231. सद्ज्ञान संवर्धन का पुण्य परमार्थ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्कूलों में एक निर्धारित समय में पूरा हो सकने वाला निर्धारित पुस्तकों का पाठ्यक्रम पूरा कराया जाता है। छोटे बच्चों के लिए अथवा सीमित विषयों की सीमित जानकारी प्राप्त करने वालों के लिए यह पद्धति उपयोगी हो सकती है। शिक्षा का सरकारी मापदण्ड यही है। नौकरी मिलने में जिन प्रमाण पत्रों की आवश्यकता पड़ती है, वे निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा कर लेने पर मिले हुए होते हैं। पढ़ते भी लोग इसी निमित्त हैं, श्रम और धन भी खर्च करते हैं। पढ़ने और पढ़ाने वालों की प्रशंसा भी इसी आधार पर होती है।

किन्तु जिन्हें ज्ञान की पिपासा है, किसी विषय विशेष में अधिक ज्ञान अर्जित करने का जिनका मन होता है अथवा जीवन में काम आने वाली, समाज को प्रभावित करने वाली किन्हीं समस्याओं पर अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। उनके लिए स्कूली ज्ञान सर्वदा अपर्याप्त रहता है। उन्हें अपने प्रिय विषय की उच्च स्तरीय अनेकानेक पुस्तकें पढ़नी होती है।

हर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि वह अभीष्ट ज्ञान की पुस्तकें मँगा सके। इसके लिए हर जगह पुस्तकालयों का ही आश्रय लिया जाता है, हर विषय की अनेकानेक पुस्तकें मँगाने में जो पूँजी लगती है। साज-सम्भाल की, लेने और देने की जो व्यवस्था बनती है, उसके लिए उपयुक्त स्थान से लेकर फर्नीचर और एक आदमी के वेतन तक का खर्च संगठित संस्था ही कर सकती है। उसका बजट भी इतना होना चाहिए, जिसमें न केवल चालू खर्च की पूर्ति होती रहे, वरन् हर महीने नया बहुमुखी साहित्य मँगाते रहने की राशि भी स्थाई खर्च में सम्मिलित रहे।

अधिक लोगों को अधिक विद्या व्यसनी बनाने के लिए शिक्षित नर-नारियों से सम्पर्क साधना और उन्हें उत्साहित, सहमत करना पुस्तकालय की ही सम्पर्क समिति का काम होना चाहिए। वह जन सम्पर्क साधने का मुहल्लेवार ऐसा कार्यक्रम बनाये कि नगर का एक भी व्यक्ति ऐसा न बचे, जिसे पुस्तकालय द्वारा ज्ञान संवर्धन का लाभ विदित न हो। उनकी प्रकृति और आवश्यकता के अनुरूप कौन पुस्तकें उपयोगी हो सकती हैं, यह परामर्श भी दिये जाने की आवश्यकता है। यह क्रम चलाये बिना उपयोगी साहित्य मँगा लेने पर भी वह अचार के घड़े की तरह जहाँ का तहाँ रखा रहेगा। आवश्यकता तो इस बात की भी है, कि जहाँ जन सम्पर्क साधकर शिक्षितों को अपनी अभिरुचि एवं आवश्यकता की पुस्तकों की नामावली सुझाई जाय, वहाँ उनके घर पुस्तक पहुँचाने और वापिस लाने का भी प्रबन्ध रहे।

अपने देश में एक तो शिक्षित ही कम हैं। फिर जो हैं उनमें से विद्या व्यसनी लोगों की संख्या बहुत कम है। स्कूल छोड़ने के बाद प्रायः पुस्तकों को नमस्कार कर लिया जाता है और लिखने-पढ़ने की उतनी ही प्रक्रिया चलती है जो व्यवसाय के काम आती है। बहुत हुआ तो खाली समय में मनोरंजक पुस्तकें किसी से माँग जाँच कर ऐसी ले ली जाती है, जिनमें हँसी दिल्लगी या जासूसी तिलिस्म ऐय्यासी जैसे विषय हो। कामुकता भड़काने वाले अश्लील उपन्यास भी लोगों को रुचते हैं। लोगों की सामान्य स्वाभाविक प्रकृति पुस्तकें पढ़ने के सम्बन्ध में इसी सीमा तक सीमित होकर रह गई है जैसे फिल्में भी उथले स्तर की, मनोरंजन प्रसंगों की ही दर्शकों से सिनेमा घर भरे रहती हैं, ठीक वही बात पुस्तक पढ़ने के सम्बन्ध में भी है। पुस्तक विक्रेताओं की दुकानों पर ऐसा ही उथला साहित्य भरा रहता है। शिक्षितों का लोक मानस प्रायः इसी स्तर का पाया जाता है। किसी को कुछ पढ़ना हो तो लोग इसी स्तर की पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें पढ़कर अपना मनोरंजन करते हैं। इस मनोभूमि को उलटने के लिए ऐसे पुस्तकालयों की आवश्यकता है, जो जीवन के साथ जुड़े हुए अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत कर सके और सामाजिक विकृतियों के कारण होने वाली हानियों का स्वरूप समझाते हुए उनसे पीछा छुड़ाने का मार्ग सुझा सके। कोई किसी विषय का विशेषज्ञ बनना चाहता है, तो उसके लिए भी उपयोगी सिद्ध हो सके।

इसके लिए दुहरी आवश्यकता है। एक तो पुस्तकालय के पहुँचने में सुलभ स्थान पर स्थापना दूसरे उसमें पर्याप्त पुस्तकें होना। यह साहित्य कूड़ा-करकट जैसा लोक रुचि के अनुरूप नहीं, वरन् ऐसा होना चाहिए जो पाठकों को ऊँचा उठाने, बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सके। ऐसी पुस्तकें कई व्यक्ति एक साथ माँग सकते हैं। इसलिए कुछ पुस्तकों के दुहरे-तिहरे सैट भी होने चाहिए। यह सारा सरंजाम ऐसा हो, जिसे जुटाने में आरंभिक पूँजी भी बड़ी लगेगी और पीछे एक व्यक्ति की नियुक्ति, मकान मरम्मत तथा हर महीने नई-नई पुस्तकें मँगाते रहने का खर्च चलाता रहे। स्थाई फण्ड तथा मासिक खर्च की दोनों ही व्यवस्थाएँ चलनी चाहिए। पढ़ने वालों से मासिक फीस तब वसूल होती है, जब वे स्वेच्छापूर्वक पढ़ने में रस और रुचि लेने लगें। उसके पूर्व तो उनसे सम्पर्क साधने का समय और मुफ्त में घर जा-जाकर उपयोगी पुस्तकें देने और वापिस लाने का झंझट स्वयं ही उठाना पड़ता है। उसे भले ही संस्था के उत्साही सदस्य सेवा भावना से उठाये या फिर एक व्यक्ति इसी निमित्त वेतन देकर रखा जाय। एक तरीका यह भी है कि जो एक व्यक्ति स्थाई रूप से रखा गया है, वह चार घण्टे सम्पर्क साधने में लगाये और चार घण्टे पुस्तकालय खोलकर बैठे।

समूचे कार्यक्रम पर दृष्टिपात किया जाय तो वह जितने असाधारण महत्त्व का है उतना ही खर्चीला भी है। यह किसी देवालय, धर्मशाला, कुआँ, तालाब बनाने या सदावर्त बाँटने से कम पुण्य परमार्थ का काम नहीं है। लोगों के लिए शारीरिक सुविधा साधन जुटा देना ही पुण्य नहीं है, वरन् किसी को सद्ज्ञान संवर्धन की दृष्टि से अधिक विचारशील बनाना उससे अनेक गुना श्रेयस्कर है। धर्मशाला, सदावर्त आदि के द्वारा शरीरों को लाभ दिया जाता है, वह सुविधा कुछ ही समय सुख देती है। किन्तु सत्साहित्य के द्वारा मिला हुआ ज्ञान दान किसी का चिन्तन और चरित्र उठा सकता है, व्यक्तित्व उभार सकता है। इस प्रकार वह लाभ चिरस्थाई रहता है और यह प्रकाश एक से दूसरे तक पहुँचते रहने के कारण अनन्त पुण्य फलदायक बन सकता है। इस कारण अन्नदान की तुलना में ब्रह्मदान का प्रतिफल हजार गुना अधिक माना गया है। कठिनाई एक ही है कि विद्या का महत्त्व एवं प्रतिफल समझा नहीं गया। इसलिए अनजान लोगों की दृष्टि में पुस्तकालय योजना छोटी हो सकती है किन्तु विज्ञजन विद्यालय की तुलना में पुस्तकालय का महत्त्व कम नहीं आँक सकते।

प्रचलन न होने पर भी, महत्त्व न समझे जाने पर भी विचारशील लोगों का काम यह है कि जो श्रेयस्कर है, उसमें लोगों की रुचि पैदा करें और जिससे अत्यधिक हित साधन हो सकता है उसे अनिच्छापूर्वक भी गले उतारें।

प्रज्ञा पुस्तकालय यों छोटे से छोटा इस प्रकार भी बन सकता है कि अपने अंशदान से सस्ते ट्रैक्ट-फोल्डर खरीदते रहा जाय और निजी श्रम दान से सम्पर्क साधकर पढ़ने, देने और वापिस लेने का क्रम चलाया जाय। किन्तु यदि साधन सम्पन्न संस्थान खड़ा करना हैं, तो फिर उसके लिए आरंभिक राशि की जरूरत पड़ेगी। यह जितनी अधिक संभव हो सके, प्रयत्न किया जाय और उसमें छाँटी हुई ज्ञानवर्धक पुस्तकें बड़ी संख्या में खरीदने का प्रबंध किया जाय। अखण्ड ज्योति पाठक के यहाँ समय-समय पर खरीदा गया युग साहित्य हो सकता है। उनसे माँग कर भी पुस्तकालय में भंडार के थोड़ा बहुत अभिवर्धन हो सकता है।

यों ज्ञान की अगणित धारायें हैं। इनमें कुछ ऐसी भी है जो अधिक सांसारिक जानकारियाँ बढ़ाने और अपने व्यवसाय की अभिवृद्धि में सहायक हो सकती हैं। विदेशों में हर समझदार व्यक्ति आजीवन विद्यार्थी रहता है। स्कूली समय पूरा हो जाने के उपरान्त पुस्तकालयों को ही अपना स्कूल समझता है और उनके सहारे अपनी ज्ञान सम्पदा स्कूली पढ़ाई की तुलना में अनेक गुनी अधिक बढ़ा लेता है। बौद्धिक ज्ञान की अभिवृद्धि के साथ-साथ सांसारिक प्रगतिशीलता का बढ़ना भी सुनिश्चित है। जिस प्रकार हर व्यक्ति को कमाने खाने में रुचि रहती है, उसी प्रकार समझदार लोग अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ा कर प्रगति पथ को प्रशस्त करते हैं। प्रधानमंत्री पद की अत्यधिक व्यस्तता और समय की कमी रहने पर भी पं. जवाहर लाल नेहरू रात को बारह से दो बजे तक उपयोगी पुस्तकें पढ़ते थे। इसके लिए उन्हें अपनी नींद के घण्टों में कटौती करनी पड़ती थी। संसार भर के समझदार राजनेता, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, चिकित्सक, सेनापति आदि अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए आजीवन नियमित पढ़ने की प्रक्रिया जारी रखते हैं। उसे जीवन के सर्वोत्तम कार्यों में से एक अति महत्त्व का काम मानते हैं। सम्पन्न लोग निजी खरीद कर के घरेलू पुस्तकें भी मँगा सकते हैं, किन्तु जिनकी भूख अधिक और साधन कम है उन्हें पुस्तकालयों का ही आश्रय लेना पड़ता है। जिन विचारशीलों ने पुस्तकालय स्थापना का काम हाथ में लिया है, उनने विश्वास किया है कि अत्यन्त उत्कृष्ट स्तर के काम में हाथ डाला जा रहा है। किसी सामान्य जन को मन्दिर बनाने में जो भाव तुष्टि होती है, वह विचारशील उसकी तुलना में अनेक गुना उत्साह और संतोष पुस्तकालय निर्माण में करते हैं।

अपने देश में आर्थिक पिछड़ापन जितना है, उसकी तुलना में बौद्धिक सम्पदा की कमी और भी अधिक है। गरीबी से जितना कष्ट होता है, उसे सभी जानते हैं, किन्तु कोई बिरले ही समझ पाते हैं कि बौद्धिक पिछड़ेपन के कारण जीवन अंधकूप में ही पड़ा रहता है और उसे प्रगतिशील समाज का सदस्य बनने तथा व्यक्तित्व को प्रतिभावान बनाने का सुयोग कभी मिलता ही नहीं। गरीबी उतनी बड़ी लानत नहीं है, जितनी कि विचारशीलता के क्षेत्र में मनुष्य का कूप मंडूक बना रहना।

अपने देश में प्रतिगामिता जीवन के हर क्षेत्र में छाई हुई है। मानवोचित विचारशीलता की सर्वत्र भारी कमी दिखाई पड़ती है और बिरले ही जानते हैं कि समय ने अगणित समस्याएँ क्यों कर उत्पन्न की हैं। उनने कितनी क्षति पहुँचाई है और यदि उनसे पीछा छुड़ाना है, तो क्या सोचना और क्या करना चाहिए।

विचार क्रान्ति अभियान आज की महती आवश्यकता है। जनमानस में दूरदर्शिता और प्रगतिशीलता भरने के लिए ज्ञान यज्ञ की जितनी उपयोगिता है, उतनी और किसी की नहीं। देश का दुर्भाग्य है कि इतने लेखक और प्रकाशकों के दिन-रात कार्यरत रहते हुए भी लोकरंजन का कूड़ा-करकट ही छपता रहता है। लोक निर्माण के लिए सभी आवश्यक विषयों पर प्रकाश डालने वाला साहित्य चिराग हाथ में लेकर जहाँ-तहाँ ही उसकी हलकी-फुलकी झाँकी होती है। इस दिशा में युग निर्माण योजना के अन्तर्गत सभी सामयिक विषयों पर योजनाबद्ध प्रकाशन किया गया है। साधन स्वल्प होने के कारण कम मूल्य की पुस्तकें और विशेषतया फोल्डर सीरीज लिखी, छापी गई हैं। फिर भी आशा की जा सकती है कि व्यक्ति और समाज के सामने खड़ी हुई उलझनों में से अधिकांश का प्रगतिशील समाधान इस साहित्य में बड़े रूप में न सही, सार संक्षेप में सरलतापूर्वक पाया जा सकेगा।

ढूँढने पर भी अन्यत्र भी ऐसी पुस्तकें मिल सकती हैं जो बच्चों की, महिलाओं की, परिवारों की, वयोवृद्धों की अगणित उलझनों का हल प्रस्तुत कर सके। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, शिक्षा सम्बन्धी, आजीविका सम्बन्धी, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक प्रश्न भी इन दिनों कितने ही ऐसे हैं, जो सही मार्गदर्शन के अभाव में दिन-दिन उलझते ही चले जा रहे हैं और मनुष्यों को निजी तथा सामाजिक जीवन में बुरी तरह हैरान कर रहे हैं। दूरदर्शी विवेकवान ऐसे विचारक हर जगह उपलब्ध नहीं है, जिनके पास जाकर प्रस्तुत कठिनाइयों में से उबारा जा सके। फिर जहाँ हैं भी, वहाँ उन्हें इतना समय नहीं कि जन समुदाय की उलझनों को सुनें, समझें और उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान का स्वरूप बताने-समझाने में उत्साह दिखावें। ऐसी दशा में उपयोगी साहित्य ही दलदल में फँसे हुए को बाँह पकड़कर उबारने में समर्थ हो सकता है। पुस्तकालय की स्थापना विज्ञजनों को सदा-सर्वदा अपने समीप रखने और जब भी जिस भी प्रसंग पर कुछ पूछना हो, उसे बताने के लिए तत्पर रहें और कितनी देर तक बिना दिन-रात का ख्याल किये अपना परामर्श अनेक तर्क, प्रमाणों समेत प्रस्तुत करते रहें। यह इतना बड़ा परमार्थ है कि अन्य किसी तथाकथित धर्म कृत्य से उसकी तुलना नहीं हो सकती।

यदि किसी गाँव नगर में उपरोक्त योजना के साथ-साथ जन-जन से सम्पर्क साधने और पढ़ाने, वापिस लेने की व्यवस्था वाला साधन सम्पन्न पुस्तकालय चलाया जा सके, तो वहाँ के समस्त शिक्षित वर्ग को युग चेतना से अवगत, अनुप्राणित होने का सुअवसर मिल सकता है। जो बिना पढ़े हैं, उन्हें सुनने, सुनाने की प्रक्रिया चलाकर वह लाभ उपलब्ध कराया जाय। घरों में यह प्रचलन होना चाहिए कि रात्रि के भोजन के उपरान्त और सोने के बीच का जो समय खाली बचता है, उसे पढ़े लोग अपने घर के बिना पढ़े लोगों को युग साहित्य सुनाया करें। साथ ही इस प्रसंग पर भी विचार विनिमय किया करें कि वैसी कोई उलझन अपने परिवार में किसी सदस्य के सामने तो नहीं है। यदि है तो युग साहित्य में बताये हुए मार्गदर्शन के आधार पर उस कठिनाई का निराकरण कर सुधार परिवर्तन करने में हो सकता है। इस प्रकार सायंकाल पठन-श्रवण नियमित बना लेने से शिक्षितों की तरह अशिक्षितों को भी प्राणवान सत्संग का लाभ मिलता रह सकता है।

कभी किसी सभा सम्मेलन में किसी सामूहिक समस्या का समाधान बताना हो तो युग साहित्य में से तद्विषयक परामर्श ढूँढ़कर वक्ता की तरह लाउडस्पीकर पर सुनाया जा सकता है। यह ऐसी अच्छी प्रक्रिया है जिसके आधार पर समय-समय पर आवश्यक विषय पर विद्वान वक्ता का परामर्श सुनने का उपस्थित जनता को सहज सुयोग मिल सकता है। प्रस्तावित प्रज्ञा पुस्तकालय इतने प्राणवान और उपयोगी होंगे कि उसे देखते हुए स्थापना के लिए किया गया श्रम और खर्चे हुए धन का एक-एक कण सार्थक हुआ अनुभव होगा। हर व्यक्ति को एक-एक करके किसी प्रसंग पर उसकी विकृतियों का सुधार तथा जो नये सिरे से करना है, उसका स्वरूप समझना कठिन है, किन्तु पुस्तकालय की स्थापना उसमें मात्र आदर्शवादी साहित्य रखना, साहित्य को स्थानीय शिक्षितों तक पहुँचाना, वापिस लाना ऐसा उपक्रम है जिससे नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति के तीनों ही उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। संव्याप्त कूड़े-करकट को धुंध और अंधड़ को निरस्त करने के लिए प्रज्ञा पुस्तकालयों की योजना अद्वितीय है। इसे अपनाने और कर गुजरने का साहस प्रत्येक विचारशील को जुटाना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

232. दहेज और धूमधाम की शादियाँ न होने दें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

दुष्टताएँ इतनी भोली-भाली नहीं होती कि प्रार्थना करने भर से ही अपना बोरिया बिस्तर समेट लें। वे लालच और अहंकार पर निर्भर होती हैं। अनीति का चस्का ऐसा बुरा है कि समुचित दबाव पड़े बिना वह छूटता नहीं। शराबियों, जुआरियों की आदतें जेल में बन्द होने पर विवश होकर छूट जाती हैं। दण्ड और प्रताड़ना तो बड़ी बात है। साधारण विरोध व्यंग, उपहास जैसे प्रतिरोधों से भी काम चल जाता है। उसके उपरान्त ऐसा भी हो सकता है कि धीमा अथवा कड़ा संघर्ष करना पड़े। न्याय और औचित्य के पक्ष में यह अस्त्र भी काम में लाये जाने चाहिए। समझाने भर से वहाँ काम नहीं चलता, जहाँ दुष्टता को लालच और अहंकार की पूर्ति का लाभ दीखता हो, वहाँ विद्रोह और संघर्ष की सीमा तक जाकर ही अवांछनीयताओं को निरस्त किया जा सकता है।

अपने समाज में यों अनेकों कुरीतियाँ प्रचलित हैं, पर उन सब में अधिक भयावह खर्चीली शादियों का प्रचलन है। इसमें दहेज का लेन-देन तो प्रधान है ही, इसके अतिरिक्त दिखावे में दी जाने वाली वस्तुएँ, बारात की सजधज, कीमती ज्योनार आदि के खर्च भी ऐसे हैं, जो लगभग दहेज के बराबर ही पैसा बर्बाद कराते हैं।

बड़े आदमियों की शादियों में लाखों की, मध्यम वर्ग की शादी पचास-चालीस हजार की और गरीबों की भी दस-पन्द्रह हजार की बैठती है। लड़कियों को शिक्षित बना देने पर मध्यवर्ती परिवार तो ढूँढना ही पड़ता है और वहाँ विवाह करने का अर्थ न्यूनतम पचास-चालीस हजार खर्च करना होता है। यह राशि कहाँ से जुटाई जाय यह प्रश्न टेढ़ी खीर के समान है। जिसके यहाँ दो-तीन लड़कियाँ भी हो, उसे लाख-डेढ़ लाख की आवश्यकता पड़ेगी। इस महँगाई के जमाने में ईमानदारी से कमाने वाला उतना ही अर्जित कर सकता है, जिसमें गुजारा हो सके और किसी प्रकार बच्चों को पढ़ाया भर जा सके। बचत की कोई गुंजाइश नहीं रहती। लड़कियों की शादी के लिए जो अतिरिक्त पैसा चाहिए, इसका जुगाड़ बिठाने में बेईमानी, ठगी, रिश्वत जैसे तरीके ढूँढने पड़ते हैं। जिनकी आत्मा यह सब लन्द-फन्द करने के लिए सहमत नहीं होती, उन्हें महँगी ब्याज पर जहाँ-तहाँ से ऐसा कर्ज लेना पड़ता हैं, जिसके चुका सकने की कोई संभावना नहीं रहती। यह भी न बन पड़े, तो घर के थाली-बर्तन बेचकर पहली लड़की भर के लिए किसी तरह खाई पट पाती है। बाकी दो लड़कियों के लिए तो यह संभावनाएँ भी समाप्त होने लगती हैं। लड़कियाँ बढ़ने लगती है और माँ-बाप चिन्ता से सूखकर काँटा होने लगते हैं। कितनी ही लड़कियाँ इस कुचक्र में कुँवारी रह जाती हैं। कई नौकरी ढ़ूँढ़ लेती हैं। कई माता-पिता को चिन्ता मुक्त करने के लिए आत्मघात जैसे तरीके अपनाती हैं।

देखा जाय कि धूमधाम वाली, दहेज ठहराव वाली शादियाँ क्या आवश्यक है? इस संदर्भ में समस्त संसार पर दृष्टिपात करना होगा। कहीं भी ऐसा प्रचलन न मिलेगा, जहाँ इस प्रकार का आडम्बर रचा जाता हो और लड़की देने वाले के प्रति कृतज्ञ होने की अपेक्षा उससे उल्टे दहेज वसूल किया जाता हो। अपने देश में भी ईसाई, मुसलमान, जैन, सिक्ख आदि में भी ऐसा रिवाज नहीं है। कहीं-कहीं इन वर्गों में पड़ोसियों की छूत लगी है अथवा नीलाम की बोली बढ़ाकर काले पैसे वाले इस तरह का ढर्रा नये सिरे से चलाते हैं।

सोचा यह जाना चाहिए कि गरीब वर्ग पर इस प्रथा के कारण कोल्हू में पिलने जैसा कितना संकट टूटता है? उनकी लड़कियाँ माता-पिता की आँखों में से आँसू बरसते देखकर कितना सकुचाती हैं और अपने को अभागी मानती हैं। बाप को इस कारण बेईमानी के स्रोत खोजने पड़े, तो यह और भी बुरी बात है।

लड़के वाले भी कुछ बड़ा नफा नहीं कमा लेते। लड़कियाँ अपने घर परिवार में भी होती हैं। जितना लिया है, उसी हिसाब से उन्हें भी देना पड़ता है। इसके अतिरिक्त धूमधाम और प्रदर्शन का पैसा तो सर्वथा निरर्थक चला जाता है। बैंड बाजा, दूल्हा को सजावट और सवारी, बारातियों को बुलाने और खिलाने का खर्चा ऐसा है, जिसे गरीबों का, अमीरों जैसा भौंड़ा स्वांग ही कहा जा सकता है। अन्य सभी फर्नीचर आदि ऐसे होते हैं, जो बेकार जगह घेरते हैं। उन्हें रखने को छोटे घरों में जगह नहीं होती। बेचने में नाक कटती है। फिर वह जहाँ-तहाँ पड़ा हुआ टूट-फूट जाता है। लड़के वाला जितना दहेज माँगता है, उसी अनुपात से उसे वधू के लिए कीमती जेवर और रानियों जैसे कपड़े बनवाने पड़ते हैं। बारात की दावत और सजावट में ढेरों पैसा खर्च करना पड़ता है। ऐसी दशा में जो दहेज में वसूल किया गया था, वह ऐसे ही बेतुके ढंग से बर्बाद हो जाता है, बचा कर रखने जैसी कोई पूँजी हाथ नहीं लगती। लड़की को जो जेवर कपड़ा मिला, वह समधी के काम नहीं आता। बेटी वाला पिस जाता है और बेटे वाला उस उपलब्धि से कुछ कमाई कर सके, बचत करके घर में जमा कर सके, ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता। मात्र बदनामी का ठीकरा ही उसके सिर पर फूटता है और अपने घर की लड़कियों के लिए उसी अनुपात से खर्च करने का बंधन बँधता है। न कर पाने पर फिर व्यंग उपहास और लानत मलामत का वातावरण बनता है। ऐसी दशा में दूसरे बेटी वाले की जो दुर्दशा की गई थी, वही अपनी बेटियों की बारी आने पर अपनी भी होती है।

हर विवाह में जो दोनों ओर का खर्च होता है, औसतन तीस-चालीस हजार तो आँका ही जा सकता है। बड़े गृहस्थों में हर दूसरे, तीसरे साल एक शादी करनी पड़ती है। इस प्रकार इस मद में लाख से ऊपर ही पैसा बर्बाद हो जाता है। यह धन बर्बाद न हुआ होता, किसी उपयुक्त व्यवसाय में लगाया गया होता, बैंक में ही जमा कर दिया गया होता, तो वह पैसा बढ़ता और उसका लाभ दोनों पक्षों को मिलता। अब तो दोनों की ही बर्बादी और बदनामी होती है। दोनों ही गरीबी के चंगुल में फँसते हैं।

समय की माँग है कि इस विचारशीलता के युग में यह तथ्य हर किसी को हृदयंगम कराया जाय कि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र बेईमान ही नहीं, बदनाम भी कराती हैं। यह मध्यकालीन सामन्तवादी युग के जमींदार, साहूकार, लुटेरों के युग की है, जो अनाप-शनाप कमाते और आँखें बन्द करके खर्चते थे। अब परिस्थितियाँ बदल गई। समझदारी अपनाने का तकाजा सिर पर है। सर्वत्र गरीबी और कठिनाई का दौर है। इन दिनों एक-एक पैसा संभालने और उसे फूँक-फूँक कर पैर रखते हुए मुट्ठी बाँधकर खर्च करने का जमाना है। इसलिए वह रास्ता निकालना चाहिए, जिससे खर्चीली शादियों की, दहेज ठहराव की, लानत से बचा जा सके।

मनुष्य की आदत अनुकरण प्रिय है। अन्धी भेड़ों की तरह एक के पीछे दूसरे को चलते देखा जा सकता है। खर्चीली शादियों के सम्बन्ध में भी यही हुआ और हो रहा है। इस कुचक्र को कहीं से तो तोड़ना ही पड़ेगा। आदर्शवादी उदाहरण किन्हीं को तो उपस्थित करने ही होंगे। कुरीतियों और मूढ़ताओं से किन्हीं को तो संघर्ष करना ही होगा। यह कार्य प्रज्ञा परिजनों को अपने कंधे पर उठाना चाहिए और संघर्ष छेड़ने में अपने को भी चोट लगने का जोखिम उठाना पड़ता है, उसके लिए साहस जुटाना चाहिए।

प्रगतिशीलता अपनाने और सुधार परिवर्तन के श्रीगणेश करने का संकल्प लिया गया है। इसलिए उन्हीं के जिम्मे यह काम भी आता है कि कुरीतियों में सबसे निन्दनीय और हानिकारक खर्चीले विवाहों की कुप्रथा के उन्मूलन के लिए अपने घरों से शुभारम्भ करें और किसी दूसरे के आगे बढ़ने, साथ देने की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं ही इस दशा में अपने कदम बढ़ायें।

प्रज्ञा परिवार के वयस्क नर-नारियों को प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि अपने लड़के-लड़कियों की शादियाँ सर्वथा बिना खर्च के करेंगे। अपना गायत्री परिवार अब इतना बड़ा हो गया है कि उसमें इसी विचार के दोनों पक्ष मिल सकते हैं। यहाँ इतना और सुधार करने की आवश्यकता है कि उपजातियों का बन्धन तो निश्चित रूप से ढीला किया जाना चाहिए। ब्राह्मणों की ब्राह्मण मात्र में, क्षत्रियों की क्षत्रिय मात्र में, कायस्थों की कायस्थ मात्र में, इसी प्रकार अन्य जातियों में भी उपजातियों का बन्धन न रहे तो उपयुक्त लड़के-लड़की तलाश करने में आधी कठिनाई तो सहज ही दूर हो सकती है। छोटी उपजातियों में थोड़े से सुयोग्य लड़के होते हैं और उनकी बोली महँगी बढ़ती जाती है। यदि ढूँढने का क्षेत्र थोड़ा बड़ा हो जाए तो अपने अनुरूप सम्बन्ध तलाश करने में बहुत सुविधा हो सकती है और समस्या का एक बड़ा पक्ष हल हो सकता है।

आदर्श विवाहों का रूप यह है कि निजी परिवार के न्यूनतम दस के लगभग व्यक्ति ही बारात में जाय। बाहर के किसी सम्बन्धी यार दोस्त को उसमें न ले जाया जाय। वधू के घर आने पर उसके हाथ का बनाया परोसा भोजन खाने के लिए अपने मित्र सम्बन्धियों को अपने घर पर दावत के लिए बुलाया जा सकता है।

विवाह के अवसर पर दोनों ओर से कोई दिखावे की चीज न तो ली जाय, न दी जाय। बेटे की ओर से जेवर या रानियों जैसे कपड़े चढ़ाने की कतई जरूरत नहीं है। इसी प्रकार बेटी वाले की ओर से चित्र-विचित्र फर्नीचर, कपड़े, या नकदी देने की कोई आवश्यकता न समझी जाय। अधिक से अधिक इतना तो हो सकता है कि दोनों की ओर से लड़की-लड़के के सामान्य कीमत के कपड़ों का आदान-प्रदान कर दिया जाय। जेवर के नाम पर दोनों ओर से एक-एक अँगूठी भर दी जाय। बारात एक दिन रुके और दूसरे या तीसरे दिन बिदा हो जाय।

अपने यहाँ इसके विरोध उपहास का झंझट हो, तो दोनों पक्ष शान्तिकुञ्ज हरिद्वार चले आवें और यहाँ के दिव्य वातावरण में शास्त्रीय विधि से शादी करा के ले जाय। इसमें किसी साधन सामग्री के समेटने, बटोरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। विवाह में जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, उन सब का यहाँ प्रबन्ध है।

बिना खर्च, प्रदर्शन दहेज की शादियाँ करने की प्रतिज्ञा का हमें दृढ़तापूर्वक निर्वाह करना चाहिए। प्रतिज्ञा ऐसी ढीली-पोली न होनी चाहिए कि मित्र, कुटुम्बियों, सम्बन्धियों के विरोध करने पर उसे तोड़ दिया जाय। भले ही उपयुक्त जोड़ा मिलने में देर लगे, इसके लिए धैर्य रखा जाय और विवाह सम्बन्ध उन्हीं परिवारों के साथ जोड़ा जाय, जिनमें आदर्शवाद की लहर पहुँच चुकी हो।

अपने सम्पर्क में भी यह विचार धारा पहुँचनी चाहिए और यह भी निश्चित करना चाहिए कि उन्हीं शादियों में सम्मिलित हुआ जायेगा, जिनमें उपरोक्त आदर्श अपनाया गया है। जहाँ पुराने दर्जे की ही धूमधाम, लेन−देन ही रहा हो, उनमें सम्मिलित नहीं हुआ जाय, भले ही वह अपने कुटुम्बी या सम्बन्धी के यहाँ ही क्यों न हो रही हो।

स्कूलों, कालेजों में लड़की-लड़कों तक यह प्रचार किया जाना चाहिए। उन्हें इस सन्दर्भ का साहित्य पढ़ाना चाहिए और इस कारण होने वाले अनर्थों का विवरण अखबारों में से कटिंग काटकर सुनाना चाहिए।

जो लड़के-लड़कियाँ सहमत हों, उनसे प्रतिज्ञा पत्र भराने चाहिए कि विवाह आदर्श परम्परा के अनुरूप ही करेंगे। परिवार के लोग यदि इससे असहमत होंगे तो बिना विवाह के रहेंगे, पर इस प्रतिज्ञा को तोड़ेंगे नहीं। अपने इस निश्चय की जानकारी उनके अभिभावकों को भी दे देनी चाहिए, ताकि वे कहीं बात चलाकर पीछे बात को लौटाने में अपनी तौहीन न समझें। स्कूल, कालेजों के अतिरिक्त भी जहाँ कहीं अविवाहित मिलें, वहाँ उनसे भी यही प्रतिज्ञाएँ करानी चाहिए। साथ ही उपयुक्त जोड़े मिलाने में, उपयुक्त समय पर उनकी सहायता भी करनी चाहिए। हर क्षेत्र में ऐसे प्रतिज्ञा करने वाले अभिभावकों एवं युवक-युवतियों की लिस्ट भी हर शाखा संगठन को रखनी चाहिए।

एक अच्छा तरीका सामूहिक विवाहों का भी है। गायत्री यज्ञ, युग निर्माण सम्मेलन के साथ सामूहिक विवाहों की योजना भी बनायी जाय। अभिभावकों के साहस को सराहा जाय और अन्य लोगों को भी यही परिपाटी अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाय। सम्भव हो तो वर-वधुओं के जोड़ सवारियों पर बिठा कर नगर में उपस्थित जनता समेत जुलूस निकाला जाय, किन्तु स्मरण रहे कि इन सामूहिक विवाह आयोजनों में बाल-विवाहों को प्रोत्साहन न दिया जाय। कुछ समय पूर्व भारत सरकार यह एक्ट पास कर चुकी है कि १८ वर्ष से कम की लड़की और २१ वर्ष से कम के लड़के का विवाह करना दण्डनीय है। ऐसा करने पर दोनों पक्ष के अभिभावक और विवाह कृत्य कराने वाले पंडित जेल जा सकते हैं। अपने मंच से बाल विवाहों का समर्थन नहीं होना चाहिए। एक अच्छाई दूसरी बुराई मिला देने पर यह प्रयत्न गुड़ गोबर मिला देने की तरह सर्वथा निरर्थक ही हो जाता है। दहेज के कारण होने वाली हानियों से बाल विवाह किसी प्रकार कम नहीं है। ऐसे आयोजनों से प्रोत्साहित होने वाले अगले सम्बन्ध में परिचित लोगों के बीच जुड़ जाते हैं।

बिहार में मैथिल ब्राह्मणों का एक बड़ा मेला ऐसा भी होता है, जिसमें अभिभावक अपने लड़के-लड़कियों को लेकर पहुँचते हैं और अपने उपयुक्त सम्बन्धों की ढूँढ का काम उस अवसर पर सरल बना लेते हैं। गायत्री परिवार के क्षेत्रीय बड़े आयोजनों में इस प्रकार का प्रचलन भी करना चाहिए। ढूँढ खोज में सरलता हो जाना भी एक बड़ी बात है।

आवश्यकता इस बात की है कि खर्चीली शादियों की हानियों से जन-जन को अवगत कराया जाय और कहा जाय कि इस आधार पर होने वाले सम्बन्धों में कन्या पक्ष अपने ऊपर तेल पेलने जैसे दबाव भरे अत्याचार को कभी भूलना नहीं। सम्बन्धियों के बीच जो प्रेम भाव बनना चाहिए, वह आजीवन बनता ही नहीं। लड़कियाँ भी समझदार होती हैं, उनके मन में भी यह घाव बना रहता है कि ससुराल पक्ष ने उसके अभिभावकों को किस प्रकार त्रास दिया और निचोड़ा है। इस घाव के कारण वह ससुराल वालों की मन से सेवा भी नहीं कर पाती। विवाह की धूम-धाम तो दो-चार दिन में समाप्त हो जाती है, पर उसके कारण हुई घर की बर्बादी आजीवन याद बनी रहती है और वह खाई लम्बे समय तक पटती नहीं। विवाह का उद्देश्य दो परिवार में घनिष्ठ आत्मीयता का सम्बन्ध जोड़ना है, पति-पत्नी के बीच श्रद्धा और सहानुभूति उत्पन्न करना है, पर जहाँ दहेज के नाम पर नीलामी होती है, वहाँ बाहर से शिष्टाचार बरता जाने पर भी भीतर ही भीतर घृणा और तिरस्कार बना रहता है। इसके रहते न वर-वधू में आत्मीयता पनपती है और न दो कुटुम्ब परस्पर सुख-दु:ख के साथी होने की आशा करते हैं। दहेज के नाम पर लड़का बेचा जाना हो तो फिर उसे बैल की तरह ससुराल ही जाकर रहना चाहिए और उन्हीं लोगों का काम-धन्धा करना चाहिए। न्याय की दृष्टि से सोचा जाय तो लड़की वाले दहेज माँगे तो उसके पीछे कोई तर्क तथा औचित्य भी है। पर लड़के वाले दहेज माँगे, इसका तो कोई न्यायोचित कारण भी समझ में नहीं आता।

इस सन्दर्भ में एक महाभारत स्तर का संघर्ष खड़ा करना पड़ेगा, जिसमें कुटुम्बियों और सम्बन्धियों का ख्याल किये बिना भगवान कृष्ण ने पाण्डव-कौरवों को नीति-अनीति के प्रश्न पर आपस में लड़ा दिया था। मीरा के एक पत्र का उत्तर देते हुए तुलसीदास जी ने लिखा था-

पिता तज्यौ प्रह्लाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।गुरुबलि तज्यौ, कन्त ब्रजबनितन, भये मुद मंगलकारी।।

इसका अर्थ है नीति-अनीति के प्रश्न पर कुटुम्बी-सम्बन्धियों के अभिमत की उपेक्षा की जा सकती और उनके आग्रह-परामर्श की अवमानना की जा सकती है। प्रज्ञा परिवार में छोटे-बड़े सभी को खर्चीली शादियों के सम्बन्ध में ऐसा ही रुख अपनाना चाहिए, अनीति के आगे सिर नहीं झुकाना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

233. वृक्ष सम्पदा को घटने न दें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

वृक्ष वनस्पतियों और पशु-पक्षियों समेत मनुष्य हरीतिमा के आधार पर जीवित रहते हैं। पशु घास खाते हैं और पेड़ों के पत्ते चरते हैं। मनुष्य का आहार अन्न के दाने, शाक, फल व वनस्पति हैं। यह खाने को न मिले तो जीवित रहना सम्भव नहीं। माँसाहारी भी शाकाहारी प्राणियों का ही माँस खाते हैं। इस प्रकार जीवन की निर्भरता घास स्तर की तथा वृक्ष स्तर की वनस्पतियों पर ही निर्भर माना गया है। उसके उत्पादन और संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाय, तभी आवश्यकता की पूर्ति संभव है।

वृक्ष दिन भर आक्सीजन उगलते रहते हैं और प्राणियों के साँस द्वारा छोड़ी हुई कार्बन डाई आक्साइड को निगलते हैं। इसलिए उन्हें नीलकंठ की उपमा दी गयी है। आग लगने तथा कारखानों से विषैली वायु निकालने का वायु प्रदूषण प्रायः वनस्पति द्वारा ही शोधित किया जाता है।

वृक्षों का चुम्बकत्व आकाश से बादलों को खींचता है और बरसने के लिए विवश करता है। जिन क्षेत्रों के वृक्ष कट जाते हैं, वहाँ वर्षा का अनुपात भी बहुत कम हो जाता है। लीबिया अब से १०० वर्ष पहले हरीतिमा से भरा हुआ था। तब वहाँ वर्षा भी खूब होती थी और घास के सहारे पशु भी पलते थे। इस बीच वहाँ के जंगल कट गये। कीमती लकड़ी योरोप चली गई। वीरान क्षेत्र में वर्षा बन्द हो गई और बहुत बड़ा इलाका रेगिस्तान बन गया। इस अभाव के कारण वहाँ कितनी दरिद्रता बढ़ी होगी, इसका अनुपात सहज ही लगाया जा सकता है।

वृक्षों की जड़ें जमीन में गहरी जाती है और वर्षा के प्रवाह में बह जाने से उसे रोके रहती हैं। वृक्ष न हो तो वर्षा का पानी न तो जमीन के भीतर रुकेगा और न पकड़ के अभाव में मिट्टी यथा स्थान टिकी रहेगी, बहकर नदी-नालों में चली जायेगी और भूमि की उपजाऊ वाली परत न रहने पर न तो कृषि ठीक तरह फसल देगी और न जमीन में घास-पात उगेगी। मिट्टी वर्षा के पानी के साथ बहकर जब नदी-नालों में जाती है, तो उनकी सतह ऊपर उठती जाती है। गहराई कम होने पर पानी समतल भूमि में फैलता है और बाढ़ आने की स्थिति बन जाती है। इस बाढ़ में फसल बह जाती है और खेत कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं, बालू रेत से भर जाते हैं।

यह हानियाँ साधारण नहीं, असाधारण हैं। इसके अतिरिक्त एक और भी बड़ी बात है, कि हरीतिमा का मानसिक स्तर पर भी बड़ा प्रभाव पड़ता है। प्राचीन काल के ऋषि तपस्वी अपनी भावचेतना को उच्चस्तरीय बनाये रखने के लिए सघन वनों में रहते थे। वृक्ष रहित क्षेत्रों में मनुष्यों की मनोवृत्ति नीरस और दुष्ट हो जाती है और वहाँ अपराध, विग्रह अपेक्षाकृत अधिक होने लगते हैं।

वृक्ष की जड़े नीचे जमीन में जाती हैं, तो अपनी पकड़ के कारण वर्षा का पानी उस भूमि में रोके रहती हैं, फलतः उस क्षेत्र में उगने वाले पेड़ पौधों को खुराक मिलती रहती है। यदि पेड़ न हो तो समतल भूमि का पानी सर्राटे से बह कर नदी नालों में चला जाता है। जमीन एक दो महीने में ही सूख जाती है। सर्दी के दिनों तथा गर्मी में पेड़ पौधों की जड़े प्यासी रह सकती हैं, फलतः वे सिंचाई का विशेष प्रबन्ध होने पर भी जीवित नहीं रहते हैं। अन्यथा प्राकृतिक रूप से उनका पालन पोषण बन्द हो जाता है।

कुओं का, झरनों का, तालाब-बावड़ियों का पानी तभी अधिक दिन टिकता है, जब पेड़ों की जड़ें ऊपर की सतह को गीली रखती हैं अन्यथा कुएँ सूख जाते हैं, उनका पानी गहराई में उतर जाता है। इन कारणों से मनुष्यों और पशुओं को पानी का त्रास सहना पड़ता है।

वृक्षों के पत्ते तथा फूल ठंडक के दिनों में टूट कर जमीन पर गिरते हैं। वे सूखते और सड़ते रहते हैं, उनका खाद बनता रहता है। इस प्रकार जमीन को वृक्ष ऊपर से खाद बरसाते हैं और जड़ों से दूर-दूर तक नमी रोके रहने के कारण पानी देते रहते हैं। हरीतिमा अपने आप बनी रहती है और नये पेड़ पौधे उगते बढ़ते रहते हैं, किन्तु यदि वृक्षों को ईंधन या फर्नीचर के लिए बेहिसाब काटा जाने लगे और उनके स्थान पर नये पेड़ न उगें, तो उसके प्रतिफल स्वरूप सारे क्षेत्र की भूमि ऊसर और खाली दीखने लगेगी। पुराने कटते चले और नये उगाये न जाय, तो उस अभाव के कारण लकड़ी दिन-दिन कम होती चली जायेगी।

पक्षी पेड़ों पर ही रहते हैं। वे कितने ही उपयोगी काम करते हैं। एक तो यह कि फसल को नष्ट करने वाले कीड़े-मकोड़े खाते रहते हैं और फसल की क्षति बचाते हैं। दूसरे यह कि अपने पंजों और पैरों के स्पर्श से जो पराग चिपका लेते हैं, उसे अन्य पेड़ पर बैठते समय मादा जाति के फूलों पर छिड़क देते हैं। फलस्वरूप उनको अच्छी तरह फलने का अवसर मिलता है। यदि पक्षी इस कार्य को न करें तो नर पराग के अभाव में उनका फलना रुक जायेगा। छोटे फूल-पौधों का पराग प्रत्यावर्तन मोरों, तितलियों, मधु मक्खियों द्वारा होता है। इसलिए फूलने के बाद वे फल और बीज भी देते हैं। यह कार्य पेड़ों के फूलने के समय पक्षी करते हैं। उनके फलने का बहुत कुछ श्रेय इन पक्षियों को ही है। पक्षी पेड़ों पर ही घोंसले बनाते हैं। वे दूर-दूर तक उड़ते हैं और अपनी बीट के साथ इन पर्वतीय एवं सुनसान क्षेत्रों में बीज गिरा देते हैं। फलतः उन क्षेत्रों में भी हरीतिमा उगने लगती है, जहाँ मनुष्य का आवागमन नहीं होता। समुद्री टापुओं में जो वृक्ष-वनस्पति पायी जाती है, उसे पक्षियों द्वारा बोया गया ही समझना चाहिए।

अन्य पशु पेड़ों की छाया में ही सर्दी, गर्मी और वर्षा की भयंकरता से अपना बचाव करते हैं। इसलिए पेड़ न केवल पक्षियों के लिए, वरन् पशुओं के लिए भी आश्रय स्थल है। हिरन, लोमड़ी, खरगोश, सियार आदि जंगलों में ही खुराक एवं आश्रय प्राप्त करते हैं। उनके मल-मूत्र, हड्डी, चमड़ा आदि से वन प्रदेश को कीमती खाद मिलती है और वह क्षेत्र सदा हरा-भरा रहता है। वन्य पशु जहाँ अपनी खुराक जंगलों से प्राप्त करते हैं, वहाँ बदले में उस क्षेत्र को कीमती खाद भी देते रहते हैं।

सभी विचारशील देशों में प्रायः एक तिहाई जमीन वन लगाने के लिए छोड़ी जाती है। वे जानते हैं कि लकड़ी के लोभ में यदि उस क्षेत्र की सफाई कर डाली गयी और खेत बना लिये गये, तो इस छोटे लाभ के बदले जो हानि उठानी पड़ेगी, वह कहीं अधिक होगी। जमीन की मिट्टी बह जायेगी और वहाँ खड्डे-खंदक पड़ जायेंगे। जिनमें चोर डाकू मजे में आश्रय प्राप्त करते रहे। जमुना और चम्बल के इर्द-गिर्द पेड़ों को लगाने या बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया गया, फलतः किनारों के आस पास ही लाखों एकड़ जमीन खड्डर-खंदकों से भर गयी और उन इलाकों में छिपने की सुविधा होने के कारण डाकुओं की असाधारण बढ़ोत्तरी हो गई। उनके भय से खुशहाल किसान और व्यापारी जान बचाने के लिए शहरों में चले गये।

दुधारू पशुओं को जंगल चरागाह में चरने भेजते रहने की सुविधा होने पर एक ग्वाला बीसियों पशुओं को चरा लेता है और उनके लिए खुराक की अतिरिक्त व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। जहाँ यह सुविधा नहीं है, वहाँ घर बाँध कर जानवर पालने पड़ते हैं और खरीदा हुआ चारा लेने पर वे बहुत महँगे पड़ते हैं। ठाली पशुओं एवं बच्चे, जानवरों का परिपालन तो एक प्रकार से अति कठिन ही हो जाता है। फलतः वे कसाई के यहाँ चले जाते हैं। इस प्रकार पशु घटते जाने से बैल, गाय आदि सभी की कीमतें बढ़ती हैं और दूध, घी जैसे खाद्य पदार्थों के दाम आकाश चूमने लगते हैं। गरीबों के बच्चे इतना महँगा दूध न पा सकने के कारण अत्यन्त दुबले रह जाते हैं और अकाल मृत्यु का शिकार बनते हैं। यदि जंगल चरागाह बने रहते, तो पशुओं की इतनी कमी न पड़ती। दूध के अभाव में बच्चों को दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का ग्रास न बनना पड़ता।

कलकत्ता यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर के डॉ. टी. एम. दास वनस्पति शास्त्र के विशेषज्ञ हैं, उनके अनुसार एक वृक्ष अपने ५० वर्ष के जीवनकाल में जितनी सेवा करता है, उसकी कीमत पैसे में जोड़ने पर पन्द्रह लाख से भी अधिक आती है। एक वृक्ष ५० वर्ष की अवधि में ढ़ाई लाख रुपये की ऑक्सीजन देता है। भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में ढ़ाई लाख रुपये के बराबर की खाद जितनी सहायता करता है, प्रदूषण नियन्त्रण के रूप में वायु प्रदूषक अवयवों की मुफ्त सफाई पांच लाख रुपये के बराबर करता है। आर्द्रता रोकने, वर्षा करने तथा खाद्य प्रोटीनों की कीमत जोड़ने पर भी ५० वर्ष की अवधि में लगभग पाँच लाख रुपये की राशि आती है। १५ लाख रुपये के बराबर वृक्ष की परोक्ष सेवाओं का मूल्यांकन करके सामान्यतया लकड़ी एवं फलों से प्राप्त होने वाले कुछ सौ रुपये के रूप में उसकी कीमत आँकी जाती है।

यह तो एक वृक्ष की बात हुई। प्रकृति प्रदत्त वृक्ष सम्पदा से मिलने वाले कुल भौतिक अनुदानों के लेखा-जोखा लेने पर ज्ञात होता है, कि जितनी सेवा ये वृक्ष मुफ्त करते हैं, उतनी शायद मनुष्य भी न करता हो। प्राप्त आँकड़ों के अनुसार अपने देश में कुल भूभाग के २३ प्रतिशत क्षेत्र में वन हैं, जबकि पर्यावरण संतुलन एवं देश के आर्थिक विकास के लिए कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई भाग वनों से आच्छादित रहना आवश्यक है। भारत के वन क्षेत्र २ लाख ७४ हजार वर्ग मील में फैले हुए हैं, जो ३८ खरब ७८ अरब ११ करोड़ २९ लाख ६० हजार वर्ग फीट के लगभग आता है। वर्ग फुटों में पेड़ों को गिना जाय तो भारत के २३ प्रतिशत भूभाग में फैले कुल वृक्षों की संख्या १९ अरब ३९ करोड़ ५ लाख ६४ हजार ८ सौ होती है। एक वृक्ष ५० वर्ष की अवधि में ढाई लाख रुपये की आक्सीजन, ढाई लाख का उर्वरक, पाँच लाख रुपये के बराबर प्रदूषण निवारण तथा पाँच लाख रुपये की वर्षा कराने जैसी उपलब्धियाँ प्रस्तुत करता है।

पर्यावरण सन्तुलन के लिए कुल भू भाग के क्षेत्रफल का ३३ प्रतिशत वृक्ष वनस्पतियों से ढँका होना चाहिए। कभी देश की ७० प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित थी। कटते-कटते वह मात्र २२ प्रतिशत अवशेष बची है। अनिवार्य पर्यावरण सन्तुलन सीमा से भी यह १० प्रतिशत कम है। दूसरे प्रगतिशील देशों ने कड़ाई के साथ वन सम्पदा को नष्ट करने पर रोक लगा दी है। फिनलैण्ड में अब भी ६६ प्रतिशत भूमि में वन हैं। जापान जैसे औद्योगिक राष्ट्र जहाँ कि ईंधन की अधिक आवश्यकता उद्योगों के लिए पड़ती है, में भी ६२ प्रतिशत क्षेत्रफल पेड़-पौधों से हरा-भरा है। रूस के कुल क्षेत्रफल के ३४ प्रतिशत तथा अमेरिका में ३३ प्रतिशत भाग में वन हैं। सर्वाधिक अदूरदर्शिता का परिचय अपने देशवासियों ने दिया है। अन्धाधुन्ध वृक्षों की कटाई के कारण असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस स्थिति को कड़ाई से रोकना होगा तथा संतुलन के लिए वृक्षारोपण जैसे पुनीत भौतिक और आध्यात्मिक लाभ देने वाले कार्य को अविलम्ब आरंभ करना होगा।

एक वृक्ष काटने से अधिक से अधिक एक हजार रुपये कीमत की जलाऊ तथा अन्य निर्माण योग्य लकड़ी प्राप्त होती है, किन्तु उसके बने रहने से प्रतिवर्ष ३० हजार की स्वच्छ आक्सीजन, उर्वरक, पानी और वायु प्रदूषण निवारण का लाभ प्राप्त होता है। कटाई का अर्थ होगा लम्बे समय तक प्रतिवर्ष ३० हजार रुपये के लगभग का जो योगदान प्रकृति सन्तुलन के रूप में मिल सकता था, उससे वंचित रह जाना।

वृक्षों की उपयोगिता और महत्त्वपूर्ण भूमिका का रहस्य उद्घाटन वैज्ञानिक विकास के समय हुआ। विश्व के मूर्धन्य वनस्पति शास्त्री पर्यावरण विशेषज्ञ अब एक स्वर से स्वीकार कर रहे हैं, कि वृक्ष सम्पदा पर समस्त मानव जाति का अस्तित्व टिका हुआ है। ये प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ प्रहरी हैं, जिनके न रहने से प्राणि समुदाय का जीवन संकट में पड़ जायेगा। प्रगतिशील देशों ने इस तथ्य को समझा है कि अपनी वन सम्पदा को बचाने एवं बढ़ाने के लिए हर तरह के कारगर उपाय सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर आरम्भ कर दिये हैं।

एक व्यक्ति के जिम्मे १२ वृक्ष आते हैं। एक तरीका यह भी हो सकता है कि हर परिवार अपने पारिवारिक सदस्यों की संख्या के हिसाब से वृक्षारोपण का दायित्व उठावें। मात्र पौधा लगाने को ही इतिश्री न समझा जाय। इनमें पानी, खाद देने तथा वृक्ष के रूप मे विकसित होने तक समुचित देख-रेख की जाय। देख-रेख, सुरक्षा एवं परिपोषण की व्यवस्था न बन सकी, तो श्रम का अधिकांश भाग सरकारी प्रयासों की भाँति निरर्थक चला जायेगा और अन्ततः असफलता हाथ लगेगी। प्रत्येक परिवार अपने-अपने हिस्से का दायित्व संभाल ले, वृक्ष लगाने और उसे परिपक्व स्थिति तक पहुँचाने का काम चल पड़े, तो कुछ ही वर्षों में अनिवार्य वृक्ष सम्पदा को ३३ प्रतिशत तक पहुँचाया जा सकता है।

वैज्ञानिकों का एक और भी कथन है कि मौसम को सुव्यवस्थित रखने में वनों की महती भूमिका है। यदि पेड़ घटते जायेंगे, तो उस क्षेत्र का मौसम गड़बड़ाने लगेगा, वर्षा घट जायेगी और सर्दी-गर्मी अधिक पड़ने लगेगी, इसका मनुष्य के शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्वास्थ्यों पर बुरा असर पड़ता है, पशु दुर्बल होते जाते हैं और उनकी श्रमशक्ति तथा दूध देने की क्षमता घट जाती है। दुर्बल और रोगी मनुष्य तथा बच्चे इस असंतुलन को बर्दाश्त नहीं कर पाते, फलतः उनके लिए जीवन संकट खड़ा हो जाता है। सर्दी से बचने के लिए ईंधन जलाने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार आर्थिक दबाव का एक कारण और भी बनता है।

पूर्वजों की स्मृति में वृक्ष लगाना एक उच्च कोटि का श्राद्ध तर्पण माना गया है। कोई माननीय व्यक्ति हमारे यहाँ आते हैं, तो उनके हाथों वृक्ष आरोपण की प्रथा है। इस प्रकार विवाह, पुत्र जन्म, परीक्षा में उत्तीर्ण होने, कोई आर्थिक लाभ होने के उपलक्ष्य में वृक्ष लगाने का पुण्य कृत्य किया जाय, तो बहुत सराहनीय समझा जायेगा।

औसत आवश्यकता के अनुसार ११ प्रतिशत वन क्षेत्र अपने देश में कम है। इसकी पूर्ति तब हो सकती है, जब हर आदमी १२ पेड़ लगाये। इसके लिए अपनी जमीन हो तो सर्वोत्तम, न हो तो सरकारी सड़कों के सहारे, रेलवे लाइन के समीप जहाँ बेकार जमीन पड़ी हो वहाँ अपने श्रम से पेड़ लगाये जा सकते हैं, उनका स्वामित्व सरकारी रहे तो भी हर्ज नहीं। ऊसर भूमि कितनी ही जगह पड़ी है। ग्राम पंचायतों से पूछकर खाली जगह का इसके लिए प्रयोग किया जा सकता है। वन प्रदेशों में जहाँ लोगों ने पेड़ काट तो लिए हैं, पर फिर लगाये नहीं, वहाँ जाकर लगाने का प्रयत्न किया जाय और रखवाली के लिए बाड़ लगा दी जाय। गर्मी के दिनों में सिंचाई की एक दो वर्ष आवश्यकता पड़ती है, फिर तो उनकी जड़े गहरी चली जाती हैं और वे स्वावलम्बी हो जाते हैं।

जो लोग स्वयं श्रम करके वृक्ष नहीं लगा सकते, वे पैसा देकर दूसरों का श्रम खरीद सकते हैं और यह कार्य दूसरों के माध्यम से करा सकते हैं। यों सरकार भी इस दिशा में कुछ काम कर रही है, पर उसी के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर हमें नहीं बैठा रहना चाहिए, वरन् जन स्तर पर भी जितना कुछ बन पड़े, अधिक से अधिक करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

234. क्या खायें? कैसे खायें?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य की संरचना बन्दर बिरादरी की है। डार्विन तो यहाँ तक कहते थे कि मनुष्य बन्दर की औलाद है। इतना न भी हो, तो वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा बन्दर का सबसे अधिक निकटवर्ती है। दोनों के लिए आहार भी एक ही तरह का सुपाच्य बैठता है।

बन्दर की भाँति मनुष्य भी शाकाहारी है। दोनों के लिए अधिक प्रिय और पौष्टिक फल बैठते हैं। कभी इस धरती पर वह अधिक थे, उनमें ऊँचे दर्जे के फल भी बहुत होते थे, पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। अंगूर, अनार, सेव, सन्तरा, चीकू, अनानास आदि सबके लिए सुलभ नहीं हैं। उनके दाम बहुत मँहगे हैं। बड़े लोग तो आसानी से उन्हें प्राप्त कर सकते हैं पर मध्यवर्ती लोग सस्ते ऋतुफल प्राप्त कर सकें, तो भी अच्छा है। आम, जामुन, शहतूत, कटहल, बेर, अमरूद, पपीता, केला जैसे फल अधिक मँहगे नहीं होते और अपने-अपने मौसम पर बड़ी मात्रा में मिल जाते हैं। खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, टमाटर, गाजर और भी सस्ते होते हैं। इसमें मनुष्य की प्रकृति के अनुकूल जिन तत्वों की आवश्यकता है, वे भी इनमें सन्तुलित मात्रा में मिल जाते हैं। ये सुपाच्य हैं, इन्हें भूनने, उबालने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त बहुत सी शाक भाजी ऐसी हैं, जो मनुष्य के लिए उपयोगी तो हैं, पर पचने में तथा स्वाद में ऐसी है कि उबाले बिना काम नहीं चलता। पुराने जमाने के कड़ी मेहनत करने वाले लोग ऐसे थे, जो अनेक शाक कच्ची ही खा जाते थे और पचा लेते थे, पर अब पाचन शक्ति शिथिल हो जाने पर उबली हुई वस्तुएँ पेट की पाचन क्रिया का काम हलका कर देती हैं।

फलों के बाद शाकों का नम्बर आता है। न्यूनाधिक मात्रा में सभी शाक हल्के होते हैं। बैगन, लौकी, तोरई, टिन्डा, भिण्डी, चुकन्दर, शलजम आदि जिनमें पानी का अंश अधिक होता हैं। हल्के माने जाते हैं। आलू, अरबी, रतालू, जमीकन्द, मूली, प्याज जमीन के भीतर से निकलते हैं, वे कन्द कहलाते हैं। उनमें पानी का अंश कम होता है। इसलिए उन्हें उबालने की आवश्यकता पड़ती है। इनका स्वाद भी ऐसा है, जिसके कारण उन्हें कच्चा नहीं खाया जा सकता है। उबालने पर वे सुपाच्य और स्वादिष्ट खाने योग्य बन जाते हैं ।।

शाकों को स्वादिष्ट बनाने के लिए उनमें मसालों की भरमार की जाती है, इससे वे जायकेदार तो बन जाते हैं, भूनने, तलने का भी रिवाज है, पर मसालों की गर्मी के कारण पेट पर अनावश्यक दबाव डालते हैं।

साथ ही उसके कारण रक्त भी उत्तेजित स्तर का बनता है। काम न चले तो हलका सा नमक डाला जा सकता है। मसालों की बहुत इच्छा हो तो हरी मिर्च, अदरक, पुदीना, धनिया, प्याज, आँवला, नीबू जैसी वस्तुएँ हर परिस्थिति में मिलाकर जायका बढ़ाने का काम लिया जा सकता है। सूखी मिर्च, हींग, दालचीनी, तेजपत्र, अमचूर जैसी वस्तुएँ विशेष रूप से उत्तेजक और हानिकारक मानी गई हैं। अचार तो किसी का भी नहीं बनाना या खाना चाहिए। तेल में बहुत दिन तक पड़ी रहने के कारण वस्तुएँ अपना स्वाभाविक गुण खो बैठती हैं। कई वस्तुएँ तो अखाद्य होते हुए भी अचार के नाम पर खाए जाने की प्रथा है, जैसे टैंटी, बाँस, नीम, काली मिर्च आदि के अचार लोग बना लेते हैं। वे अपनी मूल प्रकृति में मनुष्य के लिए उपयोगी न होने के कारण परिणाम में भी हितकर नहीं पड़ते।

अन्न बिरादरी की हर चीज उबाल कर ही लेनी चाहिए। किसी भी अन्न को अपनी रुचि के अनुरूप चुना और खाया जा सकता है। दालें सभी अच्छी हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। मूँग, मसूर, मोठ, उड़द, अरहर, लोबिया आदि में उपयोगी प्रोटीन होती है। सोयाबीन में प्रोटीन की मात्रा तो अधिक है, पर उसमें तेल की मात्रा भी अधिक रहती है। इसलिए पचने में भारी पड़ता है, तो भी इसमें दूसरे अन्न या दालें मिला कर हलका किया जा सकता है। रोटी के साथ दाल खाने का रिवाज है, सो ठीक है, पर साथ में शाक की मात्रा भी रहनी चाहिए। अन्न को पानी में भिगोकर अंकुरित कर लिया जाय, तो उसमें जीवन तत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। दालों में सेम, मटर, चना आदि का भी उपयोग होता है। कच्ची स्थिति में उनके बीज निकाल कर दाल अधिक स्वादिष्ट और सुपाच्य होती हैं।

जहाँ तक हो सके, वहाँ तक अनाजों, दालों, शाकों और फलों का छिलका फेंकना नहीं चाहिए, क्योंकि इन सभी छिलकों में जीवन तत्व अधिक मात्रा में होते हैं। छिलके कई बार कड़े होते हैं और स्वाद में कसैले जैसे लगते हैं, इतने पर भी गुण उन्हीं में अधिक होते हैं। दालें साबुत ही पकाई जाय, तो अधिक उपयोगी रहती हैं। छिलका ही नहीं उसका मध्य भाग, जिसमें से अंकुर उगता है, स्वाद में कुछ कसैला होने के कारण आमतौर से फेंक दिया जाता है या जानवरों को खिला देते हैं। यह भूल है, पौष्टिक अंश को फेंक दिया जाय और जो कमजोर अंश रह जाता है, उसे खाया जाय, तो यह घाटे का सौदा है।

शाकों में तो विटामिन होते हैं, वे इतने हलके किस्म के होते हैं कि खुले बर्तन में पकाने पर भाप के साथ ही उड़ जाते हैं। इसलिए उन्हें पकाते समय भाप को बन्द रखने वाला ढक्कन अवश्य रखे रहना चाहिए। इस दृष्टि से प्रेशर कुकर सर्वोत्तम है। उसमें शाक-दाल के उपयोगी अंश भीतर ही बन्द रहते हैं। मन्दी आग में भाप द्वारा ही पक जाता है, सीधी आग पर पकाने की अपेक्षा भाप से पकाना उत्तम है। उससे जीवन तत्व नष्ट नहीं हो पाते। तेल, घी, मसालों में, खुली कढ़ाई में तलने पर तो खाद्य पदार्थों का जीवन तत्व तेज आग की गर्मी से खुली स्थिति में पकाने पर वे एक प्रकार से स्वत्व रहित कोयला जैसा रह जाता है।

रोटी बनाने का तरीका अपने यहाँ प्रचलित है और ईंधन भी अधिक खर्च करता है। अच्छा है हाथ से बनाई हुई मोटी रोटी बनायी जाय। रोटियों के लिए आटा गूँथते समय उसमें पालक, बथुआ, बैंगन आदि मिला लिए जाए। बीच में आलू, सलाद आदि भर लिये जाय, तो रोटी स्वादिष्ट भी बनेगी और शाक की मात्रा सम्मिलित हो जाने के कारण सस्ती भी पड़ेगी।

अगले दिनों जनसंख्या वृद्धि के कारण न केवल अनाज कम पड़ेगा, वरन् मँहगा भी होगा। इसलिए भोजन में शाक की मात्रा बढ़ानी चाहिए। ये सस्ते होते हैं और सुपाच्य भी। किसान को भी उसके उत्पादन में लाभ रहता है।

यदि थोड़ी दिलचस्पी ली जाय, तो घरों में शाक उगाये जा सकते हैं। घरेलू शाक-वाटिका बड़ी आसानी से लग सकती है। आँगनवाड़ी, छप्परवाड़ी, छतबाड़ी पर शाक और बेलें आसानी से लगाई जा सकती है। जिनके पास जगह कम हो या व्यस्तता हो, वे भी चटनी के लिए पोदीना, धनिया, हरी मिर्च, अदरक आदि बड़ी आसानी से हर महीने उगा सकते हैं। मेथी, पालक जैसी पत्तीदार भाजियाँ, ऐसी होती हैं कि उनके पत्ते तोड़ते रहने पर नये आते रहते हैं और घरों में उगाई हुई मुफ्त की नितान्त ताजी भाजी हमेशा खाने को मिलती रह सकती है।

अनाजों को पीसने के बाद उनमें कचरा हटाने की दृष्टि से छान लेने में हर्ज नहीं, पर भूसी फेंकनी नहीं चाहिए। आटे में मिला देना चाहिए और चोकर समेत रोटी बनानी चाहिए। यदि पीसने का प्रबन्ध घर पर ही हो सके, तो बहुत ही अच्छी बात है। मशीन पर पिसाई कराने में आटा बहुत गरम हो जाता है और उस कारण उसकी पौष्टिकता घट जाती है। बाजार में बहुत दिनों का रखा आटा लेने पर भी उसके गुणों में अपेक्षाकृत कमी आ जाती है।

घरों में चक्की चलाना महिलाओं के लिए स्वास्थ्य वर्धक है। उससे पेट, सीने और हाथों का अच्छा खासा व्यायाम हो जाता है। इसलिए प्रयत्न यह करना चाहिए कि अपने घरों में चक्की रहे और उसका उपयोग स्त्री-पुरुष मिलकर सामूहिक खेल-खिलवाड़ एवं स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से किया करें।

चावल का हम लोग मात्र सफेद भाग इस्तेमाल करते हैं, उसके ऊपर रहने वाली लाल परत को कूट कर हटा देते है, जबकि इस लाल परत में ही जीवन तत्व अधिक मात्रा में रहते हैं। ऊपर का धान का छिलका उतार दिया, उतना ही पर्याप्त है। उसकी लाल परत नहीं उतारनी चाहिए। चावल उबाल कर उसका माँड वाला पतला अंश फेकना नहीं चाहिए। चावल पकाते समय डाला गया पानी, उसमें ही रहने देना चाहिए, इसमें चावल बिखरे हुए जैसे खूबसूरत तो नहीं दिखते, पर गुणकारक वे ही होते हैं, जिनका पानी न फेंका गया हो।

फल, शाक और अनाजों में उपयोगी नमक और शक्कर की पर्याप्त मात्रा होती है। उसमें अधिक खारीपन और मिठास तो नहीं होती, पर शरीर को जितनी आवश्यकता है, जितना पच सकता है वह अंश प्रकृतितः हमें उन्हीं से प्राप्त हो जाता है। ऊपर से डाला गया नमक और शक्कर अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी होता है। प्रकृति उन्हें मेहनत करके बाहर निकाल फेंकती है। इन्हें मिलाने से स्वाद भले ही बढ़ जाय पर लाभ कुछ नहीं होता। नमक लेना है, तो साँभर के स्थान पर सेंधा नमक लेना चाहिए और सफेद चीनी के स्थान पर गुड़ का इस्तेमाल करना चाहिए। गुड़ में कैल्शियम का पाचक अंश बना रहने से वह हानि नहीं उठानी पड़ती जो सफेद चीनी हड्डियों को कमजोर करके पहुँचाती है।

पकवान मिष्ठान्न तो हानि ही हानि पहुँचाते हैं ।। उनका पोषक अंश पहले ही निकल चुका होता है। भूनने, तलने पर वे कोयले जैसे हो जाते हैं और पेट पर अनावश्यक दबाव डालते हैं। मँहगे भी हो जाते हैं। मिठाई के स्थान पर मूँगफली, गुड़ की चासनी में मिलाकर चकती जैसी वस्तुएँ बनाई जा सकती हैं। रामदाने या तिल, गुड़ से कूटकर वैसी मिठाई बन सकती है, जैसी कि बाजार में गजक बिकती है। गाजर का हलुआ, पेठा जैसी बिना चिकनाई की बिना बहुत भूनी जलाई गई वस्तुएँ ही उपयोगी होती हैं। पूड़ी-कचौड़ी के स्थान पर गुजराती ढोकला, दक्षिण का ढोसा, यू. पी. का चीला जैसी वस्तुएँ हल्की, सस्ती और सुपाच्य रहती है। पकवानों को इसलिए हटाना चाहिए कि उनमें जिस चिकनाई की जरूरत पड़ती है, उनमें मिलावट की भरमार पाई जाती है। वे स्वास्थ्य के लिए हानिकर होती हैं, और लागत की दृष्टि से भी मँहगी पड़ती हैं। कुशल महिला अकल दौड़ाकर ऐसे शाकाहार व्यंजन बना सकती हैं जो गरिष्ठ और मँहगे न होने पायें, जिनमें मावे इस्तेमाल न होता हो। अपने देश में दूध की भारी कमी है, वह बच्चों और बीमारों के लिए भी कम पड़ता है। दिन-दिन मँहगा होता जा रहा है। इस कमी का एक बड़ा कारण खोये का उपयोग मिठाइयों के लिए बड़ी तादात में होना ही हैं। यदि उसका उपयोग रोका जा सके, तो दूध उन्हें मिल सकता है जो वस्तुतः उसके अधिकारी हैं। खोये का उपयोग उस जमाने की प्रथा है, जिन दिनों इस देश में दूध की नदियाँ बहती थी, आज तो उसकी अशुद्धता और मँहगाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। ऐसी दशा में हमें समय को देखते हुए अपनी आदतें भी बदलनी चाहिए।

देश में दुधारू पशुओं की भारी कमी हो रही है। यह निश्चित है कि मनुष्य बढ़ेंगे, तो पशुओं का इस धरती पर रहना कठिन है। एक पशु नौ आदमियों के बराबर स्थान घेरता है और उतनी ही जगह उसे दाने चारे के लिए चाहिए। बढ़ती आबादी का सीधा प्रभाव जंगल कटने पर ही नहीं पशुओं का सफाया होने पर भी पड़ेगा। इसलिए आज नहीं तो कल पशुओं से प्राप्त होने वाली वस्तुओं के दूसरे विकल्प अभी से खोजने चाहिए।

अस्तु नकली दाँतों, नकली आँखों, नकली सोना, नकली घी की तरह नकली दूध के लिए हमें भी तैयार होना चाहिए, अन्यथा असली का पैसा देकर भी नकली, घटिया, हानिकर वस्तुएँ ही खरीदना पड़ेगी। दूध में अरारोट, ब्लाटिंग पेपर, तालाबों का पानी आदि न जाने क्या-क्या मिलावटें अभी भी हो रही है।

सस्ता और साफ सुथरा नकली दूध मूँगफली, सोयाबीन एवं तिल को पीस छानकर बन सकता है। यह तीनों वस्तुएँ ऐसी है, जो सिल पर पीसी जा सकती है, इनमें इच्छानुसार पानी मिला लिया जाय। यह हानि रहित हैं। इसकी चाय बन सकती है अथवा दूध की जगह अन्य कामों में आ सकता है। कोई बुरा न मानें, तौहिनी न समझें। इन दिनों जब वेजीटेबिल सर्वप्रचलित है और घी देवताओं के लिए दुर्लभ हो रहा हैं, उसी प्रकार अगले दिनों दूध भी न मिलेगा, तो उपरोक्त विकल्प ही काम में लाना होगा। अच्छा हो, मजबूरी से पूर्व उसकी तैयारी कर लें।

अनाज को शाक में मिलाकर इस्तेमाल करें। इसके विकल्प में आलू काम दे सकता है, उसकी मिली हुई रोटियाँ बन सकती है और मिष्ठान्न पकवानों के कई विकल्प निकल सकते हैं। जो फलाहारी वस्तुएँ बनाते रहते हैं, उन्हें ऐसी सस्ती और अपेक्षाकृत कम जायके वाली वस्तुएँ बनाने में अपना दिमाग लगाना चाहिए। शकरकन्द की मिठाइयाँ और आलू के नमकीन पदार्थ बनाने की बात वर्तमान खाद्य संकट, मँहगाई और मिलावट की भरमार को देखते हुए नए सिरे से सोचने और नये आविष्कार करने के लिए बुद्धि दौड़ानी चाहिए।

माँसाहारी समय रहते चेतें। अभी भी वह अन्न की तुलना में बहुत मँहगा है। पीछे जब पशुओं की कमी पड़ती जायेगी, तो वह और भी मँहगा होता जायेगा। माँसाहार के विरोध में उसका दुष्पाच्य होना और पशुओं की बीमारियों का, आदतों का मनुष्य के शरीर में समावेश होना जैसी अनेकों नैतिक और वैज्ञानिक दलीलें दी जाती रही है। उसका असर जिन पर कम पड़ा हो, उन्हें नोट करना चाहिए कि अगले बीस वर्षों में मनुष्य की प्रमुख प्रतिद्वन्द्विता पशुओं के साथ होगी और पशुओं का अस्तित्व मिटता जायेगा। ऐसी दशा में जिनकी जीभ को माँस का चस्का लगा हैं, उन्हें अपनी आदत बदलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अच्छा हो वे समय को पहचानें और जो बदलना पड़ेगा, उसे कुछ पहले ही बदल लें। विदेशों में सोयाबीन का बना सस्ता नकली माँस बनने बिकने लगा है। हिन्दुस्तान के माँसाहारियों को भी समय के दबाव से ऐसा ही किसी प्रकार मन बहलाना पड़ेगा।

संसार के खाद्य पर्यवेक्षक इस बात पर एक मत है कि मनुष्य को जितना खाना चाहिए उससे बहुत अधिक खाया जाता है। जितने लोग भुखमरी से मरते हैं, उससे कई गुने अधिक खाकर मरते हैं। अच्छा हो पेट से पूछकर अपने भोजन की मात्रा निश्चित करें। यदि इतनी बुद्धिमत्ता अपनाई जा सके, तो सबेरे का नाश्ता तो एकदम बन्द करना पड़ेगा। गाँधी जी ने इस सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। इस कुटेव को उन्होंने स्वयं छोड़ा और बहुतों से छुड़वाया। पाश्चात्य देशों में तो इस संदर्भ में एक सशक्त आन्दोलन ही चल पड़ा है, जिसमें सबेरे का नाश्ता बिलकुल बन्द करने और दो बार से अधिक न खाने के लिए कहा जाता है। जिस प्रकार नशेबाजी आदत की बुराई समझ लेने पर एकदम न सही थोड़ा-थोड़ा घटाते हुए नशा छोड़ते हैं, उसी प्रकार आहार की मात्रा घटाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। बन्दर, कुत्ते आदि को बहुत थोड़ा आहार मिलता है, वे उतने से ही पर्याप्त स्फूर्ति प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्य की खुराक भी प्रचलित आदत की तुलना में आधी या कम से कम तिहाई तो घटाई ही जा सकती है।

लोग आवश्यकता से बहुत कम पानी पीते हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार २४ घंटे में प्रायः १० गिलास पानी पिया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में बरती जाने वाली कंजूसी में भी सुधार करना चाहिए। जल्दी-जल्दी ग्रास निगलने की आदत को भी छोड़ना चाहिए और उसको इतना चबाया जाना चाहिए कि गले से नीचे बिना प्रयास के सहज उतर जाय।

थाली में एक समय में बहुत सी चीजें नहीं होनी चाहिए। अधिक से अधिक शाक-रोटी, दाल-चावल जैसे दो का मिश्रण कर सकते हैं। अच्छा यह है कि एक समय में एक ही चीज खाई जाय। उससे पेट के, मुँह के, आँतों के, पाचक रस ठीक प्रकार पचा लेंगे, अन्यथा एक ही समय में अनेक वस्तुएँ खाने से पाचक रस एक को भी ठीक तरह न पचा सकेंगे।

पानी में एक साथ अनेक चीजें पकने डाल दी जाय, तो उनमें से कड़ी देर में और मुलायम जल्दी पक जाने से समूची पकाई प्रक्रिया बेकार हो जायेगी। यही बात एक साथ बहुत चीजें खाने की है। हर पदार्थ में जीवनोपयोगी सभी रासायनिक तत्व रहते हैं, सन्तुलित भोजन के नाम पर थाली में अनेक प्रकार की अनेक वस्तुएँ रखना भूल है। गैंडा, सुअर आदि एक ही वस्तु खाते हैं और उनके शरीर में ढेरों चर्बी बन जाती है। इस मान्यता को हमें छोड़ देना चाहिए कि थाली में अनेक वस्तुएँ हो। स्वाद बदल लेना हो तो अलग-अलग दिनों में अलग-अलग वस्तुएँ हो सकती हैं, पर एक साथ अनेक वस्तुओं की नुमाइश नहीं लगानी चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

235. जो स्वीकारें उसे विवेक की कसौटी पर कस लें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

विचार विज्ञान अनेक भागों में बँटा हुआ है। हर विषय विभाग में अनेकानेक मान्यताएँ प्रचलित हैं। राजनीति में प्रजातन्त्र, राजतन्त्र, साम्यवाद, अधिनायकवाद, उपनिवेशवाद, पूँजीवाद आदि कितनी ही मान्यताएँ हैं और उनका प्रयोग न केवल प्राचीनकाल में होता था वरन् आज भी उनका विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलन है। इन सभी में गुण दोष हैं। गुणों की प्रशंसा और अवगुणों की निन्दा करने का सही प्रयोजन तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण सामने रखते हुए दूरदर्शी विवेक बुद्धि से ही हो सकता है।

धर्मक्षेत्र में अनेकों सम्प्रदायों, उपसंप्रदायों का प्रचलन है। हिन्दुओं में, विभिन्न सम्प्रदाय-उपसंप्रदायों की शाखाएँ-प्रशाखाएँ प्रायः गिनी गई हैं। इसके अतिरिक्त ईसाई, मुसलमान, यहूदी, पारसी, बौद्ध आदि अन्यान्य सम्प्रदाय भी हैं। उन्हें मानने वाले अपने-अपने मतों की अच्छाइयाँ तथा दूसरों की बुराइयाँ बताते हैं, ऐसी दशा में सामान्य बुद्धि बड़े असमंजस में पड़ती है कि जब जिसकी प्रशंसा सुनी जाती है, तब वही ठीक मालूम पड़ता है और जब निन्दा सुनने का अवसर आता हैं तब वह भी गलत प्रतीत नहीं होता। ऐसी दशा में अपना निर्णय क्या हो? इनमें से किसे पसन्द किया जाय?

दर्शन शास्त्र के मतभेद भी ऐसे ही हैं। हिन्दू दर्शनों में योग, सांख्य, न्याय, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसा प्रसिद्ध हैं। चार्वाक दर्शन जैसे कई अलग हैं। जैन और बौद्ध दर्शनों की शाखा-प्रशाखाएँ अलग हैं। इसके अतिरिक्त विदेशों के दर्शन शास्त्र अनेकों हैं। उन सभी के प्रतिपादन कर्ता सही सिद्ध करते हैं और विरोधी जब काटने खड़े होते हैं, तो उन्हें निरस्त करने में भी प्रतिपादन के ढेर लगा देते हैं। ऐसी दशा में फिर वही कठिनाई सामने आती है कि इनमें से किन्हें उपयुक्त और किन्हें अनुपयुक्त माना जाय।

प्रथा-परम्पराओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। अकेले हिन्दुस्तान में ही प्रान्तों, क्षेत्रों और जातियों के हिसाब में इतनी प्रथाएँ प्रचलित हैं। उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान में लड़के बिकते हैं और दहेज माँगा जाता है। इसके विपरीत पहाड़ी प्रदेशों तथा कुछ जातियों में लड़के वाले लड़की के बदले पैसा देते हैं। जैन जातियों में से अधिकांश में यही रिवाज है। इनमें से हर पक्ष अपने प्रचलन की पुष्टि करते हैं और उन्हें सही सिद्ध करते हैं। माँसाहारी और शाकाहारी दोनों ही अपने-अपने पक्ष की दलीलें तब प्रस्तुत करते हैं जब कुछ समझते और कहते नहीं बन पड़ता कि किसका पक्ष किस हद तक गलत माना जाय।

परस्पर विरोधी मत मतान्तरों को देखते हुए सामान्य बुद्धि चकराने लगती है। चुनाव के दिनों में जब विभिन्न पार्टियाँ अपने घोषणा पत्र प्रकाशित करती हैं और प्रत्याशी लोग जब अपने-अपने गुणों और आश्वासनों का बखान करते हैं तो सूझ नहीं पड़ता कि इनमें से किस पर विश्वास किया जाय। यदि सभी को सही या गलत माना जाय, तो फिर अपने एक वोट को किसके पक्ष में डाला जाय?

लोगों की अपनी-अपनी मान्यताएँ पूर्व प्रथा प्रचलनों के सम्पर्क में रहने से अथवा इन दिनों अपने पास-पड़ोसियों या कुटुम्बी-सम्बन्धियों को जो कुछ करते देखते हैं। मन उसी ओर ढुलक जाता है। जिस ओर अपना भीतरी झुकाव हो उसके पक्ष में कुछ न कुछ तर्क निकल आते हैं। बुद्धि का निर्णय औचित्य के पक्ष में हो इसकी कोई गारण्टी नहीं। वह अभिरुचि वाले पक्ष को सही बताने और अपनाने का फैसला करती है। वकील तो यही करते हैं। एक मुकदमा उनके पास अपराधी मुवक्किल का हो तो उसे छुड़ाने के लिए दलीलों, कानूनों और नजीरों का ढेर लगा देते हैं। दूसरा मुकदमा यदि उसका हो जिसे अपराधियों द्वारा सताया गया है, तो वकील इस बात पर सारा जोर लगा देगा कि अपराधी को सजा मिलनी चाहिए। दोनों मुकदमों में घटनाएँ एक जैसी होने पर भी एक ही वकील दो तरह के रुख अपनाता है। उसका उद्देश्य इतना भर होता है कि उसका मुवक्किल जीते। बुद्धि अपनी मान्यता के पक्ष में निर्णय देती है। डाकू अपनी बुद्धि को डकैती में सफलता मिलने के उपाय सोचने में और अपनाने में अपनी सारी क्षमता लगा देता है, जबकि दूसरा पक्ष जिसे आत्मरक्षा करनी है, वह भी इस तरह के उपाय सोचता है कि बचाव सम्भव हो सके।

प्रचलनों की संख्या अगणित है। उनके आधार पर ढली हुई मान्यताएँ भी असीम हैं। यह सभी सही या उचित हो ऐसा हो नहीं सकता। एक सही होगा तो उसका विरोधी दूसरा पक्ष गलत होना चाहिए। सही और गलत के बीच में समझौता नहीं हो सकता। अपनी स्थिति कमजोर हो तो अनुचित से झगड़ने में आफत आने के डर से चुप रहा जा सकता है, पर दोनों पक्षों को सही नहीं माना जा सकता। एक सही है तो प्रतिपक्षी गलत होना ही चाहिए। यदि अन्तरात्मा जीवित है, तो सही पक्ष का ही समर्थन किया जाय। मुँह देखकर दोनों की हाँ में हाँ मिलाने लगा जाय तो, यह चापलूसों, सिद्धान्तहीनों और मतलबी स्वार्थियों जैसा आचरण होगा। इस प्रकार के दोगले लोग अपनी और दूसरों की आँखों में गिर जाते हैं। ऐसा आत्म हनन मानवी गरिमा के प्रतिकूल ही माना जायेगा।

परस्पर विरोधी मान्यताएँ जन समाज में प्रचलित हैं। इनमें से सही का चुनाव उनके पक्षधरों के समर्थन में प्रस्तुत किये जाने वाले प्रतिपादनों के आधार पर नहीं हो सकता। नीर-क्षीर विवेक तो अपने को ही अपनाना होगा। इसके लिए कसौटी निर्धारित करनी चाहिए, अन्यथा हवा के झोंके के साथ उड़ने वाले पत्रों की तरह अपनी स्थिति भी होगी। सोना नकली भी होता है और असली भी। दोनों के सामने आने पर उनकी परख दो आधारों पर होती है-एक कसौटी पर घिसकर दूसरे आग में तपाकर। यही दो आधार हैं, जो असली-नकली का अन्तर बताते हैं। खरीदने वाला इन अन्तरों की साक्षी लेकर ही सही वस्तु लेता है और गलत को गले बाँध लेने और पीछे पछताने से बच जाता है।

सही निर्णय के लिए न्यायाधीश जैसी पूर्वाग्रह रहित और निष्पक्ष मनःस्थिति बनाई जानी चाहिए। अपनी प्रथाओं और मान्यताओं को कुछ समय के लिए एक कोने पर उठाकर रख देना चाहिए। न्यायाधीश यही करता है। वह निष्पक्ष बनता है। इसके बाद दोनों पक्षों के तर्क, तथ्य और प्रमाण ध्यानपूर्वक सुनता है। उनमें से न तो किसी का पूर्ण विश्वास करता है और न अविश्वास। मात्र विवेक और औचित्य का आश्रय लेकर न्याय निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसी आधार पर अपना फैसला घोषित करता है।

हमें भी न्यायनिष्ठ निर्णय पर पहुँचना चाहिए और परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। अनेक प्रचलन, प्रतिपादन किसी समय, किन्हीं लोगों के लिए, किन्हीं परिस्थितियों के कारण उचित रहे होंगे, पर आज वैसी परिस्थितियाँ न रहने के कारण उनका औचित्य नहीं रह जाता। एक क्षेत्र के निवासियों के लिये जो उचित है, वह दूसरे लोगों के लिए अनुचित हो सकता है। उत्तरी ध्रुव के निवासी ऐस्किमो लोग वहाँ वृक्ष, वनस्पति न होने के कारण मछलियों का शिकार करते और उन्हीं के सहारे जीवित रहते है। वनवासी आदिम सभ्यता के लिए लोग कृषि के अभ्यस्त नहीं है और न उसका ज्ञान अनुभव ही है। ऐसी दशा में वे वर्षा के दिनों में उपजे थोड़े-बहुत अन्न पर साल भर का गुजारा नहीं कर सकते। उन परिस्थितियों में आखेट करते और पेट पालते हैं, किन्तु जिन लोगों के पास पर्याप्त खेती है पर्याप्त अन्न उपजते हैं, उनके लिए माँसाहार पाप कहा जायेगा। अरब के रेगिस्तानों में रेतीली आँधियाँ चलती हैं, वहाँ बड़ों को, विशेषतया बच्चों को आँखों में धूल भरने की आशंका रहती है, वहाँ बुरका ओढ़ने का औचित्य है। टम्बक टू क्षेत्र के आस-पास मर्द घर में रहते और बच्चे पालते हैं, इसलिए वहाँ मर्दों को भी पर्दा ओढ़ना पड़ता है और अपनी तथा बच्चों की आँखें बचानी पड़ती है। हिन्दुस्तान में वैसी समस्या नहीं है, इसलिए गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में महिलाएँ बिलकुल पर्दा नहीं करती। उत्तर भारत के लोग मुसलमानी शासन के अन्तर्गत और सम्पर्क में रहे हैं, इसलिए वहाँ पर्दे का रिवाज देखा-देखी चल पड़ा। सामन्ती मध्यकाल में शासकों और लुटेरों की आँखें सयानी लड़कियों पर लगी रहती थी। उस मुसीबत से बचाने के लिए उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन सुरक्षा की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आरम्भ किया गया। आज वैसी विवशता नहीं है, तो उस प्रथा के लिए आग्रह करने का कोई औचित्य नहीं। अब केरल आदि प्रान्तों में लड़कियाँ २०-२५ वर्ष से कम की आयु में विवाह नहीं करती। वहाँ अधिक विद्या पढ़ने का लड़कियों में उत्साह है।

प्रथा प्रचलनों के सम्बन्ध में अनेक बातें ऐसी है, जो समय की, क्षेत्र की आवश्यकता देखते हुए चली हैं। आवश्यक नहीं कि भिन्न परिस्थिति वाले क्षेत्रों में भी देखा-देखी या परम्परा को अपनाते हुए उन्हीं रिवाजों का समर्थन किया जाय। योरोप जैसे ठंडे क्षेत्रों में कसे हुए कपड़े ही ठीक पहने जाते हैं, पर हिन्दुस्तान जैसे गरम देश में ढीले और थोड़े कपड़े ही ठीक पड़ते हैं। रीति रिवाजें प्रायः ऐसी ही हैं, जो समय, क्षेत्र तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए चलाई गई। आवश्यक नहीं कि परिस्थितियाँ बदल जाने पर भी उन्हें अपनाया जाय और पुरातन परंपरा होने के कारण उसे अपनाये रखा जाय। कुछ वस्तुएँ पुरानी भी अच्छी हो सकती थी, कुछ नई उत्तम होती है। आसव अरिष्ट पुराने होने पर अधिक गुणकारी होते हैं, पर घी, दूध आदि को पुराना लिया जाय, तो उनमें बदबू आने लगेगी और विषैलापन आ जायेगा। पुराने मकान जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं। वयोवृद्ध व्यक्ति कड़े शारीरिक श्रम के योग्य नहीं रहते। लड़की की शादी के लिए उठती उम्र के लड़के तलाश किये जाते हैं, पर पंचायतों के चुनाव में अनुभवी वयोवृद्धों को पसन्द किया जाता है। इस प्रकार एक बात, एक जगह, एक काम के लिए जो उपयुक्त हो सकती है, वही दूसरे काम या समय के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है। सेना में भर्ती के लिए पहलवान उपयुक्त हो सकते हैं, किन्तु लोक सभा में सांसद चुनने के लिए दूसरी योग्यता होनी चाहिए।

भिन्नताओं के मध्य आज की परिस्थितियों के अनुरूप क्या है? न्याय और औचित्य की कसौटी पर कौन से तर्क, तथ्य और प्रमाण मानने योग्य हैं-यह देखा जाना चाहिए। हर उचित-अनुचित बात के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर देखना यह है कि दूरदर्शी विवेकशीलता की कसौटी पर खरा क्या बैठ रहा है। विवेक की मान्यता सर्वोपरि है। उसी को प्रज्ञा कहा जाता है। बुद्धिमत्ता, चतुरता की तुलना में यह कसौटी उपयुक्त है कि दूरदर्शिता, न्याय और औचित्य कहाँ है?

कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो तात्कालिक लाभ की दृष्टि से, मित्र-कुटुम्बियों सम्बन्धियों की पसंदगी की दृष्टि से उपयुक्त लगते हैं और उनमें तात्कालिक लाभ दीखता है, पर दूरगामी परिणामों की दृष्टि से वे हानिकारक सिद्ध होते हैं। ऐसी दशा में दूरगामी परिणामों को ही मान्यता देनी चाहिए। अपने लड़के की बोली चढ़ाकर अधिक दहेज वसूल किया जा सकता है, पर कुछ ही दिन बाद जब अपनी कई लड़कियों पर उतना ही खर्च करना पड़ेगा, तब कई गुना घाटा पड़ेगा। उस दशा में दहेज न लेने या देने के पक्ष में कोई तर्क भी नहीं प्रस्तुत किया जा सकता, क्योंकि जब लड़के की कीमत वसूल कर ली गई, तो बाद में उसी आधार पर अपना घर खाली करा लिये जाने पर पश्चाताप किस बात का?

अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ, नशेबाजी, व्यभिचार आदि तात्कालिक मौज-मजे की दृष्टि से आकर्षक एवं लाभदायक दीखते हैं। संयमशीलता, अध्ययन परायण, तपश्चर्या जैसे कार्य कष्टसाध्य और घाटे के लगते हैं, पर बाद के परिणाम को ध्यान में रखा जाय तो मौज-मजा अनेक गुनी हानि प्रस्तुत करता है और श्रेष्ठ कार्यों के लिए आरम्भ में उठाई गई कठिनाई बीज बोने में खर्च करके फसल काटने में अनेक गुना लाभ उठाने की तरह दूरदर्शितापूर्ण सिद्ध होती है।

मिष्ठान्न-पकवानों की दावत में पेट से ज्यादा ठूँस लेने वाले जब अपच, उल्टी, दस्त आदि के शिकार होते हैं, तो आरम्भ की चतुराई पीछे हानि प्रतीत होती है कि वह कितनी हानिकारक थी। अन्य इन्द्रियों की लिप्सा भी दाद को जोरों से खुजाते समय जैसी अच्छी लगती है, पर थोड़े ही समय में उस भूल पर पछतावा करना पड़ता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है, उससे जब जबड़ा छील जाता है, तो खून का जायका मिलने लगता है। कुत्ता समझता है कि यह हड्डी में से निकलने वाला स्वाद है और जोरों से चबाकर अधिक मजा लूटना चाहता है, पर जबड़े छील जाने पर पता चलता है कि सूखी हड्डी से खून का जायका पाना कितनी भूल थी। कामुकता के वशीभूत होकर लोग अपना ही सर्वनाश करते हैं और दूर के परिणाम को भुला देने के कारण दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु के ग्रास बनते हैं।

किसान, विद्यार्थी, पहलवान आरम्भिक दिनों में कठोर श्रम करते हैं और खर्च भी सहन करते हैं, पर जब सम्पन्नता, विद्वता और बलिष्ठता के रूप में श्रेयस्कर परिणाम सामने आते हैं, तब प्रतीत होता है कि आरम्भ में जो बातें घाटे की, कष्टकर प्रतीत होती थी वे समयानुसार अपना प्रतिफल सामने लाई और सुखदायक सिद्ध हुई। लोक सेवी, आत्म संयमी, परमार्थ परायण आरम्भ में मूर्ख जैसे लगते हैं, जब आत्म संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह का लाभ होता है, व्यक्ति को अभिनन्दनीय और अनुकरणीय बनाते हैं, तब प्रतीत होता है कि आरम्भ में जिसे मूर्ख समझा जाता था, वह समय आने पर उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता सिद्ध हुई। आलसी प्रमादी आरम्भ में मौज मजा करते हैं, पर जब देखते हैं कि उनके साथी पुरुषार्थ, साहस, श्रम और मनोयोग के सहारे कितने ऊँचे चढ़े, कितने आगे बढ़े, तब उन्हें पश्चात्ताप होता है कि अपनाया गया आलस कितना महँगा पड़ा। अपनी दिनचर्या विनिर्मित करने, बुरी आदतों को छोड़ने, प्रगतिशील कार्यक्रमों को अपनाते समय आरम्भ में बड़ा अनख लगता है, पर जब कुछ दिन में गाड़ी लाइन पर चल पड़ती है, तब ज्ञात होता है कि जीवन कितना प्रगतिशील और आन्तरिक स्तर कितना समुन्नत सुखी और सन्तोष से भरा-पूरा बनता चला जा रहा है।

प्रचलनों में अनेकानेक मान्यताएँ तथा प्रथाएँ इस संसार में बिखरी पड़ी हैं। उनमें से प्रत्येक को दूरदर्शी, विवेकशीलता की कसौटी पर कसना चाहिए और देखना चाहिए कि परिणाम व्यक्ति और समाज के सामने किस रूप में आवेंगे। देखना चाहिए कि न्याय और औचित्य में किसका पलड़ा भारी पड़ता है। बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें ऐसे ही विवेक, न्याय और अन्तःकरण का निर्णय स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसी में श्रेयस्कर प्रज्ञा का समावेश है। यही स्वीकार करने योग्य है।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

236. बड़े परिवार बनाने की युक्तिसंगत प्रक्रिया
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

समझदार प्राणियों की प्रकृति मिल-जुलकर साथ रहने की है। अकेलापन तो मरघट के भूत-पलीतों को सुहाता है। चींटी, दीमक, मधुमक्खी तक एक छत्ते में एक साथ रहने की और सहयोगी जीवन व्यतीत करने की आदी होती हैं। इक्कड़ जानवर तो बागी होते हैं। अकेले रहने वाले हिरण, सुअर, हाथी अपनी सद्भावना गवाँ बैठते हैं और जिस-तिस पर अनायास ही अकारण आक्रमण करते हैं। दूसरों को सताते और स्वयं घाटे में रहते हैं। परिवार बनाकर रहना उदारता और बुद्धिमत्ता का चिह्न है।

मनुष्य आदिम काल से ही परिवार बनाकर रहता है उसमें आदान-प्रदान की सद्भावना विकसित होती है और सहकारिता का लाभ उस समूह में रहने वाले सभी को मिलता है।

भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा है। इसमें सुविधा भी रहती है। साथ ही कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी भी बँधती है। जहाँ कर्तव्य पालन का भाव होगा, वहाँ अधिकार के साथ जुड़े हुए सुविधा साधनों का लाभ अनायास ही मिलता चला जाता है। बड़े समुदाय के बीच सभी की पीठ भारी रहती है। कोई मुसीबत आने पर उससे निपटने में सभी की सहायता मिलती है। संघशक्ति का लाभ सभी को विदित है। सींकें मिलकर बुहारी बनती है। तिनकों के संयोग से हाथी को बाँधने वाले रस्से बन जाते हैं। धागों से मिलकर कपड़ा बुना जाता और ईंटों के साथ-साथ खड़े होने से भवन बनकर तैयार हो जाता है। एकाध दुर्बल की भी गाड़ी सहयोग के बल पर खिंच जाती है। बीमारों और अपंगों को असहाय नहीं रहना पड़ता। किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके आश्रितों का निर्वाह उसी समूह के बीच हो जाता है। दुःख और सुख को मिल-जुल कर बाँट लेते हैं। ऐसे अनेकों लाभों को देखते हुए संयुक्त परिवार की प्रथा चली और अभी भी बनी हुई है। कृषि, पशुपालन और गृह उद्योगों में छोटे से लेकर बड़े तक सभी न्यूनाधिक सहयोग करते हैं और उस लाभ से सभी लाभान्वित होते हैं।

एकाकी या पति-पत्नी का छोटा परिवार बसाने में जिम्मेदारियाँ तो हलकी हो जाती हैं और अपनी अधिक कमाई का लाभ अकेलेपन में अधिक मिलता है। इसलिए नव विवाहित संयुक्त परिवार से अलग रहने और छोटा परिवार बनाकर निर्द्वन्द्व निश्चिन्त रहने और स्वच्छन्द गुलछर्रे उड़ाने की बात सोचते हैं। आरम्भ में वह बात किसी कदर सही भी होती है, कर्तव्य से विमुख होने पर अधिकार में कटौती होने का जो घाटा पड़ता है, वह कुछ ही दिन में सामने आ खड़ा होता है और प्रतीत होता है कि भूल कर बैठे। पत्नी के गर्भवती या बीमार होने पर, पति के रोटी कमाने चले जाने पर पानी को पूछने वाला कोई नहीं रहता। प्रसवकाल में अस्पतालों में रहना पड़ता है। कोई सान्त्वना देने वाला एवं मन बहलाने वाला भी पास में नहीं रहता। छोटे बच्चों की चौबीस घण्टे निगरानी का काम इतना बड़ा होता है कि कोई हाथ बँटाने वाला न हो, तो गृहस्थी का काम ऐसे ही अस्त-व्यस्त पड़ा रहता है। या तो स्वयं ही खपना पड़ता है, या बाबूजी दफ्तर से आकर बुहारी लगाते, चूल्हा जलाते और कपड़ा धोने का काम हाथ में लेते हैं। जल्दी-जल्दी कई-कई बच्चे जनने के बाद पता चलता है कि संयुक्त परिवार में रहने पर जो बन्धन बँधते हैं, स्वच्छन्दता में रहने से जो मौज करने की सुविधा रही, वह घाटे का सौदा बनी। बड़े परिवार में प्रसव किसी को अखरता नहीं। नये खिलौने को सभी गोदी में उठाये-उठाये फिरते हैं। जननी को विश्राम का, निश्चिन्तता का पर्याप्त अवसर मिल जाता है। हारी बीमारी में परिचर्या करने वाले भी कई मिल जाते हैं। बच्चों की शिक्षा और शादी का जो बड़ा खर्च एक साथ सिर पर आता है, वह संयुक्त परिवार द्वारा सहज ही उठ जाता है। अकेले बैल के लिए तो इतनी भारी गाड़ी खींचते हुए छठी का दूध याद आता है।

अमीरी की बात दूसरी है, वे कुटुम्ब के स्थान पर नौकर भी रख सकते हैं, किन्तु मध्यम या हलकी आजीविका होने पर तो संयुक्त परिवार दैवी वरदान की तरह सान्त्वना देता है। एकाकी व्यक्ति के लिए तो वे परिस्थितियाँ ढेरों चिन्ता साथ लेकर आती हैं। अलग मकान लेने का किराया, अलग चूल्हा जलाने का ईंधन, अलग से घर की चौकीदारी का बन्धन और अलग से अतिथि सत्कार करने के खर्चीले झंझट उनकी कमर तोड़ देते हैं जो अलग रहने में मनमाने सैर सपाटे करने, होटल में खाना खाने, आये दिन सिनेमा देखने के सुनहरे सपने देखते थे।

छोटे परिवार का अनुभव पाश्चात्य देशों में किया जा रहा है। उनके प्रतिफलों को देखकर हमें अनायास ही भले-बुरे परिणामों के अनुभव लग सकते हैं। स्त्रियाँ प्रजनन का, बच्चे पालने का झंझट मोल नहीं लेना चाहती। ऐसी दशा में उन्हें तलाक लेने और दूसरा घर बसाने में देर नहीं लगती। पुरुषों के दिमाग में भी वैसी ही खुराफातें घूमती रहती हैं। तितलियों और भौरों को एक फूल छोड़कर दूसरे पर जा बैठने में न कोई असमंजस होता है और न हया-शर्म का बन्धन आड़े आता है। पाश्चात्य देशों में छोटे परिवार वालों में से किसी की निश्चिंतता नहीं रहती कि दोनों मिलकर कितने दिन साथ रह सकेंगे। इस अनिश्चितता की मनःस्थिति में जो अविश्वास और सन्देह मनों पर छाया रहता है, वह उस दाम्पत्य जीवन में सर्वथा भिन्न होता है, जो भारत के संयुक्त परिवारों में कुल कलंक का स्मरण आते ही उठ भागते हुए पैरों को स्थिर कर देती है और कोई कुविचार मनों में उठें तो, जहाँ के तहाँ दब कर रह जाते हैं।

पाश्चात्य देशों में बच्चों और अभिभावकों के बीच तभी कुछ स्नेह सूत्र जुड़े रहते हैं, जब तक कि वे खिलौने जैसे रहते और मन बहलाते हैं। लड़के-लड़की तनिक सयाने स्वावलम्बी होते ही अलग आजीविका कमाने, अलग घर बसाने की खोज में लग जाते हैं। प्रचलन के अनुसार फिर उन्हें माता-पिता का कहना मानने, उनके साथ रहने या सहायता करने की बात दिमाग में से सहज ही निकल जाती है। बूढ़े होने पर अभिभावकों के पास यदि निजी पूँजी नहीं है, तो उन्हें सरकारी अनाथालय में दिन गुजारने पड़ते हैं। बीमार पड़ने पर उन्हें समर्थ लड़कों से कोई आशा नहीं रहती। पत्र का जवाब शिष्टाचारी, सहानुभूति के छपे कार्ड के रूप में आ जाता है। पूछताछ करने के लिए हाथ से पत्र लिखने या उन तक जाने की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती। मर जाने पर विरलों के ही समर्थ बच्चे अन्त्येष्टि में समय और पैसा खर्च करते हैं। अन्यथा वह भी बूढ़ाखाने के अनाथालय की ओर से ज्यों-त्यों करके कर दिया जाता है। वे जानते हैं कि जिस बाप को बच्चों का भविष्य बनाने के लिए स्वयं कष्ट नहीं करना पड़ा है, वासना के आवेश और गुड्डा खिलाने का व्यामोह ही उनके जन्म का कारण है, इसलिए उनका एहसान मानने या प्रत्युपकार चुकाने की बात सोचना बेकार है।

जहाँ अभिभावकों और बच्चों के बीच ऐसे सम्बन्ध हो, वहाँ भाई-बहनों में किसी को किसी से दिलचस्पी होना कहाँ बन पड़ेगा। अपना-अपना पुरुषार्थ और भाग्य ही अपने काम आता हैं। जब पति-पत्नी तक के रिश्ते आये दिन टूटते और नये बनते रहते हैं, तो कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, पड़ोसी आदि के सम्बन्ध कितने बाजारू और कितने उथले होते होंगे, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इसमें किसी को सन्देह हो, तो उन तथाकथित सभ्य देशों में जाकर अपनी आँखों से देखा जा सकता है। आजीविका के साधन सहज होने और विलास की सामग्री से गली-बाजार भरे रहने के कारण चकाचौंध उत्पन्न करने वाली स्थिति तो जरूर दीख पड़ेगी, पर खर्चीले जीवन में बचता किसी के पास कुछ नहीं। महीने की अन्तिम तारीख आने से पहले मध्यवर्ती लोगों में से अधिकांश की जेबें खाली हो जाती हैं। लम्बी बीमारी आ घेरने पर पति-पत्नी में से किसी का किसी को सहारा कदाचित ही मिलता हो। वहाँ की सरकारें सम्पन्न होने के कारण अवैध बच्चों, बूढ़ों और बीमारों का खर्च स्वयं उठाती हैं। यदि वहाँ की स्थिति भारत जैसी गरीबी की होती, तो साक्षात् नरक देखने को वहीं मिल जाता। मदिरा, व्यभिचार, विलास और नींद की गोलियों के सहारे दिन काटने वाले लोग सम्पन्न होते हुए भी निर्धनों की तुलना में आन्तरिक दृष्टि से अधिक बुरी दशा में होते हैं। बाहरी प्रदर्शन और शोभा शिष्टाचार भले ही वहाँ दीख पड़े।

संयुक्त परिवारों को छोड़कर लोग एकाकी रहने की बात सोचते हैं। छोटे घोंसले बनाते हैं। छोटे परिवार वाले विशाल परिवारों में पायी जाने वाली निश्चिंतता को देखकर उनका भाग्य सराहते हैं। दोनों ही वर्ग अपनी-अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं। कारण कि आपत्ति के दिन न आने पर छोटा घोंसला ही स्वेच्छाचारी जीवन की आकाँक्षा पूरी करता है। बड़े परिवारों को निकट से देखने वाले बताते हैं कि इनमें सर्वथा मन मारकर रहना पड़ता है। व्यक्ति की अपनी इच्छा का कोई मूल्य नहीं। एक बाड़े में रहने वाली भेड़ों की तरह रहना पड़ता है। बाबा आदम के जमाने का सड़ा-गला दिमाग लिए फिरने वाले बड़े-बूढ़े ही हुकूमत चलाते हैं, उनकी दृष्टि में व्यक्ति का कोई महत्त्व ही नहीं। ऐसी दशा में दरबे के कबूतरों की तरह रहने से क्या लाभ?

संयुक्त परिवार में रहने वालों को अलग घोंसले में मौज मजा दीखता है और अलग रहने वाले हाथ मलकर पश्चाताप करते हुए सोचते हैं कि संयुक्त परिवार का बन्धन अनुशासन होते हुए भी वही स्थिति लाख गुनी अच्छी थी।

अच्छा हो, आज की मनःस्थितियों, उपयोगिताओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पारिवारिक संगठन का कोई उपयुक्त स्वरूप निर्धारित किया जाये, जिसमें संयुक्त परिवार की सुविधाओं और घोंसला परिवार की स्वच्छन्दताओं का समावेश हो। हमें समय के साथ चलना पड़ेगा। न अब श्रवण कुमार वाली परंपरा यथावत बनी रह सकती है और न घोंसला परिवार के साथ अनेकानेक विकृतियों को सहन किया जा सकता है। यह विकृतियाँ इस प्रकार चलती रहीं तो परिवार नाम की कोई संस्था रहेगी नहीं। तब होटल और वेश्यालय का संयुक्त स्वरूप ही इस स्तर का रह जायेगा, जिसमें शिष्टाचार का खोखलापन ही बाहर की शोभा बनाये हुए होगा और भीतर से नर-नारी अधिक लाभदायक, अधिक मनमोहक स्थिति तलाश करने के लिए वर्तमान में असंतुष्ट और भविष्य के लिए नई मछली, नया पक्षी ढूँढने के लिए ताना-बाना बुनता रहेगा और असंतुष्टता एवं उद्विग्नता से ग्रसित होकर मानसिक सन्तुलन गवाँ बैठेगा।

स्थिति के पर्यवेक्षक विज्ञजनों का कथन है कि एक मध्यवर्ती मार्ग भी हो सकता है-लार्जर फैमिली। इसकी कल्पना लगभग एक शताब्दी पुरानी है और उसके प्रयोग भी जहाँ-तहाँ, जिस-तिस रूप में होता रहा है। इसे अब पूरे मन से काम में लाया जाये और अनुभवों ने इसमें जिस संशोधन की आवश्यकता समझी है, उसे दुरुस्त कर लिया जाय।

लार्जर फैमिली एक प्रकार से सहकारी जीवन यापन पद्धति का नाम है। इसमें हर व्यक्ति के कर्तव्य होंगे और साथ ही अधिकार भी। क्षमता के अनुरूप करना पड़ेगा और आवश्यकता के अनुरूप मिलेगा। इसे पारिवारिक साम्यवाद कहा जा सकता है। साम्यवाद के आदि संस्थापकों की यही कल्पना थी, उनने लार्जर फैमिली का ढाँचा सोचा था और उसे कम्यून नाम दिया था। कम्यून के समर्थक कम्युनिस्ट होने चाहिए थे, पर अब उसके पारिवारिक रूप को भुलाकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उस विधा को कार्यान्वित करने की बात चल पड़ी है और व्यक्ति को परिवार के सम्बन्ध में स्वेच्छाचारी छोड़ दिया गया है। फलतः कम्यूनिष्ट एक शासन पद्धति बनकर रह गया।

सहकारी समिति के रूप में एक गाँव या मुहल्ले की जीवनयापन पद्धति चलने की बात लार्जर फैमिली में है। सदस्यों का भोजन एक स्थान पर बने, अन्न वस्त्र का भण्डार एक जगह रहे, कपड़े सीने से लेकर धोने तक का प्रबन्ध एक जगह हो, बच्चों को खिलाने से लेकर उन्हें पढ़ाने तक का प्रबन्ध एक जगह हो, ताकि नियत कर्मचारी सारी व्यवस्था सम्हाल लें और अन्य सब लोग आजीविका उपार्जन या दूसरे कामों में लग सकें।

झंझटों को निपटाने के लिए समिति का एक समझौता बोर्ड हो। बीमारों, अपंगों और असमर्थों के लिए एक बीमा कम्पनी जैसा फण्ड हो इसे वर्तमान बोर्डिंग हाउसों, मिलिट्री मेसों से मिलती-जुलती व्यवस्था समझा जाए। खर्च के लिए न्यूनतम टैक्स की तरह अधिक धन वसूल किया जाए। यह बचत भावी प्रगति, सुविधा एवं सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए एक जगह संचित रहे। इसे आवश्यकतानुसार बढ़ाया या घटाया जाता रहे। अनुशासन रखने तथा मर्यादाओं के बचाने के लिए निर्वाचित समिति रहे, पर उस समिति की सदस्यता के लिए पहले से ही ऐसे अनुबन्ध रहें, जिनकी कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही कोई व्यवस्था समिति का सदस्य बन सके। दूरदर्शी, विवेकशील, चरित्रवादी ही इस संचालक समिति के सदस्य हों, उनके निर्णय एवं अनुरोधों की अवज्ञा करने का समिति के किसी सदस्य को साहस ही न हो। उद्दण्डता बरतने वाले को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़े और उसकी अप्रामाणिकता करार कर दी जाय। यह सजा इतनी बड़ी है जिसे सहन करने की हिम्मत कदाचित की कोई कर सके।

लार्जर फैमिली के मोटे सिद्धान्त यही हैं। इनमें हेर-फेर स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप किया जा सकता है। इसमें संयुक्त परिवार की सभी विशेषताओं का समावेश है और औचित्य की सीमा के अन्तर्गत व्यक्तिगत सुविधा के लिए भी स्थान है। सबसे बड़ी बात भावनात्मक है। परस्पर प्रेम भाव और सहकार वास्तविक एवं आन्तरिक हो यह जितना गहरा होगा, उसी अनुपात में लार्जर फैमिली सफल मानी जायेगी। मात्र आर्थिक अनुबन्ध एवं व्यवस्था सम्बन्धी संचालन तक ही इन संगठनों को सीमित रखा जाय, तो भी बात बनेगी नहीं। हर सदस्य के ऊपर चारित्रिक अनुशासन की शिक्षा एवं अनिवार्यता भी लागू रहे, जिससे सदस्य मात्र सहकारिता की सुविधा ही नहीं आत्मीयता का आदर्श भी अपनायें।

सुव्यवस्थित और सर्वांगपूर्ण लार्जर फैमिली कम्यून तब बन सकेंगे, जब समाज के मूर्धन्य बुद्धिवादी इसके लिए प्रचार क्षेत्र में उतरें। सरकार इन्हें सहकारी समिति स्तर की मान्यता दें। धनाधीश इस प्रकार की कालोनियाँ बसाएँ और समझदार लोग इस शुभारम्भ के लिए अपने हाथ बढ़ायें और कदम उठायें, पर ये प्रतिभाएँ यदि आगे न आयें, तो बड़े पैमाने पर न सही, छोटे रूप में तो उनका निर्माण हो ही सकता है। अभी-अभी ऐसी कालोनियाँ बनायी और बसाई गयी हैं, जिनमें विभिन्न वर्ग के सरकारी कर्मचारियों ने प्लाट खरीदे और मकान बनाये। कहीं-कहीं वर्ग विशेष के लिए क्वार्टर बनाकर दिये गये हैं। एक काम होने की वजह से यह भी एक प्रकार की बिरादरी ही बन गयी। यदि ये लोग समझदारी से काम लें, तो कार्य अधिक सरलतापूर्वक हो सकता है।

सभी बातों का यदि आरम्भ में केन्द्रीयकरण न हो सके, तो खाना पकाने, बच्चे खिलाने और सहकारी स्टोर चलाने, कपड़े धोने, चौकीदारी करने जैसे कामों का आसानी से केन्द्रीयकरण हो सकता है। इतना करने में भी लोगों का ढेरों समय बच सकता है और उस समय में वे आगे की पढ़ाई पढ़ने, औद्योगिक प्रशिक्षण प्राप्त करने या आजीविका कमाने जैसे काम कर सकते हैं।

इतने काम एक साथ न चल सकते हों, तो भी खाना पकाने, कपड़े धोने, बच्चे खिलाने या पढ़ाने के लिए तो संयुक्त व्यवस्था आसानी से हो सकती है। गाँव मुहल्ले के लोग भी अपने-अपने क्षेत्रों में यह प्रयोग कर सकते हैं। एक कारखाने में लगे हुए लोगों, मालिकों की या सरकार की सहायता से ऐसी कालोनियाँ बसा सकते हैं, जिनमें उपरोक्त कार्यों की सुविधा के लिए भी अलग से स्थान बने हुए हों। कालोनी की व्यवस्था के लिए कितने ही कर्मचारियों को काम मिलेगा। इस प्रकार बेकारी की समस्या कम होगी। साथ ही पूरी कालोनी के नर-नारी अपनी-अपनी रुचि के अन्य कार्यों में संलग्न होकर ज्ञान, अनुभव एवं आजीविका उपार्जन में लग सकते हैं।

इन प्रयोगों को छोटे रूप में भी किया जा सके, तो दूसरों को बड़े रूप में इस संचालन के लिए उत्साह मिलेगा। अगले समय की आवश्यकताओं को देखते हुए विश्व परिवार के निर्माण की आवश्यकता पड़ेगी। उसके छोटे घटक लार्जर फैमिली स्तर के ही होंगे। बचत, सुविधा, व्यवस्था और सद्भावना सहकारिता के सभी लाभ उपलब्ध हो सकेंगे।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

237. बच्चों को वह पढ़ायें, जो काम आये
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सरकारी शिक्षण पद्धति जैसी भी कुछ चल रही है, उसमें समयानुरूप परिवर्तन की बात उन राजनेताओं पर छोड़ देनी चाहिए, जो उस तन्त्र को चलाते और पाठ्य पुस्तकों का निर्धारण करते हैं। सर्व साधारण के लिए उस परिवर्तन का आन्दोलन खड़ा करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि जिस प्रकार की उपयुक्तता, आवश्यकता समझी जाती है उसे स्वयं कार्यान्वित करने के लिए यथा सम्भव कदम उठायें।

गाँधी जी के सर्वोदय कार्यक्रम इसी आधार पर बने और चले थे। एलोपैथी के विरोध में उनने ‘उरुली कांचन’ का प्राकृतिक चिकित्सा आश्रम बनाया था और मिलों से झगड़ने की अपेक्षा चर्खा आन्दोलन को गति दी थी। रचनात्मक कार्यक्रम खड़े करने की अपनी विशेषता है। उसके पीछे कुछ कर गुजरने वाले कर्मठों की क्षमता निखरती है और आत्मविश्वास बढ़ता है। जबकि नुक्ताचीनी करते रहने और दोष निकालते रहने वालों को झंझट खड़े करने के अतिरिक्त कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण जैसा हाथ नहीं लगता।

वर्तमान शिक्षा के बारे में यह तथ्य सर्वविदित है कि अंग्रेजी शासन के दिनों अंग्रेजी भाषी बाबू लोग तैयार करने की दृष्टि से इसका ढाँचा बनाया और प्रचलन किया गया। उन दिनों अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में वह प्रणाली सिद्ध हुई। तब से लेकर अब तक वही ढर्रा चला आ रहा है। अपने लोगों में से कितने ही शिक्षाविद् इसी विभाग का संचालन करते रहे, पर उनने बदली हुई परिस्थितियों को समझने और तदनुकूल परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं समझी। इसे दुर्भाग्य कहना चाहिए कि हमारे बच्चे उस भारी और खर्चीले छकड़े को यथावत खींचते चले जाते हैं और जब उसकी निरर्थकता सामने आती है तो सिर धुन कर पछताते हैं।

अब हर साल स्कूल कालेजों से इतने विद्यार्थी निकलते हैं कि उन सबकी इच्छा के अनुरूप नौकरी मिलना सर्वथा असम्भव हो गया है। पारिवारिक परम्परा के कृषि, शिल्प, व्यवसाय उन्हें सुहाते नहीं हैं। श्रम भी अधिक पड़ता है और जिस साहबी ठाट-बाट की हवा पढ़ाई के दिनों लगी, उसकी पूर्ति का भी कोई तुक नहीं बैठता। उनके अनुरूप काम नहीं मिलता। काम के अनुरूप वे फिट नहीं बैठते। ऐसी दशा में बेकारी के असमंजस भरे दिन उन्हें गुजारने पड़ते हैं। इन विपन्न दिनों में वे अपराधी प्रवृत्तियाँ अपनाने से लेकर जो कुछ भला-बुरा सूझता है, कर गुजरते हैं।

कालेज की पढ़ाई पूरी करने में प्रायः १४ वर्ष लगते हैं। खाने, पहनने, जेब खर्च, पुस्तकें, फीस आदि को मिलाकर औसत २००/-मासिक खर्च जोड़ा जाय तो ढाई हजार साल के हिसाब से ३५ हजार बैठते हैं। खर्च होने वाली राशि का ब्याज जोड़ा जाय, तो वह सत्तर हजार होती है। उसे डिपोजिट में जमा कर दिया जाता, तो प्रायः ८०० रुपया मासिक ब्याज सौ पीढ़ी तक मिलती रहती और जब चाहा जाता, वह धन लौटाया जा सकता था। इतने लम्बे समय सिरखाऊ श्रम और वजनदार धन लगाने के उपरान्त भी बेकारी, कुढ़न और पश्चाताप ही हाथ लगे, तो समझना चाहिए कि कहीं कोई बड़ी भूल हो गई। कुछ नहीं तो इसके बदले जीवनोपयोगी ज्ञान और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व तो हाथ लगना ही चाहिए। इस दृष्टि से भी उपलब्ध शिक्षा आवारा जैसी प्रतीत होती है।

जीवनोपयोगी ज्ञान में स्वास्थ्य संरक्षण, मानसिक सन्तुलन, व्यवहार कौशल, पारिवारिक सद्भाव जैसी गुण, कर्म, आलस्य, प्रमाद, उच्छृंखलता, अहंता जैसे दुर्गुणों का तो समापन होना ही चाहिए। व्यक्ति और समाज में उपस्थित अनेकानेक समस्याओं का स्वरूप, कारण और निवारण से तो अवगत होना ही चाहिए। जिन्हें इन विषयों की आवश्यक जानकारी न हो, उसे अनपढ़ों में ही समझना चाहिए, भले ही उसने किसी भी कक्षा तक पढ़ लिया हो।

जो विषय मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में काम नहीं आते, उन्हें निर्धारित पाठ्यक्रम के कारण तोता रटंत रटते और परीक्षा के दिनों कोई तिकड़म भिड़ा कर प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेने भर से यह नहीं माना जा सकता कि उपयोगी शिक्षा प्राप्त की गई। इतिहास, भूगोल जैसे विषयों की सामान्य जानकारी भर से काम चल सकता है। रेखा गणित, बीजगणित आदि हर किसी के काम नहीं आते। जिन्हें उन विषयों का विशेषज्ञ बनना है, उस विशेषज्ञता में कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध करना है, वे ऐसे विषयों में प्रवीणता प्राप्त करें अथवा एक दो बार इन विषयों को समझने-समझाने भर से काम चल सकता है। गम्भीरतापूर्वक उन विषयों को पढ़ा जाना चाहिए, जो सर्वसाधारण के सामान्य जीवन में आये दिन काम आते हैं। पारिवारिक स्नेह सौजन्य बनाये रहना और आर्थिक स्थिति के अनुरूप जिन्हें बजट तक नहीं आता। जिसे रेलवे, पोस्ट ऑफिस, इनकम टैक्स, बीमा, बैंक, सहकारिता जैसे सामान्य विषयों की जानकारी नहीं है, जो दाम्पत्य जीवन में मधुरता नहीं बनाये रह सकते, बच्चों की संख्या तो आँखें मूँद कर बढ़ाते जाते हैं, पर उनके खेलने के लिए स्थान, दुलार के लिए समय, शिक्षा, चिकित्सा के लिए धन, सुसंस्कृत बनाने के लिए आत्मनिर्माण, उत्कृष्टता सम्पन्न कराने जैसा व्यक्तित्व है या नहीं, यह नहीं देखते। पति-पत्नी के बीच गहरी आत्मीयता हुए बिना कोई बच्चे संस्कारवान नहीं बनते। इन सब सुयोगों को विनिर्मित करने की जिम्मेदारी पिता की होती है। उसका निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसका पाठ्यक्रम किसी पुस्तक में संकेत भर जितना नहीं है। वातावरण उस प्रकार का है नहीं। आजीविका उपार्जन के लिए कोई व्यावहारिक पाठ्यक्रम शिक्षा पद्धति में जुड़ा हुआ है नहीं। समुन्नत कृषि, लाभदायक पशु पालन, क्षेत्र की आवश्यकतानुरूप कुटी शिल्प, उस क्षेत्र में खपने वाली वस्तुओं का निर्माण, व्यवसाय जैसी बातें सिखाने का कोई तथ्य शिक्षा के साथ जुड़ा नहीं है। सरकारी नौकरी मिलने पर कोई सेल्समैन जैसा काम प्राप्त कर सके, मोटर ड्राइवर जैसा कुछ भी तो नहीं सिखाया जाता। बाजारू नौकरी ढूँढने पर कोई इन्हें दस रुपया रोज पर भी रखने वाला नहीं मिलता, ऐसी है हमारी वर्तमान शिक्षा की उपलब्धि।

अच्छा हो कि विचारशील लोग आलोचना करते रहने की अपेक्षा ऐसा शिक्षा तन्त्र खड़ा करें, जो बिना सरकारी सहायता के भी चल सके। जिसमें उपलब्धियाँ प्राप्त करना आवश्यक न हो, उसे चलाने के लिए रिटायर लोग भी काम दे सकते हैं। मिस्त्री कारीगरों से भी काम चलाया जा सकता है। इसमें आधा समय जीवन में काम आने वाले विषयों का पुस्तकीय ज्ञान और आधे में आजीविका उपार्जन के लिए अभ्यास-श्रम कराया जाय। किसी को इतिहास, भूगोल जैसे विषयों में विशेष रुचि हो, तो वह उसकी पूर्ति विद्यालय में रहने वाली चुनी हुई पुस्तकों के माध्यम से करता रह सकता है।

परीक्षा साप्ताहिक या मासिक रूप से होती रहे, जिससे प्रगति का अनुमान लगता रहे। वार्षिक परीक्षा पद्धति ही दोषपूर्ण है। साल भर मटरगश्ती करने वाले लड़के अनैतिक तिकड़में भिड़ाकर पास होने की कोशिश करते हैं। कुँजियों, गैस पेपरों से भी बहुत कुछ काम चल जाता है। इस प्रकार उत्तीर्ण होने वाले लड़के भी योग्यता की दृष्टि से अयोग्य ही पाये जाते हैं। स्कूल कालेजों का वातावरण कैसा उच्छृंखल और खर्चीला है, वह भी किसी से छिपा नहीं हैं। समानान्तर शिक्षा तन्त्र खड़े करने वालों के विद्यालयों और छात्रावासों का वातावरण ऐसा हो, जिसमें नियमितता, अनुशासन, सुव्यवस्था, परिश्रम, खेलकूद आदि का समावेश रहे। फीस देकर और मंहगा रहन-सहन वहन करने पर जितना खर्च आता है, उतना ही मासिक व्यय वहन करने भर से समानान्तर शिक्षा का काम चल सकता है। इसके लिए अच्छा हो कि धर्मशाला वाले इन विद्यालयों के लिए अपने भवन दे दें। मुफ्त में समर्थों को भी खाना खिलाने या ठहराने से मुफ्तखोरी की बुराई ही बढ़ती है। किराये के या बिना किराये के न मिलें, तो निजी बनाने या किराये से लेने की बात सोचनी चाहिए। इनके लिए उपरोक्त विषयों की काम चलाऊ पुस्तकों के उपयोगी अध्याय पाठ्यक्रम में रखे जा सकते हैं या अपनी निज की पाठ्य पद्धति रखी जा सकती है, जैसा कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन या प्रयाग महिलापीठ ने अपनी-अपनी रखी है। इसके लिए विद्यार्थी प्राप्त करने के लिए घर-घर जाना होगा और समझाना होगा कि वर्तमान परिस्थितियों में बच्चों को सरकारी नौकरियों की दृष्टि से पढ़ाना सर्वथा अदूरदर्शिता है। रिश्वत बटोरनी हो तो बात दूसरी है, अन्यथा सरकारी मध्यवर्ती नौकरियों की तुलना में एक धकेल गाड़ी लेकर निकल जाने वाला, फेरी वाला अधिक कमा लेता है। अगले दिन शिल्प, उद्योग और व्यवसाय के हैं, उसी दिशा में सोचने और गुजारा चलाने की बात सोचनी चाहिए। सबसे बड़ी बात है, बच्चों को व्यवहार कुशल एवं प्रतिभावान व्यक्तित्व विनिर्मित करने की। इसके लिए समानान्तर विद्यालयों का ढाँचा खड़ा करना ही बुद्धिमत्तापूर्ण हो सकता है, जो इन्हें खड़ा कर सकेंगे, वे एक बड़ा मिल खोलने या चलाने से अधिक यशस्वी होंगे।

सरकारी पढ़ाई में सबसे बड़ा दोष यह है कि निरर्थक विषयों की तोता रटंत करनी पड़ती है। उस श्रम के भविष्य में कुछ काम न आने की बात सोचकर शिक्षार्थी ऊबते और खुराफातों की ओर मन चलाते हैं। यदि काम में आने वाले और जीवन को प्रगतिशील बनाने वाले विषय पढ़ने पड़ें, तो उन्हें रुचि बढ़ेगी और मस्तिष्कीय विकास को सहज ही असाधारण लाभ मिलेगा। सरकारी प्रमाण पत्रों का बाजार रेट अब निरन्तर गिरता जा रहा है। उसकी ओर से हाथ खींचकर काम आने वाली शिक्षा पर ध्यान दिया जाय, तो पढ़ाई छोड़ने के बाद किसी को पछताने या असमंजस में पड़ने की आवश्यकता न पड़ेगी, यह समझाया जा सके और विद्यालय का स्वरूप आकर्षक बनाया जाय, तो निश्चय ही पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी मिलने लगेंगे। कक्षा ६ से १० तक चार वर्ष का कोर्स पर्याप्त है या १८ वर्ष की आयु होने तक का प्रशिक्षण भारत जैसे गरीब देश के लिए पर्याप्त हो सकता है।

लड़कों की भाँति लड़कियों के लिए भी समानान्तर शिक्षा नितान्त आवश्यक है। सरकारी स्कूलों में पाँचवीं कक्षा तक लड़के-लड़की साथ-साथ पढ़ें। इसके उपरान्त उनके भावी जीवन को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाय और ऐसे ही व्यावहारिक वातावरण में उन्हें पढ़ने का प्रबन्ध किया जाय। लड़कों को समाज सम्पर्क रखने के लिए व्यवहार कुशलता और आजीविका उपार्जन के लिए आरम्भ से ही अपना ध्यान मोड़ना और तदनुरूप पढ़ने में श्रम, समय और धन लगाना चाहिए। लड़कियों का कार्यक्षेत्र परिवार संचालन है। ये विवाहित-अविवाहित जिस भी स्थिति में रहें, उन्हें परिवार संस्था की सुयोग्य एवं संचालिका-शिक्षिका बनना चाहिए। सरकारी नौकरियों के फेर में उन्हें भी अन्धी दौड़ दौड़ाना नहीं चाहिए। बच्चे, घर अस्त-व्यस्त करके ही महिलाएँ नौकरी कर सकती है। फिर अफसरों के उचित-अनुचित दबाव न मानने पर ऐसी जगह ट्रांसफर पर जाना पड़ता है, जहाँ जिन्दगी ही दूभर हो जाय।

गृह विज्ञान वर्तमान विज्ञानों में सबसे बढ़कर और सबसे महत्त्वपूर्ण है। समाज को नये नागरिक यदि शानदार स्तर के बनाकर दिये जा सके, एक परिवार को सुव्यवस्था पूर्वक चलाते हुए अनेक प्रकृति के लोगों को उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र की दिशा में बढ़ाया जा सके, तो यह एक बहुत बड़ी बात है। यह कार्य प्रधानतया महिलाएँ कर सकती हैं, बच्चों के साथ दिन भर और बड़ों के साथ १८ घण्टे रहती हैं। इस बीच वे घर गृहस्थी के सामान्य काम करती हुई भी यदि व्यक्तित्व निखारने वाली प्रेरणा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देती रहें, तो वे अपने कार्यक्षेत्र को हीरे मोतियों से सजा हुआ बना सकती हैं।

गृहस्थ से सम्बन्धित इतनी अधिक समस्याएँ हैं, जिन्हें लड़कों के कार्यक्षेत्र से किसी भी प्रकार कम नहीं समझा जा सकता। गृह प्रबन्ध को ठीक तरह चलाने, विभिन्न प्रवृत्ति के चित्र-विचित्र स्वभाव वालों को मिठास की आग में तपाकर यदि टेढ़े से सीधा किया जा सके, तो उस कौशल की मुक्त कंठ से सराहना ही की जायेगी। गृहलक्ष्मी स्तर का बजट बनाकर घर चलाने वाली महिलाओं के घर में दरिद्रता फटकने भी नहीं पाती।

गर्भावस्था और शिशु पालन की मुसीबत ऐसी हैं, जिसके सम्बन्ध में समुचित जानकारी रहने पर ही अपने और बच्चे के प्राण बचते हैं। दस वर्ष की आयु तक के बच्चे प्रायः माँ से ही चिपके रहते हैं। इस अवधि में ही बालकों को गुण-कर्म की दृष्टि से संस्कारवान बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में महिलाओं की ही भूमिका सर्वोपरि होती है। परिवार छोटा होने पर भी एक पूरा साम्राज्य है। उसका सुसंचालन उन नारियों के लिए ही सम्भव है, जिन्हें पुरातन काल में गृहलक्ष्मी कहते और नाम के साथ देवी शब्द जोड़कर उनकी गरिमा को वरिष्ठ बताया जाता रहा है।

सरकारी स्कूलों की शिक्षा में लड़कियाँ चित्र-विचित्र फैशन बनाना सीखकर आती है। साथ ही कालेज की हवा में और जो अनेकों विषाणु घूमते हैं, उन्हें समेट लाती हैं। जो कुछ उनने पढ़ा है, उसकी सार्थकता तभी है जब कोई अच्छी नौकरी मिल जाय और स्वच्छन्दता पूर्वक रहने का अवसर मिले अन्यथा मध्यवर्ती घर में ब्याही जाने, संयुक्त परिवार में रहने के लिए विवश होने पर उन्हें असह्य हो जाता है। मंहगा जीवन और अलग रहना ही उन्हें सुहाता है। यह दोष उस शिक्षा का है, जिसमें मध्यवर्ती गृहस्थ में व्यावहारिक जीवन बिताने और घर की रानी कहलाने का रास्ता नहीं बताया गया। ऐसा पाठ्यक्रम और व्यावहारिक अध्ययन से उन्हें दूर रहना पड़ता है और लड़कों की तरह इतिहास, भूगोल, रेखा गणित आदि की वही तोता रटंत रटनी पड़ती है, जिसका किसी सद्गृहस्थ में कदाचित ही कोई काम पड़े।

लड़कियों की भी समानान्तर व्यवस्था होनी चाहिए। व्यावहारिक ज्ञान और अभ्यास का जिसमें समावेश हो, उसी को नारी के लिए उपयुक्त शिक्षा कहा जा सकता है। इसके लिए कदाचित नया पाठ्यक्रम ही बनाना या छपाना पड़े? नोट लिखकर भी ऐसी शिक्षा अनुभवी शिक्षक इन जानकारियों की दे सकते हैं। जिस-जिस पुस्तक के कुछ अध्याय भी कुछ काम दे सकते हैं। लड़कियों की शिक्षा गृहलक्ष्मी स्तर की होनी चाहिए। यह किस प्रकार बन पड़े। यह अपनी बच्चियों के हित में स्वयं ही सोचना चाहिए और सोचते ही न रहकर उसका ऐसा ढाँचा खड़ा करना चाहिए, जिसमें पढ़कर निकली हुई लड़कियाँ गृह और ससुराल में भरपूर सम्मान यश एवं स्नेह प्राप्त कर सकें।

ऐसे कन्या विद्यालयों में छठी कक्षा से लेकर दसवीं तक का प्रबन्ध किया जाय और अठारह वर्ष की आयु होने तक इसी प्रशिक्षण में पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाने के काम में भी लगाये रखी जाय। उन्हें ऐसे गृह उद्योग भी सिखाये जाय, जिससे वे भी आजीविका उपार्जन करने में सफल रहें और स्वावलम्बी बनें। बिना नौकरी किये ही समय पड़ने पर भली प्रकार काम चला सकें।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

238. बेरोजगारी हटाने और शान्ति से रहने के लिए स्वदेशी व्रत आवश्यक
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

किसी जमाने में शासन का क्षेत्र बड़ा बनाने वाले सामन्त या राजा बलिष्ठ और प्रतिष्ठित माने जाते थे। उन दिनों ये प्रजा के जान-माल के स्वामी होते थे और प्रजाजनों की सम्पदा को अपनी सम्पदा मानकर मनचाहा उपभोग करते थे। युवकों को दास के रूप में राजा के यहाँ श्रमिक की भूमिका निभानी पड़ती थी और सुन्दर युवतियाँ उनके अन्तःपुरों में कैद रहती थी। प्रजाजनों की उपार्जित सम्पदा को राजा किसी भी बहाने माँगकर राज्यकोष में जमा कर लेता था। मनुष्य पशुओं की तरह राजा के शासन क्षेत्र में पेट भरने मात्र की छूट पाते थे। उसी सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्गत राज्य शासन का विस्तार करने के लिए आये दिन युद्ध भी होते रहते थे।

अब वह व्यवस्था चली गई। औद्योगीकरण का युग आ गया। मशीनें अत्यधिक उत्पादन करती हैं। उसे खपाने के लिए देश-देशान्तरों पर अपना अधिकार चाहिए। राजतन्त्र की शासन व्यवस्था को प्रजातन्त्र की लहर ने बदल दिया। देशों ने जनता की चुनी हुई सरकारें बना ली। ऐसी दशा में आर्थिक उपनिवेशवाद ने पुराने चेहरे में थोड़ा रूपान्तरण कर लिया। सत्ताधारी अपना ऐसा प्रभाव बढ़ा रहे हैं जहाँ उनका मशीनी असीम उत्पादन खपता रहे, वे देश इसमें असमर्थ बने रहे और गरीबी रेखा से नीचे रहें।

आज शीत युद्ध और गरम युद्ध की जो काली घटायें घुमड़ती रहती हैं, एक जगह से दूसरी जगह जा पहुँचती हैं। कभी गरजती हैं, कभी बरस भी पड़ती हैं। संसार भर में अनिश्चितता और आशंका बनी रहती है। इसका प्रमुख कारण एक ही है-उत्पादन खपाने के लिए मंडियों पर आधिपत्य करना। इसी के लिए समर्थ देशों के बीच रस्साकसी चलती रहती है और प्रजाजन एक ओर गरीबी का, दूसरी ओर आक्रान्ताओं का त्रास सहते रहते हैं।

गाँधी जी दूरदर्शी थे, उनने समय रहते भाँप लिया था कि अँग्रेज इस देश में सामंती शासन चलाने के लिए नहीं, व्यापार मंडी के रूप में इस देश को हथियाए रहने के लिए हाथ पैर पीट रहे हैं। गाँधी जी ने स्वदेशी आन्दोलन की लहर चलाई और अँग्रेजों के प्रधान उद्योग फैन्सी कपड़े का आयात कम कर दिया। यह सच है कि गाँधी के चरखे ने अँग्रेजों की दुखती नस दबाई और उन्हें जब भारत की मंडी लाभदायक न दिखी तो आसानी से आजादी देकर वापस लौट गये।

पुराने जमाने में एक राजा दूसरे पर हमला करता था, इसमें प्रजाजन कोई रुचि नहीं लेते थे। पर अब तो दूसरे देश का प्रत्यक्ष या परोक्ष आधिपत्य अपने ऊपर रखना या रखाना पूरी तरह प्रजाजनों की ही इच्छा पर निर्भर है। दूसरे देशों की मंडी अपने देश को विदेशी पराधीनता का आधार बनाये रहना और दुबला खरगोश रह कर कई शिकारी कुत्तों को हमला करने के प्रश्न पर खून खराबा करते रहने का अवसर देंगे। अभी-अभी गरीब वियतनाम इसी कुचक्र में बुरी तरह पिसता रहा है।

समय को पहचाना जाना चाहिए और हर देश को अपने पैरों खड़े होने का प्रयत्न करना चाहिए। पिछली शताब्दी में प्रजा और सरकारों के बीच आजादी की लड़ाई लड़ी जाती रही है, वह लगभग पूर्ण हो चुकी। जहाँ राजतन्त्र है, वे भी अधिक दिनों टिकने वाले नहीं हैं। अब सारा आकर्षण इस बात पर टिक गया है कि कौन देश अपने देश को विदेशों की कितनी बड़ी मण्डी बनाये रहता है, कितना दूसरों पर आश्रित रहता है।

आज की स्थिति में अपने देश को विदेशी समर्थ ताकतों का आकर्षण केन्द्र बनाना ही अपनी जान के लिए मुसीबत लेना है। मुफ्त में सहायता कहीं से नहीं मिलती। जो देते हैं, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष शर्त या आशा रखते है कि उनकी मंडी में माल खपाने की सुविधा मिलती रहे। इंकार करने पर सहायता की अपेक्षा दबाव बढ़ने लगते हैं। इस कुचक्र में निरीह देशवासियों को बेहिसाब पिसना पड़ता है।

विगत औद्योगिक क्रान्ति ने सम्पन्न देशों का विलायती उत्पादन इतना अधिक बढ़ा दिया है कि वह अपने देश में नहीं खप सकता, उन्हें मंडी चाहिए। जो विदेशी माल अपने यहाँ जितना अधिक खपाते हैं वे उतना ही अधिक शोषण, आक्रमण का खतरा अपने यहाँ न्यौत बुलाते हैं। समय की माँग है कि देश भक्ति के लिए ही नहीं, जान की आफत टालने के लिए भी आत्म निर्भर होना चाहिए। अन्न, वस्त्र जैसी निर्वाह की वस्तुओं के लिए भी आत्मनिर्भर होना चाहिए। इन दिनों अविकसित देशों के लिए अपनाई जाने योग्य सर्वोत्तम नीति है। भारत के लिए यह स्वतन्त्रता संग्राम जैसी जीवन-मरण की लड़ाई है।

हमें विलासिता की फैन्सी चीजों का बहिष्कार करना चाहिए। वे बड़ी मिलों में बनती हैं। बड़े मिलों की आटोमैटिक मशीनें श्रमिकों की बेरोजगारी फैलाती हैं। अमीरों को अधिक अमीर बनाती हैं और मनचले लोगों को चूहेदानी में फँसकर जान का बवाल पालने की शिक्षा देती हैं।

गाँधी जी ने खादी का आन्दोलन चलाया था। अब भी वह आदर्श है, पर उतना न बन पड़े, तो देहाती कुटीर उद्योगों द्वारा बने माल से गुजारा और संतोष करना चाहिए। यह स्वदेशी आन्दोलन जितना सफल होगा उतनी ही गरीबों को राहत मिलेगी और अमीरों के लालच पर चाँटे पड़ेंगे। अच्छा तो यह हो कि कुटीर उद्योगों को मिल के बने सामान की तुलना में प्राथमिकता दी जाय। भले ही वह देशी मिलों का ही क्यों न हो। आटोमैटिक मशीनों वाली मिलें विदेशी निर्यात का कोई सामान बनाती हो तो दूसरी बात है, अन्यथा देश की गरीबी और बेकारी मिटाने के लिए कुटीर उद्योग को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए। उनकी प्रतिद्वन्द्विता देशी मिलों को भी नहीं करने देनी चाहिए। उन्हें वही चीजें बनानी चाहिए, जो कुटीर उद्योग के अन्तर्गत नहीं बन सकती।

स्वराज्य की लड़ाई गाँधी जी के नेतृत्व में लड़ी जा चुकी। दूसरी कुटीर उद्योगों की। बहुत से देशी मिलों की चीजें उपयोग करने वाली स्वदेशी आन्दोलन की लड़ाई प्रत्येक देशभक्त और शान्ति प्रेमी को अपने नेतृत्व में चलानी चाहिए। मिली हुई आजादी की रक्षा और चैन की जिन्दगी बहुत कुछ इसी बात पर निर्भर रहेगी, कि स्वदेशी आन्दोलन कितना अपनाया और कुटीर उद्योगों को कितना प्रश्रय दिया।

इसके लिए सरकार को भी चाहिए कि वह कुटीर उद्योगों को पनपाने में पहल करे या मिलों को उस क्षेत्र से उतार कर प्रतिद्वन्द्विता न करने दें। इसके अतिरिक्त मुख्य जिम्मेदारी जन साधारण की है कि वह इस दिशा में ध्यान दें और आत्म संयम बरतें। सभी जानते है कि मिलों का उत्पादन खूब सूरत में होता है, अपेक्षाकृत सस्ता भी पड़ सकता है। यहाँ से गाँधी जी की बताई नीति का अभी भी उपयोग करना चाहिए। जब तक हम आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो जाते तब तक समझना चाहिए प्रच्छन्न गुलामी के दबाव से हम अभी भी दबे हुए हैं। इस दबाव से छुटकारा पाने के लिए हमें सादगी अपनानी चाहिए और गृह-उद्योगों को पनपाने के लिए उन्हें अपनेपन की भावना से पनपाने का प्रयत्न करना चाहिए।

भारत में कृषि के लिए जितनी गुंजाइश थी, वह प्रायः घिर चुकी। इस हेतु ढेरों जंगल भी कट चुके। बढ़ती आबादी और बेकारी का निराकरण का समाधान अब मात्र कुटीर उद्योगों में ही हो सकता है। सरकारी नौकरियों में भी अब गुंजाइश नहीं हैं। छोटे-छोटे एक-एक दो-दो हार्स पावर से चलने वाले कुटीर उद्योगों की दिशा में हमें मुड़ना होगा। शहरों की ओर मची हुई भगदड़ को रोकने और गंदगी, बीमारी फैलाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि कस्बे पनपाये जायें और उनके माध्यम से समीपवर्ती गाँव में स्वदेशी उत्पादन एवं खपत का पथ प्रशस्त किया जाय।

इसके लिए हाट मेलों का भी प्रचलन किया जाय, ताकि उत्पादन के सम्बन्ध में सर्व साधारण को जानकारी नहीं है, वह मिल सके और घर बैठे खरीद की सुविधा होने पर समय खर्चने, लदाने की व्यवस्था का पृथक-पृथक झंझट उठाने की असुविधा बचा सकें।

मुख्य बात है उपभोक्ता का मन। वह अभाव वाली सामग्री की पूर्ति से भी अधिक मूल्यवान है। यदि अनाज कम पड़ता हो और महँगा बिकता हो तो आलू, अरबी, प्याज जैसे कन्द और पालक, मेथी जैसे रोटी के साथ मिलाये जाने वाले शाकों का उत्पादन बढ़ाया और किसी सीमा तक अन्न का विकल्प बनाया जा सकता है। शाक मिली रोटी बनाने और खाने की आदत डाली जा सके, तो उसमें थोड़ी सी आदत भर बदलनी पड़ेगी और अन्न की मँहगाई का दबाव घट जायेगा। इस प्रचलन से उत्पादक और उपभोक्ता दोनों ही लाभ में रहेंगे।

कपड़े हम फैशन में न पहने। चीन में पायजामा और बुशर्ट नुमा कोट यही सब नर-नारी पहनते हैं। हमें भी अनेक डिजायनों का मोह छोड़ना होगा और कुटीर उद्योग से बने कपड़ों का सादा फैशन अपनाकर काम चलाना पड़ेगा। जिससे बहुत प्रकार के, बहुत डिजायनों के संदूकों भरे कपड़े जमा न करने पड़े। एक दो जोड़ी कपड़ों में ही घर का तथा बाहर जाने का काम चल जाय।

टूट-फूट होते ही वस्तुओं को फेंक कर नई खरीदने की शाही आदत पर अंकुश लगाना चाहिए और हर वस्तु की मरम्मत करने वाले कारीगरों की दुकानें खुलवाने का एक नया उत्साह उभरना चाहिए, नया आन्दोलन चलाना चाहिए। इस्लाम धर्म के फकीर कपड़ों के टुकड़े सी कर गदरी बनाते हैं। उन्हें मितव्ययी, आदर्शवादी एवं अधिक श्रद्धास्पद माना जाता है। इन दिनों अपने देश में भी यह कसौटी श्रेयस्कर मानी जानी चाहिए कि मरम्मत की हुई वस्तुओं को सराहा जाय और तनिक भी टूट-फूट होते ही उसे कूड़े में डाल देने की आदत को बड़प्पन नहीं एक कुटेव माना जाय।

साबुन, तेल आदि वस्तुएँ अपने गाँव में ही बना सकते हैं। पशु हत्या वाले चमड़े के जूते पहनने के स्थान पर पुराने टायरों की चप्पलें अथवा प्लास्टिक के जूते काम आ सकते हैं। दैनिक जीवन की अन्य उपयोगी चीजें, हजामत के ब्लेड, साबुन, चारपाई, निवाड़, मूँज की रस्सी आदि वस्तुएँ अपने आस-पास की ही बनी हो। चीनी के स्थान पर गुड़ लेना सस्ता भी है और लाभदायक भी। दुधारू पशु पाले जाय। अन्यथा डिब्बे के महीनों पुराने दूध की अपेक्षा तिल, मूँगफली या सोयाबीन पीस कर बिना पशु का दूध बनाया जा सकता है। आयुर्वेद के आधार पर जड़ी-बूटी चिकित्सा अपनाई जाय, तो एलोपैथी की मद्य-माँस मिली हुई औषधियों का सेवन क्यों करना पड़े?

फैन्सी डिजायनों का फैशन न अपनाया जाय और सीधे-सादे कुर्ता पायजामा, बनियान, जाकेट आदि पर्याप्त समझे जाय, तो घरों की सिलाई जानने वाली महिलाएँ ही सिलाई सीखकर आजीविका उपार्जित कर सकती हैं।

विवाह शादियों के अवसर पर बहुमूल्य कपड़े, जेवर और दूसरे सजधज के सामान खरीदने का प्रचलन है। अच्छा हो इस अवसर को यज्ञीय पवित्रता से सुसम्पन्न रखा जाय और मँहगे प्रदर्शन से उसे बचाये रखा जाय। ऐसे काम हम न करें, जो गरीबों को अमीरों का स्वांग बनाने का, उपहास कराते हैं। जेवरों का समय अब चला गया। कभी बैंक नहीं थे, तब घर की पूँजी को सोने-चाँदी के रूप में शरीर से बाँधकर रखने का रिवाज था। आज तो बैंक का पैसा अच्छा खासे ब्याज के रूप में बढ़ता ही है, सुरक्षित भी रहता है और ईर्ष्यालुओं तथा चोरों द्वारा विग्रह खड़ा करने का अवसर भी नहीं देता। वह पैसा कारोबार में घूमता रहे तो ही बुद्धिमानी है।

हम अपनी आवश्यकताएँ घटाएँ। उसकी पूर्ति समीपवर्ती उत्पादन से ही कर लें, तो बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही दृष्टि से सुखी रहा जा सकता है। मंडी न रहने से उस देश पर चील-कौओं की, स्यार और कुत्तों की घात लगाने और विग्रह खड़ा होने का अवसर न आवेगा। दूसरे यह है कि अहंकार प्रदर्शन के जंजाल में खर्चीली बनावटी जिन्दगी जीने और बढ़े हुए खर्चों को पूरा करने के लिए चोरी, ठगी का ताना-बाना बुनना पड़ेगा। अपव्यय और ठाट-बाट दुर्व्यसनों के साथ जुड़ा रहता है। नशेबाजी और व्यभिचार की ओर प्रवृत्ति मुड़ती है और सम्पन्न न होते हुए भी उसका भोंडा आडम्बर ओढ़ना पड़ता है, स्वाँग में बने राजा की तरह असलियत छिपाकर भी नहीं रख सकता।

सादगी और स्वदेशी का व्रत लेकर न केवल हम अपनी गरिमा बढ़ाते हैं, वरन बचत के पैसे से निकटवर्ती लोगों के लिए रोजगार व्यवसाय के साधन भी बनाते हैं। यह दूरदर्शी विवेकशीलता की निशानी है, इसमें देशभक्ति की भावना जुड़ी हुई है। साथ ही गरीबी भगाओ के उद्घोष में व्यावहारिक योगदान भी बन पड़ता है।

सम्पन्न देशों ने बड़े उद्योग लगाकर उनसे विलासी वस्तुएँ बनाने और ललचाकर गरीबों के मुँह का ग्रास छीन लेने का षड्यन्त्र रचा है। उसे सफल होने देना या न होने देना पूर्णतया हमारी समझदारी पर निर्भर है। जो चीजें हाथ से बनाना संभव नहीं, जिनके बिना काम नहीं चल सकता, वे मशीनें या यंत्र उपकरण बनाना बड़े कल कारखानों के जिम्मे छोड़ा जा सकता है, किन्तु दैनिक उपयोग की साधारण चीजें भी वे ही बनाते रहें और फैशन के आकर्षण में हमें उन्हीं का उपयोग अपनी बड़प्पन का चिह्न समझते रहें, तो शान भले ही किसी की बढ़े या न बढ़े पर बढ़ती हुई नई पीढ़ी को बेरोजगारी के कुचक्र में भूखों अवश्य मरना पड़ेगा। यह आत्मघात या देशद्रोह जैसा अनौचित्य है। इसी दुष्प्रवृत्ति के कारण आर्थिक उपनिवेशवाद पनपता है और शीत युद्ध या गरम युद्ध के लिए मूलभूत आधार खड़ा होता है।

अनौचित्य की आक्रामकता की कुदृष्टि से बचने के लिए रास्ता एक ही है कि हम उस जाल-जंजाल में फँसने से इंकार कर दें, जो गरीबों के मुँह का ग्रास छीन कर अमीरों की तिजोरियाँ भरने के निमित्त नासमझों को फुसलाने में सफल होता रहता है। गाँधी जी आज हमारे बीच नहीं हैं, तो भी उनकी कार्यशैली के अवशेष अभी भी भावनापूर्वक देखे जा सकते हैं, वे कागज-कलम से लेकर चप्पल और कपड़े तक का उपयोग पूर्ण स्वदेशी के रूप में करते थे। वर्धा और साबरमती की जिन झोपड़ियों में रहते थे, वे बाँस, खपरैल जैसे समीपवर्ती उपलब्ध साधनों से ही बनी हुई है। गाँधीजी की एक सत्याग्रह शिक्षा मानकर हमने आजादी प्राप्त कर ली, अब उसकी रक्षा करने और बेरोजगारी के कुचक्र में फँस मरने से बचने के लिए दूसरा कदम स्वदेशी का व्रत लेकर उठाना चाहिए।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

239. मनोबल अनेकानेक सफलताओं की कुञ्जी
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शरीर बल को बढ़ाने के लिए आहार, व्यायाम एवं विशेष उपचारों का सहारा लिया जाता है। मनोबल की इससे भी अधिक आवश्यकता समझी जानी चाहिए। मन का शरीर पर पूरी तरह नियन्त्रण है। विज्ञान की नवीनतम शोधों ने उन ऋषि निर्धारणों की पुष्टि की है। संकल्प बल से स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का उत्कर्ष होता है। यदि मनोबल गिरे या विकृत दिशा में चले, तो उसका परिणाम पतन और पराभव के रूप में सामने आयेगा। दुर्बलता और रुग्णता चढ़ दौड़ेगी। हारा हुआ मन जीवन में निराशा भर देता है और तरह-तरह के भय, उद्वेग, संदेह की स्थिति बना कर मनुष्य को चिन्ताओं और आशंकाओं से ग्रसित बना देता है। यह कथन आंशिक रूप से सही है कि शरीर बीमार होने पर मनोबल भी गिरता है, किन्तु यह निष्कर्ष शत-प्रतिशत सही है कि मनोबल गिरेगा तो शरीर विचित्र रोगों से घिरने लगेगा। प्रत्यक्षतः कोई रोग चिकित्सकों की समझ में न आये तो भी स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी, मानों रुग्णता ने काया को जराजीर्ण, जर्जर बना दिया है और उसकी क्रिया शक्ति को बुरी तरह खींच लिया है।

इसके विपरीत यदि मनोबल दृढ़ हो तो गाँधी और विनोबा जैसे दुर्बल दीखने वाले भी अपने संकल्प बल के सहारे बड़े-बड़े संकल्प करते और अपनी मानसिक समर्थता के सहारे उन्हें पूर्ण करके दिखाते हैं। जिनका मनोबल गिर गया, वे साधारण कामों को भी पर्वत के समान भारी मानते हैं। कुछ करने के लिए न हाथ आगे बढ़ते हैं, न पैर चलते हैं ।। वह उत्साह और साहस ही है, जिसके सहारे सामान्य लोग बड़े काम कर दिखाते हैं। नेपोलियन भी शारीरिक दृष्टि से सामान्य मनुष्यों जैसा ही था, पर जिस भी काम को हाथ में लेता उसे हर कीमत पर पूरा करके दिखाता था। इतिहास ऐसे ही महामानवों की गरिमा से भरा पड़ा है। जिसके पास बलिष्ठता, शिक्षा, सम्पन्नता और अनुकूलता जैसा कुछ न था, पर वे आत्म विश्वास के सहारे आगे बढ़े और दृढ़ता अपना कर कठिन दीखने वाले लक्ष्य की पूर्ति तक जा पहुँचे।

शरीर, रक्त-माँस के सहारे ही सब कुछ नहीं कर लेता, उसके भीतर असली शक्ति मनोबल की रहती है, जो मस्तिष्क में उत्पन्न होकर नस-नाड़ियों के सहारे समूची काया में बिजली की तरह दौड़ती है। बिजली ही बल्बों को चमकाती, पंखों को घुमाती, रेफ्रिजरेटर को ठंडा रखती, हीटर को गरमाती और टेलीफोन को वार्तालाप कराने की क्षमता से भरा पूरा रखती है। यदि इन यन्त्र-उपकरणों में बिजली न पहुँचे, तो वे टूट-फूट न होते हुए भी निकम्मे पड़े रहते हैं। यही बात शरीर के संबंध में भी है। वह सामान्य स्थिति में रहते हुए भी अपने को अशक्त अनुभव करते रहता है और समर्थ होते हुए भी असमर्थों से गई बीती स्थिति अनुभव करता है। मनोबल साथ दे, तो बात ही दूसरी है। भीष्म का सारा शरीर बाणों से बिंध रहा था, फिर भी वे उत्तरायण सूर्य आने तक छः महीने उसी शरीर में प्राण धारण किये रहे। राणा साँगा को साठ गहरे घाव लगे थे, तो भी वे लड़ाई के मैदान में पूर्ववत् अपना जौहर दिखाते रहे। आद्य शंकराचार्य भगंदर के फोड़े की व्यथा १६ वर्ष तक लगातार सहते हुए भी ग्रन्थ लेखन और देश व्यापी भ्रमण करते रहे। विनोबा ने अल्सर के फोड़े की व्यथा सहते हुए भी बीस वर्ष उसी स्थिति में भूदान के निमित्त हजारों मील का परिभ्रमण जारी रखा। उसके विपरीत मनोबल के अभाव में पहलवानों जैसी काया वाले भी कुछ कर नहीं पाते। पेड़ के नीचे बैठे चीते से आँखें मिलते ही पेड़ पर बैठा बन्दर भयभीत होकर नीचे गिर पड़ता है और देखते-देखते चीते का शिकार बन जाता है। अजगर को नीचे देख कर भयभीत पक्षी भी इसी प्रकार पेड़ पर से नीचे टपक पड़ते हैं और सहज ही उसके शिकार बन जाते हैं। रस्सी को साँप और झाड़ी को भूत समझकर डरपोक मन वाले उसी भ्रम जंजाल में अपने को बुरी स्थिति में डाल लेते हैं और डर के कारण अकारण ही मर जाते हैं।

एक बार यमराज ने किसी क्षेत्र में एक हजार व्यक्ति मार लाने के लिए मृत्यु को भेजा। जब वह मारकर लौटी, तो गिनने पर वे दो हजार निकले। अधिक मारने का कारण पूछने पर मौत ने उत्तर दिया कि उसने तो ठीक नियत संख्या में ही मारे, शेष तो डर के मारे अपने आप मर गये और भीड़ के साथ अपने आप चल दिये। अधिकांश मामलों में ऐसा ही होता है, डरपोकों के जरा सा खटका देखते ही हाथ पैर फूल जाते हैं और प्रतिकार के लिए जो कर सकते थे, वह भी नहीं कर पाते। जबकि टिटहरी जैसे छोटे पक्षी का समुद्र को सुखा कर अंडे वापिस लेने जैसा असंभव दीखने वाले संकल्प भी पूरे होते देखे गये हैं।

हमें अपने शरीर बल ही नहीं, मनोबल भी बढ़ाना चाहिए। छोटे-मोटे काम हाथ में लेकर उन्हें हर हालत में पूरा करने का निश्चय किया जाय, तो कार्य में कई तरह की अड़चने आने पर भी वे पूरे हो जाते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे बड़े और कड़े कामों को कर गुजरने की प्रतिज्ञा लेकर उसे करने में जुट जाने वाले लोग पैरों तले कुचलते हुए सफलता की ऊँची और लम्बी मंजिलें पूरी करते हैं।

शरीर शास्त्रियों ने देखा है कि मनोबल का प्रयोग करने वाले रोगी अपने जीवनेच्छा को प्रखर करके शरीर में प्रवेश कर चुके घातक विषाणुओं को भी मार भगाते हैं, घावों को जल्दी ही अच्छा कर लेते हैं, जबकि ऐसी छोटी-मोटी व्यथाओं को देख कर सकपका जाने वाले लम्बे समय तक उन्हीं व्यथाओं में जकड़े रहते हैं। कई बार तो नगण्य सी कठिनाइयाँ ही भयभीत लोगों के लिए प्राण घातक बन जाती है।

कालिदास, वरदराज आदि के ऐसे ही उदाहरण हैं, जिनमें वे जब तक उपेक्षा भाव अपनाये रहे, तब तक विद्या प्राप्ति में असफल ही बने रहे, पर जब उनका साहस और उत्साह जगा, तो उसी ठस्स कहे जाने वाले मस्तिष्क ने इतनी प्रगति की, कि उपरोक्त दोनों ही देश के मूर्धन्य विद्वान बन गये। बालक ध्रुव और प्रहलाद ने मनोबल के सहारे ही अनेक संकटों का सामना करते हुए भगवान को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की, जबकि आधे अधूरे मन से पूजा पत्री की चिह्न पूजा जीवन भर करते रहने वाले पुजारी लोग सर्वथा छूँछ ही बने रहते हैं। मीरा और रामकृष्ण परमहंस ने अपने इष्ट देवों को सामने आ उपस्थित होने के लिए विवश कर दिया था। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा से इतनी शिक्षा प्राप्त कर ली थी, जितना कि कौरव-पाण्डव निरन्तर उनके साथ रहने पर भी प्राप्त नहीं कर सके थे।

मनुष्यों का मन-मस्तिष्क शक्तियों का भाण्डागार है। सामान्यतः लोग उसके सात प्रतिशत का ही उपयोग कर पाते हैं। शेष ९३ प्रतिशत प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रसुप्ति का कारण एक ही है, उस भाग से काम लेने की तत्परता न दिखाना। जो इसके कुछ भाग का उपयोग करने लगते हैं, वे कितने ही अतीन्द्रिय क्षमताएँ जगा लेते हैं और ऐसे काम कर दिखाते हैं, जिन्हें ऋद्धि-सिद्धियों की गणना में गिना जा सके, दर्शकों को आश्चर्यचकित रहना पड़े। मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म आदि के सहारे चमत्कार दिखाने से लेकर अनेकानेक रोगों को दूर करने की क्षमता का उद्गम स्रोत, इच्छा शक्ति को विकसित करना और प्रखर बना लेना ही है। योगी जन योगाभ्यास एवं तपश्चर्याओं की साधनाओं के माध्यम से अपने मनोबल की ही अभिवृद्धि करते हैं ।। उसी विकसित क्षमता के सहारे वे अपने दोष-दुर्गुणों को उखाड़ फेंकते हैं, अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ अपने गुण, कर्म स्वभाव में सम्मिलित करते हैं। इस सफलता का श्रेय बढ़े हुए मनोबल को ही है, जिसके माध्यम से वे न केवल अपना व्यक्तित्व प्रखर-परिष्कृत करते हैं, वरन् अन्यान्य अनेकों को भी सहारा देकर ऊँचा उठाते, आगे बढ़ाते हैं। वह मनोबल ही है, जिसके सहारे साधारण सी नावों के सहारे कोलम्बस जैसे लोग लम्बी अविज्ञात समुद्र यात्रा सम्पन्न करते हैं और अमेरिका जैसे महाद्वीपों को ढूँढ निकालते हैं। संसार में बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ अस्त्र-शस्त्रों की बहुलता से नहीं, सेनापति और सैनिकों के बढ़े हुए साहस के बलबूते जीती गयी हैं।

आत्म निर्माण की साधना में अपने अभ्यस्त दोष-दुर्गुणों को छोड़ना पड़ता है। सद्गुण स्वल्प मात्रा में हों, तो उन्हें बढ़ाना पड़ता है। इन आधारों को विकसित मनोबल के सहारे सहज ही सम्पन्न किया जा सकता है, किन्तु आरंभ में ही हिम्मत हार बैठने वाले, नशेबाजी छोड़ने जैसे छोटे काम भी पूरे नहीं कर पाते। जिस विकसित व्यक्तित्व की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है, जिसे सामर्थ्य का पुंज माना जाता है, जिसके सहारे लोग अद्भुत काम करते हैं और महामानव बनते हैं वह कोई जादू नहीं है, विकसित मनोबल का ही चमत्कार है। जिस प्रकार दुर्बल काया वाले व्यक्ति भी प्रयत्नपूर्वक पहलवान बन जाते हैं, उसी प्रकार कोई यदि सच्चे मन से चाहे और उसके लिए कठोर प्रयत्न करे, तो अपने मनोबल को जमीन से उठाकर आसमान तक ले जा सकता है।

कुछ अपवादों को छोड़कर भगवान ने शरीर और मन के अनुदान सभी को समान रूप से दिये हैं। साथ ही यह अवसर और अधिकार भी दिया है कि कोई चाहे, तो उन्हें परिपुष्ट करे या नीचे गिरा दे। सैंडो और चंदगीराम जैसे आरंभ में अति दुर्बल स्तर के व्यक्ति स्वास्थ्य सुधार पर अपना ध्यान केन्द्रित करने के उपरान्त संसार में माने हुए पहलवान बन गये। विद्या, सम्पन्नता, कुशलता आदि के संबंध में भी यही बात है। संसार के माने हुए वैज्ञानिक आइंस्टीन के बुद्धूपन से अध्यापक भी खिन्न थे और उनके बाप ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ‘‘तेरी अपेक्षा एक पिल्ला पाल लेता तो अच्छा रहता।’’ उस स्थिति को किसी अन्य ने सहारा देकर नहीं वरन् अपने संकल्प बल से ही सुधारा और विश्व के अनुपम वैज्ञानिकों में उनकी गणना हुई।

अंगद और हनुमान जैसे बन्दर, नल-नील जैसे रीछ यदि अपनी रीति-नीति और दिशा धारा बदल कर अद्भुत पराक्रमी और असाधारण आदर्शवादी के रूप में विश्वविख्यात हुए, तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य अपनी प्रभु प्रदत्त विभूतियों को सही तरीके से प्रयुक्त करने के उपरान्त उन्हें प्रखर एवं समुन्नत न बना सके। यहाँ एक बात विशेष रूप से स्मरणीय है कि किसी भी क्षेत्र की सफलता अर्जित करने के लिए मनुष्य को सर्वप्रथम मनोबल को परिष्कृत एवं विकसित करना होता है। कुमार्ग पर चलने वाले उस आदर्शवादी मनोबल को गवाँ बैठते हैं, जो प्रगति के प्रयासों में परिपूर्ण सहायता देता है। मनोबल की अभिवृद्धि चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में शालीनता का समावेश करने से होती है। इसलिए व्यक्तित्व को प्रतिभा सम्पन्न बनाने एवं मनोबल को समुन्नत करने के लिए मनुष्य को अपने आप को पवित्र एवं प्रखर बनाने का लक्ष्य सामने रखना चाहिए। यों हत्यारे, डाकू, कुकर्मी और अपराधी भी मनोबल संपन्न दिखाई देते हैं, पर वह वस्तुतः उन्माद जैसा होता है, विघातक भूमिका ही निभा सकता हैं, आदर्शवादी प्रगति में उससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती। ऐसे प्रसंग आने पर वह रेत की दीवार जैसा देखते-देखते बिखर जाता है और कागज की नाव जैसा गलता-डूबता दिखाई पड़ता है। जिस मनोबल में उच्चस्तरीय सामर्थ्य होती है, वह तभी विकसित और हस्तगत होता है, जब उसके साथ आदर्शों का भी समावेश हो और वैसे ही अभ्यास करते-करते उसे बढ़ाया जाय। दुष्ट दुरात्माओं की ऐंठ अकड़ तो आदर्शों के प्रसंग में एक भी चोट करने पर अपनी उद्दण्डता को थोथी पाते हैं। संकल्प बल के साथ आदर्शवादिता जुड़ी हुई हो, तो ही उसे अन्तरात्मा का आशीर्वाद और सहयोग मिलता है। तभी वह किन्हीं महत्त्वपूर्ण कार्यों को करने में समर्थ होता है। यों उचक्के भी दुस्साहस करते और कुकर्मों में अपनी दादागीरी दिखाते रहते हैं, पर अन्तरात्मा का अभिशाप और वास्तविकता का छद्म दोनों मिल कर मनोदशा ऐसी बना देते हैं, जो किन्हीं उच्चस्तरीय काम को पूरा करने में कुछ भी काम न आ सके। उसके सहारे आरोग्य सुधारने, बौद्धिक चमत्कार दिखाने, जन सम्मान एवं समर्थन प्राप्त करने जैसा कोई प्रयोजन नहीं सधता।

अनेक क्षेत्रों में प्रगति का एक मात्र रास्ता है-मनोबल की अभिवृद्धि। उस उपार्जित शक्ति को आरोग्य के मार्ग में उत्पन्न करने वाली बाधाओं को हटाया जा सकता है। संयमशील बनकर दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है। रोग कीटाणुओं से भिड़ने वाले रक्त घटकों को सशक्त बना कर उनके द्वारा जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। चेहरे पर प्रसन्नता और ओजस्विता के कारण अभिनव सौन्दर्य उभरते देखा जा सकता है। मानसिक सन्तुलन बनाने के लिए जिन मनोविकारों, कुत्साओं और कुंठाओं को निरस्त करना आवश्यक है, वे मनोबल बढ़ने पर ही बिस्तर गोल करती हैं। चिन्ता, आशंका, भय, उद्विग्नता जैसे असमंजसों को इसी आधार पर निरस्त किया जा सकता है। उत्साह और साहस बढ़ाकर प्रगति, प्रसन्नता और सफलता के मार्ग पर चल पड़ना मात्र मनोबल संपन्न के लिए ही संभव होता है। ऐसे लोग ही दूसरों पर अपनी छाप छोड़ते और रास्ता चलतों को मित्र बनाते हैं ।। शत्रुता तो वे किसी के भी साथ नहीं टिकने देते। अपव्यय, दुर्व्यसन एवं अव्यवस्था जैसे दुर्गुण केवल मनोबल से रहित लोगों में ही पनपते हैं, वे ही आलसी-प्रमादी होते हैं। जिनकी मानसिक क्षमता बढ़ी चढ़ी हैं, वे सर्वप्रथम अपने गुण, कर्म स्वभाव की अस्त-व्यस्तता पर काबू पाते हैं और उन विशिष्टताओं को बढ़ाते हैं ,, जिनके सहारे कठिन कामों को भी सरलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है। जो मनस्वी हैं, वही ओजस्वी, तेजस्वी और यशस्वी बनता है। प्रतिकूलताओं से जूझकर अनुकूलताओं में बदल लेना ऐसे ही लोगों के बायें हाथ का खेल होता है। वे ही व्यवसायों में सफल होते हैं, ग्राहकों का मन मोहते और बड़ी संख्या में सहयोगी उत्पन्न करके उनके द्वारा बिना माँगी अप्रत्याशित सहायता प्राप्त करते हैं। मनोबल बढ़ाना हर दूरदर्शी के लिए आवश्यक है, जिसको इस प्रयास में सफलता मिल गई तो समझना चाहिए कि वह अन्य किसी काम में असफल न होगा।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 

240. औचित्य के अनुरूप दृष्टिकोण अपनायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

दृष्टिकोण सही होने से तथ्य अपने वास्तविक रूप में सामने आते हैं। सही मार्ग सूझ पड़ता है और काम करने की सही पद्धति अपना सकना संभव होता हैं। इसमें चूक हो जाने से भ्रम जंजाल में भटकना पड़ता है, न सही रास्ता सूझ पड़ता है और न सही दिशा धारा हाथ लगती है। इस भ्रान्ति, विकृति के परिणाम भी उल्टे होते हैं और प्रगति के स्थान पर अवगति के गर्त में गिरना पड़ता है। अस्तु उपयुक्त यह है कि हम अपने-दूसरों के, आकांक्षाओं की गतिविधियों के संबंध में दृष्टिकोण को भ्रांतियों से उबारे और सही दिशा में ले चलने के लिए अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग करें।

अपने आप के सम्बन्ध में लोग इतना ही समझते हैं कि नर पशुओं के झुंड में एक अंधानुकरण करते हुए चलने वाली भेड़ हम भी हैं। जो दूसरे करते हैं, वही हमें भी करना चाहिए। जो दूसरे सोचते हैं वही हमें भी सोचना चाहिए। आम आदमी इन्द्रिय लिप्साओं की पूर्ति में प्रसन्नता अनुभव करता है और वासना की पूर्ति के लिए निरन्तर ताना-बाना बुनता रहता है। इन्द्रियों में से प्रत्येक को भगवान ने महत्त्वपूर्ण क्षमताओं से सम्पन्न बनाया है और उसका नियोजन महत्त्वपूर्ण कामों की पूर्ति के लिए किया जाना चाहिए, किन्तु होता ठीक विपरीत है। जिह्वा को स्वाद चखने और स्वादिष्ट पदार्थों को अधिकाधिक मात्रा में उदरस्थ करने के लिए किया जाता है। फल यह होता है कि पाचन तन्त्र सामर्थ्य से अधिक भार पड़ने के कारण दुर्बल हो जाता है। अपच जन्य विकृतियों से सड़न का विष पैदा होता है और चित्र-विचित्र रोगों की उत्पत्ति होने लगती है। उनकी पीड़ा ढेरों पैसा खर्च कराती है। कुछ पुरुषार्थ करने योग्य नहीं रहने देती। बात-बात में दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है और अकाल मृत्यु के चंगुल में फँसना पड़ता है। जिह्वा के चटोरेपन की तरह ही कामुकता की सनक मस्तिष्क पर छाई रहती है। उनकी पूर्ति के लिए मर्यादाओं का उल्लंघन चलता रहता है। मस्तिष्क खोखला हो जाता है और ओजस्, तेजस्, वर्चस् क्षीण होता चलता है। अपने और सहयोगी को बदनामी तथा व्यथा भुगतनी पड़ती हैं, सो अलग। इन्द्रियों के सदुपयोग की बात भुलाकर उन्हें स्वाद चखाने में लगा देने पर समूची काया ही निस्तेज निर्बल हो जाती है। यदि आरंभ में ही दृष्टिकोण संभाल कर रखा जाय और उन्हें रोक-थाम कर बलिष्ठता अर्जित की जाती रहें, तो दुर्बलता और रुग्णता का अभिशाप क्यों सहना पड़े?

तृष्णा में लालच के वशीभूत होकर मन अधिकाधिक वैभव संचित करने के लिए ललचाता है, फलतः अनीति अपनाने, कुकर्म करने पर उतारू होना पड़ता हैं। ऐसा धन दुष्प्रवृत्तियों में व्यय होता है, कुपात्रों के हाथ चला जाता है और पाप की भारी गठरी सिर पर लादता है। यदि आरंभ से ही यह सोच-समझकर चला जाय कि औसत भारतीय स्तर का निर्वाह करने के लिए ईमानदारी और परिश्रम पूर्वक उपार्जन करना है। सादा जीवन उच्च विचार का दृष्टिकोण अपनाना है। जो गुजारे में से बचे, उसे विश्व परिवार के पिछड़े लोगों के लिए लगाना है, तो सच्चाई ईमानदारी से भरा-पूरा जीवन हँसते-हँसते बीते। विलासिता के लिए लालची बनना और जिस-तिस प्रकार उपार्जन में लगे रहना मनुष्य को अशांति, उद्विग्नता और लोक भर्त्सना के दुष्परिणाम भोगने के लिए विवश करता है।

परिवार छोटा रखा जाय। बहु प्रजनन कोल्हू में पिलने की तरह कष्टकारक और समूचे समाज को कष्ट में डालने वाला, दुष्कर्म माना जाय, तो ढेरों शक्ति बच सकती है और उससे ढेरों परमार्थ बन सकता है। आँखें मूँदकर बच्चे पैदा करते जाना और उन्हें स्वावलम्बी, सुसंस्कारी बनाने की बात भूलकर दुलारवश अपव्ययी, आलसी, दुर्गुणी बनाना ऐसा कदम है, जिसे उठाने पर पश्चाताप ही पश्चाताप सहना पड़ता है।

यह दृष्टिदोष और विचार न करने योग्य काम है। यदि आरंभ से ही ध्यान रखा जाय कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त एक बार यह मनुष्य जन्म का सुयोग मिला है, इसे आत्म परिष्कार और लोक कल्याण में लगाते हुए सार्थक करना चाहिए। यह ईश्वर की कलाकृति है, जो अनुकम्पा पूर्वक सत्प्रयोजनों के लिए उपलब्ध हुई है। यह स्मरण बना रहे, तो महामानव, ऋषि कल्प, सिद्ध पुरुष और देवात्मा अवतार बना जा सकता है। अन्यथा दूसरे भ्रमग्रस्तों की तरह लोभ-मोह, वासना-तृष्णा, अहंता के भव-बन्धनों में बँधकर स्वयं त्रास पाना और स्वजनों को पतन के गर्त में धकेलना है। समझ ही है, जो उलटी दिशा में चल पड़े, तो मनुष्य दीन-हीन, पतित-पापी बना रहता है और उद्विग्नता, भर्त्सना, प्रताड़ना सहते हुए इस मणि मुक्तकों जैसे जन्म को कौड़ी मोल गँवाता है।

दूसरों के दोष देखते और गिनते रहने से प्रतीत होता है कि यह संसार दुष्टता से सना और पतन पराभव से भरा है। तब ऐसे ही लोग सिमटकर इर्द-गिर्द जमा हो जाते हैं और दुर्मतिजन्य दुर्गति का माहौल बनाते हैं। यदि अपना दृष्टिकोण सुधरे तो श्रेष्ठता और सज्जनता की गतिविधियों को खोजा जाय और सदाशयता से वास्ता पड़े। वैसे ही लोग सम्पर्क में आयें और उस मिलन के फलस्वरूप कल्याणकारी क्रिया कलाप बन पड़े, स्वयं सुखी रहा जाय और दूसरों को सुखी बनाने वाले प्रयत्नों में निरत रहा जाय। इस संसार में भला-बुरा सब कुछ है। हमारा अपना चुम्बकत्व जिस स्तर का होता है, उस स्तर के लोगों से घनिष्ठता बनती हैं और तदनुसार गतिविधियाँ चलती एवं परिस्थितियाँ विनिर्मित होती हैं। उद्यान में, भौरों को फूलों की सुगन्ध और गुबरीले कीड़ों को खाद की दुर्गन्ध का अनुभव होता है। इसे दृष्टिकोण का प्रतिफल ही कहा जा सकता है। अहंकार से ग्रसित व्यक्ति सज-धज, साज-सज्जा में लगा रहता है। अमीर या रूपवान दिखने के लिए शृंगार को साथ ओढ़ता और अपव्यय में पैसा गँवाता है। ऐसे लोग ओछे, बचकाने, मनचले कहलाते हैं और व्यभिचारी, दुराचारी, अहंकारी गिने जाते हैं। ढेरों समय और धन इस विडम्बना के लिए लुटाते रहने पर भी लोगों की आँखों से गिरते हैं ।। ईर्ष्या का कारण बनते हैं। बहकाने-फुसलाने वाले पीछे लगते हैं और चाटुकारिता के जाल में फँसकर अपने पास जो कुछ है, लूट ले जाते हैं। स्त्री हो या पुरुष, सज-धज में अपनी महत्ता सोचने के उपरान्त जो ठाट-बाट बनाते हैं, उससे उन्हें हर दृष्टि से घाटा ही घाटा पड़ता है। यदि पहले से ही सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त हृदयंगम कर लिया जाय तो अपनी आँखों में अपनी इज्जत बढ़ेगी और दूसरे भी श्रद्धा तथा सम्मान की दृष्टि से देखेंगे। अपना स्तर उठाना या गिराना हर किसी के अपने हाथ की बात है। सोचने का तरीका जैसा भी होगा उसी स्तर का क्रिया-कलाप चलेगा, वैसी ही परिस्थितियाँ बनेंगी और वैसा ही प्रतिफल सामने आ खड़ा होगा।

प्रदर्शन के बचकाने का ताना-बाना बुनते रहने वाले यह भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति अपने-अपने काम में व्यस्त है, उसे उतनी फुरसत कहाँ कि किसी की सज-धज को गौर से देखने के लिए अपना मस्तिष्क खाली करे या समय बिगाड़े। अहंकार प्रदर्शन प्रिय लोग यही समझते रहते हैं कि दुनिया खाली बैठी है और हमारी बन-ठन को ही आँखें पसार कर देखती, आश्चर्य से चकित होती और सुन्दरता अथवा अमीरी का गुणगान करती फिरेगी। इस मूर्खता को आरंभ से ही छोड़ रखा जाय और सज्जनोचित सादगी का आवरण ओढ़ रखा जाय तो सम्मान भी बढ़ेगा और पैसा तथा समय भी बचेगा।

दूसरों को ठगा जाय या उन्हें सत्परामर्श एवं सज्जनोचित सहयोग देकर आगे बढ़ाया जाय, इन दोनों दृष्टिकोणों में से जो शालीनता के पक्षधर हैं, उनके मित्र और सहयोगी बढ़ते जाते हैं। समय पड़ने पर बदले में सहयोग लेकर सामने आते हैं, किन्तु यदि ठगने का व्यवहार रखा गया है तो काठ की हाँडी एक बार ही चढ़ेगी। प्रथम प्रयास में अनुचित लाभ उठा लिया जायेगा किन्तु वह आजीवन सतर्क रहेगा और अवसर मिला तो बदला लेने से भी नहीं चुकेगा। सज्जनता की नीति अपनाने में आरम्भ में तो ऐसा लगता है कि हम दूसरों की सेवा सहायता करके घाटे में रहे, किन्तु समयानुसार वह भलमनसाहत फलती-फूलती है, यश बढ़ाती है और अनेकों की आँखों में प्रामाणिकता बनकर बस जाती है। ऐसे लोगों को सहयोग का अभाव नहीं रहता। जिन्हें अधिक लोगों का अधिक सहयोग मिला है वे ही उन्नति के उच्च शिखर तक चढ़े हैं और कठिन कामों में सफल हुए हैं ।।

जीना लाख वर्ष है, ऐसा सोचने वाले विलास में डूबे रहते हैं। जिस-तिस प्रकार की सम्पत्ति संग्रह करते, दूसरों को सताते रहते हैं, पर जिन्हें इस बात का बोध है कि क्षण-भंगुर काया की कोई स्थिरता नहीं, मौत कभी भी आ खड़ी हो सकती है, वे अपने एक-एक क्षण का सदुपयोग श्रेष्ठ कामों में नियोजित करते हैं। सोचते हैं भगवान के दरबार में अपराधी की तरह उपस्थित न होना पड़े, वरन् इस रूप में वहाँ पहुँचे कि प्रशंसा सुनने को मिले। अगली बार ऐसे साधनों समेत संसार में भेजा जाय कि अपनी कर्तव्य परायणता हर क्षेत्र में भविष्य को उज्ज्वल बनाती चले।

दूसरों पर निर्भर रहने की अपेक्षा हमें स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना चाहिए। आत्म गौरव को किसी भी कारण गिरने न दें। भगवान ने मनुष्य के भीतर क्षमताओं के पुंज समाहित कर रखें है, आवश्यकता उन्हें जगाने और अभ्यास में लाने भर की है। आत्मबल सबसे बड़ा बल है। आत्म सुधार को संसार सुधार के समतुल्य समझा जाना चाहिए। आत्म विश्वासी की ओर सब लोग विश्वास करते हैं। जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं ,, उसकी ओर कौन भरोसा करेगा? जो अपनी सहायता आप करता है ईश्वर भी उसी की सहायता करता है, इस तथ्य को हमें गिरह बाँध कर रखना चाहिए।

नया युग बदल रहा है। इसमें दूरदर्शिता, विवेकशीलता के आधार पर जो बातें खरी उतरेंगी, उन्हीं को मान्यता मिलेगी। कोई प्रथा बहुत समय से प्रचलित है इसलिए उसे आगे भी चलते रहना चाहिए, इस तर्क एवं अनुभव को अगले दिनों कोई भी मान्यता नहीं देगा। इसलिए औचित्य इसी में है कि बदलाव के लिए विवश किये जाने की प्रतीक्षा करने की अपेक्षा जो निश्चित भवितव्यता है, उसके अनुरूप अपनी मान्यताओं को स्वयं ही ढाल लें।

जन्म-जाति के आधार पर चलने वाले ऊँच-नीच और बरते जाने वाले भेद-भाव को अगले दिनों कोई मान्यता मिलने वाली नहीं हैं। मनुष्य मात्र एक बिरादरी के माने जायेंगे। गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप, प्राचीन काल के अनुरूप भी वर्ण बन सकते हैं, पर उसमें जन्म जाति की कहीं कोई मान्यता न होगी। रोटी-बेटी के व्यवहार में व्यवसाय या शिक्षा-संस्कृति का विभेद हो सकता है, पर जन्म जाति के अनुसार कोई किसी को नीच-ऊँच न कह सकेगा और न इस कारण भेद-भाव विलगाव रखेगा।

इन दिनों स्त्रियों को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है, उनका मानवी अधिकार नहीं के बराबर है। दहेज के नाम पर लड़कों की खरीद-फरोख्त चलती है। छोटी बिरादरी वाले लड़कियाँ बेचते हैं। शादियों में अनावश्यक धूम-धाम के सरंजाम जुटाये जाते हैं। दहेज कम मिलने पर वधुओं का उत्पीड़न और उनकी हत्यायें, आत्महत्याएँ आये दिन सुनने को मिलती हैं। यह कुरीतियाँ अगले बीस वर्ष में जड़ मूल से समाप्त हो जायेंगी। नर और नारी समानता उपलब्ध करेंगे। न नर को घूँघट मारना पड़ेगा, न नारी को। नर की भाँति नारी भी व्यवसाय में हाथ बँटायेंगी और जरूरत पड़ी तो वह भी नौकरी करके आजीविका उपार्जित कर सकेगी। दोनों पक्षों में से कोई भी दूसरे पक्ष को अपना स्वामी नहीं मानेगा, वरन् सम्मानित, सहयोगी कहेगा। दबाव से नहीं प्रेम से एक दूसरे के वशवर्ती सहयोगी रहेंगे। दोनों के लिए एक जैसे कानून और प्रचलन होंगे। पतिव्रत की तरह पत्नीव्रत की भी अनिवार्यता मानी जायेगी। यदि इसमें ढील मिलेगी तो वह दोनों को। कड़ाई बरती जायेगी तो दोनों पर समान रूप से। मध्यकाल के अन्धकार युग में नर को स्वामी और नारी को दासी माना जाता रहा। समझना चाहिए कि अब उस असमानता का अंत आ गया। अच्छा हो, यह प्रचलन बिना मनोमालिन्य, कलह विग्रह उत्पन्न किये ही चल पड़े। अनुचित रीति-रिवाज इसलिए चलते नहीं रह सकते कि वे पुराने हैं। पुरानापन किसी बात में प्रामाणिक और नयापन अप्रामाणिक नहीं माना जायेगा। अपनाया वही जायेगा, जो उचित एवं न्यायपूर्ण होगा। अगले दिन नर और नारी की पूर्ण समानता के हैं। इस सुनिश्चित संभावना को हम समय रहते, स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लें, इसी में बुद्धिमानी है।

धनी और निर्धन का भेदभाव भी चलने वाला नहीं है। गरीबी और अमीरी का भेदभाव कहीं देखने को न मिलेगा। योग्यता भर करना और आवश्यकता भर लेना, अर्थ विनियोग की यही प्रथा चलेगी। निर्वाह का औसत स्तर रहेगा। अधिक कमाई पिछड़े लोगों की अथवा समूचे राष्ट्र की संपदा मानी जायेगी। असमानता उत्पन्न करके दुर्व्यसनों को फैलाने, ईर्ष्या-द्वेष की आग धधकाने की छूट किसी को भी न मिल सकेगी। कोई अधिक काम करने की योग्यता रखता है तो उसका अर्थ यह न होगा कि वही उस वैभव को मन चाहे ढंग से खर्च करे। विश्व परिवार बनने जा रहा है और उसमें सभी नागरिक एक परिवार के सदस्य की तरह रहेंगे तथा एक जैसी स्थिति में, एक जैसे स्तर में रहते हुए निर्वाह करेंगे। यही प्रचलन सतयुग में था, यही अब नये प्रज्ञायुग में भी रहेगा। सज्जनता-शालीनता का, मर्यादाओं का उल्लंघन किसी को भी न करने दिया जायेगा। एकता और समता के आधार पर नया समाज बनने जा रहा है। नये युग के इस प्रवाह में कोई भी व्यतिरेक न कर सकेगा। राज्य शासन, समाज का गठन, अन्तरात्मा का जागरण यह सब मिलकर कुप्रचलनों को जड़-मूल से उखाड़ फेकेंगे यह सुनिश्चित संभावना है।

अपना दृष्टिकोण, अपना मन-मस्तिष्क हमें अभी से इस स्तर का गठित करना चाहिये, ताकि दूरदर्शी विवेकशीलों में अपनी गणना हो। इन संभावनाओं में सहयोगी न बनकर यदि हम व्यवधान उत्पन्न करेंगे, तो तूफान से टकराने की तरह हम बल पूर्वक उलट दिये जायेंगे। घाटे में रहेंगे और पश्चाताप करेंगे।

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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार