उत्कर्ष के लिए स्वयं आगे बढ़ें
उत्कर्ष के लिए आगे बढ़ें
महिला जागरण के सम्बन्ध में बहुत सी योजनाएँ बनी हैं और बहुत से कार्यक्रम चालू किए गए हैं। उन सबको पूरा करने में समाज के बहुत से अंगों को अपने-अपने हिस्से की भूमिका निभानी होगी। लेकिन उन सबमें सबसे प्रधान भूमिका स्वयं नारी की ही होगी। नारी के खोए हुए गौरव को और छीने हुए अधिकारों को वापस किसी भी ढंग से, किसी के भी द्वारा लाया जाए, लेकिन उन्हें धारण तो नारी ही करेगी। अपने महान गौरव के अनुकूल तथा अधिकारों के सदुपयोग के योग्य क्षमता नारी को अपने अन्दर विकसित करनी होगी। इसके लिए नारी समाज को ही सबसे अधिक प्रयास करना होगा।
इस दिशा में प्रयास करने से नारी को उसकी झिझक ही रोकती है। झिझक दो प्रकार की है। एक तो इतने दिनों तक जिस ढर्रे में नारी चली है, वह कितना ही दुखदायी हो नारी की आदत में शामिल हो गया है। उसे लगता है कि शायद वह ढर्रे से हटकर चल न सकेगी। यह झिझक उसमें अपनी स्थिति को देखकर उठती है। दूसरी झिझक समाज को देखकर पैदा होती है। लगता है जो विकृतियाँ समाज में इतने दिनों से घर बनाए हुए हैं, वे कैसे दूर होंगी? नारी के अधिकारों को कौन स्वीकार करेगा? उसे समानता का स्तर देना किसे अच्छा लगेगा?
यह दोनों ही प्रकार की झिझक बिलकुल भ्रान्तिपूर्ण है। हर नारी को और उसका हित चाहने वालों को, इन्हें अपने मन से निकाल फेंकना चाहिए। नारी चेतना रूप है, तीव्र से तीव्र परिवर्तन भी उसके लिए स्वाभाविक हैं। उसके लिए यह रोजमर्रा का क्रम है। बेटी आज अपना घर छोड़ती है और कल बहू बनकर एकदम नए वातावरण में, पहले से बिलकुल भिन्न जीवन क्रम अपना लेती है। दोनों जीवनों में जमीन आसमान जैसा अन्तर होता है, पर वह उसे स्वाभाविक रूप से निभा लेती हैं। कर्तव्य की माँग के अनुसार अपने आप को ढाल लेने की अद्भुत क्षमता नारी को जन्म से ही प्राप्त है। नारी जागरण से सम्बन्धित कोई भी परिवर्तन उसके लिए कठिन या अस्वाभाविक नहीं है।
इसी प्रकार समाज में फैले हुए नारी के प्रति दृष्टिकोण और व्यवहार को देखकर भी शंका नहीं की जानी चाहिए। यह युग परिवर्तन का समय है, नए युग के चिह्न अब साफ दिखाई देने लगे हैं। पुराने समय की सड़ी-गली मान्यताएँ और अनैतिक परम्पराएँ अब टिक नहीं सकतीं, ऐसे प्रमाण सभी तरफ मिल रहे हैं। राजनैतिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, धार्मिक क्षेत्र सभी में पिछले ही दिनों ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिन्हें असाधारण ही कहा जा सकता है।
जमाना तेजी से बदल रहा है, समय की गति को कोई रोक नहीं सकता। विश्व की आधी जनसंख्या, महिला समाज की समस्या का समाधान भी समय की माँग है, उसे पूरा होना ही है। पुरुष समाज का झूठा अहंकार इसमें रुकावट नहीं डाल सकता। इसी प्रकार स्वयं नारी समाज भी आलस्य या आदत के कारण प्रगति की उपेक्षा नहीं कर सकता। जो भी समय के प्रवाह के साथ चलने में ढील दिखाएगा, उसे ही जोरदार झटका खाना पड़ेगा।
नवयुग के अनुरूप सबसे पहले नारी समाज को अपनी मान्यताओं में हेरफेर करना पड़ेगा, परिवर्तनों का आधार इसके बाद ही बन पड़ेगा। हर एक नारी को वह अनुभव करना होगा कि उसका जन्म कुछ व्यक्तियों की उचित-अनुचित इच्छा पूर्ति करते रहने और बदले में पेट भर लेने के लिए नहीं, बल्कि किसी विशेष प्रयोजन के लिए हुआ है। नारी जीवन का यह महत्त्वपूर्ण प्रयोजन है। परिवार संस्था का ठीक से संचालन और उसे उन्नत स्तर का बनाना। व्यक्ति निर्माण के लिए अध्यात्म और कला क्षेत्र के लोग प्रयास करते हैं। समाज के निर्माण के लिए राज्य के अधिकारी, धनवान वर्ग विद्वान और वैज्ञानिक, अपने-अपने ढंग से काम करने में जुटे रहते हैं। व्यक्ति और समाज निर्माण दोनों के बीच की कड़ी है परिवार। परिवार संस्था ही वह खदान है जिसके आदर्श होने पर एक से एक बड़े नर रत्न निकलते हैं। समाज और कुछ नहीं वह परिवार की इकाइयों का संगठित रूप ही है।
परिवार में नारी की भूमिका
इन तथ्यों के साथ इस सचाई से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि परिवार के निर्माण और विकास में नर की अपेक्षा नारी की भूमिका हजारों गुनी अधिक प्रभावशाली होती है। यों नारी का प्रवेश और प्रभाव हर क्षेत्र में है, उसे किसी छोटी परिधि में सीमित नहीं किया जा सकता। तो भी इतना माने बिना काम नहीं चलता कि परिवार संस्था को ठीक प्रकार चलाना नारी के सहयोग बिना नर के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। यहाँ न तो नारी का तात्पर्य पत्नी से है और न नर का मतलब पति से। परिवार में नारी की कितनी ही भूमिकाएँ हैं और वे सभी एक से एक बढ़कर हैं। दादी, ताई, चाची, माता, बुआ, बहिन, पुत्री, भाभी, ननद आदि कई रिश्तों में वह सारे परिवार को प्रभावित करती हैं। कुमारी, विधवा, परित्यक्ता होते हुए भी नारी किसी न किसी घर-परिवार में रहती ही है और जहाँ भी उसका निवास होता है वहाँ वह उस स्थान के वातावरण को प्रभावित किए बिना नहीं रही। पत्नी के रूप में भी वह पति के सहयोग से कुटुम्ब का निर्माण और विकास करती है, पर बिना पति के भी वह एकाकी भूमिका निभाती हुई अपने विकसित व्यक्तित्व का लाभ परिवार संस्था की उन्नति में भली प्रकार देती रह सकती है। दूसरी ओर नर के लिए अकेले में वैसा निर्वाह सम्भव नहीं होता। निस्सन्देह नारी परिवार संस्था की रचना, पोषण और सुधार में समर्थ है। उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सम्मिलित देव शक्ति कहा जा सकता है।
गृह लक्ष्मी वे हैं जो अपने स्वभाव से मधुरता और सद्भाव से अशान्त लोगों को धैर्य बँधाती, दिशा देतीं और हँसने-मुस्काने के लिए विवश कर देती हैं। इसका प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है। चन्दन वृक्ष अपने पास उगे दूसरे पौधों को भी सुगन्धित बना देता है। सुगृहिणी ओछे और असंस्कृत लोगों के बीच रहकर भी उन्हें अपने प्रभाव से प्रभावित करती है और स्नेह-सौजन्य के सहयोग सद्भाव के ऐसे बीज बोती है, जो आगे चलकर उस घर को हर क्षेत्र में प्रगतिशील बना देने वाले कल्पवृक्ष का रूप धारण करते हैं। ऐसे परिवार अपने सद्गुणों के कारण भौतिक एवं आत्मिक दोनों क्षेत्रों में आगे बढ़ते, ऊँचे उठते ही दिखाई पड़ते हैं। परिवार निर्माण के इतने बड़े उत्तरदायित्व को पूरा करने में समर्थ सिद्ध होने के लिए, उसे अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का विकास करने के लिए, पूरी-पूरी रुचि लेनी चाहिए।
स्वास्थ्य रक्षा के नियमों की जानकारी सभी को रहती है या थोड़ी सी कोशिश से मिल सकती है। सभी जानते हैं कि जीभ का चटोरापन, वासनात्मक असंयम, अनियमितता तथा अस्त-व्यस्त दिनचर्या और दिमागी तनाव जैसे कारण ही स्वास्थ्य की बर्बादी के प्रमुख कारण है। आलस्य, प्रमाद और अस्वच्छता से बचा जा सके तो सब कुछ उत्साहवर्धक बना रहेगा। यदि आहार-विहार आदि में सतर्कता और सुव्यवस्था बरती जाए तो गरीबी में भी स्वास्थ्य ठीक रखा जा सकता है। आमतौर से पुरुषों द्वारा खाने-सोने में अनियमितता बरतने के कारण स्त्रियों का अधिकतर समय ऐसे ही बर्बाद चला जाता है। वे न तो ठीक से विश्राम कर पाती हैं और न शिक्षा-मनोरंजन आदि के लिए ही समय निकाल पाती हैं। प्रयत्न करना चाहिए कि परिवार के हर सदस्य की दिनचर्या नपी-तुली हो और किसी के कारण किसी को बेकार की परेशानी न सहनी पड़े। इतना बन पड़े तो स्त्रियों को अपना स्वास्थ्य संरक्षण कर सकना भी सम्भव हो जाएगा और मानसिक विकास के लिए काफी समय मिल सकना भी सम्भव हो जाएगा।
मानसिक विकास के लिए शिक्षा की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। महिलाओं को और उनके हितैषियों को चाहिए कि वे वस्त्र, आभूषण, सौन्दर्य, शृंगार, सम्मान विनोद आदि सबसे अधिक महत्त्व शिक्षा को दें। विद्या से बढ़कर और कोई सम्पत्ति नहीं है। अशिक्षितों की तुलना पशुओं से की जाती है। यह बहुत हद तक सही भी है। बिना पढ़े लोगों का ज्ञान घर-गृहस्थी और पास-पड़ोस से मिलने वाली जानकारियों तक ही सीमित रहता है। शिक्षितों को साहित्य के सहारे दुनिया भर के विद्वानों द्वारा दिए गए अति महत्त्वपूर्ण ज्ञान का लाभ मिलता है। उस ज्ञान की सम्पत्ति के आधार पर मनुष्य कितना ऊँचा उठ सकता है, इसकी असीम सम्भावना को केवल शब्दों से नहीं जाना जा सकता। अशिक्षित व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं पा सकते हैं। इसलिए जिन्हें अपना भविष्य अच्छा बनाने की इच्छा हो, उन्हें सुशिक्षित बनने के लिए पूरा प्रयास करना ही चाहिए।
महिलाएँ शिक्षित बनें
निरक्षर महिलाएँ साक्षर बनने का प्रयत्न करें और साक्षर अपनी ज्ञान सम्पदा बढ़ाने के लिए उपयोगी साहित्य का नियमपूर्वक अध्ययन करें। केवल स्कूली परीक्षाएँ पास कर लेने से ही शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। व्यक्ति एवं समाज की, जीवन से सम्बन्धित अनेकानेक समस्याओं का स्वरूप और सही समाधान जानना भी जरूरी है।
आवश्यक है कि हर जगह ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना हो जिनमें महिला समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाला उपयोगी साहित्य पर्याप्त मात्रा में हो, जिससे उस क्षेत्र की शिक्षित महिलाओं की ज्ञान की भूख शान्त करने का साधन बनता हो।
नारी देवी है उसे अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास करने में आत्म निर्भर होकर, बिना दूसरों के सहयोग की अपेक्षा किए स्वयं ही आगे बढ़ना चाहिए। इस तरह स्वयं के प्रयासों से बाद में दूसरों की सहायता भी मिलेगी ही।
अपनी स्थिति में इस प्रकार कल्याणकारी परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि नारी अपने आपको शारीरिक, मानसिक और नैतिक दृष्टि से सुयोग्य बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करें। अनुभव तथा विचारों की पूँजी बढ़ाएँ और वह कुशलता विकसित करें, जिसके आधार पर उन्हें अपने महान उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सफलता मिल सकती है। असल में यह कार्य पुरुषों का है कि वे नारी को रसोईदारिन, चौकीदारिन एवं धाय के अलावा अन्य जिम्मेदारियाँ उठाने की क्षमताएँ विकसित करने के लिए समुचित अवसर तथा सहयोग दें। पर यदि वे उतनी उदारता तथा दूरदर्शिता न दिखा सकें तो भी नारी का कर्तव्य है कि वह आत्म विकास के लिए स्वयं आगे बढ़े और जो भी साधन मिल सकें, उन्हीं के सहारे ऊँचे उठने और आगे बढ़ने के लिए जी तोड़ प्रयत्न चालू कर दें। इसके लिए नारी को अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ेगा, लेकिन यह सब जिस उच्च भावना से और उत्साह के साथ किया जाना है उसके कारण इस श्रम से किसी प्रकार की थकान या परेशानी अनुभव नहीं होगी।
आज हर महिला को यह तथ्य भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि हमें अपने बलबूते आत्मोत्कर्ष के लिए अनेकानेक प्रयत्न करने होंगे। पिछड़ी हुई पददलित स्थिति से त्राण पाने में अपनी ही उमंग भरी साहसिकता काम देगी। नारी उठना चाहेगी, तो फिर आज का दबाव कल अपना रूप बदलेगा और उसे शोषण के स्थान पर सहयोग में परिवर्तित होना पड़ेगा।
नव जागरण की दिशा मे नारी को बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है—यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती। यह नारी की दिव्य क्षमताओं की कसौटी है। इस कसौटी पर नारी खरी उतरेगी भी, भले ही उसे इसके लिए दोहरा श्रम करना पड़े। उसे लम्बे समय तक बन्धनों में जकड़े रहने से पैदा हुए अपने पिछड़ेपन से मुक्ति पाकर, अपनी योग्यता और क्षमता को विकसित करना होगा और नए निर्माण की भूमिका बनाने में भी हाथ बँटाना होगा। अपने विकास के लिए स्वयं अपने आप से भी संघर्ष करना होगा तथा मार्ग में रुकावट डालने वाली, परिवार और समाज में फैली रूढ़ियों से भी निपटना पड़ेगा। यह कठिन अवश्य है, लेकिन नारी अवश्य कर लेगी। महाकाल ने उसे जो कार्य सौंपा है उसे अपनी जन्मजात दैवी क्षमताओं के सहारे वह निश्चित रूप से पूरा कर सकती है। विचारशील पुरुष वर्ग का भी पूरा समर्थन एवं सहयोग उसे मिलना चाहिए और वह मिलेगा भी।
आत्म निर्माण एवं परिवार निर्माण साथ-साथ
