त्रिपदा गायत्री के तीन चरण
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मित्रो! हमारा सत्तर वर्ष का सम्पूर्ण जीवन सिर्फ एक काम में लगा है और वह है—भारतीय धर्म और संस्कृति की आत्मा की शोध। भारतीय धर्म और संस्कृति का बीज है—गायत्री मंत्र। इस छोटे-से चौबीस अक्षरों के मंत्र में वह ज्ञान और विज्ञान भरा हुआ पड़ा है, जिसके विस्तार में भारतीय तत्त्वज्ञान और भारतीय नेतृत्व विज्ञान दोनों को खड़ा किया गया है। ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार चरण गायत्री का व्याख्यान चार वेदों के रूप में किया। वेदों से अन्यान्य धर्मग्रंथ बने। जो कुछ भी हमारे पास हैं, इस सबकी मूल जड़ हम चाहें तो गायत्री मंत्र के रूप में देख सकते हैं। इसीलिए इसका नाम गुरुमंत्र रखा गया है, बीजमंत्र रखा गया है। बीजमंत्र के नाम से, गायत्री मंत्र के नाम से इसी एक मंत्र को जाना जा सकता है और गुरुमंत्र इसे कहा जा सकता है। हमने प्रयत्न किया कि सारे भारतीय धर्म और विज्ञान को समझने की अपेक्षा यह अच्छा है कि इसके बीज को समझ लिया जाए, जैसे कि विश्वामित्र ने तप करके इसके रहस्य और बीज को जानने का प्रयत्न किया। हमारा पूरा जीवन एक क्रियाकलाप में लग गया। जो बचे हुए जीवन के दिन हैं, उसका भी हमारा प्रयत्न यही रहेगा कि हम इसी की शोध और इसी के अन्वेषण और परीक्षण में अपनी बची हुई जिंदगी को लगा दें।
बहुत सारा समय व्यतीत हो गया। अब लोग जानना चाहते हैं कि आपने इस विषय में जो शोध की, जो जाना, उसका सार-निष्कर्ष हमें भी बता दिया जाए। बात ठीक है, अब हमारे महाप्रयाण का समय नजदीक चला आ रहा है तो लोगों का यह पूछताछ करना सही है कि हर आदमी इतनी शोध नहीं कर सकता। हर आदमी के लिए इतनी जानकारी प्राप्त करना तो संभव भी नहीं है। हमारा सार और निष्कर्ष हर आदमी चाहता है कि बताया जाए। क्या करें? क्या समझा आपने? क्या जाना? अब हम आपको बताना चाहेंगे कि गायत्री मंत्र के ज्ञान और विज्ञान में, जिसकी कि व्याख्या स्वरूप ऋषियों ने सारे का सारा तत्त्वज्ञान खड़ा किया है, क्या है?
गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। त्रिपदा का अर्थ है—तीन चरण वाली, तीन टाँग वाली। तीन टुकड़े इसके हैं जिनको समझ करके हम गायत्री के ज्ञान और विज्ञान की आधारशिला को ठीक तरीके से जान सकते हैं। इसका एक भाग है विज्ञान वाला पहलू। विज्ञान वाले पहलू में आते हैं तत्त्वदर्शन, तप, साधना, योगाभ्यास, अनुष्ठान, जप, ध्यान आदि। यह विज्ञान वाला पक्ष है। इससे शक्ति पैदा होती है। गायत्री मंत्र का जप करने से उपासना और ध्यान करने से उसके जो महात्म्य बताए गए हैं कि इससे यह लाभ होता है, अमुक लाभ होते हैं, अमुक कामनाएँ पूरी होती हैं। अब यह देखा जाए कि यह कैसे पूरी होती हैं और कैसे पूरी नहीं होतीं? कब यह सफलता मिलती है और कब नहीं मिलती? किसी भी चीज को पैदा करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। भूमि उसके पास होनी चाहिए। भूमि के अलावा खाद और पानी का इंतजाम होना चाहिए। अगर यह तीनों चीजें उसके पास न होंगी, तब फिर मुश्किल है। तब फिर वह बीज पल्लवित होगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही तीन बातें हैं कि यदि गायत्री मंत्र के साथ तीन चीजें मिला दी जाएँ या किसी भी आध्यात्मिक उपासना के साथ मिला दी जाएँ तो उसके ठीक परिणाम होने सम्भव हैं। अगर यह तीन चीजें नहीं मिलाई जाएँगी तब फिर यही कहना पड़ेगा कि इसमें सफलता की आशा कम है।
गायत्री उपासना के सम्बन्ध में हमारा लम्बे समय का जो अनुभव है वह यह है कि जप करने की विधियाँ और कर्मकाण्ड तो वही हैं, जो सामान्य पुस्तकों में लिखे हुए हैं या बड़े से लेकर छोटे लोगों ने किए हैं। किसी को फलित होने और किसी न फलित होने का मूल कारण यह है कि उन तीन तत्वों का समावेश करना लोग भूल जाते हैं, जो किसी भी उपासना का प्राण है। उपासना के साथ एक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा की एक अपने आप में शक्ति है। बहुत सारी शक्तियाँ हैं जैसे बिजली की शक्ति है, भाप की शक्ति है, आग की शक्ति है, उसी तरीके से श्रद्धा की भी एक शक्ति है। पत्थर में से देवता पैदा हो जाते हैं, झाड़ी में से भूत पैदा हो जाता है, रस्सी में से साँप हो जाता है और न जाने क्या-क्या हो जाता है श्रद्धा के आधार पर। अगर हमारा और आपका किसी मंत्र के ऊपर, जप, उपासना के ऊपर अटूट विश्वास है, प्रगाढ़ निष्ठा और श्रद्धा है तो मेरा अब तक का अनुभव यह है कि उसको चमत्कार मिलना चाहिए और उसके लाभ सामने आने चाहिए। जिन लोगों ने श्रद्धा से विहीन उपासनाएँ की हैं, श्रद्धा से रहित केवल मात्र कर्मकाण्ड सम्पन्न किए हैं, केवल जीभ की नोक से जप किए हैं, और अँगुलियों की सहायता से मालाएँ घुमाई हैं, लेकिन मन में वह श्रद्धा उत्पन्न न कर सके, विश्वास उत्पन्न न कर सके, ऐसे लोग खाली रहेंगे। बहुत सारा जप करते हुए अगर अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ उपासनाएँ की जाएँ तो यह एक ही पहलू ऐसा है, जिसके आधार पर हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारे अच्छे परिणाम निकलने चाहिए और उपासना को पूरा-पूरा लाभ देना चाहिए। यह एक पक्ष हुआ।
दूसरा—उपासना को सफल बनाने के लिए परिष्कृत व्यक्तित्व का होना नितांत आवश्यक है। परिष्कृत व्यक्तित्व का मतलब यह है कि आदमी चरित्रवान हो, लोकसेवी हो, सदाचारी हो, संयमी हो, अपने व्यक्तिगत जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने वाला हो। अब तक ऐसे ही लोगों को सफलताएँ मिली हैं। अध्यात्म का लाभ स्वयं पाने और दूसरों को दे सकने में केवल वही साधक सफल हुए हैं जिन्होंने कि जप, उपासना के कर्मकाण्डों के सिवाय अपने व्यक्तिगत जीवन को शालीन, समुन्नत, श्रेष्ठ और परिष्कृत बनाने का प्रयत्न किया है। संयमी व्यक्ति, सदाचारी व्यक्ति जो भी जप करते हैं, उपासना करते हैं, उनकी प्रत्येक उपासना सफल हो जाती है। दुराचारी आदमी, दुष्ट आदमी, नीच, पापी और पतित आदमी भगवान का नाम लेकर यदि चाहें तो पार नहीं हो सकते। भगवान का नाम लेने का परिणाम यह होना चाहिए कि आदमी का व्यक्तित्व सही हो और वह शुद्ध बने। अगर व्यक्ति को शुद्ध और समुन्नत बनाने में राम नाम सफल नहीं हुआ तो जानना चाहिए कि उपासना की विधि में बहुत भारी भूल रह गई और नाम के साथ में काम करने वाली बात को भुला दिया गया। परिष्कृत व्यक्तित्व उपासना का दूसरा वाला पहलू है—गायत्री उपासना के सम्बन्ध में अथवा अन्यान्य उपासनाओं के सम्बन्ध में।
तीसना—हमारा जब तक का अनुभव यह है कि उच्चस्तरीय जप और उपासनाएँ तब सफल होती हैं जबकि आदमी का दृष्टिकोण और महत्त्वाकांक्षाएँ भी ऊँची हों। घटिया उद्देश्य लेकर के, निकृष्ट कामनाएँ और वासनाएँ लेकर के अगर भगवान की उपासना की जाए और देवताओं का द्वार खटखटाया जाए तो देवता सबसे पहले कर्मकाण्डों की विधि और विधानों को देखने की अपेक्षा यह मालूम करने की कोशिश करते हैं कि इसकी उपासना का उद्देश्य क्या है? किस काम के लिए करना चाहता है? अगर उन्हीं कामों के लिए जिसमें कि आदमी को अपनी मेहनत और परिश्रम के द्वारा कमाई करनी चाहिए, उसको सरल और सस्ते तरीके से पूरा कराने के लिए देवताओं का पल्ला खटखटाता है तो वे उसके व्यक्तित्व के बारे में समझ जाते हैं कि यह कोई घटिया आदमी है और घटिया काम के लिए हमारी सहायता चाहता है। देवता भी बहुत व्यस्त हैं। देवता सहायता तो करना चाहते हैं, लेकिन सहायता करने से पहले यह तलाश करना चाहते हैं कि हमारा उपयोग कहाँ किया जाएगा? किस काम के लिए किया जाएगा? यदि घटिया काम के लिए उनका उपयोग किया जाने वाला है, तो वे कदाचित ही कभी किसी के साथ सहायता करने को तैयार होते हैं। ऊँचे उद्देश्यों के लिए देवताओं ने हमेशा सहायता की है।
मंत्रशक्ति और भगवान की शक्ति केवल उन्हीं लोगों के लिए सुरक्षित रही है, जिनका दृष्टिकोण ऊँचा रहा है। जिन्होंने किसी अच्छे काम के लिए, ऊँचे काम के लिए भगवान की सेवा और सहायता चाही है, उनको बराबर सेवा और सहायता मिली है। इन तीनों बातों को हमने प्राणपण से प्रयत्न किया और हमारी गायत्री उपासना में प्राण-संचार होता चला गया। प्राण-संचार अगर होगा तो हर चीज प्राणवान और चमत्कारी होती चली जाती है और सफल होती जाती है। हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में चौबीस लाख के चौबीस साल में चौबीस महापुरश्चरण किए। जप और अनुष्ठानों की विधियों को संपन्न किया। सभी के साथ जो नियमोपनियम थे, उनका पालन किया, यह भी सही है, लेकिन हर एक को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी उपासना में कर्मकाण्डों का, विधि-विधानों का जितना ज्यादा स्थान है, उससे कहीं ज्यादा स्थान इस बात के ऊपर है कि हमने उन तीन बातों को जो आध्यात्मिकता की प्राण समझी जाती हैं, उन्हें पूरा करने की कोशिश की है। अटूट श्रद्धा और अडिग विश्वास गायत्री माता के प्रति रख करके और उसकी उपासना के सम्बन्ध में अपनी मान्यता और भावना रख करके प्रयत्न किया है और उसका परिणाम पाया है। व्यक्तित्व को भी जहाँ तक संभव हुआ है परिष्कृत करने के लिए पूरी कोशिश की है। एक ब्राह्मण को और एक भगवान के भक्त को जैसा जीवन जीना चाहिए हमने भरसक प्रयत्न किया है कि उसमें किसी तरह से कमी न आने पावे। उसमें पूरी-पूरी सावधानी हम बरतते रहे हैं। अपने आपको धोबी के तरीके से धोने में और धुनिए के तरीके से धुनने में हमने आगा-पीछा नहीं किया है। यह हमारी उपासना को फलित और चमत्कृत बनाने का एक बहुत बड़ा कारण रहा है। उद्देश्य हमेशा से ऊँचा रहे। उपासना हम किस काम के लिए करते हैं, हमेशा यह ध्यान बना रहा। पीड़ित मानवता को ऊँचा उठाने के लिए, देश-धर्म, समाज और संस्कृति को समुन्नत बनाने के लिए हम उपासना करते हैं, अनुष्ठान करते हैं। भगवान की प्रार्थना करते हैं। भगवान ने देखा कि किस नीयत से यह आदमी कर रहा है। भगीरथ की नीयत को देखकर के गंगाजी स्वर्ग से पृथ्वी पर आने के लिए तैयार हो गई थीं और शंकर भगवान् उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए थे। हमारे सम्बन्ध में भी वैसा ही हुआ। ऊँचे उद्देश्यों को सामने रख करके चले तो दैवी-शक्तियों की भरपूर सहायता मिली। हमारा अनुरोध यह है कि जो कोई भी आदमी यह चाहते हों कि हमको अपनी उपासना को सार्थक बनाना है, तो उन्हें इन तीन बातों को बराबर ध्यान में रखना चाहिए।
हम देखते हैं कि अकेला बीज बोना सार्थक नहीं हो सकता। उससे फसल नहीं आ सकती। फसल कमाने के लिए बीज एक, भूमि दो और खाद-पानी इन तीन चीजों की जरूरत है। निशाना लगाने के लिए बंदूक एक, कारतूस दो और निशाना लगाने वाले का अभ्यास तीन—यह तीनों होंगी तब बात बनेगी। मूर्ति बनाने के लिए पत्थर एक, छेनी-हथौड़ा दो और मूर्ति बनाने की कलाकारिता तीन। लेखन-कार्य के लिए कागज, स्याही और शिक्षा तीनों चीजों की जरूरत है। मोटर चलाने के लिए मोटर की मशीन, तेल और ड्राइवर तीनों चीजों की जरूरत होती है। इसी तरीके से उपासना के चमत्कार अगर किन्हीं को देखने हों, उपासना की सार्थकता की परख करनी हो तो इन तीनों बातों को ध्यान में रखना पड़ेगा, जो हमने अभी निवेदन किया—उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, परिष्कृत व्यक्तित्व और अटूट श्रद्धा-विश्वास। इन तीनों को मिलाकर के जो कोई भी आदमी उपासना करेगा, निश्चयपूर्वक और विश्वासपूर्वक हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिकता के तत्त्वज्ञान का जो कुछ भी माहात्म्य बताया गया है कि आदमी स्वयं लाभान्वित होता है, समर्थ बनता है, शक्तिशाली बनता है, शांति पाता है, स्वर्ग-मुक्ति जैसा लाभ प्राप्त करता है और दूसरों की सेवा-सहायता करने में समर्थ होता है, सही है।
