समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान-2

अफ्रीका महाद्वीप में भारतीय संस्कृति

भारतीय महामानवों का जन्म भले ही उदयाचल पर उगते सूर्य की तरह होता रहा हो, पर वे एक सीमित क्षेत्र की संपत्ति बनकर नहीं रहे। उनके सामने "समस्त धरती अपनी, समस्त मानव परिवार—अपना परिवार" का उदात्त लक्ष्य था। इसलिए दुर्गमता से जूझते हुए उन्होंने सुदूर भू खंडों तक अपने क्रियाकलापों को व्यापक बनाने का संकल्प साकार बनाने के लिए अनवरत रूप से प्रयास किया। "कृण्वन्तोविश्व मार्यम्" का लक्ष्य जिनके सामने हो वे सीमित परिधि में अवरुद्ध रह भी नहीं सकते।

एक समय था जब भारतीय धर्म प्रचारक अफ्रीका महाद्वीप में भी पहुँचे थे और वहाँ स्थिति के अनुरूप भौतिक प्रगति के लिए मार्गदर्शन एवं सहयोग प्रदान किया था।

प्राचीन काल की अफ्रीकी सभ्यता का विवरण वहाँ उपलब्ध जिन अवशेषों के आधार पर मिलता है, वे यही प्रमाणित करते हैं कि वहाँ पर सभ्यता का उद्भव भारतीयता के अनुगमन जैसा हुआ है। वहाँ की सभ्यताएँ, प्रथाएँ बहुत कुछ ऐसी हैं जिनसे पता चलता है कि वे आरंभ में भारतीय स्तर की ही रहीं होगी और पीछे बदलते-बिगड़ते इस रूप में आ गईं, जिन्हें पिछड़ेपन की निशानी ही कहा जा सकता है।

प्रागैतिहासिक काल में भारत और अफ्रीका एक ही महाद्वीप में थे और आवागमन के लिए थल मार्ग सुगम था। भौगोलिक उथल-पुथल ने बीच में समुद्र खड़ा कर दिया और यातायात के लिए जलयानों की आवश्यकता पड़ने लगी।

पूर्वी अफ्रीका की भाषा 'स्वाहिली' में हिंदी और संस्कृत भाषा के शब्दों का आश्चर्यजनक बाहुल्य है। वहाँ की लोक गाथाओं और पुरातत्व उपलब्धियों से स्पष्ट है कि किसी समय उस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का ही प्राधान्य था।

पुरातत्त्ववेत्ता हूगो ओवरमीर ने अफ्रीका के देवी-देवताओं की आकृति का हिंदू देवताओं से पूर्ण साम्य सिद्ध करने वाले चित्र अपनी पुस्तक में प्रकाशित किए हैं। लंबे समय तक अफ्रीका का पर्यटन करने वाली योरोपीय महिला सारा लैटन ने अफ्रीकी भाषा में संस्कृत शब्दों का भारी संख्या में समावेश बतलाया है और लिखा है कि उस महाद्वीप के आदिवासियों में हिंदुओं की तरह ही हवन का प्रचलन देखा गया है।

अफ्रीका महाद्वीप प्रायः ४० देशों में बँटा हुआ है। उनके पुरातत्व विभागों, संग्रहालयों एवं उपलब्ध इतिहासों को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो प्रतीत होगा कि इन सबके पीछे भारतीय गरिमा झाँकती है। अफ्रीकी सभ्यता के विभिन्न स्वरूपों को अनेकानेक कबीलों की मान्यताओं और प्रथा-परंपराओं के रूप में देखा जा सकता है। उनके बीच भिन्नता भी बहुत है। पर यदि उन सबके पीछे मूल तथ्यों का निरूपण किया जाए तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि ये मान्यताएँ किसी उच्चस्तरीय भारतीय मान्यताओं के अनुकरण के पीछे चलती हैं। स्पष्ट है कि यदि उच्च आदर्शों की साज-सँभाल न की जाएगी तो वे भी मनुष्य की पशु-प्रवृत्तियों में घुलते-मिलते अंततः विकृतियों के निकृष्ट स्तर पर आ गिरेंगी। रूढ़ियों, मूढ़ताओं, अंधविश्वासों का इतिहास यही है कि लोगों ने आदर्श को भुला दिया, प्रचलन मात्र को अपनाया और पीछे वे प्रचलन विवेकशीलता से हटते-हटते पशु-प्रवृत्तियों के सहगामी हो गए। इस प्रकार धर्म प्रचलनों की भी वह स्थिति आ गई, जिसे अनुपयुक्त एवं उपहासास्पद कहा जा सके। अफ्रीका के कबीलों की पिछले दिनों और इन दिनों भी चाहे ऐसी ही स्थिति रही हो तो भी उनकी प्राचीन परंपरा एवं दार्शनिकता ऐसी रही है, जिसे भारत की सहगामिनी एवं प्रशंसनीय कहा जा सके। इस तथ्य को अफ्रीका के संबंध में शोध कार्य करने वाले प्रायः सभी विद्वानों ने एक स्वर से स्वीकार किया है।

भारतीय महासागर में मैडागास्कर (माला ग्यासी) द्वीपों के निवासी उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों से नहीं मिलते, उनका रक्त भिन्न है। मैडागास्कर यों अफ्रीका महाद्वीप के समीप है, पर उसके निवासियों की नसल भारतीय आर्यों की है। सभ्यता भी वहाँ की भारतीयों जैसी है। नाम भी उनके ऐसे हैं जो भारतीयों से मिल सकें।

जिस प्रकार योरोप में जर्मनी, अमेरिका में मैक्सिको, भारतीय संस्कृति के केंद्र-स्तंभ रहे हैं, उसी प्रकार अफ्रीका महाद्वीप में मिश्र देश को भारतीय संस्कृति का केंद्र माना जा सकता था। उस सुरम्य क्षेत्र को सर्वप्रथम भारतीयों ने ही आबाद किया था। वहाँ भारत वंशी राजा राज करते थे और उस क्षेत्र की जनता भारतीय धर्म की अनुयायी थी। इस्लाम का प्रवेश उस देश में होने से पूर्व का मिश्र का सारा इतिहास इन्हीं प्रमाणों से भरा पड़ा है कि वहाँ भारतीय धर्म की ध्वजा फहराती थी और उसका प्रकाश अफ्रीका के सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचता था।

भविष्य पुराण खंड ४, अध्याय २१ के श्लोक १६ में ऋषियों के मिश्र में जाने और वहाँ भारतीय सभ्यता का विस्तार करने का स्पष्ट वर्णन है—

सरस्वत्यज्ञया कण्वो मिश्र देश मुपाययो।
म्लेच्छान् संस्कृत्यं चाभाष्य तदा दश सहस्त्रकन॥

"सरस्वती की आज्ञा से कण्व ऋषि मिश्र देश को गए और वहाँ उन्होंने दस हजार म्लेच्छों को सुसंस्कृत बनाया।"

'हिस्टोरियन्स हिस्ट्री आव दि वर्ल्ड' ग्रंथ में इस्लाम के प्रवेश से पूर्व की मिश्र की स्थिति पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इस काल में मिश्री सभ्यता भारत से लगभग पूर्णतया मेल खाती थी। उस देश के नागरिक यह मानते थे कि उसके पूर्वज देव देश से आकर यहाँ बसे थे। उस देव देश का जो वर्णन किया जाता था उसकी भौगोलिक स्थिति तथा सभ्यता की रूपरेखा भारत की स्थिति से सर्वथा मिलती-जुलती थी। वे 'मनस्' को आदि शासक मानते थे और उसका आचार-व्यवहार वैसा ही बताते थे जैसा भारत में। 'मनस' और 'मनु' का शब्द-साम्य भी स्पष्ट है। मिश्र के पुरातन देवता भी थोड़े शब्द-भेद के साथ वे ही थे जो भारत में माने और पूजे जाते हैं। वर्ण-व्यवस्था, राज-धर्म, युद्ध-आचार, व्यवहार-संहिता, धार्मिक सामान्य शिष्टाचार आदि में भारत और मिश्र की सभ्यता इतनी अधिक मिलती थी मानो वे माता और पुत्री अथवा सहोदर बहनें ही हों।

इतिहासकार हिरोडोटस ने भारत और मिश्र की मान्यताओं, परंपराओं का साम्य सिद्ध करने वाले अनेकानेक प्रमाण और तथ्य प्रस्तुत किए हैं। दर्शन पक्ष तो दोनों का आश्चर्यजनक रूप से एक ही बिंदु पर केंद्रित रहा है।

किसी समय मिश्र की नील नदी से लेकर भारत की गंगा के मध्य के समस्त क्षेत्र में एक ही सभ्यता और भाषा थी। मिश्र, बैबीलोन, सीरिया, मोहन जोदड़ो में उपलब्ध शिलालेखों में एक ही भाषा का प्रयोग पाया जाता है। इससे इस तथ्य की और भी अधिक पुष्टि होती है कि प्राचीन भारत एशिया, योरोप और अफ्रीका महाद्वीपों तक फैला हुआ था।

एक समय था जब भारत और मिश्र के लोग समान रूप से सूर्योपासक थे। फराऊन शासक सूर्यवंशी थे। पिरामिडों के भीतर सूर्य देवता की प्रतिमाएँ पाई हैं। मृतक के सिरहाने सोने के पत्रक पर गौमाता की प्रतिमाएँ बनी हुई मिली हैं। गाय भी उस नसल और आकृति की है जैसी भारत में होती हैं। लगता है कि वैतरणी पार करने के लिए गाय की पूँछ पकड़कर पार होने की भारतीय मान्यता का ही यह अनुकरण है।

गनेरा के पिरामिडों के पास एक विशालकाय नरसिंह की मूर्ति है। भारत में नरसिंह अवतार का जो स्वरूप वर्णन किया गया है लगभग उसी से मिलती-जुलती इस विशालकाय प्रतिमा की आकृति है। इसके समीप ही वहाँ एक भव्य मंदिर है जिसकी बनावट और व्यवस्था हिंदू-मंदिरों और साधना-गृहों जैसी है। इनमें अब मूर्तियाँ तो क्या रह पातीं, पर अन्य सब दृष्टियों से उसका मंदिर होना स्पष्ट है। सूर्यवंशी राजाओं का अपने पिरामिडों के समीप नृसिंह की प्रतिमा तथा मंदिर का निर्माण स्वाभाविक भी था।

मिश्र पर शासन करने वाले 'हिस्री' (क्षत्री) राजा सूर्य और वरुण की पूजा करते थे। मंदिरों की परिक्रमा करने का प्रचलन था। मूर्तियों को स्थापित करने का स्थान 'स्ताना' कहा जाता था। पुजारियों को आदेश था कि स्वच्छ रहा करें। हिस्री राज में मृतकों की चिता जलाई जाती थी और १३ दिन शोक मनाया जाता था। यह शासक अपने को भृगु के वंशज बताते थे। अमरीकी विद्वान कर्नल अल्काट ने लिखा है कि अब से आठ हजार वर्ष पूर्व हिंदू सभ्यता मिश्र में पहुँची थी और उसका विकास मिश्री सभ्यता के रूप में आरंभ हुआ था।

'अलमरना' की खुदाई में जो प्रमाण मिले हैं उनसे स्पष्ट है कि मिश्र के निवासी गौ भक्त और सूर्यपूजक थे। डॉ० प्राणनाथ ने भाषा-विस्तार के इतिहास का वर्णन करते हुए लिखा है कि भूतकाल में मिश्र की राज भाषा संस्कृत थी। अब भी वहाँ की भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। पुराने मिश्र के देवी-देवता हिंदू-देवताओं के ही अनुरूप एवं उनके उत्तराधिकारी हैं। वहाँ के मंदिरों की रचना भारतीय वास्तुशिल्प की ही प्रतिकृति है।

काहिरा के पुरातत्व संग्रहालय में प्राचीन योद्धाओं की जो मूर्तियाँ संग्रहीत हैं, उन्हें देखकर सहज ही त्रेता और द्वापर के भारतीय योद्धाओं की आकृति एवं आयुध अलंकारों के साथ उनकी गहरी संगति बैठ जाती है।

इस्लाम आगमन से पूर्व मिश्र की संस्कृति में पुरोहितों का वर्चस्व था। उनका सिर मुड़ाना, व्रत-उपवास करना, दिन में कई बार स्नान करना, चमड़े का प्रयोग न करना, मांस न खाना आदि नियमों का पालन भारतीय पंडित पुरोहितों जैसा ही है। यह पुरोहित 'शेन' कहलाते थे, यह पदवी भारत की 'शर्मा' जैसी ही थी। प्राचीन मिश्र में पूर्णिमा को होम करना, धर्मोत्सव, दिवाली का दीपदान समारोह, नई फसल आने पर अन्न का हवन, मकर संक्रांति का विशाल पर्व, मंगल कलशों का उपयोग, व्रत अनुष्ठान में अनिवार्य रूप से पत्नी की उपस्थिति, मूर्तियों के जुलूस, संगीतमय कीर्तन आदि प्रथाओं को देखते हुए स्पष्ट हो जाता है कि उस देश के साथ भारत की कितनी सांस्कृतिक एकता थी। गौ को परम पवित्र और पूजनीय मानना, जूते उतारकर शुभ कार्यों में सम्मिलित होना, पुष्पहारों का उपयोग, हाथ-मुँह धोकर भोजन करने की रिवाज जैसी अनेक बातें प्राचीन मिश्र में भारत जैसी ही थीं। स्त्रियों के वस्त्र, आभूषण, वेश-भूषा, सज्जा, केश-विन्यास, मेंहदी रचाना आदि कितने ही प्रचलनों में भारत के साथ अद्भुत साम्य था।

मिश्र के पिरामिड मात्र भवन निर्माण कला की दृष्टि से ही अद्भुत नहीं थे। उनके साथ वह विज्ञान की साक्षी रूप में भी विद्यमान हैं, जो उस समय के बढ़े-चढ़े मानवी ज्ञान पर प्रकाश डालते हैं। सम्राट 'खूफू' का चियूप में बना पिरामिड पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण केंद्र बिंदु पर है। उस स्थान से एक सीधी रेखा खींच दी जाए तो गुरुत्वाकर्षण की दृष्टि से पृथ्वी ठीक दो भागों में विभक्त हो जाएगी। उसकी ऊँचाई इस प्रकार नाप-तोलकर रखी गई है कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी की गणना सहज में की जा सके। उस दूरी का यह पिरामिड दस हजार लाखवाँ भाग है। इस संख्या की पिरामिड की ऊँचाई से गुणा कर दें तो ९ करोड़ ३० लाख मील की दूरी बन जाती है।

मिश्र इतिहास के विशेषज्ञ प्रो० ब्रूग्सवे ने लिखा है—"ईसा के जन्म से बहुत पहले भारतीयों ने स्वेज मुहाना पार करके मिश्र में नील नदी के उस तटस्थ उपजाऊ क्षेत्र में अपनी बस्तियाँ बसाईं।" ऐसा ही निष्कर्ष अमरीकी इतिहासवेत्ता ए० डी० मार ने निकाला है। उनका कथन है कि अब से साढ़े तीन हजार वर्ष पुराने ऐसे कितने ही प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे सिद्ध होता है कि भारतवासी एशिया, अफ्रीका और योरोप के कितने ही देशों में व्यवसाय तथा धर्म प्रचार के लिए जाया करते थे। वे मिश्र में गए और बसे। अरब, एबीसीनिया आदि में उन्होंने बस्तियाँ बसाईं। मिश्र की प्राचीन गुफाओं, देवालय, स्मारक आदि का शिल्प सर्वथा भारतीय मूल का है। इमली की लकड़ी तथा दूसरी ऐसी चीजें इन अवशेषों में मिली हैं जो उन दिनों केवल भारत में ही उपलब्ध थीं।

पिरामिडों में सुरक्षित मुरदे तथा अन्यत्र जहाँ-तहाँ पाई गई खोपड़ियों में से अस्सी प्रतिशत आर्य नसल के लोगों की हैं। पुराणों में जिस कृष्णा नदी का उल्लेख है वही वर्तमान नील नदी है। कुश द्वीप एवं बर्बर देश के नाम से इन ग्रंथों में वर्तमान मिश्र देश का उल्लेख मिलता है।

हैदराबाद के सैयद जलालुद्दीन भारत से जाकर मिश्र में बसे और उन्होंने वहाँ अरब साहित्य के नए युग का श्रीगणेश किया। उन्हें उस देश में दो लगनशील शिष्य मिले—रशीद रियाज और जगलूल। इनकी सहायता से उन्होंने अरबी साहित्य सृजन से लेकर उसका प्रचलन, विस्तार करने तक के अनेक सूत्रों का संचालन किया। अमेरिका और फ्रांस तक में अरबी के अध्ययन केंद्र खुल गए। इन्हीं के प्रयास से अरबी के दो प्रमुख दैनिक पत्रों का आरंभ और संचालन भी हुआ 'अल अहराम' और 'अल हिलाल' उस देश के इन दिनों भी प्रमुख पत्र हैं।

दुर्भाग्य ने यह परिस्थिति उत्पन्न कर दी जो हृदय के सिकुड़ जाने पर नस-नाड़ियों में रक्त न पहुँचने के कारण शरीर की दुर्दशा की तरह सामने आई। भारत अंधकार युग के गर्त में धँसता चला गया, धार्मिक क्षेत्रों में फूट फैली, सांप्रदायिक विघटन के लिए अनेक मतवादी आगे आए। बौद्धिक धर्म नष्ट हुआ। धार्मिक एवं दार्शनिक अराजकता फैली। देश मतमतांतरों में विभक्त होता और बिखरता चला गया। सांस्कृतिक एकता नष्ट होने पर सामाजिक एकता स्थिर रह ही नहीं सकती। देश में फूट फैली, व्यक्तिवाद पनपा। संकीर्ण स्वार्थपरता को आश्रय मिला। फलतः अपनी ही समस्याएँ इतनी उलझ गईं कि उनका सुलझना ही कठिन पड़ गया। ऐसी दशा में सुदूर देशों में फैले हुए सांस्कृतिक विस्तार को पोषण देने की बात कौन सोचता?

इन उलझनों से भारतीय प्रचारकों द्वारा अन्य देशों में पहुँचाने वाला भावनात्मक रक्त-प्रवाह रुक गया और कितने ही देशों की तरह अफ्रीका महाद्वीप के मिश्र आदि केंद्रों को भी प्रकाश-पोषण नहीं पहुँचा। वे समीपवर्ती आकर्षणों और आक्रमणों के शिकार होते चले गए। अब अफ्रीका में इस्लाम धर्म की प्रमुखता है। ईसाई धर्म इसके बाद आता है। यह स्वाभाविक भी था। अरब लोग अपने समीपवर्ती इस क्षेत्र में इस्लाम को लेकर गए और वहाँ के भोले लोगों को अपना अनुयायी बना लिया। पिछले दो सौ वर्षों में योरोपियन ईसाइयों का प्रवेश हुआ तो वहाँ आधे से कुछ ही कम लोग इस धर्म में भी दीक्षित हो गए। हिंदू धर्म वहाँ उतना ही है जो भारतीय मूल के लोगों के साथ पहुँचा है और उन्हीं तक सीमित है।

मौरीशस—छोटा भारत

अफ्रीका महाद्वीप के अंर्तगत २९ मील चौड़ा, ३९ मील लम्बा, ८.५ लाख की आबादी का मौरीशस एक छोटा-सा द्वीप है। इसमें ६० प्रतिशत लगभग ४.५ लाख भारतीय मूल के लोग बसते हैं। भारतीयों में ५३ प्रतिशत हिंदू हैं, शेष लोगों में २५ हजार चीनी, १० हजार लोग गोरे तथा कुछ अफ्रीकी नस्ल के हैं। यह द्वीप भारत से लगभग २ हजार मील—मैडागास्कर से ५०० मील दूर है। अफ्रीकी तट से सवा हजार मील दूर है।

पंद्रहवीं शताब्दी तक मौरीशस बिल्कुल वीरान पड़ा था। वहाँ समुद्री लुटेरे ही कभी-कभी अपना डेरा डालते थे। सोलहवीं शताब्दी के आदि में यहाँ पुर्तगालियों ने बसने का प्रयत्न किया, पर समुद्री तूफानों तथा चूहों के उत्पात से डरकर उखड़ गए। इसके बाद १५९८ में डचों ने बसने का प्रयत्न किया, पर वे भी उसे अस्वास्थ्यकर कह कर चले गए। १७५१ में फ्रांसीसी यहाँ आए और उन्होंने अफ्रीका से गुलाम पकड़ कर यहाँ बसाए। सन् १८८० में अंगरेजों ने इसे आक्रमण करके हथिया लिया। अँगरजों ने भारत से मजदूर लाकर इस देश में बसाए। ३४९०३६ पुरुष तथा १०४७२८ महिलाएँ वहाँ लाकर बसाईं गईं। इस प्रकार वहाँ भारतीयों की बस्ती बसती चली गई।

विदेशी गुलामी से मौरीशस १२ मार्च १९६८ को स्वतंत्र हुआ और उस देश के निवासियों की चुनी हुई सरकार बनी जिसके प्रधान मंत्री भारतीय मूल के श्री शिवसागर रामगुलाम बने। चाय और चीनी का उत्पादन यहाँ विशेष रूप से होता है।

सन् १७२९ में मौरीशस पर फ्रांसीसी शासन था। उसी वर्ष भारतीयों का एक दल श्रमिकों के रूप में वहाँ पहुँचा। उसमें बंगाली, बिहारी, उड़िया तथा आसामी लोग थे। पोर्टलुई राजधानी के निर्माण में इन श्रमिकों ने भारी योगदान दिया। इसके बाद १८३४ में अंगरेज बहुत से श्रमिकों को ५ वर्ष के ठेके की शर्त पर वहाँ ले गए, इनमें हिंदीभाषी प्रांतों के लोग अधिक थे, उसमें भी बिहार के सबसे ज्यादा। उनके साथ भोजपुरी बोली गई। भोजपुरी और हिंदी मिश्रित भाषा ही वहाँ उत्तर भारतीयों की भाषा है। उसमें कितने ही फ्रांसीसी भाषा के शब्द भी आत्मसात हो गए हैं। रामायण का अच्छा प्रचलन है, जहाँ-तहाँ रामलीला भी होती है।

कहा जा सकता है कि भारतीयों ने ही मौरीशस को बसाया। उन्होंने गन्ने की कटाई की और चीनी के कारखाने लगाए। शमारेल की पीली पहाड़ी पर रंग-बिरंगी मिट्टी पाई जाती है, उसकी तुलना सूर्य की सतरंगी किरणों से की जाती है, पर वस्तुतः उसके चालीस प्रकार तक के रंग गिने जा चुके हैं। इस मिट्टी को सफेद शीशी में भरें तो इंद्रधनुष जैसा दिखाई पड़ता है। मौरीशस में एक विचित्र पेड़ है 'टालोपोट'। इस पर सौ वर्ष में एक ही बार फूल आता है और उसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। खेती में जिधर भी नजर डाली जाए गन्ना ही गन्ना उगा हुआ दिखाई पड़ता है। दस-दस मील पर मौसम बदलने वाला यह विलक्षण टापू है। पोर्टलुई में गरमी है, तो वाक्वा में हलकी ठंढ और आगे बढ़े तो क्यूपिय में पूर्ण ठंढ अनुभव होने लगेगी। मौरीशस का पुराना इतिहास नहीं है। न वहाँ के कोई आदिवासी हैं। वर्तमान प्रजा के पूर्वज भारत, अफ्रीका, फ्रांस, मैडागास्कर और चीन से वहाँ पहुँचे थे। इन सबकी अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति है। सभी सहिष्णुतापूर्वक मिल-जुलकर रहते हैं। पहली जनवरी नया वर्ष यहाँ सभी वर्गों का त्योहार बन गया है। जनता में धार्मिक रुचि अधिक है। सभी अपने-अपने धर्म स्थानों में उत्साहपूर्वक जाते हैं। मंदिर, मसजिद और गिरजाघर भीड़ से भरे रहते हैं।

कीर्तन, स्नान के लिए हिंदू कम से कम एक लाख की संख्या में समुद्र में स्नान और पूजन के लिए उसी तरह पहुँचते हैं जैसे भारत में सोमवती अमावस्या को गंगा आदि नदियों पर धार्मिक लोगों की भीड़ होती है। शिवरात्रि पर दक्षिण मौरीशस के तालाब में नहाने के लिए भी हिंदू जनता इसी उत्साह के साथ पहुँचती है। साधारणतया पैंट पहिनने वाले भी उस दिन धोती पहिनते हैं। तालाब का जल लेकर अपने घर पहुँचते हैं तो उनका स्वागत होता है।

पहले वहाँ हिंदू मृतकों को जलाने की व्यवस्था नहीं थी। अब सभी नगरों में सुव्यवस्थित श्मशान बना दिए गए हैं। दाह-क्रिया का प्रचलन कराने में वहाँ की आर्य समाज ने बहुत प्रचार और आंदोलन किया था। गुजरात की तरह मौरीशस के हिंदू निवासी अपने नाम के साथ पिता का नाम भी जोड़ते हैं। मौरीशस के कितने ही नगरों के नाम भारत जैसे ही हैं। जैसे आनंद ग्राम, चित्रकूट, ऋषि नगर, लालकारी, सोनामुखी, महेश्वर नगरी, धारा नगरी, पुरी, मायापुरी आदि।

चार्ल्स डार्बिन यहाँ १८३६ में पहुँचे और उन्होंने प्रथम बार भारतीयों को देखा। उन्होंने अपने भ्रमण-वृत्तांत में लिखा है कि "मैं नहीं जानता था कि भारतीय इतने सुंदर होते हैं।"

एयर इंडिया के हवाई जहाज साढ़े पाँच घंटे में मुंबई से चलकर मॉरीशस पहुँचा देते हैं। पानी के जहाज से अफ्रीका होकर जाना पड़ता है। कभी भारत से मॉरीशस जाने में महीनों लग जाते थे।

सभी धर्मों के लोग सह-अस्तित्व और सहयोग के साथ कितनी अच्छी तरह रह सकते हैं? इस आदर्श की यह देश एक सफल प्रयोगशाला है। फ्रांसीसियों के यहाँ २३ बड़े शुगर मिल हैं। चीन वाले व्यापार करते हैं। मुसलमानों का रुझान तिजारत और कारीगरी की ओर है। हिंदुओं में से अधिकतर कृषि करते हैं। चाय, तंबाकू, अदरक का निर्यात होता है, किंतु चावल और गेहूँ आयात करना पड़ता है। आलू अपने काम चलाने लायक हो जाता है। लघु उद्योग पनप रहे हैं, जिससे वहाँ की समृद्धि बढ़ रही है। बेकारी की समस्या महीं है।

इस टापू की लोक भाषा 'किओल' है। विभिन्न वर्गों के लोग जब मिलते हैं तो 'किओल' में बात करते हैं। स्कूलों में अंगरेजी और फ्रेंच पढ़ाई जाती है। अधिकांश स्कूल निजी संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं जिन्हें सरकारी मान्यताएँ और सहायता उपलब्ध होती है। रेडियो और टेलीविजन पर हिंदी व भोजपुरी के कार्यक्रम भी चलते हैं।

ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले हिंदुओं के घरों के सामने हनुमानजी का भगवा ध्वज गड़ा दिखाई देता है। रामायण कथा तथा कीर्तन आदि की धूम मची रहती है। उत्साह पूर्वक इसमें जनता भाग लेती है। जो चढ़ावा आता है उसे धार्मिक विद्यालयों के संचालन में खरच किया जाता है। आर्य समाज ने भी इस क्षेत्र में अच्छा काम किया है। उसके संगठन तथा भवन भी जगह-जगह हैं, पर वहाँ सनातनी और आर्य समाजी मिल-जुलकर ही समस्त धार्मिक आयोजन करते हैं। उनमें कट्टरता का विष नहीं घुला है। रविवार के आर्यसमाज सत्संगों में भी लोग वैसे ही भावनापूर्वक जाते हैं जैसे कि देवालयों और कथा-कीर्तनों में। होली, दिवाली तथा अन्य त्योहार भारत की भाँति ही बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। मॉरीशस हिंदू सभा, मॉरीशस सनातन धर्म टेम्पल फेडरेशन, मॉरीशस ब्राह्मण महासभा, भारतीय गंगा स्नान समिति आदि संस्थाएँ उस क्षेत्र में अपने-अपने ढंग से धार्मिक वातावरण बनाने एवं धर्मनिष्ठा जाग्रत करने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं। मॉरीशस सनातन धर्म मंदिर संघ ने एक सुंदर ग्रंथ प्रकाशित किया है 'मॉरीशस मंदिर चित्रावली'' इसमें उस देश के प्रमुख ६७ मंदिरों के चित्र तथा विवरण प्रकाशित किए गए हैं। इन मंदिरों का संचालन करने वाली संस्थाओं के अलग-अलग नाम है।

मॉरीशस में 'हिंदी प्रचारिणी सभा' तथा 'पोर्टलुई हिंदी सभा' ने हिंदी प्रचार की दृष्टि से बहुत काम किया है। उस देश में १७५ हिंदी पाठशालाएँ चलती हैं जिसमें "हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग" की परीक्षाएँ ली जाती हैं। हर गाँव में शिव मंदिर पाया जाएगा। दूसरे देवताओं के भी मंदिर हैं। तुलसी कृत रामायण का यहाँ बहुत प्रसार है। स्वामी कृष्णानंद जी के प्रयत्न से भारतीय जनता ने रामायण की एक लाख प्रतियाँ वहाँ भेजी हैं, जिन्हें हर घर में पहुँचाया गया है। 'पोर्ट लुइस हिंदी परिषद' की ओर से हिंदी प्रसार का कार्यक्रम उत्साहपूर्वक चलाया जा रहा है। परिषद की एक त्रैमासिक पत्रिका निकलती है। उसने कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं।

आर्य समाज संस्था उस देश में बहुत समय से काम कर रही है। उसके द्वारा दो कालेज चलाए जा रहे हैं। सन् १९७३ में वहाँ एक विशाल आर्य सम्मेलन बुलाया गया था, जिसमें भारत से भी बहुत से लोग गए थे। 'सनातन धर्म सभा' का काम श्री विद्यानिवास पांडेय के नेतृत्व में चल रहा है। कितने ही मंदिर तथा हिंदी पाठशालाएँ यह संस्था चलाती हैं। पौरोहित्य कर्म सिखाने की भी पाठशालाएँ हैं। रामकृष्ण मिशन का कार्य इन दिनों स्वामी तत्त्वबोधानंद चलाते हैं। स्वामी कृष्णानंदजी ने घर-घर रामायण पहुँचाने का प्रयत्न किया है। अन्य कई संस्थाएँ तथा समाजसेवी उस देश को बौद्धिक तथा भावनात्मक दृष्टि से ऊँचा उठाने में संलग्न हैं।

ईसाई मिशनरी यहाँ पूरी तरह सक्रिय हैं। भारतीय लोगों को ही ईसाई बनाने में उन्हें अधिक सफलता मिली है। चीनी, अफ्रीकी तथा मुसलिम संगठन भी वहाँ कई एक हैं। और भी कई संस्थाएँ सराहनीय कार्य कर रही हैं। मोरक्का में नदी तट पर २२ एकड़ भूमि में फैला 'गांधी इंस्टीट्यूट' श्रीनटराजन के संचालकत्व में चल रहा है। इसमें पुस्तकालय, कला-भवन, संग्रहालय, सभा भवन आदि कक्ष हैं। भारतीय भाषाओं के पढ़ाने का भी इसमें प्रबंध है।

'मॉरीशस टाइम्स' इस देश का प्रमुख अंगरजी साप्ताहिक पत्र है। प्रो० विष्णुदयाल ने उस देश की परिस्थितियों तथा समस्याओं से संबंधित कई पुस्तकें लिखी हैं।

सन् १९०१ में गाँधीजी मॉरीशस गए और उन्होंने अपना भाषण गुजराती में दिया। गांधीजी की प्रेरणा से सन् १९०७ में डॉक्टर मणिलाल वहाँ गए। इन्हीं दिनों वहाँ आर्य समाज की स्थापना हुई और १५ मार्च १९०९ से प्रथम साप्ताहिक पत्र 'हिंदुस्तानी' का प्रकाशन हुआ। इसके बाद कई पत्र निकले और बंद हुए। 'आर्योदय', 'जनता' नाम से साप्ताहिक और 'जमाना' (पाक्षिक) पिछले दिनों अपने ढंग से चल रहे थे। पं० आत्मारामजी लिखित 'मॉरीशस का इतिहास', 'हिंदू मॉरीशस' पुस्तकों से वहाँ के भारतीयों की स्थिति तथा भूमिका पर प्रकाश पड़ता है।

आस्ट्रेलिया महाद्वीप के भारतीय

आस्ट्रेलिया महाद्वीप का आधुनिक इतिहास योरोपियन जातियों के उस क्षेत्र में प्रवेश करने के साथ आरंभ होता है, पर इससे पूर्व वहाँ जनशून्य स्थिति नहीं थी। वहाँ ऐसे लोग बसे हुए पाए गए, जो आधुनिक शिक्षा और सभ्यता की दृष्टि से पिछड़े हुए भले ही कहे जाएँ, पर उनकी अपनी एक विशिष्ट जीवन यापन पद्धति थी।

आस्ट्रेलिया के आदिवासियों की मान्यताएँ भारतीयों से मिलती-जुलती हैं। वे हर जीव में तथा पदार्थ में एक आत्मा का निवास मानते हैं और उसके प्रति पूरी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। वृक्षों का पूरा सम्मान किया जाता है। यहाँ तक कि उनके चिकित्सक यदि किसी वृक्ष की अस्वस्थता दूर करने के लिए नर रक्त सेवन की आवश्यकता बताते हैं तो परिवार के युवक अपना रक्त देने में प्रसन्नता भरा सौभाग्य अनुभव करते हैं।

मृतक संस्कार करते समय मुरदे का मुंडन कराया जाता है और परिवार के लोग भी मुंडन कराते हैं। मृतक का दाह-संस्कार करने के लिए उसकी पूरी झोपड़ी को ही जला दिया जाता है। उनका 'बूमरांग' अस्त्र शब्दभेदी बाण का काम करता है। वहाँ के आदिवासी उसे बनाने और चलाने में विशेष प्रवीणता प्राप्त करते हैं। वह घुमावदार यात्रापथ बनाकर सनसनाता हुआ जाता है और अचूक निशाना बेधता है, अथवा चलाने वाले के पास वापस लौट आता है। इस कौशल को देखकर विविध प्रकार के चातुर्य कुतूहल दिखाने वाले लोग भी अवाक् रह जाते हैं।

आस्ट्रेलिया के निवासियों का कोई लिखित और प्रामाणिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है, पर कुछ पुरातन अवशेष उस महाद्वीप में पाए जाते हैं, उनसे सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान आदिवासियों के पूर्वज सुयोग्य भी रहे हैं और सुसंस्कृत भी। उनकी अभिरुचि और क्रियापद्धति का प्राचीन भारतवासियों के साथ बहुत कुछ साम्य प्रतीत होता है और यह निष्कर्ष निकलता है कि वे प्रागैतिहासिक काल में भारत से ही जलयात्रा करते हुए वहाँ पहुँचे थे। भारतीय आदिकाल से ही नौकायन विद्या में पारंगत रहे हैं और सुदूर देशों से अपना संपर्क बनाए रहे हैं। जलमार्ग से उनका यातायात क्रम बड़े उत्साहपूर्वक चलता था। आस्ट्रेलिया में भी वे इसी भू-भ्रमण उत्साह को लेकर पहुँचे होंगे और धरती माता के प्रत्येक क्षेत्र को मानव प्राणियों द्वारा सुविकसित बनाने का लक्ष्य लेकर वहाँ बस गए होंगे।

मध्यकाल में भारत के साथ उनका संबंध टूट जाने से विकास के आवश्यक साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे और परिस्थितियों की जटिलता ने उन्हें क्रमशः पिछड़ेपन के गर्त में धकेल दिया होगा। साधनहीन होने पर भी आस्ट्रेलियाई आदिवासी लंबी अवधि तक प्रकृति के साथ संघर्ष करते हुए अपना अस्तित्व बनाए रहे, यह भी उनकी कम साहसिकता और कम सूझ-बूझ नहीं मानी जाएमी।

आधुनिक आस्ट्रेलिया की खोज सन् १७७० में जेम्स कुक नामक अंगरेज नाविक ने की और अपने देश के आधिपत्य का झंडा वहाँ जाकर गाड़ा। उसके बाद अंगरेज वहाँ बसने लगे और अपनी बस्तियाँ बसाने लगे। सन् १८४० में वहाँ सुव्यवस्थित अर्थ-व्यवस्था स्थापित हो सकी। सर्वप्रथम भेड़ पालने का उद्योग वहाँ बड़े पैमाने पर आरंभ किया गया। कृषि की व्यवस्था भी बनाई गई। १८२३ में संविधान बना और विधिवत शासन-तंत्र स्थापित हुआ। इंग्लैण्ड का राजा ही वहाँ का राजा था। चुनाव सर्वप्रथम सन् १९०१ में हुआ। अब वहाँ प्रजातंत्र है, पर वह ब्रिटिश कामन वैल्थ के अंर्तगत ही है। आस्ट्रेलिया क्षेत्र में ६०० टापू हैं। इनमें से १३ को पर्यटकों के लिए विकसित किया गया है।

आस्ट्रेलिया का क्षेत्रफल भारत की अपेक्षा दोगुने से भी अधिक है। किंतु आबादी नगण्य, कुल एक करोड़ बीस लाख। यह जनसंख्या उतनी है जितनी मुंबई, कोलकाता और दिल्ली इन तीनों शहरों को मिलाकर होती है। यहाँ की जलवायु बहुत अच्छी है। पुरुष की औसत आयु ६८ वर्ष और स्त्रियों की ७४ वर्ष है। जीवन स्तर ऊँचा है, फिर भी जन्म दर बहुत कम है। लोग सीमित संख्या में ही बच्चे उत्पन्न करने का पूरा ध्यान रखते हैं।

इस देश में अधिकांश अंगरेज ही बसे हैं। वे ६७ प्रतिशत हैं। इसके बाद इटली, जर्मनी, हालैण्ड, अमेरिका तथा योरोप के अन्य देशों के निवासी हैं। अब बाहर के लोगों को बहुत कम ही प्रवेश करने दिया जाता है। वहाँ एशियाई लोगों की संख्या कुल मिलाकर ७ लाख है। इनमें कुछ भारतीय कृषक और श्रमिक भी हैं, कुछ नौकरी, व्यवसाय भी करते हैं।

जेम्स कुक जब वहाँ पहुँचा था तब आस्ट्रेलिया के मूल निवासी तीन लाख से अधिक थे। कत्लेआम में वे मुट्ठी भर ही बच सके। इसके बाद उनकी नसल को जीवित रखने के लिए वैसे ही प्रयत्न हुए जैसे कि अब भारत में सिंह आदि की रक्षा के लिए किए जा रहे हैं। पिछले पचास वर्ष से उन्हें शांति से जीवित रहने का अधिकार मिला है। इस अवधि में वे बढ़ने लगे हैं और एक लाख चालीस हजार की संख्या में जा पहुँचे हैं। ये लोग दुर्गम वन्य-प्रदेशों में खानाबदोश जैसा जीवनयापन करते हुए निर्वाह करते हैं। अब उन्हें नागरिक जीवनयापन करने का अभ्यस्त बनाया जा रहा है।

आस्ट्रेलिया और एशिया के बीच समुद्र की दूरी बहुत दिखाई पड़ती है, पर सुदूर पूर्व में जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में ठहरते हुए आस्ट्रेलिया तक की लंबी यात्रा अभी मध्य स्तर की नौकाएँ कर सकती हैं। प्राचीन भारत का विस्तार स्वर्ण द्वीप समूहों तक हो चुका था। उस मार्ग से प्राचीन भारतीय आस्ट्रेलिया तक पहुँचे हों तो कुछ आश्चर्य नहीं। संसार भर के भूखंडों को समुन्नत बनाने की महत्त्वाकांक्षा उन्हें इस दुर्गम एवं अविज्ञात, समझे जाने वाले क्षेत्र में ले पहुँची हो तो यह कोई असंभव बात नहीं है।

अंगरेजी शासनकाल में प्रोत्साहन पर कुछ भारतीय श्रमिक भी वहाँ पहुँचे और उसी देश के नागरिक बनकर वहाँ बस गए। उन भारतीय मूल के लोगों की पीढ़ियाँ अब उसी देश की पूर्ण नागरिक हैं। आस्ट्रेलिया के 'बुलगेलाते' कसबे में सिखों के दो गुरुद्वारे हैं। यहाँ पंजाब से आए हुए सिखों के ४० हजार परिवार स्थायी निवासी बनाकर बस गए हैं। पहले एक ही गुरुद्वारा था, पर अब परस्पर की फूट ने उन्हें भी दो भागों में विभक्त कर दिया है। गिरिजाघरों की तरह यहाँ भी रविवार को पूजा-पाठ होता है।

समय-समय पर अभी भी वहाँ अन्य देशवासी विशेष प्रयोजनों के लिए जाते रहते हैं। नौकरी, शिक्षा, पर्यटन आदि कई प्रयोजनों के लिए अन्य देशों के लोग वहाँ पहुँचते हैं, जिनमें भारतीय भी शामिल है। इन्हें स्थायी रूप से नहीं रहने दिया जाता। नियत समय तक ठहरने की सुविधा उन्हें मिलती है। गोरे लोगों की तुलना में भारतीयों को और भी कम सुविधा मिलती है।

इस परिस्थिति में भी लगभग १५ हजार भारतीय उस देश में रह रहे हैं। १९८१ की जनगणना के अनुसार आस्ट्रेलिया में हिंदुओं और सिखों की संयुक्त संख्या २२६८० थी, जिनमें पुरुष १४७८० और स्त्रियाँ ७९०० थीं। उस देश की कुल जनसंख्या एक करोड़ अट्ठाईस लाख के करीब थी।

नवीनतम जानकारी के अनुसार उस देश में ३३३९ भारतीय व्यक्ति तकनीकी कार्यों में और ३७८४ उत्पादन एवं व्यापार में संलग्न हैं। शेष उनके आश्रित परिवारीजन हैं।

भारतीय प्रतिभाओं का समस्त विश्व में आवागमन

भारतीय प्रतिभाएँ “वसुधैव कुटुंबकम्" की भावना को हृदयंगम करके जहाँ-कहीं पिछड़ापन देखा वहीं दौड़-दौड़कर पहुँचती रही हैं। हमारे पूर्वजों का घर-परिवार कुछ व्यक्तियों या कुछ इमारतों तक सीमित न था। वे समस्त विश्व को अपना घर मानते थे और अपने को विश्व नागरिक के रूप में समझकर समस्त संसार को समुन्नत करने का उत्तरदायित्व अनुभव करते थे। भारत की भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत तो उनके कल्याणकारी क्रिया-कलाप गतिशील रहते ही थे, पर वे उतनी छोटा परिधि में सीमित नहीं रहते थे। समस्त मानव जाति में आत्मीयता की भावना रखते हुए वे धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रयाण करते थे और जहाँ-कहीं पिछड़ापन देखते वहीं उसे मिटाने के लिए डट जाते। अपने को पूरी तरह खपाकर भी अभावों को समुन्नत स्थिति में बदलते थे।

अज्ञान और अभावों की निवृत्ति के लिए, प्रगति तथा समृद्धि का संवर्द्धन करने के लिए भारतीय प्रतिभाएँ निरंतर विश्व के कोने-कोने में पहुँचती रही हैं। इसका विवरण इतिहास के पृष्ठों में भरा पड़ा है। भारतीय धर्म पुराणों में भी उन प्रमाणों और प्रयासों का विस्तृत विवरण मिलता है। यथा अमेरिका से व्यास ऋषि ने अपने पुत्र शुकदेव को मोक्ष धर्म का उपदेश लेने के लिए भारत में मिथिलापुरी में राजा जनक के पास भेजा। यात्रा के उन देशों का क्रमशः वर्णन है कि—

स तं ब्राह्मण श्रिया युक्तं ब्रह्मणा तुल्य वर्चसम्।
मेने पुत्रं यदा व्यासो मोक्षधर्म विशारदम्॥
उवाच गच्छेति तदा जनकं मिथिलेश्वरम्।
स ते वक्ष्यति मोक्षार्थ निखिलं मिथिलेश्वरः॥
मेरोहरेश्च द्वे वर्षे वर्ष हैमवतं ततः।
क्रमेणैव व्यतिक्रम्य भारतं वर्षमासदत्॥
स देशान् विविधान् पश्यंश्चनिहूणनिषेवितान्।
आर्यावर्तमिमं देशमाजगाम महामुनिः ॥
पितुर्वचनमाज्ञाय तमेवार्थ विचिन्तयन्।
अध्वानं सोऽतिचक्राम खचरः खेचरन्निव॥

(महा० शान्ति प० मोक्ष अ०३२६/२९)

"व्यास ऋषि ने ब्राह्मीश्री से युक्त ब्रह्मतुल्य तेज वाले अपने पुत्र शुकदेव को मोक्ष धर्म में विशारद, प्रवीण समझा और उससे कहा कि मिथिला के राजा जनक के पास जा, वह तेरे लिए समस्त मोक्ष विषय को बतलाएगा। यह सुनकर शुकदेव मिथिला की ओर चल पड़े। मार्ग में मेरुवर्ष और हरिवर्ष इन दो देशों को, पुनः हैमवत देश को क्रमशः लाँघकर भारतवर्ष में आए एवं चीन, हूण जनों से सेवित भिन्न-भिन्न देशों को देखते हुए आर्यावर्त देश में आए। पिता के वचन को मानकर उसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए पक्षी की भाँति लंबी यात्रा की।

अमेरिका के पुरातत्ववेत्ता उस देश के प्राचीन इतिहास में 'मय' सभ्यता का समुन्नत विस्तार स्वीकार करते हैं। इस संबंध में अनेकों अवशेष, साक्षियाँ प्राप्त हुई हैं। मैक्सिको निवासी अभी भी अपने को 'मय' का वंशज मानते हैं। इस 'मय' जाति और उसकी सभ्यता का निर्यात भारत से ही हुआ था।

प्राचीन भारत में असुर सभ्यता प्रख्यात थी। उसका देव जातियों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष चलता रहा है। मय असुरों का ही एक समुन्नत वंश था। महाभारत में इस वंश की चर्चा आई है। इंद्रप्रस्थ का राजप्रासाद कभी 'मयों' के ही आधिपत्य में रहा है। उज्जैन में सन् १९३८-३९ में पुरातत्व द्वारा कराई गई खुदाई में जो मुद्राएँ मिलीं उनमें 'मय' शासकों का उल्लेख है। ज्योतिष के प्रमुख ग्रंथ "सूर्य सिद्धांत" का निर्माता मयासुर माना गया है। उसका काल ईसा से एक शताब्दी पूर्व कहा जाता है। "सूर्य सिद्धांत" के आरंभ में इस ग्रंथ निर्माता तथा प्रयोजन के विषय में कहा गया है—

अल्पावशिष्टेतु कृते, मय नामा महासुरः।

"जो थोड़ा शोध कार्य शेष रह गया था उसे मयासुर ने पूरा किया।"

पाँचवीं शताब्दी के ज्योतिर्विज्ञानवेत्ता आचार्य वराहमिहिर ने मय, यवन आदि पंडितों की चर्चा की है।

मय भवन मणिस्थ शक्ति पूर्वे दिवस।
करादिषु वासराः प्रदिष्टः इसी नर॥

प्राचीन काल में मलाया प्रायद्वीप के अनेक टापुओं में सोने की खदानें थी। वे गहराई तक खोदी गईं और लगता है, उनमें से प्रचुर स्वर्ण संपदा निकाली गई है। अंगरेजी विश्वकोष में इस खुदाई के बारे में यह मत व्यक्त किया गया है कि "यह कार्य भारतीयों के कौशल का है, वे ही उस समय उस क्षेत्र पर छाए हुए थे।" इस स्वर्ण दोहन का उल्लेख 'स्कंद पुराण' के नागर खंड २९४ वें अध्याय में मिलता है—

तेऽत्र स्वर्णस्य लोभेन देवता दर्शनाय च।
नित्यं चैवा गमिष्यन्ति त्यक्त्वा रक्षः कृतं भयम्॥

"भारतवासी स्वर्ण संपदा लाने और देव-दर्शनों का प्रयोजन पूरा करने के लिए राक्षसों का भय त्यागकर उस क्षेत्र में निरंतर आवागमन रखते थे।"

स सर्वान् म्लेच्छ नृपतीन सागर द्वीप वासिनः।
करमाहारयामास रत्नानि विविधानि च ॥

"भीम ने समुद्र में बसे हुए अनेक द्वीपों को जीतकर वहाँ के म्लेच्छ राजाओं को वशवर्ती करके कर एवं रत्नादि प्राप्त किए।"

महाराज विक्रमादित्य की प्रशंसा में किसी कवि ने कहा था—

नौका लक्ष्य चतुष्टयं विजयिनो यस्य प्रयाणेऽभवत्।
सोयं विक्रम भूपति विजयेत नान्यो धरित्री तले॥

"जिन महाराज विक्रम द्वारा दिग्विजय करते समय चार लाख नौकाओं का प्रयोग किया गया, उनकी जय हो।" द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती है—

जम्बूद्वीपो महाराज नाना जनपदै युतः।
त्वया पुरुष शार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो॥
जम्बू द्वीपेन सदृशः क्रोंच द्वीपो नराधिप।
अधरेण महामेरो दण्डेन मुदितस्त्वथा।
द्वीपाश्चं सान्तर द्वीपा नाना जनपदाश्रयाः।
विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितस्त्वया॥

—महाभारत

"हे महाराज! युधिष्ठिर! आपने जम्बूद्वीप को जीतकर आबाद किया। फिर क्रोंच द्वीप, शाक द्वीप और अन्यान्य द्वीप-उपद्वीपों को सागर पार जाकर बसाया।"

शका यवन काम्बोजास्ततः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं परिणता ब्राह्मणा नाम दर्शनात्॥

—महाभारत अनुशासन पर्व

"शक, यवन, यूनानी, कंबोडिया निवासी पहले क्षत्रिय थे। पर जब वहाँ ब्राह्मण नहीं पहुँचे तो वे कर्तव्यच्युत होकर अन्य धर्मावलंबी बन गए।"

अंग द्वीपं यव द्वीपं मलय द्वीपमेव च।
शंख द्वीपं कुश द्वीपं वराह द्वीप मेव च॥
एवं षडेते कथित अनुद्वीपः समन्ततः।
भारत द्वीप देश वै दक्षिणों बहु विस्तरः॥

—वायु पुराण

"भारत द्वीप के दक्षिण महासागर में बहुत से द्वीप फैले हैं। अंग द्वीप, कुश द्वीप, यव द्वीप, मलय द्वीप, शंख द्वीप, बराह द्वीप—ये छः द्वीप भारत के अनुद्वीप (उपनिवेश) हैं।"

आजकल जिस देश को लंका कहा जाता है, उसका प्राचीन नाम सिंहल द्वीप है। पर भारत में लंका और सिंहल द्वीप को अलग-अलग माना गया है।

सिंहलान वर्वरान् म्लेच्छान् य च लंका निवासिनः।।
—महाभारत वनपर्व अ०५१ श्लोक २२२

इसमें सिंहल द्वीपवासियों को, तातारियों को, म्लेच्छों को, लंकानिवासियों को अलग-अलग करके गिना गया है। इसी प्रकार का वर्णन मारकण्डेय पुराण (अध्याय ५८ ) में आता है—

लंका काल जिनाश्चैव शैलिका निकटास्तथा।
ऋषभाः सिंहलाश्चैव तथा कांची निवासिनः॥

"लंका, कालजिन, शैलिक, ऋषभ, सिंहल, कांची आदि के निवासी।"

पाण्डवों द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में सिंहल द्वीप के राजा ने बहुमूल्य रत्न और मोती भेंट स्वरूप भेजे थे, इसका उल्लेख महाभारत के सभापर्व में आता है—

समुद्र सारं वैदूर्य संघास्तथैव चे।
सतशश्च कुथांस्तत्र सिंहलाः समुपाहरन्॥

वाल्मीकि रामायण में भी दक्षिण महासागर के महाद्वीपों का वर्णन रोचकता पूर्वक किया गया है—

यत्नवन्तो यवद्वीप-सप्त राज्योपशोभितः।
सुवर्ण रुप्यक द्वीपं सुवर्ण कर मंडितम्॥
यवद्वीप मतिक्रम्य शिशिरो नाम पर्वतः।
ततो रक्त जल प्राप्य श्रोणाख्यं शीघ्र वाहिनम्॥
गत्वा पारं समुद्रस्य सिद्धचारण सेवितम्।
पर्वतः प्रभवा: नद्य। सुभीम बहु निष्कराः॥
ततः समुद्र द्वीपोश्च सुभीमान्द्रष्टुमहथ॥

उपरोक्त श्लोक में स्वर्णद्वीपों की श्रृंखला में गिने जाने वाले जावा आदि टापुओं की प्राकृतिक शोभा, संपदा एवं स्थिति का वर्णन है। उस क्षेत्र में पहुँचती रहने वाली प्रतिभाओं के द्वारा यह विवरण प्रस्तुत किए जाते रहे हैं।

इस प्रकार के अनेक उल्लेखों से यह सहज ही प्रमाणित होता है कि भारतीय प्रतिभाएँ विश्व के कोने-कोने में धर्मपरायणता, शासकीय सुव्यवस्था, अर्थ समृद्धि एवं कला, शिल्प, विज्ञान आदि की अभिवृद्धि के लिए निरंतर लंबी यात्राएँ करती रही हैं और संसार भर के मनीषियों एवं शासकों की आवश्यक सहायता प्राप्त करने के लिए भारत में आवागमन होता रहा है।

बौद्ध धर्म का उदय एक क्रांतिकारी अवतरण

जिन दिनों भारतीय वर्चस्व अधोपतन के गर्त में औंधे मुँह गिरा पड़ा था और उसकी दुर्दशा से दूरवर्ती क्षेत्रों में विविधविध नारकीय विकृतियाँ उत्पन्न हो रही थीं, उन्हीं दिनों एक महान क्रांति का अवतरण हुआ। यह क्रांति भगवान बुद्ध के नेतृत्व में प्रकट हुई। स्थिति को बदला जाना आवश्यक था। ऐसी व्यापक आवश्यकताओं की पूर्ति सुगठित क्रांतियाँ ही संपन्न करती हैं। उसका नेतृत्व श्रेय किसी को भी क्यों न मिले, पर वस्तुतः उस परिवर्तन अभियान में जन-भावना का उभार ही काम करता है। यह अलग बात है कि उसे उभारने वालों की अग्रिम पंक्ति में कौन था? नेतृत्व किसने किया और श्रेय किसे मिला?

यह आवश्यकता अनुभव हुई कि प्रतिगामी परिस्थितियों को बदला जाए। भारत के प्राचीन वर्चस्व और कर्तृत्व का पुनरुद्धार किया जाए। संव्याप्त विकृतियों और विपत्तियों का निराकरण किया जाए। इसके लिए आंधी-तूफान जैसे परिवर्तन अभियान की आवश्यकता थी। वह भगवान बुद्ध के अंत:करण में सर्वप्रथम एक चिनगारी के रूप में फूटी और देखते-देखते सुविस्तृत दावानल के रूप में प्रखर एवं प्रचंड हो गई।

समय की पुकार ने एक सामान्य स्थिति और सामान्य स्तर के राजकुमार का अंत:करण छुआ। इस भाव-विभोर ने ठान ठानी कि वह वैयक्तिक सुख-सुविधाओं का त्याग करेगा, अपने परिवार को भी कठिनाइयाँ सहने को बाध्य करेगा और उस कष्टसाध्य मार्ग पर चलेगा जिस पर चलते हुए बीज गलता है और अपने अस्तित्व को दूसरों की सुख-सुविधा के लिए अभिनव वृक्ष के रूप में परिणत कर देता है। इसी भाव भरे साहसिक संकल्प का नाम भगवान बुद्ध का अवतरण है। यों बाहर से बुद्ध-चरित्र एक व्यक्ति विशेष का विशिष्ट कर्तृत्व दिखाई पड़ता है, पर वस्तुतः तात्विक दृष्टि से उसे एक विद्रोह ही कहना चाहिए, जिसने तात्कालिक विकृतियों का उन्मूलन करने वाली एक ज्वाला के रूप में जन्म लिया था। समय-समय पर भगवान के अवतार भी इसी प्रयोजन के लिए होते रहते हैं। धर्म की स्थापना का दूसरा पक्ष अधर्म का उन्मूलन है। दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूरी बात बनती है। भगवान बुद्ध ने सामयिक विकृतियों के प्रति विद्रोह एवं संघर्ष खड़ा किया, साथ ही ऐसी भावनात्मक नव निर्माण की आधार शिला भी रखी जिस पर मानवी गरिमा का सुदृढ़ दुर्ग पुनः स्थापित किया जा सके। इस उभयपक्षीय अभियान का नाम ही बुद्ध भगवान का अवतरण है। भारतीय इतिहास में इस अवतरण को असामान्य और अति महत्त्वपूर्ण माना जाता रहेगा।

अंधकार युग की विकृतियों के कारण उत्पन्न हुए असंतुलन का निराकरण करने के लिए अतीत की अगणित महाक्रांतियों की तरह अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व एक क्रांति भगवान बुद्ध के नेतृत्व में हुई। उन्होंने तत्कालीन अनाचार को ध्यानपूर्वक देखा, उसके दुष्परिणामों को समझा और प्रवाह को बदलने के लिए अपनी संपूर्ण साहसिकता एवं सद्भावना प्रयुक्त करते हुए जुट गए। सदुद्देश्य के लिए जब कोई प्रामाणिक व्यक्ति आगे आता है, अपनी निःस्वार्थ परमार्थ निष्ठा एवं दूरदर्शितापूर्ण रूपरेखा से जनमानस को प्रभावित करता है, तो अगणित साथी, अनुयायी कदम से कदम, कंधे से कंधा मिलाकर साथ चलने के लिए तैयार हो जाते हैं। भगवान बुद्ध चले तो अकेले पर उन्हें साथियों, अनुयायियों की कमी नहीं रही।

भगवान बुद्ध के अवतरण युग में सर्वत्र अवांछनीयता का बोलबाला था। धर्म का आडंबर ओढ़कर अधर्म का नग्न नर्तन चल रहा था। भारतीय धर्म अपना मानव धर्म जैसा शाश्वत स्वरूप खो चुका था। अंधविश्वासों और रूढ़ियों को ही धर्म का पर्यायवाची माना जाने लगा था। गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर विनिर्मित वर्ण व्यवस्था के स्थान पर जन्मजाति की ऊँच-नीच छूतछात पनप गई थी। जातियों-उपजातियों के नाम पर देश के सहस्रों टुकड़े होकर बिखर रहे थे। जातियों के लिए अलग-अलग कानून और अधिकार, सुविधा और प्रतिबंध ऐसे बने थे जिनमें न्याय और औचित्य की बेतरह अवज्ञा की गई थी। ब्राह्मण अत्यधिक सुविधा और सम्मान के पात्र थे। क्षत्रियों को हर तरह की मनमानी करने की छूट थी। शूद्रों और अछूतों के अधिकार लगभग पशुओं जितने ही सीमित रह गए थे। साधना के नाम पर स्वेच्छाचारी तांत्रिक वाममार्ग का बोलबाला था। यज्ञ का पवित्र धर्मकृत्य निरीह पशुओं को भून खाने की भट्ठी मात्र रह गया था। अविवेक और अनाचार की दिशा में बहते हुए इस प्रवाह ने नीति, न्याय और औचित्य का गला घोंट दिया था। ऐसे समय में भगवान बुद्ध जन्मे। चारों ओर छाए इस सघन अंधकार को देख उनकी आत्मा छटपटाने लगी। उन्होंने अपनी आहुति देकर अंधकार से लड़ने का निश्चय किया। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को तिलांजलि देने के बाद ही मनुष्य किन्हीं महान आदर्शों को पूरा कर सकने में समर्थ होता है। बुद्ध ने उसी शाश्वत मार्ग को अपनाया, वे अपने राज-वैभव और पारिवारिक सुख को ठुकराकर युग की पुकार को पूरा करने के लिए घर छोड़कर निकल पड़े और निश्चय किया कि वे अपने लिए, अपने छोटे परिवार के लिए नहीं जिऐंगे, वरन लोक मंगल के लिए ही इनका समग्र समर्पण होगा।

दूसरा कदम भगवान बुद्ध ने यह उठाया कि अपने को महान प्रयोजन की पूर्ति के लायक क्षमता संपन्न बनाने में जुटा दिया। उन्होंने तप किया, अपने उन दोष-दुर्गुणों को धोया जिनके रहते सार्वजनिक सेवा विषाक्त हो जाती है और हित साधन करने का उद्देश्य उलटा अहितकर परिणाम प्रस्तुत करता है। ज्ञान की साधना परमार्थ परायण व्यक्ति के लिए आवश्यक है। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार और आत्म विकास की चतुर्विध तपश्चर्या से ही आत्मा को परमात्मा स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। इस प्रकार आत्मिक दृष्टि से ऊँचा उठा हुआ व्यक्ति ही स्व-पर कल्याण कर सकने में समर्थ होता है। बुद्ध इस महा सत्य को जानते थे इसलिए वे गृहत्याग के उपरांत बोधि गया में बोधि द्रुम के नीचे बैठकर सत्य का प्रकाश पाने के लिए साधनारत हो गए। यहाँ उन्हें बुधत्व प्राप्त हुआ। वे राजकुमार गौतम से बदलकर भगवान बुद्ध बन गए।

तीसरा कदम बुद्ध का था—धर्मचक्र प्रवर्तन। लोक मानस में छाई हुई काली घटाओं को निरस्त करने के लिए सद्ज्ञान की ज्योति जलाना अनिवार्य होता है। वही उन्हें भी करना पड़ा। घर-घर जाकर जन-जन से संपर्क बनाना भिक्षावृत्ति अपनाकर ही हो सकता है, सो उन्होंने उसी वृत्ति को धारण किया। अपने को भिक्षु श्रेणी में जा बिठाया। ज्ञान प्रसार का कार्य एकांगी भी नहीं हो सकता था, इसलिए उन्होंने शिष्य, अनुयायी बनाए। जिन्हें परिपक्व पाया उन्हें सद्ज्ञान का आलोक सर्वत्र फैलाने के लिए परिव्राजक बनाया। यही धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान था। भावनात्मक जड़ता की मृत-मूर्छित स्थिति से उबारकर सजग और सक्रिय बनाने के लिए आत्मदानी व्यक्तियों को समग्र निष्ठा से जुटना पड़ता है। बुद्ध ने अपने शिष्य इसीलिए बनाए। इसी प्रयोजन को जीवन लक्ष्य की पूर्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन बनाया। उनके प्रभाव और परामर्श के प्रकाश में सहस्रों नर-नारी आगे आए और एक स्थान पर रहकर नहीं देश-देशांतरों में ज्ञान का प्रकाश फैलाने को कटिबद्ध हो गए। धर्म चक्र का अभियान अग्रगामी हुआ और यह 'धर्मविजय' के रूप में सुविस्तृत बन गया। भूतकाल में प्रतापी राजा देश-विजय के लिए निकलते थे, अपना आधिपत्य सुदूर क्षेत्रों में स्थापित करते थे। बुद्ध का अभियान इससे भिन्न था। उन्होंने देश विजय के स्थान पर धर्मविजय की योजना बनाई और उसे किसी देश, धर्म तक सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाने का कार्यक्रम निर्धारित किया।

वाराणसी से उत्तर दिशा में छह मील पर सारनाथ में उन्होंने धर्म चक्र प्रवर्तन किया। तब उनके पास उपयुक्त शिष्यों की संख्या केवल पाँच थी। इतनी कम संख्या के बल पर इतना विशाल प्रयोजन कैसे पूरा हो सकता है, इसकी उन्होंने तनिक भी चिंता नहीं की। वे जानते थे कि यदि आदर्श ऊँचा हो, संचालन दूरदर्शिता पूर्ण हो और कर्मरत मनुष्य भाव भरे हों, तो सदुद्देश्य निश्चित रूप से आगे बढ़ते हैं और अंततः पूर्ण होकर रहते हैं। बुद्ध ने कौडिन्य, वन, महानाम, भद्र और अश्वजित नाम के तत्कालीन पाँच शिष्यों को बुलाकर प्रव्रज्या की दिशा दी और कहा—"भिक्षुओ! अब तुम जाओ और मनुष्यों तथा देवताओं की भलाई के लिए परिव्राजक बनो। तुम उच्च आदर्शों का प्रचार करो और पवित्र जीवन जीने की विद्या समझाओ।"

बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग का उपदेश देता है। उसमें कट्टरता नहीं है। परिस्थितियों के अनुसार नियम-उपनियमों में थोड़ी शिथिलता बरतने की गुंजाइश है, ताकि हर स्थिति का मनुष्य उसमें प्रवेश कर सके। चरित्र और आदर्शों को तो कड़ाई से पालने पर जोर दिया गया है, पर बाह्य व्यवहार एवं रहन-सहन में थोड़ी भिन्नता रहने पर आपत्ति नहीं की गई। 'अंगुत्तर निकाय' में एक जगह वर्णन है—"बज्जी पुत्रक नामक भिक्षु तथागत के सम्मुख उपस्थित हुआ और बोला—"श्रमणों के लिए जो २५० नियम निर्धारित हैं वे मुझसे नहीं सधते।" इस पर भगवान बुद्ध ने कहा—"तब तुम तीन नियमों को पालते हुए अपना धर्म निभाओ।"

बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म से पृथक मानना सर्वथा भूल है। भगवान बुद्ध एक सुधारवादी थे। उन्होंने हिंदू धर्म में प्रविष्ट हुई सामयिक विकृतियों का विरोध करके ऋषिप्रणीत भारतीय धर्म के मूलभूत आदर्शों की स्थापना मात्र की है। कोई नया धर्म नहीं चलाया। उनके समय में तांत्रिक वामाचार का बोलबाला था। देवताओं के नाम पर पशुबलि का घिनौना प्रचलन चल पड़ा था। अनाचार को धर्म का आवरण उढ़ाकर वर्ग भेद, वर्ण भेद के विषवृक्ष उगाए जा रहे थे। ईश्वर भक्ति के नाम पर उपहासास्पद कर्मकांडों का आकाश-पाताल जितना महत्त्व बताया जा रहा था। मनुष्य दास-दासी के रूप में खरीदे-बेचे और दान दिए जा रहे थे, और भी न जाने क्या-क्या हो रहा था। उन दिनों वैदिक धर्म—ब्राह्मण धर्म मात्र बनकर रह गया था। पुरोहित वर्ग और उनके पिछलग्गू लोग ही देवकृपा एवं धर्म-धारणा की आशा करते थे। शेष तो हेय उपेक्षित बना दिए गए थे। यह धार्मिक क्षेत्र में उत्पन्न हुई विकृतियाँ देश के समस्त वातावरण को विषाक्त बनाए हुए थीं। उनका धुआँ पूरे मानसिक, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तर को कलुषित बनाता चला जा रहा था। बुद्ध ने विषवृक्ष के पत्ते काटने के झंझट में न पड़कर जड़ पर प्रहार किया। भावनात्मक अपकर्ष को समस्त अवांछनीयताओं का उद्गम समझकर उन्होंने सुधार भी वहीं से आरंभ किया। वे जानते थे कि भावनात्मक परिष्कार लाए बिना विभिन्न क्षेत्रों में फैली अगणित विपन्नताओं का और किसी उपाय से समाधान संभव न हो सकेगा। अतः वे समस्त क्रांतियों की जननी भाव क्रांति में जुट गए।

संसार के इतिहासज्ञ और तत्त्ववेत्ता एक स्वर से इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म पूर्णतया एक हैं। उनमें भिन्नता एवं पृथकता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की एक सुधरी हुई प्रक्रिया है। इस संबंध में अधिक जानकारी देने वाले कुछ ग्रंथ ये हैं—
(१) इलियट कृत—हिंदू धर्म तथा बौद्ध मत
(२) कीफ्ले कृत—बृहत्तर भारत में भारतीय संस्कृति का प्रभाव
(३) लेबी कृत—कनिष्क और शालवाहन
(४) मजूमदार कृत—क्लासिकल एज
(५) चंद्रगुप्त विद्यालंकार कृत—बृहत्तर भारत
(६) पी० बी० बापट संपादित—बौद्ध धर्म के २५९० वर्ष।

इन ग्रंथों के पढ़ने से बौद्ध काल में भारतीय संस्कृति के समस्त एशिया में हुए प्रभाव, विस्तार की अच्छी जानकारी उपलब्ध होती है।

एशिया में बुद्ध धर्म के विस्तार पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में से निम्नलिखित दो ग्रंथ भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

(१) एलाइस कृत—दी गाडस आफ नार्दर्न बद्धिज्म—देयर हिस्ट्री आइक्रोनोग्राफी एण्ड प्राग्रेसिव इमोल्यूशन थ्रू दि नार्दर्न बुद्धिस्ट कन्ट्रीज विद ए जनरल इन्ट्रोडक्शन आन बुद्धिज्म
(२) स्टोन कृत—हिस्ट्री आफ बुद्धिज्म।

इन ग्रंथों से यही निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध प्रचारक अपने धर्मविजय अभियान के अंतर्गत संसार भर में भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों का प्रकाश फैलाने के लिए ही गये थे। बौद्ध धर्म में कहीं भी हिंदू धर्म की निंदा नहीं है, केवल थोड़ी सी विकृतियों का ही विरोध किया गया है। अधिकांश मान्यताएँ तो वही ऋषिप्रणीत और शास्त्रसम्मत हैं जो अनादि काल से वैदिक धर्म के अंतर्गत चली आ रही थीं।

बुद्ध का प्रतिपादन तीन सूत्रों में सार रूप से प्रस्तुत किया गया है। 'बुद्धं शरणं गच्छामि', 'धम्मं शरणं गछामि', 'संघ शरणं गच्छामि'। "हम बुद्धि के विवेक की शरण में जाते हैं।" "हम धर्म की नीति निष्ठा का वरण करते हैं"; "हम संघ बद्ध होकर विकसित होने का व्रत लेते हैं।" विवेक, न्याय और एकता यही हैं वे सूत्र जो बौद्ध धर्म के आधार लक्ष्य हैं, उन्हीं को सनातन वैदिक धर्म का सार भी कह सकते हैं। इस प्रकार वे प्राचीन आर्ष धर्म के पुनरुद्धार कर्ता ही कहे जा सकते हैं। उनका अलग से कोई संप्रदाय स्थापित करने का विचार स्वप्न में भी नहीं था। उन्होंने अपने प्रवचनों में स्थान-स्थान पर आर्ष मान्यताओं के ही उद्धरण और प्रमाण प्रस्तुत किए हैं।

हिंदू धर्म में बौद्ध धर्म का जो विरोध दीखता है वह उथला है, उसके अंतराल में एकता के ही तथ्य भरे पड़े हैं। बुद्ध न संस्कृत ज्ञाता थे और न वेद मर्मज्ञ। उन्हें बताया गया कि हिंसा यज्ञ के लिए आवश्यक है। उन्होंने तत्काल यज्ञ का ही खंडन कर दिया। पंडितों ने कहा—यज्ञ का प्रतिपादन वेद करता है। उन्होंने वेद का खंडन कर दिया। लोगों ने कहा—वेद ईश्वर निर्मित हैं, उन्होंने ईश्वर का खंडन कर दिया। उस खंडन के पीछे विवेक, न्याय और औचित्य का समर्थन है। किसी प्रचलन से उनका कोई द्वेष न था। यदि कोई तत्त्वज्ञानी उन्हें यह बताते कि वास्तविक यज्ञ, वास्तविक वेद और वास्तविक ईश्वर प्रचलित पाखंडपूर्ण प्रतिपादन से भिन्न हैं तो उन्हें उनका खंडन करने की कोई आवश्यकता न पड़ती। उन्हें खंडन-मंडन में नहीं, केवल सत्य के प्रतिपादन में रुचि थी। वे विवेक और न्याय को सर्वोच्च स्थान देने के पक्ष में थे। विवेक विरोधी—ईश्वर, वेद और यज्ञ जैसे सर्वमान्य आधारों को भी उन्होंने अस्वीकार करके अपनी सत्य, निष्ठा एवं साहसिकता का ही परिचय दिया था। विज्ञजनों ने यह एक स्वर से स्वीकार किया है कि बौद्ध और हिंदू धर्म एक हैं। भारतीय दर्शन में विचार स्वतंत्रता के लिए पूरी गुंजाइश है। यही कारण है कि यहाँ छह दर्शनों का उद्भव हुआ और उनमें मतभेद स्पष्ट हैं। शैव और वैष्णव धर्म—स्त्रोत और स्मार्त, आचार-आगम और निगम दर्शन पहले से ही प्रचलित थे। इसी प्रकार बौद्ध धर्म को अधिक से अधिक हिंदू धर्म का सुधरा हुआ रूप भर माना जा सकता है। ईसाई धर्म में भी पुरातन पंथी और सुधार पंथी दो वर्ग हैं। मुसलमानों में भी सिया-सुन्नी का भेद है। इतने पर भी ईसाई धर्म या मुसलमान धर्म दो-दो नहीं माने जाते। ब्राह्मण धर्म और बौद्ध धर्म को एक ही हिंदू धर्म की दो शाखाओं से अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता।

ओल्डेनबर्ग कृत जर्मन ग्रंथ—"फिलासफी डेर उपनिषदेन—डंड आन फाडंगे आन बुद्धिस्मस्स" में बौद्ध मान्यताओं और उपनिषद मान्यताओं को समतुल्य बताया गया है। अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए ग्रंथकार ने बताया है कि उपनिषदों के प्रतिपादन और बौद्ध सिद्धांतों में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। केवल पुरानी शैली को नए ढंग से कहा भर गया है।

रहेज डेविड्स कृत—"एन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स सेक्ट्स बुद्धिस्ट्स" के उल्लेखानुसार बुद्ध और हिंदू धर्म एक ही वृक्ष की दो शाखाओं की तरह मिल-जुलकर रहे। उनमें कोई विग्रह उत्पन्न नहीं हुआ। ब्राह्मण वर्ग ने अपने निहित स्वार्थों पर आघात पड़ते देखकर विरोध तो किया, पर वह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष था। वे सैद्धांतिक विरोध न करके व्यक्तिगत लांछन लगाते थे। इस प्रकार अश्रद्धा उत्पन्न करके भावुक लोगों को उस प्रवाह में सम्मिलित होने से रोकना ही उनकी नीति थी। इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा। हाँ सफलता के वेग में थोड़ा अड़चन जरूर पैदा होती रही।

यही कारण है कि आज भी समस्त संसार में बौद्ध प्रतिपादनों के सम्मुख मस्तक झुकाया जाता है। अन्य धर्मावलंबी ही नहीं नास्तिक तक उस दर्शन के प्रति अपनी गहन श्रद्धा व्यक्त करते हैं। सर एडविन आर्नोल्ड की 'दि लाइट आफ एशिया' में प्रेरक समीक्षा भरी पड़ी है। शोपनहावर, रेनर मेरिया, रिलके जोन, मेसफील्ड, टी० एस० इलियट, एडिथ सिटनैल, डब्ल्यू यीट्स, एडल्स हक्सले, कार्ल गस्टव, जुंग आदि विद्वानों ने अपनी लेखनी से जनसाधारण को बौद्ध सिद्धांतों का प्रेरक-परिचय दिया है। यद्यपि वे ईसाई धर्मावलंबी रहे, पर उनकी लेखनी यह बताती है कि उनकी श्रद्धा बुद्ध धर्म के प्रति अपने धर्म से कम नहीं थी। अनीश्वरवादी कहे जाने वाले आज के दार्शनिक बरट्रैण्ड रसल ने तो यहाँ तक कहा है—"यदि मुझे किसी धर्म का अनुयायी बनना पड़ा तो वह एकमात्र बौद्ध धर्म ही होगा।"

जयदेव के 'गीत गोविंद' की अष्टपदी में अवतारों का वर्णन तथा स्तवन है। उसी संदर्भ में एक पद है—

निन्दसि यज्ञ विधेर अहह श्रुति जातम्।
सदय हृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृत बुद्ध शरीर-जय जगदीश हरे॥

"जिस यज्ञ विधि में हिंसा होती थी, उसको हे सत्य हृदय! आपने निंदित ठहराया। हे बुद्ध शरीर में अवतरित हुए कृष्ण! आपकी जय हो।"

उपर्युक्त पद का भाष्य इस प्रकार हुआ है—

"यज्ञस्य विधान बोधकं वेद समूहं निन्दसि-ननु सर्वम् इति अर्थ।"

"बुद्ध केवल पशु हिंसा वाले यज्ञ विधान की निंदा करते हैं। समस्त श्रुति-ज्ञान की नहीं।"

'गीत गोविंद' में बुद्धावतार को भगवान कृष्ण का ही अवतार माना है और उनके बौद्ध रूप की वंदना करते हुए आगे कहा है—

वेदं उद्धरते, जगन् निवहते, भूगोल मुद् विभ्रते।
दैत्यं दारयते, बलि चलयते, क्षत्रं क्षयं कुर्वते॥
पौलत्स्यं जयते, हल कलहते, कारुण्ययात तन्वते।
म्लेच्छां मूर्छयते, दशां कुते कृष्णाय तुभ्यं नम॥
कारुण्यं कृपयातन्वते बुद्ध रूपेण विस्तरयते।

"जिन्होंने वेदों का उद्धार किया, जगत को ऊँचा उठाया, धरती का भार सँभाला, असुरों को विदीर्ण किया, बलि प्रथा को बंद किया, क्षत्रपतियों के क्षत्र गिराए, रावण को जीता, हल चलाया, करुणा का विस्तार किया, म्लेच्छों को मूर्च्छित किया। इस प्रकार दश बार अवतार लेने वाले कृष्ण आपको नमस्कार है। आपकी लीला ही बुद्ध रूप में विस्तृत है।"

उस समय अधिकांश व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने परंपरागत ब्राह्मण धर्म को अपनाया था, पर बौद्ध धर्म के पक्के समर्थक थे। इन दिनों जैसे सनातन धर्मी और आर्य समाजी मान्यताएँ एक ही परिवार में या एक ही व्यक्ति में समाहित देखी जा सकती हैं, लगभग उसी प्रकार की बात उन दिनों थी। इसलिए हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म साथ-साथ बढ़े-पनपे। पीछे पुरोहितों ने अपने वर्चस्व और अर्थलाभ को हानि पहुँचते देखकर विरोध को उग्र अवश्य किया, पर सर्वसाधारण के मन पर उस तरह की विरोधात्मक छाप न थी। कुछ समय की चें-चें-में-में के बाद बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म का एक प्रकार से समन्वित आधार बन गया था और उसी को जनता तथा विज्ञ व्यक्तियों ने स्वीकार कर लिया था। गुप्त वंश के शासक यों वैष्णव थे, पर उनकी पूरी सहानुभूति बौद्ध आंदोलन के साथ थी। मथुरा, सारनाथ, नालंदा, अजंता, बाग, धान्यकूट, कन्नौज, कौशल, मगध, ताम्रलिप्ति प्रभृति स्थानों में यों पुरातन हिंदू धर्म का ही प्रचलन था, पर उन स्थानों के बौद्ध केंद्र बनने में किसी ने कोई आपत्ति नहीं की वरन् पूरी सहानुभूति ही दिखाई। राजा हर्षवर्द्धन यों वैष्णव था, पर उसने बौद्ध आचार को पूरी तरह अपना लिया था।

नालंदा विश्वविद्यालय की संसार भर में ख्याति थी और संसार भर के छात्र भारतीय धर्म विज्ञान का अध्ययन करने के लिए आते थे। नालंदा का बौद्ध बिहार उन दिनों पूरी समृद्धि पर था। ऐसी ही धर्म-संस्थाएँ उन दिनों और भी अनेकों थीं। विक्रम शिला, ओदंतपुरी, सोमपुरी, जगद्दल के महाविद्यालय समृद्ध अध्ययन के केंद्र थे। उनके पुस्तकालय और विद्यालय अनेकों प्रतिभाशाली विद्वान उत्पन्न करते चले जाते थे और इन संस्थाओं द्वारा उत्पादित ज्ञान संपदा से समस्त मानव जाति लाभान्वित हो रही थी? इन शिक्षण संस्थाओं में समस्त हिंदू दर्शन पढ़ाया जाता था। बौद्ध और हिंदू धर्म की समन्वित शिक्षा पद्धति बिल्कुल स्वाभाविक थी, क्योंकि ऐसे ही अनेक दर्शनों को पहले भी हिंदू धर्म का अंग स्वीकार किया जा चुका था। तब अधिक प्रखर बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म का एक अविच्छिन्न अंग मानने में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती थी?

बुद्ध की विचारधारा से मिलते जुलते धर्म प्रवाह उन दिनों जैन संप्रदाय के संस्थापक वर्द्धमान महावीर, आजीवक संप्रदाय के संस्थापक मंखलि पुत्र गोसोल जैसे कई प्रतिभाशाली धर्मगुरु प्रवाहित कर रहे थे, पर उनका लक्ष्य व्यक्तिगत स्वर्ग-मुक्ति तक सीमित रहने से तप, तितिक्षा, संयम, साधना पर तो बहुत ध्यान दिया गया किंतु धर्म-विजय जैसे अभियान में कोई उत्साह न था। यदि वे सब मिल-जुल कर परमार्थ को भी साधना लक्ष्य में सम्मिलित रखते और तपस्वी लोग उस दिशा में भी प्रयास करते तो निस्संदेह उन सम्मिलित प्रयत्नों से उससे कहीं अधिक कार्य होता जितना अकेले बौद्ध धर्म द्वारा संपन्न हुआ।

बुद्ध ने अपने शिष्यों को जो धर्म दर्शन पढ़ाया उसमें संयम, व्रतशीलता की, साधना की, तपश्चर्या की, आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार की दृष्टि से प्रमुखता तो थी, पर धर्मविजय जैसे परमार्थ प्रयोजन की संलग्नता को भी कम महत्त्व नहीं दिया गया था। विश्व मानव को परिष्कृत बनाने में दिए गए योगदान को उन्होंने जीवनलक्ष्य की पूर्ति का अनिवार्य साधन बताया और कहा कि इसके लिए हर धर्मप्रेमी को अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप बढ़-चढ़कर त्याग-बलिदान प्रस्तुत करना चाहिए। इसी दार्शनिक विशेषता के कारण बुद्ध धर्मानुयायियों ने धन से, समर्थन से, सहयोग से उस मिशन को भरपूर सींचा और जो अधिक भावनाशील और साहसी थे, वे आगे बढ़कर आत्मदानी वर्ग में सम्मिलित हो गए। उन्होंने अपनी पात्रता बढ़ाने के लिए तपश्चर्या एवं ज्ञान साधना की और साथ ही इस बात की भी तैयारी जारी रखी कि लोभ की परिधि से ऊपर ऊँचे उठकर धर्म विजय के लिए कठिनतम कष्टों को सहन करते हुए शेष जीवन अविच्छिन्न उत्साह, पुरुषार्थ एवं साहस के साथ व्यतीत करें। उन्होंने सांसारिक सुखों से मुँह मोड़ा, परिवार के मोह को त्यागा, तितिक्षा व्रत धारण किया। हिमाच्छादित दुर्गम प्रदेशों को लाँघा, हिंस्र जंतुओं से भरे जंगलों में होकर राह बनाई, खाद्य सामग्री और जल से रहित लंबे मरुस्थलों को पार किया, कंधे पर चीवर और हाथ में भिक्षा पात्र जैसी अपरिग्रही स्थिति स्वीकार की। ऋतु-प्रकोपों को सहते हुए अपरिचित प्रदेशों में प्रवेश किया, छोटी नावों में बैठकर समुद्र यात्राएँ की, अजनबी क्षेत्रों की भाषाएँ सीखीं और वहाँ के निवासियों से संपर्क संभव किया। इन धर्मप्रचारकों में सुसंपन्न वर्ग के ऐसे सुयोग्य व्यक्ति थे, जिन्हें प्रचुर सुख-सुविधाएँ प्राप्त थीं और वे इस झंझट में पड़ने की अपेक्षा मौज-मजा की जिंदगी जी सकते थे। बुद्ध स्वयं राजकुमार थे। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने घर त्यागकर परिव्राजक धर्म स्वीकार किया। यह परंपरा चली सो चलती ही गई।

धर्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रायः स्वेच्छाचार बरतते हैं। वे अपने क्रिया-कलापों पर किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं करते फलतः उस वर्ग में फैली हुई विशृंखलता कोई कार्य नहीं करने देती, धर्म की एक विशेषता उसकी अनुशासनशीलता भी थी। व्यक्तिगत जीवन में श्रवणों को कठोरतापूर्वक रहना पड़ता था और सामूहिक जीवन में वे संघ द्वारा निर्धारित कार्यपद्धति का श्रद्धा भरे अनुशासन के साथ पालन करते थे। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से, पद-प्रतिष्ठाओं से दूर रहकर ही लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है, यह बात आरंभ से ही मन में भरी जाती थी और कहा जाता था कि जो अपने यश, वर्चस्व के लिए लालायित होगा वही धर्म-चक्र में सबसे बड़ा अवरोध गिना जाएगा। निजी यशस्विता साथियों को गिराकर और अपना कुछ विलक्षण खड़ा करके ही उपलब्ध हो सकती है। जो इसके लिए मरेगा वह धर्मविजय के लक्ष्य को क्षति पहुँचाए बिना न रहेगा। इन आदर्शों को श्रद्धा के साथ अंगीकार करने का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्मप्रचारक निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति की दिशा में आशातीत सफलता के साथ अग्रसर हो सकने में समर्थ बन सके।

संप्रदाय नहीं दर्शन, शिष्य नहीं उत्तराधिकारी

भगवान बुद्ध का महानिर्वाण अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ। उनकी २५००वीं निर्वाण शताब्दी मई १९५६ में मनाई गई थी। बोधगया में उत्कीर्ण लेख में यह तिथि ईसा से ५४४ वर्ष पूर्व बताई गई है। ईसा से ६२३ वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ। पिता शुद्धोधन कौशल राज्य के अधीन शाक्य गणतंत्र के प्रमुख शासक थे। उनकी माता महामाया जब कपिलवस्तु से अपने मायके देवग्रह जा रही थीं, तब लुंबिनी वन में दो साल वृक्षों की छाया में बुद्ध का जन्म हुआ। सम्राट अशोक ने उस जन्मस्थान पर स्मारक बनवाया जो अभी भी उस घटना की साक्षी देता है। लगभग ८० वर्ष की आयु तक वे जीवित रहे। वैशाखी पूर्णिमा उनकी निधन तिथि मानी जाती है। उसी दिन वे जन्मे भी थे। कहते हैं कि जिन दो साल वृक्षों के नीचे उनका जन्म हुआ था, वहीं निर्वाण भी हुआ।

समय की विकृतियों के साथ जूझना बौद्ध अभियान की अपनी विशेषता थी। धर्म-संप्रदायों और साधना केंद्रों की प्रक्रिया व्यक्तिगत जीवन को परिष्कृत बनाने तक की सीमा में अवरुद्ध रहती आई है। उसमें प्राचीन परंपराओं का समर्थन करने का प्रचलन रहा है। बुद्ध ने उस परंपरा को तोड़ा और क्रांतिकारी प्रक्रिया अपनाई। जन्म जाति और ऊँच-नीच के प्रचलन पर उन्होंने कुठाराघात किया। चुंद लुहार, उपलि नाई, अंबपाली वेश्या, मल्लिका शूद्रा का उनके वर्ग में सवर्णों से कम सम्मान नहीं था। ब्राह्मणवाद के आतंक से वे डरे नहीं। यज्ञों में—मंदिरों में प्रचलित पशुबलि का विरोध करके उन्होंने पुरोहित वर्ग को खुली चुनौती दी। वामाचार की—मद्य, मांस, मुद्रा, मैथुन की निकृष्ट भौतिक लिप्साओं को उन्होंने धर्मक्षेत्र की विकृतियाँ घोषित किया और इस संघर्ष में उन्हें पग-पग पर विविध विध संघर्षों का सामना करना पड़ा। पुरोहितों और रूढ़िवादियों ने उन्हें गिराने के लिए बुरी से बुरी दुरभिसंधियाँ करने में कसर न रखी। पर वे आत्म साधना के साथ लोकमंगल के लिए कठोर प्रयत्न करने में अपने मंतव्य से तनिक भी पीछे न हटे।

रचनात्मक कार्यों में बौद्ध प्रवृत्तियों का समुचित सम्मान था। पाठशालाएँ, चिकित्सालय, जलाशय, उद्यान, विश्रामगृह, अन्नक्षेत्र आदि की स्थापना एवं बनवाने में उन्होंने समर्थ व्यक्तियों को पूरा प्रोत्साहन दिया। पशुओं की हत्या और उनके साथ निर्दय व्यवहार को रोकने का समुचित प्रयास किया। ऐसे करुणा-संवर्द्धन के सेवा-साधना भरे कार्यों ने जनसाधारण के मन में और भी अधिक गहरा स्थान प्राप्त किया।

भगवान बुद्ध ने सर्वप्रथम जिन पाँच शिष्यों को शिक्षा दी, उन्हें धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए—धर्म विजय के लिए प्रचार-परिव्रज्या पर भेज दिया गया। पाँचों शिष्य विभिन्न दिशाओं में धर्म प्रचार के लिए चल पड़े। स्वयं बुद्ध ने भी एक मंडली बनाई और वे स्वयं भी ज्ञान का आलोक फैलाने के लिए भ्रमण करने लगे। बौद्ध धर्म के "महा-बग्ग" ग्रंथ में इस धर्म चक्र प्रवर्तन के उद्देश्य, स्वरूप और क्रिया-कलाप का विस्तारपूर्वक वर्णन है। मगध राज्य में गया, वेल, राजगृह, नालंदा, पाटलिपुत्र, दक्षिणगिरि, अंधकबिंद, कल्लवाल, सुत्तागाम स्थानों में बुद्ध के प्रचार कार्य का विस्तृत उल्लेख मिलता है। उन्होंने कौशल राज्य में जाकर भी अपनी प्रक्रिया को विस्तृत बनाया।

बुद्ध के प्रतिपादन इतने प्रखर, तथ्यपूर्ण और न्यायोचित थे कि उन्होंने राजा प्रजा सभी के विवेक को झकझोरा और उस विचारधारा को अपनाने के लिए बाध्य किया। मगध का राजा विंबसार उनका अनुयायी बना। कौशलराज प्रसेनजित ने सपरिवार उनसे दीक्षा ली। अवंति नरेश प्रद्योत्त, कौशांबी के राजा उदयन ने भी बुद्ध-धर्म ग्रहण किया। राजा ही नहीं उस काल के सभी वर्गों के मूर्धन्य व्यक्ति उस प्रतिपादन से प्रभावित होकर अभियान में सम्मिलित हो गए। सुदत अनाथ पिंडक जैसे व्यापारी, यश जैसे समृद्ध नागरिक, काश्यप जैसे विद्वान, जीवक जैसे कुशल चिकित्सक, मौदगल्यायन जैसे महा पंडित, भद्रा और क्षेमा जैसी प्रतिष्ठित महिलाएँ उस महा अभियान को सफल बनाने के लिए सहयोग देने लगे। बुद्ध द्वारा आरंभ किया गया लोकमानस नवनिर्माण—धर्मचक्र द्रुतगति से अग्रगामी बनने लगा। छोटा बीज अंकुरित होकर किस प्रकार ऊँचा उठता है, इसका जीवंत उदाहरण पाँच से आरंभ हुए धर्म-प्रवर्तन अभियान के कुछ ही दिनों में व्यापक बनने की प्रक्रिया में दृष्टिगोचर होने लगा।

यह धर्म चक्र प्रवर्तन मात्र कुछ के प्रयासों तक ही सीमित नहीं रहा, वरन अन्य अनेक महामानवों ने अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने ढंग से उसे आगे बढ़ाया। वर्द्धमान महावीर उन्हीं दिनों लगभग ऐसा ही प्रयास करने में निरत थे। पीछे इस प्रयास को जैन धर्म नाम दिया गया। भारत से बाहर भी ये विचार क्रांति लहरें मारने लगीं। लगभग उन्हीं दिनों यूनान में परमेनाइडीस, चीन में लुतजे और कनफ्यूशस, ग्रीस में सुकरात, बैविलोनिया में ईसा मसीह, ईरान में जरदुस्त ऐसे ही प्रयास करने मे संलग्न हुए। क्रांति की हवा सभी दिशाओं में अपने साथ ऐसे दावानल को लेकर फैली कि अंधकार, अनाचार का प्रचलन पग-पग पर रोष एवं तिरष्कार का भाजन बनने लगा।

बुद्ध के जीवन काल में वह अभियान प्रधानतः भारत की सीमाओं में ही रहा, पर उसका क्षेत्र बराबर बढ़ता और व्यापक बनता चला गया। उसमें संभ्रांत लोग शामिल होते चले गए। विचारशील वर्ग ने मुक्त कंठ से उसे सराहा और सहयोग दिया। तदनुसार जनता ने भी उसे श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य किया। भद्रक, अनुरुद्ध, किंबिल, भृगु, नंद, आनंद, उपलि जैसे प्रभावशाली लोगों का समर्थन मिला। शाक्य, मल्ल, मग्ग, कोलिय, वुलि, मौर्य और लिच्छिव देश के लोगों ने सामूहिक रूप में बौद्ध धर्म में प्रवेश किया। वैशाली और कुशीनार के राजाओं का सहयोग इस प्रयोजन में बहुत सहायक सिद्ध हुआ।

महिलाएँ भी उस महाक्रांति को अग्रगामी बनाने में पूरे उत्साह के साथ आईं। महा प्रजापति गौतमी के प्रभाव से शाक्य वंश की सहस्रों महिलाएँ बुद्ध की अनुगामिनी बनीं। विशाखा और अंबपाली ने उस अभियान में बढ़-चढ़कर भाग लिया। अनाथ पिंडक की पुत्री के अथक प्रयास ने तो सारे भांग प्रदेश को ही उस रंग में रंग दिया। कौशांबी की रानी सामावती ने अपने पति उदयन को बौद्धधर्म में दीक्षित कराके ही दम लिया। महिला भिक्षुणियाँ पुरुष भिक्षुओं से किसी भी क्षेत्र में पीछे न थीं। अंबपाली ने अपना विशाल आम्रवन बौद्ध विहार के लिए दान दे दिया।

"अर्ली हिस्ट्री ऑफ दि बुद्धिज्म एण्ड बुद्धिस्ट स्कूल" ग्रंथ के अनुसार बुद्ध के जीवन काल में ही उनका अभियान महाकच्छ, सुप्पारक, रोरुक, अपारात्र कुरु, भद्र आदि भारत के उत्तर-पश्चिम के राज्यों में पूरी तरह जड़ जमा चुका था। इन राज्यों में अनेकों बुद्ध विहार बन चुके थे।

भगवान बुद्ध ने दूसरे धर्म संस्थापकों की तरह अपनी पूजा कराने या सस्ते स्वर्ग के टिकिट बाँटने के लिए छिटपुट कार्यक्रमों का प्रचलन नहीं किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को समग्र क्रांति के लिए, सद्धर्म की प्रतिष्ठापना के लिए प्रेरित किया था। अस्तु, उनके अनुयायी अपने धर्मगुरु के न रहने पर भी उस पुनीत प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिए उत्साहपूर्वक तत्पर बने रहे। सम्पन्न लोगों ने मुक्त हस्त से अपने खजाने खाली कर दिए। प्रभावशाली लोगों ने अपनी प्रतिभा का पूरा-पूरा लाभ उस मिशन को दिया। विद्वानों ने समर्थन का पहाड़ जितना साहित्य जुटा दिया। प्रचारकों की टोलियाँ अतीव कष्ट सहन करती हुई देश-देशांतरों को प्रयाण करती रहीं। इन सबके समन्वित त्याग-बलिदान का ही प्रभाव था कि बौद्ध धर्म अपने समय में एक अति महत्त्वपूर्ण और अनुपम भूमिका संपादन करने में समर्थ हो सका। दूसरे मत-मतांतरवादियों की तरह यदि बुद्ध धर्म भी गुरुवंदना अथवा कर्मकांडों के टंट-घंट तक सीमित रहा होता तो निश्चय ही बरसाती मेंढकों की तरह उत्पन्न हुए अगणित संप्रदायों की तरह वह भी उपहासास्पद स्थिति में पड़ा रह जाता। थोड़े अंधानुयायियों के अतिरिक्त और कोई उस विडंबना की छाया को छूने के लिए तैयार न होता। बुद्ध धर्म की स्थापना एक क्रांतिकारी अभियान के रूप में हुई थी। अस्तु, उनका नश्वर शरीर न रहने पर भी उस अभियान में कोई शिथिलता नहीं आई वरन चौगुने-सौगुने उत्साह के साथ वह अग्रगामी होता चला गया।

बौद्ध धर्म के सबसे बड़े आश्रयदाता सम्राट अशोक थे। वे शासन व्यवस्था के आवश्यक कार्यों से बची हुई प्रायः संपूर्ण शक्ति धर्म-चक्र-प्रवर्तन में लगाते थे। विदेशों तथा भारत के सुदूर क्षेत्रों में धर्म प्रचार के लिए अभीष्ट यात्रा साधन वे ही जुटाते थे। विद्वानों, प्रचारकों की शिक्षा-दीक्षा के कितने ही विहार बनाने और चलाने का श्रेय उन्हीं को है। नेपाल के राजवंश में उन्होंने अपनी एक पुत्री का विवाह कर उस क्षेत्र में धर्म-चक्र-प्रवर्तन का नया अध्याय खोला। उनके पुत्र और पुत्री लंका आदि देशों में गए और वहाँ संघ की स्थापना की।

धार्मिक स्तर ही नहीं अशोक के प्रयास राजनीति स्तर पर भी जारी रहे। उन्होंने अपने राजदूत अन्यान्य देशों में भेजकर वहाँ के राजाओं को बौद्ध-धर्मानुयायी होने एवं राजाश्रय देने का सफल अनुरोध किया। भारत उन दिनों अनेक स्वतंत्र राज्यों में बँटा हुआ था। उसके कितने ही राजाओं ने आदरपूर्वक अशोक के अनुरोध को स्वीकार किया और अपने देशों में धर्म चक्र-प्रवर्तन के लिए सहयोगात्मक उत्साह दिखाया। भारत से बाहर गांधार, सुवर्ण-भूमि, मलाया, सुमात्रा, सीरिया, मिश्र, मैसेडोनिया, इपिरस, सिरेनिया, यवन आदि देशों में धर्म प्रचार का पथ प्रशस्त होता चला गया। बौद्धप्रचारकों की लगन और निष्ठा की जितनी सराहना की जाए उतनी ही प्रशंसा इन राजनीतिक और धार्मिक प्रयत्नों की भी करनी पड़ेगी, जिनके आधार पर प्रचारकों को महत्त्वपूर्ण सफलताएँ उपलब्ध करना संभव हो सका।

अशोक के बाद राज्याश्रय देने वालों में कनिष्क का नाम आता है। मध्य एशिया, चीन, जापान, तिब्बत, वर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया आदि देशों में धर्म विस्तार का श्रेय कनिष्क की अशोक परंपरा अपनाने वाली निष्ठा को दिया जा सकता है।

भारत में मगध, कौशल, उज्जैनी, मैसूर, कश्मीर, आंध्र, पुलिंद, चोल, पाण्ड्य आदि देशों का राज्याश्रय बौद्धधर्म को उपलब्ध था। नालंदा, वलभी, विक्रमशिला, ओदंतपुरी, विक्रमपुरी, सोमपुरी, मथुरा आदि की समुन्नत शिक्षण संस्थाएँ इन्हीं के सहयोग से चलती थीं। सारनाथ, अजंता, धान्यकूट, साँची, कन्नौज आदि के विशाल देवालय राजकीय संपत्ति से ही निर्मित हो सके थे। सम्राट हर्षवर्द्धन ने इस दिशा में अधिक समर्थ उत्साह दिखाया। मिलिंद (मिना-दर) का नाम भी इसी श्रेणी में आता है। यह ग्रीक था, इसका काल ईसा की पाँचवी शताब्दी माना जाता है। उसका उल्लेख "मिलिंद पन्ह" नामक बौद्धजातक में विस्तारपूर्वक आता है। उसके प्रभाव से कंधार, पेशावर, काबुल घाटी तथा उत्तर भारत के काश्मीर, पंजाब आदि कितने ही प्रदेश बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए।

कनिष्क कुशाणवंशी चीनी तुर्किस्तान का नागरिक था। उसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। मध्य एशिया के सुविस्तृत क्षेत्र में तथा भारत के कतिपय क्षेत्रों में उसका राज्य फैला हुआ था। उसने कितने ही विहार तथा चैत्य बनवाए। इनमें पेशावर का स्तूप ४०० फुट ऊँचा था। बौद्धसाहित्य को उसने मध्य एशिया की अनेक भाषाओं में विद्वानों द्वारा अनूदित कराया और उस क्षेत्र के अनेक देशों में धर्मप्रचारक भेजने तथा उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए आश्चर्यजनक कार्य किया। कनिष्क के सिक्कों पर भगवान बुद्ध का चित्र अंकित था।

हर्ष देश के राजा हर्षवर्द्धन बौद्धधर्म की निष्ठा में पूरी तरह रंगे हुए थे। वे नालंदा विश्वविद्यालय के संरक्षक थे तथा धर्म चक्र प्रवर्तन में भारी योगदान देते थे। इनके समय में भारत में ब्राह्मणधर्म और बौद्ध धर्म के बीच संघर्ष चल रहा था, तो भी हर्षवर्द्धन दोनों को परस्पर पूरक और एक ही वृक्ष के दो डालियाँ मानते थे। राज्याश्रय में १००० बौद्ध भिक्षुओं तथा ५०० ब्राह्मण-संतों के लिए निर्वाह तथा शिक्षा की व्यवस्था होती थी। चीनी यात्री युआनच्वांग सन् ६३० से ६४४ तक चौदह वर्ष भारत में रहा। उन दिनों हर्षवर्द्धन का शासन काल था। च्वांग ने हर्ष की धर्मनिष्ठा का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है और एक संस्मरण में यह भी लिखा है कि हर्ष ने समस्त राज्यकोष तथा व्यक्तिगत संपत्ति धर्म चक्र-प्रवर्तन के लिए दान करते हुए अपने शरीर के बहुमूल्य वस्त्र तक उतारकर दान कर दिए थे और अंततः अपनी बहन राज्यश्री के दिए वस्त्र को पहनकर दानवेदी से उठा था।

विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में अपना लूट-खसोट का मनोरथ तो अच्छी तरह से पूरा किया, पर साथ ही वे इस देश की तत्कालीन श्रेष्ठ संस्कृति के सामने परास्त भी होते चले गए। इतिहास में मीनांडर नामक एक ऐसे ग्रीक आक्रमणकारी का वर्णन है जो क्षेत्रविजय में तो सफल रहा, पर धर्म विजय क्षेत्र में पराजित होकर रह गया। बौद्धभिक्षु नागसेन के साथ उसकी लंबी चर्चा दार्शनिक विषयों पर होती रही, फलतः वह इतना प्रभावित हुआ कि बौद्धधर्म में ही दीक्षित हो गया।

एक मीनांडर ही नहीं उन दिनों यूनान के अनेक राजा बौद्ध धर्म के अनुयायी बन चुके थे। इसका क्रमबद्ध इतिहास तो उपलब्ध नहीं है, पर यूची शासक 'हतिय' के सिक्कों पर शिव और त्रिशूल की मूर्ति छपी रहने से यह स्पष्ट है कि वहाँ भारतीय धर्म का प्रचलन था। ग्रीक और पार्थियन लोगों के लेख प्राकृत भाषा में हैं। उनके सिक्कों पर राजा के धार्मिक होने का उल्लेख है।

कुशानवंशी कनिष्क का अधिकृत प्रदेश उज्जैन तथा साँची से लेकर गोबी मरुस्थल तक फैला पड़ा था। उत्तरी भारत से लेकर चीनी तुर्किस्तान तक उसी का राज्य था। चीनी भाषा के 'धर्मपिटिक निदान सूत्र' में उल्लेख है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र पर चढ़ाई की और उसे जीता। किंतु जब वह महाभिक्षु अश्वघोष के द्वारा बौद्धधर्म के संपर्क में आया तो उसने जीता हुआ सब कुछ लौटा दिया और केवल 'अश्वघोष' नामक विद्वान को तथा भगवान बुद्ध के कमंडल को लेकर हरजाने की भरपाई कर ली, वह स्वयं भी बौद्धधर्म में दीक्षित हो गया।

कनिष्क को वृत्तिक अशोक कहा जाता है। उसने अपने राज्य में बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए भारी प्रयास किया। चीन, तिब्बत, मंगोलिया, खोतान आदि क्षेत्रों से उपलब्ध साहित्य से स्पष्ट है कि उन दिनों कनिष्क को शासनाध्यक्ष के रूप में ही नहीं धर्माध्यक्ष के रूप में भी लोकश्रद्धा उपलब्ध थी। मध्य एशिया में बौद्धधर्म की जड़ जमाने का बहुत कुछ श्रेय कनिष्क को दिया जा सकता है, जिसने प्रचारकों के लिए सभी आवश्यक सुविधा सामग्री उपलब्ध की और प्रजा को उसके अनुगमन के लिए प्रोत्साहित किया। उसने अपनी राजधानी पेशावर में तेरह मंजिला एक बुद्ध स्मारक स्तूप बनवाया जो नौवीं शताब्दी तक खड़ा रहा। उन दिनों उसे संसार की उच्चतम इमारत में गिना जाता था।

वेल्स लिखित 'अंडर लाइन ऑफ हिस्ट्री' में कहा गया है कि यूनान पर बौद्धधर्म का भारी प्रभाव पड़ा। अशोक के २५० वर्ष बाद इस क्षेत्र के जूडिया प्रदेश में ईसा उत्पन्न हुए। उनकी शिक्षाओं पर बुद्ध-दर्शन का प्रभाव अत्यंत स्पष्ट है। अशोक द्वारा यूनान में 'थेराप्यूत' नामक वैद्य भेजे गए। उन्होंने चिकित्सा के साथ-साथ धर्म प्रचार भी जारी रखा। उनके अनुयायियों का 'थेराप्यूत' एक वर्ग भी बन गया। पीछे उनकी चिकित्सा पद्धति पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति का एक अंग बन गई, जिसे 'थेराप्यूटिक्स' कहते हैं। सिकंदरिया के प्रचारकों के साथ-साथ व्यापारी भी पहुँचे और वहाँ उनने अपनी बस्तियाँ बसाईं। इतिहास लेख क्लेमेंट और क्रिस्टोस्टम के अनुसार सिकंदरिया में कई जाति के भारतीय बड़ी संख्या में रहते थे।

प्रचंड अभियान अकसर आँधी-तूफान की तरह बढ़ते हैं। तब उनके सामने दो कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। एक यह कि उनमें कूड़ा-कचरा आकर मिल जाता है और वह उस पवित्र प्रवाह को गंदा बनाने लगता है। दूसरी यह कि अगणित मनुष्यों के सहकार से आंदोलन चलने के कारण उसकी विभिन्न दिशाओं में खींच-तान होती है। कोई प्रवाह को एक दिशा में ले जाना चाहता है तो कोई दूसरी दिशा में। इन दो कठिनाइयों के कारण सदुद्देश्यपूर्ण अभियानों के सामने भी उनके असफल हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। दूरदर्शी नेतृत्व इन दोनों चट्टानों से बचाकर जहाज को आगे बढ़ाता है।

बुद्ध के नेतृत्व में आरंभ हुई विचार क्रांति को भी इन दो कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस अभियान में उच्छृंखल तत्त्व घुस पड़े थे और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उस प्रवाह का उपयोग करना चाहते थे। यदि उनकी बात चलने दी जाती तो उससे चंद स्वार्थी तत्त्वों का व्यक्तिगत लाभ तो खूब होता, पर लक्ष्य की पूर्ति कठिन हो जाती। बुद्ध की मृत्यु के कुछ ही समय उपरांत सुभद्र नामक महत्त्वाकांक्षी भिक्षु ने खुलेआम कहना शुरू कर दिया, "अच्छा हुआ बुद्ध मर गए। हम लोग उनके चंगुल से छूटे, अब हम स्वच्छंदतापूर्वक जो चाहेंगे सो करेंगे।" इस प्रकार के महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति कम नहीं थे और वे अपना-अपना अलग वर्ग खड़ा करने को उतारू थे। इसी प्रकार विचारक्रांति की मूल दिशा में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करके कोई उसे तंत्र विद्या में, कोई ज्ञान-वैराग्य में, कोई-कोई बहुमूल्य स्मारक निर्माण में, कोई अध्ययन-अध्यापन में सीमाबद्ध करना चाहते थे। इस खींचातान को रोकने के लिए दूरदर्शी विवेकवान लोगों ने समय-समय पर विचारशील लोगों की महापरिषदें बुलाई, जिन्हें 'संगीति' नाम दिया गया। इतिहास में ऐसी कई संगीतियों का विवरण मिलता है।

प्रथम संगीति—

मगध के राजा अजातशत्रु के आवाहन पर प्रथम संगीति राज-गृह के समीप सप्तपर्णी गुहा में हुई। इसमें ५०० अहंत एकत्रित हुए। सभापतित्व महाकाश्यप ने किया। परिषद सात मास तक चली। इसमें उपलि और आनंद नाम के दो विद्वान भिक्षुओं को बौद्ध दर्शन तथा बौद्ध आचार का एक प्रामाणिक स्वरूप प्रस्तुत करने का कार्य सौंपा गया। भगवान बुद्ध मात्र प्रवचन करते थे। उनके विचारों और निर्देशों को लेखबद्ध करना आवश्यक था। इस प्रथम परिषद को यही महत्त्वपूर्ण कार्य करना था।

द्वितीय संगीति—

स्थविर 'यश' ने द्वितीय संगीति वैशाली में बुलाई। यह आठ मास चक चली। इसमें ७०० भिक्षु सम्मिलित हुए। इसका मुख्य उद्देश्य संघ में पड़ी फूट और विशृंखलता का निराकरण करना था। मतभेद बढ़ रहे थे और आक्षेप के कारण उत्पन्न हो रहे थे। भिक्षुओं का आचार गिर रहा था और वे मर्यादाओं को तोड़कर मनमानी करने पर उतारू थे। इसलिए इस संगीति में ऐसे निर्णय किए गए, जिनसे स्वेच्छाचार की संघ द्वारा तथा जनता द्वारा भर्त्सना की जा सके। संघ के सदस्यों को अनुशासन में रहने के लिए बाध्य होना पड़े।

तृतीय संगीति—

सम्राट अशोक ने बौद्ध क्रांति को विश्वव्यापी बनाने के उद्देश्य से तृतीय संगीति का आयोजन किया। मौदागलि पुत्र तिष्य ने उसका आमंत्रण भेजा। 'अशोकाराम' में एक हजार भिक्षु एकत्र हुए, नौ मास तक यह सम्मेलन चला। 'त्रिपिटिक' का संकलन कार्य वहीं संपन्न हुआ। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी भारत से बाहर समस्त विश्व में बौद्धदर्शन को व्यापक बनाने के लिए प्रभावशाली कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना।

योजना सुनिश्चित हुई और नौ प्रचारक मंडल देश-देशांतरों को भेजे गए। (१) मंज्झांतिक (२) महादेव (३) राकीवत (४) योनधम्म राकीवत (५) महाधम्य राकीवत (६) मज्झिम आदि (७) महा राकीवत (८) सोण उत्तर (९) महिन्द आदि। इन नौ प्रचारकों के नेतृत्व में भिक्षु-मंडलियाँ धर्म विजय के लिए निकल पड़ीं और उन्होंने भारत के सुदूर प्रांतों की तथा विश्व के विभिन्न भागों की यात्राओं के लिए कमर कस ली। गांधार, यूनान, अरब, मिश्र, पेगू, सालमीन, लंका, मध्य एशिया, पूर्वी द्वीप समूह आदि देशों में यह मंडलियाँ कष्टसाध्य यात्राएँ पूरी करती हुई पहुँची और उन्होंने दूरवर्ती स्थानों में भाषा संबंधी कठिनाइयों का सामना करते हुए धर्म-संस्थापना में आशातीत सफलताएँ प्राप्त की। बौद्धसाहित्य के 'महावंश' और 'दीपवंश' नामक पाली भाषा के प्रामाणिक ग्रंथों में इन यात्राओं का विस्तारपूर्वक वर्णन है। सम्राट अशोक के तेरहवें शिलालेख में भी इन प्रचार यात्राओं का वर्णन है। उसमें लिखा है—धर्म विजय देवताओं की विजय है। अंतिम ओन, तुरूमय, अंतिकिनी, मक, अलिसुंदर, राजाओं ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। चौल, पाण्ड्य, ताम्रपर्णी, योन, कंबोज, नाम पंक्तियों, भोज पितिनिकों, आंध्र पुलिंदों पर धर्म विजय प्राप्त हुई। इन क्षेत्रों को अब के भूगोल के अनुसार सीरिया, मिश्र, उत्तरी अफ्रीका, ऐपिरस, मेसिडोनिया, लंका, कंबोज, यूनान कहा जाता है।

'महावंश' के अनुसार कश्मीर और गांधार में ८० सहस्र, वनवासी में ६० हजार, अपरांत में २७ हजार, महाराष्ट्र में ८४ हजार, योन में ७० हजार, सुवर्ण भूमि में ६० हजार मनुष्यों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की। इन सभी देशों में बौद्ध विहार स्थापित हुए। उनमें धर्म विजय अभियान को आगे बढ़ाने के लिए बड़ी संख्या में भिक्षु-भिक्षुणियाँ प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे।

चतुर्थ संगीति—

महा श्रमण पार्श्व ने कनिष्क के प्रोत्साहन से चौथी संगीति बुलाई। उसका आयोजन कश्मीर में श्रीनगर के निकट कुंडलवन में किया गया। सभापति वसुमित्र थे और उपसभापति अश्वघोष। ५०० विद्वान भिक्षु उसमें सम्मिलित हुए। त्रिमिटक ग्रंथ के सूत्र, विनय और अभिधर्म अध्यायों पर एक-एक लाख श्लोकों के भाष्य की रचना का निर्णय इसी में हुआ। बौद्धधर्म में जो मतभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका निराकरण एवं समन्वय इसी संगीति में किया गया।

चुल्ल बग्ग, महा बग्ग और दीपवंश बौद्ध ग्रंथों में इन संगीतियों का जो विवरण दिया गया है, उसमें कुछ-कुछ मतभेद भी हैं। किस संगीति में कितने भिक्षु एकत्रित हुए, उनकी संख्या इन ग्रंथों में समान नहीं है। कारण और विवरणों में अंतर है। इस मतभेद के आधार पर प्रथम संगीति महाकाश्यप ने बुलाई थी, राजा अजातशत्रु ने उसका प्रबंध कराया था। उन दिनों के संघ प्रमुख आनंद पर जो आक्षेप लगाए जा रहे थे, उनका निराकरण किया गया। दूसरी परिषद में भिक्षुओं ने उच्छृंखलता बरतनी आरंभ कर दी। उन पर दस प्रतिबंध लगाते हुए कठोर आचार संहिता निर्धारित की गई थी। तीसरी परिषद में उच्छृंखलता बरतने वाले भिक्षुओं को संघ से पृथक किया गया था। चौथी परिषद में विभिन्न देशों के बीच भाषा संबंधी कठिनाई का हल खोजने के लिए संस्कृत को विश्वभाषा घोषित किया गया था।

इन चार महा परिषदों के अतिरिक्त स्थानीय छोटी-छोटी संगीतियों के भी विवरण मिलते हैं। महावंश के अनुसार लंका में तीन परिषदें हुईं। पहली राजा देवानांप्रिय तिष्य ( २४७ से २०७ ईसा पूर्व) के शासन काल में अरिट्ठ थेर के सभापतित्व में, राजधानी अनुराधापुर में संपन्न हुई। इसमें अशोक पुत्र महेंद्र भी सम्मिलित हुए। दूसरी राजा बट्टगामणि अभय (१०१-७७ ईसा से पूर्व) के शासन काल में, थेर रक्षित की अध्यक्षता में, अक्षु विहार में। तीसरी सन् १८६५ में, सिंहल रत्नकर में, हिक्क दुवे श्री सुमंगल की अध्यक्षता में।

थाईलैंड (स्याम) में दो परिषदें हुईं। एक चिगमाई में—राजा धर्म चक्रवर्ती तिलक के शासन काल में, दूसरी बैंकाक में।

माँडले के राजा 'भिनदीन मन' की संरक्षता में प्रथम परिषद हुई, जो राजमहल में पाँच महीने तक चली। इसमें २४०० बौद्ध विद्वान एकत्रित हुए। दूसरी परिषद रंगून में हुई। अभिबज महारथ गुरु भदंत रेवत इसके अध्यक्ष थे। इनमें ५०० भिक्षु सम्मिलित हुए।

लंका, स्याम और बर्मा में हुई उपरोक्त संगीतियों का उद्देश्य सामयिक समस्याओं का समाधान, भावी कार्यक्रमों का निर्धारण एवं धर्म चक्र प्रवर्तन को अधिकाधिक गति देते हुए धर्म विजय के लक्ष्य को अधिक से अधिक समीप लाना था। उपासनात्मक कर्मकांड एवं प्रार्थना प्रवचन भी उनमें होते रहे, पर उन सम्मेलनों का प्रमुख प्रयोजन यही था कि भगवान बुद्ध ने व्यापक अंधकार से जूझने का जो लक्ष्य सामने रखा था, उसमें उनके अनुयायी शिथिलता न आने दें और साहसिक कदम बढ़ाने के लिए संगठित प्रयत्न करें।

भगवान बुद्ध अपने उत्तराधिकार में जो त्याग, बलिदान, साहस और पुरुषार्थ अनुयायियों को दे गए थे, उसे उन्होंने बहुत सँभाल-सँजोकर रखा और मिशन को ही अपना जीवित धर्म गुरु मानकर उसे सींचने के लिए शक्ति भर अनवरत प्रयत्न करते रहे।

उन दिनों संस्कृत पंडितों की भाषा थी और पाली सामान्य जनों की। पर संस्कृत में भी बौद्ध धर्म को प्रस्तुत करने वाले ग्रंथ लिखे जाते रहे। विद्वानों ने यह साहित्य-सृजन इतने उत्साह के साथ किया कि ब्राह्मण धर्म के ग्रंथों का विस्तार उनके सामने हलका पड़ने लगा।

साहित्य-सृजन की तरह बुद्ध के अनुयायियों में धर्म-संस्थान बनाने के लिए भी बहुत उत्साह रहा। तथागत के जीवन से संबंधित स्थानों में तथा अन्य प्रचार सुविधा के क्षेत्रों में विशालकाय भवन खड़े किए गए। ये केवल स्मारक नहीं थे, वरन उन्हें धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए प्रकाश केंद्रों के अनुरूप बनाया गया था। धर्मप्रचारकों के निवास, निर्वाह, प्रशिक्षण के लिए वहाँ आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध थीं। इन केंद्रों में उन सभी प्रवृत्तियों को विकसित किया जाता था जिससे धर्म धारणा की पुष्टि और विश्वव्यापी प्रचार अभियान की गतिशीलता को समुचित पोषण मिलता रहे।

भारत में भगवान बुद्ध की स्मृति में बने चार स्थान अधिक महत्त्वपूर्ण हैं—

(१) लुंबिनी जहाँ वे जन्मे।
(२) बोध गया—जहाँ आत्मबोध प्राप्त हुआ।
(३) सारनाथ—जहाँ प्रथम प्रवचन दिया।
(४) कुशीनगर—जहाँ शरीर त्यागा।

इसके अतिरिक्त (१) श्रावस्ती (२) संकाश्य (३) राजगृह (४) वैशाली भी तथागत के समय में धर्म चक्र प्रवर्तन के केंद्र रहे हैं। इन आठों स्थानों को बौद्ध धर्मावलंबी एक प्रकार से तीर्थ मानते हैं और श्रद्धापूर्वक उनकी दर्शन यात्रा करते हैं।

लुंबिनी—नेपाल की तराई में सामिनदेई कसबे के निकट है। बोध गया—हिंदुओं के गया तीर्थ से छह मील आगे है। सारनाथ—वाराणसी के समीप है। कुशीनगर—गोरखपुर जिले के कासिया के समीप है। श्रावस्ती—जिसे जैतवन विहार भी कहते हैं, उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर से लगभग २० मील दूर है। संकाश्य-सांकिया-बसंतपुर, फर्रुखाबाद, (उ. प्र. के) देहाती क्षेत्र में है। राजगृह—पटना जिले का राजगीर नगर है। वैशाली—बिहार के मुजफ्फरनगर जिले के बसाढ़ गाँव के समीप था। आठों स्थानों को बौद्ध साहित्य में 'अट्ठ महाठानानि' अष्ट महास्थान कहा जाता है।

इसके अतिरिक्त भारत में कुछ और भी स्थान ऐसे हैं, जिनसे वहाँ किसी समय बौद्ध धर्म के महत्त्वपूर्ण केंद्र होने का प्रमाण मिलता है। (१) सांची (मुंबई से ५४९ मील) (२) नालंदा (बिहार के राजगीर कसबे से निकट बड़ा गाँव) (३) गिरनार (जूनागढ़, सौराष्ट्र से ७ मील) समीप ही सिद्धसर की गुफाएँ, (४) तलाजा (भावनगर-सौराष्ट्र) समीप ही सांन्हा में ६२ गुफाएँ। (५) बलभी (भावनगर से २२ मील) (६) काम्पिल्य (गुजरात में नवसारी के निकट)। महाराष्ट्र प्रांत में—भज, कोण्डाणे, पितलखोर, अजन्ता, बेदसा, नासिक, जुन्नर, कोले, कान्हेरी, गोआ। दक्षिण भारत में नागार्जुन, कोंडा महिओल, जगप्प पेटा, गुसिवाडा, घंटिशाल, नागपट्टम, श्रीमूलवासम्, कांचीपुरम् आदि। अमरावती का स्तूप अपने ढंग का अनोखा है। ऐसे सहस्रों स्थान अब भी भारत में जहाँ-तहाँ देखे जा सकते हैं, जहाँ किसी समय बौद्धधर्म की साधना तथा शिक्षा के विशालकाय प्रयासों का सहज ही आभास मिलता है।

अपने समय में भगवान बुद्ध की प्रेरणा और उनके अनुयायियों की उदारता, कर्मठता ने जो कार्य किया उससे एक बार भारत-भूमि में चिर-अतीत की झाँकी पुनः होने लगी। लगभग ढाई लाख भिक्षु और भिक्षुणी सजन सेना के रूप में भावनात्मक नवनिर्माण के लिए जुट गए। उसका सत्परिणाम भारत में सतयुगी परिस्थितियों के रूप में सामने आया और उन दिनों समस्त एशिया में, समस्त विश्व में एक नवीन उल्लास का संचार हुआ। बौद्धधर्म के प्रभाव, प्रसार की अवधि को उस समय का सुखद सौभाग्य काल कहा जा सकता है।

मध्य-एशिया का खोतान-क्षेत्र बृहत्तर भारत का एक अंग

'तकला-मकन' मरुस्थल के दक्षिणी सिरे पर युरंगकाश नदी बहती है। उसकी हरी-भरी सुरम्य घाटी का नाम खोतान है। यह क्षेत्र यारकंद से दक्षिण-पूर्व में लगभग २०० मील है। यरंगकाश और कराकाश नदियाँ इसे सींचती हैं। दोनों नदियाँ जहाँ मिलती हैं, वहीं से उसका सम्मिलित नाम 'खोतान' पड़ जाता है। यह आजकल चीनी तुर्किस्तान के अंतर्गत आता है।

इस क्षेत्र पर ईसा से ५३ वर्ष पूर्व राजा विजय-संभव का शासन था। इसके बाद कण्व राजा भूमिमित्र का शासन हुआ। इन्हीं दिनों कश्मीर से अर्हत विरोचन नामक एक बौद्ध भिक्षु खोतान पहुँचा। उसने राजा को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया और प्रजाजनों ने भी उसे उत्साहपूर्वक स्वीकार किया। उसी समय 'सरमा' नामक एक बौद्ध बिहार बना और संस्कृत से मिलती-जुलती 'ली' भाषा का प्रसार हुआ। तिब्बती सूत्रों में प्रथम बौद्ध राजा विजय-संभव को ही बताया गया है। उनके वंशज विजय-वीर्य ने 'गन्क्तर' चैत्य और 'गोशंग' बिहार का निर्माण कराया।

इसके बाद इस वंश के ११वें राजा विजय-जय ने चीन की राजकुमारी 'लुशी' से अपना विवाह कर लिया। उसके नाम से राजधानी से ६ मील पर 'लुशी बौद्ध विहार' बना। इस प्रकार चीनियों को उस प्रदेश में घुस पैठ करने का अवसर मिला और अंततः उस क्षेत्र की आधी आबादी चीनी और आधी भारतीय हो गई।

विजय-जय के तीन पुत्र थे। इसमें से विजय-धर्म राज्याधिकारी बना, दूसरा धर्मानंद बौद्ध-भिक्षु बन गया। उसने भारत की तीर्थयात्रा की और वापस लौटकर उस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्हीं दिनों आठ नए विहार बने। भारत से मंत्र सिद्ध नामक एक प्रकांड विद्वान वहाँ धर्म प्रचार के लिए पहुँचा, उसने 'संगतीर' नामक एक नए विहार की स्थापना की।

सन् ४०४ में चीनी यात्री फाहियान कूचा होता हुआ खोतान पहुँचा। उसने इस क्षेत्र की समृद्धि को भरपूर सराहा है और लिखा है—"यहाँ के सब निवासी बौद्ध हैं। घर-घर के आगे स्तूप बने हैं। उस देश में १४ बड़े संघाराम हैं। पर्वों पर प्रतिमाओं के शानदार जुलूस निकलते हैं, उसके निर्माण में ८० वर्ष लगे हैं। तीन राजाओं के शासन में वह पूरा हो पाया है। स्तूप की ऊँचाई २९० फुट है।"

सन् ५१९ में एक दूसरा यात्री 'सुंगयुग' खोतान पहुँचा। उसने लिखा—"यहाँ मुरदे जलाए जाते हैं। हड्डियों पर स्तूप खड़ा किया जाता है। मृतक के संबंधी सिर के बाल मुँडाते हैं।"

सन् ६४४ में तीसरा यात्री ह्वेनत्सांग खोतान पहुँचा। उसने लिखा है—"यहाँ की भाषा भारतीयों से मिलती-जुलती है। लिपि में भी थोड़ा सा ही अंतर है। बौद्धधर्म को मान्यता है। इस क्षेत्र में १६ के करीब संघाराम हैं, यहाँ का राजा बौद्ध है और अपने को वैराचन वंश का कहता है।"

तिब्बत के इतिहास से पता चलता है कि सन् १००७ में इस क्षेत्र पर एक चीनी राजा 'लो युल' का आधिपत्य हो गया था। उसने बौद्ध धर्म को उखाड़ने के लिए भारी अत्याचार किए। अंततः भिक्षुगण वहाँ से भाग खड़े हुए और वे तिब्बत तथा गांधार क्षेत्र में छितरा गए। तुर्की इतिहास के अनुसार सन् १००० में तुर्क आक्रांता यूसुफ कादरखां ने इस क्षेत्र पर हमला किया और वहाँ फैले हुए बुद्ध धर्म को उखाड़कर इस्लाम धर्म की स्थापना की। १२५ वर्ष के शासन काल में उन्होंने वहाँ की जनता में से अधिकांश को बलपूर्वक मुसलमान बना लिया। १२१८ में मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खाँ ने इस क्षेत्र पर हमला किया, उसने मंगोलिया से लेकर आस्ट्रिया तक अपना आधिपत्य जमाया। इसी सिलसिले में खोतान भी उसके कब्जे में आ गया। उसके बेटे कुवेलई खाँ ने इस प्रदेश को पूरी तरह इस्लाम बना दिया। सन् १८७८ में इस देश पर चीन का कब्जा हो गया, अब वह उसके 'सिनक्यांग' प्रांत का एक प्रमुख अंग बनकर रह गया है।

'दंदान यूलिक' नगर में भी अभी भी चारों ओर बुद्ध अवशेष बिखरे पड़े हैं। खुदाई में एक और बौद्ध मंदिर निकला है, जिसमें खड़ी और बैठी भगवान बुद्ध की कितनी ही प्रतिमाएँ हैं। दीवारों पर तथागत की जीवनचर्या संबंधित भित्तिचित्र हैं। लकड़ी पर गणेश प्रतिमा है। कुबेर वैश्रवण की मूर्तियाँ भी मिली हैं। इसी मंदिर में एक ग्रंथ भी मिला है जो ब्राह्मी लिपि में है। तालपत्रों पर तथा काष्ठ पत्रों पर लिखे और भी लेख हैं।

योतकन नगर के पास समज्ञा (मो० मो० जोह) नामक एक स्थान के समीप स्तूपों के सैकड़ों ध्वंशावशेष अभी भी उपलब्ध हैं। "हो-को" के जर्जरित बिहार में बुद्ध भगवान के दस बड़े चित्र तथा ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में ताल-पत्रों पर लिखे आठवीं शताब्दी के ग्रंथ मिले हैं। इसी में एक शंकरजी का काष्ठ चित्र भी है।

पुरातत्ववेत्ता अर्ल स्टेन ने 'एनशिएण्ट खोतान'—'इनरमोस्ट एशिया' आदि ग्रंथों में उन अवशेषों और उद्धरणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, जिनसे खोतान-क्षेत्र में प्राचीनकाल की बौद्ध संस्कृति पर गहरा प्रकाश पड़ता है। युरंकाश नदी के पश्चिमी किनारे पर बसे रोतकन नगर में जो अवशेष मिले हैं, उनमें भारतीय राजाओं के आठ सिक्के मिले हैं, उनमें से छह काश्मीरी शासकों के हैं और दो काबुल के हिंदू राजा सामंत रबे के हैं। एक मुहर पर गौमाता की छाप है।

निय नगर में खरोस्ट्री लिपि और संस्कृत भाषा में काष्ठ-पत्रकों पर लिखे लेख मिले हैं। कुछ चमड़े पर भी लिखे हैं। एक स्तूप तो अभी भी वहाँ जीवित अवस्था में खड़ा है, जिसकी दीवारों पर बुद्ध के चित्र बने हैं। एंदेर नगर के समीप रेत के टीले में दबा एक मंदिर मिला है, जिसमें बुद्ध की चार मूर्तियाँ और कुछ रत्नजटित आभूषण भी मिले हैं। एक गणेश चित्र भी है। तिब्बती भाषा में लिखा 'शालिस्तंभ-सूत्र' भी यहाँ प्राप्त हुआ है। 'डलाय मजर' स्थान के आस-पास बौद्ध विहारों के ढेरों अवशेष बिखरे पड़े हैं। 'अर्ककदम तिमि' नगर का जर्जर स्तूप वहाँ किसी समय की बढ़ी-चढ़ी बौद्ध संस्कृति का स्मरण दिलाता है। 'अक्सिपिल' के ध्वस्त मंदिर की दीवारों पर तथागत की अभय मुद्रा में मूर्तियाँ बनी हैं। ऐसी ही अन्य कितनी ही टूटी मूर्तियाँ यहाँ उपलब्ध हुई हैं। 'अक्सिपिल' के उत्तर में रेत के टीलों में दबा किसी समय का रबक विहार और स्तूप मिला है। इसमें आदम कद बुद्ध प्रतिमा भी हैं। भित्तिचित्रों में बुद्ध के जीवन वृत्तांत से संबंधित घटनाएँ अंकित हैं।

इतिहास बताता है कि खोतान को अशोक पुत्र कुस्तन ने ईसा से २४० वर्ष पूर्व बसाया। उसके प्रपौत्र विजय-संभव ने बौद्धधर्म के प्रचार में विशेष रुचि ली और पहला विहार ईसा से २११ वर्ष पूर्व स्थापित हुआ। आठवीं सदी तक इस क्षेत्र में लगभग १००० वर्ष तक बौद्ध धर्म छाया रहा। निय, काल मदन, (चर्चेन) क्रोराइना, लूलन और कोक्कूक (काशनर) उसके प्रमुख केंद्र थे।

आज का चीनी तुर्किस्तान ईसा की प्रथम शताब्दी में चार राज्यों में बँटा था—(१) मरुक (अक्सु) (२) आंग्रदेश (कर शहर) (३) का ओ चंग (४) कूचा। इन चारों में सबसे समृद्ध था 'कूचा', जहाँ बौद्ध धर्म की गहरी जड़ जमीं। चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि उन दिनों कूचा में लगभग एक हजार बौद्ध विहार और मंदिर थे। स्तूपों का जाल बिछा हुआ था। यहीं से शेष तीन राज्यों में प्रचार की योजना बनाई जाती थी।

बौद्ध साहित्य का क्षेत्र की भाषाओं में अनुवाद कार्य करने के लिए राज्याश्रय से बड़ी राशि प्राप्त होती थी। सहस्रों विद्वान उस कार्य में जुटे रहते थे। इन ग्रंथों को वहाँ के धर्म स्थानों और पुस्तकालयों में सम्मानपूर्ण स्थान मिला। इससे इस विचारधारा के व्यापक बनने में बड़ी सहायता मिली। इससे पूर्व उस क्षेत्र में कन्फ्यूशियस धर्म और ताओ मत फैला हुआ था। निस्संदेह बौद्ध दर्शन उसकी तुलना में अधिक गहरा और अधिक प्रभावोत्पादक था। साथ ही बौद्ध भिक्षु स्वयं जिस प्रकार का आदर्श जीवन व्यतीत करते थे, वह भी कम आकर्षक नहीं था। जनता का हृदय जीतने और बुद्धि को आकर्षित करने में इन दोनों ही कारणों से आशाजनक सफलता प्राप्त हुई। बुद्धिजीवियों ने उसका भरपूर समर्थन और स्वागत किया। विद्वान 'माउतिसङ' ने द्वितीय शताब्दी के अंत में एक वार्तिक भाष्य लिखा, जिसमें बौद्ध धर्म के साथ चीन के प्रचलित धर्मों की तुलना की गई और बौद्ध दर्शन को हर दृष्टि से श्रेष्ठ ठहराया। ऐसा ही प्रतिपादन अन्य स्थानीय विद्वानों ने भी किया है। युन कांग-हंडमेन उन-हुआंग आदि से उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य की भली प्रकार पुष्टि होती है।

ईसा की प्रथम सदी में मध्य एशिया के खोतान से लवनौर तक के लंबे प्रदेश में बौद्ध धर्म का बोलबाला था। इस प्रदेश की सरकारी भाषा 'खरोष्ट्री' थी, जिसे संस्कृत की ही पुत्री कहा जा सकता है। इलियट कृत 'हिंदुइज्म एण्ड बुद्धिज्म' ग्रंथ से स्पष्ट है कि मध्य एशिया की तारिम घाटी में किसी समय बौद्ध धर्म ही व्याप्त था। उस क्षेत्र की सीमा थी—उत्तर में 'टीनशान' पर्वत श्रेणी—दक्षिण में कश्मीर, तिब्बती पठार और कुनलुन पर्वत श्रेणीपूर्व में चीन, 'ननशन' पर्वत श्रृंखला—पश्चिम में 'इमोस' पर्वत श्रेणी। इस क्षेत्र को आजकल रूसी और चीनी तुर्किस्तान कहा जाता है। यह ३६ से ४३ अक्षांश ७३ से ९२ देशांश (ग्रीनविच से पूर्व) में स्थित है। तारिम घाटी की पूर्व से पश्चिम तक की लंबाई ९०० मील और उत्तर में कूचा से लेकर दक्षिण में कुनलुन तलहटी तक की चौड़ाई ३०० मील से कम नहीं है। बौद्ध धर्म इस क्षेत्र में मुद्दतों तक फला-फूला।

मध्य एशिया यद्यपि एक विस्तृत क्षेत्र है, किंतु उसका बड़ा भाग मरुस्थलीय है। इसके पूर्व और पश्चिम में 'तकला मकन' का मरुस्थल है, जिसकी सीमा पर निजना, बारकंद एवं तारिम नदियों की घाटियों पर मरुद्यानों (ओसिस) के हरे-भरे मैदान हैं। दक्षिण में कुनकुन पर्वत की तलहटी के ढलवां किनारों पर भी मरुद्यानों की पट्टियाँ हैं। पश्चिम एवं उत्तर में काशगर, यारकंद, कूचा और कर शहर एवं दक्षिण में खोतान के प्रसिद्ध मरुद्यान अवस्थित हैं।

मध्य एशिया के विस्तृत क्षेत्र में बसने योग्य स्थान केवल मरुद्यान ही थे, जिनके इर्द-गिर्द ही विभिन्न जातियों के लोग निवास करते थे, उन्हीं क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का प्रचार था। कुछ शताब्दियों तक यह क्षेत्र बौद्ध धर्म एवं संस्कृति के केंद्र बने रहे। अब चीनियों का अधिकार हो जाने से सभी स्थानों के नाम भी बदल गए हैं। अब काशगर को "को शां" कूचा को "फू चिह" यारकंद को "ना-फो वो" निय को "नीजम" तुरफन को "कावचेंग" खोतान को "कुस तन" कहा जाता है। इनमें तारिम घाटी के दक्षिण में खोतान सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण उद्यान है। सेनर्ट कृत 'खरोष्ट्री डाक्यूमेंट्स' ग्रंथ में पाँच छोटे राज्यों की चर्चा है जिनके नाम पेपिया, तजक, अमगोक, माहिरी एवं मास्यान थे। इनके राजा 'कुशान' शाही पदवी धारण करते थे। उन्हें महाराज, रायतिराय और देवपुत्र भी कहा जाता था।

बहुत प्राचीन काल में चीन का पश्चिम से संबंध दो व्यापारिक मार्गों द्वारा स्थापित था। ये मार्ग मध्य एशिया होकर जाते थे। चीन की सीमा से तारिम घाटी होकर बलख तक यह मार्ग चले गए थे। इन्हें 'सिल्क मार्ग' कहा जाता था। चीन का रेशम रोमन साम्राज्य के देशों में बड़े पैमाने पर इन्हीं रास्तों से जाता था, इसलिए उनका नाम सिल्क मार्ग पड़ गया था। पहली शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक इन रास्तों का व्यवसाय तथा यातायात प्रयोजनों के लिए भरपूर प्रयोग होता था। इनके अतिरिक्त एक तीसरा मार्ग और था जो भारत और मध्य एशिया को मिलाता था। यह श्रीनगर से गिलगिट होता हुआ काशनगर तक पहुँचता था, भारत से मध्य एशिया में बुद्ध धर्म मुख्यतः इसी मार्ग से गया था।

कान्सू प्रांत में स्थित 'तुन हांग' नगर तीसरी शताब्दी में बौद्ध धर्म के प्रचारकों का प्रमुख केंद्र था। शोधकर्ता इलियट के तत्त्वावधान में फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ताओं ने कचियन, खोतानी, सीरिक, तिब्बती और संस्कृत भाषाओं के जो प्राचीन ग्रंथ एवं लेख उपलब्ध किए हैं, उनमें बौद्ध धर्म द्वारा बहुत कठिनाइयों का सामना करके इस मार्ग का निर्माण और उपयोग करने का उल्लेख है। 'सैण्ड बरीड रुइन्स ऑफ खोतान' ग्रंथ में भी इस मार्ग के प्रयोजन, निर्माण और उपयोग की चर्चा है।

बौद्ध इतिहासकार 'बुद्ध घोष' ने इस क्षेत्र का उल्लेख 'कुरुरथ्य' नाम से किया है। उसने अपने ग्रंथ 'पापांक दानी' में भगवान बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करने के लिए उत्साही धर्मप्रचारकों के भारत से जाने की चर्चा की है।

परजिटेर कृत 'डायनेस्टीज ऑफ दि कलि एज' ( कलियुगीन राजाओं की वंशावलि) में उल्लेख है कि भगवान बुद्ध की मृत्यु के उपरांत सम्राट अशोक ने बौद्ध गुरु मोदगलि पुत्र तिष्य के निर्देशन में 'तृतीय बौद्ध महासभा' (संगीति) बुलाई, जिसमें निश्चय किया गया कि तथागत के धर्म संदेशों का प्रसार करने के लिए विदेशों में धर्म पुरोहित भेजे जाएँ। तदनुसार गांधार के लिए—मच्झंतिक, यूनान में—महारक्षित और लंका में महा महिंद के नेतृत्व में धर्मविजय के लिए प्रचार मंडल भेजे गए। इस निर्णय का उल्लेख टाडनर कृत—'इंगलिश ट्रांसलेशन ऑफ महावंश' में भी है और अशोक के 'तेरहवें शिलालेख' में भी उसकी चर्चा है।

कनिष्क का राज्य खोतान से लेकर सिंध तक फैला था। तक्षशिला विश्वविद्यालय की वृद्धि उसकी सहायता से ही हुई थी। उसमें छात्रों के अतिरिक्त तीन हजार अध्यापकों तथा प्रचारकों के रहने योग्य कमरे बने थे। मथुरा में कनिष्क की मूर्ति के साथ जो शिलालेख पाया गया है, उससे प्रतीत होता है कि उसका राज्य बढ़ते-बढ़ते मथुरा तक पहुँच गया था।

एपीग्राफिका इंडिया' ग्रंथ के भाग ६ में विस्तारपूर्वक उन प्रमाणों का संकलन है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि मध्य एशिया के सुविस्तृत भाग में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। प्राकृत और संस्कृत के अतिरिक्त उस क्षेत्र में खरोष्ट्री, उइगुरु, तोरवारी, खोतानी, कूची, सोगरी आदि जो स्थानीय भाषाएँ प्रचलित थीं, उनमें भी बौद्ध के ग्रंथों का अनुवाद उपलब्ध हुआ है।

पुरातत्ववेत्ताओं ने मध्य एशिया क्षेत्र के पिछले इतिहास पर प्रकाश डालने वाली खोजें बहुत परिश्रमपूर्वक की हैं। कालोनेल बोवर ने भोज पत्रों पर लिखा एक प्राचीन ग्रंथ बहुत कीमत देकर खरीदा था। यह क्षेचा कृत्र में कुमतुरा स्थान में रेत के नीचे गड़ा हुआ मिला था। यह चौथी शताब्दी का संस्कृत भाषा का ग्रंथ है। फ्रांसीसी विद्वान डुट्रेइल डीरिहन्स ने भी खोतान से ऐसा ही भोजपत्रों पर लिखा हुआ प्राचीन ग्रंथ प्राप्त किया था। यह बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' ग्रंथ है जो प्राकृत भाषा में हैं और खरोष्ट्री लिपि में दूसरी शताब्दी में लिखा गया है। इसी प्रकार सर अर्ल स्टेन, व्हान लोकोड, पाल पीलिअर, सेनर्ट, बुहलर, कोनाव आदि विद्वानों ने इस प्रकार की खोज में बहुत प्रयत्न किया है। रूस के क्लेमेन्टज और जापान के काउंट ओनानी भी इन प्रयत्नों में पीछे नहीं रहे हैं। हार्नेल रचित 'मैनूस्क्रिप्ट रिमेन्स ऑफ बुद्धिष्ट लिटरेचर फाइंड इन तुर्किस्तान' ग्रंथ में इन खोजों का निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है।

इनके अतिरिक्त एच० डब्ल्यू बेली के 'बुद्धिस्ट टेक्स्ट्स' नान जिओ के 'ए केटलाग आफ दि चाइनीज ट्रांसलेशन ऑफ दि बुद्धिस्ट ट्रिपिटिक', टी० बेरो के 'दि लेंगुएज ऑफ खरोष्ट्री डाक्यूमेंट्स फ्राम चाइनीज तुर्किस्तान', जे० टाकाकुम् कृत 'ए रिकार्ड आफ दि बुद्धिष्ट रिलीजन' आदि ग्रंथों में विस्तारपूर्वक इन खोजों का वर्णन किया गया है, जो प्राचीनकाल में मध्य एशिया के सुविस्तृत क्षेत्र पर प्रकाश डालती हैं। पिछले दिनों इस प्रकार के जो प्रमाण मिले हैं उनकी संख्या ७६४ है।

सत्रहवीं शताब्दी के प्रवासी भारतीयों का बहुत बड़ा समुदाय मध्य एशिया के ताशकंद नगर तथा आस-पास के कसबों में बसा हुआ था। ताशकंद, बुखारा, समरकंद आदि में उनकी कितनी ही कारवाँ सराएँ थीं। 'मारगोलान' 'नेपानगन' में भारतीयों की अच्छी बस्तियाँ बसी हुई थीं। समरकंद और बुखारा की चाय मंडी पर उनका आधिपत्य था।

मध्य एशिया का तुर्किस्तानी भाग पीछे कुछ तो रूस में जुड़ गया और कुछ चीन में। इससे पूर्व उसकी स्थिति स्वतंत्र थी। इस समय वहाँ भारतीय विभिन्न व्यवसायों में लगे थे। जौहरी, स्वर्णकार, व्यापारी, साहूकार, वस्त्र निर्माता, किसान, पुस्तक व्यवसायी आदि वर्गों में भारतीयों की बहुत संख्या थी।

मध्य एशिया में बुद्ध धर्म किस प्रकार बोया गया, उगाया गया और बढ़ाया गया, इस संबंध में अधिक जानकारी देने वाली कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की नामावली इस प्रकार है—
(१) अकनुमा कृत—'डिक्शनरी ऑफ बुद्धिस्ट इंडियन प्रापर नेम्स'
(२) रतनचंद्र अग्रवाल कृत—'लाइफ ऑफ बुद्धिस्ट मान्क्स इन चाइनीज तुर्किस्तान'
(३) पी० सी० बागची कृत 'इंडिया एण्ड सेंट्रल एशिया'
(४) चारु सियांग कांग कृत 'इंडोचाइनीज रिलेशन्स'
(५) हेडिचन कृत—'सेंट्रल इंडिया एण्ड तिब्बत'
(६) विलियम माण्टागोमरी कृत—'दि अर्ली एम्पायर्स ऑफ सेंट्रल एशिया'
(७) एन० दत्ता कृत—'गिलगिट मैनुस्क्रिप्ट्स्।'

चीनी क्षेत्र में भारत से पहुँचे बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद कब, किस प्रकार, किसके द्वारा हुआ? इसका विवरण जानने के लिए अकनुमा कृत—'दि कम्पेरेटिव कैटलाग ऑफ चाइनीज आगमाज एण्ड पाली निकायाज', अनेस्की कृत—'पाली एलीमेंट्स इन चाइनीज बुद्धिज्म' आदि ग्रंथों को पढ़ना चाहिए।

बौद्ध धर्म के भारत से मध्य एशिया पहुँचने का मध्य केंद्र काश्मीर रहा है। दोनों देशों के बीच भाषा संपर्क बनाने, संबंधी साधन उपलब्ध कराने की सुविधा कश्मीर से ही संपन्न होती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों में काश्मीरी पंडितों का ही बाहुल्य था। कुमारजीव संघभूति, यशस पुष्यन्नात, धर्म यशस, बुद्ध यशस, विमलाक्ष, धर्ममित्र, धर्मक्षेम, जीवगुप्त, धर्मगुप्त, धर्मकंद, अजित गुप्त, काश्यप मातंग, बोधि रुचि, सुधाकर सिंह, उपशून्य आदि उद्भट विद्वान तथा परम नैष्ठिक बौद्ध भिक्षु मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के संस्थापक तथा विस्तारकर्ता माने जाते हैं। इनमें से अधिकांश का परिचय विवरण यही बताता है कि उनमें से कितने ही तो कश्मीर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही जन्मे थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक बड़ा विभाग इसी प्रयोजन के लिए था कि वह भारत से मध्य एशिया जाने वालों तथा एशिया से भारत आने वालों की भाषा संबंधी कठिनाई को दूर करे, और भौगोलिक तथा सामाजिक स्थिति से परिचय कराए। इतना ही नहीं वह इन लोगों के लिए आवश्यक साधन-सामग्री भी जुटाता था। तक्षशिला में यह विशेषता नालंदा से भी कहीं अधिक थी। नालंदा में इस प्रकार का प्रशिक्षण तो था, पर वह भारत के मध्य में अवस्थित होने के कारण व्यावहारिक दृष्टि से बहुत अधिक कार्य नहीं कर सकता था।

भारतीय धर्म प्रचारकों को इस बात का सदा ध्यान रहा कि वे स्थानीय धर्मप्रचारक तैयार करें। इस दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर ही इतनी बड़ी सफलताएँ प्राप्त कर सकना संभव हो सका और एशिया महाद्वीप का प्रायः आधा भाग बौद्ध धर्म के झंडे के नीचे आकर खड़ा हो सका। 'आन-शी-को' तो बुद्ध की तरह ही एक समृद्ध राज्य के राजकुमार थे, जिन्होंने राजपाट छोड़कर प्रव्रज्या की दीक्षा ली थी। पार्थिया से चलकर वे चीन पहुँचे और राजा-प्रजा के दोनों क्षेत्रों को अपने तप, त्याग तथा प्रवचनों से प्रभावित करते रहे। 'ले केनन बौद्धिक यू० एन० चाइने' ग्रंथ में 'शी को' के कार्यकलाप पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। 'चिल किय-चाऊअनहियुएन-चियो-काडमोड सियाड-चुत ति-तन को-कांग कि यू' आदि विद्वान मध्य एशिया के ही निवासी थे। स्थानीय परिस्थितियों से अधिक परिचित होने तथा भाषा संबंधी कठिनाई से बचे होने के कारण उनकी सफलताएँ और भी अधिक सुविस्तृत एवं सहज संभव हो सकी।

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