युग-परिवर्तन की वेला में करें इन पंचशीलों का पालन
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
यह है असाधारण समय
देवियो, भाइयो! इस समय, यह युग के परिवर्तन की वेला है। आपको तो दिखाई नहीं पड़ता, पर मैं आपसे कहता हूँ और मुझे कहना चाहिए कि आप जिस समय में पैदा हुए हैं, यह साधारण समय नहीं है, असाधारण समय है। इस समय में युग तेजी के साथ बदल रहा है। आपने देखा नहीं कि किस प्रकार से विश्व की समस्याओं में हेर-फेर और परिवर्तन होते हुए चले जा रहे हैं। विज्ञान की प्रगति को क्या आप देख नहीं रहे हैं? ऐसी-ऐसी चीजें बनती हुई चली जा रही हैं। एक्स-किरणें, एटम बम जैसी चीजें पुरानी हो गई, दकियानूसी हो गई हैं। अब लेजर-किरणें, मृत्यु-किरणें आ गई हैं। जिस तरह से एक्स-किरणें फेंक दी जाती हैं, उसी तरह से अगर ये किरणें फेंक दी जाएँ तो न गैस फेंकने की जरूरत है, न कुछ फेंकने की जरूरत है। सारे के सारे इलाके में जो मनुष्य जहाँ हैं, वहीं के वहीं बैठे रह जाएँगे। उठे हुए हैं तो उठे रह जाएँगे। चलने-फिरने के लिए कोई मौका नहीं मिलेगा। ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक हथियार तैयार हो रहे हैं कि अगर दुनिया का सफाया करना हो तो बहुत जल्दी सफाया हो सकता है। विनाश की दिशा में विज्ञान के बढ़ते हुए चरण इस तेजी के साथ बढ़ रहे हैं कि अगर चाहे तो एक खराब दिमाग का मनुष्य सारी दुनिया का, इस सुंदर भूमंडल का, जिसको बनाने में लाखों वर्ष तक मनुष्य को श्रम करना पड़ा, सफाया कर सकता है। आज का वक्त ऐसा ही है।
मित्रो! आज का वक्त ऐसा है कि जनसंख्या चक्रवृद्धि दर से बढ़ रही है। यदि यह इसी क्रम से चक्रवृद्धि दर पर बनी रही तो आप यह ख्याल रखना कि १०० वर्ष के भीतर जमीन पर पैर रखना मुश्किल हो जाएगा; कुओं में पानी मिलना मुश्किल हो जाएगा; जमीन में अनाज पैदा करना मुश्किल हो जाएगा; स्कूलों में खड़े होने के लिए जगह मिलनी मुश्किल हो जाएगी। चक्रवृद्धि ब्याज को तो आप समझते नहीं हैं। एक व्यक्ति ने मुझे चक्रवृद्धि ब्याज के संबंध में हिसाब लगाकर बताया कि अगर एक बच्चे के नाम पर आज पचास वर्ष तक के लिए १००० रुपया जमा कर दें तो उसको उनचास वर्ष बाद एक लाख बत्तीस हजार रुपया मिल जाएगा। यह कैसे हो सकता है? मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने देखा कि चक्रवृद्धि ब्याज के हिसाब से दस प्रतिशत जो आजकल ब्याज मिलता है, वह एक महीने के बच्चे के नाम जमा कर दिया जाए और जब वह उनचास वर्ष का हो जाए तो एक लाख बत्तीस हजार रुपया निकाल सकता है। यह हिसाब बिलकुल सही है। इसमें फरक नहीं पड़ता। चक्रवृद्धि ब्याज जिस हिसाब से बहुत तेजी के साथ घूमता है, उसी तेजी के साथ बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसको अगर कम न किया गया, रोका न गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि सौ वर्ष के बाद इस जमीन पर न अनाज बचेगा, न रोटी बचेगी और न कुओं में पानी बचेगा। तब आदमी किसी को मृत्यु-किरण से मारे, चाहे न मारे, किंतु उस वजह से जरूर मर जाएगा।
घटिया कौम लाती है विनाश
साथियो! आप ऐसे समय में पैदा हुए हैं, जिसमें विनाश की संभावनाएँ तेजी के साथ मुँह फाड़ कर खड़ी हैं। आदमी जितना घटिया होता हुआ चला जा रहा है, वह इतना घटिया पहले कभी नहीं हुआ था। दुनिया के परदे पर इतिहास यह बताता है कि मनुष्य इतना घटिया कभी नहीं हुआ। आदमी समझदारी के हिसाब से बढ़ रहा है। विद्या उसके पास ज्यादा आ रही है; समझदारी ज्यादा आ रही है। पैसा ज्यादा आ रहा है अच्छे मकान ज्यादा आ रहे हैं; सब चीजें ज्यादा आ रही हैं, पर ईमान के हिसाब से और दृष्टिकोण के हिसाब से आदमी इतना कमजोर, इतना घटिया, इतना स्वार्थी, इतना चालाक, इतना बेईमान, इतना कृपण होता हुआ चला जा रहा है। इस जमाने में आदमी इतना ठग होता हुआ चला जा रहा है कि मुझे शक है कि यही ठगी, यही कृपणता और यही स्वार्थपरता, जो आज हमारे और आपके ऊपर हावी हो गई है, अगर इसी हिसाब से, इसी क्रम से चली, तो एक आदमी दूसरे आदमी को थोड़े दिनों में फाड़कर खाने लगेगा और दूसरे आदमी को जिंदा निगल जाएगा। आदमी को अपनी छाया पर विश्वास नहीं रहेगा कि यह मेरी छाया है कि नहीं? और यह कि मेरी छाया मेरी सहायता करेगी कि नहीं?
आज यूरोप में यही स्थिति है। दांपत्य जीवन के बारे में इतनी मुश्किल, इतनी दूरियाँ पैदा हो गई हैं कि मियाँ-बीबी साथ रहते हैं, पर यह ख्याल करते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि यह हमको डस ले। मर्द के बारे में बीबी यही सोचती रहती है कि कहीं ऐसा न हो कि कल मियाँ हमको डस ले। औरत के बारे में मर्द भी यही सोचता रहता है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि औरत हमको डस ले। दोनों सावधान भी रहते हैं और प्यार-मुहब्बत की बातें भी करते हैं। इधर-उधर की बात भी करते हैं, लेकिन दाँव पर बिलकुल सावधान रहते हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए कि इसके साथ-साथ में हम बेमौत मारे जाएँ। इतना खतरा दुश्मनों से नहीं है, जितना कि मित्रों से है।
भौतिकवादी स्वार्थपरता
मित्रो! आज ऐसी ही विचित्र स्थिति है कि हम कुछ कह नहीं सकते। दुनिया की जैसी विचित्र स्थिति है, उसकी भयानकता आज आपके सामने खड़ी है। युग का एक पक्ष विनाश के लिए मुँह फाड़ करके खड़ा है। अगर इसी क्रम से जिस राह पर आज हम चल रहे हैं, वैज्ञानिक प्रगति कर रहे हैं, मनुष्यों के भीतर स्वार्थपरता की वृद्धि हो रही है, मनुष्य का संतानोत्पादन के ऊपर नियंत्रण का अभाव है। यदि यही क्रम चला, अगर यही स्थिति बनी रही तो दुनिया नष्ट हो जाएगी; आप ध्यान रखना। सौ वर्ष के बाद हम तो जिंदा नहीं रहेंगे, लेकिन आप में से कोई रह जाए तो देखना कि दुनिया का क्या हाल होता है! एक और स्थिति है, जिसके ख्वाब हम देखते हैं, जिसके सपने हम देखते हैं। हाँ बेटे! हम सपने देखते हैं। हमारे सपनों की दुनिया बड़ी खूबसूरत है। यह ऐसी दुनिया है, जिसमें प्यार भरा हुआ है; मुहब्बत भरी हुई है और विश्वास भरे हुए हैं; एकदूसरे के सहकार भरे हुए हैं; एकदूसरे की सेवा भरी हुई है। कितनी मीठी और कितनी मधुर दुनिया है यह, जो हमारे दिमाग में घूमती है। अगर हमारे सपने कदाचित् साकार हो गए, तो यह बढ़ा हुआ विज्ञान, यह बढ़ा हुआ धन, यह बढ़ी हुई विद्या, आदमी के लिए इतनी बढ़ी हुई सुविधाएँ, मैं सोचता हूँ कि स्वर्ग के वातावरण को उतारकर के जमीन पर ले आएँगी। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व न सड़कें थीं, न बिजली थी, न रोशनी थी, न टेलीफोन था, न डाकखाना था, कुछ भी नहीं था। ऐसे अभावग्रस्त जमाने में भी, जब लोग स्वर्गीय जिंदगी जिया करते थे तो आज की बेहतरीन परिस्थितियों में दुनिया में इतनी शांति, इतनी सरसता, इतना सौंदर्य, इतना सुख पैदा कर सकते हैं कि हम कह नहीं सकते।
एक चौराहे पर मनुजता
मित्रो! आज जिस चौराहे पर हम खड़े हुए हैं, वह है एक विनाश का चौराहा और दूसरा है उन्नति का चौराहा। इस उन्नति में क्या होने वाला है, इसके लिए आपको अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी। कास्टिंग वोट आपका है। दो वोट बराबर होते हैं। एक वोट प्रेसिडेंट का होता है। प्रेसिडेंट दोनों वोट बराबर वालों में से जिसको चाहे, उसी के पक्ष में डाल सकता है, उसे ही जिता सकता है। आप लोग बैलेन्सिंग पॉवर में हैं। आप चाहें तो अपना वोट उसकी ओर डाल सकते हैं, जो पक्ष विनाश की ओर जा रहा है। आप चाहें तो अपना वोट उस पक्ष में भी डाल सकते हैं, जो सुख और शांति लाने के लिए जा रहा है। मैं सोचता हूँ कि आपको ऐसा ही करना चाहिए। सुख और शांति के लिए ही अपना वोट डालना चाहिए और आपको अपनी वर्तमान जिंदगी जानवरों के तरीके से नहीं काटनी चाहिए। आपको अपनी वर्तमान जिंदगी मनुष्यों के तरीके से, विचारशीलों के तरीके से, समझदार लोगों के तरीके से खरच करनी चाहिए।
देवता साथ चले श्रीराम के
मित्रो! यह विशेष समय है। ऐसा समय फिर आने वाला नहीं है। आपको शायद मालूम नहीं है कि किसी जमाने में रामचंद्र जी का अवतार रावण के राज्य को खतम करने के लिए हुआ था। रावण एक व्यक्ति तो नहीं था, वह तो एक विचारधारा थी, जो पंचवटी से लेकर के वहाँ तक फैली हुई थी, जिसने दूर तक आधे हिंदुस्तान को जकड़ लिया था। रावण कोई एक अकेला व्यक्ति नहीं था, वह तो एक संस्कृति थी, एक विचारधारा थी। उसको हटाने के लिए रामचंद्र जी अकेले कुछ नहीं कर सकते थे। अकेले रामचंद्र जी का तीर-कमान क्या कर लेता! उसको हटाने-मिटाने के लिए बहुत से लोगों के काम करने की जरूरत थी; जैसे कि इस समय में है। रामचंद्र जी का जब अवतार हुआ तो देवताओं ने कहा कि आपके साथ-साथ हम भी चलेंगे, क्योंकि आप अकेले वह काम नहीं कर सकते। देवताओं से भगवान ने कहा कि अगर आप मनुष्य के शरीर में जाएँगे तो मनुष्य बड़ा चालाक है और बड़ा बेईमान है। मनुष्य बड़ा स्वार्थी है और बड़ा घटिया है। आप भी जाएँगे तो उसी नमक के सागर की झील में आप भी नमक हो जाएँगे और मनुष्य हो करके आप चालाकियों के सिवाय और कुछ नहीं कर सकेंगे। क्या भरोसा कि आपमें ये सब दुर्गुण नहीं आ पाएँगे? श्रेष्ठ कामों के लिए आप बलिदान नहीं कर पाएँगे। इसलिए आप लोग मनुष्य योनि के अलावा किसी और योनि में हमारे साथ चलें तो अच्छा है।
एक से एक जबरदस्त आदमी
मित्रो! देवताओं ने रीछ-बंदरों की योनियों में रहना पसंद किया। रामचंद्र जी जब अपना काम करने के लिए चले, धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए चले, तो देवता भी रीछ-वानरों के रूप में साथ-साथ चले। आप सबको इतिहास मालूम है और आप सबने रामायण भी पढ़ी है। उसका क्या परिणाम निकला और क्या नतीजा हुआ। उसका अच्छा परिणाम निकला और यह नतीजा हुआ कि रामराज्य की स्थापना हुई और अनीति का विनाश हुआ। साधुता का परिष्कार हुआ और देवत्व का विकास हुआ। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण आए थे, तब भी ऐसा ही हुआ था। देवता लोग गोपों के रूप में, पांडवों के रूप में साथ-साथ आए थे। पाँच पांडवों का किस्सा तो आपको मालूम ही है कि उनमें से एक धर्मराज का बेटा था, एक इंद्र का बेटा था और एक वायु का बेटा था। ऐसे ही जो गोप थे, वे भी देवताओं के प्रतीक थे। ग्वाले-ग्वालिनें भी ऐसे ही देवताओं के प्रतीक थे। उनके साथ-साथ आदमी भी कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के लिए आए। मैं विचार करता हूँ कि भगवान जब बुद्ध के रूप में एक नया युग लाने के लिए अवतरित हुए थे तो उनके साथ में भी ऐसे ही जीवट वाले आदमी आए थे। आनंद ऐसे ही जबरदस्त आदमी का नाम था। कुमारजीव ऐसे ही जबरदस्त आदमी थे। सभी के नाम बताने से क्या फायदा है? बस, इतना जान लीजिए कि उस समय एक से एक बढ़िया और जबरदस्त आदमी आए थे। उन्होंने न केवल हिंदुस्तान, वरन सारे के सारे एशिया का कायाकल्प कर दिया। न केवल एशिया का वरन यूरोप के बहुत से हिस्से में वे लोग चले गए; न केवल यूरोप में, बल्कि अफ्रीका में अभी भी अपनी भारतीय संस्कृति-सभ्यता के निशानात पाए जाते हैं। ये उसी जमाने के हैं। वे अमेरिका भी गए हैं। अमेरिका की मय सभ्यता उस जमाने की है, जिस जमाने में बौद्धकाल था। वे बड़े जबरदस्त आदमी थे, जिन्होंने नावों में सवार होकर महीनों समुद्र के सफर किए। छोटी-छोटी नावों पर सवार होकर लंबे-लंबे सफर किए थे और ज्वार-भाटे का मुकाबला करते हुए, दलदलों का मुकाबला करते हुए, पहाड़ों की ऊँची चोटियों का मुकाबला करते हुए दुनिया के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा पहुँचे थे। मैं समझता हूँ कि बुद्ध के साथ आने वालों का नाम भी देवताओं में गिना जाना चाहिए। गाँधी जी के साथ भी कुछ ऐसे ही विलक्षण आदमी आ गए थे, जिन्होंने दुनिया का कायाकल्प कर दिया और हिंदुस्तान की हजारों वर्षों की गुलामी को धोकर के फेंक दिया।
एक विशेष समय में आए हैं हम
