मातृशक्ति के अमृत वचन

सच्ची प्रसन्नता वह पवित्र भगीरथी प्रवाह है, जिसके समीप कुछ देर बैठ लेने भर से नवीन स्फूर्ति रग-रग में भर जाती है, चित्त हलका हो जाता है और कषाय-कड़वाहट से उत्पन्न व्यग्रता भरी गर्मी तथा भार धुल बह जाता है। —माता भगवती देवी शर्मा

आप एक साधन हैं, साध्य जीवन का आनन्द है। जितने अंशों में आप जीवन का आनन्द ले सकते हैं, उतने ही अंशों में जीवन को सार्थक बनाते हैं। आनन्द जीवन का नवनीत है। यह आपको स्वयं ही प्राप्त करना है। जब तक आप अपने विषय में उच्च धारणाएँ बनाकर संसार की कर्मस्थली में प्रविष्ट नहीं होते, तब तक आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। —माता भगवती देवी शर्मा

जीवन में सफलता पाने के लिए आत्म-विश्वास उतना ही जरूरी है, जितना जीने के लिए भोजन। कोई भी सफलता बिना आत्म-विश्वास के मिलना असम्भव है। आत्म-विश्वास वह शक्ति है, जो तूफानों को मोड़ सकती है, संघर्षों से जूझ सकती है और पानी में भी अपना मार्ग खोज लेती है। —माता भगवती देवी शर्मा

संसार में हर काम कठिन है और हर काम सरल भी। सरल वे हैं, जिन्हें खेल की तरह दिलचस्पी के साथ और अपनी क्षमता के विकास का अभ्यास समझकर किया जाता है। कठिन वे हैं, जिन्हें आशंका, उदासी और भार-बेकार की तरह किसी प्रकार पूरा किया जाता है। —माता भगवती देवी शर्मा

अपने से अधिक सुखी मनुष्यों को देखकर मन में ईर्ष्या उत्पन्न मत करो, वरन् अपने से गिरी हुई दशा के कुछ उदाहरणों को सामने रखकर उनकी और अपनी दशा की तुलना करो। तब तुम्हें प्रसन्नता होगी कि ईश्वर ने तुम्हें उनकी अपेक्षा कितनी सुविधाएँ दे रखी हैं। —माता भगवती देवी शर्मा

अपनी रुचि, इच्छा, मान्यता को ही दूसरे पर लादना, अपनी ही बात को—अपने ही स्वार्थ को सदा ध्यान में रखना अनुदारता का चिह्न है। दूसरों के विचारों, तर्कों, स्वार्थों और उनकी परिस्थितियों को समझने के लिए उदारतापूर्वक प्रयत्न किया जाय, तो अनेकों झगड़े सहज ही शान्त हो सकते हैं। —माता भगवती देवी शर्मा

नम्र, दयालु, उपकारी और सहायक बनो। एक भी शब्द ऐसा मत कहो जिससे दूसरों को दुःख पहुँचे। —माता भगवती देवी शर्मा

सुन्दर वही है, जिसका हृदय सुन्दर है। जो आकृति से बहुत सुन्दर है, जिसके शरीर का रंग और चेहरे की बनावट बहुत आकर्षक है, परन्तु जिसके हृदय में दुर्गुण और दोष भरे हैं, वह मनुष्य वास्तव में गन्दा और कुरूप है। —माता भगवती देवी शर्मा

संसार का एक विनम्र सेवक बनने का प्रयत्न करोगे, तो सुखपूर्वक रहोगे। मालिक बनने और हुकूमत चलाने की इच्छा करोगे तो बहुत क्लेश उठाने पड़ेंगे और अन्त में निराश हो उठेंगे। —माता भगवती देवी शर्मा

विपत्तियाँ सब पर आती हैं। राम, कृष्ण, ईसा, मुहम्मद, शिव, दधीचि जैसे महान् आत्माओं को विपत्ति ने नहीं छोड़ा तो हम उससे अछूते नहीं बचे रह सकते। अप्रिय अवस्था को देखकर न तो चीखें, न डरपोकों की तरह किंकर्तव्य-विमूढ़ बनें। यथाशक्य निवारण का उपाय करें और जब तक कष्ट है, तब तक अविचल धैर्य की प्रभु से याचना करें। —माता भगवती देवी शर्मा

संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। —माता भगवती देवी शर्मा

धन और यौवन अस्थिर हैं। छोटे से रोग या हानि से इनका विनाश हो सकता है। इसलिए इनका अहंकार न करके—दुरुपयोग न करके ऐसे कार्यों में लगाना चाहिए, जिससे भावी जीवन में सुख-शान्ति की अभिवृद्धि हो। —माता भगवती देवी शर्मा

चिन्ता और परेशानी की भट्टी में जलते हुए मानव के लिए शान्ति कहाँ? पर मैं कहूँगी कि शान्ति है। शान्ति मस्ती में, खुशमिजाजी में, परिहासपूर्ण स्वभाव में, आनन्दी और उत्साही मुख मुद्रा में है। —माता भगवती देवी शर्मा

प्रशंसा और यश के लिए अधिक उत्सुक न रहिए, क्योंकि यदि आप प्रतिभावान हैं तो आपको बढ़ने से कोई भी आलोचना नहीं रोक सकेगी। दूसरे की आलोचना को आन्तरिक सच्ची प्रेरणा के सम्मुख कोई महत्त्व न दीजिए, वरन् जितनी भी आलोचना हो, उससे दुगुनी इच्छा शक्ति लगाकर कार्य को आगे बढ़ाते चलिए। —माता भगवती देवी शर्मा

असफलता, निराशा, भूल और दुःखों से मन को पराजित न होने दीजिए। ये प्रतिकूलताएँ लोक व्यवहार में अति साधारण बातें हैं, जो प्रत्येक महान् व्यक्ति के जीवन में आई हैं। इनको जीतकर निरन्तर कार्य करते रहकर ही मनुष्य सफलता लाभ कर सके हैं। —माता भगवती देवी शर्मा

अपना बोलना-चालना, लेन-देन, दूसरों से बोलचाल सब कुछ आपके विषय में दूसरों के मस्तिष्क में धारणाएँ निर्मित किया करती हैं। अतः अपने व्यवहार में सावधान रहिए। दूसरों के सामने अपना सबसे आकर्षक पहलू रखिए, जिसे वे देखकर आकर्षित हो सकें। एक बार आकर्षित होने के पश्चात् आपके चरित्र के गुण और योग्यता उसे स्थिर रख सकेंगे। —माता भगवती देवी शर्मा

आप अपना सत्कार्य किए जाइए। दूसरों की अनुमति, प्रेरणा, प्रोत्साहन या बढ़ावा दिलाने की क्यों प्रतीक्षा करते हैं? प्रसन्न और सफल हम तभी हो सकते हैं, जब इन्हें उपेक्षित छोड़कर इनकी आलोचना या उत्साह की परवाह न करते हुए अपनी राह चलते रहें। अपने उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहें। —माता भगवती देवी शर्मा

जीवन से प्यार करो, किन्तु मृत्यु का भय त्याग दो। जब मरने का समय आएगा, चल देंगे। अभी से क्यों उसकी चिन्ता करें। जीवन को यदि प्यार न करोगे, तो उससे हाथ धो बैठोगे, किन्तु जीवन को आवश्यकता से अधिक प्यार करने की भी आवश्यकता नहीं। —माता भगवती देवी शर्मा

हमेशा दूसरों की नेकी और भलाई का ख्याल रखो। किसी की बुराई स्वप्न में भी मत सोचो। किसी को फरेब और जाल में फँसाकर धोखा मत दो। किसी के साथ असभ्यता से पेश मत आओ। हमेशा नेकचलन रहो। —माता भगवती देवी शर्मा

भावना की जड़ जमाने में बड़े सतर्क रहिए। पुनः-पुनः प्रयत्न कीजिए कि अपने बच्चे में दया, कोमलता, मानवता, सच्चाई, प्रेम, सहानुभूति, अनुशासन की भावनाएँ आती रहें। इन्हें बरबस बच्चों के कोमल मन में बसाइए। अच्छे-अच्छे भजन, पवित्र, कर्तव्य की शिक्षा देने वाली कहानियाँ उत्तमोत्तम व्यवहार द्वारा नये राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकता है। —माता भगवती देवी शर्मा

जीवन में उन्नति, समृद्धि व सफलता चाहने वाले व्यक्ति को घमण्ड से दूर रहना चाहिए। मनुष्य के वाँछित लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग में वह बड़ा बाधक तत्त्व है। अहंकार ग्रस्त व्यक्ति का विकास रुक जाता है। उसकी प्रगति की सारी सम्भावनाएँ धूमिल पड़ जाती हैं। —माता भगवती देवी शर्मा

बड़प्पन और महानता केवल सादगी तथा शालीनता अपनाने से ही प्राप्त होती है। यह बात अलग है कि सीधी, सरल और सज्जनता की रीति-नीति अपनाकर तत्काल ही चर्चा का विषय नहीं बना जा सकता। इसमें देर लगती है, परन्तु बड़ा बनने का राजमार्ग यही है। —माता भगवती देवी शर्मा

मनुष्य गलतियों से भरा हुआ | है। सबमें कुछ न कुछ दोष होते हैं। इसलिए दूसरों के दोषों पर ध्यान न देकर उनके गुणों को परखना चाहिए और आपस में मिल-जुलकर एक दूसरे को सुधारने का उद्योग करते हुए प्रेमपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। —माता भगवती देवी शर्मा

• तुमको दूसरा कोई अच्छी सलाह दे, उसको सुनना तुम्हारा कर्तव्य है, परन्तु तुम अपनी आत्मा की सलाह से काम-काज करते रहो। कभी धोखा नहीं खाओगे। —माता भगवती देवी शर्मा

• बदला लेने का विचार छोड़कर क्षमा करना अन्धकार से प्रकाश में आना है और जीते जी नरक की जगह स्वर्ग सुख भोगना है। —माता भगवती देवी शर्मा

विश्वासी बनिए। बिना विश्वास के काम नहीं चलता, किन्तु जिस पर विश्वास करना है उसे बुद्धि, प्रलोभन, दृढ़ता आदि से खूब परख लो। —माता भगवती देवी शर्मा

प्रत्येक वस्तु को अपनाने की और अपने को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की क्षमता रखें। उन्हीं वस्तुओं, गुणों, व्यक्तियों, संस्थाओं तथा पुस्तकों को अपनाना सीखो, जो तुम्हारे योग्य हों। —माता भगवती देवी शर्मा

जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं संयम नहीं कर सकता' वह चरित्र की छोटी-मोटी एक भी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकेगा। संयम ही चरित्र का मुख्य आधार है। —माता भगवती देवी शर्मा

आत्म-नियंत्रण ही स्वर्ग का द्वार है। यह प्रकाश तथा शान्ति की ओर ले जाता है। उसके बिना मनुष्य नर्कवासी है। —माता भगवती देवी शर्मा

विचार, शान्ति, ध्यान और क्षमा के द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त करो। जो मनुष्य तुम्हारी हानि करता हो, उसके ऊपर दया करो और उसे क्षमा कर दो। उलाहने को प्रसाद समझो, उसे आभूषण जानो तथा अमृत तुल्य मानो। भर्त्सना को सह लो। सेवा, दया और ब्रह्म भावना के द्वारा विश्व प्रेम का विकास करो। जब क्रोध पर विजय प्राप्त हो जाएगी तो धृष्टता, अहंकार और द्वेष स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। —माता भगवती देवी शर्मा

सत्संग मानसिक उन्नति का सर्वप्रथम साधन है। सत्संग से ही मनुष्य को भले और बुरे, लाभदायक और हानिकारक, उत्कृष्ट और निकृष्ट की पहिचान होती है इसलिए सत्संग का नियम कभी भंग नहीं करना चाहिए। अमर विद्वान और त्यागी पुरुषों का समागम नित्यप्रति न हो सके तो ऐसे महापुरुष के विचारों को उनके रचे हुए ग्रन्थों में अवलोकन करना चाहिए। —माता भगवती देवी शर्मा

ऐसा मत कहना कि यह संसार बुरा है, दुष्ट है, पापी है, दु:खमय है। ईश्वर की पुण्य कृति जिसके कण-कण में उसने कारीगरी भर दी है, कदापि बुरी नहीं हो सकती। दुनिया दुःखमय है, यह शब्द कहकर उसकी प्रतिष्ठापर हम लांछन लगाते हैं। ईश्वर की पुण्य भूमि में दुःख का एक अणु भी नहीं है। हमारा अज्ञान ही हमारा दुःख है। —माता भगवती देवी शर्मा

हमको परमात्मा ने जो विवेक बुद्धि प्रदान की है, उसका यही उद्देश्य है कि किसी भी पुस्तक, व्यक्ति या परम्परा की हम परीक्षा कर सकें। जो बात बुद्धि, विवेक, व्यवहार एवं औचित्य में खरी उतरे उसे ही ग्रहण करना चाहिए। बुरे व्यक्तियों की भी अच्छाई का आदर करना चाहिए और अच्छों की भी बुराई को छोड़ देना चाहिए। —माता भगवती देवी शर्मा

संसार में आचरण की महिमा सबसे अधिक है। जिस मनुष्य के कहने और करने में अन्तर रहता है, उसकी बात का प्रभाव न तो दूसरों पर पड़ता है और न वह स्वयं कोई स्थायी सफलता प्राप्त कर सकता है। जीवन में यह जानना सबसे आवश्यक बात है कि सबसे प्रमुख क्या है तथा सर्वप्रथम क्या किया जाना चाहिए। —माता भगवती देवी शर्मा