सामाजिक कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करें
व्यक्ति और समाज का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । दोनों की प्रगति और अवगति एक साथ जुड़ी हुई है । भ्रष्ट समाज में दुष्ट व्यक्ति ही उत्पन्न होते हैं और दुष्ट व्यक्तियों से मिलकर बना हुआ समाज भ्रष्ट हो जाता है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । सहकारिता की प्रकृति ने ही उसे बुद्धिमान और साधन सम्पन्न बनाया है । इस मानवी विशेषता को सुस्थिर बनाये रहने और विकसित करने के लिए हमें निरन्तर ध्यान रखना चाहिए । अपने सुख को सब में बाँट कर खाने और दूसरों के दुःख बटाने में योगदान देने की उदारता का अपना सहज स्वभाव बना लेना चाहिए । समाज निष्ठ व्यक्ति ही अपने देश को सुसम्पन्न बनाते हैं । सुखी रहते और यशस्वी होते हैं ।
हमें किसी ऐसे लाभ की बात नहीं सोचनी चाहिए जिसमें समाज का अहित होता है और भ्रष्ट परम्पराएँ उत्पन्न होती हैं । अनाचार छूत की बीमारी की तरह है जो एक के सम्पर्क से दूसरे को लगता है । हमें अपना चरित्र स्वभाव और व्यक्तित्व ऐसा बनाना चाहिए जिसका अनुकरण करते हुए दूसरे लोग सज्जनता, शालीनता और आदर्शवादिता की राह पर चल सकें । चरित्र-निष्ठा एक प्रकार की समाज सेवा ही है । अपने को, अपने परिवार को आदर्श बना कर हम समाज के एक अंश को—घटक को, समुन्नत बनाते हैं । वैसी श्रेष्ठ परम्पराएँ अपने में, अपने परिवार में आरम्भ करनी चाहिए, जिनका प्रचलन समस्त समाज में होने की आवश्यकता अनुभव करते हैं ।
चोरी-चालाकी का धन्धा हमें नहीं करना चाहिए । बेईमानी और भ्रष्ट तरीकों से धन अर्जित नहीं करना चाहिए । ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही खानी चाहिए । यदि थोड़ी आजीविका होती है तो अपने खर्चे घटाकर सादगी का—गरीबी का जीवनयापन कर लेना चाहिए । नशीली वस्तुओं के धन्धे से अपना तो लाभ होता है, किन्तु दूसरों को हानि होती है, उसे तो न करना ही उचित है । खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट आजकल खूब चल रही है, इससे व्यापारी मोटा लाभ कमाते हैं । रिश्वतखोरी बेहिसाब फैल रही है, इससे सरकारी अफसर मालामाल हो रहे हैं । ठेकेदार मुनाफा कमाते हैं । किन्तु कमजोर और खराब सड़क, इमारतें बना देने से जनता की भारी क्षति होती है । साहित्यकार, प्रकाशक, कलाकार ऐसी वस्तुएँ प्रस्तुत करते हैं जो समाज को नीचे गिराती हैं । ऐसे अनेक काम हैं, जो समाज को आर्थिक, नैतिक या शारीरिक, मानसिक हानि पहुँचाते हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए और स्वच्छ आजीविका वाले कामों को ही अपनाना चाहिए भले ही वे अपेक्षाकृत कम कमाई के हों ।
महिलाएंँ कई बातों में आग्रह करती हैं और किसी प्रकार अपनी बात मनवा ही लेती हैं । अनीति उपाजित धन घर में न आवे इसके लिए वे अपने पतियों से आग्रह कर सकती हैं । बढ़े हुए खर्चे को जितना अधिक कम करना संभव है उसे करने का आश्वासन देकर वे कमाने वालों को यह समझा सकती हैं कि नीति की कमाई से भी मितव्ययता पूर्वक गुजर की जा सकती है ।
नशेबाजी के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है । स्त्रियाँ स्वयं तो नशेबाजी नहीं करती, किन्तु पुरुषों को तो उन्हें रोकना ही चाहिए । नशेबाजी धीमी आत्म-हत्या है । यदि उनके पिता, भाई, श्वसुर, पति, पुत्र मूर्खतावश नशेबाजी तथा दूसरे व्यसन अपनाते हैं तो उन्हें चाहिए कि अपनी अप्रसन्नता, असहमति और विरोध व्यक्त करें । आत्म-हत्या करने वाले के आवेश ग्रस्त स्थिति में अनाचरण करने वाले के प्रयासों को रोकना ही पड़ता है । इस प्रकार नशेबाजी, जुआ, आवारागर्दी आदि बुराइयों को रोक कर परिवार की परम्परा सुधारने का प्रयत्न भी किया जाना चाहिए ।
महिला जागरण अभियान के सदस्यों को सदा यह विचार करते रहना चाहिए कि समाज को हानि पहुँचा कर, भ्रष्ट परम्परा उत्पन्न करके आजीविका उपार्जन न करेंगे । इससे न केवल समाज की वरन् व्यक्ति तथा समूचे परिवार की भारी क्षति है । अनीति उपार्जित धन का परिणाम दुर्व्यसनों के, दुष्ट आचरणों के रूप में सामने आता है । वैसा अन्न खाने से घर में दुर्बुद्धि उत्पन्न होती है और उसके कारण देर-सबेर में विशृंखलता उत्पन्न होती है । अनीति उपार्जित धन से दुर्बुद्धि का उत्पन्न होना, दुर्बुद्धि से दुराचारी गतिविधियों का बढ़ना, कुकर्मी का पतन के गर्त में गिरना और दुसह दुःख सहना संसार का अकाट्य नियम है । यह सदा से परखा जाता रहा है और कर्मफल का सिद्धान्त हर कसौटी पर खरा उतरता रहा है । अच्छा हो हम उस ईश्वरीय नियम को समझें और आर्थिक तथा नैतिक अनाचारों से बचने का—सज्जनोचित राह पर चलने का शक्ति भर प्रयत्न करें । यह बात जितनी समाज हित में है, उससे अधिक अपने तथा अपने परिवार के हित में है ।
परिवार एक छोटा राष्ट्र है । उसे समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई कहा जा सकता है । प्रत्येक महिला अपने आपको दूसरी इन्दिरा गान्धी समझे और अपने परिवार रूपी राष्ट्र को सुव्यवस्थित, सुसंचालित और सुविकसित बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करे । प्रत्येक पुरुष इस कार्य में उसे पूरा-पूरा सहयोग प्रदान करे । राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की सत्ता सम्पन्न स्थिति प्राप्त करने का अवसर अन्यत्र न सही अपने परिवार में तो मिल ही जाता है । अपना विवेक और कौशल समेट कर इस क्षेत्र को अधिकाधिक परिष्कृत करने में हमें अथक परिश्रम करना चाहिए और साहस भरी प्रगतिशीलता का परिचय देना चाहिए । अपने घर में स्वस्थ परम्पराओं को ही प्रश्रय मिले, आदर्शवादिता उसकी प्रत्येक गतिविधि में—रीति-नीति में परिलक्षित होती रहे, इसके लिए सच्चे मन से पूरा-पूरा प्रयास किया जाना चाहिए ।
हमें अपने नागरिक कर्तव्यों का भली प्रकार ध्यान रखना चाहिए, उचित सामाजिक मर्यादाओं का पालन करें । राष्ट्रीय व्यवस्था और सुरक्षा बनाये रहने के लिए जागरूक प्रहरी का काम करें । न तो अवांछनीय आचरण स्वयं करें, न दूसरों को करने दें । अनीति न स्वयं बरतें, न दूसरों द्वारा किये जाने पर सहन करें । सार्वजनिक सम्पत्ति का, मानवी मर्यादा का पालन करें । अनुशासन बरतें और सज्जनोचित शिष्टाचार का सदा सर्वदा ध्यान करें । एक बार अधिकार प्राप्त करने में शिथिलता भी हो सकती है, पर कर्तव्य पालन में तनिक भी ढील न पड़ने दें । आलस्य, प्रमाद, अपव्यय, व्यसन, व्यभिचार जैसे व्यक्तिगत दोषों से ग्रसित-निरत होकर हम अपना ही नहीं, समूचे राष्ट्र का अहित करते हैं । उच्छृंखलता, उद्दंडता, आतंकवाद, गुण्डागर्दी, अपराधी दुष्प्रवृत्ति अपना कर मनुष्य अपनी मानवी मर्यादाओं को नष्ट करता है । अपनी आँखों में आप गिरता है और समस्त मानवी गौरव गरिमा को कलंकित करता है । हमें अपनी आत्मा का इस प्रकार हनन और पतन ही नहीं करना चाहिए । अनाचार मानवी मर्यादा का उल्लंघन तो है ही, विश्वात्मा के—परमात्मा के सम्मुख भी वह घृणित अपराध है । महिला जागरण अभियान के सदस्यों को दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में से निरस्त करने के लिए अनवरत श्रम-संघर्ष करना चाहिए ।
मनुष्य में जो अगणित विशेषताएँ पाई जाती हैं, वे असंख्य मनुष्यों के द्वारा चिरकाल से दिये जा रहे अनुदानों की देन हैं । प्रत्यक्षत: मनुष्य दूसरे प्राणियों की तुलना में कितनी ही दृष्टियों से पिछड़ा हुआ है । वह घोड़े जितना दौड़ नहीं सकता, हिरन जैसा उछल नहीं सकता, बैल जितना बोझ नहीं ढो सकता, जल चरों जैसी डूबने की और नभ चरों जैसी उड़ने की क्षमता भी उसमें नहीं है । अन्य जीवों के बच्चे जन्मते ही अपना भोजन आप खाने लगते हैं । पर मनुष्य का बच्चा तो बहुत दिन पश्चात भी माँ का दूध तक ढूँढ़ने में समर्थ नहीं होता । उसकी सारी प्रगति दूसरों के सहयोग पर टिकी है । परस्पर सहयोग की वृत्ति ने ही उसे कुटुम्ब बनाना, समाज रचना और सरकार बनाना सिखाया है । मानवी प्रगति का सारा इतिहास इसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत है कि उसने सहयोग की वृत्ति पाई, एक ने दूसरे को अपने अनुभव एवं परिश्रम से दूसरे को लाभ पहुँचाया तदनुसार क्रमिक प्रगति होती चली गई और वह वहाँ तक बढ़ता चला आया जहाँ तक कि आज है । बुद्धिमत्ता मनुष्य का प्रधान गुण नहीं है । उसकी मौलिक विशेषता सहकारिता, उदारता और मिल-जुलकर रहने की प्रवृत्ति है । इस प्रवृत्ति को ईश्वर प्रदत्त सबसे बड़ा उपहार कहना चाहिए जिसके सहारे उसने हर क्षेत्र में प्रगति की ओर अनेकानेक सुख-साधन जुटाये । इस सत्प्रवृत्ति का हमें अधिकाधिक अभिवर्धन करना चाहिए ।
अकेलापन, व्यक्तिवाद एवं संकीर्ण स्वार्थपरता सबसे घातक दुष्प्रवृत्ति है । इसी के कारण अनेकानेक दोष-दुर्गुण मनुष्य में पैदा होते हैं । हमें स्वार्थी नहीं होना चाहिए, वरन हर क्षेत्र में सहकारिता का समर्थन करना चाहिए । संयुक्त परिवार एक सहयोग समिति है, जिसमें सब सदस्य मिलजुल कर काम करते हैं और एक-दूसरे की सहायता करते हैं । वस्तुतः यही समाजवाद, साम्यवाद तथा अध्यात्मवाद है जिसे हम परिवार क्षेत्र में प्रयोग करके आगे बढ़ाते हैं । योग्यता के अनुसार श्रम और आवश्यकता के अनुसार उपयोग की नीति पालन करने का अभ्यास हमें कुटुम्ब में ही मिलता है । इसमें रहकर मनुष्य अपने वैयक्तिक स्वार्थों पर अंकुश रखने और सामूहिक स्वार्थ को प्रधानता देने का अभ्यास करता है । एक-दूसरे के सहयोग से आगे बढ़ते हैं, अनुशासित होते हैं । हमें संयुक्त परिवार पद्धति को अपनाये रहने में ही भलाई सोचनी चाहिए और उसे स्वस्थ परम्पराओं के ऊपर आधारित करने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि बिना मनो-मालिन्य एवं टकराव उत्पन्न किये यह सहकारी संस्था अपने प्रत्येक सदस्य को अधिकाधिक लाभ पहुँचाने में समर्थ हो सके ।
व्यवसाय, समाज-सेवा, मनोरंजन आदि प्रत्येक क्षेत्र में संगठित रूप से काम करने का हमारा दृष्टिकोण रहना चाहिए । सहकारी गतिविधियों को अपनाना चाहिए और उस प्रवृत्ति का पूरा-पूरा समर्थन करना चाहिए । कृषि व्यवसाय आदि के लिए सहकारी समितियाँ बनायें, सहकारी दुकानें खोलें और उसके माध्यम से अच्छी सस्ती वस्तुएँ उपलब्ध करने का प्रयत्न करें । व्यायामशालाएँ, खेल-कूद, पुस्तकालय, वाचनालय, मनोरंजन लोक सुरक्षा दल आदि सामूहिक प्रवृत्तियों में पूरे उत्साह के साथ भाग लें । उनकी स्थापना और प्रगति में पूरा-पूरा सहयोग प्रदान करें ।
जीवन की प्रत्येक आवश्यकता हम दूसरों के सहयोग से ही पूरी कर पाते हैं । अन्न, वस्त्र, औषधि, बिजली, मकान, रेल, डाक, रेडियो आदि की जो अनेकानेक वस्तुएँ, सुविधाएँ तथा सुखद परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं वे सभी समाज की देन है । उन्हें बनाने में चिरकाल का, असंख्य मनुष्यों का, श्रम एवं चिन्तन लगा है । समाज, सरकार, परिवार भी दूसरों के सहयोग का ही फल है । दाम्पत्य जीवन का पूरक दूसरा सुयोग्य साथी भी दूसरों का ही उदार अनुदान है । इस प्रवृत्ति को टूटने न दें । उसे बढ़ायें । इसके लिए आवश्यक है, हम अधिकाधिक उदार बनें । अपने श्रम, समय, ज्ञान, कौशल, प्रभाव, वर्चस्व एवं धन का न्यूनतम भाग अपने निजी निर्वाह के लिए उपयोग करें । जो जितना कुछ बचा सके उसे लोक-मंगल के लिए, संव्याप्त पीड़ा और पतन का निराकरण करने के लिए खुले मन से खर्च करें । इस उदारता की नीति को अपना कर ही हम समाज के उस ऋण से मुक्त हो सकते हैं, जो हमारी आज की प्रगति और समृद्धि का मेरु दंड है । आदर्शवादिता और परमार्थ परायणता हमारे जीवन की प्रधान नीति होनी चाहिए । उसे चरितार्थ करने के लिए जितना अधिक बन पड़े उतना अधिक करना चाहिए ।
समाज में स्वस्थ परम्पराओं के अभिवर्धन के लिए जहाँ अधिकाधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता है वहाँ यह भी आवश्यक है कि समाज में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण का पूरा-पूरा प्रयत्न करें । यदि उन्हें सहन करते रहा जायगा, जो अवांछनीयता चल रही है, उसे चलने दिया जायगा तो निष्कंटक होकर वे दावानल की तरह बढ़ेंगी और सारे समाज को नष्ट कर देंगी । उस आग में हमें और हमारे परिवार को भी जल मरना होगा । पड़ोस में फैला हुआ हैजा, पड़ोस के घरों में लगी आग, मुहल्ले में बढ़ती हुई गुण्डा गर्दी के रहते हम भी सुरक्षित नहीं हैं । उसकी लपटें अपना भी सफाया कर देंगी । अस्तु आत्म रक्षा के लिए भी और सामूहिक स्वार्थों की रक्षा के लिए भी, समाज में फैली हुई कुरीतियों एव दुष्प्रवृत्तियों के साथ पूरे शौर्य-साहस के साथ लड़ना चाहिए और उस संघर्ष में जो आघात सहने पड़ें, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सहना चाहिए ।
मृतक भोज, भूत-पलीतवाद जैसी निरर्थक कुरीतियों को अपने घरों से निकालने के लिए प्रगतिशील उत्साह बरतना चाहिए । लड़कों के विवाह तो सर्वथा आदर्शवादी रीति से बिना दहेज के, गरीब घर की लड़की से ही करने की ही ठान रखनी चाहिए और उसे निबाहना ही चाहिए । साधु-बाबाओं, पंडित, ज्योतिषियों और झाड़-फूँक करने वालों के रूप में कितने ही अवांछनीय व्यक्ति भोली महिलाओं को ठगते और अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं । विवेकशील महिलाओं का काम है कि ऐसे लोगों की दाल अपने घराें में न गलने दें और पास-पड़ोस को भी इस दिशा में सतर्क करती रहें ।
जातीय और वंश के नाम पर ऊँच-नीच की मान्यता, छूत-छात अपने समाज पर लगा बुरी किस्म का कलंक है । इसी प्रकार नर और नारी के बीच जो ऊँच-नीच की मान्यताएँ हैं वे मानवीय एकता और समता के शाश्वत सिद्घांत पर कुठाराघात हैं । इस भेद-भाव को हमें सर्वथा अस्वीकार करना चाहिए और दूसरों को इन मान्यतओं को अपनाने से रोकने का प्रयत्न करना चाहिए ।
भूत-प्रेत, असंख्य देवी-देवता, जादू-टोना, झाड़-फूँक आदि की मान्यताएँ किसी समाज के पिछड़ेपन के चिन्ह हैं । फलित ज्योतिष, ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव, हस्तरेखा, शकुन-विद्या, मुहूर्तवाद, भाग्यवाद आदि अंधविश्वासों में कोई दम नहीं है । इन्हें अपनाए रहने में हानि अपार है, लाभ रत्ती भर भी नहीं । हमें इन मूढ़ मान्यतओं के उन्मूलन का प्रयत्न करना चाहिए ताकि समाज में विवेकशीलता और बुद्धिमत्ता की स्थापना कर सकना संभव हो सके । समाज को अधिकाधिक स्वच्छ, सुसंस्कृत और समुन्नत बनाना हम सबका परम पवित्र कर्तव्य है । उसका पालन होना ही चाहिए । महिला जागरण अभियान के सदस्यों को अपने निज के दृष्टिकोण में तथा पारिवारिक प्रथा परम्पराओं में इन समाजनिष्ठ सत्प्रवृत्तियाें को समुचित स्थान देने के लिए सतर्कता और तत्परतापूर्वक प्रयत्नशील रहना चाहिए ।