लोक-शिक्षण के लिए धर्म परम्परा युक्त प्रचार-प्रक्रिया

व्यापक क्षेत्र में फैली हुई अवांछनीयताओं को निरस्त करने के लिए एकाकी प्रयत्न कुछ बहुत अधिक कारगर नहीं हो सकते । विस्तृत समस्याओं की गहरी जड़ें उखाड़ने के लिए सङ्गठित प्रयत्नों की प्रचण्ड गतिशीलता उत्पन्न किये बिना और कोई उपाय नहीं । आहत नारी को सहारा देकर उसको उचित स्थान तक पहुँचाने के लिए जिन प्रयत्नों की आवश्यकता है उन्हें सङ्गठित रूप से ही विनिर्मित किया जा सकता है । महिला जागरण अभियान इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए है । उसका शुभारम्भ सदस्य महिलाओं और सहयोगी सभ्यों की सहायता से शाखा निर्माण के रूप में होगा । कार्यवाहक का चुनाव—शाखा स्थान का निर्धारण आदि की प्रथम चेष्टा को ढाँचा खड़ा करना कह सकते हैं । इस ढाँचे में प्राण भरने की प्रक्रिया तब आरम्भ होती है जब साप्ताहिक सत्सङ्गों का क्रम चल पड़ता है ।

सङ्गठन का ढाँचा, साप्ताहिक सत्सङ्गों की सुव्यवस्था यह दो कार्य जब ठीक तरह पूरे हो जाँय तो महिला जागरण अभियान का तीसरा चरण होगा—सदस्यों के घरों में नव जागरण का प्रकाश पहुँचाने के लिए प्रचार योजना को गतिशील करना । एक जगह सत्सङ्ग होते रहना और सङ्गठन एवं जागरण की रूपरेखा बनाते रहना पर्याप्त नहीं । करना यह भी होगा कि घर, परिवारों का वातावरण बदला जाय उसमें विवेकशीलता एवं प्रगतिशीलता के वीज बोये जाँय । किसी घर की एक नारी तो सङ्गठन की सदस्य रहे किन्तु सारा परिवार सड़े-गले विचारों में डूबा हुआ हो तो समर्थन एवं सहयोग के अभाव में वह कुछ विशेष परिवर्तन नहीं ला सकेगी । जब कि प्रगतिशील नारी का प्रधान कार्य अपने परिवार में आदर्शवादी परम्पराओं को स्थापित करना और घर के वातावरण को परिष्कृत बनाने का उत्तरदायित्व निबाहना होता है ।

परिवार निर्माण का प्रचार कार्य यह महिला जागरण अभियान का तीसरा चरण है । इन चरणों की गरिमा एक के बाद एक के क्रम से भारी ही होती जाती है । कहना न होगा कि अपने देश की स्थिति में यह प्रचार कार्य धर्म तन्त्र के साथ जुड़ा हुआ—धर्म परम्पराओं के साथ समन्वय मिलाकर चलने से ही सफल हो सकेगा । अन्यथा दकियानूसी परिवारों में सीधा प्रशिक्षण तो किसी भी प्रकार प्रवेश न होने दिया जायगा । सड़े-गले लोग मानवी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने वाले नवयुग आलोक के लिए घर के दरवाजे सर्वथा बन्द ही कर देंगे । सुधारात्मक शिक्षा देने के लिए आज की स्थिति में कोई बाहर का व्यक्ति किसी परिवार में कदाचित ही प्रवेश पा सकेगा । इस कठिनाई का एकमात्र हल यह नहीं कि प्राचीन धर्म परंपराओं को पुनः प्रचलित-प्रतिष्ठापित किया जाय और उनके सहारे परिवार निर्माण के लिए आवश्यक सभी शिक्षाओं से घर के हर सदस्य के मस्तिष्क को प्रभावित करने का प्रयत्न किया जाय ।

भारतीय संस्कृति में षोडस संस्कारों की प्राचीन परम्परा विद्यमान है । पंडितों ने उसे लूट-खसोट का जरिया बना लिया और शिक्षा प्रेरणा का मूल उद्देश्य नष्ट करके मात्र पूजा-पत्री तक उसे सीमित कर दिया, इसलिए जन विवेक ने उसकी अनुपयोगिता देखकर उसकी उपेक्षा आरम्भ कर दी । अब ये संस्कार विधिवत् कहीं-कहीं ही होते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि धर्म परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के उत्साहवर्धक अभियान के साथ-साथ परिवार निर्माण के लिए आवश्यक प्रशिक्षण करने और प्रगतिशील वातावरण बनाने की समन्वित प्रक्रिया को तत्काल आरम्भ कर दिया जाय । इसका परिवारों में विरोध नहीं, स्वागत ही होगा । इसमें दुहरा लाभ है । लोग अपनी परम्पराओं के पीछे सन्निहित प्रगतिशीलता को समझेंगे और उनका सम्मान करेंगे साथ ही परिवार प्रशिक्षण के लिए उत्साहवर्धक परिस्थितियाँ मिलती रहेंगी । उन छोटे आयोजन-समारोहों में सहज ही उत्साहवर्धक वातावरण रहेगा । घर-पड़ोस के लोग पारस्परिक व्यवहार के कारण तथा कौतूहलवश उनमें इकट्ठा होंगे और उतने लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए महिला जागरण अभियान के कार्यकर्ताओं को अच्छा अवसर मिल जायगा ।

