क्या होगा हिन्दी का ?



हिन्दी मेरी भाषा है, उसे देख के और पढ़ के और बोल के और सुन के जो सुकून मिलता है, वह और किसी भाषा में नहीं।

लेकिन अब ज़माना है अन्तर्जाल का।

आगे क्या होगा?

कौन जाने?

सब कुछ अङ्ग्रेज़ी में है। नहीं, ऐसा नहीं है, अन्तर्जाल में रोमन लिपि में जो भी भाषायें हैं, उन भाषाओं में काफ़ी मसला है, चाहे उनके बोलने वाले बहुत कम ही क्यों न हों। लेकिन हिन्दी की बात तो अलग ही है।

३ अरब ६० करोड़ लोग इसे बोलते हैं, और कुल जालपृष्ठ हिन्दी के कितने हैं? मुश्किल से ५००।

कौन ज़िम्मेदार है इसके लिये? हमेशा की तरह सरकार? नहीं, जी नहीं। हाँ सरकार है ज़िम्मेदार, लेकिन उससे ज़्यादा हम लोग खुद हैं, ख़ासतौर पर वे लोग जो हिन्दीभाषी हैं, लेकिन अङ्ग्रेज़ी भी जानते हैं। देश का अभिजात्य वर्ग।

मैं भी उनमें से हूँ। मुझे क्या फ़र्क पड़ता है, हिन्दी में मसला हो या नहीं? मुझे तो अङ्ग्रेज़ी आती है न? मैं हिन्दी में और जानकारी उपलब्ध कराके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारूँ?

यही तो सारा चक्कर है। इसीलिये तो हम वहीं पर हाथ धरे के धरे बैठे हुए हैं, अपना काम तो हो गया, अब आगे की काहे चिन्ता? जैसे कि अमिताभ बच्चन का गाना है, सैया भये कोतवाल, अब डर काहे का।

अभी तक तो हिन्दी पढ़ने के लिये सङगणकों पर सुविधा ही नहीं थी। अब थोड़ी बहुत हिन्दी जाल पर दिखाई देती है, उसी की मात्रा बढ़ाने के लिये यह प्रयास है।

मैं रोज कुछ न कुछ लिखता ही रहूँगा। देखते हैं, आगे क्या होता है दुनिया में?

अलविदा।

जालराज

२००२/१०/११
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