गायत्री का सूर्योपस्थान

गायत्री अर्थात सावित्री और सविता

गायत्री मंत्र की व्याख्या का विस्तार चारों वेदों के रूप में हुआ, इसी से गायत्री को वेदमाता कहते हैं। वेद जननी होते हुए भी गायत्री एक वेद मन्त्र है। वेद के प्रत्येक मन्त्र का एक छन्द, एक ऋषि और एक देवता होता है। उनका स्मरण, उच्चारण करते हुए विनियोग किया जाता है। गायत्री महामन्त्र का गायत्री छन्द, विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता है। बोलचाल की भाषा में सविता को सूर्य कहते हैं। सविता और सावित्री का युग्म माना गया है। प्राथमिक उपासना में गायत्री का मातृ सत्ता के दिव्य शक्ति के रूप में नारी कलेवर का निर्धारण हुआ है। मानवी आकृति में उसे देवी प्रतीक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। यह उचित भी है। इसमें पवित्रता, सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा-साधना जैसे मातृ-शक्ति में विशिष्ट रूप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्त्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है। सद्बुद्धि, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को साहित्य में स्त्रीलिंग माना गया है। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रूप से नारी प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है तो उसे उचित ही कहा जा सकता है। इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता।

साकार उपासना में भी गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। सूर्यमण्डल मध्यस्था विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है। साकार उपासना करने वाले—पुस्तक, पुष्प, कमण्डल धारण किए हुए मातृ-शक्ति का सूर्य-मण्डल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मण्डल के रूप में उसका ध्यान करते हैं। उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार दोनों ही स्थितियों में सूर्य मण्डल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोवलय को समन्वित किए बिना गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता।

गायत्री भावयेद्देवी सूर्यांसारकृताश्रयाम्|
प्रातमध्याहनसन्ध्यायां ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः।। —शाकानन्दतरंगिणी ३/४/१

बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री देवी का प्रातः, मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिए।

निराकार उपासक तो जप के साथ सूर्यमण्डल की आभा को गायत्री के प्रतीक के रूप में ध्यान करते हैं। साकार उपासना में भी गायत्री माता के नारी स्वरूप को सूर्यमण्डल के बीच प्रतिष्ठापित चित्रित किया जाता है। उसके मुख मण्डल पर तेजोवलय के रूप में सूर्य मण्डल का संयुक्त किया जाना तो अनिवार्य रूप से आवश्यक ही माना जाता है। गायत्री माता का ऐसा चित्र किसी ने कदाचित् ही बनाने की भूल की होगी जिसमें सूर्य के तेजो मण्डल का समावेश न किया गया हो। गायत्री उपासना के अन्त में सूर्यार्घ्यदान के रूप में जप की पूर्णाहुति की जाती है। उपासना के समय में दीपक की, अगरबत्ती की, अग्नि स्थापना की आवश्यकता भी सूर्य शक्ति का प्रतिनिधित्व रखने के रूप में ही की जाती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने का विधान भी पुरश्चरणों का अंग है। इसमें भी दूरस्थ सूर्य की निकटस्थ प्रतिनिधि अग्नि की प्रतिष्ठा करने की भावना है।

सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधरित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता—चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है। उसी के साथ आत्म चेतना की घनिष्ठता बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप से सूर्य, अग्नि, पिण्ड, ध्यान, साधना में प्रयुक्त किया जाता है। प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का तात्पर्य ब्रह्म तेज अवतरण आत्म-चेतना की पृष्ठभूमि पर सम्पन्न कराना है। आत्मा को पृथ्वी और ब्रह्म तेज को सूर्य की उपमा दी जा सकती है। पृथ्वी पर जो जीवन दृष्टिगोचर होता है वह सूर्य का ही अनुदान है। 'सूर्य आत्मा जगतस्थुश्च' सूर्य को जगत का आत्मा बताया गया है। पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-केन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि पर विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती-फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।

इस प्रकार उपचार में उपासनात्मक कलेवर की प्रतीक पूजा नारी रूप में करने के साथ ही उच्चस्तरीय ध्यान में स्थापना भी प्राण की करनी पड़ेगी। गायत्री का प्राण सविता है। शरीर को देख लेने के बाद किसी की वस्तुस्थिति उसके आन्तरिक स्तर को समझने में ही विदित होती है। सविता सम्पर्क के लिए अग्रिम कदम बढ़ाने के पीछे भी यही कारण है। इसमें विरोध, विग्रह एवं सामंजस्य जैसी कोई बात नहीं है। इसे क्रमिक प्रगति के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए।

गायत्री को प्राण, प्राण को सविता कहा गया है। इस त्रिकोण विवेचन से गायत्री के सवितामय होने का ही निष्कर्ष निकलता है। गायत्री सद्बुद्धि की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की देवी है। प्राण और सविता को भी इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला बताया गया है। शास्त्र वचनों में इस त्रिकोण को रेखागणित के त्रिभुज की तरह एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। गायत्री का देवता सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं—

दैवतं सविताप्यस्यां गायत्रं छन्द एव च।
विश्वामित्र ऋषिश्चैव प्रोच्यते ऋषिसत्तम।।

हे ऋषि श्रेष्ठ! इसका देवता सविता है—गायत्री छन्द है और विश्वामित्र इसका ऋषि कहा जाता है।

सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता।
सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता।। —देवी भागवत

इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता (सूर्य) है। वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।

यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः।
प्रेरयेत तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुपास्महे ॥

'जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है, उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।'

सर्व लोकप्रसवनात सविता स तु कीर्त्यते।
यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।। —अमरकोश

"वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं, इसलिए 'सविता' कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता 'सविता' हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को 'सावित्री कहते हैं।"

मनोवै सविता। प्राणधियः। -शतपथ ३/६/१/१३

प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता। —शतपथ ७/७/९

यो देवः सविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचरः।
प्रेरयत्तस्य तद्भर्गस्तध्वरेण्यमुपास्महे ||

'जो देव सविता सूर्य मण्डल के रूप में प्रत्यक्ष होकर धर्माधर्म संस्कारों को देखता हुआ हमारी बुद्धि को प्रेरणा देता है, उसका प्रसिद्ध भर्ग (स्व-प्रकाश चेतना रूप तेज ) स्पृहा करने योग्य है, उसी की हम उपासना, ध्यान करते हैं।'

यो वै स प्राण एषा सा गायत्री।। —शतपथ १/३/५/१५
जो प्राण है उसे ही निश्चित रूप से गायत्री जानना।

गायत्री को प्राण कहा गया है और प्राण ही सूर्य है। श्रुति कहती है—'प्राण प्रजानां उदयत्येष सूर्यः' अर्थात् यह उदीयमान सूर्य ही जीवधारियों में प्राण शक्ति के रूप में प्रकट होता है।

यह सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—

तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्र दाधार पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। ता० १०/५/३
तेजो वै गायत्री | गो० उ० ५/३
ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्| ता० १३/७/२
ज्योतिर्वै गायत्री। को० १७/६
दविद्युतती वै गायत्री। ता० १२/१/२
गायत्र्येव भर्गः। गो० पू० ५/१५
गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः। ता० व्रा० १५/१०/५
तेजो वै गायत्री। —कपि.सं.३०/२

सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार भ्रम न रह जाय, उसे भौतिक अग्नि प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया कि यह 'तेजस' विशुद्ध रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता तेज को ब्रह्म तेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है—

सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते।
सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।

सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते हैं।

आदित्यो ब्रह्मत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्। —छान्दोग्योपनिषद्-३ प्र. १९/१
सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।

यद्वै तद् ब्रह्मतीदं वाव तद्योऽयं बहिर्धा पुरुषादाकाशो यो वै स बहिर्धां पुरुषादाकाशः ॥७॥ —छान्दोग्योपनिषद्-३ प्र. १२/७
जो ही वह ब्रह्म है। यह ही वह गायत्री वर्णित सविता है, जो वह पुरुष से बाहर 'आकाश' प्रकाशमान है जो ही वह पुरुष से बाहर 'आकाश' प्रकाशमान है।

यो असौ आदित्य पुरुषः सो असौ अहम्। —यजु. ४०/१७
सूर्य मण्डल में जो पुरुष है, वही मैं हूँ।

ब्रह्म सूर्य समं ज्योतिः। —यजु. २३/४८
ब्रह्म सूर्य ज्योति के समतुल्य है।

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो
विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा देधे वयुनाविदेक
इन्मही देवस्य सवितु परिष्टुतिः॥ —श्वेताश्वतर २/४

जिस सविता देवता में विद्वान अपने मन को, बुद्धि को लगाते हैं और यज्ञादि शुभ कर्म करते हैं, वह सर्वज्ञाता एक है। उस सर्व व्यापक, सर्व देव की हम स्तुति करते हैं।

तदित्यवाडू मनोगम्यं ध्येयं यत्सूर्य मण्डले।
उस परब्रह्म का ध्यान सूर्य मण्डल में वाक् और मन द्वारा किया जाता है।

गायत्री उपनिषद् से अनेकों उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि वे दोनों परस्पर काया और प्राण की तरह एक-दूसरे के साथ सुसम्बद्ध हैं। दोनों को दो योनि एक मिथुन की संज्ञा दी गई है।

गायत्री के भर्ग तेज की उपासना करने से साधक तेजस्वी बनता है। जो तेजवान है वस्तुतः वही बलवान है। मोटी काया बना लेने भर से कोई तेज रहित दुर्बल मनःस्थिति का व्यक्ति बलवान नहीं कहला सकता।

तेजोयस्य विराजते स बलवान्।
स्थूलेषु कः प्रत्ययः। —नीति

जिसमें तेज है वही बलवान है। स्थूल काया के पुष्ट होने से क्या प्रयोजन सधता है।

गायत्रा साधना वस्तुतः तेजस्विता की, प्राण शक्ति की, ब्रह्मबल की उपासना है। इसी से उसकी उच्चस्तरीय साधना प्रक्रिया को 'ब्रह्म वर्चस्' विद्या कहा जाता है। इस उपार्जन में संलग्न व्यक्ति को सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होने का अवसर मिलता है। श्रुति कहती है—

यो हवा एववित् ब्रह्मवित पुण्यां च कीर्ति लभते। सुरभीञ्च गन्धान | सोऽपहतपास्या अनन्ताश्रिय न श्रुते। य एवं वेद यश्वचै विद्वान एवमेतां वेदानां मातरम्। सावित्री सपदमुपनिषद् मुपास्ते। —गोपथब्राह्मण
जो गायत्री के गहन तत्त्वों को जानता है, वह पुण्य, कीर्ति, लक्ष्मी आदि को प्राप्त करता हुआ परम श्रेय को प्राप्त करता है।

शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि गायत्री का देवता सविता—सूर्य, विश्व के जीवन का ज्ञान और विज्ञान का केन्द्र भी वही है। चारों वेदों में जो कुछ है, वह सब भी इस सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा, और साधना के द्वारा योगीजन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं। नाम, रूप सुविधानुसार कोई भी माना जाय पर वस्तुतः सविता देवता ही उसका वास्तविक उपास्य है। उसी को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है। देखिए—

उद्यन्तं वादित्य मग्निरनु समारोहति।
सुषुम्नः सूर्यरश्मिः चन्दमा गन्धर्वः।। —श्रुति

इस सूर्य के अन्तर्गत ही अग्नि, सुषुम्ना, चन्द्र, गन्धर्व आदि हैं।

ऋग्भिः पूर्वान्हेदिवि देवि ईयते,
यजुर्वेदेतिष्ठति मध्यअहः।
सामवेदेनास्तमये महीयते,
वेदेरसून्यस्त्रिभिरेति सूर्यः।। —श्रुति

'यह. सूर्य प्रातः ऋक् से, मध्याह्न को यजु से और सायंकाल साम से युक्त होता है।

ऋचोऽस्य मण्डलं सामान्यस्य मूर्तिर्यजूणिच।
त्रयीमयोऽय भगवान कालात्म कलकृद्विभुः।। —सूर्य सिद्धान्त

"ऋक् सूर्य का मण्डल और यजु तथा साम उसकी मूर्ति है। वही काल रूप भगवान है।"

नत्वा सूर्य परंधाम ऋग्, यजुः साम रूपिणम्। —सूर्यपुराण
ऋक् यजु साम रूपी परंधाम सूर्य को नमस्कार है।

अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मा नमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते एकद्वै प्राणानामायतनमेतदमृत मयमेतत्परायण मेतस्यान्न पुनरावर्तन्त इत्येषनिरोधः।
'तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा तथा विद्या द्वारा जो आत्मा की खोज कर उस आदित्य को प्राप्त करते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। यह आदित्य ही प्राणों का आश्रय है। वही मोक्ष है, वही पद है, जीव को उसी से परम आश्रय मिलता है।'

भवद्भुतं भविष्यं च जंगमस्थवरंच चयत्।
अस्यैकं सूर्यमेवैकं प्रभवं प्रलयं विदुः।
असतश्च सतश्चैव यच्चैतद् ब्रह्मशाश्वतम्।
कत्वैवाह त्रिधात्मानमेष लोकेषतिष्ठति।
वेदान् यथायथं सर्वान् निवेश्य स्वेषु रश्मिषु। —सूर्योपनिषद्

'जो जड़-चेतन पदार्थ इस संसार में अब मौजूद हैं, भूतकाल में थे या भविष्य में होंगे वे सभी सूर्य से उत्पन्न हुए और उसी में लीन होते हैं। यह सूर्य ही प्रजापति है। यह सत्-असत् की योनि है। अक्षर, अव्यय, शाश्वत, ब्रह्म यही है। यह तीनों लोकों में व्याप्त है। समस्त देवता इसी की किरणें हैं।

आदित्योह्यादि धूतत्वात् प्रसुत्या सूर्य इच्यते।
परंज्योतिः तमः पारे सूर्येऽयं सवितेति च।। —सूर्य सिद्धान्त

"वह समस्त जगत का आदिकारण है। इसलिए उसे आदित्य कहते हैं। सबको उत्पन्न करता है इसलिए सविता कहते हैं। अन्धकार को दूर करता है, इससे उसे सूर्य कहा जाता है।'

अथादित्य उसेयन्यत्प्राचीदिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान् रश्मिषु संनिधत्ते। यद्दक्षिणां यत् प्रतीचि यदुदीची यदधो यद्दृर्थ यदन्तरा दिशो यत्सर्वप्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान रश्मिपुसंनिधत्ते। —प्रश्नोपनिषद १/६
“पूर्व में उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, नीचे, ऊपर तथा उनके कोणों की सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है, उसकी किरणों में समस्त जगत का प्राण धारण किया जाता है।"

अपश्यं मोपायमनिपद्यमान माच पराच पथिभिश्चरन्तिम्।
स स्रधीचीः स विषूचीर्वसान आनरीवति भुवनेष्वन्तः ॥ —ऐतरेय

'मैने प्राण को देखा है। साक्षात्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह नाड़ियों द्वारा शरीर में दौड़ता रहता है। मुख और नासिका द्वारा यह आता और जाता है। यह शरीर में वायु रूप है, पर ब्रह्माण्ड में सूर्य रूप है।'

इस सविता की उपासना में संलग्न ऋषि, मुनि योग के द्वारा अपनी आत्मा को तेजपुंज महाप्राण परब्रह्म में प्रविष्ट करते हैं। शुकदेव जी अपनी साधना को पूर्ण करते हुए जिस स्थिति में प्रविष्ट हुए उसका उल्लेख महाभारत में इस प्रकार मिलता है।

तस्माद् योग समास्थायत्यक्त्वागृहकलेवरम्।
वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशि दिवाकरम् ॥ —महाभारत

शुकदेव जी ने कहा— मैं योग में स्थित होकर इस देह हो त्यागकर तेजो-राशि सूर्य में होकर प्रवेश करता हूँ।'

उपनिषद्कारों ने इस महाउपास्य सविता देवता की उपासना का निर्देश करते हुए उसकी महान महत्ता पर भी प्रकाश डाला है और उसे आत्मिक मलीनताओं का वितरण कर्ता माना है।

सूर्यश्च मा मन्युश्च कन्युपतयश्व मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम्। यद्रात्र्या पापमकार्षम्।
मनसावाचां हस्ताभ्याम। पद्भ्यामदरेश शिश्न।
रात्रिम्तवलुम्पतु यद् किंच जुरितं मयि
इदमह माममृतयोनौ सूर्य ज्योतिषी जुहोमि स्वाहा। —(ते. अ. प्र. १० अ० ३२)

'जगत का प्रेरक सूर्य उन पापों से मेरी रक्षा करे जो क्रोधादि वृत्तियों द्वारा उत्पन्न हुए हैं। जो रात्रि में मैंने पाप किया है, मन, वाणी, और हाथों द्वारा, पैरों, उदर और उपस्थितेन्द्रिय द्वारा ( किया है ) रात्रि में वह लुप्त हो जाय। यह मैं अपने आपको अमृत की योनि में—जो कि सूर्य-ज्योति रूप परमात्मा है उसमें आहुति रूप देता हूँ, स्वाहा बोलकर देता हूँ।

य इह वा व स्थिरचरनिकाराणां निजनिकेनानां मनइन्द्रियासुरगणाननात्मनः स्वयमात्माऽन्तर्यामी प्रचोदयात्। —ब्रह्मोपनिषद
"आप सबके आत्मा हो, अन्तर्यामी हो। जगत में जितने चराचर प्राणी हैं वे सब आपके ही आधार पर रहते हैं और उनके अचेतन जैसे मन, इन्द्रिय और प्राणों के आप ही प्रेरक हो।"

त्रिकाल संध्या में प्रातः मध्याह्न, सायंकाल के लिए तीन प्रतीकों का उल्लेख है। प्रातः ब्राह्मी, मध्याह्न वैष्णवी और सायं शाम्भवी गायत्री के हंसारूढ़, गरुडारूढ़, वृषभारूढ़ स्वरूपों का वर्णन है। वस्तुतः यह तीन वेदों का ही त्रिविध स्वरूप है। सविता देवता प्रातः ऋग्वेद, मध्यान्ह यजुर्वेद और सायंकाल सामवेद स्वरूप होता है। वेदों में जिन तीन विज्ञान का भण्डार हैं उसे साधक के अन्तःकरण में अभिप्रेत करता है। ऋक् से ज्ञानयोग, यजु से कर्मयोग, साम से भक्तियोग का सम्बन्ध है। सविता का ध्यान हमारी मनोभूमि को इन तीनों योग की साधना के उपयुक्त बनाता है। इन्हीं तीनों तथ्यों का ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में उल्लेख है। ऋक्-ब्रह्मा, यजु-विष्णु, और साम-शिव हैं। इन तीनों के द्वारा त्रिकाल सन्ध्या द्वारा गायत्री उपासना करने वाले को ज्ञान, वैभव एवं सद्गुणों की उपलब्धि होती है। इसी आधार पर एक ही परब्रह्म-महत्व सविता को तीन प्रकार से तीन चित्रों में चित्रित किया गया है।

महर्षि याज्ञवल्क्य ने इसी सविता की उपासना का विधान वर्णन करते हुए उसकी महत्ता, विशेषता एवं उपलब्धियों को संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित शब्दों में इस प्रकार वर्णन किया है—

ॐ नमो भगवते आदित्याखिल जगतात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्थिधि भूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु बोहिणि चाकाश दवोपाधि नाऽव्ययधीयमानो भवानेक एवं क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणे नामामादान विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्राममुवाते। —याज्ञवल्क्य

मैं ॐकार स्वरूप भगवान को नमस्कार करता हूँ। हे भगवान ! आप समस्त जगत के आत्मा और काल स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने प्राणी हैं उन सबके हृदय में और बाहर भी आकाश के समान व्याप्त रहकर, फिर भी सब उपाधियों से पृथक् होकर आप एक अद्वितीय ईश्वर हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष इत्यादि वाले संवत्सरों द्वारा तथा जल के खींचने तथा प्रदान के द्वारा समस्त जगत का जीवन पालन करते हैं।

गायत्री उपासना में साधक चाहे साकार ध्यान करता हो अथवा निराकार उसे सविता देवता के प्रकाश का ध्यान अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। निराकार प्रकाश और गायत्री माता की छवि का ध्यान दोनों में सविता देवता के वरेण्य तेजस् का ध्यान किया जाता है। इस प्रकार सावित्री और सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, दोनों का अविच्छिन्न युग्म, इस तथ्य को भुलाया न जाना चाहिए।

सावित्री और सविता का संबंध

शरीर और प्राण का जो संबंध है वही सविता और सावित्री में है। प्राणी के अस्तित्व को प्रकाश एवं अनुभव में लाने के लिए शरीर चाहिए और शरीर सजीव बना रहे उसके लिए प्राण की स्थिति आवश्यक है। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे की गति नहीं, स्थिति नहीं, उपयोगिता नहीं, शोभा नहीं। इसी प्रकार सविता और सावित्री परस्पर जुड़े हुए हैं। दोनों का मिश्रित युग्म है। अलंकार रूप से सावित्री को, सविता की पत्नी भी कहते हैं।

मोटे अर्थ में यह प्रातः उदय होने वाला, सायंकाल अस्त होने वाला, प्रकाश और गर्मी देने वाला, अग्नि पिण्ड भी सूर्य है। उसकी भी अपनी शक्ति एवं क्षमता है। इस संसार का सारा क्रिया-कलाप उसी के प्रभाव से हो रहा है। इसीलिए उसकी स्थूल जगत में विभिन्न प्रकार की हलचलें उत्पन्न करने वाली क्षमता को लौकिक सावित्री कहा जा सकता है। वैज्ञानिक इसी अदृश्य और अविज्ञात महाशक्ति सावित्री के विभिन्न पक्षों का अनुसंधान आविष्कार करने में सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि पर्यन्त प्रयत्नशील हैं। उन्होंने बहुत कुछ पाया भी है।

आज तो बिजली, भाप, ईथर, अणु आदि क्षेत्रों में काम करने वाली सहस्रों शक्तियों को जान लिया है और उनके आधार पर विज्ञान के चरण द्रुतगति से अग्रसर हो रहे हैं। अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों पर चढ़ाई करने की योजनाएँ बन रही हैं, इसी धरती पर एक से एक अद्भुत आविष्कारों की तैयारी है, मनुष्य शरीर का कायाकल्प करके उसे चिरस्थाई बनाने की योजना है। यह सावित्री शक्ति के कतिपय पक्षों की जानकारी का परिणाम है। सावित्री—प्रकृति चेतना के बारे में जितना अब तक जाना जा सका है उससे अभी असंख्य गुना जानना शेष है। सीमित बुद्धि वाला मानव प्राणी अनन्तकाल तक नई-नई उपलब्धियाँ प्राप्त करता रहे तो भी प्रकृति की असीम शक्तियों की पूरी तरह जानकारी प्राप्त करना सम्भव न हो सकेगा। सावित्री का भाण्डागार अपरिमित है। इतना अपरिमित जिसकी कल्पना भी हम पूरी तरह नहीं कर सकते। गायत्री के स्वरूप में चर्मचक्षुओं से देखी और अन्य इन्द्रियों की सहायता से जानी जा सकती हैं।

पञ्च भौतिक जगत में यह उदीयमान सूर्य ही सविता है और उसके प्रभाव में उत्पन्न होने वाली अगणित शक्तियों का पुञ्ज ही सावित्री है। इस युग्म से हमें बड़ा लाभ होता है। उसी के प्रभाव से हम जीवित हैं और अभीष्ट साधन सामग्री उपलब्ध कर रहे हैं। श्रुतियों में सूर्य को "जगत की आत्मा" बताया गया है। उसी से वह प्राण प्रादुर्भूत होता है जिसके कारण प्राणियों के लिए शरीर धारण किए रह सकना, वनस्पतियों का उगना, पंच-तत्त्वों का सक्रिय रह सकना सम्भव है। यदि सूर्य ठण्डा हो जाय तो देखते-देखते यह धरती हिम पिण्ड की तरह ठण्डी हो जाय और यहाँ सब निर्जीव हो जाय, जीवन का किंचित् लक्षण भी दिखाई न पड़े। इसलिए इस अग्नि पिण्ड सविता का भी हमारे भौतिक जीवन में असाधारण महत्त्व है।

सविता की असाधारण रहस्यमयी शक्तियों का—सावित्री का उपयोग हम यन्त्रों के माध्यम से तो कर ही रहे हैं। चाहे तो तन्त्र और मन्त्र योगों द्वारा भी वैसे ही लाभ उठा सकते हैं जैसे कि भौतिक-विज्ञान वाले उठा रहे हैं या उठाने की बात सोच सकते हैं। यह सूर्य योग चाहे किसी भी विधि से किया जाय, भौतिक जीवन की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होता रहा है, आगे यह उपयोगिता और बढ़ने की सम्भावना है।

असली सविता जो गायत्री मन्त्र का देवता है—इस उदीयमान सूर्य से भी ऊँचा है। उसे असंख्य सूर्यों का सूर्य—परम शक्ति स्रोत, इस सृष्टि का नियामक और परिपुष्ट कर्ता, विधाता, प्रजापति कहा जाता है। उसके साथ सम्बन्ध, सम्पर्क बनाकर यदि सान्निध्य लाभ किया जा सके तो दृश्य सूर्य की अपेक्षा वह आध्यात्मिक सविता हमारे लिए असंख्य गुने सुख-साधन प्रस्तुत कर सकता है। परमात्मा की परम शक्ति गायत्री की, सविता की अविच्छिन्न क्षमता सावित्री की, उपासना करके हम वह लाभ ले सकते हैं, जिसके लिए यह मानव शरीर उपलब्ध हुआ है। वस्तुतः गायत्री उपासना—सावित्री साधना ही हमारा जीवन लक्ष्य हो सकता है, होना चाहिए।

ऐसा भ्रम किसी को नहीं करना चाहिए कि गायत्री से सावित्री भिन्न हो सकती है। एक ही शक्ति के दो नाम हैं। जब वह शक्ति भौतिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रयुक्त की जाती है, तब उसे सावित्री कहते हैं और जब वह आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए काम आती है, तब उसी को गायत्री कहने लगते हैं। मृत शरीर को जलाते समय जो अग्नि जलती है वह 'लोहिता' और भोजन बनाने की भट्टी में जलने वाली को 'रोहिता' कहते हैं। लोहिता और रोहिता यह दो नाम प्रयोग में आने वाले विभाजन के अनुरूप हैं। वस्तुतः अग्नि एक ही है। इसी प्रकार उस महाशक्ति को परा, अपरा—सावित्री और गायत्री के नाम से पहचाना जाता है। सविता तत्त्व के साथ सम्बद्ध होने के कारण उसे सविता कहा गया है। सावित्री का देवता होने के कारण उस परमतत्त्व को सविता कहते हैं। यह गायत्री का ही स्वरूप है।

गायत्री में जिस वेरण्यं भर्ग देव, सविता का स्मरण, चिन्तन किया जाता है, वह परम तेजस्वी, सर्व शक्तिमान, सर्वेश्वरसविता, प्रसविता, परमात्मा ही है। उस परमात्मा की सर्वतोमुखी, सर्वोपरि शक्ति को चाहे गायत्री कहें अथवा सावित्री, वस्तुतः एक ही महत्त्व से उसका प्रयोजन है।

सावित्री और गायत्री की एकता के कुछ प्रमाण देखिए—

यश्चैवं विद्धानेव वेदानामातो सावित्री संपद मुपनिषद् मुपास्ते इति। -गोपथब्राह्मण
इस प्रकार विद्वान वेदमाता को सावित्री के नाम से कहते हैं।

ओंकार पूर्विकास्तिस्रो महात्र्याहृतयोऽव्यय।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो मुखम्।।

ओंकारपूर्वक तीनों महाव्याहृतियाँ तथा त्रिपदा सावित्री मन्त्र वेद मुख कहा जाता है।

नमो नमस्ते गायत्रि सावित्री त्वां नमाम्यहम्।
सरस्वति नमस्तुभ्यं तुरीये ब्रह्मरूपिणी ॥

हे गायत्री ! हे सावित्री ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ और मेरा आपके चरणों में बार-बार अभिवादन समर्पित है। हे सरस्वती। आपके लिए मेरा नमस्कार अर्पित है। हे तुरीये! आप ब्रह्म के स्वरूप वाली हैं।

नमस्ते देवि गायत्री सावित्री त्रिपदेक्षरे।
अजरे अमरे मातस् त्राहि मां भवसागरात।। -(वशिष्ठ संहितार्थ वांत्रिक स्तोत्र)

हे तीन पदों वाली गायत्री, सावित्री, देवी ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। हे अजर-अमर माता ! मेरी भवसागर से रक्षा करो।

सच्चिन्मपि परे देवि गायत्रि ब्रह्मरूपिणि।
आज्ञामय त्वं सावित्रि परिवारार्चनाय मे।।

हे सच्चित्मयि ! हे परे ! हे देवि ! हे ब्रह्म के स्वरूप वाली गायत्री देवि ! हे सावित्री ! अब आप मुझ सेवक को परिवारार्चन करने के लिए आज्ञा प्रदान करें।

समस्त देवता चक्र मुनि पितृ गणावृते।
आरात्रिकं गृहणेद सावित्री मम सिद्धये॥

हे समस्त देवों के समूह—मुनिगण और पितृगण आवृते ! हे सवित्री ! अब मेरी सिद्धि के लिए इस आरात्रितक (आरती) को ग्रहण कीजिए।

नमस्ते सूर्य संकाशे सूर्यसावित्रिकेऽमले।
ब्रह्मविद्ये महाविद्ये वेदमातानमोऽस्तुते।।

हे सूर्य के समान रूप वाली ! हे सूर्य सावित्री ! हे अमले ! आप ब्रह्म विद्या हैं, आप महाविद्या हैं तथा वेदों की माता हैं। आपके लिए मेरा प्रणाम समर्पित किया जाता है।

उपरोक्त प्रमाणों में गायत्री-सावित्री को एक ही माना गया है। यदि इनमें थोड़ा अन्तर किया भी जाय तो वह इतना ही हो सकता है कि भौतिक प्रयोजनों में प्रयुक्त इस ब्रह्म शक्ति को सावित्री और अध्यात्म प्रयोजन में होने पर उसे गायत्री कहा जाय। सावित्री जप का लाभ स्वर्ग अर्थात सुख-सुविधाओं का अभिवर्धन बताया गया है और गायत्री उपासना से मोक्ष लाभ अर्थात् वासना एवं तृष्णा के बन्धनों से छुटकारा मिलना प्रसिद्ध है।

कहा गया है कि—

सावित्री जप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः।
गायत्री जप्यनिरतो मोक्षोपायं च विदन्ति।।

सावित्री के जप करने वाले को स्वर्ग और गायत्री के जप करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

सावित्री त्रिपदा ज्ञेया षटकुक्षिः पञ्चशीर्षका।
अग्निवर्णमुखा शुक्ला पुण्डरीकद्लेक्षणा | -(सूत संहिता-गायत्री विवरण)

सावित्री तीन पाद, षटकुक्षि और पाँच मस्तक वाली है। वह अग्निवर्ण की मुख वाली, शभ्र और कमल नेत्रों वाली है।

दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में सावित्री का आधिपत्य होने के कारण उसे तीन पाद वाली कहा गया है। कहते हैं कि वामन भगवान् ने तीन चरणों में राजा बलि के तीनों लोक वाले राज्य को नाप लिया था। सावित्री के तीन पाद भी तीनों लोकों तक लम्बे हैं अर्थात उनके प्रभाव से तीनों लोकों में अपनी स्थिति सुख-शान्तिमय बनती है। तीन लोक आकाश, पाताल और पृथ्वी को भी कहते हैं, पर यहाँ दैविक, दैहिक, भौतिक अर्थात आध्यात्मिक, शारीरिक, और सम्पत्ति परक तीनों ही क्षेत्रों में सावित्री का प्रकाश पहुँचता है और उस महाशक्ति की उपासना से इन सभी क्षेत्रों में आनन्द-उल्लास की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। षटकुक्षि का तात्पर्य शरीर में छिपे हुए छहों शक्ति संस्थान सावित्री उपासना से जागृत हो जाते हैं। किसी मिल में छः इंजन हों और वे ठण्डे पड़े रहें तब तो सारी मिल बन्द पड़ी रहेगी, पर यदि वे एक-एक करके सभी चालू हो जायें तो मिल अपनी पूरी रफ्तार से चलने लगेगी और देखते देखते उत्पादन का ढेर जमा हो जायगा। षट्-चक्र मानव शक्ति में छिपे हुए अत्यन्त शक्तिशाली बॉयलर, इन्जन, जैनरेटर हैं। उनके सक्रिय होने पर मनुष्य साधारण जीव नहीं रह जाता वरन् उसकी गणना सिद्ध पुरुषों में होने लगती है। इस षट्चक्र जागरण के विधि-विधान में भी सावित्री सान्निध्य को ही प्रधान आधार माना गया है, इसलिए उसे छ: कुक्षि वाली, छः साधनाओं वाली बताया गया है।

पाँच मस्तक, पाँच कोषों के नाम से प्रख्यात हैं। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष यह पाँच आवरण जीव के ऊपर हैं। इनमें से प्रत्येक को एक रत्न भाण्डागार कहना चाहिए।

कहा जा चुका है कि सावित्री का देवता सविता है। इसलिए उसे अधिष्ठान देवता के साथ अविच्छिन्न रूप से सुसंबद्ध माना गया है। सावित्री उपासना में सविता का आधार लेना ही पड़ता है। जप के साथ जुड़े हुए ध्यान में सूर्य जैसे प्रकाश के साथ संबद्ध करके ही गायत्री का ध्यान होता है। अन्य देवताओं का चित्रण वलय से रहित भी हो सकता है, पर गायत्री का नहीं, क्योंकि वह सविता की ही शक्ति है। गायत्री महामन्त्र की उपासना विधि यही है, कहा है—

सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते।
सर्वनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोच्यते।।

सब प्राणियों में सब प्रकार के भावों को सविता उत्पन्न करता है। उत्पन्न और प्रेरणा करने से ही सविता कहा जाता है।

वरेण्यं वरणीयञ्च संसार भय भीरुभिः।
आदित्यान्तर्गत यच्च भर्गाख्यं वा मुमुक्षभिः।।

संसार के भय से भीत और मोक्ष की कामना वालों के लिए सूर्य मण्डल के अन्तर्गत जो श्रेष्ठ तेज है, वह वन्दनीय है।

देवस्य सवितुर्यच्च भर्गमन्तर्गत विभुम्।
ब्रह्मवादिन एवाहवरेण्यम तच्च धीमहि।।

सविता देव के अन्तर्गत तेज को ब्रह्मज्ञानी वरेण्य अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं, उसी का हम ध्यान करते हैं।

सन्ध्या योग में इसका और भी अधिक स्पष्टीकरण किया गया है और बताया गया है कि जिस भावना का हम ध्यान करते हैं वह मन को एकाग्र करने के लिए कोई प्रकाश गोलक मात्र नहीं वरन वह परम तेजस्वी परमात्मा है जो हमारी बुद्धि, अन्तःचेतना, भावना एवं आस्था को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है।

चिन्तायामो वयं भर्गो धियो योनः प्रचोदयात्।
धर्मार्थ काम मोक्षेषु बुद्धि वृती पुनः पुनः।।

हम उस तेज का ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बार-बार प्रेरणा करता है।

बुद्धे बोधयिता यस्तु चिदात्मा पुरुषो विराट्।
सवितुस्तद्वरेण्यन्तु सत्यधर्माणमीश्वरम् ॥

'बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने वाला जो विराट् चिदात्मा पुरुष है, वही. सत्य धर्म वाला ईश्वर रूप वन्दनीय है।'

अगस्त्य और पाराशर ऋषियों ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। गायत्री महामन्त्र का ध्यान करते समय जिस सविता को धारण करने की प्रेरणा है वह रोशनी एवं गर्मी ही नहीं देता वरन् हमारी अन्तःचेतना को उत्कृष्टता की दिशा में वह प्रेरणा भी देता है, जिससे जीवनोद्देश्य को प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके।

यो देवः सविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचराः।
प्रेरयेत्तस्य यद्भर्गस्तं वरेण्यमुपास्महे।। —अगस्त्य

सविता नामक जो देवता हमारी बुद्धि को धर्मादि में लगाते हैं उनके वन्दनीय तेज की हम उपासना करते हैं।

-पाराशर

सविता देवता प्रशंसनीय तेज का हम ध्यान करते हैं जो हमारी बुद्धि को ब्रह्मत्व में प्रेरित करे।

कितने ही उपासक सूर्य की आराधना के लिए भी गायत्री का उपयोग करते हैं। गायत्री को माता के रूप में मानने वाले साधक भी उसका रूप 'सूर्य मण्डल मध्यस्था' सूर्य मण्डल के बीच में अवस्थित स्वरूप का, मातृ देवी के रूप में ही ध्यान करते हैं। किसी भी रूप में गायत्री मन्त्र की उपासना की जाय 'सूर्य का उससे अविच्छिन्न सम्बन्ध अनिवार्य रूप से रखना होगा। गायत्री का देवता ही सूर्य है तो उसका स्वरूप भी साथ में होना स्वाभाविक है।'

स्थूल विज्ञान की दृष्टि से सूर्य एक अग्निपिण्ड है, जो आकाश में अवस्थित अनन्त आकाश गंगाओं में से 'स्पाइरल' नामक एक आकाश गंगा के परिवार के लगभग डेढ़ खरब तारों में से एक छोटा-सा तारा मात्र है। इसका व्यास करीब ९ लाख मील अर्थात् पृथ्वी की अपेक्षा ११० गुना बड़ा है। उसके परिवार में नौ ग्रह हैं तथा प्रत्येक ग्रह के अनेक उपग्रह हैं। बुध, शुक्र और पृथ्वी का एक-एक चन्द्रमा है। मंगल के दो, बृहस्पति के बारह, शनि के नौ, वरुण के पाँच, हरितग्रह के दो और पीतग्रह के चार। इसके अतिरिक्त हजारों छोटे ग्रह तथा ग्रहिकाएँ एवं अगणित, धूमकेतु पुच्छल तारे इस सौर परिवार में सम्मिलित हैं। यह सब सूर्य की प्रबल आकर्षण शक्ति में जकड़े हुए उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। अपने इस सारे परिवार को लेकर सूर्य 'स्पाइरल' आकाश गंगा की परिक्रमा करता है। इस एक परिक्रमा में उसे पच्चीस करोड़ वर्ष लगते हैं। ज्योतिषियों का अनुमान है कि जब से सूर्य पैदा हुआ है तब से अब तक वह सोलह ऐसी परिक्रमाएँ कर चुका है।

स्थूल पदार्थ विज्ञान अभी तक सूर्य के सम्बन्ध में ऐसी ही जानकारियाँ एकत्रित कर सका है तथा उसकी किरणों से सप्त रंग, विद्युत प्रवाह एवं आणविक विकिरण का कुछ हद तक पता लग सका है। इस दिशा में और भी जानकारी एकत्रित की जा रही है, पर यह सब सूर्य के स्थूल रूप का ही परिचय है। जैसे मनुष्य की सत्ता का विश्लेषण करने के लिए उसके शरीर सम्बन्धी जानकारी प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं माना जा सकता, उसकी विद्या, बुद्धि, गुण, कर्म, स्वभाव, प्रवृत्ति, भावना, चेतना एवं आत्मा का पता लगाना भी आवश्यक होता है। इसके बिना केवल शरीर विश्लेषण के आधार पर जो परिचय प्राप्त किया जायगा वह अधूरा ही रहेगा। इसी प्रकार सूर्य की आत्मा का भी जानना आवश्यक है। इसके बिना गायत्री मन्त्र का साधक इस अग्नि पिण्ड सूर्य के जान लेने मात्र से अपना प्रयोजन पूर्ण नहीं कर सकता।

एक अनन्त, चैतन्य जीवन एवं शक्ति का समुद्र इस विश्व में लहरा रहा है। जड़ प्रकृति का परमाणु संकुल, उस चेतना सत्ता की तरंगों से ही तरंगित होकर गतिवान हो रहा है। जड़ पदार्थों में अपनी निज की कोई शक्ति या चेतना नहीं है। जब प्रलय होती है तो वह सब राख के ढेर के समान निष्प्राण, गतिहीन हो जाता है। संसार में जो कुछ हलचल हो रही दीखती है उसके मूल में वह चेतना का महाभाण्डागार ही काम कर रहा है। जैसे देह के निर्जीव कलेवर में आत्मा का ही संसार गतिशील रहता है, वैसे ही जड़ प्रकृति में जो चेतना होती दिखाई पड़ती है उसका कारण वह चेतना सागर ही है जिसके लिए गायत्री मंत्र में 'सविता' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह प्रकाश पिण्ड सूर्य उस सविता का एक बाह्य-शरीर—स्थूल कलेवर मात्र है।

सूर्य की गर्मी और रोशनी हर किसी को दीखती है, यह उसकी स्थूल शक्ति है। इसके भीतर एक और सूक्ष्म सत्ता उसके अन्तर में मौजूद है वह है—जीवन शक्ति। प्राणियों को उत्पन्न करने, पोषण और अभिवर्धन करने का विश्वव्यापी कार्यक्रम उस सूर्य की आत्मा पर ही आधारित है। रोशनी और गर्मी मशीनों से भी पैदा की जा सकती है, पर उनसे जीवन नहीं मिल सकता। वैज्ञानिक जानते हैं कि सूर्य न होगा तो पृथ्वी पर जीवन का भी कोई चिन्ह शेष नहीं रहेगा।

श्रुति में सूर्य को 'संसार की आत्मा' बताया गया है। आकाश में दौड़ने वाले सूर्य के बाह्य कलेवर को गर्मी और रोशनी का पिण्ड कह सकते हैं, पर उसकी आत्मा जगत का जीवन है। इस जीवन शक्ति का दूसरा नाम प्राण-शक्ति भी है। सूर्य की आत्मा को ही महाप्राण कहा गया है। उस महाप्राण की बूँदें विभिन्न प्राणियों में अल्प प्राण के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं।

गय कहते हैं—प्राण को। त्री कहते हैं—त्राण, उद्धार, उत्थान करने वाली को। प्राणशक्ति का उत्थान करने वाली विद्या को गायत्री कहा जाता है। अपने देवता सविता से गायत्री महामन्त्र में प्राण-शक्ति अभिप्रेत होती है और उसी का एक अंश अपने में धारण करके गायत्री उपासक अपने आपको धन्य बनाता है।

सूर्य के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण परब्रह्म परमात्मा का यह अंश है जिससे इस विश्व-ब्रह्माण्ड का संचालन होता है। एक से अनेक बनने का ब्रह्म-संकल्प ही महाप्राण बनकर फूट पड़ा है। यह निर्झर जिस दिन तक झर रहा है, उसी दिन तक सृष्टि है। जिस दिन परम प्रभु उस संकल्प को समेट लेंगे उसी दिन महाप्राण शान्त हो जायगा और फिर महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। यह ब्रह्मसंकल्प—महाप्राण—परब्रह्म की सत्ता से भिन्न कोई बाहरी पदार्थ नहीं वरन् उसी का एक अवच्छिन्न अंग है। परमात्मा अनन्त है, उसकी सत्ता असीम है। उस अनन्त, असीम, अचिन्त्य का एक भाग जो सृष्टि के संचालन में, उसकी समस्त प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित रखने में लगा हुआ है, उस महाप्राण को ही सूर्य की आत्मा—सविता देवता समझना चाहिए। प्राणी का—जीवधारी का सीधा सम्बन्ध इसी से है।

जीवन की बाह्य और आन्तरिक सुव्यवस्था के लिए, प्रगति और शान्ति के लिए परब्रह्म की महाप्राण सत्ता अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना प्राणी के लिए अभीष्ट होता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए गायत्री महामंत्र द्वारा सविता देवता की उपासना की जाती है।

यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि गायत्री महामंत्र की शक्ति इस अग्नि पिण्ड सूर्य पर अवलम्बित है। यह तो रोशनी और गर्मी मात्र देता है। यह सब तो बिजली की मशीनों से भी प्राप्त किया जा सकता है। इतने मात्र के लिए किसी उपासना की क्या आवश्यकता थी? गायत्री सूर्य की आत्मा—सविता शक्ति के साथ उपासक को सम्बन्धित करती है जिसके द्वारा वह परब्रह्म महाप्राण को अपने शरीर और अन्तःकरण में आवश्यक मात्रा में धारण करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शान्ति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य हो प्राप्त कर सकता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य, आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, पुरुषार्थ, इन्द्रिय शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जब वह मनःमोक्ष में अवतीर्ण होता है तो उत्साह, स्फूर्ति, प्रफुल्लता, साहस, एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य, संयम आदि सद्गुणों के रूप में देखा जा सकता है। जब उसका अवतरण आध्यात्मिक क्षेत्र में होता है तो त्याग, तप, श्रद्धा, विश्वास, दया, उपकार, प्रेम, विवेक आदि के रूप में दिखाई देता है। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे-जैसे भरते जाते हैं वैसे ही मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर, लघुता से विभुता की ओर, तुच्छता से महानता की ओर बढ़ने लगता है। आत्म-कल्याण का, लक्ष्य प्राप्ति का यही मार्ग है। गायत्री के द्वारा सविता देवता को, महाप्राण को उपलब्ध करने का प्रयोजन ही यही है।

सविता देवता यद्यपि सूर्य का ही दूसरा नाम है, पर यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि जो अन्तर शरीर और आत्मा का है वही सूर्य और सविता का है। गायत्री महामंत्र का देवता सूर्य वही महाप्राण है। उसका स्पष्टीकरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर विस्तारपूर्वक किया गया है।

योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽहम्। —त्रेयो उपनिषद् ६/५
'जो सूर्य है सो मैं हूँ।"

प्राणो वै अर्क। —शतपथ०/४/७/२३
"प्राण ही सूर्य है।"

सएष वैश्वानरो विश्व रूप प्राणेऽग्निरुदयत। —प्रश्नोपनिषद १/७
'सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।"

सहस्ररश्मि शतधा वर्तमानः।
प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।।

प्राण ही सहस्र रश्मियों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है।

भोऽसो तपन्नुदेति ससर्वेषां भूतानां प्राणानां दायो देति। —श्रुति
'इस सूर्य से ही सब प्राणियों को प्राण प्राप्त होता है।'

आदित्यो वै बाह्यप्राण उदयत्येषत्द्येनं चाक्षुषं प्राणामनुग्रहणीते। —प्रश्नोपनिषद् १/७
'बाह्य जगत में यह प्राण आदित्य रूप होकर दशों दिशाओं में विद्यमान है।'

विश्व रू पं हरिणं जात वेदसे,
परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम्।
सहस्र रश्मिः शतधा वर्तमानः
प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।।
—प्रश्नोपनिषद् १/८

"विश्वरूप, व्यापक, सर्वाधार, प्रकाशवान्, तप्त किरणों वाला यह सूर्य समस्त जीवों का प्राण होकर उदय होता है।"

सूर्याद् भविन्त भूतानि सूर्येण पालितानि तु।
सूर्येलयं प्राप्नुवन्तिः सूर्य सोऽहमेव च ॥

'सूर्य से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उसी से उनका पालन होता है, उसी में वे लय हो जाते हैं, जो सूर्य है सो ही मैं हूँ।"

सूर्य गायत्री के देवता सविता का स्थूल प्रतीक है। वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं के माध्यम से प्रकृति की—विलक्षणताओं का, सावित्री की गरिमा में, यत्किंचित ज्ञान एवं उपयोग जानने का प्रयोग करते और जो उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं उनसे सांसारिक सुविधाएँ बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। इसी स्तर का एक वैज्ञानिक प्रयोग आत्म-विद्या विशारद योगीजन भी करते हैं। वे अपने शरीर एवं मन की प्रयोगशाला में प्रस्तुत अद्भुत अविज्ञात शक्ति संस्थानों की सहायता से प्रकृति की सूक्ष्मता के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं और वहाँ से वैसी ही विलक्षण उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं, जैसे गोताखोर समुद्र में डुबकी लगाकर वहाँ छिपी पड़ी रत्न-राशि को बटोरते रहते हैं। तथाकथित ऋषि-मुनियों का आधार यही है।

जो कार्य किन्हीं शक्तिशाली यन्त्रों के द्वारा हो सकता है वही कार्य शरीर संस्थान के वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा भी हो सकता है। इसी प्रणाली का नाम 'तंत्र' है। जिस प्रकार बन्दूक चलाकर किसी का प्राण हरण किया जा सकता है, वैसे ही तन्त्रोक्त ‘कृत्या' से भी अनिष्ट उत्पन्न हो सकता है। जिस प्रकार विद्युत सम्बन्धों से धातुओं के स्वरूप को बदला जा सकता है, उसी प्रकार ताँबे को सोने में परिणत करने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। कितने ही सिद्ध पुरुष ऐसा करते भी रहे हैं। नागार्जुन, रावण आदि ऐसे ही असुर सम्प्रदाय के तान्त्रिक वैज्ञानिक थे जिन्होंने निर्धारित तपश्चर्याएँ करके शरीरों से इतनी अणु शक्ति संचालित कर ली थी कि वे अपने मनोबल के द्वारा अभीष्ट वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेते थे।

दक्षिणमार्गी ऋषि-मुनि इसी प्रयोजन को अपने ढंग की सात्विक योग साधनाओं से सम्पन्न करते थे। इसलिए उनकी पद्धति मन्त्र योग कहलाती थी। दक्षिण और वाममार्ग में सात्विक और तामस का अन्तर रहने के कारण उन्हें तन्त्र-विद्या और मंत्र-विद्या का अलग-अलग नाम दिया है। जो भौतिक लाभ मंत्र-योगी उठा सकता है, वहीं चमत्कार उत्पन्न कर सकना तंत्र योगी के लिए भी सम्भव है। सविता की महाशक्ति सावित्री एक ही है, उससे सम्पर्क बनाने के अनेक तरीके हो सकते हैं, इनमें से एक तरीका यन्त्र को माध्यम बनाकर साधना विधान के प्रयोग का है, दूसरा वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं के माध्यम से उपकरणों एवं यंत्रों के माध्यम से लाभान्वित होने का है।

आज यह यन्त्र-विज्ञान उस क्षेत्र में काम करने वाले निष्ठावान कार्यकर्ताओं के कारण सफलतापूर्वक काम कर रहा है। तन्त्र और मन्त्र क्षेत्रों के वैज्ञानिकों ने तपश्चर्या की कठोरता से डरकर मुँह मोड़ लिया, फलस्वरूप वहाँ सुनसान ही दृष्टिगोचर हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि वैज्ञानिक तत्परता के साथ इस क्षेत्र में भी काम किया जाता रहे और ऋषि-मुनियों की बातें कल्पना समझी जाने का अवसर न आने देकर उस विज्ञान को मानव-जाति के कल्याण में प्रस्तुत किया जाय।

सविता और सूर्य पर वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दृष्टि

विश्व रचना के दो प्रधान तत्त्व हैं—एक प्राण (इसे आध्यात्मिक भाषा में 'देव' भी कहते हैं) दूसरा—भूत। इन दोनों तत्त्वों का जहाँ भी मिलन हो जाता है वहीं दृश्य प्रकृति, गतिमान और क्रियाशील जीवन के दर्शन होने लगते हैं। केवल 'भूत' पदार्थ प्राण के बिना स्पन्दन नहीं कर सकता। इसलिए भौतिक जगत में जहाँ भी जीवन तत्त्व है वह प्राण ही है। इसे ही 'गायत्री' कहते हैं।

मनुष्य शरीर में यह दोनों शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं। बाल्यावस्था में छोटा-सा पंचभौतिक पदार्थों का पिण्ड छोटा-सा प्राण धारण किए हुए था, तब उसकी शक्ति और तेजस्विता कम थी पर जैसे-जैसे शरीर का विकास होता है और शरीर में प्राण की मात्रा बढ़ती है, शक्ति और क्रियाशीलता भी बढ़ती है। अवस्था के इस क्रम से बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था को 'गायत्री समिधा' कहा गया है, क्योंकि प्राण तत्त्व इन्हीं में जलता है।

उसके बाद दोनों तत्व फिर अलग-अलग हो जाते हैं, प्राण निकल जाता है और पंचभूतों से बना हुआ नितान्त प्राकृत शरीर पड़ा रह जाता है। इस छूटे हुए शरीर को ऋग्वेद में—

यद गायत्रे अधि गायत्र माहितम् | —१/०६४/२३
अर्थात् पंचभूतों से बना शरीर मर्त्यगायत्री है। इसमें सोचने, समझने, सुख-दुःख अनुभव करने, क्षोभ और विकलता व्यक्त करने वाली शक्ति प्राण थी। शरीर निस्पन्द और अनुभवहीन होता है। इसलिए सुख-दुःख ही नहीं मनुष्य जीवन की सारी हलचलें, परिवर्तन गति उन्नति-अवनति का कारण भी प्राण ही है।

यदि सूक्ष्म रूप से विचार करें तो ऐसा मालूम पड़ेगा कि जो प्राण शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में क्रियाशील रहता है, वह भी भौतिक है। किरणें, ज्योति या अग्नि जैसा कोई स्थूल तत्त्व कह सकते हैं, उसे नियन्त्रित और प्रेरित करने वाली एक तीसरी मनोमय शक्ति है। इसी की इच्छा और संकल्प शक्ति से शरीरगत व्यापार चलते हैं। इसलिए गायत्री—इस एक शब्द में ही पंच-भौतिक, प्राण और मन-त्रिक शक्ति का समग्र रूप आ जाता है। शास्त्रों में इसे भौतिक क्लेश और प्रपंच से मुक्ति दिलाने वाली विद्या कहा गया है। अर्थात् जो विचारपूर्वक इन तीनों शक्तियों का अलग-अलग अनुभव करते हैं, फिर उनकी अधोगति नहीं होती। 'तुमहिं जानि कछु रहे न शेषा, तुमहिं पाय कछु रहे न क्लेशा।।" इसी गायत्री शक्ति की स्तुति है, जो अब विज्ञान सम्मत भी है।

गायत्री का आविर्भाव कहाँ से होता है। यह प्रश्न उठता है तो उपनिषद्कार कहते हैं—

देवात्म शक्तिम् स्वगुणे निगढ़म्।
देव माया या इन्द्र शक्ति ही वह सत्ता है, जो विश्व गायत्री अर्थात् अनेक रूपों में विकसित होता है। यह देवशक्ति या इन्द्र कौन है—

तस्य दृश्यः शतादश |
'सूर्य ही वह इन्द्र है जिसकी हजारों किरणें हैं" एक-एक किरण एक-एक रूप हैं। इन किरणों में प्राणशक्ति भरी पड़ी है। सूर्य को त्रयी विद्या भी कहा है अर्थात सूर्य स्वयं भी एक वैसी ही गायत्री है, जिस तरह की एक गायत्री शरीर, प्राण और मनोमय रूप में धरती पर विद्यमान है, उसमें सूर्य का ही प्राण और प्रकाश काम करता है। पुराणों में सूर्य शक्ति के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया गया है—

सर्वकारण भूताय निष्ठायज्ञानचेतसाम्।
नमः सूर्य स्वरूपाय प्रकाशात्मस्वरूपिणौ।
भास्करायनमस्तुभ्यं तथा दिनकृतनमः।। —मारकण्डेय पुराण ७०/५-६

अर्थात्—हे सूर्य भगवान ! आप ही ज्ञान चित्त वाले पुरुषों के लिए निष्ठास्वरूप तथा सर्वभूतों के कारण स्वरूप हैं। आप ही सूर्यरूपी प्रकाश और आत्मरूपी भास्कर हैं। आप दिनकर को नमस्कार है।।

इन पंक्तियों में सूर्य का जो वर्णन किया है, उससे दो बातें ज्ञात होती हैं—

(१) सृष्टि में जो चेतना है, वह सूर्य का ही प्राण और प्रकाश है। तथा
(२) सम्पूर्ण दृश्य प्रकृति—वृक्ष, वनस्पति, समुद्र, नदियाँ और सौर-मण्डल के दूसरे नक्षत्र वह सब सूर्य के द्वारा ही उपजे और गतिमान हैं। सूर्य ही सम्पूर्ण दृश्य प्रकृति की आत्मा है।

गायत्री महाविज्ञान वस्तुतः सूर्य का ही विवेचन है। उससे आधिदैहिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होने की जो बातें कहीं गई हैं, वह वस्तुतः सूर्य की दृश्य-अदृश्य शक्तियों की वैज्ञानिक शोध ही है। प्रयोगों का तरीका भिन्न है—मानसिक-ध्यान का है, पर उसकी वैज्ञानिकता में बिल्कुल संदेह नहीं है। आज के वैज्ञानिकों ने जो खोजें की हैं वे इन बातों को अक्षरशः पुष्ट करती हैं।

वनस्पति शास्त्र (बाटनी) और कृषि शास्त्र (एग्रीकल्चर) के जानने वाले लोगों को मालूम है कि पृथ्वी पर जितने भी पेड़-पौधे दिखाई दे रहे हैं, वह सब सूर्य के अस्तित्व में होने के कारण ही हैं। सूर्य न होता तो वृक्ष-वनस्पति का नाम भी न होता और शायद जीवन नाम की कोई वस्तु भी न होती। जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट से धागे निकालती और अपना जाल बुनती रहती है, उसी प्रकार सूर्य-गर्भ से निकला हुआ प्रकाश ही सृष्टि का ताना-बुनता रहता है। जब तक सूर्य है, तब तक सृष्टि है। जिस दिन उन्होंने अपनी माया समेटी, उसी दिन सृष्टि का अन्त हुआ।

वनस्पति का ९५ प्रतिशत भाग सूर्य से विकसित होता है। प्रकाश शक्ति का जिस क्रिया से रासायनिक शक्ति ( केमिकल एनर्जी ) में रूपान्तर होता है, उसे विज्ञान में बड़ा महत्व दिया गया है। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण ( फोटोसिन्थेसिस ) कहते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वृक्ष-वनस्पतियाँ पृथ्वी से पोषण और जीवन तत्त्व प्राप्त करती हैं। पृथ्वी से तो कुल ५ प्रतिशत विकास सामग्री ही उन्हें प्राप्त होती है। हम अनुभव नहीं करते अन्यथा हमारे शरीर में जो प्राण और चेतना विकसित होती है वह सूर्य की इस दृश्य प्रकाश शक्ति का ही प्रतिफल है। यह प्रकाश कण चाहे सीधे मिलते हों अथवा अन्न के द्वारा, बात एक ही है। अन्न, फल, फूल, पत्ते आदि जो कुछ भी हम खाते हैं उनमें यह प्रकाश कब से सोखे हुए रहते हैं। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कहना है कि कोयला आग पकड़ते ही धधकने लगता है। इसका कारण भी कोयले में सूर्य प्रकाश कणों की उपस्थिति होती है। सूर्य द्वारा प्रकीर्ण प्रकाश प्राण विद्युत में किस प्रकार परिवर्तित होकर मनुष्य शरीर में पहुँचता है।

वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश की स्थूल गतिविधि को ही अब तक जान सके हैं। हमारा मानसिक सम्बन्ध भी सूर्य से है और उसे शब्दों ( मंत्रों ) द्वारा अनुभव किया जा सकता है। अभी इस बात को वैज्ञानिक नहीं जान पाये, पर भारतीय योग द्वारा मिलने वाले अनेक चमत्कारिक लाभों का रहस्य यही है कि हम अपनी आत्मा अर्थात् सूर्य की अक्षय शक्ति से संबंध स्थापित कर लेते हैं और उस शक्ति का मनमाना उपयोग कर सकने की स्थिति में हो जाते हैं। गायत्री सिद्धि इसी रहस्य का उद्घाटन और प्राप्ति ही है। प्राणी शब्द 'प्राण' से बना है। जिसमें प्राण है, वही प्राणी है। चाहे वह मनुष्य हो, पशु या पक्षी हो। प्राण इस प्रकार से एक स्वतंत्र सत्ता है, जो इन्द्रिय आदि शारीरिक अवयवों से भिन्न होती है। सृष्टि में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह प्राण की ही उत्पत्ति है।

इटली के महान खगोल वैज्ञानिक गैलीलियो ने एक बार यह घोषणा की कि सूर्य सम्पूर्ण है ही नहीं। इस पर सारे संसार में एक बार तहलका मच गया। लोगों में खलबली मच गई कि सूर्य इतना साफ दिखाई देता है। फिर उसका सम्पूर्ण न होना कैसे हो सकता है ? गैलीलियो ने एक बार यह समझाने की चेष्टा भी की कि वह तो एक प्रकार का आवेश चेतना है, जो सौर-मण्डल के प्रत्येक परमाणु में प्रतिभासित है। यही नहीं परमाणुओं में पाये जाने वाले सौर-बीज उतने ही शक्तिशाली और समर्थ हैं, जितना स्वयं सूर्य। इस बात को तब तो किसी ने नहीं समझा पर खगोल विद्या का अध्ययन तेजी से अवश्य प्रारम्भ किया गया। तब से अब तक सूर्य का जितना अध्ययन किया जा चुका है, उससे गैलीलियो के सिद्धान्तों की भी पुष्टि होने लगी। स्मरण रहे गायत्री का देवता एवं शक्ति स्रोत 'सविता' अर्थात सूर्य ही है।

अगर हम यह जानना चाहें के सूर्य का मानव जीवन से क्या सम्बन्ध है ? तो विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों को ही देखकर सन्तुष्ट नहीं रह जाना होगा वरन् उनके आधार पर भारतीय अध्यात्म की संगति पर भी विचार करना आवश्यक होगा। पश्चात्य देशों में उसे जलवायु, वनस्पति और दृश्य जगत में परिवर्तनों के लिए प्रमुख उत्तरदायी माना जाता है, किन्तु भारतीय आचार्यों का मत है कि मनुष्य भावनाओं का भी सूर्य से घनिष्टतम सम्बन्ध है, इस तादात्म्य की उपेक्षा करके मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। गैलीलियो ने इसी सूक्ष्म विज्ञान पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया था। तब उसकी बातों की उपेक्षा की गई बाद में वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन किया और अब तक जो कुछ खोजें हुईं, उनसे यह बात निश्चित रूप से सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य पूर्णतया सूर्य पर ही आश्रित है। उससे मानसिक सम्बन्ध स्थापित करके अनेक प्राकृतिक रहस्य और शक्तियाँ प्राप्त करने एवं आत्म विकास में प्रकाश पाने की विस्तृत खोज इस दिशा में गायत्री विद्या के नाम से हुई।

वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी और सूर्य समान तत्त्वों से बने हैं, अन्तर केवल ठोस और गैसीय अवस्था का है। पृथ्वी में आक्सीजन, नाइट्रोजन, लोहा, गन्धक, कार्बन, सोडियम आदि अनेक तत्त्व पाये जाते हैं। इन्हें ठोस से तरल एवं गैसीय स्थिति में भी बदला जा सकता है, वह सब तापमान का खेल है। यह सब तत्त्व सूर्य में भी पाये जाते हैं, किन्तु उच्च ताप के कारण वहाँ स्थूल कुछ भी नहीं है। गैस स्थिति में यह तत्व सूर्य में विद्यमान हैं। इसलिए मनुष्य प्रकृति में जो गुण सम्भव है वह सूर्य में भी है और उन कणों को आकर्षित कर मनुष्य बिना किसी औषधि या खाद्य के अपना स्वास्थ्य और आरोग्य स्थिर रख सकता है।

मनुष्य का शरीर सूर्य और पृथ्वी के तत्त्वों के सम्मिश्रण से बना है, इसलिए शारीरिक और मानसिक दृष्टि से शरीर पृथ्वी से ही प्रभावित नहीं होते वरन् उन पर सूर्य का भी प्रचण्ड हस्तक्षेप रहता है। हम यदि शरीर पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अन्न-जल आदि पृथ्वी का रस सेवन करने से हमारे शरीर में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, लोहा, गन्धक, सोडियम, कैल्शियम आदि विभिन्न तत्त्व उत्पन्न होते हैं, वहाँ उनमें इन तत्त्वों से भी सूक्ष्म प्राण शक्तियाँ भी क्रियाशील हैं। प्राण के द्वारा ही हमारे शरीर में स्पन्दन है। छींकना, जम्हाई लेना, अपान वायु का विसर्जन, निद्रा, पलक झपकना आदि क्रियाएँ प्राण के द्वारा ही सम्भव हैं। यह क्रियाएँ जड़-तत्त्व मात्र नहीं कर सकते। प्राण इन सब तत्त्वों से अधिक सूक्ष्म है, इसलिए पहचान में नहीं आता पर सूर्य विज्ञान के द्वारा उसे आसानी से समझा जा सकता है। प्रश्नोपनिषद् में कहा है परमात्मा ने प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रियों, मन और अन्न सब बने।

शास्त्रकार की इन बातों को समझने और अवगाहन करने के लिए यद्यपि यौगिक साधना पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। प्राण की अनुभूति के लिए ही अनेक प्रकार के योगों का आविर्भाव हुआ। प्राचीनकाल में इस देश के निवासियों ने प्राण तत्त्व पर एक प्रकार से अधिकार ही कर लिया था। इसीलिए हम भारतीय विश्व की सर्वसमर्थ जाति बन सके थे। ज्ञान-विज्ञान हमारी मुट्ठी में था—वह इस शक्ति का ही चमत्कार था।

प्राण को ही विवेकानन्द ने 'लेटेन्ट हीट' या 'साइकिक फोर्स' कहा है अर्थात् चेतना को धारण करने वाली शक्ति प्राण है। प्राण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'अन्' धातु जीवन शक्ति एवं चेतना वाचक है। इसीलिए प्राण शब्द का अर्थ चेतन शक्ति के लिए किया गया है।

यह प्राण सूर्य की ही देन है अर्थात् विश्व में जितने भी प्राणी हैं, वे सूर्य का ही तेज धारण किए हुए हैं—समस्त चेतना सूर्य की ही है, क्योंकि यह प्राण सूर्य से ही आता है। उपनिषद् कहता है—

यथाग्नेः क्षुद्रास्फुल्लिंगा व्युच्चरन्त्येव मेवास्पादात्मनः सर्व प्राणाः। —वृहदारण्यक २/१,२२०
अर्थात—जैसे अग्नि से छोटी-छोटी चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही इस आत्मा से समस्त प्राण निकलते हैं।

आत्मा की व्याख्या में शास्त्रकार ने बताया—

यौ असौ आदित्य पुरुषः सो असौअहम्। —यजुर्वेद ४७/१७
अर्थात—उस सूर्य मण्डल में जो पुरुष है, वही मैं हूँ।

सूर्य आत्मा जगतः तस्थुष च। —ऋग्वेद १/१२५/१
इस समस्त विश्व की आत्मा सूर्य है।

जिस प्रकार अग्नि की चिन्गारी के समान प्राण सूर्य लोक से स्फुरित होता है और वही वृक्ष, वनस्पति, नदी-नद और वायुमण्डल से सृष्टि में पहुँच कर अनेक जीव के रूप में दिखाई देता है। इसीलिए कहा गया है कि यहाँ जो कुछ चेतना है वह सब एक ही आत्मा सविता है। सूर्य हालांकि उसका स्थूल प्रतीक है, परन्तु यह प्रतीक ही इतना सटीक है कि उसे देखते हुए सविता देवता की समस्त विशेषताओं का आगमन किया जा सकता है।

प्रकाश के रूप में सूर्य से आने वाली प्राणशक्ति द्वारा ही पृथ्वी पर जीव का आविर्भाव हुआ। स्मरणीय है कि सूर्य के प्रकाश में विद्युत, ऊष्मा और रूति तीनों गुण हैं। प्राण के भी यही तीनों गुण हैं। खगोलशास्त्रियों का कथन है कि सविता देवता के स्थूल प्रतीक सूर्य में मूलतः दो ही तत्त्व पाये जाते हैं—एक हाइड्रोजन, दूसरा हीलियम। सूर्य हाइड्रोजन का आहार करता है और उसके चार परमाणुओं को हीलियम के एक परमाणु में बदल देता है। इसी से उसमें शक्ति आती है, ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है। यदि यह क्रिया न होती तो सूर्य दिखाई भी नहीं देता क्योंकि वह सौर-मण्डल के समग्र भाग में चेतना रूप में छाया हुआ है। दिखाई केवल उतना हिस्सा देता है जहाँ यह क्रिया होती है अन्यथा सूर्य सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी तत्त्व है, अब चाहे उसे आत्मा कहें, प्राण पुंज कह लें या हाइड्रोजन का जलता हुआ गोला कह लें। यदि किसी को यह भान्ति हो कि सूर्य आग का जलता हुआ गोला है तो उसे दूरदर्शी ( टेलिस्कोप ) से सूर्य का अध्ययन करना चाहिए। उससे पता चलेगा कि सूर्य में यज्ञ कुण्ड के समान लपटें ही नहीं फूटतीं वरन् उसमें से ऊर्जा भँवर जो कि प्रकाश, विद्युत और गर्मी का सम्मिश्रण होता है, फूटता रहता है। इसी तरह की क्रिया हमारे शरीरों में होती हैं। विचारों के रूप में इसी तरह की ऊर्जा हमारे शरीरों में विद्यमान है। यह केवल स्पन्दन जैसी क्रिया है, इसलिए दिखाई नहीं देती, पर हमारे शरीर की अधिकांश शक्ति इसी तरह अभिव्यक्त होती है। यदि मनुष्य को विभिन्न स्थूल तत्त्वों का प्राणी कहें और स्वल्प क्षमता वाला मानें तो सूर्य को भी उन्हीं शक्तियों का सूक्ष्म गैसीय स्थिति का विचारशील प्राणी मानना पड़ेगा। उसकी शक्ति चूँकि अनन्त और विशाल है। वह निरन्तर देता रहता है, इसलिए उन्हें देवता नामक आदरसूचक शब्द से सम्बोधन करने की परम्परा रही है। सूर्य को यदि इस अर्थ में भावनाओं और विचारों की केन्द्रीभूत शक्ति माने और यह कल्पना करें कि मनुष्य उनसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, औद्योगिक और बौद्धिक वरदान प्राप्त कर सकता है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। गायत्री मन्त्र द्वारा उसी विद्या का उद्घाटन पृथ्वी पर किया गया है।

गायत्री द्वारा सविता देवता की उपासना

ध्वनि से सम्बन्धित एक सर्वज्ञात तथ्य है कि समान कम्पन गति वाले अंग्रेजी के वाई के आकार का एक उपकरण (ट्यूनिंग फार्क ) तथा एक तार को लें। तार पर एक छोटा-सा कागज का टुकड़ा मोड़कर रख दें। अब ट्यूनिंग फार्क को किसी ठोस से टकराकर कम्पन उत्पन्न करें और तार के समीप लायें। स्पष्ट दिखाई देता है कि कागज का वह छोटा-सा टुकड़ा तार पर नाचने लगता है। जबकि तार और ट्यूनिंग फार्क के मध्य सम्पर्क का माध्यम केवल आकाश था। ट्यूनिंग फार्क के कम्पन समान अवस्था वाले तार में भी कम्पन उत्पन्न कर देते हैं। तार के इन वास्तविक कम्पनों के कारण ही कागज का टुकड़ा नाचने लगता है।

एक और प्रयोग है। पंचम स्वर पर चढ़े हुए तबले को कसकर रख दें। बरसात के दिनों में यदि बादल पंचम स्वर में गरज उठे तो उसकी गड़गड़ाहट का पृथ्वी में रखे हुए तबले पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? यह देखें तबले का चमड़ा अपने आप फट जायेगा। यह शब्द की शक्तिशाली तरंगों के द्वारा होता है।

इन दो प्रयोगों के समान ही समान तत्त्वों वाले मनुष्य और सूर्य में मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने का काम वह २४ अक्षरों के कम्पन करते हैं, जिन्हें गायत्री मन्त्र कहा जाता है। ठीक उसी प्रकार सूर्य और मनुष्य में तात्त्विक एकता है। शास्त्रकार का कथन है—"सूर्यात्मा जगतस्थस्थुशश्च", सूर्य जगत की आत्मा है। जबकि हमारी चेतना, हमारे शरीर जगत की आत्मा है। इन दो चेतनाओं को समान गति से कम्पित और सम्बन्ध स्थापित कर सकने की सामर्थ्य उन २४ अक्षरों में है, जिन्हें गायत्री मन्त्र कहते हैं।

विज्ञान का यह नियम है कि उच्चस्तर या अधिक शक्ति का प्रवाह निम्न स्तर अथवा कम शक्ति वाले केन्द्र की ओर तब तक बहता है, जब तक कि दोनों समान न हो जायें। गायत्री से प्राप्त सिद्धियाँ इसी तादात्म्य की परिपक्व अवस्था ही हैं। जब मनुष्य भौतिक शरीर में ही सूर्य की चेतना के समान सर्वव्यापी, सर्वदर्शी और सर्वसमर्थ हो जाता है, वह न केवल जलवायु, लोगों के स्वास्थ्य, मन की बातें जान लेने की सामर्थ्य पा लेता है, वरन् इनसे भी सूक्ष्म से सूक्ष्म गति-विधियों और शक्तियों का स्वामी हो जाता है, उसका विस्तृत विवरण किया ही नहीं जा सकता। वह सारे संसार को भी नष्ट कर सकता है, किन्तु सूर्य देवता से सम्पर्क स्थापित होने के बाद गायत्री उपासक में उन्हीं की सी करुणा, सद्बुद्धि और पदार्थ उत्सर्ग की भावना विकसित होने लगती है। दूसरे शब्दों में यदि गायत्री उपासक उपासना के साथ-साथ अपने सद्गुण, सद्विचारों को अधिक से अधिक सत्कर्मों में लगाने लगता है, तो उसकी साधना की सफलता और भी सस्वर हो उठती है।

कोई मनुष्य शांत और प्रसन्न मुद्रा में बैठा हो, उस समय अन्य कोई उसके पास जाकर भावनापूर्वक कुछ निवेदन करे तो उससे आशातीत समर्थन प्राप्त किया जा सकता है। बजाय तब जबकि वह अस्त-व्यस्त और अशांत स्थिति में हो। कोई तालाब स्वच्छ और शान्त हो तो उस पर एक छोटा-सा कंकड़ फेंककर ही तरंगों का उत्पादन किया जा सकता है। यह भाव और विज्ञान दोनों का मिला-जुला स्वरूप है। भारतीय आचार्यों ने जो आचार संहिताएँ और वैज्ञानिक प्रयोग किए हैं, वे उक्त सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर ही किए। पिछले दिनों हमने भी उसी सूक्ष्म दर्शन का आश्रय लेकर एक प्रयोग किया था। वह सहस्र कुण्डीय यज्ञ के रूप में था। हमने पढ़ा था कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट रीति से गायत्री उपसनाएँ एवं यज्ञादि प्रक्रियाएँ सम्पन्न की जायें तो उनसे सूर्य देव की आध्यात्मिक शक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित एवं आकर्षित किया जा सकता है। उनसे न केवल अपने लिए वरन् सम्पूर्ण समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए सुख-समृद्धि और शान्ति का अनुदान उपलब्ध किया जा सकता है।

अक्टूबर १९५८ का सहस्र कुण्डीय यज्ञ एक ऐसा ही प्रयोग था। पीछे मौसम वैज्ञानिकों ने भी हमारी मान्यता के एक भाग की पुष्टि कर दी। १ जुलाई १९५७ से ३१ दिसम्बर १९५८ तक खगोल शास्त्रियों ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्त सूर्य वर्ष ( इन्टरनेशनल इयर ऑफ दि क्वायेट सन ) संक्षेप में 'इक्विसी' मनाया। यह नाम इसलिए रखा गया कि इन दो वर्षों में सूर्य बिल्कुल शान्त रहा और वैज्ञानिकों को उस पर अनेक प्रयोग और अध्ययन करने का अवसर मिला। लगभग इसी अवधि में हमारे उस यज्ञ की तैयारी हुई थी। साधकों ने एक वर्ष पूर्व से ही गायत्री के विशेष पुरश्चरण प्रारम्भ किये थे और अक्टूबर १९५८ में चार दिन तक यज्ञ कर शरद् पूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी थी। गायत्री का देवता सविता है, इसलिए इस गायत्री अभियान का भी उद्देश्य उसका अध्ययन और प्रयोग भी था और उन उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित कराना भी जो ऐसे अवसरों पर देव शक्तियों से सुविधापूर्वक अर्जित की जा सकती है।

उस यज्ञ के बाद से विश्व की गति-विधियों का हम बराबर अध्ययन कर रहे हैं और यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि न केवल प्रकृति अपने विधान बदल रही है वरन लोगों की भावानाएँ और विचार भी तेजी से बदल रहे हैं। योरोप की विलासिता प्रिय और भौतिकवादी प्रजा भी अध्यात्म का आश्रय पाने के लिए भागी चली आ रही है। भारतवर्ष को तो उसका सुनिश्चित लाभ मिलने वाला है भले ही उसका प्रत्यक्ष दर्शन १९९९ के बाद दिखाई दे। अपने दैनिक जीवन में सूर्य की शान्त स्थिति प्रातः और सन्ध्या के समय होती है, भारतीय आचार्यों ने यह दोनों ही समय जप के लिए उपयुक्त बताये हैं, इसी प्रकार नवरात्रि पर विशेष साधनाएँ करने का जो विधान है, वह सूर्य की इस भौतिक प्रकृति की खोज का ही फल है, वह पूर्णतया विज्ञान सम्मत ही है।

सविता और संसार व्यापी परिवर्तन प्रक्रिया

दीर्घकालीन कालचक्र के अनुसार इस बीच दो महाक्रान्तियाँ होने को हैं। अगले कुछ दिन बहुत अधिक तीव्र और शीघ्रातिशीघ्र परिवर्तन होंगे। यों सूर्य कलंकों ( सन स्पाट्स ) के कारण पृथ्वी में प्राकृतिक परिवर्तनों का क्रम ११ वर्ष बाद आता है, पर किन्हीं अज्ञात कारणों से अगले दिनों इन नियमों को तोड़कर सूर्य पृथ्वी में परिवर्तन लायेगा। इसमें वृष्टि, अनावृष्टि, सूखा, अकाल, ओलावृष्टि आदि ही नहीं युद्ध और महामारियों के प्रकोप भी होंगे। उन प्रकोपों में उन्हीं की रक्षा होगी, जो सूर्य से अपना सम्बन्ध जोड़े रहेंगे।

इस तरह की घोषणाएँ हम काफी समय पहले से ही कर रहे हैं, वह गणित-ज्योतिष और सूर्य विद्या के आधार पर ही करते रहे हैं। वैज्ञानिक निष्कर्ष उसकी पुष्टि ही करते हैं। भारतवर्ष को मुस्लिम और अंग्रेजी सभ्यता के बन्धन में रहते हुए कोई १५०० वर्ष बीत रहे हैं, सूर्य विद्या के आधार पर इन १५०० वर्षों का अन्त इसी शताब्दी में हो जायेगा। ग्रह गणित के अनुसार पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में नौ करोड़ तीस लाख मील की यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा को पृथ्वी लगभग ६७ हजार मील प्रति घण्टा की गति से चलकर ३६५.२५ दिनों में पूरा करती है। प्रत्येक चक्कर में १/४ दिन बढ़ जाता है। ४ वर्ष में वह एक दिन के बराबर होता है। अंग्रेजी हिसाब से प्रत्येक चौथे वर्ष फरवरी २९ दिन की और वर्ष ३६६ दिन का होता है। एक नया पूरा वर्ष होकर पृथ्वी को पुनः उसी कक्षा में आने के लिए ३६५.२५*४=१४६१ वर्ष लग जाते हैं।

इस तरह १४६१ वर्षों का एक क्रम इस शताब्दी के अन्त में पूरा हो जायेगा। इस बीच सूर्य की प्रचण्ड शक्तियों का पृथ्वी पर आविर्भाव होगा और उससे वह तमाम शक्तियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगी, जो मानसिक दृष्टि से अध्यात्मवादी न होंगी। जो लोग सूर्य शक्तियों से सम्बन्ध बनाये रखेंगे, उनकी रक्षा और समुन्नति उसी प्रकार होगी, जिस तरह भयंकर ज्वार-भाटा आने पर भी समुद्र में पड़े फूलों का अनिष्ट नहीं होता, जबकि बड़े-बड़े जहाज यदि साधे न जायें तो उस अनन्त जल-राशि में डूबकर नष्ट हो जाते हैं। गायत्री उपासक इन परिवर्तनों को कौतूहलपूर्वक देखेंगे और उन कठिनाइयों में भी स्थिर बुद्धि बने रहने का साहस उसी प्रकार प्राप्त करेंगे, जिस प्रकार माँ का प्यारा बच्चा माता के क्रुद्ध होने पर भी उनसे भयभीत नहीं होता वरन् अपनी प्रार्थना से उन्हें शांत कर लेता है।

यह नहीं समझना चाहिए कि इन परिवर्तनों में विश्व संस्कृति का अन्त हो जायेगा। जब तक सूर्य है, तब तक सृष्टि बनी रहेगी। चेतन स्वरूप में प्राणि जगत् सूर्य या सूर्य का हो अंश है और सूर्य कम से कम एक अरब वर्ष इसी तरह प्रकाश और प्राण देता रहेगा। जब तक सूर्य है, जब तक सूर्य के पास हाइड्रोजन है, तब तक सृष्टि बनी रहेगी, पर अब वह एक बार स्नान कर अपनी सम्पूर्ण गन्दगी साफ कर देने का इच्छुक है, वर्तमान प्राकृतिक हलचलें युक्त परिवर्तन की सम्भावनाएँ उसी का प्रमाण हैं।

अन्तरिक्ष किरणों, उत्तरी ज्योति, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र ( मैगनेटिक फील्ड) पृथ्वी के ऊपरी वायु-मण्डल और अयन मण्डल (आयनोस्फियर ) पर सूर्य के प्रभाव का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने यह बताया कि सूर्य अपने आप उत्तेजित होता रहता है, उसका रहस्य क्या है ? इसका उत्तर तो वे नहीं दे पाये पर उनका विश्वास है कि ११ वर्षों में एक वर्ष ऐसा आता है, जबकि उसकी उत्तेजना बढ़ जाती है। उत्तेजित सूर्य अपने सम्पूर्ण सौर-मण्डल का, जिसमें पृथ्वी भी सम्मिलित है, मन्थन करता है। उस समय उससे ज्वालाएँ फूटती हैं और सूक्ष्म कणों की वर्षा होती है। यह कण बाद में कहाँ विलीन हो जाते हैं, इसका पता वैज्ञानिक लगाने में असमर्थ रहे, पर आत्म-विद्या के आचार्य यह जानते हैं कि सृष्टि के प्रत्येक अणु में अतिरिक्त शक्ति के रूप में यह उत्तेजित कण ही हलचल पैदा करते हैं, उससे स्थूल प्रकृति ही प्रभावित नहीं होती वरन् मनुष्य की सूक्ष्म प्रकृति अर्थात विचार, भावनाएँ, संकल्प और विश्वास भी परिवर्तित होते हैं। इस परिवर्तन को आँका जाना यद्यपि सम्भव नहीं होता, पर सामूहिक रूप से विश्व की राजनीति, उद्योग, व्यापार, श्रम, रोजगार, युद्ध एवं सामाजिक गति-विधियों पर उसके प्रभाव को देखकर वस्तुस्थिति को समझा अवश्य जा सकता है। उसी से इस विश्वास की पुष्टि होती है कि सूर्य जड़ पदार्थों का पुञ्ज ही नहीं, प्राण और मनोमय जगत का स्वामी है।

जो लोग इन बातों की अनुभूति करेंगे, वे तेजी से गायत्री विद्या के अन्तराल में प्रविष्ट होंगे। साधना, ज्ञानार्जन और संयम में उनकी वृत्ति बढ़ेगी, ऐसे लोग ही आगे चलकर विश्व का मार्ग-दर्शन करेंगे।

सूर्य द्वारा ही स्थूल प्रभाव को तो वैज्ञानिकों ने अच्छी तरह अनुभव कर लिया है। प्रकाश सूर्य से ही मिलता है, गर्मी सूर्य से ही मिलती है, वर्षा सूर्य कराता है। भूमि और पानी को अलग-अलग तरह की गर्मी भी वही देता है। फलों में, वनस्पतियों में खनिज सूर्य से ही आते हैं, वही बाद में मनुष्य पाता है। लकड़ी, पत्थर का कोयला, जल प्रपात और पेट्रोल आदि सभी तत्त्व सूर्य ही देता है। यह सब वह अपनी बाहरी क्रिया-शक्ति और गर्मी से करता है। उसके तल का तापमान ११००० फारेनहाइट है। पृथ्वी की किसी वस्तु को इतनी गर्मी में सैकण्ड तक ही रखा जा सकता है। सूर्य के यह प्रभाव तो दृश्य हैं और इतने सामान्य हो गये हैं कि लोग अपने महत्त्व को भी नहीं समझते। सूर्य अपने भीतर एक और विलक्षण २९०००००० अंश फारेनहाइट की गर्मी रखता है। पृथ्वी की गर्मी तो उसके आगे बर्फ की तरह ठण्डी है, उस शक्ति से ही सूर्य बिम्ब पर सटी हुई कणिकाओं ( ग्रेनल्स) में हलचल करता है। यह ग्रेनल्स ६०० से १४०० किलोमीटर तक के गोले और समकोण आकार के होते हैं, इन ग्रेनल्स को वह बारी-बारी से चमकाता, बुझाता रहता है, उसी से उसके बिम्ब में झिल-मिलाहट जैसी होती है, देखने में वे तरंगें आकाश में ही शान्त हो जाती हैं, ऐसा जान पड़ता है, किन्तु उनसे पृथ्वी में विचित्र प्रकार की हलचलें होती हैं, यह लहर तन्तुक ( फिलामेंट ) साँप की तरह लहराते हुए चलते हैं और गगन मण्डल में विचित्र परिवर्तन करते हैं, उसके फलस्वरूप पृथ्वी पर प्राकृतिक हलचलें पैदा हो जाती हैं। इन हलचलों में यद्यपि कोई निश्चित समय-क्रम नहीं है पर अधिकांश ११ वर्षों में एक बार तीव्र हलचल होती है। ऐसे समय साधनाओं की सिद्धि के लिए बड़े उपयोगी होते हैं। मानसिक जप से उन शक्ति-कणों और स्पन्दनों को अपने भीतर स्थिर कर अपने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक लाभ तीव्रता से प्राप्त किए जाते हैं, इसलिए इन दिनों गायत्री उपासना के प्रसार का एक व्यापक अभियान चलाकर उससे आधिदैविक लाभ प्राप्त करने का अवसर सारे देश को देना आवश्यक है, इस पुण्य में सभी गायत्री उपासकों को भाग लेना चाहिए।

सन् १९६६ सूर्य के ग्यारह वर्षीय पट परिवर्तन का १९ वाँ चक्र था। उस वर्ष मई और जून के महीनों में रूस, चेकोस्लावाकिया, बुलगारिया, भारत, इटली, अमेरिका, अफगानिस्तान आदि में भीषण बाढ़ आई। बुलगारिया में १६ जून को ऐतिहासिक स्मरण वाले ओले गिरे। कूबान में १८ मई को भयंकर तूफान आया, जिसमें लाखों पेड़ उखड़ गये, फसलें बरबाद हुईं और मकानों की छतें तक उड़ गईं। इसी अवधि में भारतवर्ष में भीषण बाढ़ आई और हजारों लोग बेघर-बार हो गये।

हम ऊपर बता चुके हैं, अगले २० वर्ष व्यापक हलचलों के हैं पर उनमें से सन् १९८८ और १९९९ यह दो वर्ष भारी प्राकृतिक उथल-पुथल के होंगे। इन वर्षों में पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति बदल जाये तो कुछ आश्चर्य नहीं। यह दृश्य परिवर्तन सूर्य के द्वारा होता है। पर क्यों ? वैज्ञानिकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

गायत्री महाविद्या के अनुसार विश्व रचना के दो ही तत्त्व प्रधान हैं। एक काया या प्राण, दूसरा भूत या पदार्थ। भूत प्राण के बिना गतिशील नहीं होता। इसलिए प्रत्येक भौतिक गायत्री का जीवन तत्त्व उसका प्राण है। पंचभूतों से बना मनुष्य शरीर नितान्त प्राकृत है। यह गायत्री का शब्द भाग है और जिस तरह से उच्चारण करने के बाद गायत्री के अक्षर वायु में विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी उत्पन्न होकर विलीन होते रहते हैं। उसका दूसरा चरण प्राण है। यह प्राण सविता का ही अधिष्ठान है। उसका दृश्य भाग तो भौतिक है, पर अदृश्य भाग मनोमय है अर्थात् उसमें चेष्टाएँ हैं। अपने इसी रूप में सूर्य सर्वाधिक शक्तिशाली है, उसी बात को श्रुतियाँ कहती हैं—"प्राणः प्रजानां उदयत्येश सूर्यः" यह सूर्य ही अपने प्राणों के संयोग से प्रजा की उत्पत्ति करता है। ब्रह्म सूर्य सम ज्योतिः ( यजुर्वेद २३/२४) सूर्य का भौतिक प्रतीक स्थूल है पर उसमें चेतन ब्रह्म शक्ति भरी हुई है।

सूर्य को ऋषियों ने त्रयी विद्या कहा है, अर्थात् उसमें स्थूल तत्त्व (जिनसे शरीर बनते हैं), प्राण (जिनसे चेतना आती है) और मन ( जो चेष्टाएँ प्रदान करता है) तीनों तत्त्व विद्यमान हैं। हम दृश्य रूप से सूर्य के परिवर्तनों से प्रभावित होकर दुःखी होते हैं, किन्तु गायत्री मन्त्र के माध्यम से जब सूर्य के साथ हम अपने मनोमय जगत को जोड़ते हैं, तादात्म्य करते हैं तो हमें उसके आध्यात्मिक लाभ तीनों—स्वास्थ्य, तेजस्विता और मनस्विता के रूप में मिलते हैं। जिस दिन पृथ्वी के लोग इस विद्या को ठीक-ठीक जान लेंगे उस दिन सुख-शान्ति और समृद्धि का कोई अभाव नहीं रहेगा, पर युग परिवर्तन की इस सन्धि और संक्रान्ति अवस्था में उन लोगों को अधिक श्रेय-सम्मान मिलेगा, जो इस तत्त्वज्ञान के अवगाहन को सारे विश्व में फैलाने का प्रयत्न करेंगे।

सविता के ध्यान द्वारा शक्तियों का विकास

दृश्य प्रकृति का सृजेता सूर्य माना गया है। उसी प्रकार शरीर रूपी जगत का सृजेता भी सूर्य है जो नाभि में बैठा हुआ है। डाक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा लगभग महत्त्वहीन नाभि को भारतीय योगशास्त्र में भारी महत्त्व दिया गया है। बच्चा गर्भावस्था में नाभि के द्वारा ही माँ के शरीर से जुड़ा हुआ होता और उसके शरीर विकास के लिए उसे नाभि द्वारा ही सारी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। नाभि का विस्तार सारे शरीर में है। अन्तर्दृष्टि जागृत करने वाली प्रत्येक साधना का प्रारम्भ इसी को जागृत करने से होता है। कुण्डलिनी के साधक को भी प्राणायाम की यथेष्ट मात्रा एकत्र कर लेने के बाद सर्व प्रथम "लोम-विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम" का ही अभ्यास करना पड़ता है। पातञ्जलि कृत योगदर्शन में बताया गया है कि नाभिचक्रे काय व्यूह ज्ञानम्—नाभि चक्र में चित्त वृत्तियों को स्थिर करने से नाड़ी आदि शरीरस्थ स्थूल पदार्थों का ज्ञान होता है। पाश्चात्य देशों में अब लोग इसे सोलर प्लेक्सस के नाम से जानने भी लगे हैं किन्तु उनका ज्ञान अभी नहीं के बराबर है।

छान्दोग्योपनिषद् में कहा है—

स य एवमेतं द्रथरन्तरमग्नो प्रोते वेद ब्रह्म वर्चस्यन्नादो भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रज्ञया पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या न प्रत्यङ्गनि माचामेन्न निष्ठी वेत्तद व्रतम् |

जो इस रथन्तर (नाभि स्थित ) साम की अग्नि में उपासना करता है वह तेजस्वी, प्रदीप्त जठराग्नि वाला होता है, पूर्ण आयु पाता है। प्रजा और पशु से सम्पन्न प्रतिष्ठा वाला होता है, वह कीर्ति से भी महान होता है—अग्नि की ओर मुख करके न कुछ खाये और न थूके, यह व्रत है।

योगवशिष्ठ ने तो इसी अग्नि को, सूर्य को, जो नाभि में स्थित है, कुण्डलिनी शक्ति का द्वार माना है और लिखा है—

मांसं कुयंत्र जठरे स्थिते श्लिष्टमुखं मिथः।
ऊर्ध्वाधः समिलत्स्थूलहृदयम्भः स्थैरिय वैतसम्।।
तस्य कुण्डलिनी लक्ष्मीर्निलीनान्त निजास्पदे।
पद्यराग सम्रुदस्य कोशे मुक्तावली यथा ॥ —६/१/८१/६३-६४

हे राम—देह रूपी यन्त्र के उदर भाग में नाभि के पास परस्पर मिले हुए मुख वाली धौकनियों के समान माँस का पिण्ड इस तरह थरथराता हुआ (सूर्य भी कम्पनशील प्लाज्मा या अग्नि ही है) स्थित है जैसे ऊपर और नीचे बहने वाले दो जलों के बीच में सदा स्थिर रहने वाला वेल कुञ्ज। उसके भीतर कुण्डलिनी शक्ति इसी प्रकार स्थित है जैसे मूँगे की पिटारी में मोतियों की माला।

योग विद्या के यह कथ्य जितने तथ्यपूर्ण हैं उतने ही आश्चर्यजनक। पदार्थ को शक्ति में बदलने वाले इस शक्ति केन्द्र की भारतीय योगियों ने तब शोध की थी जब पश्चिम शक्ति की परिभाषा करना भी नहीं जानता था। यों यह शक्ति सामान्य अवस्था में शिथिल और उपेक्षित पड़ी रहती है। अमर्यादित आहार-विहार के कारण उसका भय भी होता रहता है, तथापि उस क्षय को रोक कर आश्चर्यजनक काम किए जा सकते हैं। किन्हीं व्यक्तियों में यह प्रमाण स्वयं व्यक्त होता है।

साधारण तौर पर मनुष्य का पेट फल, फूल, अन्न और रस पचाने की जितनी अग्निवाला माना जाता है, यदि लोहा, शीशा पचाने की बात आये तो भारी शक्ति वाली अणु भट्टी की आवश्यकता होगी। कोई व्यक्ति बिना किसी बाह्य रसायन अथवा यन्त्र की मदद से यदि इस्पात और पत्थर जैसा कठोर तथा सायनायड जैसा मारक विष खाकर पचा जाये तो यही प्रमाणित होगा कि उसके पेट में वस्तुतः कोई अग्नि कुण्ड होगा। पिछले दिनों ऐसे कई व्यक्तियों के उदाहरण सामने आये हैं जो आश्चर्य ही कहे जा सकते हैं। उनका विवरण-विस्तार से देने की यहाँ न गुञ्जायश है और न आवश्यकता।

कहा इतना भर जा रहा है कि मनुष्य के भीतर ऐसी संभावनाएँ विद्यमान हैं जो उसे आश्चर्यजनक क्षमताओं और शक्तियों का स्वामी बना सकती हैं। इन शक्तियों को विकसित करने में सूर्य साधना महत्त्वपूर्ण रूप से सहायक सिद्ध होती है | गायत्री साधना से दृश्य जगत के सूर्य का सम्बन्ध शरीर जगत के सूर्य से स्थापित कर उन सभी संभावनाओं को साकार किया जा सकता है।

गायत्री को पंचमुखी भी कहा जाता है। जैसा कि अन्यत्र बताया जा चुका है, सभी प्रतीकों को अलंकारिक रूप से चित्रित किया गया है और उनके पीछे विशिष्ट प्रेरणाएँ विद्यमान रहती हैं। पंचमुखी गायत्री के पाँच मुख, पाँच मस्तक मानवी सत्ता के कलेवर में विद्यमान पाँच कोष हैं। इन पाँचों कोषों में से प्रत्येक को एक रत्न भण्डागार कहना चाहिए जिनकी शक्ति क्रमशः बढ़ती जाती है। अधिकांश व्यक्ति प्रथम स्तर तक, अन्नमय कोष की, स्थूल शरीर की क्षमता का ही थोड़ा-सा सहारा लेकर भौतिक सुख साधन जुटाते रहते हैं। बहुजनों की मति इतनी ही होती है, पर जो प्रबुद्ध व्यक्ति शेष चार कोषों को भी सक्रिय, समर्थ और सुविकसित बना लेते हैं उनकी सामर्थ्य क्षमता देवोपम होती चली जाती है।

इन कोषों का परिष्कार सावित्री साधना से ही संभव होता है। पंचमुखी अलंकार का तात्पर्य सावित्री की शक्ति से पाँच कोषों के जागरण की संभावना व्यक्त करना ही है। सावित्री को श्वेत अग्नि की आभा वाली कहा गया है, अर्थात् शुभ प्रकाश उसका स्वरूप है। इसी आधार पर उसका ध्यान किया जाता है, सावित्री शक्ति सूर्य जैसे प्रकाश एवं ताप से परिपूर्ण है, उसका ध्यान करने में प्रकाश के मध्य में उपस्थित आकृति की ही भावना करनी पड़ती है। सविता की अधिष्ठात्री होने के कारण वह स्वयं भी प्रकाश पुञ्ज है। प्रकाश युक्त ही उसका ध्यान करना पड़ता है। साधक को वह अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती और उसे विशिष्ट ब्रह्म वर्चस्व, प्रचण्ड ओज एवं प्रखर तेजस्विता प्रदान करती है। इसलिए उसे शुभ अग्निवर्ण वाली कहा गया है।।

कमलनेत्रका तात्पर्य है—बड़ी आँखें। कमल सब पुष्पों में बड़ा एवं सबसे सौभाग्यमान माना गया है। नेत्र देखने का काम करते हैं, कमल नेत्र का अलंकार दूर दृष्टि एवं दिव्य-दृष्टि का संकेत करता है, सावित्री की उपासना साधक को यही विशेषताएँ प्रदान करती हैं। वह इसकी सम्भावना को देखता है, दूर की बात सोचता है, सुन्दर भविष्य का निर्माण करता है। जो बातें छोटी आँख वालों को, ओछे लोगों को सूझ नहीं पड़ती वे उस कमल नेत्र वाली सावित्री के भक्तों को सूझती हैं और वे उपलब्ध दिव्य-दृष्टि के माध्यम से अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का भी कल्याण करते हैं।

सावित्री की महिमा वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने उसे तीन पाद वाली, छः कुक्षि वाली, पाँच मस्तक वाली, शुभ वर्ण एवं कमलनेत्र वाली बताया है। वस्तुतः यह सभी विशेषण उस महाशक्ति में विद्यमान हैं। जो ठीक तरह अविच्छिन्न श्रद्धा और निर्धारित विधि-विधान के साथ उसकी उपासना में संलग्न होता है, उसे किसी भी क्षेत्र में असफल एवं अभावग्रस्त नहीं रहना पड़ता।

कहा जा चुका है कि सावित्री का देवता सविता है। इसलिए उसे अधिष्ठान देवता के साथ अविच्छिन्न रूप से सुसंबद्ध माना गया है। सावित्री उपासना में सविता का आधार लेना पड़ता है क्योंकि वह सविता की ही शक्ति है। शक्ति और शक्तिवान का समन्वय तो होना चाहिए। इसीलिए गायत्री को, सावित्री को, सूर्य प्रकाश के साथ सदा ही सम्मिलित किया जाता है।

गायत्री स्मरेद्धीमान् हृदि वा सूर्यमण्डले।
कल्पोक्त लक्षणेनैव ध्यात्वाऽभ्यर्च तयो जयेत।।

बुद्धिमान पुरुष को हृदय में और सूर्यमण्डल में गायत्री का स्मरण करना चाहिए और कल्पोक्र लक्षण से ही ध्यान तथा अभ्यर्चन करके उसके पश्चात् जप करना चाहिए।

आत्मा में अनन्त दिव्य तेज भरा पड़ा है, वह गायत्री का ही भर्ग है। वह तेजस्विता से ही है, जठराग्नि बनकर शरीर का भोजन पचाती, उष्णता प्रदान करती और गतिशील सक्रियता प्रदान करती है। वही मस्तिष्क में बुद्धि, हृदय में भावना, व्यक्तित्व में प्रतिभा और जीवन में महानता बनकर विद्यमान रहती है। इसी प्रकाश से आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर-दर्शन का लाभ होता है। आँखों की पुतलियों में जिस प्रकार छोटा-सा प्रकाश बिन्दु हमें संसार का सुन्दर दृश्य देख सकने का अवसर देता है, वैसे ही आत्मा में स्थित वह परम तेज हमें तत्त्वदर्शी बनाता है. अज्ञान से छुड़ाकर प्रकाश की ओर ले जाता है।

आत्मा का स्वरूप प्रकाशयुक्त माना गया है। ध्यान प्रयोजन में आत्मा को सदा ज्योति मानकर चला जाता है। आत्म-साक्षात्कार ज्योति-पुंज के रूप में ही होता है। आकृतियों वाले इष्टदेव तो हमारे कल्पना चित्र मात्र हैं जो ध्यान-धारणा में परिपक्वता लाने तक ही काम आते हैं। उससे ऊँची स्थिति में तो ब्रह्म ज्योति ही एक मात्र अवलम्बन रह जाती है। यही आध्यात्मिक यज्ञाग्नि है। इसी को आदित्य—दिव्य-आभा, अखण्ड ज्योति कहते हैं। यह आभा जिसे जितनी मात्रा में मिलती जाती है, वह परब्रह्म परमात्मा के साथ, सविता देवता के साथ एकाकार होता चला जाता है। संसार के समस्त जड़-चेतन में यही ज्योति प्रकाशमान है। इसी से देव शक्तियाँ और पंच-तत्त्व अपना कार्य कर सकने में समर्थ होते हैं। ग्रह-नक्षत्रों में यह प्रकाश जगमगा रहा है। हमारा कल्याण इस प्रकाश में ओत-प्रोत होने से ही होता है।

वेदों में जिस अग्नि का सहस्रों मन्त्रों में वर्णन एवं स्तवन किया गया है, वह चूल्हे में जलने वाली अग्नि नहीं वरन् व्यष्टि और समिष्टि को हर दिशा में प्रकाशित, प्रभावित करने वाली दिव्य तेजस्विनी दिव्य-ज्योति है। यही यज्ञाग्नि है। इसी का वैश्वानर रूप में—आदित्य और सविता रूप से पूजन अर्चन किया जाता है। अग्नि और सूर्य में भी वही दिव्य तेजस्विता विद्यमान है। इसलिए उसे उनमें उपस्थित होते हुए भी भिन्न माना गया है। श्रुति कहती है—

योऽग्नो तिष्ठन्नग्नेरग्तरो यमग्निर्न वेद यस्ताग्नि।
शरीरं योऽग्निमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याभ्यमृतः ॥

"जो अग्नि में रहकर अग्नि से भिन्न है, जिसको नहीं जानते, अग्नि जिसका शरीर है, जो अग्नि के भीतर रहकर अग्नि को नियन्त्रित करता है, वही तुम्हारा अन्तर्यामी है।"

सावित्री का देवता सविता वह नहीं है, जो सबेरे उगता और सायं को अस्त होता है। यह उसकी एक प्रतिमा मात्र है। सूर्य आवरण है और सविता उसकी आत्मा है। जो सर्वत्र प्रकाश, जीव जागृति, चेतना उत्पन्न करता है वह सविता है। यों दृश्य सूर्य में भी गुण हैं, पर आत्मा में इन विशेषताओं का प्रेरक एवं संस्थापक सविता परब्रह्म परमात्मा ही है। सावित्री उसी की अविच्छिन्न शक्ति है। इन दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक का कार्य दूसरे पर पूर्णतया निर्भर है। एक देवता है दूसरा देवी। एक प्राण दो शरीर की तरह दोनों को अविभाज्य ही समझना चाहिए।

सावित्री-गायत्री के माध्यम से ही सविता परब्रह्म तक हमारी पहुँच हो सकती है। माता के द्वारा ही पिता से सम्बन्ध और परिचय होता है। माता का माध्यम न हो तो पिता का परिचय, सम्बन्ध एवं अनुग्रह प्राप्त हो सकना किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार गायत्री महाशक्ति का सहारा लिए बिना परब्रह्म के सृष्टि साम्राज्य में आत्मा को खेलने, युवराज बनने और अनन्त ऐश्वर्य पर अधिकार करने का भी सौभाग्य नहीं मिल सकता।

उपनिषद् में इस तथ्य को और भी विस्तार पूर्वक विवेचना एवं उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया गया है। उल्लेख इस प्रकार मिलता है—

कस्सविता का सावित्री ?
अग्निरेव सविता पृथ्वी सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
वरुण एव सविताऽऽपस्सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
वायुरेव सविताऽऽकाशस्सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
यज्ञ एव सविता छन्दासि सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
स्तनयित्नुरेव सविता विद्युत्सावित्री |
कस्सविता का सावित्री ?
आदित्य एव सविता द्योस्सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
चन्द्र एव सविता नक्षत्राणि सावित्री।
कस्सविता का सावित्री ?
पुरुष एव सविता स्त्री सावित्री।
एवं ज्ञात्वा विद्वान कृतकृत्यो भवति, सावित्र्या एवं सलोकतां जुषतीत्युपनिषद्।

सविता और सावित्री कौन हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि अग्नि सविता है, पृथ्वी सावित्री है। वरुण सविता है और जल सावित्री है। वायु सविता है और आकाश सावित्री है। यज्ञ सविता है और ऋचा सावित्री है। मेघ सविता है और विद्युत सावित्री है। सूर्य सविता आकाश सावित्री है। चन्द्र सविता है और नक्षत्र सावित्री है। मन सविता है और वाणी सावित्री है। पुरुष सविता है और स्त्री सावित्री है। इस सर्व व्यापक तेजोमय सावित्री को जो विद्वान जानते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं। सावित्री से ही सालोक्य मोक्ष प्राप्त होता है।

प्रश्नोत्तर के रूप में सविता-सावित्री का रूप उपरोक्त मन्त्र में पूछा है और उसी में उदाहरण सहित समाधान भी किया गया। सविता और सावित्री के जोड़े को उदाहरण सहित अन्य युग्मों के सदृश बताकर जिज्ञासु की शंका का समाधान किया गया है।

जल दृश्य पदार्थ है वरुण उसकी अधिष्ठात्री शक्ति—आत्मा है। वायु का निवास आकाश में है। आकाश न हो तो वायु कहाँ रह सकेगी ? वायु न हो तो आकाश का उपयोग क्या रहेगा ? इसी प्रकार आदित्य की निर्भरता द्युलोक पर है।

मन्त्र बड़ा है, उसमें कितने ही युग्मों का उदाहरण देकर जिज्ञासु को यही तथ्य हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है कि जीवन का साध्य लक्ष्य ब्रह्म है और उसका साधन—गायत्री। यदि किसी को ब्रह्म को वस्तुतः प्राप्त करना हो, ब्राह्मी स्थिति, ब्रह्म परायणता, ब्रह्म निर्वाण एवं ब्राह्मणत्व उपलब्ध करने की आकांक्षा करता हो तो उसे ब्रह्म-तेज की—ब्रह्म वर्चस्व की, अधिष्ठात्री देवी, सावित्री गायत्री का अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए।

ज्योति अवतरण की साधना

ब्रह्मवर्चस को, ब्रह्म तेज को प्राप्त करने के लिए उच्चस्तरीय अनेकों साधनाएँ हैं। उनके विधि-विधान और माहात्म्य अलग हैं, इस छोटी-सी पुस्तक में उन सबका उल्लेख किया भी नहीं जा सकता, पर सविता की, सावित्री की, गायत्री की, प्राण शक्ति का कर्षण करने और अपने में उसका विकास करने के लिए ज्योति अवतरण की तेज पुंज साधना भी उच्चस्तरीय और ध्यान-धारणाओं में से एक है। एक प्रकार से यह अपने आप में पूर्ण भी है और गायत्री साधना की सिद्धि के लिए इसका अवलंबन लिया जा सकता है।

प्रारंभिक स्तर की साधना वह कहलाती है जिसमें माँ की छवि के साथ-साथ पूजा-उपकरणों की आवश्यकता होती है। भावनाओं के विकास और अपनी श्रद्धा-निष्ठा को प्रगाढ़ बनाने की दृष्टि से उसका अपना विशिष्ट महत्व है। किन्तु साधना की सिद्धि के लिए उच्चस्तरीय ध्यान धारणा ही काम में आती है। इष्ट के चित्र और प्रतिमा के साथ की गई उपासना से पूर्वाभास, सुखद स्वप्नों से भविष्य ज्ञान, माता के दर्शन, अन्तःकरण से दिव्य भावनाओं की स्फुरणा इस साधना की सफलता के संकेत होते हैं, किन्तु आत्म साक्षात्कार की भूमिका वह होती है जिसमें सालोक्य, सारूप्य तथा सायुज्य की अनुभूति होती है। यह स्थिति भगवती गायत्री के तेज पुञ्ज में अपने आपको घुलाने, मेल-मिलाप कराने के अभ्यास से प्रारम्भ होती है और उस तेज पुञ्ज में समाधिस्थ हो जाने की प्रगाढ़ अवस्था में उसकी परिणति। उस स्तर का साधक अपने आपको सविता के तेजपुंज की स्थिति में अनुभव करता और विराट आत्मा की अनुभूति करता है। इस दृष्टि से तेजपुंज ज्योति अवतरण की साधना का अभ्यास आवश्यक हो जाता है।

इसके लिए चित्र आदि की आवश्यकता नहीं। रात्रि को यदि कभी आँख खुल जाय तो बिस्तर पर पड़े-पड़े भी किया जा सकता है। बैठकर करनी हो तो दीवार, मसन्द का सहारा लिया जा सकता है। आराम कुर्सी भी काम में लाई जा सकती है। शरीर को शिथिल, मन को एकाग्र करके सुविधा के समय इस साधना को करना चाहिए। समय कितना लगाना है यह अपनी सुविधा एवं परिस्थिति पर निर्भर है, पर जितना भी समय लगाना हो उसे तीन भागों में विभक्त कर लेना चाहिए। एक तिहाई में स्थूल शरीर, एक तिहाई में सूक्ष्म शरीर और एक तिहाई में कारण शरीर में ज्योति का अवतरण करना चाहिए। अनुमान से या घड़ी की सहायता से यह समय निर्धारित करना चाहिए।

सूक्ष्म जगत में ईश्वरीय दिव्य प्रकाश की प्रेरणापूर्ण किरणें निरन्तर बहती रहती हैं। उन्हें श्रद्धा, एकाग्रता और भावनापूर्वक ध्यान करके इस लेख में वर्णित विधि से कोई भी साधक ग्रहण कर सकता है। पर अपने परिवार के लिए, इस साधना में संलग्न साधकों के लिए दो-दो घण्टे के दो ऐसे समय भी नियत हैं जिनमें किन्हीं महान दिव्य शक्तियों द्वारा अपना शक्ति प्रवाह भी जोड़ दिया जाता है और उस समय ध्यान करने में विशेष आनन्द आता है और विशेष प्रभाव पड़ता है। यह समय रात्रि को ८ बजे और प्रातः ३ से ५ बजे का है। इन दोनों अवसरों में से जब सुविधा हो तब वह अपनी सुविधा के अनुरूप समय निर्धारित कर सकते हैं।

आरम्भ में यह समय एक बार में आधा घण्टे से अधिक नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे समय बढ़ाकर एक घण्टे तक का किया जा सकता है। रात्रि के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में दोनों बार भी यह साधना की जा सकती है। तब दो बार में कुल मिलाकर एक घण्टे से लेकर दो घण्टे तक का यह समय हो सकता है। २४ घण्टे में २ घण्टे इसके लिए अधिकतम समय हो सकता है। अधिक तेज के ग्रहण करने में कठिनाई पड़ती है, इसलिए ग्रहण उतना ही करना चाहिए जितना पचाया जा सके। कौन किस समय इस साधना को करे, कितनी देर, किस प्रकार बैठकर करे यह निर्धारण करना साधक का काम है। अपनी परिस्थितियों के अनुसार उसे अपनी व्यवस्था स्वयं ही करनी चाहिए, पर जो क्रम या समय निर्धारित किया जाये, उसे उसी क्रम से चलाना चाहिए। समय और स्थिति का एक ही क्रम चलाना किसी भी साधना की सफलता के लिए उचित एवं आवश्यक है।

ज्योति अवतरण साधना इस प्रकार करनी चाहिए—

(१) शरीर को बिल्कुल शिथिल कर देना चाहिए, भावना करनी चाहिए कि अपना मन, शरीर और आत्मा पूर्ण शान्त, निश्चिन्त एवं प्रसन्न स्थिति में अवस्थित है। यह भावना पाँच मिनट करने से चित्त में ध्यान के उपयुक्त शान्ति उत्पन्न होने लगती है।

(२) ध्यान कीजिए चारों ओर प्रकाश पुञ्ज फैला हुआ है। आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सर्वत्र प्रकाश फैल रहा है। भगवती आदिशक्ति और आभा सूर्य मण्डल से निकलकर सीधी आप तक चली आ रही है और आप उस प्रकाश के घेरे में चारों ओर से घिरे हुए हैं।

(३) यह प्रकाश किरणें धीरे-धीरे आपके शरीर में, त्वचा छिद्रों में प्रवेश करती हुई प्रत्येक अवयव में घुस रही हैं। हृदय, फेफड़े, आमाशय, मस्तिष्क, हाथ, पैर और अंग उस प्रकाश-पुञ्ज को अपने भीतर धारण करके परिपुष्ट हो रहे हैं। जिह्वा, गुह्येन्द्रिय, नेत्र, कान, नाक आदि इन्द्रिय इस प्रकार से आलोकित होकर पवित्र बन रही हैं, उनकी असंयम वृत्ति जल रही है। पवित्रता की यह ज्योति शरीर के कण-कण को पवित्र बनाने में संलग्न है।

स्थूल शरीर में रक्त-मांस, अस्थि आदि के बने हुए अवयवों के प्रकाश पुञ्ज बनने और उनके परिपुष्ट, पवित्र, स्फूर्तिवान एवं ज्योतिर्मय स्वरूप का ध्यान करने के उपरान्त सूक्ष्म शरीर पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। सूक्ष्म शरीर का स्थान मस्तिष्क है।

(४) ध्यान करना चाहिए कि मस्तिष्क के भीतर मक्खन जैसे बिखरे हुए कणों में अगणित प्रकार की मानसिक शक्तियों एवं विचारणाओं के केन्द्र छिपे हुए हैं, उन तक आदिशक्ति माता के प्रकाश की धाराएँ बह रही हैं और वे सभी कण उसके द्वारा रत्नकणों की तरह ज्योतिर्मय होकर जगमगाने लगे हैं।

(५) मन में छिपे हुए अज्ञानान्धकार का असंयम, स्वार्थ, मोह, भय और भ्रम जंजाल का इस प्रकाश के प्रवेश होने से विनाश हो चला और मानसिक संस्थान का कण-कण विवेक, उच्च विचार, सन्तुलन एवं सुरुचि जैसी विभूतियों से जगमगाने लगा। गायत्री माता की इस ज्योति द्वारा अपनी मनोभूमि को महापुरुषों जैसे स्तर की बनाया जा रहा है और हम उस प्रकाश को बड़ी श्रद्धापूर्वक अधिकाधिक मात्रा में मस्तिष्कीय कणों में ग्रहण एवं धारण करते चले जा रहे हैं।

(६) ध्यान करना चाहिए कि आकाश में अनन्त प्रकाश की आभा अवतरित होकर अपने हृदय में अवस्थित आत्मा के अंगुष्ठ मात्र प्रकाश पुञ्ज में प्रवेश कर रही है। उसकी सोमबद्धता, संकीर्णता और तुच्छता दूर कर अपने सदृश बना रही हैं। लघु और महान का यह मिलन-अणु ज्योति का यह आलिंगन परस्पर महान आदान-प्रदान के रूप में परिणत हो रहा है।

(७) जीवात्मा का लघु प्रकाश परमात्मा के परम प्रकाश से लिपट रहा है और दीपक पर जलने वाले पतंगे की तरह, यज्ञकण्ड में पड़ने वाली आहुति की तरह अपने अस्तित्व को होम रहा है। चकोर की तरह उस प्रकाश पुञ्ज को चन्द्रमा मानकर आल्हादित हो रहा है और अनन्त आनन्द का अनुभव कर रहा है।

(८) इस मिलन के फलस्वरूप अन्तःकरण में सद्भावनाओं की हिलोरें उठ रही हैं, आकांक्षाएँ, आदर्श एवं उत्कृष्टता से परिपूर्ण हो चली हैं। ईश्वरीय सन्देशों और आदर्शों पर चलने की निष्ठा परिपक्व हो रही है। विश्व के कण-कण में परमब्रह्म को ओत-प्रोत देखकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना प्रबल हो रही है और सेवा-धर्म अपनाकर ईश्वर-भक्ति के मधुर रसास्वादन की उमंग उठ रही है। आत्मा की महिमा के अनुरूप अपनी विचारणा और कार्य पद्धति रखने का निश्चय प्रबल हो रहा है।

(९) अनन्त प्रकाश के आनन्दमय समुद्र में स्नान करते हुए आत्मा अपने आपको धन्य एवं कृत-कृत्य हुआ अनुभव कर रहा है।

इस संसार में जीवन को सफल बनाने की सबसे बड़ी शक्ति अध्यात्म ही है। उसी के द्वारा मनुष्य अपने को पहचान सकता है और समस्त प्राणियों को एक ही महाशक्ति का अंग समझकर उसके साथ अपनत्व का अनुभव कर सकता है। इस तरह की भावना हमारी शक्ति को अनेक गुना बढ़ा सकती है। 'ज्योति-अवतरण' की साधना से मनुष्य इस सर्वव्यापी आत्मतत्त्व की वास्तविकता को बहुत कुछ अनुभव कर सकता है। यह अनुभूति जितनी प्रगाढ़ होगी आत्मानुभूति, आत्म-साक्षात्कार और अपनी आत्मामय होने की भावना उतनी ही सघन होती चली जायेगी।