सुमात्रा—'श्रीविजय' देश
सुमात्रा की लंबाई १०९० मील, चौड़ाई २४८ मील और क्षेत्रफल १,६७,४८० वर्गमील है। जनसंख्या ८० लाख, जावा की तुलना में वह कोई ४ गुना बड़ा है। पहाड़ी उतार-चढ़ाव और नयनाभिराम हरियाली से आच्छादित यह देश भी बहुत सुंदर मालूम पड़ता है। समुद्री व्यापार में इस देश का बड़ा महत्त्व है। वहाँ का पुरातत्त्व विभाग यह बताता है कि सातवीं शताब्दी में संस्कृत वहाँ के शिक्षित वर्ग की मान्य भाषा रही है। कहते हैं कि भारतीयों का सर्वप्रथम प्रवेश इसी क्षेत्र में हुआ था।
क्षेत्रफल की दृष्टि में यह उस क्षेत्र के सब द्वीपों से बड़ा है। उसे लगभग भारत के मद्रास प्रांत के बराबर समझा जाना चाहिए। यह द्वीप (जावा) भरणी द्वीप (बोर्नियो) श्री शलभ द्वीप (सेलीवीस) मधुरा, बाली, लंबक, संभव आदि जिन द्वीपों का पुराणों में वर्णन आया है, वे सब सुमात्रा के इर्द-गिर्द ही बिखरे पड़े हैं।
स्वर्णद्वीप समूह में प्रवेश करते हुए पहला बड़ा द्वीप सुमात्रा ही आता है। इसका प्राचीन भारतीय नाम 'श्रीविजय' है। बौद्ध सत्रों में इसे जंबूद्वीप भी कहा गया है। उपलब्ध शिलालेख सिद्ध करते हैं कि सातवीं शताब्दी में वहाँ 'जय नाग' राजा राज्य करता था और वह बौद्ध था। चीनी सूत्रों के अनुसार सन् ७२४ में सुमात्रा पर श्रीचंद वर्मा का शासन था। उसका पुत्र चीनी सम्राट से भेंट करने के लिए गया था। तत्कालीन चीनी यात्री 'ईत्सिंग' के लिखे संस्मरणों से उस क्षेत्र पर हिंदू शासन की पुष्टि होती है।
'फ्लेमवंग' बुद्ध की एक पाषाण प्रतिमा अमरावती शिल्पकला के आधार पर बनी प्रतीत होती है। इस तथ्य तथा उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहना गलत न होगा कि सुमात्रा हिंदू उपनिवेश ईसा सन् के प्रारंभिक काल में कायम हुआ था। सुमात्रा में सबसे पहला हिंदू राज्य 'श्रीविजय' (फ्लेमबंग) था। इसकी स्थापना चौथी शताब्दी या उसके पूर्व हुई थी। इसकी प्रसिद्धि सातवीं शताब्दी के अंतिम काल में बहुत बढ़ गई थी। सन् ९८४ में श्रीजयनाग इसके बौद्ध राजा थे। इस राजा की दी घोषणाएँ पत्थर पर खुदी हुई प्राप्त हुई हैं उनकी प्रतिलिपियाँ भारतीय पुरातत्त्व विभाग के पास उपलब्ध हैं।
ईत्सिंग ने लिखा है कि दक्षिणी सागर के द्वीपों में 'श्रीविजय' बौद्ध शिक्षा एवं विद्या का केंद्र था और वहाँ के राजा के पास भारत और 'श्रीविजय' के बीच चलने वाले व्यापारी जहाज थे। मलाया प्रायद्वीप के 'लिगोर' क्षेत्र में प्राप्त शिलालेख (सन् ७७५) से प्रकट होता है कि श्रीविजय के बौद्ध राजा का प्रभाव मलाया के बंदोव खाड़ी तक ७७५ ई० से पूर्व हो गया था। चीनी इतिहास के अनुसार सुमात्रा के 'कान-तो-ली' के राजा 'बरनोण्ड' ने ४३४ और ४६४ ई० के बीच 'रुद्र' नामक एक राजदूत चीन भेजा था।
सुमात्रा पर लीडेन की 'दी आरकियालाजी ऑफ हिंदु सुमात्रा और स्टटेरिहम की ए जावानीज पीरियड इन सुमात्रन हिस्ट्री' में ऐसे प्रामाणिक वर्णन विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किए गए हैं, जो उस क्षेत्र पर भारतवर्ष के सांस्कृतिक आधिपत्य की भली प्रकार पुष्टि करते हैं। इतिहास विज्ञानी 'ऐलफिन्स्टन' के अनुसार भारतीय राजा 'सुमित्रा' ने उस देश में शासन व्यवस्था कायम की और उसी के नाम पर उसका नाम 'सुमात्रा' पड़ा।
उस देश में पाए जाने वाले प्राचीन खंडहरों में से अधिकांश शिव मंदिर हैं। कुछ बौद्ध मंदिर हैं, पर वे संख्या की दृष्टि से बहुत कम हैं। सुमात्रा में अभी भी राम, सीता, सुग्रीव, रुद्र, शिव, महादेव, महेश, भवानी, दुर्गा के मंदिर मौजूद हैं और उनकी यथावत पूजा होती है। उन देशों में मुसलमानों की आबादी भी काफी है। पर उनके रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते-जुलते हैं।
सुमात्रा के पास ही बाली और लंबर द्वीप हैं, इनमें हिंदू धर्मानुयायी रहते हैं। ये शैव हैं। वर्ण व्यवस्था प्रचलित है। ॐकार जप, मूर्ति पूजा, शालिवाहन संवत्सर का प्रचलन तथा प्रथा-परंपराओं में भारतीय संस्कृति की छाप मौजूद है। ॐ शिव चतुर्भुज का मंत्र जप लोगों द्वारा बड़ी श्रद्धापूर्वक किया जाता है।
बोर्नियो में भारतीयता
जावा के समीप ही एक बड़ा द्वीप है—बोर्नियो। जावा की तुलना में उसका क्षेत्रफल प्रायः आठ गुना अधिक है, किंतु आबादी ५० लाख के लगभग ही है। इसमें 'महाकाम' नदी के तट पर कोती जिले में 'मुअर कमन' स्थान पर चार शिला लेख मिले हैं। वे चौथी शताब्दी के हैं। इनमें राजा मूलवर्मन द्वारा किए गए '७ बहु सुवर्णक यज्ञों की प्रशस्ति का वर्णन है। इसी क्षेत्र में एक सोने की विष्णु प्रतिमा मिली है। कोम्बंग की विशाल गुफा में दो प्राचीन भवन मिले हैं जिनमें शिव, गणेश, स्कंद, महाकाल, ब्रह्मा, अगस्त्य आदि की पत्थर की बनी बारह प्रतिमाएँ पाई गई हैं। ये मूर्तियाँ विशुद्ध भारतीय शैली की हैं। इसी प्रकार सपडक, संगद वतपहल आदि में मिले लेखों से सिद्ध होता है कि चौथी शताब्दी में वहाँ हिंदू राजाओं का शासन था और प्रजा में हिंदू धर्म फैला था।
बोर्नियो में उपनिवेशीकरण के प्रमाण में संस्कृत के सात शिलालेख कोती जिले में राम मंदिर के खंभों पर खुदे मिले थे। ये खंभे यज्ञ-यूप के रूप में ब्राह्मणों ने स्थापित किए थे और इनमें राजा मूल वर्मन के यज्ञ की प्रशंसा की गई थी। ये शिलालेख सन् ४०० के हैं। इनसे प्रकट होता है कि उस समय बोर्नियो में ब्राह्मण धर्म का प्रभाव अच्छी तरह जम गया था। इसके अतिरिक्त कोटि जिले में 'कोटा बंगन' स्थान में गुप्त कला पर आधारित बुद्ध की काँसे की एक प्रतिमा मिली है। पूर्वी बोर्नियो के अन्य क्षेत्रों से भी प्राचीन हिंदू संस्कृति के अवशेष मिले हैं। पश्चिमी बोर्नियो की 'कपुअस' नदी की घाटी में हिंदू राज्यकाल के पुरातत्त्वीय अवशेष पाए गए हैं। इनसे यह स्पष्ट विदित होता है कि इस क्षेत्र में एक समृद्धशाली हिंदू राज्य दीर्घकाल तक कायम रहा। बोर्नियो के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदू लोग ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में बसे हुए थे। बोर्नियो, जिसे चीनी लोग 'पो-नी' नाम से जानते थे, वायु पुराण (अध्याय ४८) में वहर्णि द्वीप के नाम से वर्णित है।
बोर्नियो की गुफाओं में अब भी भारतीय अवशेष विद्यमान हैं। वहाँ अगस्त्य ऋषि की पूजा होती है।
आज का अनाम, प्राचीन काल का चंपा—हिंदू राज्य
सुदूर पूर्व के वर्तमान अनाम देश का प्राचीन नाम चंपा है। वोचिन्ह पहाड़ों पर उपलब्ध एक शिलालेख से स्पष्ट है कि उस देश पर सन् १९२ में श्रीमान नामक हिंदू राजा का राज्य था। इसके बाद सन् ३८० में धर्मराज भद्रवर्मा के शासन के प्रमाण मिलते हैं। इसका पुत्र गंगराज था, जो वैरागी हो गया। इस अव्यवस्था से चीनियों ने लाभ उठाया। उनने आक्रमण करके भारीकूट खयेट पर कब्जा जमाया, किंतु यह स्थिति देर तक न रही, आक्रमणकारी खदेड़ दिए गए। ५२९ में रुद्र वर्मा शासनारूढ़ हुआ। इसके बाद शंभु वर्मा, प्रकाश वर्मा, विक्रांत वर्मा का राज्य वर्णन मिलता है। इस वंश का शासन सन् ८७० तक चलता रहा।
इसके बाद भृगुवंशी राजाओं की परंपरा आरंभ हुई। पहला राजा पृथिवींद्र वर्मा था। इंद्र वर्मा तृतीय, परमेश्वर वर्मा, श्रीहरि वर्मा, जयसिंह वर्मा, जय परमेश्वर वर्मा, जय इंद्र वर्मा इसी वंश के थे। सन् १९१२ तक वे लोग शासन करते रहे। इसी बीच कंबोडिया के अनाम पर कई आक्रमण हुए, जिससे दोनों देशों को भारी क्षति पहुँची। सन् १२८२ में मंगोल लोगों का आक्रमण हुआ। इन लोगों से निपटते हुए यह वंश १३९० तक अपना शासन चलाता रहा। प्राचीनकाल में चंपा और अनाम दो पृथक देश होने का विवरण मिलता है, पर वे इन दिनों एक ही बन गए हैं। इसके बाद वहाँ अनामी वंश के बौद्ध राजा राज्य करने लगे।
चंपा राज्य की सभ्यता के आदि संस्थापक चाम वर्ग के लोग अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुए हैं। दक्षिण वियतनाम में अभी भी उनकी संख्या ५००० से ऊपर है। उनकी सभ्यता अभी भी हिंदू धर्म के अनुरूप है। किसी समय इन्हीं के पूर्वजों का समस्त वियतनाम पर अधिकार था। सन् १९२ के अभिलेखों में इनके शौर्य, साहस और वर्चस्व का विवरण भली प्रकार उपलब्ध है। चंपा का नामकरण 'चंपक' जिन्हें अब 'चाम' कहते हैं, के वर्चस्व को ध्यान में रखकर किया गया प्रतीत होता है।
मृतकों का दाह संस्कार, कन्याओं को उत्तराधिकार, मातृ वंश प्रचलन, कर्ण, कुंडल, उत्तरीय वस्त्र, पूजा, उपासना जैसी विशेषताओं को देखते हुए उन्हें उस क्षेत्र में प्रचलित वर्तमान सभ्यता से एक तरह पृथक ही कहा जा सकता है। यों उस क्षेत्र में अभी इस नाम का वर्चस्व है और वहाँ के निवासियों का आचार-विचार व्यवहार भिन्न है। इतने पर भी यह थोड़े से लोग अपनी प्राचीन विशेषताओं को अक्षुण्ण्य रखे हुए हैं, इसे उनके जातीय गौरव की अद्भुत विशेषता ही कहा जाएगा।
दानांग बंदरगाह पर चाम सभ्यता का अच्छा संग्रहालय है, जिसे देखने से उस देश की प्राचीन गाथा के चित्र आँखों के सामने घूम जाते हैं। चंपा राज्य में अभी भी ऐसे प्राचीन मंदिर कितने ही उपलब्ध हैं जिन पर भारतीय सभ्यता की स्पष्ट छाप है। सेगाँव से उत्तर की ओर 'ह्यू' नगर के समीपवर्ती क्षेत्र में ऐसे अवशेष बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं जिन्हें बिना किसी संकोच के हिंदू धर्मानुयायियों द्वारा विनिर्मित कहा जा सकता है।
समझा जाता है कि 'चंपा' नाम उस देश का इसलिए पड़ा कि वहाँ 'धाम' जाति के लोग निवास करते थे। आदिवासियों को किरात कहा जाता था। धाम और किरातों का प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं है पर जो कुछ प्रमाण सूत्र मिले हैं उनसे प्रतीत होता है कि वे आर्य वंशी लोग थे और भारतीय धर्म-मान्यताओं का अनुकरण करते थे। उनका व्यवस्थित इतिहास दूसरी शताब्दी से लेकर अब तक का उपलब्ध है। इस अवधि में वहाँ भारतीयों के अथक प्रयत्नों से उस क्षेत्र का सर्वतोमुखी विकास उभरता चला आया है। शासन तंत्र वहाँ दूसरी सदी में स्थापित हुआ। उसका संस्थापक भारतीय राजा श्रीमान था इसके बाद वहाँ 'वर्मन' उपाधिधारी राजा राज्य करते चले आए। शासन तंत्र की स्थापना के समय ही वहाँ 'डांगडुंग' के भव्य मंदिर बने जिनमें प्रधानतया शिव के साथ अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित थीं।
चंपा का जो ऐतिहासिक विवरण प्राप्त है उसके अनुसार वहाँ भारतीय समाज व्यवस्था के आधार पर ही प्रथा परंपराएँ प्रचलित रही हैं। वर्ण व्यवस्था, पर्व, त्यौहार, वेष-भूषा, विवाह-अंत्येष्टि आदि की रीति-नीति वैसे ही थी जैसी भारत में पाई जाती थी। उसके प्रमाण तत्कालीन साहित्य, अवशेष, लेख एवं चित्र देखने से सहज ही प्रचुर परिमाण में मिल जाते हैं। उस देश की राजभाषा संस्कृत रही है। महत्त्वपूर्ण राजकीय आज्ञापत्र तथा शिलालेख उसी भाषा में लिखे जाते रहे हैं। अब तक चंपा में लगभग २०० शिलालेख मिले हैं। उन सबकी भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी है। उस देश के राजा न केवल धर्मनिष्ठ होते थे, वरन उन्होंने धर्मशास्त्रों के गहन अध्ययन में भी विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। संस्कृत के विद्वान तो उनमें से अधिकतर होते ही थे।
चंपा में प्राचीन काल के राजाओं में भद्रवर्मन एक बहुत ही प्रसिद्ध राजा थे। उनका पूरा नाम 'धर्ममहाराज श्री भद्रवर्मन' था। उनका राज्य उत्तरी तथा मध्य चंपा, अमरावती एवं विजय प्रांतों और संभवतः दक्षिण में पांडुरंग प्रांत पर भी कायम था। उनकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने 'माईसन' में शिव मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर चाम लोगों का राष्ट्रीय पूजास्थल बन गया। राजा भद्रवर्मन ने मंदिर निर्माणकर्ता के नाम पर मूर्ति का नामकरण करने की परंपरा चलाई, जो कि बाद के काल में एक सर्वमान्य प्रथा बन गई। प्राप्त शिलालेखों में यह वर्णन मिलता है कि राजा भद्रवर्मन चारों वेदों के ज्ञाता थे। इससे यह प्रकट होता है कि वे एक अच्छे विद्वान थे।
सन् ६०५ ई० में चंपा के राजा शंभु वर्मन पर चीनी आक्रमण हुआ जिसमें चीनी सेनापति लियुफांग ने शंभुवर्मन को बुरी तरह परास्त किया और चंपा की राजधानी से १३५० बौद्ध ग्रंथ अपने साथ चीन ले गया।
चंपा में प्रथम राजवंश राजा रुद्रवर्मन प्रथम के द्वारा सन् ५२९ ई० में स्थापित किया गया था। इस राजवंश के अंतिम राजा रुद्रवर्मन द्वितीय थे, जिनकी मृत्यु सन् ७४९ ई० में हुई। इस राजवंश के संबंध में बहुत शिलालेख 'माईसन' के पास के क्षेत्र में पाए गए हैं।
रुद्रवर्मन द्वितीय के बाद चंपा राज्य पर पांडुरंग राजवंश का आधिपत्य कायम हुआ। इस राजवंश के संस्थापक 'राजा पृथ्वींद्र वीन्द्र वर्मन' थे, इनके उत्तराधिकारी 'राजा सत्यवर्मन' थे। इनके राज्यकाल में जावा के समुद्री आक्रमणकारियों ने 'मुखलिंगमूर्ति' से युक्त मंदिर को विशेष रूप से ध्वस्त कर दिया। इसलिए राजा सत्यवर्मन ने 'शिवमुख लिंगम' की एक नई मूर्ति अन्य देवताओं की मूर्तियों के सहित सन् ७४८ ई० में स्थापित की।
राजा सत्यवर्मन के बाद राजा इंद्रवर्मन के राज्यकाल में भी जावा के समुद्री आक्रमणकारियों ने 'भद्राधिपितश्वर' का मंदिर जला दिया था। राजा इद्रवर्मन ने इस मंदिर में फिर से 'इंद्रभद्रेश्वर' नाम की नई मूर्ति की स्थापना सन् ७९९ ई० में की। उन्होंने वारापुर में—'इंद्रभोगेश्वर' एवं राजा सत्यवर्मन द्वारा निर्मित एक मंदिर में 'इंद्रपरमेश्वर' की मूर्तियाँ सन् ८०१ ई० में स्थापित की। अंत में राजा इंद्रवर्मन ने शंकर-नारायण देव (एक ही देह में शिव और हरि का संयुक्त स्वरूप) को बहुमूल्य दान का समर्पण किया। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा इंद्रवर्मन के पश्चात एक नया राजवंश 'भृगु-राजवंश' के नाम से राजा इंद्रवर्मन द्वितीय द्वारा स्थापित किया गया। शुरू में इसकी उपाधि 'श्री लक्ष्मीन्द्र भूमीश्वर-ग्रामिस्वामिन' और बाद में चंपा पर आधिपत्य कायम होने के पश्चात 'श्रीविजय' इंद्र वर्मा महाराजाधिराज थी। डांगुडुंग शिलालेख से पता चलता है कि इसने एक बौद्ध मंदिर और एक बौद्धमठ का निर्माण कराया था। इससे यह प्रकट होता है कि राजा इंद्रवर्मन द्वितीय का झुकाव 'बौद्ध धर्म' के प्रति था, जबकि इसका परंपरागत विश्वास 'शैवमत' के प्रति था।
उपरोक्त शिलालेख से यह भी प्रकट होता है कि राजा इंद्रवर्मन द्वितीय ने शिव की मूर्ति की स्थापना की थी। इस शिलालेख में 'शंभुभद्रेश्वर' की स्तुति लिखी हुई है।
राजा भद्रवर्मन तृतीय (सन् ९०८ ई०-९१० ई०) के राज्य काल के पुत्र इंद्रवर्मन तृतीय के बारे में कहा जाता है कि वे हिंदूधर्म के छहों दर्शनशास्त्रों, बौद्धदर्शन, पाणिनि-व्याकरण तथा उसके भाष्य-काशिका' के बहुत बड़े विद्वान थे।
सन् ९६५ ई० में राजा जयइंद्रवर्मन प्रथम ने पो-नगर के मंदिर का जीर्णोद्धार किया और उसकी भगवती की स्वर्णमर्ति, जिसे कंबुज-आक्रमणकारी उठा ले गए थे, उसके स्थान पर पत्थर की मूर्ति की स्थापना की।
राजा जयइंद्र वर्मन प्रथम के बाद के कुछ राजाओं के नाम इस प्रकार हैं—राजा परमेश्वर वर्मन, इंद्र वर्मन चतुर्थ, हरिवर्मन द्वितीय (९८९ ई०), विजय श्री (९९९), श्रीहरि वर्मा देव तृतीय (१०१० ई०) परमेश्वर वर्मन द्वितीय, 'श्रीविक्रांत' वर्मन चतुर्थ (१०३० ई०), जयसिंह वर्मन, 'जय परमेश्वर वर्मा देव ईश्वर मूर्ति' भद्रवर्मन तृतीय, रुद्र वर्मन तृतीय, हरिवर्मन, चतुर्थ अथवा 'श्रीहरि' वर्मा देव प्रिंस, थान-यान विष्णु मूर्ति, या माधव मूर्ति या देवतामूर्ति। इनके मृत्यु सन् १०८० ई० में हुई। इनकी मृत्यु होने पर वहाँ की प्रथानुसार इनकी रानियाँ चिता में कूदकर भस्म हो गईं। इनके बाद जय इंद्र वर्मा देव 'परमबोधिसत्व' (१०८१, ई० जय इंद्रदेव वर्मा देव परमराजाधिराज, हरिवर्मन पंचम (सन् १११३ ई०) जयइंद्र वर्मन तृतीय (सन् ११३९ ई०) रत्नभूमि विजय (११४७ ई०), जयइंद्र वर्मन चतुर्थ, जय इंद्रवर्मन पंचम, जय परमेश्वर वर्मन द्वितीय (१२५२ ई०) जयसिंह वर्मा देव चतुर्थ (१३००-१४००), वीरभद्र वर्मन, (१४४१ ई० मृत्यु) महाविजय आदि।
यहाँ के मंदिरों में साधु लोग और सेवकगण भारतीय लंगोटी पहने हुए चित्रित किए गए हैं। यहाँ वैवाहिक-आदर्श, वैवाहिक-संस्कार तथा पति-पत्नी-संबंध भारत के अनुरूप ही थे। भारत में प्रचलित त्योहारों में से बहुत से त्योहार यहाँ लोकप्रिय थे। चाम लोगों का मृतक संस्कार भारत में प्रचलित मृतक संस्कार के ही अनुरूप था।
चंपा में भारतीय साहित्य बहुत प्रचलित था। यहाँ की राज्य भाषा संस्कृत थी। चंपा में अभी तक प्राप्त १०० से अधिक शिलालेखों से यह तथ्य प्रमाणित होता है। ये शिलालेख ऐसी वर्णमाला में लिखे गए थे जो कि भारत में प्रचलित थी। चंपा में भारतीय ग्रंथ बड़ी संख्या में लाए गए थे और उनका अध्ययन किया जाता था। नए संस्कृत ग्रंथों की यहाँ रचना भी की गई थी। इनमें से एक ग्रंथ के नाम के संबंध में पता चला है और उसके अंश भी उपलब्ध हुए हैं।
चंपा के राजागण स्वयं साहित्यिक कार्यों में अग्रणी रूप से रुचि लेते थे। राजा भद्रवर्मन के संबंध में कहा जाता है कि वह चारों वेदों, बौद्ध-दर्शन, पाणिनी व्याकरण और शैवों के सिद्धांत एवं आख्यान में पारंगत था। राजा श्रीजय इंद्र वर्मा देव चतुर्थ व्याकरण, ज्योतिष, महायान दर्शन और धर्मशास्त्रों, विशेषकर नारदीय एवं भार्गवीय का विद्वान था।
उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त शिलालेखों से यह स्पष्ट है कि चंपा में रामायण, महाभारत, शैव, वैष्णव एवं बौद्ध धार्मिक साहित्य, मनुस्मृति, तथा पुराणों का अध्ययन बड़ी रुचि के साथ किया जाता था। संस्कृत शिलालेखों की शैली से यह प्रकट होता है कि प्राचीन संस्कृत साहित्य, जिसमें संस्कृत काव्य तथा गद्य सम्मिलित है, का पर्याप्त ज्ञान चंपा के विद्वानों को था।
चंपा में हिंदू त्रिदेवों में शिव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। प्राचीन चंपा में माइसन और-पो नगर में स्थिति दोनों मंदिर-समूह शैव देवताओं को समर्पित हैं। बहुत से शिलालेखों में वर्णन किया गया है कि त्रिदेवों में शिव प्रधान हैं और वे देवों के भी देव 'महादेव' हैं। शिव के सामने इंद्र, दाहिनी ओर ब्रह्मा, पीछे चंद्रमा और सूर्य एवं बाँयी ओर तारागण चित्रित किए गए हैं। शिव का केवल निराकार रूप ही यहाँ प्रचलित नहीं था वरन शिव का भारतीय साकार स्वरूप भी (पौराणिक गाथाओं के सहित) प्रचलित था।
एक प्राचीनतम शिवलिंग की पूजा चंपा में राष्ट्रीय देव के रूप में की जाती थी। यह क्रम चंपा के संपूर्ण इतिहास काल में बराबर जारी था। इस लिंग की स्थापना चौथी शताब्दी के अंत में अथवा ५वीं शताब्दी के आरंभिक काल में राजा भद्रवर्मन द्वारा की गई थी। इसका नाम भद्रेश्वर रखा गया था और इन्हें माइसन के मंदिर में स्थापित किया गया। माइसन का मंदिर राष्ट्रीय देवालय तथा भव्य मंदिर समूह का केंद्र बन गया। यह मंदिर ४७८ और ५७८ के बीच किसी समय जला दिया गया था। परंतु राजा शंभु वर्मन द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया। राजा शंभु वर्मन ने प्रचलित प्रथा के अनुसार नई मूर्ति का नाम 'शंभु भद्रेश्वर' रखा। शंभु वर्मन के बाद के राजाओं, जैसे प्रकाश धर्म, इंद्रवर्मन द्वितीय तथा दूसरे राजाओं में उक्त देवों के देव की स्तुति में स्रोतों की रचना करवाने एवं मंदिर को अधिक से अधिक बहुमूल्य दान देने में परस्पर प्रतिस्पर्धा की गई थी। ये देवों के देव चंपा राज्य के संरक्षक-देव के रूप में पूजित किए जाते थे।
ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य 'श्रीशानभद्रेश्वर' की पूजा राष्ट्रीय देव के रूप में होने लगी। श्रीशानभद्रेश्वर संभवतः शंभुभद्रेश्वर का ही नया नाम था। जय इंद्रवर्मन चतुर्थ ने श्रीशान-भद्रेश्वर के मंदिर को चाँदी से अलंकृत किया और मंदिर के शिखरों को सोने से मढ़ा।
शिवलिंग जिसे चंपा में राष्ट्रीय देव की प्रतिष्ठा प्राप्त थी, के अतिरिक्त अन्य छोटे देवताओं की मूर्तियाँ भी यहीं प्राप्त हुई हैं। इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय पो-नगर में स्थित शंभुमुखलिंग हैं। ८वीं शताब्दी ईस्वी के एक शिलालेख से प्रकट होता है कि इस मुखलिंग की स्थापना राजा विचित्र सागर द्वारा की गई थी। अन्य दो शिलालेखों से इनकी स्थापना की निश्चित तिथि के संबंध में ज्ञान होता है। इसके अनुसार इसकी स्थापना द्वापर युग के ५९११वें वर्ष में अर्थात करीब १७८०५०० वर्ष पूर्व हुई थी। सन् ७७४ ई० में यह लिंग ध्वस्त कर दिया गया था, पर राजा सत्य वर्मन ने इसे पुनस्थापित किया और इसका नाम सत्यमुखलिंग रखा गया।
चंपा के राजागण प्राचीन काल में इन प्रसिद्ध लिंगों को न केवल दान देना एवं इनका संरक्षण करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे, वरन नए लिंगों की स्थापना को भी अपना धर्म मानते थे। इस तरह से एक सर्वमान्य प्रथा सी बन गई थी कि जब कभी कोई राजा नई मूर्ति की स्थापना करता था, तब उस नई मूर्ति के साथ राजा का नाम जोड़ दिया जाता था। भारत में इस प्रथा के संबंध में जानकारी थी।
शिव के साथ अन्य बहुत से देवी-देवताओं को जोड़ दिया था। इन सबों में शिव की शक्ति का स्थान सबमें अधिक महत्त्वपूर्ण था। इन्हें उमा, गौरी, भगवती देवी एवं महादेवी नामों से संबोधित किया जाता था। उन्हें मातृ लिंगेश्वरी एवं भूमीश्वरी में भी कहा जाता था।
ऐसा प्रतीत होता था कि चंपा के दक्षिणी क्षेत्र, 'कोठारा' में शक्ति पूजा कुछ बहुत व्यापक रूप में प्रचलित थी। यहीं यूप-नगर देवी अथवा भगवती 'कोठारेश्वरी' की मूर्ति पो-नगर के मंदिर में स्थापित थी। यह मंदिर चाम लोगों का राष्ट्रीय पूजा स्थल बन गया था। इसकी तुलना शंभु भद्रेश्वर अथवा श्रीशानभद्रेश्वर-मंदिरों से की जा सकती थी।
शिव पूजा के साथ संबंध दूसरे देवता 'गणेश' या 'विनायक' थे। चंपा में गणेश की मूर्तियाँ इतनी अधिक संख्या में विद्यमान हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि चंपा में गणेश की पूजा उनकी माता उमा की पूजा से अधिक लोकप्रिय थी।
चंपा के तीसरे लोकप्रिय देवता 'कार्तिक' या 'कुमार' थे। अभी तक इनकी ४-५ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से दो मूर्तियों के साथ उनका वाहन, 'मोर' भी है। शिव और उमा के वाहन 'नंदिन' की मूर्तियाँ भी मंदिरों में बड़ी संख्या में पाई गईं हैं।
चंपा में वैष्णव धर्म को प्रतिष्ठा का वह स्थान प्राप्त नहीं था, जो कि शैव धर्म को प्राप्त था। फिर भी चंपा में वैष्णव धर्म का एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया था। विष्णु को विभिन्न नामों से जैसे 'पुरुषोत्तम', 'हरि', 'माधव', 'गोविंद' से संबोधित किया जाता था। परंतु भारत की तरह ही यहाँ भी विष्णु भगवान के अवतारों को स्वयं विष्णु से अधिक महत्त्व दिया जाता था। इन अवतारों में राम और विष्णु ने अपने को ४ रामों-अर्थात राम और उनके तीन भाई के रूप में विभाजित कर दिया था। कृष्णावतार में विष्णु की वीरतापूर्ण लीलाओं की बहुत प्रतिष्ठा है।
चंपा के राजागण अपनी तुलना विष्णु से करने में बहुत हर्षित होते थे। कभी-कभी वे स्वयं को विष्णु का अवतार मान लेते थे। इस प्रकार राजा जय रुद्र वर्मन को विष्णु का अवतार माना जाता था और उनका पुत्र 'श्रीजयहरिवर्मादेव शिवानंदन' स्वयं को विष्णु का विशेष अवतार मानता था। विष्णु के संबंध में यह मान्यता थी कि वे चारभुजा वाले देव हैं जिनका वाहन गरुड़ है। परंतु कभी-कभी वे क्षीर सागर पर असंख्य फन वाले 'शेषनाग-वासुकी' पर शयन करते हैं।
विष्णु की शक्ति के रूप में लक्ष्मी चंपा की प्रसिद्ध देवी थी। इन्हें 'पद्मा' एवं 'श्री' नामों से भी संबोधित किया जाता था। इनका उल्लेख शिला-लेखों में भी मिलता है।
शिव के वाहन-नंदिन' के समान ही विष्णु के वाहन 'गरुड़' की मूर्ति भी चंपा में लोकप्रिय भी।
चंपा के शिलालेखों में हिंदू-त्रिदेवों के तीसरे देव, 'ब्रह्मा' का सृष्टिकर्ता के रूप में उल्लेख मिलता है, परंतु इन्हें कोई विशेष प्रतिष्ठा का स्थान चंपा में प्राप्त नहीं था। ब्रह्मा की मूर्ति की विशेषता थी, उनका चार मुखों वाला होना, हाथ में माला और कमल की नाल का होना और साथ में हंस का वाहन के रूप में होना।
यद्यपि हिंदू त्रिदेवों—ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की ही विशेष रूप से पूजा की जाती थी, फिर भी छोटे देवी-देवताओं जैसे इंद्र, यम, चंद्र, सूर्य, कुबेर एवं सरस्वती की पूजा भी की जाती थी।
चंपा में शिव, विष्णु आदि की मूर्तियों के बावजूद निराकार परमात्मा की भी धारणा विद्यमान थी, जिसका उल्लेख एक शिलालेख में मिलता है। चंपा में यज्ञों के करने पर विशेष जोर दिया जाता था। यज्ञों की महिमा की प्रशंसा बार-बार की गई थी। ऐसा भी प्रतीत होता है कि भारतीय तत्त्वचिंतन के निवृत्ति मार्ग का चाम लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा था।
शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि चंपा के राजाओं एवं कुलीन जनों ने किस तरह संसार के सभी परार्दों-जैसे धन, वैभव, सत्ता तथा सांसारिक लाभों की क्षण-भंगुरता एवं नश्वरता की भावना से प्रेरित होकर धार्मिक पुण्य कर्मों को, पाप कर्मों के प्रायश्चित स्वरूप एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु अथवा शिव लोक प्राप्त हेतु प्रधान कर्तव्य माना था।
चंपा में बुद्ध विभिन्न नामों से जिन, लोकनाथ, लोकेश्वर, सुगत, शाक्यमुनि, अभिताभ, वज्रपाणि, वैरोचन एवं प्रमुद्रित लोकेश्वर से संबोधित किए जाते थे। चंपा के लोगों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव काफी गहराई से था। इस तथ्य की पुष्टि इस ऐतिहासिक घटना में होती है कि विजयी चीनी सेनापति लिय-फंग सन् ६०५ ई० में १३५० बौद्ध ग्रंथ चंपा से लूटकर अपने साथ चीन ले गया था।
यह प्रकट है कि चंपा में बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण एवं सहायता पर्याप्त रूप में प्राप्त थी। फलस्वरूप बुद्ध की मूर्तियाँ तथा बौद्ध मंदिर राजाओं एवं चंपा निवासियों द्वारा निर्मित किए गए। चंपा में बौद्ध भिक्षुकों का शक्तिशाली संघ विद्यमान था। जनश्रुति के आधार पर ज्ञात होता है कि चंपाराज्य के विभिन्न भागों में बौद्ध मठों का निर्माण हुआ था।
राजा 'श्री जय इंद्रवर्मन' ने सन् ८७५ ईस्वी में 'लोकेश्वर' बुद्ध की मूर्ति को, जिसे उनके नाम पर 'लक्ष्मींद्र लोकेश्वर' कहा जाता था, स्थापित किया। उसने बौद्ध भिक्षुओं के लिए एक बौद्ध मठ का भी निर्माण करवाया था। यह प्रकट है कि 'डांगडुंग' बौद्ध धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। वहाँ की खुदाई करने पर एक बौद्ध मंदिर का अवशेष प्राप्त हुआ है जिसकी लंबाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई चंपा के सबसे 'ब्राह्मणीय मंदिर' से भी अधिक है। खंडहरों के बीच में से बुद्ध की बहुत-सी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। डांगडुंग में प्राप्त बुद्ध की एक प्रतिमा करीब पाँच फीट ऊँची है। डांगडुंग में ही बुद्ध की एक सुंदर खड़ी मूर्ति कांसे की बनी हुई प्राप्त हुई है। बुद्ध की यह सुंदर मूर्ति चंपा में अभी तक प्राप्त मूर्तियों में कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। चंपा में धार्मिक विकास की यह खास विशेषता थी कि वहाँ प्रारंभ से अंत तक विभिन्न धार्मिक संप्रदायों एवं धर्मों में धार्मिक सहिष्णुता का उदार भाव विद्यमान था।
चंपा में कई धार्मिक संप्रदायों एवं मतों के कायर होने के बावजूद, बौद्ध धर्म के साथ ही साथ ब्राह्मण धर्म के दो अथवा तीन प्रभावशाली संप्रदाय फलते-फूलते विद्यमान थे। पर धर्म के क्षेत्र में उनके बीच परस्पर कभी किसी प्रकार का तनाव एवं खिंचाव नहीं रहा। इसके बिलकुल विपरीत विभिन्न धर्म एवं मतों के अनुयायीगण परस्पर एक-दूसरे के प्रति उदारता एवं सम्मान की उच्च भावना से अनुप्राणित थे। राजागण सभी धर्मग्रंथों एवं मतों की सर्वोत्तम बातों को ग्रहण करते थे। इस प्रकार से राजा 'प्रकाश धर्म' ने शिवलिंग की स्थापना के साथ ही साथ विष्णु का एक मंदिर भी निर्माण करवाया। राजा इंद्रवर्मन ने शैव तथा बौद्ध धर्मों के प्रति समान रूप से आदर का भाव प्रदर्शित किया। इस तरह के बहुत से उदाहरण प्राप्त हो सकते हैं। यहाँ के निवासियों ने राजाओं के आदर्श का अनुकरण किया। इस विषय में भारतीय उपनिवेशकों ने अपनी मातृभूमि (भारत) की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं का पालन किया।
चंपा में कंबोडिया तथा जावा के समान प्राचीन संस्कृति की याद दिलाने वाले भव्य स्मारक यद्यपि अब प्राप्त नहीं, क्योंकि यहाँ (चंपा) के प्राचीन स्मारक ईंटों से बने होने के कारण करीब-करीब नष्ट से हो चुके हैं, यद्यपि उनके जो भी अवशेष अभी भी विद्यमान हैं, उनसे प्रकट है कि इन प्राचीन स्मारकों की कला काफी विकसित थी। चंपा के लोग अधिकतर मंदिरों एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों को अलंकृत करने एवं सजाने-धजाने में अपनी कलात्मक चतुराई एवं साधनों का उपयोग करते थे। चंपा के सभी मंदिरों की निर्माण कला सामान्य रूप से एक ही सी है। वे प्रायः ईंटों से बने हुए हैं। इनका मुख प्रायः पूर्व दिशा की ओर होता है।
चंपा में तीन मुख्य वर्गों के मंदिर हैं। जिनमें प्रथम वर्ग में 'माइसन' डांग-डंग तथा 'पो' नगर के मंदिर हैं। दूसरे वर्ग में बौद्ध मंदिर हैं एवं तीसरे वर्ग में दो शैव मत के मंदिर हैं। माइसन वर्ग के मंदिर टूरन्ने से २१ मील दूर दक्षिण-दक्षिणपूर्व में घाटी में स्थित हैं। माइसन में मंदिरों की संख्या ३० से अधिक है।
डांगडंग के ध्वंशावशेष माईसन से २२ मील दूर दक्षिण पूर्व में स्थित हैं। इसके चारों ओर ईंटों की दीवाल बनी हुई हैं जिसमें पूर्व की दिशा में एक द्वार है। मध्य में बने भवन के अत्यंत पश्चिम में प्रधान पूजा स्थल है। जिसके चारों ओर चार पूजा स्थल एक ही चबूतरे पर बने हुए हैं। यहाँ अन्य दो और मंदिर बने हुए हैं। भीतरी आंगन में ७ मंदिर बने हुए हैं।
खन्ह-हो जिले में नहटूंग के पास पो-नगर में पहाड़ी की चोटी पर दो कतारों में ६ मंदिर बने हुए हैं। इन सब मंदिरों के चारों ओर दीवाल बनी हुई है।
चंपा में मंदिर निर्माण कला बहुत विकसित थी। इस कला के सुंदर नमूने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं जो कि बड़ी संख्या में चंपा देश के प्रत्येक भाग में प्राप्त हुई हैं। कहीं-कहीं मंदिरों की कलापूर्ण सजावट बहुत श्रेष्ठ कोटि की है।
बाली में धर्म विस्तार
जावा से सौ मील से कम दूरी पर पूर्व में एक छोटा-सा द्वीप है—बाली। इसकी लंबाई ५३ मील, चौड़ाई ५० मील और जनसंख्या लगभग १५ लाख है। यहाँ अभी भी भारतीय सभ्यता यथावत अक्षुण्ण है। जब कि इस्लाम ने स्वर्णद्वीप के सभी क्षेत्रों को रौंद डाला, तो भी बाली में किसी प्रकार हिंदू सभ्यता यथावत बनी हुई है और यथा स्थान खड़ी हुई है। यहाँ के प्राचीन मंदिर अभी भी गर्वोन्नत मस्तक रखे हुए खड़े हैं, अन्य देशों की तरह धर्मांध लोगों द्वारा तहस-नहस नहीं किया गया है।
इतिहासकार पैलिअट के अनुसार बाली की राजकुमारी भारत के राजा शुद्धोधन के साथ विवाही थी। उसी का शासन इस देश में चलता था।
बाली का क्षेत्रफल २०.९५ वर्ग मील है। यहाँ की भूमि उपजाऊ है। पूरा देश एक सुंदर बाग की तरह दीखता है। बाली ही एक ऐसा द्वीप है जहाँ अभी तक प्राचीन हिंदुओं की संस्कृति तथा सभ्यता व्यापक रूप में कायम है। इस देश में इस्लाम प्रवेश करने में असमर्थ रहा। इस देश की प्राचीन हिंदू संस्कृति पर खोज पूर्ण गहन अध्ययन करने की अभी भी बड़ी गुंजाइश है। लि अड् राजवंश (५०२-५५६ ई०) के चीनी इतिहास में सबसे पहिले 'पो-लि' का वर्णन मिलता है, जो कि बाली का चीनी नाम है। चीनी विवरण से बाली देश के राजा के संबंध में रोचक वर्णन मिलता है। उक्त चीनी विवरण से निश्चित रूप में यह प्रमाणित होता है कि बाली द्वीप में हिंदू राजाओं का राज्य था जो कि बौद्ध धर्म मानने वाले थे। यह राज्य ६ठी शताब्दी ईस्वी में कायम था, क्योंकि उस देश के राजा ने ५१८ ईस्वी में अपना एक दूत चीन भेजा था।
चीनी यात्री आईत्सिंग ने लिखा है कि 'दक्षिण सागर के द्वीपों में बाली भी एक ऐसा देश था जहाँ मूल सर्वास्तिवाद निकाय का पूर्ण रूप से सब लोगों द्वारा पालन किया जाता था। सबसे शुरू के चीनी विवरणों से ज्ञात होता है कि बाली द्वीप में छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म कायम था। इसलिए यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाता है कि बाली द्वीप में हिंदू उपनिवेश की स्थापना की प्रारंभिक शताब्दियों में ही बौद्ध धर्म ने अपनी नींव वहाँ पक्के रूप में जमा ली थी। हाल की जाँचों से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया है कि बाली एक हिंदू उपनिवेश था, जिसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी। यह संस्कृति भारत से सीधे ग्रहण की गई थी। बाली से संबंधित शिलालेखों की भाषा प्राचीन बालानी है, न कि प्राचीन जावानी। इस तथ्य से यह धारणा गलत सिद्ध हो जाती है कि बाली ने अपनी हिंदू संस्कृति जावा के माध्यम से प्राप्त की थी। बाली का विकास हिंदू उपनिवेश के रूप में स्वतंत्र रूप से हुआ था और साथ ही साथ जावा और सुवर्णद्वीप के अन्य द्वीपों के साथ भी उसका विकास हुआ था। इसमें कोई संदेह नहीं कि बाली पर जावा का आधिपत्य बराबर कायम होता रहा, जिसके फलस्वरूप इन दोनों पड़ोसी देशों में निकट का संबंध बना रहा।
ज्ञात इतिहास के आधार पर यह निश्चित रूप से पता चलता है कि 'केशरी वर्मा देव' बाली के प्रथम राजा थे (९१४ ईस्वी)। सन् १३४ ई० में ही बाली जावा साम्राज्य का अंग बन गया था। इसके बाद में दोनों द्वीपों की राजनीति तथा संस्कृति एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में जुड़ गई।
बाली इस तरह जावा के साहित्यिक जीवन का केंद्र बन गया। बाली में जावानी साहित्य का महत्त्व दिनों-दिन बढ़ता गया, परंतु जावा में उसके साहित्यक जीवन का ह्रास होता गया। जावा की परंपराओं को बाली ने आगे बढ़ाया और उसका विकास किया।
इस्लाम के बढ़ते चरण का मुकाबला न कर सकने के कारण मजपहित (जावा) के राजा ने अपने साथियों सहित बाली में शरण ली। जावा के निवासी भी एक बड़ी संख्या में अपनी संस्कृति और धर्म के रक्षार्थ बाली चले गए और वहाँ ही बस गए। इस तरह से बाली हिंद-जावानी संस्कृति और सभ्यता का अति महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया, जो कि आज तक कायम है। बाली में हिंद जावानी संस्कृति का न केवल और अधिक विकास हुआ वरन उसने (बाली ने) उसे लुप्त होने से बचा लिया। जावा में इस्लाम धर्म के प्रसार के फलस्वरूप हिंद जावानी संस्कृति वहाँ से लुप्त ही हो गई।
'नवरुचि'-बाली द्वीप का एक लोकप्रिय ग्रंथ है, जिसमें भीम के द्वारा युद्धों में प्राप्त विजयों का वर्णन है।
प्राचीन जावानी भाषा में रामायण ग्रंथ के उत्तरकांड का पद्य में अनुवाद है। पौराणिक वर्ग के ग्रंथों में 'ब्राह्मण पुराण' सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना भारतीय पुराणों के आदर्शानुरूप की गई है, यद्यपि इसमें इधर-उधर जावानी प्रभाव भी है।
इस वर्ग की दूसरी रचना—"अगस्त्य-पर्व" है, जिसमें अगस्त्य अपने पुत्र द्रिदृस्यु से सृष्टि रचना के संबंध में पौराणिक शैली में वर्णन करते हैं। बाली में भारतीयता की पहुँच तथा प्रगति के ऊपर सिलेमेन लेभी की 'संस्कृत टेक्सट्स फ्राम बाली' पुस्तक अच्छा प्रकाश डालती है।
हिंदू धर्म आज भी बाली का एक जीवित धर्म है, इसलिए यहाँ हिंदू धर्म के क्रियात्मक पक्ष के संबंध में जावा से कहीं अधिक विवरण प्राप्त होते हैं। बाली निवासियों के जीवन में धार्मिक कर्मकांड एवं क्रियाओं का विशेष स्थान है। बाली में प्रचलित पूजा पारिवारिक एवं सार्वजनिक दो प्रकार की होती है, जिसमें पारिवारिक पूजा की कोटि में सबसे अधिक महत्त्व 'सूर्य सेवन' या 'शिव की सूर्य रूप में पूजा' है। सूर्य सेवन के अतिरिक्त पारिवारिक धार्मिक कर्मकांडों में वे सब संस्कार भी किए जाते हैं, जो कि गृह-सूत्र में बताए गए हैं और जिनका पालन मनुष्य के जीवन के महत्त्वपूर्ण संस्कार, कानछेदन संस्कार, विवाह, मृतक तथा दाह संस्कार के रूप में किया जाता है।
सार्वजनिक पूजा के लिए प्रत्येक जिले में ३ या ४ सार्वजनिक मंदिर हैं। पूर्वजों की पूजा बाली धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रत्येक घर में एक या एक से अधिक छोटे मंदिर पूर्वजों के लिए बने होते हैं।
भारतीय पूजा में उपयोग में आने वाली सहायक सामग्रियों जैसे घृत, कुश-घास और मधु बाली में भी पूजा सामग्री माना जाता है। भारत की पवित्र नदियों जैसे गंगा, यमुना, सिंधु, कावेरी, सरयू तथा नर्मदा के नामों के अनुरूप बाली की नदियों के नाम भी रखे गए हैं।
देखिए— "हिंदू कल्चर इन ग्रेटर इंडिया" द्वारा सदानंद पृष्ठ (१९-२०) 'संस्कृत टेक्सट्स फ्राम बाली' से उद्धृत (बाली में प्रचलित संस्कृत के सूत्र)
शिवस्तव:
ॐ नमः शिवाय शर्वाय देवदेवाय वै नमः।
रुद्राय भुवनेशाय शिवरूपाय वै नमः॥
जाग्रत्स्वप्न सुषुत..................जायते च
(पृष्ठ २०)
भैरवस्तवः
महाभैरवरूपश्च.............शिरशांतकम्
(पृष्ठ २०-२१)
महादेवस्तवः
ॐ नमोस्तु ते महादेव.........क्षमानुग्रह कारणं॥
(पृष्ठ २१)
उमास्तवः
ॐ पार्वती...........................नमो नमः॥
(पृष्ठ २१-२२)
श्रीस्तवः
ॐ श्री देवी....................नमोऽस्तु ते।।
बालीद्वीप के प्रचलित पुरोहितों (पाइंदा) में प्रचलित संस्कृत मंत्र।
महादेव......................................निष्फल।
ध्यानी बुद्ध....................सकल (बुद्ध का आवाहन मंत्र)
ॐ कसोल..........................नमः।
स्तोत्र वेद शिवस्तवः.............................परम शिव स्तव।
बाली में पाइंदा या पुरोहित द्वारा पूजा कराई जाती है। ये पाइंदा ब्राह्मण ही होते हैं।
बाली में अभी भी हिंदू धर्म का बाहुल्य है। राजधानी के नाम पर इस द्वीप का नामकरण हुआ है। विवाहों में संस्कृत के वेद मंत्र बोले जाते हैं। मुर्दों को जलाया जाता है और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। देव प्रतिमाओं की समय-समय पर शोभा यात्रा निकलती रहती है। रामलीला की धूम रहती हैं।
बाली को देवताओं का द्वीप कहा जाता है। यहाँ की केचीक शैली के रामायण अभिनय बहुत आकर्षक होते हैं। यहाँ की प्राचीन भाषा केवि में उपलब्ध रामायण के संदर्भ में लिखे गए ग्रंथों का श्रद्धापूर्वक पाठ पारायण किया जाता है। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व योगेश्वर नामक कवि ने रामायण कथानक पर ग्रंथ लिखे थे जो अभी भी लोकप्रिय हैं।
यहाँ के मंदिरों के पुजारी धार्मिक कृत्य तो करते हैं, पर आजीविका की दृष्टि से पूजा या दान दक्षिणा पर निर्भर नहीं रहते। वे कृषि, लकड़ी का काम, नक्काशी अथवा जो भी काम अनुकूल पड़े उत्साहपूर्वक करते हैं। इससे उनके सामाजिक सम्मान में कोई कमी नहीं आती। मंदिरों में छोटे बच्चों की शिक्षा व्यवस्था भी रहती है। पुजारी प्रायः ब्राह्मण वर्गों के होते हैं।
(१) पाइंदा
(२) सेनग्गहु
(३) पामागकू।
पाइंदा पारिवारिक धर्मानुष्ठान की व्यवस्था बनाते हैं। पामागकू मंदिरों की सेवा पूजा का उत्तरदायित्व सँभालते हैं और चिकित्सा शिक्षा आदि उपयोगी कार्यों में निरत रहते हैं। शिव इस देश के मान्य देवता हैं। ब्राह्मण तथा दूसरे लोग यहाँ यज्ञोपवीत धारण करते हैं किंतु उसे अत्यंत पवित्र मानकर पेटियों में बंद रखते हैं और विशेष धार्मिक आयोजनों के समय ही धारण करते हैं। यहाँ के पुरुषों और स्त्रियों के नाम प्रायः भारतीय नामों से ही मिलते-जुलते होते हैं। घर-घर वस्त्र बुनना यहाँ का कुटीर उद्योग है।
स्याम (थाइलैंड) एक मात्र बौद्ध राष्ट्र
थाईलैंड (स्याम) संसार का एक मात्र ऐसा देश है, जहाँ बौद्ध धर्म राजधर्म भी है। अन्य देशों ने तो भारत की परंपरागत संस्कृति इन थोड़े ही दिनों में गँवा दी, पर यह अकेला देश ऐसा है, जिसमें वर्तमान भारत की परिधि से आगे जाकर यह देखा जा सकता है कि प्राचीनकाल में भारत की रीति-नीति का क्या स्वरूप था? वहाँ जो देखने को इन दिनों भी मिलता है, उससे यह पता लगता है कि भारत किन मान्यताओं और आदर्शों के कारण उन्नति के उच्च स्तर पर पहुँचा था और शांति का संदेश सुदूर क्षेत्रों में पहुँचाने में किन परंपराओं के कारण सफल हुआ? आज कई बातों में थाईलैंड इसे ऐसी शिक्षाएँ और प्रेरणाएँ दे सकता है, जिन्हें अपना कर हम प्रस्तुत दुर्गति के गर्त से उबर सकते हैं।
उस देश में पहले हिंदू-धर्म प्रचलित था, बौद्ध धर्म बाद में पहुँचा, बौद्ध धर्म का प्रवेश सन् ४२२ में हुआ। इससे पूर्व वहाँ ब्राह्मण-धर्म प्रचलित था। दोनों धर्मों का वहाँ सुंदर समन्वय हुआ है। दार्शनिक भिन्नताओं को वहाँ पूरी सहिष्णुता के साथ सहन किया गया है। इतना ही नहीं, उनका परस्पर समन्वय भी भली प्रकार हुआ है। सांप्रदायिक मतभेद के कारण जहाँ अन्यत्र के लोग विग्रह और विद्वेष खड़ा करते हैं, वहाँ इस तरह की कभी कोई बात हुई ही नहीं। बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म सहोदर भाई की तरह परस्पर प्रेम पूर्वक रहते रहे हैं।
बौद्ध धर्म के आगमन से पूर्व वहाँ हिंदू धर्मानुयायी राजा राज करते थे। राजा धर्माशोक ने भव्य विष्णु मंदिर बनवाया था। उसके बाद भी अनेक हिंदू राजा देवी-देवताओं के मंदिर बनाते रहे, जिनका अस्तित्व अभी भी जीवंत इमारतों तथा भग्नावशेषों के रूप में विद्यमान है। फ्रोके के शिव-मंदिर की अभी भी ब्राह्मण-पुजारी पूजा करते हैं। बौद्ध वर्चस्व होने पर भी अभी वहाँ ब्राह्मणों की मान्यता उसी प्रकार है। ब्राह्मण को वहाँ 'ब्रह्म' कहते थे, पीछे उसी का अपभ्रश होकर 'फ्रंम' बन गया। फ्रंम नाम से वहाँ ब्राह्मण वर्ग का परिचय मिलता है। 'देव नगर' उनकी एक पूरी बस्ती ही बसी है। बौद्ध-परिवारों में धार्मिक कर्मकांड कराने यह फ्रंम लोग ही जाते हैं।
हिंदू त्योहार और बौद्ध त्योहार दोनों सर्वसाधारण के लिए समान रूप से हर्षोत्सव का विषय रहते हैं। मकर संक्रांति, वैसाखी, होली पर पानी उलीचने का—एक दूसरे को भिगोने का उन्माद भारत से घट कर नहीं, वरन बढ़-चढ़कर ही देखा जा सकता है। स्थानीय नदियों में गंगा माता की भावना करके वहाँ के निवासी नदी-प्रवाह में दीपक तथा पुष्पों के दोने बहाते हैं। यहाँ के राजा वर्ष में एक बार जनक की तरह हल चलाते हैं और धार्मिक उत्सव में साधारण नागरिक की तरह सम्मिलित होते हैं। मुहूर्त और ज्योतिष का प्रचलन वहाँ भी है। राजकीय समारोहों का पूजा विधान अभी भी वहाँ ब्राह्मणवंशी राज-गुरु ही मंत्रोच्चारण के साथ कराता है।
बैंकाक के एक प्राचीन मंदिर में ब्रह्मा, विष्णु, गणेश, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। खंडहरों में उपलब्ध कितनी ही देव प्रतिमाएँ अब वहाँ के राष्ट्रीय-संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ब्रह्माजी की वहाँ भारत की तरह उपेक्षा नहीं है, वरन घरों में ब्रह्माजी प्रतिष्ठापित रहते हैं। बैंकोक के प्रधान होटल (इरावन) के मुख्य द्वार पर ब्रह्माजी की भव्य प्रतिमा स्थापित है। छठी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक की अवधि में वहाँ हिंदू-देवताओं की मूर्तियाँ मिली हैं, जो भारत में प्रमुखता प्राप्त करते हैं। बैंकोक में ऊँची टेकरी पर बने एक बौद्ध मंदिर में शिव-लिंग एवं नांदी की भी स्थापना है और पूजा अर्चा होती है।
बुद्ध के बाद उस क्षेत्र के उपासकों में राम का नंबर आता है। बुद्ध की शिक्षाओं की तरह ही वहाँ रामायण कथा भी लोकप्रिय है। लवपुरी में हनुमान की मूर्तियों की भरमार है।
फ्राईसुवन की खुदाई में भगवान राम की मूर्ति मिली है। बस के टिकटों तक पर राम के चित्र छपे रहते हैं। बैंकाक के राष्ट्रीय-संग्रहालय के बाहर धनुषधारी राम की विशाल मूर्ति खड़ी हुई है और राष्ट्रीय-नृत्य ग्रह के बाहर वैसी ही विशालकाय गणेश प्रतिमा स्थापित है। कुछ सरकारी विभागों का राज्य-चिन्ह 'गणेश' है। कला विभाग के द्वार पर 'विश्वकर्मा' की मूर्ति स्थापित है।
थाईलैंड की आबादी प्रायः डेढ़ करोड़ है। उसमें २५ हजार भारतीय मूल के बसते हैं, जो ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत से वहाँ जाकर बसे। उनकी संतानों ने थाई-जनता के साथ अपने को पूरी तरह धुला-मिला लिया है। इसका क्षेत्रफल १ लाख, ९८ हजार वर्गमील है। इसकी सीमाएँ वर्मा, कंबोडिया, लाओस और मलेशिया को छूती हैं।
थाई भाषा में ४० प्रतिशत से अधिक शब्द संस्कृत के हैं। इसके अतिरिक्त पाली एवं प्राकृत के शब्द भी बहुत हैं। वर्णमाला देवनागरी से मिलती-जुलती है। स्वर और व्यंजनों का क्रम भी लगभग वैसा ही है। भारत की धार्मिक विधि व्यवस्थाओं-पौराणिक कथाओं तथा बुद्धचर्या का उल्लेख करने वाला साहित्य ही प्राचीन काल में वहाँ लिखा जाता रहा है। जो भी पुराने हस्तलिखित ग्रंथ वहाँ मिलते हैं, उनमें यही विषय हैं, या कुछ ग्रंथ अन्य विषयों के भी मिले हैं। थाईलैंड के सिनेमा घरों में भारत की धार्मिक-फिल्में सफलता पूर्वक चलती हैं।
रामायण कथा की नृत्य नाटिकाएँ उस देश में प्रत्येक पर्वोत्सव पर होती रहती हैं। उसमें राज-परिवार के तथा उच्चस्तर के लोग अभिनय करते हैं। जनता उनमें बहुत रस लेती है। रामचरित्र वहाँ बच्चे-बच्चे को याद है, वहाँ वह बहुत ही लोक-प्रिय हैं।
थाईलैंड के प्राचीन साहित्य में भारतीय कथा-पुराणों का छायानुवाद ही भरा पड़ा है। अधिकांश प्राचीन ग्रंथ बुद्ध-उपदेश, आचार-विधान एवं जातक-कथाओं से संबंधित मिलते हैं।
राजवंशी-इतिहास एवं धर्म-प्रचारकों के क्रिया-कलाप का प्राचीन विवरण प्राप्त करने से यही पता चलता है कि भारतीय मूल के निवासी समय-समय पर वहाँ पहुँचते रहे हैं और देश की प्रगति एवं समृद्धि का आधार बनते रहे हैं। उस देश के मूल नागरिकों को उन्होंने अपने से पृथक नहीं रखा। उनके साथ घुलने तथा उन्हें अपने में घुलाने का ऐसा प्रयत्न करते रहे हैं कि अब थाई-जाति का वंशरक्त की दृष्टि से पृथक्करण करना संभव नहीं रहा। राजधानी बैंकोक को मंदिरों का नगर कहा जा सकता है। यहाँ तीन सौ बड़े बौद्ध मंदिर हैं। इनमें भिक्षु रहते हैं और धर्म शिक्षा के उपयोगी संस्थानों का संचालन करते हैं। फ्राकियो मंदिर में नीलम रत्न की बनी राम की बहुमूल्य प्रतिमा है और दीवारों पर रामायण कथानक के भित्तिचित्र बने हैं। दर्शनीय स्थानों में अयोध्या, लवपुरी, विष्णुलोक, समुद्र प्रकरण, प्रथमनगर विशेष रूप से आकर्षक हैं। सेनान नदी के बीचोबीच टापू पर बना बौद्ध मंदिर निर्माणकर्ताओं के जीवट का परिचय देता है। इसके अतिरिक्त हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों वाले मंदिरों तथा बौद्ध-विहारों का अस्तित्व हर छोटे-बड़े स्थान में पाया जा सकता है।
मगध के चंद्रगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने इस देश को बौद्धधर्म में दीक्षित किया था। गांधार में पिथल गुफा, बोधि वृक्ष, गृद्धकूट पर्वत आदि के उपलब्ध अवशेषों से उस देश में बौद्ध धर्म की प्राचीनता सहज ही प्रमाणित होती है। मुँहसीतेप में संस्कृत भाषा के प्राचीन शिलालेख मिले हैं। मापमारबम के उपलब्ध शिलालेख भी उस देश पर भारतीय संस्कृति का वर्चस्व प्रमाणित करते हैं।
बौद्ध और हिंदू धर्म परस्पर इतनी घनिष्ठता के साथ थाईलैंड में घुस गए हैं कि उनकी पृथकता कठिनाई से ही पहचानी जा सकती है। समन्वय, समझदारी एवं सहिष्णुता की यहाँ जैसी रीति-नीति अन्यत्र भी अपनाई गई होती तो सांप्रदायिक विद्वेष का कहीं कोई दृश्य दिखाई न पड़ता और धर्म-तत्त्व के प्रति सहज ही सबकी श्रद्धा जमी रहती।
थाईलैंड के बौद्ध मंदिरों में नारायण, विनायक, शिव, ऋषि आदि की प्रतिमाएँ भी हैं और उन्हें क्या बौद्ध, क्या हिंदू समान श्रद्धा के साथ पूजते हैं। यहाँ की जनता सरल और धार्मिक वृत्ति की है। प्रत्येक कार्यालय, आवास, स्थान, विद्यालय में यहाँ एक छोटा मंदिर बना होगा जिसे चाओथी कहते हैं। यहाँ नमन करने के उपरांत ही लोग अपना कार्य आरंभ करते हैं। राजधानी बैंकोक में शाही नौसेना के इंटर नेशनल होटल 'इरावन' के प्रवेश द्वार पर चतुर्मुखी ब्रह्मा की भव्य मूर्ति स्थापित ही नहीं, पूजित भी है।
नखोन पंथाम नगर के राजोधाम में १२ फुट ऊँचे चबूतरे पर विनायक गणेश की विशालकाय और अत्यंत भव्य प्रतिमा स्थापित है। यहाँ कोई पुजारी तो नहीं रहता, पर प्रातःकाल यहाँ जो पुष्प बिखरे मिलते हैं, उनसे यह सहज ही जाना जा सकता है कि वहाँ के लोग उन प्रतिमाओं के श्रद्धापूर्वक नमन-पूजन करते हैं।
थाईलैंड का राजवंश अपने को राम का वंशज मानता है और उसे वहाँ 'रामाधिपति' कहकर पुकारा जाता था। सन् १३५० में वहाँ का शासक 'राम' नाम से विख्यात था। उसने अयोध्या नामक राज्य की स्थापना की। यहाँ के राज मंदिर की दीवारों पर रामायण की कथाएँ खुदी हुई हैं। उत्तरी थाईलैंड में लवकुशपुरी नामक नगर अभी भी विद्यमान है।
थाईलैंड उच्च न्यायालय के सामने गंगाधर महादेव की और आकाशवाणी केंद्र के मुख्य द्वार पर वीणा-पाणी सरस्वती की विशालयकाय प्रतिमा स्थापित है।
राजकीय-संग्रहालय के द्वार पर धनुर्धारी राम की विशाल प्रतिमा खड़ी है। इस देश के संग्रहालयों में शेषशायी विष्णु, शिव-लिंग, ऋषि प्रतिमाएँ कितने ही आकार प्रकार की विद्यमान हैं।
वैशाखी पूर्णिमा को यहाँ बुद्ध जयंती के उपलक्ष में दिवाली मनाई जाती है। मृत-पूर्वजों की आत्मा को शांति देने के लिए यहाँ श्राद्ध भी इसी दिन किए जाते हैं। मृतकों के नाम पर भिक्षुओं को भोजन कराया जाता है। संक्राति पर्व, वर्षा व्रत, चंद्र-ग्रहण आदि अवतारों पर पर्वोत्सव मनाए जाते हैं। राजा को वर्ष में एक दिन स्वयं हल चलाकर अपने को सामान्य कृषक वर्ग की श्रेणी का सिद्ध करना पड़ता है।
बच्चों का मुंडन संस्कार स्याम में भी भारत की ही तरह होता है। इसे 'चूड़ा कुंतन मंगल' कहते हैं। इसके अतिरिक्त नामकरण, कर्णवेध, विवाह, अंत्येष्टि आदि संस्कारों में भी भारतीयता का प्रत्यक्ष अनुकरण देखा जा सकता है। यहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं।
उस देश में हिंदू-धर्म और बुद्ध-धर्म जिस सुंदर ढंग से मिले हैं, यदि वह प्रक्रिया अन्यत्र भी अपनाई जा सके तो सांस्कृतिक दृष्टि से आज का भारतीय दर्शन विश्व का सबसे बड़ा, सबसे प्रमुख, सबसे अधिक प्रचलित दर्शन कहलाने का अधिकारी बन सकता है। संप्रदायों के बीच विग्रह और विद्वेष उत्पन्न करने की अपेक्षा उनका समन्वय करने में ही लाभ है। यह तथ्य भी हम थाईलैंड में चल रहे प्रयोगों को देख कर सीख सकते हैं। श्रेष्ठता जहाँ भी मिले, ग्रहण कर ली जाए और जो असामयिक है—आज की स्थिति में अनुपयुक्त है, उसके लिए दुराग्रह न किया जाए तो धर्मों का समन्वय एक गुलदस्ते की तरह संसार की शोभा और शालीनता बढ़ाने में सहायक हो सकता है।
इन दिनों थाईलैंड में बौद्ध धर्मानुयायी ही राजा है और उसी धर्म को मानने वाली अधिकांश प्रजा है। इस छोटे-से देश में पिछली जनगणना के अनुसार एक लाख तीस हजार भिक्षु थे और १६५०३ मठ, मंदिर और बुद्ध-विहार। इतने छोटे देश में इतने अधिक देवस्थानों और साधुओं का होना आश्चर्यजनक है। यह संख्या तो भारत की स्थिति से भी आगे बड़ी-चढ़ी है। इससे यह आशंका होती है कि उस देश की जनता को भी हमारी ही तरह निठल्लों को खिलाने का भारवहन करना पड़ता होगा और आर्थिक दृष्टि से उस देश पर भारी दबाव पड़ता होगा।
पर वहाँ की वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है। वहाँ समय-गत भिक्षु दीक्षा लेने की प्रथा है। थोड़े समय के लिए लोग भिक्षु बनते हैं और फिर अपने सामान्य सांसारिक जीवन में लौट आते हैं। थाईलैंड के प्रत्येक बौद्ध धर्मानुयायी का विश्वास है कि एक बार भिक्षु बने बिना उसकी सद्गति नहीं हो सकती। उसके बिना उसकी धार्मिकता अधूरी ही रहेगी। इस आस्था के कारण देर-सवेर में हर सुयोग्य नागरिक एक बार कुछ समय के लिए साधु अवश्य बनता है। घर छोड़कर उतने समय विहार में निवास करता है। साधना और अध्ययन में निरत रहता है और संघ द्वारा निर्धारित सेवा-कार्य में सच्चे मन से पूरा परिश्रम करता है। भिक्षु का मोटा अर्थ भिक्षुक या भिखारी जैसा लगता है, पर वास्तविकता ऐसी नहीं है। बौद्ध धर्म में साधु को, धर्म-प्रचारक को भिक्षु कहते हैं। अवसर पड़ने पर उसे भिक्षा द्वारा क्षुधा शांत करने में भी आपत्ति नहीं हो सकती, पर यह आवश्यक नहीं कि भिक्षु नामधारी को अनिवार्य रूप से भिक्षा ही माँगनी पड़े। भिक्षुक और भिक्षु दो अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होते रहते हैं। भिक्षुक दीन-हीन, अपंग, असहाय व्यक्ति को—उदर निमित्त याचना करने वाले को कहते हैं। जबकि भिक्षु विशुद्ध रूप से संत के अर्थ में प्रयुक्त होता है। थाईलैंड निवासी भिक्षुक नहीं भिक्षु होते हैं। दूसरे अर्थों में उन्हें साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चतुर्विध परमार्थ प्रयोजनों में निरत परमार्थ परायण व्यक्ति कहना चाहिए। ऐसे लोग जितने अधिक किसी देश में होंगे, वह उतना ही अधिक फूलेगा-फलेगा।
थाईलैंड में धर्म-आस्था अन्य देशों की तरह डगमगाई नहीं है। वहाँ के नागरिकों को अभी भी प्राचीनकाल के धर्मनिष्ठ और कर्त्तव्य परायण लोगों की तरह जीवन यापन करते हुए देखा जा सकता है, इसका श्रेय वहाँ के समर्थ साधु-समाज को ही दिया जा सकता है। मंदिर वहाँ पूजा-स्थल तो हैं, पर उनका उपयोग मात्र उतने ही सीमित प्रयोजन के लिए नहीं होता। प्रत्येक विहार में वहाँ एक साधन संपन्न विद्यालय भी होता है, जिसमें न केवल छात्र-छात्राओं को सामान्य शिक्षा दी जाती है, वरन उच्चस्तरीय धर्म शिक्षा की भी व्यवस्था रहती है। प्रत्येक विहार में एक अच्छा पुस्तकालय होता है, जिसमें धार्मिक जीवन जी सकने की प्रेरणा दे सकने वाली चुनी हुई पुस्तकें पर्याप्त संख्या में रखी जाती हैं।
स्कूलों में शिक्षा का कार्य बुद्ध-प्रार्थना के साथ आरंभ होता है। गुरु-पूर्णिमा का उत्सव शिक्षा-संस्थाएँ मनाती हैं, जिनमें छात्रों द्वारा अध्यापकों को श्रद्धासिक्त पुष्पांजलि भेंट की जाती हैं। प्राथमिक-शिक्षा से लेकर विश्व विद्यालय की उच्च शिक्षा तक का माध्यम वहाँ थाई भाषा ही है। विदेशी भाषाओं को यहाँ शिक्षा-माध्यम में स्थान नहीं दिया गया है। बी०ए० उपाधि को वहाँ 'पंडित' और एम०ए० उपाधि को 'महापंडित' शब्द के साथ संबंधित करते हैं।
जनता अपनी धर्म आस्था की अभिव्यक्ति एक बार अनिवार्य रूप से भिक्षु-दीक्षा लेकर व्यक्त करती है। बुद्धसंघ उस श्रद्धा का सदुपयोग करता है—व्यवस्थित, नियंत्रित एवं परिष्कृत करता है। साथ ही ऐसी योजनाएँ बनाकर तैयार रखता है, जिसके अनुसार उस धर्म-प्रेरणा को उपयोगी कार्यों में संलग्न किया जा सके। अनेकों सृजनात्मक योजनाएँ तैयार रहती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए विहार में प्रविष्ट भिक्षुओं को लगा दिया जाता है। उनके श्रम, ज्ञान एवं मनोयोग का समन्वित उपयोग मिलने से अनेकों उपयोगी योजनाएँ बिना किसी अतिरिक्त खर्च के सहज ही चलती रहती हैं। सुयोग्य व्यक्ति बिना किसी पारिश्रमिक के यदि रचनात्मक कार्यों में लगेंगे तो उस देश में बहुमुखी प्रगति की बाढ़ आएगी ही। इस दिशा में थाईलैंड की बुद्ध संस्था बहुत सजग है, वह किसी भी भिक्षु को उच्छृंखल, अनियंत्रित नहीं होने देती। हर किसी को पूर्ण अनुशासन में रहना पड़ता है। यदि भारत की तरह वहाँ के भिक्षु स्वेच्छाचारी बन जाएँ और अनियंत्रित साँड़ की तरह विचरें तो इस छोटे से देश की इतनी बड़ी भिक्षु-संख्या देखते-देखते टिड्डी दल की तरह सारी समृद्धि को चट करके रख दे। पर वहाँ की दूरदर्शी धर्म-संस्थाएँ वैसा होने नहीं देती। अनुशासन और धर्म-परायणता को वहाँ परस्पर पूर्णतया समन्वित बनाने का सफल प्रयोग किया गया है।
इस दिशा में राजकीय सहयोग भी पूरा है। राज्यकोष से मठों को मुक्त हस्त से सहायता दी जाती है, साथ ही उनकी गतिविधियों पर नियंत्रण भी रखा जाता है। धर्मसंघ में शासन के प्रतिनिधि भी सम्मिलित रहते हैं । वे धर्म-प्रसंग में तो हस्तक्षेप नहीं करते, पर यह अवश्य ध्यान रखते हैं कि जनता के दिए हुए तथा शासन से मिले धन का उपयोगी प्रयोजनों में ही खर्च किया जाता है या नहीं? कहीं अपव्यय तो नहीं होता?
थाईलैंड कृषि-प्रधान देश है। वहाँ ८४ प्रतिशत लोग खेती करते हैं, पर वे अत्यंत कर्मठ, पुरुषार्थी, शांति-प्रिय और धर्मपरायण लोग हैं। परस्पर मिल-जुल कर रहना और हँसी-खुशी की जिंदगी जीना उन्होंने धर्म संस्था से सीखा है। भिक्षु-सेना ने उन्हें अनेकानेक सद्गुण सिखाए हैं और परिष्कृत स्तर का जीवन किस तरह जिया जा सकता है, यह बताया है। इस प्रशिक्षण से न केवल उनकी विचार पद्धति ऊँची उठी है वरन भौतिक समृद्धि भी बड़ी है। यह आश्चर्यजनक प्रसंग है कि एशिया के किसी भी देश की अपेक्षा थाईलैंड निवासियों की औसत आमदनी कहीं अधिक है। वे सुसंपन्न हैं। उस देश की विदेशी मुद्रा बहुत मजबूत है। स्वर्ण कोष की दृष्टि से थाईलैंड की साख और धाक संसार के आर्थिक क्षेत्र में मानी जाती है। धर्म-समन्वय, रक्त-समन्वय उस देश की अपनी विशेषता है। इसके अतिरिक्त सीमित समय के लिए साधुदीक्षा लेने वाली पद्धति और भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। इन सब बातों ने उस छोटे से देश को अपने ढंग की अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रगति करने का अवसर दिया है।
स्याम (थाईलैंड) में भारतीयों की महत्त्वपूर्ण हलचलों का विवरण दक्षिण के तिरुवलम में उपलब्ध एक लेख से चलता है। उन दिनों वैष्णव धर्मावलंबी मणिग्रामम संघ के सदस्य स्याम जाकर रहने लगे थे। तेरहवीं सदी तक स्याम कंबोडिया का ही एक अंग था, उसकी स्वतंत्रता राजा इंद्रादित्य के द्वारा संभव हुई। वे १२१८ में सिंहासनारूढ़ हुए। इसके बाद राम राजा-सूर्य वंश राम, रामाधिपति राज, वर धीर राजा, महा महिन्त आदि उत्तराधिकारी होते रहे। इस बीच उस देश पर वर्मा के राजा आक्रमण करने लगे थे। सन् १५१० में इंद्रराजा का शासन था। वर्मा, फ्रेंच, अँगरेज इस क्षेत्र में तरह-तरह के षड्यंत्रों के साथ आधिपत्य जमाते रहे तो भी राजतंत्र किसी प्रकार चलता रहा। १८६८ से १९११ तक चूड़ालंकार राजा का शासन था। सन् १९११ से १९२६ तक वाजीरा बुध नामक राजा रहा। इसे भी 'राम' की उपाधि प्राप्त थी। यह स्याम की शासन परंपरा में छठा 'राम' था। यों यहाँ बौद्ध धर्म सन् ४२२ में ही पहुँच गया था पर तेरहवीं सदी तक प्रमुखता ब्राह्मण धर्म की ही रही। स्याम बहुत समय तक कंबोडिया के शासन के अंतर्गत ही था इसलिए स्वभावतः उस क्षेत्र की प्रजा पर शैव शासन का प्रभाव बना रहा। राजा धर्माशोक ने स्याम में एक भव्य विष्णु मंदिर बनाया था। इसी प्रकार अन्यान्य राजा अपने कृति स्मृति के लिए कई-कई मंदिर बनाते रहे, जिनके भग्नावशेष अब तक उस क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं। जो बने हुए हैं उनमें देव पूजा अभी भी प्रचलित है। फ्रोके के शिव मंदिर में अभी भी श्रद्धापूर्वक पूजा होती है। ब्राह्मण वर्ग का अस्तित्व अभी भी यहाँ है। ब्राह्मण को ब्रह्म, ब्रह्म को 'फ्रम' कहने की अपभ्रंश परंपरा चली। फ्रम जाति के लोग ही यहाँ कर्मकांड कराते हैं और पवित्र माने जाते हैं। देव नगर तो इन्हीं की बस्ती है। इन लोगों के आचार व्यवहार में ब्राह्मण परंपराओं का दर्शन अभी भी किया जा सकता है।
थाईलैंड के वर्तमान राजगुरु भारतीय मूल के ब्राह्मण हैं। शिखा, यज्ञोपवीत, धोती धारण करने वाले वासुदेव मुनि के पूर्वज अब से एक हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत से उस देश में पहुँचे थे। तत्कालीन शासकों के वे राजगुरु थे। पीछे वही पद उनके वंशजों को मिलता चला आया।
यों उस देश के वर्तमान शासक भी अपने पूर्वजों की तरह ही बौद्ध धर्म मानते हैं। फिर भी उनने ब्राह्मण धर्म के प्रति सहिष्णुता और समन्वय की नीति अपनाई और कट्टर ब्राह्मण धर्मों पुरोहितों को राज्य गुरु मानने में कोई आपत्ति नहीं की। राज्य कोष से इन राजगुरु को आजीविका मिलती है। उन्हीं के परिवार के १० अन्य ब्राह्मण भी हैं जो मंत्र विद्या एवं कर्मकांड विधान के जानकार हैं। उन्हें भी राजकोष से वृत्ति मिलती हैं। इन लोगों को विशेष आचरणों का पालन करना पड़ता है। वे माँस नहीं खाते।
राजकीय धर्म-कृत्यों की व्यवस्था यही मंडली कराती है। यह सभी ब्राह्मण, शिखा, यज्ञोपवीत से युक्त धोती परिधान धारण करने वाले होते हैं।
राजगुरु का अपना मंदिर है, जिसे 'देवस्थान' कहा जाता है। विष्णु, गणेश, शिव, इंद्र, सूर्य, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी की मूर्तियाँ इसमें स्थापित हैं। साथ ही भगवान बुद्ध देव भी वहीं उच्च आसन पर विराजमान हैं।
थाईलैंड में रामायण कथा बहुत लोकप्रिय है। वहाँ के निवासियों का विश्वास है कि वह घटनाक्रम उन्हीं के देश में संपन्न हुआ था। रामायण की नृत्य नाटिकाएँ बहुधा आयोजित होती रहती हैं और उनमें जनता बहुत रुचि पूर्वक भाग लेती है।
थाई भाषा की एक पुस्तक है—"बाली की भाई को शिक्षा"। यह कर्त्तव्य पालन और नीति निष्ठा की आदर्श पुस्तक है। बालि ने अपने भाई सुग्रीव को जो धर्म-नीति सिखाई उसी का इसमें वर्णन हैं। इसे प्रायः स्कूलों में पढ़ाया जाता है।
स्याम का प्राचीन साहित्य रामायण, महाभारत आदि भारतीय धर्म ग्रंथों की अनुकृति है। बौद्ध धर्म के प्रवेश के बाद वहाँ बौद्ध साहित्य स्यामी भाषा में प्रचुर परिमाण में छपा है। स्यामी भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। प्राचीन काल के शिलालेख संस्कृत भाषा में पाए गए हैं। इससे पता चलता है कि वहाँ किसी समय संस्कृत की ही प्रधानता रही है। यों वहाँ सर्वत्र देव मंदिरों के ध्वंशावशेष बिखरे पड़े हैं, पर इनमें 'लोफ बुरि' विशेष रूप से दर्शनीय है। जीवित प्राचीन धर्मस्थानों में ऐसे भी कितने ही हैं जो पहले हिंदू मंदिर थे, पीछे उन्हें बौद्ध मंदिरों में बदल दिया गया।
स्याम (थाईलैंड) पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ में से कुछ के नाम यह हैं—
(१) ए हिस्ट्री ऑफ स्याम फ्राम दी अर्लिएस्ट टाइम
(२) ए सेलेमनी कृत—स्कलप्चर इन स्याम
(३) सरजान मार्शल कृत—बुद्धिस्ट आर्ट इन स्याम
(४) मजूमदार कृत—इंडियन कोलोनाइजेशन इन स्याम
(५) नीलकंठ शास्त्री कृत—साउथ इंडिया इन्फलुएन्सेंस इन फार ईस्ट।
सामान्य आबादी वाला यह देश वर्षा की दृष्टि से बहुत ही प्रभावशाली है। वह कृषि प्रधान देश है। ८४ प्रतिशत लोग खेती करते हैं। वहाँ की औसत आय एशिया के किसी भी देश से ज्यादा है। विदेशी मुद्रा एवं स्वर्ण भंडार से थाईलैंड की आर्थिक साख बहुत ही मजबूत मानी जाती है।
मलेशिया और सिंगापुर
वर्तमान मलेशिया छः हजार द्वीपों का एक समूह है जिसमें प्रधानतया मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो और सैलबीज आते हैं। प्राचीन समय में वर्मा से लेकर मलेशिया का यह सारा क्षेत्र भी भारत में 'स्वर्णद्वीप' या स्वर्णभूमि के नाम से पुकारा जाता था। अरब इतिहासकारों ने भी इस क्षेत्र को स्वर्णद्वीप ही माना है। अलबरूनी, इब्न, रुईद-फरिन्द के ग्रंथों में यही नाम दिया गया है।
जातक ग्रंथों तथा कथा साहित्यसार, कथाकोष आदि में इस सुवर्णद्वीप की तत्कालीन स्थिति का सुविस्तृत वर्णन है। वर्तमान जावा प्राचीन समय में यवद्वीप कहा जाता था। इस क्षेत्र को बसाने वाले लोगों को इतिहासकारों ने 'इंडोनेशियन' कहा है। उनकी आकृति-प्रकृति का जिस प्रकार वर्णन किया जाता है उसे देखते हुए उन्हें भारतीय मानने में कोई संकोच नहीं रह जाता।
मलेशिया क्षेत्र में ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी में हिंदू धर्म पहुँचा और सातवीं सदी तक निर्बाध गति से फैलता और बढ़ता रहा। उस क्षेत्र में मिले ध्वंसावशेष और शिलालेख इस तथ्य की परिपूर्ण पुष्टि करते हैं। फाहियान के अनुसार उस क्षेत्र पर हिंदू धर्म का भारी प्रभाव था। चीनी यात्री ईच चिंग के समय तक वहाँ उस क्षेत्र के दस राजा बौद्ध धर्मानुयायी बन चुके थे और प्रजा ने इस धर्म को भली प्रकार अंगीकार कर लिया था। नालंदा विश्व विद्यालय के आचार्य धर्मपाल तथा विष्णु वज्रबोधि के प्रयास से इस सारे क्षेत्र में बौद्ध धर्म का विस्तार द्रुत गति से हुआ था। चीनी विवरणों के अनुसार इस क्षेत्र में भारतीयों के आवागमन की भारी भीड़ बनी रहती थी और हजारों यात्री हर रोज यहाँ से वहाँ आया-जाया करते थे।
चीन के 'लेग वंशीय' विवरण के आधार पर यह पता लगा है कि मलाया के राजा भगदत्त ने सन् ५१५ में अपना राजदूत 'आदित्य' चीन भेजा था और उसके हाथों एक पत्र सहित ४१ उपहार वस्तुएँ चीन पहुँचाई थीं। इसके बाद के राजाओं के नाम के साथ 'वर्मा' शब्द जुड़ा होता है। यह सिद्ध करता है कि वह क्षेत्र हिंदू राजाओं के हाथों में रहा है। चीनी इतिहास में एक उल्लेख यह भी है कि चीन सम्राट हाई टू (४५४-६५) के समक्ष मलाया के राजा श्रीवर नरेंद्र ने अपने संदेश वाहक 'रुद्र' के हाथों कुछ उपहार भेजे थे। यह नाम हिंदू धर्मानुयायियों के ही हो सकते हैं। इस क्षेत्र के 'सुनगेई वतु' में तथा 'फलों' पर्वत पर जो प्राचीन आदेश एवं शिलालेख मिले हैं उनसे स्पष्ट होता है कि वहाँ हिंदू राज्य था और संस्कृत भाषा प्रयुक्त होती थी। यह अवशेष चौथी-पाँचवीं शताब्दी के हैं।
मलाया और जावा की बनी हई भारतीय देवमूर्तियाँ पीरू और मैक्सिको तक मिलती हैं। मलायी भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द मौजूद हैं। यों पंद्रहवीं सदी में अरबों से पराजित होने पर मलाया निवासियों को इस्लाम स्वीकार करना पड़ा, फिर भी अब तक उस देश के निवासियों के नाम हिंदू नामों से मिलते-जुलते पाए जाते हैं। प्राचीन काल के राजाओं के नाम—भूमिपाल, आनंद मही, नरोत्तम वर्मन, जय वर्मन, इंद्र वर्मन आदि होना इसी तथ्य पर प्रकाश डालता है कि इस देश पर हिंदू सभ्यता की गहरी धाक थी।
यूनान के भूगोल वेत्ता पाटोलेमी ने मलाया आदि भारत के सारे देशों का उल्लेख 'इंडिया वियांड दि गेंगेज' अर्थात गंगा पार का भारत का नाम देकर किया है। किसी समय में यह देश भारतीय धर्म के अंतर्गत ही था। अभी भी वहाँ पर लगभग आठ लाख भारतीय मौजूद हैं जो वहाँ की जनता के १५ प्रतिशत हैं। आधे से अधिक मलायी किसी समय के भारतीय ही हैं।
प्रख्यात इतिहास वेसा सिलवियन लेवी ने लिखा है इराक से लेकर चीन सागर तक और प्रशांत महासागर के द्वीपों से लेकर आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित 'कोमा' द्वीप तक भारत ने मानव जाति की एक चौथाई जनसंख्या को पिछली शताब्दियों में प्रभावित किया है।
चौथी सदी में भारतीयों की अनेक बस्तियाँ मलाया में बसी हुई थीं, इनमें से बड़ी बस्तियाँ चुन फान, काया, नाटवान, धम्मरत, श्रीमान याला, सीलिन सिंग, मलक्का, वेलेजली, टकुआ, लानया नाम से प्रख्यात थीं। इन क्षेत्रों की खुदाई में जो सामग्री मिली है उससे पता चलता है कि पल्लव और चोल वंश के राजाओं का इस क्षेत्र पर शासन था। इन राजाओं में राजेन्द्र का प्रभुत्व था। तब हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का भी यहाँ भारी प्रसार था।
भारतीयों को मलय प्रायद्वीप के संबंध में जानकारी अति प्राचीन काल, संभवतः ईसा युग के पूर्व से अवश्य ही थी। हिंदुओं ने मलय प्रायद्वीप में कई राज्यों की स्थापना की थी, जिनमें से कुछ दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में कायम हुए थे। इसके संबंध में चीनी विवरण प्राप्त है। इसके अतिरिक्त 'पान-पन' 'फुनन' कमलंका, कलसपुर, कल (केद्दाह) तथा 'पांग' हिंदू राज्य थे।
मलय प्रायद्वीप में यद्यपि प्राचीन हिंदू सभ्यता एवं संस्कृति के वास्तविक अवशेष कम मात्रा में प्राप्त हैं, फिर भी उनका बिलकुल अभाव नहीं है। गनांग जेराई (केद्दाह शिखर) पर्वत की तलहटी में सुंगइबटू राज्य में एक हिंदू मंदिर तथा कुछ पाषाण मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसी क्षेत्र के केद्दाह में ईंटों से बना हुआ बौद्ध मंदिर का अवशेष प्राप्त हुआ है। संभवतः यह अवशेष चौथी अथवा ५वीं शताब्दी ईस्वी का है। इसकी जानकारी उक्त अवशेष के साथ प्राप्त शिलालेखों से होती है। इसी तरह मलाया के उत्तरी भाग में स्थित वेलेसली प्रांत में कुछ बौद्ध मंदिरों के खंभों के ध्वंशावशेष प्राप्त हुए हैं। ये भी ४थी और ५वीं शताब्दी ईस्वी के हैं जिसकी जानकारी इन पर की हुई खुदाई से होती है। सेलेन्सिंग (पेरक) क्षेत्र में सोने का एक आभूषण, जिस पर गरुड़ पर आसीन विष्णु का चित्र अंकित है, प्राप्त हुआ है और इसके साथ ही एक गड्ढा, जो कि एक गिरे हुए वृक्ष के जड़ से उखड़ जाने से बन गया था, में से एक 'कारनेलियन सील' प्राप्त हुआ है, जिस पर 'श्रीविष्णु वर्मन का नाम ५वीं शताब्दी ईस्वी की लिपि में खुदा हुआ था।'
तकुअ-प (जिसे पटोलेमी ने 'टकोला' प्राचीन प्रसिद्ध बंदरगाह बतलाया है) के चारों ओर के क्षेत्र में मंदिरों एवं सुंदर मूर्तियों के ध्वंशावशेष कायम हैं। पूर्वी समुद्र तट पर बंदोन की खाड़ी के चारों तरफ ४थी या ५वीं शताब्दी ईस्वी काल की प्राचीन बस्तियाँ (नगरों) के खंडहर, विशेषकर प्रसिद्ध क्षेत्र सिया, नखोन, श्रीधम्मरत एवं भींग श्री में मौजूद हैं। इस क्षेत्र (भिगोर) की मूर्तियाँ एवं मंदिर कुछ बाद के काल हो सकते हैं, पर 'लिगोर' और 'तकुअ-पा' तथा 'सिया' के पाषाण खंभों में प्राप्त शिलालेखों से यह प्रकट होता है कि बस्तियाँ ४थी अथवा ५वीं शताब्दी ईस्वी के बाद की नहीं है।
मलय देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं वे संस्कृत भाषा में तथा करीब ४थी या ५वीं शताब्दी ईस्वी में प्रचलित भारतीय अक्षरों में लिखे हुए हैं। उनमें से दो शिलालेखों में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है जो कि यह सिद्ध करता है कि उस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार था। केद्दाह के पास एक मिट्टी की तख्ती प्राप्त हुई है, जिस पर संस्कृति भाषा में तीन पद खुदे हुए हैं। ये संस्कृत पद संभवतः महायान माध्यमिक शाखा के स्तोत्र के अंश है। उनमें तीनों संस्कृत पद जो कि महायान शाखा के दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं, 'सागरमति परिप्रिद्दहा' के चीनी अनुवाद में उपलब्ध हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि मलय में छठवीं शताब्दी ईस्वी में या उसके पूर्व से महायान बौद्ध धर्म प्रचलित था। मलय प्रायद्वीप में बड़ी संख्या में प्राप्त शिलालेखों से यह स्पष्ट रूप में प्रकट है कि भारतीयों ने ४थी या ५वीं शताब्दी ईस्वी तक में मलय के उत्तरी, पश्चिमी तथा पूर्वी भागों में हिंदू राज्य कायम किया था और ये भारतीय उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के रहने वाले थे। इन शिलालेखों में से एक शिलालेख में नाविक 'बुद्धगुप्त' के बारे में उल्लेख है जो कि रक्तमृतिका का रहने वाला था। रक्तमृतिका (लाल मिट्टी) बंगाल में मुर्शिदाबाद से १२ मील दक्षिण में स्थित 'रंगमाटी' ही है।
मलय में भारतीय संस्कृति के प्रसार पर प्रकाश डालने वाले उपलब्ध साहित्यिक प्रमाण की पुष्टि, मलय प्रायद्वीप में प्राप्त पुरातत्वीय अवशेषों से होती है।
टक्कोल-आधुनिक तकुअ-प भारतीय यात्रियों का मलय में उतरने का प्रथम स्थान था, जहाँ से कुछ यात्री पर्वतों को पार कर बंदोन की खाड़ी मैदानी क्षेत्र में पहँचे थे। यहाँ के भारतीय यात्री भूमि अथवा समुद्री मार्ग से स्याम, कंबोडिया अन्नम, (चंपा) और सुदूर पूर्व के देशों में जा सकते थे। इस भूमि मार्ग पर प्राचीन भारतीय बस्तियों के खंडहर कायम हैं। दूसरा समुद्री मार्ग भी बहुत लोकप्रिय था और इसका बहुत उपयोग भी होता था। इस तथ्य की जानकारी बैलेसली प्रांत में उपलब्ध पुरातत्त्वीय अवशेषों से होती है। मलय प्रायद्वीप सुदूर पूर्व के भारतीय राज्यों तक पहुँचने के लिए मुख्य द्वार था।
मलय प्रायद्वीप में पुरातत्त्वीय खोज दल की रिपोर्ट हिंदू उपनिवेशीकरण के संबंध में निम्नलिखित है—
'इन उपनिवेशों की संख्या बहुत थी और ये दूरस्थ केंद्रों जैसे पूर्वी तट में स्थित चुभफोन, सिया बंदोन नदी की घाटी, नरवोन श्री धम्मरत लिंगोर मल (पटनी के पास) और सेलेनसिंग (पेहंग में) और पश्चिम तट में स्थित मलक्का, वेलेसली प्रांत, तकुअ-पा और लनय, एवंटनस्सेरिम, नदियों के पश्चिमी तट में बसे हुए थे। इन सबों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण नरवोन धम्मरत (लिगोर) था। यह वास्तविक रूप में एक बौद्ध उपनिवेश था जिसने संभवतः नरवोन श्रीधम्मरत का विशाल स्तूप निर्माण करवाया था और साथ ही ५० मंदिरों का एक हिस्सा भी बनवाया था जो कि इस स्तूप के चारों ओर बने हुए हैं। इसके थोड़ा उत्तर में 'सिया' उपनिवेश स्थित था, जहाँ पहिले ब्राह्मण धर्म और बाद में बौद्ध धर्म प्रचलित था।
प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह मान्यता सही है कि बंदोन की खाड़ी के चारों तरफ के क्षेत्र से भारतीय संस्कृति का प्रसार सुदूरपूर्व के देशों में होता रहा। मलय द्वीप के पश्चिमी तट पर टकुआ-पा के पास सामान्यतः भारतीय रंग-रूप के लोग अभी भी पाए जाते हैं। नरवोन श्रीधम्मरत और पतलंग स्थानों पर भी अभी भारतीय वंशज ब्राह्मणों का समाज रहता है, जो कि यह मानता है कि 'उनके पूर्वज भूमि मार्ग से मलय द्वीप में भारत से आए थे।'
मलाया में यों इस्लाम धर्म के अनुयायियों का बाहुल्य है। वहाँ के सम्राट सुल्तान कहलाते हैं। सुल्तान के नाम के साथ जुड़ने वाली अनेक उपाधियों में से एक 'श्री पाटुका' भी है। जिस प्रकार भरतजी राम की चरण पादुकाओं को अयोध्या के शासन का स्वामी मानते थे और अपने को कार्यवाहक मात्र कहते थे, उसी प्रकार सुल्तान भी राजगद्दी का स्वामी भगवान को मानकर कार्य संचालन करते हैं। यह मर्यादा 'श्रीपादुका' उपाधि में है।
मलाया के मुसलमानों में निकाह तो इस्लामी विधान के साथ ही होता है पर उस अवसर पर रामायण या महाभारत का कोई अभिनय अवश्य किया जाता है। यदि वैसा न किया जाए तो निकाह पूरा हुआ नहीं माना जाएगा।
यहाँ के इस्लाम धर्मानुयायियों पर भी हिंदू धर्म की छाप अभी भी दृष्टिगोचर होती है। स्त्रियों में पर्दा बिलकुल नहीं है। ये कठोर श्रम करती हैं। गृह व्यवस्था को भली प्रकार सँभालती हैं और उपार्जन में भी पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। इस देश में जुकस, समांग, सारेसा नामक आदिवासी जातियाँ भी हैं जो प्रायः जंगलों में रहती हैं। इनकी संख्या अब मात्र ३० हजार रह गई है और निरंतर घटती ही जाती है।
मलाया में ११ प्रतिशत भारतीय, ४४ प्रतिशत मलायी और ३९ प्रतिशत चीनी हैं। रबड़ तथा खनिज पदार्थ की यहाँ अच्छी पैदावार है। मौसम यहाँ काश्मीर जैसा सुहावना रहता है। वर्षा बहुत होती है। जमीन उपजाऊ और हरी-भरी है। गन्ना नारियल, अनन्नास के उत्पादन यहाँ से निर्यात किए जाते हैं। टीन, गटा पारचा, डेमाडरस, सेवियर आदि खनिज भी विदेशी मुद्रा उपार्जित करते हैं।
सन् १८२० में यहाँ अंग्रेजों ने अपना कब्जा जमाया और एक शताब्दी से अधिक यहीं शासन करते रहे। ३१ अगस्त १९५७ को इस देश की जनता ने स्वतंत्रता प्राप्त करती ली। सिंगापुर, सारावान, उत्तरी बोर्नियो और मलाया को मिलाकर सितंबर ६१ से एक संघ बनाया गया जिसका नाम मलेशिया रखा गया। अब मलाया इसी संघ की एक इकाई है।
मलाया की अधिक प्रामाणिक जानकारी तथा उस क्षेत्र पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव का विवरण उपलब्ध करने के लिए इवान्स द्वारा संपादित—'पेपर्स ऑन दि एथनोलॉजी एंड आरकियालॉजी ऑफ दि मलय', जे० टक्कुसु कृत—रिकार्ड ऑफ बुद्स्टि रिलीजन इज प्रैक्टिस्ड इन इंडियन एंड दि मलाया, आर्चीपिलेगो और क्वारिच कृत—'आरकियोलोजिकल रिसर्चेज आग एन्सिएन्ट इंडियन कोलोनाइजेशन' पुस्तकें अधिक विस्तृत एवं प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत करती हैं।
एक विवरण ऐसा भी उपलब्ध है जिसके अनुसार सिंगापुर की स्थापना राजा दलपत सिंह ने की। तभी उनका नाम सिंहपुरा रखा गया। पीछे बदल कर वह सिंगापुर हो गया। दक्षिणी पूर्वी एशिया का यह सबसे धनी नगर है। वहाँ का जीवन स्तर योरोप जैसा ऊँचा है। यहाँ के भारतीय श्रमिक अपनी ईमानदारी और श्रमशीलता के कारण अभी भी सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं।
सिंगापुर द्वीप का क्षेत्रफल २९२ वर्ग मील है। पहले उसमें दलदल और डाकुओं के अड्डे थे। सन् १८१९ में अंग्रजों ने उस पर कब्जा जमाया। सर रैफेल्स के तत्त्वावधान में उसकी सफाई और बसावट का कार्य किया गया। वहाँ चीनी, मलायी और भारतीयों का बाहुल्य है।
सिंगापुर में पर्याप्त संख्या में भारतीय रहते हैं। इनमें एक तिहाई श्रमिक, एक तिहाई दुकानदार और एक तिहाई उच्च सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में लगे हुए हैं और व्यापार करते हैं। अब यहाँ चीनी मूल के लोगों को भारी घुसपैठ हो गई है। उनकी संख्या ७० प्रतिशत तक जा पहुँची है और हिंदुस्तानी ४ प्रतिशत रह गए हैं।
यहाँ भारतीयों की लगभग दो दर्जन संस्थाएँ हैं जिनमें इंडियन चेम्बर ऑफ कामर्स प्रमुख है। ११ हिंदू और बौद्ध मंदिर, ४ गुरुद्वारे और लगभग १०० मस्जिदें हैं। कुल जनसंख्या २० लाख है। सिंगापुर के करोड़पतियों में भारतीयों की भी गणना है। रामकृष्ण मिशन यहाँ ५० वर्ष से काम कर रहा है। उसके दो भव्य मंदिर हैं। एक अस्पताल, एक अनाथालय है। तमिल भाषा के दो स्कूल भी मिशन की ओर से चले रहे हैं। सिंगापुर में कस्टम ड्यूटी न लगने के कारण जापान तथा योरोप अमेरिका की वस्तुएँ बहुत सस्ती हैं।
पश्चिमी एशिया में भारतीय वर्चस्व
पश्चिमी एशिया के इतिहास की विशद गवेषणा करने वाले योरोपीय पुरातत्त्व विज्ञानी एच विलियाँ, परगिटर, स्टार्ना, ग्रीशमान, देरी डोरस आदि ने यह निष्कर्ष निकाला है कि किसी समय यह क्षेत्र भारतीय संस्कृति से प्रभावित था जिसे वहाँ तक भारतीय राजाओं तथा धर्म प्रचारकों ने पहुँचाया।
महमूद गजनवी के दरबारी लेखक अलबरूनी ने अपनी पुस्तक में ऐसे हवाले दिए हैं, जिनसे ईरान और भारत की घनिष्ठता सिद्ध होती है। प्राचीन अरब लेखक अल याकूबी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है।
अलीगढ़ विश्व विद्यालय के प्रो० मकबूल अहमद ने अपनी भारत और अरब संबंधी पुस्तक में पश्चिमी एशिया के शासकों को भारतीय देवी-देवताओं की पूजा करने वाला लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि मेढ राजाओं ने ईसा से ७५० वर्ष पूर्व उत्तरी ईरान पर अधिकार किया, फिर उन्होंने यूनान और मिश्र पर अधिकार किया। इक्ष्वाकु के दामाद क्रुश का ईरान पर शासन था। जिस व्यक्ति को मिश्र का गवर्नर नियुक्त किया गया था उसका नाम आर्यन दास था।
प्रो० मैक्स मूलर ने अपनी 'साइन ऑफ लैंग्वेज' पुस्तक में लिखा है—"फारसी लोगों ने आर्य वंशी परंपराओं को अधिक सुरक्षित रखा है" ये लोग भारत के उत्तर पश्चिम भाग से चलकर फारस में बसे थे। उनके धर्म ग्रंथ जिंदावस्ता में भारतीय धर्म दर्शन ही भरा पड़ा है। सर विलियम जोन्स ने अपनी भाषा-शोध में इस बात की चर्चा की है कि जिंद कोष में साठ-सत्तर फीसदी शब्द शुद्ध संस्कृत के हैं।
यहूदी लोग अपने को 'युदा' की संतान कहते हैं। यह वस्तुतः यदुवंश का संकेत है। तातार लोग अपना आदि रूप 'अय' को मानते हैं। पुराणों के अनुसार राजा पुरूरवा का पुत्र 'अय' था। चीनियों के पुराण पुरुष 'हय हो' हय सम्राट यदु के पौत्र थे। राजा सगर के आदेश से जिस पल्ली नगर के बसाए जाने का पुराणों में उल्लेख मिलता है उस पल्ली स्थान की संगति वर्तमान फिलिस्तीन से ठीक प्रकार बैठ जाती है।
यहूदी धर्म की एक पुराण कथा के अनुसार पैगम्बर एजेकील के समक्ष परमेश्वर ने गरुड़ पक्षी और सुदर्शन चक्र प्रकट किया था। यह विष्णु भगवान का प्रतीकात्मक उल्लेख है। पश्चिमी एशिया में ईराक और अफगानिस्तान ऐसे देश हैं जिनमें प्राचीनकाल में भारतीय संस्कृति की गहरी छाप रही है। इन देशों तक किसी जमाने में भारत की सीमाएँ फैली हुईं थीं। दशवीं शताब्दी में अफगानिस्तान पर हिंदू राजा राज्य करते थे। डॉ० एडवर्ड डी० सचऊ द्वारा संपादित ग्रंथ 'अलबरूनी का भारत' में अफगानिस्तान की प्राचीन इमारतों का उल्लेख है, जिन्हें हिंदू राजाओं ने बनवाया था। काबुल में महानुभावों के तीन प्राचीन मंदिर अभी भी विद्यमान हैं। बामियान घाटी में एक चट्टान काटकर बनाई गई भगवान बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा है। उसी क्षेत्र की पहाड़ियों में एलोरा, अजंता, करता और माजा जैसी सुंदर प्रतिमाएँ खुदी हुई मिलती हैं। यहाँ के एक पुराने नगर का नाम है 'नगर हर' अर्थात शिवजी का नगर। अफगानिस्तान की भाषा पश्तो में संस्कृत शब्दों की भरमार है।
पिछले सत्तर वर्षों में पश्चिमी एशिया में जो पुरातत्त्व अनुसंधान हुआ है उससे प्रकट होता है कि इस क्षेत्र में दूर-दूर तक भारतीय सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं। नार्वे के इतिहासवेत्ता प्रो० नूडिटजन, जर्मन पुरातत्त्व खोजी प्रो० हुमा विकला तथा प्रो० कर्टवेटल ने तुर्की का एक प्राचीन नगर हातुमा खोद निकाला जिसमें हिंदू मंदिरों के अवशेष तथा संस्कृत भाषा में खुदे कई शिलालेख मिले हैं। इन शिलालेखों में वहाँ पर खेत्री शासकों का उल्लेख है। इतिहास वेत्ता इस बात से सहमत हैं कि यह खेत्री शब्द भारत में प्रचलित क्षत्री शब्द का ही अपभ्रंश है। एक राजा का नाम था परशुराम। उसके बेटे का नाम था—लव वर्ण।
खुदाई से प्रमाण मिले हैं कि 'हातुमा' ई० पू० १७४० में आर्य देश के अंतर्गत था। इसमें प्राचीन काल के देव मंदिर मूर्तियाँ तथा पूजा उपकरण निकले हैं। इस नगर की आबादी उस समय २० हजार रही होगी। इमारतों पर भारतीय शिल्प की पूरी छाप है। इसी प्रकार १९३७ ई० की खुदाई में कुसारा नगर निकला तो उसमें भी इंद्र देवता की प्रतिमाएँ तथा अन्य भारतीय कलाकृतियाँ निकलीं।
उपलब्ध शिलालेखों में वहाँ ई० पू० १८०० में सिपात नामक भारतीय राजा के शासन की चर्चा है। उसी क्षेत्र में कोशी (काशी) के शिलालेखों से इतिहासकार आर० ग्रीशमान ने निष्कर्ष निकाला है कि ईरान के इस क्षेत्र में काश्यप ऋषि का वर्चस्व रहा है।
ईरान में सातवीं सदी में हर वामनी नामक कुरुवंशी राजा का राज्य था। तब उसका राज्य विस्तार भारत तक जुड़ा हुआ था। दारिय बाहु (डेरियस) नामक बादशाह अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ है, उसका गहरा संबंध भारत के साथ था।
ईरान के पुरातन शासक पहलवी कहलाते थे। वे भारत के पल्लव राजवंश से थे। राजा लोग अपने नाम के आगे अभी शाह शब्द लगाते हैं। नेपाल के राजा 'राम शाह' हुए हैं। शाह शब्द भारतीय क्षत्रिय परिवार में प्रयुक्त होता रहा है। प्राचीन ईरान में अग्नि पूजा होती थी और हिंदू प्रथा परंपराएँ प्रचलित थीं। उस देश पर जब मुसलमानी आक्रमण हुए तो पारसी जाति के लोग वहाँ से भागकर भारत आए और यहाँ बस गए। पारसी समाज में अग्नि पूजा अभी भी हिंदुओं के अग्निहोत्र की ही तरह प्रचलित है।
ईरान के धर्मोत्सवों में हिंदू परंपरा के कितने ही चिन्ह पाए जाते हैं। चंदन का उपयोग और चौक पूरना पूर्णतया भारतीय परंपरा के अनुरूप हैं। ईरानी भाषा में भी संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है।
इस्लाम स्वीकार करने से पूर्व ईरान में पारसी धर्म था और उनकी पुस्तक जिंदावस्ता रही है। छंद का अपभ्रंश है 'जिंद' और वेद का वेस्ता हुआ है। जिंदा अवस्ता अर्थात वेद मंत्रों का संग्रह। 'जिंद' भाषा में दो तिहाई शब्द संस्कृत के हैं। इतिहासज्ञ डॉ० तारापोरवाला के अनुसार पारसी धर्म 'भाषा' में ऋग्वेद के ही भाव भरे पड़े हैं। ईरानी जनता तब पुनर्जन्म पर विश्वास करती थी। श्रद्धापूर्वक अग्निहोत्र करती थी, पूजती थी और यज्ञोपवीत (कुश्ती) धारण करती थी। वहाँ भारतीय वर्ण व्यवस्था का प्रचलन था।
ईरान में बसे हुए पारसी लोग वस्तुतः भारत से ही गए थे। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने इस तथ्य को स्वीकारा है और भारतीय मूल के, भारतीय सभ्यता के अनुयायी के रूप में प्रतिपादित किया है। नमः जरदुस्त पारसी धर्म ग्रंथ में महर्षि व्यास हैं। जरदुस्त के संवाद एवं विचार विनिमय का वर्णन है। धर्मग्रंथ जिंदावस्ता में अथर्ववेद का उल्लेख है। उस देश में 'स' का उच्चारण 'ह' के रूप में होता रहा है। इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो पारसी धर्म में प्रचलित देवताओं तथा धर्म परंपराओं में भाव सादृश्य ही नहीं, शब्द सादृश्य भी दिखाई पड़ता है। कितने ही संस्कृत शब्द तो भारतीय और पारसी धर्म में समान अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं। यथा इष्टि, गाथा, गंधर्व, पशु, गौ, इषु, रथ, नमस्ते यव वा आदि। कहीं-कहीं तो 'जिंदावस्ता,' का-'यथा' हिनोति एशं वाचम् संस्कृत का 'यथा शृणोति एतां वाचम्' में समानता है और विश्व दुःख जगैति वाक्य संस्कृत के विश्व दुःखो जिन्वति से मिलता-जुलता है। धर्म साहित्य में ऐसी भी समानतायें असाधारण रूप में देखी जा सकती हैं। सोम पान संबंधी मान्यता दोनों देशों में समान है। हिंदू समाज में प्रचलित दर्शपोर्ण मासेष्टि यज्ञ, चातुर्मास्येष्टि यज्ञ, प्रयोति स्टोम यज्ञ आदि की प्रथा भी समान स्तर की है। पुनर्जन्म, कर्मफल, स्वर्ग-नरक, वर्ण व्यवस्था आदि मान्यताओं में भी साम्य है। पारसी धर्म और हिंदू धर्म की तुलनात्मक समीक्षा करने पर दोनों का पुरातन आधार एक ही केंद्र पर केंद्रित हुआ स्पष्टतया परिलक्षित होता है।
हदीसों में भारत को 'हिंदुस्तान जन्नत निशक' अर्थात 'स्वर्ग तुल्य भारत' कहकर सम्मानित किया गया है। इब्ने जरीर, इब्ने अवी हतिम और हाकिम प्रभृति विद्वानों ने लिखा है—हजरत आदम ने स्वर्ग से धरती पर उतरने पर पहला कदम भारत के दक्षिणी भाग पर रखा था। इस क्षेत्र में पैदा होने वाले मसाले, सुगंधित द्रव्य, नीबू और केले हजरत आदम के साथ ही भारत में आए थे। 'सुवह तुल मरजान फी आरारे हिंदोस्तान' नामक ग्रंथ में कहा गया है कि हजरत आदम सबसे पहले हिंदोस्तान में उतरे और यहीं उन पर 'वही' (ईश्वरीय संदेश) उतरा।
'किताबुल अदुलि बुलमुरफरद' के लेखक इमाम बुखारी ने ऐसे कई प्रमाण दिए हैं जिसमें ईसा की सातवीं शताब्दी में ईराक और अरब में जाटों की बहुत बड़ी संख्या मौजूद थी।
इस्लाम का ऐकेश्वरवाद का सिद्धांत व्यास के वेदांत सिद्धांत के प्रकाश में विकसित हुआ माना जाता है। सूफी संप्रदाय पर वेदांत की गहरी छाप है। अरबी में वेदपा का तात्पर्य 'वेद व्यास' को माना है और उन्हीं के महाभारत आदि पुराणों में वर्णित कथानकों एवं सिद्धांतों को 'वेदपा फिल हिकमत' अर्थात वेदव्यास की बुद्धिमानी कह कर इंगित किया गया है।
अरबी में संस्कृत शब्दों की, उसके अपभ्रंशों की भरमार है। इस भाषा प्रभाव को देखने से प्रतीत होता है कि किसी समय उस क्षेत्र में संस्कृत का प्रचलन रहा होगा और स्थानीय भाषा के सम्मिश्रण से अरबी का वर्तमान स्वरूप विकसित हुआ होगा। अरब के प्राचीन साहित्य में ऐसे अरबी अनुवादों की भरमार है जो भारत के ग्रंथों से अनूदित किए गए हैं। इन पुस्तकों में ज्ञान और विज्ञान के प्रत्येक पक्ष वाले भारतीय ग्रंथों का अनुवाद करके वहाँ के भाषा भंडार की श्री समृद्धि की गई है।
जिस प्रकार चीनी यात्री समय-समय पर यहाँ धर्म शिक्षा तथा ज्ञान संपदा संपादित करने के लिए आते रहे हैं उसी प्रकार अरब शिक्षार्थी भी भारत आए थे। अलबरूनी भारत में ४० वर्ष रहा। यहाँ उसने संस्कृत पढ़ी तथा संस्कृत का अध्ययन किया। उसने अपने अनुभवों को 'किताबुल हिंद' तथा 'कानून मस ऊदी' में उल्लेख किया है।
बसरा निवासी दार्शनिक जाहिज ने अपनी पुस्तक 'गोरी और काली', जातियों का तुलनात्मक अध्ययन' में भारतीय ज्ञान-विज्ञान और रहन-सहन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अरब इतिहासकार याकूबी ने भारत के हर क्षेत्र में बड़े-चढ़े ज्ञान की गरिमा को मुक्त कंठ से सराहा है।
अरबों ने अंकगणित भारत से सीखा इसलिए अंकों की हिंदसा कहा जाता है। भारतीय ग्रह गणित संबंधी ग्रंथों का अनुवाद भी अरबी में हुआ है। बृहस्पति सिद्धांत का, अस्सिद हिंद आर्य भट्ट का—आजवंद, खंडक खाद्यक का अरकंद—नाम से अनुवाद हुआ है, खलीफा मंसूर के समय से भारतीय ज्योतिषी की वहाँ के राज दरबार में नियुक्ति होती थी।
खलीफा मवपिफक विल्लाह अब्बासी ने एक दल भारत में चिकित्सा विज्ञान एवं जड़ी-बूटी उत्पादन की शिक्षा लेने के लिए भेजा था। इन दहन नामक अरब विद्वान ने संस्कृत से अरबी में अनेकों आयुर्वेद ग्रंथों का अनुवाद करा के उस देश के निवासियों को लाभान्वित किया। प्रधानमंत्री खालिया बरामकी ने सुश्रूत का अनुवाद कराया और उसे ससरों नाम दिया। इसी प्रकार चरक का भी अनुवाद हुआ। आयुर्वेद वेत्ता शानक, रुसा, राय लिखित ग्रंथ भी अरब जनता के लिए उसी काल में उपलब्ध किए गए।
अरब प्रधान मंत्री यहिया वरमकी ने फिर एक दल भारत भेजा जो यहाँ धर्म तथा चिकित्सा संबंधी जानकारियाँ संग्रह करके वहाँ के लोगों के लिए उपलब्ध करें। ऐसे ही शोधकर्ताओं में यरूसलम का एक विद्वान लेखक मुतहमर भी था, जिसने अपनी पुस्तक 'किताबुल विदअ वतारीख' में तत्कालीन भारत की धार्मिक स्थिति का विस्तारपूर्वक वर्णन लिखा है। उसने इस देश के उपासकों के 'जल भक्तिय' अर्थात अभिषेक, तर्पण, अर्ध्य, तीर्थ-स्नान आदि के प्रमुखता वाले और 'अग्नि होतरिय' अर्थात अग्निहोत्री-यज्ञ धर्म के दो भागों में विभक्त किया है। उन दिनों यहाँ ऐसे ही कर्मकांड का प्रधानतया प्रचलन था। अबूजैद सैराफी ने भारत की स्थिति का जैसा उल्लेख किया है उससे प्रतीत होता है कि वह भी यहाँ की स्थिति को आँखों से देखने आया होगा।
अरबी का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है 'बीजासफ' इसमें भगवान बुद्धकी शिक्षाओं का संकलन है। साथ ही बौद्ध-सत्व के जन्म, चरित्र, शिक्षा मृत्यु आदि का वर्णन है। उसे इस्लाम धर्मानुयायियों का एक वर्ग अभी भी धर्म ग्रंथ के रूप में मानता है। इसके कुछ अध्याय प्रसिद्ध अरबी धर्मग्रंथ 'इखवानुस सफा' में सम्मिलित किए गए हैं। पुस्तक का नाम वीजासफ वस्तुतः बोधि सत्व का ही अपभ्रंश है। पुरानी फारसी में 'घ' के स्थान पर 'ज' का उच्चारण होता भी रहा है। बोधिका बीज हो जाना इस दृष्टि से सामान्य बात है।
अरबी भाषा में अनेकों संस्कृत के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का अनुवाद हुआ है। महाभारत की कथाओं का अनुवाद अबू सालह बिन शुएव ने किया। इसका ईरानी उत्था मुजम्मिल उत्तवारीख नाम से पेरिस पुस्तकालय में सुरक्षित है। इन नदीम की किताबुल फेहरिस्त में उल्लेख मिलता है कि शानाक और वाकर नामक भारतीय विद्वानों ने कितने ही संस्कृत के राजनीतिक तथा तंत्र ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में किया। अरबी का 'कलेला दमना' ग्रंथ पंच तंत्र का अनुवाद है, जिसे नौवीं शताब्दी में अब्दुल्लाह विमुकफ्फा ने संपन्न किया था। उसी का पद्यानुवाद महाकवि अव्वान ने किया था और राज्य पुरस्कार पाया था।
चीन के एशिया में चीनी यात्री प्रहुएनसान के अनुसार सन् ६३० में वर्तमान अफगानिस्तान का गांधार प्रदेश भारतीय क्षत्रिय राजाओं के शासन का अंग था। अभी भी काबुल में २२ हिंदू मंदिर हैं। वैरागी, उदासी, नाथ और संन्यासी संप्रदाय वाले साधुओं के मठ वहाँ अभी भी मौजूद हैं। वहाँ की पस्तो भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य है। इस देश को महा वैयाकरण पाणिनी की जन्म भूमि माना जाता है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी गांधार प्रदेश की ही राजकुमारी थी।
काबुल नदी के तट पर बसा काबुल नगर अफगानिस्तान की अति प्राचीन राजधानी है। उसका पुराना नाम आर्याण है। आर्याण अर्थात आर्य लोगों का निवास क्षेत्र। यहाँ आर्य-बौद्ध और यवन संस्कृतियों के महत्त्वपूर्ण भग्नावशेष सुरक्षित हैं। काबुल की पुरानी बस्ती पुराने ढंग की बसी हैं, किंतु नई काबुल रूस और अमेरिका की तरह विशालकाय, गगनचुंबी और साफ-सुथरी बनी हुई है। स्त्रियाँ बहुमूल्य कालीनों के निर्माण में लगी हुई मुहल्ले-मुहल्ले देखी जा सकती हैं।
नादिरशाह का मजार और करगाह झील दर्शकों के आकर्षण का केंद्र हैं। कहते हैं कि नादिरशाह भारत को लूट कर वापस जा रहा था तो यही रास्ते में उसका अंत हो गया था। शहर से २५ किलो मीटर दूर करगाह झील बहुत ही सुंदर है। लोग उसमें नौका विहार करते हैं। तटवर्ती छोटे-छोटे होटलों में बिछी बेंचों पर बैठकर इस झील का मनोहर दृश्य अच्छी तरह देखा जा सकता है। कॉलेज में हिंदी तथा संस्कृत भाषा के अध्ययन का प्रबंध है। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ पूरी मेहनती हैं। स्कूली लड़कियाँ ही फिराक पहने दीखती हैं। वयस्क स्त्रियाँ को पर्दे में रहना पड़ता है। हाँ, गरीब वर्ग की स्त्रियाँ मेहनत-मजदूरी के सिलसिले में मुँह खोले हुए काम करती दिखाई देती पड़ती हैं। भाषा पस्तो है पर उस पर संस्कृत का गहरा प्रभाव है। अच्छी उर्दू जानने वाला यहाँ के लोगों की बातचीत सुनकर उसका मोटा अर्थ तो समझ ही सकता है।
इस्लाम के उद्भव और विस्तार की जन्मभूमि अरब है। अरब देश में इस्लाम के अवतरण से पूर्व बौद्ध धर्म प्रचलित था उसके अनेकों प्रमाण मिलते हैं। हदीसों के अनुसार हजरत आदम जब धरती पर आए तो उन्होंने पहला चरण पृथ्वी के स्वर्ग भारत में रखा और दूसरा चरण अरब में। लंका उन दिनों भारत का ही अंग था। लंका में आदम पीक नामक स्थान अभी भी हजरत आदम के अवतरण का स्थल माना जाता है और मुसलमान वहाँ भक्तिपूर्वक नमन करने जाते हैं।
अरब देश में एक प्रतिभाशाली 'वंश वरामका' की महत्त्वपूर्ण हलचलों का वर्णन वहाँ के इतिहास में मिलता है। इस वंश के लोगों को अरब शासन में मंत्री पद तक प्राप्त था। यह वंश अग्निहोत्री था। उन्होंने बलख में 'नौ विहार' एवं अग्नि मंदिर बनवाया था। सन् ६५१ में मुसलमानी आक्रमण में यह मंदिर गिराया गया और उसके अनुयायियों को पकड़ कर दश्मिक ले जाया गया, जहाँ वे मुसलमान बन गए।
वरामका वंश के विभिन्न व्यक्तियों ने अब्बासी खलीफा सफूफाह से लेकर पाँचवें खलीफा हारूनुर्रशीद तक अरब की शासन सत्ता अपने हाथ में रखी और वे मंत्री कहलाते थे। सिंहासनारूढ़ दूसरे थे, पर उनकी बुद्धिमत्ता और क्षमता इतनी तीखी थी कि प्रकारांतर में सारा शासन उन्हीं को देखना पड़ता था। अरब इतिहास लेखकों के अनुसार उनका शासन हर दृष्टि से आदर्श था। जितनी सर्वतोमुखी प्रगति उनके जमाने में हुई इतनी इस क्रम में अन्य किसी काल में नहीं देखी गई। यही कारण था कि वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी शासन सत्ता का सूत्र संचालन करने में अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हुए मंत्री के पद का उत्तरदायित्व वहन करते रहे।
बुरहान काते की तारीख जियाए वरनी रौजुतुस्सफा पुस्तक के अनुसार वरमका जाति अग्नि पूजक थी। बलख में उन्होंने अग्नि मंदिर बनाया था। उस मंदिर के पुजारी भी वे ही लोग थे। सन् ६५१ ई० में मुसलमानी आक्रमण ने इस मंदिर का सफाया कर दिया और वरामका लोग इस्लाम के अनुयायी बन गए।
नौविहार के बारे इलुत फकीह हमदानी ने लिखा है इस विहार के बनाने वाले वरमका लोग थे। वे मूर्ति पूजक थे। मक्का और कुरेश के धर्म मंदिर की प्रतिद्वंद्विता में उन्होंने वैसा ही यह नया मंदिर बनाने का प्रयत्न किया। इसका गुंबद सौ हाथ लंबा और सौ हाथ चौड़ा था। ३६० पुजारियों का निवास स्थान इसमें था। वर्ष में एक दिन ही एक पुजारी पूजा करता था। किताबुल बुलदान के अनुसार वरमक का अर्थ है—पुजारी। यह लोग पुजारियों के वंशज थे। चीन और काबुल के बादशाह इन्हीं का धर्म मानते थे और वे लोग यहाँ पर आकर स्थापित विशाल मूर्तियों के दर्शन अर्चन करते थे। इतिहासकार कजवीनी के अनुसार यह मंदिर उस काल के देवालयों में सबसे बड़ा था। रेशमी वस्त्रों और रत्न जटित आभूषणों में मूर्तियों की सज्जा होती थी। फारस वाले और तुर्क लोग यहाँ श्रद्धापूर्वक दर्शन करने आते थे और भेंट दक्षिणा चढ़ाते थे।
प्रो० ब्राउन ने अपनी पुस्तक 'लिटरेरी हिस्ट्री ऑफ पर्शिया' में इस देवालय को ऐसे अग्नि मंदिर के रूप में अंकित किया है जहाँ अग्निहोत्र की मान्यता थी। जखाऊ की किताबुल हिंद में इसे बौद्ध विहार बताया गया है। 'इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम' में भी बुद्ध विहार होने की चर्चा है।
इतिहासकार मसऊद ने नौ विहार के ऊँचे शिखर पर हरे रेशमी झंडे लहराते रहने का उल्लेख किया है। इब्नुल फकीह ने इस विशाल मंदिर में स्थापित मूर्तियों का वर्णन किया है और लिखा है उसमें ३६० पुजारियों के रहने के अलग-अलग कक्ष थे। चीन, काबुल और भारत के राजा भी इस मंदिर के पुजारियों वाला धर्म वरमक (ब्रह्म) धर्म मानते थे और वे यहाँ पूजा करने तथा मस्तक झुकाने आते थे। इतिहास लेखक याकूब ने उमर बिन अजाक किरमानी का हवाला देते हुए इस 'नौ विहार' का लगभग ऐसा ही वर्णन किया है और लिखा है कि इस मूर्ति पूजक धर्म के अनुयायी बरामका लोगों का बलख तथा देश के दूसरे स्थानों पर बड़ा सम्मान था। एक-दूसरे इतिहास लेखक कजवीनी ने अपने वर्णन में विहार को उस देश का सबसे बड़ा 'मंदिर' लिखा है और उसके भीतर खड़ी सुंदर मूर्तियों की चर्चा की है।
अरब इतिहासकारों ने इस 'नौ विहार' का जैसा वर्णन किया है उसके विवरणों को देखते हुए वह स्पष्टतः ऐसा बुद्ध विहार प्रतीत होता है, जिस पर पुराने बौद्धिक भारतीय धर्म की छाप थी और उसमें अग्निहोत्र की भी व्यवस्था थी। डब्ल्यू वर्थाल्ड ने अपने 'इस्लाम का विश्वकोष' ग्रंथ में इसे बुद्ध विहार ही माना है। इसके प्रमुख द्वार पर भगवान बुद्ध के उपदेश खुदे थे और बुद्धि संतोष और समृद्धि की उपयोगिता बताई गई थी।
न केवल बलख वरन पूरे खुरासान क्षेत्र में बुद्ध धर्म का प्रसार-प्रभाव रहता था, इसकी चर्चा करते हुए इतिहासकार इब्नदीन ने लिखा है कि खुरासन क्षेत्र में इस्लाम आने से पूर्व बुद्ध धर्म का ही आधिपत्य था।
अरबी विश्वकोष 'मसालिकुल अवसार फी ममालिकिल अक्सर' के प्रथम खंड में बलख के नौ विहार का वर्णन है और लिखा है कि उसे 'मतोशहर' नाम के एक भारतीय राजा ने बनवाया था। इसमें ग्रह-नक्षत्रों की पूजा भी होती थी।
इस्लाम स्वीकार कर लेने के बाद भी वरामका वंश के लोगों का भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम शताब्दियों तक बना रहा, उन्होंने अनेक भारतीय ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में कराया और घरेलू जीवन में हिंदू धर्म की प्रथा परंपराएँ अपनाए रखीं। अब्बासी खलीफाओं के समय अरब शासन में कई बरामका मंत्री थे। उन्होंने खलीफा को रजामंद करके भारत के कितने ही विद्वान पंडित बुलाए और बृहस्पति सिद्धांत आदि कितने संस्कृत ग्रंथों का अरबी में अनुवाद कराया। जब हाँरू रशीद बीमार पड़े और अरब के चिकित्सक इलाज में असफल रहे तो भारत से मनकाना वैद्य बुलाए गए और उनके प्राण बचाए। इसी प्रकार खलीफा के एक भाई के असाध्य रोग को अच्छा करने के लिए भारतीय चिकित्सक को प्रचुर मार्ग व्यय खर्च करके बुलाया गया था और उसने उनके प्राण बचाए थे।
अरब से कई यात्री भारत की धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का पता लगाने के लिए आते रहे हैं। उन्होंने यहाँ रहकर जो सीखा, जाना उसका विस्तारपूर्वक वर्णन अपने ग्रंथों में किया है। ताकि उस देश के निवासी स्थिति का समुचित लाभ उठा सकें।
इन यात्री लेखकों में से कुछ के नाम और ग्रंथ इस प्रकार हैं—
(१) सुलेमान सौदागर सं० २३७ हि०, इसकी पुस्तक है—"सिल सिल तुत्तवारीख।"
(२) इब्ने खुर्दावजा सन् २५० हि, पुस्तक किताबुल मसालिक वल ममालिक।
(३) अबूजैद हसन सैराफी सन् ६४ हि०, पुस्तक.......
(४) अबूदल्फ मुसदूर बिन मुहलहिल यं वूई, सन् ३३१ हि में। इसकी पुस्तक के कुछ पृष्ठ ही मिलते हैं जो जर्मनी में लैटिन अनुवाद समेत सन् १८४५ ई० में छपे हैं। इसके उद्धरण कितने ही अरब इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में दिए हैं।
(५) बुजुर्ग विन शहरयार सन् ३०० हिजरी, पुस्तक 'अजायवुल हिंद'
(६) मसरिदीअबुल हसन अली सन् ३०३ हिजरी, पुस्तकें—'मुरुजुज महहवमआदनुल जोहरी' उल तरवीह वल अशराफ'
(७) इस्तखरीअबू इसहाक इब्राहीम बिन मुहम्मद। पुस्तकें—'किताबुल अकालीम' किताबुल मसातिकुल, मसातिकुल ममालिक'
(८) इब्न हौकल (सन् ३३१ हि०) इसकी पुस्तक के कुछ पृष्ठ ही इतिहासकार इलियट को अवध के शाही पुस्तकालय में मिले थे।
(९) बुशारी मुकसदी-शेमसुद्दीन मुहम्मद विन अहमद वुशरी सन् ३७५ हिजरी पुस्तक—'अहसनूत तफासीय फी मारफतिल अकालीय'।
(१०) अलबरूनी सन् ४०० हि०, पुस्तक 'किताबुल हिंद'
(११) इब्न बतूता सन् ७७९ हि० पुस्तक 'अजायबुल आस्फार।'
यह वे लोग हैं जिन्होंने भारत आकर आँखों देखा हाल लिखा है। जो यहाँ स्वयं नहीं आए पर जिन्होंने प्रामाणिक सूत्रों से तत्कालीन भारत की स्थिति पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ लिखे हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। विलाजुरी (२७५ हि०) की 'फुतूहल वुल्दान'। इब्न नदीम बगदादी (३७० हि०) की 'किताबुल फेहरिस्त'। सूफी दामश्की (७२८ हि०) की 'अजायबुल वई वल बहर। जकरिया कजवीनी (६८२ हि०) की 'असारुल विलाद।' अबुल फिदा (७३२ हि०) की 'तकवीमुल बुरदान'। याकूत (६२७ हि०) की 'मुअजमुल बुल्दान'। नवीरी (७३३ हि०) की 'नहायतुल रव फी अफनूगूल अदब'। 'माशाहबुद्दीन उमरी (७४७ हि०) की 'मसालिकुल अव्सार पुस्तकें भी कम महत्त्व की नहीं हैं। यह सभी लेखक अरब, ईराक, ईरान, सिसली, मिश्र आदि अरब देशों के हैं और उनने अपने समय में जो कुछ लिखा है वह उनकी जानकारी के हिसाब से बिना अत्युक्ति का ही माना जा सकता है। उन उल्लेखों में भारत की तत्कालीन परंपराओं की सराहना की गई है।
इन ग्रंथों से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के लोग पारस्परिक कलह में किस प्रकार एक-दूसरे को नीचा दिखाने में निरत थे और एक-दूसरे के प्रति किस तरह दुरभिसंधियाँ रच रहे थे।
इसके अतिरिक्त उपरोक्त ग्रंथ प्राचीन भारत की ऋद्धि एवं गरिमा पर भी प्रकाश डालते हैं और बताते हैं कि जनसाधारण में धर्मनिष्ठा और नैतिकता के आदर्श बहुत ऊँचे थे।
अरब देशों से जो शिक्षार्थी और अर्थार्थी विद्याध्ययन अथवा व्यवसाय के लिए वहाँ पहुँचते थे, उन्हें समुचित आतिथ्य एवं सहकार प्रदान किया जाता था। अरब देशों के साथ चिरकाल से भारत के बड़े घनिष्ठ और सौहार्दपूर्ण संबंध चले आ रहे थे। कटुता तो आक्रमण और आधिपत्य की चीज के साथ पनपी। धर्म यहाँ ऐच्छिक विषय था कटुता तो बल प्रयोग ने उत्पन्न की।
मैसेपोटामिया किसी जमाने में भारतीय सभ्यता का केंद्र रहा है। उस प्रदेश में भारतवासी ही जाकर बसे थे। इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है कि यूफ्रेटीज और टाइग्रिस नदियों की सुविस्तृत घाटी में 'सुमेर' नामक एक सुसंस्कृत जाति बसी हुई थी। वे लोग भारत से ईरान होते हुए इस क्षेत्र में पहुँचे थे और 'इरीदु' बंदरगाह के निकट अपनी बस्तियाँ तथा शासन व्यवस्था कायम की। पहला राजा था—'उक्कुसि' यह इच्छ्वाकु शब्द का अपभ्रंश है।
महाभारत में भारत के एक प्रांत का नाम सुराष्ट्र और उसके निवासियों को 'सुवर्ण' बताया गया है। यह 'सुवर्ण' सुमेर थे। सुमेर का अर्थ है—अच्छी जाति। यही अर्थ सुवर्ण का भी होता है। उन दिनों भयंकर बाढ़ें आईं, भारी वर्षा हुई जिसमें सुमेर सभ्यता के महत्त्वपूर्ण दुर्ग धराशायी हो गए। अब 'किश' और 'उर' क्षेत्रों की खुदाई में ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे उस क्षेत्र में बसी हुई सुमेर जाति की समुन्नत स्थिति का पता चलता है और प्रतीत होता है कि वे भारतीय धर्मानुयायी थे। सूर्य पूजा करते थे। निष्पुर में विशालकाय सूर्य मंदिर था। विष्णु वाहन गरुड़ की भी प्रतिमाएँ उस क्षेत्र में मिली हैं। इच्छ्वाकु राजा की मुद्राएँ भी उसी खुदाई में पाई गई हैं। 'वोनजकोई' नामक स्थान पर खुदी वरुण देवता की मूर्ति मिली है। रथ ठीक उसी प्रकार के पाए गए हैं जैसे कि भारत में चलते थे। मृतकों के दाह-संस्कार के भी प्रमाण मिले हैं।
'बोगज कोई' की खुदाई में पुरातत्व अन्वेषी जर्मन संशोधक ह्यूगो विंकलर का एक शिलालेख मिला है जिससे प्रतीत होता है कि मैसोपोटामिया के स्थानीय भारतीय धर्मानुयायी मितानी वंशी राजा दशरथ ने भारतीय देवताओं को साक्षी देकर एक मैत्री संधि की। यह लेख ईसा से १३६० वर्ष पूर्व का है। इसमें मित्र, वरुण, इंद्र और सत्य देवताओं की वंशावलि भी मिली है, जिसमें यश दत्त, सुवर दत्त, वीर दत्त, आतर्तम, सुर्तन आदि भारत वंशी राजाओं के नाम हैं।
इतिहास वेत्ता हडन-वान लुशन-चाइल्ड के अनुसार यह लोग नारडिक वंश के आर्य लोग थे। वे काकेशियस पर्वत पार करके भारत से यहाँ आए थे और मितानी राज्य स्थापित किया था। मैसोपोटामिया की खुदाई में प्राप्त अवशेष और मोहन जोदड़ो की सिंधु सभ्यता सामग्री में भारी साम्य है। दोनों की समानता देखते ही बनती है। मितानी भाषा में संस्कृत और प्राकृतिक भाषा के शब्दों की भरमार है।
एशिया माइनर के इसी क्षेत्र में एक और पुरातन वंश का विवरण मिलता है जिसे 'खती' कहा गया है। यह खत्री या क्षत्री शब्द का अपभ्रंश है। इन लोगों की प्रथम राजधानी 'तलहलफ' थी। इन क्षत्रिय राजाओं के जो सिक्के मिले हैं उन पर सिंहारूढ़ दुर्गा और वृषभारूढ़ शिव की आकृति बनी हैं। इसी खुदाई में शिव-पार्वती की बालक स्कंद समेत प्रतिमा मिली है, 'इकोनियम' में प्राप्त शिलालेखों से उस क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था प्रचलन तथा भारतीय भाषा का प्रसार सिद्ध होता है।
ईसा के १६४६ वर्ष पूर्व से लेकर ११८० वर्ष पूर्व तक ६०० वर्षों से एशिया माइनर क्षेत्र में खत्री राजाओं का राज्य रहा है। मीडिया और वेविलोन के बीच जगरस प्रदेश में इन्हीं लोगों का शासन था। इन्हें 'कसतर' कहा जाता था। जो क्षत्री शब्द का ही अपभ्रंश है। असीरिया में मिले एक लेख के अनुसार एक क्षत्री राजा अंजु या अंशु का उल्लेख है। ईरान के यह क्षेत्र समीप पड़ता है। इसलिए वहाँ की भाषा और सभ्यता का भी इन क्षत्र या क्षत्री लोगों पर प्रभाव था, किंतु बहुलता फिर भी भारतीयता की ही थी। वे लोग भारत से ही गए थे।
सन् ९६० ईस्वी में मैसोपोटामिया 'ईराक' के वसरा नगर में इस्लाम धर्मानुयायियों में से एक संप्रदाय उभरा 'अखवानुस्सफा' जिसका अर्थ होता है—'पवित्र संप्रदाय'। इसमें भारतीय दर्शन, आचार एवं उपनिषदों के तत्त्व ज्ञान का आश्चर्यजनक समावेश था। उसमें हिंदुओं जैसा आश्रमों का विधान था। पचास वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर इस संप्रदाय के लोग साधु जीवन में प्रवेश करते थे। उपासनारत रहते थे और लोक शिक्षण के लिए परिभ्रमण करते थे। इस संप्रदाय का साहित्य ५० खंडों में विभक्त था। उसमें भारतीय धर्म विशेष रूप से और साधारणतया अन्य धर्मों में से भी जो कुछ मानवोपयोगी पाया गया उस सब का संकलन किया गया था। इस साहित्य को 'रसायल अखवानुस्सफा' अर्थात सदाशय मान्यता का साहित्य कहते थे। इसके संकलन कर्त्ताओं में जजानी, मुकद्दसी, अलएरोफी, इनरिफस आदि धुरंधर विद्वान थे।
इस संप्रदाय में इस्लाम तथा अन्य धर्मों के ऋषियों तथा अवतारों का आदर करने तथा उनकी शिक्षाएँ ग्रहण करने का विधान था। मुहम्मद, इब्राहीम, ईसा, बुद्ध एवं ऋषियों के लिए उनने समुचित सम्मान प्रकट करने की मान्यता को प्रश्रय दिया था और ऐसे सर्वधर्म समन्वयी महापुरुष के अवतरण की प्रतीक्षा थी जो ईरानियों जैसा कुलीन, अरबों जैसा श्रद्धालु, ईराकियों जैसा ज्ञानी, यहूदियों जैसा गंभीर, ईसाइयों जैसा प्रेमी, सीरिया वालों जैसा सरल, यूनानियों जैसा दार्शनिक, हिंदुओं जैसा तत्त्वदर्शी और सूफियों जैसा संत हो। उस धर्म का प्रयोजन संसार के समस्त धर्मों और वर्गों के श्रेष्ठ तत्त्वों का संग्रह करके एक सार ग्रही-सत्यान्वेषी सार्वभौम पवित्र धर्म की स्थापना था।
इतिहास के विद्यार्थी फिनीशियन लोगों की जीवट, पुरुषार्थ परायणता और संस्कृति से भलीभाँति परिचित हैं। किसी समय यह लोग संसार के कुशलतम और सफलतम व्यापारी समझे जाते थे। फिनीशियन द्वीप समूह, सिडन, टायर आदि इन्हीं लोगों की बस्तियाँ थीं। आक्रमणकारी इन्हें बार-बार लूटते रहे किंतु उन्होंने फिर से उसकी क्षतिपूर्ति कर ली और यथावत बने रहे। इन्हें रोमन इतिहास में प्यूनिक कहा गया है। यह जाति वस्तुतः भारत की 'पणि' वंशीय लोगों की ही विदेश जाने वाली एक शाखा थी। पणि का ही अपभ्रंश 'प्यूनिक' है। निरुक्त में 'पणिवणिग्भवित'—पणि को वणिक कहा गया है। यह लोग व्यवसाय प्रयोजन के लिए भारत से ईरान गए थे। वहाँ असुरक्षा देखकर वे लोग सीरिया के समुद्र तट पर जा बसे और उस क्षेत्र का नाम 'फिनीशिया' रखा। इन्होंने उत्तरी अफ्रीका और भूमध्य सागर के द्वीप बसाए। कार्थेज भी उन्होंने बसाया। छः लाख जनसंख्या वाले कार्थेज का व्यवसाय अभी दक्षिण योरोप के अनेक देशों को प्रभावित करता है।
पणिवंशी फिनीशीयनों की प्राचीन 'गाथा' भारतीय सभ्यता की ही अनुकृति है। उनका धर्म ग्रंथ 'बलूस्पा' ऋग्वेद का ही अनुवाद है। अभी भी उनकी मान्यताएँ और प्रथाएँ बहुत कुछ भारतीय आदर्शों के अधिक समीप हैं। किसी समय पणिवंश के लोगों की सहायता से पश्चिमी एशिया, ग्रीस, गॉल, ब्रिटेन, नार्वे, अरब तथा सैमेटिक लोगों में भारतीय धर्म और संस्कृति का विस्तार संभव होता था। भारत से धर्म प्रचारकों को बुलाकर वे उन्हें उस क्षेत्र में दूर-दूर तक भेजने के लिए सभी आवश्यक साधन जुटाते थे।
सीरिया पर ई० पू० १५०० में किसानी जाति के राजा राज्य करते थे, वे मूर्तिपूजक थे। इस क्षेत्र में ऐसे शिलालेख और संधि पत्र मिले हैं जिनमें मित्र, वरुण, इंद्र आदि की आकृतियाँ खुदी हैं और संस्कृत भाषा में मित्रतापूर्वक रहने की प्रतिज्ञा है।
पैलेस्टाइन से सातवीं सदी में एसनीज नामक एक ऐसे संप्रदाय का उल्लेख मिलता है, जिसके रीति-रिवाज और विचार पूर्णतया हिंदू धर्म से मिलते-जुलते थे। उस संप्रदाय के संत भारतीय ऋषियों की तरह उपासनारत रहते थे और धर्म प्रचार करते थे।
कुवैत के छोटे से इलाके में तेल का इतना बड़ा भंडार है जितना पूरे अमेरिका में भी नहीं है। सन् १८९९ में जिस संधि के आधार पर कुवैत का अलग अस्तित्व बना, उसको ईराक ने बहुत समय तक माना ही नहीं। ईराक बार-बार यही कहता रहा कि कुवैत हमारा एक अविच्छिन्न प्रांत है। उसने राष्ट्र संघ में भी इस प्रथकता के विरुद्ध शिकायत की थी और धमकी दी थी कि वह सेना भेजकर पृथकता को दूर करेगा। इस पर ब्रिटेन और अमेरिका ने अपने लड़ाकू जहाज कुवैत की सुरक्षा के लिए भेज दिए। उनका सामना कर सकने की क्षमता न होने के कारण ईराक को अपना दावा छोड़ना पड़ा।
कुवैत के शेख की आमदनी तेल से १५ हजार पौंड दैनिक है। उनके पास बैंकों में जमा धन संसार के किसी भी धनी व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक है।
विद्वेष के दुष्परिणाम
यह मानना सही नहीं है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपने बल पौरुष से इस देश पर विजय पाई और अधिकार जमाया। सच बात यह है कि हिंदुओं की फूट ने ही उन्हें आमंत्रित किया और प्रकट एवं अप्रकट सहयोग देकर उन्हें विजयी बनाया। नित नए बरसाती मेढ़कों की तरह उगने वाले संप्रदाय सांस्कृतिक एकता नष्ट कर रहे थे। भावनात्मक विकृतियों ने नैतिकता, सामाजिकता और राष्ट्रीयता को एक प्रकार से छिन्न-भिन्न कर दिया था। ऐसी दशा में लोगों को अपने विराने दीखने लगे और विराने अपने। गृहकलह से उत्पन्न विद्वेष ने आक्रमणकारियों की शरण ली उन्हें आमंत्रित किया और भरपूर सहयोग दिया। इसी बल-बूते पर उन्हें आक्रमण का साहस हुआ। जो सफलता सहज ही मिल सकती हो उसका लाभ कौन छोड़ेगा? दूसरों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने वाले का लाभ ही लाभ है। इसी आकर्षण ने उन आक्रमणकारियों को पैर जमाने के लिए ललचाया जो मात्र लूट-खसोट करके भाग जाने के अतिरिक्त और कुछ कभी सोचते भी न थे। अंधकार युग की भारतीय पराधीनता के लिए किसी आक्रमणकारी को उतना श्रेय नहीं, जितना इस देश में फैली फूट और तज्जनित आत्मघाती नीति को।
जयचंद्र का नाम बदनाम है कि उसने पृथ्वीराज को नीचा दिखाने के लिए मुसलमान आक्रमणकारियों को आमंत्रित किया था। अंग्रेजों के जमाने में मीरजाफर का नाम कुख्यात है। पर वास्तविकता यह है कि उन दिनों इस स्तर की दुरभिसंधि बरतने वाले अनेक लोग थे, भले ही उनका नाम प्रकाश में न आया हो। इन्हीं के प्रयासों ने इस देश को आक्रांताओं के पैरों तले चिरकाल तक कुचले जाने की भूमिका प्रस्तुत की। 'तोहफतुल किराम' नामक अरब इतिहास का उद्धरण है कि सिंध पर दल्लूराय नामक हिंदू राजा का राज्य था। इसने अपने छोटे भाई इमरान को सताया। वह बगदाद के खलीफा के पास पहुँचा। खलीफा ने उसके साथ अरब सेना भेज दी। सेना नायक सैयद को अपनी लड़की ब्याह कर दल्लूराय अपनी जान बचा सका।
अरबी भाषा के सबसे प्रामाणिक ग्रंथ 'चचनामा' में उल्लेख है—सिंध के कुछ पुरोहित मुहम्मद कासिम के पास गए और उनसे कहा कि हमारी जाति सबसे ऊँची है, हमें ऊँचा मान मिले। कासिम ने उनकी बात मान ली। उन्हें ऊँचे पद दिए और संपन्नता दी। पुरोहितों ने इसका बहुत धन्यवाद दिया और गाँव-गाँव घूमकर शासकों के गुण गाए तथा उनकी भरपूर प्रशंसा की।
'मुतदहिर मुकद्दसी' ने हिजरी सन् ३३५ में हिंदुओं को दो प्रमुख धर्मों में बाँटा है। (१) ब्राह्मण धर्म (२) बौद्ध धर्म। दोनों परस्पर विरोधी थे। उनमें से ब्राह्मण धर्म वाले अरब लोगों के अधिक घनिष्ठ थे।
'कामिल इब्न अधीर' के अनुसार सन् ३४७ हिजरी के आस-पास सिंध में मुसलमानों का पास पलट गया और उन्हें भागकर जान बचाने की आवश्यकता पड़ी। तब एक हिंदू राजा ने उन्हें अपने यहाँ बसाया और स्वागत किया और वे बहुत सुखपूर्वक रहने लगे।
'कामिल इन और' के अनुसार भारत पर आक्रमण करने वाले सुलतान महमूद की सेना में बहुत से हिंदू भी मिले हुए थे।
लगता है कि उस काल में बौद्ध धर्म का वर्चस्व ब्राह्मण धर्मानुयायियों को सहन नहीं हो रहा था। वे स्वयं तो बौद्धों को नीचा दिखाने में सफल न हो सके, पर उन्होंने सरल तरकीब ढूँढ़ निकाली कि समीपवर्ती विधर्मियों को आक्रमण करने के लिए तैयार किया जाए। इसकी पृष्ठभूमि इस प्रकार बनाई गई कि बौद्ध धर्म इस्लाम के अधिक विपरीत है, ब्राह्मणी धर्म इतना नहीं। बौद्ध धर्म को मिटाने के लिए दोनों मिलकर प्रयत्न करें तो इसमें दोनों के समान शत्रुओं को निरस्त करने का अवसर मिलेगा। इस दुरभिसंधि ने आक्रमणों के लिए विस्तृत पृष्ठभूमि बनाई।
पर इतिहासकार 'बिलाजुरी' के अनुसार उन दिनों बौद्धों और ब्राह्मणों में भारी लड़ाई चल रही थी। ब्राह्मण तगड़े पड़ रहे थे। बौद्धों ने अपने को हारता देखा तो उन्होंने मुसलमानों की सहायता माँगी। मुहम्मद बिन कासिम की सेना जब नेरू पहुँची तो उसे मालूम पड़ा कि बौद्धों ने गुप्त रूप से अपने दूत ईराक भेजे हैं और वहाँ से अभयदान प्राप्त किया है। नेरू में कासिम का अच्छा स्वागत हुआ। उसे रसद और दूसरी सुविधाएँ मिलीं। इसके बाद इस्लामी सेना आगे बढ़ी। इसमें बौद्धों का सहयोग मिला। उन्होंने राजा विजय राज को छोड़कर मुसलमान सेना का साथ देना उचित समझा।
इतिहासकार इलियट ने उस समय की स्थिति का चित्रण करते हुए स्पष्ट किया है कि उन दिनों बौद्धों और ब्राह्मणों में भारी कलह मचा हुआ था, यद्यपि मतभेद दार्शनिक स्तर के और छोटे-मोटे थे तो भी उनका द्वेष भाव बहुत बढ़ गया था और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए हर तरीका अपनाने के लिए उतारू थे। यही निष्कर्ष अरबी इतिहास 'मिनहाजुल मसालिक' से भी निकलता है।
इब्न नदीम की अल फेहरिस्त के अनुसार अरबी भाषा में बौद्धों के लिए 'समनिया' शब्द का प्रयोग होता है। यह नास्तिक अथवा शैतान जैसा है। इस्लाम के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करना सबसे बड़ा पाप है। बौद्ध लोग ईश्वर को नहीं मानते। इतना ही नहीं उनकी अन्य कई दार्शनिक मान्यताएँ भी इस्लाम के प्रतिकूल पड़ती हैं। संसार में सत्य और असत्य का मिलाजुला होना, संसार को दुःख रूप मानना, पाप-पुण्यों का परिणाम, बुद्ध को ईश्वर का अवतार मानना, मूर्ति पूजा आदि ऐसे प्रतिपादन हैं जो इस्लाम से मेल नहीं खाते। अस्तु, इन्हें अधिक घृणास्पद समझा गया। यों ये सिद्धांत बौद्ध धर्म में प्राचीन हिंदू धर्म से ही गए थे। पर उस समय के प्रचलन के अनुसार विरोधी पक्ष ने इन्हें बौद्धों के ही ठहराया।
'चचनामा' में एक रहस्य का उद्घाटन किया गया है—सिंध में एक 'काका' नामक कूटनीतिज्ञ साधु था। राजा और बड़े आदमी उसे चमत्कारी समझते थे और उससे सलाह लेते थे। मुसलमानों के आक्रमणों का मुकाबला कैसे किया जाए इस बात पर बड़े लोग उससे सलाह लेने गए, तो उसने कहा मैंने पंडितों, योगियों और देवताओं से सलाह करके यह जान लिया है कि इस देश को मुसलमान अवश्य जीत लेंगे। मेरा विश्वास है कि ऐसा ही होकर रहेगा।
इस कथन से उन लोगों में भारी निराशा छा गई और लड़ने का इरादा छोड़कर अपनी जान बचाने की बात सोचने लगे। मुहम्मद विन कासिम ने उसे भारी जागीर एवं सम्मान प्रदान किया। 'काका' के प्रभाव में आकर प्रभावशाली लोगों ने कासिम की आधीनता स्वीकार कर ली।
ब्राह्मण धर्मानुयायी राजा और महंत मुसलमानों को हर प्रकार की सहायता और प्रोत्साहन दे रहे थे और उन्हें अपने यहाँ अनेकानेक सुविधाएँ देकर बसा रहे थे। शारीरिक दृष्टि से अधिक बलिष्ठ और स्वभाव की दृष्टि से अधिक लड़ाकू होने के कारण इस प्रश्रय में उन्हें यह लाभ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था कि उनकी सहायता से विपक्षियों को तरह-तरह से नीचा दिखाया जा सकता है।
बसे हुए अरब लोग अपने प्रभाव से अछूत तथा दूसरे पिछड़े लोगों को मुसलमान बना लेते थे। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी वरन इसे प्रोत्साहन दिया जाता था ताकि उन्हें अपनी मित्रता का अधिक गहरा प्रमाण दिया जा सके।
इलियट ने अपने इतिहास ग्रंथ में तत्कालीन नौ मुसलमानों की स्थिति का वर्णन अमीर खुसरो का एक उदाहरण देते हुए लिखा है—यह लोग आधे हिंदू, आधे मुसलमान थे। इन्हें अपने इस्लाम धर्म का ज्ञान नहीं था।
इब्न बतूता ने कालीकट के राजा की प्रशंसा करते हुए लिखा है—एक बार एक मुसलमान व्यापारी की तलवार दीवान के भतीजे ने छीन ली। व्यापारी ने राजा से शिकायत की तो हुक्म हुआ कि दीवान के भतीजे के दो टुकड़े उसी तलवार से कर दिए जाएँ।
उपरोक्त यात्री के अनुसार उन दिनों मैसूर राज्य पर वल्लाल देव राजा राज करता था। उसने लिखा है इस राजा की विशाल सेना में एक चौथाई मुसलमान थे। बीजा नगर के हिंदू राज्य की सेना में दो हजार मुसलमान थे। राजा मुसलमानों का बहुत आदर करता था। उसने उनके लिए मस्जिद बनवाई थी।
अरब यात्री सुलेमान का यात्रा विवरण 'खजायनुल फुतूह' में छपा है। उसने लिखा है—'वल्लभी राजा और उसकी प्रजा मुसलमानों से बहुत प्रेम करते हैं। किंतु गुर्जर लोग अरबों के शत्रु हैं।'
एक अन्य अरब यात्री मसऊदी भारत आया, गुजरात घूमा और उसने वल्लभी (वल्हारा) राजाओं के बारे में लिखा है कि 'उनके राज्य में मुसलमानों को इतना आदर होता था जितना सिंध अथवा भारत के किसी अन्य राजा के राज्य में नहीं होता। यहाँ इस्लाम का अच्छा आदर एवं संरक्षण है।'
'अजायबुल हिंद' में शहरयार नामक नाविक को साक्षी देते हए लिखा है—'भारत में कई प्रकार के पुजारी एवं संन्यासी हैं। इनमें से कुछ मुसलमानों से बहुत प्रेम करते हैं और उनसे घनिष्ठता बरतते हैं।'
कैलाश मानसरोवर का शिव-तीर्थ तिब्बत
तिब्बत भारत की उत्तरी सीमा से लगा हुआ है। भगवान शिव का निवास क्षेत्र कैलाश पर्वत और मानसरोवर अब उसी प्रदेश में हैं। प्राचीन काल में यह भिन्नता न थी। हिमालय का उत्तराखण्ड गंगोत्री से लेकर कैलाश तक फैला हुआ था। योगी, तपस्वी वहाँ निवास करते थे और तीर्थयात्री जाया ही करते थे। तब उस क्षेत्र में पूरी तरह भारतीय धर्म ही प्रचलित था।
समय के कुचक्र ने बहुत कुछ इधर-उधर किया। हृदय का संपर्क पेट से न रहे और रक्तवाहिनियाँ वहाँ तक प्रवाह जारी न रखें तो स्वभावतः लकवा मार जाएगा। भारत जब समस्त विश्व को मार्गदर्शन करने की क्षमता को खो बैठा और विलासिता तथा स्वार्थपरता को अपना लिया, तो फिर अपनी छोटी सी कोठरी को संभालना भी कठिन पड़ गया। तब उसी पर दूसरे लोग आक्रमण करके अधिकार जमाने लगे। ऐसी हालत में दूसरे देशों में प्रकाश फैलाने का उत्तरदायित्व कौन संभालता? यदि संभाला न जाए तो सुरम्य उद्यान कुछ समय में झाड़-झंखाड़ों से भरा अनगढ़ एवं अस्त-व्यस्त हो जाता है। समीपवर्ती देश भारत के सहयोग से वंचित होकर अपने-अपने ढंग के बिखराव में फँस गए। ऐसे ही प्रदेशों में एक भाग तिब्बत का भी है।
बौद्ध धर्म का तिब्बत में प्रवेश होने पर वह पुरानी कड़ी फिर से जुड़ गई। बीच का विच्छेद काल बहुत लंबा रहा। फिर भी बौद्ध प्रचारकों ने वहाँ जाकर देखा कि हिंदू धर्म की प्राचीन मान्यताएँ यहाँ किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। देव-उपासना का क्रम भी प्रायः वैसा ही चल रहा है। यद्यपि उसमें विकृतियों की भरमार होने से अवांछनीय तत्त्वों की मात्रा बहुत बढ़ गई थी। बौद्ध धर्म के प्रयोग ने वहाँ नव-जीवन का संचार किया और तिब्बत को फिर से भारत के समीप ला दिया।
तिब्बत भौगोलिक दृष्टि से भारत के समीप है, किंतु बौद्ध धर्म वहाँ लंका, खोतान, चीन, कोरिया, जापान में धर्म-विजय करने के पश्चात पहुँचा, इसका प्रधान कारण यातायात की कठिनाई-मार्ग की अत्यंत दुर्गमता ही थी। जो पर्वत शृंखलाएँ एवं सघन वन प्रदेश दोनों देशों को अलग करते थे, वे ऐसे जटिल थे कि उन्हें पार करना जीवन और मरण की प्रत्यक्ष चुनौती को स्वीकार करने के बराबर था। उस देश में बौद्ध धर्म सातवीं शताब्दी में पहुँचा और उस प्रयत्न में प्रचारकों को असाधारण दुस्साहस का परिचय देना पड़ा।
इसके पूर्व वहाँ बहुदेववादी-बलिपूजक 'पानन्धर्म' का प्रचलन था। बौद्ध धर्म ने वहाँ प्रवेश किया, वे दोनों एक-दूसरे से घुले-मिले। दोनों ने अपना स्वरूप बदला और एक नए मध्यवर्ती धर्म का रूप धारण कर लिया। अभी भी वहाँ ऐसे धर्म का प्रचलन है, जिसमें बौद्ध शिक्षा की प्रधानता है और पान-धर्म का सम्मिश्रण है, तो कहीं इसके विपरीत ऐसे पान-धर्म का प्रचार है, जिसमें बौद्ध मान्यताएँ भी गइराई तक मिली-जुली हैं। दक्षिणी-पूर्वीय तिब्बत में बने चुंबीघाटी के चार विहार पान धर्म के हैं। बुद्ध मूर्तियाँ और अवतारी पद्मसंभव की मूर्तियाँ बौद्ध विहारों की तरह इनमें भी स्थापित हैं। धर्म ग्रंथ भी अधिकतर मिलते-जुलते ही हैं। मतभेद इतना कम है कि देवताओं के पूजा विधानों और ग्रंथों के नामों में अंतर के अतिरिक्त और कोई बड़ी भिन्नता दिखाई नहीं पड़ती। पान “ओम मंत्रे सुये सलेदु" मंत्र की उपासना करते हैं और बौद्ध उसी को 'ओम मनि पे मे हुन्' उच्चारण के साथ जपते हैं। अर्थ दोनों का एक ही होता है।
यों बौद्ध धर्म लंका, वर्मा, मेसापापेटामिया, मेसीडोनिया और मिश्र आदि में ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी में ही पहुँच चुका था। सन् ५६ में मध्य एशिया के खोतान प्रांत में भी फलने-फूलने लगा था। सन् ३७२ में कोरिया को और ५३८ में जापान को उसने प्रभावित कर लिया था, पर भारत की सीमा से लगे हुए तिब्बत में वह सन् ५८० ई० के पहले न पहुँच सका। उसका एक कारण तो मार्ग की दुर्गमता था और दूसरा उस क्षेत्र के लोगों में संव्याप्त अशिक्षा और पूर्व मान्यताओं के प्रति अंधविश्वास भरी कट्टरता था।
'दी रिलीजन ऑफ तिब्बत' ग्रंथ के अनुसार बौद्ध प्रचारकों ने चतुर्थ शताब्दी में वहाँ धर्म-विजय का प्रकाश पहुँचाने का प्रयत्न किया था पर वहाँ निरक्षरता का साम्राज्य होने से विशेष सफलता न मिली। राजा से लेकर प्रजा तक किसी को लिखना-पढ़ना नहीं आता था। 'लो सेम सो' और 'लितिसे' आदि विद्वानों को इसी कठिनाई से हार मान कर पीछे लौटना पड़ा।
सन् ६२९ में तिब्बत की गद्दी पर 'सोंगहेन गम पो' बैठा। उसने अपने पड़ोसी देशों में बुद्ध धर्म की उत्साह भरी चर्चा सुनी। उसका लाभ लेने के लिए उसका भी जी चाहा। अस्तु, अपने प्रतिभाशाली कर्मचारी 'तानमिस वो ता' के नेतृत्व में सोलह कुशाग्र बुद्धिमान व्यक्तियों का जत्था भारतीय भाषा और बौद्ध धर्म सीखने के लिए भारत भेजा। वह जत्था अठारह वर्ष भारत में रहा। यहाँ उसने तिब्बत के लिए भारतीय वर्णमाला के अनुरूप एक लिपि तैयार की। 'करंड व्यूह सूत्र' और 'अवलोकितेश्वर सूत्र' उसी भाषा तथा लिपि में लिखे। इस तिब्बती लिपि का नाम 'हरहा' रखा और भाषा का 'तान-मि'। पाणिनी के आधार पर व्याकरण बनाया। दल ने वापस तिब्बत लौटकर राजा-प्रजा को लिखना-पढ़ना सिखाया, बौद्ध धर्म तथा उसके ग्रंथों से परिचय कराया।
तत्कालीन बौद्ध सम्राट 'सोंग-हेन गम पो' बड़ा प्रतापी था। उसने चीन और नेपाल पर चढ़ाइयाँ की। इसका सिलसिला तब टूटा जब चीन और नेपाल नरेशों की पुत्रियाँ उसे वधू रूप में प्राप्त हो गईं। वे दोनों बौद्ध थीं। उनके प्रभाव में आकर राजा ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसने पड़ोसी देशों से बौद्ध धर्म प्रचारक बुलाए और कितने ही मंदिर और विहार बनवाए। ल्हासा राजधानी की उसी ने स्थापना की। उपलब्ध प्राचीन चित्रों में सम्राट सोंग को धर्मचक्र प्रवर्तक शासक के रूप में चित्रित किया गया है। प्रजा उसे अवतार मानती थी। उसके वंश के राजा 'त्रिदेसक तेन' और 'ति सोंग दे सेन' ने भी इस दिशा में प्रयत्न किए, पर पुरातन पान-धर्मों प्रजा और सरकारी अधिकारियों के विरोध तथा असहयोग के कारण उसमें विशेष सफलता न मिल सकी। इस अवधि में भी कुछ विहार बने और प्रचार जारी रहा।
तिब्बत का प्रामाणिक इतिहास, जिसके आधार पर उस देश की बौद्ध परंपराओं को ठीक से समझा जा सके, सन् ५८० से आरंभ होता है। इसे सन् ७६३ ई० तक खींच ले चलें तो वर्गीकरण की दृष्टि से यह आरंभ युग कहा जाएगा। इसी बीच में भारत में शिक्षित व्यक्तियों की सहायता से तिब्बती लिपि, भाषा, व्याकरण की रचना की गई। लोह पर्वत की सुरम्य गुफा में बैठकर विद्वानों ने यह कार्य चार वर्ष में पूरा किया। यहीं से तिब्बत का सर्वतोमुखी विकास आरंभ होता है। वास्तु कला, शिल्प, व्यवसाय, धर्म, राजनीति शिक्षा, चिकित्सा, यातायात की अनेकों अभिनव योजनाएँ चल पड़ीं।
इसी अवधि में भारत से बौद्ध विद्वान कुमार, नेपाल से मंजुशील, काशमीर से तुन, चीन से महादेव, थोमिन, धर्मकोश वहाँ पहुँचे। थोमिन ने तिब्बती भाषा में 'करण्डव्यूह सूत्र', 'रत्न मेघ सूत्र', 'कर्मशतक' आदि आठ ग्रंथों का अनुवाद किया। अन्य विद्वानों ने तिब्बतियों को अन्यान्य विषयों का ज्ञान देने वाली पुस्तकें लिखीं।
सम्राट 'सोंग वचन' ने ६२ वर्ष राज्य करके, ८२ वर्ष की आयु में 'सल भी' नामक स्थान में शरीर त्यागा। उस स्थान पर एक विशाल बौद्ध मंदिर बनाया गया। इसके बाद सन् ६३८ से ६५२ तक 'मंग सोंग' का और ६७० से ७४२ तक 'गचन वर्तन' का शासन रहा। इसके समय में वाणी और लेखनी से भिक्षुगण बौद्ध धर्म की जड़ जमाने में मंथर गति से लगे रहे। उन परिस्थितियों में तीव्र गति से सफलता मिलने की आशा भी नहीं की जा सकती थी।
सन् ७४२ से ७८५ तक सम्राट 'खि सोंग' का शासन रहा। उसने बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए उत्साह दिखाया। पर पुरातन पंथी मंत्रियों के उस विरोध के कारण उसे अपना हाथ रोकना पड़ा। तो भी उसने दो चीनी भिक्षुओं तथा एक काश्मीरी पंडित अनंत को उस कार्य में लगाए रखा। इसी समय एक तिब्बती भिक्षु ज्ञानेंद्र का उत्साह उमड़ा, वह अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए भारत आया। वह बोध गया का दर्शन करने के उपरांत नालंदा पहुँचा और वहाँ अध्ययन किया। उन दिनों तिब्बत और भारत का मार्ग नेपाल और मंगयुल होकर ही था। ज्ञानेंद्र की भेंट भारतीय विद्वान शांतिरक्षित से मंगयुल में ही हुई थी। उससे वह बहुत प्रभावित हुआ। सम्राट को सहमत करके ज्ञानेंद्र फिर मंगयुल लौटा और आचार्य शांति रक्षित को सहमत करके धर्म प्रचार के लिए तिब्बत ले गया। वे प्रसन्नतापूर्वक आए और वहाँ पहले से ही रहते हुए काश्मीरी भिक्षु अनंत के सहयोग से तिब्बत में लेखनी तथा वाणी से कार्य करने लगे। शांतिरक्षित संस्कृत में बोलते थे और अनंत उसका तिब्बती भाषा में अनुवाद किया करते थे। इस प्रकार भाषा संबंधी कठिनाई दूर हुई और शांतिरक्षित ने राजपरिवार को बौद्ध धर्म के प्रति अधिक श्रद्धावान तथा सहयोगी बना दिया। वह दीक्षावान बौद्ध हो गया। इन प्रसार कार्यों में अधिकारियों और प्रजाजनों ने विरोध भी बहुत किया, यहाँ तक कि एक बार शांति रक्षित को तिब्बत छोड़ने के लिए भी विवश होना पड़ा, परंतु परिस्थितियाँ शांत होते ही वे फिर लौट आए और ७५ वर्ष की वृद्धावस्था में भी वे नवयुवकों जैसे उत्साह से धर्म प्रचार करते रहे। उन्होंने अपना स्थायी आश्रम 'सम-पे' स्थान पर बनाया। योजनाबद्ध प्रक्रिया अपनाकर उन दिनों महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न किए गए। ७६२ से विशाल बौद्ध विहार 'वसुम-यश' का निर्माण आरंभ हुआ जो १२ वर्ष तक बनता रहा और ७७५ में पूरा हुआ। इसमें भिक्षुओं के निवास, शिक्षण आदि की समुचित व्यवस्था की गई। बारह भिक्षुओं ने इस संस्था के संचालन का भार संभाला, इनमें पाँच भारतीय और सात तिब्बती थे। यहाँ अनेक धर्म ग्रंथों का अनुवाद हुआ। सौ वर्ष की पूर्णायु पूरी करके शांति रक्षित सन् ७८० में स्वर्ग सिधारे। उनके अवशेष की सम्मानपूर्ण स्थापना हुई और वहाँ एक ऊँचा स्तूप बनाया गया। तिब्बती उन्हें महापंडित और बोधिसत्व के नाम से स्मरण करते हैं।
आचार्य शांतिरक्षित के बाद उनके शिष्य श्रीघोष संघनायक बने। इस काल में भी भारतीय विद्वान तिब्बत जाते रहे। साथ ही चीनी बौद्ध-प्रचारकों के जत्थे भी आते चले गए। इन भारतीय और चीनी प्रचारकों में जातीय मनोमालिन्य का विष फैला और उसने कर्मवादी एवं अकर्मवादी सिद्धांतों की आड़ में उस विवाद को विद्वेष एवं कलह का रूप दे दिया। अंत में इस विवाद को निपटाने के लिए सम्राट की अध्यक्षता में एक शास्त्रार्थ आयोजित किया गया। एक ओर चीनी भिक्षु ह्वशंग के नेतृत्व में अकर्मण्यतावादियों का दल था, दूसरी ओर कमलशील के नेतृत्व में भारतीय कर्मवादी उपस्थित हुए। शास्त्रार्थ कई दिन चला। उसमें भारतीयों की विजय हुई। निश्चित शर्त के अनुसार ह्वशंग अपने हाथों कमलशील के गले में माला पहना कर उस देश से निर्वासित हो गए। इस पराजय से चीनियों की द्वेषाग्नि और भी भड़की। उन्होंने चार कसाई भेजकर आचार्य कमलशील की हत्या करा डाली।
ऐसे आतंक भरे समय में भी बुद्ध संघ में विमल मित्र, बुद्ध गुह्य, शांति गर्भ, नर्म मख, शाक्याप्रभु, रिनछोन सेद, नर्म पर मितो गप आदि विद्वान वाणी और लेखनी के माध्यम से तिब्बती जनता को बुद्ध संदेश सुनाने में निरत रहे और धर्म चक्र प्रवर्तन में शिथिलता नहीं आने दी।
सन् ७८५-८६ में दो वर्ष तक मुनि वचन पो शासनाध्यक्ष रहा। उसने बुद्ध दर्शन को आर्थिक क्षेत्र में भी उतारने का प्रयत्न किया। धन का सम वितरण कराया, धनियों को गरीबों के लिए दान देने के लिए विवश किया। पर श्रम का सम महत्त्व न होने से उस प्रयोजन का स्थाई परिणाम न निकला। मुफ्त का धन पाकर दरिद्रों ने बेरहमी से उसे उड़ा डाला। दूसरी ओर धनियों के हाथ में उपार्जन के साधनों का एकाधिकार रहने से वे फिर पहले जैसे ही धनी बन गए। पूजा तक धर्म सीमित न रखकर उसे अर्थ क्षेत्र में उतारा जाए, यह सामर्थ्यवान लोगों को सहन न हुआ और उस उदार सम्राट की विष देकर हत्या कर दी गई।
सन् ७८७ से ८१७ तक 'मुनि वचन पो' के भाई 'खिल्दे वचन' का शासन काल रहा। उसने भी बौद्ध धर्म में अपने पूर्वजों की भाँति ही निष्ठा रखी। बल्तिस्तान क्षेत्र के 'सकरदो' नगर में एक अच्छा बुद्ध मंदिर बनवाया। अनुवाद की सुव्यवस्था की, भाषा संबंधी प्रचलित दोषों का संशोधन कराया। राजाश्रय पाकर जिनमित्र सुरेंद्र बोधि, रत्नेंद्रशील, मंजुश्री धर्म, जयरक्षित, ज्ञानसेन, धर्मताशील, रत्नरक्षित, बोधिमित्र, दानशील, शैलेंद्रबोधि आदि भिक्षुओं ने बौद्ध साहित्य का तिब्बती भाषा में सृजन किया और धर्म प्रेरणा का अभियान जनमानस तक पहुँचाया।
सन् ८१७ से ८४७ तक 'रत्न पंचन' का शासन काल रहा। यह राजा अति भावुक था। उसने भिक्षुओं को देवतुल्य सम्मान दिया, यहाँ तक कि शासन व्यवस्था तक उनके हाथ सौंप दी। उसने अपने पुत्र 'चंग मो' को भिक्षु बना दिया। उससे तत्कालीन राजदरबार असंतुष्ट हो गया और उसने सम्राट को मार डाला, रानी ने आत्महत्या कर ली। तब बौद्ध द्वेषी गुलंग दर को गद्दी पर बिठाया। उसने भिक्षुओं को बहुत सताया, बदनाम किया। उस उत्पीड़न से संत्रस्त होकर भिक्षु पड़ोसी राज्यों में भाग गए। स्थिति असह्य हो गई। तो 'ल्हलुम' नामक बौद्ध भिक्षु ने उसे भी तीर से मार डाला और स्वयं भाग गया। इसके बाद ९०५ से ९२३ तक 'इपल सुंगस् वचन' का शासन हुआ उसने बौद्ध विरोधी कोई कार्य न करके रुष्ट प्रजा को संतुष्ट किया। आचार-व्यवहार के नियमों को कड़ा किया और दस विद्वानों के नेतृत्व में संघ का कार्य चलाने की व्यवस्था की।
ग्यारहवीं शताब्दी का आरंभ, तिब्बती शासन और संघ के लिए अराजकता का युग कहा जा सकता है। केंद्र कमजोर पड़ने से छोटे-छोटे सामंत राजा बन बैठे। राज-परिवार के लोग अपने-अपने दल बनाकर जहाँ-तहाँ छोटी-छोटी सरदारियाँ बनाने लगे। कुछ भिक्षुओं में जा घुसे। भिक्षुओं ने धर्म-चक्र प्रवतन का लक्ष्य छोड़कर तांत्रिक चमत्कारों, विलासिता, वासना तृप्ति पर ध्यान केंद्रित किया।
इस स्थिति से क्षुब्ध होकर 'खोर-ल्दे' ने बौद्ध धर्म की विकृतियों को निरस्त करने की ठान ठानी और नए सिरे से सुधार कार्य हाथ में लिया। इक्कीस उत्साही युवकों का एक दल काश्मीर अध्ययन के लिए भेजा। कठिन ऋतु प्रभाव का सामना न कर सकने के कारण इन २१ में से दो ही जीवित लौट सके। इस स्थिति से दु:खी होकर राज भिक्षु ज्ञानप्रभा ने निश्चय किया कि विद्यार्थियों को बाहर भेजने की अपेक्षा यही अच्छा है कि भारतीय विद्वानों को अध्ययन के लिए देश में ही बुलाया जाए। अस्तु, विक्रम शिला महाविहार के प्राध्यापक भिक्षु दीपंकर श्रीज्ञान को तिब्बत बुलाया गया। वे सन् १०४२ में मंगरिस पहुँचे। कुछ दिन 'शंग-शंग' मठ में रहे। इसके बाद उन्होंने साहित्य सृजन और प्रचार प्रवचनों की नई शृंखला बनाई। उनका तिब्बती नाम 'आतिशा' पड़ा। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम तेरह वर्ष तिब्बत के बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार में लगाए और ७३ वर्ष की आयु भोगकर सन् १०५४ में 'सयेलग' स्थान में शरीर त्यागा दिया। उनके अनुवादित एवं संशोधित सैंकड़ों ग्रंथ अभी भी तिब्बत में मौजूद हैं। उन्हीं दिनों विद्वान सोमनाथ, लक्ष्मीकर, दानश्री, चंद्र राहुल, गया धर, स्मृति ज्ञान कीर्ति, सूक्ष्म दीर्घ, विभूति चंद्र, ज्ञान प्रभु, शांति प्रभु, सृजन श्रीज्ञान, मंद्र कलश, गुणाकार भद्र आदि भारत से तिब्बत पहुँचे थे, इन्होंने दीपंकर के कार्य में भरपूर सहयोग दिया तथा उनके पीछे भी उस प्रक्रिया को चलाते रहे। इन्हीं दिनों 'अरन क्लोंग नाग' में एक विशाल विद्यालय स्थापित किया गया।
'चेल्दे' उन दिनों मान सरोवर का शासक था। उसने सन् १०७६ में एक और विद्यालय आरंभ कराया। साथ ही साहित्य सृजन की नई व्यवस्था की। एक उत्साही तिब्बती भिक्षु 'ब्लोल्दन' काशमीर पढ़ने गया। सत्रह वर्ष पढ़ा। लौटकर शेष जीवन के १३ वर्ष अध्यापन में लगाए। उन्हीं दिनों अतुल दास-सुमति कीर्ति, अमरचंद, कुमार कलश भी वहाँ पहुँचे थे। एक ऐसा ही दूसरा भिक्षु 'त्रिम पुगस्' भी था, जो २३ वर्ष काश्मीर में पढ़ा अपने साथ कनक वर्मा, तिल कलश दो अन्य विद्वानों को लेकर लौटा। 'दोस-किय ब्लो ग्रोस' ने तीन बार भारत की यात्रा की थी और यहाँ से बहुमूल्य ग्रंथ उपलब्ध किए थे। 'मिल रस पा' ने अनेकों कविताएँ रची और परिव्राजक बनकर घर-घर बुद्ध का संदेश पहुँचाया। उसे मंगोल सरकार का समर्थन मिला और कितने ही वर्ष तिब्बत का शासन सँभाला।
बारहवीं शताब्दी के आरंभ में एक गृहस्थ भिक्षु 'दकोयेल' ने चंग प्रदेश में 'सशक्य' नामक विहार की स्थापना की। यहाँ की आचार संहिता तथा शिक्षा प्रणाली ऐसी उत्कृष्ट थी कि वहाँ से निकले हुए भिक्षु ने केवल तिब्बत में ही नहीं वरन दूर देशों तक धर्मविजय अभियान की ज्योति जलाने में बहुत सफलता प्राप्त करते रहे। इन्हीं लोगों ने मंगोलिया में बौद्ध धर्म को अधिकाधिक विस्तृत बनाया। भारत जाकर उन छात्रों ने कुछ सीखा और अपने साथ भारतीय बौद्धों को लेकर लौटे। शाक्य श्री भद्र, संघ श्री, आदि को तिब्बत में रहकर कार्य करने के लिए सहमत करने तथा वहाँ लाने में समर्थ हुए।
भारतीय भिक्षुओं की ज्ञान-साधना के आधार पर उन्हें तिब्बत में चमत्कारी सिद्ध पुरुषों के रूप में पूजा गया था। अशिक्षित और अंधविश्वासी जनता का सम्मान इसी रूप में मिलता भी है। ऐसे भारतीय सिद्धों की संख्या भी गिनी जाती है और तिब्बती उन्हें अभी तक उसी रूप में मानते, पूजते हैं। भोंट साहित्य में उनका उल्लेख सरह पा, शवरपा, लूहि पा, दारिक पा, वज्रघंटा पा, कर्म पा, जलंधर पा, कन्ह गुहा पा आदि ८४ नामों से किया गया है और साथ ही उनके क्रिया कृत्यों का चमत्कारी वर्णन भी जोड़ दिया गया है।
मंगोल सम्राट चंगेज खाँ सन् ११९४ में चीन पर कब्जा करने में सफल हुआ। सन् १२०७ में उसने तिब्बत पर भी अधिकार जमा लिया। इन्हीं दिन तिब्बती धर्माचार्य 'कुन दग' ने अपने प्रतिभाशाली धर्मप्रचारकों का एक जत्था मंगोलिया भेजा, यह सन् १२२२ की बात है। भिक्षु 'फगस पा' और 'फयगन' तत्कालीन सम्राट गौतम से मिले और उसे बौद्ध धर्मानुयायी बनाने में सफल हुए। इसके पश्चात 'सकर मगक्' चीन के मंगोल शासक 'मुन खे' से मिला और उसे अपनी धर्म प्रतिभा से चमत्कृत कर दिया। इन शासकों के सहयोग से धर्म विस्तार का काम और भी सरल हो गया। इसी अवधि में तिब्बती, चीन और मंगोल भाषाओं में बौद्ध साहित्य का अनुवाद उत्साह के साथ होता रहा, इसके लिए भारतीय भिक्षुओं के उस क्षेत्र में पहुँचने का क्रम बराबर चलता रहा।
मरपा ने कई बार भारत-यात्रा की। उपलब्ध ज्ञान को उसने अपने देश में फैलाया। 'मी-ला' की गणना भी इस शृंखला में की जाती है। इन्हीं दिनों मंगोल आक्रमणकारियों ने तिब्बत को हथिया लिया। चंगेज खाँ के पुत्र कुबेलाई खाँ की तूती बोल रही थी। उसने बल्गारिया, सर्विया, हंगरी, रूस, चीन, भारत के एक भाग पर कब्जा करने के साथ-साथ तिब्बत को भी अपने अधिकार में ले लिया। आशंका यह थी कि उससे बौद्ध धर्म को आघात लगेगा पर वैसा हुआ नहीं। कुबेलाईखाँ बीमार पड़ा और उसे बौद्ध भिक्षु 'सा-क्या' के उपचार से लाभ हुआ। तब से वह बौद्ध धर्म को ध्यानपूर्वक सुनने-समझने लगा। दूसरे धर्म वालों की बातें भी उसने सुनी। अंत में सन् १२५६ में सर्व धर्म शास्त्रार्थ के सुनने के बाद उसे यह घोषणा करनी पड़ी—"बौद्ध धर्म हथेली है और अन्य धर्म अँगुलियाँ। जिस प्रकार हथेली से अंगुलियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार बौद्ध धर्म से अन्य धर्म निकले हैं।" इसके बाद राजकीय उथल-पुथल का भला-बुरा प्रभाव तो पड़ता रहा, पर उसे सहन करते हुए बुद्ध धर्म तिब्बत में निरंतर आगे ही बढ़ा। 'सा-क्या' के पश्चात 'दो कुंग' 'ता-लुंग' आदि उद्भट विद्वान एवं प्रचारक उसी देश में उत्पन्न हुए, यो शाक्य 'श्री' जैसे प्रचारक भारत में भी पहुँचते रहे।
तिब्बत में बौद्ध-धर्म को नव जीवन देने वाले 'चोंग-ख-प' सन् १३५७ में जन्मे, ये बहुत प्रतिभाशाली थे। छोटी ही आयु में उन्होंने बहुत कुछ पढ़, समझ लिया। सन् १३९६ में 'गंल' के महाविद्यालय की स्थापना, १४०५ में ल्हासा का विशाल संघसम्मेलन और उसके लिए भव्य भवन का निर्माण, गकदिन महाविहार की स्थापना, १४१६ में ब्रह्म सयुंग महा विहार का निर्माण, १४१९ में 'सेर महाविद्यालय' का कार्यारंभ—जैसे जीवंत कर्तृत्व इस बात के साक्षी हैं कि उन्हें धर्म विजय के प्रयास में भारत के जगद्गुरु शंकराचार्य जैसा महा प्रयास करना पड़ा होगा। उनके उत्साही शिष्यों ने भी नए क्रम को मंद नहीं होने दिया। कितने ही शिष्य अपने गुरु के समान ही प्रतिभाशाली और पुरुषार्थी थे। चोंग-ख-प ने अपने थोड़े ही शिष्य बनाए, पर वे सभी परखे हुए थे। उनके अनुयायियों को कठोर अनुशासन में रहना पड़ता था और चरित्र तथा आदर्श की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता था।
भारतीय विद्वानों का प्रवाह अब भी तिब्बत की ओर बढ़ रहा था। वे अति दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों को सहते हुए, वहाँ के कष्ट-साध्य जीवन को सहन करते हुए, धर्म प्रचार के लिए उत्साह पूर्वक जा रहे थे। उनमें से अधिकांश यह सोचकर ही चलते थे कि अब कदाचित ही लौटना होगा। वररत्न, धर्मपाल भद्र, तारानाथ, कृष्णभद्र के नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने तिब्बत में वहाँ के छात्रों को शिक्षा देकर सुयोग्य बनाया। उन दिनों 'ब्रह्म संयुग' सेर दा लगन-'बक शिस'-लहुने पो, के विहारों ने विश्वविद्यालय स्तर की प्रगति कर ली थी।
तिब्बत के इतिहास तथा उस पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव पर प्रकाश डालने वाले निम्नलिखित ग्रंथ महत्त्वपूर्ण प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
(१) हुकुजी यूई तथा सुजुकी द्वारा संपादित—'ए कंपलीट कैटेलॉग ऑफ तिब्बतन बुद्धिष्ट केनन्स'
(२) सर चार्लस वैल कृत 'दी रिलीजन ऑफ टिबेट'
(३) विधुशेखर भट्टाचार्य कृत 'संस्कृत एंड तिब्बेत टेक्ट्स'
(४) बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी द्वारा प्रकाशित—'संस्कृत टेक्ट्स फ्राम तिब्बत'
(५) राहुल सांकृत्यायन द्वारा संपादित—"वार्तिकालंकार ऑफ प्रभाकर गुप्त"
(६) के०पी०जायसवाल कृत—"विग्रह व्यवर्तिनी"
(७) राहुल सांकृत्यायन कृत—"प्रमाण वार्तिक आफ आचार्य धर्मकीर्ति"
(८) राहुल सांस्कृत्यायन कृत "तिब्बत में बौद्ध धर्म"
(९) हीटेल वर्गकृत—"दि हिस्ट्री ऑफ बुद्धिज्म इन इतिहास एंड टिबेट।"
तिब्बती साहित्यकारों में 'बु स्तोन' का अनोखा स्थान है। उसने तिब्बत में बिखरे हुए साहित्य का संकलन किया। इस संकलन को उसने दो हिस्सों में बाँटा
(१) 'व्हह हॅम्युर'—अर्थात बुद्धवाणी, जिसके सौ खंड हैं।
(२) 'वैस्तन हम्युर'—बुद्ध सिद्धांतों की विवेचनाएँ। इसके २२५ खंड हैं।
चौदहवीं शती के मध्य तक वह प्रायः इसी कार्य में आजीवन लगा रहा। यदि उसका यह महान प्रयास नहीं हुआ होता तो शताब्दियों से चल रहा भारतीय तथा तिब्बती विद्वानों का अनुवाद कार्य ऐसे ही अस्त-व्यस्त रहकर नष्ट हो जाता। इस संकलन ने उस सबको सुव्यवस्थित बना दिया।
तिब्बत के एक शासक और भिक्षु 'सा नमुया-सो' मंगोलिया नरेश के नियंत्रण पर वहाँ धर्म प्रचार के लिए गए। उन्होंने बुद्ध-सिद्धांतों का जन-मानस पर गहरा प्रभाव डाला। मंगोल सम्राट अल्तन खज ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उस देश में भी धर्म विजय अभियान को अच्छी सफलता मिल गई। भिक्षु 'सान-मु' को मंगोल नरेश ने 'ताले-लामा' की उपाधि दी। वे एक बार तिब्बत तो लौटे पर उन्हें फिर मंगोलिया जाना पड़ा, जहाँ १५८८ में उनका देहांत हो गया, कहते हैं कि अगले वर्ष वहाँ उनका पुनर्जन्म हुआ और तेरह वर्ष उस देश में रहकर फिर ल्हासा चले आए। इस बालक का नाम था—"यान्-तेन्-ग्या-सो।"
तब से लेकर पिछले दिनों तक एक 'तालेलामा' के मरने के बाद उसका पुनर्जन्म होने और उसे ढूँढ़कर गद्दी पर बिठाए जाने का प्रचलन है। वही शासक होता आया है और वही धर्माचार्य। सन् १७४५ में तिब्बतियों ने विद्रोह करके चीनियों को साम्राज्यवादी शिकंजा जकड़ने की चाल छोड़ने को विवश कर दिया और तिब्बत एक स्वतंत्र राज्य के रूप में हो गया। तब से 'तालेलामा' द्वारा ही उस देश का शासन होता आया है।
तिब्बत का जीवन बहुत कठोर है। वहाँ के नागरिकों को निरंतर प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। अतएव सुख-सुविधा के साधन कम होते हुए भी वे बलिष्ठ और दीर्घजीवी होते हैं। गेहूँ, जौ, मांस, मक्खन पर उन्हें गुजर करनी पड़ती है। दाल शाक कभी-कभी मिल जाते हैं। पकवान और व्यंजनों का न वहाँ प्रचलन है और न उसके साधन ही उपलब्ध हैं। तिब्बती बौद्ध मांसाहारी हैं, वे भी लंका के बौद्धों की तरह 'तिल की ओट पहाड़' उक्ति के अनुसार अपनी अहिंसा का पालन करते हैं। अपनी जानकारी में या अपने लिए जानवर न काटा गया हो तो वे दूसरों के कटे जानवर का मांस खरीद कर खाना निर्दोष समझते हैं। हाँ, कसाई जाति वाले बहिष्कृत जरूर माने जाते हैं। उनकी अलग ही बिरादरी होती है। जानवर को दम घोट कर या गर्दन मरोड़ कर इस ढंग से मारा जाए कि उसके घाव न लगे, तो उस हिंसा को अहिंसा की मर्यादा में ही गिन लिया जाता है।
तिब्बत में कुछ समय पहले तक धार्मिक वातावरण था। साधारणतया पूरी जनता बौद्ध धर्मावलंबी थी। जनसंख्या का दसवाँ हिस्सा लामाओं के रूप में रहता था। उपासना एवं धर्म परायण व्यक्ति वहाँ लामा बनते थे और उनकी नियत पोशाक पहनते थे। सामान्य नागरिक भी धर्म श्रद्धा से प्रेरित होकर भक्तों को दान देते थे। लामाओं में से सभी परजीवी नहीं होते थे। उनमें से बहुत शिल्प-उद्योगों में निरत रहकर अपनी स्वतंत्र आजीविका कमाते थे और कितने ही सरकारी कर्मचारियों के पद का कार्य सँभालने में अपने श्रम तथा समय का उपयोग करते थे। शरीर और स्वभाव की दृष्टि से तिब्बती साहसी, सुदृढ़ और परिश्रमी होते हैं। साथ ही उनकी प्रकृति में बौद्ध-संस्कृति के अनुरूप दया, नम्रता, संयम और उदारता के भाव भी रहते हैं।
हर घर में छोटा पूजा-स्थान जरूर होता था। तंबुओं में गुजारा करने वाले खानाबदोश पशुपालक तक अपने छाया साधनों में बुद्ध प्रतिमा के सम्मुख दीपक जलाने और प्रार्थना करने के उपक्रम निबाहते हैं। मठों से लेकर सद्गृहस्थों के घरों में अखंड घृतदीप की स्थापना रहती थी। तिब्बती लिपि अंग्रेजी की तरह छापने की अलग और लिखने की अलग है। छापने के काम में आने वाली लिपि को 'उदेन' और लिखने में प्रयुक्त होने वाली को '३ में' कहते हैं।
दलाई लामा तिब्बत का धर्माध्यक्ष और शासक दोनों होता था। ल्हासा राजधानी में दलाई लामा के निवास तथा शासन संचालन के लिए विशाल दुर्ग जैसा भवन ऊँची पहाड़ी पर बना था, जिसे 'पोताला' कहा जाता था। धर्माध्यक्ष को प्रायः उसी में आजीवन रहना पड़ता था। उसका विस्तार इतना बढ़ा है कि उसे एक छोटा कस्बा कहा जा सकता है। इसका निर्माण ईसा से १३०० वर्ष पूर्व उस देश के राजा ने राजमहल के रूप में किया था। पांचवें लामा ने इसका बहुत विस्तार किया। वर्तमान इमारत का केंद्रीय कक्ष तेरह मंजिला है। इसमें ३५ मंदिर, ४ ध्यान गुफाएँ, भूतपूर्व दलाई लामाओं की स्वर्ण मंडित समाधियाँ, संसद-भवन, सरकारी दफ्तर, अधिकारियों के निवास स्थान, जेल, न्यायालय, महाविद्यालय, शस्त्रागार, अन्न भंडार, पुस्तकालय, संग्रहालय आदि सब कुछ हैं। दलाई लामा सबसे ऊपर की मंजिल में रहते थे, जो शहर के मकानों से लगभग ४०० फीट ऊँचाई पर है। नवीन वर्ष के आरंभ में एक उत्सव होता था, जिसमें जुलूस बनाकर दलाई लामा को पोताला से "नोर्बुलिखा मठ" तक ले जाया जाता था। उस दिन विविध प्रकार के सांस्कृतिक समारोह होते थे। यह मठ भी प्रधान धर्माचार्य के लिए स्थान बदलने एवं मनोरंजन के लिए प्रयुक्त होता था।
एक स्वतंत्र राज्य के रूप में तिब्बत अपना अस्तित्व हजारों वर्षों से बनाए हुए था। उनका अपना शासन था और अपना 'बोन' अथवा 'पान' नामक धर्म। बहुत पुराना इतिहास तो उपलब्ध नहीं, पर ईसा से १२७ वर्ष पूर्व तिब्बती राजा 'न्य ड्री चेंपो' ने बिखरे कबीले को संगठित कर एक सुव्यवस्थित शासन दिया, इसका प्रामाणिक विवरण उपलब्ध है। इसके बाद के ४० राजाओं के शासन-काल का घटनाक्रम भी जानकारी की परिधि से आता है। अट्ठाइसवें राजा 'ल्हा-चो-ये-ग्येन' ने अपने संबंध भारत से बनाए और यहाँ से लिपि, भाषा एवं बौद्ध धर्म का आयात किया। तब से वहाँ की सभ्यता में क्रमशः बौद्ध सभ्यता का और विविध विधि प्रगतियों का पथ प्रशस्त होता चला गया।
वर्तमान चौदहवें दलाई लामा के शासन में चीनी कम्यूनिस्ट सरकार ने भारी सेना लेकर आक्रमण कर दिया। सन् १९५६ में उन्होंने थोड़े-थोड़े करके सैनिक अफसर भेजे। नई संधि की वार्ता चलाने के बहाने अपनी स्थिति मजबूत की और अंततः नग्न आक्रमण करके सारे देश पर कब्जा कर लिया। तिब्बत में सेना तो थी पर आंतरिक शासन चलाने के लिए उसे पुलिस स्तर की ही का जा सकता था। आधुनिक शस्त्र-सज्जा से लैस चीनियों का यह मुकाबला नहीं कर सकती थी, अतः उसे आत्म-समर्पण के लिए विवश होना पड़ा। चौदहवें दलाई लामा अपनी जान बचाकर भारत भाग आए और यहाँ सम्मानित अतिथि के रूप में रह रहे हैं। उनके साथ अन्य अनेक लामाओं और प्रजाजनों को भी भागकर भारत आना पड़ा, जो अब एक प्रकार से यहीं बस गए हैं। चीनी आक्रमण के विरुद्ध तिब्बत ने राष्ट्रसंघ, ब्रिटेन, भारत तथा अन्य देशों से मार्मिक अपील की, पर सभी ने बिना स्वार्थ लाभ वाले झंझट से दूर रहने की नीति के अनुसार मौखिक सहानुभूति ही प्रकट की, कोई सक्रिय सहयोग नहीं दिया। ऐसी दशा में बौद्ध तिब्बत को चीनी नास्तिकवाद के निविड़ बंधनों में जकड़ जाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहा। कम्यूनिस्टों के भयंकर आतंक और उत्पीड़न ने अगणित धार्मिक बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया। उनने विद्रोह किया पर वह भी सफल न हो सका। अब तिब्बत एक प्रकार से चीनी मगरमच्छ के पेट में चला गया ही समझा जाना चाहिए।
तिब्बत तो निश्चित रूप से भारत का ही अंश रहा है। उसकी लिपि देव नागरी है। भाषा पर संस्कृत की अमिट छाप है। देवी-देवता बिलकुल वही हैं जो भारत के हैं। साधना-उपासना में भारतीय योग विद्या का ही अनुकरण है। दिवाली आदि त्योहार और विवाह आदि संस्कार प्रायः भारतीय रीति-नीति से ही मनाए जाते हैं। वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचलन है, जो एक प्रकार से हिंदू-धर्म का ही अंग है। तिब्बत की शासन व्यवस्था के इतिहास में कौशल राज प्रसेनजित के पुत्र का गौरवपूर्ण उल्लेख है।
नेपाल—संसार का एक मात्र स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र
स्कंद पुराण के "हिमिवत खंड" में पूरे ३० अध्याय नेपाल के पौराणिक इतिहास एवं माहात्म्य के संबंध में है। इन्हें 'स्कंद पुराणांतर्गत नेपाल माहात्म्य' नाम से अलग पुस्तक के रूप में भी छाप लिया गया है। इस क्षेत्र का थोड़ा-बहुत वर्णन, देव पुराण, वृहन्नल तंत्र, वाराही-तंत्र आदि में भी उपलब्ध होता है।
स्कंदपुराण की आख्यायिका है कि श्रीकृष्ण नेपाल के आराध्य भगवान पशुपतिनाथ का दर्शन करने आए। उनकी हरिहर (विष्णु और शिव का सम्मिलित रूप) मानकर वंदना की। उसी प्रकरण में यह भी कहा गया है कि हरि और हर—विष्णु और शिव में जो प्रथकता मानेंगे वे भेद बुद्धि उत्पन्न करने वाले माने जाएँगे और नरकगामी होंगे।
नेपाल को स्कंदपुराण में 'श्लेष्मांतक वन' कहा गया है। श्लेष्मांतक वन अथवा वह अरण्य प्रदेश जिसमें निवास करने पर कफ विकारों का शमन होता हो। एक बार चंद्रमा देवता क्षय रोग से पीड़ित हो गए तो उन्होंने इस प्रदेश में निवास करके उपयोगी जलवायु द्वारा खोए हुए आरोग्य को पुनः प्राप्त किया।
राजा जनक की राजधानी जनकपुर, जिसे मिथिला भी कहा जाता है, नेपाल राज्य के अंतर्गत ही आती है। पुराणों में उपलब्ध वर्णन में उसकी जो भौगोलिक स्थिति बताई गई है उसे देखते हुए इस बात में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता कि प्राचीन मिथिला नेपाल के जनकपुर को ही कहा जाता था। अब यह २५ हजार की आबादी वाला छोटा-सा कसबा है। 'नेपाल, जय नगर, जनकपुर रेलवे' भी यहाँ तक पहुँचती है। यहाँ कई भव्य मंदिर धर्मशालाएँ बनी हैं। टीकमगढ़ (म०प्र०) की रानी वृषभानु कुँवरि ने यहाँ राम जानकी का एक भव्य मंदिर बनवाया है जिसकी लागत ९ लाख रुपए बताई जाती है। इसे नौलखा भी कहते हैं। इसमें राम-सीता की सुवर्णमयी प्रतिमा प्रतिष्ठापित है।
हल जोतते समय जनक को सीता के मिलने का स्थान 'पुनौराधाम' माना जाता है, इसे 'हलेष्ठि' भी कहते हैं। समीप में एक तालाब है, जिसे सीता जन्म कुंड कहते हैं। वहीं पर कुसुमा नामक गाँव के समीप महर्षि याज्ञवल्क्य का आश्रम बतलाया जाता है। गौतम और कपिल के आश्रम भी इसी क्षेत्र में थे। दार्शनिक वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अपनी संतान हीन पत्नी भामती के नाम पर एक टीका ग्रंथ लिखा है, यहीं के थे।
जनकपुर में रामनवमी (चैत्र सुदी नवमी) को विशाल मेला भरता है, जिसमें लाखों दर्शनार्थी उपस्थित होते हैं। वैसाख सुदी नौमी जानकी जी का जन्म-दिवस है। अगहन सुदी पंचमी रामसीता का विवाह दिन है। इन सभी पर्वों पर यहाँ भव्य मेले लगते हैं और अपार भीड़ एकत्रित होती है। इसमें नेपाली और भारतीय जनता समान उत्साह से भाग लेती है। साधु-संन्यासियों और आगंतुकों को भोजन कराने में कई सौ मन चावल और आटा दानियों द्वारा खर्च किया जाता है। छुटपुट मेले तो प्रायः सभी त्योहारों पर यहाँ लगते रहते हैं। इसी क्षेत्र में मल्हेपुर गाँव के निकट महापंडित मण्डन मिश्र जन्मे थे। इनकी पत्नी भामती (शारदा) ने आद्य शंकराचार्य के शास्त्रार्थ में छक्के छुड़ाए थे। मोरंग जिले में कोकहा और सप्तकोशी नदियों के संगम पर एक विशाल वाराह मंदिर है। कहा जाता है कि यहीं वाराह-भगवान का अवतार हुआ था।
समस्त नेपाल में सहस्रों भव्य मंदिर सजीव और निर्जीव स्थिति में बिखरे पड़े हैं। इनके नामों और स्थानों की संगति 'स्कंद पुराण' वर्णित विवरणों के साथ पूरी तरह बन जाती है। देवताओं, अवतारों और ऋषियों की लीला भूमि, यह क्षेत्र चिरकाल से बना रहा है और भारत की सीमा में ही इसे माना जाता रहा है, यह तथ्य भली प्रकार स्पष्ट हो जाता है। भारत के अन्य प्रांत-प्रदेशों से भिन्न इसकी गणना नहीं है। प्राचीन काल में नेपाल भारत भूमि का ही अविच्छिन्न अंग था। अब राजनीतिक परिस्थितियों ने उसे अलग कर दिया यह बात दूसरी है।
नेपाल में वागमती नदी गंगा के समान ही पूजित है। मृतक की भस्म और अस्थियाँ उसमें प्रवाहित की जाती हैं। पशुपतिनाथ की तरह ही गुह्येश्वरी को उस क्षेत्र की अधिष्ठात्री शक्ति माना जाता है। कंठमांडू का 'जय वागीश्वरी मंदिर' प्राचीन एवं पुराण वर्णित है। वागमती के दक्षिण पार्श्व पर बना 'गोकर्णेश्वर मंदिर' बौद्ध मंदिरों की पैगोडा शैली पर चार मंजिला बना है। इसमें प्रायः सभी हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठापित की गई हैं। स्कंदपुराण के अनुसार यहाँ अगस्त्य मुनि ने एक विश्व-यज्ञ संपन्न किया था।
योरोपीय इतिहासकारों का यह व्यंग तथ्यों की कसौटी पर प्रायः खरा उतरता है कि नेपाल में जितने घर हैं उतने ही मंदिर हैं और जितनी जनता है उतनी ही देव प्रतिमाएँ हैं। यह इस देश की धर्म श्रद्धा का ही प्रमाण है। हर घर में एक छोटा देव मंदिर उसी प्रकार बना होता है, जिस प्रकार कि रसोई घर। सामूहिक और विशाल मंदिरों की बात इस सार्वजनिक प्रचलन से अलग है।
भारत के नेपाल प्रदेश का नामकरण उसकी नैतिक विशेषता एवं धर्मनिष्ठा के आधार पर हुआ है, कहा गया है—'नीति तंपालयति इति नेपाल' अर्थात 'जहाँ नीति का पालन होता है, वह है नेपाल।' नेपाल के राष्ट्रध्वज पर चंद्र और सूर्य अंकित हैं। सूर्य को गर्मी और चंद्रमा को शीतलता का प्रतीक माना जाता है। इन्हें क्रांति और शांति का, ब्राह्मण और क्षत्रिय का, शस्त्र और शास्त्र का, संघर्ष और सृजन का प्रतीक भी कह सकते हैं। समन्वय की आवश्यकता और उपयोगिता का प्रतिपादन नेपाली राष्ट्रध्वज में अंकित सूर्य-चंद्र के चिन्हों से होता है। उसमें नेपाल की नीति का स्पष्टीकरण है।
नेपाल में जन्मे अनेक महामानवों का कर्मक्षेत्र समस्त भारत रहा है। भगवान बुद्ध लुम्बिनी में जन्मे। सीताजी का जन्म जनकपुर में हुआ। महर्षि वाल्मीकि का जन्म नेपाल में भैंसालोटन में, व्यास का जुमला में, विश्वामित्र का पाँच पोखरी में, याज्ञवल्क्य का कृष्णा कौशिकी में, भारद्वाज और श्रृंगी ऋषि का गंडकी मंडल में, मन का बझंग में कार्यक्षेत्र रहा है। उनके आश्रम और स्मृति अवशेष इन स्थानों पर मिले हैं। इसी प्रकार काम सूत्र के प्रणेता वात्स्यायन का स्थान गलकोट में, भृगुसंहिता के रचयिता भृगुमुनि का निवास भृगुकोट में और महर्षि कपिल का आश्रम कपिलातीर्थ में बताया जाता है। संभव है वे जन्मे भी वहीं हों। साधना और कार्यक्षेत्र उनका उस प्रदेश में होने की बात के पक्ष में तो वजनदार प्रमाण उपलब्ध हैं।
हिमालय की सबसे ऊँची चोटी नेपाल में है। संसार में सबसे ऊँचा पर्वत शिखर 'एवरेस्ट' जिसे नेपाली भाषा में 'सगर माया' कहते हैं, यहीं है। इसके अतिरिक्त कंचन जंघा २८१४९ फीट, लोन्से २७८९० फीट, धौलागिरि २६७९५ फीट, अन्नापूर्णा २६४९३ फीट, गोसाई थान २६२९१ फीट, गौरीशंकर २३४३५ फीट, हिमाचल २५८०२ फीट इसी प्रदेश में है। इससे थोड़ी कम ऊँचाई की चोटियों से तो नेपाल का हिमालय क्षेत्र भरा पड़ा है।
'अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास' ग्रंथ के लेखक श्रीसत्यकेतु विद्यालंकार के मतानुसार उस जाति के राजा अग्रसेन के एक पूर्वज नेमिनाथ ने इस देश को बसाया और उसका नामकरण उन्होंने अपने नाम पर किया था।
बुद्ध का जन्म ईसा के ५४४ वर्ष पूर्व लुम्बिनी नामक स्थान में हुआ। यह स्थान कपिलवस्तु नामक नेपाली नगर से १५ मील दूर है। अशोक ने उस पवित्र जन्म स्थान में स्मृति स्तूप बनाया। अशोक की पुत्री चारुमती का एक नेपाली सामंत से विवाह हुआ था। इस घटना क्रम को देखते हुए वहाँ भगवान बुद्ध के उपदेशों और क्रियाकलापों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। वहाँ जनता में बुद्ध धर्म फैला और कितने ही स्तूप और मठ बने, जिनमें से कितने अभी विद्यमान हैं और कितने ही खंडहर बने हुए हैं।
यों भारतीय बौद्ध भिक्षु आरंभ से ही नेपाल में उस धर्म के प्रसार में निरत थे, पर चौथी शताब्दी में आचार्य 'वसुबंधु' के नेतृत्व में नए उत्साह के साथ नए प्रयास हुए। सातवीं शताब्दी में वहाँ के राजा 'अंशु वर्मन' ने अतीव दूरदर्शिता और निष्ठा का परिचय देते हुए बौद्ध धर्म की जड़ें गहरी और दूर-दूर तक जमाने के लिए ठोस प्रयास किए। उसने अपनी विदुषी और निष्ठावान पुत्री 'भ्रकुटी' का विवाह तत्कालीन तिब्बत नरेश के साथ इसलिए किया कि उस देश और नरेश को बौद्ध बना लिया जाए। यह दाँव सोलहों आने सही सिद्ध हुआ और इस विवाह ने उस देश को सचमुच ही बौद्ध बनाने का द्वार खोल दिया। नेपाली पंडित शीलमंजु तिब्बत गए। नेपाल के मठों में बैठकर तिब्बत के लिए बौद्ध ग्रंथ लिखे गए और वहाँ पहुँचाए गए। 'शांति रक्षित' जैसे उद्भट विद्वानों को तिब्बत पहुँचाने में नेपाल का पूरा सहयोग और उत्साह मिलता रहा। उन दिनों भारत में मुसलमानों के निर्मम आक्रमण हो रहे थे और धार्मिक लोग जान बचाकर भाग रहे थे, उन्हें नेपाल में आश्रय मिला।
नेपाल में बौद्ध धर्म भी हिंदू धर्म का अंग बन कर ही फैला। उसकी कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं थी वरन उसे वेद धर्म का एक सुधारवादी संप्रदाय ही माना जाता था। अस्तु, बिना किसी अड़चन के उसे नेपाल में जनता तथा शासकों का सहयोग प्राप्त होता रहा। वहाँ भी मठ, विहार बनते रहे और भिक्षुओं द्वारा धर्म-प्रचार होता रहा।
सम्राट अशोक की पुत्री 'चारुमती' का विवाह नेपाल राजवंश के एक सुयोग्य सदस्य देवपाल के साथ इस आशा से कर दिया गया कि उस देश में बौद्ध धर्म के प्रसार में सहायता मिलेगी। हुआ भी ऐसा ही। उस दंपत्ति ने देवपाटन नामक विहार बनवाया। विधवा होने पर चारुमती भिक्षुणी बन गई और उसने धर्म-चक्र प्रवर्तन में अपना शेष सारा जीवन और समस्त धन समर्पित कर दिया।
बुद्ध-जीवन से संबंधित परम पवित्र चार स्थान माने जाते हैं—
(१) लुम्बिनी (नेपाल) तथागत का जन्मस्थान
(२) संबोधि स्थल—बोधि गया
(३) धर्म-चक्र प्रवर्तन—सारनाथ
(४) अवसान—कुशीनगर।
इनमें से प्रथम पवित्र स्थान लुम्बिनी नेपाल में है। उसका दर्शन एवं नमन करने के लिए संसार भर के बौद्ध आते रहते हैं। सम्राट अशोक स्वयं उस परम पुनीत स्थान का दर्शन करने गए थे। वहाँ उन्होंने एक विशालकाय मंदिर बनवाया, जिसके ध्वंशावशेष आज भी वहाँ मौजूद हैं। उस पर अंकित शिलालेख का भावार्थ यह है—यहाँ सम्राट अशोक पधारे। उन्होंने बुद्ध-जन्म की इस पवित्र भूमि का पूजन किया और स्तूप बनवाया। इस राज्य पर से समस्त राजकीय कर उठा लिए गए।
अब लुम्बिनी में नेपाल सरकार ने एक भव्य बौद्ध-मंदिर बनवाया है, जिसका उद्घाटन करने वर्मा के तत्कालीन प्रधानमंत्री 'यू नू' वहाँ पहुँचे थे। इसमें एक भव्य प्रतिमा भगवान बुद्ध की बालकपन की भी प्रतिष्ठापित की गई है, जो वर्मा में बनी है और जिसे संसार भर के बौद्ध बालक-बालिकाओं द्वारा संग्रहीत धन से बनाया गया है। इस देवालय में भगवान बुद्ध की जो विशालकाय मूर्ति है, वह भी वर्मा की ही बनी है।
पं० मुरलीधर भट्टारि कृत 'नेपाल और उसकी संस्कृति' पुस्तक के अनुसार आद्य शंकराचार्य उस देश में संव्याप्त बौद्ध धर्म को निरस्त करने गए थे। इसकी पुष्टि 'श्रीमज्जगद्गुरु शंकर मठ विमर्श' ग्रंथ से होती है। पशुपतिनाथ मंदिर के निकट 'शंकराचार्य मठ' वहाँ अभी भी वर्तमान है।
बागमती नदी के बाएँ तट पर 'महा बौद्ध नाथ' का उतुंग स्तूप है। इस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों भी हैं। उसके शीर्ष पर दो विशाल नेत्र बने हैं, मानो ईश्वर अपने नेत्रों से आगंतुकों के पाप-पुण्य को परख रहा हो। आँखों के बीच नाक का चिन्ह भी बना है। स्तूप का विशाल प्रांगण है, जो चार द्वारों वाली चहारदीवारी से घिरा है। स्तूप के १३ चौकोर वर्ग हैं, जो क्रमश: एक के बाद दूसरे से छोटे होते चले गए हैं। यह बौद्ध धर्म की मान्यता के अनुसार १३ स्वर्गों या १३ वर्गों के प्रतीक हैं। उनका शीर्ष भाग पीतल और ताँबे से बना और सोने से मढ़ा हुआ है, जो स्वर्ण-शिखर जैसा चमकता है। यहाँ भारतीय, नेपाली, तिब्बती और वर्मी बौद्ध भक्तिभावना सहित दर्शन करने के लिए हर साल बड़ी संख्या में आते हैं। हिंदू गृहस्थों की श्रद्धा भी इस धर्म स्थान के लिए कम नहीं है।
संसार भर में सबसे बड़ा बौद्ध चैत्य नेपाल का 'बोधनाथ' है। यह काठमांडू में पशुपति नाथ मंदिर से एक मील उत्तर की ओर है। तिब्बत, सिक्किम, भूटान, चीन, वर्मा, स्याम आदि से हजारों यात्री यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। मंदिर का अध्यक्ष तिब्बत के दलाईलामा का प्रतिनिधि होता है, उसे चिकाई लामा कहते हैं। ललितपुर का महाविहार लगभग ८०० वर्ष पुराना है। श्रावणमास में बौद्ध महिलाएँ उपवास करती हैं और इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आती हैं। महाबौद्ध मंदिर पंडित अभयराज ने बनवाया है। उसमें २३०० ईंटें ऐसी लगती हैं, जिन पर बुद्ध के जीवन की घटनाएँ अंकित हैं।
काठमांडू से एक मील आगे पच्छिम में एक हरी-भरी पहाड़ी पर बौद्धों का प्रख्यात तीर्थ 'स्वयंभूनाथ' है। स्तूप का व्यास ६० फीट और ऊँचाई ३० फीट है। उस पर नासिका सहित दोनों नेत्र महाबौद्धनाथ जैसे ही हैं। उसकी ऊपरी रचना मंदिराकार है। भगवान बुद्ध की प्रतिमा देखते ही बनती है। उसके विशाल प्रांगण में गणेश, कार्तिकेय, शिव, विष्णु, सूर्य और सरस्वती तथा अन्य देवताओं की अनेक प्रतिमाएँ हैं। मंदिर के चारों ओर ढोल जैसी घिरनियाँ लगी हैं और उन पर 'मणि पद्मे हुम' मंत्र खुदा है। तिब्बती बौद्ध इसी का जप करते हैं। इस क्षेत्र में विहार और चैत्य भी दर्शकों के लिए समुचित आकर्षण के केंद्र हैं।
पाटन के दरबार प्रांगण में खड़े होकर ऊपर नजर उठाते ही गगनचुंबी देवालयों और बौद्ध पेगाडाओं की विशाल पंक्ति खड़ी दीख पड़ती है। सभी बहुत कलापूर्ण हैं। इन्हें देखने पर उन दिनों की स्थिति सामने आ खड़ी होती है, जब इस देश में धार्मिक उत्साह उमड़ा था और लोग बड़े अरमानों के साथ ऐसे धर्म स्थानों की संस्थापना भारी श्रम व्यय और मनोयोग के साथ करते थे।
इतिहासकार के०पी० जायसवाल के अनुसार नेपाल में ही उस विशिष्ट वास्तु-कला का आविष्कार किया गया, जो पीछे चीन, वर्मा, हिंद, चीन आदि देशों में गई और बौद्ध-शैली कहलाई। पेगोडा स्तर के जो देव मंदिर मध्य एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया में बिखरे पड़े हैं, उस स्थापत्य कला का मूल स्रोत अब नेपाल में स्वीकार किया जा रहा है।
नेपाल की एक अति महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी धर्म-समन्वय नीति है। हिंदुओं के वैष्णव, शैव, शाक्त मत वहाँ परस्पर सहयोग और सहिष्णुता पूर्वक पनपे और फले-फूले हैं। जहाँ अन्यत्र धार्मिक मान्यताओं की भिन्नता को लेकर मनोमालिन्य या असहयोग का वातावरण बना, वहाँ नेपाल में समन्वय की नीति अपनाकर विचार भिन्नता को विभिन्न आकार-प्रकार के फूलों से सजे गुलदस्ते की तरह सुशोभित किया है। उस देश में एक ही देवालय में विभिन्न मतावलंबियों की देव प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित हैं और अपने-विराने का भेदभाव किए बिना धर्म श्रद्धा वाले लोग उन्हें समान आदर के साथ पूजते हैं। बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म का भी ऐसा ही समन्वय यहाँ हुआ है। कितने ही देवालय ऐसे हैं जिन्हें बौद्ध या हिंदू किसी भी मत का या दोनों ही मतों का कहा जा सकता है।
काठमांडू से ७ मील उत्तर में शिवपुरी पहाड़ी के निकट एक चौकोर तालाब में जलशायी बूढ़ा नीलकंठ की खुली हुई विशालकाय प्रतिमा है। वह वस्तुतः विष्णु की है पर कुछ लोग उसे नीलकंठ महादेव की बतला देते हैं। इससे स्पष्ट है कि उस देश में शैव, शाक्त, वैष्णव और बौद्ध अपने-अपने समय में अपने-अपने विकास को प्राप्त होते रहे हैं। किसी का किसी के साथ संघर्ष नहीं हुआ वरन समन्वयवादी दृष्टिकोण ने विभिन्न मतालंबियों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया था। इतना ही नहीं वहाँ देवी-देवताओं की ऐसी प्रतिमाएँ और कलाकृतियाँ मिलती हैं जिनको हिंदू अथवा बौद्ध दोनों ही सिद्ध किया जा सकता है।
स्वयंभूनाथ का मंदिर ५०० फीट ऊँची पहाड़ी पर बना है। उस तक पहुँचने को ४०० सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। मंदिर की ऊँचाई १०० फीट है। यह पेगोडा की शैली पर बना है और मीलों की दूरी से दिखाई देता है। इसे बौद्ध और शैव दोनों ही सम्मान रूप से अपना उपासना केंद्र मानते हैं। उसे लगभग दो हजार वर्ष पुराना माना जाता है।
नपत पोला का प्राचीन मंदिर समस्त नेपाल घाटी में सबसे ऊँचा मंदिर है और पेगोडा शैली पर पाँच मंजिल का बना है। चांगु नारायण का मंदिर १६०० वर्ष पुराना है जिसे राजा हरिदत्त वर्मा ने बनवाया था। उसमें विष्णु और बुद्ध दोनों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित हैं। भक्तपुर नगर का निर्माण चक्राकार हुआ है। हिंदू उसे विष्णु के सुदर्शन चक्र का प्रतीक मानते हैं और बौद्ध धर्म-चक्र प्रवर्तन का।
ठा० रघुनाथ सिंह ने अपनी पुस्तक 'जाग्रत नेपाल' में पशुपतिनाथ प्रतिमा के चार मुख और सिर पर राजमुकुट की ऐसी विचित्रता बतलाई है जैसी शिव प्रतिमाओं के इतिहास में अन्यत्र कहीं भी देखने में नहीं आती। शिवजी के पाँच मुख माने जाते हैं, चार मुख तो ब्रह्मा के होते हैं। इस पहेली का रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने इस प्रतिमा में शिव विष्णु के साथ-साथ बौद्ध धर्म का भी समन्वय बताया है। चूँकि भगवान बुद्ध राजकुमार थे इसलिए उनके सिर पर मुकुट होना कुछ आश्चर्य की बात नहीं। चार मुखों को उन्होंने बुद्ध के जीवन की चार महान घटनाओं की प्रतीक माना है—(१) जन्म (२) तप (३) धर्म-चक्र प्रवर्तन (४) अवसान। इस प्रकार की संगति चार मुखों और राजमुकुट की बिठाई जाए तो उसे युक्तिसंगत ही कहा जाएगा। जिन दिनों यह प्रतिमा बनी है उन दिनों नेपाल में अपने पूर्ववर्ती शैव और वैष्णव धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की जड़ भी गहरी जम चुकी थी। समन्वयवादी नेपाली धर्माचार्यों को त्रिदेव समन्वय की बात सूझी और उसमें बुद्ध को भी सम्मिलित कर लिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
पाटन नगर के हिरण्यकशु मंदिर के साथ भगवान बुद्ध का तिमंजिला मंदिर है। बोधगया वाले मंदिर की नकल पर बना, महाबुद्ध का यह विशाल मंदिर देखते ही बनता है। उसकी दीवारों पर तथागत की प्रमुख घटनाएँ बड़ी सुंदरता के साथ खोदी गई हैं। यहाँ सन् १४०८ का बना महा प्रसिद्ध मछीन्द्रनाथ का मंदिर है, जिसे उनके शिष्य गोरखनाथ ने बनवाया था। उसे हिंदू और बौद्ध दोनों ही समान रूप से पूजते हैं और उसके इतिहास पर अपना-अपना रंग चढ़ाते हैं।
नेपाल के अनेक मंदिरों में हरिजन ही पुजारी हैं। कहीं-कहीं ब्राह्मण और हरिजन दोनों ही समान रूप से पूजा संपन्न करते हैं। भद्रकाली सिद्ध पीठ के पुजारियों में एक चांडाल भी अनिवार्य रूप से सम्मिलित रहता है। देश भर के मंदिरों में बिना किसी भेदभाव के छूत-अछूत समान रूप से दर्शन करते हैं। केवल पशुपतिनाथ के मंदिर में इतना प्रतिबंध है कि वे नांदी तक ही जाएँ और वहाँ ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लें। शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से नेपाल का पशुपतिनाथ भी है। इसकी एक विचित्रता यह है कि प्रात:काल प्रतिमा पर ठंडा जल डाला जाए तो उसके शीर्ष भाग से भाप निकलने लगेगी। इस संबंध में वहाँ कितनी ही अलौकिक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। मंदिर के कोष भंडार में एक मुखी रुद्राक्ष, सर्पमणि, गजमुक्ता, दक्षिणवर्ती शंख जैसी दुर्लभ वस्तुएँ संग्रहित हैं। भावुक भक्त इन्हें सिद्धिदायिनी और मंगलकारिणी मानते हैं। इस शिवलिंग का उत्तर मुख अर्ध नारी और अर्ध नर का सम्मिश्रण है। इसे शाक्त धर्म और शैव धर्म का समन्वय भी कह सकते हैं, यह प्रतिपादन उभय-लिंगी मुखाकृति से परिलक्षित होता है।
समस्त संसार में एकमात्र स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र नेपाल की लंबाई ५०० मील और चौड़ाई ८० से १२० मील तक है। क्षेत्रफल ५४००० वर्ग मील है। आबादी एक करोड़ के लगभग। समस्त नेपाल में मिलाकर कुल ६० मील लंबा रेल मार्ग है। मोटर मार्ग से ही एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाना होता है। फिर भी यहाँ सड़कें अच्छी नहीं हैं। काठमांडू से वीरगंज केवल १२८ मील है, पर इतनी दूरी मोटरें दस घंटे में पार करती हैं। किराया भी १८ रुपया लगता है। जब कि यही यात्रा हवाई जहाज से २० मिनट में पूरी हो जाती है और किराया भी ३० रुपए देना पड़ता है। इसलिए हवाई यात्रा वहाँ अधिक प्रचलित है। छोटे-छोटे हवाई जहाज उड़ते रहते हैं। काठमांडू, पोखर, भैरहवा, नेपालगंज, जनकपुर, राजविराज, डाँग, सिमरा, विराट नगर बड़े हवाई अड्डे हैं। छोटी पट्टियाँ तो कई जगह हैं। काठूमांडू से तिराहा तक एक रज्जू मार्ग भी है।
सन् १३३४ में मुहम्मद तुगलक ने नेपाल पर हमला किया। उसके बहनोई मलिक खुसरू के नेतृत्व में एक बड़ी घुड़सवार सेना चीन के रास्ते भेजी गई और उस देश को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया। १३४९ में एक आक्रमण बंगाल के शमसुद्दीन ने भी किया। इन आक्रमणकारियों ने लूट-खसोट, तोड़-फोड़ और विनाश तो बहुत किया पर वे अधिक समय तक वहाँ पैर न जमा सके। तब वहाँ वैश्य जाति के ठकुरिया वंश का शासन चलता था। वह लड़खड़ा रहा था। उधर भारत में भी मुसलमान आक्रमण का पूरा जोर था । इस स्थिति में अयोध्या के सूर्य वंशी राजा हरिसिंह देव नेपाल पहुँचे और उन्होंने वहाँ के शासन की बागडोर सँभाल ली। इसके बाद वहाँ क्षत्रिय वंश की शासन परंपरा चल पड़ी।
नेपाल के ८५ प्रतिशत लोगों की आजीविका कृषि है। वहाँ गो-वध का निषेध है। वहाँ की भाषा 'गोरखवाली' है जो देव नागरी लिपि में लिखी जाती है और हिन्दी की ही एक शाखा मानी जाती है। इस देश के अधिकांश निवासी अपने को गोरखा कहते हैं। गोरखा 'गोरक्षक' का अपभ्रंश हैं। गुरु गोरखनाथ के अनुयायी होने के कारण भी उन्हें गोरखा कहा जाता है। कुमारी रहने वाली एक जीवित कन्या को देवता मान कर पूजने की नेपाल में एक विचित्र पद्धति है। इस लड़की का पूजन स्वयं नेपाल नरेश भी करते हैं।
भूटान प्रांत—जो अब भारत का संरक्षित प्रदेश भर है
भूटान को पुराणों में महर्षि कश्यप की एक पत्नी भूति की संतानों द्वारा बसाया गया 'भद्र देश' कहा गया है। भूटानी लोग उसे उन 'वज्र दानवों' का देश मानते हैं, जो 'कण-पर्वत' तथा 'चोमो ल्हारी' चोटियों पर विचरण करते थे। नेपाली वंश के लोग यहाँ बहुत हैं। उनका मूल भूटानियों के साथ सम्मिश्रण भी हुआ है। यातायात की दुर्गमता के कारण यह क्षेत्र भी तिब्बत की तरह एक प्रकार का निषिद्ध क्षेत्र ही रहा है। प्राचीन काल में यह क्षेत्र भारत की परिधि में तो आता था, पर पीछे यातायात की कठिनाई के कारण आवागमन घट गया तो यह अलग-थलग पड़ गया।
सन् १८९७ में भूटान में एक भारी भूकंप आया था। उन दिनों राजधानी पुनाखा थी। भूकंप में अग्निकांड हुआ और उसमें वह बहुमूल्य पुस्तकालय जल कर नष्ट हो गया जिसमें उस देश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले महत्त्वपूर्ण कागजात सुरक्षित थे। उपलब्ध अधूरे विवरणों से यह पता चलता है कि सातवीं सदी में वहाँ संगलदीप राजा का शासन था। आठवीं सदी का विवरण यह है कि नालंदा विश्व विद्यालय के आचार्य पद्म संभव भूटान पहुँचे थे और उन्होंने उस देश को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। राजा नवुदारा को भी उन्होंने बौद्ध बनाया। उसके बाद वहाँ कितने ही विहार और मंदिर बनते चले गए। तिब्बत से भी बौद्ध प्रचारक वहाँ आते रहे। इसी बीच तिब्बती डाकुओं की लूटपाट की घटनाएँ भी बढ़ने लगीं, जिनसे निपटने में भूटान नरेश शाब्दंडंग को कूच विहार और नेपाल के राजाओं की सहायता से सफलता प्राप्त हुई।
भूटान के प्राचीन राजभवन एक प्रकार के किले हैं, जो ऊँची प्राचीरों से घिरे हैं। उन्हीं के भीतर बौद्ध पुरोहित, सरकारी अधिकारियों और आवश्यक कर्मचारियों के निवास गृह बने हुए हैं। 'पारो जोड़'-'पुनाखा जोड़'-'तासी ढो तोड्' आदि ऐसे ही राजमहलों के नाम हैं। ऐसे पाँच दुर्ग समयानुसार बदलती रहने वाली राजधानियों के प्रतीक हैं। अब वे शासकीय कार्यालय हैं। इनमें एक से दूसरे में जाने के राजमार्ग भी बने हैं।
भूटान के निवासी प्रधानतया बौद्ध धर्मावलंबी हैं, पर दक्षिण भूटान में सनातनी हिंदू धर्म फैला है। 'ओम मणि पद्मे हम्' मंत्र का प्रचलन है। तिब्बतियों की तरह हाथ से चर्खा घुमाकर माला जपने का प्रयोजन पूरा किया जाता है। प्रार्थना चक्र के ढोल भी मंदिरों में स्थापित हैं। उन्हें घुमाने से जप की अपेक्षा हजारों गुना अधिक पुण्य माना जाता है। यों शासन राजा के हाथ में रहता है, धर्मगुरु लामा लोग भी कम प्रभावशाली नहीं हैं। इन लामाओं से टकराने में प्रधानमंत्री जिम्मी होरजी को अपनी जान ही गँवानी पड़ी थी। यहाँ भिक्षु विहार और भिक्षुणी विहार अलग-अलग होते हैं। भिक्षुणियाँ अपना सौंदर्य छिपाने के लिए घास को मेंहदी की तरह पीसकर चेहरे पर लेप किए रहती हैं। भूत-प्रेत की मान्यता, तंत्र-मंत्र और पशुबलि के विधान का वहाँ पूरा जोर है। बुद्ध धर्म के अहिंसा सिद्धांत को वहाँ के लोग देव प्रयोजन पर होने वाली पशु बलि पर लागू नहीं करते। भयंकर मुखौटे पहन कर नाचना वहाँ की परंपरागत लोक-नृत्य शैली है।
भूटान की जनसंख्या का सही लेखा-जोखा तो नहीं है. पर अनुमान से वह साढ़े आठ लाख है। १८ हजार वर्गमील भूमि में वह फैला हुआ है। कहीं जन विहीन वन्य प्रदेश बहुत लंबे फैले हुए हैं, कहीं घनी आबादी है, कहीं वर्षा की अधिकता है, कहीं ठंड, कहीं गर्मी अधिक रहती है। ऐसी ही अनेक विचित्रताओं से भरा हुआ यह देश है। पूर्वी भूटान में कम ही लोग रहते हैं। हिंस्र पशुओं से सुरक्षा के लिए लोग घरों के आस-पास ऊँची बाढ़ें खड़ी करते हैं। भूटानियों के अतिरिक्त वहाँ सिक्किम, नेपाल तथा तिब्बत से आकर भी बहुत लोग बस गए हैं और वे वहीं के निवासी हो गए हैं। फिर भी आकृति-प्रकृति के आधार पर उन्हें आसानी से वर्गीकृत किया जा सकता है। पोशाक वहाँ तिब्बतियों जैसी ही पहनी जाती है।
'ल्होई ढो जुंग' नामक ग्रंथ ही भूटान का एक मात्र प्रकाशित इतिहास है, जो ३०१ पृष्ठ का है। दस वर्ष पूर्व तक राज्य परिवार के और धर्म पुरोहितों को छोड़कर सामान्य नागरिक वहाँ पढ़े-लिखे बिलकुल न थे। अब वहाँ स्कूल खुल रहे हैं। रेडियो स्टेशन भी नहीं है। भारत का कुर्सियांग केंद्र सप्ताह में तीन दिन एक-एक घंटे का भूटानी भाषा में कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। एक सरकारी प्रेस है और उसी का एक पाक्षिक पत्र निकलता है। तिब्बत की तरह यहाँ भी बहुपति तथा बहुपत्नी प्रथा है। गरीब परिवारों में सब मिलकर एक पत्नी से काम चलाते हैं। इसके विपरीत अमीर लोग कई स्त्रियाँ रखते हैं। इसका कारण उतना सामाजिक या धार्मिक नहीं जितना कि आर्थिक है।
भूटान में केवल अठन्नी का एक सिक्का चलता है जो मिंट धातु का है। नोट या अन्य सिक्कों का प्रचलन नहीं है। उस देश में राजतंत्र चलता है। एक परिवार के एक वोट के आधार पर शासनसमिति के कुछ सदस्य चुने भी जाते हैं, शेष राजा द्वारा नामजद होते हैं।
भूटान की राजधानी थिप्पू है। वहाँ भारत से हेलीकोप्टर की यात्रा ही सरल पड़ती है। सिक्किम तथा चुंबी घाटी के रास्ते जाने का अच्छा मार्ग है। बंगाल दुआरे से भी जाया जा सकता है। यह मार्ग पैदल या घोड़े का है। मार्गों में कीचड़ या दल-दल बहुत हैं। यात्रियों के पैरों में जोंकें चिपट जाती हैं और बहुत कष्ट देती हैं। अब वहाँ कई अच्छी सड़कें बनी हैं और भारत के साथ यातायात सरल हो गया है। पड़ोसी देशों का आर्थिक प्रभाव भूटान पर पड़ता रहा है, इससे वहाँ शाक्त शैव तथा बौद्ध धर्मानुयायी सभी हैं। कूच विहार मार्ग से हिंदू प्रचारक तथा व्यवसायी पिछले समय वहाँ जाते रहे हैं।
भूटान की पुरानी राजधानी 'पुनाखा' रही है। यहाँ का किला राजभवन भी है और बौद्ध विहार भी। यहाँ से केलिंगपोंग को एक अच्छा रास्ता 'फाटी जोड्' होकर जाता है। नेपाल का वर्चस्व पिछले दिनों अधिक रहा है, इसलिए उस क्षेत्र में नेपाली भाषा अच्छी तरह बोली और समझी जाती है।
अंग्रेजी सरकार के दो पादरी सन् १७२७ में टोह लेने भूटान गए और तिब्बत तक पहुँचे। आवश्यक विवरण प्राप्त हो जाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने सर्वे कराया। इसके बाद १७७३ में एक अंग्रेजी सैन्यदल उस देश पर चढ़ दौड़ा, जिसका परिणाम एक संधि के रूप में सामने आया। अंग्रेजी व्यापार भूटान के साथ अच्छी तरह चलने लगा। इसके बाद फिर दोनों पक्षों में विग्रह बढ़ा। उसका परिणाम सन् १८८६ में फिर एक संधि हुई जिसमें ब्रिटिश भारतीय सरकार ने भूटान को ५० हजार रुपया प्रति वर्ष उपहार देना स्वीकार किया और भूटान ने अंग्रेजों की सुविधा की अन्य शर्तें मानी।
भारत सन् १९४७ में स्वतंत्र हुआ, १८ अगस्त १९४९ को भारत और भूटान के बीच अंग्रेजी संधि के स्थान पर नई संधि हुई। भारत ने भूटान को पाँच लाख रुपया वार्षिक सहायता देना स्वीकार किया, साथ ही उसके अंग्रेजों द्वारा कब्जे में किए गए भूभाग को लौटा दिया। भारत का उस देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं है, पर वैदेशिक मामलों में उसे भारत से सलाह करके ही चलना होगा। इस प्रकार वह एक संरक्षित राज ही रहेगा।
अंग्रेजी शासन-काल में भी भूटान और भारत के अच्छे संबंध थे। अब सन् १९५६ से वे और भी मधुर एवं दृढ होते चले जा रहे हैं। सन् १९५८ में पं० नेहरू स्वयं वहाँ गए और सन् १९५९ में भारत-भूटान सड़क बननी आरंभ हुई । इस कार्य में भारत की १२ करोड़ की सहायता ही प्रमुख रही। १७४ किलोमीटर का यह मार्ग उत्तरी बंगाल की सीमा से लेकर वर्तमान राजधानी थिप्पू तक जाने का प्रशस्त राजमार्ग है। इसका उद्घाटन करने सन् १९६८ में इंदिरा गांधी गई थीं। अब और भी कई बड़ी-बड़ी सड़कें बनाई जा रही हैं। जीपें और बसें इन पर दौड़ने लगी हैं। हाँसीमारा से पारो और थिप्पू तक हेलीकॉप्टर एवं वायुयान भी चलने लगा है। अब साठ दिन में पूरा होने वाला कठिन मार्ग इन साधनों से कुछ ही घंटों में पूरा हो जाता है।
सिक्किम अभी भी भारत से जुड़ा है
सिक्किम को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय नालंदा विश्व विद्यालय के आचार्य 'पद्म संभव को है। उन्होंने नेपाल, भूटान, सिक्किम और तिब्बत के सारे क्षेत्र को अपनी प्रखर प्रतिभा से प्रभावित करके बौद्धधर्मानुयायी बनाया था। पीछे भारत के अन्य धर्मानुयायी पहुँचते रहे। इसके उपरांत तिब्बत के मठों से लामा लोग वहाँ पहुँचे और सिक्किम में बौद्ध धर्म की स्थिति को सुदृढ़ बनाते रहे। उनका वर्चस्व क्रमशः बढ़ता गया और स्थिति यहाँ तक बदली कि शासन सत्ता भी उन्हीं के इशारों पर संभाली और बदली जाने लगी। इन शक्तिशाली लामाओं में 'ल्हात्सुन देम्बो', 'नदक पा' 'करतेक पा', के नाम अग्रणी रहे हैं। इन्हीं के प्रयत्न से 'टशोडिंग'-'प्रेमयांग चे' और 'साँगा छोलिंग' के विशाल मठों का निर्माण हुआ है। सिक्किम में इस समय ६७ विहार हैं, इनमें सात-आठ अधिक समुन्नत स्थिति में हैं।
बड़े विहारों में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित रहती है और उसके सामने १०८ अखंड दीप जलते रहते हैं। 'नामग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ टिबेटोलॉजी' नामक एक संस्था देउराली नामक नगर में कुछ ही समय पूर्व बनी है। उसमें २२००० पांडुलिपि सुरक्षित हैं तथा १२००० अन्य ग्रंथ हैं। उस क्षेत्र में फैले हुए बुद्ध संप्रदाय का अध्ययन करने की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। ७० रेशमी चित्रपट तथा २०० प्राचीन प्रतिमाएँ भी यहाँ संग्रहीत हैं। सिक्किम के वर्तमान शासक चोग्याल भारत की 'महा बोधि सभा' के बहुत समय तक अध्यक्ष भी रहे हैं।
सिक्किम में बहुसंख्यक नेपाली मूल के लोग हैं, जो हिंदू धर्मानुयायी हैं। वहाँ बौद्ध और हिंदू धर्म में अंतर नहीं किया जाता। हिंदुओं के मंदिर भी बहुत हैं और उनमें बुद्ध लोग भी श्रद्धापूर्वक पूजा अर्चा करते हैं।
सिक्किम का भूतकालीन इतिहास सुनिश्चित नहीं है। फिर भी यही मान्यता अधिक ग्राह्य है कि भारत के हिमाचल प्रदेश के राजा इंद्र बोधि ने वहाँ जाकर शासन स्थापित किया था और उनकी संतानें क्रमश: राज्याधिकारी होती चली आईं। मध्यकाल में समीपवर्ती देशों के साथ कलह-संघर्ष भी चलते रहे। फलस्वरूप सिक्किम को अपनी बहुत-सी भूमि खोनी पड़ी। सन् १८१४ में अंग्रेजों ने भी इस देश पर अधिकार जमाया। पीछे एक संधि के अंतर्गत परस्पर समझौता हो गया। १० मार्च १८९० की संधि के अनुसार सिक्किम ब्रिटिश भारत सरकार का संरक्षित देश बन गया। भारत के स्वतंत्र होने के बाद सिक्किम और भारत की नई संशोधित संधि सन् १९५० में हुई, जिसमें सिक्किम का दर्जा संरक्षित प्रदेश का रहेगा। भारत सरकार ने विकास कार्यों के लिए एक बड़ी धनराशि भी दी। अब शासन में कितने ही सुधार हो रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात पर समुचित ध्यान दिया जा रहा है।
सिक्किम की राजधानी गंगटोक है। यही उस प्रदेश का एक मात्र शहर है। रेलें वहाँ नहीं हैं, पर सड़कें हैं, जिन पर 'सिक्किम नेशनल ट्रांसपोर्ट' की बसें चलती हैं। जलवायु स्वास्थ्यकर है। व्यापार पर मारवाड़ी लोगों का आधिपत्य है। गंगटोक 'छुक्लाखांग गुंबा' नामक स्थान, देव मंदिर, राजमहल, संग्रहालय, ऐसेम्बली भवन सभी कुछ है। मंदिर में अखंड घृत दीप प्रज्ज्वलित रहता है। हवन की धूप भी बिना बुझे जलती रहती है। हिरनों के लिए एक अभय वन सुरक्षित है। एक तिहाई आबादी गंगटोक के घेरे में और दो-तिहाई देहातों में बसी है। पिछले बीस वर्षों में यहाँ तरह-तरह की आश्चर्यजनक उन्नति हुई हैं।
सिक्किम में तीन जातियाँ रहती हैं। लेपचा अर्थात मूल निवासी, नेपाली और भोटिया, जो तिब्बत नसल के हैं। लेपचा लोगों की आबादी पाँच प्रतिशत रह गई है। इस देश में बौद्ध धर्म विशेष रूप से प्रचलित है। हिंदुओं की संख्या उनसे कम है। नेपाली जाति के लोग वहाँ ७५ प्रतिशत हैं। इस समय सिक्किम की आबादी १६२१८७ है। राजधानी गंगटोक की आबादी १० वर्ष पहले १२ हजार थी, पर अब वह बढ़कर ८० हजार हो गई है। यहाँ पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ कम हैं।
सिक्किम बहुत छोटा देश है। उसकी लंबाई ७० मील और चौड़ाई ४० मील है, क्षेत्रफल २८१८ वर्गमील है। नेपाल और सिक्किम की सीमा सिंगलीला पर्वत श्रेणी पर बनती है। चारों ओर से पर्वतप्राचीरों से घिरे इस देश का बाहरी संबंध चार बड़े दर्रों में होकर होता है। निरंतर तीव्र गति से बहने वाली दो नदियाँ हैं—तिस्ता और रंगीत। लोक कथा है कि तिस्ता प्रेमिका है और रंगीत प्रेमी। ये जीवन में एक न हो सके तो नदी-नद बनकर चिरंतन प्रेमालाप करते हैं। दोनों का जहाँ संगम होता है, वहाँ हर साल मकर संक्रांति का मेला होता है और उसमें सम्मिलित होने वाले इस नदी-नद जैसे प्रेमालाप की कामना करते हैं।
बहुत वर्षा, कुहरा, बिजली की कड़क इस देश की ऐसी विशेषताएँ हैं जिसमें भूमि सहज ही बहुत उपजाऊ बनती है। सघन वनस्पतियों की बहुलता के कारण इसे हिमालय का उद्यान कहते हैं। यहाँ इतने अधिक प्रकार की लता, गुल्म, पुष्प एवं जड़ी-बूटियाँ पाई जाती हैं कि उन्हें खोजने और बीज-पौध ले जाने के लिए देश-देशांतरों के वनस्पति शास्त्री यहाँ आते रहते हैं। अब तक ४००० हजार से अधिक प्रकार के बहुमूल्य गुल्म, पादप यहाँ खोजे गए हैं। वन्य क्षेत्रों में कितनी ही नस्ल के जानवर रहते हैं। भूरा भालू, जंगली विलाब, धारीदार चीता, काष्ठ मार्जार, छोटा बाघ, कस्तूरी हिरन, जंगली भेड़ और बकरी इस क्षेत्र की पशु संपदा है। कुछ पशु पक्षी ऐसे हैं जो इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं। गुलाबी पैर का कौआ तिब्बत और सिक्किम में ही होता है। पक्षियों, तितलियों, कीड़ों की इतनी अधिक किस्में यहाँ हैं जितनी संसार में अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है। ताँबे की खाने यहाँ बहुत दिन से खोदी जा रही हैं। अब लोहे की खानें भी खोद निकाली गई हैं।
भूटान की तरह सिक्किम का राजधर्म भी बौद्ध है। धर्मग्रंथ प्राचीन तिब्बती भाषा में हैं। नेपाली लोगों ने एक युवा पुस्तकालय स्थापित किया है। नेपाली भाषा में एक त्रैमासिक पत्रिका 'नव ज्योति' प्रकाशित होती है। गंगटोक से भारत सरकार का सूचना विभाग नेपाली भाषा में 'प्रगति' नामक त्रैमासिक तथा 'हिमालय संदेश' नामक पाक्षिक निकालता है। सिक्किम सरकार नेपाली में कंचन जंघा पत्रिका छापती है। अब वहाँ की सरकार अंग्रेजी में भी एक छोटा सा चार पेज का पत्र 'सिक्किम हेरल्ड' भी छापने लगी है।
सिक्किम में उस देश के अन्य क्षेत्रों की तरह बहु-पति और बहु-पत्नी प्रथा प्रचलित है। परित्यक्ताओं, विधवाओं और कुमारियों की संतानें वहाँ अवैध नहीं मानी जातीं। पुनर्विवाह करने पर वह नए पति की, और न करने पर पति की संतानें कही जाती हैं। इसलिए वहाँ अवैध संतानें नहीं के बराबर हैं, जो हैं उनके लिए कोई सामाजिक असम्मान नहीं है।
बर्मा भी हमसे अलग हो गया
पुरातत्व वेत्ताओं ने एक स्मारक में एक घड़ा खोद निकाला है, जिसमें दाह-कर्म के उपरांत बची हुई भस्म रखी हुई है। इस पर राजा विक्रम का नाम लिखा है। इससे वर्मा में तत्कालीन भारतवंशी राजा का होना विदित होता है, जो वहाँ शासन करते थे। चीनी इतिहासकारों के अनुसार सन् ८४९ में १९ ग्रामों के प्रमुख 'पिनका' सरदार का उल्लेख है जो बौद्ध धर्मानुयायी था। भारत के दक्षिणात्य लोगों ने वहाँ पहुँचकर नाग-पूजा भी प्रचलित कराई थी। बर्मा का क्रमबद्ध इतिहास ग्यारहवीं सदी से आरंभ होता है, जिसमें कहा गया है कि राजा अनाव्रत वहाँ का शासक था, उसे वैशाली की राज-कन्या पंचकल्याणी विवाही थी।
वर्मा के कितने ही नगर भारतीय संस्कृति का उस क्षेत्र में होना सिद्ध करते हैं। पेगू का विष्णुनगर अब तक 'विश्नुमो' है। उसी प्रकार कुछ समय तक रामपुरा नाम से पुकार जाने वाला नगर अब मौलमीन हो गया है। रामाबती का पुराना कस्बा अब नया नाम बदल कर दर्वीची बन गया है।
बर्मी इतिहासकार बताते हैं कि ११वीं शताब्दी में 'शीन अर्हा' नामक ब्राह्मण भारत से उत्तर वर्मा में आया और उसने बौद्ध धर्म फैलाया। तब पागान में सैकड़ों बुद्ध विहार बने। इन्हें बनाने वाले कुशल कारीगर भारत से आए थे। इस क्षेत्र में एक विशाल विष्णु मंदिर अभी भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़ा है। भीतरी दीवारों पर विष्णु के दशों अवतारों की प्रतिमाएँ अंकित हैं। पागान पर सन् १०८४ से १११२ तक 'क्यांजीटा' राजा का शासन रहा, वह अपने कोराम का वंशज बताता था। याजदी पैगोडा में लगे हुए शिलालेख से वर्तमान पागान का पुराना नाम—'अरिदमनपुर' और वहाँ के राजा का यज्ञकुमार विदित होता है। यह उल्लेख पाली, तैलंग, प्यू और बर्मी भाषा में है। ग्यारहवीं सदी में वैशाली की राजकन्या पंचकल्याणी के पुत्र का शासनारूढ़ होना एक ऐतिहासिक तथ्य है।
वर्मा के सांस्कृतिक विकास-क्रम की अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित पुस्तकें पढ़नी चाहिए।
(१) चार्लस डुरोई सेल्ले कृत—'ए लिस्ट ऑफ इंसक्रिप्शंस फाउंड इन बर्मा'
(२) येमांग कृत—'इंसक्रिप्शंस इन बर्मा'
(३) नीहार रंजन कृत—'ब्राह्मणीकली गाड्स इन बर्मा'
(४) 'संस्कृत बुद्धिज्म इन बर्मा'
(५) 'एपीग्राफिया वर्मानिका'
(६) एपीग्राफिया इंडिका'।
बर्मा में सबसे पुराने शिलालेख पाँचवीं सदी के प्राप्त हुए हैं, जो कदंब भाषा में हैं। इसके बाद आठवीं सदी के शिलालेख पल्लव भाषा में हैं। यह दोनों ही दक्षिण भारत की भाषाएँ थीं। इतिहास के अन्य सूत्रों से भी यही सिद्ध होता है कि ईसा की पहली शताब्दी में उड़ीसा तथा तेलंगाना के लोगों ने व्यावसायिक प्रयोजनों से वर्मा जाना आरंभ किया था और वे समुद्र के दक्षिणी तटवर्ती प्रदेश में बस गए थे। पेगू क्षेत्र उन्हीं से भरा पड़ा था। मौलमीन के निकटवर्ती क्षेत्र में अभी चार लाख 'तेलंग' नस्ल के लोग रहते हैं। इतिहासवेत्ता जी०ई० हर्व ने लिखा है कि वर्मा में जितनी भी लोककथाएँ प्रचलित हैं, वे प्रायः सभी भारत से गई हैं। थारोन, प्रोम, पेगू, रंगून आदि क्षेत्रों में भारतीयों की बस्तियाँ थीं। भारत से बौद्ध धर्म वहाँ पहुँचा। इस उत्साह में प्राचीन हिन्दू मंदिरों का परिवर्तन बौद्ध मंदिरों में कर दिया गया। रंगून का 'श्वेडगो' पैगोडा विख्यात है, पर वहाँ के बौद्ध राजाओं ने कई पीढ़ियों तक उसका निर्माण जारी रखा था। आरंभ में वह २७ फीट ऊँचा था। पर सन् १३६२ से बढ़ते-बढ़ते सन् १७७४ तक ३२६ फीट ऊँचा हो गया। इसकी गोलाई १४२० फीट है, चारों ओर छोटे-छोटे ६४ पैगोडा और भी बने हैं। विशाल मंदिर में दो बड़े-बड़े घंटे टंगे हैं। इनमें से एक १४० टन और दूसरा १६ टन का है।
रंगून नगर के मध्य में सुले पैगोडा है। माँडले के पास मिंगुन पैगोडा में १२ फीट ऊँचा, १० फीट चौड़ा, १०० टन वजन का काँसे का घंटा है। संसार का यह सबसे बड़ा घंटा माना जाता है। 'कवाआमे' का 'विश्वशांति पैगोडा' ११८ फीट ऊँचा और इतना ही चौड़ा है।
इसके समीप ही एक बौद्ध विश्व विद्यालय है। वर्मा के गणनीय बौद्ध मंदिरों में श्वेजीगो थातवन्यु, गोदी पालिन, महाबोधि, श्वेतनदी आदि पैगोडा अपने-अपने ढंग के अनोखे हैं। आक्रमणकारी विधर्मियों ने जितने बौद्ध मंदिर तोड़े और प्रतिमाएँ नष्ट की उन सबका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाए तो यह देश भी भारत की तरह धार्मिक ध्वंशावशेष की कथा कहते सुना जाएगा।
वर्मा का 'श्वेडांगन' पैगोडा (स्वर्ण मंदिर) अब से दो हजार वर्ष पूर्व एक ऊँची पहाड़ी पर बना बौद्ध मंदिर है। इसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष सुरक्षित हैं। मंदिर का शिखर ३२५ फीट ऊँचा है। शिखर तथा अन्य स्थानों में करोड़ों रुपए का सोना लगा है। धूप में इसकी स्वर्ण आभा बहुत ही नयनाभिराम लगती है। इसके खंभों के नीचे चाँदी की मोटी सिल्लियाँ आधार शिला के रूप में रखी गई हैं। मंदिर का आंगन इतना बड़ा है जिसमें हजारों व्यक्ति बैठ सकते हैं। पूजा के लिए नर-नारियों की भीड़ सदा ही यहाँ लगी रहती है। इसमें अब भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु रहते हैं। इस मंदिर की शोभा का वर्णन करते हुए यात्रा लेखक 'नार्मन लेविस' ने लिखा है कि जब वे प्रतिमा के सम्मुख पहुँचे तो भावविभोर हो गए और देर तक अविरल अश्रुधारा बहती रही। उस देवालय में लगी स्वर्ण संपदा को देखकर उन्होंने पूरे वर्मा देश का नाम ही 'स्वर्णदेश' लिखा है।
सम्राट अशोक के समय में श्रीसोन और उत्तर नामक दो भिक्षु भगवान बुद्ध के बाल लेकर उस देश में गए थे और तब यह विशालकाय 'श्वेडांगन' का मंदिर बना था। बौद्धों द्वारा प्रचारित 'स्थिविर वाद' दर्शन अभी भी 'थीरावाडा' के अपभ्रंश रूप में उन्हीं मान्यताओं के साथ वर्मा देश में लोकप्रिय है।
बर्मा में हिंदू देवी-देवताओं और रीति-रिवाजों का अनुकरण होता है। वर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया—इन तीनों ही देशों में होली मनाई जाती है और उसे जलोत्सव कहा जाता है। भारतीय गणेशोत्सव की तरह गणेश पूजा वहाँ भी उत्साहपूर्ण समारोह से की जाती है उसका नाम है 'महा पैइने'।
दक्षिण बर्मा के थारोन क्षेत्र में बौद्ध धर्म का अभी भी विस्तार है और उस पर ब्राह्मण धर्म की छाप है। सन् १७६७ में वर्मा के शासक 'हसीब बुसीन' ने स्याम देश को जीता तो वहाँ से रामलीला के कुशल कलाकार अपने साथ लाया। तब स्याम के दरबारी भी रामलीला खेलते थे। राजघराने के कई प्रतिष्ठित सदस्य भी उस अभिनय में भाग लेते थे। इन लोगों ने वर्मा आकर वहाँ बड़े उत्साह से रामलीला का प्रचार किया। इस प्रकार हारा हुआ स्याम अपनी कला का आधिपत्य वर्मा पर जमाने में सफल हो गया।
कवीश्वर 'उतो' की लिखी 'रामयज्ञ' नामक रामायण वर्मा में बहुत लोकप्रिय है। याग्या नाटकों के अधिकांश विवरण इसी ग्रंथ के आधार पर बने हैं। यह नाट्य मंचन प्रायः दो सप्ताह लगातार चलता है और रातभर दिखाया जाता है। दर्शकों की भारी भीड़ उसे देखने जमा हो जाती है।
बर्मा की आबादी ढाई करोड़ है। उसे तिब्बत, भारत, चीन, थाईलैंड की सीमाएँ छूती हैं। बंगाल की खाड़ी में उसका समुद्र तट १२०० मील लंबा है। भारत में यह क्षेत्र 'ब्रह्मदेश' कहा जाता था और भारत का अविच्छिन्न अंग माना जाता था। यहाँ के निवासी 'वर्मन' अथवा 'वर्मा' कहे जाते थे। भारत में भी इस उपाधि को धारण करने वाले बहुत लोग हैं। बर्मा के भारतीयों की वंश परंपरा इन लोगों के साथ मिल जाती है।
बर्मा भाषा में पाली और संस्कृत शब्दों की भरमार है। व्याकरण भी इसी आधार पर बना है।
पूरे बर्मा में अधिकांश बौद्ध धर्मानुयायी रहते हैं। त्रिपिटक साहित्य पाली एवं वर्मी भाषा में है। ८३ ऐसे बौद्ध विहार हैं जिनमें धार्मिक शिक्षा और डिग्री दी जाती है। शांति पैगाेडा तो उच्चतम धार्मिक शिक्षा का विश्व विद्यालय ही है। प्रायः प्रत्येक गाँव में छोटा-बड़ा बुद्ध मंदिर अवश्य होता है। जहाँ प्रत्येक बालक को धर्म दीक्षा का संस्कार कराना पड़ता है। यहाँ समय-समय धर्मानुष्ठान एवं समारोह होते रहते हैं, जिनमें जनता उत्साहपूर्वक भाग लेती है। पर्व-त्योहार भी वहाँ भारत की तरह बहुत होते हैं।
बर्मा में महिलाओं का दर्जा पुरुषों से ऊँचा है। बहुत से वंशों में महिलाएँ बाहर का काम करती हैं और पुरुष बच्चों का पालन तथा घर का काम सँभालते हैं। आमतौर से घर की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता है। उसके मरने पर बेटे नहीं बेटों की बहुएँ मालकिन होती हैं पर अब यह पुराना प्रचलन घट रहा है और संपत्ति का स्वामित्व पुरुषों के हाथ जा रहा है।
बर्मा में जाति प्रथा नहीं है। वहाँ विवाह सरल है। एक ही गाँव में शादी होती रहती हैं। उसमें लड़के-लड़की की पसंदगी को प्राथमिकता मिलती है। उच्च कक्षाओं में पढ़ने वाले लड़के-लड़की भी खुशी-खुशी शादी कर लेते हैं। संबंधियों को जलपान, पण्डित द्वारा प्रतिज्ञा संस्कार, इतने में ही विवाह संस्कार पूरा हो जाता है। तलाक की भी सरलता है पर आमतौर से उस अधिकार का प्रयोग कभी ही कोई अत्यंत विवशता की स्थिति में करता है। कमर में नीचे लुंगी और धड़ पर अंगरखा यही वर्मा के नर-नारियों की एक जैसी पोशाक है। सिर पर पुरुष रूमाल बाँधते हैं और स्त्रियाँ लंबी चोटी रखती हैं, पैरों में दोनों चप्पलें पहनते हैं।
बर्मा में सरकारी प्रमाण-पत्र प्राप्त ही चिकित्सा कर सकते हैं। अनगढ़ चिकित्सक इलाज करता पकड़ा जाए तो उसे आजीवन कारावास तक का दंड मिल सकता है। शिक्षा प्राप्त चिकित्सकों को पहले दो वर्ष अनिवार्य रूप से देहाती चिकित्सालयों में जाना पड़ता है। यहाँ देशी चिकित्सा पद्धति है, जिसमें जड़ी-बूटियों की खोज एवं उपयोग पर बहुत जोर दिया जाता है। मध्य वर्मा में कोढ़ का प्रकोप अधिक है। चिकित्सा की तरह अनाथ संरक्षण भी सरकार द्वारा होता है। निजी अनाथालय वहाँ नहीं खोलने दिए जाते। वृद्ध, अपंगों के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व सरकार पर रहता है।
बर्मा के विकास में पिछले दिनों भारतीयों ने अथक परिश्रम किया है। भारतीय धन, श्रम तथा कौशल ने उस देश की समृद्धि बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, पर अब वे वहाँ दयनीय स्थिति में हैं। अधिकांश भारतीय बर्मा छोड़ चुके हैं। जो अभी रहते हैं वे भी छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। परिस्थितियों ने उन्हें इसके लिए विवश कर दिया है। अनुमानतः अब भी बर्मा में एक लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। सन् १९५१ की जनगणना में भारतीय मूल के लोगों की संख्या १० लाख थी और चीनियों की एक लाख। अब चीनी बढ़कर १० लाख हो गए हैं और भारतीय एक लाख रह गए हैं। इस वृद्धि और ह्रास के पीछे जहाँ बर्मा सरकार का पक्षपात है वहाँ भारत मूल के लोगों में उन तत्त्वों की कमी भी एक कारण है, जिनके आधार पर घर और बाहर सहयोग सम्मान पाया जाता है।
मध्यकाल में बर्मा का स्थानीय शासन रहा। अंग्रेजों ने उसे अपने कब्जे में किया और भारत के साथ मिलाया। सन् १९३५ तक बर्मा भारत का अंग था। उस समय वहाँ भी अंग्रेजी शासन था। सन् १९३७ में उसे भारत से अलग कर दिया गया।
बर्मा में कभी भारतीय बहुत बड़ी संख्या में थे, पर पिछले दिनों से उस देश की सरकार ने भारतीयों को निर्ममतापूर्वक खदेड़ने की नीति अपनाई है, जिससे उनकी स्थिति दयनीय हो गई है और संख्या काफी घट गई है। फिर भी वे अपने धार्मिक अस्तित्व को मजबूती के साथ बनाए हुए हैं। बर्मा के समीपवर्ती देशों में भी भारतीय काफी हैं, पर उन देशों की सरकारों ने वैसे कड़े प्रतिबंध नहीं लगाए हैं और वे वहाँ शांतिपूर्वक रहते हुए फल-फूल रहे हैं। ऐसे देशों में मलेशिया, सिंगापुर, वियतमान, लाओस, कंबोडिया और थाईलैंड का नाम लिया जा सकता है। थाईलैंड के भारतीयों की स्थिति अच्छी है। सिंगापुर जैसे छोटे देश में वे लगभग दो लाख हैं।
वर्मा में सरकारी मान्यता प्राप्त हिंदुओं का एक मात्र संस्थान 'हिंदू सेंट्रल बोर्ड' है। हिंदू मंदिरों की रक्षा प्रायः उसी के द्वारा विगत २० वर्षों से हो रही है। सरकार भी उसे २५ हजार वार्षिक अनुदान देती है। उस देश में प्रायः दो दर्जन आर्य समाजें हैं, जिनमें हिंदी पाठशालाएँ और पुस्तकालय चलते हैं। उसकी ओर से एक 'जागृति' नामक मासिक पत्रिका भी निकलती है। 'सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ' की प्रायः ८० शाखाएँ हैं जिनमें छोटे-छोटे मंदिर हैं तथा हिंदी शिक्षण एवं धार्मिक समारोह होते रहते हैं। पारिवारिक सत्संग एवं कीर्तन मंडलियाँ भी इस संघ की तरफ से चलती हैं।
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