8. बेटा हमारा जन्म-जन्मांतरों का साथ है
अवतारी चेतना जब धरा पर आती है, तब अपने साथ श्रेष्ठ आत्माओं को भी सहयोगी-सहचरों
के रूप में श्रेय-सौभाग्य का भागीदार बनाती है। जन्म-जन्मान्तरों से उनके साथ
जुड़ी हुई वे आत्माएँ जो उनकी सहयोगी-सहचरी रही हैं, उन्हें वह फिर से संगठित
करती हैं, और अपने प्रयोजन को पूरा करती हैं। भगवान् राम आये, तो उनके साथ वे
रीछ-वानरों के रूप में आयीं। भगवान् कृष्ण आये, तब उनका साथ ग्वाल-बालों ने दिया।
युग निर्माण का कार्य भी बहुत बड़ा कार्य है, इसके लिए भी महान् आत्माओं को अवतरित
होना पड़ेगा।
वे कहते थे, जैसे गोताखोर गहरे समुद्र में से बहुत मेहनत करके कुछ मोती खोज पाते
हैं, वैसे ही हमने अपनी सबसे ज्यादा तप शक्ति ऊँचे स्तर की, संस्कारवान्, दिव्य
आत्माओं को अपने आँचल में समेटने में लगाई है। बेटा हमारा-तुम्हारा जन्म-जन्मान्तरों
का साथ है। मैंने आप सबके रूप में हीरे-मोती खोजे हैं व उन्हें एक सूत्र में
पिरोया है।
अपने इस परिवार को उन्होंने प्रज्ञा परिवार का नाम दिया। जुलाई 1984 की अखण्ड
ज्योति में पृ. 62 पर उन्होंने लिखा है-‘‘हमें अनेक जन्मों का स्मरण है, लोगों
को नहीं। जिनके साथ पूर्व जन्मों के सघन संबंध रहे हैं, उन्हें संयोगवश या प्रयत्न
पूर्वक हमने परिजनों के रूप में एकत्रित कर लिया है और वे जिस-तिस कारण हमारे
इर्द-गिर्द जमा हो गये हैं। इस जन्म-जन्मांतरों से संग्रहीत आत्मीयता के पीछे
जुड़ी हुई अनेकानेक गुदगुदी उत्पन्न करने वाली घटनाएँ हमें स्मरण हैं।’’
बेटा! इस हाथ के ऊपर भरोसा करना
श्री जयंती भाई पटेल, राजनाँदगाँव
संत रविदास जी के विषय में कहते हैं कि जब सब पंडितों ने उनका विरोध किया और
उनके साथ भोजन करने के लिये मना कर दिया था। तब भगवान ने अपने भक्त की लाज रखी
थी। जब वे सब पंडित खाना खाने बैठे तो हर किसी को अपने साथ संत रविदास बैठे दिखाई
दिये। पर इसके लिये भक्त को भी कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।
ऐसा ही कुछ प्रसंग मेरे साथ भी घटा। घटना का प्रारंभ सन 1968 से होता है, जब
गुरुदेव को मैं जानता भी नहीं था। उन दिनों मैं गुजरात में रहता था और एक को-ऑपरेटिव
सोसायटी में नौकरी करता था। उस समय मैं बहुत बड़ी विपत्ति में फँसा था। जो दलाल
हमें सरकार से अनाज, चावल, शक्कर आदि सप्लाई करता था, उसने सरकार के साथ धोखाधड़ी
की। हमें माल सप्लाई करता रहा और फर्जी बिल देता रहा। इस प्रकार उसने 1 लाख 48
हजार रुपये की ठगी की। इसका पता हम लोगों को तब चला जब सरकार के पास पैसा नहीं
पहुँचा और सरकार की ओर से चैकिंग की गई। दलाल को जेल तो हो गई पर सरकार हम लोगों
से पैसे की भरपाई की माँग करने लगी। हम लोग 14 व्यापारी थे जिनके साथ दलाल ने
धोखा किया था। फर्जी बिल देकर पैसा वसूलता रहा था। पैसा तो हम बराबर चुकाते रहे
थे सो सरकार को इतना पैसा कहाँ से चुकाते? मेरे हिस्से में 26000 रुपये बैठते
थे। उस समय में वह बहुत बड़ी रकम थी। हमने मिलकर वकील जुगत राम रावल जी को नियुक्त
किया था। साल भर केस चलता रहा पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला था। हम लोग काफी परेशानी
में थे।
भादों महीने की अमावस्या के दिन गुरुजी के शिष्य, भाई श्री भोगीलाल पटेल जी हमारे
घर आये। जब उन्होंने हमारी समस्या जानी तो बोले कि हमारे गुरु इतने शक्तिशाली
हैं कि वे आपको इस संकट से उबार लेंगे। मैं अभी उन्हें पत्र लिखता हूँ। उन्होंने
मेरे सामने ही पत्र लिख दिया और दो गायत्री मंत्र लेखन पुस्तिका हाथ में थमाया।
अगले दिन से नवरात्रि प्रारंभ थी, नवरात्रि में उसे पूरा करने के लिये कहा। अंतिम
दिन पूर्णाहुति के लिये आमंत्रित भी किया।
ठीक आठवें दिन गुरुजी का जवाब आया। लिखा था, बेटा चिंता न करें, आपकी परेशानी
हमने जानी है। आपको बचाने के लिये हमारी शक्ति लगी हुई है। नौवें दिन पूर्णाहुति
थी, मैं पत्र भी साथ में ले गया। श्री भोगीलाल जी बड़े प्रसन्न हुए व बोले कि
आपका काम हो गया समझें, आप निश्चिंत हो जाइए। दशहरे के दिन पेपर में समाचार आ
गया कि, दलाल ही पूरे प्रकरण का दोषी है। सभी 14 व्यापारी निर्दोष हैं।
इस घटना से गायत्री मंत्र व पूज्य गुरुदेव में मेरा विश्वास बढ़ गया। मैंने 250
मंत्र लेखन पुस्तक लिखने का संकल्प ले लिया। जिसे मैंने 5 साल में पूरा किया।
पर इसके बाद मेरी कड़ी परीक्षा शुरू हुई। जिस ब्राह्मण ने मुझे पढ़ाया था उसे जब
पता चला कि मैं गायत्री मंत्र लेखन कर रहा हूँ तो उसने मुझे मना किया और कहा
कि बड़ी गलती कर रहे हो। इसे आज से अभी से छोड़ दो। यह ब्राह्मणों का मंत्र है।
तुम आग से खेल रहे हो। तुम्हारी 71 पीढ़ी का सर्वनाश हो जायेगा और भी बहुत कुछ
समझाया पर मैं माना नहीं। इस पर वह बहुत नाराज हुआ और मेरे घर वालों को भड़काया।
घर वाले भी मुझे मना करने लगे। प्रायः इस बात को लेकर झगड़ा होने लगा कि मैं ब्राह्मण
के मना करने पर भी गायत्री मंत्र लेखन क्यों कर रहा हूँ? जब मैं किसी प्रकार
नहीं माना तो उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया। मैं पत्नी बच्चे को लेकर घर से
निकल गया पर मंत्र लेखन नहीं छोड़ा। इस पर भी ब्राह्मण को संतोष नहीं हुआ। अब
उसने गाँव वालों को भड़काया। गाँव वाले भी मेरे पीछे पड़ गये। समझाने लगे। पर मैं
नहीं माना तो उन्होंने मुझसे बात करना बंद कर दिया। मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया।
संघर्ष करते हुए लगभग छः महीने बीत गये। इस बीच मैं बार-बार गुरुजी को पत्र लिखता
रहा। उनका आश्वासन पत्र मिलता रहा। एक दिन मन में विचार आया कि गुरुजी को मैं
जानता नहीं फिर भी इतना विश्वास क्यों कर रहा हूँ? पत्नी से कहा पता नहीं कब
माहौल अनुकूल बनेगा? मेरा विचलन देखकर पत्नी बहुत आक्रोशित हुई और बोली, ‘‘खबरदार,
जो फिर ऐसी बात कही। जो होगा देखा जायेगा।’’ संघर्ष करते करते साल भर बीतने को
आया। भादों का महीना था, मेरे पास गुजराती में युगनिर्माण योजना आती थी, उसमें
छपा था कि अहमदाबाद में गुरुजी का कार्यक्रम है। हम दोनों उस कार्यक्रम में गये।
जब हम पहुँचे गुरुजी प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के बाद उन्होंने कहा, ‘‘जो गायत्री
परिवार के परिजन हैं वे सब रुकें बाकी सब घर जायें। हमें उनसे बातचीत करनी है।’’
हम बहुत पीछे बैठे थे। गुरुजी से प्रथम बार मिल रहे थे। जैसे ही हमने गुरुजी
को प्रणाम किया। वे हमें देखते ही मानो डाँटते हुए से बोले, ‘‘बेटा जयंतिलाल,
गाँव वाले तेरा क्या बिगाड़ लेंगे, जो मैं तेरे साथ हूँ? गाँव वालों से तुम इतना
डरते क्यों हो? मेरे रहते तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं हो सकता। चिंता मत करना।’’
फिर पत्नी से बोले, ‘‘बेटा तेरे को कुछ कहना है?’’ पत्नी ने कहा, ‘‘बापजी, ये
दुःख हमारा दूर हो जाय, बस।’’ गुरुजी बोले, ‘‘सब ठीक हो जाएगा।’’ हम तीन दिन
बाद प्रोग्राम पूरा करके गाँव वापस गये। नवरात्रि पर्व प्रारंभ हो गया था। गुजरात
में नवरात्रि में गर्बा किया जाता है। 5वें दिन हम गर्बा कर रहे थे, 10:30 बजे
पूर्णाहुति थी। इतने में गाँव की ही लगभग 10 साल की लड़की रुक्मिणी, दूर से नाचती
हुई आई और गरबी का जलता हुआ खप्पर (मटके के ढक्कन जैसा बड़ा सा दिया) उठा लिया।
लगभग 5-7 मिनट तक उसे हाथ में उठा कर वह नाचती रही और फिर धीरे से रख दिया। वह
खप्पर इतना गरम हो जाता है कि उससे हाथ जल जाते हैं पर वह कन्या उसे हाथ में
उठाकर नाची और फिर धीरे से रख भी दिया और उसे कुछ भी नहीं हुआ। यह सब देखकर ब्राह्मण
दौड़ कर उसके सामने गया और प्रणाम कर कहा, ‘‘भले पधारे माताजी, हमारे लिये क्या
आदेश है?’’ ब्राह्मण को देखते ही लड़की एकदम आक्रोशित होकर बोली, ‘‘तुमने मेरे
भक्त को बहुत दुखी किया है, मैं तुमको नहीं छोड़ूँगी।’’ इतना सुनते ही ब्राह्मण
थर-थर काँपने लगा और तुरंत मुझे बुलाया। एक लड़का मुझे पकड़ कर ले आया। मैंने बच्ची
को प्रणाम किया, तब वह बोली, ‘‘बेटा, मुझे माफ करना, तेरा दुःख दूर करने में
मुझे देरी हो गई। आज से तेरा दुःख खतम।’’
उसी समय वहाँ उपस्थित गाँव के एक पटवारी बब्बू पाणी ब्राह्मण ने कहा, ‘‘आप माताजी
हैं। इसका प्रमाण दो।’’ कन्या बोली, ‘‘तुझे क्या प्रमाण चाहिये, बता?’’ पटवारी
ने अपना हाथ बढ़ाया और कहा, ‘‘मेरे हाथ में अपना हाथ दो तो मेरे हाथ में कुमकुम
आ जाये, तो मैं आपको माताजी मानूँगा।’’ लड़की ने तुरंत उसके हाथ में हाथ दिया
तो उसका हाथ लाल हो गया। यह देखकर उस कन्या के पिताजी उसके पाँव पड़े। कन्या ने
उनकी पीठ पर थपकी दी, तो पीठ पर भी कुमकुम लग गया।
इतने में वह पटवारी फिर बोला, ‘‘हम गायत्री मंत्र को नहीं मानते। मेरे चाचाजी
ने पुत्र प्राप्ति के लिये अनुष्ठान किया था, उसे पुत्र नहीं हुआ। अतः विश्वास
नहीं है।’’ बच्ची ने बताया, ‘‘उसने उच्चारण करने में गलती की थी, इसलिये फलित
नहीं हुआ।’’ पटवारी ने कहा, ‘‘सही उच्चारण कैसे होता है, बताइये?’’ तब लड़की ने
सबके सामने ऊँचे स्वर में उच्चारण करके बताया। फिर मुझसे बोली, ‘‘बेटा! तुम्हारी
मंत्र लेखन पुस्तिका ले आओ तो।’’ मैं दौड़ कर अपनी मंत्र लेखन पुस्तिका ले आया
और माताजी को दी। उन्होंने उसे अपने माथे से लगाया और जलते हुए खप्पर पर रख दी।
उसे कुछ नहीं हुआ। माताजी बोली, ‘‘ये शुद्ध भावना से लिखा हुआ शुद्ध गायत्री
मंत्र है। ले बेटा, अपनी पुस्तिका।’’
इस घटना के एक माह बाद गुरुदेव स्वयं नखत्राणा पधारे। वहाँ हमने दीक्षा ली। फिर
हम अंजार गये, वहाँ तीन दिन का कार्यक्रम था। वहाँ गुरुदेव ने प्रेम से अपने
पास बिठाया। मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, कल मैंने आपसे दीक्षा
ली है।’’ तब गुरुजी बोले, ‘‘हाँ बेटा, मैं तेरे लिये ही इतने दूर से आया हूँ।
तेरे साथ तो मेरा जनम-जनम का साथ है। तुम्हारे जैसे बच्चे को खोजते-खोजते ही,
मैं यहाँ तक आया हूँ। तुम्हारे जैसे अनेकों को मैं मेरी माला के मनकों के रूप
में पिरोते जा रहा हूँ। अब तुम मेरा काम करने में लग जाओ।’’
अपना हाथ दिखाते हुए गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, ये हाथ हाड़-चाम का है, मगर लोहे
से भी ज़्यादा मजबूत है। इस हाथ के ऊपर भरोसा करना। तू मेरा काम करना। तेरा काम
मैं करूँगा।’’
पत्र द्वारा परिचय हुआ
बाबू भाई कापड़िया, न्यू जरसी, अमेरिका
1980 से मैं अमेरिका में रह रहा हूँ। इससे पहले 1962 से 1968 तक मैं फिजी में
रहा। उन दिनों मैं मुम्बई में रह रहा था, जब मुझे गुरुदेव का हरिद्वार से एक
पत्र मिला। उसके साथ बायोडाटा फार्म भी था। मैंने उसे गुजराती में भर कर भेज
दिया। उसके जवाब में एक माह बाद मुझे गायत्री उपासक की उपाधि का एक सर्टीफिकेट
मिला। कुछ दिनों बाद मुझे फिर एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि आपको 24 शक्तिपीठों
में से एक चुना जाता है। मैंने गुरुजी को जवाब लिखा कि अभी तो मैं नहीं आ सकता
क्योंकि अभी मुझे मेरे वृद्ध पिता जी की देख−भाल करनी है। भविष्य में जो भी मुझसे
करते बन पड़ेगा वह मैं करूँगा। उसके बाद पत्र व्यवहार बंद हो गया। पर इस समय तक
न तो मैं गुरुजी का नाम ही जानता था और न ही गायत्री परिवार के बारे में कुछ
जानता था। मुझे आज भी इस बात का आश्चर्य है कि उन्हें मेरा मुम्बई का एड्रेस
कैसे मिला?
इसके बाद 1976 में मैं हरिद्वार आया। मैं होटल में ठहरा था। गुरुदेव से मिलने
शान्तिकुञ्ज आया। उस समय उनका प्रवचन चल रहा था। प्रवचन के बाद मैं गुरुजी से
मिला। उन्होंने मुझे होटल से कपड़े लाने और एक रात शान्तिकुञ्ज में रुकने के लिये
कहा। मैं कपड़े लेकर शान्तिकुञ्ज आ गया। गुरुजी ने सुबह यज्ञ के बाद मिलने के
लिये कहा।
जब मैं उनसे मिला तो बातचीत में मैंने बताया कि मैं अमेरिका जाने की योजना बना
रहा हूँ। इस पर गुरुजी ने कहा कि बेटा मैं सब जानता हूँ। मैं तुम्हारा ध्यान
रखूँगा। अमेरिका जाने से पहले मुझे एक पत्र जरूर लिख देना। मैंने अमेरिका जाने
से पूर्व पत्र लिख दिया। 1980 में मैं अमेरिका गया। पहुँचते ही, अगले ही दिन
मुझे नौकरी भी मिल गई। मैं हैरान हुआ। ऐसा लगा, जैसे वे मेरा ही इंतजार कर रहे
हों। 2002 में रिटायर भी हो गया। 1980 से ही मैं गायत्री परिवार के कार्यों में
संलग्न हूँ। यहाँ शाखा बनाई व गुरुजी की कृपा से जो भी बन पड़ता है, उनका काम
करता रहता हूँ। गुरुवर के विषय में सोचता हूँ, तो यही लगता है जैसे उनका हमारा
जन्म-जन्मांतरों का संबन्ध है। ऐसा आभास होता है, जैसे वे हर पल हमारे साथ हैं।
वो पूर्व जन्म की बहुत बड़ी भक्त थीं
भक्तिन अम्मा, शान्तिकुञ्ज
भक्तिन अम्मा बताती हैं कि रायपुर की श्रीमती शारदा मुझसे पहले शान्तिकुञ्ज
आई थीं। वे नित्य प्रति परम वन्दनीया माताजी के प्रत्येक कमरे का सामान साफकर
यथावत रखतीं, झाड़ू-पोंछा करतीं, चादर बदलतीं। उन्होंने मिशन की बहुत सेवा की।
उनके अंतिम क्षणों में गुरुजी-माताजी ने भी उनकी पुकार सुनी। सन् 86 में, मकर
संक्रान्ति के ठीक सात दिन पहले उनकी तबियत खराब हुई। वे वशिष्ठ भवन में रहती
थीं। परम वन्दनीया माताजी को जैसे ही खबर मिली उन्होंने उन्हें तुरन्त ऊपर बुलवा
लिया। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। ऊपर भी वे तीसरे दिन भी बेहोश ही रहीं। नली
(नाक में) द्वारा उनको आहार दिया जा रहा था। मैंने देखा, माताजी स्वयं उनके सिर
को सहला रही हैं। उनके कपड़े, आवश्यक सामान को सहेजकर रख रही हैं।
मृत्यु से तीन चार दिन पहले माताजी ने यह अनुभव किया कि वे गुरुजी से मिलना चाहती
हैं। उस समय जबकि गुरुदेव किसी से नहीं मिलते थे। उतर कर नीचे (बीच वाली मंजिल
पर) आये और उनसे मिले। गुरुजी ने उन्हें फूल की एक पँखुड़ी दी और कहा, जिस दिन
ये सूखेगी उस दिन ये जाएँगी। शारदा अम्मा ने उनके दर्शन कर स्वयं को कृतार्थ
अनुभव किया। सन्तोष की साँस ली और उसके तीसरे दिन प्राण त्याग दिये। उनके हाथ
की मुट्ठी खोल कर देखा वह फूल की पँखुड़ी सूख चुकी थी। ऐसे थे परम कृपालु गुरुदेव,
जो सच्चे मन से आराधना करने वाले की हर इच्छा पूर्ण करते थे।
उनके शरीर छोड़ने पर माताजी ने कहा, ‘‘बेटा, वो पूर्व जन्म की बहुत बड़ी भक्त थीं।’’
पूर्व जन्म में तू ऋषि कन्या थी
डॉ. लक्ष्मण सिंह मनराल, अल्मोड़ा
बात 1959 के उत्तरार्द्ध की है। एक गोष्ठी में गुरुदेव बरेली में आत्मदानी श्री
चमनलाल गौतम जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। हजारों परिजन
ध्यानमग्न गुरुवाणी सुन रहे थे। गुरुदेव का बोलना प्राणों को झंकृत कर देता था।
जो एक बार उनकी बात सुनता सदा के लिए उनका अनुयायी हो जाता था। पास ही महिलाओं
की कतार में एक युवती महिला ने ज्यों ही अपनी अंजलि फैलाई त्यों ही गुरुजी के
चरणों के आस-पास बिखरे फूल स्वयं उड़कर (वहाँ न पंखा था न तेज हवा का झोंका) उस
उस महिला की अंजलि में आकर समाने लगे। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक उसकी दोनों
हाथों की अंजलि फूलों से भर नहीं गई। सारा पंडाल साँस रोके एक टक देख रहा था।
मैं भी पास ही बैठा देखता रहा। शांत वातावरण में कुछ खलबली बढ़ी। गुरुदेव ने प्रवचन
रोक दिया। वह महिला सकुचाती हुई अंजलि बाँधे ही अपने स्थान पर खड़ी हुई। संकोच
के साथ बोली, ‘‘गुरुदेव, जब से मैंने आपकी स्त्रियों की गायत्री उपासना पुस्तक
पढ़ी, तभी से मैंने गायत्री जप प्रारम्भ कर दिया। पूजा के मध्य एक दिन मैं अपनी
अंजलि इसी प्रकार फैला बैठी वहाँ गायत्री माँ के चरणों में चढ़ाये पुष्प इसी प्रकार
मेरी अंजलि में भरने लगे, मैं डर गई। परिवार वालों ने भला-बुरा कहा। स्वयं मैं
भी घबरा गई, लेकिन मैंने उपासना नहीं छोड़ी। उपासनाकाल में जब भी मेरे दोनों हाथ
अंजलि बाँधते हैं, फूल स्वयं भर आते हैं। मैं क्या करूँ, गुरुवर? मेरा मार्गदर्शन
करने की कृपा करिये।’’
गुरुदेव को हमने इतनी ध्यानमग्न मुद्रा में पहली बार देखा। फिर वे बोले, ‘‘बेटी,
तू साधारण नारी नहीं है। पूर्व जन्म में तू ऋषि कन्या थी। यहाँ देवशक्तियों ने
तेरे माध्यम से नारियों की गायत्री उपासना की पुष्टि कर दी है। इसमें घबराना
कैसा? यह अत्यंत शुभप्रद लक्षण है। तुम अपनी उपासना जारी रखो।’’ गुरुदेव की बात
सुनकर सभी परिजन श्रद्धावनत थे। बाद में गुरुजी ने स्वयं वे पुष्प स्वीकार किये
और एक-एक पंखुड़ी वहाँ पर उपस्थित परिजनों को प्रसाद रूप में अपने हाथों से बाँटी।
मेरे पास यह पुष्प खण्ड वर्षों तक सुरक्षित थे। आज भी जब हम उन साथियों से मिलते
हैं जो उस दिन वहाँ उपस्थित थे, तो उस दृश्य की चर्चा अवश्य करते हैं।
बेटा यह पारस पत्थर है।
ओरीजोत, बस्ती, उ०प्र० के श्री मिठाई लाल चौधरी जी बताते हैं कि परम पूज्य गुरुदेव
की उनके जीवन में इतनी कृपा है कि उन्हें लगता है जैसे उनके सभी कार्य गुरुसत्ता
ही पूरा करती है। वे कहते हैं कि सन् 1977 की बात है। एक दिन रात्रि के समय गुरुदेव
मेरे पैत्रिक निवास-ग्राम मनियारा, जनपद संत कबीर नगर में स्वप्न में सफेद धोती
कुरता एवं जाकिट पहिने हुए आए। मुझे जगाया और बोले, ‘‘कहाँ भटक गये थे?’’ बस!
उसी दिन से मैं गुरुदेव का हो गया।
वर्ष 1978 में गुरुदेव ने मुझे एक कागज पर अपने हाथ से गायत्री मंत्र लिखकर दिया
और कहा, ‘‘बेटा, यह पारस पत्थर है। इसे किसी अच्छे कार्य में प्र्रयुक्त करोगे
तो उसका भला हो जाएगा।’’ मैंने उसके माध्यम से बहुत से लोगों की सहायता की। गुरुजी
के कहे अनुसार उसके माध्यम से बहुत से लोगों की समस्याएँ दूर हुईं। बहुतों को
स्वास्थ्य लाभ मिला। यह पारस पत्थर उन्होंने 14 लोगों को दिया था। जिसमें से
12 लोगों का तो गायब हो गया। केवल मेरे पास और प्रतापगढ़ की कार्यकर्ता, बहन
पुष्पा मौर्या के पास अभी तक सुरक्षित है।
मार्च 1994 में मैं बीमार पड़ा। माताजी को पत्र लिखा। 17 मार्च 1994 को माताजी
का पत्र मिला जिसमें लिखा था, ‘‘बेटा! आप्रेशन न कराना।’’ पर डाक्टरों ने आप्रेशन
जरूरी बताया और मैंने आप्रेशन करा भी लिया। मेरे शरीर के तीन आप्रेशन हुए और
दो बार सीरींज से खींच कर मवाद निकाला गया। 23 मार्च से 12 मई 1994 तक लगभग 100
लीटर तक मवाद निकल गया होगा। बार-बार यही अहसास होता रहा कि माताजी की इच्छा
के विरुद्ध आप्रेशन कराने के चलते ही इतना कष्ट झेलना पड़ा। 20 टाँके आज भी टूटे
हुए हैं, पर फिर भी मैं स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त हूँ।
कितने संस्मरण गिनाऊँ, बस गुरुचरणों में समर्पित हूँ और उनके कार्यों में लगा
रहता हूँ।
तेरा प्राण प्रत्यावर्तन तो हो गया।
(श्री श्रीकृष्ण अग्रवाल एवं श्रीमती सीता अग्रवाल, सन् 1970 में बागबहारा, रायपुर
में मिशन से जुड़े। सन् 1972 में प्रथम बार शान्तिकुञ्ज आये और सन् 1977 में स्थाई
रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)
घटना सन् 73 की है। शान्तिकुञ्ज में पूज्य गुरुदेव प्राण प्रत्यावर्तन सत्र
चला रहे थे। विदित हो कि उस समय तक उस सत्र के लिये परिजनों द्वारा स्वीकृति
हेतु आवेदन नहीं भेजा गया था। पूज्य गुरुदेव ने स्वयं ही कुछ कार्यकर्ताओं को
प्राण प्रत्यावर्तन सत्र की स्वीकृति भेजी थी।
मुझे इसी पत्र ने अधिक घनिष्ठता से जोड़ा, क्योंकि पत्र पाकर मुझे लगा कि मुझे
गुरुजी याद करते हैं। बिना आवेदन के ही स्वीकृति आ गई।
मैंने जवाब दिया कि जून में मेरी बहन कौशिल्या की शादी है, उसे निपटाकर मैं तुरन्त
हरिद्वार आऊँगा। विवाह से आठ दिन पूर्व मैं शादी का सामान लाने हेतु तेन्दुकोना
बागबाहरा (छत्तीसगढ़) से गोंदिया जा रहा था। रायपुर में ट्रेन बदलनी थी। जैसे
ही ट्रेन आई, धीरे हुई, हड़बड़ी में मैंने ट्रेन में चढ़ने की कोशिश में एक बोगी
के दरवाजे का डंडा पकड़ लिया। किन्तु भीड़ के कारण मेरा पैर, पायदान तक ही पहुँच
सका। मैं एक प्रकार से लटक गया। लटके-लटके तीन बोगी जितनी दूरी तक घिसट गया।
हाथ में डंडा, सामने प्लेटफार्म, आधा शरीर गाड़ी में, आधा प्लेटफार्म के नीचे।
उस हादसे को स्मरण कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ईश्वर किसी को ऐसा दिन न
दिखाये।
किन्तु होनी तो होनी है, गाड़ी धीरे हुई। हाथ में डंडा पकड़े हुए सारे शरीर का
वजन संभाले मैं थक गया था। गाड़ी अभी धीमी ही थी, पर अकल काम नहीं की। मुझे लगा
गाड़ी रुक गई और डंडा हाथ से छोड़ दिया। मैं सीधा नीचे पाँत के पास गिर पड़ा। गाड़ी
धीरे-धीरे सरक रही थी। अब क्या करें? भगवान ने सद्बुद्धि दी, प्लेटफार्म थोड़ा
सामने की तरफ आगे निकला हुआ था। उसी बीच दुबक कर बैठ गया। पुनः तीन डब्बे के
लगभग गाड़ी सरकी, फिर रुकी। जैसे-तैसे पटरी के बीच में से जाकर धीरे-धीरे दो डिब्बों
के बीच के गैप तक आया। यहीं से धीरे से प्लेटफार्म पर चढ़ा और जाकर एक डिब्बे
में बैठ गया। मेरे हाथ-पैर बुरी तरह काँप रहे थे। कई खरोंचें आई थीं, खून बह
रहा था। उस समय रात्रि के आठ बज रहे थे। मेरी स्थिति देखकर एक व्यक्ति ने पूछा,
‘‘भाई साहब काँप क्यों रहे हैं? क्या बात है?’’ मैंने पूरी राम कथा सुनाई। उन्होंने
कहा, ‘‘भाई साहब, पूरी धोती लाल हो गई है। ट्रेन तो गोंदिया सुबह पहुँचेगी, तब
तक आपकी हालत और खराब हो जायेगी। अच्छा हो, आपका कोई परिचय हो तो ब्रेक जर्नी
ले लीजिये व डॉक्टर से तुरन्त इलाज करा लें अन्यथा परेशानी में पड़ सकते हैं।’’
मुझे उनकी सलाह अच्छी लगी। मैंने ब्रेकजर्नी लिखवाई और ढूँढ़ते-खोजते परिचय के
एक व्यापारी के घर पहुँच गया। वहाँ बैठा तो गद्दी खून से लाल हो गई। उन्हें अपनी
स्थिति बताई व डॉक्टर हेतु पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘अब तो देर हो गई है। सभी दवाखाने
बंद हो चुके हैं। सुबह ही कुछ व्यवस्था हो सकेगी।’’ निराश हो मैं घर से बाहर
पान की दुकान तक गया कि कुछ पूछताछ करूँ। बाहर पान वाले से चर्चा की तो वह भी
सुबह की बात कहने लगा। इतने में एक बारह-चौदह साल का लड़का वहाँ आया, उसने सारी
बातें सुनीं। वह बोला, ‘‘दवाई तो मैं बता सकता हूँ पर जलन होगी, सहना पड़ेगा।’’
मरता क्या न करता? नहीं से तो अच्छा है जलन ही सह लिया जाय। सोचकर कहा, ‘‘आप
बताइये तो सही, जितना सह पायेंगे-सहेगें।’’ उसने पान वाले से कहा, ‘‘दवाई तो
तुम्हारे पास है। कत्था और चूना मिला कर दे दो, लगाते हैं।’’
पान वाले ने कत्था चूना मिलाकर दिया तो मैंने बालक से कहा, ‘‘आप ही लगा दीजिए।’’
वह तैयार हो गया और सभी जगहों में लगाने लगा, हाथ, पीठ, छाती, पेट सभी जगह लगाया।
वह दवाई लगा रहा था तो मुझे ठंडक अनुभव हो रही थी। मैं मन ही मन सोचने लगा कि
इसने तो कहा था जलन होगी पर मुझे तो ठंडक लग रही है। जब वह पैर में लगाने लगा
तो मेरा नियम था मैं, पैर किसी से छुआता नहीं था। अतः मैंने कहा, ‘‘आप पैर मत
छुइये, दीजिए मैं लगा लेता हूँ।’’ उसने दवाई मुझे दे दी। मैं पैर में लगाने को
झुका और जैसे ही दवा लगाया वहाँ मुझे तीव्र जलन हुई। कराहते हुए मैंने सोचा कि
आने वाले बालक को धन्यवाद तो दे दूँ। किन्तु पैर में दवा लगाते तक जाने वह कहाँ
रफूचक्कर हो गया। पान वाले से पूछा, ‘‘वह लड़का कहाँ गया?’’ वह बोला, ‘‘बाबूजी,
मैंने भी नहीं देखा। मैं तो आपके पैर की तरफ देख रहा था।’’ अंतर्यामी अपना काम
कर अंतर्ध्यान हो चुके थे, पर मैं समझ न सका।
ध्यान में ही नहीं आया कि यह किसी की कृपा है, दूसरे दिन गोंदिया गया। सामान
लेकर आया। विवाह सम्पन्न हो गया।
इसके बाद जब शान्तिकुञ्ज पहुँचा, गुरुजी से मिलने गया तो उन्होंने कहा, ‘‘आ बेटा
आ! तेरा ही इंतजार कर रहा था। अब तुझे प्राण प्रत्यावर्तन की कोई जरूरत नहीं।
तेरा तो प्राण प्रत्यावर्तन मैंने पहले ही कर दिया है। बेटे! चलती ट्रेन में
चढ़ने का दुस्साहस कर तूने तो पागलपन ही कर दिया। पर पता है! तेरे इस काम के लिये,
तेरे पास जाने में, मुझे कितनी तकलीफ उठानी पड़ी।’’ तब मुझे समझ में आया कि उस
रात्रि में, जो बालक आकर दवाई बताया और लगाया वह और कोई नहीं, स्वयं पूज्यवर
ही थे। इसीलिये उनके हाथ से लगी दवाई ठंडक पहुँचा रही थी और जब मैंने लगाई तब
जलन हुई।
मैं कृतज्ञता से भर गया। आँखों के सामने वह सारा दृश्य घूम गया। सोचने लगा, उस
रात वे न आते तो क्या होता? उसी कृतज्ञता ने मुझे पूर्ण समर्पित कार्यकर्ता के
रूप में बदल दिया।
ऐसे ली दीक्षा
शंकरलाल शर्मा, कनाड़िया इंदौर
खरगोन जिले के एक छोटे से गाँव छेगाँव में 108 कुण्डीय गायत्री महायज्ञ का आयोजन
था। मुझे श्री सत्यनारायण तिवारी जी ने निमंत्रण दिया कि आप आकर थोड़ी व्यवस्था
देखें, क्योंकि उन्होंने मुझे केसूर में पढ़ाया था सो मैं गया। न मेरा गुरुजी
से कोई सम्पर्क था, न उनकी महत्ता के बारे में कुछ पता था। रात्रि में प्रवचन
शुरू हुआ। गाँव के लोगों की बड़ी भीड़ थी। लोग प्रवचन में बीड़ी भी पी रहे थे। गुरुजी
बार-बार प्रवचन में कहते थे कि जिसको बीड़ी पीना हो बाहर जाकर पीये। मैंने उन
लोगों को समझाया, नहीं माने तो हमने 2-4 को उठा कर दूर पटक दिया। यह दृश्य गुरुजी
देख रहे थे। प्रवचन के बाद गुरुजी ने लीलापत शर्मा जी से कहा, ‘‘इनको हमारे पास
लाओ। ये बड़े काम के लोग हैं।’’ श्री सत्यनारायण जी तिवारी ने कहा,‘‘आप लोग बड़े
भाग्यशाली हो, आपको स्वयं गुरुदेव ने बुलवाया है।’’ मैंने उनको इन्कार कर दिया
कि हमको क्या लेना देना। उन्होंने बड़ा आग्रह किया तो हम उनसे मिलने गये।
अन्दर जाकर बैठ गये। न तो प्रणाम किया न सिर झुकाया। गुरुदेव से लगभग बीस मिनिट
बात हुई। बस रात्रि में सोते समय गुरुदेव की बड़ी विचित्र आकृति दिखाई दी। हमारा
रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया। हमारे सब कुसंस्कार जैसे चले गये हों। सुबह जल्दी
उठकर स्नान करके यज्ञ में सम्मिलित हुआ और गुरुदेव ने स्वयं दीक्षा दी। इस प्रकार
असीम प्रेम से उन्होंने हमें अपना बना लिया।
अमरकण्टक शक्तिपीठ तुझे ही बनाना है
(श्री लक्ष्मण अग्रवाल जी बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। वे 1959
में पूज्य गुरुदेव से जुड़े।)
बात सन् 1979 की है। पूज्य गुरुदेव ने चौबीस तीर्थों में चौबीस गायत्री शक्ति
पीठ बनाने का संकल्प ले लिया था। जिम्मेदारी देने हेतु परिजनों के मजबूत कन्धे
ढूृँढ़े जा रहे थे। इन्हीं दिनों की याद करते हुए श्री अग्रवाल जी कहते हैं-‘‘मुझे
एक दिन दोपहर बारह बजे एक टेलीग्राम मिला। टेलीग्राम हरिद्वार से था। जिसमें
लिखा था कि फौरन हरिद्वार चले आओ। उसी दिन डेढ़-दो बजे के लगभग श्री शिवप्रसाद
मिश्रा जी भी हरिद्वार से पहुँचे और कहा-‘‘गुरुजी ने आपको तत्काल बुलाया है।’’
मैं आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा, ‘‘ऐसी क्या बात हो गई? टेलीग्राम भी आया
व मिश्रा जी भी कह रहे हैं।’’ चर्चा के दौरान मिश्रा जी ने बताया कि शायद गुरुजी
आपसे अमरकण्टक में शक्तिपीठ बनाने हेतु चर्चा करें। उन्होंने कहा है, ‘‘अमरकण्टक
हेतु अग्रवाल जी को बुला लो, बात समझ में आई।’’
अपना सौभाग्य मान कर हम दम्पत्ति, मिश्रा जी के साथ ही रवाना हो गये। गुरुदेव
तो जैसे इंतजार में ही थे। पहुँचते ही कहा-‘‘बेटा! तुझे ही देख रहा था। देख,
मैंने देश के चौबीस तीर्थों में चौबीस गायत्री शक्तिपीठ बनाने का निर्णय लिया
है। अमरकण्टक की शक्तिपीठ तू बना ले।’’ अग्रवाल जी कुछ क्षण मौन रहे। फिर बोले-‘‘गुरुजी,
अमरकण्टक बिलासपुर से दो ढाई सौ किलोमीटर दूर पड़ता है। मुझसे अकेले बनाना तो
संभव नहीं है।’’ पूज्यवर ने पुनः कहा-‘‘देख बेटा! अमरकण्टक शक्तिपीठ बनाना तो
तुझे ही है। तेरी सहायता हम करेंगे।’’ अग्रवाल जी ने फिर कहा-‘‘गुरुजी! अमरकण्टक
में भवन निर्माण की सभी सामग्री नीचे पेन्ड्रा से ले जानी पड़ेगी। यहाँ तक कि
वहाँ रेत भी नीचे से ही जाती है। हाँ, मैं अपनी ओर से पचास हजार रुपये लगा सकता
हूँ।’’ इतना सुनना था कि गुरुदेव बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा-‘‘बेटा! पचास हजार
में तो तुझे कहीं और जगह जाने की जरूरत ही नहीं है। शक्तिपीठ तू ही बनायेगा।
आ, मैं तेरा तिलक करता हूँ।’’ और गुुरुजी ने श्री अग्रवाल जी का तिलक कर सौ-सौ
के दस नोट प्रतीक स्वरूप प्रदान किए। भारी जिम्मेदारी के साथ गुरुदेव के प्रति
दृढ़ विश्वास लिये नीचे उतरे। सोचा जिम्मेदारी दी है तो निभायेंगे भी वही, यह
अटल विश्वास था। गुरुदेव द्वारा दिया गया वह नोट श्री अग्रवाल जी कहते हैं-‘‘मैं
अभी तक सँभालकर रखा हूँ।’’ और अमरकण्टक का भव्य शक्तिपीठ उन्हीं के द्वारा बनाया
गया।
श्री अग्रवालजी बताते हैं, ‘‘सन् 82 में शक्तिपीठ उद्घाटन दौरे पर मैं भी जब
गुरुवर के साथ चला, तब मन में जो भी प्रश्न उभरते, समाधान उनसे प्राप्त कर लेता।
मेरी जिज्ञासा उन्हें भी अच्छी लगती, वे न केवल उत्तर देते, बल्कि विस्तार से
समझाते भी।मैंने पूछा-‘‘गुरुदेव, कहा जाता है कि जूठन छोड़ना पाप है, फिर भी बहुत
लोग जूठन छोड़ते हैं? ऐसा क्यों?’’गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा! आजकल, अन्न हम पैसे
से खरीदते हैं। इसलिये लोग उसकी तुलना पैसे से करते हैं। जूठन छोड़ देते हैं और
उसे फेंक देते हैं। किन्तु यह वास्तविकता नहीं है। पैसे से अन्न, खरीदा नहीं
जा सकता। अन्न धरती माता अपनी छाती चीर कर देती है। कोई उसका अपमान करता है,
तो धरती माँ दुःखी होती है और दूसरे जन्म में उसे अन्न के लिये तरसाती है।’’फिर
मैंने दूसरा प्रश्न पूछा, ‘‘गुरुदेव वकालत करने वाले वकील झूठ-सच बोलकर सही को
गलत और गलत को सही ठहरा देते हैं। यह उनका पेशा है। क्या उन्हें पाप नहीं पड़ता?’’
इतने में एक कुत्ता लंगड़ाता हुआ बीच सड़क में कहीं से आ गया। गुरुदेव बोले, ‘‘देख
बेटा, यह कुत्ता पूर्व जन्म में वकील था। अब अपने झूठ सच का हिसाब चुकता कर रहा
है। जिसका गलत किया वह पीट रहा है। अपना भोग तो हर व्यक्ति को भोगना ही पड़ता
है। अन्यथा कोई सत्कर्म ही क्यों करता?’’मैं मिशन का काम तो करता था पर आशानुकूल
सफलता नहीं मिलती थी, सो मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुदेव, मैंने बहुत प्रयत्न
किया किन्तु फिर भी अपने किसी परिजन को गायत्री परिवार का न बना सका।’’गुरुजी
बोले, ‘‘बेटा, इससे तू क्यों दुखी होता है? इस सब की प्राप्ति के लिये भी प्रारब्ध
चाहिए। यह भी हर किसी के भाग्य में नहीं होता। राम-रावण युद्ध के बाद दोनों सेनाओं
के बीच अमृत वर्षा हुई थी। वानर-भालू जी उठे, राक्षस नहीं, क्योंकि वे चित्त
पड़े थे। अर्थात् वानर, भालू विवेक पूर्ण बातें सुनते थे। उन्होंने विवेक का साथ
दिया। दूसरा पक्ष अंधवादी था अतः केवल अपने स्वामी की आज्ञा का पालन किया। भले
ही वह गलत था। तुलसी ने तभी तो कहा है-
अमृत वृष्टि भई दुहुँ दल ऊपर।
जिये भालु-कपि नहि रजनीचर॥
इसलिये तू अपना काम करके अपना कर्तव्य पूर्ण कर। तू दूसरों को अच्छाई ग्रहण करने
कहेगा तो तुझे स्वयं तो अच्छाई अपनानी ही पड़ेगी। इस प्रकार कम से कम तू तो सुधरा
रहेगा। अन्यथा तू भी दूसरों के समान बन जायेगा। इसलिये दुखी मत हो। अपना काम,
साहित्य प्रचार कर। बेटे, आज सब लोग जन-शक्ति, धन-शक्ति तो अर्जित करते हैं,
किन्तु आध्यात्मिक शक्ति अर्जित नहीं करते, न ही उसका महत्त्व जानते हैं। यदि
महत्त्व जानते तो उसे अर्जित करने का प्रयत्न करते।’’
भगवान् बुद्ध के समय में एक प्रसंग आता है कि अंगुलिमाल से जब उनकी भेंट हुई
तो अंगुलिमाल के जीवन में परिवर्तन आ गया, वह डाकू से भिक्षुक बन गया। आम्रपाली
जब उनके सम्पर्क में आई तो वह भी अपना सर्वस्व समर्पित कर साधिका बन गयी। ऐसे
ही प्रसंग पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आने पर अनेकों लोगों के साथ घटित हुए
हैं।
पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य पाकर, मार्गदर्शन पाकर, उनका साहित्य पढ़कर लोगों
की मान्यताओं तक में परिवर्तन आया, जिसमें सबसे बड़ा परिवर्तन नारी समाज के प्रति
जो संकीर्ण दृष्टिकोण था, उसमें आया। लोगों ने अपने घर की बहु-बेटियों को न केवल
गायत्री उपासना का अधिकार ही दिया, बल्कि उन्हें मिशन के कार्य के लिए घर से
बाहर निकलने की अनुमति भी दी। इसके साथ ही नारी समाज के प्रति आदर, सहयोग और
सम्मान का भाव भी बढ़ा। लाखों-करोड़ों परिवारों में नारी समाज को श्रेष्ठ जीवन
जीने का अवसर मिला, जो अपने आपमें एक बहुत बड़ी क्रान्ति है।
जो भी गुरुदेव के सम्पर्क में आया, उसके चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में असाधारण
परिवर्तन आता चला गया। परिजनों ने शराब, माँस आदि दुर्व्यसन एवं अन्य अनेकों
दुर्गुणों को छोड़कर श्रेष्ठ जीवन जीने का संकल्प लिया। उनके जीवन में आये परिवर्तन
को देखकर नाते-रिश्तेदार तक दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गये कि इनके जीवन में
इतना सुधार कैसे आ गया, ये तो चमत्कार ही हो गया।
श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी, शान्तिकुञ्ज
शान्तिकुञ्ज आ जाने पर मेरी ड्यूटी प्रतीक्षालय में लोगों को गुरुजी-माताजी
से मिलाने में लगी। प्राण प्रत्यावर्तन शिविरों के समय लोग अपने दोष-दुर्गुण
निःसंकोच गुरुजी के सामने प्रकट करते थे, कोई-कोई लिखकर भी देते थे। किसी बहुत
बड़ी गलती पर पहले वे नाराज होते, फिर बड़े वैज्ञानिक ढंग से प्रायश्चित भी बताते
थे। जैसे जितना बड़ा गड्ढा खोदा है, उतनी ही मिट्टी लाकर भरना होगा। जितना किसी
को नुकसान पहुँचाया है, शारीरिक, मानसिक या नैतिक, उससे अधिक लाभ पहुँचाना होगा।
एक बार रामसुभाग सिंह नाम का एक व्यक्ति उनके पास आया। वह वैगन ब्रेकर के नाम
से प्रसिद्ध था, अर्थात् रेल के वैगन ही लूट कर ले जाता था। वह अपनी कमर में
हमेशा दो पिस्तौल रखता था। गुरुजी से मिलने के बाद उसने हावड़ा में 108 कुण्डीय
यज्ञ कराया तथा कितने ही अखण्ड ज्योति के सदस्य केवल धौंस के बलबूते पर बनाये।
उसने डाका डालना छोड़ दिया और सुधर गया।
गुरुजी के पास जब आता तो कहता, ‘‘गुरुजी मैं आपसे क्या कहूँ, आप तो सब जानते
हैं।’’ तब गुरुजी कहते कि मैं यदि तेरे अंदर देखूँगा तो मुझे बहुत कुछ दिख जायेगा,
इसलिये तू वही बता जिसका समाधान तू चाहता है।
उठ! मेरे साथ चल
श्री देवी सिंह तोमर, शान्तिकुञ्ज
तोमर जी बताया करते थे कि कैसे उनके जीवन में गुरुजी के केवल एक प्रवचन से ही आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। वे बताते थे कि ‘‘मैं टेलीफोन विभाग में सुपरवाइजर था। मैं खूब माँस खाता था व शराब पीता था। एक दिन गायत्री परिवार के कुछ लोग आये व मुझसे कहा कि गुरुजी आने वाले हैं। राजासाहब का एक महल राजगढ़ में शक्तिपीठ के लिये मिल गया है, उसको ठीक करने व सजाने के लिये हम चंदा इकट्ठा कर रहे हैं। गायत्री परिवार और गुरुजी से मैं परिचित था। मैंने उन्हें 1500 रुपये दिये। उन्होंने मुझे कार्यक्रम में बुलाया। मैंने कह दिया कि मैं शराब पीकर ही आऊँगा और सचमुच मैं शराब पीकर ही गया। मैंने गुरुजी का भाषण सुना। गुरुजी ने कहा, ‘‘जो शराब पीता है वह अपना चरित्र सुरक्षित नहीं रख सकता। उसके लिये आत्मीयता, प्रेम, उत्तरदायित्व और परिवार कोई मायने नहीं रखते।’’ मेरा दिमाग ठनका। मैं सामने ही बैठा था। गुरुजी फिर बोले, ‘‘जो माँस खाते हैं, वे मुर्दा खाते हैं, क्योंकि जब उसे काटा जाता है तो उसके टुकड़े बिलखते हैं और उस दर्द चीत्कार के हार्मोन्स उसमें मिले होते हैं और मुर्दा तो वह हो ही जाता है।’’ फिर तो मुझे ऐसा लगा कि आज मैंने जो माँस खाया है, शराब पी है, उसको उँगली डालकर उल्टी कर दूँ। उसके बाद मैंने कभी माँस और शराब को नहीं छुआ। जब मैं रिटायर हो गया तो एक रात दो बजे नींद में गुरुजी ने मुझे एक थप्पड़ मारा और कहा ‘‘उठ! मेरे साथ चल।’’ मैंने पत्नी को जगाया और कहा, ‘‘अब अपन शान्तिकुञ्ज चलते हैं और फिर हम लोग शान्तिकुञ्ज आ गये।’’
जोरा सिंह का जीवन बदला
खीरी लखीमपुर जिले के श्री जोरा सिंह कभी एक प्रसिद्ध डाकू थे। खूब नशे आदि
का सेवन भी करते थे। उनके गाँव में गायत्री परिवार द्वारा एक महायज्ञ सम्पन्न
होना था। उनकी पत्नी ने परिजनों से निवेदन किया, कि मेरे पति की शराब आदि छुड़वा
दो, तो बहुत कृपा होगी। परिजनों ने उन्हें यज्ञ में आने हेतु भाव-भरा निमंत्रण
दिया व सपरिवार यज्ञ में आने का अनुरोध किया। जब वे पत्नी सहित यज्ञ में बैठे,
तो उनसे बहिनों ने कहा-‘‘आपसे एक देव दक्षिणा माँग रहे हैं। कोई एक बुराई छोड़
दीजिये।’’ उन बहिनों ने आग्रह किया तो उन्होंने उस यज्ञ में शराब छोड़ने का संकल्प
ले लिया।
बस एक छोटे से व्रत से उनका जीवन ही बदलता चला गया। धीरे-धीरे उन्होंने सभी दुर्गुण
छोड़ दिये। आज वे एक सरपंच की भूमिका निभाते हुए गाँव वालों की निःस्वार्थ भाव
से सेवा करते रहते हैं। उनकी पत्नी मिशन की बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं।
वाड़िया बापू--डाकू से सन्त
बरवाड़ा बावीसी गाँव के रहने वाले वाड़िया बापू इतने खूँखार डाकू थे कि पूरे सौराष्ट्र
में उनका आतंक छाया हुआ था। उनके गाँव में गायत्री परिवार का कार्यक्रम होने
वाला था। कार्यकर्तागण कार्यक्रम के लिए चन्दा माँगने डरते-डरते उनके घर पहुँचे।
उन्होंने हड़काकर सबको भगा दिया। वे नशे में धुत्त पड़े रहते थे। माँस, मदिरा आदि
सभी दुर्गुण उनके अंदर थे। कार्यकर्ता एक छोटी सी पुस्तिका उनके घर में छोड़ आये।
अगले दिन वह पुस्तिका जब उन्होंने पढ़ी तो उन विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने
कार्यकर्ताओं के पास जाकर उनसे पूज्यवर की कुछ पुस्तकें ले लीं। उन्हें जब गहराई
से पढ़ने लगे, तो उनके विचारों में बड़ा बदलाव आने लगा। पूज्य गुरुदेव के सौराष्ट्र
दौरे में जब वे उनके सम्पर्क में आये, तो पूरा जीवन ही बदल गया।
उन्होंने शराब, माँस आदि सब दुर्गुण छोड़ दिये, और अपना जीवन पूज्यवर का कार्य
करते हुए बिताने का संकल्प लिया। आज वे अपने क्षेत्र में एक समर्पित एवं प्रतिष्ठित
कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं। सभी उन्हें संत कहते हैं।
पूरा परिवार बदल गया
इन्दौर के डॉ. आनंद ढींगरा बताते हैं कि शान्तिकुञ्ज आने और माताजी से मिलने
के पहले तक मेरा जीवन दिशाहीन था। मैं बिल्कुल निराश, हताश था। हमारे घर में
भी नरक जैसा वातावरण था। आये दिन माता-पिता के बीच लड़ाई-झगड़ा, कलह-क्लेश होता
ही रहता था। माँ ने कई बार आत्महत्या का प्रयास भी किया था। हम भाई-बहन सदा इसी
टेन्शन में रहते कि कहीं दोनों में से किसी एक को खोना न पड़े। मेरा स्वास्थ्य
भी ठीक नहीं रहता था। मुझे भूख बिलकुल नहीं लगती थी। मेरी हालत यह थी कि मुझे
दिन भी में आधी रोटी पचाना भी मुश्किल पड़ता था। मैं बहुत कमजोर हो गया था। मुझे
लगता था मैं शायद 6 महीने और जी पाऊँगा। इस सबका असर मेरी पढ़ाई पर भी पड़ा था।
सन् 1991 में मुझे कहीं से अखण्ड ज्योति मिली। उसे पढ़कर मुझे लगा कि अभी उम्मीद
जगाई जा सकती है। जून 1991 में मैं एक माह के लिये शान्तिकुञ्ज आया। यहीं से
मेरे जीवन में नया मोड़ आया। मुझे लगा इससे अच्छी और कोई जगह नहीं हो सकती। मैं
यहीं रह जाना चाहता था। माताजी से मिला, मैंने कहा, ‘‘माताजी, मैं यहीं आना चाहता
हूँ। मुझे यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है। मेरा यहीं काम करने का मन है।’’ माताजी
ने कहा, ‘‘अभी मत आओ। पहले पढ़-लिख कर कुछ बन जाओ। तब तुम हमारे ज्यादा काम के
हो जाओगे।’’ माताजी के इन शब्दों ने मेरे जीवन में आशीर्वाद से भी बढ़कर काम किया।
मेरा पूरा जीवन ही बदल गया। धीरे-धीरे घर में पूर्ण शांति हो गई। अगले वर्ष 12वीं
कक्षा में मैंने अपने शहर में टॉप किया। मैं माता-पिता को शान्तिकुञ्ज लेकर आया।
उनके जीवन में इतना परिवर्तन आया कि आज मेरे पिता जी प्रतिदिन 8-10 घण्टे मिशन
का ही काम करते हैं। मेरा घर नरक से स्वर्ग बन गया। आज मैं एक प्रतिष्ठित डॉक्टर
हूँ। मेरा पूरा परिवार गुरुदेव का ऋणी है। उनके अनुदानों का ऋण तो हम सर्वस्व
न्यौछावर करके भी नहीं चुका सकते।
बेटे, क्या छोड़ा?
श्री लक्ष्मण प्रसाद अग्रवाल, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
सन् 59 में पहली बार बिलासपुर छ.ग. में 51 कुण्डीय यज्ञ की घोषणा हुई। श्री
छाजू लाल शर्मा वैद्यनाथ वाले मेरे यहाँ अनुदान लेने आए। श्रद्धापूर्वक एक सौ
एक रु० दिया। रसीद देकर उन्होंने कहा, ‘‘पीला कुर्ता पहन कर यज्ञ में भाग जरूर
लेना और इसके लिये कुछ गायत्री मंत्र लेखन कर लें।’’ जानकारी पाकर मैंने चौबीस
सौ मंत्र लिखे, यज्ञ में भाग लिया, अच्छा लगा, श्रद्धा बढ़ती गई। एक दिन माँ से
पूछा, ‘‘माँ जीवन में गुरु बनाना आवश्यक होता है क्या?’’ माँ ने कहा, ‘‘हाँ बेटे,
शास्त्रों में कहा गया है कि बिना गुरु बनाये कोई भी पुण्य कार्य करने पर वे
फलदायी नहीं होते।’’ उसी दिन मैंने मन में ठाना कि मैं आचार्य जी को गुरु बनाऊँगा
और सन् 70 के यज्ञ में गुरुदीक्षा ले ली पर किसी को बताया नहीं।
दुर्व्यसन छोड़ने की बात जब गुरुदक्षिणा में कही गई तब मैंने संकल्प लिया। गुरुजी
ने पूछा, ‘‘बेटे, क्या छोड़ा?’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘सिगरेट व तम्बाकू।’’ इसके
तत्काल बाद गुरुदेव ने ‘एवमस्तु’ कहा। मैं चुप रहा, क्योंकि मुझे लगता था यह
छूट नहीं सकता। इस लत को छोड़ने के लिये मैंने डाक्टरों की मदद भी ली थी, पर सफलता
नहीं मिली थी।
गुरुदेव के पास से लौटने के बाद न जाने क्या हुआ मैं तम्बाकू खा ही नहीं सका
और मुझे लगने लगा जैसे सिगरेट में कोई टेस्ट ही नहीं रह गया है। अतः चमत्कारिक
ढंग से दोनों ही छूट गये। मुझे आश्चर्य हुआ व गुरुदेव के प्रति मेरी श्रद्धा
निरन्तर बढ़ती रही।
एक नए जीवन का प्रारम्भ
राजेश अग्रवाल, कुरुक्षेत्र
सन् 1991 में मैं जब शान्तिकुञ्ज आया तब मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। सुल्तानपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते हुए छात्रावास के दूषित वातावरण में व गलत संगति के कारण मुझमें अनेक बुराइयाँ जन्म लेने लगी। मेरा शारीरिक व मानसिक संतुलन बिगड़ गया। चिकित्सकों को दिखाया तो नींद की गोलियाँ साल भर तक खाईं। उससे क्षणिक आराम तो मिला, परंतु 24 घंटों में 16 घंटे नींद आती रहती। किसी तरह गिरते-पड़ते इंजीनियरिंग पूरी की और आर. ई. सी. कुरुक्षेत्र में प्रवक्ता के पद पर नौकरी मिली। सौभाग्य से उसी समय मैं शान्तिकुञ्ज गुरुदेव के साहित्य से जुड़ा। एक दिन रात्रि को मुझे विचित्र स्वप्न दिखाई दिया। एक तीव्र प्रकाश मेरे कमरे में उभरा फिर उसमें परम पूज्य गुरुदेव प्रकट हुए और मुझसे कहने लगे, ‘‘तुम्हें मेरी योजना के क्रियान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘मैं तो कुछ नहीं कर सकता, अपने स्वास्थ्य से लाचार हूँ।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘उसकी चिंता मत करो। समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा।’’ यह कहकर गुरुदेव चले गए। तुरंत मेरी नींद खुल गई। मैं उस समय अपने अंदर बहुत शक्ति व ताजगी महसूस कर रहा था। मैंने घड़ी देखी तो दो बजकर तीन मिनट हुए थे। उस दिन के बाद मुझे फिर कभी नींद की दवा खाने की आवश्यकता नहीं पड़ी और मेरा अधिकतर समय गुरुदेव का साहित्य पढ़ने एवं गुरुदेव का कार्य करने में बीतने लगा। अब मेरा गलत चिंतन धीरे-धीरे समाप्त होने लगा और दिव्यता, पवित्रता, गुरुभक्ति के अंकुर मुझमें फूटने लगे। इसी के साथ मेरी बीमारी समाप्त हो गई। ब्रह्मचर्य के प्रति अगाध श्रद्धा मेरे मन में उभरी। मुझे लगने लगा जैसे मुझसे अधिक प्रसन्न व सुखी व्यक्ति शायद ही इस दुनियाँ में कोई दूसरा हो। यदि गुरुदेव से न जुड़ा होता तो नींद की दवा खा-खाकर अब तक मात्र 25 वर्ष की उम्र में ही परलोक सिधार गया होता। अब जीवन में यही इच्छा है कि गुरुदेव के विचारों को अधिक से अधिक विद्यार्थियों, लोगों तक पहुँचा दिया जाए ताकि अज्ञानता के कारण मेरी जैसी दुर्गति किसी और की न हो।
सीतापुर की सीता आज आपके सामने है
उत्तर प्रदेश, सीतापुर की एक कार्यकर्ता सीता बहन, जब एक मासीय युग शिल्पी सत्र
कर रही थीं तो कक्षा के दौरान नारी जागरण विषय पर चर्चा चल रही थी। किसी प्रसंग
पर वह बहुत भावुक हो गईं और कहने लगीं बहन जी आज हमें अपने बारे में बताने का
मन है। उन्होंने बताया कि मेरे पति मुझे बहुत परेशान करते थे। शराब, गाँजा, जुआ,
वेश्यागमन आदि सभी दुर्गुण उनमें थे। मेरे साथ आये दिन मारपीट करना आम बात थी।
मैं घर में कैदियों के जैसे रहती थी।
एक बार मैं कुछ बहनों के साथ शान्तिकुञ्ज आई। माताजी को अपनी व्यथा बताई। माताजी
ने मुझे भस्मी दी और कहा, ‘‘बेटी, नियमित साधना करती रहना और चुटकी भर भस्मी
को पति के भोजन अथवा जल में मिलाकर प्रार्थना करके कि इनके सब दुर्गुण दूर हों,
प्रतिदिन देना।’’ मैंने वैसा ही किया। नियम से अपने घर में बलिवैश्व यज्ञ करती
और गुरुजी माताजी का ध्यान करते हुए, मंत्र जप करते हुए ही भोजन बनाती, उसमें
चुटकी भर भस्मी भी डाल देती। माताजी के आशीर्वाद से मेरे पति में इतना सुधार
आया कि उन्होंने सारे दुर्व्यसन छोड़ दिये। वे भी मेरे साथ उपासना-साधना करने
लगे। पहले वे मुझे घर से बाहर नहीं निकलने देते थे अब वही मुझे गुरुदेव के कार्यों
के लिये प्रेरित करने लगे।
सीता बहन की आँखों से आँसू बह रहे थे। उनकी हिचकी बँध गई। फिर थोड़ी देर बाद वो
बोलीं, ‘‘कहाँ जिस सीता को घर से एक कदम बाहर रखने की इजाजत नहीं मिलती थी, वहीं
वह सीतापुर की सीता आज आपके सामने, एक माह से शान्तिकुञ्ज में है। देखिये माताजी
के आशीर्वाद का कमाल। मेरा घर स्वर्ग बन गया। मेरे पति ने स्वयं ही मुझे एक मासीय
सत्र के लिये शान्तिकुञ्ज भेजा है।’’ ऐसे हजारों प्रसंग हैं जो हमें अक्सर ही
सुनने को मिलते हैं। न केवल गुरुजी-माताजी के आशीर्वाद में बल्कि उनके साहित्य
में भी वैसी ही शक्ति है कि जीवन बदल गया। उनके विचारों को एक बार जिसने आत्मसात्
कर लिया उसका तो कायाकल्प ही हो गया।
माताजी ने स्वप्न में व्यसन छुड़ाये
सीताराम ग्रोवर मोदीनगर (यू.पी.)
मैं बहुत ही शराब पीता था। बड़ी विस्फोटक स्थिति थी मेरी। एक रात मैंने स्वप्न में माताजी के दर्शन किये। तब तक मैं माताजी से कभी मिला नहीं था। माताजी ने दर्शन दिया और मुझे शराब न पीने के लिए कहा और हरिद्वार आने का निर्देश दिया। सौभाग्य से कुछ दिन बाद मैं पत्नी सहित हरिद्वार आया और शान्तिकुञ्ज पहुँचा। वहाँ जब मैंने माताजी के दर्शन किए तो सबकुछ बिल्कुल वैसा ही पाया जैसा मुझे सपने में दिखाई दिया था। मैं देखकर हैरान रह गया। उस दिन से मैंने शराब पीना छोड़ दिया। अब बहुत खुश हूँ।
10. बच्चो! हम सदा तुम्हारे साथ रहेंगे
पूज्य गुरुदेव बार-बार कहते थे, ‘‘बेटा, इस बार हम बहुत बड़ी नाव लेकर आये हैं। तुम सब लोगों को उसमें बिठाकर पार लगा देंगे। बस तुम लोग उसमें से उतरना नहीं। तुमको कुछ नहीं करना है, केवल हमारा काम करना है। हमारा मार्गदर्शन व संरक्षण तुम्हें सतत मिलता रहेगा। तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा काम करेंगे। लाखों परिजनों ने पूज्य गुरुदेव के इस संरक्षण का अहसास किया है। ’’
गाड़ी रोको, बच्चे छूट गये हैं
श्रीमती सावित्री गुप्ता, शान्तिकुञ्ज
एक बार मैं, श्री रामस्वरूप अग्रवाल गंगानगर, राजस्थान वाले के साथ अपनी बेटी
के घर इन्दौर जा रही थी। श्री अग्रवाल जी तब सावित्री ब्लाक शान्तिकुञ्ज में
निवास करते थे।
गाजियाबाद स्टेशन आया तो मैंने उसे दिल्ली समझा व पानी लेने ट्रेन से उतर गई,
दो बॉटल पानी भरा इतने में गाड़ी चल दी। मैं दौड़ी, बाटल कन्धे पर थी। मैंने ट्रेन
का डंडा पकड़ लिया, किन्तु भीड़ के मारे पैर पायदान तक न पहुँच सका सो मैं लटकी
हुई कुछ दूर तक गई। बाद में मेरे हाथ से डंडा भी छूट गया सो चलती ट्रेन से गिर
पड़ी। इस समय गाड़ी धीमे ही चल रही थी। फिर भी मैं जैसे ही गिरी जाने कहाँ से दो
लड़के आये। कहा-‘‘माताजी चोट तो नहीं लगी।’’ और जोर से गार्ड को चिल्लाये, गाड़ी
रोको बच्चे छूट गये हैं। गार्ड ने हड़बड़ा कर देखा, पूछा ‘‘कहाँ हैं बच्चे?’’ और
गाड़ी रोक दी।
इस बीच उन लड़कों ने मुझे उठाया और हाथ पकड़कर अपने साथ ले गये तथा सबसे पीछे गार्ड
के डिब्बे में लगभग उठाते हुए चढ़ा दिया। चूँकि चलती ट्रेन से गिरी थी सो चोट
तो थी ही। जैसे ही बैठी, गार्ड ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मैंने इशारे से कहा-‘‘कृपया
मुझे साँस लेने दें, मैं सब बताती हूँ।’’ चढ़कर तुरन्त बच्चों को धन्यवाद देने
हेतु पलटकर देखा तो वहाँ कोई नहीं था। थोड़ी देर बाद शान्त होकर मैंने गार्ड से
सब हाल बताया। दूसरे स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो गार्ड ने मुझे अपने साथियों के
पास पहुँचा दिया। वे भी बहुत परेशान हो रहे थे। जब इन्दौर से वापस आई तब गुरुदेव
ने कहा, ‘‘तू खूब परेशान किया कर। देख के नहीं उतरा जाता क्या? समय देखकर ही
उतरा-चढ़ा करो बेटा।’’
मुझे लगा मैंने पत्र तो डाला नहीं पर पूज्यवर को कैसे मालूम? मुझे लगा निश्चित
ही वे दो लड़के पूज्यवर के अंश होंगे। जिन्होंने मुझे हाथ पकड़ कर गार्ड के डिब्बे
पर चढ़ाया था। तभी तुरन्त पलट कर देखने पर भी वे दृष्टि से ओझल हो गये थे। गुरुदेव
का ऐसा संरक्षण पाकर मैं कृतकृत्य थी।
दुबई में करेन्ट से बचाया
चेन्नई की शोभना बहिन बड़ी श्रद्धा भावना के साथ पूज्य गुरुदेव से, गायत्री परिवार
से जुड़ी थी। उनके पति गायत्री परिवार से नहीं जुड़े थे। वे दुबई में किसी कम्पनी
में काम करते थे। वहाँ उन्हें एक दिन तैंतीस हजार वोल्टेज का करेण्ट लगा। बिजली
तुरंत पाँव को चीरती हुई जमीन में धँस गयी। पाँव में बड़ा छेद हो गया था। तुरंत
अस्पताल ले जाकर उपचार प्रारम्भ हुआ। प्रत्यक्षदर्शी हतप्रभ थे। ये करेण्ट तो
कुछ सेकण्डों में जान ले लेता है। पर उनके जीवन पर आया संकट टल गया था। उनके
सभी मित्र उन्हें देखने आते और कहते, ‘‘आपके पीछे कोई बहुत बड़ी शक्ति है, जिसने
आपको बचा लिया है।’’ वे बोले, ‘‘मैं तो कुछ करता नहीं हूँ, पर मेरी पत्नी गायत्री
परिवार से जुड़ी है, वह कुछ न कुछ करती रहती है। निश्चय ही उनके गुरुजी ने मुझे
बचा लिया है।’’
ज्ञातव्य है कि तत्पश्चात् शोभना बहिन ने पूज्यवर की दो पुस्तकें ‘‘माई विल एण्ड
हैरीटेज’’ एवं ‘‘सुपर साइन्स ऑफ गायत्री’’ का तमिल भाषा में अनुवाद कर अपने पैसों
से छपवाया। उन पुस्तकों को जिनने भी गहराई से पढ़ा, वे खोजते हुए उनके घर आने
लगे, और पूज्य गुरुदेव एवं गायत्री परिवार के बारे में उनसे जानकारी लेकर युग
निर्माण योजना के सदस्य बनते चले गये।
बिना बताये घर से क्यों चला आया
श्री श्रीकृष्ण अग्रवाल, शान्तिकुञ्ज
एक बार मैं शक्कर का कोटा लेने महासमुन्द आया हुआ था। जब भी मैं महासमुन्द आता
तो ज्वालाप्रसाद जी से जरूर मिलता था। उस दिन उनसे मिला तो उन्होंने कहा, मैं
कल शान्तिकुञ्ज जा रहा हूँ चलना हो तो तुम भी चलो। मैंने कहा, ‘‘ज्वाला जी, न
तो मैंने घर में बताया है, न कपड़े लाया हूँ। दुकान के लिये शक्कर उठाने आया हूँ।
अभी मैं कैसे जा सकता हूँ?’’
ज्वाला जी ने कहा, ‘‘जाना है तो बहाना मत मारो। कपड़े मेरे पहन लेना, घर में खबर,
मैं किसी के द्वारा करवा दूँगा। शक्कर हेतु लाया पैसा तुम्हारे पास है ही।’’
बात मुझे भी जँच गई। गुरुजी जिसे बुलाना चाहें उसका इन्तजाम भी करते हैं। इतने
में, बागबाहरा वाले श्री नरेन्द्र सिंह आ गये। बात बन गई। घर के लिये चिट्ठी
दे दी। बाकी व्यवस्था थी ही, दो दिन बाद हरिद्वार पहुँचे।
श्री नरेन्द्र जी घर पर चिट्ठी देना भूल गये। पत्नी का रो-रो कर बुरा हाल था।
कहाँ चले गये? क्या बात हुई? कोई संदेश नहीं? उनके देवर चिढ़ाने लगे, ‘‘भाभी!
भैय्या तो बाबा जी बन गये। चिमटा पकड़ लिया। घर-घर घूमेंगे, बस आप तो रोती रहो।’’
माँ ने बच्चों को डाँटा, ‘‘क्यों भाभी को रुलाते हो?’’ बहू को सांत्वना देती
रहीं पर स्वयं भी परेशान थीं। घर में स्थिति बड़ी दयनीय थी।
इधर जब हम शान्तिकुञ्ज पहुँचकर ऊपर गुरुजी के पास पहुँचे तो पहुँचते ही उन्होंने
डाँट लगाई, ‘‘बेटा! बिना बताये घर से क्यों चला आया? इस प्रकार तुझे नहीं आना
चाहिए। तू नहीं जानता, मुझे कितनी तकलीफ हुई।’’ मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैंने
कहा, ‘‘गुरुजी, मैंने तो खबर भिजवा दी है। नरेन्द्र सिंह को चिट्ठी दी है।’’
‘‘बेटा! उसने चिट्ठी नहीं दी। घर में खबर नहीं पहुँची है। तू आइन्दा, ऐसा काम
कभी मत करना।’’ मैं चुप हो गया। गुरुजी कैसे जान गये कि घर में खबर नहीं पहुँची?
नरेन्द्र सिंह ने चिट्ठी नहीं दी? उन्हें तकलीफ हुई! आदि बातें मेरे मन को मथने
लगीं। इधर घर आने पर पता चला कि नरेन्द्र सिंह जी को चौथे दिन चिट्ठी की बात
याद आई और घर जाकर कहा-‘‘भाभी! मुझसे गलती हो गई। भैया चार दिन पहले चिट्ठी दिये
थे। मैं भूल गया। वे हरिद्वार गये हैं।’’
यह वही समय था जब चौथे दिन हमारी गुरुजी से बात हो रही थी। मुझे महसूस हुआ कि
गुरुदेव सर्वज्ञ हैं। उनकी नजर हर तरफ रहती है।
ऑपरेशन सफल बनाया
नवाबगंज, बरेली के कपड़ा व्यवसायी श्री कपूर जी, गायत्री परिवार के पुराने सदस्य
थे। एक बार उन्हें फेफड़ों में काफी तकलीफ हुई। उन्हें अस्पताल में भरती कराया
गया। डॉक्टरों ने एक्सरे आदि लिया, तो देखा कि स्थिति बहुत खराब है। तत्काल ऑपरेशन
करना होगा। जब डॉक्टरों ने ऑपरेशन करना शुरू किया तो अन्दर की हालत देखकर उन्होंने
हाथ ऊपर उठा दिये। कहा कि फेफड़े बहुत गल गये हैं, ऑपरेशन भी नहीं हो पायेगा।
उनकी पत्नी का पूज्यवर के ऊपर विश्वास बहुत प्रबल था। उन्होंने हिम्मत बनाये
रखी। बिल्कुल भी घबरायीं नहीं और पूज्यवर से प्रार्थना करती रहीं।
उधर, ओ. टी. में, क्योंकि शरीर खुल चुका था। अतः बाहर भेजना भी संभव नहीं था।
एक डॉक्टर ने थोड़ी हिम्मत की व कहा कि हम लोग प्रयास करते हैं, संभव है, सफलता
मिल ही जाये। उन्होंने पूरी सावधानी के साथ कई घण्टे लगाकर ऑपरेशन किया। सबने
महसूस किया कि एक अदृश्य शक्ति सहायता करती रही। उन्हें ऑपरेशन में पूरी सफलता
मिली। रोगी की जान का खतरा खतम हुआ। सभी घर वाले ऐसा ही मानते हैं कि पूज्यवर
ने ही उन्हें बचाया। उस ऑपरेशन के बाद कई वर्षों तक वे जीवित रहे व पूज्यवर का
कार्य करते रहे।
दिव्यसत्ता का स्मरण
रामबाबू शर्मा, इंदौर
सन् 1975 के दीक्षा समारोह की विदाई के सुअवसर पर कहे गये शब्द-‘‘बेटा, तू मेरा
काम करना, तेरे सब काम मैं करूँगा’’ मेरे मानस पटल पर चिरस्थाई होकर प्रतिक्षण
गुजरते रहे।
एक घटना सन् 1986 की है। इंदौर के तिलकनगर में परिवार सहित रहते थे। एक रात अचानक
स्वप्न आया, घर में कोई घुस आया है। उठकर देखा बाहर का दरवाजा खुला हुआ है, घबरा
गये। पत्नी अपने कमरे में गई। देखा, गुरुदेव खड़े हैं। पत्नी चरण स्पर्श करके
बाहर आई। घटना सुनाई पर विश्वास तब हुआ, जब कुछ महीने बाद हमारा हरिद्वार जाना
हुआ।
माताजी ने कहा ‘‘बिटिया, पिताजी से डरना नहीं चाहिए।’’
बेटा! तुमने दीक्षा ली है न!
मोहाली के कार्यकर्ता श्री श्रीराम लखनपाल जी बताते हैं कि 1980 में मैं गायत्री
परिवार से जुड़ा। मेरा बेटा पोलियोग्रस्त है। 1983 में जब मैं परिवार सहित शान्तिकुञ्ज
आया तो बेटा दस साल का होने पर भी हाथों और घुटनों के बल पर ही चलता था। जैसे
कि 7-8 माह का बच्चा चलता है। हमने उसका बहुत इलाज करवाया। 6-7 आप्रेशन भी हो
चुके थे। रोज गुरुजी को प्रणाम करते समय गुरुजी उस बालक को गौर से देखते। श्रीमती
यशोदा बहिन जी (मोहाली) जो हमें लेकर आई थीं, प्रणाम के पश्चात् रोज हमें पूछतीं,
‘‘आपने बालक के लिये गुरुजी से बात की?’’ हम कहते-‘‘नहीं।’’ तो वह नाराज़ होतीं
और कहतीं,‘‘ गुरुजी से कहना था।’’
वापस जाने का समय भी आ गया। विदाई में बस एक दिन शेष था। उस दिन यशोदा बहिन जी
बोलीं, ‘‘आज तो आप गुरुजी से बात करके ही लौटना। नहीं तो मैं कहूँगी।’’ मैंने
घर में बड़ों से सुना था कि गुरु से माँगा नहीं जाता। वह तो जानी-जान (जो जन्म-जन्मांतरों
के रहस्य जानता है।) होते हैं। सो मैंने उनसे कहा, ‘‘गुरु तो स्वयं सब जानते
हैं, उनसे माँगा थोड़ी जाता है। मैं नहीं माँगता। उन्हें जो देना होगा, वे स्वयं
दे देंगे।’’ उस दिन जब हम गुरुजी के दर्शन करने गए, तो गुरुजी ने स्वयं ही मुझसे
पूछा, ‘‘आपका बच्चा है?’’ मैंने हाँ में सिर हिलाया। फिर गुरुजी बोले, ‘‘बेटा,
इस बालक की चिन्ता मत करना। मैं इसे पूरा ठीक तो नहीं कर सकता, पर इसे इसके पैरों
पर खड़ा कर दूँगा। एक दिन ये खूब दौड़ेगा। अपना सब काम खुद ही करता चला जायेगा।
तुम बस, मेरा काम करते रहना।’’
इसके कुछ महीनों बाद 1984 में, मैं बालक को एक बाबाजी के पास ले गया। उसने चण्डीगढ़
हाईकोर्ट के पास ही एक गाँव ‘कैंवाला’ में अपना डेरा लगाया था। मेरी इच्छा तो
नहीं थी पर मेरे सहकर्मियों ने मुझपर बहुत दबाव डाला। उन्होंने उन बाबाजी की
बहुत ख्याति सुनी थी। कुछ संतान का मोह भी होता है। मैं भी उसे वहाँ ले गया।
दूर-दूर से लोग अपने अंधे, अपंग बच्चों व परिजनों को लेकर आये हुए थे। वहाँ हम
दो दिन रुके।
दूसरे दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई और चारों ओर कर्फ्यू
लग गया। वह बाबा भी कोई ढोंगी था। शायद आतंकवादियों का ही कोई गिरोह रहा होगा।
गाँव वालों को बाबाजी की पोल-पट्टी पता चल चुकी थी। दूसरी रात लगभग 12:00 बजे,
उन सबने बाबाजी के डेरे को घेरकर आग लगा दी और बाबाजी के चेलों के साथ मार-पीट,
लाठीचार्ज, पथराव आदि करने लगे। इधर आग तेजी से फैलने लगी और चारों ओर चीख पुकार
मच गई। मैंने झट से अपने बच्चे को गेहूँ के कटे खेतोंं में फेंका, एक कम्बल ओढ़ा
और आग में फँसे लोगों को पीठ पर लाद-लाद कर बाहर सुरक्षित स्थान पर ले जाता रहा।
मेरे पैर लहू-लुहान हो रहे थे। पता नहीं कहाँ से मुझमें शक्ति आ गई थी। अनेक
लोगों को आग से बचाया। बीच-बीच में गाँव वालों की लाठियाँ भी पीठ आदि पर पड़ती
रहीं, पर गुरुजी रक्षा करते रहे। दर्द का कोई खास अहसास ही नहीं हुआ।
पर इस सबके बीच मैं अपने बेटे से बिछुड़ गया था। अब मैं पागलों के जैसे उसका नाम
ले-लेकर, चिल्ला-चिल्ला कर उसे ढूँढ़ रहा था। मेरा गला बैठ गया था। लगभग दो घण्टे
तक ढूँढ़ने के बाद सुबह होने पर जब वह मिला तो मेरी जान में जान आई।
जब हम घर पहुँचे तो पत्नी कुछ घबराई हुई और परेशान सी लगी। पूछने पर पता चला
कि उसी दिन ब्रह्म मुहूर्त में जब वह जप कर रही थी, तो गुरुजी ने ध्यान में आकर
कहा, ‘‘बेटा! संकट तो बहुत बड़ा है, पर घबराना नहीं। तुमने दीक्षा ली है न, मैं
हर समय तुम्हारे साथ हूँ।’’ फिर वह बोली, ‘‘पता नहीं कौन सा संकट आने वाला है,
गुरुजी ने किस संकट का संकेत दिया है?’’
रात की घटना अभी भी मुझे कँपा रही थी। मैंने कहा, ‘‘संकट तो आकर चला गया’’ और
रात की सब घटना पत्नी को बताई। उस रात गुरुजी ने ही हमारी रक्षा की थी, पत्नी
को इसका आभास कराकर शायद वह विश्वास दिलाना चाहते थे कि गुरु चरणों में समर्पित
होने के बाद अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है। फिर मैं कभी किसी के पास भटकने
नहीं गया।
पूज्यवर के आशीर्वाद के अनुरूप धीरे-धीरे बेटे की हालत में सुधार होता गया। वह
सहारे से खड़ा होने लगा फिर अपने पैरों पर चलने भी लगा। आज वह पढ़-लिख कर अपने
पैरों पर खड़ा है। उसकी शादी भी हो गयी है और दो संतानें भी हैं।
पाँचवाँ डाक्टर
श्री श्रीकृष्ण अग्रवाल, शान्तिकुञ्ज
सन् 1980 के आसपास की घटना है। मुझे एक माह से बुखार आ रहा था। शान्तिकुञ्ज
के तीन-चार डाक्टरों ने मेरा इलाज किया इसके बावजूद मेरा बुखार ठीक नहीं हो रहा
था। अन्त में परेशान होकर अपनी पत्नी के हाथ एक पत्र लिखकर गुरुजी के पास भिजवाया।
लिखा-‘‘गुरुजी,
सादर प्रणाम।
आपके यहाँ लोग हजार कि.मी. दूर से भी आकर अपने घर के लिये अनेक मनोकामनाएँ ले
जाते हैं। मैंने तो कभी आपका 100 रु. भी इधर-उधर नहीं किया। फिर भी मैं कितना
पापी हूँ, जो यहाँ रह कर भी एक माह से परेशान हूँ, बुखार उतर ही नहीं रहा। आपका
पुत्र’’
प्रणाम के पश्चात् गुरुजी उठने ही वाले थे, कि मेरी पत्नी ने उन्हें पत्र दिया।
गुरुजी ने पत्र पढ़ा। आश्चर्य से कहा-‘‘बेटी! एक माह से बुखार नहीं उतरा। चल,
मैं अभी आता हूँ।’’ वह कमरे तक पहुँचती कि गुरुजी भी पहुँच गये और सीढ़ी चढ़ने
लगे। उन्हें देखकर शान्तिकुञ्ज के अन्य कार्यकर्ता भी दौड़े। क्या बात हो गई?
गुरुजी क्यों आये हैं?
गुरुजी आते ही मेरे बिस्तर के पास पहुँच कर बगल में बैठ गये और बोले-‘‘हाँ! बता,
क्या-क्या दवाई की बेटा?’’ मुझे उस समय भी तेज बुखार था। बुखार में तप्त, परेशान,
मैं बोला, ‘‘गुरुजी! मुझे आपके चार-चार डॉक्टरों ने किलो भर गोलियाँ खिला डालीं,
फिर भी कुछ आराम नहीं मिला।’’
इस पर गुरुजी ने कहा, ‘‘तू क्यों चिन्ता करता है? मैं पाँचवाँ डॉक्टर आ गया हूँ
न। तुझे अब कभी बुखार नहीं आयेगा।’’ मैंने कहा, ‘‘गुुरुजी, मेरा पेट भी भारी
रहता है।’’ गुरुजी का हाथ अनायास ही मेरे पेट की तरफ बढ़ा। गुरुजी ने मेरे पेट
पर हाथ फिराया। उसी दिन मेरी सारी बीमारी दूर हो गई। फिर उस दिन के बाद मुझे
कभी बुखार नहीं आया।
विपत्ति से रक्षा
एक कार्यकर्ता बहिन अपने परिजनों के साथ शान्तिकुञ्ज घूमने आयी। जब सब मंशा
देवी मन्दिर घूमने जाने लगे तो ये भी साथ चली तो गयीं, पर वहाँ सीधी सीढ़ियों
की चढ़ाई में जल्दी ही थक गयीं। उन्होंने सबसे कहा, ‘‘मैं नहीं चढ़ पाऊँगी, तुम
लोग दर्शन करके आ जाओ।’’ वे एकांत में अकेली बैठी थीं, तो कुछ मनचले लड़कों का
समूह उनके निकट आया। उन्हें उनकी नीयत अच्छी नहीं लगी। जब वे लड़के उन्हें छेड़ने
के लिए और निकट आने लगे, तो वे घबराईं। पर अचानक कहीं से एक कुत्ता निकल आया,
जो उन लड़कों को काटने के लिए दौड़ा। वे लोग बार-बार, थोड़ी-थोड़ी देर में उनके पास
आने का प्रयास करते, पर वह कुत्ता तो जैसे वहाँ उनकी सुरक्षा के लिए ही तैनात
था। उसने उन लड़कों को उनके पास नहीं फटकने दिया। जब तक उनके परिवार वाले आ नहीं
गये, तब तक वह कुत्ता वहीं बैठा रहा, और परिवार वालों के आ जाने पर इधर-उधर निकल
गया।
अगले दिन जब वह बहिन पूज्य गुरुदेव से मिलीं, तो गुरुजी ने कहा-‘‘बेटा! अपनी
सुरक्षा अपने हाथ। तू अकेले वहाँ क्यों बैठ गयी थी?’’ तब उन्हें समझ में आया
कि गुरुजी ने ही उन्हें विपत्ति से बचाया था।
करेण्ट लगने पर जीवन रक्षा
गुना के श्री सुरेश रघुवंशी, उन दिनों शान्तिकुञ्ज में समयदानी कार्यकर्ता थे।
वे एक कार्यक्रम में मेरठ शहर गये। वहाँ जिस मकान में वे रुके थे, वहाँ छत के
ऊपर से ग्यारह हजार वोल्टेज की हाई पॉवर लाइन किसी फैक्टरी में जाती थी। सुबह
कपड़े सुखाने के लिए वे छत पर गये। जैसे ही उन्होंने तौलिया उछाला। जब तक वहाँ
खड़ी उस परिवार की बहू कहती-‘‘भैया, यहाँ कपड़े मत डालना।’’ तब तक तो करेण्ट लाइन
ने तौलिया गीला होने के कारण उन्हें खींच लिया था। वे उस लाइन से चिपक गये। उनके
सिर से अग्नि की ज्वालाएँ निकलने लगीं। बहू चिल्लाते हुए नीचे उतरी कि शान्तिकुञ्ज
वाले भैया को करेण्ट लग गया। घर वालों ने तुरन्त लाइन ऑफ करने के लिए फैक्टरी
में फोन किया। इतने में पड़ोस की एक महिला ने उन्हें लाइन से चिपके देखा तो दौड़कर
ऊपर चढ़ गयी। जैसे ही लाइन ऑफ हुई, वे गिरे। वह महिला उन्हें तुरन्त नीचे ले आयीं।
जमीन पर औंधे लिटाकर लगातार मुट्ठियाँ मारने लगी। आनन-फानन में गाड़ी की व्यवस्था
की गयी। उन्हें अस्पताल ले जाया गया व तुरंत उपचार शुरू हुआ।
उनके सिर में गहरा घाव हो गया था। मेरठ के सारे कार्यकर्ता एकत्र हो गये। सभी
गायत्री मंत्र जाप करते हुए उनके लिए प्रार्थना करने लगे। वहाँ उस फैक्टरी लाइन
से पहले भी उस पूरी गली में 18 मौतें हो चुकी थीं। ये भाई उन्नीसवें नम्बर के
थे। जिन्हें पूज्य गुरुदेव ने बचा लिया। कार्यकर्ता खुश भी थे, और गुरुसत्ता
की सामर्थ्य पर हैरान भी। उन्हें ये विश्वास हो गया था कि हमारे गुरुदेव असंभव
को भी संभव कर देने में पूरी तरह समर्थ हैं।
मेरा आध्यात्मिक उपचार
अनामिका पारिक, कुरुक्षेत्र
गुरुदेव से जुड़ने के पूर्व, लगभग तीस वर्ष की आयु में ही, मेरा शरीर बीमारियों का घर बना हुआ था। कभी दिल की धड़कन बढ़ जाती तो कभी पैरों में सूजन आ जाती थी। थकान व कमजोरी के कारण बुरा हाल रहता था। मेरे पति स्वयं एक बहुत अच्छे चिकित्सक हैं परन्तु बीमारी पर कोई इलाज कामयाब नहीं हो पाता था। अनेकों बड़े-बड़े, चिकित्सकों ने ‘थायराइड ग्लैण्ड’ में ‘हार्मोन्स’ का असन्तुलन घोषित कर दिया था। अपने पति के द्वारा बारम्बार कहने पर मैंने गायत्री जप शुरू किया एवं भावना पूर्वक गायत्री जप व गुरुदेव की तस्वीर रखकर ध्यान करना आरम्भ कर दिया। एक दिन मुझे अनुभूति हुई जैसे गुरुदेव कह रहे हों-‘‘तुम हमारा काम करो, हम तुम्हारा आध्यात्मिक उपचार करेंगे।’’ उस दिन के बाद मैंने महिला सत्संग व झोला पुस्तकालय चलाना आरंभ किया और कुछ ही दिनों में मेरी बीमारी गायब हो गई।
पूज्य गुरुदेव-माताजी दोनों एक ही थे। परम पूज्य गुरुदेव के स्थूल शरीर छोड़ने
के बाद उनकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारियाँ माताजी के कंधों पर आ गईं। उस समय उनके
पास रहने वाले परिजन बताते हैं कि माताजी ने पूज्य गुरुदेव की कमी का अहसास नहीं
होने दिया। उनमें पूज्य गुरुदेव की समस्त शक्तियाँ प्रारंभ से ही विद्यमान थीं,
परंतु गुरुदेव के रहते तक उन्होंने इसका खास अहसास नहीं होने दिया। स्वयं को
उनकी आड़ में छिपाये रखा। कभी-कभी आवश्यकता पड़ने पर परिजनों को उन्होंने उनका
आभास भी कराया है। परंतु गुरुदेव के सूक्ष्म में विलीन होने के पश्चात् तो वे
स्पष्ट रूप से सामने आईं। परिजनों को उन्होंने एहसास कराया कि वे गुरुदेव से
भिन्न नहीं हैं। अर्धनारी नटेश्वर की तरह वे और गुरुदेव दोनों एक ही हैं।
जो भी उनके पास आया, वह निहाल हो गया। किसी को उन्होंने खाली हाथ नहीं लौटाया।
अधिकतर लोग उनसे लौकिक चीजें ही माँगते रहे। जिस पर वे कभी-कभी खेद भी प्रकट
करते थे। कहते कि मैं तो कठिन तप से कमाई आध्यात्मिक विभूतियाँ देना चाहता हूँ,
पर हमारे बच्चे अभी तक बच्चे ही बने हुए हैं। लौकिक चीजें ही माँगते हैं। यह
सब तो मेरे लिये टॉफी चॉकलेट बाँटने के समान है।
इसके अतिरिक्त किसी ने उनसे विद्या माँगी, किसी ने भक्ति। किसी ने पवित्रता तो
किसी ने शक्ति भी। कोई-कोई भक्त तो शबरी, नरसिंह मेहता की नाईं उन्हें साक्षात्
भगवान् मानते ही नहीं रहे अपितु दृढ़ विश्वास भी करते रहे। उन्होंने जब उनके दर्शनों
की इच्छा की तो पूज्यवर ने उन्हें अपना स्वरूप भी दिखाया। जिसने जो माँगा वो
पाया। उनके विषय में बस यही कहा जा सकता है-‘‘तेरे दरबार की गुरुवर निराली शान
यह देखी, तुझे देते नहीं देखा, मगर झोली भरी देखी।’’
बायना (हुंडी) तो भरना ही पड़ेगा
श्री शिव प्रसाद मिश्र, शान्तिकुञ्ज
श्री रघुवीर सिंह चौहान जी की बड़ी लड़की की शादी तय हो चुकी थी। चूँकि श्री चौहान
जी मेरे साथ ही गुरुदेव व वंदनीया माताजी से परिजनों को मिलाने के कार्य में
व्यस्त रहते थे, अतः हम लोग प्रायः ही उनसे पूछते रहते-
‘‘चौहान जी, लड़की की शादी की तैयारी हो गई?’’
वे कहते, ‘‘सब गुरुजी ठीक करेंगे।’’ शादी में मात्र दो माह का समय था। जब भी
पूछते, उनका एक ही जवाब होता। ‘‘सब गुरुजी ठीक करेंगे।’’
अब शादी में मात्र चार-पाँच दिन ही बचे थे। चौहान जी पूर्ववत् ही अपने कार्य
में लगे रहते। शादी की तैयारियों की बाबत पूछने पर अब भी उनका यही जवाब था। ‘‘सब
गुरुजी ठीक करेंगे।’’ मैं किसी कार्यवश ज्वालापुर गया। अकस्मात् ही उनके घर पर
नजर पड़ी। देखा, अरे! घर तो ज्यों का त्यों पड़ा है। न लिपाई-पुताई, न रंग-रोगन।
चार दिन बाद शादी है लेकिन उसके एक भी लक्षण दिखाई नहीं पड़ रहे। मुझे चिंता हुई।
आकर अन्य भाई-बहनों से चर्चा की। सोचा, अब गुरुजी-माताजी से कहे बिना काम नहीं
चलेगा।
उस दिन भी चौहान जी से जब पूछा तो जवाब वही का वही। अब शादी में केवल तीन दिन
शेष थे। मैंने पूज्य गुरुदेव से सब बात बताई। गुरुजी ने सारी बात सुनी। थोड़े
गंभीर हुए, फिर बोले, ‘‘बेटा, बायना तो भरना पड़ेगा’’ उनकी बात सुनकर मुझे लगा
कि ‘कहीं ये पूर्व जन्म के नरसिंह मेहता तो नहीं हैं, जो अपने कृष्ण को हुंडी
चुकाने को विवश कर रहे हैं। प्रभु की लीला प्रभु ही जाने।’ मैं अभी सोच ही रहा
था कि पूज्यवर का आदेश हो गया ‘‘बेटा, तू देख। सारी व्यवस्था कर।’’
मैंने नीचे आकर परम वंदनीया माताजी से परामर्श किया, उन्होंने भी सारी व्यवस्था
हेतु स्वीकृति दे दी और अन्य परिजनों को भी सहयोग करने के लिये कहा।
हमने चौके से बर्तन आदि सभी आवश्यक सामग्री मेटाडोर में भरी और कुछ भाई-बहनों
को साथ ले कर चौहान जी के घर पहुँचे। सावित्री जीजी चौके वाली कुछ बहनों को साथ
लेकर गईं। उन सबने लिपाई पुताई से लेकर चौके की पूरी व्यवस्था सँभाली।
क्योंकि, बारात बहादराबाद से ही आनी थी, सो कितनी व्यवस्था करनी पड़ेगी, इसका
पहले से ही अन्दाजा ले लिया जाय; यह सोचकर मैं समधी जी के यहाँ बहादराबाद चला
गया। देखा तो मेरे नेत्र खुले के खुले रह गये। वे गाँव के मान्य ठाकुर थे। गाँव
भर में उत्सव का माहौल था। वे उस समय पूरे गाँव को खाना खिला रहे थे। मैं कुछ
देर रुका। फिर बात ही बात में पूछा, ‘‘कितनी बारात जायगी?’’ उत्तर मिला-‘‘पूरा
गाँव तैयार है। एक हजार तो हो ही जायेंगे।’’ सुनकर मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम
थी। निवेदन किया। यह तो बहुत ज़्यादा है। आपके समधी शायद सँभाल न सकें। कृपया,
उन पर इतना बोझ न डालें। कुछ आदर्श की भी बात की। वे पहले पाँच सौ, फिर तीन सौ;
अंततः बड़ी मुश्किल से डेढ़ सौ के लिये तैयार हुए। पर फिर भी तीन सौ बाराती हो
ही गये थे। शायद इससे अधिक उनको भी नकारते न बन पड़ा हो।
ज्वालापुर आकर मैं किराना सामान लेने गया। यह सन् 77-78 की बात है। उस समय मैं
1345 रु. का किराने का सामान लाया। मिठाई गिनकर दो सौ पीस से कुछ ऊपर ही लिया
था। तीन सौ बराती आए और लगभग तीन सौ ही घराती हो गये।
सावित्री जीजी, भारती अम्मा के जिम्मे चौके की सब व्यवस्था थी। फिर भी इतनी बड़ी
व्यवस्था में जिससे जो बना पूरा सहयोग किया। श्री महेन्द्र शर्मा जी ने पूड़ी
तली। श्री राम सहाय शुक्ला जी व मैं भी जो हाथ आया वही काम किया।
तीन दिन के अन्दर सब तैयारियाँ और व्यवस्था देखकर मुहल्ले वासी भी हैरान रह गये।
सब के मुँह पर एक ही बात थी कि लक्ष्मी माँ का काम फटाफट होते सुना था पर देखा
आज ही है।
मैं खुद आश्चर्य में था कि मैं जो किराना सामान लाया था, उसी में सब व्यवस्था
कैसे पूरी हो गई? बारात की विदाई के बाद भी पूड़ी-सब्जी, लड्डू आदि बहुत बचा था।
मानो माताजी स्वयं इसे पूर्ण करने आई थीं।
मिठाई तो मैं गिनकर लाया था। दो सौ, पर छः सौ लोगों में कैसे पूरी हो गई, मैं
हैरान था। चौहान जी की भक्ति और गुरुवर की शक्ति के आगे हम सब नत मस्तक थे।
लड़की जब ससुराल गई और यहाँ की बातें वहाँ तक पहुँचीं, तो उसे चमत्कारी लड़की मानकर
छः माह तक दूर-दूर से लोग उसे देखने आते रहे। इस प्रकार निष्ठा ने विजय पाई।
भगवान को भक्त का बायना भरना पड़ा।
उनसे तो कहना भर ही काफी था
श्री सुदर्शन मित्तल जी, देहरादून
मैं अक्सर मथुरा आता जाता रहता हूँ। श्री द्वारिका प्रसाद चैतन्य जी से मेरी
खूब बातचीत होती रहती है। एक दिन उन्होंने बताया कि जब मैं नया-नया मथुरा आया
था तो एक दिन मैंने बातों-बातों में गुरुदेव से कह दिया, ‘‘गुरुदेव मुझे केवल
लड़की के विवाह की चिन्ता है।’’
पूज्यवर ने तुरन्त कहा, ‘‘बेटा, तू क्यों चिन्ता करता है, तेरी लड़की मेरी लड़की
है, तू बिलकुल भी चिन्ता न कर।’’ चैतन्य जी ने बताया कि उसके बाद मैं निश्चिन्त
हो गया। बात आई-गई हो गई।
समय पर अचानक एक दिन एक लड़का आया, उसने एक चिट्ठी दी। मैंने खोलकर पढ़ी, पूज्यवर
ने लिखा था-‘‘मैंने तो तिलक कर दिया है, तू लड़का देख ले।’’
चिट्ठी पढ़कर मैं हैरान रह गया। लड़के को ऊपर से नीचे तक देखा। तुरन्त तिलक कर
गुरुदेव ने भेजा था सो ओजस् चेहरे पर झलक रहा था। किन्तु बिना उसके बारे में
कुछ भी जाने समझे अपनी लड़की के लिए कैसे हाँ कर दूँ, अजीब स्थिति हो गई थी। फिर
भी लड़के को बिठाया, बातचीत किया। अन्दर गया, घर में चर्चा की व दोनों एक दूसरे
का पता लेकर एक दूसरे के गृह-ग्राम गये। दोनों ने दोनों को पसंद किया, बात तय
हुई।
इसी बीच लड़के के मामा ने विवाह की लिस्ट दी, जिसे मैंने मना कर दिया, कहा-‘‘मैं
इतना सामान नहीं दे सकता।’’ अब तो उनके घर वाले सकते में आ गये। गुरुजी ने तिलक
किया है, मना कैसे करते? अतः कहा ‘‘गुरुजी गोत्र समान है। कहते हैं, ऐसे में
दोनों की एक दूसरे से पटती नहीं।’’
बहाना तो बहाना था। गुरुदेव ने उसी लहजे में लड़के से पूछा, ‘‘ये लड़की मेरी है,
मेरा गोत्र चमार है, तू बता शादी करेगा?’’
लड़के ने हाँ कर दी व शादी धूम-धाम से हो गई।
बाद में चैतन्य जी अन्तर्मन से भाव-विभोर होकर कहते हैं-‘‘मित्तल जी, मैं अगर
खोजता तो कितना भी खोजता, किन्तु मुझे ऐसा लड़का कदापि नहीं मिलता। यह तो गुरुवर
की असीम कृपा है जिन्होंने मुझे इतना अच्छा दामाद प्रदान किया।’’
तुझे कुछ नहीं हुआ है बेटी
श्री सुदर्शन मित्तल जी, देहरादून
घटना सन् 1958 के ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान यज्ञ के पहले की है। आगरा के अन्दर
एक खान एस. पी. थे। उनकी पत्नी असाध्य बीमारी से पीड़ित थी। उन्हें एक कार्यकर्ता
श्री फौजदार सिंह जी से गुरुजी के विषय में जानकारी मिली, तो उन्होंने कहलवाया,
‘‘क्या मैं अपनी पत्नी को ला सकता हूँ?’’
फौजदार सिंह जी ने गुरुदेव से पूछा, तो उन्होंने कह दिया, ‘‘ले आना बेटा।’’ दूसरे
दिन वे अपनी गाड़ी से पत्नी को लेकर आये। गुरुदेव आँगन में ही दोनों हाथ पीछे
बाँधे टहल रहे थे। उसी मुद्रा में कहा, ‘‘उतार कर ले आ बेटा।’’ खान साहब ने अपनी
पत्नी को गोद में उठाया और गाड़ी से नीचे ले आए।
गुरुदेव ने उन्हें इशारे से ही मंदिर में ले जाने व गायत्री माता के समक्ष बरामदे
में सुलाने को कहा व स्वयं कमर में हाथ बाँधे हुए उन्हीं के पीछे-पीछे चलते हुए
कहते रहे, ‘‘तुम मेरी अच्छी बेटी हो, तुम मेरी प्यारी बेटी हो, तुम्हें कुछ नहीं
हुआ है, उठकर बैठ जा, देख धीरे-धीरे बैठना।’’ देखते-देखते ही वह महिला अपने मन
से उठने लगी व बैठ गई।
गुरुदेव ने कहा, ‘‘खड़ी हो जा, धीरे-धीरे खड़ी होना।’’ तो वह धीरे-धीरे खड़ी हो
गई। उन्होंने कहा, ‘‘अब चलकर अपने पिता के पास नहीं आयेगी?’’ इतना कहने पर वह
धीरे-धीरे पिताजी अर्थात् गुरुजी के पास आ गई। अब गुरुजी ने कहा, ‘‘कुछ खायेगी।’’ उस महिला ने जवाब दिया,‘‘ हाँ खाऊँगी।’’ खान साहब ने उसे बोलते सुना तो दंग
रह गये। वैसी आवाज उन्होंने कभी नहीं सुनी थी। उसके स्वास्थ्य में एकाएक इतना
सुधार देखकर खान साहब हैरान रह गए व गुरुदेव के चरणों में गिर पड़े।
वह पत्नी जिसके रोग को डॉक्टरों ने असाध्य घोषित कर दिया हो, उसे ‘‘तुझे कुछ
नहीं हुआ है बेटी।’’ कहकर, आधे घंटे से भी कम समय में उठाकर बैठा दें, खड़ा कर
दें, व खिला कर घर भेज दें। ऐसे सिद्ध संत के चरणों में भला कौन नतमस्तक नहीं
होगा?
