-- Mobile Metas
--> -- Library CSS
--> -- Copying the selected text to user clipboard
-->


 241. शासन तन्त्र से सम्बन्धित कुछ उपयोगी सुझाव
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

समाज संगठन का सशक्त स्वरूप अब सरकार को ही माना जाना चाहिए। कोई समय था, जब अनुभवी, ईमानदार और प्रतिष्ठित व्यक्तियों को पंच बना दिया जाता था और वे सद्व्यवहार की सत्परम्पराएँ चलाते रहने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। ऐसे अवसर कम ही आते थे, जिनमें सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया गया हो और अपराधियों को प्रताड़ना, भर्त्सना एवं क्षतिपूर्ति के लिए बाधित होना पड़ा हो। इस प्रक्रिया में निश्चयों को कार्यान्वित करने में विलम्ब भी नहीं लगता था। वादी प्रतिवादियों के सिर पर न्याय व्यवस्था का कोई खर्च भी नहीं पड़ता था। गवाहों की खानापूर्ति करने की अपेक्षा पंच लोग ही झंझटों की तह तक जाकर वस्तुस्थिति का पता लगा लेते थे। साक्षी मात्र प्रतिष्ठितों की, न्यायप्रिय लोगों की ही उपयुक्त मानी जाती थी। भाड़े के अप्रामाणिक व्यक्तियों की भीड़ लगाने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। दूर न्यायालयों में जाने का खर्च भी नहीं पड़ता था और समय भी व्यर्थ नहीं जाता था। पंचायतें सत्प्रवृत्तियों के संचालन और दुष्प्रवृत्तियों के दमन का कार्य स्वयं ही कर लेती थी। उनके पीछे लोकमत होता था। इसलिए निर्देशनों के उल्लंघन की हिम्मत भी किसी की नहीं पड़ती थी। केन्द्रीय सरकार को हस्तक्षेप तब करना पड़ता था, जब पंचायतों के निर्णय से अधिक का कोई झंझट सामने आता था। देशों की, सीमा सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वे सरकारें ही उठाती थी। उनके खर्च के लिए लोग अपने उपार्जन का छठा अंश राज्य कोष में पहुँचा देते थे।

अब वह समय नहीं रहा। पंचायतें दुर्बल हो गई। उसका कार्य सरकार को करना पड़ रहा है। शिक्षा, चिकित्सा, संचार, परिवहन आदि के लोकोपकारी कार्य भी उसी के जिम्मे हैं और अपराधों, अपराधियों से भी वहीं निपटती है। बाह्य आक्रमणों एवं आन्तरिक विग्रहों को दबाना भी उसी का काम है। अपने देश में प्रजातन्त्र है। प्रजा द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही सरकार के छोटे-बड़े संस्थानों को चलाते हैं। अफसर और कर्मचारी निर्धारित कार्यों की पूर्ति के लिए अपना पूरा समय लगाते हैं।

शासन का स्वरूप जनता द्वारा, जनता के लिए राज्य करना है। इसकी प्राथमिक और सर्वोपरि सत्ता मतदाता के हाथ में है। इसलिए सुशासन के लिए आवश्यक है कि मतदाता दूरदर्शी और विवेकवान हो। ऐसे व्यक्तियों को मत दें, जो सच्चरित्रता और सुव्यवस्था की कसौटी पर खरे सिद्ध हो सकें। अपना परिचय और मन्तव्य संक्षेप में मतदाताओं को बता दें। यह प्रचार कार्य इतना मँहगा नहीं होना चाहिए कि प्रत्याशी को अपने बर्तन बेचने पड़े। न मतदाता उनसे किसी प्रत्यक्ष-परोक्ष रिश्वत की आशा करें। अच्छा हो, प्रबुद्ध मतदाता ही चुनाव की प्रक्रिया अपने कंधों पर उठायें और प्रत्याशी को चापलूसी या धन बर्बादी के लिए बाधित न होना पड़े। जिस प्रकार प्रतिनिधि चुनने का जनता को अधिकार है, उसी प्रकार उसे यह भी अधिकार रहे कि अयोग्य या अपराधी सिद्ध होने पर उसे उसी मतदान द्वारा वापिस बुला सकें।

सरकारी प्रतिनिधि संभाव एवं संविधान बनाती या नीति निर्धारित करती है। निर्णयों को कार्यान्वित करने का दायित्व अफसरों या कर्मचारियों का होता है। इसलिए उन्हें नियुक्त करते समय मात्र उनकी शिक्षा ही नहीं, पिछले जीवन की नीतिमत्ता एवं सेवा भावना भी परखी जानी चाहिए। इन दिनों यह नियुक्तियाँ २१ से २५ वर्ष तक की आयु वालों की होती हैं। इसमें परिवर्तन होना चाहिए। अनुभव ३० वर्ष से कम आयु में किन्हीं बिरलों में ही देखा गया है। अनुभवहीनों को मात्र शिक्षा के आधार पर महत्त्वपूर्ण पद देना गलत है। जिनका सरकार पर प्रभाव है, राजनीति में दखल है, वे बड़ी आयु के अफसरों की नियुक्ति पर जोर दें। वे आलसी प्रमादी न हों, रिश्वतखोरी न करें इसकी जाँच पड़ताल करते रहना सरकार का अपना काम है। इन दिनों जनता में रिश्वत देने वाले और अफसरों में लेने वालों की संख्या बढ़ गई है। फलतः अनुचित कार्य होते रहते हैं और उचित मार्ग अपनाने वालों को हैरानी का सामना करना पड़ता है। यह प्रक्रिया रोकी न जा सकी, तो न्याय और नीति के पैर उखड़ जायेंगे और अनौचित्य की तूती बोलेगी।

न्यायपालिका एवं कार्यपालिका की कार्य विधि ऐसी हो कि कम से कम समय में प्रतिवेदनों का निपटारा हो जाया करे। इन दिनों निर्णयों में बहुत समय लगता है और तारीखें बार-बार आगे बढ़ाई जाती रहती हैं। इसे लाल फीताशाही कहते हैं ।। इस कारण सरकार से जो आशा की जाती है, वह बहुत मँहगी पड़ती है, फलतः संबद्ध व्यक्ति बुरी तरह खीजते हैं और विश्वास उठ जाने से कानून अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रक्रिया के कारण नये किस्म के नये उपद्रव उठ खड़े होते हैं, मूल बात पीछे रह जाती है।

शासन तन्त्र बहुत मँहगा हो गया है, इसलिए हर क्षेत्र में टैक्सों की बढ़ोत्तरी निरन्तर होती जाती है। शासन इतना खर्चीला न हो। आवश्यकता से अधिक लाग न रखे जाय और इतना वेतन हो जितने में देश का मध्यवर्ती समाज गुजारा करता है। इन दो बातों पर ध्यान दिया जाय और कर्मचारियों की चुस्ती, फुर्ती एवं ईमानदारी की विश्वस्त जाँच पड़ताल होती रहे, तो जनता और अफसरों के बीच जो खाई चौड़ी होती जाती हैं वह न हो। इन दोनों के कारण सरकार की लोकप्रियता घटती है और जन साधारण की देशभक्ति भावना में कमी आती है। लोग सरकारी निर्देशनों, सुझावों, योजनाओं पर ध्यान भी नहीं देते हैं। यह स्थिति सरकार और जनता दोनों के लिए ही अशोभनीय है।

अपराधियों को दण्ड मिलने की प्रक्रिया इतनी झंझट भरी तथा हल्की है कि उसका दबाव अपराधियों पर नगण्य जितना पड़ता है। उनमें से अधिकांश कानूनी पेचीदगियों के कारण तथा गवाह न मिलने के कारण छूट जाते हैं। जमानत पर छूट आने से वे फिर आतंक पैदा करते हैं और गवाहों को धमकाते हैं। यदि सचमुच ही अपराधों में, अपराधियों में कमी करनी है, तो दण्ड व्यवस्था कड़ी होनी चाहिए और पीड़ित पक्ष को गवाहियाँ जुटाने के दायित्व से मुक्त करना चाहिए। वस्तुस्थिति का पता लगाना सरकार और पंचायत तन्त्र को किसी समन्वित समिति के हाथ सौंपा जाय। अन्यथा अपराधियों को दण्ड मिलना संभव न रहेगा।

कर चोरी और काले धन की वृद्धि में जहाँ व्यापारी दोषी हैं, वहाँ कर लगाने और वसूल करने की वर्तमान पद्धति भी कम दोषी नहीं है। उत्पादन कर एक जगह लगा दिया जाय और हर साल का लेखा जोखा लेने में जो आमदनी बढ़े, उस पर टैक्स ले लिया जाय। ऐसे ही दूसरे तरीके भी हो सकते हैं, जिनके कारण कर चोरी और काले धन की अभिवृद्धि निरन्तर होती जाती है। यदि यह दबाया हुआ पैसा खोला जा सके, तो उससे उद्योगों की वृद्धि हो सकती है और बेरोजगारी घट सकती है।

देहाती उपयोग की वस्तुएँ कुटीर उद्योग के अन्तर्गत गाँवों में ही बनें। बड़े मिलों को उनकी प्रतिद्वन्द्विता न करने दी जाय। सरकारी तन्त्र के अन्तर्गत कच्चा माल देने, बना माल खरीदने की व्यवस्था रहे तो लाखों बेरोजगारों को काम मिल सकता है। बेरोजगारी के कारण जो अनेकों प्रकार के विग्रह पनप रहे हैं, उनमें रोकथाम हो सकती है।

शिक्षा का ऐसा क्रम बने कि जूनियर हाई स्कूल या हाई स्कूल स्तर की शिक्षा को व्यापक बनाया जाय। उसको व्यक्तिगत आधार पर भी पनपने दिया जाय। जीवन में निरन्तर काम आने वाले शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का इस अनिवार्य शिक्षा में समावेश हो। इतिहास, भूगोल, रेखागणित जैसे काम न आने वाले विषयों का परिचय मात्र एक पुस्तक में करा दिया जाय। इसी बीच गृह उद्योगों का व्यावहारिक शिक्षण भी चलता रहे। कालेज स्तर की शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाय। जो विशेषज्ञ बनना चाहे, उन्हीं के लिए कालेजों के द्वार खुले रहे। नौकरी के लिए पढ़ाई का भ्रम विद्यार्थियों और अभिभावकों के मन में से निकाल दिया जाना चाहिए।

विविध विषयों की रात्रि पाठशालाओं की नई व्यवस्था चले, महिलाओं के लिए मध्याह्न पाठशालाओं की। इनमें साहित्यिक विषय कम और व्यावहारिक विषयों की बहुलता रहे।

वार्षिक परीक्षाओं की पद्धति दोषपूर्ण है, उसमें अयोग्य लड़कों को हथकंडों के आधार पर उत्तीर्ण होने की गुंजाइश है। मासिक या द्वैमासिक परीक्षाएँ होने लगें। मात्र पुस्तकीय ज्ञान ही न आँका जाय, वरन् प्रतिभा, चरित्र एवं लोकसेवा जैसे विषयों में भाग लेने की भी जाँच पड़ताल होती रहे। इन मासिक परीक्षाओं के अंक जोड़कर ही वार्षिक परीक्षा मान ली जाय।

भारत में सामाजिक कुरीतियों की भरमार है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इच्छा चलने रहने की छूट न मिलनी चाहिए। समाज सुधार के कुछ कानून हिन्दू सम्प्रदाय के लिए बने हैं, जबकि दूसरे सम्प्रदाय उनसे मुक्त रखे गये हैं। बहुविवाह, पर्दाप्रथा जैसी बुराइयाँ सभी वर्गों से हटनी चाहिए।

आरक्षण जाति विशेष को न दिया जाय, जिनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति सचमुच ही गिरी हुई है, उन सभी को आरक्षण का लाभ मिले, जबकि आजकल अनुसूचित जाति के नाम पर सुसम्पन्नों को भी वह लाभ मिलता है, जो वस्तुतः पिछड़ों को मिलना चाहिए। इन दिनों वनवासी आदिवासी वर्ग सचमुच ही ऐसा है, जिसको जन सामान्य के स्तर तक लाने की विशेष चेष्टा की जानी चाहिए।

प्रौढ़ शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। ७० प्रतिशत प्रौढ़ों की शिक्षा उपेक्षणीय नहीं है। पुरुषों के लिए रात्रि पाठशालाएँ और महिलाओं के लिए अपराह्न शालाएँ स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से चलाई जाय। इसके लिए ऐसी संस्थाओं के संगठन और संचालन के लिए शासक समुदाय अपने प्रभाव का उपयोग करके लोक सेवी संस्थाओं के निमित्त आवश्यक उत्साह पैदा करें।

बाल विवाह, बहु विवाह और बहु प्रजनन, बड़े प्रीतिभोज, भिक्षा-व्यवसाय के विरुद्ध कड़े कानून लागू किये जाय। ढीले पोले कानूनों का रहना, न रहना समान है। यदि इन सामाजिक बुराइयों को सचमुच ही रोकना है तो लोगों की नाराजी का, वोट कटने का ध्यान रखे बिना, इन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए और अपराधियों को ऐसे दण्ड देने चाहिए जिससे दूसरों के भी कान खुलें।

कन्या शिक्षा के पाठ्यक्रमों में उन विषयों को जोड़ा जाय जो उनके पारिवारिक जीवन के हर पक्ष पर प्रकाश डालते हों, साथ ही आपत्ति के समय कुछ कमा सकने जैसे गृह उद्योग भी आवश्यक रूप से पढ़ाये जायें। इन विषयों को बढ़ाने के लिए उनको कम किया जा सकता है, जो स्कूल छोड़ते ही विस्मृत हो जाते हैं और कभी किसी काम नहीं आते।

छात्र संस्थाओं की मार्फत विद्यालयों का सादा जीवन उच्च विचार की विद्या कार्यान्वित की जाय। इन दिनों वहाँ के वातावरण में उच्छृंखलता के तत्व प्रवेश करते जा रहे हैं, उन्हें निरस्त करने के लिए अध्यापक और विद्यार्थी मिल जुलकर काम करें।

स्वयंसेवी संगठनों की मार्फत प्रौढ़ शिक्षा की ही तरह हर गाँव में व्यायाम शाला की स्थापना कराई जाय, जिसमें हर स्तर के बाल वृद्धों को उनकी स्थिति के अनुरूप व्यायाम कराये। इसके साथ ही स्वस्थ रहने से सम्बन्धित सभी विषयों का संक्षिप्त समावेश हो। फर्स्ट एड, रोगी परिचर्या, धात्री कला, शिशु पोषण जैसे विषय इन व्यायाम शालाओं के साथ ही बौद्धिक शिक्षा के रूप में पढ़ाये जाय।

प्रौढ़ शिक्षा और व्यायाम आन्दोलन के लिए ऐसी पाठ्य पुस्तकें रहे जिनमें आज के व्यक्ति, परिवार और समाज की सभी समस्याओं का स्वरूप और समाधान संक्षेप में किन्तु सारगर्भित रूप से चलाया जाय।

देहातों में ग्रामीणों के सामने उपस्थित सभी समस्याओं के कारण और निवारण बताने वाले छोटे १६ मिलीमीटर के सिनेमाघर बनाये जाय। जिसके टिकट स्वल्प दामों के हों। उनके लिए सस्ते दामों पर दिखाने के लिए रचनात्मक एवं सुधारात्मक फिल्में एक-एक शान्तिकुञ्ज जैसी संस्था बनाती रहें और उसे व्यापक रूप से छोटे-छोटे गाँवों तक पहुँचाने का प्रबन्ध किया जाय। यह योजना सरकार हाथ में लेने के झंझट में न पड़ना चाहे, तो स्वयंसेवी संस्थाओं को यह काम सौंपा जा सकता है।

देश में डाक्टरों, प्रशिक्षित नर्सों एवं इंजीनियरों की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए पाँच वर्ष वाला कोर्स थोड़े से प्रतिभावान एवं सम्पन्न लोग ही पूरा कर सकते हैं। सरकार इनके डिप्लोमा कोर्स दो-दो वर्ष के बनाये और उन्हें देहाती क्षेत्रों में काम करने के लिए भेज दें। ग्राम प्रधान देशों में से कइयों ने ऐसे डिप्लोमा कोर्स जारी किये हैं।

शहरों की बढ़ती आबादी और देहातों से शहरों के लिए भगदड़ यह दोनों ही बातें हानिकारक हैं। इसका विकल्प कस्बों को विकसित किया जाना है। कस्बों में उद्योग लगाये जायें और आस पास के गाँव के लिये सड़कें हो, माल लाने-ले जाने के लिए हल्के पहियों वाली बैलगाड़ियाँ बनें, तो शहरों के विकेन्द्रीकरण का काम सरलतापूर्वक चल सकता है। आज की देहाती तथा शहरी कितनी ही समस्याओं का समाधान हो सकता है।

गाँवों में मल-मूत्र इर्द गिर्द ही सड़ता रहता है, जिससे दुर्गन्ध तथा बीमारी तो फैलती है, साथ ही कीमती खाद का भी भारी नुकसान होता है। इसके लिए सस्ते, बिना सॉकपिट वाले पाखाने, सामूहिक पाखाने, रोड़ी-कंकड़ वाले पेशाब घर, जगह-जगह लगाये जाने चाहिए। कम लकड़ी से जलने वाला चूल्हा भी हर किसी को उपलब्ध हो सके, ऐसा प्रबन्ध किया जाना चाहिए। सम्भव हो तो हैण्डपम्प लगाने की योजना को भी सस्ता और सरकारी तन्त्र के साथ जुड़ा बनाया जाय।

देहाती सस्ते मकानों के लिए खपरैल बनाने की व्यवस्था भी बड़े पैमाने पर जगह-जगह की जाय। सीमेन्ट के ढले हुए पाये भी बन सकें, तो बढ़ती आबादी के लिए घिच-पिच में सड़ने की अपेक्षा सस्ते मकानों की देश व्यापी योजना बन सकती है। इसमें लोहे के स्थान पर बाँस का उपयोग हो सकता है।

स्थानीय सरकारी तन्त्र सरकारी तन्त्र को यह सभी सुझाव दिये जाय और जहाँ जो प्रबन्ध बन पड़ रहा हो, उसमें पूरा-पूरा सहयोग दिया जाय।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 242. समग्र समता ही सुख-शान्ति की आधारशिला
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

दुनियाँ में शान्ति की स्थापना के लिए एकता और समता की आवश्यकता है। एकता की स्थापना के लिए समता आवश्यक है। एक समर्थ, दूसरा असमर्थ रहे तो समर्थ अहंकारिता प्रदर्शन के लिए, अपहरण के लिए उद्यत रहेगा। जो असमर्थ है, वह अपने साथ अनीतिपूर्ण भेदभाव बरते जाने से निरन्तर असंतुष्ट रहेगा। ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिशोध के लिए जो कुछ भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कर गुजरने में चुकेगा नहीं। विग्रह का प्रधान कारण यही है। कारण के रहते न विग्रह का निवारण हो सकता है, न निराकरण। आये दिन युद्ध और विग्रह बने ही रहेंगे। रक्त में विष घुला हुआ हो, तो कोई न कोई रोग उभरता ही रहेगा। एक का उपचार करते-करते सफलता के कुछ लक्षण दीखे नहीं कि नई व्याधि नये रूप में उबल पड़ेगी। हर पत्ते सींचने पर परिश्रम करने की अपेक्षा जड़ में पानी देना चाहिए। शान्ति और स्थिरता के लिये एकता और समता की सोचनी चाहिए। दोनों में समता प्रत्यक्ष होने के कारण प्रमुख है, एकता अप्रत्यक्ष है और वह बाद में आती है।

समता का अर्थ साम्य सबसे प्रबल और प्रमुख है। साम्यवाद में इसी पर जोर दिया गया है। हर व्यक्ति योग्यता के अनुसार काम करे और आवश्यकता के अनुरूप लेता रहे। बचत राष्ट्रकोष में जमा हो। उसे व्यक्ति विशेष के अधिकार में रहने देने से अहंकार बढ़ेगा और दुर्व्यसनों की भरमार होगी। पूँजी राज्य कोष में जमा रहने से उसके द्वारा जनहित के महत्त्वपूर्ण कार्य किये जा सकेंगे। उन उपलब्धियों का लाभ समूचे समुदाय को मिलेगा। यही पारिवारिकता है, परिवार में यही होता है। समर्थ, सामर्थ्य भर काम करते हैं और आवश्यकता के अनुरूप लेते हैं। बचत पूँजी गृहपति के पास जमा रहती है और जब भी परिवार के हित में उसकी आवश्यकता होती है, तभी खर्च कर लिया जाता है। यदि इसमें व्यतिरेक हो, कोई सदस्य अपने लिये अधिक लें और मनमाना अखरने वाला खर्च करें, तो समझना चाहिए कि उस असमानता के कारण एकता नष्ट होगी, कलह मचेगा और परिवार बिखर कर रहेगा। इसी सिद्धान्त को बढ़े रूप में राष्ट्र के व्यापक क्षेत्र में कार्यान्वित करने का नाम साम्यवाद है। इस समूचे साम्यवाद का अर्थ परक एक छोटा अंश कहना चाहिए।

आध्यात्मिक साम्यवाद में अर्थ वितरण का पूरा-पूरा निर्देशन है। कहा गया है कि औसत देशवासी स्तर का निर्वाह हर ईमानदार व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक अपनाना चाहिए। एक को मलाई, दूसरे को चटनी, ऐसा भेदभाव नहीं चलना चाहिए, अन्यथा विद्वेष की आग भड़केगी और भलाई वाला अपेक्षाकृत अधिक घाटे में रहेगा। योग्यता और क्षमता के अनुरूप भरसक काम करने के उपरान्त, जो बचत पूँजी हो, उसे पिछड़ों को बढ़ाने, गिरों को उठाने में हाथों हाथ खर्च कर देना चाहिए। सम्पदा व्यक्ति विशेष के स्वामित्व में संग्रहीत नहीं करनी चाहिए। कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा इस नीति का अच्छा स्पष्टीकरण है-

पानी बाढ़्यो नाव में, घर में बाढ़्यो दाम ।।दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम।।

उलीचने से तात्पर्य सम्यक् वितरण से है। दुर्व्यसनों में, कुपात्रों में उसे अपव्यय करना नहीं। इस तरह का सम्यक् वितरण जहाँ भी रहेगा वहाँ समता के साथ एकता भी बनी रहेगी और इस अनुबन्ध का पालन करने वाला समुदाय सुख शान्ति से रहेगा।

साधन समता, स्थूल प्रत्यक्ष है। इसके मूल में एकता एकात्मता रहनी चाहिए। इसी मनःस्थिति को अध्यात्म की भाषा में आत्मीयता कहते हैं। भावनात्मक दृष्टि समूचे समुदाय में आत्मीयता के सघन सूत्र में आबद्ध होना चाहिए। यहाँ सामाजिक क्षेत्र में जाति और लिंग के बीच बरते जाने वाली असमानता का परिपूर्ण निषेध है। किसी वंश विशेष में जन्म लेने के कारण किसी को ऊँच-नीच नहीं मानना चाहिए। किसी की चमड़ी गोरी काली हो, नाक लम्बी चपटी हो, यह आधार असमानता के नहीं बनने चाहिए। मनुष्य मात्र की एक जाति है, इसके समस्त सदस्यों को समान अधिकार मिलने चाहिए।