यहाँ यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि नारी परिवार या समाज के निर्माण में तभी हाथ बँटा सकेगी जब पहले आत्मनिर्माण का कार्य पूरा कर लेगी। ऐसा सोचना भूल है। ये दोनों कार्य एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे को साथ लिए बिना इनमें से कोई भी कार्य अकेला ही पूरा नहीं किया जा सकता। ज्ञान विकास के साथ-साथ नारी के सुधार कार्य भी किसी न किसी रूप में हाथ में लेने ही चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि प्रारम्भ बहुत बड़े स्तर पर किया जाए, छोटा से छोटा किन्तु सुनिश्चित क्रम तो प्रारम्भ कर ही देना चाहिए।
छोटे-मोटे सुधार और प्रचलन अपने ही घरों में अति सरलतापूर्वक प्रारम्भ किए जा सकते हैं। वे देखने में छोटे लगते हुए भी परिवर्तन के शुभारम्भ की भूमिका माने जा सकते हैं और भविष्य के बड़े कार्यों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकते हैं। घरों में लड़के और लड़कियों के बीच बरता जाने वाला भेदभाव तुरन्त समाप्त किया जाना चाहिए। लिंग भेद के कारण किसी को न तो सम्मान मिले, न तिरस्कार। न तो लड़के लड़कियों को छोटी नजर से देखें, न लड़कियाँ अपने को हीन अनुभव करें। ऐसा व्यवहार स्वयं भी करना चाहिए और वैसा ही बरतने के लिए कहना चाहिए। भोजन करना, शिक्षा-दीक्षा, दुलार, सम्मान आदि में किसी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए। लड़के कमाई खिलाते और वंश चलाते हैं, लड़कियाँ पराये घर का कूड़ा, कर्जे की डिग्रियाँ होती हैं ऐसी बुद्धि रखकर बच्चों में भेदभाव करना यह बताता है कि यह लोग अभिभावक कहलाने तक के अधिकारी नहीं। सहज वात्सल्य का इनमें उदय नहीं हुआ है। हमें इस प्रकार के भेदभाव को अपने मनों में से पूरी तरह निकाल ही फेंकना चाहिए। पुत्र जन्म की खुशी और कन्या जन्म पर रंज मनाया जाना मनुष्यता की शान पर बट्टा लगाना है। नर और नारी की असमानता मिटाने का आरम्भ यहीं से होना चाहिए। महिलाएँ बच्चों के बीच बरते जाने वाले इस भेदभाव का अन्त स्वयं करेंगी तो ही पुरुषों को भी उस परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होगी।
पर्दा प्रथा का अन्त हो
पर्दा प्रथा का अन्त होना ही चाहिए। यह कार्य स्त्रियाँ स्वयं करें। सास अपनी पुत्र वधू को बेटी कहकर सम्बोधित करे और बताए कि अन्य बच्चों की तरह वह भी इस परिवार की सदस्य है। बाहर के दुष्ट-दुराचारियों से पर्दा करने की कुछ उपयोगिता भी हो सकती है, परन्तु अपने ही आत्मीयजनों के साथ वीरानेपन का अनुभव करना व्यर्थ है। इसी घर में पैदा हुए लोगों की ही तरह उसे भी घुलमिलकर हँसते-हँसाते वातावरण में रहना चाहिए। बड़ों के सामने सिर ढँकने जैसे सामान्य शिष्टाचार बरतने में हर्ज नहीं, पर उतना बड़ा घूँघट निरर्थक है, जिसके कारण परस्पर वार्तालाप तक पर प्रतिबन्ध लग जाए। नारी नारी पर पर्दे के लिए न तो दबाव डाले और न प्रोत्साहित करें। घर की महिलाएँ आपस में मिलजुलकर इस कुरीति का अन्त करें, यह सम्भव है। विचारशील पुरुषों को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी और इस पिछड़ेपन की निशानी का सहज ही अन्त हो जाएगा।
आभूषणों का मोह कम करें
जेवरों की अनुपयोगिता स्पष्ट है। उनमें व्यर्थ ही पैसा रुकता है। धातुओं में मिलावट टाँका, बट्टा, मीना तथा गढ़ाई, बनाई, टूट-फूट के कारण उनमें लगे धन की कीमत आधी भी नहीं उठती। उतना पैसा बैंक में रखा जाए तो ब्याज के कारण बढ़ता चला जाएगा, जबकि जेवरों में वह निरन्तर घिसता और घटता ही है। चोरी, हत्या, ईर्ष्या, अहंकार, उद्धत प्रदर्शन, प्रतिस्पर्धा जैसी कितनी ही हानियाँ हैं जो जेवरों के कारण आए दिन होती रहती हैं तो उसका बुरा प्रभाव देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ता है। जिन अंगों पर जेवर लदे रहते हैं उनकी त्वचा कड़ी पड़ जाती है, पसीना रुकता है और कुरूपता तथा रुग्णता उत्पन्न होती है। नाक और कान में सूराख करके जेवर पहनना तो किसी असभ्य काल में प्रचलित हुई रूढ़ि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इन सूराखों से इन सुन्दर अंगों का स्वाभाविक सौन्दर्य अकारण नष्ट होता है। नाक के जेवर उसकी भीतरी सफाई में बाधा उत्पन्न करते हैं और अपने में सूखे मैल की दुर्गन्ध जमा कर लेते हैं। साँस के साथ उसके मस्तिष्क और फेफड़ों में पहुँचते रहने से कई तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं। जेवरों का प्रचलन घटाने और हटाने के लिए हमारे मनों में उत्साह उत्पन्न होना चाहिए। उस पूँजी को बचत योजनाओं में लगाने से आर्थिक बर्बादी की समाप्ति होकर आर्थिक प्रगति का नया द्वार खुल सकता है।
फैशन के नाम पर खर्चीला भोंड़ापन आजकल बढ़ता चला जा रहा है। अमीरों, अपव्ययी और शौकीनों की नकल अब गरीब लोग भी करने को मचलते हैं। इससे पैसा और समय तो बर्बाद होता ही है, अवांछनीय सजधज से शृंगारिक अश्लीलता बढ़ती है और चरित्रों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। भड़कीली सजधज मनुष्य के ओछेपन और बचकानेपन की निशानी है। इससे ऊपरी आकर्षण भले ही बढ़ जाए, सम्मान नहीं बढ़ता। सादगी, शालीनता और सज्जनता, हमारी नीति होनी चाहिए। अनावश्यक सजधज के प्रति हर परिवार में अनुत्साह रहना ही अपनी संस्कृति के अनुरूप है। जहाँ भी उद्धत सजधज पनप रही हो वहाँ उसको निरुत्साहित ही किया जाना चाहिए।
घर में धार्मिक वातावरण बनाएँ
परिवार निर्माण के कुछ सूत्रों की संक्षिप्त जानकारी दी जा चुकी है। इससे आगे की बात यह है कि घर में आस्तिकता का, आध्यात्मिकता का और धार्मिकता का वातावरण बनाना चाहिए। नास्तिकता मनुष्य को उच्छृंखल और मर्यादाहीन बना देती है। कर्मफल, परलोक, ईश्वरीय नियंत्रण आदि को स्वीकार न करने के कारण यह मनोवृत्ति अवसर आने पर कुछ भी क्रूर कर्म करने के लिए तैयार हो सकती है। मनुष्य को पशु और पिशाच बनने से रोकने में सच्चे ईश्वर विश्वास से बढ़कर और कोई आत्मानुशासन नहीं हो सकता।
हमारे घरों में पूजा उपासना का वातावरण रहना चाहिए। अच्छा तो यह है कि परिवार के सभी लोग प्रातःकाल नित्यकर्म से निपटकर कुछ समय ईश्वर की गोद में बैठने की भावना के साथ उपासना के लिए शान्तचित्त से एकान्त में बैठें। गायत्री मन्त्र का जप और उगते हुए सूर्य की दिव्य किरणें अपने शरीर, मन और अन्तःकरण में प्रविष्ट होने का ध्यान करें। समय का अभाव हो तो पन्द्रह मिनट भी इसके लिए लगाते रहने से काम चलता रह सकता है।
बच्चों को कहानियाँ सुनने का बहुत शौक होता है। बड़ों को भी इसमें कम रुचि नहीं होती। रात्रि के अवकाश में कोई भी कुशल महिला, कहानियाँ कहने का काम अपने कन्धों पर लेकर घर भर के आकर्षण का केन्द्र बन सकती है। प्रेरणाप्रद कथाएँ तथा जीवनियाँ युग निर्माण योजना द्वारा ढेरों प्रकाशित होती रहती हैं। इन्हें पढ़कर उनका उपयोगी अंश रोचक टिप्पणियों सहित कहा जा सकता है। टिप्पणियाँ इस होशियारी से लगाई जाएँ कि कथा का प्रभाव सुनने वालों के स्तर के अनुरूप बन पड़े और रोचकता का पुट भी बना रहे। दिन में उस साहित्य को पढ़कर काम की कथाएँ छाँटी जाया करें और उन्हें रात को सुना दिया जाए तो यह कथा का भण्डार कभी भी समाप्त न होगा। रोज एक से एक बढ़कर उपयोगी प्रसंग आते रहेंगे। कहना न होगा कि सीधे-सीधे उपदेश देने की जगह कथाओं के सहारे शिक्षा देने की शैली अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। उसमें किसी के अहंकार को चोट भी नहीं लगती और मनोरंजक ढंग से वह प्रकाश भी मिल जाता है जिसकी घर के सभी लोगों को बहुत जरूरत रहा करती है। मनोविज्ञान के अनुसार किसी को सुधारने, बदलने या दिशा-प्रेरणा देने के लिए कहानियों से बढ़कर प्रभावशाली कदम दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए प्रत्येक गृहलक्ष्मी को अपने घरों में कथा पद्धति का प्रचलन करना चाहिए। यह अपनी रुचि एवं सुविधा की बात है कि इसके लिए समय रात्रि का रहे या तीसरे प्रहर का, रामायण, गीता पढ़ी जाए या अपने युग के विचारकों का साहित्य पढ़कर सुनाया जाए। कहानी सुनने के लिए बच्चे तो खुद ही आ जाते हैं-प्रयत्न यह भी होना चाहिए कि अन्य लोग भी उस मनोरंजन का लाभ उठाएँ, प्रकाश ग्रहण करें और स्वयं भी इस कला की जानकारी प्राप्त करें।
परिवार का भावनात्मक निर्माण करने के लिए साप्ताहिक परिवार गोष्ठियों में घर की समस्याओं पर परस्पर विचार-विनिमय करने, बजट बनाने तथा भावी रीति-नीति निश्चित करने का सिलसिला चलाया जा सकता है। समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है और प्रगति के नए चरणों का निर्धारण किया जा सकता है।
नारी को निर्मात्री कहा जाता रहा है। इस कथन की सार्थकता में सन्देह की तनिक भी गुंजायश नहीं है। यदि वह केवल जन्म देने वाली रही होती, तो उसे जननी भर कहा जाता। अपने से सम्बद्ध लोगों के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण कर सकने की क्षमता होने के कारण ही उसे निर्माणकर्ती कहा गया है। छोटे-छोटे कुटुम्ब भी वास्तव में अपने आप में एक समाज, राष्ट्र अथवा वर्ग संगठन हैं। राष्ट्रों की अपनी समस्याएँ और अपनी आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए जैसा कुछ सोचना और करना पड़ता है, छोटे रूप में लगभग वैसा ही परिवार के लिए आवश्यक हो जाता है। परिवार को सुविकसित सुसंस्कृत बनाने के लिए भी वैसी ही योग्यता, समझदारी और सूझबूझ पैदा करनी पड़ती है। परिवार निर्माण की समूची रूप रेखा एक बारगी मस्तिष्क में बिठानी पड़ती है और उसे पूरा करने के लिए अपने आप को एक प्रकार से होम ही देना पड़ता है। समर्पण की देवी नारी ही सब कर सकती है। पति इस समर्पण का प्रतीक भर होता है, वस्तुतः नारी को नव निर्माण तो सारे परिवार का करना पड़ता है।
यह महान उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए नारी को शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वावलम्बन इन तीनों ही मोर्चों में आगे बढ़ना है। उसे व्यक्तिगत जीवन में घुसे हुए आलस्य और अवसाद को छोड़ना होगा और प्रगति के लिए अवकाश एवं साधन प्राप्त करने होंगे। यह देखना होगा कि वर्तमान की अस्त व्यस्तताओं को किस प्रकार कितनी मात्रा में सुधारा जा सकता है। यह क्रम आरम्भ तो कर ही देना चाहिए। अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए और साथ ही परिवार के अन्य लोगों की भी दिनचर्या बनानी चाहिए। नियमितता के बिना वैसा कुछ बन नहीं पड़ेगा जो प्रगति के लिए आवश्यक है। प्रचण्ड उत्साह, प्रबल पुरुषार्थ और प्रखर दृष्टिकोण ही वे हथियार हैं जिसके उपयोग से आत्मोत्कर्ष की सम्भावना फलित हो सकती है।
शिक्षा और स्वावलम्बन की दिशा में नई उमंगें उठनी चाहिए। अध्ययन का शौक उत्पन्न किया जाए। उपयोगी ज्ञान बढ़ाना ही अपनी शिक्षा का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। महिलाओं की प्रौढ़ पाठशालाओं का संगठित प्रयास गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में होना चाहिए। यों घर के शिक्षितों की सहायता से यह क्रम व्यक्तिगत रूप में भी जारी रखा जा सकता है।
लड़कियों को स्कूल भेजने में आनाकानी या उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। विवाह की जल्दी या शादी में खर्च की बात सोचकर लड़कियों की शिक्षा में कंजूसी बरती जाती है। इस उपेक्षा वृत्ति का अन्त होने से ही नारी का स्तर ऊँचा उठेगा और भविष्य उज्ज्वल होगा।
स्वावलम्बी बनें
स्वावलम्बन की दृष्टि से हर घर में गृह उद्योग का प्रचलन आवश्यक है। कपड़ों की धुलाई, सिलाई, मरम्मत इस दिशा में सर्वप्रथम हैं। इस कला की अभ्यस्त हर नारी को होना चाहिए। इससे कौशल भी बढ़ता है और पैसा भी बचता है। टूट-फूट की मरम्मत और शाक-वाटिका जैसे दो उद्योग भी ऐसे हैं, जो प्रत्येक गृहिणी को जानने और चलाने चाहिए। इनके अलावा आस-पास के क्षेत्र में खपत होने योग्य कुछ वस्तुएँ अपनी सुविधा देखते हुए बनाने का प्रयास किया जा सकता है। यों यह काम सहकारी समितियों के माध्यम से अधिक अच्छी तरह हो सकता है। ये कच्चा माल उचित मूल्य पर दें और उत्पादन खरीद कर बाजार में खपाएँ। ऐसे उत्पादन की शिक्षा देने का प्रबन्ध भी हो सके, तो घर-घर में गृह उद्योग चल सकते हैं और बेकारी तथा गरीबी को दूर करने में सहायता मिल सकती है।
रचनात्मक प्रवृत्ति बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम तथा सबके लिए उपयुक्त घरेलू उद्योग—घरेलू शाक वाटिका है। इसका प्रारम्भ फूलों से भी किया जा सकता है। यदि घर के अन्दर अथवा बाहर कच्ची जमीन न हो तो टूटे कनस्तर, फूट घड़े, डिब्बे, रद्दी टोकरे, गमले आदि इसके लिए काम दे सकते हैं। इसमें मिट्टी भरकर आँगन में या छतों पर भी हरियाली उगाई जा सकती है। बेलें छाई हुई हों, फूल खिले हुए हों तो घर बिना किसी अन्य खर्चे के ही बड़ा सुन्दर बनाया जा सकता है।
कुरीतियाँ छोड़ें
निर्माण के साथ साथ अनीति उन्मूलन के मोर्चे पर भी नारी को सक्रिय होना पड़ेगा। कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं और अन्ध विश्वासों ने नारी जाति को असीम क्षति पहुँचाई है, उन्हें एक-एक करके उखाड़ने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। छोटी उम्र में बच्चों का विवाह कर देना बड़ा ही दुर्भाग्य पूर्ण हैं। अठारह से कम आयु की लड़कियों एवं बीस से कम उम्र के लड़कों का विवाह करके उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट कर देने वाली भूल अब बिल्कुल बन्द हो जानी चाहिए। विवाह शादियों में पागलों की तरह की जाने वाली धूमधाम और पैसे की जलाई जाने वाली होली की कोई उपयोगिता नहीं। दहेज का लेन-देन, माँस की खरीद-फरोक्त से भी अधिक घिनौना है। इस कुप्रथा के कारण अपने समाज में गरीबी और बेईमानी का कुचक्र चल रहा है, उससे चरित्र निष्ठा की नींव ही डगमगाने लगी है। दो कुटुम्बों को एक सूत्र में बाँधने के स्थान पर दहेज उन्हें भीतर ही भीतर शत्रुता जैसी स्थिति में ला पटकता है। सुयोग्य लड़कियों को उपयुक्त लड़के नहीं मिल पाते और न जाने कितने घिनौने अनर्थ इस पिशाचिनी दहेज प्रथा के कारण होते हैं। समय आ गया कि इस प्रथा का अन्त कर दिया जाए और नितान्त सादगी के साथ कम खर्च की शादियाँ चल पड़ें।
जाति-पाँति के कारण ऊँच-नीच की मान्यताओं ने भी देश की एक तिहाई जनता को उसी प्रकार पिछड़ेपन के गर्त में धकेला है जिस प्रकार नारी समाज को। मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति वंश के आधार पर किसी को अहंकार करने और किसी की दीनता अनुभव करने की स्थिति को आज सहन नहीं किया जाना चाहिए। इस विषमता का अन्त आज ही किया जाना चाहिए।
वंश और देश के नाम पर लाखों की संख्या में लोग दान-दक्षिणा बटोरने एवं भिक्षा माँगने का व्यवसाय करें, यह सचमुच ही अनर्थ है। इससे मनुष्यता का गौरव गिरता है और कर्महीन लोगों के व्यय भार से निर्धन देश की कमर टूटती है। दान तो केवल शरीर से अपंगों को अथवा समाज की प्रगति के लिए ही दिया जाना चाहिए। हर माँगने वाले को बिना समझे दे देना पुण्य का नहीं, पाप का रास्ता है। मृतक भोज, भूत पलीत, टोना टोटका, ज्योतिष, मुहूर्त जैसे भ्रम जंजालों में समय, धन सन्तुलन गँवाने से लाभ रत्ती भर नहीं, हानि अपार हैं। देवी-देवताओं के नाम पर पशुबलि और नर बलि के जो कुकर्म देखने को मिलते हैं, उन्हें लज्जाजनक मूढ़ मान्यता के अतिरिक्त और कोई नाम नहीं दिया जा सकता।
इस प्रकार न चलने योग्य ढेरों अन्ध परम्पराएँ बहुत करके नारी समाज का सहारा पाकर ही जीवित हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए उसे ही अपना विवेक जागृत करना होगा। साहसपूर्वक इन हानिकारक अवांछनीयताओं से अपना पीछा छुड़ाना होगा।
एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखने की है कि नारी उत्कर्ष जैसा महान अभियान संगठित रूप में ही चल सकता है। इतने बड़े परिवर्तन के लिए अकेले प्रयत्नों से काम नहीं चलेगा। सौ दो सौ परिवार सुधर जाएँ, इसमें कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। परिवर्तन तो व्यापक रूप से ही होना चाहिए। एक क्षेत्र में एक प्रकार से तो दूसरे क्षेत्र में दूसरे ढंग से नारी को पददलित स्थिति में रहना पड़ रहा है। कहाँ, किस प्रकार, क्या सुधार होने चाहिए यह बात दूसरी है। क्या विकसित क्या अविकसित, सभी क्षेत्रों की समस्या भले ही भिन्न हो, पर परिस्थितियाँ घुमा-फिराकर एक ही जैसी हैं। उन्हें बदलने के लिए हवा गरम करनी पड़ेगी और वातावरण बदलना पड़ेगा। इसके लिए संगठित प्रयासों से कम में किसी प्रकार काम नहीं चल सकता।
अपनी महिला शाखाओं के सुगठन, विस्तार और अभिवर्धन में प्रत्येक नारी को सहयोग देना ही चाहिए। सदस्यता की कोई फीस नहीं है। नारी पुनरुत्थान में विश्वास करने वाले और उसमें योगदान देने की इच्छुक हर महिला अपने संगठन की सदस्या बन सकती है। इसके लिए निर्धारित फार्म पर हस्ताक्षर करने होते हैं और सदस्यता का प्रमाण पत्र मिल जाता है। सहयोगी सभ्य तो पुरुष भी बन सकते हैं। शाखा संगठन की सदस्याओं को रविवार के तीसरे प्रहर होने वाले सत्संगों में उपस्थित होना चाहिए। वहाँ जप, हवन, कीर्तन, सहगान, प्रवचन आदि के कार्यक्रम रहते हैं। इसका प्रधान उद्देश्य महिलाओं की संघशक्ति का विकास करना, एक दूसरे के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करना और प्रगति के लिए योजनाबद्ध रीति से सोचना तथा कदम मिलाकर कुछ करने की दिशा में बढ़ चलने का उत्साह उत्पन्न करना है। इन सत्संगों में स्वयं आया करें और अपने सम्पर्क परिचय क्षेत्र की अन्य महिलाओं को भी लाया करें। इस संख्या वृद्धि से ही मिशन का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत होगा और प्रगति की योजनाएँ पूरी होने की सम्भावना बढ़ेगी।
परिवार प्रशिक्षण के लिए अपनी एक विशिष्ट परिपाटी है—संस्कार आयोजनों का पुनर्जीवन। इसके लिए सदस्याओं के जन्म दिन, गर्भवतियों के पुंसवन तथा बच्चों के नामकरण, अन्न प्राशन, मुण्डन और विद्यारम्भ संस्कारों के उत्सवों की प्रक्रिया अपनाई गई है। यह चिर प्राचीन भी है और बिलकुल नवीन भी। चिर प्राचीन इसलिए कि भारतीय संस्कृति के साथ-साथ संस्कारों की पद्धति आवश्यक रूप से जुड़ी हुई है और इसे बहुत सूझबूझ के साथ प्रचलित किया गया है। चिर नवीन इसलिए कि पारिवारिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की जानकारी तथा उसे ठीक तरह निबाहने की व्यावहारिक रीति-नीति इस अवसर पर दिए जाने वाले प्रशिक्षण में बड़ी सुन्दरता से जुड़ी हुई है। संस्कार आयोजनों को बिना खर्च का किन्तु अत्यन्त उत्साहवर्धक बनाया गया है। अपने-अपने घरों पर सभी शाखा सदस्याएँ इन आयोजनों को करती रह सकती हैं।
अपने गली, मुहल्ले या गाँव-नगर के सभी नर-नारियों को इकट्ठा करके सामूहिक रूप से पर्व त्यौहार मनाने के कार्यक्रम बनाने चाहिए। दिवाली, वसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, गायत्री जयन्ती, गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, विजयादशमी आदि त्यौहारों को सार्वजनिक आयोजनों के रूप में मनाया जाना चाहिए। इन पर्वों के पीछे व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के जो सूत्र भरे पड़े हैं उनसे जन साधारण को अवगत कराना चाहिए। समाज के नव निर्माण में इन आयोजनों का क्रान्तिकारी प्रभाव देखा जा सकता है।
अगले दिनों प्रौढ़ महिला पाठशालाएँ भी हर जगह चलाई जानी हैं। उनमें शिक्षा के अतिरिक्त संगीत एवं गृह उद्योग की कक्षाएँ भी रहती हैं। आरम्भ में यह स्थापना माँगे के या किराए के मकान में भी चल सकती है, पर पीछे तो इसके लिए अपनी निज की गतिविधियों को संचालित रखने के लिए अर्थ व्यवस्था का प्रबन्ध भी करना ही होगा। इसके लिए समय-समय पर लोगों से विशेष सहायता भी माँगी जानी चाहिए, किन्तु स्थिर प्रबन्ध के रूप में सदस्याओं को अपने अपने घरों पर ‘ज्ञान घट' स्थापित करने चाहिए जिसमें न्यूनतम २५ पैसा या एक मुट्ठी अनाज प्रतिदिन डालना चाहिए। इस राशि को शाखा का मासिक चन्दा माना जा सकता है और उससे मिशन की अनेकानेक प्रचारात्मक एवं सुधारात्मक गतिविधियों का संचालन हो सकता है।
नारी जागरण की इस पुण्य बेला में प्रत्येक भावनाशील महिला को सक्रिय होना चाहिए। अभीष्ट परिवर्तन का एक पक्ष है संघर्ष, दूसरा है सृजन। हमें इन दिनों ही मोर्चों पर अपने वर्चस्व का परिचय देना चाहिए। इस साहस के सहारे ही नारी को अपने तथा समूची मानवता के उज्ज्वल भविष्य का नव निर्माण सम्भव हो सकेगा।