ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन

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भारतीय संस्कृति को विश्व की सबसे पुरानी और सर्वश्रेष्ठ संस्कृति माना जाता है। इसे स्वरूप देने और प्रतिष्ठित करने में ऋषियों की प्रमुख भूमिका रही है।

युगऋषि वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं.श्री आचार्य श्रीराम शर्मा ने शान्तिकुञ्ज को जाग्रत युगतीर्थ के रूप में विकसित, प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने ऋषियों की गौरवपूर्ण परम्परा को पुनर्जीवित-प्रतिष्ठित करने का प्रभावकारी अभियान चलाया है। गायत्रीतीर्थ शान्तिकुञ्ज की तमाम गतिविधियाँ प्राचीन ऋषि परम्परा के नए संस्करण के रूप में चलाई जाती हैं। आश्रम के इस सप्तऋषि क्षेत्र में इसी तथ्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। सात ऋषियों की मूर्तियों के साथ उनकी परम्पराओं का भी उल्लेख किया गया है। जिन सात ऋषियों की प्रतिमाएँ स्थापित हैं, उनके अलावा भी नीचे लिखे अनुसार अनेक ऋषियों की परम्परा के अनुरूप गतिविधियाँ चलाई जाती हैं।

नारद परम्परा—सभी को सत्परामर्श देकर एवं संगीत-कीर्तन द्वारा सत्प्रेरणा देकर लोककल्याण की प्रक्रिया चलाना।
भरद्वाज परम्परा—तीर्थ चेतना का विकास, मनुष्य के अंदर की प्रवृत्तियाँ और आसपास के पर्यावरण को शुद्ध और मंगलकारी बनाना।
जमदग्नि परम्परा—आरण्यकों-आश्रमों में साधना एवं प्रशिक्षण द्वारा समाज को श्रेष्ठ लोकसेवी तथा सभ्य, समर्थ नागरिक प्रदान करना।
पिप्पलाद परम्परा—आहार कल्प द्वारा समग्र स्वास्थ्य तथा आंतरिक शक्तियों का संवर्धन-सुनियोजन।
कणाद परम्परा—पदार्थ विज्ञान और विचार विज्ञान के शोध अनुसंधानों द्वारा मानव को महामानव बनाने का पथ प्रशस्त करना।
सूत-शौनक परम्परा—कथा-वार्ताओं, प्रज्ञा आयोजनों के द्वारा मनुष्य की जिज्ञासाओं के समाधान, उनमें सत्प्रेरणा जगाते रहने का क्रम।
पतंजलि परम्परा—योग विज्ञान के प्रकाश में मनुष्य के शारीरिक-मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य संवर्धन के प्रयोग।
बुद्ध परम्परा—जन-जन को भ्रमों, मूढ़ मान्यताओं से उबार कर धर्मचक्र प्रवर्तन के सार्थक प्रयोग।
शंकराचार्य परम्परा—सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए भ्रमण, आध्यात्मिक ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना और संचालन व्यवस्था।

भागीरथ—
(पाप-ताप से पीड़ित मनुष्यों के पाप-ताप शमन हेतु सुरसरि गंगा का अवतरण और उसके प्रवाह का विस्तार)

तबः अपनी शक्ति के मद में अनीति पर उतारू सगर पुत्र ऋषिशापदग्ध-पीड़ित हुए। उस संकट के निवारण के लिए भगीरथ ने प्रचंड तप किया। माँ गंगा और शिवजी को प्रसन्न किया। गंगा को धरती पर प्रवाहित कर पाप-तापों का शमन किया।

अबः भौतिक विज्ञान के मद में अनास्थावान हुए मनुष्य पाप-ताप से संताप पाने लगे। युगऋषि ने प्रचंड तप साधना करके ज्ञान की उत्कृष्ट धारा, ऋतंभरा प्रज्ञा का अवतरण किया। प्रज्ञा अभियान चलाकर आस्था संकट का निवारण किया। जनजीवन में पुनः बाहरी खुशहाली के साथ आंतरिक शान्ति-संतोष के संचार-विस्तार की व्यवस्था बनाई।

चरक—
(वनौषधियों के विज्ञान पर शोध। जड़ी-बूटियों की पहचान और उपयोग को सर्वसुलभ बनाकर जन स्वास्थ्य आन्दोलन को गति दी)

तबः वनौषधियों के साथ चेतना स्तरीय संपर्क स्थापित कर उनके विविध गुणों का अन्वेषण किया। उनके सदुपयोग से दैहिक, दैविक तथा भौतिक तापों के निवारण तथा कायिक, मानसिक, आत्मिक स्वास्थ्य संवर्धन के विविध विधि-विधान का विकास।

अबः उपेक्षित-विस्मृत वनौषधि विज्ञान का पुर्नजागरण प्रमाणित जड़ी-बूटियों की खोज, पहचान तथा संवर्धन के सफल, प्रभावी प्रयोग किए गए। एकौषधि उपचार प्रणाली को विकसित कर जन-जन के लिए रोग चिकित्सा एवं स्वास्थ्य संवर्धन की सुगम प्रक्रिया विकसित-प्रसारित की गई।

परशुराम ऋषि—
(सद्विचारों के प्रहार से दुर्विविचारों का उच्छेदन एवं सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन व दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का प्रखर अभियान)

तबः तपोबल एवं शौर्य के संतुलित प्रयोग से समाज को पीड़ित करने वाले आततायियों, दुष्टों, अहंकारियों का उच्छेदन किया। सज्जनों को सम्मान और अधिकार प्रदान करके समाज में शान्ति-सुव्यवस्था बनाई। जीवन के उत्तरार्ध में सत्प्रवृत्तियों और हरीतिमा के संवर्धन के उल्लेखनीय प्रयास किए।

अबः युगऋषि ने तपोबल द्वारा विचार क्रान्ति और नैतिक क्रान्ति के अभियान को गतिशील एवं प्रभावी बनाया। भ्रान्त मान्यताओं के उच्छेदन तथा श्रेष्ठ आदर्शों के उन्नयन का सफल-प्रभावी आन्दोलन चलाया। जीवन के उत्तरार्ध में हरीतिमा संवर्धन के साथ जनजीवन को हराभरा-सुरम्य बनाने वाले सृजनातमक आन्दोलनों को गति दी। सूक्ष्मीकरण साधना द्वारा विश्व की प्रतिभाओं को लोकमंगल के लिए कार्य करने के लिए बाध्य किया।

वाल्मीकि महर्षि—

तबः वाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि राम के जीवन के माध्यम से जो उनके सत्यनिष्ठ, पिता प्रेम और उनका कर्तव्य पालन और अपने माता तथा भाई-बंधुओं के प्रति प्रेम-वात्सल्य से रूबरू करवा कर सत्य और न्याय-धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

अबः मानव में श्रेष्ठ संवेदनाएँ जगाना। इस हेतु संस्कार शालाओं और प्रेरक काव्य रचनाओं का सृजन एवं सदुपयोग।

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ—
(धर्मतंत्र को प्रामाणिक एवं प्रभावी बनाकर राजतंत्र और अर्थतंत्र को मार्गदर्शन का विशिष्ट प्रयोग)

तबः उच्च स्तरीय साधना के आधार पर 'ब्रह्मर्षि वशिष्ठ' कहलाए। युगों का क्रम बदलने की सामर्थ्य से संपन्न | धर्मतंत्र को प्रामाणिक और प्रभावी बनाकर, उस अनुशासन में राजतंत्र और समाज तंत्र को कल्याणकारी दिशा दी, 'रामराज्य' का अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया।

अबः उच्च स्तरीय तप साधना के नाते 'तपोनिष्ठ-युगवशिष्ठ' कहलाए। युग परिवर्तन की ईश्वरीय योजना को साकार किया। धर्मतंत्र को प्रामाणिक और प्रभावी बनाकर उस अनुशासन में समाज के सभी वर्गों को लाकर, विश्वराष्ट्र, विश्वभाषा, विश्वधर्म, विश्वसंस्कृति की सुनिश्चित संभावना का पुष्ट आधार देने का अभियान चलाया।

विश्वामित्र—
(गायत्री महाविद्या का साक्षात्कार। उसके प्रभाव से इसी जीवन में नये जन्म जैसे लाभ प्राप्त करना और इस विद्या को जनसुलभ बनाना)

तबः गायत्री महामंत्र के द्रष्टा | गायत्री विद्या के अद्भुत प्रयोग से क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी ब्रह्मर्षि पद पाया। गायत्री की बला-अतिबला शक्तियों को जाग्रत् कर नई सृष्टि करने की क्षमता पाई, उसे अनीति निवारण और लोकमंगल में लगाया।

अबः लुप्तप्रायः गायत्री विद्या को पुनः जाग्रत् एवं जनजीवन में प्रतिष्ठित किया। देश और विश्व में बिना भेदभाव के सभी वर्गों को जीवन में द्विजत्व के संस्कार जगाने का पथ प्रशस्त किया। समाज के सभी वर्गों में युग पुरोहितों विकसित किए। नवसृजन की ईश्वरीय योजना-युग निर्माण योजना को साकार करने का प्रभावी सफल अभियान चलाया।

व्यास—
(लोकोत्कर्ष के लिए सनातन ज्ञान के स्त्रोत आर्षग्रंथों का संकलन-सम्पादन। युगानुरूप नए सत्साहित्य का सृजन-विस्तार)

तबः ज्ञान की सनातन धारा जन-जन तक पहुँचाने के लिए आर्ष ग्रंथों, वेद आदि का संपादन किया। युग प्रबोधन के लिए 'महाभारत' तथा 'श्रीमद् भागवत' जैसे अमर ग्रंथों की रचना की।

अबः आर्ष ग्रंथों-चार वेद, 108 उपनिषद् आदि के साथ छ दर्शन, योग वशिष्ठ आदि का सरल भाष्य और प्रकाशन करके उन्हें जनसुलभ बनाया। युग की आवश्यकता के अनुसार गायत्री महाविज्ञान, प्रज्ञा पुराण 'प्रज्ञोपनिषद' की रचना की। जीवनक्रम में उभरने वाले दोषों-क्लेशों से बचाव और सुअवसरों के सदुपयोग की प्रेरणा एवं शक्ति संचार करने वाली हजारों पुस्तकों के लेखन-प्रकाशन-प्रसारण का तंत्र बनाया।

याज्ञवल्क्य—
(यज्ञीय प्रेरणाओं एवं दिव्य ऊर्जा का अभिनव प्रयोग, जीवन को यज्ञीय अनुशासन में ढालने का एवं जीवन जीने की कला का अभ्यास एवं प्रशिक्षण)

तबः यज्ञीय ज्ञान-विज्ञान पर शोधकार्य और उस विद्या का प्रसार। उसके सम्यक प्रयोगों से स्थूल एवं सूक्ष्म पर्यावरण के शोधन-पोषण के क्रम चलाना। मानव जीवन को यज्ञीय अनुशासन से लाभान्वित करना।

अबः काल प्रभाव से, लुप्त-उपेक्षित यज्ञीय परम्परा का पुनर्जागरण किया गया। यज्ञीय प्रक्रिया को जन सुलभ बनाकर घर-घर पहुँचाया गया। यज्ञाग्नि की प्रेरणाओं और उसके वैज्ञानिक प्रभाव को शोध-अनुसंधानों के द्वारा सिद्ध करके जीवन को यज्ञमय बनाने का आन्दोलन चलाया। यज्ञ से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक व्याधियों के निवारण हेतु यज्ञोपचार पद्धति (यज्ञोपैथी) का विकास-विस्तार।