खान साहब मन ही मन कृतज्ञ होकर जिस पत्नी को गोद में लाद कर लाये थे, उसे अपने
पैरों चलाते हुए लेकर चले गये।
माँगो, क्या माँगते हो?
राजनांदगाँव शहर के बाबूभाई मानेक, की अनुभूति उल्लेखनीय है। उन्होंने बताया
कि उन्हें संतान नहीं थी। गुरुजी हमारे घर में आये, तो उन्होंने भोजन करते हुए
पूछा, ‘‘क्यों बाबूभाई! तुम्हें संतान नहीं है?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं गुरुजी।’’
तो पूछा, ‘‘तुम्हें कामना भी नहीं है।’’ मैं बोला, ‘‘नहीं गुरुजी, अब हमारी कोई
कामना नहीं है।’’ ‘‘तुम्हें नहीं होगी। माताजी को बुलाओ।’’ पूज्य गुरुजी ने कहा।
मैंने अपनी धर्मपत्नी को बुलाया।
धर्मपत्नी से गुरुजी ने पूछा, ‘‘क्यों माताजी, तुम्हें संतान पाने की कामना नहीं
होती।’’ वे बोलीं, ‘‘नहीं, गुरुजी।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘अगर मैं तुम्हें संतान
दे दूँ तो।’’
पत्नी ने कहा, ‘‘गुरुजी अब आप संतान दे भी देंगे, तो हमारी आयु 55 साल की हो
गयी है, 20 साल पालने-पोसने में लगेंगे। पता नहीं 75 साल तक हम जिएँ या न जिएँ,
पता नहीं उतना सुख मिले या नहीं। जब कामना थी, तब पूरे देश में बहुत घूमे-भटके,
हर संत-महन्त के पास गये। लेकिन अब अपनी कामना मिटा दी है।’’ पूज्यवर खुश हुए,
कहा, ‘‘बहुत अच्छी बात।’’
भोजन के बाद गुरुजी ने हमें गायत्री माता की मूर्ति के पास बिठाया और बोले, ‘‘माताजी!
माँगो, क्या माँगती हो?’’
पत्नी ने कहा, ‘‘गुरुजी मुझे, ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दे दो।’’
पूज्यवर ने मुझसे कहा, ‘‘बाबूभाई! माँगो, क्या माँगते हो?’’ मैंने भी यही माँगा,
‘‘ज्ञान, भक्ति और वैराग्य।’’
पूज्यवर ने हम दोनों के सिर पर हाथ रखा और दस मिनट तक रखा। ऐसी दिव्य अनुभूति
हुई कि संसार भर का सारा सुख-वैभव उसके आगे मिट्टी के ढेले जैसा लगा और जिसकी
चर्चा सत्संग में सुनते आये थे, वह दिव्य आत्मानन्द, परमानन्द, ब्रह्मानन्द आदि
की अद्भुत अनुभूति हुई।
उस दिन के बाद से ऐसा हुआ कि अपने आप सन्त, मुनि एवं ऋषि स्तर की आत्माएँ हमारे
घर आने लगीं। उनसे अमृत ज्ञान उपदेश मिलता रहा। उनकी सेवा में समय बीता और पदार्थों
से वैराग्य सा हो गया, तो खूब सारा दान-पुण्य करते रहे। अस्पताल खोला, डॉक्टर
रखे। जो माँगा, वह गुरुजी ने दे दिया। हम तो धन्य हो गए।
अल्सर गायब हो गया
श्री आर. पी. त्रिपाठी, उज्जैन
1974 में अचानक मुझे पेट में भयंकर तकलीफ हुई। चैक कराने पर पता चला कि पेप्टिक
अल्सर है और वह अल्सर इस स्थिति तक पहुँच चुका था कि कभी भी फूट सकता था। डॉक्टर
ने कहा कि जितनी जल्दी हो सके आप्रेशन करा लो, यदि यह फूट गया तो आपकी जान भी
जा सकती है। मुझे तकलीफ इतनी ज्यादा थी कि मैं दो घूँट पानी भी नहीं पी सकता
था। कुछ ही दिनों में मेरा वजन 20 किलो कम हो गया था। कानपुर के एक अनुभवी डॉक्टर
से ऑपरेशन का समय भी ले लिया था। गायत्री परिवार के समर्पित कार्यकर्ता श्री
मोतीलाल जी मेरे अच्छे मित्र थे। उन्होंने कहा, ‘‘ऑपरेशन तो कराना ही है, पर
क्योंकि हम गुरुजी से जुड़े हैं, तो ऑपरेशन के पहले गुरुदेव के दर्शन कर लें तो
अच्छा रहेगा।’’ हम गुरुदेव के दर्शन करने शान्तिकुञ्ज पहुँचे। गुरुदेव ने देखते
ही पूछा, ‘‘सब ठीक-ठाक है?’’ मैंने कुछ नहीं बताया, पर मेरी पत्नी ने सब हाल
बताया और कहा, ‘‘गुरुदेव, ऑप्रेशन कराना है, आपका आशीर्वाद चाहिये।’’
सुनकर गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा, मैं भी तो डॉक्टर हूँ। अब तुम यहाँ आ गये हो तो
ऑपरेशन की कोई जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा पूरा इलाज करता हूँ। यहाँ से रोज
हरकी पौड़ी पर स्नान करने जाना और रोज खूब पानी पीना। रोज शाम को मेरे प्रवचन
में भाग लेना और कल मनसा देवी के दर्शन करना।’’
उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी कि मैं 10 कदम भी नहीं चल पाता था। दो घूँट पानी मुश्किल
से पी पाता था। 1974 के समय में मनसा देवी के लिये पहाड़ पर चढ़ कर जाना स्वस्थ
आदमी को भी कठिन जान पड़ता था। उस पर भी आश्चर्य की बात, गुरुजी बोले, ‘‘हर की
पौड़ी पर दही-बड़े और गोलगप्पे खाना।’’ यह तो मेरे मन की बात थी, क्योंकि दोनों
ही मुझे बहुत अच्छे लगते थे।
मैंने गुरुजी के कहे अनुसार किया। हर की पौड़ी नहाने के लिये गया। मन में सोचा,
जब गुरुदेव ने दही-बड़े खाने के लिये कहा है तो खा ही लेता हूँ। मैंने छक कर दही-बड़े
खाये। मुझे कुछ नहीं हुआ। दूसरे दिन हम मनसा देवी की चढ़ाई भी चढ़ गये। जैसा-जैसा
गुरुजी ने कहा था, वैसा ही किया। 15 दिन का समय गुरुदेव ने दिया था। कहा था,
कहीं अस्पताल जाने की जरूरत नहीं है, सब कैंसिल कर दो, बाद में जाना। 15 दिन
बाद जब गुरुदेव के पास गये तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, अब तुम जाओ। डाक्टर के पास
जाने की कोई जरूरत नहीं है। कभी पेट में दर्द हो तो चले जाना।’’ उस समय से आज
तक मुझे पेप्टिक अल्सर नहीं है।
अपने तप का एक अंश देंगे
अंजार, कच्छ की केशर बहन विश्राम भाई ठक्कर बहुत पुरानी कार्यकर्ता हैं। उन्हें
29 दिसंबर 1967 को गुरुजी ने एक पत्र लिखा जो इस प्रकार है-
‘‘...प्रिय पुत्री, तुम्हारा पत्र पढ़ते समय लगा कि तुम हमारे सामने ही बैठी हो,
हमारी गोदी में खेल रही हो। शरीर से तुम दूर हो, किन्तु आत्मा की दृष्टि से हमारे
अतिनिकट हो। हमारा प्रकाश तुम्हारी आत्मा में निरंतर प्रवेश करता रहेगा और इसी
जीवन में तुम्हें पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देगा। हम अपनी तपस्या का एक अंश
तुम्हें देंगे और तुम्हें पूर्णता तक पहुँचा देंगे। हमारा सूक्ष्म शरीर तीन वर्ष
बाद इतना प्रबल हो जायेगा कि बिना किसी कठिनाई के कहीं भी पहुँच सके और दर्शन
दे सके।’’
जो परिजन केशर बहिन को जानते हैं, वे उनकी भाव-समाधि की स्थिति से भी भली-भाँति
परिचित हैं।
गुरुदेव हमारे शिवशंकर वरदाई
श्री गोविंद पाटीदार, शान्तिकुञ्ज
विगत 16 से 20 अप्रैल 1970 की तिथियों में खरगोन, ग्राम घेगाँव में 108 कुंडीय
यज्ञ का आयोजन था। पूज्य गुरुदेव इस समारोह में पधारे थे। उन्हीं दिनों उनसे
मंत्र दीक्षा ली थी। अपनी हिमालय यात्रा के बाद पूज्य गुरुदेव ने लौटकर शान्तिकुञ्ज
हरिद्वार में साधना आरण्यक की स्थापना की। ‘जीवन साधना’ सत्रों की शृंखला चली।
1976 के एक सत्र में वहाँ जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला। उनसे भेंट करने के लिए
एक दिन उनके कमरे में गये। अन्य परिजन भी थे। सबसे बारी-बारी से पूज्य गुरुदेव
ने कुशल समाचार पूछे। मेरी कुशलता भी पूछी। मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव और तो सब ठीक
है, परन्तु एक दुःख है।’’ उन्होंने करुणापूर्वक कहा, ‘‘बेटा, जल्दी बता, क्या
बात है?’’ मैंने बताया, ‘‘पिताजी, मेरे बड़े भाई को हमेशा बाँध कर रखना पड़ता है।
वे पागल हैं।’’ पूज्य गुरुदेव ने क्षणभर के लिए आँख बंद की और कहा, ‘‘बेटा, यह
पूर्व जन्म के किन्हीं कर्मों के कारण है, इस प्रारब्ध को इसी जन्म में काट लेना
अच्छा है। परन्तु उसे इतना जरूर ठीक कर देंगे कि वह खुला रह सके।’’ मेरा हृदय
भर आया, गला रुँध गया और आँखों से आँसू झरने लगे। गुरुदेव ने मेरे सिर पर हाथ
फिराया और कहा, ‘‘बेटा, सब ठीक ही होगा। चिन्ता मत करो। परिवार की जिम्मेदारी
मेरे ऊपर छोड़ दो।’’
नौ दिनों के शिविर के पश्चात् घर लौटना हुआ। ठीक 20 दिन बाद बड़े भाई अपने आप
खुल गये। पूछने पर बताया कि जाने कौन सफेद खादी के कपड़े पहने बाबा आये थे। उन्होंने
दूर से मेरे ऊपर बर्फ फेंक दी। उसी से सब जंजीरें अलग हो गईं।
आज भी मेरे बड़े भाई बंधनों से मुक्त अवस्था में प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं। कभी-कभार
कई महीनों में एकाध हल्का-सा दौरा आ जाता है, पर फिर ठीक हो जाते हैं। बड़े भाई
के दोनों बालक चि. गजानंद एवं चि. रमेशचंद्र इंजीनियर के पद पर हैं तथा सपरिवार
इंदौर ही रहते हैं। मैं अपने परिवार सहित 12 जून 1984 से गुरुदेव के चरणों में
शान्तिकुञ्ज आ गया। पूज्य गुरुदेव वरदाई ही थे।
अब तो बराबर यह चिंतन रहता है कि उनके अनुदानों का ऋण चुकाने में ही जीवन के
शेष दिन बीतें।
शब्द क्या--वरदान थे वे वचन
श्री मोतीलाल स्वर्णकार, उज्जैन
सन् 1964-65 में गुरुदेव नलखेड़ा जिला शाजापुर में आये थे। तब मैं माध्यमिक शाला नलखेड़ा में क्राफ्ट टीचर था। 5 कुण्डीय गायत्री यज्ञ आयोजित किये गये थे। घर पर ही गुरुदेव के ठहरने का इंतजाम था। एकांत पाते ही गुरुदेव ने मुझसे मेरी समस्या पूछी। मैंने कहा, ‘‘गुरुदेव, पाँच कन्याएँ हैं, एक पुत्र है, इनकी शिक्षा-दीक्षा तथा विवाह संस्कार करना है। नलखेड़ा से स्थानान्तरण करवा दीजिए।’’ गुरुदेव ने कहा 9 दिन में उज्जैन ट्रांसफर बी. टी. आई. में होगा। वहाँ उज्जैन में कोई शाखा नहीं है, वहाँ सुरेश नारायण मेहता डी. ई. ओ. व जनार्दन देशमुख से मिलकर शाखा स्थापित कर युग निर्माण योजना का कार्य करना। बात बेहद अविश्वसनीय थी। भला किसी व्यक्ति का कुछ ही दिनों के अंतर से दो बार स्थानान्तरण कैसे हो सकता था? किन्तु गुरुदेव की महिमा। 9 दिन के अंदर ही बी. टी. आई. उज्जैन में मेरा ट्रांसफर हो गया। फिर मैं उज्जैन में ही रहा। यहाँ 5 कन्याओं व एकपुत्र की ग्रेजुएशन तक शिक्षा पूरी हुई। सभी की बिना दहेज के शादी कराई। उज्जैन से ही रिटायर हुआ। गायत्री परिवार की शाखा सन् 1964 में स्थापित की। गुरुकृपा से मेरा हर कार्य निर्विघ्न रूप से पूरा होता रहा है। उनके वचन मेरे जीवन में वरदान बन कर आये।
24000 मंत्र के एक लघु अनुष्ठान का पुण्य दिया है
एक बार, 5 कुण्डीय गायत्री यज्ञ के कार्यक्रम हेतु खास चौंक, उज्जैन में गुरुदेव
श्री इन्दुमल लिखाणी के घर ठहरे थे। रात के वक्त जब मैं गुरुजी के चरणों के पास
ही सोया हुआ था कि अचानक मेरी पसली में भयंकर दर्द उठा। मैं कराहने लगा। गुरुजी
उठे और पूछा, ‘‘मोतीलाल, कराह क्यों रहे हो?’’ मैंने बताया, ‘‘गुरुदेव, पसली
में भयंकर दर्द हो रहा है।’’
गुरुदेव बोले, ‘‘मेरे पास आ।’’ मैं उठ कर गुरुजी के पास गया। उन्होंने जहाँ दर्द
हो रहा था वहाँ हाथ फिराया और पल भर में मेरा दर्द गायब हो गया। मुझे ऐसा लगा,
जैसे गुरुदेव ने मुझे प्राण दान दिया हो। फिर गुरुदेव ने कहा, मैंने तुझे 24000
गायत्री मंत्र के एक लघु अनुष्ठान का पुण्य दे दिया है। घर जाकर अनुष्ठान कर
लेना और मुझे सूचना कर देना, उसकी शक्ति मैंने तुझे दी है।
कमाल आशीर्वाद का
श्रीमती शांता सोनी, इंदौर
सन् 1966-67 में पूज्य गुरुदेव सिंहस्थ पर्व पर उज्जैन पधारे। लौटते समय प्रातः 6 बजे मेरे कालिया देह निवास से साइकिल रिक्शे में बैठकर जा रहे थे, मार्ग में श्री गोपालजी सोनी का घर था। उन्होंने व उनकी पत्नी ने फूलमालाओं से पूज्य गुरुदेव का स्वागत किया। जब गुरुदेव ने सबकी कुशलक्षेम पूछी तो उनकी पत्नी ने रोते हुए कहा, ‘‘गुरुजी, मेरी गोद खाली है। जो संतान होती है, 2-4 माह में मर जाती है।’’ फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी। पूज्य गुरुदेव द्रवीभूत हो उठे और उन्हें आशीर्वाद दिया। उनके आशीर्वाद स्वरूप आज उनके दो पुत्र हैं, जो स्वस्थ, सुखी और संपन्न हैं।
जाकी कृपा पंगु गिरि लाँघै
श्री दयाशंकर रस्तोगी, शाहजहाँपुर, उ.प्र.
शान्तिकुञ्ज में उन दिनों प्राण प्रत्यावर्तन सत्र चल रहे थे। वेदमूर्ति तपोनिष्ठ
परम पूज्य गुरुदेव की तप ऊर्जा से नित नए अनुदानों-वरदानों की सृष्टि व वृष्टि
हो रही थी। उन्हीं दिनों जाड़े की एक दोपहर में उत्तरप्रदेश के खीरी लखीमपुर जिले
के मोहम्मदी कस्बे के प्रतिष्ठित कपड़ा व्यवसायी श्री दयाशंकर रस्तोगी अपनी पत्नी
श्रीमती शकुन्तला रस्तोगी के साथ पूज्य गुरुदेव से मिलने के लिए पहुँचे। उनके
साथ उनका विकलांग पुत्र सुनील भी था। गुरुदेव ने उन्हें प्रेम से बिठाने के साथ
घर के हाल समाचार पूछे। उत्तर में सुनील की माँ श्रीमती शकुन्तला ने बताया, ‘‘गुरुदेव!
मेरे तीन लड़के-सुनील, इन्द्रकिशोर व आनन्द एवं दो लड़कियाँ आदर्श व विद्योत्तमा
हैं। यह सुनील ही सबसे बड़ा है।’’ इसी के साथ ही उन्होंने सुनील के विकलांग होने
की सारी कथा सुना डाली। श्री दयाशंकर जी ने बताया, ‘‘गुरुजी! यह लड़का जन्म के
समय तो स्वस्थ-सामान्य था। पर जन्म के पन्द्रहवें दिन इसे तीव्र ज्वर हुआ, तब
से यह हाल हो गया है। चिकित्सा के सारे प्रयास भी निष्फल गए।’’
सारी बातें सुनने के बाद गुरुदेव ने सुनील की ओर देखा। ग्यारह वर्षीय इस बालक
के चेहरे पर एक अद्भुत भोलापन था। उसकी आँखों में एक अनूठी चमक थी। गुरुदेव ने
इन सबको समझाते हुए कहा, ‘‘जन्म-जन्मान्तर के कर्म प्रारब्ध का रूप लेते हैं
और यह प्रारब्ध ही अच्छी-बुरी परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है। बुरे प्रारब्ध
को धैर्यपूर्वक सह जाना तप है। तुम्हारा बच्चा यही तप कर रहा है। पर तुम निराश
न हो, हम इसे प्रतिभा का वरदान देते हैं। यह विकलांग होने के बावजूद किसी पर
बोझ नहीं बनेगा। स्वयं कमाकर खाएगा और तुम लोगों का भी नाम उज्ज्वल करेगा। इसके
कारण लोग तुम्हें और इसके भाई-बहिनों को पहचानेंगे।’’ गुरुदेव की बातें सुनकर
सुनील के माता-पिता को आश्चर्य हुआ, पर उन्हें गुरुदेव की तप शक्ति पर श्रद्धा
थी और सचमुच घर पहुँचकर सुनील में चित्रकला का अंकुरण हुआ। पूज्य गुरुदेव का
वरदान साकार होने लगा। उसकी बनायी पेंटिंग्स चर्चित एवं प्रशंसित होने लगी। रेडियो
एवं टी० वी० पर उसकी वार्ताएँ प्रसारित हुई। समाचार पत्र समय-समय पर उसके व्यक्तित्व
एवं कर्तृत्व को प्रकाशित करने लगे। श्री दयाशंकर रस्तोगी एवं शकुन्तला रस्तोगी
तो इस गुरु कृपा पर भाव विभोर हो गए। उन्होंने संकल्प लिया कि वे अपनी एक पुत्री
का विवाह शान्तिकुञ्ज के ही किसी योग्य कार्यकर्ता से करेंगे। सन् 1994 में उन्होंने
ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में कार्यरत, श्री सुरेश वर्णवाल से अपनी कन्या विद्योत्तमा
का विवाह किया। गुरुदेव की कृपा के प्रति निष्ठावान् सुनील रस्तोगी अपनी अनुभूति
महात्मा सूरदास के इन शब्दों में बयान करते हैं-
‘जाकी कृपा पंगु गिरि लाँघै।’
मात्र आशीर्वाद से बच्ची स्वस्थ हुई
श्री वरदीचंद चौधरी, सुवासरामंडी मंदसौर
मेरी लड़की निर्मला मोदी की डिलेवरी हुई थी, जिसमें उसका दिमाग पागल जैसा हो गया था, फलतः मैं इलाज हेतु भटकता फिरा। 5 माह तक 25 डाक्टरों को दिल्ली में दिखाया, किन्तु वे भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके। एक दिन रात्रि को सोते हुए गुरुदेव की याद आई और सुबह ही मैं शान्तिकुञ्ज पहुँचने हेतु रवाना हो गया। शान्तिकुञ्ज में पहुँचकर गुरुदेव से मिला। उन्होंने कहा कि आपकी बच्ची ठीक होकर 15 दिन पश्चात् नोएडा से मुझसे मिलने स्वयं आवेगी। मेरी बच्ची गुरुदेव की वाणी से स्वस्थ हो गई व 15 दिन पश्चात् गुरुदेव से स्वयं मिलने गई। इस बीमारी के दौरान उसने बड़ी तादाद में गायत्री मंत्र लेखन किया। आज मेरी बच्ची पूर्ण स्वस्थ व प्रसन्न है। यह गुरुदेव की कृपा का ही फल है।
ऋण लौटाने हेतु मजबूर किया
चेन्नई के श्री रामलाल खण्डेलवाल जी ने अपने दस लाख रुपये एक मुसलमान व्यक्ति
को ब्याज पर दे दिये। फिर वे जब भी अपने पैसे उनसे वापस माँगते, वह चाकू दिखाकर
धमकी दे देता। वह किसी प्रकार भी पैसा लौटाने को तैयार नहीं था। रामलाल जी सोचने
लगे कि अब तो हमारे दस लाख रुपये डूब गये। अब हमें, हमारा पैसा वापस नहीं मिलेगा।
संयोग से शान्तिकुञ्ज की टोली वहाँ चेन्नई पहुँची। उन्होंने टोली के भाईयों से
निवेदन किया, कि एक व्यक्ति मेरे दस लाख रुपये वापस नहीं कर रहा है। आप गुरुजी
से निवेदन करना कि मुझे मेरा पैसा वापस मिल जाये। शान्तिकुञ्ज के भाइयों ने आश्वासन
दिलाया कि आप चिन्ता न करें। हम गुरुजी से निवेदन करेंगे।
कुछ ही दिनों में उस मुसलमान व्यक्ति को एक भयावह स्वप्न हुआ। उसमें निर्देश
मिला, ‘‘तुमने जो दस लाख रुपये लिये हैं, उन्हें ब्याज सहित वापस कर दो।’’ वह
सुबह-सुबह तुरंत उनके सारे पैसे ब्याज सहित वापस करने पहुँच गया। उनके घर में
गुरुदेव के चित्र को देखकर उसने स्वप्न के विषय में बताया और क्षमा याचना कर
लौट गया। इस प्रकार गुरुजी पग-पग पर अपने बच्चों के हितों की भी रक्षा करते रहते
हैं।
ऑपरेशन टला
राजस्थान के एक कार्यकर्ता अपनी कन्या के ऑपरेशन के लिए 13 हजार रुपये लेकर
जयपुर जा रहे थे। अचानक मन में भाव उठने लगे, ‘‘गुरुजी, कन्या के ऑपरेशन की जरूरत
ही न पड़े। रास्ते में ही कन्या ठीक हो जाये। ऑपरेशन होने से शरीर पर निशान रह
जाते हैं, फिर उसकी शादी के समय कहीं कोई दिक्कत न आये। अगर ऑपरेशन न हो, तो
ये पूरे रुपये जो मैंने ऑपरेशन के लिए लाये हैं, शान्तिकुञ्ज में दान कर दूँगा।’’
उनके प्रार्थना के शब्द पूज्य गुरुजी तक पहुँच गये। वे जयपुर पहुँचकर ऑपरेशन
के पूर्व पुनः टैस्टिंग के लिए कन्या को अन्दर ले गये, इस बार जो भी मेडिकल रिपोर्ट
आयीं, कुछ समय पहले कराये गये टैस्ट से उलट, सब नार्मल थीं। डॉक्टरों ने कहा,
‘‘ऑपरेशन की कोई जरूरत नहीं है।’’ उन्होंने अन्तर्हृदय से पूज्यवर के प्रति कृतज्ञता
के भाव प्रकट किये और अपने आप से किये वायदे के अनुसार उन्होंने पूरे 13 हजार
रुपये शान्तिकुञ्ज में दान कर दिये। समाज निन्दा नहीं होने दूँगा
श्रीकृष्ण अग्रवाल कहते हैं कि मेरे चाचा श्री दाताराम को आँख व नाक के पास फोड़ा
हो गया था। लोग उसे कोढ़ कहते थे। उनका पैर सुन्न हो गया था। चप्पल पहनते तो चप्पल
कब पैर से निकल गई है, होश ही नहीं रहता। गुरुजी के पास गये उन्हें बताया, उन्होंने
कहा, ‘‘बेटे! मेरे रहते समाज निन्दा नहीं होने दूँगा। उसे कोढ़ नहीं होगा, तू
निश्चिंत रह।’’ और ऐसा ही हुआ वे उसके बाद स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर बहुत दिन
जिए। जिनने भी गुरुवर का काम किया, उनके पूरे परिवार का पूज्यवर ने ध्यान रखा।
सभी कृतार्थ हुए। वे अक्सर कहते भी रहे, ‘‘तू मेरा काम कर, तेरा काम मैं करुँगा।’’
नेत्र ज्योतिदान
श्री विश्वप्रकाश त्रिपाठी, शान्तिकुञ्ज
उन दिनों की बात है, जब मैं अल्मोड़ा में पोस्टेड था। उस कॉलेज के वीसी साहब
की एक आँख की ज्योति चली गई थी। मैंने उन्हें गुरुदेव के विषय में बताया और उन्हें
टैक्सी से शान्तिकुञ्ज ले आया। पूज्यवर से सब बात बताई और निवेदन किया। वे कृपालु
तो थे ही, विनती मान गये। स्वयं दीक्षा की मुद्रा में बैठे व वी. सी. साहब को
भी बैठाया। थोड़ी देर में उनके नेत्रों में करेण्ट सा प्रवाहित हुआ और उनकी नेत्र
ज्योति आ गई।
उन्होंने स्वयं को धन्य माना तथा मिशन के कार्यों में सहयोग करते रहे।
मेरे कथन का मान रखा
श्री राजेन्द्र अग्रवाल, बिलासपुर
दिनांक 12 मई सन् 1980 को पूज्य गुरुदेव सरकण्डा प्रज्ञा पीठ के उद्घाटन हेतु
बिलासपुर आये हुए थे। रात्रि विश्राम हमारे घर पर ही किया था।
रात लगभग 8 बजे मेरे मित्र श्री शिवकुमार चतुर्वेदी आए और मुझसे कहा कि मेरे
पिताजी को डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। वे पिछले कई दिनों से हॉस्पिटल में भर्ती
थे।
मैंने अपने दोस्त से कहा, ‘‘आपके पिता जी को कुछ नहीं होगा, मैं गुरुजी से आशीर्वाद
लेकर आता हूँ।’’ उसके पश्चात् गुरुजी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचा। पूरी घटना
की जानकारी दी।
गुरुजी ध्यानस्थ हो गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने आशीर्वाद देने से मना कर दिया,
बोले-‘‘बेटा! उनका समय पूरा हो गया है, परिवार के प्रति सारी जिम्मेदारी भी पूरी
हो गई है।’’
उनके आशीर्वाद देने से मना करने के पश्चात् मेरी आँखों में आँसू आ गये। सोचने
लगा-‘‘दोस्त को क्या जवाब दूँगा? मैंने तो ठीक हो जायेंगे, कह दिया था।’’
भला विधाता से मन की बात कैसे छिपी रह सकती थी? मेरे आँसू देखकर उन्होंने कहा-‘‘बेटे!
तूने मुझसे पूछे बिना ही उसे ठीक होने के लिये कह दिया।’’
और पुनः मौन हो गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा-‘‘अच्छा तूने कह ही दिया है तो
उन्हें एक वर्ष कुछ नहीं होगा। जा, मैंने एक वर्ष हेतु जीवन दान दिया।’’
‘‘इस प्रकार गुरुजी ने मेरे कथन का मान रख लिया और उन्हें एक वर्ष के लिये ठीक
कर दिया। हम सबने देखा। उनकी स्थिति दिनोंदिन सुधरने लगी व ठीक हो गये। ठीक एक
वर्ष बाद उनकी तबीयत पुनः बिगड़ी और उन्होंने शरीर त्याग दिया।’’
ऐसे थे हमारे पूज्य गुरुदेव। इतने कृपालु कि हमारे वचन का मान रखने के लिये एक
वर्ष हेतु अपने विधान को रोक दिया, किन्तु हमारे वचन को असत्य नहीं होने दिया।
उन्होंने हमें जितना दिया उसका एक कण भी हम नहीं चुका सकते।
गुरुदेव का परिचय मेरे पाठ्यक्रम में शामिल हुआ
अरुण कुमार शैव्य, शुजालपुर
दिनांक 13 से 16 अप्रैल 1974 को प्रथम बार हरदा में गायत्री महायज्ञ था। बैतूल
से श्री भुवनेश्वर जी उपाध्याय इस आयोजन को सम्पन्न करने आए, सहयोगी के रूप में
मैं भी उनके साथ आया था। विरोधी मानसिकता के लोगों ने वहाँ इन्हीं तारीखों में
विष्णु महायज्ञ रखा। हमारे महायज्ञ को उन्होंने शूद्रों का यज्ञ कहकर नगर में
प्रचारित करवा दिया। स्थानीय कार्यकर्त्ता निराश थे, चन्दा एकत्रित करना बड़ा
कठिन था। गुरुदेव स्वयं हमारी परीक्षा ले रहे थे। 16 अप्रैल को ही मेरा सागर
में एम. ए. संस्कृत अंतिम वर्ष का एक पेपर मौखिक परीक्षा का था। अब परीक्षा की
घड़ी यहाँ भी थी और वहाँ भी। सायंकाल प्रवचन में पंडित समुदाय उपस्थित था। उन
लोगों ने विरोध करने की नीयत से आड़े-तिरछे प्रश्न किये। जीवन में प्रथम बार प्रवचन
करने मैं मंच पर बैठा। इस दौरान उनके प्रश्नों का उत्तर, शंका-समाधान सप्रभाव
प्रस्तुत किया। उसी समय रात्रि को गोरखपुर एक्सप्रेस से सागर रवाना हुआ। यज्ञ
की व्यस्तता के कारण पढ़ाई न हो सकी थी। भीड़ में सारी रात रेल के दरवाजे पर खड़े-खड़े
जागते रहे, एवं परीक्षा में आने के लिए सारी रात गुरुदेव का आह्वान करते रहे।
मैं 3 घंटे देरी से विश्वविद्यालय पहुँचा। संस्कृत विभाग अध्यक्ष डॉ. रामजी उपाध्याय
मेरे परीक्षक थे। वे देर से आने के कारण नाराज हुए। मैंने क्षमा याचना की एवं
कहा, ‘‘सर, मैं हरदा में गायत्री महायज्ञ में गया था।’’ ‘‘यज्ञ करते हो?’’ ‘‘हाँ।’’
‘‘क्यों करते हो? वर्ण एवं संस्कार कौन-कौन से हैं। आपके गुरुदेव कौन हैं? उनका
जीवन परिचय दीजिए, वे किस तरह युग निर्माण करना चाहते हैं?’’ मैंने सभी प्रश्नों
का उत्तर बड़ी कुशलता से दिया। वे हँसते हुए बोले, ‘‘आपकी परीक्षा समाप्त हुई।’’
फिर उन्होंने अलमारी से एक पुस्तक निकालकर मुझे भेंट की। उनकी स्वरचित पुस्तक
का नाम ‘‘द्वासुपर्णा’’ था। इसे ध्यान से पढ़कर लिखना, गुरुदेव की ‘युग निर्माण
योजना’ को हमने ‘कृष्ण-सुदामा’ नाटक के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
बाद में मुझे अहसास हुआ कि गुरुदेव ही परीक्षक के मस्तिष्क में प्रवेश कर मेरी
परीक्षा ले रहे थे। रात भर मैंने उनका आह्वान जो किया था। अब तक गुरुदेव का जीवन
परिचय किसी भी विश्वविद्यालय के कोर्स में नहीं था, लेकिन मेरी व्यक्तिगत परीक्षा
के कोर्स में अवश्य था।
पुस्तक में नहीं पढ़ा, वह ज्ञान मिला
श्री शिव पूजन सिंह, शान्तिकुञ्ज
घटना सन् 1976 की है। एक लड़का मुम्बई से आया था। मैं भी शिविर में था। तब कभी
भी कोई भी गुरुदेव के पास मिलते-बैठते थे। मैं भी ऊपर ही बैठा था कि वह लड़का
आया। बोला, ‘‘गुरुजी, मैं रिसर्च कर रहा हूँ।’’ गुरुदेव ने पूछा, ‘‘किस पर?’’
वह बोला, ‘‘सुषुम्ना नाड़ी पर।’’ इतना सुनते ही पूज्य गुरुदेव ने सुषुम्ना नाड़ी
की पूरी व्याख्या कर दी।
वह लड़का हतप्रभ होकर देखता रह गया। उस दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर गदगद हो उठा
और गुरुदेव को प्रणाम कर नीचे आकर कहने लगा, ‘‘मैंने आज तक जो ज्ञान पुस्तकों
में कहीं नहीं पढ़ा, वह अद्भुत ज्ञान गुरुजी ने मुझे दे दिया।’’
ऐसे परम ज्ञाता थे पूज्यवर। जिसने जिस विषय पर समाधान प्राप्त करना चाहा, वह
उसे प्राप्त हुआ।
ऐसे ही एक बार एक वैज्ञानिक अणुविज्ञान पर रिसर्च कर रहे थे। वे अपनी व्यक्तिगत
समस्या पर आशीर्वाद लेने आये थे। पूज्य गुरुदेव ने उनसे उनके कार्य के विषय में
पूछा तो उस विषय पर थोड़े से ही पलों में गुरुजी ने इतना सारगर्भित ज्ञान दे दिया,
जो पुस्तकीय ज्ञान से परे का ज्ञान था। वे पूज्यवर की अतीन्द्रिय क्षमता एवं
दिव्य ज्ञान संपदा से अत्यधिक प्रभावित हुए। फिर गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी, यह
तो वैज्ञानिकों का विषय है। आपको इतना सब कुछ कैसे पता?’’ गुरुजी बोले, ‘‘बेटा!
अध्यात्म में सब कुछ है। जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है। अध्यात्म,
वहाँ से शुरू होता है। वह सबसे बड़ा विज्ञान है।’’
माताजी का आशीर्वाद
श्री ओमप्रकाश गुप्ता, इन्दौर
प्रसंग नंदनवन यात्रा के समय का है, शपथ समारोह के ठीक बाद मैं और मेरे चार अन्य साथी माताजी से नन्दन वन यात्रा के लिए आशीर्वाद लेने गए। माताजी ने मुस्कराते हुए नन्दन वन यात्रा सकुशल होने के लिए आशीर्वाद दिया। नन्दन वन से तपोवन के लिए जब हम चल रहे थे कि अचानक मेरा पैर फिसलने की वजह से मैं नीचे गहरे हिमकुण्ड में फिसलने लगा। 4-5 फीट नीचे फिसलने के बाद ऐसा लगा मानो किसी ने सहारा देकर रोक दिया हो। तभी हमारे साथ चल रहे गाइड ने मुझ तक पहुँचने का रास्ता बनाया और मुझे मौत के मुँह से वापस ऊपर खींच लिया। वास्तव में माताजी के आशीर्वाद की वजह से ही हमारी हिमालय यात्रा सकुशल हो पाई व मैं मौत के मुँह से वापस लौट सका।
गठान गायब हो गई
नीता एम. भट्ट, इन्दौर
बात उन दिनों की है, जब गुरुदेव झाबुआ के कार्यक्रम में आये थे। मैंने पूज्यवर
के प्रथम दर्शन तब किये थे। सौभाग्य से मेरा विवाह गायत्री परिवार में ही हुआ।
बात फरवरी 1992 की है, हमारे यहाँ द्वितीय पुत्र का जन्म हुआ। जन्म से ही बेटे
को एक गठान थी। चिकित्सकों ने उसे हार्निया की गठान बतलाकर आपरेशन करने की सलाह
दी।
बच्चा अभी तीन माह का ही था और डाक्टर आप्रेशन करने के लिये कह रहे थे। मैं सोच-सोच
कर परेशान थी। इस दौरान पतिदेव ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, यह बात माताजी से कही जाए।’’
हम लोग शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार गये। दोपहर में 1.00 बजे जब माताजी से मिलने गए,
तब हम लोगों ने बच्चे के कष्ट के बारे में माताजी से कहा। माताजी बोलीं, ‘‘क्या
बेटा! आपरेशन करवाना पड़ेगा।’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ माताजी, इसीलिये हम चिन्तित हैं।’’
माताजी बोलीं, ‘‘बेटा तुमने शान्तिकुञ्ज के डॉक्टरों को दिखाया क्या? जा बेटा
जा, नीचे शान्तिकुञ्ज के डॉक्टर बैठे हैं। उन्हें दिखा दे, सब ठीक हो जायेगा।’’
इधर माताजी के श्रीमुख से शब्दों का निकलना हुआ और तुरन्त ही बच्चे की गठान गायब
हो गई। घर आकर भी हम लोग ढूँढ़ते रहे। गठान कहाँ गई? किसका आपरेशन करना है? ऐसे
वरदान बाँटती थीं माताजी, जिनसे हम भी धन्य हुए।
माताजी की दिव्य दृष्टि
श्री डी. पी. सिंह, श्री बी. के. शर्मा, इन्दौर
बात सन् 77-78 की है। इन्दौर से हम लोग हरिद्वार जा रहे थे। हमारे एक साथी श्रीकृष्ण
राठौर जो कि स्वभाव से गरम और व्यवहार में नरम थे। नागदा स्टेशन पर बिना बताये
उतर कर भीड़ को देखने लगे। उनसे कहा भी गया था कि यहाँ उतरना नहीं, क्योंकि डिब्बे
कटकर दूसरी गाड़ी में लग जाते हैं और गाड़ी रवाना हो जाती है। बताने के बावजूद
वे उतरे और गाड़ी रवाना हो गई। वे वहीं छूट गये। हम सब लोग परेशान होने लगे पर
कर क्या सकते थे।
कोटा पहुँचे वहाँ उद्घोषणा हो रही थी कि यदि डी. पी. सिंह सुनते हों तो उनका
एक साथी श्री कृष्णसिंह राठौर नागदा में ही रह गया है। फरवरी का महीना था। ठंड
खूब पड़ रही थी। कोई रुकने को तैयार नहीं था। आखिर गाड़ी चलती गई और हरिद्वार पहुँची।
नियमानुसार प्रथमतः माताजी के दर्शनों को गये। जैसे ही चरण स्पर्श किये माताजी
ने कहा, ‘‘बेटा, एक को कहाँ छोड़ आये?’’ मैंने सोचा, माताजी को हमारे किसी साथी
ने पहले ही कह दिया होगा। मैंने उत्तर दिया, ‘‘माताजी, वह नागदा रेलवे स्टेशन
पर रह गया। हमने पहले ही उसे उतरने से मना किया था।’’ माताजी गंभीर होकर बोलीं,
‘‘अच्छा बेटा! वह आ जाएगा।’’
श्री राठौर दूसरी गाड़ी से अगले दिन सुबह आ गये। चार बजे की प्रार्थना में हमें
मिले। हम लोगों ने भगवान को धन्यवाद दिया और माताजी की बात बताई। राठौर जी ने
कहा, ‘‘जब मैंने देखा कि गाड़ी चल दी है, तो मेरे होश उड़ गए। उसी दरम्यान मुझे
गुरुजी और माताजी के दर्शन हुए। क्या अद्भुत संयोग था कि इतने में दूसरी गाड़ी
आ गई। शायद वह लेट थी और मैं उसमें चढ़ गया।’’
हम सब उनके मुँह की ओर देखते रह गये। माताजी के पूछने व उनकी गंभीरता का रहस्य
भी हमें समझ में आ गया था।
बच्चा बोल उठा
श्री श्यामलाल बंसल, असन्ध
मेरे बच्चे के सिर की हड्डियों में बचपन से ही गड़बड़ी थी। पी.जी.आई. चण्डीगढ़ में डॉक्टरों ने सी.टी.स्कैन करके आप्रेशन के लिए बोल दिया था। जिसमें एक लाख रु. व्यय होना था। प्राणों का भय अलग से था। उस समय मैं मिशन से नया-नया जुड़ा था। मैं और जैन साहब बच्चे को लेकर माताजी के पास पहुँचे। हम पंक्ति में खड़े थे। अचानक बच्चा बोला ‘‘पापाजी, अब मुझे आप्रेशन नहीं कराना पड़ेगा।’’ जबकि उसकी आयु केवल तीन वर्ष की थी। सुनकर हमें बहुत हैरानी हुई। जब हमने माताजी को सब समस्या बताई तो माताजी ने बच्चे के सर पर हाथ फेरा और ठीक होने का आश्वासन दिया। लौटने पर जब पुनः सी.टी. स्कैन हुआ तो डॉक्टर आश्चर्यचकित रह गए। बीमारी छू-मन्तर हो चुकी थी। यह सब माताजी की कृपा ही थी।
परम पूज्य गुरुदेव ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि बेटा मैं किसी का ऋणी नहीं रहूँगा। वे अति विनम्र होकर कहते हैं, ‘‘ जिनने भी हमारी कुछ सेवा सहायता की है, उनकी हम पाई-पाई चुका देंगे। न हमें स्वर्ग जाना है न मुक्ति लेनी है। चौरासी लाख योनियों के चक्र में एक बार भगवान से प्रार्थना करके इसलिये प्रवेश करेंगे कि इस जन्म में जिस-जिस ने जितना-जितना उपकार हमारा किया हो, जितनी सहायता की हो उसका एक-एक कण ब्याज सहित हमारे उस चौरासी लाख चक्र में भुगतान करा दिया जाय।’’ ‘‘इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो, वहाँ एक प्रहर की वर्षा करते रह सकें।’’ प्रेम तो पूज्यवर ने इतना लुटाया कि हर कोई उनका गुणगान करते नहीं थकता। अनुदान वरदान भी कम नहीं दिये। यहाँ कुछ ऐसे प्रसंग दिये जा रहे हैं जब उन्होंने साधारण से व्यक्ति को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया।
25 परसेण्ट निष्ठापूर्वक लगाते रहे
पालीताणा (भावनगर) के श्री जनकभाई सोमपुरा एक मामूली मूर्तिकार थे। जब पूज्यवर
से जुड़े, तब मात्र 1400 रुपये में घर के पाँच सदस्यों का जीवन निर्वाह मुश्किल
से होता था। उन्होंने श्रद्धा भावना से अंशदान देना शुरू किया। पहले थोड़ा-थोड़ा
देते थे। फिर महीने में एक दिन का वेतन देने लगे। जैसे-जैसे पूज्यवर के कार्य
में उन्होंने धन लगाना शुरू किया, वैसे-वैसे उनके घर में भी समृद्धि बढ़ने लगी।
वे एक ठेकेदार बन गये। अब जैन मन्दिर बनाने के बड़े-बड़े ठेके भी मिलने लगे। वे
अपनी शुद्ध कमाई का 10 परसेण्ट निकालने लगे। गायत्री शक्तिपीठ के निर्माण एवं
व्यवस्था से लेकर पूज्यवर की पुस्तकें गुजराती भाषा में छपवाने एवं उनके प्रचार-प्रसार
में काफी धन लगाते रहे। फिर निश्चय किया कि मैं 25 परसेण्ट लगाया करूँ गा। इस
प्रकार जितना लगाते उससे कई गुना गुरुजी उन्हें देते रहे। उन्हें बड़े-बड़े मन्दिरों
के ठेके मिलने लगे। वे लाखों रुपये गुरुजी के कार्य में खर्च करने लगे।
एक बार उनके मन में कंजूसी के विचार आये, ‘‘कोई और तो इतना पैसा लगाता नहीं है।
मैं ही इतना पैसा क्यों लगाऊँ ?’’ फिर उनके छोटे-छोटे काम जो सहज होते जाते थे,
कभी पता ही नहीं चलता था, अटकने लगे। वे घबराये। फिर एक दिन आत्म चेतना ने झकझोरा,
‘‘तुमने निश्चय किया था, 25 परसेण्ट लगाने का। तुमने पूज्यवर को 25 परसेण्ट का
पार्टनर बनाया था। सो तुम्हारे काम में घाटा या बाधा कैसे आ सकती थी? सब काम
सहज होते रहते थे। अब तुम गुरुजी के साथ कंजूसी करोगे, तो वे क्यों न करेंगे?
तुम अपने संकल्प से हट रहे हो, इसीलिए छोटे-छोटे काम अटक रहे हैं।’’ उन्होंने
अपनी भूल सुधारी और पुनः 25 परसेण्ट निकालने लगे। अब पुनः उनके सब काम सहज ढँग
से होने लगे। सराहनीय निष्ठा एवं समर्पण
लखनऊ के श्री लोकनाथ रुद्रा जी की पूज्यवर के कार्यों में बड़ी अद्भुत निष्ठा
एवं समर्पण भावना थी। उन्होंने सन् 1958 के सहस्र कुण्डीय यज्ञ में भाग लिया
था। वे गुरुजी के पास गए और कहा, ‘‘गुरुजी! मैं क्या सेवा करूँ?’’ तो गुरुजी
ने कहा, ‘‘तुम, लंगर की व्यवस्था सँभाल लो।’’ तब वे बोले, ‘‘गुरुजी! तब तो मैं
यज्ञ नहीं कर पाऊँगा। सुबह से रात तक उसी में लगना पड़ेगा।’’ गुरुजी बोले, ‘‘बेटा!
वही असली यज्ञ है। तुम्हें यज्ञ का सम्पूर्ण पुण्य उसी से मिल जायेगा।’’
उस समय तक स्टोर में केवल बीस बोरे चावल ही इकट्ठे हो पाये थे। सुबह सब निकाल
लिये गये। हमें चिंता हुई कि अभी तो पहला ही दिन है, आगे कैसे काम चलेगा? गुरुजी
से कहा, तो गुरुजी बोले, ‘‘चिंता मत करो। बस काम करते रहो।’’ लोग यज्ञ करने आते,
साथ में अपने घर से पोटली बाँध कर लाते, शाम तक पूरा भण्डार भर जाता। रोज ऐसा
ही होता रहा। यज्ञ पूरा हो गया था। भण्डार फिर भी भरा था। यज्ञ पूरा होने पर
मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी! अब मेरे लिए क्या आदेश है?’’ तो गुरुजी ने कहा,
‘‘बेटा! मेरा काम करोगे? तो मेरी गायत्री को घर-घर पहुँचा दो।’’ मैंने गुरुजी
से पूछा, ‘‘इसके लिए मुझे क्या करना होगा?’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘बेटा! इसके लिए
अपना आपा ही उड़ेल दो। बेटा, जो भी छुट्टी मिले, उसे हमारे काम में लगाना।’’
वे कहते हैं, ‘‘हमने गुरुजी का आदेश माना। जो भी छुट्टी मिलती, उसे पूरी निष्ठा
से गुरुजी के काम में ही लगाते रहे। कभी ऐसा नहीं हुआ, कि हम कभी छुट्टी में
पत्नी को स्कूटर पर बिठाकर कहीं घुमाने ले गये हों। शनिवार, रविवार और जो भी
छुट्टी मिलती, उसमें गुरुजी के कार्य हेतु लखनऊ शहर के मुहल्ले-मुहल्ले, गली-गली
में निकल जाते। आसपास के गाँवों में निकल जाते।’’
गुरुजी ने उन्हें इतना सम्मान दिया कि शान्तिकुञ्ज से जो भी कार्यकर्ता लखनऊ
जाते, उससे गुरुजी कहते, ‘‘बेटा! वहाँ मेरे जैसी एक तड़पती आत्मा बैठी है। उससे
जरूर मिलकर आना।’’ जीवन के अन्तिम समय तक, बिस्तर पर रहते हुए भी गुरुजी के कार्य
के प्रति उनके अन्दर बड़ी तड़पन बनी रहती थी। सन् 2008 में वे गुरुजी में विलीन
हो गये।
पूज्यवर ने नये युग का नया इतिहास रचा है।
गारियाधार (भावनगर) के कार्यकर्ता दामजी भाई एस. पटेल पूज्यवर के कार्यों हेतु
बहुत समर्पित थे। वे बताते थे, सन् 1999 में 87 वर्ष की उम्र में उन्हें सीवियर
हार्ट अटैक हुआ था। जल्दी से अस्पताल ले गये। वहाँ डॉक्टरों ने नब्ज देखी, तो
पाया कि वे शरीर छोड़ चुके हैं। उन्होंने बताया, ‘‘जैसे ही मेरी मृत्यु हुई, मैंने
देखा, मेरी चेतना सीधे पूज्य गुरुजी के पास गयी। गुरुजी मुझे छाती से लगाकर खूब
प्यार देने लगे। उन्होंने कहा, ‘बेटे तुमने हमारा खूब काम किया है, मैं बहुत
खुश हूँ, तुम्हारे काम से।’ मैंने गुरुजी से कहा, ‘गुरुजी हमने आपका काम किया
है, तो उसका प्रमाण क्या है?’ बोले, ‘बेटा! प्रमाण माँगता है? तो देख!’ उन्होंने
एक मोटी इतिहास की पुस्तक आगे की। (वह इतिहास अभी लिखा नहीं गया है, पूज्य गुरुदेव
ने सूक्ष्म स्तर पर वह नये युग का नया इतिहास लिख कर रख दिया है।) उसमें लिखा
था, ‘गारियाधार के सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता, श्री दामजी भाई एस. पटेल के सम्पूर्ण
त्याग-पुरुषार्थ की सारी कथा-गाथाएँ।’ मैं पढ़कर बहुत खुश हुआ। फिर गुरुजी कहते
हैं, ‘बेटा! इस निन्यानवे के वर्ष में, मैं तुम्हें एक उपहार देता हूँ, नया जीवन
दान। जा, तू हमारा काम करना।’
तुरन्त मेरी चेतना वापस शरीर में लौट आयी, कुछ पल ही बीते थे, मैं मृत से फिर
जीवित हो उठा था। सभी आश्चर्यचकित थे।’’ (फिर इस उम्र में भी वे नाती-पोतों के
मोह में नहीं फँसे। जब तक जिये, पूज्यवर का कार्य निष्ठापूर्वक घर-घर जाकर करते
रहे। लगभग आठ वर्षों के उपरान्त उनकी मृत्यु सुखद रूप से हुई।)
पाँच परसेण्ट का पार्टनर बनाया
चेन्नई के तेजराजसिंह राजपुरोहित जी ने नई दुकान खोली। वन्दनीया शैल जीजी से
बात की, ‘‘जीजी, मैं नई दुकान खोल रहा हूँ, टोपी की।’’ जीजी ने कहा, ‘‘तुम्हारी
टोपी बहुत चलेगी। चिन्ता मत करना। कमाई का एक अंश गुरुजी के चरणों में रखते जाना।’’
उन्होंने कहा, ‘‘हाँ जीजी! मैंने गुरुजी को पाँच परसेण्ट का पार्टनर बनाया है।’’
फिर पहले वर्ष ही उन्हें बीस लाख का फायदा हुआ। दूसरे वर्ष चालीस लाख का। इस
प्रकार तीसरे, चौथे वर्ष भी उन्हें फायदा हुआ। वे निष्ठापूर्वक अपनी कमाई का
5 परसेण्ट गुरुदेव के कार्यों हेतु निकालते रहते हैं। उनका कार्य बढ़ता ही गया,
क्योंकि उन्होंने गुरुजी को पार्टनर जो बना दिया था, वे दुकान में मंदी कैसे
होने देते? यह तो ब्याज भी नहीं है
जयपुर के श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी मिशन के कार्यों के लिये खूब अनुदान देते
रहते हैं। उनकी पत्नी से शान्तिकुञ्ज की एक कार्यकर्ता बहन ने चर्चा के दौरान
कहा, ‘‘आप तो खूब दान करते रहते हैं।’’ इस पर उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ते
हुए कहा, ‘‘हम क्या दे सकते हैं? गुरुजी ने हमें जो दिया है, यह तो उसका ब्याज
भी नहीं है।’’
ऐसे लाखों कार्यकर्ता हैं, जो यह कहते हैं कि गुरुजी ने उन्हें दुकान, मकान,
तरक्की, संतान, स्वास्थ्य आदि जिसकी उनके पास कमी थी, वह दिया। ऐसे औघड़दानी हैं
पूज्य गुरुदेव। उनके खेत में जिसने भी कुछ बोया है, गुरुजी ने उसे हजार गुना
करके लौटाया है।
13. उनकी चेतना आज भी सक्रिय है
सन् 1990 में जहाँ पूज्य गुरुदेव अपने स्थूल शरीर को समेट रहे थे, वहीं सूक्ष्म
शरीर से उनकी चेतना अति सक्रिय थी। अनेकों परिजनों के पास वे सूक्ष्म शरीर से
गये, उनसे बातचीत की। स्वप्नों में लोगों की समस्याओं का समाधान किया। इतना ही
नहीं, हजारों ऐसे लोगों से भी मिले, (सूक्ष्म शरीर एवं स्वप्न में) जो उन्हें
पहचानते भी नहीं थे। उनके पास जाकर उनकी समस्याओं का समाधान किया। बाद में वे
लोग उनके चित्र को देखकर उन्हें ढूँढ़ते हुए शान्तिकुञ्ज पहुँचे व सक्रिय कार्यकर्ता
बन गये। गुरुदेव ने लिखा था, ‘‘ये कारवाँ रुकेगा नहीं’’ और इसकी व्यवस्था भी
वे स्वयं ही करते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि उनके स्थूल शरीर छोड़ने के बाद
भी ‘युग निर्माण योजना’ का विस्तार पच्चीस गुनी शक्ति से बढ़ता चला गया है।
क्रान्तिधर्मी साहित्य की अनेकों पुस्तकों में उन्होंने लिखा है, जो कार्य इस
शरीर से बन पड़ा है, वह एक परसेण्ट ही है। शेष 99 प्रतिशत कार्य तो अदृश्य सत्ताओं
ने ही किया है। अपनी गोष्ठियों में उन्होंने आश्वासन दिया था, ‘‘बेटा, हम कहीं
नहीं जा रहे। यहीं रहेंगे। अखण्ड-दीपक में, सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा में निवास
करेंगे। जब चाहो हमसे बात कर लेना।’’
आज भी उनकी चेतना पहले की भाँति सक्रिय है। अपने हीरे-मोतियों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर
इकट्ठा करती रहती है। आज भी परिजनों से मिलती है, कहीं स्वप्न में, कहीं ध्यान
में, कभी-कभी स्थूल में भी तो कभी विचार प्रवाह के रूप में। वह अपने बच्चों का
मार्गदर्शन करती रहती है। और ये कारवाँ बढ़ता चला जा रहा है। यहाँ ऐसे ही कुछ
प्रसंग हैं, जिनमें गुरुदेव ने स्वप्नों आदि के माध्यम से परिजनों का समाधान
किया है।
मत जाना बेटी
डॉ. मंजू जीजी अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि मैंने सन् 1972 में एम.बी.बी.
एस. किया एवं सन् 1979 में एम.डी.।
मुझे गुरुदेव ने ही ढूँढ़ कर स्वयं मिशन से जोड़ा है। उड़िया अनुवाद हेतु बिना
चिट्ठी पत्री के ही मेरे पास उन्होंने स्वयं मैटर भिजवाया था। दूसरी घटना सन्
1990, श्रद्धांजलि समारोह की है। मैं इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने आई थी।
एक हफ्ते रही। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद का मेरा रिजर्वेशन था, अतः माताजी
से मिलने गई। माताजी ने मुझे ऊपर गुरुजी के कमरे में प्रणाम करने भेजा। वहाँ
गई, तो अचानक मुझे गुरुजी की स्पष्ट आवाज सुनाई दी-‘मत जाना बेटी।’
मैं आवाज सुनकर बड़े पशोपेश में पड़ गई। मेरी टिकट हो चुकी है। फिर सर्विस का क्या
होगा? डॉ. साहब (पति) भी नाराज होंगे। क्या करूँ? सोचते हुए नीचे उतरी। माताजी
से बताया। तब माताजी ने कहा-‘‘तेरी इच्छा, देख ले बेटी।’’
अब निर्णय पूर्णतया मेरे ऊपर ही था। मन को कड़ा किया और जो होगा देखा जायगा, कह
कर यहीं शान्तिकुञ्ज में रह गयी। उस समय मैं सात महीने रही। बाद में डॉ. साहब
श्री प्रसन्न कुमार जी स्वयं आये व मुझे लेकर गये। उन्होंने कुछ नहीं कहा। इसे
मैं पूज्य गुरुदेव की ही कृपा मानती हूँ।
तू कहाँ रुक गया?
डॉ० शिवानंद साहू, शान्तिकुञ्ज
1970 में जब मैं मेडिकल का छात्र था, उन्हीं दिनों पूज्य गुरुदेव द्वारा बिलासपुर
के एक कार्यक्रम में मैंने दीक्षा ली थी। डाक्टर बनने के बाद हर यज्ञ आयोजन के
साथ निःशुल्क चिकित्सा व उत्तम स्वास्थ्य पर गोष्ठियाँ लेने लगा और ज्ञानरथ भी
चलाता रहा। शान्तिकुञ्ज भी आता रहता था।
1991 में सितम्बर माह में रात्रि लगभग 2:30 बजे निद्रा अवस्था में ही पूज्य गुरुदेव
की आवाज अंतरात्मा में सुनाई पड़ी, लगा जैसे गुरुदेव बोल रहे हैं, ‘‘बेटा उठ!
चल आ जा। कहाँ रुका हुआ है? तुझे तो किसी और काम के लिए भेजा गया है और तू कहाँ
रुक गया? इस रूप में तो एक बार में एक की ही नाड़ी पकड़ पाता है। पर तू तो एक बार
में एक साथ हजारों का इलाज कर सकता है।’’ इस आवाज़ में मेरी नींद खुल गई। चारों
ओर देखा, कहीं कुछ दिखाई नहीं पड़ा। फिर सोने का प्रयास किया पर नींद ही नहीं
आई। यह क्रम लगातार 3 दिनों तक चला।
मैंने माताजी को पत्र लिखा। जवाब आया, ‘‘बेटा! शान्तिकुञ्ज तो तेरा घोंसला है।
अपने घोंसले में जल्दी आ जा।’’ तब मैं मध्य भारत पेपर मिल में मेडिकल एडवाइजर
के रूप में कार्यरत था। एक माह के अन्दर ही वहाँ का हिसाब कर मैं, 3 नवम्बर 1991
को स्थायी रूप से शान्तिकुञ्ज आ गया।
तेरी माँ बुला रही है
बहन, श्रीमती ऊषा श्रीवास्तव, आजमगढ़, गुरुटोला, उ.प्र. बताती हैं कि मेरे जीवन
में कई परेशानियाँ आईं। बहुत बार ऐसा आभास हुआ कि गुरुदेव ने साक्षात रूप में
स्वयं आकर सहायता की। 1992 में मेरी तीनों बच्चियों को एक साथ बड़े दाने वाली
चेचक निकली। मेरी बड़ी बेटी कक्षा दस में पढ़ती थी। उसकी बोर्ड की परीक्षा थी।
दो-तीन पेपर हो चुके थे। इसी बीच वंदनीया माताजी का समयदान हेतु पत्र आया। घर
की परेशानी देख कर मेरे पति ने कहा कि मैं शान्तिकुञ्ज पत्र भेज देता हूँ कि
घर में परेशानी है, बच्चे ठीक हो जाऐंगे, तब मैं समयदान में आऊँगा। हम लोग बातचीत
करके सोये ही थे कि पतिदेव ने देखा, ‘‘गुरुजी आये हैं और कह रहे हैं, तेरी माँ
बुला रही है और तू जाने से इन्कार कर रहा है। तू जा समय दे। तेरे बच्चों को मैं
देख लूँगा।’’
मेरे पति समयदान के लिये चले गये। मैं अकेले ही बच्चों को, घर एवं बाहर के सब
कामों को देखती। बड़ी बेटी की परीक्षा दिलवाने उसे कालेज भी ले जाती रही। गुरुजी
की शक्ति का एहसास भी होता रहा और उनकी कृपा से मेरे बच्चे बहुत जल्दी ठीक हो
गये। बड़ी बेटी का हाई स्कूल का रिजल्ट भी बहुत अच्छा रहा। ऐसे ही जीवन में अनेकों
बार मुझे एहसास हुआ है कि गुरुजी ने अपने बच्चों से जो वादा किया है कि ‘बेटा
तू मेरा काम कर, तेरा काम मैं करूँगा’ तो उसे वह समय आने पर निभाते भी हैं। बस!
हमारे विश्वास और समर्पण में कहीं कमी नहीं रहनी चाहिये।
जब मैं स्वप्न के ऋषि को ढूँढ़ती रही
पटियाला की अनीता शर्मा बहिन ने बताया कि बात मई-जून 1990 की है। अचानक ही हमारे
परिवार पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। मेरे पति का बिजनेस फेल हो गया। वे
जिस भी काम में हाथ डालते उसी में घाटा हो जाता। घर में कलह क्लेश रहने लगा।
मैं रोज ही किसी न किसी ज्योतिषी के चक्कर काटने लगी। मैं बहुत परेशान थी। एक
रात को मैं रोते-रोते सो गई, तो सपने में क्या देखती हूँ कि एक ऋषि बहुत ही शांत
मुद्रा में पहाड़ी पर बैठे हुए कुछ लिखते ही जा रहे हैं। मन हुआ कि उनसे पूछूँ
कि हमसे क्या गलती हुई है? हमारे ऊपर, क्यों इतने कष्ट आ पड़े हैं? पर वह तो आँख
ही नहीं उठाते, उनकी कलम ही नहीं रुक रही। काफी देर बाद जब उन्होंने लिखना छोड़
कर सिर उठाकर मेरी ओर देखा, तो मैंने उन्हें प्रणाम किया। वे बोले, ‘‘सब क्या
कहते हैं, तेरे पति का काम बाँध दिया है।’’ मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। फिर
वे बोले, ‘‘तू कल मेरे पास आ जाना।’’ इससे पहले कि मैं उनसे पूछती कि क्या-क्या
लेकर आऊँ? वे फिर लिखने लगे। सुबह जब आँख खुली तो उन ऋषि का आभा मंडित चेहरा
मेरी आँखों के सामने घूमने लगा। मैंने दैनिक उपासना के क्रम में गीताजी की समाप्ति
के बाद उसमें लिखा गायत्री मंत्र पढ़ा और उस दिन से मैं गायत्री मंत्र का पाठ
करने लगी। फिर कहीं से गायत्री महाविज्ञान की किताब हाथ लगी तो उसमें से गायत्री
चालीसा का पाठ रोज करने लगी। गायत्री माँ का पंचमुखी चित्र भी घर में स्थापित
कर लिया। पर वह ऋषि मुझे कहीं नहीं मिले। मैं हर जगह, हर व्यक्ति में उस चेहरे
को ढूँढ़ती रहती। दिन, महीने और साल बीत गए। जिस दिन मेरे चालीसा पाठ की निश्चित
संख्या पूर्ण हुई, मैं कुछ सामान खरीदने बाजार गई तो एक दुकान पर एक पर्चा लगा
देखा। लिखा था, ‘गायत्री यज्ञ एवं दीपयज्ञ का कार्यक्रम पटियाला के नौहरियाँ
मंदिर में, वसंत पंचमी 1994 को हो रहा है।’
मैंने उस कार्यक्रम में भाग लिया। आखिर में श्री शुक्ला जी, जो मुख्य वक्ता थे,
ने सभी से देवस्थापना का आग्रह किया। जब मैंने देवस्थापना चित्र लिया और उसमें
गुरुदेव की फोटो देखी तो मैं हैरान रह गई। यह वही ऋषि थे जो चार साल पहले मुझे
सपने में दिखाई दिये थे। मैं खुशी से नाच उठी। मैंने आयोजकों से गुरुदेव के विषय
में पूछा तो पता चला कि उन्होंने तो 1990 में शरीर छोड़ दिया है। मुझे ऐसा लगा
जैसे वर्षों के प्यासे को पानी तो मिला पर पीने से पहले ही छिन गया। मेरी आँखों
से बरबस अश्रुधारा बहने लगी। जब हम शान्तिकुञ्ज आये तो पता चला कि एक महीने पहले
ही माताजी गुरुसत्ता में विलीन हुई हैं। मेरी पीड़ा का कोई अंत नहीं था। मेरे
आँसू थम नहीं रहे थे। मेरे पति नाराज भी हुए, ‘‘बस भी करो, कितना रोओगी?’’
जब हम अखण्ड दीप दर्शन करने गए तो जीजी, डॉ. साहब वहीं पर बैठे थे। जीजी ने मुझसे
पूछा, ‘‘मैं इतना क्यों रो रही हूँ?’’ मैं और भी फूट-फूट कर रोने लगी और बताया
कि मैं कितनी अभागी हूँ, जो गुरुजी-माताजी से मिल नहीं पाई। तब जीजी ने कहा,
‘‘वे तो अब भी तुम्हारे साथ हैं। उन्हें अपने से अलग मत समझो। शांत हो जाओ। वे
ही तुम्हें यहाँ लेकर आये हैं। अब भोजन किये बिना मत जाना।’’ उस क्षण मुझे ऐसा
लगा जैसे वास्तव में मुझे मेरे गुरुदेव मिल गए हैं। अब तो बस यही प्रार्थना है
कि यह जीवन मन, वचन और कर्म से समर्पित ही रहे, तभी जीवन सार्थक है।
मैं खड़ा हूँ, कुछ नहीं होगा
डॉ. ओ.डी.भारद्वाज, ब्रह्मपुरी, मेरठ
घटना सन् 1994 की है। 20 अगस्त 1994 को रिठानी निवासी ओमप्रकाश नाम का रोगी
मेरे क्लीनिक पर आया। उसकी नाक से 3 दिन से निरंतर रक्त स्राव हो रहा था। मैंने
दवा दी व नाक की पट्टी (इन्टीरिअर नेज़ल पैकिंग) भी की किन्तु रक्त बहना बंद
नहीं हुआ। अगले दिन वही रोगी गंभीर अवस्था में फिर आया। एक्सरे कराया, रक्त की
जाँच कराई, तत्पश्चात् ग्लूकोज़, इंजेक्शन तथा दवा दी और लगभग 6 मीटर लंबी पट्टी
से नाक की पैकिंग की। 48 घंटे पश्चात् 23 अगस्त को सायंकाल 3:00 से 6:00 बजे
के बीच उसे पुनः आने के लिये कहा।
रोगी ओमप्रकाश नगरपालिका मेरठ में अल्पवेतन भोगी स्वच्छता कर्मचारी है। वह इतना
साधन संपन्न नहीं था कि दिल्ली आदि के नामी-गिरामी अस्पतालों में चिकित्सा कराता।
बड़े विश्वास के साथ ई.एन.टी. विशेषज्ञ होने के नाते मेरे पास आया था। मैं स्वयं
उसकी ओर से बहुत चिंतित था।
23 अगस्त को दोपहर लगभग 3:45 का समय था। मैं विश्राम कर रहा था। स्वप्न के धुँधलके
में मैंने देखा कि वही ओमप्रकाश आ गया है। पूज्य गुरुदेव उसका हाथ पकड़े हुए हैं।
गुरुदेव बोले, ‘‘इसकी पट्टी निकाल।’’ मैंने चकित होकर कहा, ‘‘गुरुदेव आप? इसकी
नाक से रक्त स्राव की 99 प्रतिशत आशंका है।’’ वह बोले, ‘‘मैं खड़ा हूँ, कुछ नहीं
होगा। तू इसकी पट्टी निकाल।’’
स्वप्न में यह बात चल ही रही थी कि मेरे कम्पाउण्डर ने मुझे यह सूचित करते हुए
उठा दिया कि क्लीनिक में मरीज आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। स्वप्न की अनुभूति
को मन में लिये हुए जैसे ही मैं क्लीनिक में पहुँचा, मैंने देखा ओमप्रकाश भी
बैठा हुआ है। उसने बताया कि वह लगभग 15 मिनट से बैठा हुआ है। मुझे अनुमान हुआ
कि जब स्वप्न में गुरुदेव उसे लेकर आये थे उसी समय वह भी क्लीनिक में आया था।
मैंने उसकी नाक की पैकिंग निकाली, नाक से एक भी बूँद खून नहीं आया। चलते समय
वह मुझे पैसे देने लगा। मैंने कहा, ‘‘मैं तुमसे पैसे नहीं ले सकता, क्योंकि तुम
कोई पुण्यात्मा हो। मेरे गुरुदेव ने तुम्हारा हाथ पकड़ा है। तुम्हारे बहाने से
मेरी गुरुदेव से बातें हुईं। मैं जब तक तुम्हारा इलाज होगा, तुमसे पैसे नहीं
लूँगा।’’ आज भी वह पूर्णतः स्वस्थ है। गुरुसत्ता ने स्वयं उसका कष्ट दूर कर श्रेय
मुझे दे दिया।
उस दिन के बाद मैं गुरुदेव के कार्यों के लिये और अधिक समर्पित हो गया तथा प्रतिदिन
4 घण्टे का समय (10:00 से 2:00) गरीबों की निःस्वार्थ चिकित्सा सेवा में लगाता
हूँ। तब से अनुदानों की भी वर्षा होने लगी है, जिसे मैं नित्य अपने जीवन तथा
अपने रोगियों पर अनुभव करता हूँ।
1999 में फोटो खींचा
बड़ौदा के श्री नारसिंह भाई परमार, बताते हैं कि वे वसंत पंचमी 1999 में अपनी
बेटी के साथ शान्तिकुञ्ज आये थे। उनकी बेटी के मन में आया कि क्या अब गुरुजी
यहाँ नहीं हैं? अब हम उन्हें कैसे मिल सकेंगे? और इस भाव को लेकर वह बहुत अधिक
व्याकुल हो रही थी। उसे गुरुदेव के दर्शनों की प्रबल इच्छा थी। वे प्रवचन के
बाद अखण्ड दीप दर्शन हेतु लाईन में लगे थे। जब तक उनका नम्बर आया, तब तक दोपहर
की साधना का समय हो चुका था। 15 मिनट के लिए अखण्ड ज्योति के दर्शन के कपाट बन्द
हो गये। 15 मिनट बाद जब कपाट खुले, और वे सीढ़ियों पर चढ़े, तो जहाँ गुरुजी-माताजी
के चरणों का चित्र लगा है, वहाँ उन्हें पूज्य गुरुदेव उतरते हुए दिखाई दिये।
वे ऊनी टोपी सिर पर लगाये हुए थे। हम उन्हें देख कर हतप्रभ रह गये। एक क्षण को
लगा, क्या हम सत्य देख रहे हैं? इतने में पूज्यवर ने मेरी बेटी से कहा, ‘‘बेटी!
मैं यहीं रहता हूँ। केवल दुनिया वालों को दिखाई नहीं देता, तू चाहे तो मुझे अपने
कैमरे में कैद कर डाल।’’ उनके ऐसा कहने पर मैंने भी उसे कहा, ‘‘बेटा, फोटो खींच
लो।’’ उसने फोटो खींच लिया।
वे फोटो दिखाते भी हैं। उस फोटो में लोगों की लाइन ऊपर प्रणाम हेतु जा रही है,
और गुरुजी आशीर्वाद की मुद्रा में नीचे उतरते हुए नजर आ रहे हैं। नारसिंह भाई
का कहना है कि मुझे गुरुजी के साथ सातों ऋषि भी दिखाई दिये, पर वे फोटो में नहीं
आये।
जब हमारी गाड़ी 40 फुट गहरे गड्ढे में थी
(श्री ओंकार पाटीदार जी सन् 1970 के दशक में मिशन के संपर्क में आये और सन् 1982
में स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ गये।)
हम लोग श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी के साथ कनाडा में 23.6.2000 को कार्यक्रम समाप्त कर रात्रि लगभग 12.00 बजे ओटावा से मान्ट्रियल लौट रहे थे गाड़ी में मैं, श्री जमुना साहू, श्री राजकुमार वैष्णव एवं श्रद्धेय डॉक्टर साहब बैठे थे। गाड़ी को छगन भाई पटेल चला रहे थे। दो बहिनें भी गाड़ी में थीं। गाड़ी बिल्कुल नई थी। 100 कि.मी. की गति से घनघोर घने जंगल में दौड़ती हुई गाड़ी ने आधा रास्ता तय कर लिया था। अचानक छगन भाई पटेल को झपकी आई और देखते ही देखते गाड़ी एकाएक सड़क से नीचे उतर गई। घरघराहट की ज़ोर से आवाज़ आने लगी। गाड़ी उछलते-उछलते गेंद की तरह नीचे जा रही थी घनघोर जंगल में बड़ी-बड़ी घास के बीचों-बीच गाड़ी खड़ी हो गई। इंजन के बोनट से धुँआ आने लगा। दूसरी गाड़ी के परिजन आवाज देकर हमें गाड़ी से बाहर आने को कह रहे थे। हमारी गाड़ी 40 फुट गड्ढे में थी और आटोमैटिक दरवाजे खुल नहीं रहे थे। श्रद्धेय डॉ० साहब हम सबको हिम्मत बँधा रहे थे। धीरे-धीरे उन्होंने ही दरवाजे खोले। बाहर आकर देखा कि गाड़ी के पास ही गहरा नाला बह रहा है और सामने पत्थर है। कनाडा जैसे देश में इतनी गति से दुर्घटना सुनिश्चित थी। श्रद्धेय डॉ० साहब ने बताया उन्हें अनुभूति हुई कि दो विशालकाय हाथ सहारा देकर गाड़ी को रोक रहे हैं। गाड़ी बिना पलटे, टकराये, बगैर नुकसान के स्वयं रुक गई और उस महाकाल की सत्ता ने सभी को नया जीवन प्रदान किया।
बड़ी एकादशी को दरवाजा खोलेंगे
श्रीमती मणि दाश, शान्तिकुञ्ज
सुल्तानपुर उ० प्र० के श्री श्याम सुन्दर सिंघल जी शान्तिकुञ्ज में कई वर्षों
तक रहे। सन् 2003 में उनकी पत्नी 40 प्रतिशत जल गई थीं। जलने की असह्य पीड़ा होती
है। फिर भी वे शान्तिकुञ्ज चिकित्सालय में धैर्यपूर्वक सब सहती रहीं। इतने कष्ट
में भी वह प्रतिक्षण गायत्री मंत्र जपती रहतीं। बीच-बीच में कराहती भी थीं, पर
सहनशीलता की प्रतिमूर्ति बनी रहीं। कभी-कभी वे बेहोश भी रहतीं।
एक दिन जब हम लोग उनके पास बैठे थे तो वे बोलीं ‘‘गुरुजी-माताजी आये थे।’’ उन्होंने
कहा है, ‘‘बेटी! अभी तुम्हारा समय पूरा नहीं हुआ है। 3-4 दिन बाद बड़ी एकादशी
को हम तुझे लेने आयेंगे। अभी 3-4 दरवाजे खोले हैं। शेष दरवाजे उसी दिन खोलेंगें।’’
और सचमुच ही अपने कथनानुसार बड़ी एकादशी को उन्होंने शरीर त्याग दिया।
उस पल हमें वे क्षण याद आ गये जब गुरुदेव व्यक्तिगत चर्चा में व प्रवचनों में कार्यकर्ताओं से कहा करते थे-‘‘बेटा! तेरे अन्तिम क्षण में हम तेरे साथ रहेंगे व तुझे भौतिक कष्टों से मुक्ति दिलायेंगे।’’ और वास्तव में समय आने पर अनेकों परिजनों को अनेकों प्रकार से वे इसका आभास कराते रहते हैं।
मुझे उसे बचाना है।
राजनांदगाँव के श्री जुगल किशोर लढ्ढा जी बताते हैं कि 2003 में उनके शहर में
नव चेतना शिखर यज्ञ था। हम लोग उसकी तैयारी में लगे थे। हमारा संकल्प था कि सुबह
पहले दो घंटा गुरुदेव का काम करेंगे तब अपनी दुकान आदि खोलेंगे। इस समय में हम
लोग प्रचार करने व चंदा आदि लेने का काम करते थे।
एक दिन सुबह मेरे मन में आया कि आज सुबह न जाकर शाम को चलेंगे। मैं दुकान खोलने
ही जा रहा था कि श्री यशवंत भाई ठक्कर जी का फोन आ गया। मैंने कहा, ‘‘शाम को
चलेंगे।’’ इस पर वे बोले कि हमारा संकल्प तो सुबह का है। कम से कम दो घर में
तो जाना ही है। मैंने कहा, ‘‘ठीक है। मैं आता हूँ,’’ और दुकान का शटर जो आधा
खोला था, बंद करके मैंने अपनी मोटरसाइकिल उठायी और उनके घर की ओर चल दिया।
रास्ते में श्मशान घाट पड़ता था। उस तरफ ज्यादा भीड़ नहीं रहती इसलिये मैंने मोटरसाइकिल
की रफ्तार थोड़ी तेज कर दी। जैसे ही मैं श्मशान घाट के सामने से निकल रहा था कि
एक साइकिल सवार ने सड़क क्रास किया। सामने से एक व्यक्ति हीरोपुक पर तेज स्पीड
से आ रहा था। साइकिल सवार के चक्कर में हम दोनों ही एक दूसरे को देख नहीं पाए
और आपस में टकरा गए। मैं इतना ही देख पाया था कि सामने वाले व्यक्ति को काफी
चोट आई है। इतने में मुझे ख्याल आया कि मैं तो गुरुजी का काम करने जा रहा हूँ।
मुझे चोट आई होगी तो मेरे काम का क्या होगा? मैंने गुरुजी का ध्यान किया और गायत्री
मंत्र जपने लगा। मैं भी गिर पड़ा था मोटर साइकिल मेरे ऊपर थी। मुझे चक्कर भी आ
रहा था। इतने में हमारे आस-पास कुछ लोग इकट्ठे हो गये। उन्होंने हीरोपुक सवार
को रिक्शा पर बिठाया और अस्पताल भेज दिया। उसे काफी चोट लगी थी। मुझे भी उठा
कर पानी पिलाया। मेरे कपड़े आदि व्यवस्थित किये। मोटरसाइकिल को खड़ा किया। जब मुझे
थोड़ा होश आया तो मैंने देखा मेरे कपड़े फट गये हैं पर मुझे खास चोट नहीं आई है।
मैंने खुद को व्यवस्थित किया और फिर यशवंत भाई के घर चला गया। उन्होंने मेरी
हालत देखी और सारा वृत्तांत सुना तो कॉफी पिलाने के बाद बोले, ‘‘आज रहने देते
हैं, कल चलेंगे’’ तो मैंने कहा कि अब मैं ठीक हूँ। आ ही गया हूँ तो काम करके
ही लौटूँगा। हम दोनों ने उस दिन 4-5 घरों में से चंदा लिया। जब मैं घर लौटा तो
मेरे कपड़ों की हालत देखकर सबने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मैंने सब हाल बताया।
मेरे छोटे भाई को जब पता चला तो वो बड़ी हैरानी से बोला, ‘‘अरे! भइया का एक्सीडेन्ट
हो भी गया।’’ उसकी बात सुनकर सबको बड़ी हैरानी हुई। वह दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया।
हैरानी से मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला, ‘‘आपका एक्सीडेन्ट हो भी गया!
सुबह पाँच बजे ही तो गुरुजी मेरे सपने में आये थे और मुझे बोले कि आज जुगल का
एक्सीडेन्ट होने वाला है। मुझे उसे बचाने जाना है। क्योंकि वह मेरा काम करता
रहता है।’’
‘‘मैं आपको बताने ही वाला था। पर मुझे क्या पता था कि इतनी जल्दी आपका ऐक्सीडेन्ट
हो जाएगा।’’
श्री जुगल किशोर लढ्ढा जी कहते हैं कि उनके पास गुरुजी के इतने संस्मरण हैं कि
उनकी एक डायरी भरी हुई है।
यह जीवन ही उनका है
श्री रामप्रकाश जेसलानी, श्रीमती शालिनी जेसलानी
कानपुर के श्री रामप्रकाश जेसलानी जी कहते हैं कि मैं, सन् 1995 में गायत्री
परिवार के सम्पर्क में आया। सन् 1998 में मुझे विचित्र प्रकार की तकलीफ हुई।
मुझे अचानक ही खून की उल्टियाँ होने लगीं। मेरा पूरा परिवार घबरा गया कि अचानक
यह क्या हो गया? दिन में चार-पाँच बार मुझे खून की उल्टी हो जाती थी। मेरा मुँह
कड़वा होता और एकाएक लगभग आधा गिलास खून निकल जाता। मेरी तकलीफ देखकर हमारे तीनों
बच्चों ने पूजा घर में अनवरत गायत्री महामंत्र का जप प्रारंभ कर दिया। यह क्रम
चलते हुए जब तीन दिन हो गये तो मुझे लगने लगा कि अब शायद मेरा अंतिम समय आ गया
है। मैंने पत्नी से कहा कि मुझे अस्पताल में भर्ती करा दो, शायद खून की जरूरत
पड़े। हमने हमारे पड़ोसी मित्र जो कि डॉक्टर हैं, उनसे चर्चा की। उन्होंने मेरे
खून की जाँच की। मेरा हीमोग्लोबिन ठीक था। वह हैरान हो कर कहने लगे ऐसा कैसे
हो सकता है? इतने दिन से खून की उल्टी हो रही है और हीमोग्लोबिन नार्मल है? मुझे
खून की उल्टियाँ बराबर हो रही थीं, सो अगले दिन हम दिल्ली में एम्स अस्पताल में
दिखाने गये।
इस बीच हमारे घर पर अखण्ड जप भी चलता रहा। कानपुर के गायत्री परिवार के बहुत
से भाई-बहनों ने अपने घर पर ही मेरे लिये जप प्रारंभ कर दिया। शक्तिपीठ पर भी
मेरी जीवन रक्षा के लिये जप होने लगा।
मुझे एम्स में भर्ती करा दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डाक्टर ने
मेरा ब्रॉन्कोस्कोपी टैस्ट किया। सप्ताह भर बाद रिपोर्ट आई, पर रिपोर्ट के आने
के बाद मुझे दुबारा टैस्टिंग के लिये बुलाया गया और दुबारा मेरे टैस्ट हुए। दुबारा
टैस्ट करने का करण पता करने पर मालूम हुआ, दोनों ही बार मेरी रिपोर्ट नार्मल
थी।
वहाँ के सबसे बड़े डाक्टर ने मेरी पूरी रिपोर्ट पर एम्स के बड़े डाक्टरों की मीटिंग
बुलाकर चर्चा की, फिर मुझसे मेरी सारी तकलीफ के बारे में चर्चा की। मेरी सारी
जाँच रिपोर्ट नार्मल थी, अतः डाक्टरों ने मुझे स्वस्थ घोषित कर दिया।
लगभग 24 दिन तक मुझे खून की उल्टियाँ आती रहीं फिर अकस्मात् ही 24वें दिन खून
की उल्टियाँ बंद हो गईं। किन्तु मेरी सब रिपोर्ट नार्मल कैसे आई, इसका पूरा-पूरा
श्रेय मैं पूज्य गुरुदेव को देता हूँ। क्योंकि जैसे ही मेरी तबीयत बिगड़ी तो हमारे
परिवार में सबने मिलकर अखण्ड जप प्रारंभ कर दिया। जेसलानी जी कहते हैं कि मैं
अन्तर्हृदय से समझ रहा था कि जब गुरु कृपा हो गयी, तो असंभव भी संभव हो जाता
है।
उसके बाद मैं सक्रिय हो गया। जो कोई भी नया ऑफिसर कानपुर आता, मैं उन्हें दो
गायत्री मंत्र की कैसेट देता था। एक घर में सुनने के लिए, दूसरी वाहन में। कुछ
वर्षों में समर्पण का भाव परिपक्व हुआ, और अपनी ‘‘पशुपति बिस्किट’’ की पूरी फैक्टरी
बंद करके फरवरी, 2006 में हरिद्वार, शान्तिकुञ्ज में सेवा के लिए आ गया। सभी
मित्रों, सम्बन्धियों ने कहा, ‘तुम पागल हो गये हो क्या? दिमाग सरक गया है क्या?
जो तुम अपनी जमी जमायी फैक्टरी बन्द कर रहे हो।’’ लेकिन मेरी अन्तर्स्थिति को
कोई कहाँ समझ सकता था?
फरवरी सन् 2006 में हम हरिद्वार आ गये और शान्तिकुञ्ज में अपना पूरा समय देने
लगे। दो-तीन माह बाद हम अपनी कम्पनी के सेल टैक्स-इन्कम टैक्स के मामले निपटाने
के लिए कानपुर गये। 5 जून 2006 को हम अपने सब मामले निपटाकर, अपनी कार द्वारा
सपत्नीक हरिद्वार लौट रहे थे कि दिन में 12.30 बजे के लगभग अलीगढ़ से 15 किमी०
पहले जशरथपुर कस्बे में हमारी कार का एक्सीडेण्ट हो गया। इस जबर्दस्त एक्सीडेंट
में मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ कि हमें पूज्यवर ने ही नया जीवन दिया है।
मैं गाड़ी चला रहा था और मेरी पत्नी मेरे बगल में बैठी थी। एक टाटा सफारी गाड़ी
तीव्र गति से सामने आ रही थी। उस गाड़ी ने हमारी गाड़ी में जोरदार टक्कर मारी।
हमारी गाड़ी एकदम पिचक गयी और हम दोनों को काफी गंभीर चोटें आयीं। टाटा सफारी
का ड्राइवर अपनी गाड़ी लेकर फरार हो गया। मैं तो एक्सीडेंट होते ही बेहोश हो गया।
मेरी पत्नी को कुछ-कुछ होश था, पर हम दोनों गाड़ी में बुरी तरह फँस गये थे।
अलीगढ़ जिले में उस दिन साम्प्रदायिक दंगों की वजह से कर्फ्यू लगा हुआ था। सड़क
पर एकदम सन्नाटा था, न कोई आदमी कहीं नजर आ रहा था, न ही कोई गाड़ी आ जा रही थी।
इतनी देर में मेरी पत्नी ने देखा कि पूज्य गुरुदेव उनके पास खड़े हैं। गुरुदेव
को वहाँ देखकर वह आश्चर्यचकित रह गयी, और अर्धमूर्छित सी अवस्था में वह गुरुदेव
को बस देखती रही। उसके आस-पास जो कुछ हो रहा था, वह सब देख पा रही थी।
उसने देखा कि गुरुदेव कार के बाहर लगातार टहल रहे थे, इतने में दो व्यक्ति आये
और उन्होंने हम दोनों को हमारी कार का दरवाजा तोड़कर बाहर निकाला। मेरी जेब में
लगभग 20,000 रु. थे। वो भी उन्होंने निकाले। मैं 3 सोने की अँगूठियाँ पहने हुए
था, वे उतारीं। फिर उन्होंने मेरी पत्नी के हाथों से चूड़ियाँ एवं अन्य गहने उतारे।
साथ ही मेरी पत्नी से कहा कि बहन, किसी भी बात की चिन्ता मत करना। आपका एक भी
रुपया व गहना गुम नहीं होगा। कुछ और भी है, तो हमें दे दो। ‘आपका कुछ भी सामान
गुम नहीं होगा’ इस बात को उन्होंने 3-4 बार दुहराया ताकि मेरी पत्नी को विश्वास
हो जाये। मेरी पत्नी ने आँखों से इशारा करके बताया कि मेरे पति की ड्राइविंग
सीट के नीचे सामान रखा है। उसमें एक अख़बार में लपेटे हुए 4 लाख रु. रखे थे।
उन दोनों ने वह धन भी निकाल लिया। मेरी पत्नी का पर्स भी सँभाला। गहने और पैसे
मिलाकर लगभग 8 लाख रु. की सम्पत्ति थी। फिर उन्होंने हम दोनों को अपनी गाड़ी में
लादा। उस समय तक पूज्य गुरुवर बराबर मेरी पत्नी को हमारे पास खड़े दिखाई देते
रहे। जब हम लोगों को वह व्यक्ति गाड़ी में लाद कर चल दिये, तो गुरुवर अन्तर्ध्यान
हो गये। गुरुवर के अन्तर्ध्यान होने तक मेरी पत्नी ने उन्हें देखा। उसके बाद
वह कब बेहोश हो गई, उसे नहीं पता। उन लोगों ने हमारे मोबाइल से ही हमारे सब रिश्तेदारों
व मित्रों को हमारे एक्सीडेंट की सूचना भी कर दी।
मेरी दिल्ली वाली बेटी ने उन लोगों से कहा कि हम आपके बहुत-बहुत ऋणी हैं। मैं
तुरंत पहुँच रही हूँ पर मुझे पहुँचने में कम से कम तीन घंटे लगेंगे, तब तक आप
कृपाकर वहीं रहियेगा। हमसे मिले बिना नहीं जाइयेगा। वह लोग बोले कि हम लोग मुस्लिम
हैं और यहाँ दंगा चल रहा है। हम दोनों पुलिस के किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते।
मेरी बेटी ने जब बहुत अनुनय-विनय किया, तो उन लोगों ने कहा कि ठीक है, तुम्हारे
आने तक हम तुम्हारे मम्मी-पापा की देख−भाल कर रहे हैं, पर हम तुमसे मिलेंगे नहीं।
इसके बाद उन लोगों ने हमारा सब सामान, गहने व पैसे आदि नर्सिंग होम के डॉक्टर
को दे दिये व कहा, ‘‘डॉ. साहब यह इन दोनों घायलों की अमानत है। इनके बेटी-दामाद
कुछ देर में आने वाले हैं, आप कृपाकर सब सामान उन्हें दे दीजियेगा।’’ जैसे ही
हमारी बेटी व दामाद नर्सिंग होम में पहुँचे, वैसे ही वे लोग दूसरे दरवाजे से
निकल गये। हमारी बेटी व दामाद ने उन्हें बहुत खोजा, पर वे कहीं नहीं मिले।
हमें आज भी यही आभास होता है कि वह दोनों व्यक्ति और कोई नहीं पूज्य गुरुदेव
के भेजे देवदूत ही होंगे, जिन्हें पूज्यवर ने हमें अस्पताल तक पहुँचाने का माध्यम
बनाया। इसीलिये वे हमारे बच्चों के पहुँचते ही वहाँ से चले गये। कोई सामान्य
व्यक्ति होते, तो हमारे बच्चों से अवश्य मिलते।
शाम तक हमारे सभी परिजन अलीगढ़ पहुँच गये और हमारी यथोचित चिकित्सा व्यवस्था हो
गई। हमें इतनी गंभीर चोटें लगी थीं कि हमारे बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही
थी। परंतु गुरुदेव ने हमारे चारों ओर सुरक्षा चक्र बना दिया था, तो भला मृत्यु
कैसे पास फटकती?
हम दोनों को अपोलो हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। 28 दिन तक वहाँ भर्ती रहे।
पत्नी और मेरे, दोनों के पैरों में रॉड डालनी पड़ी, कई ऑपरेशन हुए। हड्डियों के
छोटे-छोटे टुकड़े प्लेट में रखकर जोड़े गये, फिर वह प्लेट अन्दर डाली गयी। कई महीने
हमें स्वस्थ होने में लग गये।
1 जून 2008 से मैंने फिर अपना समयदान शान्तिकुञ्ज में प्रारंभ कर दिया। अपने
इस जीवन को मैं पूज्य गुरुदेव का अनुदान ही मानता हूँ। शेष जीवन उनके कार्य में
ही लग जाये, बस यही गुरुवर से नित्य प्रार्थना करता हूँ।
गोली पीछे चली जायेगी
श्रीमती उर्मिला श्याग (सुनीता) किक्करवाली, फाजिलका, पंजाब
उर्मिला बहन जी ने बताया कि श्री मनमोहन जी श्याग की वह दूसरी पत्नी हैं। पहली
पत्नी से उन्हें तीन संतानें हैं। एक बेटी, दो बेटे। बेटी की वे शादी कर चुके
थे। मेरे पति की तीन सौ कीले जमीन है। दामाद के मन में उनकी जायदाद को लेकर लालच
आ गया था। एक दिन उसने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि इनके दोनों बेटों की शादी
तो मैं होने ही नहीं दूँगा। यदि तुम मेरे साथ मिल जाओ तो मनमोहन जी को मैं देख
लूँगा। सब पैसा हम दोनों लोग आपस में बाँट लेंगे। मैंने उसको डाँट लगाई और भगा
दिया। पति के आने पर उसकी सारी योजना उन्हें बता दी। उन्हें जब यह बात पता चली
तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ और ससुर-दामाद की आपस में थोड़ी कही−सुनी भी हो गई। विक्रम
इस बात से मुझसे बहुत नाराज था, पर हमने उससे यह आशा नहीं की थी कि वह इस हद
तक गिर जायेगा।
यह घटना 4 जून 2007 की है। विक्रम शाम को चार बजे शराब पीकर, मेरे घर आया। उसके
दोनों हाथों में दो पिस्टल थी। मैं हॉल में बैठी थी। उसने दरवाजे से ही तीन गोलियाँ
मेरे ऊपर चलाईं। एक गोली मेरे पेट के आर-पार हो गई। एक पेट के अन्दर, नाभि के
नीचे धँस गई और एक गोली दिल के वॉल्व के पास लगी। सामने दीवार पर गुरुदेव का
चित्र लगा था। जैसे ही उसने मुझपर हमला किया, मेरी निगाहें उस चित्र से टकरायीं
और मैंने कहा हे गुरुदेव! मुझे बचाओ। यह कहते ही मेरी आँखें बंद हो गईं। मुझे
गुरुदेव के स्पष्ट दर्शन हुए और गुरुदेव आशीर्वाद मुद्रा में दिखाई दिये। बोले,
‘‘बेटा तुझे कुछ नहीं होगा, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’’
मुझे तुरंत लुधियाना के डी.एम.सी. अस्पताल ले जाया गया। लुधियाना पहुँचने में
हमें चार घण्टे लगे। इस बीच मुझे पूरा होश था, मैं सबसे बात कर रही थी और सबको
धीरज बँधा रही थी कि मुझे कुछ नहीं होगा। मेरे अन्दर पता नहीं कहाँ से ताकत आ
गई थी। मुझे बिल्कुल डर नहीं लग रहा था।
हॉस्पिटल में पहुँचने पर डॉक्टरों ने तुरंत पेट का ऑपरेशन करके गोली निकाल दी।
लेकिन हार्ट के ऑपरेशन के लिए साफ मना कर दिया। कहा कि गोली वॉल्व के बिल्कुल
पास है, ऑपरेशन करने से खतरा है, इसे हम नहीं कर सकते। मैं चार दिन बेहोश रही।
डॉक्टर हर तीसरे घण्टे में मेरे हार्ट का एक्सरे लेते थे, कि क्या स्थिति है।
पाँचवें दिन मुझे होश आया। जब मुझे पता चला कि दिल के पास लगी गोली तो वहीं पर
है, अभी संकट टला नहीं है। यह जानकर कि मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं है, मुझे
बहुत निराशा हुई। मैं रातभर रोती रही और गुरुजी से प्रार्थना करने लगी कि इससे
तो अच्छा था मैं उसी समय मर गई होती। मेरी छोटी सी बेटी है, उसका क्या होगा?
रोते-रोते पूरी रात बीत गई, मेरे आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
सुबह चार बजे मुझे गुरुजी के दर्शन हुए। वे मेरे सामने खड़े थे। उन्होंने कहा,
‘‘बेटा, कुछ नहीं होगा। गोली पीछे चली जायेगी। चिंता मत करो तुम्हें कुछ नहीं
होगा।’’ सुबह जब डॉ. चैक करने आये तो डॉ. ने पीठ में देखा कुछ सूजन है। एक जगह
थोड़ी फूल गई है। डॉ. ने छू कर देखा। गोली अपनी जगह से खिसक कर पीठ में चमड़ी की
ऊपरी परत में आ गई थी। डॉ. ने तुरंत नर्स को बुलाया और वहीं बिस्तर पर ही एक
हल्का सा चीरा लगाकर गोली को निकाल दिया।
डॉ. हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया? थोड़ी देर बाद डॉक्टरों की पूरी टीम ने मुझे घेर
लिया। दुबारा एक्स-रे लिया गया। पहले के सब एक्स-रे को वे बार-बार देख रहे थे।
रात्रि 3:00 बजे भी जो एक्स-रे लिया गया था, उसमें भी गोली अपनी जगह पर ही थी।
सब हैरान थे कि अचानक सुबह तक गोली इतनी पीछे कैसे पहुँच गई? डी.एम.सी. हॉस्पिटल
की पूरी टीम बैठी। फिर से उन्होंने कई ऐंगल से एक्स-रे करके देखा, पर कुछ रहस्य
समझ नहीं आया।
फिर मुझसे बोले, ‘‘आश्चर्य है! हमारी समझ से बाहर है कि ऐसा कैसे हो गया? आप
बहुत भाग्यशाली हैं।’’ तब मैंने उन्हें गुरुदेव के दर्शनों के बारे में बताया।
मेरे सिरहाने गायत्री महाविज्ञान रखा था। अस्पताल का हैड डॉ., ‘‘क्या मैं इसे
देख सकता हूँ?’’ कहकर उसे मुझसे माँग कर ले गया। अगले दिन वह पुनः आया और मुझे
उस पुस्तक का पैसा यह कहकर दे गया कि इसे तो मैं अपने पास रखूँगा, आप और ले लेना।
उर्मिला बहन भावुक होकर कहने लगीं, ‘‘मैं तो मर गई थी। मेरा यह जीवन गुरुजी का
दिया हुआ जीवन है।’’ कौन कह सकता है गुरुदेव नहीं हैं? वे आज भी हैं, मैं इसका
प्रमाण हूँ। उर्मिला बहनजी ने गोली के निशान भी दिखाये।
जीवन सार्थक जीना चाहिये
श्री रमेसर कुमार निर्मलकर रैता, रायपुर के नये जुड़े परिजन हैं। वे सन् 1991
से ड्राइविंग का काम करते रहे हैं। वे कहते हैं कि मेरा जीवन बहुत घटिया हो गया
था। जीवन में शराब, माँस आदि अनेक विकार जुड़ गये थे। मैं अधिकाँश घर से बाहर
ही रहा, देश भर में भटकते हुए ही जीवन कटा। घर पर तो मैं बस, पत्नी-बच्चों के
लिए पैसा भेजता रहता था।
घर जाता तो पत्नी आवेशित होती, झगड़ा करती, ढेरों उलाहने देती। मेरे जीवन में
शांति नहीं थी। पत्नी के झगड़े व तानों से तंग आकर मैं आत्महत्या करने का विचार
करने लगा। मुझे अपने जीवन से घृणा होने लगी थी। फाँसी लगाकर या विष खाकर आत्महत्या
करने का विचार, बार-बार मन में आता। एक दिन पत्नी ने भोजन तो परोसा, पर खूब खरी-खोटी
भी सुनायी। मन में आया, अब तो बिल्कुल जीना ही नहीं है। भोजन सम्मुख रखा था,
पर खाने का मन नहीं हो रहा था। आत्महत्या का विचार प्रबल होता जा रहा था।
यह घटना दिसम्बर माह, 2010 की है। थाली मेरे सामने परोसी रखी थी और मैं आत्महत्या
के विचारों में खोया हुआ था। तभी मैंने देखा, पूज्य गुरुदेव-वन्दनीया माताजी
सम्मुख आकर बैठ गये हैं। मैं हैरान रह गया। वे मुस्कुराते हुए कहने लगे, ‘‘बेटा!
भोजन क्यों नहीं करता, चल भोजन कर।’’ फिर प्रेरणा देते हैं कि ‘‘बेटे, यह जीवन
गँवा देने के लिए नहीं है, जीवन सार्थक जीना चाहिए।’’ मैं जब तक भोजन करता रहा
मुझे बराबर उनकी उपस्थिति का अहसास होता रहा। आत्महत्या का विचार मन से तिरोहित
हो गया और उसी क्षण से मेरा जीवन बदल गया। जीने की उमंग पैदा हो गई और उसके बाद
मैंने सब दुर्व्यसन छोड़ दिये।
गुरुसत्ता का परिजनों से आश्वासन एवं अनुरोध
इन पंक्तियों में परम वंदनीया माताजी ने अपने पुत्रों के लिये अपने उद्गार को केवल लेखनी ही नहीं दी अपितु अपनी आवाज भी दी है। इस गीत के एक-एक शब्द में वंदनीया माताजी ने अपने प्राण फूँके हैं। पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी ने अपने कार्यकर्ताओं को ‘अपने अंग-अवयव’ कहा है। प्रस्तुत गीत में उसी भाव को और पुष्ट करते हुए गुरुसत्ता ने आश्वासन दिया है कि दिये हुए उत्तरदायित्वों को पूरा करने के क्रम में जब भी मार्गदर्शन, शक्ति एवं सहायता की आवश्यकता अनुभव होगी, परिजन उनका स्पष्ट संरक्षण और मार्गदर्शन भरा साथ अनुभव करेंगे। हमारी श्रद्धा और समर्पण जितना गहरा होगा, उतनी ही सघनता से हमें यह अनुभूति होगी कि वास्तव में गुरुसत्ता हमारा उतना ही ध्यान रखती है जितना कोई अपने शरीर के एक-एक अंग का।
जब स्वयं को विकल तुम अनुभव करोगे।
तब हमारा स्नेह देता साथ होगा॥
आर्त स्वर में जब कभी कुछ भी कहोगे।
घाव पर मरहम लगाता हाथ होगा॥
कष्ट या कठिनाइयों से तुम न डरना।
भँवर से मझधार से संघर्ष करना॥
जीत होगी जिन्दगी की हर डगर में।
लोक जीवन में नया उत्साह भरना॥
पुत्र तुमको जब अकेलापन खलेगा।
माँ-पिता का कवच भी तब साथ होगा॥
हम तुम्हारी श्वाँस में ऊर्जा भरेंगे।
खून की हर बूँद तक नव प्राण देंगे॥
यह मधुर सम्बन्ध जन्मों तक निभेगा।
सूक्ष्म में रहकर तुम्हें वरदान देंगे॥
जब कभी हारे थके अनुभव करोगे।
पीठ को थपकी लगाता हाथ होगा।।
आस है तुम हर दुखी को प्यार दोगे।
आँसुओं को तुम नई मुस्कान दोगे।।
जो भटकते हैं यहाँ जीवन समर में।
दीप बनकर ज्योति का अनुदान दोगे।।
जब तुम्हारी ज्योति डगमग सी दिखेगी।
दिव्य आँचल का सहारा साथ होगा।।
साधको श्रम बिन्दु जब भू पर गिरेंगे।
तब धरा पर प्यार के उपवन खिलेंगे।।
उस सुवासित शांति के वातावरण में।
इस जगत को स्वर्ग जैसा सुख मिलेगा।।
कार्य जब उत्साह से पूरा करोगे।
शक्ति आशीर्वाद देता हाथ होगा।।
पुत्र तुम मजबूत कन्धे हो हमारे।
अंग-अवयव हो तुम्हीं दो नयन प्यारे॥
भार तुम पर आज गुरुतर सौंपते हैं।
पूर्णतः निश्चिन्त तुम सबके सहारे॥
शक्ति की तुमको कमी अनुभव न होगी।
ब्रह्मबल निश्चय तुम्हारे साथ होगा।।
एक थे पहले! पुनः अब एक होंगे।
द्वैत के बन्धन को हम अब तोड़ देंगे।।
सूक्ष्मता को देखकर आहें न भरना।
हम तुम्हारे थे तुम्हारे ही रहेंगे।।
नयन मूँदे ध्यान में आओ कहोगे।
दर्श देता प्रखर सविता पुँज होगा।।
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