गायत्री मंत्र के सम्बन्ध में हम यही प्रयोग और परीक्षण आजीवन करते रहे और पाया कि गायत्री मंत्र सही है, शक्तिमान है। सब कुछ उसके भीतर है, लेकिन है तभी जब गायत्री मंत्र के बीज को तीनों चीजों से समन्वित किया जाए। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण, अटूट श्रद्धा-विश्वास और परिष्कृत व्यक्तित्व यह जो करेगा पूरी सफलता पाएगा। हमारे अब तक के गायत्री उपासना सम्बन्धी अनुभव यही हैं कि गायत्री मंत्र के बारे में जो तीनों बातें कही जाती हैं, पूर्णतः सही हैं। गायत्री को कामधेनु कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा जाता है, यह सही है। गायत्री को पारस कहा जाता है, इसको छूकर के लोहा सोना बन जाता है, यह सही है। गायत्री को अमृत कहा जाता है, जिसको पीकर के अजर और अमर हो जाते हैं, यह भी सही है। यह सब कुछ सही उसी हालत में हैं जबकि गायत्री रूपी कामधेनु को चारा भी खिलाया जाए, पानी पिलाया जाए, उसकी रखवाली भी की जाए। गाय को चारा आप खिलाएँ नहीं और दूध पीना चाहें तो यह कैसे सम्भव होगा? पानी पिलाएँ नहीं ठंड से उसका बचाव करें नहीं, तो कैसे सम्भव होगा? गाय दूध देती है, यह सही है, लेकिन साथ-साथ में यह भी सही है कि इसको परिपुष्ट करने के लिए, दूध पाने के लिए उन चीजों की जरूरत है जो कि मैंने अभी आपसे निवेदन किया।
यह विज्ञान-पक्ष की बात हुई। अब ज्ञान-पक्ष की बात आती है। यह मेरा 70 वर्ष का अनुभव है कि गायत्री के तीन पाद-तीन चरण में तीन शिक्षाएँ भरी हैं और ये तीनों शिक्षाएँ ऐसी हैं कि अगर उन्हें मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में समाविष्ट कर सके तो धर्म और अध्यात्म का सारे का सारा रहस्य और तत्त्वज्ञान का उसके जीवन में समाविष्ट होना सम्भव है। तीन पक्ष त्रिपदा गायत्री हैं—(1) आस्तिकता, (2) आध्यात्मिकता, (3) धार्मिकता। इन तीनों को मिला करके त्रिवेणी संगम बन जाता है। ये क्या हैं तीनों?
पहला है—आस्तिकता। आस्तिकता का अर्थ है ईश्वर का विश्वास। भजन-पूजन तो कई आदमी कर लेते हैं, पर ईश्वर-विश्वास का अर्थ यह है कि सर्वत्र जो भगवान समाया हुआ है, उसके सम्बन्ध में यह दृष्टि रखें कि उसका न्याय का पक्ष, कर्म फल देने वाला पक्ष इतना समर्थ है कि उसका कोई बीच-बचाव नहीं हो सकता। भगवान सर्वव्यापी है, सर्वत्र है, सबको देखता है, अगर यह विश्वास हमारे भीतर हो तो हमारे लिए पाप कर्म करना सम्भव नहीं होगा। हम हर जगह भगवान को देखेंगे और समझेंगे कि उसकी न्याय, निष्पक्षता हमेशा अक्षुण्ण रही है। उससे हम अपने आपका बचाव नहीं कर सकते। इसलिए आस्तिक का, ईश्वर-विश्वासी का पहला क्रियाकलाप यह होना चाहिए कि हमको कर्मफल मिलेगा, इसलिए हम भगवान से डरें। जो भगवान से डरता है, उसको संसार में और किसी से डरने की जरूरत नहीं होती। आस्तिकता-चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा का मूल है। आदमी इतना धूर्त है कि वह सरकार को झुठला सकता है, कानूनों को झुठला सकता है, लेकिन अगर ईश्वर का विश्वास करके अंतःकरण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान करके अंतःकरण में जमा हुआ है तो वह बराबर ध्यान रखेगा। हाथी के ऊपर अंकुश जैसे लगा रहता है, आस्तिकता का अंकुश हर आदमी को ईमानदार बनने के लिए, अच्छा बनने के लिए प्रेरणा करता है, प्रकाश देता है।
ईश्वर की उपासना का अर्थ है—जैसा ईश्वर महान है वैसे ही महान बनने के लिए हम कोशिश करें। हम अपने आपको भगवान में मिलाएँ। यह विराट् विश्व भगवान का रूप है और हम इसकी सेवा करें, सहायता करें और इस विश्व-उद्यान को समुन्नत बनाने की कोशिश करें, क्योंकि हर जगह भगवान समाया हुआ है। सर्वत्र भगवान विद्यमान है, यह भावना रखने से ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना मन में पैदा होती है। गंगा जिस तरीके से अपना समर्पण करने के लिए समुद्र की ओर चल पड़ती है, आस्तिक व्यक्ति, ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति भी अपने आपको भगवान में समर्पित करने के लिए चल पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान की इच्छाएँ मुख्य हो जाती हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाएँ, व्यक्तिगत कामनाएँ भगवान की भक्ति समाप्त कराती हैं और यह सिखाती हैं कि ईश्वर के संदेश, ईश्वर की आज्ञाएँ ही हमारे लिए सब कुछ होनी चाहिए। हमें अपनी इच्छा भगवान पर थोपने की अपेक्षा, भगवान की इच्छा को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। आस्तिकता के ये बीज हमारे अन्दर जमे हुए हों तो जिस तरीके से वृक्ष से लिपटकर बेल उतनी ही ऊँची हो जाती है जितना कि ऊँचा वृक्ष है। उसी प्रकार से हम भगवान की ऊँचाई के बराबर ऊँचे चढ़ सकते हैं। जिस तरीके से पतंग अपनी डोरी बच्चे के हाथ में थमाकर आसमान में ऊँचे उड़ती चली जाती है। जिस तरीके से कठपुतली के धागे बाजीगर के हाथ में बँधे रहने से कठपुतली अच्छे से अच्छा नाच-तमाशा दिखाती है। उसी तरीके से ईश्वर का विश्वास, ईश्वर की आस्था अगर हम स्वीकार करें, हृदयंगम करें और अपने जीवन की दिशा-धाराएँ भगवान के हाथ में सौंप दें अर्थात् भगवान के निर्देशों को ही अपनी आकांक्षाएँ मान लें तो हमारा उच्चस्तरीय जीवन बन सकता है और हम इस लोक में शांति और परलोक में सद्गति प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं।
आस्तिकता गायत्री मंत्र की शिक्षा का पहला वाला चरण है। इसका दूसरा वाला चरण है—आध्यात्मिकता। आध्यात्मिकता का अर्थ होता है—आत्मावलम्बन, अपने आपको जानना, आत्मबोध। ‘आत्माऽवा अरे ज्ञातव्य’ अपने आपको जानना। अपने आपको न जानने से हम बाहर-बाहर भटकते रहते हैं। कई अच्छी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, अपने दुःखों का कारण बाहर तलाश करते-फिरते रहते हैं। जानते नहीं कि हमारी मनःस्थिति के कारण ही हमारी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अगर हम यह जान पाएँ, तब फिर हम अपने आपको सुधारने के लिए कोशिश करें। स्वर्ग और नर्क हमारे ही भीतर हैं। हम अपने ही भीतर स्वर्ग दबाए हुए हैं, अपने ही भीतर नर्क दबाए हुए हैं। हमारी मनःस्थिति के आधार पर ही परिस्थितियाँ बनती हैं। कस्तूरी का हिरण चारों तरफ खुशबू की तलाश करता फिरता था, लेकिन जब उसको पता चला कि वह तो नाभि में ही है, तब उसने इधर-उधर भटकना त्याग दिया और अपने भीतर ही ढूँढ़ने लगा।
फूल जब खिलता है तब भौंरे आते ही हैं, तितलियाँ भी आती हैं। बादल बरसते तो हैं लेकिन जिसके आँगन में जितना पात्र होता है, उतना ही पानी देकर के जाते हैं। चट्टानों के ऊपर बादल बरसते रहते हैं, लेकिन घास का एक तिनका भी पैदा नहीं होता। छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नंबर से पास होते हैं। संसार में सौंदर्य तो बहुत हैं, पर हमारी आँख न हो तो उसका क्या मतलब? संसार में संगीत-गायन तो बहुत हैं, शब्द बहुत हैं, पर हमारे कान न हों तो उन शब्दों का क्या मतलब। संसार में ज्ञान-विज्ञान तो बहुत है, पर हमारा मस्तिष्क न हो तो उसका क्या मतलब? ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। इसलिए आध्यात्मिकता का संदेश यह है कि हर आदमी को अपने आपको देखना, समझना, सुधारने के लिए भरपूर प्रयत्न करना चाहिए। अपने आपको हम जितना सुधार लेते हैं, उतनी ही परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल बनती चली जाती हैं। यह सिद्धांत गायत्री मंत्र का दूसरा वाला चरण है।
तीसरा वाला चरण गायत्री मंत्र का है—धार्मिकता। धार्मिकता का अर्थ होता है—कर्तव्यपरायणता, कर्तव्यों का पालन। कर्तृत्व, कर्म और धर्म लगभग एक ही चीज है। मनुष्य में और पशु में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि पशु किसी मर्यादा से बँधा हुआ नहीं है। मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादाएँ और नैतिक नियम बाँधे गए हैं और जिम्मेदारियाँ लादी गईं हैं। जिम्मेदारियाँ को और कर्तव्यों को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है। शरीर के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसको हम निरोग रखें। मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्तव्य है कि इसमें अवांछनीय विचारों को न आने दें। परिवार के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उनको सद्गुणी बनाएँ। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्तव्य है कि उन्हें भी समुन्नत बनाने के लिए भरपूर ध्यान रखें। लोभ और मोह के पाश से अपने आपको छुड़ा करके अपनी जीवात्मा का उद्धार करना—यह भी हमारा कर्तव्य है और भगवान ने जिस काम के लिए हमको इस संसार में भेजा है, जिस काम के लिए मनुष्य योनि में जन्म दिया है, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्तव्य है। इन सारे के सारे कर्तव्यों को अगर हम ठीक तरीके से पूरा न कर सके तो हम धार्मिक कैसे कहला सकेंगे?
धार्मिकता का अर्थ होता है—कर्तव्यों का पालन। हमने सारे जीवन में गायत्री मंत्र के बारे में जितना भी विचार किया, शास्त्रों को पढ़ा, सत्संग किया, चिंतन-मनन किया, उसका सारांश यह निकला कि बहुत सारा विस्तार ज्ञान का है, बहुत सारा विस्तार धर्म और अध्यात्म का है, लेकिन इसके सार में तीन चीजें समाई हुई हैं—(1) आस्तिकता अर्थात् ईश्वर का विश्वास, (2) आध्यात्मिकता अर्थात् स्वावलम्बन, आत्मबोध और अपने आपको परिष्कृत करना, अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना और (3) धार्मिकता अर्थात् कर्तव्यपरायणता। कर्तव्य परायण, स्वावलम्बी और ईश्वरपरायण कोई भी व्यक्ति गायत्री मंत्र का उपासक कहा जा सकता है। और गायत्री मंत्र के ज्ञान-पक्ष के द्वारा जो शान्ति और सद्गति मिलनी चाहिए उसका अधिकारी बन सकता है। हमारे जीवन के यही निष्कर्ष हैं। विज्ञान-पक्ष में तीन धाराएँ और ज्ञान-पक्ष में तीन धाराएँ—इनको जो कोई प्राप्त कर सकता हो—गायत्री मंत्र की कृपा से निहाल बन सकता है और ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त करके इसी लोक में स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बन सकता है। ऐसा हमारा अनुभव, ऐसा हमारा विचार और ऐसा हमारा विश्वास है।
॥ॐ शान्तिः॥