकता। जब कोई साहसपूर्वक प्रतिरोध, संघर्ष एवं आदर्श उपस्थित करने को तैयार होगा, तभी कुछ समस्या हल होगी और यह आशा अब नये रक्त से ही शेष है।     —भगवती देवी शर्मा महिला जागृति अभियान-१९९७७, अप्रैल-२)

 

**     राजनैतिक परतंत्रता दूर हो गई, पर आज जीवन के हर क्षेत्र में बौद्धिक पराधीनता छाई हुई है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अनैतिकता, अधार्मिकता, अनीति, उच्छृंखलता, नशेबाजी आदि अगणित दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेने की आवश्यकता है। यह कार्य भी यदि कोई पूरा कर सकता है, तो वह नई पीढ़ी ही हो सकती है।

अगले दिनों जिन प्रतिभा सम्पन्न महापुरुषों की राष्ट्र को आवश्यकता पड़ेगी, वह वर्तमान पीढ़ी से ही निकलेंगे, पर कसौटी यह होगी कि वे सामाजिक क्रान्ति के लिए कितनी हिम्मत रखते हैं। दहेज विरोधी आन्दोलन उसका एक आवश्यक अंग है। इससे युवकों की विचारशीलता एवं समाज के प्रति दर्द का प्रमाण मिलेगा।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अप्रैल-२)

 

**     हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि सदियों की दासता ने नारी की क्षमता को अयोग्य कर दिया है और वह बीज रूप में अंकुरित ही नहीं हो सकता। न यह सोचना चाहिए कि भारत में नारी की दशा सदैव से ऐसी ही रही है। इसलिए अब भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए।

एक बार यह मान भी लिया जाय कि पूर्व में नारी की स्थिति ऐसी ही थी, तो भी परम्परा को केवल परम्परा होने के कारण चलते रहने देने की अनुमति विवेकशीलता नहीं देती। साथ ही तमाम विचारकों को भी भारतीय नारी की तुलना पश्चिमी देशों से नहीं करनी चाहिए। वहाँ की परिस्थितियाँ और आवश्यकताएँ अलग हैं तथा यहाँ की परिस्थितियाँ और आवश्यकताएँ अलग। भारतीय समाज में नारी उत्कर्ष के प्रयास शीघ्र सफल हो सकते हैं, बशर्ते कि उन्हें ईमानदारी से किया जाय और कोई भूल-भटकाव में न आया जाय।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अप्रैल-७)

 

**     आज उस समय की उन मान्यताओं का समर्थन नहीं किया जा सकता, जिनमें सन्तान वालों को सौभाग्यवान् और सन्तानरहित को अभागी कहा जाता था। आज तो ठीक उलटी परिभाषा करनी पड़ेगी।

जो जितने अधिक बच्चे उत्पन्न करता है, वह संसार में उतनी ही अधिक कठिनाई उत्पन्न करता है और समाज का उसी अनुपात से भार बढ़ाता है।

जबकि करोड़ों लोगों को आधे पेट सोना पड़ता है, तब नई आबादी बढ़ाना उन अभावग्रस्तों के ग्रास छीनने वाली नई भीड़ खड़ी कर देना है। आज की स्थिति में सन्तानोत्पादन को दूसरे शब्दों में समाजद्रोह का पाप कहा जाए तो तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अप्रैल-७)

 

**     ज्ञान और विवेक, शौर्य और साहस के क्षेत्र में नारी के अपने अनोखे कीर्तिमान् हैं; लेकिन आज इससे ठीक उलटी स्थिति दिखाई देती है। कहाँ तो भारत की वह गौरवमयी परम्परा, जब नारी तप, ज्ञान आदि से लेकर युद्ध क्षेत्र तक में अपने चमत्कार दिखलाती थी और कहाँ आज की यह स्थिति कि वह कुण्ठित एवं अविकसित होने के कारण दैनिक जीवन की साधारण सी समस्याओं का समाधान भी नहीं निकाल पाती।

कहने को भारतीय नारी जीवित अवश्य है, पर वह बुरी तरह मनोमृत हो चुकी है। आवश्यकता है प्रत्येक माता-पिता को लड़की के प्रति परायी का भाव और उपेक्षा का व्यवहार रखने की मूढ़ता से मुक्त होने की और उसका सोया स्वाभिमान और आत्म विश्वास जगाने की।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अप्रैल-१२)

 

**     भौतिकता का प्रवाह आज हर वस्तु को छूने लगा है। उसने प्रेम जैसे विशुद्ध अध्यात्म तत्त्व को भी अछूता नहीं छोड़ा। आज प्रेम शब्द का प्रचलित अर्थ युवा-नर-नारियों के बीच चल रही वासनात्मक गतिविधियाँ ही तो हैं।

उपन्यास, कहानियाँ, फिल्म, चित्र, गीत आदि कला के सभी अंग जिस प्रकार प्रेम की परिभाषा करने लगे हैं, उसके अनुसार वासनात्मक माँसलता का प्रदर्शन, यौन आकर्षण अथवा रूप यौवन की उच्छृंखल उमंगों का नाम ही प्रेम है। सारा योरोप इस मर्ज का मरीज है। लम्बे चौड़े प्रेम पत्रों की जो रेल दौड़ती रहती है, उसका केन्द्र बिन्दु वासना ही होती है। सो इन दिनों उन खतरों से बहुत सावधान रहा जाना चाहिए और ऐसे प्रसंगों का अवरोध करना चाहिए, जिनसे पतन की फिसलन का पथ प्रशस्त होता हो। नर-नारी के बीच शालीनता की मर्यादाओं का बने रहना प्रेम-पथ में अवरोध नहीं, सहायक ही माना जाना चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अप्रैल-१४)

