उपासना कैसे करें?
गायत्री मंत्र हमारे साथ बोलें,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात।
बेटियो, आत्मीय प्रज्ञा परिजनो!
उपासना जीवन की बहुमूल्य निधि है और उस निधि से हम जब हट जाते हैं तो खोखले हो जाते हैं, निर्जीव हो जाते हैं। उपासना आत्मा की भूख है, आत्मा की भूख। जब तक आत्मा को खाना नहीं मिलता, तो तृप्ति नहीं होती किसी की आत्मा की। दिमाग की भूख तो बौद्धिक भूख होती है किन्तु आत्मा की भूख उपासना होती है। उपासना का मतलब—भगवान के पास बैठना, भगवान की समीपता। बड़े व्यक्ति के समीप बैठते हैं तो वही छाया हमारे ऊपर पड़ती है और हमारा भी वही महत्त्व हो जाता है, जो बड़े व्यक्ति का होता है। राष्ट्रपति के पास राष्ट्रपति सा, प्रधानमंत्री के पास प्रधानमंत्री सा, जो उनके पास होते हैं उतना ही सम्मान मिलता है, उससे कम नहीं मिलता। भगवान हमारा उससे भी ऊँची सत्ता का है, भगवान हमारा राष्ट्रपति का राष्ट्रपति है, प्रधानमंत्री का प्रधानमंत्री है। जब हम उससे मिल जाते हैं तो भगवान उसके पास दौड़ता हुआ चला जाता है, मनुष्य से मिल जाता है, वह भगवान का ही स्वरूप हो जाता है, उसमें कोई अन्तर नहीं रहता, जैसे कीट और भृंग। भृंग आवाज देता है—कीट को। कीट दौड़ता चला आता है। नाला गन्दा होता है, पर जब गंगा में मिल जाता है तो वह गंगा का स्वरूप हो जाता है। गंगा जब निकलती है तो उसका दायरा छोटा होता है, छोटा सा मुँह होता है। उसमें से प्रवाहित होती है गंगा की विशालता। जैसे-जैसे गंगा प्रवाहित होती जाती है वैसे ही वैसे फैलती जाती है, बाद में समुद्र में विलीन हो जाती है। कौन गंगा? वह छोटी सी निकली थी, तब कोई अस्तित्व नहीं था, कोई रूप नहीं था। जब वह गंगा विश्व मानव के लिए बहती गई और वह समुद्र में समा गई। भगवान के जहाँ में समा गई, भगवान शंकर ने गंगा को सिर पर धारण किया क्योंकि गंगा प्यारी थी। भगवान को भक्त बहुत प्यारा होता है, प्राणों से भी ज्यादा, बशर्ते जब उसका समर्पित जीवन होता है, समर्पित जीवन नहीं होता तो वह भक्त कैसे हो सकता है? भक्त वह होता है, जैसे एक था सेठ, एक था ब्राह्मण। ब्राह्मण के कुछ रुपए उस सेठ पर बकाया थे। ब्राह्मण ने सेठ से कहा—मेरे रुपए दोगे, मेरी लड़की की शादी है। तो सेठ ने बहाना बना दिया। तो बहुत दुःख हुआ ब्राह्मण को। बात राजा तक पहुँची। राजा ने कहा कि ब्राह्मण कल हमारी सवारी निकलने वाली है, तुम दुकान के सामने मिल जाना। राजा ने जहाँ बताया था, उसी स्थान पर ब्राह्मण मिल गया। जैसे ही सवारी निकल रही थी राजा हाथी से उतरा, उससे बोला, अरे गुरुदेव, गुरुदेव आप आइए, उसने ब्राह्मण को अपने समीप बैठा लिया। उस सेठ ने जब उसको देखा ब्राह्मण को, तो बहुत परेशान हुआ। आगे चलकर जब सवारी बढ़ी तो राजा ने कहा कि बस ब्राह्मण अब आप उतर जाइए। अब तुम्हारे भाग्य का होगा तो मिल जाएगा, मेरी बात अब खत्म हो गई। दूसरे दिन सेठ आया, हजार रुपए उसके, किसके? ब्राह्मण के, हजार रुपए तो दे ही गया और ऊपर से एक हजार और दे दिया सेठ ने। क्यों दिया? क्योंकि ब्राह्मण राजा के समीप था और राजा ने गुरु सम्बोधित किया था। जिस भगवान को हम अपना पिता कहते हैं, वह शक्तिवान है, उसके समीप हम बैठें तो हम सारे विश्व के मालिक हो जाएँगे। भगवान ने शरीर रूप में जन्म दिया है तो उसने न जाने क्या-क्या तमन्नाएँ की होंगी? भगवान के हाथ नहीं हैं, भगवान के पाँव नहीं हैं, भगवान के आँखें नहीं हैं। भगवान ने शरीर दिया है मनुष्य को और कहा है, बेटे! तू इस दुनियाँ के संग्राम में जा! मेरी आँख नहीं तेरी आँखें हैं, मैं कुछ कर नहीं सकता हूँ, तू कर सकता है, शक्ति मैं दूँगा तुझे, तू कर, पर जब ना उम्मीद होता है तो भगवान भी पछताता है, व्यक्ति के हाथ कुछ लगता नहीं।
तो मैं क्या कह रही थी, भगवान के लिए भक्ति की, तो भगवान भक्त को अपने में मिला लेता है, वह भगवान का ही स्वरूप हो जाता है। कब? जब समर्पण हो जाएगा। जैसे पत्नी समर्पण करती है, जिस दिन से आती है, अपने पति का सारा का सारा पिछला जीवन भूलती चली जाती है। कल जो लड़की सूट-बूट पहने फिरती थी, बाल कटाए फिरती थी, कहना नहीं मानती थी दूसरे ही दिन से उसकी काया पलट हो गई। वह कैसे हो गई? वह हो गई उसके समर्पण से, पति के लिए वह समर्पित हो गई तो फिर क्या हो गया? स्वामिनी हो गई पत्नी। डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी हो जाती है। क्या एम. बी. बी. एस. किया है आपने? नहीं एम. बी. बी. एस. नहीं किया, फिर आप डाक्टरनी कैसे हो गई? हम डाक्टर की पत्नी हैं, इसलिए हम डाक्टरनी हो गई, सेठ जी की हैं इसलिए सेठानी हो गई, पण्डितजी की हैं इसलिए पण्डिताइन हो गई। परब्रह्म के हम पुत्र और पुत्रियाँ हैं यदि हम उसे समर्पित हो जाएँ तो हम वही हो जाएँगे जैसे कि अभी बताया। पहले समर्पण किया जाता है, फिर मिलता है, वह तो मिलता ही है।
गुरुजी ने कई बार उदाहरण दिया है कि भगवान ने कहा—माँग, क्या माँगता है? अपने लिए माँग, बच्चों के लिए माँग, अपनी पत्नी के लिए माँग, पर उनने हमेशा ठुकराया। ठुकराना तो हमें नहीं कहना चाहिए, पर हमें कहने दीजिए। गुरुदेव ने कहा—मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे आपकी आज्ञा चाहिए। आपकी आज्ञा ही हमारे लिए सर्वोपरि है। आपने मुझे सब कुछ दिया है, सब आपका है, मैं तो आपके लिए समर्पित हूँ। किन्तु वे बोले—मैं तेरे लिए समर्पित हूँ। मैं बोल नहीं सकता, वाणी है मेरे पास में और आँखें हैं, मुझे चाहिए तेरी अकल, तेरे हाथ, तेरी आँखें जिसके द्वारा समाज में, राष्ट्र में और सारे विश्व में एक हलचल मानव जाति के अन्दर हो, यह तुझसे चाहिए। गुरुदेव बोले—"तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मोर", और मुझे क्या आपत्ति है? सब कुछ आपका ही है, गुरुदेव ने यह कहा और बच्चो! लाखों, करोड़ों गुना अनुदान बरसता रहा, बरसता रहा, अभी भी बरसता है। पत्नी के लिए माँगा होता, तो एक सीमित दायरा होता। सीमित होने पर आज जो विशालता है वह विशालता नहीं होती। मनु जी गंगा नहाने गए तो गंगा में एक मछली मिली, हाथ में रख ली, उसे दुलारने लगे, तो उसने कहा—भगवान मैं इस दायरे में नहीं रहूँगी, मुझे फैलने दीजिए, फैलने दीजिए। उन्होंने कहा—बेटी! तू मुझे बहुत