मनुष्य शरीर की वास्तविक संपदाएँ

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।


ईश्वर का राजकुमार है मनुष्य

देवियो, भाइयो! मनुष्य ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार है। उसके जीवन में समस्याओं की कोई आवश्यकता नहीं है। उसको समस्याओं से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। भगवान ने अपने बेटे को-राजकुमार को इस बगीचे में, इस उद्यान में मेला देखने के लिए और कश्मीर की सैर करने के लिए भेजा है। समस्याओं में उलझे रहने के लिए नहीं, हैरान होने के लिए नहीं, दुःखी रहने के लिए, चिन्तित रहने के लिए नहीं, खीझते रहने के लिए नहीं भेजा है। भगवान ने अपने बेटे को आनन्द और उल्लास का रसास्वादन करने के लिए भेजा है। हम अपने बेटे को पैसे देकर काश्मीर भेजते हैं, मेले में भेजते हैं, सिनेमा देखने के लिए भेजते हैं। भगवान ने भी मनुष्य को, अपने सबसे बड़े बेटे को आनन्दमय जीवन जीने के लिए भेजा है। किन्तु मनुष्य है कि वह सड़न भरी कीचड़ से निकलना ही नहीं चाहता! इसकी वजह से ही उसके सामने असंख्य समस्याएँ आकर खड़ी हो जाती हैं।


मित्रो! इसका क्या मतलब है? हममें से और आप में से हर आदमी असंख्य समस्याओं से झुलसते हुए देखे जाते हैं। हमारे जीवन में कितनी समस्याएँ हैं। हमारा शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जा रहा है। इसमें अनेकों बीमारियाँ भरी पड़ी हैं। अब उस आदमी को तलाश करना पड़ेगा, जो कि बीमार न हो। आज तो हम उस आदमी को बीमार कह सकते हैं जो चारपाई पर पड़ा हुआ है और कराहता है। इससे कम वाले को हम बीमार नहीं मानते। कान्स्टीपेशन-कब्ज कोई बीमारी नहीं है। जुकाम तो आजकल का फैशन है। क्या बात है साहब? जरा तबियत ढीली है। बड़े आदमियों को तो जुकाम होना चाहिए। कान्स्टीपेशन न हो, तो बड़े आदमी नहीं हो सकते और अमेरिकावासी नहीं हो सकते। जिस देश में आदमी की औसत आमदनी चार हजार रुपये महीना है, उसके पचास फीसदी मनुष्य ट्रेन्क्युलाइजर की गोली खाये बिना सो नहीं सकते। उनकी नींद हराम हो गयी है। उनकी नींद जाने कौन ले गया है। टेन्शन की वजह से आदमी इतना हैरान है कि वह मौत और जिंदगी में से किसे पसंद करे, यह सोचकर, वह दिमागी तौर पर परेशान है।


मित्रो! अखण्ड ज्योति में मैंने एक लेख लिखा है। अमेरिका की कोई महिला थी, जिसने अपनी जिन्दगी में, सिनेमा में नर्तकी होने के नाम पर करोड़ों रुपये की सम्पत्ति कमाई थी। खूबसूरत इतनी ज्यादा थी कि अमेरिका में हर आदमी उसकी शक्ल देखने के लिए हजारों डालर खर्च करने के लिए तैयार रहता था। लेकिन इतना पैसा कमाने के बाद भी, इतना यश पाने के बाद भी, इतने लोगों को अपना गुलाम बनाने के बाद भी वह छोकरी इतनी हैरान रही कि ऐसी जिन्दगी हम कैसे व्यतीत कर सकते हैं? इस तरह की जिन्दगी हम नहीं जी सकते हैं। ऐसी जिन्दगी जीना अब हमारे लिए मुश्किल है। उसने नींद की गोलियों का पैकेट खोला। एक-दो, तीन, चार-पाँच, दस, बीस-पचास ............. गोलियाँ खा गई। गोली खाने के थोड़ी देर बाद डॉक्टर आया। क्या हो गया? गोली खा करके हैरानी से भरी हुई इस दुनियाँ से, दुख से, अशान्ति से भरी हुई दुनिया से, क्लेश से भरी हुई दुनिया से वह चली गयी। इस क्लेश से भरी हुई दुनिया में से उसने चाहा कि इसमें हमको नहीं रहना चाहिए और वह यहाँ से—धरती से उठकर चली गयी।


मित्रो! क्या वास्तव में यह दुनिया ऐसी है जैसे कि उस लड़की का ख्याल था? मैं समझता हूँ कि यह दुनियाँ ऐसी बेकार नहीं बनायी गयी है। यदि ऐसी बेकार दुनिया बनी होती है, तो हम में से और आप में से कोई भी जीवात्मा इसमें रहने के लिए रजामंद न होती। तब हमने भगवान से कहा होता कि हम आपके इस मुल्क में और आपके इस बगीचे में जाने को तैयार नहीं हैं, जहाँ आदमी, द्वेष, रोष, खीझ से भरा हुआ हो। ऐसी जगह हमें नहीं जाना चाहिए। तब हम अपने भगवान के पास खेल रहे होते और इस दुनिया में न आते, यदि ऐसी चीज दुनिया रही होती तब। आखिर बात क्या है? गहराई में विचार करना पड़ेगा। चूँकि समस्या गहरी है, इसलिए हम इसको इतनी हलकी तबियत से हल नहीं कर सकते हैं और ऐसे समाधान हमारी आवश्यकताओं और हमारी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। हमारी गुत्थियों को सुलझा नहीं सकते।


क्या है सारी समस्याओं का कारण?


मित्रो! हमको क्या करना पड़ेगा? गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा। हमको यह तलाश करना पड़ेगा कि आखिर विभिन्न समस्याओं की वजह से इन्सान इतना दुःखी क्यों पाया जाता है? एक बार तो भर्तृहरि जी लोगों से पूछने लगे कि—‘अरे मूर्खों! अभागे लोगो! तुममें से कोई एक ऐसा आदमी है, जो यह कह सकता है कि तुम लोगों ने इस जिन्दगी में रत्ती भर सुख पाया है। तुममें से कोई ऐसा आदमी है जिसने सुख पाया है? शान्ति पायी हो? नहीं, सब अशान्ति से जलते हुए चले गये। मित्रो! हमारे जीवन के जितने भी क्षेत्र हैं, वे एक से बढ़कर एक कलह से भरे हुए हैं। शरीर, जिसको हमने अपने आपको शरीर माना और इस शरीर की सुख-सुविधाओं के लिए हमारे पास जो कुछ भी था-हमारे पास बुद्धि थी, अक्ल थी, साथ ही जीवन जिन चीजों से मिलकर बनाया गया है, वो सारी चीजें हमने शरीर के सुपुर्द कर दीं।


हमारी तीन सम्पत्तियाँ


मित्रो! क्या-क्या सम्पत्ति है हमारे पास? हमारी सम्पत्ति है-श्रम। श्रम को हमने किसके लिए खर्च किया है? बेटे, सारे का सारा श्रम इस शरीर के लिए खर्च कर दिया। समय हमारे पास था। हमारी एक-एक साँस हीरे से बनी हुई है, मोतियों से बनी हुई है, जवाहरातों से बनी हुई है। आदमी की एक साँस कितनी कीमती है? बेहद कीमती है। इसकी कीमत का आप अन्दाजा नहीं लगा सकते। इसकी कीमत का अन्दाज आप उस समय लगा सकते हैं जबकि आपकी आखिरी साँस निकल रही हो । जब आप जिन्दगी को प्यार करते हुए चाहते हों कि अभी हमें एक दिन और जीने के लिए मिल जाये। इसके लिए हम हजारों रुपये दे सकते हैं। बेटे, हजार रुपये में एक साँस नहीं आ सकती। एक साँस की कीमत लाखों-करोड़ों रुपये हो सकती है और वह आपने गँवा दी है। अब हम कैसे दे सकते हैं। हमारी सारी की सारी साँस शरीर के लिए चली गयी।


मित्रो! हमारी अक्ल इतनी बड़ी है कि मैं नहीं समझता कि मनुष्य से श्रेष्ठ इस दुनिया में कोई चीज हो सकती हैं? आदमी की अक्ल कमाल की है। इसने जमीन को स्वर्ग बनाकर रख दिया। जब आदमी पैदा नहीं हुआ था, तो यह जमीन ऊबड़-खाबड़ पड़ी थी। इसमें गड्ढे पड़े थे। जैसे कि चाँद पर जाने वाले राकेटों ने जो रिपोर्ट लाकर दी है कि उसमें गड्ढे भरे पड़े हैं, टीले भरे पड़े हैं। जिस जमीन पर हम और आप निवास करते हैं, वह भी आज से लाखों वर्ष पूर्व चाँद की जमीन जैसी थी। यहाँ भी गड्ढे थे, कहीं दरार पड़ी हुई थी, कहीं ऊबड़-खाबड़ पड़ा था, कहीं झाड़ियाँ पड़ी थी। कहीं नाले थे, कहीं नदियाँ थी। सारी जमीन बेकार पड़ी थी। लेकिन आदमी की अक्ल ने सारी की सारी दुनिया को बगीचा बना दिया, उद्यान बना दिया, काश्मीर बना दिया, नैनीताल बना दिया, दार्जलिंग बना दिया, स्विट्जरलैंड बनाकर रख दिया। यह आदमी की अक्ल का कमाल है।


मित्रो! इस अक्ल ने ताजमहल बनाकर रख दिया है। इसने चाइना की दीवार बना कर रख दी। इसने साइंस बना करके रख दिया, फिजिक्स बना करके रख दिया। इसने ज्ञान-विज्ञान और न जाने क्या-क्या बना करके रख दिया है। अक्ल का यह गजब का कमाल है। इस अक्ल को हमने कहाँ खर्च कर दी? हमारी सारी की सारी अक्ल किसी एक सीमा में खर्च हो गयी। आप हिसाब लगाकर देख लीजिए। हमारी सारी अक्ल शरीर के लिए खर्च हुई।


कहाँ गया हमारा तेजस्


मित्रो! हमारे पास और क्या-क्या था? हमारे पास क्रिया-कौशल था। हमारे पास प्रभाव डालने की शक्ति थी। हमारे पास मैग्नेट था, जिसे ओज कहते हैं, मनस्विता कहते हैं, तेजस् कहते हैं। मनस्वी आदमी, ओजस्वी आदमी, तेजस्वी आदमी, प्रभावशाली आदमी, प्रतिभावान आदमी, दबंग आदमी दुनिया के लोगों पर अपने प्रभाव के बल पर हावी हो जाते हैं और जमाने पर हावी हो जाते हैं। प्रभाव डालने की हमारी यह शक्ति कहाँ खर्च हुई? हमारी सारी की सारी यह शक्ति शरीर के लिए खर्च हुई। इतना सब करने के पश्चात् भी हम देखते हैं कि हमारा शरीर हमारी कोई मदद नहीं कर रहा और हमको दुःखों में डुबो रहा है। हर जगह से इसके कल-पुर्जे टूटे हुए पड़े हैं। हर कल-पुर्जे से हमको शिकायत है। घुटनों से हमको शिकायत है कि भाई साहब! आप हमें चलने नहीं देते। पेट से हमको शिकायत है। देखिए हम आपको मिठाई खिलाते हैं, पकौड़े खिलाते हैं और जलेबी खिलाते हैं और आप हमको कष्ट देते हैं। हमने आपका क्या बिगाड़ा है। नहीं साहब! हम तो आपको बहुत कष्ट देंगे। कमर भी कष्ट देती है। अरे भाई साहब हम आपको चारपाई पर सुलाते हैं, फिर आप क्यों कष्ट देते हैं? नहीं साहब! हम तो दर्द करेंगे। सिर पर रोज चमेली का तेल डालते हैं, फिर भी भाई साहब। आप दर्द करते हैं। हाँ! अभी तो हम और दर्द करेंगे और आपकी अक्ल को ठिकाने लगायेंगे।


मित्रो! हमारी जिन्दगी के बेशकीमती वक्त, बेशकीमती नियामत शरीर के कल-पुर्जों में खर्च हो गये, फिर भी ये इस बात पर आमादा हो गये हैं कि हम आपकी नस-नस में पिटाई करेंगे और हम आपको इतना कष्ट देंगे, जितना किसी को दिया जा सकता है। यह है हमारा शरीर। आखिर इसकी वजह क्या है? इसकी गहराई में जाना पड़ेगा। जिस शरीर को भगवान ने जिन्दगी जीने के लिए हमारे लिए सबसे बड़ा हवाई जहाज के रूप में बनाकर दिया था, पुष्पक विमान बनाकर दिया था, आपने उसकी कीमत को समझा नहीं। मैंने सुना है कि रामचन्द्र जी ने पुष्पक विमान से सफर किया था। अगर आपसे यह पूछा गया होता कि आप पुष्पक विमान लेना पसंद करेंगे, या मनुष्य का शरीर? तब आप क्या कहते, मनुष्य के शरीर की कीमत आप समझते नहीं हैं, इसलिए आपसे मैं क्या कह सकता हूँ।


मानवीय शरीर की महत्ता


मित्रो! इसके कल-पुर्जों की कीमत इतनी बड़ी है कि अगर इन्हें लैबोरेटरी में रखा जा सके और इसको नीलाम किया जा सके, तो इनसान का शरीर कितना कीमती है? इसके कल-पुर्जे कितने नियामत भरे है? इसकी महत्ता का पता आपको लग जायेगा। लेकिन इसकी कीमत ज्ञान न होने के कारण यह कैसे हो गया कि यह बीमार पड़ा हुआ तंग करता रहता हैं। वजह क्या है? इसे जानने के लिए जरा गहराई में जाना चाहिए। हम इतनी मेहनत करें और फिर यह हमको तंग करे। आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है? देखने पर तो लगता है कि शायद बीमारियाँ बाहर से आती हैं और हमको तंग करती हैं। जैसे कि एक दिन हकीम जी बता रहे थे कि साहब! आप समझते नहीं हैं कि बीमारियाँ क्यों आती है? तो आप ही बता दीजिए कि हम बीमार क्यों पड़ते हैं? वात, पित्त और कफ़ की वजह से। इन्हें विकारग्रस्त होने से बचा लीजिए, नहीं तो करेंगे और मारेंगे।


मित्रो! जब हम पैथोलॉजी की रिपोर्ट लेकर डॉक्टर के पास जाते हैं और कहते हैं कि साहब! क्या मामला है कि हम बार-बार मरीज क्यों हो जाते हैं, आप बताइये? डॉक्टर कहता है कि आपके भीतर वायरस काम करते हैं, जर्म्स कार्य करते हैं। साहब! वे कितने बड़े होते हैं? घोड़े के बराबर, हाथी के बराबर? नहीं वे बहुत छोटे होते है। ये छोटे-छोटे जर्म्स हमको इतना हैरान कर सकते हैं कि टी.बी. पैदा कर सकते हैं। और बहुत कुछ कर सकते हैं। बेटे! हमें एक डॉक्टर के बारे में ख्याल आया, जिसका नाम हम भूल गये हैं। वह फ्रांसीसी डॉक्टर था। कॉलरा के जर्म्स की पाँच सी.सी. की ट्यूब लेकर आया और डॉक्टरों की सभा में कहा कि देखिये, आप इसका टेस्ट कीजिए कि इससे कितने आदमी मारे जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसमें एक लाख आदमियों के मारे जाने लायक जहर है और ये मारे जा सकते हैं।


फ्राँसीसी डॉक्टर ने कहा कि आप लोगों के सामने एक बार फिर टेस्ट कर लीजिए कि यह कॉलरा के ही जर्म्स हैं कि नहीं हैं। अब मैं इसको पी करके दिखाता हूँ कि पीने के बाद मैं जिन्दा रह सकता हूँ कि नहीं। उसने जर्म्स भरी ट्यूब में से पाँच सी.सी. निकाल लिया और पी लिया। बाद में देखा कि इससे मरता हूँ कि नहीं मरता। वह नहीं मरा। मित्रो! क्या वजह है? यह है कि हमारे शरीर का यह किला और दुर्ग इतना मजबूत बनाकर भेजा गया है कि जन्म से ही इसमें कोई गोलीबारी काम नहीं कर सकती। अगर साँप हमको काट खाये, तो साँप मर सकता है, हम नहीं मर सकते, अगर हमारा खून साफ हो तब। आखिर क्या वजह है? चलिए हम गवाही देते हैं। इस सृष्टि के सारे के सारे प्राणियों के अलावा दुनियाँ में सबसे बेवकूफ एक ही जानवर हैं और उसका नाम है-इनसान। इसकी गवाही को हम नापसन्द करते हैं और कहते हैं कि यह जितनी बात कहेगा, गलत कहेगा। क्योंकि इसकी अक्ल खराब हो गयी है, इसलिए गलतबयानी के और कुछ नहीं कर सकता।


मित्रो! इनसान की गवाही हम नहीं देंगे। एक और प्राणी की गवाही हम नहीं देंगे। कौन से? जो इनसान के गुलाम हो गये। मसलन जानवर। जिन जानवरों को इनसान ने जबरदस्ती पकड़ लिया है और वे पीढ़ियों से उनकी कैद में हैं। जैसे-गाय, बैल, बकरी और घोड़ा आदि। वे मनुष्य के गुलाम हैं। इनकी गवाही हम नहीं दे सकते, क्योंकि वे तो उनके गुलाम हैं। उनकी मर्जी से रहते हैं। इनका आहार-विहार उन्हीं की मर्जी से है, उन्हीं के वजह से हैं। इन दोनों को छोड़ने के बाद में आप सृष्टि के हर प्राणी के पास चलिए, हम गवाहियाँ देंगे। आप कबूतरों के पास चलिए, जंगली मुर्गों के पास चलिए, हिरण के पास चलिए, खरगोश के पास चलिए, मोर के पास चलिए। दुनिया में जितने भी जानवर रहते हैं, उनमें से हरेक की गवाही हम देंगे।


बीमारी का असली कारण


मित्रो! इनमें से हर जानवर यही कहेगा कि जिस दिन से हम पैदा हुए थे और जब तक मरेंगे, मरना तो पड़ेगा ही। हर जानवर को मरना पड़ता है और मरना चाहिए, लेकिन इस मरने से पहले बीच की अवधि में कोई भी जानवर बीमार नहीं पड़ता। बीमारी क्यों होती हैं और इसका क्या कारण होना चाहिए? बीमारियाँ हमारे पास क्यों आती हैं और कहाँ से आती हैं? जर्म्स से आती हैं। नहीं बेटे, जर्म्स से नहीं आती। अगर जर्म्स से बीमारियाँ आई होतीं, तो वार्ड ब्वाय टी.बी. के मरीजों के, कैंसर के मरीजों की तीमारदारी करते हैं, सफाई कर्मचारी मरीजों के टट्टी-पेशाब की सफाई करते रहते हैं, नाले की सफाई करते रहते हैं, जिसमें कि टी.बी. वाला भी पेशाब कर सकता हैं और दूसरे भी कर सकते हैं। उसने सारे दिन नाली साफ की। कपड़े साफ किये। क्यों भाई साहब! आपको जर्म्स लग जायेंगे और उनके प्रभाव से आप मर भी सकते हैं? नहीं बेटे, यह तो वहम् है।


मित्रो! हम अपना इल्जाम दूसरों पर लगाना चाहें तो कोई रोक नहीं सकता। आप यह इल्जाम लगा सकते हैं, लेकिन असलियत यह है कि बीमारियों का कारण दुनिया में सिर्फ एक ही है और वह है—असंयम अर्थात संयम का अभाव। असंयम की वजह से हम आज खोखले होते जा रहे हैं। असंयम ही है जिसकी वजह से हमारी जबान पेट के ऊपर बमबारी करती हुई उसको तहस-नहस करती हुई चली जाती है। हमारी विकृत जीभ स्वाद के नाम पर, जायके के नाम पर जरूरत से ज्यादा चीजें माँगती रहती हैं और हम जरूरत से ज्यादा बेकार की चीजों को खाते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि हमारे पेट के रस और पेट की दीवारें कमजोर होती चली जाती हैं और कान्स्टीपेशन शुरू हो जाता है। इसकी वजह से खाना हजम नहीं होता और पेट में सड़न आरंभ हो जाती हैं। सड़न में जहर होता है और वही हवा एवं खून के साथ शामिल होने के बाद हमारे जर्रे-जर्रे में समा जाता है और तरह-तरह की बीमारियाँ ला करके खड़ा कर देता है।


मित्रो! यह बीमारियाँ कहाँ से शुरू हुईं, आप बता सकते हैं? हाँ साहब! पेट में से पैदा होती हैं। अगर पेट को फाड़ डाले या ठीक कर दें तो? नहीं बेटे! यदि फाड़ना ही है तो आपको अपनी जीभ को फाड़नी चाहिए। अच्छा साहब! यदि जीभ को काट डाले तो फिर मेरी बीमारियाँ बंद हो जायेंगी? नहीं बेटे, जीभ को नहीं फाड़ना पड़ेगा, वरन् और गहराई में चलना पड़ेगा। कहाँ? असंयम पर, जहाँ से रोग पैदा होता है। वहाँ चाकू चलाना पड़ेगा। असंयम जहाँ से चटोरापन हावी होता है, उस पर कुल्हाड़ा चलाना पड़ेगा, हथौड़ा बजाना पड़ेगा। बीमारियों को मारने के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन, टेरामाइसिन जैसी और दूसरी चीजें हैं जो बीमारियों को मारने के लिए बनाई गयी हैं, मसलन-पेनिसिलीन आदि। लेकिन ये भी नाकाफी साबित होती चली जायेंगी। जब पेनिसिलीन आई थी, तब आपको ध्यान नहीं होगा, पर हमें ध्यान है कि उससे हाहाकार मच गया था कि इसके प्रभाव से अब कोई कीटाणु नहीं बचेगा। अब कोई वायरस नहीं बच सकेगा।


समस्त बीमारियों का मूल है — असंयम


मित्रो! पेनिसिलीन छः महीने हल्ला-गुल्ला मचाती रही और बाद में गायब हो गयी या उतनी ताकतवर नहीं रहीं। अब दूसरी चीजें आईं, तीसरी आई, चौथी आई, पाँचवीं आई और मैं समझता हूँ कि हजारों चीजें अभी और उतने वाली हैं। लाखों चीजें अभी और आने वाली हैं और हर चीज फेल होती हुई चली जा रही है। वस्तुतः बीमारियाँ जहाँ से पैदा होती हैं, वह हमारा असंयम है। क्या मतलब हैं? बेटे, असंयम का मतलब है—अनात्मतत्त्व। समस्त बीमारियों की जड़ यही है।


मित्रो! अध्यात्म उस चीज का नाम नहीं है जैसा कि आप समझते हैं। आप तो अध्यात्म की मिट्टी पलीत करने पर उतारू हो गये हैं। मैं समझता हूँ कि आपको अध्यात्म के दुश्मनों में गिना जाय, तो कोई हर्ज नहीं है। ईमानदारी की बात यही है कि हम और आप अध्यात्म के दुश्मनों में से हैं। जब लोग यह कहते हैं कि नास्तिकों और कम्युनिस्टों ने दुनिया से भगवान को भगा दिया और धर्म को बिगाड़ दिया, तो मैं कहता हूँ कि आपका कहना गलत है। अब हम अध्यात्म का उपचार करने के लिए खड़े हुए हैं। हमारा ऐसा ख्याल है कि हम सबसे पहले जिस मुल्क को कनविन्स कर सकते हैं, जिस वर्ग को ठीक ला सकते हैं और आस्तिक बना सकते हैं, वह कम्युनिस्ट है। सबसे पहले ईश्वर के भक्त होने वाले हैं, तो कम्युनिस्ट होने वाले हैं। क्यों? क्योंकि उनमें सच्चाई में गहरे घुसने की आदत और स्वभाव है।


मित्रो! जब उन्होंने ईमानदारी से समझा कि पैसे का समान वितरण न होने की वजह से दुनिया में गरीबी आती है, तब उन्होंने यह कदम उठाया। पंडित नेहरू जैसे अमीर आदमी ने भी माना था कि यह ठीक हो सकता है। मैं समझता हूँ कि कम्युनिस्ट आदमी ईमानदार होता है। इसलिए जब कभी भी हम उसकी समझ में यह बात भरेंगे कि अध्यात्म के सिद्धान्त मानवीय जीवन के लिए उपयोगी और आवश्यक हैं, उनकी समझ में आ जायेगा। अपना ऐसा विश्वास है कि जब हम सबसे पहले उस आदमी को कनविन्स करेंगे कि ईश्वर उपयोगी है, सही है, ठीक है और आपको मानना चाहिए, तो वो मानेंगे।

भगवान के सिद्धान्तों को न मानने वाले हैं—नास्तिक


मित्रो! असल में नास्तिक हम और आप हैं, हम भगवान के विधि और विधानों के बारे में इनकार करते हैं और एक नया सिद्धान्त यह मानकर चलते हैं कि अध्यात्म एक जादू है। अध्यात्म माने जादू-मैजिक और मैजिक माने अध्यात्म। हमारी और आपकी यही परिभाषा है। वस्तुतः नास्तिकवाद को हमने और आपने फैलाया है। कैसे? अध्यात्म क्या हो सकता है? अध्यात्म एक जादूगरी का नाम है। जादूगरी किसे कहते हैं? मिट्टी हाथ में रखते हैं और जादू करते हैं और रुपया हाथ में आ जाता है। यह क्या हो गया? जादू हो गया। हम आपको एक और जादू बता सकते है। हाँ साहब! बताइये? अच्छा, देख! पच्चीस पैसे का एक हनुमान जी ला। पच्चीस पैसे की एक माला ला। और क्या लाऊँ? पाँच पैसे की हनुमान चालीसा और धूपबत्ती ला। धूपबत्ती जला, हनुमान चालीसा पढ़, माला घुमा। साहब! अब क्या होने वाला है? अब फायदा होने वाला है। पैसा, बेटा, घर, लक्ष्मी-सब फायदा होने वाले हैं। यह क्या हो गया? जादू हो गया।


मित्रो! यह एक खालिस जादू है। जादू किसे कहते हैं? जिसमें आदमी को मशक्कत नहीं करनी पड़ती, मेहनत नहीं करनी पड़ती, कीमत नहीं चुकानी पड़ती। इसमें सात्विकता का विकास नहीं करना पड़ता। थोड़ी-सी हेरा−फेरी करने से वह लाभ मिल जाता है। अगर यह बातें सही हैं, तो ऐसे अध्यात्म को मैं सिर्फ जादू कह सकता हूँ। यह जादू है। ऐसा अध्यात्म फिलॉसफी नहीं हो सकता। फिलॉसफी वह हो सकती है जो हमारे इसी जीवन में हमारी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सकें।


नकद धर्म है अध्यात्म


मित्रो! अध्यात्म नकद धर्म होना चाहिए और वह ऐसा होना चाहिए, जो हमारे इसी जीवन में हमारी हर समस्या का समाधान करने में समर्थ हों। जब हमारे जीवन में अध्यात्म आयेगा, तो एक नये दृष्टिकोण के तरीके से आयेगा। यह अध्यात्म ‘एप्लाइड’ होगा। अध्यात्म के सिद्धान्तों को-जिसको हम उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व कह सकते हैं, यह जिस भी क्षेत्र में प्रयुक्त होगा, जहाँ भी एप्लाई होगा, वहाँ उसके तरीके अलग-अलग हो जायेंगे।


मित्रो! अगर आप अध्यात्म होंगे और अपने शारीरिक क्षेत्र में उस अध्यात्म का प्रयोग करना चाहेंगे, तो उसके लिये आपको संयम के आधार पर प्रयोग करना पड़ेगा। संयम का प्रारंभ कहाँ से करना पड़ेगा? अपनी जबान के ऊपर काबू करना पड़ेगा। हथौड़ी से, कैंची से और प्लास से उस जीभ को मरोड़ देना पड़ेगा। जीभ बहुत शैतानी करती है। जो चीज हमारे खाने की नहीं है, वह हमको खिलाना चाहती है। सिगरेट हमारे किसी काम की नहीं है, फिर भी वह हमें पिलाना चाहती है। मिर्च, जिसको हम बच्चे के मुँह पर जरा-सी लगा देते हैं, तो वह सी-सी करता हुआ, मुँह से लार टपकता हुआ रोता फिरता हैं, तब घी लगाना पड़ता है। जो चीज हमारे लिए जहर के बराबर है, तेजाब के बराबर है, जीभ हमें वही खिलाना चाहती है। अच्छा, ठहर जा! हम तेरी अभी पिटाई करते हैं।


अध्यात्म का अर्थ है—शूरवीरता


मित्रो! इसको अध्यात्म में क्या कहते हैं? बहादुरी। अध्यात्म का नाम है—बहादुरी, शूरवीरता, जिसमें कि आदमी को लड़ाई लड़नी पड़ती है। किसके साथ? अपने आपके साथ लड़ना पड़ता है। जिस काम में पहले लड़ाई करनी पड़ती है, उस चीज का नाम अध्यात्मवाद है। अध्यात्मवाद बहादुरों का रास्ता है, शूरवीरों का रास्ता है, संघर्षशीलों का रास्ता है। यह कायरों का, चोरों का, जेबकटों का, उठाईगीरों का रास्ता नहीं है, जैसे कि हम और आप हैं, उठाईगीर हैं, जो हराम का वरदान, हराम का आशीर्वाद, हराम की सिद्धियाँ, हराम के चमत्कार पाना चाहते हैं। हमको और आपको जेबकटों की संज्ञा में रखा जा सके, तो कोई गलत बात नहीं है।


मित्रो! आप कहेंगे कि सच्चा अध्यात्मवाद क्या हो सकता है और इसका क्या फल मिल सकता है? बेटे, सच्चे अध्यात्मवाद का फल मिलना चाहिए और उसी कीमत पर मिलना चाहिए। जब हम अध्यात्मवादी होंगे, तो पहले पहल हमें अपनी दो इन्द्रियों से, अपने आप से लड़ाई लड़ने के लिए कमर बाँधकर खड़ा होना पड़ेगा। दुश्मनों के साथ, रावण और कुम्भकरण के साथ लड़ने के लिए जिस तरह से रामचन्द्र जी खड़े हो गये थे और दुःशासन और दुर्योधन के साथ लड़ने के लिए श्रीकृष्ण जी और अर्जुन खड़े हो गये थे। ठीक उसी तरह हमको दो इन्द्रियों से, अपने आपसे लड़ाई लड़ने के लिए कमर कसकर खड़ा होना होगा। इसके लिए हमें दो दुश्मनों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देनी चाहिए कि हमारा इनसे समझौता नहीं हो सकता और हम इनसे लड़ाई लड़ेंगे। इनसे हमारा कोई राजीनामा नहीं हो सकता। इनकी बात को हमको नहीं मानना चाहिए। इनको हम गिराकर रहेंगे। इनको हम मिटाकर रहेंगे।


असंयम के दो आधार—आहार और विहार


मित्रो! कौन-कौन सी चीजें हैं, जो असंयम के आधार पर हमारी जिह्वा पर हावी होती हैं? वे हैं—हमारे आहार और विहार। इसको हम कामेन्द्रिय और जिह्वा-इन्द्रिय की शैतानी कह सकते हैं। जिह्वा-इन्द्रिय की शैतानी को अगर आप ठीक कर सकते हो, तो आपको वहाँ चलना पड़ेगा। मैं आपको इस संबंध में एक गवाही पेश करना चाहूँगा-गाँधी जी का। उन दिनों गाँधी जी की उम्र 20 से 30 साल के बीच थीं और वे नेटाल—दक्षिण अफ्रीका में थे। यंग-इंडिया में उनके लेख छपते थे। एक लेख में उन्होंने लिए कि मैं कान्स्टीपेशन का इतना बड़ा मरीज था कि एनीमा लिये बिना मुझे एक भी दस्त नहीं हुआ। 25 से 30 साल की उम्र तक उन्होंने रोजाना एनीमा लिया। कोई कहता कि हकीम जी की दवा खाइये, कोई कहता कि ईसबवेल की भूसी खाइये, त्रिफला चूर्ण खाइये, दस्त साफ हो जायेगा।


गाँधी जी ने कहा कि पेट के ऊपर जुल्म करने से कोई फायदा नहीं। इस पेट को, जिसको हमने जुल्म करते-करते तहस-नहस कर दिया है, अब इसको हमको राहत देनी चाहिए। इसकी मदद करनी चाहिए। सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने ब्रेकफॉस्ट लेना बंद कर दिया। उस जमाने में इंग्लैण्ड में एक हवा चली थी-ब्रेकफॉस्ट की। उसकी हवा गाँधी जी के पास भी आई। उन्होंने कहा कि सेहत की तबाही करने वाली आदमी की बुरी एक आदत है—ब्रेकफॉस्ट।


गाँधी जी से सीखें संयम


अतः नाश्ता बंद करना चाहिए। हम जो भोजन करते हैं, वह रात से सबेरे तक पेट में पचा हुआ पड़ा रहता है। बहुत देर तक वह हजम नहीं हो पाता। इसलिए सबेरे पेट को मौका देना चाहिए कि वह उतने समय तक राहत पा ले। जागने के बाद हम सो जाते हैं। उस समय हमारा पाचन तंत्र कमजोर पड़ जाता हैं। पेट में से रस निकलना कम हो जाता हैं। इसलिए सबेरे जब हम सोकर उठते हैं टट्टी जाते हैं, तब भी पेट में कमी रह जाती है। अतः हमको इतना इतना टाइम मिलना चाहिए कि दोपहर को 12 बजे तक, 11 बजे तक, 10 बजे तक शाम को भोजन हजम हो जाय। इसके बाद हम भोजन करें।


इसलिए गाँधी जी ने कहा कि ठीक है अब सबेरे का नाश्ता बंद। सबेरे वाला नाश्ता उन्होंने बंद कर दिया। बाकी उनके सारे-प्रयोगों को मैं कहाँ से बताऊँगा। गुजराती में लिखी हुई उनकी पुस्तक जो कि हिन्दी में ‘‘आत्मकथा’’ नाम से छपी है, आप उसे कभी भी पढ़ सकते हैं और उसमें वह हिस्सा भी पढ़ सकते हैं जो खुराक के बारे में और सेहत ठीक करने के बार में उन्होंने अपने आपके साथ में इस्तेमाल किया। गाँधी जी का ख्याल था कि मेरे लिए पचास वर्ष की उमर पकड़ना मुश्किल है और मैं पचास साल तक जिन्दा नहीं रह सकता। 96 पौण्ड का आदमी, भरी जवानी में कान्स्टीपेशन का मरीज और कितनी तरह की बीमारियों का मरीज कैसे जिन्दा रह सकता था?


शरीर है देवताओं का मंदिर


मित्रो! उन्होंने जबान के विरुद्ध लोहा लेने की ठान लीं। उन्होंने कहा कि हम अपनी जीभ का कहना नहीं मानेंगे और उन्होंने जीभ से लड़ाई की घोषणा कर दी, वार डिक्लेयर कर दिया। आज से हमारी दुश्मनी शुरू हो गयी और हम उस बैरी से मुकाबला करेंगे। उससे हमारा कोई कम्प्रोमाइज नहीं हो सकता। जब से उन्होंने जीभ के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया, उनकी गई-गुजरी सेहत फिर से वापस आना शुरू हो गयी। अस्सी वर्ष की उम्र में वे यह कहते पाये गये कि अगर मुझे मौका मिला तो मैं एक सौ वर्ष जिऊँगा। क्यों? उन्होंने किसकी उपासना की थी? किसकी सिद्धि की थी? यह किसका चमत्कार था? बेटे! यह शरीर का चमत्कार है, जिसको हम देवताओं की भूमि कहते हैं, देवताओं का मंदिर कहते हैं। देवताओं के इस मंदिर की ठीक तरीके से पूजा करने में हम समर्थ हो सकें, उसकी उपासना हम सही ढंग से कर सकें, तो यह देवता हमको सेहत का वरदान दे सकता है और हमारी सेहत वापस लौटाई जा सकती है।


मित्रो! अगर हम अपनी सेहत की सही तरीके से रखवाली करना चाहें, तो हमको अपनी कामेन्द्रिय के ऊपर संयम करना चाहिए। कामेन्द्रियों के ऊपर अगर संयम कर सकते हैं, तो वह तत्त्व जो हमारे दिमाग में याददाश्त के रूप में काम करता है, वह जो हमारी काया में मैग्नेट के रूप में, ओजस्, तेजस् के रूप में काम करता है और हमारी नसों में, नर्वस सिस्टम में और हमारे ब्रेन में बिजली की तरह से कड़कता रहता है। वह जो हमारी आत्मा में से टार्च के तरीके से जलता रहता है। जो हमारी जबान में से बादलों की तरीके से गरजता रहता है और हमारे दिमाग में न जाने क्या-क्या बन करके चलता रहता है। जो हमारी रीढ़ की हड्डियों के मध्य में कुण्डलिनी शक्ति बनकर जो खड़ी रहती है। इन सारी की सारी शक्तियों का अगर हमको बचाव करना है, तो हमको अपना तेजस् गंदी नालियों में बहाने से बाज आना चाहिए।


सेहत हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है


मित्रो! आपको अपने आपके विरुद्ध लड़ाई कर देनी चाहिए कि हम आपका कहना नहीं मानेंगे। विभीषण के तरीके से, प्रहलाद की तरीके से आप लड़ने के लिए खड़े हो जाइये। भरत के तरीके से कैकेयी से लड़ने के लिए खड़े हो जाइये। इनकार करना सीखिए। अगर आप इनकार करना शुरू कर दें, तो मैं समझता हूँ कि साधना का पहला चरण प्रारंभ हो गया और आपको उसके परिणाम मिलने चाहिए। मित्रो! हमारे आहार, विहार के संबंध में असंयम बढ़ता गया और यही असंयम हमारे शरीर को नष्ट करने के लिए उत्तरदायी है। अगर हम इस उत्तरदायित्व को पूरा करने में समर्थ हों, तो मैं आप से कह सकता हूँ कि प्रकृति—नेचर हमको अच्छी सेहत के रूप में वरदान देगी। अच्छी सेहत हर आदमी का जन्मसिद्ध अधिकार है।


मित्रो! लोकमान्य तिलक ने कहा था—‘‘स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ और मैं आपसे यह कहता हूँ कि—‘‘सेहत हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’’ और हमको अच्छी सेहत मिलनी चाहिए। हमारी तन्दुरुस्ती मिलनी चाहिए। हमें अपने तन्दुरुस्ती की किसी भी समस्या को चुनौती देनी चाहिए, क्योंकि हम तन्दुरुस्त रहने के लिए भेजा है। यह कैसे हो सकता है? बेटे, बताता हूँ। हाँ महाराज जी! वह मंत्र बता दीजिए? कौन से मंत्र बता दूँ तुझे? महाराज जी! ऐसा मंत्र बता दीजिए, जिससे बीमारी अच्छी हो जाये। बेटे, तू समझता तो है नहीं कि मंत्र किसे कहते हैं? मंत्र कहते हैं—विचारों को। तीखे वाले विचार, गहरे वाले विचार, सिद्धान्तवादी विचार, आदर्शवादी विचार, जिनके अन्दर गहराई हो। उन चीजों को हम विचार कह सकते हैं, उसको हम मंत्र कह सकते हैं, जिसमें गहराई हो। जिसके पीछे कोई जड़, पूँछ नहीं होती, उसको हम कल्पना कहते हैं।


किसे कहते हैं मंत्र?


मित्रो! आप विचार करते रहते हैं और प्लानिंग करते रहते हैं कि बड़े हो जायेंगे, तो हम अपने लड़के को एम.बी.बी.एस. करायेंगे। अपनी लड़की को डॉक्टर बनायेंगे। हाँ साहब! ठीक है, बनाना, लेकिन आप क्या काम करते हैं? प्राइमरी स्कूल के मास्टर हैं। क्या तन्ख्वाह मिलती है? ढाई सौ रुपये महीने मिलती है। अच्छा! लड़की को जब एम.बी.बी.एस. में भर्ती करायेगा, तो जो फीस लगेगी, वह कहाँ से आयेगी? क्या भगवान भेज देगा? फिर क्यों कहता है कि डॉक्टर बनायेगा? फिर यों कह कि भगवान जो चाहेगा, सो बनायेगा। यह क्या है? कल्पना, जिसके पीछे कोई प्लानिंग नहीं होती, कोई तैयारी नहीं होती। ये विचार कहलाते हैं और मंत्र किसे कहते हैं? मंत्र उसे कहते हैं, जिसमें संकल्प जुड़े हुए होते हैं, निष्ठाएँ जुड़ी हुई होती हैं, साहस जुड़ा हुआ होता है, हिम्मत जुड़ी हुई होती है, दिशाएँ जड़ी हुई होती हैं, सिद्धान्त और आदर्श जुड़े होते हैं। उन विचारों का नाम मंत्र है।


मित्रो! मंत्र उन्हें नहीं कहते हैं जैसे कि आपने अक्षरों के थोड़े-थोड़े टुकड़ों को जोड़-काटकर बना लिया है और इसके अक्षरों को घुमा देने को अनुष्ठान कहते हैं। यह नहीं हो सकता। मंत्र के अनुष्ठान का मतलब है-श्रेष्ठ विचार, आदर्श विचार, ऊँचे विचार, संकल्प युक्त विचार, सही विचार। ऐसे विचार जिनको क्रियान्वित किये बिना हम रह ही नहीं सकते, उसे मंत्र कहते हैं। ऐसे मंत्र जादू दिखा सकते हैं और चमत्कार दिखा सकते हैं। मंत्रों ने चमत्कार दिखाया है। कल मैं आपको कुछ नाम बता रहा था। उनमें से एक चंदगीराम पहलवान का नाम बता रहा था कि बाइस साल की उम्र में टी.बी. का मरीज बना मरने के लिए खड़ा हुआ था। फिर वह पहलवान हो गया। यह मंत्र का चमत्कार था।


सिद्धान्तों, आदर्शों के क्रियान्वयन का नाम है—मंत्र


मित्रो! मंत्र उसे कहते हैं जिसमें आदमी सिद्धान्तों के आधार पर, आदर्शों के आधार पर प्लानिंग करता है, योजना बनाता है। सिद्धान्तों के आधार पर बनाई गयी योजना को क्रियान्वित करने के लिए वह इस तरीके से खड़ा हो जाता है, जैसे कि अंगद ने रावण की सभा में पाँव गाड़ दिया था और कहा था कि उखाड़ हमारा पैर। गुरु जी! एक बार हमने संकल्प किया था कि बीड़ी नहीं पियेंगे, लेकिन हमसे रहा नहीं गया और हमने बीड़ी पी ली। बेटे, फिर तेरा संकल्प क्या रहा, वह तो कल्पना मात्र रह गया। आपने संकल्प किया था कि हम बीड़ी नहीं पियेंगे, लेकिन आपकी कल्पना ने साथ नहीं दिया। आपके संकल्प ने साथ नहीं दिया। बेटे, संकल्प उसे कहते हैं कि आदमी की नस-नस उसी ढाँचे में ढलती हुई चली जाती है।


मित्रो! हमारे एक बड़े भाई थे। हुक्का पीने के इतने ज्यादा आदी थे कि रात में भी कितनी बार उठते थे। उनका हुक्का भरा हुआ रखा रहता था और जला रहता था। सारे दिन हुक्का चलता था। दिन-रात में चौबीस घंटे में चौबीस बार तो वे अवश्य हुक्का पीते थे। सब मिलाकर रात को जब सो जाते होंगे, तब की बात अलग है, लेकिन जब तक जागते रहते थे, चैन स्मोकर की भाँति बराबर उनका हुक्का चलता रहता था। एक दिन ऐसा हुआ कि गाँव के ही एक बिरादरी वाले कोई आदमी आये। गाँव में हुक्का पीने की आदत जो है। एक चिलम लगानी होती है। बस तू भी पी-भी पी।


एक आदमी आया। उसने हुक्का पिया कि उसे खाँसी आ गयी। खाँसी के साथ कफ़ भी हुक्के में जा गिरा। बस भाई साहब जब हुक्का पीने गये तो उसमें देखा कि आदमी का थूक भरा हुआ था, कफ़ भरा हुआ था। उनको ऐसी घृणा आई कि हुक्के को लेकर के गये और एक पत्थर पर दे मारा। पीतल वाला नीचे का जो हिस्सा था, वही बच गया, जिसे घर वाले ले आये। बाकी सब तोड़कर फेंक दिया। फिर क्या हुआ? ५६-५७ वर्ष की उम्र में लोगों ने देखा कि फिर उन्होंने कभी भी हुक्के को नहीं छुआ। लोगों ने कहा भी कि लीजिए हुक्का पीजिए, चिलम पीजिए, लेकिन वे उठकर वहाँ से चल देते थे, दूर चले जाते थे।


जीवन बदल दे, वह है संकल्प


मित्रो! संकल्प इतना तीव्र होता है, इतना प्रभावी होता है कि आदमी की धाराओं को बदल देता है। जीवन की क्रियाओं को उलट देता है। इसी मंत्र का अनुष्ठान करने के लिए हमने आपको बुलाया है। हमने आपको गायत्री मंत्र का अनुष्ठान करने, उस मंत्र का आह्वान करने के लिए बुलाया है, जो आदमी के संकल्पों को तीव्र बना देता है। यहाँ से जो कुछ विचार ले करके आप जायेंगे कि यह कैसे पूर्ण हो सकता है? हम अपने वचन से पीछे नहीं हटेंगे। कैसे—


रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्राण जाए पर पचन न जाई॥


पन्द्रह मिनट भजन करेंगे, फिर कहेंगे कि मन नहीं लगता। अच्छा। भजन में मन नहीं लगता। अच्छा खाना खाने में तेरा मन लगता है? हाँ साहब लगता है। खाना बंद कर दें तब? अरे साहब! चाय का वक्त हो गया है। चुप। खाने का वक्त हो गया? चुप।


मन को काबू में लाने की प्रक्रिया का नाम है—मंत्र


चल पहले भजन कर, फिर देख कि मन लगता है कि नहीं लगता। मन ही सब कुछ हो गया। मन ही हमारा मालिक हो गया। जो हमको रास्ते पर चलायेगा। हाँ साहब! मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता। किसी में तेरा मन लगता है? बेटे, मन को लगाना पड़ेगा। जिस तरीके से सर्कस के जानवरों को हंटर मार-मारकर के काबू में लाया जाता है और उसको तमाशा दिखाने के लिए मजबूर किया जाता है, उसी प्रकार से अपने मन को पीटना पड़ेगा। आपने मन को, अपने स्वभाव और चित्तवृत्तियों को हंटर मार-मार करके जिस प्रक्रिया के द्वारा काबू में लाया जाता है, उस चीज का नाम मंत्र है।


मित्रो! हमने आपको अनुष्ठान में मंत्र की उपासना करने के लिए बुलाया है। अगर आप अपने जीवन में, अपने शरीर में मंत्र का प्रयोग कर सकते हों, शरीर के लिए एप्लाई कर सकते हों और अपने आहार एवं विहार के बारे में संयम के माध्यम से जीवन यापन कर सकते हों, तो मैं आपको आश्वासन दे सकता हूँ, वरदान दे सकता हूँ, आपके साथ में इकरारनामा कर सकता हूँ कि आपकी सेहत ठीक रहेगी।


आपने अब तक जो गलतियाँ की हैं, ठीक हैं, पर आगे के लिए योजना बनाकर ले जायँ कि आगे हम ऐसी गलती नहीं करेंगे और अपनी सेहत के नियमों का पालन करेंगे। प्रकृति के अनुयायी बनकर रहेंगे। प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। तो हमारा आशीर्वाद आपके लिए दाहिने हाथ पर रखा हुआ है। आप यकीन दिलाइए, कसम खाइये और मंत्र लीजिए और उसके बदले में हमसे आप सेहत का वरदान लेकर के जाइये। अगर हम आपको वरदान न दें, तो फिर आप जो चाहे हमको सजा दे सकते हैं। हम तो बार-बार यही कहते हैं कि आप आइए और मंत्र का चमत्कार देखिए।


कहाँ से आती हैं विकृतियाँ


मित्रो! विकृतियाँ कहाँ से पैदा होती हैं? हमारे शरीर के बाद दूसरी चीज है-हमारा दिमाग, जो बीमारियों से घिरा हुआ है। हमारा एक और दूसरा शरीर भी है, जिसको हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं। वह और भी अधिक बीमार पाया जाता है। शरीर की बीमारियाँ तो दिखाई पड़ती है। हकीम जी को दिखाई पड़ती हैं। हकीम जी! देखना क्या बात है? आपको तो ९९.५ डिग्री सेल्सियस बुखार है, टेम्परेचर है। इसको आप दवाई देकर ठीक कर सकते हैं।


लेकिन दूसरी बीमारियाँ हैं जो बेचारे हकीम जी को भी हमारी ही तरह से खाए जा रही हैं। वह कौन सी हैं? वह हमारी दिमागी बीमारियाँ हैं। लोग थोड़ी सी बीमारियों की बावत जानते हैं। दिमाग में क्या-क्या बीमारियाँ होती हैं? मेंटल हास्पिटल में साइकोलॉजी की जिन थोड़ी सी किताबों में मेंटल बीमारियों का जिक्र आया है, हम उसी के माध्यम से और मेंटल साइंस के माध्यम से पागलपन, सनक आदि बीमारियों के बारे में जान सकते हैं। लेकिन बहुत सी ऐसी बीमारियाँ हैं, जिन्हें हम समझ ही नहीं पाते।


विकृति का नाम है चिंता


मित्रो! हमारे स्वभाव और हमारी आदतों में कैसी-कैसी विकृतियाँ भी पड़ी हैं, जो हमको चिन्ताओं में डुबोये रहती हैं। चिन्ताओं से क्या समस्याओं का हल हो सकता है, जरा बताना। नहीं साहब! हमारी लड़की बड़ी हो गयी है, उन्नीस साल की हो गयी है। उसका ब्याह करना है, इसी की चिन्ता खाए जा रही है। तो बेटे, चिन्ता करने से क्या तेरी लड़ी का ब्याह हो जायेगा नहीं साहब! हम तो वहाँ जाने वाले थे-लड़का देखने, पर हमारा तो मन ही नहीं किया। बस चिन्ताओं में बैठे रहते हैं कि लड़की बड़ी हो गयी है। तो क्या लड़की खाए जाती है या चिन्ता खाए जाती है, या शादी खाए जाती है? अरे साहब! लड़की तो बेचारी अपने घर में बैठी रहती है। अभी तो उसका ब्याह हुआ भी नहीं है।


मित्रो! ब्याह से कोई नुकसान नहीं है और लड़की से भी नुकसान नहीं है। फिर नुकसान किससे है? चिन्ता से नुकसान है। चिन्ता क्या बीमारी है? बेटे, चिन्ता एक विकृति का नाम है। निराशा एक विकृति का नाम है। क्षोभ एक मानसिक विकृति का नाम है, भय एक मानसिक विकृति का नाम है। और ये विकृतियाँ हमको इतना ज्यादा कष्ट देती हैं, जैसे कि मैंने आपसे कहा था कि असंयम हमारे शरीर को नष्ट कर के रख देता है। इसी तरीके से मानसिक असंतुलन हमारे दिमाग को, जो बेशकीमती शरीर से हजार गुना कीमती है, तहस-नहस करके रख देता है। यदि स्थूल शरीर की कीमत एक रुपया है, तो सूक्ष्म शरीर की कीमत दस रुपये है। यह हमारा सूक्ष्म शरीर, हमारा दिमाग इतना गजब का है कि इससे आदमी पैसा कमाता है, यश कमाता है, विद्वान बन जाता है, नेता बन जाता है। और शरीर से मजबूत बन जाता है, बलवान बन जाता है। हाँ साहब मैं पहलवान बन जाऊँगा। हाँ बेटे, बन जायेगा। शरीर से और क्या बनेगा? साहब! ताकतवर बन जाऊँगा, और गुंडा बन जाऊँगा। अच्छा बन जा। गुंडा बन जाऊँगा, तो जा दो को गाली देना, तो चार इकट्ठे होकर तेरी अक्ल ठिकाने लगा देंगे।


बेशकीमती है हमारा मस्तिष्क


मित्रो! सेहत की कीमत, शरीर की कीमत यदि एक रुपया मानी जाय, तो दिमाग की कीमत दस रुपये या एक सौ रुपये मानी जायेगी और माननी चाहिए। इतना कीमती हमारा मस्तिष्क, इतने कीमती हमारे साधन किस बुरी तरीके से तबाह हुए, आपने देखा नहीं? आप देखिए कि यह किससे तबाह होता है? समस्याओं से? नहीं समस्याओं से तबाह नहीं होता। हमारी भीतर वाली कमजोरियों से, हमारे दिमाग की विकृतियों से, दृष्टिकोण के अवांछनीय होने की वजह से हमारा दिमाग खराब होता है और असंतुलित होता है। असंतुलन वह है जिसने हमारे जीवन को, हमारी नींद को हराम कर दिया है। असंतुलन वह है जिसने हमारे चारों ओर भय का वातावरण खड़ा कर दिया है। असंतुलन वह है जिसने हमें खीझ में दबा दिया है। असंतुलन वह है, जिसने हमें प्रत्येक मित्र को शत्रु के रूप में दिखा दिया। हर मित्र हमको वैरी दिखाई पड़ता है। हमको अपनी बीबी वैरी दिखाई पड़ती है। देखिए किसी दिन भाग जायेगी। और बेटा बड़ा हो जायेगा, तब जाने क्या हो सकता है? यह दिमाग इसी तरह से खराब होता रहता है।


सही विचारों का जादू


मित्रो! हमारी निन्यानवे प्रतिशत समस्याएँ कमबख्त इसी असंतुलन ने पैदा की हैं। मन में आता है कि एक पत्थर का टुकड़ा ले करके सिर में दे मारूँ या सिर को दीवार में दे मारूँ। क्यों? क्योंकि हमको विचार करने के तरीके नहीं आते। विचार करने के तरीके हमको आये होते कि विचार कैसे करना चाहिए? समस्याओं के बारे में समाधान करने का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? आपने हजामत बनाने वाले की दुकान पर कभी देखा होगा, उसके ऊपर एक बोर्ड टँगा रहता है। उस पर एक वाक्य लिखा रहता है—Miracle of Barber's hands अर्थात् हजामत बनाने वाले के हाथ का जादू। लेकिन मैं एक और बात कहता हूँ कि आपने कभी नहीं देखा—Miracle of Right Thoughts अर्थात् सही विचारों का जादू। अगर यह सूत्र हमको मिल सका होता, तो हमारे चेहरे पर मुसकराहट के अलावा और कोई चीज नहीं आती। बुरी से बुरी हालत में भी खुशहाली के अलावा, प्रसन्नता के अलावा और कोई चीज नहीं होती। अगर हमको विचार करने के सही तरीके आते होते, तब हमारे और आपके चेहरे पर सिवाय मस्ती और मुसकान के दूसरी चीजें दिखाई नहीं पड़तीं। फिर आप खीजते हुए पाये जाते तो कहते।


मित्रो! यह क्या है? यही कि भूत केवल भीतर से निकलता है। भय केवल भीतर से निकलता है, असंतोष केवल भीतर से निकलता है, क्षोभ केवल भीतर से निकलते हैं। यह सब परिस्थितियों से नहीं निकल सकते। हमारा विकृत चिंतन, हमारा निगेटिव चिंतन यही है जिसने हमारे जीवन की हँसी को छीन लिया और हमको उस हैसियत में डाल दिया, जिसमें सिवाय खीझ के, सिवाय परेशानी के, सिवाय दुःख के, सिवाय भय के और सिवाय आशंका के कुछ दिखाई नहीं पड़ता। आप लोगों ने महाभारत में नहीं पढ़ा है क्या? पाण्डव जो थे, उनके यहाँ जब कौरव आये थे, तो उनको जल में स्थल और स्थल में जल दिखाई पड़ा था। यह क्या है? मन की विकृति है। इसी ने कौरवों का सफाया करा दिया।


नकारात्मक न होने दें चिंतन


मित्रो! आदमी निगेटिव चिन्तन करने की अपेक्षा पॉजिटिव चिंतन करना शुरू कर दे तो उसको मस्ती आ सकती है, हँसी आ सकती है और खुशी हो सकती है और आदमी के चेहरे पर मुसकराहट दिखाई पड़ सकती है। अध्यात्म इसी का नाम है। आप परिस्थितियों से मुकाबला कीजिए। आपकी बीबी गुस्सा करने वाली है। हाँ साहब गुस्सा करने वाली है। तो फिर यह बताइये कि जिन लोगों की ब्याह-शादी नहीं हुई है, वे खाना अपने हाथ से पकाते हैं कि नहीं? हाँ साहब? फिर आपकी बीबी तो खाना पका देती है। घर की चौकीदारी करते है। आपके बच्चे पैदा करती है और गाली देती है, तो हर्ज की क्या बात है? आप अपना दिमाग क्यों खराब कर रहे थे। खाम खाँ दिमाग खराब करता रहता है। अरे, एक बार गाली देती होगी। हाँ साहब! कभी-कभी गाली देती है। चौबीस घंटे नहीं देती। महीने में एक-दो दिन गाली देती है। चौबीस घंटे तो खाना पकाती है, घर की रखवाली करती है। फिर बेटे, इससे मेरा क्या हर्ज हो गया?


संघर्ष का नाम जीवन है


मित्रो! अगर हम अच्छे विचारों को ग्रहण करना और जीवन में उन्हें आत्मसात् करना सीख जायें, तो जो आदमी आज हमको वैरी मालूम पड़ते हैं, दुश्मन मालूम पड़ते हैं, विरोधी मालूम पड़ते हैं वे भी हमको मरीजों के तरीके से दया के पात्र मालूम पड़ सकते हैं। कल मैं आपको एक डॉक्टर का उदाहरण दे रहा था और कह रहा था कि हमारे लिए अच्छी परिस्थितियाँ भी हो सकती हैं और खराब परिस्थितियाँ भी हो सकती है। पैसे वाला होना इसलिए अच्छा है, सफल होना इसलिए अच्छा है जिससे हमारे जीवन में उन्नति के साधन मिल जाते हैं। लेकिन असफल होना हमारे लिए उससे भी ज्यादा आवश्यक है और हमारे ऊपर मुसीबत आना और भी ज्यादा आवश्यक है, ताकि हमारा यश, हमारी अक्लमन्दी, हमारी बुद्धिमानी, हमारी बहादुरी बढ़ सके। जो आदमी सारी जिन्दगी भर सफलता की जिन्दगी जिये आराम की जिंदगी जिये, ऐश की जिन्दगी जिये, उसको मैं मिट्टी का पुतला कह सकता हूँ। मोम का पुतला कह सकता हूँ, जो धूप में पड़ते ही पिघल जायेगा। जिन्होंने लड़ना सीखा है, जिन्होंने हिम्मत से काम लिया है, जो बहादुरी के साथ जिन्दगी जिये हैं, उन्हीं का नाम नेपोलियन है। उन्हीं का नाम सिकन्दर है, उन्हीं का नाम अमुक है।


मित्रो! जिन्होंने हमेशा चट्टानों के साथ अपने आपको घिसा है, मुसीबतों के साथ लड़ाई लड़ना जिनको आया है, वीर उन्हीं का नाम है। सफलतायें उन्हीं के पास आयेंगी और उनके कदम चूमेंगी। भगवान अनुग्रह उन्हीं पर करेंगे, जिन लोगों ने यह साबित करके दिखा दिया है कि हम इस लायक हैं कि हम लड़ सकते हैं। मित्रो! असल में हमारी समस्याएँ असंतुलन की समस्याएँ हैं। हमारे विचार करने की शैली की गलती की समस्या है। यह आन्तरिक समस्या है, बाहरी समस्या नहीं है। दुनिया तो बेटे, ऐसी थी और ऐसी ही रहेगी। नहीं साहब। आप हमारी दुनिया अच्छी बना दीजिए। बेटे, हम क्या करें? नहीं साहब! भगवान का नाम-जप बता दीजिए। भगवान का नाम लेने से तो हमारा उद्धार हो सकता है और भगवान हमारी मुसीबत दूर कर सकता है। कौन से भगवान का नाम लेगा, तू ही बता, उसी भगवान का नाम सिखा दूँगा। महाराज जी! आजकल तो एक महात्मा ही आये हुए हैं। वे सारी दुनिया में घूमते फिरते हैं। कौन से मंत्र बताते हैं? ‘‘हरे रामा-हरे कृष्णा’’। तो फिर बेटे उसी को कर।


भगवान ने जिया कष्ट का जीवन


महाराज जी! हम रामायण पढ़ लें, तो उससे हमारी मुसीबतें दूर हो जायेंगी? पढ़ लीजिए, लेकिन रामचन्द्र जी की जैसी मिट्टी पलीद हुई थी, भगवान करे किसी की भी ऐसी मिट्टी पलीद न हो। आप लोगों की बीबियाँ हैं कि नहीं? हमारी तो घर में है। रामचन्द्र जी की बीबी को रावण चुरा कर ले गया। आप अपने घर में तो हैं। आप जब से पैदा हुए हैं, पिता जी ने घर से निकाला तो नहीं? लेकिन उनके बाप ने घर से निकाल दिया था। रामचन्द्र जी को अपनी जिन्दगी में क्या से क्या नहीं बर्दाश्त करना पड़ा। उनकी सारी जिन्दगी संघर्षों से भरी पड़ी थी। आप शुरू से पढ़ते चले जाइये। आखिर में रावण को मार-काट करके जैसे-तैसे करके अपनी स्त्री को लिवाकर लाये। इतने पर भी उस धोबी ने कहा कि यह खराब औरत है, इसे घर में से निकाल दो। रामचन्द्र जी की औरत कहाँ चली गई? जंगल में चली गई और वहीं बच्चों का जन्म हुआ।


मित्रो! आखिर में बूढ़े होने के बाद में रामचन्द्र जी कहाँ आ गये थे? देवप्रयाग आ गये थे और वहीं तपस्या करते रहे। भगवान रामचन्द्र की जिन्दगी कितनी मुसीबतों की जिन्दगी थी, कठिनाइयों की जिन्दगी, संघर्षों की जिन्दगी, जद्दोजहद की जिन्दगी थी। आप रामचन्द्र जी का नाम लेकर के क्या सीता जी को माँगेंगे, लक्ष्मी जी को माँगेंगे। क्या वे आपको दे देंगे? नहीं साहब! वह तो हमें नहीं चाहिए। फिर आप क्या चाहते हैं? हम चाहते हैं-सुख और शांति। अरे बेटे! रामचन्द्र जी के पास सुख कहा था? वे तो दुःख ही दुःख में रहे।


अच्छा, तो महाराज जी! मैं श्रीकृष्ण भगवान का जप करूँगा? कर ले बेटे, तेरी मर्जी है, कर ले। तू समझता है कि श्रीकृष्ण भगवान से सुख मिलेगा? बेटे, तू भगवान श्रीकृष्ण की जिन्दगी को पढ़ ले। वे जेलखाने में पैदा हुए, फिर पूतना, बकासुर, तृणावर्त, कालिया नाग जैसे कितने दुर्दान्त राक्षस उन्हें मारने आ गये। वे बेचारी गोपिकाओं के साथ खेला करते थे, तो वहाँ भी अक्रूर आ पहुँचे और बोले कि कंस ने बुलाया है। वे वहाँ चले गये। बेचारी गोपियाँ रोती-चिल्लाती रहीं। श्रीकृष्ण महाराज फिर चले और आगे बढ़े और मरते-खटते वहाँ आये जहाँ जैसे-तैसे बेचारे को अर्जुन का ड्राइवर होने की एक नौकरी मिली। वे क्या चलाते थे? मोटर? नहीं बेटे, उस समय मोटर कहाँ थी। घोड़े थे। घोड़ों की लीद उठाते थे। धत् तेरे की! इससे तो गुरुजी हमारी नौकरी अच्छी है। हाँ बेटे, तू एल0डी0सी0 क्लर्क है, यू0डी0सी0 क्लर्क है। श्रीकृष्ण भगवान तो अर्जुन के घोड़े चराते थे और उनके ड्राइवर थे।


मित्रो! फिर वे वहाँ से कहाँ गये। द्वारका चले गये और वहाँ बस्ती बसाई। सारे खानदान में लड़ाई हो गयी और सब के सब एक-दूसरे को मार-काट करके खत्म हो गये। अंत में सुदामा जी आ धमके। उन्होंने कहा कि आपका वैभव बहुत बड़ा है। हमें भी वैभवशाली बना दीजिए। अच्छा बाबा! तू ले जा। सारा का सारा माल उन्होंने द्वारका से भेज दिया। भगवान श्रीकृष्ण गरीब के गरीब रह गये। आखिर में बुढ़ापे में वे वहाँ एकांत में जंगल में बैठे थे, यह सोचकर कि बुढ़ापे में राम का नाम लेंगे। लेकिन वहाँ भी कहीं से एक बहेलिया आ गया और तीर मारकर उनके पैर को फाड़ डाला। वे मर गये। बेटे, आप सुख माँगते हैं, पर सुख दुनिया में कहीं नहीं है। सुख केवल विचार करने की शैली का नाम है। ‘‘राईट थॉट्स’’ का नाम सुख है और किसी चीज का नाम सुख नहीं है।


क्या है सुख?


नहीं साहब! सुख उसे कहते हैं जो आराम से बैठा रहता है। उसे कोई काम नहीं करना पड़ता। उसके पास कोई मुसीबत नहीं आतीं। उसको कोई गाली नहीं देता। तो बेटे, तू इसी को सुख कहता है? ऐसा सुख तो तब मिल सकता है जब तू मेरा कहना मानेगा। तब तेरी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जायेंगी, मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी। तुझे कोई गाली नहीं देगा। तुझ पर कोई मुसीबत भी नहीं आयेगी। कोई मुकदमा भी नहीं चलेगा। सब मुसीबतें दूर हो जायेंगी। अच्छा बेटे, एक काम कर, तू मेरा एक कहना मान ले। महाराज जी! तैयार हूँ। अच्छा, तो ऐसा कर अफीम का एक गोला खा जा। जिस दिन तू मर जाएगा, उस दिन तुझे पूर्ण शान्ति मिल जायेगी। फिर तुझे कोई गाली नहीं देगा। नहीं महाराज जी! यह तो और बड़ी मुसीबत है। बेटे, यह मुसीबत नहीं है। जब तक आपको जिन्दा रहना है, तब तक संघर्ष करना पड़ेगा। आपको लड़ना पड़ेगा। बहादुरी के साथ हर चीज से टक्कर लेनी पड़ेगी। टक्कर लेने के साथ में जो आनन्द आता है, जो खुशी हासिल होती है, उस चीज का नाम सुख है और कोई सुख नहीं है।


कर्तव्य निर्वहन का नाम है सुख


मित्रो! जब हम टक्कर मारते हैं और टक्कर मारने के साथ हम समझते हैं कि हमने अपने कर्तव्य को अंजाम दिया, अपने फर्ज को अंजाम दिया। फर्ज को अंजाम देते समय आदमी को जो संतोष होता है, उस चीज का नाम सुख है। इन्द्रियों के सुख का नाम सुख नहीं है। यदि इन्द्रियों के सुख का नाम सुख रहा होता, तो वेश्याएँ दुनिया में सबसे ज्यादा सुखी पायी जातीं। अगर सुख जीभ की चीजों का नाम रहा होता, तो चाट, पकौड़ी वाले और मिठाई वाले सबसे ज्यादा खुशहाल पाये जाते। इन्द्रियों की सुविधाएँ-जिसमें अच्छे कपड़े पहनने वाले भी शामिल हैं, अगर इन्हीं के द्वारा आदमी को सुख मिला होता, जिसका हम और आप ख्याल करते हैं, तो मित्रो! आदमी न जाने इस दुनिया में कितना सुखी रहा होता। सुख इन सब चीजों का नाम नहीं है।


मित्रो! सुख उस चीज का नाम है, जिसमें आदमी श्रेष्ठ सिद्धान्तों को अपनी जीवन में अपनाता हुआ चलता है। बस उस चीज का नाम सुख है। इसको हम शान्ति कह सकते हैं, संतोष कह सकते हैं। संतोष का नाम सुख है। जब आदमी यह समझता है कि हमने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली। विजय श्री की माला पहनते हुए जब आदमी गर्व से सिर ऊँचा उठाता है कि हमने विजय प्राप्त कर ली। किसके ऊपर? जो हमारे सबसे बड़े वाले बैरी थे, उनको हमने परास्त कर दिया। विजय दशमी सबसे बड़ा खुशी का दिन माना जाता है। इसी दिन राम ने रावण के ऊपर विजय प्राप्त की थी। रामचन्द्र जी के जमाने में इसे खुशी के दिन के रूप में मनाया गया था। विजय दशमी का पर्व हम भी मनाते हैं, क्योंकि रावण पर विजय प्राप्त की गई थी।


मित्रो! जिस दिन आप इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं, मानसिक असंतुलन के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं। जिस दिन आप तृष्णाओं के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं, जिस दिन आप अपनी वासनाओं के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं, उस दिन आप विजयी हो जाते हैं। उस दिन आप विजयश्री के अधिकारी हो जाते हैं। उस दिन आपको जो संतोष मिलेगा, वह कितना शानदार हो सकता है, इसे हम कैसे बता सकते हैं? जबकि आप वस्तुओं के माध्यम से यह ख्याल लगाये बैठे हैं कि वस्तुएँ अगर हमको मिल जायेंगी, तो हमारा काम बन जायेगा। आपके पास से ज्यादा वस्तुएँ जिनके पास हैं, मैं उनके नाम आपको बता सकता हूँ। आप उनके पास जाइये और यह तलाश करके आइए कि आपकी इच्छानुकूल जो वस्तुएँ मिली हुई हैं, उनसे आपको कोई शिकायत तो नहीं है? उत्तर पाकर आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे।


मित्रो! हेनरी फोर्ड का नाम आपने सुना होगा। उसकी फैक्ट्री में एक सेकेंड में एक मोटर बनकर तैयार होती थी। पर सेकेंड एक मोटर तैयार होकर निकलती थी। हेनरी फोर्ड दुनिया का सबसे बड़ा मालदार आदमी था। उसने अपनी डायरी में लिखा है-‘‘हे भगवान! अगर मेरी मौत हो, तो मुझे अमेरिका में जन्म मिले। हे भगवान। अगर मुझे इसी फैक्ट्री में जन्म मिले, तो हेनरी फोर्ड होने की बजाय मजदूर होने का मौका देना, ताकि मैं मशक्कत के द्वारा, अपने हाथ-पाँव की कमाई के द्वारा, खूब मेहनत करूँगा और गहरी नींद में सो सकूँगा और मुझे शान्ति के साथ दिन व्यतीत करने का मौका मिलेगा। मित्रो! इतने मालदार आदमी ने ऐसी प्रार्थना क्यों की? क्योंकि जिस सुख को आप तलाश करते हैं, उसके बारे में आप यह विचार बदल दें कि वस्तुओं के माध्यम से हमको सुख मिलता है, जैसा कि आपका ख्याल है कि अमुक-अमुक चीज हमें दे दीजिए, हमें सुख मिलेगा चलिए मैं आपको देने के लिए तैयार हूँ, फिर आप यह बताना कि आपको सुख मिला है। बेटे, इनसे आपको सुख नहीं मिलेगा।


सही दृष्टिकोण का नाम है सुख


मित्रो! सुख एक मानसिक स्थिति का नाम है। सुख एक दृष्टिकोण का नाम है। सुख एक सोचने के तरीके का नाम है। सुख वस्तुओं के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, जैसा कि आप लोग समझते हैं। जिस अध्यात्मवाद का हम प्रशिक्षण करते हैं, उसी में समस्त समस्याओं का हल छिपा हुआ है। हमारे दिमाग पर छाई हुई लाखों-करोड़ों समस्याओं का हल अध्यात्मवाद में सन्निहित है। इसलिए आप अपने ट्रांजिस्टर की सुई को बदल दीजिए। आप अपनी धुरी को बदल दीजिए, फिर देखिए कि आप कितने खुशहाल हैं। आप कितना प्रसन्न जीवनयापन कर रहे हैं। आप कितने खुशहाल हैं। मित्रो! चाणक्य के पास कपड़े नहीं थे। उनके पास बर्तन नहीं थे। उनके पास खाने को नहीं था। उनके पास जायदाद नहीं थी। उनके पास मकान नहीं थे। वे झोपड़ी में रहते थे, फिर भी सब लोग उनके पास शान्ति और समाधान पाने के लिए जाते थे। खुशहाली पाने के लिए जाते थे और उनके चरणों के छूते थे।


मित्रो! चाणक्य के पास सम्पत्ति थी? गाँधी जी के पास सम्पत्ति थी? बुद्ध के पास सम्पत्ति थी? नहीं थी। फिर आपने यह क्या सम्पत्ति-सम्पत्ति लगा रखी है। सम्पत्ति से आपके जीवन के सुख का कोई ताल्लुक नहीं है। इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर आपको सुख की तलाश है, तो वस्तुओं के बारे में ख्याल करना बदल दें और यह मानकर चले कि जो भी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उसका हम सही उपयोग कर सकते हैं। तब छोटी सी छोटी चीज, घटिया से घटिया चीज आपके लिए फायदेमन्द हो सकती हैं। मैं तो आपसे यह भी कह सकता हूँ कि घटिया चीजें ही आपके लिए उपयोगी हो सकती हैं। मान लीजिए आपका बेटा कपूत है और आपका कहना नहीं मानता, तो आप उससे भी लाभ उठा सकते हैं।


मित्रो! अगर आपका बेटा कपूत रहा होता, तो आपको पेंशन के जो तीन सौ पचास रुपये महीने में मिलते हैं, उसको भी हड़पकर जाता और कहता कि पेंशन तो हमें दे जाइये। भतीजा कहता कि ताऊजी! इस बच्चे को गोदी में खिलाकर लाइये। वह सारे दिन बच्चे की टट्टी साफ करवाता, और बेटे की बहू सारे दिन हुक्म चलाती। ताऊजी! जाना, जरा शाक-सब्जी खरीद कर लाना। बेटे, जितना काम लिया जाना है, उतना लिया जाता। अब आपका बेटा है कपूत और कपूत बेटे की बहू है और वह भी अड़ियल स्वभाव की। आपका धन्यवाद है। क्यों, क्या हो गया? सारे दिन बक-झक करना पड़ता है। अब हम यहाँ नहीं रहेंगे। तो कहाँ जायेंगे? साहब! हम तो शान्ति प्राप्त करने जायेंगे। हम शान्तिकुञ्ज जायेंगे।


हाँ बेटे! तू हमारे यहाँ शान्तिकुञ्ज में रह। तुझे साढ़े तीन सौ रुपया महीना पेंशन मिलती है। पैंसठ रुपये महीने खाने के जमा कर दे और बाकी जो बचता है, उसमें हम भी खायेंगे और तू भी खायेगा। ढाई सौ रुपये में मौज करेंगे। अरे महाराज जी! साढ़े तीन सौ रुपये तो घर वालों को देना पड़ता है। अरे, आग लगा इनको। किनको? जिनके लिए तू मर रहा था। इनसे आप एक नया दृष्टिकोण नहीं ले सकते हैं? अगर वे कपूत हैं, तो आप उनसे दूसरे फायदे उठा सकते हैं। जहर में से भी अमृत निकाला जा सकता है। जो आदमी दवाइयाँ बनाने वाले होते हैं, वे जहर में से भी अमृत निकाल लेते हैं। विपरीत और उल्टी परिस्थितियों में भी अगर आपको सोचने का तरीका आता हो, तो उसमें से भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है। आप उसमें से भी दिशाएँ प्राप्त कर सकते हैं और वह प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं, जो आपके जीवन के लिए कल्याणकारी साबित हो सकता है।


काम से जी चुराने का नाम है—दरिद्रता


मित्रो! दरिद्रता की समस्याएँ क्या हैं? दरिद्रता की कोई समस्या नहीं है। यह वास्तव में हमारे आलस्य और अपव्यय की समस्या है। वस्तुतः दरिद्रता इसी का नाम है। दरिद्रता और कुछ नहीं हैं। आप मशक्कत कीजिए। आपके लिए जितनी आवश्यकता है, आपके हाथ कमा कर रख सकते हैं। आप हाथ हिलाना नहीं चाहते और हराम की रोटी खाना चाहते हैं। मेहनत करना नहीं चाहते हैं। पंखे के नीचे बैठना चाहते हैं, हुकूमत चलाना चाहते हैं। घास छीलना नहीं चाहते, हथौड़ा चलाना नहीं चाहते। गरीबी है, क्या करें साहब! नौकरी नहीं मिलती। नौकरी कहाँ मिलेगी? नहीं साहब! कहीं नौकरी मिल जाय, किसी बड़े आदमी की नौकरी मिल जाय और अगर दुकान खोल लेगा तो क्या होगा? छोटे-छोटे आदमी दुकान खोले बैठे हैं। चाय-पकौड़े की दुकान वाले सुबह से शाम तक सौ रुपये तक की चाय-पकौड़ी बेच देते हैं और सौ-डेढ़ सौ रुपये कमा लेते हैं। नहीं साहब! नौकरी लगवाइए, ढाई सौ रुपये की नौकरी लगवाइए।


मित्रो! काम से जी चुराने का नाम है—दरिद्रता। दरिद्र माने मशक्कत से जी चुराना, श्रम के प्रति घृणा करना। श्रम के प्रति जो व्यक्ति घृणा करते हैं, उनको मैं दरिद्र कहूँगा। वे सब हरामखोर और कामचोर हैं। ये वास्तव में मानसिक दृष्टि से दरिद्री हैं। अगर मानसिक दृष्टि से दरिद्र नहीं है, तो वे चोर हैं जो आपके लिए पैदावार करते हैं, दूसरों के लिए करते हैं। आप तो कोढ़ियों के तरीके से, कलंकियों के तरीके से, अपाहिजों के तरीके से और अपंगों के तरीके से बैठे रहते हैं और काम से घृणा करते हैं, काम से नफरत करते हैं। आप पसीना बहाना नहीं चाहते। जिस देश में पसीना बहाने के प्रति घृणा होगी और नफरत होगी, जिस देश के आदमी अपने आप को बड़ा आदमी इस ख्याल से मानेंगे कि अमीरी से और हराम खोरी से जिंदगी व्यतीत करना शान की बात है, उस देश को दरिद्रता आनी चाहिए। आपको नहीं आयेगी, तो आपके पड़ोसी को आयेगी।


मित्रो! आप हाथ-पाँव नहीं हिलाना चाहते। आपको पेंशन मिलती है। ठीक है आपको पेंशन मिलती है, तो सारी दुनिया को तो पेंशन नहीं मिलती। आप जाइये-साग उगाइये। साग-भाजी उगायेंगे तो वह औरों के काम आ सकती है। दुनिया के किसी दूसरे आदमी का भला हो सकता है। आप साग-भाजी बेचिए, मशक्कत तो कीजिए, जिससे दूसरों को अनाज मिल जाय, शाक-सब्जी मिल जाय। नहीं साहब! हम कैसे काम कर सकते हैं। काम करना तो बड़ी खराब बात है। नहीं बेटे, काम से नफरत करना दरिद्रता की निशानी है। अपव्यय भी दरिद्रता की निशानी है। जितने भी आदमी दरिद्र हैं, जो यह कहते हैं कि हम कंगाल हैं, हम भूखे हैं और हम कर्जदार हैं, इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह-है हरामखोरी। हम मेहनत करना नहीं चाहते, मेहनत से जी बचाना चाहते हैं। दूसरा कारण यह है कि हम अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करते हैं। यह दोनों ही बुरी आदतें हैं। आपको अपनी एक-एक पाई और एक-एक पैसे को इस हिसाब से खर्च करना चाहिए, जिससे अपनी औकात और अपनी हैसियत के हिसाब से आप काम चला सकें।


मित्रो! हम लोग तीस साल के करीब अखण्ड ज्योति के कार्यालय में किराये के मकान में रहे हैं। हमने दो सौ रुपये महीने में काम चलाया है। माताजी और हम, दो हमारे बच्चे और एक हमारी माँ-हम पाँच आदमी रहते थे। पाँच आदमियों के अलावा गेस्ट भी हमारे घर में आते रहते थे। दो सौ रुपये महीने में हमने इस तरीके से काम चलाया, जैसे कोई शानदार आदमी चला सकता है। हमने एक-एक पाई को इस तरीके से बचाकर रखा। चूल्हे का जो कोयला निकाला जाता था, माताजी उसे बुझाती जाती थीं शाम को वही कोयला अँगीठी में उपयोग करके लकड़ी की बचत की जाती थी। मितव्ययिता, पैसे की किफायतशारी जहाँ होगी, वहाँ कंगाली नहीं आ सकती। वहाँ दरिद्रता नहीं आ सकती। गरीबी वहाँ आयेगी, जहाँ अंधाधुन्ध पैसा खर्च करने की लोगों ने आदत डाल रखी है। उनको हमेशा यही शिकायत रहेगी कि हम पैसे की तंगी में हैं और गरीब हैं।


आध्यात्मिक असंयम का अभिशाप है—दरिद्रता


मित्रो! दरिद्रता अभिशाप है। किसका अभिशाप है? आध्यात्मिक असंयम का। धन के प्रति जो हमारा दृष्टिकोण है, अगर वह विकृत होता है, तो इसका शाप और पाप हमारे सामने आयेगा। किस रूप में? गरीबी के रूप में और कंगाली के रूप में। अगर हमारे पास आध्यात्मिक दृष्टिकोण है, तो उसे हम अपने पैसे के संबंध में, आर्थिक क्षेत्र में एप्लाई कर सकते हैं। इसी आध्यात्मिकता को सिखाने के लिए मैं आपको यहाँ बुलाता हूँ। अगर आध्यात्मिकता आपके पास है और उसको आप पैसे के संयम में इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसा कि मैंने आपको बताया था। आप इसे शरीर संयम के बारे में इस्तेमाल कीजिए और अपने दिमाग में संतुलन के रूप में इस्तेमाल कीजिए। किसको? मंत्र को, फिर आप देखिए कि आपका दिमाग किस तरीके से कमल के फूल के तरीके से खिलता हुआ चला जाता है। फिर देखिए कि कितने भौंरे आते हैं, कितनी तितलियाँ आती हैं, कितनी शहद की मक्खियाँ आती हैं। आपका दिमाग इस तरीके से आपको इसी दुनिया में स्वर्ग जैसी अनुभूति लाता है। आप इसका इस्तेमाल कीजिए।


हमारी नीति एक हो—परिश्रम


मित्रो! अध्यात्म के सिद्धान्तों को आप न केवल पैसे के बारे में, वरन् परिश्रम के बारे में भी इस्तेमाल कीजिए। परिश्रम के बिना हम जिन्दा नहीं रह सकते। परिश्रम हमारी नीति होनी चाहिए। हमारी माँ ने हमें परिश्रम करना सिखाया। हमारी माँ ९२ वर्ष की होकर मरी थीं। तब उनकी याददाश्त कुछ कमजोर हो गयी थी, लेकिन उन्हें सारे दिन परिश्रम करते देखा गया। वे कभी झाड़ू लगाती थीं, कभी पुराने कपड़े, फटे हुए कपड़े की सिलाई करती, ताकि छोटे बच्चों के नीचे बिछाए जा सकें। जब कोई पूछता कि माता जी! यह कपड़े आप क्यों सी रही हैं? तो कहतीं कि किसी के यहाँ बच्चा होगा, तो उसके काम आ जायेगा। किसके बच्चा होने वाला है? भगवान जाने किसको दे दे। हमारी माँ की यही शिक्षा थी।


मित्रो! विनोबा की माँ ने अपने बच्चों को ब्रह्मज्ञानी बनाया था और हमारी माँ ने हमको परिश्रमशील बनाया। जिसको आप जादू कहते हैं, आचार्यजी का चमत्कार कहते हैं, वह है हमारी परिश्रमशीलता। आचार्य जी ने क्या चमत्कार किये? आचार्य जी ने अपनी जिन्दगी भर में इतने काम कर डाले कि जितना कोई नहीं कर सकता। वह पाँच जिन्दगी में भी नहीं कर सकता। हाँ बेटे! जिन्दगी में मैं इतना काम नहीं कर सकता था जितना मैंने कर दिया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से, संगठन की दृष्टि से, साधना की दृष्टि से मैंने यह कैसे कर लिया? मित्रो! काम से, श्रम से मुझे इतना ज्यादा प्यार है, काम करते समय मुझे इतनी खुशी होती है, काम करने से मेरा इतना ज्यादा उत्साह बढ़ता है कि मैं आपसे क्या कह सकता हूँ? जब कभी काम करने का वक्त खाली निकल जाता है, तो मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि जाने चोरी कर रहा हूँ, जाने पाप कर रहा हूँ। जाने नहाया नहीं हूँ, जाने भूखा हूँ, काम न मिलता हो तब। बीमारी की हालत से लेकर के हर हालत में मैं काम करता हूँ।


परिश्रमशीलता है व्यावहारिक अध्यात्म


मित्रो! परिश्रमशीलता आदमी को दरिद्रता से बचाती है। आपकी भी दरिद्रता दूर हो सकती है, बशर्ते आप खर्च करते समय पैसे-पैसे पर ध्यान रखें। एक भी पाई अनावश्यक खर्च नहीं होनी चाहिए। तब आपके पास दरिद्रता नहीं आ सकती। आलस्य आपको दरिद्रता लायेगी। यही व्यावहारिक अध्यात्म है। नहीं साहब! अध्यात्म तो ध्यान लगाने में होता है। कुण्डलिनी जगाने में होता है, चक्रभेदन में होता है। हाँ बेटे! वह भी होता है, लेकिन व्यावहारिक जीवन में जो अध्यात्म हमको इसी जीवन में सम्पन्नता के रूप में, मानसिक संतुलन के रूप में, शारीरिक स्वास्थ्य के रूप में और हमारे परिवार और कुटुम्ब को स्वर्गीय परिस्थितियों के रूप में बना देता है, वही वास्तविक है। स्वर्ग के बारे में मैंने तलाश किया कि आखिर किसके लिए बनाया गया है? स्वर्ग में कौन जा सकता है? तलाश करते-करते बहुत से प्रमाणों को ढूँढ़-ढाँढ़ करके यह निष्कर्ष निकाला कि अगर स्वर्ग कहीं जीवन में होगा, तो वह मनुष्य के छोटे से कुटुम्ब में हो सकता है। चिड़िया अपने घोंसले में शांति के साथ गुजारा कर सकती है। हम भी अपने कुटुम्ब में, अपनी छोटी सी प्रयोगशाला में ऐसा वातावरण पैदा कर सकते हैं। इसमें हमको १० घंटे, १२ घंटे, १४ घंटे रहना पड़ता है, शेष समय घर से बाहर रहते हैं। इसका वातावरण ऐसा बनायें जिसमें स्वर्ग की अनुभूतियाँ होती हुई चली जायें।


मित्रो! यह कैसे हो सकता है? यह एक ही तरीके से हो सकता है कि आपके पास अध्यात्म हो। अध्यात्म का अर्थ क्या है? अध्यात्म का अर्थ है कि आपके कुटुम्ब के जो आदमी हैं, उनमें से प्रत्येक को अच्छे गुणों की शिक्षा देना शुरू करें। घर का वातावरण आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों के अनुरूप बनाना शुरू करें। लोगों का कहना मानने की अपेक्षा सिद्धान्तों का कहना मानने की जरूरत है। घर हमारी छोटी सी प्रयोगशाला है। इसका वातावरण इस तरह बनाना चाहिए कि स्वर्ग की सी परिस्थितियाँ हमारे पैरों के नीचे आकर खड़ी हो जायँ। हमको अपने घर में हर आदमी को परिश्रमशील बनाना चाहिए। हमको स्वयं परिश्रमी बनना चाहिए और बच्चों को कहना चाहिए कि चलो बच्चो! हम तुमको एक संपत्ति देकर जायेंगे और वह है-परिश्रमशीलता की संपत्ति। आप स्वयं काम में लगिए और बच्चों को भी लगाइये। बच्चों में सहनशीलता की आदत पैदा कीजिए। सफाई की आदत पैदा कीजिए। सबको साथ ले करके चलिए।


स्वर्गीय बनाएँ घर का वातावरण


मित्रो! आप घर का वातावरण ऐसा बनाइये, जिसमें सफाई का वातावरण, मितव्ययिता का वातावरण, शिष्टाचार का वातावरण, शालीनता का वातावरण भी सम्मिलित है। आप अपने बच्चों को मीठा बोलना सिखाइए। उनको सिखाइए कि मीठा कैसे बोला जाता है। आप तो स्वयं गाली देते हैं और बच्चों से यह अपेक्षा करते है कि वे आपसे सम्मानपूर्वक बोलेंगे। पहले आप शुरू कीजिए। अपने बच्चों के साथ अच्छे गुणों का प्रयोग कीजिए, फिर देखिए कि उसकी प्रतिक्रिया होती है कि नहीं होती। मित्रो! आपका घर स्वर्ग बनता हुआ चला जायेगा। आप सहकारिता की, मितव्ययिता की, सहानुभूति की परंपराएँ प्रारंभ कीजिए। आपको मैं यह आध्यात्मिकता के सिद्धान्त बता रहा हूँ। नहीं गुरुजी! अध्यात्म की बातें नहीं, वरन् आप कुंडलिनी जागरण की बात बताइये। भाड़ में गयी तेरी कुंडलिनी और ऊपर से गया तू। बेकार की बात करता है, पागल कहीं का। कुंडलिनी को जाने क्या से क्या समझता है। जो असली अध्यात्म है, जो हमारे जीवन के हर कोने में, हर जर्रे में घुसना चाहिए और जिसका महत्त्व एवं प्रतिफल आज और अभी मिल सकता है, उसके बारे में लोग ख्याल ही नहीं करते। नवरात्र के इन शुभ दिनों में आपको वही अध्यात्म सिखाने के लिए बुलाता हूँ, जो आपके व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट हो सके। और आप सारी की सारी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सकें। आपकी आर्थिक समस्याओं, पारिवारिक समस्याओं, सामाजिक समस्याओं-सभी का हल व्यावहारिक अध्यात्म में है।


मित्रो! हमको अपने व्यावहारिक जीवन में, घरेलू जीवन में, पारिवारिक जीवन में अध्यात्म का प्रयोग करना पड़ेगा। आपको अपने आचरण में देवत्व का विकास करना पड़ेगा, ठप्पा बनना पड़ेगा। फिर देखिए आपके स्वभाव और संस्कार आपके बीबी, बच्चों के ऊपर चलते हैं कि नहीं। सबके ऊपर चलेंगे। हर आदमी ढलता हुआ चला जायेगा। लेकिन अगर आप स्वयं में भ्रष्ट जीवन जी रहे हैं और ऐसा नमूना पेश कर रहे हैं और बच्चों से ऐसी अपेक्षा करते हैं कि बच्चे हमारे बड़े खराब हैं, कहना नहीं मानते। अवज्ञाकारी हो गये हैं। और आप स्वयं में कैसे हैं, जरा शीशे में मुँह देख करके आइए कि हमने कैसे आचरण किया है। भ्रष्ट आचरण, संग्रही आचरण, कंजूस आचरण, विलासी आचरण, इसकी सारी की सारी प्रतिक्रिया बच्चों के आचरण के रूप में हमारे सामने खड़ी हैं। हमें अपने व्यावहारिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में अध्यात्म का प्रयोग करना पड़ेगा। तब जो हमारी पारिवारिक समस्याएँ है, उनका निदान होना संभव है।


विकृत दृष्टिकोण ही है एकमात्र समस्या


मित्रो! आज कितनी सामाजिक समस्याएँ हैं? कोई सामाजिक समस्या नहीं है। एक ही सामाजिक समस्या है जिसके कारण हमारे समाज में अत्यन्त विग्रह उत्पन्न हो रहे हैं और वह केवल एक है हमारे दृष्टिकोण की विकृति। दृष्टिकोण की विकृति के कारण आज हमारी सारी शक्ति समाज में एक दूसरे को मारने-काटने के लिए, एक आदमी का दूसरे का खून पीने के लिए, एक आदमी का दूसरे आदमी का अविश्वास करने में खर्च हो रही है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की तीन चौथाई शक्ति दूसरों को हानि पहुँचाने में और अपनी सुरक्षा करने में खर्च हो जाती है। केवल पच्चीस प्रतिशत शक्तियाँ हैं जिनको हम विकास के काम में ला पाते हैं। सुखों को बढ़ाने में खर्च कर सकते हैं। गवर्नमेंट से लेकर संस्थाओं एवं व्यक्तियों की-सबकी पचहत्तर प्रतिशत शक्तियाँ अपनी सुरक्षा करने और दूसरों को हानि पहुँचाने में लगी हुई हैं।


मित्रो! अगर हमारे पास आध्यात्मिक दृष्टिकोण रहा होता, तो हम अपनी सारी की सारी शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक दिशा में कर रहे होते। फिर मित्रो! समाज की समस्याओं में से एक भी समस्या हमको दिखाई नहीं पड़ती। हजार वर्ष बाद भी जब कभी आपको समाधान करना हो, तो उसका एक ही आधार मिलेगा और उसका नाम होगा-अध्यात्म। अध्यात्म के बिना व्यक्ति की समस्याएँ, परिवार की समस्याएँ, राष्ट्रों की समस्याएँ, अंतर्राष्ट्रीय समस्याएँ, राजनैतिक समस्याएँ, आर्थिक समस्याएँ आदि में से एक का भी समाधान नहीं हो सकता। सामाजिक समस्याएँ, जिनने हमको गरीब बना करके रखा है। हमारी जमीन अमेरिका वालों की जमीन के तरीके से समृद्ध है, लेकिन हमारी आर्थिक समस्याएँ बाँध बनाने, नहरें बनाने से हल नहीं हो सकतीं। अमीर बनने से हल नहीं हो सकतीं। हमारी समस्याएँ जब कभी हल होंगी, तो हमारे चरित्र की ऊँचाई के आधार पर हल होंगी। हम कम पैसे में भी गुजारा कर सकते हैं और ईमानदारी से रह सकते हैं। सामाजिक समस्याएँ हमारी मानसिक विकृतियों का परिणाम हैं।


मित्रो! अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का क्या किस्सा है? अरे साहब! बड़ी तंगी होने वाली है और लड़ाई होने वाली है। कैसी लड़ाई होने वाली है? इसलिए होने वाली है कि वह देश हमारा दुश्मन है और अमुक देश हमारा दुश्मन है। मित्रो! जब कभी भी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान होंगे, युद्धों का जब कभी भी अंत होगा, लड़ाई का जब कभी भी अंत होगा, एटम बम और दूसरे मशीनगनों को जब कभी समुद्र में फेंका जायेगा, वह दिन ऐसा होगा, जिसमें आध्यात्मिकता की विजय होगी। आध्यात्मिकता की जीत के बिना युद्ध को खत्म करने का कोई तरीका नहीं । पहला महायुद्ध हुआ, दूसरा महायुद्ध हुआ अब तीसरे महायुद्ध की तैयारी है। चौथा महायुद्ध जब होगा, तो बर्टेन्ड रसेल के मुताबिक़ तब तक इंसान इस लायक हो जायेगा कि ईंट और पत्थरों से लड़ाई होगी। तब दुनिया में कोई हथियार नहीं रहेगा। तीसरी लड़ाई में तो एटम बमों का-ऐटमी हथियारों का इस्तेमाल होगा। चौथे महायुद्ध में न तो ऐटमी हथियार होंगे और न ही उन्हें चलाने लायक आदमी रहेंगे।


समस्त समस्याओं का एक समाधान—अध्यात्म


मित्रो! लड़ाइयाँ खत्म हो सकती हैं। कैसे हो सकती हैं? आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को अपनाकर हो सकती हैं, जिसे हम आपको सिखाते हैं। इसलिए हम इतना जोर लगाते हैं आपको कष्ट देते है, अनुष्ठान कराते हैं। जब कभी यह अध्यात्म लोगों के पास आयेगा, तो अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान हो सकेगा। फिर आदमी यह विचार करेगा कि इस जमीन में से हम सभी पैदा हुए हैं, अतः हम सब भाई बराबर हैं। जहाँ फालतू चीजें बची हुई हैं, वहाँ की चीजें दूसरों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? अमेरिका में इतनी जमीन खाली पड़ी है, अफ्रीका में इतनी जमीन खाली पड़ी है और इंडिया वाले, चाइना वाले मरे जा रहे हैं, तो जमीन को क्यों न फैला दिया जाय, जिससे उतनी जमीन हरेक के हिस्से में आ सकती है। हम सब भाई-भाई हैं। इन दीवारों को हटा देने पर सभी को विश्व का एक आँगन मिलेगा। उस दिन हम शांति से रहेंगे। उस दिन आर्थिक समस्याओं का हल हो जायेगा। जिस दिन हम इसे समझेंगे और भिन्नता की अपेक्षा एकता का पोषण करेंगे, उस दिन सारा विश्व एक हो जायेगा। सारे विश्व की भाषा एक होगी। तब फिर यह समस्या नहीं उत्पन्न होगी कि आप कहाँ के रहने वाले हैं।


मित्रो! जब कभी भी दुनिया में विचारों की एकता होगी और मनुष्यों में आपस में उनका आदान-प्रदान होगा, तो वह दिन होगा जिसमें आध्यात्मिकता के मूलभूत सिद्धान्त सन्निहित होंगे। जिन्हें हम एकता कहते हैं, जिन्हें हम प्यार कहते हैं, जिन्हें हम एक बिन्दु पर इकट्ठा करने का प्रयत्न करते हैं। अगर जब कभी यह वृत्ति मनुष्य में आयेगी, तो सारी दुनिया की भाषा एक होगी। सारी दुनिया एक राष्ट्र होगी। इससे कम में, इससे पहले समाधान नहीं हो सकता। दुनिया की हुकूमत तभी एक हो सकती है, जब आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों को मनुष्य अपनायेगा। जब कभी ऐसा होगा, तो इसी धरती पर स्वर्ग पसरा हुआ मिलेगा और मनुष्य में देवत्व के दर्शन होंगे।


आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