उपासना फलदायी कैसे बने?

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

मैंने आपको उपासना का मर्म बतलाने के लिए बुलाया है। मेरे जीवन के अनुभव से आपको लाभ होगा। हमने इस क्षेत्र में काफी लम्बी मंजिल तय की है। अगर कोई भी इस रास्ते पर चलने के लिए, उपासना की वास्तविकता को समझाने के लिए प्रयास करेगा, उसे अवश्य लाभ होगा तथा वह मंजिल तक पहुँचने में समर्थ हो सकेगा। उपासना करने से लाभ नहीं मिलता है—यह कहना गलत है। उपासना फल देने में गड़बड़ पैदा करती है—ऐसी बात भी नहीं है। वास्तव में यदि हमको सही रास्ता मिल जाए तथा भगवान को हम समझ जाएँ, तो हमारी उपासना सार्थक हो सकती है। अगर वास्तव में हम मंजिल समझ गये होते, तो हम उस स्थान तक आसानी से पहुँच जाते; परन्तु दुर्भाग्य है हमारा, जो हमें न तो मंजिल बताई गई, न हमें राहें बतलाई गईं। चलने का रास्ता भी नहीं बतलाया गया।

आज उपासना के संदर्भ में सभी ने अधूरा-अधूरा सीखा है। किसी को वास्तविकता का ज्ञान नहीं है। गणित पढ़ना हो तो प्रारम्भ से अन्त तक पढ़ना चाहिए। अगर मनुष्य को प्रारम्भ का, अन्त का, बीच का बारी-बारी से सिखा दिया जाए, तो बात बनने वाली कदापि नहीं है? हम सबको उसी तरह सिखाया गया। हमें केवल पूजा-विधि बतलाई गई। इसके अन्तर्गत यह कहा गया कि अमुक पूजा कर लीजिये, आपको अमुक लाभ मिल जाएगा। यह गलत है। विधियों को न जाने हमने क्या-क्या समझा; परन्तु उनकी जड़ों के बारे में हम बेखबर बने रहे। उपासना की इस ढुलमुल नीति के कारण वह असफल हो रही है। साधक का मन, लगाव इस उपासना-पद्धति से हटता जा रहा है। मंत्रों से जो चमत्कार हमें बतलाया गया था, वह हमें मिला कहाँ? मैं यह चाहता हूँ कि आपको इतने साल उपासना करते हो गये, आपने लाभ क्यों नहीं प्राप्त किया? लोग कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्ग मिलता है, मुक्ति मिलती है—यह हम नहीं जानते हैं। आपको इस जन्म में मिलनी चाहिए। मरने के बाद क्या होता है? यह हमें पता नहीं है। यह हमारे दिमाग में नहीं आता है कि आप अभी नरक में पड़े हैं और आधे घण्टे, पन्द्रह मिनट के बाद आपकी मृत्यु हो जाए तो आप स्वर्ग को चले जाएँगे। यह हो नहीं सकता है। अगर आप पन्द्रह मिनट बाद स्वर्ग जाते हैं, तो पन्द्रह मिनट पहले भी आपको स्वर्ग में ही होना चाहिए। हमारा ख्याल है कि आप जिस स्थिति में जहाँ हैं, मरने के बाद भी वहीं रहेंगे, यानि नरक में जाना पड़ेगा। हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि मरने के बाद कोई स्वर्ग या बैकुण्ठ नहीं है। जीवन में भगवान नहीं, स्वर्ग नहीं, तो मरने के बाद भगवान तथा स्वर्ग कहाँ मिलेंगे! इस जीवन में हमें शान्ति नहीं तो मरने के बाद हमें शान्ति कहाँ मिल सकती है? अतः हम आज अध्यात्म की वह फिलॉसफी बतलाएँगे, जो हमारे ऋषियों-मुनियों की है। ऋषियों की साधना महान् थी। हर आदमी का व्यक्तित्व वजनदार था। गुरु वशिष्ठ ने अपने को निखारा तथा उनका व्यक्तित्व महान् बन गया। इसके फलस्वरूप उन्होंने राम का, लक्ष्मण का, भरत का, शत्रुघ्न का ऐसा शानदार व्यक्तित्व बनाया कि उसका क्या कहना! उर्मिला, सीता, कौशल्या का व्यक्तित्व कितना महान है?

आज लोग चमत्कार की बात करते रहते हैं। मित्रो! चमत्कार जादू हो सकते हैं। अगर चमत्कार को देखकर आप उस व्यक्ति को प्रभावशाली मानें, अध्यात्मवादी मानें तो आपका यह दृष्टिकोण गलत है। बुद्ध भगवान का एक शिष्य, एक राजा ने घोषणा कर रखी थी कि उसने एक बड़ा-सा बाँस गाड़ रखा था। उसके ऊपर एक सोने का कमण्डलु बाँध रखा था। उसने यह घोषणा कर दी कि अगर कोई व्यक्ति इस बाँस पर चढ़कर ऊपर के कमण्डलु को उतार लायेगा, उसे यह कमण्डलु दे दिया जायेगा तथा उसे सिद्धपुरुष मान लिया जायेगा। हम तथा हमारी पूरी प्रजा उसके शिष्य हो जाएँगे। वह पचास फुट ऊँचा था। कौन चढ़ेगा? अनेक लोग गए। उन्होंने कहा—इस पर कौन चढ़ेगा? अपने हाथ-पैर को जख्मी कौन करेगा? सब वापस आ गये। उन्होंने कहा कि इस राजा को शिष्य बना पाना सम्भव नहीं। तभी भगवान बुद्ध का एक शिष्य आया और वह उस पर चढ़ता चला गया तथा कमण्डलु उतार लाया। वह राजा एवं प्रजा का गुरु बन गया। यह कार्य पूरा करने के बाद गर्व से फूला हुआ वह भगवान बुद्ध के पास आया और यह कहा कि प्रभु! हम आज एक महान काम पूरा करके आये हैं। आपका नाम ऊँचा करके आये हैं। आपका चमत्कार दिखाकर आये हैं। उसने कहा—एक बड़ा-सा बाँस था, उसके ऊपर एक सोने का कमण्डलु था। हम उस पर चढ़ गये तथा ऊपर जाकर कमण्डलु ले आए। राजा की शर्त के अनुसार राजा तथा पूरी प्रजा हमारी शिष्य हो गई।

इस पूरी कथा को सुनकर भगवान बुद्ध बहुत ही गम्भीर हो गये तथा उन्होंने सारे के सारे शिष्यों की एक सभा बुलाई। उन्होंने सबको बिठाया तथा उस सोने के कमण्डलु को एक ऊँचे स्थान पर रख दिया। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा—हे शिष्यगण! अगर अध्यात्म की यही परिभाषा रही, तो दुनिया का नाश हो जाएगा। कोई भी चालाक, बेईमान व्यक्ति इस प्रकार का चमत्कार दिखा सकता है और अध्यात्म का सर्वनाश कर सकता है। जिसे आप चमत्कार समझ रहे हैं, वास्तव में वह अभ्यास मात्र है। यह हमारा शिष्य होने के पहले एक नट था, जो बाँस पर चढ़ने-उतरने का खेल-तमाशा दिखाया करता था। गाँव में सर्कस दिखाता था। मित्रो! अगर दुनिया का यही सिद्धान्त रहा कि जो कोई भी बाँस पर चढ़ जाएगा, तो वह सिद्धपुरुष हो जाएगा, तो उस परिस्थिति में संतों का, महात्माओं का, त्यागी पुरुषों का क्या होगा? उस समय ज्ञानी का, विद्वानों का, बड़ा आदमियों का दुनिया में पता नहीं चलेगा। उस जमाने में नट जैसा आदमी, जो इस प्रकार के काम कर लेगा वह तो सिद्धपुरुष बन जाएगा! उपर्युक्त कारणों से, हमारे कुछ ग्रंथों में जो कहानियाँ वर्णित हैं, उनको मैं महत्त्व नहीं देता हूँ। हनुमान जी के बारे में लोग जाने क्या-क्या कहते हैं! हम उन्हें एक ब्रह्मचारी युवक मानते हैं, जिसने भगवान के कामों के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया; अपनी पूँछ यानि लोकेषणा को तिलाञ्जलि दे दी, समुद्र लाँघने जैसा कठिन कार्य सम्पन्न किया।

इन दिनों चमत्कार के नाम पर जो अध्यात्म को जकड़ दिया गया है, वह गलत है। अध्यात्म वास्तव में मनुष्य के अन्दर का अनुशासन है, मनुष्य की सेवा, मनुष्य की महानता, उदारता तथा उसकी परोपकार वृत्ति है। यह कैसा अध्यात्म है! आज तक ऐसा अध्यात्म कभी नहीं हुआ। अध्यात्म के अन्तर्गत महात्मा गाँधी, ईसा तथा भगवान बुद्ध ने अपना-अपना स्थान बनाकर रखा है। उपर्युक्त गुणों को विकसित करके ही सच्चा अध्यात्मवादी बना जा सकता है। इसी पर व्यक्ति की उन्नति तथा समाज की प्रगति निर्भर है। ये सारे ऐसे आधार हैं, जो मनुष्य को बढ़ा सकते हैं; परन्तु इन चमत्कारों ने सत्यानाश कर डाला है। हमने आपको इस शिविर में मस्तिष्क साफ करने को बुलाया है। हम चाहते हैं कि आप यहाँ से आध्यात्मिकता के सही सिद्धांत को समझकर जाएँ। हमने अगर अपने कपड़े को साफ नहीं किया, तो उस कपड़े पर कैसे गुलाबी, पीला रंग चढ़ाएँगे? आपके भीतर की कीचड़ साफ करनी पड़ेगी। आप सड़ा हुआ दिमाग, कूड़ा भरा हुआ दिमाग लेकर आये थे। हमने यह कोशिश की है कि आप साफ हो जाएँ। आप मंत्र का चमत्कार देखने तथा अनेक कामना लेकर आए होंगे। आप जब हमारे पास आए हैं, तो आप जब यहाँ से जाएँगे तो हम एक गिलास दुःखहारी अवश्य देंगे, ताकि आपका दुःख, मुसीबत यहाँ से जाने पर दूर हो जाए। आपकी कठिनाई दूर हो जाएगी। एक आदमी एक बार डूब गया था, तो वह चिल्ला रहा था। एक दूसरा आदमी उसको बचाने पहुँचा। वह उसको बराबर कोहनी मारता रहता, ताकि सारा भार उस पर न आ जाए। इस प्रकार हम भी कोहनी मारते हैं कि आप आधा भारा उठाएँ तथा आधा हम उठाएँगे। आपके पूर्वजन्म के जो कुसंस्कार हैं, कर्म हैं, उसका फल आपको भी उठाना होगा। आप एक काम करें। अगर आपको विश्वास नहीं है, तो आप में से हर एक, एक-एक करके हमारे पास आते जाएँ; हम आपको बतलाते जाएँगे कि आपकी क्या समस्या है; आपके ऊपर क्या विपत्ति आ गई है। इस प्रकार आपसे बातें कर लूँगा, तो आप हलके हो जाएँगे। हमारे लिए एकान्त में मिलना सम्भव नहीं है। आप एक कागज में लिखकर हमें दे देंगे। हम वादा करते हैं कि आप पाँच कि.ग्रा. मुसीबतें लेकर आये थे, तो हम ढाई कि.ग्रा. दूर कर देंगे। अगर पूरा ठीक करूँगा, तो आप हमारी दुकान में नहीं आयेंगे। डॉक्टर के पास बुखार ठीक हो जाने पर कोई नहीं जाता है। अतः हम बुखार ठीक कर देते हैं तथा आपकी खाँसी बनाये रखते हैं, ताकि आप फिर आ सकें।