 

**     शिक्षित नारी को छिछली चमक-दमक की नई पराधीनता से स्वयं मुक्त होकर भूत-पलीतों, महन्तों-मठाधीशों, रूढ़ियों-कुरीतियों, अन्ध-परम्पराओं, पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की पुरानी पराधीनता से जकड़ी नारी के उद्धार के लिए आगे आना ही चाहिए।

यह उसकी सामाजिक, नैतिक तथा मानवीय जिम्मेदारी है। अपनी इस जिम्मेदारी को निभाने की इच्छा तथा संकल्प शक्ति जिस शिक्षित नारी में जाग्रत् हो उठेगी, वह नई तथा पुरानी दोनों पराधीनताओं से सामूहिक मुक्ति के लिए सक्रिय हो उठेगी।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जून-७)

 

**     माँसलता के उभार, अशील अभिव्यंजनाएँ और सम्मोहक विन्यास में ही नारी जीवन की कृतकृत्यता बताने वाला एक वातावरण मानव द्रोही बधिकों द्वारा तैयार किया जा रहा है। प्रत्यक्ष नारी निन्दा करके उसे शिक्षा की अपात्र तथा अवगुणों की खान बताने से जब दानवी भोग लालसा अधिक समय तक तृप्त होने की आशा नहीं रही, तो पशुता की उसी पतित प्रवृत्ति ने नये पैतरे बदल लिए हैं। नारी देह के भोग्या स्वरूप की प्रतिष्ठा को ही नारी जीवन की सार्थकता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

जाग्रत् नारी को इस नये षड्यंत्र का निरीह शिकार बनना अस्वीकार करना होगा। ऐसा वह सामूहिक शक्ति के आधार पर ही कर सकती है। इसके लिए संगठित अभियान छेड़ना होगा। यह अपने आप में एक बड़ी क्रान्ति है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जून-७)

 

**     स्त्रियों को स्वतंत्रता देने का अर्थ यह नहीं है कि उनको कुछ भी करते रहने की छूट मिले और उनके उचित-अनुचित कार्यों की कोई आलोचना या टिप्पणी न की जाय। यह व्यवस्था और मर्यादा तो पुरुष के लिए भी लागू है।

कोई व्यक्ति यदि अनुचित कार्य करता है, तो आलोचना और निन्दा-भर्त्सना उसकी भी होती है। स्त्रियों को स्वतंत्रता देने का अर्थ यह है कि उन्हें भी अपनी क्षमताओं के विकास की छूट दी जाय तथा उन पर दासी-बाँदी जैसे बन्धन न कसे जाएँ।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जून-२१)

 

**     कहा गया है कि मित्रता, सहयोग और सहचरत्व समान लोगों में ही सफल होते हैं। स्त्री-पुरुष चूँकि अधिकार विकसित क्षमता और अर्जित योग्यता की दृष्टि से काफी विषम है। इसलिए उनकी मित्रता दाम्पत्य सम्बन्ध मित्रता, सहयोग और सहचरत्व न रहकर दासता, शासक-शासित, शोषक-शोषित और घोड़े तथा बकरी का साथ है।

ऐसी स्थिति में दाम्पत्य जीवन कभी सफल नहीं हो सकता। विवाह का उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता। पराधीनता के बन्धनों और प्रतिबन्धों की लगाम को दाम्पत्य जीवन के अपराध मानकर जितनी जल्दी हो सके, उन्हें नष्ट करने का समाधानपूर्ण उपाय खोजना चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जून-२१)

 

**     नारी समर्पण और त्याग की प्रतिमा है। यह समर्पण उसकी दुर्बलता नहीं, गरिमा है। जातीय पतन के दौर में उच्च आदर्शों को विकृत रूप दे दिया गया। समर्पण की व्याख्या स्वार्थी मनुष्यों ने इस प्रकार की कि भारतीय नारी के इस उच्च आदर्श को चरण दासी बनने के रूप में ढाल दिया, पर अब ऐसी धूर्ततापूर्ण चालबाजियों और शाब्दिक मायाजाल का युग नहीं रहा। अत: अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पुरुष के प्रति नारी का समर्पण अन्धा और अविवेकपूर्ण नहीं होना चाहिए।

प्रत्येक पुरुष न तो ईश्वर है और न देवदूत। श्रेष्ठता के लिए उसे प्रयास करना होगा। समर्पण कोई विवशता नहीं, व्यक्तित्व की उत्कृष्टता है। अतः वह पुरुष के लिए भी साध्य और इष्ट होनी चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जुलाई-१०)

 

**     नारी को भी पुरुष के आत्म-समर्पण की उतनी ही अभिलाषा रहती है, जितनी पुरुष को नारी के समर्पण की। जिस तरह पतिव्रत का इतना भर अर्थ कोई नहीं स्वीकार कर पाता कि पत्नी काम सदाचार तक सीमित रहे, फिर चाहे दिन भर लड़े, झगड़े, कटु बोले, क्रुद्ध हो। उसी तरह पुरुष के भी पत्नीव्रत का अर्थ पत्नी को पर्याप्त सम्मान देना, उसकी भावनाओं का आदर करना तथा ध्यान रखना होता है।

वैसे पुरुष में अपने को बड़ा मानने की हीन महत्त्वाकांक्षा रहती है। वह अपने कल्पित बड़प्पन के विपरीत जरा सी भी बात दिखने पर उत्तेजित हो जाता है। पुरुष को इस हीन अहमन्यता से मुक्त होना चाहिए। यदि परिवार में स्त्री व पुरुष की प्रतिष्ठा असमान हुई, तो इससे गृहस्थी की गाड़ी ठीक से नहीं चल पाती, लड़खड़ाती रहती है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जुलाई-१२)

 

**     शिक्षित युवक-युवतियों के मनोरंजन का मुख्य स्रोत 'सिनेमा' वर्तमान में इन्द्रिय परक आवेगों को उभारने-भड़काने, काम-वासना को अनियन्त्रित, अमर्यादित बनाने की प्रेरणा देने वाली सामग्री से भरपूर रहता है। मौज-मजे को ही सब कुछ मान लिया गया है। गन्दे सिनेमा, गन्दे चित्र और गन्दी पुस्तकें इन दिनों प्रगतिशीलता का चिह्न बताई जाती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि शरीरगत वासना की पूर्ति ही जीवन का प्रधान लक्ष्य बन बैठा है। मन-मस्तिष्क की भूख और जरूरत की किसी को अधिक जानकारी नहीं। आत्मा की चिन्ता तो ऐसी स्थिति में क्या होगी? किन्तु आध्यात्मिक बौद्धिक तृप्ति के बिना जीवन में न तो गहरे सुख की अनुभूति सम्भव है और न शान्ति की।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, जुलाई-२६)

 

**     श्रेष्ठ व्यक्तियों से ही श्रेष्ठ समाज बनता है। "हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा", "हम बदलेंगे-युग बदलेगा" का उद्घोष इसी दृष्टि से है कि नव निर्माण का पुण्य प्रयास हम सबको अपने से ही आरम्भ करना है। इसके लिए नर-नारी का परस्पर सामञ्जस्य सहयोग भी आवश्यक है। सामूहिक प्रयत्नों से ही यह सब सम्भव है।

एक दूसरे को प्रोत्साहन देते हुए, एक दूसरे के सम्मुख अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए हमें देव सेना की तरह, वानर सेना की तरह असुरता को निरस्त करने एवं धर्म राज्य की स्थापना के लिए पूरे मनोबल के साथ आगे बढ़ना चाहिए। भले ही योग्यता एवं साधनों की दृष्टि से अपनी स्थिति रीछ-वानरों-गिलहरी एवं गिद्धों जितनी ही तुच्छ ही हों। युग परिवर्तन जैसे महान कार्य सामूहिक प्रयासों की ही अपेक्षा करते हैं। उससे कम में बात बनती नहीं है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागाति अभियान-१९७७, अगस्त-३०)

 

**     आज हमारे समाज में महापुरुषों और प्रतिभावान् व्यक्तियों की परम्परा रुक सी गई है। अँगुलियों पर गिने जा सकें इतने ही व्यक्ति हैं, जिन्हें महान् या प्रतिभावान् कहा जा सकता है। अधिकांश तो बँधी-बँधायी जिन्दगी जीने के लिए ही प्रयत्न करते हैं। माता-पिता भी इतना मात्र हो जाने पर सन्तोष का अनुभव कर लेते हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिख जाएँ और नौकरी से लग जाएँ। यह जानते हुए भी कि उस क्षेत्र में विकास की अधिक सम्भावनाएँ नहीं हैं, अभिभावक उसे ही चाहते हैं।

यह इच्छा-आकांक्षा ही लगभग मर सी चुकी है कि हमारी सन्तान गुणी, प्रतिभावान् और यशस्वी बनें। बेशक कोई अपनी सन्तान को निकम्मी और नालायक नहीं बनाना चाहता; लेकिन वैसे प्रयास भी तो कहाँ होते हैं, जिनसे सन्तति आगे चलकर यशस्वी बनें।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, सित० २)

 

**     प्राचीनकाल में हर माता चाहती थी कि मेरा बच्चा योग्य हो, समाज को कुछ देकर जाय, यशस्वी बने, कीर्तिवान् हो और इसके लिए समुचित प्रयत्न भी करती थी। सन्तान को लेकर माताएँ सपने तो आज भी बड़े-बड़े देखती हैं, पर उन सपनों में सन्तान का भविष्य किसी उच्च पद पर आसीन बेटे की प्रतिमूर्ति में ही अधिक उज्ज्वल दिखाई देता है।

यह स्वप्न इस बात के परिचायक हैं कि मातृशक्ति की—भारतीय नारी की मनोभूमि कितनी दुर्बल और रुग्ण है। वे स्वयं तो आत्म-निर्भर या सक्षम, समर्थ होने की बात सोच ही नहीं सकतीं; अपनी सन्तान के सम्बन्ध में उसी दायरे में चक्कर काटती रहती हैं। देश में योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों का जो अभाव है, उस अभाव के लिए एक बड़ी सीमा तक मातृशक्ति की यह मनोगत अवस्था उत्तरदायी है।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, सित० ३)

 

**     समाज का आधा भाग नारी से बनता है। वह केवल पुरुष की ही अर्धांगिनी नहीं है, वरन् समाज का भी आधा अंग है। जिस प्रकार वह पारिवारिक जीवन में सुख-दुःख की सहभागी और सहयोगिनी रहती है, उसी प्रकार समाज के उत्थान-पतन में भी उसकी समान भूमिका रहती है।

किसी भी समाज या देश के पास चाहे जितने प्राकृतिक साधन हों, पुरुष वर्ग चाहे जितना शिक्षित, सभ्य और प्रबुद्ध हों; लेकिन वहाँ का नारी वर्ग यदि अशिक्षित, असंस्कृत और मूढ़ ही बना रहे, तो उस समाज को सभ्य, शिक्षित और समुन्नत किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। उन्नत और विकसित समाज या राष्ट्र कहलाने का गौरव तभी प्राप्त होगा, जबकि स्त्री और पुरुष दोनों ही समान रूप से शिक्षित तथा योग्य हों।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, सित० ७)

 

**     महिलाएँ आभूषणों से अपना लगाव कम रखें और पवित्रता, मधुरता जैसे सद्गुणों के द्वारा परिजनों को प्रसन्न रखें। परिवार में इस तरह का वातावरण बनाने के लिए स्त्रियों का जीवन विलासिता की सामग्री से नहीं, सद्गुणों और सद्भावनाओं से ओतप्रोत होना चाहिए। स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करें, वे ज्ञानार्जन करें, विचारवान बनें, तभी तो उनसे यह आशा की जा सकती है कि वे परिवार में और समाज में अपने उत्तरदायित्वों को भली-भाँति निबाह सकेंगी। इन आवश्यक तत्त्वों की ओर से ध्यान हटाकर आभूषणप्रियता की संकीर्ण विचारधारा को ही अपनाया जाता रहा, तो कर्तव्य पालन में व्यवधान आना स्वाभाविक है। नारी के विकास में बाधा स्वरूप इस कुरीति के प्रति अब अरुचि उत्पन्न होनी चाहिए और विचारशील महिलाओं को इस दिशा में कुछ करने के लिए तत्पर होना चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, सित० १५)

 

**     जब तक नारी वस्त्रों में बनाव-शृंगार में, फैशन में, जेवर-आभूषणों में अपना व्यक्तित्व देखती रहेगी, पुरुषों के लिए कामिनी बनकर उनकी वासनाओं की तृप्ति के लिए ही अपना जीवन समझती रहेगी या खा-पीकर घर की चहारदीवारी में पड़े रहना ही अपना आदर्श समझेगी, तब तक कोई भी शक्ति, नियम, कानून उसका उद्धार नहीं कर सकेंगे।

अपने उद्धार के लिए नारी को स्वयं भी जागरूक होना पड़ेगा। मातृत्व के महान् पद की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित रखने के लिए उसे सीता, गौरी, मदालसा, देवी दुर्गा, काली की सी शक्ति, क्षमता और कर्तव्य का उत्तरदायित्व ग्रहण करना होगा।     —भगवती देवी शर्मा (महिला जागृति अभियान-१९७७, अक्टू०६)

 

**     नारी सदा से ही देव संस्कृति में शिल्पी, जननी, विधाता के रूप में सम्मान पाती रही है। उसने अवसर आने पर शौर्य, साहस का परिचय देकर दुर्गावती, झाँसी की रानी एवं अहिल्या बाई का स्वरूप भी बनाया तथा माता के रूप में मदालसा, जीजाबाई, विनोबा बन्धुओं को गढ़ने वाली माता का चोला पहना है। वस्तुत: नारी जीवन की ज्योति है, प्राणों का सम्बल है। उसे वही सम्मान मिलना चाहिए, जो युगों-युगों से दिया जाता रहा है। मानव जाति के अस्तित्व के मूल आधार नारी शक्ति की देवी के रूप में स्थापना ही धरती पर स्वर्ग के अवतरण का आधार बन सकती है।     —भगवती देवी शर्मा (वाङ्मय-२१वीं सदी-नारी सदी, पेज-२.६९)

 

**     इन दिनों नारी के सामने समाज सेवा का कोई स्पष्ट चित्र, रूप या कार्यक्षेत्र नहीं है। इसलिए इच्छा रहते हुए भी कुछ कर नहीं पाती। शिक्षा पर्याप्त हो गई, विवाह का योग नहीं बना, खाली समय काटना अखरा। बस वे अध्यापिका जैसी कोई नौकरी कर लेती है और फिर कुछ कमाने का चस्का पड़ जाने से तथा एक ढर्रा पड़ जाने से वे उसी क्रम को अन्त तक अपनाये रहती है। शिक्षा का यह कोई श्रेष्ठ सदुपयोग नहीं है।

जिनके घर में पैसे की तंगी है, वे नौकरी करें, तो बात समझ में आती है। फिर जिन्हें इस प्रकार की कोई विवशता नहीं है, गुजारे में कठिनाई नहीं है, उन्हें नौकरी की ओर नहीं, नारी सेवा जैसे जीवन को धन्य बनने वाले महान् कार्य की ओर आकर्षित होना चाहिए। आज के आपत्ति धर्म को देखते हुए अपनी सुख-सुविधाएँ इसी महान् प्रयोजन के लिए समर्पित करनी चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा (हमारी युग निर्माण योजना-१, पेज-१८२)

 

**     नर और नारी परमेश्वर के दो हाथ, दो पैर, दो नेत्र, दो कान, दो फेफड़े, दो गुर्दे हैं। न इनमें से कोई छोटा है, न बड़ा। गाड़ी के दो पहियों की तरह, वे एक दूसरे के पूरक हैं। वरिष्ठता की बात सोची जाय, तो वह नारी को ही अधिक गरिमामयी बनाती है; क्योंकि वंश को गतिशील बनाये रखने का भार वह विशेष रूप से वहन करती है। सेवा और भाव सम्वेदना की दृष्टि से उसी का पलड़ा भारी पड़ता है। फिर कोई कारण नहीं कि उसे प्रगति पर पर चलने से रोका जाय।

'अंधेर नगरी बेबूझ राजा' की उक्ति अब तक चलती रही, पर अब महाकाल ने न्याय की तुला की दण्डी सीधी कर ली है और फैसला किया है कि "नर-नारी एक समान" वाला शाश्वत सिद्धान्त अब पूरी तरह चरितार्थ होकर रहेगा। दोनों में से न किसी को दास रहने दिया जाएगा और न स्वामी।     —भगवती देवी शर्मा (वाङ्मय-२१वीं सदी-नारी सदी, पेज-४.३)

 

**     राष्ट्र की भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माँ ही है। केवल माँ और उस माँ को पिछले दिनों बड़ी दुर्गति भुगतनी पड़ी है। उसका स्वरूप रमणी, कामिनी, वंदिनी एवं भोग्या का ही रहा है। पग-पग पर उसे तिरस्कार, प्रताड़ना, पराधीनता, असन्तोष और घुटन का ही सामना करना पड़ा है। यह स्थिति खेदजनक ही कही जाएगी; क्योंकि इसी कारण नारी अपनी सारी विशेषताएँ खो बैठी है और कलेवर से मनुष्य होते हुए भी गये-गुजरे पशु-प्राणियों का सा जीवन बिता रही है।

समाज के निर्माण में नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए ही भगवान मनु को कहना पड़ा है कि वह स्थान और देश जहाँ नारियों की पूजा होती है, स्त्रियों का सम्मान होता है, वह देवताओं की निवास भूमि है। पूजा और सम्मान का अर्थ यही है कि उसे भी मनुष्य रूप में जीने का और विकास करने का समान अधिकार दिया जाय। तभी वह भावी पीढ़ी का निर्माण दक्षतापूर्वक कर सकेगी और समाज का भविष्य उज्ज्वल हो सकेगा।     —भगवती देवी शर्मा (वाङ्मय-२१वीं सदी-नारी सदी, पेज-४.६८)

 

**     वस्तुत: महाकाल का यह प्रथम आश्वासन है, जिसके पीछे पिछड़ों को ऊँचा उठाकर समता का धरातल बनाने के लिए वचनबद्ध रहने का दैवी शक्तियों ने आश्वासन दिलाया है। लोकमानस भी समय की प्रचण्ड धारा के विपरीत बने रहने का देर तक दुराग्रह नहीं करता रह सकता। तूफान मजबूत पेड़ों को भी उखाड़ फेंकता है। घटाटोप वर्षा में छप्परों से लेकर झोपड़ों तक को बहते देखा जाता है। पानी का दबाव बड़े-बड़े बाँधों में भी दरार डालने और उन्हें बहा ले जाने का दृश्य प्रस्तुत करता है। यह महाकाल की हुँकार ही है, जिसने नारी को पिछड़े क्षेत्र से हाथ पकड़कर आगे बढ़ने के लिए धकेला और घसीटा है। अब यह भी निश्चित है कि नारी शिक्षा का द्रुतगति से विस्तार होगा। शिक्षा और व्यवस्था में पुरुष का ही एकाधिकार नहीं रहेगा। असहाय रहने और अनुचित दबाव के नीचे विवश रहने की परिस्थितियाँ समाप्त समझनी चाहिए। वे अब बदल कर ही रहने वाली हैं।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     आज नव निर्माण का युग है और इस नव निर्माण में नारी का सहयोग वांछनीय है अथवा यों कहें कि आने वाले युग का नेतृत्व नारी करेगी, तो भी अतिशयोक्ति न होगी। इस जागरण की स्वर्णिम वेला में भारतीय नारी का प्रथम उत्तरदायित्व है कि वह आगे कदम उठाये। जरा कल्पना करिए उस वैदिक काल की जब घोषा, अपाला, गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान् रमणियाँ हुईं, अनेक वेदमंत्रों का निर्माण करने वाली ऋषिकाएँ हुईं, जहाँ देश पर और आन पर प्राण न्यौछावर करने वाली रणदेवियाँ हुईं। आज उन्हीं की जन्मभूमि पर नारी पर किया जाने वाला अत्याचार क्यों? आज के युग में भारतीय नारी की शिक्षा का औसत सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आश्चर्य होता है कि क्या यही उन ब्रह्मवादिनी की भूमि है? जो-जो अत्याचार आज तक नारी पर अबला समझ कर किये गये, चाहे उससे अन्तरिक्ष फट पड़ा हो; परन्तु पुरुष का हृदय न पसीजा। देश की मान-मर्यादा की रक्षा करने वाली नारी जब नव विहान का स्वर गुँजा देगी, तो कोई सन्देह नहीं हमारे देश में आज फिर हरिश्चन्द्र, प्रताप, राम, भीम और अर्जुन पैदा होंगे।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     आज सम्पूर्ण नारी जाति से प्रार्थना है कि वह घिनौने वातावरण को छोड़कर परवशता की ग्रन्थियाँ काट कर आगे बढ़े और समाज सुधार का, नैतिक उत्थान का, धार्मिक पुनर्जागरण सन्देश मानवता को दे। पुरुषों से कन्धा मिलाकर घर और बाहर दोनों क्षेत्रों में नारी को कार्य करना होगा। आज भारत की माँग है—अध्यात्म एवं वैदिक धर्म का पुनरुत्थान और भारतीय धर्म एवं संस्कृति का पुनर्स्थापन। जब घर-घर में पुनः वेदों की वाणी गूँज उठेगी, तब भारत फिर से अपने प्राचीन जगदगुरु के गौरव को प्राप्त करेगा। हर क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक, नैतिक, शैक्षणिक एवं नैष्ठिक पुनर्संगठन करते हुए आज की शिक्षित नारी जिस पथ का निर्माण करेगी, वह पथ बड़ा सुगम एवं आध्यात्मिक होगा। नारी की सबल प्रेरणा पुरुष को नव शक्ति से भर देगी; किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि उसे आत्म-बल, चरित्र-बल, तप-बल में महान् बनना होगा।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     मानवता की पुकार है कि न्याय नारी को भी मिलना चाहिए। उसने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है कि जिसके कारण उसके मानवोचित नागरिक अधिकारों का अपहरण कर लिया जाए। न्याय, विवेक और औचित्य की अदालत में विश्व नारी की अन्तरात्मा ने अर्जी दी है कि उसे भी मनुष्योचित स्तर के जीवनयापन की सुविधा मिलनी चाहिए। नागरिकता के मानवीय मौलिक स्वतंत्रता के अधिकारों से उसे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। उचित फैसला देने में अब अधिक समय तक टाल-टूल नहीं की जा सकेगी। इसलिए जो हेर-फेर किया जाना है, उसमें विलम्ब करके परिवर्तन के सौन्दर्य को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     नव निर्माण अभियान भारत के खोये वर्चस्व को स्थापित करके विश्व को सद्ज्ञान का सन्देश और सत्कर्म की प्रेरणा देना चाहता है; किन्तु जब तक यह देश स्वयं दुर्गति ग्रस्त है, तब तक दूसरों की सद्गति क्या करेगा? ऊपर से आदर्श, सिद्धान्तों का आवरण ओढ़े रहना काफी नहीं है। स्टेज पर मेकअप द्वारा पहलवान बनने से कार्य नहीं चलता। ऐसे पहलवान की दुर्गति कोई भी सामान्य व्यक्ति कर सकता है। भारतवर्ष की दुर्गति भी आन्तरिक खोखलेपन के कारण हुई। जब हमारा पुरुषार्थ सो गया, तो महाकाल की जय हम भले बोलते रहे; किन्तु मुट्ठी भर आदमियों को लेकर लुटेरे हमें लूट ले गये। सोमनाथ महाकाल की प्रतिमा को ही तोड़ ले गये और उन्हें अपमान जनक स्थानों पर लगा दिया। उसका दोष हम किसी आक्रान्ता को देकर मिथ्या सन्तोष भले कर लें; किन्तु असली दोष हमारी कमजोरी को दिया जाएगा। हम उन मान्यताओं से चिपके रहे, जो हमें भाग्यवाद और देववाद की आड़ में दुर्बल बनाती चली गयी। अन्दर से हम खोखले हो गये। आध्यात्मिक क्षमता जागी नहीं और लौकिक क्षमता गँवा बैठे। असली आक्रान्ता वे नहीं, जो हमारी वाह्य सम्पन्नता को लूटते गये, वरन् वे भ्रान्त धारणाएँ हैं, जिन्होंने हमारे आन्तरिक ओज को, आन्तरिक मजबूती को लूट लिया—नष्ट-भ्रष्ट करके रख दिया।