मित्रो! एक विशेष कार्य को पूरा करने के लिए, विशेष जिम्मेदारियों को निभाने के लिए केवल एक ही आदमी नहीं आता, वरन कई आदमी आते हैं। आपको मैं याद दिलाना चाहूँगा कि ये वर्ष भी कुछ इसी तरह के हैं। हम और आप छोटे आदमी मालूम पड़ते हैं। रीछ बंदरों के बारे में भी शायद लोगों ने यही ख्याल किया होगा। श्रीकृष्ण और दूसरे ग्वाल-बालों के बारे में भी लोगों ने ऐसा ही ख्याल किया होगा, जैसा कि हमारे और आपके बारे में किया जाता है, पर मैं आपको एक बात नोट करा देना चाहता हूँ कि हम और आप एक विशेष समय में पैदा हुए हैं और एक विशेष जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर के आए हैं; ऐसी जिम्मेदारी जिसमें कि सारी मनुष्य जाति का भाग्य या तो खतम होने वाला है या हमारी मनुष्य जाति सामूहिक रूप से आत्महत्या करने वाली है या फिर हम सुनहले दिन देखेंगे; बदले हुए युग के दिन देखेंगे; सतयुग के दिन देखेंगे; रामराज्य के दिन देखेंगे; सुख-शांति के दिन देखेंगे; स्वर्ग के दिन देखेंगे। या तो वैसा होना है या फिर ऐसा होना है।
आप नर-पशु जैसा जीवन न जिएँ
मित्रो! आपको अपना कास्टिंग वोट इस जमाने में इसी काम के लिए खरच करना चाहिए। यह समय चला जाएगा, रहेगा नहीं। आप यदि कहें कि हम नहीं करेंगे तो? तो भी बेटे! काम हो जाएगा। भगवान जो काम कराना चाहते हैं, किसी से भी करा लेते हैं। मिट्टी के टुकड़े और ढेले से करा लेते हैं। अगर आप नहीं करेंगे, तो किसी और से करा लेंगे, पर यह आपकी जिंदगी में सबसे बड़े दुर्भाग्य की दुर्घटना होगी और एक बड़ी दुर्घटना होगी। अगर इस समय आपने वही काम करना शुरू कर दिया, जो कि जानवर करते हैं, कीड़े-मकोड़े करते हैं तो क्या बात हुई ! जानवरों और कीड़े-मकोड़ों के सामने दो के अलावा तीसरा कोई मकसद नहीं है। उनमें से एक है पेट भरना और दूसरा है संतान पैदा करना। दो के अलावा उन्हें तीसरा कोई ख्वाब भी नहीं आता। सारी इच्छाएँ इन्हीं के अंदर आ करके इकट्ठी हो जाती हैं। मनुष्य ज़रा समझदार है। पेट भरने को हम पैसा कमाना कह सकते हैं और काम-वासना का जरा बढ़ा हुआ रूप लग्जरी कह सकते हैं। लग्जरी, पैसा संग्रह, विलास—बस, इसके अलावा और कुछ लक्ष्य नहीं होता। कीड़े का यही है; कुत्ते का यही है; बंदर का यही है; सूअर का यही है; चींटी का यही है; इसके अलावा तीसरी बात इनके दिमाग में कभी नहीं आती।
न कोई सिद्धांत, न दर्शन
साथियो! वे भी बड़े घटिया आदमी हैं, जिनके पास न कभी सिद्धांत आता है; न कभी दर्शन आता है; न कोई आदर्श आता है; कुछ नहीं आता है; केवल पेट और औलाद के अतिरिक्त तीसरी कोई बात समझ में नहीं आती। राम-नाम लेते हैं। अरे! ये दुष्ट काहे का राम-नाम लेंगे? किसी राम का नाम नहीं लेंगे। जहाँ कहीं भी जाएँगे, इसी चक्कर में जाएँगे। कहाँ गए थे? साहब! मंशा देवी पर गए थे। अच्छा! मंशा देवी पर क्या किया? मंशा देवी से अपनी मनोकामना पूरी कराने के लिए प्रार्थना की। आपकी क्या माँग थी? साहब! पंद्रह पैसे की एक खपच्ची फाड़कर ले गए और वहाँ जो पेड़ थे, उन पर रस्सी से बाँधकर आए और यह कहकर आए कि मंशा देवी! मंशा पूरी करना, तो हम फिर दोबारा आएँगे। आपकी क्या मंशा थी? जरा बताइए तो सही, जिससे हम भी आपकी मदद करें। अरे साहब! दो ही मंशाएँ हैं, तीसरी कोई मंशा नहीं है। पैसा चाहिए और औलाद चाहिए। वासना चाहिए, तृष्णा चाहिए, और कुछ नहीं चाहिए।
बेटे! ये बड़ी घटिया चीजें हैं। ये ऐसी घटिया चीजें हैं कि इन्हें हलके से हलका, छोटे से छोटा, नाचीज से नाचीज, वाहियात से वाहियात जीव भी पूरी कर सकता है। यह मनुष्य की ऊँचाइयों की निशानियाँ नहीं हैं। मनुष्य की ऊँचाइयाँ और मनुष्य की महानताएँ केवल उसके चिंतन और दृष्टिकोण के आधार पर परखी जा सकती हैं—शक्ल के हिसाब से नहीं; पैसे के हिसाब से नहीं; विद्या के हिसाब से नहीं; हथियार के हिसाब से नहीं; पद के हिसाब से नहीं; किसी हिसाब से नहीं परखी जा सकतीं। हम किसी आदमी की वकत और किसी आदमी का मूल्य या मूल्यांकन कर सकते हैं तो केवल इस आधार पर कर सकते हैं कि इसके विचार करने के तरीके क्या हैं? इसका मकसद क्या है? इसका लक्ष्य क्या है? इसके अलावा कोई चीज नहीं है।
जीवन को धन्य बना लो रे
मित्रो! आज आपका यह जन्म ऊँचे उद्देश्यों के लिए ऊपर उठे तो आपका जीवन सार्थक हो सकता है और हमारे प्रयास सार्थक हो सकते हैं। आप भी उन्हीं लोगों में से हैं, उन्हीं जीवात्माओं में से हैं, जो विशेष समय में विशेष काम के लिए, विशेष अवतार लेकर के आए। अच्छा होता, आप इस बात को जान पाते; अच्छा होता कि आप यह समझ पाते कि ऐसा वक्त बार-बार नहीं आने वाला है। एक जमाना आया था, जब स्वराज्य आंदोलन में सैकड़ों आदमी जेल गए। किसी के फोटो छपते हैं, किसी की जन्म-जयंतियाँ मनाई जाती हैं। कोई मिनिस्टर हो गया, कोई अभी भी मिनिस्ट्री की गद्दी पर बैठा हुआ है, कोई राष्ट्रपति हो गया, कोई प्रधानमंत्री हो गया, कोई मुख्यमंत्री हो गया है। इनमें से अधिकांश छह-छह महीने के लिए जेल गए थे। क्यों साहब! हमको भी मुख्यमंत्री बनवा दीजिए। हम भी छह महीने के लिए जेल जाने के लिए तैयार हैं। नहीं बेटे! वह वक्त अब चला गया। अब तो छह महीने तो क्या छह साल के लिए जेल चला जा, तो भी तू मिनिस्टर नहीं बनने वाला है। नहीं साहब! हमको भी मिनिस्टर बनवा दीजिए। नहीं बेटे! अब नहीं बनवा सकते। वह समय चला गया।
आकांक्षाएँ ऊँची हों, उमंगें हों
साथियो! यह समय ऐसा है कि अगर आप इसको पहचान पाए, देख पाए, समझ पाए, तो आपके मन में एक निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए कि हमारी यह जिंदगी घटिया कामों के लिए नहीं है। घटिया काम मैं कहता हूँ औलाद और पैसा को, वासना और तृष्णा को। अगर आप इसे बड़प्पन कहें तो कहते रहें। मैं क्या कर सकता हूँ! मैं इनसान की वकत, इनसान की तौल उसके पैसे से मूल्यांकित नहीं कर सकता और न उसकी शिक्षा से कर सकता हूँ; न उसकी ऐयाशी से कर सकता हूँ। आदमी का वजन और वकत एक ही चीज से तौली जा सकती है कि आदमी आखिर विचारता क्या है? सोचता क्या है? उसकी आकांक्षा क्या है? उद्देश्य क्या है? अगर आप इस तरीके से कर पाए, तो आप धन्य हाे जाएँगे। मैं धन्य हो जाऊँगा। अगर आप समय को पहचान पाएँ, अपने आप को आप पहचान पाएँ, अपनी जिम्मेदारियों को आप समझ पाएँ तो मित्रो! आपके भीतर से तुरंत एक ऐसी हूक और एक ऐसी उमंग उठेगी, जो आपको इस बात के लिए मजबूर करेगी कि आपको अपनी दिशाएँ बदल देनी चाहिए। अभी आप जिस तरह की जिंदगी व्यतीत करते आ रहे हैं, वह घटिया किस्म की जिंदगी है। आपको बची हुई जिंदगी बेहतरीन कामों में खरच करनी चाहिए।
नहीं साहब! हमारा पेट कैसे भरेगा? बेटे! तेरा पेट भर जाएगा। मैं तुझे यकीन दिलाता हूँ कि तेरा पेट भर जाएगा। जब चींटी का पेट भर सकता है, कुत्ते का पेट भर सकता है, बंदर का पेट भर सकता है, तो फिर तेरा पेट क्यों नहीं भरेगा! कितना बड़ा पेट है, तू मुझे दिखा तो सही। छह इंच का तेरा पेट है और छह फीट की तेरी काया है। छह इंच के पेट के लिए कितनी रोटियाँ चाहिए? चार रोटी चाहिए, छह रोटी चाहिए। पेट के लिए मरा जाता है मूर्ख! जिसके सामने न कोई सिद्धांत है, न कोई आदर्श। केवल पेट के लिए मरता है। पेट के अलावा कोई बात नहीं सोचता।
यह अध्यात्म सच्चा अध्यात्म नहीं
मित्रो! मैं चाहूँगा कि आप लोगों का भजन, आप लोगों का चिंतन, आप लोगों का ध्यान और आप लोगों का अध्यात्म, भगवान करे ऐसा हो, जिसमें से आपके भीतर से कुछ सिद्धांतवादिता के लिए, कुछ आदर्शवादिता के लिए उमंगें उठें। अगर आपमें उमंगें न उठ सकीं, तो मैं आपके अध्यात्मवाद की प्रशंसा नहीं कर सकता। अगर आपके अध्यात्मवाद ने आपसे सिर्फ इतना ही कहा कि आपको हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। तीन माला गायत्री का जप करना चाहिए और केवल देवी का पाठ करना चाहिए, तो मैं ऐसे अध्यात्म के ऊपर लानत भेजता हूँ। जो अध्यात्म केवल माला घुमाने तक और थोड़े शब्दों का उच्चारण करने तक सीमित हो जाए और मनुष्य को सिद्धांतों के लिए, आदर्शों के लिए, कुछ ऊँचे कामों के लिए एक और उमंग पैदा न कर सके, तो मैं उसे क्या कह सकता हूँ! बेटे! ऐसे अध्यात्म के लिए मेरे मन में कोई जगह नहीं है और मैं ऐसे अध्यात्म की सराहना कभी भी नहीं करूँगा, जिसने कि मनुष्य के भीतर में हलचल पैदा न की, मंथन पैदा न किया।
मित्रो! मैं चाहूँगा कि यह बात आपको हमेशा याद बनी रहे कि इस बेशकीमती जिंदगी का बेहतरीन उपयोग करना चाहिए। आप इस बात को कभी भी भूलने न पाएँ और आप यह कहें कि शिवरात्रि के दिन आचार्य जी ने एक ऐसा स्मरण दिलाया था और यह कहा था कि आप सब बात भूल जाना, पर यह बात मत भूलना कि कल परसों आपको भगवान के दरवाजे पर जाना पड़ेगा। आपसे वहाँ सिर्फ एक ही बात पूछी जाएगी कि आपको इतनी बेशकीमती जिंदगी जिस काम के लिए दी गई थी, आपने उसे पूरा किया कि नहीं किया? तब आप यह जवाब देकर पिंड छुड़ाना चाहते हो तो ध्यान रखिए कि इस जवाब को न कोई सुनने को तैयार होगा और न इस जवाब का कोई वक्त होगा। नहीं साहब! हमने तो तीन माला हनुमान जी की जपी थीं, एक माला गणेश जी की जपी थी, एक माला शंकर जी की जपी थी। भाड़ में गया तू और ऊपर से गिरा तेरा शंकर। माला जपी थी कि कोई मशीनगन लिए बैठा है। बेटे! माला जपने का इतना ही मतलब है कि हम अपने मन की मलिनता को साफ करें, ताकि जीवन का उद्देश्य और दृष्टिकोण साफ दिखाई पड़े। इसके अतिरिक्त उसका मकसद कोई और नहीं हो सकता।
माला जपने से, खुशामद से कुछ नहीं होगा
मित्रो! माला जपने से, भगवान जी की खुशामद करने से कोई काम चल सकता है, मैं ऐसा नहीं मानता। भगवान जी को आप कोई चीज रिश्वत के रूप में दें तो वे आपकी हिमायत करेंगे, फेवर करेंगे, मैं ऐसा नहीं मानता। आप भजन करें तो अच्छी बात है, न करें तो भी चलिए मैं कहता हूँ कि आपका काम चल जाएगा, लेकिन कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों की अवहेलना करके यदि आप यह ख्याल किए बैठे हों कि यह जप करेंगे और वह जप करेंगे तो भगवान जी प्रसन्न हो जाएँगे, तो बेटे! ऐसा कभी नहीं हो सकता।
बनाएँ पंचशीलों द्वारा अगली योजना
इसलिए मित्रो! आज की मेरी बात अगर आपकी समझ में आ जाए तो इसकी पहचान यही है कि आपके हृदय में ऐसे परिवर्तन की दृष्टि उत्पन्न होनी चाहिए कि हमारा पिछला जीवन तो जो चला गया, सो चला गया, अब अगला जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिए? अगर आप ऐसा करेंगे तो मजा आ जाएगा। अगर आप ऐसा करेंगे तो आपके भीतर से यह हूक उठेगी कि भावी जीवन की रूपरेखा क्या हो? भावी जीवन की गतिविधियाँ क्या हों? भावी जीवन की प्लानिंग क्या हो? जिस तरीके से पंचवर्षीय योजनाएँ बनती हैं, आप अपनी बची हुई जिंदगी के लिए पंचवर्षीय योजना या बाकी जिंदगी की योजना पंचशीलों द्वारा बनाकर के ले जाएँ तो हमारा यह शिविर सार्थक हो जाएगा और हमारा वानप्रस्थ जीवन धन्य हो जाएगा। अगर आपके मन में ऐसी स्कीम या योजना उठ सके, तब? क्योंकि यह एक विशेष समय है और आप विशेष उद्देश्य और विशेष जिम्मेदारी लेकर के आए हैं। अगर आप इसको पूरा कर सकते हों तो करना; विचार कर सकते हों, तो विचारना; सोच सकते हों, तो सोचना; तैयारी कर सकते हों, तो करना; हिम्मत इकट्ठी कर सकते हों, तो करना। हमारी एक ही प्रार्थना है कि कदाचित् आपकी समझ में आ जाए तो करना, न समझ में आए तो आपकी मरजी की बात है।
(क्रमशः)
पहले आप पढ़ चुके हैं कि यह युग-परिवर्तन का विषम समय है। विज्ञान की प्रगति के साथ विकास का क्रम भी तेजी से बढ़ रहा है। मनुष्य गुणवत्ता की दृष्टि से घटिया हो गया है। परस्पर शंका और अविश्वास के वातावरण में जी रहे हैं सब। संतानोत्पादन पर नियंत्रण के अभाव के कारण विश्व की आबादी बढ़ती चली जा रही है। जब रावण ने आतंक फैलाया तो देवी-देवताओं के साथ भगवान राम आए। श्रीकृष्ण, बुद्ध और गाँधी के साथ भी ऐसा हुआ। अभी भी ऐसा ही विशेष समय है। हमें नर-पशु जैसा जीवन न जीकर जीवन को धन्य बनाने के विषय में सोचना चाहिए। जिंदगी बेहतरीन कामों में लगनी चाहिए। सच्चे अध्यात्म को जीवन में उतारना चाहिए। इसके लिए कुछ पंचशीलों का पालन अनिवार्य है। अब आगे पढ़ते हैं कि पूज्य गुरुदेव क्या कह रहे हैं—
अपनी जिम्मेदारी समझें
मित्रो! मैंने आपसे यह कहा था कि आपके जिम्मे जो काम सौंपे गए हैं, बड़े काम सौंपे गए हैं। आपके जिम्मे सामान्य काम नहीं सौंपे गए हैं। सामान्य काम मकान बनाने का है। बिल्डिंग बन रही है, मजदूर बना रहे हैं। यह सामान्य काम है। कुआँ खोदने का काम सामान्य काम है। फैक्टरी चलाना सामान्य काम है। लेकिन मनुष्य के दिलों को बदल देना बहुत मुश्किल काम है। शरीर की बीमारियों को ठीक करना कितना मुश्किल होता है, आप डॉक्टरों से पूछिए न? क्यों साहब! यह बड़ा कमजोर आदमी है, इसको मोटा बना दीजिए। कोशिश करेंगे साहब! दवाइयाँ खिलाएँगे, टॉनिक खिलाएँगे, शायद मोटा हो जाए। नहीं साहब! यह बहुत कमजोर रहता है, अच्छा कर दीजिए। कोशिश करेंगे कि अच्छा हो जाए। शरीरों को ठीक करना ही जब मुश्किल होता है। गरीबी को दूर करना ही मुश्किल होता है। आदतों को ठीक करना ही मुश्किल होता है। फिर आदमी के ईमान को बदल देना कितना मुश्किल काम है। सौ में से एक-दो आदमी भी नहीं बदल पाते हैं। आप यह प्रतिज्ञा करते हैं कि हम लाखों आदमियों के ईमान में, दृष्टिकोण में और चिंतन में हेर-फेर पैदा करेंगे। यह कितना कठिन और मुश्किल काम है। आप समझते नहीं क्या? आप अपने काम को समझिए।
मित्रो! इस काम को करने के लिए अगर आपको खिलवाड़ करनी हो, मजाक बनाना हो, विडंबना करनी हो, तो मैं कुछ नहीं कह सकता। इस संबंध में जो कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व आपने अपने कंधों पर ओढ़ने की कोशिश की है, अगर आप उसके प्रति ईमानदार हैं और आप उसके वजन को समझते हैं तो आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि इतना बड़ा काम एक दुस्साहस के बराबर है। इस दुस्साहस के लिए आपको अपने भीतर कुछ नई चीजें पैदा करनी चाहिए। पानी के ट्यूबवेल लगाने वाले और बोरिंग करने वाले जानते हैं कि जो भारी चट्टानें जमीन में से निकलती हैं, उनमें सूराख कैसे किया जाता है और चट्टानों को कैसे पार किया जाता है। उनके जो बरमे होते हैं, ड्रिल मशीनें होती हैं, उनकी नोक पर डायमंड लगा होता है। डायमंड—हीरा में यह ताकत है कि वह लोहे में और दूसरी चीजों में, पत्थर और चट्टान में सूराख करता हुआ चला जाता है। डायमंड की नोक न हो तो? लोहे की लगा दें तब? तब बेटे! वह मुड़ जाएगी। चट्टान में सूराख हो जाएगा? नहीं बेटे! नहीं होगा। लोहे की नोक मुड़ जाएगी, मारी जाएगी। मशीन भी बेकार हो जाएगी और नोक भी बेकार हो जाएगी। पत्थर में सूराख भी नहीं हो सकेगा।
आप मजबूत मनोबलसंपन्न बनें
साथियो! आपको अपने स्वयं की बाबत, अपने संबंध में कुछ ऐसी मजबूती पैदा करनी चाहिए, जो दूसरे लोगों के मुकाबले में ज्यादा अच्छी हो और दूसरे लोगों की अपेक्षा आप ज्यादा मनोबलसंपन्न हों। आप दूसरे लोगों की अपेक्षा ज्यादा चरित्रवान हों। आप दूसरे लोगों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत आदमी हों। अगर आप मजबूत आदमी हैं तो मैं विश्वाास करूँगा कि आप चट्टानों में सूराख कर सकते हैं। अगर आप दूसरे आदमियों के मुकाबले में मजबूत आदमी नहीं हैं तो आपके लिए मुश्किल पड़ेगी। आप चट्टानों में सूराख नहीं कर पाएँगे। आप असफलता का रोना रोते रहेंगे। शाखा बंद हो गई साहब! कोई सुनता ही नहीं। सब बेकार आदमी हैं। हाँ बेटे! ये चट्टानें थीं। हमने तुझे भेजा था कि इनमें सूराख कर देना। तूने सूराख किया? नहीं साहब! नहीं किया। वे सब बड़े खराब हैं। हाँ बेटे! तेरा कहना बिलकुल सही है। वे सब बड़े खराब हैं, जिनके तू नाम गिना रहा है। लेकिन तू कैसा है? साहब! मैं तो बड़ा अच्छा हूँ। चुप, दुष्ट कहीं का! तू अच्छा रहा होता तो कितनों को पार कर दिया होता और कितनी ही चट्टानों में सूराख कर दिया होता।
मित्रो! क्राइस्ट अकेले ही आए थे और सारी दुनिया के सौ करोड़ आदमी ईसाई धर्म में दीक्षित हो गए थे। बुद्ध अकेले आए थे। बुद्ध के साथ कितने आदमी थे? अकेले थे। अकेले बुद्ध ने सारी दुनिया की फिजा बदल कर रख दी थी। सात ऋषि आए थे और सातों ऋषियों ने सात द्वीपों को कंट्रोल किया था। तू कैसा है? नहीं साहब! मेरी कोई नहीं सुनता। तेरी कोई नहीं सुनता है, तो अपना मुँह शीशे में देखकर आ। अमुक बहुत अच्छा है और अमुक बड़ा खराब है। दुनिया भर की रामकहानी कहता है और अपनी बाबत कुछ नहीं कहता। नहीं साहब! हम तो बहुत अच्छे हैं। बेटे! अगर तू अच्छा होता तो तूने हवा बदल दी होती, जमाना बदल दिया होता। मैं अच्छा हूँ-मैं अच्छा हूँ—यह कहकर अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए दूसरे लोगों के ऊपर इलजाम लगाता है। हमको सुनाता है और हमारा समय व दिमाग खराब करता है। खुद तो ठीक होता नहीं है और दूसरों के ऊपर इलजाम लगाता रहता है।
संस्कारों से पूरित हों
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको दूसरों की तुलना में अपने आप को बेहतरीन बनाने के लिए, मजबूत बनाने के लिए कुछ काम करने पड़ेंगे। अपने ऊपर कुछ संस्कार डालने पड़ेंगे। क्या काम करने पड़ेंगे? मैंने अब पंचकोश की साधना कराने, उपासना सिखाने का निश्चय किया है। थोड़े दिन पीछे आप देखेंगे कि इसी शिविर में आपको पंचकोशों की उपासना के बारे में, वानप्रस्थ की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को सिखा देने के बाद में पंचकोशों की उपासना की बाबत सिखाऊँगा। गायत्री के पाँच मुख होते हैं और हमारे शरीर के भीतर पाँच कोश हैं—अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश। इन कोशों को जाग्रत करने के लिए मैं उपासना सिखाऊँगा। मेरे गुरु ने मुझे ज्ञान भी दिया है, शिक्षा भी दी है, साधन भी दिए हैं और अक्ल भी दी है, लेकिन सबसे ज्यादा कीमती चीज, जो मुझे उन्होंने दी है, वह है मेरा रूहानी बल, आत्मबल। उन्होंने हमें आत्मबल दिया है। आत्मबल को विकसित करने के लिए हमको अपने भीतर के पाँच तत्त्व और पाँच प्राण—इन दोनों को परिष्कृत करना पड़ेगा।
पंचतत्त्व, पंचप्राण ब्रह्मवर्चस
पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर बना हुआ है। इसकी मिट्टी ऐसी वाहियात है कि बस, बालू के तरीके से बिखर जाती है। बेहतरीन मिट्टी के, चिकनी मिट्टी के हम बनें तो हमारा खिलौना टिकाऊ बना रह सकता है, परंतु यह बालू का बना है, जो टूटता है, बिखर जाता है। हमारे पाँच तत्त्वों को उत्कृष्ट बनाने के लिए पंचकोशों की उपासना करना आवश्यक है। जिसको हम चेतना कहते हैं, वह हमारे पाँच प्राणों से जुड़ी हुई है। हमारे पाँच प्राण हैं—प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। ये जो हमारे पाँच प्राण हैं, इनको भी पाँच तत्त्वों के तरीके से बेहतरीन और मजबूत होना चाहिए। हमारी चेतना मजबूत, हमारा बहिरंग मजबूत, हमारा अंतरंग मजबूत हो, इसके लिए हमको क्या करना चाहिए? साधना करनी चाहिए, उपासना करनी चाहिए। उपासना के लिए मैं ब्रह्मवर्चस बना रहा हूँ और कोशिश करूँगा कि आप लोग यहाँ हमारे पास रहकर उपासना करें। कुछ साधनाएँ ऐसी हैं कि कुछ लोगों को मैं घर रहकर बता सकता हूँ। आपको जप और ध्यान की बाबत, सोऽहम् की उपासना की बाबत, खेचरी मुद्रा का संपुट लगाने की बाबत मैंने पहले बता भी दिया है पिछले वर्ष। आप अपनी इस उपासना को अपने घर पर जारी रखिए। यह बहुत अच्छी उपासना है।
ठीक है, पहले इस उपासना में पैंतालीस मिनट का बंधन था, वह हमने निकाल दिया। इसे सवेरे सूर्योदय के पहले करना चाहिए, इस बंधन को भी निकाल दिया। अब आप किसी भी समय इस उपासना को कर सकते हैं और कितने भी समय तक कर सकते हैं। अब पैंतालीस मिनट का कोई बंधन नहीं है। पंद्रह मिनट कर लीजिए, चाहे दो घंटे कीजिए। वे सारी उपासनाएँ आपके लिए खुली हुई हैं। अब यहाँ जो ब्रह्मवर्चस बनेगा, यहाँ आ करके आप उपासना करना। अपने सामने मैं यह उपासना कराऊँगा। जैसे मेरे गुरुदेव हमें बुलाते रहे हैं। महत्त्वपूर्ण उपासना करने का जब भी वक्त आया है, उन्होंने मुझे अपने नजदीक बुलाया है, पास बुलाया है। अपने संरक्षण में मुझे रखा है और अपनी छाती से लगा करके रखा है और वहीं उपासनाएँ संपन्न कराई हैं। ब्रह्मवर्चस साधना के लिए मैं अभी से आपको निमंत्रण देता हूँ कि आप ज्यादा समय के लिए—कम से कम एक-दो महीने का समय निकालना और मेरे पास रहना। वह उपासना मैं अपने सामने कराऊँगा। बात पीछे की है, लेकिन उसकी जमीन को बनाने के लिए आपको अभी से तैयारी करनी चाहिए। बीज बोना बहुत आवश्यक है, लेकिन जमीन बनाना उससे भी ज्यादा आवश्यक है। फैक्टरियों में मशीनें बनाई जाती हैं, लगाई जाती हैं, कारीगर बुलाए जाते हैं, बिजली लगाई जाती है, पर सबसे पहले जमीन खरीदी जाती है। नहीं साहब! जमीन मत खरीदिए, पहले मशीन लगा दीजिए। कहाँ लगा दें? कहीं भी लगा दीजिए। नहीं बेटे! मशीन जमीन पर लगती है। पहले तू फैक्टरी का इंतजाम कर, जमीन खरीद, घेरा बना, शेड बना। फिर देख हम तेरे लिए मशीन लगवाएँगे, कारीगर बुलाएँगे, मिस्त्री बुलाएँगे, रॉ मैटेरियल बुलाएँगे और तेरी फैक्टरी चलाएँगे। नहीं महाराज जी! कहीं भी लगवा दीजिए। बेटे! जमीन तेरे पास है नहीं, फिर मशीन लगाना बेकार है। फिर तेरे कारखाने की स्कीम बेकार है। पहले जमीन तैयार कर।
पंचशीलों की तैयारी
मित्रो! हमारी आध्यात्मिकता के पंचशील ऐसे हैं, जिनकी आप पहले से तैयारी करके रखिए। जमीन बनाइए। बगीचा लगाने से पहले और खेत बनाने से पहले जमीन को तैयार कीजिए। गुड़ाई कीजिए, निराई कीजिए, हल चलाइए, खाद दीजिए, पानी दीजिए। जब जमीन बिलकुल तैयार हो जाए, तब आप कहना कि बीज बो लें। अरे साहब! आप तो बेकार की बात करते हैं। खाद क्या लगाना! पानी क्या लगाना! जुताई, निराई-गुड़ाई क्या करना! अंधाधुंध बीज बो दीजिए। अरे बेटे! अंधाधुंध कैसे बीज बो दें, जमीन तो ऐसी कड़ी हो रही है—जैसे पत्थर। ऐसी स्थिति में हल तो नीचे नहीं घुसेगा, जमीन पर ही रहेगा। जड़ें नहीं फैली तो तेरा बीज और मारा जाएगा। अरे साहब! आप तो बेकार की बहस करते हैं। आप तो बीज बो ही दीजिए। आप तो पहले कुंडलिनी सिखा दीजिए।
मित्रो! आप तो कुंडलिनी पहले सीखना चाहते हैं। पंचकोश की साधना पहले ही सीखना चाहते हैं। जप करना पहले ही सीखना चाहते हैं। ध्यान करना पहले ही सीखना चाहते हैं। गुरुजी! हमें एम० ए० करना है। पहले एम० ए० पास करा दीजिए, फिर बी० ए० करूँगा। फिर क्या करेगा? फिर मैट्रिक करूँगा, फिर जूनियर हाई स्कूल करूँगा और फिर प्राइमरी स्कूल करूँगा और फिर उसके बाद ए० बी० सी० डी० पढ़ना सीखूँगा। बेटा! पहले ए० बी० सी० डी० कर ले। उसके बाद पाँचवीं पास कर ले। फिर जूनियर हाईस्कूल कर ले। फिर मैट्रिक पास कर ले। फिर बी० ए० करना। इसके बाद एम०ए० कर ले। तो क्या हर्ज है। नहीं महाराज जी! आप गलत कहते हैं, और आपका कहना मैं नहीं मानूँगा। आप तो पुराने जमाने के आदमी हैं। नई बात सुनिए, प्रगतिशीलता की बात सुनिए। पहले एम० ए० कराइए। पहले कुंडलिनी जगाइए, पंचकोश जगाइए। पहले शक्तिपात कीजिए। तेरा सिर करें, मूर्ख कहीं का! यह कैसे हो सकता है! पहले नहीं हो सकता। पहले रास्ते पर चलना पड़ेगा, कायदे से चलना पड़ेगा। नहीं साहब! हम तो कायदे से नहीं चलेंगे। हम तो छलाँग लगाकर जल्दी से वहाँ पहुँच जाएँगे। बेटे! छलाँग मारने का कोई कायदा न कभी था और न है। यह नेचुरल हाईवे है। यहाँ कोई शॉर्टकट नहीं है। नहीं साहब! आध्यात्मिकता के लिए शॉर्टकट बताइए और छलाँग मारकर पहुँचा दीजिए। नहीं बेटे! हम नहीं पहुँचा सकते। हम तो नेचुरल हाईवे से तुझे पहुँचाएँगे और उसी रास्ते से तुझे चलना पड़ेगा।
पंचकोशी उपासना की पूर्व तैयारी
मित्रो! अपनी मनःस्थिति को, मनोभूमि को परिष्कृत करने के लिए, पंचकोशों की उपासना के लिए जिस तरीके से मैं अगले दिनों की तैयारी कर रहा हूँ, तो उसमें घास पैदा होगी और घास पैदा होने के बाद में उसमें से आपकी गाय के लिए दूध देने का इंतजाम हो जाएगा। घास से भी आपको इतनी आमदनी हो जाएगी कि आप एक गाय पाल सकते हैं, बैल पाल सकते हैं, घोड़ा पाल सकते हैं। ये सब चीजें आप जिस जानवर को खिलाएँगे, वह दूध दे जाएगा। आप खेती न करना चाहते हों तो न करना, घास से ही काम चल जाएगा, अगर आपका खेत जुता हुआ हो, तो।
जमीन साफ करना यानी आत्मशोधन
मित्रो! आपको कुंडलिनी नहीं भी जगानी पड़े, गायत्री का जप नहीं भी करना पड़े, हनुमान चालीसा नहीं भी पढ़ना पड़े, तो भी आपकी जो जमीन ठीक हुई है, उस जमीन पर ही इतनी आमदनी हो सकती है, इतनी उन्नति हो सकती है कि आप नास्तिक होकर भी जिएँ, तो भी आप श्रेष्ठ आदमी हो सकते हैं। तब भी आप कार्ल मार्क्स के तरीके से ऋषि कहे जा सकते हैं। नहीं साहब! अगर हम भजन नहीं करेंगे तो ऋषि कैसे हो जाएँगे। बेटे ! ठीक है, तूने बीज नहीं बोया, लेकिन जमीन तो साफ कर ली। अब तू ऋषि हो जाएगा। अब हम तुझे कार्ल मार्क्स कहेंगे। तू नास्तिक है न? हाँ साहब! मैं नास्तिक हूँ। मैं भगवान को नहीं मानता। तब भी बेटे! हम तुझे ऋषि कहेंगे; क्योंकि तेरा जीवनक्रम इतना शुद्ध, इतना निर्मल, इतना पवित्र, इतना व्यवस्थित है कि जिसमें लोक-मंगल की बात के अलावा कोई और बात है ही नहीं। तू कोई भजन नहीं करता है, तो भी कोई बात नहीं है। तू तो ऐसा ही निर्मल जीवन जी।
इसलिए जमीन को बनाना आवश्यक है। जमीन बनाने की महत्ता पर मैं ज्यादा ध्यान दूँगा और आपको यह कहूँगा कि आप भजन-पूजन के महत्त्व पर इतना ध्यान देने की अपेक्षा अपना सारा ध्यान इस बात पर केंद्रीभूत करें कि हमारा जीवनक्रम इतना ज्यादा संस्कारी, इतना ज्यादा सुयोग्य, इतना ज्यादा सुसंस्कृत, इतना ज्यादा श्रेष्ठ, इतना ज्यादा समुन्नत बन सकता है। अगर आप इस बारे में ध्यान देंगे तो आपकी शक्ति के बारे में कोई ठिकाना नहीं होगा। आपकी शक्ति किसी के रोके नहीं रुकेगी। छोटे-छोटे आदमियों की शक्ति को आपने देखा नहीं था। मीरा एकदम मामूली-सी महिला थी और कबीर एकदम मामूली आदमी थे। रैदास एकदम मामूली आदमी थे। सूरदास एकदम मामूली आदमी थे। तुलसीदास बिलकुल मामूली आदमी थे। समर्थ गुरु रामदास बिलकुल मामूली आदमी थे। ज्ञान की दृष्टि से और औकात की दृष्टि से, परिस्थितियों की दृष्टि से बिलकुल छोटे आदमियों के नाम मैंने आपको गिनाए, लेकिन उनका अंतरंग इतना श्रेष्ठ था कि उसकी वजह से वे जमीन से लेकर के आसमान तक उठते हुए चले गए।
अपनी कुटिया में अकेले रहें
मित्रो! अगर आपको याद करने का मौका मिले तो इन पाँच बातों को अच्छे तरीके से अपने भीतर आप धारण करने-जमाने की कोशिश करें और तैयारी करें। इन्हें पंचशील कहते हैं। जनवरी की 'अखण्ड ज्योति' में 'पंचशील' नाम से मेरा एक लेख गया है—'अपनों से अपनी बात'। उसी का सारांश समझा रहा हूँ। उसको आप फिर से पढ़ें। बार-बार पढ़ें। तब आपकी समझ में आएगा कि गुरुजी ने पाँच शिक्षाएँ ऐसी दी हैं, जो पाँच रत्नों के बराबर हैं। पंचकोशों की जाग्रति के लिए अब मैं मूलभूत आधार कहता हूँ। इनमें से सबसे पहला आधार यह है कि आप अपनी एक अलग दुनिया बना लीजिए और उसी में रहना शुरू कर दीजिए। लोग कायाकल्प के लिए एक अलग झोंपड़ी बनाते हैं, एक कुटिया अलग बनाते हैं। महामना मालवीय जी को एक महात्मा ने कायाकल्प कराया था। मथुरा जिले में 'कोसी' नामक एक जगह है। वहीं पर वे स्वामी जी रहते थे। मालवीय जी से उनकी जान-पहचान थी। उन्होंने कहा कि मैं आपको बुड्ढे से जवान बना दूँगा और आपको चालीस दिन हमारे पास रहना पड़ेगा। मालवीय जी रजामंद हो गए। उन्होंने एक अलग कुटिया बनाई थी, मैं वहाँ गया था। मालवीय जी से मेरा बहुत संपर्क था। उन्होंने जो कुटिया बनाई थी, उसके पाँच-छह चक्कर थे। सबसे भीतर वाली कुटी में मालवीय जी रहते थे। उसी में नहाना-धोना, खाना-पीना, टट्टी-पेशाब आदि सभी क्रियाएँ होती थीं। धूप न लग जाए, इसलिए भीतर रहिए, अकेले रहिए और उसके भीतर कोई नहीं जा सकता था। किसी चीज के लिए कोई जरूरत पड़ती थी, तो वहाँ से खबर करते थे। बाहर से आदमी वह चीज दे जाया करता था, पर वे उस कुटिया में अकेले रहते थे। .
मित्रो! आपको कायाकल्प करने के लिए सबसे पहले अच्छी तैयारी यह करनी चाहिए कि अपनी कुटिया में आप अकेले रहिए। यह बात एक और जगह हिमालय पर गुफाओं में तो मैंने देखी थी। वहाँ भी आदमी अपनी-अपनी कुटिया में, अपनी-अपनी गुफाओं में अकेले रहते थे। यही बात मैंने सूरत में भी देखी। सूरत में एक मोटा (बड़े) महाराज हैं। उन्होंने भी ऐसी कुटियाएँ बना रखी हैं। आने वाले आदमी से पूछते हैं—कितने दिन रहोगे? एक महीने। अच्छा, चलिए एक महीने के लिए इसमें बंद हो जाइए। बाहर से ताला ठोंक देते हैं। किवाड़ में एक जगह सुराख था। उसमें से खाना मिल जाएगा, पानी मिल जाएगा। टट्टी-पेशाब के लिए उसी में फ्लॅश लगा हुआ है, पानी का नल लगा हुआ है। उसी में आप रहिए, बाहर नहीं निकल सकते। जो कुछ कहना है, आप किवाड़ के छेद में से कह दीजिए, चीज आपको मिल जाएगी। चिट्ठी आएगी, तो आपको मिल जाएगी, लेकिन रहिए उसी में।
एकला चलो रे
मित्रो! पहले ऐसी साधना कराई जाती थी। मैं आपको ऐसी कठिन परिस्थितियों में तो नहीं फँसाना चाहता, पर मैं चाहता हूँ कि आपका मन उसी तरीके से कुटिया में कैद हो जाए। आप अकेले रहें। आप अकेलेपन में रहना सीखें और अपनी एक अलग दुनिया बसा लें। अगर आप एक अलग दुनिया बसा लेंगे तो मजा आ जाएगा। इस दुनिया में रहते हुए आप इतनी ताकत और इतना बल इकट्ठा कर पाएँगे कि मैं नहीं जानता कि उससे ज्यादा ताकत और इतना ज्यादा बल कोई और भी दे पाएगा क्या? बेटे! यह अकेलेपन की देन है। सूरज अकेला चलता है, चाँद अकेला चलता है, पृथ्वी अकेली चलती है। जितनी भी महत्त्वपूर्ण सत्ताएँ हैं, सभी अकेली चलती हैं। आप अकेला चलना तो सीखिए। दूसरों पर डिपेंड रहना बंद कीजिए। आप रवींद्रनाथ टैगोर का वह गीत गाया करिए—'एकला चलो रे'। एकला चलो। अकेले चलो। उन्होंने अकेले चलने के लिए कहा है। अकेले चलने के लिए क्या करना पड़ेगा? आपको अपना अकेला संसार अलग बसाना पड़ेगा। उसी में रहिए या अपनी कोठरी अलग बना लीजिए। अपना कमरा अलग बना लीजिए, अपना झोंपड़ा अलग बना लीजिए। उसमें किसी को मत आने दीजिए।
तो फिर उसमें कौन-कौन रहेगा? उसमें देवताओं की स्थापना करके रखिए। देवता आपके साथ-साथ रहें। इसका क्या मतलब है? बेटे! इससे मेरा मतलब यह है कि कोई आदमी सामान्य आदमियों की तरह से ड्रामे के लिए जैसे काम करता है, तो आप भी उसी तरह से कीजिए। डॉक्टर आता है और मरीजों की दवा-दारू करता है। दवा-दारू तो आप कीजिए। दुकानदार आता हैं, डील करता है, तो आप भी डील कीजिए, पर अपना घर अलग रखिए। कैदियों का मकान अलग होता है। कैदी अपने घर की याद रखता है कि मेरी बीबी ऐसी होगी, बच्चे ऐसे होंगे। काम तो वह वहाँ जेलखाने में करता है। आप भी जेलखाने में काम कीजिए, अस्पताल में काम कीजिए, दुकान में काम कीजिए, पर रहिए अलग। जिस जमाने में आप रहते हैं, अगर आपने दूसरे लोगों के साथ घुलना-मिलना शुरू कर दिया और उनको अपना मानना शुरू कर दिया, तो वे आपको बड़ी गलत सलाह देंगे। ऐसी गलत सलाह देंगे कि मैं नहीं जानता कि इससे भी ज्यादा गलत सलाह देने वाला कोई और आदमी भी हो सकता है क्या? हमारा मन इतना घटिया है और हमारे कुसंस्कार इतने घटिया हैं, हमारी समझ इतनी वाहियात है कि जब भी सलाह देगी, ऐसी घटिया सलाह देगी, जिससे हमारा नाश होता हो और जिससे हमारा पतन होता हो।
लौकिक दोस्त रोकेंगे
हमारे दोस्त कौन हैं? हमारे खानदान वाले, कुटुंब वाले, जिनको हम मित्र कहते हैं। आपके वे मित्र सब बातों में ठीक हो सकते हैं। आपके ब्याह-शादी में मदद कर सकते हैं, आपको खाना खिला सकते हैं, आपकी सब बात कर सकते हैं, लेकिन जहाँ तक ऊँचा उठने का सवाल है, वहाँ तक मेरा ऐसा अपना विश्वास है कि कोई भी आपके खानदान वाला, कोई भी आपका मित्र, कोई भी आपका दोस्त, कभी भी भूलकर भी यह सलाह नहीं देगा कि आपको इधर चलना चाहिए। वह आपके लिए हमेशा यही कोशिश करेगा कि आपको त्याग के रास्ते पर से, वैराग्य के रास्ते पर से, समाजसेवा के रास्ते पर से रोके। रोके बिना वे नहीं मानेंगे।
बेटे! हमारी जिंदगी में भी रोकने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी। हमारे कुटुंबियों ने और हमारे मित्रों ने कितनी रुकावट डाली। जिस दिन नमक सत्याग्रह होने वाला था, मैंने निश्चय किया था कि मैं कांग्रेस के वालंटियर के तरीके से काम करूँगा। मेरे सारे के सारे संबंधी, घर वाले इतना ज्यादा खिलाफ थे कि वे किसी भी कीमत पर मुझे मरने-मारने, मुझे हाथ से गँवाने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मेरी चप्पल छीन ली, जूते छीन लिए, कपड़े छीन लिए और यह कहा कि बस, एक बनियान और धोती, जो मैं पहने हुआ था, पहनकर रहो। मुझे घर से बाहर नहीं जाने दिया और मेरे ऊपर चौकीदारी लगा दी, पहरेदारी लगा दी। रात हो गई, तो मैंने कहा कि मुझे टट्टी आना है, मुझे इजाजत दीजिए। बस, कान पर जनेऊ चढ़ाया और धोती एवं बनियान पहने एक हाथ में लोटा लेकर निकल पड़ा—न पैरों में जूता था, न सिर पर टोपी। एक हाथ में लोटा और एक हाथ कान के जनेऊ पर—बस, चल दिया मैं। छह अप्रैल को नमक सत्याग्रह शुरू होने वाला था। पाँच अप्रैल की रात को मैं चल दिया। आगरा शहर हमारे गाँव से बारह मील दूर दक्षिण दिशा में है। पहले मैं सामने उत्तर की ओर चला। उत्तर से फिर पश्चिम में आया। पश्चिम से चक्कर काटता हुआ तमाम रात भर मैंने कोई चालीस मील का चक्कर काटा होगा, ताकि मेरे घर वाले मुझे पकड़ न लें।
मित्रो! टट्टी करने के बहाने घर से चल दिया और वहाँ कांग्रेस कैंप में जा पहुँचा। क्यों साहब! मैं तो कांग्रेस का वालंटियर होने को आया हूँ। तो फिर आपके पास पहनने को तो कुछ भी नहीं है। जूता नहीं है, टोपी नहीं है, कुरता भी नहीं है। हाँ साहब! मेरे पास पहनने को कुछ भी नहीं है और मेरे पीछे-पीछे शायद मेरे घर वाले भी आते हों। वे मुझे रोकेंगे। मुझे कहीं और भेज दीजिए। कांग्रेस वालों ने मुझे एक कुरता दिया, धोती दी, चप्पलें दी और मुझे कहीं दूसरी जगह भेज दिया और मैं वहाँ काम करने के लिए चला गया।
(क्रमश:)
परमपूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक पंचशीलों को अपनाने की चर्चा इस उद्बोधन में कर रहे हैं, जिसकी. दो कड़ियाँ आप पहले पढ़ चुके हैं। युग-परिवर्तन की वेला में हम अपने आप से परिवर्तन आरंभ करें और इस क्रम में वे पाँच बातें कह रहे हैं—
(१) अपना एक संसार बसाइए और अलग रहिए; अलग अर्थात भौतिकता से हटकर। (२) अपनी इच्छाओं को मन कड़ा करके बदल डालिए। (३) कर्मयोगी की तरह से जीएँ। (४) जो चीजें पास हैं, उनका ठीक से इस्तेमाल करें; यथा—समय, श्रम, इंद्रियाँ। (५) जो पास है, उसे अकेले न खाएँ, सारे समाज को बाँटकर प्रयोग करें। यज्ञीय जीवन की वृत्ति विकसित करें।
विगत नवंबर अंक में इनकी पूर्वभूमिका बनाई गई थी एवं बताया था कि किस तरह घर वालों का विरोध सहकर भी युवावस्था में ही वे कांग्रेस के शिविर हेतु घर छोड़कर चले गए एवं फिर स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी बने। इस अंक में आगे के पंचशीलों का विवरण पढ़ें— वे आपको रोकेंगे
मित्रो ! मेरे घर वाले हमेशा मेरे मुखालिफ रहे। अब आ करके दस-पाँच बरस से ऐसा जरूर हुआ है, जब वे कहते हैं कि हम सबकी अपेक्षा आचार्य जी समझदार निकले। उनके मुँह से अब जाकर यह शब्द निकला है, अन्यथा उन्होंने हमें हमेशा गालियाँ सुनाईं, बेवकूफ बताया। कहीं मेरे काम की प्रशंसा नहीं की। मित्रो! आप इस जमाने में जिन लोगों के साथ रहते हैं, वे आपके सिद्धांतों के मामले में, आदर्शों के मामले में कभी सहायता नहीं कर सकते और कभी कोई सलाह-मशविरा नहीं दे सकते। वे हमेशा आपको रोकेंगे। आपको जो रोकने वाले हैं, उनसे आप लड़ें, गालियाँ दें, ऐसा तो मैं नहीं कहता, उनसे झगड़ा-टंटा करें, यह भी मैं नहीं कहता, क्योंकि उनकी अपनी परिस्थितियाँ हैं, उनका अपना मन है और उनके अपने संस्कार हैं। जिस घर में पैदा हुए हैं, जिस परंपरा में पले हैं, उस हिसाब से ही उन्हें सलाह देनी चाहिए, पर वे दया के पात्र हैं, क्षमा के पात्र हैं। मैं आपसे कहूँगा कि आप उनकी सेवा जरूर करें, पर उनसे प्रभावित न हों। उनका दबाव स्वीकार न करें।
आप यह मानकर चलें कि ये हमारे नहीं हैं, हमारे जिम्मे सौंपे जरूर गए हैं। हमारी बीबी हमारे जिम्मे सौंपी गई है। हमारे बच्चे हमारे जिम्मे सौंपे गए हैं। भाई हमारे जिम्मे सौंपे गए हैं और माता-पिता हमारे जिम्मे सौंपे गए हैं। इन सबकी हम सेवा-सहायता करेंगे और पूरी जिम्मेदारी निभाएँगे; लेकिन आपने इनका दबाव स्वीकार कर लिया तो? तो फिर समझ लीजिए कि सिद्धांतवाद के रास्ते पर आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। इस मामले में गोस्वामी तुलसीदास जी का और मीराबाई का दृष्टिकोण बिलकुल साफ है। मीराबाई ने गोस्वामी तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा कि हमारे खानदान वाले और हमारे घर वाले इतनी ज्यादा रुकावटें लगाते हैं कि कभी प्यार से कहते हैं, तो कभी नाराजगी से कहते हैं। कभी धमकाते हैं, कभी रूठ जाते हैं और हमको सिद्धांत के रास्ते पर नहीं चलने देना चाहते। अब आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए?
गोसाईं जी का मीराबाई को उत्तर
गोस्वामी तुलसीदास जी ने उसके उत्तर में मीराबाई के लिए एक कविता लिखी थी। वह अब बहुत प्रख्यात हो गई है। उस कविता को मैं बहुत पसंद करता हूँ। कभी मन आता है तो गाया करता हूँ, कभी गुनगुनाया करता हूँ। उस कविता में उन्होंने कहा है—
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरुतज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
'मित्रो! इतना साहस अगर आपके पास हो तो आप यह ख्याल कर सकते हैं कि हम सिद्धांतों की राह पर लंबी मंजिल पूरी कर सकते हैं, अन्यथा उमंग आएगी, जोश आएगा, एक महीने नेतागीरी करेंगे, दूसरे महीने में वानप्रस्थ हो जाएँगे। तीसरे महीने में सारा जोश ठंढा हो जाएगा। बाप गाली देगा, बीबी मायके चली जाएगी। फिर आप कहेंगे कि हमें तो बड़ा घाटा हुआ, बड़ा झगड़ा पड़ा। गुरुजी ने हमको कोई सहायता भी नहीं दी। गुरुजी ने हमारी स्त्री को भी नहीं समझाया और हमारे बाप को भी नहीं समझाया। बेटे! न तो मैं तेरे बाप को समझा सकता हूँ और न तेरी औरत को समझा सकता हूँ। वे जहाँ के तहाँ रहेंगे। तेरे अपने पाँव मजबूत हों तो तू अपने रास्ते पर चल। अपनी एक अलग दुनिया बसा ले और अपनी दुनिया में ऐसे सलाहकार मुकर्रर कर ले, जो हमेशा नेक सलाह देने के लिए तैयार हों। क्यों साहब! कोई और सलाहकार बना लें तो? हाँ बेटे! बना ले, परंत ये बड़े निकम्मे हैं और ये तेरे सलाहकार नहीं हो सकते। ऊँचा उठने के लिए कोई दूसरे सलाहकार काम दे सकते हैं।
अपने सलाहकार स्वयं बनाएँ
वे कौन से सलाहकार हैं? बेटे! हमने ऐसे ही सलाहकार मुकर्रर कर रखे हैं और अकेले ही कमरे में रहते हैं। तो आप अकले ही रहते हैं? बेटे! हम अकेले नहीं रहते, हमारे साथ में बहुत से आदमी रहते हैं। कौन-कौन रहते हैं? चलिए मैं आपको उनके नाम गिनाता हूँ। सातों ऋषियों को मैंने अपना सेक्रेटरी बना रखा है। सात ऋषि हमारे कमरे में बैठे रहते हैं। महाराज जी! वे कहाँ बैठे रहते हैं? वहाँ तो कलम-दवात रखी रहती है। हाँ बेटे ! कलम-दवात तो रखी रहती है, पर वे मेरे दिमाग में बैठे रहते हैं। जब कभी भी मुझे सलाह लेनी होती है तो मैं अपने खानदान वालों को चिट्ठी डालकर सलाह नहीं माँगता और वकील साहब से भी नहीं पूछता। फिर मैं किससे पूछता हूँ? फिर मैं उन लोगों से पूछता हूँ, जिन्होंने मेरे दिमाग में, दिल में और मेरे कमरे में अड्डा जमा रखा है। बेटे! वह मिट्टी की दुनिया नहीं है। असल में वह ख्वाबों की दुनिया है। ख्वाबों की दुनिया में वे मेरे पास एकांत में बैठे रहते हैं। मेरे पास रामकृष्ण परमहंस बैठे रहते हैं। जब कभी मन आता है, तो समर्थ गुरु रामदास आ जाते हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य आ जाते हैं। भगवान बुद्ध आकर बगल में बैठ जाते हैं और कहते हैं कि कहिए साहब! क्या मामला है? अरे साहब! सब पागल आ गए हैं। अब देखिए, मस्ती के जमाने हैं। क्यों साहब! आपके जमाने में क्या हुआ था घर वालों के बारे में? बुद्ध भगवान बताना।
हमारी दीवानों की मंडली
अरे साहब! हम क्या बताएँ—बीबी चलने नहीं देती थी, बच्चा चलने नहीं देता था। एक दिन हमने देखा कि वे सब सो रहे हैं, सो चुपचाप रात के बारह बजे चल दिए। अच्छा, समर्थ गुरु रामदास! आपने भी यही किया था? अपना किस्सा सुनाइए! हमारी ब्याह-शादी हो रही थी। पंडित जी ने कहा—"लड़के-लड़की सावधान!" हमने समझा कि दाल में कुछ काला है। अतः हम मुकुट छोड़कर भाग लिए। आहाऽऽ! अच्छा, तो यह मामला है। अच्छा साहब! शंकराचार्य जी! आपका क्या मामला है? अरे साहब! हमारी मम्मी जान के पीछे हाथ धोकर पड़ी थी। कहती थी कि बेटे का ब्याह करूँगी। बेटे के पोता पैदा करूँगी। पोते के पोता पैदा करूँगी—यही प्राण खाए जा रही थी मम्मी। मम्मी की अक्ल को कैसे ठिकाने लगाया जाए? शंकराचार्य जी ने कहा कि हम तो पानी में जा बैठे और कहा—"अरे मगर खा गया! मगर खा गया!!" तो मम्मी रोने लगी। हमने कहा—"देख बाबा! अगर तू मुझे शंकर जी को दान कर दे, तो मैं बच जाऊँगा, नहीं तो बचूँगा नहीं। मगर खा जाएगा मुझे।" "अच्छा बाबा! शंकर जी को दे दूँगी।" "बस, छलाँग मारकर बाहर आ गया। अच्छा साहब! मिलाइए हाथ। यह दीवानों की मंडली है।"
घटिया लोगों से बचें
मित्रो! हमारा यह दीवानखाना है, जो हमेशा चलता रहता है। हम दीवानों की मंडली से बात करते रहते हैं। दोस्त आते रहते हैं। साहब! चाय पिलाइए। आप तो कॉफी पी लीजिए। बुद्ध भगवान आइए। आप भी एक कप कॉफी पीजिए। काहे की कॉफी है? बेटे! ऐसे ही ख्वाबों की कॉफी है। हनुमान जी को आप अपना सलाहकार मुकर्रर कर लें। फिर ये घटिया आदमी, निकम्मे आदमी, जो वासना की दृष्टि से बहकाते रहते हैं, सब्जबाग दिखाते रहते हैं। क्यों साहब! हनुमान जी। सच बताइए कि क्या मामला है? आप तो बहुत होशियार आदमी हैं। अरे साहब! देखिए हमने अपनी जवानी काट डाली। हमने शादी-ब्याह भी नहीं किया।शादी-ब्याह करके क्या करना! अगर हम शादी-ब्याह करते तो बीबी क्या रामचंद्र जी की सेवा करने देती? फिर वह कहती कि रामचंद्र जी से तनख्वाह लाइए, बोनस लाइए, प्रॉवीडेंट फंड लाइए। नंबर दो की कमाई लाइए। और फिर रामचंद्र जी कहते—'चल बे, चुऽऽप, मक्कार कहीं का!' फिर हनुमान जी हो पाते? नहीं, फिर हनुमान-हनुमान नहीं हो पाते। अच्छा साहब! भीष्म पितामह जी! जरा आप बताइए, यह क्या चक्कर है? सारे खानदान वाले अटके हुए हैं कि आपको तो ब्याह करना चाहिए। इन खानदान वालों की बात माने कि नहीं माने? भीष्म पितामह जी! आप समझदार आदमी मालूम पड़ते हैं। आप ही गवाही दीजिए। अरे आचार्य जी। आप किस झगड़े में पड़ते हैं—देखिए, हमने तो ब्याह नहीं किया और देखिए, हम तो शरशय्या के ऊपर सोते रहे और छह महीने तक अपनी मरजी से मौत को चैलेंज किया था—ब्रह्मचारी होने की वजह से। ठीक है, आइए, हाथ मिलाइए। भीष्म पितामह, हनुमान जी जैसे श्रेष्ठ आदमियों की मंडली बैठी हुई है। उसी की सलाह हम लेते हैं और परामर्श लेते हैं और ये जो घटिया आदमी हैं, उनसे दूर रहते हैं।
कायाकल्प की फैक्टरी
मित्रो! श्रेष्ठ आदमी, श्रेष्ठ सलाहकार एक तरह की भट्ठी हैं। फैक्टरी की भट्ठी में शीशा पिघल जाता है, लोहा पिघल जाता है। पिघल जाने के बाद में उसे नए रूप में ढाल दिया जाता है। नए रूप में ढलने के बाद में हमारे पास आ जाता है और फैक्टरी वाले को अपना पैसा मिल जाता है। पुराने टायर घिस जाते हैं। हम उसे फैक्टरी में ले जाते हैं, फिर वह उसे ढाल देता है और हम नया टायर ले आते हैं। बराबर ऐसे ही करते रहते हैं। आप अपनी मनःस्थिति को, जो घिस गई है, एक बार फैक्टरी वाले के पास ले जाइए। गला दीजिए और गला करके फिर नया टायर ढाल दीजिए। तो क्या हो जाएगा? कायाकल्प हो जाएगा। आपका क्या मतलब है? बेटे! इसका मतलब यह है कि अभी तक हमारी प्रेरणा का केंद्र बहुत ही छोटा और घटिया रहा है। अब आप इसको बदल दीजिए। अपनी मनःस्थिति को बदल दीजिए। अपनी इच्छाओं को बदल दीजिए।
आदमी की चाभी
मित्रो! मैंने एक दिन आपको बताया था कि हमारी इच्छाओं में ताकत है। आदमी की ताकत कुछ और नहीं, उसकी इच्छा है। कहा भी गया है—"श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः (गीता-१७/३)।" आदमी के जो नतीजे हैं, आदमी की जो निष्ठाएँ हैं, आदमी का जो विश्वास है, आदमी की जो इच्छाएँ हैं, बस वह वही है। इसके अतिरिक्त आदमी और कुछ नहीं है। सारी की सारी मशीनें इसी सिद्धांत पर काम करती हैं। चाभी वाले खिलौने में हम चाभी भर देते हैं और वह कभी उछलता है, कभी नाचता है। कभी रेल के पहिए पर चलता है। दुनिया भर के सब काम करता है। उसकी चाभी सब काम कराती रहती है। आदमी की चाभी उसकी इच्छाएँ, उसकी विचारणाएँ, उसकी भावनाएँ, उसकी निष्ठाएँ, उसके संकल्प हैं। अक्ल उसी का नाम है। क्रिया भी इसी का नाम है। अक्ल का कुछ भी दोष नहीं है और न ही क्रिया का दोष है। वे तो मिट्टी के हैं। असल में जो हमारी इच्छाएँ हैं, अब तक वे तीन चीजों पर निर्भर रही हैं। मैं आपसे प्रार्थना करूँगा कि आप इन तीनों चीजों को घटिया मानिए, छोटी मानिए, निकृष्ट मानिए, गिराने वाली मानिए। इनके स्थान पर दूसरी इच्छाओं की स्थापना कर लीजिए।
तीन एषणाएँ
मित्रो! हर एक आदमी की इच्छा यह है कि हमारे शरीर को वासनाओं की पूर्ति करने का मौका मिले। सजावट भी इसी में आती है; काम-वासना भी इसी में आती है; जीभ का चटोरापन भी इसी में आता है। हरामखोरी एवं आलस्य भी इसी में आते हैं। हमारे शरीर को आराम मिलना चाहिए। इसका नाम क्या है? वासना। दूसरी इच्छा है—तृष्णा की पूर्ति। तृष्णा का अर्थ यह है कि आदमी के पास ज्यादा से ज्यादा चीजें जमा हों—पैसा ज्यादा हो, रुपया ज्यादा हो, मकान ज्यादा हो। ये दो चीजें हो गईं। तीसरी चीज है—अहंकार। वासना एक, तृष्णा दो और अहंकार तीन। अहंकार-घमंड अर्थात हम बड़े आदमी हो जाएँ, हम सेठ हो जाएँ। हम सिनेमा में बैठेंगे, कहाँ बैठेंगे? हम तो बालकनी में बैठेंगे, गैलरी में बैठेंगे। अरे बेटे! यहाँ बैठ जाएगा तो क्या हर्ज है, यहाँ भी दिखाई पड़ेगा। अरे साहब! यहाँ सवा दो रुपये का टिकट है और वहाँ बारह रुपये का टिकट है। बेटे! वहाँ बारह रुपये में क्या बात है और यहाँ सवा दो रुपये में क्या बात है? अरे साहब! वहाँ सब आदमी देखेंगे, तो कहेंगे कि कोई साहब बैठा हुआ है। कोई बड़ा आदमी बैठा हुआ है और यहाँ बैठ जाएगा तो? यहाँ बैठ जाऊँगा तो समझेंगे कि कोई मास्टर बैठा हुआ है। लेकिन सिनेमा तो तुझे दीख जाएगा न? हाँ साहब! दीख तो जाएगा, पर मैं सवा दो रुपये में नहीं बैठूँगा। बारह रुपये में ही बैठूँगा।
मित्रो! यह क्या मामला है? 'अहं' है, जिसके मारे तना जा रहा है, ऐंठा जा रहा है, मरा जा रहा है, सड़ा ही जा रहा है, घुला ही जा रहा है। काहे के मारे? 'अहं' के मारे। 'अहं' के मारे सारा पैसा इसी लग्जरी में, लिविंग स्टैंडर्ड में फूँकता जा रहा है। अरे अभागे! तू जानता है कि 'लिविंग स्टैंडर्ड' किसको कहते हैं? जीवन यापन करने की पद्धति को 'लिविंग स्टैंडर्ड' कहते हैं। नहीं साहब! 'लिविंग स्टैंडर्ड' बड़े आदमी का स्टैंडर्ड है। बड़ा आदमी बनने चला है मिट्टी का धूर्त। स्टैंडर्ड की चिंता है। लेकिन कल-परसों की चिंता नहीं है, जब कल-परसों वहाँ धूल में पड़ा हुआ दिखाई देगा और तुझे हवा लात मार के, उड़ा करके बाहर फेंक देगी। बड़ा आया नवाब!