हमने प्रारम्भ से ही उपासना, साधना, आराधना की विधि सही ढंग से अपनाई है तथा आज हम आपको पूजा करने की विधि बतलाना चाहते हैं। पूजा में बहुत लाभ है। पूजा हमारी आध्यात्मिकता के विकास में एक सफल माध्यम है। हमने रोज पूजा की है। उपासना की है। मैं उस काम का मजाक उड़ाऊँगा—यह नहीं हो सकता है। मैं उपासना को और बढ़ाना चाहूँगा। जिसकी एक माला जप चल रहा है, उसे दो माला जपने को कहूँगा। अगर दो माला कर रहा है, तो पाँच माला के लिए कहूँगा। जो पाँच माला जप कर रहे हैं, उनसे यह निवेदन करूँगा कि तुम उत्कृष्ट भक्ति-भावना पैदा कर ऊँचा उठो। हमारे गुरुदेव ने एक उपासना हमें बतलाई—हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत—इसको जो आदमी याद करता रहता है, वह नेक, शरीफ, ईमानदार, उदार बना रहता है। यह मंत्र बहुत वजनदार है। आप गायत्री मंत्र को भूल जाना; परन्तु इसे मत भूलना। यह मंत्र आदमी के दृष्टिकोण को परिष्कृत करता है।

आदमी इस मंत्र को याद करने के बाद यह सोचता है कि हमारा जन्म बड़ा महान है। आज हम ऐसा काम न करें, जिससे किसी को दुःख हो। आज हम दुःखियों की सेवा करें, ताकि प्रसन्नता हो। इस प्रकार की विचारधारा से आदमी संत हो जाता है। संत कपड़े रंगे हुए व्यक्ति को नहीं कहते हैं। संत उन्हें कहते हैं जिनका हृदय निर्मल होता है, जिनके विचार ऊँचे होते हैं। वह कपड़े चाहे धोती या फुल पैण्ट पहनता हो; वह बाल रखता हो या न रखता हो, वह संत है। वेश बनाने से कोई संत नहीं हो सकता। हमने आपको पहला मंत्र यह संत बनाने हेतु बतलाया था। यह मंत्र जपने से आगे की उपासना-प्रक्रिया सरल हो जाती है।

आप यहाँ आये हैं, तो यह जानना चाहते हैं कि लक्ष्मी पाने का क्या मंत्र होता है या मुकदमा जीतने का क्या मंत्र है? इस मंत्र को कैसे जपा जाए? तुलसी माला से या रुद्राक्ष माला से? मित्रो! यह सब चीजें मंत्रों से प्राप्त की जा सकती हैं, अगर व्यक्ति का उच्च व्यक्तित्व हो। सारे मंत्र इसके आधार पर ही फल देते हैं। हमें गायत्री मंत्र सिखाया गया। अगर सही ढंग से कोई भी मंत्र जपा जाए, उसके सिद्धान्तों को समझा जाए, तो वह बहुत फल देगी।

(१) निश्चित समय (२) निश्चित संख्या (३) निश्चित स्थान।

ये तीन चीजें अगर आपने उपासना में सम्मिलित कर ली हैं, तो आप देखेंगे कि उसके द्वारा कैसा लाभ एवं चमत्कार आपको मिलता है?

आपको प्रातःकाल टट्टी जाने, चाय पीने की आदत होती है। यह हो जाने पर आपका जकड़ा हुआ शरीर क्रियाशील हो जाता है। इसी प्रकार उपासना-पूजा करने से भी जो आपकी आत्मा जकड़ी हुई है, वह सक्रिय हो जाती है। यह एक प्रकार का क्रम है, जिसे शरीर-तंत्र आत्मसात् कर लेता है। लोग कहते हैं कि खाना खाने के बाद पान खाना चाहिए, बीड़ी-सिगरेट पीनी चाहिए। यह क्या है? यह इनसान का अभ्यास क्रम है, जिसे शरीर-तंत्र पूरी तरह ग्रहण कर लेता है। हमें आप एक बजे सुला दीजिये, हम दो बजे उठकर बैठ जाएँगे। हमारे मस्तिष्क के कण ऐसे बन गए हैं। हमारा सिस्टम ऐसा बन गया है कि हम दो बजे रात में उठकर बैठ जाते हैं। यह बातें हर आदमी के लिए लागू नहीं होती हैं। आप जो भी पूजा-उपासना करते हैं, उसके लिए निश्चित समय का निर्धारण कर लेना चाहिए। यह ठीक है कि प्रारम्भ में पाँच बजे आँखें खुलने में दिक्कत होगी; परन्तु जब आपको आदत पड़ जाएगी और आप उपासना नहीं करेंगे तो आपको ऐसा महसूस होगा कि आपने खाना नहीं खाया है। यह निश्चित समय का महत्त्व है। अभ्यास करने पर यह कार्य ठीक चलने लगेगा। आदमी अगर नियत समय पर उपासना करने लगे, तो उसका मन जो भागता है, वह भी भागना बन्द हो जाएगा। रेलवे में जो गार्ड हैं, ड्राइवर हैं, उन्हें हम पाँच बजे उपासना के लिए कैसे कहें? उनके लिए जो समय में हो जाए, वही ठीक है। न होने से तो कुछ करना अच्छा है। एक आदमी चारपाई पर भजन कर रहा था। किसी दूसरे आदमी ने पूछा कि तुम क्या करते हो? उसने कहा कि हम तो कुछ भी नहीं करते हैं। वास्तव में वह आदमी ठीक है, जो कम-से चारपाई पर बैठकर तो कर लेते हैं। उपासना न करने से थोड़ा भी करना श्रेयस्कर है। उपासना जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है—यह मानकर हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम उपासना समय पर करेंगे।

दूसरी बात है निश्चित संख्या। मित्रो! मात्रा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। खान-पान के संदर्भ में भी हमारी मान्यता है कि हमें मात्रा के अनुसार खाना-पीना चाहिए। अगर आप किसी दिन एक पाव दूध पियेंगे, दूसरे दिन आधा किलो, तीसरे दिन दो किलो, तो इससे क्या होगा? आपका पेट गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए निश्चित संख्या माला की भी बनाई गई है। इसका मतलब कम से भगवान नाखुश होते हैं तथा ज्यादा करने से खुश होते हैं—ऐसी बात नहीं है। उपासना के लिये नित्य की संख्या नियत होनी चाहिए, वैसे ही जिस प्रकार पेट को देखकर हम रोटी खाते हैं। व्यायाम का भी नियम होता है। अखाड़े में पहलवान दण्ड-बैठक लगाते हैं, तो उसकी भी संख्या नियत होती है। किसी दिन कम तथा किसी दिन ज्यादा, तो उसका लाभ नहीं मिलता है, उसका शरीर बीमार हो जाएगा। नियमितता का बड़ा महत्त्व है। पुराने जमाने में हाथ से चलाने वाली चीज माला थी। पुराने जमाने में यही घड़ी का काम करता था। प्राचीनकाल में धूप घड़ी होती थी। एक पानी की घड़ी होती थी। उसी प्रकार माला का जप करके हम समय का मूल्यांकन करते थे। आप तीन माला, पाँच माला जप करते हैं। इसका अर्थ है—आप १५ मिनट जप करते हैं, आप आधा घण्टा जप करते हैं। यह माला का मूल्यांकन था, आप अँगुली से भी निश्चित जप कर सकते हैं; परन्तु निश्चित संख्या आप अवश्य रखें। हमारा ख्याल है कि आप १५ मिनट जप करेंगे, तो आपका तीन माला का जप अवश्य हो जाएगा। कोई कहता है कि महाराज जी हमने २५ माला एक घण्टे में कर डाली। मित्रो! एक घण्टे में १० या ११ माला तो हो सकती हैं, २५ माला नहीं। इसका मतलब है कि वह उस रेलगाड़ी के समान है, जो दिल्ली से चली इलाहाबाद, पटना, हावड़ा रुकी। इस प्रकार माला का जप उनका ही रहा है। उसमें वाक्य की अशुद्धि होने की ज्यादा सम्भावना है।

हमारा विचार है कि औसतन हर आदमी को कम-से १५ मिनट की उपासना अवश्य करनी चाहिए। अगर आधा घण्टा या एक घण्टा कर सकते हों, तो और भी ठीक है; परन्तु १५ मिनट तो जप अवश्य ही करना चाहिए। यानि तीन माला का जप अवश्य करना चाहिए। अगर इतना आप करेंगे, तो आपको अवश्य कुछ लाभ मालूम पड़ेगा तथा आप लाभ प्राप्त कर सकेंगे।

तीसरी बात एक और है उपासना के संदर्भ में। एक नियत स्थान अवश्य होनी चाहिए। हमारे स्थान थोड़े परिवर्तित हुए हैं। एक स्थान हमारा जन्म-स्थान, जहाँ हमने अपने गुरुवर का आत्म-साक्षात्कार किया था; जहाँ हमने अखण्ड दीपक जलाया। दूसरा स्थान हमारी उपासना का आगरा शहर रहा। दैनिक पत्रिका का हम सम्पादन करते थे। वहाँ पर हमने किराये पर एक मकान लिया और उसके बाद अपना दीपक आँवलखेड़ा, अपने जन्म-स्थान से उठा लाए और आगरा शहर में उपासना की। वहाँ मथुरा अंतिम स्थान रहा। वहाँ ८ & ८ हमारी कोठरी है। अखण्ड ज्योति वहीं पर लिखता रहा हूँ। एक घण्टे में एक लेख लिखकर रख देता था। हम तख्त पर बैठकर जो लेख लिखते थे, वह चमत्कारिक होता था। आपने सिंहासन बत्तीसी की बात सुनी होगी। हमारा यह तख्त उसी प्रकार का था, जैसा राजा भोज का वह सिंहासन। वह हमारे जीवन में चमत्कार उत्पन्न कर देता था। उस कोठरी में दो चारपाई नहीं बिछ सकती हैं। हम जब बाहर शाखाओं में चले जाते, तो हमारा मन पूजा में नहीं लगता था। हम जब कोठरी में रहते, तो हमारा मन लग जाता था। यह मैं स्थान की बात बतला रहा हूँ, जो पूजा-उपासना के लिए आवश्यक है। बहुत-से लोग ऐसे हैं, जिनके छोटे-छोटे मकान हैं। वे बेचारे अपने कमरे के एक कोने में बैठकर भगवान का भजन कर लेते हैं, तो वह क्या कम है। मित्रो! हमारा यह कहना है कि आपकी पूजा की चौकी एक स्थान पर हो तथा आपका पूजा करने का आसन हो, तो वह ठीक हो जाता है। आप उस स्थान पर एक सीमेन्ट की लकीर खींच सकते हैं तथा अपनी मुन्नी से कह सकते हैं—बेटी! तुम इधर को मत आना। आप जब वहाँ जाएँ, तो उसी समय जाएँ, जब आपकी उपासना का समय हो। इस प्रकार निश्चित संख्या, निश्चित समय, निश्चित स्थान हो जाएँगे, तो आपकी उपासना सुव्यवस्थित कहलाएगी तथा आप प्रगति की ओर बढ़ सकेंगे।

आपने प्राचीनकाल की यह बात सुनी होगी कि ऋषियों के आश्रम में शेर एवं गाय एक साथ रहते थे और वही शेर जब जंगल में चला जाता था, तो वह उसी गाय को जो जंगल में चर रही होती थी, उसको मारकर खा जाता था। मित्रो! यह है स्थान का प्रभाव, जो मैं आपको बतलाना चाह रहा था। मैं यह कहना चाहता था कि एक तरह की उपासना जब एक जगह होती है, तो वह स्थान संस्कारवान बन जाता है तथा उस स्थान का प्रभाव मनुष्य पर पड़ने लगता है। ये तीर्थ जो प्राचीनकाल में बनाये गये थे, वे इसी आधार पर बनाये गये थे। वहाँ हमारे पूर्वज ऋषि एवं मुनियों ने उपासना सम्पन्न की थी। दस अश्वमेध यज्ञ जहाँ पिछले दिन हुए, उस स्थान का नाम दशाश्वमेध घाट पड़ गया। यह स्थान काशी में है। एक स्थान जंगलों में है। गंगा के तट पर, जिसका नाम है—देवप्रयाग। उस स्थान पर भगवान राम ने तप किया था। अपना राज-पाट लव-कुश को सौंपकर तपस्या करने योग, उपासना करने चले गये। आज भी हिमालय, बद्रीनाथ जाने में देवप्रयाग पड़ता है, जहाँ अलकनन्दा बहती है। लक्ष्मण-झूला एक स्थान ऋषिकेश में काली कमली वालों के आश्रम के पास है। वह लक्ष्मण जी का तपस्थान है, जहाँ पर लक्ष्मण जी ने उपासना की थी। भरत जी की उपासना का स्थान मुनि की रेती को बतलाया जाता है। शत्रुघ्न जी का स्थान ऋषिकेश बतलाया जाता है। गंगाजी का यह तटवर्ती स्थान पहले बिल्कुल जंगलों से भरा हुआ था; परन्तु उच्चकोटि के महामानवों ने वहाँ तप किया था, उपासना सम्पन्न की थी, इसी कारण से अब वे तीर्थस्थान बन गये हैं। इस स्थान पर जाने के बाद आदमी शांति अनुभव करता है। उस स्थान पर उसे उल्लास आता है। महर्षि रमण के आश्रम में हमें काफी समय रहने का मौका मिला है। हमने वहाँ देखा है कि एक बन्दर वहाँ प्रवचनों के समय पर आ जाता था तथा चुपचाप बैठा रहता था। महर्षि रमण आ जाते थे तथा अपने आसन पर बैठ जाते थे। वे अपनी जुबान से नहीं परावाणी से बोलते थे। उनके आते ही सब लोग चुपचाप बैठ जाते थे। उस समय हर आदमी एक ही बात सुना करता था, जो भी वहाँ पर मौजूद रहते थे। इतना ही नहीं, जब महर्षि के व्याख्यान का समय होता था तो आश्रम के सभी पशु-पक्षी, गिलहरी आदि आकर उस स्थान पर एकत्रित हो जाते थे बैठकर उनकी बातें सुनते थे। जब तक उनका व्याख्यान होता था, सब शान्त रहते थे। वातावरण मित्रो! बनाया जाता है बड़े श्रम से।

पूजा का स्थान जहाँ हमारा है, वहाँ का एक विशेष वातावरण है। हमारे पूजा के कमरे में कोई आता है, उसे हम घुसने नहीं देते हैं। वे केवल बाहर से दर्शन करके वापस जाते हैं। आप नहीं जानते हैं, अनेक लोगों में अनेक प्रकार के संस्कार होते हैं, जो वातावरण को बना भी सकते हैं तथा वातावरण को बिगाड़ भी सकते हैं। इसलिये हम कमरे में किसी को नहीं जाने देते हैं। केवल हम तथा हमारी धर्मपत्नी ही उस कमरे में जाते हैं। हमारी माताजी भी कभी-कभी जाती हैं। वे जाकर कभी-कभी अखण्ड दीप में घी वगैरह डालकर आती हैं। अब हमारी माताजी लगभग ९० वर्ष की हो गई हैं। शरीर भी कमजोर हो गया है, अतः अब हम लोगों ने उन्हें छुट्टी भी दे दी है। अब हम तथा हमारी धर्मपत्नी ही दीपक की देख-रेख करते हैं। उस कमरे में बैठने से हमारे अन्दर कैसे-कैसे उल्लास एवं उमंगें आते रहते हैं, उसका वर्णन हम आपसे नहीं कर सकते हैं। सिंहासन पर बैठकर जो हालत लकड़हारे, गड़रिये की हो जाती है, वही हालत हमारी भी हो जाती है। पूजा की कोठरी में बैठकर उसके बाद तो हम असामान्य आदमी हो जाते हैं। यह हम आपको उपासना की बाबत बतला रहे हैं। जो हमें नियम-कानून बतलाये गये हैं, सिखलाए गये हैं, वही मैं आपको सिखलाना चाहता हूँ तथा उसी रास्ते पर चलाना चाहता हूँ। हमने इससे लाभ प्राप्त किया है। हम चाहते हैं कि आप भी इसी प्रकार उपासना करके लाभ प्राप्त करें। आज की बात समाप्त।

॥ॐ शान्तिः॥