यही बात नर और नारी के सम्बन्ध में भी है। दोनों मनुष्य समाज के समानान्तर घटक हैं, गाड़ी के दो पहियों की तरह। शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो नथुने, दो गुर्दे आदि होते हैं। इसमें दाहिने बाँयें होने के कारण किसी का महत्त्व घटता बढ़ता नहीं। इसलिए नारी का मान और महत्त्व नर की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं होना चाहिए। उसके मानवी अधिकारों में कोई कटौती नहीं होनी चाहिए। जो सुविधा एक को प्राप्त है, वह दूसरे को भी मिलनी चाहिए। कानून और प्रचलन परम्परा की दृष्टि से दोनों का स्तर एक होना चाहिए और एक जैसी परिस्थितियों में रहने का अवसर मिलना चाहिए।

यदि प्रथम-द्वितीय गिनना आवश्यक ही हो, तो नारी को उत्पादक के नाते वरिष्ठ माना जाना चाहिए और नर को कनिष्ठ। सभी नारी के पेट से उत्पन्न होते हैं और उसी के पेट में पलते हैं। उसी का दूध पीकर सेवा सहायता से पलते हैं। यह सुविधा न मिले तो किसी को भी जन्मने और जीवित रहने का अवसर नहीं मिल सकता। इसी कारण मानवी शिष्टाचार में नारी को अधिक सम्मान देने का विधान निर्देशन है।

पिछले अन्धकार युग की सामन्तवादी परम्पराओं में जिस प्रकार अमीर-गरीब का भेदभाव बढ़ा, उसी प्रकार जाति-पाँति के नाम पर नीच-ऊँच की मान्यता भी। इतना ही नहीं, एक ही जाति के लोग अपने अन्तर्गत उपजातियों तक में नीच-ऊँच का भेदभाव पनपा और रोटी-बेटी की एकता टूट गई। बढ़त यहाँ तक बढ़ी कि छूत-छात तक का प्रचलन हो गया। अजीब बात भी कि एक इंसान को दूसरा इंसान इतना हेय समझे कि उसे छूने तक में हेठी समझे। जाति-पाँति के इस भेदभाव ने समाज को अनेक छोटे-छोटे खण्डों में बाँट दिया और सामुदायिक एकता का बँटाधार ही हो गया।

नारी के सम्बन्ध में जो रीति-नीति अपनाई गई, उसे तो अत्यधिक आश्चर्यजनक और खेदजनक माना जाना चाहिए। उन्हें घूँघट ओढ़कर रहना चाहिए, मानो उनसे कोई कलंकी जैसा अपराध हो गया हो। अविश्वस्त इतना कि हाट, बाजार और पितृ गृह जाना हो तो उनके साथ एक चौकीदार जरूर रहना चाहिए। कानून नर के लिए अलग, नारी के लिए अलग। पत्नी के मर जाने पर पति दूसरा विवाह कर सकता है, पर विधवा के लिए सर्वथा भिन्न परम्परा है। पुराने समय में पति के मरने पर पत्नियाँ सती होती रही हैं, पर एक भी पति पत्नी के साथ सती नहीं हुआ। स्त्री को पशुओं की तरह सम्पत्ति माना गया और उन्हें दान करने बेचने का रिवाज रहा, पर नर के निमित्त ऐसा ही किया गया हो, ऐसा उदारहण दीख नहीं पड़ता। पुरुष कई स्त्रियाँ रख सकता है, पर नारी वैसा करे तो वह संभव नहीं।

रंग भेद, जाति भेद, लिंग भेद ऐसे प्रचलन हैं, जिनके कारण भेदभाव की, ऊँच-नीच की लकीरें खींची गई है और अकारण ही इंसान से इंसान को विभाजित ही नहीं किया गया, वरन् नीच और ऊँच भी ठहरा दिया गया। यह सर्वथा अन्याय है। गरीब-अमीर का भेदभाव दूर करने के लिए आर्थिक साम्यवाद की लहर अब अध्यात्म क्षेत्र की ओर से उमँगती नजर आ रही है। अब अगला कदम जो उठाना है, वह यह है कि जाति और लिंग के आधार पर बरते जाने वाले भेदभाव का अन्त हो और मनुष्य मात्र को एक जैसे सम्मान के अधिकार का अवसर मिले। सभी के लिए कानून एक जैसे हो। अगला कदम यही है। आर्थिक साम्यवाद की तरह अब सामाजिक साम्यवाद का उदय सुनिश्चित है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच में अलगाव की एक नहीं, अनेक दीवारें खड़ी की गई है। मनुष्य अभिमन्यु की तरह सात सेनाओं के घेरों में अकेला फँसा पड़ा है और मरण की घड़ी समीप आती देख रहा है। विषमता के कुचक्रों में एक है-देशों के नाम पर, भाषाओं के नाम पर, धर्मों के नाम पर, कानूनों, परम्पराओं के नाम पर खड़े किये गये ऐसे बन्धन, जिनमें जकड़ जाने से धरती पर रहने वाला एक मनुष्य प्राणी आपस में एक दूसरे के लिए सर्वथा वीराना होकर रह रहा है। धरती एक है। मनुष्य भी एक है। पक्षी एक देश से दूसरे देश में बिना रोक-टोक के उड़कर पहुँच सकते हैं, वन्य पशु भी इस सम्बन्ध की परवाह नहीं करते और जहाँ भी मन होता है, जहाँ भी रास्ता मिलता है, वहीं बे रोक-टोक जा सकते हैं। अभागा मनुष्य ही ऐसा है, जो देश की सीमा में बंदी की तरह कैद होकर रहने के लिए विवश है।

पशुओं-पक्षियों की अपनी-अपनी एक भाषा होती है। गाय, भैंस, घोड़ा, बकरी अपनी-अपनी बोली संसार भर में एक जैसी बोलते हैं। कौआ, कबूतर, बतख, मुर्गी आदि की भी एक नियत भाषा है। झींगुर, मेढ़क तक संसार भर में प्रायः एक जैसी बोली बोलते हैं। अकेला मनुष्य ही है, जो बीस तीस मील पर अपनी अलग भाषा बोलते हैं। बंगाली के सामने पंजाबी, गुजराती के सामने तमिल गूँगे-बहरे की तरह बैठे रहते हैं। एक दूसरे के सामने अपनी इच्छा, आवश्यकता प्रकट नहीं कर सकते। जिस प्रकार देश-देश के बीच आवागमन के बन्धन हैं, उसी प्रकार भाषा की पृथकता के कारण अभिव्यक्तियों का प्रकटीकरण अवरुद्ध है। धर्मों का तो कहना ही क्या? एक दूसरे को झूठा बताते और सच्चाई की ठेकेदारी अपनी मानते हैं। विधर्मी को अपने धर्म में लाने के लिये प्रलोभन और प्रताड़ना जैसे हेय तरीकों में से कोई तरकीब खाली नहीं जाने देते। विधर्मी की हत्या तक करने में नहीं झिझकते। इस तरह लम्बे समय में इसी निमित्त खून की नदियाँ बहती रहती हैं। श्रेष्ठ चिन्तन और उच्च चरित्र के लिए धर्म बने थे, पर सभी के खुदा इस पर तनिक भी ध्यान नहीं देते, उनके मजहब भर को मान लेने में सारे गुनाह माफ कर देते हैं। धर्मों की भिन्नता के कारण मनुष्य मनुष्य का दुश्मन बना हुआ है और चाहता है कि अन्य लोग अपनी मान्यताओं को बदलकर उसी की बिरादरी में शामिल हों।

यदि एक भाषा मनुष्य मात्र की रही होती तो, लिपि, वार्ता और मुद्रण में कितनी सुविधा होती। उपलब्ध सभी लोग लाभ उठाते। तब साहित्य कितना सस्ता होता और उपलब्ध ज्ञान से लाभान्वित होना सभी के लिए संभव होता। देशों की दीवारें न खड़ी की जाती, तो सभी धरती के पुत्र जहाँ अनुकूलता होती, वहाँ बसते और आजीविका उपार्जित करते। विश्व राष्ट्र के अन्तर्गत सभी देश अपनी हैसियत जिलों जैसी मानते। झंझटों को विश्व न्यायालय या विश्व पुलिस द्वारा निपटाया जाता। कोई देश मात्र की दुहाई न देते और सभी अपने को धरती का पुत्र, सहोदर भाई के समान मानते और हिलमिल कर रहते। सभी का एक धर्म होता, तो इतने देवालयों की पृथक मान्यताओं, दर्शनों, पूजा विधानों और कर्मकाण्डों की क्या आवश्यकता पड़ती। एक ही मार्ग अपनाने से सबका काम चल जाता। सच्चे धर्म के प्रभाव में सज्जन बनते और दुष्टता से घृणा करते, पर आज तो सर्वत्र अपनी ढपली अपना राग बज रहा है। डेढ़ ईंट की मस्जिद बनने और डेढ़ चावल की खिचड़ी पकने की कहावत चरितार्थ हो रही है। इन विलगाव की दीवारों को गिराये बिना काम चलने वाला है नहीं।

व्यवस्था और कानून एक जैसी हो। राजतंत्र, प्रजातंत्र जो भी शासन विधि हो एक हो। कायदे कानून एक जैसे चलें। सभ्यता, संस्कृति सर्वत्र एक जैसी अपनाई जाय। प्रथा परम्पराओं में समानता हो, तो क्यों कोई किसी को अपने से पृथक माने? क्यों चिढ़ाये? क्यों नीचा दिखाये? और क्यों अपनी मान्यता के गुण गायें? अगले दिनों साम्यवाद मात्र आर्थिक ही नहीं, भाषा, धर्म, संस्कृति देशों का भी विश्व स्तर पर एकीकरण करना होगा। विज्ञान के बढ़ते चरणों ने समस्त भूमण्डल को अब एक ग्राम नगर बना दिया है। इन दिनों भी विभेदों को बनाये रखा जाय और परस्पर विग्रह खड़ा किया जाय, तो यह प्रगति न कही जायेगी, अवगति के नाम पर धिक्कारी ही जायेगी।

इस धरती पर मनुष्य ही एक मात्र प्राणी नहीं है। अन्य प्राणियों का भी इस धरती पर रहने का अधिकार है। वे भी मनुष्य के छोटे भाई भतीजे हैं। उनका माँस खाना कितना वीभत्स है। यदि मनुष्य को ज्यादा जगह चाहिए और बढ़ते पशुओं की कमी करनी है, तो मनुष्य की तरह उनका भी परिवार नियोजन किया जाय। उन्हें भी अधिक बच्चे पैदा न करने की वैसी ही विधियाँ खोज निकाली जाय, जैसी मनुष्यों के लिये खोजी गई हैं। अमर्यादित प्रजनन तो मनुष्य के लिए भी मनुष्यों का माँस खाने का द्वार खोलेगा। मनुष्य प्रकृतितः शाकाहारी है। वनस्पति, अन्न, शाक, फल उपार्जित करने पर ध्यान दिया जाय, तो माँसाहार की तुलना में मनुष्य हर दृष्टि से नफे में रहेगा। आत्मीयता की भावना मनुष्य-मनुष्यों तक ही सीमित रखें। अन्य प्राणियों को पराया समझकर उपेक्षा ही न करें, वरन् उसका माँस खाने तक के लिए उतारू हो चले, तो यह समता कहाँ रही? आत्मवत् सर्वभूतेषु का सिद्धान्त कहाँ पला? वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता कहाँ निभी?

यदि कलह और विद्वेष की आग में जलते मरते अपना अस्तित्व मिटाना है, तो बात दूसरी है, अन्यथा समता और एकता के सिद्धान्त को व्यावहारिक जीवन में उतारना पड़ेगा। विभेद की जितनी कृत्रिम दीवारें हमने खड़ी कर ली है, उसे एक-एक करके तोड़ना और विस्मार करना पड़ेगा। इस दिशा में साम्यवाद सही कदम है, पर वह मात्र आर्थिक विषमता दूर करने में समग्र नहीं कहा जायेगा और उतने भर से मात्र आंशिक समस्या ही हल होगी। हमें समग्रता की बात सोचनी चाहिए और ऐसी एकता अपनानी चाहिए, जिनमें बिखराव के विभेद समाप्त हो चलें। समग्र साम्यवाद को अन्य जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों को भी अपने परिवार का सदस्य मानना पड़ेगा। सच्ची और चिरस्थायी सुख शान्ति का यही मार्ग है। इसे जितनी जल्दी जितनी सच्चाई और गहराई के साथ अपनाया जा सके, उतना ही कल्याण है।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 243. दुष्प्रवृत्तियाँ पतन और पराभव का कारण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

जहाँ मित्रों की संख्या एवं घनिष्ठता बढ़ाना आवश्यक है, वहाँ यह भी उपयुक्त है कि शत्रुओं को पहचानें, उनसे दूर रहें और अवसर मिले तो उनसे जूझने का भी प्रयत्न करें। राम और कृष्ण तक को अपने महान प्रयोजनों की पूर्ति के लिए साथी सहयोगी ढूँढ़ने पड़े थे और शत्रुओं के साथ आरम्भ से लेकर अन्त तक जूझना पड़ा था। फिर सामान्य जनों का तो कहना ही क्या, उन्हें भी यह प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। शत्रुओं की दुष्टता प्रतिभावानों के करे धरे पर भी पानी फेर देती है, जबकि मित्र समुदाय डूबते को तिनके जैसी भूमिका सम्पन्न करता है।

हम शत्रु वर्ग से चारों ओर से घिरे रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि मित्रों का सर्वथा अभाव है, पर इतना अवश्य है कि शत्रु अनायास ही चढ़ दौड़ते हैं, अकारण बिना बुलाये ही आ धमकते हैं, जबकि मित्र बनाने और बुलाने के लिए प्रयत्नपूर्वक आग्रह करना पड़ता है।

सिर में जुएँ, खाट में खटमल, कोठे में चूहे, हवा में विषाणु, पानी में जीवाणु बने ही रहते हैं और जब भी उनका दाँव लगता है, तभी आक्रमण करके त्रास देते हैं, कभी-कभी तो उनमें से कोई प्राणघातक संकट तक खड़ा कर देते हैं। मित्र तो सौभाग्यवश ही मिलते हैं। कृष्ण को पाँच पाण्डव और राम को सुग्रीव, हनुमान, नल, नील, जामवन्त जैसे पाँच मिले थे। शत्रुओं की तो इन लोगों को भी कमी नहीं। बचपन से ही दैत्य आक्रमण करते रहे हैं। राम को लंका के असुरों से, कृष्ण को कौरव निरस्त करने के लिए अनेकों ताने-बाने बुनने पड़े, फिर सर्व साधारण को ऐसी आपत्तियाँ न सहनी पड़े, ऐसा हो नहीं सकता। यदि उनकी ओर से उपेक्षा बरती जाय, तो वे सर्वनाश ही कर दें। सर्प-बिच्छू जंगलों में नहीं रहते, घरों में भी आ घुसते हैं और सतर्कता न बरती जाय तो जान के ग्राहक बनते हैं।

शत्रुओं में कुछ बाहर के होते हैं। उन्हें देखा पहिचाना जा रहा है। उनसे नित्य ही आमना-सामना नहीं होता, फिर उनके कारण भी हानि हो सकती है। उसका ध्यान रहता है और प्रतिकार की जैसी भी तैयारी होती है, करते हैं। अपने हितैषी भी सुराग लगाये रहते हैं और वक्त मौके पर उनसे होने वाली हानि का प्रतिकार भी करते हैं, किन्तु कुछ शत्रु ऐसे होते हैं, जो अपने ही भीतर किसी गुफा में छिपकर ऐसे बैठते हैं, कि उनकी आशंका तो क्या कल्पना भी नहीं होती। उनके आक्रमण का सिलसिला भी निरन्तर चलता रहता है। शहतीर में लगा हुआ घुन अपना काम करता रहता है और उसे खोखला बना कर कुछ ही दिनों में धराशायी कर देता है। विषाणुओं की भी यही बात है। क्षय जैसे रोगों के कीटाणु इतने छोटे होते हैं कि खुली आँख से दीख भी नहीं पड़ते, पर जहाँ साँस के साथ फेफड़ों में जा घुसते हैं, तो ऐसी अदृश्य हरकतें करते रहते हैं, जिनसे प्राण जाने की विभीषिका आ खड़ी होती है।

ऐसे ही शत्रुओं में मनोविकार हैं, जो स्वभाव में सम्मिलित हो जाते हैं। वे अपने को विदित भी नहीं होते और खटकते भी नहीं। इतना ही नहीं जब कोई उन्हें सुझाता है, तो निन्दा अपमान समझकर हम बुरा भी मानते हैं। इसलिए मित्र हितैषी भी उनकी चर्चा नहीं करते। अकारण कोई बुराई क्यों बाँधे। जब हमें ही अपने चिन्तन और स्वभाव में घुसे हुए विकार सूझते नहीं तो दूसरा कोई क्यों ढ़ूँढ़ता फिरे। दूसरा कोई हटा भी नहीं सकता। कार्य करना ही हो तो मात्र अपने को ही करना पड़ता है। इस कार्य में कोई मित्र सम्बन्धी, कुटुम्बी भी कुछ कर नहीं सकते। अधिक से अधिक इन शत्रुओं की ओर इशारा कर सकता है और न छोड़ने पर मुसीबत उठाने की चेतावनी दे सकता है। इनसे पीछा छुड़ाना तो अपने ही हाथ की बात है।

आलस्य, प्रमाद, चिन्ता, उद्विग्नता, भय, संदेह, अविश्वास जैसे दुर्गुण ऐसे हैं, जो आदत में सम्मिलित हो जाने पर शत्रुओं द्वारा पहुँचाई जाने वाली हानि से कम नहीं, वरन् अधिक ही पहुँचाते हैं। नशेबाजी इसी वर्ग में आती है। क्रोध, आवेश, आतुरता, शान, सज-धज, शेखीखोरी आदि को भी ऐसे ही शत्रु गिना जाना चाहिए। यह अपनी प्रतिष्ठा गिराते हैं, अप्रामाणिक ठहराते हैं, अविश्वास और ओछा बचकाना सिद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता यदि बनने लगे तो घृणा पनपती है, भर्त्सना होती है और मित्रों की संख्या दिन-दिन घटती जाती है, बुद्धिमान उपेक्षा करते हैं किन्तु जिन्हें बहुत सहनशीलता का सद्गुण नहीं मिला है, वे प्रत्यक्ष निन्दा पर उतर आते हैं और बात बढ़ने पर लड़ने-झगड़ने तक तैयार हो जाते हैं। इतना तो निश्चय है कि दुर्गुणी, मनोविकारग्रस्त लोगों के साथ कोई घनिष्ठता नहीं बनाता, कारण कि यह छूत की बीमारी उनको भी लग सकती है, यह बदनाम ही नहीं करती वरन् पतन पराभव के गर्त में भी धकेल सकती है।

आलस्य एक प्रकार की अपंगता है। लगवा मार जाने पर जैसे हाथ पैर असमर्थ हो जाते हैं, हर काम के लिए दूसरों पर आश्रित रहते हैं, लगभग वैसी ही स्थिति आलसी की होती है। लोहा बेकार पड़ा रहे तो उसे जंग खा जाती है और वह किसी काम का नहीं रहता। आलसी के सम्बन्ध में भी यही बात समझनी चाहिए। वह अपने लिए, दूसरों के लिए कोई महत्त्वपूर्ण काम नहीं कर सकता। यहाँ तक कि परावलम्बी की तरह दिन गुजारता है।

प्रमादी को अधपगला कहना चाहिए जो दिमाग का गंभीरतापूर्वक प्रयोग नहीं करते, जिम्मेदारी लिए हुए कामों पर ध्यान नहीं देते, आधा-अधूरा करके छोड़ देते हैं। जो करते हैं, वह दिलचस्पी के अभाव में फूहड़ों जैसा होता है। विद्वान और प्रवीण भी यदि प्रमादी हो तो अशिक्षितों, अनगढ़ों जैसा कुछ अस्त-व्यस्त ही कर रहा होगा। आलस्य शारीरिक अपंगता है और प्रमाद मानसिक अनगढ़पन। इसके रहते कोई व्यक्ति न नियमित अनुशासित रह सकता है और न तन्मयता के अभाव में किसी सफलता का श्रेय पा सकता है।

अपनी सामान्य हैसियत को असामान्य दिखाने वाले पाखण्डी सज-धज शृंगार, ठाट-बाट बनाते और लोगों की दृष्टि अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ऐसे लोगों का बचकानापन किसी से छिपता नहीं, उन्हें मनचला, ओछा और ढोंगी छली माना जाता है। पैसा, समय, श्रम अपना खर्च करते हैं किन्तु दूसरों की आँख में अपनी इज्जत बढ़ाने का प्रयोजन तनिक भी पूरा नहीं कर पाते, उल्टे उपहासास्पद ही बनते हैं।

आतुरता, जल्दबाजी भी ऐसा ही कुटेव है, जो मन में उठे या किसी के सुझाये हुए काम पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करने देती। जो उमंग उठी उसे छोटे बच्चों की तरह तत्काल करने लगना, यहाँ तक न देखना कि उपयुक्त परिस्थिति और साधन सामग्री है या नहीं। ऐसे लोग किसी के भी बहकावे में आ सकते हैं। अपनी उमंग या दूसरों के बहकावे को भी तत्काल कार्यान्वित करने के लिए उतारू हो जाते हैं। आगे पीछे सोचने की, कठिनाइयों की कल्पना करने तक की जिनमें धीरज नहीं होती, उन्हें बालबुद्धि और उपहासास्पद ही बनना पड़ता है।

क्रोध, आवेश, उत्तेजना एक प्रकार का मानसिक ज्वर है, जिसमें आदमी संजीदगी और समझदारी गँवा बैठता है। सन्निपात ग्रस्त की तरह कुछ भी उल्टा-सीधा बकता है। जो बात अपने को पसंद न आयी, उसी पर आग बबूला हो जाना, सामने वाले को दुर्भावग्रस्त मान बैठना और जो भी जी में आवे, भूत-प्रेत के आवेशग्रस्तों की तरह कहने या करने लगना, क्रोधी के लिए स्वभाव बन जाता है। उन्हें झगड़ालू माना जाता है और दोष अन्यों का रहने पर भी यही सोचा जाता है कि क्रोधी आवेशग्रस्त होकर बकझक कर रहा है। ऐसे लोग सही बात पर भी दूसरों का समर्थन अथवा सहानुभूति अर्जित नहीं कर सकते।

क्रोध का छोटा रूप है, तुनकमिजाजी। जरा-जरा सी बात पर रूठ जाना, बोलना बन्द कर देना, मुँह बिगाड़ लेना, यह ओछेपन की आदत है। संजीदा आदमी भी सामने वाले की गलतियाँ, गलतफहमियों को भी धैर्यपूर्वक सुनते हैं और जब उपयुक्त अवसर देखते हैं तब वस्तुस्थिति समझा देते हैं। ऐसे लोग धीर, वीर, गंभीर माने जाते हैं। ऐसे ही लोगों को भारी भरकम संजीदा कहते हैं।

