मनुष्य में देवत्व का उदय

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी-1

मनुष्य में देवत्व का उदय (पूर्वार्ध)

परमवंदनीया माताजी के उद्बोधनों में यह मौलिकता है कि उन्होंने परमपूज्य गुरुदेव के विचार, दर्शन, योजना एवं उद्देश्यों को जनसामान्य तक ऐसी भाषा में पहुँचाया है कि उनके शब्दों को सुनने वाले न केवल भावना की दृष्टि से तृप्त अनुभव करते हैं, अपितु चिंतन की दृष्टि से ऐसी प्रखरता को अनुभव करते हैं, जो हर गायत्री परिजन को एक नूतन पुरुषार्थ के साथ कार्य करने की भावना प्रदान करती है। ऐसे ही प्रस्तुत इस उद्बोधन में वंदनीया माताजी गायत्री परिवार की स्थापना के उद्देश्य—मनुष्य में देवत्व की स्थापना, धरती पर स्वर्ग का अवतरण की ओर सभी का ध्यान आकर्षित करते हुए कहती हैं कि उस महती उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हममें से प्रत्येक को अपने भीतर एक नवचेतना का जागरण करना अनिवार्य होगा। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

मनुष्य में देवत्व के उदय का स्वप्न

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

आत्मीय परिजनो! बहुत दिन पहले की बात है। गुरुजी ने और हमने एक स्वप्न देखा था, एक ख्वाब देखा था। क्या ख्वाब देखा था? यह देखा था कि पृथ्वी पर मानव में देवत्व का उदय होगा। उन्होंने कहा था कि जब तक पृथ्वी पर एक भी प्राणी नरक में रहता है, तब तक हमें अपने लिए उस स्वर्ग की कोई आवश्यकता नहीं है। हम तब तक स्वर्ग में नहीं जाएँगे। हम इसी पृथ्वी पर रहेंगे। हमारा मानव समुदाय जो इस नरक में पड़ा है, हम उसी के साथ में रहेंगे। फिर से आना पड़ेगा तो फिर आएँगे। कब तक आएँगे? अरे! जब तक हजार जन्म मिलेगा, तब तक आएँगे। तब तक आएँगे? हाँ! तब तक आएँगे। इसके लिए जो स्वप्न देखा था, वह आज पूरा हुआ। स्वप्न पूरा हुआ, लेकिन संकल्प पूरा नहीं हुआ।

बेटे! जो स्वप्न हमने देखा था मानव में देवत्व के उदय का, उसकी साक्षात् मूर्ति हमारे सामने बैठी है। बेटे, आज नन्हे-मुन्ने बच्चों के रूप में हम आपको यह मानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के समय में आए हुए ग्वाल-बाल हैं। भगवान श्रीकृष्ण के समय जिन ग्वाल-बालों ने जन्म लिया, उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाने में अपनी लाठी लगाई थी। चेतना भगवान श्रीकृष्ण की थी, लेकिन सामर्थ्य और बल, संकल्पशक्ति उन ग्वाल-बालों की भी थी, जिन्होंने लाठी लगाई। मानते हैं कि कृष्ण यदि प्रेरणा नहीं देते, तो ग्वाल-बाल खड़े नहीं हो सकते थे। उनके अंत:करण में देवत्व को श्रीकृष्ण ने जगाया।

इसी तरह भगवान राम के समय में देवता अपना स्वरूप बदल करके इनसान के रूप में नहीं आए थे, वरन रीछ-वानरों के रूप में आए थे। वे देवता के रूप में मुकुट पहन करके नहीं आए थे, पीताम्बर पहन करके नहीं आए थे। किसके रूप में आए थे? गिलहरी के रूप में आए थे, शबरी के रूप में आए थे और वानरों के रूप में, हनुमान, जामवंत आदि अनेक रीछ-वानरों के रूप में देवता आए थे। वे भगवान राम के सहयोगी के रूप में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने कैसा गजब का काम किया? उसमें अकेले उनकी सामर्थ्य थी क्या? यदि राम ने उनके व्यक्तित्व को ललकारा नहीं होता, तो वे वानर-के-वानर ही रह गए होते।

देवत्व की परिभाषा

बेटे, इसमें किसकी विशेषता है? इसमें भगवान राम की विशेषता है, लेकिन कम विशेषता उनकी भी नहीं है, जिन्होंने रीछ-वानर होते हुए भी कहा कि भारतीय संस्कृति को, माँ सीता को खोज लाने को, माँ सीता को राक्षसों से छुड़ाकर लाने के लिए हम तैयार हैं। हम अपनी जान की बाजी लगा देंगे। हमारी पूँछ में आग लगे-तो-लगे, देखा जाएगा। हमारी जान जाए-तो-जाए, लेकिन अपनी सीता माँ की इज्जत बचाने के लिए और सीता माँ को वापस लाने के लिए हम अपनी जान की कुरबानी दे देंगे।

किसने कहा? देवताओं ने कहा। वही देवता, जिन्हें आप भजते हैं। आप लोग यह मत समझिए कि हमारा और आपका साथ इसी जन्म का है। नहीं बेटे, अनेक जन्मों के संस्कार हैं आपके और अनेक जन्मों से आप जुड़े हुए आ रहे हैं। नहीं तो पड़ोस में बैठे हुए और बहुत से लोग हैं। उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आपका परिवर्तन कैसे हुआ। अरे माताजी! आपने हमें देवता की इतनी बड़ी संज्ञा दे दी।

बेटे! जब माँ देखती है तो अपने बच्चे का मापदण्ड अपनी दृष्टि से करती है, तो बच्चा अपनी दृष्टि से करता है। आज हम देखते हैं कि आपके अंदर थोड़ा-सा यह स्वरूप क्यों नहीं है। अभी यह बीज फला-फूला नहीं है, लेकिन उसमें से अंकुर निकलना शुरू हो गया है। एक-एक महीने का समय ले करके आप बगैर किसी परवाह के आए, जाने छुट्टी मिलती है कि नहीं मिलती है। कोई कहता है कि हमारा बच्चा बीमार है, कोई कहता है कि हमारी पत्नी बीमार है। कोई कहता है कि अरे माताजी! हमको पगार इतनी मिलती है। अच्छा बेटे, तेरे मन में यह क्यों आया।

देवता होता है—देने वाला और दानव, राक्षस होता है—लेने वाला। लेने वाले के मन में सिवाय स्वार्थ के कोई और बात ही नहीं आती है। स्वार्थपरता के अतिरिक्त उसे और कुछ सूझता नहीं। परमार्थ तो उसके समक्ष आया ही नहीं। यह दुनिया किस अग्नि के कगार पर बैठी है, यह तो हमारी कल्पना में भी नहीं आता। यह कल्पना किसके मन में उठेगी? देवता के मन में उठेगी और जिस समय देवता का संकल्प जगेगा, तो उसे रोकने वाला कोई नहीं होगा। उसे कोई रोक नहीं सकता।

गुरुदेव की तपश्चर्या की तीन पूर्णाहुतियाँ

बेटे, एक दिन गुरुजी के अंदर संकल्पशक्ति जागी, तो आज तक उसका निर्वाह हो रहा है। अभी जो तीन पूर्णाहुति जो हमारी हैं, वे कौन-कौन सी हैं ? एक पूर्णाहुति वह जो गुरुजी ने तीन वर्ष तक तपश्चर्या की। सूक्ष्मीकरण की तपश्चर्या किसके लिए की? अरे बेटे, सारे संसार के लिए की, अपने लिए नहीं की। अपने लिए हमें क्या आवश्यकता है। अपने लिए क्यों करेंगे। सारे संसार के लिए किया और उसकी उपलब्धि भी बढ़ गई और अपने परिजनों की भी बढ़ गई। यह तपश्चर्या उन्हीं के लिए की गई। इसकी पूर्णाहुति इस वसंत पर होगी।

दूसरी पूर्णाहुति हीरक जयंती वर्ष की होगी, जो तीन वर्ष के लिए लागू है। दो वर्ष पूरा होकर उसका तीसरा वर्ष चल रहा है और अब गुरुजी 77 वर्ष में हैं। इस समय हमने दो साल हीरक जयंती वर्ष मनाया। इस हीरक जयंती वर्ष की पूर्णाहुति में उन्होंने अपना सारा जीवन सार्थक कर लिया। चौबीस वर्ष उन्होंने जो प्रार्थना की थी, तपश्चर्या की थी, अरे बेटे वह तो चुक गई। जितना कमाया, उतना खरच हो गया। फिर आमदनी का स्रोत, संग्रह का स्रोत क्या है ? जब तक संग्रह नहीं किया जाएगा और जब तक कोई संपत्ति नहीं होगी, तो फिर आप क्या कर सकते हैं? किसी को क्या दे सकते हैं ? नहीं दे सकते हैं।

बेटे! आप ऊँचा उठेंगे तो हम ऊँचा उठा देंगे। ऊँचा नहीं उठेंगे, तो फिर किस तरीके से सेवा कर पाएँगे। अब सेवा का व्रत पूरा हो गया है। 50 साल आपकी अखण्ड ज्योति को हो गए। इतनी बड़ी संख्या में मैं समझती हूँ कि कोई भी हिंदुस्तान की पत्रिका नहीं निकलती, जितनी की आपकी अखण्ड ज्योति निकलती है। अखण्ड ज्योति को निकलते हुए 50 वर्ष पूरे होंगे। उसकी स्वर्ण जयंती है। स्वर्ण जयंती की पुनरावृत्ति इस वर्ष है।

आपको मालूम नहीं है कि अखण्ड ज्योति इतनी बड़ी संख्या में छपती है। हमने सरकारी डायरेक्टरी देखी है। उसमें सन् 1984 नहीं, सन् 1980 का जो विवरण उन्होंने दिया है, उसके अनुसार तो एक लाख तीस हजार है और कल से तो दो लाख से भी ज्यादा हो गई। युग शक्ति गायत्री जो गुजराती में निकलती है, वह भी लगभग इतनी ही हो गई। यह वह माध्यम है, जिससे कि आप हमसे जुड़े हैं और हम आप तक पहुँच सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई माध्यम नहीं था और कोई माध्यम है भी नहीं, सिवाय ज्ञान के, सिवाय पत्रिका के, जिस पत्रिका से आप जुड़े हुए हैं।

बेटे, अभी तो इस पत्रिका के दो लाख सदस्य हैं, लेकिन वह संकल्प भी दूर नहीं है कि आने वाले समय में, अगले वर्ष में 'हीरक जयंती' वर्ष में, जिसको हम सूक्ष्मीकरण की पूर्णाहुति कहते हैं, स्वर्ण जयंती वर्ष कहते हैं, आप सही मानना वह पाँच लाख से कम नहीं होगी। पाँच लाख पत्रिका के सदस्य हो जाएँगे, जो जनमानस की चेतना को जगाने के लिए हमारे संकल्प को पूरा करेंगे। तो क्या यह यहीं तक पूरा हो जाएगा? अरे नहीं बेटे, यह तो अभी पाँच लाख है, अभी देखता जा आगे कितना होता है। क्यों? अंत:करण में जो देवता बैठा है न, ये गुरु बैठा है, वह हर समय झकझोरता रहता है। हर समय प्रेरणा देता है कि उठो! उठो!! उठो!!!

बेटे, आज तक सतहत्तर वर्ष की उम्र में भी कोई विराम नहीं। विराम नाम की कोई चीज भी होती है क्या, जाना ही नहीं। सारा जनमानस, सारे विश्व का मानव संप्रदाय विनाश के जिस कगार पर खड़ा हुआ है, जो अग्नि में धधक रहा है, सुलग रहा है, झुलस रहा है, उस पर पानी कौन डालेगा? उसको शीतलता कौन देगा? बेटे, शीतलता देने की बारी जो आती है, वह आपके साहित्य की और आपकी है ।

इन दिनों गुरुजी बोलते नहीं हैं, गुरुजी जनमानस तक नहीं पहुँच सकेंगे, लेकिन उनके विचार पहुँचेंगे और आप जो नन्हे-नन्हे दीपक हैं, जब तक साथ प्रज्ज्वलित हो जाएँगे, तो चाहे दीपावली की अँधेरी अमावस्या ही क्यों न हो, उसमें भी तर्क वाले भी आपके बताए हुए रास्ते पर चलेंगे; क्योंकि वे आपसे प्रकाश पाएँगे।

दिए गए संकल्प का निर्वहन

बेटे, आप नन्हे हैं तो क्या? आपने हिम्मत तो नहीं हारी है। छोटे हैं तो क्या? नाचीज हैं तो क्या? आपके अंदर जो देवत्व उदय हो चुका है अब, तब इतनी-सी कमी है कि इसको बार-बार जगाना पड़ेगा और उठाना पड़ेगा। आप उठा लेंगे तो समर्थ हो जाएँगे और अगर नहीं उठा पाए, जहाँ-के-तहाँ रहे और बड़े भावावेश में रहे और वहाँ गए तो फिर साफ। तो फिर काम नहीं चलेगा।

यह संकल्प आपने लिया है, आपको उसे बार-बार दोहराना पड़ेगा। दोहराना ही नहीं पड़ेगा, वरन उसके लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा और आपको उस संकल्प की पूर्ति करनी पड़ेगी और वो है संकल्प की पूर्ति—जो हमारा यज्ञ-आयोजन है। इस यज्ञ-आयोजन में जिन्होंने कि 108 कुंडीय यज्ञ का संकल्प लिया है, इन यज्ञ-आयोजनों में आपको आगे-आगे चलना है। और वहाँ जा करके आपको व्यवस्था बनानी है। कार्यकर्ताओं की व्यवस्था बनानी है। यज्ञशालाओं की व्यवस्था बनानी है। पंडाल की व्यवस्था बनानी है। आपको अनेक व्यवस्थाओं में हाथ बँटाना है। वहाँ के स्थानीय समाज में घुलना-मिलना है। यज्ञ-आयोजन संपन्न करके फिर आगे चलिए।

बेटे, क्या इस एक यज्ञ से ही, जिसका आपने संकल्प लिया है, उसकी पूर्ति हो जाती है? नहीं बेटे, यह तो शुरुआत है। अभी दो सौ यज्ञों की तो तारीखें निश्चित हो गई हैं। अभी तो आपके द्वारा और यज्ञ होने हैं। आपको विराम नहीं लगाना है। अभी तक हमारे मन में यही विचार था कि बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ भेजेंगे और 108 कुंडीय यज्ञ-आयोजन करेंगे।

जनचेतना के जागरण के लिए यज्ञ

नहीं बेटे, जनमानस में चेतना जगाने के लिए हम नौ-नौ कुंडीय यज्ञ भी करेंगे, जो हमने अभी तक स्थगित कर रखे थे। अब हम आप सब लोगों से कहते हैं कि आप अब नौ-नौ कुंडीय यज्ञों की भी योजना बनाना। जो बेचारे 108 कुंडीय यज्ञ नहीं कर सकते, वे नौ कुंडीय यज्ञ तो कर ही सकते हैं। उससे जो विचार उठेगा, जो परिष्कार होगा, वह अपने आप में बड़े गजब को होगा। यह बहुत जरूरी है।

बेटे, यह हमारी भारतभूमि कभी यज्ञभूमि थी। अब हम इसको फिर से यज्ञभूमि बनाने जा रहे हैं, जिसमें आप लोग भी शामिल हैं। हमारी यह भारतभूमि यज्ञभूमि होकर के रहेगी। यज्ञ में जो विचार, जो चेतना जागेगी, फिर देखना इस देश में कैसे-कैसे रत्न पैदा होते हैं। रत्न तो अभी भी हैं, पर वे मिट्टी में पड़े हुए हैं। अभी वे मिट्टी में से निकले नहीं हैं।

यज्ञ के माध्यम से, विचारों के माध्यम से उन रत्नों को मिट्टी में से निकालना है। उनको झकझोरना है। उनकी ठोढ़ी में हाथ डालना है। अरे भाईसाहब! आप तो ऐसे रत्न हैं, कहाँ मिट्टी में दबे पड़े हैं। कहाँ स्वार्थों में जकड़े हैं। जरा ऊँचे उठिए। यज्ञमय जीवन जिएँ। ब्रह्ममय जीवन जिएँ। आगे-आगे चलिए। आगे चलिए, जिससे लोगों को प्रेरणा मिले। यह कार्य आपको करना है।

बेटे, क्या आप अकेले जाइएगा? आप अकेले नहीं जा रहे हैं। आप यह न समझें कि हम अकेले हैं, आप अकेले नहीं हैं। जिस समर्थ सत्ता के हवाले आपने अपने को किया है, वह ऐसा खिवैया है कि उसकी नाव में जो कोई बैठा है, वह डूबा नहीं है। जिसने इनकार कर दिया बैठने से, उसका तो हम कहते नहीं हैं, यद्यपि उसको भी अपनी उँगली पकड़ाने की कोशिश की और आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन जब कुसंस्कार उदय होते हैं, तब तो सब संस्कार बहते हुए चले जाते हैं, क्योंकि उनकी ज्यादा प्रबलता होती है। प्रबलता ही नहीं होती, उन्माद भी रहता है और उन्माद जिधर को चलता है; वह उधर को चलता ही रहता है। अतः वह तो डूबेगा ही, हम क्या करें?

कहते हैं कि बेटे आगे मत जाओ, गहरा पानी है और वह आगे बढ़ता ही जा रहा है, तो वह डूबेगा ही, हम क्या कर सकते हैं। नहीं बेटे, इस नाव में जो कोई बैठेगा, हमारा प्रत्येक से वादा है कि हम डूबेंगे, तो आप भी डूबेंगे और हम नहीं डूबे तो आप भी नहीं डूबने वाले। किसी भी कीमत पर आप नहीं डूबने वाले। आपके भौतिक साधनों में कमी आती है तो आए, इसके लिए हमारा कोई चैलेंज नहीं है। जब आपका दिमाग केवल भौतिकता की ओर है, तो हम क्या कर सकते हैं। या तो आप भौतिकता ही पा लीजिए या आध्यात्मिकता के मार्ग पर ही चलिए।

आध्यात्मिकता का मार्ग

बेटे, आध्यात्मिक मार्ग वह है, जिस पर महात्मा गाँधी चले, जिस पर विनोबा भावे चले, जिस पर भगवान बुद्ध चले और जिस पर हमारे महापुरुष चले। वह है अध्यात्म मार्ग और जो अध्यात्म मार्ग पर चल जाता है, वह किसी सीमा में बँधकर नहीं रहता। वह असीम बन जाता है और असीम हो जाता है।

तब सारी वसुधा उसकी अपनी हो जाती है और सारा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' उसका परिवार है, कुटुंब है। उसके भाई और भतीजे हैं, उसके बच्चे हैं। फिर वह दो और चार बच्चों से और गृहस्थी से कैसे बँध सकता है। अध्यात्मवादी तो बँधेगा नहीं। वह उन जंजीरों से खुलेगा और आगे बढ़ेगा। सीमा से आगे बढ़ेगा। उत्तरदायित्व निभाने पड़ेंगे। बीबी है, बच्चे हैं, क्या उनका उत्तरदायित्व नहीं निभाना है?

अध्यात्मवाद में यह थोड़े ही है कि उत्तरदायित्व से पलायन करें। पलायनवाद नहीं है। यह नहीं है कि यह संसार तो मिथ्या है बच्चा। संसार से हटिए। तो कहाँ जाएँ? कहीं गुफा में बैठ जाइए। फिर क्या कीजिए? अच्छा तो खाना कहाँ से आएगा? खाना तो समाज से ही आएगा। और पहनने को? वह भी समाज से आएगा। तो जब सब समाज से ही आएगा, तो समाज को क्यों ठोकर मार रहा है, जब कि हम सारा-का-सारा समाज से ही लेते हैं।

जनमानस के परिष्कार के लिए विचारक्रांति-अभियान

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी है तो समाज का जो ऋण है, वह भी प्रत्येक अध्यात्मवादी को चुकाना ही पड़ेगा और चुकाना चाहिए। जिसका कि आपने यह संकल्प लिया है और जिसका कि हमने ख्वाब देखा है और आप लोगों के अंदर इस देवत्व का उदय किया है। देवत्व आपके भीतर आ गया है। अब आप आगे-आगे चलिए। हमारे जो भी आयोजन हैं, जो विचारक्रांति-अभियान है, वह जनमानस के परिष्कार के लिए है।

आज अनेक कुप्रथाओं ने जन्म ले लिया है। दहेज—एक, मृत्युभोज—दो और न जाने क्या-क्या, दुनिया की तमाम कुरीतियों से लेकर के जाने क्या-क्या उदय हो गए हैं। जादू-मंतर, टोना-टोटका, भूत-पलीद न मालूम क्या-क्या पैदा हो गए। बेटे, उन सबका सफाया करना है। आज हमारी बेटियों की लाज जाती है। हमारी बेटियाँ क्वारी रह जाती हैं। आज देखते नहीं बनता कि कैसे-कैसे कन्याएँ प्रताड़ित होती हैं। दहेज के पीछे, दौलत के पीछे हमारी बच्चियाँ कोई फाँसी पर लटकती हैं, कोई आग लगाकर मरती हैं। कोई क्या करती हैं, कोई क्या करती हैं ? क्यों सताई जाती हैं हमारी बच्चियाँ?

बेटे, सब सुनकर हमारा कलेजा छलनी हो जाता है। न कुछ कहते बनता है, न कुछ करते बनता है। पर यह सब मानना कि मरती तो वो हैं, पर ऐसा मालूम पड़ता है कि जाने हमारी कौन-सी बेटी जा रही है। इसके लिए किसका उत्तरदायित्व है ? इस समाज का है और किसका है। पर आप संकल्प ले सकते हैं कि हम न दहेज लेंगे और न दहेज देंगे, चाहे हमारी बेटी गरीब परिवार में जाएगी-तो-जाएगी। हमें नहीं चाहिए दहेज।

हमको नहीं चाहिए कोई डॉक्टर, नहीं चाहिए कोई इंजीनियर, न कोई चाहिए अफसर । हम तो साधारण मास्टर को अपनी बेटी देंगे, चाहे रिक्शा चालक से करेंगे, लेकिन हम नहीं करेंगे ऐसे भेड़िये से, जो हमारी बच्ची को खा जाए। जिसके घर में पैसा है, वह हमारी बच्ची को क्या इज्जत देगा? वह हमारी बच्ची की इज्जत नहीं कर सकता। हमने जिस बच्ची को खून-पसीने से पाला है, वह हमारे कलेजे का टुकड़ा है।

भगवान राम का आदर्श

उस माँ से पूछिए जिस माँ ने जन्म दिया है और नौ महीने धारण किया है और अपनी बच्ची को पैदा किया है। उसको पढ़ाया-लिखाया है और फिर उस राक्षस के हवाले किया है। वह राक्षस न तो लड़की को जिंदा रहने देता है, न मरने देता है। मरने भी नहीं देता और जिंदा भी नहीं रहने देता। कहता है मेरी पत्नी है। तेरी पत्नी है तो पत्नी के तरीके से रख और ऐसे रख, जैसे भगवान राम ने सीता को रखा था। किसी कारण वनवास तो हो गया था और उसमें धोबी के यहाँ का चक्कर आ गया था, तो सीता को त्यागना पड़ा था, लेकिन अश्वमेध यज्ञ के समय उन्होंने यह कहा था कि यज्ञ संचालन तब होगा, जब सीता साथ बैठेंगी और भगवान राम ने सोने की सीता को साथ में बिठाया था। यह आदर्श तो हमारे प्रत्येक घर में होने ही चाहिए।

बेटे, यह आदर्श आप लोगों को ग्रहण करने हैं। आप लोगों को करना है और अन्य लोगों को बताना है। इसमें मृत्युभोज भी है, इसमें बाल विवाह भी है। इसमें परदा-प्रथा भी है। खैर परदा-प्रथा तो अब नाममात्र की रह गई है। अब तो प्रगतिशील जमाना हो गया है, परदा तो नहीं है, लेकिन हाँ इतना परदा तो चाहे रूढ़िवादी कहें, चाहे जो भी हो, इतना परदा तो होना ही चाहिए। कौन-सा? आँखों का।

साड़ी के पल्ले की कोई कीमत नहीं है कि हमने यहाँ तक कर लिया, वहाँ तक कर लिया, लेकिन आँखों का लिहाज, नम्रता, शालीनता तो हमारे घरों में होनी चाहिए। वह है कहाँ? सब पलायन कर गई आपमें से। यहाँ मैं आपका समय तो ज्यादा नहीं लूँगी, पर मैं एक बात आपसे कह रही थी कि साहित्य के द्वारा जो आपने पढ़ा है, जो आपने समझा है, इस साहित्य को आपको घर-घर पहुँचाना है।

यह आपकी जिम्मेदारी है, आपकी जवाबदारी है। यज्ञायोजन आपको सफल बनाने के लिए आगे आ करके आपको कदम रखना है। अखण्ड ज्योति के ग्राहक तो आप ही बनाएँगे और कौन बनाएगा? हमें बनाना है, आपको बनाना है। आप हमारे हैं तो हमारा फर्ज भी होता है, हमारा कर्तव्य भी होता है, हमारा अधिकार भी होता है। आपका अधिकार है हमारे ऊपर, तो हमारा भी तो अधिकार है आपके ऊपर।

बेटे, जबानी जमाखरच करने में आपका क्या जाता है, जरा बताइए। नहीं साहब! घर में ही सड़ते रहेंगे। घर में नहीं सड़ेंगे, चलिए आप बाहर निकलिए। अगर आप घर में सड़ेंगे, तो फिर आप समझ लीजिए कि हम और गुरुजी घर में आएँगे और आप सोते हुए मिले तो पीछे से एक ऐसा डंडा लगाएँगे कि बस दाल-आटे का भाव याद आ जाएगा बेटे जी को। माताजी इतनी नाराज नहीं होती हैं, पर पिताजी की नाराजी अभी आपने देखी नहीं है। वे इतने उलटे हो जाते हैं कि कहते नहीं बनता। लोगों की घिघ्घी बँध जाती है। कुछ कहने जाते हैं और मुँह से कुछ और निकलता है।

कभी-कभी मैं भी कहती हैं कि रहने दीजिए, अभी बच्चा है। इतनी जोर से मत डाँटिए, पर नहीं मानेंगे, तो फिर माँ भी कम नहीं है। माँ का डंडा भी कम नहीं पड़ेगा। जो आपको दिया है, यह यों ही पड़ेगा और यहीं पड़ेगा। ठीक मानना, आपकी पीठ पर यह न पड़े, तो चाहे जो कहना आप, देख लेना। आप कैसे-कैसे प्यारे बच्चे हैं, छाती से लगाने लायक, सीने से चिपकाने लायक। बेटे आपको डंडे क्यों पड़ेंगे? हम नहीं पड़ने देंगे, पर नहीं मानेंगे, तो पड़ेगा ही। धमकाती भी हैं, तो धमकाना भी पड़ेगा। इसलिए यह तो हँसी की बात है, परंतु बेटे, आपको अपने पुरुषार्थ को जगाना होगा।

बेटे, आपको अपने पुरुषार्थ से सारे समाज के लिए, सारे राष्ट्र के लिए पुनर्जागरण का शंख बजाना है, शंख फूँकना है और बिना किसी हिचकिचाहट के आपको अपने विचारों का प्रतिपादन करना है। चाहे आप कम पढ़े-लिखे ही क्यों न हों, आप तो यह कहना कि हम तो माइक हैं साहब! हम चोंगे हैं और हम बल्ब हैं। करेंट तो जनरेटर से आ रहा है, पावर हाउस से आ रहा है। कहाँ से आएगा करेंट? हमारे गुरुजी के विचार हैं, आप उन्हें सुनिए, जिन्होंने हम जैसे नाचीज को आगे बढ़ाया। हम जो गीली मिट्टी थे, उस गीली मिट्टी में उन्होंने हमारे अंदर जान डाली है। क्या उस एहसान को भुला दिया जाएगा। अभी जो लड़के गा रहे थे—इस एहसान को भुलाया न जाएगा। अरे बेटे! कैसे भुला सकते हैं ? आप भुला सकते हैं ? आप नहीं भुला सकते। किसी भी कीमत पर आप भुला नहीं सकते।