व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण यह विविध कार्यक्रम लेकर युग-निर्माण योजना चल रही है । इनमें से परिवार निर्माण के कार्यक्रम में प्रधान भूमिका महिलाओं को ही निभानी है । व्यक्ति निर्माण हर मनुण्य का काम है । समाज निर्माण के लिए प्रधान भूमिका पुरुष की है, यों सहयोग तो नारी का भी रहेगा ही । परिवार निर्माण के लिए प्रचलित ढर्रा बदलने और आदर्शवादी परम्पराओं को स्थापित करने की आवश्यकता पड़ेगी । इसका पहला चरण इस तथ्य को समझाने और मार्गदर्शन करने का है । संस्कार आयोजनों की धर्म परम्परा प्रचलित करके यह प्रयोजन बहुत ही सुविधा तथा सफलता के साथ उत्साहवर्धक वातावरण में सम्पन्न होता रह सकता है ।

षोडस संस्कारों में दस प्रधान हैं । उनमें से पाँच ऐसे हैं जिन्हें बिना पंडित, पुरोहितों की सहायता के महिलाएँ बहुत ही अच्छी तरह घरेलू उत्सवों के रूप में स्वयमेव सम्पन्न कर सकती हैं । (१) गर्भावस्था में तीसरे महीने होने वाले पुंसवन संस्कार मानते हुए परिवार के लोगों को यह समझाया जा सकता है कि नवजात शिशु को सुसंस्कारी बनाने के लिए गर्भिणी की शारीरिक-मानसिक स्थिति किस प्रकार सन्तोषजनक रखी जा सकती है और उसके लिए घर के वातावरण में पारस्परिक व्यवहार में क्या हेर-फेर होना चाहिए । (२) नामकरण-संस्कार में बच्चे का नाम रखने के साथ-साथ उसके जीवन का उद्देश्य निर्धारित करने और उसके अनुरूप घर को एक संस्कृति पाठशाला के रूप में बदलने के लिए उस परिवार में किस प्रकार के परिवर्तन अभीष्ट हैं । (३) अन्नप्राशन संस्कार यों होता तो बच्चे का है और प्रधानतया बच्चे के आहार-विहार के सम्बन्ध में बरती जाने योग्य सतर्कताओं की जानकारी दी जाती है, पर वस्तुतः सारे घर के आहार-विहार की चर्चा की गुंजायश उसमें रहती है । हम प्रायः अखाद्य खाते और अपेय पीते हैं, उससे पूरे परिवार का स्वास्थ्य नष्ट होता है । इस प्रसङ्ग में अनीति उपार्जन से पेट भरने के क्या दुष्परिणाम होते हैं इस तथ्य को भी समझाया जा सकता है । (४) मुण्डन संस्कार में बच्चे का मानसिक विकास करने की प्रेरणा मुख्य है । जन्मजात पशु संस्कारों के प्रतीक आरम्भिक बाल काटकर उसके स्थान पर संस्कृति की प्रतीक शिखा स्थापित की जाती है । मस्तिष्क पर आदर्शवादी मान्यताओं का अधिकार सिद्ध करने वाली धर्म ध्वजा फहराई जाती है । मुण्डन के अवसर पर यह समझाया जा सकता है कि बच्चे का ही नहीं सारे परिवार का मानसिक विकास आवश्यक है और उस महान उपलब्धि के लिए किस प्रकार का चिन्तन और कर्तृत्व होना आवश्यक है (५) विद्यारम्भ संस्कार में विद्या की आवश्यकता-उपयोगिता एवं सही दिशा के सम्बन्ध में घर के हर सदस्य को जानकारी मिलती है और यह बताया जाता है कि ज्ञान सम्पदा के अभिवर्धन में परिवार के हर सदस्य का पूरा उत्साह और अनवरत प्रयत्न बना रहना चाहिए । निरोगता और समृद्धि की तरह ही विद्या सम्पदा पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए ।

यों यह पाँचों संस्कार छोटे बालकों के मनाये जाते हैं । पर वस्तुतः बच्चे तो निमित्त हैं । वे तो बेचारे कुछ समझते तक नहीं । आयोजन में वास्तविक शिक्षण पूरे परिवार का तथा उपस्थित संबंधी पड़ोसियों का होता है । घर-घर यह प्रशिक्षण प्रक्रिया चल पड़े इसके लिए इन आयोजनों का प्रचलन महिला जागरण की सभी सदस्याओं के यहाँ होना चाहिए । छोटे बच्चों का सिलसिला प्राय: चलता ही रहता है । इस महीने किसी का नामकरण तो कुछ महीने बाद किसी का अन्नप्राशन किसी का मुण्डन इस प्रकार किसी न किसी बहाने बार-बार परिवार प्रशिक्षण के अवसर आते रहेंगे और उपयोगी प्रेरणाओं से उन लोगों को बार-बार प्रभावित किया जाता रहेगा । यह परिवार निर्माण की दृष्टि से एक बहुत ही उत्तम विधि व्यवस्था है जिसे प्रचलित करने के लिए महिला जागरण अभियान शाखाओं को पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए ।

व्यक्ति निर्माण की दृष्टि से जन्म दिन मनाने का बहुत महत्त्व है । जिस सदस्या का जन्म दिन जब हो उस दिन उसके घर पर एक छोटा उत्सव किया जाना चाहिए । मनुष्य जन्म कितना बहुमूल्य है—किस उद्देश्य के लिए मिला है और पुण्य प्रयोजन की पूर्ति के लिए चिन्तन एवं कर्तृत्व की दिशा क्या होनी चाहिए, इस तथ्य को अनेकों उदाहरण देकर बताया सिखाया जा सकता है और जिसका जन्म दिन है उसे प्रेरणा दी जा सकती है कि वह अपना सुर दुर्लभ जन्म सार्थक करने के लिए अपनी वर्तमान गतिविधियों में क्या हेर-फेर कर सकता है । यह व्यक्ति निर्माण की शिक्षा है जिससे सभी उपस्थित लोग अपने-अपने लिए प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं । यों महिलाएँ अपने-अपने बच्चों के जन्म दिन खुशी मनाने की दृष्टि से मनाती रहती हैं । अपना उद्देश्य उससे कहीं ऊँचा है । इसलिए शाखा की ओर से बच्चों का जन्म दिन नहीं, सदस्या का ही मनाने की परम्परा रखी गई है ताकि उस दिन उसे आत्म चिन्तन की नई प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर मिले ।

यह सभी संस्कार आयोजन ऐसे हैं जिन्हें महिलाएँ ही मिल-जुलकर मना सकती हैं । हवन, कर्मकाण्ड आदि के मन्त्र एवं विधान सभी ऐसे सरल हैं जिन्हें शिक्षित महिलाएँ कुछ ही दिन के प्रयत्न से बहुत अच्छी तरह से करा सकती हैं । आयोजनों में खर्च एक-दो रुपये जितना ही रखा गया है । अपनी पद्धति से इतने में ही हवन आदि कृत्य हो जाते हैं । जल-पान, चाय, पान आदि से स्वागत की खर्चीली प्रथा इन आयोजनों में सर्वधा निषिद्ध ठहरा दी गई है ताकि गरीब से गरीब स्थिति के लोग भी उन्हें पूरे उत्साह और पूरे सम्मान के साथ सम्पन्न कर सकें ।

जिस प्रकार व्यक्ति निर्माण के लिए जन्म दिन, परिवार निर्माण के लिए संस्कार आयोजनों की अपनी धर्म परम्परा है; ठीक उसी प्रकार समाज निर्माण के लिए पर्व-त्यौहार मनाये गये हैं । युग-निर्माण शाखाएँ उन्हें बहुत समय से सामूहिक आयोजनों के रूप में मनाती आ रही हैं । अब यह प्रचलन मुहल्ले-मुहल्ले की स्त्रियाँ भी मिल-जुलकर सामूहिक उत्सवों के रूप में मनाना आरम्म कर सकती हैं । यों संस्कारों और सत्सङ्गों के माध्यम से भी छोटे आयोजन होते रहेंगे, पर उनमें नवीनता लाने के लिए पर्व-त्यौहारों का मनाया जाना मी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । इन्हें सामूहिक रूप से मनाने की पद्धति भी संस्कारों की तरह ही सरल और न्यूनतम खर्च की है । अन्तर इतना ही है कि संस्कारों में जहाँ पारवारिक समस्याओं पर मार्गदर्शन किया जाता है वहाँ पर्व, त्यौहारों के आयोजनों में सामाजिक समस्याओं का स्वरूप और हल सुझाया जाता है । लोक-शिक्षा की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता इस माध्यम से पूरी होती है ।

कार्तिकी अमावश्या को दिवाली होती है और वह अर्थ सन्तुलन के साथ जुड़े हुए अनेकानेक समाधान लेकर आती है । उस पर्व को मनाते हुए देश अर्थ व्यवस्था की विकृति के कारण और उन्हें सन्तुलित करने के उपाय सुझाये जा सकते हैं । इसी प्रकार माघ सुदी पंचमी को वसन्त पंचमी शिक्षा की—फागुन सुदी पूर्णिमा को होली स्वच्छता एवं श्रम-सहयोग की—चैत्र सुदी नवमी रामनवमी मर्यादा पालन की—जेष्ठ सुदी दशमी गायत्री जयन्ती, गङ्गा भयन्ती आत्मिक पवित्रता की, आषाढ़ सुदी पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा—अनुशासन की, श्रावण सुदी पूर्णिमा, श्रावणी—उपनयन परिवर्तन के साथ द्विजत्व की पशु जीवन त्याग कर मनुष्य जीवन में प्रवेश करने की जिम्मेदारी निबाहने की, भाद्रपद वदी अष्टमी-जन्माष्टमी कृष्ण के कर्मयोग की, आश्विन सुदी दसमी—विजय दसमी शक्ति संचय की प्रेरणा लेकर आती है । इन पर्वों को मनाने के साथ-साथ उपरोक्त समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए सामाजिक सङ्गठन, संशोधन एवं विकास की अनेकानेक गुत्थियों के हल सुझाये जा सकते हैं । समाज निर्माण की शिक्षा इस माध्यम से उत्साहवर्धक वातावरण में बहुत ही अच्छी तरह हो सकती है । धर्म परम्पराओं के निर्वाह के साथ-साथ लोक-शक्ति को जागृत, परिष्कृत, सङ्गठित एवं विकसित करने का यह तरीका इतना उत्तम है कि भारत की वर्तमान परिस्थितियों में लोक-शिक्षण का और कोई उपाय सोचा ही नहीं जा सकता ।

इसके अतिरिक्त रामायण कथा और सत्यनारायण कथा के आयोजन अपने-अपने घरों पर—शाखा में—अथवा मुहल्ला स्तर पर होते रह सकते हैं । मिशन ने सत्यनारायण कथा का ऐसा अभिनव स्वरूप बना दिया है जिससे इस धर्म प्रयोजन का सहारा लेकर वह सब कुछ कहा जा सकता है जो आज की स्थिति में कहने योग्य है । इसी प्रकार रामायण सप्ताह अथवा न्यूनाधिक समय तक उस कथा के आयोजन रखे जाँय तो उससे भी व्यक्ति, परिवार एवं समाज को अभिनव रचना के अति महत्त्वपूर्ण सूत्र जनमानस में उतारे जा सकते हैं । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रामायण कथा—सत्यनारायण कथा आदि पुस्तकों की रचना की जा चुकी है और उनका सर्वत्र प्रचलन हो रहा है । महिला जागरण शाखाएँ स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप इन कथा, आयोजनों की व्यवस्था बनाकर लोक-शिक्षण के अति महत्त्वपूर्ण कार्य को सुगमता और सफलतापूर्वक अग्रसर कर सकती हैं । उन्हीं में से कुछ सुयोग्य महिलाएँ संस्कार, जन्म दिवस, पर्व त्यौहार, कथा, प्रवचन आदि की अपनी क्षमता विकसित कर सकती हैं । इस प्रकार का प्रशिक्षण शान्तिकुञ्ज में व्यवस्थित रूप से मिलता भी है ।

संगठन, सत्संग और प्रचार व्यवस्था की जहाँ त्रिवेणी बह निकले कि वहाँ अभियान अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँच गया । प्रतिभाशाली महिलाएँ कुछ समय के अनुभव-अभ्यास के उपरान्त यह क्रिया-कलाप बहुत ही अच्छी तरह चला सकती हैं और भविष्य में नारी उत्थान के लिए जो उच्चस्तरीय कदम बढ़ाये जाने हैं, उनकी नींव जमाने वाले सुदृढ़ आधार खड़े कर सकती हैं । पुरुष सूत्र संचालन करें और स्त्रियाँ उसे दिशा दें आवश्यक उत्साह प्रकट करें तो कोई कारण नहीं कि नारी पुनरुत्थान की सुखद सम्भावनाओं को मूर्तिमान न बनाया जा सके ।