भविष्य में मुसीबत आने, बने काम बिगड़ जाने, असफलता मिलने, बाधाएँ खड़ी होने की कई लोग चिन्ताएँ करने लगते हैं और हर घड़ी उद्विग्न रहते हैं, भारी काम सिर पर आते ही घबरा जाते हैं और उसे सफल बनाने का मार्ग सोचने, संभावित कठिनाइयों का समाधान सोचने की अपेक्षा हक्का-बक्का हो जाते हैं। ऐसे लोग प्रतिकूलताओं की कल्पना करते और तिल को ताड़ बनाते रहते हैं। उद्विग्न मस्तिष्क इस स्थिति में नहीं रहता कि सही बात सोच सके और सही मार्ग खोज सके। चिन्तित मस्तिष्क उल्टी और बेतुकी बातें सोचने में इतना भ्रमित हो जाता है कि जो सामान्य कार्य सामान्य रीति से हो रहे थे, वे भी उलट-पुलट हो जाते हैं। जिस कारण से चिन्ता थी उसे संभाल लेना तो दूर, उद्विग्न व्यक्ति नई कठिनाइयाँ गढ़ लेता है और उन कठिनाइयों को न्यौत बुलाता है, जिनका चिन्ता के विषय से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था।

भय भी ऐसी मुसीबत है, जो मनुष्य को लो ब्लड प्रेशर वाले व्यक्ति की तरह हड़बड़ा देती और अशान्त कर देती है। रस्सी को साँप और झाड़ी को भूत मान बैठने वाले व्यक्ति तनिक सी बात को पहाड़ जैसी मुसीबत मान बैठते हैं। हाथ-पैर काँपने, दिल धड़कने और सिर चटकने लगता है। भय, कायरता की परिणति है। जिनमें साहस का अभाव होता है, वे छोटे कारण को बड़ा मानकर अथवा कुछ भी कारण न होने पर कुकल्पनाएँ गढ़ कर अपने आप को संकटग्रस्त मान बैठते हैं ।। छोटी सी असफलता मिलने पर इतने निराश हो जाते हैं, मानों अब भविष्य में कोई सफलता मिलेगी ही नहीं। कमजोर तबियत के लोगों को ग्रहदशा उल्टी बताकर ज्योतिषी लोग भी हिम्मत तोड़ देते हैं और वे हर घड़ी विपत्ति आने की संभावना सोचकर निराशाग्रस्त रहते हैं। ऐसे लोगों की रही सही शक्ति एवं हिम्मत भी विदा हो जाती है।

इसी मनोरोग से मिलता जुलता संदेह का, अविश्वास का रोग है। इससे ग्रस्त आदमी अपनों पर, परायों पर लांछन लगाते रहते हैं। कितने ही पुरुष अपनी स्त्रियों को चरित्रहीन होने का कोई प्रमाण न होने पर भी संदेह करते रहते हैं। कइयों पर ऐसा भय छाया रहता है कि किसी ने जादू टोना किया, षड्यंत्र बनाकर कान भरे हैं और अफसरों, मित्रों, ग्राहकों को प्रतिकूल कर दिया है। जबकि इन आशंकाओं में प्रायः तनिक भी सच्चाई नहीं होती। बच्चे के बीमार होते ही किसी की नजर लगने, भूत पलीत का आक्रमण होने जैसी मनगढ़न्त कल्पनाएँ करते रहते हैं।

वस्तु स्थिति समझने के लिए विवेकवान और दोनों पक्षों की संभावनाओं पर विचार करने की क्षमता होनी चाहिए। जिन्हें एक बारगी चिन्तन करना ही आता हैं, वे भले को बुरा और बुरे को भला मान बैठते हैं ।। वह आग्रह ऐसा होता है कि जो किसी के समझाने पर समझता भी नहीं। जिस प्रकार दुराग्रही आवेशग्रस्त अपनी जिद पर अड़े रहते हैं ,, वैसे ही डरपोक आशंकाग्रस्त से भी कुकल्पनाएँ छोड़ते नहीं बनती।

उदास और निराश व्यक्ति को ऐसा समझना चाहिए जैसा बिना तेल का दीपक। मनुष्य उत्साह और साहस के बल पर जीवित रहता, विजयी बनता और आगे बढ़ता है। जिसके अंतराल में उमंगें नहीं उठती, जो नीरस और निस्तब्ध रहता है, जिसे न वर्तमान सुहाता है और न भविष्य की आशा है, वह जिंदगी को भारभूत बनाये टूटे छकड़े की तरह किसी प्रकार ढोता रहता है। जिसका अन्तराल बुझा-बुझा सा रहता है उसके लिए प्रकाश की किरणें किसी भी दिशा में नहीं उठती। अँधेरे में भटकने वाले ऐसे व्यक्ति न उपयोगी सिद्ध होते हैं और न किसी को सहारा दे पाते हैं।

उत्तेजना या अवसाद दोनों ही मानसिक दोष दुर्गुण हैं। मनुष्य को धीर, वीर और गंभीर होना चाहिए। संतुलन किसी भी स्थिति में डगमगाने नहीं देना चाहिए, न सफलता में आपे से बाहर होना चाहिए, न असफलता में हिम्मत हार बैठना चाहिए। प्रयत्नरत मनुष्य आज नहीं तो कल विजय प्राप्त करेगा। जिसकी हिम्मत नहीं टूटी, उसे कोई हरा नहीं सकता। जिसके हौसले बुलन्द हैं, वह नदी की धार चीरते हुए उल्टी दिशा में चलने वाली मछली की तरह हर मोर्चे पर कमाल दिखाता है, कोई अवरोध उसका रास्ता रोक नहीं सकता।

मनोविकारों में उपरोक्त असंतुलन तो जीवन को भारभूत बनाते ही है। इसके अतिरिक्त दुर्व्यसन और पाप पातकों की अपनी बिरादरी है, जो मनुष्य को अच्छी खासी परिस्थितियों को बिगाड़ती और बर्बाद करके रख देती है। नशेबाजी, मटरगश्ती, आवारागर्दी, सिनेमाबाजी, जुआ, सट्टा, लाटरी आदि का चस्का किसी अच्छे खासे को भिखारी बना कर छोड़ता है। सातवें आसमान के सामने सपने देखने वाला जब बहुत ऊँचे से नीचे गिरता है, तो करारी चोट लगती है। यही नहीं महत्त्वाकाँक्षाओं की दृष्टि से शेख चिल्ली के समतुल्य बनता है। कठोर श्रमशील और तत्पर श्रमशीलता के सहारे ही कोई ऊँचा उठता है। अनेक बार मोर्चे पर लड़ने और अड़ने वाले ही विजयश्री का वरण करते हैं। जो मात्र सपने देखना जानते हैं और मुफ्त में ही सम्पन्न हो जाने का दिवास्वप्न देखते हैं, उन्हें पश्चाताप ही हाथ लगता है।

कुुकर्मी इन सब सनकियों से बुरे हैं। वे तात्कालिक लाभ की दृष्टि से अनीति अपनाते और उस पाप के भार से दब मरते हैं। चोरी, बेईमान, ठगी के सहारे जो लक्ष्मी समेटना चाहते हैं वे बदनामी, भर्त्सना और प्रताड़ना ही सहते हैं। तत्काल जो इस प्रकार कमाया था, वह गाँठ की कमाई भी रुलाते हुए साथ लेकर विदा होता है। लम्पट व्यभिचारी क्षणिक स्वाद के लिए अपनों को, साथी को खोखला बनाते और सर्वनाश के गर्त में धकेलते हैं। प्रत्यक्ष व्यभिचार का तो कहना ही क्या? मानसिक कामुकता की कुकल्पनाएँ जिन पर छाई रहती हैं, उनका मस्तिष्क किन्हीं महत्त्वपूर्ण विचारणाओं को अपनाने योग्य नहीं रहता। एकाग्रता तो वे निभा ही नहीं पाते और प्रगतिशील मनुष्यों की पंक्ति में तो खड़े हो ही नहीं पाते।

दुष्टता, क्रूरता, निर्दयता अपने अहंकार की पूर्ति के लिए दुर्बलों को सताते और डकैती, कत्ल जैसे वीभत्स कर्म करते रहते हैं। अपहरण, बलात्कार जैसी उद्दंडताएँ भी ऐसे ही पिशाचकर्मी करते रहते है। दूसरों का गला काटते-काटते बहुधा अपना भी गला काट बैठते हैं ।। ऐसों को नर पिशाच ही कहना चाहिए। नर पशु वे हैं जिनने सामर्थ्य गवाँ दी। नर पिशाच वे हैं, जो अपराधी क्रूरकर्मी की ही योजनाएँ बनाते और जब भी घात लगती है, ऐसे वीभत्स कर्म कर गुजरते हैं। ऐसे लोग प्रायः यह भूल जाते हैं कि इस सृष्टि का कोई नियन्ता भी है और उसकी न्याय व्यवस्था में देर भले ही लगे, पर अंधेर की गुंजाइश तनिक भी नहीं है। भले बुरे कर्म शब्दवेधी बाण की तरह निशाने तक पहुँचने के उपरान्त लौट कर उसी तरकस में आ जमते हैं, जहाँ से उन्हें छोड़ा गया था।

चिन्तन से चरित्र, चरित्र से व्यवहार बनता है। चिन्तन को दूषित कर लेना भी प्रकारान्तर से कुकर्म की पृष्ठभूमि विनिर्मित करना है। मनःस्थिति ही भली-बुरी परिस्थितियाँ बनाती है और उन्हीं के कारण मनुष्य को सुख दु:ख से भरे पूरे प्रतिफल मिलते हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस सिद्धान्त को शत-प्रतिशत खरा उतरते देखा गया है। करने वाले को भोगना पड़ा है। जो खाई खोदता है, बबूल बोता है, उसे अपने किये का दुष्परिणाम निश्चित रूप से भुगतना पड़ता है। गुण, कर्म, स्वभाव यह तीनों ही कर्म की श्रेणी में गिने जाते हैं। यह अच्छे स्तर के हो तो मित्र है और इसमें अवांछनीयता घुस पड़े तो यही शत्रु बन जाते हैं। भीतर घुसे हुए यह शत्रु इतनी हानि पहुँचाते हैं, जितनी सौ बलिष्ठ शत्रु भी मिलकर नहीं पहुँचा पाते।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 244. इक्कीसवीं सदी मानवी बुद्धि को चुनौती
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अब तक लाखों वर्षों का लम्बा समय मनुष्य ने इस पृथ्वी पर रहते हुए, ज्यों-त्यों करके गुजार लिए। भले बुरे दिन भी काट लिए। उत्थान और पतन के कड़ुए-मीठे स्वाद भी चख लिए, किन्तु अगली २१ वीं शताब्दी मनुष्य जीवन के इतिहास में अभूतपूर्व होगी। उसकी झलक झाँकी प्रात कर लेना हम सभी के लिए हितकर होगा। भवितव्यता का पूर्वाभास होना बुरा नहीं अच्छा है। सर्दी, गर्मी और वर्षा के दिन निश्चित होने के कारण मनुष्य पूर्व तैयारी कर लेता है और आकस्मिक हानियों से बचकर नफे में रहता है। अगली शताब्दी अपने साथ अगणित विशेषताएँ लेकर आ रही है। वे ऐसी होंगी, जिन्हें धरती के अद्यावधि इतिहास में सर्वथा भिन्न कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

जिस परमाणु युद्ध की चर्चा इन दिनों होती रहती है, जिसकी तैयारी में समर्थ देश अपनी पूँजी खपाते चले जा रहे हैं। यदि वह कार्यान्वित हुआ तो मानवी अस्तित्व एक प्रकार से समाप्त हो जायेगा। हवा, पानी और वनस्पति में प्रदूषण और विकिरण का जहर भर जाने से इस युग के मनुष्यों और पशु-पक्षियों में से एक भी जीवित न रहेगा। सृष्टा को यदि यह सृष्टि आगे भी चालू रखने की इच्छा हुई तो ऐसे प्राणी और वनस्पति उत्पन्न होंगे, जो विष से भरे हों और विष खाने और पीने की प्रकृति बना लें। अभी आक्सीजन गैस के ऊपर जीवन निर्भर है। कार्बन को मारक माना जाता है। तब हो सकता है कि कार्बन ही जीवन बने और आक्सीजन जो समाप्त हो चुकी होगी, विष वर्ग में गिनी जाय। उन विष पायी प्राणियों और वनस्पतियों की आकृति प्रकृति कैसी होगी और वे किस स्तर की सभ्यता अपनायेंगे, यह ठीक से नहीं कहा जा सकता। सर्प, बिच्छू आदि विषैले प्राणी और कुचला, अफीम, तम्बाकू जैसे विषैले वनस्पति काम आने लगे। धरती भाप बनकर हवा में उड़ गई तब तो कहना ही क्या? इस प्रकार की संभावना और चिन्ता का कोई कारण ही न रहेगा, जिसकी चर्चा इन पंक्तियों में की जा रही है।

हमारा अनुमान है कि अणुयुद्ध यदि हुआ, तो वह सार्वभौम नहीं, क्षेत्रीय होगा। उतनी ही भूमि प्राणियों से रहित होगी, जिसकी पूर्ति अन्यत्र बसे हुए प्राणी कर लेंगे।

इसके बाद दूसरा खतरा वर्तमान बड़े उद्योगों, कल-कारखानों और वाहनों का है। यह सब खनिजों के सहारे चलते हैं। इनमें कोयला, तेल का ईंधन जलता है। बिजली घरों में भी इसी ईंधन की जरूरत पड़ती है। यह वर्तमान गति से खर्च होता रहा तो पचास वर्ष के भीतर ही समाप्त हो जायेगा। तब मोटरें, रेलें, कारखाने सभी बन्द होंगे। धातुओं में लोहा प्रमुख है। जिस क्रम से धातुएँ खोदी और खर्च की जाती हैं, उस अनुपात के चलते यह भी पचास वर्ष से अधिक के लायक इस धरती की परतों में नहीं है। खनिजों का विकल्प अभी नहीं सोचा जा सका। ईंधन की पूर्ति के लिए सूर्य किरणों एवं समुद्र की लहरों से ऊर्जा बनाने की बात सोची जा रही है, पर अभी उस सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। चूल्हा जलाने और खाना पकाने के लायक ईंधन किसी प्रकार उपलब्ध हो सके, तो बहुत। ऐसी होगी इक्कीसवीं शताब्दी।

बढ़ते हुए तापमान से ध्रुव प्रदेश की बर्फ गलने लगेगी और समुद्र उफनेंगे। इतने पर भी आज, जो मीठे पानी का संकट उत्पन्न हो रहा है, वह टल जायेगा। पिघली हुई बर्फ की कोई धारा मनुष्य को मिल जायेगी। सूर्य ताप घटेगा। कारण कि धुआँ ऊपर चलकर सूर्य ताप को रोकेगा। ऐसी दशा में यह भी हो सकता है, बादल कम बने और कम बरसें। ऐसी दशा में मनुष्यों को खाद्य के लिए धरती के उत्पादन से काम न चलेगा। समुद्र का पल्ला पकड़ना पड़ेगा। समुद्री घास शैवाल और जलचर मनुष्य के खाद्य का एक अंश पूरा करेंगे। समुद्रों के ऊपर तैरती हुई बस्तियाँ भी बसाई जा सकती हैं।

अणु आयुध और कारखानों का बढ़ता प्रदूषण यह दोनों मिलकर इतनी समस्याएँ पैदा करेंगे तो उन्हें सुलझाने में मनुष्य को इतनी बुद्धि खर्च करनी पड़ेगी, जितनी कि सृष्टि के आदि से लेकर अब तक मनुष्य ने कमाई और खर्च की है। उत्पादक कारखाने और दौड़ने वाले वाहन, ईंधन के अभाव में बन्द हो जाने के कारण लोग शहरों को छोड़कर देहातों की ओर भागेंगे। गृह उद्योगों से पेट भरने लायक कमा लिया जायेगा। अन्न के स्थान पर लोग आलू, शकरकन्द, प्याज जैसे कन्दों का और कद्दू, तोरई, लौकी जैसे अधिक वजन वाले शाकों का उत्पादन अधिक करेंगे। अन्न कम और शाक अधिक खाया जायेगा। कुछ घासें इस किस्म की हो सकती हैं, जो पालक, मेथी, बथुआ की तरह मनुष्य के खाने के काम आ सकें।

खाने की बात इसलिए कही जा रही है कि बढ़ती हुई जनसंख्या आगे भी रुकेगी नहीं। समझदार आदमी परिवार नियोजन के तरीके अपनायेंगे भी, पर अनगढ़ और पिछड़े लोगों पर कोई असर न पड़ेगा। वे अन्धाधुन्ध बच्चे पैदा करते ही चले जायेंगे। समुचित आहार न मिलने से प्रसव काल में स्त्रियाँ और कुपोषणग्रस्त बच्चे, बेतहाशा मरेंगे। इतने पर भी जनसंख्या बढ़ती ही जायेगी। वृक्ष काटने पर प्रतिबन्ध लगेगा। इसलिए ज्यों-त्यों करके चूल्हें जलाने लायक ईंधन की ही समस्या हल हो पायेगी।

बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए निवास की छाया तो चाहिए ही। यह अन्न उगाने वाली जमीन में से ही कटौती होगी। मनुष्य कन्द, शाक और घास के साथ थोड़ा अन्न मिलाकर ही पेट भरने की तरकीब निकालेंगे। जनसंख्या संसार की अभी ५०० करोड़ है। सन् २००० ई. समाप्त होते होते यह १००० करोड़ और इसके ५० वर्षों बाद ५००० करोड़ हो जायेगी। अर्थात् अब की दस गुनी बढ़ जायेगी। इस बढ़ी हुई आबादी के जीवन निर्वाह की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पशुओं का आदि से अन्त तक सफाया होगा। न भैंस बचने वाली है न बकरी। न कहीं दूध के दर्शन होंगे और न ही पशु श्रम से खेती या परिवहन का काम लिया जा सकेगा।

पशुओं के रहने के लिए और उनके लिए चारा उगाने के लिए जितनी जमीन घिरती है, उतनी में नौ आदमी गुजर कर सकते हैं। माँस खा सकना संभव न होगा और न ही दूध खा सकना। जो चारा पशु खाते हैं, उसे कूटकर लकड़ी बन जायेगी। उससे फर्नीचर ईंधन आदि का काम चलेगा। चमड़ा नकली बनने लगा है। ऐसी दशा में मनुष्य की प्रमुख प्रतिद्वन्द्विता पशुओं से होगी। इस लड़ाई में पशु हार जाएगा और उसका अस्तित्व कहीं चिड़ियाघरों में ही देखने को मिलेगा। जमीन पर से उसे बेदखल कर दिया जायेगा।

चाय आदि के लिए, बच्चों के लिए दूध की आवश्यकता पड़ सकती है। इसके लिए तिल, मूँगफली, सोयाबीन जैसी सफेद रंग की तिलहनों को पानी में पीस लिया जाया करेगा। माँसाहारियों के लिए जलचर ही उस हालत में मिल सकेंगे, जबकि प्रदूषण के कारण जल भी जहरीला होने से बच जाय और वे उस पानी में जी सकें। पक्षियों की आयु अभी एक शताब्दी और आगे तक चल सकती है।

रहने के मकान हलकी सीमेन्ट सीटों से ऐसे बनेंगे जो एक जगह से उठाकर दूसरी जगह ले जाया जा सके। कीमती, भारी और अधिक जगह घेरने वाले मकान सरकारी इमारतों या किन्हीं बड़े दफ्तरों के रूप में ही रहेंगे। शेष टेन्टनुमा मकानों में गुजारा करेंगे।

खाने पकाने में चपाती किस्म की रोटी बहुत ईंधन जलाती है और बहुत समय खराब करती है, इसलिए ईंधन की कमी को ध्यान में रखते हुए भाप से उबले प्रेशर कुकर स्तर के चूल्हें बनेंगे और मनुष्य भी उसी प्रकार का भोजन करने की आदत डाल लेगा।

जमीन कम पड़ती जाने के कारण हलके मकान भी दुमंजिले, तिमंजिले बनेंगे और खेती बाड़ी के लिए भी यही पद्धति अपनाई जायेगी। अभी भी बुद्धिमान लोग घरेलू शाक वाटिका लगाते हैं। आँगन बाड़ी, छत बाड़ी लगाकर बेलें तथा दूसरी खाद्य वस्तुएँ उगाते हैं। आजकल यह शौकिया होता है। अगली शताब्दी में यह अनिवार्य आवश्यकता समझी जायेगी।

शिक्षा के लिए उतने विद्यालयों की जरूरत न पड़ेगी। बच्चा पैदा करने का लाइसेन्स उन्हीं माता पिताओं को मिलेगा, जो उनका भरण पोषण ही वयस्क होने तक न करें, वरन् शिक्षा भी प्राथमिक स्तर की घर पर ही दिया करें। चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, कारीगर स्तर की विशेष शिक्षा के लिए ही सरकारी विद्यालय रहेंगे। वे भी किस्तों में चलेंगे, एक वर्ष या दो वर्ष के पाठ्यक्रम होंगे। सुविधानुसार एक के बाद दूसरी कक्षा उत्तीर्ण की जा सकेगी। इस बीच अध्ययन आदि के लिए पढ़ने के बीच-बीच में कुछ कमाया भी जा सकेगा।

स्त्री और पुरुषों का भेद भाव प्रायः समाप्त हो जायेगा। दोनों की हैसियत एक होगी। दोनों उपार्जन करेंगे। लार्जर फैमिली स्तर के बड़े-बड़े कम्यून बने रहेंगे, उसी में एक बढ़े समुदाय के लिए खाना पकाने, कपड़ा धोने, चौकीदारी करने, बच्चे खिलाने आदि के लिए कर्मचारियों की व्यवस्था रहेगी। आज जैसे एक स्त्री की खाना पकाने, चौकीदारी, सफाई, कपड़ा धोने, बच्चे पालने में जिन्दगी खप जाती है, कम्यून बन जाने पर यह कार्य किसी एक महिला को न करने पड़ेंगे। यह कार्य सामुदायिक होंगे। इनकी व्यवस्था रहने से किसी स्त्री को घर के बंधन में बँध कर न रहना पड़ेगा। जनसंख्या में आधी संख्या महिलाओं की है, वे छोटी गृहस्थी होने पर भी पूरी तरह बँधुआ की तरह घिरी रहती है। तब लार्जर फैमिली में पन्द्रह नर-नारियों के पीछे एक कर्मचारी का औसत पड़ेगा। ईंधन की बचत तो इसमें प्रत्यक्ष ही है। मार्केटिंग करने में सारा दिन गुजर जाता है। जब यदि किसी को किसी वस्तु विशेष की आवश्यकता पड़ी तो सहकारी स्टोर से प्राप्त करने में कुछ ही मिनट लगा करेंगे।

बढ़ी हुए जनसंख्या पद्धति में केवल साम्यवादी शासन प्रणाली सफल हो सकती है। राजतन्त्र, प्रजातन्त्र आदि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता देने वाले विधान, खींचतान करते रहेंगे और व्यक्तिगत सम्पदा अथवा आधिपत्य होने से अपराधों का वह सिलसिला चलता ही रहेगा, जिससे अनर्थ होते हैं और अवांछनीय व्यक्तियों को पकड़ने के लिए पुलिस, न्यायालय, जेल आदि की खर्चीली व्यवस्था करनी पड़ती है। तब उद्दण्ड व्यक्तियों को ऐसी प्रताड़ना सार्वजनिक स्थानों पर दी जायेगी, जिससे अन्य लोगों को वैसा करने की हिम्मत न पड़े। समाज से बहिष्कृत स्तर के जीवनयापन कुछ समय के लिए कराया जाय, तो वह भी बन्दीगृह की अपेक्षा अधिक कारगर दण्ड होगा।

साहित्य लेखन और प्रकाशन विद्वानों का एक तन्त्र करेगा। कोई भी कुछ भी लिखे और पढ़ने वालों का दिमाग खराब करे, यह छूट हर किसी को न मिलेगी। लेखन, विशेषज्ञ करेंगे, प्रकाशन सरकार या सहकारी समिति। ऐसी दशा में लागत से कुछ ही अधिक मूल्य में ज्ञानवर्धक साहित्य हर किसी को सर्वत्र उपलब्ध हो जाया करेगा। संसार भर की एक भाषा होगी। इस प्रकार मनुष्य मात्र को आपस में विचार विनिमय कर सकना सरल पड़ेगा। प्रेस की अत्यन्त सुविधा हो जायेगी। सर्व साधारण को ज्ञानार्जन में तनिक भी कठिनाई न होगी। किसी भी क्षेत्र में उत्पादित हुआ ज्ञान विज्ञान संसार भर में फैलते कुछ भी विलम्ब न लगेगा।

संसार भर में एक ही विश्व शासन व्यवस्था चलेगी। क्षेत्रों को भौगोलिक सुविधा के लिए ही देशों में बाँटा जा सकेगा। उनकी हैसियत आज के जिलों जैसी होगी। लड़ाई-झगड़े तलवार के जोर से नहीं, वरन् न्यायालयों के निर्देशन से तय होंगे। अलग-अलग देश अलग-अलग सेनाएँ न रखेंगे। स्थानीय व्यवस्था के लिए छोटी-छोटी पुलिस भर राज्यों के पास रहेगी। बड़ी सेना मात्र विश्व राष्ट्र के केन्द्रीय शासन के पास ही रहेगी, ताकि कहीं विप्लव जैसी स्थिति हो तो उसे सँभाला जा सकेगा। धर्म भी एक ही रहेगा। उसे नीति शास्त्र समझा जा सकता है। परम्पराएँ जो मानव मात्र के हित में होंगी, वही रहेंगी। पूर्वजों के प्रचलनों को कहीं महत्त्व न दिया जायेगा। प्रथा-परम्पराओं का एक नए सिरे से निर्धारण होगा, ताकि बिखराव के अवसर कम से कम रहें। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोई दावेदारी न करे, नए त्यौहार, नई परम्पराएँ इस आधार पर विनिर्मित होगी, जिनसे बिखराव, भेदभाव को आश्रय न मिले, एकता, समता का ही वातावरण बने।

समूचा संसार विश्व राष्ट्र होगा। मनुष्य मात्र को धरती का पुत्र अथवा विश्व नागरिक माना जायेगा। आवागमन पर प्रतिबन्ध नहीं होंगे, पर घनी और विरल आबादी की असमानता न हो, इसका ध्यान रखा जायेगा। धरती के उत्पादनों का उपयोग सभी मनुष्य समान रूप से कर सकेंगे।

इक्कीसवीं सदी इन सम्भावनाओं से भरी पूरी है। विग्रही यदि चाहें तो रक्तपात कर लें। समझदारी को महत्त्व मिले, तो मिल-जुलकर सहयोगपूर्वक ऐसा विधान बना लें, जिससे देश-देश के बीच आये दिन छिड़ते रहने वाले युद्धों और रक्तपातों की कोई आवश्यकता न रहे। अणु आयुधों से समग्र बर्बादी अथवा हिल मिलकर रहने, मिल बाँटकर खाने और हलकी-फुलकी जिन्दगी जीने की व्यवस्था सोच विचार कर कर लें।

युद्ध टाले जा सकते हैं, पर बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगाने में बीसवीं सदी के अन्त तक सम्भावना नहीं दीखती, क्योंकि पिछड़ापन लोगों के दिमागों पर बेतहाशा छाया हुआ है और वे अनुभव करते हैं या नहीं करते कि धरती में बढ़ते हुए लोगों का बोझ वहन करने की क्षमता रह नहीं गई है। इन दिनों में प्रजनन, सौभाग्य का कारण माना जाता है, पर अगली शताब्दी में वह देश द्रोह, मानव द्रोह की गणना में गिना जायेगा, दण्डनीय अपराध माना जायेगा।

यों विकट सम्भावना तो प्राकृतिक कारणों से औद्योगीकरण से, युद्ध की तैयारी से भी हुई है। वातावरण में अनेक कारणों से विषाक्तता भर गई है और मनुष्य की प्रकृति हीन एवं हेय स्तर की बन गई है। इन सबके उपचार हैं तो कठिन, पर दूरदृष्टि बताती है कि उन पर काबू प्राप्त कर लिया जायेगा। सृजन शक्तियाँ उभरी है और उन विडम्बनाओं, विभीषिकाओं से लोहा लेकर सन्तुलन बिठा लेंगी। युद्ध भी शायद बड़े रूप में न हों, कहीं क्षेत्रीय विग्रह होकर रुक जाय, जैसा कि जापान के बाद अब तक दूसरी बार अणु प्रहार नहीं हुआ।

बड़ी बात एक ही है, बहुप्रजनन। मनुष्य को इस मूर्खता से विरत करना पड़ेगा। इसके लिए समझाने-बुझाने की विद्या शायद काम न दे और कानूनी प्रतिबंधों से रोकथाम करनी पड़े। व्यक्तिगत जीवन में भी शासन को हस्तक्षेप करना पड़े, यह बुरी बात है। नागरिक कर्तव्यों का हर मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए और सोचना चाहिए कि बहुप्रजनन को अपने विवेक से ही रोक दिया जाय, ताकि उस कारण सारा संसार मुसीबत में न फँसे। न मानने पर प्रतिबंधों का हन्टर तो चूतड़ों पर पड़ेगा ही।

इक्कीसवीं सदी में समूची मनुष्य जाति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, यह जानकारी दूरदर्शिता ने दी है, पर साथ ही यह भी कहा है कि अभी इतना समय बाकी है कि इनका हल करने के लिए अभी से प्रयास आरम्भ कर दिया जाय, तो एक बारगी बड़ी विपत्ति का सामना करने और हड़बड़ी उत्पन्न होने से बचा जा सकता है। अगला समय समूची मानव जाति की यह परीक्षा करेगा कि विकट सम्भावनाओं का सामना और समाधान करने लायक उसमें बुद्धि है या नहीं। यदि वह असफल रह गया, तो सर्वनाश का सामना करना पड़ेगा और मानवीय बुद्धि दिखावटी और ओछी मानी जायेगी।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 245. समग्र परिवर्तन की बेला आ पहुँची
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मनुष्य मूलतः क्या है? उसकी मूलभूत जन्मजात प्रवृत्तियाँ क्या हैं। इस संदर्भ में उसके उद्गम स्रोत पर ध्यान देना चाहिए। वह ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र युवराज है और उसकी विश्व वाटिका को समुन्नत सुविकसित करने के लिए एक कुशल माली की भूमिका निभाने आया है। उसका जन्मजात स्वभाव भी इस भूमिका का निर्वाह कर सकने के सर्वथा उपयुक्त है। शरीर, मानस तन्त्र और भावनाओं का त्रिविध संस्थान ऐसी दिव्य क्षमताओं और विभूतियों से भरा पूरा मिला है, जिससे जीवन सम्पदा को सार्थक बनाने वाली उच्च स्तरीय भूमिका निभा सके।

आधुनिक वैज्ञानिकों में इस संदर्भ में भ्रान्त धारणाएँ ही हैं, उन्होंने उसके अस्तित्व को हेय स्तर का ठहराया है। कहा है कि जन्मजात रूप में उसे पशु प्रवृत्तियाँ ही मिली है। उनकी पूर्ति से ही उसे चैन पड़ता है। वही उसे करना चाहिए। इन तथाकथित अन्वेषणकर्ताओं का कहना है कि समुद्र में एक कोषीय अमीबा जैसे प्राणियों के रूप में जीवन उत्पन्न हुआ। उसी से विभिन्न प्रकार के प्राणी विकसित हुए, उसी विकास शृंखला में से बन्दर की औलाद के रूप में मानव जीवन प्रकाश में आया। पशु प्रवृत्तियों के इन विश्लेषणकर्ताओं ने यह कहा है कि सभी जानवर स्वार्थ प्रधान है। जहाँ अवसर मिलता है, वहाँ आक्रमण करने में नहीं चूकते। यौन स्वेच्छाचार उनकी स्वाभाविक मान्यता है। खतरे की स्थिति में वे लड़ने या भाग खड़े होने की दोनों ही नीतियाँ अपनाते हैं। चूँकि मनुष्य भी एक तरह का पशु है। इसलिए उसमें भी यही प्रवृत्तियाँ काम करती हैं, जो अन्यान्यों में हैं। इस प्रतिपादन के हिसाब से नीतिवादी, आदर्शवादी उत्कृष्टता की जड़ कट जाती है और वह नर पशुओं की श्रेणी में ही जा खड़ा होता है। उस प्रतिपादन के अनुसार यदि मनुष्य चोर, उचक्का, व्यभिचारी, आक्रमणकारी बनता है, तो यह उसकी स्वाभाविकता ही मानी जायेगी।

हमें इन पाश्चात्य प्रतिपादकों की मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देना चाहिए और पूछना चाहिए कि यदि सभी जानवर विकसित हो रहे हैं, तो मनुष्य शरीर का विकास कब से हुआ और भविष्य में क्या अन्तर पड़ेगा? लाखों वर्षों से मनुष्य इसी स्तर के शरीरों में रह रहा है और उसकी प्रवृत्तियों एवं आदतों में भी कोई अन्तर नहीं पड़ रहा है। वह सदा से ही शाकाहारी रहा है। साथ ही उसे नीति, सदाचार, मर्यादा एवं परमार्थ की दृष्टि से भी अपनी गरिमा प्रकट करनी पड़ी है।

मनुष्य देवताओं की सन्तान है। आधुनिक अन्तरिक्ष विज्ञानी भी यह मानने लगे हैं कि मानवी सत्ता किन्हीं उच्च लोकों के समुन्नत प्राणियों का वंशज है। पृथ्वी पर देवलोक वासी असाधारण क्षमता एवं भावना से भरे-पूरे लोग समय-समय पर यहाँ आते रहे हैं और धरती को, मनुष्य को, अधिक सुविकसित स्थिति में पहुँचाने के लिए भाव-भरा योगदान करते रहे हैं। इन दिनों भी उड़न तश्तरियों के रूप में उस प्रयास के चलते रहने का परिचय मिलता है। पृथ्वी के कितने ही भागों में इस प्रकार के प्रमाण अवशेष भी उपलब्ध हैं।

इन पंक्तियों में उस श्रुति का प्रतिपादन किया जा रहा है, जिसमें कहा गया है कि मनुष्य पूर्ण से उत्पन्न हुआ, पूर्णता युक्त है और अन्त में पूर्ण ही होकर रहेगा। कभी-कभी कुप्रचलनों का दौर आ जाता है, जैसे कि सूर्य, चन्द्रमा के उदीयमान होते हुए भी ग्रहण के, बादलों के या कुहरा अन्धड़ के कारण उनका प्रकाश धुँधला पड़ जाता है। जरा जीर्ण स्थिति में भी भवनों की दुर्दशा हो जाती है। ऐसा ही कुछ अवरोध मानवी गरिमा के सम्बन्ध में भी समझा जा सकता है। यह अस्थायी है और इसमें जल्दी ही आशाजनक उत्साहवर्धक परिवर्तन होने जा रहा है।

नवयुग प्रज्ञायुग की आधुनिक घड़ियों को ऐसा ही समझा जाना चाहिए, जिसमें बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से वृक्ष और वृक्ष से फल फूलों की बहार उठती देखी जाती है। कई क्षेत्रों में मानवी प्रगति के लिए कई प्रकार के प्रयास चल रहे हैं। शरीर शास्त्री, मनोविज्ञानी, तत्त्ववेत्ता अपने-अपने ढंग से योजनाएँ बनाने में निरत हैं। भविष्य में मनुष्य अधिक बलिष्ठ, अधिक दीर्घजीवी, अधिक बुद्धिमान और अधिक सुयोग्य बन सके। इसमें सबसे कारगर और सूक्ष्म प्रभाव गुण सूत्रों का, जीन्स का, जीव रसायनों की हेरा-फेरी का है। साइन्स ने एक सीमा तक इसमें प्रगति कर ली है, तो भी हारमोन्स को उभारने, दबाने का प्रयोग हाथ नहीं आया है। विकसित अध्यात्म विज्ञान इस कमी को पूरा कर देगा और आज के विकसित मनुष्य की कल्पनाओं, आकाँक्षाओं को चरितार्थ होने का अवसर मिलेगा। आहार-विहार में जो इन दिनों अनाचार चल रहा है वह उतने ही दिन चलेगा, जितने समय कि मनुष्य को आरोग्य, दीर्घ जीवन और बलिष्ठता का महत्त्व हृदयंगम नहीं होता। मनुष्य जल्दी ही वस्तुस्थिति को समझ जायेगा और जिह्वा तथा जननेन्द्रिय के असंयम पर अंकुश लगा लेगा। चटोरेपन से लाभ कम और हानि अधिक है, यह तथ्य हृदयंगम होते ही स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान हेतु बदल दिया जायेगा, फिर मनुष्यों को दुर्बलता और रुग्णता का उतना शिकार न बनना पड़ेगा जितना कि इन दिनों बनना पड़ता है।

अतिशय महत्त्वपूर्ण मनुष्य का मनःसंस्थान है। जीवन पर प्रमुख रूप से वही छाया रहता है। कल्पना-मन, विवेक-बुद्धि, चित्त-अचेतन और अहं-मान्यता यह चार क्षेत्र मिल-जुल कर मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को ऊँचा उठाते या नीचे गिराते हैं। मनःक्षेत्र की धुलाई और रंगाई जिसे विज्ञान की भाषा में ब्रेन वाशिंग अथवा व्यक्तित्व परिष्कार कहते हैं। यह भी अब बहुत अधिक कठिन नहीं रहा है। विज्ञान ने विभिन्न प्रवृत्तियों के केन्द्र संस्थान खोज निकाले हैं और उनके साथ इलेक्ट्रोडों द्वारा विद्युत प्रवाह जारी करके प्रवृत्तियाँ बदलने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली है। इन प्रयोगों से प्रभावित शेर, बकरी की तरह सौम्य और बकरा शेर की तरह निर्भय आक्रामक होते देखा गया है। बुढ़ापे में बचपन की कोमलता लाई जा सकती है और बच्चे को बूढ़े जैसा विचारशील बनाया जा सकता है। यह मानसिक नियंत्रण यदि स्थाई हो सके और आकांक्षाओं, भावनाओं, मान्यताओं और विचारणाओं को बदल सके, तो समझना चाहिए कि मानवी कायाकल्प का वह सूत्र हाथ आया, जिसके सहारे क्षुद्र को महान बनाया जा सकता है। यह विभूतियाँ प्राचीन काल में ऋषि कल्प महामानवों ने हस्तगत कर ली थी। नारद के प्रभाव से पार्वती, सावित्री, वाल्मीकि, ध्रुव, प्रह्लाद कुछ से कुछ बन गये थे। च्यवन ने, ययाति ने अपने वृद्ध शरीरों को युवा बना दिया था। यह गुह्य विधाएँ ऋषियों ने हस्तगत कर ली थी। उनके खोये हुए सूत्र पुनः प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किये जा सकते हैं।

विज्ञान और अध्यात्म अगले दिनों घनिष्ठ सहयोग करने जा रहे हैं। दोनों की क्षमताएँ देवताओं और दानवों के स्तर की हैं। अब तक दोनों के बीच असहयोग रहा है और उस कारण कलह या अन्य गतिरोध बना रहा है। अगले दिनों दोनों मिल कर सहयोग करेंगे और मानवीय प्रगति का उच्च लक्ष्य सामने रखेंगे, तो पौराणिक समुद्र मंथन का घटनाक्रम पुनः घटित हो सकता है और एक से एक महत्त्वपूर्ण रत्न हस्तगत हो सकते हैं। इस संदर्भ में मानवी अन्तरात्मा को सुविकसित समुन्नत बनाने की लक्ष्य पूर्ति भी अधूरी नहीं रह सकती। भावनाशील, प्रज्ञावान्, दूरदर्शी, आदर्शवादी, उत्कृष्ट मनोभूमि वाला मस्तिष्क विनिर्मित किया जा सकना सर्वथा संभव है। विज्ञान इस क्षेत्र में पिछले दिनों बहुत प्रयास करता रहा है। अब अध्यात्म की बारी है। उस क्षेत्र में भी मनीषियों का उद्भव हो रहा है। तपस्वी स्वयं शक्तिपुंज बनने जा रहे हैं और उस पुरातन सामर्थ्य को उपलब्ध कर सकने पर विश्वास कर रहे हैं, जो अनेकों प्रतिभावानों को साधारण से असाधारण बना सके। इस सहयोगी सफलता के माध्यम से अंगद, हनुमानों, नल-नीलों, भीम-अर्जुनों की नई पीढ़ी विनिर्मित हो सकती है।

नीत्से के दर्शन ने हिटलर को जन्म दिया और समूचे जर्मन को ऐसे आवेश में भर दिया कि वे लोग अपने समुदाय की नीति मानने और समस्त विश्व पर शासन स्थापित करने की तैयारी करने लगे। अरविन्द का पाण्डिचेरी प्रयोग में सुपरमैन उत्कृष्ट मानव की कल्पना थी, वे अपने पूर्ण योग के माध्यम से मनुष्य में देवत्व के उदय की आशा कर रहे थे। यों उनके जीवन काल में वह प्रयोग पूरा न हो पाया, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वह काम अधूरा ही छूट गया। उसे बढ़ाने के लिए पूर्ण योग का स्थान प्रज्ञायोग ले रहा है और लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्राणपण से जुटा है।

प्रज्ञायुग का आगमन सुनिश्चित है, उसकी विशेषता एक ही होगी मनुष्य में देवत्व का उदय। यदि वह बन पड़ा, तो उसकी परिणति निश्चित रूप से धरती पर स्वर्ग के अवतरण के रूप में होगी। देवता धरती पर जन्म लेने की प्रतीक्षा करते रहते हैं और भगवान इस धरती पर अवतार लेने के लिए दौड़ते आते हैं। अब उस महान परम्परा की पुनरावृत्ति होने जा रही है।

मानवी परिष्कार और विकास का ठीक और सही समय यही है। अपनी-अपनी कौम, बिरादरियों को वरिष्ठ सिद्ध करने के लिए अनेक देश अनेक बार अपने-अपने ढंग से प्रयत्न एवं उद्घोष करते रहे हैं। किसी समय शक और हूणों की तूती बोलती थी। अंग्रेज भी कभी दुनियाँ पर छाये थे। इन दिनों रूस अमेरिका कम से कम अस्त्रों, अन्वेषणों और अन्तरिक्ष पर आधिपत्य की दृष्टि से तो मूर्धन्य हैं ही। जापान की औद्योगिक क्षमता बढ़ती जा रही है। और देश भी सम्पदा और सामर्थ्य की दृष्टि से प्रगति पथ पर बढ़ चलने के लिए अग्रसर हो रहे हैं।

इन सबसे महती भूमिका भारत की होने जा रही है। ऋषि परम्परा का अभिनव पुनरुत्थान हुआ है। उच्चस्तरीय व्यक्ति संख्या की दृष्टि से कम हों, तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं। बुद्ध, गाँधी, अरविन्द जैसे आत्मशक्ति के धनी पिछली शताब्दी में उँगलियों पर गिनने जितने ही हुए हैं, पर उन्होंने आँधी, तूफान की तरह समय को उलट दिया। अब उस प्रक्रिया में फिर उफान आ रहा है। आवश्यक नहीं कि वे व्यक्ति ख्याति प्राप्त ही हो। ऋषि युग में छः पुरुष और एक महिला, यह सात ही मूर्धन्य सप्त ऋषियों में गिने गये पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनके अतिरिक्त और उच्चस्तरीय आत्माएँ नहीं थी। इन दिनों सप्त ऋषियों के अवतरण का पुण्य प्रभात काल है। उनका प्रयास एक ही होगा कि मानवी गरिमा को निकृष्टता के दलदल से उबारकर परिशोधन किया जाय और आत्मिक दृष्टि से उसे उच्च शिखर तक पहुँचा दिया जाय।

समय की कठिनाइयों में एक ही सबसे बड़ी आवश्यकता है कि मानवी व्यक्तित्व को ओछेपन से विरत करके, उसे आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत ही नहीं बाधित भी किया जाय। मनुष्य नीतिवान बने। वासना, तृष्णा और अहंता के भवबन्धन से उबरें और लोभ मोह की हथकड़ियों-बेड़ियों को तोड़ फेंके। औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतोष करे। परिवार को वंश कुल की संकीर्णता से छुड़ाकर वसुधैव कुटुम्बकम् की परिभाषा अपनाये। अपनों के लिए वैभव बटोरने के स्थान पर जन समुदाय को सुखी समुन्नत, सशक्त और सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करें। इतना भर मोड़ मरोड़ बन पड़ा, तो मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकेगा। उस पर नर पशु या नर पिशाच कहलाने का लांछन न लगेगा। पवित्रता और प्रखरता का पुण्य परमार्थ में नियोजन हो सके, तो हर किसी को महामानवों की श्रेणी में बैठने का अवसर मिलेगा। तब नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र को महान कहा जा सकेगा। लिप्सा-लालसा की कुत्साएँ जैसे ही सद्भावनाओं की ओर, सत्प्रवृत्तियों की ओर मुड़ी कि सारा वातावरण ही बदल जायेगा। जो गतिविधियाँ चल रहीं हैं, उनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ दृष्टिगोचर होगा।

मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएँ स्वल्प हैं, उन्हें अपने सशक्त हाथों और मस्तिष्कीय प्रखरता के सहारे कोई भी सरलतापूर्वक उपार्जित कर सकता है। उतने में संतोष किया जा सके, तो आत्म परिष्कार और लोक कल्याण की दिशा में बहुत कुछ कर गुजरने का अवसर किसी को भी मिल सकता है। इस परिवर्तन से चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अनुपात अनेक गुना बढ़ जायेगा और उसकी गरिमा पर्वत जितना भारी एवं ऊँचा दृष्टिगोचर होने लगेगी।

लोग हिल मिल कर रहे, मिल बाँट कर खायें और हलकी-फुलकी, हँसती-हँसाती जिन्दगी जियें, तो किसी वस्तु का अभाव न रहे। इस धरती का उत्पादन और उत्खनन इतना वैभवशाली है कि उसके रहते किसी बात की कमी अनुभव न हो। अभाव सर्वथा कृत्रिम है। वे लालसाओं के अत्यधिक बढ़ जाने से दीखते भर हैं। आलसी और प्रमादी ही दरिद्रता की शिकायत करते हैं, क्षुद्र और संकीर्ण मन वाले क्रूरकर्मा ही विग्रह के बीज बोते और अशान्ति उत्पन्न करते हैं। मनुष्य यदि आत्म सुधार के निमित्त तत्पर हो सके, गुण, कर्म, स्वभाव को अपनी गरिमा के अनुरूप ढाल सके, तो पारस्परिक स्नेह, सद्भाव और सहयोग की कमी न रहे। यही देवत्व है। इन विशेषताओं और विभूतियों का भाण्डागार उसके अन्तःकरण में भरा पड़ा है। उसे निखारने और उभारने भर की आवश्यकता है। यह परिवर्तन सरल भी है और सुखद भी।

नवयुग में प्रज्ञापरक चेतना हर किसी को ऐसी ही प्रेरणा देगी। फलतः फैला हुआ अन्धकार उदीयमान अरुणोदय की प्रभात बेला आते ही पलायन करता दृष्टिगोचर होगा। प्रसुप्ति जागृति में अपना रूपान्तरण करेगी।

मनःस्थिति बदलते ही परिस्थितियाँ बदलना सुनिश्चित है। अज्ञान, अशक्ति और अभाव से ही प्रायः विपन्नता छाई रहती है। दुर्मति ही दुर्गति की जन्मदात्री है। इन्हें झाड़ू लेकर बुहार डाला जाय, तो कूड़ा करकट जमने में जो दुर्गन्ध और कुरूपता छाई रहती है, उसका कहीं अता-पता भी न चलेगा। हम बदलेंगे-युग बदलेगा का तथ्य शत प्रतिशत सत्य है। इस सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन हम निकट भविष्य में निश्चित रूप से कर सकेंगे, इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं है।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 246. मनःस्थिति और परिस्थितियों का उत्कर्ष आवश्यक
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अपने सम्बन्ध में जैसी भी भली-बुरी मान्यताएँ परिपक्व हो जाती हैं, मनुष्य क्रमशः उसी ढाँचे में ढलता जाता है और उसी स्तर का बन जाता है। भेड़ों के झुण्ड में पले हुए सिंह शावक का रहन-सहन उसी समुदाय के ढाँचे में ढल गया था। पीछे किसी सिंह से भेंट होने पर उसकी इस दयनीय स्थिति को देख और पानी में छाया दिखाकर सिंह बिरादरी में होने का विश्वास दिलाया, तो उसने पिछला ढर्रा बदल दिया। भेड़ों का साथ छोड़कर सिंहों के समुदाय में चला गया। इस पुरानी कहानी से आत्मबोध की परिणति का परिचय मिलता है।

स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता किन्हीं विरलों में ही होती है। वस्तुस्थिति जानने के लिए किसी-किसी में ही जिज्ञासा होती है। अन्यथा लोग जैसे समुदाय में रहते हैं, उन्हीं की गतिविधियों को देखते हुए तदनुरूप अनुकरण करने लगते हैं। अनुकरण करने की मानवी प्रवृत्ति प्रख्यात है।

टिड्डे बरसात के दिनों हरी घास पर बैठते हैं, उन दिनों उनकी काया हरे रंग की होती है। पर जब गर्मी के दिनों में घास सूखकर पीली पड़ जाती है, तो उसके बीच जहाँ-तहाँ रहने वाले टिड्डे भी पीले रंग के हो जाते हैं। यह निरन्तर चिंतन की परिणति है।

भृंग और झींगुर के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता है। भृंग गूँजती रहती है, झींगुर उस गुंजन को तन्मयता पूर्वक सुनता रहता है और छवि निहारता रहता है। कुछ ही समय में झींगुर का शरीर भृंग जैसा हो जाता है।

यह तथ्य बताते हैं कि सान्निध्य और वातावरण प्राणी को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। इस दबाव में उसकी जन्मजात प्रकृति तक बदल जाती है। राजस्थान के एक शिकारी राजा ने सिंहों के दो नवजात शिशु पकड़े और उन्हें अपने छोटे चिड़िया घर में दो पिंजड़ों में बन्द कर दिया। उन्हें खाने को नियत समय पर माँस दिया जाता था, पर यह उनने कभी देखा न था कि यह माँस है और उसे स्वयं प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ता है। उन्हें कभी शिकार करने का अवसर नहीं मिला।

एक प्रसंग में राजा ने अपने आगन्तुकों को आश्चर्यजनक दृश्य दिखाया। एक सिंह के पिंजड़े में मोटा बकरा धकेल दिया। सिंह डर गया और उसने एक कोने में सिमट कर मुँह छिपा लिया। दूसरे पिंजड़े में एक मोटा सुअर धकेला गया था। सुअर इससे पहले उसने कभी देखा न था, वह डर गया और इस विपत्ति से बचने के लिए वह भी जान बचाने के लिए सिर नीचा करके कोने में बैठ गया। दोनों सिंह का यह हाल देखकर दर्शकों ने यह अनुमान लगाया कि किसी में जन्मजात सामर्थ्य कितनी ही हो, किसी भी स्तर की क्यों न हो, पर यदि वह कार्यान्वित न हो तो फिर वह एक प्रकार से तिरोहित ही हो जाती है।

उ.प्र. के आगरा जिले में खदौली गाँव के पास बीहड़ों में भेड़िये एक मनुष्य का बच्चा उठा ले गये। मादा भेड़िया ने उसे अपना बच्चा समझा और दूध पिलाकर पाल लिया। लड़का चार वर्ष की आयु का होने तक भेड़ियों की तरह चलता, बोलता और खाना-सोना सीख गया। शिकारियों ने एक दिन उन भेड़ियों को मार दिया और मनुष्य के बच्चे को उठा लाये, उसे मनुष्य का रहन-सहन सिखाने की बहुत कोशिश की गई, पर तनिक भी सफलता न मिली फिर उसे लखनऊ मेडिकल कालेज में जाँच-पड़ताल के लिए भेजा गया। उसका स्वभाव बदलने के लिए आठ वर्ष तक प्रयोग चलते रहे, पर उसमें नाम मात्र का ही सुधार हो सका। बारह वर्ष की आयु होते होते वह मर गया, पर मनुष्य स्तर की प्रवृत्तियाँ सिखाने में कोई सफलता न मिली।

यह उदाहरण बताते हैं कि मनुष्य पर, प्राणियों पर वातावरण का और उसके अनुकरण का भी प्रभाव पड़ता है और वह अपनी जन्म जात विशेषताओं को भूल जाता है।

एक घोसले से एक ही समय जन्मे दो सुग्गे के बच्चे पकड़े गये। उन्हें पालने के लिए दो व्यक्तियों को दिया गया। एक पंडित को, एक कसाई को। दोनों ने अपने-अपने मतलब के शब्द उन्हें सिखाये। पंडित का सुग्गा राधेश्याम-सीताराम और कसाई का जीव हत्या करो-माँस निकालो, किसी भी जानवर को देखकर कहने लगता। इस भिन्नता का कारण प्रतीत हुआ कि जो उन्हें पालने वालों ने सिखाया था, वह उनने सीख लिया।

प्राणियों की मौलिक प्रकृति होती है और वंश परम्परा की कई विशेषताएँ भी साथ रहती हैं, पर उन्हें उभारने का अवसर सामान्य परिस्थितियों में ही मिलता है। विपरीत वातावरण का दबाव पड़ने पर वे अपनी मौलिक प्रकृति को भूल जाते हैं और जो देखते रहा गया है, सिखाने का दबाव पड़ता रहा है, वह अभ्यास प्रमुख हो जाता है। मदारी के रीछ बन्दर एवं सरकसों के प्रशिक्षित जानवर ऐसे खेल एवं कृत्य करते हैं, जो उनकी मौलिक प्रकृति से मेल नहीं खाते। सिंह, हाथी, घोड़े, कुत्ते जानवरों को सरकस वाले वे करतब दिखाना सिखा लेते हैं, जो सामान्यतया उनमें से किसी को भी करते नहीं देखा गया। यह प्रशिक्षण का, वातावरण का परिणाम है। उसे अपवाद नहीं समझा जाना चाहिए, वरन् यह समझा जाना चाहिये कि प्रकृति और परिस्थितियों की तुलना में परिस्थितियों का प्रभाव कहीं अधिक होता है। मनुष्य को बदलने में वातावरण असाधारण रूप में सहायक होता है।

सामान्यतः मध्यम तापमान में मनुष्य को रहना उपयुक्त एवं सुविधाजनक लगता है, किन्तु शून्य से कम तापमान में उत्तरी ध्रुवों के निवासी एस्किमो शताब्दियों से वहाँ रहते आ रहे हैं। इसी प्रकार अत्यधिक उष्ण कटिबन्ध के क्षेत्रों में भी बस्तियाँ पाई गई हैं और लोग वहाँ भी जीवन यात्रा को प्रसन्नतापूर्वक चलाते रहते हैं। आँधियों वाले रेगिस्तान भी उस असुविधा जनक क्षेत्र से मनुष्यों को भगा देने में सफल नहीं हो पाते।

वनवासी जन-जातियों में अलग-अलग झोपड़े बनाकर रहने की आदत देखी जाती है। उन क्षेत्रों में भेड़िये, चीते, साँप आदि भी रहते हैं, साथ ही उनके कार्यक्षेत्र में जीवनोपयोगी सुविधाएँ भी कम ही रहती हैं। फिर भी वे पीढ़ियों से वहीं रहते हैं और छोड़कर अन्यत्र सुविधा के स्थान पर चलने के लिए समझाने पर भी सहमत नहीं होते। चित्तौड़ क्षेत्र के मूल निवासी गगड़िया लुहार एक जगह बसने को तैयार नहीं होते। यायावरों की तरह भ्रमण ही करते रहते हैं। एक गाड़ी में ही अपने पूरे परिवार का निर्वाह कर लेते हैं। सर्दी, गर्मी, वर्षा सभी ऋतुएँ उसी वातावरण में निकालते रहते हैं। इस प्रचलन को अपनाये उन्हें सैकड़ों वर्ष हो गये, पर दूसरों को सुविधाजनक जीते हुए देखकर भी उनकी यह इच्छा नहीं होती कि अपना ढर्रा बदलें और नये स्तर की नई सुविधाओं वाली जीवनचर्या का आरंभ करें। यह सब आदतों और अभ्यासों पर निर्भर है। जो परिस्थितियों के कारण ढली हुई मनःस्थिति पर निर्भर है। यह ठीक है कि मनःस्थिति से परिस्थितियाँ बनती हैं, किन्तु उतना ही सच यह भी हैं कि परिस्थितियों का दबाव मनुष्य की मनःस्थिति को भी ऐसे ढाँचे में ढाल देता है, जिसको आश्चर्यजनक एवं अद्भुत कहा जा सके।

मनुष्य के गुण, कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे उत्तम स्तर की परिस्थितियों में रहने और प्रेरणाप्रद वातावरण में रहने का अवसर दिया जाय। अन्यथा पुस्तकीय ज्ञान वाली शिक्षा मनुष्य के चरित्र को उत्कृष्ट ढाँचे में ढाल सकेगी। पुस्तकों में व्यक्तित्व निर्माण की, नागरिकता और सामाजिकता की शिक्षा का उल्लेख हो सकता है। विद्यार्थी उसे रट भी सकते हैं, किन्तु उसे वे जीवनचर्या में भी उतार लें यह आवश्यक नहीं।

खेत को जोतने और बोने की प्रक्रिया आवश्यक है, किन्तु खाद पानी के बिना बात पूरी नहीं होती। फसल काटने और सुसम्पन्न बनने का अवसर नहीं आता। मनुष्य का चिंतन सज्जनोचित होना चाहिए, उसमें आदर्शवादिता के तत्वों का समावेश होना चाहिए। यह मानसिक शिक्षण, स्वाध्याय, सत्संग के माध्यम से पठन और परामर्श द्वारा पूरा होता है। यह आवश्यक चिंतन को सही दिशा देने के लिए है, फिर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि व्यक्तित्व के परिष्कार में इतना भर कर लेने से काम चल जायेगा। साथ ही यह भी आवश्यक है कि विचारों के अनुरूप वातावरण में रहने और निर्धारणों को चरित्र एवं व्यवहार में उतारने का अवसर मिले। व्यक्ति वैसे ही वातावरण में भी रहे। सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को वैसे ही आचरण करते देखें, ताकि वैसा ही अनुकरण करने की प्रेरणा भी मिले।

पुरातन काल में गुरुकुलों की शिक्षण पद्धति यह थी कि बच्चों को ऋषि आश्रमों में निवास करने के लिए भेज दिया जाता था, वहीं वे पढ़ते भी थे और साथियों का, अध्यापकों का आचरण प्रवाह देखते हुए, उसी ढाँचे में ढलते भी थे। प्रकृति के सान्निध्य में वन्य क्षेत्र में बने हुए गुरुकुलों में सुविधाएँ कम थी। फिर भी निर्धन और सम्पन्न लोग साथ-साथ रहकर एक विशिष्ट जीवन पद्धति में रहने की सुविधा प्राप्त करते थे। नगरों के साधारण जनों में सभी स्तर के लोग होते थे, उनके सम्पर्क प्रभाव से वे छात्र सहज ही बच जाते थे। कुविचारों और कुकर्मों को अपनाने वाले लोग घिच-पिच ग्राम-नगरों में प्रायः अधिक संख्या में रहते हैं, उनकी उत्तेजक गतिविधियाँ कच्ची आयु के लोगों को अधिक प्रभावित करती हैं। उनसे बचाव रखा जाना आवश्यक समझा जाता था, इसलिए पाठ्य विधि की अपेक्षा जीवनचर्या को अधिक महत्त्व दिया जाता था। यही कारण था कि बड़े नगरों में विद्यालय बनाने की अपेक्षा वे ऐसे स्थानों में बनाये जाते थे, जहाँ विद्यार्थी वांछनीय वातावरण और उपयुक्त परिस्थितियों में बने रहें। आश्रम की निर्धारित पद्धति के ढाँचे में ढलते रहें। अध्यापन के विषयों की तुलना में छात्रावास की निवास-निर्वाह शैली को अधिक महत्त्व दिया जाता था। यही कारण था कि जब छात्र कच्ची आयु किशोरावस्था गुरुकुलों में व्यतीत करने के उपरान्त यौवन की परिपक्वता में प्रवेश करते हुए घर वापिस लौटते थे, तब न केवल वे जीवनोपयोगी सभी प्रसंगों का अध्ययन कर चुके होते थे, वरन् व्यक्तित्व की दृष्टि से भी वे इस स्तर के होते थे कि दूसरों का अनुपयुक्त प्रभाव ग्रहण करने के खतरे से दूर रहते हुए, अपनी विशिष्टता की छाप सम्पर्क में आने वालों पर छोड़ सकें।

इन दिनों सुविकसित व्यक्तित्वों की अतीव आवश्यकता है, ताकि वे प्रचलित अवांछनीय प्रवाह में बहने की अपेक्षा अपनी विशिष्टता की दिशा में दूसरों को घसीट ले चलने में सफल हो सकें। प्रश्न बच्चों की तरह बड़ों का भी है। विद्यार्थियों को ऐसे छात्रावासों का प्रबन्ध होना चाहिए, जिनमें न केवल भोजन-निवास की उपयुक्त व्यवस्था हो, वरन् मनोदशा और शेष समय को उपयुक्त अभ्यास में लगा सकने वाले संरक्षक-संचालक भी अपने कर्तव्य उत्तरदायित्व का पूरा-पूरा ध्यान रखें। अध्यापक क्या पढ़ाते हैं, इसकी अपेक्षा यह अधिक महत्त्वपूर्ण है कि छात्रावास में उन्हें किस ढाँचे में ढाला जाता है।

सामान्य जीवन में मुहल्लों की सजावट ऐसी होनी चाहिए, जो कामकाजी लोगों को पास पड़ोस की गतिविधियों के उपयुक्त प्रेरणाएँ प्राप्त करने का लाभ दे सके। जिन मुहल्लों में अवांछनीय गतिविधियाँ चलती रहती हैं, दुष्प्रवृत्तियों का दौर रहता है, कुकर्म होते रहते हैं, उनके समाचार भी कम भयावह नहीं होते। उसके सीधे सम्पर्क में न आने पर भी इस उस के मुँह से सुनी जाने वाली चर्चा भी मस्तिष्कों में उथल-पुथल उत्पन्न करने की दृष्टि से कम विषाक्त नहीं होती। सुने गये विवरण यदि अनैतिक स्तर के हैं, तो वे अपनी कार्य शैली के लिए आरम्भ में घृणा और बाद में सहमति की मनःस्थिति बना लेते हैं। यही कारण है कि ओछे स्तर के लोगों से भरे हुए लोगों के चरित्र से उठने वाली दुर्गन्ध अच्छे लोगों को भी प्रभावित करती है। विशेषतया कच्ची आयु के किशोरावस्था वाले उन अवांछनीयताओं को जल्दी एवं अधिक मात्रा में ग्रहण करते हैं। वैसी घटनाएँ आँखों के सामने से गुजरती हैं, तो प्रभाव और भी अधिक छोड़ती हैं।

इस दिशा में सिनेमा अपनी विलक्षण भूमिका निभाता है। अपने देश के सिनेमाओं की पटकथा एक ही होती है कि युवक-युवती स्वेच्छाचार बरतते, समाज की मर्यादाओं को ताक में रखते, यौनाचार की दिशा में लम्बे डग बढ़ाते हैं। इन्हें बार-बार देखते रहने वालों के मन में उसी प्रकार की उथल-पुथल मचती है और अवसर पाते ही वे ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिनसे सुखी विवाह का लाभ तो मिलता नहीं, उलटे फजीहत कराने वाले जंजाल में फँस जाते हैं। मनोरंजन प्रयोजन के निमित्त देखे गये सिनेमा अपनी एक नई संस्कृति बनाते हैं, फलतः ऐसे मानसिक उद्वेगों का जन्म होता है, जो सर्वसाधारण के सम्मुख अनुपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत करें।

कम किराये की दृष्टि से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने लगने पर, न केवल गंदगीजन्य छूत की बीमारियों के लगने का भय रहता है, वरन् उस क्षेत्र पर छाये हुए अनाचारों की छूत भी अपने या अपने बच्चों के सिर पर आ लदता है। इस खतरे से बचाव होने का आरम्भ से ही ध्यान रखना चाहिए, ताकि पीछे पश्चाताप न करना पड़े।

जिन देशों ने प्रगति की है, उनने न केवल स्कूली पाठ्यक्रमों में व्यक्तित्व को विकसित करने वाले तथ्यों का समावेश किया है, वरन् वातावरण बनाने पर पैनी दृष्टि रखी है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी एक प्रकार से घटनाक्रम ही समझा जाता है, इसलिए मनोरंजन क्षेत्र पर भी उतनी ही कड़ी नजर रखी जाती है, जितना कि अन्य उत्तेजना उत्पन्न करने वाले आन्दोलनों पर।

पानी का बहाव नीचे की ओर होता है, गिरने वाली परिस्थितियों का बाहुल्य होने पर जन मानस में हेय स्तर की उत्कंठाएँ उठने लगती हैं, जबकि आदर्शवादी प्रेरणाएँ धीमा प्रभाव डालती हैं। पानी को नीचे से ऊँचा उठाने में अपेक्षाकृत कठिन प्रयास करना पड़ता है। समाज को ऊँचा उठाने के लिए जहाँ सत्साहित्य की आवश्यकता है, सत्परामर्शों की व्यवस्था बनाने वाले संगठनों की आवश्यकता है, वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की दिशाधारा पर भी अभीष्ट नियन्त्रण रखा जाना चाहिए। गाँवों या मुहल्लों की भवन संरचना बदली न जा सके, तो भी वहाँ ऐसी समितियों की स्थापना होनी चाहिए, जो उस क्षेत्र का वातावरण सज्जनोचित बनाये रहें और जो दुष्प्रवृत्तियाँ चल पड़ी हों, उन्हें उखाड़ने का प्रयत्न करें।

स्वच्छता, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका आदि सत्प्रवृत्तियों की व्यवस्था की ओर विज्ञजनों का जितना ध्यान जाना चाहिये, उससे भी अधिक इसका प्रयास होता रहे कि जन साधारण की मनःस्थिति और परिस्थिति आदर्शों के विपरीत न चलने पाये। उत्कृष्ट के लिए इस ओर उपेक्षा न बरती जानी चाहिए, वरन् अधिकाधिक तत्परता प्रदर्शित की जानी चाहिए।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 247. इन अंधविश्वासों से पीछा छुड़ायें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कोई जमाना था, जब मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को ठीक तरह समझ नहीं पा रहा था। अन्तरिक्ष में दृश्यमान ग्रह नक्षत्र उसे देवी-देवता प्रतीत होते थे और उन्हीं की अनुकूलता, प्रतिकूलता से विविध प्रकार की विपत्तियों का तथा सुविधाओं का आना समझा जाता था। चारों ओर आश्चर्य ही आश्चर्य दीखता था और प्रतीत होता था कि जो कुछ घटित होता है, उसका कारण देवताओं का रोष अथवा अनुग्रह है।

बादल गरजते थे, बरसते थे, बिजली कड़कती थी, यह सब आकाश वासी देवताओं का कृत्य माना जाता था। चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के बारे में तो अभी भी जन समुदाय की यही मान्यता है। राहु-केतु नामक दैत्य आक्रमण करके इन देवताओं को दुःख देते हैं। इसलिए इनका संकट दूर कर देने के लिए दान-पुण्य करना चाहिए, विशेषतया शूद्र अछूतों को, क्योंकि वे दैत्यों के वंशज हैं।

मृतकों के बारे में मान्यता है कि वे भूत-पलीत बन कर अपने परिवार वालों को अथवा दूसरे परिचितों को त्रास देते हैं और भेंट पूजा लेने के उपरान्त शान्त होते हैं।

पशु पक्षियों के बारे में मान्यता थी कि वे भी मनुष्यों से अधिक अदृश्यदर्शी और भविष्य कथन के बारे में अपनी जानकारी को चित्र-विचित्र हरकतों द्वारा प्रकट करते हैं।

शकुन विचार के बारे में यही मान्यता है। बिल्ली का रास्ता काट जाना, कुत्ते का कान फड़फड़ाना अशुभ है। इसमें यात्रा करने वाले को कोई अनिष्ट होने का डर रहता है। नेवले का, नीलकंठ का दर्शन शुभ है। पशु-पक्षी अपने स्वभाववश कुछ न कुछ हरकतें करते रहते हैं। उन्हीं से लोग शुभ-अशुभ का तुक बिठाते हैं। छिपकली सदा दीवारों पर, छत पर चिपकी रहती है। झपकी आने पर उनके पंजे की पकड़ ढीली हो जाती है, तो वह नीचे जमीन पर गिर जाती है। संयोगवश कोई आदमी बैठा हो, तो यह संगति बिठाई जाती है कि छिपकली किस अंग पर गिरी और उसका भला या बुरा क्या प्रभाव पड़ना चाहिए। मुंडेर पर उल्लू का बैठना किसी अनिष्ट की सूचना है। कौआ बैठे और बोले तो समझना चाहिए कि वह किसी अतिथि, आगन्तुक की पूर्व सूचना देने आया है। किसी के सिर पर कौआ बैठ जाय तो उस व्यक्ति की मृत्यु होने का संकेत माना जाता है। जिस दिन किसी की मृत्यु हुई हो, उस दिन वह घर वालों से दावत या कपड़े आदि की सहायता माँगने आता है। न दिया जाय तो रुष्ट होकर अनिष्ट करता है।

ग्रहों का फेर हर आदमी के पीछे लगा रहता है। इसमें कुछ शुभ हैं, कुछ अशुभ। राहु-केतु, शनिश्चर, मंगल आदि की दशा आने पर हानि होती है। सूर्य, चन्द्र, बुध, गुरु आदि शुभ माने जाते हैं। पंडित लोगों ने एक गणित बना रखा है, जिसके हिसाब से यह बताया जाता है कि कौन सा ग्रह किसके ऊपर कितने दिन कब से कब तक सवार रहेगा। उस हिसाब से उसे अच्छे दिन या बुरे दिनों की आगाही दी जाती है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अशुभ ग्रहों को शान्त कराने के लिए कुछ जप, अनुष्ठान पंडितों द्वारा कराया जाय, तो वे शान्त भी हो जाते हैं। यह नहीं बताया जाता कि अकारण क्यों तो यह ग्रह नक्षत्र उलटे सीधे पड़ते हैं? और क्या कारण है कि पंडितों को दक्षिणा देने पर वे शान्त हो जाते है। पंडितों की और ग्रह-नक्षत्रों का आपस में रिश्तेदारी है। देवताओं को प्रसन्न करने की एजेन्सी किस आधार पर इन पंडितों को मिली हुई है, इनके द्वारा किये गये क्रिया-कृत्य ही क्यों इन देवताओं को संतोष देते हैं, अन्य कोई उसी पूजा प्रार्थना को स्वयं कर लें, तो उनका समाधान क्यों नहीं होता?

नक्षत्रों की भी ऐसी ही विचित्र माया है। दो-दो नक्षत्रों के ऐसे जोड़े हर महीने आते हैं, जिन्हें मूल कहा जाता है, उनमें किसी के घर कोई बालक उत्पन्न हो, तो वह माता, पिता, भाई, बहन आदि के लिए अनिष्टकर होता है। इस अनिष्ट से बचने के लिए मूल शान्ति का खर्चीला क्रिया-कृत्य करना पड़ता है। न करने पर वे हानि करके रहते हैं। बच्चे के जन्म की प्रसन्नता होनी चाहिए, पर जब बताया जाता है कि वह मूल नक्षत्रों में परिवार में धन-जन की हानि करेगा, तो सारा परिवार स्तब्ध रह जाता है। लड़की हो तो कामना करते हैं कि यह किसी प्रकार मर जाय तो परिवार के अन्य लोगों की विपत्ति टल जाय।

२८ नक्षत्रों में अंतिम पाँच को पंचक कहा जाता है। यदि उन दिनों किसी की मृत्यु हो जाय, तो घर के अन्य पाँच लोगों की मृत्यु होने का डर रहता है। इसलिए पंचक शान्त करने के लिए पंडित के कहे अनुसार पंचक शान्ति कृत्य करना पड़ता हैं। पैसा खर्च कर देने पर भी पेट में यह डर घुसा ही रहता है कि कहीं घर में से किन्हीं की मृत्यु न हो जाय।

कहीं आना जाना हो तो देखना होता है कि उस दिन चन्द्रमा, योगिनी, काल राहु रास्ता रोके तो नहीं बैठा है। हर दिन इनमें से किसी न किसी का फेरा रहता है, इसलिए कहा जाता है कि उस दिन यात्रा न की जाय। की गई और हानि हो गई तो कहा जाता है कि हमारी बात नहीं मानी गई, इसलिए घाटा उठाना पड़ा। हानि नहीं हुई तो कहा जाता है कि हमने अशुभ को शांत कर दिया।

इस प्रकार शकुन और मुहूर्तों का इतना बड़ा जंजाल है कि उनमें अधिकांश हानिकर ही निकलते हैं। जिस प्रकार धूर्त हकीम छोटी बीमारी को बहुत भयंकर बताकर रोगी को उसके घर वालों को हड़बड़ा देते हैं और सीधे-साधे सस्ते इलाज के बदले ढेरों पैसे वसूल करते हैं। उसी तरह ज्योतिषियों का भी धंधा है कि पूछताछ करने वालों को कोई न कोई अशुभ अनिष्ट बताकर उन्हें डरा दे। असमंजस में डाल दे और फिर उसको शांत करने के नाम पर पैसा वसूल करे। वह कर देने पर भी मन में डर तो घुसा ही रहता है कि कहीं कोई विपत्ति न आ टूटे। असमंजस में पड़ा हुआ मन प्रायः शंकित रहने के कारण घाटे की परिस्थिति ही पैदा करता है, यह मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि घबराया हुआ व्यक्ति घाटा उठाता है। सफलता के लिए उल्लास, उत्साह चाहिए। मुहूर्त पूछने पर उनमें से अधिकांश खराब ही निकलते हैं। ग्रह दशा के बारे में यही बात है। कभी भी पूछिये इतने सारे ग्रहों में से कोई न कोई चौथा, आठवाँ, बारहवाँ निकल ही आवेगा। डर पैदा करने के लिए इतना ही काफी है।

यह सब उस जमाने की बातें हैं जिसमें विज्ञान का विकास नहीं हुआ था। आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों का स्वरूप मालूम नहीं था, उन्हें व्यक्ति विशेष माना जाता था और समझा जाता था कि वे उनमें से कोई न कोई किसी न किसी पर कुपित बना रहता है, इसलिए यदि खैर मनानी है, तो उनके एजेन्टों को खर्चीले शान्ति कृत्य कराने के लिए पैसा दिया जाय।

पर अब स्थिति बदल गई है। समझ लिया गया है कि ग्रह-नक्षत्र निर्जीव पिण्ड हैं। उनमें न चेतना है, न समझ, फिर अकारण इतने सारे मनुष्यों पर राशि फेर के कारण सदा कुपित रहे, हानि पहुँचाये, यह कैसे हो सकता है? यह जंजाल उन्हीं के गले पड़ता है, जो इस अंधविश्वास से ग्रसित हैं। जो इस झंझट से दूर हैं, जो फलित ज्योतिष पर विश्वास नहीं करते, जिनका दृष्टिकोण बुद्धिवादी वैज्ञानिक है, उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न वे व्यर्थ ही पैसा लुटाते हैं। न डरते हैं, न असमंजस में पड़ते हैं।

शकुन के सम्बन्ध में भी यही बात है, पशु पक्षी आये दिन इधर से उधर दौड़ते फिरते ही हैं, उन बेचारों पर शुभ-अशुभ का निर्णय करना सर्वथा निरर्थक है। छींक आना, आँख के पलक आदि में फड़कन होना, यह शरीर की साधारण क्रियाएँ हैं, इनके साथ शुभ-अशुभ की संगति बिठाने का क्या तुक हो सकता है?

मरने के बाद प्राणी दूसरे शरीर में चला जाता है, अन्यत्र जन्म धारण कर लेता है। फिर उसको सुविधाएँ पहुँचाने की जिम्मेदारी परिवार वालों पर कैसे रही? यदि रही भी तो एजेन्ट लोगों के घर में गया माल उन मृतात्माओं के पास कैसे पहुँच जायेगा?

हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। अपना पराक्रम, पुरुषार्थ जिस भी दिशा में लगाता है, उसी दिशा में प्रगति होती है। गुण, कर्म, स्वभाव को बिगाड़ लेने पर आलसी, प्रमादी, कुकर्मी स्तर की गतिविधियाँ बना लेने पर किसी का भी भविष्य बिगड़ सकता है। अपने को सुधारने और सत्प्रयोजनों में संलग्न रहने पर किसी का भविष्य सुधर सकता है। यदि जन्म कुंडली के आधार पर किसी का भविष्य निश्चित हुआ करे तो फिर कर्म का, पुरुषार्थ का क्या महत्त्व रहेगा? यदि कुंडली के ग्रह अच्छे हैं, तो आलसी, प्रमादी, दुर्गुणी रहने पर भी भविष्य उत्तम रहेगा और यदि ग्रह खराब हैं, तो पराक्रमी को भी असफलता मिलेगी। ऐसी दशा में पराक्रम का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता, जबकि हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

जिन दिनों विवाह के मुहूर्त निकलते हैं। उन दिनों बाजे वालों, हलवाइयों, सवारियों की कितनी परेशानी होती है? जिन दिनों नहीं होते, उन दिनों वे सभी खाली बैठे रहते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि सुविधा का अवसर देखकर विवाह शादी किये जाय, ताकि सभी को सुविधा रहे।

किस लड़की का किस लड़के से विधि वर्ग मिला या नहीं? यह बात परिवार वालों को देखनी है। दोनों पक्षों की उपयुक्तता मिलती हो, तो समझना चाहिए कि जोड़ी मिल गई। पर पंडित लोग इसमें भी अड़ंगा लगाते हैं। अच्छे खासे सम्बन्ध को अशुभ ठहरा देते हैं और उपयुक्त जोड़ों को अपने जोड़ बाकी के हिसाब से रद्द कर देते हैं। लड़के का मंगली होना या लड़की का मंगली होना एक ऐसा संकट है कि उन बेचारों को जन्म भर के लिए अभागा ही ठहरा दिया गया। यदि वे जन्म कुंडली के झंझट में पड़ गये, तो सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी उन्हें अभागा ही ठहराया जायेगा और कहा जायेगा कि यह विधवा या विधुर होंगे। परिवार चिन्तामग्न रहते हैं और वर-वधू से लेकर अन्य सम्बन्धी जनों तक यही सोचते हैं कि इस सम्बन्ध के कारण जोड़ी में से किसी पर विपत्ति न टूट पड़े।

सारे संसार में जहाँ कुंडलियाँ नहीं मिलाई जाती, वहाँ दोनों पक्ष की परिस्थितियाँ भर देख लेना पर्याप्त माना जाता है। यह हिन्दू ही हैं, जो कुंडली के फेर में पड़कर अच्छे-खासे सम्बन्धों को रद्द कर देते हैं और जहाँ नहीं करना चाहिए, वहाँ विधि वर्ग मिलने की बात पंडित द्वारा कर दिये जाने पर अनुपयुक्त परिस्थितियों में भी गले मढ़ देते हैं।

इसी कुचक्र में विवाह के उपयुक्त अवसर भी गँवाने पड़ते हैं। सूर्य, बृहस्पति, चौथे आठवें, बारहवें होने के फेर में कई-कई वर्ष विवाह नहीं बनते। इस बीच परिस्थितियाँ बदल सकती हैं और नये प्रकार के नये अड़ंगे खड़े हो सकते हैं।

इन मान्यताओं के पीछे कोई वास्तविकता-यथार्थता नहीं हैं। केवल अंध विश्वास का ही कुतर्क काम करता है। यह आफत केवल कुछ प्रांतों में सवर्ण हिन्दुओं पर ही आती है, जो इन अन्धविश्वासों के दायरे से बाहर हैं वे मात्र सुविधा और अनुकूलता ही देखते हैं। विचारशील लोग देखते हैं कि इन मूढ़ताओं के पीछे कोई तर्क तथ्य नहीं है, इसलिए वे इस झंझट को दूर से ही नमस्कार करते हैं।

रीति-रिवाजों के, प्रथा-प्रचलनों के जितने झंझट हिन्दू समाज के गले बँधे हैं इतने कदाचित ही कहीं होते हैं। खास तौर से विवाह-शादियों के समय तथा आगे पीछे इतने प्रकार के अलन-चलनों की लकीर पीटी जाती है कि उनमें ढेर पैसा, समय, श्रम, चिन्तन बर्बाद होता है। इस बर्बादी में किसी को कोई लाभ नहीं। दोनों पक्षों के दस-बीस मित्र कुटुम्बी मिलकर विवाह की शास्त्रीय परम्परा पूरी कर लें, तो उसमें सौ दो सौ रुपये से अधिक खर्च होने का कोई कारण नहीं। यह मूढ़ मान्यताओं और व्यर्थ परम्पराओं का जंजाल ही है, जिसमें दोनों पक्षों का इतना समय और पैसा लगता है कि एक प्रकार से दिवालिया हो जाते हैं। दोनों परिवारों का भविष्य अन्धकारमय बन जाता है।

जातियों, उपजातियों का जंजाल इतना भयंकर है कि उसने एक हिन्दू समाज को सैकड़ों टुकड़ों में बाँट दिया है। रोटी-बेटी के मामले में हर बिरादरी अपने को एक अलग समाज या राष्ट्र मानती है। छूत-अछूत की मान्यता तो और भी भयंकर है, इसने अपनों को वीराना बना दिया है। अपने यहाँ वेष और वंश की प्रधानता मिलती है, जबकि गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप वर्ग बनने चाहिए।

हिन्दू समाज में स्त्रियों को पर्दे के कैदखाने में बन्द करके उन्हें अपंग की स्थिति में बना दिया गया है। पुरुषों के लिए कानून दूसरे और स्त्रियों के लिए दूसरे, जबकि दोनों ही एक मनुष्य जाति के अविच्छिन्न अंग हैं। जिन देशों में स्त्री-पुरुषों की समानता है, वहाँ की उन्नति देखते ही बनती है। एक हम हैं, जो आधे समाज को कैदियों की तरह जेल में बन्द रखते हैं। उनकी योग्यता बढ़ाकर के पुरुषार्थ का लाभ उठाते हुए पारिवारिक एवं सामाजिक स्थिति को समुन्नत बना सकते हैं।

भारतीय समाज में अगणित विशेषताएँ होते हुए भी एक भयानक दोष है, अन्धविश्वास की बेड़ियों में जकड़े रहने का। इन्हीं के कारण दो हजार वर्ष लम्बी गुलामी भुगतनी पड़ी। आर्थिक दृष्टि से बर्बाद हुए और समझदारों की दृष्टि में मूर्ख तथा पिछड़े हुए कहलाये। इस दुर्भाग्य से हम जितनी जल्दी छूट सकें, उतना ही उत्तम हैं।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 248. इन दिनों का प्रजनन विपत्ति का आमन्त्रण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

कोई समय था जब पृथ्वी पर मनुष्यों की संख्या एक करोड़ से कम थी। सर्वत्र पेड़ों और झाड़ियों की भरमार थी। उस समय पशु पालन प्रमुख उद्योग था। दूध की नदियाँ बहने की बात अक्षरशः सही होती थी। वह कार्य सरल भी था। इसके उपरान्त कृषि कार्य की ओर ध्यान दिया गया। अन्न, शाक, फल उगाये गये। इसके लिए झाड़ियाँ काटकर जमीन निकालने और उसे समतल करने की आवश्यकता पड़ी। यह कार्य एक व्यक्ति का नहीं पूरे समुदाय का था, अस्तु बड़े परिवार बनाने, बसाने की आवश्यकता पड़ी। बहु विवाहों का प्रचलन उसी समय का है। अधिक बच्चे होना एक सौभाग्य माना जाता था क्योंकि परिवार जितना बड़ा होता था, उसी अनुपात से कृषि एवं गो पालन से सम्बन्धित बहुमुखी क्रिया कलाप इसी आधार पर सुविधा एवं सफलतापूर्वक चल पाता था। वन्य पशु खेती उजाड़ते और हिंस्र पशु गो पालन में बाधा डालते थे, इसके लिए सुरक्षा प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ती थी। यह भी उन्हीं से ठीक प्रकार बन पड़ता था। समीपवर्ती गाँवों में आने-जाने के लिए रास्ते बनाने पड़ते थे। गर्मियों में पानी के भण्डार के लिए तालाब बनाने या खोदने पड़ते थे। कच्ची मिट्टी से बने झोंपड़ों की जिन्दगी भी थोड़ी ही होती है, उनका निर्माण अथवा सुधार भी हर साल का काम था। इसके लिए श्रम करना ही पर्याप्त नहीं होता था। सामान भी एकत्रित करना पड़ता था। यह बहुत पुरानी स्थिति का वर्णन नहीं है। इस काल को बीते दो हजार वर्ष भी नहीं हुए, जब संसार भर की आबादी एक करोड़ थी। मात्र अकेले बम्बई शहर के बराबर। इसलिए जीवन साधन जुटाने के लिए वे नफे में रहते थे, जिनके परिवार बड़े थे। कपड़ा बनाना या अनाज से कपड़ा बदलना भी ऐसा ही काम था, जिसमें जनशक्ति की अधिकाधिक आवश्यकता पड़ती थी। जिनसे अपनी समृद्धि की रक्षा करनी होती थी, वे दस्युगण भी प्रतिकार चाहते थे। यह सभी कार्य बड़े परिवार में ठीक तरह बन पड़ते थे। इसलिए वे परिवार सुखी-समृद्ध माने जाते थे, जिनके सदस्यों की संख्या अधिक होती थी। इन परिस्थितियों में सन्तान की वृद्धि सौभाग्य एवं ईश्वरीय उपहार माना जाता हो तो आश्चर्य ही क्या? सन्तानोत्पादन के सहारे परिवार का बढ़ना प्रसन्नता की बात समझी जाती थी। इसके लिए मनौतियाँ मनाई जाती थी और खुशियाँ मनाने की योजनाएँ बनती थी।

यह बात पुरानी हो गई। परिस्थितियों में असाधारण परिवर्तन हो गया। अब जनसंख्या एक करोड़ के स्थान पर ५०० करोड़ से भी अधिक है। चक्रवृद्धि दर के हिसाब से यह उत्पादन सन् २००० तक सोलह वर्षों में निश्चित रूप से दूना हो जायेगा। अर्थात १००० करोड़। जमीन सभी उपजाऊ नहीं है। उसका बड़ा भाग पर्वत, ऊसर, जलाशय, नदियाँ घेरे हुए हैं। सारे प्रयत्नों के बावजूद जितनी जमीन उपजाऊ बनाई जा सकती थी, बनाई गई है। रासायनिक खाद खोजकर सिंचाई का अतिरिक्त प्रबन्ध करने के उपरान्त भी जितना कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता था, उसके लिए प्राणपण से प्रयत्न कर लिया गया है। फिर भी वर्तमान आबादी का पेट भरने के लिए वह पर्याप्त नहीं होता। एक चौथाई आबादी को भूखों मरना पड़ता है। इसका प्रमुख कारण है, जनसंख्या की वृद्धि और खाद्य उत्पादन की कमी।

विगत दो हजार वर्षों में सभ्यता का विकास हुआ है। विज्ञान ने सुविधा साधन बढ़ाने में सहायता की है। समुन्नत जीवन का अभ्यास बढ़ा है और अन्न, वस्त्र के अतिरिक्त भी अनेक वस्तुओं की बड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ने लगी है। जिन्हें यह नहीं मिलते या कम मिलते हैं वे खिन्न होते हैं। इस आधार पर बढ़ती हुई विषमता ईर्ष्या-द्वेष के, चोरी-अपहरण के विग्रह खड़े करती है।

शिक्षा, चिकित्सा, यातायात के साधन अब दैनिक आवश्यकता में सम्मिलित हो गये हैं। बढ़ते उद्योगों के लिए कल कारखाने लगे हैं और उनने भी अच्छी जमीन ही घेरी है। स्कूलों, अस्पतालों को जमीन चाहिए। इन कारणों से खाद्य उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। वन क्षेत्र पिछले दिनों जलावन तथा इमारती लकड़ी के लिए इतने अधिक कटे हैं कि अब और अधिक कटाई की तनिक भी गुंजाइश नहीं हैं। वृक्ष बादलों को खींचकर वर्षा करते हैं। मनुष्य द्वारा छोड़ी गई गंदगी की सफाई करते हैं। वर्षा के पानी से जमीन कटने से रोकते और कृषि उत्पादन बढ़ाते हैं। रहे बचे जंगल भी काट लिए जाय, तो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा और जो जीवित हैं, उन्हें भी अन्न-जल के अभाव में प्राण त्यागने पड़ेंगे। ऐसी दशा में खेती के लिए जमीन बढ़ने और बढ़ी हुई आबादी का पेट भरने का कोई उपाय नहीं दीखता।

पिछले दो सौ वर्षों में विशालकाय कल कारखाने, द्रुतगामी वाहनों का बहुत विस्तार मनुष्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की इनके द्वारा पूर्ति होने के कारण वे भी अनिवार्य हो गये हैं। बड़े शहर प्रायः नदियों और समुद्रों के किनारे बसे हैं। रेल, मोटर, जलयान, वायुयान कोयला या तेल से चलते हैं। इनके द्वारा जहरीला धुँआ निकलता है। कारखानों से गन्दा पानी भी निकलता है। वह नदियों में होकर समुद्र तक पहुँचता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हवा और पानी दिन-दिन अधिक जहरीले होते जा रहे हैं। रासायनिक खादों में फसल बढ़ाने और फसल के कीड़े मारने वाली जहरीली दवाओं का प्रयोग होने से भी वह विष हवा पानी में होकर मनुष्य के शरीर में ही पहुँचता है। इस आधार पर बीमारियों की अन्धाधुन्ध वृद्धि हो रही है। हर साल अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या बढ़ती जा रही है। पर रोगों में कमी होना तो दूर उनमें निरन्तर वृद्धि हो रही है। यह अभिशाप बढ़ी हुई जनसंख्या और उसकी सभ्यता के साथ-साथ बढ़ती आवश्यकता की पूर्ति के लिए किये गये प्रयासों का कटुफल है।

अणु अस्त्र या आणविक बिजली घर इन दिनों तेजी से बढ़े है। इसके फलस्वरूप मधुमेह, ब्लड प्रेशर आदि असाध्य रोगों की भरमार हो रही है और बच्चों में अपंगों, विक्षिप्तों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। इनका भरण-पोषण अभिभावकों के लिए भार बनता जा रहा है।

द्रुतगामी वाहन खनिज तेलों या कोयले से चलते हैं। इनका भण्डार पृथ्वी में सीमित मात्रा में ही संग्रहीत है। कारखानों और वाहनों के लिए तेल या कोयले की खुदाई तेजी से हो रही है। जाँच पड़ताल करने पर पता चला है कि यह खनिज ईंधन इस गति से निकाला जाता रहा, तो वह अगले पचास वर्षों में पूरी तरह समाप्त हो जायेगा। तब कारखाने या वाहनों का चला सकना सम्भव नहीं रहेगा। उस उत्पादन के अभाव में लम्बी यात्रा करना सम्भव नहीं रहेगा। बिजली घर भी ठप्प हो जायेगा तब सुविधाओं की आवश्यकता माँगने का अभ्यासी मनुष्य उस गतिरोध का सामना किस प्रकार कर सकेगा, यह चिन्ता का विषय है। लोहा, ताँबा, जैसी धातुओं का उपयोग भी बढ़ी हुई वैज्ञानिक सभ्यता के कारण अत्यधिक हो रहा है। यह खुदाई अधिक दिनों न चल सकेगी। तब बर्तनों से लेकर हथियार बनाने तक के साधन न रहेंगे। जमीन की बेतरह खुदाई उसे खोखली ही करती है। साथ ही ज्वालामुखी फटने, भूकम्प आने की सम्भावना भी पहले की अपेक्षा कई गुनी होती जा रही है।

ऊपर की पंक्तियों में उन ढेर सारी परिस्थितियों का संकेत किया गया है, जो आज भी कम नहीं, कल तो इनकी संख्या और भी कई गुनी बढ़ने जा रही है। इन सब का मूलभूत कारण एक ही है-बढ़ती जनसंख्या। पृथ्वी के साधनों की एक सीमा है। उनका दोहन बेतरह होता गया तो वह दिन दूर नहीं, जब वह अपनी असमर्थता व्यक्त करेगा और बढ़े हुए लोगों को अभावग्रस्त होकर अथवा बढ़ती गन्दगी का विष पीकर अपने प्राण त्यागने पड़ेंगे।

