151. क्या तृतीय विश्वयुद्ध होकर ही रहेगा?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

समग्र मानवता पर इन दिनों ऐसे संकट के बादल छाये हैं जिन्होंने उस सम्भावना को सत्य बना दिया है, जिसमें मनीषी वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने तीसरे युद्ध के आणविक आयुधों से मानवी सभ्यता के पूरी तरह नष्ट होने की भविष्यवाणी की थी। एक दृष्टा के नाते उन्होंने एक पत्रकार के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि प्रगति की यही अदूरदर्शी बेलगाम नीति रही, तो निस्सन्देह चौथा युद्ध आदिम मनुष्यों द्वारा लड़ा जायेगा, क्योंकि सभ्यता संस्कृति के नष्ट हो जाने पर स्थिति वही उत्पन्न हो जायेगी जहाँ से मानव ने उठकर चलना, अपनी गुजर बसर करना सीखा था।

युद्ध लिप्सा कितनी घातक हो सकती है, इसकी कल्पना आज के समय में कठिन नहीं। आज मानव कम्प्यूटर साइंस की दिशा में इतना आगे बढ़ गया है कि उस आधार पर आगत की जानकारी प्राप्त करना असंभव नहीं। इन दिनों विश्व के मूर्धन्य राजनेताओं के कथन, आयुध सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्य आँकड़े एक ही निष्कर्ष प्रकाश में लाते हैं कि अब युद्ध मनुष्य के अधिक समीप है। कभी भी कहीं से कोई चिनगारी फूटने भर की देर है और कुटिल युद्ध छिड़ सकता है।

मारक अस्त्रों की शक्ति और कुटिल रणनीति के निर्माण में संलग्न विश्व के महारथियों का अभी भी यह विश्वास है कि वे जहाँ भी चाहेंगे, आक्रमण करके अभीष्ट अपहरण करने में सफल हो सकेंगे। इसमें वे यह भी नहीं देखते कि इसके साथ ही उनके स्वयं के विनाश की संभावनाएँ भी विद्यमान हैं, कुटिलता की शाखा-प्रशाखाएँ यही ताना-बाना बुन रही है कि किस प्रकार प्रतिपक्ष को चकमा देने की कला को तिलिस्म जादू के स्तर तक पहुँचाया जा सके।

प्राप्त आँकड़े बताते हैं कि जापान पर गिराये गए अणु बम की तुलना में अब दस लाख गुने अधिक शक्तिशाली आयुध बनाए जा चुके हैं। इनके परीक्षण से जो वातावरण विषाक्त हुआ है, उसने शांत ध्रुवों को भी नहीं छोड़ा। भूगर्भ में विस्फोट, समुद्र में अणु ऊर्जा संचालित पनडुब्बी तथा अंतरिक्ष में छाये सेटेलाइट्स ने किसी भी व्यक्ति को इस प्रभाव से अछूता नहीं छोड़ा हैं। यह प्रक्रिया अभी दशाब्दियों तक वातावरण में छाई रहेगी और अन्न, जल, साँस, वनस्पति आदि के माध्यम से मनुष्यों एवं प्राणियों के शरीर में प्रवेश करके दुःखद परिणाम उत्पन्न करती रहेगी।

इन दिनों शस्त्रों पर हो रहा खर्च मात्र कुछ ही वर्ष में ५०० से बढ़कर ६७५ अरब डालर (५४०० अरब रुपये) प्रतिवर्ष तक जा पहुँचा है। गत बीस वर्षों में यह वृद्धि १७३ गुणी हो गयी है। धनशक्ति का महत्त्व तो अपने स्थान पर है ही, उपेक्षा उस मूर्धन्य प्रतिभाशक्ति की भी नहीं होनी चाहिए जो जनशक्ति के व्यापक विध्वंस की योजना बनाने हेतु इस कार्य में लगी है। अंतर्राष्ट्रीय मिलिट्री स्ट्रेटेजी अनुसंधान संस्थान लन्दन के अनुसार लगभग पच्चीस हजार प्रतिभाएँ और उनके लाखों सहायक इस कार्य में लगे हैं, जिन्हें बौद्धिक क्षमता की दृष्टि से वैज्ञानिक जानकारी के नाते सर्वोच्च स्तर की कहा जा सकता है। यदि ये ही विभूतियाँ सृजन प्रयोजनों में लगी होती तो संभवतः विश्व का कायाकल्प कर डालती।

इस सदी में तृतीय विश्वयुद्ध की संभावना की चर्चा के पूर्व यदि विगत का ही अवलोकन करें तो पाते हैं कि १९१० से अब तक लगभग १९८ बड़े स्तर के युद्ध हो चुके हैं एवं २६ करोड़ लाख व्यक्ति युद्ध विभीषिका से काल कवलित हुए हैं। प्रति व्यक्ति मारने का खर्च प्रथम विश्व युद्ध की लागत ६८ हजार रुपये से बढ़कर १५ करोड़ ५० लाख रुपये जा पहुँचा है। इतने पर भी युद्धोन्माद शान्त नहीं हुआ है। अभी भी युवा पीढ़ी में प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध की फिल्में, कथानक उतने ही लोकप्रिय हैं। इन्हीं की सर्वाधिक माँग भी है। साहस हेतु मोर्चे पर लड़ने का शिक्षण जीवन समर में भी जरूरी है, परंतु यह जब विकृत मनःस्थिति के रूप में पनपने लगता है तो इसे सामूहिक आत्महत्या की तैयारी ही कहा जायेगा।

वर्ल्डवार थ्री नामक पुस्तक के लेखक श्री शेल्फोर्ड वुडवेल स्वयं भी दोनों विश्वयुद्धों में आर्टिलरी कमाण्डर की हैसियत से काम कर चुके हैं। इसके बाद वे आयुध विज्ञान की एक पत्रिका के सम्पादक रहे। चिन्तक स्तर के इस व्यक्ति ने अपनी पुस्तक में यह मंतव्य व्यक्त किया है कि परिस्थितियाँ ऐसी बन चुकी है कि तृतीय युद्ध १९८० व १९९० के मध्य निश्चित ही होकर रहेगा। परन्तु यह धीरे-धीरे विकसित होने वाले वियतनाम जैसे युद्ध के रूप में नहीं, विस्फोटक रूप में उभरेगा। एक महाशक्ति के उकसाने पर अणु आयुधों द्वारा यह युद्ध धरती, समुद्र व वायु तीनों जगह लड़ा जायेगा। मुख्य रणक्षेत्र पश्चिम जर्मनी होगा क्योंकि वहाँ कम्युनिस्ट व अमेरिका परस्त राष्ट्रों की सेना के सत्तर प्रतिशत से अधिक घातक प्रक्षेपास्त्र केवल इसी आदेश की प्रतीक्षा में बैठे है कि कब वे अपने टारगेट पर टूट पड़ें। यह ध्वंसलीला कितनी भयावह होगी, इसकी उन्होंने आधुनिक मिलिट्री स्ट्रेटजी के कम्प्यूटराइज्ड आँकड़ों के आधार पर एक संतुलित रूपरेखा प्रस्तुत की है। उनके अनुसार यह युद्ध १९८५ से अधिक समय तक टाला नहीं जा सकता अनेकों समाचार पत्रों ने उनकी समीक्षा से सहमति व्यक्त करते हुए इसे एक भयावह कथानक, लेकिन एक सुनिश्चित संभावना बताया है। उन्होंने लिखा है कि यह युद्ध सैनिकों के मध्य नहीं, अपितु अन्तरिक्षीय उपग्रहों व जमीन से छोड़ी जाने वाली मिसाइलों तथा यंत्र चालित संयंत्रों के मध्य होगा। फिर भी क्षतिग्रस्त तो सारी मानव जाति एवं सभ्यता ही होगी। उपग्रहों से छोड़ी गई उच्च ऊर्जा मृत्युकिरणें व्यक्ति को जिन्दा भून देंगी व सम्पत्ति नष्ट कर देंगी। जितने ऐसे सुसज्जित उपग्रह अभी महाशक्तियों के पास हैं, उनसे ऐसा लगता है कि पाँच अरब व्यक्तियों को मारना कोई कठिन काम नहीं।

एक वैज्ञानिक भविष्यवाणी स्टाकहोम के इण्टरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक फैंक बार्नेबी ने की है, जो स्वीडन की विज्ञान अकादमी की पत्रिका ऐमेबियों में दृश्य विज्ञान शोधमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है। श्री बार्नेबी के अनुसार समस्त शान्ति प्रस्तावों के बावजूद विश्व की परमसत्ताएँ १५ जून १९८५ तक अपने आयुधों के परिसीमन प्रस्ताव पर असहमत ही बनी रहेंगी। परिस्थितियाँ जिस दिशा में अग्रसर हो रही हैं उसे देखते हुए लगता है कि अणु युद्ध उसके बाद टाला नहीं जा सकता। ११ बजे प्रातः अमेरिका और उसी समय शाम को ६ बजे रूस से आक्रमण प्रत्याक्रमणों का सिलसिला चल पड़ेगा। शुरुआत कौन करेगा कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह सुनिश्चित है कि अपनी रक्षा में आक्रमण का जवाब देने वाला सारी शक्ति लगा देगा। यह युद्ध कुल मिलाकर २४ घण्टे ही चलेगा इसमें चौदह हजार सात सौ अणु प्रक्षेपास्त्र प्रयुक्त होंगे। ७५ करोड़ व्यक्ति तुरंत मर जायेंगे और ३५ करोड़ गंभीर रूप से घायल होंगे। इस महायुद्ध की लपेट में यूरोप के ऐसे १४५ नगर आयेंगे जिनकी आबादी २ लाख से ऊपर है। पूरे युद्ध में ४१४० मेगाटन अणु ऊष्मा प्रयुक्त होगी जो सुदूर महाद्वीपों को वायु मण्डल में छाये विकिरण प्रभाव से अपनी जकड़ में ले लेगी। विश्व के लगभग ८० प्रतिशत व्यक्ति इस युद्ध के कारण रोग ग्रस्त हो शीघ्र मर जायेंगे या अणु ऊर्जा के शरीर पर दूरगामी प्रभावों के कारण कैंसर व अन्य महामारियों से हुई दुर्गति के फलस्वरूप जब तक जियेंगे कष्ट भरा जीवन जियेंगे।

श्री बार्नेबी ने यह भविष्यवाणी आयुधों की संख्या, परिस्थितियाँ, महाशक्तियों के पारस्परिक तनावजन्य वक्तव्यों को कम्प्यूटर में फीड कर पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर की है। वे कहते हैं कि यह सम्भावित युद्ध जो प्रभाव आयनोस्फियर में छोड़ेगा उसके फलस्वरूप सूर्य महीनों तक धुएँ के काले घने बादलों से ढका रहेगा। पर्यावरण पर रेडियोधर्मिता के दुष्प्रभाव से आबादी ही नहीं, वन क्षेत्रों तथा जीवजगत का भी सफाया हो जायेगा। भूमि कृषि योग्य न रहेगी। जो भी व्यक्ति उपलब्ध खाद्यान्न को खाएगा वह विकिरण के प्रभाव से ग्रस्त हो तुरंत काल को प्राप्त होगा। प्रस्तुत संभावना नयी नहीं है। अमेरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के विकिरण विशेषज्ञ डॉ. हरबर्ट अब्राम्स ने प्रसिद्ध पत्रिका न्यू इग्लैण्ड जरनल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित अपने एक लेख को अमेरिकी सरकार की ३८ रिपोर्टों के आधार पर तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि न्यूक्लियर युद्ध होगा तो अब से पाँच वर्षों के भीतर कभी भी हो सकता हैं, इसमें कोई भी पक्ष विजेता नहीं हो सकता। युद्ध अवश्यम्भावी है क्योंकि इस सीमा तक अणु आयुध एकत्र किए जा चुके हैं, युद्धोन्माद इस चरम तक पहुँच चुका है एवं पारस्परिक मतभेद इतने अधिक हैं कि कोई दैवी महाशक्ति ही इस स्थिति को अप्रत्याशित ढंग से रोक सकती है। युद्ध आरंभ होने पर प्रायः साढ़े छः हजार मेगाटन के बराबर शक्ति का आक्रमण होने की संभावना है, जो १९४५ के हिरोशिमा के बम से प्रायः सवा पाँच लाख गुना अधिक शक्ति का होगा। सुरक्षा के प्रयत्नों के बावजूद अमेरिका, यूरोप, जापान, सोवियत रूस के लगभग अस्सी प्रतिशत व्यक्ति तुरन्त या कुछ ही दिनों में तीव्र वेदना भुगतते हुए अंतिम गति को प्राप्त हो जायेंगे।

अमेरिका के भूतपूर्व रक्षा मंत्री जार्ज मार्शेल तथा हैरोल्ड ब्राउन भी पिछले दिनों यह कहते रहे हैं कि महायुद्ध का आरंभ तो आकाश से होगा किन्तु उसका अंत धरातल पर धूलि मात्र शेष रहने के रूप में होगा। साथ ही साथ रूसी पत्रिकाओं, वक्तव्यों प्रतिवेदनों में बराबर यह चेतावनी दी जा रही है कि यदि अमरीका ने उत्तेजक कार्यवाही आरंभ की तो रूस अपनी व अपने साथियों की सुरक्षा तथा शत्रु के व्यापक संहार का पूरा प्रयास करेगा।

क्या यह सब भयावह स्वरूप वास्तव में घटित होगा, क्या मानवता के वर्तमान स्वरूप का अंत इतना ही दुःखद होगा? इस सन्दर्भ में एक घटना ऐसी स्मरण की जा सकती है जो तीन वर्ष पूर्व एकाएक ही सबके रोंगटे खड़े कर गयी थी।

६ जून १९८० को एक कम्प्यूटर से मिली गलत जानकारी के आधार पर बचाव और प्रत्याक्रमण वाले सारे संयंत्र अमरीकी सुरक्षा सेना द्वारा सचेत कर दिए गए। सारे मिसाइल्स गंतव्य की ओर निशाने पर लगे थे। आणविक सूचनाओं में थोड़ा अन्तर होने के कारण सुप्रीम कमाण्डर ने तुरन्त काउण्टर चेकिंग किया। इस सब काम में मात्र तीन मिनट लगे। प्रक्षेपास्त्र छोड़ने भर की देर थी। अंतिम समय में यह पता चलने पर कि यह संयंत्र की खराबी से प्राप्त गलत सूचना है, परमाणु हमले की सारी कार्यवाही एकदम रोक दी गयी, आदेश वापस ले लिए गए।

आयुध विज्ञानी कहते हैं कि आज सारा यूरोप इंग्लैण्ड से लेकर पोलैण्ड, रूस की सीमा तक अति घातक दूर तक मार करने वाली मिसाइलों से भरा पड़ा है। एक संकेत भर मिलने की देर है। किसी भी समय फिर वैसी ही घटना की पुनरावृत्ति हो सकती है और सतत तनाव के वातावरण में काम करने वाले उच्चस्तरीय वैज्ञानिक यदि गलती से कोई ऐसी शुरुआत कर ही दें तो फिर परिणति की कल्पना ही भर की जा सकती है।

आयुधों की रोकथाम तो दूर, बचाव हेतु भूमिगत शरणगाह बनाए जा रहे हैं। पिछले ही दिनों हालैण्ड में हुए ३० वे पुगवाश सम्मेलन में इस हास्यास्पद कदम को व्यर्थ बताते हुए भाग लेने वाले चिकित्सक, वैज्ञानिकों ने कहा था कि ये शरणगाहें उस विकिरण ऊर्जा से सुरक्षा कैसे दिला सकेंगी जो वातावरण के रोम रोम में संव्याप्त होगा। सड़ती लाशों, खतरनाक जीवाणु, विषाणुओं के कारण महामारी फैलने से कौन रोक पायेगा? भावी प्रलय की संभवतः पूर्व तैयारी के हेतु ही दोनों ही महाशक्तियों ने डाई आक्सीन नापाम नामक रसायन आयुध तथा विषाणु बम मिसाइलों का प्रयोग वियतनाम युद्ध से ही आरंभ कर दिया था। अभी भी एक भी घातक विषाणु कभी दुर्घटना वश बेकाबू हो जाय तो सारी मानवता को अपनी चपेट में ले सकता हैं।

आज के वैज्ञानिक तो कह ही रहे हैं लेकिन कुछ द्रष्टा मनीषियों के भविष्य कथन भी ऐसा ही संकेत देते हैं कि एक विश्व युद्ध इस सदी की समाप्ति के पूर्व ही संभावित है। इनमें नोस्ट्राडेमस तथा अमेरिकन महिला आयरीन ह्यूजे का नाम प्रमुख लिया जाता है। दोनों ने ही तृतीय विश्वयुद्ध के जिन रोमांचकारी हृदय विदारक दृश्यों का वर्णन किया है वे वैज्ञानिक भविष्य कथनों से मेल खाते हैं। मिस्र के पिरामिडों पर लिखी पुस्तक द ग्रेट पिरामिड्स इट्स डिवाइन मैसेज में भयानक आयुधों से बीसवीं सदी की समाप्ति के पूर्व ही घटित होने वाली एक विश्वव्यापी संहार लीला का वर्णन है। बाइबिल के ओल्ड व न्यू टेस्टामेण्ट ग्रन्थों में भी आर्मेगेडान के रूप में १९८५ से ८७ के मध्य एक महा संहारक युद्ध का वर्णन है। महाभारत, हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत में भी इसी अवधि में व्यापक परिवर्तन के संकेत है।

इन तेजी से बदलती परिस्थितियों के पीछे हर विचारशील को वस्तुस्थिति को समझना होगा। यह माहौल निश्चित ही जटिल है, बताता है कि दुनिया विनाश के कगार पर आ बैठी है। लेकिन ध्वंस ही स्रष्टा का लक्ष्य होता तो वह इस दुनिया को रचता ही क्यों। विनाश का यह वातावरण विकृत मनःस्थिति की अदृश्य जगत से प्रतिक्रिया मात्र समझी जानी चाहिए। सोचा यह भी जाय कि संभव है सन्मति जागे और निराशा के वातावरण में भी आशा का सूरज चमक उठे। सन्मति ही प्रज्ञा है। प्रज्ञावतार को महाकाल या दैवी अनुशासन के रूप में जाना जा सकता है जो मनुष्य को सही मार्ग पर लाने के लिए प्रताड़ना की भाषा में भी समझाता है, भयावह झाँकी भी दिखाता है। चिन्तन की यह दुष्टता मिटे, इसके लिए जरूरी है कि चारों तरफ समझदारी का वातावरण बने। दैवी चेतना इन दिनों इसी कार्य में सक्रिय देखी जा सकती है। महायुद्ध की प्रस्तुत विभीषिका टाली जा सकती है। विनाश को, प्रलय को रोका जा सकता है। पर यह तब ही संभव है जब मनुष्य परिस्थिति के अनुरूप अपना आचरण बदले। प्रज्ञावतार का विराट रूप इस सृष्टि को, मानवता को बचाएगा। इसमें किसी को किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं होना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

152. नव सृजन के साथ जुड़ी ध्वंस की अनिवार्यता
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

स्थूल बुद्धि और चर्म चक्षुओं की पकड़ परिधि बहुत सीमित है। यदि इन्हीं पर निर्भर रहा जाय तो किसी भी तथ्य को समझना और किसी भी समस्या का समाधान ढूँढ़ना सम्भव न हो सकेगा। महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में हमेशा सूक्ष्म बुद्धि एवं बेधक पारदर्शी दृष्टि का अवलम्बन लेना होता है।

प्रकृति के प्रत्यक्ष स्वरूप को ही सब कुछ समझने वाले उसके पीछे छिपे परोक्ष रहस्यों का समझने में कहाँ सफल हो पाते हैं? पृथ्वी धुरी पर भी घूमती है और द्रुतगति से सूर्य की परिक्रमा भी करती है। यह बात प्रत्यक्ष देखने का हठ करने वाले को समझाई ही नहीं जा सकती। ऐसे कई प्रकरण हैं जिन्हें समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है। रहस्यों को समझने में समर्थ ऐसे ही व्यक्तियों को बुद्धिमान तत्त्वदर्शी आदि नामों से जाना और सराहा जाता है।

समय की विपन्नता उन्हें कदाचित ही दीख पड़े जिनकी दृष्टि कमाने, सोने-जागने तक सीमित है। उनके लिए तो जीवन चक्र का ढर्रा भी एक रस है, जबकि मनुष्य बढ़ने, घटने और मृत्यु के मुख में घुसने के नियति चक्र में तेजी से घसीटा जा रहा होता है। इन दिनों अपने चारों ओर जो घटित हो रहा है, होने जा रहा है उसका स्वरूप समझना, मूल्यांकन करना मोटी दृष्टि से सम्भव नहीं।

इन दिनों प्रकृति प्रकोपों का कुचक्र अधिकाधिक विपन्न होता चला जा रहा है। हजारों वर्षों से ऐसी दैवी विपत्ति धरती पर नहीं उतरी जितनी कि इन दिनों दृष्टिगोचर हो रही है। धरती और प्रकृति के बीच एक बहुत ही मधुर सन्तुलन अनादि काल से चला आ रहा है। वही मूल कारण है कि मौसम, जलवायु, वनस्पति एवं प्राणी जीवन का ऐसा पारस्परिक सौहार्द्र भरा सुयोग बन पड़ा है जिसके आधार पर धरती को ब्रह्माण्ड के ग्रह गोलकों की साम्राज्ञी का श्रेय मिला और स्रष्टा की अनुपम कलाकृति कहा गया। यदि यह सन्तुलन न बैठता तो चन्द्रमा जैसी निस्तब्धता, कुरूपता और भयंकरता ही अपनी धरती पर बनी होती।

जिन्होंने अन्तर्ग्रही परिस्थितियों व हलचलों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया है उनका मत है कि विगत कुछ दशकों से पर्यावरण असन्तुलन बढ़ता जा रहा है। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप अनेकों प्रकार के व्यतिक्रम देखने में आ रहे हैं, जो सीधे-सीधे अदृश्य जगत की परोक्ष विधि व्यवस्था में असन्तुलन का संकेत देते हैं। खगोल विज्ञानियों तथा पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन हैं कि यही स्थिति यथावत बनी रही तो आने वाले पन्द्रह वर्षों में प्राकृतिक विपदाओं, विक्षोभों की भयावह विभीषिका प्रस्तुत हो सकती है। सारा संसार ही उसकी चपेट में आ सकता है तथा मानव जाति को त्रास भुगतते-भुगतते अपना अस्तित्व गँवाना पड़ सकता है।

जल प्रलय, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्पों की बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, महामारियाँ, कॉस्मिक किरणों के कारण नये-नये रोग, बवण्डर, तूफान आदि प्रकृतिगत विक्षोभ कहे जा सकते हैं। पर्यावरण प्रदूषण, न्यूक्लियर विस्फोट, अणु प्रक्षेपास्त्रों की अन्तरिक्षीय होड़, बाँधों और उद्योगों का अन्धाधुन्ध बिना किसी नीति निर्धारण के बनते चले जाना इन विक्षोभों के मानव कृत कारण कहे जा सकते हैं। पुच्छल तारे के प्रकट होने के दुष्परिणाम सौर कलंक व ज्वालाएँ, चन्द्र व सूर्य ग्रहण, अन्तर्ग्रही असन्तुलन, उल्कापात कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें प्रकृति को प्रधान कारण माना जा सकता है। लेकिन इन सबका समुच्चय जब एक साथ होने लगे तब इनका प्रभाव पृथ्वी वासियों पर कितना घातक होगा, इसकी मात्र कल्पना भर की जा सकती है।

मनुष्य के पुरुषार्थ और कौशल को कितना ही क्यों न सराहा जाय, पर यह निश्चित है कि वह प्रकृति प्रकोप का एक झटका भी सहन नहीं कर सकता। जब भी जहाँ भी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, तूफान, महामारी आदि के प्रकृति विपर्यय सामने आते हैं मनुष्य चीं बोल जाता है और उसका सारा पराक्रम एक कोने पर रखा रह जाता है। सृष्टि के इतिहास में कई बार हिम प्रलय, अग्नि प्रलय जैसे भयावह समय आए हैं। उनने धरती का नक्शा ही बदल दिया। प्राणियों और वनस्पतियों की प्रजातियाँ ही बदल गयी। कभी डायनासोर जैसे विशालकाय जन्तु इस पृथ्वी पर वास करते थे, आज उनका नामों निशान ही मिट गया है। सहस्राब्दियों की उलट-पुलट के बाद जो बचा उससे कहीं ऐसी स्थिति बनी, जिसे निर्वाह की दृष्टि से सरल साधारण कहा जा सके, जब भी ऐसे भयानक प्रलयंकर अवसर आते हैं तब मनुष्य को हजारों साल का प्रगति उपार्जन हाथ से गँवाना पड़ता है और जान बचाने का आश्रय तलाशने में यदि कुछ सफलता मिल सके तो उतने को ही सौभाग्य मानकर सन्तोष करना पड़ता है।

इन दिनों प्रकृति प्रकोपों का जो सिलसिला चल पड़ा है, वह कुछ समय से क्रमशः अधिक तीव्र और भयानक होता चला जा रहा है। पर्यवेक्षण से अनेकों डरावने तथ्य सामने आते हैं और साथ ही सूक्ष्मदर्शियों द्वारा इस सन्दर्भ में जो अनुमान लगाए गए हैं, वे और भी अधिक चिन्ता उत्पन्न करते हैं।

हरीतिमा की चादर से लिपटी यह धरती धीरे-धीरे निर्वसन होती जा रही है। औद्योगीकरण ने पृथ्वी के सौन्दर्य सुषमा को छीनकर उसे कुरूप ही नहीं बना दिया वरन् वातावरण को इतना विषाक्त कर दिया है कि कभी भी ध्रुवों के पिघलने से जल प्रलय का संकट उठ खड़ा हो सकता है। वातावरण में बढ़ती कार्बन डाय ऑक्साइड की मात्रा ने मनुष्य को शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनाव के रूप में तथा समग्र प्रकृति चक्र को पर्यावरण असन्तुलन, मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तन के रूप में प्रभावित किया है। १९४८ में इस गैस का पर्यावरण में उत्सर्जन पाँच सौ पचास करोड़ टन था। लगभग चौवन प्रतिशत हरीतिमा का आवरण इसे सोख लेता था, शेष भूमिका समुद्र निभाता था। १९८२ में यह उत्सर्जन बढ़कर २१४० करोड़ टन हो गया एवं निर्वनीकरण वन सम्पदा मात्र अठारह से इक्कीस प्रतिशत रह गई है। इस सदी में जहाँ पृथ्वी के कवच आयनोस्फियर का तापमान मात्र एक डिग्री सेण्टीग्रेड बढ़ना था चार डिग्री बढ़ा है, जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण बढ़ी ऊष्मा जीवधारियों के आसपास ही कैद होकर रह गई है। इससे मौसम पर कैसे प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं, इसका मूल्यांकन समाचारों पर एक दृष्टि डालकर किया जा सकता है।

विश्व विख्यात ‘‘प्लेन ट्रुथ’’ पत्रिका के इस अप्रैल ८३ अंक में एक पर्यवेक्षण छपा है जिसमें इस शताब्दी के मौसम परिवर्तनों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ऐसा प्रकृति प्रकोप पिछले हजारों वर्षों में देखने में नहीं आया। उसमें अदृश्य के गति चक्र का विश्लेषण करते हुए यह भी बताया है कि अगले दिनों यह संकट अधिक गहरा होने की संभावना है।

गत दो दशकों में हुए इन परिवर्तनों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार जाना जा सकता है।

१९६१ मे पूर्वी अफ्रीका में भयंकर वर्षा हुई तथा उत्तरी भारत को सबसे कड़ी शीत ऋतु का सामना करना पड़ा। १९६२-६३ में २२० वर्ष बाद पहली बार इंग्लैण्ड व उत्तरी यूरोप को सबसे ठण्डी व लम्बी शीत ऋतु का अत्यन्त ठण्डा व उत्तरार्द्ध अत्यधिक गर्म रहा। पहले मृत्यु शीत लहर से हुई एवं फिर लू के प्रकोप से।

जून १९६४ में दक्षिणी व दक्षिणी पश्चिमी अफ्रीका में पहली बार भयंकर हिमपात हुआ जबकि जुलाई १९६६ में अमेरिका ने पहली बार ऐसी लू का सामना किया जिसमें दस हजार से भी अधिक व्यक्ति मरे पाए गए। ऐसी स्थिति यहाँ पहले कभी नहीं आई थी। १९६८ से १९७३ तक लगातार इथोपिया व चिली में भयावह सूखा पड़ा, जिससे पचास प्रतिशत व्यक्ति अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। जबकि १९७३ के अगस्त में थार के रेगिस्तान में भयंकर बरसात व बाढ़ आई। जुलाई १९७४ में बम्बई की बाढ़ ने पिछले सभी रिकार्ड तोड़ दिए जबकि १९७५ में दस माह से भी अधिक लम्बी भयंकर शीत ऋतु का सामना अलास्का, पश्चिमी आस्ट्रेलिया, पूर्वी कनाडा को करना पड़ा। इसी वर्ष भारत ने भी शीत लहर का प्रकोप झेला जबकि अगस्त माह में इंग्लैण्ड, उत्तरी पश्चिमी यूरोप, डेनमार्क आदि देशों को १९७५ व १९७६ में लगातार २ साल वैसी ही लू का सामना करना पड़ा जैसी मई माह में भारत के उत्तरी भारत बिहार आदि प्रदेशों में चलती है। १९७७ में आयी लूनी नदी की बाढ़ तथा लद्दाख की सारी पहाड़ी नदियों के आवेग भरे उफान ने सबको स्तम्भित कर दिया। १९८०-८१ में मोरबी तथा पूरे राजस्थान के बारिश भरे अप्रत्याशित मौसम व प्रलय जैसी बाढ़ ने सारे मौसम विज्ञानियों को अचम्भित कर दिया।

१९८२-८३ के अब तक के मौसम पर टिप्पणी करते हुए विद्वान लेखक डॉन टेलन ने लिखा है कि भूगर्भीय आणविक प्रयोग परीक्षण, प्रदूषण, संसाधन दोहन, जीवाश्म प्रज्ज्वलन जैसे मानवी कृत्यों की परिणति इस डेढ़ वर्ष में ही बड़े विकराल रूप में देखने को मिली है। सन् १९८२ में ही अमेरिका में ऐसा भयंकर हिमपात हुआ जितना कभी देखा सुना नहीं गया। आस्ट्रेलिया में इसके विपरीत शताब्दी का अभूतपूर्व सूखा पड़ा। इस देश को बाहर से माँग कर अपना गुजारा करना पड़ा, जबकि निजी उत्पादन का ४५ प्रतिशत यह निर्यात करता रहा है। टोंगा महाद्वीप भयंकर तूफान में पूर्णरूपेण ध्वस्त हो गया एवं चीन के सबसे बड़े प्रान्त लाओत्सिंग में सूखा तथा सटे हुए शांघजींग प्रान्त में बाढ़ के प्रकोप से अगणित व्यक्ति मारे गए। उत्तरी फ्रांस की रिकार्ड बर्फ, इटली में दिन में गर्मी तथा रात्रि को बर्फ, जापान की नागासाकी नदी में विनाशकारी बाढ़ एवं उत्तरी जापान में भूकम्प, न्यूजीलैण्ड में सूखा तथा उत्तरी ध्रुव के समीपस्थ रूसी क्षेत्र में सर्दी के स्थान पर गर्म मौसम ऐसे परिवर्तन हैं जिनका वैज्ञानिकों के पास कोई जवाब नहीं है।

मार्च १९८२ में मैक्सिको में एक भयंकर विषधूम्र वाला ज्वालामुखी फटा जिसकी बादल जैसी मोटी परत अभी भी आकाश में घूमती रहती है। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय उसकी लालिमा सारे विश्व में महीनों तक देखी गई। भारत में आन्ध्रप्रदेश, देहली, उड़ीसा, सौराष्ट्र, राजस्थान आदि में प्रकृति प्रकोप से जो दुर्घटनाएँ घटित हुई उनसे सभी परिचित हैं।

यह भूतकाल का घटनाक्रम है। भविष्य में जो घटित होने की सम्भावना है उसकी भी प्रकृति पर्यवेक्षण तथ्यों समेत जानकारी सर्व साधारण को करा रहे हैं। और समय रहते उनसे सचेत रहने तथा बचाव सोचने का मनोबल उत्पन्न कर रहे हैं।

इन्हीं दिनों पृथ्वी के निकट से एक धूमकेतु गुजरा है जिसमें ऐसे विषैले तत्व पाए गए जैसे कि सामान्य धूमकेतुओं में से किसी में भी नहीं होते। हैली धूमकेतु की चर्चा तो सभी वैज्ञानिकों की जुबान पर है जो १९८५-८६ में प्रकट होगा। पहले भी सन् १५३१, १६०७ और १६८७ में ऐसे ही धूमकेतु पृथ्वी के समीप आए हैं और उनके प्रभावों से पृथ्वी के अनेक खण्डों में युद्ध छिड़े तथा विनाशकारी विपत्तियों के दृश्य उपस्थित हुए। आगत में दृश्यमान हैली धूमकेतु सर्वाधिक लम्बा होगा। इसकी पूँछ साढ़े आठ किलोमीटर लम्बी है। पहले भी दोनों विश्व युद्धों के पूर्व एक-एक धूमकेतु पृथ्वी के बड़े समीप से गुजर चुके हैं। ‘‘बिवेयर-हैली इज कमिंग’’ पुस्तक में वैज्ञानिकों की एक टीम ने उन आशंकाओं को व्यक्त किया हंै जो इस कारण धरती निवासियों को सहना पड़ सकती हैं। विशेषज्ञों ने इस पुस्तक में अनेकानेक तथ्यों का हवाला देते हुए बताया है कि यों तो पुच्छल तारे का पृथ्वी के समीप आना व टहलते टहलते गुजर जाना एक सामान्य प्रक्रिया कही जा सकती है, लेकिन प्रस्तुत धूमकेतु जितना लम्बा है व जितनी निकटता से वह पृथ्वी के वातावरण से निकलेगा, उससे अनेकानेक रोगों के पनपने, महामारियाँ फैलने तथा कॉस्मिक किरणों की बौछार से बहुसंख्य जनता के प्रभावित होने की आशंका है। इसकी पूँछ से उत्सर्जित विषाक्त गैसें पृथ्वी के समीप आते ही इसके मलवे के सड़ने से वातावरण में भर जाती हैं। इससे नये-नये प्रतिरोधी विषाणु तैयार होते हैं, साथ ही मानसिक विक्षिप्तता, अपराधों, आत्महत्याओं के दौरे अधिक पड़ने लगते हैं। विलियम हैली जिसके नाम पर इसे यह इनाम दिया गया है, ने पता चलाया है कि यह पर्यवेक्षण गत ६ शताब्दियों में अवतरित धूमकेतुओं पर किया गया। हर बार पिछली घटनाओं की गम्भीरतम पुनरावृत्ति हुई है।

सौर गतिविधियों का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का कथन है कि सूर्य का तापमान निरन्तर कम होता जा रहा है, जिसका प्रभाव निश्चित ही धरती के वातावरण पर पड़ रहा है। सूर्य गत ४० वर्षों से निरन्तर सिकुड़ रहा है एवं सूर्य कलंकों की संख्या बढ़ी व प्रकट होने की मध्यावधि कम हुई है। इसके प्रभावों के कारण धरती पर हिम युग की सम्भावना प्रबल होती जा रही है। अब तक चार हिम युग आ चुके हैं। अब वैज्ञानिकों के अनुसार पाँचवें हिम युग की तैयारी है। सर फ्रेड हायल ने तो इस सम्भावना के आगामी पन्द्रह वर्षों में ही साकार होने की सम्भावनाएँ बतायी हैं। शीत लहरों के वर्तमान क्रम को वे इसकी पूर्व भूमिका बताते हैं।

वैज्ञानिक गण यह भी कहते हैं कि इन दिनों पृथ्वी के भूचुम्बकत्व में तेजी से कमी आई है। आशंका है कि यह घटोत्तरी जारी रही तो अगले दिनों स्थिति भयंकर होगी और उसके महाविनाशकारी परिणाम होंगे।

प्रकृति मदमस्त हाथी की तरह जिस तरह विक्षुब्ध होती चली जा रही है, उसे मनुष्य को अनुशासन की विधि व्यवस्था के रूप में समझना चाहिए। जब किसी बच्चे पर या अपराधी पर किसी बात का प्रभाव नहीं पड़ता तो दण्ड की नीति ही अपनानी पड़ती है। अंकुश की आवश्यकता इसी वर्ग को मर्यादा में रखने के लिए पड़ती है। प्रकृति अपनी पाठशाला में मनुष्य को अनुशासन का आद्याक्षर सिखाने हेतु जो उपक्रम अगले दिनों अपना सकती है, उसके पूर्व संकेत अभी से मिल रहे हैं। ऐसे में विनाश से भयभीत होने के बजाय जन समुदाय को जागृत सृजन शिल्पी की भूमिका निभाने हेतु तत्पर हो जाना चाहिए।

कुम्भकरण व रावण का आतंक प्रत्यक्ष सामने होते हुए भी रीछ वानर दैवी चेतना के संरक्षण में लड़ने को तैयार हो गए थे। गोवर्धन को ऊँचा उठाने वाले छोटे-छोटे ग्वाले पहाड़ के दबने की सम्भावना से डरे नहीं, जमकर खड़े हो गए। साहस भर जिन्दा हो जाय तो दैवी चेतना, अवतार प्रेरणा अपनी भूमिका स्वयमेव निभाती है। वातावरण परिशोधन हेतु जिस पुरुषार्थ युक्त एकात्मता की, अध्यात्म स्तर के सामूहिक प्रयोगों की आवश्यकता है, उसके लिए हर सोये को मूर्छना त्याग कर कमर कस कर खड़े हो जाना चाहिए। प्रज्ञावतार की प्रमुख भूमिका नव निर्माण की है। विनाशकारी सम्भावनाएँ एवं सृजन की तैयारी युगों-युगों से अवतार प्रक्रिया की यही कार्य पद्धति रही है। प्रस्तुत सम्भावनाओं को पलटना जिस साहस के बलबूते बन पड़ेगा उसे जुटाना, इस हेतु सुझाए गए उपक्रमों में उसे नियोजित कर देना ही आज का युग धर्म है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

153. सृजन में लगे तो संकट टले
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

संव्याप्त दुखों के दो ही स्वरूप और कारण हैं-एक पतन, दूसरा पीड़ा। मनःक्षेत्र भ्रान्तियों और विकृतियों से भर जाने का परिणाम चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता के बढ़ने के रूप में सामने आता है। यही पतन है। मानवी गरिमा से नीचे उतरा हुआ व्यक्ति मर्यादाओं को तोड़ता और स्वेच्छाचार बरतता है। उसकी प्रतिक्रिया होती है परिस्थितियों की विपन्नता, प्रतिकूलता के रूप में। उपेक्षा, घृणा और विरोध बढ़ने से सहयोग से वंचित रहने वाला मनुष्य न तो सुख चैन से रह सकता है और न समर्थन के अभाव में कोई कहने लायक प्रगति ही कर सकता है।

भ्रान्तियाँ भटकाती हैं। राजमार्ग छोड़कर झाड़ियों के रास्ते चल पड़ने वाले निर्धारण अपनाने के लिए बहकाती हैं। चिन्तन भ्रष्ट व्यक्ति ऐसे आचरण करता है जिन्हें मूर्खता या धूर्तता कहा जा सके। इस नियति में क्रिया की प्रतिक्रिया का विधान निश्चित है। चिन्तन यदि यथार्थवादी न हो, मान्यताएँ-आकाँक्षाएँ निकृष्ट स्तर की रहने लगे तो स्वभावतः परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने लगेंगी। ऐसे ही लोग अनाचार करते या सहते देखे गए हैं। दुश्चिन्तन अपने आप में एक समस्या है। उसके कारण मनःतन्त्र बेतरह चरमराने लगता है। प्रगति और शान्ति का सही मार्ग पा सकने में असमर्थ रहने के कारण जो असफलताएँ, समस्याएँ, कठिनाइयाँ सामने आती हैं उनकी परिणति खीज़, निराशा, चिन्ता के अतिरिक्त और क्या हो सकती है। ऐसे व्यक्ति कुढ़ते-कुढ़ाते, रोते-रुलाते, व्यथा देते और सहते ही जिन्दगी गुजारते हैं। यह है अनगढ़ विचारणा का कटु प्रतिफल, जिसे अधिकाँश व्यक्ति चखते और सिर धुनते देखे गये हैं।

इस संसार की दूसरी व्यथा है-पीड़ा। पीड़ा का अर्थ है शरीरगत दुर्बलता और रुग्णता। इनसे ग्रसित व्यक्ति भारभूत होकर जीते हैं। स्वयं कष्ट सहते अनुपयोगी रहते, दूसरों की कृपा पर जीते और सड़े कचरे की तरह अनेकानेक विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं। स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर में ही रहता है। इस तथ्य को पग-पग पर चरितार्थ होता हुआ देखा जा सकता है। आर्थिक पिछड़ापन, अनीति सहन और मन मसोस कर रहने की आत्महीनता प्रायः उन्हीं को सहनी पड़ती है जो शारीरिक स्वस्थता गँवा बैठे। उपहास और तिरस्कार के भाजन भी वही बनते हैं। अपनी और दूसरों की दृष्टि में भारभूत जीवन जीते और भाग्य को या जिस-तिस को कोसते हुए दिन बिताते हैं।

संसार में अभावों, व्यथाओं, समस्याओं, विग्रहों के अनेकानेक स्वरूप हैं। संकटों के नाम रूप में भिन्नता रहने पर भी वे सभी निकृष्टता और रुग्णता की परिणति ही होते हैं। यदि मानसिक और शारीरिक रुग्णता से बचा उबरा जा सके तो समझना चाहिए समस्याओं का आत्यंतिक समाधान हस्तगत हो गया और सुसंस्कृत व्यक्ति तथा समुन्नत समाज का सुनिश्चित आधार बन गया।

यों संव्याप्त समस्याओं के अनेकानेक रूप रहने से उनके तात्कालिक उपचार भी कई प्रकार के करने की आवश्यकता पड़ सकती है, पर जहाँ तक विष वृक्ष की जड़ काटने का सम्बन्ध है कुल्हाड़ी और कलाई का संयोग ही काम देगा। कुल्हाड़ी से मतलब स्वास्थ्य संरक्षण और कलाई से तात्पर्य है शिक्षा संवर्धन। इन दो कार्यों में वैयक्तिक प्रगति और सामूहिक समृद्धि को पूरी तरह अवलम्बित समझा जा सकता है। दूरदर्शियों को शान्ति स्थापना एवं भविष्य निर्धारण की बात गंभीरतापूर्वक सूझे तो उन्हें चिरस्थायी उपाय उपचार के रूप में दो कार्यक्रमों को अपनाकर सृजन एवं समाधान की दिशा में अग्रसर होना चाहिए। यही हैं वे दो आन्दोलन, जिन्हें गति देने के लिए प्रत्येक भावनाशील व विचारशील को आगे आना और जनसाधारण का मार्गदर्शन करना चाहिए।

नव सृजन की योजना में प्रत्येक युगशिल्पी को इन्हीं दो सामयिक उपचारों को प्रमुखता देनी चाहिए। इन्हीं पर ध्यान केन्द्रित करना और प्रयास प्रक्रिया को उछालना चाहिए। लोकमंगल की, समाज सेवा की, संकटों से निपटने की, उज्ज्वल भविष्य के अवतरण की यही सुनिश्चित विधि व्यवस्था है। व्यक्ति सुधरेगा तो समाज समर्थ बनेगा। समुन्नत व्यक्तित्व ही मिलजुलकर समृद्ध समाज की संरचना करते हैं। अस्तु जन-जन को शिक्षित एवं स्वस्थ बनाने की व्यापक योजना चरितार्थ करने के लिए युग परिवर्तन के पक्षधरों में से प्रत्येक को अविलम्ब जुट पड़ना चाहिए।

साक्षरता की समस्या, आवश्यकता के सन्दर्भ में बहुत कुछ कहा सुना जाता रहा है। अपने देश में ७० प्रतिशत निरक्षर है। उन्हें साक्षर बनाये बिना समय की समस्याओं को समझाना और जो करना है उसका महत्त्व हृदयंगम कराते हुए प्रगतिशील रीति-नीति अपनाने के लिए सहमत करना कठिन है। इसके लिए जन आन्दोलन उठना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा की पाठशालाएँ हर गली मुहल्ले में चलनी चाहिए। शिक्षित लोग विद्या ऋण चुकाने के लिए अध्यापन कार्य के लिए समयदान नियोजित करें। उत्साही लोग प्रौढ़ पुरुषों को रात्रि के समय और महिलाओं की तीसरे प्रहर चलने वाली उन पाठशालाओं में सम्मिलित होने की प्रेरणा दें। इस प्रकार लोक मंगल के इस महत्त्वपूर्ण कार्य को सेवा साधना और प्रगति योजना के आधार पर जन सहयोग से चलाया जा सकता है। समय रहते निरक्षरता की समस्या से निपटने और साक्षरता के सहारे युग समस्याओं के स्वरूप, समाधान से अवगत कराने का कार्य सहज ही आगे बढ़ाया जा सकता है।

साक्षरता संवर्धन की बात प्रौढ़ पाठशालाओं से आरम्भ होती हैं, पर इतने पर ही उसका विराम या अन्त नहीं समझ लेना चाहिए। शिक्षा का वास्तविक तात्पर्य है भ्रान्तियों से उबरकर मानवी गरिमा के अनुरूप राजमार्ग अपनाना। इसलिए साक्षरता के साथ एवं उसके उपरान्त लोकमानस के परिष्कार का क्रम चल पड़ना चाहिए। सत्प्रवृत्ति संवर्धन को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इसी उपक्रम को विचारक्रान्ति, ज्ञानक्रान्ति, प्रज्ञा अभियान जैसे नाम दिए गए हैं।

इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए युगधर्म से अवगत एवं अनुप्राणित करने वाला साहित्य सृजा और पढ़ा सुना जाना चाहिए। झोला पुस्तकालय योजना को भी साक्षरता संवर्धन का अविच्छिन्न अंग मानकर चलना चाहिए अन्यथा इस प्रयोजन के लिए विचार गोष्ठियों, प्रज्ञा आयोजनों, लोक शिक्षण के समारोह आयोजनों को भी सम्मिलित किया जाना है। स्वाध्याय और सत्संग की संयुक्त प्रक्रिया ही वाणी और लेखनी के माध्यम से विचार परिष्कार की प्रक्रिया सम्पन्न करती है। इसलिए शिक्षा संवर्धन की आवश्यकता व्यवस्था के साथ-साथ युग चेतना उत्पन्न करने वाली स्वाध्याय, सत्संग पर आधारित लोकमानस परिष्कार का समग्र प्रयत्न परिपूर्ण उत्साह के साथ अग्रगामी बनाना चाहिए।

दूसरा कदम स्वास्थ्य संवर्धन का है। इसके लिए बौद्धिक और क्रिया परक उभयपक्षीय कार्यक्रम अपनाने होंगे। अनगढ़ आदतों में आलस्य प्रमाद भरा रहता है। गंदगी से लेकर चटोरेपन और दुर्व्यसनों तक की अनेकानेक अवांछनीयताएँ स्वभाव का अंग बन जाती हैं। कुप्रचलनों से भी लोग प्रभावित होते हैं और अन्धी भेड़ों की तरह स्वास्थ्य घातक प्रचलनों को अपनाते चले जाते हैं। प्रवाह को उलटने के लिए आवश्यक है कि स्वास्थ्य शिक्षा का ककहरा लोगों को नये सिरे से पढ़ाया जाय। जो कुछ सीखा अपनाया है उसमें से अधिकांश को भुलाने छोड़ने के लिए सहमत किया जाय।

आहार-विहार में प्रकृति प्रेरणा का समावेश करने की बात पर विचार किया जाता है तो प्रतीत होता है कि आहार के चयन, पकाने के ढंग एवं खाने के तरीके में इन दिनों कुप्रचलनों को देखते हुए क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। चटोरेपन और दुर्व्यसनों से ग्रसित होकर लोग किस तरह अपने पैरों कुल्हाड़ी मारते और अपने हाथों गला घोटते हैं। इस अवांछनीयता से जन-जन को इस प्रकार अवगत कराया जाय जैसे जंगली तोते को सीताराम रटाने का अभ्यास कराया जाता है। आदतों को बदलना कितना कठिन होता है इसे सभी जानते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सम्बन्धी अनाचारों के दुष्परिणामों को समझने, समझाने के लिए उग्र आन्दोलन की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में नशा, चटोरापन जैसे कुप्रचलनों का घनघोर विरोध करना होगा, साथ ही यह सिखाना, कर दिखाना होगा कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए किस प्रकार की सुव्यवस्था का लाभ मिलना चाहिए। इस सन्दर्भ में उस अस्वच्छता के विरुद्ध कड़ी मुहिम खड़ी करनी होगी जो सर्वत्र सड़ती नालियों और मल मूत्र के व्यतिक्रम के रूप में देहातों से लेकर शहरों तक में पूरे उफान पर है। सीलन और घुटन भरे मकानों में रहने के स्थान पर लोगों की रुचि बदलनी होगी कि वे सूर्य और हवा के सम्पर्क में रहने का निश्चय करें। भले ही इसके लिए उन्हें फूस के झोपड़ों में या पेड़ों की छाया में ही क्यों न रहना पड़े। पशुपालन अच्छी बात है पर इसका अर्थ यह नहीं कि एक ही कोठे में दोनों रहें और गंदगी को दूनी चौगुनी बढ़ाकर परिवार का स्वास्थ्य गँवाएँ। आजीविका का लालच ऐसा नहीं होना चाहिए जो रुग्णता और अकाल मृत्यु अपनाने के लिए विवश करे। आज हरे कच्चे आहार की ओर लोक रुचि मोड़ने की आवश्यकता है और पकाने में भाप से उबालने भर को मान्यता देने की आवश्यकता है। भूनने तलने की प्रथा का अन्त होना चाहिए।

स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से यौनाचार की स्वच्छंदता पर प्राचीन काल जैसी ब्रह्मचर्य वर्जनाओं का अंकुश लगाना चाहिए। बहुप्रजनन के सर्वतोमुखी संकट का एक बड़ा पक्ष स्वास्थ्य की बर्बादी भी है। प्रसव भार से जन्मदात्री जर्जर हो जाती है। साधनों के अभाव में बालकों की स्थिति दयनीय रहती है। कमाने वालों की कमर टूटती है और समूचे समाज के सामने असंख्य संकट खड़े होते हैं। इन तथ्यों को यदि लोक मानस में उतारा जा सके तो स्वास्थ्य संकट की आधी समस्या का समाधान मिल सकता है।

शरीर संरचना, आहार स्वच्छता, रोगी परिचर्या, प्राथमिक चिकित्सा, नियमितता, प्रजनन कर्म जैसे कितने ही ऐसे प्रसंग हैं, जिनके सम्बन्ध में शिक्षित और अशिक्षित, धनी और निर्धन, शहरी और देहाती समान रूप से भ्रमग्रस्त एवं कुप्रचलनों से संत्रस्त हैं। आवश्यकता इस बात की है कि साक्षरता अभियान की तरह आरोग्य रक्षा के लिए भी सशक्त जन आन्दोलन चलाया जाय। उपेक्षा बरतने के दुष्परिणाम, अनुशासन पालने के उत्साहवर्धक लाभ समझाते हुए ऐसी रीति-नीति का प्रत्यक्ष प्रचलन किया जाय, जिसे देखकर अभीष्ट परिशोधन, परिष्कार के लिए उत्साह उमगे। आदतों को बदलने में भी कुरीतियों और अनीतियों को उखाड़ने की तरह ही जोर लगाने की आवश्यकता पड़ती है। यह है स्वास्थ्य संरक्षण का बौद्धिक प्रथम पक्ष।

इस सन्दर्भ में दूसरा उपाय है व्यायाम, आसन, प्राणायाम, खेलकूद, ड्रिल, लाठी चलाने जैसे उपक्रमों को प्रोत्साहन। फर्स्ट एड, परिचर्या, सामूहिक श्रमदान से सार्वजनिक स्वच्छता के कार्यक्रम भी इसी प्रयास के अन्तर्गत आते हैं। हर गाँव में ऐसे स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित होने चाहिए, जिनमें बौद्धिक और क्रियात्मक दोनों ही प्रकार की गतिविधियाँ समान रूप से अपनाई जाती हो। प्राचीनकाल में अखाड़े इसी प्रयोजन की पूर्ति करते थे। समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रभाव क्षेत्र में महावीर मन्दिरों की स्थापना की थी और उनमें से प्रत्येक के साथ शिक्षा संवर्धन के लिए विद्यालय एवं सत्संगों का क्रम जोड़ा था। इसी प्रकार उनमें व्यायाम शालाएँ एवं शास्त्र शिक्षा का प्रबन्ध था। यही कारण है कि पाठशालाओं और व्यायाम शालाओं से जुड़े हुए महावीर मन्दिर शिवाजी के नेतृत्व में चलते रहे, स्वतन्त्रता संग्राम में धन जन का उत्साह वर्धक योगदान करते रहे। ऐसे ही प्रयत्न गुरु गोविन्दसिंह के नेतृत्व में भी चले थे।

प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान अपने लोकमंगल कार्यक्रमों में शिक्षा संवर्धन और स्वास्थ्य संरक्षण को अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रखे और जहाँ जिस प्रकार जो विधि व्यवस्था बन सके उसे बनाने में कोर कसर न रखे। उदारमना दूरदर्शी जनसमुदाय से भी यह आग्रह किया गया है कि वे इन दोनों प्रयासों को सफल बनाने में पूरा-पूरा योगदान करें। समय की यह महती माँग है। देखने में छोटे प्रतीत होते हुए भी यह प्रयास ऐसे हैं जिनके सहारे अवांछनीयताओं का उन्मूलन और सत्परम्पराओं का प्रचलन सुनिश्चित रूप से सम्भव हो सकेगा। विभीषिकाओं से निपटने और सुसम्भावनाओं को प्रत्यक्ष करने के लिए इन चिरस्थायी उपायों को अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं। सामयिक उपचार तो फुलझड़ी चमकाने की तरह कौतूहल कौतुक मात्र उत्पन्न करते हैं।

छोटे शुभारंभ के रूप में हर जगह यह होना चाहिए कि स्कूली बच्चों के अवकाश के घण्टों में संस्कार पाठशाला चलाई जाय। जिसमें स्कूली पढ़ाई का होमवर्क कुशल अध्यापकों की देख−रेख में होता रहे। साथ ही व्यक्तित्व निर्माण की नैतिक, सामाजिक शिक्षा का भी समावेश रहे। इसके अतिरिक्त छात्रों को व्यायाम, खेलकूद, आसन, प्राणायाम, ड्रिल स्काउटिंग, फर्स्ट एड आदि का भी अभ्यास कराया जाता रहे। यह योजना कहीं भी, कुछेक उत्साही जनों के प्रयास से सहज ही आरम्भ हो सकती है। इस प्रक्रिया को अधिकाधिक विकसित करने की, नर-नारियों के विभिन्न वर्गों के लिए विभिन्न कार्यक्रम बनाने और चलाने की पूरी-पूरी गुंजायश है।

अपना समय समस्याओं, विभीषिकाओं और चुनौतियों से भरा है। इस अवसर पर जागृत आत्माओं को अपना योगदान सामयिक समाधान के लिए नियोजित करना ही चाहिए। जो इस दिशा में रुचि लें उन्हें प्रमुखता शिक्षा संवर्धन और स्वास्थ्य संरक्षण को देना चाहिए।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

154. ‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

आदत पड़ जाने पर तो अप्रिय और अवांछनीय स्थिति भी सहज और सरल ही प्रतीत नहीं होती, प्रिय भी लगने लगती है। बलिष्ठ और बीमार का मध्यवर्ती अन्तर देखने पर यह प्रतीत होते देर नहीं लगती कि उपयुक्त एवं अनुपयुक्त के बीच कितना बड़ा फर्क होता है। अतीत के देव मानवों के स्तर और सतयुगी स्वर्गोपम वातावरण से आज के व्यक्ति और समाज की तुलना करने पर यह समझते देर नहीं लगती कि उत्थान के शिखर पर रहने वाले इस धरती के सिरमौर पतन के कितने गहरे गर्त में क्यों व कैसे आ गिरे।

आज शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक तंगी, पारिवारिक विपन्नता, सामाजिक अवांछनीयता क्रमशः बढ़ती ही चली जा रही है, अभ्यस्तों को तो नशेबाजी की लानत और उठाईगीरी भी स्वाभाविक लगती है, कोढ़ी भी अपने समुदाय में दिन गुजारते रहते हैं ,, पर सही और गलत का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि हम सब ऐसी स्थिति में रह रहे हैं जिसे मानवी गरिमा से गई गुजरी, सड़ी ही कहा जा सकता है।

उत्थान पतन के विवेचन कर्ता बताते रहे हैं कि परिस्थिति और कुछ नहीं मनःस्थिति की परिणति मात्र है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के समन्वय से व्यक्तित्व बनता है। यही है जो शक्तिशाली चुम्बक की तरह अपनी सजातीय परिस्थितियों को खींचता, घसीटता और इर्द गिर्द जमा करता रहता हैं। जो भीतर से जैसा है वह बाहर से भी उसी स्तर के वातावरण से घिरा रहता है। बीज के अनुरूप ही पेड़ का स्वरूप और फलों का स्वाद, आकार होता है। व्यक्तित्व को बीज और परिस्थितियों को उसकी परिणति कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। लोगों का स्तर जैसा भी भला-बुरा होता है समाज का प्रचलन, स्वरूप एवं माहौल वैसा ही बनकर रहता है। व्यक्ति को महत्ता देनी हो तो उसकी मनःस्थिति को ही श्रेय या दोष देना चाहिए। गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर ही मनुष्य का वास्तविक वैभव है। उसी के अनुरूप मनुष्य उठते गिरते और सुख-दुःख पाते रहते हैं। बहुमत जैसा होता है समाज का स्वरूप एवं ढाँचा भी तदनुरूप बनकर खड़ा हो जाता है। मानवी उत्थान पतन के इस तत्व दर्शन को समझने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि परिस्थितियों में सुधार परिवर्तन करना हो तो व्यक्ति के अन्तराल को कुरेदना चाहिए। मनुष्य के दृष्टिकोण, स्वभाव एवं चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो ही यह सम्भव है कि शान्ति, प्रगति और प्रसन्नता का आनन्द लेते हुए हँसती-हँसाती, खिलती-खिलाती जिन्दगी जियी जा सके। सभ्य सज्जनों का समुदाय ही समुन्नत समाज कहा और स्वर्ग सतयुग कहकर सराहा जाता है।

यदि वर्तमान परिस्थिति अनुपयुक्त लगती हो और उसे सुधारने, बदलने का सचमुच ही मन हो तो सड़ी नाली की तली तक साफ करनी चाहिए। सड़ी कीचड़ भरी रहने पर दुर्गन्ध और विषकीटकों से निपटने के छुट-पुट उपायों से कोई स्थायी समाधान मिल नहीं सकेगा। समाजगत विभीषिकाओं और व्यक्तिगत व्यथाओं के नाम रूप कितने ही क्यों न हो, सबका आत्यन्तिक समाधान एक ही है कि दृष्टिकोण की दिशाधारा बदली जाय और अभ्यस्त ढर्रे की रीति-नीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया जाय। उलटे को उलटकर सीधा किया जा सकता है। एक शब्द में इसी को युग क्रान्ति कहा जा सकता है जिसे नियोजित किये बिना और कोई गति नहीं। जहाँ तक उतर चुके उसके उपरान्त अब महा विनाश का, सामूहिक आत्म हत्या का ही अन्तिम पड़ाव है।

मानवी क्षमता इन दिनों अनुपयुक्त को अपनाने बढ़ाने में संलग्न है। होना यह चाहिए कि प्रवाह मुड़े और अदूरदर्शिता को निरस्त करके औचित्य को समर्थन मिले। मनुष्य शक्तियों का भण्डार है। दुर्भाग्य एक ही है कि उसे दुष्प्रवृत्तियों में नियोजित करके बर्बादी के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। यह स्थिति उलटी जानी चाहिए। क्षमताओं को अपव्यय से बचाया और सृजन प्रयोजनों में लगाया जाना चाहिए। यहाँ एक आवश्यक और भी है कि जो गन्दगी फैलाई जा चुकी है उसे हटाने के लिए भी तूफानी प्रयत्न किया जाय, अन्यथा मार्ग में बिखरे हुए काँटे प्रगति पथ के अवरोध ही बने रहेंगे।

‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ के उद्घोष में निदान और उपचार के दोनों ही पक्षों का समावेश है। परिस्थितियों को बदलने के लिए मनःस्थिति को, समाज को सुधारने के लिए व्यक्ति परिष्कार को अनिवार्य माना जाना चाहिए। हर व्यक्ति को इस तथ्य से अवगत, सहमत करना चाहिए कि इन दिनों लोक मानस की दिशाधारा में समग्र परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके बिना उज्ज्वल भविष्य की संरचना तो दूर, बढ़ती हुई विपत्तियों के त्रास से भी आत्म रक्षा संभव न हो सकेगी।

युग परिवर्तन या व्यक्ति परिवर्तन के लिए व्यक्तिगत दृष्टिकोण और समाजगत प्रवाह प्रचलन को बदलने की बात कही जाती है। उसे समन्वित रूप से एक शब्द में कहा जाय तो प्रवृत्तियों का परिवर्तन भी कह सकते हैं। लोग आज जिस तरह सोचते, चाहते, मानते और करते हैं उसके उद्गम केन्द्र में ऐसे हेर-फेर की आवश्यकता है, जिससे सड़े गले ढर्रे का परित्याग और शालीनता का अवलम्बन संभव हो सके। इसके लिए क्या करना होगा? उसे भी संक्षेप में कहा जा सकता है। इसके लिए तीन सिद्धान्त सूत्रों को समझने अपनाने भर से काम चल जायेगा।

एक यह कि निर्वाह में संयम सादगी का इतना समावेश किया जाय, जिसे औसत नागरिक स्तर का और शरीर यात्रा के लिए अनिवार्य कहा जा सके।
दूसरा यह कि सादगी अपनाने के उपरान्त जो क्षमता सम्पदा बचती है, उसे सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए, नव निर्माण के लिए समयदान, अंशदान के रूप में अधिकाधिक उदार उत्साह के साथ समर्पित किया जाय।

तीसरा यह कि अन्तरंग और बहिरंग की दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए साहसिक शौर्य पराक्रम के साथ संघर्ष किया जाय।
इन तीनों सत्प्रवृत्तियों को प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का स्थानापन्न बनाया जा सके, तो समझना चाहिए कि निकृष्टता के दलदल से उबरने और उज्ज्वल भविष्य का नव सृजन कर सकने वाला राजमार्ग हस्तगत हो गया। इतने भर हेर-फेर से युग परिवर्तन का सुनिश्चित आधार बन सकता है और हम नरक से उबर कर स्वर्ग में अपने ही पुरुषार्थ से प्रवेश करने में सफल हो सकते हैं।

इन दिनों विलास, संग्रह और अहंता की ललक लिप्सा हर किसी पर उन्मादी आवेश की तरह छाई हुई है। वासना, तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ किसी को सूझता नहीं। संकीर्ण स्वार्थपरता और अहमन्यता के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार है। लगता है मानों औचित्य और विवेक को तिलाञ्जलि दे दी गई हो। यह ढर्रा जब तक चिन्तन और व्यवहार में इसी प्रकार घुसा रहेगा तब तक सर्वत्र हुई विपन्नता से छुटकारा पाना कठिन है। परिवर्तन अन्तरंग में हो सका तो बहिरंग परिस्थितियों के बदलने में संदेह की गुंजायश ही न रहेगी।
भटकाव से भ्रमित और कुत्साओं से ग्रसित व्यक्ति ऐसी ललक लिप्साओं में संलग्न रहता है, जिन्हें दूरदर्शिता की कसौटी पर कसने से व्यर्थ निरर्थक एवं अनर्थ की ही संज्ञा दी जा सकती है। पेट प्रजनन इतना कठिन नहीं है, जिनकी उचित आवश्यकताएँ थोड़ा सा समय श्रम लगाकर जुटाई न जा सके। सामर्थ्यों और साधनों की बर्बादी तो मूर्खता एवं धूर्तता जैसे प्रयोजनों में ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है। इसे जो जितनी बचा सकेगा उसे अपने पास सत्प्रयोजनों में लगा सकने योग्य भण्डार उतनी ही मात्रा में भरा पूरा दृष्टिगोचर होने लगेगा। बर्बादी से बचने और प्रगति पथ पर चढ़ दौड़ने की सुविधा प्राप्त करने का एक ही उपाय है-संयम। सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श अपनाने पर ही व्यक्तित्व के अभ्युदय का शुभारम्भ होता है।

इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम के चतुर्विध आत्मानुशासन को अध्यात्म की भाषा में तप साधना कहा गया है और साधना से सिद्धि का तत्त्वदर्शन समझाते हुए कहा गया है कि संयमी के पास ही श्रेय खरीदने के लिए पूँजी जुटती है। जिनकी तृष्णाएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ ही आकाश चूमती हैं, जो संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में ही चित्तवृत्तियों को केन्द्रित किए हुए हैं, उन्हें विलास वैभव जुटाने की बात ही सोचते हुए जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। परमार्थ की बात तो वे आत्म प्रवंचना एवं लोक विडम्बना के लिए करते रहते हैं। वस्तुतः उनसे उस सन्दर्भ में कोई कारगर कदम उठाते बन नहीं पड़ता। यही कारण है कि महानता और संयम साधना को पर्यायवाची पूरक माना जाता है। औसत नागरिक का स्तर अपनाना, महत्त्वाकांक्षाएँ उसी परिधि में सीमित कर लेना ऐसा निर्धारण है, जिसे अपनाते ही हर स्तर और हर परिस्थिति का व्यक्ति महान प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सकने योग्य शारीरिक, मानसिक ही नहीं आर्थिक अनुदान की भी बचत कर सकता है।

अगले दिनों नव सृजन के लिए इतने अधिक प्रकार के इतनी अधिक संख्या में कार्यक्रम अपनाने पड़ेंगे जो वर्तमान कुप्रचलनों का स्थान ग्रहण कर सकें। वर्तमान प्रयोजनों में असीम श्रम और धन लगा हुआ है। नशा एवं माँस व्यवसाय, कुत्सित साहित्य कामुकता भड़काने वाले, फिल्म, जुआ, लाटरी जैसे कृत्यों में न जाने कितनी बुद्धि, मेहनत और दौलत लगाई गई है। इसे हटाना तभी संभव है जब समानान्तर सत्प्रवृत्तियों में उस उत्साह को नियोजित किया जा सके। इसके लिए पूँजी भी उतनी ही चाहिए और श्रम भी उतना ही। यह कहाँ से जुटे? स्पष्ट है कि इसकी पूँजी जागृत आत्माओं द्वारा की गई बचत कटौती से ही बन पड़ेगी। शिक्षा, साहित्य, कला, स्वास्थ्य, कुटीर उद्योग, बाल विकास जैसे कार्यों को इतने विशाल परिमाण में खड़ा करना होगा कि ५०० करोड़ मनुष्यों की इस दुनिया को पुराना छोड़ने के साथ ही नया अपनाने के लिए ढाँचा खड़ा और सरंजाम जुटा दीखे। स्पष्ट है कि इसके लिए समय, श्रम और धन की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। उसे असमंजस की बेला में सर्व साधारण से उपलब्ध न किया जा सकेगा। उसकी आरम्भिक पूर्ति युग चेतना के अग्रदूतों को ही करनी होगी, अनुकरण का प्रचलन तो बाद में बनेगा।
स्पष्ट है कि आजीविका का एक महत्त्वपूर्ण अनुपात अंशदान के रूप सृजन कृत्यों के लिए नियोजित करने की आवश्यकता पड़ेगी। इतना ही नहीं श्रम, समय भी इसके साथ ही देना पड़ेगा। अस्तु न केवल आजीविका का एक अंश वरन् समय का श्रमदान भी इस निमित्त नियमित रूप से नियोजित करते रहने की आवश्यकता पड़ेगी। आरम्भ में महीने में एक दिन की आजीविका और हर दिन दो घण्टे का श्रम इस हेतु उन सभी को लगाना होगा जो प्रस्तुत विश्व संकट से उबरने की बात सोचते और इस निमित्त कुछ करने का साहस करते हैं।

योजनाएँ कैसी भी क्यों न हों बुद्धिबल श्रम तथा धन की माँग करती है। युग परिवर्तन अभियान भी इसका अपवाद नहीं है। जो कहे सो पानी को जाय वाली उक्ति के अनुसार प्रतिपादन कर्ताओं को कथनी को करनी में प्रयुक्त करके दिखाना पड़ता है। विशेषतया आदर्शवादी प्रचलनों के सम्बन्ध में तो इसके बिना काम ही नहीं चलता।

तीसरा चरण अवांछनीयता उन्मूलन का है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्तियाँ सम्पन्न करने के लिए प्रज्ञा अभियान की लाल मशाल इसी निमित्त जलाई गई है। प्रश्न यह है कि दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष का श्रीगणेश कहाँ से किया जाय। गाँधी जी ने सुगम उपाय नमक सत्याग्रह सोचा था और फिर सत्याग्रह आन्दोलन को करो या मरो स्तर तक पहुँचाया था। उसी रणनीति का अनुसरण हमें भी संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध अपनाना चाहिए।

इस तथ्य से सभी अवगत है कि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। धूमधाम, देन दहेज की शादियों का वर्तमान प्रचलन देखने में हर्षोत्सव की साज सज्जा जैसा भले ही प्रतीत होता हो, किन्तु वस्तुतः उसकी भयंकरता उतनी हलकी है नहीं। इस कारण नर और नारी के बीच भयंकर खाई खड़ी हुई है, कन्या और पुत्र का अन्तर बढ़ा है, कन्या शिक्षा में कटौती हुई है, हत्याओं और आत्म हत्याओं का सिलसिला चला है, सगे सम्बन्धियों के बीच डकैती जैसी दुष्टता की जड़ जमी है, दाम्पत्य जीवन की उत्कृष्टता को भयानक चोट लगी है, देश की आर्थिक कमर टूटी है, समाज का ढाँचा बेतरह लड़खड़ाया है। और भी न जाने क्या क्या अनर्थ इस कारण हुआ है। समय की माँग और दूरदर्शिता का संकेत यह है कि सर्व प्रथम धूमधाम और देन दहेज की शादियों के विरुद्ध व्यापक मोर्चा खड़ा किया जाय, और प्रचण्ड संघर्ष छोड़ जाय। इसमें कुछेक मदोन्मत्तों को छोड़कर सर्व साधारण का समर्थन पूरी तरह मिलने की संभावना है।
इस संदर्भ में प्रथम उपाय प्रतिज्ञा पत्र अभियान के रूप में आरम्भ किया जाय। अभिभावक प्रतिज्ञा करे हम अपने बालकों के विवाह में धूमधाम एवं देन दहेज स्वीकार न करेंगे। विवाह योग्य लड़की-लड़के प्रतिज्ञा करें कि वे नितान्त सादगी और बिना मोल भाव का विवाह ही करेंगे, भले ही वैसा सुयोग न बनने पर आजीवन कुँआरा ही क्यों न रहना पड़े। प्रभावशाली लोग अपने सम्पर्क क्षेत्र में सादगी प्रधान विवाहों को प्रोत्साहन दें, और खर्चीली शादियों का डट कर विरोध करें।

यहाँ सर्व साधारण द्वारा अपनाया जाने योग्य सरल सत्याग्रह यह है कि खर्चीली शादियों में सम्मिलित होने से स्पष्ट इन्कार कर दें भले ही वे अपने सम्बन्धियों कुटुम्बियों या मित्रों के ही यहाँ क्यों न हो रही हो। कुछ समय पूर्व यह असहयोग आन्दोलन प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत मृतक भोज न खाने के सम्बन्ध में चलाया गया और पूरी तरह सफल रहा और अब खर्चीले विवाहों को भी इसी असहयोग आन्दोलन का अगला चरण माना जाय और एक एक करके प्रचलित अवांछनीयताओं के विरुद्ध असहयोग प्रतिरोध संघर्ष कड़ा करते चला जाय।

हम बदलेंगे युग बदलेगा का उद्घोष इन्हीं दिनों विज्ञ जनों को सच्चे मन से अपनाना और तत्काल चरितार्थ करना चाहिए। इसके तीन सिद्धान्त सूत्रों को बिना एक क्षण गँवाये अपनाया जाय।

१. औसत नागरिक स्तर का निर्वाह-चतुर्विधि संयम अनुशासन २. समय दान, अंश दान ३. दहेज की धूमधाम वाली शादियों का विरोध, असहयोग। यह तीन आधार ऐसे हैं, जिन्हें नवयुग के भव्य निर्माण में अनिवार्य रूप से अपनाया जाना चाहिए। इन आदर्शों को अपनाते हुए सृजन प्रयोगों को अधिकाधिक प्रखर विस्तृत करते चलना चाहिए। यही है सतयुग की वापसी का भागीरथी प्रयास, जिसकी सफलता पर मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण सुनिश्चित रूप से संभव हो सकता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

155. भावी पीढ़ी समुन्नत स्तर की कैसे बने?
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सामान्यतया यह समझा जाता है कि मनुष्य के शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होने में आहार-विहार का और मानसिक दृष्टि से बुद्धिमान होने में शिक्षा व्यवस्था का हाथ होता है। आमतौर से दोनों प्रकार की समर्थताएँ प्राप्त करने के लिए इसी प्रकार के उपाय भी अपनाये जाते हैं। शरीर को स्वस्थ सुदृढ़ बनाने की इच्छा होते ही पौष्टिक आहार एवं व्यायाम, संयम, ब्रह्मचर्य जैसे साधनों को जुटाया जाता है। स्वयं विद्वान बनने या स्वजन सम्बन्धियों को बुद्धिमान बनाने के लिए अध्ययन, अभ्यास का उपक्रम अपनाया जाता है। ज्ञान वृद्धि के लिए सत्संग, स्वाध्याय का और कला कौशल की प्रवीणता के लिए अभ्यास, अनुभव का आश्रय लिया जाता है। यह उपयुक्त भी है और प्रचलित भी। इतने पर भी इस मार्ग में एक भारी असमंजस यह बना रहता है कि बहुतों की मूल प्रकृति ही कुछ विचित्र होती है और उन पर इन उत्कर्ष प्रयत्नों का कोई कारगर परिणाम प्रस्तुत नहीं होता। मन्दबुद्धि, चंचल, उद्धत, अनगढ़ प्रकृति के ऐसे कितने ही व्यक्ति पाये जाते हैं, जिन पर उपयुक्त शिक्षण का प्रभाव भी नगण्य जितना ही होता है। यही बात शारीरिक विकास के संदर्भ में भी है। कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनकी लम्बाई, मोटाई अपनी निजी विलक्षणताओं के साथ जुड़ी होती है। कई ठिगने दुबले शरीर वाले ऐसे होते हैं जिन्हें कुछ भी खिलाया या कराया जाय अपनी निजी विशेषता से बहुत अधिक आगे पीछे नहीं हटते बढ़ते। साधनों की असमर्थता वहाँ भी प्रकट होती है जहाँ दरिद्र परिवारों के व्यक्ति भी लम्बे तगड़े और भारी भरकम पाये जाते हैं, जबकि साधन सम्पन्न परिवारों में जन्मे, पले व्यक्ति भी दुबले, ठिगने एवं शारीरिक दृष्टि से असमर्थ जैसी स्थिति में बने रहते हैं।

विकास साधनों की उपयोगिता आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता। वे अपना काम करते हैं और करना चाहिए। इतने पर भी यह असमंजस अपने स्थान पर यथावत ही बना रहता है कि मनुष्य की अपनी निजी विशेषता एक सुनिश्चित तथ्य जैसी बनकर भारी चट्टान की तरह अड़ी बैठी रहती है और बहुत हिलाने डुलाने का प्रयत्न करने पर भी उत्साहवर्धक परिणाम उपलब्ध करने के मार्ग में बाधा ही बनी बैठी रहती है। देखा गया है कि शारीरिक और मानसिक विकास में मनुष्य की निजी विशेषता का असाधारण महत्त्व है। सुधार प्रयत्नों से उस पर सीमित प्रभाव ही होता है और परिवर्तन भी यत्किंचित् ही हो पाता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के चेहरे, रंग एवं कार्यशक्ति पर दृष्टिपात किया जा सकता है। अफ्रीका के नीग्रो, योरोप के गोरे, चीन के मंगोल, अरब के तगड़े, कांगो के बौने एकत्रित करके यह जाना जा सकता है कि उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति में भी भारी अन्तर पाया जाता है। चेहरा, नाक, आँख, होंठ, दाँत, बाल, नाखून जैसे अंगों को देखकर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता उन समुदायों की निजी विशेषता है। इसका परिस्थितियों या साधनों से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। काले नीग्रो, अमेरिका जैसे शीत प्रधान देशों में गोरों के बीच बसते हुए भी अपने रंग और चेहरे को पीढ़ी दर पीढ़ी यथावत बनाये रहते हैं। इसी प्रकार गोरे लोग दक्षिणी अफ्रीका जैसे गर्म क्षेत्र में शताब्दियों से बसे होने पर भी काले नहीं हुए। उनकी सन्तानें गोरे रंग की तथा माँ-बाप जैसे चेहरों की ही होती हैं, जबकि पड़ोस में बसे मूल निवासी अपने काले रंग, घुँघराले छोटे बाल, चौड़ी नाक, मोटे होंठ जैसी विशेषताएँ यथावत बनाये रहते हैं। सन्तानें इसी प्रकार उत्पन्न होती रहती हैं।

इससे प्रतीत होता है कि प्रान्त, क्षेत्र, वातावरण आदि का प्रभाव मनुष्य की शारीरिक स्थिति पर उतना नहीं पड़ता, जितना कि वंश परम्परा का। पख्तूनिस्तान के पठान बंगाल में बस जाने पर भी प्रायः वैसी ही पीढ़ियाँ बनाये रहते हैं और दुबले बंगाली पख्तूनिस्तान में बस जाने पर भी अपने वंशजों के काय-कलेवर में कोई विशेष परिवर्तन कर नहीं पाते।

यही बात बौद्धिक संरचना के सम्बन्ध में भी है। मारवाड़ी, बंगाली, द्रविड़, केरली, ब्राह्मण, कायस्थ, आदिवासी जैसे वंशजों के चिन्तन, स्वभाव, कौशल, स्वर, चातुर्य आदि पर एक विशेष आवरण चढ़ा पाया जाता है। यों सुधार प्रयत्नों का कुछ लाभ तो होता ही है, पर जन्मजात विशेषता में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कि होना चाहिए।

एक ही पेड़ पर रहने वाले, एक ही वातावरण में पलने वाले, एक जैसा आहार करने वाले पक्षियों की आकृति और प्रकृति का अन्तर स्पष्ट देखा जा सकता है। पशुओं, पक्षियों से लेकर कृमि-कीटकों तक के अगणित प्राणी, पास पड़ोस में बसते और एक ही प्रकार के साधनों पर निर्भर रहते हुए भी अपनी मौलिक विशेषताएँ बनाये रहते हैं और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी चलाते हैं। इसे वंश परम्परा कहते हैं।

वंश परम्परा की चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि अगले दिनों मानवी विकास के लिए किये जाने वाले प्रबल प्रयत्नों में यही कठिनाई सबसे अधिक आड़े आयेगी कि परम्परागत आकृति एवं प्रकृति में हेर-फेर कैसे किया जाय? धीमी गति से यत्किंचित सुधार होते चलने की प्रतीक्षा करते रहना अब इस प्रगति युग में सम्भव नहीं। न इतना धैर्य है और न इतना अवकाश, अवसर कि वंश परम्परा के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं में क्रमिक परिवर्तन की आशा लगाये बैठा रहा जाय और सुधार प्रयत्नों से होने वाले अत्यन्त धीमे परिवर्तन पर संतोष किया जाय?

विकासवाद के अनुसार प्राणियों को आदिम काल से लेकर अर्वाचीन परिणति तक पहुँचने में लाखों वर्ष लगे हैं और उतार चढ़ावों से होकर गुजरना पड़ा है। यह प्राणियों की मनःस्थिति और प्रकृतिगत परिस्थितियों के तालमेल का परिणाम हुआ। अब इसमें एक कड़ी प्रशिक्षण की, सुधार प्रयत्नों की और जोड़ी जा सकती है जो प्राणि विकास से भूतकाल में नहीं जुड़ सकी। इतने पर भी प्राणियों की अपनी निजी विशेषता इतनी हठीली है कि उसे द्रुतगति से बदल जाने और समय की माँग को पूरा कर सकने के लिए सहमत करना नितान्त कठिन है। अन्य प्राणियों की आकृति-प्रकृति में अन्तर हो सकता हो तो उनके स्वयं के लिए तथा विश्व व्यवस्था के लिए कितना उपयुक्त होगा? उस प्रसंग को छोड़ दे तो भी मानवी प्रगति की जो आकुल-व्याकुल आवश्यकता समझी जा रही है, उसकी पूर्ति में प्रधान अवरोध वंश परम्परा की हठवादिता ही सबसे बड़ा कारण है, जिसके कारण प्रशिक्षण और साधन का प्रबन्ध करने पर भी अभीष्ट सफलता मिलती दिख नहीं रही है। मानवी प्रकृति के चार अंग हैं--(१) कायिक बलिष्ठता (२) मानसिक कुशाग्रता (३) मान्यताएँ एवं आदतें (४) आकाँक्षाएँ एवं सम्वेदनाएँ। सुधार प्रयत्नों से इन चारों विभूतियों में कुछ भी सुधार नहीं हो सकता ऐसा तो नहीं कहना चाहिए। तो भी इतना तो मानना ही होगा कि वंश परम्परा से चली आ रही निजी विशेषताओं में आवश्यक हेर-फेर किये बिना सुधार प्रयत्नों में सीमित प्रगति ही सम्भव हो सकेंगी और उसकी गति बहुत ही धीमी होगी। खासतौर से तब जबकि उपरोक्त विशेषताओं को एक साथ विकसित करके नवयुग के अनुरूप समान व्यक्तित्व सम्पन्न, परिपूर्ण, सुविकसित, समर्थ, समुन्नत एवं सुसंस्कृत मनुष्य समाज को विनिर्मित करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही हो।

इस संदर्भ में विज्ञजनों का ध्यान इस तथ्य पर गया है कि नवयुग के अनुरूप समुन्नत मनुष्य की पीढ़ियाँ विकसित करने के लिए उसकी मौलिक संरचना एवं विशेषता का द्वार खटखटाया जाय और उस मर्मस्थल में हेर-फेर करके वह मार्ग निकाला जाय जिससे व्यक्तित्व के मर्मस्थल को सुधारा और मौलिक विशेषताओं से युक्त मनुष्य का निर्माण सम्भव हो सकेगा। घटिया पीढ़ियाँ इन दिनों शिक्षा और स्वास्थ्य सम्वर्धन के प्रयासों को निरर्थक बना रही हैं। पर यदि अगले दिनों बढ़िया व्यक्तित्व ढल सके तो भविष्य में उनकी पीढ़ियाँ समुन्नत स्तर की बनती चली जाएँगी। तब उनके लिए न तो सुधार शिक्षा के भारी प्रयत्न करने होंगे और न प्रगति प्रयासों के असफल होते रहने का रोना रोना पड़ेगा।

कुछ समय पूर्व यह माना जाता था कि मनुष्य की निजी विशेषताएँ ईश्वर प्रदत्त हैं, वे भाग्य विधान या पूर्व संचित संस्कारों के कारण पल्ले बँधी होती है और उन्हें बदल सकना मनुष्य के बस से बाहर है। तब इस क्षेत्र के परिवर्तन के लिए किसी दैवी शक्ति के अनुग्रह से ही गुत्थी सुलझने की आशा की जाती थी। व्यक्ति का परिवर्तन, पीढ़ियों का समुन्नतीकरण यों अभीष्ट तो सदा से रहा है और उसके लिए यथा सम्भव प्रयत्न भी चला है, इतने पर भी परिणाम की दृष्टि से प्रायः निराश जैसा ही होना पड़ा है। प्रयत्नों की असफलता को दैवी दुर्विपाक मानकर मन समझाने और संतोष करने के अतिरिक्त उन दिनों और कोई चारा था भी नहीं।

अब परिस्थितियों में भारी अन्तर हुआ है। वंश परम्परा को विधि विधान मानते रहने की अपेक्षा अब मनुष्य के हाथ में ऐसे सूत्र लग गए हैं, जिनसे यह विश्वास बँधा है कि मानवी व्यक्तित्व के हर क्षेत्र में परिवर्तन सम्भव हो सकता है। वंश परम्परा के उद्गम स्रोतों को ढूँढ़ निकालने में अब सफलता मिल गई है। तद्नुसार यह योजना बन रही है कि भावी पीढ़ियों का इच्छित निर्माण उन मर्मस्थलों में परिवर्तन करने से सम्भव हो सकेगा जो व्यक्ति की आकृति एवं प्रकृति को गढ़ने के लिए मूलतया उत्तरदायी है।

वंश परम्परा को अब शाप, वरदान, भाग्य या अपरिवर्तनीय तथ्य नहीं माना जाता वरन् उसे एक ऐसा प्रवाह माना जाता है जो शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी बहता चला जाता है। यह प्रवाह जटिल भी है और हठी भी। फिर भी यह गुंजायश विद्यमान है कि उसमें प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन किया जा सकता है और प्रवाह की पुरातन दिशाधारा को उलटकर उसे अभीष्ट दिशाधारा में बह चलने के लिए सहमत किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वंश परम्परा के कारण स्वास्थ्य, कौशल, स्वभाव आदि की जो शारीरिक, मानसिक एवं अन्तःकरण परक जो परिस्थितियाँ वर्तमान पीढ़ी के गले बँधी हुई है उन्हें उतारा जा सकता है साथ ही उनमें ऐसा सुधार समावेश किया जा सकता है जो भविष्य के समुन्नत मनुष्य के लिए अभीष्ट आवश्यक समझा गया है।

प्रजनन का उत्तरदायित्व वहन करने के लिए भूतकाल में मात्र शुक्राणु और डिम्बकीट के सम्मिलन को श्रेय दिया जाता रहा है। पर अब उसके भीतरी अति सूक्ष्म एवं अति समर्थ घटकों का पता चला है जिन्हें गुण सूत्र कहा जाता है। भूतकाल में पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु थी। पर अब उसके अन्तराल में अनेक लघु घटक ढूँढ़ निकाले गए हैं। इन्हें इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, पोजिट्रॉन आदि नामों से जाना जाता हैं। ठीक इसी प्रकार अब प्रजनन घटक शुक्राणु डिम्बाणु नहीं रहे वरन् उनके भीतर पाये जाने वाले अत्यन्त सूक्ष्म घटक गुणसूत्र न केवल प्रजनन के वरन् वंश परम्परा के साथ लिपटी हुई अनेकानेक क्षमताओं एवं विशेषताओं को हस्तान्तरित करने वाले माने गये हैं।

यों यह गुणसूत्र शरीर की समस्त कोशिकाओं में निहित हैं, पर प्रजनन कृत्य को सफल बनाने में शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं में पाये जाने वाले घटक ही तात्कालिक भूमिका का निर्वाह करते हैं। इनके अन्तराल में न केवल नई सन्तान की आकृति वरन् प्रकृति भी घुली होती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी पानी की लहर की तरह आगे आगे बढ़ती जाती है। इन गुणसूत्रों के साथ संरचना करने वाले रासायनिक पदार्थ तो रहते ही हैं साथ ही एक ऐसा अदृश्य विद्युत प्रवाह भी घुला रहता है, जिसमें पूर्व पीढ़ियों की अनेकानेक रहस्यमय कायिक, मानसिक विशेषताएँ जुड़ी रहती हैं। इन गुणसूत्रों में पितृपक्ष और मातृपक्ष दोनों का सम्मिश्रण रहता है। न केवल पिता, दादा, परदादा, सरदादा आदि की वरन् माता, नानी, परनानी, सरनानी आदि कितनी ही पूर्व पीढ़ियों की विरासत सन्निहित रहती है। आवश्यक नहीं कि वे सभी विशेषताएँ एक साथ नई सन्तान में प्रकट हो वरन् अनुकूलता के अनुरूप उनमें से कुछ विशेषताएँ सन्तान में प्रकट होती है और कुछ फिर किसी उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में चुपचाप पड़ी रहती हैं। इनके प्रवाह में हर नई पीढ़ी के अनुभव अनुदान जुड़ते चले जाते हैं। आदि मानव की तुलना में अर्वाचीन पीढ़ी में पाये जाने वाले गुणसूत्र अत्यधिक विकसित हैं। उनके साथ एक के बाद दूसरी पीढ़ी के अनुदान जुड़ते चले आये हैं और सब मिलाकर स्थिति इतनी साधन सम्पन्न बन गई है कि उनमें पाये जाने वाले पक्षों में यदि उपयोगी अनुपयोगी का भेद एवं उपयोग करना सम्भव हो सके तो हर स्तर की संतति उत्पन्न कर सकना भी सरल सिद्ध हो सकता है।

गुणसूत्रों की संरचना एवं व्याख्या विवेचना काफी जटिल है तो भी मोटी जानकारी के रूप में वंशानुक्रम के विद्यार्थी भी सामान्य ज्ञान से संबंधित कुछ जानकारियाँ प्राप्त कर लेते हैं। इस प्राथमिक परिचय में जो सिखाया जाता है उसका सारांश यह है कि मानव जीवन के विधायक कुछ उत्पादक तत्व होते हैं, जिन्हें बीजकोष कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के बीजकोष अपने विशिष्ट गुणों से युक्त होते हैं। इन्हीं विशिष्ट गुणों को लेकर बालक जन्म लेता है। किसी भी व्यक्ति के गुण उसके जनक माता और पिता पर ही आधारित नहीं हैं, वरन् उसके दादा, परदादा और पूर्वजों से भी संक्रमित होकर आते हैं।

प्रत्येक सेल में वंशसूत्र (क्रोमोसोम्स) कुल ४६ होते हैं, जिनमें से २३ शुक्र (पिता) एवं २३ अण्डकोष (माता) से आते हैं। इन ४६ में से ४४ ओटोजोम्स (शरीर निर्माण संबंधी) एवं २ सेक्स क्रोमोजोम्स (लिंग निर्धारण संबंधी) होते हैं। माता और पिता के २३-२३ वंश सूत्रों के जीन्स का फ्यूजन एक रासायनिक क्रिया के रूप में होता है। यह रासायनिक संयोग संतान के वंशानुगत गुणों का विधायक होता है। परीक्षण यही बताते हैं कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएँ जैसे रंग, रूप, लम्बाई, स्वास्थ्य आदि पित्रगत होते हैं। साथ ही मानसिक, चारित्रिक एवं स्वभावजन्य विशेषताओं में बहुत कुछ समानता पाई जाती है।

