251. पात्रता विकसित करें, ताकि उसी अनुपात में निहाल हो सकें
-- श्रीराम शर्मा आचार्य
अन्य सभी प्रगति प्रयासों की तरह आध्यात्मिक प्रगति के भी दो पक्ष हैं-एक पात्रता का सम्पादन, योग्यता का विकास, दूसरा तदनुरूप उत्तरदायित्वों की, अधिकारों की उपलब्धि और उनका निर्वाह। बिना योग्यता के कहीं कोई किसी को बहुमूल्य सम्पदाएँ प्रदान नहीं करता। भला अपनी बेटी को कोई किसी कुपात्र के हाथों कैसे सौंप देगा? किसी के हाथ अपने कारखाने की अर्थव्यवस्था क्यों कर सुपुर्द करेगा?
बादल सर्वत्र बरसते हैं पर उस पानी को जमा करना छोटे या बड़े बर्तन के हिसाब से ही संभव होता है। छोटे गड्ढे या बड़े सरोवर में उनके विस्तार के अनुरूप ही पानी जमा होता है। प्रतियोगिताओं में जीतने वाले ही पुरस्कृत होते हैं। पद उन्हें ही सौंपे जाते हैं, जो उनका निर्वाह कर सकने की क्षमता को खरी सिद्ध करके दिखाते हैं। सोने का मूल्यांकन उसे कसौटी पर घिसने और आग में तपाने के आधार पर किया जाता है। यही पात्रता है, जो आध्यात्मिक प्रगति की पहली सीढ़ी है।
ईश्वर का प्यार और अनुदान उसकी हर सन्तान के लिए प्रचुर परिमाण में विद्यमान है, पर उसकी उपलब्धि पात्रता के अनुरूप ही होती है। किसी के लिए चपरासी बनना भी सौभाग्य है और किसी को जिस श्रेणी का अफसर बनाया गया है, उसे उससे भी बढ़ी पदोन्नति जल्दी ही मिल जाती है। इसमें भेद भाव या पक्षपात जैसा कोई अन्याय नहीं। ऊँची श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले ही पुरस्कृत होते और छात्रवृत्ति पाते हैं।
दैवी अनुग्रह और अनुदान प्राप्त करने के लिए यह प्रमाणित करना पड़ता है कि प्रार्थी ने उसके लिए उपयुक्त प्रामाणिकता अर्जित कर ली है। इतना कर चुकने के उपरान्त योग्यता का मूल्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती, किन्तु यदि इससे बचकर नियुक्तिकर्ता की मनुहार करने या छुटपुट उपहारों के सहारे फुसलाने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए स्वामी भक्ति की दुहाई दी जाय, तो उसका सफल होना कहाँ सम्भव है। बैंक में ढेरों रुपया होने पर भी किसी का उतना ही बड़ा चैक स्वीकारा जाता है, जितनी उसकी अमानत जमा हो। कर्ज भी वापसी की गारण्टी पर ही मिलता है। इन मर्यादाओं की उपेक्षा करके कोई मैनेजर का स्तवन, अभिवादन या पुष्प अक्षत भेंट करके मनचाही राशि प्राप्त नहीं कर सकता। इस विश्व व्यवस्था का कण-कण नियम मर्यादाओं में बँधा है। ईश्वर से भी कोई नाक रगड़ कर, गिड़गिड़ा कर कुछ ऐसा प्राप्त नहीं कर सकता, जो शानदार हो और आकाँक्षाओं के अनुरूप हो। ईश्वर से बहुत कुछ पाया जा सकता है, किन्तु नियत मर्यादाओं के अनुरूप ही।
जिन आध्यात्मिक अनुदानों की पात्रता के अनुरूप हमें उच्चस्तरीय ऋद्धि-सिद्धियाँ मिलती हैं, उन्हें व्यक्तिगत जीवन की पात्रता एवं प्रखरता कहा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे चिन्तन और चरित्र की प्रामाणिकता भी कहा जा सकता है। सर्वप्रथम साधक को इसी के लिए प्रयत्न करना होता है। अगली उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाला पक्ष अति सरल है। रंगाई से पहले धुलाई आवश्यक है। बोने से पहले खेत जोतना पड़ता है। ईश्वर की अनुकम्पा पाने के लिए भी यही करना पड़ता है।
जुताई ,, बुवाई, सिंचाई का प्रबन्ध बन पड़ने पर ही फसल लहलहाती है और कोठा भरने जितना उपज देती है। अध्यात्म क्षेत्र में इन्हीं तीन प्रयासों को उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। उपासना ईश्वर की, साधना अपनी और आराधना समाज की। इन्हीं तीनों का मिलन गंगा, जमुना, सरस्वती का मिलन त्रिवेणी संगम कहलाता है, और उसका अवगाहन करने वाला हर दृष्टि से कृत-कृत्य बनता है।
उपासना कहते हैं भगवान के समीप बैठने को। महान तत्वों की समीपता भी असाधारण लाभ प्रस्तुत करती है। स्वाति बूँद सीपी में पड़कर मोती बनती और बाँस के सहयोग से वंशलोचन। चन्दन के निकट उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी महकने लगते हैं। फूलों पर बैठने वाली मधुमक्खियाँ ढेरों शहद एकत्रित कर लेती हैं। राजा के चपरासी की भी इज्जत होती है।
ईश्वर के पास बैठना अर्थात् उपासना कैसे हो? उसका उपाय है उसके साथ अपने आप को जोड़ देना। इसमें अपनी हस्ती, अपनी इच्छा मिटा कर ईश्वर को समर्पित करनी पड़ती है। नाली नदी में मिलती है, बेल पेड़ पर चढ़ती है, ईंधन आग से लिपट जाता है और तद्रूप बन जाता है। पत्नी अपना व्यक्तित्व अलग न रख कर पति में घुला देती है। फलस्वरूप वह विवाह होते ही पति की सम्पदा में साझीदार हो जाती है और उत्तराधिकार की दावेदार बनती है। यह लाभ वेश्या को नहीं मिल सकता, यद्यपि वह पत्नी से भी बढ़कर रिझाने वाले उत्तेजना उपचार करती है। महत्त्व क्रियाओं का नहीं भावनाओं का है। किसकी उपासना सच्ची, किसकी झूठी है, इसकी एक ही परख है कि अपनी मर्जी के अनुरूप स्वयं चलकर अपनी स्वामी भक्ति एवं वफादारी का परिचय देना। कठपुतली की तरह हम अपने धागे बाजीगर की उँगलियों में बाँध लेते हैं और उसके इशारों पर नाचना आरंभ करते हैं, तो तमाशा इतना मजेदार बन पड़ता है कि दर्शकों की तालियाँ बजने लगती हैं। कठपुतली बाजीगर को अपनी मर्जी पर नचाना चाहे, तो बात समझ में आने योग्य नहीं रह जाती। हमें ईश्वर के दरबार में भिखारी बन कर, कामनाग्रस्त होकर नहीं जाना चाहिए, वरन् यह देखना चाहिए कि उसकी इच्छा हमारे लिए क्या है।
मनुष्य जीवन का अनुपम उपहार देकर सृष्टा ने हमसे यह आशा की है कि उसकी सृष्टि को अधिक सुन्दर, अधिक समुन्नत बनाने का प्रयत्न करें। इसके लिए जितने भी प्रयास किये जाते हैं, वे सभी ईश्वर उपासना के अंग माने जाते हैं। जप, तप, भजन-पूजन का मतलब ईश्वर को रिझाना नहीं, वरन् यह है कि मानवी गरिमा का निर्वाह सतर्कता पूर्वक करेंगे और उसे कलंकित न होने देंगे। यह स्मरण नाम रट के आधार पर बारम्बार किया जाता रहे, अपने आपको रामनाम का साबुन रगड़ कर शुद्ध, स्वच्छ बनाया जाय।
सिद्धांत को समझ लेने के उपरान्त पूजा उपासना का कर्मकाण्ड सरल पड़ता है। उसे अपनी पूर्व मान्यताओं के अनुरूप बहुत या थोड़ी देर अपनी रुचि एवं सुविधा के अनुरूप किया जाता रहता है। इन पंक्तियों के लेखक का निजी जीवन में गायत्री उपासना पर असाधारण विश्वास रहा है। शास्त्रों और ऋषियों ने गायत्री को वेदमाता और विश्वमाता कहा है। उसे आद्यशक्ति और उपासना विज्ञान का सार तत्व बताया है। हम उसी का जप और प्रकाशपुँज सविता का ध्यान करते रहे हैं। इसका सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष देखा है। इसलिए अपने सम्पर्क क्षेत्र में इसी को अपनाने का परामर्श दिया है। इतने पर भी वह अनिवार्य नहीं है। जिन्हें यह न रुचे वे अपनी मर्जी के अनुरूप अन्य साधनाएँ कर सकते हैं पर होना चाहिए उन सब में समर्पण भाव। भिक्षुक या दरिद्र बनकर उसके दरबार में सम्मान नहीं प्राप्त कर सकते हैं। कुछ छुट-पुट अनुग्रह पाकर खाली हाथ न आने का उथला संतोष भले ही प्राप्त कर सकें।
उपासना भले ही थोड़ी हो पर नियत समय पर, नियम पूर्वक और भावभरी होनी चाहिए। वह हमारी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने में बहुत हद तक सफल रहेगी। बिजली के ट्रांसफार्मर के साथ तार जोड़ लेने पर पंखे, बल्ब, हीटर, कूलर आदि यंत्र गतिशील हो उठते हैं। पानी की टंकी या लाइन के साथ जुड़े हुए नल यथेष्ट पानी देते रहते हैं। छोटे बैंक बड़े बैंकों के साथ जुड़कर सम्पन्न हो जाते हैं। हम भी ईश्वर के साथ जुड़कर उनकी शक्तियों का उद्भव अपने भीतर करने लगते हैं। बूँद समुद्र में गिरकर अपना अस्तित्व खोती नहीं वरन् अपना आकार विस्तृत कर लेती है। ईश्वर की, आत्म समर्पण की उपासना करके हम मात्र अहंता खोते हैं और उतने ही सुविस्तृत, उतने ही समर्थ हो जाते हैं, जितना कि ईश्वर स्वयं हैं।
उपासना के उपरान्त दूसरा चरण साधना का है। साधना अर्थात् अपने अंतरंग और बहिरंग जीवन को पवित्र, प्रखर एवं प्रामाणिक बना लेना। मनुष्य वस्तुतः एक प्रकार का पशु है। जन्म-जन्मान्तरों से उसके संचित कुसंस्कार इस जन्म में भी चिपके रहते हैं और हमारे अधिकांश आचरण नर पशुओं जैसे होते हैं। अनगढ़, उच्छृंखल, असभ्य और मानवी गरिमा की दृष्टि से गये बीते। इन्हें सुधारना और सुसंस्कृत बनाने का संकल्प पूर्वक कठोर प्रयास करना यही अपने को साधना है। बिखराव को, चंचलता को, उद्दण्डता को केन्द्रीभूत करना और मर्यादाओं के बन्धनों से अपने को बाँध लेना।
अनगढ़ साँप, रीछ, बन्दर को सधाकर ग्रामीण मदारी अपनी आजीविका चलाते हैं। सरकस के रिंग मास्टर शेरों, हाथियों, घोड़ों को साधकर ऐसे करतब कराते हैं, जिन्हें देखकर दर्शक दंग हो सके और संयोजक की जेब भरें। माली पौधों को काँट-छाँट कर, कलमें लगाकर इतना सुन्दर बनाता और फल-फूल की अनेकानेक प्रजातियाँ उत्पन्न करता है। ऐसे माली प्रशंसा प्राप्त करते हैं। हमें भी ऐसा ही कलाकार बनना चाहिए कि जीव के अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी हुई अनेकानेक विभूतियों को सजग और सक्षम बना सकें और सन्त, सज्जन, ऋषि और देवता कहा जा सकें। इसके लिए संयम अपनाना होता है। इन्द्रियों का संयम, समय का संयम, धन का संयम और विचारों का संयम। इसी नियमितता को अध्यात्म की भाषा में तप साधना कहते हैं। तप का अर्थ है तपाना, गरम करना। संचित कुसंस्कारों और आदतों से लड़ पड़ना और उन्हें अनगढ़ धातु को गलाकर उपयोगी उपकरण के रूप में ढाल लेना। सुसंस्कृत कोयला ही हीरा बनता है। तपाने से कच्ची मिट्टी के बर्तन बनते हैं और पानी को उबालने से शक्तिशाली भाप बनती है। अनुपयुक्त चिन्तन, चरित्र, रुझान एवं आदतों को बदलने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय प्रवृत्तियों से अपने आपका कायाकल्प कर लेना, दूसरा जन्म होना आदि शब्दों से सम्मानित किया जाता है। उपवास, ब्रह्मचर्य आदि में यही भीतरी महाभारत लड़ना पड़ता है। जो जितना निर्मल, पवित्र बन सका, चिन्तन और चरित्र को मर्यादाओं के शिकंजे में कस सका, कुम्हार के आँवे की तरह पक सका, समझना चाहिए कि वह घर में रहने वाला तपस्वी है। अच्छा हो हम तपोवन में घर बनाने की अपेक्षा, घर में तपोवन बनायें और अपने सज्जनता पूर्ण सद्व्यवहार से सृजन कार्यक्रम में न केवल अपने को वरन् समूचे परिवार को इसी सुसंस्कारिता के, तप साधना के ढाँचे में ढालें।
पात्रता का विकास अन्तरात्मा का परिष्कार, पात्रता का अभिवर्धन करने के लिए हमें साधना करनी चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाई जानी चाहिए। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह किया जाना चाहिए और जो समय, धन, श्रम, चिन्तन आदि की बचत हो सके उस कटौती को विश्व कल्याण के, लोक मंगल के कार्यों में लगाना चाहिए। इसी को पुण्य, इसी को परमार्थ, इसी को आराधना कहते हैं। पात्रता विकसित करने का यह तीसरा अवलम्बन है।
भगवान का निराकार स्वरूप वह है जो कण-कण में समाया हुआ है। जो नियम अनुशासन मात्र है। हम उसके कायदे कानूनों पर चलकर उसके प्रिय-अप्रिय, भक्त-अभक्त बन सकते हैं और कर्मफल की निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्राकृतिक शासन व्यवस्था के अनुरूप दण्ड-पुरस्कार के भागी बन सकते हैं। भगवान का प्रकट प्रत्यक्ष स्वरूप है यह विराट ब्रह्म, प्रत्यक्ष संसार। इसे सुखी समुन्नत बनाने के लिए अपनी क्षमताओं का नियोजन करना, आराधना है। इसमें पिछड़ों की सहायता करने और दिग्भ्रांतों को सही राह बताने वाले प्रकाश की व्यवस्था बनाने के कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है। यों धार्मिक कर्मकाण्डों में लगने वाले श्रम साधन और पुरोहितों को दान सम्मान प्रदान करना भी इसी प्रचलन में आता है, पर उसका औचित्य तभी है जब अदृश्य देवताओं को प्रसन्न करने की अपेक्षा उस दान प्रयोजन का उपयोग बुद्धि संगत और भावनाओं को उमगाने वाला हो।
आराधना अर्थात् पुण्य परमार्थ आवश्यक है। हम जो बोते हैं वह काटते हैं। संसार के साथ भलाई करना प्रकारान्तर से अपनी ही भलाई करना है। पिछड़ों को उठाना प्रकारान्तर से स्वयं को ही ऊँचा उठाने वाली अदृश्य व्यवस्था का आह्वान करना है। पुण्य का प्रतिफल अगले जन्मों में भी मिल सकता है, भाग्योदय भी बन सकता है, पर प्रत्यक्ष लाभ भी उनके कम नहीं हैं। आत्म संतोष, यश और बदले में प्रकारान्तर से अनेकानेक प्रकार की उपलब्धियाँ हस्तगत होना ऐसा सत्परिणाम है, जिसमें गँवाने जैसी कोई बात नहीं है। वह बोने-काटने जैसी व्यवसाय सिद्धांतों के अनुरूप भी है और ईश्वर को प्रसन्न करने वाला सर्वोत्तम साधन भी।
संसार के महामानवों का इतिहास एक ही राजमार्ग पर चला है। उनने जनता की हित कामना से, सत्प्रवृत्तियों का लक्ष्य पूरा करने की दृष्टि से कष्ट सहे, त्याग किये। इसका प्रतिफल निरर्थक नहीं गया, जनता ने उन्हें शिर आँखों पर बिठाया और उस पद तक पहुँचाया जिसके लिए असंख्यों तरसते हैं।
संसार से हमने बहुत कुछ पाया है। जीवनोपयोगी अधिकांश वस्तुएँ लोगों के परिश्रम से बनी हैं। उनके बुद्धि कौशल का अनुग्रह लाभ उठाकर ही हम उस स्थिति में पहुँचे हैं जिसमें आज हैं। यदि किसी का सहयोग न मिला होता तो कदाचित हम जीवित भी न रह पाते, सुसम्पन्न होना तो दूर। ऐसी दशा में आवश्यक है कि उस बगीचे को सींचे जिसकी छाया में बैठते और फलों से गुजारा करते हैं। ऋण मुक्ति का सही तरीका इस विश्व वसुधा को सुखी समुन्नत बनाने का ही है। इसे किये बिना कोई जीवन मुक्त नहीं हो सका। ऋण ग्रस्त को मोक्ष मिलना कैसा? हमें अपने समय और धन के एक निश्चित अंश सर्वोत्तम माने जाने वाले ज्ञान यज्ञ के लिए, पिछड़ों को आगे बढ़ाने और ऊँचा उठाने के लिए निश्चित, निर्धारित करना चाहिए।
उपासना, साधना, आराधना के उपरोक्त तीन माध्यमों को अपनाकर हम अपनी पात्रता को इस स्तर तक विस्तृत कर सकते हैं जिससे देवताओं के अनुग्रह आकाश से होने वाली पुष्प वर्षा की तरह बरसने लगें।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
252. भौतिक प्रगति के सुनिश्चित आधार
-- श्रीराम शर्मा आचार्य
वृक्षों की ऊँचाई, चौड़ाई और जिन्दगी इस बात पर निर्भर है कि उसकी जड़े कितनी मजबूत एवं गहरी हैं। उस पर लगने वाले फल-फूल आसमान से उतर कर नहीं लद पड़ते वरन् उस रस संचय पर अवलम्बित रहते हैं जो जड़ों द्वारा भूमि से खींचा जाता है। दृश्यमान वैभव अदृश्य जड़ों की सक्षमता पर निर्भर रहता है।
मनुष्य को भी एक वृक्ष माना जाय तो गुण, कर्म, स्वभाव के अदृश्य समुच्चय को वे जड़ें कहा जा सकता है जो बाहरी वैभव के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसलिए पत्तों को सींचने की अपेक्षा जड़ों को उपयुक्त खाद पानी मिलता रहे, इसका प्रबन्ध किया जाना चाहिए।
एक जैसी परिस्थितियों में उत्पन्न दो व्यक्तियों का भविष्य एक जैसा नहीं होता। मनःस्थिति के अनुरूप वे अपनी-अपनी स्वतन्त्र दिशायें पकड़ते हैं। साधनों का उपयोग एक उत्कर्ष के लिए करता है दूसरा अपकर्ष के लिए। इसलिए उनका भविष्य एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होता है। एक सम्मान और वैभव का धनी होता है। दूसरा पूर्वजों की सम्पदा की होली जलाकर बदले में दरिद्रता और भर्त्सना का भागी बनता है। इसमें यों परिस्थितियों की, व्यक्तियों की, भाग्य रेखाओं की सराहना या शिकायत की जाती है, पर इससे आत्म वंचना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। वस्तुतः मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है और यह कार्य वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव जैसे उपकरणों और कौशलों के सहारे सम्पन्न करता है।
लोगों का ध्यान बाहरी परिस्थितियों, साधनों और अनुग्रहों की ओर रहता है और वे सोचते हैं कि इन्हीं की अनुकूलता पर प्रगति के अवसर निर्भर हैं, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। अदृश्य गुण सम्पदा का महत्त्व है, उन्हीं का चुम्बकत्व अपने अनुरूप साधन और सहयोग घसीट लाता है। गड्ढा होने पर उसके समीप जाने वाले गिरेंगे ही और पर्वत की चोटी पर निगाह रखने वालों का उत्साह ऊँचा चढ़ने के लिए प्रेरित करता है। चोटी और खाई की प्रशंसा-निन्दा करना व्यर्थ है। वे तो सृष्टि संरचना के अंग भर है। उनमें किसी को खींचने और उछालने की सामर्थ्य नहीं है। यह कार्य तो अपना मानसिक स्तर ही करता है।
भौतिक प्रगति अभीष्ट तो हर किसी को है, पर वह हस्तगत उन्हीं को होती है जो उसे उपलब्ध करने के लिए, समुचित मूल्य चुकाने के लिए तत्पर रहते और तैयारी करते हैं। यह तैयारी मात्र योजना बनाने और साधन एकत्रित करने तक सीमित नहीं है। वरन् उसके लिए वह करना पड़ता है जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, भले ही उसकी आवश्यकता और महत्ता कोई समझ पाये या नहीं। तात्पर्य उन सद्गुणों की सम्पदा से है जो अपने अनुरूप चुपके-चुपके ताना-बाना बुनती रहती है। वृक्ष का वैभव उसकी जड़ों पर निर्भर रहता है इस उपमा को यहाँ पूरी तरह लागू किया जा सकता है।
प्रगति प्रयोजन के लिए दृश्यमान गुणों में सर्व प्रमुख उठने से लेकर सोने तक के समय का उद्देश्य पूर्ण नियोजन है। यह कार्य रात को सोते समय अगले दिन के लिए अथवा प्रातःकाल उठते ही अपना कार्यक्रम निर्धारित करने के लिए नियोजित करना चाहिए। किसी आकस्मिक कार्य के आ खड़े होने पर ही यदा-कदा अपवाद स्वरूप उसमें परिवर्तन होने की बात क्षम्य हो सकती है। अन्यथा मनमर्जी या दूसरों के सुझाये काम अस्त-व्यस्त रूप से करते रहना और उन्हें आधे-अधूरे छोड़कर दूसरा कुछ करने लगना बाल विनोद ही कहा जा सकता है। बन्दर प्रायः ऐसी ही बेसिलसिले की उछल-कूद करते रहते हैं। जिन्हें किसी लक्ष्य तक पहुँचना है उन्हें इस दुर्गुण से अपने आप को बचाने के लिए पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
निर्धारित कार्यक्रम में पूरी तत्परता और तन्मयता से जुटना चाहिए। शारीरिक काम में उत्साह और साथ में मनोयोग की गहराई का नियोजन, यही है वह रहस्य जो काम में ऊब, उच्चाटन उत्पन्न नहीं होने देता वरन् उसे बढ़िया किस्म का खेल समझ कर पूरा-पूरा रस लेता है। उचित समय में उचित रीति से उचित मात्रा में काम कर सकना तभी बन पड़ता है, जब उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाय। इस प्रवृत्ति में कमी रहेगी तो अधूरे मन और अधूरे श्रम से किये हुए काम फूहड़ों जैसे आधे-अधूरे काने-कुबड़े रहेंगे। उन पर लोग तो हँसेंगे ही स्वयं को भी असंतोष होगा। सफल जीवन का प्रथम गुण इसीलिए क्रमबद्ध कार्य पद्धति अपनाना और उसमें पूरी तरह निमग्न हो जाना बताया गया है। प्रत्येक सफल व्यक्ति को यह प्रक्रिया अपनानी पड़ी है।
दूसरा गुण है साहस और उत्साह बनाये रहना। इसके अभाव में भीतर का शक्ति स्रोत सूखता है और बाहर अनुत्साह, आलस्य, प्रमाद और भटकाव घेरता है। आत्म विश्वास ऊँचे दर्जे का गुण है। सफल होकर रहने की उमंगें मनुष्य को वस्तुतः इस योग्य बनाती है कि वह कल नहीं परसों लक्ष्य तक पहुँचा कर ही रहती है। जो बबूले की तरह उछलते और झाग की तरह बैठते हैं, उनका मन चंचल, अस्थिर और अवसाद ग्रस्त देखा जा सकता है। अनेक सुयोगों के रहते यह एक ही दुर्गुण ऐसा है जो अभीष्ट की पूर्ति में हजार व्यवधान खड़ा कर देता है।
आत्म विश्वास की, दृढ़ निश्चय की, प्रामाणिक चरित्र की बहिरंग पहचान एक ही है होठों पर मंद मुस्कान और आँखों में आशा की चमक। सफल जीवन जीने वाले कभी भी निराश, उदास, गंभीर विचारमग्न असमंजस ग्रस्त नहीं देखे गये। इन व्यथाओं को अपनाने वाला बात-बात में आवेश ग्रस्त होने लगता है। यह व्यक्तित्व की कुरूपता है जो कायिक सुन्दरता और परिधानों की शोभा सज्जा को धूलि में मिला देती है और किसी के सम्पर्क में आने, मन की बात पूछने या सहयोग करने की हिम्मत नहीं पड़ती। इसलिए आवश्यक है कि हर किसी को अपनी वरिष्ठता का विश्वास दिलाने वाली होठों की मुस्कान और आँखों में आशा की चमक उत्पन्न करने का प्रयत्न करें। यदि यह अब तक अभ्यास में नहीं आया है तो उसे दर्पण की सहायता से वैसा अभिनय करने की साधना करनी चाहिए। कोई भी देख सकता है कि उदासी के रहते चेहरा कितना कुरूप दीखता है और अक्षमता का कितना विज्ञापन करता है? इसके विपरीत खिले फूल सा चेहरा कितना सुन्दर लगता है और कितनी तितलियों और मधुमक्खियों पर अपना आश्रय पाने के लिए आमंत्रित करता है।
एकांगी उत्साह प्रायः ऐसी भूलें करता है जिनके कारण अगले ही दिनों हौसला टूट जाय। हमें अपने कार्य के हर पक्ष पर विचार करना चाहिए। सम्भावना पर भी और व्यवधान पर भी। आशा रखें पर कठिनाइयों से निपटने की भी योजना बनाकर रखें। आवश्यक नहीं कि अपनी कल्पना के अनुरूप ही सब कुछ घटित होता चला जाय या जिन व्यक्तियों से जो आशा रखी है वह पूरी होती ही चली जाय। आवश्यक नहीं कि परिस्थितियाँ अनुकूल ही बनी रहें। इसलिए सतर्कता रखना और तथ्यों के दोनों पहलू समझना आवश्यक है। समझदारी बढ़ाने का यही तरीका है। और सफलता की मंजिल तक पहुँचने के लिए सामयिक हेरा-फेरी की सूझबूझ रखकर चढ़ पाना सम्भव होता है। अन्यथा भावुक व्यक्ति सरलतापूर्वक बह सकता और धैर्य गवाँ बैठ सकता है।
स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह समूचा मानव समाज एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यहाँ कोई मात्र एकाकी पुरुषार्थ के सहारे नहीं बढ़ सका है। हर छोटे बड़े कामों में दूसरों के स्नेह सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। इसे अर्जित करने का तरीका आदान-प्रदान है। हम देते हैं और पाते हैं। शुरुआत अपनी ओर से होनी चाहिए। इस प्रतीक्षा में नहीं बैठा रहना चाहिए कि हम किसी के लिए कुछ न करें और लोग हमारे ऊपर अकारण ही स्नेह सहयोग बरसाते रहें। इसके लिए मधुर वचन बोलने की व्यवहार में शिष्टाचार के निर्वाह की आवश्यकता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि सम्मान दें और सहयोग करें। इसमें आवश्यक नहीं कि किसी पर थैली ही उड़ेल दी जाय। जब मिलना हो छुट-पुट कार्यों में हाथ बँटाना, खुशी और रंज में सम्मिलित होना और अपने योग्य सेवा की बात पूछना। यह भी सहयोग का एक बड़ा तरीका है। पर छोटा वह है जिसमें कोई बड़ा खर्च नहीं करना पड़ता और बहुत सहयोग नहीं देना पड़ता पर दूसरे के हिस्से के काम में अपना हाथ लगा लेना इतने से भी काम चलता है। कदाचित किसी को आकस्मिक विपत्ति में फँस जाना पडे़ तो उसे भी यथा सम्भव सहायता करना ऐसा तरीका है, जिससे कितनों को अपना बनाया जा सकता है और उनके योगदान से समयानुसार अपने प्रगति कार्यों में अयाचित सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए अपनी आवश्यकता का संकेत कर देना भर से उन्हें प्रत्युपकार की बात स्मरण हो आती है। मित्र बनाना, उपेक्षित रहना और सहयोग अर्जित करना यह तीनों स्थितियाँ अपनी उदारता नम्रता और व्यवहार कुशलता पर निर्भर हैं। इस दिशा में प्रयत्नरत रहने का स्वभाव ही बना लेना अच्छा है।
सम्मान, सद्भाव प्राप्त करने की इच्छा तो सभी की रहती है। और इसके लिए अपनी विशेषताओं का ढिंढोरा पीटने के लिए लोग प्रयत्न भी करते रहते हैं। पर यह अस्थिर और उथला तरीका है। ठोस और वास्तविक तरीका है अपनी प्रामाणिकता की छाप दूसरों के मन पर बिठा देना ।। यह प्रपंचों का विषय नहीं वरन् सीधा वास्तविकता से सम्बन्धित है। यह एक दिन में नहीं लम्बे समय तक उच्च चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने से ही सम्भव है। लोग प्रतिभा के आधार पर जितने प्रभावित होते हैं उसकी तुलना में मनुष्य की ईमानदारी, सज्जनता, शालीनता के प्रसंगों का यथार्थ परिचय प्राप्त कर अधिक प्रभावित होते हैं। अनेकों उसे आसानी से प्राप्त भी कर लेते हैं। हमारी भीतरी और बाहरी दुश्चरित्रता को पैरों तले की जमीन ऊपर का आसमान देखते हैं और हवा के साथ उस वास्तविकता को समूचे वातावरण में बिखेर देता है। फलतः वह विश्वास के रूप में न सही आशंका के रूप में हर किसी के मन में जा बैठता है। अप्रामाणिक पर कोई विश्वास नहीं करता और संदेह हर किसी को बना रहता है कि ऐसी ही कुटिलता, धूर्तता से कहीं हमें भी हानि न पहुँचा बैठे। ऐसे लोग सीधे रास्ते प्रगति तो कर ही नहीं पाते। उल्टे रास्ते यदि कर भी लें तो वह अधिक देर टिकती नहीं। विभूतियों को अर्जित करना जितना कठिन है उससे कहीं अधिक कठिन उन्हें सुरक्षित रख सकना है। सम्पदा हो या प्रतिभा उन्हें सुरक्षित रख सकना हर किसी के बलबूते की बात नहीं है। इसके लिए चरित्रवान होना नितांत आवश्यक है। जो उच्च आदर्शों और सिद्धान्तों को जीवनचर्या में मिलाकर नहीं चलता वह मुखौटा भर ओढ़ता है। वह बहुत देर तक अपनी कलाई उतरने से बच नहीं सकता।
प्रगति का एक उपाय है मितव्ययिता। मितव्ययिता का अर्थ कंजूसी या कृपणता नहीं वरन् यह है कि जिसके निमित्त जितना आवश्यक है उतना ही खर्च किया जाय। समय, श्रम, चिन्तन और धन चारों सम्बन्ध में ही मितव्ययिता की बात लागू होती है। इसमें से एक भी सम्पदा को खुले हाथ नहीं लुटाया जाना चाहिए। फिजूल खर्ची एक बुरी आदत है जिसे लोग अमीरी का प्रदर्शन और ठाठ-बाट का चकाचौंध उत्पन्न करने में उड़ाते रहते हैं। चापलूस मित्र भी धमकी देने वाले शत्रु की तरह बचने योग्य होते हैं। वे गपबाजी, आवारागर्दी और शौक के लिए इतना समय और धन खर्च करा लेते हैं कि उस कारण प्रगति प्रयासों में भारी बाधा पड़े। पेंदे में छेद हो जाने पर नाव डूबती है और फिजूलखर्ची की आदत वाले को देर सबेरे दिवालिया बनना पड़ता है। इतना ही नहीं उसकी प्रगति का मूल्य चुकाने के लिए जो करना चाहिए उसके संदर्भ में भी वह खाली हाथ रह जाता है।
सद्गुणों से सुव्यवस्था का अत्यधिक महत्त्व है। व्यवसाय की, सार्वजनिक क्षेत्र की, निजी जीवन की, परिवार की सुव्यवस्था मन को हल्का और प्रसन्न रखती है और साधनों तथा साथियों को सही रखना, उपयोगी बनाना सफल होता है। संसार में जितने महत्त्वपूर्ण काम हुए हैं उनमें प्रत्यक्षतः सुयोग्य साथियों, श्रमिकों एवं साधनों का महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। पर परोक्षतः उसे व्यवहार कुशलता का चमत्कार दिखाते देखा जाता है। जिसे सुव्यवस्था कहा जाता है। हानि लाभ के जितने प्रसंग हैं उसमें अस्त-व्यस्तता का अभिशाप अथवा सुव्यवस्था का वरदान ही काम करते दीखता है। जो शतरंज की तरह अपनी गोटें यथा स्थान फिट करता रहता है, उसे सूत्र संचालक कहते हैं, प्रबन्धक, मैनेजर आदि भी। यह योग्यता संसार की अन्यान्य योग्यताओं की तुलना में सैकड़ों गुनी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। व्यवस्था बुद्धि को विकसित करने के लिए व्यक्तिगत क्षमताओं का सुनियोजन करना चाहिए। इसके लिए परिवार की प्रयोगशाला अभ्यास के लिए सर्वसुलभ और सर्वोत्तम है। अच्छा है परिवार को छोटा रखा जाय और जो सदस्य अपने से बँधे हैं उनमें से प्रत्येक के दृष्टिकोण और क्रिया कलाप को गुण, कर्म, स्वभाव की दिशा धारा को सुनियोजित करते रहने में दत्तचित्त रहा जाय, जिससे अपनी प्रसन्नता बढ़े और उनको सही राह मिलने का सन्तोष रहे।
यह मौलिक और आरम्भिक गुणों की चर्चा है। इससे कम में भौतिक प्रगति का तारतम्य बनता नहीं। यदि यही सद्गुण उलटकर दुर्गुण बन जाय तो समझना चाहिए कि घड़े में अनेक छेद हो गये हैं और उसमें भरा हुआ आकाँक्षाओं एवं प्रयत्नों का सारा जल बिखर जायेगा। प्रगतिशीलों को ऐसा अवसर नहीं ही आने देना चाहिए। यही वे सूत्र हैं जो भौतिक और आत्मिक प्रगति की पृष्ठभूमि बनाते हैं एवं किसी को भी ऊँचा उठाकर कहीं से कहीं पहुँचा देते हैं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
253. आध्यात्मिक विज्ञान की भी प्रगति हो
-- श्रीराम शर्मा आचार्य
विज्ञान, भौतिक जगत की एक महाशक्ति है। प्रकृति के भण्डार में असीम प्रयोजनों में काम आने वाली अगणित क्षमताएँ भरी पड़ी हैं, उनमें से क्रमशः प्रयत्नपूर्वक मनुष्य के हाथों कितनी ही सामर्थ्यें लगती गयी हैं। अग्नि का, कृषि, पशुपालन, धातुओं के उपकरण बनाने का, पहिये का सिद्धान्त प्रगति के आरम्भिक दिनों में हस्तगत हुआ। इतने भर से ही भौतिक जीवन में असाधारण सुविधाएँ हस्तगत करता गया। यह लोभ आगे भी संवरण न हो सका। एक के बाद एक खोज करते हुए वह विद्युत ही नहीं अपितु अणु शक्ति और लेसर किरणों तक का अधिष्ठाता बन गया। यांत्रिक वाहन, जलयान, नभयान उसने बनाये और मुद्रण कला जैसे अनेकों सुविधा साधन ढ़ूँढ़ निकाले। अब वह अन्तरिक्ष पर अधिकार जताने के फेर में है। प्रक्षेपास्त्र उसके हाथ आ गये हैं। कल कारखानों के सहारे अनेकों सुविधा-साधन बनते चले जाते हैं। विज्ञान ने मनुष्य के हाथों असीम सामर्थ्य प्रदान की है। इस आधार पर वह सम्पन्न भी हुआ है और बुद्धिबल बढ़ाता प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ा है। यह प्रकृति के रहस्यों को खोजते जाने और उसके ज्ञान के सहारे उपयोगी उपकरण बनाते जाने का ही प्रतिफल है।
इन प्रशंसनीय प्रयासों के साथ एक दुर्भाग्य भी पीछा करता आया है कि मारक और घातक उपकरणों का निर्माण भी कम नहीं हुआ, और उपार्जित पूँजी का कम अंश उसमें नहीं लगा। इनके द्वारा करोड़ों जान गँवानी पड़ी और उनके आश्रित बिलखते रह गये। युद्ध का प्रतिफल यही तो हो सकता था।
विज्ञान ने सुखोपभोग के जहाँ अनेकों साधन प्रयोग किये, वहाँ मनुष्य को आलसी-प्रमादी भी बनाया। नशे को ही लें। उसने अच्छे खासों को निकम्मा बना कर रख दिया। यांत्रिक उत्पादन ने अमीरों की अमीरी, गरीबों की गरीबी को बढ़ा कर दोनों के मध्य खाई चौड़ी कर दी। हर हाथ को काम मिलना संभव न रहा। बेकारी, बेरोजगारी के कुचक्र में असंख्यों पिसने लगे। वैज्ञानिक प्रगति में मानवी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा तो की जा सकती है, पर उसके द्वारा अपनाये मार्ग को देखते हुए यह भी कहना पड़ता है कि उपलब्धियों का सदुपयोग नहीं हुआ। उससे लाभ थोड़ों को हुआ और हानिकारक दुष्परिणाम असंख्यों को भुगतने पड़े। जिस मार्ग पर कदम बढ़ रहे हैं, उन्हें देखते हुए भविष्य और अन्धकारमय दिखता है। स्व संचालित विशालकाय मशीनें अगणित लोगों को बेरोजगार, भूखों मरने के लिए विवश करेगी। उत्पादन को खपाने के लिए, मण्डियों पर अधिकार करने के लिए समर्थों की लिप्सा युद्धोन्माद बढ़ा कर नये-नये युद्ध क्षेत्र रचेगी। वाहन और कारखाने जो जहरीला धुआँ उगलते हैं, उससे वायुमण्डल विषाक्त हो चला। कारखानों की गन्दगी नदी-नालों की मार्फत समुद्र में पहुँचती है, जिससे जल जीवों का ही सफाया नहीं होता, वर्षा भी जहरीली होती है। हवा की तरह पानी भी क्रमशः अधिक जहरीला होता चला जा रहा है। अधिक अन्न उपजाने के लिए रासायनिक खाद और फसल के कीड़े मारने के लिए बनने वाले जहरीले छिड़कावों ने खाद्य पदार्थों को विषाक्त करना आरम्भ कर दिया। अणु शक्ति का उपयोग चाहे युद्ध के लिए हो या बिजली बनाने के लिए, हर हालत में विकिरण उत्पन्न करती है। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रगति जितनी सुविधाएँ उत्पन्न कर रही है, उससे कहीं अधिक जीवन संकट उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम भी खड़े कर रही है। मारक औषधियों ने स्वास्थ्य का रक्षण कम और भक्षण अधिक किया है।
अच्छा होता वैज्ञानिकों को पैसे के बल पर मुट्ठी में रख कर, उनके द्वारा नयी शोधें कराने और नये उपकरण बनवाने वाले सत्ताधीश एवं धनाध्यक्ष अपनी बिरादरी को अधिक समर्थ बनाने की अपेक्षा सर्वसाधारण का हित सोचते और ऐसा निर्माण करते जिससे देहातों में बिखरे अशिक्षित भारत के बहुसंख्यक लोगों को छोटे-छोटे उपकरणों के सहारे उपयोगी उत्पादन में सुविधा मिलती। इस सन्दर्भ में मानवता की एक बड़ी चुनौती विज्ञान के सामने है। उसे एक दो हार्स पावर की बिजली से चल सकने वाले कुटीर उद्योगों के यन्त्र बनाने चाहिए। हवा और पानी की शक्ति से चलने वाले सस्ते बिजली घर बनाने चाहिए। जमीन से ऊपर पानी लाने वाले पंप, छोटे हल, ट्रैक्टर, करघे, लकड़ी चीरने और लोहा गलाने की भट्टियाँ बना सकना अधिक कठिन नहीं होना चाहिए। वजन ढोने की हल्की गाड़ियाँ बैलों पर कम वजन डालने वाले जुए, छोटी पवन चक्कियों जैसे यंत्र मनुष्य का, पशुओं का श्रम हल्का कर सकते हैं, साथ ही रोजगार भी देते रह सकते हैं। अन्न के बाद दूसरी आवश्यकता कपड़े की है। इसके लिए रुई बनाने, कातने, बुनने, धोने, रंगने की छोटी-छोटी मशीनें बन सकती हैं और उस क्षेत्र में बड़ी मीलों की प्रतिद्वन्द्विता रोक कर लाखों बेरोजगारों को काम दिया जा सकता है। सरकार ही शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर उठाये यह आवश्यक नहीं। निजी विद्यालय चलाने को भी एक स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में छूट दी जा सकती है। इस प्रकार सरकार, जनता एवं वैज्ञानिक मिलकर देश के लिए एक ऐसा रचनात्मक तंत्र खड़ा कर सकते हैं, जिससे स्वल्प पूँजी वाले भी अपने लिए तथा साथियों के लिए आजीविका उपार्जन के नये स्रोत खोल सकें। विज्ञान को बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए और सदा काम आने वाले छोटे यन्त्रों के निर्माण में तत्परता पूर्वक लगना चाहिए। इससे यन्त्र बनाने वाले उद्यमी और उनसे काम लेने वाले प्रयोक्ता सभी का हित साधन हो सकता है। यों अभी भी कुछ तो यन्त्र बने हैं पर वे बेमन से उपेक्षापूर्वक बनाये गये हैं ।। उनकी खामियाँ दूर नहीं की गयी अन्यथा अम्बर चरखा जैसे उपकरण फेल क्यों होते? इस दिशा में अब नये सिरे से सोचा और सहकारिता के आधार पर कारगर कदम उठाया जाना चाहिए।
बड़े लोग इस दिशा में कम ध्यान दें तो छोटे लोग मिलजुल कर सहकारी स्तर पर बड़ी पूँजी वाले कारखाने खड़े कर सकते हैं। करोड़ों की पूँजी वाले कारखाने शेयरों से, बैंकों के ऋण से, सरकारी अनुदानों से बनकर खड़े हो जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि देहातों में काम आ सकने वाले गृह उद्योगों के लिए आवश्यक उपकरण न बन सकें। शहरों पर आबादी का बढ़ता हुआ दबाव और बढ़ता हुआ गन्दगी का प्रभाव कम करने के लिए कस्बों को विकसित किया जाना चाहिए। सड़कों का जाल इस तरह बिछाया जाना चाहिए कि पास वाले कस्बों तक सस्ते वाहन आसानी से पहुँच सकें। सरकारी कोष में धन कम हो तो वाहनों पर टैक्स लगाकर उसकी पूर्ति उसी प्रकार की जा सकती है, जैसा कि नये पुल बनाने पर यातायात टैक्स लगता है। विज्ञान को सब कुछ अमीरों के लिए बड़े पैमाने पर काम करने वाले साधन ही नहीं जुटाने चाहिए वरन् देहातों में चल सकने वाले उपकरण भी बनाने चाहिए, जिससे बेरोजगारी का निराकरण हो सके। कृषि में शाक और सस्ते फल उत्पादन की काफी गुंजायश है, आवश्यकता लगन पूर्वक काम करने की है।
यह सुविधा साधन उत्पन्न करने वाले अर्थ प्रधान उपायों की चर्चा हुई। यह भौतिक विज्ञानियों का और उनके लिए बड़ी पूँजी जुटाने वालों का क्षेत्र हुआ। विज्ञान को इतने क्षेत्र तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, उसे चेतना क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए और व्यक्तित्व निखारने वाले कामों में भी हाथ डालना चाहिए। यह काम अध्यात्म विज्ञानियों का है। संसार में पदार्थ क्षेत्र ही सब कुछ नहीं है, उसके समतुल्य एवं अधिक महत्त्वपूर्ण चेतना क्षेत्र भी है। मनुष्य को स्वास्थ्य, बुद्धि, प्रतिभा, कला कौशल, व्यवहार संयम आदि की दृष्टि से अधिकाधिक समुन्नत और सुसंस्कृत बनाना अध्यात्म क्षेत्र के विज्ञानियों, प्राणवान मनीषियों, योगी तपस्वियों का काम है। उनका कार्यक्षेत्र भौतिक विज्ञान से भी कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा और अधिक उपयोगी है। पदार्थ विज्ञान सुविधा साधन विनिर्मित कर रहा है, उन साधनों का उपयोग जिसे करना है, उस मनुष्य का दृष्टिकोण परिष्कृत करना असामान्य काम है। उसने अनेकों कुटेवें अपना ली है और ऐसे क्रियाकलाप अपना लिए हैं जो मात्र व्यक्ति के लिए ही नहीं, समूचे समाज के लिए हानिकारक है। ढेरों प्रवृत्तियाँ ऐसी है जिनसे पीछा छूटना और छुड़ाया जाना चाहिए। ढेरों सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी है जिन्हें अभी अपनाया ही नहीं गया अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में रहने वाला व्यक्ति भी महामानव स्तर का बन सकता था। इस सन्दर्भ में प्रयोग करना और उपलब्धियों से जन साधारण को अवगत कराना यह आत्मवेत्ताओं का, मनीषियों का काम है।
मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क बहुमूल्य यन्त्र है, उसके अन्तराल में प्रकृति की पदार्थ परक और परब्रह्म की चेतना परक अनेकानेक विभूतियाँ समाविष्ट है। वे बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में रहती है, उन्हें अंकुरित और पल्लवित किया जा सके, तो नर के भीतर नारायण जगाया जा सकता है और पुरुष में पुरुषोत्तम की झाँकी करने को मिल सकती है। इस स्तर के प्रयत्नों को योगाभ्यास एवं तपश्चर्या कहते हैं। साधना भी इसी को कहा जा सकता है। पुरातन काल के तत्त्वदर्शी अपनी काया में सन्निहित उन सूक्ष्म केन्द्रों को समझते थे, साथ ही उन्हें प्रखर बनाने की विधा का प्रयोग करके न केवल अपने को असामान्य बनाते थे वरन् अन्यान्यों को भी इस कौशल से लाभान्वित करते थे। यह गुह्य विद्या है तो भी है यथार्थ और प्रचण्ड। जिनमें श्रद्धा हो वे अनुभवी, प्रवीण पारंगतों के मार्गदर्शन में यह प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं और अभ्यास की परिणतियों से लाभान्वित हो सकते हैं ।। पिण्ड में ब्रह्माण्ड का समग्र ढाँचा विद्यमान है। बीज में समग्र वृक्ष और शुक्राणु में परिपूर्ण मनुष्य रहता है, इसी प्रकार पिण्ड में ब्रह्माण्ड है। मनुष्य में देवत्व का उदय करने के लिए उस प्रसुप्ति को जागृति में बदलना होगा। यह योगाभ्यास का विषय है। इसे चेतना परक विज्ञान क्षेत्र ही समझना चाहिए। पिछले दिनों यह क्षेत्र पाखण्डियों के हाथों रहा है, अब उसे मनस्वी, तेजस्वी और तपस्वी हाथ में लें, तो विज्ञान के अधूरेपन की भी पूर्ति हो चले और उस प्रगति से ऐसा लाभ मिले जो भौतिक विज्ञान से भी उपलब्ध नहीं हुआ है।
इन दिनों ब्रेन वाशिंग के नाम से किये जाने वाले प्रयोग की महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में भौतिक विज्ञानियों ने भी यत्किंचित प्रयोग किये हैं और विरोधियों को समर्थक बनाने में आँशिक सफलता पाई है। उनकी कल्पना है कि सशक्तों को दुर्बलों के मनों पर आधिपत्य करने के उपरान्त पालतू पशुओं जैसा इच्छानुवर्ती होने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। उनके प्रयोग सफल हुए तो समर्थ नफे में रहेंगे, किन्तु मनुष्य का स्वतन्त्र चिंतन और आत्मबल समाप्त हो जायेगा। अस्तु यह क्षेत्र विशुद्ध रूप से अध्यात्मवादियों का है, उन्हें लोक कल्याण की दृष्टि से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए जन साधारण को प्रशिक्षित करना चाहिए। ब्रेन वाशिंग उन्हीं का काम है। इसे हाथ में लेकर वे मनुष्य जाति की महती सेवा साधना कर सकते हैं।
विज्ञान ने पंच भौतिक मानवी काया के हृदय, फुफ्फुस आदि अवयवों और रक्त, माँस, अस्थि आदि घटकों का स्वरूप और क्रिया-कलाप समझ लिया है। शल्य क्रिया क्षेत्र में उसने श्रेय भी प्राप्त किया है। मस्तिष्कीय घटकों के स्थान एवं क्रियाकलाप समझकर इलेक्ट्रोडों द्वारा इसे संभालने की जिम्मेदारी तत्त्वज्ञानियों, अध्यात्म वादियों पर आती है। पर उनने गहराई में उतरना छोड़ दिया है। पाखण्ड के सहारे अपनी गाड़ी चला रहे हैं। यह खेल तभी तक चल सकता है, जब तक भारत में अन्धश्रद्धा वाले अनगढ़ भावुक भक्तजनों का अस्तित्व बना रहेगा। भौतिक विज्ञानियों ने जब अध्यात्म क्षेत्र का मोर्चा खाली देखा तो उसमें भी अपनी टाँग अड़ानी प्रारंभ कर दी और प्रसन्नता की बात है कि कुछ न कुछ सफलता प्राप्त कर ली है। मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त बहुत दिन पहले ही हाथ लग गया था। अब मेटाफिजिक्स एक मान्यता प्राप्त विज्ञान की शाखा है। दूरदर्शन, दूरवार्ता, भविष्य कथन, मनों को पढ़ना इसमें कई नई-नई धाराएँ सम्मिलित हो गई हैं और परा मनोविज्ञान, मरणोत्तर जीवन, अतीन्द्रिय क्षमता आदि पर नया प्रकाश डाला है। फिर भी सन्देह इस बात का है कि वे अध्यात्म के आत्मा परक अन्तःकरण से सम्बन्धित पक्ष पर अधिक सफलता न प्राप्त कर सकेंगे। क्योंकि उसके लिए चारित्रिक पवित्रता की विशेष रूप से आवश्यकता होती है। जबकि विज्ञानी इस संदर्भ में काफी पिछड़े हुए होते हैं।
जिन रहस्यों पर अधिक प्रकाश पड़ने की आवश्यकता है, उसमें मानवीय विद्युत मस्तिष्कीय घटकों के कम्पन, अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ और उनसे निकलने वाले स्रावों पर नियंत्रण करने की पद्धति, मानवी चेतना को समुन्नत करने की दृष्टि से अत्यधिक आवश्यक है। हारमोनों पर नियंत्रण की तरह ही गुण सूत्रों को इच्छानुरूप प्रवाह दे सकने की बात भी असामान्य है। शरीर में संव्याप्त रासायनिक पदार्थों में हेरा-फेरी की बात भी है। जीव कोषों और ज्ञानतन्तुओं की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित करना, मस्तिष्क की विभिन्न कोशिकाओं के प्रवाह में परिवर्तन करना वह तथ्य है, जिनके ऊपर आध्यात्मिक ऋद्धि-सिद्धियों का आधार है।
मनुष्य को हर दृष्टि से समुन्नत स्तर का बनाना है। उसमें देवत्व का अभ्युदय करना है, तो इन रहस्यों का समझना ही नहीं वशवर्ती भी करना आवश्यक है। यह कार्य भौतिक यन्त्रों, उपकरणों एवं क्रिया कलापों से संभव नहीं। इसके लिए अध्यात्म क्षेत्र पर अधिकार रख सकने वाले पवित्रता एवं प्रखरता सम्पन्न लोगों की कार्य क्षमता एवं विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता पड़ेगी। भौतिक उपलब्धियों के समान ही यदि आत्म विज्ञान अन्तःक्षेत्र की विभूतियों को करतलगत कर सके, तो समझना चाहिए कि समग्र विज्ञान में प्रवेश पाना सम्भव हुआ। मात्र पदार्थों पर अधिकार करना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, कि जिनके बिना मानवी विशिष्टता अवरुद्ध बनी रहे। बिना सुविधा साधनों के भी काम चल सकता है। आत्मवेत्ता तो विशेष रूप से कम से कम साधनों से काम चलाते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि यह अब इतनी आवश्यक नहीं कि इसके बिना व्यक्तित्व को उत्कृष्ट स्तर का न बनाया जा सके और सच्चे अर्थों में विभूतिवान न बना जा सके। भौतिक साधनों की प्राचीन काल में कमी थी, इतनी बहुलता न थी जितनी इन दिनों है, तो भी मनुष्य आत्मबल के सहारे सुखी भी रहते थे और समुन्नत एवं सुसंस्कृत भी। इसके विपरीत जिनके पास साधनों की बहुलता है, वे भी बहिरंग एवं अंतरंग क्षेत्रों में विपन्न, उद्विग्न माने जाते हैं।
मनुष्य व्यक्तिगत जीवन में उल्लसित, विकसित रहे तथा आनन्द से परिपूर्ण दिखाई पड़े, तो समझना चाहिये कि उभय पक्षीय उपलब्धियाँ हस्तगत करके मनुष्य सच्चे अर्थों में अपनी गरिमा उपलब्ध कर सके। ऐसे व्यक्तित्वों की जितनी बहुलता होगी, उतना ही वातावरण सुख-शान्ति से भरा-पूरा होगा और स्वल्प साधनों से भी प्रगति एवं समृद्धि की परिस्थितियों का अनुभव होगा।
ऋषियों ने इतने उच्च स्तर की विभूतियाँ उपलब्ध की थी जिन पर आज तो सहसा विश्वास करना कठिन होता है। समूचे समाज को आगे बढ़ाने एवं ऊँचा उठाने की क्षमता जिस प्रवाह एवं वातावरण में है, उसकी उपलब्धि आत्म विज्ञान की प्रगति से ही सम्भव हो सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
254. आज की महती आवश्यकता ‘‘लोक नेतृत्व’’
-- श्रीराम शर्मा आचार्य
जन समस्याएँ सामान्यतः सदैव एक जैसी ही रही हैं। पेट और प्रजनन का दायरा यदि बढ़ा लिया जाय तो वह इतना भारी भरकम हो जाता है कि उसकी पूर्ति में ही मध्यम श्रेणी के व्यक्ति की क्षमता खप जाय। कई बार तो पुरुषार्थ और आवश्यकता के बीच इतना अन्तर रहता है कि उसकी पूर्ति ही ठीक तरह न बन पड़े और गरीबी की सीमा से नीचे रहना पड़े। कम योग्यता होने और दक्षता हलकी पड़ने पर तो कठिनाई और भी अधिक बढ़ जाती है। बड़ों की देखा-देखी ठाठ-बाट बढ़ा लिया जाय और फिजूल खर्ची की आदत पड़ जाय तो आय-व्यय के बीच संतुलन बिठाना और भी अधिक कठिन पड़ता है। इसके अतिरिक्त भी चिकित्सा, शत्रुता से निपटना आदि के जाल-जंजाल ऐसे हैं, जो मनुष्य को हैरान किये रहते हैं। कुछ अपने अनगढ़ चिन्तन और स्वभाव के कारण क्षमताएँ हलकी होने पर भी उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर मान लेते हैं और उनके कारण चिन्ता, निराशा, भय, खीज़ आदि के शिकार होकर व्यक्तित्व को अपंग बना लेते हैं। ऐसी स्थिति में घर-गृहस्थी की गाड़ी आगे धकेलना भी कठिन पड़ता है। ऐसे उद्विग्न मनुष्य अपनी निजी समस्याओं में ही उलझे रहते हैं। इसमें भी कोढ़ में खाज की तरह कहीं महत्त्वाकांक्षाएँ उबल पड़े, तो समझना चाहिए कि चिन्ताओं और समस्याओं की अति हो गई।
यह है गरीबी और मध्यम वर्ग का जीवनक्रम। इसमें कोल्हू के बैल की तरह चलने वाला जन समुदाय अपनी निजी सीमा से आगे बढ़कर धर्म, समाज, संस्कृति के सम्बन्ध में कुछ उत्थान, समाधान परक योगदान देना तो दूर उस संदर्भ में सोच तक नहीं पाता।
उत्कर्ष और समाधान के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व उठाने पड़ते हैं। उन्हें कुछ ही लोग उठाते रहें तो भी काम नहीं चलता। व्यापक प्रगति के लिए जन साधारण का भी सहयोग चाहिए, अन्यथा अस्त-व्यस्तताएँ इतनी बढ़ी-चढ़ी होगी, कि उनसे निपटना ही कठिन लगेगा। प्रगति पथ में जो बाधाएँ अड़ी हुई हैं उनका निराकरण करते न बन पड़ेगा। इतिहास साक्षी है कि जहाँ भी गतिरोधों में सुधार हुआ है और उत्साहवर्धक प्रगति का द्वार खुला है, उसमें जन साधारण का सहयोग न्यूनाधिक मात्रा में अनिवार्य रूप से अवश्य रहा है।
अपने आप में सीमित, कूप मंडूक बने जन समुदाय से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे स्वेच्छा के उपयुक्त समाधान ढूँढ़ सकें और उन्हें स्वेच्छा पूर्वक चला सकें। इसके लिए मार्गदर्शकों की, नियोजन और नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है। वे न हो अथवा उनका स्तर घटिया हो, तो गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है। समय के परिवर्तन में सूत्र संचालकों की सर्वोपरि आवश्यकता होती है, अन्यथा वे या तो जहाँ के तहाँ खड़े रहेंगे या मनमर्जी अपना कर दुर्घटना खड़ी करेंगे। जन समुदाय को भी इन वाहनों के ही समान समझना चाहिए और उसकी संकीर्णता और व्यस्तता देखते हुए यह आशा नहीं की जा सकती कि सामुदायिक समस्याओं का समाधान एवं प्रगति का योजनाबद्ध प्रयास उनसे बन पड़ेगा। उन्हें ऐसे मार्गदर्शक की आवश्यकता रहेगी जो न केवल अपनी प्रखरता विकसित कर सकें, वरन् सामयिक समस्याओं को समझने और उन्हें परिस्थितियों के अनुरूप सुलझाने में समर्थ हो सकें। उपयुक्त नेतृत्व की हर समय आवश्यकता होती हैं, क्योंकि समय तेजी से बदलता रहता है। पुराने समाधान सँभलने से पूर्व ही नये संकट और विग्रह आ खड़े होते हैं। उनसे सर्वथा छुटकारा पाने की आशा कभी भी नहीं की जा सकती। इसलिए जन नेतृत्व की आवश्यकता भी किसी समय ‘पूर्ण हो चली’ नहीं समझी जा सकती। समर्थ नेतृत्व का विकसित होते रहना भी ऐसा ही आवश्यक है, जैसा कि अन्न-वस्त्र जैसी दैनिक आवश्यकताओं को जुटाना।
भावनाशील, आदर्शवादी, परमार्थी, दूरदर्शी प्रकृति के लोगों को इस प्रयोजन के निमित्त आगे आना होता है और इसके लिए उन्हें निजी महत्त्वाकाँक्षाओं को घटाना या हटाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त पारिवारिक अर्थ सन्तुलन इस दूरदर्शिता के साथ सुलझाना पड़ता है कि उसकी चिन्ता में व्यस्त रहने या भ्रष्ट आचरण अपनाने की आवश्यकता न पड़े। जन नेतृत्व का यह प्रारम्भिक चरण है। यह पूर्ण रूप से न बन पड़े तो थोड़ा बहुत समय देते रहने, प्रयत्न करते रहने से भी काम चल सकता है।
प्राचीन काल में साधु और ब्राह्मण के दो समुदाय ऐसे थे जो अपनी समग्र क्षमता लोक मंगल के लिए समर्पित करते थे। उनके ऊँचे व्यक्तित्व और महान प्रयासों को देखते हुए जनता स्वेच्छा, श्रद्धा से प्रेरित होकर दान दक्षिणा के बहाने उन वर्गों की निर्वाह आवश्यकता पूरी कर दिया करती थी। आज वह बन नहीं रही। वे उच्च वर्ग भी जन साधारण की भाँति स्व केन्द्रित हो गये। परमार्थ के नाम पर धार्मिक कर्मकाण्डों की चिन्ह पूजा करते रहना भर उनका व्यवसाय रह गया है। फलस्वरूप लोक श्रद्धा भी समाप्त हो गई। परम्पराओं की दुहाई देकर या छल छद्म का आश्रय लेकर गुजारा चलाना पड़ता है। यह सब इसलिए हुआ कि लोक नेतृत्व के लिए जिस प्रकार का उच्चस्तरीय व्यक्तित्व अभीष्ट है उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं की जा रही। फलतः उसका प्रभाव भी ऐसा नहीं रह गया, जिसके कारण जनता उनके मार्गदर्शन को हृदयंगम और कार्यान्वित कर सके। लोक नेतृत्व की अब विडम्बना ही चल रही है और रंगमंच के नट-नायकों की तरह प्रहसन जैसी उसकी लकीर पिट रही है। फिर उनके पास जो चिन्तन शैली और समाधान पद्धति है, वह इतनी पुरानी हो गई कि उसे पुरातत्व संग्रहालय में कथा कौतूहल के लिए ही सुरक्षित रखा जा सकता है। समय इतना बदल गया है कि वस्तु स्थिति को समझने और समाधान खोजे बिना और कोई मार्ग नहीं। हमें समय के साथ चलना ही होगा।
पुराने समय में वेष के आधार पर ब्राह्मण को मान्यता मिल जाती थी। पर अब वैसी बात नहीं रही। दूध का जला छाछ को फूँककर पीता है। अब वेश और वंश प्रामाणिकता के चिह्न नहीं रहे। अब व्यक्ति का ज्ञान, चरित्र और व्यवहार तीनों ही परखे जाते हैं। इन कसौटियों पर खरे उतरने वाले ही लोक मानस में अपना स्थान बना सकते हैं और उसकी श्रद्धा इस स्तर तक उठा सकते हैं कि वे परामर्शों का अनुगमन कर सकें। नेतृत्व के लिए इस विशिष्टता का होना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया है। सामान्य लोगों में भी इतनी बुद्धिमत्ता विकसित हो गई है कि वे इतने भर से सन्तुष्ट न हो कि क्या कहा गया? वरन् यह भी परखें कि किसने कहा?
गाँधी, विनोबा आदि के कथनों और मार्ग दर्शनों को लाखों ने सच्चे मन से अपनाया और उसके हेतु बढ़-चढ़कर त्याग बलिदान भी किया। प्रायः इन्हीं बातों को बाजारू नेता भी दुहराते हैं। लच्छेदार भाषा के कला कौशल पर तालियाँ तो बज जाती हैं, पर सुनने वालों में से कदाचित ही ऐसे निकलते हों जो उस कथन के अनुरूप अपना जीवन क्रम बदल सके। इससे स्पष्ट है कि शब्द अब सशक्त नहीं रहे। वे अब शब्द वेध नहीं करते। इसका कारण एक ही है कि कथन के साथ चरित्र जुड़ा हुआ नहीं होता। उसके निष्पक्ष होने में भी संदेह रहता है। राजनैतिक दलों की तरह साम्प्रदायिक पक्ष में अपने-अपने मतों के प्रति दुराग्रह दिखाते हैं और जन विवेक जागृत करने की अपेक्षा अपने प्रतिपादन को प्रतिष्ठा का विषय बनाकर तर्कों का ढेर लगाते और भावनाओं को जिस-तिस प्रकार भड़काते हैं। इस स्तर का आवेश कुछ ही समय में समाप्त हो जाता है और जिनसे कहा गया था वह अपने पुराने ढर्रे को अपनाए रहने में ही खैर समझते हैं।
राजनैतिक और धार्मिक प्रवक्ताओं की ही भरमार है और वे दलगत प्रतिपादनों की ही तोता रटन्त करते हैं। उनका वास्तविक समस्याओं की ओर ध्यान नहीं जाता और न उन्हें सँभालने की आवश्यकता ही समझी जाती है। फलतः जड़ सींचने से विमुख रहकर पत्ते धोने जैसी विडम्बना चलती रहती है।
आज की अत्यन्त कठिन और प्रभावी समस्याएँ तीन हैं। एक चिन्तन को मानवी गौरव के अनुरूप परिष्कृत करना। दूसरा व्यक्तिगत चरित्र में ईमानदारी, जिम्मेदारी और समझदारी की मात्रा का विकास करना। तीसरा समाजगत प्रचलनों में जो भ्रष्टाचार घुस पड़ा है उसके विरुद्ध विद्रोह खड़ा करना। अभी हम पिछली पीढ़ी के पुण्य प्रताप से राजनैतिक क्रान्ति कर सकने में समर्थ हुए हैं। सुशासन मिलना अभी बाकी है। अधिनायक वाद में तो यह शासन द्वारा भी किसी सीमा तक सम्पन्न हो सकता है। किन्तु प्रजातन्त्र में लोक मानस बदलने और व्यक्तियों को आदर्श के निमित्त उछाले बिना और कोई उपाय नहीं। प्रजातन्त्र में जैसी जनता होती है, उसी स्तर की सरकार बनती है। भ्रष्टाचार ऐसा रोग है जो ऊपर से नीचे की ओर ही नहीं नीचे से ऊपर की ओर भी चलता है और छूत की बीमारी की तरह एक दूसरे को लगता भी है।
गरीबी दूर करने का नारा अथवा आश्वासन बड़ा आकर्षक लगता है पर वह वर्तमान प्रचलनों के रहते किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। खाद पानी की व्यवस्था करके खेत की उपज बढ़ाई जा सकती है किन्तु खर्चीली शादियों, मृतक भोजों, ठाट-बाट के अपव्ययों में वह उत्पादन फूटे पैन्दे वाले घड़े की तरह जमीन पर फैल जायेगा और बार-बार भरते रहने पर भी वह समेटा न जा सकेगा। कुरीतियाँ, मूढ़ मान्यताएँ इतनी मंहगी हैं कि उनके रहते हम आर्थिक उत्कर्ष के मात्र दिवा स्वप्न ही देख सकते हैं।
इसी प्रकार घटिया, स्वार्थी, चोर और अपराधी व्यक्तित्व परस्पर अविश्वास और विग्रह की आग में ही सदा जलते रहेंगे। न एक दूसरे का ख्याल करेंगे और न सहयोग की व्यवस्था पनपने देंगे। उनके द्वारा उत्पन्न किये गये संकटों से निपटने के लिए पुलिस, कचहरी, जेल आदि से सम्बन्धित अनेक आवश्यक खर्च बढ़ेंगे और मनोमालिन्य की खाई गहरी करेंगे। चेचक पर मरहम चुपड़ने से नहीं, रक्तशोधक उपचार करने से काम चलता है। सड़ी नाली को साफ करने से ही मक्खी, मच्छरों और दुर्गन्धित कृमि-कीटकों से छुटकारा पाया जा सकता है। वस्तुतः आज की हमारी आवश्यकता नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की है। उसके बिना आर्थिक क्रान्ति के प्रयास भ्रष्टाचारियों की जेब भर भारी करते रहेंगे। यही बात शासन के सम्बन्ध में भी है। उसे स्वच्छ बनाने के लिए मतदाताओं की ऐसी विवेक बुद्धि जगानी होगी जो चयन करते समय किसी दबाव, प्रलोभन या भटकाव से बचकर दूरगामी परिणामों का सही अनुमान लगा सकें।
दुर्भाग्य की बात है कि यह वास्तविक सुधार हमारी दृष्टि से ओझल है और तात्कालिक लाभों को ध्यान में रखते हुए लोग राजनेता बनने की प्रतिद्वन्द्विता में फँसते हैं। या भावुक लोगों का शोषण करने के लिए धर्माडम्बर ओढ़कर लच्छेदार वक्ता का कौशल अपनाकर व्यवसाय आगे धकेलते हैं।
यह कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं कि नेता बनने की प्रतिद्वन्द्विता इतनी बढ़ गई है कि रेल में जगह न मिलने पर लोग उसकी छत पर जा बैठने का जोखिम तक उठाते हैं। भारी भीड़ में कितने ही कुचल कर मर भी जाते हैं। लगभग यही धकापेल नेतृत्व के क्षेत्र में चल रही है। महत्त्वाकाँक्षी लोग अपना चेहरा चमकाने और चर्चा का विषय बनने में यश भी देखते हैं और प्रकारान्तर से उसकी आड़ में सम्मान और वैभव बटोरते हैं। व्यक्तिगत जीवन में खोखले व्यक्ति अधिक दिन तक परख की पकड़ से नहीं बच सकते हैं और पानी के बबूले की तरह बैठकर उसी स्थिति में जा पहुँचते हैं, जिसके वे वस्तुतः अधिकारी थे। जनता एवं साथियों को कृतघ्न ठहराने पर भी उफान का झाग नीचे बैठ जाने की तरह टिकता नहीं।
लोक नेतृत्व की आज इतनी अधिक आवश्यकता है, जितनी पहले कभी नहीं रही। क्योंकि बहुमुखी समस्याओं और विपन्नताओं ने सारे समाज को अपने शिकंजे में कस लिया है और उत्कर्ष के लिए किये गये प्रयत्न निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं। कहने को इसका दोषी जनता को, उसमें घुसी दुष्प्रवृत्तियों को ठहराया जा सकता है। शासक को या विश्व व्यवस्था को भी दोषी कहा जा सकता है। पर यह सब आत्म प्रवंचना भर है। असली कारण व्यक्तित्व का घटिया होना और दुष्प्रवृत्तियों को पकड़कर बैठ जाना है। असल में उन्हीं का उपचार समस्त समस्याओं का एक मात्र हल हो सकता है। इसके लिए प्रयत्न होने चाहिए। क्या प्रयत्न हो? इसके लिए लोक नायकों की संख्या ही नहीं, स्तर भी इतना ऊँचा उठाया जाना चाहिए कि लोक मानस उसका अनुगमन करता चला जाय। ऐसा चुम्बकत्व चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता भरे बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। सफल नेतृत्व वही कर सकता है जो गुण, कर्म, स्वभाव की कसौटी पर खरा उतरे। वह अकेला भी बहुत कुछ कर सकता है, जबकि षड्यंत्रकारियों के गिरोह भी कुछ समय बाद परस्पर सिर फोड़ते देखे गये हैं।
प्रचार साधनों का अपना महत्त्व हो सकता है। लेखनी और वाणी के प्रभाव से उत्तेजना उत्पन्न की जा सकती है और यह सरंजाम, साधन एकत्रित करके सरलता पूर्वक गैस भरे गुब्बारे की तरह आसमान में उड़ाया जा सकता है। ऐसे प्रचार कौतुक, सभा-सम्मेलनों, फिल्मों, विज्ञापनों आदि के द्वारा भी हो सकते हैं। पर वे क्षणिक होते हैं और उनके द्वारा उत्पन्न किया गया बुखार खोखले आन्दोलनों की तरह उतर जाता है।
नेतृत्व एक ऐसा तत्व है जिसे खरे सोने की तरह हर खरीददार द्वारा परखा जाता है। नेता ऊँचे मंच पर ही नहीं बैठता, वरन् परोक्ष रूप से उसे इतना प्रामाणिक बनना पड़ता है, जो न केवल सार्वजनिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में हर कसौटी पर खरा साबित हो, वरन् व्यक्तिगत चरित्र की दृष्टि से भी वह ऐसा हो जिसे संदेहों से ऊपर उठा हुआ समझा जा सके। यहाँ एक बात स्मरणीय है कि इस क्षेत्र में छल, कपट या दुराव अधिक समय नहीं टिक सकता। उसे हवा सूँघती है और चारों ओर सुगन्ध-दुर्गन्ध की तरह बिखेरती रहती है।
जन नेतृत्व की उच्चस्तरीय भूमिका विचारशील, चरित्रवान और प्रगतिशील लोग ही निभा सकते हैं। इस अभाव की पूर्ति न हो सकी तो समझना चाहिए कि व्यक्ति का, विश्व का भविष्य अन्धकारमय ही बना रहेगा। जिनकी स्थिति इसके लिए उपयुक्त है उन्हें समय की माँग पूरी करने के लिए आगे आना चाहिए। भले ही निजी जीवन में कितनी ही कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार
255. कृत्य किसी का-श्रेय किसी को
-- श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवात्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। वह प्रकट, विकसित एवं समर्थ भी अपने ही पुरुषार्थ से होती है। इतने पर भी यह निश्चित है कि माता के सहयोग के बिना उसकी अदृश्य सत्ता मूर्तिमान नहीं हो सकती। पक्षियों के अण्डे मादा देती ही नहीं, सेती भी है। मनुष्यों और पशुओं के अण्डे उनके पेट में पकते है और उसी की देख-रेख में अपने पैरों खड़े होने योग्य बनते हैं।
मनुष्य के आध्यात्मिक और भौतिक जीवन को विकसित करने के लिए किसी समर्थ सहयोगी की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा न होने पर प्रगति पथ अत्यन्त दुस्सह हो जाता है। एक समर्थ मार्गदर्शक का सच्चा सहयोग उपलब्ध हो जाना आधी मंजिल पूरी हो जाने के बराबर है। कुआँ, घड़ा, बाहुबल होते हुए भी रस्सी के अभाव में प्यास बुझाने का सुयोग बनता ही नहीं।
अध्यात्म क्षेत्र का सौभाग्य यहीं से आरम्भ होता है। पर उस उपलब्धि के पीछे पात्रता रूपी एक अनिवार्य शर्त जुड़ी हुई है। कोई अपनी सुयोग्य कन्या अपंग भिक्षुक से नहीं ब्याहता वरन् ऐसे वर की तलाश करता है जो बेटी को सुखी, सुसमुन्नत बनाने का उत्तरदायित्व वहन कर सके। सिद्ध पुरुषों की इस संसार में कमी नहीं, कमी सुपात्र शिष्यों की है। अन्यथा वे जहाँ भी जाते हैं, खोटे सिक्कों की तरह वापस लौटा दिये जाते हैं।
हमारी अपनी प्रगति का आधार भी यही है। गायत्री मन्त्र की दीक्षा और यज्ञोपवीत संस्कार तो महामना मालवीय जी ने प्रायः दस वर्ष की आयु में ही कर दिया था। दीक्षा देते समय उनने कहा था-यह ब्राह्मण की कामधेनु है, इसे श्रद्धा पूर्वक अपनाना। पिताश्री ने समझाया कि ब्राह्मण शब्द का अर्थ वंश विशेष से नहीं है, वरन् उनका संकेत गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ आदर्श बनाने से है। अन्तरंग का स्वाभाविक गठन उसी स्तर का होने से उन अनुबन्धों का परिपालन और अभ्यास कुछ कठिन नहीं पड़ा।
पन्द्रह वर्ष की आयु में हिमालय वासी ऋषिकल्प महान मार्गदर्शक का अनुग्रह घर की पूजा कोठरी में बैठे हुए हुआ। प्रकाश पुंज के मध्य एक सिद्ध पुरुष की झाँकी हुई। आश्चर्य भी हुआ और डर भी लगा। पर वह स्थिति देर तक न रही। उनने पिछले अनेक जन्मों के, फिर अन्तिम तीन जन्मों के दृश्य फिल्म की तरह दिखाए। तीनों एक से एक महान थे। एक जन्म में जातिगत भेदभावों का, दूसरे में भारत को स्वतन्त्र कराने के निमित्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले व्यक्तित्व ढालने का, तीसरे में देश देशान्तरों में भारतीय संस्कृति का विस्तार करने हेतु अत्यन्त प्रतिभाशाली जीवन जिये गए थे। देखते ही आत्मबोध हुआ, निश्चय किया कि जो मार्गदर्शक पिछले जन्मों में ऊँगली पकड़ कर चलाता रहा है, उसी के चरणों में यह चौथा जन्म भी समर्पित होगा। मन, वचन और कर्म से किया गया यह समर्पण स्वीकार कर लिया गया।
आगे क्या करना, इसकी पहली मंजिल यह बताई गयी कि इस बार अपेक्षाकृत बड़ा बोझ उठाना है। बड़ा पुरुषार्थ करना है, इसलिए तदनुरूप आत्मबल भी संग्रह करना है। उनका तात्पर्य तपश्चर्या से, आत्म परिशोधन से था और साथ ही यह भी था कि सांसारिक ललक-लिप्साओं को अस्वीकार करने, दबावों और आकर्षणों के सामने न झुकने का साहस संचय किया जाय। लोग क्या करते या कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न देकर आत्मा की पुकार पर एकाकी चल सकने की समर्थता अर्जित की जाय।
सिद्धांतों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए साधन बताया गया-गायत्री के २४ महापुरश्चरण। एक वर्ष में एक के हिसाब से २४ वर्ष की साधना अपने विश्वास की साक्षी रूप में अखण्ड घृत दीप की स्थापना करना। इन वर्षों में मात्र जौ की रोटी और गाय की छाछ पर निर्वाह करना। यह कर गुजरने के लिए संकल्प किया और विश्वास दिलाया। इसमें एक ही प्रमुख बाधा थी तथाकथित परिवारियों और सम्बन्धियों का प्रबल विरोध और भीतरी दुर्बलताओं का आक्रमण।
इस प्रयास में व्यतिरेक एक ही पड़ता रहा कि स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने के कारण बीच-बीच में व्यवधान पड़ना। जो कार्य शेष रह गया था, उसे सन् ४५ के बाद एकनिष्ठ होकर मथुरा में पूरा किया।
गुरुदेव को जाँचना था कि साधक को, श्रद्धा और उसकी महान परिणति पर विश्वास हुआ या नहीं। इसके लिए उनने अनुष्ठान की पूर्णाहुति के लिए मथुरा में सहस्र कुण्डीय गायत्री यज्ञ करने का आदेश दिया, साथ ही यह समझाया कि अब तक सभी ने कुछ बोने के उपरान्त ही कुछ महत्त्वपूर्ण पाया है। गायत्री के द्रष्टा विश्वामित्र ने भी अपना राजपाट छोड़ा और शिष्य हरिश्चन्द्र से छुड़ाया था। समय आ गया कि तुम्हें भी वही कर गुजरना चाहिए।
बात अन्तरंग में बैठ गयी और ईश्वर के विराट् रूप जनता जनार्दन के खेत में बोना शुरू कर दिया। पैतृक सम्पदा के रूप में लम्बी चौड़ी जमींदारी थी, उसे बेचकर जन्मभूमि में एक हाईस्कूल बनाने के अतिरिक्त गायत्री तपोभूमि के निर्माण में भी वह पैसा काम आया। गायत्री तपोभूमि के ऐसे आश्रम की स्थापना हुई जो युग परिवर्तन के क्षेत्र में महती भूमिका सम्पादित कर सके। इसके अतिरिक्त उसी अवसर पर सत्पात्र विचारशील धर्मप्रेमियों का एक अखिल भारतीय संगठन खड़ा करना यह कार्य भी उसके साथ जुड़े हुए थे। हमारा मन अचकचाया कि साधन और सहयोग के अभाव में इतना बड़ा कार्य कैसे बन पड़ेगा, पर मार्गदर्शक की एक मुस्कान भरी झाँकी ने सभी संदेहों का निवारण कर दिया कि जब घोड़े हाँकने वाले इतने समर्थ सारथी का हाथ सिर पर है तो झूठ-मूठ गाण्डीव चलाने और विजयश्री का वरण करने में अपना जाता ही क्या है। समय आया और वे तीनों कार्य इस प्रकार, एक साथ कुछ ही दिनों के प्रयत्न से सम्पन्न हो गये, मानों वे पहले से ही किये हुए रखे हैं। जिन्हें मथुरा के सन् ५८ में सम्पन्न हुए गायत्री महायज्ञ का स्मरण है, वे अभी भी आश्चर्य चकित होकर वर्णन करते हैं, कि प्रायः ५ लाख व्यक्तियों के निवास, भोजन आदि का प्रबन्ध किस प्रकार एकाकी प्रयत्न से सम्पन्न हो गया। गायत्री तपोभूमि का आश्रम भी बना और गायत्री परिवार का विशालकाय संगठन भी खड़ा हो गया। इस चमत्कार से हमारा मन आत्मविश्वास से भर गया, कि सौंपे गये किसी भी कार्य को कर गुजरना कठिन न होगा।
मार्गदर्शक का उद्देश्य हमें युगान्तरीय चेतना का आलोक व्यापक बनाने के कार्य में लगा देने का था। इसके लिए युग साहित्य के सृजन के कार्य में जुटना था, सो प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद और युग समस्याओं के स्वरूप और समाधान समझाने वाले साहित्य लिखने की आज्ञा हुई। इतने व्यापक क्षेत्र में इतना बड़ा काम करने में जब कभी असमंजस उभरा, तभी आत्मविश्वास ने, अनुभव ने साक्षी दी कि इतने बड़े सहायक के रहते कोई कार्य कठिन नहीं होना चाहिए। अपने शरीर के वजन जितना साहित्य कुछ ही दिनों में विनिर्मित हो गया। हाथ इस तेजी से चले मानों उनमें बिजली की मोटर लगी हो और संगृहीत ज्ञान का भण्डार उगला भर जा रहा हो। यह होते देखकर वह पुरातन गाथा स्मरण आती रही, जिसमें व्यास जी पुराणों को मुख से बोलते और गणेश जी लिखते गये थे। मस्तिष्क व्यास जी का काम करता रहा और हाथ गणेश जी का। इस लेखन को प्रकाशित करने के झंझट में कोई और तैयार न हुआ, तो अपनी निज की व्यवस्था करनी पड़ी। ३०० रुपये मूल्य के पुराने जमाने के हैण्ड प्रेस से काम चालू किया और आज उसका विस्तार दर्जनों मशीनों, आटोमैटिक ऑफसेटों के रूप में काम करता दिख रहा है। अखण्ड ज्योति और चार अन्य पत्रिकाओं की ग्राहक संख्या तीन लाख को पार कर गयी है। सस्ते ट्रैक्ट करोड़ों की संख्या में अनेकानेक भाषाओं में प्रकाशित हुए और देश-विदेश में जन-जन तक पहुँचे हैं।
गुरुदेव का परामर्श था उच्चस्तरीय सिद्धियों के अर्जित करने का एक ही तरीका-बोना और काटना। बाजरा, मक्का आदि का एक दाना बोये जाने पर हजार दाना उत्पन्न करता है। भगवान का व्यवहार भी ऐसा है, कि वह लिये बिना किसी को कुछ देता नहीं। सुदामा से तन्दुल, गोपियों से दही, शबरी से बेर, बलि से भूमि, कर्ण से दाँतों में चिपका सोना प्रभु ने माँगा था। हमसे भी जो कुछ आशा अपेक्षा की गयी हमने दिया। उत्तराधिकार का दावा प्रस्तुत करने वाले कुटुम्बियों को इसमें से एक कानी कौड़ी भी न मिली। इसके उपरान्त रह जाता है श्रम सद्भाव। रात्रि के समय उपासना, दिनभर जनता जनार्दन के सेवा कार्य। भावनाओं की दृष्टि से अपने पास जो तप और पुण्य था उसका एक-एक कण पिछड़ों को उठाने, आगे बढ़ाने में लगा दिया। अब और कोई सूझ नहीं पड़ता कि अपने पास और कुछ बचा हो। हो सकता है कि जमा पूँजी कम और दान अनुदान का पलड़ा बोझिल होने के कारण रामकृष्ण परमहंस की तरह गले के कैंसर का शिकार होना पड़े।
इस अनुदान का प्रतिदान हमें हाथों-हाथ मिलता रहा। ७५ वर्ष की आयु में स्वस्थता और कार्य क्षमता उतनी ही बनी हुई है, जितनी किसी नवयुवक की होनी चाहिए। हमने प्यार बाँटा और प्यार बटोरा है। उसी का प्रतिफल है, कि प्रायः बीस लाख व्यक्ति अपना बहुमूल्य समय अपने संकेतों पर अहर्निश नव निर्माण के लिए नियोजित किये हुए हैं। धन सम्बन्धी बोया हुआ बीज कितना फला, इसके संदर्भ में अनुमान मथुरा के गायत्री तपोभूमि और युग निर्माण योजना आश्रम की भव्यता देखकर लगाया जा सकता है। हरिद्वार के शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें ही नहीं, कार्य पद्धतियाँ भी ऐसी ही हैं, जिसे देख कर ऋषि प्रयासों की पुनरावृत्ति अनुभव की जा सकती है। ब्रह्मवर्चस् में जो अनुसंधान विज्ञान और अध्यात्म की दृष्टि से किया जा रहा है, उसे देखकर इन दोनों ही क्षेत्रों के मूर्धन्य व्यक्ति आश्चर्य चकित रह गये हैं।
नवयुग का संदेश व्यापक करने के लिए देश देशान्तरों में २४०० गायत्री शक्तिपीठों के नाम से भव्य भवन बने हुए हैं और अपने-अपने क्षेत्र में नवसृजन का वातावरण बना रहे हैं। इसी प्रकार प्रज्ञा संस्थान, स्वाध्याय मण्डलों की संख्या अब बढ़ते-बढ़ते २४ हजार तक जा पहुँची है। यह हमारी प्रत्यक्ष कार्यकर्त्री भुजाएँ हैं। इन्हें देखकर सहस्र भुजा वाला पुरातन काल का महाबली भी अपने को पिछड़ा हुआ अनुभव कर सकता है। यह जन सेवा कार्यों का बहुचर्चित परिचय है, जिसे कोई भी चर्म चक्षुओं से देख सकता है। एक मुट्ठी अनाज हर घर से माँगने और एक घंटा श्रम से इतना क्रान्तिकारी वातावरण बना देना, संसार में अपना एक विशिष्ट कीर्तिमान है। इस प्रकार सोचते तो कितने ही व्यक्ति रहे हैं, पर इन शक्ति स्रोतों को व्यवहारतः उभारने और कार्यान्वित करने का यह प्रथम प्रयोग है, जिसे अपने ढंग की अभूतपूर्व सफलता का श्रेय दिया जा सकता है।
यह प्रत्यक्ष घटनाएँ हमारे जीवन की हैं। जो परोक्ष है, वह इससे कम नहीं इससे बड़ा है, भले ही लोग उसे एक स्थान पर दृश्यमान न देख पाते हों। दुर्गुणों को छोड़ने और सद्गुणों को अपनाने की प्रक्रिया ऐसी ही है, जिसकी लपेट में एक करोड़ लोग भी आ चुके हों ,, तो कोई आश्चर्य नहीं। यह गायत्री यज्ञों के अवसर पर उपस्थित हुए लोगों के द्वारा देव दक्षिणा प्रस्तुत करने के अनुबन्ध द्वारा सम्पन्न हुआ है। नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति की जितनी बड़ी पृष्ठभूमि बनी है, उसका लेखा-जोखा लेने वाले दाँतों तले ऊँगली दबाये बिना नहीं रह सकते। सर्वतोमुखी परिवर्तन का यह तूफानी अभियान प्रज्ञा अभियान अभी रुका नहीं है, वरन् दिन दूनी-रात चौगुनी गति से बढ़ता जा ही रहा है। अदृश्य वातावरण के परिशोधन के लिए हर दिन २४ करोड़ गायत्री जप का सामूहिक अनुष्ठान अपना अदृश्य प्रभाव किस कदर उत्पन्न करता रहा, इसका और अनुमान अगली पीढ़ी भली प्रकार लगा सकेगी।
मथुरा और हरिद्वार के आश्रमों द्वारा साहित्य प्रकाशन, अन्यान्य भाषाओं में उसका अनुवाद, प्रचारक कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण, अध्यात्मवादी विज्ञान का नव जीवन, वातावरण को उलट कर सीधा करने जैसे प्रयास में सैकड़ों की संख्या में उच्चशिक्षित ऐसे व्यक्ति संलग्न हैं, जो हजारों रुपये मास की आजीविका को लात मारकर मात्र अन्न-वस्त्र पर निर्वाह कर रहे हैं। यह कीर्तिमान भी ऐसा ही है, जो इन दिनों कदाचित किसी संस्था में दृष्टिगोचर हो सके। इनके त्याग और पराक्रम ने मिशन को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया और गोवर्धन उठाने, समुद्र सेतु बाँधने की गाथाओं को प्रत्यक्ष कर दिखा दिया। यह निकट आकर देखने, समझने और अन्वेषण करने पर ही विदित हो सकता है।
युग साहित्य में अब तक प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्डों का निर्माण और अगले दिनों भी उस प्रयास का गतिशील रहना ऐसा कार्य है, जिसे इस युग के किन्हीं विद्वानों ने एकाकी या सामूहिक रूप से कर गुजरने की कल्पना या चेष्टा नहीं की।
इन पंक्तियों को पढ़कर कोई इस भ्रम में न पड़े कि यह किसी व्यक्ति विशेष का पुरुषार्थ है। ऐसा कहना हमारे अहंकार को बढ़ाना और जिसकी अपार अनुकम्पा से यह बन पड़ा उसके प्रति कृतघ्नता प्रकट करना होगा। हमें सिर्फ कठपुतली की तरह नृत्य कर प्रशंसा पात्र बनने का सुयोग अनायास ही मिला है। यह सारा खेल उसी हिमालयवासी देवात्मा का है ,, जिसे हम अपना इष्टदेव मानते हैं और जिसकी उँगलियों में हमने हर अवयव के तार जोड़ दिये हैं। यह कठपुतली उसी आधार पर अनोखे नाच दिखाती रही है और जीवन की जो थोड़ी अवधि शेष है उसमें इससे भी बढ़कर कौतूहल कृत्य दिखाती रहेगी।
हमारी बैटरी जब-जब शिथिल पड़ती रही है तब-तब हिमालय की कन्दराओं में बुलाया जाता रहा है और चार्ज करके इस प्रकार वापिस भेजा जाता रहा है, कि वह अपने में नव जीवन संचार अनुभव कर सके। प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी को इन कृत्यों का कर्ता उसी देवात्मा को मानना चाहिए, जिसे हम अपना पितु-मातु सहायक, सखा मानते हैं और विश्वास करते हैं कि उसी के अनुग्रह से हमारा ईश्वर तक पहुँचना सम्भव हो सकेगा। माता के अनुग्रह से ही तो बच्चा निर्वाह पाता और विकसित होता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार