भक्ति—एक दर्शन, एक विज्ञान
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
सीपों और बाँसों की शिकायत
देवियो! भाइयो!! जब स्वाति नक्षत्र आया और स्वाति नक्षत्र में वर्षा हुई तो बरसात
से सीपों में मोती पैदा हो गए। बाँसों में वंशलोचन पैदा हो गए। सबने खुशियाँ मनाई,
लेकिन बहुतों ने ये शिकायत की कि हमारे अंदर मोती क्यों नहीं पैदा हुए? थोड़ी सी
सीपों के अलावा सभी सीपें इकट्ठी होकर जमा हो गई और शिकायत करने लगीं कि आपने हमारे
अंदर मोती क्यों नहीं पैदा किए? हमारी पुकार को क्यों नहीं सुना? स्वाति की बूँदों
ने जवाब दिया कि आप में से जिन सीपियों ने मुँह खोलकर रखा था और जिन सीपों में
मोती पैदा करने की ताकत थी, उनको हमारी सहायता मिली और मोती पैदा हो गए। जिन सीपों
की बनावट ऐसी नहीं थी कि उनमें मोती पैदा किए जा सकें और जिन सीपों ने मुँह नहीं
खोले, वे खाली हाथ रह गईं और खाली हाथ रहना पड़ेगा। जिन बाँसों के पेड़ों के अंदर
सूराख नहीं थे, उनमें वंशलोचन पैदा नहीं हो सका। पेड़ों की शिकायत अपनी जगह पर
कायम और स्वाति बूँदों की सफाई अपनी जगह पर कायम। ये शिकायतें तो होती रहेंगी और
होती रहनी चाहिए कि हमने भगवान की भक्ति की, पूजा की, उपासना की, जप अनुष्ठान किए
फिर भी हम खाली हाथ रह गए। शिकायत अपनी जगह पर सही और जवाब एवं समाधान अपनी जगह
पर सही है। आपने मुँह क्यों नहीं खोला है अपने अंदर विशेषता पैदा क्यों नहीं की?
जिससे हमारी स्वाति की बूँदें तुम्हारे अंदर प्रवेश करने के बाद में मोती बना देने
में समर्थ होतीं। तुमने यह क्यों नहीं किया?
चट्टानों को भी है शिकवा
मित्रो! एक बार बहुत जोर से वर्षा हुई। सब जगह पानी ही पानी दिखाई देने लगा, लेकिन
चट्टानों ने शिकायत की कि हमको इस पानी से कुछ भी फायदा नहीं हो सका। वर्षा ने
हमारे साथ अन्याय किया, पक्षपात किया। हजार वर्षों से एक भी घास पैदा नहीं हो रही
है। हजारों इंच वर्षा हो गई, पर घास का एक तिनका तक पैदा नहीं हुआ तो क्या यह शिकायत
गलत है? बिलकुल सही है। सौ फीसदी सही है। यह बादलों का बड़ा अन्याय व पक्षपात है।
ये कहीं हरियाली पैदा करते हैं, कहीं तालाब बना देते हैं, लेकिन इन चट्टानों को
कोई फायदा नहीं पहुँचा सकते। क्यों साहब! ये शिकायतें सही हैं? हाँ, शिकायतें तो
बिलकुल सही हैं, लेकिन जवाब उससे भी ज्यादा सही हैं। आपने अपने अंदर मुलायमियत
पैदा की होती, अपने भीतर गढ्ढे बनाए होते, तो हमने आपके भीतर तालाब, झरने, गढ्ढे
भर दिए होते। आप क्यों नहीं अपने भीतर गड्ढे बनाते? मुलायमियत क्यों नहीं अपने
भीतर पैदा करते?
साथियो! समाधान अपनी जगह पर सही है। भगवान अपनी जगह पर सही है और भक्त अपनी जगह
पर सही है। हमने आपका जप, ध्यान, पूजन किया, अनुष्ठान किया, भजन किया। वो तो सब
कुछ ठीक है आपका, लेकिन जप-पूजन किस काम के लिए किया जाता है, वह काम आपने क्यों
नहीं किया? तो आपको रिझाने के लिए कौन सा काम किया जाता है? नाच-कूद करते तो हैं।
भगवान को रिझाने के लिए नाच-कूद करने की कोई जरूरत नहीं है। आपका नाच-कूद देखने
के लिए भगवान को फुरसत नहीं है। बाजीगर तरह−तरह की छलाँग लगाते, तमाशे दिखाते हैं।
बच्चों को बहकाने के लिए यह काफी है, लेकिन बड़े आदमियों को उन बहकावों को देखने
की कोई फुरसत नहीं है।
पात्रता है कि नहीं?
मित्रो! आपका अनुष्ठान देखने के लिए गायत्री माता को फुरसत नहीं है। उनके पास जरा
सा भी समय नहीं है कि आप कितना नाच-कूद कर सकते हैं, कितनी बाजीगरी दिखा सकते हैं
और कितनी तरह के खेल-खिलौने कर सकते हैं। आपका खेल-खिलौना देखने की उनको फुरसत
कहाँ है? उनको एक ही चीज देखने की फुरसत है कि आपके अंदर पात्रता कितनी है? आपको
कोई सुख मिला या और कोई दूसरी बात हुई, यह न किसी को सुनने की जरूरत है और न किसी
के सुनने से फायदा है। आध्यात्मिकता का एक ही उद्देश्य है और दूसरा कोई उद्देश्य
नहीं है, वह उद्देश्य यह है कि आदमी की पात्रता का विकास हो। बादल पानी तो बरसा
सकते है, लेकिन पानी से फायदा उठाने के लिए कोई न कोई बरतन घर में रखना पड़ेगा।
एक कटोरी आपके आँगन में रखी है तो एक ही कटोरी पानी मिलेगा। यदि एक बाल्टी आँगन
में रखी है तो आपको एक बाल्टी भर पानी मिलेगा। एक गड्ढा बना करके रखा है तो गड्ढा
भर पानी मिलेगा।
मित्रो! आपको भगवान से, बादलों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। आप अपने आप से शिकायत
कीजिए कि अपने अंदर हमने पात्रता का विकास क्यों नहीं किया, जिसकी वजह से भगवान
जी को झख मारकर आना पड़ता। अब तो मैं ये कहता है कि भगवान जी को झख मारकर हमारे
चरण चूमने पड़ते, जैसे कि हम भगवान जी के चरण चूमते हैं। आप भगवान को मजबूर कीजिए,
भगवान पर दबाव डालिए और भगवान को विवश कर दीजिए लाचार कर दीजिए, इस बात के लिए
कि वे आपकी मदद करें और सहायता करें। आप लाचार क्यों नहीं करते भगवान जी को? आप
भगवान जी को लाचार कीजिए-अपने चरित्र के द्वारा, अपने गुण, कर्म और स्वभाव के द्वारा।
वास्तव में भक्ति का सारा आधार जो खड़ा हुआ है, वह भगवान के ऊपर दबाव डालने के लिए
नहीं है, वरन अपने ऊपर दबाव डालने के लिए है। भक्ति अपने भीतर प्यार और मुहब्बत
जगाने के लिए की जाती है।
कब मानें कि भक्ति का विकास हो रहा है
साथियों! हमारे भीतर प्यार का माद्दा जगे, हमारे भीतर मुहब्बत का माद्दा जगे तो
समझना चाहिए कि हमारे भीतर भक्ति का विकास हो रहा है। अभी तो हमारा दिल पत्थर जैसा
कठोर, चट्टान जैसा कठोर है, जिसके कारण हमको किसी के ऊपर दया नहीं आती है। हम किसी
के दुःख से पिघलते नहीं हैं, क्योंकि मुरगी मरती है तो मरे, हमको तो जायका चाहिए।
जीभ को जायका चाहिए। अरे साहब! मुरगी की जान चली जाएगी तो हमें कोई ऐतराज नहीं
है। जान निकलती रहे, आप हमको विटामिन लाकर दीजिए। बेटे! हम पत्थर के बने हुए हैं,
कठोर बने हुए है। हम चट्टान हो गए हैं, हमें किसी के ऊपर दया-धर्म करने की जरूरत
नहीं है। हमारे पड़ोस के आदमी दुखी फिरते है तो फिरें, हम क्या कर सकते हैं हैं
दूसरों को हमारी सेवा की जरूरत है तो हम क्या कर सकते हैं? हमारा पैसा, जो ऐय्याशी
में खरच होता चला जा रहा है, जो संग्रह में खरच होता चला जा रहा है जो निठल्लों
और निकम्मों के लिए जमा होता हुआ चला जा रहा है। आपकी एक-एक पाई की उन लोगों के
लिए जरूरत है जो पिछड़ गए हैं, जो घायल होकर गिर पड़े हैं, उन्हें आपके पैसे की
जरूरत है।
नहीं साहब! हम तो अपना पैसा किसी को नहीं दे सकते। हम तो जमा कर सकते हैं और अपनी
औलाद को दे सकते हैं। अरे! तू पत्थर का, चट्टान का बना हुआ है, फौलाद का बना हुआ
है, ऐसी धातु से बना हुआ है, जिसे हम अष्टधातु कह सकते हैं। तेरा कलेजा अष्टधातु
का बना हुआ है, फौलाद का बना हुआ है। अष्टधातु का, फौलाद का जिनका दिल बना हुआ
है, उन्हें किसी के ऊपर दया नहीं आती। वे सेवा करने के लिए जरा भी तैयार नहीं होते।
अपनी धुलाई और सफाई करने में तनिक भी विश्वास नहीं करते। मित्रो! मैं कैसे कह सकता
हूँ कि यह भक्ति है?
घिनौनी भक्ति-विडंबना भरा स्वरूप
मित्रो! भक्ति का स्वरूप पिछले दिनों बहुत ही घिनौना होता हुआ चला गया। लोगों ने
परावलम्बन का अर्थ भक्ति समझा। भगवान जी की खुशामद कीजिए, चापलूसी कीजिए और भगवान
जी से ये माँगिए, भगवान जी से वो माँगिए। यह परावलम्बन आध्यात्मिकता के मूलभूत
सिद्धांतों के खिलाफ है। भीख माँगना अध्यात्मवाद के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
मुझसे अगर कोई यह कहे कि चोर बुरा होता है या भिखारी? तो मैं दोनों का मुकाबला
करते हुए चोरको कम सजा दूँगा। और भिखारी को ज्यादा सजा दूँगा, क्योंकि भिखारी ने
अपना ईमान गँवा दिया, अपनी आस्था गँवा दी, अपना स्वाभिमान गँवा दिया और सब कुछ
गँवा दिया। भीख माँगने के लिए उतारू हो गया। चोर ने भीख नहीं माँगी। चोर ने कहा
कि जो कोई जोखिम होगा, सो उठाएँगे। हम अपनी इज्जत नहीं गँवा सकते और किसी के आगे
पल्ला नहीं पसार सकते। पल्ला न पसार करके चोर चला गया और डाका डालने लगा, जेब काटने
लगा। जोखिम उठाकर के चोर छत पर चढ़ गया। कुत्ता काट खाएगा तो काट खाए, जख्म हो गया
तो हो जाए। जेल जाना पड़े तो जाएँगे, पिटाई होगी तो खाएँगे, लेकिन किसी आदमी के
सामने हम अपनी इज्जत-आबरू नहीं गँवाएँगे और किसी के सामने फोकट में कुछ माँगने
के लिए चापलूसी नहीं करेंगे।
परावलम्बी मत बनिए
साथियो! भिखारी की बनिस्बत मुझे चोर पसंद है। नापसन्द तो में चोर की भी करता हूँ
लेकिन भिखारी को ज्यादा नापसन्द करता हूँ क्योंकि भिखारी ने अपना स्वावलंबन गँवा
दिया। भिखारी ने अपना आत्मसम्मान गँवा दिया, आत्मगौरव गँवा दिया। बेटे!जिसने अपना
आत्मगौरव गँवा दिया, वह खाली हो गया, निरर्थक हो गया। अब यह अगर भगवान का भक्त
हो गया तो भी मैं क्या कर सकता हूँ? मित्रो! भगवान की भक्ति का तरीका तो आपको मालूम
होना चाहिए। सुदामा जी इच्छा लेकर के भगवान श्रीकृष्ण के पास गए थे कि उनको कुछ
मिलना चाहिए। सुदामा से भगवान जी ने कहा-"भाईसाहब! हमारे यहाँ कायदा कुछ अलग
है। हम पहले लोगों से कुछ माँगते हैं कि आपके पास क्या है निकालिए ?? तब हम आपको
देने के लिए तैयार हैं। जो भी आपके पास हो, पहले हमारे हवाले कीजिए, फिर हम विचार
करेंगे कि हमारे पास जो है, सो हम आपको दे सकते हैं कि नहीं दे सकते।" सुदामा
जी अपनी पोटली बगल में दबाए बैठे थे, संकोच की वजह से। उन्होंने कहा-"भगवान
की भक्ति का तरीका यहाँ से प्रारंभ होगा कि आपकी पोटली में जो कुछ भी है, उसे हमारे
हवाले कीजिए।"भगवान जी ने जबरदस्ती उनसे पोटली छीन ली। पोटली जब खाली हो गई,
तब भगवान जी ने कहा-"अच्छा आप खाली हो गए, लीजिए अब हम भी खाली होते हैं।"
भगवान जी के पास जो कुछ भी सामान था, वह सब उन्होंने द्वारका से पोरबंदर भेज दिया,
सुदामानगरी को भेज दिया। उन्होंने कहा-"आप खाली हो गए हमारे लिए और हम खाली
को गए आपके लिए।"
मित्रो! भक्ति की बात यहाँ से शुरू हुई है, आप भी वहीं से शुरू कीजिए। ऐसा नहीं
हो सकता कि ये हमारी चीज है और हम इसे बगल में दबाकर रखेंगे, लेकिन आपसे लेंगे।
बेटे! ये संभव नहीं है, हम खुशामद कर सकते हैं, चापलूसी कर सकते हैं, चावल, धूपबत्ती
खिला सकते हैं। मुबारक हो आपकी धूपबत्ती और चावल आप इसे अपने पास रखिए। अच्छा साहब!
तो हम चौबीस हजार जप करके सुना सकते हैं। वह भी आपको मुबारक। चौबीस हजार जप सुनने
की अपेक्षा हमसे लिए ये ज्यादा अच्छा है कि सीलोन रेडियो लगा लें और अपना टेपरिकार्डर
खोल लें, रिकार्डप्लेयर खोल लें और लता मंगेशकर के बढ़िया बढ़िया गाने सुनें। चौबीस
हजार अनुष्ठान सुनने की हमें फुरसत नहीं है। आपके चौबीस हजार के अनुष्ठान में कोई
गाना नहीं है, कोई बजाना नहीं है। चल, पागल कहीं का।
भक्ति का विज्ञान समझें
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? आपको असलियत समझनी पगी। असलियत कड़वी है तो रहे, भक्ति
का विज्ञान आपको जानना चाहिए। भक्ति का विज्ञान है-आदमी को जिंदगी मुहब्बत से सराबोर
होना। हम भगवान की इस व्यायामशाला में भक्ति का अभ्यास करते हैं, प्यार का अभ्यास
करते हैं, मुहब्बत का अभ्यास करते है। प्यार का अभ्यास कैसे किया जाता है? प्यार
कैसे होता है, जरा बताना? प्यार करने का दुनिया में एक ही तरीका है कि जिसको हम
मुहब्बत करते हैं, उसको कुछ दें। बच्चे को हम प्यार करते हैं तो उसके लिए खिलौने,
टॉफी आदि लाकर देते हैं। गुब्बारा और कपड़े लाकर देते हैं, क्योंकि हम उसको प्यार
करते हैं। बीबी को हम प्यार करते है, उसके लिए सेंट की शीशी बनाकर देते हैं, रूमाल,
साबुन, कंघा, नायलॉन की साड़ी लाकर देते है। सिनेमा का टिकट लाकर देते हैं। प्यार
मुहब्बत में देने के अलावा और कुछ नहीं है। भगवान की भक्ति अगर आपके पास है तो
आप देना शुरू कीजिए, जैसे हम धूपबत्ती, चंदन, रोली, मिष्ठान्न, फूल आदि लाकर देते
हैं। दीजिए, देने से शुरू होती है भगवान की भक्ति। भक्ति का मतलब है मुहब्बत और
मुहब्बत का मतलब है-देना।
देने के बाद लें
मित्रो! जब हम देना शुरू करते हैं तो क्या हो जाता है? हमारा वो अधिकार हो जाता
है कि पाने के लिए हम अपने आप को पात्र साबित कर सकें। हम नाक से गंदी हवा निकाल
देते हैं तो इस बात के अधिकारी हो जाते हैं कि हमको नई वाली साँस मिले। पेट में
से जब हम भरे हुए मल को निकाल देते हैं तो इस बात के अधिकारी हो जाते हैं कि नई
खुराक हम पाएँ। नई खुराक पाने के लिए देना आवश्यक है। पेड़ पुराने वाले पत्ते जब
गिरा देते हैं तो बाद में मिलती हैं नई कोपलें। नहीं साहब! हमको कोपलें दीजिए,
तब हम अपने पुराने पत्ते गिराएँगे। नहीं बेटे! ऐसा नहीं हो सकता, पहले पुराने पत्ते
गिरा तब नई कोंपले पा। नहीं साहब! हम पुराने पत्ते कायम रखेंगे और नई कोंपलें भी
दीजिए। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। हम आपको बढ़िया से बढ़िया नई कोपलें देंगे, लेकिन
पहले पत्ते गिराकर दिखाइए। नहीं साहब! पुराने पत्ते हम नहीं गिरा सकते। नहीं बेटे!
पुराने पत्ते गिराने पड़ेंगे, तब नई कोपलें मिलेगी। भक्ति इसी का नाम है। भक्ति
भावावेश का नाम नहीं है, जैसा कि आम लोग समझते हैं।
भावावेश नहीं है भक्ति
आम लोग भावावेश को भक्ति कहते हैं। उनकी दृष्टि में भक्ति कैसी होती है? भक्ति
ऐसी होती है, जैसे आदमी नाचते हैं, कूदते हैं, उछलते हैं, आँखों में से आँसू बहाते
हैं। ऐसी भक्ति का तमाशा तो मैंने कई जगह देखा। अब मैं नाम नहीं बताना चाहता, क्योंकि
आप लोग स्वयं जानते होंगे। एक बार मैं वहाँ गया तो लोग मुझे कीर्तन में ले गए।
बोले, अरे साहब! ऐसा कीर्तन तो आपने कभी नहीं देखा होगा, हम ऐसा कीर्तन दिखाकर
लाएँगे। चला गया वहाँ, मैंने अपनी जिंदगी में ऐसा बढ़िया कीर्तन कभी नहीं देखा
था। लोग ऐसे नाच रहे थे और नाचते नाचते इस कदर बेहोश हो जाते थे, जैसा चैतन्य महाप्रभु
के बारे में सुना है। चैतन्य महाप्रभु के बारे में सुना था कि भक्ति में जब वे
कीर्तन करते थे तो बेहोश हो जाते थे, गिर पड़ते थे और जो कोई आ जाता था, उससे लिपट
जाते थे और रोने लगते थे, हँसने लगते थे। उनके होश हवाश गायब हो जाते थे। ठीक ऐसा
ही कीर्तन मैंने एक बार देखा-लोग 'हारे रामा-हारे कृष्णा।' गा रहे थे, आपस में
लिपट गए, गिर पड़े, उठा लिए, बड़ा मजेदार कीर्तन हो रहा था। मैंने कहा कि भाई।
यह बहुत जबरदस्त कीर्तन है। अरे गुरुजी! आपको मालूम नहीं, ये क्या मामला है? क्या
है बताइए, रविवार का दिन है। इन्होंने सुबह ही सब इंतजाम कर रखा है। ये लोग वकील,
मुंशी आदि बहुत बड़े लोग हैं और ये सब शराब पीते हैं, शराब पी कर के इन्होंने इसे
भक्ति का रूप बना लिया है। कीर्तन करते हैं और ये सब शराब के नशे में धुत्त हैं।
धुत्त होकर, 'हारे रामा-हारे कृष्णा' कर रहे हैं। उछलकूद कर रहे है, आँसू टपका
रहे हैं। कह रहे हैं भावावेश आ गया, भक्ति का भूत आ गया, भूत की भक्ति आ गई। क्या
यही भक्ति है? पागल कहीं का।
मित्रो! भक्ति ऐसी नहीं हो सकती। भक्ति का इन भावों से कोई ताल्लुक नहीं है। ये
क्षणिक आवेश हैं। अभी क्षण भर में प्रेम का आवेश आ सकता है और अभी क्षण भर में
बुराई का आवेश आ सकता है। आवेशों में कोई दम नहीं है और न कोई सार्थकता है। हाँ,
है तो निरर्थकता मात्र। मित्रो! भक्ति का ताल्लुक जैसा आम लोगों ने समझा है, वैसा
है नहीं। गुरुजी! पहले हमको भगवान पर बड़ा प्यार आता था, पर अब तो ठंडा हो गया।
बेटे! वो तो भावावेश है, जब किसी आत्मीय व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो आदमी
को बड़ा रोना आता है। छह महीने बाद जब कोई पूछता है कि आपके पिताजी मर गए थे तो
वही कहता है कि हाँ साहब। पिताजी बुड्ढे थे और मर गए। अब तो हमारा सारा काम चल
रहा है, तब तो हमें बड़ा रोना आता था। रोना क्या है? भावावेश है। इसी तरह विवाह
हुआ था को बड़ी खुशी हो रही थी। बड़े उछल रहे थे कि आज विवाह हो रहा है। विवाह
हुए दो वर्ष हो गए। क्यों साहब! विवाह का दिन है, आज तो प्रसन्न हैं? अरे साहब!
विवाह क्या हुआ, आफत आ गई। बीबी आ गई, बाल बच्चे हो गए। अब तो कोई खुशी नहीं है,
उस दिन तो कितनी खुशी थी। भावावेश कभी टिकाऊ नहीं होता है।
भक्ति एक दर्शन, एक विज्ञान
साथियो! भावावेश कभी किसी के टिकाऊ नहीं हो सकते। भावावेश जाएगा तभी भक्ति आएगी।
भक्ति को अगर आप भावावेश मानते हैं तो मैं कहता हूँ कि आप गलती पर हैं। भक्ति का
अर्थ आप नाच-कूद मानते हैं और नाच-कूद कर भगवान को पाने का स्वाँग बनाते हैं तो
मैं कहूँगा कि ये आपका विशुद्ध भावावेश है और अज्ञान है। भक्ति एक सिद्धांत पर
टिकी हुई है, भक्ति एक आदर्श पर टिकी हुई है। भक्ति एक फिलॉसफी है, भक्ति एक जीवन