अहं को परिष्कृत कर दें
मित्रो! इन्हीं तीन विडंबनाओं में, तीन मूर्खताओं में, तीन बेअक्लियों, तीन बेवकूफियों में सारी की सारी हमारी जीवन की सत्ता का सत्यानाश हो गया और हम चौपट हो गए। बेटे! अब क्या करना पड़ेगा? अब हमें इसको बदल देना चाहिए। अपना 'अहं' सुपर ईगो में परिष्कृत कर देना चाहिए। हमारा जो 'अहं' है, हमारी जो इज्जत है, वह नहीं होनी चाहिए, जो पैसे पर 'डिपेंड' करती है। हमारी इज्जत हमारे गुणों के ऊपर, हमारे कर्म के ऊपर, हमारे स्वभाव के ऊपर, हमारे चरित्र के ऊपर डिपेंड करनी चाहिए। हम दूसरों की तुलना में श्रेष्ठ हों। दूसरे आदमी पैसे के पीछे ईमान बेचते हैं, हम नहीं बेचते। अरे साहब! आप तो गरीब आदमी हैं? हाँ, हम गरीब हैं, लेकिन तुझ जैसे घटिया नहीं हैं, जो दो पैसे में ईमान बेचता फिरता है। हम अपनी जगह पर टिके हुए हैं। हम गरीब हैं, तो क्या हुआ, तुझसे लाख गुने अच्छे हैं।
अपनी कीमत बढ़ाएँ
मित्रो! हमारी यह इज्जत, जो मन के भीतर शालीनता से आए, इसको मैं क्या कहता हूँ? इसको मैं आत्मपरिष्कार कहता हूँ। आत्मसम्मान कहता हूँ। मैं अहंकार के खिलाफ हूँ, लेकिन आत्मसम्मान के लिए हरेक से कहता हूँ कि आपका आत्मसम्मान बना रहना चाहिए। आपके उद्देश्य, आपके जीवन का लक्ष्य, आपकी आकांक्षा इस संबंध में जितनी ज्यादा बढ़ सके, आप इस संबंध में दूसरों की तुलना में जितने ज्यादा महत्त्वाकांक्षी हो सकते हों, उतने ही श्रेष्ठ हैं। ईमान की दृष्टि से, आदर्शों की दृष्टि से, लोकसेवा की दृष्टि से, चरित्र की दृष्टि से, गुणों की दृष्टि से, कर्म और स्वभाव की दृष्टि से दूसरों की तुलना में आप जितने अधिक आगे बढ़ सकते हैं, उतने ही आप श्रेष्ठ हैं। इस श्रेष्ठता को बढ़ाने के लिए आप आत्मपरिष्कार की महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाइए, और अधिक बढ़ाइए। अपने कामों में 'सुपरिऑरिटि' पैदा करने के लिए आप अपनी महत्त्वाकांक्षा बढ़ाइए। जो भी आपका काम हो, जो आपके लिए ऐसी गवाही दे कि जिस आदमी ने यह काम किया है-बड़ी दयानतदारी से, बड़ी ईमानदारी से, बड़ी जिम्मेदारी से और बड़ी जाफदानी से काम किया है। आपका काम जरा सा हो, झाडूँ लगाने वाला काम हो, कोई भी काम हो, जो भी काम आप करते हों, ऐसे बढ़िया तरीके से कीजिए जिससे खुशी पैदा हो। आपका काम भगवान की पूजा जैसा हो। देखने वाला चिल्ला-चिल्लाकर यह कहे कि यह काम किसी ऐसे आदमी ने किया है या स्वयं आपका कार्य ही यह कहे कि किसी ऐसे आदमी ने मुझे किया है कि उसने अपनी सारी की सारी अक्ल, सारी की सारी समझदारी मुझमें झोंक दी है।
नामाकूल ना बनें
लोग काम करते तो हैं, पर नींद में पड़े हुए आदमी के तरीके से, आलसी के तरीके से, प्रमादी के तरीके से, गैरजिम्मेदार आदमी के तरीके से, लेकिन यह भी कोई काम करने का तरीका हुआ! हर काम यह गवाही देता है कि किसी निकम्मे आदमी ने मुझे किया है। हर किताब यही गवाही देती है कि किसी वाहियात आदमी की मैं नौकरानी हूँ। हर कपड़ा यह गवाही देता है कि किसी फूहड़ ने मुझे पहन रखा था। हर बिस्तर यह गवाही देता है, हर पलंग यह गवाही देता है कि इस पर सोने वाला सोता तो है, पर है बड़ा निकम्मा आदमी। कौन गवाही देता है? आपका तकिया देता है। कैसे देता है? तकिये को नाक से लगाकर सूधिए। धत् तेरे की! सारे सिर के बाल, सारा सिर का तेल चिपक-चिपक कर ऐसे हो गया है, जैसे कि टिकट पर गोंद लगाते हैं। तकिया यह गवाही दे रहा है कि जो कोई भी मुझे सिरहाने लगाता है, वह बड़ा बेअक्ल आदमी है; बड़ा बेसमझ आदमी है; बड़ा नामाकूल आदमी है।
हर व्यक्ति आपकी गवाही दे
मित्रो! हमारा प्रत्येक कृत्य और हमारे प्रत्येक संपर्क का व्यक्ति हमारी गवाही दे, साक्षी दे कि हम जिसके संपर्क में हैं, वह कोई शानदार आदमी है, इज्जतदार आदमी है, बकतवाला आदमी है, श्रेष्ठ आदमी है, शालीन आदमी है। मित्रो! अपनी महत्त्वाकांक्षा बढ़ाइए कि आपकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक संपर्क का व्यक्ति आपके बारे में ख्याल करे कि मैं किसी अच्छे आदमी के संपर्क में आया। आपकी बीबी अपने भाग्य को सराहती हुई यह कहती पाई जाए कि मैं किसी गरीब घर में तो गई, मकान मेरा किराये का था, पर मैं किसी ऐसे शरीफ आदमी के साथ गई, ऐसे सज्जन आदमी के साथ गई कि शादी के दिन से लेकर आज तक बुड्ढी हो गई, पर क्या मजाल है कि उसनें 'आप' के अलावा 'तू' कहा हो। प्यार में तू कह दिया हो, तो बेटे! अलग बात है। प्यार में तो हजारों औरतें अपने मरदों को तू कहती हैं, उसकी बात मैं नहीं कहता। लेकिन सम्मान की दृष्टि से, या बेइज्जती की दृष्टि से आज तक हमारे लिए कड़ुए शब्द नहीं निकाले। अगर कोई गलती की, तो उन्होंने यह कहा कि यह गलती आपको नहीं करनी चाहिए। यह गलती ठीक नहीं थी। उससे नुकसान हुआ और आपको आगे नुकसान नहीं करना चाहिए। प्यार से समझा दिया कि चलो हमसे भी गलती हो जाती है। तुमसे भी हो गई, पर आगे सँभालना चाहिए। अगर बीबी यह ख्याल करती है तो मैं समझूँगा कि आपकी इज्जत बहुत बड़ी है और आपके कर्त्तव्य, आपके फर्ज और आपकी ड्यूटी बहुत ऊँची है। अतः इस मामले में आप अपनी महत्त्वाकांक्षा बढ़ाइए।
प्रकाशस्तंभ के तरीके से जीएँ
मित्रो! आप एक और महत्त्वाकांक्षा बढ़ाइए कि हम अपने मरने के पीछे कुछ ऐसे निशान छोड़ जाएँगे, जिनको देख करके लोग कहें कि इस रास्ते पर एक आदमी चला था, इस पर हमको भी चलना चाहिए। आप प्रकाश स्तंभ के तरीके से जीएँ। समुद्र में प्रकाशस्तंभ—लाइट हाउस खड़े रहते हैं और अपनी रोशनी से नाव वालों को बताते रहते हैं कि भाईसाहब! यहाँ से मत आना। यहाँ देखिए हम खड़े हैं। यहाँ एक बड़ी भारी चट्टान है। आपने इधर से आने की कोशिश की तो टक्कर खा जाएँगे और डूब जाएँगे। इसलिए कहाँ चलना चाहिए? प्रकाशस्तंभ इशारा करता रहता है। लाइट घूमती रहती है और बताती रहती है कि इधर की ओर चलिए, इधर मत चलिए। जब तूफान आते हैं, तब लाइट घूम जाती है और बताती रहती है कि इधर को चलिए। मित्रो! आप अपनी जिंदगी प्रकाशस्तंभ के तरीके से बनाइए, जो अपने पड़ोसियों को यह बताने के लिए ठीक होनी चाहिए कि आपको इधर चलना चाहिए। आपको अपने चरित्र को इतना उज्ज्वल बना लेना चाहिए कि जिससे आप लोगों को बता सकें कि आपको इधर चलना चाहिए। नहीं साहब! हम तो लाखों लोगों से नहीं कह सकेंगे, हमारी जीभ बंद हो जाएगी। हाँ बेटे! लाखों लोगों से कहने पर आपकी जीभ बंद हो जाएगी, पर आपका चरित्र इस दृष्टि से ऊँचा होना चाहिए।
ख्वाब, आदर्श कभी मर नहीं सकते
मित्रो! राजा हरिश्चंद्र ने इसी तरीके से जिंदगी जीई। उन्होंने ऐसी जिंदगी जीई कि उनके मरने के हजारों वर्ष बाद गाँधी जी ने एक ड्रामा देखा और यह कहा कि "राजा हरिश्चंद्र हमारे कान में कह गए थे कि दोस्त अगर जीना हो तो हमारे तरीके से जीना। शांति से जीना। शालीनता से जीना।" मतलब यह है कि गाँधी जी ने हरिश्चंद्र के सामने कसम खाई कि भाईसाहब! हम और आप एक ही रास्ते पर चलेंगे। आप जिस रास्ते पर चलेंगे, हम भी उसी पर चलेंगे। हरिश्चंद्र आए थे? नहीं बेटे! हरिश्चंद्र कहाँ से आ सकते थे? ख्वाबों में आ गए थे। ख्वाब, आदर्श नहीं मर सकते। शरीर को तो मरना ही पड़ेगा। आदर्श कभी मर सकते हैं? आदर्श कभी नहीं मरते। गाँधी जी मर गए? नहीं, मैं समझता हूँ कि गाँधी जी जिंदा हैं। बुद्ध जी मर गए? नहीं बेटे! विवेकानंद की मौत हो गई? नहीं, मैं समझता हूँ कि इन्हें जिंदा होना चाहिए। हनुमान जी की मौत हो गई? नहीं बेटे! शरीर से तो सबको मरना ही पड़ा था, पर मैं समझता हूँ कि हनुमान जी की मौत नहीं हो सकती। मेरा ख्याल है कि हनुमान जी जिंदा रहेंगे और अभी लाखों वर्षों तक उनको जिंदा रहना चाहिए। नहीं साहब! हनुमान जी तो मर गए थे? नहीं बेटे! जिस तरीके से मैं मरने की व्याख्या करता हूँ, उस हिसाब से वे जिंदा हैं।
[क्रमश:-अगले अंक में समापन]
आध्यात्मिक पंचशीलों की चर्चा परम पूज्य कर रहे हैं। इससे पूर्व अपना अलग संसार बसाने, अपनी इच्छाओं को परिष्कृत करने, कर्मयोगी की तरह जीने, श्रम, इन्द्रियाँ समय आदि का भरपूर उपयोग तथा जो पास है उनको सारे समाज में बाँट देना—इन पंचशीलों पर वे प्रकाश डाल चुके हैं। उनने पहले कहा कि गोस्वामी जी ने मीरा बाई को जो पत्र लिखा उसने उन्हें साहस दिया, क्योंकि वह अपना संसार अलग बसाने की राय थी। परम पूज्य गुरुदेव भी एकाकी ही रहे, पर उनके चारों ओर उनकी पुस्तकें, उनके महामानव थे, जिनका सत्संग उन्हें अनवरत मिलता रहा। हमें अपनी इच्छाएँ परिष्कृत करना चाहिए जैसा हनुमान जी ने किया। इच्छाओं में बड़ी ताकत है। हम उन्हें परिष्कृत कर तीनों ऐषणाओं से परे चले जायँ हम सलीके की जिन्दगी जिएँ, यह पूज्यवर चाहते हैं। वे कहते हैं कि आप प्रकाश स्तम्भ की तरह जिएँ, राजा हरिश्चन्द्र से प्रेरणा लें। समझ लें कि अच्छे ख्वाब, श्रेष्ठ आदर्श कभी मर नहीं सकते। वे सतत प्रेरणा देते रहेंगे। अब पढ़ें आगे, इस समापन किश्त में।
कर दें अपना कायाकल्प
मित्रो! हमको और आपको क्या करना चाहिए? हमको और आपको दूसरी वाली महत्त्वाकाँक्षाओं का स्तर बदल देना चाहिए और कायाकल्प कर देना चाहिए। आत्म परिष्कार की महत्त्वाकाँक्षा—एक, हमारे कामों में शालीनता, श्रेष्ठता का दिग्दर्शन होना—दो, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। लोकमंगल के लिए, समाज हित के लिए हमने क्या किया? छोटे दीपक के तरीके से आप जलिए। दूसरों के लिए प्रकाश पैदा कीजिए। नहीं साहब! हम तो बहुत छोटे आदमी हैं। हाँ बेटे, हम जानते हैं कि तू बहुत छोटा आदमी है और तेरी हैसियत और वकत शायद एक छोटे दीपक के बराबर हो। दीपक कितने पैसे का होता है? पाँच पैसे का और तेल एवं बत्ती—एक छदाम की—एक पैसे की। बस, इतनी कीमत का दीपक तमाम रात जलता रहता है और रात भर लोगों को ठोकर खाने से बचाता है। पैर में चोट लगने से बचा लेता है, साँप काटने से बचा लेता है और बिच्छू काटने से बचा लेता है। रात भर जलता रहता है। आप छोटे आदमी हैं न? हर्ज की कोई बात नहीं है। छोटे आदमी होना कोई हर्ज की बात नहीं है। रात के तारे के तरीके से आप चमकिए। 'टिं्वकल टिं्वकल लिटिल स्टार! हाऊ आई वण्डर ह्वाट यू आर।’ आप इस तरह छोटे सितारे के तरीके से चमकि,( आप दूसरे लोगों को रास्ता बताने के लिए चमक सकते हैं। कैसे—‘अप ॲबाव द वर्ल्ड सो हाई, लाइक ए डायमण्ड इन द स्काई।’ डायमण्ड के तरीके से हीरे के तरीके से, सितारे के तरीके से, छोटी-छोटी चिनगारी के तरीके से आप जल सकते हैं। लोकमंगल के लिए, दूसरों को रास्ता बताने के लिए, दूसरों को राहत देने के लिए, दूसरों को प्यार देने के लिए, दूसरों को ऊँचा उठाने के लिए, दूसरों को सलाह मशविरा देने के लिए, दूसरों के जले हुए घावों पर मरहम पट्टी लगाने के लिए आप ऐसा नहीं कर सकते हैं क्या? आपको करना चाहिए।
मित्रो! अगर आप अपनी दो महत्त्वाकांक्षाएँ बदल दें, तो मजा आ जाए। एक तो आप अपना ईमान बदल दें, दृष्टिकोण बदल दें, तो यह आपके लिए सुगम है। कठिन क्या है? पैसा कमाना कठिन है? शायद ईमानदारी से या बेईमानी से भी यह हो सकता है। हम तो साहब वासना को पूरा करेंगे। कोशिश कीजिए, शायद आपकी इच्छा पूरी हो जाय। नहीं साहब! हम तो बहुत सारी कामवासना पूरी करेंगे। तो कोशिश कीजिए, शायद आपको सफलता मिल जाय। मेरा ऐसा ख्याल है कि शायद इसमें आपको सफलता नहीं मिलेगी और अहंकार को पूरा करने में भी सफलता नहीं मिलेगी। जब आप एमएलए होंगे, तब एमपी वाला मुँह उठाये चला आयेगा और आपको कहेगा कि पहले एमपी हो जा तो जानें। जब आप एमपी हो जाएँगे, तो मिनिस्टर अँगूठा दिखायेगा और कहेगा कि बड़ा चला आया एमपी बनकर। मिनिस्टर हो जा, तो जानें। और मिनिस्टर को मुख्यमंत्री धमकायेगा और मुख्यमंत्री को राष्ट्रपति। फिर आपकी महत्वाकांक्षाएँ कहाँ रह गयीं? आपका अहं कहाँ रह गया? बेटे, आपकी ये इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं।
श्रेष्ठ जीवन जीने की महत्त्वाकाँक्षा
लेकिन मित्रो! आपकी ये तीनों इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं—आप श्रेष्ठ जीवन जीने की महत्त्वाकांक्षा को आसानी से पूरा कर सकते हैं। उसमें कोई रुकावट नहीं है। आप अपने कामों को अच्छा, बेहतरीन, बढ़िया बनाने के लिए अगर अपनी जाफसानी और अपनी जिम्मेदारी को मिला दें, तो फिर आप इतने बेहतरीन हो सकते हैं कि फिर उसका क्या कहना। छोटे हों तो क्या, थोड़े हों तो क्या, फिर ऐसे होंगे कि आपके हाथ चूमने के लिए और आपकी कलम चूमने के लिए हर किसी की तबियत चाहेगी। आप यह काम कर सकते हैं। आप लोकसेवा के लिए कोई न कोई ऐसा तरीका निकाल सकते हैं कि अपने पड़ोसियों से लेकर के अपने घरवालों तक, मोहल्लेवालों से लेकर आस-पास के क्षेत्रों तक के लोगों की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सेवा हो सके। मैं समझता हूँ कि पैसे से, धन से शायद आपसे सेवा न हो सके और लोगों को कम्बल बाँटने, रजाइयाँ बाँटने और दवाइयाँ बाँटने का मौका शायद आपको न मिले। फिर भी कोई हर्ज की बात नहीं है। इससे क्या बनता-बिगड़ता है? ऋषियों के पास संपत्ति कहाँ थी? ऋषियों ने जो बाँटा प्यार बाँटा, ज्ञान बाँटा, प्रकाश बाँटा। आपके पास भी ये चीजें हैं, लेकिन आपने कहाँ बाँटी? पैसा न हो, तो उसे मरने दीजिये। पैसे से क्या बनता-बिगड़ता है?
अनासक्त योगी की तरह जिएँ
मित्रो! अगर आप अपने आपमें दो महत्त्वाकांक्षाएँ दो चीजें बदल पाएँ, तो मैं समझता हूँ कि आप बहुत कुछ काम कर सकते हैं। आप इन दो की तैयारी कीजिए। तीसरी तैयारी एक और काम करने की है। उसके लिए कोशिश कीजिए। क्या कोशिश करेंगे? आप नेता बनने की कोशिश मत कीजिए, अभिनेता बनने की कोशिश कीजिए। अभिनेता कौन होता है? जैसे फिल्मों में कोई बादशाह बन जाता है, तो कोई कुछ बन जाता है। आप भी बादशाह बन सकते हैं। हिन्दुस्तान में अब तो कोई बादशाह नहीं है। हिन्दुस्तान में जो खिताब बादशाह का था, उसे गवर्नमेण्ट ने छीन लिया। अब कौन बन सकता है। स्वामी रामतीर्थ बन सकते हैं। स्वामी रामतीर्थ अपने आपको हमेशा राम बादशाह लिखते थे। उनके जो साइन हैं, वह राम बादशाह के नाम से हैं। मित्रो! आप यह कर सकते हैं कि इस दुनिया में रहते हुए बिना रहने वालों के तरीके से रहें। इससे क्या हो जायेगा? आप ड्रामा खेलने वालों के तरीके से सारे काम करते रहेंगे। यह क्या हो गया? इनकी मौत हो गयी। कैसे? राजा हरिश्चन्द्र ड्रामा चल रहा था, तभी उनके बेटे की मौत हो गयी। सब रोने लगे और जब ड्रामा समाप्त हुआ, तो बेटा उठकर भाग गया। यह क्या हो गया? बेटे, दुनिया का ऐसा ही चक्कर है। अपने आप को किसी चीज के बारे में बहुत ज्यादा अटैच कर लेना—यह भी गलत है। अपना काम कीजिए। यह दुनिया की हवा है। कभी दिन आ गया, कभी रात आ गयी। कभी पूरब आ गया, कभी पश्चिम आ गया। कभी नफा होता है, कभी नुकसान होता है। कभी मौत होती है, कभी जिन्दगी होती है। आप इन मामलों में बहुत ज्यादा ध्यान न दें, नहीं तो फिर ज्वार-भाटे के तरीके से आपकी जिन्दगी नीरस हो जायेगी। जब आप सफलता में बहुत ज्यादा उछलने लगेंगे, तब भी आपकी जिन्दगी नीरस हो जायेगी और आप बैलेन्स खो बैठेंगे। और जब आप पर मुसीबत आयेगी, तब भी आप बैलेन्स खो बैठेंगे। तब आप बराबर झूले के तरीके से झूलेंगे और एक दिन भी चैन से, शांति से व्यतीत करने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए आप कर्मयोगी के तरीके से, अनासक्त योगी के तरीके से जिएँ। मित्रो! फल की आकांक्षा को त्याग कर कर्तव्य की आकांक्षा के बाबत आपको ध्यान देना चाहिए। फल हमारे हाथ में नहीं है। नहीं साहब! हम खूब काम करेंगे और हमारी नौकरी में तरक्की हो जायेगी। बेटे, कोई गारण्टी नहीं है। नहीं महाराज जी। हम तो खूब परिश्रम करेंगे और देखिए हमारा तीन साल का प्रमोशन ड्यू है। बेटे, हम नहीं कह सकते कि जो तेरा तीन साल का प्रमोशन ड्यू है, वह हो जायेगा कि नहीं हो जायेगा? कितने आदमी बैठे हुए हैं—कोई रिश्वत देने वाला है, कोई आगे बढ़ाने वाला है, कोई यह कहने वाला है, कोई एफिसेंसी का दावा करने वाला है। तेरा हो सकता है कि नहीं, हमको नहीं मालूम। तो महाराज जी। हमारा प्रमोशन नहीं होगा, तो हमें बड़ा दुःख होगा। तो बेटे, आपने अपना दुःख और कष्ट उसको बेच रखा है? किसको? बॉस को। वह चाहे तो आपको प्रसन्न करे, चाहे तो आपको नाराज करे। बेटे अपनी खुशी को किसी के हाथ मत बेचिये बीबी नाराज हो जाय, तो दुःखी, बीबी खुश हो जाय, तो खुश। धत् तेरे की, सबके हाथ में अपनी खुशी को गिरवी रख आया है। बेटे, अपनी खुशी को किसी के हाथ में गिरवी मत रख। अपनी खुशी अपने पास रख। नहीं साहब! हम नहीं रख पाएँगे। बेटे, यह तभी संभव है और केवल उसी के लिए संभव है, जो आदमी अपने कर्तव्य के बारे में संतोष कर लेता है कि हमने अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह निभाई और जो हुआ सो हुआ।
मित्रो! हमने खेती को पूरी मशक्कत के साथ किया। आगे हम नहीं जानते। वर्षा हो गयी तो खेती हो भी सकती है और अगर न हुई, तो नहीं भी हो सकती है। क्या होगा? सूखा पड़ेगा, तो कुछ और उपाय करेंगे और अगर ज्यादा वर्षा हो गयी, तो और उपाय करेंगे। हम क्या कर सकते हैं? हमने तो पूरी मशक्कत से अपनी खेती में काम किया। बस, इसके आगे, अपने कर्तव्यों तक सीमित हो जाएँ। क्या होगा? बेटे, हम नहीं जानते कि आपका क्या होगा? चोरी करके जेलखाने चला जायेगा अथवा वकील होगा। नहीं साहब! वकील होना चाहिए। हाँ बेटे, यह भी हो सकता है कि स्कूल और कॉलेज जाने के बाद गुण्डागर्दी और आवारागर्दी करे और किसी की जेब काटे और जेलखाने चला जाय। इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते कि कल क्या होगा? हम तो एक ही बात कह सकते हैं कि ईमानदारी के साथ आदमी अपने कर्तव्यों की जिम्मेदारी को निभाए।
न भूत की सोचें, न भविष्य की
बुड्ढे आदमी भूत को तलाश करते रहते हैं कि अरे साहब! हमारे जमाने में तो एक रुपये का बाइस सेर घी मिलता था। और हमारे जमाने में आदमी अठारह-उन्नीस फुट लम्बे होते थे। साहब! हमारे जमाने में दुनिया ऐसी थी, वैसी थी। जब देखो तब रामकहानी पीछे की बातें दुहराते रहते हैं। जब देखो, पुराणों की बातें कि महादेव जी थे। एक पार्वती जी थीं। एक गणेश जी थे। बेटे, हजारों वर्ष हो गये महादेव जी को गये हुए, पार्वती जी को गये हुए। नहीं साहब! हम तो वही किस्सा कहेंगे। मित्रो! ये जो बुड्ढे आदमी हैं, वे उम्र के हिसाब से ही नहीं, अक्ल और समझ के हिसाब से भी बुड्ढे हैं। वे पुराने किस्से, पुरानी रामकहानी कहते और गड़े मुरदे उखाड़ते रहते हैं। और बच्चे? बच्चे भविष्य की कल्पना करते रहते हैं। हम एमए पास करेंगे, तो हम साहब हो जाएँगे, बॉस हो जाएँगे। मम्मी! हमारा ब्याह हो जायेगा। सफेद बहू आयेगी और तुम्हें हवाई जहाज में लेकर चलेंगे। क्यों मुन्ना। हमें भी ले चलेगा? बाबा! आपको नहीं ले चलूँगा। मैं तो अपनी बहिन को ले जाऊँगा। उसे मिठाई खिलाऊँगा, लड्डू खिलाऊँगा अरे बेटे! तेरे पास पैसे कहाँ हैं? अभी तो दस पैसे माँग रहा था और कह रहा है कि हवाई जहाज में लेकर चलूँगा। यह भविष्य की कल्पनाएँ करने वाले कौन हैं? बालक, जिन्हें जब देखो तब शेखचिल्ली के तरीके से कहते और सोचते रहते हैं कि बड़ा हो जाऊँगा, तो यह बनूँगा। एमए पास करके गजटेड ऑफीसर हो जाऊँगा। भाड़ हो जायेगा। पचास रुपये महीने की चपरासीगीरी भी नहीं मिलेगी। नहीं साहब! देखिये, मैं तो पीसीएस का इम्तिहान देकर आया हूँ और देखिये अगली बार सुपरिटेण्डेण्ट हो जाऊँगा। बहुत अच्छी बात है बेटे, तब खूब मिठाई खाना, खूब मजा उड़ाना नहीं महाराज जी! पीसीएस में जगह नहीं मिलेगी। नहीं मिलेगी तो बैंक में चपरासीगीरी करना। नहीं साहब! मैं चपरासीगीरी कैसे कर सकता हूँ? मैं तो पीसीएस होऊँगा। ख्वाब देख रहा है बेवकूफ। भविष्य क्या तेरे हाथ में है? बेटे, भविष्य के बारे में कोई गारण्टी नहीं कि क्या होने वाला है?
जवान बनें, वर्तमान की सोचें
मित्रो! जवान आदमी, जिम्मेदार आदमी केवल वर्तमान की बात सोचते हैं। आज हम क्या कर सकते हैं? और आज हमें क्या करना चाहिए? आज की परिस्थिति में हमारे लिए क्या मुनासिब है और क्या करना चाहिए? यह सारी की सारी कर्मयोग की निशानियाँ हैं। गीता में फल की इच्छा के लिए मना किया गया है और आपको इसके लिए मना किया गया है कि आप किसी भी चीज के बारे में इतना ज्यादा अटैचमेन्ट न रखें कि अपनी सारी की सारी खुशी उस अटैचमेण्ट पर न्यौछावर कर दें। आप अलग रह कर हर चीज को देखिए। शहद की मक्खी अलग रहकर देखती है। खा सकती है, तो खाती है। लेकिन जो मक्खी बहुत ज्यादा अटैच्ड हो जाती है और शहद में घुस जाती है, तो पंख लपेट लेती है और छटपटाकर मर जाती है। आप तो पंख लपेटिये मत, किनारे बैठकर खाइये। इतना ज्यादा अटैचमेण्ट मत कीजिए कि मरने के बाद में आपको उसी घर में छिपकली होना पड़े, चूहा होना पड़े। बेटे से इतना ज्यादा अटैचमेण्ट मत कीजिए कि मरने के बाद में आपको बेटे का जुआँ, खटमल होना पड़े। पेट का कीड़ा होना पड़े। किसी के साथ इतना ज्यादा अटैचमेण्ट मत रखिये। बैरागी के तरीके से रहिये। कर्तव्यनिष्ठ के तरीके से रहिये। योगी के तरीके से रहिये।
पंचकोश-पंचशील
इस तरीके से मित्रो। हमारी तीसरी वाली शिक्षा यह है कि आपको अपनी मनःस्थिति को पंचकोश जाग्रत् करने के लिए तैयार करना चाहिए। पंचकोश अर्थात् पंचशील जो हैं, मैं चाहता हूँ कि आपकी जिंदगी में इन पंचशीलों का उतना ही समावेश हो, जितना कि पंचतत्वों से आपका शरीर बना हुआ है। मैं चाहता हूँ कि आपके पाँचों प्राण—प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान नाम से जो पाँचों चीजें मिली हुई हैं, ये इतनी ज्यादा सही हों, कि आपका आध्यात्मिक उत्कर्ष होता हुआ चला जाय। पंचशील आपकी जिन्दगी में घुलने चाहिए।
मित्रो! मैंने एक बात यह बतायी थी कि अपना एक संसार बसाइए और अलग रहिए। दूसरा मैंने आपको यह बताया था कि अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को, इच्छाओं को मन कड़ा करके बदल डालिए। तीसरी बात मैंने आपसे यह कही थी कि आप कर्मयोगी के तरीके से जिएँ—कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही शिक्षा दी है कि हे अर्जुन! तू कर्मयोगी होकर जी। कर्तव्यनिष्ठ होकर जी। कर्म को महत्ता दे। कर्म की चिंता कर बस। इसका अर्थ मैंने आपको यह बताया कि आपका अटैचमेण्ट हलका होना चाहिए और आपको प्रत्येक काम में पूरी जिम्मेदारी और पूरी तन्मयता लगानी चाहिए। आपको केवल इस बात का गर्व होना चाहिए कि आपने पूरी ईमानदारी और पूरी मेहनत से काम किया। बस आपके लिए यही काफी है। आपको खुशी मनाने का मौका आया है कि आपने पूरी जिम्मेदारी और पूरी मेहनत से काम किया। सफलता नहीं मिली, तो भाड़ में जाये। हम क्या कर सकते हैं? यहाँ आप बजाय यह सोचने के कि एमए पास होने के बाद अच्छी नौकरी पाएँ, तब आप प्रसन्न हों। उसकी अपेक्षा यह सही है कि आपने अच्छे डिवीजन लाने में सारी शक्ति खर्च कर दी और नहीं ला सके तो नहीं ला सके। कोई बात नहीं, अब आप क्या कर सकते हैं? आपने मेहनत की, बस। इतना संतोष आपको होना चाहिए। अगर इतना संतोष आपको हो, तो हम आपको कर्मयोगी कहेंगे।
चौथा पंचशील—विभूतियों का सुनियोजन
मित्रो! चौथी चीज एक और मैं आपसे कहूँगा कि जो वस्तुएँ आपको मिली हुई हैं, आप उनका ठीक तरह से इस्तेमाल करना सीखें। हमेशा हमारी हवस यही रहती है कि नयी चीजें मिलनी चाहिए। परन्तु मैं यह कहता हूँ कि जो चीजें आपके पास हैं, उनका इस्तेमाल करना आपको आता है कि नहीं? जिसको आप सबसे कीमती चीज समझते हैं, आज तक वह बनी ही नहीं। संसार में सबसे कीमती चीज है समय, जिसको आप समझते भी नहीं। समय से बेहतरीन दौलत मैं नहीं समझता कि मनुष्य के पास और कुछ भी होगी। आदमी के पास सबसे कीमती दौलत भगवान् ने समय दिया है। यह वह सिक्का है, जिसको लेकर बाजार में जाइये और जो चाहे खरीद कर ले जाइये। मित्रो! आपको समय दिया हुआ है। इसकी कीमत पर आप चाहे परलोक खरीद ले जाइये, लोक खरीद ले जाइये, सेहत खरीद लीजिए, विद्या खरीद लीजिए, ज्ञान खरीद लीजिए। सबकी दुकानें लगी हुई हैं, जो भी चाहे खरीद लीजिए। इसमें आप अपना समय, श्रम खर्च कीजिए और जो चाहे खरीद लीजिए। दुकानें, मार्केट खुला हुआ पड़ा है। प्रत्येक दुकानदार चिल्ला रहा है—आइये साहब! यहाँ से खरीदिये। देखिये यहाँ कैसे अच्छे सामान रखे हुए हैं। हर आदमी चिल्ला रहा है। समय की कीमत को आप समझते नहीं। समय की कीमत को समझिये।
समय की पाबंदी
समय को—काल को रावण ने पाटी से बाँधकर रखा था। आपने अपने काल को कलाई पर बाँधकर रखा है, लेकिन खिलौने के तरीके से, जेवर के तरीके से। यह घड़ी कितने रुपये की है? अरे साहब! यह तो साढ़े नवासी रुपये की है। इसमें कितने बजे हुए हैं? अभी देखती हूँ। इसमें तो साढ़े बत्तीस बजे हैं। चुड़ैल! बेकार में चौके बर्तन में इसे खराब कर देगी और मिट्टी भर देगी, मरम्मत और करानी पड़ेगी। नहीं साहब! मैं घड़ी पहनती हूँ। घड़ी का मतलब समझती है? घड़ी से मतलब है—समय की पाबन्दियाँ। हमारे पास एक धूप घड़ी थी। मुद्दतों काम किया हमने। हिमालय पर मैंने एक धूप घड़ी बनायी थी। क्या टाइम है, उसी से पता कर लेता था। धूप घड़ी कैसे बनायी जाती है? लकड़ी का एक शंकु और पानी का एक घड़ा लेकर आपको समय बता सकता हूँ। इसी के आधार पर मैंने निशान लगा दिये थे कि यहाँ एक बजना चाहिए, यहाँ दो बजना चाहिए। तीन-चार दिन मैंने देख लिए थे। फिर धूपघड़ी से काम चालू। चाहे कोई भी घड़ी हो, चाहे धूपघड़ी हो, चाहे वैसी घड़ी हो। आप टाइम की पाबन्दी कीजिए। समय का अपव्यय मत कीजिए।
मित्रो! प्रत्येक चीज को—जिसमें समय भी शामिल है, श्रम भी शामिल है, पैसा भी शामिल है, अक्ल भी शामिल है, हर चीज शामिल है। उसको पूर्ण तरीके से खरच करना चाहिए। एक तो हम इन्हें बेकार के कामों में खरच करते हैं, जिसका नाम है अनर्थ। अनर्थ उसे कहते हैं, जो खराब कामों में किया जाय। मसलन अकल। अक्ल को आपने चोरी करने में खरच किया, किसी को गिराने में खर्च किया। यह क्या हुआ? यह अनर्थ कहलाया। पैसे को आपने ऐसे गलत कामों में खरच किया। मसलन—आपने शराब पी, किसी को नीचा दिखाने में खरच किया, तो यह क्या हुआ? यह अनर्थ कहलाया। एक कहलाता है व्यर्थ। समय का एक हिस्सा आपने गप्पें हाँकने में खरच कर दिया। यह क्या है? समय को व्यर्थ गँवा रहे हैं। पैसे को व्यर्थ गँवा रहे हैं, जिससे किसी को न कोई नुकसान हो रहा है, न फायदा हो रहा है। ऐसे ही गँवा रहे हैं, खरच कर रहे हैं। अकल को व्यर्थ खरच कर रहे हैं। बेटे, एक और होता है—सार्थक पैसे का एक-एक हिस्सा सार्थक खरच करना चाहिए। हमने एक दिन आपको बताया था कि हम बड़े किफायतशार रहे हैं। तो गुरुजी, आप बड़े कंजूस रहे होंगे? नहीं बेटे, हम कंजूस नहीं हैं। हमसे ज्यादा उदार संसार के पर्दे पर कोई नहीं हो सकता। हमने खूब खरच किया है, ढेरों खरच किया है, लेकिन अच्छे कामों में खरच किया है। बचा सकते थे, पर हमने अच्छे कामों में खरच कर दिया।
सार्थक कामों में नियोजन
मित्रो! सार्थक कामों में वक्त, सार्थक कामों में श्रम, सार्थक कामों में अक्ल, सार्थक कामों में धन—अगर आप इस तरीके से खरच कर पाएँ, तो आप देखेंगे कि मथुरा जिले की पिसनहारी और हजारी बाग के हजारी किसान की तरह अपने समय का उपयोग करके, श्रम का उपयोग करके, अक्ल का उपयोग करके आप अमर बन सकते हैं। अगर हम अपनी चीजों का ठीक से इस्तेमाल करना सीख पाएँ, जिसमें हमारी सेहत भी शामिल है, हमारा समय भी शामिल है, श्रम भी शामिल है, अक्ल भी शामिल है, पैसा भी शामिल है और हमारा कुटुम्ब भी शामिल है और हमारे नये मित्र भी शामिल हैं और हमारी हैसियत और परिस्थिति भी शामिल है और हमारी कुशलता भी शामिल है। इन सब चीजों का अगर हम बेहतरीन उपयोग करना सीख पाएँ, तो मित्रो! यह हमारे लिए बड़ी सौभाग्य की बात होगी।
नहीं महाराज जी! नई चीजें मिलें। हाँ बेटे, अच्छी बात है। भगवान् करे आपको नई-नई चीजें मिलें। गुरुजी! हमारे बेटा हो जाये। बेटे, भगवान् से प्रार्थना करेंगे कि तेरे बेटा हो जाय। पर जो कन्या है, उसका? अरे महाराज जी! कन्या को तो पीछे देखा जायेगा। नहीं बेटे, जा पहले कन्या को देख। कन्या को योग्य बना, कन्या पर सारी शक्ति खर्च कर। कन्या को तू अच्छा बना ले, तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी के तरीके से तेरी बेटी बन सकती है। अरे साहब! बेटी को क्या बनाऊँगा, बेटे को बनाऊँगा। बेटे, तू बेटी को नहीं बना सका, तो बेटे को नहीं बना सकता। और अपनी बीबी को प्यार से रखने में समर्थ न हो सका, उसको सुयोग्य न बना सका, उसको संस्कारवान् न बना सका, तो तेरी बात पर मैं जरा भी विश्वास नहीं कर सकता। नहीं महाराज जी। आप तो ऐसी संतान दीजिए कि बस वह भीम और अर्जुन जैसी हो जाये। बेटे, पहले तू हो जा, तब तेरी संतान हो जायेगी। हमारा कहना तो तूने माना नहीं और स्वयं भीम-अर्जुन बना नहीं, फिर तेरा कहना मानकर तेरा बेटा भीम-अर्जुन कैसे हो जायेगा? बेकार की बातें बकता है। मित्रो! क्या करना पड़ेगा? नई-नई चीजें माँगने की अपेक्षा, नई-नई ख्वाहिशें, नई-नई फरमाइशें करने की अपेक्षा हमारे सामने जो चीजें हैं; जो परिस्थितियाँ हैं, उन्हीं को हम अच्छे से अच्छा, बेहतरीन ढंग से उपयोग करने, सही बनाने की कोशिश करें, तो यह बहुत बड़ी बात हो सकती है। नयी चीजें माँगने की इच्छा के लिए मैं मना नहीं करता। आप नयी चीज माँगने की कोशिश कीजिए, पर वर्तमान चीजों का उपयोग तो कीजिए।
अकेले मत खाना
मित्रो! यह चौथे नम्बर के कोश के लिए चौथे नम्बर का शिक्षण है। पाँचवें नम्बर का कोश बता करके मैं आज की बात खत्म करता हूँ। एक बात मैं आपको कहूँगा, उसे भूलना मत। जो कुछ आपके पास है, वह सारा का सारा आपके हजम कर जाने के लिए नहीं है। आप ध्यान रखना। नहीं साहब! हमारा कमाया हुआ है। बेटे तेरा कमाया हुआ है, पर यह सब तेरे खाने के लिए नहीं है। क्या मिलता है तुझे? साढ़े पाँच सौ रुपया। मैं इसे अकेले खा जाऊँगा। नहीं बेटे, इसे अकेले मत खाना, बाँट कर खाना। मैंने कमाया है, तो बाँटकर क्यों खाऊँ? नहीं बेटे! अपनी बीबी को बाँट, बच्चे को बाँट, अपनी माँ को बाँट, अपनी बहन को बाँट, अपने भाई को बाँट। ये सब तेरे पीछे जो कुटुम्ब है, उसको खिलायेगा नहीं? नहीं महाराज जी। तो क्या उन्हें मारेगा? नहीं साहब! बाँट करके खाऊँगा। हाँ बेटे, बाँटकर खाना अच्छा है। बाँटकर नहीं खायेगा, तो तुझे हजम नहीं होगा।
सिद्धान्तों का कुटुम्ब
मित्रो! बाँटकर खाने से मतलब कुटुम्बियों तक सीमित रहना नहीं है। इसका दायरा बढ़ाइये। हमारा एक और कुटुम्ब है, जिसको हम सिद्धान्तों का कुटुम्ब कहते हैं। हमारे सामने भगवान् के दो हाथ फैले हुए हैं। एक हाथ उनका फैला हुआ है जो हमसे गये गुजरे हैं, दुखियारे हैं, जो हमसे सहायता की अपेक्षा रखते हैं। इनको हम दीन, दुःखी कह सकते हैं, पीड़ित कह सकते हैं। पतित कह सकते हैं। बुद्धि की दृष्टि से, चरित्र की दृष्टि से भी वे पतित हो सकते हैं। जरूरी नहीं है कि कोई अंधा और कोढ़ी हो और वही हमारी दया का पात्र हो। जो आदमी चरित्र की दृष्टि से, ईमान की दृष्टि से और चिंतन की दृष्टि से गया गुजरा है, उसे भी हम बीमार से अच्छी हालत में नहीं समझते। वह भी दया का पात्र है, उसकी भी हम सहायता कर सकते हैं। हमारा फर्ज है कि अपने से गए-गुजरे हुए लोगों की ओर देख करके चलें और उनकी मदद करें। हमारा कर्तव्य है कि जो श्रेष्ठ वृत्तियाँ इस संसार में फैली हुई हैं, जो हमसे मदद माँगती हैं, जो प्यासी हैं, जो हाथ पसारती हैं, उनके लिए हम सेवा करें, सहायता करें।
मित्रो! देश, धर्म, समाज और संस्कृति, ये भी हमारे कुटुम्बी हैं, ये भी हमारे भाई हैं, भतीजे हैं। ये भी हमारे खानदान वाले हैं। आपका दायरा इतना कम नहीं होना चाहिए कि आप केवल अपनी बीबी को ही अपना मानें। आपके हृदय का दायरा इतना कृपण नहीं होना चाहिए कि केवल अपने बच्चे को ही बच्चा मानें। आप दूसरों के बच्चों को भी अपना बच्चा मानिये। यह समाज बहुत विशाल है। भगवान् ने आपके सामने दो हाथ पसारे हुए हैं। एक हाथ का अर्थ बता चुके, दूसरा हाथ है, जो आपसे माँगता है कि जो कुछ हो, तो निकालिए। भगवान् माँगता है कि आप ‘यज्ञार्थ’ निकालिए, दीजिए। पैसा नहीं है, तो मत दीजिए। समय तो दीजिए। श्रम तो दीजिए। अक्ल तो दीजिए। प्रभाव तो दीजिए। चिंतन तो दीजिए। इतनी चीजें तो आपके पास हैं—दीजिए। जो कुछ भी हम कमाएँ, स्वयं खाकर खत्म न कर दें। गीता में कहा गया है—‘‘जो कोई भी अपने लिए कमाता है और अपने लिए खाता है, वह आध्यात्मिक दृष्टि से चोर है।’’ लेकिन ‘जो यज्ञ से बचा हुआ खाता है, वह आदमी अमृत खाता है।’ यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः — (३/१३)
संत बनें, श्रेष्ठ बनें
मित्रो! हमारी विचारणा में इतनी उदारवृत्ति होनी चाहिए कि हमारी जीविका, जिसमें धन भी शामिल है, पैसा भी शामिल है और समय भी शामिल है, वह सबका सब अपने स्वार्थ के लिए, अपने खानदान वालों के लिए खरच न करें। आप अपने भीतर उदारता पैदा कीजिए, दया पैदा कीजिए, सेवा की वृत्ति पैदा कीजिए, विलासी मत बनिए। अपने खरच में किफायत कीजिए। लग्जरी से बचिए और उसको जो कुछ भी आप बचाव कर सकते हों—अंशदान के रूप में, पतितों के लिए, पीड़ितों के लिए और श्रेष्ठ व्यक्तियों, श्रेष्ठ वृत्तियों का सिंचन करने के लिए खरच कीजिए। शिक्षा से लेकर के संस्कृति तक ऊँचा उठने के लिए आप से हाथ पसारती हैं और कहती हैं कि हमको पानी देकर के जाइए। सूर्य अर्घ्यदान में हम एक लोटा पानी देकर के जाते हैं। समय की पुकार है कि इन वृत्तियों की, जिनको परिपोषण की आवश्यकता है, इनकी आप मदद कीजिए। जीवन को श्रेष्ठ बनाइए। पंचशीलों से लाद दीजिए। शास्त्रों में पाँच देवताओं की महिमा, गरिमा गायी गयी है। आप अपने जीवन में इन पाँचों देवताओं का समावेश कीजिए। संत बनिए, श्रेष्ठ बनिए, शालीन बनिए, ऋषि बनिए, महामानव बनिए और नर के जीवन में नारायण होने का दावा कीजिए। पुरुष होते हुए पुरुषोत्तम के रूप में अपने आपको पेश और प्रस्तुत कीजिए।
पंचशीलों की पाँच शिक्षाएँ
मित्रो! ये पाँच शील हैं। अगर इन पाँचों का आप ध्यान रख पाएँ, हृदयंगम कर पाएँ। यहाँ से जाने के साथ साथ इन पाँचों शिक्षाओं को गाँठ बाँध करके ले जा सकें, तो हमारा शिवरात्रि का आज का प्रवचन धन्य हो जाए और हमारा वानप्रस्थ आश्रम का यह प्रशिक्षण सार्थक हो जाए। आप यह विचार करना कि क्या इन पाँच शिक्षाओं के आधार पर हम अपने जीवन में कुछ हेर-फेर कर सकते हैं? क्या वर्तमान चिंतन और वर्तमान परिस्थितियों में कुछ हेर-फेर होना संभव हो सकता है? आप विचार करना। वास्तव में वही विचार आपके लिए नये भविष्य का निर्माण करेगा तथा वही आपका और सारे संसार का निर्माण करने की भूमिका प्रस्तुत करेगा।
आज की बात समाप्त