धर्म और युद्ध



जितने युद्ध धर्म के नाम पर होते हैं, उतने और किसी चीज़ पर नहीं होते।

धर्म में ऐसा क्या है जो लोगों को इतना उद्वेलित कर देता है कि वे सब कुछ भूल भाल कर युद्ध पर उतर आते हैं?

मुझे तो यह लगता है, कि धर्म जहाँ जहाँ पर सामाजिक पहचान बनाने के लिये अधिक महत्वपूर्ण है, वहीं पर धर्म के ना पर युद्ध ज़्यादा होते हैं। जो लोग मान चुके हैं कि धर्म कर्तव्य है, यही तो धर्म का शाब्दिक अर्थ है! उनकी बात अलग है।

असल में ये युद्ध सम्प्रदायों अर्थात् लोगों के समूहों के बीच में हैं, धर्म की आड़ में, धर्म केवल समूहों को जोड़ने वाले पदार्थ का नाम मात्र है।

उदाहरण के लिये यूरोप कि क्रूसेड, मुस्लिम आक्रमणकारियों के भारत पर हमले, यहूदियों का इस्राइल पर कब्ज़ा, गुजरात में हिन्दुओं द्वारा मुसलमानों की हत्या, यह सब किसी सम्प्रदाय विशेष का दूसरी सम्प्रदाय पर बाहुल्य बनाने के लिये धर्म के इस्तेमाल का ज्वलन्त उदाहरण है।

इसकी जड़ यह है कि आपका धर्म वह है जो आपको बचपन से सिखाया गया है, इसलिये इसमें कट्टरता है। दूसरे धर्म के कर्मकाण्ड आपको अजीब लगेंगे, और अपने धर्म के अन्धविश्वासों को भी आप सही साबित करने की कोशिश करेंगे।

लेकिन ध्यान रहे, जितने भी महान लोग, जो धर्म या सम्प्रदायों के संस्थापक इसलिये माने जाते हैं, उन्होंने कट्टर सोच से अलग हट कर अपने दिमाग से विश्लेशण करने का प्रयास किया। उसके बाद उन्हें जो ठीक लगा उसे अपनाया और जो ठीक नहीं लगा उसे त्यागा। उन्हीं लोगों की कई बातें आजकल कुछ मायने नहीं रखतीं। यदि वे महापुरुष आज जीवित होते तो सबसे पहले वे ही इन कुरीतियों को दूर करने के लिये आह्वान करते, ख़ासतौर पर तब जब उन्हें यह पता चलता कि वे कुरीतियाँ उन्हीं के नाम से प्रचारित हो रही हैं और फल फूल रही हैं।

उन संस्थापकों की सोच और विश्लेशण इतना गहरा था, तभी तो अन्य लोग उनकी बातों की ओर आकर्षित हुए। क्या उन्हीं संस्थाओं व सम्प्रदाय के पालकों ने भी उतनी ही गहराई से सोच विचार कर के अपने मत को अपनाया है, या सामाजिक बन्धनों और स्वार्थों की वजह से वे उसका पालन कर रहे हैं?

निश्चय ही पारम्परिक कारणों से ही लोग धर्म को धर्म मानते हैं, इसलिये नहीं कि उन्होंने अपने आप से उस धर्म के सिद्धान्तों को समझा और जाना है।

इसलिये प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि अपनी मान्यताओं को विश्लेशित करे, और फिर उन्हें अपनाने या न अपनाने के बारे में सोचे।

ऐसा न करने से लोग धर्म के प्रति उदासीन हो रहे हैं, और रूढ़िवाद तथा कुरीतियाँ, असामयिक मान्यताएँ लोगों को दोगला बना रही हैं, धर्म कुछ कहता है, लेकिन वह नाम के वास्ते है! लेकिन उसके बारे में फिर कभी।

फिलहाल इतना ही कि धर्म अपनाने के लिये व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यदि हो, तो धर्म की वजह से युद्ध न हो के धर्मयुद्ध यानी कर्तव्यपालन ही संसार में होगा।

जालराज

२००२/१०/१२
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