करोड़ों का परिवार—समर्पण है आधार

परमवन्दनीया माताजी की अमृतवाणी

महापुरुषों के जीवन जीने की रीति-नीति सदा ही विशिष्ट होती है एवं अनेकों के लिए प्रेरणापुंज का कार्य भी करती है। अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में परमवंदनीया माताजी, पूज्य गुरुदेव के साथ उनके संबंध को आधार बनाते हुए इसी ओर इशारा करती हुई दिखाई पड़ती हैं। वे कहती हैं कि परमपूज्य के रूप में जब एक अवतारी चेतना उनके जीवन में आई तो उन्होंने उनके जीवन-उद्देश्य के प्रति स्वयं को भी वैसे ही समर्पित किया, जैसे भामती ने कय्यट को और शरद चंद्र बोस की पत्नी ने उनके प्रति स्वयं को समर्पित किया। परमवंदनीया माताजी कहती हैं कि इस समर्पण का परिणाम यह निकला कि गायत्री परिवार के रूप में एक ऐसा समूह उनको प्राप्त हुआ, जो एक बड़े उद्देश्य के लिए सदा संकल्पित नजर आता है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को........

त्रिभुवननाथ को हमने पाया (गीत)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

करोड़ों का परिवार—समर्पण है आधार

बेटियो! हमारे प्रज्ञा परिजनो! सामान्य गृहस्थ के रूप में जब आचार्य जी हमारे जीवन में आए, तो हमने देखा, समझा और ग्रहण किया कि यह कोई ऊँची आत्मा हैं—यह हमसे भी यही अपेक्षा करते हैं कि हमको भी इसी तरीके से जिंदगी जीनी चाहिए, जैसी कि उनकी स्वयं की है। न मालूम क्यों? यह हमारे जन्मजात संस्कार ही कहना चाहिए कि मूल प्रवृत्ति जो थी, वह संत जैसा जीवन जीने की, ऋषि जैसी जिंदगी जीने की अपनी कल्पना थी।

पहले जब तक वे हमारी जिंदगी में नहीं आए थे, उससे पूर्व हमारी एक कल्पना थी कि जहाँ कहीं भगवान ले जाए, तो वहाँ ले जाए, जहाँ हमारी आत्मा को शान्ति मिले और संतोष मिले। हमें धन नहीं चाहिए। हमको वैभव नहीं चाहिए। हमको शान्ति और संतोष चाहिए और हमको चाहिए वह सेवा, जिसमें कि हमको आत्मसंतोष और शान्ति प्राप्त हो। हमने उस ऋषि की, उस संत की, उस भगवान की चरणरज को माथे पर लगा करके यह पाया कि उनके सान्निध्य में रह करके हमको सब कुछ प्राप्त हो सकता है और प्राप्त हो गया। हमने उनको पा लिया, तो तीनों लोकों का राज्य पा लिया। कहते हैं कि भगवान त्रिभुवन का स्वामी है। हमने अपने मन में समझ लिया कि त्रिभुवन के स्वामी को हमने पा लिया और हमें सब कुछ मिल गया।

हमको एक ऋषि मिले, भगवान मिले

हमको एक ऐसा ऋषि मिल गया, संत मिल गया और भगवान मिल गया। वह सबके लिए है कि नहीं है, हमको नहीं मालूम, पर हमारे लिए जरूर है और जो कुछ भी आपको दिखाई पड़ता है, वह उन्हीं की देन है। जो कुछ भी योग्यता दिखाई पड़ती है, कोई तप का अंश दिखाई पड़ता है, विश्वास की मनोभूमि जो कुछ भी दिखाई पड़ती है, वह उन्हीं की देन है और इसमें अपना यह संकल्प रहा कि हम हर परिस्थिति में साथ देंगे और हमको देना चाहिए था और दिया भी। हमने भावनाओं से दिया। हमारे ऊपर कभी लादा नहीं गया। उन्होंने जप किया, ध्यान किया, सामाजिक सेवा की अथवा लेखन-साधना की, जो भी किया; लेकिन हम पर कभी लादा नहीं गया।

बेटे! हमने वह भावनाएँ रखीं, अपने अंदर वह सामर्थ्य जुटाई कि एक और एक होकर के ग्यारह बन गए। नहीं साहब! एक और एक मिल करके दो होते हैं। हाँ होते हैं, लेकिन एक और एक मिलाकर बराबर रख दिए जाएँ, तो एक-एक ग्यारह होते हैं। हम एक और एक ग्यारह बनकर रहे और अपनी सामान्य गृहस्थी चलाते रहे। देखने में वह सामान्य थी; लेकिन हमारी अंतरंग में जो भूमिका थी, वह असामान्य थी। हमारी दोनों की जो अंतरंग भूमिका थी, वह असामान्य मनोभूमि थी और हमने उसी तरीके से जीवन जिया, जिस तरीके से भामती और कय्यट ने। कय्यट ग्रंथ लिखते और भामती रस्सी बँट करके अपने जीविकोपार्जन का प्रबंध करती थीं।

वो गंगा, हम लहर

हमने जीविकोपार्जन तो नहीं किया, लेकिन हमने उसी तरीके से अपनी गृहस्थी को सँजोया, परिवार को सँजोया और जो सामाजिक उत्तरदायित्व थे, वह भी हमने सँजोये। हमारी मनोभूमि बिलकुल हूबहू वही थी, जैसी कि शरद चंद्र बोस की और उनकी पत्नी की थी। शरद चंद्र बोस के पास इतना पैसा नहीं था, कि वे रोज नाव से जा सकें और उनको जाना जरूरी था; लेकिन विमला उनकी पत्नी थीं और उन्होंने वह सामर्थ्य और वह हिम्मत जुटाई और कहा कि हम एक और एक ग्यारह हैं। यह अनुभव नहीं हो सकता कि हमारे पास पैसे नहीं हैं। हमारी भुजाएँ हैं, हमारी ताकत है और हमारी कुब्बत है। उस कुब्बत के सहारे हम आगे की मंजिल को पार कर सकते हैं।

चलिए हम नाव को खेएँगे; क्योंकि हमको नाव खेना आता है। चलिए हम पतवार बनते हैं और आप जिंदगी की नाव को आगे ले चलेंगे और इस नाव को धकेलेंगे। मैं शरद चंद्र बोस का आपको उदाहरण दे रही थी कि शरद चंद्र बोस के लिए उनकी पत्नी ने मल्लाह का काम किया और नाव किनारे पर ले गई; लेकिन मैं तो यह कह रही हूँ कि वह सामर्थ्य और वह हिम्मत हमने जुटाई कि आइए हम और आप साथ-साथ चलते हैं। आप नाव हैं और हम नाविक हैं, अथवा आप नाविक हैं और हम नाव हैं। आप गंगा हैं और हम लहर हैं। आप नदी हैं और हम किनारा हैं। आइए, हम दोनों मिल करके इस नाव को किनारे पर लगाएँगे और हमने शपथपूर्वक यह संकल्प लेकर के अपनी जिंदगी आरंभ की और आरंभ से लेकर अब हमारा अंत होने को आ रहा है, दिनों−दिन हमारी श्रद्धा और हमारी निष्ठा एकदूसरे के लिए बढ़ती गई।

बेटे! आज इन उदाहरणों की आवश्यकता आपको सुनाने की क्यों पड़ गई? इसलिए पड़ गई कि परिजन कुछ हमारे व्यक्तिगत जीवन से सीखना चाहते हैं, कुछ समझना चाहते हैं। समझना चाहते हैं तो क्यों न मैं अपने बच्चों से जीवन के वह अंश कहूँ, जिन्हें उन्होंने जाना नहीं है। सबको कहना तो आवश्यक नहीं है। लेकिन जिनसे जो शिक्षा मिल सकती है, उसे बच्चों से मैं क्यों न कहूँ? अपने बच्चों से अपने दिल की बात क्यों न कहूँ? कहना चाहिए। हमने जो जीवन जिया, हमने उनके जीवन से जो सीखा और हमने जो पाया, वह इतना पाया है कि हम हजारों जन्म नहीं, लाखों जन्म नहीं; बल्कि करोड़ों जन्म हमको लेने पड़ें, तब भी उसकी पूर्ति नहीं हो सकती। हमने जिंदगी में इतना अधिक पाया है। निकट रह करके हमने समझा है।

आपके लिए वे सामान्य हो सकते हैं, लेकिन वस्तुतः वे सामान्य नहीं हैं। वे असामान्य हैं। दिखने में उनकी गतिविधियाँ सब सामान्य होती हैं, लेकिन वे असामान्य जैसी हैं। गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ, तो उन्होंने अपनी सारी-की-सारी जमींदारी का बॉण्ड गायत्री तपोभूमि में लगा दिया। हमारे पास जेवर था। हमने कहा—इस जेवर का हमें क्या करना? हमको रोटी खानी है। कपड़ा पहनना है। इसके लिए कोई घाटा नहीं है। भगवान ने हाथ-पाँव दिए हैं और भगवान ने आप जैसा पति दिया है, तो फिर हमें और किस चीज की जरूरत है। हमें जरूरत नहीं। हमें तो हरिश्चंद्र और तारामती के तरीके से रहना है। हमने सारा का-सारा जेवर गायत्री तपोभूमि को दे दिया।

सबने मना किया, रिश्तेदारों ने मना किया। हमने कहा—नहीं, जिस चीज की हमें आवश्यकता नहीं, जो हमारे गुणों की खुराक नहीं है। हमारे स्वभाव की नहीं है, तो हम उसे लेकर के क्या करेंगे। हम चोरों को निमंत्रण देंगे, डकैतों को निमंत्रण देंगे कि आइए हमारे पास जेवर हैं, ले जाइए। क्यों न इसे उस कार्य में खरच किया जाना चाहिए, जिसके लिए वे तिल-तिलकर अपने को समर्पित करते जा रहे हैं। सारा-का-सारा पैसा उन्होंने बॉण्ड का उसमें लगा दिया। हम भी उसी गति से चले। अपना जीवन मितव्ययिता से जिया।

कोई भूखा न लौटा

हमारे यहाँ से कभी भी कोई भूखा नहीं गया। जब तक गायत्री तपोभूमि नहीं बनी थी, उससे पहले भी जो लोग आते थे और बाद में भी आए। उनके ठहरने का प्रबंध वहाँ होता रहा। पहले घर में ही होता था, चाहे वह कितनी रात गए क्यों न आते थे। तो चाहे हमारे घर में उस समय कोई और चीज नहीं होती थी, सब्जी नहीं होती थी, दही नहीं होता था, जिससे हम अतिथि का सत्कार करें, पर इतना जरूर होता था कि हम उसको खिचड़ी बना करके खिला सकते थे। उस खिचड़ी में कितने आनंद की अनुभूति होती थी, अभी तक जिन परिजनों ने हमारे हाथ का बना भोजन कभी किया होगा, वे अब भी यह कह देते हैं कि हमने माताजी के हाथ का बना खाना खाया है। इतना प्यार और दुलार हमें कहीं नहीं मिला।

बेटे! वस्तु तो मिल जाती है, पर वह संस्कार और भावनाएँ नहीं मिलती। यह हमने कहाँ से सीखा? हमने उनके व्यक्तिगत जीवन से सीखा और साधना के क्षेत्र में आगे बढ़े। हमने आगे ही कदम बढ़ाया। हमने कहा कि हम भी ऐसा ही जीवन जिएँगे। आपका जैसा जीवन है, हूबहू हम भी कोशिश करेंगे कि हम भी इसमें ढल जाएँ और इसमें समर्थ हो गए। समर्थ क्यों हो गए? क्योंकि इसमें हमारी भावनाएँ थीं। इसमें हमारी आस्था थी और हमको चाह थी कि हम लोक-मंगल के लिए कोई कड़ी बन जाएँ और हम भी इसमें कोई ईंट और गारे का काम करें।

हमने पाया कि हमको एक ऐसा साथी, ऐसा मार्गदर्शक मिल गया कि इसके सहारे चला जा सकता है और लंबी मंजिल पार की जा सकती है। जैसी भी परिस्थिति थी, हम घर का खरच मितव्ययिता से चलाते रहे, थोड़े में चलाते रहे। दो सौ रुपये में घर का खरच चलाते रहे। इसका मतलब यह नहीं था, कि हमारे पास पैसा नहीं था। था हमारे पास, लेकिन हमने अपने लिए नहीं खरच किया। वह दूसरों के लिए है। हमें खाते हुए बच्चे अच्छे लगते हैं। हमें स्वयं खाना हराम लगता है। हमारे मुँह में नहीं घुसता। हमारी जीवात्मा धिक्कारती है।

यह हमारा परिवार है। अपना व्यक्तिगत? नहीं, व्यक्तिगत कहाँ रहा। हम व्यक्तिगत कहाँ रहे। हम तो अब सारे समाज के हैं और सारे राष्ट्र के हैं और सारे विश्व के हैं। हमारा गायत्री परिवार, यह हमारा कुटुंब है और अखण्ड ज्योति परिवार हमारा कुटुंब है। युग निर्माण परिवार हमारा कुटुंब है। गायत्री तपोभूमि हमारा परिवार है। शान्तिकुञ्ज हमारा परिवार है। ब्रह्मवर्चस हमारा परिवार है। लाखों और करोड़ों की संख्या में जो हमारे परिजन हैं, वे हमारे परिवार हैं। उन परिवारों को जब उतना मुहैया नहीं है, तो अकेले खा करके हमारा क्या बनेगा?

हमने 200 रुपये महीने में खरच चलाया। बाकी जो बचा, वह सब समाज के लिए गया। चाहे उसका नाम रिश्तेदार हो, चाहे उसका नाम कोई भी क्यों न हो, किसी भी वर्ग का क्यों न हो, किसी भी जाति का क्यों न हो। उसमें न कोई जाति का ध्यान रखा गया कि यह समीपवर्ती है कि यह हटकर है। यह ब्राह्मण है कि और है। नहीं जो हमारे पास हैं, वे हमारे हैं। वे हमारे कुटुंब हैं। वे हमारे बच्चे हैं। अरे! जाति क्या होती है? जाति कुछ नहीं होती। संत और ऋषि के यहाँ जाति नहीं होती। गुण, कर्म, स्वभाव की समरूपता ही परिवार होता है। परिवार में जैसा कि मैंने कल कहा था कि परिवार में कौन-कौन होते हैं? परिवार में अच्छे लोग भी होते हैं और बुरे भी होते हैं, पर जौहरी जो होता है, वह उसकी चमक देखता है।

बच्चों में पिता देखता है कि ये मेरे बालक हैं। संस्कारी हैं तो क्या और कुसंस्कारी हैं तो क्या? कुसंस्कारी हैं तो इनके संस्कार बनाएँगे। इनको फोकट की और हराम की कमाई से जीवनयापन करने वाला व्यक्ति नहीं; वरन श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाला श्रेष्ठ संस्कार इनको देंगे। वही हमने अपने बच्चों से लेकर के, परिजनों से लेकर वही हमारी निधि थी, वही हमारी धरोहर थी। वही हमने सिखाया है और वही हम अमल में लाए हैं और वही हम बच्चों से कराते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने बच्चों को कुछ दे नहीं सकते या उनको खिला नहीं सकते या हमारे पास नहीं है। नहीं बेटे, हम तो उनके संस्कार बनाते हैं।

शान्तिकुञ्ज में जितने भी हमारे बच्चे हैं, जब हम उन पर यह दृष्टि डालते हैं कि ये अभाव में हैं, लेकिन इसके साथ में शिक्षण भी है। शिक्षण है तो वह अभाव खटकता नहीं है। हम उनको दे सकते हैं और ज्यादा खिला सकते हैं; लेकिन हमने देखा कि इनको ज्यादा हुआ तो इनके संस्कार खराब हो जाएँगे। वे संस्कार से गिर जाएँगे और कुसंस्कारी हो जाएँगे। हमें इन बच्चों में त्याग और तप की भावनाएँ भरनी हैं। लोक-मंगल की भावनाएँ इनमें भरनी हैं। सेवाएँ इनको सिखानी हैं। फिर ये हमारे हैं और हमारे पास हैं । हर संभव हमारा यही प्रयास रहता है कि हम इसी तरीके से इन्हें बनाएँ।

बेटे! किस तरीके से बनाएँ ? इसमें एक नाम आता है—सरदार वल्लभ भाई पटेल का। उनके पिताजी का नाम था—झबेर भाई पटेल। जब वे छोटे थे, तब उनके पिताजी पुलिस इन्स्पेक्टर थे। एक दिन कोई बाहर का बड़ा मेहमान आया, तो उन्होंने उनके भोज में बढ़िया पकवान बनवाए और खीर बनवाई। खीर बनवाई तो उनका जो लड़का था, जिनको झबेर कहते हैं, वह जिस रास्ते में निकल रहा था, वहाँ एक महिला का बच्चा रो रहा था। उन्होंने कहा कि माँ! यह बच्चा क्यों रो रहा है? चुप करा लो। बेटे, यह भूखा है। भूखा है तो इसको दूध पिलाओ। उसने कहा कि बेटे, आज का दूध जो था वह तुम्हारे पिता के यहाँ चला गया? क्यों? सारे गाँव का दूध आज तुम्हारे पिताजी के यहाँ चला गया; क्योंकि कोई आज आने वाला है। उसके लिए खीर बनेगी। अब मैं बच्चे को कहाँ से दूध पिलाऊँ।

वह दुःखी होकर के घर आ गया। घर आ गया, तो देखा वहाँ दावत हो रही थी। झबेर के पिता ने कहा—बेटे! आओ, दावत का समय हो गया। सब बैठने लगे हैं, तुम भी आओ और बैठो, भोजन करो। वह बच्चा बैठ गया। कौन? सरदार बल्लभ भाई के पिता—झबेर। जब वह बैठ गया, तो पिता ने कहा—बेटे खा। झबेर ने कहा—पिताजी यह खाई नहीं जा रही है। क्यों, अच्छी नहीं लगती? अच्छी तो लगती है, पर न जाने क्यों मेरे मुँह में चल नहीं रही है; क्योंकि जब दो साल के, एक साल के बच्चे दूध के लिए रो रहे हैं और हम खीर खा लें, यह कैसे हो सकता है पिता जी। यह खीर मुझसे नहीं खाई जाएगी और बच्चा वहाँ से उठकर चल दिया।

बेटे! हमने अपना जीवन ऐसा बनाया है और उसी मितव्ययिता से उसी के अनुसार चलने का हमने व्रत लिया है। यहाँ तक कि कभी भी कोई समय ऐसा आया होगा जब अस्वस्थता हुई होगी, आखिर शरीर तो शरीर ही है। प्रकृति तो प्रकृति ही है। प्रकृति के नियम हैं। तो हमने चाहे उसमें थोड़ा-बहुत यह भी कर लिया होगा कि इनके लिए हमको कुछ करना चाहिए। एक बार मौसम्मी मँगाई थीं। हमने सोचा कि इनका शरीर दुर्बल हो गया है, अस्वस्थ है, तो लाइए आचार्य जी को थोड़ा-सा मौसम्मी का रस दे देना चाहिए। भूल से चला गया, चला तो गया पेट में, परंतु जब मालूम हुआ कि मौसम्मी है, तो उन्होंने लेना बंद कर दिया।

उन्होंने कहा कि जब हम अपने बच्चों को यह नहीं खिला सकते, अपने परिजनों को नहीं खिला सकते, तो हमको अधिकार नहीं है कि हमको यह खाना चाहिए। मौसम्मी से हमारा शरीर नहीं बनेगा, दूध से हमारा शरीर नहीं बनेगा। हमारी आत्मशक्ति से बनेगा, आत्मबल से बनेगा। खाने से अगर बना होता, तो जितने ये करोड़पति हैं, लखपति और धनपति हैं, फोर्ड थे या कौन थे जिनके कि एक मिनट में कितनी ही कारें बनती थीं, लेकिन जब वे खाना खाने बैठते थे तो मजदूरों को देखकर उनके पेट में ऐंठन और तड़पन जैसी होती थी।

उन्हें देखकर ईर्ष्या जैसी होती थी कि हे भगवान! तुमने मुझे मजदूर क्यों नहीं बनाया? जो ये सूखी रोटी खा करके भी हट्टे-कट्टे इतने मजबूत हैं और मैं करोड़पति, अरबपति होते हुए भी अन्न को हजम नहीं कर सकता। यदि बनते होते तो संपत्ति से उनके शरीर बने होते; लेकिन यह रूहानियत से बनते हैं। आत्मबल से बनते हैं। इससे नहीं बनते कि हमने यह नहीं खाया, वह नहीं खाया। इससे कमजोरी आ गई। ऐसा उसमें नहीं होता।

कर्तव्य का बोध

बेटे ! गुरुजी को मोह कभी नहीं रहा। न घर का मोह, न बच्चों का मोह, न पत्नी का मोह रहा। कर्तव्य का बोध जरूर रहा। वे कर्तव्य से कभी नहीं हटे। सेवा से उन्होंने कभी मुँह नहीं मोड़ा। किसी को पीठ नहीं दिखाई। हाथ-पाँव से सेवा करने की कोशिश उन्होंने जरूर की। सेवा के लिए वे हमेशा तत्पर रहते हैं। पत्नी के साथ उनका व्यवहार? बेटे! हमारे साथ में उनका व्यवहार कभी पत्नी जैसा रहा ही नहीं। उन्होंने सब बच्चों के सामने भी माताजी कहा होगा और पीछे भी माताजी कहा होगा। इसका क्या मतलब है? उन्होंने हमेशा मुझे इसी दृष्टि से देखा। उन्होंने कहा कि माँ कभी धोखा नहीं देती। पत्नी तो दे भी जाती है, लेकिन माँ नहीं देती। उनके वे शब्द मेरे अंदर इतनी गहराई में चले गए हैं कि मैं कह नहीं सकती। मेरी भावनाएँ हर क्षण यही होती हैं कि इनके लिए मैं क्या करूँ। इस मिशन के लिए, इनके लिए मेरा समर्पण है ही। इस मिशन के लिए जी-जान से मैं समर्पित हूँ।

बेटे! उन परिस्थितियों के बारे में परिजनों को मालूम है, उनसे छिपी नहीं हैं। कई परिस्थितियाँ ऐसी सामने आईं, जिनमें कोई भी महिला डगमगा सकती है, डावाँडोल हो सकती है, विचलित हो सकती है और वह अस्त-व्यस्त भी हो सकती है। दिमाग की दृष्टि से अस्थिर हो सकती है। कोई और चाहे हो या न हो, पर मेरी जैसी महिला तो कम-से-कम हो ही सकती है, जो अपने गृहस्थ जीवन में इस तरीके से रही हो। दाम्पत्य जीवन में इस तरीके से रही हो कि उसमें एक-दूसरे के लिए कितना सम्मान, कितनी उदारता, कितनी सहृदयता हो, तो उन परिस्थितियों में क्या हुआ होता; लेकिन नहीं, उन परिस्थितियों को हमने हँसते-हँसते झेला और इस मिशन के लिए ही नहीं; वरन उनके इच्छानुकूल उनके उद्देश्यों के लिए उनके पदचिह्नों पर चलना, हमेशा यही विचार करती रही।

जब सन् 1960 में वे अज्ञातवास के लिए गए, तो मैंने कहा कि मैं भी चलूँगी। सन् 1972 में गए, तो यही हुआ था। उससे पहले उन्होंने कहा कि नहीं तुम मेरे साथ मत चलो। मेरे साथ जाने से यह मिशन डगमगा जाएगा। जिसको हमने खून-पसीने से सींचा है, तुम्हारा कर्तव्य होता है कि इस मिशन की देख-भाल करो। तुमको इसे सँभालना है। तुम लाखों बच्चों की माँ हो। माँ को अपने बच्चों को सँभालना है, जिस तरह से मुरगी अपने अंडों को सँभालती है, सहेजती है कि कोई अंडा फूट न जाए। अंडे को कोई उठा न ले जाए, कोई खा न जाए। तो तुम इन अंडों को सँभालना, जो मैं तुम्हारे हवाले किए जा रहा हूँ।

बेटे! सन् 1960 में मैंने वहाँ रह करके सब सँभाला। गायत्री तपोभूमि को सँभाला। पत्रिका को सँभाला। पत्र व्यवहार को सँभाला। परिजनों को सँभाला। बच्चों को सँभाला। सबको सँभाला। मैंने कहा कि इधर तो भावनाएँ कहती हैं कि चलो सीताजी के तरीके से अपने राम के साथ, परंतु फर्ज और कर्तव्य ने कहा कि नहीं उर्मिला के तरीके से घर में रहो और लक्ष्मण को जाने दो। कर्तव्य ने कहा जाना नहीं चाहिए और भावना ने कहा कि नहीं साथ चलिए। दोनों की जद्दोजहद में किसको सफलता मिली? मिली फर्ज और कर्तव्य को। आजीवन हमने यही निभाया है।

आचार्य जी की माताजी थीं, जिनको हम ताईजी कहते हैं; लेकिन मोह उनका भी न था। आचार्य जी का मोह उनके प्रति या किसी के प्रति था ही नहीं। तो माँ के प्रति भी नहीं था? क्यों? क्योंकि कर्तव्य सबसे बड़ा होता है। समाज, राष्ट्र सबसे ज्यादा कर्तव्य था उनके लिए। इनकी माँ कहती थीं—"अरे! मेरा अकेला बेटा है। क्या कभी मुझे उससे लकड़ी नहीं लेनी होगी?" हुआ भी यही। वे बाहर थे और उनकी माँ का देहावसान सन् 1971 में हो गया। मैंने कहा—"अरे मैं हूँ, उनकी जगह पर मैं चलती हूँ और सारे का सारा कार्य मैंने अपने इन हाथों से ही संपन्न किया।"

बेटे! मनुष्य को कौन-कौन विचलित करता है? मोह और लोभ करता है। लोभ से वे हजारों-लाखों कोस, करोड़ों कोस दूर हैं। उनमें कोई भी किसी भी अक्स में लोभ नाम की कोई चीज नहीं है। गायत्री तपोभूमि को छोड़कर चले आए, तो चले आए और शान्तिकुञ्ज आ गए। यहाँ से भी कहीं जाना पड़े, हिमालय जाना पड़े, तो बिलकुल ऐसे छोड़कर चले जाएँगे, जैसे शान्तिकुञ्ज नाम की कोई चीज थी भी या नहीं थी। लोभ, मोह की जंजीरों ने उनको कभी नहीं बाँधा और हमने भी वही रास्ता अपनाया। हमें भी कोई नहीं बाँध सका।

हम मथुरा को, अपने हरे-भरे परिवार को छोड़ करके, बच्चों को छोड़ करके खुशी-खुशी उनके पदचिह्नों पर चलने के लिए शान्तिकुञ्ज आ गए। आगे भगवान ले जाएगा, तो हम आगे भी जाएँगे, जरूर जाएँगे। लेकिन हमें मालूम नहीं उस मार्गदर्शक का कि आगे चलने की हमें वह आज्ञा देगा भी कि नहीं देगा। हमारे ऊपर जो उत्तरदायित्व लादे गए, हमने हमेशा उनको सहर्ष स्वीकार किया है और यही प्रार्थना की है कि इतनी शक्ति और इतनी सामर्थ्य और देना कि हमारे कंधे और हमारी भुजाएँ इतनी बलवान हों कि हम उस बोझ को उठाने में समर्थ हों।

यह परिवार आचार्य जी ने बनाया है। यह गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार और अखण्ड ज्योति परिवार, यह कुटुंब हमने बनाया है। लाखों-करोड़ों परिजनों का एक परिवार बसाया है। उसकी सेवा, सहायता करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। यह हमारा कुटुम्ब है। इसके लिए हमेशा जो वायदा किया है, वो निभाया है और सेवा की है। प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, परोक्ष दिखाई नहीं पड़ता। प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है और जिनको परोक्ष से जो मदद मिलती है, वह दिखाई नहीं पड़ती है।

इस तरीके से जो वायदा किया है, निभाया है और आगे भी निभाते रहेंगे। लेकिन आपका कर्तव्य है कि आपको भी कुछ सोचना चाहिए, कुछ समझना चाहिए कि जब आपके मार्गदर्शक ने आपके लिए इतना लगाया है, तो क्या उसके मिशन के लिए आप नहीं लगाएँगे। आपको आगे आना चाहिए। यह एक पिता की पुकार है। यह एक माँ की पुकार है। हम भी आशा रखते हैं कि आप मिशन के लिए उसी तरीके से समर्पित होंगे, जिस तरीके से हम हुए हैं। उसी तरीके से आपको भी समर्पित होना चाहिए। आशा है कि हमारे परिजन इस पर ध्यान देंगे, समझेंगे और जो हम चाहते हैं, वह करेंगे। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