[क्रमशः अगले अंक में समापन]

परमवंदनीया माताजी की अमृतवाणी-2

मनुष्य में देवत्व का उदय (उत्तरार्द्ध)

विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमवंदनीया माताजी अपने इस सामयिक उद्बोधन में शान्तिकुञ्ज एवं गायत्री परिवार की स्थापना के मूल उद्देश्य—'मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण' विषय की व्याख्या करते हुए कहती हैं कि मनुष्य में सन्निहित दैवी संभावनाओं का जागरण ही गायत्री परिवार का प्रमुख उद्देश्य है। वंदनीया माताजी सभी श्रोताओं को चेताती हैं कि पूज्य गुरुदेव ने इसी उद्देश्य को साकार करने का स्वप्न देखा था, जिसे मूर्त रूप प्रदान करना ही गायत्री परिवार का सर्वोपरि लक्ष्य है। वे देवत्व को परिभाषित करते हुए बताती हैं कि देवत्व का अर्थ देने के भाव से है। जो व्यक्ति देना एवं बाँटना जानता है, वह देवता बन जाता है। दया, करुणा एवं मानवता जैसे गुणों का अभिवर्द्धन ही गायत्री परिजनों का लक्ष्य होना चाहिए। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......

संकल्प की शक्ति

बेटे! संकल्प में बहुत शक्ति होती है। जो व्यक्ति संकल्प लेकर कमर कस करके जब खड़ा हो जाता है, तो दुनिया की कोई भी हस्ती ऐसी नहीं है, जो उसे रोक सके। जो कोई उसे झुका सके। जो हमारे पथ से हमको झुका सके। ऐसी कोई शक्ति पैदा हुई है क्या? कोई शक्ति पैदा नहीं हुई। अगर कोई है तो हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र हैं। हम ही अपने को ऊँचा उठा सकते हैं और हम ही अपने को नीचे गिरा सकते हैं।

यदि आप नीचे गिरेंगे, तो गिरते ही चले जाएँगे और जो कोई भी आएगा, आपको धिक्कारता हुआ चला जाएगा। जो कोई भी आएगा, आपको लात-घूँसे देता चला जाएगा; क्योंकि आप गिर चुके हैं और गिरे हैं तो गिरते ही चले जाएँगे। बेटे! उठते हुए को सब उठाते हुए चले जाते हैं। आपको शीरी और फरहाद का किस्सा तो याद होगा, जो शीरी के लिए फरहाद बना था, यही कहता था; जबकि उसके पिता ने यह कह दिया था कि इस पहाड़ को तोड़कर जो कोई नहर निकाल देगा, उसके साथ में मैं अपनी कन्या की शादी करूँगा। फरहाद गरीब था, अत: उससे शादी करनी ही नहीं थी। उसने कहा कि यह मरमरा जाएगा, न यह नहर लाएगा और न इसके साथ शादी होगी।

बेटे! उसने कहा—"अच्छा तो हम लाएँगे।" किसी ने उसे पागल कहा तो किसी ने क्या कहा। जो समझदार आदमी थे, उन्होंने कहा—"भाई। चाहे जो भी हो इस लड़के की संकल्पशक्ति देखिए, जो कहता है कि हम पहाड़ तोड़कर के नहर लाएँगे और शीरी से हमारा विवाह होगा।"

अध्यात्म का यही सही स्वरूप है, जिसे संकल्प शक्ति कहते हैं। संकल्पशक्ति का उसमें उदय हो चुका और सैकड़ों, हजारों लोग उसके सहायक हो गए और पहाड़ों को तोड़ते हुए चले गए और नहर को लाने में सफल हो गया। कौन सफल हो गया? वह फरहाद नहीं था, जो सफल हुआ, वरन उसके अंदर जो संकल्पशक्ति बैठी हुई थी, वह सफल हुई। उस संकल्पशक्ति को आप भी याद करिए और उनको याद रखिए जो कि आपके गुरु हैं। उन्होंने सारी जिंदगी उस संकल्पशक्ति का निर्वाह किया है। चाहे किसी ने यह कहा कि गुरुजी हैं ही नहीं, किसी ने कहा कि गुरुजी को लकवा मार गया। किसी ने कुछ कहा। जाने क्या-क्या कहा। उन्होंने एक की भी परवाह नहीं की। लक्ष्य अपना ऊँचा है, बकवास ऊँची नहीं है। बकवास तो जाने क्या-क्या होती है। लोग तो बकते ही रहते हैं और बकते रहेंगे। हाथी अपने रास्ते से आता है और पीछे-पीछे कुत्ते भौं-भौं करते रहते हैं। करने दो, उससे क्या मतलब?

बेटे! उनका लक्ष्य ऊँचा है। उन्होंने जब जो संकल्प लिया, उसे पूरा किया। स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने संकल्प लिया, तो उन्हें कोई घरवाला भी नहीं रोक सका। वे चार साल जेल में रहे। घर में उन्हें बंद कर दिया गया और यह कह दिया गया कि माँ का अकेला बेटा है और यह जेल जाता फिर रहा है। इतने लोग गोलियों के निशाने बन रहे हैं, मेरा बेटा बन गया तो? आपको मालूम नहीं है कि वे सुबह से शाम तक बंद रहे। माँ से कहा—"ताई! माँ को ताई कहते थे। ताई अब तो खोल। अब टट्टी-पेशाब जाना है।" चप्पल भी छिपाकर रख ली और धोती भी उठा करके रख ली। बस, अंडरवियर और बनियान पहने हुए थे। जनेऊ कान पर चढ़ाया और लोटा हाथ में लिया और कहाँ पहुँचे? आगरा छावनी, जहाँ कि कांग्रेस छावनी थी। वहाँ पहुँच गए। सारा घर देखता ही रह गया। घरवालों ने सारे गाँव में दिखवाया, पर वे तो रात में चलकर आगरा पहुँच गए। वे संकल्प के धनी हैं, जिन्होंने सारे किसानों का लगान माफ करा दिया। यह क्या है ? संकल्प की शक्ति है। मन में जो संकल्प आया, जो प्रेरणा उनके मन में आई, बस, वो कर गुजरे। फिर उन्होंने किसी की नहीं मानी। जो विरोधी थे और जो रिश्तेदार थे, सब तरह के लोग थे, यही कहते थे कि उनमें सच्चाई है। वे संकल्प के धनी हैं।

हजार हाथियों का बल है संकल्प में

बेटे! संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। कहते हैं कि संकल्प में हजार हाथियों का बल होता है। हाँ! मैं तो कहती हूँ कि हजार हाथियों का नहीं, लाख हाथियों का बल होता है संकल्प में। वे संकल्प के धनी थे, वही संकल्प आपके अंदर भी होना चाहिए। अब समय ज्यादा होता जा रहा है, अतः अब थोड़ी देर में मैं अपनी बात को समाप्त करती हूँ। एक बात रह गई और वह यह कि बेटे ! शायद आपके मन में यह विचार आया होगा कि हमने अपनी घर-गृहस्थी के बारे में कुछ कहा ही नहीं। हमारा मन तो कहने का हुआ, लेकिन माताजी ने सुना नहीं। गुरुजी तक तो हमारी बात पहुँच नहीं पाई, लेकिन माताजी ने सुना नहीं। नहीं बेटे! यह लांछन हमारे ऊपर मत लगाना। बेटे! हम और गुरुजी आपके साथ हैं। हम चौबीसों घंटे आपके साथ रहे। आप सोते रहे और हम अपने बच्चों को दुलारते रहे। उनके सिर पर हाथ फेरते रहे, ठोढ़ियों में हाथ डालते रहे। बेटे! हम आपके साथ हैं। हिम्मत करके आप खड़े हो जाइए। आप अकेले नहीं हैं। चाहे आपने कुछ कहा नहीं है या लिखकर दिया नहीं है—वैसे तो प्रायः आप सभी ने लिखकर दे भी दिया है और उसे हमने पढ़ भी लिया है।

हम आपके भागीदार हैं

बेटे! अगर आप लिखकर नहीं भी दें और हम पढ़ें भी नहीं, तब भी आप उस धागे से बँधे हैं कि आपकी जो मन:स्थिति है, जो पारिवारिक स्थिति है, जो आपकी आर्थिक स्थिति हमसे छिपी नहीं है। हम तो बार-बार आपके मुख से कहलवाते हैं कि कह बेटा! तेरे घर में कैसे हैं ? तेरे बीबी-बच्चे कैसे हैं ? बाद में यह नहीं कहें कि माताजी ने पूछा नहीं। हम इसलिए पूछते हैं, ताकि आपका मन हलका हो जाए। बेटे! उलटी हो जाती है तो पेट हलका हो जाता है।

इसलिए आप अपने मन की सब बातें कह डालिए, ताकि आपका दिमाग और दिल हलका हो जाए और जिस उद्देश्य के लिए आप आए हैं, उस उद्देश्य की पूर्ति आप कर लें। बगैर किसी विचार के आप यह मानकर चलना कि हम आपकी हर समस्या में भागीदार हैं । आपने भागीदारी की दीक्षा ली है कि नहीं ली है ? अगर आपने भागीदारी की दीक्षा ली है, तो हम भी तो भागीदार हैं उसमें। जो भी आपकी कष्ट-कठिनाइयाँ हैं या आप बुरा करेंगे, तब भी बेटे हम भागीदार हैं। तब भी हमारी खोपड़ी पर आता है।

बेटे! आपको देखकर आपके कर्मों को देख करके लोग कहेंगे कि अरे! ये देखो, यह किसका शिष्य है? यह उनका शिष्य है। धिक्कार है इसके लिए। ऐसे महान व्यक्तित्व के साथ जुड़ा व्यक्ति तब भी नीचे-का-नीचे रह गया। अब भी इसके निकृष्ट कोटि के विचार हैं। गुरुजी के तो ऐसे विचार नहीं हैं, पर इसके देखो नालायक के। इसके ऐसे विचार हैं। तब भी बेटे हमारे ऊपर आता है।

हम आपको ऊँचा उठाते हैं, तब भी हमारा गौरव है, आपका नहीं है। आपका गौरव उसी में कि जिस तरीके से हम ऊँचे उठे हैं, उसी तरीके से हमारे बच्चे, हमारा प्रत्येक परिजन दिल और दिमाग की दृष्टि से ऊँचा उठे और संसार के लिए ऊँचा उठे। इसमें आपका गौरव है, हमारा गौरव है और हमारे मिशन का गौरव है और हम समझेंगे कि हमने आपकी सच्ची सेवा की है। क्योंकि बेटे सेवा के नाम पर हमारे ऊपर आएगा कि इन्होंने क्या सेवा की इन बच्चों की। हमको अपना बच्चा समझा, हमको अपना शिष्य समझा और हम वैसे-के-वैसे ही रह गए। हमको ऊँचा नहीं उठाया गया।

मनुष्य में देवत्व के उदय का संकल्प

बेटे! हमने ईमानदारी के साथ अपने प्रत्येक परिजन को ऊँचा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और न छोड़ेंगे। यह बीड़ा हमने उठाया है। जो बात मैंने अभी आपसे कही थी कि गुरुजी ने एक ख्वाब देखा था—"इनसान में देवत्व के उदय का" यह हमारा संकल्प है। अभी यह संकल्प पूरा नहीं हुआ है। ख्वाब तो पूरा हो गया है, लेकिन संकल्प के पूरा होने में अभी बहुत देर है। उस संकल्प को पूरा करने के लिए आपको तैयारी करनी है। रही आपके घर-गृहस्थी की बात, जो आप नहीं कह पाए, वह पूरी हमको मालूम ही है।

यह बात अलग है कि कोई आपके ऐसे भोग हैं, जिनमें हम आपकी मदद नहीं कर सकते। यह तो भगवान राम भी नहीं कर सके। जिनको भगवान कहते हैं, वे भी अपनी माँ के वैधव्य को नहीं मिटा सके; क्योंकि राजा दशरथ जी को श्रवण कुमार का शाप लगा हुआ था और उनकी माँ विधवा हो गईं और बेटे के वियोग में विलाप करते हुए उनका देहावसान हो गया।

भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा के बेटे को नहीं बचा सके। सुभद्रा ने कहा था—"भाई! तुम्हें सब भगवान कहते हैं और तुम भगवान हो, तो तुम्हारे होते हुए तुम्हारे अकेले भानजे अभिमन्यु की मौत हो गई। उसका वध हो गया और तुम देखते रहे। तुम कैसे भगवान हो और तुम कैसे भाई हो? मैं अकेली तुम्हारी बहन हूँ। तो उन्होंने यह जवाब दिया—"बहन! कर्मबंधन से भगवान भी अलग नहीं है। मैंने भी जो पूर्वजन्म में बालि को मारा था, वह तीर अभी सुरक्षित रखा है और मेरे भी पैर में सेप्टिक होगा और मैं भी मारा जाऊँगा, तो फिर तेरे बेटे को कैसे बचाता?"

बेटे! यह बात अलग है कि जिनके प्रारब्ध जन्म ऐसे ही जटिल हैं, जो नहीं हट सकते, लेकिन कैसी भी आपकी संकट की घड़ी क्यों न हो, चाहे आपका वह संकट न टला हो, लेकिन उसमें आप दुःखी हैं, आप द्रवित हैं, उसमें हम शामिल हैं। उसमें हम आपको हिम्मत दे रहे होंगे, आपको साहस दे रहे होंगे। बेटे! संकट का सामना सबने किया है, तू कैसे दुःखी हो रहा है। आने दे देखा जाएगा। ऐसे ही रोता रहेगा क्या? ऐसे ही कर्म को, ऐसे ही तकदीर को पकड़े बैठा रहेगा? नहीं, जो तेरे साथ में फल और कर्तव्य बँधे हैं, उनका तू सामना कर। उसका तू पालन कर। कृष्ण ने तो केवल अकेले अर्जुन को ज्ञान दिया था और हम बेटे लाखों को देंगे।

हम कृष्ण तो नहीं बने हैं, भगवान राम भी नहीं बने हैं। भगवान-तो-भगवान ही होता है और इनसान इनसान ही होता है, लेकिन जिस इनसान में भगवान के गुण होते हैं, वह भगवान से कम भी नहीं होता, यह हम भी कहते हैं। गुरुजी तो नहीं कहते, लेकिन हम कहते हैं। इस बात को मैं कहती हूँ कि जिसके अंदर भगवान के वो गुण विद्यमान हैं, वह भगवान से कम कहाँ है ? भगवान से कम है तो फिर बुद्ध को भगवान क्यों कहा है ? राम को भगवान क्यों कहते हैं ? कृष्ण को भगवान क्यों कहते हैं ?

बेटे! इसलिए कहते हैं कि अपने स्वार्थ को त्याग करके वे परमार्थ में लग गए। सारा-का-सारा विश्व उनका अपना था। यही भगवान के गुण हैं, जो कूट-कूटकर भरे हुए हैं। बेटे! हम आपके दुःख में, कष्ट में सहायक हैं। सुख में हम सहायक है कि नहीं, इसे छोड़ दो। उसमें तो शायद सहायक नहीं होंगे; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति सुख में भूल जाता है। भगवान को भूल जाता है, गुरुजी को भूल जाता है, सब को भूल जाता है। दुःख में सब याद आते हैं । दुःख में सब मैया-मैया ही करते हैं। करते हैं कि नहीं करते? जरा दरद होने दे, फिर मुँह पर होगा—अरे मैया मर गया, मर गया। यही करते हैं न? और सुख में जब सब ठीक होता है, तब न कोई मैया याद आती है और न कोई बाप याद आता है और न भगवान याद आता है।

भगवान तो परे गया, जिसने जन्म दिया है, वही याद नहीं आता। सुख में रहने दीजिए, पर दुःख में हम जरूर शरीक रहेंगे। बेटे! हम कबूतर और कबूतरी नहीं हैं, जो अग्नि में प्राण देंगे, लेकिन हम आपका साथ देंगे। जीवनपर्यंत तक देंगे और हम नहीं भी रहेंगे, तो जहाँ कहीं भी हमारी जीवात्मा रहेगी, वह आपके साथ जुड़ी रहेगी। अपने ऊपर आप छाया के तरीके से अनुभव कर रहे होंगे कि हम किसी पेड़ के नीचे बैठे हैं। इस छाया के नीचे बैठे हैं। हमको शीतलता मिल रही है। हमको संतोष मिल रहा है। हमको प्रेरणा मिल रही है।

बेटे! यह सब आपको हरदम मिलती रहेगी, क्योंकि हमने आपकी उँगली पकड़ी है और आपने हमारे आँचल को पकड़ा है। आप हमारे बच्चे हैं, हम आपके माता और पिता हैं। पिता आपके लिए साधन जुटाएँगे और माँ आपके लिए ममता जुटाती रहेगी। आपको प्यार देती रहेगी और आपकी पीठ को थपथपाती रहेगी। पिता आपको ज्ञान देगा, आपको आत्मबल देगा, आपको साहस देगा और माँ आपको मनोबल देगी। बेटे! जिस रास्ते पर आपका बूढ़ा पिता, आपका बूढ़ा गुरु चल रहा है, उस रास्ते पर चलने के लिए आपकी माँ आपको प्यार से कहेगी, आपको धमकाकर कहेगी। जो भी युक्ति होगी, जो भी हथकंडे होंगे, वह लागू करेगी और कहेगी कि बेटे! चल, चल। तुझे चैन से नहीं बैठने देंगे। इसे चाहे आप हमारा संकल्प कहिए, चाहे यह कहिए कि कोई माँ-बाप क्रूर होते हैं न, जब देखो दबाते ही चले जाते हैं। जब देखो डाँटते ही चले जाते हैं। बेटे! क्रूरता तो नहीं है, लेकिन हम हर व्यक्ति को ललकारते हैं और झकझोर करके कहते हैं कि बेटा क्या करता है? क्या कायर की तरह से जिंदगी जिएगा?

बेटे! आज सारा विश्व यह देख रहा है कि कोई है क्या, हमको शीतलता देने वाला? कोई नहीं है, केवल आपका मिशन है, जो शीतलता दे सकता है, जिसके कि आप अनुयायी हैं। जिससे कि आप जुड़े हुए हैं, जिसके आप हैं और मैं हूँ। इन लड़कियों से भी कहूँगी कि बेटियो? अपनी खुदगर्जी के लिए मत रहना। पति की सेवा भी करो, बच्चों की सेवा भी करो, लेकिन इस मोह-जंजाल में उलझकर मत रह जाना। आपसे भी यही कह रही हैं कि आपको घर-घर जाना होगा। भगवान बुद्ध के जमाने में जो भिक्षु और भिक्षुणी थे, अलख जगाने के लिए वे घर-घर जाते थे। आपको भी मैं कहूँगी कि आपको घर-घर जाना है। संभव है कि आपका क्षेत्र सीमित हो। आप जहाँ के निवासी हैं, जहाँ आपका मुहल्ला है, जहाँ आपका परिचय क्षेत्र है, इससे जरा आगे तक आपको जाना है। आप छोटी जगह में हैं तो आप एक काम कीजिए कि दो से पाँच बजे तक का जो फालतू समय बचता है, उसमें आप लोगों का जन्मदिन मनाइए। बाल संस्कार जो हैं—मुंडन संस्कार से लेकर विद्यारंभ संस्कार तक कराइए।

बेटे! आप लोग इनका सहयोग कीजिए। मैं तो कहती हूँ कि घर-गृहस्थी के काम में भी सहयोग कीजिए। घर के काम में हाथ नहीं बँटा सकते, तो मनोबल बढ़ाने में तो हाथ बँटा ही सकते हैं। हाथ बँटाइए, फिर देखिए कि आपकी सहयोगी होती हैं कि नहीं। फिर आप यह कभी भी नहीं कहेंगे कि माताजी। क्या करें हमारी पत्नी हमारा सहयोग नहीं करती। तो क्या करती है? जब जाते हैं, तभी लड़ाई शुरू कर देती है। धत् तेरे की, मुँह से लड़ती है कि तेरे साथ मार-पीट भी करती है। नहीं, मार-पीट तो नहीं करती है, तो फिर तू क्यों लांछन लगाता है उस पर? अपने हाई टेंपरेचर को डाउन कर उसका सहयोग करिए। जरा-सा काम होता है और सारा दिन खट-खट् लगी रहती हैं। एक पति और एकाध बच्चा होता है और बस, सारा दिन उसी काम में लग जाता है। जाने क्या-क्या करती रहती हैं, मालूम नहीं।

आप हमारे सामने सौ आदमी बैठ जाइए। आपको एक घंटे में खाना न खिला दें तो फिर चाहे जो कहना। क्यों? बनाने का एक तरीका होता है, एक ढंग होता है। बनाने का तरीका न हो तो? आपको मालूम नहीं है। ऊपर बैठी-बैठी देखती रहती हूँ और सुबह तो जाती नहीं, शाम को जाती है। ऊपर से देखती रहती हूँ कि जाने कितने बैठे हैं और फिर मुझे नाराज होना पड़ता है। टेलीफोन पर कहना पड़ता है कि इतने जन बैठे हैं, कैसे इतनी देर लगा ली। अभी चूल्हे की लकड़ी नहीं जली है तो गैस तो जल ही रही है। गैस पर रख दो।

बेटे! कहने का मतलब यह है कि काम का एक फेर बना लो। काम का फेर हम बनाते नहीं, इसलिए हमारा सारा कार्य बिखरता हुआ चला जाता है। चाहे वह लड़के हों, चाहे लड़कियाँ हों, जब तक अपना टाइम टेबल नहीं बनाएँगे, तब तक वो व्यस्तता छाई रहेगी और आप कोई लोकोपयोगी काम नहीं कर सकेंगे। यह न आप कर सकेंगे और न आप कर सकेंगे। माताजी! हमको नौकरी से छुट्टी नहीं मिलती। हमको व्यापार से छुट्टी नहीं मिलती। बेटे! इस जन्म में तो नहीं मिलेगी, अगले जन्म में भी नहीं मिलेगी। जब देखो बहाना करता रहता है। बहाना मत करिए। उस समय में से ही आप निकालिए। देखिए, गुरुजी ने सारा संपादन किया, लेख लिखते हैं। उनका कितना व्यस्त जीवन है। बेटे! मैं समझती हूँ कि एक मिनट का हजारवाँ हिस्सा भी ऐसा नहीं होता, जो चिंतन से खाली हो। फिर भी अपने परिजनों से मिलते भी रहे हैं। पहले सुबह से शाम तक कितनी भीड़ लगती थी। उसको निपटाते भी रहते थे और अन्य कार्यों को भी करते रहते थे। लेखन भी करते थे। सारे-का-सारा समय लोग बाँधे बैठे रहते थे, फिर भी उनका समय कैसे बच जाता था, आपका क्यों नहीं बचता? आप भी बचा सकते हैं। आप उसमें से टाइम निकाल लीजिए।

युग की यही पुकार

बेटे! आप तो हमारे लिए इनसे कम नहीं हैं। लड़कों से कम लड़कियाँ नहीं हैं। लड़कियाँ मुझको बहुत प्यारी लगती हैं। बेटी अपने दुःख में, कष्ट में आप हमेशा याद करना। हम आपके लिए हमेशा तैयार रहेंगे। आप जैसा कहेंगी, हम वैसा ही करेंगे। आपके आँसुओं को पोछेंगे। आपको अपने कलेजे से लगाएँगे। आप हमारी बेटियाँ हैं। आपके दुःख-दरद को हम समझते हैं। वस्तुतः आप सताई हुई हैं, इसमें कोई शक नहीं है। उनको बुरा लगे-तो-लगे, लेकिन मेरी तो बेटियाँ हैं।

हमको और गुरुजी को बेटियाँ बहुत प्यारी लगती हैं। मैं यहाँ आई तो भी मैंने ढेरों लड़कियाँ बुला लीं। 26 कन्याएँ थीं, जिन्हें यहाँ पर रखा। सबने बी.ए., एम.ए. किए। सबके ब्याह-शादी किए और सब अपने-अपने घर गईं। तो आप उनसे कम हैं क्या? आप में तो शैलो की छबि देखती हूँ और ये मेरे जो लड़के बैठे हैं, बेटे! आपको मैं सतीश से ज्यादा मानती हूँ। आप सभी अध्यात्म से जुड़े हैं, सिद्धांतों से जुड़े हैं। आप भावनाओं से जुड़े हैं। आप प्रत्येक लड़के हमारे सतीश से ज्यादा हैं। आपके पुरुषार्थ को फिर एक बार मैं ललकारती हूँ और कहती हूँ कि बेटे, आपको हिम्मत के साथ शौर्य और साहस के साथ आपको खड़ा होना ही होगा और आप खड़ा होकर के ही रहेंगे।

बेटे! आज युग की पुकार है, आज मानवता की पुकार है और सारे संसार की पुकार है, जो आपकी ओर निहार रहा है। आपको पूरी हिम्मत और ताकत के साथ खड़ा होना ही होगा। यह मुझे पूरी-पूरी उम्मीद है और गुरुजी को यह आशा है कि अपने बच्चों को, अपने परिजनों को, अपने सहयोगियों को जो कार्य सौंपा है, वह पूरा हो करके रहेगा। हमारा कार्य हमेशा पूरा होता रहा है और आगे भी उसी प्रकार पूरा होता रहेगा। आपने जो यह समय निकाला और यहाँ तक आए और यहाँ कुछ कष्ट-कठिनाइयाँ भी सही होंगी। हमने देखा है आप यहाँ भीगते हुए आए हैं।

एक बार गुरुजी की खबर आई कि आज पानी पड़ रहा है। तुम मत जाना। मैंने कहा कि नहीं साहब! मैं जरूर जाऊँगी। ये बच्चे जब भीगते हुए आए हैं, यहाँ ऊपर तक आए हैं, तो मुझे जाने में क्या बात है? मैं जरूर जाऊँगी। बेटे! आपको यहाँ पर जरूर दिक्कतें हुई हैं। भोजन के समय दिक्कतें हुई हैं, आपके ठहरने संबंधी दिक्कतें हुई हैं। प्रशिक्षण में भी आपको कठिनाइयों आई हैं, पर यह तो अपना घर है न, यह आपकी माँ का आँगन है, जिसमें आप एक महीने खेले हैं, अपनी सारी गृहस्थी को भूलते हुए। भूल गए? हाँ भूल गए। आपको यह महीना याद रहेगा, देखना बेटे, आपको वहाँ कई दिन तो नींद नहीं आएगी और गुरुजी, माताजी दिखाई देते रहेंगे, शान्तिकुञ्ज दिखता रहेगा आपको। न मानें तो देख लेना आप। हम आपके साथ हैं, आपके लिए हैं।

बेटे! हम आपके जीवन-रथ को इसी प्रकार सँभालते रहेंगे, जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की बागडोर सँभाली थी। हम पति-पत्नी आपके जीवन के रथ के पहिया बनेंगे और आपके रथ को चलाएँगे, पर आप डगमगाना मत, अपने साहस को मत जाने देना। अपनी भावनाओं का परिष्कार करना। अपने सिद्धांतों का परिष्कार करना। जिस उद्देश्य के लिए आपको यहाँ बुलाया गया है और आपने समय खरच किया, आपने पैसा खरच किया, तो आपको यह सब सार्थक लग जाएगा। अब मुझे और ज्यादा कुछ नहीं कहना है। इन्हीं शब्दों के साथ हमारा और गुरुजी का बेटे आप सबको बहुत-बहुत प्यार और आशीर्वाद।

॥ॐ शान्तिः॥