शिक्षा पुराने जमाने में प्रचलित नहीं थी, पर अब उसे हर नागरिक के लिए अनिवार्य बनाने की बात सोची जा रही है। इसके लिए स्कूलों की इमारतें चाहिए, जो जमीन माँगती हैं, फिर अध्यापकों का वेतन चाहिए। सरकारें प्रयत्न करने पर भी इसकी पूर्ति नहीं कर पाती। देश को स्वतन्त्र हुए प्रायः ४० वर्ष होने को आते हैं, इस बीच शिक्षा बजट हर साल बढ़ते जा रहे हैं, किन्तु अशिक्षितों की संख्या कम नहीं हो पाती। देश में ७० प्रतिशत अशिक्षित हैं। इतने ही अंग्रेजों के समय थे। जितनी शिक्षा में वृद्धि होती है, उससे अधिक आबादी बढ़ जाती है। फलतः अशिक्षा की समस्या जहाँ की तहाँ बनी रहती है। इस दिशा में भविष्य में भी कोई आशा की किरण नहीं दीखती। क्योंकि ७० प्रतिशत पुराने निरक्षरों को पढ़ाना और बढ़ती आबादी के अनुपात से नये स्कूल खोलना सरल नहीं है। इस पर इतना पैसा खर्च होगा, जिसकी पूर्ति के लिए लगने वाले नये टैक्सों का भार वहन करना जनता के लिए सम्भव न हो सकेगा। फिर भोजन के बाद दूसरे नम्बर की समस्या स्वास्थ्य और शिक्षा का समाधान कैसे होता रहेगा। भूखे बीमार और अनपढ़ लोगों की संख्या बढ़ते जाना किसी देश के पतन और पराभव का कारण हो सकता है।

बढ़ी आबादी के निवास के लिए स्थान चाहिए और रोजगार धंधे भी। भारत की ७० प्रतिशत जनता देहातों में बसी है। अतः वहाँ रोजगार के स्रोत सूखते जा रहे हैं। फलतः वहाँ के शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही बड़ी संख्या में शहरों की ओर भाग रहे हैं। वे सोचते हैं शहर सम्पन्न हैं इसलिए वहाँ पहुँचने पर कुछ धंधा मिल जायेगा। मिल भी जाता है, पर स्थान की कमी और बढ़ती घिचपिच से बीमारियाँ ही नहीं अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियाँ ही बढ़ती हैं। अमीरों के कोठी बंगलों को छोड़कर शहर दूसरे तीसरे दर्जे के लोगों के लिए हर दृष्टि से विशेषतया निवास की दृष्टि से गन्दगी के घर और साक्षात् नरक ही बनते जा रहे हैं। विनोबा शहरों को देश के शरीर में उगे हुए कैन्सर के फोड़े कहा करते थे। वहाँ पहुँचने पर मनुष्य जो पाता है उसकी तुलना में गवाँ कहीं अधिक बैठता है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन की दृष्टि से वह खोखला ही हो जाता है। गरीब तबके में अपने स्थान की अपेक्षा शहरों में व्यभिचार, चोरी, जुआ, शराब जैसी गंदी बीमारियाँ इसलिए पीछे लग लेती है कि शहरों की चमक-दमक जिस-जिस प्रकार का अमीरी वातावरण देखती है, वैसी ही नकल करने के लिए कुमार्ग अपनाने और उसका प्रतिफल भोगने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता।

विज्ञजनों का निष्कर्ष है कि घनी आबादी मे रहने वाली गरीब जनता अवांछनीय वातावरण उत्पन्न करती है। न केवल शारीरिक और मानसिक रोगों की भरमार होती है, वह गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से भी वे हेय बन जाते हैं। स्वार्थपरता, निष्ठुरता, विश्वासघात, ठगी, बेईमानी, बदमाशी की मात्रा अनायास ही बढ़ जाती है। वहाँ की परिस्थितियाँ ही ऐसी होती हैं, जिनमें अगणित कुत्साएँ और कुण्ठाएँ पनपती है और शालीनता को अस्त-व्यस्त कर देती है। ऐसे ओछे नागरिक किसी देश के लिए भारभूत ही हो सकते हैं।

इन दिनों हर क्षेत्र में अनेकानेक ढंगों की चित्र-विचित्र समस्याएँ बढ़ी हैं। उनका हल-समाधान होने के लिए राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में अनेकानेक विचारणाएँ और धारणाएँ होती रहती हैं। उनमें से कितने ही निष्कर्षों को कार्यान्वित भी किया जाता है कि वास्तविकता यह है कि गुत्थी एक भी सुलझती नहीं, संकट एक भी टलता नहीं, क्योंकि समस्त समस्याओं का इन दिनों एक ही प्रमुख कारण है-बढ़ती हुई जनसंख्या, गरीबों का बहु प्रजनन। इस दुष्प्रवृत्ति के तात्कालिक और दूरगामी अनेकानेक दुष्परिणाम प्रस्तुत होते हैं। विभीषिकाएँ जिस क्रम से उभरती हैं, उनकी तुलना में सुधार के उपाय, उपचार बहुत पीछे रह जाते हैं।

वधुएँ जल्दी-जल्दी प्रजनन करने के कारण शरीर से जर्जर हो जाती हैं। जवानी की आयु पूरी तरह आने भी नहीं पाती कि उनकी काया जराजीर्ण वृद्धाओं जैसी हो जाती है। जिस काया में से कट-छँट कर बच्चों के शरीर बनते हों, जिन्हें लाल रक्त सफेद दूध की तरह बालकों को पिलाना पड़ता है, इतने पर भी जो घरेलू कामों की व्यस्तता, गरीबी, तंगी एवं कलह के वातावरण में घुटती खपती हो, उनकी जिन्दगी कितने दिन काम देगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रसव संकट में सौ के पीछे तेरह का प्राण चला जाता है। नवजात बालक भी एक वर्ष के भीतर हजार के पीछे १३० के करीब अकाल मृत्यु के ही ग्रास बन जाते हैं। जो जीवित रहते हैं वे कुपोषण पर निर्वाह करने के कारण जन्मजात रोगी होते हैं, बड़े होने पर वे जिस वातावरण में रहते हैं, उसमें सुसंस्कारिता का वातावरण नहीं मिल पाता। बिल में रहने वाले चूहों की तरह वे घर के पिंजड़े में ही कैद रहते हैं। घर से बाहर निकल कर किन्हीं के साथ रहे तो वहाँ उन्हें कुसंग ही कुसंग हाथ लगता है। माता-पिता आजीविका उपार्जन तथा घरेलू व्यवस्था में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों को शिक्षित, सद्गुणी एवं सुसंस्कारी बनाने की ओर ध्यान नहीं दे पाते। गरीबी वैसा कुछ करने भी नहीं देती। पारिवारिक चिन्ताओं में पिता भी घुटता रहता है। ऐसी दशा में बड़े संयुक्त परिवार तो निभेंगे ही कैसे, अपने अंश-वंश का बोझ ढोना भी कठिन हो जाता है। बच्चे, उनकी माता, पिता, भाई-बहिन इस प्रजनन के अभिशाप का दंड भोगते हैं।

यह समय इसके लायक बिलकुल भी नहीं है कि बच्चे पैदा किये जायें। जिनने विवाह कर लिया हो वे भी परिवार नियोजन की बात सोचें और संतानोत्पादन पर कड़ा अंकुश लगायें। सामान्य आजीविका में मियाँ-बीबी का गुजारा ही कठिन पड़ता है। वे ही दोनों आपस में एक दूसरे को संतान मानें और सुविकसित प्रगतिशील जीवन के लिए जिन प्रयासों या साधनों की आवश्यकता है उन्हें जुटाते रहे। किसी को बच्चों की भारी उत्कंठा हो तो किसी गरीब का बच्चा पालने या पढ़ाने के लिए लिया जा सकता है। पिण्ड दान मिलने या वंश चलाने जैसी पुरानी सड़ी-गली बेतुकी मान्यताओं को उठाकर एक कोने पर रख देना चाहिए। अब तक जितने लोग पैदा हो चुके हैं वे ही समस्या बने हुए हैं, फिर नया प्रजनन करके उनके मुख का ग्रास न छीने तो ही अच्छा है। परिस्थितियों को देखते हुए नये प्रजनन को समाजद्रोह की संज्ञा दी जाय, तो इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति न होगी। भारत जैसे समस्याओं से घिरे देश में प्रजनन पर जितना अंकुश लगाया जा सके, उसे उतनी ही बड़ी देश भक्ति, मानव सेवा, एवं निजी परिवार की प्राण रक्षा ही कहा जा सकता है। यदि इस सम्बन्ध में उपेक्षा बरती गई तो अगली शताब्दी में लोगों को अन्न वस्त्र मिलना तो दूर सड़कों पर चलने के लिए जगह तक न मिलेगी।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 249. ईमानदारी सर्वतोमुखी प्रगति की सुनिश्चित नीति
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इन दिनों प्रचलित अनेक अन्धविश्वासों में से एक यह भी है कि बेईमान नफे में रहता है और ईमानदार घाटा उठाते हैं। यह मान्यता इसलिए पनपी है कि तत्काल के लाभ को ही लाभ माना जाता है और जिसका परिणाम विलम्ब से मिले उसे नकार दिया जाता है।

तत्काल तो चोरी, उठाईगीरी, व्यभिचार, बलात्कार आदि कुकर्म भी मन को भाते हैं, पर कुछ ही समय बाद उनका दुष्परिणाम सामने आ खड़ा होता है। अनीति छिपाये नहीं छिपती। हींग को कई पोटलियों के भीतर बाँधकर रखा जाय, पर उसकी गंध प्रकट हुए बिना रहती नहीं। पारा खा लेने पर वह शरीर के अवयवों को फोड़कर कुछ ही समय में फोड़े, चकत्तों के रूप में बाहर निकलता है। कुकर्मी की यह अप्रामाणिकता कुछ ही दिन में चर्चा का विषय बन जाती है और दुराव के सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। निन्दा की चर्चा में ऐसे भी लोग रस लेते हैं, फिर उसके साथ कुछ तथ्य भी जुड़े हुए हों, तो आदत के अनुसार लोग उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर कहेंगे ही। कानाफूसी प्रकट विज्ञापन की तुलना में अधिक सशक्त होती है और फैलती भी अपेक्षाकृत जल्दी है। रहस्यों को सर्वसाधारण के लिए पचा सकना कठिन है, ऐसी बातें जो छिपाई जाती हैं, एक के विदित होते ही कानों-कान दूसरे तक, दूसरे से तीसरे-चौथे तक उड़ती है और यह समझना कि हमारे किये गये दुष्कृत्य हमी को विदित रहेंगे, अन्य किसी पर प्रकट न होंगे, सर्वथा गलत सिद्ध होता है।

बेईमानी बरतने वाले को कानूनी दंड तो सरकार ही दे सकती है। पर उसकी अप्रामाणिकता चर्चा का विषय बन कर लोक भर्त्सना का निमित्त तो बनना ही है। ऐसे आदमियों पर कोई विश्वास नहीं करता, वास्ता नहीं रखता और आदान-प्रदान के झंझट में नहीं पड़ता, कारण कि जो दुर्व्यवहार अन्यों के साथ किया जा रहा है, वैसा ही बर्ताव अपने साथ न होगा, उसकी क्या गारण्टी है?

हेय आचरण वाले चरित्र की दृष्टि से छूत के रोगी बन जाते हैं। क्षय, कैंसर, कोढ़, दाद आदि को छूत का रोग माना जाता है। वह एक से दूसरे को लगता है। दुष्ट दुराचारी का अपने घर में आना-जाना हो, तो यह आशंका बनी ही रहती है कि कोई अपने घर के सामान्य बुद्धि वालों को अपनी कुटेव न गले उतार दे।

जिनके साथ दुर्व्यवहार किया गया है, वह उस समय बदला लेने की स्थिति में भले ही न हों, पर पीछे जब कभी दाँव लगता है तब स्वयं या किसी अन्य के द्वारा हानि पहुँचाने और मन का गुबार निकालने का प्रयत्न करता है। प्रतिशोध ऐसा तथ्य है, जो उसके मन में बना ही रहता है। जिसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हानि पहुँचाई गयी है। उसका निवारण तभी होता है जब बदला चुक जाय।

द्रौपदी ने कौरवों का उपहास ‘अंधों के अंधे होते हैं’ शब्द कहकर किया, वह शब्द उन्हें बेतरह चुभ गये और प्रतिफल भयंकर मार काट के रूप में हुआ। द्रुपद के दरबार में द्रोणाचार्य कुछ याचना करने गये थे और अपने सहपाठी होने का स्मरण दिला रहे थे। इस पर द्रुपद ने पुरानी चर्चा को भुला देने के लिए कहा और बताया कि आज मैं राजा हूँ और आप याचक। द्रोणाचार्य को यह बुरा लगा और द्रुपद को नीचा दिखाने के लिए पाण्डवों द्वारा आक्रमण करा दिया। महानन्द ने चाणक्य को निमंत्रित ब्राह्मणों की पंक्ति में से कुरूप होने के कारण उठा दिया था, बदले में चाणक्य ने नंदवंश का सर्वनाश कराने पर ही चैन लिया। यह तो मानापमान की घटना है। जिनको दुष्कर्मों द्वारा हानि पहुँचाई गई है। उसकी तिलमिलाहट और भी तीखी होनी चाहिए। क्षमा करने की बात तो परमहंस, योगी या सशक्त, दीन दुर्बल ही जानते हैं, जिनमें सामर्थ्य है वे बदला चुकाये बिना नहीं मानते। हो सकता है कि जितनी हानि पहुँचाई गई थी, बदले में उससे अनेक गुनी हानि उठानी पड़े। ऐसी स्थिति सामने आने पर ही यह प्रतीत होता है कि अनीति बरतने का व्यवसाय लाभ का नहीं, घाटे का है।

अदूरदर्शी, विवेकहीन ही ऐसा सोचते हैं कि दुराचार छिपा रहेगा या प्रतिशोध कोई चुकायेगा नहीं। वस्तुतः यह भ्रम सर्वथा गलत है। दुरात्माओं के प्रति जो वातावरण बनता है, वह एक के द्वारा न सही दूसरे के द्वारा दंडित कराने की भूमिका बना देती है।

फिर अपनी अन्तरात्मा का प्रश्न भी कम महत्त्व का नहीं है। कुकर्मों से वह आहत होती है। मनोविकार अन्तर्द्वन्द्व रचते हैं। नस-नाड़ियों में एक विकृत उलझन उत्पन्न करके उनके कारण शारीरिक और मानसिक ऐसे रोग उत्पन्न होते हैं, जो दवा-दारू से भी कण्ट्रोल में नहीं आते। आधुनिक मनोविज्ञान शास्त्र अनेक प्रयोग परीक्षणों के द्वारा सिद्ध कर चुका है कि मनोविकार एवं अनाचार अन्तःक्षेत्र के अचेतन संस्थान को गड़बड़ा देते हैं, फलतः कितने ही प्रकार की सनकें, अनुपयुक्तताएँ शरीर और मन में पनपती हैं। फलतः व्यक्ति अर्धविक्षिप्त जैसा हो जाता है। ऐसे व्यक्ति न तो सज्जनों की पंक्ति में बैठ पाते हैं और न किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में सफलता ही हस्तगत कर पाते हैं। अप्रामाणिकता ऐसी व्यथा है, जो शब्दवेधी बाण की तरह लौटकर अपने ही पास आ जाती है। दूसरों की अपेक्षा अपना अधिक अनर्थ करती है। बात इतनी भर है कि अंकुर को वृक्ष बनने में देर लग जाती है, आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता है। आज का बोया वृक्ष कुछ वर्ष बाद फल देता है ,, कर्मफल की प्रक्रिया भी ऐसी है। भले-बुरे कर्मों का प्रतिफल तदनुरूप निश्चय ही मिलता है। स्रष्टा की इस विश्व व्यवस्था में देर तो लगती है, पर अंधेर नहीं चलता। यह तथ्य हर किसी को गाँठ बाँध लेना चाहिए। कुकर्मी व्यक्ति विचारशील व्यक्तियों की भर्त्सना ही नहीं, सहकारिता भी गँवा बैठता है। यह हानि इतनी बड़ी है, जिसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहीं सकती।

जिनने सज्जनता का अवलम्बन पकड़ा है और अपने चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में ईमानदारी का, सज्जनता का समावेश रखा है, वे आत्म संतोष अर्जित करते रहते हैं। उस आधार पर उनका आत्मबल बढ़ता है, जो संसार के समस्त बलों में अधिक प्रचंड है। उसी का परिचय क्रिया कार्यों में मनोबल के रूप में उभरता है। उत्साह और साहस इसी अंतःस्थिति की परिणति है। इस विशिष्टता में सम्पन्न व्यक्ति जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं, उसे पुरुषार्थ पूर्वक सफलता के स्तर तक पहुँचाते हैं। उन्हें व्यवधानों और मार्ग की कठिनाइयों का भी डर नहीं लगता। चरित्रवान ही लौह पुरुष कहलाते हैं। उनके ऊपर जन सम्मान और जन सहयोग की अजस्र वर्षा होती है। संसार के महामानवों की जीवनचर्या ध्यानपूर्वक पढ़ने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उनने नीतिवान जीवन जिया। चरित्र को ऊँचा रखा। सद्व्यवहार को अपनी रीति-नीति का अंग बनाया, फलतः उनकी प्रामाणिकता बढ़ती और प्रख्यात होती गई। ऐसे लोगों के प्रति अनायास ही श्रद्धा उमड़ती है और उनसे सम्पर्क साधने, सहयोग करने की इच्छा उमड़ती है। अपनी निज की और अन्यान्य सत्पुरुषों की श्रद्धा सहायता के बल पर ही ऊँचे उठना और महान कार्य सफलता पूर्वक सम्पन्न कर सकना संभव होता है, और महामानवों के पास अन्य लोगों की अपेक्षा जो अधिक सामर्थ्य रही है, अधिक विभूतिवान माने गये हैं, उसका रहस्य यही एक है। इसी प्रकार शालीनता का जीवन जीने में प्रत्यक्षतः जो घाटा दीखता है, वह परोक्ष रूप से अनेक गुना लाभ बनकर आता है। जबकि अनाचार अपनाने वाले व्यक्ति धीरे-धीरे सब की, यहाँ तक कि मित्रों-परिजनों की आँखों से गिरते जाते हैं। आड़े समय में मित्र तो क्या उनके परिवार के सगे संबंधी भी काम नहीं आते। मुसीबत में फँसने पर हर व्यक्ति मुँह पिचकाता है और कहता पाया गया है कि अच्छा हुआ अपनी करनी का फल भुगता जा रहा है।

दुराचरण, अदूरदर्शिता जन्य मूर्खता है। विद्यार्थी चाहे तो अपनी फीस के पैसे जमा न करके सिनेमा देख सकता है या चाट-मिठाई खा सकता है। उस समय उसे यही प्रतीत होगा कि तात्कालिक लाभ उठाने की बुद्धिमानी अपनाई गई। किन्तु जब स्कूल के रजिस्टर में से नाम कट जाता है। परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं मिलता। एक वर्ष खराब जाता है। घर वालों और साथियों द्वारा तिरस्कृत होना पड़ता है कि तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठना और उसके भावी परिणामों पर विचार न करना समझदारी की बात नहीं हैं। कोई किसान खेत में बोने के लिए रखे गये बीज को बेचकर आवारागर्दी में फिरने और गुलछर्रे उड़ाने में खर्च कर सकता है, पर जब खेत बिना बोया हुआ पड़ा रहेगा और फसल काटने के समय खाली हाथ रहना पड़ेगा, तब प्रतीत होता है कि उन दिनों जो गुलछर्रे उड़ाने की जो सूझ सूझी वह समझदारी नहीं नासमझी थी।

पहलवानों और विद्वानों को आरंभिक दिनों में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और प्रलोभनों, आकर्षणों से अपने को बचाते हुए निरन्तर निष्ठा पूर्वक कार्यरत रहना पड़ता है। तभी प्रशंसनीय प्रगति उनके हाथ लगती है और प्रशंसा के भाजन बनते हैं। मोटे रूप से यह साथियों की मूर्खता मालूम पड़ सकती है, जब वे इधर-उधर मटरगस्ती में समय गँवाते हैं, और उन्हें भी साथ चलने के आग्रह पर इनकारी का उत्तर पाते हैं, तो सहज ही उन्हें कोल्हू का बैल आदि अपशब्द सुनने को मिल सकता है। पर जब उस अनवरत श्रम का उत्साहवर्धक सत्परिणाम सामने आता है, तो प्रतीत होता है कि तात्कालिक मौज मजा अपनाने की अपेक्षा दूरदर्शिता अपनाकर संयम बरतना ही बुद्धिमत्ता है। चरित्र निष्ठा पर दृढ़ रहने और ईमानदारी की नीति अपनाने में ऐसी ही प्रशंसनीय समझदारी सन्निहित है।

विज्ञजनों ने आदर्शों को प्रत्यक्ष देवताओं की संज्ञा दी है। देवता प्रसन्न होने पर आनन्ददायक और उत्कर्ष में सहायक वरदान देते हैं। पर इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए आरम्भ में तप साधना करनी पड़ती है। इस प्रतिपादन का सीधा अर्थ यह समझा जा सकता है कि आदर्शों के परिपालन में आरम्भिक कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, पर जब विशिष्टता गुण-कर्म में रम जाती है, तो समझना चाहिए कि देवता के प्रसन्न होने और वरदान देने का समय आ गया। सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय को ही भगवान कहते हैं। नकली भगवान को नकली पूजा पत्री करके नकली वरदान पाने की कोई आशा लगाये बैठा रह सकता है। उन्हें मनुहार उपहास के बलबूते मनोकामनाएँ पूरी कर लेने की ललक रह सकती हैं। पर जिन्हें यथार्थता के क्षेत्र में विश्वासपूर्वक प्रवेश करना है, उन्हें जानना चाहिए कि आत्म परिष्कार और लोक मंगल में परायण रहने का नाम ही योगाभ्यास और तप साधना है। इन्हीं के सहारे भगवत् अनुकम्पा प्राप्त हो सकती है। दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश करना ही स्वर्ग में निवास करने की तरह आनन्ददायक है। चरित्र में आदर्शवादिता का समन्वय करते हुए वासना, तृष्णा, अहंता की क्षुद्रता को तोड़-फेकना ही भव बंधनों से मुक्ति पाना है। परमार्थ परायणता ही सिद्धि साधना है। संसार के देव मानवों ने अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध होने योग्य बनाया है। फलतः वे नर रत्नों में गिने भौतिक क्षेत्र में विभूतिवान सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। कोई जन सम्मान के आधार पर कठिन कामों को सरलतापूर्वक सम्पन्न करते हैं। इस स्तर के आदर्शवादी हर घड़ी अपनी अन्तरात्मा में उल्लास उमड़ता अनुभव करते हैं। सच्ची भगवत् कृपा का स्वरूप यही है कि उसके आधार पर मनुष्य अपने को अधिकाधिक पवित्रता और प्रखरता से सुसम्पन्न बनाता चले। इस क्षेत्र में जितनी प्रगति होती है, उसी अनुपात से उसकी भगवत् भक्ति सफल सार्थक हुई मानी जाती है। आत्मकल्याण का, जीवन लाभ का यही स्वरूप है। इसके लिए व्यक्ति को अपनी जीवनचर्या में ईमानदारी कूट-कूट कर भरनी पड़ती है। उसे अपने प्रति, सम्बद्ध व्यक्तियों के प्रति और समूचे समाज के प्रति ईमानदार रहना पड़ता है। इससे कम में किसी की ईश्वर भक्ति पूर्ण नहीं हुई और जो चरित्र निष्ठा का परिपूर्ण निश्चय के साथ पालन करता है उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।

सर्वविदित है कि शक्ति के सहारे ही सम्पन्नता एवं सफलता का लाभ मिलता है। इस संदर्भ में हर किसी को विदित रहना चाहिए कि संसार में सबसे बड़ा बल आत्म बल है, उसी के साथ साहस एवं मनोबल भी जुड़ा हुआ है। जिसने यह पूँजी एकत्रित कर ली, उसे हनुमान, अंगद की तरह बलिष्ठ, नल-नील की तरह कुशल और भीम-अर्जुन की तरह सफल माना जा सकता है। गाँधी, बुद्ध जैसे आत्मबल के धनी अपने-अपने समय में समूचे वातावरण को उलट देने में सफल हुए हैं। उनकी महत्ताओं के मूल में आदर्शवादी चरित्रनिष्ठा ही समाहित देखी जा सकती है।

लोक जीवन में भी जिनका व्यवसाय ऊँचा उठा है, उनने अपनी वस्तु को उत्कृष्टता और व्यवहार की शालीनता का सिक्का जन मानस पर जमाया है। प्रामाणिक वस्तु को लोग मँहगे दाम पर भी खरीदते हैं और व्यवसायी को मालामाल बना देते हैं। इसके विपरीत जिनका व्यवहार मिलावट, घटिया, नकली वस्तुएँ बनाने बेचने का है, उनका सस्ता माल भी अविश्वासी होने के कारण कुछ ही दिन में बदनाम हो जाता है और सोने की मुर्गी का पेट चीरने वाले के समान दिवालिया बना देता है। कारण कि बेईमानी अपनाने वाले के विरुद्ध जो वातावरण बनता है वह कुछ ही दिन में उसकी नाव डुबो देता है।

संसार में प्रामाणिक व्यवसाय ही स्थाई बना, प्रशंसा पात्र हुआ और संचालक को कहीं से कहीं ऊँचा उठा ले जाने में समर्थ हुआ है। यह व्यवसाय आर्थिक ही नहीं, किसी प्रकार का हो सकता है, मनुष्य को अपनी जीवन दिशा कोई भी बनानी हो, योजना कोई भी क्यों न चलानी हो उसकी स्थाई सफलता का सूत्र सच्चाई की नीति अपनाने में ही सन्निहित है। बुद्धिमानी इसी में है कि इसी सुनिश्चित वस्तु स्थिति को समझा जाय और उच्चस्तरीय सफलता के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की जाय। जिन्हें तत्काल लाभ के लिए बेईमानी की नीति अपनाने में संकोच नहीं होता, वे अन्ततः पश्चाताप करते और घाटा उठाते ही देखे गये हैं, भले ही वे कुछ देर तत्काल लाभ के लिए अपनी चतुराई की शेखी बघार लें।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

 

 250. व्यायाम आन्दोलन को व्यापक बनाया जाय
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

शारीरिक समर्थता संवर्धन के लिए व्यायाम का असाधारण महत्त्व है। जो खाया जाता है उसके पाचन हेतु परिश्रम की आवश्यकता को सभी समझते हैं। इसकी उपेक्षा करने पर अपच उत्पन्न होता है और उस कारण पेट में बनने वाली सड़न अनेकानेक रोगों का निमित्त कारण होती है। आहार कितना ही पौष्टिक या बहुमूल्य क्यों न हो, उसका लाभ पचने पर ही मिलता है अन्यथा बिना पचा अमृत भी विष बन जाता है। पाचन का एकमात्र माध्यम परिश्रम है। पशु-पक्षी भागते दौड़ते एक-एक ग्रास बीनते हैं इस प्रकार उनका खाने और पचने का सिलसिला साथ-साथ चलता रहता है। किन्तु मनुष्य का ढंग दूसरा है वह एक एक ग्रास दिन भर खाता-पीता नहीं और न दिन भर दौड़ धूप करता है। उसे एक बारगी पेट भर खाने की आदत है इसलिए परिश्रम भी एक किस्त में करनी चाहिए। पाचन तन्त्र इसी प्रकार चलेगा। अन्न से रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से अस्थि और अन्त में ओजस् बनने का क्रम तो है, पर वह चलता तब है जब शारीरिक श्रम का तदनुरूप सिलसिला भी बना रहे अन्यथा पेट पर भार लदा रहने पर उलटा शक्तियों का क्षय होता है और खाया-पिया अंग नहीं लगता। अंग अवयवों की आवश्यकता पूरी न होने पर वे दुर्बल बन जाते हैं और रोगों के चंगुल में फँसते हैं।

अब कठोर श्रम का प्रचलन घट गया है। किसान मजदूर ही उपयुक्त श्रम करते हैं। अन्य व्यवसाय वाले, बाबू स्तर की नौकरी करने वाले प्रायः बैठे रहने वाले काम ही करते हैं। दिमाग से काम करने और एक हाथ से कुछ लिखने-पढ़ने वाले कमा तो भले ही अधिक लेते हो, पर रोटी पचाने वाला कठोर शारीरिक श्रम नहीं करते, ऐसी दशा में स्वास्थ्य सन्तुलन बिगड़ता है। आराम तलब से आदमी फूलता भले ही जाता हो, पर उस बोझ को ढोने की प्रक्रिया से नस नाड़ियों पर उलटा दबाव पड़ता है। बढ़ी हुई चर्बी निरोगिता का चिन्ह नहीं है। बहुधा बैठे ठाले आदमी अपच के शिकार होते हैं और चूरन, चटनी के सहारे जैसे तैसे काम चलाते हैं। जबकि किसान, मजदूर, लुहार, बढ़ई, धोबी आदि कड़ी मेहनत करते रहने के कारण नीरोग भी रहते हैं और दीर्घ जीवन भी जीते हैं।

इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए व्यायाम को आहार जितना ही आवश्यक माना गया है। जिन्हें कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ता उनके लिए तो वह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। पर जो काम करते हैं उनके लिए भी वह उपयोगी है। व्यायाम शब्द के साथ मनोबल जुड़ता है और उसकी महत्ता कई गुनी बढ़ जाती है और उत्साह, साहस, मनोबल जैसी विशेषताओं को भी बढ़ाती है। श्रम भारभूत होता है, उसके साथ विवशता जुड़ी रहती है किन्तु व्यायाम में उत्साह और उद्देश्य जुड़ा रहता है इसलिए उसके द्वारा मनोबल भी बढ़ाने का दुहरा लाभ मिलता है।

गाँधी जी, लिंकन जैसे महापुरुष प्रातः काल नियमित रूप से टहलने जाया करते थे, इस आधार पर उनने स्वास्थ्य संतुलन बनाये रखा। चिट्ठी बाँटने वाले पोस्टमैन दिन भर घूमते रहते हैं, पर उन्हें संकल्प पूर्वक टहलने जैसा लाभ नहीं मिलता। दण्ड पेलने वाले पहलवान की अपेक्षा हाथों का श्रम हथौड़ा चलाने वाला लुहार का श्रम अधिक होता है तो भी वह पहलवान नहीं बन पाता। श्रम के साथ उत्साह और संकल्प जुड़ने से व्यायाम कहलाता है। उसके साथ नियमितता और अनुबन्ध, अनुशासन भी जुड़ा रहता है अस्तु उसका लाभ भी तदनुरूप अधिक मिलता है।

व्यायाम का अर्थ पहलवानों द्वारा अपनाये जाने वाले कठोर दण्ड बैठक जैसी प्रक्रिया ही नहीं है। उसमें नर-नारी, बाल-वृद्ध यहाँ तक कि रोगियों द्वारा अपनाये जाने योग्य तरीके भी हैं। वे हलके होते हुए भी अंगों को सक्षम रखने के अतिरिक्त उत्साह एवं मनोबल बढ़ाने का भी काम देते हैं। आसन प्राणायाम की अपनी महत्ता है। उनके कारण वे अवयव भी लाभान्वित होते हैं, जिन्हें प्रायः समुचित श्रम नहीं करना पड़ता। आम आदमी बैठे ठाले रहने की स्थिति में उथली साँस लेता है। फेफड़ों में एक छोटे अंश को ही इससे श्रम करना पड़ता है और शेष निठल्ला पड़ा रहता है। उस भाग में क्षय आदि के रोग कीटाणु घुस पड़ते हैं और अपना घर मजबूत करते-करते फेफड़े सम्बन्धी कितने ही रोग खड़े कर देते हैं यदि गहरी साँस लेने के लिए प्राणायाम की विद्या अपनाई जाती रहे तो सीना मजबूत रहेगा और क्षय, दमा, खाँसी आदि रोगों की संभावना न रहेगी, इसी प्रकार आसनों के अभ्यास से उन अवयवों का परिश्रम हो जाता है जिनका काम करते समय अक्सर नहीं होता। बच्चों के लिए दौड़ना, कमजोरों के लिए तेज चाल से हाथ हिलाते हुए गहरी साँस लेते हुए टहलना भी काम चलाऊ व्यायाम है। बुड्ढों के लिए अंग संचालन भी उपयुक्त रहता है। हाथों की, कमर की, गरदन की, पेट को फैलाना और सिकोड़ना अंग संचालन है। इसे वयोवृद्ध भी अच्छी तरह कर सकते हैं। बीमार लोग चारपाई पर पड़े-पड़े ही अंग संचालन करते रह सकते हैं और लोट-पोट करते रहने का लाभ भी उठा सकते हैं।

व्यायाम एक समूचा शास्त्र है। इसमें शारीरिक श्रम के अतिरिक्त उत्साह बढ़ाने का भी अवसर मिलता है और मनोरंजन भी होता है। हर स्थिति का, हर स्तर का व्यक्ति अपने लायक व्यायाम चुन सकता है। इसके लिए जानकारों से सलाह ली जा सकती है। सबेरे स्वच्छ हवा में टहलने जाना तो सभी के लिए उपयोगी है। उसमें सीना तना रहना चाहिए। साँस गहरी लें और हाथों को ड्रिल की तरह आगे पीछे करते रहें।

जन साधारण की समर्थता बढ़ाने के लिए व्यायाम का चस्का हर किसी को लगाया जाना चाहिए और उसे एक संगठित आन्दोलन के रूप में सेवा भावी लोगों द्वारा चलाया जाना चाहिए। इसके लिए सब सदस्यों को एकत्रित होने के लिए एक उपयुक्त स्थान चुना जाना चाहिए, जिसे व्यायाम शाला नाम दिया जाय। अखाड़े पुराने समय के गाँव-गाँव होते हैं। वे पेड़ों की सघन छाया में ऐसी जगह हो सकते हैं जहाँ सूर्य की प्रातःकालीन धूप भी आती रहे। चारों कोनों पर खम्भे खड़े कर ऊपर से दूसरी छत बना दी जाय तो यह व्यायाम शाला सर्दी, गर्मी, वर्षा तीनों ऋतुओं में समान रूप से उपयोगी रह सकती है। वैसे जहाँ साधन न हों, खुले स्थानों में भी अखाड़े बनाये जा सकते हैं।

कुछ समय पहले तक गाँव-गाँव अखाड़े थे। कुश्तियाँ होती रहती थी और उस्ताद लोग इसके अतिरिक्त नाल का पत्थर उठाने, गदका फरी (ढाल तलवार का स्थानापन्न चमड़े का उपयोग) आदि का अभ्यास कराते थे। हाई जम्प, लांग जम्प (पैतरा छलाँग) आदि की प्रतियोगिताएँ होती रहती थी और कबड्डी के खेल शरद के मौसम में गई रात तक चलते रहते थे। कोई अभागा गाँव का ही ऐसा बचता होगा जहाँ पर उस्ताद लोग नवयुवकों को उत्साहित करके अखाड़े में नियमित रूप से आने के लिए प्रोत्साहित न करते रहे हों। समय पर दंगल होते रहते थे। जीतने वालों को इनाम बँटते थे। हनुमान चालीसा का सामूहिक पाठ होता था। जब तक वह प्रचलन रहा, हर गाँव में सशक्त पहलवानों का बाहुल्य बना रहा। ऐसे गाँवों में चोर उचक्कों की हिम्मत नहीं पड़ती थी। वे कहीं घात लगाते तो उनकी हड्डी पसली टूट जाती थी। थोड़े नौजवानों के पीछे समूचे गाँव का मनोबल बढ़ा रहता था।

समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को प्रोत्साहित करके स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अग्रिम मोर्चे पर खड़ा किया तो उस बड़े कार्य की पृष्ठ पोषण करने की जिम्मेदारी उठाई। समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रभाव क्षेत्र के हर गाँव में हनुमान मन्दिर बनवाये। मन्दिर शब्द के कारण धार्मिक लोगों का भी रुझान उस ओर खिंचा। इन सभी हनुमान मन्दिरों के साथ व्यायाम शाला और सत्संग योजनायें अनिवार्य रूप से जोड़ रखी गई। फलतः सभी प्रकार के लोग उनमें आने लगे। जिनका उत्साह व्यायाम में लग सका उन्हें उनमें जुटाया। बड़े-बूढ़े नर-नारी सत्संग कथा सुनने आते। इस प्रकार शरीर बल बढ़ाने और मनोबल प्रखर करने की दोनों ही उपलब्धियाँ उन गाँवों के निवासियों को नियमित रूप से मिलती। इस स्थापना के माध्यम से शिवाजी को सैनिक, हथियार तथा रसद मिलने का सुयोग हस्तगत होता रहा और स्वतन्त्रता संग्राम की जड़ें दिन-दिन अधिक गहरी होती गई।

इस उपयोगी प्रयास की सफलता को देखकर मराठों ने, पेशवाओं ने भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में व्यायाम शाला आन्दोलन को बढ़ावा दिया। यह प्रयास शासकीय प्रभाव के अन्तर्गत पनपा और उसने गाँव-गाँव योद्धा विनिर्मित किये। उत्साही प्रयत्नशील व्यक्ति कहीं भी सच्चे मन से इस आन्दोलन का श्रीगणेश करे तो उसको आशाजनक सफलता मिलना संभव है। बड़ौदा नरेश ने उन दिनों प्रो. माणिक राव के नेतृत्व में अनेकों व्यायाम शालाओं की स्थापना कराई थी। झाँसी के अन्ना जी ने अपनी साधारण स्थिति में भी इस आन्दोलन को असाधारण रूप से व्यापक बनाया। उनकी स्थापित लक्ष्मी व्यायाम शाला आज व्यायाम कालेज की भूमिका निभा रही है। अन्ना जी एक मध्यवर्ती सरकारी कर्मचारी थे। नौकरी छोड़कर इसी प्रयास में जुट गये और अनेकों व्यायाम शालाओं की स्थापना तथा प्रगति उनके संरक्षण में होती रही।

भारत ग्राम प्रधान देश है। इसे शारीरिक और मानसिक दृष्टि से समर्थ बनाना हो, तो व्यायाम शाला आन्दोलन उसी क्षेत्र में चलाने की ओर ध्यान देना होगा। आवश्यकता मनस्वी कर्मठ अग्रगामियों की है। इस देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन, भूदान आन्दोलन, स्काउटिंग आदि समय-समय चलते और प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचे हैं। इन दिनों इस प्रकार के प्रयासों की जन मानस में प्यास है अगर कुछ लोग आगे बढ़ चलें तो उसकी सफलता सुनिश्चित ही समझी जानी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सफल प्रयोग ने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि कोई नेतृत्व सम्भालने वाला हो तो प्रगतिशील प्रयासों में भाग लेने के लिए जनता में कम उत्साह नहीं है। कठोर परिश्रम करने वालों एवं न करने वालों के लिए व्यायाम समान रूप से आवश्यक है।

इन दिनों बड़ों के पीछे लगने की आदत का बाहुल्य है। शहरों में क्रिकेट टीमों का जोर है। रेडियो, टेलीविजन पर उन्हीं का यशगान होता है। ओलम्पिक एशियाड जैसे प्रयत्नों में ढेरों पैसा खर्च होता है। बड़ों के रोटरी क्लब, लायन्स क्लब आदि प्रधान नगरों में खुले हैं। गाँवों में भी यों ग्राम पंचायतें हैं, सरकारी स्कूल हैं, पर इस दिशा में नहीं के बराबर ही उन लोगों ने ध्यान दिया है। आवश्यकता बड़े और व्यापक रूप से इस आन्दोलन को चलाने की है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अपने समय की प्रतिभायें मात्र एम. एल. ए., एम. पी. बनने में रुचि लेते हैं और बड़प्पन का मूल्यांकन उन कुर्सियों पर बैठने में ही करते हैं। पुरानी पीढ़ी की ओर दृष्टिपात करके देखें तो अमृतलाल ठक्कर, रविशंकर महाराज, बाबा राघव दास, गोस्वामी गणेशदत्त, के. लक्षणय्या, बाबा साहेब आम्टे, विनोबा, हीरालाल शास्त्री जैसे अनेकों प्रतिभाशाली लोक चेतना के क्षेत्र में कमाल करने वाले व्यक्तियों की तस्वीर आँखों के सामने घूम जाती है। खादी आन्दोलन के जमाने में भी पं. जवाहर लाल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री सरीखे काम करते रहे हैं। आज व्यायाम आन्दोलन की कितनी आवश्यकता है, यह समझना और समझाना किसी भी विचारशील के लिए कठिन नहीं होना चाहिए।

एक शताब्दी से भी कम समय हुआ कि चाय वालों ने मुफ्त में कुल्हड़ पिला कर एक पैसे का चाय पैकेट बेचना आरम्भ किया था। वह आन्दोलन आज इस सीमा तक पहुँचा है कि घरों में सबसे पहले चाय का चूल्हा जलता है और दुकानों पर खरीददारों की भीड़ लाइन लगाये खड़ी रहती है। आन्दोलनकारियों का उद्देश्य ऊँचा हो और लगन गहरी हो तो कोई कारण नहीं कि उसे सफलता न मिले।

व्यायाम शालाओं का उद्देश्य अब अपेक्षाकृत बड़ा होना चाहिए। उसके साथ शरीर विज्ञान, फर्स्ट एड, परिचर्या जैसे विषय भी जुड़ने चाहिए। खेलकूदों के अनेकानेक तरीके देश-विदेशों में चल रहे हैं, उनमें ढेरों ऐसे हैं जो देहाती वातावरण में फिट बैठते हैं। आवश्यकता नहीं कि योरोपीय बड़े लोग जिन खेलों को अपनाते हैं और सरकारें परस्पर नकल करके उसी के लिए पैसा पानी की तरह बहाती हैं, उन्हीं को देहातों में भी लाया जाय। भारतीय देहातों की अपनी संस्कृति और अपनी परम्परा है। व्यायाम और खेलों के क्षेत्र में भी फिर क्यों न हम अपनेपन को पुनर्जीवित करें।

यदि सही ढंग से व्यायामशालाएँ चलाई जायें और उनके साथ आहार-विहार के, स्वास्थ्य रक्षा के सभी प्रसंग जोड़ दिये जाय, तो उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी न रहेगी। हमारे अनेकों कार्यक्रम आये दिन जन्मते और अगले महीने मर जाते हैं। इसका एक ही कारण है कि संचालक लोग किसी बहाने सरकारी ग्रांट पाते हैं और उसे ऐसे ही खुर्द बुर्द कर देने का ताना-बाना बुनते रहते हैं। जनता के साथ घनिष्ठता नहीं जमाते और उन लोगों में नहीं घुलते जो इनमें सक्रिय रूप से भागीदार बनने जैसी चेतना रखते हैं। उन पर भी असर उनका पड़ता है जो किसी मिशन के प्रति समर्पित होते हैं। जिन्हें अपनी ही नेतागिरी बनानी है, जो अनुदानों को इधर-उधर करते रहने की कला में सिद्ध हस्त हैं, उनकी वास्तविकता देर तक छिपी नहीं रहती। फलतः वे भी ऐसे ही उथले प्रयासों के रूप में अपना प्रत्युत्तर देते हैं।

व्यायाम आन्दोलन को मात्र खेलकूद का मनोरंजन न माना जाय, वरन् उसके पीछे उत्साह, साहस, शौर्य, पराक्रम, संयम, ब्रह्मचर्य स्थापन और उत्साह हीनता के विरुद्ध संघर्ष जैसे अनेक तथ्यों को जुड़ा हुआ समझा जाय। प्रकारान्तर से यह चरित्र निर्माण का आन्दोलन है क्योंकि शारीरिक क्रियाकलापों के साथ-साथ उसमें बौद्धिक चिन्तन भी जोड़कर रखना होगा।

अपने आन्दोलनों में एक भारी कमी यह है कि वे राजनैतिक प्रवाहों के साथ बह कर उनके माध्यम से स्वार्थ साधन की बात सोचने लगते हैं। यदि इन जाल जंजालों से इसे बचा कर रखा जाय और शारीरिक ही नहीं, मानसिक एवं चारित्रिक निर्माण का स्वच्छ आन्दोलन तक सीमित रखा जाय तो सर्व साधारण की श्रद्धा सूत्रधारों के प्रति बराबर बनी रहेगी और वैसा ही सहयोग मिलता रहेगा जैसा कि मिलना चाहिए।

गरीबी हटाओ की तरह दुर्बलता भगाओ का नारा भी कम आकर्षक नहीं है। इसकी यह विशेषता भी है कि कार्यक्रम अपनाते ही हाथों-हाथ उसका सत्परिणाम देखने को मिलेगा। जिस प्रकार मैले कपड़े पर साबुन और पानी लगाते ही वह स्वच्छ दीखने लगता है, उसी प्रकार बौद्धिक समेत व्यायाम आन्दोलन चलाया जाय और उसमें हर स्तर के छोटे बड़े व्यक्ति की उनकी स्थिति एवं आवश्यकता के अनुरूप प्रशिक्षण दिया जाय तो वह मात्र पहलवान नौजवानों का ही नहीं, सर्व साधारण के लिए समान रूप से लाभदायक प्रयास बन जायेगा। इसकी पाठ्य विधि सम्मिलित होने वालों के स्तर को देखते हुए बनायी जा सकती है।

शहरी और अमीरों के लड़कों के खेलकूद सरकारी अनुदानों के प्रश्रय में चल रहे हैं। उनकी समीक्षा किये बिना हमें देहातों के लिए, गरीबों के लिए सर्व साधारण के लिए व्यायाम प्रयास आरम्भ करने के लिए जुटना चाहिए, ताकि हमारी पुरातन व्यायाम परम्परा कम से कम देहातों में बनी ही रहे। यहाँ स्मरण रखने योग्य एक ही बात है कि न केवल शारीरिक वरन् मानसिक एवं चारित्रिक समर्थता उत्पन्न करने वाले तथ्य भी इस प्रयास के साथ अनिवार्यतः जुड़े रहने चाहिए।

***
—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार