युगसन्धि की वेला व हमारे दायित्व

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाईयो!!

हममें से प्रत्येक परिजन को कुछ मान्यताएँ अपने मन में गहराई तक उतार लेनी चाहिए। एक यह कि जिस समय में हम और आप जीवित रह रहे हैं, वह एक विशेष समय है। यह युग-परिवर्तन की वेला है, इसमें युग बदल रहा है। जिस तरह प्रातःकाल का समय विशेष महत्त्वपूर्ण समय होता है। इसमें हर आदमी सामान्य काम न करके विशेष काम करता है। अध्ययन से लेकर भजन तक के उच्चस्तरीय कार्य इसमें किए जाते हैं, क्योंकि प्रातःकालीन समय अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह समय भी इसी तरह का है। यह संध्याकाल है, इसमें युग बदल रहा है। इस विशेष संध्याकाल को हमें विशेष कर्तव्यों के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। हममें से प्रत्येक साधक को यह मान कर चलना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व विशेष है। हमको भगवान ने किसी विशेष काम के लिए भेजा है। कीड़े-मकोड़े और दूसरे सामान्य तरह के प्राणी पेट भरने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए पैदा होते हैं। मनुष्यों में से भी बहुत नर-पामर और नर-कीटक हैं, जिनके जीवन का कोई लेखा-जोखा नहीं। पेट भरने और औलाद पैदा करने के अलावा दूसरा कोई काम वे न कर सके। लेकिन कुछ विशेष व्यक्तियों के ऊपर भगवान् विश्वास करते हैं और यह मानकर भेजते हैं कि यह हमारे भी कुछ काम आ सकते हैं, केवल अपने ही गोरखधन्धे में नहीं फँसे रहेंगे। युग-निर्माण परिवार के हर व्यक्ति को अपने बारे में ऐसी ही मान्यता बनानी चाहिए कि हमको भगवान ने विशेष काम के लिए भेजा है। यह कोई विशेष समय है और हममें से हर आदमी को यह अनुभव करना चाहिए कि हम कोई विशेष उत्तरदायित्व लेकर के आए हैं। समय को बदलने का उत्तरदायित्व, युग की आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे कन्धों पर है। अगर इन बातों पर आप विश्वास कर सकें तो आपकी प्रगति का दौर खुल सकता है और आप महामानवों के रास्ते पर, जो कि अपने इस युग-निर्माण परिवार का उद्देश्य है, सफलता पूर्वक चल सकता है।

यह विशेष समय वैसा नहीं है, जैसा कि शान्ति के समय का होता है। यह आपत्तिकाल जैसा समय है और आपत्तिकाल में आपातकालीन उत्तरदायित्व होते हैं। हमारे ऊपर सामान्य जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, वरन् युग की भी जिम्मेदारियाँ हैं, यह मानकर हमको चलना चाहिए और साथ ही यह भी मानकर चलना चाहिए कि रीछ-वानर जिस तरीके से विशेष भूमिका निभाने के लिए आए थे। जैसे पाण्डव विशेष भूमिका निभाने के लिए आए थे और ग्वाल-बाल श्रीकृष्ण भगवान के साथ विशेष भूमिका निभाने के लिए आए थे। गाँधी जी के सत्याग्रही उनके साथ विशेष भूमिका निभाने के लिए आए थे। बुद्ध के साथ चीवरधारी भिक्षु कुछ विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए आए थे। आप लोग इस तरह का अनुभव और विश्वास कर सकें कि आप लोग हमारे साथ उसी तरीके से जुड़े हैं और विशेष उत्तरदायित्व महाकाल का सौंपा हुआ पूरा करने के लिए हम लोग आए हैं। अगर यह बात मान सकें तो फिर आपके सामने नए प्रश्न उत्पन्न होंगे और नई समस्याएँ उत्पन्न होंगी और नए आधार, नए कारण उत्पन्न होंगे।

इसके लिए आपको जो पहला कदम बढ़ाना पड़ेगा वह यह कि आपको अपनी परिस्थितियों में हेर-फेर करना पड़ेगा। जिस तरीके से सामान्य मनुष्य जीते हैं, उस तरीके से आप जीने से इनकार कर दें और यह कहें कि हम तो विशेष व्यक्तियों और महामानवों की तरीके से जिएँगे। जब मात्र पेट ही भरना है तो गन्दे तरीके से क्यों, श्रेष्ठ तरीके से क्यों न भरें? पेट भरने के अलावा जो कार्य कर सकते हैं, उसे क्यों न करें? जब यह प्रश्न आपके सामने ज्वलन्त रूप में आ खड़ा होगा, तब यह आवश्यकता आपको अनुभव होगी कि हम अपनी मनःस्थिति में हेर-फेर कर डालें, अपनी मनःस्थिति को बदल डालें और हम लौकिक आकर्षणों की अपेक्षा यह देखें कि इनमें भटकते रहने की अपेक्षा, मृगतृष्णा में भटकते रहने की अपेक्षा भगवान का पल्ला पकड़ लेना ज्यादा लाभदायक है। भगवान का सहयोगी बन जाना ज्यादा लाभदायक है। संसार का इतिहास बताता है कि भगवान का पल्ला पकड़ने वाले, भगवान को अपना सहयोगी बनाने वाले कभी घाटे में न रहे। अगर इस बात पर विश्वास कर सके तो जानना चाहिए कि हमने एक बहुत बड़ा प्रकाश पा लिया। ऊँचा उठने के लिए मनःस्थिति बदलना और सांसारिकता का पल्ला पकड़ने की अपेक्षा भगवान की शरण में जाना आवश्यक है। यही हमारा दूसरा कदम होना चाहिए।

तीसरा कदम आत्मिक उत्थान के लिए हमारा यह होना चाहिए कि हमारी महत्त्वाकाँक्षाएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ बड़प्पन के केन्द्र से हटें और महानता के साथ जुड़ जाएँ। हमारी महत्त्वाकाँक्षाएँ यह नहीं होनी चाहिए कि हम जिन्दगी भर वासना को पूरा करते रहेंगे और अपने बड़प्पन को, अपनी अहंता को, ठाठ-बाट को लोगों के ऊपर रौब गालिब करने के लिए हम तरह-तरह के ताने बाने बुनते रहेंगे। अगर हमारा मन इस बात को मान जाए और अंतःकरण स्वीकार कर ले कि यह बचकानी बातें हैं, छिछोरी बातें हैं, छोटी बातें हैं। अगर हम क्षुद्रता का त्याग कर सकें तो फिर हमारे सामने एक ही बात खड़ी होगी कि अब हमको महानता ग्रहण करनी है। महापुरुषों ने जिस तरीके से आचरण किए थे, उनके चिन्तन करने का जो तरीका था, वही तरीका हमारा होना चाहिए और हमारी गतिविधियाँ उसी तरीके की होनी चाहिए जैसी कि श्रेष्ठ मनुष्यों की रही हैं और रहेंगी। यह विश्वास करने के बाद हमको अपनी क्रिया-पद्धति में, दृष्टिकोण में, मान्यताओं में, इच्छा-आकांक्षाओं में परिवर्तन करने, बदल देने के बाद व्यावहारिक जीवन में भी थोड़े-से कदम उठाने चाहिए।

साधकों के लिए यही मार्ग है कि मन और इन्द्रियों की गुलामी को हम छोड़ दें और इनके स्वामी बनें। अब तक हम असहाय के रूप में, दीन-दुर्बल के रूप में इन्द्रियों के कोड़े सहते रहते हैं और इनके दबाव और इनकी वजह से चाहे जहाँ घूमते हैं। मन हमको चाहे जहाँ घसीट ले जाता है। कभी गड्ढे में ढकेल देता है, कभी कहीं कर देता है। इन्द्रियाँ हमसे जाने क्या-क्या करा लेती हैं? मन न जाने क्या-क्या करने के लिए कहता रहता है। हम असहाय एवं गुलामों के तरीके से इन्हीं का कहना मानते हैं। अब हमको इन परिस्थितियों को बदल देना चाहिए। हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप इनके स्वामी बनें। स्वामी अपनी ललक-लिप्सा को छोड़ दें। इन्द्रियों को नौकरानी के तरीके से इस्तेमाल करें बल्कि मन को नौकर के तरीके से इस्तेमाल करें। मन को हुक्म दें कि आपको हमारा कहना मानना ही पड़ेगा। इन्द्रियों से कहें कि आप हमारी मर्जी के बिना जो भी चाहे नहीं कर सकतीं। हमारी आज्ञा के बिना कैसे करेंगी? इस तरीके से इन्द्रियों के ऊपर हुकूमत अगर हम कर पाएँ तो हम गुलामी के बंधन से मुक्त हो जाएँ। जिसके लिए हम मुक्ति चाहते हैं, भव-बन्धनों से मुक्ति चाहते हैं, असल में यह कोई भव-बन्धनों से मुक्ति नहीं है। हमारे मन और इन्द्रियों की गुलामी का नाम ही भव-बन्धन है। इनसे यदि हम अपने को छुड़ा लेते हैं तो हम स्वभावतः जीवनमुक्त हो जाते हैं और मोक्ष मिल जाता है। अगर इसके लिए हम साहस इकट्ठा कर पाएँ तब।

संसार में रहकर हम अपने कर्तव्य पूरे करें, हँसी-खुशी से रहें, अच्छे तरीके से रहें, लेकिन इनमें इस कदर व्यस्त न हो जाएँ, इस कदर न फँस जाएँ कि हमको अपने जीवन के उद्देश्यों का ध्यान ही नहीं रहे। अगर हम इसमें फँसेंगे तो मरेंगे। मक्खी चासनी के ऊपर दूर बैठकर रस लेती रहती है तब तो ठीक है। इस तरह वह जायका भी लेती रहती है और अपने को सुरक्षित भी रखती है, पर कोई ऐसी मूर्ख मक्खी जैसे कि आप हैं, चासनी के ऊपर बेहिसाब टूट पड़ती है तो शहद खाना तो दूर, चासनी खाना तो दूर, वह अपने पंखों में लपेट लेती है और बेमौत मरती है। आपने उन बंदरों का किस्सा सुना होगा जो अफ्रीका में पाए जाते हैं और जिनके बारे में यह कहा जाता है कि शिकारी लोग उसको मुट्ठी भर चने का लालच दे करके उसकी जान ले लेते हैं। उसे गिब्बन कहते हैं। उसे फँसाने के लिए लोहे के घड़े में चने भर दिए जाते हैं और गिब्बन उन चनों को खाने के लिए आता है, मुट्ठी बाँध लेता है, लेकिन जब मुट्ठी निकालना चाहता है तो वह निकलती नहीं है। जोर लगाता है तो भी नहीं निकलती। इतनी हिम्मत नहीं होती कि मुट्ठी की खाली कर दे और हाथ को खींच ले, लेकिन वह मुट्ठी को छोड़ना नहीं चाहता। इसका परिणाम यह होता है कि हाथ बाहर निकलता नहीं और शिकारी आता है तथा उसको मारकर खत्म कर देता है। उसकी चमड़ी को उधेड़ लेता है। हमारी और आपकी स्थिति ऐसी ही है जैसे अफ्रीका के गिब्बन बन्दरों की। हम लिप्साओं के लिए, लालसाओं के लिए, वासना के लिए, तृष्णा के लिए, अहंकार की पूर्ति के लिए मुट्ठी बन्द करके बन्दरों की तरीके से फँसे रहते हैं और अपनी जीवन-सम्पदा का विनाश कर देते हैं। इससे हमको बाज आना चाहिए और अपने आपको इनसे बचाने की कोशिश करनी चाहिए।

हमको अपनी क्षुद्रता का त्याग करना ही है। जब हम क्षुद्रता का त्याग करते हैं तो कुछ खाते नहीं वरन् कमाते ही कमाते हैं। कार्ल मार्क्स मजदूरों से यही कहते थे— ‘‘मजदूरों एक हो जाओ, तुम्हें गरीबी के अलावा कुछ खोना नहीं है।’’ मैं कहता हूँ कि अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले विद्यार्थियों! तुम्हें अपनी क्षुद्रता के अलावा और कुछ नहीं खोना है, पाना ही पाना है। आध्यात्मिकता के मार्ग पर पाने के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें एक ही चीज हाथ से दी जाती है, जिसका नाम है—क्षुद्रता और संकीर्णता। क्षुद्रता और संकीर्णता को त्यागने में अगर आप को बहुत कष्ट न होता हो तो मेरी प्रार्थना है कि आप इसको छोड़ दें और महानता के रास्ते पर चलें। जीवन में भगवान को अपना हिस्सेदार बना लें। भगवान के साथ अपने को जोड़ लें। अपने को जोड़ लेंगे तो यह रिश्तेदारी, यह मुलाकात आपके बहुत काम आएगी। गंगा ने अपने आपको हिमालय के साथ में जोड़े रखा है। गंगा और हिमालय का तालमेल तथा रिश्ता-नाता ठीक बना रहा और गंगा हमेशा पानी खर्च करती रही, लेकिन उसको पानी की कमी भी कभी नहीं पड़ने पाई। हिमालय के साथ, भगवान के साथ हम अपना रिश्ता जोड़ें तो हमारे लिए जीवन में कभी अभावों का, संकटों का अनुभव न करना पड़ेगा जैसे कि सामान्य लोग पग-पग पर किया करते हैं। गंगा का पानी सुखा नहीं, लेकिन नाले का सूख गया, क्योंकि उसने महान् सत्ता के साथ सम्बन्ध बनाया नहीं। बाढ़ का पानी आया तो सूखा नाला उछलने लगा, जैसे ही पानी सुखा, नाला भी सूख गया। नौ महीने सुखा पड़ा रहा। बरसाती नाला तीन महीने बाद ही सूख गया, लेकिन गंगा युगों से बहती चली आ रही है, कभी सूखने का नाम नहीं लिया। हम भी अगर हिमालय के साथ जुड़ने की हिम्मत कर पाए, तब हमें भी सूखने का कभी मौका नहीं आएगा।

अपने आप को हम अगर भगवान को समर्पित कर सकें तो ही भगवान को पाएँगे। कठपुतली ने अपने आप को बाजीगर के हाथों में सौंप दिया और बाजीगर की सारी कला का लाभ उठाया। हम भगवान की सारी कला का लाभ उठा सकते हैं, शर्त केवल यही है कि हम अपने आपको, अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को और अपनी दुष्प्रवृत्तियों को भगवान के सुपुर्द कर दें। पतंग ने कुछ खोया नहीं, बच्चे के हाथ में अपने को सौंप दिया और बच्चे ने उस पतंग को डोरी के सहारे उड़ाया और पतंग आसमान छूने लगी। अगर पतंग ने इतनी हिम्मत और बहादुरी न दिखाई होती और बच्चे के हाथ में अपना मार्गदर्शन न सौंपा होता तो क्या पतंग उड़ सकती थी? नहीं, जमीन पर ही पड़ी रहती। बाँसुरी ने अपने आप को किसी गायक को सौंपा। गायक के होठों से लगी और गायक के होठों ने वह हवा फूँक मारी जिससे कि चारों ओर मधुर संगीत निनादित होने लगा। हम भगवान के साथ में अपने आप को इसी तरीके से जोड़ें जैसे कि कठपुतली, पतंग और बाँसुरी अपने आपको जोड़ती हैं, न कि इस तरीके से कि पग-पग पर हुकूमत मत चलाएँ भगवान के साथ और अपनी मनोकामना पेश करें। यह भक्ति की निशानी नहीं है। भगवान की आज्ञा पर चलना हमारा काम है। भगवान पर हुकूमत मत करना और भगवान के सामने तरह-तरह की फरमाइशें पेश करना यह तो वेश्यावृत्ति का काम है। हममें से किसी की भी उपासना लौकिक कामनाओं के लिए नहीं, बल्कि भगवान की साझेदारी के लिए, भगवान को स्मरण रखने के लिए, भगवान के आज्ञानुवर्ती होने के लिए और भगवान को अपना समर्पण करने के उद्देश्य से उपासना होनी चाहिए। अगर आप ऐसी उपासना करेंगे तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी उपासना सफल होगी। आपको आन्तरिक संतोष मिलेगा, बल्कि आपके व्यक्तित्व का विकास होगा और व्यक्तित्व के विकास का निश्चित परिणाम यह होता है कि आदमी भौतिक और आत्मिक दोनों तरह की सफलताएँ भरपूर मात्रा में प्राप्त करता है।

मेरा आपसे यह अनुरोध है कि आप हँसती-हँसाती जिन्दगी जिएँ, खिलती-खिलाती जिन्दगी जिएँ, हल्की-फुल्की जिन्दगी जिएँ। अगर हल्की-फुल्की जिन्दगी जिएँगे तो आप जीवन के सारे का सारा आनन्द पाएँगे और अगर आप वासना, तृष्णा, लोभ, लिप्सा में घुसेंगे तो नुकसान उठाएँगे। आप अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जिन्दगी जिएँ और हँसी-खुशी से जिएँ। किसी बात को बहुत महत्त्व न दें। अपने किसी कर्तव्य की उपेक्षा भी न करें, लेकिन उसमें इतने ज्यादा मशगूल भी न हों कि किसी लौकिक काम को ज्यादा महत्त्व देने लगें और अपने मन की शान्ति खो बैठें।

हमें माली की जिन्दगी जीनी चाहिए, मालिक की नहीं। मालिक की जिन्दगी में बहुत भारीपन है और बहुत कष्ट है। माली की जिन्दगी के तरीके से, रखवाली करने वाले चौकीदार की तरीके से हम जिएँ तो पाएँगे कि जो कुछ भी कर लिया वह हमारा कर्तव्य ही काफी था। मालिक को चिन्ता रहती है कि सफलता मिली कि नहीं। उसको इतनी चिन्ता रहती है कि अपने कर्तव्य और फर्ज पूरे किए कि नहीं। हम दुनिया में रहें, काम दुनिया में करें, पर अपना मन भगवान में रखें अर्थात उच्च उद्देश्यों और उच्च आदर्शों के साथ जोड़कर रखें। कमल का पत्ता पानी पर तैरता है, लेकिन डूबता नहीं है। हम दुनिया में डूबें नहीं। हम खिलाड़ी के तरीके से जिएँ। हार-जीत के बारे में बहुत ज्यादा चिन्ता न करें। हम अभिनेता के तरीके से जिएँ और यह देखें कि हमने अपना पार्ट-प्ले ठीक तरीके से किया कि नहीं किया। हमारे लिए इतना ही सन्तोष बहुत है। ठीक है, परिणाम नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं? बहुत-सी बातें परिस्थितियों पर निर्भर रहती हैं। परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं रहीं तो हम क्या कर सकते हैं? हमने अपना कर्तव्य पूरा किया, हमारे लिए इतना बहुत है। इस दृष्टि से अगर आप जिएँगे तो आपकी खुशी को कोई छीन नहीं सकता और आपको इस बात की परवाह नहीं होगी कि जब कभी सफलता मिले, तब आप प्रसन्न हों। चौबीस घण्टे आप खुशी से जीवन जी सकते हैं। जीवन की सार्थकता, सफलता का यही तरीका है।

आप मुनीम के तरीके से जिएँ, मालिक के तरीके से नहीं। आप बन्दीगृह के कैदी से अपने आपकी तुलना करें, जिसका घर कहीं और है। जो जेल में रहता तो है पर याद अपने घर वालों की बनाए रखता है। सैनिक सेना में काम तो करता है, पर अपने घर वालों का भी ध्यान रखता है। हम अपने घर वालों का भी ध्यान रखें। जिस लोक के हम निवासी हैं, जिस लोक में हमको जाना है, उसका भी ध्यान रखें। इस लोक में हम आए हुए हैं, ठीक है, यहाँ के भी कई कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ हैं। चिन्ता में डूब नहीं जाएँ, तो हमारे लिए जीवन की सार्थकता बन सकती है।

साधकों में से कई व्यक्ति हमसे यह पूछते रहते हैं कि हम क्या करें? मैं उनमें से हर एक से कहता हूँ कि यह मत पूछिए, बल्कि यह पूछिए कि क्या बनें? अगर आप कुछ बन जाते हैं तो करने से भी ज्यादा कीमती है वह। फिर जो कुछ भी आप कर रहे होंंगे, वह सब सही हो रहा होगा। आप साँचा बनने की कोशिश करें। अगर आप साँचा बनेंगे तो जो भी गीली मिट्टी आपके सम्पर्क में आएगी, आपके ही तरीके के, आपके ही ढंग के, शक्ल के खिलौने बने हुए चले जाएँगे। आप सूरज बनें तो आप चमकेंगे और चलेंगे। उसका परिणाम क्या होगा? जिन लोगों के लिए आप करना चाहते हैं, वे आपके साथ-साथ चमकेंगे और चलेंगे। सूरज के साथ में नौ ग्रह और बत्तीस उपग्रह हैं। वे सबके सब चमकते हैं और साथ-साथ चलते हैं। हम चलें, हम प्रकाशवान हों, फिर देखेंगे कि जिस जनता के लिए आप चाहते थे कि वह हमारी अनुगामी बने और हमारी नकल करे तो वह ऐसा ही करेगी। आप देखेंगे कि आप चलते हैं तो दूसरे लोग भी चलते हैं। आप स्वयं नहीं चलेंगे और यह अपेक्षा करेंगे कि दूसरे आदमी हमारा कहना मानें तो यह मुश्किल बात है। आप गलें और वृक्ष बनें और वृक्ष बन करके अपने जैसे असंख्य बीज आप अपने भीतर से पैदा कर डालें। हमको बीजों की जरूरत है। आप बीज बनिए, गलिए, वृक्ष बनिए और अपने भीतर से ही फल पैदा करिए और प्रत्येक फल में से ढेरों के ढेरों बीज पैदा कीजिए। आप अपने भीतर से ही बीज क्यों नहीं बनाएँ?

मित्रो! जिन लोगों ने अपने आपको बनाया है, उनको यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि क्या करेंगे? उनकी प्रत्येक क्रिया इस लायक बन गई कि उनकी क्रिया ही सब कुछ करा सकने में समर्थ हो गई। उनका व्यक्तित्व ही इतना आकर्षक रहा कि प्रत्येक सफलता को और प्रत्येक महानता को सम्पन्न करने के लिए काफी था। सिक्खों के गुरु रामदास के शिष्य अर्जुन देव जी बर्तन-थाली साफ करने का काम करते थे। उन्होंने अपने आप को अनुशासन में ढालने का प्रयत्न किया था, पर जब उनके गुरु यह तलाश करने लगे कि कौन-से शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बनाया जाए? सारे विद्वानों की अपेक्षा, नेता और दूसरे गुण वालों की अपेक्षा उन्होंने अर्जुन देव को चुना और यह कहा कि अर्जुन देव ने अपने आपको बनाया है। बाकी आदमी इस कोशिश में लगे रहे कि हम दूसरों से क्या कराएँ और स्वयं क्या करें? जबकि होना यह चाहिए था कि जिस तरीके से अर्जुन देव ने न कुछ किया था और न कराया था, केवल अपने आपको बना लिया था ।। इसलिए उन्हें गुरु ने माना कि यह सबसे अच्छा आदमी है। सप्तऋषियों ने अपने आप को बनाया था। उनके अन्दर तप की सम्पदा थी, फिर जो कोई भी जहाँ कहीं भी रहते चले गए और जो भी काम उन्होंने किए वही महान श्रेणी का उच्चस्तरीय काम कहलाया। अगर उनका व्यक्तित्व घटिया होता तो फिर बात कैसे बनती?

गाँधी जी ने अपने आपको बनाया था तभी हजारों आदमी उनके पीछे चले। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले। हम भी अपने में चुम्बकत्व पैदा करें। खदानों के अन्दर लोहे और अन्य धातुओं के कण जमा हो जाते हैं, उसका कारण यही है कि जहाँ कहीं भी खदान होती है, वहाँ चुम्बकत्व रहता है। चुम्बकत्व छोटी-छोटी चीजों को अपनी ओर खींचता रहता है। हम अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ाएँ, अपना चुम्बकत्व बढ़ाएँ, अपना व्यक्तित्व बढ़ाएँ— यही सबसे बड़ा काम करने के लिए है। समाज की सेवा भी करनी चाहिए, पर मैं यह कहता हूँ कि समाज-सेवा से भी पहले ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस बात को आप समझें कि हमको अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ानी है। कोयले और हीरे में रासायनिक दृष्टि से कोई फर्क नहीं? कोयले का ही परिष्कृत रूप हीरा है। खनिज में से जो धातुएँ निकलती हैं, कच्ची होती हैं, लेकिन जब पकाकर के ठीक कर ली जाती हैं और साफ-सुथरी बना दी जाती हैं तो उन्हीं धातुओं का नाम स्वर्ण, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। उसी का नाम फौलाद हो जाता है। हम अपने आप को फौलाद बनाएँ। अपने आप की सफाई करें। अपने आप को धोएँ। अपने आप को परिष्कृत करें। इतना कर सकना यदि हमारे लिए संभव हो जाए तो समझना चाहिए कि आपका यह सवाल पूरा हो गया कि हम क्या करें? क्या न करें? आप अच्छे बने। समाज-सेवा करने से पहले यह आवश्यक है कि हम समाज-सेवा के लायक हथियार तो अपने आप को बना लें। यह ज्यादा अच्छा है कि हम अपने आप की सफाई करें।

मित्रो! एक और बात कह करके हम अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं। एक हमारा आमन्त्रण अगर आप स्वीकार कर सकें तो बड़ी मजेदार बात होगी। आप हमारी दुकान में शामिल हो जाइए, इसमें बहुत फायदा है। इसमें से हर आदमी को काफी मुनाफे का शेयर मिल सकता है। माँगने से तो हम थोड़ा-सा ही दे पाएँगे। भीख माँगने वालों को कहाँ किसने कितना दिया है? लोग थोड़ा-सा ही दे पाते हैं। आप हमारी दुकान में साझेदार-हिस्सेदार क्यों नहीं बन जाते? अन्धे और पंगे का योग क्यों नहीं बना लेते। हमारे गुरु और हमने साझेदारी की है। शंकराचार्य और मान्धाता ने साझेदारी की थी इस दुकान में। सम्राट अशोक और बुद्ध ने साझेदारी की थी। रामकृष्ण और विवेकानन्द ने साझेदारी की थी। क्या आप ऐसा नहीं कर सकते कि हमारे साथ शामिल हो जाएँ। हम और आप मिल करके एक बड़ा काम करें। उसमें से जो मुनाफा आए उसको बाँट लें। अगर आप इतनी हिम्मत कर सकते हों कि हम प्रामाणिक आदमी हैं और जिसे तरीके से हमने अपना गुरु की दुकान में साझा कर दिया है, आप आएँ और हमारे साथ साझा करने की कोशिश करें। अपनी पूँजी उसमें लगाएँ। समय की पूँजी, बुद्धि की पूँजी हमारी दुकान में शामिल करें और इतना मुनाफा कमाएँ जिससे कि आप निहाल हो जाएँ। हमारी जिन्दगी के मुनाफे का यही तरीका है। हमने अपनी पूँजी को अपने गुरुदेव के साथ में मिला दिया है, उस कम्पनी में शामिल हो गए हैं। हमारे गुरुदेव हमारे भगवान की कम्पनी में शामिल हैं। हम अपने गुरुदेव की कम्पनी में शामिल हैं। आपमें से हर एक का आह्वान करते हैं कि अगर आपकी हिम्मत हो तो आप आएँ और हमारे साथ जुड़ जाएँ। हम जो भी लाभ कमाएँगे —— भौतिक और आध्यात्मिक, उसका इतना हिस्सा आपके हिस्से में मिलेगा कि आप धन्य हो सकते हैं और निहाल हो सकते हैं, उसी तरीके से कि जैसे कि हम धन्य हो गए और निहाल हो गए। यही हमारा साधकों से आग्रह भरा अनुरोध इस बदलती विषम वेला में है। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