पारिवारिक सद्भावना और सहकारिता को अधिकाधिक विकसित करें
बाड़े में बन्द भेड़ों की तरह एक घर में रहने वाले मनुष्यों के समूह को परिवार कह भले ही लिया जाय पर उनसे उस प्रयोजन की पूर्ति नहीं होती जो परिवार संस्था के साथ जुड़ा हुआ है । एक-दूसरे को स्नेह, सहकार प्रदान करते हुए, उदारता एवं कृतज्ञता का रसास्वादन करते हुए, संयुक्त समाज की संरचना में अपनी-अपनी जिम्मेदारी निबाहें तभी परिवार—एक छोटे किन्तु सुव्यवस्थित राष्ट्र की भूमिका सम्पादित कर सकते हैं और उसका प्रत्येक सदस्य लाभान्वित हो सकता है ।
परिवार की प्रारंभिक आवश्यकता तो रोटी, कपड़े और मकान की होती है । इसके बाद शिक्षा, चिकित्सा, आतिथ्य रीति-रिवाजों के निर्वाह और आपत्ति कालीन स्थिति का सामना कर सकने वाली सामर्थ्य रहने की होती है । यह कार्य उपार्जन और खर्च का संतुलन बनाये रहने पर सम्भव हो सकता है । यदि जीवनयापन के लिए आवश्यक सामान्य ज्ञान और लोक व्यवहार का अनुभव हो तो मनुष्य पैसे की तंगी में न रहेगा और खर्च की सुविधा से संबंधित घर-परिवार की मोटी आवश्यकतायें बिना बहुत बड़ी अड़चनों का सामना किये पूरी होती रहेंगी । कम आमदनी हो तो खर्च घटाया जा सकता है । एक उपार्जनकर्ता पर निर्भर न रहकर घर के दूसरे लोग भी थोड़ी-थोड़ी आमदनी के छोटे-मोटे गृह उद्योग अपनाकर अर्थ संतुलन में सहायक हो सकते हैं । मनुष्य को जितनी बुद्धि मिली है और कलाइयों में जो क्षमता है वह इसके लिए पर्याप्त है कि किसी सामान्य परिवार का गुजारा किसी प्रकार हँसी-खुशी के साथ होता चला जाय ।
कठिनाई तब आती है जब परिवार के सदस्यों में स्नेह-सौजन्य का—सद्भाव-सहयोग का अभाव रहता है । एक-दूसरे में रुचि नहीं लेते अपने अपने मतलब में चौकस रहते हैं, अनुशासन नहीं मानते और परस्पर मनोमालिन्य रखकर समय कुसमय लड़ते-झगड़ते रहते हैं । जहाँ यह स्थिति होगी वहाँ अर्थ साधन रहते हुए भी परिवार एक ऐसे कैद खाने की स्थिति में होगा जहाँ विवशतापूर्वक समय काटना पड़ता है । ऐसी स्थिति में परिवारों में न घनिष्टता रहती है न आत्मीयता । ऐसी निरानंद स्थिति में दिन तो कटते रहते हैं, पर वह उपलब्धियाँ जो इस पवित्र संस्था के सदस्यों को मिल सकती थी, प्रायः नहीं ही मिल पातीं । आज के अधिकांश परिवारों की स्थिति ऐसी ही दुर्भाग्य पूर्ण बनी हुई हैं ।
महिला जागरण अभियान के सदयस्यों को इस स्थिति को बदलने में नई पहल करनी चाहिए और पुराने आदर्शों के नये आधार प्रस्तुत करने चाहिए । हमें अपने-अपने परिवारों का नये सिरे से पुर्नगठन करना चाहिए और उपेक्षित सिद्धान्तों को अपनाने के लिए परिवार के हर सदस्य को समझाने-बुझाने और सहमत करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए ।
पारिवारिक सद्भाव प्रकरण में एक विचित्र बात यह देखने में आती है कि महिलाओं में परस्पर सद्भाव का बड़ा अभाव होता है । देखा गया है कि शोषित लोग मिल जुलकर रहते हैं, आपस में तो शोषक वर्ग ही लड़ते हैं । सिंह, व्याघ्र एक दूसरे को सहन नहीं करते, राजा और धर्माध्यक्ष भी अपने वर्ग के लोगों को नीचा दिखाने पर उतारू रहते हैं । इसके विपरीत पशु, पक्षी और कीड़े-मकोड़े मिलजुल कर दिन काटते हैं । स्त्रियों के लिए यह उचित था कि वे अपने वर्ग के प्रति अधिक सहानुभूति, संवेदना रखतीं और मिलजुल कर कठिनाई के दिन काटतीं । दहेज एवं रंग रूप देखने के संबंध में जिस प्रकार वे अपनी बेटी के लिए वर पक्ष वालों से उदारता की आदर्शवादिता की अपेक्षा करती हैं वैसी ही सहानुभूति पुत्र वधू के रंग-रूप एवं उसके परिवार के द्वारा दिये गये दहेज आदि के संबंध में भी बरतती । पर विचित्र बात यह है कि वे जो रियायत अपनी बेटी के लिए प्राप्त करना चाहती हैं वह अपनी पुत्र वधू को नहीं देना चाहतीं । सास का पुत्र वधू के साथ कठोर व्यवहार देखकर इस भेद भाव पर आश्चर्य होता है ।
देवरानी, जिठानी के, ननद और भाभी के बीच सगी छोटी-बड़ी बहनों जैसा अत्यन्त धनिष्ट प्रेम भाव होना चाहिए । सास और बहू के बीच माता और पुत्री जैसी भाव भरी आत्मीयता होनी चाहिए, छोटे से घर में जिन्हें दिन-रात साथ-साथ रहना है उनमें सघन सद्भाव और सहयोग का होना नितान्त आवश्यक है । इसके बिना उनकी जिन्दगी दूभर हो जायगी । दुर्भाग्य यह है कि घरों की स्त्रियों के बीच तुच्छ कारणों को लेकर ईर्ष्या-द्वेष की, मन-मुटाव एवं क्लेश-कलह की आग जलती रहती है । इससे वे स्वयं तो अपना शरीर और मस्तिष्क जलाती ही हैं साथ ही पूरे घर परिवार को द्वेष-दुर्भाव का अखाड़ा बना देती हैं । इससे फलते-फूलते परिवार छिन्न-विच्छिन्न एवं विगठित होकर दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में एकाकी रहने की कठिनाइयाँ भुगतते हैं । महिलाएँ यदि अपनी सहज उदारता और सद्भाव परक कोमलता को परस्पर चरितार्थ करती रहें तो घरों में एकता और प्रसन्नता की सुखद परिस्थितियाँ बनी रह सकती हैं ।
परिवार के हर सदस्य को समझना-समझाया जाना चाहिए कि कुटुम्ब एक पूरा शरीर है । जिसमें सभी को एक आत्मा की तरह रहना होता है और अपनी स्थिति वही माननी होती है जो शरीर में विभिन्न अंग-अवयवों की है । हाथ-पाँव आदि का अस्तित्व देखने में तो अलग है पर वे पूरी तरह शरीर के साथ जुड़े हुए हैं और उनके परिश्रम का लाभ पूरे शरीर को मिलता है । यों प्रकारान्तर से अन्य अवयवों के उपार्जन का लाभ उन्हें भी मिलता है । इस प्रकार कोई घाटे में नहीं रहता वरन् दूसरों की विशेषताओं का लाभ पाकर वह उपलब्धियाँ प्राप्त करता है जो एकाकी रहने पर किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकती थीं । अनुदान का प्रतिदान प्रकृति की सहज परम्परा अनायास ही हर किसी को प्रदान करती रहती है । परिवार के सदस्य गण संयुक्त कर्तव्य और संयुक्त उत्तरदायित्व निभाते हैं और बदले में जो देते हैं उससे अनेक गुना, अनेक स्तर का, अनेक रसास्वादनों से युक्त आनंद प्राप्त करते हैं ।
इस दृष्टि से छोटे-छोटे परिवारों की अपेक्षा बड़े परिवार बनाने की संयुक्त परिवार प्रथा लाभप्रद है । किन्तु उनकी उपयोगिता इसी शर्त पर है कि उसमें परस्पर सघन सद्भाव और परिपूर्ण सहयोग का वातावरण हो । यदि द्वेष-दुर्भाव की, अवज्ञा और उपेक्षा की, आपाधापी की दुष्प्रवृत्तियाँ पनप रही हों तो घर को नरक बनाने की अपेक्षा यही अच्छा है कि लोग अपना-अपना परिवार लेकर अलग हो जायें । इससे दिन-रात का कलह, आक्षेप आरोप होने का सिलसिला तो बंद हो जायगा । सद्भाव की स्थिति में संयुक्त परिवार का लाभ है और दुर्भाव पनपने की स्थिति में उसका बिखर जाना ही श्रेयस्कर है । बड़े-बूढों को अनावश्यक आग्रह नहीं करना चाहिए और स्थिति के अनुरूप संयुक्त परिवार को बनाये रखने की तरह ही उसे शान्ति-सद्भाव पूर्वक अलग करने में भी सहायता करनी चाहिए ।
यदि सद्भाव बनाया जा सके तो संयुक्त परिवारों के लाभ भी बहुत हैं । व्यक्ति ने अकेले रहने की अपेक्षा मिल जुलकर रहने की परंपरा विकसित ही इसीलिए की हैं कि उसमें लाभ अधिक है । एकाकी-असहाय रहने के मुकाबले परिवार के सदस्यों माता-पिता आदि से मिलने वाले अनुदानों की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि परिवार के साथ मिलकर रहने में हानि कम और लाभ अधिक हैं । उसमें छोटे अपने ढंग से और बड़े अपने ढंग से लाभान्वित होते हैं । पत्नी पति से जो पाती है उसके बदले में उसे असंख्य गुना देती है । यही बात बच्चों और अभिभावकों के संबंध में है । पैसा का बदला पैसा ही होता तो फिर बाजार का विनिमय ही बन्द हो जाता । फिर पैसा देकर कोई न तो सिनेमा देखता, न दान-पुण्य करता । इनसे पैसे के बदले पैसा तो नहीं मिलता पर दूसरे किस्म के आनंद ऐसे मिलते हैं जिन्हें लेकर घाटे में रहने की बात नहीं सोची जा सकती । संयुक्त परिवार प्रणाली मानवी सहकारिता की, समाज शास्त्र की एक सर्वमान्य एवं सर्वोपयोगी पद्धति है । अगले दिनों इसी का विकास बड़े पैमाने पर होने जा रहा है । कम्युनिज्म, समाजवाद और अध्यात्मवाद के तीनों ही आदर्शों में समूचे समाज का संगठन एक परिवार के स्तर पर किये जाने की आवश्यकता एवं उपयोगिता का पूरा-पूरा प्रतिपादन है ।
परिवार संस्था की सफलता उसकी भावनात्मक स्थिति और आदर्शवादी आचार-संहिता पर टिकी हुई है । जब तक वे आधार बने रहेंगे तब तक अभावग्रस्त घर परिवारों की भी स्थिति ऐसी सुखद बनी रहेगी जिन पर स्वर्ग निछावर किया जासके । शरीर की भूख रोटी, कपड़ा और मकान, अन्न, जल एवं हवा तक ही सीमित है, पर आत्मा की भूख स्नेह, सम्मान और सहयोग की परिस्थितियाँ मिलने पर ही बुझती है । हमारा प्रयत्न यह होना चाहिए कि यह तीनों ही अपने परिवार में समुचित मात्रा में विद्यमान बनी रहें । परिवार के छोटे, बड़े और बराबर वालों के बीच ऐसा सघन संबंध जुड़ा रहे जिससे प्रत्येक प्रत्येक का सम्मान करें, महत्त्व समझें, एक दूसरे के दुःख-सुख को सफलता-असफलता को अपना समझें ।
खुदगर्जी, अहमन्यता, हरामखोरी, उच्छृंखलता जैसे दुर्गुण जहाँ पनपेंगे वहाँ व्यक्ति भी नष्ट होगा और उस आग में समूचा परिवार जलेगा । इन विषों में से जो जिसमें उठ रहा हो उसे प्यार से, समझाने से अथवा कड़ाई बरत कर दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । गृह पति और गृहिणी का इस संदर्भ में विशेष कर्तव्य और उत्तरदायित्व है, वे मात्र रोटी कमाने और बनाने तक ही सीमित न रहें वरन् घर के प्रत्येक सदस्य की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का बारीकी से ध्यान रखें और जहाँ भी अवांछनीयता पनप रही हो वहाँ उसे फलने-फूलने का अवसर देने से पूर्व ही निरस्त करने का उपाय सोचें । स्वयं परिवार के लोगों में पूरी-पूरी रुचि लें । स्नेह-सौहार्द को मन में ही न रखें, उसे व्यवहार में भी लावें । और यह प्रयत्न करें कि घर का हर सदस्य एक-दूसरे के प्रति कर्तव्य का अधिकाधिक पालन करना सीखे और अधिकार का प्रसंग स्वयं ही छोड़ता चला जाय ।
बड़े छोटों का अधिक ध्यान रखें तो वे बिगड़ने न पायेंगे । घर में स्वस्थ परम्परा डाली जाय । हर कोई श्रम निष्ठ बने । बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी परिश्रम रत रहें । समय कोई बर्बाद न करे । बड़ों का सम्मान छोटों को करना चाहिए, पर बड़ों को निठल्ले बैठे रहना और बात-बात में हुक्म चलाकर छोटों का समय नष्ट करते रहना अपना अधिकार नहीं मान लेना चाहिए । छोटों का कर्तव्य है कि बड़ों का सम्मान करें पर बड़ों को भी इस दृष्टि से अपने को पीछे नहीं आगे ही रखना चाहिए । समान आयु वाले एक-दूसरे को घनिष्ट मित्र समझें और उनके दुःख-दर्द में पूरी सहानुभूति रखें तथा एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में समुचित सहयोग प्रदान करें ।
बड़ों को संतुष्ट रखने के लिए उनका सम्मान करना, शिष्टाचार बरतना, आदरणीय संबोधन करना, नित्य प्रणाम करना, उनके शारीरिक कामों में सहयोग देना, कोई नया काम करते समय उनका आशीर्वाद लेना, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना छोटों का कर्तव्य है । पर कई बार उनके विचार अनुपयुक्त, असामयिक एवं अवास्तविक होते हैं । ऐसे आदेश थोपते हैं जो मानने योग्य नहीं होते । कई बार वे घूँघट, छुआछूत, दहेज, धूमधाम में अपव्यय जैसी विकृत परंपराओं से चिपटे रहने का आग्रह करने लगते हैं । कई बार समाज-सेवा जैसे श्रेष्ठ कार्यों में अड़ंगा डालते हैं तथा स्वार्थवश केवल अपने काम से काम की सीख देने लगते हैं । इसलिए उचित-अनुचित की बात विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही किसी आज्ञा का पालन करना चाहिए । अनुचित आज्ञा की उपेक्षा की जा सकती है । हाँ उस अवज्ञा में भी नम्रता बनाये रखनी चाहिए । उत्तेजित होने से तो ऐसे प्रसंगों पर भी बचा जा सकता है ।
घर में हर कोई, हर किसी से केवल सम्मान भरे वचन बोले और शिष्ट व्यवहार करे । उत्तेजना, आवेश, गाली-गलौज, मारपीट जैसी दुष्प्रवृत्तियों की घर से जड़ खोद कर ही फेंक दी जानी चाहिए । सभ्य और सज्जनों को शिष्ट परम्परा घर के हर सदस्य को निबाहने के लिए समझाया एवं दबाया जाना चाहिए । छोटों को भी यदि सम्मान सूचक संबोधन किये जाँय, उनके साथ शिष्टता बरती जाय तो सहज ही वे भी उस परम्परा को अपनायेंगे और घर का समूचा वातावरण सुसंस्कृत स्तर का बनता चला जायगा ।
एक-दूसरे का सहयोग करना परिवार की स्वस्थ परम्परा होनी चाहिए । हारी, बीमारी में सब सबकी पूछताछ करें और देख-भाल, चिकित्सा, परिचर्या, सहानुभूति व्यक्त करने के लिए तत्परता बरतें । बड़े बच्चे छोटों को पढ़ाया करें । बड़े-बूढ़े फालतू न बैठें वरन् छोटों को कहानियाँ सुनाने से लेकर उन्हें टहलाने, हँसाने, खेल-खिलाने, गृह-उद्योग सिखाने, प्रश्नोत्तर से ज्ञान वृद्धि करने तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार पारिवारिक कार्यों में हाथ बँटाने के लिए तत्पर रहें । निरर्थक समय गँवाते रहने की सुविधा को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें । मिलजुल कर काम करने की परम्परा पड़े । भोजन बनाने, सफाई रखने जैसे कार्यों का बोझ एक पर न डालकर उसमें अन्य लोग भी सहकार करें तो उसकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया बहुत ही अच्छी होगी ।
मिल बाँटकर खाने, एक ही खिलौने से सब बच्चे मिलजुल कर खेलने के लिए सहमत रहने की आदतें आरंभ से ही डाली जानी चाहिए । यह सहयोग करने का स्वभाव आरंभ से ही विकसित होता चले तो बड़े होने पर उनके स्वभाव में वे तत्त्व बने रहेंगे; जिनके आधार पर परिवार और समाज में सहकारिता एवं सुव्यवस्था निर्भर रहती है । आदर्शवादी कथा कहानी कहने को, विभिन्न समस्याओं पर परिवार की परिस्थिति तथा भावी योजना पर विचार-विनिमय करने के लिए समय-समय पर विचार गोष्ठियाँ होती रहें तो ऐसे वातावरण का सृजन हो सकता है जिसके आधार पर अभावग्रस्त परिस्थितियों में स्वर्गीय परिस्थितियों की अनुभूति की जा सके ।
इन सिद्धान्तों के अनुरूप हमें अपने व्यक्तित्व ढालने चाहिए और परिवार में तदनुरूप परम्पराएँ प्रचलित करनी चाहिए । ऐसे ही वातावरण में पल कर बच्चे सुसंस्कारी बनते हैं । अगली पीढ़ी को यदि उच्च शिक्षा दिला सकने की, उनके लिए सम्पत्ति छोड़ मरने की अपनी स्थिति न हो तो हर्ज नहीं, यदि उन्हें सद्गुणी सुसंस्कारी बना दिया गया है तो निश्चित रहना चाहिए कि वे हर परिस्थिति में सुखी रह सकेंगे ।
परिवार निर्माण का महान प्रयोजन पूरा करने में जितनी सफलता प्राप्त की जा सके उसे समूची मानव जाति की सेवा मानना चाहिए । अपना परिवार भी तो राष्ट्र की ही एक महत्वपूर्ण इकाई है । मिशन के सभ्यों, सदस्यों और सदस्याओं को मिल जुल कर अपने को, अपने परिवार को परिष्कृत करने के महान् प्रयोजन में संलग्न होना चाहिए । इस दिशा में किये गये प्रयत्न मिशन की उपयोगिता प्रमाणित करने के अति महत्त्वपूर्ण आधार सिद्ध होंगे ।