आज भी हमारा समाज ऐसे छद्मवेशी आक्रान्ताओं से मुक्त नहीं है। ऐसा ही एक बड़ा खूँखार, बड़ा निर्दय तथा बड़ा जबर्दस्त लुटेरा हमारा प्यार बना, हमारे बीच रहा है, वह है—विवाहोन्माद। इसे जल्लादी, राक्षसत्व, पैशाचिकता भी कहा जाए, तो अत्युक्ति नहीं। यह समाज के हर वर्ग को चूस-चूसकर फेंकता जा रहा है। इन्सानियत को कहीं टिकने नहीं देना चाहता। इस उन्माद में हम अपनी, अपने परिवार की, अपने समाज की यथार्थ आवश्यकताओं को भुलाकर थोथी शान के प्रदर्शन में हम अपने श्रम की कमाई उड़ा देते हैं। निरर्थक की शान और अकड़ दिखाकर वैमनस्य तथा जीवन भर के लिए कटुता पैदा कर लेते हैं। हम समझते हैं कि हमने अपनी सम्पन्नता की, अपने बड़प्पन की धाक जमा ली; किन्तु वस्तुत: हम अपनी सम्पन्नता और प्रगति की जड़ पर कठोर कुठाराघात करते चलते हैं। यही कारण है कि सारे प्रयासों के बाद भी हमारा समाज पनप नहीं पा रहा है। यह उन्माद लड़की वालों को दहेज के रूप में, अपने दरवाजे की शान के नाम पर लड़के वालों को जेवर, प्रदर्शन आदि के नाम पर, बारातियों को थोड़े समय के लिए नवाब बन जाने की आकांक्षा के रूप में बर्बाद कर रहा है। यह सब चौराहे पर खड़े होकर नोटों की होली जलाकर अपना वैभव दिखाने जैसी मूर्खता है। यह कुरीति अपने समाज को बेईमान तथा अभाव ग्रस्त बनाये रखने के लिए सर्वाधिक दोषी है।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     विवाहित जीवन बिताना एक बड़ा उत्तरदायित्व है। इसे उन्हीं को वहन करना चाहिए, जो वर-वधू अपने को इस योग्य समझते हों। सिर पर भार बनने की अपेक्षा उसे ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, आवश्यक सहयोग, सहायता कर सकने में अपने को उपयुक्त समझते हों। जो अपना निज का भार नहीं उठा सकते, उन्हें दूसरे को सुखी-समुन्नत बनाने की जिम्मेदारी अपने सिर पर नहीं लेनी चाहिए। अच्छा हो असमर्थ पक्ष स्वेच्छापूर्वक अविवाहित रहे। उसके स्वजन सम्बन्धी भी ऐसा ही परामर्श दें। असमर्थों को उकसाया-भड़काया न जाय, यह अनिवार्य न माना जाय कि हर किसी का विवाह होना ही चाहिए। सेना में भर्ती होने वाले सैनिकों की हर प्रकार जाँच पड़ताल कर ली जाती है। ठीक इसी प्रकार जिनको विवाह का उत्तरदायित्व वहन करना है, उन्हें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से इतना समर्थ होना चाहिए कि अपना निज का भार तो स्वयं वहन कर ही सकें। साथ ही साथी के लिए आवश्यक सुविधाएँ भी जुटा सकें। जिन्हें पीढ़ियों तक चलने वाला रोग किसी प्रकार लग गया हो, उन्हें विवाह का विचार ही छोड़ देना चाहिए। इसे अनिवार्य विषय न बनाया जाए। ऐच्छिक ही रखा जाए। जो इच्छुक है, उनकी भी जाँच पड़ताल कर ली जाय कि वे इस भार वहन में समर्थ हैं भी या नहीं।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     आज शेखीखोरी, बनावट, ढोंग, फैशनपरस्ती और बड़प्पन दिखाने की बहुत होड़ चल रही है। इन बातों में लोग अपनी हैसियत से बहुत अधिक खर्च करते हैं। ठाट-बाट बनाने में अपनी गाढ़ी कमाई का अधिकांश भाग फूँक देते हैं। कीमती कपड़े पहनने की कोई उपयोगिता समझ में नहीं आती। शरीर ढकने के लिए सीधे-सादे कपड़े पर्याप्त हैं, पर जब उनमें प्रचुर धन खर्च करके कीमती सूट और मँहगी साड़ी पहन कर लोग बाजार में निकलते हैं, तो उनका उद्देश्य देखने वालों पर वह रौब गाँठना होता है कि हम बहुत बड़े अमीर हैं। इसी प्रकार जेवर लादे फिरने का फूहड़पन भी इसी ओछी बुद्धि का परिचायक है कि लोग हमें धनी समझें। धनी होने का प्रमाण पत्र गले में लटकाये फिरने, हाथ-पैरों में बाँधे फिरने का फितूर ही जेवर पहनने की भौंड़ी शक्ल बनाये फिरता है। जो धन बैंक में जमा होकर या किसी कारोबार में लग कर दिन-दिन बढ़ता रह सकता था और कितने ही लोगों के लिए रोजी रोटी उत्पन्न करने वाला बन सकता था। उसे जेवरों में रोक कर पंगु बना देना वस्तुत: लक्ष्मीजी का अपमान है।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     आज संसार विज्ञान और शिक्षा के फल से बहुत आगे बढ़ गया है। राष्ट्र और समाज अपनी सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए जी-जान से जुटे हुए हैं। संसार के समस्त विकसित देशों की नारियाँ पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं। सब प्रकार के कार्य, पेशे, कला, कौशल, युद्ध, चिकित्सा, व्यापार, वाणिज्य, सरकारी नौकरियाँ कर रही हैं। शासन प्रबन्ध और राजनीति में पूरी जिम्मेदारी से कार्य कर रही हैं। ऐसी विकसित परिस्थितियों में यदि भारतीय समाज ने अपने नारी वर्ग को समयानुकूल विकसित एवं जागरूक न किया, तो किसी समय राष्ट्रीय आपत्तिकाल में उनसे सहायता, सहयोग तो दूर, उनकी चेतना शून्यता एक दूसरी विपत्ति बन जाएगी। यदि राष्ट्रीय उत्थान कार्य में योग्य बनाकर नारी को भी संलग्न किया जाय, तो राष्ट्र की प्रगति दोहरी हो जाएगी। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में—'नारी' पुरुष के विलास का माध्यम नहीं है। वह पुरुष की माँ है और मानव के विकास का साधन है। गाँधीजी ने नारी में छुपी हुई शक्तियों को पहचाना था और सोती हुई भारतीय नारी को जैसे झकझोर कर उठा दिया था। उनके साथ अनेक पुरुषार्थिनी नारियों ने देश की क्रान्ति में भारी योगदान दिया था। बड़ी-बड़ी मुसीबतें सही थीं। आजादी की इस लड़ाई में महिलाओं के सक्रिय सहयोग से नारी समाज में आत्म विश्वास और साहस की समुन्नत भावनाएँ विकसित हुई हैं। भारत की महिलाएँ अपने शौर्य, साहस और आत्म बलिदान के कारण सफल नेतृत्व प्रदान कर सकती हैं और देश में सहज ही नई सामाजिक क्रान्ति आ सकती है।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     धर्म और अध्यात्म क्षेत्र पर पुरुष का अधिकार बहुत समय से चला आ रहा है। फलतः वहाँ पाखण्ड और भ्रम जंजाल के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा है। मलीनता धोने वाले साबुन की बट्टी यदि कोयले के चूरे से बनने लगी, तो स्वच्छता का लक्ष्य कभी भी पूरा न हो सकेगा। इस क्षेत्र में नारी को ही नेतृत्व करना चाहिए। ईश्वर ने उसकी आरम्भिक संरचना दिव्यता की अजस्त्र मात्रा का समावेश करते हुए ही की है। आज की गई बीती स्थिति में भी वह आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का निर्वाह पुरुष की तुलना में असंख्य गुनी श्रेष्ठता के साथ निभा रही है। यह उसकी सहज प्रकृति और ईश्वर प्रदीप्त विशिष्ट विभूति है। पुरुष बहुत श्रम करके जो आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त कर सकता है, वह नारी को अनायास ही उपलब्ध रहता है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के जो लक्षण तत्त्वदर्शियों ने बताये हैं, उनमें से अधिकांश को नारी के सहज स्वभाव में समाया हुआ देखा जा सकता है। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य के सपने देखते हैं, जिसमें अगले दिनों नारी संसार के भावना क्षेत्र का नेतृत्व कर रही होगी और भौतिक क्षेत्र में सुव्यवस्था की सुदृढ़ नींव रख रही होंगी।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     युग परिवर्तन के लिए नेतृत्व का परिवर्तन भी आवश्यक है। नर का नेतृत्व परख लिया गया। उसे असफल ही घोषित किया जाएगा; क्योंकि हर क्षेत्र में आज जो अव्यवस्था फैली हुई है, उसमें उसका नेतृत्व ही उत्तरदायी है। प्रजातंत्रीय शासन की व्यवस्था यह है कि जिस विकास में कोई बड़ी अव्यवस्था दिखाई दे, उसके मंत्री को इस्तीफा देकर अलग होना पड़ता है और उस विग्रह का दोष अपनी कमी के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। आज की व्यापक अव्यवस्था के लिए नर का नेतृत्व जिम्मेदार है। उसे पीछे हटना चाहिए और नारी को सहृदयता और स्नेहसिक्तता के आधार पर नये सिरे से नीति निर्धारण करने और व्यवस्था विधान बनाने का अवसर देना चाहिए। विश्व शक्ति की दृष्टि से यह परिवर्तन नितान्त आवश्यक है।     —भगवती देवी शर्मा

**     हर किसी को समझना और समझाया जाना है कि नारी आद्यशक्ति है, वही सृष्टि को उत्पन्न करने वाली, अपने स्तर के अनुरूप परिवार का तथा भावी पीढ़ी का सृजन करने में पूरी तरह समर्थ है, २१वीं सदी में उसी का वर्चस्व प्रधान रहने वाला है। नर ने अपनी कठोर प्रकृति के आधार पर पराक्रम भले ही कितना ही क्यों न किया हो, पर उसी की अहंकारी उद्दण्डता ने अनाचार का माहौल बनाया है। स्रष्टा की इच्छा है कि स्नेह, सहयोग, सृजन, करुणा, सेवा और मैत्री जैसी विभूतियों को संसार पर बरसने का अवसर मिले, ताकि युद्ध जैसी अनेकानेक दुष्टताओं का सदा सर्वदा के लिए अन्त हो सके। इस भवितव्यता को स्वीकार करने के लिए जनमानस को समझाया और दबाया जाना चाहिए कि वह नारी को समता से नहीं, वरिष्ठता से भी लाभान्वित करे।     —भगवती देवी शर्मा

 

**     नारी जागरण के लिए मिशन के प्रख्यात नारे बहुत ही प्रेरक हैं, जिसे पोस्टरों पर अंकित किया जा सकता है और सुविधानुसार दीवारों पर भी लिखाया जा सकता है, जैसे—

१—हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा।
२—नया समाज बनायेंगे—नया जमाना लायेंगे।
३—नर और नारी एकसमान—जाति-वंश सब एक समान।
४—अनाचार का अन्त हो, दहेज प्रथा बन्द हो।
५—लड़के-लड़की नहीं बिकेंगे—नहीं बिकेंगे, नहीं बिकेंगे ॥     —भगवती देवी शर्मा