की प्रक्रिया है। अगर आप उसको ग्रहण कर सकते हों तो मैं आपको वचन दे सकता हूँ विश्वास
दिला सकता हूँ कि भक्ति आपका फायदा करके जरूर दिखाएगी और भक्ति के चमत्कार आपको
जरूर देखने को मिलेंगे, लेकिन भक्ति सही होनी चाहिए। भक्ति का यही अज्ञान इस समय
सब जगह फैला हुआ है। भक्त और भक्ति दोनों ही डूबने वाले हैं। मित्रो! भक्ति का
एक इतिहास मैं देखता हूँ कि पिछले दिनों इसका कितना बड़ा रिएक्शन हुआ था, कितनी
बड़ी प्रतिक्रिया हुई थी। ऋषियों ने, तत्त्वदर्शियों ने कहा था कि ऐसी भक्ति बेकार
है, हटाओ इस भक्ति को जो व्यक्ति को कर्त्तव्यविमुख बनाती हो।
मित्रो! जब भगवान भक्ति के बिना प्रसन्न नहीं हो सकते तो चलिए हम भक्ति के धुर्रे
उखाड़ते हैं। भगवान बुद्ध आए। उनने शून्यवाद की स्थापना की। शून्यवाद माने नास्तिकवाद।
नास्तिकवाद माने भगवान ऐसा नहीं है, जो खुशामद से पाया जा सकता हो, चापलूसी से
पाया जा सकता हो। भगवान बुद्ध की सारी फिलॉसफी पढ़िए। वह शून्यवाद फिलॉसफी है।
उन्होंने कहा कि कोई भगवान नहीं है, शून्य है। उन्होंने भगवान को मानने से इनकार
कर दिया और कहा कि दुनिया में कोई भगवान नहीं है। जब यह बुद्धवाद सारी दुनिया में
तेजी से फैलता हुआ चला गया तो क्या आप समझते है कि आस्तिकता के सिद्धांत भगवान
को न मानने से कमजोर हो गए? नहीं। सिद्धियों की उनमें कमी आ गई? नहीं। चमत्कार
में कोई कमी आ गई? नहीं आई। मनुष्य के गौरव-गरिमा में कोई कमी आ गई? नहीं, कोई
कमी नहीं आई। उन्होंने वह आधार हटा दिया तो भी, भगवान को मानने से इनकार कर दिया
तो भी, कोई कमी नहीं आई।
बुद्ध का उदाहरण
मित्रो! बुद्ध स्वयं भगवान हो गए और भगवान के अंदर जो विशेषताएँ होनी चाहिए, जो
गौरव-गरिमा होनी चाहिए, चमत्कार होने चाहिए, जो सिद्धियाँ होनी चाहिए, वे सब उनके
अंदर थीं। अंगुलिमाल उनके सामने आया तो काँपने लगा। उन्होंने कहा कि तेरे पास तलवार
की ताकत है तो चला। अंगुलिमाल जब तलवार चलाने को उद्यत हुआ तो उन्होंने कहा कि
हमारे पास आकर तलवार चला, वहाँ से क्या दिखाता है? पास आया जो काँपने लगा। जमीन
पर गिरा तो भगवान बुद्ध ने उसकी तलवार को उठा करके अलग फेंक दिया। उन्होंने कहा-"मूर्ख
किस पर तलवार चलाता है? आत्मा पर तू तलवार चला सकता है? आ इधर, उन्होंने उसके सिर
पर हाथ फेरा और कहा कि जा, आज से तू डाकू नहीं, संत है।" अंगुलिमाल डाकू से
संत हो करके चला गया। हिंदुस्तान से बाहर उसे विदेश भेज दिया। कम्बोडिया गया, बर्मा
गया, जावा गया, सुमात्रा गया और जितने मध्यपूर्वी देश हैं उनमें अंगुलिमाल घूमता
रहा।
इसी तरह आम्रपाली नामक एक वेश्या आई थी भगवान बुद्ध का शील डिगाने के लिए। जब उनके
पास आई तो काँपने लगी और काँपकर जमीन पर गिर पड़ी और यह कहने लगी कि पिताजी मैं
तो नरक की एक कीड़ी हूँ, आपके पास उद्धार पाने के लिए आई हूँ। उन्होंने कहा-''बेटी!
तू नरक की कीड़ी नहीं है, तू कन्या है।" आज से तेरे अंदर की वेश्या की मृत्यु
हो गई। आज से तेरे भीतर से संत का जन्म हो गया। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा
तो आम्रपाली वेश्या से संत हो गई और संघमित्रा के तरीके से वह हिंदुस्तान से बाहर
गई थी। वह श्रीलंका और दूसरे देशों में गई और उसने ढेरों के ढेरों विहार बनाए थे।
नालंदा का बौद्धविहार उसी के पैसे से बना था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार
हर्षवर्धन के पैसे से हुआ था, लेकिन नालंदा के विश्वविद्यालय का विकास आम्रपाली
के पैसों से हुआ था। भगवान बुद्ध ने उसकी शान बदल दी। हर्षवर्धन को उन्होंने क्या
से क्या बना दिया। अशोक को उन्होंने क्या से क्या बना दिया। समय को उन्होंने कहाँ
से कहाँ बदल दिया। उस समय जहाँ पाप और अनाचार की धाराएँ बहती चली जा रहीं थी, उन्हें
अपनी ताकत से उन्होंने उखाड़कर फेंक दिया। वे शक्ति के पुंज थे।
मित्रो! नास्तिकता की वजह से क्या भगवान बुद्ध में कोई कमी आ गई? नहीं बेटे! कोई
कमी नहीं आई और न आ सकती है। भगवान को मानें या न माने, किंतु अगर आस्तिकता के
सिद्धांत अपने जीवन में धारण कर सकता हो तो आदमी भगवान का सच्चा भक्त हो सकता है।
सच्चा ईश्वरवादी हो सकता है, जैसे कि भगवान बुद्ध ईश्वर को न मानते हुए भी हो गए।
पिछले दिनों भक्ति के नाम पर फैले अज्ञान ने, जिसे हम परावलम्बन कहते हैं, जिसका
एक अमेरिकन महिला ने खूब व्यंग्य उड़ाया है। यह महिला हिंदुस्तान आई थी। उसने एक
बड़ी मजेदार किताब लिखी है-'स्लेव्स आफ दि गॉड़्स' अर्थात देवताओं के गुलाम। कभी
मौका मिले तो आप उसे पढना। हिन्दुस्तानियों के ऊपर उसने आक्षेप लगाया है और कहा
है कि ये हिंदुस्तानी बौद्धिक दृष्टि से गुलाम है और ऐसे जरखरीद गुलाम हैं कि किसी
न किसी की गुलामी किए बिना जिंदा नहीं रह सकते। इसलिए उसने यह हिमायत की कि जिस
जमाने में यहाँ अँगरेज थे, उस समय हिंदू बिना गुलामी के रह नहीं सकते थे। इसलिए
उन्हें किसी न किसी का गुलाम रहना पड़ेगा। राजनीतिक दृष्टि से तो क्या, भावनात्मक
दृष्टि से भी वे गुलाम है।
उसने अपनी पुस्तक में बार-बार आक्षेप लगाया है कि ये गुलाम हैं। देवताओं के बिना
ये अपने बच्चों की ब्याह-शादी नहीं कर सकते, क्योंकि शुक्र देवता डूब गया। अब ब्याह
नहीं हो सकता। आ हा..... अब सूरज किधर चलेंगे? अब दिल्ली जाना है तो वह कौन सी
दिशा में है? अच्छा दक्षिण दिशा में है। उधर तो बृहस्पति जी दिशाशूल लेकर बैठे
हुए हैं। दिल्ली की तरफ गाड़ी में बैठ करके गए तो दिशाशूल तीर-कमान चला देगा और
आपको शूल के मारे मार डालेगा। दिल्ली आज मत जाना। ओ हो... ये दिशाशूल जो बैठा हुआ
है, अब यात्रा नहीं हो सकती। चूल्हा बनाने के लिए तो मुहूर्त, चक्की बनाने के लिए
तो मुहूर्त, शादी करने के लिए तो मुहूर्त, खाने के लिए, मल त्याग के लिए, नहाने
के लिए, सब काम के लिए मुहूर्त। मुहूर्त के बिना ये कुछ नहीं कर सकते। चारों तरफ
बैठे हुए देवी-देवता इनको पकड़ लेंगे और कान उखाड़ देंगे, दाँत तोड़ देंगे। देवताओं
के बिना इनका गुजारा नहीं हो रुकता।
वास्तविकता क्या?
उसने कहा कि मानसिक दृष्टि से ये इतने परावलम्बी लोग हैं कि अपने जीवन की समस्याओं
का समाधान करने के लिए देवताओं के बिना इनका गुजारा नहीं हो सकता। इसलिए परलोक
वाले देवता हों या चाहे न हो, पर अँग्रेजों को देवता के रूप में इनके ऊपर रहना
चाहिए, नहीं तो ये किसी और के गुलाम हो जाएँगे। अँग्रेजों के चंगुल से छूटेंगे
तो चायना वालों के गुलाम हो जाएँगे। गुलामी के बिना इनको चैन नहीं है। गुलामी इनकी
मनोवृत्ति है। गुलामी इनकी फिलॉसफी, गुलामी इनकी शक्ति है। ऐसा उसने छापा है। जब
मैंने उसकी किताब पढ़ी तो पहले मुझे बहुत गुस्सा आया। फिर जब मैंने धीरे-धीरे सारे
अध्याय पढ़े, यह जानने के लिए कि देखें इसने जो आक्षेप लगाए हैं, वे हमारे ऊपर
लागू होते हैं कि नहीं होते। जब मैंने इस दृष्टि से देखा तो माना कि सौ फीसदी यह
बात सही है कि हम मानसिक दृष्टि से गुलाम, अपना भाग्य बनाने के लिए गुलाम, भविष्य
बनाने के लिए गुलाम, अपनी समस्याओं को हल करने के लिए गुलाम और अपनी मनोकामनाओं
को पूरा करने के लिए देवी-देवताओं के गुलाम हैं। इस मनःस्थिति और परिस्थिति को
लेकर तब ढेरों लोग आग बबूला हो गए थे, पर वास्तविकता तो यही थी।
मित्रो! भगवान को सही तरीके से जानने को लेकर तब एक और भी धर्म फैला हुआ था। उसका
नाम था-जैन धर्म। जैन धर्म क्या है? जैन धर्म को जरा पढ़िए, उसने भगवान का ऐसा
सफाया किया है कि उसका नामोनिशान मिटा दिया गया है। उसने कहा कि कोई भगवान नहीं
होता और भगवान की भक्ति की जरूरत नहीं। आप जैन धर्म की फिलॉसफी पढ़िए जैन धर्म
के सिद्धांत पढ़िए, उसमें भगवान का नाम भी नहीं है। उसमें से भगवान का नाम काटकर
फेंक दिया गया है। ठोकर मारकर भगवान को भगा दिया है। कौन से भगवान को? जो हमारी
मनोकामना पूरी करने में सहायता करता है, उस भगवान को उन्होंने मारकर फेंक दिया
है। जैन धर्म में भगवान की कोई गुंजाइश नहीं है। इसी तरह बौद्ध धर्म में भी भगवान
की कोई गुंजाइश नहीं है। मित्रो! भगवान की गुंजाइश तो थी और है ही, लेकिन वो भगवान,
जो हमारी चापलूसी से प्रसन्न हो जाता है। वो भगवान, जो हमारी खुशामद का इंतजार
करता रहता है। वो भगवान, जिसे हमारी धूपबत्ती के बिना चैन नहीं, वो भगवान, जो हमारे
साथ में रियायत और हमारी सिफारिश करता रहता है, हमारे पूजा-पाठ के खेल-खिलौने देख
करके। ऐसे भगवान को दोनों धर्मों से हटा दिया गया।
देववाद के नाम पर अज्ञान
मित्रो! हिंदू धर्म में उसी जमाने में एक और क्रांति हुई है। लगभग उसी जमाने में
और समकालीन क्रांतियाँ हुई। तब प्रत्येक क्षेत्र के प्रगतिशील लोगों ने समझा कि
यह हमारे लिए नुकसानदेह चीज है। यह हमारे लिए हानिकारक चीज हैं। यह मनुष्य के उत्थान
में कोई सहायता नहीं करती, वरन मनुष्य के अधःपतन में सहायता करती है। देववाद के
नाम पर, पूजा-पत्री के नाम पर, मंत्र-तंत्रों के नाम पर, मनोकामना के नाम पर यह
जो अज्ञान फैला दिया गया हैं, सिवाय नुकसान के और कुछ भी नहीं कर सकता। हिंदू धर्म
में एक और समकालीन महर्षि हुए है। उनका नाम था-जगद्गुरू शंकराचार्य। आद्य शंकराचार्य
ने वेदांत को फिलॉसफी का प्रतिपादन किया। वेदांत क्या है? वेदांत का अर्थ है --नास्तिकवाद।
नास्तिकवाद का अर्थ क्या होता है? नास्तिकवाद का अर्थ ये होता है कि भगवान के लिए
जो परावलम्बन है, उसे काटकर फेंक दिया जाए। आप वेदांत के सारे ग्रंथों को पढ़ते
चले जाइए, पंचदशी को पढ़ लीजिए, ब्रह्मसूत्र को पढ़ लीजिए, सब ग्रंथों को पढ़ लीजिए
और पता लगाकर आइए कि वेदांत में क्या है? अयमात्मा ब्रह्म अर्थात यह जो आत्मा है,
इसी का सफाई किया हुआ हिस्सा, जिसको श्रेष्ठ कहे, भगवान है। तत्त्वमसि, प्रज्ञानं
ब्रह्म, चिदानंदोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् सोऽहम्-ये सारे के सारे जितने भी वेदांत
के महावाक्य हैं, ये सिर्फ यह बताते है कि आपको भगवान की तलाश में बाहर जाने की
और झख मारने को कोई जरूरत नहीं है। भगवान की खुशामद करने की कोई आवश्यकता नहीं
है।
मित्रो! हवा की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं है। सूरज की खुशामद करने की कोई
जरूरत नहीं है। आप धूप में जाकर बैठ जाइए और सूरज की गरमी तथा रोशनी का फायदा उठाइए।
नहीं साहब! हम सूर्य नारायण की प्रार्थना करेंगे कि वे हमारे घर में आकर के दीपक
जला जाया करें और हमारे घर में रोशनी कर जाया करें। नहीं बेटे! सूरज भगवान को कोई
फुरसत नहीं है। तू धूप में बैठ जाया कर और सूरज के कायदे का फायदा उठा। नहीं महाराज
जी! हम तो प्रार्थना करेंगे कि सूरज भगवान अपने नियम बिगाड़ दें और हमारे घर में
घुस आया करें और रात को चार घंटे बैठा करें और चले जाया करें। नहीं बेटे! ऐसा नहीं
हो सकता। भगवान का एक कायदा और भगवान का एक कानून है। उसी पर चलना पड़ेगा, इसके
अलावा दुनिया में और कोई तरीका नहीं है, जिसका आप फायदा उठा सकते हों। आज की बात
समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