यही घटक वे जीवन तत्व हैं जो न केवल नई पीढ़ियाँ विनिर्मित करते है वरन् उन्हें पूर्वजों की चिर संचित शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक बहुमूल्य सम्पदाओं के रूप में उन्हें हस्तान्तरित भी करते रहते हैं। नई पौध किस स्तर की हो इस संदर्भ में इसी बीज को संभालने सुधारने की आवश्यकता पड़ेगी। खेत में क्या उगाना है यह निश्चय करने के उपरान्त सर्वप्रथम उसके लिए उपयुक्त बीज की तलाश करनी पड़ती है। यह ठीक है कि खाद-पानी की सहायता से बीज को अंकुरित, विकसित एवं फलित होने का अवसर मिलता है। किन्तु साथ ही यह भी निर्विवाद है कि जो बोया जायेगा वही उगेगी।

यहाँ यह सिद्धान्त तथ्यतः समझा जाना चाहिए कि सुसंस्कृत वातावरण ही ऐसी परिणतियों को जन्म दे सकता है जैसी कि प्रस्तुत प्रसंग में वांछित हैं। भावी पीढ़ी महामानवों की हो, इसके लिए अनिवार्य है कि जन्मदाताओं का स्वयं का स्तर ऊँचा हो, तप तितिक्षा से तपा उनका जीवन हो। बिना अध्यात्म साधना के अवलम्बन के अनुशासनों के परिपालन के यह संभव नहीं।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

156. ईश्वर विश्वास के फलितार्थ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

ईश्वर विश्वास की इसलिए आवश्यकता है कि उसके सहारे हम जीवन का स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझने में समर्थ होते है। यदि ईश्वरीय विधान को अमान्य ठहरा दिया जाय, तो फिर मत्स्यन्याय का ही बोल-बाला रहेगा। आन्तरिक नियन्त्रण के अभाव में बाह्य नियन्त्रण मनुष्य जैसे चतुर प्राणी के लिए कुछ बहुत अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। नियंत्रण के अभाव में सब कुछ अनिश्चित और अविश्वस्त बन जायेगा। ऐसी दशा में हमें आदिमकाल की वन्य स्थिति में वापिस लौटना पड़ेगा और शरीर निर्वाह करते रहने के लिए पेट प्रजनन एवं सुरक्षा जैसे पशु प्रयत्नों तक सीमित रहना पड़ेगा। ईश्वर विश्वास ने आत्म-नियंत्रण का पथ-प्रशस्त किया है और उसी आधार पर मानवी सभ्यता का, आचार संहिता का, स्नेह-सहयोग एवं विकास परिष्कार का पथ प्रशस्त किया है। यदि मान्यता क्षेत्र से ईश्वरीय सत्ता को हटा दिया जाय तो फिर संयम और उदारता जैसी मानवी विशेषताओं को बनाए रहने का कोई दार्शनिक आधार शेष न रह जायेगा। तब चिन्तन क्षेत्र में जो उच्छृंखलता प्रवेश करेगी, उसके दुष्परिणाम वैसे ही होगे जैसे कि कथा गाथाओं में असुरों के नृशंस क्रिया कलाप का वर्णन पढ़ने-सुनने को मिलता है।

ईश्वर अन्धविश्वास नहीं एक तथ्य है। विश्व की व्यवस्था सुनियंत्रित है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि सभी का उदय-अस्त क्रम अपने ढर्रे पर ठीक तरह चल रहा है, प्रत्येक प्राणी अपने ही जैसी सन्तान उत्पन्न करता है और हर बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है। अणु परमाणुओं से लेकर समुद्र-पर्वतों तक की उत्पादन वृद्धि एवं मरण का क्रिया-कलाप अपने ढंग से ठीक प्रकार चल रहा है। शरीर और मस्तिष्क की संरचना और कार्यशैली देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतनी सुव्यवस्थित कार्यपद्धति बिना किसी चेतना शक्ति के अनायास ही नहीं चल सकती। उस नियंता का अस्तित्व जड़ और चेतन के दोनों क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की दोनों कसौटियों पर पूर्णतया खरा सिद्ध होता है। वह समय चला गया जब अधकचरे विज्ञान के नाम पर संसार क्रम को स्वसंचालित और प्राणी को चलता-फिरता पौधा मात्र ठहराया गया था। अब पदार्थ विज्ञान और चेतन विज्ञान में इतनी प्रौढ़ता आ गई है कि वे नियामक चेतना शक्ति के अस्तित्व को बिना किसी आना कानी के स्वीकार कर सके।

कर्मफल की व्यवस्था भी उसी नियन्त्रण के अन्तर्गत आती है। समाज और शासन द्वारा दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था है। ईश्वरीय न्याय में भी सत्कर्मों के लिए समुचित दण्ड और पुरस्कार का विधान है। देर तो मुकदमा फैसला होने से भी लगती है और बीज बोने के बाद फसल काटने में भी। इस व्यवस्था को स्थूल बुद्धि समझ नहीं पाती। सत्कर्मों का फल तत्काल न मिलने पर लोग अधीर होने लगते हैं और दुष्कर्मों का तात्कालिक लाभ देख कर उनके लिए आतुरता प्रकट करते हैं। इन भूल-भुलैयों में भटका व्यक्ति अपना और समाज का भविष्य अन्धकारमय बनाना है और वर्तमान को अवांछनीयताओं से भर देता है। इस गड़बड़ी की रोकथाम में ईश्वर विश्वास से भारी सहायता मिलती है और व्यक्तिगत चरित्र-निष्ठा एवं समाजगत सुव्यवस्था का आधार सुदृढ़ बना रहता है। इन्हीं सब दूरगामी परिणामों को देखते हुए तत्त्वज्ञानियों ने ईश्वर विश्वास को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने के लिए जनसाधारण को विशेष रूप से प्रेरणा दी है। वह आधार दुर्बल न होने पाये, हर रोज स्मृति पटल पर जमा रहे, इसलिए साधना, उपासना के धर्म-कृत्यों का सुविस्तृत विधि-विधान विनिर्मित किया है। इन्हें अपनाकर मनुष्य दिव्यसत्ता को अपने भीतर-बाहर विद्यमान देखता है और सुमार्ग पर चलने का अधिक उत्साह के साथ प्रयत्न करता है। ईश्वर विश्वास के फलस्वरूप पशु प्रवृत्तियों के नियन्त्रण में भारी सहायता मिलती है और व्यक्ति तथा समाज का स्तर सन्तुलित बनाए रहने का प्रयोजन बहुत अंशों तक पूरा होता है। नास्तिकता अपनाकर विश्व-शांति का, मानवी उत्कृष्टता का आधार ही डगमगाने लगेगा, इसलिए तत्त्वदर्शियों ने आध्यात्मिक अनास्था की, नास्तिकता की कठोर शब्दों में भर्त्सना की है।

जीवन दर्शन को ईश्वर विश्वास से उच्चस्तरीय प्रेरणा मिलती है। संसार के सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं। कोई न्यायप्रिय निष्पक्ष पिता अपनी सभी सन्तानों को लगभग समान अनुदान देने का प्रयत्न करता है। ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मात्र शरीर निर्वाह जितनी बुद्धि और सुविधा दी तथा मनुष्य को बोलने, सोचने, पढ़ने, कमाने, बनाने आदि की अनेकों विभूतियाँ दी हंै। अन्य प्राणियों की और मनुष्यों की स्थिति की तुलना करने पर जमीन आसमान जैसा अन्तर दिखाई पड़ता है। इसमें पक्षपात और अनीति का आक्षेप ईश्वर पर लगता है। जब सामान्य प्राणी अपनी सन्तान को समान स्नेह सहयोग देते हैं, तो फिर ईश्वर ने इतना अन्तर किसलिए रखा? इस विभेद को समझने में प्रत्येक विवेक सम्पन्न व्यक्ति को भारी उलझन का सामना करना पड़ता है।

तत्त्वदर्शी विवेक बुद्धि इस विभेद के अन्तर का कारण भली प्रकार स्पष्ट कर देती है। मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी जेष्ठ पुत्र के रूप में सृजा गया है। उसके कंधों पर सृष्टि को अधिक सुन्दर, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इसके लिए उसे विशिष्ट साधन उसी प्रयोजन के लिए अमानत के रूप में दिए गए हैं। मिनिस्टरों को सामान्य कर्मचारियों की तुलना में सरकार अधिक सुविधा साधन इसलिए देती है कि उनकी सहायता से वे अपने विशिष्ट उत्तरदायित्वों का निर्वाह सुविधापूर्वक कर सके। यह सुविधाएँ उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं वरन् जनसेवा के लिए दी जाती हैं। बैंक के खजानची के हाथ में बहुत-सा पैसा रहता है यह उनके निजी उपभोग के लिए बैंक प्रयोजन के लिए अमानत रूप में रहता है। निजी प्रयोजन के लिए तो क्या मिनिस्टर, क्या खजानची सभी को सीमित सुविधा मिलती है। अत्यधिक साधन जो उनके हाथ में रहते है उन्हें वे निर्दिष्ट कार्यों में ही खर्च कर सकते है। मानवी कार्यों में उपभोग करने लगें तो यह दण्डनीय अपराध होगा।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास सामान्य प्राणियों को उपलब्ध शरीर निर्वाह भर के साधनों के अतिरिक्त जो कुछ भी श्रम, समय, बुद्धि, वैभव, धन, प्रभाव, प्रतिभा आदि की विभूतियाँ मिली हैं, वह सभी लोकोपयोगी प्रयोजनों के लिए मिली हुई सार्वजनिक सम्पत्ति है। शरीर रक्षा एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों के लिए औसत नागरिक स्तर का निर्वाह कर लेने के अतिरिक्त मनुष्य के पास जो कुछ बचता है उसकी एक-एक बूँद उसे लोक कल्याण के लिए नियोजित करनी चाहिए। इसी में ईश्वरीय अनुदान और मानवी गरिमा की सार्थकता है। प्रत्येक आस्तिक को सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन की गरिमा और जिम्मेदारी समझनी चाहिए तथा उसी के अनुरूप अपने चिन्तन तथा कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिए। अपनी विशेषताओं का उपयोग इसी महान प्रयोजन के लिए करना चाहिए।

जीवन दर्शन की यह उत्कृष्ट प्रेरणा ईश्वर विश्वास के आधार पर ही मिलती है। जीवन क्या है, क्यों है उसका लक्ष्य एवं उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का समाधान मात्र आस्तिकता के साथ जुड़ी हुई दिव्य दूरदर्शिता के आधार पर ही मिलता है। इसी प्रेरणा से प्रेरित मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता से, वासना तृष्णा के भव-बन्धनों से छुटकारा पाकर आत्म-निर्माण की ओर, आत्म-विस्तार की ओर, आत्म-विकास की ओर अग्रसर होता है और ऐतिहासिक महामानवों जैसी देव भूमिका अपनाने के लिए अग्रसर होता है। व्यक्ति और समाज के कल्याण के महान आधार खड़े करने वाली यह बहुत बड़ी दार्शनिक उपलब्धि है। यदि आस्तिकता का सही स्वरूप समझा जा सके और जीवन-दर्शन के साथ उसे ठीक प्रकार जोड़ा जा सके तो निश्चय ही मनुष्य में देवत्व का उदय और इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव हो सकता है। यही तो ईश्वर द्वारा मनुष्य सृजन का एकमात्र उद्देश्य है।

सृष्टि के सभी प्राणी एक पिता के पुत्र होने के नाते सहोदर भाई हैं और वे परस्पर एक दूसरे का स्नेह, सहयोग पाने के अधिकारी हैं। आस्तिकता यही मान्यता अपनाने के लिए प्रत्येक विचारशील को प्रेरणा देती है। इसका अनुकरण करके प्राणिमात्र के बीच आत्मीयता की भावना विकसित होती है और उसके आधार पर एक दूसरे के दुख-दर्द को अपना समझने एवं उदार व्यवहार करने की आकांक्षा प्रबल हो सकती है। विश्व कल्याण की दृष्टि से इस प्रकार की भावनात्मक स्थापनाएँ अतीव श्रेयस्कर परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। कहना न होगा कि यह दृष्टिकोण हर दृष्टि से-हर क्षेत्र से उज्ज्वल भविष्य की भूमिका प्रस्तुत कर सकने वाला सिद्ध हो सकता है।

ईश्वर विश्वास के कल्पवृक्ष पर तीन फल लगते बताये गए हैं-(1) सिद्धि (2) स्वर्ग (3) मुक्ति। सिद्धि का अर्थ है प्रतिभावान परिष्कृत व्यक्तित्व एवं उसके आधार पर बन पड़ने वाले प्रबल पुरुषार्थ की प्रतिक्रिया अनेकानेक भौतिक सफलताओं के रूप में प्राप्त होना। स्पष्ट है कि चिरस्थाई और प्रशंसनीय सफलताएँ गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के फलस्वरूप ही उपलब्ध होती है। मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाना पड़ता है। यह सभी आधार आस्तिकतावादी दर्शन में कूट-कूटकर भरे हैं। आज का विकृत अध्यात्म-दर्शन तो मनुष्य को उलटे भ्रम जंजालों में फँसाकर सामान्य व्यक्तियों से भी गई-गुजरी स्थिति में धकेलता है, पर यदि उसका यथार्थ स्वरूप विदित हो, उसे अपनाने का साहस बन पड़े, तो निश्चित रूप से परिष्कृत व्यक्तित्व का लाभ मिलेगा। जहाँ यह सफलता मिली वहाँ अन्य सफलताएँ हाथ बाँधकर सामने खड़ी दिखाई पड़ेगी। महामानवों द्वारा प्रस्तुत किये गए चमत्कारी क्रिया-कलाप इसी तथ्य की साक्षी देते हैं। इसी को सिद्धि कहते है। अध्यात्मवादी आस्तिक व्यक्ति चमत्कारी सिद्धियों से भरे-पूरे हैं। इस मान्यता को उपरोक्त आधार पर अक्षरशः सही ठहराया जा सकता है। किन्तु यदि सिद्धि का मतलब बाजीगरी जैसी अचंभे में डालने वाली करामातें समझा जाय तो यहीं कहा जायेगा कि वैसा दिखाने वाले धूर्त और देखने के लिए लालायित व्यक्ति मूर्ख के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।

आस्तिकता के कल्पवृक्ष पर लगने वाला दूसरा फल है-स्वर्ग। स्वर्ग का अर्थ है-परिष्कृत गुणग्राही विधेयक दृष्टिकोण। परिष्कृत दृष्टिकोण होने पर अभावग्रस्त दरिद्र की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि मनुष्य जीवन अपने आप में इतना पूर्ण है कि उसे संसार की किसी भी सम्पदा की तुलना में अधिक भारी माना जा सकता है। शरीर यात्रा के अनिवार्य साधन प्रायः हर किसी को मिले होते हैं, अभाव तृष्णाओं की तुलना में उपलब्धियों से कम आँकने के कारण ही प्रतीत होता है। अभावों की, कठिनाइयों की, विरोधियों की लिस्ट फाड़ फेंकी जाय और उपलब्धियों की, सहयोगियों की सूची नये सिरे से बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। दरिद्रता चली गई है, उसके स्थान पर वैभव आ विराजा। छिद्रान्वेषण की आदत हटाकर गुणग्राह्यता अपनाई जाय तो प्रतीत होगा कि इस संसार में ईश्वरीय उद्यान की, नन्दन वन की सारी विशेषताएँ विद्यमान है। स्वर्ग इसी विधेयक दृष्टिकोण का नाम है, जिसे अपनाकर अपनी संभावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की देव सम्पदा को हर घड़ी प्रसन्न रहने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

आस्तिकता का तीसरा प्रतिफल है-मुक्ति। मुक्ति का अर्थ है-अवांछनीय भव-बंधनों से छूटना। अपनी दुष्प्रवृत्ति, मूढ़ मान्यताएँ एवं विकृत आकाँक्षाएँ ही वस्तुतः सर्वनाश करने वाली पिशाचिनी है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, छल, चिन्ता, भय, दैन्य जैसे मनोविकार ही व्यक्तित्व को गिराते-गलाते, जलाते रहते हैं। आधि और व्याधि इन्हीं के आमन्त्रण पर आक्रमण करती है। आस्तिकता इन्हीं दुर्बलताओं से जूझने की प्रेरणा भरती है। सारा साधना शास्त्र इन्हीं दुर्बलता को उखाड़ने, खदेड़ने की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने के लिए खड़ा किया गया है। इनसे छुटकारा पाने पर देवत्व द्रुतगति से उभरता है और अपनी स्वतन्त्र सत्ता का उल्लास भरा अनुभव होता है।

मनुष्य कितने ही दुराग्रहों पूर्वाग्रहों, पक्षपातों, प्रचलनों, अनुकरणों से घिरा बँधा कंटकाकीर्ण राह पर घिसटता रहता है। स्वतन्त्र चिन्तन की विवेक दृष्टि उसे कदाचित् ही मिल पाती है। यदि वह मिली होती तो निश्चय ही औचित्य को प्रश्रय दिया गया होता और तथाकथित मित्र-परिचित क्या कहते है? इसकी पूर्ण उपेक्षा करके विवेक के प्रकाश में कदम बढ़ाने का साहस संजोया होता। महामानव इसी सत्साहस के बल पर स्वयं धन्य बने हैं और अपने युग को, क्षेत्र को धन्य बनाया है। जीवन-मुक्त पुरुष अवांछनीय चिंतन से मुक्त होते हैं और आत्मिक स्वतन्त्रता का आनंद लेते हैं। स्पष्ट है कि ईश्वर भक्तों को संयमी, स्वार्थपरता से रहित, लोकोपयोगी ब्राह्मण और साधु स्तर का जीवन जीना पड़ता है। इसी से मनुष्य जीवन की सार्थकता है। ईश्वर विश्वास अपनाकर हम जीवन लक्ष्य प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं और उसे पाकर रहते हैं।

आस्तिकता के सिद्धि, स्वर्ग, मुक्ति रूपी तीन फलितार्थों के शास्त्रीय स्वरूप पर किसी को आपत्ति हो, तो भी इसी जीवन में चरितार्थ होने वाला उन परिणतियों के सम्बन्ध में कभी भी दो मत नहीं हो सकते, जिनकी कि चर्चा ऊपर की गई। नास्तिकता के प्रतिपादन इसी सम्बन्ध में ऊहापोह करते व शास्त्रार्थ करते देखे गये हैं। वस्तुतः ईश्वर विश्वास एक ऐसा दर्शन है जो किसी भी धर्म सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा अपनाये जाने पर आत्मबल-विवेक दृष्टि के रूप में विकसित होता व उनके जीवन को सफल बनाता है। सफल महामानवों के प्रसंग इस सम्बन्ध में देखे जा सकते हैं। उन्होंने आत्म विश्वास के रूप में चहु ओर फैली व्यवस्था रूपी अनुशासन के रूप में, सिद्धान्तवादिता नीतिमत्ता के चमत्कारों के रूप में ईश्वर को देखा और आस्तिकता को अपनाया। यहीं वह दर्शन है, जिसे सभी को जीवन में उतार कर अपना मनुष्य जन्म धन्य करता है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

157. योग साधनाओं का स्वरूप और प्रयोजन
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

योग का सामान्य अर्थ होता है-जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने की प्रक्रिया अध्यात्म भाषा में योग कहलाती है। इसे आरम्भ करने के लिए जिन क्रिया-कलापों को अपनाना पड़ता है उन्हें ‘साधन’ कहते हैं। साधना अपने आप में एक छोटा उपकरण मात्र है। उसका महत्त्व इसलिए है कि वह ‘साध्य’ को प्राप्त कराने में सहायता करती है। कई लोग साधन को ही ‘साध्य’ समझ बैठते हैं और उन उपचारों को ही योग कहने लगते हैं जो साधना प्रयोजन में प्रयुक्त होते हैं।

योग-साधना में कई प्रकार के शारीरिक, मानसिक क्रिया कृत्य अपनाने पड़ते हैं। इनका उद्देश्य आत्म चेतना को परमात्म चेतना से जोड़ने वाली मनःस्थिति उत्पन्न करना है। यह तथ्य ध्यान में रखकर चला जाय तो ही लक्ष्य की पूर्ति होनी सम्भव है। यदि चेतनात्मक परिष्कार के लिए प्रयत्न न किया जाय और मात्र उन क्रिया-कृत्यों को ही योगाभ्यास मान लिया जाय तो उस भ्रान्ति के कारण घोर परिश्रम करते रहने पर भी कोल्हू के बैल की तरह जहाँ के तहाँ बने रहना पड़ेगा।

शारीरिक श्रम में आसन प्राणायाम, बन्ध मुद्रा, व्रत, मौन, नेति, धौति ,, वस्ति, नौली, वज्रोली, कपाल भाति, भूमिशयन, सर्दी-गर्मी सहना, कीर्तन आदि कितने ही उपचार काम में लाये जाते हैं, इनका उद्देश्य स्वस्थता, समर्थता एवं पवित्रता उत्पन्न करना हैं। ताकि मल भारों से लदे व्यक्ति को आत्मिक प्रगति की लम्बी मंजिल पार करने में सुविधा हो। इसी प्रकार मानसिक उपासनाओं में जप, ध्यान, नाद, एकाग्रता, तन्मयता, दिशा एवं प्रेरणा दी जा सके और उसे अपनी जीव ससीमता को ब्रह्म असीमता में घुला देने के लिए आवश्यक प्रकाश एवं प्रशिक्षण मिल सके।

लक्ष्य विहीन साधना मनोरंजक भटकाव ही कहा जा सकता है। शारीरिक और मानसिक क्रिया-कृत्यों को योगाभ्यास के आधार साधन मानना ही पर्याप्त है। उन कृत्यों को ही जादुई मान बैठना और उनकी प्रवीणता मिल जाने मात्र से लक्ष्य पूरा हो जाना मान लिया जायेगा तो यह विशुद्ध भ्रान्ति ही सिद्ध होगी। एक व्यक्ति दूसरे तक अपने मनोभाव पहुँचाने के लिए कागज कलम का प्रयोग करता है। यह उपकरण निश्चय ही बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इनके बिना विचारों का आदान-प्रदान करने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। फिर भी यह मात्र कागज कलम से पत्राचार का उद्देश्य पूरा नहीं होता। उसमें भावों की अभिव्यक्ति का तथ्य जुड़ा ही रहना चाहिए। यदि ऐसे ही कागज पर कलम घिसते रहा जाय और कुछ भी टेढ़ी-सीधी लकीरें बनाई जाती रहें तो उससे पत्र व्यवहार द्वारा विचारों के आदान-प्रदान का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। लेखन क्रिया के साथ भावों की अभिव्यक्ति नितान्त आवश्यक है। योगाभ्यास में प्रयुक्त होने वाले उपचारों में मात्र शारीरिक मानसिक हलचलों को ही सब कुछ मानकर सन्तुष्ट नहीं हो बैठना चाहिए उत्कट प्रयत्न यह होना चाहिये कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ देने पर उपयुक्त भाव चेतना उत्पन्न की जा सके। महत्त्व तो इस भाव उभार का ही है। वह उभरेगा तो गाड़ी आगे चलेगी अन्यथा तथाकथित योगाभ्यासों की हलचलें कुछ समय तक श्रम-साधना में जितनी कुछ अनुभूति दे सकती हैं, उसे देकर समाप्त हो जायेगी।

योग को चित्त वृत्तियों का निरोध कहा गया है। चित्त की वृत्तियाँ ‘प्रेम’ को वासना, तृष्णा, मोह, अहंता आदि भौतिक लिप्सा-लालसाओं की पूर्ति को ही सुखद मानती हैं, उन्हीं की इच्छा करती हैं और उन्हीं में निरत रहती हैं। पानी का स्वभाव नीचे की ओर गिरना है इस पतनोन्मुख प्रवृत्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए वैसा ही प्रयत्न करना पड़ता है जैसे कुँए से पानी खींचने अथवा तालाब का पानी टंकी में चढ़ाने के लिए। मन को ढीला छोड़ देने से वह जन्म-जन्मान्तरों की संग्रहीत एवं अभ्यस्त पशु प्रवृत्तियों के अस्तबल में अपने आप घुस जायेगा। घड़े से गिरते ही पानी नीचे की ओर बहने लगता है। चित्त का भी यही स्वभाव है। उसे उलटने का जो पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी को ‘चित्त वृत्ति निरोध’ कहा जायेगा। महर्षि पातञ्जलि ने इसी प्रयास को योग कहा है।

कई व्यक्ति चित्त वृत्तियों के निरोध की बात को नहीं समझते और मात्र ‘चित्त निरोध’ को ही योग मान लेते हैं। उनका तात्पर्य ‘एकाग्रता’ से होता है। एकाग्रता होना ही उनकी दृष्टि में योगाभ्यास की सफलता है और उसका न होना असफलता। यह भ्रम है। एकाग्रता एक चीज है और एकाग्रता का अपना महत्त्व और अपना लाभ है। उसका औचित्य और उपयोग समझा जा सकता है, पर एकाग्रता को ही योग का, उपासना का आधार मान बैठना गलत है। एकाग्रता के भी स्तर हैं। मैस्मेरिज्म, हिप्नोटिज्म में भी एकाग्रता प्रयुक्त होती है और देव प्रतिमा के समक्ष उसकी पूजा, आरती, स्तुति आदि से भी एकाग्रता का पाठ पढ़ा जाता है। पीछे यह बढ़ते-बढ़ते उस स्थिति तक भी पहुँच सकती है जिसे तन्मयता, भाव समाधि, विचार शून्यता आदि का नाम दिया जा सके। यह अन्तिम और समय साध्य स्थिति है। लोग इसी को पहले दिन प्राप्त करना चाहते हैं।

‘काम में मन लगाना’ एक गुण है। यह प्रयोग दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में करते रहना चाहिए। श्रम और मनोयोग के सम्मिश्रण से होने वाले लाभों को जानना चाहिए और आलस्य, प्रमाद से उत्पन्न होने वाली हानियाँ समझनी चाहिए। अपने काम में पूरी तत्परता, दिलचस्पी के साथ करने का अभ्यास डालें। यही स्वभाव भजन में मन लगाने का भी आधार हो सकता है। जो लोग लापरवाही, उदासी एवं उपेक्षा पूर्वक अपने काम करते हैं उनका भजन भी उसी प्रकार का होगा। भजन भी एक काम है और उसमें मन लगाना इस बात पर निर्भर है कि काम में मन लगाने की आदत है या नहीं। भजन में मन लगाने की पृष्ठभूमि विस्तृत है इसके लिए पूरी कार्य-पद्धति को ही नये ढाँचे में ढालना होगा और दिलचस्पी तथा तत्परतापूर्वक काम करने की आदत विकसित करनी पड़ेगी। इस दिशा में जितनी चेष्टा होगी उसी अनुपात से प्रत्येक कार्य में मन लगेगा-साथ ही भजन में भी। हर काम को उपेक्षा और उदासी से करने वाले लोग मात्र भजन में ही मन लगाने की अपेक्षा रखेंगे तो उन्हें निराश ही होना पड़ेगा।

एकाग्रता की स्थिति समय साध्य है, उसके लिए धैर्य और प्रयत्न पूर्वक बहुत समय तक अभ्यास करते रहने की आवश्यकता होगी। वह स्थिति न आये तो भी उतना हर्ज नहीं, जितना समझा जाता है। आत्मिक प्रगति के लिए मन की दिशा और धारा बदल देने की आवश्यकता है, उतने भर से ‘चित्त-वृत्ति निरोध’ की योग आवश्यकता पूरी होने लगती है।

‘प्रेय’ की लिप्सा ‘श्रेय’ की आकाँक्षा में बदली जानी चाहिए। पेट प्रजनन भर के लिए जीने में संलग्न पशु स्तरीय प्रवृत्ति को बदल कर आत्मा को परमात्मा स्तर तक विकसित करने की देव स्तरीय प्रवृत्ति में प्रवेश करना चाहिए। आकांक्षाएँ बदल जाने से मन की विचारणा और शरीर की कार्य पद्धति में काया-कल्प प्रस्तुत हो जायेगा। प्रेय की निरर्थकता और श्रेय की सार्थकता में विश्वास बढ़ चले तो उसका प्रभाव कल्पना क्षेत्र में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगेगा।

आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली यही सड़क है। श्रेय की प्राप्ति को लक्ष्य मान कर चलने से चित्तवृत्तियों में पूर्व की अपेक्षा असाधारण परिवर्तन हो जाता है। निकृष्टता उत्कृष्टता की दिशा में उलट पड़ती है, इसी ऊर्ध्वगमन को चित्तवृत्ति निरोध कहा जाता है। पतनोन्मुख पशु-प्रवृत्तियाँ जब उत्थान की दिशा में देव प्रवृत्तियों का रूप बना लेती हैं तो उस स्थिति को योग स्थिति कह सकते हैं। गीता में योगी की गतिविधियों का स्वरूप बताते हुए कहा है कि ‘जब लोग सोते रहते हैं तब वह जागता है।’ ‘जब लोग सोते हैं तब योगी जागता है।’ इस रहस्यवाद के पीछे यही तथ्य छिपा है कि लोक प्रवाह में पशु प्रवृत्तियों की ही प्रधानता है। इस प्रवाह को आत्मिक साहस के बल पर उलटने का नाम ‘चित्तवृत्ति निरोध’ है। यही योगी का प्रबल पुरुषार्थ माना जाता है।

एकाग्रता का अभ्यास क्रमशः होता है और वह समय साध्य है। इसलिए उसमें उतावली बरतने की आतुरता प्रदर्शित करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। निरन्तर जीवन लक्ष्य का ध्यान रखा जाय तो उस धारा प्रवाह को ‘एक दिशा’ कहा जा सकता है और उससे एकाग्रता का वास्तविक प्रयोजन पूरा हो सकता है।

वस्तुतः जिसे हम एकाग्रता कहते हैं वह सब चित्त की भागदौड़ को असीम से रोककर एक सीमित क्षेत्र में प्रतिबन्धित करना है। मन बार-बार भागता है और उसे पकड़-पकड़ कर बार-बार निश्चित ध्यान परिधि में लाया जाता है। यही प्रयोग चलता रहता है। पूर्ण एकाग्रता समाधि अवस्था है और वह पूर्णता तक जा पहुँचने पर ही मिलती है। उसके लिए किसी को भी अधीर नहीं होना चाहिए।

हजार बार इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि पूर्ण एकाग्रता साधना काल की आरम्भिक प्रक्रिया या आवश्यकता किसी भी दृष्टि से नहीं है। उसके लिए न तो लालायित होना चाहिए न खिन्न। प्रयत्न करते रहना भर पर्याप्त है। मीरा, सूर, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस आदि भक्तजनों की भाव स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे एकाग्रता प्राप्त कर सके और उनका लक्ष्य मिल गया। भक्त सम्प्रदाय में प्रणय, वियोग, अश्रुपात, समर्पण, आलिंगन जैसे भावोन्मादों की घटाएँ ही उमड़ती रहती हैं। उस मनःस्थिति में एकाग्रता किसी भी प्रकार संभव नहीं। यदि एकाग्रता ही सर्वोपरि होती तो भक्तजनों पर हर घड़ी छाया रहने वाला भावोन्माद तथा उसके उभार में उठने वाले हास्य, रोदन, नृत्य, अवसाद आदि की उद्विग्नता लक्ष्य प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा बन गई होती, पर ऐसा हुआ नहीं है।

यहाँ एकाग्रता का महत्त्व घटाया नहीं जा रहा है और न उसे त्याज्य या उपेक्षणीय कहा जा रहा है। एकाग्रता की उपयोगिता में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। इतने पर भी सर्वसाधारण के मन में जमी हुई उस भ्रान्ति का निराकरण होना ही चाहिए कि भजन में मन लगाना अर्थात् चित्त का एकाग्र होना आवश्यक है। वह है तो भजन की सफलता-नहीं है तो असफलता, इस चिन्तन को हटाकर यो सोचना चाहिए कि चित्त निरोध नहीं चित्त वृत्तियों का निरोध आवश्यक है। एकाग्रता नहीं ‘एक दिशा’ अभीष्ट है। यदि ऐसा बन पड़े तो समझना चाहिए कि योग साधना की सही पृष्ठभूमि बन चली।

समूची ब्रह्म सत्ता को समझा जा सकना मनुष्य की छोटी बुद्धि के लिए असम्भव है। ब्रह्माण्ड बहुत बड़ा है, उसका विस्तार हमारी कल्पना शक्ति से बाहर है। अपनी पृथ्वी पर प्रकृति की जो कार्य पद्धति है, अन्य लोकों में उससे भिन्न है। पृथ्वी के प्राणधारियों की आकृति प्रकृति चिन्तन एवं जीवन यापन पद्धति में आकाश पाताल जैसा अन्तर है। फिर अन्य लोकवासी चैतन्य प्राणियों की रीति-नीति के बारे में तो कहा ही क्या जा सकता है? समूचा ब्रह्म न तो हमारी समझा में आ सकता है और न उसे समझने की आवश्यकता है। मानवी चेतना के साथ ब्रह्म चेतना का जितना अंश सम्बन्धित है उस भाग को ईश्वर या परमेश्वर कहते हैं। हमारे आनन्द एवं उत्थान में उसी की भूमिका रहती है। अस्तु साधना के लिए उसी छोटी ब्रह्म परिधि के साथ हमारा सम्पर्क मिला लेना पर्याप्त माना गया है। उपासना का केन्द्र बिन्दु यह ईश्वर ही रहता है।

ब्रह्म एक है। अनेक रूपों में देवी-देवताओं की मान्यता से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वे एक दूसरे से पृथक एवं स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर असंख्य शक्तियों का भण्डार है। उसकी जिस क्षमता के साथ हमारा विशेष आकर्षण या लगाव होता है, उसी को प्रधान मानकर चलने से अभीष्ट शक्ति तत्त्व की अधिक मात्रा अपनी ओर आकर्षित करने का अवसर मिलता है। सूर्य की धूप में अल्ट्रावायलेट, अल्फावायलेट आदि अनेकों विशेष गुणों वाली क्षमताएँ सन्निहित रहती है। वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से शेष किरणों के समूह में से छाँटकर अपने लिए आवश्यक किरणों को ही पकड़ा और प्रयोग में लाया जा सकता है। ब्रह्म को सूर्य और उसकी असंख्य किरणों को असंख्य देवता माना जा सकता है। जो अभीष्ट हो उस पर उपासना केन्द्रित की जा सकती है।

आवश्यकतानुसार विशेष सूक्ष्म शक्ति उपार्जन करने के लिए अमुक देवी-देवताओं की उपासना की भी खण्ड साधना की जा सकती है, पर अपना अनुभव और परामर्श यह है कि समग्र ब्रह्म की साधना ही सर्वोत्तम है। आहार वही आदर्श माना जाता है जिसमें पोषण के सभी तत्त्व मौजूद हो। प्रोटीन कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, अकेले उसी को खाना लाभदायक न रहेगा। अमुक देवता की उपासना अकेली प्रोटीन, अकेली कैल्शियम खाने की तरह है। आवश्यकता पड़ जाने पर चिकित्सा उपचार की तरह कोई विशेष तत्त्व अमुक मात्रा में लिया जाता है, इसी प्रकार विशेष प्रयोजन के लिए कोई देव-साधना उपयोगी हो सकती है, पर सर्वतोमुखी प्रगति के लिए सर्वकालिक साधना समग्र ब्रह्म की ही होनी चाहिए।

यहाँ यह बात पूरी तरह ध्यान में रखने की है कि आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ा जाना ही योग का एकमात्र लक्ष्य है। इसके लिए चित्त वृत्तियों का निरोध, दिशा परिवर्तन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। आखिर आत्मा और परमात्मा को मिलने की भूमिका तो चित्त को ही सम्पादित करनी है वह अन्य दिशा में उलझा रहेगा तो लक्ष्य प्राप्ति मार्ग पर बढ़ चलना किसके सहारे सम्भव होगा? यदि चित्त की अस्त-व्यस्तता सुव्यवस्था में बदली जा सके तो समझना चाहिए वह प्रयोजन पूरा होने ही वाला है, जिसके लिए विविध साधनात्मक कर्मकाण्ड करने की आवश्यकता पड़ती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

158. चमत्कारी सिद्धियों के भ्रम जंजाल से निकलें
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

एक अँग्रेजी पादरी अफ्रीका में धर्म प्रचार के लिए गया। जंगली लोगों ने उसे पकड़ लिया और वध करने की तैयारी करने लगे। पादरी को चतुरता सूझी उसने अपने को दैवी शक्ति सम्पन्न सिद्ध करने के लिए अपने नकली दाँतों के जोड़ मुँह से बाहर निकाले और पोपला मुँह दिखाया। इसके बाद फिर नकली दाँत मुँह में डाल कर नया ढंग का चेहरा बना लिया। ऐसा उसने तीन बार किया। जंगली लोगों ने ऐसा अद्भुत दृश्य कभी न देखा था। वे उसे देखकर सन्न रह गये। इतना ही नहीं पादरी ने अपने थैले से दर्पण निकाला और उन लोगों को दिखाया। सब ने एक-एक दैत्य आकृति उसमें देखी और अनुमान लगाया कि इसके हाथ में प्रेतात्माओं की शक्ति है। वे बहुत गिड़गिड़ाए और पादरी के गुलाम बनकर रहने लगे।

लगभग इसी घटना की पुनरावृत्ति धूर्त बाजीगर अपने को चमत्कारी सिद्ध पुरुष कहकर मूर्खों की हजामत उलटे उस्तरे से बनाते रहते हैं। इन दिनों एक बाबा बालों में से बालू निकाल देने या ऐसे ही अन्य अजूबे दिखाने के लिए प्रसिद्ध है। उनकी पूजा इन करामाती कौतूहलों के नाम पर ही होती है और नये-नये भक्त इन्हीं किम्वदन्तियों से प्रभावित होकर बढ़ते चलते हैं। विचारणीय तथ्य यह है कि क्या अध्यात्म का प्रतिफल चमत्कार है।

भगवान बुद्ध ने अपने एक शिष्य का स्वर्ण कमण्डल तुड़वा कर नदी में प्रवाहित करा दिया था और अपने समस्त शिष्यों को एकत्रित करके यह प्रतिबन्ध लगाया था कि उनमें से कभी कोई किसी प्रकार का अलौकिक चमत्कार न दिखायें। बात यह हुई कि एक राजा ने ऊँचा बाँस गाड़कर उस पर स्वर्ण कमण्डल लटकाया था और घोषणा की थी जो इस पर चढ़कर उतरेगा वही सिद्ध पुरुष माना जायेगा और राजा उसी का शिष्य बनेगा। एक नट कुछ ही समय पूर्व भिक्षु मण्डली में सम्मिलित हुआ था। उसे बाँस पर चढ़ने का अभ्यास था सो सहज ही चढ़ गया और कमण्डल उतार लाया। उसे बहुत धन और सम्मान मिला। यह समाचार लेकर वह भगवान् बुद्ध के पास आया और अपनी चतुरता की चर्चा करने लगा तो वे बहुत दुःखी हुए और उस सफलता की भर्त्सना करते हुए उपहार को नष्ट करा दिया। उनका कहना था कि यदि चमत्कार ही अध्यात्म की कसौटी बनने लगे तो फिर बाजीगरों की बन आवेगी और तपस्वी, ज्ञानवान और लोक सेवियों की कोई बात भी न पूछेगा।

सर्व साधारण को समझना चाहिए कि अध्यात्म का चमत्कारों से कोई सम्बन्ध नहीं। इस मार्ग पर चलते हुए जो अतीन्द्रिय शक्ति विकसित होती है उसका प्रयोग किसी अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए कोई उच्चस्तरीय आत्माएँ ही कर सकती हैं। वे लोग जो चमत्कार प्रदर्शन में उत्साह दिखाते हैं, वस्तुतः सिद्ध पुरुष नहीं बाजीगर होते हैं। जिनके पास वस्तुतः वे हो भी तो वे भूलकर भी उन्हें प्रदर्शन में प्रयुक्त न करेंगे।

सिद्धियाँ अनावश्यक और अस्वाभाविक हैं। उनका सामान्य मनुष्य जीवन में कोई उपयोग नहीं, वरन् उलटी हानि है। इसलिए सच्चे आत्मवेत्ता न तो किसी को चमत्कार दिखाते हैं और न उसके लिए किसी को शिक्षा देते हैं। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की नीति अध्यात्म की सच्ची साधना है, जिनके पास यह आधार मौजूद है वे सामान्य स्थिति में रहते हुए भी देवोपम जीवन का आनन्द ले सकते और उस आलोक से असंख्यों को लाभान्वित कर सकते हैं। यही सच्चे अर्थों में अध्यात्म का चमत्कार है।

अलौकिक सिद्धियाँ सर्व साधारण के लिए उपयोगी नहीं होती, इसलिए ईश्वरीय विधान के अनुसार उन्हें अविज्ञात एवं रहस्य के पर्दों में छिपा हुआ ही रहने दिया गया है। यदि वे सर्व विदित हो जाय या सर्व सुलभ हो जाये तो फिर सामान्य जीवन की क्रिया-प्रक्रिया ही अस्त-व्यस्त हो जायेगी।

मृत्यु का समय यदि पूर्व विदित हो तो मुद्दतों पहले से मनुष्य भयभीत, उदास और खिन्न रहने लगेगा। सामान्य क्रिया-कलापों के प्रति उदासीनता छा जायेगी और मानसिक असन्तुलन के कारण कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। जब अमुक समय से आगे-पीछे नहीं ही मरता है तो वह किसी से भी प्रतिशोध लेने के लिए आक्रमणकारी बन सकता है, निर्भय होकर कुछ भी कर गुजर सकता है। फिर या तो मनुष्य आगा-पीछा न सोचने वाला दुर्दान्त बन जायेगा अथवा निरन्तर खिन्न, उदास रहकर बेबसी और वियोग के आँसू बहाता रहेगा। जीवित रहने का आनन्द तभी तक है जब कि मृत्यु का समय ठीक से मालूम न हो। दीर्घ जीवन के लिए किये गये प्रयास तभी हो सकते हैं, जब मरण की तिथि अनिश्चित समझी जाय और मौत को आगे धकेल सकना सम्भव माना जाय। जो जल्दी मरने वाले होंगे उससे कोई विवाह करने को ही तैयार न होगा और उन्हें अविवाहित, उपेक्षित रहकर ही मरना पड़ेगा। जिसे जहाँ जिस प्रकार मरना है उसे उन परिस्थितियों से बचने की तरकीबें पहले से ही अपनाने का अवसर मिल जायेगा और फिर यदि मृत्यु का कोई विधान होता होगा, तो उसे कार्यान्वित करना ईश्वर के लिए भी कठिन पड़ जायेगा। सम्भवतः यही सब समझते हुए भगवान ने मनुष्य को मृत्यु ज्ञान से वञ्चित रखा है।

अदृश्य हो जाने की विद्या यदि कोई सीख ले तो वह बड़े से बड़े अपराध करते रहने पर भी पकड़ा न जा सकेगा। ऐसे व्यक्ति नर-नारी के मध्य होने वाले गुह्य आचरणों को देखते रहेंगे और फिर किसी को लज्जा बचा सकना सम्भव न रह जायेगा।

मानवी इन्द्रियों की क्षमता उतनी ही रखी गई है जिससे जीवन का आवश्यक क्रम भार ठीक तरह चलता रहे। प्रकाश किरणों का एक नियत स्तर ही आँखों को दिखाई पड़ता है। अपनी आँखों की पकड़ से न्यून एवं अधिक स्तर के दृश्य भी इस संसार में मौजूद हैं। वे हमें दीखते नहीं। इससे काम के दृश्य देखने में सुविधा रहती है। यदि पानी, हवा, मिट्टी आदि में रेंगने वाले जीवाणु उतने ही स्पष्ट दीखने लगें जितने माइक्रोस्कोप से देखते हैं तो फिर आँखों के सामने एक अपार भीड़ से घिरी हुई भयंकर मेले जैसी स्थिति दिखाई पड़ने लगेगी। तब काम और बेकाम के दृश्यों का इतना अन्धड़ सामने खड़ा होगा कि बेचारी आँखें हतप्रभ हो जायेंगी और मस्तिष्क के लिए उन दृश्यों को देखकर यह निष्कर्ष निकालना कठिन हो जायेगा कि सामने क्या हो रहा है?

यही बात कानों के सम्बन्ध में है, हमारे कान एक सीमित स्तर की थोड़ी सी ध्वनियाँ सुन पाते हैं किन्तु उनसे ऊँचे और नीचे कम्पनों की असंख्य ध्वनियाँ अपने चारों ओर मंडराती रहती हैं। यदि वे सभी सुनाई पड़ने लगें तो स्थिति लगभग उसी स्तर की हो जायेगी जैसी कि किसी ट्रांजिस्टर पर संसार के सभी स्टेशन एक साथ बोलने लगने पर विचित्र प्रकार की न समझे जाने योग्य मिश्रित ध्वनि प्रवाह की चें-चें असमंजस में डाल देगी। अस्तु भगवान ने आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों में उतनी ही शक्ति दी है जितनी से मनुष्य का आवश्यक कार्य सरलता पूर्वक चलता रहे। इससे न्यूनाधिक देने में मनुष्य को लाभ कम और हानि अधिक हो सकती है। अतीन्द्रिय क्षमता इसी कारण सर्वसुलभ नहीं है। जो उसे बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे वे उसमें कौतूहल वृद्धि भले ही कर लें, पर परिणामतः उससे हानि ही उठायेंगे।

जिन प्राणियों की निर्वाह प्रक्रिया में जिस विशेषता की आवश्यकता समझी गई है वह उसे परमात्मा ने उदारता पूर्वक दी है। कुत्ते में सूँघने, बन्दर में उछलने, घोड़े में दौड़ने, सिंह में पछाड़ने की विशेषताएँ उनके जीवन क्रम की सुविधा के अनुरूप है। मधुमक्खी, चींटी, दीमक, मकड़ी आदि में भी अनोखे गुण हैं। पक्षियों में उड़ने की विशेषता है यदि वैसी सर्पों को मिल जाय तो सर्वत्र प्राण संकट ही छा जायेगा। मनुष्य यदि आकाश में उड़ने लगें तो फिर सुरक्षा समस्या में ऐसी जटिलताएँ उत्पन्न हो जायेंगी जिनका समाधान ही न हो सके। यदि भगवान ने एक हाथ में उड़ने की विशेषता दी तो निश्चय है कि दूसरे हाथ से बुद्धि कौशल वापस ले लिया जायेगा, ताकि किसी को अति बरतने और सृष्टि संकट उत्पन्न करने की छूट न मिले।

पूर्व जन्मों की स्मृति यदि सबको बनी रहे तो फिर हर व्यक्ति असन्तुष्ट दिखाई पड़े। पूर्व जन्मों के स्त्री, बच्चे याद आते रहने पर बच्चे इस जन्म के माता-पिता से रुखाई रखेंगे और पूर्व जन्मों के स्त्री, पुत्रों के पास जाने के लिए मचलते रहेंगे। पति पूर्व जन्म की पत्नी का कहाँ जन्म हुआ है यह पता लगाकर उससे सम्पर्क जोड़ेंगे और स्त्रियाँ प्रस्तुत की ओर से उदासीन रहकर पूर्व जन्म के पति को तलाश करती फिरेंगीं। आधी कमाई इधर, आधी उधर, आधा मन और समय इधर, आधा उधर बँट जाने से अव्यवस्था, उदासीनता एवं असन्तोष की स्थिति ही सर्वत्र संव्याप्त रहेगी। पूर्व जन्मों की स्मृति की घटनाएँ इसलिए कौतूहल वर्धक और अच्छी लगती हैं कि वे कभी-कभी ही देखने सुनने को मिलती हैं और एक हलकी सी झलक दिखाकर लुप्त हो जाती हैं। यदि वे स्थायी तथ्य बन जाय और हर किसी को पूर्व जन्म याद रहने लगे तो पारिवारिक जीवन का वर्तमान क्रम सर्वथा उलट जायेगा और उत्तरदायित्वों के बन्धन सर्वथा शिथिल हो जायेंगे।
यही बात अन्य सिद्धियों के सम्बन्ध में हैं। अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियों का वर्णन जहाँ-तहाँ मिलता है वे किसी व्यक्ति विशेष के लिए विशेष स्थिति में कौतूहलवर्धक एवं उपयोगी हो सकती हैं, पर सर्व साधारण के लिए उनका मिलना नये प्रकार के संकट उत्पन्न करने का कारण ही बन जायेगा।

मन की गुप्त बातें या दूसरों के रहस्य जान लेने से तो चोरों की पौ बारह होने लगेगी। वे धनियों के धन का पता लगाकर ठीक स्थान पर घात लगाया करेंगे। मन की बातें दूसरे पर प्रकट होने लगें तो फिर पूछताछ करना ही निरर्थक हो जायेगा। एक दूसरे को बिना कुछ कहे पूछे ही प्रयोजन जानने और उत्तर देने का काम निपटा दिया करेंगे। तब सरकारी बजट, शासनाध्यक्षों को दिलाई जाने वाली गोपनीयता की शपथ का कोई मूल्य न रहेगा। तब गुप्तचर विभाग भी तोड़ देना पड़ेगा। झूठ-सच का पता लगाने के लिए जो इतने तरीके काम में लाये जाते हैं, वे भी व्यर्थ माने जायेंगे। युद्ध योजनाएँ पहले से ही प्रकट हो जाया करेंगी। ऐसी दशा में लोक-व्यवहार में जो बुद्धि कौशल प्रयुक्त करना पड़ता है उसकी कोई आवश्यकता न रहेगी। अधिकांश काम तो अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे वे बड़ी आसानी से संकेत मात्र में निपट जाया करेंगे।

ज्योतिषी लोग आये दिन तेजी-मन्दी की भविष्यवाणियाँ छापते रहते हैं। पर वास्तविक यह है कि इस प्रकार के ज्ञान से मनुष्य को सर्वथा वञ्चित रखा गया है। मिथ्या डींग हाँकने पर रोक नहीं, पर यदि यथार्थ में किसी एक व्यक्ति को भी ऐसा ज्ञान हो जाय तो वह एक सप्ताह में अरबपति ही नहीं विश्व के समस्त व्यापार का अधिपति और कुबेर भण्डारी बन सकता है। वह व्यक्ति दूसरों को यह रहस्य बताने की अपेक्षा स्वयं ही व्यापार करने लगेगा। मन्दी आने पर खरीदना और तेजी होने पर बेचने भर का धन्धा करने में वह कभी असफल हो ही नहीें सकता जिसे भावों की घट-बढ़ का सुनिश्चित ज्ञान है। ऐसी दशा में उसे साझीदारों की भी कोई कठिनाई न होगी और बात की बात में ऐसी व्यवस्था बन जायेगी, जिनमें उसे करोड़पति बनने में देर न लगे।

यदि तेजी-मन्दी का वास्तविक ज्ञान लोगों को होने लगे तो फिर व्यापार क्षेत्र में घोर अव्यवस्था फैल जायेगी और फिर एक प्रकार का गदर ही खड़ा हो जायेगा। जो मन्दी होने वाली है उसे कोई खरीदेगा नहीं और जो मँहगी जाने वाली है उसे बेचने के लिए कोई तैयार न होगा। ऐसी दशा में ग्राहकों को अपनी दैनिक आवश्यक वस्तुओं से भी वञ्चित रह जाना पड़ेगा।

लोगों को यदि अपने भाग्य का पता चल जाय तो कोई कुछ भी प्रयत्न परिश्रम करने के लिए तैयार न होगा। जब हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, भाग्य लेख के अनुसार ही मिलता है तो प्रयत्न पुरुषार्थ की माथापच्ची करने से क्या लाभ? जो होना है वह तो होगा ही। फिर रोग की चिकित्सा, शत्रुओं से सुरक्षा, उपार्जन के लिए दौड़-धूप, पढ़ने में सिर फोड़ी करने, मर्यादाएँ पालन करने, प्रगति के लिए प्रयत्न करने और सम्भावित कठिनाइयों से सतर्क रहने का भी कोई तुक नहीं है। ऐसी दशा में प्रगति और सुरक्षा की दृष्टि से किये जाने वाले प्रयास सर्वथा निरर्थक ही बन जायेंगे। ऐसी दशा में सर्वत्र निष्क्रिय अकर्मण्यता का ही साम्राज्य छाया हुआ दिखाई पड़ेगा, तब ज्योतिषियों का धन्धा भी बन्द हो जायेगा। क्योंकि उन्हें पता ही होगा कि कब कहाँ से कितना पैसा मिलने वाला है? जो मिलना भाग्यानुसार निश्चित है, वह तो घर बैठे भी आ जायेगा फिर भविष्य कथन के झंझट में पड़ने से भी क्या लाभ?

मनुष्य की सम्भाषण और गायन विशेषता दूसरे प्राणियों की दृष्टि से एक देवोपम सिद्धि हो सकती है। दो पैरों से चलना और दो हाथों से अद्भुत क्रिया-प्रक्रियाएँ सम्पन्न करना भी अन्य प्राणियों के लिए किसी चमत्कारी सिद्धि से कम नहीं, पर अभ्यास में आ जाने के कारण मनुष्य को यह सब बातें बिलकुल सामान्य और स्वाभाविक लगती हैं।

जो जितना आवश्यक है वह सर्वत्र उतना ही सुलभ है। हमारे जीवन के लिए हवा सबसे अधिक आवश्यक है वह सर्वत्र प्रचुर परिणाम में उपलब्ध है। उससे आगे चलकर पानी का स्थान है। पानी भी प्रायः हर जगह बिना मूल्य मिल जाता है। अन्न उसके बाद है, वह भी खेत-खेत में उपजता है और हर जगह सामान्य मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है। जो धातुएँ जितनी अधिक आवश्यक हैं वे उतनी ही अधिक मात्रा में मिलती है। सोना, विष, रेडियम, यूरेनियम आदि की दैनिक जीवन में उपयोगिता न होने से वे कम मात्रा में कठिनाई से मिलते हैं। ईश्वर का यह विधान बहुत ही दूरदर्शिता पूर्ण है। जिन सिद्धियों की आवश्यकता है वे सामान्य प्रयास से ही मिल जाती हैं, पर अनावश्यक विशेषताओं से मनुष्य को वञ्चित रखा गया है। बाल-बुद्धि को असामान्य ही अद्भुत लगता है। यदि सिद्धियाँ मनुष्य के हाथ में आ जाय तो सामान्य बन जाने पर उनकी ओर कोई आँख उठाकर भी न देखेगा। इतना ही नहीं उनके कारण उत्पन्न होने वाली अव्यवस्था को देखते हुए सम्भवतः उन पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने की भी आवश्यकता पड़ सकती है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

159. ब्राह्मी चेतनाः परमात्म सत्ता का विलक्षण एवं अकाट्य प्रमाण
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

इन्द्रियों की पकड़ स्थूल जगत तक ही सीमित है। स्थूल वस्तुओं को देख सकने एवं जान सकने की सामर्थ्य इन्द्रियों में होती है। बहुत सी बातें इन्द्रियों में होती है और बहुत सी बातें इन्द्रियातीत हैं, किन्तु उनके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। वायु न तो दिखाई देती है न ही उसका स्वरूप निर्धारण किया जा सकता है, किन्तु उसको अनुभव किया जा सकता है। दिखाई न पड़ने के आधार पर यह कहा जाय कि उसका अस्तित्व ही नहीं है तो यह कहना अविवेक पूर्ण होगा। वह दिखाई नहीं पड़ती, किन्तु उसकी प्रतिक्रिया शरीर अनुभव करता है। विद्युत को प्रत्यक्ष देखा नहीं जा सकता। प्रकाश के रूप में बल्ब में, चलते हुए पंखे में, जलते हुए हीटर में उसकी शक्ति का आभास मिलता है। परमात्मा के सन्दर्भ में भी यही मान्यता बनायी गई। यन्त्रों अथवा इन्द्रियों की पकड़ में न आने के कारण उसके अस्तित्व से ही इन्कार करने का दुस्साहस किया गया।

महत्त्व स्थूल स्वरूप का नहीं, बल्कि उसके अन्दर कार्य कर रही शक्ति का है, जिसका प्रमाण विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाओं के रूप में परिलक्षित होता है। मूलभूत सिद्धान्तों एवं विशेषताओं के आधार पर उसके अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ता है। पदार्थ सत्ता का सूक्ष्मतम कण परमाणु माना जाता रहा। नये शोधों ने पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त किया। इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान, पॉजीट्रान जैसे कणों के अस्तित्व का प्रमाण सामने आया। आधुनिक खोज से परमाणु स्वरूप की सारी मान्यताएँ बदल गयी। वर्तमान स्थिति यह है कि पदार्थ सत्ता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। सम्भव है स्थूल जगत के अस्तित्व को ही अगले दिनों भ्रमपूर्ण बताया जाय और अदृश्य शक्ति की सत्ता से इन्कार करने का जो उत्साह चल रहा है, वह ही सत्य का कारण बने।

परमात्मा के अस्तित्व के विषय में भी विभिन्न मान्यताएँ बनायी गई विभिन्न स्वरूप निर्धारण किए गये, उनमें उलट-फेर होता रहा तथा आगे भी हो सकता है किन्तु कुछ मूलभूत सिद्धान्त सृष्टि में ऐसे हैं जो कभी नहीं बदलते तथा अदृश्य समर्थ सत्ता का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। (1)नियम-व्यवस्था, (2)सहयोग, (3) विशालता, (4)उद्देश्य। चार विशेषताएँ सृष्टि क्रम में ऐसी है जो पदार्थ से लेकर चेतन प्राणियों में दृष्टिगोचर होती हैं। विवेक दृष्टि से इसका अध्ययन किया जाय तो कोई कारण नहीं कि परमात्म सत्ता के अस्तित्व से इन्कार किया जा सके।

पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तथा चेतन जगत में एक नियम व्यवस्था कार्य कर रही हैं। प्राणी पैदा होते, क्रमशः युवा होते तथा वयोवृद्ध होकर विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में एक निश्चित उपक्रम दिखाई पड़ता है। ऐसा कभी नहीं होता कि कोई वृद्ध रूप में पैदा हो और युवा होकर बच्चे की स्थिति में पहुँचे। प्रत्येक जीव चाहे मनुष्य हो अथवा छोटे प्राणी, सभी इस व्यवस्था के अन्तर्गत ही गतिशील हैं। वृक्ष, वनस्पतियों का भी यही क्रम है। अंकुरित बीज बढ़ते तथा पेड़ पौधों में विकसित होकर पुष्प फल देते दिखायी देते और जराजीर्ण होकर मर जाते हैं। प्राणियों एवं वनस्पतियों के उत्पन्न होने, विकसित होकर जराजीर्ण स्थिति में जा पहुँचने और अन्ततः विनष्ट हो जाने के क्रम में शायद ही कभी कोई व्यतिक्रम देखा जाता हो।

इस नियम के अन्तर्गत दूसरी विशेषता यह जुड़ी है कि एक विशेष प्रकार के बीज से विशेष प्रकार का वृक्ष तैयार होगा। गेहूँ के बीज से गेहूँ तथा धान से धान ही उत्पन्न होगा। गेहूँ के बीज से धान, अथवा आम के बीज से अमरूद पैदा होने की बात नहीं सुनी जाती है। यही बात प्राणियों में देखी जाती है। पुरुष-स्त्री के संयोग से मानवाकृति ही उत्पन्न होगी। अपवादों को छोड़कर एक निश्चित जातियाँ अपने समान ही जातियों को जन्म देती हैं। यह निश्चित नियम जीव जगत वरन् अणु से लेकर ब्रह्माण्ड तक सुव्यवस्थित क्रम में गतिशील हैं। प्रत्येक ग्रह नक्षत्र एक निश्चित गति एवं निर्धारित कक्षा में परिक्रमा करते देखे जाते हैं। भौतिक विज्ञान के ज्ञाता इस तथ्य से परिचित है कि इनकी गति में थोड़ा भी अन्तर आ जाय अथवा अपनी कक्षाओं से थोड़ा हटकर घूमने लगें तो सारी ब्रह्माण्ड व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो सकती है। एक ग्रह दूसरे से टकराकर चूर-चूर हो जायेगा तथा देखते-देखते महाविनाश का दृश्य उपस्थित हो जायेगा। समय की पाबन्दी, गति की सुनिश्चितता तो प्रकृति में देखते ही बनती है। सूर्य प्रातःकाल निकलता तथा सायं को डूब जाता है। ऋतुएँ अपने समय पर ही आती हैं, बसन्त ऋतु अपनी छटा नियत समय पर बिखेरती है। इनमें थोड़ा भी हेर-फेर सारे प्राकृतिक सन्तुलन को नष्ट कर सकता है। विराट ब्रह्माण्ड ही नहीं बल्कि पदार्थ सत्ता का सबसे छोटा कण परमाणु भी एक सुदृढ़ व्यवस्था का परिचय देता है। नाभिक में रहने वाले प्रोटान तथा बाहर कक्षों में घूमने वाले इलेक्ट्रान का सन्तुलन कक्षाओं में घूमने की प्रक्रिया भी पूर्णरूपेण व्यवस्थित है।

गहराई तक दृष्टि दौड़ाई जाय तो ज्ञात होता है कि व्यवस्था नियामक के अभाव में सम्भव नहीं। अपने आप तो खेतों में, जंगलों में झाड़-झंकाड़ ही उगते हैं। बगीचा लगाने, पौधे उगाने तथा अन्न फल प्राप्त करने के लिए श्रम एवं विचार शक्ति दोनों का उपयोग करना पड़ता है। सुन्दर मकान, यन्त्र, कला आदि भी कुशल कर्ता का भान कराती है तथा यह अनुमान लगाया जाता है-उन कलाकृतियों के पीछे सुनियोजित श्रम शक्ति एवं विचार शक्ति लगी है। ऐसा कभी सम्भव नहीं कि जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील होकर सुन्दर रचनाकृति में परिवर्तित हो जाय। अभिप्राय यह है कि मानवाकृति रचनाएँ भी कुशल मस्तिष्क सम्पन्न कर्ता का प्रमाण देती हैं, तो फिर विराट सृष्टि जिसकी कल्पना कर सकने में भी मस्तिष्क असमर्थ है, का सुनियोजित एवं व्यवस्थित स्वरूप अपने आप कैसे विनिर्मित हो सकता है। दृष्टि दौड़ाई जाय तो सम्पूर्ण सृष्टि में नियमबद्धता देखी जा सकती है। यह हुई नियम की बात जिसे सृष्टि के कण-कण में सन्निहित देखा जा सकता है और किसी सुयोग्य नियामक के अस्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है।

दूसरा भिन्न आधार जिसके द्वारा परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है वह है सहयोग। इसी पर ही सृष्टि की व्यवस्था टिकी है। सहयोग की परम्परा जड़ चेतन सबमें देखी जा सकती है। जड़-चेतन में विभेद दीखता तो है किन्तु दोनों के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के ऊपर दूसरे का अस्तित्व टिका है जीवन चक्र चल रहा है सूर्य उगता है, प्रकाश बिखेरता है। सभी जीव जन्तु पेड़-पौधे उससे जीवन प्राप्त करते हैं। अपनी प्रकाश सम्पदा को सूर्य समेट ले, बिखेरना बन्द कर दे तो पृथ्वी पर से जीवन लुप्त हो जायेगा। समुद्र सूर्य देव के तप का अनुकरण करता तथा प्रकृति के सन्तुलन में अपना योगदान देता है। अपनी जल सम्पदा को सतत वाष्पित कर आकाश में बिखेरता रहता है। नदियाँ समुद्र के जल की आपूर्ति करती रहती हैं। बादल समुद्र से प्राप्त अनुदान का संग्रह नहीं करता वरन् पृथ्वी को अपनी जल सम्पदा से सिक्त करता है। इस प्रकार सहयोग का यह विस्तार चक्र चलता रहता तथा चेतना समूह का पोषण अभिवर्द्धन होता रहता है।

सहयोग का यह सिद्धान्त प्राणियों वनस्पतियों के बीच भी देखा जाता है। जीव जन्तु वृक्ष वनस्पतियों से स्वच्छ आक्सीजन प्राप्त करते हैं जबकि पेड़ पौधे प्राणियों द्वारा निष्कासित गन्दी वायु को ग्रहण करते तथा उसी से अपना विकास करते हैं। आपसी सहयोग का यह क्रम थोड़े समय के लिए भी टूट जाय तो कुछ ही क्षणों में पृथ्वी से जीवन लुप्त हो जाय। सहयोग की यह प्राकृतिक व्यवस्था ही प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन क्रम को सुचारु रूप से चलाती रहती है।

सहयोग की प्रवृत्ति सृष्टि के कण-कण में देखी जा सकती है। पदार्थ का स्थूल स्वरूप अणुओं के परस्पर सम्बद्ध रहने से ही दिखायी पड़ता है यदि अणु बागी हो जाय तो उसका स्वरूप बिखर जायेगा। शरीर तन्त्र को लिया जाय तथा देखा जाय तो स्पष्ट होगा कि सुगठित स्वास्थ्य शरीर अंग प्रत्यंगों के परस्पर सहयोग पर ही गतिशील है। यहाँ तक कि शरीर की इकाई कोशिकाएँ भी पूरी मुस्तैदी के साथ इस प्रवृत्ति को अपनाये हुए हैं। परस्पर आबद्ध रहकर शरीर को दृढ़ बनाये रखता हैं। भोजन ग्रहण करने, पाचन तथा रक्त में परिवर्तन से लेकर नस-नाड़ियों में रक्त के संचार की प्रक्रिया में शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों की सहयोग भरी भूमिका देखी जा सकती है। इसमें थोड़ा भी व्यतिक्रम पूरे शरीर तन्त्र को अस्त-व्यस्त कर दे सकता है। हाथ कार्य करना बन्द कर दें तो पेट को भोजन नहीं प्राप्त हो सकेगा। पाचन तन्त्र अपनी प्रक्रिया से विमुख होने लगे तो पेट में पहुँचा आहार सड़ने लगेगा तथा विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते जायेंगे। हृदय रक्त संचार की प्रक्रिया, गुर्दे सफाई की क्रिया बन्द कर दें तो कुछ ही घण्टों में मृत्यु हो जायेगी। तात्पर्य यह है कि अंग, प्रत्यंगों के सहयोग पर ही शरीर की गतिविधियाँ संचालित हैं।

सृष्टि की रचना की तीसरी विशेषता है विशालता। इसकी विशालता के कारण ही इसे ब्रह्माण्ड का नाम दिया गया। ब्रह्म अर्थात बड़ा अण्ड अर्थात् मण्डल, विराट मण्डल। भीमकाय पर्वत, अथाह समुद्र, रहस्यों से भरा अनन्त अन्तरिक्ष, असंख्यों ग्रह-नक्षत्र, तारा, पिण्ड को देखकर बुद्धि आश्चर्य चकित रह जाती है। अपने सौर मण्डल के ग्रह नक्षत्रों की अब तक जितनी जानकारी मिल सकी है उसकी तुलना में कई गुना जानना अभी शेष है। एक सूर्य का भी अब तक रहस्योद्घाटन कर सकना सम्भव नहीं हो सका है। इस प्रकार के असंख्य सौर मण्डल, आकाश गंगाएँ ब्रह्माण्ड में होने का वर्णन शास्त्रों में आता है। अनन्त विस्तार व अनेकों ग्रह नक्षत्रों से युक्त ब्रह्माण्ड की कल्पना मात्र से बुद्धि चकित हो जाती है। अविज्ञात के रहस्यमय क्षेत्र तक तो कल्पना शक्ति भी नहीं पहुँच पाती है। उनको जानना तो और भी कठिन है। परमात्मा के इस विस्तार के कारण ही भारतीय धर्म-शास्त्रों में ऋषियों ने नेति-नेति कह कर अपनी असमर्थता व्यक्त की।

विराट से कम रहस्यमय एवं विलक्षण सूक्ष्म जगत भी नहीं है। सूक्ष्मता की ओर जैसे-जैसे बढ़ते हैं शक्ति का अनन्त सागर लहलहाता हुआ दिखाई पड़ता है। बर्फ की अपेक्षा पानी और पानी से वाष्प कहीं अधिक सामर्थ्यवान हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री डॉ फ्रीटुज ने पदार्थ के सूक्ष्म कण अणु का व्यास एक से.मी. का करोड़वाँ भाग बताया है। परमाणु तो इससे भी अधिक सूक्ष्मतम होता है किन्तु पदार्थ की शक्ति उसके नाभिक में केन्द्रित होती है। उसकी प्रचण्ड शक्ति से हर कोई परिचित है। स्थूल से सूक्ष्म की शक्ति कई गुनी अधिक होती है। होमियोपैथी की उपचार प्रक्रिया इसी सिद्धान्त पर आधारित है। नगण्य से दिखाई देने वाले बीज में वृक्ष के आकार प्रकार तथा उसकी विशेषताएँ छिपी पड़ी हैं। नन्हा सा शुक्राणु अपने में मनुष्य की आकृति ही नहीं व्यक्तित्व की सारी विशेषताएँ छिपाये बैठा है। सेम्स क्रोमोसोम के जीन्स माता-पिता के गुणों को अपने में समेट बैठे हैं।

यह तो जड़ की बात हुई। अदृश्य सूक्ष्म चेतन परतें तो और भी अद्भुत हैं। स्थूल तो मात्र कलेवर है जो कठपुतली के धागे के समान चेतन परतों द्वारा संचालित है। सामान्य जीवन क्रम में उसका एक नगण्य सा भाग व्यक्त होता है उतना मात्र ही चमत्कारी परिणाम प्रदर्शित करता है। अव्यक्त की अनन्त परतें तो और भी विलक्षण हैं। उसकी सम्भावनाएँ असीम हैं। उसकी विशेषताओं को देखकर ऋषि कह उठते हैं-विराट का असीम क्षेत्र मानवी मस्तिष्क को आश्चर्य चकित कर रहा है, वही सूक्ष्मता की ओर बढ़ने पर शक्ति का लहलहाता हुआ सागर दिखायी पड़ता है। शास्त्रकारों ने परमात्मा के विराट एवं सूक्ष्म स्वरूप को देखकर कहा-अणोरणीयान् महतोमहीयान्।

सृष्टि रचना में सबसे प्रमुख और अन्तिम बात रह जाती है, जिसके बिना उपरोक्त तीनों प्रतिपादन अधूरे रह जाते हैं। वह है सृष्टि रचना का उद्देश्य। संसार की प्रत्येक संरचना एवं घटनाओं से किसी विशिष्ट प्रयोजन की जानकारी मिलती है। पृथ्वी, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, नदियाँ, पर्वत, जीव-जन्तु सभी एक निश्चित लक्ष्य को लेकर चलते एवं पूर्ण करते हैं। जीव-जन्तुओं को जीवन धारण किये रहने के लिए पृथ्वी साधन जुटाती, अन्न फल-फूल प्रदान कर उनका पोषण करती है। सूर्य प्राण संचार करता, पेड़-पौधों, प्राणियों में शक्ति प्रदान करता है। उसके इस अनुदान से ही पृथ्वी का जीवन व्यापार चलता है। नदियाँ फसलों को सींचती तथा जीवों की प्यास बुझाती हैं। पृथ्वी पर जल की कमी न हो, इसके लिए समुद्र अपने खारे जल को सतत वाष्पित करके बादलों में परिवर्तित करता रहता है। बादल समुद्र से प्राप्त सम्पदा को पृथ्वी पर बिखेरना ही अपना परम लक्ष्य समझता है तथा इसकी पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। विशालकाय पर्वत, जंगल आदि प्राकृतिक सन्तुलन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। सृष्टि चक्र को सन्तुलित बनाये रखने में ग्रह नक्षत्र निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं। अन्यान्य प्राकृतिक संरचनाएँ भी निश्चित प्रयोजनों की पूर्ति में लगी हैं। सबका सम्मिलित उद्देश्य है प्रकृति को व्यवस्थित एवं सन्तुलित बनाये रखना। इस महती प्रयोजन में जड़ संरचनाओं की चेष्टाएँ लगी हैं।

न जड़ प्रकृति बल्कि चेतन प्राणियों के निर्माण में भी सृष्टा का एक सुनिश्चित प्रयोजन है। अन्यान्य जीव-जन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनी क्षमता के अनुरूप संलग्न हैं। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ विचारशील प्राणी मनुष्य का निर्माण भी एक महान उद्देश्य के लिए हुआ है, वह है अपने छोटे प्राणियों को सहयोग करना तथा विश्ववसुन्धरा को श्रेष्ठ समुन्नत बनाना। अतिरिक्त विशेष क्षमताएँ एवं प्रतिभाएँ उसे परमात्मा द्वारा इस महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए दी गई हैं। यह देखा जाता है कि अन्य नन्हे जीव-जन्तु तथा जड़ पदार्थ अपने सुनिश्चित लक्ष्य की पूर्ति के लिए सतत प्रयत्नशील हैं, जबकि मनुष्य ही अपने महान लक्ष्य को भूल गया है।

नियम व्यवस्था, सहयोग, विशालता, उद्देश्य इन चार सिद्धान्तों के पीछे उस अदृश्य सत्ता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है जिसे सृष्टा, नियामक परिवर्तन कर्त्ता एवं सर्वव्यापी परमात्मा कहा जाता है। यह चार सिद्धान्त सृष्टि के कण-कण में व्याप्त देखे जा सकते हैं। दुराग्रह छोड़ा जाय तथा दूरदृष्टि अपनायी जाय तो सृष्टि के इन चारों सिद्धान्तों में परमात्म सत्ता का इतना अधिक प्रमाण बिखरा पड़ा है, जिसे देखकर कोई भी विचारशील व्यक्ति परमात्मा के अस्तित्व से इन्कार करने का दुस्साहस न कर सके। आवश्यकता इस बात की है कि उस परम शक्ति का दर्शन अपने दिव्य नेत्रों से किया जाय, उसके सान्निध्य का लाभ उठाया तथा जीवन लक्ष्य को प्राप्त किया जाय। मनुष्य जीवन की गरिमा इसी में निहित है।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार

160. विस्मृति से उबरें-अपना आपा सुदृढ़ बनाएँ
--पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

ईश्वर विश्वास लगभग उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना आत्म-विश्वास। आत्म-विश्वास का अर्थ है-अपनी उत्कृष्टता, क्षमता, प्रतिभा एवं सक्रियता की उपस्थिति पर भरोसा करना। जिन्हें सपनों के अन्दर इन विभूतियों की झाँकी नहीं होती वे दीन-दुर्बल बने रहते हैं और असफल, असहायों की तरह जिन्दगी गुजारते हैं। जिन्हें अपनी प्रतिभा और क्षमता पर विश्वास होता हैं वे साहस भरे कदम बढ़ाते हैं और प्रगति की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर होते चले जाते हैं। ईश्वर विश्वास, आत्म-विश्वास से भी ऊँची अन्तःनिष्ठा है। एक उच्चस्तरीय सत्ता का शासन अपने समेत समस्त विश्व पर बने होने की बात जब मन में जम जाती है, तो मनुष्य आत्म-नियन्त्रण की बात सोचता है और व्यवस्थित शासन के सुसंस्कृत नागरिक की भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध होता है। शासन की, समाज की पकड़ से बच निकलने की संभावना देखकर ही आमतौर से उद्दण्डता अपनाई जाती है और अनाचार के लिए हिम्मत पड़ती है। सजग शासन और उसका कठोर नियन्त्रण होने की बात समझ में आ जाय, तो फिर अवांछनीयताएँ अपनाने के लिए हौसला ही नहीं होता, वरन् सब कुछ शान्तिपूर्वक चलता रहता है।

मनुष्य की मनुष्यता अस्त-व्यस्त होने से न केवल व्यक्तिगत ही, वरन् समाज की शान्ति, सुव्यवस्था एवं प्रगति भी नष्ट हो जाती है। व्यक्तियों का समूह ही तो समाज है। लोग जिस स्तर के होंगे उसी स्तर का समाज बनेगा। समाज से व्यक्ति और व्यक्ति से समाज का संबंध उतना ही अविच्छिन्न है जितना वृक्ष का बीज से दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक की स्थिति डगमगाने लगे तो दूसरे का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। ईश्वर विश्वास इन दोनों ही विपत्तियों में रक्षा करता है। सुनियंत्रित सूक्ष्म सत्ता की-ईश्वर विश्वास की मान्यता ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में सदाचारी, सज्जन बनाये रह सकती है। अन्य नियन्त्रणों को तो यह अपने बुद्धि कौशल से सहज ही झुठला सकता है। पुलिस, कचहरी तथा लोकनिंदा के नियंत्रणों से बच निकलने की अनेकों तरकीबें आदमी को मालूम हैं। सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान किन्तु न्यायकारी परमेश्वर का नियन्त्रण ही सर्वांगपूर्ण है। इस लोक से लेकर परलोक तक, भौतिक सुखों से लेकर आत्मिक शान्ति तक का सारा क्षेत्र ईश्वर की व्यवस्था के अन्तर्गत हैं, यह मानने वाला रीति-नीति को सही बनाने के लिए विवश होता है। यह एक बहुत बड़ी बात है। व्यक्तित्व को परिष्कृत करने में यह आधार अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है। आस्तिकता की व्यापक प्रतिक्रिया सभ्य, सुसंस्कृत एवं समुन्नत समाज के रूप में प्रस्तुत होती हैं।

प्राचीन भारत के उज्ज्वल इतिहास की पृष्ठभूमि आस्तिकता के तत्त्वज्ञान द्वारा ही सम्पन्न हुई थी। उन दिनों सतयुग का-धर्म राज्य का वातावरण था और हर व्यक्ति में देवत्व की सत्ता जगमगाती थी। वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति की अनेकानेक उपलब्धियाँ ऐसे वातावरण में सहज ही उदीयमान रहती हैं। इसी प्रकाश में प्राचीन भारत की गौरव गरिमा का मूल्यांकन किया जा सकता है।

आज भी आस्तिकता का वातावरण तो खड़ा है, पर वह तात्त्विक दृष्टि से खोखला ही नहीं विकृत भी हो गया है। फलतः उसका लाभ मिलने की अपेक्षा सड़ी दुर्गन्ध से हानि ही अधिक उठानी पड़ रही है। अब समझा जाने लगा है कि थोड़ी सी पूजा-पत्री करके ईश्वर को वशवर्ती किया जा सकता है और उससे उचित-अनुचित मनोकामनाएँ बिना प्रयत्न पुरुषार्थ के सहज ही पूरी कराई जा सकती है। इस मान्यता ने लोगों को पूजा-पत्री के विधि-विधान अपनाने के लिए तो आकर्षित किया, पर साथ ही उसे पक्षपाती और अंधेरगर्दी बरतने वाला भी ठहरा दिया। पूजा से ही ईश्वर प्रसन्न हो सकता है तो फिर उसका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए कठोर कर्तव्यों का पालन कौन करे? आत्मनियन्त्रण, व्यक्तित्व का परिष्कार, लोकमंगल के लिए त्याग, बलिदान, योग साधना एवं तपश्चर्या अपनाने की आस्तिक परम्परा सदा से चली आ रही थी, इसे भी तथाकथित भक्ति भावना ने उखाड़ फेंका। जब गंगा स्नान, तीर्थ दर्शन जैसे सुलभ कर्मकाण्ड पाप के दंड प्रतिफल से छुटकारा दिला सकते हैं तो फिर पाप की खुली छूट का द्वार खुल गया। शासन और समाज की आँखों में धूल झोंकने की प्रवीणता लोगों ने पहले ही प्राप्त कर ली थी। एक ईश्वरीय नियन्त्रण की, कठोर कर्मफल की मान्यता ही चरित्र निष्ठा को बनाये रह सकती थी। वह आधार भी टूट गया तो समझना चाहिए उच्छृंखलता के लिए पूरी तरह छूट मिल गई। आज की विकृत आस्तिकता अपने मूल प्रयोजन से भटक ही नहीं गई वरन् ठीक प्रतिकूल दिशा में चल पड़ी है। ऐसी दशा में तथाकथित भक्त लोगों को अपेक्षाकृत अधिक दंभी, दुराचारी एवं अकर्मण्य पाया जाता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यह भ्रष्ट तत्त्वदर्शन का प्रतिफल है जिसने कर्म-दुष्कर्म के साथ ईश्वरीय अनुग्रह-विग्रह की पतंग काट दी और कर्मकाण्ड के जादू की छड़ी से ईश्वर को उल्लू बनाकर उससे चाहे जो उचित-अनुचित करा लेने की बात भोली जनता के मन में बिठा दी। वस्तुतः यह आस्तिकता के साथ बलात्कार, व्यभिचार ही हुआ है और उसकी उपयोगिता नष्ट करके अनिष्टकारी मूढ़ मान्यताएँ प्रतिष्ठापित कर दी गई है। इसका दुष्परिणाम भी सामने है। अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा आस्तिकता के क्षेत्र में भ्रष्टता एवं दरिद्रता का बोलबाला अधिक है तदनुसार वे अधिक मात्रा में दुखी रहते और दुखी होते देखे जा सकते हैं।

भ्रष्ट रीति-नीति किसी भी क्षेत्र में अपनाई जाय विपत्ति उत्पन्न करेगी, आस्तिकता का क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं हो सकता था। अस्तु वर्तमान धर्म विडम्बना के आधार पर विशुद्ध तत्व-दर्शन की उपेक्षा नहीं की जा सकती, ईश्वर विश्वास की उपयोगिता अपने स्थान पर सुदृढ़ है। यदि उसका मूल स्वरूप बनाये रखा जाय, तो निश्चित रूप से व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक परिष्कृत सुसम्पन्न बनाने का महान लाभ मिलता रह सकता है। ईश्वरत्व मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। आत्मा को परमात्मा, अणु को विभु, लघु को महान, पुरुष को पुरुषोत्तम, नर को नारायण बनाने के लिए ही ब्रह्म विद्या का सृजन हुआ है। उसकी चिन्तन प्रक्रिया एवं कर्म व्यवस्था के दोनों पक्ष मनुष्य को अधिकाधिक उदात्त एवं परिष्कृत बनने की प्रेरणा देते है।

ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् ईश्वर जैसी सुविकसित मनःस्थिति। ईश्वर व्यापक है-हमारी अन्तरात्मा का स्तर भी यही होना चाहिए सब में अपने को और अपने में सबको देखा जाय। यही आत्म विकास है। इस मान्यता का व्यवहार रूप इसी प्रकार बनता है कि अपनी आत्मीयता का सर्वजनीन प्राणिमात्र में विस्तार हो। दूसरों के दुखों से अपने कष्ट जैसी संवेदना अनुभव हो और उन्हें बटाने के लिए आतुरता उमगे तो समझना चाहिए कि आत्म-विस्तार हो चला। अपने सुख-साधनों को-श्रम, समय एवं चिन्तन को लोकोपयोगी प्रयोजनों में लगाने की आकांक्षा हिलोरें लेने लगें तो समझना चाहिए आत्म-विस्तार का, आत्म-विकास का, आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य समीप आ गया।

साकार ईश्वर दर्शन विराट् विश्व के-विराट ब्रह्म के रूप में ही हो सकता है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को, राम ने कौशल्या और काकभुसुण्डि को अपना विराट रूप दिखाया था अर्थात् यह अनुभूति कराई थी कि यह समस्त संसार ही भगवान का दृश्यमान रूप है। भगवान का दर्शन होने पर, उसके सामने आ उपस्थित होने पर सेवा सद्व्यवहार की इच्छा उठेगी। लोक मंगल के प्रयास एक प्रकार से ईश्वर पूजा है। शिवजी का प्राचीन प्रतीक गोलमटोल शिवलिंग के रूप में है। लिंग अर्थात् चिन्ह, स्वरूप, भगवान का कल्याणकारी रूप देखना हो तो इसे भू-मण्डल के ग्लोब के रूप में देखा जाना चाहिए और उसे अधिक सुंदर समुन्नत बनाने के लिए घोर परिश्रम करते हुए तात्त्विक ईश्वर भक्ति का परिचय देना चाहिए। शालिग्राम की विष्णु प्रतिमा भी शिवलिंग जैसी गोलमटोल पत्थर की बनी होती है। शिव कहें या विष्णु, नामों का ही अन्तर है। ईश्वरीय सत्ता तो एक है। देव मान्यता का आदि प्रतिपादन एक ही ईश्वर की अनेक विशेषताओं को अनेक अलंकारिक रूप में चित्रित करने की कला की अभिव्यक्ति के रूप में हुआ था। पीछे लोगों ने उन्हें परस्पर आकृति-प्रकृति की भिन्न-भिन्न सत्ताओं के रूप में मानना शुरू कर दिया है और निरर्थक बुद्धि भ्रम में उलझा दिया। तत्त्वतः परमेश्वर एक है। उसी को शिव, विष्णु आदि कहते हैं। साकार उपासकों ने उसकी आदि प्रतिमा गोलमटोल शिवलिंग या शालिग्राम के रूप में इसीलिए की थी कि इसे विराट ब्रह्म माना जाय और हर जड़ चेतन के साथ सद्व्यवहार की रीति-नीति अपनाते हुए अपने चिन्तन तथा कर्तव्य को अधिकाधिक उदात्त बनाया जाय।

निराकार ब्रह्म को हमारी अन्तःचेतना दिव्य चेतना के रूप में अनुभव करती है। इसे तीनों शरीरों के साथ स्पर्श करते हुए देखा जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में से प्रत्येक के साथ दिव्य संवेदनाओं के रूप में ईश्वर की झाँकी कभी भी की जा सकती है, कोई भी कर सकता है। स्थूल शरीर काया से सत्कर्मों के रूप में, सूक्ष्म शरीर-चिन्तन से सद्विचारों के रूप में और कारण शरीर-अन्तःनिष्ठा से सद्भावनाओं के रूप में ईश्वर का दर्शन स्पर्श किया जा सकता है।

ईश्वर दर्शन के नाम पर देवी-देवताओं या अवतारों की छाया प्रतिमाओं को देख सकने की ताक में लोग लगे रहते हैं और स्वप्न में अथवा अर्धतन्द्रित अवस्था में उस तरह की कोई झाँकी मिल जाती है तो फूले नहीं समाते। यह आत्म प्रवंचना सर्वथा निरर्थक है। ईश्वर का कोई रूप नहीं। सर्वव्यापी ईश्वर जैसी दिव्य सत्ताएँ आकृतिधारी नहीं हो सकतीं। जितनी भी आकृतियाँ ईश्वर की गढ़ी गई हैं, वे मनुष्य की अलंकारिक कल्पनाएँ भर हैं। प्रतिमा पूजन का विज्ञान तो इसी प्रकार खड़ा किया है जैसे छोटे बालकों को वर्णमाला सिखाते समय क-कबूतर, ख-खरगोश, ग-गनेश, घ-घड़ा आदि पढ़ाकर बालबोध कराया जाता है। ईश्वर की अनेकानेक विशेषताओं के प्रतीक प्रतिबिम्ब ही देवी-देवताओं के रूप में तत्त्वदर्शियों ने प्रस्तुत किये हैं। इनका उपयोग अपनी अन्तश्चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए किया जा सकता है। श्रद्धा-भक्ति बढ़ाने का अभ्यास इनके सहारे हो सकता है। ईश्वरीय सान्निध्य की आकांक्षा को देव दर्शन के सहारे उभारा जा सकता है। मनोनिग्रह की दृष्टि से भी उसका उपयोग है। देव मन्दिर-धर्म चेतना के उत्कर्ष एवं परिपोषण के केन्द्र रूप में होते थे-होने चाहिए थे। इन निर्धारणों की कितनी ही उपयोगिताएँ हैं, जिन्हें ध्यान में रखते हुए निराकार परमेश्वर को देव प्रतिमाओं और देव मन्दिरों के रूप में जन सामान्य की सुविधा एवं लोक मंगल की दृष्टि से विनिर्मित किया गया था। आज तो लोग लकीर के फकीर ही बन गये हैं और तथ्य को भुलाकर दर्शन में उलझ गये हैं। दर्शन का वास्तविक अर्थ तत्त्व-दर्शन फिलॉसफी है, लोगों ने उसका उथला अर्थ ‘देखना’ भर कर लिया है। मूर्तियों को, महात्माओं को देखने भर से पुण्य का मिलना मान लिया जाता है। जबकि चर्मचक्षुओं द्वारा देखना मात्र जानकारी बढ़ाने भर का प्रयोजन पूरा कर सकता है। इसी जंजाल में उलझे हुए व्यक्ति तथाकथित इष्ट देवों के दर्शन मिलने को आत्म साक्षात्कार की संज्ञा देते हैं। स्वप्न लोक की उड़ानों में कुछ सफलता मिली तो प्रसन्न होते हैं अन्यथा अपनी भक्ति को असफल मानते हैं। इन पिछड़ी मान्यताओं को अवास्तविक और दयनीय ही ठहराया जा सकता है। ईश्वर दर्शन आत्म साक्षात्कार के रूप से ही हो सकता है। आत्म साक्षत्कार का अर्थ है-आत्मा को ईश्वरीय सत्ता के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में विस्तृत और परिष्कृत देखना। उसे कषाय कल्मष से छुड़ाने और अपनी मूल स्थिति तक पहुँचाने की दृष्टि से जो भावनात्मक एवं क्रियात्मक-विधि विधान है उन्हें ही साधना कहते है। साधना सही हो तो तथ्य पूर्ण लक्ष्य के प्राप्त होने की सुनिश्चित सम्भावना है। जीवन की समूची विधि व्यवस्था उच्चस्तरीय बनाने वाली जीवन साधना हमें आत्मदेव का साक्षात्कार कराती है और उनके अजस्र अनुग्रह से-चमत्कारी अनुदान से भरा पूरा बना देती हैं। सिद्धि इसी को कहते हैं।

कर्मफल प्रायः तुरन्त नहीं मिलता। आहार विहार के शरीर स्पर्शी क्रिया-कृत्य ही तात्कालिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करते हैं। शेष सभी कर्म अपना प्रतिफल उत्पन्न करने में थोड़ा विलम्ब लगा लेते हैं। माली का बगीचा, किसान का खेत, विद्यार्थी का अध्ययन, परिपुष्टि-आकांक्षा का व्यायाम, उद्योगी का व्यापार आरम्भ से ही फल नहीं देने लगते हैं। उसमें समय लग जाता है। दूरदर्शी इसे सृष्टि का विधान समझकर धैर्य रखते और उपयुक्त समय आने की प्रतीक्षा करते हैं। पर बाल बुद्धि के लोग इस विलम्ब को सहन नहीं कर पाते और अधीर होकर अनुपयुक्त सोचने लगते हैं। विशेषतया कर्मफल तत्काल न मिलने की स्थिति में ऐसी ही हैरानी होती है। बहुधा सत्कर्मों का तत्काल प्रतिफल देखने में नहीं आता और प्रारब्ध वश कष्ट भुगतने की स्थिति में ही पड़े रहते हैं। ऐसी दशा में यह भ्रम होता कि प्रस्तुत कष्ट, सत्कर्मों का ही दुष्परिणाम है। इसी प्रकार कई दुष्कर्म करने वाले सुखी सम्पन्न एवं सफल पाये जाते हैं, इस स्थिति में भी भ्रम होता है कि कलियुग में दुष्कर्मों का फल सुख के रूप में और सत्कर्मों का फल दुःख के रूप में होता है। इसलिए उपासना, साधना आदि सत्कर्मों से दूर रहकर अनीति की रीति अपनाये रहना ही ठीक।
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—पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार