स्वास्थ्य संरक्षण इस तरह सम्भव होगा

महिला-जागरण अभियान का सूत्र-संचालन पुरुष करेंगे और स्त्रियाँ उसकी प्रमुख भूमिका निर्वाह करेंगी । यह कृष्ण-अर्जुन के सहयोग से सम्भव हो सकने वाली महाभारत विजय जैसा कार्य है । राष्ट्र निर्माण की तरह ही परिवार का निर्माण और उसमें स्वस्थ परम्पराओं का समावेश भी नितान्त आवश्यक है । इस दिशा में नर और नारी के संयुक्त कदम पूरे सहयोग के साथ उठने चाहिए ।

स्वास्थ्य रक्षा यों व्यक्तिगत संयम और सतर्कता पर ही निर्भर है, पर उस सावधानी को अभ्यास में समाविष्ट करना बहुत करके परिवार परम्पराओं पर निर्भर रहता है । घर की पाठशाला में ऐसी आदतों का अभ्यास कराया जाना चाहिए जिन्हें अपनाकर घर के सभी लोग निरोग, सुविकसित एवं दीर्घजीवी बन सकें । इसके लिए आहार और विहार सम्बन्धी दोनों ही प्रकार की रीति-नीति को ध्यान में रखना होगा ।

महिलायें चाहें तो न केवल अपने वरन् समस्त परिवार के स्वास्थ्य सुधार की दिशा में—इस गई-गुजरी स्थिति में भी बहुत कुछ योगदान कर सकती हैं । भोजन की कुंजी अभी भी उनके हाथ में है । वे स्वास्थ्य के नियमों से परिचित होकर तदनुरूप हेर-फेर अपने रसोई घर में आरम्भ कर दें तो उसका प्रतिफल पूरे परिवार के स्वास्थ्य सुधार में दृष्टिगोचर होने लगेगा ।

आहार में इस बात का महत्त्व कम है कि क्या खाया गया, तथ्य इसमें है कि कैसे खाया जाय ? साधारण रोटी, दाल, शाक जो भारत जैसे गरीब देश की बहुसंख्यक जनता के लिए सम्भव है, उसी के सहारे स्वास्थ्य की पूर्णतया रक्षा की जा सकती है । दूध, घी, मेवा, फल अब देव-दुर्लभ होते जा रहे हैं । उनकी सलाह सर्वसाधारण को देना, उनकी गरीबी का निर्मम उपहास करना है ।

भोजन का स्वास्थ्य से अविच्छन्न सम्बन्ध है । यह तथ्य है । इस प्रकरण में खाद्य-पदार्थों का जितना महत्त्व है उससे ज्यादा उसे खाने की आदतों का है । इस सन्दर्भ में कुछ पारिवारिक परम्परायें स्थापित की जानी चाहिए । घर में महिलायें इस दिशा में प्रधान भूमिका निभायें और पुरुष उनका सहयोग करें, तो आशातीत सफलता मिल सकती है ।

बार-बार खाने की आदत छोटों-बड़ों सभी के लिए हानिकारक है । दो बार भोजन तथा दो बार छाछ लस्सी जैसा कोई पेय पदार्थ लेना पर्याप्त है । नियत समय पर, निश्चित मात्रा में भोजन करने की आदत परिवार के हर सदस्य की बनायी जानी चाहिए ।

व्यायाम, औषधि सेवन, उपासना आदि काम नियत समय पर न हों तो उनका आधा लाभ नष्ट हो जाता है । यही बात भोजन के सम्बन्ध में है । महिलायें चाहें तो घर के लोगों में नियमितता की आदत डालने का प्रयास कर सकती हैं और उसमें बहुत हद तक सफल हो सकती हैं । वे नियत समय पर भोजन तैयार करें और जब तैयार हो तभी बुलाने का आग्रह करें । समय से पूर्व करने के लिए बच्चों को और देर करने से बड़ों को रोकने की मिठास भरने की तरकीबें काम में लाती रहें । अन्य कामों में भी यदि नियमितता लाई जा सके तो यह अनुशासन एक अच्छी परम्परा स्थापित करने वाला और घर में प्रत्येक व्यक्ति को समय का पालन करने के सद्गुण के अनेकानेक लाभ दे सकने वाला सिद्ध हो सकता है ।

मनुष्य की मानसिक बनावट ऐसी है कि यह समय और नियमितता के आधार पर शरीर को तैयार करती रहती है । नशा पीने की तलब समय पर तीव्र होती है । सोने, जागने, भूख-प्यास आदि की इच्छा भी अभ्यस्त समय पर होती है । पेट नियत निर्धारित समय पर अपने आप रस स्रवित करने लगता है और यदि उस समय भोजन कर लिया जाय तो वह ठीक प्रकार पच जाता है और मन को भी तृप्ति मिलती है ।

अधिक खाने की आदत भी स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है । आग्रह करके अधिक खिलाना और अधिक खाने से अधिक बल बढ़ेगा, यह सोचना नितान्त मूर्खतापूर्ण है । पेट थोड़ा खाली रहने से पेट को अपना काम ठीक तरह करने का अवसर मिल जाता है । आमाशय और आँतों से सीमित मात्रा में ही रस निकलते हैं और वे बहुत अधिक आहार को पचा सकने में असमर्थ रहते हैं । जो पचता नहीं, वह विष बन जाता है । अस्तु यदि स्वस्थ और बलिष्ठ रहना हो तो भोजन आधे या पौन पेट से अधिक कभी भी नहीं करना चाहिए । आग्रहपूर्वक भोजन कराना स्नेह का प्रतीक माना जाता है किन्तु उससे खाने वाले की क्षमता, हित-अनहित को भुला नहीं देना चाहिए ।

जल्दी-जल्दी ग्रास निगलते जाने की आदतें बुरी हैं । दाँतों की चक्की से बिना पिसा आहार यदि उदरस्थ कर लिया जायगा तो मुँह का काम भी पेट को करना पड़ेगा और वह दुहरी ड्यूटी देने में असमर्थ रहेगा । मुँह पीसता ही नहीं है, बहुमूल्य पाचक रस भी उसमें सम्मिलित करता है । इसलिये प्रत्येक ग्रास को पूरी तरह कुचलने, पीसने और लार से पतला बनाने का अवसर देना चाहिए, भले ही इसमें कुछ देर लग जाय । भोजन के साथ अधिक पानी न पिया जाय । एक-डेढ़ घन्टे बाद पिया जाय । दिन भर में तो औसतन छः गिलास पानी पीना चाहिए, पर भोजन के साथ नहीं ।

भोजन को स्वास्थ्यप्रद न रहने देने के लिए बहुत अंशों में उसे पकाने की दोषपूर्ण पद्धति का हाथ रहता है । गृहणियाँ यदि इस मर्म को समझ लें तो सारे परिवार को बिना किसी अतिरिक्त खर्च के अपेक्षाकृत अधिक पौष्टिक भोजन मिल सकता है ।

पकाते समय पदार्थों को तेज आँच पर अधिक पकाना; घी, तेल में उन्हें भूनना, तलना, आदि भोजन के तत्त्वों को नष्ट कर देते हैं । यही नहीं वे गरिष्ठ भी बन जाते हैं और उन्हें पचाने में पेट को अधिक श्रम करना पड़ता है । आटे में से चोकर निकाल देना, रोटी कड़ी सेकना आदि उसके पाचक तत्त्वों को नष्ट करने के ढङ्ग हैं । मिठाइयाँ, तले हुए नमकीन पदार्थ, अचार, मुरब्बे आदि स्वास्थ्य की दृष्टि से जरा भी हितकारी नहीं हैं । जितना खर्चा इनमें किया जाता है उतने में तो ऋतुफल एवं सब्जियों की मात्रा बढ़ाकर भोजन को स्वास्थ्य की दृष्टि से कई गुना उपयोगी बनाया जा सकता है ।

पकाने में कुकर पद्धति का प्रयोग अथवा हलकी आँच पर पकाना अच्छा है । भाप में पकने से भोजन के जीवन तत्त्व नष्ट नहीं होते । अंकुरित अन्न का उपयोग कच्चा या उबाल कर किया जाय । टमाटर, खीरा, ककड़ी, गाजर, मूली, सलगम टमाटर जैसी कच्ची खायी जाने वाली चीजों को काटकर—सलाद बनाकर—उन्हें भोजन में शामिल किया जाना चाहिए । गृहणियाँ थोड़े से श्रम और सावधानी से यह सब कार्य सहज ही कर सकती हैं और सारे परिवार के स्वास्थ्य में वृद्धि हो सकती है । गृहणियों को इस भ्रान्त मान्यता से ऊपर उठना चाहिए कि भोजन में जले (तले हुए), सड़े (अचार आदि) पदार्थ होना बड़प्पन का चिन्ह है—स्वास्थप्रद भोजन को ही गौरव का चिन्ह मानें तो परिवर्तन करना जरा भी कठिन नहीं है ।

मौसम के सस्ते फल गरीब लोग भी खरीद सकते हैं । आम, अमरूद, जामुन, बेर, खरबूजा आदि में ऋतुओं के अनुकूल शरीर की आवश्यकता पूरी करने के गुण रहते हैं । ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूँ आदि अन्नों के बारे में भी यही बात है । जो जिस ऋतु में पैदा होते हैं वे उसी में अधिक लाभदायक रहते हैं । इस प्रकार परिवर्तन करते रहने से स्वाद भी बदलता रहता है और शरीर की भिन्न-भिन्न आवश्यकतायें पूरी होती रहती हैं ।

आहार के साथ विहार पर भी ध्यान देना चाहिए । इसमें शारीरिक क्षमताओं का संतुलन आता है । शरीर की शक्तियों का अपव्यय न किया जाय । समय का पालन कितना बड़ा गुग है और उसका कितना प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है, इसे जानने वाली महिलाएँ अपने को आहार-विहार में अधिकाधिक सन्तुलित बना सकती हैं और अपने प्रभाव का उपयोग करके सम्बन्धित लोगों को भी झुका सकती हैं । चटोरापन और बेकार की बकझक, अशिष्टता और कटुता का दोष असंस्कृत जिह्वा में रहता है । उसका शमन किया जाय तो पारिवारिक कलह से सहज ही मुक्ति मिल सकती है और उस अभ्यास से न केवल अपने को वरन् दूसरों को भी प्रभावित करने का अवसर मिल सकता है । वाणी की तरह ब्रह्मचर्य पर भी अधिक सतर्कता बरती जाय । एक की प्रतिक्रिया दूसरे पर होती है । संयमशीलता का अपने में समावेश करके नारी पूरे परिवार में वैसा वातावरण उत्पन्न कर सकती हैं । अधिक जागना या अधिक सोना, बहुत कम या बहुत तेज रोशनी में काम करना, शारीरिक श्रम और विश्राम का संतुलन न रखना आदि स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं ।

खुली हवा, धूप, रोशनी एवं ऋतु प्रभाव से शरीर का सम्पर्क रहना चाहिए । बन्द घरों में कैद रहना, भारी कपड़े कसे रहना—मोटे लिहाफ ओढ़ना—सर्दी, गर्मी से बहुत अधिक डरना—शरीर को कमजोर बना लेना है । कड़ी सर्दी एवं गर्मी से बचा जाय पर उनका प्रभाव तनिक भी शरीर पर न पड़ने पाये यह सोचना भी हानिकारक है । कपड़े सदा ढीले पहनने चाहिए । यथा सम्भव खुली हवा में रहना और शरीर पर धूप पड़ने देना उचित है ।

नियत समय पर मल-मूत्र विसर्जन, स्नान, मंजन आदि के सम्बन्ध में घर के किसी व्यक्ति को लापरवाही नहीं बरतने देनी चाहिए । जल्दी सोना, जल्दी उठना बहुत ही अच्छी आदत है । शरीर को छूने वाले कपड़े नित्य ही धोये जाने चाहिए । बिस्तरों को तथा दूसरे कपड़ों को धूप लगाना भी नित्य कर्म माना जाय । सफाई का पूरा ध्यान रखा जाय । भोजन पकाने, खाने में स्वच्छता के नियम पालन किये जाँय और पाखाना, पेशाब घर, स्नान घर आदि में जहाँ भी गन्दगी की सम्भावना हो, वहाँ अधिकाधिक सतर्कता बरती जाय । आहार, पानी और हवा की स्वच्छता का स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है । यह बात घर के हर सदस्य के मन में पूरी तरह जमी रहनी चाहिए ताकि वे इस दिशा में आवश्यक सतर्कता बरतते रहें ।

श्रम से जी न चुराया जाय, ढूँढ़-खोज कर कठोर श्रम के आधार बना लिये जाँय, तो शारीरिक स्वास्थ्य की एक महती आवश्यकता पूरी होने के साथ-साथ व्यस्तता के बहुमूल्य सद्गुण का भी विकास हो सकता है । बच्चों को साथ लेकर चलने से तो वे भी परिश्रम में प्रसन्नता अनुभव करने के आदी बन सकते हैं । टहलना यदि सम्भव हो तो बच्चों को भी साथ ले जाकर अपने को और उनको मनोरंजक व्यायाम का लाभ मिल सकता है । चक्की पीसने, टोकरियाँ या गमलों में शाक-वाटिका लगाने, वस्तुओं की मरम्मत, सुसज्जा जैसे कामों की ओर ध्यान दिया जा सके, तो यह एक उत्पादन एवं रोचक व्यायाम भी होगा । आसन, प्राणायाम, रस्सी कूद, मालिश जैसे हलके व्यायामों के लिए भी थोड़ा बहुत समय तो निकलता ही रह सकता है । महिलाएँ यदि इस दिशा में उत्साह दिखायें तो यह प्रचलन धीरे-धीरे घर के अन्य लोगों के स्वभावों में भी सम्मिलित हो सकता है ।

व्यायाम को असामान्य श्रम मानना चाहिए और उसके विशेष लाभ को समझना चाहिए । स्वास्थ्य संरक्षण की भावना के साथ किया गया श्रम व्यायाम कहलाता है और उसके साथ संकल्प बल जुड़ा रहने से अत्यधिक लाभ होता है । शारीरिक स्थिति के अनुरूप व्यायाम चुन लिये जाँय और उन्हें दिनचर्या का एक अनिवार्य अङ्ग मान कर चला जाय । प्रातःकाल का टहलना, दौड़ना अमृतोपम है । इसके बहुत लाभ हैं । आसन, प्राणायाम कवायद स्तर के अङ्ग संचालन, खेल-कूद आदि की कुछ न कुछ व्यवस्था घर के हर सदस्य के लिये नियत की ही जानी चाहिए ।

हँसना-हँसाना, प्रसन्नचित्त रहना, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी है । जीवन को थका-हारा, मरा-गिरा, हताश, निराश, क्षुब्ध, उद्विग्न होने की परिस्थितियों की आज भरमार है । बाहर से मन मसोस कर आने वाले लोग घर में प्रवेश करते हुए यह आशा करते हैं कि इस उद्यान में उन्हें जी हलका करने वाली परिस्थितियाँ मिलेंगी । कुशल नारी यदि चाहें तो इस मानसिक भूख को बुझाने के अनेक अवसर प्रस्तुत कर सकती है । वह हँसने-हँसाने की आदत बना लें, मीठी प्रोत्साहन भरी, प्रशंसापरक, सहानुभूति व्यक्त करने वाली बातें करें—आशा दिखाने और आश्वासन देने की अपनी सहज प्रकृति बना लें तो इतने भर से बाल-वृद्ध सब को भारी राहत मिल सकती है और उस सदगुण से स्त्री स्वर्ग की देवी जैसी सम्मानास्पद बन सकती है । घर में फूल-पौधों का आरोपण, भोजन के समय सुसज्जा, गीत-वाद्य, घरेलू खेल, तीज-त्यौहारों के बहाने घर में विशेष उत्साह उत्पन्न करके अनेक अवसर प्रस्तुत कर रहना कुशल नारी के बायें हाथ का खेल है । उससे उस पर कुछ अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ता पर इतने से ही पूरे परिवार में ऐसा वातावरण बनता है जिससे हर किसी को अपने व्यक्तित्वों के विकास में असाधारण योगदान मिल सके ।

ईष्या, द्वेष, घृणा, चिन्ता, कुढ़न, भय, निराशा, क्रोध, आवेश जैसे मनोविकार जितने अधिक होंगे उतना ही रक्त उबलेगा और मस्तिष्क जलेगा । यह दुर्गुण दूसरों को भी हानि पहुँचाते हैं और अपना तो सत्यानाश ही कर देते हैं । आहार-विहार की व्यवस्था अव्यवस्था का जितना भला-बुरा प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है जबसे कई गुना मनःस्थिति का होता है । मनोविकारों से ग्रसित व्यक्ति कभी निरोग न रह सकेगा । उसे समय से बहुत पहले मौत का ग्रास बनना पड़ेगा ।

मिल-जुल कर, प्यार-मोहब्बत की, हँसी-खुशी की हलकी-फुलकी जिन्दगी हर किसी को जीनी चाहिए । गुण, कर्म, स्वभाव में शालीन सज्जनता का अधिकाधिक समावेश करना चाहिए । प्रबल पुरुषार्थ करते हुए भी सन्तोषी एवं आशावादी रहा जा गाता है । ऐसा स्वभाव घर के सदस्य बना सकें, इसका प्रयत्न महिला जागरण अभियान के सदस्यों को निरन्तर करते रहना चाहिए ।