अभीष्ट क्षमता हो तो ही प्रजनन का साहस करें

बच्चों का उत्पादन वरदान भी है और अभिशाप भी । वरदान उनके लिए जो माता-पिता शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से सुसम्पन्न हैं और राष्ट्र देवता को सुयोग्य सुविकसित सुसंस्कृति सन्तान द्वारा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने में समर्थ हैं । वे अपने इस उत्पादन से मानव परिवार में कुछ नये महामानव जोड़ने के सत्प्रयत्न के फलस्वरूप अपना श्रम सार्थक करते हैं और सर्वजनीन प्रगति एवं समृद्धि में योगदान करते हैं । अभिशाप उनके लिए जो स्वयं शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़े होने के कारण अपने से भी गये-बीते, पिछड़े, रुग्ण, कुसंस्कारी नर-कीटकों की संख्या वृद्धि करके इस धरती का भार बढ़ाते हैं और उनके द्वारा उत्पन्न गन्दगी से संसार में अनेकानेक विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं । स्वयं तो उस दुसह दुःख को सहते—असह्य भार को ढोते, नारकीय यातनायें सहते ही हैं ।

विवाह का तात्पर्य दो व्यक्तियों का मिल-जुलकर जीवन की नाव को सुचारु रूप से गतिशील रखना है । उसके द्वारा संयुक्त रूप में मनुष्य लदे हुए वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकने में सरलता अनुभव करता है । विवाह की यही उपयोगिता है । बच्चे पैदा करना आवश्यक नहीं है । उसका साहस करने से पूर्व सौ बार विचार करना चाहिए कि प्रस्तुत उत्तरदायित्वों को पूरा करने के उपरान्त क्या उनके पास इतनी क्षमता बचती है कि नये मेहमान को बुलाया जाय ? सोचना चाहिए कि माँ के शरीर में नये शरीर को जन्म देने योग्य प्रसव वेदना सहन करने योग्य क्षमता है या नहीं । प्रसव से लेकर बालक के पालन-पोषण योग्य आर्थिक- क्षमता, श्रम और समय लगा सकने की स्थिति पर भी अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए । अन्यथा बच्चे का जन्म माँ के प्राणों का ग्राहक बन सकता है । परिवार का समग्र संतुलन बिगाड़ सकता है ।

अपने देश में साधन कम और जनसंख्या अधिक है । अन्न के लिए दूसरे देशों का मुँह ताकना पड़ता है । स्कूलों में, रेल में, कारखानों में जगह नहीं, महँगाई, बेकारी से कमर टूट रही है, इस स्थिति में नये बच्चे बढ़ाने का दुस्साहस देश और समाज के साथ द्रोह करने के बराबर है । अब नई सन्तानें उत्पन्न करते हुए किसी को भी प्रसन्न नहीं होना चाहिए वरन् आँसू बहाने चाहिए कि भारतमाता की छाती पर पहले से ही लदे हए असह्य भार को बढ़ाने वाला एक पत्थर और बढ़ गया ।

परिवार के छोटे-बड़े सदस्यों के विकास के लिए जब समय और धन की कमी अनुभव हो रही है तो उन्हें उस आवश्यकता से वंचित रखकर नई जिम्मेदारी बढ़ाने में क्या बुद्धिमत्ता ? अपनी और अपनी पत्नी के शारीरिक, मानसिक विकास की स्थिति यदि पूर्णता की स्थिति तक पहुँच गई हो तो फालतू शक्ति को नये बच्चों के लिए भी खर्च किया जा सकता है । यों उदारता इस बात में है कि अपने फालतू धन को असंख्य अविकसित बालकों को अपने ही बच्चे मानकर उनके विकास में खर्च कर दिया जाय । हमें इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए कि अपने पेट से निकले हुए बच्चों को ही अपना मानें और देश के असंख्य बालकों की दयनीय स्थिति की ओर से मुँह मोड़कर निष्ठुरता धारण किये रहें, अच्छा हो अपना बच्चा पालने का शौक किसी असहाय बालक को अपनाकर पूरा कर लें और अपनी पत्नी को प्राण संकट में धकेलने से बचा लें ।

यह सोचना बौद्धिक पिछड़ेपन का चिन्ह है कि सन्तान से वंश चलता है, पिण्डदान मिलता है । यह प्रतिपादन उस समय के हैं जब जमीन बहुत और आबादी थोड़ी थी । जन-संख्या बढ़ाने की आवश्यकता थी तदनुसार ऐसे-ऐसे प्रोत्साहन गढ़े गये थे । आज तो इतना समझना ही पर्याप्त है कि वंश सत्कर्मों द्वारा उपलब्ध यश से चलता है और पिण्डदान का लाभ मिलना अपने किये हुए पुण्य परमार्थ के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्भव नहीं । अपने देश में लड़की-लड़के के बीच भेद करने की भी दूषित दृष्टि बेतरह छाई हुई है । इसे बदलना चाहिए । लड़की और लड़के में किसी प्रकार अन्तर नहीं समझा जाना चाहिए । बेटा कमाई खिलायेगा और बेटी खर्च बढ़ायेगी, ऐसा आज की विकृति सामाजिक स्थिति के कारण ही सोचना पड़ रहा है । कल विवाहोन्माद का असुर मरने ही जा रहा है । विवाह एक छोटे घरेलू उत्सव के रूप में सम्भव हो जायेंगे, तब कन्या भार नहीं रहेगी और हर व्यक्ति अपने ही पुरुषार्थ से मृत्युपर्यन्त जीवन-यापन की बात सोचेगा । बेटे का भी पराश्रित न बनेगा । आज भी कौन बेटा, किसे-किन अभिभावकों को निहालकर रहा है । हमें सोचने के तरीके बदलने चाहिए और यदि सन्तान उत्पन्न ही करनी हो तो कम से कम बेटी-बेटे का अन्तर तो नहीं ही करना चाहिए ।

यह तथ्य जितनी गहराई तक समझ लिया जाय उतना ही अच्छा है कि विवाह की सफलता का बच्चे होने न होने से कतई कोई सम्बन्ध नहीं है । दोनों समस्याएँ एक-दूसरे से सर्वथा पृथक हैं । जिनकी क्षमताएँ सुयोग्य और सुविकसित सन्तानें उत्पन्न करने की हों, उन्हें ही इस गुरुतर भार को उठाने का दुस्साहस करना चाहिए । जिनके पहले से ही कई बच्चे मौजूद हैं उन्हें तो तत्काल उस व्यवसाय की इति श्री कर देनी चाहिए और जितने मौजूद हैं, उन्हीं को सुयोग्य बनाने के लिए अपने साधनों को केन्द्रित कर देना चाहिए । नित नई सन्तानें बढ़ाते चलना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने के बराबर है ।

इतने पर भी जिन्हें बच्चे उत्पन्न करने ही हों, वे स्त्री-पुरुष अपने-अपने स्वास्थ्य को पूरी तरह स्वस्थ बनायें, अपना मानसिक विकास पूर्ण करें ताकि सन्तानें शारीरिक रुग्णता और मानसिक मूर्खता एवं उद्दंडता लेकर न जन्में । गर्भ-स्थापना के उपरान्त स्त्री के शारीरिक पोषण का पूरा ध्यान रखें क्योंकि उसे अब अपना ही निर्वाह नहीं वरन् एक नये शरीर का निर्माण भी करना पड़ रहा है । इसके लिए उसे अधिक सुपाच्य एवं अधिक शक्तिवर्धक आहार चाहिए । उसकी दिनचर्या अधिक सरल सुविधाजनक होनी चाहिए । साथ ही उत्साहवर्धक वातावरण का लाभ मिलना चाहिए । परिवार के सभी सदस्यों को मिल कर घर में ऐसी विनोद, सन्तोष भरी परिस्थितियाँ विनिर्मित करनी चाहिए जिनमें गर्भिणी प्रसन्नता अनुभव करती रहे और उस प्रभाव से गर्भस्थ शिशु की चेतना में सुसंस्कारी तत्त्वों का समावेश होता रहे ।

क्लेश-कलह का, द्वेष-दुर्भाव का वातावरण रहने पर उसका दुष्प्रभाव सन्तान के स्वभाव में सम्मिलित होकर आवेगा । यह वैज्ञानिक तथ्य सर्व साधारण को विदित होना चाहिए कि गर्भ में प्रवेश करने से लेकर तीन वर्ष की आयु तक बच्चे के व्यक्तित्व का प्रवृत्तियों वाला भाग अधिकतर पूरा हो चुकता है । इसके बाद तो सांसारिक अनुभवों की कम महत्त्व वाली पढ़ाई बाकी रह जाती है जो स्कूलों, कारखानों तथा सामाजिक वातावरण में पूरी होती रहती है । सन्तान को जैसा भी बनाना हो उसके लिए आवश्यक व्यवस्था उन्हीं दिनों जुटा देनी चाहिए जिनमें कि गर्भ प्रवेश से लेकर तीन वर्ष की आयु तक रहता है । अस्तु जननी के लिए आहार-विहार, अध्ययन, व्यवहार एवं वातावरण के सम्बन्ध में उच्चस्तरीय सावधानी बरतनी चाहिए और जितनी सुविधा, सरलता उत्पन्न की जा सकती है, उसके लिए पति को ही नहीं पूरे परिवार को ध्यान रखना चाहिए । जननी को स्वयं तो इस सम्बन्ध में अत्यधिक सतर्क रहना ही चाहिए ।

प्रसव कृत्य कुशल हाथों से कराया जाना चाहिए । उस समय की असावधानी जननी और बालक किसी के लिए भी प्राण संकट उत्पन्न कर सकती है । जन्मने के बाद उसकी सुकुमारता का ध्यान रखते हुए तदनुसार व्यवस्था बनाये रखने का पूर्व ज्ञान भली प्रकार संग्रह कर लेना चाहिए । माता का दूध पर्याप्त न उतरे तो बाजारू नहीं, प्रामाणिक दूध की व्यवस्था करनी चाहिए और वह कितने समय बाद, कितनी मात्रा में, किस प्रकार दिया जाय और उसे हानिकारक होने से कैसे बचाया जाय, इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी रखनी चाहिए और तदनुसार सावधानी बरतनी चाहिए । मल-मूत्र त्यागने के समय और स्थान सम्बन्धी सही आदत कुशल माताएँ आरम्भ से ही डाल सकती हैं । मनुष्य आदत प्रधान प्राणी है । उसे जैसा भी अभ्यास कराया जाय, उसी ढाँचे में ढल जाता है । यदि मल-मूत्र त्यागने का—दूध पीने का समय और विधि निर्धारित कर दी जाय तो अबोध बालक भी उसका अभ्यस्त बन जायगा और इसमें बच्चे और माता दोनों को ही सुविधा रहेगी ।

रोने का कारण सदा भूख ही नहीं होता । अपच या किसी दूसरे शारीरिक कष्ट से बच्चे रोते हैं । हर मर्ज की दवा दूध पिलाना या भोजन देना ही नहीं होना चाहिए । नियत समय पर नियत मात्रा में ही भोजन देना चाहिए । यदि किसी शारीरिक कष्ट से बच्चा रोता है तो उसका निवारण करना चाहिए । यदि अपच का कारण हो तो निर्धारित भोजन क्रम में भी कमी कर देनी चाहिए ।

अधिक मात्रा में और जल्दी-जल्दी भोजन देना बच्चों के हित में नहीं है । रोते बच्चों को हँसाने-खिलाने के उपाय से भी चुप किया जा सकता है । कई बार बच्चे प्यास की अभिव्यक्ति भी भूख के रूप में ही करते हैं, उन्हें पानी पिलाकर भी सन्तुष्ट किया जा सकता है ।

बच्चे प्रायः छः महीने बाद दूध के अतिरिक्त दूसरी चीज भी खाने लगते हैं । इन दिनों उन्हें बहुत ही थोड़ी मात्रा में, पतला और सुपाच्य पदार्थ काफी अन्तर के बाद देना चाहिए । पर होता यह है कि घर के सभी व्यक्ति, बच्चों को अपने-अपने साथ खाना खिलाने बैठा लेते हैं । वह इसका आदी हो जाता है और सारे दिन कुछ न कुछ खाने को माँगता रहता है । फलस्वरूप अपच उसे घेर लेता है, पतली टट्टी, पेट फूलना, उलटी, मुँह से लार गिरना जैसी हलकी समझी जाने वाली किन्तु अन्ततः प्राणघातक सिद्ध होने वाली बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं और स्थिति बिगड़ती चली जाती है । अपने देश में अधिकांश बच्चे अधिक मात्रा में और दुष्पाच्य आहार दे-देकर मार डाले जाते हैं । जिसे लाड़ समझा जाता है, वह उसके लिए प्रकारान्तर से घातक सिद्ध होता है ।

बच्चों को डराना, मारना-पीटना उपेक्षित और तिरस्कृत रखना जितना बुरा है उससे भी अधिक बुरा अनावश्यक लाड़ जताना है । बालकों को परिपूर्ण स्नेह, दुलार दिया जाय पर उसकी फूहड़ अति न की जाय अन्यथा उनकी आदतें बिगड़ती जायेगी और अनेकों शारीरिक, मानसिक विकृतियों के शिकार बनकर अपने आपके लिए तथा घर वालों के लिए एक संकट बन कर रहेंगे । ध्यान रखना चाहिए कि आदतें ही व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं और उनकी जड़ें जमाने का ठीक समय शैशव ही होता है । छोटे बालक जन्म से लेकर तीन वर्ष की आयु तक जितना अधिक सीखते और अपनाते हैं उतना फिर जीवन की किसी भी आयु में ग्रहण नहीं करते ।

कई बार महिलायें अपनी अन्य कारणों से उत्पन्न हुई खीज बच्चों पर उतारती हैं । उन्हें गाली-गलौज करती या मारती-पीटती हैं । यह बहुत ही बुरा है । उनके कोमल मन पर इस प्रकार के बुरे आघातों की बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है । अकारण ही या छोटे कारणों पर उन्हें अत्यधिक धमकाया जाना तो और भी अधिक बुरा है । ।

बच्चों के आहार-विहार पर ध्यान देना ही पर्याप्त नहीं उनके गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश इन्हीं दिनों किया जाना चाहिए । बड़ा समझदार होते ही उन्हें खिलौनों से, दूसरे मनुष्यों से खेलने का अवसर देना चाहिए, जिससे वे अधिक प्रसन्न रह कर विकासोन्मुख हो सकें । (१) स्वच्छता (२) नियमितता (३) व्यवस्था (४) शिष्टता (५) श्रमशीलता (६) सहकारिता (७) उदारता की प्रवृत्तियाँ उनके दैनिक जीवन में स्थान पाती रहें । उनके हलके-फुलके अवसर उन्हें देते रहना चाहिए और उनकी स्थिति के अनुरूप खेल-खेल में ही इन आदतों का समावेश करना चाहिए ।

छोटे बच्चे अधिकतर घर में ही रहते हैं इसलिए घर की पाठशाला में ही उन्हें सद्गुणों की शिक्षा दी जा सकती है । माता के साथ उनका विशेष लगाव होता है । इसलिए माता चाहें तो उनकी अन्य आवश्यकताएँ पूरी करने के साथ-साथ अच्छी आदतें देने में भी बहुत हद तक सफल हो सकती है । यों इस दिशा में योगदान पूरे परिवार का होना चाहिए ।

जन्म-जम्मान्तरों से संग्रहीत पशु प्रवृत्तियाँ बालक के साथ जुड़ी हुई आती हैं । उन्हें मानवोचित स्तर पर परिष्कृत कैसे किया जाय, यह एक कठिन किन्तु नितान्त आवश्यक कार्य है । परिवार के सभी लोगों को विशेषतया माता को इस विज्ञान की समुचित जानकारी होनी चाहिए । कुशल माली जिस तरह अपने प्रत्येक पेड़-पौधे को आवश्यक खाद-पानी देता है, साथ ही उनकी रखवाली, निराई-गुड़ाई एवं काट-छाँट में पूरी सतर्कता बरतता है, ठीक उसी स्तर का कार्य शिशु पालन है । उनके शरीर को स्वस्थ और मस्तिष्क को सुसंस्कृत बनाने में अनवरत रूप से सतर्क एवं प्रयत्नशील रहने की आवश्यकता है । इस सावधानी का स्वरूप और व्यवहार किस स्थिति में क्या होना चाहिए, यह जानकारी इस छोटी प्रचार पुस्तिका में सम्भव नहीं, उसे भिन्न पुस्तकों के रूप में प्रस्तुत किया जायगा ।

यहाँ तो इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि बच्चे उत्पन्न करने से पूर्व सौ बार सोचना चाहिए और यदि उन्हें जन्म भी दिया है तो उस गुरुतर भार को निभाने के लिए आवश्यक योग्यता और सतर्कता बरतनी चाहिए । अन्यथा अव्यवस्थित प्रजनन हर दृष्टि से हर किसी के लिए एक अभिशाप ही सिद्ध होगा । महिला जागरण अभियान के सदस्यों को इस दिशा में विशेष रूप में जागरूक रह कर सर्वसाधारण का नेतृत्व करना चाहिए ।