प्यारी लगती है, तू चल मेरे कमण्डल में बैठ जा। उसे कमण्डल में डाल दिया। मछली ने कहा—गुरुदेव मेरा दम घुटता है, मैं इसमें नहीं रह सकती, तो उसे तालाब में डाल दिया। वह उसमें भी बोली मैं यहाँ नहीं रह सकती नहीं रह सकती, तो उन्होंने तालाब से समुद्र में डाल दिया। समुद्र में भी वह विशाल हो गई, भक्त भी इसी तरह से अथाह हो जाता है, वह ऊँचा होता चला जाता है, समुद्र की तरह गहराई होती जाती है, गंगा की तरह निर्मलता, स्वच्छता, पवित्रता, उदारता होती जाती है भक्त के अन्दर। गाय और बछड़े की तरह सम्बन्ध है भक्त और भगवान का। भगवान कहता है—आओ, आओ मेरी बेटियों, मेरे थन में अथाह दूध है, इसे पिओ ताकि बलवान हो जाओ, उपासना रूपी दूध को पिओ, पिओ गाय रम्भाती रह जाती है, बछड़ा चला जाता है, भूखा रह जाता है, आत्मा जीवात्मा, गाय वह हमारा भगवान, भगवान चिल्लाता रहता है। हम हैं निर्जीव आँखों से अन्धे, कानों से बहरे, जीभ से गूंगे और अपंग, जिसे रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। हमारी उपासना के बारे में हमने कहा था, समीपता भगवान की समीपता कैसी हो, जैसी उदाहरण में अभी सुना रही थी। पतंग की डोरी को, एक बार सौंप कर तो देखिए—उस भगवान के हाथ अपनी बागडोर को, फिर देखिए पतंग कहाँ तक जाती है? पतंग का कोई जोर नहीं है, पतंग की कोई शक्ति नहीं है, शक्ति है उस उड़ाने वाले की, उस पतंग की नहीं। शक्ति कठपुतली की नहीं है, शक्ति है उस नचाने वाले की। पर कठपुतली अपने को समर्पण तो करे, किसी के हाथ में सौंपे, फिर देखिए कमाल, क्या नाच नचाता है? कौन? वह जिसके हाथ में डोरी सौंपी गई है, वह नचाता है, कभी राजा बना देता है, कभी रानी बना देता है, कभी क्या बना देता है, कौन बना देता है, जिसके हाथ में डोरी बँधी है जीवन की। अपने को सौंपिए, फिर पाइएगा अनुदान। भगवान संकीर्ण नहीं है, मनुष्य की संकीर्णता नहीं जाती, भगवान का नाम ही उदारता है। वह बरसाता है अपना अनुदान भक्त के ऊपर, वर्षा करने लगता है उनके ऊपर। मीरा ने कहा था कि भगवान से शादी करूँगी, शादी करूँगी, पर कल को मुकर जाए, तलाक दे जाए, तो अब क्या करे, तो उनने कहा—नौकर रखूँगी और नौकर भी दगा दे जाएगा तो फिर क्या करूँगी, तो फिर उसने कहा—अच्छा अब तो मैं खरीद कर लाती हूँ, भगवान को खरीद लिया, भगवान को। क्या खरीदा जा सकता है? हाँ भगवान को खरीदा जा सकता है, यदि भक्त में वह भावनाएँ व निष्ठा बीज हो, तो मैं कहूँगी भगवान को खरीदा जा सकता है। गुरुजी ने अपने गुरुजी को खरीद लिया, वह पायलेट की तरह चलता है, दाएँ और बाएँ चलता है, खरीद लिया न भगवान को। खरीदा जा सकता है, भगवान को? किस तरह से खरीदा जा सकता है? उन्होंने मोल ले लिया, किसने? मीरा ने। मीरा ने और द्रौपदी ने जब आर्तनाद के साथ भगवान को पुकारा तो भगवान दौड़ते हुए चले आए, चले आए और भगवान के पास जितना था देते ही गए और दुःशासन हारता ही गया, हारता ही गया, खींचता ही गया, खींचता ही गया। जिस समय गज और ग्राह की लड़ाई हो रही थी जल के भीतर, तो जब जौ भर सूँड़ उठी जल ऊपर, तब हरि नाम पुकारा, तब उसने हृदय से भगवान को पुकारा और भगवान दौड़े हुए गज के लिए आ गए, उन्होंने सवारी की परवाह नहीं की, गरुड़ को छोड़कर आए, पैदल चलकर आए, मेरे भक्त पर आपत्ति और मैं सिंहासन पर बैठा रहूँ। दौड़ते हुए चले आए गज की सहायता करने। विभीषण और सुग्रीव को भी भगवान की समीपता थी। भगवान सहयोगी, मित्र जब बने तो विभीषण को राज्य मिल गया लंका का। जब रावण ने भगा दिया तो क्या उसके लिए सम्भव था? सम्भव नहीं था, पर भगवान की समीपता थी। भगवान का स्मरण कर रहा था तो भगवान ने कहा कि यही राजा बनेगा और सुग्रीव बन्दर था पर बन्दर की कितनी सहायता की, उसको राजा बना दिया। अर्जुन का रथ भगवान कृष्ण ने हाँका था, बागडोर कृष्ण ने सम्भाली थी अर्जुन की, अर्जुन हिम्मत हार रहा था और भगवान कृष्ण ने कहा—कायर मत बन, अर्जुन नपुंसक मत बन, तू उठ खड़ा हो लड़ाई के लिए, कौरव की लड़ाई, कौरव यानि दुर्गुणों की जो हमारे अन्दर लड़ाई हो रही है कौरव और पाण्डव की उसमें कौन जीतेगा? जीतेगा पाण्डव, लेकिन पाण्डव में हिम्मत तो होनी चाहिए, भक्त को हिम्मत करनी चाहिए, कौरव कौन है हमारे अन्दर? कौरव यानी आलस, प्रमाद बैठा हुआ है, जो आगे नहीं बढ़ने देता। हमारी श्रद्धा आज जाने कहाँ विलीन हो गई है? फिर से उसी श्रद्धा को उबारना है, जैसे प्रह्लाद और ध्रुव ने अपने माँ-बाप को छोड़ दिया था और उस भगवान की गोद को याद किया था जिसने जन्म दिया है। हम पृथ्वी पर आए हैं, वही हमारी गोद है, वही हमारा पिता है, हम उसकी गोद में बैठेंगे, इनकी गोद में बैठने से क्या फायदा? भगवान की गोदी में बैठेंगे, तो आज तक ध्रुव तारा चमकता है, तारे के रूप में ध्रुव का नाम अब तक विद्यमान है और वह रहेगा—लाखों-करोड़ों वर्षों तक। चूँकि वह परब्रह्म भगवान की गोदी में जाकर बैठ गया, उसने साधारण पिता की गोदी को ठुकरा दिया, अपने असली पिता की गोदी में वह बैठा।
कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर ॥
कौन स्मरण करता है, भक्त का? भगवान करता है। भक्त करता है कब? जब वह भगवान का स्वरूप हो जाता है।
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल ॥
जब लाली को देखने गए तो हम भी लाल ही हो गए, क्यों न हो जाएँगे, क्योंकि हम उपासना रूपी उस लालिमा को जो देखने चले हैं? जब हम भगवान की गोदी में बैठ जाएँगे, भगवान से लिपट जाएँगे, तो हम क्यों न वैसे हो जाएँगे। मनुष्य अपनी संकीर्णता छोड़ दे और भगवान की शरण में चला जाए तो फिर वैसे हो जाएँगे, जैसा कि अभी मैंने कबीर के बारे में बताया। नारद और वाल्मीकि का भी यही हुआ था, वाल्मीकि से नारद ने कहा कि पहले एक बार अपने घर पूछ कर तो आ कि आपके इस पाप कर्म में आपके घर वाले भागीदार हैं क्या? तो उसने औरत से पूछा, बेटे से पूछा, माँ से पूछा, सब का उत्तर एक ही था कि हम को पोषण के लिए चाहिए और हमें सम्पत्ति चाहिए। उसने कहा कि मेरे साथ नरक में चलोगे क्या, सजा भुगतोगे क्या? तो उत्तर मिला, हम क्यों भुगतेंगे? आप जाइए, हमें तो चाहिए। आपका कर्तव्य बनता है। वाल्मीकि चले गए और नारद के चरणों में गिर पड़े। बोले—नारद जी! आप सच्चे भगवान के भक्त हैं, दर-दर फिर कर अलख जगाते हैं। मैं नरक का कीड़ा क्या नरक में रह जाऊँगा? तो नारद ने कहा—अब नहीं रहेगा, अब अपने मन की मलीनता को निकाल दिया तूने, अब धुल गया। तू धुल गया, आत्मा तेरी धुल गई, अब तक गर्द में समाई हुई थी। हीरा जब मिट्टी में दब जाता है, पर जब मिट्टी से निकाल देते हैं तो चमक जाता है। उसका वास्तविक रूप आ जाता है, भक्त का स्वरूप तब सामने आ जाता है, जब वह अपना अहंकार मिटा देता है, अहं को गला देता है और भगवान को समर्पित हो जाता है। तो फिर उसका असली रूप सामने आता है।
भेड़ पर ऊन उगी होती है, जितना काटते हैं उतनी ही और देती है। उपासना जितना हम अपने जीवन की मलीनता धोने के लिए करेंगे उतनी हमारी जीवात्मा की सफाई होगी और उतने ही अनुपात से मिलता ही चला जाएगा जैसे भेड़ के ऊपर की ऊन मिलती चली जाती है, उसी प्रकार भगवान का अनुदान भी मिलता ही चला जाता है। मनुष्य भिखारी है ही नहीं, देता है, वह स्वयं ही अधिकारी है, उस दौलत का अधिकारी है, जो भगवान ने हमारे हाथ में सौंपी है, जब भगवान ने सब सौंप दिया हमारे हाथों में हम उसे सँभाल कर रखेंगे तो वह हमारी धरोहर है। हम उसको सुन्दर बनाएँगे, उस बगीचे को उसमें पौधे लगाएँगे, फूल उगाएँगे जिसे भगवान ने हमें सौंपा है। मानव रूपी फुलवारी, मानव जाति को हमें सौंपी है, सेवा के लिए। जिस तरीके से रामकृष्ण परमहंस से एक पादरी ने कहा, कहीं भगवान हैं? क्या वह दिखाओगे? बोले—चलिए में अभी उनसे ही मिलने जा रहा हूँ। चलिए भगवान से मिलने का समय हो गया है, भगवान कहाँ हैं? तुम्हें दिखाई नहीं देता, तुम अभागे हो, अभागे हो, हम भाग्यशाली हैं। हमें हर समय दिखाई देता है, मेरे पाँव में दिखाई देता है, भगवान मेरे रग-रग में समाया हुआ है, भगवान का तेज और ओजस मेरे अन्तःकरण में हर तरीके से झिलमिलाता रहता है, जैसे कि रोशनी, बल्ब, जैसे सूरज और चन्द्रमा। इसी तरह से मेरे हृदय में भगवान की रोशनी चमकती है, चलो भगवान को दिखाकर तुम्हें लाता हूँ और गए, एक कोढ़ी को उन्होंने साफ किया। उसकी मवाद निकाली, मलहम पट्टी की, उसे साफ सुथरा किया, खिलाया, पिलाया उसको, तब स्वयं ने अन्न ग्रहण किया। जब उनने कहा यही है मेरा भगवान, मेरी उपासना। पादरी ने कहा मैं धन्य हो गया, पा लिया आज मैंने भगवान को आपके रूप में, भगवान को पा लिया। अभी तक मैं अहंकार में था।
आप भी अब अहंकार को मिटाइए, सच्ची उपासना कीजिए। हम नहीं जानते कि रामकृष्ण परमहंस ने कितनी उपासना की थी और हनुमान ने कितनी माला जपी थीं लेकिन जब तक रामायण और राम का नाम रहेगा, तब तक हनुमान भी रहेगा—उनके कलेजे से चिपका हुआ, क्योंकि राम का काम किया था हनुमान ने। एक साधारण सा बन्दर होते हुए भी और भाइयों से ज्यादा, बेटों से ज्यादा उसने दर्जा ले लिया, हनुमान ने कैसे ले लिया? अपनी अहंता को मिटाकर उपासना से। सच्चे अर्थों में जो उपासना की जाती है इसी तरीके से की जाती है। आशा है कि उपासना व ध्यान का आप सही रूप समझ गए होंगे और इसी ओर आप कदम बढ़ाएँगे, ऐसी मेरी आशा है। आज की बात में यहीं समाप्त करती हूँ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।